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________________ लेखों की ऐतिहासिक उपयोगिता ६÷ पड़ता है। जैनियों ने सदैव उक्त मौर्य सम्राट को बिम्बसार ( श्रेणिक ) के सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है और उनके इस विश्वास को झूठ कहने के लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं है । इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं है कि, शैशुनाग, नन्द और मौर्य राजवंशों के समय में जैन धर्म मगध प्रान्त में बहुत जोर पर था । चन्द्रगुप्त ने राजगद्दी एक कुशल ब्राह्मण की सहायता से प्राप्त की थी यह बात चन्द्रगुप्त के जैनधर्मावलम्बी होने के कुछ भी विरुद्ध नहीं पड़ती। 'मुद्राराक्षस' नामक नाटक में एक जैन साधु का उल्लेख है जो नन्द नरेश के और फिर मौर्य सम्राट् के मन्त्री राक्षस का खास मित्र था । "एक बार जहाँ चन्द्रगुप्त के जैनधर्मावम्बी होने की बात मान ली तहाँ फिर उनके राज्य को त्याग करने व जैनविधि कं अनुसार सल्लेखना द्वारा मरण करने की बात सहज ही विश्वसनीय हो जाती है। जैनग्रन्थ कहते हैं कि जब भद्रबाहु की द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षवाली भविष्यवाणी उत्तर भारत में सच होने लगी तब आचार्य बारह हजार जैनियों को साथ लेकर अन्य सुदेश की खोज में दक्षिण को चल पड़े । महाराज चन्द्रगुप्त राज्य त्यागकर सङ्घ के साथ हो लिये । बेलगोला पहुँचा । यहाँ भद्रबाहु ने शरीर त्याग किया । राजर्षि चन्द्रगुप्त ने उनसे बारह वर्ष पीछे समाधिमरण किया । इस कथा का समर्थन श्रवणबेलगोला के मन्दिरों आदि के नामों, ईसा की सातवीं शताब्दि के उपरान्त के लेखों तथा दसवीं यह सङ्घ श्रवण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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