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संघ, गण, गच्छ और बलि भेद
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मुख्य मुख्य आचार्यो के उल्लेख के पश्चात् पद्य नं० १३ में कहा गया है कि इसी मूल संघ के नन्दिगण का प्रभेद देशो गण हुआ जिसमें गोल्लाचार्य नाम के प्रसिद्ध मुनि हुए । लेख नं० १०८ ( शक १३५५ ) में भी इसी के अनुसार नन्दिसंघ, देशीगण, पुस्तकगच्छ का उल्लेख है । 'नन्दिसंघे सदेशीयो गच्छे च पुस्तके' । अन्य अनेक लेखों में भी ( यथा ४७, ५० आदि ) नन्दिगण के उल्लेख के पश्चात् देशोगया पुस्तकगच्छ का उल्लेख है । लेख नं० १०५ ( शक १३२० ) और १०८ ( शक १३५५ ) में सधभेद की उत्पत्ति का कुछ विवरण पाया जाता है । लेख नं० १०५ में कथन है कि लि प्राचार्य ने आपस का द्वेष घटाने के लिये 'सेन', 'नन्दि', 'देव' और 'सिंह' इन चार संघों की रचना की। इनमें कोई सिद्धान्त-भेद नहीं है और इसलिये जो कोई इनमें भेद - बुद्धि रखता है वह 'कुदृष्टि' है। यह कथन इन्द्रिनन्दिकृत नीतिसार के कथन से बिलकुल मिलता है । लेख नं० १०५ में कहा गया है कि प्रकलङ्क के स्वर्गवास के पश्चात् संघ देश-भेद से उक्त चार भेदों में विभाजित हो गया । इन भेदों
*तदैव यतिराजोऽपि सर्वनैमित्तिकाग्रणीः । लिगुरुश्चक्रे संघसंघट्टनं परम् ॥ ६ ॥ सिहसंघो नन्दिसंधः सेनसंघो महाप्रभः । देवसंघ इति स्पष्ट स्थानस्थिति विशेषतः ॥ ७ ॥ गणगच्छादयस्तेभ्यो जाताः स्वपरसौख्यदाः । न तत्र भेदः केोप्यस्ति प्रवृज्यादिषु कर्मसु ॥ ८ ॥
च
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