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________________ प्राचार्यों का परिचय १४१ समन्तभद्र-ये वादिसिंह, गणभृत और समस्तविद्यानिधि पदों से विभूषित थे ( ४०, ५४, ४६३ ) इन्होंने भस्मक व्याधि को जीता तथा पाटलिपुत्र, मालवा, सिन्धु, ठक्क (पञ्जाब), काञ्चीपुर, विदिशा ( उज्जैन ) व करहाटक ( कोल्हापूर ) में वादियों को आमन्त्रित करने के लिये भेरी बजाई। उन्होंने 'धूर्जटि'* की जिह्वा को भी स्थगित कर दिया था ( ५४ )। समन्तभद्र 'भद्रमूर्ति जिन शासन के प्रणेता और प्रतिवाद-शैलों को वाग्वज से चूर्ण करनेवाले थे ( १०८) शिवकाटि-ये समन्तभद्र के शिष्य व तत्त्वार्थसूत्रटीका के कर्ता थे ( १०५ )। पूज्यपाद-इनका दीक्षा नाम 'देवनन्दि' था, महबुद्धि के कारण वे जिनेन्द्रबुद्धि कहलाए तथा इनके पादों की पूजा वनदेवता करते थे इससे विद्वानों में ये पूज्यपाद के नाम से प्रख्यात हुए (४०, १०५)। वे जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि ( टीका ), जैनाभिषेक, समाधिशतक, छन्दःशास्त्र व स्वास्थ्यशास्त्र के कर्ता थे (४०)। हुमच के एक लेख (रि. ए. जै. ६६७) में वे न्यायकुमुदचन्द्रोदय, शाकटायन सूत्र न्यास, जैनेन्द्र न्यास, पाणिनि सूत्र के शब्दावतार * 'धूर्जटि' की जिह्वा को स्थगित करने का श्रेय गोपनन्दि प्राचार्य को भी दिया गया है (५५, ४६२)। धूर्जटि शङ्कर की उपाधि है व इसका तात्पर्य शङ्कराचार्य से भी हो सकता है क्योंकि शङ्कराचार्य हिन्दू ग्रन्थों में शङ्कर के अवतार माने गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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