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________________ चन्द्रगिरि पर्वत पर कं शिलालेख । . उदु कोदृदु 'सेन अडिगलो मनसिजरा ‘गनाअरसि बेनेएत्ति मौनमुज्जमिसुवल्लि कोट्टटु पोलमेरे तदृग्गेरेय किल्करे पौगि अक्षरकल्ल मेगे अल्लिन्दा वसेल कर्गलमारदु सल्लु पेरिय पाल 'वारि मरल पुणुसपेरि''तोरेयु आलरे मेरे दुवेट्टगे निरुकल्लु कोवदा पेरिय एलवु अल्लि कुडित्तु अरसरा श्रीकरणमुं...... .............'गादियर दिण्डिगगामुण्डरुम् एनवरुवङ्गरुवल्लभ-गामुण्डरुम रुन्दि वञ्चरु रुण्डि मारम्मनुकादलूर श्रीविक्रम-गामुण्डरुं कलिदुर्गगामुण्डरुं अगदिपो..... ...'यरर'' ''रणपारगामुण्डलं अन्दमासल उत्तम गामुण्डलं नविलूर नालगामुण्डरुं बेल्गोलद गोविन्दपा. डिय उ.. ल्लामन्दु बेल्गोलदा वलि गोविन्दवाडिग कोट्टदु. बहुभिर्वसुधाभुक्ता राजमिस्सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमिः तस्य तस्य तदा फलं ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां । षष्टिवर्षसहस्राणि विष्टायां जायते क्रमिः ॥ॐ [ श्रीबल्लममहाराज के पुत्र महासामन्ताधिपति रणावलेाक श्रीकम्बय्यन् के राज्य में मनसिज (?) की राज्ञी के व्याधि से मुक्त होने के पश्चात् मौन व्रत समाप्त होने पर कुछ भूमि का दान दिया गया था, जिसकी सीमा आदि लेख में दी है। लेख दान की शपथ के साथ समाप्त होता है। * ये दो श्लोक नये एडीशन में बहुत अशुद्ध हैं। उसमें 'यदाभूमि' के स्थान पर 'यथाभूमि' व 'स्वदत्तं' 'परदत्त' 'हरन्ति' 'पृष्ठायां' पाठ हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only .www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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