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होय्सलवंश के पश्चात् कहा गया है कि एक बार अपनी दिग्विजय के समय नरेश बेल्गोल में प्राय, गोम्मटेश्वर की वन्दना की और हुल्ल के बनवाये हुए चतुर्विशति जिनालय के दर्शन कर उन्होंने उस मन्दिर का नाम 'भव्यचूडामणि' रक्खा क्योंकि हुल्ल की उपाधि 'सम्यक्तचूड़ामणि' थी। फिर उन्होंने मन्दिर के पूजन, दान तथा जीर्णोद्धार के हेतु 'सवणेरु' नामक ग्राम का दान किया । लेख में यह भी उल्लेख है कि हुल्ल ने नरेश की अनुमति से गोम्मटपुर के तथा व्यापारी वस्तुओं पर के कुछ कर ( टैक्स ) का दान मन्दिर को कर दिया। हुल्ल वाजि-वश के जकिराज ( यक्षराज ) और लोकाम्बिका के पुत्र, लक्ष्मण और अमर के ज्येष्ठ भ्राता तथा मलधारि स्वामी के शिष्य थे। सवणेरु ग्राम का दान उन्होंने भानुकीर्ति को दिया था। वे राज्यप्रबन्ध में योगन्धरायण' से भी अधिक कुशल और राजनीति में बृहस्पति से भी अधिक प्रवीण थे। लेख नं. १३७ ( ३४५) में भी नारसिंह के बेल्गोल की वन्दना करने का उल्लेख है और इस लेख से यह भी ज्ञात होता है कि हुल्ल विष्णुवर्द्धन के समय में भी राजदरबार में थे तथा लेख नं० ६ ( २४०) व ४६१ से विदित होता है कि वे अगामी नरेश बल्लाल द्वितीय के समय में भी विद्यमान थे क्योंकि उन्होंने उक्त नरेश से एक दान प्राप्त किया था। इस लेख में हुल्ल की कीर्ति और धर्मपरायणता का खूब वर्णन है। वे चामुण्डराय और गङ्गराज की श्रेणी में ही सम्मिलित किये गये हैं। उन्होंने
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