Book Title: Siddh Hemchandra Vyakaranam Part 02
Author(s): Darshanratnavijay, Vimalratnavijay
Publisher: Jain Shravika Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकाल सश्रहिमचन्द्राचार्यविरचितम् श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम् [ स्वोपज्ञलघुवृत्ति तथा गुणरत्नावृत्ति-संबलित ] ११ से २० पाद गुणरत्नावृत्तिकार परमपूज्य मुनिराज श्रीकमलरत्न विजयजी महाराज साहेब के शिष्यरत्न मुनिश्री दर्शनरत्नविजयजी म. मुनिश्री विमलरत्नविजयजी म. प्रकाशक श्री जैन संघ पो. पिण्डवाडा [राजस्थान] पिन ३०७०२२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसव श्रीहिमचन्द्राचार्यविरचितम् श्री सिद्हेमचन्द्र शब्दानुशासनम् [ स्वोपज्ञलघुवृत्ति तथा गुणरत्नावृत्ति-संवलितम् ] ११ से २० पाद ~ गुणरत्नावृत्तिकार - परमपूज्य मुनिराज श्रीकमलरत्न विजयजी महाराज साहेब के शिष्यरत्न मुनिशी दर्शनरत्नविजयजी म. मुनिश्री विमलरत्नविजयजी म. - प्रकाशक - शेठ कल्याणजी सोभागचन्दजी ___पो. पिण्डवाडा [राजस्थान] पिन ३०७०२२ ___ स्टेशन-सिरोही रोड ( वे. रेल्वे ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्य ग्रन्थस्य पुनर्मुद्रणाधिकारः प्रकाशकेन स्वायत्तीकृतः । प्रकाशन तिथिवि० सं० २०४३ कार्तिक सुद १५ ता० ५-११-८६ गुरुवार । श्री शत्रुजय महातीर्थ पर द्राविड वारिखिल्लजी दश क्रोड मुनियों के साथ मोक्ष जाने का दिन। . मूल्य ४५) प्रथमावृत्ति ११११ इस ग्रन्थ के आधार-भूत ग्रन्य-- १. श्री सिद्धहेमलवुवृत्त्याः अवचरिः २।। अध्याय २. श्री सिद्धहेमशब्दानुशासनबृहद्वत्तिः ३. श्री सिद्धहेमशब्दानुशासनबृहन्यासः ४. श्री सिद्धहेमशब्दानुशासनलघुन्यासः ५. अभिधान चिन्तामणिस्वोपज्ञः ६. श्री सिद्धहेमशब्दानुशासन मध्यमवृत्तिः मध्यमवृत्त्याः अवचरिश्च ७. श्री हेमप्रकाश: ८. न्यायसंग्रह इत्यादि ... . अनुक्रमणिकाप्रथम भाग में-१ से १० पाद द्वितीय भाग में-११ से २० पाद . तृतीय भाग में छठा व सातवां अध्याय चतुर्थ भाग में सूत्रानुक्रम, शुद्धिपत्रक, न्याय, धातुपाठ आदि साधु-साध्वी के विहारोपयोगी ६ भाग-- प्रथम भाग-षटपादों यावत द्वितीय भाग-७ से १० पाद तृतीय भाग-११ से १६ पाद चतुर्थ भाग-पञ्चमाध्यायः ।। पञ्चम भाग-षष्ठ-सप्तमौ अध्यायो षष्ठ भाग-सूत्रानुक्रम, शुद्धिपत्रक, न्याय, धातुपाठ आदि मुद्रण कार्य-हँसमुखलाल जैन लक्ष्मी प्रेस, १४ नागरिक विश्राम गृह, कॉलेज रोड़, रतलाम (म. प्र.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिण्डवाडा के श्री प्रेमसूरिजी परमपूज्य सिद्धान्तमहोदधि आचार्यदेव श्रीविजय . मसूरीश्वरजी महाराज के गुणों की हमें आवश्यकता है। मानो गुण न पा सके तो भी उन गुणों को पाने की इच्छा है। आपके पिता का नाम भगवानजी, माता का नाम श्रीमती कंकुबाई आपश्री का नाम प्रेमचन्दजी । राजस्थान में पिण्डवाडा के हमारे गाँव के वतनी। बचपन में ही वैराग्य उत्पन्न हुआ और चारित्र लेने की भावना हुई । कुटुम्बिजन सीधी रीति से दीक्षा देवे वैसे अनुकूल नहीं थे, फिर भी दो बार तो घर से भागकर गये, परन्तु मोहाधीन कुटुम्बी आपको वापिस ले आये। तीसरी बार रात को घर से निकले, एक रात्रि में ५७ किलोमीटर चलकर स्टेशन गये। गाड़ी में बैठकर पालिताना गये। संयम लेने का कितना दृढ़ निश्चय एवं उसके लिये चाहे जितना कष्ट सहन करना ऐसे दृढ़ निर्धार के बिना यह नहीं बन सकता। दीक्षा लेने के बाद मुनिश्री प्रेमविजयजी बने। स्वाध्याय तो अजब-गजव था कि जिसके परिणाम स्वरूप कर्म के गहन विषय में पारंगत बने । गुरु श्री सकलाग मरहस्वदी, परम पूज्य आचार्यदेव श्री विजय दानसूरीश्वरजी . महाराज ने तृतीय पद पर प्रतिष्ठित किया तब प० पू० आ० श्रीविजय प्रेमसूरिजी बने । आचार्य पद लेने की इच्छा नहीं थी परन्तु लेनी पड़ी थी। तिथि का सत्य निर्णण लाने के लिये आपने आपही के पट्टधर व्याख्यान-वाचस्पति आचार्यदेव श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी म० एवं आगमप्रज्ञ आचार्यदेव श्रीविजय जम्बुरिजी महाराज को आगे किये एवं उसका निर्णय भी लाया। इतना ही नहीं आराधक जीवों का अनेक प्रयत्नों से उद्धार किया। आपको एक सुश्रावक ने प्रश्न पूछाये उसका कितना स्पष्ट जबाव दिया कि "(१) ग्रहण के समय · · · · 'दर्शन पूजन का तथा उपदेश आदि का भी निषेध तो हमने कहीं जाना नहीं है एवं आचरा भी नही है । (२) तिथिचर्चा का निर्णय · · · · 'प्रोफेसर वैद्य जैसे मध्यस्थ कों लाकर श्रीजैनशासन के आज्ञा मुजब का निर्णय करा देने में सुश्रावक कस्तुरभाई ने श्रीजैन शासन की अनुपम सेवा की है। इस निर्णण Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) मुताबिक चलने से हरेक तिथि की आराधना आज्ञा मुजब होती है और महत्त्व के पर्व की विराधना से भी अच्छी तरह बच सकती है।" आप महापुरुष मरुधर देश में जहाँ घास भी दुर्लभ हो वहाँ केशर की उत्पत्ति की तरह जन्मे । . आप ही के पट्टधर परम पूज्य कलिकाल-कल्पतरु, अनेकान्ताभासतिमिर-तरणि, व्याख्यान-वाचस्पति आचार्यदेव श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के करकमलों में यह ग्रन्थ समर्पण करके हम क्रतार्थ बन रहे है। ___ इस गुणरत्ना वृत्ति के मार्गदर्शक परमपूज्य वर्धमान-तपोनिधि आचार्यदेव श्रीविजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज के विद्वान शिष्यरत्न परमपूज्य पन्न्यासप्रवर श्रीजितेन्द्रविजयजी गणिवर्य के शिष्य रत्न व्याकरण-विशारद परमपूज्य गणिवर्य श्री गुणरत्नविजयजी गणिवर्य हैं। ... इस गुणरत्ना वृत्ति के जन्मदाता परम पूज्य महातपस्वी मुनिराज श्री कमलरत्नविजयजी महाराज के शिष्य रत्न परमपूज्य मुनिराज श्री दर्शनरत्नविजयजी म० एवं परम पूज्य मुनिराज श्रीविमल रत्न विजयजी महाराज हैं। (१) इस पुस्तक के दो भागों का प्रकाशन श्री पिन्डवाडा संघ ने ज्ञान खाते से लाभ लिया है। अतः साधु-पाध्वी एवं ज्ञानभण्डारों को भेंट दी जायगी । दूसरे कीमत से खरीद कर पढ़ेगे तो ही ज्ञान खाने के भक्षण के दोष से बच सकेंगे। (२) इस पुस्तक के एक भाग का प्रकाशन का लाभ पिन्डवाडा जैन संघ की बहिनों ने ज्ञान खाते की आय में से लिया है। . (३) इस पुस्तक का एक भाग का शा पुखराजजी, अशोक, तरुण, भरत, पारस किस्तुरचंदजी हंसाजी पिन्डवाडा वालों ने लाभ लिया है। जो परमपूज्य मुनिराज श्री कमलरत्नविजयजी महाराज के सांसारिक भाई हैं। अतः शा पुखराजजी किस्तुरचन्दजी हंसाजी परिवार, का एवं जैन श्राविका संघ का भी हम का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में माणकलालजी कटारिया रतलाम वालों ने हरेक भाग की सो-सो पुस्तकों का कागज व बाइडिंग का लाभ लिया Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( . ३ ) है । वैद लालचन्दजी महात्मा राजाजी के करेडा वालों में पाँच सौ रुपये उदर भेंट की है एवं साध्वीजी किरण प्रज्ञा श्रीजी के सदुपदेश से नीलकमल एपार्टमेण्ट साबरमती की आराधक बहिनों ने ज्ञान खाते की.. आय से २२०० रुपये की उदार भेंट की है इन सबका भी हम हार्दिक अभिनन्दन करते हैं । सुश्रावक जेठालाल भारमल शा तथा सुश्रावक माणेकलाल भाई पण्डितों ने इसका साङ्गोपाङ्ग अवलोकन किया एवं पण्डित तृति नारायण झा ने इसका सम्पूर्ण निरीक्षण करके इसका स्वागत किया है । सुश्रावक लालचन्दजी छगनलालजी पिन्डवाडा वालों को हम नहीं भूल सकते जिन्होंने बार-बार इसके शीघ्र प्रकाशन के लिये प्रयत्न किया। श्री हँसमुखलालजी जैन ( लक्ष्मी प्रेस ) रतलाम वालों ने इसे दो महीने में प्रकाशित करके दिया अतः वे भी इस प्रसंग पर भूले नहीं जा सकते । इस प्रकाशन में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यदेव श्रीविजय हेमचन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा के आशय - विरुद्ध कुछ भी प्रकाशन हो गया हो तो उसका मिच्छामि दुक्कडं देने के साथ प्रुफ संशोधन की त्रुटि स दोष या अन्य कारण से जो त्रुटि रह गई हो उसकी क्षमा याचना पूर्वक सुज्ञ वाचकों को सुधारकर पढ़ने की विनती है । विनीत- 1 श्री जैन संघ पिण्डवाडा के बती सेठ - कल्याणजी सोभागचन्दजी जैन पेढी ट्रस्ट freseatst गुणरत्नावृत्ति का पण्डितवर्यो ने स्वागत किया वृत्ति बहुत ही सुन्दर हुई है बन सके तो जल्दी से छपाने की कृपा करना जी। ऐसे महान् ग्रन्थ के पीछे मेहनत खूब ही चाहिये और तैयार हुए ऐसे महान् ग्रन्थ जल्दी से छप जाय यह बहुत ही इन्छनीय है । भविष्य में सिद्ध- हेम-व्याकरण पढ़ने वालों के लिये यह वृत्ति बहुत ही उपयोगी होगी। जेठालाल भाई भारमल शा बी-वेलाणी एस्टेट दुकान नं० ७ मलाड पूर्व बम्बई – ७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपश्री ने बहुत परिश्रम करके लवृत्ति व्याकरण के ऊपर बहुत अच्छा व्याकरण किया है। यह आनन्द का विषय है, लघुवृत्ति के अभ्यासकों को लघुवृत्ति के अभ्यास में रुचि उत्पन्न करने के साथ लघुवृत्ति करने के लिये इससे प्रेरणा, एवं प्रोत्साहन मिलेगा। पण्डित श्री माणेकलालजी देसाई वास राधनपुर, (गुजरात) प्रिय वाचक वर्ग! व्याख्यान वाचस्पति पूज्यपाद श्री के भवनिर्वेदोत्पादकमोक्षाभिलाषजनक प्रवचनों को हिन्दी भाषा में प्रकाशित करने वाला : जैन प्रवचन [हिन्दी मासिक] के आज ही सदस्य बनें वार्षिक चन्दा २५ रु० आजीवन चन्दा २५१ रु० परदेश ५५ रु० 'लिखो या मिलो आजीवन सदस्य बनने । - श्री जैन प्रवचन प्रकाशन संस्थान वालों को २५ रुपये की ..फोन नं० ३२०१२० सम्यग्दर्शन पुस्तक भेंट ६६ धनजी स्ट्रीट, ३ रा माला, दी जाती है। - बम्बई-४००००३ व्याख्यान वाचस्पति पूज्यपाद श्री के भवनिर्वेदोत्पादक मोक्षाभिलाषजनक-प्रवचनों को गुजराती भाषा में प्रकाशित करने वाले जिनवाणी (पाक्षिक) के आज ही सदस्य बनें वार्षिक चन्दा २१ २० ___आजीवन चन्दा २०१ २० -लिखो या मिलोश्री जिनवाणी प्रचारक ट्रस्ट श्री जिनयाणी प्रकाशन कार्यालय ५८ बैंक ऑफ इण्डिया बिल्डिंग वढवान शहर (गुजरात) १८५ शेखमेमण स्ट्रीट पिन-३६३०३० बम्बई-३ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणरत्नावृत्तिसमेतश्रीसिद्धहेमशब्दानुशासनलघुवृत्तौ ॥ अथ तृतीयाध्याये तृतीयः पादः ॥ वृद्धिरारदौत् ।३।३।१॥ आ आर् ऐ औ एते प्रत्येकं वृद्धिः स्युः । माष्टि, कार्यम्, नायकः औपगवः ॥१॥ गुणरत्नावृत्तिः-वृद्धिशब्दस्य संज्ञात्वात् अनुवादविधित्वेन च परनिपातः प्राप्नोतीति "आरंदौद् वृद्धिः” इति सूत्रं कर्तव्यं तथापि वृद्धिशब्दस्य पूर्वनिपातः मङ्गलार्थः इदं मध्यमङ्गलम् । उक्त च-ग्रन्थादौ, ग्रन्थमध्ये ग्रन्थान्ते च मङ्गलं कर्तव्यम् । माष्टि-मृजेर्वर्तमानायां तिवि, गुणे कृर्ते मजोऽस्य वृद्धिः ।४।३।४२। इत्यकारस्य वृद्धिराकारो भवति । अत्र सूत्रेण कृतस्य आकारस्य वृद्धिसंज्ञा। राजेत्यादौ च अकृतानाम् । यतः राजधातौ धातुपाठे एव आकारः। कार्यम्-'ऋवर्णव्यञ्जनाद् ध्यण ।५।१।१७। इति घ्यणि 'नामिनः ।४।३।५१। इति वृद्धिरार । नायकःनयतेः णकतचौ ।५।१४८। इति णके "नामिनः ।४।३।५१। इतीकारस्य वृद्धिरत् भवति । औपगवः-उपगोरपत्यम् "डसोऽपत्ये ।६।१२८। इत्यणि 'वृद्धि स्वरेवादेः० ।७।४।१। इत्यादि स्वररूपस्य उकारस्य वृद्धिरौकारो भवति ॥१॥ गुणोऽरेदोत् ।३।३।२। अर् एत ओत् एते प्रत्येकं गुणः स्युः । कर्ता, चेता, स्तोता ॥२॥ गुणशब्दस्य पूर्वनिपातो मङ्गलस्यैवातिशयद्योतनार्थः । अथवा 'अनुवाद्यमनुक्त्वैव न विधेयमुदीरयेतू' इति नियमस्य व्यभिचारद्योतनार्थः । करोतिः-"नामिनो गुणो०।४।३।१। इति गुणः ॥२॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियार्थो धातुः ॥३॥३॥३॥ कृतिः क्रिया पूर्वापरीभूता साऽर्थो यस्य स धातुः स्यात् । भवति अत्ति, गोपायति, जुगुप्सते, पापच्यते, पुत्रकाम्यति, मुण्डयति, जवनः ॥३॥ कृतिः, क्रिया प्रवृत्तिर्व्यापार इति पर्यायाः, कृगों भावे 'स्त्रियां क्तिः' ।५।३।८१। इति क्तिः । क्रियेति–'कृगः शः च वा' ।।३।१००। इति शः । पूर्वापरीभूतेति–पूर्वावयवसम्बन्धा पूर्वा, अपरावयवसम्बन्धाऽपरा, पूर्वा चासावपरा च पूर्वापरा, अपूर्वापरा पूर्वापरा संपन्ना पूर्वापरीभूता। यद्यपि क्रिया आदितोऽन्तं यावदेकव, तथापि तस्याः कपि.कोत्पत्तिदर्शनात् क्रमविषयाणामवस्थाविशेषाणां तदङ्गत्वं परिकल्प्यते, यथा पच् धात्वर्थभूता विक्लित्त्यनुकूला क्रिया, पाकपात्रस्य चुल्ल्युपरिधारणम् । फूत्काराद्यधः सन्तापनादिकमारभ्य पाकपात्रस्य नीचैरानयनपर्यन्तमेकैव, तथापि अधिश्रयणादीनां तदवयवत्वं परिकल्प्यते । तत्र केचिदवयवाः पूर्वमुत्पद्यन्ते केचित्पश्चादिति तेषां पूर्वापरत्वव्यवहारो दुष्टः, तथा च वस्तुतोऽपूर्वापरा सत्यपि सा पूर्वापरा सम्पद्यते इति पूर्वापरीभूतात्वं तस्याः । अत्र 'पूर्वापर० ।२।१।१०३। इति सूत्रे पाठक्रममाश्रित्य परत्वादपरशब्दस्यैव पूर्वनिपातप्राप्तावप्यर्थक्रमस्य स्पष्टप्रतिपत्त्यर्थं तमनुरुध्य राजदन्तादिगणपाठपरिकल्पनया पूर्वशब्दस्यैव पूर्वनिपातः कृतः इति न दोषः । आयादिप्रत्ययान्तामपि क्रियार्थत्वाद् धातुत्वाद् उदाहरति गोपायति-- 'गुपौधूप० ।३।४।१। इत्यायः । जुगुप्सते--गुपेर्गर्हाविवक्षायां 'गुप्तिजो गर्हाक्षान्ती सन् ।३।४।५॥ इति सन् । 'गुपि गोपनकुत्सनयोरिति भ्वादिरात्मनेपदित्वादात्मनेपदम् । पापच्यते-पुनः पुनरतिशयेन वा पचतीति पचधातोः 'व्यञ्जनादरेकस्वरात् ।३।४।६। इति यङ् तदन्तस्य द्वित्वादिकायें कृते धातुत्वात् ते । पुत्रकाम्यति-पुत्रमिच्छतीति पुत्रीयति द्वितीयान्तात् 'द्वितीयायाः काम्यः ।३।४।२०। इति काम्यप्रत्यय सति तदन्तस्य धातुत्वात् तिः । मुण्डयति-णिज्बहुलं नाम्नः कृगादिषु' ।३।४।४२। इति णिज् तदन्तस्य धातुत्वम् । जु इति सौत्रो धातुर्वेगार्थः तस्य धातुत्वात् कृत्यने जवनः ॥३॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न प्रादिरप्रत्ययः ॥३॥३॥४॥ प्रादिर्धातोरवयवो न स्यात् ततः पर एव धातुरित्यर्थः न चेत्ततः परः प्रत्ययः । अभ्यमनायत । प्रासादीयत् । प्राविरिति किम् ? अमहापुत्रीयत् । अप्रत्यय इति किम् ? औत्सुकायत ॥४॥ - प्रादिश्चाद्यन्तर्गतः, 'चादयोऽसत्त्वे ।१।१।३१। इव्यवयवसंज्ञा । अनभिमना अभिमना इवाचरत् इत्यर्थे 'च्व्यर्थे भृशादेःस्तोः ।३।४।२६। इति क्यङ्, सकारस्य च लुक्', 'दीर्घश्चि० ।४।३।१०८। इति दीर्घ अभिमनायेति, तस्य समुदायस्य क्रियावाचकत्वेन पूर्वसूत्रेण धातूत्वे प्राप्ते, प्रादिपठितस्याभेरनेन सूत्रेण चावयवत्वे प्रतिषिद्धे मनायेत्येतावता एव धातुत्वे ह्यस्तन्यां ते अभिशब्दं परित्यज्य मनायेत्यतः पूर्वमेवाटि-अभ्यमनायतेति । प्रासादीयदिति-प्रासादे इवाऽऽचरत् इत्यर्थ प्रासादशब्दात् "आधाराच्चोप० ।३।४।८४। इति क्यन् तदन्तस्य क्रियावाचकत्वेन धातुत्वे प्राप्ते 'प्र आङ्' इति प्रादिसमुदायरूपस्य प्राशब्दस्यानेन धात्वयवत्वे निषिद्धे सदीयेत्यस्यैव धातुत्वात् ततः पूर्वमेवाट । अमहापुत्रीयदितिमहांश्चासौ पुत्रः महापुत्रस्तमैच्छत् इत्यर्थे 'अमात्ययात् क्यन्' ।३।४।२४। इति क्यनि महाशब्दस्य प्रादित्वाभावेन निषेधाभावे महापुत्रीयेत्यस्य धातुत्वात्ततः पूर्वमडागमोऽभूत् । औत्सुकायतेति–'उत् सु' इत्येतो प्रादी ताभ्यां सह स्थिताभ्याम् ‘उदुत्सोरुन्मनसि ।७।१।१६२। इति कः, उत्सुकशब्दः उन्मनसि उत्कण्ठिते रुढः, स इवाऽऽचरत् इत्यर्थे 'क्यङ्' ।३।४।२६। इति क्यङ् अत्र प्रादेर्धात्वयवत्वनिषेधे 'काय' मात्रस्य धातुत्वे ततः प्रागडागमापत्तेः ॥४॥ अवौ दाधौ दा ३॥३॥५॥ दाधारूपौ धातू अवितौ दा स्याताम् । दाम्-प्रणिदाता। दै प्रणिदयते । डुदांग प्रणिददाति।दों प्रणिद्यति। धे-प्रणिधयति । हुधांग्-प्रणिदधाति । अवाविति किम् ? दांव दातं बहिः । देव Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवदातं मुखम् ॥५॥ दारुपाश्चत्वारः, धातुरूपी द्वौ। दाम् धातुर्दानार्थको भ्वादिः तस्यानूबन्धविनिर्गमे दारूपत्वम् ततस्तृचि दातेत्यत्र दाशब्दस्य दासंज्ञायां सत्यां 'प्रनि' इत्युपसर्गयोर्मध्ये नीत्युपसर्गसम्बन्धिनो नस्य 'नेमादा० ।२।३७६। इति णत्वे सति प्रणिदाता। देङिति पालनार्थो भ्वादि तस्याशिति प्रत्यये "आत्सन्ध्यक्षरस्य ।४।२।१। इत्यात्त्वे दारूपत्वम् भवति, अनेन दासंज्ञायां नेर्नस्य णत्वं भवति । डुदांग्क् इत्यपि दानार्थकः जुहोत्यादिपठितः, अस्यापि धातोर्दारूपत्वेन दासंज्ञकत्वमिति तस्मिन् परतो ने कारस्य पूर्वोक्तसूत्रेण णकारे प्रणिददाति । दोंच धातुः छेदनार्थो दिवादिः तस्याप्यशिति प्रत्यये आत्त्वविधानात् दारूपत्वमिति दासंज्ञायां नेनस्य णत्वम् । दिवादित्वात् श्ये तिवि 'ओतः श्ये' ।४।२।१०३॥ इत्योकारस्य लुकि नकारस्य णत्वे प्रणिद्यति । टधे धातुः पानार्थको भ्वादिः,. डुधांग्क् धातुर्धारणार्थकः जुहोत्यादिः । दातं बहिरिति-दांवक् धातुर्लवनार्थकोऽदादिः, नस्य वकारानुबन्धत्वात् दासंज्ञाभावे. ततः क्ते 'दत्' ।४।४।१०। इति ददादेशो न भवति । बर्हिः दर्भः कुश इति पर्यायः । अवदातं मुखमिति–दैधातुः शोधनार्थको वानुबन्धो भ्वादिः, तस्य वानुबन्धत्वेन दासज्ञाभावात् अवपूर्वात् ततः क्त 'स्वरादुपसर्गाद दस्ति कित्यधः ।४।४।६। इति दासंज्ञकस्य विधीयमानस्तादेशो न भवति ॥५॥ - वर्तमाना-तिव तस् अन्ति, सिव थस् थ, मिव वस् मस्, ते आते अन्ते, से आथे ध्वे, ए वहे महे ॥३॥३॥६॥ इमानि वचनानि वर्तमाना स्युः ॥६॥ वर्तमानेति-स्ववाच्यार्थमादायेयं संज्ञा, वर्तमानः कालः वाच्यो. स्याः इत्यर्थे मत्वर्थीयाच् । तिवादीना बहुत्वेऽपि सर्वगत-वर्तमानात्वस्यैकरूपतया वर्तमानेति जातिवाच्यैकवचनम् वर्तमानेति वचनभेदेऽपि संज्ञासंज्ञिनिर्देशो भवत्यनवर्णा नामीतिवत् । वित्करणस्य 'शिदवित्' ।४।३।२०। उतः औविति०।४।३।५०। इति प्रयोजनत्वम् । पाणिनिना तु. वर्तमाना Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) • सप्तमीपञ्चमीह्यस्तन्द्यतनी परोक्षाऽऽशीः श्वस्तनी भविष्यन्तीक्रियातिपत्तीनामनुक्रमेण लट्लिङ्लोट्लङ्लुङ्लिङाशीर्लिङ्लुट्लूट्लुङः इत्येवंरूपाः संज्ञाः दर्शिताः ||६|| सप्तमी - यात यातां युस्, यास् यातं यात, यां याव याम, ईतईयातां ईरन, ईथास ईयाथां ईध्वं, ई ईवहि ईमहि | ३ | ३|७| इमानि वचनानि सप्तमी स्युः ॥७॥ अत्र संज्ञाक्रमे न किञ्चिद् विनिगमकम् अपितु गन्थकर्तु रिच्छेव प्रतीयते । सप्तमी अग्रे वक्ष्यमाणा पञ्चमी तू स्ववाच्यार्थभिन्ना संज्ञा ॥७॥ * पञ्चमी - तु तां अन्तु, हि तं त, आनिव् आवव् आमम्, तां आतां अन्त, स्व आथां ध्वं, ऐव् आवहैव् आम हैव् |३|३|८| इमानि वचनानि पञ्चमी स्युः ॥ ८ ॥ अनं सर्वत्रं विशेष्यरूपविभक्तः स्त्रीत्वात् पञ्चमीति स्त्रीलिङ्गनिर्देश: ॥ ८ ॥ ह्यस्तनी - दिव् तां अनू, सिव् तं तं अम्व् व म, त आतां अन्त, यास आया ध्वं इ वहि महि |३|३|| , इमानि वचनानि ह्यस्तनी स्युः ॥ ॥ ह्यसित्यव्ययमतीतेऽव्यवहितपूर्वदिने रूढम् ह्यो भवः ह्यस्तनी 'सायं चिरं० | ६| ३८८ ॥ इति तनट, टित्त्वात् स्त्रियां ङीः ॥ ६ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) एताः शिवः | ३ | ३|१०| एताश्चतस्रः शितो ज्ञेयाः । भवति, भवेत्, भवतु, अभवत् ॥१०॥ धातोर्वर्तमानायां तिवि, तस्य शित्त्वेन कर्तर्थनद्भ्यः शव् ।३।४।७१ । इति शव् । शवः वित्त्वेन च ' शिदवित् | ४ | ३ | २० | इति ङित्त्वा - भावात् गुणः पश्चादवादेशः । भवेदित्यत्र " यः सप्तम्याः ॥४।२।१२२ । इतीकारादेशः ||१०|| अद्यतनी - दितां अनू, सि तं त, अम् वं म, त आतां अन्त, थास् आथां ध्वं, इ वहि महि | ३ | ३ | ११ | इमानि वचनानि अद्यतनी स्युः ॥ ११ ॥ अस्मिन्नहनीत्यर्थे ‘अद्यशब्दः सद्योऽद्य ० ' | ७|२|७| सूत्रे निपा तितः । अद्य भव इत्यर्थे सायं चिरं० |६| ३८८ इति तन्ट् | अद्यतनकालस्यार्थः” अनद्यतने ह्यस्तनी |५|२|७| इत्यत्र दर्शितः ||११|| परोक्षा - णव अतुस् उस्, थव् अथुस् अ, णव् व म, ए आते इरे, से आये ध्वे, ए वहे महे | ३ | ३|१२| इमानि वचनानि परोक्षा स्युः ॥१२॥ परोक्षे |५|२|१२| सूत्रेण परोक्षेऽर्थे विधानादर्थंनिबन्धनेयं परोक्षा संज्ञा । परोक्षं यद्यपि भूतभविष्यत्साधारणं तथापि भविष्यत परोक्षत्वमनिश्र्चितमिति भूतपरोक्षस्यैवेह परोक्षत्वेन व्यवहारः ॥ १२॥ आशी:- क्यात् क्यास्तां क्यासुस्, क्यास् क्यास्तं क्यास्त, क्यासं क्यास्व क्यास्म, सीष्ट सीयास्तां सीरन्, सीष्ठास् Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) सीयास्थां सीध्वम्, सीय सीवहि सीमहि ।३।३।१३। इमानि वचनानि आशीः स्युः ॥१३॥ ____ भविष्यदर्थाशंसनमाशीः, अन्ये तु शुभाशंसनमेवाशीरिति कथयन्ति तन्न 'मृषीष्ट' इत्यादावाशीःप्रयोगानुपफ्तेः । कित्करणं "नामिनो गुणो०।४।३।१। इत्यादिसूत्रेण गुणाभावादिः हेतुः ॥१३॥ श्वस्तनी-ता तारौ तारस, तासि तास्थस् तास्थ, तास्मि तास्वस् तास्मस् । ता तारौ तारस, तासे तासाथे ताध्वे, ताहे तास्वहे तास्महे ॥३॥३॥१४॥ इमानि वचनानि वस्तनी स्युः ॥१४॥ श्वः शब्दोऽव्यवहिताऽऽगामिदिनबोधकः श्वो भव: “सायंचिरं" ।६।३।८८। इति तनट् ॥१४॥ भविष्यन्ती-स्यति स्यतस् स्यन्ति, स्यसि स्यथस् स्यथ, स्यामि स्यावस् स्यामस्, स्यते स्वेते स्यन्ते, स्यसे स्येथे स्यध्वे, स्ने स्यावहे स्यामहे ।३।३।१५॥ ... इमानि वचनानि भविष्यन्ती स्युः ॥१५॥ _ 'भविष्यन्ती' ।५।३।४। सूत्रेण वय॑ति काले एषां विधानाद् "भविष्यन्ती" इत्येतद्यथार्थं नाम ॥१५॥ क्रियातिपत्तिः-स्यत् स्यतां स्यन्, स्यस् स्यतं स्यत, स्य स्याव स्याम, स्यत स्वेतां स्यन्त, स्यथास् स्वेथां स्यध्वं, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) स्वे स्यावहि स्यामहि ॥३॥३॥१६॥ इमानि बचनानि क्रियातिपत्तिः स्युः ॥१६॥ क्रियाया अतिपत्तिरनिष्पत्तिः क्रियातिपत्तिः, भविष्यदर्थात् भूतार्थाच्च धातोः क्रियाया अनभिनिवृत्ती मत्यां "सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्ती क्रियातिपत्तिः ।५।४।६। सूत्रेण कियात्तिपत्तिविधीयते इति क्रियातिपत्त्यर्थे विधानादन्वर्थसंज्ञेयम् ॥१६॥ त्रीणि त्रीण्यन्ययुष्मदस्मदि ।३।३।१४। सर्वासां विभक्तीनां त्रीणि त्रीणि वचनानि अयस्मिन्नर्थे युष्मदर्थेऽस्मदर्थे च वाच्ये यथाक्रमं स्युः । स पचति । तौ पचतः, ते पचन्ति । पचते । पचेते। पचन्ते । त्वं पचसि । युवां पचथः । यूयं पचथ । पचसे। पचेथे। पचध्वे । अहं पचामि । आवां पचावः । वयं पचामः । पचे । पचावहे । पचामहे । एवं सर्वासु द्वययोगे त्रययोगे च पराश्रयमेव वचनम् । स च त्वं च पचथः । स च त्वं चाहं च पचामः ॥१७॥ __ अन्यस्मिन्नर्थे इति–नत्वन्यत्वं केवलान्वयि स्वेतरापेक्षया सर्वस्यान्यत्वादिति युष्मदस्मदर्थयोरप्यन्यत्वं भवतीति चेत्सत्यम् युष्मदस्मदोः समीपोपस्थितेः “उपस्थितं परित्यज्यानुपस्थितकल्पने मानाभाव" इति न्यायादन्यत्वं युष्मदस्मदपेक्षं ग्राह्यम् । न चास्मच्छब्दातिरिक्त सर्वत्र युष्मच्छब्दस्य प्रयोगात् सर्वस्य पदार्थस्य युष्मदर्थत्वमिति युष्मच्छब्दोऽप्यव्यावर्तक इति वाच्यम् युष्मच्छब्दविशेषितार्थो युष्मदर्थ इति । अतएव भवच्छब्देनोच्यमानो न युष्मदर्थ अपि त्वस्मदर्थ एव तेन भवान् पचतीत्येव प्रयोगो न तु भवान् पचसीति । पराश्रयमेवेति-परत्वं सर्वादिपाठापेक्षया बोध्यम् । केचित्तु यत्न सहोक्तिर्नास्ति तत्रैकशेषाभावात् प्रत्येक क्रिया सं च त्वं पचति च पचसि चेति, स च त्वं चाहं च पचति च पचसि च पचामि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) चेति कुर्वन्ति । सिद्धान्ती तु कर्तो: सह विवक्षाभावे एक शेषाभावेपि क्रियाया एकत्वस्य स्वभावसिद्धतयैकामेव क्रियां प्रयुनक्ति, पराश्रितैव च व्यवस्था । स च त्वं च पचथ इत्याद्येव भवति ॥ १७॥ एकद्विबहुषु । ३ | ३ | १८ | अन्यादिषु यानि त्रीणि त्रीण्युक्तानि तान्येकद्विबहुष्वर्थेषु यथासख्यं स्युः । स पचति । तौ पचतः । ते पचन्तीत्यादि ॥ १८ ॥ एकद्विबहुषु इति बहुवचनात् नान्यादिभिरेकादीनां यथासङ्ख्यम् ||१८|| नवाद्यानि शतृक्वसू च परस्मैपदम् | ३ | ३ | १६ | • सर्वविभक्तीनामाद्यानि नव नव वचनानि शतृक्वसू च परस्मैपदानि स्युः । ति तस्, अन्ति । सिव् थस् थ । मिव्, दस् मस् । एवं सर्वासु ॥१६॥ 1 संज्ञिनां बहुत्वात् नवन्शब्दो अगृहीतवीप्सोपि वीप्सां गमयति ननु सर्वेषां परस्मैपदसंज्ञाकथं कृता आसन्नत्वात् - क्रियातिपत्त रेव कर्तव्येति चेन्मैवम् "लृदिद्” | ३|४|६४ | सूत्रे अन्यासामपि विभक्तीनां परस्मैपदग्रहणात् । परस्मै स्वभिन्नाय पद्यते प्रयुज्यते तत्परस्मैपदम् "हितादिभिः' | ३|१|७१ । इति समासः “ परात्मभ्यां के | ३ |२| १७| इति चतुर्थ्या अलुप् एवमात्मने पद्यते इति आत्मनेपदम् । यद्यपि केवलपरस्मैपदे केवलात्मनेपदे यमन्वर्थता न घटते नथाप्युभयपदिधातुमादायान्वर्थतायाः क्षत्यभावः "ईगित” | ३ | ३६५ सूत्रे फलवत्कर्तर्यात्मनेपदम् कर्तृ भिन्ने क्रियाफलवति परस्मैपदम् । “शनानशा० | ५|२| २० | इति शतृ विहितः । “तत्र क्वान० | ५|२|२| इति क्वसु विहितः अनेन तयोः परस्मैपदसंज्ञा कृता ॥१६॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) पराणि कानानशौ चात्मनेपदम् ।३।३।२०। सर्वविभक्तीनां नव नव वचनानि कानानशौ चात्मनेपदानि स्युः। ते, आते, अन्ते । से, आथे, ध्वे । ए, वहे, महे । एवं सर्वासु ॥२०॥ ... "तत्र क्वसुः" ।५।२।२। सूत्रादेव कानो विहितः “शत्रा." ।५।२।२०। इति विहितः आनश् एतयोरनेनात्मनेपदसंज्ञा ॥२०॥ तत्साप्यानाप्यात्कर्मभावे कृत्यक्तखलाश्व ॥३॥३॥२१॥ तदात्मनेपदं कृत्यक्तखलाश्च प्रत्ययाः सकर्मकाद् धातोः कर्मणि अकर्मकादविवक्षितकर्मकाच्च भावे स्युः । क्रियते कटश्चत्रेण । चक्राणः । क्रियमाणः । भूयते त्वया । भूयमानम् । क्रियते । मृदु पच्यते । कार्यः । कर्तव्यंः । करणीयः । देयः कृत्यः कटस्त्वया । शयितयम् । शयनीयम् । शेयम् । कार्यम् । कर्तव्यम् । करणीयम् । देयम् । कृत्यम् ।त्वया कृतः कटः । शयितम् । कृतं त्वया । सुकरः कटस्त्वया। सुशयं सुकरं त्वया । सुक्टंकराणि वीरणानि । ईषदाढ्यम्भवं भवता । सुज्ञानं तत्त्वं मुनिना । सुग्लानं दोनेन । मास आस्यते । मासमास्यते ॥२१॥ साप्यानान्यादिति-आप्यं कर्मकारकम् आप्तिविषयमाय्यम् आप्तिसम्बन्धः, स च कर्तृ व्यापारद्वारकफलाश्रयत्वरूपः, आप्यशब्दस्य तादशसम्बन्धाश्रये योगरुढिः, आप्येन सह वर्तते इति साप्यम्, साप्यः सकर्मकः । न विद्यते विवक्ष्यतेवाऽऽप्यं यस्मिन् सोऽनाप्योऽविद्यमानकर्मकोऽविवक्षितकर्मकश्च । फलव्यधिकरणव्यापारवाचकत्वं सकर्मकत्वम्, फलसमानाधिकरणव्यापारवाचकत्वमकर्मकत्वम् । क्रियते कटश्चत्रणेति. उत्पादना करोतेरर्थः, सा चोत्क्त्यनुकूलव्यापारः। मृदु पच्यते-मृदु इति क्रियाविशेषणम्, न तु पच्यमानद्रव्योपस्थापकम् । पचतिः विक्लित्त्यनुकूल Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) व्यापारवाचकः, विक्लितिश्च कर्मस्था इति फलव्यधिकरणवाचकत्वेन सकर्मकत्वेऽपि अविवक्षितकर्मत्वेनाकर्मकत्वम् तेन भावे प्रयोगः कतु योग्यः इत्यर्थे ध्यण्-तव्य-अनीयप्रत्ययाः ज्ञेयाः क्यप्प्रत्यये कृत्यः । भावे लिङ्गसङ्ख्याभावेऽपि सामान्ये नपुंसकमिति सिद्धान्तात् औत्सगिकं क्लीबत्वमेकवचनं च भवति । सुकरः कटस्त्वया -- सकर्मकत्वेन कर्मणि खल् । सकर्मकत्वसूचनाय 'कट' इति पदमुपात्तम् । सुकटंकराणि वीरणानि कट भिन्नानि वीरणानि कटस्वरूपाणि सुखेन क्रियन्ते इत्यर्थः । अनाढयेन भवता सुखेनाद्येन भूयते इतीषदाढ्य भवं भवता । सुखेन ज्ञायते इति "शासूयुधि ० | ५|३ | १४१ । इति कर्मणि अने, सुज्ञानं तत्त्वं मुनिना । 'शासू० ' ।५।३।१४१। सूत्रेण भावेऽनप्रत्यये तु सुग्लानं दीनेनेति । मास आस्यते इति“ कालाध्वभा० | २|२|२३| सूत्रेणाकर्मकाणां धातूनां प्रयोगे कालादिः आधारः कर्मसंज्ञो वा भवति । अकर्म च ---यत्रापि पक्षे कर्मसंज्ञा तत्राकर्मसंज्ञापि वा भवतीत्यावेदितम् उभयसंज्ञा, विधानाच्च प्रकृतप्रयोगे अकर्मकत्वमाश्रित्य "आस्यते” इति भावे आत्मनेपदम्, सकर्मकत्वमाश्रित्य मासस्य कर्मत्वाद् आत्मनेपदेन तस्यानभिधा नाद् 'मासम्' इति कर्मणि द्वितीया भवति । अकर्मसंज्ञा यदि न स्यात् तदा भावे आत्मनेपदं न स्यात् सकर्मकत्वात्कर्मणि आत्मनेपदे तु तेनैवाभिहितत्वात्कर्मणि द्वितीया न भवेत् ॥२१॥ इङितः कर्तरि |३|३|२२| इंदितो ङितश्च धातोः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । एधते । एधमानः । शेते । शयानः ॥ २२ ॥ एभ्य एव कर्तरीति नियमार्थं वचनम् । एभ्य कर्तयैवात्मनेपदमिति नियमस्तु न शक्यते ' तत्साप्या० | ३ | ३ | २१ | इति सूत्रेण भावकर्मणोरेभ्य आत्मनेपदस्येष्टत्वात्तद्बाधापत्तेः । एभ्य कर्तर्यात्मनेपदमेवेत्यपि न नियन्तु ं शक्यते 'इडित्तो व्यञ्जना० | ५ | २|४४ । इत्यनेन विहितस्यानस्य बाधापत्तेः ॥२२॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) क्रियाव्यतिहारेऽगतिहिंसाशब्दार्थहसो हवहश्वानन्योऽनयार्थे ।३।३।२३॥ अन्यचिकीर्षितायाः क्रियाया अन्येन हरणं करणं क्रियाव्यतिहारः तदर्थाद् गतिहिंसाशब्दार्थहस्वर्जाद्धातोह वहिभ्यां च कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । न त्वन्योन्येतरेतरपरस्परशब्दयोगे। व्यतिलुनते । व्यतिहरन्ते । व्यतिवहन्ते भारम् । क्रियेति किम् ? द्रव्यव्यतिहारे मा भूत् । चैदस्य धान्यं व्यतिलुनन्ति । गत्यादिवर्जनं किम् ? व्यतिसर्पन्ति । व्यतिहिंसन्ति । व्यतिजल्पन्ति । व्यतिहसन्ति । अनन्योऽन्यार्थ इति किम् ? परस्परस्य व्यतिलुनन्ति । कर्तरीत्येव । तेन भावकर्मणोः पूर्वेणैव गत्यर्थादिभ्योपि स्यात् । व्यतिगम्यन्ते ग्रामाः ॥२३॥ क्रियाव्यतिहारे अनेकार्थत्वाद् धातूनां हरणमित्यस्य करणव्यर्थः। यदाऽन्येन कर्तव्यां क्रियामन्यः करोति, तत्कर्तव्यों चेतरक्तदा क्रियाया व्यतिहारः विनिमय इत्यर्थः । हृवहश्चेति-हृवहोर्गतिहिंसार्थत्वात्प्रतिषेधे प्राप्ते प्रतिप्रसवार्थमुपादानम् । अयमाश्यः हरणस्य सामान्यतो हिंसाभिन्नत्वेपि उपसर्गसहितस्य प्राणहरणानुकूलत्यापारे वृत्तौ हिंसार्थत्वमक्त्येव, प्रापणमपि स्थानान्तरस्थितस्य स्थानान्तरस्थानमित्युत्तरदेशसंयोगानुकूलव्यापार एव गतिरिति भवत्युभयोः क्रमशः हिंसार्थत्वं गत्यर्थत्वं चेति निषेधस्य प्राप्तिरस्तीति तस्य प्रतिप्रसवार्थं पृथगुपादानम् । केचित्तु सूत्रेऽर्थग्रहणात् शब्दान्तरनिरपेक्षा ये गत्याद्यर्थबोधकारते एव तदर्थत्वेन गृह्यन्ते, हरतेरुपसर्गवशेन हिंसार्थत्वमिति न शब्दान्तरनिरपेक्षं हिंसार्थत्वम्, प्रापणमपि न साक्षाद् गतिरपि तु आर्थिकार्थरूपा गतिरिति हृवहोः प्रतिषेधस्य न प्राप्तिरिति व्यर्थमेवानयोः पृथगुपादानमित्याहुः । चैत्रस्य धान्यं व्यतिलुनन्ति इति अत्र लुनातिर्न छेदने वर्ततेऽपि तु उपसंग्रहात्मके स्वीकारस्वभावे लवने छेदने वर्तते, चैत्रेण यत्स्वायत्तीकृतं धान्यं छेदनेन स्वीकुर्वन्तीत्यर्थः अत्र द्रव्यस्य विनिमयो गम्यते । पूर्वेणवेति-"तत्साप्योनाप्यात् ।३।२।२१। इति सूत्रेणैति भावः ।२३।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) निविशः | ३ | ३|२४| विशः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । निविशते । विशत् प्रवेशने तुदादिधातुः । उपसर्गादस्योहो वा | ३ | ३ |२५| उपसर्गात्पराभ्यामस्य त्यहिभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । विपर्य स्यति । समूहते । समूहति । अस्यतेरप्राप्ते ऊहतेश्चेदित्त्वान्नित्यमात्मनेपदे प्राप्ते विभाषे - यम् । अस्येति श्यनिर्देशात् 'असूच् क्षेपणे' इति दिवादिर्गृह्यते 'असक भुवि इत्यदादिः 'असी गतिदीप्त्यादानेषुः इति भ्वादिश्च न गृह्यते । उत्स्वराद्य जेरयज्ञतंत्पात्रे | ३ | ३ |२५| उदः स्वरान्ताच्चोपसर्गात्पराद् युनक्तः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् न चेद्यज्ञे यत्तत्पात्रं तद्विषयो युज्यर्थः स्यात् । उयुङ्क्ते । उपयुङ्क्ते । उत्स्वरादिति किम् ? संयुनक्ति । अयज्ञसत्पात्र इति किम् ? द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति ॥ २५ ॥ युजेरिति सामान्यनिर्देशेऽपि 'युपी योगे इति रुधादिर्धातुर्गृह्यते न तु युजिच् समाधौ इति दैवादिकः अस्येदित्त्वादात्मनेपदं सिद्धमेवास्ति । युपी योगेऽस्य ईदित्त्वात् फलवत्कर्तर्यात्मनेपदे सिद्धेऽप्यफलवति कर्तर्यात्मने पदसिद्ध्यर्थमिदं सूत्रं कृतम् । एवमग्रिमसृतमपि ज्ञेयम् । उदयुङ्क्ते इत्यत्र “श्नास्त्योर्लु' क् ।४।२ । ६० । इत्यनेन श्नसम्बन्धिनोऽकारस्य लुग्भवति ।।२५।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) परित्यवात्क्रियः ।३।३।६। एभ्य उपसर्गेभ्यत्पराक्रोणातेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । परिक्रीणीते । विक्रीणीते । अवक्रोणीते । उपसर्गादित्येव-उपरिक्रीणाति ॥२६॥ __. 'क्री' इत्यनुकरणमनुकार्येणार्थनार्थवदिति नामत्वे संति ततः . स्यादि: ‘प्रकृतिवदनुकरणम्' इति न्यायाच्च धातुकार्यमियादेशः । एष एव एतन्यायस्य ज्ञापक: । परिक्रीणीत्यत्र “एषामीळञ्जनेऽद: ।४।२।६७। इतीकारः ॥२६॥ परावर्जः ।३।३।२८॥ आभ्यां पराज्जयतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । पराजयते । विजयते । उपसर्गाभ्यामित्येव बहुवि जयति वनम् ॥२६॥ . जियः इत्यकृत्वा जे: करण "प्रकृतिवदनुकरणमिति न्यायस्यानित्यता पक्षेनैव । बहुवीति-बहवो वयः पक्षिणो यत्र वने तद् बहुवि । वनम्, तादृशं वनं जयतीत्यर्थः ॥२८॥ समः क्ष्णोः ।३।३।। . समः परात् क्ष्णौतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संक्ष्णुते शस्त्रम् । सम इति किम् ? क्ष्णौति । उपसर्गादित्येव-आयसं क्ष्णौति ॥२६॥ ___अत्रापि क्ष्णोरिति निर्देशः 'प्रकृतिवदनुकरणम्' इति न्यायस्यानित्यतापक्षे एव, अन्यथा धातुत्वादुवादेशे 'क्ष्णुवः' इति प्रयोगः स्यात् । ननु 'समो गमृच्छिपृच्छि० ।३।३।८४। इत्यत्र क्ष्णुग्रहणं क्रियतां किमत्र . पृथगारम्भेण, नैव ‘समो गमृच्छि०' इत्यत्र कर्मण्यसति आत्मनेपदविधिः, इह तु संक्ष्णुते शस्त्रम् इति सकर्मणोऽपि भवतीति पृथवसूत्रारम्भः- ॥२६।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) 0 अपस्किरः ॥३॥३॥३०॥ अपाकिरतेः सस्स्ट्कात्कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अपस्किरते वृषभो हृष्टः । सस्सनिर्देशः किम् ? अपस्किरति । अपैति किम् ? उपस्किरति ॥३०॥ __ अपस्किरते इत्यत्र 'अपाच्चतुष्पात्पक्षि०।४।४।६६॥ इति स्सट । वृषभो हृष्ट इति हृषच तुष्टाविति विस्मयार्थो विवक्ष्यते ततो "हषेः . केस० ४।४७६। इतीविकल्पः ॥३०॥ - उदश्वरः साप्यात् ।३।३॥३१॥ उत्पूर्वाच्चरेः सकर्मवात्कर्तरि आत्मनेपदं स्यात् । मार्गमुच्चरते । साप्यादिति किम् ? धूम उच्चरति ॥३१॥ मार्गमुच्चरते इति व्युत्क्रम्य गच्छतीत्यर्थः । व्युत्क्रमणं च . बिपरीताचरणमुल्चनम् वा। धूम उच्चरति--ऊर्ध्वं गच्छतीत्यर्थः ॥३१॥ समस्तृतीयया ।३।३।३ । सम्पूर्वाच्चरेस्तृतीयान्तेन योगे कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अश्वेन . सञ्चरते । तृतीयेति किम् ? उभौ लौको सञ्चरसि ॥३२॥ . धातोस्तृतीयया योगाभावादाह--तृतीयान्तेनेति । उभौ लोकाविति--मनुष्यस्वर्गलोकावित्यर्थः ॥३२॥ क्रीडोऽकूजने ॥३॥३॥३३॥ कूजनमव्यक्तः शब्दस्ततोऽन्यार्थात्संपूति क्रीडतेः कर्तर्यात्मनेपदं Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) स्यात् । संक्रीडते । सम इत्येव । क्रीडति । अकूजन इति किम् ? संक्रीडन्त्यनांसि ॥ ३३॥ संक्रीडते = रमते इत्यर्थः । संक्रीडन्त्यनांसि - अव्यक्त शब्द कुर्वन्तीत्यर्थः ॥३३॥ अन्वाङ्परेः ।३।३।३४। एभ्यः परात्क्रीडतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अनुक्रीडते । आक्रोते । परिक्रीडते ॥ ३४॥ क्री विहारे भ्वादि: ॥ ३४॥ शप उपलम्भने | ३ | ३|३५| उपलम्भनं प्रकाशनं शपथो वा तदर्थाच्छपतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । मैत्राय शपते । उपलम्भन इति विम् ? मैत्रं शपति ॥ ३५ ॥ मैत्राय शपते - मैत्रं कञ्चिदर्थं बोधयतीत्यर्थः अथवा स्वाभिप्रायस्य परत्राविष्करणमुपलम्भनं शपथ इति यावत् । तत्पक्षे मैत्राय शपते इत्यस्य वाचा मात्रादिशरीरस्पर्शनेन मैत्रं स्वाभिप्रायं बोधयतीत्यर्थः । मैवं शपति = आक्रोशतीत्यर्थः ||३५|| आशिषि नाथः | ३ | ३ | ३६ | आशीरर्थादेव नाथेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । सर्पिषो नाथते । आशिषीति किम् ? मधु नाथति ॥ ३६ ॥ सर्पिषो नाथते - सर्पिमें भयादित्याशास्ते इत्यर्थः । आशिष्येवेति Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) नियमाद् याञ्चायां मधु नाथतीत्यत्रात्मनेपदं न भवति । नन्वेवमाशिष्यनेनात्मनेपदविधानेऽन्यत्त्रार्थे च नियम सामर्थ्यादात्मनेपदाप्रवृत्तौ "नाथूङ” इति द्विशिष्टः पाठो व्यर्थ इति चेत्सत्यम् ङित्करणम् "इङितो व्यञ्जनाद्यन्तात् ।५।२।४४। सूत्रेणानप्रत्ययार्थम् । नन्वेवं भारविकविकृते किरा - तार्जुनीये मायाशुकरशरी रघातिबाणमुद्दिश्य कपटकिरान्त शिवदूतस्यार्जुनं प्रति "नाथसे किमु पति न भूभृताम्" इति वाक्ये कथमात्मनेपदप्रयोग इति चेत्र प्रामाणिकः नाथसि इत्येव प्रयोग उचितः यद्वा “निरङ्क ुशाः aar: " इति शरणम् ||३६|| भुनछोऽत्रा | ३ | ३|३७| पालनादन्यार्थाद् भुनक्तः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । ओदनं भुङक्त भुनज इति किम् ? ओष्ठौ निर्भुजति । अत्राण इति किम् ? पृथ्वीं भुनक्ति ॥ ३७॥ 'भुनज्' इति श्नेन निर्देशात् "भुजोंत् कौटिल्ये" इत्यस्मादात्मनेपदं न भवति यथा ओष्ठौ निर्भु जति कुटिलयतीत्यर्थः ॥ ३७॥ हो गतताच्छील्ये | ३ | ३ |३८| गतं सादृश्यं हृगो गतताच्छील्यार्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । पैतृकमश्वा अनुहरन्ते । गत इति किम् ? पितुर्हरति चोरयतीत्यर्थः । ताच्छील्यादिति किम् ? नटो राममनुहरति ॥ ३८ ॥ गतं प्रकारः सादृश्य मनुकरणमित्येकार्थाः तच्छीलं स्वभावो यस् स तच्छीलस्तस्य भावः ताच्छील्यम, उत्पत्तेः प्रभृत्याविनाशात् स्वभावता । कमवा अनुहरन्ते - पितुरागतं गुणविषयं क्रियाविषयं वा सादृश्यमविकलं शीलयन्तीत्यर्थः 'ऋतः इण् । ६।३।१५२। इतीकण् 'ऋवर्णो० |७|४|७१। इतीतो लुक् । शब्दशक्तिस्वाभावाच्चानुपूर्व एव हरतिः गत् Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) ताच्छील्ये वर्तते । नटो राममनुहरतीति-नटो हि कञ्चिदेव कालं राममनुकरोतीति असातत्ये न भवति नटो नाट्यावसरे एव रामभूमिकां प्राप्य तदीयं सादृश्यमनुकरोति अन्यदा तु स स्वभावे एव तिष्ठतीति न स्वभावतेति साच्छील्या भावान्नात्मनेपदम् ।।३।। पूजाचार्यभृत्युत्क्षेपज्ञानविगणनव्यखे नियः ।३।३।३६।। पूजादिषु गम्येषु नियः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । माणवक मुपनयते । कर्मकरानुपनयते । शिशुमुदानयते । नयते तत्त्वार्थे । मद्रा कारं विनयन्ते । शतं विनयन्ते। एष्विति किम् ? अजां नयति ग्राम ॥३६॥ पूजा=सन्मानः, नयते विद्वान् स्याद्वादे-जीवादीन् पदार्थान् यक्तिभिः स्थिरीकृत्य शिष्यं बोधयतीत्यर्थः । ते यूक्तिभि: स्थिरीकृताः पूजिता भवन्ति । आचार्यस्य भावः कर्म वा आचार्यकम् , योपान्त्याद्" ७१७२। इत्यका । माणवकमुपनयते स्वयमाचार्यो भवन् माणवक (मनोरपत्यं माणवः अल्पार्थे ( बालकेऽर्थे ) णत्वम्, माणवः एव माणवकः स्वार्थे कः ) बटुशिष्यमध्ययनायाऽऽत्मसमीपं नयतीत्यर्थः । शीष्योऽधीते तमात्मसमीपं नीत्वाऽध्यापनेन स्वस्मिन्नाचार्य कमुत्पादयतीत्यर्थः । भतिः वेतनम् भ्रियन्तेऽनया कर्मकरा इति भृति: पारिश्रमिकरूपेण दीयमानं द्रव्यं वेतनशब्देनोच्यते । कर्मकरानुपनयते-वेतनेन कर्मकरान् आत्मनः कर्मणि नियुक्त इत्यर्थः। उत्क्षेपः ऊर्ध्वं गमनम् । शिशुमुदानयतेउत्क्षिपतीत्यर्थः । ज्ञानं प्रमेयनिश्चयः ज्ञानस्य यथार्थायथार्थभेदेन द्वैविध्यान प्रकृते यथार्थज्ञानस्य निश्चयरूपस्यैव ग्रहणमिति प्रमेयस्य प्रमाविषयीकर्तृ मभिलषितस्य वस्तूनो निश्चयः सन्देहराहित्येनाधिगतिनिशब्देन गृह्यते । नयते तत्त्वार्थे तत्त्वार्थविषयं जिज्ञासितवस्तु प्रमाणेन यथार्थतया प्रतिपाद्यते इत्यर्थः । विगणनम्--ऋणादेः शोधनम्, ऋण त्तमायावश्यं प्रत्यर्पणीयं द्रव्यम्, आदिशब्देन तादृशमेवावश्यदेयं वस्तु गृह्यते तस्य शोधनं प्रत्यर्पणमित्यर्थः । मद्राः कारं विनयन्ते-मद्रा मद्रदेशोद्भवा जनाः कारं राज्ञे देयं तत्तद्वस्तुषु प्रतिनियतं राज्ञा ग्राह्य षष्ठांशादिकं दानेन शोधयतीत्यर्थः । व्ययः धर्मादिषु विनियोगः, शतं विनयते: Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( १६ ) शतेन परिच्छिन्नं द्रव्यं धर्माद्यर्थं तीर्थादिषु ददातीत्यर्थः। नियः गित्त्वादफलवदर्थोऽयमारम्भः । अजां नयति ग्राममिति-नयतेढिकर्मकत्वेनाजाया ग्रामस्य च कर्मसंज्ञा तत्राजा मुख्यं कर्म ग्रामो गौणं कर्म ॥३६।। कर्तृस्थामूर्ताप्यात् ।३॥३॥४०॥ कर्तृस्थममूर्त कर्म यस्य तस्मानियः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । श्रमं विनयते । कर्तृस्थेति किम् ? चैत्रो मैत्रस्य मन्यु विनयति । अमूतेति किम् ? गड्डु विनयति । आप्येति किम् ? बुद्धया विनयति ॥४०॥ श्रमं विनयते-शमयतीत्यर्थः । गडुविनयति-गडुः क्वचिच्छरीरकदेशे मांसग्रन्थ्यादिः तस्य मर्तत्त्वान्न भवत्यात्मनेपदम् । बद्ध्या विनयति-बुद्धिहेतुकं विनयं प्राप्नोतीत्यर्थः अत्राविवक्षितकर्मत्वेन धात्वर्थोपसंगृहीतकर्मत्वेन वाऽकर्मकत्वमिति न कर्मणः प्रयोगस्याऽऽवश्यकतेति कर्तृस्थामूर्तकर्मकत्वाभावादव न भवत्यात्मनेपदम् ॥४०॥ शदेः शिति ॥३॥३॥४१॥ शिद्विषयाच्छदः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । शीयते । शितीति किम् ? शत्स्यति ॥४१॥ . शलु शातने । इत्यस्माद् वर्तमानातेप्रत्यये शवि शदे: स्थाने "श्रौतिः" ।४।२।१०८। इति शीयादेशे शीयते इति रूपम् ॥४१॥ नियतेरद्यतन्याशिषि च ॥३॥३॥४॥ अतोऽद्यतन्याशीविषयाच्छिद्विषयाच्च कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अमृत । मृषीष्ट । म्रियते । अद्यतन्याशिषि चेति किम् ? ममार ॥४२॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) तिनिर्देशाद् यङ्लुपि न भवति मर्मति ॥ ४२ ॥ २० क्यो नवा | ३ | ३ |४३| क्यन्तात्कर्तयत्मनेपदं वा स्यात् । निद्रायति, निद्रायते ॥ ४३ ॥ stateतादिभ्यः षत् | ३ | ४ | ३० | सूत्रेण क्यषु ||४३|| द्युद्भ्योऽद्य न्याम् | ३ | ३ | ४४ ॥ द्युतादिभ्योऽद्यतनीविषये कर्तरर्रात्मनेपदं वा स्यात् । व्यद्युतत् । व्यद्योतिष्ट । अरुचत् । अरोचिष्ट । अद्यतन्यामिति किम् ? द्योतते ॥४४॥ बहुवचनं द्युतादिगणप्रतिपत्त्यर्थम् । प्राप्तविभाषेयम् । द्युति, रुचि, घुटि, रुटि, लुटि, लुठि, श्विताङ्, ञिमिदाङ्, निविदाङ्, ञिष्विदाङ्, शुभ, क्षुभि, भि, तुभि, स्रम्भूङ्, भ्रः शृङ्, स्रं सूङ्, ध्वंसूङ्, नृतूङ, स्यन्दौङ्, वृधूङ् शृधूङ् कृपौ इति द्युतादिगणः ||४४ || वृद्धयः स्यसनोः | ३ | ३ | ४५ । वृदादेः पञ्चतः स्यादौ प्रत्यये सनि च विषये कर्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । वर्त्स्यति । वर्तिष्यते । दिवृत्सति । विवर्तिषते । स्यंसनोरिति किम् ? वर्तते ॥४५॥ बहुवचनं पूर्ववद् गणार्थम् । वृदादिः द्युतादिगणान्तर्गतान्तिमञ्चधातवः । वर्त्स्यति, वर्तिष्यते-- 'वृचः |४| ४ | ५५ | इति निषेधादिङभाव: आत्मनेपदे तु भवत्येवेट् । विवृत्सति - " उपान्त्ये” ।४।३।३४। इत्यनिट् सन् द्वित् । इयमपि प्राप्त विभाषा ॥४५॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) कृपः श्वस्तन्याम् | ३ | ३ |४६ | कृपः श्वस्तीविषये कर्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । कहप्तासि, वहितासे ॥४६॥ कृप्धातुर्वृ' तादावन्तर्गतः कल्प्तासि कल्पितासे इति -- परस्मैपदाऽऽत्मनेपदयोः प्रथमपुरुषे श्वस्तन्यां रूपस्य साम्येन तत्र नाऽऽत्मनेपदकृतो विशेषः प्रतिभासेतेति मध्यमपुरुषोदाहरणम् । 'न वृद्भयः ।४।४।५५। इती निषेध: आत्मनेपदे तु भवत्येवेट् । तत्र कृपः औदित्त्वेन "धूगौवि |४| ४ | ३ | इति विकल्पेनेट् परमिडभावपक्षीयरूपमिह न प्रदर्शितमनावश्यकत्वात् ।।४६।। क्रमोऽनुपर्सात् | ३ | ३|४७ | अविद्यमानोपसर्गात्क्रमतेः कर्त्तयत्मनेपदं वा स्यात् । क्रमते । क्रामति । अनुपसर्गादिति किम् ? अनुक्रामति ॥ ४७ ॥ क्रामतीति -- क्रमो दीर्घः परस्मै | ४ |२| १०६ । इति दीर्घः । वृत्त्यादेरन्यत्त्रायमारम्भः इत्यप्राप्तविभाषा । उत्तरसूत्रेण वृत्त्यादावात्मनेपदं विधीयते ||४|| वृत्तिसर्गतायने | ३ | ३ | ४८ | वृत्तिरप्रतिबन्धः, सर्ग उत्साहः, तायनं स्फीतता एतवृत्तेः क्रमः कर्त्तर्यात्मनेपदं स्यात् । शास्त्रेऽस्य क्रमते बुद्धिः । सूत्राय क्रमते । क्रमन्तेऽस्मिन्योगाः ॥४८॥ वेति निवृत्तम् । शास्त्रेऽस्य क्रमते बुद्धिरिति अप्रतिबन्धं प्रवर्तते इत्यर्थः । सूत्राय क्रमते - तदर्थमुत्सहते इत्यर्थः । क्रमन्तेऽस्मिन् योगा - अस्मिन् प्रकृतवर्णनीये यतौ योगाः चित्तवृत्तिविरोधार्थाः क्रिया --- Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) विशेषाः क्रमन्ते स्फीततां यान्ति प्रवर्द्धन्ते इत्यर्थः ॥४८॥ परोपात् ॥३॥३॥४६॥ आभ्यामेव परात् क्रमेर्वृत्त्याद्यर्थात्कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । पराक्रमते, उपक्रमते । परोपादिति किम् ? अनुक्रामति । वृत्त्यादावित्येव-पराक्रामति ॥४६॥ कृप मादविक्षेपे भ्वादिः ॥४॥ वेः स्वार्थे ।३।३॥५०॥ स्वार्थः पादविक्षेपस्तदर्थाद्विपूर्वात्क्रमेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । साधु विक्रमते गजः । स्वार्थ इति किम् ? गजेन विक्रामति ॥५०॥ स्वस्यार्थः स्वार्थस्तत्र स्वार्थे । स्वपदेनात्मनेपदप्रकृति-भूतस्य क्रमेर्ग्रहणम् । साधु विक्रमते गजः–अत्र गजः सम्यक् पादविक्षेपं करोतीत्यर्थस्य विवक्षितत्वेन स्वार्थे प्रयोगसत्त्वाद् भवत्यात्मनपदम् । गजेन विक्रामति-करणभूतेन गजेन स्थानान्तरं प्राप्नोतीत्यर्थः । नन्वत्र गणकरणस्थानान्तरप्राप्तिः सापि पादविक्षेपकृतैवेति धातौः स्वार्थे एव प्रयोग इति कुतो न भवत्यात्मनेपदमिति चेत् सत्यं प्रथमं कर्तृव क्रियायाः सम्बन्धः, करणादिभिश्च परम्परया सम्बन्धः कर्तु रेव करणादिप्रयोक्तृत्वात् तथा च कारकेषु कर्तु रेव प्राधान्यमिति प्रधानकर्तृ कृत एव पादविक्षेपो ग्राह्यः अत्र तु प्रधानकर्तुः स्थानान्तरप्राप्तिरेव पादविक्षेपस्तु करणभूतस्य गजस्येति न भवत्यात्मनेपदम् ॥५०॥ प्रोपादारम्भे ॥३॥३॥५१॥ आरम्भार्थात्प्रोपाभ्यां परात्क्रमेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । प्रक्रमते, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) उपक्रमते भोक्तम् । आरम्भ इति किम् ? प्रक्रामति यातीत्यर्थः ॥५१॥ प्रक्रमते उपक्रमते भोक्तम्=आरभते इत्यर्थः ॥५१॥ आङो ज्योति रुद्गमे । ३ । ३ । ५२ । आङः परात्क्रमेश्चन्द्राद्युद्गमार्थात्कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । आक्रमते चन्द्रः सूर्यो वा । ज्योतिरुद्गम इति किम् ? आक्रामति बटुः कुतुपम् | धूम आक्रामति ॥ ५२॥ = ज्योतिरुद्रमे - चन्द्रादीनामूर्ध्वं गमने इत्यर्थः । आक्रमते चन्द्रः सूर्यो वाउदयते इत्यर्थः । आक्रामति - अवष्टभ्नातीत्यर्थः । अत्र क्रमिर्न उद्गमे वर्ततेऽपि तु अवष्टम्भे वर्तते । धूम आक्रामति – उद्गच्छतीत्यर्थः । अत्र यद्यपि उद्गमोऽस्ति तथापि ज्योतिष उद्गमाभावान्न भवति ||५२ || दागोऽस्वास्यप्रसारविकाशे | ३ | ३|५३ | स्वास्यप्रसारविकासाभ्यामन्यार्थादाङपूर्वाद्दागः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । विद्यामादत्ते । स्वास्यादिवर्जनं किम् ? उष्ट्रो मुखं व्याददाति, कूलं व्याददाति ॥५३॥ फलवतोऽन्यत्त्रायं विधिः । स्वास्यप्रसारश्च विकाशश्च स्वास्यप्रसारविकाशं तस्मिन् । उष्ट्रोमुखं व्यादत्त - प्रसारयतीत्यर्थः । कूलं व्याददाति — विकसतीत्यर्थः । केचित्तु विकासपदेऽपि प्रयोजकरूपेणैव व्याचक्षते यतो व्याङ्पूर्वकस्य ददातेः सर्वत्र सकर्मकत्वेनैव प्रयोगस्य दर्शनान्तस्याकर्मकत्वे मानाभावः । तथा च कूलं व्याददातीत्यत्र नदीप्रवाहः कर्त्ता कूलं कर्मविकासयतीत्यर्थः इत्याहुः एतन्न रुचिकरं प्रयोगवशाद् व्याङ्पूर्वकस्य ददातेः सकर्मकत्वमकर्मकत्वं च सम्भवतीति ॥५३॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) नुप्रच्छः ॥३॥३॥५४॥ आयूर्वान्नौतेः प्रच्छेश्च कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । आनुते शृगालः । आपृच्छते गुरून ॥५४॥ आनते शगाल इति-उत्कण्ठितः शब्दं करोतीत्यर्थः । शब्दानशासनस्य शब्दशक्तिस्वाभाव्यानुवादित्वात् उत्कण्ठापूर्वके संशब्दे एव नौतेरयं विधिः न सर्वत्र । आपृच्छते गुरुन्–वियुज्यमानः शिष्यः स्वगमनानुमति याचते इत्यर्थः ॥५४॥ गमेः क्षान्तौ ॥३॥३॥५५॥ कालहरणार्थाद् गमयतेराङ्पूर्वाकर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । आगमयते गुरुम् - कञ्चित्कालं प्रतीक्षते । क्षान्ताविति किम् ? विद्यामागमयति ॥५५॥ शान्तिः सर्वत्र सहनार्थे प्रसिद्धा प्रकृते शब्दशक्तिस्वाभाव्यादर्थान्तरे रूढेत्याह-कालहरणार्थादिति । कालहरणं प्रतीक्षार्थ समययापनमित्यर्थः । ननु गमेरिति सामान्येन निर्देशेपि ण्यन्त एवं कथमुदाहृतः इति चेत्सत्यम् क्षान्ती स्वाभाव्याद गतिय॑नत एव प्रवर्तते । विद्यामागमयतिगृह्वातीत्यर्थः, गुरुसकाशाद् विद्यां गृह्वातीत्यर्थः, गमेर्ण्यन्तस्य क्षान्तावेव प्रयोग इति न नियमः किन्तु अधिगती ग्रहणेऽपि तस्य प्रयोगस्य दृष्टतया तत्रात्मनेपदाप्रवृत्त्यर्थ क्षान्तावित्यस्याऽऽवश्यकतेति भावः ॥५५॥ हवः स्पः ।३।३॥५६॥ आपति ह्वयतः स्पद्धे गम्ये कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । मल्लो मल्लमाह्वयते । स्पर्द्ध इति किम् ? गामाह्वयति ॥५६॥ स्पर्धः संघर्षः पराभिभवेच्छा । मल्लो मल्लमाह्वयते-स्पर्धमान Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ) आकारयतीत्यर्थः, आकारणमाह्वानमेव, मल्लो मल्लान्तरमभिभवितु शब्दायते इति भावः तथा च पराभिभवेच्छाया गम्यमानत्वेनाकर्तृ गेऽपि फले भवत्यात्मनेपदम् । स्वाभावात् आपूर्वकस्य ह्वयतेः धातोरर्थः शब्द एव ॥५६॥ सन्निवः ।३।३।५७॥ एभ्यो ह्वयते कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संह्वयते, निह्वयते, विह्वयते ॥५७॥ उपसर्गत्रयसमाहारः, सौत्रं पुस्त्वम्, उपसर्गान्तरोपादानादाङ: इति निवृत्तम् । स्पर्द्ध इत्यस्यासम्बन्धार्थं योगविभागः । हगो गित्त्वेन फलवत्कर्तर्वात्मनेपदसिद्धेरफलवदर्थ अयमारम्भः । तथा चैन्य उपसर्गेभ्यः पराद् ह्वयतेः सर्वथाऽऽत्मनेपदमेव न परस्मैपदमिति फलति ॥५७।। उपात् ।३।३।५८. उपाद् ह्वयतः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । उपह्वयते ॥८॥ योगविभाग उत्तरार्थः । उत्तरत्र “यमः स्वीकारे ।३।३।५६। सूत्रे उपादित्येतावन्मात्रस्य सम्बन्धो यथा स्पान्न तूपसर्गचतुष्टयस्येतदर्थमुपादित्यस्य पृथक्सूत्रकरणम् अन्यथा एकयोगनिर्दिष्टानां सहैव प्रवृत्तिः सहैव निवृत्तिरिति न्यायेन सर्वेषामेवोत्तरसूत्रेऽनुवृत्तिः स्यात् सा च नेष्टेति । यद्यपि "क्वचिदेकदेशोऽप्यनुवर्तते" इत्यपि न्यायोऽप्यस्ति तथा चाचार्यरेकदेशानुवृत्तिरपि व्याख्यातु शक्यते एव तथापि सति गमके, असति च गत्यन्तरे क्वचिदेकदेशानुवृत्तिरपि व्याख्यायते न सर्वत्रेति । "व्याख्यानाद्वरं करणम्” इति न्यायानुसारं पृथग्योगारम्भ एव कृत इत्यवधेयम् ॥५७।। यमः स्वीकारे ३३३४५६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) उपाद् यमेः स्वीकापार्थात्कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । कन्यामुपयच्छते। उपायंस्त महास्त्राणि । विनिर्देश इति किम् ? शाटकानुपयच्छति ॥५६॥ स्वीकारार्थादिति-उपोसर्गवशादेवास्य स्वीकारार्थे वृत्तिः, धातु पाठे तु ‘यमूउपरमे' इति पठ्यते, उपरमश्च कार्यनिवृत्तिरेव । उपसर्गवशाच्च धात्वर्थोऽत्यन्त-भिन्नोऽपि भवति । उक्त च- "उपसर्गेण धात्वर्थो, बलादन्यत्र नीयते। प्रहाराऽऽहार-संहार-विहार-परिहारवत् ॥" कन्यामुपयच्छते-कुमारी' भार्यात्वेन स्वीकरोतीत्यर्थः । उपायंस्त महास्त्राणि-युद्धार्थं महास्त्राणि स्वायत्तानि अकार्षीदित्यर्थः । शाटकानुपयच्छति-नात्रास्वं स्वं क्रियते किन्तु स्वत्वेन निश्चितस्य ग्रहणमिति नात्मनेपदम् । स्वीयत्वेन निश्चितान् शाटकान् गृह्वातीत्यर्थविवक्षायामयं प्रयोगः ॥५६॥ देवा मंत्रीसहमपथिकर्तृ कमन्त्रकरणे स्थः।३।३।६०॥ एतदर्थादुपपूर्वा-तिष्ठतः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । देवार्चा । जिनेन्द्रमुपतिष्ठते । मैत्री-रथिकानुपतिष्ठते । सङ्गमः-यमुना गंगामुपतिष्ठते । पन्थाः कर्ता यस्य तत्र । स्त्र नमुपतिष्ठते पन्थाः । मन्त्रः करणं यस्य-ऐन्द्याः गार्हपत्यमुपतिष्ठते ॥६०॥ देवर्मिका देतसम्बन्धिनी वाऽर्चा पूजा=देवार्चा। जिनेन्द्रमुपतिष्ठते-जिनेन्द्र स्रोतुं स्रक्चन्दनगन्धाद्यैः पूजयितुं वातस्य समीपं यातीत्यर्थः । मैत्री -मित्रस्य भावो मैत्रीतीह नार्थः किन्तु मित्रतयाऽऽचरणं मित्रं कतुवाऽऽचरणमिह मैत्रीशब्दार्थः । सा मैत्री उपस्थानस्य तदाराधनस्य तत्समीपगमनस्य वा हेतु: मैत्रीनिमिनत्वादुपस्थानस्य । यत्र च मैत्री न पूर्ववृत्ताऽपितु कर्तव्या तत्र फलं सेति । रथिकानुपतिष्ठते- रथिकाः रथारूढाः तान् मित्रत्वेन स्वीकर्तुमाराधयति तत्समीपं वा गच्छतीति, मित्रतयाऽऽराधयति तत्समीपं वा गच्छतीति वार्थः । सङ्गमः उपश्लषः Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) उप सामीप्येन श्ल ेषः संमीलनमुपश्लषः सम्बन्धविशेषः एवं च नात्र मित्रं तु मित्रतया वा सम्बन्धोऽपितु सामीप्यमानं विवक्षितमिति मैत्रीतो भिन्नः । यमुना गङ्गामुपतिष्ठते - गङ्गाप्रवाहे यमुनाप्रवाहः संश्लिष्ट इति गङ्गायमुनयोः सङ्गमो वृत्तः । अत्र यमुना गङ्गया सङ्गच्छते इत्यर्थप्रतीतेः सङ्गमार्थे आत्मनेपदम् । क्वचिद् गङ्गा यमुनामुपतिष्ठते इत्युदाह्रियते, तत्र यमुनैव प्रथमं तत्त्रागता पश्चाद् गङ्ग ेति प्रतीतिरिति भेदः । पन्थाः कर्त्ता यस्यार्थस्य स पथिकर्तृ कस्तत्र तस्मिन् स्रुघ्नमुपतिष्ठते पन्थाःस्रुनो नाम देशः अयं पन्थाः स्रुघ्नं प्रति गच्छतीत्यर्थः पथः कर्तृ त्वादात्मनेपदम् । ऐन्द्रा गार्हपत्यमुपतिष्ठते - इन्द्रो देवताऽस्या सा ऐन्द्री ऋक् गृहपतिना संयुक्तः = गार्हपत्योऽग्निः ऐन्घ्रा ऋचा मन्त्रविशेषेण गार्हपत्यनामानमाग्नि स्तोतीत्यर्थः ॥ ६०॥ वा लिप्सायाम् | ३ | ३ | ६२ ॥ उपात्स्थो लिप्सायां गम्यमानायां कर्तर्यात्मनेपदं स्याद्वा । भिक्षुदतृकुलमुपतिष्ठते, उपतिष्ठति वा ॥ ६१ ॥ भिक्षोचितेऽहं भिक्षां लभेयेति लिप्सा वर्तते ॥ ६१ ॥ उदोहे | ३ | ३ |६२ | अनुर्ध्वा या चेष्टा तदर्थात् उत्पूर्वात्स्थः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । मुक्ताबुत्तिष्ठते । अनुद्धेति किम् ? आसनादुत्तिष्ठति । इहेति किम् ? ग्रामाच्छतमुत्तिष्ठति ॥ ६२ ॥ मुक्तावुपतिष्ठते मुक्त्यर्थं चेष्टते इत्यर्थः शतमुत्तिष्ठतिउत्पद्यते इत्यर्थः, अस्माद् ग्रामाच्छतं रूप्यकाणि कररूपेणोत्पद्यन्ते इति भावः ॥६२॥ संविप्रावात् । ३।३।६३। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) एभ्यः परात्स्थः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संतिष्ठते । वितिष्ठते । प्रतिष्ठते । अवतिष्ठते ॥६३॥ संतिष्ठते आरोहावरोहादिक्रमेण वर्तते इत्यर्थः वितिष्ठतेप्रकारभेदेन वर्तते इत्यर्थः । प्रतिष्ठते-प्रवसतीत्यर्थः । अवतिष्ठते कयाचिंदनवस्थया वर्तते इत्यर्थः ॥६३॥ ज्ञीप्सास्थये ।३।३।६४। ज्ञीप्सा आत्मप्रकाशनम् । स्थेयः सभ्यः । जीप्सायां स्थेयविषयार्थे . च वर्तमानात् स्थः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । तिष्ठते कन्याच्छात्र। भ्यः । त्वयि तिष्ठते विवादः ॥६४॥ . - परपरितोषार्थमात्मरूपादिप्रकाशनं ज्ञीप्सा । तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थेयः रूढिवशाद् विवादपदे निर्णता प्रमाणभूतः पुरुषः उच्यते । “य एच्चातः" ।।१।२८। इति भावकर्मणोविहितो यप्रत्ययो बाहलकादत्राधिकरणे । तिष्ठते कन्या च्छात्रेभ्यः-स्वाभिप्रायप्रकाशनेनात्मान रोचयतीत्यर्थः । त्वयि तिष्ठते विवाद:-त्वां विवादे निर्णेतृत्वेनाश्रयति ॥६४॥ प्रतिज्ञायाम् ।३।३॥६५॥ अभ्युपगमार्थात् स्थः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् नित्यं शब्दमातिष्ठते । ॥६५॥ प्रतिज्ञा अभ्युपगमः, तथात्वेन स्वीकार इति यावत् । नित्यं शब्दमातिष्ठते-वैयाकरणः शब्दं नित्यत्वेनाभ्युपगच्छति, तदपेक्षयाऽयं प्रयोगः नित्यत्वेन प्रतिजानीते इत्यर्थः । स्वभावाच्चाङ्पूर्व एव प्रतिज्ञायां वर्तते । योगविभाग उत्तरार्थः । उत्तरसूत्रे केवलं प्रतिज्ञार्थस्य सम्बन्धो यथा स्यान्न तु जीप्सास्थेथयोरिति । अन्यथा “एकयोगनिर्दिष्टानां सहैव प्रवृत्तिः सहैव निवृत्तिः” इति सर्वेषामनुवृत्तिः स्यातू ॥६५॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( २६ ) समो गिरः ।३।३।६६। संपूर्वाद् गिरः प्रतिज्ञार्थात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । स्याद्वाद सङ्गिरते ॥६६॥ ___ स्याद्वादं संगिरते प्रतिजानीते इत्यर्थः । स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः स्याद्वादः स एव सप्तभङ्गीपदेन व्यवह्रियते । “ऋतां ङ्कितीर् ।४।४।११६। इतीरादेशयुक्तस्य गिर इति निर्देशात् गृणातेर्ग्रहणं न भवति ॥६६॥ अवात् ।३।३।६७। अवागिरः क्र्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अवगिरते ॥६७॥ .पृथग्योगात् प्रतिज्ञायामिति निवृत्तम् तथा चावपूर्वकादगिरतेरर्थविशेषानपेक्षमात्मनेपदमनेन विधीयते । अवादन्यत्र गिरति ॥६७॥ निन्हवे ज्ञः ॥३॥३॥६॥ निह्नवोऽपलापस्तद्वत्तेजः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् शतमपजानीते ॥६॥ . निह्नवः अपलापः, छलेन गोपनम् कृतस्यास्वीकारो वा । शतमपजानीते-अपह्न ते इत्यर्थः, पूर्वेण गृहीतं शतसंख्यकं द्रव्यं मया न गृहीतमिति कथयतीति भावः । अपेन जानातेनिह्नवरूपोऽर्थो द्योत्यते ॥६॥ संप्रतेरस्मृतौ ॥३॥३॥६६॥ स्मृतेरन्यात्संप्रतिभ्यां परात् ज्ञः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । शतं संजानीते । प्रतिजानीते । अस्मृताविति किम् ? मातुः संजानाति ॥६६॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) शतं संजानीते--अवेक्षते इत्यर्थः, सम्यक्प्रकारेण ज्ञानमेवावेक्षापदार्थः । “समोऽज्ञोऽस्मृतौ वा । २ २ ५१ | इति विकल्पेन तृतीया भवति । शतं प्रतिजानीते - अभ्युपगच्छतीत्यर्थः शतमहं दास्यामीति स्वीकरोतीत्यर्थः । मातुः संजानाति - स्मरतीत्यर्थः ।” “स्मृत्यर्थदयेशः । २।२।११। इति विकल्पेन कर्म कर्मत्वाभावपक्षे" शेषे | ३|२|| इति षष्ठी, सति कर्मत्वे द्वितीयाऽपि भवति । ननु कर्मत्वाभा वपक्षे 'ज्ञः | ३ ३ ८१ । इत्यात्मनेपदेन भाव्यमिति “ मातुः संजानीते” इति स्यादिति चेन्न कर्मण्य - सतीति कथनेन सर्वथा कर्माभाववत एवात्मनेपदविधानादस्य च पाक्षिककर्मणः सत्त्वात् कर्मात्यन्ताभावत्वं नास्तीत्यदोषात् ॥ ६६॥ अननोः सनः | ३ | ३।७० । सन्नताज्ज्ञः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् न त्वनोः परात् । धर्मं जिज्ञासते । अननोरिति किम् ? धर्ममनुज्ञातति ॥ ७० ॥ धर्मं जिज्ञासते -- सकर्मकत्वेन ज्ञः | ३ | ३ |२| इत्यनेनात्मनेपदाप्राप्तेः 'प्राग्वत्' | ३ | ३|७४ । इत्यनेनात्र न सिद्धिरिति सूत्रारम्भः । किंच फलवति कर्तरि 'ज्ञोऽनुपसर्गात् | ३ | ३|६६ | इत्यनेन केवलादात्मनेपदस्य विहितत्वेन सन्नतात् 'प्राग्वत् | ३ | ३|६६ । इत्यनेनैव सिद्धिरिति धर्मं जिज्ञासते इत्यादिप्रयोगसिद्धाविदं सूत्रमफलवदर्थम् । धर्ममनुजिज्ञासतीतिइह फलवत्यपि कर्तर्यात्मनेपदं न भवति सोपसर्गत्वेन 'अनुपसर्गाज्ञः | ३ | ३ | ६६। इत्यस्याप्राप्तेः ।।७०ll शृवोऽनाङ्प्रतेः । ३।३।७१ । सन्नन्ताच्छृणोतेः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् न त्वाप्रतिभ्यां परात् । शुश्रूषते गुरून् । अनाप्रतेरिति किम् ? आशुश्रूषति । प्रतिशुश्रूषति ॥ ७१ ॥ शुश्रूषते - शब्दशक्तिस्वाभाव्यादत्र सेवितुमिच्छतीत्यर्थः । शब्द Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) कर्म सशुश्रूषते शब्दानित्यत्र शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् श्रोतुमिच्छतीत्यर्थः 110911 स्मृदृशः । ३।३।७ ॥ आभ्यां सन्नन्ताभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । सुस्मूर्षते । दिदृक्षते ॥७२॥ सुस्मृते विवृक्षते - "स्व रहनगमो० |४|१|१०४ | इति दीर्घः ।" नामिनोऽनिट् | ४ | ३ | ३३ | " उपान्त्ये” | ४ | ३ | ३ ४ | इति द्विद्भावः ॥७२॥ शको जिज्ञासायाम् | ३ | ३॥७३॥ शको ज्ञानानुसंहितार्थात्सन्नन्तात् कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । विद्यां शिक्षते । जिज्ञासायामिति किम् ? शिक्षति ॥७३॥ ज्ञानानुसंहितार्थादिति - ज्ञानसंबद्धार्थादित्यर्थः । विद्याः शिक्षते 'विद्या: ज्ञातु ं शक्नुयां शक्तिर्मे स्यादितीच्छतीत्यर्थः । 'शिक्षि विद्योपादाने ' इत्यनेनैव सिद्धे आमनुप्रयोगार्थं वचनम् तेन शिक्षांचक्रे इति भवति न तु शिक्षांचकारेति । अयमाशय: - शिक्षिधातुरिदित्त्वादात्मनेपदी तस्यैकस्वरत्वादाम् न भवति किन्तु शक्धातोः सनि शिक्षधातोरनेकस्वरत्वादामः प्रयोगे शकधातोरिदित्त्वाभावात् प्राग्वत् | ३ | ३|७४ | इति परस्मैपदम् ततः आमि” आमः कृगः । ३।३।७४ | इति परस्मैपदमेव स्यात् तद्वारणार्थमात्मनेपदं विधीयते ॥७३॥ प्राग्वत् ।३।३।७४ | समः पूर्वो यो धातुस्तस्मादिव सन्नन्तात्कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । शिशयिषते । अश्वेन संचिचरिषते ॥७४॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) ___यत् पूर्वस्य धातोरनुबन्धेनोपपदेनार्थविशेषेण वाऽऽत्मनेपदं दृष्टं तत् सन्नन्तादतिदिश्यते । शीङ् शेते शिशयिषते। सचिचरिषते="सम- . स्तृतीयया" ।३।३।३२। इत्यात्मनेपदम् ।।७४॥ आमः कृगः ॥३॥३७॥ आमः परादनुप्रयुक्तात् कृग आम एव प्राग् यो धातुस्तस्मादिव कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । भवति न भवति चेति विधिनिषेधावतिदिश्यते । ईहांचक्रे । बिभराञ्चकार । कृग इति किम् ? ईक्षामास ॥७॥ यद्याम्प्रकृतिभूताद् धातोरात्मनेपदं भवति तदा ततोऽनुप्रयुज्यमानात् करोतेरप्यात्मनेपदं भवति यदि चाम्प्रकृतेरात्मनेपदं न भवति तदाऽनुप्रयुज्यमानात् कृगोऽपि तन्न भवतीति फलितार्थः । ईहाञ्चक्रे= ईहिधातुरिदित्त्वादात्मनेपदी ततः परात् आमः परात्कृगोऽफलवत्त्यपि आत्मनेपदं भवति । अन्यथा कृगः गित्त्वात् फलवत्यात्मनेपदं स्यादफलवति च परस्मैपदं स्यात् । विभयाजकारेति इह फलवत्यप्यात्मनेपदं न भवति । यत्र तु पूर्वस्मादुभयं तत्र फलवत्यफलवति चोभयं भवति ।।७५॥ गन्धनावक्षेपसेवासाहसप्रतियनप्रकथनोपयोगे ।३।३।७६। एतदर्थत् कृगः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । गन्धनं द्रोहेण परदोषोद्घाटनम् । उत्कुरुते । अवक्षेपः कुत्सनम् । दुर्वृत्तानवकुरुते । सेवा महामात्रानुपकुरुते । साहसमविमृश्य प्रवृत्तिः-परदारान् प्रकुरुते । प्रतियत्नः गुणान्तराधानम् । एधोदकस्योपस्कुरुते । प्रकथनम्जनापवादान प्रकुरुते । उपयोगो धर्मादौ विनियोगः-शतं प्रकुरुते ॥७६॥ परदोषोद्घाटनं द्विधा परस्य सन्मार्गोपदेशाय तदीयदोषानुद् Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाटय तत्पारप्रदर्शनारिहय, तदीयापकाराय च तत्रेह द्वितीया कोटि हीतुमभिलषितेत्याह-द्रोहेण । दुर्वृत्ताः दुश्चरित्रा जना: तानवकुरुते == कुत्सयतीत्यर्थः । सेवा अनुवृत्तिः, आनुकुल्येनाऽऽचरणं प्रीत्यनुकूलव्यापार इति यावत् । प्रकुरुते विनिपातमविभाव्य तानभिमच्छतीत्यर्थः, विनिपातः ऐहिकं दुर्यशः, आमुष्मिकं नरकप्राप्त्यादिः तमविभाव्य अनेन कर्मणा मे विनिपातो भविष्यतीत्यविमृश्य तान् परदारान् अभिगच्छति स्ववशे करोतीत्यर्थः । प्रतियत्नः स्वेन रूपेण वर्तमानस्य वस्तुनो गुणान्तरस्य पूर्णगुणापेक्षयाऽन्यगुणस्याऽऽधानम् उत्पादनमित्यर्थः स्वरूपप्रच्युतस्य दुग्धादेर्दध्यादिरूपेण परिणमनं न प्रतियत्नः इति बोधयितु स्वेन रूपेण वर्तमानस्येति ज्ञेयम् । एध इत्यकारान्तशब्दः काष्ठवाची',एधचोदकं चंधोदकं तस्य एधोदकस्योपस्कुरुते, अथवा एधसिति सकारान्तः शब्दः काष्ठवाची, दकमिति उदकनाम "प्रोक्त प्राज्ञैर्भू वनविदितं जीवनीयं दकं च" इति वचनात् एधश्च दकं चैधोदकं तस्येति । प्रकथनं कथनप्रारम्भः, प्रकर्षण कथनं वा कस्यचिद्वस्तुनः सम्यक्तया प्रतिपादनमिति यावत् । जनवादान् प्रकुरुते कथयितुमारभते प्रकर्षेण कथयति वेत्यर्थः उपयोगः प्रयोगस्वाभावात् धर्मादिकृत्ये विनियोग एवोपयोगशब्देन प्रसिद्धः । शतं प्रकुरुते अब प्रशब्दमहिम्ना आत्मनेपदेन च धर्मकृत्ये विनियुक्त व्ययतीत्यर्थः ॥७६।। अधेः प्रसहने ।३।३।०७। अधेः परात्कृगः प्रसहनार्थात्कर्तर्यात्मनं स्यात् । प्रसहनं पराभिभवः परेण पराजयो वा । तं हाधिचक्रे प्रबहन इति किम् ? तमधिकरोति ॥७७॥ प्रसहनं पराभिभवः परेणापराजयो वा। परस्य शत्रोरभिभवः तिरस्कारः, परेणापराजयः स्वकीयाभिभवाभाव एव । पूर्वत्र परस्मादुत्कृष्टत्वं परत्न तस्मादनपकृष्टत्वं प्रतीयते इति विशेषः । हाधिचके तमिति प्रक्रान्तं परमुपस्थापयति ह इत्यव्ययम् । तं प्रसेहे तमभिभूतवान् तेन वा न पराजित इति यावत् । तमधिकरोति-प्रक्रान्तं कञ्चित् कस्मिांश्चद. नियोजयतीत्यर्थप्रतीत्या प्रसहनार्थाभावे नात्रात्मनेपदम्, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) प्रसहन इति पदाभावे च स्यादेवेत्याशयः ॥७७॥ दीप्तिज्ञानयत्नविमत्युपसंभाषोपमन्त्रणे वदः ।३।३।७८। एष्वर्थेयु गम्येषु वदःकर्तर्यात्मने पदं स्यात् ।दीप्तिर्मासनम् । वदते . विद्वान् स्याद्वादे । ज्ञाने-वदते धोमांस्तत्त्वार्थे । यत्ने-तपसि वदते । नानामतिविमतिः-धर्मे विवदन्ते । उपसंभाषा-उपसान्त्वनम् । कर्मकरानुपवदते । उपमन्त्रणं रहस्युपच्छन्दनम्-कुल भार्यानुपवदते ॥७॥ - दीप्तिर्मासनम् मुखविकासादिना शोभमानत्वमिति भावः । वदते विद्वान् स्याद्वादे सम्रज्ञानादनाकुलकथनाच्च विकसितमुखत्वात् दीप्यमानो विद्वान् स्याद्वादविषये वदते । विकसितमुखत्वे च हेतुद्वयमुपात्तं सम्यग्ज्ञानादनाकुल-कथनाच्च बिषयमसम्यग्जानानो हि सन्दिग्धमना: संकुचितमुखो भवति, परप्रतारणार्थं यथाकथंचित्स्त्रमतप्रतिपादनार्थं वा वदन्नपि विषयसम्यग्ज्ञानाभावात् स्वनिग्रहं शङ्कमानो विवर्णभुखो भवत्येवेति मुखविकासाय सम्यग्ज्ञानमावश्यकम् । सम्यग्जानानोपि सम्यक्प्रतिपादयितुमशक्तो विवर्णमुखो भवतीत्यतः उक्तमनाकुलकथनाच्चेति । अनाकुलमसंकीर्णं यथा स्यात्तथा कथनात्प्रतिपादनाच्च विकसितमुखत्वम् । ज्ञानमवबोधः-विषयस्य यथार्थाधिगतिरवबोधः, वदते धीमस्तित्त्वार्थ == ज्ञाल्वा वदतीत्यर्थः । यत्नः--उत्साहः, स्थेयान संरम्भ, कस्वापि कार्वम्य कृते स्थिरतमं प्रावीण्यमिति यावत् । तपसि वदतेतद्विषयकमुत्साह वाचाऽऽविष्करोति । नानामतिविमतिः एकत्र धर्मिणि विभिन्नप्रकारा प्रतिपत्तिरित्यर्थः । धर्म विवदन्ते विमतिपूर्वकं विचित्रं भाषन्ते, विविध मन्यन्ते इतिवार्थः । उपसंभाषा=उपसान्त्वनम् केनापि कारणेन पीडितमनस सन्तोषाय वाक्प्रयोग एवोपसान्त्वनम् । कर्मकरानुपवदते=पूर्व . स्वेनैव भत्सितान् तान् उपसान्त्वयति, साम्ना प्रकृतिस्थान् करोतीत्यर्थः । उपमन्त्रणम् = रहस्युपच्छन्दनम्, आनुकूल्येनोपलोभनमुपच्छन्दनम् कुलभार्यामुपवदते= रहस्युपलोभयतीत्यर्थः ।।७८॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तवाचां सहोक्तौ ।३।३।६। व्यक्तवाचो रुढया मनुष्यादयस्तेषां सम्भूयोच्चारणार्थाद् वदः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संप्रवदन्ते ग्राम्याः। व्यक्तवाचामिति किम् ? संप्रवदन्ति शुकाः। सहोक्ताविति किम् ? चैत्र णोक्त मैत्रो वदति ॥७॥ • व्यक्ता व्यक्ताक्षरा वाग्येषां ते व्यक्तवाच: । न ध्वनिमात्रस्य व्यक्तत्चेत व्यक्तवाक्त्वस्वी क्रियते किन्तु येषां वाचि कादिवर्णाः स्फुटं प्रतीयन्ते ते एव व्यक्तवाचः इति कथ्यन्ते । ननु पक्ष्यादिशब्देष्वपि लोकैस्तत्तदक्षरव्यक्ति-भावस्यानुभीयत्वात् शुकादीनां वाच्यपि स्फुटतरवर्णोपलव्धेः सर्वेषामपि जीवानां व्यक्तवाक्त्वं स्यादिति चेत्सत्यमत, एवोक्त रुढ्या मनुष्यादयः। किञ्च शुकादीनां वाचि अकारादयो वर्णा अपि व्यक्ता भवन्ति अत एव कुक्कुटेनोक्त कुकू डति वदति, कोकिलोक्त कुरिति वदति इत्येवं जनाः कथयन्ति। यदि कादिवर्णव्यक्तिस्तत्र न स्याहि कथमेवमुक्तिः सङ्गच्छेतेति व्यक्ताक्षरा वाग्येषामिति कथनधि न निस्तार इति. मनुष्यादियु कढिराश्रिताः । सहोक्तौ सम्भूय बहुभिमिलित्वा शब्दोच्चारणे । सम्प्रवदन्ते सम्भूय भाषन्ते इत्यर्थं ॥७६।। विवादे वा ।३।३।१०। विरुद्धार्थो वादो विवादः व्यक्तवाचां विवादरूपसहोक्त्यर्थांद् वदः कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । विप्रवदन्ते, विप्रवदन्ति वा मौहूर्ताः । विवाद इति किम् ? संप्रवदन्ते वैयाकरणाः। सहोक्तावित्येवमौहूर्तो मौहूर्तेन क्रमाद् विप्रवदति ॥८०॥ तत्त्वनिर्णयायकत्र विषये परस्परविरुद्धा अर्था अभिधेया यत्र स विरुद्धार्थो वादः वाक्प्रयोगो विवाद इत्यर्थः । विप्रवदन्तें विप्रवदन्ति वा मौहूर्ताः एकेऽपरेषां मतं प्रतिषेधयन्तः युगपद्विरुद्धं वदन्तीत्यर्थ । सम्प्रवदन्ते वैयाकरणाः सम्भूय वदन्तीत्यर्थः । ‘क्रमाद् विप्रवदति विरुद्धा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिधानमात्रमिह प्रतिपादनेच्छाविषयं न तु विमतिपूर्वकम् तेन “दीप्ति० ।३।३७८। सूत्राद्विमतिलक्षणमप्यात्मनेपदं न भवति ॥८०॥ अनोः कर्मण्यसति ।३।३।८१॥ व्यक्तवाचामर्थे वर्तमानादनुपूर्वाद् वदः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । अनुवदते चैत्रो मैत्रस्य । कर्मण्यसतीति किम् ? उक्तमनुवदति । व्यक्तवाचामित्येद-अनुवदति वीणा ॥१॥ ____ व्यक्तवाक्सहोक्तौ इति समासेन लाघवात् निर्देशे कर्तव्ये व्यक्तवाचां सहोक्ताविति व्यासेन निर्देशः तावन्मात्रस्यापि क्वचित्सम्बन्धं सूचयति तेनान व्यक्तवाचामित्येवानुवर्तते। अनुः सादृश्ये पश्चादर्थे वा। अनुवदते चैत्रो मैत्रस्य यथा मैत्रो वदति तथा चैत्रो वदतीत्यर्थः अथवा मैत्रेण पूर्वमुक्त पश्चाद् वदतीत्यर्थः । ननु लाघवानुरोधेन अनोरकर्मकान्' इत्येव सूतयतां तथा सति वद इत्यनेन सामानाधिकरण्येनान्न्योऽपि सम्पत्स्यते इति चेत्सत्यम् । कर्मण्यसतीति वैयधिकरण्येन निर्देश: उत्तरत्र सूत्रे 'शब्दे', 'स्वेङ्ग च कर्मणि इति लाघवेन प्रतिपत्त्यर्थः । अयमाशयःकर्मण्यसतीति परत्रानुवर्तते तत्र क्वचित्केवलं कर्मणि' इत्यस्य 'असति' इत्यनेनैव सम्वन्धः, क्वचिच्च तस्याऽऽवृत्त्याऽन्येनाऽपि सम्बन्धः क्तुं शक्यते यथा 'वेः कृगः शब्दे चानाशे' ।३।३।८५। 'आङो यमहनः स्वेऽङ्ग च' ।३।३।८६। इत्यनयोः सूत्रयोरनुवृत्तं कर्मण्यसतीति परद्वयं सम्बध्यते, अथ च तत्रत्य 'कर्मणि' इत्यावृत्तं सत् 'शब्दे' इत्यनेन 'स्वेऽङ्गे' इत्यनेन च सम्बध्यते । शब्दरूपे कर्मणि च सति, स्वाङ्गरूपे कर्मणि च सति इत्यप्यों प्राप्यते । अत्राकर्मकादित्युक्तौ तु तत्रापि शब्दकर्मकाद् स्वाङ्गकर्मकादिति च निर्देशः कर्तव्यः स्यात् इति गौरवरूपो दोषः प्रसज्येतेति प्रकृतनिर्देश एव लाघवम् । तथा च कर्मण्यसतीति व्यधिकरणमेव धातूनामिहोपात्तम् ।।८१॥ ज्ञः ।३।३।२। जानातेः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । सर्पिषो जानीते । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' कर्मण्यतीत्येव - तैलं सर्पिषो जानाति ॥ ८२ ॥ सर्पिषो जानीते - सर्पिषा कारणेन भोक्त प्रवर्तते इत्यर्थः " अज्ञाने ज्ञः षष्ठी ||२०| इति षष्ठी, मिथ्याज्ञानार्थो वा जानातिः सर्पिषि रागवात् द्वेषवान् वोदकादिषु सर्पिष्टया ज्ञानवान् भवतीत्यर्थः । रांगोऽत्यासक्तिः । रागाद् द्वेषाद् वा मिथ्याज्ञानं जायते । अतस्मिन् तद्बुद्धिमिथ्याज्ञानम् । उदकादी सर्पिष्ट्वरहिते सर्पिष्ट्वेन ज्ञानं मिथ्याज्ञानमे । रागो द्वेषो वा स्वविषयमेव सर्वत्र दर्शयति यथा स्त्रीरक्तस्य सर्वं जगत् तन्मयमेव प्रतिभाति, कृष्णद्वेषी कंसः सर्वत्र कृष्णमेवापश्यत् इति प्रसिद्धिरस्ति । तैलं सर्पिषो जानाति तैलं सर्पिष्टया जानातीत्यर्थः यद्यपि तैलसर्पिषोरुद्द श्यविधेयभावेन समानविभक्तित्वे तैलं सर्पिजनातीof प्रयोगो भवति अत्र तु सम्बन्धविवक्षया षष्ठी ॥ ८२ ॥ = उपात्स्थः ।३।३।८३। अतः वर्जण्यसति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । योगे योग उपतिष्ठते । कर्मण्य सतीत्येव - राजानमुपतिष्ठति ॥ ८३ ॥ योगे योग उपतिष्ठते = इह उभयं सप्तम्यन्तं किञ्चित्पदं प्रति - योगमुपस्थितं भवतीत्यर्थः, एकं सप्तम्यन्तमपरं प्रथमान्तमिति वा एकस्मिन् योगेऽपरो योग उपतिष्ठते इत्यर्थः । उपतिष्ठते = संनिधीयते दधातेः कर्मकर्तरि, धीङ्च् अनादरे इत्यस्य वा रूपमिदम् धातूनामनेकार्थत्वेन च विवक्षितार्थलाभः । राजानमुपतिष्ठति = राजसमीपं गच्छतीत्यर्थः राज्ञः कर्मत्वान्नात्मनेपदम् ||८३|| समो गमृच्छिप्रच्छिवित्स्वरयतिदृशः | ३ | ३|८४ | संपूर्वेभ्य एभ्यः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । सङ्गच्छते समृच्छिष्यते । संपृच्छते । संशृणुते | संवित्ते । संस्वरते । समृच्छते । समियते । संपश्यते । कर्मण्यसतीत्येव सङ्गच्छति मंत्रम् ॥८४॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) सङ्गच्छते=सामञ्जस्यं प्राप्नोतीत्यर्थः । समृच्छिष्यते = ऋच्छ" धातुस्तीदादिकः 'ऋछत् इन्द्रियप्रलयमूर्तिभावयोः, अतरपि शिति "श्रीतिकृवु० ।४।२।१०८। इत्यनेन ऋच्छादेशविधानाद्रूप साम्यमिति ऋच्छे रभिव्यक्त्यर्थम् अशित्युदाहृतम् । संवित्त - गम्यादयो दृश्पर्यन्ताः सर्वे एव नित्यपरस्मैपदिनः तन्मध्ये विद्धातुः पठ्यते, अयं च ज्ञानार्थ एव नित्यपरस्मैपदी, सत्तायां विचारणे चाऽऽत्मनेपदी, प्राप्तावुभयपदीति, नित्यपरस्मैपदिभिः साहचर्यात् ज्ञानार्थस्यैव विदेग्रहणम् । ज्ञानार्थस्य रूपमिदमत्यस्य तु यथायथं संपूर्वस्यापि नित्यं पाक्षिकं वाऽऽत्मनेपदम् । संस्वरते = स्व शब्दोपतापयोः । अर्तीति सामान्य निर्देशात् भ्वादिरदादिश्च गृह्यते उभयोः परस्मैपदित्वेन परस्मैपदिसाहचर्यस्य नियामकत्वाप्राप्तेः । साम्यात् ह्रस्वस्यैव ग्रहणात् ऋश् गतौ इति क्रयादिस्तु न गृह्यते । अत्र सूत्रे कस्य - चित् धातोः स्वरूपेण कस्यचिद् इप्रत्ययान्तत्वेन निर्देशो दृश्यते, लाघवेन स्वरत्यत्त्र्त्योरपि तथैव निर्देशस्यौचित्ये तिवा निर्देशो यङ्लुब्निवृत्त्यर्थः । अन्यथा “प्रकृतिग्रहणे यङ्लुबन्तस्यापि ग्रहणम्” इति न्यायेन यङ्लुबन्तेऽप्यात्मनेपदप्रवृत्तिः स्यात्, ऋच्छेस्तु व्यञ्जनादित्वाभावातू यङव न भवति, यवन, कुतो लुप्, अन्येभ्यः गम्यादिभ्यस्तु यङ्लुबन्तेभ्योऽप्यात्मनेपदं भवत्येव ॥ ८४ ॥ वे: कृग: शब्दे चानाशे | ३ | ३ |८५। अनाशार्थाद् विपूर्वात्कृगः कर्मण्यसति शब्दे च कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । विकुर्वते सैन्धवाः । क्रोष्टा विकुरुते स्वरान् । शब्दे चेति किम् ? विकरोति मृदम् । अनाश इति किम् ? विकरोत्यध्यायम् ||८५|| विकुर्वते सैन्धवाः - सिन्धुदेशोद्भवा अश्र्वविशेषाः गतिविशेपेषु शिक्षिताः विविधमाचरन्तीत्यर्थः । क्रोष्टा विकुरुते स्वरान् = क्रोष्टा. शृगालो नानविधान् स्वरान् करोतीत्यर्थः । विकरोत्यध्यायम् = अध्यायम् अध्ययनं विनाशयतीत्यर्थः ॥ ८५ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६ ] * आङो यमहनः स्वेङ्ग च ।३।३।८६॥ आभ्यां पराभ्यां यम्हन्भ्यां कर्मण्सति कतुः स्वेऽङ्ग च कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । आयच्छते, आहते वा । स्वेऽङ्ग-आयच्छत, आहत वा पादम् । स्वेऽङ्ग चेति किम् ? आयच्छति रज्जुम् ॥८६॥ .. - स्वाङ्ग इति समस्तनिर्देशे पारिभाषिकस्वाङ्गप्रतिपत्तिः स्यादित्यसमस्ताभिधानम् अयमाशयः स्वाङ्ग द्विधेह ख्यातम्-यौगिकं पारिभाषिकं च। तत्र यौगिकं स्वस्याङ्गस्वाङ्गम् । पारिभाषिक यथा= .. अविकारोऽद्रवं मूर्त प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते । . च्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं च प्रतिमादिषु॥ अस्यार्थः-विकारो वातादिक्षोभजन्मा शोकादि: तजिन्नमद्रवं मूतिमत् स्वाङ्गम्, अविकारादिलक्षणयुक्त प्राणिस्थत्वाभावेऽपि प्राणिनश्च्युतं चेत्तदपि स्वाङ्गम्, प्रतिमादिषु स्थितं प्रथमलक्षणलक्षितस्वाङ्गसदृशस्वाङ्गमपि स्वाङ्गम् । एतत्पारिभाषिकस्वाङ्ग व्याकरणशास्त्रे प्रसिद्धम् । स्वाङ्गशब्देनोभयोरर्थयोरुपस्थितौ "कृत्रिकाकृत्रिमयोः कृत्रिमे कार्यसंप्रत्ययः" इति न्यायेन 'रूढिर्योगाद् बलीयसी' इति न्यायेन वा स्वाङ्गपदेन पारिभाषिकस्वाङ्गस्यैव ग्रहणं तन्मा भदित्यसमस्तरूपेण 'स्वेऽङ्ग इति निर्दिष्टम् । आयच्छते स्वयमेव दीर्घाभवतीत्यर्थः आहते=यत्किञ्चिदाहन्तु प्रवर्तते इत्यर्थः । आयच्छते पादम्=पादं दीर्धीकरोतीत्यर्थः । आहते पादम्=पादं ताडयतीत्यर्थः ॥८६॥ व्युदस्तपः ।३।३।८७) आभ्यां परात्तपेः कर्मण्यसति स्वेऽङ्ग च कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । वितपते । उत्तपते रविः। वितपते। उत्तपते पाणिम् . ॥१७॥... वितपते उत्तपते रविः दीप्यते इत्यर्थः वितपते उतपते पा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) णिम् = तापयतीत्यर्थः । अग्न्यादिसम्पर्केणापगतशैत्यं करोतीति भाव: 115011 अणिक्कर्म णिक्कर्तृकाणिगोऽस्मृतौ | ३ | ३८८ | अगिवस्थायां यत्कर्म तदेव णिगवस्थायां कर्ता यस्य तस्मादगितादस्मृत्यर्थात् कर्तयत्मनेपदं स्यात् । आरोहयते हस्ती हास्तिपकान् । अणिगितीति किम् ? आरोहयति हस्तिपकान्महामात्रः । आरोहयन्ति महामात्रेण हस्तिपकाः । गित्किम् ? गणयते गणो गोपालकम् ? कर्मेति किम् ? दर्शयति प्रदीपो भृत्यान् । णिगिति किम् ? लुनाति केदारं चैत्रः । लूयते केदारः स्वयमेव, तं प्रयुक्त लावयति केदारं चैत्रः । कर्तेति किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः तानारोहति महामात्रः । णिगं इति किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः तानेनमारोहयते हस्तीत्यणिगि मा भूत् । अस्मृताविति किम् ? स्मरयति वनगुल्मः कोकिलम् lissil आरोहयते हस्तीति- अवानुकलाचरणं पादार्पणशिरोधननादि । हस्तिपका : हस्तिन उपर्यागच्छति तांस्तदनुकूलाचरणेनाऽऽगमयतीत्यर्थः । इयं furrr | आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपका इत्यणिगवस्था | आरोहयति हस्तिपका महानात्रः - प्रधान हस्तिपक: महामात्र उच्यते, आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः, आरोहतो हस्तिपकान् महामात्रः प्रेरयतीत्यवस्थायां प्रथमं णि, आत्मनः आरोहयन्तं महामात्रं हस्तिपकाः प्रेरयन्तीत्यर्थविवक्षाया पुनर्णिग् । द्वौ णिगौ । अत हस्तिपकः णिगवस्थायां कर्मास्ति अणिगवस्थायां नास्ति । गणयते - गणयति गणं गोपालक इति अणिगवस्था, चुरादित्वात्स्वार्थे णित्रु । गणयन्तं गोपालकं गणः प्रेरयतीति विवक्षायां for सति अणिक्कर्मणो गणस्य णिगवस्थायां कर्तृत्त्वसत्त्वाद्भवत्येवात्मनेपदम् । गित्करणाभावे च गणयति गगं गोपालक इत्यस्याण्यन्तत्वाभावेन तत्र कर्नगो गणस्य मिगन्तावस्थायां कर्तृत्त्वसत्त्वेऽपि न स्यादात्म Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ ] नेपदम् । दर्शयति कर्मेति कथनात्करणादेः कर्तृत्वे न भवति । पश्यन्ति भृत्याः प्रदीपेनेत्यणिंगवस्था। लावयति=णिगिति भणनात् यत्राणिगवस्थायामेव कर्मणः कर्तृ त्वं विवक्षितं तत्राणिक्कर्म कर्ताऽस्ति तादृशकर्तृ काद् धातोः प्रयोजकव्यापारविवक्षायां णिगि कृते आत्मनेपदं नः भवति । लुनाति केदारं चैत्रः यदा कर्मण एव सौकर्यातिशयद्योतनार्थं कर्तृत्वं विवक्ष्यते तदा लूपते केदारः स्वयमेवेति “एकधाती कर्मक्रिययकाऽकर्मक्रिये" ।३।४॥८६॥ इत्यात्मनेपदं क्यश्च भवति अत्रैव प्रयोजकव्यापारक्विक्षायां लावथति केदारं चैत्रः । णिगित्युपादानादत्राफलवत्कर्तरि लावयतीति परस्मैपदमेव भवति । णिगित्यस्याभावे तु फलवत्यफलवति च सर्वत्र त्मनेपदमेव स्यात् । अणिगि मा भूदिति-णिग इत्यनुक्तो अणिक्कर्तृ कपदेन मूलभूतो धातुरेव ग्रहीष्यतेऽन्यस्यानुपस्थितेरिति यस्य धातोरणिगवस्थाव मत्वम् णिगवस्थाकर्तृ त्वं स्यात् तस्मादणिगन्ताद् णिगन्ताद् वाऽऽत्मनेपदं भवतीति सूत्रार्थे सति यथा णिगन्तादात्मनेपदं भवति तथाऽणिगन्तादपि प्रथमावस्थायामेव "आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः” इत्यत्रापि आत्मनेपदं स्यात् । स्मरयति स्मरति वनगुल्मं कोकिल इत्यणिगवस्था ॥८॥ प्रलम्भे गृधिवञ्चेः ।३।३।१६।. आभ्यां णिगन्ताभ्यां प्रलम्भनार्थाभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । वटुं गीतते, वञ्चयते वा। प्रलम्भ इति किम् ? श्वान गर्द्ध यति ॥६॥ ... णिगो गित्त्वेन फलवत्यात्मनेपदे सिद्धेपि अफल (ति तदसिद्धयाऽनेनाऽऽत्मनेपदं विधीयते । अत्र यत्र यत्र णिगन्तादात्मनेपदविधानं तत्र सर्वत्राफलबदर्थम् । गर्द्ध यते विप्रतारयतीत्यर्थः, वञ्चयते विप्रतारयतीत्यर्थः किञ्चिद् वस्तु दीयमानत्वेन प्रदाप्रदानं विप्रतारणमुच्यते । गृधिदिवादिः, वउिचञ्चुरादि: बटुग्रुध्यति चैत्रो बटु वञ्च्यते गृध्यन्तं वनयन्तं वा प्रयुक्त इत्यर्थे णिग् । गधच अभिकांक्षायाम, वञ्निण् प्रलम्भने । गर्द्ध यति प्रलोभयतीत्यर्थः किमपि भोज्यं वस्तु प्रदाभिकाङ्कामस्योत्पादयति । अत्र प्रदर्श्यमानेन वस्तुना न तस्य प्रतारणमपि तु तद्ग्रहणार्थमेव रुच्युत्पादनम् ॥६॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] लोलिनोऽर्चाभिभवे चाच्चाकर्तर्यपि ।३।३।६०। आभ्यां णिगन्ताभ्यामर्चाभिभवप्रलम्भार्थाभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं स्यादाच्चानयोरकर्तर्यपि । अर्चा जटाभिरालापयते । अभिभवः-श्येनो वर्तिकामपलापयते । प्रलम्भः-कस्त्वामुल्लापयते । अकर्तर्यपीति किम् ? जटाभिरालाप्यते जटिलेन ॥६॥ ङिच्छ्नानिर्देशौ यौजादिकनिवृत्त्यर्थः="लीच् श्लेषणे" इति दिवादिः, ‘लींश श्लोषणे' इति क्रयादिः उभयोरेकरूपत्वात् 'लियः' इत्येवंरूपेण निर्देशे लाघवम्, तदनादृत्यापि गौरवग्रस्तोऽनुबन्धेन विकरणेन च सह निर्देशः चुराधन्तर्गतयुजादिपठितस्य ‘लीण् द्रवीकरणे' इत्यस्याग्रहणार्थः ।' लीङलिनो० ।४।२।६। इति सूत्रेऽपि ङिच्छनानिर्देशादात्त्वमपि "लीण" इत्यस्य नेष्टम् । आत्मनेपदं कर्तरि विधीयते तत्सन्नियोगशिष्टमात्त्वमपि कर्तरि प्रत्यये सत्येव स्यात्, दृश्यते च कर्मणि प्रत्ययेऽपीति तत्सिद्वै आह= अकर्तर्यपि । आलापयते परैरात्मानं पूजयतीत्यर्थः। पूज्यत्वबुद्धया परे आलीयन्ते श्लिष्यन्ति तान् भिक्षुर्जटाभिरालापयति । अपलापयते अभिभवतीत्यर्थः, श्येनः क्षुद्रपक्षिहिंसक: प्राणिविशेषः, वर्तिका क्षुद्रशकुनिविशेषः। वर्तिका भयादपलीयते तां श्येनोऽपलापयते । अत्राभिभवस्य आक्रमणस्य तिस्कारस्य वा सत्त्वादात्मनेपदम् । उल्लापयतेवञ्चयते इत्यर्थः, कश्चित्परेणोपन्यस्तं स्वप्रवर्तक कञ्चन विषयं कस्मैचित्कथयति तदवगत्यासौ तमाह कस्त्वामुल्लापयते त्वां कः वञ्चयते इति कथय । अत्र त्वमुल्लीयसे नं कश्चित्प्रेरयतीत्यर्थविवक्षा ॥६०॥ . स्मिङः प्रयोक्त : स्वार्थे ।३।३।६१॥ प्रतोक्त तो यः स्वार्थः स्मयस्तदर्थाण्णिगन्तास्मिङः कर्तर्यात्मनेपदं स्याच्चास्याकर्तर्यपि । जटिलोविस्मापयते । प्रयोक्तः स्वार्थ इति किम् ? रूपेण विस्माययति । अकर्तर्यपीत्येवविस्मापनम् ॥६ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] विस्मापयते बालो विस्मयते तं जटिलः प्रेरयति, अत्र जटिलः प्रयोक्ता तत एव स्मयो न तु कारणान्तरादिति भवत्यात्त्वात्मनेपदं च । विस्माययति कश्चित्स्वकीयरूपेण करणेन विस्मितं करोतीत्यर्थे रूपस्यैव विस्मयजनकत्वम् । प्रयोक्त : स्वार्थे इति कथनात् करणात्स्वार्थेन भवति । ङिन्निर्देशाद् यङ्लुपि न भवति ॥६१॥ बिभेतीष च ।३।३।६२॥ प्रयोक्तं तः स्वार्थवृत्तय॑न्ताद्भियः कर्तर्यात्मनेपदं स्यादस्य च भीष पक्षे आच्चाकर्तर्यपि। मुण्डो भीषयते, भापयते, भापयते, वा । प्रयोक्त : स्वार्थ इत्येव । कुञ्चिकया भापयति । अकर्तर्यपीत्येव-भीषा, भापनम् ॥१२॥ भीषादेशपक्षे आत्त्वस्य न प्रवृतिरवकाशाभावादिति आदेशद्वयविधानाय बिभेतेरिति आवर्तनीयम् । एकत्र स्थानषष्ठी, अपरत्र चावयव षष्ठीति बिभेतेः स्थाने भीष्, बिभेतेरन्तस्य चाऽऽत्त्वमित्यर्थाश्रयणात् विनापि विकल्पवचन विधेयद्वयावकाशाय भीषादेशस्य पाक्षिकत्वं पर्यवस्यति । अकर्तर्यपीत्यस्य भीषादेशेनापि सम्बन्धः स्वीकार्य एव तुल्ययोगक्षेमत्वात् । तथा चोदाहरणे स्पष्टमेव । भीषयते बालो बिभेति बिभ्यतं तं मुण्डो भीषयते । अत्र णिग् पक्षे आत्वानुकूलं रूपमाह- भापयते । भापयति अत्र कुञ्चिका भयस्य करणं न तु प्रयोक्त्री। करणात् धात्वर्थस्य भयस्योत्पत्ति विवक्षायां न भवत्यात्मनेपदं न वा भीषादेशात्त्वे भवतः इति भावः । भीषा, भापनमू-बिभेतेणिगन्ताद् भावे "भीषि-भषि". ।५।३।१०६। इत्यङि प्रत्ययेऽपि भीषादेशो भवति । भावप्रत्ययेऽनटि अपि भवत्त्यात्त्वम् । सूत्रे तिनिर्देशाद् यङ्लुपि न भवति ॥६२॥ मिथ्याकृगोऽभ्यासे ।३।३।६३। मिथ्यायुक्तात्कृगो ण्यन्तात्क्रियाभ्यासवृत्त्यर्थात्कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । पदं मिथ्या कारयते। मिथ्येति किम् ? पदं साधु कार Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] यति । अभ्यास इति किम् ? सकृत्पदं मिथ्या कारयति ॥३॥ मिथ्यायुक्तञ्चासौ कृग् मिथ्याकृग् तस्मादिति विग्रहे मयूख्यंसकादित्वान्मध्यमपदलोपिसमासः । अभ्यासः=असकृदावृत्तिः । कारयतेस्वरादिदोषदुष्टमसकृदुच्चारयति पाठयतीत्यर्थः । मिथ्याभूतं पदं कश्चिकरोति उच्चरति तमन्यः प्रयुक्त इति णिग्। स्वरः उदात्तादिः तद्विषयको यो दोषः उदात्तस्थानेऽनुदात्तस्य स्वरितस्य वा प्रयोगः स्वरितादिस्थाने उदात्तादेः प्रयोगो वा स्वरदोषः । उदातादीनां वेदमात्रविषयतायाः सत्त्वात् स्वमते उदात्तादीनामपरिभाषणाच्च ह्रस्वत्वदीर्घत्वपरिवृत्तिरेव दोषत्वेन ग्रहीतुं शक्यते, व्यञ्जनदोषेऽपि स्थानप्रयत्नपरिवृत्तिकृत एव दोषो ग्राह्यः । कारयतिन्अत्र सकृत्पदसान्निध्यादभ्यासार्थाभावः स्फुट एव ॥६॥ परिमुहायमायंसपाधे-वद-वस-दमाऽऽद-रुच-नृतः फलवति ।३।३।६।। प्रधानफलवति कर्तरि एभ्यो विवक्षितेभ्यो णिगन्तेभ्यः आत्मनेपदं स्यात् । परिमोहयते चैत्रम्। आमामयते सर्पम् । आयासयले मैत्रम् । पाम्पते बटुम् । धापयले शिशुम् . वादयते । बदुम् । वासयते । पान्थन् । दमयते अश्वम् । आदयते चत्रण । रोचयते मैत्रय । नत्तयते नटम् ॥१४॥ फलवतीति-अत्र भूम्न्यतिशायने वा मतुः अत एवोक्तम्प्रधानफलवतीति । मतोरर्थाः निम्नकारिकायाः ज्ञेयाः। भूमनिन्दाप्रशंसासु, नित्ययोगातिशायने । संसर्गेऽस्ति विवक्षायां, प्रायो मत्वादयोमताः॥ यत्क्रियायाः प्रधानं फलमोदनादिः यदर्थमियमारभ्यते तद्वित कर्तरि विवक्षिते इत्यर्थः । क्रियायाः फलं द्विविधम् प्रधानमप्रधानं च यथा पचतीत्यादौ प्रधानं फलमोदनसम्पत्तिः तस्याः क्रियान्तरेणासाध्यत्वात्, अप्रधानं फलं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] पक्त : स्वामिप्रीतिः, भृतिलाभो वा । यत्र पक्ता प्रधानेन फलेनौदनेन सम्बध्यते तत्रैव पचते इति प्रयोगो भवति यत्रान्यार्थं पाकः तत्र तु पचतीत्येव प्रयोगः । उक्त च-'यस्यार्थस्य प्रसिद्ध्यर्थमारभ्यन्ते पचादय । तत् प्रधानं फलं तेषां, न लाभादि प्रयोजनम् ।।' कारिकार्थः-अत्र पचादयः इत्युत्तरमेवकार अध्याहार्यः यस्यार्थस्य प्रसिद्धयर्थं पचादय एवाऽऽरभ्यन्ते न क्रियान्तराणि, तत् तेषां प्रधानं फलम्, लाभादिप्रयोजनं तु प्रधानं फलं न तस्य क्रियान्तरेणापि संभवात्, पाचकेन यद् वेतनं पचिक्रियार्थं लभ्यते तावदन्यकार्यकरणेऽपि लब्धं शक्यत एवेति लाभो न पचिक्रियायाः प्रधानं फलं भवितुमर्हति । प्रधानफलवत्त्वं च विवक्षाधीनं यत्र कर्तुं रौदनेन फलेन सम्बन्धो विवक्षितस्तत्रैव तस्य फलवत्त्वम्, तत्रैव ईदित्वप्रयुक्तमात्मनेपदं भवति पचते इति यत्र च पाचकानां लाभादिप्रयोजनं विवक्षितं तत्र पचन्ति पाचका इत्यायेद । परिमोहयते--परिमोहनस्य प्रधानं फलं चित्तविक्षेपः तेन च परिमोग्धा चैत्रः सम्बध्यते एवेत्यस्ति फलवत्त्वं कस्तथैव विवक्षितत्वात् । परि-- मुह-णिग् । आयामयते आपूर्वाद् यमेणिग्, सर्प आयच्छति दी| भवति तं प्रेग्यतीत्यर्थः । अत्रापि प्रधानस्य क्रियाफलस्य सर्पण सम्बन्धः । यद्यपि चैत्रसादयः सम्प्रति कर्मतां गतास्तथापि वस्तुतस्तेषां धातुत्वं प्रति कर्तृत्वमेवेति मलधानोरेब कर्तुः फलवत्त्वं विवक्षितं न तु णिगन्तस्य । णिगन्तकर्तु : प्रयोजकत्वेन तस्य धात्वर्थकर्तृत्वाभावात् । कश्चित् “यमः परिवेषणे" इति पठति तन्मताभिप्रायेण न हस्वः, स्वमते तू “यमोऽपरिवेषणे" ।४।२।२६। इति भवलोव । आयासयते- मैत्र आयस्यति त चैत्रः प्रेरयते । 'यसूच प्रेरणे' इति दिवादिपटितो यस्धातुः । पाययते बटुः पिबति तं प्रेरयति । पानक्रियायाः फलं द्रवद्रव्यस्य गलबिल वःसंयोगः तेन न फलेन कर्तृ : सम्बन्धः । धापयते-धेधातूरपि पानार्थः शिशूर्धयति तं धात्री प्रेरयति । वादयते बटुर्वदति 'अम्ब' इत्यादिशब्दमुच्चारयति तं स्वजनः प्रेरयति अम्ब इत्यादिशब्दोच्चारणे प्रवर्तयतीत्यर्थः । वासयते-- पान्थो दिनान्ते कस्यनिद् गहे बसति तं गहपतिर्वासयति । दमयतेअश्वो दाम्यति तं सादी प्रेरयति । आदयते--अत्ति चैत्रः तं मैत्रः प्रेरयति, अत्राणिगवस्थाकर्तृ श्चैत्रस्य णिगवस्थायां प्राप्तमपि कर्मत्वं गतिबोधा० ।२।२॥५॥ सूत्रे ‘अनीखाद्यदि०' इत्यादिपर्यु दासान्न भवतीति कर्तरि तृतीयैव भवति । रोचयते--- मैत्रो रोचते तमन्यः प्रेग्यति । नर्तयते-नटो Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृत्यति तमन्यः प्रवर्त यति । ननु णिगो गित्त्वेन 'ईगितः ।।३।६५ इत्यग्रिमसूत्रेणैव फलवत्कर्तृ तायां संभवत्येवात्मनेपदमिति प्रकृतसूत्रस्य वैयर्थ्य मिति चेत् अत्रोच्यते पिबत्यत्तिधेधातूनामाहारार्थत्वाददासीन्यनिवृत्यर्थतायामकर्मकत्त्वाच्च नृतेश्चलनार्थवाच्च शेषाणां स्वरूपतो विवक्षातो वाऽकर्मकत्वादुत्तराभ्यां परस्मैपदे प्राप्ते वचनम्। __ अत्र भाव:-पिबतिः पानार्थक: (अत्र सूत्रे धेसाहचर्यात्पिबते ग्रहणं न पातेः) अत्तिः भक्षणार्थः, धेधातुरपि पानार्थ एव । एषामहारार्थत्वात् “चल्याहारा०।३।३।१०८। इत्यनेन परस्मैपदप्राप्तिः, नृत्तात्र- . विक्षेपार्थस्य चलनार्थत्वमिति तस्याप्युक्तसूत्रेणैव परस्मैपदप्रप्तिः, अन्येषां वस्-यम्-यस्-दम्-रुच् धातूनां स्वाभावादेवाकर्मकत्वम् (अत्र सूत्रे वदसाहचर्यात् 'वस' इति वसते हणं न तु वस्तेः ।) वदेश्च विवक्षातोऽकर्मकत्वमिति 'अणिगि प्राणि'० ।३।३।१०७। सूत्रेण परस्मैपदं प्राप्तमिति तत्प्रबाधनाय विशिष्यानेनात्मनेपदाविधानम् ।।१४।। ईगितः ।३।३६५॥ ईदितो गितश्च धातोः फरवति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । यते कुरुते । फलवतीत्येव-यजन्ति । कुर्वन्ति ॥६५॥ यजते---यजधातु कारेत् देवपूजाद्यर्थः, देवपूजादेः प्रधानं फलं मोक्षः अप्रधानं तु इहलोकपरलोकेष्टफलसिद्धिः। पूजकस्य मोक्षभावें विवक्षितेऽनेनाऽऽत्मनेपदं भवति । कुरुते--कृग् करणे भ्वादिः । फलवत्त्वं विवक्षाधीनमेव गृह्यते तथैव लोके व्यवहारात् । व्याकरणमपि हि लोकप्रसिद्धशिष्टव्यवहारमेवानुविधत्ते न तु किञ्चिन्न तनं शास्ति । अविवक्षावशात् सतोऽप्यसत्त्वम्, असतोऽपि विवक्षावशात्सत्त्वमभिधीयते ॥६५॥ ज्ञोऽनुपसर्गात् ॥३॥३॥६६॥ अतः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । गां जानीते । फलवतीत्येव । परस्य गां जानाति ॥६६॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) ___ अकर्मकात् पूर्वेण 'ज्ञः' ।३।३।८२। इत्यनेनैव सिद्ध सकर्मकार्थ वचनम्। अनुपसर्गात्-नत्रः प्रसेज्यप्रतिषेधपरत्वमेव स्वीकार्यम्, पर्युदासपरत्वे हि उपसर्गभिन्नात् कस्माच्चिदपि परत्वे सत्येवात्मनेपदं स्यात् तच्च नेष्टं केवलादेव विधानस्येष्टत्वात् । तथा चान्यपूर्वकात्प्राप्तिरेव नास्ति, तेनं सह धातोः सामर्थ्याभावात् उपसर्गपूर्वकादस्ति प्राप्तिसंभवस्तस्यानेन निषेधः क्रियते । ___जानाति--परकीयगव्या अवेक्षणं प्रतीयते । तत्फलं च नावेक्षणकर्तु रपि तु परस्यैवेति अनुपसर्गपूर्वकत्वेऽपि न भवत्यात्मनेपदम् । ॥६॥ वदोऽपात् ।३।३।६। अतः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । एकान्तमपवदते । फलवतीत्येव-अपवदति परं स्वभावात् ॥१७॥ एकान्तमपवते, एकान्तः-एकातवादः, तमपवदते-वाचा प्रतिषेधयतीत्यर्थः । अपवदति-कस्यचिदेवं स्वभाव एव यदन्यं जनमपवदति निन्दतीति ॥६७॥ ममुदाङो यमेरग्रन्थे ।३।३।। एभ्यः परात् यमेरग्रन्थविषये फलवत्कर्तर्यात्मनेपदं स्यात् । संयच्छते व्रीहीन् । उद्यच्छते भारम् । आयच्छते भारम् । अग्रन्थ इति किम् ? चिकित्सामुद्यच्छति । फलवतीत्येव संयच्छति ॥९॥ आङपूर्वादकर्मकात् स्वाङ्ग-कर्मकाच्च 'आडो यम०' ३॥३॥८६॥ इति सिद्ध ऽन्यकर्मकार्थ वचनम् । समुत्पूर्वकात्त, कुतोऽपि न प्राप्तिरिति तद्विषये सर्वथैवापूर्वविधिः । सूत्रे समाहारनिर्देशेऽपि समाहारस्य समूहरूपत्वेन उक्तसर्वोपमर्गसमूहपूर्वकादेवानेनात्मनेपदमिति । भ्रमव्युदासायाह Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) एभ्यः इति । ग्रन्थे यः प्रयोगाभावेन यमेस्तदर्थत्वाभावे 'अग्रन्थे' इति पर्युदासस्य वैयथ्यं स्यादिति विषयसप्तम्या व्याख्याति अग्रन्थ विषये इतितथा च यमेयः कश्चिदर्थोऽस्तु सम्पूर्णवाक्यस्य ग्रन्थविषये प्रयोगाभाव एव तात्पर्यमित्यायाति । संयच्छते व्रीहीन - राशिभूतान् करोतीत्यर्थः । उद्यच्छते भारम् - उत्थापयतीत्यर्थः । आयच्छते भारम् - लभते इत्यर्थः । चिकित्सामुद्यच्छति - चिकित्साग्रन्थे उद्यमं करोतीत्यर्थः । चिकित्साहेतुत्वात् ग्रन्थोऽपि चिकित्सा, चिकित्स्यतेऽनया इति वा 'शंसि - प्रत्ययात् '' ५।३।१०५। तदा बाहुलकात्स्त्रीत्वम् ॥६८॥ पदान्तरगम्ये वा | ३ | ३६६ ॥ प्रकान्तपञ्चके यदात्मनेपदमुक्तं सत्पदान्तरगम्ये फलवत्कतरि वा स्यात् । स्वं शत्रु परिमोहयते । परिमोहयति वा । स्वं यज्ञं यजते यजति वा । स्वां गां जानीते जानाति वा । स्वं शत्रुमप्रवदते, अपवदति दा । स्वान् व्रीहीन संयच्छते, संयच्छति 118211 प्रकान्तपञ्चकेन प्रक्रान्ततत्सूत्राव्यवहितसूत्र पञ्चकेने त्यर्थः तच्च सूत्रपञ्चकं "परिमुहा० |३|३|६४ इत्यारभ्यैतन्यवहितपूर्व पठितः 'समुदाङगे० " ३३६८ इति पर्यन्तम् । अन्यत्पदं पदान्तरम् । तत्तत्सूविहितात्मनेपदभिन्नपदेन 'स्वम्, आत्मीयम, निजम् ' इत्यादिपदेन' कतु' : फलवत्त्वे गम्ये वाऽऽत्मनेपदं भवति । परिमोहयते = यद्यपि प्राप्तविभाषास्थले निषेधस्यैव शास्त्रविधेयत्वेन पूर्वं परस्मैपदस्यैवोदाहरणं न्याय्यम् तथाप्यात्मनेपदस्य पूर्वमुपस्थितत्वेन तस्यैव पूर्वमुदाहरणं परस्मैपदस्याग्र विधीयमानत्वेन पश्चादुदाहरणमिति बोध्यम् ॥६॥ शेषात्परस्मै | ३ | ३|१001 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ४६ ) येभ्यो धातुभ्यो येन विशेषेणात्मनेपदमुक्तं ततोऽन्यस्मात्कर्तरि परस्मेपदं स्यात् । भवति । अत्ति ॥१००॥ पूर्वप्रकरणेनात्मनेपदनियमः कृतः परस्मैपदं त्वनियतमिति नियमार्थमिदम् उपर्युक्तादन्यः शेष अनुबन्धोपसर्थोपपदप्रत्ययभेदाच्चानेकधा शेषः । अनुबन्धशेषाद्दाहरति भवति अत्ति। "इङितः कर्तरि ।३।३।२२। इत्यनेनात्मनेपद्वविधिः "ईगितः" ।३।३।६५। इत्यनेन फलवत्कर्तत्मिनेपदविधि, इतोऽन्ये धातवो निरनुबन्धा भ्वादयोऽनुबन्धशेषा इत्युच्यन्ते ॥१०॥ परानो कृगः ।३।३।१०१॥ परानुपूर्वात्कृगः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । परा करोति । अनुकरोति ॥१०१॥ गन्धनादावर्थे गित्त्वात्फलवति प्राप्तस्यात्मनेपदस्यापवादोऽयम् ॥१०१॥ प्रत्यभ्यतेः क्षिपः ।३।३।१०२। एभ्यः परात् क्षिपेः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । प्रतिक्षिपति । अभिक्षिपति । अतिक्षिपति ॥१०॥ ईदित्वात् फलवति प्राप्तस्यात्मनेपदस्यापवादोऽयम् । इह क्षिपिः तौदादिक ईदित् गृह्यते न तु देवादिकः, तस्यानुबन्धशेषेण “शेषात् ।३।३।१०० इत्यनेनैब सिद्धत्वात् ॥१०२॥ प्राद्वहः ।३।३।१०३। अतः कर्तरि परस्मैयदं स्यात् । प्रवहति ॥१०३॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५० ) ।'' ''वहीं प्रापणे यजादिधातुः । ईदित्त्वात्फलवति प्राप्तस्यात्मनेपदस्यापवादोऽयम् ॥१०॥ - - परेम॒षश्च ।३।३।१०४॥ परेः परान्मृर्वहश्च कर्तरि परस्मैयदं स्यात् । परिष्यति । परिवहति ॥१०॥ ईदित्वात्फलवति प्राप्तस्यात्मनेपदस्यापवादोऽयम् ॥१०४॥ . व्याङ्परे रमः ।३।३।१०५॥ . एभ्यः पराद्रमः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । विरमति । आरमति । परिरमति १०५॥ ... इदित्वादात्मनेपदरयापवादः ॥१०५॥ वोपात् ।३।३।१०६॥ उपाद्रमः कर्तरि परस्मैपदं वा स्यात् । भार्यामुपरमति, . उपरमते वा ॥१०॥ ननु रमिधातुरकर्मकस्तत्कथं भार्यामुपरमते इति सकर्मकोदाहरणं दर्शितम् ? सत्यम्-उपसंप्राप्तिपूर्विकायां एतौ वर्तमानोऽन्तर्भूतणिगर्थो वा रमिः सकर्मकः । उक्त च=अकर्मका अपि धातवः सोपसर्गाःसकर्मका भवन्ति ॥१०६॥ अणिगि प्राणिकर्तृकानाप्याणिगः ।३।३।१०७। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१: ) अणिगवस्थायां यः प्राणिकर्तृ कोऽकर्मकश्च धातुस्तस्माण्णिगन्तास्कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । आसयति चैत्रम् । अणिगीति किम् ? स्वयमेवारोहयमाणं गजं प्रयुक्त आरोहयते । अणिगिति गकारः किम् ? चेतयमानं प्रयुक्त चेतयति । प्राणिकर्तृ कादिति किम् ? शोषयते व्रीहीनातपः । अनाप्यादिति किम् ? कटं कारयते ॥१०७॥ .. ::: . आस्तै चैत्रः आसयति चैत्रम् । शुष्यन्ति व्रीहयः शोषयते ब्रीहीन् आतपः “प्राण्यौषधि० ।६।२।३१। इत्यत्र पृथग्निर्देशादिह लोके प्रतीताः वसरूपा एव प्राणिनो गृह्यन्ते । 'ईगितः । ३।३१८५॥ इत्यात्मनेपदस्यापवादोऽयम् ॥१०७॥ .. . चल्याहारार्थेबुधयुधपुद्र श्रुनशजनः ।३।३।१०। . चल्याहारार्थेभ्यः इडादिभ्यश्च णिगन्तेभ्यः कर्तरि परस्मैपदं स्यात् । चलयति । कम्पयति । भोजयति । आशयति चैत्रमन्नम् । सूत्रमध्यापयति शिष्यम् । बोधयति पद्म रविः । योधयति काष्ठानि । प्रावयति राज्यम् । द्रावयत्ययः । श्रावयति तैलम् । नाशयति पापम् । जनयति पुण्यम् ॥१०॥ . चलिरर्थः कम्पनम् । अध्याययति="णी क्रीजीङः ।४।२।१०। इत्यात्त्वम् । प्रावयति राज्यम्-प्रापयतीत्यर्थः । द्रावयत्ययः-विलाययतीत्यर्थः । पुत्र द्वस्त्र णामचलनार्थं शेषाणां सकर्मकार्थमप्राणिकर्तृ कार्थ च वचनम् ॥१०॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) ॥ अथ तृतीयाध्याये चतुर्थः पाद ॥ गुपौधुपविच्छ्पिणिपनेरायः ॥ ३ ॥ ४१ ॥ एभ्यो धातुभ्यः स्वार्थे आयः स्यात् । गोपायति । धूपायति । पणायति । पनायति ॥ १ ॥ सूत्रे विशेषार्थः कोऽपि न निर्दिष्टः इति वृत्तौ 'स्वार्थे' इत्युक्तम् । अनुबन्धस्याशवि आयप्रत्यया - भावपक्षे चरितार्थत्वादाय प्रत्यान्ताभ्यां पणिपनिभ्यामात्मनेपदं न भवति । गुपावित्यौकारौ गुपि गोपने इत्यस्य निवृत्त्यर्थ: । ' गुपण भासार्थः, गुपच् व्याकुलत्वे । इत्यनयोस्तु धूपसाहचर्यान्नि सः । ननु धूपश्चुरादिरप्यस्ति ? अणिजन्त विच्छ साहचर्यात् भ्वादेरेव धूपस्य ग्रहणम् । ननु विच्छिरपि भासार्थं चुरादिस्तत्कथं तेन साहचर्यम् ? सत्यं तस्याणिजन्ताभ्यां पणि निभ्यां साहचर्यान्निरासः गुपावित्योकारो यङ्लु निवृत्त्यर्थश्च । ननु यङ्प्रत्ययस्य प्राप्तिरेव नास्ति, आयप्रत्ययेऽनेकस्वरत्वात् तत्कथं यङ्लु॰निवृत्त्यर्थंश्चेति कथ्यते ? अशव्विषये " अशबि ते वा" | ३ | ४ | ३ | इति विकल्पितस्याऽऽयस्य प्रथमं यङि "प्रकृतिग्रहणे यलुबन्तानामपि ग्रहणम्" इति न्यायात्प्राप्तिः । पणायति = व्यवहरति स्तौति चेत्यर्थः ॥ १ ॥ कमेर्णिङ | ३|४|२| कमेः स्वार्थे णिङ् स्तात् । कामयते ॥ २ ॥ णकारो वृद्धयर्थः, ङकार आत्मनेपदार्थः । णिङो ङित्करणेन 'प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तामपि ग्रहणमिति न्यायस्यानित्यता ज्ञाप्यते । अनित्यताज्ञापनफलं तु पणायतीत्यादी पण्धात्वादेरिदित्वेपि नात्मनेपदम् ||२|| ऋतेङयः | ३ | ४ | ३ | Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) ऋतेः स्वार्थे ङीयः स्यात् । ऋतीयते ॥३॥ ऋत घृणागतिस्पर्द्धषु । ङकार आत्मनेपदार्थ: गुणाभावार्थश्च । ङीयप्रत्ययस्यादन्तकरणात् " उपान्त्यस्या० ” | ४|२| ३५ | इति ह्रस्वो भवति | |३|| अशवि ते वा | ३ | ४|४| गुपादिभ्योऽशत्विषये ते आयादयो वा स्युः । गोपायिता । गोप्ता । कामयिता । कमिता । ऋतीयिता । अर्तिता ॥४॥ गुपौ रक्षणं इति भ्वादि: ॥४॥ गुप्तिजो गर्भाक्षान्तौ सन् | ३ | ४|५| गपो गर्हायां तिजः क्षान्तौ वर्तमानात् स्वार्थे सन् स्यात् । जुगुत्सते तितिक्षते । गर्भाक्षान्ताविति किम् ? गोपनम् तेजनम् ॥५॥ अकारः सन्ग्रहणेषु सामान्यग्रहणार्थ:, अन्यथेच्छासन एव ग्रहणं स्यात् । नकारः “सन्यङश्च’ |४| १ | ३ | इत्यत्र विशेषणार्थः । तितित्रने-सहते इत्यर्थः । गोपनं तेजनमिति - अनयोरथन्तिरेऽपि त्यादयो नाभिधीयन्ते इत्यत्यादिना प्रत्युदाहृतम् । एवमुत्तसूत्रद्वयेपि प्रायेण ज्ञेयम् ||५|| कितः संशयप्रतीकारे || ३ |४| ६ | कितः संशयप्रतीकारार्थात् स्वार्थे सन् स्यात् । विचिकित्सति मे मनः । व्याधि चिकित्सति । संशयप्रतीकारार्थ इति किम् ? केतयति ॥ ६ ॥ बिचिकित्सति = संशेते इत्यर्थः । व्याधि चिकित्सति = प्रतिकरो - तीत्यर्थः । अनवधारणात्मकः प्रत्ययः संशयः । प्रतीकारो दु:खहेतोर्निराकरणम् ॥६॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) शान्दान्मान्बधान्निशावार्जवविचारवरूप्ये दीर्घश्चेतः ३३४७॥ एभ्यो यथासङ्ख्यं निशानाद्यर्थेभ्यः स्वार्थे सन् स्यात्। दीर्घश्चैषां द्वित्वे पूर्वस्येतः । शीशांसति, दीदांसति। मीमांसते । बीभत्सते। . अर्थोक्तिः किम् ? अर्थान्तरे माभूत् । निशानम्, अवदानम् मानयति, बाधयति ॥७॥ ननु 'दीर्घः' इति सामान्योक्तावपि सनि इत एव दीर्घः स्यादिति चेन्न "इतः” इत्युपादानाभावे सनि प्रथममेवाकारस्य दीर्घः स्यात् । निन्दितो रूपो विरूपः तस्य भावः वरूप्यम् । “शोंच तक्षणे', 'दोंच छेदने' निश्यतीति निशानम्, अवद्यतीति अवदानम्, इत्यत्रानड् ॥७॥ . .. धातोः कण्ड्वादेर्यक् ।३।४।८। एभ्यो धातुभ्यः स्वार्थे यक् स्यात् । कण्ड्यति, वण्ड्यते । महीयते । धातोरिति किम् ? कण्डूः ॥८॥ द्विविधा कण्ड्वादय धातवो नामानि च । ननु यकः कित्त्वाद् धातोरेवायं विधिर्भविष्यतीति अत्र धातुग्रहणं व्यर्थमिति चेद् सत्यम् धातुग्रहणत्तरार्थमिह सुखाथं च । अयं भावः-कितः फलं "नामिनो गुणो० ।४।३।१। इत्यादि तच्च धातोरेव । “गौणमुख्ययो० इति न्यायान्मुख्यो धातुः । नाम्नोपि धातोः सकाशाद् भावात् । “अवयवे कृतं लिङ्ग समुदायमपि विशिनष्टि" इति न्यायेन कण्ड्ग इत्यस्य गित्त्वात् यगन्तसमुदायस्यापि गित्त्वात् फलवत्यात्मनेपद फलवत्त्वाभावे तु परस्मैपदम्।।८।। व्यजनादेरेकस्वराद् भृशाभीक्षण्ये यङ्वा ।३।४।६। गुणक्रियाणामधिश्रयणादीनां क्रियान्तराव्यवधानेन साकल्येन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) संपत्तिः फलातिरेको वा भृशत्वं, प्रधानक्रियाया विक्लेदादेः क्रियान्तराव्यवधानेनावृत्तिराभीक्ष्ण्यं। तद्विशिष्टार्थवृत्तेर्धातोर्व्य जनादेरेकस्वराद् यङ् वा स्यात् । पापच्यते । व्यञ्जनादेरिति किम् ? लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनातीत्यादि यथा स्यात् ॥६॥ क्रियान्तराव्यवधानेन-विरोधिमिमगमनादिभिरविरोधिभिस्तूच्छवासादिभिर्भवत्येव । साकल्येन संपत्तिः-सामस्त्येन ढौकनमित्यर्थः । फलातिरेको वा-फलसमाप्तावपि क्रियानुपरतिः। प्रधान क्रियायाःपचौ विल्केदः प्रधानक्रिया तां कश्चित्समाप्य क्रियान्तरामनारभ्य पुनस्तामेव क्रियामारभते, तस्याः पुनर्पुनर्भाव आभीक्षप्यम् भृशं पुनर्पुनर्वा पचति-पापच्यते । लुनीहि-वाग्रहणाद् “भृशाऽऽभीक्ष्ण्ये" ।५।४।२२। इति पञ्चमी भवत्येव । लुनीहीत्यत्र भृशाभीक्ष्ये द्विवचनम् । ननु भशाभीक्ष्ण्ये यङपि विधीयते न तु तत्र द्विवचनम् इह तु द्विवचनमित्यत्र को हेतुरिति चेत्सत्यं यङ् स्वयमेव भृशाभीक्ष्ण्ये द्योत तु समर्थः इति तदभिव्यक्तये द्विर्वचनं नापेक्षते । हिस्वादयस्तु द्विवचनमपेक्षन्ते इति "भृशाऽऽभीक्ष्ण्ये." ७।४।७४। इति द्विवचनम्। 'आभीक्ष्ण्ययङन्तस्याभीक्ष्ण्ये हिर्वचनं न भवति उक्तार्थत्वात् । यदातु भृशार्थयङन्तादाभीक्ष्ण्यविवक्षा तदा द्विर्वचनं भवत्येव पापच्यते पापच्यते इति । न च पञ्चमी "भृशाभीक्ष्ण्ये०" ।५।४।४२। इति विधानसामर्थ्यात् एव भविष्यतीति एतदर्थं वाग्रहणमनर्थकमिति वाच्यं स्वराद्यनेक स्वरेभ्यः तस्याश्चरितार्थत्वात् । ननु यदा पचति पचनविशिष्टो भशार्थो धात्वर्थस्तदा वाक्यार्थमपि वाग्रहणं तर्हि वाक्यमपि कथं नोदाहृतम् ? सत्यम् यदा पचतिना पाक: भृशशब्देन तु भशार्थस्तदा वाक्यं सिद्धमिति वाक्यमपि नोदाहृतम् पाक्षिकप्राप्तेरप्रधानत्वात् ॥६॥ अतिसूत्रिमूत्रिसूच्यशूर्गोः ।३।४।१०। भृशं पुनपुनर्वाऽति--अटाट्यते । ऋ प्रापणे च' ऋक् गतो इति, ऋच्छति ताभ्यां यङन्तादारार्यते । “क्ययङा.” ४।३।१० इति गुणे “अयि र:” ४।१।६। यवर्जनाद् रो द्वित्वम् । सूत्रण्–सोसूत्र्यते, मूत्रण्–मोमूत्र्यते, सूचण्–सोसूच्यते । अश्नुते, अश्नाति तस्माद्यङन्तात् अशाश्यते । ऊणुगक-प्रोर्णोनूयते। अट्यर्त्यशामव्यञ्जनादित्वात् सूत्रि Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्रिसूचीनामनेस्वरत्वात् व उर्णोतेरव्यञ्जनाद्यनेकस्वरतत्पूर्वेणाप्राप्ते वचनम् । यङोऽदन्तत्वे अटाट्यते अरार्यते इत्यत्र फलं दृश्यम् ॥१०॥ गत्यर्थात्कुटिले ।३४।११। व्यञ्जनादेरेकस्वराद् गत्यर्थात्कुटिलेएवार्थे वर्तमानाद् धातोर्य स्यात् । चक्रम्यते । कुटिल इति किम् ? भृशं कामति ॥११॥ एक्कारेण भशाभीक्ष्ण्ययोर्यङो निषेधः । कुटिलं कामति-चङ्कश्यते । “मुरतोऽनुनासिकस्य" ।४।१।५१। “तौ मुमौ व्यञ्जने० ।१।३।१४। तक्रकौडिन्यन्यायेन भूशाभीक्ष्ण्ययोनिषेधार्थ वचनम् । अयं भाव:--. देयस्मै स तक्रदेयः स चासौ कौडिन्यश्च तक्रकौडिन्यः, म.यूख्यंसकादित्वादेयशब्दलोपः स एव न्यायो दृष्टान्तः । सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो दधि देयम् तत्रं कौडिन्याय । तत्र ब्राह्मणेषु सामान्येन कौडिन्योपि समायातः इति दधिदानं तक्रं पूर्ववाक्येन प्राप्तं परन्तु परवाक्येन विशेषतस्तस्य तक्रक्षन विहितमिति दधिदानं बाध्यते । यद्यपि दधिदानोत्तरं ततः पूर्वं वा तक्रदानमपि विधातुं शक्यते एव तथापि विशिष्य विधानसामर्थ्यात्तक्रमेव न दधि सामान्यलक्षणस्य विधेविशेषलक्षणो विधिर्बाधको भवति ॥११।। ग लपसदचरजपजभदशदहो गये।३।४।१२। गृहर्थेिभ्य एव एभ्यो यङ स्यात् । निजेगिल्यते । लोलुप्यते । सासद्यते। चञ्चूर्यते। जञ्जप्यते । जञ्जम्यते । दन्दह्यते । गर्दा इति किम् ? साधु जपति । भृशं निगिरति ॥१२॥ पूर्ववदत्रापि एवकारेण भृशाभीक्ष्ण्ययोर्यडो निषेधः । गहितं निगिरति-निजेगिल्यते । लोलुप्यते--लुप्लुतो छेदने लुपच् विमोहने इति वा । चञ्चूर्यते-"चरफलाम्" ४।१०५३। “जपजभ०" ।४।१।५२१. इति मुरन्तः “अडे हि हनो" ।४।१।३४। इत्यतः पूर्वादित्यधिकारात् "ति चोपान्त्या० ।४।१।५४। इति उः । 'भ्वादेर्नामिनो० ॥३१॥३६॥ इति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५७ ] दीर्घः । वंशेः कृतनलोपस्य निर्देशो बङ्लुप्यपि नलोपार्थः । अन्यथा 'दंदशीति' इत्यत्र 'लुबन्तरङ्गभ्यः इति न्यायात्प्रथममेब यङो लुपि ङित्वाभावात् नलोपो न स्यात् । गह्य इति वचनात् साधु जपति इत्यत्र भृशं पुनपुनर्वा=निगिरति, कुटिलं चरतीत्यत्र न भवति ॥१२॥ न गृणाशुभरुचः ।३।४।१३॥ एभ्यो यङ् न स्यात् । निन्धं गृणाति । भृशं शोभते । भृशं रोचते ॥१३॥ गृणातिशुभिरुचिभ्यः भृशाभीक्ष्ण्ये गृणातेर्गाऽर्थे च यड. न भवति ॥१३॥ बहुलं लुप् ॥३।४।१४। यङो लुप बहुलं स्यात् । बोभूयते । बोभवीति । बहुलवचनात् कूचिन्न भवति । लोलूया । पोपूया ॥१४॥ क्वचित्प्रवृत्तिः, क्वचिदप्रवृत्तिः, क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य, चातुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥१४॥ "अचि" ।३।४।१५॥ यडोचि परे लुप् स्यात् । चेच्यः । नेन्यः ॥१६॥ नित्यार्थ वचनम् ॥१५॥ नोतः ।३।४।१६। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) उदन्ताद्विहितस्य यङोऽपि परे लुब् न स्यात् । रोख्यः ॥१६॥ रोख्यः--अत्र पृथग्योगात् बहुलमित्यनेनापि न, अन्यथा 'अचि नोतः” इत्येकमेव कुर्यात् ॥१६॥ चुरादिभ्यो णिच् ।३।४।१७। एभ्यो धातुभ्यो स्वार्थे णिच् स्यात् । चोरयति। पदयति ॥१७॥ णिचो गित्त्वाभावेन 'ईगितः ।३।३।१०५॥ इति फलवति । नात्मनेपदम् । णकारो वृद्धयर्थः, णिग्रहणेषु सामान्यग्रहणार्थश्च । चकारः .. सामान्यग्रहणविघातार्थः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । अदन्तं च चुराद्यन्तर्गतसुखादीनां णिसंनियोग एव द्रष्टव्यं तेन णिजभावे जगणिथ इत्यत्रानेकस्वरत्वादाम् न भवति । अङ्कटलेष्कयोस्तु फलाभावात् सुखादीनामित्युच्यते । द्वित्वे सति अनेकस्वरत्वेपि 'सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विधातस्य' इति पूर्वाचार्यानुरोधेनादन्तमध्ये पाठः ॥१७।। युजादेर्नवा ।३।४।१८॥ एभ्यः स्वार्थे णिज्वा स्यात् । योजयति, योजति। साहयति, सहति ॥१८॥ चुराद्यन्तर्गतो युजादिः ॥१८॥ भूङः प्राप्तौ णिङ् ।३।४।१६॥ भुवः प्राप्त्यर्थाण्णिङ् वा स्यात् । भावयते । भवते । प्राप्ताविति किम् ? भवति ॥१९॥ भावयते, भवते--प्राप्नोतीत्यर्थः । भवतीत्येवान्यन्त्र, णि इति Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ .) . आत्मनेपदार्थः । भूङ् इति उकारनिर्देशः णिङभावेप्यात्मनेपदार्थः । • प्राप्त्यभावेऽपि क्वचिदात्मनेपदमिष्यते यथा याचितारश्च नः सन्तु, दातारश्च भवामहे । आक्रोष्टारश्च नः सन्तु, क्षन्तारश्च भवामहे ॥ . प्राप्तावपि परस्मैपदमित्यन्ये, सर्वं भवति प्राप्नोतीत्यर्थः । अवकल्कने तु भावयतीत्येव "भूण् अवकल्कने' इति चुरादिपाठात् ॥१६॥ प्रयोक्त व्यापारे णिग् ।३।४।२०। कुर्वन्तं यः प्रयुक्त तयापार गच्ये धातोणिग्वा स्यात् । कारयति । भिक्षा वासयति । राजानमागमयति । कंसं घातयति । पुष्येण चन्द्रं योजयति । उज्जयिन्याः प्रस्थितोमाहिष्मत्यां सूर्यमुद्गमयति ॥२०॥ प्रषणाध्येषण-निमित्त-भावाख्यानाभिनय-ज्ञानप्राप्तिभेदैरनेकधा भवति । तत्र तिरस्कारपूर्वको व्यापारः षणम्, सत्कारपूर्वकस्तु अध्येषणम् । कुर्वन्तं प्रयुक्त कारयति-अत्र षणेनाध्येषणेन वा यथासंभवं प्रयोक्तृत्वम् । वसन्तं प्रयुक्त वासयति, भिक्षा वासयतीत्यत्र निमित्तभावे ।। राजानमागचन्तं प्रयुङक्त राजानमागमयतीत्यत्र आख्यानेन । आख्यानेन हि बुद्धयारूढाः श्रोतृणां चित्त वारूढाः राजानः प्रयुङक्ताः प्रतीयन्ते । कसं घ्नन्तं प्रयुक्त कंसं घातयतीत्यत्राभिनयेन । अयं नट: कौशलात्सरसमभिनयति यथा कंसवधायायमेव नारायणं प्रयुक्त इति प्रतिपत्तिर्भवति । पुष्येण चन्द्र युञ्जन्तं प्रयुक्त पुष्येण चन्द्र योजयति, अत्र कालज्ञानेन । उज्जयिन्याः प्रदोषे प्रस्थितः माहिष्मत्यां सूर्यमुद्गच्छन्तं प्रयुक्त --माहिष्मत्यां सूर्य मुद्गमयति । अत्र प्राष्टया । महिषा अत्र सन्ति "नडकुमुद० ।६।२।७४। इति डिति मतौ अन्त्यलोपे 'धुटस्तृतीयः ।२।११७६। इति प्राप्तस्य डत्वस्य “असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग" इत्यनेन” व्युदासः । न च “स्य रस्य." ।७।४।११०। इत्यकारेण व्यवधानमिति वाच्यं “म सन्धि० ७।४।११। इत्यसदविधौ स्थानित्वनिषेधात् । महिष्मति भवा भवेऽण् । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) वावचनं पक्षे वाक्यार्थः । एवमग्रेपि ॥२०॥ तुमर्हादिच्छाया सन्नतत्सनः ।३।४।२१॥ योधातुरिषेः कर्मेषिणव च समानकर्तृकः स तुमर्हस्तस्मादिच्छायामर्थे सन्वा स्यात् नत्विच्छासन्नन्तात् । चिकीर्षति । जिगमिषति । जिगमिषति । तमर्दादिति किम् । यानेनेच्छति । भुक्तिमिच्छति मैत्रस्य । इच्छायामिति किम् । भोक्त याति । चिकोषितुमिच्छति । तदिति किम् । जुगुप्सिषते ॥२१॥ कर्तुमिच्छति-चिकीर्षति । नामिनोऽनिट् ॥४॥३॥३३॥ इति सनः किवद्भावः । गन्तुमिच्छति-जिगमिषति । मुक्तिमिच्छति मैत्रस्य-"शकधृष० ।५।४।६०। इति . न तुम् तुल्यकर्तृ कत्वाभावात् । चिकीर्षितुमिच्छति-चिकीर्षणं "शकधृष० ।५।४।६० इति तुम् । प्रतीतिषतीत्याद्यर्थं सनोऽकारो विहितः । नकारः सन्ग्रहणेषु विशेषणार्थः द्वितीयायाः काम्यः ।३।४।२२॥ द्वितीयान्तादिच्छायां काम्यो वा स्यात् । इद-काम्यति । द्वितीयाया इति किम् ? इष्टः पुत्रः ॥२२॥ इदमिच्छति इदंकाम्यति । काम्येनैव कर्मण उक्तत्वाद् भावकोंरेव प्रयोगः । काम्यांचकारेत्यादौ सस्वरकाम्यविधानफलम् मृग्यम् ॥२॥ अमाव्ययवात्स्यन् च ।३।४।२३। मान्ताव्याम् न्यस्माद् द्वितीतान्तादिच्छायां क्यन् काम्यश्च Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) वा स्यात् । पुत्रीयति, पुत्रकाम्यति । अमाव्ययादिति किम् ? इदमिच्छति, स्वरिच्छति ॥२३॥ चकारः काम्यार्थोऽन्यथा मान्ताव्यययोः सावकाशः स क्यना बाध्येत । नकार: “क्यनि" ।४।३।११२। · इत्यत्र विशेषणार्थः । ककारः क्यग्रहणे सामान्यग्रहणार्थः । क्यनः सस्वरत्वे कीयांचकारेत्यादी आम्सिद्धः ॥२३॥ आधाराच्चोपमानादाचारे ।३।४।२४। अमाव्ययादुपमानाद् द्वितीयान्तादाधाराच्चाचारार्थे क्यन् का स्यात् । पुत्रीयति च्छात्रं । प्रासादोयति कुट्याम् ॥२४॥ पुत्रमिवाचरति=पुत्रीयति च्छात्रम् । प्रासाद इवाचरति व्यवहरति कुटयां प्रासादीयति । उपमानस्य नित्यमुपमेयांपेक्षत्वात्सापेक्षत्वेऽप्यसामर्थ्य न भवति ॥२४॥ कर्तुः क्विप् गलभक्लीबहोडात्तु ङित् ।३।४।२५॥ कर्तुपमानान्नाम्न आचारार्थे क्विब्वा स्यात्। गल्भक्लीबहोडेभ्यस्तु स एव डित् । गल्भते । क्लीबते । होडते ॥२५॥ अश्व इदाचरति अश्वति । गल्भते इत्यादौ 'ङित्वादात्मनेपदं भवति । क्विबिति पूर्वप्रसिद्धयनुवादः तेनास्मिन् स्वमते किञ्चित्कार्य न भवति। परमते तु कितः फलमाचारविपि अहन पञ्चमस्य०।४।१।१०७। इति दीर्घ क इवाचरति कीमति-इदमिवाचरति इदामति । स्वमते तु धातुत्वाभावान्न दीर्धः । स्वमते तु 'किमति, इदमति' इत्येव । एके तु कर्तु: । सम्बन्धिन उपमानात् द्वितीयान्तात् विवप्क्यङाविच्छन्ति । अश्वमिवात्मानमाचरति गर्दभः, अश्वति । तन्मतसंग्रहार्थं कर्तुरिति षष्ठी व्याख्येया। द्वितीयाया इति चानुवर्तनीयम् ॥२५॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) क्यङ् ॥३॥४॥२६॥ करुपमानादाचारऽर्थे क्यङ् वा स्यात् । हंसायते ॥२६॥ हंस इवाचरति हसायते । क्विपक्यडोस्तुल्यविषयत्वादसत्युत्सर्गापवादत्वे पर्यायेण प्रयोगः तेन अश्वायते, गल्भायते इत्यपि। ककार: सामान्यग्रहणार्थः । ङकार आत्मनेपदार्थः । क इवाचरति कायांचक्रे इत्यत्र सस्वरस्य क्यङः फलम् ॥२६॥ सो वा लुक्च ।३।४।२७। सन्तात्कर्तु रुपमानादाचारेणे क्यङ, वा स्यात्तदन्तस्य च सो . बा लुक् । पयायते । पयस्यते ॥२७॥ स इति आवृत्या पञ्चम्यन्तं षष्ठ्यन्तं चाभिसम्बध्यते । पय इव आचरति पयायते पयस्यते । क्यङ् सिद्धः लुगर्थं वचनम् । चकारः लुचः । क्यड सन्नियोगार्थः अन्यथा स्वतन्त्रौ लुक्क्यङौ स्याताम् ।।२७।। ओजोप्सरसः ।३।४।२८॥ आभ्यां कतुरुपमानाभ्यामाचारे वयङ वा स्यात् सश्च लुक् । ओजायते । अप्सरायते ॥२८॥ ओजःशब्दो वृत्तिविषये स्वभावात्तद्वति वर्तते । ओजस्वीबाचरति ओजायते । पूर्वेण सिद्धे नित्यसलोपार्थं वचनम् । अन्ये त्वोजः शब्दे सलोपविकल्पमिच्छन्ति ओजायते, अप्सरायते ॥२८॥ चव्यर्थे भृशादेः स्तो. ॥३॥४॥२६॥ भृशादेः कर्तृभ्यश्च्व्यर्थे क्यङ् वा स्यात् यथासम्भवं स्तोलुंक्च । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) भृशायते । उन्मनायते । वेहायते । कर्तु रित्येव । अभृशम्भृशम्करोति । व्यर्थ इति किम् ? भृशो भवति ॥२६॥ च्व्यर्थे इत्यनेन लक्षणया भवत्यर्थविशिष्टं प्रागतत्त्वंमुच्यते, करोतिस्तु कर्तु रित्यनेन व्युदस्तः । अयं भात:-करोत्यर्थविशिष्ट प्रागतत्त्वे भृशादीनां कर्तृत्वं न सम्भवति अपितु कर्मत्वमेव । अभृशो भृशो भवति भृशायते । भवत्यर्थे विधानाच्च क्यङन्तस्य क्रियार्थत्वम्, भवत्यर्थशब्दाप्रयोगश्च । भवत्यर्थविशिष्टे च्व्यर्थे क्यङ् विहितः, च्विस्तु तद्योगमात्रेऽत एव च्च्यिोगकरोतिभवत्योः प्रयोगो भवति । अनुक्तार्थत्वाद् क्रियार्थत्वाभावाद् धातुत्वं च न भवति ॥२६॥ डाचलोहितादिभ्यः पित् ।३।४।३०। .. डाजन्तेभ्यो लोहितादिभ्यश्च कर्तृभ्यश्च्च्यर्थे क्वङ् बित् स्यात् । पटपटायति पटपटायते । लोहितायाति । लोहितायते। कतु रित्येव 3 एटपटा पटपटा करोति । च्च्यर्थ इत्येव लोहितो भवति ॥३०॥ अपटत् पटत् भवति–पटपटायतिः पटपटायते । “क्यषों,नवा" ।३।३।४३ इति विकल्पेनात्मनेपदम् । ननु भवत्यर्थविशिष्टे च्व्यर्थे क्यले विहितः इति क्यषा भवत्यर्थस्योक्तत्वात् तदभावे 'निमित्ताभावे "नैमित्तिकस्याप्यभावः” इति न्यायात् डाचोऽपि निवृत्तिः स्यादिति वाच्यं डाजन्तात्यविधानसामर्थ्यात् कृभ्वस्तिभिरिव क्यापि योगे डाच न निवर्तते । अलोहितो लोहितो भवति-लोहितायति, लोहितायते लोहित, जिह्म, श्याम, धूम, चर्मन्, हर्ष, गर्व, सुख, दुख, मूळ, निद्रा, कृपा, करुणा । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । धूमादीनां स्वतन्त्रार्थवृत्तीनां प्रकृतिविकारभावाप्रवीतेः च्व्यर्थो नास्तीति अधूमवान् धूमवान् भवतीति तद्वद्वृत्तिभ्यः प्रत्ययो भवति ॥३०॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कष्टकक्षकृच्छसत्रगहनम्य पापे क्रमणे ॥३॥४॥३१॥ एभ्यश्चतुर्थ्यन्तम्मः पापवृत्तिभ्यः क्रमणेऽर्थे क्यङ स्यात् । कष्टायते, कक्षायते, कृच्छायते, सत्रायते, गहनायते। चतुर्थीति किम् ? रिपुः कष्टं कामति । पाप इति किम् ? कष्टाय तपसे क्रामति ॥३१॥ .... चतुर्धन्तेभ्य इति इदं निर्देशादेव लब्धम् । कष्टाय पापभूताय कर्मणे कामति-कष्टायते । कष्टाय तपसे कामति-पापमनार्जवाचारः स इह नास्तीति न भवति, अथ यथेह पापं नास्ति तथा क्रामणमपि पादविक्षेपो नास्तीति द्वयङ्गवैकल्यमिति न च वाच्यमत्र क्रमणं न पादविक्षेपः किन्तु प्रवृत्तिमात्रमिति न द्वयङ्गवैकल्यम् ॥३१॥ रोमन्थाव्याप्यादुच्चर्वण ।३।४।३२। अभ्यवहृतं द्रव्यं रोमन्थः, उद्गीर्य चर्वणमुच्चर्वणमस्मिन्नथें रोमान्थात्कर्मणः क्यङ वा स्यात् । रोमन्थायते. गौः । उच्चर्वण इतिं किम् ? कोटो रोमन्थं वर्तयति ॥३२॥ , अभ्यवहृतं द्रव्यं रोमन्थः । उद्वीर्य चर्वणमुच्चवर्णम् । रोमन्थमुच्चर्वयतीति-रोमन्थायते गौः । उद्गीर्य चवंयतीत्यर्थः । चर्वयतीत्यस्य बहुलमेतन्निदर्शनमिति चुरादित्वम् । कीटो रोमन्थं वर्तयति--उद्वीर्य बहिस्त्पक्त पृष्ठान्तेन निर्गतं वा द्रव्यं गुटिकां करोतोत्यर्थः ॥३२॥ फेनोमबाष्पधूमादुद्वमने ॥३॥४॥३३॥ एभ्यः कर्मभ्यः उद्वमनेऽर्थे क्यङ् वा स्यात् । फेनायत्ते। ऊष्मायते । बाष्पायते । धूमायते॥३३॥ . फेनमुद्वमति-फेनायते एवं उष्मायते इत्यादि ॥३३॥ .. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) सुखादेरनुभवे ॥३॥४॥३४॥ साक्षात्कारेऽर्थे सुखादेः कर्मणः क्यङ् वा स्यात् । सुखायते । दुःखायते ॥३४॥ ___ साक्षात्कारोऽनुभवः । सुखमनुभवति--सुखायते । दुःखमनुभवति–दुःखायते ॥३४॥ - . शब्दादेः कृतौ वा ॥३॥४॥३५॥ एभ्यः कर्मभ्यः कृतावर्थे क्यङ् वा स्यात् । शब्दायते । वैरायते पक्षे णिच् । शब्दयति । वैरायति ॥३५॥ णिजपवादः । शब्दं करोति--शब्दायते, वैरं करोति-वैरायते। वाशब्दो व्यवस्थितविभाषार्थः तेन यथादर्शनं णिजपि भवति-शब्दयति वैरयति । वाधिकारस्तु वाक्यार्थः । व्यस्थितं प्रयोगारूढ विधिप्रतिषेधादिकार्य विशेषेण भाषते सा व्यवस्थितविभाषा ॥३५॥ तपसः क्यन् ।३।४।३६। अस्मात्कर्मणः कृतावर्थे क्यन् वा स्यात् । तपस्यति ॥३६॥ तपः करोति-तपस्यति ॥३६॥ नमो वरिवश्चित्रकोऽर्चासेवाश्चर्ये ।३।४।३७। एभ्यः कर्मभ्यो यथासंख्यमर्चादिष्वर्थेषु क्यन्वा स्यात् । नमस्यति। वरिवस्यति । चित्रीयते ॥३७॥ देवेभ्यो नमः करोति-नमस्यति देवान् । गुरूणां वरिवः सेवां Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (. ६६ ) करोतीति--वरिवस्यति गुरून् । वृणीते 'स्वरेभ्यः' ॥३०६ उणादि० ॥ इति इप्रत्यये वरिः सेवकस्तत्र वसतीति विचि वरिवः । चित्रं करोतिचित्रीयते । कारः आत्मनेपदार्थ 'अवयवे कृतं लिङ्ग समुदायमपि विशिनष्टि इति न्यायात । अर्चाद्यर्थाभावे तु न भवति नमः करोति, विरव: करोति नमोवरिवःशब्दमुच्चारयतीत्यर्थः । ननु नमस्यति देवानित्यत्र नमःशब्दयोगात शक्तार्थ०' ।२।२१७८॥ इति चतुर्थी कथं न भवतीति चेत्सत्यम् नमस्यतीत्यस्यैकदेशो नमःशब्द इति “अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' इति न्यायात् 'उपपदविभक्त : कारकविभक्तिर्बलीयसी' इति न्यायाद्वा न भवति ॥३७॥ अङ्गानिरसने गिङ् ।३।४।३८। अङ्गवाचिनः कर्मणो निरसनेऽर्थे णिङ् वा स्यात् । हस्यते, पादयते॥३॥ हस्ती निरस्यति हस्तयते एवं पादयते । ङकार. आत्मनेपदार्थः । निरसनाभावे तु हस्तं करोति हस्तयतीत्यादौ णिजपवादस्य णिोऽभावाद् णिज् भवत्येव ॥३॥ पुच्छादुत्परिव्यसने ।३।४।३६। पुच्छात्कर्मण उदसने पर्यसने व्यसनेऽसने चार्थे णिङ वा स्यात् । उत्पुच्छ्यते । परिपुच्छयते। विपुच्यते । पुच्छयते।। पुच्छम् उदस्यति उपुच्छ्यते, पर्यस्यते परिपुच्छ्यते, व्यस्यति विपुच्छयते, अस्यति=पुच्छायते ॥३६॥ भाण्डात्समाचितौ।३।४॥४०॥ भाण्डात्कर्मणः समाधिताव लिङ् वा स्यात् । सम्भाण्डयते । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) .... Anarcelona परिभाण्डयते। समाचितिः समाचयनं सा समा परिणा च द्योत्यते । भाण्डानि समाचिनोति सम्भाण्डयते । एवं परिभाण्डयते ॥४०॥ चीवरात्परिधानार्जने ॥३॥४॥४१॥ अस्माकर्मणः परिधानेऽर्जने चार्गे पिङ वा स्यात् । परिचीवरयते। संचीवरयते ॥४१॥ . चीवरं परिधत्ते =परिचीवरयते । समाच्छादनमपि परिधानम्। चीवरं समाच्छादयतिसंचीक्रयते । चीबरमर्जयति-चीवरयते ... ॥४१॥ .. गिज्बहुलं नाम्नः कृगादिषु ।३।४।४२॥ कृगादीनां धातूनामर्थे नाम्नो णिबहुलं स्यात् । मुण्डं करोतिमुण्डयति च्छात्रम् । पटुमाचष्टे पटयति । वृक्ष रोपयति-वृक्षयति । कृतं गृह्नाति-कृतयति ॥४२॥ बहुलग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम्, तेन यस्मान्नाम्नो यद्विभक्यन्ताद्यस्मिन् धात्वर्थे दृश्यते तस्मात्तद्विभक्त्यन्तात्तद्धात्वर्थे एव भवतीति नियमो लभ्यते । ननुःतपः करोति तपस्यतीत्यादिवत् कर्मणो वृत्तावन्तर्भूतस्वान्मुण्डिरकर्मकः प्राप्तनोतीति चेन्मैवं सामान्यकर्मान्तर्भूतं विशेषकर्मणा तु सकर्मकः एव मुण्डयति च्छात्रम् । “त्यन्त्यस्वरादेः ।७।४।४३। इत्यन्त्यस्वरादेर्लुक् ॥४२॥ वृताद्भुजितन्निवृत्त्योः ।३।४।४३॥ व्रतं शास्त्रविहितो नियमः, व्रताद् भुज्यर्थान्तनिवृत्त्यर्थाच्च कृगा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) दिष्वर्थेषु णिज्बहुलं स्यात् । पयो व्रतयति । सावद्यान्नं व्रतयति ॥४३॥ पय एव मया भोक्तव्यमिति व्रतं करोति गृह णाति वा पयो व्रतयति । सावद्यान्मं मया न भोक्तव्यमिति व्रतं करोति गृह नि वा-सावद्यान्नं व्रतयति । अर्थनियमार्थ आरम्भः। यदि वहुलग्रहणस्य प्रयोगानुसरणार्थत्वातु अर्थनियमो भविष्यतीत्युच्यते तदा तत्प्रपञ्चार्थोऽयम् ।।४।। सत्यार्थवेदस्याः ।३।४।४४॥ एषां णिच्सन्नियोगे आः स्यात् । सत्यापयति । अर्थापयति। वेदापयति ॥४४॥ सत्यमाचष्टे करोति वा सत्याषयति एवमर्थापयति, वेदापयति । "येन नाप्राप्ते.” इति न्यायेन अकारस्याऽऽकारविधानसामर्थ्यात् “न्यन्त्यस्वरादेः" ।७।४।४३॥ इत्याल्लुग् न भवति ॥४४॥ . श्वेताश्वाश्वत रगालोडिताहरकस्याश्वतरेतकलक ।३।४।४५॥ एषां णिज्योगे यथासङ स्यमश्वादेः शब्दस्य लुक् स्यात् । श्वेतयति । अश्वयति । गालोडयति । आह्वरयति ॥४५॥ - लुगथं वचनं णिच् तु सर्वत्र पूर्वेण सिद्ध एव । श्वेताश्वमा चष्टे करोति वा श्वेताश्वेनातिकामतीति वा श्वेतयति एवमश्वयति । .-- गालोडितमाचष्टे करोति वा गालोडयति एवमाह्वरयति । श्येतयतीत्यादिवनेन सस्वराणामेवाश्वादीनां लुक्, न तु "त्रयन्त्यस्वरादेः” ।७।४।४३। इत्यनेनान्त्यलोपे सति विशेषविधानात् । “सकृत्बाधित.” इति न्यायात् । अश्वादिलोपात्पश्चादपि त्रयन्त्यस्वरादेः" ७।४।४३॥ इत्यन्त्यस्वरादेर्न लुक् । श्वेतयतीत्यादिषु अन्त्यस्वरादेोपेपि न किञ्चिद् विनश्यति । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ( ६६ ) गालोsयतीत्यत्र तु अनेन इतलोपे "वयन्त्यस्वरादेः " ७|४|४३| इत्योडलोपे सति गालयतीत्यनिष्टं रूपं स्यात्ः । गाः इन्द्रियाणि आलोडयते प्रमाद्यतेऽनेन स गालोडः उन्माद रोग:, सूखना, चित्तविभ्रमो वा । गालोड: संजातोऽस्य इतच् । गुणरत्नावृत्ते रारम्भेऽस्मिन् सूत्रे श्वेताश्वेनातिकामति श्वेतयतोति दर्शितं तव शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् अतिशब्दप्रयोगं विनापि तदर्थप्रतीतिः ॥ ४५ ॥ धातोरनेकस्वरादाम्परोक्षायाः कृभ्वस्ति- चानुतदन्तम् |३|४|४६ । अनेक स्वराद्धातोः परस्याः परीक्षायाः स्थाने आम् स्यात् आमन्ताच्च परे कृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनु पश्चादन्तरं प्रयुज्यन्ते । चकासाञ्चकार । चकासाम्बभूव । चकासामास । अनेकस्वरादिति किम् ? पपाच । अनु विपर्यासव्यवहिति निवृत्त्यर्थः । तेन arraकासाम् । ईहा चैत्रश्चक्र े इत्यादि न स्यात् ॥ ४६ ॥ धातोरनेकस्वरत्वं द्विधा स्वाभाविकं परोक्षाहेतुकं च । तत्र आद्य चकासांचकारेत्यादावाम् भवति द्वितीये तु पपाचेत्यादौ न भवति । सूत्रे तु सामान्येन यदनेकस्वरादित्युक्त ं तत् “सन्निपातक्षणो०" इति न्यायं सूचयति । पपाचेत्यादौ णवरूपां परोक्षां निमित्तीकृत्य जातमनेकस्वरत्वं द्विधातं न करोतीति । " नानुबन्धकृता० " इति न्यायात् डुपचष् पाके इत्यनुबन्धकृतमप्यनेकस्वरत्वं न भवति । चकासामासेत्यत्रास्तेर्भूनं भवति विधानबलात् ||४६ || दयायास्कासः ३ | ४|४७ । एभ्यो धातुभ्यः परस्याः परोक्षाया आम् स्यात् । आमन्ताच्च परे कृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनुप्रयुज्यन्ते । दयाञ्चक्रे । दयाम्ब Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) भूव । दयामास । पलायाञ्चके । आसाञ्चक्रे । कामाश्चक्रे । ॥४७॥ दयि दानगतिहिंसादहनेषु च ॥४७॥ गुरुनाम्यादेरनृच्छ्रोः ३।४॥४८॥ गुरु म्यादिर्यस्य तस्माद्धातोः ऋच्छ वात्परस्याः परोक्षाया आम् स्यात् आमन्ताच्च परे कृश्वस्तयः परोक्षान्ता अनुप्रयुज्यन्ते । ईहाञ्चके । ईहाम्बभूव । ईहामास । गुविति किम् ? इयेष। नामीति ? आनर्च । आदोति किम् ? निनाय । अनन्छ !रिति किम् ? आनर्छ । प्रोणुनाव ॥४८॥ . गुरुग्रहणं नामिनो विशेषणं न धातोः, धातुविशेषणे हि इयेष इत्यत्रापि स्यात् । ऋच्छ्प्रतिषेधात् संयोगे परे पूर्वो गुरुरिति विज्ञायते । ईषतुः, ईषुः इत्यत्र 'सन्निपातलक्षणों विधिरनिमित्तं. तद्विघातस्य' इति न्यायान्न भवति । ईडस्तु "आद्यन्तवदेकस्मित्” इति न्यायात् अयांचक्रे इति भवत्येव । उपसर्गस्य तु क्रियाविशेषकत्वाद्व्यवधायकत्वाभावात् "उक्षां प्रचक्रःनगरस्य मार्गान्” इत्यादि भवत्येव ॥४८॥ जान षसमिन्धेर्नवा ३।४।४६ एग्यो धातुश्यः परस्याः परोक्षायाः आम वा स्यात् आमन्ताच परे कृश्वस्तयः परोक्षान्ता अनुप्रयुज्यन्ते । जागराञ्चके । जागराम्बभूव । जागरामास । जजागार। उषाञ्चकार । उवोष । समिन्धाञ्चक्ने । समीधे ॥४६॥ उवोष-"पूर्वस्यास्वे० ।४।११३७। इत्युवादेशः । सोपसर्गादिन्धेराम् न Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) भवत्येवेति कश्चित् । अन्ये तु परोक्षायामिन्धेरामन्तस्यैव प्रयोग इत्याहुः । • समोऽन्यत्रापि इन्धेराम्विकल्प इत्यन्यः ॥४६॥ भीही होस्तित्वत् ॥३॥४॥५०॥ एभ्यः परस्याः परोक्षाथा आम वा स्यात् स च तिव्वत् आमन्ताच्च परे कृश्वस्तयः परोक्षान्ता अनु प्रयुज्यन्ते। बिभयाञ्चकार । बिभयाम्बभूव । बिभयामास । विभाय । जिलयाऽचकार । जिह्राय । बिभराञ्चकार । बभार । जुहवा चकार । जुहाव ॥५०॥ तिब्बद्भावाद्वित्वमित्वं च ॥५०॥ वेत्तेः कित् ॥३॥४॥५१॥ वेत्तैः परस्या परोक्षाया आम किवा स्यात् आमन्ताच्च कृश्वस्तयः परोक्षान्ता अनु प्रयुज्यन्ते । विदाञ्चकार । विवेद ॥५१॥ तिनिर्देशो 'विदक ज्ञाने' इत्यादादिकपरिग्रहार्थः । वेत्तेः परस्याः परोक्षाया आमादेशो वा भवति स च कित् । वेत्तेरविदिति कृते इन्ध्यसंयोगात्परोक्षा किद्वदित्यामः स्यानिवद्भावेन कित्त्वे सिद्धपि कित्त्वविधानमामः परोक्षावद्भावनिवृत्तिज्ञापनार्थम्, तेन परोक्षावद्भावेन हि कित्वद्विवचनादिकं न भवति । विदांचकार-कित्त्वाद् गुणो न भवति । तिन्निर्देशो यङ्लुनिवृत्त्यर्थश्च । तेन यङ्लुपि वेवेदांचकारेति सिद्धम्, “धातोरनेक०" ।३।४।४६। इत्यामि नाऽनेन विकल्पः ॥५६।। पञ्चम्याः कृग् ॥३॥४॥५२॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) वेत्तः परस्याः पञ्चम्याः किदाम्वा स्यात् आमन्ताच्च परः पञ्चम्यन्तः कृगनुप्रयुज्यते । विदाङ्करोतु । वेत्तु ॥५२॥ कृग्ग्रहणं भवस्तिव्युदासार्थम् । भ्वस्तिसम्बन्ध एब कृगनूद्यते, तेन कृगट . इत्यस्य न ग्रहणम् ॥५२॥ सिजद्यतन्याम् ॥३॥४॥५३॥ अद्यन्तयां परस्यां धातो परः सिच् नित्यं स्यात् । अनेषीत् ॥५३॥ आम्निवृत्तौ तत्सम्बद्धं वेति निवृत्तम् । सिज् इत्यत्र "चजः कगम् । ।२।१।८६। इति कृते कित्त्वाशङ्का स्यात् । इकारचकारौ विशेषणार्थों= अन्यथा सिचि० ४।३।४४। इत्यादी सिरिति कृते वर्तमाना-सि-प्रत्यये स इति च कृते सकारादिमा प्रसङ्गः स्यात् । अनैषीत="सिचि परस्मै." ।४।३।४४। इति वृद्धि: “सः सिजस्ते०"।४।३।६५॥ इति परादिरीत् ॥५३॥ . स्पृशमृशकृषतपदृपो वा ।।४।५४॥ एभ्योऽद्यतन्या सिज् वा स्यात् । अस्प्राक्षीत् । अस्पार्षीत् । अस्पृक्षत् । अम्राक्षीत् । अमाझेत् । अमृक्षत् । अनाक्षीत् । आकार्षीत् । अकृक्षत् । अवाप्सीत् । अप्तासेत् । अतृपत् । अद्राप्सीत् । अदार्सीत् । अदृपत् ॥५४॥ स्पृशंत् संस्पर्श, मृशंत् आमर्शने, कृषीत् विलेखने, तृपौष प्रीप्तौ, दृपौच हर्षमोहनयोः । तृपदपोः पुष्यादित्वाद् 'लदिय तादिपुष्यादेः परस्मै ।।३।४।६४। इत्यङि शेषाणां तूत्तरेण सकि प्राप्ते वचनम् । अथययाय मडि सकि च प्राप्ते विधीयमानस्तयोर्बाधको भवति तथा निचोऽपि बाधकः प्राप्नोति अस्मिन्नपि प्राप्नेऽस्य विधीयमानत्वादिति चेन्मेवं पूर्वेऽपवादा अनन्तरान्विधीन्बाधन्ते नोत्तरान्' इति न्यायात् ॥५४॥ हशिटो नाम्युपान्त्याददृशोऽनिटः सक् ॥३॥४॥५५॥ हशिडन्तान्नाम्युपान्त्याददृशोऽनिटोऽद्यतन्यां सक् स्यात् । अधुक्षत् । अविक्षत्। हशिट इति किम् अभैत्सीत् । नाम्युपान्त्या Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) दिति किम् ? अधाक्षीत् । अदृश इति किम् ? अद्राक्षीत् । अनिट इति किम् ? अकोषीत् ॥५५॥ सिचि प्राप्तेऽस्य विधानात् सिचोऽपवादः । दुह-विश्धातुभ्यां अधुक्षत अविक्षत् । अकोषोत्="इट ईति" ।।३।७१। इति सिज्लोपः ॥५५॥ श्लिषः।३।४।५६। श्लिषोऽनिटोऽद्यतन्यां सक् स्यात् । आश्लिक्षत्कन्या मैत्रः । अनिट इत्येव-अश्लेषीत् ॥५६॥ पुष्यादित्वादङि प्राप्ते वचनम् पूर्वेऽपवादा अनन्तरान्विधीन्बाधन्ते नोत्तरान् इत्यङः एव बाधकोऽयं न तु त्रिचः । अश्लेषीत् =अधाक्षीदित्यर्थः । अनिट इति वचनात् श्लिष दाहे इत्यस्मात्सेटो न भवति ॥५६॥ नासत्वाश्लेषे ।३।४।५७। श्लिषोऽप्राण्याश्लेषार्थात्सन स्तात् : उपाश्लिषजतु च काळं च । असत्वाश्लेष इति किम् । व्यत्यशिलक्षन्त मिथुनानि ॥५७॥ नत्वनन्तरस्य विधिः प्रतिषेधो वेति न्यायात् अनन्तरस्य सको अङबाधकत्वात् परस्मैपदविषयस्यैव प्रतिषेधः प्राप्नोति न तु क्रियाव्यतिहारे कर्तर्यात्मनेपदे प्रवर्तमानस्य 'हशिट० ।३।४।५५॥ इत्यस्येति चेत्सत्यम् पृथग्योगात् 'हशिटो० ।३।४।५५॥ इत्यनेनापि प्राप्तस्य निषेधोऽन्यथा 'श्लिषोऽसत्त्वाश्लेषे' इत्येकमेवं योगं कुर्यात् । व्यत्यश्लिक्षन्त-' स्वरेऽतः ।४।३।७५। इति सकोऽकारलोपस्य परमप्यादेशं प्रति पूर्वस्मात्परो विधिः प्राविधिरित्याश्रयणात् “स्वरस्य परे०.७।४।११०। इति स्यानिवद्भावात् 'अनतोऽन्तोदात्मने' ।४।२।११४। इत्यनेनादादेशो न भवति ॥५७॥ मिश्रिनु सुरुकमः कर्तरि ङः ।३।४।५८॥ ज्यन्ताच्छ्यादिभ्यश्च कर्त्तयंद्यतन्यां ङः स्यात् । अचीकरत् । अशिश्रियत् । अदुद्र वत् । असुन बत् । अचकमत् । कर्लरोति किम् अकारयिषातां कटौ मैत्रेण ।।५८॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) ङकारी ङित्कायार्थः । अचीकरत् - " असमानलोपे ०" | ४|१|६३ | इति सन्वद्भाव:, 'सन्यस्य'|४|१|५६ | सूत्रेण सनीकारः तथावापि 'लघोदघो० |४|१|६४ इति दीर्घः । कमिग्रहणम् “अशवि ते वा" | ३ | ४|४| इति यदा णिङ् नास्ति तदार्थवत् । अकारयिषाताम् — कटौ क्रियते मैत्रेण । मैत्रेण क्रियमाणो तौ चैत्रेण प्रयुज्येते स्म, यद्वा मैत्रः कटौ करोति, तस्यैवं विवक्षा नाहं करोमि अपि तु क्रियेते कटौ स्वयमेव । तो क्रियमाणी कटी चैत्रेण प्रायुक्षाताम् ।। ५८ ।। -श्वेर्वा | ३|४|५६ । आभ्यां कर्तर्यद्यन्यां ङीर्वा स्यात् । अदधत् । अधात् । अशिश्वियत् । अश्वत् । कर्तरित्येव-अधिषातां गावौ वत्सेन ॥ ५६ ॥ 1 अदधत् = "इडेत्पुसि चातो लुक् | ४ | ३ |६४ | इत्याल्लुक् । अधात् = अत्र "ट्वे- प्रा० |४| ३ |६७ | इति विकल्पेन सिज्लुप् इनिषेधश्च । पक्षे अधासीदित्यपि, यमिरमि० |४|४|८६ । इतीट् सन्तश्च । अश्वत् = "ऋदिच्छ्वि० । ३।४।६५ इत्यङ् 'श्वयत्सू०' | ४ | ३ | १०३ । इति श्वादेशः । अधिषाताम् - इश्च स्थाद:' | ४|३|४१ | इति सिचः किवद्भावः, आतः इश्चः ||५|| शास्त्यसुवक्ति ख्यातेरङ् | ३ | ४|६०| एभ्यः कर्तर्यद्यतन्यामङ् स्यात् । अशिषत् । उपास्थत् । अवोचत् । आख्यत् । कर्तरीत्येव अशासिषातां शिष्यौ गुरुणा ॥ ६० ॥ अस्यतेः पुष्पादित्यात् अङि सिद्धे "क्रियाञ्यतिहारे० | ३ | ३|२३| इत्यात्मनेपदार्थं वचनम् । नन्वात्मनेपदयोरनेनैव सिध्यति किं पुष्यादिपाठेन ? सत्यम् अस्य पुष्यादिपाठो 'द्विर्बद्ध' सुबद्ध ं भवतीति ज्ञापनार्थः तेनास्मादङोऽव्यभिचारः । अन्येषां तु क्वचिद् व्यभिचारोऽपि तेन 'भगवन्मा कोऽपीत्यादि बालरामायणोक्तं सिद्धम् । तिनिर्देशो यङ्लुब्निवृत्त्यर्थः । अशिषद् = 'शासूक् अनुशिष्टी “इसासः शासो० " | ४|४|१०८ । इत्यास इस् । अपास्थत् = 'श्वयत्सू० | ४ | ३ | १०३ इति असू इत्यत्रोकारोपानात् असूच् क्षेपणे इति गृह्यते । ब्रू गादेशः वच् । चक्षादेशः ख्यांग् ॥६०॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) सर्त्यत्तेर्वा ॥३॥४॥६१॥ आभ्यां कर्तर्यद्यतन्यामङ् वा स्यात् । असरत् । असार्षीत् । आरत् आर्षीत् ॥६१॥ ऋ: अदादिभ्वादिर्वा । सर्तेः कर्तर्यात्मनेपदं न दृश्यते "क्रियाव्ततिहारे । ।३।३।२३। इत्यत्र गत्यर्थवर्जनात् । “सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्थाः" इति ज्ञानार्थस्यापि नेष्यते । तिनिर्देशो यङ्लुन्निवृत्त्यर्थः ॥६१॥ हवालिसिचः ॥३॥४॥६॥ एभ्यः कर्तर्यद्यतन्यामङ स्यात् । आह्वत्, अलिपत् । असिचत् ॥६२॥ वग् स्पर्धाशब्दयोः ॥६२॥ वात्मने ।३।४।६३। ह. वादेः कर्तर्यद्यतन्यामात्मनेपदे वाऽङ स्यात् । आह्वत । आह्वास्त । अलिप्त । अलिप्त । असिचत । असिक्त ॥६३॥ आह्वतस्पर्द्धापूर्वके आकारणे ":ह्वःस्पद्ध।३।३।५६। इत्यनेनात्मनेपदम् । ' सामान्याकरणे 'ईगितः' ।३।३।६५इत्यनेनात्मनेपदम् ॥६३॥ . लुदिय तादिपुष्यादेः परस्मै ।३।४।६४। लुदितो द्युतादेः पुष्यादेश्च कर्तर्यद्यतन्यां परस्मैपदेऽङ स्यात् । अगमत् । अद्यु तत् । अरुचत् । अपुषत् । औचत् । परस्मैपद इति किम् ? ससगस्त ॥६४॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) पुष्येति श्यनिर्देशात् पोषतिपुष्णातिभ्यां न भवति । द्युतादयः भ्वादिगणान्तर्गताः धातवः । पुष्यादयः दिवादिगणान्तर्गताः ॥६४॥ ऋदिछ्वस्तम्भू-मच-ग्लु च-च-ग्ल च ग्लु उच-जो वा ॥३॥४॥६॥ ऋदितः श्व्यादेश्च कर्तर्यद्यतन्यां परस्मैपदेऽङ वा स्यात् । अरुधत् । अरौत्सीत् । अश्वत । अश्वयीत् । अस्तभत् अस्तम्भीत । .. अनुचत् । अम्रोचीत् । अम्लुचत् । अम्लोचीत्। अग्रुचत् । अयोति । लुचत् । अग्लोचोत् । अग्लुचत् । अलुञ्चीत् । अजरत् । अजारीत् ॥६५॥ रुधू पी आवरणे ट्वोश्विगतिवृद्धयोः (यजादिः)स्तम्भू सौत्रो धातुः । म्रचू ग्लुचू ग्लुञ्चू पतौ । अचू ग्लुञ्चू स्तेये । ग्लुचूग्लुञ्चोरेकतरोपादानेऽपि रूपत्रयं सिध्यति अर्थभेदात्तु द्वयोपादानम् । ज श् क्योहानौ जू ए जरपिएतद्वयमप्यत्र ग्राह्यम् ॥६५॥ जिच ते पदस्तलुक्च ॥३॥४॥६६॥ पधतेः कर्तर्यद्यतन्यास्ते परे भिच स्यातन्निमित्ततस्य च लुक् । उदपादि । त इति किम् ? उदपत्साताम् ॥६६॥ (पदिंच गतौ) पदेरात्मनेपदित्वात् त इतिआत्मनेपदप्रथमत्रिकवचनं गृह्यते न परस्नैपदमध्यमत्रिकबहुवचनम् एवमुत्तरत्र । प्रकार: ‘णिति' ।४।३।५० इति वृद्धयर्थ : ॥६६॥ दीपजनबुधिपूरितायिप्यायो वा ।३।४।६। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) . एभ्यः कर्तर्यद्यतन्यास्ते परे भिज्वा स्यात्तलुक्च । अदीपि । अदीपिष्ट । अजनि । अजनिष्ट । अबोधि ॥६७॥ दीपैचि दीप्तौ, जनैचि प्रादुर्भावे । अजनि–'न जनबधः" ।४।३।५४। इति वृद्धयभावः । बुधिंच ज्ञाने इकारो देवादिकस्यात्मनेपदिनः परिग्रहार्थः तेन बुध ग अबोधिष्ट इत्यत्र न भवति । पुरैचि आप्यायने, तायङ सन्तानपालनयोः, आप्यायै वृद्धौ ॥६७॥ भावकर्मणोः ३॥४॥६॥ सर्वस्माद्धातोर्भावकर्मबिहितेऽद्यतन्यास्ते जिच् स्यात्तलुक्च आसि त्वया। अकारि कटः ॥६॥ आसिक उपवेशने अदादिः ॥१८॥ स्वरग्रहदृशहन्भ्यः स्यसिजाशीःश्वस्तयां जिड वा - ।३।४।६६ . स्वरान्ताद् ग्रहादेश्च विहितासु भावकर्मजासु स्यसिजाशीःश्वस्तनीषु जिड वा स्यात् । दायिष्यते । दास्यते। अदायिषाताम् । अदिषाताम् । दायिषोष्ट । दासीष्ट । दायिता । दाता। ग्रहीष्यते । अग्राहिषाताम् । अग्रहीषाताम् । ग्राहिषीष्ट । ग्रहीषोष्ट । ग्राहिता । ग्रहीता । दशिष्यते । द्रक्ष्यते । अशिषाताम् । अदृक्षाताम् । दर्शिषीष्ट । दृक्षीष्ट । दशिता। द्रष्टा । घानिष्यते । हनिष्यते। अघानिषाताम् । अवधिषाताम् । घानिषीष्ट । वधिषीष्ट । घानिता । हन्ता ॥६९। प्रकृतिप्रत्यययोर्वचनवैषम्यान्न यथासङ्खयम् । दायिष्यते="आतः ऐ:० Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) ।४।३।५३॥ इत्यात ऐकारः । ग्रहीष्यते 'गृह्णोऽथरोक्षायां दीर्घः' ।४।४।३४। इति दीर्घः । द्रक्ष्यते--'यज-सज० ।२।११८७) इतिशस्य षकारः । षढोः कस्सि"।२।११६२॥ इति षस्य कः, 'नाम्यन्तस्था'० ॥२॥३॥१५॥ इति सस्य षकारः । “अः सजिशो० ॥४।४।१११॥ इति । अहक्षाताम, दृक्षोष्ट'सिजाशिषा०' ।४।३।३५॥ इति सिजाशिषोः किवद्भावः धानिष्यते-'त्रिणवि घन्' ।४।३।१००। इति धनादेशः । हनिष्यते "हनृतः स्यस्य' ।४।४।६४। इतीट् । अवधिषाताम्-'अद्यतन्यां वा त्वात्मने ।४।४।२२। इति वध इति सस्वर आदेश: 'अतः' ।४।३।८२॥ इति वधस्यान्त्यस्वरलोपः। 'स्थानिवद्भावेनानुस्वारेत्त्वेऽप्यनेकस्वरत्वात् एकस्वराद० ।४।४।५६। इति नेनिषेधः । वधादेशविकल्पपक्षे अहसातामिति भवति अत्र 'हनः सिच्' ।४॥३॥३८॥ इति सिच् किद्वद् 'यमिरमि०" ।४।२॥५५॥ इति नलोपः।.. वधीषीष्ठ-'हनो वधः ।४।४।२१। इति वधा देशः ॥६८।। क्यः शिति ।३।४७०॥ सर्वस्माद्धातोर्भावकर्मविहिते शिति क्यः स्यात् । शय्यते । त्वया। क्रियते कटः । शितीति किम् । बभूते ॥७०॥ शय्यते-"किति यि शय् ।४।३।१०५॥ सूत्रेण शय् आदेशः । क्रियते-रिः शक्याशीर्ये ।४।३।११०॥ इति कारस्य स्थाने रि: । बभूव-भू परोक्षाया ए, द्वित्वम् 'भूस्वपोरदुतौ ।४।१७०। इत्यभ्यासेऽकारः 'धातोरिवर्णो० ।२।१।५०। इत्यनेनोवादेशः 'भुवो वः परोक्षा० ।४।२।४३॥ इत्यनेन ऊकार: ॥७०॥ कतर्यनद्भ्यः शव ।३।४।७१॥ अदादिवर्जाद्धातोः कर्तरि विहिते शिति शक् स्यात् । भवति । कर्तगेति किम् । पच्यते । अनभ्य इति किम् ? अत्ति ॥७१॥ . शकारवकारौ शिद्वित्कार्याथी । एकस्माद् बहुवचनानुपपत्तः सर्वेषामप्यभेदोपचारात् अच्छब्देनाभिधानात् बहुत्वात् 'अनब्रयः' इति बहुवचनम्।।७१। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) दिवादेः श्यः ।३।४।७२। दिवादेः कर्तृ विहिते शिति श्यः स्यात् । दोल्यति । जीर्यति ॥७२॥ श्यादयो शवोऽयवादा । दीव्यति-"भवादे मिनो० ॥२।१।६३॥ इति दीर्घः । जोर्यति-"शिदवित्" ।४।३।२०। इति डिद्वद्भावात् "ऋ तां किङ्कतीर्" ।४।४।११६॥ इति ऋ त इर् “भ्वादेर्नामिनो०" ।२।१।६३। इति दीर्घः ॥७२॥ भासभ्लासभमक्रमक्लमत्रसित्रुटिलपियसिसंयसेर्वा ३।४।७३॥ एभ्यः कर्तरि विहिते शिति श्यो वा स्तात् । प्रास्यते । भ्रासते । भ्लास्यते । भ्लासते । भ्राम्यति । भ्रमति । क्राम्यति । कमति । क्लाम्यति । क्लामति । त्रस्यति । वसति । त्रुटयति । त्रुटति । लष्यति। लषति । यस्यति । यसति । संयस्यति । संयसति ॥७३॥ प्राप्ताप्राप्तविभाषेयम् । भ्रमक्लमबसयसानां प्राप्ते भ्रासभ्लासक्रमत्र्ट.लषीणामप्राप्ते वचनम् । यसिग्रहणेनैव सिद्ध संयसिग्रहणमुफ्सर्गान्तरपूर्वकस्य यसेनिवृत्त्यर्थं तेन आयस्यति प्रयस्यतीत्यादौ नित्यं श्यः । टुभ्रासि टुभ्लासृङ दीप्तौ इति भ्वादौ आत्मनेपदिनी । 'भ्रमूच अनवस्थाने' इति दिवादी परस्मैपदी । श्ये सति "शम्सप्तकस्य श्ये" ।४।२।१११। इति दीर्घः । क्रम पादविक्षेपे इति भ्वादौ परस्मैपदी "क्रमो दीर्घः परस्मै" ।४।२।१०८॥ इति दीर्घः ।क्लमच ग्लानौ इति दिवादी परस्मैपदी "ष्ठिवूक्ल." ।४।२।११०। इति दीर्घः, वसंच भये इति दिवादी परस्मैपदी "त्रुटत् छेदने" तुदादिः, 'लषी कान्तौं' इति भ्वादौ उभयपदी 'यसूच प्रयत्ने' इति दिवादिः ॥७३॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) कुषिरजेाप्ने वा परस्मै च ३।४।७४। आभ्यां व्याप्ये कर्तरि शिद्विषये परस्मैपदं वा स्यात्तद्योगे च श्यः । कुष्यति, कुष्यते वा पादः स्वयमेव । रज्यति रज्यते वा वस्त्रं स्वयमेव । व्याप्ये कर्तरीति किम् ? कुष्णाति पादं रोगः । शितीत्येव । अकोषि ॥७॥ 'कुषिरजेप्प्ये क्याद् वा परस्मै इति कृते एव सिद्ध श्यविधानं कुष्यन्ती रज्यन्तीत्यत्र 'श्यशवः' ।२।१।११६॥ इत्यनेन नित्यमन्तादेशार्थम् । 'एकधाती०" ।३।४।८६। इति प्राप्तयोः क्यात्मनेपदयोरपवादः । कुष्णाति पादं देवदत्तः बहिनिकृष्टान्तरवयवं करोति देशान्तरं प्रापयति वा, कुष्यति कुष्यते वा पादः स्वममेव । रजति वस्त्रं रजकः, रज्यति रज्यते वा वस्त्रं स्वयमेव । रजतीत्यत्र “अकट्धिनोश्च. रज्जे: ।४।२।५०। इत्युपान्त्यनका रस्य लुक् ॥४॥ ।४।७५। ... . . . . .. स्वादेः श्नुः ३।४।७५॥ स्वादेः कर्तृ विहिते शिति श्नुः स्यात् । सुनोति । सिनोति ॥ ७५ ॥ शकारः शित्कार्यार्थः । सुनाति–'उ-श्नोः' ।४।३।२। इत्यनेन ‘श्नु' इत्यस्य गुणः । स्वादयोऽत्र 'पुगट अभिषवे' इत्यादयः टकारानुबन्धा ज्ञेयाः ॥७५।। वाऽक्षः ।३।४।७६। अक्षः कर्तृ विहिते शिति अनुर्वा स्यात् । अक्ष्णोति । अक्षति । ॥ ७६॥ 'अक्षौ व्याप्तौ च' इत्यस्माद्धातोः ।।७६।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) तक्षः स्वार्थे वा | ३ | ४७७ । स्वार्थस्तनुत्वं तद्वृत्तेस्तक्षः कर्तृ विहिते शिति श्नुर्वा स्यात् । तक्ष्णोति । तक्षति | स्वार्थ इति किम् ? संतक्षति शिष्यम् । ।। ७७ ।। “तक्षौ तनूकरणे” स्वार्थः तनूकरणम् । तक्ष्णोति काष्ठ तनूकरोतीत्यर्थः । संतक्षति - निर्भत्सयति ॥७७॥ | स्तम्भूस्तुम्भूस्कम्भुस्कुम्भूस्कोः श्ना च । ३ | ४ |७८। स्तरभ्वादेः सौत्राद् धातोः स्कुगश्च कर्तृ विहिते शिति श्ना नुश्च स्यात् । स्तभ्नाति । स्तभ्नोति । स्तुभ्नाति । स्तुभ्नोति । स्क नाति । स्कम्नोति । स्कुनाति । स्कुनोति । स्कुनाति । स्कुनोति ॥ ७८ ॥ पाठापठितत्वे सति सूत्रगृहीतत्वे सति धातुत्वम् = सौत्रधातुत्वम् । अनिदिष्टानुबन्धानां सौत्राणां धातूनां परस्मैपदित्वम् । स्तम्भ्वादीनामूदित्करणं क्त्वाक्तयोरिविकल्पनित्यप्रतिषेधार्थम् । “ ऊदितो वा | ४|४|१२| वेटोऽपतः । ४।४ । ६२ । इति इविकल्पनित्यप्रतिषेधौ ॥७८॥ क्रञ्चादेः ३ | ४|७८६ । क्रयादेः कर्तृ विहिते शिति श्ना स्यात् । क्रीणाति । प्रीणाति । 1 ॥ ७६ ॥ क्रयादयोऽत्र 'डुक्रीग्श् द्रव्यविनिमये' इत्यादयः शकारानुबन्धा ज्ञ ेयाः 11 '92 11 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) व्यञ्जनाच्छ्नाहेरानः ।३।४।८०॥ व्यञ्जनात्परस्य श्नायुक्तस्य हेरानः स्यात् । पुषाण । मुषाण । व्यजनादिति किम् ? लुनीहि ॥८॥ लुनीहि ‘एषामीय॑ज्जनेऽदः ।४।२।६७। इत्यात ईकारः ॥८॥ .. तुदादेः शः ।३।४।८१॥ एभ्यः कर्तृ विहिते शिति शः स्यात् । तुदति । तुदते ॥८१।। शकारः शित्कायार्थः । नुदीत् व्यथने इत्यादयः तकारानुबन्धाः ॥८१॥ रुधां स्वराच्छ्नो नलुक् च ।३।४।८। . रुधादीनां स्वरात्परः कर्तृ विहिते शिति श्नः स्यात्तद्योगे प्रकते! लुक् च यथासम्भवम् । रुणद्धि । हिनस्ति ॥८२॥ चकारेण प्रकृतेर्नकारस्य लुगन्वाचीयते, प्रत्ययनकारस्य तु विधानसामर्थ्यातु लुग्न भवति । रुणद्धि-'अधश्चतुर्थात्तथोर्धः ।२।१।७६॥ इति प्रत्ययतकारस्य धकारः। हिनस्ति-"उदितः स्वरान्नोन्तः” ।४।४।८८। इति नकारस्यानेन लुक् ॥२॥ कृरतनादेरुः ।३।४।३। कृगस्तनादिभ्यश्च कर्तृ विहिते शिति उः स्यात् । करोति । तनोति ॥८॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) तनादिगणेपठित्वा भ्वादिमध्ये 'कृग्' इत्यस्य पाठ, 'करति' इति प्रयोगं शवर्थः । येषां मते कृगस्तनादौ पाठः, तन्मते 'तन्भ्यो वा तथासि न्णोश्च' |४|३|६८। इत्यनेन 'अकृत, अकृष्ट' इति रूपद्वयम् । शव् च न भवति । स्वमते तु 'अकृत, अकृथाः' इति नित्यमेव 'धुड्हस्वाल्लुगः | ४ | ३|७० | इत्यनेन सिचो लुक् ॥८३॥ सृजः श्राद्धे ञिक्यात्मने तथा | ३ | ४ | ८४ | सृजः पराणि श्रद्धावति कर्तरि जिक्यात्मनेपदानि स्युस्तथा यथा पूर्व विहितानि । असर्जि । सृज्यते, त्रक्ष्यते वा मालां धार्मिकः । श्राद्ध इति किम् ? व्यत्यसृष्ट माले गिथुनम् ॥८४॥ तथेति वचनात् यथा भावकर्मणोः ञिक्यात्मनेपदानि भवन्ति तथा कर्तर्यपि अद्यतन्यामात्मनेपदते त्रिच्, तलुक् च शिति च क्य इति सिद्धम् 11 28 11 तपस्तपः कर्मकात् | ३ | ४|८५। तपेः तपः कर्मकर्तरि त्रिक्यात्मनेपदानि स्युस्तथा । तप्यते, तेपे वा तपः साधुः । तप इति किम् ? उत्तपति स्वर्ण स्वर्णकारः । कर्मेति किम् ? तपः साधुं तपति ॥ ८५ ॥ तप्यते तेपे वातपित्र करोत्यर्थकः, त्रिच् तु " तपः कर्तनुतापे च " | ३ | ४ || इति प्रतिषेधान्न भवति । तपः साधु तपति -- दुःखयतीत्यर्थः । ॥ ८५ ॥ एकधात कर्मविययैकाकर्मकि वे | ३ | ४ |८६ | एकस्मिन्धातौ कर्मस्थक्रियया पूर्वदृष्टया एका अभिन्ना सम्प्रत्य Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) afat क्रिया यस्य तस्मिन् कर्तरि कर्मकर्तृ रूपे धातोञिक्यात्मनेपदानि स्युः अकारि, क्रियते, करिष्यते वा कटः स्वयमेव । एकधाताविति किम् ? पचत्योदनश्चैत्रः । सिध्यत्योदनः स्वयमेव । कर्मक्रिययेति किम् ? साध्वसिरिछनन्ति । एकक्रिय इति किम् ? स्रवत्युदकं कुण्डिका । स्रवत्युदकं कुण्डिकायाः । अकर्मक्रिय इति किम् ? भिद्यमानः कुशूल: पात्राणि भिनति ॥ ८६ ॥ साध्वसिश्छिनत्ति -- करणस्थक्रिययैवक्रिये न भवति । स्रवत्युदकं कुण्डिका, स्रवत्युदकं कुण्डिक्राय: ---अत्र विसृजति निष्क्रामतीति क्रियाभेदात् नैकक्रियत्वम् ||६|| पचिदुहे: । ३४८७| एकधातौ कर्मस्थक्रियया पूर्वदृष्टया अकर्मिकया सकर्मकया वा एकक्रिये कर्तरि कर्मकर्तृ रूपे आभ्यां त्रिक्यात्मनेपदानि स्युः । अपाचि, पच्यते, पक्ष्यते वा ओदनः स्वयमेव । अदोहि, दुह्यते, धोक्ष्यते, वा गौः स्वयमेव । उदुम्बरः फलं पच्यते अपक्त वा स्वयमेव । दुग्ध, अदुग्ध, धोक्ष्यते वा पयोगौः स्वयमेव ॥ ८७ ॥ , उदुम्बरं फलं पचति बायुः इति मूलप्रयोगः पचिरन्तर्भूतण्यर्थो द्विकर्मकः उदुम्बरः फलं पच्यते स्वयमेव । दोग्धि गां पयो गोपालकः इति मूलप्रयोगः, दुग्धे गौः पयः स्वयमेव इति दुहिपच्योः कर्मणि त्रिचः प्रतिषेधं वक्ष्यति तथा दुहेत्रिचं विकल्पं, किरादित्वात् 'भूषार्थ सन् ० | ३ | ४१६३ इति क्यस्य च प्रतिषेधं वक्ष्यति इति त्रिचः प्रयोगो न दर्शितः, दुहेश्च क्यस्यापि प्रयोगो न दर्शितः । अकर्मकस्येह पूर्वेणैव सिद्ध सकर्मकार्थं वचनम् ॥८७॥ न कर्मणा त्रिच | ३|४|८८। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८५ ] FT: पचिदुहिन्यां कर्मणा योगे अनन्तरोक्त कर्तरि जिच् न स्यात् । अपक्तोदुम्वरः फलं स्वयमेव । अदुग्ध गौः पयः स्वयमेव । कर्मणेति किम् । अपाच्योदनः स्वमेव । अनन्तरोक्त कर्तरीत्येव। अपाच्योदनः फलं वायुना ॥८८॥ ... अनन्तरोक्त कर्मकर्तृ रूपे इत्यर्थः । अपाचि उदुम्बरः फलं वायुनेतिदुहादीनामप्रधाने कर्मणि कर्मजः प्रत्ययो भवतीति वचनात् 'उदुम्बर' इत्यत्र प्रथमा । यदर्थं क्रियाऽऽरभ्यते तत्प्रधानं कर्म । उदुम्बरो वृक्षविशेषः। ॥८॥ रुधः ।३।४।८। रुधोऽनन्तरोक्त कर्तरि जिच् न स्यात् । अरुद्ध गौः स्वयमेव ।। रुधू पी आवरणे ।।६।। स्वरदुहो वा ।३।४।६। स्वरान्ताद् दुहेश्वानन्तरोक्त कर्तरि ञिज्वा स्यात् । अकृत, अकारि वा कटः स्वयमेव । अदुग्ध, अदोहि वा गौः स्वयमेव ॥१०॥ अकृत='धुड्ह्रस्वाल्लुग०" ।४।३।७० इति सिज्लोपः ॥६०।। तपः कनुतापे च ॥३॥४६॥ तपेः कर्मकर्तरि कर्त्तर्यनुतापे चार्थे जिच् न स्यात् । अन्ववातप्त कितवः स्वयमेव । अतप्त तपांसि साधुः । अन्वतप्त चैत्रेण । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) अन्ववातप्त पापः स्वकर्मणा । कत्रनुतापे चेति किम् । अतापि पृथिवी राज्ञा ॥१॥ नन्वनेन सामान्येन सानुतापेऽननुतापे च कर्तरि कर्मकर्तरि च भविष्यति किमनुतापग्रहणेनेति चेत् अनुतापग्रहणात् भावे कर्मणि च भवन्ति । अनुतापः पश्चातापः, अन्वतप्त चैत्रेण पश्चात्तापः कृतः इत्यर्थः । अन्ववातप्त पश्चात्तापं कारित इत्यर्थः ।।६१।। णिस्नुथ्यात्यत्मनेपदाकर्मकात् ।३।४।६। ग्यन्तात् स्तुश्रिभ्यामात्मनेपदविधावकर्मकेभ्यश्च कर्मकर्तरि जिच्न स्यात् । अपोपचदोदनं चैत्रः । अपीपचतौदनः स्वयमेव । प्रास्नोष्ट गौः स्वयमेव । उदशिश्रियत दण्डः स्वयमेव । व्यकृत सैन्धवः स्वयमेव ॥२॥ आत्मनेपदविधावकमंकेभ्यः-येभ्यः कर्मप्यसति आत्मनेपदं विधीयते ते आत्मनेपदाकर्मकाः । पचति ओदनं चैत्रः तं मैत्रः प्राय अपीपचदौदनं चैत्रेण मैत्रः । अपोपचतौदनः स्वयमेव । प्रास्नावीत् गां देवदन्तः, प्रास्नोष्ट गौः स्वयमेव । उदशिश्रियत् दण्डं दण्डी, उदशिश्रियत दण्डः स्वयमेव । व्यकार्षीत् सैन्धवं चैत्रः गति शिक्षयति स्मेत्यर्थः, व्यकृत सैन्धवः स्वयमेव । विकरोतिरन्त तण्यर्थः । निचप्रतिषेधात् “स्वरग्रह०" ।३।४।६६। इत्यनेन जिट भवत्येव । उत्तरेण पृथग्योगात् जिट: प्रतिषेधो न भवति ॥६२॥ भूषार्थसन्किरादिभ्यश्च मिक्यौ ।३।४।६३। भूषार्थेभ्यः सन्नतेभ्यः किरादिभ्यो । ण्यादियश्च कर्मकर्तरि जिक्यौ न स्याताम् । अलमकृत कन्या स्वयमेव । अलंकुरुते कन्या . स्वयमेव । सन् । अचिकोषिष्ट, चिकीर्षते वा कटः स्वयमेव । किरादिः । अकोट, किरते वा पांशुः स्वयमेव । अगीट, गिरते Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) वा ग्रासः स्वयमेव । णि-कारयते कटः स्वयमेव । चोरयते गौः स्वयमेव । प्रस्तुते गौः स्वयमेव । श्रि। उच्छ्यते दण्डः स्वयमेव । आत्मनेपदाकर्मकात् । विकुर्वते सैन्धवाः स्वयमेव ॥३॥ निरुत्सृष्टानुबन्धो त्रिनिटोग्रं हणार्थः । अलमकार्षीत् कन्यां चैत्रः, अलमकृत कन्या स्वयमेव । एवं अलंकुरुते कन्या स्वयमेव । अचिकीर्षीत्, चिकीर्षति वा कटं चैत्रः, अचिकीषिष्ट चिकीर्षते वा कट: स्वयमेव । अकारीत्कृणाति वा पासु करिः, अकोट किरते वा पांसुः स्वयमेव । आगारीत् गृणाति वा ग्रासं चैत्रः, अगोष्टं गिरते वा ग्रासः स्वयमेव । कृ. गृ. दुह ब्र श्रन्थ नम् इति किरादयः। बहवचनं शिष्टप्रयोगामुसरणार्थम् । णिस्नुश्यात्मनेपदाकर्मकाणां निचप्रतिषेधः पूर्वसूत्रे उदाहृतः, “स्वरग्रहः । ।३।४।६६। इति विहितः जिद त्वेषां भवत्येव । क्यनिषेधः कारयते इत्यादिना उदाह्रियते ॥३॥ करणक्रियया क्वचित् ।३।४।६।। एकधातौ पूर्वदृष्टया करणस्थया क्रियया एकाकर्मक्रिये कर्तरि जिक्यात्मनेपदानि स्युः क्वचित् । परिवारयन्ते कण्टका वृक्ष स्वयमेव । क्वचिदिति किम् ? साध्वसिच्छिनत्ति ॥१४॥ क्वनिद्ग्रहणात्त सकर्मकत्वेपि भवति । परिवारयन्नि कण्टकैः पुरुषा वृक्षम्परिवारयन्ते कण्टका वृक्ष स्वयमेव । साध्वसिश्छिनत्ति-क्वचिदित्युक्त्याऽकर्मकत्वेऽप्युदाहृातम् ॥४॥ ॥ इति तृतीयोऽध्यायः॥ पं० वीरविजयजी महाराज ने भादरवा सुद पंचमी . पर्वरूप नहीं है ऐसा पर्युषण के चैत्यवंदन में कहा है, देखो चैत्यवंदन की माथा "नहि ए पर्वो पंचमी, सर्व समाणी चौथे, भवभोर मुनि मानशे, भाख्य अरिहानाथे॥ अर्थ=भादरवा सुदी पंचमी पर्व नहीं है क्योंकि कालिकसूरि ने पंचमी की चोथ की उस दिन से चोथ में सम्पूर्ण पंचमी आ गई है, यह बात जिसके दिल में भव का भय . | होगा वे मुनिवर मान्य करेंगे ऐसा अरिहंत प्रभु ने कहा है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ चतुर्थाध्यायः॥ 4. - द्विर्धातुः परोक्षा प्राक्त स्वरे स्वरविधेः ।४।१।१॥ परोक्षायां च परें धातुद्धिः स्यात्, स्वरादौ तु द्वित्वनिमित्त स्वरस्य कार्यात् प्रागैव । पपाच । धातुरिति किम् ? प्राशिनिंयत् । प्रागिति किम् ?, चक्रतुः । स्वर इति किम् ? जेघीयते। स्वरविधेरिति किम् ? शुशाश्व । प्राक्त स्वरे स्वरविधेरिति आद्विर्वचनमधिकारः ॥१॥ गुणरत्नावृत्तिः-पाचेत्यत्र पुनरपि द्विर्वचनं न भवति, द्विरिति वचनात् । शुशावेत्यत्र स्वरव्यञ्जनयोरुभययोरपि कार्यमुपस्थितंटवृत् पश्चात् शु इति द्विवचनम् । प्रोक्तु स्वरें स्वरविधेरिति आद्विर्वचनमधिकार अन्यथा हि आटिटत्।इत्यादि न सिध्यति पूर्व टिरति द्वित्वम्, पश्चान्, गेर्लोपः ।।१॥ आद्योऽश एकस्वरः ।४।१।२। ....... अनेकस्वरस्य धातोराद्य एकस्वरोऽवयवः परोक्षा प्रत्यये द्विर्भवति । जजागार, अचीकणत, अचकाणत, अचीकरत् ॥२॥ एकस्वरस्य॒कस्वरेंशे द्विरुक्त न किञ्चिदस्य फल मिति यद्वा एकस्वर इति सम्बन्धिशब्द: सामर्थ्यादनेकस्वरं धातुमाक्षिपतीत्याह-अनेक रबरयेति । पूर्णेण सर्वस्य द्वित्वे प्राप्ते वचनम् ॥२॥ सन्यङश्च ।४।१।३। सन्नन्तस्य यङन्तस्य चाद्य एकस्वरोंऽशो द्विः स्यात् । तितिक्षते । ' पापच्यते ॥३॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) . नन्वन सनि यङि च निमित्तभूते एकस्वरस्य द्वित्वमिति सप्तमी कथं नादायीति चेत्सत्यम् षष्ठीनिर्देशः उत्तरार्थः तेनोत्तरेण प्रतीषिषतीत्यादि सिद्धम् । चकारः पूर्वोक्तनिमित्तसमुच्चयार्थ उत्तरार्थ एव तेनोत्तरत्र परोक्षा. सन्नन्तयङन्तानां च यथासंभवं द्वित्वं सिध्यति । तिजि क्षमानिशानयोः 'गुप्तिजो०' "३।४।५॥ इति सन् ॥३॥ स्वराद्वितीयः ।४।३॥४ स्वरादेव्युक्तिभाजो द्वितीयोऽश एकस्वरो द्विः स्यात् । अटिटिपति । अशाश्यते । प्राक्त स्वरे स्वरविधेरित्येव । आटिटत् ॥४॥ आटिटत् इत्यत्र पूर्व द्वित्वं पश्चात् गेहूं क् “णिश्रि०' ।३।४।५८। इति ङप्रत्ययः ॥४॥ . न बदनं संयोगादिः ।४।१॥५॥ स्वरादेर्धातोद्वितीयस्यांशस्यैकस्वरस्य बदनाः संयोगास्याद्या न द्विः स्युः । उब्जिजिषति । अट्टिटिषति । उन्दिदिषति । संयोगादिरिति किम् ? प्राणिणिषति ॥५॥ संयोगादि:-"उपसर्गादः किः ५॥३॥८७। इति ॥५॥ अयि रः ।४।१।६। स्वरादेर्धातोद्वितीयस्यांशस्यैकस्वरस्य संयोगादी रो द्विर्न स्यात् । न तु रादनन्तरे यि । अचिचिषति । अयोति किम् । अरार्यते ॥६॥ अनन्तरे-“सप्तभ्याः पूर्वस्य" ।७।४।१०५॥ तच्चानन्तर्यस्यैवेति । अरायते Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) 'क्य-या-शीयें ।४।३।१०। इति गुणः ॥६॥ नाम्नो द्वितीयाद् यथेष्टम् ।४।४।७। स्वरादे मधातोरन्यस्य द्वित्वभाजः द्वितीयादारभ्यकस्वरोंऽशो यथेष्टं द्विः स्तात् । अशिश्वायिषति । अश्वीयियिषति । अश्वीयिषिषति ॥७॥ द्वितीयादिति-'गम्ययपः ।२।२।७४। इति पञ्चमी। यथेष्टम्-यो यः .. इष्ट: 'योग्यतावीप्सा० ।३।१।४० इत्यत्ययीभावः । अश्वमिच्छतीति ‘अमा- .: व्ययात् क्यन्' ।३।४।२३। इति क्यन् 'क्यनि' ।४।३।११२। सूत्रेण ईकारः, . अश्वीयितुमिच्छतीति=अशिश्वीयिषतीत्यादि ॥७॥ अन्यस्य ।४।१।। स्वरादर्नामधातोरन्यस्य द्वित्वभाजः एकस्वरोंशो यथेष्टं प्रथमादिद्विः स्यात् । पुपुत्रीयिषति । पुतिनीयिषति । पुत्रीयियिषति । पुत्रीयियिषति ॥८॥ पुत्रमिच्छतीति पुत्रीयति पुत्रीयितुमिच्छतीति सनि पुपुत्रीयिषतीव्यादि । द्वितीयादित्यधिकारो नेष्ट इति प्रथमादिरित्युक्तम् ॥८॥ कण्ड्वादेस्तृतीयः ।४।१। कण्ड्वाद्वित्वभाज एकस्वरोंऽशस्तृतीय एव द्विः स्यात् । कण्डूयियिषति । असूयियिषति ॥६॥ कण्ड्ग गात्रविघर्षणे इति 'धातोः कण्ड्वादेर्यक् ।३।४।८॥ इति कण्डयितुमिच्छति ॥६॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) . ..Bino ..... -.- . hae. maaaaaa पुनरेकेषाम् ।४।१।१०। एकेषां मते द्वित्वे कृते पुद्वित्वं स्यात् । सुसोषुपिषते । एकेषामिति किम् ? सोषुपिषते ॥१०॥ सुसोषुपिषते-भृशार्थे यङ् 'स्वपेर्यङच ।४।१।८०। इति टवृद्, द्वित्वं, सोषुपितुमिच्छतीति सन् ‘अतः ।४।३।८२। इत्यनेन अकारलोपात् 'स्वश्स्य परे० ।७।४।११०। इति स्थानित्वाभावे 'योऽशिति ।४।३।८०। इति यो लुक सिद्धः ॥१०॥ - -- - - - यिः सन्वयः ।४।१।११॥ ईयॉद्वित्वभाजो यिः न वा द्विः स्यात् । ईष्यियिषति । ईष्यिषिषति ॥११॥ ईर्ण्य ईर्थिः भ्वादिः ॥११॥ हवः शिति ।४।१।१२। जुहोत्यादयः शिति द्विः स्युः। जुहोति ॥१२॥ बहुवचनं जुहोत्यादिगणपरिग्रहार्थम् । हुक दानादनयोः इत्यादयः विष्लु की व्याप्ती इतिपर्यन्ताः १४ धातवो जुहोत्यादिगणे ज्ञातव्याः ॥१२॥ चराचरचलाचलपतापतवदावदघनाघनपाटपटं वा ।४।१।१३। एतेऽचि कृतद्वित्वादयो वा निपात्यन्ते । चराचरः । चलाचलः । पतापतः । वदाददः । पाटूपटः । पक्षे । चरः। चलः। पतः । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) वदः । हनः । पटः ॥ १३ ॥ , चरिचलिपतिवदिहन्तीनामजन्तानां द्विवं हन्तेर्हस्य घत्वं पूर्वस्य च दीर्घत्वम् सर्वं निपातनात् भवति । चरतीति चराचरः एवं चलति, पतति वदति, हन्ति इति घनाघनः इत्यत्र प्रथमस्य निपातनात् घत्वं द्वितीयस्य तु 'अङ हिनो० |४|१|३४ | इति सिद्धमेव । णिगन्तपाटयते रजन्तस्य द्वित्वं, ह्रस्वत्वं, पूर्वस्य च ऊकारान्तता निपात्यते ॥ १३ ॥ चिक्लिदचन्कम् |४|१|१४| एतौ केऽचि च कृतद्वित्वौ निपात्येते । चिक्लिदः । चक्नसः ॥१४॥ क्लिदोच् आर्द्रभावे क्लिद्यतीति 'नाम्युपान्त्य० | ५|१|५४ | इति के क्नसूच् ह्वतिदीप्त्योः क्नस्यतीति अचि अथवा क्लेदनं क्नसनं वेति घञर्थे 'स्थादिभ्यः कः' | ५|३|८२ । इति सूत्रेण कप्रत्यये निपातनादुभ्यत द्विर्वचनम् 'कङश्चञ्' |४| १ | ४६ । इति ककारस्य चकारः || १४ || दास्वत्साह, वन्मीदवत् ४।१।१५। एते वसावद्वित्वादयो निपात्यन्ते । दास्वांसौ । साह्वांसौ । मोढवांसौ ॥१५॥ दाशृग् दाने इत्यस्य क्वसावद्वित्वमनिट्त्वं च निपात्यते । षहि मर्षणे इत्यस्य आत्मनेपदित्वात्कान प्राप्तावपि परस्मैपदिक्वसुः, अद्वित्वम्, उपान्त्यदीर्घत्वम्, अनिट्त्वं च निपात्यते । षहण मर्षणे इत्यस्य तु न निपातनमिष्टिवशात् । मिह सेचने इत्यस्याप्यद्वित्वमनित्वमुपान्त्यदीर्घत्वं ढत्वं च निपात्यते ॥ १५॥ ज्ञप्यापो ज्ञीपीप् न च द्वि: सिसनि |४|१|१५| Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) ज्ञपेरापेश्च सादौ सनि परे यथासंख्यं ज्ञपीपौ स्थातों में चालको रेकस्वरोंऽशो द्विः स्यात् । जीप्सति । ईप्सति । सीति किम् ? जिज्ञपयिषति ॥१६॥ शीप्सति-ज्ञाश् जानन्तं प्रयुङ्क गिग "अतिरी० ४।२।२१॥ इति पोऽन्तः, 'मारणतोषण०।४।२।३०। इति ह्रस्वत्वम् । जिज्ञपयिषति सूत्रात् ज्ञपयितुमिच्छतीति सन् । ईप्सति- 'आप्लृट् व्याप्तौ' इति गृह्यते, आप्लुण लम्भने इत्यस्य गिजभावेऽपि नित्यमिटि सादिस्सन् नास्ति ॥१६॥ अध ईत् ।४।१।१७। ऋधः सादौ सनि परे ई स्यात् न चास्य द्विः । ईसति । सीत्येव--अदिधिषति ॥१७॥ ऋधंच वृद्धौ दिवादिः ऋधंट वृद्धो स्वादिः उभौ गृह्म ते 'ऋध इति : सामान्यनिर्देशात् 'धातुसन्विचाले' इवृधभ्रस्जदम्भ०' ।४।४।४७। इति विकल्पेनेट् ॥१७॥ दम्भो धिपधीप ।४।१।१८। दम्भः सि सनि धिप्धीपो स्यातां मचास्य द्विः पित्तति, .धीप्सति । सीत्येव-दिदम्भिषति ॥१८॥ इवृध भ्रस्जदम्भ० ।४।४।४७। इति विकल्पेनेट् ॥१८॥ अम्बाप्यस्व मुचेर्मोग्वा ।४।१।१६ मुचेरकर्मणः सि सिन मोग्वा स्यान्नचास्थ द्विः । मोक्षति । मुमुक्षति चैत्र । अध्यायस्पति किम् ? मुमुक्षति क्त्तन l Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६४ ] न विद्यत्ते व्याप्यं यस्य तस्य ॥१६॥ मिमीमादामित्स्वरस्य ।४।१।२०। मिमीमादासंज्ञानां स्वरस्य सि सनि इत् स्यान्न च दिवः । मित्सति । मित्सते । मित्सते । दित्सति । धित्सति ॥२०॥ मि-मी-मा-दामिति–डुमिंग्ट प्रक्षेपणे 'मिग्मीगोऽखल० ।४।२।८ इत्यात्त्वे माद्वारेणैव सिध्यति कि मिग्रहणेनेति चेत्सत्यं 'नामिनोऽनिट' ।४।३।३३। इति सनः कित्वादात्वं न प्राप्नोति । मोति--मीङच, मींगश, मीण इत्येतेषां ग्रहणम्, मेति मांमाङ्कमेङां, ग्रहणम् दासंज्ञया “दांदेडदाग्दों ट्धे” इति गृह्यन्ते । बहुवचनं व्याप्त्यर्थं तेन 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' 'लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम्' इति नाश्रीयते ॥२०॥ रभलभशकपतपदामिः ।४।१।२१। एषां स्वरस्य सि सनि इः स्यान्न च दिवः । आरिप्सते । लिप्सते । शिक्षति। पित्सति। पित्सते । सीत्येव--पिपतिषति ॥२१॥ बहुवचनं शकी शक्लुटोरुभयोरपि ग्रहणार्थमन्यथा निरनुबन्धत्वात् देवादिकस्यैव ग्रहणं स्यात् । पिपतिषति–'इवृध०' ।४।४।४७। इति वेट ॥२१॥ राधेर्वधे ।४।१।२२॥ राहिँसार्थस्य सि सिन स्वरस्य इ. स्यान्न च द्विः । प्रतिराद्धमिच्छति । आपूर्वो राध् अराधनार्थे वर्तते ॥२२॥ राधंच वृद्धौ प्रतिराद्ध मिच्छति । आपूर्वो राध आराधनार्थे वर्तते ।।२२।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) आवित्परोक्षासेट्यवोरेः ।४।१॥३॥ राहिँसार्थस्याविति परोक्षायां थवि च प्रेटि स्वरस्य एः स्यान्न च दिवः । रेधुः । रेधिथ । अविदिति किम् ? अपरराध । वध इत्येव--आरराधतुः ॥२३॥ रेधिथ-'स्क्रसृवभृस्तु० ।४।४।८१॥ इत्यनेन इट् । अनादेशादेकव्यञ्जनमध्येऽतः ।४।१।२४। अवित्परोक्षासेट्थवोः परयोर्योऽ नादेशादिस्तत्सम्बन्धिनः स्वरस्यातोऽसहायव्यञ्जनयोर्मध्यगतस्यैः स्यान्न च दिवः । पेचुः । पेचिथ । नेमुः, नेमिथ । अनादेशादेररिति किम् ? बभणतुः । एकव्यञ्जनमध्य इति किम् ? ततक्षिथ। अत इति किम् ? दिदिवतुः । सेट्थवीत्येव-पपक्थ ॥२४॥ यस्यधातौः परोक्षादिनिमित्तमाश्रित्याभ्यासे वर्णविकारः क्रियते स आदेशादिर्धातुरुच्यते । यथा बभणतुः । यस्य तु परोक्षादिनिमित्तेऽपि आदेशो न स्यात् स अनादेशादिर्धातुः । यथा पेचु:, ने पुः । एके असहाये च ते व्यञ्जने च इति एकव्यञ्जने, नयोर्मध्यम् एकव्यञ्जनमध्यम्, तस्मिन्-केवलयोः, न संयोगाक्षरयोरिन्यर्थः । नेमुः-अत्र ‘णम्' धातोः नत्वविधिः अनिमित्तः, न तु परोक्षाथविनमित्तकः। तृत्रपफलभजाम् ।४।१।२५ एषामवित्परोक्षासेट्थवोः स्वरस्यैः स्यान्न च दिवः । तेरुः । तेरिथ । त्रेपे । फेलुः । फेलिथ । भेजुः । भेजिथ ॥२५॥ तरतेरतो गुणरूपत्वात् 'न शस-दद० ।४।१।३०। इत्येन गुणवतां धातूनामेत्व Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषेधात् त्रपेरनेकव्यञ्जनमध्यगतत्वात् फलभजोरादेशादित्वाच्च पूर्वसूत्रेण न प्राप्नोतीति वचनम् । बहुवचनं फल त्रिफला (फल निष्पत्ती, त्रिफला विशरणे) इत्यु-भययोरपि ग्रहणार्थमन्यथा 'निरनुबन्धग्रहणे न०' इति न्यायेन 'त्रिफला इत्यस्य ग्रहणं न स्यात् । तेरुः-प्राक् तु स्वरे इति भणनात्पूर्व द्वित्वे 'स्कृ.च्छु तोऽ कि' ।४।३८ इति गुणे ऽस्य एत्वे, न च द्विरिति वचनात्कृतमपि द्वित्वं निवर्तते, एवं ज धातोरपि ज्ञेयम् ॥२५॥ ज भसवमत्रसफणस्यमस्वनराजभाजभासभ्लासो वा ।४।१।२६। एषां स्वरस्यावित्परोक्षासेट्यवोरेर्वा स्यान्न च दिवः । जेरुः, जजरुः । जेरिथ, जजरिथ, । भ्रमः, बभ्रमः । भ्रमिथ, बभ्रमिथ । वेनुः, ववमुः। वेमिथ, ववमिथ । त्रेसुः, तत्रसुः । सिथ, तत्रसिथ । फेणुः, पफणुः । फेणियः, पफणिथ। स्येमुः, सस्यमुः। स्येमिथ, सस्यमिथ । स्वेनुः। सस्बनुः । स्वेनिथ, सस्वनिथ । रेजुः रराजुः । रेजिथ, रराजिथ । जे, बभ्राजे । ध्र से, बभ्रासे। भलेंस, बन्लासे ॥२६॥ जेत:-"स्कृच्छ तोऽ कि परोक्षायाम् ।४।३।८। सूत्रेणात्र गुणः । गजसहचरितभ्राजेरैवं ग्रहणम् ॥२६॥ वा श्रन्थग्रन्थो नलुक् च ।४।१।२७। अनयोः स्वरस्थावित्परोक्षासेट्थवोरेर्वा नद्योगे च नोलुक् न च दिवः । श्रेथु, शश्रन्थः । श्रेथिथ, शश्रन्थिय । ग्रंथ, जग्रन्थु । ग्रेथिथ, जग्रन्थिथं ॥२७॥ 'श्रन्थग्रन्थ' इत्युक्तत्वात् ( श्रन्थश् मोचनप्रतिहषयोः, ग्रन्थश् संदर्भे) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) .श्रन्थग्रन्थधातू क्रयादिको ग्राह्यो । 'श्रथुङ शैथिल्ये, ग्रथूङ् कौटिल्ये' इत्यनयोर्न ग्रहणम् ‘उदितः स्वरान्नोन्तः ।४।४।९८। इत्यनेननोऽन्ते लाक्षणिकत्वात् न एत्वम् । प्रकृतिप्रत्यययोर्वचनभेदान्न यथासंख्यम् ॥२७॥ -- दम्भः ।४।१।२८॥ दम्भः स्वरस्यावित्परोक्षायामः स्यात् न च द्विस्तद्योगे च नो लुक् । देभुः ॥२८॥ णवो वित्त्वात् ददम्भ इत्यत्र न भवति ॥२८॥ थेवा ।४।१।२६॥ दम्भः स्वरस्य थव्येर्वा स्यात्तद्योमे च नो लुक, न च हिः । देझिय, ददम्भिथ ॥२६॥ वर्तमानाथप्रत्यये नुना व्यवधानात्प्राप्त्यभाव इति परोक्षाया एव थप्रत्ययग्रहणम् ॥२९॥ - न शसददिवादिगुणिनः ।४।१।३०। शसिदद्योर्वादीनां गुणिनां च स्वरस्यन स्यात् । विशशसुः । विशशसिथ दददे । ववले । विशशरुः । विशशरिथ ॥३०॥ शसू हिंसायाम् ददि दाने, वलि संवरणे, श.श् हिंसायाम् 'स्कृच्छ्र तोऽकि परोक्षायाम् ।४।३।८। इति गुणः ॥३१॥ हौ दः ।४।१।३१। दासंज्ञस्य हौ परे एः स्यान्न च द्विः । देहि । धेहि ॥३१॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( हद ) न च द्विरिति वचनात्कृतमपि द्वित्वं निवर्तते तेन यङ् लुप्यपि देहीति भवति । `यद्यपि प्रत्यासत्तेर्न्यायात् यस्मिन्नेव प्रत्यये एत्वं द्वित्वं च प्राप्तं तस्मिन्नेव प्रत्यये न च द्विरिति प्रवर्तते तथापि न च द्विरित्यस्य व्यक्व्या प्रवर्तनात्, लुप्यपि देहीति भवति ॥ ३१ ॥ देर्दिगि: परोक्षायाम् |४|१|३२| देड : परोक्षायां दिगि स्यान्न च द्विः । दिग्ये ॥ ३२॥ देङ् पालने ‘योऽनेकस्वस्स्य’ ।२।१।५६ | सूत्रेणेकारस्य स्थाने 'य्' आदेशः। ३२ ॥ ङ पिब: पीप्य् |४|१|३३| ण्यन्तस्य पिबते परे पीप्य् स्यात् । न च द्विः । अपीप्यत् ॥३३॥ पिबत्येकदेशपिबिति निर्देशात् पातेर्न भवति । लुप्ततिनिर्देशात् यङ्लुपि न भवति ||३३| अ हिनो हो घः पूर्वात् ॥ ४ ॥ १ ॥ ३४ ॥ हिनोडंवर्जे प्रत्यये परे द्वित्वे सति पूर्णस्मात्परस्य हो घः स्यात् प्रजिघाय | जंघन्यते । अङे इति किम् ? प्राजीहयत् ॥ ३४॥ पूर्वादिति वचनात् न च द्विः' इति निवृत्तम् जंघन्यते— कुटिलं हन्ति 'गत्यर्थात् ० | ३|४|११| इति यङ्, यदि हिंसार्थस्तदा 'हनो घ्नीबंधे' | ४ | ३ |९९ | इति स्यात् प्राजीहयत् - प्र + अ + हि + ङ्+त् ॥३४॥ जेोगः सन्परोक्षयोः | ४|१|३५| Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्परोक्षयोद्वित्वे सति पूर्वात्परस्य जेगिः स्यात् । जिगीषति । विजिग्ये ॥३५॥ जिं अभिभवे । यदि पूर्वादित्यधिकारः स्यात्तदा द्वित्वसहितस्यापि आदेश: स्यात् अथवा द्वित्वे पूर्वस्य स्यात् ॥३५।। चे किर्वा ४१३६ । !। सन्परोक्षयोद्वित्वे सति पूर्वस्मात्परस्य चेः किर्वा स्यात् । चिकोषति । चिचीषति । चिक्ये चिच्ये ॥३६॥ स्वरहन० ।४।१।१०४१ इति दीर्घत्वे, द्वित्वे किरूपादेशे पुनः 'स्वरहन० ।४।१।१०४। इति दीर्घत्वं यावत्संभवः ० इति न्यायात् ॥३६॥ पूर्वस्यास्वे स्वरे यवोरियुक् ।४।१॥३७॥ द्वित्वे सति यः पूर्वस्तत्सम्बन्धिनोरिवर्णोवर्णयोरस्वे परे इयुवौ स्याताम् । इयेष । अरियति । उबोष । अस्व इति किम् ? ईषतुः । स्वर इति किम् ? इयाज ॥३७॥ इयेष-'अस्वे स्वरे' इति भणनात् गुणे कृते इयादेशः । ननु तथापि • 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग' इति न्यायेन गुणस्यासिद्धत्वान्न प्राप्नोतीति, चेन्मैवं न स्वरानन्तर्ये' इति न्यायादयं न्यायो नोपतिष्ठते । अरियतिअर्तेर्यङलुपि द्वित्वम्, 'रिरौ च लुपि ।११।५६। सूत्रेण "रिः" इवर्णस्य इयादेशश्च ॥३७॥ - - ऋतोऽत् ।४।१।३८। वित्वे सति पूर्वस्य ऋतोऽत् स्यात् । चकार ॥३॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १०० ) चकारेत्यत्र 'कङश्चत्र '।४।१॥४६॥ इति चत्वम् ॥३८॥ ह्रस्वः ।४।१।३। वित्वे सति पूर्वस्य ह्रस्वः स्यात् पपौ ॥३६॥ पपो–'आतो णव औः ।।२।२०। इति णव औरादेशः ॥३९॥ गहोर्जः ।४।११४०॥ द्वित्वे सति पूर्वयोर्गहोर्जः स्यात् । जगाम । जहास । ॥४०॥ जगामेत्यत-णवो णित्त्वात् वृद्धिः ॥४०॥ धु तेरिः।४।११४१॥ द्युतेद्वित्वे सति पूर्वस्य इः स्यात् । दिद्युते ॥४१॥ 'दिद्य ते' इत्यत्र यकारस्य 'व्यञ्जनस्यानादेर्लुक् ।४।१।४४ इति लुक् ॥४१॥ द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी।४।१॥४॥ द्वित्वे पूर्वयोर्दिवतीयतर्ययोर्गथासङ्खय पूर्वावाद्यतृतीयौ स्याताम चखान । जझाम ॥४२॥ द्वितीयतुर्ययोरिति कथनाभावे पपाचेत्यत्रापि सामीप्यात् पूर्वो नकारः स्यात् ॥४२॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) तिर्वा ष्ठिवः ।४।१।४३॥ ष्ठिवेदिवत्वे सति पूर्वस्य तिर्वा स्यात् । स्यात् । तिष्ठेव, तिष्ठेव ॥४३॥ 'ष्ठिवू निरसने' इति भ्वादिः, ष्ठिवू निरसने इति दिवादिः द्वयोरपि ग्रहणंम् । तेरिकारोऽत्रोच्चारणार्थः तेन इवृध० ।४।४।४७। इत्यादिना वेटि तुष्ठय पति, टुष्ठ्य षति । 'अनुनासिके च० ।४।१।१०८। इति सूत्रेण वकारस्य ऊट । पूर्वस्येति-आदेशविधानसेव ज्ञापयति ष्ठिवेः षकारः ठकारपरः, प्ठाष्टय प्रभृतीनां तु तवर्गपरः तेन तस्थौ, तस्टयो इत्यादि भवति । अन्यथा 'अघोषे शिटः ।४।१।४५ इति षलोपे 'निमित्ताभावे०'। इति न्यायेन तस्य थे 'द्वितीयतुर्ययोः०" ।४।१।४२ इति थकारस्य च ते सिद्ध एव । पशे टकारविधानार्थं तु टिर्वा ष्ठिवः इति सूत्रं कुर्यादित्यर्थः तस्टयो' इत्यत्र ष्ट्य धातो: “आत्सन्ध्यक्षरस्य ।४।२।१ सत्रादा-त्वे 'ष्टया' इति ॥४३।। व्यञ्जनस्यानादेलक ।४।१।४४। द्वित्वे पूर्वस्य व्यञ्जनस्यानादेलुक् स्यान् । जग्ले । अनादेरिति किम् ? आदेर्मा भूत् । पपाच ॥४४॥ अभ्याससत्कान्यव्यञ्जनस्य लुक् न तु पूर्वव्यञ्जनस्येति भावः ॥४४॥ - अघोष शिट: ।४।१।४५॥ वित्वे पूर्वस्य शिटस्तत्सम्बन्धिन्येवाधोषे लुक् स्यात् । चुश्च्योत। अधोष इति किम् ? सस्नौ ॥४५॥ · अनादिलुगपवादोऽयम ॥४५॥ कङश्चन ।४।१।४६। वित्वे पूर्वयोः कडोर्यथासंख्यां चौ स्याताम् । चकार । जुकुचे ॥४६॥ . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) डुङ शब्दे भ्वादिधातुः ङित्वादात्मनेपदम् ॥४६॥ न कर्तर्यङः |४|१|४७ ॥ यङन्तस्य कवित्वे सति पूर्वस्य कश्चो न स्यात् । कोकूयते खरः । कवतेरिति किम् ? कोतिकुवत्योर्मा भूत् । चोकूयते । यङः इति किम् ? कुवे ॥४७॥ कवतेरिति शनिर्देशात् कुशब्दे भ्वादिरेव गृह्यते । कौतिकुवत्यो:कु'क् शब्दे अदादिः, कुङ् शब्दे तुदादिः अनयोः पूर्वस्य चकारो भवत्येव । चोकूयते - कौतिकुवत्योः प्रयोगोऽयम् । कवतिरव्यक्त, शब्दे, कुवतिरार्त्तस्वरे, कौतिः शब्दमात्रे । एषां पाठे शब्दमात्रार्थत्वेऽपि गत्यर्थत्वाविशेषे धावतिगच्छत्यादीनामिवार्थ भेदः । यङ्लुपिच निषेधो न भवति, चोकवीति ॥४७॥ आगुणावन्यादेः । ४।१।४८ । यङन्तस्य वत्वे पूर्वस्य न्याद्यागमवर्जस्य आगुणौ स्याताम् । पापच्यते । लोलूयते । अन्यादेरिति किम् ? वनीवच्यते । जञ्जप्यते । यम्यते ॥ ४८ ॥ एतावाकारगुणौ न यङ्निमित्ताविति पापचीतीत्यादौ यङ्लुप्यपि भवतः । अन्यादेः - न भविष्यन्ति न्यादयो यस्य सोऽन्यादिस्तस्य । न्यादीनामन्तस्य तु विधानसामर्थ्यान्न भवति । ननु अत्रापवादत्वान्न्यादय एव बाधकाभविष्यन्ति किं न्यादिवर्जनेनेति चेत्सत्यम् द्वित्वे सति पूर्वस्य विकारेषु बाधको न बाधक इति ख्यापनार्थम् तेन 'अचीकरद्' इत्यत्र सन्वावस्य 'लघोर्दीघोऽस्वराः | ४|१|६४ इति सूत्रं न बाधते, अन्यथा परत्वादपत्रादत्वाच्च पूर्व लघोर्दीर्घो |४| १६४ इति प्रवर्तेत, ततः 'अचाकरत्' इति प्रयोगः स्यात् 'अचीकरद्' इति इष्टश्च ॥ ४८ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) 'न हाको लुपि ।४।१॥४६॥ हाको द्वित्वे पूर्वस्य यङो लुप्या न स्यात् । जहेति ॥४६॥ "ओहांक् त्यागे” इत्यस्य यङ्लोपानन्तरं “यङ्-तुरुस्तोर्बहुलम् ।४।३।६४। इत्यनेन धातोः परत ईति ‘अवर्णस्ये'०।१।२।६। इत्यनेन एत्वे च जहेति ॥४६॥ वञ्चत्र सध्वंस भै सकसपतपदस्कन्दोऽन्तो नीः । ।४।११५० एषां यङन्तानां दिवत्वे पूर्वस्य नीरन्तः। वनीवच्यते। सनीस्त्रस्यते । दनीध्वस्यते । बनीघ्रस्यते । चनीकस्यते। पनीपत्यते । पनीपद्यते । चनोस्क द्यते ॥५०॥ धु तादिध्वंससाहर्चात् स्रसूङ अवस्र सने इत्यस्यैव धुतादिध्वंसो ग्रहः, स्रस् प्रमादे इत्यस्य तु सास्रस्यते इति भवति । म्रशिरपि भ्रशूङ् अवस्रसने इति भ्वादिरेव गृह्याते भ्वादिध्वंससाहचर्यात् । भ्रशूच् इत्यस्य तु बाभ्रश्यते इत्येव ॥५०॥ मुरतोऽनुनासिकस्य ।४।११५१॥ आत्परो योऽनुनासिकस्तदन्तस्य यङन्तस्य दिवत्वे पूर्वस्य मुरन्तः स्यात् । बम्भण्यते । अत इति किम् । तेतिम्यते । अनुनासिकस्येति किम् । पापच्यते ॥५१॥ ये त्वनुनासिकान्तस्य धातोद्वित्वे सति पूर्वस्याऽत इति विशेषणं मन्यन्ते तन्मते भामि क्रोधे इत्यस्य बंभाम्यते । तन्मतसंग्रहायातः इति षष्ठी व्याख्येया । स्वमते तु आत्परस्यानुनासिकस्याभावात् बाभाम्यते इति । ॥५१॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) जपजभदहदशमञ्जपशः ।४।१।५२॥ एषां यङन्तानां वित्ने पूर्वस्य मुरन्तः स्यात् । जञ्जप्यते । जञ्जभ्यते । दन्दह्यते । दन्दश्यते । बम्भज्यते। पम्पश्यते । ॥५२॥ पम्पश्यते-पशिति सौत्रो धातुः दशिति लुप्तनकारनिर्देशाद् यङो लुप्यपि दशेनलोपो भवति । 'गृ लुप० ।।४।१२। इत्यत्रापि ज्ञापितं, परं 'द्विबंद्धं सुबद्धं ०" भवतीति न्यायेन अत्रापि ज्ञापितम्। जंजपा पि, जंजभोति दंदहीति, दंदशीति, बम्भजोति, पंपशीति यङ्लुपि एतानि रूपाणि भवन्ति । 'आगमशासनमनित्यमिति न्यायात् जंजभीतीत्यत्र 'जभः स्वरे ।४।४।१००। इति नागमाभावः ॥५२॥ चरफलाम् ।४।१।५३॥ एषां यङन्तानां द्वित्वे पूर्वस्य मुरन्तः स्यात् । बञ्चूर्यते । पम्फुल्यते ॥५३॥ बहुवचनं फलनिष्पती, त्रिफला विशरणे इति द्वयोः परिग्रहार्थम् । अन्यथा 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' इति. न्यायात् त्रिफला इत्यरय ग्रहणं न स्यात् ॥५३॥ ति चोपान्त्यातोऽनोदुः ।४।१।५४। यङन्तानां चरफलां तादौ च प्रत्यये उपान्त्यस्यात उः स्यान्नच तस्यौत् । चञ्चूर्यते । पम्फुल्यते। चूत्तिः । प्रफुल्लिः । अत किम् । बञ्चार्यते । पम्फाल्यते । अनोदिति विम् । चंचूत्तिः । पम्फुल्लिः ॥५४॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) चूतिः - " श्रयादिभ्यः" |५|३|२| इति क्तिः चञ्चार्यते—- चरन्तं प्रयुङ्क्त णिग् वृद्धिः चारयतीति क्विप् रनिटि' | ४ | ३ | ३ | चारिवाचरति ' कतु : क्विप्० | ३ |४| २५ | गर्हित चारतीति 'एकदेशविकृतमनन्यवदिति न्यायात् 'गृलुप० | ३ | ४ | १२ | इति यङ् । एवं पम्फाल्यते ॥ ५४ ॥ ऋमां रीः | ४|१|५५ ऋमतां यङन्तानां दिवत्वे पूर्वस्य रीरन्तः स्यात् नरीनृत्यते ॥५५॥। बहुवचननिर्देशो लाक्षणिक परिग्रहार्थः तेन प्रच्छिद्रश्चिग्रहीणामृकारे कृते ऋमत्त्वात्तेषामपि ग्रहणम् ॥५५ ॥ रिरौ च लुपि |४|१|५६। ऋमतां यङो लुपि दिवत्वे पूर्वस्य रिरौ रोश्चान्तः स्यात् । चरिकति, चर्कति, चरीकर्ति ॥ ५६ ॥ चरीकत- 'यङ तुरुस्तो०' | ४ | ३ |६४ | इत्यनेन ईत्. ॥ ५६॥ निजां शियेत् |४|१|५७। निजि बिजिविषां शिति दिवत्वे पूर्वस्यैत्स्यात् नेनेक्ति, बेवेक्ति, वेवेष्टि । शितीति किम् ? निनेज ॥ ५७ ॥ ८ निजामिति बहुवचनेन णिज की शौचे च, विजू की पृथग्भावे, विष्लृ की व्याप्तौ इत्यदादी जुहोत्यादिपर्यन्त पठितास्त्रय एव गृह्यन्ते । वर्तमाना, सप्तमी, पञ्चमी, ह्यस्तनी एताश्चतस्तः शितः ॥ ५७ ॥ पृ. माहाङामि: | ४ ||५८ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) एषां शिति दिवत्वे पूर्वस्य इः स्यात् । पिपर्ति, इर्यात, बिर्भात, मिमीते । जिहोते । हाङिति किम् ? जहाति । शितीत्येव - पपार ।। ५८ ।। पृऋमा हाङ् इत्येतेषां शिति द्वित्वे सति पूर्वस्येकारो भवति । केचित्तु पृ. पालनपूरणयोः इति जुहोत्यादौ दीर्घत्वं पठन्ति तन्मतसंग्रहार्थं पृच ऋश्च इति विग्रहः, अत एव च बहुवचनम् । शिति इति भणनात् पृतु इत्यस्य व्युदासः । इयति-अत्रः पूर्वस्येकारे कृते 'पूर्वस्यास्वे स्वरे ० ४|१|३७| इत्यनेन इय्, मां शब्दयोः, हाङित्यत्र ङकारकरणात् ओहां त्यागे इत्यस्य न ग्रहणम् ॥ ५८ ॥ सन्यस्य |४|१|५| द्वित्वे पूर्वस्यातः सनि परे इः स्यातः । पिपक्षति । अस्येति किम् । पापचिषते ॥५६॥ 'चजः कगम् | २|१|८६ | 'नाम्यन्तस्था० | २ | ३|१५ इति सूत्रप्रवृत्तिः पिपक्षति इत्यत्र ॥ ५६ ॥ ओजन्तस्यापवर्गेऽवर्ण |४|१|६० | दिवत्वे पूर्वस्योतोऽवर्णान्ते जान्तस्थापवर्गे परे सनि इः स्यात् । जिजविषति । जिजावयिषति । यियविषति । यियावयिषति । रिरावयिषति । पिपविषते । पिपावयिषते । मिमावयिषते । जान्तस्थापवर्गे इति किम् ? जुहावयिषति । अवर्ण इति किम् ? ब्रभूषति ॥ ६० ॥ जिजावयिषति - जु सौत्रो धातुः, जवन्तं प्रयुङ्क्त े णिग् 'नामिनोऽकलिहलेः | ४ | ३ | ५१ इति वृद्धि : औ: 'औदोसोडवाव् | १|२| २४| इत्यात् । युक् मिश्रणे, टुक्ष रुकुक शब्दे, लग्श छेदने । जात्रयितुं यावयितु रात्रयितु, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( १०७ ) लावयितुमिच्छति इति सन् ‘णौ यत्कृतं यत्सर्वं स्थानिवद्' इति न्यायात् । जु, बु, रु, लु, एतेषां द्विवचनम् यतः “ओन्ति०" ।४।।६० इत्यनेनाभ्यासे इकारः । पिपावयिषते, मिमावयिषते इति प्रयोगद्वयं पवर्गे इत्यस्य । नन् ण्यन्तानां वृद्धयवादेशयोः कृतयोः द्वित्वे सति पूर्वस्योकारान्तता न सम्भवति । तत्र 'सन्यस्य' ॥४।११५६। इत्यनेनैव सिद्धे किं गुरूणां सूत्रेण ? एतावत्तु विधेयप् 'ओः पयेऽवणे' इति । पिपविषति, पियविषतीत्यत्र पूर्वस्योकारान्तस्येत्वं यथा स्यातू । सत्यं णौ यत्कृतं तत्सर्व स्थानिवद् भवति "इति न्यायज्ञापनार्थं वचनम्, तेन पुरस्फारयिषति, चुक्षावयिषतीत्याद्यपि सिद्धम् ॥६०॥ श्रु-स्र-द्र गुप्लु च्योर्वा ।४।१।६१॥ एषां सनि द्वित्वे पूर्वस्योतोऽवर्णन्तायामन्तस्थायां परस्यामिर्वा स्यात् । शिश्रावयिषति शुश्रावयिषति.। सिस्त्रावयिषति । सुत्रावयिषति । द्विद्रावयिषति । दुद्रावयिषति । प्रिप्रावयिषति । पुप्रावयिषति । पिप्लावयिषति । पुप्लावनिषति । चु । च्यवयिषति ॥६१॥ वचनादेकेन वर्णेनान्तस्थायाः व्यवधानमाश्रीयते । ततः इत्वं सिध्यति । शुश्रावयिषतीत्यादौ णौ वृद्धयावोः कृतयोः ‘णौ यत्कृतं कायं तत्सर्वं स्थानिवद्' इति न्यायेन श्र द्र स , द्र, प्र, प्लु, च्यु, इति द्विवर्चनम् ॥६१॥ स्वपो णावुः ।४।१।६२॥ स्वपेणौं सति द्वित्वे पूर्वस्योत्स्यात् । सुष्वापयिषति । णाविति किम् ? सिष्वापकीयिषति । स्वयो णाविति किम् ? स्वापं चिकीर्षति । सिष्वापयिषति । स्वपो णौ दिवत्व इति किम् ? सोषोपयिषति ।६२॥ सनीति निवत्तं कार्यान्तरविधानात् । सिष्वापकीयिषति--णकः, स्वाप Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) कमिच्छति क्यन् स्वायकीयितुमिच्छति सन् ततो 'णिस्तो० ।२।३।३७ इति षत्वम् । सिष्वापयिषति-अत्र न स्वणिः घत्रा व्यवधानात् । स्वपधातुः, स्वपनं-स्वापः, स्वापं करोतीति 'णिज्बहुलं नाम्नः कृमादिषु ।३।४।४२। इति णिच स्वापयितुमिच्छतीति सन् 'अन्यस्य' ४१११८ इत्यनेन 'स्वा' इति द्वित्वम् । अत्र न स्वपेणिग्, कित्तु स्वापतो णिः । सोषोययिषति-अत्र स्वप्धातुः, भृशं पुनः पुनर्वा स्वपितीति यङ् ‘स्वपेर्यङ्-डेच' ।४।१।८०। इति य्वत्, सुप् 'सन्यङश्च' ।४।१।३ इत्यनेन 'सुप्' इति द्वित्वम् ‘आगुणा० ।४।१।४८। इति द्वित्वे पूर्वस्य गुणः ‘बहुलं' लुप् ।३।४।४। इति यङ्लोपः । सोषुपन्तं प्रयुक्त इति णिग् लघोरूपान्त्यस्य ।४।३।४ इति गुणः, सोषोप सोषोपयितुमिच्छतीति सन् 'णिस्तोरे० २।३।३७। इति सस्य षत्वम् अत्र यङि सति द्वित्वम् ततो यङ्लुबन्तात् णिग् ॥६२।। असमानलोपे सन्वल्लघुनि ऊँ ।३।१।६३। नविद्यते समानस्य लोपो यस्मिस्तस्मिन ङपरे णौ दिवत्वे पूर्वस्य लघुनि धात्वक्षरे परे सनीव कार्य स्यात् । अचीकरत् । अजीजवत् । अशिश्रवत् । लघुनीति किम् । अततक्षत् । णावित्येव । अचकमत् । असमानलोप इति किम् । अचकथत् ॥६३॥ , सनीव कार्यं स्यात् यथा सनि परेऽभ्यासेऽकारस्य ‘सन्यस्य' ।४।१।५६ इत्यनेन इकारो भवति तथा 'असमानलोपे० ।४।१।६३। इत्यनेनाप्यभ्यासे इकारः भवतीत्यर्थः । अचीकर-णिश्रिद्रु०।३।४।५८। लघोर्दी?०।४।१।६४ इति दीर्घः । अजीजवत्-'श्रुस्र द्र०' ।४।१।११। इत्युक्तमिहापि । णाविति जात्यश्रयणात् वादितवन्तं प्रयोजितवान् अवीवदत् वीणां परिवादकेन, अपीपठन्माणबकमुपाध्यायेन । अत्रे णे: समानस्य लोपेऽपि भवति ।।६३।। लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः।४।१।६।। अस्वरादेरसमानलोपे ऊपरे णौ द्वित्वे पूर्वस्य लघोलघुनि धात्वक्षरे परे दीर्घः स्यात् । अचीकरत् । लघोरिति किम् । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( १०६ ) अचिक्वणत् । अस्वरादेरिति किम् । औष्णुनवत् ॥६४॥. ननु ‘स्वरस्य' ।७।४।११०। इति परिभाषया पूर्वस्मिन् इत्वे विधेये स्वरादेशस्य ह्रस्वस्य स्थानित्वेन लघुनीत्यभावादित्वं न प्राप्नोति ? उच्यते क्वचित्परिभाषाया अनित्यता ॥६४॥ स्मृदृ त्वरप्रथम्रदस्तृस्पशेरः ।४।१॥६५॥ एषामसमानलोपे उपरे णौ दिवत्वे पूर्वस्यात्स्यात् । असस्मरत् । अददरत् । अतत्वरत् । अपप्रथत् । अमम्रदत् । अतस्तरत् । अपस्पशत्॥६५॥ सन्वद्भावापवादः, लघोर्दीर्घोऽ० ।४।१।६४।इत्यस्यापि अपवादः । स्मृहत्वरप्रथम्रदः इत्येतेषां घटादित्वात् ‘घटादेह्रस्वो०।४।२।२४। इत्यनेन ह्रस्वः । स्तृ.-अतस्तर॑त् । स्पशिः, सौत्रः स्पशिण इति णिजन्तो वा ॥६५॥ वा वेष्टचेष्टः ।४।४॥६६॥ अनयोरसमानलोपे उपरे णौ दिवत्वे पूर्वस्याद्वा स्यात् । अववेष्टत् । अविवेष्टत् । अचचेष्टत् । अचिचेष्टत् ॥६६॥ • 'णिश्रि० ।३।४।५६। इति ङः ॥६६॥ ई च गणः ।४।१।६७। गणेङपरे णौ दिवत्वे पूर्वस्य ईरश्च स्यात् । अजीगणत् । अजगणत् ॥६७। गणेरदन्तधातुत्वेन समानलोपित्वान्सन्वब्रावो दीर्घत्वं च न प्राप्नोतीत्व Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) विधि: । ननु “ई वा गण" इति सूत्र्यतां गणेरदन्तत्वेन समानलोपित्वादेव पक्षेऽजगणदिति भविष्यति ? सत्यं, चुरादिभ्यो णिज् अनित्यः, णिच्चसन्नियोगे एव एषामदन्तता, अतस्तदभावे तदभावादजगणदिति सिध्येत किन्त्वजीगणदित्येव । अचीकथः इति प्रयोगदर्शनादन्येषामपि ईत्वमिच्छत्येके ॥६७॥ अस्यादेराः परोक्षायाम् ।४।।६८। अस्यां दिवत्वे पूर्वस्यादेरत आः स्यात् । आदुः । आरतुः । आस्येति किम् । ईयुः । आदेरिति किम् । पपाच ॥६॥ 'लुगस्यादेत्यपदे' ।२।१।११३। इत्यस्यापवादोऽयम् । परोक्षायामित्युत्तरार्थमिह तु परोक्षाया अन्यस्मिन् यङादौ द्वित्वे सति. आदावकारस्यासम्भवात् । ईयुः० इंण्क् गतो, परोक्षाया उम्, ततो द्वित्वम्, 'इणः ।२।११५१। इत्यनेनेयादेशः ।।६८॥ अनातो नश्चान्त ऋदाद्यशौ संयोगस्य।४।१।६६। ऋदादेरश्नोतेः संयोगान्तस्य च परोक्षायां दिवत्वे पूर्वस्यादेरास्थानादन्यस्यास्य, आः स्यात्, कृतातो नोऽन्तश्च । आन्धुः । अनाशे। आनञ्ज । ऋदादीति किम् । आर। अनात इति किम् । आञ्छ॥६६॥ न विद्यते आत् आकारः स्थानितयाऽस्याकारस्य सः अनात् तस्य । अशावित्यौकार अश्नातेनिवृत्त्यर्थः । आर-ऋक् गतौ' 'ऋप्रापणे च' णव, द्वित्वम् 'ऋतोऽ त्' ।४।१।३८। इत्यकार: ‘अस्यादेराः परोक्षायाम्।४।१।६८) इत्याकारस्ततो 'नामिनोऽ कलिहले: ।४।३।५१॥ इति वृद्धिः । 'आद्यन्तवदेकस्मिन' इति न्यायादपि न, यतो यदाऽन्त्यव्यपदेशस्तदापि ऋदादित्वम्, . यदाऽऽदिव्यपदेशस्तदा दन्तत्वम् ततः ऋत् आदिरेवेत्यवधारणेनैवास्य निराशः आछ आयामे-आञ्छ ॥६६।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) भूस्वपोरदुतौ ।४।१।७०। भूस्वपोः परोक्षायां वित्ने पूर्वस्य यथासंख्यमदुतौ स्याताम् । बभूव । सुष्वाप ॥७०॥ बभूवेत्यत्र प्रथमं वृद्धिः, ततः ‘भुवो वः परोक्षाद्यतन्योः' ।४।२।१३। इत्यनेन उः। केचित्तु कर्तर्येव भुवोऽकारमिच्छन्ति, न भावकर्मणोः तेन बुभूवे चैत्रेण इत्येव भवति ॥७०॥ ज्यागोव्यधिव्यचिव्यथेरिः ।४।१।७१। एषां परोक्षायां वित्ो पूर्वस्य, इः स्यात् । जिज्यौ । संविव्याय । विव्याध । विव्याच । विव्यथे ॥७१॥ ज्योश् वयोहानो जिज्यौ । व्यग् संवरणे-संविव्याय 'व्यस्थव् णवि ।४।२।३। सूत्रेण आत्त्वनिषेधः । यजादिवश्वचः० ।४।१।७२। इति य्वृद्बाधनार्थमिकारस्यापि इ: क्रियते ॥७१।। यजादिवश्वचः सस्वरान्तस्था वृत् ।४।१।७२। यजादेश्विचोश्च परोक्षायां वित्ने पूर्नस्य सस्वरान्तस्था • इउऋरूपा प्रत्यासत्त्या स्यात्। इयाज । उवाय । उवाश । उवाच ॥७२॥ यजी, वेंग, व्यंग, बग, दुवपीं, वहीं, टवोश्वि, वद, वसं एते यजादयः परमत्र यजादिसूत्रे धातुषट्कं ज्ञातव्यम् ।व्येधातोः 'ज्याव्येव्यधि०।४।१।१७। इत्यनेन इकार: उक्त, ह्वश्विधात्वोः पूर्वस्याभ्यासे अन्तस्थाया अभावादेव वृत् न प्राप्नोति । वचिति वश्साहचर्यात् वचंक् ब्रूगादेशो वा आदादिको गृह्यते न तु यौजादिकः । प्रत्यासत्या-यकारान्तस्थाया इकारः, वकारान्तास्थाने उकार:, रकारान्तस्थास्थाने ऋकारः भवति ॥७२॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११२ ] न वयो य |४|१|७३ ॥ य् वेगो वयो य् परोक्षायां य्वृन्न स्यात् ऊयुः ॥७३॥ पूर्वस्येति निवृत्तमसंभवात् । ऊयुरिति - वेग् 'वेर्वय् | ४|४|१६| इति वयादेश: 'यजादिबचे: ० | ४ ||७६ | इति वकारस्य वृत् । 'व्यञ्जनस्या ० ' | ४ | ३ | ४४ ॥ इति यलोपे 'समानानां तेन० | १| २|१| इति दीर्घः अत्र 'यजादिवः किति |४|१|७६ | सूत्रेण यकारस्य वकाराकारेण सह वृत्प्राप्नोति । ॥ ७३ ॥ वेरयः |४|१|७४ | गोऽयन्तस्य पूर्वस्य परस्य च परोक्षायां वृन्न स्यात् । ववौ । अय इति किम् ? उवाय ॥ ७४ ॥ ववौ = 'बेर्वय् ||४|४|१८ | सूत्रेण वयादेशस्य बिकल्पप्रवृत्तेर्वयादेशाभावः । अन यजादिव० ४। १ ७२ । इति पूर्ववकारस्य वृत्प्राप्नोति । उवायवयादेशे किदभावात् 'यजादिवचे: ० |४|१| ७६ । इत्यस्याप्रवृत्तो द्वित्वे 'यजादिवश्० |४|१|७२ | इति पूर्ववकारस्थ वृत् ॥ ७४॥ अविति वा |४|१।७५। वैगौऽयन्तस्याविति परोक्षायां वृद्वा न स्यात् । ववुः, ऊवः । ॥७५॥ ऊयुः अत्र पूर्वं वृत्ततो द्वित्वं 'वृत्सकृद्' |४|१|१०२ । सूत्रात् पश्चाद् - वकारस्य न वृतु । द्वित्वे कृते पश्चात् धातोरूवादेशे सति पश्चात्पूर्वस्य समानस्य दीर्घः ॥ ७५।। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) - ज्यश्च यपि ।४।१७६। ज्यो गश्च यपि वृन्न स्यात् । प्रज्याय । प्रवाय ॥७६ . ... ज्यांश् वयोहानौ वेग तन्तेसन्ताने ॥७६॥ . . व्यः ।४।१।७७। 'व्यो यपि य्वृन्न स्यात् । प्रव्याय ॥७॥ योगविभाग उत्तरार्थः ॥७७॥ .. . . संपरेर्वा ।४।१।७। ।..। आम्यां परस्य न्यो यपि बृद्धा न स्यात् । संव्याय । संघीय । परिव्याय । परिवीय ॥७८॥ .. संवीय-कत्वो यप्, निरपेक्षत्वेनान्तरङ्गत्वात्प्रागेव य्वृतः “दीर्घमवोऽन्त्यम् ।४।१।१०३। इति दीर्घत्वम्, न तु तोन्तः ॥७८।।. -यजादिवचे किति ।४।४७६ यजादेचेश्च सस्वरान्तस्था किति परे रबृत् स्यात् । ईजुः, उयुः, ऊचुः । कितीति किम् । यक्षीष्ट ॥७॥ नेति निवृत्तम् प्राप्तेरभावात् । यजादिरित्यत्र सूत्रे नवादि यजादयः संगृहीताः, सर्वेषां वृत्ः प्राप्तिः । यजी, वेग्, ऊयुः, वयादेशयक्षे 'अविति वा' ४।१७५॥ सूत्रात् ववु,ऊवुरित्यपि । वचिति वचंक, ब्रूगादेशो वा । नित्याणिजतर्यजादिभिः साहचर्यात् वच्यते इत्यत्र यौजादिकस्य तु न भवति । ॥ ७९ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) स्वपर्यड-डे च ।४।१।८। स्वपेर्यङि डे किति च परे सस्वरान्तस्था बृत् स्यात् । सोषुप्यते । असूषुपत् । सुषुप्सति ॥८०॥ असूषुपत-णिगमन्तरेण ङस्यासंभवात् स्वपितिय॑न्तो गृह्यते । उ य्वृत् गुणो, ‘उपान्त्यस्या० ।४।२।३५॥ इति ह्रस्वत्वं, दिवत्वं लघोऽर्दीघोऽस्वरादेः ।४।११६४। इति पूर्वस्य दीर्घत्वमित्यत्र क्रमः । ननु “प्राक् तु स्वरे" इति वचनात दिवत्वं पर्व भविष्यति, न त णिगाश्रितः गणः इति चेत् सत्यं यदि तेनैव दिवत्वनिमित्तन प्रत्ययेन यदि स्वरविधिजन्येत तदैव न, स्यादत्र तु द्वित्वनिमित्तप्रत्ययाजन्यः ॥८०।। ज्याव्यधः क्डिति ।४।१।८१ ज्याव्यधोः सस्वगन्तरथा किति डिति बृत् स्यात् । जोयात् जिनाति । विध्यात् । विध्यति ॥८१॥ प्रत्यय इति विशेष्यं क्ङिति च विशेषणम् अतः धातुनिमित्तयोर्ययासंख्यं न भवति । जीयाद्-आशी:क्यात्, बुद् 'दीर्घमवोऽन्त्यम्' ।४।१।१०३। व्यधंच ताडने ॥१॥ व्यचोऽनसि ।४।१।१२। व्यचेः सस्वरान्तस्था अस्वर्जे विडति वृत् स्यात् । विचति । अनसीति किम् ? उरुव्यचाः ॥८२॥ व्यचत् व्याजीकरणे। उरु विचतीति 'अस्' । उणादि० ६५२ इत्युणादिसत्रेण अस 'अभ्वादेरत्वसः सौ ११४।४६। इति दीर्घत्वग । 'कूटादे० ।४।३।११७। इति कुटादित्वात् डित्वम् ॥८२॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) - वशेरयडि |४|१| ८३ | वशेः सस्वरान्तस्था अयङि क्ङिति य्वृत् स्यात् । उष्टः, उशन्ति । अङीति किम् ? वावश्यते ॥ ८३ ॥ art कान्त इत्यदाद परस्मैपदी ॥ ८३ ॥ ग्रहव्रश्चभ्रस्जप्रच्छः |४|१|८४ | एषां सस्वरान्तस्था क्ङिति य्वत् स्यात् । जगृहुः, गृह्णाति । व. क्णः, वश्चति । भृष्टः, भृज्जति । पृष्ठः, पृच्छा ॥ ८४ ॥ तेर्ग्रहादिभ्यः |४| ४ | ३ ३ । इत्यनेन इट्, 'गृह्णो परोक्षायां दीर्घः' | ४|४|३४| इत्यनेन इट् दीर्घः । वृक्णः सूयत्याद्योदितः | ४|२|७० । इति नकारः । भृज्जति - अत्र 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे |१| ३ | ४ | इति सकारस्य जकारः । पृच्छा 'भिदादयः । ५।३।१०८ । इत्यङ् ॥ ८८ ॥ व्ये - स्यमोडि |४|१1८५। व्येग्स्यमाः सस्वरान्तस्था यङि य्वत् स्यात् । वेबीयते । सेसि मोति ॥ ८५ ॥ स्यम् शब्दे, यङ्लुपिनेच्छन्त्यन्ये ॥ ८५ ॥ चाय की |४|१|८६ | चायोयङि की: स्यात् 1 चेकीतः ॥८६॥ चामृग् पूजानिशामनयोः । दीर्घनिर्देशो यङ्लुबर्थः तेन चेकीयते इतिवत् Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ') चेकीत इत्यत्रापि दीर्चः, दीर्चनिर्देशाद् यङ्लुप्यपि आदेश इत्यर्थः, साक्षात् यङि तू व 'दीर्घश्च्चि०' ।४।३।१०८। इति दीर्घः सिद्ध एव । एवं 'प्यायः पीः" १९१५ इत्यत्रापि ॥६६॥ . . ... द्वित्वे ह्वः ।४।१८७ ह्व गो द्वित्वविषये सस्वरान्तस्था व त्स्यात् । जुहूषति ॥७॥ अनेनैव सिद्ध उत्तरसूत्रकरणं णेरन्यस्मिन् द्वित्वनिमित्तप्रत्ययव्यवधायके बृन्मा भूदिल्येतदर्भम, तेनेह न भवति-हायकमिच्छति बायकीयति ततः सन् जिह्वायकीयिषति ॥८॥ णौ ङसनि ।४।१।८८०. . .. ह्वगः सस्वरान्तस्था डपरे, सन्परे च णौ विषये वृत्स्यात् । ....अजूहवन -जुहावयिषति ॥८८॥ ... णो विषये इति विषयसप्तम्याश्रयणात् णिविषये एवान्तरङ्गमपि यकारागमं बाफित्वा वृद् यथा स्यात् । कृते तु य्वृति यो न भवति अतिरी० ।४।२।२१। इति प्वागमबाधकत्वेन आदन्तात् ह्वाधातोः षा-शाछा-सा-वे-व्या-ह्वो यः ।४।२।२१॥ इति योन्तः विधीयते । अजूहवत्हणिग् अद्यतनी दि ‘णिश्रिद्रु० ।३।४।६८। इति ङप्रत्ययः “णौ ङसनि ।४।१।७८। इत्यनेन 'ब' इत्यस्य वृत् हु, “नामिनोऽकलिहले' ।४।३।५१॥ इति वृद्धिः हो, 'ओदौतोऽवाव् ।१।२।२४। इति हाव 'भ्राजभासभाष.. ।४।२।३६। इत्यनेन विकल्पेन ह्रस्वः, णौ यत्कृतं तत्सर्वं स्थानिवद् इति न्यायाद् 'हु' इति द्वित्वम् ‘लघोर्दी?so ।४।१।६४।' इति पूर्वस्य दीर्घः 'अजूह्वत्' इति सिद्धः । यत्र न ह्रस्वस्तत्र अजुहावत् इति ।।८८॥ श्वेर्वा ।४।१। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) श्व सस्वरान्तस्था ऊपरे सन्परे णौ विषये य्वृद् वा स्यात् । अशूशवत्, अशिश्वयत् । शुशावयिषति, शिश्वाययिषति ॥८६॥ णौ ङसनि ।४।१।८८॥ श्वेर्वा ।४।१।८६॥ इति सूत्रद्वये णावित्यत्र विषयसप्तमीयम्, विषयसप्तमीबलादन्तरङ्गमपि वृद्धयादिकं वृता बाध्यते पूर्व वृत् प्रवर्तते पश्चाद् वृद्धयावी इनि अशूशवद् इत्यादौ पूर्वं वृत्, ततो वृद्धिः, आन्, “उपान्त्यस्या० ।४।२।६५। इति उपान्त्यह्रस्वः, ततौ णौ कृतस्य वृद्धयावादेशस्य स्थानित्वम्, न तु वृतः स्थानित्वम् इति 'शु' इति द्वित्वम् । 'लघोर्दीघोऽ० ।४।१। ६४। इति दीर्घत्वम् एवं शुशावयिषतीत्यत्र सन् ॥८॥ वा परोक्षायङि ।४।१०। श्वः सस्वरान्तस्थापरोक्षायडोवृद् वा स्यात् । शुशाल, शिश्वाय । शोशूयते, शश्वीयते ॥१०॥ शुशाव-'णिद् वाऽन्त्यो णव् ।४।३।८५॥ इति वा णित् “इन्ध्यसंयोगात्" ४।३।२१। इत्यवित्परोक्षायाः कित्त्वात् 'यजादिवचे: किति ।४।१७९। इत्यनेन य्वृति प्राप्ते विति परोक्षायां यङि च परेऽप्राप्ते 'वा परोक्षायडि ।४।१६।। इति विकल्पः कृतः ॥९॥ . प्यायः पीः ।४।१६१॥ प्यायः परोक्षायङोः पीः स्यात् । आपिप्ये । आपेपीतः ॥११॥ ओप्यायै वृद्धौ इति प्याय । पी-आदेशानन्तरं द्वित्वे कृते 'योऽनेकस्वरस्य ।२।१॥५६॥ इति यत्वम् दीर्घनिर्देशो यङ्लुबर्थः, यदि हि साक्षाद् यङ् तदा 'तु “दीर्घश्चि०।४।३।१०८॥ इति दीर्घः सिद्ध एव । आपेपीतः–क्तान्तं रूपम्, वर्तमानातस्प्रत्यये वा ॥१॥ क्तयोरनुपसर्गस्य ।४।१।६२॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) अनुपसर्गस्य प्यायेः तक्त वतोः पीः स्यात् पीनम् । पीनवन्मुखम् । पीनवन्मुखम् । अनुपसर्गस्योति किम् ? प्रप्यानो मेघः ॥१२॥ प्यायते स्म पीनम् ‘गत्यार्था० ।५।१।११॥ इति क्तः, 'सूयत्याद्योदितः । ।४।२।७०। इति नकारः। प्रप्यानो मेघः-प्यायते स्म इति क्तः 'वोः प्वय ।४।४।१२१॥ इति यकारलोपः 'व्यञ्जनान्तस्थातोऽख्याध्यः ।४।२१७११ इत्यनेन तकारस्य नकारः ।।२। आङोऽन्धधसोः ।४।११६३॥ आङः परस्य प्यायेरन्धूधसि चार्थे क्तयोः परतः पीः स्यात् । आपीनोऽन्धुः। आपीनमूधः। अन्धूधसोरिति किम् ? आप्यानश्चन्द्रः । माङः एवेति नियमात् प्राप्यानमूधः ॥१३॥ अन्धुर्वणम्, ऊधसो वा पर्यायः ॥६३।। स्फायः स्फीर्वा ।४।१६।। स्फायतेः क्तयोः परयोः स्फीर्वा स्यात् । स्फीतः, स्फीतवान् । स्फातः स्फातवान् ॥१३॥ विकल्पं नेच्छन्त्यन्ये ॥४॥ प्रसमः स्त्यः स्तीः।४।१६५॥ प्रसमसमुदायपूर्वस्य स्त्यः क्तयोःपरयोः स्तीः स्यात् । प्रसंस्तीतः, प्रसंस्तीतवान् । प्रसम इति किम् ? संप्रस्त्यानः ॥६५॥ संप्रस्त्यान इति–व्यावृत्तौ केवलात्प्रोपसर्गान्न दर्शितम्, उत्तरेण विधानात् ॥६५॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) 'प्रात्तश्च मो वा ।४।१।६६। प्रात्केवलात्परस्य स्त्यः क्तयोः परयोः स्तीः स्यात् । प्रसंस्तोतः। प्रसंस्तीतवान् । प्रसम इति किम् ? संप्रस्त्यान : ॥६६॥ स्त्य सङ्घाते च इति भ्वादिधातुः ॥६६॥ श्यः शीवमतिस्पर्शे नश्चास्पर्शे ।४।१६७। मूर्तिः काठिन्यं द्रवमूर्तिस्पर्शार्थस्य श्यः क्तयोः परयोः शोः स्यात् । तद्योगे च क्तयोस्तोऽस्पर्शविषये नश्च । शीनम् । शीनवद् घृतम् । शीतं वर्तते । शीतो वायुः । ६७॥ शोनं, शीनवन. घृतम्-द्रवावस्थायाः काठिन्यं गतमिव्यर्थः । गुणमात्रे तद्वति चार्थे स्पर्शविषयो भवति। शीतं वर्तते इत्यत्र शीतस्पर्शः मुख्यभावेन, शीतोवायु-रित्यत्र तु गौणभावेन वर्तते ॥१७॥ प्रतेः ।४।१६॥ प्रतेः परस्य श्यः क्तयोः परयोः शीः स्यात्तद्योगे क्तयोस्तो न् च । प्रतिशीनः, प्रतिशोनवान् ॥९॥ प्रतिपूर्वोऽयं रोगे वर्ततेइति पूर्वेणाप्राप्तौ वचनम् । रोगे स्पर्शस्या सम्भवात् ‘अस्पर्श' इति नोक्तम् । वाभ्यवाभ्याम् ।४।१। आभ्यां परस्य श्यः क्तयोः परयोः शीर्वा स्यात्तद्योगे च क्तयोस्तोऽस्पर्श नश्च । अमिशीनः, अभिशीनवान् । अभिश्यानः, अभिन Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) श्यवान् । अवशीनम् अवश्यानं हिमम् । अवश्यानः । अवश्यानवान् ॥६६॥ अवशीनमित्यादि-द्रव्यमूर्तिस्पर्शयोरप्यनेन परत्वाद् विकल्पो भवति । वाशब्दस्य व्यवस्थित-विभाषार्थत्वादन्योपसर्गाभ्यामभ्यवाभ्यां परस्य श्यायते शीर्नकारश्च न भवति ।।६।। श्रः शृतं हविःक्षीरे ।४।१।१००। श्वातेः श्रायतेश्च क्ते हविषि क्षीरे चार्थे शनिपात्यते । शतं हविः क्षीरं स्वयमेव । हविः क्षीर इति किम् ? श्वाणा यवागूः ॥१००॥ श्रांक पाने, | पाके श्रातिश्रायती अकर्मको कर्मकर्तृ विषयस्य पचेरर्थे वर्तते तयोरेतन्निपातनम् । श्राति स्म श्रायति स्म वा हवि: क्षीरं चैत्रः, स एवं विवक्षितवान् । नाहंश्रामि स्म श्रायमि स्म वा किन्तु हविः क्षीरस्वयमेव श्रायते स्म 'गत्यर्थाक० ५।१।१२। इति क्तः,अण्यन्तयोः पच्यमानकर्तृकयोनिपातोऽयम् ॥१००॥ श्रः प्रयोक्त्रक्ये ।४।१।१०१॥ श्रातेः श्रायतेर्वा ण्यन्तस्यैकस्मिन् प्रयोक्तरिक्ते परे हविः क्षीरयोः शनिपात्यते । शतं हविः क्षीरं वा चेत्रेण । हविःक्षीर इत्येवश्रपिता यवागूः । अप्रयोक्त्रंक्य इति किम् ? श्रपितं हविश्चत्रण मैत्रोण ॥१०२॥ श्राति श्रायति वा हविः क्षीरस्वर मेव तत् चैत्रेण प्रायुज्यत, निपातने शतं हविः क्षीरं वेति । श्राति स्म श्रायति स्म वा यवाग, स एवं विवक्षितवान् नाहं श्रामि स्म श्रायामि स्म किन्तु यवागूः स्वयमेव श्रायते स्म । यवागः स्वयमेव श्रायमाणा केनचित् प्रायुज्यत, णिगि 'अतिरीव्ली०१-४।२।२।१ इति पोऽन्ते, 'घटादे:०' ४।२।२२ इति ह्रस्वे च श्रपिता यवागूः । यदा पुन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) द्वितीये प्रयोक्तरि णिमुत्पद्यते तदा श्र न निपात्यते । श्राति स्म थायति स्व वा पविः क्षीरं स्वयमेव, तद् चैत्रेण प्रयुच्यते स्मेति वाक्ये णिग्, सोऽपि श्रपयन्मैत्रेण प्रयुज्यते स्मेति वाक्ये पुनर्णिगि श्रपितं हविश्चत्रेण मैत्रेणेति ॥१०॥ यवृत्सकृत् ।४।१।१०२। अन्तस्थास्थानमि-उ-ऋत्सकृदेव स्यात् । संवीयते ॥१०२॥ यावत्संभवस्तावद् विधिरिति न्यायात्पुनः प्राप्तः प्रतिषिध्यते । संबीयतेअत्र यकारस्य 'यजादिवचे:०।४।१।७६ इति वृति पुनर्वकारस्य प्राप्तनेन प्रतिषिध्यते ॥१०२॥ दीर्घमवोऽन्त्यम् ।४।१।१०३। वेग्वर्जस्य वृदन्त्यं दीर्घः स्यात् । जीनः । अव इति किम् ? उतः अन्यमिति । किम् ? सुप्तः ॥१०३॥ सुप्तः ,'ज्ञानेच्छा० ।५।२।३२॥ इति क्तः ॥१०३।। स्वरहन्गमोः सनि धुटि ।४।१।१०४। स्वरान्तस्य हन्गमोश्च धुडादौ सनि दीर्घः स्यात् । चिचीषति। जिघांसति, जिगांसते। धुटीति किम् ? बियविषति ॥१०४॥ जिघांसति-“अडे हिहनो हो घः पूर्वात् ।४।१॥३४॥ इति हस्य घः । गम्विति इणिकिङादेशस्य गमे ग्रहणाद् गच्छतेनं भवति । "सनीत्रश्च ।४।४।३५ इति गमुः। यियविषति-"इवृधभ्रस्ज' ४।४।४७ इत्यनेन इट् ॥१०४॥ तनो वा ।४।१।१०५॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) तने डादौ सनि दोघों वा स्यात् । तितां ति तितंसति । धुटीत्येव - तितनिषति ॥ १०५ ॥ " इवृधस्य |४ |४| ४७॥ इत्यनेन इट् ॥ १०५ ॥ क्रमः क्विं वा । ४ । १।१०६। क्रमो धुडादौ क्वि दीर्घो वा स्यात् क्रान्त्वा, कन्त्वा । घुटीत्येव - क्रमित्वा ॥ १०५ ॥ ऊदितो वा | ४|४|१२| इति वेट् । प्रकम्येत्यत्र त्वन्तरङ्गमपि दीर्घं बाधित्वा प्रागेव यप् 'अन्तरङ्गानपि विधीन् यबादेशो बाधते इति न्यायात् ॥ १०६ ॥ अहन्पञ्चमस्य क्विक्ङति ॥ ४ । १।१०७ | हन्वर्जस्य पञ्चमान्तस्य क्वौ धुडादौ च क्ङिति दीर्घः स्यात् । प्रशान् : शान्तः । शंशान्तः । पञ्चमस्येति किम् ? पक्त्वा । अहन्निति किम् ? बृहणि । धुटीत्येव यम्यते ॥ १०७॥ प्रशान - अत्र 'मो नो म्वोश्च' | २|१|६७ | इत्यन्तस्य नः । नादेशस्य परेऽसत्त्वान्नलोपाभावः । हन्वर्जनाद उपदेशावस्थायां पञ्चमो गृह्यते तेन सुगणित्यत्र दीर्घो न भयति । शंशान्तः इति यङ्लुपि वर्तमानातस्प्रत्ययः । बृहणि- संज्ञा 'पूर्वपदस्थ | ० | २|४| ६४ | सूत्रेण, असंज्ञायां तु ', कवर्गे.. २३७६ इति णत्वम् किम् । कश्चित्त्वाचारक्वावपि दीर्घत्वमिच्छन्ति शमिवाचरति शामति, किम् कीमति इदम् इदामति । स्वमते तु धातुवाभावान्न दीर्घः ॥१०७॥ अनुनासिके च्छ्वः शूट् |४|१|१०८ । अनुनासिकादौ क्कौ धुडादौ च धातोः छ्वोर्यथासङ्ख्यं श् कटौ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) • स्याताम् । प्रश्नः। शब्दप्राशौ । पृष्टः । स्योमा । अक्षयूः । द्यूतः । १०८॥ च्छवः"इत्यत्र छकारस्य द्विः पाठात द्वित्वापन्नस्य छकारस्य द्वयस्य 'श' इत्यादेशः क्रियते । छ च च्छ चेति कृते ‘पदस्य ।।१।८६ संयोगान्तस्य लोपे 'निमित्ताभावे नैमितिकस्याप्यभावः' इत्यनेन चस्य छत्वे 'अघोषे प्रथमोऽशिट:'।१।३।५०। इति पूर्वस्य छस्य चत्वे च च्छ इति साध्यते तदा एकछकारस्यापि वाछु इच्छायाम् इत्यस्य वान् वांशी वांशः इति सिद्धम् । यदा पूर्व द्वि: च्छकारः द्वितीयस्तु लघुः ततः च्छ छच चेति कृते “पदस्य ।२।१८६। इति लवुछकारस्य लुक तदा निमित्ताभावे नैमित्तकस्याप्यभावः' इत्यस्य नाश्रयणम् । शब्दप्राशौ--शब्दं पृच्छतीति 'दिद्यु इदृ० ।५।२।८३। इत्यनेन क्विप् दीर्घश्च, 'अनुनासिके० ।४।१।१०८। इत्यनेन च्छस्य 'श्' 'यजसजमज०।२१।१।८७। इत्यनेन शकारस्य ष'धटस्तृतीयः ।२।१।७६। इति षस्य ड् विरामे वा' ।१।३।५१॥ इति ट् । पृट:-छकारस्य श् ‘ग्रहवश्च भ्रस्ज०।४।१।८४। इति यवत् । स्योमा-सिव सीव्यतीति स्योमा, 'मन्वनक्वनिप० ।५।१।१४७। इति मन्प्रत्ययः नित्यत्वात्पूर्वम् 'अनुनासिके च्छवः.।४।१।१०८।इत्यनेन वकारस्य ऊट, न गुणः । ऊटि कृतेऽन्तरङ्गत्वात् पूर्वं यत्वम् तत ऊकारस्य गुण: ओ । अक्षयः-अझर्दीव्यतीति क्विप वस्य ऊट । धातोरेव भावात् दिवेरौणादिक-डिवप्रत्ययान्तस्य धुभ्यां धुभिः .. इति । यदा तु दिवेः क्विा तदा धातुत्वात् छू भ्यां, द्यु भिरिति ॥१०॥ • मव्यविधिवित्वरित्वरेरुपान्तोन ।४।४।१०६। एषामनुनासिकादौ क्वौ धुडादौ च प्रत्यये उपान्येन सहोट् स्यात् । मोमा । मूः । मूतिः। ओमा । ओं। ऊः । ऊतिः। श्रोमा । श्रूः । भूतिः । जूर्मा । जूः । जूत्तिः । तूर्मा । तूः । तूर्णः ॥१०॥ शकारस्य स्थानी छकारोऽत्र सूत्रे न सम्भवतीति 'ऊट्' एवानुवर्तते न श् । ऊडेवानुवर्तते । मोमा-मव बन्धने इति ‘मन्वन्' ।५।३।१४७। इति मन, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) वस्य उपान्त्येन सह ऊट, गुणः । मः-किवा । मूति-क्तिः । अव–अवतीति ओमा 'मम्वन्० ।५।१।१४७॥ इति मन्, अवतीति ओम्, ओणादिकः म्, 'मव्यवि०।४।१।१०६। इति अवस्थाने ऊट गुणः । ऊ:-अत्र क्विप, ऊतिःक्तिः । श्रोमा-विच् गतिशोषणयोः, मन्, क्विप्, क्तिः ज्वर रोगे, जित्वरिष् संभ्रमे “रदादमूर्छा." ।४।२।६६। इति तकारस्य नकारः । श्रिव्यविमवधातूनां पूर्वमुपान्यः ततः वकारः विद्यते, ज्वरित्वरोर्वकारात्पर उपान्त्यः इत्थं पूर्वोपान्प्त्येन सह, परोपान्त्येन च सह वकारस्य ऊट . . भवतीत्यर्थः । मव्यादौ 'इकिश्तिव्० ।५।३।१३९। सूत्रेण स्वरूपार्थस्येकारस्य निर्देणात् 'तिवा शवा०' इति न्यायाप्रवृत्तौ यङ् लुप्यपि मामोतीत्यादाट सिद्धः ॥१९॥ राल्लुक ।४।१।११०॥ रात्परयोश्छ्वोरनुनासिकादौ क्वौ धुडादौ च प्रत्यये लुक् स्यात् । मोर्मा । मूः । मूत्तिः। तोर्मा, तूः, तूर्णः ॥११०॥ शूटोऽपवादः । मूर्छा मोहसमुच्छाययोः, मन् 'भ्वादेर्नामिनो दी| र्वोwजने ।२।१।६३। इति दीर्घः तस्यासत्त्वाद् गुणे मोर्मा । तू हिंसायाम मनि तोर्मा । मूर् तूर् इत्यत्र ‘पदान्ते' ।२।१।६४। इत्यनेन दीर्घः ॥११०।। क्त ऽनिटश्चजोः कगो घिति ।४।११११। क्त ऽनिटो धातोजोघिति यथासङ्ख्यं कगौ स्याताम् । पाकः । भोग्यम् । क्तऽनिट इति किम् । सङ्कोचः कूचः ॥१११॥ पाकः-"भावकों: ।५।३।१८। सूत्रेण पत्र । भोग्यम्-'ऋवर्णजनाद् घ्यण् ।५।१।१५०। इति ध्यण् ॥१११॥ न्यङ्कद्गमेघादयः ।४।१११२ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५. ) न्यवादयः कत्लो उद्गादयो गत्ये मेदियो बत्ती कृते निषात्यन्तै । न्युङ्कः । शोकः । उद्गः । न्यूद्गः । मेधः । औधः ॥११२॥ नि+अञ्च्, न्यञ्चतीति न्यङ्क :, निपात्नात् उप्रत्ययः निपातनात् चस्य कः । शु.त्रि शोकः, क्त सेट्त्वान्न प्राप्नोति, घोऽन्यत्र शोच्यम् । उब्जत् आर्जवे उब्जेनि क्ते सेट्वान्न प्राप्नोतीति घजि सति जकारस्य निपतिनात् गत्वम्, उपान्त्यस्य च दत्वम् उद्गः इति । नि + उब्ज । मिहेरचि संज्ञायां हस्य घत्वम्, मेघः। अन्यत्र मेहः । वहेरनुपसर्गस्य वकारस्य ओत्वं घत्वं च-ओघःप्रवाहः इत्यर्थः ॥११२॥ न वञ्चेर्गतौ ।४।१।११३। . गत्यर्थस्य वञ्चेः कत्वं न स्यात् । वञ्चं वञ्चन्ति । गताविति किम् ? वङ्क काष्टम् ॥११३॥ यञ्चं वञ्चन्ति गन्तव्यं गच्छन्तीत्यर्थः । वङ्क काष्टम् =कुटिलमित्यर्थः ॥११३॥ यजेयंज्ञाङ्ग ।४।१।११४॥ . यज्ञाङ्गवृत्तेर्यजेर्गत्वं न स्यात् । पञ्च प्रयाजाः । यज्ञाङ्ग इति - किम् ? प्रयागः ।४।१।११४॥. ... ... ... . . - प्रयाजा:=प्रेज्यन्ते एभिः 'व्यज्जनाद् घन ५।३।१३। प्रयलमानि भावे घत्र वा ॥४॥३॥१३॥ . . . . . . . . . - घ्यण्यावश्यके ।४।१।११५॥. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) आवश्यकोपाधिके घ्यणि चजोः कगौ न स्याताम् । अवश्यपाच्यम्, अवश्यरञ्ज्यम् । आवश्यक इति किम् ? पाक्यम् । ॥४।१।११५॥ अवश्यं पचतीति अवश्यपाच्यम् “मयुरव्यंसकेत्या०" ।३।१।११६। सूत्रात्समासः, 'णिन्चावश्यका० ।५।१॥३६॥ इति घ्यण् । अकारान्तोऽनव्ययप्यवश्यशब्दोऽस्मि ।४।१।११५॥ निप्राद्य जः शको ।४।१।११६॥ आभ्यां युजः शक्ये गम्ये ध्यणि गो न स्यात् । नियोज्यः, प्रयोज्यः । शक्य इति किम् ? नियोग्यः ।४।१।११६। नियोक्तु शक्यः,नियोग्यः ।:प्रयोक्तु शक्यः प्रयोग्यः । 'शक्ताहे' ।५।४।३५॥ सूत्रेण ध्यण् ।४।१।११६॥ भुजो भक्षने।४।१।११७॥ भुजो भक्ष्यार्थे घ्यणि गो न स्यात् । भोज्यं पयः। भक्ष्य इति किम् ? भोग्या भूः॥११७॥ भोग्या भूः=पालनीया इत्यर्थः । 'ऋवर्णव्यज्जनाद० ।५।१॥१५॥ इति घ्यण् ॥११७॥ त्यज्यप्रवचः ।४।१।११८॥ एषा घ्यणि कगो न स्याताम् । त्याज्यम्, याज्यम्, प्रवाच्यः। ॥११८॥ याज्यम् इति अत एव प्रतिषेधात् यजिधातोः पर: घ्यणपि भवति अन्यथा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) 'शकितकिचतियतिशसिसहियजि० ।५।१।२६ सूत्रेण यप्रत्यय एव स्यात् । • प्रवचिग्रहणं शब्दसंज्ञार्थमुपसर्गनियमाथं वा । तेन प्रपूर्वस्यैव वचेः कत्वप्रतिषेधो भवति, नान्योपसर्गपूर्वस्य । अन्योपसर्गपूर्वे तु अधिवाक्यमिति भवति । प्रवाच्यो नाम पाठविशेषः, तदुपलक्षितग्रन्थोऽपि प्रवाच्य इत्युच्यते ॥११॥ वचोऽशब्दनाम्नि ।४।१।११६। अशब्दसंज्ञायां वचेय॑णि को न स्यात् । वाच्यम् । अशब्दनाम्नीति किम् ? वाक्यम् ॥११॥ बाक्यम्=विशिष्टः पदसमुदाय: ॥११॥ भुजन्युजं पाणिरोगे ।४।१।१२०॥ भुजेन्युब्जेश्च धनन्तस्य पाणौ रोगे चार्थे यथासंख्यं भुभन्युब्जी निपात्येते । भुजः पाणिः, न्युजो रोगः ॥१२०॥ भुज्यतेऽनेनेति भुजः पाणिः । न्युब्जिताः शेरतेऽस्मिन्निति न्युन्जो नाम रोगविशेषः 'व्यञ्जनाद् घन ।५।३।१३२॥ इत्यधिकरणे पत्र , गत्वाभावः, भुजेर्गुणाभावश्च निपात्यते, पाणि रोगादन्यत्र तु भोगः, न्युद्ग इति भवति ॥१२०॥ वीरुन्न्यग्रोधौ ।४।१।१२० विपूर्वस्य रहेः क्विपि न्यवपूर्वस्य चाचि वीरुत् न्यग्रोधौ एतौ धान्तौ निपात्येते । वीरुत्, न्यग्रोधः ।१२०॥ विरोहतीति विरुत् अत्र निपातनाद्दीर्घः, न्यग्रोहतीति न्यग्रोधः ॥१२०॥ . . . ॐ अथ चतुर्थाध्याये प्रथमः पादः . Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1:5 F क्या गुरु के नौ अङ्ग की पूजा शास्त्रीय है ? ( १२८ ) ४. "श्री प्रतिष्ठाविधि समुच्चय, प्रतिष्ठा कल्प" प्रकाशिका - श्री जैन साहित्यवर्धक सभा, शिरपुर । संयोजक - शास्त्रविशारद कविरत्न पू० आचार्य श्रीविजय अमृतसूरीश्वरजी महाराज ( पू० आचार्य श्री मसूरीश्वर जी म० के शिष्य) इस ग्रंथ में लिखा है कि "सिद्धचक्र की पूजा करे, गुरु के नौ अङ्ग की पूजा करे, यथाशक्ति समस्त संघ को पहेरामणी करे " इसके सिवाय नीचे के अन्य ग्रन्थों में भी ऊपर मुजब पाठ है इसी कारणहम उन ग्रन्थो के नाम और पृष्ठ नम्बर ही बताते हैं । पाठ एक समान ौ अङ्गी गुरु पूजन का होने से पाठ पुनः नहीं लिखते हैं । २. श्री शान्तिस्नात्वादि विधि समुच्चय तथा श्री प्रतिष्ठादिविधि समुच्चय प्रतिष्ठा कल्प भाग १ -२ (पृष्ठ ८१ पंक्ति ३ री) संयोजक०आ० श्री अमृतसूरीश्वरजी महाराज । f · 73 P सम्पादक—पू०आ० श्री हेमचन्द्र सूरिजी म० के शिष्य पू० मुनि श्री गुणशील वि०म० श्री कल्याणकालिका - कर्त्ता - पं० श्री कल्याणविजयजी म० पृष्ठ १६६ पंक्ति १२) सम्पादक - मुनिराज श्रीभद्र करविजयजी म. ( द्वितीत तृतीय खण्डात्मक द्वितीय भाग ) प्रकाशक - श्री क०वि० शास्त्रसंग्रह समिति जालोर ( राजस्थान ) श्री बिम्ब प्रवेश विधि संयोजक तथा प्रकाशक - पोपटलाल, साकरचन्द शाह (पृष्ठ १११ पंक्ति १२ ५. प्रतिष्ठा कल्प-संयोजक और प्रकाशक - श्री सोमचन्द, हरगोविन्द - दास छाणी तथा छबीलदास, केशरीचन्द संघवी ( पृष्ठ ४४ - पंक्ति १३ ) एवं खंभात में श्री जैन शाला - स्थापित श्री नीतिविजयजी शास्त्र संग्रह की । 1. ६. हस्तलिखित प्रश्नो प्रतिष्ठा कल्प - पत्र १२ और प्रतिष्ठा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. ८. ६. ( १२६ ) कल्प - पत्र २२ । पोथी नम्बर २४५ और पोथी नम्बर २५२ में अनुक्रम से पेज १० । ए तथा पेज १६ ए पर गुरु की नौ अङ्ग की पूजा करने का स्पष्ट विधि लिखा है । प्रतिष्ठा कल्प तथा विधिविधान के ग्रंथों में नौ अङ्गी गुरुपूजन के इतने उल्लेख दिखाने के बाद अन्य ग्रंथों में आते हुए निम्न उल्लेख भी देख लें । १३. पं० श्री हंसग्नसूरिजी कृत गद्य 'शत्रुजय माहात्म्य' में भी • उल्लेख हैं । श्री मेघविजय गणि रचित 'भविष्यदत्त चरित्र' में भी उल्लेख हैं । श्री ज्ञानसागर गणि शिष्य विरचित 'धन्यचरित्र' में भी गुरु की नौ अभी पूजन का उल्लेख है । १०. जगद्गुरु श्री हीरसूरीश्वरजी महाराजा के जगह-जगह पर हुए अङ्ग के पूजन का उल्लेख है । ये उल्लेख 'विजय - प्रशस्ति' कर्त्ता श्री हेमविजय गणि, टीकाकार श्री गुणविजय गणि- १३, श्लोक १३ पृ० ४६० पर है | ११. जगद्गुरु — काव्य रचयिता श्री पद्मसागर गणि। प्रकाशक श्रीयशोविजय ग्रंथमाला पृ० २३ श्लोक १६१ में भी उल्लेख है । १२. मंत्री श्री तेजपाल ने आचार्यदेवादि मुनिवरों की की हुई नवांगी पूजा का उल्लेख श्री प्रशस्ति संग्रह, संपादक अमृतलाल, मगनलाल शाह - प्रकाशक - देशविरति धर्माराधक समाज पृ० १६० पर है । श्रावक कवि ऋषभदास रचित 'हीरसूरिजी म० के रास' में कवि ने जगद्गुरु श्री हीरसूरिजी ने दीक्षा के पूर्व में स्वगुरु की की हुई नौ अङ्ग की पूजा का और बाद में जगद्गुरु के हुए नवांगी पूजन की बातें लिखी है । १४. श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म० की कुमारपाल राजा ने सुवर्णकमलों से नवांग गुरु पूजा की थी । प्रबन्ध ग्रन्थों में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है । इससे स्पष्ट है कि आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिजी महाराजा तथा जगद्गुरु श्री हरिसूरिजी महाराज जैसे महापुरुषों ने Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. ( १३० ) नवांगी गुरुपूजन की प्रवृत्ति रोकी नहीं थी । इसमें शास्त्राज्ञा का पालन, इसमें होने वाले देवद्रव्य की वृद्धि, गुरुभक्ति से शिष्य का कल्याण, ये बातें महत्त्व की थी । प्रह उढीने उपाश्रये आवी, पूजी गुरु नव अगे । वाजित वाजतां मंगल गावती, गेहुली दिये मन रंगे ॥ श्री कल्पसूत्र की ढाल में भी देखो, गुरु की नो अङ्गी पूजा का विधान है। पू० आचार्य श्री पादलिप्ताचार्य कृत निर्वाणकलिका में पृष्ट २६ ए पर देवगुरु संघपूजा तथा भगवान की पूजा करके आचार्य की यथाशक्ति पूजा करके - ' ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। इसमें नौ अङ्ग या एक का उल्लेख भले स्पष्ट नहीं है परन्तु गुरुपूजा का तो स्पष्ट उल्लेख है हीं। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अथ चतुर्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः * आत्सन्ध्यक्षरस्य ।४।२।१॥ धातोः सन्ध्यक्षरान्तस्यात् स्यात् । संव्याता, सुग्लः । धातोरित्येव-गोभ्याम् ॥१॥ उत्तरसूत्रण पृथग्योगाद् निनिमित्तोऽ यमादेशः । निनिर्मित्तत्वात् धातोः पूर्वमाकारः क्रियते, पश्चात् आकारान्तधातुमाश्रित्य आकारान्तलक्षणः प्रत्ययः तेन सुष्टु ग्लायतीति सुग्ल इत्यत्र 'उपसर्गादा० ।५।१५६॥ इति डप्रत्ययः सिद्धः । चेतेत्यादावथ भविष्यतीति चेन्मैवमत्र लाक्षणिकत्वान्न भवति ॥१॥ न शिति ।४।२।२। . सन्ध्यक्षरान्तस्य शिति विषयभूते आन्न स्यात् । संव्ययति ॥२॥ व्यग् तन्तुसन्ताने यजादिः ॥२॥ व्यस्थववि ।४।२।३। व्यः थवि णवि च विषये आन्न स्यात् ॥३॥ संविव्ययेत्यत्रापि न आत्त्वम् ॥३॥ स्फुरस्फुलोर्घनि ।४।२।४। अनयोः सन्ध्यक्षरस्य घनि आत्स्यात् । विस्फारः, विस्फालः ॥४॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) “वेः” ।२।३।५४। इति षत्वस्य विकल्पपक्षे उदाहृतम् ||४|| वापगुरो णमि | ४ | ३ |५ ॥ अपपूर्वस्य गुरेः सन्ध्यक्षरस्य णम्याद् वा स्यात् । अपगारमपगारम् । अपगोरमपगोरम् ॥५॥ गुरैति उद्यमे अभीक्ष्णमपगूय अपगुरणं पूर्वं वेति 'रणम् चाभीक्ष्ण्ये' ५।४।४८ । इति ख्णं द्वित्वं न । न च खणम्प्रत्ययेनैव आभीक्ष्ण्यस्योक्तत्वात् द्वित्वं न प्राप्नोतीति वाच्यं शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् केवलरणम् आभोक्ष्ण्यं नद्योतयतीत्यतः द्वित्वापैक्षेति ॥५॥ दीड: सनि वा । ४ |२|६| दोङः सन्याद् वा स्यात् दिदासते, दिदोषते ||६ म दीड च शब्दे ||६|| यब क्ङिति |४| २|७| दोङो यप्य क्ङिति च विषये आत्स्यात् । उपदाय, उपवाता, उदायो वर्तते ॥७॥ उपदायो वर्तते - विषयसप्तमी - निर्देशात्पूर्वमेवात्त्वे सति आकारान्तलक्षणो णो घत्र च भवति । यदा उपादानमिति भावविवक्षा तदा 'युवर्णवृ० | ५|३|२८| इत्यविषये आत्वे 'भावाकर्त्रीः | ५|३ | १८ | इति घञ यदा तूपादीयते इति कर्तृ विवक्षा तदापि णकविषये आत्त्वे 'तन्व्यधी० ५।१।६४ सूत्त्रात् णः । न च घञः कथमाकारान्तलक्षणत्वं सामान्येन तस्य विधानादिति वाच्य घञोऽप्याकारान्तलक्षणत्वं सामान्यमस्ति यतः आकाराभावे ईदन्तत्वादल् स्यात् । न च णं बाधित्वा उपसर्गाद् विशेषेण Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( १३३ ) 'उपसर्गादातः' ।५।३।११०। इति डो भविष्यतीति वाच्यं डविषये बालकादात्वं नेष्टमिति । अनन्तरसुत्रे दीङ इति सानुबन्धनिर्देशात् यड्लुपि नाकार: ।।७।। भिग्मीगोऽखलचलि ।४।२८। अनयोर्यपि खलअचअल्वर्जेऽक्ङिति च विषये आत्स्यात् । निमाय, निमाता । प्रमाय । प्रमाता । अखलचलीति किम् ? ईषद्विलयः, विलयः, विलयोऽस्ति ॥८॥ डुमिंग्ट प्रक्षेपणे मिनोति इति प्रथमो धातुः, मींग्श् हिंसायान् मीनाति इति द्वितीयो धातुरत्र सूत्रे गृहीतः । निमायेति-प्रक्षेप्येत्यर्थः । न च तृच्प्रत्ययविषये आत्त्वे 'तन्व्यधी० ।५।१६४ इति णे विसर्गान्तमपीदं रूपम् तहि निमातेति कथमिति वाच्यम् 'असरूपोप०' ।५।१६१। सूत्रादसरूपत्वात्तजपि । अत्र मिग्मीग इति भणनात् मिङ्च् हिंसायामिति देवादिकस्य मीण गताविति युजांदेश्चः ग्रहणं न भवति । ईषद् अनायासेन निमीयते-ईषन्निमयः, ईषन्निमयः, दुःखेन प्रमीयते-दुष्प्रमयः. 'दुःस्वीषतः० ।५।३।१३९। सूत्रण खल । मिनोति दुःखमिति मयः कर्तरि अच्प्रत्ययः । आ=सामस्त्येन मीनाति=हिनस्ति प्राणिनमिति=आमयः कर्तर्यच् । अल्प्रत्यये निमयः, प्रमयम् इत्युदाहृतम् । 'मिग्मीग्' इति गकारनिर्देशात् यङ्लुपि नात्त्वम् ।।८।। - लीलिनोर्वा ।४।२।६। अनयोर्यपि खल्अच्अल्वर्जे विति च विषये आद् वा स्यात् । बिलाय, विलीय, विलाता, विलेता। अखलचलोति किम् ? ईषद्विलयः विलयः, विलथोऽ स्ति ॥६॥ लीच् श्लेषणे, लींश् श्लेषणे इति द्वयोरपि समान रूपम् । णे दिलाय इत्यपि भवति ॥६॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) णौ क्री-जीङः ।४।२।१०॥ एषां णौ आत्स्यात् । क्रापयति, जापयति, अध्यापयति ॥१०॥ डुक्रींग्श् द्रव्यविनिमये (क्रयादिः), जि अभिभवे (भ्वादिः) इंक अध्ययने अदादिः, अस्याधिनाऽवश्यंभावी योगः। सर्वत्र 'अतिरीब्ली० ।४।२।२१। सूत्रेण पोन्तः ॥१०॥ सिध्यतेरज्ञाने ।४।२।११॥ अज्ञानार्थस्य सिध्यतेो स्वरस्यात् स्यात् । मन्त्रं साधयति । अज्ञान इति किम् ? तपस्तापसं सेधयति ॥११॥ सध्यक्षरप्रस्तावात् 'स्वरस्य' इति लभ्यते, अन्यथा 'षष्ठ्याऽन्त्यस्य ।७।४।१०६। सूत्रात् धकारस्यैव स्यात् । सिध्यतेरित्यत्र यकारनिर्देशात् विधूच संराद्धाविति दिवादिगुह्यते षिध गत्यामिति भ्वादेग्रहणं न भवति । सेधयति-सिध्यति जानीते तापसः ज्ञानविशेषमासादयति, तपः तं तापसं प्रयुक्त तप एवैन सेधयति अनुभवविशेषमु-त्पादयति इत्यर्थः । अनुभवः साक्षात्कारः स च ज्ञानमेव ॥११॥ चिस्फुरनवा ।४।२।१२। . चिस्फुरोणी स्वरस्याद् वा स्यात् । चापयति, चाययति, स्फारयति, स्फोरयति ॥१२॥ 'स्फरत् स्फुरणे' धातुनैव सिद्ध स्फुरेरात्त्ववचनं प्यन्तात्सनि पुस्फारयिषतीत्येवमर्थम् ॥१२॥ वियः प्रजने ।४।।१३॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) गर्भाधानार्थस्य वियो णौ वा आत्स्यात् । पुरो वातो गाः स्वापयति, प्रवाययति ॥ १३ ॥ प्रजनः गर्भग्रहणम् । 'भावाकर्तोः | ५|३|१८ | इतिघत्र 'नजनबधः ' ४ | ३ |५४ | सूत्रेण वृद्धिर्न भवति । वातेः प्रजने वृत्तिर्नास्तीत्यारम्भः । पुरो वातो गाः प्रवापयति, प्रवाययति-गभं ग्राहयतीत्यर्थः । पूर्वस्या दिश आगतः 'पूर्वापरा०' | ७|३|११५ । इत्यस् । वातः = पवनः । गो+ द्वितीयाशस्, 'आ अम्शसोऽ ता० | १|४/७५ | इत्याकारः । वीं "प्रजनकान्त्यसनखादने च ॥१३॥ - रूहः पः।४।२।१४। रुहेण प् वा स्यात रोपयति, रोहयति वा तरूम् ॥१४॥ रोह्त्यर्थं रूप्यतिर्न दृश्यते इति योगारम्भः ||१४|| लियो नोऽन्तः स्नेहद्रवे ।४।२।१५। लियः स्नेहद्रव्ये गम्ये णौ नोन्तो वा स्यात् । घृतं विलीनयति, विलाययति । स्नेहद्रव्य इति किम् ? अयो विलाययति ॥ १५ ॥ लीड्च् श्लेषणे, लीरा श्लेषणे, लींण् द्रवीकरणे इति त्रयाणामपि सामान्येन ग्रहणम् । घृतं विलीनयति, घृतं विलाययति - अत्र लीधातोर्णिग वृद्धिरायादेशः । लिय ई ली इति ईकार प्रश्लेषाद् ईकारान्त स्यैव नोन्तो भबति । 'लीलिनोर्वा |४| २|६| सूत्रेण विकल्पेनात्त्वविधानं कृतात्त्वस्य तु 'लो लः |४|२| १६ | इति लोऽन्तः 'अतिरी० | ४||२१| इति पोन्तश्च भवति । तदा घतं विलीनयति, विलाययति, विलालयति, विलापयतीति रूपचतुष्टयम् 119211 लोलः ।४।२।१६। 1 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) लारूपस्य णौ स्नेहद्रव्ये गम्ये लोऽन्तो वा स्यात् । घृतं विलालयति, विलापयति वा । स्नेहद्रव्य इत्येव जटाभिरालापयते ॥१६॥ जटाभिरालापयते परैः स्वं पूजयतीत्यर्थः ली लिनोऽर्चा ० | ३ | ३|६० इत्यनेनात्त्वमात्मनेपदं च ॥ १६ ॥ पाते: ४ ।२।१७ | पातेर्णी लोsन्नः स्यात् । पालयति ॥ १७॥ पृथग्योगाद् नवेति निवृत्तम् । 'पातेः' इत्यत्र तिब्निर्देशो धात्वन्तर निवृत्यर्थः, तेन पांक रक्षणे इति पैं अदादिको गृह्यते, पां' पाने, पैं शोषेण इति धातुद्वयं निवार्यते । यतोऽनयोः पाययति इति प्रयोगः । तिनिर्देशो यङ्लुब्निवृत्त्यर्थश्च । पलण रक्षणे इति चुरादिकेनैव सिद्धे पातेर्योन्तः स्यादिति वचनम् ||१७|| धूप्रीगोर्न: ।४।२।१८ धू गुप्रीगोण नोऽन्तः स्यात् । धूनयतिः प्रीणयति । १८ । धगट्कम्पने, धूगश् कम्पने, धूण कम्पने इति त्रयोऽप्यत्र ज्ञातव्याः । 'प्रींग्श् तृप्तिकान्त्योः, प्रीण तर्पणे' । धातुद्वयं प्रीगिलेन गृह्यते । अनुबन्धनिर्देशो धवतिप्रीयतिनिवृत्त्यर्थः, यङ्लुब्निवृत्त्यर्थश्च ॥ १८ ॥ वो विधूनेन: |४| २|१६| वा इत्यस्य विधूननेऽर्थे णौ जोऽन्तः स्यात् । पक्षेणोपवाजयति । विधूनन इति किम् ? उच्चैः केशानावायति ॥१६ः Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) उपवाजयति-वांक् गतिगन्धनयोरित्यस्य न तु ओवै इत्यस्य विधूनने वृत्त्यभावात् । आवापयति-शोषयतीत्यर्थः । ओवै शोषणे 'आत्सन्ध्यक्षरस्य ।४।२।१ इति । वजिनैव सिद्ध वाते रूपान्तरनिवृत्त्यर्थं वचनम् ॥१६।। पाशाछासावेव्याह्वो यः ।४।२।२०। एषां णौ योऽन्तः स्यातः । पाययति, शाययति, अवच्छाययति, अवसाययति, वाययति, व्यायति, ह्वाययति ॥२०॥ पोरपवादो योगः । पां पाने, मैं शोषणे पाययति । पातेस्तु लकार उक्तः । शोच शाययति । छोंच छाययति । सो सेवा अवसाययति । वेंग वाययति । वे इत्यनात्वेन निर्देशो बांक् गतिगन्धनयोः, ओवें शोषणे इत्यनयोनिवृत्यर्थः । व्यंग्-व्याययति, हग ह्वाययति । एषां कृतात्त्वानां ग्रहणादिह लाक्षणिकस्यापि ग्रहणं भवति तेन क्राययतीत्यादि सिद्धम् ॥२०॥ अतिरीव्लीह्रोक्नूयिक्ष्माय्यातां पुः ।४।२।२१॥ एषामादन्तानां च णौ पुरन्तः स्यात् । अर्प यति, रेपयति, ब्लेपयति, ह पयति, क्नोपयति, मापयति, दापयति, सत्यापयति ॥२१॥ अत्तीति-'ऋगतो' 'ऋ प्रापणे च' इत्यनयोग्रहणं 'सामान्यनिर्देशात् । तिनिनिर्देशो यङ्लुब्निवृत्त्यर्थः । रीति-रीङ्च स्रवणे, रीश् गतिरेषणयोः इति द्वयोरपि ग्रहणम् । व्लींश् वरणे'व्लेपयति । ह्रींक लज्जायाम् ह्र पयति । क्नयैङ् शब्दोन्दनयोः क्नोपयति 'य्वोः प्वयव्यञ्जने लुक ।४।४।२१ इति यस्य लुक् । क्ष्मायैङ् विधूनने-क्ष्मापयति । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेन नाम्नोपि सत्यमाचष्टे सत्यापयति 'सत्यार्थवेदस्याः ।३।४।४४ इत्याकारः ॥२१॥ स्काय स्फा ।४।२।२२। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) णौ स्फायः स्काव् स्यात् । स्फावयति ॥२२॥ स्फाय वृद्धौ । अभेदनिर्देशाभावेऽन्त्यस्यादेश: स्यात् ॥२२॥ शदिरगतौ शात् ।४।२।२३। शदिरगत्यर्थे णौ शात्स्यात् । पुष्पाणि शातयति । अगताविति किम्-गाः शादयति ॥२३॥ शादयति गोपालो गा गमयतीत्यर्थः ॥२३॥ - घटादेह स्वो दीर्घस्तु वा भिणम्परे ।४।२।२४॥ घटादीनां णौ हस्वः स्यात् । जिणम्परे तु णौ वा दोघः । घटयति, अघाटि, अघटि, घाटं घाटम्, घटं घटम् । व्यथयति, अव्याथि, अव्यथि, व्याथं व्याथम्, व्यथं व्यथम् ॥२४॥ भ्वादिपर्यन्ते घटादिगणः । सूत्रे घटादयः पठितार्था एव ह्रस्वदीर्घकार्ये गृह्यन्ते, अर्थान्तरे तु घटादीनां न ह्रस्वविधिः, उपसर्गः प्रायेणार्थान्तरं भवति यथा उद्घाटयति, अत्र न ह्रस्वः । घटिषु चेष्टायाम् घटमानं प्रयुक्त 'प्रयोक्तृव्यापारे णिग् ।३।४।२०। इत्यनेन णिग् 'ञ्णिति' ।४।३।५० सुत्रेण वृद्धिः अघाटि, अघटीयत्र णिग्, अद्यतनीत 'भावकर्मणोः ।३।४।६८ सूत्रेण जिच्, अद्यतनीतकारलोपश्च । अभीक्ष्णं घटनं पूर्वम् इति, घाटंघाटम् “रुणम् चाभीक्ष्ण्ये' ।५।४।४८ सूत्रेण रुणम्प्रत्ययः णिपूर्वः, प्रकृतसूत्रेण विकल्पेन हृस्वः । 'भृशाभीक्ष्या० ७४॥४३॥ सूत्रेण द्वित्वम् । ननु णिगो लोपस्य 'स्थानिवद्भावेन घटादीनां व्यवहितत्वात् ञिणम्परे णो न स्याद्धस्वविकल्पः इति नाऽऽशङ्कनीयं दीर्घविधि प्रति 'न सन्धिo ७।४।१११। सूत्रीण स्थानिवद्भावनिषेधात्। क्षडिजदक्ष्यादी घटादिपाठलादनुपान्त्यस्यापि · दीर्घो भवति ॥२४॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) कगेवनूजनैज़ षक्नस्रञ्जः ।४।२।२५॥ एषां गौ ह्रस्वः स्यात् ञिणम्परे तु वा णौ दीर्घः । कगयति । अकागि। अकगि। कागकागम् । कगंकगम् । उपवनयति । उपावानि । उपावनि । उपवानमुपवानम् । उपवनमुपवनम् । जनयति । अजानि । अजनि । जानजानम् । जनंजनम् । जरयति । अजारि । अजरि। जारंजारम् । जरंजरम् । क्नसयति। अक्नासि। अक्नसि । कनासंक्नासन् । क्नसक्नसम् । रजयति । अराजि । अरजि । राजराजम् रजरजम् ॥२५॥ घटादीनां धातुपाठे पठितार्थानामेव ग्रहणमर्थान्तरे तु उद्घाटयतीत्यादौ न ह्रस्वविधि: यतः उपसगैः प्रायेणार्थान्तरं भवति । पूर्वेण पृथग्योगाद् कगादीनां त्वर्थविशेषो नोपादीयते । कगे इति सौत्रौ धातुः एकारश्चैदित्कार्यार्थः तेन अकगीदित्यत्र 'व्यञ्जनादेर्वा० ।४।३।४७। सूत्रेण प्राप्तवृद्धः 'न श्विजागृ०' ।४।३।४६। सूत्रेणैदित्वात्प्रतिषेधः । 'वनू' इति ऊकारनिर्देशात 'वयि याचने' इति धातुर्गाह्यः 'वन संभक्तौ' इत्यस्य न ह्रस्वदीर्घविधिः रजयति–'रजी रागे इति भ्वादिः रञ्जींच रागे दिवादिर्वा, णिग् ‘णौ मगरमणे' ।४।२।५१। सूत्रात् नलोपः, नलोपे वचनस्य चरितार्थत्वात् नलोपाभावे 'अरञ्जि, रज रञ्जम् इत्यत्र वा दीर्घो न भवति ॥२५॥ अमोऽकम्यमिचमः ।४।२।२६। कम्यमिचमिवर्जस्यामन्तस्य गौ हस्वः स्यात् ञिणम्परे तु वा णौ दीर्घः । रमयति । अरामि । अरमि । रामरामम् । अकम्यमिचम इति किम् । कामयते । अकामि । कामकामम् । आचामयति ॥२६॥ रमयति, अरामि, अरमि, रामरामम्, रमरमम्-उदाहरणेषु सर्वत्र णिग् Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) 'णिति' ।४।३।५०। सूत्रेण वृद्धिः, आ, । अद्यतनीत, 'भावकर्मणोः ।३।४।६८। सूत्रेण त्रिचत, लोपश्च । 'ख्णं चाभी० ।५।४।४६। सूत्रेण खणम् । 'भृशाभी० ७४।७३। सूत्रेण सर्वत्र द्वित्वम् । ख्णमुदाहरणे प्रथमासिः अव्ययस्य' ।३।२।७। सूणेण सेर्लोपः ॥२६॥ पर्यपात् स्खदः ।४।२।२७। आभ्यामेव परस्य स्खदेो हस्वः स्यात भिणम्परे तु वा दीर्घः । परिस्खदयति । पर्यस्खादि। पर्यस्खदि । परिस्खादं परिस्खादम्। परिस्खदं परिस्खदम् । अपस्खदयति । अपास्खादि । अपास्खदि । अपस्खादमपस्खादम् । अपस्खदमपस्खदम् । पर्यपादिति किम् । प्रस्खादयति ॥२७॥ . स्खघटादिपाठेन सिद्वे आभ्यामेवेति नियमार्थं वचनम् तेनान्योपसर्गपूर्वस्य न भवति । विपरीतनियमस्तु न भवति ‘एकोपसर्गस्य'० ॥४॥२॥३४। सूत्रेण परिच्छद इत्यत्रापि ह्रस्वविधानसामर्थ्यात् ॥२७॥ शमोऽ दर्शने ।४।२।२८। . अदर्शनार्थस्य शमो ह्रस्वः स्थात् ञिणम्परे तु वा दीर्घः । शमयति रोगम् । ॐ शामि । अशमि । शामंशांमम् । शमंशमम् । अदर्शन इति किम् । निशामयति रूपम् ॥२८॥ दर्शन एव केचिदिछन्ति तेषां मते उदाहरणप्रत्युदाहरणयोर्वैषम्यम् ।।२८।। यमोऽपरिवेषणे णिचि च ।४।।२८। अपरिवेषणार्थस्य यमो णिचि अणिचि च णौ ह्रस्वः स्यात् । . ञिणम्परे तु वा दीर्घः । यमयति । अयामि । अयमि । यामयामम् । ययंयमम् । अपरिवेषण इति किम् । यामयत्यतिथिम् ॥२६॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) 'यमू उपरमे भ्वादि।, यमण परिवेषणे चुरादिः' धातुद्वयमप्यत्र ग्राह्यमत एवोक्त णिचि अणिचि चेति । चकारोऽ णिचि चेत्यस्यानुकर्षणार्थः। णाविति सिद्ध अस्य णिचि चेति वचनान्येषां णिचि न भवति । यामयत्यतिथिमूपरिवेषण क्रियया तं व्याप्नोतीत्यर्थः । परिवेषणमिह भोजनविषयि सूर्यादिवेष्टनं च गृह्यते तेन यामयति चन्द्रमसमित्याद्यपि ॥२६॥ मारणतोषणनिशाने ज्ञश्च ।४।२॥३०॥ एष्वर्थेषु ज्ञो णिचि अणिचि च णौ ह्रस्वः स्यात् भिणम्परे तु वा दीर्घः । संज्ञपयति पशुम् । विज्ञपयति राजानम् । प्रज्ञपयति शस्त्रम् । अंज्ञापि, अज्ञपि, ज्ञापंज्ञापम्, ज्ञपंज्ञपम् ॥३०॥ चकारो णिचि चेत्यस्यानुकर्षणार्थः । धातोराकर्षणे फलाभावात्प्रकृतेरपि स्थितः चकारः प्रत्ययमाकर्षति इदमपि स्वरूपाख्यानमेव अधिकारायातमेव चकारेणानुमीयते अन्यथा चानुकृष्टं नानुवर्तत । ज्ञाधातु 'ज्ञांश् अवबोधने इति क्रचादि: ज्ञाण मारणादिनियोजनेषु इति चुरादि: द्वयमप्यत्र ज्ञातव्यम् । यदि चुरादिस्तदा 'चुरादिभ्यो णिच।।३।४।१७। भवति, यदि च क्रयादिस्तदा 'अणिच्' इति विशेषः । इह 'यमोऽपरिवेषणे णिचि च, १४।२।२९। इति पूर्वसूत्रे णिचि अणिचि च णौ रूपसाम्ये प्यर्थ भेदः । ज्ञाग्धातोः प्रथममेव मारणमिति धात्वर्थः स्वार्थः । ज्ञांश धातोस्तु प्रयोक्त - व्यापारे मारणमर्थः प्रथमं मरणमर्थ इति विशेषः । संज्ञपयति–'आदेशादागमः' इति न्यायात् ह्रस्वात्प्रागेव प्वागमः । प्रज्ञपयति निशानं 'तीक्ष्णीकरणमित्यर्थ ।।३०॥ चहणः शाठ्थे ।४।२।३१। चहेश्चुरादेः शाठ्यार्थस्य णिचि णौ ह्रस्वः स्यात् अिणम्परे तु वा दीर्घः । चहयति । अचाहि । अचहि । चाहंचाहम् । चहचहम् । शाठ्य इति किम् । अचहि ॥३१॥ चहण कल्कने इति अदन्तो धातुः, अदन्तत्वात् दीर्घोऽप्राप्तः ह्रस्वः सिद्ध Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) एवास्ति दीर्घायं वचनम् कृतम् । णित्करणाद् भ्वादिकस्य ग्रहणं न भवति । न चादन्तस्य चहणः भ्वादिकस्य च चहेः सर्वमेव सेत्स्यति किमर्थमेतद् वचनमिति वाच्यम् सत्रं विना चाहिष्यते इति न सिध्यति तथाहिभ्वादेः स्वरान्तत्वाभावात् 'स्वर० ।३।४।६६। सूत्रेण निट् नायाति । चुरादिचहणस्त अदन्तत्वात त्रिटि सत्यपि वद्धिप्राप्ता। नन णिगि सति भ्वादेः सिध्यतीति चेत्तहि अर्थभेदः स्यादतः सूत्रं कृतम् ।।३१॥ ज्वलह्वलह्मलग्लास्नावनूवमनमोऽनुपसर्गस्य वा ।४।२।३२ एषामनुपसर्गाणां णौ ह्रस्वो वा स्यात् । ज्वलयति । ज्वालयति । ह्वलयति । ह्वालयति । ह्मलयति । ह्यालयति । ग्लपयति । ग्लापयति । स्नपति । स्नापयति । वनयति । वानयति । वमयति । वामयति । नमयति । नामयति । अनुपसर्गस्येति किम्। प्रज्वलयति । प्रह्वलयति । प्रह्मलयति । प्रग्लापयति । प्रस्नापयति । प्रवनयति । प्रवमयति । प्रणमयति ॥३२॥ ग्लास्नोरप्राप्ते शेषाणां तु प्राप्ते विभाषा । अनेन वा ह्रस्वविधानात् अज्वालि, अज्वलि । ज्वालं ज्वालम, ज्वलंज्वलम् इत्यादि षु दीर्घ विकल्पः सिद्ध एवेति ञिणम्परे इति नानूद्यते ॥३२॥ छदेरिस्मन्त्रट-क्वौ ।४।२॥३३॥ छदेरिस्मन्त्रदिपरे गौ ह्रस्वः स्यात् । छदिः छद्मः, छत्री, उपच्चत् ॥३३॥ छदण् संवरणे 'चुरादिभ्यो णिच् ।३।४।१७। सूत्रेण णिनि छादयतीति 'रूचि० । उणादि० ९८९ इत्युणादिसूण इस् । छद्म इत्यत्र ‘मन्वन्० Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) ।५।२१।४७। सूत्रौण मन् । छत्री छादयतीति छां छत्री वा धर्मवारणम् । डिति वचनादुणादिको हस्वो न भवति यथा छात्रः । क्विपि उपच्छत् ॥३३॥ एकोपसर्गस्य च घे।४।२।३४। एकोपसर्गस्यानुपसर्गस्य च छर्घपरे णौ ह्रस्वः स्यात् । प्रच्छदः । छदः । एकोपसर्गस्य चेति ? समुपच्छादः ॥३४॥ प्रच्छाद्यतेऽनेन प्रच्छदः, छाद्यतेऽनेन=छद:-“पुन्नाम्नि घः ।५।३।१३० सूत्रात् घप्रत्ययः ॥३४॥ उपान्त्यस्यासमानलोपिशास्वृदितो हुँ ।४।२॥३५॥ समानलोपिशास्वृदिद्वर्जस्य धातोरुपान्त्यस्य ऊपरे जौह स्वः स्यात् । अपीपचत् । भाववानटिटत् । असमानलोपिशास्वृदित इति किम् ।अत्यरराजत् । अशशासत् । मा भवानोणिणत्।३५। कृताकृतप्रसाङ्गित्वं नित्यत्वम् । अत्र नित्यत्वं द्विवर्चनस्य । नित्यमपिद्विर्वचनं बाधित्वा प्रागेव द्वस्वो भवति ओणऋदित्करणज्ञापकात । मा भवानटिटदित्यत्र ह्रस्वत्वे कृतेऽकृतेऽपि द्वित्वं प्राप्नोतीतिनित्यम् । ह्रस्वस्तु द्वित्वे कृतेन प्राप्नोतीयनित्यः । न केवलं द्विवचनं बाधित्वा प्रागेव हस्वः अपित 'प्राक्त स्वरे स्वरविधः' इत्यपि बाधित्वा । प्राग द्वित्वे कृते तु अटिटदित्यनाकारस्य हस्वो न स्यात् । अत्र ओणधातोः ऋदित्करणं ज्ञापकम् । ऋदित्करणं हि ‘मा भवानोणिणत्' इत्यत्र ऋदित्वात् 'उपान्त्यह्रस्वत्वप्रतिषेधः' स्यादित्येवमर्थं क्रियते । यदि चात्र 'ओणिणदित्यत्र नित्यत्वात्प्रागेव द्वितीयावयवस्य द्वित्वं स्यातदाऽनुपान्त्यत्वादेव ह्रस्वस्याप्राप्तिरिति किं ह्रस्वनिवृत्त्यर्थेन ऋदित्करणेन ? अत्यरराजत-राजानमतिक्रान्तः अतिराजः, अतिक्रान्तोः राजानं वा 'राजन्सखे:' ।७३।१०६। सूत्रेण अट्समासान्तः, 'नोऽपदस्य तद्धिते' ।७।४।६१। सूत्रात् नस्य लोपः । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) अतिराजमाख्यत् "णिज्बहुलं० ।३।४।४२। सूत्रात् णिच्, 'त्र्यन्त्यस्वरादेः ७।४।४३। सूत्रादन्त्यस्वरलोप: “अन्यस्य' ।४।१।८। सूत्राद् द्वित्वम् । शासेरूदित्करणं यङ्लुन्निवृत्त्यर्थम् । येन नाव्यवधानमिति न्यायादेकेन वर्णेन व्यवधानेऽपि स्वरः स्वस्य स्थानी भविष्यतीति कि सुपान्त्यग्रहणेनेति चेदत्रोत्यते उपान्त्यग्रहण नुत्तरार्थम् अन्यथा 'ऋवर्णस्य ।४।२।३७। सूत्रेणान्त्यस्यापि कारस्य ऋत् स्यात् ॥३५॥ भाज-भास-भाष-दीप-पीड-जीव-मील-कण-रण-वणभण-श्रण-ह-हेठ-लुट-लुप-लपां नवा ।४।२।३६ । एषां ऊपरें णावूपान्त्स्य ह्रस्वो वा स्यात् । अबिभ्र जत्, अबभ्राजत् । अबीभषत् अबभाषत् । अदीदिपत् आदिदीपत् ।अपीपिडत, अपिपोडत् ।अजोजिवत् अजिजीवत्। अमोमिलत अमिमोलयत्।अचो कगत् अचकाणत् ।अरोरणत्,अरराणत् । अवीवणत्, अववाणत् । अबीभणत्, अबभाणत् । अशिश्रणत्, अशश्रागत् । अजूहवत्, अंजुहावत् । अजीहिठत्, अजिहेठत् । अलूलुटत्, अलुलोटत् । अलूलुयत, अलुलोपत्. । अलीलपत, अललापत् ॥३६॥ एजङ ब्रेजुङ भाजि दीप्ती अथवा राजग टुभाजी दीप्तौ भ्राज् । भासि दीप्तौ भास । भाषि च व्यक्तायां वाचि इति भाष । दीपैचि दीप्तौ इति दीप् । पीडण् गहणे इति पीड़ । जीव प्राणधारणे इति जीव । मील निमेषणे । 'अण रण वणेति दण्डकधातौ कण, रण, वण, भण। श्रण दाने, इत्यस्य श्रणधातोदीनार्थस्य घटादित्वात् ह्रस्वत्वं सिद्धमेवास्ति अणण दाने इत्य स्यतु 'यमोऽपरि०' ।४।२।२९ सूत्रेण णिचि यम एवेति नियमादप्राप्तस्य विकल्पः । अत्र च पाकार्थेऽर्धान्तरे सति प्रकृतस्त्रोण विकल्पेन ह्रस्वः । ढेग् स्पर्दाशब्दयोः । हेठि विबाधायाम् । लुटच विलोटने। लुप्लुती छेदने । लप व्यक्त वचने । बहुवचन शिष्ट प्रयोगानुसारेणान्येषामपिरि - ग्रहार्थं तेन अविभ्रसत् अबभ्रासदित्याद्यपि सिध्यति ।।३६।। भादवर्णरय ।४।२।३७। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) उपान्त्यस्य ऋवर्णस्य उपरे णौ वा ऋः स्यात् । अवीवृतत। अववर्त्तत् । अचीकृतत् । अचिकीर्तत् ॥३७॥ "उपान्त्यस्या०' ४॥२॥३५॥ सूत्रात् उपान्यस्येत्यनुवृत्तित्वात् उपान्त्य ऋवर्णो ग्राह्यः । अन्यथा यदि तत्र सूत्रोउपान्त्यस्येत्यगृहीतं स्यात्तदा येन नाव्यवधानमिति न्यायेनैव तत्र सेत्स्यति परन्त्वत्र अन्त्यस्यापि ऋकारस्य ऋः स्यात् । अवीवृतदिति-ऋकारस्यापि ऋत्करणादन गुणो बाध्यते । ननु वर्णग्रहणं कथम्, 'ऋतः ‘इत्येव सूत्यताम् ? यद्यवं क्रियते तदाऽ चीकृतदित्यवं प्रयोगो न निष्पद्यत । ह्रस्वाधिकारेणैव सिद्ध ऋत्करणमचीकृतदित्यत्र गुणनिषेधार्थम् । न च ह्रस्वकरणसामर्थ्याद् गुणो न भविष्यतीति वात्यं गुणकरणे ह्रस्वस्य चरितार्थत्वात् । अचिकीर्तत्-'कृतः कीत्तिः ।४।२।११२ इति ॥३७॥ जियतेरिः ।४।२॥३८॥ घ्र उपान्त्यस्य ङपरे णो इर्वा स्यात् । अजिघ्रिपत्, अजिघ्रपत् ॥३८॥ तिन्निर्देशो यङ्लुब्निवृत्त्यर्थः ॥३८॥ तिष्ठतेः।४।२।३६॥ स्थ उपान्त्यस्य ङपरे णौ इः स्यात् । अतिष्ठिपत् ॥३६॥ तिन्निर्देशो यङ्लुन्निवृत्त्यर्थः । योगविभागः नित्यार्थः ॥३॥ ऊद् दुषो णौ ।४।२।४०॥ दुषेरुपान्त्यस्य ङपरे णौ ऊत्स्यात् । दूषयति ॥४०॥ . पुनर्णिग्रहणं ङनिवृत्त्यर्थम् । दुष्यन्तं प्रयुक्त-दूषयति । धातोः स्वरूपग्रहणे Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) तत्प्रत्ययविज्ञानात् दोषणं दुट् क्विप-दुषमाचष्टे-दुषयति इत्यत्र न भवति ॥४०॥ चित्ते वा ।४।२।४०॥ चित्तकर्तृकस्य दुणेरुपान्त्यस्य णौ परे ऊद् वा स्यात् मनो दूष- . यति, मनो दोषयति मैत्रः ॥४०॥ मनो दूष्यतितन्मत्रः प्रयुक्त । चित्तसहचारित्वात्प्रज्ञाया अपि ग्रहणात् प्रज्ञा .. दूषयति, दोषयतीत्यत्रापि विकल्पः ॥४०॥ गोहः स्वरे॥४२॥४१॥ कृतगुणस्य गुहेः स्वरादावुपान्त्यस्योत्स्यात् । निगृहति । गोह इति किम् ? निजुगुहुः ॥४१॥ गुहाग् संवरणे । निजुगृहः-'इन्ध्यसंयोगात्० ।४।३।२१। सूत्रेणावित्परोक्षायाः किद्वद्भावाद् गुणाभावः ॥४१॥ भुवो वः परोक्षाद्यतन्योः ।४।२।४३॥ भुवो वन्तस्योपान्त्यस्य परोक्षाद्यतन्योरुत्स्यात् । बभूव, अभूवन् । व इति किम् ? बभूवान्, अभूत् ॥४३॥ वृद्धिगुणोवादेशेषु कृतेषे भुवो वकारान्तत्वम् । बभूव–'भूस्वपोग्दुतो' ।४।१।७०। सूत्रेण द्वित्वे पूर्वस्याकारः । अभूदन्-अद्यतनी अन्, सिच्, अट्, 'पिबैति० ।४।३।६६। सूत्रात् सिच्लोपः, 'धातोरिवर्णो० ।२।४।५०। सूत्रेण भुवः ऊकारस्थाने उ: आदेशः, उवादेशे कृते 'भुवो वः० ।।।२।४३। सूत्रेण उकारस्य ऊः आदेशः । बभूवान-वसौ परोक्षायां 'उवर्णात० ।४।४।५८। सूत्रादिडभावः । व इति कथनाभावे उपान्त्यस्येत्यधिकाराद् Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) भस्योत् स्यात् । यद्वा नन्वत्र पूर्वसूत्रात् स्वरे इत्यनुवर्त्यं ततश्च परोक्षाद्यतन्योः स्वरे परे इति व्याख्याने स्वयमेव वकारान्तत्वं लप्स्यते किं वग्रहणेन ? उच्यते यदि स्वरोऽनुवर्त्यते तदोत्तरसूत्रे ऽनुवर्तमानो दुर्निवारः स्यात्तथा सति स्रस्तः इत्यादौ "नो व्यञ्जनस्या० |४| २|४५ | सूत्रात् नलोपो न स्यात्, अत एव 'गमहन० ' | ४|२| ४४ | सूत्रे स्वरग्रहणं कृतम् ||४३|| गमहनजनखनधसः स्वरेऽनङि ङिति लुक् |४| २|४४ ॥ एषामुपान्त्यस्यावर्जे स्वरादौ क्ङिति लुक् स्यात् । जग्मुः, जघ्नुः जज्ञ े, चख्नुः, जक्षुः । स्वर इति किम् ? गम्यते । अनङीति किम् ? अगमत् । क्ङितीति किम् ? गमनम् ॥४४॥ नैचि प्रादुर्भावे इति दैवादिको जन् गृह्यते । जनेरात्मनेपदित्वात् जज्ञ े इति प्रयोगः । जज्ञतुः जज्ञः प्रयोगौ नास्मन्मते किन्तु एतौ वैदिको प्रयोगौ । पाणिनीयास्तु जुहोत्यादौ 'जन जनने' इति परस्मैपदिनं वैदिकं पठन्ति । जक्ष :-घस्लृ अदने घसो' द्वित्वम्, 'द्वितीयतुर्ययोः पूर्वी | ४|१|४२ | सूत्रात्पूर्वस्य घस्य गः, 'गहोर्ज : | ४ | १ |४०| सूत्रेण गस्य जः, 'गमजन० ४। २ । ४४ । सूत्रेणोपान्त्याकारलोपः 'अघोषे प्रथमो० १ | ३ |५० | सूत्रात् घस्य कः, 'घस्वसः | २|३|३६| सूत्रेण सस्य ष: । अथवा अदं भक्षणे - परीक्षा 'परोक्षायां नवा | ४|४|१८ | सूत्रेण अद: स्थाने घस् आदेशः । “घस्वसः” | २|३ | ३६ | सूत्रं तु अकृतसकारार्थं आदेशस्य तु कृतत्वात् 'नाम्यन्तस्था० |२| ३ |१| सूत्रेण सस्य षकारः । अगमद्- 'लृदिद्युतादि० ३।४।६४।सूत्रेणङ् ।।४४।। नो व्यञ्जनस्यानुदितः । ४।२।४५। व्यञ्जनान्तस्यानुदितो धातोरुपान्त्यस्य नः क्ङिति परे लुक् स्यात् । त्रस्तः, सनीस्रस्यते । व्यञ्जनस्येति किम् ? नीयते 1 अनुदित इति किम् ? नानन्द्यते ॥ ४५ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) सनीलस्यते-'वञ्चनस० ।४।१।५०। सूत्रेण नीरन्तः । नानन्द्यते-टुनदु समृद्धी इत्युदिद्धातुः ॥४५॥ अञ्चोऽनर्चायाम् ।४।२०४६॥ अनार्थस्यैवाञ्च रुपान्त्यनो विङति परे लुक् स्यात् । उदक्तमुदकं कूपात् । अन_यामिति किम् ? अञ्चिता गुरवः ॥४६॥ पूर्वेण सिद्ध अन यागे-वेति नियमार्थमिदं सूत्रम् । उदक्तम्-उदञ्चति स्मेति 'गत्यर्था० ।५।१।११। सूत्रात् क्तः । अञ्चिताः-अञ्च्यते स्म इति 'लुभ्यश्च ० ।४।४।४४i सूत्रादिट् ॥३६॥ लङ्गिकम्प्योरुपतापाङ्गविकृत्योः ।४।२४७। अनयोरुपान्त्यनो यथासङ्ख्यमुपतापे ऽङ्गविकारे चार्थे क्ङिति परे लुक् स्यात् । विलगितः, विकपितः। उपतापाङ्ग-विकृत्योरिति किम् ? विलङ्गितः, विकम्पितः ॥४७॥ लङ्गिकम्प्योरुदित्त्वात्पूर्वेणाप्राप्ते वचनम् । द्विवचनं ङितीत्यनेन यथासङ्घयनिवृत्त्यर्थम् । उख नखेति दण्डकधातौ लगुधातुः । विलगितः= रोगादिनोपतापित इत्यर्थः । विलङ्गितः-विलङ्गति स्म केनचिदङ्गेन हीन इत्यर्थः । कपुङ चलने । विकम्पितः-विकम्पते स्म, मनसि कम्पितः, चित्ते भीत इत्यर्थः नाङ्गविकृत्यर्थः ॥४७॥ भाजेनौं वा ।४।२।४८॥ भजेरुपान्त्यनो नो परे लुग्वा स्यात् । अभाजि, अभाजि ॥४८॥ अभाजि-भावकर्मणोः ।३।४।६८। सूत्रात् त्रिच ॥४८॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) दंशसञ्जः शवि ।४।२।४६॥ अनयोरुपान्त्यनः शवि लुक् स्यात् । दशति, सजति ॥४६॥ तुदादावपठित्वा अनयो: भ्वादौ पाठः शवर्थः, तेन दशन्ती सजन्तीत्यत्र 'श्यशवः ।२।१।११५। सूत्रेण नित्यमन्तादेशः सिध्यति ॥४८॥ अकधिनोश्च रञ्जः ।४।२॥५०॥ रजेरकटि धिनणि शवि चोपान्त्यनो लुक् स्यात् । रजकः, रागी, रजति । ५०॥ रजतीति रजकः "नृत्खनञ्जः० ।५।१॥६५॥ सूत्रेण अकट् । रजतीत्येवं शीलो रागी 'युजभुज० ।५।२।५०। सूत्रेण धिनण् ॥५०॥ णो मृगरमणे ।४।२।५१॥ रजेरुपान्त्यनो णौ मृगाणां रमणेऽर्थे लुक् स्यात् । रजयति मृगं व्याधः । मृगरमण इति किम् ? रञ्जयति रजको वस्त्रम् ॥५१॥ रञ्जयति रजको वस्त्रमिति-रजति वस्त्रं रजकः, स एवं विवक्षते नाहं रजामि, रज़्यते वस्त्रं स्वयमेव, तद्रज्यमानं प्रयुक्त ॥५१॥ घनि भावकरणे ।४।२॥५२॥ रजेरुपात्यनो भावकरणार्थे घनि लुक् स्यात् । रागः । भावकरण इति किम् ? आधारे रङ्गः ॥५२॥ रञ्जनं रजत्यनेन वेति रागः, भावे तु “भावाकोंः ।५।३।१८। सूत्राद् घत्र । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) रजन्ति अस्मिन्निति-रङ्गः । 'व्यञ्जनाद्० ।५।३।१३२॥ सूत्रात् घन ॥५२॥ स्वदो जवे ॥४॥२॥५३॥ स्यन्देपनि नलुकवृद्धयभावौ निपात्येते वेगेऽर्थे । गोस्यदः । जव इति किम् ? घृतस्यन्दः ॥५३॥ "भावाकोः ।५।३।१८। इति व्यञ्जनाद्० ।५।३।१३२॥ सूत्रात् वा घन ॥५२॥ दशनाऽवोदधौद्म प्रश्रय-हिमश्रथम् ॥१॥२॥५४॥ एते नलोपादौ कृते निपात्यन्ते । दशनम्, अवोदः, एधः, उमः, प्रश्रयः, हिमश्रथः ॥५४॥ दश्यतेऽनेनेति=दशनम्, करणाऽऽ 'धारे' ।५।३।१२६। सूत्रांदनट् । प्रायेणानट्प्रत्ययान्तः क्लीबः स्त्रीलिङ्गो वा । यदि च दन्तपर्यायः दशनशब्दस्तदा पुल्लिङ्गत्वम् । अवपूर्वः उन्दैप् क्लेदने ‘भावा० ।५।३।१८। सूत्राद् घत्र , गुणः, गुणे कृते उपसर्गस्या० ।१।२।१६। सूत्रादकारलोपः । त्रिइग्धपि दीप्तौ, घत्र । औदमः उन्देः परो मन् । प्रपूर्वः श्रन्थ् । हिमपूर्वः श्रन्थ् , घत्र । निपातनान्सर्वत्र नलोप: घनि वृद्धयभावश्च निपात्यते ॥५४॥... यमिरमिनमिमि हनि मनिवनतितनादे-धुटि क्डिति ।४।२॥५५॥ एषां तनादीनां च धुडादौ विङति लुक् स्यात् । यतः, रत्वा, नतिः, गतः, हतः, मतः, वतिः, ततः, कृतः, । धुटोति किम् ? यम्यते । विडतोति विम् ? यन्ता ॥५५॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) यम्यते स्म =यतः । तनादयो धातुपाठे दर्शिताः। वनतितनाद्योः तिगणनिर्देशात् यङलुपि नान्तलोप ॥५५॥ यपि ।४।२॥५६॥ यम्यादीनां यपि लुक् स्यात् । प्रहत्य, प्रवत्य, प्रतत्य, प्रसत्य ॥५६॥ वा मः ।४।२।५७। इति वचनान्नान्तानामेवायं विधिः । 'अन्तरङ्गानपि विधीन्यबादेशो बाधते इति पूर्वसूत्रेणाप्राप्ते वचनम् ॥५६॥ वा मः ।४।२।५७। यम्यादीनां मान्तानां यपि वा लग स्यात् । प्रयत्य, प्रयम्य । विरत्य, विरम्य । प्रणत्य, प्रणम्य । आगत्य, आगम्य ॥५७॥ यमू. उपरमे भ्वादिः, रमि क्रीडायाम् भ्वाद्यन्तर्गतो ज्वलादिः, णमं प्रह्वत्वे भ्वादिः, गम्लु गतौ भ्वादिः ॥५७॥ गमा क्वौ ।४।२।५८॥ एषां गमादीनां यथादर्शनं क्वौ क्ङिति लक् स्यात् । जनगत, संयत्, परीतत, सुमत्, सुवत्, ॥८॥ 'गमाम्' इति बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थं तेन गमयमतनमनवनादीनामेव पञ्चानां धातूनामन्तस्य लुग्दर्शितः। अत एव सूत्रे यथादर्शनमित्युक्तम् । यथादर्शनम् बहुलमित्यर्थः । 'यमिरमि०' ४।२।५५। सूत्रोक्तगमादिपाठो नानुसरणीयः ।। जनं गच्छतीति जनगत् । संयमनं-संयत् 'कत्संपदादिभ्यः किवा ।५।३।११४। पतिनोतीति परीतत्, क्विप् । 'गतिकारकस्य Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५२ ] नहि ० | ३|२८५ सूत्रेण 'परि' इत्यस्य दीर्घः । सुमत्, सुवत्, 'क्रुत्संपदादिभ्यः क्विप् । ५ । ३ । १ १४ । सूत्रात्क्विप् ॥५८॥ न तिकि दीर्घश्च ॥ ४२५६ । एषां तिकि लुक् दीर्घश्च न स्यात् । यन्तिः, रन्तिः, नन्तिः, गन्तिः, हन्तिः, मन्तिः, वन्तिः, तन्तिः ॥ ६६ ॥ अत्र सूत्रे यमि- रमि० |४| २५५॥ इति सूत्रोक्ताः सर्वे धातवो गृह्यन्ते न तु पूर्वसूत्रोक्ताः गमादय एव । 'यम्' उपरमे' यम्यादित्याशास्यमानो यन्तिः, रंसीष्ट इत्याशास्यमानी रन्तिः, नम्यादित्याशास्यमानो नन्तिः, गम्यादित्याशास्यमानो गन्तिः, हन्यादित्याशास्यमानो हन्तिः, मंसीष्टेत्याशास्यमानो मन्तिः, वन्यादित्याशास्यमानो वन्तिः, तन्यादित्याशास्यमान तन्तिः । सर्वत्र ' तिक्कृतौ नाम्नि |५|१|७१ | सूत्रात् तिक् । प्रकृतसूत्रण नलोप, अहन्पञ्चमस्य० ४ १ १०७॥ सूत्रेण प्राप्तोऽपि दीर्घविधिः प्रतिषिध्यते ॥ ५६ ॥ आः खनिसनिजनः |४| २६०| एषां धुडादौ क्ङिति आः स्यात् । खातः रूातः जातः, जातिः, विङतीत्येव -- चङ्खन्ति । धुटीत्येव -- जनित्वा ॥ ६०॥२ खायते खन्यते स्मवा=खातः । क्त० | ५|१|१७४ | सूत्रात् क्तिः, वेटोपतः || ४|४|६२ | सूत्रादिभावः । षणूयी दाने, षण भक्तो द्वयोरपि ग्रहणम् सन् - सायते स्म सन्यते स्म वा इति सातः । चङ खन्ति - खन्धातोः यङ्, तस्य लोप:, तिप्रत्ययश्च ॥ ६० ॥ सनि |४ |२| ६१ एषां धुडादौ सनि आ स्यात् । सिषासति धुटीत्येव — सिसनि पति ॥ ६१ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) खनिजनोरिटा भवितव्यमिति धुडादिः सन्न भवति इति हेतोः खनिजनोः प्रयोगावदर्शितौ । सिसनिषति--'इवृध०' ।४।४।४। सूत्रेण वेट् । णिस्तो० ।२।३।३७। इति नषत्वम् । क्ङितीत्यसंभवादिह न सम्वध्यते ॥६२॥ को नवा ।४।२।६२॥ एषां ये. विङति आः वा स्यात् । खायते, खन्यते, चाखायते, चङ्खन्यते, सायते, सन्यते, प्रजाय, प्रजन्य । वित्तीत्येवसान्यम् जन्यम् ॥६२॥ . 'दिवादेः श्यः ।३।४।७२। इति श्ये तु 'ज्ञाजनोऽत्यादौ ।४।२।१०४। सूत्रेण नित्यं जादेशः इति तदुदाहरणं न दर्शितम् ॥६॥ तनः क्ये ।४।२।६३॥ तनः क्ये आः वा स्यात् । तायते, तन्यते । क्य इति किम्तन्तन्यते ॥६३॥ तन्तन्यते-अत्र यङ्प्रत्ययः ॥६३।। तौ सनस्तिकि ।४।२।६४॥ सनस्तिकि तौ लुगातौ वा स्याताम् । सतिः, सातिः, सान्तिः ॥६४॥ सान्तिरित्यत्र ‘अहन्पञ्चमस्य० ।४।१।१०७। सूत्रेण दीर्घः ।६४॥ वन्यापञ्चस्य ।४।२।६॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) पञ्चमस्य वन्याङ् स्यात् । विजावा । ध्वादा ॥६५॥ पुनराग्रहणं ताविति नवेति च निवृत्त्यर्थम् । डित्करणं ध्वावेत्यादौ गुणनिधार्थम् । जन्ःविजायते इति विजावा। धूण भ्रमणे धुयतीति ध्वावा । 'मन्वन्० ।५।१।१४७। सूत्रेण वन् ॥६६॥ अपाच्चायश्चिः क्तौ ।४।२।६६। अपपूर्वस्य चायतेः क्तौ चिः स्यात् । अपचितिः ॥६६॥ चायग् पूजाविशामनयोः ॥६६॥ लादो ह्लद् क्तयोश्च ।४।२।६७. ह्लादेः तक्तवतोः क्तौ च ह्लद् स्यात् । लन्नः न्वान् हलत्तिः ॥६७॥ 'रदादमुर्छा० ।४।२।६९। सूत्रेण दकारतकारयोर्नकारः ॥६७॥, ऋल्वादेरेषां तो नोऽप्रः ।४।२।६८।। पृ.वर्जात् ऋदन्तात् ल्वादिभ्यश्च परेषां क्तितक्तवतूनां तो नः स्यात् । तोणिः, तीर्णः, तीर्णवान् । लूनिः, लूनः, लूनवान । धूनिः, धूनः, धूनवान् । अप्र इति किम् ? पूत्तिः, पूर्तः, पूर्तवान ॥६॥ तरण तोणिः । तीर्यते स्मः तीर्णः, तरति स्म-तीर्णवान् । लवनं=लूनिः ल्वादिषु ये ऋकारातास्तु प्रभृतयस्तोषामृ.ग्रहणेनैव सिद्ध तत्र पाठः प्वादिकार्यार्थः । क्राद्यगणो ल्वादिः । न च ऋकारान्तामिरादेशे रकारा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५ ) न्तत्वादुत्तरेण भविष्यति किम् ऋ ग्रहणेनेति वाच्यम् उत्तरेण क्तयोर्भवति, अनेन तु क्तिक्तक्तवतुषु । अथ क्त्यर्थम् ऋ तां क्तावित्युच्येत, तर्हि ऋतां क्तावेव स्यात् क्तयोस्तूत्तरेणापि न स्यात् ॥६८॥ रदादमर्छमदः क्तयोर्दस्य च ।४।२।६८। मूच्छिमदिवर्जात् रदन्तात् परस्य क्तयोस्तस्य तद्योगे धादतुश्च न : स्यात् । पूर्णः, पूर्णवान् । 'भिन्नः, भिन्नवान् । अमूर्च्छमद इति किम् ? मूर्तः सत्तः । रदान्तस्येति किम् ? चरितम मुदितम् ॥६॥ मूर्त:-'मूर्छा-मोहसमुच्छाययोः' मूर्छायते स्म इति ‘क्तक्तवतू" ।५।१।१७४ इति क्तः, 'राल्लुक् ।४।१।११०। सूत्रेण छलोपः। 'भ्वादे०' २।१।६३ इति दीर्घः । वर्णकदेशानां वर्णग्रहणेनाग्रहणात्, ऋकारस्य मध्येऽधंगात्रो रेफ: अग्रे पश्चाच्च तुरीयः स्वर भाग इति रेफात्परेण स्वरभागेन व्यवधानाद् वा कृत, कृतवानित्यत्र न भवति ॥६॥ सूयत्याहोदित: ४।२।७०। स यत्यादिवो नवभ्यः ओदिद्भ्यश्च परस्य क्तयोस्तोनः स्यात् । सूनः, स नवान् , दूनः, दूनवानः लग्नः, लग्नवान् ।।७०॥ सूयतीति श्यनिर्देशात् सूतिसुवत्योर्न भवति । ओत्=ओकारः इत् अनुबन्धो येषां ते ओदितः । धूङोच् प्राणिप्रसवे, दूङ्च् परितापे, ओलस्जति वीडे लज् लस्ज् वा लज्यते स्म इति 'क्तक्तवतू, चजः कगम ।२।१।८६ । इति जस्य गः, प्रकृत सूत्रेण तस्य नः ॥७०॥ व्यञ्जनान्तस्थातोऽख्याध्यः ।४।२।७१॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) - 'ख्याध्यावर्जस्य धातोर्यद्वजनं तस्मात्परा याऽन्तस्था तस्याः परो य आस्तस्मात्परस्य क्तयोस्तो नः स्यात् । स्त्यानः-स्त्यानवान व्यञ्जन इति किम् ? यातः । अन्तस्था इति किम् ? स्नातः । आत इति किम् ? च्युतः । धातोर्व्यञ्जनेति ? निर्यातः । अख्याध्य इति किम् ? ख्यातः, ऽयातः । आतःपरस्येति किम् ? दरिद्वितः ॥७॥ स्त्य संघाते-स्त्यानः । दरिद्रितः-अत्र इटा व्यवधानम् ॥७१॥ पूदिव्यञ्चे शाङ्तानपादाने ।४।२।७२। एभ्यो यथासख्यं नाशाद्यर्थेभ्यः परस्य क्तयोस्तो नः स्यात् । पूना यवा: आधुनः, समक्नौ पक्षौ । नाशाद्यूतानपादान इति ? पूतम् घृतम्। उदक्तं जलम् ॥७२॥ पूना यवाः विनष्टा इत्यर्थः । समक्नौ-पक्षिणः पक्षी सङ्गतावित्यर्थः । अनपादाने इत्यस्य कोऽर्थ ? अञ्चिवाच्या क्रिया यदि अपादान क्रियासाधिका न भवतीत्यर्थः । उदक्त जलम् । अत्र कपःदेः जलं निष्कासितमिति अपादानकारकसाधिका क्रियाऽस्ति ॥७२।। सेर्गासे कर्मकर्तरि ४ारा७३। से: परस्य क्तयोस्तो ग्रासे कर्मकर्तरि नः स्यात् । सिनो ग्रासः स्वयमेव । कर्मकर्तरीति किम् ? सितो ग्रासो मैत्रेण ॥७३॥ पिंगट बन्धने, पिंगश् बन्धने द्वयोरपि ग्रहणम् । 'षः सोऽष्टय० ।२।३।६८ इति सः । सिनोति सिनाति वा ग्रासं मैत्र: स एवं विवक्षति नाहं ग्रासं सिनामि सिनोमि स्म, अपि तु सितो ग्रासः स्वयमेव ॥७३॥ .. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) - क्षेः क्षी चाध्याय ।४।२।७४। ध्यणोऽर्थो भाव-कर्मणो ततोऽन्यस्मिन्नर्थे क्तयोस्तः क्षेः परस्य नः स्यात् तद्योग क्षेः क्षोश्च । क्षीणः क्षीणवान् मैत्रः । अध्यार्थ इति किम् ? क्षितमस्य ॥७४॥ क्षयति स्म 'गत्यर्था० ।५।१।११ सूत्रात् क्तः, एवं क्षितवान् । क्षयणं क्षितम् भावे क्तः ॥७४॥ - वाकोशदं न्य ।४।२।७५॥ आक्रोशे दैन्ये च गम्ये क्षेः परस्याध्यार्थे क्तयोस्तो न वा स्यात् । तद्योगे क्षीश्च । क्षीणायुः, क्षितायुर्जाल्मः । क्षीणकः क्षितक- ... स्तपस्वी ॥७॥ आक्रोश्च दैन्यं चेति कृते "विरोधिना० ।४।१।३०। विरोधानामेव इति समाहाराप्राप्तौ सूत्रत्वात्समाहारः । क्षीणकः, क्षितक:-'अनुकम्पाता क्तनीत्योः ।७।३।३४ सूत्रात् कप् ॥७५।। ऋह्रीघाधात्रोन्दनुदविन्तेर्वा ।४।२।७६। एभ्यः परस्य क्तयोस्तो न् वा स्यात् । ऋणम्, ऋतम्। ह्रीणः,हीतः, हीणवान, ह्रीतवान् । घ्राणःघ्रातः । ध्राण, ध्रातः । त्राणः, त्रातः । समुन्नः, समुत्तः । नुन्न, नुत्तः । विन्नः वित्तः ॥७६॥ ...."विन्तेर्वा--तेप्रत्ययान्तमाख्यातपदमनु क्रियते-'इकि-स्तिव ।५।३।१३८ इति श्तिवप्रत्ययान्तरस्य तु न विनत्तीति रूपं भवति । सूत्रे श्यनिर्देशात् विदिप विचारणे इत्यस्य विकल्पेन क्ततकारस्य नकारः । विदिच सत्तायाम् इति दिवादेः, विद्लुती लाभे इति तुदादेस्तु नित्यं नकारः । ऋह्रीभ्याम Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) प्राप्ते घ्रादिभ्यस्तु प्राप्ते विकल्पः तेन दकारान्तानां दस्यापि पूर्वेण नत्वं भवति । तकारनत्त्वाभावपक्षे तु सन्नियोगशिष्टत्वाद्दस्यापि नकारों न भवति । व्यवस्थितविभाषेयम् तेन ऋणमिति उत्तमर्णाधर्मणयोरेव अन्यत ऋतं सत्यमित्यर्थः ॥७६॥ दुगोरु च ४५२॥७७॥ दुगुभ्यां परस्य क्तयोस्तो नः स्यात् । तद्योगे दुगोरुश्च । दून: दूनवान् । गूनः गूनवान् ॥७७॥ दुट्, उपातापे, गुङ् शब्दे ॥ ७७ ॥ क्षंश चिपचो मकवम् ||४|२७८॥ एभ्यः परस्य क्तयोस्तो यथासङ्ख्यं मकवाः स्युः । क्षामः, क्षामवान् । शुष्कः शुष्कवान् । पक्व । पक्ववान् ॥७८॥ क्षं क्षये क्षायति ॥ ७८ ॥ निर्वाणमवाते | ४|२|७६ । अवातेः कर्तरि निर्र्वाद् वातेः परस्य क्तयोस्तो नो निपात्यते । निर्वाणो मुनि । अवात इति किम् ? निर्वतो वातः ॥ ७६ ॥ वाँकु गतिगन्धनयोः निर्वाति स्म ' गत्यर्था ० | ५ | १ | ११ | इति क्तः, 'स्वरात् |२| ३|८५ । सूत्रेण णः ।। वातिधातुः अकर्मक अत कर्ताऽर्थो लभ्यते ॥७६॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५६ ] अनुषसाः क्षीबोल्लाघ-कृश-परिश-फुल्लो-संफुल्लाः 10 अनुपसर्गाः क्तान्ता एते निपात्यन्ते । क्षीबः, उल्लाघः, कृशः, परिकृशः, फुल्लः उत्फुल्लः, संफुल्लः । अनुपसर्गा इति किम् । प्रक्षोबितः॥८॥ क्षीबादयः सर्व शब्दाः कप्रत्ययेनाच्प्रत्ययेनापि सिध्यन्ति परन्तु क्षीबितः' इत्यादिरूपप्रतिषेधार्थमेतत्सूत्रं कृतम् । क्षीबुङ् मदे, उत्पूर्वो लाघङ सामर्थ्य, - कृशच तनुत्वे परिपूर्वश्च । एभ्यः परस्य ततकारस्य निपातनाल्लोपः, अकारस्तिष्ठति इडभावश्च । 'त्रिफला विशरणे' केवलः उत्पूर्वः सम्पूर्वश्च । कलतीति फुल्लः, 'ज्ञानेच्छा० ।५।२।६२ सूत्रेण क्तः अथवा 'गत्यार्थ० ।५।१।११ सत्रेण क्तः, फलितमारब्ध इति 'आरम्भे । ५।१।१०। सूत्रेण वा क्तः, । ति चोपा० । ४।१।५४ सूत्रण उपान्त्याकारस्य उकारः, निपातनात् तकारस्य लकारः इडभावश्च । एवमुत्फुल्ल:, संफुल्ल इत्यपि । यदा भावारम्भयोरविवक्षा तदा 'आदितः । ४।४१७१ सूत्रात् नित्यमिडभावः । यदा तु भावारम्भविवक्षा तदा नवां भावारम्भे ।४।४।७२ सूत्राद् विकल्पेनेट् स्यात् निपातनाच्च नित्यं प्रतिषिध्यते । केचित्तु क्षीबवान् उल्लाघवान् कृशवान्, परिकृशवान्, फुल्लवान्, उत्फुल्लवान्, संफुल्लवान् इति क्तवतावपि रूपमिच्छन्ति तदर्थं तक्तवत्वोस्तशब्दावधि निपातनं द्रष्टव्यम्, एतदर्थमेव बहुक्चनम् । निपातनस्येष्टविषयत्वात् फल निष्पत्ती, फल गतौ इत्येतयोस्तु फलितः, फलितवान ।।८०॥ भित्तं शकलम् ।४।२।८।। भिः परस्य क्तस्य नत्वाभावे निपात्यते । शकलपर्यायश्चेत् । मित्त शकलमित्यर्थः । शकलमिति किम् ? भिन्नम् ॥१॥ सकलम् =खण्डमित्यर्थः । शकलमिति पर्यायनिर्देशात् भिदिक्रियाविवक्षायां शकले विषये भिन्नं शकलमिति भवति, अत्र द्विधाकृतमि त्यर्थः । यदा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) पर्यायवाचकस्तदा तु शकलशब्दस्य प्रयोगो न भवति, पर्यायाणां हि योगपद्य न प्रयोगो नेष्यते इति वचनात् ॥६१।। वित्तं धनप्रतीतम् ।४।२।२। विन्दतेः परस्य क्तस्य नत्वाभावो निपात्यते । धनप्रतीतयोः । पर्यायश्चेत् । वित्तं धनम्। वित्तः प्रतीतः । धनप्रतीतमिति किम् ? .. विन्नः ॥१२॥ विद्लुती लाभे इति तुदादेरेव वित्तं प्रयोग, नान्येषाम् । विद्यते लभ्यते इति वित्तं धनम् । विद्यते-उपलभ्यतेऽसाविति वित्तः प्रतीतः । वेत्तेविदितम् प्रयोगः, विन्तेविन्नं वित्तं च ॥२॥ हुधुटो हेधिः ।४।२।३।। होधु डन्ताच्च परस्य हेधिः स्यात् जुहुधि, विद्धि ॥८३॥ जुहुतात्त्वम् मितात्त्वमित्यत्र नित्यत्वेन प्रकृत्यनपेक्षत्वेनान्तरङ्गत्वाच्च हे: स्थाने तातड्, तस्य तातडो न पुनर्धिभावो हेरिति शब्दाश्रयणात् ।।३।। शासस्हनः शाधोधिजहि ।४।२।८४ शास्ससहनां हन्तानां यथासंख्यं शाधिएधिजहयः स्युः । शाधि, एधि, जहि ॥१४॥ शास्हन्साहचर्यात् असिति आदादिकस्य गृह्यते । शास्हनोर्यङ्लुप्यपि 'शाधि, जहि' इत्येव प्रयोगः । हनेस्तु यङ्लुपि नेच्छन्त्यन्ये तन्मते जङ्घहि । अस्तेस्तु स्वरादिधातुत्वात् यङ् न भवति ।।८४॥ अत: प्रत्ययाल्लुक ।४।२।८॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) धातोः परो यो दन्तः प्रत्ययः ततः परस्य हेर्लुक् । दीव्य । अत इति किम् ? राध्नुहि । प्रत्ययादिति किम् पापहि ॥ ८५ ॥ पापहि - पयि गतौ, भृशं पयते इति यङ्, द्वित्वम्, बहुलं लुप्' | ३|४|१४| सूत्राद् यङ्लोपः, य्वोः प्वय्व्यञ्जने लुक् | ४|४|१२१। सूत्त्रात् यलोपः ।। ८५ ।। असंयोगादोः । ४ । २८६ | असंयोगात्परो य उस्तदंतात्प्रत्ययात्परस्य हेल 'क् सुनु । असंयोगाविति किम् ? अक्ष्णुहि । उरिति किम् ? क्रीणीहि ॥ ८६ ॥ असंयोगादित्योर्विशेषणात् आप्नुहीत्यत्रापि लोपो न भवति । यदि संयोगाद्य उकारान्तः प्रत्यय इति विशेषणं स्यात्तदाऽत्रापि भवेत् ॥ ८६ ॥ वयविति वा । ४ । २।८७. अस योगात्परो य उस्तदन्तस्य प्रत्ययस्य लुग्वा स्यात् । वमादौ अविति परे । सुन्वः, सुनुव, सुन्मः, सुनुमः । अवितीति दिम् ? सुनोमि । असंयोगादित्येव-तक्ष्णुवः ॥ ८७ ॥ प्रत्ययादिति ओरिति च पञ्चम्यन्तमपि षष्ठ्यन्ततया विपरिणम्यते, अर्थवशाद् विभक्तिविपरिणामः इति न्यायात् । असंयोगादित्योर्विशेषणात् आप्नुवः इत्यत्र न भवति ॥ ८७॥ कृगो यि च |४| २८८ । कृगः परस्योतो यादौ वमि चाविति लुक् स्यात् । कुर्युः, कुर्वः, कुर्मः ॥ ८८ ॥ कृ. ग्श् हिंसायामित्यस्मात्तु नकारव्यवधानात् उः परो न संभवतीति न Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) भवति । नच “येन नाव्यवधानं तेन व्यवहितेऽपि भवतीत्यपि न्यायोऽस्तीति वाच्यं कुर्यादित्यादाव्यवधानमस्ति । कश्चित्तु कुर्मीत्यपीच्छति तदसंमतम् ॥८॥ अतः शित्युत् ॥४।२।। शित्यविति य उस्तन्निमित्तस्य कृगोऽ त उः स्यात् । कुरु । अवितीत्येव-करोति ॥८॥ उविधानबलात् ‘लघोरुपान्त्यस्प ।४।३।४। सूत्रात्प्राप्तोऽपि गुणो न भवति अन्यथा ओकार एव विधीयेत । उकारनिमित्तत्वेनाकारविज्ञानात् कुर्यादित्यादावुकारलोपेपि भवति ॥८६॥ . श्नास्त्योलक ।४।२।६० श्नस्य अस्तेश्चातः शित्यविति ल क स्यात् । रूद्धः । स्तः । अत इत्येव-आस्ताम् ॥१०॥ अतः इत्यधिकारो न स्यात्तदा 'षष्ठ्याऽन्त्यस्य ।७।४।१०६। सूत्रात् अस्तेरन्त्यसकारस्यैव लुक स्यात्, श्नस्य च 'प्रत्ययस्य १७।४।१०८। सूत्रात् सर्वस्यापि लुक् स्यात् । अस्तीत्यत्र तिन्निर्देशात् दिवादेरस्यतेन लुक् ।।१०।। वा द्विषातोऽनः पुस् ।४।२।६१। द्विष आदन्ताच्च परस्य शितोऽवितोऽनः स्थाने पुस् वा स्यात् । आद्विषुः, आद्विषन् । अयुः । अयान् ॥१॥ पकार: ‘पुस्पौ ।४।३।३। इत्यत्र विशेषणार्थः । ‘वा द्विषातोऽ-नःपुस्' इत्यनेन ह्यस्तन्या अनः स्थाने पुस् क्रियते, 'सिज्विदो भुवः ।४।२।६२। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) सूत्रेण सिजित्युक्ते रद्यतन्या अनः स्थाने विदस्तु ह्यस्तन्याः अनः स्थाने 'अद्यतन्यां तु सिजद्वारा अनः स्थाने पुस् अवेदिषुरिति । “व्युक्तजक्षपञ्चतः" ।४।२।६३। सूत्रे गापि ह्यस्तन्या अनः स्थाने पुस् । अयुरित्यत्र"इडेत्पसि०।४।३।६४। इत्यातो लुक् ।।६१॥ सिज्विदोऽभुवः ।४।२।६२॥ सिच्प्रत्ययाद् विदश्च धातोः परस्य अनः पुस् स्यात् । न चेत् भुवः परः सिच् स्यात् । अकार्षः, अविदुः । अभुव इति किम् ? अभूवन् ॥१२॥ भूवर्जनेन सिच्प्रत्ययो लभ्यते, अन्यथा 'षिचीत् क्षरणे' इत्यस्य ग्रहणं स्यात् । अभुवन्–अत्र पूर्वं गुणः, अब्, पश्चात् 'भुवो वः० ।४।२।४३॥ इत्यूव ।। ६२॥ द्व युक्तजक्षपञ्चतः ।४।२।६३। कृतद्वित्वात् जक्षपञ्चकाच्च परस्य शितोऽवितोऽनः पुस् स्यात् । अजुहवुः। अजक्षुः। अदरिद्रुः। अजागरुः। अचकासुः। अशासुः ॥ ६३ ॥ द्वे उक्त वचने यस्य स व्युक्तः कृतद्विर्वचन इत्यर्थः । पञ्चानां वर्गः पञ्चत् पञ्चद्दशवर्गे वा ।६।४।१७५। सूत्रेण पञ्चत् निपातः, जक्षाणां पञ्चत् जक्षपञ्चत् तस्मात् जक्षपञ्चतः । अहवुः, अजागरुः इत्यत्र 'पुस्पो ।४।३।३। सूत्रण गुणः । जक्षक भक्षहसनयोः, दरिद्राक् दुर्गंतो, जागृक् निद्राक्षये, चकासृक् दीप्तौ, शासूक् अनुशिष्टौ इति जक्षपञ्चकम् ॥६३ ॥ अन्तो नो लुक् ।४।२।६४॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) द्वयुक्तजक्षपञ्चकात्परस्य शितोऽवितोऽन्तो नो लुक् स्यात् । जुह्वति, मुह्वत् । जक्षति, जक्षत् । दरिद्रति, दरिद्रत् ॥ ६४ ॥ जुह्वति, जुह्वत्-अत्र 'णिरविति व्यो | ४ | ३ | १५ | सूत्र ेण धातोरुकारस्य व् । जुह्वदित्यत्र 'ऋदुदितः | १|४ | ७० | सूत्रण नोन्तः । दरिद्रती - त्यादी 'श्नश्चाऽऽतः । ४ २ ६६ । इत्याकारस्य लुक् ॥ ६४ || शौ वा | ४|२| ६५। द्व्युक्तजक्षपत्रकात्परस्यान्तोऽनः शिविषये लुग्वा स्यात् । ददति दन्ति कुलानि । जक्षति, जक्षन्ति । दरिद्रति, दरिद्रन्ति ॥ ६५ ॥ 'ददति' इत्यादिषु सर्वत्र पूर्वं शतृ, पश्चात् जस् शस् वा 'नपुंसकस्य शि |१|४|५५ । सूत्र ेण जस्शस्स्थाने शिरादेशः ।। ६५ ।। श्मश्चात: । ४ |२| ६६। व्युक्तजक्षपञ्चतः श्नश्च शित्यवित्यातो लुक् स्यात् । मिमते, दरिद्रति क्रीणन्ति । अवितीत्येव -अजहा अक्रीणाम् ॥ ६६ ॥ मिमते- 'पू. -भू-माहाङामि: |8 || ५ | सूत्रात् द्वित्वे पूर्वस्येकारः । 11 28 11 एषामीननेऽद: । ४२६७| द्वयुक्तजक्षपञ्चतः श्नश्चातः शित्यविति व्यञ्जनादावीः स्यात् । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ । न तु दासंज्ञस्य । मिमीते, ल नीतः । व्यजन इति किन ? मिमते । अद इति किम् ? दत्तः, धत्तः ॥१७॥ दासंज्ञकानामित्ववर्जनात् दांव्दैवोर्न दासंज्ञति दांव्दवोर्यङ्लुपि कृतेपिदादीतः इत्यादौ ईत्वं भवति । मिमीते-पृभूमा०।४।१५। सूत्रण पूर्वस्य ईः । दत्त, धत्तः इति-श्नश्चातः ।४।२।६६। 'धामस्तथोश्च' ।२।१।७८। इति ॥१७॥ ईदरिद्रः ।४।रामा दरिद्रो व्यञ्जनादौ शित्यविति आत इ: स्यात् । दरिद्वितः । व्यञ्जन इत्येव-दरिद्रति ॥९॥ 'एताः शित: । ३।३।१०। इति शित्त्वम् । दरिद्रति-श्नश्चातः ।४।२।६६ सूत्रादातो लुक्, अन्तो नो० ।४।२।६६ सूत्रात् नो लुक् ॥६८।। भियो न वा ४ाशा झियो व्यञ्जनादौ शित्यविति इर्वा स्यात् । बिभितः, बिभीतः ।। ६६ ॥ यङलप्यपि बिभितः, बिभीतः ।।६। हाकः ।४।२।१००। हाको व्यञ्जनादौ शित्यविति आत इर्वा स्यात् । अहितः, जहीतः ॥१०॥ अनुबन्धनिर्देश: ओहायङ्लपोनिवृत्त्यर्थः । योगविभाग उत्तरार्थः । जहितः-हा+तस् । द्वयुक्तस्येत्यनुवर्तमानं हाक इत्यस्य विशेषणम् यदि Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) व्युक्तस्येत्यनुवृत्तिर्न स्यात्तदा द्विर्वचनात्प्रागेवेत्वं स्यात् । प्राक् तु स्वरे स्वरविधेरित्यपि न, व्यञ्जननिमित्तत्वात् ॥१००॥ आ च हो | ४ | २|१०|| हाको हौ आत् इश्च वा स्यात् । जहाहि, जहिहि, जहीहि । ॥ १०१ ॥ अवितीति निवृत्तम्, वितोऽसम्भवाद्, हिविभक्तिमेवाश्रित्य सूत्रप्रवृत्तेः । शिति इत्यनुवर्तते । चेत्यकृते तक्रकौण्डिन्यन्यायेन इर्न स्यात् ॥ १०१ ॥ यि लुक् ।४।२।१०२ ॥ irat शिति हाक आ लुक् स्यात् । जह्यात् ॥ १०२ ॥ नवेति निवृत्तम् । इकाराधिकारे नवाधिकृतः इह लुग्विधीयते अतो निवृत्तः । लुञ्चनं 'क्रुत्संपदादिभ्यः | ५ | ३ | ११४ | सूत्रात्क्विपि स्वयुक्त इति स्त्रीत्वम् । लवनं 'द्रागादयः ( ८७० उणादि ० ) इति लुक् पुंस्त्वम्, लुम्पनं 'क्रुत्संपदा० | ५ | ३ | १४ | सूत्रात्क्विपि स्त्रीत्वम् । 'गृपृदुवि०' ६४३ ( उणादि ० ) इति क्विपि पुंस्त्वम् ||१०२ || ओतः श्ये ।४।२।१०३। धातोरोतः श्ये लक् स्यात् । अवद्यति । श्य इति किम् ? गौरिवाचरति गवति ॥ १०३ ॥ दोंच् छेदने - अवद्यति । गवति - ' कतु' : क्विप्० | ३|४|२५ सूत्रेण क्विप्, 'अ प्रयोगीत' | १|१|३७| सूत्र ेण विप्लोपः, तिव् शब्, अवादेशः ॥ १०३ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) जा ज्ञानोत्यादौ । ४।२।१०४ | ज्ञाजनोः शिति जाः स्यात् न त्वनन्तरे तिवादौ । जानाति, जायते । अत्यादाविति किम् ? जाज्ञाति, जञ्जन्ति ॥ १०४ ॥ अत्यादौ – यदि धातुतिवादीनां मध्ये श्नाश्यादिप्रत्यया भवन्ति तदा ज्ञाजन्धात्वोर्जादेशो भवति । जाज्ञाति, जञ्जन्ति - यङ्लुपि रूपम्, श्नाश्यादिप्रत्ययेनाध्यवधानात् न जादेशः ॥ १०४ ॥ वादे स्वः ।४।२।१०५। प्यादेः शित्यत्यादौ ह्रस्वः स्यात् । पुनाति लुनाति । प्वादेरिति किम् ? व्रीणाति ॥ १०५ ॥ क्रयादिषु प्यादिगणः पठति: 'पूग्श् पवने इत्यारभ्य ऋ श् गतौ इति यावत् । जानातीत्यत्र विधानसामर्थ्यान्न ह्रस्वः || १०५ ।। गमिषद्यमश्छः | ४ | २।१०६ । रषां शित्यत्यादौ छः स्यात् । गच्छति इच्छति, यच्छति, आयच्छते । अत्यादाविति किम् ? जङ्गन्ति ॥ १०६ ॥ 'गमिषत्' इत्यता निर्देशः 'इषच् गतौ इति दिवादेः इषश् आमीक्ष्ये' इति क्रयादेनिवृत्त्यर्थः ॥१०६॥ वेगे सत्तेर्धाव | ४ | २|१०७ ॥ सतेंवेंगे गम्ये शिति धाव् स्यात् । अत्यादौ । धावति, वेग इति किम् ? धर्ममनुसरति ॥ १०७ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) धावृधातुना सिद्ध सरतेवेंगे गम्यमाने सरति इति प्रयोगनिवृत्त्यर्थं सूत्रमिदम् । सप्तरिति तित्निदेशात् यङ्लुपि सरते न धावादेशः ।। १०७ ।। श्रौति कृवु-धिवु-पा-द्या- घ्मा-स्था-म्ना-दम्-दृश्यतिशदसद: शू-कृ-धि- पिब- जिघ्र-धम-तिष्ठ-मनयच्छ- पश्यच्छं- शीय-सोदम् ।४।२1१०८ | एषां शित्यत्यादौ यथासंख्तं श्रादयः स्युः । शृणु, कृणु, धिनु, पिब, जिघ्र, धम, तिष्ठ, मन, यच्छ, पश्य, ऋच्छ् । शीयते । सीद ॥ १०८ ॥ श्रोत्यत्त्यस्ति निर्देशः कृधिव्शदामामनुबन्धश्च यङ्लुपि 'शू' इत्यादेशनिवृत्त्यर्थः । उक्तं च तिवा शवांनुबन्धेन, निर्दिष्टं यद्गणेन च । एकस्वरनिमित्तं च पञ्चैतानि न यङ् लुपि । श्रुट् श्रवणे - श्रौति । कृवुट् हिंसा करणयोः - कृव् । धिवुट् गतौ धिव् । तथा घ्राध्मा - दिभिः साहचर्यात् पा पाने इति भ्वादेरेव ग्रहणम्, तस्य सस्वरः पिबादेशः, स्वरान्तत्वादुपान्त्यलक्षणो गुणी भवति । पें शोषणे इत्यस्य लाक्षणिकत्वान्न ग्रहणम् ||१०८ || क्रमो दीर्घः परस्मै ॥ ४२ ॥ १०८ क्रमेः परस्मैपदनिमित्ते शिति दीर्घः स्यात् । अत्यादौ । क्राम, काम्यति । परस्मैपद इति किम् ? आक्रमते सूर्यः ॥ १०६ ॥ परस्मैपदनिमित्तविज्ञानात् हेतु क्यपि दीर्घः । क्राम्यति - 'भ्रासभ्लास ० | ३ | ४|७३ | सूत्रेण विकल्पेन श्यप्रत्ययः । आक्रमते - ' आङो ज्योतिरुद्गमे । ३।३।५२। सूत्रादात्मनेपदम् ।। १०६ ।। विक्लवाचमः । ४ । २ । ११० । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) -एषां शित्यत्यादौ दीर्घः स्यात् । ष्ठीव, क्लाम, आचान। आङिति किम् ? चम ॥११०॥ 'ष्ठिव् निरसने' भ्वादेरनेन दीर्घा विधीयते, ष्ठिवूच निरसने इति दिवा. देस्तु 'भ्वादेर्नामिनो० ।२।१६३॥ सूत्रेण विहित एव । ण्ठिक्लमोलकारनिर्देशाद् यङलुपि न भवति । चमेराङपूर्वकस्य ग्रहणात् 'चम' इत्यत न भवति ॥११०।। शम्सप्तकस्य श्ये ।४।२।१११। शमादीनां सप्तानां श्ये दीर्घः स्यात्। शाम्य, दाम्य, ताम्य, भ्राम्य, श्राम्य, क्षाम्या माध। श्य इति किम् ? प्रमति । अत्यादादित्येव शंशन्ति ॥१११॥ . शमू दमूच् उपशमे, तमूच् काङ्क्षायाम्, श्रमूच खेदतपसोः भ्रमूच्, अनवस्थाने, क्षमूच् सहने, मदच् . हर्षे इति शम्सप्तकम् । भ्रमति–'भ्रसूच् अनवस्थाने' धातोः भ्रमतीति रूपमन्यथा द्व यङ्गवैकल्यं स्यात् 'भ्रासभ्लास०।३।४।७३। सूत्रेण वा श्यः । शमादिगणनिर्देशात् ण्ङ्लुपि दीर्घो न भवति श्यस्तु भवत्येव 'भ्रासभ्लास०' ।३।४।७३। इति प्रतिपदोक्तत्वात् तेन जम्भ्रम्यतीति सिध्यति ॥१११॥ .ष्ठिव सिवोऽनटि वा ।४।२।११२॥ ष्ठिन्सिवोरनटि दी? वा स्यात्। निष्ठीवनम्, निष्ठेवनम् । सीवनम्, सेवनम् ॥११२॥ षिवूच् उतो दिवादिः ॥११॥ मव्यस्याः ।४।२।११३॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) धातोविहिते मादौ वादौ चात आ दीर्घः स्यात्। पचामि, पचावः, पचामः ॥११३॥ धातोः प्रत्ययेन सहाभिसम्बन्धः, न अकारेण सहेति प्रत्ययाकारस्याषि दीर्घो भवति । वृत्ती आकारस्य दीर्घत्वेन विशेषणमाकारो दोघं एव स्यादित्येवमर्थन्यथा केचित् 'प्रश्ने च० ७।४।६८। सूत्रेणानन्त्यस्यापि प्लुतत्वमिच्छन्ति इति प्जुतत्वं मा भूदित्येवमर्थम् स्वमते तु अन्त्यस्यैव भवति ॥११३॥ अनतोऽन्तोऽदात्मने ।४।२।११४॥ अनतः परस्यात्मनेपदस्थस्यान्तोऽत् स्यात् । चिन्वते । आत्मनेपद इति किम् ? चिन्वन्ति । अनतं इति किम् ? पचन्ते संविदते ॥११४॥ शोडो रत् ।४।२।११५॥ शोङः परस्यात्मनेपदस्थस्यान्तो रत् स्यात् । शेरते ॥११॥ 'इङितः० ।३।३।२२। सूत्रादात्मनेपदम् ।।११५॥ वेत्तनवा ।४।२।११६॥ वेत्तेः परस्यात्मनेपदस्थस्यान्तो रद् वा स्यात् । संविद्रते ॥११६॥ संविद्रते, संविदते-इत्यत्र 'समो गमृच्छि० ॥३॥३॥८४। सूत्रादात्मनेपदम् । वेत्तेस्तिन्निर्देशः रुधादे विधातोरग्रहणार्थों यङ्लुपि निवृत्त्यर्थश्च ॥११६॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ( १०१ ) तिवां णवः परस्मै ।४।२।११७। वेत्तेः परेषां परस्मैपदानां तिवादीनां परस्मैपदान्येव गवादयो यथासंख्यं वा स्युः । वेद, विदतु, विदुः । वेत्थ, विदथु,विद । वेद विद्व, विद्म । पक्षे वेत्तोत्यादि ॥११७॥ तिव, तस् अन्ति । सिव, थस्, थ । मिव्, वस्, मस्, इति नवानां णव्, अतुस्, उस् । थव् अयुस्, अ। णव्, व, म इति नव आदेशा भवन्ति । णवः इति बहुवचनेन नव प्रत्ययाः गृह्यन्ते । 'स्थानीवा० ७।४।१०६। सूत्रेण स्थानिवद्भावात्परोक्षाकायं न भवति ।।११७॥ ब्रगः पञ्चाना पञ्चाहश्च ।४।२।११। । ब्रूगः परेषां तिवादीनां पञ्चानां यथासङ्घयं पञ्च णवादयो वा स्युः तद्योगे ब्रूग आहश्च । आप आहेतु आहु । आत्थ आहथुः । पक्षे ब्रवीतीत्यादि ॥११८॥ तिव स्थाने णव, तसस्थानेऽतुस्, अन्तिस्थाने उस्, सिस्थाने थव्, थस्स्थाने अयुस् । आत्थ 'नहाहोर्धतौ ।२।१।८५ सूत्रेण हकारस्यं तकारः । अवोति'व्रतः परादिः ।४।३।६३। सूत्राद् परादिरीत् ॥११८॥ आशिषि तुह्वोस्. तिङ् ।४।२।११६ आशीरर्थयोस्तुह्योस्तात वा स्यात् । जीववात् जोवतु भवान् । जीवतात् जीव त्वम् । नन्दतात् नन्दत्वम् । आशिषोति किम् ? जीवत । किरणं गुणनिषेधार्थम् । ङित्करणात्स्थानिनस्तुवो वित्त्वं बाध्यते तेन युतात् रुतादित्यादी विद्व्यञ्जमप्रत्यया भावात् 'उत औवितिः ।४।३।५६ सत्रात् नौकार: । शित्त्वं तु न वाध्यते, यतः शितो ङित्वं, ङित्वेन वित्त्वमेव Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) - वाध्यते न तु शित्त्वं तेन 'श्नास्त्योर्त्तक ।४।२।६० इति लुग भवत्येव ॥११६॥ आतो गव औः ।४।२।१२०॥ आतः परस्य णव औः स्यात् । पपौ ।११२०॥ नवेति शितीति सम्बद्धं णग्रहणात् शिन्निवृत्तौ नर्वेति निवृत्तं तैनात्र । नित्यमौकारः । ओकारेणैव सिद्ध औकारकरणं ददरिद्रावित्याद्यर्थमन्यथा 'अशित्यस्सन् ० ।४।३।७। सूत्रादाकारलोपे इदं न सिध्येत् । ननु ददरिद्रावित्यत्र तु आमादेशो भविष्यतीति चेत्मत्यमौकारकरणादामादेशस्यानित्यत्वम् ॥१२०॥ आतामाते आथामाथे आदिः ॥४॥२॥१२१॥ आत्परेषामेषामात इ: स्यात् । पचेताम्, पचेते, पचेथाम, पचेथे । आदिति किम् ? मिमाताम् ॥१२१॥ मिमाताम्-पृ.भृमा० ।४।१।५८ सूत्रादिकारः। यः सप्तम्याः ।४।२।१।२२॥ आत्परस्य सप्तम्या याशब्दस्यः स्यात् । पचेत् पचेः॥१२२॥ निर्दिश्यमानस्यैवादेशा भवन्तीति न्यायात् याशब्दस्यादेशाः ॥१२॥ याम्युसोरियमियुसौ ।४।२।१२३। आत्परयोर्याम्युसोर्यथासंख्यमियम्, इयुसौ स्याताम्। पचेयम्, पचेयुः ॥१२३॥ मात्परयोः-अकारात्परयोरित्यर्थः ॥१२३॥ 'इति चतुर्थाध्य.ये द्वितीयः पादः" Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थाध्याये तृतीयः पादः नामिनो गुणोऽक्ङिति | ४ | ३ |१| नाम्यन्तस्य धातोः क्ङिवर्जे प्रत्यये गुणः स्यात् । चेता । अविङतीति किम् ? युतः ॥१॥ 'आसन्नः' ७|४|१२० । सुवात् चेतेत्यत्र गुण एकारः । ग्लायतीत्यादी ऐकारोपदेशबलान्न गुणः । यद्वा अनवर्णा नामी | १|१| ६ | सूत्रे संज्ञासंज्ञिनो भिन्नवचननिर्देशात् ज्ञापितम् यत्र संज्ञिनः संज्ञाऽधिका तत्रैव नामिसंज्ञेति ग्लायतीत्यादीनामिसंज्ञाभावान्न गुणः । यद्वा गुणः इति सान्वयसंज्ञयं तेन ग्लायतीत्यादी हानिरूप एकारो न भवति, गुणस्योत्कर्षरूपत्वात् ॥१॥ उश्नोः | ४ | ३ |२| धातोरुश्नोः प्रत्यययोरक्ङिति गुणः स्यात् । तनोति । सुनोति ॥२॥ धातोस्तु पूर्वेणोत्तरेण च गुणः ||२|| पुस्पौ | ४ | ३ | ३ | नाम्यन्तस्य धातोः पुसि पौ च गुणः स्यात् । ऐयरुः, अपयति ॥ ३ ॥ ऋक् गतो ह्यस्तनी, द्वित्वम् ऋतो |४|१|३८| सूत्रादभ्यासेऽकारः माहा० |४|१|५८ | सूत्राभ्यासे इः, पूर्वस्यास्वे० |४|१|३७| सूत्रादभ्यासे इय्, 'द्वयुक्त० |४| २|३| सूत्रादनः स्याने पुस्, 'पुस्तौ | ४ | ३ | ३ | इत्यनेन गुणः अर् स्वरादेस्तासु |४|४|३१ | सवादभ्यासे वृद्धि : ऐ:, ऐयरुः । ऋक गतौ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) ऋप्रापणे च वा, णिग्, अतिरी० ।४।२।२१। सूत्रेण पोऽन्तः अनेन प्रकृतसूत्रेण गुणः । नन्यत्र पुग्रहणं कथम् ? 'अत्तिरी० ।४।२।२१। सत्रे पोरागमत्वमपनीय प्रत्ययत्वे कृतो सर्व सिध्यति प्रत्ययत्वे कृते 'नामिनो०।४।३।१। सूत्रेण रेपयतीत्यादावपि गुणः सिध्यति, आगमत्वे तु अर्पयतीत्यत्र ‘लघोरूपान्त्यस्य ।४।३।४ सूत्रंण गुणः सिध्यति परन्तु रेपयतीत्यादौ न सिध्यतीति चेन्मेवम् प्रत्ययत्वे कृते 'अरीरिपद्, अदीदिपदित्यादी उपान्त्यत्वाभावात् 'उपान्त्यस्या० ।४।२।३५॥ सूत्रेण ह्रस्वत्वं न स्यादिति ध्येयम् ॥३॥. . लघोरूपान्त्यस्य ॥४॥३॥४॥ धातोरूपान्त्यस्य नामिनो लघोरङिति गुणः स्यात् । भेत्ता । लघोरिति क्रिम् ? ईहते । उपान्त्यस्येति किम् ? भिनत्ति ॥४॥ ननु 'नामिनो गुणो० ।४।३।१॥ सूत्रेणान्त्यविधानसामर्थ्यादनेनोपान्त्यस्यैव भविष्यति किमुपान्त्यस्येत्युपादानेन ? नच 'नामिनो०।४।३।१ सूत्रेणाङ्किति अनेन किति अपि गुणो भवत्येतदर्थः स्यादिति वाच्यं 'जागुः किति ।४।३।६। 'ऋवर्णदृशोऽङि' ।४।३।७। सूत्रयोरारम्भात् । वस्तुतस्तु जागुः कित्येव गणः इति विपरीतनियमाशङ्का निवारणार्थमनामिनो वा गुण: स्यादिति सन्देहनिरासार्थमुपान्त्यग्रहणम् ॥४॥ . मिदः श्ये ।४।३३॥ मिदेरूपान्त्यस्य श्ये गुणः स्यात् । भेद्यति ॥५॥ 'त्रिमिदाच् स्नेहने' इति दिवादिः ॥५॥ जागुः किति ।४।३।६। जागुः किति गुणः स्यात् जागरितः ॥६॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ). क्ङिति प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम्, अक्ङिति तु पूर्वेणैव गुणः || ६ || वर्गदृशोऽङि | ४ | ३ |७| ऋवर्णान्तानां दृशेश्चाङि परे गुणः स्यात् । आर, असरत्, अजरत् अदर्शत् ॥७॥ आरत् असरवित्यत्र 'सत्त्यर्त्तर्वा | ३ | ४ | १६ सूत्रादङ्', 'ऋवर्णदृशोऽङि |४|२|७| सूत्रेण गुणः, अर् । अजरत् अदर्शत्- 'ऋदिच्छ्विस्तम्भूम्र चूम्लुचूग्रुच ग्लुच ग्लुञ्चो व | | ३|४|६५ | दृशेः ऋदित्त्वात् नृधातुग्रहणाच्चाना 5 स्कृच्छ्रतोऽकि परोक्षायाम् | ४ | ३ |८| स्कृऋच्छोः ऋ दन्तानां च नामिनः परोक्षांयां गुणः स्यात् नतु कोपलक्षितायां ववसुकानोः । सञ्चस्करः । आनच्छु :, तेरुः । अकीति किम् ? सञ्चस्कृवान् ॥८॥ सञ्चस्करुः– संपरे कृगः स्सद् ४४६ सुत्रात् स्सद् । आनच्छु रितिअनातो नश्चान्तः ४६हा तेरु:, 'तू तप० ४५ सूत्रादेत्वं द्वित्वाभावश्च TTCTI संयोगादृदः | ४ | ३ |६| संयोगात्परो य ऋत् तदन्तस्यार्त्तेश्च परोक्षायामकि गुणः स्यात् । सस्मरुः, सस्वरुः, आरुः । संयोगादिति किम् ? चक्रः । ॥ ६ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) गुणप्रतिषेधाविषये पुनःप्रसवार्थं वचनम् । ऋतः संयोगेन बिशेषणार्तिग्रहणम् । तिनिर्देश उत्तरार्थः पाशा क्ययङशीयें ।४।३।१०। संयोगाद् य ऋत् तदन्तस्याश्च क्ये यङ्याशीर्ये च गुणः . स्वात् । स्मर्यते, स्वर्यते, अर्यते, सास्मयते, सास्वर्यते. अरायते, स्मर्यात अर्यात् ॥१०॥ स्वाभाविकसंयोगग्रहणान् संस्क्रियते इत्यादौ न भवति । अत॑स्तिनिशात् यङ् लुपि न गुणः ॥१०॥ न वृद्धिश्वाविति डिल्लोपे ।४।३११। , अबिति प्रत्यये यो कितो डितश्च लोपस्तस्मिन् सति गुणो वृद्धिश्च न स्यात् । चेच्यः मरीमृजः ॥११॥ चिंग्ट् चयने भृशं पुनः पुनर्वा चिनोति 'व्यञ्जनादेरेकरा० शिक्षा सूत्रात् यङ्, द्वित्वम्, 'आगुणावन्यादेः १४८ा सूत्राद् गुणः । चेचीयते इति 'अच् शिश४६ सूत्रादच्, 'अचि' शा सूत्रण यङ्लोपः, यङ सस्वर एव लुप्यते, यदि च 'अतः' ४ाशश सूत्राद् यकाराकारस्य लोपः, ततो यङ्लोपस्तहि 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ [शा११०ा सूत्रात् लुप्ताकारस्य स्थानिवद्भावात्, स्थानित्वे च गुणप्राप्तिरेव नास्ति इति हेतोः ‘अचि ।३।४।१५॥ सूत्रात्सस्वरस्य यङो लोपः, यङ्ल!पानन्तरं चेच्य इत्यत्र 'योऽनेकस्वरस्य ।२।१।०६। सूत्राद् धातुस्वरस्य यः । मरीमजः-अचि ऋतः स्वरे वा ।४।३।४३। सूत्राद् वृद्धिप्राप्तिः ॥११।। भवतेः सिलुपि ।४।३।१२। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) भुवः सिज्लुपि गुणो न स्यात् । अभूत् । सिज्लुपीति किम? व्यत्यभविष्ट ॥१२॥ तिनिर्देशात् यङो लुपि न प्रतिषेधः । अभूत्-'पिबैति० ।४।३।६६। सूत्रात्सिचो लुप् ॥१२॥ सूतेः पञ्चम्याम् ।४।३।१३। सूतेः पञ्चम्यां गुणो न स्वात् । सुवै ॥१३॥ तिनिर्देशाद् यङ्लुपि गुणो भवत्येव ॥१३॥ द्व्युक्तोपान्त्यस्य शिति स्वरे ।४।३।१४। व्युक्तस्य धातोरुपान्त्यस्य नामिनः स्वरादौ शिति गुणो न स्यात् । नेनिजानि । उपान्त्यस्येति किम् ? जुहवानि । शितीति किम् ? निनेज ॥१४॥ द्वे उक्त यस्य स व्युक्तः सूत्रत्वाद् क्तान्तं न पूर्व निपतति । निजानि'निजां शित्येत्' ।४।१।५८। सूत्राद्वित्वे पूर्वस्यैत् ॥१४॥ 'हिणोरप्विति व्यौ ।४।३।१५॥ होरिणश्च नामिनः स्वरादावपित्य-विति शिति यथासंख्यं व्यौ स्याताम् । जुह्वति, यन्तु । अप्वितीति किम् ? अजुहवुः अयानि ॥१५॥ अयानि-इंण्क् गतौ+आनिप्रत्ययः, वित्त्वात् डिद् नास्ति अतो गुणः । ॥ १५ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) इको वा ॥४॥३॥१६॥ इकः स्वरादावविति शिति य वा स्यात् । अधियन्ति, अधीयन्ति ॥१६॥ इंक् स्मरणे ॥१६॥ कुटादेङिद्वदञ्णित् ।४।३।१७। कुटादेः परो ब्णिद्वर्जप्रत्ययो डिद्वद् स्यात् । कुटिता, गुता । अणिदिति किम् ? उत्कोटः, उच्चुकोट ॥१७॥ तुदाद्यन्तर्गतः कुटत् कौटिल्ये इत्यारभ्य गुरैतिः उद्यमे इतिपर्यन्तः कुटादिगणः ॥१७॥ विजेरिट ।४।३।१८। विजेरिट द्वित्स्यात् । उद्विजिता । इडिति किम् ?,उद्वेजनम् । ॥ १८ ॥ ओविजैति भयचलनयोः, ओविजप् भयचलनयोः, द्वयो-ग्रहणम् ॥१८॥ वोर्णोः ।४।३।१६। ऊर्णोरिड् वा ङिद्वत् स्यात् । प्रोणुविता, प्रोर्णविता ॥१६॥ विकल्येन डित्वात्पक्षे गुणः ॥१६॥ शिदवित् ।४।३।२०। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) धातोविद्वर्जः शित्प्रत्ययो ङिद्वत् स्यात् । इतः, कोणाति । - अविदिति किम् ? एति । शिविति किम् ? चेषीष्ट ॥२०॥ क्रीणातीत्यत्र श्नाप्रत्ययः ङिवद् ।।२०।। इन्ध्यसंयोगात्परोक्षा किद्वद् ।४।३।२१। इन्धेरसंयोगान्ताच्च परा अवित्परोक्षा किद्वज् स्यात् । समीधे, निन्युः । इन्ध्यसंयोगादिति किम् ? सस्र से ॥२१॥ ङिवदित्यधिकारे किद्वचनं यजादिवचिस्वपीनां स्वदर्थम् जागत्तैश्च गुणार्थम् । ङित्वे हि य्वृद्गुणौ न स्याताम् । ननु निन्यु' इत्यत्र यत्वे कृते 'नो व्यञ्जनस्यानुदितः ।४।२।४५। सूत्रादुपान्त्यस्य नकारलोपो कथं नेति चेत्सत्यं अन्तरङ्ग नकारलोपे कर्तव्ये बहिरङ्गस्य यत्वस्यासिद्धत्वमथवा यत्वे कृते संयोगान्तो धातुरतः कित्त्वमेव नास्ति ॥२१॥ स्व जेनवा ।४।३।२२।. स्वजे परोक्षा वा किद्वद् स्यात् । सस्वजे, सस्वज्जे ॥२२॥ कित्त्वाल् ‘नो व्यञ्जनस्या० ।४।२।४५। सूत्रादुपान्त्यनकारस्य लुग् सिद्धः । ॥ २२ ॥ जनशो न्युपान्त्ये तादिः क्त्वा ।४।३।२३। जन्तान्नशेश्च न्युपान्त्ये सति तादिः क्त्वा किद्वद् वा स्यात् । रक्त्वा, रङ्क्त्वा । नष्ट वा । नीति किम् ? भुक्त्वा । उपान्त्य इति किम् ? निक्त्वा । तादिरिति किम् ? विभज्य ॥२३॥ नंष्ट्वा-'नशो धुटि' ।४।४।१०६ सूत्रात् नः । निक्त्वा-निज्धातुः नात्र उपान्त्ये नः किन्त्वादौ ॥२२॥ ऋत्तृष-मृश-कृश-वञ्च-लुञ्च-थफः सेट् ।४।३।२४। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) न्युपान्त्ये सत्येभ्यो वा क्त्वा सेट किद्वद् स्यात् । ऋतित्वा, अतित्वा । तृषित्वा, तषित्वा । मृषित्वा, मषित्वा । कृशित्वा, कशित्वा । वचित्वा, वञ्चित्वा । लुचित्वा,लुञ्चित्वा । श्रथित्वा, श्रन्थित्वा । गुपित्वा, गुम्फित्वा । न्यु पान्त्य इति किम् ? कोथित्वा, रेफित्वा । सेडति किम् ? वक्त्वा ॥२४॥ न्युपान्त्य इति विशेषणं थफान्तान्ताम् नान्येषां मंवभव्यभिचाराभावात् । कृशां न सम्भवः वञ्चलुञ्चोर्न व्यभिचारः एततु सनुदितानां लक्षणम् । 'क्त्वा ।४।३।२६ सूत्रात् कित्त्वप्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् । ऋत घणागतिस्पधेषु । श्रन्थश्-मोचनप्रतिहर्षयोः । गुम्फत् ग्रन्थने । कुथच पूतिभावे- .. व्यावृत्तिबलादुत्तरेणापि न विकल्पः किन्तु क्त्वेत्येनन नित्यं प्रतिषेधः। वञ्चवक्त्वा -ऊदितो वा ।४।४।४२ सूत्रादिविधेर्विकल्पत्वादत्र नेट् ॥२४॥ वौ व्यञ्जनादेः सन् चायवः ।४।३।२५॥ वौ उदित्युपान्त्ये सति व्यञ्जनादेर्धातोः परः क्त्वा सन् च सेटौ किद्वद् वा स्याताम् न तु यवन्तात् । द्युतित्वा, द्योतित्वा, दिद्य तिषते, दिद्योतिषते । लिखित्वा, लेखित्वा। लिलिखिषति, लिलेखिषति । वाविति किम् ? वर्तित्वा । व्यञ्जनादेरिति किम् ? उषित्वा । अय्व इति किम् ? देवित्वा ॥२५॥ . दिद्य तिषते–'धु तेरिः।४।१।४१॥ सूत्रादिकारः। उषित्वा-'क्षुधवसस्तेषाम्' ।४।४।४३। सूत्रादिट् 'यजादिवचेः किति ।४।४।७८ सूत्राद् वृत् ॥२५॥ उति शवद्भियः क्तों भावारम्भे ।४।३।२५॥ उत्य पान्त्ये सति शवहेभ्य अदादिभ्यश्च परौ भावारम्भयोः . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) 'तक्तवतू सेटौ वा किद्वद् स्याताम् । कुचितम्, कोचितमनेन । प्रकुचितः, प्रकोचितः, प्रकुचितवान् । रुदितम्, रोदितममेभिः, प्ररुदितः प्ररोदितः प्ररुदितवान्। प्ररोदितवान् । उतीति किम् ? शिवतितमेभिः । शवों : य इति किम् ? प्रगुधितः । भावारम्भ इति किम् ? रुचितः ॥२६॥ कुचितम्-कुच्यते स्मेति भावे क्तः । प्रकुचितः इत्यादि-प्रकोचितुमारभते स्म आरब्धवान् वेति तक्तवतूंप्रत्ययो । रुचितः-रोचते स्म ॥२६॥ न डीशोपधषिक्ष्विदिस्विदिमिदः ।४।३।२७। एभ्यः परौ सेटौ तक्तवतू किद्वद् न स्याताम् । डयितः, डयितवान् । शयितः, शयितवान् । पचितः पचितवान् । प्रधर्षित, प्रर्षितवान् । प्रक्ष्वेदितः प्रक्ष्वेदितवान् । प्रस्वेदितः, प्रस्वेदितान् । प्रमोदितः, प्रमेदितवान् । सेटावित्येव-डीनः, डोनवान् ॥२७॥ डीशीपङामनुबन्धनिर्देशो यङलुप्निवृत्त्यर्थः। डीङ् विहायसां गतो, शीक स्वप्ने श्लिषशीङ्० ।५।१६। सूत्रात् क्तः । पूङ् पवने 'पूक्लिशिभ्यो नवा ।४।४।४५। सूत्रःद् विकल्पेन इट् । त्रिधषाट प्रागल्भ्ये प्रधर्षितुमारन्ध. 'वान् प्रधृष्यते स्मेति वा प्रधर्षितः, प्रर्षितवान् । त्रिविदाङ् मोचने च त्रिविदांचं गात्रप्रक्षरणे ‘षः सोऽष्टय० ।२।३।६८ त्रिमिदाङ् स्नेहने 'आदितः ४।४।७१। सूत्रेण सर्वत्र इट । डोलः, डोनवान-डीङ्च् गती देवादिकः 'मयत्याधोदितः ।४।२।७०। सूत्रेण नकारः। मूलोदाहरणे भ्वादेरेव डयितः, अस्य इडेव । देवादिकस्य डीयश्व्यै०।४।४।६१।सूत्रेण इििनषेधः उक्तोऽस्ति ॥२७॥ मषः क्षान्तौ ।४॥३॥२८॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) क्षामार्थान्मृषः सेटौ तक्तवतू किद्वन्न स्याताम् । मर्षितः, मर्षिक्षान्ताविति किम् ? अपमृषितं वाक्यम् ॥२८॥ अपमृषितं वाक्यम्-सासूयं समत्सरं वचनमित्यर्थः। सेडिति भणनात् मृषू सहने च “इत्यस्य तु 'वेटोऽपतः ।४।४।६२ सूत्रादनिटत्वात् ग्रहणमेव न भवति ॥२८॥ - क्त्वा ।४।३।२६॥ धातोः क्त्वा सेट् किद्वन्न स्यात् । देवित्वा । सेडित्येव कृत्या, ॥२८॥ देतित्वेत्यत्र कित्त्वाभावाद् गुणः ॥२९॥ स्कन्दस्यदः ॥४॥३॥३०॥ आभ्यां क्त्वा किद्वन्न स्यात् । स्कन्त्वा, स्यन्त्वा ॥३०॥ अनिडथं वचनम्, सेटि तु पूर्वसूत्रेण स्यन्दित्वेत्येव भवति । स्कन्दै. गतिशोषणयोः, स्यन्दोङ् स्रवणे । केचित्तु प्रस्कद्य, प्रस्यद्यति यपः.कित्त्वमिच्छन्ति, तन्मतसंग्रहार्थं क्त्वेति द्वितकारनिर्देशः, तकारादि: क्त्वेत्यर्थः ॥३०॥ क्षुधक्लिशकुष-गुध-मृड-मृद-वद--वसः ।४।३।३१। एभ्यः क्त्वा सेट् किद्वत्स्यात् । क्षुधित्वा, क्लिशित्वा, कुषित्वा, गुधित्वा, मृडित्वा, मृदित्वा, उदित्वा, उषित्वा ॥३१॥ नेति निवृतम् मृदादीनामुपादानात् अन्यथा एभ्यः ‘वत्त्वा' ४।३।२६i सत्रेण Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) , प्रतिषेध: सिद्ध इति तदुपादानमनर्थकं स्यात् । क्षुधादीनामप्युपादानाद् 'वौ व्यञ्जनादेः ० ' |४३| २५ | सुत्राद् विकल्पे प्राप्तेऽनेन प्रतिषेधः । उषित्वा -- इत्यत्र 'क्षुधवसस्तेषाम् ||४|४३| सूत्रादिट्, 'घस्वसः' | २|३|३६| सूत्रेण षकारः ॥३१॥ रुदविदमुषग्रहस्वपप्रच्छः सन् च | ४ | ३ | ३२ ॥ एभ्यः क्त्वा सन् च किवद् स्यात् । रुदित्वा रुरुविषति । विदित्वा विविदिषति । मुषित्वा मुमुषिषति । गृहीत्वा, जिघृक्षति । सुप्त्वा सुषुप्सति । पृष्ट्वा, पिपृच्छिषति ॥ ३२ ॥ रुदविदमुषां 'वौ व्यञ्जनादेः सन्चाय्वः | ४ | ३ | २५ | सूत्राद् विकल्पे, ग्रहेतु 'क्वा' | ४ | ३ |२| सूत्रेण प्रतिषेधे सूत्रमिदम् । विद इति विदक् ज्ञाने इत्यस्य ग्रहणं नान्येषाम् तेषां हि अनित्वात् निषेधाभावात् किवदेव क्त्वा । सेडिति निवृत्तम् स्वपिप्रच्छोरसंभवात् । स्वपिप्रच्छोः सन्नर्थमेव, क्त्वा हि किदेव । जिघृक्षति - ' ग्रही उपादाने' ग्रहीतुमिच्छतीति सन्, द्वित्वम् रुदविद० | ४|४|३३| सूत्रेण सन् किवत् ग्रहव्रश्चभ्रस्जप्रच्छः ४|१| ८४ | सूत्रेण वृत्रकारस्य ऋः, 'हो धुट्पदान्ते |२| |२| सूत्रात् हस्य ढः, 'गडदबादे० | २||७७| सूत्राद् गकारस्य घः षढोः कस्सि |२| |६२| सूत्रात् ढस्य क्, 'नाम्यन्तस्था० | २|३|१५| सूत्रेण सस्य षत्वम् । पृष्ट्वा - प्रच्छ्, क्त्वा, किवद्भावात् 'ग्रहवश्चभ्रस्जप्रच्छः |४|१| ८४ | सूत्रात् वृत्, रस्य ऋ, 'अनुनासिके चच्छ्त्रः शूट् | 8191905 | सूत्रेण छकारस्य स्थाने तालव्यशकार : 'यजसृजमृज० | २|१|८७| सूत्रात् शकारस्य पकारः, तवर्गस्य श्चैवर्ग ||३|६० | सूत्रेण प्रत्ययतकारस्य टंकारः । विपृच्छिषति - ऋस्मि० |४| ४ | ८४ | सूत्रादिट् ||३२|| नामिनोऽनिट् | ४ | ३ |३३| नाम्यन्ताद्धातोरनिट् सन् किद्वत्स्यात् । चिचीषति । अनिडिति किम् ? शिशयिषते ॥ ३३॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) चिन्ट् चयने स्वादिः ॥३३॥ उपान्तले ।४।३।३४॥ नाम्युपान्त्ये सति धातोः सन्ननिट किद्वद् स्यात् । बिभित्सति ॥३४॥ भिदृ पी विदारणे ॥३४॥ सिजाशिषावात्मने ।४॥३॥३॥ नाम्युपान्त्ये सति धातोरात्मनेपदविषयावनिटौ सिजाशिषौ किदवत्स्याताम् । अभित्त, मित्सीष्ट । आत्मन इति किम् ? अनाक्षीत् ॥३५॥ अनाक्षीत-सृज, अद्यतनीदि, सिच्, 'सः सिजस्ते० ।४।३।६५। सूत्रात् ईत्, 'अः सृजिदृशोऽकिति ।४।४।१११। सूत्रात् धातुमध्ये अकारः, 'व्यञ्जनानामनिटि ।४।३।४५। सूत्राद् वृद्धिः, 'यजसृजमज० ।।१।८७ सूत्रात् जस्य षकारः, षढोः कस्सि ।२।१।६२। सूत्रात् षस्य कः, 'नाम्यन्ता० ।।३।१५। सूत्रात् सस्य षः ॥३५॥ ऋवर्णात् ।४।३।३६॥ ऋवर्णान्ताद् धातोरनिटावात्मनेपदविषयौ सिजाशिषौ विद्ववत्स्याताम् । अकृत, कृषीष्ट । अतोष्ट, तीर्थोष्ट ॥३६॥ अकृत-अनेन सिवः कित्त्वात् गुणाभावः । 'धुह्रस्वा० ।४।३।७०। सूत्रात् । सिचः लुक् । अतीष्टं-'कित्त्वादिर 'म्वादे० ।२।१।६३॥ सूत्रात् दीर्घः । अत्र 'एकधातौ कर्मक्रियथैः ।३।४।८६। सूत्रेण कर्मकर्तरि आत्मनेपदं भवति, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) आत्मनेपदतप्रत्यये सति 'स्वरहो वा । ३।४।६० सूत्राद् विकल्पेन त्रिच प्राप्नोति, विकल्पत्वादत्र न त्रिच, कर्मविवक्षायां सत्यां तु नित्यं त्रिच् ॥३६॥ गमो वा ।४।३।३७) गमेरात्मनेपदविषयौ सिजाशिषौ किवद् वा स्थाताम् । समगत, समगस्त । संगसीष्ट, संगसीष्ट ॥३७॥ समगत-'समो गमच्छि० ।३।३।८४। सूत्रादात्मनेपदम्, 'यमिरमि०. ४।२।५५सूत्रात धातोर्मलुक् ॥३७॥ हनः सिच् ।४।३॥३८॥ हन्तरात्मनेपदविषयः सिच किद्वद् स्यात् । आहत ॥३८॥ हनंक हिंसागत्योरदादिः ॥३८॥ यमः सूचने ।४।३।३६। सूचनार्था-धमेरात्मनेपदविषयः सिच् किद्ववत् स्यात् । • · उदायत । सूचन इति किम् ? आयस्त रज्जुम ॥३६॥ सूचनं परदोषाविष्करणम् । उदायत-'आङो यमहन:०' ।३।३।८६। सूत्रादात्मनेपदम्, सकर्मकात् ‘समुदाङो यमेः० ।३।३।६८। सूत्रादात्मनेपदम् । आयस्त रज्जुम्-उद्धतवान् कूपादिति ज्ञेयम् ॥३६॥ वा स्वीकृतौ ।४।३।४०। स्वीकारार्थाद्यमेरात्मनेपदविषयः सिच किद्वद् वा स्यात् । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) उपायत उपायंस्त महास्त्राणि । स्वीकृताविति किम् ? आयंस्त पाणिम् ॥४०॥ उपायत – 'यमः स्वीकारे' | ३|३|५| सूत्रादात्मनेपदम् । उद्वाह एवेच्छन्त्यन्ये ॥४०॥ इश्च स्थादः | ४ | ३ |४१| स्थः दासंज्ञकाच्चात्मनेपदविषयः सिच् विद्वत् स्यात्, तद्योगे स्थादोरिश्च । उपास्थित, आदित, व्यधित ॥ ४१ ॥ न चेकारविधानादेव गुणो न भविष्यतीति किं सिचः किद्विधानेनेति वाच्यं विधानस्य ह्रस्वद्वारा 'धुह्रस्वा० |४| ३|७० | सूत्रात् सिज्लोपे चरितार्थत्वाद् गुणः स्यादिति । उपास्थित - ' उपात्स्थः ॥ ३३३३८३| सूत्रादात्मनेपदम् | आदित - देङ पालने, डुदांग दाने । व्यथित - दुधांगक धारणे च ॥४१॥ मृजो ऽस्य वृद्धि. | ४ | ३ | ४२ ॥ मृजेर्गुणे सति अस्य वृद्धिः स्यात् । मष्टि । अत इति किम् ? मृष्टा ॥४२॥ मृजो शुद्ध अदादिः || ४२ ॥ ऋतः स्वरे वा | ४ | ३ |४३| सृजे ऋतः स्वरादौ प्रत्यये वृद्धिर्वा स्यात् । परिमार्जन्ति, परिमृजन्ति । ऋत इति किम् ? मामर्ज स्वर इति किम् ? मृज्य: ॥४३॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) ममार्ज-अत्र गुणे कृते पूर्व सूत्रेण नित्यं वृद्धिः, न त्वनेन विकल्पः ॥४३॥ सिचि परस्मै समानस्याडिति ।४।३।४।। समानान्तस्य धातौः परस्मैपदविषये सिच्यङिति वृद्धिः स्यात् । अचैषीत् । परस्मैपद इति किम् ? अच्योष्ट । समानस्येति किम् ? अगवीत् । अङितीति किम् ? न्यनवीत् ॥४४॥ 'आसन्नः ।७।४।१२०। सूत्रादासन्ना वृद्धिर्भवति । गोरिवाचारीत्=अगवीत् 'कर्तृ:०।३।४।२५। सूत्रात् क्विप्, अद्यतनी दि, सिच् ‘सः सिज०।४।३।६५ सूत्रात् ईत् 'स्ताद्य० ।४।४।३२। सूत्रादिट् ‘इट ईति ।४।३।७१ सूत्रात्सिचो लोपः । णूधातोः० न्यनुवीत् ॥४४॥ व्यञ्जनानामनिटि ।४।२४५॥ व्यञ्जनान्तस्य धातोः परस्मैपदविषये अनिटि सिचि समानस्य वृद्धिः स्यात् । अराक्षीत् । समानस्येत्येव-उदवोढाम् । अनिटीति किम् ? अतक्षीत् ॥४५॥ बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेनानेकव्यञ्जन व्यवधानेऽपि भवति यथा रञ्जधातोः अराङक्षीत-'सिजद्यतन्याम् ।३।४।५३। सूत्रात्सिच, 'सः सिजस्तेदिस्योः ।४।३।६५। सूत्राद् सिचे पर ईत, 'व्यञ्जनानाममनिटि ।४।३।४। सूत्रादुपान्त्यवृद्धि । जस्य गः, गस्य ककार: 'नाम्य० ।२।३।१५। सूत्रात्सस्य षः । उदवोढाम्-उत्पूर्वकवह, अद्यतनीताम्, ‘अडधातो० ॥४।४।२६। सूत्रादट, सिजद्य०।३।४।५३। सत्रात् सिच, व्यञ्जनानाम०।४।३।४५। इत्यनेन वृद्धिः, ततः वाह, 'धुह्रस्वाल्लुक ।४।३।७०। सूत्रात्सिचो लोपः, 'हो धुट्पदान्ते ।२।१।८२। सूत्राद् हस्य ढः, 'अधश्चतुर्थात्तथो-धः ।२।१७६। सूत्रात क्ततकारस्य धकारः, 'तवर्गस्य० ।१।३।६०। सूत्रात् धकारस्य ढ: 'सहिवहे. ।१।३।४३। सूत्रात् धातुढकारस्य लोपः सूत्रे वहेरित्युक्त तथापि Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) Famountantrance 'एकदेश- विकृतमनन्यवत्' इति न्यायात् बाहेरपि ओकारः, तदनन्तरं "भूतपूर्वकस्तद्वदुपचारः" इति न्यायाद्, ढस्य परेऽ सत्त्वाद् वा व्यजनान्तधातुत्वे सति पुनरपि 'व्यञ्जनानामनिटि ।४।३।४५। इत्यनेन ओकारस्य वृद्धिः प्रोप्नौति, परन्तु 'समामस्य' इति व्यावृत्तिबलात् वृद्धिः प्रतिषिध्यते । अतक्षीत-तक्षौ तनूकरणे तक्ष+दि+अट् 'सिजद्यतन्याम् ।।४।५३॥ सूत्रात्सि, 'सः सिजस्तैदिस्योः ।४।३।६५। सूत्रात्सिंचः पर ईत्, धूगौदितः ।४।४।३८। सूत्राद् विकल्पेनेट् ॥४॥ वोर्णगः सेटि ।४।३।४६। उणोः सेंटि सिचि परस्मैपदे वृद्धिर्वा स्यात् । प्रौरवीत्, प्रौणवीत् । प्रौण्णुवीत् ॥४६॥ सानुबन्धोपादानं यङ्लुन्निवृत्त्यर्थम् । सेटीत्युत्तरार्थम् । प्रौणुवीत् ऊर्युगक् आच्छादने 'वोर्णोः ।४।३।१८। सूत्रात् विकल्पेन उिद्वद् तेन गुणाभावः । संयोगात् ।२।१।५२। सूत्रादुव् ॥४६।। 1 . व्यञ्जनादेवोपान्त्यस्य ।४।३।४७। व्यञ्जनादेर्धातोरुपान्यस्यातः सेटि सिचि परस्मैपदे वृद्धि स्यात् । अकाणीत, अकगीत् । व्यजनादेरिति किम् ? मा भवानष्टीत् । उपान्त्यस्येति किम् ? अवधीत् । अत इति किम् ? अदेवोत् । सेटौत्येव अधाक्षीत् ॥४७॥ अवधीत-हनंक अद्यतनीदिविषये 'अद्यन्यां वा० ।।४।२२। सूत्रात् वधोऽ दन्त आदेशः, सिच्, ईत्, इट्, 'अतः ।४।३।८२। सूत्रादकारलोपः ॥४७॥ वश्वजारः ।।३।४। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) .. वदवजोर्लन्तरन्तयोश्चोपान्त्यस्यास्य परस्मैपदे सेटि सिचि वृद्धिः स्यात् । अवादीत्, अवाजीत , अज्वालीत्, अक्षारीत् ॥४८॥ पूर्वस्यापवादोऽयम् ॥४॥ न शिवजागशसक्षणहम्बेदितः ।४।३।४६। एषां हमयन्तानामेदितां च परस्मैपदे सेटि सिचि वृद्धिर्न स्यात् । अश्वयीत्, अजागरीत्। अशसीत्। अक्षणीत, अग्रहीत्। अवमीत्, अहयीत्, अकगीत् ॥४९॥ "सिचि परस्मै० ।४।३।४४। सूत्राद् वृद्धो अन्येषां च 'व्यञ्जनादेर्वोपा०' ।४।३।४७। सूत्राद् विकल्पे प्राप्ते वचनम् । अस्मिन् सूत्रे विशेषोऽयम्श्विजाग्रादीनां ,यङ्लुबन्तानामपि वृद्धिप्रतिषेधः, एदितां तु यङो लुपि वृद्धिप्रतिषेधो न भवति ॥४६॥. ञ्णिति ॥४॥३॥५०॥ निति णिति च परे धातोरुपान्त्यस्यातो वृद्धिः स्यात् । पाकः, पपाच ॥५०॥ 'त्रिति=अकारानुबन्धे, णिति=णकारानुबन्धे ॥५०॥ नामिनोऽकलिहलेः ॥४॥३॥५१॥ नाम्यन्तस्य धातोर्नाम्नो वा कलिहलिवर्जस्य णिति वृद्धिः स्यात् । अचायि, कारकः. अपीपटत् । कलिहलिवर्जनं किम् ? अचकलत् ॥५१॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) कलिहलिवर्जनान्नाम्नोऽपि तेन पटुमाख्यातवान् अपोपटत् इत्यत्र वृद्धावन्त्यस्वरादिलोपे च सन्वद्भावः सिध्यति । अयं भावः परित्यत्र उकारः, उकारश्च समानः 'व्यन्त्यस्वरादेः ।७।४।४३। सूत्राल्लोपे सन्वडावो न सिध्यति, यदि वृद्धिं कृत्वा लोपे त सिध्यति औकारस्य समानत्वाभावात् । यद्यपि लुचो नित्यत्वात् 'बलवन्नित्यमनित्यात् इति न्यायात्प्रथमं लुक् प्राप्नोति तथापि कलिहलिवर्जनात् प्रथमं वृद्धिः, अन्यया कलिहलिशब्दयोरिकारस्य प्रथमं लुचि वृद्धिप्राप्तिरेव नास्तीति वर्जनं व्यर्थं स्यात् । अपीपटत् इत्यत्र णिच् 'नामिनोऽ० ।४।३।५१। सूत्राद् वृद्धिः औ, 'त्र्यन्त्यस्वरादेः ।।४।४३। सूत्रादन्त्यस्वरादिलोपः, ‘पट्' इति शब्दः, ततोऽद्यतनीदि, 'णिश्रि० ।३।४।५८। सूत्रात् ङप्रत्ययः, द्विवचनम्, अभ्यासेऽसमानलोपित्वात् सन्वद्भावः ‘ल?र्दीघो० ।४।१।६४। सूत्रात् दीर्घः । कलिं हलि वाऽग्रहीत्=अचकलत्, अजहलत् ॥५१॥ जाजिणवि ।४।३॥५२॥ जागुओं णव्येव च णिति वृद्धिः स्यात् । अजागारि, जजगाार । त्रिणवीति किम् ? जागरयति ॥५२॥ . पूर्वेणैव सिद्ध नियमार्थोऽ यं गोगः । जागुत्रौ णवि वृद्धिरेवे अथवा जागुरेव त्रौ णवि च वृद्धिरिति विपरीतनियमस्तु अन्त्यणवो वा णित्त्वविधानात्, 'न जनबध: ।४।३।५४। इत्यादौ त्रिप्रत्यये वृद्धिनिषेधाच्च न भवति ॥५२॥ आत ऐः कृऔ ।४।३॥५३॥ आदन्तस्य धातोणिति कृति नौ च ऐः स्यात् । दायः, दायकः, अदायि । कृदिति किम् ? ददौ ॥५३॥ दायः-अत्र घत्र । दायक:-अत्र णकः । अदायि-भावकर्मणोः' ३।४।६८। सूत्रात् त्रिच् ॥५३।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( १६१ ) - . न जनबधः।४।३॥५४॥ अनयोः कृति णिति औ च वृद्धिर्न स्यात् । प्रजनः, जन्यः, अजनि । बधः, बघ्यः, अबधि ॥५३॥ बधिरत्र वन्धने इव्ययं गृह्यते । हन्यादेशस्य तु वधेरदन्तत्वात् वृद्धिप्रसङ्ग एव नास्ति । प्रजनः अत्र घत्र , जन्यः, अत्र घ्यण, अजनि-अत्र त्रिच् ॥५५॥ मोऽकमियमिरमिनमिगमिवमाचमः ।४।३॥५५॥ मन्तस्य धातोः कम्यादिवर्जस्य णिति कृति औ च वृद्धिर्न स्यात् । शमः, शमकः, अशमि । कम्यादिवर्जनं किम् ? कामः, कामुकः, अकामि । यामिः, रामः, नामः, अगामि, वामः, आचामकः ॥५५॥ . कामुकः-श-कम० ।५।२।४०। सूत्रादुकण् ।।५५।। . विश्रमेर्वा ।४।३॥५६॥ विश्रयोणिति कृति औ च वृद्धिर्वा स्यात् । विश्रामः, विश्रमः, विश्रामकः, विश्रमकः, व्यश्रामि, व्यश्रमि ॥५६॥ विश्रामः विश्रमः-अत्र घत्र । विश्रामकः, विश्रमकः-अत्र णकः । व्यश्रामि, व्यश्रमिः-अत्र त्रिच् । अन्ये तु विश्रमेव द्धि नेच्छन्त्येव । अपरे तु नित्यमेव वृद्धिमिच्छन्ति । एके तु घञ्येव विकल्पमातिष्ठन्ते ॥५६॥ .. उद्यमोपरमौ ।४।३।५७। । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) उदुपाभ्यां यमिरम्योर्घजि वृद्धयभावो निपात्यते । उद्यमः, उपरमः ॥५७॥ उदुपाभ्यामन्यत्र निरुपसर्गे उपसर्गान्तरे सति च पूर्वेण वृद्धि रेव ॥५७॥ गिद्वाऽन्त्यो ण ।४।३।५८। परोक्षाया अन्त्यो ण णिद् वा स्यात् । अहं चिचय, चिचाय । चुकुट, चुकोट । अन्त्य इति किम् ? स पपाच ॥५॥ परोक्षातृतीयत्रिकैकंववनमन्त्यो णव् । णित्त्वाश्रयं कार्य क्षे प्रतिषिध्यते। णित्त्वाश्रयस्य विकल्पनात् ण घाश्रयं नित्यमेव यथा : पपौ। णित्त्वविकल्पनात् कुटादीनां गुणविकल्पः ॥५८॥ . - उत औविति व्यन्जनेऽ द्वः।४।३।५६। अद्व्युत्तस्योदन्तस्य धातोर्यजनादौ दिति औः स्यात् । यौति। उत इति किम् ? एति । धातोरित्येह-सुनोति । वितीति किम् ? रुतः । व्यञ्जन इति किम् ? स्तवानि । अद्वेरिति किम् ? जुहोति ॥५६॥ तोः स्थाने तातडो हित्त्वात्स्थानिवत्वं बाध्य ते तेन युतात् इत्यादी वित्त्वाभावात् नौकारः । केचित्तु यङ्लुबन्तस्यापि इच्छन्ति ॥५६॥ वोर्णोः ।४।३।६०॥ ऊोरयुक्तस्य व्यञ्जनादौ वित्योर्वा स्यात् । प्रोोति, . प्रोर्णोति । अद्वरित्येव-प्रोर्णोनोति ॥६०॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३ ) पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पः । यङ्लुबन्तस्यापीच्छन्त्यन्ये ॥६०॥ न दिस्योः ।४।३।६१॥ ऊण्णोदिस्योः परयोरौर्न स्यात् । प्रौर्णोत्, प्रौर्णोः ॥६१॥ पृथग्योगात् पूर्वेण 'उत औ० ।४।३।५९। इति सूत्रेण प्राप्तः प्रतिषिध्यते अन्यथा 'वोर्णोरदिस्योः' इति सूत्रं क्रियेत । दिसाहचर्यात् ह्यस्तन्या एव सिः गृह्यते नेन वर्तमानासिप्रत्यये न भवति। प्रौर्णोत–'स्वरादेस्तासु ४।४।६१। सूत्राद् वृद्धिः ।।६१।। . तृहः श्नादीत् ।४।३।६२॥ तृहेः श्नात्परो व्यञ्जनादौ विति परे ईत् स्यात् । तृणेढि ॥६२॥ तृहप् हिंसायामू वर्तमानातिन् ‘रुधां स्वरात्० ।३४।८। सूत्रात् धातुमध्ये एनः, अनेन सूत्रेण ईतु, 'हो धुंट्पदान्ते ।२।१।८२। सूत्रात् हस्य ढः, अधरचतुर्थात् ।२।१।७६। सूत्रात्तस्य धः, 'तबर्गस्य०' ।१।३ ६०। सूत्रात् धस्य ढः, ‘ढस्तढ्डे' ।१।३।४२। सूत्रात् पूर्वस्य ढस्य लोपः, 'तृणेढि' इति सिद्धम् । दीर्घनिर्देश उत्तरार्थः ॥६२॥ ब्रतः परादिः ।४।३।६३। ब्रुव ऊतः व्यञ्जनादौ विति परादिरीत् स्यात् । ब्रवीति । ऊत इति किम् ? आत्थ ॥६३॥ ब्रवीति-ईतः परावयवत्वे शित्त्वात् वचादेशो न भवति । ननु तर्हि परादिः कथं कथितम् 'शित्' इत्येव कथ्यताम् किं गुरूणा स्त्रेण ? इति चेन्न तथा सति 'ब्रवीति' इत्यादौ गुणो न स्यात् । नच 'श्वित्' इति क्रियतामिति वाच्यं तथा सत्यपि 'जंगमीति, जाज्ञति' इत्यादौ 'गमिषमद्यम०।४।२।१०६। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) जाज्ञाजनो० ।४।२।१०४। सत्राभ्यामन्तरत्यादित्वाभावात् छः, जादेशश्च स्यात् । परादित्वे तु परभक्तत्वेन त्यादेरानन्तर्यान्न भवति । आत्थ-ब्रू, वर्तमानासिः, ‘ब्रूगः पञ्चानां पञ्चाहश्च ।४।२।११८। सूत्राद् ब्रूस्थाने आह, सिस्थाने थ इति, 'नहाहोर्धतौ ।२।१०८५ सूत्रात् हकारस्य तकारः॥६३॥ यतुरुस्तोर्बहुलम् ।४।३।६४॥ यङ्लुबन्तात् तुरुस्तुभ्यश्च परो व्यञ्नादौ विति ईत् बहुलं परादिः स्यात् कञ्चिद्वा-बोभवीति, बोभीति । कञ्चिन्न-वति । तवीति, तौति । रवीति, रौति । स्तवीति,स्तौति । अद्वेरित्येवतुतोथ, तुष्टोथ ॥६४॥ यङिति सामान्याभिधानेऽपि यङ्लुबन्तस्य ग्रहणम्, यङन्तस्यात्मनेपदिदित्वात् वितो व्यञ्जनादेरसम्भवात् । बहुलं शिष्टप्रयोगानुसारेण । वृत् वर्वति । तुक-वृत्तिहिंसापूरणेषु । रुक् शब्दे । स्तु=स्तवीति, स्तौति।।४३।। सः सिजस्तेदिस्योः ।४।३॥६५॥ सिजन्ताद्धातोरस्तेश्च सन्तात् परो दिस्योः परयोः परादिरीत स्यात् । अकार्षीत्, अकार्षीः । आसीत्, आसीः । स इति किम् ? अदात् ॥६५॥ आसीत्, आसी:-इत्यत्र ह्यस्तन्या एव दिव् सिव नतु अद्यतन्याः दि सि गृह्यते, अद्यतन्यां सत्याम् “अस्ति-ब्रुवो० ।४।४।१ सूत्राद् भ्वादेशविधानात् । किञ्चास्तेश्च सन्तात्पर इति व्यर्थं स्यात्, सिजद्वारेणैव ईत् स्यात् इति ह्यस्तन्या एव दिव् सिव् गृह्यते। विधानसामर्थ्याच्चं व्यञ्जनाद्दे०।४।३।७८। सत्रात् ईत्सहितस्य देर्न लुक । आसीरित्यत्र ‘आदेशादागमः' इति न्यायात् 'अस्ते सि० ।४।३।७३। सूत्रात्सकारलोपात् प्रागेव इकारागमप्राप्तिः ॥६५॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) .पिबतिदाभूदस्थः सिचो लुप् परस्मै न चेट् ।४।३।६६। एभ्यः परस्य सिचः परस्मैपदे लुप् स्यात् । लुब्योगे न चेट् । अपात , अगात्, अध्यगात्, अदात्, अधात्, अभूत् अस्थात् परस्मैपद इति किम् ? अपासत पयांसि तैः ॥६६॥ "पिब' इति निर्देशात् ‘पां पाके' इति भ्वादेरे ग्रहणम्, पातिपायत्योर्न ग्रहणम्, तयोः अपासीदिति प्रयोगः । एतीति निर्देशात् 'इंण्क् गती, इंक स्मरणे. इत्येतयोH हणम, एतयोः 'अमात्' इत्युदाहरणम्, इकोऽध्यगात् । भू इति निर्देशाद् भवतेः अस्त्यादेशस्य भू' इत्यस्यापि ग्रहणम् । लुकमकृत्वा लुबिधानं स्थानिवद्भावाभावार्थम्, तेनाबोभोदित्यत्र न वृद्धिः।।६६।। घेघाशाच्छासो वा ।४।३।६७। एभ्यः परस्य सिचः परस्मैपदे लुब् वा स्यात्, लुब्योगे न चेट् । अधात्, अधासीत् । अघ्रात्, अघ्रासीत् । अशात्, अशासीत् । अच्छात्-अच्छासीत् । असात् असासीत् ॥६७॥ ट्धेः धातोः पूर्वेण नित्यं प्राप्ते, शेषेभ्योऽप्राप्ते विकल्पोऽयम् । सों से वा वा उभयो हणं न तु छाशोः साहचर्याद् देवादिकस्यैव ॥६॥ तन्भ्यो वा तथासि म्णोश्च ।४।३६८। तनादिभ्यः परस्य सिचः ते थासि च लुप् वा स्यात्. तद्योगे न्णो श्च लुप् चेट् । अतत, अतनिष्ट । अतथाः,अतनिष्ठाः । असत, असनिष्ट । असथाः असनिष्ठा ॥६॥ इह परस्मै इति निवृत्तम थास् ग्रहणात्, थास्याहचर्यात्तप्रत्ययोऽप्यात्मनेपद-सम्बन्ध्येव गृह्यते तेने ‘अतनिष्ट यूयमिह न भवति ॥६८।। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९६ ) सनस्तत्रावा | ४ | ३ | ६६ । सनो लुपि सत्यामा बा स्यात् । असात असत । असाथाः, असथाः । तत्रेति किम् ? असनिष्ट || ६ || 51 असनिष्ट —–'तन्भ्यो वा० ४ ३ ६८ | सूत्रेण विकल्पेन सिचो लुक्, अत्र सिच् न लुप्तः । केदित्वं न मन्यते नित्यमेवान्ये ॥ ६६॥ धुड्हस्वाल्लुगविटस्तथोः । ४ । ३ । ७० । धुङन्ताद् हस्वान्ताच्च धातोः परस्यानिटः सिचस्तादौ यादो च लुक् स्यात् । अभित्त, अभित्याः । अकृत, अकृथाः । अनिट इति किम् ? व्यद्योतिष्ट ॥७०॥ अकृतेति - यदि तनादौ पाठः स्यात्तदा 'तन्भ्यो वा० | ४ | ३ |६८ | सूत्राद्वा लुक् स्यात् । लुबधिकारे लुग्ग्रहणं सिज्लुक्यपि स्थानित्वेन 'तत्कार्यप्रतिपत्त्यर्थम् तेनावात्तामात्यादिषु सिचि विधीयमाना वृद्धिस्तदभावेपि सिद्धा भवति । (अवात्ताम् = वसं निवासे + अद्यतन्याः ताम् 'सरतः सि | ४ ३६२ सूत्रात धातुसकारस्य तः, तत्पश्चात् पूर्वं 'धुह्रस्वा० |४| ३|७० सूत्रात् सिचो लुक्, सिचो लुक्यपि स्थानित्वात् 'व्यञ्जनानामनिटि | ४ | ३ | ४५ सूत्राद् वृद्धिः क्रियते) तथासीति अनुवर्तमाने तथग्रहणं व्याप्त्यर्थम् तेन साहचयं नास्ति । तथोरिति द्विवचनं यथासंख्य परिहारार्थम् ||७० || इट ईति | ४ | ३ |७|| इटः परस्य सिच इति लुक् स्यात् । अलावीत् । इट इति किम् ? अकार्षीत् । इतीति किम् ? अभणिषम् ॥ ७१ ॥ अलावीदित्यत्र - सिचो लुक्यपि स्थानिवद्भावात् 'सिचि ० | ४ | ३ | ४ ४ | सूत्राद् वृद्धिः ॥ ७१ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६७ ] सोधि वा ।४।३।७२। धातोर्धादौ प्रत्यये सो लुग्वा स्यात् । चकःधि, चकाद्धि । अलविध्वम् अलविदवम् ॥७२॥ सिच्यनुवर्तमाने सग्रहणं सामान्यसकारपरिग्रहार्थं तेन प्रकृति-सकारस्यापि ग्रहणम् । चकाद्धि-'हुधुटो हेर्धिः ।४।२।८३ सूत्राद् हेधिः, 'तृती: यस्तृतीय० ।१।३।४६। सूत्रात्, सकारस्य दकारः । अलविढ्वम्-अद्यतनी ध्वम्, सिच, इट, अट। 'सो धिबा ।४।३।७३। सूत्रेण सिच्सकारस्य विकल्पेन लोपे अलविध्वम्, अन्यत्र 'नाम्यन्तस्था० ।३।२।१५ सूत्रात् सस्य षः, 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे । १।३।४६ सूत्रात् षस्य ड:, 'तवर्गस्य श्च० ।१।३।६०। सूत्रात् ध्वमो धस्य ढः । इदं रूपयुग्म 'लूधातोः' ।विकल्पं नेच्छन्त्येके, अन्ये तु सिच नित्यं लोपमिच्छन्ति ॥७२॥ अस्तेः सि हस्वेति ।४।३।७३। अस्तेः सः सादौ प्रत्यये लुरु स्यात् । एति तु सोहः । असि, व्यतिसे, व्यतिहे, भावयामाहे ॥७३॥ असक् भुवि व्यतिपूर्वम्, वर्तमानासे, ‘श्ना ‘श्नास्त्योलुक् ।४।२।६० सूत्रेण अस्तेः सकारस्य लोपः एवमकारसकारयोर्लोपे प्रत्ययमात्रं 'व्यतिसे' इति पदम् । भावयामाहे-'भू, वृद्धिः, भाव, परोक्षा ए, 'धातोरनेक० ।३।४।४६ सत्रेण परीक्षा एस्थाने आम् 'आमन्ताल्वाय्येत्नावय ।४।३।८५। सत्रण णिग् स्थाने अय् ‘धातोरनेक० ।३।४।४६।सूत्रेण आम्परतः 'अस्+ए' इत्यनुपयोगः 'अस्यादेराः परोक्षायाम्' ।४।१।६८। सूत्रात् आकारः। 'अस्तेः सि० । ४।१।६८ सूत्रात् सकारस्य हकारः ।परोक्षाया एकारे नेच्छन्त्यन्ये-भावयामासे " ॥७३॥ दुहदिहलिहगुहो दन्त्यात्मने वा सकः ।४।३।७४। एभ्यः परस्य सको दन्त्यादौ आत्मनेपदे लुग्वा स्यात् । अदुग्ध, Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८ ) अधुक्षत, अदिग्ध, अधिक्षत अलोढाः, अलिक्षथाः, । न्यगुह्वहि, न्यधुक्षावहि । दन्त्य इति किम् ? अधुक्षामहि ॥७४॥ त, थास् ध्वम्, वहि-एते प्रत्यया दन्त्या उच्यन्ते, 'लुवर्णतर्गलसा दन्त्याः, वो दन्त्योष्ठय इति न्यायात् । अधुक्षतेत्यादिसर्वोदाहरणेषु 'हशिटोनाम्यु० ॥३४॥५५॥ सूत्रात्सक, 'दुहदिह० ।४।३।७४। सूत्राद् वा सको लुग्, 'भ्वादे-. . दिर्घः' ।२।१।८३॥ सूत्रात् दुहदिहयोःहस्य घः लिहगुहयोः हस्य हो धुट. ।२।१२। सूत्रात् ढः, सकि सति 'गडदबादेः० ।२।१।७७॥ सूत्रात् दस्य धः, गस्य घः, सर्वत्र प्रत्ययतथोर्धकारः, 'तवर्गस्य० ।१।३।६०। सूत्रात् धस्य ढः, 'ढस्तड्ढे ।१।३।४२। सूत्रात् ढलोपः, उपान्त्यस्य दीर्घः, 'अघोषे प्रथमोऽ. ।१।३।५०।सूत्रात् घस्य क्, 'नाम्यन्तस्था० ।२।३।१५। सूत्रात् सस्य षकारः। . अधुक्षामहि-मकारो न दन्त्यः, अपि तु ओष्ठ्यः ।।७४।। स्वरेतः ।४।३७५॥ सकोऽस्य स्वरादौ प्रत्यये लुक् स्यात् । अधुक्षाताम् ।।७।। अधुलाताम्-सकोऽकारलोपात् 'आतामाते० ।४।२।१२१। सूत्रादित्वम् अवर्णस्ये०।१।२।६। सूत्रादेत्वं च न भवति ॥७५।। दरिद्रोऽद्यतन्यां वा ।४।३।७६। दरिद्रोऽद्यतन्यां विषये लुग्वा स्यात् । अदरिद्रीत्, अदरिद्रासीत् ॥७६॥ अदरिद्रीत्-दरिद्रा, अद्यतनीदि, सिच, ईत्, विषयव्याख्यानात् ‘आदेशादागमो बलवानिति न्यायात् पूर्व 'यमिरमि' ।४।४।१६। सूत्रेत्र इट् सोऽन्तश्च न भवति इति हेतोः पूर्व विकल्पेन दरिद्र आकार लोपः पक्षे इट् सोन्तश्च, 'इट ईति ।४।३।७१। सूत्रात् सिज्लोपः ॥७६॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६६ ] अशित्यस्सन् कणकार्नाटि | ४ | ३ |७७ | सादिसन्नादिदर्जे अशिति विषये दरिद्रो लुग् स्यात् । दुर्दरिद्रम्, • अशितीति किम् ? दरिद्राति, सन्नादिवर्जनं किम् ? दिदरिद्रासति, दरिद्रायको याति, दरिद्रायकः, दरिद्राणम् ॥७७॥ विषयसप्तमीविज्ञानात् पूर्वमेवाकारलोपे दुर्दरिद्रमित्यत्र 'शासू-युधिदृशि० | ५|३ | ४१| सूत्रादाकारान्मलक्षणोऽनो न भवति । 'इवृध० |४|४ |४७ सूत्रेण दरिद्रो वेदत्वात् इटि सति “इटेत्पुसि० | ४ | ३ | ६४ | सूत्रादाल्लुकि दिदरिद्रिषतीति भवति । इदुभावेऽनेन लुक् स्यादतः सन्वर्जनम् । ननु सादिः सन्नितिविशेषणेन किम् इट्सत्त्वे तु 'इडेत्पुसि० | ४ | ३६ | सूत्रं प्रवर्तते इति चेन्न सादिसन्निति विशेषणाभावे विशिष्टकथनत्वेनानेन सेटि सत्यपि आकारलोपनिषेधः स्यात् ॥७७॥ व्यञ्जनाद्द: सश्च दः | ४ | ३ | ७८ ॥ धातोव्यञ्जनात्परस्य लुक् स्यात् यथासम्भवं धातो सो दश्च । अचकात्, अजागः, अबिभः, अन्वशात् । व्यञ्जनादिति किम् ? अयात् ॥ ७८ ॥ अचकादित्यादिषु क्रमेण चकास्, जागृ, भृ, शास् धातवः । अत्र व्यञ्जनादिति भणनान् दिः ह्यस्तन्या एव संभवति । धातोरित्येव - अभैत्सीत् । अत्र इतः परादित्वेन सेतोऽपि देर्लुक् प्राप्नोति इति प्रतिषेधः । अत्र सिचः परो दिः, न धातोः परः इति न लुक् ॥ ७८ ॥ से: स्द्धां च रुर्वा | ४|३|७६ । व्यञ्जनान्ताद् धातोः परस्य सेलुक् स्यात् यथासम्भवं सदधां च Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) रुश्च । अचकास्त्वम्, अचकात्त्वम् । अभिनस्त्वम् । अरुणस्त्वम्। अरुणत्त्वम् ॥७६ । पूर्वसूत्रे मस्तनीदिः गृहीतः तत्साहचर्यात् अर्थात् तत्प्रत्यासत्तेः अत्र सूत्रेपि सिः ह्यस्तनीसम्बन्ध्येव गृह्यते तेन 'भिनत्सि' इत्यत्र लुग् न भवति । रोरुवित्करणमुत्त्वादिकार्यम् यथा स्यादित्येवमर्थम् तेन 'अभिनोऽत्र, अरुणोऽत्र' इत्यत्र 'अतोऽति रोरुः ।।१३।२०। सत्रेण उत्वं सिद्धम् 'उत्त्वा- . दिकार्ये' आदिशब्दात् ‘रोय:' ।१।३।२६। इत्यादि कार्य ग्राह्यम् ।।७।। योऽशिति ।४।३।८०॥ धातोयंजनान्तात्परस्य योऽशिति प्रत्यये लुक् स्वात् । जङ्गमिता । व्यञ्जनादित्येव-लोलयिता । अशितीति किम् ? बेभिद्यते ॥५०॥ अनेन सूत्रेण 'य' इति स्वरहीनो लुप्यते, न तु सस्वरो यकारः । यदि सस्वरस्य यकारस्य लुक् स्यात्, तदा जङ्गमितः' इत्यादी 'गमहन० ।४।२।४४। सूत्रादुपान्त्यलोपः स्यात् । स्थिते तु अस्य व्यवधायकत्वम् । अन्ये तु लाक्षणिकव्यञ्जनान्तेभ्यो यलोपं नेच्छन्ति, तन्मतसंग्रहार्थं व्यञ्जनान्ताद्धातोविहितस्येति विहितविशेषणं कार्यम् । 'किङति यि शय् ।४।३।१०५। सूत्रेण शय आदेशः ।।८०।। क्यो वा ।४।३।८१ धातोर्यञ्जनात्परस्य क्योऽशिति प्रत्यये लु ग्वा स्यात् । समिघिष्यति, समिध्यिष्यति । दृषदिष्यते, दृषधिष्यते ॥१॥ 'क्यो वा' इति सामान्यनिर्देशात् क्यन्क्यङोर्ग्रहणम्, क्यक्षस्तु व्यञ्जनान्तात्प्राप्तिरेव नास्ति । समिधमिच्छतीति क्यन् । दृषदिवाचरतीति क्यङ् । क्य इति ब्यञ्जनात्षष्ठी अतो लुकि कृते लुगा । अन्यथा हि अतो Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) • लुगपवादः क्यलुग विज्ञायेत एवं पूर्वत्रापि । अकाररहितस्य क्यस्य लुचः फलमिदं ज्ञातव्यम्-अवध्वंसमिच्छतीति क्यनि क्तप्रत्यये अवघ्वंसित इत्यत्र 'अतः ।४।३।२। सूत्रादकारलोपस्य स्थानिवद्भवात् 'नो व्यञ्जनस्या० ।४।२।४५। सूत्रात्, नस्य न लोपः । सस्वरस्य तु क्यनो लोपे स्वरव्यञ्जनविधित्वात् समुदायलोपात् 'स्वरस्य परे०७।४।११०। सूत्रात्स्थानिवद्भावाभावात् नस्य लुक् स्यादेव ॥१॥ अतः।४।३।१२। अदन्ताद् धातोबिहितेऽशिति प्रत्यये धातोरतो ल क स्यात् । कथयति । विहितविशेषणं किम् ? गतः ॥१२॥ 'कथण वाक्यप्रबन्धे' अदन्तो धातुः ॥२॥ णेरनिटि ।४।३।८३। . अनिट्यशिति प्रत्यये फलक स्यात् । अततक्षत, चेतनः । अनिटीति किम् ? कारयिता ॥३॥ अनिटीत्यत्र विषयसप्तम्यपि तेन चेतयते इत्येवं शीलः चेतनः इत्यत्र प्रागेव, गेलोपे 'इङितो व्यञ्जनाद्यन्तात्' ।५।२।४४। सूत्रेण अनः सिद्धः अन्यथाऽनेक· स्वरत्वात् चेतेः परो निन्दहिंसक्लिश० ।५।२।६८। सूत्रेण णकः स्यात् ।।३।। सेटक्तयोः ।४।३।८४। सेटोः क्तयोः परयोर्णलक स्यात् । कारितः, गणितवान् ॥४॥ सेडिति किमर्थम् ? इटि कृते लोपो यथा स्यात् । शाकितः, शाकितवान् । अन्यथेह ‘एकस्वरादनुस्वारेतः ।४।४।५६ सूत्रात् निषेधात् इड् न स्यात् । न च एकस्वराद् विहिताभावादेव इडिनषेधो न भविष्यतीति वाच्यं विषय Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) एक णिलोपापेक्षयेदमुक्तम् ।।८४॥ आमन्ताल्वाय्येत्नावय ।४।३।८५॥ एषु परेषु णेरय स्यात् । कारयाञ्चकार, गण्डयन्तः, स्पृहयालुः, महयाय्यः, स्तनयित्नुः ॥८॥ लुचोऽपवादः । गडु वदनैकदेशे 'उदितः स्वरान्नोन्त: ।४।४।६८। सूत्रात् नोन्तः । गण्डयतात् इत्याशास्यमानः इति वाक्ये 'तृ जिभूवदि० । उणा० २२१ सूत्रेण अन्तप्रत्ययः । स्पृहयतीत्येवं शीलः ‘शीङ्-श्रद्धा० ।५।२॥३७॥ सूत्रादालुः । महण् पूजायायाम् (अदन्तो धातुः) मह्यन्ते देवता गुरवः च अस्मिन् इति 'श्रुदक्षिगृहि० उणा० ।३७३। सूत्रेण आय्यप्रत्ययः । स्तन शब्दे, णिग्, हृषिपुणि० उ० ॥७६७। सूत्रेण इत्नुप्रत्ययः ५८५।। .. लघोर्यपि ।४।३।८६॥ लघोः परस्य र्यप्यय स्यात् । प्रशमय्य । लघोरिति किम् ? प्रतिपाद्य ॥८६॥ वचनसामर्थ्यादेकेन वर्णन व्यवधानमाश्रीयते न तु भूतपूर्वन्यायः, अत इति अकरणात् । अये भाव: चुराद्यन्तेषु यद्यपि अनन्तरमकारो भूतपूर्वगत्या सम्भवति तथा सति 'अतो यपि' इत्येव सूत्रकरणं शोभनम् अत एवलघोरिति विधानसामर्थ्यादेकेन वर्णन व्यवधानमाश्रीयते ।८६॥ वाऽऽप्नोः ।४।३।८७॥ आप्नोः परस्य र्यप्यय वा स्यात् । प्रापय्य, प्राप्य । आप्नोरिति किम् ? अध्याप्य ॥७॥ श्न निर्देशात् इङादेशस्य न भवति अध्याप्येति । इङ अध्ययने अधिपूर्वः Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३ ) अधीयानं प्रयुङ्क्ते इति 'प्रयोक्तृ० ।३।४।२०। सूत्रात्, णिग्, ‘णौ क्रीजीङः ।४।२।१०। सूत्रादिकारस्य आकारः, अतिरीव्ली०।४।२।२१। सूत्रात् पोन्तः इति । अत्र आप् लाक्षणिकः । 'आप्लण लम्भने इत्यस्यापीच्छन्त्यन्ये ।।८७॥ मेडो वा मित् ।४।३।८८ मेङो यपि मिद वा स्यात् । अपमित्य, अपमाय ॥८॥ अत्र मिरादेशेपि 'ह्रस्वस्य तः०।४।४।११३। सूत्रात् तान्तः सिध्यति,लाघवार्थ तु मिदादेशः । अपमातु याचते इति 'निमील्या० ।५।४।४६। सूत्रेण क्त्वाप्रत्ययः । मेङ् प्रतिदाने इति मेङ् धातु ॥८॥ क्षेः क्षीः ।४।३।८। क्षेर्यपि क्षीः स्यात् । प्रक्षीय ॥८६॥ क्षि क्षये स्वादिः । निरनुबन्धनिर्देशात् क्षिश् हिमायामित्येतस्य ग्रहणं न भवति, पूर्वाचार्यप्रसिद्धानुबन्धग्रहणाच्च क्षित्, निवासे इत्यस्य ग्रहणम् ।।८।। क्षय्यजय्यौ शक्तौ ।४।३।६।। क्षिज्योन्तस्य शक्तौ गम्यायां ये प्रत्ययेऽय् निपात्यये । क्षय्यो व्याधिः, जय्यः शत्रुः । शक्ताविति किम् ? क्षेयं पापम्, जेयं मनः ॥६० क्षेतु शक्यः क्षय्यो व्याधिः । जेतुं शक्यः जय्यः शत्र : । 'य एच्चातः ।५।१।२८।, शक्तार्हे कृत्याश्च ।५।४।३५। इति । अहँ तु क्षेयम्, जेयम्, ॥६०॥ क्रय्यः क्रयार्थे ।४।३।६१॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ( २०४ ) किषोsन्तस्य ये प्रत्ययेऽय् निपात्यते । क्रयाय चेत्प्रसारितोऽर्थः । क्रय्यो गौः । क्रयार्थ इति किम् ? क्रेयं ते धान्यं न चास्ति प्रसारितम् ॥१॥ धातूनामनेकार्थत्वात्प्रसारितेऽर्थेत्र क्रीधातुः । क्रय्यो गौरिति = जनाः क्रीणन्तु इति विचारेण हट्टे चत्वरे वा प्रसारिता गौरित्यर्थः ||१|| सस्तः स |४ | ३ |२| धातोः सन्तस्याऽशिति सादौ प्रत्यये विषयभूते तः स्यात् । वत्स्यति । सः इति किम् ? यक्षीष्ट । सीति किम् ? वसिषीष्ट । ॥ ६२ ॥ विषयसत्तमीविज्ञानात् अवात्ताम्, अवात्त इत्यत्त्र प्रागेव सस्य तः । पश्चात्, सिच्, सिचो लुच्यपि वृद्धिर्भवति । ' घुड्हस्वा० | ४ | ३ |७० | सूत्रे बंधिकारे लुग्ग्रहणं सिचो लुक्यपि स्थानित्वेन तत्कार्यप्रतिपत्त्यर्थत्वात् । ननु सिचो लुच्यपि स्थानित्वात् तो भविष्यति इति न च वाच्यम्, यतः सकारे तकार उक्तः, सस्य च वर्णविधित्वात्, वर्णविधौ च स्थानिवद्भावाभावात्, वर्णविधौ स्वरादेशस्य स्थानित्वं भवति न तु व्यञ्जनादेशस्य ॥। ६२ ।। दीय् दीङ: क्ङिति स्वरे | ४ | ३ | ३ | दीङ: क्ङिति अशिति स्वरे दीय् स्यात् । उपदिदीयते । क्ङितीति किम् ? उपदानम् । स्वर इति किम् ? उयदेदीयते ॥ ६३ ॥ दीच क्षये । परोक्षायामिति सिद्धे क्ङिति स्वरे इत्युत्तरार्थम् । दीङो ङित्करणं यङ्लुब्निवृत्त्यर्थम् । उपदेदीयते - अत्र यङ् ॥६३॥ इत्पुसि चातो लुक् | ४ | ३ |६४ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) विडत्यशिति स्वरे इटि इति पुसि च परे आदन्तस्य धातोलक स्यात्। पपु, अदधत्। पपिथ, व्यतिरे, अदुः॥१४॥ अक्ङि दर्थं शिदर्थं चेडादिग्रहणम् । अदधत्-'ट्धेश्वेर्वा । ३।४।५६। सूत्रात् ङ। व्यतिरे-रांक दाने, वर्तमाना ए । अदु:- दा, अद्यतनी अन् ।। १४ ।। संयोगादेर्वा-शिष्यः ।४।३॥१५॥ धातोः संयोगादेशदन्तस्य विडत्याशिषि एव' स्यात् । ग्लेयात्, ग्लायात् । संयोगादेरिति किम् ? यायात् । क्ङितीत्येव ग्लासीष्ट ॥६५॥ अपच्छायादित्यत्र तु छकारस्य द्वित्वे सति लाक्षणिकत्वान्न भवति ।।१५।। गापास्थासादामाहाक: ४।३।६६। एषां ङित्याशिष्येः स्यात् । गेयात्, पेयात्, स्थयात्, अवसेयात्, देयात्, धेयात्, मेयात्, हेयात् ॥१६॥ - शब्दे (इति गा) न तु गाङ् गतौ आत्मनेपदित्वात्विङत्याशिषि असंभवात् । तथा गास्थामध्ये पाठात् भ्वादेरेव पं पा' इत्येतयोः पाशव्देन ग्रहणम् आदादिक-पांक रक्षणे इत्यस्य पायादित्येव । षोंच अन्तकर्मणि अथवा से क्षये उभावपि साशब्देन ग्राह्यौ। मैं इत्यस्य लाक्षणिकत्वान्नेच्छत्यन्ये । दासंज्ञकाः सर्वेऽपि ग्राह्याः । माशब्देन 'मांक माने, मांङ् मानशब्दयोः, मेंड् प्रतिदाने' इति त्रयोऽप्यत्र । ओहांक त्यागे इत्यस्यैव एत्वम्, न तु ओहांङक गती इत्यस्य, सूत्रे' हाक्' इति पाठात् । तथा गाङ–माङ --मेङां यङ्लुबन्तानामपि एत्वम्, अन्यथा गाङ्-माङ्-मेङामात्मनेपदित्वात्किदाशीन संभवति, यङो लुपि च परस्मैपदिन एते । हाक: ककारो यङो लपि एत्वनिषेधाय । शेषाणां गापास्थासादामानां यङो लुप्यपि एत्वं भवति ॥६६॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) ईय॑जनेऽयपि ।३।३।६७। गादेर्यब्वर्जे विङत्याशिषि व्यञ्जनादावीः स्यात् । गीयते, जेगीयते, पोयते, स्थीयते, अवसीयते, दीयते, धीयते, मीयते, हीनः । व्यञ्जन इति किम् ? तस्थुः । अयपीति किम् ? प्रगाय । ॥ ९७ ॥ स्वरादी विङति परे 'इडत्पुसि० ।४।३।६४। सूत्रात् अन्तलोपविधानात् व्यञ्जनादी लब्धेऽपि 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि ।४।३।१७। इत्यत्र व्यञ्जनग्रहणं साक्षाद् व्यञ्जनप्रतिपत्त्यर्थम् तेन विप्लुकि स्थनिवद्भावेनापि न भवतिशंस्थाः पुमान् । शं सुखं तत्र तिष्ठतीति 'शमो नाम्न्यः ।५।१।१३४। इत्यप्रत्ययापवादे 'स्थापा० ।५।१।१४२। इति के प्राप्तेऽसरूपत्वात्क्विा । शंस्थाशब्दादन्यत्र लुप्तव्यञ्जनेऽपीच्छन्त्येके । होन:-'सूयत्याद्यो० ।४।२।७० स्त्रात् तो नः, सूत्रे हाक इति भणनात् हाङो न भवति ॥१७॥ धामोर्यङिः ।४।३।। ध्राध्मोर्यङि ई: स्यात् । जेघ्रीयते, देध्मीयते ॥६ यङो लोपे कृते 'घ्राध्मोर्य ङि' ।४।३।६८। इत्यनेन ईकारो न भवति । केचिद् यङो लुप्यपि इच्छन्ति ॥६॥ हनो नीर्वधे ।४।२।। हन्तेर्वधार्थस्य यङि घ्नीः स्यात् । जेनीयते । वध इति किम् ? गतौ-जङ्घन्यते ॥६६॥ दीर्घनिर्देशात् यङ्लुप्यपि नीरादेशः । यदि पूर्वसूत्रवद् यङयेव स्यात्तदा निरित्येव कुर्यात् “दीर्घश्च्चि० ।४।३।१०८। सूत्राद् दीर्घसिद्धेः । जंघन्यते'अ हि०।४।१।३४। सूज्ञात् हो घः ॥६६॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( २०७ ) .णिति घात् ।४।३।१००। मिति णिति च परे हन्तेर्घात्स्यात् । घातः, घातयति ॥१०॥ हनं हिंसागत्योः ॥१०॥ जिणवि घन् ।४।३।१०१॥ औ गवि च परे हन्तेर्घन् स्यात् । अघानि, जघान ॥१०१।। 'अड़ें हिहनो० ।४।१।३४। सूत्रेणैव सिद्धे 'त्रिणवि घन् ।४।३।१०१। इति प्रकृतसूत्रे णवग्रहणं घातादेशबाधनार्थम् ॥१०॥ नशेर्नेश् वाङि ।४।३।१०२॥ - नशेरङि नेश वा स्यात् । अनेशत् अनशत् ॥१०॥ 'लदिद्युतादि० ।३।४।६४। सूत्रेण नशधातोः पुष्यादित्वादङ् ॥१०२।। .. . श्वयत्यसवचपतः श्वास्थवोचपप्तम् ।४।३।१०३। एषामङि यथासंख्यं श्वादयः स्युः। अश्वत्, आस्थत्, अवोचत्, अपप्तत् ॥१०॥ ट्धे-श्वेर्वा ।३।४।५६। सूत्रादङि अश्वत् । श्वयतेस्तिनिर्देशो यङो लुपि निवृत्त्यर्थः । अवोचत्-वच ब्रूग वा । अपप्तत्-पप्लु गतौ 'लदियतादि० ।३।४।६४। सूत्रादङ् । अस्वच्पतां यङो लुपि मूलसदृशप्रयोगा एव ।।१०३॥ शोङ ए: शिति ।४।३।१०४॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) शोङः शीत्येः स्यात् । शेते ॥१०४॥ डिन्निर्देशाद्यडो लुपि न एकारः ॥१०४॥ विङति यि शय ।४।३।१०। शोङः विङति यादौ शय् स्यात् । शय्यते, शाशय्यते । क्डिन्तीति किम् ? शेयम् ॥१०॥ यत्रो लुपि न शयादेशः ।।१०५॥ उपसर्गादूहो ह्रस्वः ।४।३।१०६॥ . उनसर्गात्परस्योहतेख्तः विङति यादौ परे ह्रस्दः स्यात् । समुह्यते। उपसर्गादिति विम् ? ऊह्यते । यीत्येव-समूहितम् । ऊ ऊह इति प्रश्लेषः किम् ? आ ऊह्यते, ओह्यते, र मोह्यते । ॥१०६॥ ओहते-आ+ऊह्यते इत्यत्र आङपूर्वः ऊहधातुः, क्यः, ते 'उपसर्गा-दहो ह्रस्वः, 'अवर्णस्येवर्णादि० ।१।२।६। सूत्रेत्र ‘ओत्वे कृते 'उभयस्थाननिष्पन्नोऽन्यतरव्यपदेशभाक 'इति ‘एकदेशविकृतमनन्यवद्' इति न्यायात वा ह्रस्वः प्राप्नोति इति ऊ ऊह इति प्रश्लेषः कृतः ।।१०६।। आशिषीणः ।४।३।१०७॥ उपसर्गात्परस्येणः ईतः विङति यादावाशिषि ह्रस्वः स्यात् । . उदियात् । ई ईण इति प्रश्लेषः किम् ? आ इयात् एयात् । समेयात् ॥१०७॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) उत्तरेण दीर्घत्वेऽनेन ह्रस्वः । ई इण इति ईकारप्रश्लेषात् एयात समेयात् इत्यत्र न भवति ॥१०७॥ दीर्घश्च्वियङ्यक्क्येषु च ।४।३।१०८। एषु यादावाशिषि च दीर्घः स्यात् । शुचीकरोति, तोष्ट्रयते, मन्तूयति, दधीयति, भृशायते, लोहितायते, स्तूयते, ईयात् ॥१०॥ चिक्यानां ग्रहणादधातोरप्ययं विधिः । बहुवचनात् क्यशब्देन क्यन्क्यङ्क्यक्यानामविशेषेण ग्रहणमन्यथैकानुबन्धस्यैव क्यस्य ग्रहणं स्यात् । शुचीकरोति-व्यन्तस्य 'ऊर्याद्य० ।३।१।२ सूत्राद् गतिसंज्ञा, 'गतिः' ।१।।३६। सूत्राद् गतिसंज्ञमव्ययम्, 'अव्ययस्य।३।२।७।सूत्रात् सेलुप् । मन्तूयति धातोः कण्डवादेर्यक् ।३।४।८सूत्राद् यक् । दधीत्यत्र क्यन् । भृशायतेअत्र क्यङ् । लोहितायते-अत्र क्यङछ् । स्तूयते-अत्र क्यः । स्तूयात्-अत्र यादिराशीः ।।१०८॥ . ऋतो री: ।४।३।१०६। च्च्यादौ परे ऋदन्तस्य ऋतः स्थाने रीः स्यात् । पित्रोस्यात्, चेनीयते, मात्रीयते, पित्रीयते । ऋत इति किम् ? चेकीर्यते ... ॥१०॥ धातोरधातोरयं विधिः । चेकीर्यते-कृत् विक्षेपे ॥१०६।। रिः शक्याशीयें ।४।३।११०॥ ऋदन्तस्यः धातोः ऋतः शे, क्ये, आशीर्ये च परे रिः स्यात्। व्याव्याप्रियते, क्रियते, ह्रियता ॥११०॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २१० ) ह्रस्वविधानात्पूर्वेण दीर्घत्वं न भवति । यदि 'दीर्घश्वि० ।४।३।१०। सत्रेण दीर्घः स्यात् तदा रिविधानं व्यर्थ स्यात् 'ऋतो रीः ।४।३।१०६। सूत्रेणैव सिद्धः । तुदादेः शः ।३।४।८१॥ अथवा 'कृगः शःच वा ।५।३।१०० इत्यर्थ । शो ज्ञयः ॥११०॥ ईश्च्वावर्णस्याऽनव्यस्य ।४।३।१११॥ अनव्ययस्यावर्णान्तस्य च्वावीः स्यात् । शुक्लीस्यात् , मालीस्यात् । अनव्ययस्येति किम् ? दिवाभूता रात्रिः ॥१११॥ दीर्घत्वापवादो योगः ॥११॥ क्यनि ।४।३।११२। अवर्णान्तस्य क्यनि ई: स्यात् । पुत्रीयति, मालीयति॥११२॥ योगविभागः उत्तरार्थः । अनव्ययस्येति निवृत्तम् अव्ययात्क्यनोऽभावात् 'अमाव्ययात् क्यन् च ।३।४।११२। सूत्रात् ॥११२॥ . क्षुत्तुगद्धेऽशनायोदन्यधनायम् ।४।३।११३। एष्वर्थेषु यथासंरव्यमशनादयः क्यन्नता निपात्यन्ते। अशनायति, उदन्यति, धनायति । क्षुदादाविति किम् ? अशनीयति, उदकीयति, धनीयति दातुम् ॥११३॥ अशनमिच्छति=अशनायति 'अमाव्ययात् क्यन् च । ३।४।२३। सूत्रात् क्यन्, क्षुधि गम्यमानायामशनशब्दस्य आत्वम् । उदकमिच्छति-तृषि गम्यमानायामुदकशब्दस्य 'उदन्' इत्यादेशः । गद्धे वाञ्छायां गम्यमाने धनशब्दस्य आत्त्वं निपात्यतेः धनमिच्छति=धनायति । धनीयति दातुमिति-अत्र दानबुद्धया (दातु) धनमिच्छतीति नात्र गृद्धिः ॥११३॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) वृषश्वान्मैथुने स्सोऽन्तः ।४।३।११४॥ आभ्यां मैथुनार्थाभ्यां क्यनि स्सान्तः स्यात् । वृषस्यति गौः, अश्वस्यति वडवा। जैथुन इति किम् ? वृषीयति, अश्वीयति ब्राह्मणी ॥११४॥ सूत्रे ‘स्स' इति द्विसकारनिर्देशः षत्वनिषेधार्थः, तेनोत्तरत्र दधिस्यति' इत्यत्र षत्वं न भवति । ननु ‘सर्पिष्ष्यति' इत्यत्रोत्तरेण सागमे तस्य षत्वं दृश्यते नत्कयम् ‘सस्य शषौ ।१।३।६१। सूत्राद् भवति ।।११४॥ अस् च लौल्ये ।४।३।११५॥ भोगेच्छातिरेको लौल्यं तत्र गम्ये क्यनि परे नाम्नः स्सोऽस् चान्तः स्यात् । दधिस्यति, दध्यस्यति । लोल्य इति किम् ? क्षोरीयति दातुम् ॥११५॥ दधि भक्षितु--मिन्छति दधिस्यति, दध्यस्यति । अस्विधानमनकारान्तार्थम् । अकारान्तेषु हि 'लुगस्या० ।२।४।११२ सूत्रात् लुकि सति विशेषो नास्ति, अन्यस्तु लुचममन्यमानः क्षीरास्यति, इत्युदाहरति, तच्च न बहुसम्मतम् ।।११।। ___ "इति चतुर्थाध्याये तृतीय पादः" "हम भगवान का शासन बराबर बोले और आप समझो यह ही 'रचनात्मक कार्य है। आपको समझना नहीं और हमको वोलना नहीं यह 'ढोंगात्मक कार्य है। हम संस्था स्थापकर तुम्हारा पोषण करें यह हमारा धंधा नहीं है । साधु को पतित मत बनाओ। प० पू० अनेकान्ताभासतिमिरतरणि, कलिकालकल्पतरु आचार्य देव श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अथ चतुर्थाध्याये चतुर्थः पादः की अस्तिब्रुवो वचाव-शिति ।४।४।१॥ अस्तिब्र वोर्यथासंख्यं भूवचौ स्याताम्, अशिति विषये । भव्यम्, अवोचत् । अशितोति किम् ? स्यात्, ब्रूते ॥१॥ अस्तीति निर्देशान् ‘असूच क्षेपणे,' इत्यस्यतेः, असी गत्यादानयोश्च इत्यसतेन भ्वादेशः । भव्यम्-अत्र विषयसप्तमीबलात् पूर्वमस्ते'. : इत्यादेशः, तदनन्तरं 'य एच्चातः' ।५।१।२८। सूत्रात् यप्रत्ययः सिद्धः । अन्यथा भव्यम्' इति न सिध्येत् । यद्वा 'भव्यगेय० ।५।१७। सूत्रात्कर्तरि निपातनम् । 'भू सत्तायाम्, वचंक् परिभाषणे' इत्येताभ्यां सिध्यति । किमस्तिब्रुवोर्भू बचादेशविधानम् ? सत्यम्-धात्वन्तरेणैव सिद्धेऽस्तिब्रुवोरशिति प्रयोगनिवृत्त्यर्थं वचनम् ब्रूगादेशस्य फलवत्यात्मनेपदार्थं च । अन्यथा वचं भाषणे इत्यस्य परमैपदित्वात्परस्मैपदमेव स्यात् ॥ कासामासेत्यादौ तु अनुप्रयोगे कृभ्वस्तीनां निर्देशात् अस्तेर्वादेशो न भवति, अन्यथा कृभ्वोरिति द्वयोरेवोपादानं कुर्यात् ।।१। अघक्यबलच्यजेवौं ।४।४।२॥ अघजादावशिति विषये अजेवौं स्यात् । प्रवेयम् । अघक्यबलचीति किम् ? समाजः, समज्या, उदजः, अजः पशुः ॥२॥ अनुस्वारेत्करणमिडभावार्थम् । प्रवेयमित्यत्र-विषयविज्ञानात्प्रागेवादेशे यप्रत्ययः । समाजः (घत्र), समज्या=समजति अस्यामिति समज्या सभा 'समज० ५।३।९८। सत्रात्क्यप् । उदजः 'समुदोऽजः पशौ ।५।३।३०। सत्रादल । उदजः= पशूनां रणमित्यर्थः । अजतीति-अजः ॥२॥ . त्रने वा ।४।४।३। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) त्रनयोविषयभूतयोरजेवौं वा स्यात् । प्रवेता, प्राजिता. प्रवयणः, प्राजनो दण्डः ॥३॥ प्राज्यतेऽनेनेति प्रवयणः, प्राजनो दण्ड: ‘करणाधारे० ॥५॥३१२६। ... स्नादनट ॥३३॥ चक्षो वाचि क्शांग ख्यांग ।४।४।४। चक्षो वागर्थस्याशिति विषये क्शांग-ख्यांगौ स्याताम् । आक्शास्यति । आक्शास्यते । आख्यास्यति । आख्यास्यते । आक्शेयम्, आख्येयम् । वाचीति किम् बोधे-विचक्षणः॥४॥ गकारः फलवद्विवक्षायामात्मनेपदार्थस्तेन स्थानिवद्भावेन नित्यमात्मनेपदं न भवति । अनुस्वारेत्करणमिडभावार्थम् । विषयसप्तमीविज्ञानात आक्शेयम्, आख्येयम् । आक्शास्यति–'शिट्याद्यस्य द्वितीयो वा ।१।३।५९॥ सत्रात् ककारस्य खकारे आख्शास्यति एवं आक्शास्यते इव्यत्रापि । विचष्टे इति विचक्षणः 'नन्द्यादिभ्योऽनः । ५।११५२। सूत्रादनप्रन्ययः ॥४॥ नवा परोक्षायाम् ।४।४।। ''चक्षो वाचि क्शांग्ख्यांगौ परोक्षायां वा स्याताम् । आचक्शौ। . आचख्यौ । आचचक्षे ॥५॥ एवम् आचख्शो इत्यपि ॥५॥ भृज्जो भर्ज ।४।४।६। भृज्जतेरशिति भज् वा स्यात् । भर्खा । भ्रष्टा ॥६॥ भा, भ्रष्टा-'संयोगस्यादौ स्कोर्लुक् ।।१।८८। सूत्रेण सलोपः, Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) 'यजसृज० ।२।१।८७। सूत्रात जस्य ष् । लुप्ततिनिर्देशो यङ्लुब्निवृत्त्यर्थः । लुप्ततिन्निर्देशरूपानुकरणे ‘सस्य शषौ ।१।३।६१। सूत्रात् सस्य शत्वे, 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे । १।३।४९। 'ग्रहबश्च०।४।१।८४। सूत्रात् य्वृत् ॥६॥ प्राद् दागस्तआरम्भे त ।४।४७। आरम्भार्थस्य प्रपूर्वस्य दागः क्ते परे तो वा स्यात् । प्रत्तः । प्रदत्तः । प्रादिति किम् ? परीत्तम् । दागः-डुदांग्क दाने इति एकस्यैव दागः स्थाने त्तादेशः, नान्येषां दासंज्ञकानामित्यर्थः । त्त इत्यत्र अकार उच्चारणार्थः । प्रत्त:--प्रपूर्वक-दा, दातुं प्रारब्धवान् प्रत्तः, 'आरम्भे ।५।१।१०। सत्रेण क्तः । सूत्रे द्वितकार: 'त्त' इत्यादेशः प्रक्रियालाघवाय अर्थात साघनिकाप्रयासोत्तारणाय कृतः अन्यथा, धात्वाकारस्य स्थाने त इत्यादेशे कृते 'अघोष प्रथमोऽशिटः ।१।३। सूत्रेण 'द्' इत्यस्य त् स्यात्तथासति इष्टं सेत्स्यति स्म । प्रदत्तः–'दत् ४।४।१०। सूत्रात् 'दत्' इत्यादेशः । परोत्तम्-परिदीयते स्म इति क्तः 'स्वरादु० ।४।४।६। सूत्रान्नित्यं तादेशः 'धुटो धुटि स्वे वा ।१।३।४८। सूत्रेण तकारत्रयमध्यात् मध्यमतकारस्य लुक्, 'दस्ति ।३।२।८८। सूत्रेण 'परि' इत्यत्र दीर्घ: । द्वितकारादेशः सर्वादेशार्थः । अन्यथा 'षष्ठ्याऽन्यस्य १७।४।१०६। सूत्रं प्रवर्तेत ॥७॥ नि-वि-सु-अनु-अवात् ।।४।। एभ्यः परस्य दागः क्ते त्तो वा स्यात् । नीत्तम्, निदत्तम्, वोत्तम्, विदत्तम् । सूत्तम्, सुदत्तम् । अनूदत्तम्, अनुदत्तम् । अवत्तम्, अवदत्तम् ॥८॥ उत्तरेण नित्यं त्तादेशे प्राप्ते विभाषेयम् नीत्तम्-'दस्ति ।३।२।८८1. सूत्रेण दीर्घः, एवमग्रेपि । निदत्तम्-'दत् ।४।४।१०। सूत्रेण ददादेशः ।।८॥ . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१५ ) ‘स्वरादुपसर्गाद् दस्ति कित्यधः ।४।४।६। स्वरान्तादुपसर्गात् परस्य धावर्जस्य दासंज्ञस्य तादौ किति तो नित्यं स्यात् । प्रत्तः, परीत्रिमम् । उपसर्गादिति किम् ? दधि दत्तम् । स्वरादिति किम् ? निर्दत्तम् । द इति किम् ? प्रदाता व्रीहयः । तीति किम् ? प्रदाय । अध इति किम् ? निधीतः ॥६॥ पृथग्योगाद् वेति निवृत्तम् । प्रदातुमारब्धवान् ‘आरम्भे' ।५।१।१०। सूत्रेण प्रदीयते स्मेति वा क्त प्रत्तः, 'स्वरादुपसर्गाद्दस्ति कित्यध: ।४।४।६। सूत्रात् · दास्थाने 'त' आदेशः, 'धुटो धुटि स्वे वा ।।३।४८॥ सूत्रात् तकारत्रयमध्यातू मध्यमतकारस्य विकल्पेन लुक्, लुगभावे प्रत्तः इत्यपि । परीस्विमम्-इत्यत्र परि+दा, परिदानेन निर्वृत्तम् परित्त्रिमम्, 'वितस्त्रिमा० ।५।३।८४। सूत्रात् त्रिमक् । प्रदाताः वोहयः-अत्र दांवक् लवने धातुः, अस्य दासंज्ञाभावान्न भवति । निधीत इति–अत्र धेधातुज्ञेयः न तु धाग्धातुः । धाग्धातोस्तु 'धागः ।४।४।१५। सूत्रात् हिरादेशः स्यात् । 'निधीत' इत्यत्र 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि ।४।३।६७। सूत्रादीकारः। 'दो-सोमा-स्थ इ: ।४।४।११। इत्यस्य परत्वेपि 'स्वरादु० ।४।४।६। इति विशेषविधानबलात् द्यतेरपि उपासर्गपूर्वकस्य त्तादेश एव भवति ॥६॥ दत् ।४।४।१०। अधो दासंज्ञस्य तादौ किति दत् स्यात् । दत्तः दत्तिः । अध इत्येवधीतः ॥१०॥ द्यतेः परत्वादित्त्वम् ॥१०॥ दो-सो-मा-स्थः ।४।४।११। एषां तादौ किति इ: स्यात् । निर्दितः, सित्वा, मितिः, Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) स्थितवान् ॥११॥ छतेर्द द्वावस्य शेषाणामीत्त्वस्यापवादः । 'मामादाग्रहणेष्वविशेषः' न्यायेन सूत्रे माशब्देन 'मांक माने, मांङ्क मानशब्दयोः, मेङ् प्रतिदाने' इति त्रयोऽप्यन ज्ञेयाः अत एव 'लक्षणप्रतिप्रदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम्' निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य इति न्याययोरत्र बाधः, 'दो. सो इति.. सामान्यनिर्देशश्च देवादिकयोरेव परिग्रहार्थ ॥११॥: .. छाशोर्वा ।४।४।१२।। छाशोस्तादौ किति इर्वा स्यात् । अवच्छितः, अवच्छातः । निशितः, निशातः ॥१२॥ .. श्यतिशिनोत्योरपि रूपद्वयसिद्धौ श्यतेविकल्पवचनं तं नमादि० १३।१।१०५॥ सूत्रेण समासार्थम्, अन्यथा धातुभेदात्प्रकृति-भेदे समासो न.. स्यात् ॥१२॥ शो व्रते ।४।४।१३। श्यतेः व्रते-व्रतविषये प्रयोगे नित्यमिः स्यात् । संशितं व्रतम्, संशितः साधुः ॥१३॥ नित्यायं वचनं तेन व्रतविषये संशात इति न भवति । संशितं व्रतम् = असिधारातीक्ष्णं व्रतमित्यर्थः । संशितः साधु-व्रते यत्नवानित्यर्थः । संशितशब्दः अन्यत्र संशयरूपेऽर्थेऽपि वर्तते इति व्रतमिति विशेषणं न दुष्यति ॥१३॥ हाको हिः क्त्वि ।४।४।१५ हाकस्तादौ किति क्त्वायां हिः स्यात् । हित्वा । क्त्वीति किम् ? Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) * हीनः । तीत्येद-प्रहाय ॥१४॥ ककारो हानिवृत्त्यर्थः तेन ओहाङ्क, गती इत्यस्य ‘हात्वा' इति प्रयोगः । इ इत्येव सिद्ध हिकरणमुत्तरार्थम्, इकरणे ह्य त्तरत्र 'धितः' स्यात् । होनः-सूयत्याद्योदितः ।४।२।७। सूत्रेण तकारस्यः नादेशः ॥१४॥ . . धागः ।४।४।१५॥ धागस्तादो किति हिः स्यात् । विहितः, हित्वा ॥१५॥ पृथग्योगात् क्त्वीति न सम्बध्यते । गकार: ट्धेनिवृत्त्यर्थः ।।१५।। यपि चादो जग्ध् ।४।४।१६॥ तादौ किति यपि चादेर्जग्ध स्यात् । जग्धिः, प्रजग्ध्य ॥१६॥ एकापदाश्रयत्वेनान्तरङ्गत्वात् यबादेशात्प्रागेव जग्ध्यादेशे सिद्ध यन्ग्रहणमन्तरङ्गानपि विधीन्यबादेशो बाधते इति ज्ञापनार्थम तेन प्रशम्य प्रपृचयेत्यादौ 'अहन्पञ्चमस्य० ।४।१।१०७। 'अनुनासिके०।४।१।१०८। इत्यादिस्त्रैः दीर्घत्वशत्वादीनि कार्याणि न भवन्ति ॥१६॥ घस्ल सनद्यतनी-घाचलि ।४।४।१७। एष्वदेर्घस्ल : स्यात् । जिघत्सति, अघसत्, घासः, प्रात्तीति प्रघसः, प्रादनं प्रघसः ॥१७॥ घस्लु अदने इत्यनेनैव सिद्धऽदेः सन्नादिषु रूपान्तर-निवृत्त्यर्थं वननम्, लकारः 'लदिद् ।३।४।६३। सूत्रादर्थश्च । अत्तुमिच्छति=जिघत्सति । अघसत्-'लदिद्० ।३।४।६४। सूत्रादङ् । घासः इत्यत्र घत्र । प्रात्तीति प्रघसः अत्र जच् । प्रादनं प्रघसः-अत्र ‘भूयदोऽल् ।५।३।२३। सूत्रादल ॥१७॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) परोक्षायां नवा | ४|४|१८| अदेः परोक्षायां घस्ल. रादेशो वा स्यात् । जक्षुः, आदुः ॥ १८ ॥ घस्यदिभ्यामेव सिद्ध विकल्पवचनं घसेरसर्वविषय-ज्ञापनार्थंग, तेन घस्ता, घस्मर इत्यादावेव घसेः प्रयोगो भवति ||१८|| वेर्वय् ॥४|४|१८६ । वेगः परोक्षायां वय् वा स्यात् । ऊयुः, ववुः ॥१८॥ ऊयुरिति - 'यजादिवश्० |४|१/७२ सूत्रात् य्वदुकारः न वयो य् |४|१|७३ ॥ सूत्रेण यकारस्य न वृत् । ववुरिति- 'अविति वा |४| २|७५ सूत्रातु न वृत् विकल्पनात् ||१८|| ऋः शू -दृ-प्रः । ४|४|१०| एष परोक्षायामृर्वा स्यात् । विशश्रतुः । विशशरतुः । विदद्रतुः । विददरतुः । निपप्रतुः । निपपरतुः ||२०|| न च "विशशरतुः, विददरतुः निपपरतु' एते प्रयोगाः शृणोत्यादिधातुभिः, 'स्कृच्छतोऽकि परोक्षायाम् | ४ | ३ |८ सूत्रेण गुणे कृते सेस्त्यन्ति, विशश्रतुः, विदद्रतुः, निपतुः' इति च प्रयोगाः 'श्रां' पाके, द्रांक कुत्सितगतौ, प्रांक पूरणे' इति धातुभिरेव भविष्यन्ति किमनेन सूत्रेणेति वाच्यं क्वसौ विशगृवान्, विशीर्णवान् इत्यादिप्रयोगाणामसिद्ध ेः । वि + शृ 'ओष्ठ्यादुर् |४|४|११८ | सूत्राद् उर् 'पदान्ते' | २|१|६४ | सूत्राद् दीर्घ ऊर् ॥२०॥ हनो वध आशिष्यत्र | ४|४|२१| आशीविषये हन्तेर्वधः स्यात् । न तु ञिटि । वध्यात् । अजा Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) विति किम् ? घानिषीष्ट ॥ २१ ॥ परोक्षानिवृत्तौ तत्सम्बद्ध वेति निबृत्तम । वध इत्यकारान्त आदेशः । वध्याद् - अत्र सूत्रे विषयविज्ञानात् पूर्वमेवादेशे 'अतः | ४ | ३|२| सूत्रादकारलोपः सिद्धः, अन्यथा अतः | ४ | ३ |८२ सूत्रेऽपि विहितव्याख्यानात् लोगो न स्यात् । घानिषीष्ट - हन, आशीः सिष्ट, स्वरग्रहदृश० |३|४|६६ सूत्रेण त्रिट् 'त्रित्रि घन् |४|३|१०१ सूत्रात् घन् आदेशः, ञ्णिति' | ४ | ३ |४० सूत्रात् वृद्धिः ||२१|| 1 अद्यतन्यां वा त्वात्मने ४।४।२२। अद्यतन्यां विषये हनो वधः स्यात्, आत्मनेपदे तु वा । अवधीत्, अवधिष्ट, आहत ॥२२॥ अवधीदित्यत्रकारलोपस्य स्थानिवद् - भावेन 'व्यञ्जनादेव० | ४ | ३ | ४७| सूत्रेण वृद्धिर्न भवति । इट् + सिच् + इत् 'इट ईति | ४ | ३ |७१ | सूत्रात् सिज्लौपः । विषयव्याख्यानं विनाऽ वधीदित्यत्र 'एकस्वरा० | ४|४|५६ सूत्रेण विहितव्याख्यानादिट् न स्यात् । विषयव्याख्याने तु स्थानिवद्भावेनानुस्वारेवेऽपि अनेकस्वरत्वादिप्रतिषेधो न भवति । आहत 'हनः सिच् । ४ ३ ३८ | सूत्रात् सिच् विद्वद् भवति, 'यमिरमि० । ४ २ ५५ | सूत्रात् लोपः 'धुहम्वाल्लु० | ४ | ३ |७० | सूत्रात् सिज्लोपः ॥ २२॥ इण्-इकोर्वा । ४।४।२३। इणिकोरतन्यां गाः स्यात् । अगात्, अध्यगात् ॥२२॥ अत्रापिविषयव्याख्या, तद्विनाऽगादित्यत्र तु सिचो लुप् स्यात् न त्वगायि इत्यत्र त्रिचा व्यवधानात् । अध्यगात् - इक्धातोः प्रयोगः, अधिनाऽवश्यं - भावी योगः ||२३|| Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) - णावज्ञाने गमु ।४।४।४। इणिकोरज्ञानार्थयोो गमुः स्यात् । गमयति, अधिगमयति । मशान इति किम् ? अर्थान् प्रत्याययति ॥२४॥ अत्र सूत्रे 'पौ' इत्यत्र विषयसप्तमी व्याख्येया, विषयव्याख्यानबलात् 'अजीगमत्' इति सिद्धम् अन्यथा णौ परे गमादेशे कृते ‘णौ यत्कृतं तत्सवः । स्थानिवत्' इति इण इकारस्यैव द्वित्वं स्यात्, न तु गमः । गमयति-इण् एति कश्चित्, तमन्यः प्रयुक्त इति विस्तरेण वाक्यम्, यन्तं प्रयुक्त इति संक्षेपेण । प्रत्यायति-इक स्मरणे, प्रतियन्तं प्रयुक्त इति णिग् 'नामिनोऽ कलिहलेः ।४।३।५१। सूत्राद् वृद्धि: ऐ:, एदैतोऽयाय, ।१।२।२३। सूत्रात् आय। धात्वन्तरेणैव सिद्ध णाविको ज्ञानादन्यत्रेणश्च रूपान्तरनिबृत्त्यर्थं वचनम् । अज्ञान इति इणो विशेषणं नेकोऽमंभवात् ॥२४॥ सनि इडश्च ।४।४।२५॥ इङ इणिकोश्चाज्ञानार्थयोः सनि गमुः स्यात् । अधि जिगार ते, जिगमिषति ग्रामम्, मातुरधि जिगमिषति ॥२५॥ अज्ञान इति इणो विशेषम्, न इकिङोरसम्भावात् । इङ् इत्यस्य अधि'जिगांसते 'प्राग्वत् ।३।३।७० सूत्रादात्मनेपदम् । इण् अधिजिगमिषति ग्रामम् । इक-मातुरधिजिगमिषति ‘स्मत्य० ।२।२।११। सूत्रात् वा 'कमत्वम् ॥२५॥ गाः परोक्षायाम् ।४।४।२६। इङः परोक्षाविषये गाः स्यात् । अधिजगे ॥२६॥ विषयनिर्देश: किम् ? आदेशे सति द्विवचनं यथा स्यात्, तेन प्राक्तु स्वरे स्वरविधेरिति नोपतिष्ठते अधिजगे-अत्र परोक्षाया एप्रत्ययः ॥२६॥ . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) मौ सन्-डे वा ।४।१।२७। सन्डे परे णौ इडो गा वा स्यात् अधिजिगापयिषति, अध्यापिपयिषति, अध्यजीगपत्, अध्यापिपत् । णाविति किम् ? अधिजिगांसते । सन्ङ इति किम् ? अध्यापयति ॥२७॥ अधिजिगापयिषति-इङ्क अध्ययने अधीयानं प्रयुक्त इति णिग्, ‘णी क्री-जीड: ।४।२।१०। सूत्रेण आकारः, ‘अतिरी०।४।२।२१। सूत्रेण प्वागमः, आत्त्वप्वागमो भयोरप्यस्यापवादत्वादप्रबृत्तौ पूर्व गादेशः, पश्चात् पोन्तः, अथवा इङ: स्थाने 'णी क्रीजीङः ।४।२।१०। सूत्रादाकारः, तदनन्तरं 'अति. ।४।२।२१। सूत्रात् पोऽन्त, ततः आप्स्थाने 'णी सन्-डे वा ।४।४।२७। सूत्राद् गादेशः, ‘यावत् सम्भवस्तावद्विधिः' इति न्यायेन पुनः पोऽन्तः क्रियते ततः अध्यापयितुमिच्छतीति सन् ‘गाप्' इत्यस्य द्वित्वम्, इट्, णिगो गुणः । अध्यापिपयिषति-अत्र 'स्वगदेद्वितीयः ।४।१।४। सूत्रण 'पि' इत्यस्य द्वित्वम्, इट, गुणश्च । अध्यजीगपत् अध्यापिपत्-अत्र ‘णिश्रिद्र । ।३।४।५८। सूत्रेण ङप्रत्ययः, 'उपान्त्यस्या० ।४।२।३५। सूत्रात् ह्रस्वः, द्वित्वम्, 'असमानलोपे० ।।१।६३। सूत्रात् पूर्वस्येत्त्वम्, 'लघोर्दीर्घो० ।४।१।६४। सूत्रादीत्त्वम् । अधिजिगांसते-अत्र 'स्वरहन०।४।१।१०४। सूत्राद् दीर्घत्वम् । अध्यापयति---अत्र शब्प्रत्ययः ।।२७।। वाद्यतनी-क्रिया पत्योर्गीङ ।४।४।२८। • अनयोरिङो गीङ् वा स्यात् । अध्यगीष्ट, अध्यैष्ट । अध्यमोष्यत, अध्यषत ॥२८॥ ङकारो गुणानिषेधार्थः । न च विधानसामर्थ्यादेव गुणो न भविष्यतीति वाच्यं तहि 'अध्यगायि' इत्यत्र बुद्धिरपि न स्यात् । अध्यगोष्ट-अन्तरङ्गत्वात्सिचः प्रागेव 'ईर्व्यञ्जने० ।४।३।६७। सूत्रादीकारः । अध्यष्ट'स्वरादेस्तास् ।४।४।३१। स्त्रात् वृद्धि ॥२८।। अडधातोरादिह्य स्तन्या चाऽमाङा ।४।४।२६। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) हस्तन्यामद्यतनीक्रियातिपत्त्योश्च विषये धातोरादिरट स्यात, न तु माङ्योगे । अयात्,अयासीत्, अयास्यन् । अमाङति किम् ? . मा स्मकार्षीत् । धातोरिति किम् ? प्रायाः ॥२६॥ अटो धात्ववयवत्वात् प्रण्यमिमीतेत्यादौ णत्वं सिद्धम्। अयासीदिति विषयविज्ञानात् प्रत्ययव्यवधानेऽप्यड्, परविज्ञाने हि 'अहन्' इत्यादावेव स्यात् । मा स्मेति-स्मेत्यव्ययं भतेऽर्थे, पादपूरगार्थे वा । प्रायाः-प्रकर्षण त्वमगच्छ.. इत्यर्थः, धातोरिति भणनात् प्रौपसर्गस्यादावड् न भवति ॥२६॥ एत्यस्ते द्धिः ।४।४।३०। इणिकोरस्तेश्चाऽऽदेह्य स्तन्यां विषये वृद्धिः, स्यात्, न तु माङा । आयन, अध्यायन, आस्ताम् । अमात्येव ? मा स्म ते यन् ॥३०॥ पूर्वसूत्रे प्रथमान्तम् ‘आदि' इति पदम् अत्र सूत्रे षष्ठयन्ततया परिणम्यते 'अर्थवशाद् विभक्तिविपरिणामः' इति न्यायात् । आयन् इत्यत्र च ह्विणोरप्विति व्यौ ।४।३।१५। सूत्रेण यत्वे कुते 'आस्ताम्' इत्यत्र च श्वास्त्योलक् ।४।२।९० सूत्रेण अस्तेरकारलोपे सति स्वरादित्वाभावात् 'स्वरादेस्तासु ।४।३१ सूत्रेण वृद्धिर्न प्राप्नोति इति एतत्सूत्र कृतम् । ननु विषयविज्ञानात् परत्वाद् वा 'स्वरादेतासु ।४।४।३१ सूत्रेण पागेत्र वृद्धी कृतायां कुती यत्वाकारयोः प्राप्तिरिति चेत्सत्यमिदमेव सूत्रं ज्ञापकं "कृतेऽन्यस्मिन् धातुप्रत्ययकार्य पश्चाद् वृद्धिस्तद्बाध्योऽट च" इति न्यायस्य । तेन ऐयरुः, अध्ययत' इत्यादी इयादेशे कृते पश्चाद् वृद्धिः सिद्धा, अन्यथा 'आररुः, अध्यायत' इति रूपं स्यात् । अचीकरदित्यादौ च दीर्घत्वं सिद्धमन्यथा अटि कृते हि स्वरादित्वात् दी? न स्यात् । यत्त्वाकारलोपापवादोऽयम् "एत्यस्तेर्व द्धिः।४।४।३०। इति योगः । 'हिणोरप्विति० ।४।३। ५॥ सत्रेण नित्यं यन्वे प्राप्ते 'इको वा' ।४।३।१६ सूत्राद् वा यत्त्वे कर्तव्ये बाधकमिदं यत्वाभावपक्षे तु स्वरादित्वादुत्तरेण वृद्धौ कृतायाम् ‘अध्ययम्' इत्यपि भवति । मा स्म ते यन्निति–'ह्विणोरप्विति० ।४।३।१५। सूत्रे यकारेऽन्प्रत्यये माङ्-योगे वृद्ध्यभावे च यन्निति ॥३०॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) स्वरादेस्तासु ।४।४।३१॥ स्वरादेर्धातोरादेरद्यतन्यां कियातिपत्तिह्यस्तनीषु विषये वृद्धिः स्यात्, अमाङा । आटोत्, ऐषिष्यत्, औन्मत् । अमाडेत्येव ? मा सोऽटीत् ॥३१॥ आटोत्- अट्+इट+सिच् + ईत् । ऐषिष्यत-इष्+इट्+स्यात् । औज्झत-उद्झद् उत्सर्गे उज्झ्+श+त् ॥३१॥ स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिट ।४।४।३ । धातोः परस्य सादरतादेश्चाऽशितः आदिरिट् स्यात्, न तु त्रोणादेः । लविष्यति, लविता । स्यादीति किम् ? अशित इति किम् ? आस्से । अत्रोणादेरिति ? शस्त्रम्, वत्सः, हस्तः ॥३२॥ अत्रोणादेरिति-प्रत्ययस्य उणादेश्चेट न भवति । शसू हिंसायाम्, शसत्यनेनेति शस्त्रम् 'नीदावशसू० ।५।२।८८ सूत्रात् त्रट । वत्सः, हस्तः इत्यत्रोणादिप्रत्ययः ।।३२॥ तेहादिभ्यः ।४।४।३३। एभ्य एव परस्य स्ताद्यशितः तेरादिरिट् स्यात् । निगृहीतिः, अपस्निहितिः। ग्रहादिभ्य इति किम् ? शान्तिः ॥३३॥ तेरिति सामान्येन क्तेः तिको वा ग्रहणम् । बहुवचवमाकृतिगणार्थम् । निग्रहणं निगृहीतिः, "स्त्रियां क्तिः ।५।३।६१ सूत्रात् क्तिः ‘ग्रहवश्च० ।४।१।८४ सूत्रात् य्वृतु । 'ष्णिहोच प्रीतो' अपस्नेहनम् =अपस्निहितः। तेरेव ग्रहादिभ्यः' इति विपरीतनियमो न भवति, उत्तरसूत्रो ग्रहे परोक्षायामिटो दीर्घनिषेधात् । 'सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः इति न्यायात् शम्या Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) दिति 'तिककृती नाम्नि ।५।१७ सूत्रादाशिषि तिकि शान्तिरित्यत्र न भवति ॥३३॥ गृह्वोऽपरोक्षायां दीर्घः।४।४।३४। ग्रहों विहित इट्, तस्य दीर्घः स्यात्। न तु परोक्षायाम् । ग्रहीता । अपरोक्षायामिति किम् ? जगृहिव ॥३४॥ विहितविशेषत्वेन यङन्ताद् विहितस्य न भवति । ग्रहीता-'स्ताद्य० । ।४।४।३३। सूत्रादिट । लुप्ततिन्निर्देशाद् यङ्लुपि न दीर्घः ॥३४॥ वृतो नवाऽनाशी:-सिच्परस्मै च ।४।४।३५॥ वृभ्याम् दन्तेभ्यश्च परस्येटो दीर्घो वा स्तात्, न,तु परोक्षाऽऽशिषोः, सिचि च परस्मैपदे । प्रावरीता, प्रावरिता। वरीता, वरिता। तितरीषति । तितरिषति रोक्षाऽऽदिवर्जनं किम् ?। वरिथ तेरिथ । प्रावरिषीप्ट । आस्तरिषीष्ट । प्रावारिषुः । अस्तारिषुः ॥३५॥ सिच्परस्मै–सिचः परस्मैपदमिति षष्ठीसमासः। परस्मैपदनिमित्तत्वेनोपचारात्सिपि परस्मैपदमुच्यते अतः सिच्च तत्परस्मैपदं चेति कर्मधारयसमासो वा । सप्तमीङिः, सूत्रत्वात् डिलोपः । वृभ्याम्-वृग्ट् वरणे, वृश् सम्भक्ती इत्याभ्यां धातुभ्यामित्यर्थः। ऋदित्यत्र तकारो वर्णनिर्देशार्थ अतः ऋ दन्तधार्तो हणमन्यथा तकाराभावे वृ इत्यनेन धातुना साहचर्यात् ऋश गतौ इत्यस्यैव ग्रहणं स्यात् । ववरिथ-ऋव ।४।४।१०। सूत्रादिट। प्रावारिषुः 'सिचि परस्मै० ।४।२।४४। सूत्राद् वृद्धिः ॥३५॥ इट सिजाशिवोरात्मने ।४।४।३६। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) वृतः पपयोरात्मनेपदविषये सिजाशिषोरादिरिड वा स्यात् । प्रावृत । प्रावरिष्ट । अवृत । अवरीष्ट । आस्तीष्ट । आस्तरिष्ट । प्रावृषीष्ट । प्रावरिषीष्ट । वृषीष्ट । वरिषीष्ट । आस्तीर्षीष्ट । आस्तरिषीष्ट । आत्मने इति किम् ? प्रावारीत् ॥३६॥ आशिषि तु परस्मैपदे यकारादित्वात्प्राप्तिरेब नास्ति । प्राप्ते विभाषेयम् । प्रावारोत्-अत्र नित्यमेवेट ।।३६।। संयोगाद् ऋतः ।४।४।३७। धातोः संयोगात् परो य ऋत् तदन्तात्परयोरात्मनेपदविषय सिजाशिषोरादिरिट् वा स्यात् । अस्मरिषाताम् । अस्मृषाताम् । स्मरिषीष्ट । स्मृषीष्ट । संयोगादिति किम् ? अकृत ॥३७॥ 'स्कृच्छ तोऽकि ।४।३।८। सो स्कृगो ग्रहणात् स्सटसंयोगो न गृह्यते तेन समस्कृत, संस्कृषीष्टेत्यत्र इट न भवति ॥३०॥ धूगौदितः ।४।४।३८॥ धूग औदितश्च परस्य स्ताद्यशित आदिरिट् वा स्यात् । धोता । धविता । रद्धा । रधिता ॥३८॥ पृथग्योगात् 'सिजाशिषोरात्मने' इति निवृत्तम् । अत्र धूगिति गकारनिर्देशात् 'धूग्श् कम्पने' इत्ययं धातुर्मू ह्यते न तु धूत् विधूनने इति । तुदादिधूधातोनित्यमिट् भवति । धूगः ‘उवर्णात् ।४।४।५८ इति कित इट्प्रतिषेधोऽस्ति । रधौच हिंसासंराद्धयोरयमौदित् ।।३८।। निष्कुषः ।४।४।३६॥ निष्पूर्वात् - कुषः परस्य स्ताद्यशितः आदिरिड्वा स्यात् । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) निष्कोटा, निष्कोषिता ॥३६॥ योगविभाग उत्तरार्थः । निष्पूर्वनियमात्केवलादन्यपूर्वाच्च नित्यमेवेट भवति । कुषश् निष्कर्षे धातुः ॥३६॥ क्तयोः ।४।४।४०॥ निष्कुषः परयोः क्तयोरादिरिट नित्यं स्यात् । निष्कुषितः, निष्कुषितवान् ॥४०॥ . पृथग्योगाद् नवेति निवृत्तम् ॥४०॥ ज़.-वस्चः क्त्वः ।४।४।४१॥ .. आभ्यां परस्य क्त्व आदिरिट् स्यात् । जरीत्वा, वृश्चित्वा ॥४१॥ 'ज.' इत्यस्य 'ऋवर्णश्यूटुंग०।४।४।५७। सूत्रात् निषेध वश्चे गैदित्त्वात् 'धूगौदितः।४।४।३८। सूत्रेण विकल्पे प्राप्ते वचनम् । ज. इति ज श बयोहानी इत्ययं ग्राह्यः, न तु देवादिकः तस्य 'जीवा' इति भवति । वश्चित्वा-अत्र 'क्त्वा' ।४।३।२९। सूत्रेण सेट् क्त्वा किट्ठद् न भवतीति न स्वृत् ॥४१॥ ऊदितो वा ।४।४॥४२॥ ऊदितः परस्य क्त्व आदिरिट् वा स्यात् । दान्त्वा, दमित्वा ॥४२॥ यमूसिध्यत्योरनुस्वारेत्त्वादप्राप्ते, शेषाणां प्राप्ते विकल्पोऽयम् । दान्त्वादमूच उपशमे 'अहन्पञ्चमस्य० ।४।१।१०७। सूत्रादत्र दीर्वः ॥४२॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) . क्षुधक्सस्तेषाम् | ४|४|१३| आभ्यां परेर्षा क्तक्तवतुवत्वामादिरिट् स्यात् । क्षुधितः, क्षुधितवान्, क्षुधित्वा । उषितः, उषितवान्, ऊषित्वा ॥४३॥ क्षुधंच् ब्रुभुक्षायाम् । वसं निवासे धातुरत्र गृह्यते न तु वसिक आच्छादनेऽस्येडस्त्येव । गणपाठानिर्देशात् यङ्लुपि यजदिवचेः किति । | ४|१७| सूत्रेण न य्वृत् ॥४३॥ लुभ्यञ्चैवमोहाचें ||४|४४ ॥ आभ्यां यथासंख्यं विमोहनपूजार्थाभ्यां परेषां क्तक्तवतुक्त्वामादिरिट स्यात् । विलुभितः, विलुभितवान्, लुभित्वा, अञ्चितः, अञ्चितवान्, अञ्चित्वा । विमोहाचं इतिकिम् ? लुब्धो जाल्मः, उदक्तं जलम् ॥४४॥ लुभे: 'सहलुभेच्छ० १४|४|४६ | संत्रेण विकल्पे, अञ्चेश्च 'ऊदितो वा' ४|४|३२| इति विकल्पे, उभयोश्च 'वेटोऽपतः | ४|४|६२ ॥ सूत्रेण योनित्यं प्रतिषेधे प्राप्ते इदं सूत्रं कृतम् । विमोहः = विमोहनम्, आकुली - कर्णमित्यर्थः । अर्चा = पूजा | बिलुभित्तः = अनाकुलः - कृत इत्यर्थः । लुभित्वा - लुभच् गायें, अनाकुलमाकुलीकृत्येत्यर्थः । ' वौ व्यञ्जनादेः ० ४।३।२५। सूत्रात् सेट् क्त्वा विकल्पेन किद्वद्भवतीति विलोभित्वा इत्यपि रूप ज्ञेयम् । विमोहः इत्यत्र णिगन्ताद् वर्ण ० | ५|१|२८| मूत्रादत्प्रत्ययः 118811 पूक्लिशिभ्यो नवा ||४।४५। पूः किल शिभ्यां च परेषां क्तक्तवतुक्त्वामादिरिड् वा स्यात् । पूतः पूतवान् पूत्वा । पवितः पवित्वा । विलष्टः, क्लिष्टवान्, , Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) क्लिष्ट्वा । क्लिशितः, क्लिशितवान्, क्लिशित्वा ॥४५॥ पूड पवनें-'सूत्रे कारनिर्देशः पूग्श् पवने इत्यस्य निवृत्त्यर्यः तस्य हि 'न डीङ् ।४।३।२७। सूत्रे कित्त्वप्रतिषेधाभावात् 'पुवितः' इत्यनिष्टं रूपं प्रसज्येत, स्थिते तु अस्मिन् 'उवर्णात्' ।४।४।५८। सूत्रादिडभावे "पूत' इत्येव । 'क्लिशिभ्यः' इत्यत्र बहुवचनं 'क्लिशिच उपतापे, क्लिशौच विबाधने द्वयोरपि ग्रहणार्थं कृतम् । पूङः ‘उवर्णात् ।४।४।५६। सूत्रात् नित्यं निषेधे प्राप्त क्लिश्यते नित्यमिटि प्राप्ते क्लिश्नातेश्चौदित्वात क्त्वायां विकल्पे सिद्धऽपि क्तयोनित्यं निषेधे प्राप्ते विकल्पार्थं वचनम् ॥४५॥ सहलुभेच्छ-रुष-रिषस्तादे : ।४।४।४६। एभ्यः परस्य स्ताद्यशितस्तादेरिट वा स्यात् । सोढा, सहिता। लोब्धा, लोभिता । एष्टा, एषिता । रोष्टा, रोषिता । रेष्टुम्, रेषितुम् ॥४६॥ इच्छेति निर्देशात् इषत् इच्छायामित्यस्य ग्रहणम्, इषच् गती, इषश् आभीक्ष्ण्ये इत्यनयोस्तु नित्यमेवेट् । रुषच रोषे, रुष हिंसायाम् इति द्वयोरपि ग्रहणमविशेषात् ॥४६॥ इव्-ऋध-भस्ज-दम्भ-श्रि-यु-ऊण्णु-भर-ज्ञपिसनि-तनि-पति-वृ-ऋद्-दरिद्रः सनः।४।४।४७। इवन्ताद् ऋधादिभ्य ऋदन्तेभ्यो दरिद्रश्च परस्य सन आदिरिट वा स्यात् । दुवूषति, दिदेविषति । ईर्सति, अदिधिषति । विभक्षति, विजिषति । धिप्सति, धीप्सति, दिदम्भिवति । शिश्रीषति, शिश्रयिषति । युयूषति, यियविषति। प्रोणुनूषति, प्रोणुनविषति । बुभूषति, विभरिषति । जीप्सति, जिज्ञपयि. षति । सिषासति, सिसनिषति । तितंसति, तितनिषति । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) . पित्सति, पिपतिषति । प्रावुवर्षति, प्राविवरिषति । वुवूषते, विवरीषते । तितीर्षति, तितरीषति । दिदरिद्रासति दिदरिद्रिषति ॥४७॥ इविति - उदनुबन्धाकरणात् 'इवु व्याप्तौ च' इति न गृह्यते । ऋधूच् वृद्धौ, ऋघट् वृद्धौ इति द्वावपि ऋधू, अद्वितुमिच्छतीति सन्, 'ऋध ईत्' ४।१।१७। सूत्रात् ऋधः स्थाने ईर्त, न च द्विः । बिभ्रतीत्यादि - 'भ्रस्जत् पाके भ्रष्टुमिच्छतीति सन् 'संयोगस्यादी० | २१८८ | सूत्रेण सस्य लोपः, 'यजसृज० |२| १|८७ | सुत्त्रात् जस्य षः, षढोः कस्सि ! २|१|६२ | सूचात् षस्य कः, 'नाम्यन्तस्था० | २|३ | १५ | सूत्राद् सकारस्य षः । 'भृज्जो भर्ज ४|४|६| सूत्राद्भर्जादेशः विकल्पपक्षे विभ्रक्षति, बिभ्रज्जिषतीत्यपि । दम्भू, सन् 'दम्भोधिप धप । ४ 19195 | न च द्विः शिश्रीषति - 'स्व रहनगमोः सनि घटि | 8 | | ०४ | सूत्राद् दीर्घः । यियविषतीत्यत्र 'ओर्जान्तिस्था० |४|१|६० सूत्रेण पूर्वस्येत्त्वम् । 'नामिनोऽनिट् | ४ | ३ | ३३ | सूत्रेण किद्वद्भावे गुणाभावस्नेन यूषति, शिश्रीषतीत्यत्र व गुणः । प्रोणु नूषतीव्यादौ 'स्वरादेद्वितीयः ४।१।४। सूत्राद् ‘नु’ इत्यस्य द्वित्वम्, ततः एकत्र 'स्वरहनगमोः सनि धुटि ४।१।१०४ । सूत्राद् दीर्घः, 'वर्णोः | ४ | ३ | १६ | सूत्राद् विकल्पेन सेट् सन् ङिद्वत् अतः प्रणुविषतीत्यत्र गुणः, गुणाभावपक्षे उव् भवति । 'हदिर्ह० १३ | ३१ | सूत्रात् णस्य अनु द्वित्वरूपकार्यात्पश्चाद्वित्त्वम् अन्वित्यस्याभावे पूर्वं 'स्वरादेद्वितीयः | ४|१ |४| सूत्रात् द्वित्वे, 'व्यञ्जनस्या० | ४|१|४४ | स्वाद पूर्वस्य लुकि प्रोन्ना वेत्यनिष्टं स्यात् । बुभूषति — अत्र 'स्वरहनगमोः० ।४।१।१०४ । सूत्रात् दीर्घ ऋ, 'नामिनोऽनिट्' | ४ | ३ | ३३ | सूत्रात् द्वित् 'ओष्ठ्या दुर् |४|४|१०७ | सत्रादुर्, 'भ्वादेर्नामिनो० | २|१|६३| सूत्राद् दीर्घ ऊर । सूत्रे भरेति शब्निर्देशो यङ्लुपो बिभर्तेश्च निवृत्त्यर्थः । अत्र भृंग भरणे इति भ्वादिको ग्राह्यः । ज्ञपीति - कृत ह्रस्वस्योपादानात् ज्ञापेजिज्ञापयिषतीत्येव । 'मारणतोषणः' |४| २|३०| सूत्राद् ह्रस्वो भवति । सिषासतीत्यत्र 'सनि | ४|२| ६१ | सुत्रात् नस्य आकारः । तितंसतीत्यत्र 'तनो वा ४।१।१०५ । सूत्राद् वा दीर्घः । पित्सतीति- रभलभ० |४|१|२१ सूत्रादिकारः । वृग् इत्यस्य प्रावुवर्षति, प्राविवरिषति । वृश सम्भक्तौ इत्यस्य ववर्षते विवरीषते, विवरीषते । 'वु तो० |४| ४ | ३५ | सूत्राद् वा दीर्घत्वम्, पक्षे विवरिषते इत्यपि एवं तितरिषतीत्यपि । दिदरिद्रिषति , — Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३०. ) 'अशित्य०।४।३।७७। स्त्रात् आलक युधातोः 'ग्रहगुहश्च०।४।४।५९। सूत्रात् भ्रस्जभृगोस्तु अनुस्वारेत्त्वात्प्रतिषेधे प्राप्तेऽन्येषां च नित्यमिटि प्राप्ते . विकल्पोऽयम् ॥४७॥ ऋ-स्मि-पूङ-अज्ज-शौ-कृ.-ग-दृ-धृ-प्रच्छः ।४।४।४। एभ्यः परस्य सनः आदिरिट् स्यात् । अरिरिषति, सिस्मयिषति, पिपविषते, अजिजिषति, अशिशिषते, चिकरीषति, जिगरीषति, आदिदरिषते, आदिधरिषते । पिपृच्छिषति ॥४८॥ पृथग्योगाद् नवेति निवृत्तम् । ऋस्मिपूङ्दधृप्रच्छामप्राप्ते शेषाणां विकल्पे प्राप्ते वचनम् । प्रच्छसहचरिताः कृ.गृ.धृ इत्येते धातवस्तौदादिका ग्राह्याः तेन कृणातेः चिकीर्षति, चिकरीषति । गृणातेः जिगीषति, जिगरिषति, जिगरीषति, धरतेः दिधीर्षतीति प्रयोगा भवन्ति । पूडित्यनुबन्धनिर्देशात् 'पूङ् पवने' इत्ययं ग्राह्यः । पूगस्तु ‘ग्रहगुहश्च सनः ।४।४।५९। सूत्रादिडभावे पुपूषति, पुपूषते इति । अशौटि व्याप्तौ अश्नातेस्तु इडस्त्येव । कृ.तु विक्षेपे चिकरीषति 'व तो नवा०।४।४।३५। सूत्राद् दीर्घस्य विकल्पपक्षे चिकारिपतीत्यपि । गृणाते:-जिगरीषति, दीर्घविकल्पपक्षे जिगरिषति । दृङत् आदरे, धृङत् स्थाने-आदिदरिषते, आदिधरिषते, अत्र सन्यस्य ।४।१।५६। सूत्रात् द्वित्वे पूर्वस्येत्त्वम् । पिपच्छिषति–'रुदविद०।४।३।३२। सूत्रात् सन् किद्वत् ऋस्मि० ।४।४।४८। सूत्रात् सन आदिरिट् ।४।। हनृतः स्यस्य ।४।४।४६॥ हन्तेः ऋदन्ताच्च परस्य स्यस्यादिरिट् स्यात् । हनिष्यति, करिष्यति ॥४६॥ तकारनिर्देशादर्तेरेव ग्रहणं न भवति ।।४।। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) कृत-चूत-नृत-च्छद-तृदोऽसिचः सादेर्वा ।४।४।५०। एभ्यः परस्यासिचः सादेस्ताशितः आदिरिट् वा स्यात् । कर्त्यति, कतिष्यति । चिचुत्सति, चितिषति । नय॑ति, नत्तिष्यति । अच्छय॑त्, अर्दिष्यत् । तितृत्सति, तितदिषति । असिच इति किम् ? अचकीत् ॥५०॥ प्राप्ते विभाषेयम् । कृतत् छेछने, कृतैप वेष्टने वा। चूतैप हिंसाग्रन्थयोः, नृतत् नर्तने, ऊपी दीप्तिदेवनयोः, ऊतृ पी हिंसाऽनादरयोः इति तृद् । ॥ ५० ॥ गमोऽनात्मने ।४।४।५१॥ गमः परस्य. स्ताद्यशितः सादेरिट स्यात् । न त्वात्मनेपदे । गमिष्यति, अधिजिगमिषिता शास्त्रस्य । अनात्मने इति किम् ? संगसीष्ट ॥५१॥ . गम 'इत्यादेशस्यानादेशस्य च ग्रहणमविशेषात् । अधिजिगमिषितेतिसनीङश्च ।४।४।२५। सूत्रण 'गमु' आदेशः । संगसोप्टेति-गम्लु गती इत्यस्य रूपम् ‘समो गमृच्छि० ।३।३।८४। सूत्रात्कर्तर्यात्मनेपदम् ॥५१॥ स्नोः ।४।४।५२॥ स्नोः परस्य स्ताद्यशितः अनात्मनेपदे आदिरिट् स्यात् । प्रस्नविष्यति । अनात्मन इत्येव-प्रास्नोष्ट ॥५२॥ पृथग्योगात्सादेरिति नानुवर्तते अन्यथा स्नुगमोरिति कुर्यात् । स्नौतेरिट सिद्ध एव किन्तु आत्मनेपदे इड्निवृत्त्यर्थं वचनम्, एवमुत्तर-सूत्रेऽपि । प्रास्नोष्ट-अयम् ‘एकधातौ०।३।४।८६। मूत्रात्कर्मकर्तरि प्रयोगः ।।५२॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) क्रमः ।४।४।५३। क्रमः परस्य स्ताशित आदिरिट स्यात्, अनात्मनेपदे । क्रमिष्यति, प्रक्रमितुम् । अनात्मन इत्येव-प्रक्रस्यते ॥५३॥ प्रकंस्यते–'प्रोपादारम्भे ।३।३।५१। सूत्रादात्मनेपदम् ॥५३॥ .. . तुः ।४।४।५४॥ अनात्मनेविषयात्क्रमः परस्य तु स्ताद्यशित आदिरिट् स्यात् । क्रमिता । अनात्मने इत्येव-प्रक्रन्ता ॥५४॥ तुः तृचस्तृनश्चेत्यर्थः । आत्मनेपदविषयश्चं क्रमिः कर्मव्यतिहारवृत्त्यादिषु प्रोपव्यापूर्वश्च आरम्भादिष भवति । तुः स्ताद्यशित इत्यत्र 'ऋतो डुर्' ।१।४।३७। सूत्रात् डुर्, व्यत्यये लुग्वा ।१।३।५६। सूत्रादस्य लुक । क्रमितेति 'क्रमोऽनुपसर्गात् ।३।३।४७ सूत्राद् विकल्पेनात्मने दविषय: तेन क्रन्तेत्यपि । प्रक्रन्तेति-'प्रोप्तादारम्भे' ।३।३।५१। सूत्रादात्मनेपदम् ॥५४॥ . न वृद्भयः ।४।४।५। वृदादिपञ्चकात् परस्य स्ताद्यशित आदिरिट न स्यात्, न चेदसावात्मनेपदनिमित्तम् । वय॑ति, विवृत्सति, स्यन्त्स्यति सिस्यन्स्यति ॥५५॥ वतूड्, स्यन्दौङ, वृधूङ, श्रधूङ, कृपोङ् एते पञ्च वृतादयः । पञ्चपरिग्रहार्थ सूत्रे बहुवचनम् । स्यान्दिकृपोरोदिल्लक्षणो विकल्पः परत्वादनेन बाध्यते, 'वृद्भयः स्यसनोः ।३।३।४५। 'कृपः श्वस्तन्याम् ।३।३।४६। सूत्राभ्यां स्ये सनि वतादयः, श्वस्तन्यां कृपिश्च अनात्मनेपदनिमित्तं विकल्पेन भवति, विकल्पपक्षे तु इड् भवत्येव यथा वतिष्यते, सिस्यन्दिषते ॥५५॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) - एकस्वरादनुस्वारेतः ।४।४।५६। एकस्वरादनुस्वारेतो धातोविहितस्य स्ताद्यशित आदिरिट न स्यात् । पाता । एकस्वराविति-अवधीत् ॥५६॥ पां पाके=पाता। वधः अकारान्तत्वादनेकस्वरी । इट: प्रत्ययस्यादिरवयवो भवत्यतः प्रत्ययः सेट तथाप्युपचाराद् धातुरपि सेट् कथ्यते ॥५६॥ ऋवर्ण-श्रि-ऊण्णुगः कितः ।४।४।५७। ऋवर्णान्ताद् धातोः श्रेरू|श्च एकस्वराद् विहितस्य कित आदिरिट न स्यात् । वृतः,तोवा, श्रितः ऊष्णुत्वा । एकस्वरादित्येव ? जागरितः । कित इति किम् ? वरिता ॥२७॥ उत्तरेणैव सिद्ध ऊर्ण ग्रहणमनेकस्वरार्थम् । विहितविशेषणत्वात् 'ती.' इत्यादाविरुरादेशे कृतेऽपि विषेधो भवति । गित्त्वात् यङ्लुपि इट् स्यादेव । ॥ ५७ ।। उवर्गात् ।४।४।५। · उवर्णान्तादेकस्वराद् विहितस्य कित आदिरिट् न स्यात् । युतः, लूनः । कित इत्येव-यविता, लविता ॥८॥ युक् मिश्रणे अदादिः ॥५॥ ग्रहगुहश्च सनः ।४।४।५। आभ्यामुवर्णान्ताच्च विहितस्य सन आदिरिट् न स्यात् । जिघृ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) क्षति, जुघुक्षति, रुरुषति ॥५६॥ जिघृक्षति--ग्रहीश् उपादाने, सन्, द्वित्वम् ‘गहोर्जः ।४।१।४०। सूत्राद् द्वित्वे गस्य जः, 'सन्यस्य ।४।१।५६। सूत्राद् द्वित्वे पूर्वस्येकारः, ग्रह० ।४।१।०४। सूत्राद् यवृत्, 'गडदबादेः० ।२।११७७। सूत्रात् गस्य घः, हो धुट्पदान्ते । ।३।१।१२। सूत्रात् हस्य ढः, 'षढोः कस्सि ।२।१।६३ सूत्रात् ढस्य क् । जुधुक्षति-गुहोग संवरणे । यद्यपि युधातुरप्युवर्णान्तस्तक्षपि तस्य तु 'इवृध० ।४।४।४७। सूत्रात् विकल्पेनेटि यियविषति, युयूवतीति, 'ओन्ति० ।४।१।६०। सूत्रादिकारः ॥५६॥ स्वार्थे ।४।४।६। स्वार्थार्थस्य सन आदिरिट न स्यात् । जुगुप्सते ॥६॥ जुगुप्सते इत्यत्र 'गुप्तिजो० ।३।४।५। सूत्रात् सन् ॥६०) डीयश्व्यदितः क्तयोः ।४।४।६१। डीयतेः श्वेरैदिभ्यश्च धातुभ्यः परयोः क्तक्तवत्वोरादिरिट न स्यात् । डोनः डोनवान् । शूनः, शूनवान् । प्रस्तः, त्रस्तवान् डोन:, डोनवान्-डीच् गतौ 'सूयत्याद्यो० ।४।२।७०। सूत्रात् नकारः । डीयेति श्यनिर्देशात् डयतेरिडेव । ट्वोश्वि गतिवृद्धयोः, शूनः, शूनवान् इत्यत्रापि पूर्ववदोदित्वात् नः । 'दीर्घमवोऽन्त्यम् ।४।१।१०३ सूत्रादन्तस्य य्वृतो दीर्घता । कृतै, नृतै, चूत इत्येतेषां 'कृतचूत० ।४।४।५० सत्रेण वेटत्वेन 'वेटोऽपतः ।४।४।६२। सूत्रेणापि क्तयोरिटनिषेधे सिद्ध ऐदित्करणं यङ्लुबर्थम् तेन यङो लोपेऽनेक स्वरत्वेऽपीटप्रतिषेधो भवत्येव Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) .वेटोऽ पतः ।४।४।६२॥ अपतो विकल्पितेटो धातोरेकस्वरात्परयोः क्तयोरदिरिट न स्यात् । रद्धः, रद्धवान् । अपत इति किम् ? पपितः ॥६२॥ वा इट् यस्माद् धातोः स वेट 'एकाथं चानेकं च ।३।१२२। सूत्रात् समासः 'रधौच' रद्धः, रद्धवान् । पतितः-सनि वेटत्वात्प्राप्ते प्रतिषेधः ॥६२॥ ------ सन्निवेदः।४।४।६३॥ एभ्यः परादः क्तयोरदिरिट न स्यात् । समर्णः, समर्णवान् । न्यर्णः न्यर्णवान् । व्यर्णः, व्यर्णवान् । संनिवेरिति किम् ? अदितः ॥६३॥ समर्णः समणवान्–'अर्द गातियाचनयोः', तक्तवतू ‘रदाद० ।४।२।६६। सूत्रेण धातुदकारस्य प्रत्ययतकारस्य च नकारः, 'रषवर्णान्नो० ।२।३।६३। सूत्रात् प्रकृतिनकारस्य णकारः, 'तवर्गस्य श्चवर्ग० ।१।३।६० सूत्रात क्तनकारस्य णकारः ॥६३।। अविदरेऽभः ।४।४।६४ . अमेः परादः परयोः क्तयोरविदूरेऽर्थे आदिरिट न स्यात् । अभ्यणः, अभ्यर्णवान् । अविदूर इति किम् ? अभ्यदितो दीनः शीतेन ॥६४॥ विदूरम्-अतिविप्रकृष्टम् ततोऽन्यदविदूरम् समीपमित्यर्थः । अभ्यर्णः समीप इत्यर्थः ॥६४।। वर्तेर्वतं ग्रन्थे ।४।४।६॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) वृत्त य॑न्ताम् क्ते वृत्तं ग्रन्थविषये निपात्यते । वृत्तो गुणश्छात्रण। ग्रन्थ इति किम् ? वर्तितं कुङ्क.मम् ॥६५॥ वृत्तः-वृत्, णिग्, क्तः, अत्र गुणाभावः, इडिनषेधः, णिग्लुक् च निपात्यते। गुणः-उपचाराद् गुणप्रकरणं गुणः, वृत्तः कोऽ थः पठितः इत्यर्थः । वृत्तेरन्तभूतण्यर्थस्यैतत् सिध्यति, वर्तेस्तु ग्रन्थविषये वर्तितमिति प्रयोगनिवृत्त्यर्थ . वचनम् ॥६५: धृषशसः प्रगल्भे ।४।४।६६। आभ्यामपरयोः क्तयोरादिः प्रगल्भ एवार्थे इट् न स्यात् । धृष्टः, विशस्तः । प्रगल्भ इति किम् ? धषितः, विशसितः ॥६६॥ प्रगल्भो जितसभः, अविनीत, इत्यस्ये । धृष्टः, विशस्तः, प्रगल्भ इत्यर्थः । धषितः-पराभतः, विशसित:-हिंसित इत्यर्थः । त्रिधषात् प्रागल्भ्ये, शस् हिंसायाम् । धषेः 'आदितः ।४।४।७२। सत्रात् शसेरप्यूदित्त्वात् 'वेोऽपतः ।४।४।६२। सूत्रात् प्रतिषेधे सिद्ध नियमार्थं वचनम् । प्रगल्भ एव इति नियमः । न चादितां धातूनां 'नवा भावारम्भे ।४।४।७१। सूत्रेण वा इङिनषेधेऽन्न धृषेरुपादानं नित्यमिडभावार्थमिति वाच्यम् धृषेः भावारम्भे स्वभावात् प्रगल्भार्थानभिधानात् ।।६६।। कषः कृच्छगहने ।४।४।६७। अनयोरर्थयोः कषेः परयोः क्तयोरादिरिट न स्यात् । कष्टं दुःखम् । कष्टोऽग्निः । कष्टं वनं दुरवगाहम् । कृच्छ्रगहन इति किम् ? कषितं स्वर्णम् ॥६७।। कृच्छशब्दात् यथा दुःखमुच्यते तथा अग्निचोरादिकं कारणमप्युच्यते यथाहोदाहरणं कष्टोऽग्निः । वषिष्यतीति कषोऽनिष्ट: ।५।३।३। सूत्रात् क्तः ।६७। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) घुषेरविशब्दे ।४।४।६८॥ अविशब्दार्थात् घुषे परयोः क्तयोरादिरिट न स्यात् । घुष्टा रज्जुः, घुष्टवान् । अविशब्द इति किम् ? अवघुषितं वाक्यम् ॥६॥ अविशब्द:नानाशब्द:, प्रतिज्ञा वा। धुण्टा रज्जुः=संबद्धावयवेत्यर्थः । अवधषितं वाक्यम्-नाना शब्दितं प्रतिज्ञातं वा वाक्यं (ब्रते) इत्यर्थः। नन् धष. शब्दे इत्यस्यैवं विशब्दने जुरादित्वात् णिचि सत्यनेकस्वरत्वात्प्रतिषेधो न स्याद् अतः किं वर्जनेनेति चेत्सत्यम् अत एव विशब्दन प्रतिषेधात् ज्ञाप्यते धुष ण विशब्दने' इति धुर्विशब्दनार्थस्य चुरादिणिच् अनित्यः ॥६॥ बलिस्थूले दृढः ।४।४।६६। बलिनि स्थूले चार्थे दृहेदृ हेर्वा क्तान्तस्य दृढो निपात्यते । दृढः । बलिस्थूल इति किम् ? दृहितम् । दृहितम् ॥६६॥ दृढः-अत्र इडभावः, क्तस्य ढत्वम्, धातुसम्बन्धिनोर्हकारनकारयोर्लोपश्च सब निपातनाद् भवति ।।६।। क्षुब्धविरिब्धस्वान्तध्वान्तलग्नमिष्टफाण्टबाढपरिवृतं मन्थस्वरमनस्तमः-सक्ताऽस्पष्टाऽनायासभृशप्रभौ ।४।४७०। - एते तान्ता मन्थादिष्वर्थेषु यथासंख्यमनिटो निपात्यन्ते । क्षुब्धः समुद्रः । क्षुब्धं वल्लवै । विरिब्धः स्वरः। स्वान्तं मनः । ध्वान्तं तमः । लग्नं सक्तम् । म्लिष्टमस्पष्टम् । फाण्टमनायाससाध्यम् । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) बाढं भृशम् । परिवृढः प्रभुः ॥७०॥ क्षभच संचलने, क्षभश् संचलने वा, कर्मण्येव क्तः क्षुभेमन्मथेऽर्थे तान्तस्य इडभावो निपात्यते । मथ्यते इति मन्थः, कर्मणि पत्र , क्तोऽपि क्षभे: कर्मण्येव । क्षुब्धः समुद्रः मथित इत्यर्थः, अन्तभूतण्यर्थत्वात् मथ्यमानः संक्षोभं गत इति वार्थः । मन्थनं वा मन्थः, शुन्धं वल्लवैः विलोडनं कृतमित्यर्थः । अथवा द्रवद्रव्यसंपृक्ताः सक्तवो रूढया मन्थशब्दे-' नोच्यन्ते,तद्रव्याभिधाने क्षुब्धशब्दो मन्थपर्यायो भवति तदा संचलितो मन्थःइत्यर्थो भवति ।विपूर्वो रिभ्धातुः सौत्रःतस्य विरिब्ध इति निपातनम् स्वरो ध्वनिश्चेत् अथवा रेभृङ शब्दे इत्यस्य वा निपातनादिकारः । विरिभितं विरेभितमन्यत् । स्वनेर्धातोर्मनसि पर्याये स्वान्तमिति, अहन्पञ्चमस्य०।४।१।१०७ सूत्रादाकारः । विषयेष्वनाकुलं मनः स्वान्तमित्यन्ये । अन्यत्र स्वनितो मृदडः, स्वनितं मनसा घटित स्पृष्टमिति यावत्, ध्वनेः ध्वान्तमिति तमश्चेत्, तमः-पर्यायोः ध्वान्तशब्दः, अनालोकं गम्भीर तमो ध्वान्तमित्यन्ये । अन्यत्र ध्वनितं तमसा,ध्वनितो मृदङ्गः। लगेर्लग्नमिति सक्त चेत् । लगितमन्यत् । म्लेच्छेलिष्टमिति अस्पष्टं चेत् इत्त्वमपि निपातनातु, म्लेच्छितमन्यत् । फणेः फाण्टमिति अनायाससाध्यं चेत् यदश्रपितम पिष्टमुदकसंपर्कमात्राद्विभक्तरसमौषधं कषायादि तदेवमुच्यते । अग्निना तप्तं यदीषदुष्णं तत्काण्टमित्यन्ये । अन्ये त्वविद्यमानायासःपुरूषोऽन्यो वा सामान्येन फाण्टशब्देनमिधीयते । वाहेबर्बाढमिति भृशं चेत्, कियाविशेषणमेवैतत्स्वभावात् । वाहितमन्यत् । परिपूर्वस्य वृहे हेर्वा परिवृढ इति प्रभुश्चेतू, हकारनलोपे ढत्वे च निपातनम् । अन्यत्र परिवहितं, परिवृहितम् ॥७०॥ आदितः ।४।४७१। आदितो धातोः परयोः क्तयोरादिरिद् न स्यात् । मिन्नः। मिन्नवान् ॥७१॥ आदितो धातूना 'नवा भावारम्भे ।४।४।७२। सत्रेण भावारम्भे वेटत्वा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) दन्यत्र 'वेटोऽपतः ।४।४।६३। सूत्रैणैवेट्प्रतिषेधे सिद्ध योगविभागे ' यदुपाधे'विभाषा तदुपाधेः प्रतिषेध:' इति न्यायज्ञापनार्थम् । 'नवा भावारम्भे |४|४|१२ सूत्रेण भावारम्भविवक्षायां विकल्पनम् यदा कर्मणि कर्तरि वा तो विवक्ष्यते तदा ' बेटोsपत: ४ । ४ । ६२ । सूत्रेणापि निषेधो न स्यादिति पृथगारम्भः । न्यायज्ञापनस्य फलं तु 'गमहन-विदलृ० ४२८३ सूत्रेण लृकारेतः विन्दतेरेव वेत्वात् तस्यैव 'वेटोऽपतः | ४|४|६२ सत्रेणेदिनिबेधो न तु ज्ञानार्थस्य विदक् ज्ञाने इत्यस्येति । एतस्य क्तयोः विदितः, विदतवान् इत्येव । न च 'गमहन० | ४|४|१३ सूत्रे विद्लृ इति सानुबन्धोपादानादेव न भविष्यतीति वाच्यं 'नानुबन्धकृतमसारूप्यम्' इति न्यायेनानुबन्धभेदेऽपि सर्वेषां धातो रूपे विशेषाभावात् विदधातोः बेनिमित्तकः क्तयोरिनिषेधः दुर्वारः स्यादिति । एवं 'हृषेः केश० |४|४|७६ सूत्रेण केशाद्यर्थस्य हृवेर्वेट्त्वेन तस्यैवेनिषेध न तु हृषच् तुष्टाविति तुष्टयस्य तेनास्य हृषितः, हृषितवानिति रूपं भवति । मिन्नः मिन्नवान् - ञिमिदा स्नेहने भ्वादि:, ञिमिदा स्नेहने दिवादिर्वा गृह्यते ॥ ७९ ॥ नवा भावारम् ||४।७२। आदितो धातोर्भावारम्भयोः क्तयोरादिरिट वा न स्थात् । मिन्नम् । मेदितम् । प्रमिन्नः । प्रमिन्नवान् । प्रमेदितः । प्रमेदितवान् ॥७२॥ 1 पूर्वेण नित्यं निषेधे प्राप्ते विकल्पः । आरम्भः आदिक्रिया । प्रमेदितुमारब्ध इति 'आरम्भे' ५|१|१० सुत्रात् क्तः ॥ ७२ ॥ शकः कर्मणि | ४|४|७३। शके: कर्मणि क्तयोरादिरिट् वा न स्यात् : शक्तः, कर्तुम् ॥७३॥ शक्तितो वा कर्मणि कवतुर्नास्तीति नोदाह्रियते । कर्तुं मिति चैत्रेण कर्तुं मिति ज्ञ ेयम् ॥७३॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) णौ दान्तशान्तपूर्णदस्त स्पष्टच्छन्नज्ञप्तम् ।४।४।७४। दमादीनां णौ तान्तानामेते वा निपात्यन्ते । दान्तः, दमितः । शान्तः, शमितः । पूर्णः, पूरितः । दस्तः,दा सितः । स्पष्टः, स्पाशितः । छन्नः, छादितः ज्ञप्तः, ज्ञापितः ॥७४॥ दम्-दान्तः, दमितः, शम्-शान्तः, शमितः, पूरै--पूर्णः, पूरितः, एषु णिलुग निपात्यते । दासृ-दस्तः, दासितः । स्पश्-स्पष्टः, स्पाशितः । स्पशि। सौत्रो वा, स्पशन्तं प्रयुक्त णिग, स्पशिण ग्रहणे इति चुरादि ।' छद्-छन्नः छादितः एषु णि-इटलोपो, ह्रस्वश्च वा निपात्यन्ते । ज्ञप्तः ज्ञापितः इत्यत्र ‘मारणतोषण।४।२।३०। इत्यनेनाप्राप्तस्थले पि वा ह्रस्वत्वं निपात्यते ।।७४॥ श्वजपवमरूषत्वरसंघुषास्वनामः ।४।४।७५।' एभ्यः तयोराविरिट् वा न स्यात् । श्वस्तः, श्वसितः, विश्वस्तवान्, विश्वसितवान् । जप्तः, जप्तवान्, जपितः, जपितवान् । वान्तः, वान्तवान्, वमितः वमितवान् । रुष्टः, रुष्टान, रूषितः, रूषितवान् । तूंर्णः, तूर्णवान्, त्वरितः, त्वरितवान् । संघुष्टौ संघुषितौ दम्यौ, संघुष्टवान्, संघुषितवान् । आस्वान्ता, आस्व. नितः, आस्वान्तवान्, आस्वनितवान् । अभ्यान्तः, अभ्यान्तवान्, अभ्यमितः, अभ्यमितवान् ॥७॥ .. श्क्सक् प्राणने । कर्वेटत्वात् नित्यं प्रतिषेधै प्राप्ते वचनम् । तूर्ण इति त्वरधातोः 'मव्यवि० ।४।१।१०६। सूत्रादुपान्त्येन सह उट् । संवृषास्वनिभ्यां परत्वादयमेव विकल्प: न तु घुषेरबिशब्दे ।४।४।६८। 'क्षुब्ध०।४।४।७० सूत्राभ्यां नित्यमिपिनषेधः । तेनाविशब्दनेऽपि संपुष्टा रज्जुः, संघुषिता रज्जुरिति, मनसि वाच्यैऽपि आस्वान्त आस्वनितं मनः इत्येव भवति ॥७॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४१ ) हषः केशलोमविस्मयप्रतिघाते ।४।४।७६। हषः केशाद्यर्तेषु क्तयोरादिरिट् वा न स्यात् । हृष्टाः. हृषिताः केशाः। हृष्ट, हृषितं लोमभिः । हृष्टो हृहितश्चैत्रः । हृष्टा हृषिता दन्ताः ॥७६॥ केशलोमकर्तृ का ऊद्धृषणादिका क्रिया केशलोमशब्देनोच्यते । उद्घषणम् =रोमाञ्च इति अभिधानचिन्तामणिः, का० २ श्लोक २०६) हष्टा, हृषिताः-केशाः रोमाञ्चिता इत्यर्थः । हृष्टो हृषितश्चत्रः-विस्मित इत्यर्थः । हृष्टा हुषिता दन्ताः प्रतिहता इत्यर्थः । हृषच तुष्टी, हृषू अलीके वा ततः परः क्तः ।।७६।। अपचितः ।४।४७७॥ अपाच्चायेः क्तान्तस्य इडभावः चिश्च निपात्यते वा । अपचितः। अपचायितः ॥७७॥ "चायग् पूजानिशामनणैः" अयं धातुह्यः न तु "चिंग्ट् चयने' इति चिनोतिरस्य पूजार्थत्वाभावात् । निपातनमेतत् ॥७७॥ सृजिदृशिस्कृस्वराऽत्वतस्तृनित्यानिटस्थवः ।४।४७८॥ सृजिदृशिभ्यां स्कृगः स्वरान्तादत्वतश्च तृचि नित्यानिटो विहितस्य थव आदिरिट वा न स्यात् । सस्रष्ठ, सजिथ । दद्रष्ठ, दशिथ । सञ्चस्क सब्यस्करिथ । ययाथ, ययिथ । पपक्थ, पेचिथ । तृनित्यानिट इति किम् ? ररन्धिथ, शिश्रयिथ । विहिततिशेषणं विम् ? चषिय ॥७॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) अत्वतश्चेति-अकारवत इत्यर्थः । 'स्क्रऽ सृ० ।४।४।८१। सूत्रात् प्राप्ते विभाषा । स्वरान्तत्वेनैन सिद्ध स्कृग्रहणम् 'ऋतः ।४।४।८०। इति प्रतिषेधबाधनार्थम् । सृजत् विसर्गे, दृशं प्रेक्षणे, डुक ग करणे, यांक प्रापणे, डुपची पाके 'एकस्वरा० ।४।४।५६॥ इति दिवादिः निटो धातवः ररन्धिथेति'रघोच हिंसासंराद्धयोः इति दिवादिः, रंध इटि०।४।४।१०१। इति नोन्तः, 'धगोदितः ।४।४।३८। इति तृजि विकल्पेटो न भवति । शिश्रयिथेति--श्रिग् सेवायाम् भ्वादिः ‘ऋवर्ण० ।४।४।५७। इति कित नित्यानिट्त्वात् न भवति। . चर्षियेति-कृष. भ्वादिधातुः, अत्र गुणे कृते अत्वान् न पूर्वम् ॥७॥ ऋतः।४४७६ : .. ऋदन्तात् तृन्नित्यानिटो विहितस्य थव आदिरिट न स्यात् । जहर्थ । तृनित्यानिट इत्येव-सस्वरिथ ॥७॥ सूत्रारम्भसामर्थ्यात् नवेति निवृत्तम् अन्यथा स्वरान्तद्वारेण पूर्वेण सिद्ध वर्तते । पूर्वस्यापवादोऽयम् । जह-हग भ्वादिरत्र । सस्वरिथ-ओस्व शब्दोपतापयोः ॥७९॥ ... ऋवृोऽद इट् ।४।४।८।. एभ्यः परस्य थव आदिरिट स्यात् । आरिथ । वरिथ । संदिव्ययिथ, आदिथ ॥८॥ पुनरिग्रहणान्नेति निवृत्तम् । अतः पूर्वेण वृग उत्तरेण प्रतिषेधे, व्येऽदोस्तु सृजिदृशि०।४।४।७८। सूत्रेण विकल्पे प्राप्ते वचनम् । व्यग् संवरणे भ्वादिः, अदक भक्षणे । थवो वित्त्वात् 'इन्ध्यसंयोगात० ।४।४।२१ सत्रण कित्त्वाभावः । वृ इति सामान्योक्तावपि वृगो ग्रहः वृङस्त्वात्मनेपदित्वेन थवोऽसम्भवः, उत्तर सूत्र तु परोक्षा' इति भणनात् द्वयोरपि ॥८०॥ स्क्रासृवृभूस्तुद्र श्रुस्रोर्व्यञ्जनादेः परीक्षायाः।४।४।८१॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) स्कृगः स्रादिवर्जेभ्यश्च सर्वधातुभ्यः परस्याः परोक्षाया व्यञ्जनादेरिट स्यात् । संचस्करिव । ददिव। चिच्यिवहे । स्क्रिति किम् ? चकृव । नादिवर्जनं किम् ? ससृवा ववृव । ववृवहे । बमर्थ । तुष्टोथ । दुद्रोथ । शुश्रोथ । सुस्रोथ ॥८१॥ .. संचस्करिवेति-स्कृच्छतो० ।४।३।८। सूत्रण गुणः । चिच्यिवहे इति । चिंग्ट् चयने 'योऽनेकस्वरस्य ।२।११५६ सूत्रात् यत्वम् । स्कृ इति स्सटा निर्देशांत् चकवेत्यत्र न भवति । स्तुद्र श्रस्र णां सृजिदृशि० ।४।४।७६ सुत्रोणापि थवि विकल्पो न भवति, अनेन प्राप्ते हि स विकल्पः, एषां तु प्रतिषिद्धत्वात्प्राप्तिर्नास्ति ववृषे इत्यत्र तु 'स्ताद्य०' ।४।४।३२ सोणापि न भवति । 'ऋवर्ण०. ।४।४।५० सूत्रात्प्रतिषेधात् ॥१॥ घसेकस्वरातः क्वसोः ।४।४।१२।। घसेरेकस्वरादादन्ताच्च धातोः परस्य क्वसोः परोक्षाया ' आदिरिट स्यात् । जक्षिवान् । आदिवान् । ययिवान् । परोक्षाया इत्येव-विद्वान् ॥८२॥ जक्षिवान्–अत्र ‘घस्लु अदने अथवा अदस्थाने' परोक्षायां नवा ।४।४।१८ सूत्राद् घसादेशः, 'तत्र कवसुकानौ तद्वत् ।५।२।२। सूत्रात् क्वसुः, द्वित्वम्, 'द्वितीयतूर्ययोः पूौं ।४।१।४२ सूत्राद् द्वित्वे धकारस्य गकारः, 'गहोर्ज०:' ।४१।४०। सूत्रात् गस्य जः, घसेक० ।४।४।८२ सूत्रादिट, गमहन० ।४।२।४४ । सूत्रादुपान्त्याकारलोपः, अघोषे प्रथमोऽशिट: ॥१॥३॥५० सूत्रात् घस्य क्, 'घस्वसः ।२।३।३६ सूत्रात् षः । ननु एक्स्वरत्वात् घस इट् सिद्ध एवास्ति तथापि घस्ग्रहणं किमर्थम् ? घस्ग्रहणं विहितविशषणानाश्रयार्थम्, तेन नित्यत्वात् द्वित्वे कृतेऽनेकस्वरत्वेऽपि शुक्षुवानित्यादौ न भवति । आग्रहणमनेकस्वरार्थम्, इटि हि सति आकारलोप उपान्त्यलोपश्च भवति । आदिवानिति-द्वित्वदीर्घत्वयोः कृतयोरेकस्वरत्वमत्र । विद्वानिति वा वेत्तेः क्वसुः ।५।२।२२। सूत्रात् सदर्थे क्वसुः । पूर्वेणैव सिद्ध नियमार्थ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) वचनम्, एभ्य एव क्वसोरादिरिट भवति । नान्येभ्यः इति || २ || गमहनविद्लविशदृशो वा । ४ । ४ । ८३ । एभ्यः परस्य क्वसोरादिरिट वा स्यात् । जग्मिवान् । जगन्यान् । जघ्निवान्, जघन्नवान्, विविदिवान् । विविद्वान् । विबिशिवान् । विविश्वान् । ददृशिवान् । ददृश्वान् ||८३ || विल' इत्यनेन विल ती लाभे इत्यस्य ग्रहणम्, तेन ज्ञानार्थस्य विदक् ज्ञानें' इत्यस्य 'विविद्वान्' इत्येव भवति' सत्ताविचारणयोस्तु धात्वोरात्मनेपदित्वात् क्वसुरेव नास्ति । न च विद इत्युक्त ऽपि 'अदाद्यनदाद्योरनदादेरेव इति न्यायात् लाभार्थस्यैव ग्रहणं भविष्यति, संत्ताविचारणार्थयोस्तु अनदादित्वेऽप्यात्मनेपदित्वात् क्वसोरसम्भव इति वाच्यं 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' इति न्यायात् तुदादे: 'विद्लृ ती लाभे' इत्यस्य ग्रहणासम्भवात् । वस्तुतस्तु उभौ एतौ न्यायौ परस्परविरोधिनौ नैवाऽत्र प्रवर्तेते तस्मात् येन प्रकारेण निर्विशङ्क लाभार्थस्य ग्रहणमुपपद्यते स प्रकार ः कर्तव्य इति लृकारोऽनुबन्धः कृतः इति । यद्वा न च तुदादिना विशिना साहचर्यात् लाभार्थस्यैव ग्रहणं भविष्यति किं लृकारकरणेनेति वाच्यम् यथा विशिना साहचर्यं तथा हन्तिनाऽपि साहचर्यशङ्का स्यात्ततश्चादादेरेव ग्रहणं स्यादिति । जग्मिवानिति - ' गमहन० |४| २|४४ | सूत्रादुपान्त्यलो':, मोनो म्वोश्च | २|१|६७ | सूत्रात् मस्य नः । जघ्निवानिति – 'अङ हिन० |४|१|३४| सूखात् हो घः ॥ ८३ ॥ सिचोऽः |४|४|८४ | अजे: सिथ आदिरिट् स्यात् | आञ्जीत् ॥ ८४ ॥ भजो व्यक्तिम्रक्षणगतिषु । सुवादोदित्वाद् विकल्पे प्राप्ते नित्यार्थमिक्म् ||८४|| Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ ) धूग्सुस्तोः परस्मै | ४|४|८५। एभ्यः परस्मैपदे सिच् आदिरिट् स्यात् अधावीत्, असावीत, अस्तावीत् । परस्मै इति किम् ? अधोष्ट ॥८५॥ 1 धूगो विकल्पे सुस्तुभ्यां च प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् । सु प्रसवैश्वर्ययोः षु'गुट् अभिवे इत्युभयोर्ग्रहणम् सु प्रसवैश्वर्ययौरित्यस्य तु कर्तयोत्मनेपदं न भवति ॥ ८५ ॥ यमिरमिनस्यातः सोऽन्तश्च | ४|४|८६ | एभ्थ आदन्तेभ्यश्च परस्मैपदे सिच आदिरिट् स्यात् । एषां च सन्तः । अयंसीत्, व्यरंसीत्, अनंसीत्, अयासिष्टाम् ॥८६॥ अन्तग्रहणात् ‘षष्ठ्यान्त्यस्य | ७|४|१०६ | सूत्रं न प्रवर्तते । अयंसीदत्यादि-यम् रम् नम् अत्र अद्यतनी दि' स सिजस्ते ० १४ | ३ ६५ | सुत्रात् ईत्, तदनन्तरं मिरमि | ४|४|८६ | सूत्रात् इट् इटः पश्चाद् धातोः परतः सोऽन्तः, 'इट ईति |४| ३ |७१ | सुत्रात् सिज्लोपः । अयासिष्टा-मितिअत्र ताम्प्रत्ययः, सिच्, इट् धातु सोऽन्तः । अथ दिस्योः परयोः सिच आदाबिविधानस्य किं फलमिति चेदवोत्तरम् एभ्यो दिस्योः सिच इविधानस्य व्यञ्जनानामनिटि | ४ | ३ | ४५ | सूत्राद् प्राप्ताया वृद्धयाः प्रतिषेधः प्रयोजनम् ||८६|| ईशीड : सेध्वेस्वध्वभोः । ४ । ४ । ८७ । आभ्यां वर्तमानासेध्वयोः पञ्चमीस्वध्वमोश्चादिरित् स्यात् । ईशिषे, ईशिध्वे ईशिष्व । ईशिध्वम् । ईडिषे । ईडिध्ये । ईवि । ईदम् ॥८७॥ परोक्षासेध्वयोरामा भाव्यमिति वर्तमानासेध्वयोर्ग्रहणम् । सूत्रे समुदाय - Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) द्वयापेक्षं द्विवचनम्, तेन स्वसहचरितस्य ध्वमो ग्रहणात् ह्यस्तनीध्वमि न भवति । सूत्रे वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः ॥८॥ रुत्पञ्चकात् शिदयः ।४।४।८। रुदादेः पञ्चतः परस्य व्यञ्जनादेः शितोऽयादेरादिरिट स्यात् । रोदिषि स्वपिषि, प्राणिति । श्वसिति । जक्षिति । अयिति किम् ? रुद्यात् । शित इति किम् ? रोत्स्यति । स्वप्स्यति ॥८॥ रुदिः, स्वपिः, अनिः, श्वसिः, जक्षि इति रुदादिपञ्चकम् ॥८॥ - -- दिस्योरिट् ।४।४।८६ रुत्पञ्चकात् दिस्योः शितोरादिरीट स्यात् । अरोदोत्, अरोवीः । ॥६॥ दिसाहचर्यात्सिः ह्यस्तन्या एव तेन रोदिषीत्यत्र ईट् न भवति ।।८।। .. अदश्चाट् ।४।४।। अत्ते रुत्पञ्चकाच्च दिस्योः शितोरादिरीट् स्यात् । आदत्, अरोदत्, अरोदः ॥१०॥ अदंक भक्षणे अदादिः ॥६०॥ संपरेः कृगः स्सट् ।४।४।६१॥ आभ्यां परस्य कृगः आदिः स्सत् स्यात् । संस्करोति कन्याम, परिष्करोति ॥६॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) रसट्प्रत्ययस्य एकसकारोऽनुबन्धः एकसकाररूप एव प्रत्ययः, द्विसकारपाठस्तु समचिस्करत्' इत्यादी षत्वबाधनार्थः । संस्करोतीति- सम्पूर्वः कृग्, ततः 'सं-परेः कृगः स्सट् ।४।४।११। सूत्रेण एकसकार एव सेट, 'स्सटि समः ।१।३।१२। सूत्रेणानुस्वारः पूर्वस्य तथा द्वितीयसकारः क्रियते । कस्यादिः कादिय॑ञ्जनमिति व्युत्पत्त्याऽनुस्वारस्य व्यजनसंज्ञत्वात् 'धुटो धुटि स्वे वा ।१।३।४८। सत्रेण विकल्पेन पूर्वसकारस्य लोपः । संस्करोति भूषयतीत्यर्थः । परिष्करोतीत्यत्र 'असोडसि० ।।३।४८। सूत्रेण षकारः । 'पूर्वं धातुरुपसर्गेण सम्बध्यते पश्चात्साधनेन' इति न्यायात् द्विवचनादडागमाच्च पूर्वमेवस्सड् भवति तेन संचस्कार, समचिस्करदित्यादि सिध्यति अन्यथा समां परिणा च कृगो व्यवधानं स्यात् ॥१॥ उपाद् भूषासमबायप्रतियत्नदिकारवाक्याऽध्याहारे। ।४।४ाई। . उपात्परस्य कृगो भूषादिष्वर्थेषु आदिः स्सट् स्यात् । कन्यामुपस्करोति, तत्र ,न उपस्कृतम्, एधोदकमुपस्कुरुते, उपस्कृतं भुङ्क्ते सोपस्कार सूत्रम् ॥१२॥ . भूषा=अलङ्कारः । कन्यामुपस्करोति भूषयतीत्यर्थः । समवायः समुदायः । तत्र नः उपस्कृतम् समुदितमित्यर्थः, वस्तनामेकत्र मेलनमिति यावत् । प्रतियत्नः पुनयंत्नः, केशादेः सौगन्ध्यादिसम्बन्धविधये, वृक्षादेः सेकादिना वृद्ध्यै अभिमतावस्थायोजनं प्रतियत्नः । एधोदकमुपस्कुरुतेतत्र प्रतियतते इत्यर्थः । प्रकृतेरन्यथाभावो विकारः । उपस्कृतं भुङक्त विकृतमित्यर्थः । गम्यमानार्थस्य वाक्यैकदेशस्य स्वरूपेणोपादानम्वाक्याध्याहरः । सोपस्कार सूत्रम्-सवाक्याध्याहारमित्यर्थः ।।१२।। .. किरो लवने ।४।४।६३। उपात्किरतेस्सडादिः स्यात्, लवनविषयार्थश्चेत् । उपस्कौर्य .... Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) मद्रका लुनन्ति । लवन इति किम् ? उपकिरति पुष्यम् ॥९३॥ किर् इति इनिर्देशः झ्यादिनिवृत्यर्थः । उपस्कोर्य मद्रकाः लुनन्तिकृत् विशेष, विक्षिप्य लुनन्तीत्यर्थः ॥६३॥ नतेश्च वधे ।४।४६४॥ भवेस्पाच्च किरतेहिसायां विषयेऽर्थे स्सडादिः स्यात् । प्रतिस्कोर्षमस्पस्कीर्णन वाहते वृषल भूयात् । प्रतिचस्करे नखैः । बष इति किम् ? प्रतिकोणं बीजम् ॥ १४ ॥ प्रतिस्कीर्णम्, उपस्कीणं वा ह ते वृषल भूयात् हे वृषल ते हिंसानुबन्धी विक्षेपो भूयादित्यर्थः । प्रतिस्करर्ण प्रतिस्कीर्णम्, ‘क्लीबे क्तः ।।३।१२३॥ सूत्रात् क्तः । प्रतिचस्करे नखः-हत इत्यर्थः । प्रतिकोणं बीजम्-विक्षिप्तमित्यर्थः ॥१४॥ अपाच्चतुष्पात्पक्षिशु निहृष्टान्नाश्रयाथें ।४।४६५॥ अपात्किरतेः चतुष्पदि पक्षिणि शुकि च कर्तरि यथासंख्यं हृष्टे, अन्नाथन आश्रयाथिनि स्सडादिः स्यात् । अपस्किरते गौहष्टः, कुक्कुटो भक्ष्यार्थी, आश्रयार्थी ग श्वा ॥१५॥ क्त्वारः पादा यस्य स चतुष्पात, 'सुसंख्यात् ७।३।५०। सूत्रेण समासान्तपादाब्दस्य 'पाद' आदेशः । अपस्किरते गौह ष्टः-बलीवर्दः हर्षाद् विलिख्य तटं विक्षिपतीत्यर्थः । हृषच तुष्टी, हर्षणं क्तिः, हृष्टिरस्यास्तीति 'अभ्रादिभ्यः । ७।२।४६ । सूत्रादप्रत्ययः । 'अवर्णवर्णस्य ।७।४।६। सूत्रादिकारस्य लुक् । यदि क्तः स्यात्तदा तु इट् स्यात्, हृष इत्यपि तुष्ट्यर्थो वा धातूनामनेकार्थत्वात् । अपस्किरते कुक्कुटो भक्ष्यार्थी-भक्ष्यभयतीत्येवं शीलः 'अजातेः शीले ५।१।१५४। सूत्रात् णिन्, विलिख्या Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) वस्करं कुक्कुटो विक्षिपतीत्यर्थः । अपस्किरते आश्रयार्थी श्वेति-विलिख्य भस्म विक्षिपतीत्यर्थः ॥१५॥ वौ विकिरो वां ४।४।६६॥ पक्षिणि वाच्ये विकिरतेः स्सड् आदिः स्यात् । विष्किरः, विकिरो वा पक्षी ॥६६॥ विष्किरतीति विष्किरः पक्षिविशेषः, विकिरोऽपि स एव । अन्ये तु पक्षिणोऽन्यत्र विकिरशब्दस्यापि प्रयोगो नास्तीत्याहुः ॥६६॥ प्रात्तम्पतेर्गवि ।४।४।। प्रात्तम्पतेर्गवि करि स्सडादिः स्यात् प्रस्तुम्पति गौः। गवीति प्रतुम्पति तरुः ॥९॥ तुम्प हिंसायाम् । प्रस्तुम्पति गौः-हिनस्तीत्यर्थः ॥६७।। उदितः स्वरान्नोऽन्तः ।४।४।। उदितः धातोः स्वरात्परो न अन्तः स्यात् । नन्दति, कुण्डा ॥६॥ टुनदु समृद्धौ इत्यस्मात् नन्दति । नोन्तः उपदेशावस्थायामेव भवति तेन कुण्डनं=कुण्डा' इत्यत्र ‘क्त टो गुरोर्व्यञ्जनात्' ।५।३।१०६। सूत्रादप्रत्ययः सिद्धः, तत्र गुरूमतो धातोर्भणनात् ॥६८।। मृचादितृफदृफगुफशुभोभः शे ।४।४।। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) एषां शे परे स्वरान्नोऽतः स्यात् । मुञ्चति, पिशति, तुम्फति, दृम्फति, गुम्फति, शुम्भति, उम्भति ॥६६॥ मृच्लुती मोक्षणे, षिचीत्, क्षरणे, विद्लुती लाभे, लुप्लुती छेदने, लिपीत् उपदेहे, कृतत् छेदने, चिदंत् परिद्याते, पिशत् अवयवे इति मुचादिगणः । तफ तुम्फत् तृप्तौ यथासंख्यं नकारवजितः, नकारयुक्तः एवमग्रेऽपि । हफ दृम्फत् उन्क्लेशे । गुफ गुम्फत् ग्रन्थने । शुभ शुम्भत् शोभार्थे । उभ उम्भत् पूरणे एते नकाग्युक्ताः, नकारवजिताः द्विविधाः । नम्फादीनां शे परे नस्य 'नो व्यञ्जन० ।४।४।४५। सूत्रेण नलोपः, तृफादीनां तु अनेन नस्य विधानम, विधानबलाच्च न नस्य लोपः इति तुफति, तृम्फति इत्यादि द्वैरूप्यं सिद्धम् ॥६६॥ जभः स्वरे ।४।४।१००। जभेः स्वरात्परः स्वरादौ प्रत्यये नोऽन्तः स्यात् । ८.म्भः ॥१०॥ जभ. मैथुने, जभुङ्, जभैङ् गात्रबिनामे । जम्भ-इत्यत्र अच्, भावकरणादौ पत्र वा ॥१०॥ रघ इटि तु परोक्षायामेव ।४।४।१०१। रधः स्वरात्परः स्वरादौ प्रत्यये नोऽन्तः स्यात् इडादौ तु परोक्षायामेव । रन्धः । ररन्धिव। परोक्षायामेवेति किम् ? रधिता ॥१०१॥ पूर्वसूत्रात् स्वराधिकारे सत्यपि यदत्र 'रध इटि तु ।४।४।१०१॥ सूत्रे इड्ग्रहणं करोति तस्मात् इड्ग्रहणबलात् नियमः सिद्धः । सूत्रे एवकारस्तु विपरीतनियमनिरासार्थः तेन 'ररन्ध' इत्यत्र न नियमः ॥१०१॥ रभोऽपरोक्षाशवि ।४।४।१०२॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( २५१ ) रभेः स्वरात्परः परीक्षाशवर्जे स्वरादौ प्रत्यये न अन्तः स्यात् । आरम्भः । अरोक्षाशवीति किम् ? आरेभे । आरभते ॥१०२॥ रशि राभस्ये ॥१०॥ लभः ।४।४।१०३॥ लभः स्वरात्परः परोक्षाशव्वर्जे स्वरादौ प्रत्यये न अन्तः स्यात् । लम्भकः ॥१०३॥ योगविभाग उत्तरार्थः । लभेः परस्मैपदस्याप्यभिधानाल्लभन्ती स्त्री इति केचिदाहुः ॥१०॥ आङो यि ।४।४।१०४॥ आङः परस्य लभः स्वरात्परो यादौ प्रत्यये न अन्तः स्यात् । आलम्भ्या गौः । यीति किम् ? आलब्धाः ॥१०॥ डुलभिष् प्राप्तौ, आलभ्यते इति आलभ्या, 'शकितकि० ।५।१।२९। सूत्राद् यः ॥१०४॥ उपास्तुतौ ।४।४।१०। उपात्परस्य लभः स्वरात्परो यादौ प्रत्यये स्तुतौ गम्यायां न् अन्तः स्यात् । उपलम्भ्या विद्या । स्तुताविति किम् ? उपलभ्या वार्ता ॥१०॥ उपलभ्या विद्या-ज्ञायते विद्या इत्यर्थः, 'शकितकि० ।५।१।२९। सूत्राद् यप्रत्ययः १०५॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) - जिरष्णमोर्वा ।४।४।१०६। औ ख्यणि लभः स्वरात्परो न अन्तो वा स्यात् । अलम्भि। लम्भलम्भम्, लाभलाभम् ॥१०६॥ लम्भलम्भम्, लाभलाभमिति–'रव्णम् चामीक्ष्ण्ये ।५।४।४८ सूत्रात् रणम् । नान्ताभावपक्षे अकारोपान्त्यवात् 'ञ्णिति ।४।३।५०। सूत्रेण वृद्धिः ॥१०६॥ उपसर्गात खल्योश्च ।४।४।१०७r उपसगाल्लभः स्वरात्परः खल्धजोजिरव्णमोश्च परयो अन्तः स्यात् । दुष्प्रलम्भम्, प्रलम्भः प्रालम्भि, प्रलम्भंप्रलम्भम् । उपसर्गादिति किम् ? लाभः ॥१०७॥ . दुःखेन प्रलभ्यते-दुःष्प्रलम्भम्, 'दुःस्वीषतः० ।५।३।१३८. सूत्रेण खल् । भिरष्णमोनित्यार्थमुपसर्गादेव खल्यत्रोरिति नियमाथं च वचनम् । लभः उपसर्गात् खल्यञोरेवेति विपरीतनियमस्तू 'शप उपलम्भने ।३।३।३५॥इति शापकात् न भवति ॥१०७॥ सुदुW.।४।४।१०८। आभ्यां समस्तव्यस्ताभ्यां उपसर्गात्पराभ्यां परस्य लभः स्वरात्परः खल्बोर्नोऽन्तः स्यात् । अतिसुलम्भम्, अतिदुर्लम्भम्, अतिसुलम्भः । अयिदुर्लम्भः, अतिसुदुर्लम्भम्। अतिसुदुर्लम्भः । उपसर्गादित्येव सुलभम् ॥१०७॥ अतिसुलभमतिदुर्लभमित्यतेः पूजातिक्रमयोरनुपसर्गत्वात्, उपसर्गादेवसुदुर्थः इति नियमार्थं वचनम्, बहुवचनं व्यस्तसमस्त परिग्रहार्थम् दुःसंग्रहार्थं च । व्यस्ताभ्याम् एकैकाभ्याम् अतिशयेन सुखेन लभ्यते= अतिस Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .( २५३ ) म्भम् । अतिशयेन दुःखेन लभ्यते-अतिदुर्लम्भम, अत्र दुःखातिशयस्यातिशयो ज्ञातव्यः, अतिमहादुष्प्रापमित्यर्थः, 'दुःस्वीषत.,५।३।१३६ सूत्रात् खल्। अतिसुदुर्लम्भमिति खलन्तसमस्तस्योदाहरणम्, अतिसुदुर्लम्भ इति घनन्तसमस्तस्योदाहरणम् । अत्र समस्तग्रहणेन विपर्यस्तावपि, दुःसु' इत्येवं गृह्यते । सुलभमिति-पूजार्थत्वात् 'सु' इत्यस्य धातोः० ।३।१।१। सूत्रादुपसगत्वाभावः ।।१०८॥ नशो धुटि ।४।४।१०६। नशेः स्वरात्परो धुडादौ प्रत्यये न अन्तः स्यात् । नंष्टा । धुटीति किम् ? नशिता ॥१०॥ नशौच अदर्शने दिवादिः ॥१०॥ मस्जेः सः ।४।४।११०॥ मस्जेः स्वरात्परस्य संस्य धुडादौ प्रत्यये न अन्तः स्यात् । मकृत्वा ॥११०॥ आदेशकरणं नलोपार्थमन्यथा 'संयोगस्यादौ० ।२।१८८। सूत्रेण स्लुकि कृतेऽपि 'नो व्यञ्जनस्या० ।४।२।४५। सूत्रादुपान्त्यलोपे कर्तव्ये स्लुक् असन् भवतीति नान्तलोपो न प्राप्नुयात्, उपान्त्यस्याभावात् । मङ क्त्वेत्यत्र 'चजः कगम् ।२।१।८६। सूत्रात् जस्य गकारः, 'अघोषे प्रथमो० ।१।३।५०। 'सूत्रात् गकारस्य ककारः ॥११०॥ अः सजिशोऽकिति ।४।४।१११। अनयोः स्वरात्षरो धुडादौ प्रत्यये अदन्तः स्यात्, न तु किति । स्रष्टा, द्रष्टुम् । अकितीति किम् ? सृष्टः ॥१११॥ Page #261 --------------------------------------------------------------------------  Page #262 --------------------------------------------------------------------------  Page #263 --------------------------------------------------------------------------  Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) पौ य्वर्जव्यञ्जनादौ च परे यवोर्लुक् स्यात् । क्नोपयति, मातम्, देदिवः, कण्डूः । य्वर्जनं किम् ? कनूय्यते ॥१२१॥ पुग्रहणमप्रत्ययार्थम् । क्नोपयति-क्नूयैङ् भ्वादिः 'अतिरी० ।४।२।२१। सूत्रात् पुरन्तः, यस्य लक । क्ष्मायैड विधन इत्यस्य क्ष्मातम् । दिवच क्रीडायाम् भृशं पुनर्पनर्वा दीव्यावः, यङ 'वहुलं लप् ।३।४।१५। सूत्रात् यो लुप्, वर्तमानावस् । कण्डमिच्छतीति कण्डूयति, क्यन्, कण्डूयतीति क्विप् अथवा कण्डूयनं कण्डू: 'ऋत्सं० ।५।३।११४। सूत्राक्विप् । 'अतः ।४।३।१२। सूत्रेणाकारलोपः, 'य्वोः प्वय० ।४।४।१२१।सूत्रात् यकारलोपः ॥१२१॥ - कृतः कीतिः ।४।४।१२। कृ तणः कीति: स्यात् । कीर्तयति ॥१२२॥ कृतः ऋदुपदेशोऽचीकृतदित्यत्र ऋकारश्रवणार्थः । ननु धातुपाठे कृ तण् संशब्दने इत्यस्य स्थाने कीर्तणिति पठ्यतां किमादेशेनेति वाच्यमचीकृतदित्यत्र ऋकारश्रवणार्थ इति । 'ऋदेवर्णस्य' ।४।२।३७। सूत्रे वर्णग्रहणसामादत्र कीादेशो बाध्यते । ननु कृ तणित्यस्य स्थाने हस्वरिपाठ एव क्रियतामेवं च 'ऋहवर्णस्य' ।४।२।३७। सूत्रे वर्णग्रहणमपि न कर्तव्यं भवेदिति चेत्सत्यम् अत्र सूत्रे कृतण इत्यस्य कृतः' इति निर्देशे कृते कृतण अथवा कृतत् ग्राह्य इति संदेहः स्यात् । इकारान्तनिर्देशो मंगलार्थः ॥ १२२ ॥ * इति चतुर्थाध्यायः * . -:००: Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) धर्मयुद्ध क्यों? भगवान् का संघ, भगवान् के सिद्धान्त की रक्षा के लिये लड़ना पड़े तो लड़े, परन्तु दुनियां की किसी भी चीज के लिये वह नहीं लड़ता। लडते समय भी सामने वाले के हित की चिन्ता तो उसके हृदय में बैठी ही होती है क्योंकि यह तो धर्मयुद्ध है। ये सिद्धान्त तो पूरे जगत का कल्याण करने वाले हैं। इनकी हानि हो तो उसे रोकने के लिये कषाय ।' भी करने पड़ते है। ____ जगत् का भला करने वाले सिद्धान्त जिन्दे रहने चाहिये । जगत् के . सभी जीवों का भला सोचना यह सही, परन्तु सर्व कल्याणकारी शासन के सामने कोई शिर ऊंचा करे तो उसके सामने योग्य कदम लेने ही पड़ते हैं। - शक्ति होने पर भी खोटी बातों का विरोध किये बिना हमको चेन नहीं पड़ती, चेन पड़े तो हमारे में साधुपना रहे नहीं । तुमको तो सम्हा-. लने जैसा वहुत है इसलिये तुम्हारा दिमाग ठण्डा रहे । हमारे तो सम्हालने • जैसा एक यह धर्मशासन ही है। यह भी यदि न सम्हाले तो हमारे पास - दसरा रहे क्या ? समय आने पर बिरोध करने के लिये ही हम विरोध नहीं करते, विरोध करने की हमारी आदत नहीं है परन्तु कम भाग्य हैं कि बात-बात में विरोध करना पड़ता है ऐसा काल में हम जन्मे है। बहुत से ऐसी सलाह देने आते है कि विरोध से क्या होने वाला हैं ? मुझ उनको कहना है कि, भले कुछ न हो, परन्तु योग्य जीवों को तो इसके द्वारा सच्ची समज की प्राप्ति होती ही है और हमको तो निर्जरा ही है। विरोध करने के समय विरोध किया था ऐसा आत्मसन्तोष पाकर शान्ति से मर सकेंगे। शक्ति होने पर भी, अधर्म का विरोध न करे तो, मरते समय समाधि भी नहीं मिलती। (व्याख्यानवाचस्पतिप०आ० श्री विजय रामचन्द्र सूरीश्वर जी महाराजा) Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पञ्चमोऽध्यायः आ तुमो त्यादिः कृत् |५|१|१| धातोर्विधीयमानस्त्यादिवर्जो वक्ष्यमाणः प्रत्ययस्तुमभिव्याप्य कृत् स्यात् । घनघात्यः । अत्यादिरिति किम् ? प्रणिस्ते ॥१॥ सूत्रे प्रकृतेरनिर्दिष्टतया प्रत्ययस्य नियमतः प्रकृतिसापेक्षत्वात् कृतां प्रकृति निर्दिशति - धातोरिति कृत्सूत्रे चतुर्थपादप्रान्ते शिकष० | ५|४|१०| सूत्रोक्तं तुमभिव्याप्य तुम्प्रत्ययं यावत् कृत्संज्ञा । कृत्संज्ञात्वात् प्रनिदितुम्, प्रणिदितुमित्यत्र 'निसंनक्षनिन्दः कृति वा | २| ३ | ४ | सूत्रेण णत्वं सिद्धमन्यथा 'अदुरुप० | २|३|७७| सूत्रेण नित्यं णत्वं स्यात् । घनघात्य इति – 'हनंक हिंसागत्योः' घनेन हन्यते इति 'ऋवर्णव्यञ्जनाद् ध्यण् |५|१|१७| सूत्राद् घ्यण्, 'ञ्णितिं घात्' |४ | ३ | १०० | सूत्राद् हनो घातादेशः, 'कारकं कृता |३|१|६८ | सूत्रात्समासः । प्रणिस्ते इति - 'णिसुकि चुम्बने ' इति प्रपूर्वस्य निस्धातोस्ते प्रत्यये णोपदेशत्वात् 'अदुरुपसर्गा० | २|३|७७| सूत्रात् णत्वम् । अत्र तेप्रत्ययस्य कृत्संज्ञायां 'निस निक्ष० | २ | ३ | ४ | सूत्रात् विकल्पेन . णत्वापत्ते रिति भावः ॥ १॥ बहुलम् |५|१|२| कृन्निदिष्टार्थादन्यत्रापि बहुलं स्यात् । पादहारकः, मोहनीयं कर्म, संप्रदानम् ॥२॥ अधिकारोऽयम् । सर्वेषां कृत्प्रत्ययानां बाहुलकेन विधानार्थमिदमधिकार सूत्रं क्रियते । बाहुलकं चतुर्धोक्त प्राचीनैः - क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । विविधानं बहुधा समीक्ष्य, चातुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) एषु क्वचिदन्यदेवेति तृतीयबाहुलकाभिप्रायेण सूत्रमिदं व्याचष्टे कृन्निर्दिष्टार्थादन्यत्रापोति । क्वचिदुपपदप्रकृतीनामपि व्यभिचारः यथाप्रयोग- . मूहनीयः । इह तु अर्थस्य व्यभिचारं दर्शयति पादाभ्यां ह्रियते इति पादहारकः ‘णकतृचौ ।५।१।४८ सूत्रात् णकः, 'कारकं कृता ।३।११६८। सूत्रात्समासः । कर्तरि ।५।१।३। सत्रात्कर्तरि विधीयमानो ऽपि णकप्रत्ययः कर्मणि भवति । मुह्यतेऽनेनात्मेति-मोहनीयं कर्म । 'मुहीच वैचित्त्ये' बैचित्त्यमविवेकः, अह्यति सदसद्विकलो भवत्यात्मा अनेनेति 'तव्यानीयो. . ।५।१।२७। सूत्रादनीयप्रत्ययः । ते कृत्याः ।५।१।४७। सत्रादनीयप्रत्ययस्य कृत्यसंज्ञायां 'तत्साप्याना० ।३।३।२१॥ सत्रात्प्रत्ययः सकर्मकात्कर्मणि अकर्मकाच्च भावे भवति । सत्यप्येवं वाहलकात् मोहनीयमित्यत्र करणेऽ नीयप्रत्ययो भवति । संप्रदीयतेऽस्मा इति-संप्रदानम् अत्र बाहुलकारसंप्रदाऽ नट्प्रत्ययो भवति ।।२।। कर्तरि ।।१।। कृदर्थविशेषोक्ति विना कर्तरि स्यात् । कर्ता ॥३॥ 'अनिर्दिष्टार्थप्रत्ययस्य स्वार्थे विधानमिति सामान्यनियमात् धातोः स्वार्थे . भावे क्रियायां मा भूदिति तेषामर्थनिर्देशार्थमिदं सूत्रम् ॥३॥ व्याप्ये घुरकेलिमकृष्टपच्यम् ।।१।४। धुरकेलिमौ प्रत्ययौ कृष्टपच्यश्च व्याण्ये कर्तरि स्युः भङ्ग रं काष्टम् । पचेलिमा भाषाः । कृष्टपच्याः शालयः ॥४॥ व्याप्ये कर्तरीति-व्याप्यं कर्मैव यत्र कर्ता, यत्र कर्मैव सौकर्यादिना कर्तृत्वेन विवक्ष्यते तत्रेति भावः । पूर्वसूत्रेणानिर्दिष्टानां प्रत्ययानां कर्तरि विधानात् घुरादेरपि तथाभूतत्वात्कर्तरि विहितत्वमाशङ्क्यानेन सूत्रेण तेषामर्थनिर्देशः कृतः । भनक्ति काष्ठं चैत्रः, स एवं विवक्षति, नाहं भनज्मि, किन्तु भख्यते स्वयमेव काष्ठम् ‘भजिभासि० ।५।२।७४ सूत्रेण घुरप्रत्ययः । पच्यन्ते स्वयमेवेति कर्मकर्तरि केलिमप्रत्ययः । केलिमस्य सूत्रान्तरेण Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) विधानाभावात् केलिमोऽत एव वचनाद् ज्ञातव्य: । 'विहाविशा, उणा० ३५४ इति केलिमस्तु नियतधातुविषयः, अयं तु सर्वधातुविषयः । कृष्टे कृष्ट प्रदेशे स्वमेव पच्यन्ते फलन्ति ते कृष्टपच्याः शालयः ॥ ४ ॥ संगतेऽजर्यम् ||१|| ८ संगमनं संगतम्, तस्मिन् कर्तरि नञपूर्वात् ज षो यो निपात्यते । अजर्यम् आर्यसंगतम् । संगत इति किम् ? अजरः पटः ||५|| गत्यर्थाद् धातोः कर्तरि कर्मणि च क्तप्रत्यस्य विधीयमानतया तादृशप्रत्ययान्तस्य संगतशब्दस्य ग्रहणं भा भूदित्येतदर्थं क्तप्रत्ययस्य भावार्थत्वं स्फीरयति संगमनं संगत मिति । एतत् यत्र कर्तृत्वेन विवक्ष्यते तत्र इति भावः । न जीर्यतीति- अजर्यमार्य संगतत्ः अविनश्वर आर्यसंगम इत्यर्थः । तृज़ादीनामपवाद: । क्रयादिकस्य नृ शो निपातनमदृष्टमत नृ षच् जरसीति दिवादि ग्रहणात् . न जीर्यतीति साधनिका । अजरः पटः- न जीर्यती त्यच् ।।५।। रुच्या व्यथ्यवास्तव्यम् | ५|१|६| एते कर्तरि निपात्यन्ते । रुच्यः, अव्यथ्यः वास्तव्यः ॥ ६ ॥ रोचते इति रुच्यः मोदकः । न व्यथते पीडा भयं वा नोत्पादयति स अन्यथो मुनिः । वसतीति तव्यणि णित्वादुपान्त्यवृद्धौ वास्तव्यः रोचतेः, नपूर्वाद व्यथतेश्च क्यप् प्रत्ययो निपात्यते, वसतेश्च तव्यण् निपात्यते ||६|| भव्यगेयजन्यरस्यापात्याप्लाव्यं नवा | ५|१|७| एते कर्तरि वा निपात्यन्ते । भव्यः, गेयः साम्नाम्, जन्यः, रुम्यः, आपात्यः, आप्लाव्यः । पक्षे भव्यम्, गेयानि सामानि जम्यम्, रम्यम्, आपत्यम्, आप्लाव्यम् ॥७॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) 'तत्साप्या० ॥३।३।२१। सूत्रात्कृत्यप्रत्ययानां भावकर्मणोः प्राप्तयोः पक्षे कर्तरि विधानार्थमिदम् । 'भूगायतिरमयतिभ्यो यो यः प्रत्ययः यश्च जनेरःङ पूर्वाभ्यों च पतिप्लुभ्यां ध्यण् स कर्तरि वा निपात्यन्ते । भवत्यसाविति-भव्यः “ययक्ये ।१।२।२५। सूत्रादवादेशः । पक्षे भावे ये भव्यम् । गायति इति कर्तरि ये आकारस्य एकारे गेयः साम्नाम् । पक्षे गीयन्ते इति कर्मणि ये गेयानि सामानि । जायतेऽसाविति कर्तरि घ्यणि 'न जन० ।४।३।५४। सत्राद् वृद्धिनिषेधे जन्यः, पक्षे भावे ऋवर्ण०।४।१।६७। इति घ्यणि जन्यम् । रमयतीति कर्तरि घ्यणि णिलोपे रम्यः, पक्ष रम्यते इति भावे 'शकितकि० ।५।१।२६। सूत्रेण यप्रत्यये रम्यम् । आपततीति कर्तरि उपान्त्यवृद्धी आपात्यः । पक्ष भावे-आपात्यम् । आप्लवते इति कर्तरि ध्यणि आप्लाव्यः, पक्ष भावे अवश्यमाप्लूयते इति ‘उवर्णादा० ।५।१।१६। ... सूत्रेण घ्यण, वृद्धिः, 'य्यक्ये । १।२।२५। सूत्रण आवादेशः ॥७॥ प्रवचनीयादयः ।।१।। एतेऽनीयप्रत्ययान्ताः कर्तरि वा निपात्यन्ते । प्रवचनीयो गुरुः . शास्त्रस्य । प्रवचनीयं गुरुणा शास्त्रम् । उपस्थानीयः शिष्यो गुरोः। उपस्थानीयः शिष्येण गुरुः ॥८॥ प्रवक्ति, प्रबले वा प्रवचनीयः गुरुः शास्त्रस्य । उपतिष्ठते इति उपस्थानीयः शिष्यो गुरोः । अत्र अकर्मकस्यापि. स्थाधातोरूपसर्गवशात्सकर्मकत्वं शेयम् । एवं ज्ञानामावृणोति ज्ञानोवरणीयमित्यादि अनेन निपातनाद् द्रष्टव्यम् ॥८॥ श्लिषशीस्थासवसजनरुहज भजेः क्तः ।।१६। एभ्यक्तो यो विहितः स कर्तरि वा स्यात् । आश्लिष्टः कान्तां चैत्रः । आश्लिष्टा कान्ता चैत्रेण । अतिशयितो गुरु शिष्यः । अतिशयितो. गुरुः शिष्यैः ।उपस्थितो गुरु शिष्यः। उपस्थितो गुरुः शिष्यैः । उपासिता गुरुः शिष्यैः । उपासिता गुरु ते, उपासितो गुरुस्तै, अनूषिता Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .( २६३. ) गुरुते, अनूषितो गुरुस्तैः । अनुजातास्तां ते, अनुजाता सा त।' आरूढोऽश्वं स: । आरुढोऽश्वस्तैः । अनजीर्णस्तां ते, अनजीर्णा सातैः । विभक्ता स्वं ते, विभक्तं स्वं तैः ॥६॥ ... ' क्तप्रत्ययस्य भावकर्मणोरेव विधानादेभ्यः कर्तरि इष्टस्य तस्याप्राप्तेः : विधानार्थमिदम् । 'श्लिषंच आलिङ्गने' आश्लिष्यति स्म कर्तरि क्ते आश्लिष्ट इति । पक्ष कर्मणि आश्लिष्टा कान्ता चैत्रण । भावे तु आश्लिष्टं चैत्रेणं इत्यपि भवति । शीङ्क स्वप्ने अतिशेते स्मेति कर्तरि अतिशयितो गुरु शिष्यः, कर्मणि अतिशयितो गुरुः शिष्यः 'न 'डीङ ।४।३।२। सूत्राकित्त्वप्रति धाद् गुणः । उपतिष्ठते स्मेति कर्तरि-उपस्थितो गुरु शिष्यः ।कर्मणि उपस्थितो गुरुः शिष्य । अन्न 'दोसोमा० ।४।१।११। सूत्रादाकारस्येकारः। आसिक् उपवैशने इतिआस्धातीः उपास्ते स्मेति कर्तरि उपासितो गुरु शिष्यः । कर्मणि उपासितो गुरुस्तैः। तैरित्यस्य स्थाने तेनेति समीचीनं प्रतिभाति । अनुवसति स्मेति कर्तरि अनूषिता गुरुते । कर्मणि अभूषितों गुरुस्तेः । अन 'यजादिवचेः किति'।४।१७६। सूत्रात् वृत् उकार:, 'क्ष धवसस्तेषाम् ।४।४।४३॥ सूत्रादिट, घस्वसः ।२।३।३६। , सूत्रात् सस्य षत्वम् । अनुजायन्ते स्मेति कर्तरि क्त 'आः खनि-सनि-जनः ।४।२।६०। सूत्रादात्त्वे अनुजातास्तांते । कर्मणि अनुजाता सातैः । रुहं जन्मनि' आरोहति स्मेति कर्तरिक्त आरुढोऽश्वं भवान । कर्मणि आरूढोऽश्वस्तैः । अत्र हस्य ढः, तस्य घः, घस्य ढः, पूर्बढलोपो दीर्घश्च । 'ज़ षच जरसि' अनुजीर्यन्ति स्मेति कर्तरिक्त ऋवर्ण,यू० ।४।४।५७। सूत्रादिट्प्रतिषेधे 'ऋल्वादे० ।४।२।६८। सूत्रात् क्तस्य ने, इरादेशे दीर्वं च अनुजीवास्तां ते । अनुप्राप्य जीर्णा इत्यर्थः । कर्मणि अनुजीर्णा सा तैः। अनुपूर्वको ज़, प्राप्त्युपसर्जने जरणे वर्तते, जनिस्तु जननोपसर्जनायां प्राप्ताविति भेदः । भजी सेवायाम् विभजन्ति स्मेति कर्तरि विभक्ताः स्वं ते । कर्मणि विभक्त स्वं तैः । स्वं धनम् । अकर्मका अपि धातवः उपसर्गसम्बन्धात् सकर्मका भवन्ति इति शीडादिग्रहणम्, अन्यथाऽ कर्मकत्वात् 'गत्यर्थाकर्मक० ।५।१।११। सूत्रेणैव सिद्धम् । श्लिषभजी केवलावपिसक मको । फलसमानाधिकरणव्यापारवाचकत्वमकर्मकत्वम्, फलव्यधिकरण व्यापारवाचकत्वं सकर्मकत्वम् । यत्र फलव्यापारौ पृथक्, पृथक् तिष्ठतः सः धातुः सकर्मकः, यथा भधातो फलमात्मधारणं व्यापारश्च तदनुकूलो यत्नः उभावेकत्रैव कर्तरि तिष्ठतः देवदत्तो भवतीति । पचधातोः फलं hiTV THHHHHHU Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) विक्लितिः व्यापारश्च तदनुकूलो यत्नः उभौ पृथक्, पृथक् तिष्ठतः, फलमोदने, व्यापारश्च कर्तरि देवदत्ते, ओदनं पचति देवदत्त इत्यत्र । भूधातुरकर्मकः, पचधातुः सकर्मकः । उपसर्गेण धात्वर्थो भिद्यते अत एवाकर्मका अपि उपसर्गवशाद् सकर्मका भवन्ति । उक्तश्चोपसर्गवशाद् धात्वर्थभेदः यथा उपसर्गेण बलादन्यत्र नीयते । प्रहाराहारसंहार विहारपरिहारवत् ॥ यथा भूधातोरपि 'चैत्र आनन्दमनुभवति' इत्यत्रानूपसर्गवशात्सकर्मकत्वम् ॥६॥ आरम्भे ।।१।१०। आरम्भार्थाद् धातो तादौ यः क्तो विहितः स भर्तरि वा स्यात् । प्रकृताः कटं ते, प्रकृतः कटस्तैः । १०॥ आदिशब्दात् वर्तमानाभविष्यत्योः परिग्रहः 'ज्ञानेच्छा० ।५।२।६२। 'कषोऽनिट: ।५।३।३। इत्याक्सूित्रेभ्यो वर्तमानाभविष्यदर्थे तो विधीयते । यथा ज्ञातुमारभते:=प्रज्ञातः । कषिष्यतीति=कष्टम् । प्रकुर्वन्ति कटं ते= प्रकृताः कटं ते । अत्र प्रशब्दः आरम्भमादिकियां द्योतयति । पक्षे कर्मणि प्रकृतः कटस्तैः ॥१०॥ गत्यक्रिर्मक पिबभुजेः ।।१।११। भूतम्दौ यः क्तो विहितः स एभ्यः कर्तरि वा स्यात् । गतोऽसो प्रामम्, गतोऽसो तैः । आसितोऽसौ, आसितं तैः पीताः पयः, पीतं पयः । भुक्तास्ते, इदं तैभुक्तम् ॥११॥ गच्छति स्मेति कर्तरि क्त गतोऽसौ ग्रामम् । गम्यते स्मेति कर्मणि क्त गतोऽसौ तैः। आसिक उपवेशने आस्ते स्मेति कर्तरिक्त इटि च आसि Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) तोऽसौ। भावे तु आसितं तैः । पिबेति निर्देशात् 'पां पाने' इत्यस्यैव पाधातो हणम्, पिबन्ति स्मेति कर्तरि क्त पीता पयः । पीयते स्मेति कर्मणि क्त पीतं पयः। भुञ्जते स्मेति कर्तरिक्त भुक्तास्ते। भुज्यते स्मेति कर्मणि इवं तैर्भुक्तम् । सकर्मका अप्यविवक्षितकर्माणोऽकर्मका भवन्तीति अविवक्षितकर्मणामपीह अकर्मकशब्देन ग्रहणम् । अविवक्षितकर्मभ्वो नेच्छन्त्येके ॥११॥ अद्यर्थाच्चाधारे ॥५॥॥१२॥ आहारार्थाद् धातोर्गत्यर्थादेश्च यः क्तः स आधारे वा स्यात् । इदमेषां जग्धम्, तैर्जग्धम् । इदं तेषां यातम्, तैर्यातम् । इदमेषां शयितम्, तैः शयितम् । इदं गवां पीतम्, गोभिः पीतम् । इदं तेषां भुक्तम्, इद तैर्भुक्तम् ॥१२॥ अदेरर्थ इव अर्थो यस्य स अद्यर्थस्तस्मात् आहार्थादित्यर्थः । गत्यर्थांदेश्चेति 'गत्यर्था० ५।१।११। इति 'अदंक भक्षणे' अद्यते स्मास्मिन्नित्याधारे क्त इदमेषां जग्धमिति। एषामिदं भोजनस्थलमित्यर्थः । पक्षे अद्यते स्मेति कर्मणि क्त तैर्जग्धमिति । 'यपि चादो जग्ध ।४।४।१६ सूत्रेण जग्धादेशः। शेतेऽस्मिन्निति इदमेषां शयितम् । पिबत्यस्मिमिन्नति-इदं गवां पीतम् । भुङ्क्तेऽस्मिन्निति-इडं तेषां भुक्तम् ॥१२॥ क्त्वातुमम् भावे ।।१।१३। एते धात्वर्थमात्रे स्युः । कृत्वा, कर्तुम् । कारं कारं याति ॥१३॥ सूत्र भावे इति बननात् कादि कारकं निवृत्तम् । कारकनिवृत्तौ सत्यां नधा इत्यपि निवृत्तम् । पूर्व करणमिति 'प्राक्काले ।५।४।४७ सूत्रात् क्त्वि कृत्वा । क्रियायां क्रियार्थायां तुम्०।५।३।१२। सूत्रात् तुमि कतुं याति ।अभीक्ष्णं करणं पूर्वम् ‘रुणम् चाभीक्ष्ण्ये ।।४।४८ सूत्रात् खणमि 'भृशा०1७४।७३। सूत्रात् च.कारंकारं याति ।।१३।। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) भीमादयोऽपादाने ।।१।१४॥ एतेऽपादाने स्युः। भीमः, भयानकः ।।१४॥ त्रिभीक् भये बिभेत्स्यमादिति भियः षोन्तश्च वा। उणा०३४४। इति किति मप्रत्यये-भीमः। बिभेत्यस्मादिति 'शी० उणा० ७१ इत्यानके गुणे च भयानकः ॥ उणादिप्रत्ययान्ताः एते 'संप्रदानाच्चा० ।५।१।१५ सूत्रात निषे. घेनाप्राप्ता निपात्यन्ते ॥ १४ ॥ संप्रदानाच्चान्यत्रोणादयः ।।१।१५॥ संप्रदानादपादानाच्चान्यत्रार्थे उणादयः स्युः । कारुः, कषिः ॥१५॥ कृत्वात्कर्मण्येव प्राप्ताः कर्मादिष्वपि कथ्यन्ते। करोतीति-कारुः । अत्र 'कृ-वा० । उणा० १) इत्यनेन उप्रत्ययः । कषितोऽसाविति कर्मणि कषिः। 'कृ-श । उणा० ६१९ इत्यनेन इप्रत्ययः ।।१५।। .. असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक् क्त: ।।१।१६। इतः सूत्रादाराम्य स्त्रियां क्तिरित्यतः प्राक योऽपवाद-स्तद्विषयेऽपवादेनाऽ-समान रूप औत्सर्गिकः प्रत्ययो वा स्यात् । अबश्यलाव्यम्, अवश्यलवितव्यम् । असरूप इति किम् ? ध्यणि यो न स्यात् । कार्यम् । प्राक्तेरिति किम् ? कृतिः, चिकीर्षा ॥१६॥ अपवादेन सह अप्समान रूपः यः सदृशो न भवति स उत्सर्गप्रत्ययः अपवादविषये वा भवतीति भावार्थः । यो विशेषानभिधानेन विधीयते स उत्सर्गप्रत्ययः, यश्च विशेषस्वरूपेण नियतविषयेण वा विधीयते सोऽपवादप्रत्ययः । अवश्यलाध्यमिति–'लूग्श् छेदने' धातुः, अवश्यं भावे द्योत्ये भावे कर्मणि वा 'उवर्णादावश्यके ।५।१।१६। सूत्रात् अपवादभूते .ध्यणि वृद्धौ ‘य्यक्ये । १।२।२५ सूत्रादौत आवादेशे मयूरव्यंसकादित्वाासमासे 'कृत्ये Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) . ऽवश्यमो लुक् ।३।२।१३८। सूत्रात् मकारलोपे च सिद्धम् । पक्षे औत्सर्मिकः तव्यप्रत्ययः ॥१६॥ ऋवर्णव्यञ्जनान्ताद् घ्यण् ।५।१।१७। ऋवर्णान्तात् व्यञ्जनान्ताच्च धातोय॑ण् स्यात् । कार्यम्, पाक्यम् ॥१७॥ णकारों वृद्धयर्थः। घकार: ‘क्तेऽनिटश्च० ।४।१।१११ सूत्रे विशेषणार्थः । 'तत्साप्यानाप्यात् ।३।३।२१ सूत्रण ध्यणक्यययतव्यानीयाः पञ्च कृत्यप्रत्ययाः कर्मण्यर्थे भावेऽर्थेच विधीयन्ते । कृधातोः भावकर्मणोरनेन घ्यणि 'नामिनो० ४।३।५१३. सूत्राद् वृद्धौ च कार्यम् । पच्धातोरनेन घ्यणि 'क्तऽनिट० ।४।१।११। सूत्राद् चकारस्य ककारे 'णिति० ।४।३।५० सूत्राद् उपान्त्य वृद्धौ च पाक्यम् ॥१७॥ पाणिसमवायाभ्यां सृजः ।।१।१८। आभ्यां परात् सृजेय॑ण् स्यात् । पाणिसा, समवसर्या रज्जुः ॥१८॥ ऋदुपान्त्यक्पोऽपवाद: पाणिभ्यां सृज्यते सा पाणिसर्या रज्जुः। समवसृज्यते सा समवसर्या रज्जुः। समव इति समुदायपरिग्रहार्थं द्विवचनम् ॥१८॥ .... उवर्णादावश्यके ।।१।१६॥ अवश्यम्भावे द्योत्ये धातोरुवर्णान्तात् ध्यण् स्यात्। लाव्यम् । अवश्यपाव्यम् ॥१६॥ कवश्यस्य भावोऽवश्यं भाव इति वा 'योपान्त्याद्गु० ७१।७२ सूत्राद Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .( २६८ ) वकमि आवश्यकम्, यद्वा निश्ययार्थे 'अवश्यम्' इत्यव्ययं ततो भावे चोरादेः ।७।२।७३। सूत्रादकनि 'कृत्येऽवश्यमो लुक् ।३।२।१३८ सूत्रात् मकारलोपे, नित्वात् उभयत्र वृद्धिः। अवश्यपाव्यमिति-अनावश्यंशब्दप्रयोगस्तु विशेषेण प्रकटनार्थं क्रियते यथा 'द्वौ ब्राह्मणौ' इति । वाह्मणावित्यत्र विहितेन द्विवचनेनैवे द्वित्वार्थस्योक्तत्वेपि स्पष्टतया द्वित्वंप्रतिपादनाय यथा 'द्वौ' इति प्रयुज्यते तथाऽत्रापि अवश्यंशब्दप्रयोगः । अथवा 'व्यतिलुनते' इत्यत्रात्मनेपदेनापि क्रियाव्यतिहारे द्योतिते व्यतिशब्दस्य, . प्रयोगो भवति तथाऽत्रापि ध्यणाऽवश्यंभावे द्योतितेपि स्पष्टतता प्रकटनार्थमवश्यं शब्दप्रयोगः ।नन्ववश्यंशव्दस्योपपदत्वाभावेन च कथमत्र समास इति घेत् मयूरव्यसकादित्वासमासः।।१८॥ आसुयुवपि-रपिलपित्रपिडिपिदभिवम्यानमः ।।१।। आङ्पूर्वाभ्यां सुग्नम्म्यां यौत्यादेश्च ध्यण् स्यात् । आसाव्यम्, याव्यम्, वाप्यम्, राप्यम्, लाप्यम्, अपत्राप्यम्, डेप्यम्, दाभ्यम्, आचाम्यम्, आनाम्यम् ॥२०॥ यापवादी-आद्ययोः स्वरान्तलक्षणोऽन्येषां च पवर्गान्तलक्षणो यो घ्यणपवादः 'प्राप्तस्तद्वाधनार्थमिदं सूत्रमिति भावः । अत्राभिषवार्थ-सुनोतेरेव ग्रहणम् नान्यस्य एवं मिश्रणार्थकस्य यौतेरेव ग्रहणं न तु बन्धनार्थस्य "युग्श्" इत्यस्य 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्ध-कस्य" इति न्यायात् । “सु' प्रसवेश्वययोः 'सुक् प्रसवैश्वर्ययोः "षुग्ट् अभिषवे" इति तत्रान्तिमादापूर्वादनेन घ्यणि वृद्धावावादेशे च आसाव्यम् । एवं “युक् मिश्रणे" इत्यस्य याव्यम् “टुवपी बीजसन्ताने" अतो ध्यणि उपान्त्यवृद्धौ वाप्यम् । एवं “रप लप व्यक्त वचने" इत्येतयोः राप्यम्, लाप्यम् “त्रपौषि लज्जायाम्" अपपूर्वस्य त्रपधातोः अपत्राप्यम् । डिपत् क्षेपे” इत्यस्य डेप्यम् ।गणे पाठाभावात् दभिर्हि सौत्रो ग्राह्यः दभिः सौत्रो बन्धने वर्तते । दम्भूट दम्भे इत्यस्य तु दम्भ्यमिति भवति । आङ्पूर्वस्य "चम् अदने” इत्यस्य आचाम्यम् यद्यपि नात्रोपसर्ग पूर्वकस्यैव ग्रहणमपि तु सामान्यतः सोपसर्गस्यानुपसर्गस्य च तथापि अनुपसर्गस्य ये ध्यणि च न विशेषो , 'मोऽकमि०" ।४।३।५५॥ इति वृद्धेः निषेधात् ततश्चा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) पूर्वकस्टौवोदाहरणं दत्तम् । आपूर्वान्नमे: आनाम्यमिति डिपेः कुटादित्वाद् ये गुणो न लभ्यत इति ध्यण विधीयते ॥२०॥ वाऽऽधारेऽमावास्या ।५।१।२१॥ अमापूर्वाद्वसतेराधारे ध्यण् धातोर्वा ह्रस्वश्च निपान्त्यते । अमावस्या । अमावास्या ॥२१॥ अमाशब्दः सहाथैः सह वसतोऽस्यां सूर्याचन्द्रमसाविति अमावस्या यद्यपि सूर्याचन्द्रमसावेकत्र कदापि न वर्तेते इति योगार्थासम्भवः तथापि अनेन रूढया तिथिविशे उच्यते-एवम्भूता कृष्णपक्षीया पञ्चदशी तिथिरित्यर्थः ननु ध्यणं कृत्वा पक्षे ह्रस्वनिपातनायेक्षाया वरं विकल्पेन यविधानं, पक्षे च व्यञ्जनान्तलक्षणो ध्यणेव बाहलकादाधारे भविष्यतीति पाक्षिकह्रस्वनिपातनमनुचितमिति चेत्सत्यं पक्षे यमकृत्वा ह्रस्वनिपातनम् "अश्चामावस्यावाः" इत्यत्रैकदेशविकृतस्यानन्यत्वादमावास्याशब्दस्यापि ग्रहणार्थम्-यदि यो विधीयते तर्हि यान्तस्य शब्दान्तरत्वेन अमावास्पाशब्देन ग्रहणं न स्यात् पाक्षिकह्रस्वनिपातने च शब्दान्तरत्वाभावेन किञ्चिद् विकृतेऽपि “एकदेशविकृतमनन्यवत्" इति न्यायेनोभयो हणमिति भावः ॥२१॥ संचाय्यकुण्डपाय्यराजसूयं क्रतो ।।१।२२। एते क्रतावर्थे घ्यणन्ता निपात्यन्ते । संचाय्यः। कुण्डपाय्यः । राजसूयः ऋतु ॥२२॥ संचाय्येत्यादि-आधारे कर्मणि वा निपातनादेवादेशदीर्घत्वे अपि भवतः । संचीयते सोमोऽस्मिन् संत्रीयते वाऽसाविति संचाय्यः क्रतुः संचेयोऽन्यः सोमो नाम लतात्मकः ओषधिविशेषः स एकत्रीक्रियते यत्रंत्यधिकरणे अथवा संचीयतेऽसाविति कर्मणि एवं कुण्डैः कुण्डाकारैः चमसैः पीयते सोमः सोमलतारसः यत्र, कुण्ड: पीयत इति वा कर्मण्यपि यत्प्रयये Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) कलुरेबोच्यते, क्रतोः सोमसाध्यतया सोमस्य पीयमानत्वेन क्रतोरपि पीयमानत्वोपचारात् । समोमको यागः क्रतुरूच्यते । ससोमके यागे क्रतुशब्दस्य प्रयोगः साम्प्रदायिकःअद्यत्वे च सामान्यतो यागमात्रेऽपि क्रतुशब्दस्य प्रयोगो दृश्यते तन्मूलं चापरादिकोशानां तथाविधशक्तिग्राहकत्वम् । राजा सूयतेऽस्मिन राज्ञा वा सोतव्य इति-राजसूयः क्रतुः। राजा। लतात्मकःसोमःसूयते कण्ड्यतेऽस्मिन्निति-अधिकरणे राज्ञा सोतव्य अभिषवद्वारा निष्पादयितव्य इति कर्मणि राज्ञ एव राजसूययज्ञेऽधिकारात् “स्वाराज्यकामो राजा राज- . . सूयेन यजेत" इति श्रुतेः, उभयथा क्रतुरेव वाच्यः । एता: क्रतुबिशेषस्य संज्ञा ॥२२॥ प्रणाय्यो निष्कामासमते ।।१।२३। प्रान्नियो ध्यणायादेशौ स्यातां निष्कामेऽसंमते चार्थे । प्रणाय्यः शिष्यचौ रो वा ॥२३॥ विषयाभिलाषः काम उच्यते स निर्गतो यस्मात् असम्मतइत्यस्य प्रीतिविषयानहइ त्यर्थः। प्रणाय्योऽतेवासी विषयेष्वनभिलाष इत्यर्थः । प्रणीयते इति कर्मणि यप्रत्तयः प्रणाय्यः चौरः सर्वलोकासम्मतं इत्यर्थः । प्रणेयोऽन्यः ॥२३॥ धाय्यापाय्यसान्नाय्यनिकाय्यमृङ्मानहविनिवासे . ।।१।२४। एते ऋगादिषु यथासङ्ख्यं ध्यणन्ता निपात्यन्ते । धाय्या ऋक् । पाय्यं मानम् । सान्नाय्यं हविः । निकाय्यो निवास ॥२४॥ घीयते समिदग्नावनयेति “य एच्चातः" ।५।१।२८। इति ये करणे धाय्या ऋक्, यद्यप्यनया व्युत्पत्त्या याभिः ऋम्भिरग्नौ समित्प्रक्षिप्यते ताः सर्वा अपि धाय्याशब्देन व्यवहर्तव्यतया प्राप्नुवन्ति-तथापि रूढिशब्दत्वा धाय्याशब्देन काश्चिदेब ऋच उच्यन्ते। अन्यत्र धेया। मीयते येन तन्मानम्। मीयते येनेति इति करणे घ्यणि पाय्यं मानम् । निपातनादापिद Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१ ) स्वादिभवति। मेयमन्यत् । संपूर्वान्नयतेहविषि समो दीर्घत्वं च सम्यग्नीयते होमार्थमग्निं प्रति तत् सान्नायं हविविशेषः अत्र। कर्मणि प्रत्ययः । अयमपि रूढिशब्दत्वाद्धविविशेषे वर्तते संनेयमन्यत् । निर्वाच्चिनोतेनिवासे आदिकत्व च । निकाय्यो निबासः निचेयमन्यत् ॥२४॥ परिचाय्योपचाय्यानाय्यसमाचित्यमग्नौं ।५।२२५॥ एतेऽग्नौ निपात्यन्ते । परिचाय्यः । उपचाय्यः । आनाय्यः । समूह्यः । चित्यो वा ऽग्निः ॥२५॥ पर्यु पपूर्वाच्चिनोतेय॑ण् आयादेशश्च, परिचीयत इति परिचाय्योऽग्निः । एवमुपचाय्यः । परिचयः, उपचेयोऽन्यः आपून्नियतेः कर्मणि . ध्यण आयादेशश्च । गार्हपत्यादानीयते इत्यानाय्यो दक्षिणाग्निः, दक्षिणाग्निः, आग्नेयोऽन्यः । अग्नयस्त्रयः श्रोतकर्मणि प्रसिद्धाः गार्हपत्यो दक्षिणाग्निराहवनीयश्च, तत्र गार्हपत्याग्निनित्यः स हि सर्वदा प्रज्वलितस्तिष्ठलि दक्षिणाग्निराहवनीयश्च यथोपयोगं गार्हपत्यादानीयते वृत्ते कर्माणि नियुत्तिस्तस्येत्यनित्यावेतो, समुह्यत इति समूह्यः । अन्यः संवाह्यः । समूद्य इत्यत्र कर्मणि व्यञ्जनान्तलक्षणो घ्यण तु सिद्ध एव केवलं वस्य ऊत्वं निपात्यते । चिनोतेः कर्मणि क्यप् तागभे चित्योऽग्निः, चेयोऽन्यः अत्र स्वरान्तलक्षणो यः उपात्यगुणश्च ।।२५।। .. याज्या दान च ।।१।२६। यजेः करणदानचि घ्यण् स्यात् । याज्या ॥२६॥ · दानमत्राग्नौ प्रक्षेपः, दानकाले ऋग् दानर्ग तरयाम् इज्यतेऽनयेति याज्या। घ्यणो धित्त्वात "क्तनिटश्चजो:." ।४।१।१११॥ इति प्राप्तम्य गस्य "त्यजयज०" ।४।४।११८। इतिनेन निषेधः । घ्यणः प्राप्तत्वेऽपि करणेऽर्थे निपातनम् । याज्या नाम ऋचो वाक्यसमुदायरूपा। ताभिर्ह यते । बच व्यञ्जनान्तलक्षणस्य घ्यणः बाहुलकाद् यथायोगमुचितेष्वर्थेषु प्रयोगों १।११॥ इति प्राप्तम्य रंगस्य Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) भविष्यतीति किमनेनेति वाच्यं बाहुलकस्यागतिकगतिरूपतया तदाश्रयणस्य यथासंभवं वर्जनीयत्वात् ॥ २६ ॥ तव्यानीयौ |५|१|२७| एतौ धातोः स्याताम् । कर्त्तव्यः । करणीयः ॥ २७॥ कर्तव्यः करणीय इति अत्र ध्य विषये वोत्सर्ग प्रवृत्तिः । " तत्साप्या० " | ३ | ३|२१| इति सूत्रेण कृत्यप्रत्ययाः सकर्मकात् कर्मणि, अकर्मकादविवक्षितकर्मकाच्च भावे भवन्ति ||२७|| य एच्चातः | ५ | १|२८| स्वरान्ताद्धातोर्यः स्यात् । आत एच्च । चेयम् । नेयम् । देयम् । धेयम् ॥२८॥ ऋवर्णव्यञ्जनान्तात् ध्यणो विहितत्वात् परिशिष्टात् स्वरान्तात् धातोर्यः प्रत्ययो भवति ॥ २८॥ शकित किचतियतिशसिसहियजिभजिपवर्गात् । ५।१।२६। एभ्यः पवर्गान्ताच्च यः स्यात् । शक्यम् । तक्यम् । चत्यम् । यत्यम् । शस्यम् । यज्यम् । भज्यम् । तप्यम् । गम्यम् ॥ २६ ॥ ध्यणोऽपवादः । यजेः " त्यजयज - प्रवचः” | ४|१|११८ । इति प्रतिषेधात् भजेश्च बाहुलकाद् ध्यणपि याज्यम्, भाग्यम् ॥ २६ ॥ यमिमदिगदोऽनुपसर्गात् |५|१|३०| Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७३ ) एभ्योऽनुपसर्गेभ्यो यः स्यात् । यम्यम् । मद्यम् । गद्यम् । अनुपसर्गादिति किम् । आयाम्यम् ॥३०॥ मद्गद्धातुभ्यां व्यञ्जनान्तलक्षणस्य घ्यणो बाधनार्थं यमः पवर्गान्तत्वासिद्ध नियमार्थं वचनम् । अनुपसर्गादेव यथा स्यात् बहलवचनान्माद्यत्यम् नेनेति-मद्य करणेऽपि, नियम्यमिति च सोपसर्गादिति ॥३०॥ चरेराङस्त्वगुरौ ।५।१॥३१॥ अनुपसर्गाच्चरेराङ् पूर्वात्त्वगुरौ यः स्यात् । चर्यः । आचर्यो देशः । अगुराविति किम् । आचार्यः ॥३१॥ तुग्रहणात् पूर्वसूत्रात् 'अनुपसर्गात्' इत्यपि सम्बध्यते, आचार्य इति-- आचारेषु साधु, आचार्यते आंगमार्थाकाक्षिभिः शिष्यैः विनयादिमर्यादया सेव्यते इति वा आचार्यः। . धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः । सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते ।। पञ्चमहाव्रतधरा धीरा भैक्ष्यमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः॥ इत्यादिरीत्या विविधानि लक्षणानि । गरुशब्दो व्यापकः, आचार्यशब्दो • व्याप्यः यथा चागुरावित्यनुपादाने गुरावपि आचर्य इति स्यात् न त्वाचार्य इति ॥३१॥ वर्योपसर्यावधपण्यमुपेयर्तुमतीगर्दा विक्र ।।१॥३२॥ एते उपेयादिषु यथासङ्ख्यं यान्ता निपात्यन्ते । वर्या कन्या। उपसर्या गौः । अवयं गह्यम् । पण्या गौः ॥३२॥ वयेत्यादि-अत्र द्वयोः ऋवर्णान्तत्वेन पणेश्च व्यञ्जनान्तत्वेन ध्यणि Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) प्राप्ते, वदश्च “नाम्नो वदः०" ।५।१।३५॥ इति व क्यपि प्राप्तेऽर्थविशेषेषु यप्रत्ययस्य विधानाथं निपातनमिदम् । उक्तञ्च धातुसाधनकालानां प्राप्त्यर्थं नियमस्य च । अनुबन्धविकाराणां, रूढयर्थं च निपातनम् । । धातुसाधनकालानां नियमस्य अनुबन्धविकाराणां च प्रात्यर्थं रूढयर्थं च निपातनम् । यो धातुर्यत्रार्थे न दृष्टस्तत्र तत्र प्रयोगार्थं यस्मिन् साधने कारके यः प्रत्ययो न दष्टस्तत्र विधानार्थं यस्मिन् काले च यः प्रत्ययो दृष्टस्तत्रापि प्राप्त्यर्थम् यस्मिन् प्रत्यये योऽनुबन्धो न दृष्टस्तन्निमित्तककार्यप्राप्त्यर्थम्, अर्थविशेष रूढयथं च निपातनमिति । एतदुदाहरणानि यथाशास्त्रमुन्नेयानि । अत्र वदेर्यस्य पाक्षिकप्राप्तिसत्त्वेऽप्यर्थविशेषे तस्य नियमार्थं निपातनम् । “वृङश संभक्तो" वृधातोरनेन ये गूणे च वर्या उपेया चेत्तदा प्राप्तुं योग्येत्यर्थः। उपसर्या गौरिति-उपपूर्वात्सृधातोः अनेन य प्रत्यये गुणे च उपसर्या निपात्यते कदा ? ऋतुमती चेत् गर्भाधानार्थ वृषभेनोपगन्तुं योग्येति भावः अवधं गह्य मिति नपूर्वाद् वदेर्ये अवद्यमिति कदा गह्यं चेत्तदा गर्दा मवाच्यमित्यर्थः । “पणि व्यवहारस्तुत्योः" तत्र व्यवहारार्थेऽनेन यो निपात्यते पण्या गौः-विक्र येत्यर्थः ॥३२॥ स्वामिवैश्येऽर्यः ।।१।३३। अतः स्वामिवैश्ययोर्यः स्यात् । अर्यः स्वामी वैश्यो वा । आर्योऽन्यः ॥३३॥ प्रापणे च, चकाराद् गती। ऋवर्णान्तलक्षणो घ्यण प्राप्तस्तदपवादाय अर्थविशेषयोश्च नियन्त्रणाय निपातनमिदम् । ऋघातोरनेन ये गुणे च अर्यः । आर्योऽन्य इति अयं च शब्दो यथेच्छं श्रेष्ठे जनेऽभिगन्तव्यरूपमर्थमादाय प्रयुज्यते। कर्तव्यमाचरन् काममकर्थव्यमनाचरन् । तिष्ठति प्रकृताचारे स तु आर्य इति स्मृतः ॥ इति वशिष्टस्मृत्या परिभाषित आर्यशब्दः । “महाकुलकुलीनार्यसभ्य- . सज्जनसाधवः" इति च कोशेन कुलीनेऽर्थे आर्यशब्दस्य शक्तिर्त्यवस्थापिता॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) वहां करणे ।।१।३४॥ वहेः करणे यः स्यात् । वा शकटम् ॥३४॥ वहेयंजनान्तलक्षणो ध्यण् कर्मणि प्राप्तस्तब्दाधनायार्थविशेषेऽस्य नियन्त्रणाय चेदमपि निपातनम् तथा चान्यत्र कर्मणि वाह्यभित्येव भवति ॥३४॥ नाम्नो वदः क्यच ।।१।३५॥ अनुपसर्गान्नाम्नः पराद्वदेः क्यप-यो स्याताम् । ब्रह्मोद्यम् । ब्रह्मवद्यम् । नाम्न इति किम् । वाद्यम् । अनुपसर्गादित्येव । प्रवाद्यम् ॥३५॥ ब्रह्मणो वदनमिति क्यपि य्वृति ब्रह्मोद्यम् ये तु ब्रह्मवद्यमिति । ककार: कित्कार्यार्थः कित्कार्यं गुणाभावो वृत्त्वं च । पकारः उत्तरत्र तागमार्थः इह फलाभावेऽप्यने तस्य फलसत्त्वेन, तत्र पुनरुच्चारणे गौरवाल्लाघवानुरोधेनेहैवोभयानुबन्धसहित उच्चारितः इति ॥३५॥ हत्याभूयं भावे ।।१।३६॥ अनुपसर्गान्नाम्नः परौ हत्याभूयौ भावे क्यबन्तौ साधू स्तः । ब्रह्महत्या । देवभूयं गतः । भाव इति किम् । श्वघात्या सा ॥३६॥ ब्रह्मणो वधः-ब्रह्महत्या। देवस्थ भावं गतः-देवभूयं गतः-देवत्वं गतः इत्यर्थः । भाव इति किमिति-ननु निपातनसामर्थ्यादेव भाव एव भविष्यतीति प्रश्नः कृतः । निपातनं हि घ्यणो बाधनार्थं तकारादेशवधानार्थं चावश्यकमिति तत्सामर्थ्येन भावार्थो वर्तु मशक्य इति भाव इत्यस्यावश्य Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) कत्वम् प्रत्युदाह्रियते-श्वघात्या सेति अत्र शुना हव्यात इति 'ऋवर्णव्यञ्जनाद् घ्यण्' ।५।१।१७। इति कर्मणि घ्यण "ञ्णिति घात्" ।४।३।१०० इति घातादेशः “कारकं कृता" ।३।१।६८। इति समासः । अत्र हन्तेरेव प्रत्युदाहरणमुक्त न तु भवतेः, तस्याकर्मकतया ततो भाव एव प्रत्ययः स्यात् । न च "भण अवकल्कने” इति चौरादिकः सकर्मको भवतीति ततः कर्मणि स्वादिति वाच्यं धातुपाठे प्रथमोपस्थितत्वेन प्रसिद्धत्वेन च सत्तार्थकस्यैव भवतेरिह ग्रहणात् ॥३६॥ अग्निचित्या ।।१।३७।। अग्ले पराच्चे स्त्रीभावे क्यप् स्थात् । अग्निचित्या ॥३७॥. अग्ने पराच्चिनीतेः स्त्रीभावे क्या निपात्यते-अग्नेश्चयनम् अग्निचित्या। अत्र कित्त्वाद् गुणाभावः, पित्त्वात्तागमः । ।।३७।। खेयमुषोछ ।५।१३८॥ एतौ क्यबन्तौ साधू स्तः । निखेयम् । मृषोद्यम् ॥३८॥ अनुपसर्गादिति वास्व: इति. च निवृत्तम्। खन्यते इति खेयम् । अव निपातनस्य न खेयमात्रप्रयोजनमपि तु खनेय॑णो बाधोऽन्त्यस्वरादेरेत्त्वविधानं च, तेनोपसर्गपूर्वादपि भवतीत्वाह-निखेयमिति मृषोद्यते इति नित्यं क्यपि मृषोद्यम् 'नाम्नो वदः क्यप च'।५।१।३५। इत्यनेन पक्षे यः प्राप्तः तद्वाधनाथ निपातनम् । नच निपातार्थकत्वेनास्य सूत्रस्य पूर्वसूत्रेण योगविभागो वृथा इति वाच्यम् नात्र भाव एवेति योगविभास्य करणात् । खेयस्यापि कर्मणि प्रवृत्ति सकर्मकत्वात् तथा मृषोद्यस्यापि कर्मणि प्रवृत्तिः । अतश्च विशेष्यनिघ्नत्वमेतयोः शब्दयोः, भावे च सति क्लीवत्वमेव स्यात् । ।३८।। कुष्यमियोध्यसिध्यतिष्यपुष्ययुग्यायसूर्य नाम्नि ॥१॥३६॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) एते क्यबन्ता संज्ञायां निपात्यते । कुप्यं धनम् । भिद्यम् । उध्यः नदः । सिध्यः । तिष्यः । पुष्यः । युग्यं वाहनम् । आज्यं घृतम् । सूर्यो रविः ॥३६॥ गुपो रक्षणो गोपाय्यते तत् कुप्यं धनमिति सामान्योक्तावपि कुप्यशब्देन स्वर्णरजताभ्यामन्यद् धनमुच्यते स्वोपज्ञधातुपारायणे तथाभिधानात् । तत्र “गुपच् व्याकुलत्वे" इत्यस्यापि कुप्यमिति साधितम् । निपातनात् धनेऽर्थे क्यप् आदिकत्वं चे अन्यत् गोपाय्यं अत्र स्वरान्तलक्षणो यः पूर्वाकारस्य लोपश्च । आयप्रत्ययस्य वैकल्पिकत्वेन “शकि-तकि." ५।१।२६। इति पवर्गान्तलक्षणे ये गोप्यमित्यपि भवति । भिद्यमिति–भिदेरुज्झश्च नदेऽभिधेये कर्तरि क्यप् भिदृ पी विदारणे भिनत्ति कुलानि इति भिद्यः उज्झत् उत्सर्गे उज्झत्युदकम् ऊध्यः नदार्थादन्यत्र तृचि भेत्ता उज्झिता सिधित्विषिपूषिभ्यो नक्षत्रे वाच्येऽधिकरणे क्यप त्विषेर्वलोपश्च । सिध्यन्ति त्वेषन्ति पुष्यन्ति अस्मिन् कार्याणीति सिध्यः तिष्यः पुष्यः इमे नक्षत्रविशेषवाचकाः अन्यत्र सेधन:, त्वेषणः, पोषणः । अत्र सर्वत्राधिकरणेऽ नट यूजे: कर्मणि वाहनेऽ भिधेये क्यण गत्वं च । युञ्जन्ति यत्तेद् युज्यं वाहनं मजाश्वादि युज्यतेनेनेति युग्यं वाहनम् इति पारायणे करणेऽपि क्यपि साधितम्, योग्यमन्यत् अत्र व्यञ्जनान्तलक्षणे ध्यण् आङपूर्वादजेघ तेऽर्थे क्यप् । आञ्जन्त्यनेनेति आज्यं घतम् । संज्ञाया अन्यत्र करणेऽ नटि आञ्जनमिति भवति, सं. गतौ सर्तेः कर्तरि क्यप् ऋकारस्योर षत् रणे सुक्तेर्वा कर्तरि क्यप् रान्तश्च देवतायाम् सरति सुवति वा कर्मसु लोकानिति सूर्यो रविः ॥३६॥ दृवृगस्तुतिशासः ।।१।४०। एभ्यः क्यप् स्यात् । आदृत्यः । प्रावृत्यः । अवश्यस्तुत्यः । जुष्यः । इत्यः । शिष्यः। ॥४०॥ "दृड्त् आदरे" वृगिति गकारानुबन्धग्रहणात् “तदनुबन्धग्रहणे नातदनुबन्धकस्य ग्रहणम्” इति न्यायेन डकारानुबन्धकस्य "वृड्श् संभक्ती इति Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) अस्य ग्रहणं न भवत्यतः तत्र ऋवर्णान्तलक्षणौ घ्यणेव भवति । ष्टु क स्तुती इति स्तुघातोः अवश्यस्तुत्य इति - अत्रावश्यमो मकारस्य " कृत्येs वश्यमो लुक् ” | ३ |२| १३८ । इति लुग् भवति । अत्र आवश्यकेऽर्थं द्योत्ये “उवर्णादावश्यके” ।५।१।१६ | इति घ्यण् प्राप्तः सोऽनेन परत्वन्निषिध्य से अयं भावः-स्तुत्य इत्यत्त्रेदं सावकाशम् अत्रश्यपाव्यमित्यादौ च 'उवर्णादा' ० |५|91981 इति सावकाशं अवश्यस्तुत्य इत्यत्र परत्वादिदमेव प्रवर्तते । प्रकृतसूत्रे एतीति निर्देशेन यस्य यस्य तादृशं रूपं तस्य तस्य ग्रहणात् । 'इ'गती' अयति "इंणुक् गतौ एति, इंक् स्मरणे अध्येति, इक् अध्ययने अधीते इत्येषां मध्ये "इक गतौ" 'इ'क् स्मरणे' इत्येतयोर्ग्रहणम् इक् स्मरणे० इड्क् अध्यने इत्येतयोः नित्यमधिना योगो भवति । "शासूक् अनुशिष्टी" अनुशिष्टिनियोगः इति शास्धातोः क्यपि "इसास: शासो व्यञ्जने” ।४।४।११८। इत्यास इसादेशः सस्य षत्वे च शिष्य इति ॥ ४० ॥ ऋदुपान्त्यादकृपिचदृचः । ५।१।४१। 1 ऋदुपान्त्याद्धातोः कृपितृतिऋचिवर्जात् क्यप् स्यात् । वृत्यम् । अकृपितृदृच इति किम् । कल्प्यम् । चर्त्यम् | अर्घ्यम् ||४१ ॥ 1 व्यञ्जनान्तलक्षणध्यणोऽपवादः । वृतुङ् वर्तने इत्यतोऽनेन क्यपि कित्त्वा - दुपान्त्यगुणाभावे-वृत्यम् । कृपौड् सामर्थ्य अस्य प्रवर्गान्तत्वात् "शकितकि० " |५|१| २६ । इति ये गुणे "ऋलृलं० " | २|३|| इति लत्बे च कल्प्यम् - पृतैत् हिंसाग्रन्थयोः, ऋचत् स्तुती आभ्यां व्यञ्जनान्तलक्षणे घ्यणि उपान्त्यगुणे च चर्त्यम्, अयमिति ॥४१॥ कृवृषिमृजिशंसिगुहिदुहिजपो वा । ५।१।४२ ॥ एस्यः क्यप् वा स्यात् । कृत्यम् । कार्यम् । वृष्यम् । वध्यम् । मृज्यम् । मार्ग्यम् । शस्यम् । शंस्यम् । गुह्यम् । गोह्यम् । दुह्यम् । दोह्यम् । जयम् । जाप्यम् ॥ ४२ ॥ I Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) मायमिति-पक्षे व्यञ्जनान्तलक्षणो उपान्त्तगुण घ्यण् “मजोऽस्य वृद्धिः" ।४।३।४२। सूत्रात् आकारः "क्त'ऽ निट:०" ।४।१।१११॥ इति जस्य गत्वम् च । शस्यमिति-शंसू स्तुती च चकाराद् हिंसायाम् अतः क्यप “नो व्यञ्जनस्या." ।४।२।४५॥ इति नलोपश्च । पक्षे व्यञ्जनान्तलक्षणे घ्यणि शंस्यमिति । जपेः विकल्पसामर्थ्यात्क्यबभावपक्षे घ्यणि जाप्यमिति यद्यपि क्यबभावपक्षे पवगांन्तत्वेन पवर्गान्तलक्षणो यः प्राप्तस्तथापि क्यपि ये वा रूपे विशेषाभावात् विकल्पविधानरूपप्रयोजनस्य सिद्धिर्न स्यादिति विशेषविहितमपि यं बाधित्वा ध्यणेव भवतीति भावः ॥४२॥ जिविपून्योहलिमुञ्जकल्के ।।१।४३। जेविपूर्वाभ्यां च पूनीभ्यां यथासङ्ख्यं हलिमुञ्जकल्केषु कर्मसु क्यप् स्यात् । जित्यो हलिः । विपूयो मुञ्जः । विनीयः कल्कः । हलिमुञ्जकल्क इति किम् । जेयम् । विपव्यम् । विनेयम् ॥४३॥ पूश्च नीश्च-पून्यौ, विपूर्वा=विपून्थौ, जिश्च विपून्यौच जिविपूनि, तस्मात् । जीयते निपुणेन स जित्यो हलिः, महद्धलं हलिरुच्यते । पूङ पूग् वा विपवितव्यः इति विपूयः, मुञ्जस्तृणविशेषः । रज्ज्वादिकरणाय शोधयितव्य इत्यर्थः । विनीयते सिद्धत्वं प्राप्यते इति विनीयः । आत्मसंस्काराय आत्मन्युत्कर्षाधानाय वा तैलादिषु विनेतव्यः संस्थाप्य इत्यर्थ इति केचित् । कल्कस्त्रिकलाचर्णम् अथवा तैलेन तेन वा त्रिफलादिसमवेतेन साध्यः कश्चिदौषधिविशेषः । जयमित्यादी सर्वत्र स्वरान्तलक्षणो यप्रत्ययः, गुणश्च, द्वितीये 'य्यक्ये ।१।२।२५॥ सूत्रात् ओकास्यावा-देशः । जेतु विपवितु नेतु योग्य किमपि वस्त्विति तदर्थः ॥४३॥ पदास्वैरिबाह्यापक्षणे ग्रहः ।।१।४४। एष्वर्थेषु ग्रहेः क्यप् स्यात् । प्रगृह्य पदम् । गृह्माः परतन्त्राः । प्रामगृह्या, बाह्य त्यर्थः । गुणगृह्या गुणपक्ष्या ॥४४॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) विभक्तत्यन्तं पदम्, अस्वैरी परवशः, बाह्या--बहिर्भवा, पक्ष्यो वर्गः सम्बन्धिजनः । प्रगृह्यते विशेषेण ज्ञायते तत्प्रगृह्य पदम् । अवगृह्य प्रगृह्यच' संज्ञाविशेषी संज्ञिनी चैतयोः विभक्त्यन्त एव, न तु नैयायिकाभिप्रेत शक्त पदम् । अयमाशयः-अवगृह्यसंज्ञा वेदे प्रसिद्धा अवगृह्यसंज्ञकपदानन्तरं पदान्तरस्वोच्चारणं कियन्तं कालं विरम्य जायते । प्रगृह्यसंशा तु पाणिनीये प्रसिद्धा, यंदनन्तरं स्वरसन्धिर्न जायते । यथा 'अग्नी' इति अत्र ईदूदेदद् द्विवचनम् ।१।२।३४। सूत्रादसन्धिः । पाणिनीये तु एतेन सूत्रेण प्रगृह्यसंज्ञा विधीयते । यद्यपि पदावयवस्य द्विवचनादेः प्रगृह्यसंज्ञा विधीयते न तु पदस्य तथाप्यवयवधर्मस्य समुदाये उपचारात् पदेपिप्रगृह्यत्वव्यवहार इति । गृह्यन्ते ज्ञायन्ते परतन्त्रतया परवशतया वा इति गृह्याः कामिनः । बाह्या-इति स्त्रीलिङ्गनिर्देशो लिङ्गान्तरेऽभिधानख्यापनार्थः तेन स्त्रियामेवास्य प्रयोगो भवति न तु पुल्लिङ्गादो। व्यञ्जनान्तलक्षणध्यणोऽपवादोऽयं योगः ॥४४॥ . - भृगोऽसंज्ञायाम् ॥१४॥ मृगोऽसंज्ञायां क्यप् स्यात् । भृत्यः पोष्यः । असंज्ञायामिति किम् । भार्या पत्नी ॥४५॥ मुंग भरणे पोषणे च इति धातोः भ्रियते इति भृत्यः पोष्यः इत्यर्थः । अत्र कर्मणि क्यप् तागमश्च । भ्रियते पोष्यतें सा भार्या पत्नी । यद्यपि संज्ञायाम् 'भृगो नाम्नि ।५।३।६८। सूत्रात् क्यबस्ति तथापि तस्य भावे एवं विधानात् भार्येत्यत्र क्यब् न ॥४५॥ समो वा ।।१।४६। संपूभृगः स्यप् वा स्यात् । संभृत्यः । संभार्यः ॥४६॥ . पूर्वेण सोपसर्गादपि नित्यमेव क्यपि प्राप्ते तस्य पाक्षिकस्वार्थमिदं सूत्रम्, अनेन क्यपि संभृत्यः, पक्षे घ्यणि संभार्यः । इदमप्यसंज्ञायामेव प्रवर्तते Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) 'उत्सर्गसमानदेशा अपवादा:' इति न्यायात् तथा च संज्ञायां संभार्य इत्येव भवति ॥ ४६ ॥ ते कृत्या: ।५।१४७। ध्यणतव्यानीययक्यप् प्रत्ययाः कृत्याः स्युः ॥४७॥ प्रसिद्धप्रक्रान्तवाचिना तच्छब्देन प्रक्रान्तानां घ्यणादीनां ग्रहणम् ये च नच्छब्दस्य बुद्धिस्थपरामर्शकत्वं मन्यन्ते तेषामपि मते एतदुचितमेघ । संज्ञाविधानं लाघवेन विधिसूत्रप्रवृत्त्यर्थम् यथा कृत्य इति संज्ञाविधानेन 'तत्साप्या० । ३।३।२१। सूत्रेण लघुना कृत्यशब्देन ध्यण-तव्य अनीय य- वयप् 'इत्येषां पञ्चानामपि सकर्मकेभ्यः कर्मणि अकर्मकेभ्यो भावे च विधानं भवति ॥४७॥ ,'' कतृचौ |५|१|४८ 1. धातोरेतौ कर्त्तरि स्याताम् । पाचकः । पक्ता ॥ ४८ ॥ णकतृचौ कृत्त्वात्कर्तरि भवतः । णकारो वृद्धयर्थकः, चकारः ‘त्र्यन्त्यस्वरादेः |७|४|४३| सूत्रे सामान्यग्रहणाविघातार्थः तेन तंत्र तृच्तृनोर्ग्रहणम्, अन्यथा 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' इति न्यायेनास्य निरनुबन्धत्वेऽस्यैव ग्रहणं स्यात् न तु तृनः, उभयोनिरनुबन्धत्वे भेदो न स्यात् । उभयोर्भेदस्यापि शास्त्रोपयोमितया पृथगनुवन्धकरणस्यावश्यकत्वम् एवं च 'तृन्नुदन्ता० | २२|०| सूत्रे तन एव ग्रहणं न तु तृचः 'तृन्प्रत्ययश्च तृन् शील० | ५|२|२७| सूत्रेण शीलादिषु सदर्थात् धातोर्भवति । शीलादिप्रत्ययेषु विषयभूतेषु सामान्यतः कर्त्राद्यर्थविहितः औत्सर्गिकः प्रत्ययः प्राप्तोऽपि शीलादिषु नासरूपोत्सर्गविधिः इति न्यायेन न भवति तेन अलङ्करिणुरित्यादौ शीलाद्यर्थे 'भ्राज्य० | ५|२८| सूत्राद् विहितस्य इष्णुप्रत्ययस्य विषये सामान्यार्थविहितत्वात् प्राप्तः 'णकतृचौ |५|१|४८| सूत्रातू णको न भवतीति शीलाद्यर्थे 'अलङ्कारक' इति प्रयोगो न भवति । ।। ४८ ।। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) अच |५|१|४६ ॥ धातोरच् स्याम् । करः । हरः ॥ ४६ ॥ कृत्त्वात् कर्तरि भवति । चकारः 'अचि' | ३ | ४ | १५ | इत्यत्र विशेषणार्थः । अयंभावः--चकारानुबन्धेऽकारे परे यङो लुब इति चकारः प्रत्ययं विशेष यति तेन च 'शंसि - प्रत्ययात् | ५ | ३ | १०५ | सूत्रादिना विहितेऽकाररूपे प्रत्यये यङो लुब् न भवति । करोत्यनेनाचि गुणे च करः । एवं हरतीति हरुः ॥४६॥ लिहादिभ्यः । ५1१1०1 एभ्योऽच् स्यात् लेहः । शेषः ॥५०॥ पूर्वेण सिद्धेऽस्यारम्भो बाधक - बाधनार्थः । उत्सर्गतः सर्वत्राच्, तस्य बाधको नाम्युपान्त्यलक्षणः कप्रत्ययः शप्रत्ययो वा तस्यापि 'लिहादिभ्यः । ।५।१।५० सूत्रं बाधकं ज्ञेयम् । लिहिक् आस्वादने लेढीत्यनेनाचि गुणे च लेहः । एवं शिषण असर्वोपयोगे, शेषयतीति शेषः । उभयत्र 'नाम्यु० ||५|| ५४ | सूत्रविहितः कः बाध्यते । नाम्यु० | ५ | १।५४। सूत्रम् उत्सर्गभूतस्याच्प्रत्ययस्यापवाद इति यत्नं बिना स निवारयितुमशक्य इति विशेषविधानरूपो यत्नः कृतः । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् ||५०। ब्रुवः । ५।१।५१ । ब्रू गोऽचि ब्रुवः स्यात् । ब्राह्मणब्रुवः ॥५१॥ ब्रुवो धातोरचि ब्रुव इति निपात्यते अच्प्रत्यय मातविधाने नेष्टरूपसिद्धिरतो निपातनमाश्रितम् । निपातनात् ब्राह्मणमात्मानं ब्रूते इत्यर्थविवक्षायां "कर्मणोऽण् ” | ५|१| ६२ ॥ इति सूत्रेणान् प्राप्तः सो बाध्यते एव " अस्तिब्रुवो० | ४|४|१| इति वचादेशो “नामिनो गुणोऽक्ङिति |४| ३|१| इति गुण - . Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...( २८३ .) श्च बाध्यते अन्यथा गुणे कृतेऽवादेशे "ब्र व इति रूपापत्तेः । ब्राह्मणमा- त्मानं ब्रूते स ब्राह्मणब्रुवः यः केवलमात्मानं ब्राह्मणं कथयति न तु बाह्मणेन कर्तव्यं कर्म करोति स ब्राह्मणब्रुव उच्यते उक्तञ्च विप्रः संस्कारयुक्तो न नित्यं सन्ध्यादि कर्म चः । नैमित्तिकं च नो कुर्यात् ब्राह्मणब्रुव उच्यते ॥ युक्तः स्यात् सर्वसंस्कारैर्द्विजस्तु नियमवतैः । कर्म किञ्चिन्न कुरुते स ज्ञयो ब्राह्मणब्रुवः । गर्भाधानादिभिर्युक्तस्तथोपनयनेन च । न कर्मकृन्न चाधीते स शेयो ब्राह्मणब्रुवः ॥ • अध्यापयति नो शिष्यान्, नाधीते वेदमुत्तमम् । गर्भाधानादिसंस्कारैर्युक्तः स्याद् ब्राह्मणब्रुवः ॥५१॥ नन्द्यादिभ्योऽन. ।।१॥५२॥ एभ्यो नामगणदृष्टभ्योऽनः स्यात् । नन्दनः। वाहनः । सहनः । संक्रन्दनः । सर्वदमनः । नर्दन ॥४२॥ नामगगदृष्टेभ्य इति-नामत्वेन गणे दृष्टेभ्य इत्यर्थः । सप्रत्ययपाठेन येषां धातूनां रूपाणि यदुपसर्गयदुपयदपूर्वाणि वा पठितानि तेभ्वस्तदुग्सर्गादिसहितेभ्य एव प्रत्ययो न तूपसर्गान्तरोपपदान्तरादिपूर्वेभ्यः । "टुनदु समृद्धौ". नन्दयतीति नन्दनः पुत्रो देवोद्यानं वा । “वशक कान्तो" कान्तिरिच्छा, "वाशिच् शब्दे" वाशयतीति-वाशनो नाम ऋषिः वासनः इति पाठे तु वसं वसण् वसिक् वसूच् इत्येतेषामन्यतमःवासयतीति-वासनो नाम ऋषिः 'अत्रोभयत्र ण्यन्तात्संज्ञायामनः । सहते इति सहनः अत्र ण्यन्तादसंज्ञायामनः । क्रदु रोदनाह्वनयोः, क्रदुङ् वैक्लव्ये समः पूर्वात्क्रन्देः संक्रन्दयतीति संज्ञायामने-संक्रन्दनः अत्र संक्रन्दनः इन्द्रः । सर्वं दमयतीति सर्वदमनो नाम राजा अत्र कमोपपदात् ण्यन्तात्संज्ञायामनप्रत्ययः, “नर्द शब्दे नर्दतीति-नर्दनः । बहुवचनताकृतिगणार्थम् ॥५२॥ ग्रहादिभ्यो गिन् ।५॥१॥५३॥ एभ्यो णिन् स्यात् । ग्राही । स्थायी । ॥५३॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) अत्रापि गणे नामान्येव पठितानि सप्रत्ययपाठस्य पूर्वोक्तमेव प्रयोजनम् “ग्रहीश् उपादाने" गृह णातीति णिनि' उपान्त्यवृद्धौ-ग्राही। ष्ठां गतिनिवृत्तौ" तिष्ठतीति णिनि-"आत ऐ:०" ४ि३॥५३॥ इत्याकारस्य आयादेशे च स्थायी ग्रहादिराकृतिगणः ॥५३॥ नाम्युपान्त्यप्रीक गृजः कः ।।१॥५४॥ नाम्युपान्त्येभ्यो धातुभ्यः प्रचादिभ्यश्च का स्यत् । विक्षिपः । प्रियः । किरः । गिरः । ज्ञः ॥५४॥ ककारः कित्कार्यार्थ:-कित्कार्यं च गुणाभाव,इरादेशः, आकारलोपो य्वृच्च क्षिपंच : रणे,"क्षिपीन रणे विक्षिप्यति विक्षिपतीति वाऽनेन के लघोरुपान्त्यस्य । ४।३।४।इत्युपान्त्यगुणाभावे-विक्षिपः। 'प्रीङ्च् प्रीतो"प्रीगश् तृप्तिकान्त्योः " प्रीयते प्रीणातीति वा के "नामिनो गुणो०" ।४।३।१। इति गुणाभावे "संयोगात्" ।३।११५२। इतीयादेशे प्रियः । “कृत् विक्षेपे किरतीति के "ऋ तां कृितीर्" ।४।४।१६। इतीरादेशे किरः । “गृ त् निगरणे" निगरणं भोजनम् गिरतीति के इरादेशे “न वा स्वरे" ।।२।३।०२। इति वा लत्वे गिरः। "ज्ञांश् अवबोधने" जानातीति के "इडेत्पुसि थातो लुक् ।४।३।१४। इत्याकारलोपे ज्ञः ।।५४।। गेहे ग्रहः ॥५॥१॥५५॥ गेहेऽर्थे ग्रहे कः स्यात् । गृहम् । गृहाः ॥५५॥ गेहशब्दस्योपपदत्वशङ्कामापक माह गेहेऽर्थे इति । कर्तरि विहितोऽयं प्रत्यायः कर्तृत्वेन गेहे वाच्य एव भवति न त्वन्यस्मिन् वान्य इत्यर्थः। ग्रही उपादाने अतः के कित्त्वाच्च वृति गृहम्, पुक्लिबलिङ्गोऽयम् पुसि बहुवचनान्त एव गृहा इति उपचाराद् दारा इत्यर्थः उपचारो लक्षणा तन्मूलानि चालङ्कारिकरित्थमुक्तानि "तात्स्थ्यान् तथैव ताद्धयात् तत्सामीप्यीत्तथैव च । । तत्साहचर्यात् तादाज्ज्ञेया वै लक्षणा: धैः ।। . Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८५ ) तत्र दारेषु गृहशब्दस्य तात्स्यात् प्रयोगः, गृहेषु हि ता तिष्ठन्तीति । लक्षणा द्विविधा-प्रयोजनवती निरूढा च प्रयोजनेन यत्र लक्षणाऽऽश्रीयते सा प्रयोजनवती यथा-गङ्गायां घोष इति अत्र गङ्गातीरे घोष इति कथनेन येषां शैत्यपावनत्वादीनामतिशयो न गम्यते तेषामतिशयस्य प्रतिपादनाय लक्षणाऽऽश्रीयते इति सा प्रयोजनवती। अनादितात्पर्यवती निरूढा लक्षणा यथा कुशलशब्दस्य कुशलशब्दस्य कुशग्राहिरूपार्थे व्युत्पन्नस्य 'चतुरे, प्रयोगः । एवं दारेष्वपि गृहशब्दस्य निरूढ एव प्रयोगः । उपसर्गाद आतो डोऽश्यः ।।१।५६। उपसर्गात्परात् श्येवर्जादाकारान्ताद्धातोर्डः स्यात् । आह्वः । उपसर्गादिति किम् । दायः। अश्य इति किम् । अवश्यायः । हग स्पर्धाशब्दयोः आह्वयतीति-डे “डित्यन्त्यस्वरादेः" ।।१।११४। इत्याकारतोपे आह्वः । न च पूर्वतोऽनुसृतेन कप्रत्ययेनैव "इंडेत्पुसि० ।४।३।६४। इत्याकारलोपे 'इष्टसिद्धिरिति किं डविधानेनेति वाच्यं वृदभावार्थ डविधानम् । दाय इति-ददातीति "तन्-व्यधीण" ।५।१।६४। इति णे "आत ऐ:०" ।४।३।५३। इत्याकारस्य ऐकारे आयादेशे च दायः। अश्य इति किमिति-"तन्-व्यधीण०" ।५१।६४। इति णस्य परत्वेऽपि सामान्यत आदन्तेभ्यो विहितत्वेन, अस्य च विशेषत उपसर्गपूर्वकेभ्य आदन्तेभ्यो विहितत्वेन “सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् इति न्यायादस्य बलवत्त्वमिति णं वाधित्वा ड एव स्यादिति तद्वारणाय अश्य इति कथितम् । “पूर्वेपवादा: अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान्" इति णो बाध्यते नाण् तेन गोसंदाय इह्यादौ “कर्मणोऽण्" ।५।१७श इत्यणेव ॥५६।। व्याघाघ प्राणिनसोः ।।१।५७। एतौ यथासङ्ख्यं प्राणिनि नासिकायां चार्थे प्रो डे निपात्यते । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) - व्याघ्रः। आघ्रा ॥५७॥ विविधमाजिघ्रतीति व्याघ्रः प्राणी । आजिघ्रतीति आघ्रा नासिका। "उपसर्गादा०" १५॥१॥५६॥ इत्यनेन "स्पर्द्ध परत्वात् प्राप्तस्य प्राध्मा०" -- ।५।१५८। इति शस्य अपवादोऽयम् ॥५७॥ घमा-मा-पा-धे-दृशः शः ।।१।५८। एभ्यः शः स्यात् । जिघ्रः। उद्धनः । पिबः । उद्धयः । उत्पश्यः ॥१८॥ जिघ्रतीति-जिघ्रः "श्रौति." ।४।२।१०८। इति जिघ्रादेशः, उद्धमतीति उद्धमः, घ्राहिसाहचर्यात् 'पा' इति पिबतेर्ग्रहणं न पातेः पिब इति-पें शोषणे इत्यस्य पैधातोर्वादित्वेऽपि लाक्षणित्वान्न ग्रहणम् । ट्धे पाने। उद्धयतीति.. उद्धयः । “दृशक्षणे" उत्पश्यतीति शे "श्रीतिः।४।२।१०८। इति पश्या देशः ।ट्धेष्टकारो यर्थः इति टित्वफलस्य धातुतोऽलाभात् नामरूपत्वे एव तस्य फलमिति स्त्रियाम् “अणने ये." ।२।४।२०। इति डीप्रत्यये उद्धयी स्त्रीति भवति । टित्त्वाभावे तु आबेव स्यात् । अन्ये तु उपसर्गादेवेच्छन्ति ते हि प्रकृतसूत्रे 'उपसर्गात' इत्यनुवर्तयन्ति, एतच्च बहूनामसम्मतम् विनाप्युपसर्ग बहूनां शप्रत्ययानामुपलम्भात् ॥५६॥ . साहिसातिवेद्य देजिधारिपारिचेतेरनुप-सर्गात् ।।१।५६) एभ्योऽनुपसर्गेभ्यो ण्यन्तेभ्यः शः स्यात् । साहयः । सातयः । वेदयः । उदेजयः । धारयः । पारयः । चेतयः । अनुपसर्गादिति किम् । प्रसाहयिता ॥५॥ साहि-साति-वेधु देजि-धारि-पारि- चेतेरिति समाहारं कृत्वा निर्देशः नागमस्तु आगमस्यानित्यत्वान्न कृतः लाघवाय समाहारनिर्देशेऽपि प्रत्येक Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७ ) - - प्रत्ययविधानादितरेतरयोगेनार्थमाह-एतेभ्योऽनुपसर्गभ्य इति–'साहि' इत्यादिण्यन्तनिर्देश इत्याह–ण्यन्तेभ्य इति षहण मर्षणे' इति चुरादेः स्वार्थे णिचि षहि मर्षणे' इति भ्वादेर्वा णिगि वा साहयतीति साह्यः । अत्रानेन शे “कर्तर्यनयः शव्" ।३।४।७१। इति शवि गुणेऽयादेशे "लुगस्या०" ।२।१।११३। इति पूर्वाकारलोपे च साहयः सोढा साहयिता वेत्यर्थ । सातिः सौत्रो धातुः सूत्रे एव पठितो न धातुपाठे इत्यर्थः । तस्य च सुखमर्थः णिप्रत्ययान्तस्य सूत्रे निर्देशः सातयः सुखयिता इत्यर्थः वाऽ सरूपन्यायेन शप्रत्ययाभावे क्विपि “सात्” इति रूपं परमात्मनि प्रयुज्यते इति सिद्धान्तकौमुदीकृत, यद्यपि क्विप् सामान्यतया धातुमात्राद् विहितः शस्तु विशिष्य सातेः।तथा च उत्सर्गादपवादः' इति न्यायेन शप्रत्ययेनैव भाव्यमिति 'सात्' इति रूपं दुर्लभं तथापि वाऽ सरूपविधिर्भवतीति क्विपि भवति अत एव सात्वन्तो भक्ता उच्यते सात्परमात्मा भजनीय एषामित्यर्थात् । 'विदिण् चेतनारव्याननिवासेषु' इति चुरादेः स्वार्थे णिगि, “विदक् ज्ञाने" विदिच सत्तायाम, 'विद्लु ती लाभे विदृपी विचारणे' एषामन्यतमात् णिगि च वेदि' वेदयतीति-वेदयः उत्पूर्वात् 'एज़ कम्पने' इत्यतः “एजुङ् दीप्तो" इत्यतो वा णिगि उदेजयतीति उदेजयः । “धङ् अविध्वंसने" "धृग धारणे" 'धत स्थाने' एषामन्यतमात् णिगि धारयतीति धारयः, “पारण कर्मसमाप्तौ" अतो णिचिं पारयतीति पारयः । “चितै संज्ञाने" अतो णिगि 'चितिण संवेदने' अतः स्वार्थे णिचि वा चेतयते इति-चेतयः । प्रसाहयितेति अत्रानुपसर्गात्वाभावान्नास्य प्रवृत्तिः किन्तु तृच् ॥५६॥ लिम्पविन्दः ।।१।६०॥ . आभ्यामनुपसर्गाभ्यां शः स्यात् । लिम्पः । विन्दः ॥६॥ लिपीत् उपदेहे लिम्पतीति शे मुचादित्वान्ने “म्नां धुड्वर्गे" ।१।३।३६॥ इति नस्य मे लिम्पः “विद्लुती लाभे" विन्दतीति शे नागमे च विन्दः ॥६॥ निगवादेर्नाम्नि ।।१।६१।। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २८८ ) यथासङ्ख्यं निपूर्वाल्लिम्पेगंवादिपूर्वाच्च विन्देः संज्ञायां शः स्यात् । निलिम्पा देवाः । गोविन्दः । कुविन्दः । नाम्नीति किम् निलिपः ॥६१॥ निलिम्पन्तीति निलिम्पा देवाः ।गोपत्वात् गा विन्दतीत-गोविन्दः यद्वा वराहरूपेणावतारात् गां भुवं विन्दतीति गोविन्दः ।कुविन्दतीति कुविन्दः। निलिप-इति निलि-म्पतीति नाम्युपान्त्यलक्षण के निलिप इति कौगिकोऽयं . शब्दो न संज्ञा ॥६१॥ वा ज्वलादिदुनीभूग्रहास्रोर्णः ।।१।६२। ज्वलादेर्थातोर्दुनोत्यादेरास्रोश्चानुपसर्गाण्णो वा स्यात् । ज्वलः । ज्वालः । चलः । चालः । दवः । दावः । नयः । नायः। भवः । भावः । ग्राहो मकरादिः । ग्रह सूर्यादिः । आस्रव । आस्राव। अनुपसर्गादिति किम् । प्रज्वलः॥६२॥ 'ज्वमादि'इत्येतावता पूर्वावधेः ज्ञानोऽपि कियत्पर्यन्तं धातवो ज्वलादिपदेन . ग्राह्य ति शङ्का यदि उतिष्ठेत्तदेदं समाधान वृत् करणात् पहिपर्यन्ता ज्वलादयः । 'वृत्' शब्दः समाप्तिसूचकः इति वत्करणेन च ज्वलादीनामाधियिते । तत्र धातुपाठे वृत् ज्वलादिः" इत्यस्य ज्वलादयो वृत्ताः समाप्ताइत्यर्थः “ज्वल दीप्तौ" ज्वलतीति अनेन वाणे पक्षेऽचि च रूपढ़यं भवतिव ज्वलः ज्वालः इति । "चल कम्पने" इत्यस्य चलः चालः। दूनीभ्यां नित्यमेवेच्छन्त्येके । व्यस्थितविभाषेयम् विविधा प्रयोगानुसारिणी अवस्था सजाता यस्याः सा चासौ विभाषेत्यर्थः तेन जलचरे मकरादी नित्यं णः सूर्यादिज्योतिषि चाच प्रत्यय एवेति व्यवस्था ज्ञातव्या । "स्रगतो" 'आस्त्रवतीति आस्रवः आस्रावः । प्रज्जल इति–णो न भवति किन्त्वजेव ॥६॥ अवहसासंस्रोः ।।१।६३। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८६ ) • अवपूर्वाभ्यां हसाभ्यां संपूर्वाच्च स्रोर्णः स्यात् । तानः । अवहारः अवसायः । संस्राव ॥६३॥ अवहारः इति । अवहरतीति णे:वृद्धिः आरादेशश्च ग्राहः इत्यर्थः ।अवसाय इति । षोंच अन्तकर्मणि-अन्तकर्म विनाशः अवस्यतीति णः “आत ऐ: कृचौ" ४।३।५३ इत्याकारस्य ऐत्वम् आयादेशश्च संस्राव इति " गतो" संस्रवतीति ण: वृद्धिरावादेशश्च ॥६३॥ तन-व्यवीण-श्वसातः ।।१।६४। एभ्य आदन्तेभ्यश्च धातुभ्यो णः स्यात् । तानः। व्याधः । प्रत्यायः । श्वासः । अवश्यायः ॥६४॥ तान इति-"तनूयी विस्तारे" तनोतीति णः उपान्त्यवृद्धिश्च । व्यधंच् ताडने-विध्यतीति व्याधः । प्रत्याय इति-"इक् गती" प्रत्येतीति णः वृद्धिरायादेशश्च । श्वसन प्राणने-श्वसितीति श्वासः। अवश्याय इति"श्यैङ् गतौ" सन्ध्यक्षरान्तलक्षणे आकारे आकारान्तत्वम् अवश्यायत इति ण: अकारस्य ऐकारः, आयादेशश्च ॥६४।। नृत्-खन्-रजः शिल्पिन्यकट् ५।१।६५॥ एभ्यः शिल्पिनि कर्तर्यऽकट् स्यात् । नर्तकी । खनकः। रजकः । शिल्पिनीति किम् । नत्तिका ॥६५॥ शिल्पिनि कर्तरीति-अनेनोपाधित्वं दर्शयन् उपपदत्वमपाकरोति । शिल्पं कर्मकौशलम्, तद्वान् शिल्पी । नर्तकीति-पुसि तु णकेऽपि रूपसाम्यमिति अकटि स्त्रियां ङी र्भवति णके तु आब स्यादिति प्रदर्शनार्थं स्त्रियामुदाहृतम् । “खनूग अवदारणे" खनतीति खनकः । “रज्जी रागे" रजतीति रजकः । “अधिनोश्च रजे:” ।४।२।५० इति कारस्थानिनो नस्य लोपः नौतिकेति-नत्यतीति णके उपान्त्यगुणे “अस्यातत्तत्०" २।४।१२। "7 - -- Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) इत्याकारस्य इकारे नर्तिका । पुसि प्रयोजनाभावेऽपि स्त्रियां प्रयोजनाथं सूत्रमिदम् ॥६५॥ गस्थकः ।।१॥६६॥ गः शिल्पिनि कर्तरि थक: स्यात् । गायकः ॥६६॥ ... ग इति-"मैं शब्दे" "गाङ् गतौ" इत्युभयोः “गामादाग्रहणेष्वविशेषः" इति न्यायेन ग्रहणप्राप्तावपि गायतेरेव ग्रहणम्, शिल्पिन्यर्थे अस्य विधानात् गत्यर्थात्परस्य थकस्य शिल्पिनमभिधातुम समर्थतया लक्ष्यानुरोधादिह शब्दार्थकस्य गायतेरेव ग्रहणमिति भावः ॥६६॥ टनण् ।।१।६७। गः शिल्पिनि टनण् स्यात् । गायनी ॥६७॥ अत्रापि पूर्ववत् शब्दार्थकस्यैव गायते: ग्रहणम् । गायनीति-गायति, भवतीति टनण "आत ऐ:०” ।४।३॥५३॥ इति कृतात्त्वस्य सन्ध्यक्षरस्य ऐकारः आयादेशः डीश्च । नच पूर्वसूत्रणकयोग एव क्रियतां किं पृथग्योगेनेति वाच्यम् पृथग्योग उत्तरार्थः । उत्तरसूत्रे हि टनण एवानुवृत्तिरिष्टा सहनिर्देशे तु उभयोः प्रत्यययोः सहैव प्रवृत्ति-निवृत्ती स्यातामिति ॥६७।। है: कालव्रीह्योः ।।१।। हाको हाङो वा कालव्रीह्योष्टन्ण स्यात् । हायनो वर्षम् । हायना वोहयः । हाताऽन्यः ॥६॥ ह इति सामान्यनिर्देशेन “ओहांक त्यागे" "ओहाङ्कु गतौ" इत्युभयोL- . हणम् । जहाति जिहीते वा पदार्थानिति-हायनो वर्षम् । वर्षे केचन पदार्था नश्यन्ति तान् स त्यजतीव, केचनोत्पद्यन्ते तान् प्राप्नोतीवेति सार्थकत्व Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) .मवस्य । जहति उदकं दूरोत्थानात् अथवा गत्यर्थस्य व्युत्पादने जिहते वा द्रुतं हायना ब्रीहयः। शीघ्रवृद्धिरेवैषां द्रुतगतिः सद्य एव जलादूर्ध्वमुत्तिष्ठन्तीति जलत्याग एव क्रियते तैः ॥६॥ प्रसृल्वोऽकः साधौ ।।१।६६। एभ्यः साध्वर्थेभ्योऽकः स्यात् । प्रवकः । सरकः । लवकः । साधाविति किम् । प्रावकः ॥६६॥ साधुत्वं क्रियाविशेषणमिह न तु प्रत्ययार्थत्वमित्याह-साध्वर्थेभ्य इतिप्रुङ गती साधु प्रवत इत्यनेनाके गुणेऽवादेशे च प्रवकः क्रियाविशेषस्य क्लीबत्वं द्वितीया च भवति । मुंगतो “साधु सरतीति सरकः । लुग्श् छेदने" साधु लुनातीति लवकः । प्रवत इति णक:-वृद्धावावादेशे च प्रावकः साधुत्वाभावान्नात्राकप्रत्ययः ॥६॥ 1७०॥ आशिष्यऽकन् ।५।१।७०। आशिषि गम्यायां धातोरकन् स्यात् । जीवका । आशिषीति किम् ? जीविका ॥७॥ अप्राप्तस्याभिलषितस्य प्रार्थनमाशीः। न चासौ प्रयोक्तृधर्मः नासो प्रत्ययार्थो भवितुमर्हतीत्याशयेनाह-तस्यां गम्यायामिति “जीव प्राणधारणे" जीवतादित्याशास्यमानो-जीवकः इति । अकनि णके वा पुसि रूपसाम्यात् स्त्रियां प्रत्युदाहरति-जीविकेति-अत्र णकप्रत्यय आप “अस्यायत्" ।२।४।१११। इतीकारश्च । नकार: “इच्चा०" ।२।४।१०७। इत्यादौ व्युदासार्थः ॥७०॥ ७०॥ तिक्कृतौ नाम्नि ।।१७१। आशीविषये संज्ञायां गम्यमानायां धातोस्तिक कृतश्च स्युः । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९२ ) - - - - शान्तिः, पौरभूः, वर्द्धमानः ॥७॥ "शमूच उपशमे" शम्यादिौशास्यमानः इति-शान्तिः अत्र "तेहादिभ्यः" ।४।४।३२॥ इति नियमादिडभावः “अहन्पञ्चमस्य." ४।१।१०७। इति दीर्घः, "म्नां." ॥१३॥३६॥ इति मस्य नकारश्च । वीरो भूयादित्याशास्यमानः वीरभूरिति अत्र क्विप्प्रत्ययः । वर्षिषीष्टेतिवर्धमानः अत्रानशि शवि मागमः ॥७॥ कर्मणोऽण ॥१७॥ कर्मगः परोद्धातोरण स्यात् । कुम्भकारः ॥७२॥ कर्मणः इति न स्वरूपग्रहणम् "स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा" इत्यत्र असंज्ञेति निषेधात् । न च कर्मशब्दात् क्रियाग्रहणं शक्यते इति वाच्यं "कृत्रिमाकृत्रिमयोः०” इति न्यायात् । अत्र कर्मणो निर्वत्य-विकार्यप्राप्यरूपत्वात्त्र विध्याद् बहुवचन-निर्देशे उचितेऽपि जातिविवक्षयैकवचननिर्देशः । निर्वत्यकर्मणो लक्षणमित्थम् - सती वा विद्यमाना वा प्रकृतिः परिणामिनी। यस्य नाश्रीयते तस्य निर्वय॑त्वं प्रचक्षते ॥ अस्यार्थश्चेत्थम्-यस्य सती परिणामिनी प्रकृति श्रीयते यस्य चाविद्यमाना प्रकृति श्रीयते तत्कर्म निवत्यर्थं कथ्यते । अयमाशयः यस्योपादानकरणं नास्ति यस्य वा सदष्युपादानकरणं न विवक्ष्यते तदुभयं निर्वत्यं कर्म ।यथा संयोमं करोति-द्रत्यस्यैवोपादानकारणस्य भावात् संयोगस्य गणत्वादस्योपादानकारणस्यैवाभावः । घटं करोतीत्यत्र घटस्य द्रत्यरूपतयोपादानकारणस्यावश्यंभावेऽपि तदविवक्षात्र । विवक्षायां तूपादानकारणस्य कार्यसामानाधिकरण्येन प्रतीत्या मदं घट करोतीति स्यात तदविवक्षया घटमिति निर्वर्त्यमेव कर्म। यदा तपादानकारणमेव परिणामित्वेन कार्यसामानधिकरण्येन विवक्ष्यते तदा तत विकार्यं कर्म-यथा पूर्वोक्तं मदं घटं करोतीति । यदा च कार्येण सह कारणस्य वैयधिकरण्यं विवक्ष्यते तदा चोपदानकारणविवक्षायामपि निर्वत्त्यमेव यथा-मृदा घटं Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३ ) करोतीति-मद: करणविवक्षात्र । सम्बन्धसामान्यविवक्षायां मृदो घट करोतीति । विकार्य कर्म द्विधा प्रकृत्युच्छेदसम्भूतं किञ्चित् काष्ठादिभस्मवत् । किञ्चिद् गुणान्तरोत्पत्त्या सुवर्णादिविकारवत् ।। यत्र कारणगतरूपस्य सर्वात्मना परित्यागस्तदाद्यम् । यथा काष्ठं भस्म करोति । यत्र कारणगतरूपेण सह गुणान्तरोपत्तिविवक्ष्यते तत् द्वितीयं यथा सुवर्ण कुण्डलं करोति । प्राप्यं कर्म क्रियाकृतविशेषाणां सिद्धिर्यत्र न गम्यते । दर्शनादनुमानाद्वा तत्प्राप्यमिति कथ्यते ॥ यत्र दर्शनात् (प्रत्यक्षात्) अनुमानाद्वा क्रियाकृतविशेषाणां सिद्धिर्न गम्यते तत्प्राप्यं कर्म । यथा- करोतीति निवत्यै कर्मणि स्वरूपलाभ एब क्रियाकृतविशेषो दर्शनाद् गम्यते । पुत्रः सुखं करोतीत्यादी सुखलाभरूप एव क्रियाकृतविशेषोऽनुमानात् मुख्यप्रसादलिङ्गसहकारेण गम्यते । कटं पश्यतीत्यादौ कश्नित् क्रियाकृतविशेषो न दृश्यते नवाऽनुमीयते अतश्च कटेति प्र.प्यं कर्म । यद्यपि क्रियया प्राप्यमाणत्वात् सर्वस्य कर्मणः प्राप्यत्वं सम्भवति तयाष्यवान्त रभेदविवक्षयेदं त्रैविध्यं प्रदर्शितम्-अजाद्यपवादोयम् कुम्भकार इति-कुम्भं करोतीत्यनेनाण् वृद्धिः आरादेशश्च । “ऐकायें" ।३।२।८। इत्यमो लोप: “इस्युक्तं कृता" ।३।११४६। इति समासः । कुम्भो हि. अविद्यमानमेवोत्पत्द्यते, उपादानकरणस्य चाविवक्षेति-निर्वयं कर्मदम् ।।७२।। शीलिकामिभक्ष्याचरीक्षिक्षमो णः ।।१।७३। कर्मणः परेम्यः एभ्यो णः स्यात् । धर्मशोला । धर्मकामा । वायु. भक्षा । कल्याणाचारा । सुखप्रतीक्षा । बहुक्षमा ॥७३॥ शीलण उपधारणे उपधारणमभ्यासः परिचयो वा धणं शीलयतीति धर्मशीला सा । कमूङ कान्तो कान्तिरभिलाषः धर्म कामयत इति-धर्मकामा। "भक्षण अदने वायु भक्षयतीति वायुभक्षा । इकारी धातुस्वरूपनिर्देशार्थः । चर् भक्षणे च चकाराद् गतौ कल्याणमाचरतीति-कल्याणाऽऽचारा । ईक्षि . Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २६४ ) दर्शने सुखं प्रतीक्षत इति सुखप्रतीक्षा। 'क्षमौषि सहने' 'क्षमीच सहने' बहु क्षमते बहु क्षाम्यतीति वा “मोऽ कमिरमि०" ।४।३।६५॥ इति वृद्धयभावे वहुक्षमा । यद्यपि अल्पत्रन्तैः शीलादिभिः धर्मः शीलो यस्या इत्यादिबहुव्रीही सति धर्मशीलादयः सिध्यन्ति तथापि कर्मणोऽण् । इति अण्बाधनाथ वचनम् । अणि हि सति स्त्रियां डीः स्यात् । ननु “कमि" इति निर्देशेऽपि "कर्मेणिङ्" ।।४।२। इति "प्रकृतिग्रहणे स्वार्थिकप्रत्ययान्तस्यापि ग्रहणम्" इति न्यायात् ण्यन्तस्य ग्रहणं भविष्यतीति एयन्तोपादानं व्यर्थमिति चेत्सत्यम् अस्मादेव ण्यन्तनिर्देशात् अण्यन्तनिर्देशे “अतः कृ-कमि०" ।२।३।५। इत्यादौ केवलस्यैव कमेग्रहणम् तेन पयः कामयत इत्यर्थे णौ णे सति सकाराभाव ड्यभावश्च-पयःकामा । ण्यभावे तु अणि सति सकारो ङीश्च भवति-पयःकामी ।।७३।। गायोऽनुपसर्गाट्टक् ।।१।७४। . कर्मणः परादनुपसर्गात् गायतेष्टक् स्यात् बगो । अनुपसर्गादिति किम् । खरुसंगायः ॥७॥ वक्रं गायतीति-वक्रगीः । ककार: "इडेत्पुसि चातो लुक" ।४।३।६४। इत्याकारलोपार्थः, टकार: ड्यर्थः, ङस्युक्तसमासः खरु संगायतीति खरुसंगाय: "कर्मणोऽण्" ।५।१।७२। इत्यण "आत ऐ:०" ।४।३।४३। इत्याकारस्यकार आयादेशश्च । खरु इति गीतविशेषस्य संज्ञा । “गोऽनुपसर्गाटटक इति सूत्रकरणे "गामादाग्रहणेष्वविशेषः इति न्यायेन गाङ गती इत्यस्यापि ग्रहणं प्राप्यते तत्र तु टक्प्रत्ययो नाभिमतः इति गाय इति कृतम् ॥७४।। सुरा-सीधोः पिबः ।।१७। आभ्यां कर्मभ्यां परादनुपसर्गात्पिबतेष्टक् स्यात् । सुरापी । सीधुपी ॥७॥ समाहारे निर्देशे क्लीबत्वेऽपि नागमो न विहित: आगमशासनस्यानित्य Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( २९५ ) त्यात् । सुरां पिबतीति सुरापी । शीधुपिबतीति-शीधुपी।।७५।। आतो डोऽहा-वा-मः ।।१७६। कर्मणः परादनुपसर्गाह्वावावमार्जादादन्ताद्धातोर्डः स्यात् ।गोदः । अह्वावाम इति किम् । स्वर्गद्वायः। तन्तुवायः धान्यमायः॥७६॥ गां ददाति-गोदः ।ह्व स्पर्धांशब्दयोः-स्वर्ग हयतीति स्वर्गह्वायः। कर्मणोऽण् ५/१।७२ सूत्रादण्सन्ध्यक्षरान्तलक्षणस्याकारस्यकार आयादेशश्च वेंगतन्तु सन्ताने तन्तुनवयतीति-तन्तवायः। मांडक मानशब्दयोःधान्यं मिमीत इति धान्यमायः ।कालविशेषानुक्तः कालत्रयेऽपि प्रत्ययोऽयमिति व्यंग संवरणे वपुर्तिवान्-वपुर्थः इत्यादी भूतेऽपि भवति ॥७॥ समः ख्यः ।।१।७७। ... .. ... कर्मणः परात् संपूर्वात् ख्यो डः स्यात् । गोसङ्ख्यः ॥७७॥ "ख्य" इति ख्याशब्दस्य पञ्चम्यां रूपम् ख्यास्वरूपं च ‘ख्यांक प्रकथने" इति ख्याधातोः । “चक्षिक व्यक्तायां वाचि” इति 'चक्ष्' धातोरशिति प्रत्यये विषये "चक्षो वाचि०" ।४।४।४। इति इति ख्यादेशस्य च । अत्र च "स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा" इति न्यायेनोभयोरपि संग्रहः । गां संख्याति संचष्टे वा-गोसंख्यः पूर्वेण सिद्ध उपसर्गाथं वचनम् ॥७७।। दश्चाङः ।।१७। कर्मणः परादाङ्पूर्वात् दागः ख्यश्च डः स्यात् । दायादः । स्त्र्याख्यः ॥७॥ "डुदांग्क् दाने” इति दाधातोः ग्रहणम् चकारेण ख्याधातोरनुकर्षः । भावाकोत्रि दायः दायमादत्त दायादः । स्त्रियमाचष्टे स्त्र्याख्यः । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) इदमुत्तरं चोपसर्गाथं वचनम् ॥७॥ प्राज्ज्ञश्च ।।१७। कर्मणः परात् प्रपूर्वात् जो दागश्च डः स्यात् । पथिप्रज्ञः । प्रपाप्रदः ॥७९॥ द इत्यस्य चकारेणानुकर्षः ख्य इति तु नानुवर्तते पूर्वसूत्रे चानुकृष्टत्वात् । ज्ञ इत्यनेन "ज्ञांश अवबोधने” इत्यस्य ग्रहणम् । पन्थानं प्रजानातीति पथिप्रज्ञः। प्रपा प्रददाति-प्रपाप्रदः । “कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे कार्यसंप्रत्ययः” इति न्यायेन कृत्रिमस्यैव “अवौ दाधी दा"।३।२।५॥ इति विहितदासंज्ञकस्य ग्रहणे प्राप्तेऽपि ज्ञाख्याधातू रूपपरावेव न संज्ञापराविति तत्सहचारितः दाधातुरपि रूपपर एव, न संज्ञापर इति ज्ञायते । एवं च यद्यपि दारूपस्यैव ग्रहण मिति स्थिते "दाम् दाने” दांव क लवने" "देव शोधने" "देङ् पालने” “डुदांगक दाने इति सर्वेषामिह पूर्वसूत्रे च ग्रहणमित्यायाति तथापि पूर्वसूत्रे दाग इति कथमुक्त मित्यस्यसमाधाने सर्वेषां दारूषत्वाविशेषे "गा मादा-ग्रहणेष्वविशेषः” इति न्यायासिद्धऽपि दाग एवाङा प्रयोगा दृश्यन्त इति प्रयोगस्वाभाव्यात् दाग एव दारूपस्य ग्रहणमिति भावः ॥७॥ आशिषि हनः ।।१।८। . कर्मण, पराद्धन्तेराशिषि डः स्यात् । शत्रुहः ॥५०॥ "हनंक हिंसागत्थोः" शत्रु वध्यादित्याशास्यमानः शत्रुहः ॥२०॥ क्लेशादिभ्योऽपात् ।।१।८१॥ क्लेशादिकर्मणः परादपाद्धन्तेर्डः स्यात् । क्लेशापहः ततोपहः । ॥ ८१ ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) नच पूर्वसूत्रेणैव क्लेशादिकर्मणः परादपपूर्वाद्धन्तेः उप्रत्ययः स्यादिति किमनेनेति वाच्यं यत्र नाशीविवक्षाऽपि तु वस्तुस्थितिकथनमेव तत्रापि प्रत्ययः स्यादित्येतदर्थत्वात् । क्लेशमपहन्ति - क्लेशापहः । तमोऽपहन्ति-तमोपह्ः बहुवचनाद् यथादर्शनमन्येभ्योऽपि भवति ॥ ८१ ॥ कुमार - शीर्षाण्णिन् ।५1१1८ । आभ्यां कर्मभ्यां पराद्धन्तेर्णिन् स्यात् । कुमारघाती । शीर्षघाती ॥८२॥ कुमारं हन्तीति कुमारघाती " णिति घात् " | ४ | ३ |५० | इति घातादेशः ङस्युक्तसमासः । शिरः शीर्षं वा हन्तीति - शीर्षघाती - अत एव कुमारशीर्षादिति निर्देशाच्छिरसः शीर्षभावः शिरःशब्द पर्यायोऽकारान्तः प्रकृत्यन्तरं शीर्षशब्दो वा । शीर्यते नश्यति जरसा = शीषं "ऋजि- रिषि " । उणा० ५६७। इति कितु सः । शीर्षशब्दस्य प्रकृत्यन्तरत्वे कोशप्रमाणमुच्यते 'उत्तमाङ्ग ं शिरः शीर्ष मूर्धाना मस्त कोऽस्त्रियाम् ।' इदं सूत्रे कालसामान्ये विहितमपि भूतातिरिक्त एव काले प्रवर्तते, भूते च 'हनो णिन् ' |५|१|६० । इति सिद्धः एव ॥ ८२॥ # अचित्ते टक् ।५।१।८३। कर्मणः पराद्धन्तेरचित्तवति कर्त्तरि टक् स्यात् । वातघ्नं तैलम् । अचित्त इति किम् । पापधातो यतिः ॥ ८३ ॥ अचित्तवतीति न विद्यते चित्तं यस्य तस्मिन् अचित्त - चित्तवद्भिन्न इत्यर्थः । केचित्तु चित्तस्याभावोऽचित्तं तदस्यास्तीति 'अभ्रादिभ्यः ' |७|२|४६ । इति मत्वर्थीयेऽप्रत्यये - अचित्त इति । वातं हन्तीति वातघ्न 'तैलम् | गमहनः' । ४ | २|४४ । इत्युपान्त्यस्य लोपः 'हनो हनो घ्नः ।' | २|१|११२ | इति नादेशः, तेलमिति विशेष्यमचित्तकर्तृत्वज्ञापनार्थम् । पापं हन्तीति - पापघातो यतिः ||१३|| Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) जायापतेश्चह्नवति ||१२८४। आभ्यां कर्मभ्यां पराद्धन्तेश्चिह्नवति कर्त्तरि टक् स्यात् । जायाघ्नो ब्राह्मणः पतिघ्नी कन्या ॥ ८४ ॥ चिह्न शरीरस्थं शुभाशुभसूचकं तिलकालकादि । जायां हन्तीति जायाघ्नोब्राह्मणः । यद्यपि जायाघ्नशब्देन सामान्यतो जायाह्ननकर्तेव लभ्यतेऽर्थः, न च तावता जायाहननसूचक चिह्नवत्त्वं गम्यते तथापि अप्राप्तायां जायायां प्राप्तायामपि स्वस्तिमत्यां स्थितायां कृतस्य जायाघ्न इति प्रयोगस्य सामान्यतो जायाहननकर्तुं त्वमर्थो न मन्तुं शक्यतेऽसम्भवात्, शिष्टवाक्यत्वेन च तस्य निरर्थकत्वमपार्थत्वं वा न युक्तम्, तस्मात् जायाहननसूत्रकापलक्षणवानयनिति तदर्थो निश्चयः । वस्तुतस्तु तादृ शलक्षणवत्त्वमात्रेण न तद्घननकर्तृ ' त्वं सम्भवति तादृशलक्षणेन ह्यस्य जाया नक्ष्यतीत्येव ज्ञायते न तु स्वय-मेक तां हनिष्यतीति, तथापि तादृशलक्षणवत्त्वे स तद्धन्तैवेति गोणों व्यवहारः । चित्तवदर्थोऽयमारम्भः || ८४ ॥ ब्रह्मादिभ्यः ।५।१।८५| एभ्यः कर्मभ्यः पराद्धन्तेष्टक् स्यात् । ब्रह्मघ्नः । गोघ्नः पापी ॥८६॥ ब्रह्मादिभ्यः - ब्रह्म हन्तीति टकि कित्त्वात् 'यमहन० |४| २|४४ । इत्युपान्त्य - लोपे 'हनो० ” | २|१|११२ । इति घ्नादेशे च ब्रह्मघ्न इति । गां हन्तीति गोघ्न इति । चित्तवदर्थं आरम्भः ||५|| हस्ति बाहुकपाटाच्छौ |५|श८६ । i एभ्यः कर्मभ्यः पराद्धान्तेः शक्तौ गम्यायां टक् स्यात् । हस्तिघ्नः । बाहुघ्नः । कपाटघ्नः । शक्ताविति किम् । हस्तिघातो विषद्रः ॥ ८६ ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( २९६ ) हस्ति । चित्तवदर्थ आरम्भः । हस्तिनं हन्तुं शक्त इति टकि प्राग्वदुपान्त्यलोपे घनादेशे चहस्तिघ्नः । बाह हन्तुं शक्तः बाहघ्नः । कपाटं हन्तु शक्तः कपाटघ्नः । पृच्छति-शक्ताविति विनापि तद्ग्रहणं प्रयोगेन शक्तिगम्यत एवेति प्रश्नाशयः । न केवलं शक्त्यैव हस्ती मारयितुं शक्यतेऽपि तु शक्तिविकलेनापि विषादिना हननस्य साध्यत्वात् तत्र हस्तिघ्न इति प्रयोगस्य वारणाय शक्तावित्यावश्यकमित्याह-हस्तिघातो विषदः । हस्तिनं हन्ति विषेणेत्यर्थः । अत्राण प्रत्यय एव भवति । अत्रोक्त तत्त्वबोधिन्याम् --"यद्यपि शक्तिग्रहणसामर्थ्यात् प्रकर्षों गम्यते, तेन स्वबलेनैव हन्तु या शक्तिः सा गृह्यते” इति । तथा च विषेण गजहनने न कर्तु: स्वकीया शक्तिः प्रतीयतेऽपि तु विषस्यैवेति ॥६॥ नगरादगजे ।।१।। नगरात्क मणः पराद्धन्तेरगजे कर्तरि टक् स्यात् । नगरघ्नो व्याघ्रः । अंगज इति किम् । नगरघातो हस्ती ॥८७॥ नगरादगजे- चित्तवदर्थः आरम्भः । यद्यपीदं सूत्र विहाय पूर्वसूत्र एव नगरशब्दोऽपि पठ्यते तदापि नगरघ्न इति स्यादेव, शक्त रत्रापि ज्ञायमानत्वात्, तथापि गजेऽपि प्रत्ययःस्यादेवेति तन्निवृत्तये योगविभाग आवश्यकः । नगरं हन्तीति नगरघ्नो व्याघ्रः । पृच्छति-अगज इति किमिति । पूर्वत्रव नगरशब्दः पठ्यतामिति प्रश्नाशयः । उत्तरयति-नगरघातो हस्तीति-अणो हि टकारसरूपत्वेननित्यबाधादण् नस्यादिति नगरघ्न इत्येव स्यादिति भावः ।।८७॥ राजघः ।।१।८। राज्ञः कर्मणः पराद्धन्तेष्टक् घादेशश्च निपात्यते । राजघः ॥८॥ राजघः । निपात्यते इति–अलाक्षणिक कार्य विना निपातनमलभ्यमिति निपातनमाश्रितम् । तत्र वृत्तौ हन्तेरिति तन्त्रेण पञ्चम्यन्तषष्ठ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) चन्तयोनिर्देश:, तेन हन्तेः टक् प्रत्ययो भवति, हन्ते--र्घादेशो भवतीत्यथलभ्यते । राजा नंहन्तीति - राजधः ॥८८॥ पाणिघताडयौ शिल्पिनि |५|१८| एतौ शिल्पिनि टगन्तौ निपात्येते । पाणिघः । ताडघः । शिल्पिनीति किम् । पाणिघातः । ताडघातः ॥ ८६ ॥ पाणिघ- पाणि हन्तीति पाणिघः शिल्पी | ताडं हन्तीति ताडघः शिल्पी । पृच्छति -शिल्पिनीति किमिति, उत्तरयति - पाणिघातः, ताडघातः इति -: यथाकथञ्चित् हन्तीत्यणि घातादेशे च पाणिघातः, ताडघात इति ॥ ८ ॥ कुक्ष्यात्मोदरात् भृगः खिः ।५।१०। एभ्यः कर्मभ्यः पराद्भगः खिः स्यात् । कुक्षिम्भरिः । आत्मम्भरिः । उदरम्भरिः ॥ ६० ॥ कुक्ष्या० । “टुडुभृ ंगक्पोषणे" कुक्षिमेव स्वीयमुदरमेव न परं बिर्भात पुष्णातीति खौ गुणे "खित्य ० ' | ३ |२| ११ | इति पूर्वस्य मेन्तागमे ङस्यु - समासे कुक्षिम्भरिः, आत्मानमेव विभर्तीति-आत्मम्भरिः, उदरमेव बिभर्तीति उदरम्भरिः । “तौ मुमो० ' | १|३ | १४ | इति मस्यानुस्वारानुना सिकौ भवति इति कुक्षिभरि आत्मंभरिः, उदरंभरिरित्यपि भवति ॥ ६० ॥ अर्होऽच् ||५|१|१| कर्मणः परादर्हेरच् स्यात् । पूजार्हा साध्वी ॥१॥ अर्होच्- । “कर्मणोऽण” | ५|१|७२ | इत्यणोऽपवादो योगः (अचाणोः सरू - पत्वेन नित्यापत्रादत्वमित्यर्थः । " अर्ह पूजायाम् ” समासे पूजार्हा साध्वी । अत्राच्भावादाप् सिद्ध: पूजा मर्हतीत्यचि ङस्यु। अणि तु 'अणο' Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०१ ) ।२।४।२०। इयि ङीः स्यात् ॥११॥ धनुर्दण्डत्सरुलाङ्गङ्लाकुष्टियष्टिशक्तितोमरघटाद् ग्रहः ।५।१६२। एभ्यः । कर्मभ्यः पराद् ग्रहोऽच् स्यात् । धनुग्रहः । दण्डग्रहः । सरुग्रहः । लाङ्गलग्रहः । अकुशग्रहः । ऋष्टिग्रहः । यष्टिग्रहः । शक्तिग्रहः । तोमरग्रहः । घटग्रहः ॥१२॥ धनु०-। “ग्रहीश् उपादाने' । धनुर्गुणातीत्यचि ङस्युक्तसमासे-धनुर्ग्रहः इति, पवं दण्डं गृह्णातीति दण्डग्रहः, त्सरु कृपाणमुष्टिं गृह्णातीति-त्सरुग्रहः, लाङ्गलं हलं गृह्णातीति-लाङ्गलग्रहः, अङ्कुशं गृह्णातीति अङ्कुशग्रहः, ऋष्टिं खङ्गगृगातीति-ऋष्टिग्रहः, यष्टि' गृह णातीति यष्टिग्रहः शक्तिशस्त्रविशेषं गृह्णातीति-शक्तिग्रहः, तोमरं गृह्णातीति तोमरग्रहः, घटं गृह्णातीति घटग्रहः । 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्याहि ग्रहणं' मितिन्यायात् घटीग्रह इत्यत्राप्यच् सिद्धः ॥६२॥ सूत्राद्धारणे ।५।१।६३॥ सूत्रात्कर्मणः पराद् ग्रहो रहणपूर्वकधारणार्थादच् स्यात् । सूत्रग्रहः प्राज्ञः सूत्रधारो वा । धारण इति किम् । सूत्रग्रहः ॥३॥ सूत्राद्धारणे-। सूत्र कार्पासादिमयं लक्षण सूत्रं वाऽविशेषेण गृह्यते । ग्रहधातो-ग्रहणार्थकत्वेनैव सूत्रग्रहणकर्तरि प्रयोगस्य निर्वाधत्वेन 'धारणे'इति यदुक्त तस्य फलमाह-ग्रहणपूर्वकधारणार्थादिति । सूत्रं गृह णातीति सूत्रग्रहः प्राज्ञ: सूत्रधारो वेति, सूत्रमुपादाय धारयतीत्यर्थः । प्राज्ञो गुरोः सकाशात् लक्षणसत्रं प्राप्य धारणति, अन्यश्च लोके कर्पासादिमयं कुतश्चनोपादाय धारयति । पृच्छति-धारण इति कितितिग्रहण धारणयोः पर्यायप्रायत्वेन धारण इत्यस्य वैयर्थ्यमिति प्रश्नाशयः ग्रहधातोरुपादानमात्रार्थो न तु धारणमपि, तथा च यः केवलं गृह्णात्येव Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२ ) तत्र नायं प्रयोग इत्याह-सूत्रधार इति-अत्राणेव भवति । यो हि सूत्रं गृह्णाति न तु धारयति स एवमुच्यते ॥१३॥ आयुधादिभ्यो धृगोऽदण्डादेः ।।१।६४॥ दण्डादिवर्जादायुधादेः कर्मणः पर्राद् धृगोऽच् स्यात् । . धनुर्द्धरः । भूधरः। अदण्डादेरिति किम् । दण्डधारः। कुण्डधारः । ॥ ६४ ॥ आयुधादिभ्यो० । अत्रादिशब्द:प्रकारवाचको न तु प्रभृत्यर्थकः, तथा चायुधवाचकप्रकाराः आयुधवाचक सदृशा.शब्दा आयुधादित्वेन गृह्यन्ते, न तु आयुध--शस्त्रप्रभृतयः शब्दा गृह्यन्ते, केवलमायुधवाचकस्यैव ग्रहणेऽभिमते तु 'आयुधेभ्य इत्येव ब्रूयात् । 'धृग धारणे' धनुर्धरतीत्यचि गुणे ङस्युक्तसमासे च धनुर्धरः । आदिग्रहणादाह-भूधर इति, आदिशब्दस्य प्रकारवाचकत्वमित्युक्तम्, यथा धनुर्धार्यते तथा भरपीत्यायुध-सादृश्यभुव इति प्रत्ययो भवति । दण्डादिवर्जनप्रयोजनं पृच्छतिअदण्डादेरिति किमिति, उत्तरयति दण्ड धरतीति' कर्मणोऽण्' ।५।१।७२।। इत्यणि वृद्धोऽस्युक्तसमासे दण्डधारः, एवं कुण्डधारः, वर्जनाभावेऽत्राय्यच् प्रवर्तेत, स च नेष्यत इति भावः ॥१४॥ हगो वयोऽनुद्यमे ॥१६॥ कर्मणः पराद्धगो वयस्यनुद्यमेच गम्येऽच् स्यात् । अस्थिहरः श्वशिशुः ।उद्यमः उत्क्षेपणमाकाशे धारणं वा तदभावे। अंशहरो दायादः । मनोहरा माला । वयोऽनुद्यम इति किम् । भारहारः ॥६॥ हृगो०-- प्राणिनां कालकृतावस्था वयः । उद्यम उत्क्षेपणम्, आकाशस्थस्य वा धारणम्, तदभावोऽनुद्यमः । 'हग हरणे' अस्थि हरतीति. अचिगुणे डस्युक्तसमासे अस्थिहरःश्वशिशुरिति-अस्थ्युत्क्षेपणसमर्थे वयसि Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०३ ) वर्तत इत्येके, अपरे तु-अस्थिहरणेन हि तस्य तादृशावस्था गम्यते यत्र तस्य दन्ता अस्थिचर्वणयोग्या न भवन्ति । अंशं हरतीति-अंशहरो दायादः, मनो हरति या सा मनोहरा माला, न चाशादिहरणमुद्यम एवेति वाच्यम्, पूर्व व्यास्यातस्योत्क्षेपणस्योपरि धारणस्य वा तत्राभावात् । भारहार इति -अत्र 'कर्मणोऽण् ।५।१।७२॥ इत्यणेव भवति । नन्वनुद्यम इत्युक्त्रैव उद्यमभिन्ने सर्वत्र प्रत्ययविज्ञानाद् वयस्यपि भविष्यत्येवेति वयोग्रहणस्य वैयर्थ्य मितिचेदच्यते-वयसि क्रियमाणः सम्भाव्यमानो वोद्यम उच्यमानवयो गमयतीति वयोगणस्योद्यमार्धत्वात् । नहि श्वशिशुः सर्वदाऽस्थि हरति, असति अस्थिहरणेसोऽस्थिहरशब्देन कथयितु शक्यतेऽतः समभाव्यमानो वेत्युक्तम् ॥६५॥ आङः शोले ॥१६॥ कर्मणः परादाङपूर्वाद्ध गेः शीले गम्येऽच् स्यात् । पुष्पाहरः । शील इति किम् । पुष्पाहारः ॥९६॥ आङःशीले-। शीलं स्वाभाविकी प्रवृत्तिः । पुष्पाण्याहरतीत्येवं शील:पुष्पाहरः- पुष्पाण्याहरणे स्वाभाविकी फलनिरपेक्षा वृत्तिरस्येत्यर्थः । पुष्पाहर इति-देवपूवजाद्यर्थं पुष्पाण्याहरतीत्यर्थः । अत्र शीलार्थाभावादस्याप्रवृत्त्याऽणेव भवतीत्यर्थः । ननु लिहादेराकृतिगणत्वादेव पूजाहादीनां सिद्धौ "अर्होऽच्" ।५।१।६१॥ इत्यारभ्य प्रवृत्तस्याप्रकरणस्य वैयर्थ्यमिति चेदुच्यते-यद्यपि लिहादित्वादच् सिद्धस्तथापि कस्मात् धातोः कस्मिन्नर्थे किमुपसर्गपूर्वादच् प्रत्यय इष्ट इति विशेषण प्रपञ्चयितुमिदं प्रकरणमारब्धमिति नास्य वैयर्थ्यमिति हृदयम् ॥६६॥ वृतिनाथात् पशाविः ।।१।६७। आम्यां कर्मभ्यां पराद्धगः पशौ कर्तरि इः स्यात् । दृतिहरिः श्वा । नाथहरिः सिंह ॥१७॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) दृति०-दृतिः चर्मखल्लः, चर्मभस्त्रा च, चर्म इत्यपि केचित्, नाथो नासारज्जुः । दृति हरतीति इप्रत्यये गुणे ङस्युक्तसमासे दृतिहरि श्वाः । नाथं हरतीति नाथहरिः सिहः ॥१७॥ रजःफलेमलाद ग्रहः ।।१।। एभ्यः कर्मभ्यः परात् ग्रहेरिः स्यात् । रजोग्रहिः । फलेनहिः । मलग्रहिः ॥९॥ रजः० । 'ग्रहीश् उपादाने' रजो गृह णातीति-रजोग्रहिः । फलानि मृह णातीति-फलेग्रहिः-सूत्र निर्देशादत्रत्वम् । मलं गृह णातीति-मलग्रहिः ॥१८॥ देववातादापः ।।१६। आभ्यां कर्मभ्यां परादापेरिः स्यात् देवापिः । वातापिः ॥६॥ देव०-"आप्लृट् व्याप्ती" देवानाप्नोतीति-देवापिः । वातमाप्नोतीति वातापिः ॥६॥ सकृत्स्तम्बाद् वत्सनीही कृगः ।।१।१००। .. आभ्यां कर्मश्यां परात् कृगो यथासङ्ख्यं वत्सवीह्योः कोरिः स्यात् । सकृत्करिर्वत्सः । स्तम्बकरिवाहिः ॥१०॥ वत्सव्रीह्योः कर्बोरिति--एतेन ब्रीहिवत्सग्रहणं प्रत्ययार्थस्य कर्तु विशेषणमिति दर्शयति, प्रत्ययार्थत्वं तु “कर्तरि" ।५।१।३। कृदिति वचनात् । कुतः पुनरेतदवसितं प्रत्ययार्थस्य विशेषणमेवेति, न पुनर्बाधकमेवेति, तदुच्यते धातोः प्रत्ययस्य विधानात् तदर्थंस्य येन सम्बन्धस्तत्र वाच्ये प्रत्ययेन भवितव्यम्, धात्वर्थः क्रिया, तस्याश्च साधनेन सम्बन्धो न वस्तुस्वरूपेण, Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ३०५ } साधनं च शक्तिः, न वस्तुस्वरूपम्, व्रीहिशब्दो वत्सशब्दश्च वस्तुस्वरूपेण स्वार्थमाचष्टे न शक्तिस्वरूपेणेति, तेनाशक्तिस्वरूपेण प्रतीयमानो व्रीहिवत्सश्च नार्हति प्रत्ययार्थो भवितुम्, सोऽप्रत्ययार्थः सन्नशक्तित्वात् कथमिमं प्रत्ययार्थं बाधेत, तस्मात् प्रत्ययार्थस् तेन कर्तरि विशिष्यते इति युक्तमुक्त वत्सव्रीह्योः कर्त्रीरिति । एष न्यायोऽन्यत्रापि प्रत्ययार्थविशेषणे द्रष्टव्यः । शकृत् करोतीति-शकृत्करिर्वत्सः, शकृत्शब्दः पुरीष वचनोऽपि वत्सकृतशुष्कप्रायपुरीषपरः स्तम्बं करोतीति--स्तम्वक रिवहिः स्तम्बशब्द स्तृणनिचयपरः || १०० | 1 , कियत्तद्वहोर: | ५|१|१०१ ॥ एभ्यः कर्मभ्यः परात् कृगो, अः स्यात् । किंकरा । यत्करा । बहुकरा ॥ १०१ ॥ किम्यत्० - - किं करोमीत्याज्ञां प्रतीक्षते इति -- किङ्करा इति-कुरु इति विनियुक्तः किमिति पृच्छति तदुत्तरं यथादिष्टं करोतीति भाव: । किङ्करशब्दो दासीपर्यायः, दासी चानकूला भवतीत्यनुकुलायां वाच्यायां “हेतुतच्छीला० ” | ५ | १|१०३ | इति परसूत्रेण टप्रत्यये विहितेऽ प्यविधानं ङयभावार्थम्, अन्यथा टप्रत्ययस्य टित्त्वात् 'अणजे ' ० | २|४| २० | इति ङी: स्यादिति ज्ञापनार्थं 'किङ्कर' इत्यनुदाहृत्य किङ्करेत्युदाहृतम् ||१०१ || सङ्ख्याऽर्हदिवाविभानिशाप्रभाभाश्चित्रकर्त्ताद्यन्तानतकारबाह्ररुर्धनुर्नान्दी लिपिलिविब लिभक्तिक्षेत्रजङ्घाक्षपाक्षणदारज निदोषादिन दिवसा : ।५।१।१०२ । सङ्ख्येत्यर्थं प्रधानमपि एभ्यः कर्मभ्यः परात्कृष्टः स्यात् । सङ्ख्याकरः । द्विकरः । अहस्करः । दिवाकरः । विभाकरः । निशा Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६ ) करः । प्रभाकरः। भास्करः । चित्रकरः । कर्तृकरः । आदिकरः । अन्तकरः । अनन्तकरः। कारकरः । बाहुकरः। अरुष्कर । धनुष्कर । नान्दीकर । लिपिकरः। लिविकरः। बलिकरः । भक्तिकर: । क्षेत्रकरः । जङ्घाकरः । क्षपाकरः । क्षणदाकरः । रजनिकरः । दोषाकरः । दिनकरः । दिवसकरः ॥१०२॥ सङ्ख्या०-। व्याकरणे "स्वरूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञेती न्यायात् शब्दस्य स्वरूपमात्रवाचकत्वस्य सिद्धान्तितत्वेन संख्येति शब्दस्यापि स्वरूपमात्रपरत्वं स्यादित्याशङ्कायामाह-संख्येत्यर्थप्रधानमपीति-अपिना स्वरूपपरमपीति भावः । अर्थप्रधानत्वस्य संख्याशब्दस्य भावेन संख्यार्थका एकादयः शब्दा गृह्यन्ते । अहेत्वाद्यर्थ आरम्भः । अहः करोतीति-अहस्कर इति'अहन्' इत्यस्य “रो लुप्यरि०" ।२।११७५। इति नकारस्य रेफः, तस्य "अतः कृ०" ।२।३।५। इति इति सत्त्वमत्र विझेयम् । दिवा दिवसं करोतीति दिवाकरः इति-'दिवा' इत्याकारान्तमन्त्ययमहीत्यर्थे तस्याधिकरणशक्तिप्रधानस्यापि कर्मत्वं बोध्यम् । भासः करोतीति-भास्करः, कस्कादित्वात् रेफस्य सकार: । अनन्तं करोतीति-अनन्तकरः, अथानन्तग्रहणं किमर्थम् ? अन्तग्रहणादेवानन्तशब्देऽपि तदन्तविधिना भविष्यति, नैतदस्ति-सर्वस्मिन्नुपपदविधौ नहि तदन्तविधि-रिष्यते । अरुः क्षतम्, अरुः करोति, धनु:करोतीति च-अरुष्करः, धनुष्कर: इति-:समासेऽसमस्तस्य" ।२।३।१३। इति षत्वम् । नान्दी देवादि स्तुति करोतीति-नान्दीकर: अक्षरन्यासे लिपिलिविः” इत्यभिधानचिन्तामणिः, लिपि लिविं करोतीति लिपिकरः लिविकरः क्षपा क्षणदा रात्रिः, क्षपां क्षणदां करोतीति क्षपाकरः, क्षणदाकरः । रजनि करोतीति-रजनिकरः, इतोऽक्त्यर्थात"।२।४।३२। विकल्पेन डीविधानादत्र न डीः । दोषा रात्रिं करोतीति-दोषाकरः ॥१०२।। . हेतुतच्छोलानुकूले ऽशब्दश्लोककलहगाथावरचाटुसूत्र मन्त्रपदात् ।।१।१०३। एषु कर्तृषु शब्दादिवर्जात् कर्मणः परात्कृगष्टः स्यात् । यशस्करी Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०७ ) विद्या । श्राद्धकरः । प्रेषणकरः । शब्दादिनिषेधः किम् । शब्दकार इत्यादि ॥ १०३॥ हेतु० - । हेतुः प्रतीतशक्तिकं कारणम्, तच्छीलं तत्स्वभावः, अनुक्कल आराध्यचित्तानुवर्त्ती । यशः करोतीति टे गुणे ङस्युक्त - समासे टित्त्वात् स्त्रियां ङीप्रत्यये - यशस्करी विद्येति - विद्याया यशोहेतुत्वमिह गम्यते, "अतः कृकमि० " | २|३|५| इति रस्य सत्वम् । श्राद्धं करोतीत्येवंशील:श्राद्धकरः । षणं करोतीति षणकरः, अत्त्रानुकूल्यं गम्यते । पदकृत्यं पृच्छति शब्दादि निषेधः किमिति उत्तरयति शब्दं करोतीति "कर्मणोऽण" ५।१।७२ ॥ इत्यणि शब्दकारः ॥ १०३॥ भृतौ कर्मणः ||५||१०४ । व शब्दात् कर्मणः परात्कृगो भृतौ गम्यायां टः स्यात् । कर्मकरी दासी ॥ १०४ ॥ भृतो० - । भृतिर्वतनं कर्ममुल्यमिति यावत् । "कर्मणोऽण्” ।५।१।७२ | इति पूर्वसूत्रानुवृत्तं 'कर्मणः" इति अत्रोक्तस्य 'कर्मण:' इति पदस्य विशेषणमिति तदनुसारमेवार्थमाह - कर्मशब्दात् कर्मणः परादिति । कर्म करोतीतिकर्मकरी दासी । ननु कर्मनुशब्दस्य " कतु र्व्याप्यं कर्म" | २२|३|| इति स्वशास्त्रेण परिभाषितत्वात् तदर्थबोधकत्वमेव युक्तम्, न तु शब्दस्वरूपपरत्वमिति शब्दस्वरूपपतया व्याख्यानमयुक्तमितिचद् । उच्यते । पुनः कर्मग्रहणं शब्द रूपकर्मप्रतिपत्त्यर्थम् । अन्यथा 'वर्मणः' इत्यस्य "कर्मणोऽण्” १५/१/७२ | इति सूत्रात् धाराप्रवाहन्यायेनानुवर्तसनित्वात् पुनः कर्मग्रहणस्य वैयथ्यं स्यात् ॥१०४॥ क्षेमप्रियमद्रभद्रदात् खाऽण् ॥५।१।१०५। एभ्यः कर्मभ्यः परात् कृगः खाणौ स्याताम् । क्षेमङ्करः । क्षेम Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) कारः । प्रियङ्करः । प्रियकारः मद्रङ्करः । मद्रकारः । मद्रकरः । भद्रकारः ॥१०५॥ क्षेमं । क्षेमं करोतीति खे गुणे ङस्युक्तसमासे "खित्यनव्यया०' ।३।२।११ इति मोन्ते “तो मुमो०" ।१।३।१४॥ इति डकारे-क्षेमङ्करः । अणि तु वृद्धौ क्षेमकारः । खो वेति सिद्ध अण्-ग्रहणं हेत्वादिषु टबाधनार्थम्।।१०५॥ मेत्तिभयाभयात्खः ।।१।१०६। एभ्यः कर्मभ्यः परात्कृगः खः स्यात् । मेघङ्करः। ऋतिङ्कर । भयङ्करः । अभयङ्करः ॥ १०६ ॥ मेघर्ति०।–मेघान् करोतीति मेघङ्करः । ऋतिर्गतिः सत्यता वा, ऋति० करोतीति ऋतिङ्करः ॥१०६॥ प्रियवशाद्वदः ।।१।१०७। आभ्यां कर्मभ्यां पराद्वदः खः स्यात् । प्रियम्वदः । वशम्बदः ॥१०७॥ "वद व्यक्तायांवाचि" प्रियं वदतीति खे ङस्युक्तसमासे मागमेऽनुनासिके च प्रियम्वदः । एवं वशम्वदः ॥१०७॥ द्विषन्तपपरन्तपो ।५।१।१०८। द्विषत्पराम्यां कर्म म्यां परात् ण्यन्यात् तपेः खो ह्रस्वो द्विषतोऽच्च निपात्यते । द्विषन्तपः । परन्तपः ॥१०८॥ द्विषन्तप०-। इदं निपातनसूत्रम्, अलक्षणिकार्यलाभार्थमेव हिं निपात Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६ ) नमारभ्यते, तत्र यद्यपि योगस्यावयवशो व्युत्पादनं नावश्यकं तथापि प्रयोगार्थज्ञानाय प्रक्रियाज्ञानमावश्यक मिति निपातनलभ्यमाह प्रक्रिया द्विषत्पराभ्यां कर्मभ्यामिति । द्विषतस्तापयतीति खे तकारस्य मकारे आकारस्य ह्रस्वे--द्विषन्तपः । परान् तापयतीति--परन्तपः ॥१०॥ परिमाणार्थमितनखात्पचः ।।११०६। प्रस्थादिमितनखेभ्यः कर्मभ्यः परात्पचे खः स्यात् । प्रस्थम्पचः । मितम्पच । नखम्पचः ॥१०॥ परिमाणार्थ--। सर्वतो मानं परिमाणम्, तदर्थाः प्रस्थादय इत्याह--प्रस्थादीति । प्रस्थं प्रस्थपरिमितं धान्यं पचतीति खे मागमे तस्लानुस्वारे प्रस्थम्पचः ।।१०६।। कलाभकरीषात्कषः ।।११११०। एम्भ कर्मभ्यः कषः ख: स्यात् । कूलङ्कषाः । अभ्रकषा। करीषषा ॥११०॥ कूलाऽभ्र०-- "कष हिंसायाम्' कूलं तटं कषति भिनत्तीति खे ङस्युक्तसमासे मागमेऽनुनासिके च कूलषा ॥११०।। सर्वात्सहश्च ।।१।१११॥ सर्वात्कर्मणः परात् सहेः कषेश्च : स्यात् । सर्वसहः । सर्वऋषः ॥१११॥ सर्वात् 'सहि मर्षणे' सर्व सहते इति सर्वसहः । सर्वं कषतीति--सर्वकषः ॥११॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) भृवृजित तपदमेश्च नाम्नि ।।१।११२॥ कर्मणः परेभ्य एभ्यः सहेश्च संज्ञायां खः स्यात् । विश्वम्भरा भूः। पतिम्वरा कन्या। शत्रुञ्जयोऽद्रिः । रथन्तरं साम । शत्र न्तपो राजा । बलिन्दमः कृष्णः । शत्रु सहो राजा। नाम्नीति किम् । कुटुम्बमारः ॥११२॥ भूव० 'भृग् भरणे' 'टुडुभूग्क् पोषणे च' चकाराद् धारणे, विश्वं भरति बिति वेति-विश्वम्भरा भूः-सा हि स्वोत्थानौषध्यादिना सर्वान् पुष्णाति धारयति च 'वृन्ट वरणे', वृङश् संभक्तो' संभक्तिः संसेवा, पति वृणोति वृणीते वेति पतिवरा कन्येति-अजातविवाहसंस्कारा कन्या, सा हि पतिं वृणोति वृणीते वेति सार्थकं नाम तस्याः । शत्र न जयति-शत्र. जयोऽद्रिरिति-"शत्रु जयो विमलाद्रि" इत्यभिधानचिन्तामणिः, विमलगिरिप्रभावतः शुकनृपस्य विना संग्राम शत् णां जयो जातस्तेन विमलगिरेः शव जयेति नाम ख्यातिमगमत् । रथं तरतीति-रथन्तरं सामेति-रथन्तरमिति सामवेदशाखाया नाम । शत्रु तपतीति शव न्तपो राजा। 'दमूच उपशमे' अस्याकर्मकत्वाद् कर्मणः परत्वं न सम्भवतीति । न दभिरन्तभतण्यर्थो ण्यन्तश्चात्र गृह्यते । उभयथापि सकर्मकत्वं युज्यत एवेति हृदयम्, बलिं दाम्यति दमयति वा-बलिन्दमः कृष्णः । शत्र सहतीतिशत्रसहो राजा । कुटुम्बं बिभर्तीति-कुटुम्बभारः इति-नेयं कस्यापि संज्ञेत्यस्याप्रवृत्त्याऽणेव भवतीति भावः ।।११२।। धारेर्धर्च ।।१।११३॥ कर्मणः पराद्धारेः संज्ञायां खः स्यात् धारेश्च धर् । वसुन्धरा भूः ॥११३॥ धारेधर्च चुरादेराकृतिगणत्वात् 'धृण धारणे' इति धातुः । आदेशस्य स्पष्टतया प्रतिपत्तषे रेफस्य स्थाने सूत्र विसर्गादिर्न कृतः । वसु धारयतीति वसुन्धरा भूरि-ति ॥१३॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३११ ) पुरन्दरभगन्दरौ ।।१।११४॥ एतौ संज्ञायां खान्तौ निपात्येते । पुरन्दरः शक्र । भगन्दरो व्याधिः ॥११४॥ 'दृश् विदारणे' अतो ण्यन्तात्, पुरो रिपूणां नगराणि, पुरं दारयतीति खे पुरन्दरः शक्रः । भग दारयतीति-भगन्दरो व्याधिः। धारे धर्च इतिवत 'दारेदंर्च' इत्येव वक्तव्ये निपातनाश्रयणं व्यर्थमिति । न । रेफान्तस्य पुर्शब्दस्यामन्तताऽप्राप्तेतिं निपतिनमावश्यकम् । एवमन्यदपि निपातनस्य फलं वेद्यम् ।।११४॥ वाचंयमो व्रते ।।१।११॥ व्रते गम्याने वाचः कर्मणः पराद्यमे खो वाचो ऽमन्तश्च स्यात् । वाचंयमी व्रती ॥११॥ वाचंयमो० व्रतं शास्त्रबोधितो नियमः ‘यमू उपरमे' अस्यान्तर्भावितण्यर्थत्वात् सकर्मकत्वमिति वाच यच्छति नियमयति वा वाचंयमो व्रतीति वाच उपरमणं हि तस्या नियमनमेव, सावधे न वदिष्यामि, निरवद्यमपि हित मितं प्रियं च वदिष्यामि, तत्राप्यतावन्तं कालं न वदिष्यामीत्यादि संकल्परूपमिति भावः ।।११५।। मन्याणिन् ।।१।११६॥ कर्मणः परान्मन्यतेणिन् स्यात् पण्डितमानी बन्धोः ॥११६॥ मन्याण्णिन् । सूत्रे ‘मन्यात् णिन्' इति विश्लेषः, मन्यात् इति च मन्यशब्दस्य पञ्चम्येकवचने रूपम, ‘मन्य' इति च श्यविकरणसहितो निर्देशः, तेन श्यविकरणार्हस्य "मनिच ज्ञाने" इत्यस्य ग्रहणम्, न तु तदनहस्य ‘मनुयि बोधने” इति तानादिक्रस्य, तदाह-परान्मन्यतेरिति । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३:२ ) यद्यपि धातुनिर्देशे “इकिश्तिव्" ।।३।१३८। इतिश्यप्रयोजकः श्तिव् भवतीति “मन्यतेणिन्” इत्येव सूत्रपुचितम्, तथापि लाघवानुरोधेन सौतत्वात् श्तिवो लुकं कृत्वा ‘मन्य, इति निर्देशः कृतः, यद्वा सोत्रत्वाद श्तिवं विनापि सविकरणो निर्देशः । पण्डितं मन्यते बन्धुमिति वाक्येऽ नेन णिनि उपान्त्यवृद्धौ ङस्युक्तसमासे पण्डितमानी बन्धोरिति । बन्धुमिति त्याद्यन्तकर्मत्वात् द्वितीया, बन्धोरिति कृदन्तकर्मत्वात् षष्ठी। ननु णिनि सति गणपाठकृतस्य कस्यचन विकरणादेः प्राप्त्यभावात् यदेवं मन्यतेणिन्प्रत्यये कृते पण्डितमानीति “रूपं तदेव मनुतेरपीति गणविशेषपठितधातुपरिग्राहकश्यरूपविशिष्टस्य निर्देशो नावश्यक इति लाघवाय “मनो णिन्" इत्येव सूत्र्यतामिति । न । उत्तरत्र देवादिकस्य मन्यतेरेव ग्रहणं स्यात्, न तु तानादिकस्य मनुतेरित्येतदर्थ श्यनिर्देश आवश्यकः ॥११६॥ कर्तुः खश् ।५।१।११७। प्रत्ययर्थात्कर्तुः कर्मणः परान्मन्यते: खश् स्यात् । पण्डितम्मन्य: कर्तुरिति किम् । पटुमानी चैत्रस्य ॥११७॥ कतुं : खश्--। प्रत्ययार्था कर्तु: कर्मण: परादिति पूर्वतोऽनुवृत्तस्य कर्मण इति पदस्य विशेष्यत्वं कर्तुश्च विशेषणत्वमित्यर्थः सम्पन्नः। कृत्प्रत्ययस्यार्थविशेषविधि विना "कर्तरि" ।।१।३। इति सूत्रेण कर्तरि विधानात् प्रत्ययस्य कर्थकत्वम्, एवं च प्रत्ययार्थभूतः कतैव यत्र कर्मतया विवक्षितस्तात्रपि ततः परान्मन्यतेणिन् प्रत्ययः प्राप्तः, तद्विषयेऽनेन खश् विधीयते । पण्डितमात्मानं मन्यत इति खशि श्यविकरणे डस्युक्तसमासे "खित्यनव्यया." ।३।२।१११। इति मागमेऽ नुनासिके च पण्डितम्मन्यः । पटुमानी चैत्रस्येति-पट मन्यते चैत्रमिति वाक्यम् । अत्र च प्रत्ययार्थातिरिक्तमेव कर्म, नतु प्रत्ययार्थः कर्ता कर्मेति तत्र पटुमन्यः चैत्रस्येति न भवति, अपि तु पटुमानी चैत्रस्यत्येकमेव, एकसूत्रत्वे कर्तु रित्यस्याभावे चात्रापि खश स्यादेवेति भावः ।।११७।। एजे: ।।१।११८ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३ ) .. कर्मणः परादेजयतेः खश् स्यात् । अरिमेजयः ॥११८॥ कर्मणः परादेजयतेरिति-“एजुङ कम्पने" इति एज् धातुः कम्पनार्थक आत्मनेपदी, तत्र ण्यन्तस्यायं निर्देशोऽथवा शूद्धस्यैव धातनिर्देशे विहितेन किप्रत्ययेन इप्रत्ययेन वा निर्देश इति सन्दिग्धम्, तत्र निर्णयार्थमुक्तम्-एजयतेरिति, एवं च ण्यन्तादित्यर्थोऽभिमतः । न च ण्यन्तपरिग्रहे मानाभाव इति वाच्यम्, खशः शित्त्वस्य सार्थक्यानुरोधेन तथा स्वीकारस्यावश्यकत्वात् । शित्त्वं सार्वधातुकत्वनिमित्तकः शव् यथा स्यादित्येवमर्थम्, शुद्धस्य 'एज्' धातोः शवि सत्यसति वा विशेषाभावेन, ण्यन्ते च विशेषस्य स्पष्टतया तस्यैव ग्रहणमिति स्वीकर्तव्यत्वात् । नत्र शित्त्वमुत्तरत्र चरितार्थमिति तत्सामर्थ्यादिहोक्तार्थासिद्धिरिति वाच्यम्, इहार्थवत्त्वे सम्भवति केवलमुत्तरार्थत्वस्यान्याय्यत्वात् । अरिमेजयतीति-अरिमेजयः ॥११॥ शुनीस्तनमुञ्जकूलास्यपुष्पात् धेः ।।१।११६॥ एभ्यः कर्मभ्यः धेः खश् स्यात् । सुनिन् यः । स्तनन्धयः । कूलन्धयः । आस्यन्धयः । पुष्पन्धयः ॥११६॥ . "टधे पाने" इति टका गनुबन्धम्यानुकृतस्य 'धे' धातोः पञ्चम्येकवचने-टधेरिति । शूनीधयति खमि अयादेश ङस्युक्तसमासे 'खित्यनव्यया० ३।२।१११।। इति हरवे मागमेऽनुनासिके च शुनिन्धयः ।।११।। नाडीघटीखरीमुष्टिनासिकावाताद् ध्मश्च ।।१।१२०॥ एभ्यः कर्मभ्यः पराद् ध्मः धेश्च खश् स्यात् । नाडिन्धमः । नाडिन्धयः । घटिन्धमः । घटिन्धयः । खरिन्धमः। खरिन्धयः । मुष्टिन्धमः मुष्टियः । नासिवन्धमः । नासिकन्धयः । वातन्धमः । वातन्धयः ॥१२०॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) “ध्यां शब्दाग्निसंयोगयोः " शब्दे मुखादिना चाग्निसंयोगे । नाडीं धमतीति खशि 'श्रीति०” | ४ | ३ | १०८ | इति धमादेशे शवि पूर्वाकारलोपे ङस्युक्तसमासे मागमे तस्यानुनासिके ह्रस्वे च- नार्डीन्धमः, एवं नाडी धयतीति खशि शवि अयादेशेऽकारलोपे मागमे स्वे च नाडिन्धयः ।। १२० IT पाणिकरात् ।५।१।१२१ ॥ आभ्यां कर्मभ्यां परात् घ्मः खश् स्यात् । पाणिन्धमः । करन्धमः ॥१२१॥ पाणि धमतीति = पाणिधमः । करं धमतीति - करंधमः ॥ १२१ ॥ कूलादुद्र, जोद्वहः । ५।१।१२२ ॥ कूलात्कर्मणः पराभ्यामाभ्यां खश् स्यात् । कूलमुद्रजः । कूलमुद्वहः ॥१२२॥ “रुजोंत् भङ्ग" कूलं तटमुद्र जतीति खशि तुदादित्वात् शे ङित्वाद् गुणाभावे पूर्वाकारलोपे ङस्युक्तसमासे - कूलमुद्र जः । 'बहीं प्रापणे' कूलमुद्वहतीति खशि शवि मागमे च - कूलमुद्र हः ।। १२२ ।। वहाभ्राल्लिहः | ५|१|१२३ ॥ गाभ्यां कर्मभ्यां पराल्लिहः खश् स्यात् । वहंलिहः । अभ्रं - सिंहः ॥ १२३॥ वह लेढीति = वहलिहः बलीबर्द इत्यर्थः । अभ्र लेढीति - अभ्र लिह ॥ १२३ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ( ३१५ ) बहुविध्वरुस्तिलात्तुदः ।।१।१२४॥ एभ्यः कर्मभ्यः परात्तुदेः खश् स्यात् । बहुन्तुदः । विधुन्तुदः । अरुन्तुद । तिलन्तुदः॥१२४॥ "तुदीत् व्यथने" बहु तुदतीति खशि तुदादित्वातु शविकरणे पूर्वाकारलोपे ङित्त्वात् गुणाभावे ङस्युक्तसमासे मागमे तस्यानुनासिके च बहुन्तुदः । एवं विधुचन्द्र तुदतीति-विधुन्तुद: । व्रणार्थकोऽरुस्शब्दः, अरुस्तुदतीति खशि 'खित्यनव्यया०' ।३।२।१११॥ इति मोन्ते 'संयोगस्यादौ०' ।२।१।८।। इति स्लोपे च-अरुन्तुदः ॥१२४॥ ललाटवातशत्तिपाऽजहाकः ।।१।१२५॥ एभ्यः कर्मभ्यः परेभ्यो यथासङ्ख्यं तपाऽजहाग्भ्यः खश् स्यात् । ललाटन्तपः । वातमजः । शद्ध जहः ॥१२५॥ ललाट- “तपं.संतापे" ललाटं तपतीति खशि शवि पूर्वाकारलोपे मागमे तस्यानुनासिके च ललाटन्तपः।"अज क्षेपणे च" चकाराद गती प्रातमजतीति-वातमजः । अत्र “अधन ०" ।४।४।२। इत्यजेवीं आदेशो न भवति, खशः शित्त्वात् “ओहांक त्यागे" शर्धोऽपानशब्दः, तंजहातीति खशि बादित्वात् द्वित्वे पूर्वहस्य जत्वे ह्रस्वे आकारस्य “इडेत्०" ।४।३।१४। इति लुकि ङ्युक्तसमासे पूर्वपदस्य मागमे तस्यानुनासिके च-शर्धन्जहः ॥५२५।। असूर्योग्राद् दृशः ।।१।२६॥ आभ्यां कर्मभ्यां परादृशेः खश् स्यात् । असूर्यम्पश्यः । उग्रम्पश्यः ॥२६॥ असूर्यो०- "दृशृप्रेक्षणे", सूर्यमपि न पश्यतीति-असूर्यम्पश्यः, "श्रोति." ४।२।१०८। इति दृशः पश्यादेशः, अत्र दर्शनं प्रतिषिध्यते न तु सूर्य एव, Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६ ) तस्मातु दृशिनैव तत्र सम्बन्धः, न सूर्येणेति विवक्षितार्थप्रतिपादनासहत्वम् तथापि विवक्षितार्थप्रतिपत्तिसत्त्वात् समासः ॥१२६।। इरम्मदः ॥१।१२७। इरापूर्वान्मदेः खश् स्यात् । इरम्मदः ॥१२७॥ ... इरम्मद:-। कर्मण इति निवृत्तम् । “मदैच् हर्षे” तृजादिषु प्राप्तेषु खश् निपात्यते , तत्र दिवादित्वात् श्ये प्राप्ते तदभावश्च निपात्यते, तदाहखश्श्याभावश्च निपात्यते इति । इरा सुरा, तया माद्यतीति–इरंमदः इति–मागमह्रस्वादिकं प्राग्वदवसेयम् ।।२७।। नग्नपलितप्रियान्धस्थूलसुभगायतदन्ताच्च्व्यर्थेऽच्वे वः खिष्णुखुको ।।१।१२८॥ नग्नादिभ्यः केवलेभ्यस्तदन्तेभ्यश्चाऽच्व्यन्तेभ्यश्र्थवृत्तिभ्यः परा इ वः खिष्णुखुको स्याताम् । नग्नम्भविष्णुः। नग्नम्भावुकः । पलितम्भविष्णुः । पलितम्भावुकः । प्रियम्भविष्णुः । प्रियम्भावुकः । अन्धम्भविष्णुः । अन्धम्भावुकः । स्थूलम्भविष्णुः । स्थूलम्भावुकः । सुभगम्भविष्णुः । सुभगम्भावुकः । आढयम्भविष्णुः । आढयम्भावुकः । तदन्तः । सुनग्न भविष्णुः । सुनग्न भावुक इत्यादि । अच्वेरिति किम् । आढयीभविता ॥१२॥ नग्न०-। अनग्नो नग्नो भवतीति खिष्णो “नामिनो०" ।४।३।१। इति गुणेऽवादेशे ङस्युक्तसमासे "खित्यनव्या०" ।३।१।१११॥ इति मागमे "तो मुमो०" ।१।३।१४। इति सूत्रेणानुनासिके नग्नम्भविष्णुरिति, खकत्रि तु "नामिनोऽकलि." ।४।३।५१। इति वृद्धाबवादेशे च नग्नम्भावुकः एवम्अपलितःपलितो भवतीति पलितम्भविष्णुः, पलितम्भावुकः । एव सर्वत्र वाक्यं विज्ञेयम् । आढयीभवितेति-पूर्वनच जायो भवतीति Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७ ) . "कृभ्वस्ति." ।७।२।१२६। इति च्वी "इश्च्वाववर्ण०" ।४।३।१११॥ इत्यवर्णस्येकारे-आढयीभविता, क्विप्वत् च्वेः, सर्वापहारः अत्र च्व्यन्तत्वादस्याप्रवृत्त्या तृच भवति । ननु शब्दस्वरूपं विशेष्यमाश्रित्य तदन्तविध्याश्रयणेनैव सिद्धे तदन्तग्रहणस्य सूत्रे वैयर्थ्य मिति । न । 'उपपदविधिषु तदन्तविधिरनाश्रित" इति ॥१२८।। कृगः खनट करणे ।।१।१२६। नग्नादिभ्योऽच्वन्तेभ्यश्च्व्यर्थवृत्तिभ्यः परात् कृगः करणे खनट् स्यात् । नग्नकरणं चू तम् । पलितङ्करणम् । प्रियङ्करणम् । अन्धकरणम् । स्थूलङ्करणम् । सुभगङ्करणम् । आढयङ्करणम् । सुनग्नङ्करणम् । च्व्यर्थ इति किम् । नग्नङ्करोति छू तेन ॥१२६॥ कृगः०-। 'करणे' इति “कर्तरि०" ।५।१।३। इत्यस्यापवादः । अनग्नो नग्नः क्रियतेऽनेनेति करणार्थेऽनेन खनटि गुणे ङस्युक्तसमासे पूर्वपदस्य मागमेऽनुनासिके च नग्नङ्करणं चू तमिति । एवं सर्वत्र वे द्यम् ॥१२६॥ भावे चाशिताद् भुवः खः ।।१११३०॥ आशितात्पराद वो भावाकरणयोः खः स्यात् । आशितम्भवस्ते । आशितम्भव ओदनः ॥१३०॥ भावे०-। भावे चेति चकारेण करणरूपार्थः समुच्चीयते, तदाह-भावकरणयोरिति। पूर्वभावयुदाहरति-आशितम्भवस्ते इति--आशितेन तृप्तेन भूयते त्वयेतिवाक्यम्, तत्र त्याद्यन्तकर्तृत्वात् 'त्वया' इत्यत्र कर्तरि तृतीया । उदाहरणे 'ते' इत्यत्र कृदन्तकर्तृत्वात् षष्ठी। करणे उदाहरणमाह-आशितम्भव ओदन:-अत्र खेन करणस्योक्तत्वात् प्रथमा, आशितो भवत्यनेनेति वाक्यम्, 'अनेन' इति करणे तृतीया । सूत्रे 'आशिताद्' इति निर्देशेन अशश् भोजने” इत्यश्न तेः सकर्मकादपिकर्तहि क्तप्रत्ययो दीर्घत्वं च निपात्यते । अथवा आङपूर्वादविवक्षितकर्मकादश्नातेः 'गत्यर्था०' Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) 19199 | इति कर्तरि क्तं - आशित इति । " तृप्ते त्वाघ्रातसुहिताऽऽशिता” इत्यभिधानचिन्तामणिवचनात् आशितः - तृप्त इत्यर्थं ॥ १३० ॥ नाम्नो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विह: ५।१।१३१। नाम्नः पराद् गमेः खड्डखाः स्युः विहायसो विहश्व । तुरङ्गः । तुरगः । विहङ्गः । विहगः । तुरङ्गमः । विहङ्गमः । सुतङ्गम मुनिः ॥ १३१ ॥ नाम्नो० -- | 'गमेः' इति " गम्लृ गतौ" इति गम्धातोरित्यर्थः । अत्र चकारेण पूर्वोक्तः खः समुच्चीयते इति प्रत्ययत्रयस्य विधानम् । खकारः “खित्यनव्यया०” । ३।२।१११ | इति मागमार्थः । डकारो 'डित्यन्त्यस्वरादेः' ।२।१।११४ । इति अन्त्यस्वरादिलोपार्थः । तुरः त्वरमाणो गच्छतीति डि आन्त्यस्वरादिलोपे पूर्वस्य मागमे तस्यानुनासिके - तुरङ्ग डे तु तुरगः । विहायसा--अकाशेन गच्छतीति खडि विहादेशे च विहङ्गः । तुरङ्गम इतिअत्र खप्रत्ययः || ३१॥ सुगदुर्गमाधारे । ५।१।१३२ । सुदुर्ध्या पराद् गमेराधारे डः स्यात् । सुगः । दुर्गः पन्थाः । १३२ । सुगदुर्ग०--1 आधारार्थेऽनटो बाधनार्थमिदं सूत्रमिति 'सुदुर्भ्या० :' इत्येवमेव सूत्रयतामलं निपातनेनेति चेत् ? न-त्सन्नियोगशिष्टतया खट्प्रत्ययोऽप्यनुवर्तेत, स, न नेष्टः, निपातनस्येष्टविषयत्वात् ड एव निपातितः, तथा च fauna मुखेन प्रत्ययो विधीयते इति भावः । सुखेन दुःखेन च गम्यतेऽस्मिन्निति - सुगः, दुर्गः पन्थाः ॥ १३२॥ निर्गो देशे ५।१।१३३॥ निः पूर्वाद् गमेराधारे देशे डः स्यात् । निर्गो देशः ॥ १३३॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१९ ) निर्गी०- 1 "आधारे" इति पूर्वत्र निपातनार्थसम्बद्धमिहाप्यनुवर्तते । यद्यपि 'देश' इति कथनेनैवाधारार्थस्य प्रतीति र्भवति तथापि कर्मण्यपि प्रत्ययविधाने देशस्य वाच्यता सम्भवतीति तन्निराकरणायाधारपदानुवृत्तिमाश्रित्याह- आधारे देशे डः स्यादिति ॥ १३३ ॥ शंमो नान्यः | ५|१|१३४ शमो नाम्नः पराद्धातोः संज्ञायामः स्यात् । शम्भवोऽर्हन् । नाम्नीति किम् । शंकरी दीक्षा ॥ १३४ ॥ 1 शमो० - । शमित्यव्ययं सुखे वर्तते, भवति तत्र शम्भवोऽर्हन्निति - सुख एव तिष्ठति न कदाचिद् दुःख इति भावः । शङ्करी दीक्षेति - अयमाशय:नाम्नीति नामपदेन यदर्थे यस्य रूढिः स एवार्थो गृह्यते, 'शङ्करी दीक्षे' त्यत्र तु शङ्खरशब्दो विशेषणत्वेन प्रयुक्त इति नात्र नामत्वं तस्येति टे स्त्रियां ङीर्भवतीति, नामग्रहणाभावेऽवाप्यप्रत्यये शङ्करेति स्यादिति । १३४ | पार्वादिभ्यः शोङ: ।५।१।१३५ । एभ्यो नामभ्यः पराच्छोङो अः स्यात् । पार्श्वशयः ॥१३५॥ पार्श्वा० - । “शीक्स्वप्ने” गर्थ्याभ्यां शेते इति प्रकृतसूत्रेणाप्रत्यये गुणेयादेशे युक्त मासे-पार्श्वशयः आधारभिन्नार्थात् परत्वे प्रत्ययविधानार्थ आरम्भः आधारार्थात् परत्वे च “आधारात् ” |५|१|३७|| इति परसूत्रेण सिद्धिरिति ।। १३५ ।। " , ऊर्ध्वादिभ्यः कर्तुः । ५।१।१३६। । एभ्यः कर्तृ वाचिभ्यः पराच्छीङो अः स्यात् । ऊर्ध्वशयः उत्तानशय ॥१३६॥५ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२० ) ऊर्ध्वा०- ० - । ऊध्वं स्थितः शेते इति ऊध्वंशयः, निद्रापञ्चकमध्ये प्रचलाभिघनिद्रामनु भवत्ययम् । उत्तानः शेते इति - उत्तानशयः, यद्यपि गभीरविपर्यये सर्वंथाप्रसृततया दृश्यमानः उत्तानशब्दः कोशादिषु पठ्यते, तथापि उत्तानशय ऊर्ध्वमुख विधाय पृष्ठभरेण शयाने जने प्रयुज्यत इति 'उत्तानशये' स एवोत्तानशब्दो ग्राह्यः, उत्तानशयशब्दश्च बाले रूढ: ' स्यादुत्तानशयो डिम्भः " इति कोश: ॥ १३६॥ आधारात् ।५।१।१३७ । आधारान्नाम्नः पराच्छीङो अः स्यात् । खशयः ॥१३७॥ आधारात्—। खे—अनावृतप्रदेशे शेते इति खशयः ॥ १३७॥ चरेष्टः ।५।१।१३८ । आधारात् परात् चरेष्टः स्यात् । कुरुचरी ॥ १३८ ॥ चरेष्टः । कुरुषु चरतीति कृरुचरी ॥१३८॥ भिक्षासेनादायात् ||१|१३८ । एभ्यः परात् चरेष्टः स्यात् । भिक्षाचरी । सेनाचरः । आवायचरः ॥१३६॥ भिक्षा० - । ननु पूर्वेणैव सिद्ध े ऽस्य सूत्रस्य वैयर्थ्यमिति । न । पूर्वसूत्रस्याधारोपपदत्व एव प्रवृत्तिः, अस्य चाधारेऽनाधारे चोपपद इति तदर्थमिदं सूत्रम् । भिक्षां चरतीति - भिक्षाचरीति = चरतिरिह चरणपूर्वकेऽजंके वर्तते प्रसिद्धार्थस्य गमनस्य तत्रान्वितत्वात् तथा च भिक्षां चरतीत्यस्य चरणेन भिक्षामर्जयतीत्यर्थः । सेनां चरति = परीक्षते इति = सेनाचरः, तापसत्यञ्जनोऽयम् वा । यो हि तापसरूपं कृत्वा सेनायां परि Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ ) "भ्रम्य तत्र प्रवर्तमानं कार्य जानाति स तापसव्यञ्जन उच्यते सेनया चरति वा सेनाचरः । आदाय = गृहीत्वा चरति = आदायचरः, आदानं कृत्वा चरतीत्यर्थः, दाधातुर्यद्यपि सकर्मकस्तथापि कर्मणोऽत्राविवक्षितत्वम् ||१३|| · पुरोऽग्रतोऽगे सत्तेः । ५।१।१४०। एभ्यः परात्सर्त्तेष्टः स्यात् । पुरःसरी । अग्रतःसरः । अग्रे सरः । ॥ १४० ॥ पुरो० - । पुरः सरतीति टे टित्वाद् ङीप्रत्यये पुरःसरी । अग्रतः सरति अग्रतःसरः, ‘अग्रतस्’– शब्दे “आद्यादिभ्यः” | ७|२| ४ || इति तस् प्रत्ययः । अग्रे सरतीति - अग्रसरः, सप्तम्यलुप् एकारान्तमव्ययं वा । 1198011 पूर्वात् कर्तु : ।५।१।१४१ पूर्वात् कर्तृवृत्तेः परात् सर्वेष्टः स्यात् । पूर्वसरः । कर्तुं रिति किम् । पूर्वसारः ॥ १४१ ॥ पूर्वात् कर्तुः । पूर्वः सरतीति - पूर्वसरः, पूर्वो भूत्वा सरतीत्यर्थः । पूर्वं देशं सरति - पूर्वसारः इति = [ - अत्र कर्मणः परत्वादस्याप्रवृत्त्या 'कर्मणोऽण' ।५।१।७२ ॥ इत्यणेव भवतीत्यर्थः ॥ १४१ ॥ स्यापास्नात्रः कः । ५।१।१४२ । नाम्नः परेभ्य एभ्यः वः स्यात् । समस्थः । कच्छपः । नदीष्णः । धमंत्रम् | १४२ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) स्थापा०=| 'ष्ठां गतिनिवृत्तौ' समे=अविषमे तिष्ठतीति के 'इडेत्पुसि.' ।४।२।६४॥ इत्याकारलोपे=समस्थः । कच्छ: अनूपप्रायः कूर्मपादो वा, 'पांक रक्षणे' कच्छं पिबतीति कच्छपः, 'ष्णांक शौचे' नद्यां स्नातीति नदीष्णः=तरणे कौशलमत्र गम्यते, 'निनद्याः' ।२।३।२०।। इति सस्य षः । 'ङ् पालने' धर्मात् त्रायते रक्षतीति-धर्मत्रम् ॥१४२॥ शोकापनुदतुन्दपरिमृजस्तम्बेरमकर्णेजपं प्रियालसहस्तिसूचके ।।१।१४३। एते यथासङ्ख्यं प्रियादिष्वर्थेषु कान्ता निपात्यन्ते । शोकापनुद: प्रियः । तुन्दपरिमृजोऽ.लसः । स्तम्बेरमो हस्ती। कर्णेजपोऽतिखलः । एष्विति किम् । शोकापनोदो धर्माचार्यः ॥१४३॥ शोकापनुद:=| निपात्यन्ते इति यद्यपि निपातनमलाक्षणिककार्यलाभार्थमेवाश्रीयते, अत्र च सर्वत्र न किञ्चिदलाक्षणिक कार्य प्रार्थनीयम्, तुन्दपरिमृजे वृद्धभावोऽपि पक्षे सिद्ध एव तथाप्यर्थविशेष एषां प्रयोगनियमार्थमेव निपातनीयमिति मन्तव्यम् । ‘णुदत् प्ररणे' शोकमपनुदतीति शोकापनुदः प्रियः, शोकस्याहर्ता शोकस्यावकाशमेव न ददाति पुत्रादिप्रिय इति स शोकापनुदः कथ्यते । 'मृजोक् शुद्धी' तुन्दम् =उदरं परिभाष्र्टीति=तुन्दपरिमृजोऽलस: इति=य: किञ्चित् कार्य-मकृत्वा सततमुदरभरणे दत्तचित्तस्तिष्ठति स एवमुच्यते, आलस्ययुक्त इत्यर्थः । 'मि क्रीडायाम्' स्तम्बे रमते स्तम्बेरमो हस्तीतिदर्भादितणनिचयनिर्मितो हस्तिभक्ष्यः स्तम्बः, तत्र रमते भक्षयन्नानन्दमनूभवति यः सः । 'जप मानसे च' मनोनिर्व] वचने, चकारात व्यक्त वचने, कर्णे जपति सूचयतीति=कर्णेजपोऽतिखल इतिः=मा कश्चिदन्य शृणोत्विति कर्णे सूचयति यः सः । शोकापनोदो धर्माचार्यः इति यः . संसार-सांसारिक भोगाद्यनित्यत्वादिकं सयुक्तिक-मुपदिश्य शोक नाशयति, न तु सुखमाहरति, शोकापनोद एवेति तत्रायं मा भूदिति ॥१४३॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२३ ) मूलविमुजादयः ।।१।१४४॥ एते कान्ता यथादर्शनं निपात्यन्ते । मूलविभुजो रथः । कुमुद कैरवम् ॥१४४॥ 'भुजोत् कौटिल्ये' मूलानि विभुजतीति-मूलविभुजो रथ:-धातोरूपसर्गबलान्मर्दने वृत्तिः, तथा च विभुजतीत्यस्य विमर्दयतीत्यर्थः 'मुदि हर्षे' कु: पृथिवी, तत्र मोदते इति-कुमुदं कैरवम् ॥१४४।। दुहेर्दु घः ।।१।१४५॥ नाम्नः पराद् दुहेर्दुघः स्यात् । कामदुधा ॥१४५॥ . दुहेडु घ:-"दुहीक क्षरणे" कामान्-अभिलाषान् दुग्धे-पूरयतीति कामदुघा, कामक्षरणमिह कामपूरणार्थे पर्यवसितमिति, धातूनामनेकार्थत्वमिति वेति पूरयतीत्युक्तम्, डुधे डकारस्येत्त्वात् 'डित्यन्त्यस्वरादे': ।२।१।१४४। इत्यन्त्यस्वरादिलोपार्थः ॥१४५।। भजो विग् ।।१।१४६॥ नाम्नः पराद् भर्जेविण् स्यात् । अर्द्ध भाक् ॥१४६॥ भजो विण-भजी सेवायाम्' अधं भजते इति विणि तस्य 'अप्रयोगीत्' ।१।१।३७॥ इति लोपे प्रत्ययत्वात् णित्त्वाच्चोपान्त्य-वृद्धौ डस्युक्तसमासे 'चजः कगम्' ।२।१।६६। इति जस्य गत्वे 'विरामे वा' ।१।३।५१॥ इति कत्वे अर्धभाक् । ननु विणि वर्णत्रयम् तस्य प्रयोगेऽदृश्यतया 'अप्रयोगीत्' ।१।३।३७। इतीत्संज्ञा लोपश्चेति विण्प्रत्ययस्यांशेनापि प्रयोगेऽदर्शनात् तस्य प्रत्ययत्वेन विधानमपार्थकमिति चेद् । उच्यते-णकारो वृद्धयर्थः, इकार उच्चारणार्थः । वकारो विण्-क्विपोः सारूप्यार्थस्तेनानविषये 'असरूपो.' ।५।१।१६। इति प्राप्तः क्विप् न भवति ॥१४६॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) मन्वनुक्वनिविच् क्वचित् । ५।१।१४७। नाम्नः पराद्धातोरेते यथालक्ष्यं स्युः । मत्- इन्द्रशर्मा । वत्विजावा । क्वनिप् - सुधीवा- विच् । शुभंयाः ॥ १४७ ॥ मन्-वन्०--'क्वचिदि' त्यस्यार्थमाह-यथालक्ष्यमिति - - यथालक्ष्यं कस्माच्चिद्धातो: सर्वे प्रत्ययाः पर्यायेण भवन्ति, कस्माच्चिदेक एव द्वौ वा तयो वेयर्थः । इन्द्रं शृणातीति मनि- इन्द्रशर्मेति, 'शृश् हिंसायाम्' इति धातुः । "जनैचि प्रादुर्भावे” विजायते इति विजावा, 'वन्याङ् पञ्चमस्य' ।४।२।६। इत्याप् । शोभनं दधातीति - सुधीवा । शुभं विभक्तयन्त प्रतिरूपकमव्ययम्, 'यांक् प्रापणे' शुभं यातीति - शुभंया: ककारपकारी किस्पित्कार्याथी 1198011 1 क्विप् । ५।१।१४८ । नाम्नः पराद्धातोर्यथालक्ष्यं क्विप् स्यात् । उखास्रत् ॥ १४८ ॥ क्विप् । पूते वर्तमान उखशब्दः पुंस्त्री, स्थाल्यां नित्यस्त्रीति वैयाकरणा मन्यन्ते, "संसूङ् प्रमादे" प्रमादोऽवलेपः, "स्र सूङ्, अजस्र सने" उखेन उखया वा स्रंसते इति क्विपि "नो व्यञ्जनस्यानुदितः” | ४|२|२५| इति नकारस्यानुस्वारस्थानिनो लोपे "त्र स्ध्वंस्” । २।१६८ । इत्यत्र साह - चर्यानाश्रयणाद् द्यतादेस्तदन्यस्य च त्र संधातोः सकारस्य दत्वे तत्वेच - उसास्रत् । ककारप्रकारो कित्पित्कार्याथौं । इकार उच्चारणार्थः ॥ १४८ ॥ स्पृशोऽनुदकात् । ५।१।१४६ । उदकवजन्नाम्नः परात् स्पृशो स्पृशेः क्विप् स्यात् । घृतस्पृक् । अनुदकादिति किम् । उदकस्पर्शः ॥ १४९ ॥ स्पृशो०- 1 "स्पृशंत् संस्पर्शे" घृतं स्पृशतीतिक्विपि तस्य लोपे इस्युक्तसमासे "यजसृज” | २|१|८७ | इति षत्वापवादे "ऋत्विज्० | २|१|६| इति Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२५ ) - शस्य गत्वे तस्य "विरामे वा" ।१॥३५१॥ इति कत्वे-घृतस्पृक् । उदकस्पर्शः इति-उदकं स्पृशतीति 'कर्मणोऽण्" ।५।१।७२। इत्यणि उपान्त्यगुणे ङस्युक्तसमासे उदक स्पर्शः । अनुदक इति-पयुदासाश्रयणादुदकसदृशमनुपसर्ग नाम गृह्यते, तेनेह न भवति-उपस्पृशति ।।१४६।। अदोऽनन्नात् ।।१।१५०॥ अन्नवर्जान्नाम नः पराददेः क्विप् स्यात् । आमात् । अन्नादिति किम् । अन्नादः ॥१५०॥ ... अदोऽन्नात्- क्विप्सिद्धोऽन्नप्रतिषेधार्थ वचनम् । “अदंक भक्षणे" आममत्तीति-आमात् ॥१५०॥ क्रव्यात्क्रव्यादावामपक्वादौ ।।१।१५१॥ एतौ यथासङ्ख्यमामात् पक्कादाँ विवष्णन्तौ साधू स्तः । क्रव्यात् आममांसभक्षः । कव्यादः पक्वमांसभक्षः ॥१५१॥ · ऋव्यात्०-। आमात्पक्वादथाविति-आममत्तीति-आमात्,पक्वमत्तीति पकवात् तादृशाथी चेत् भवत इति भाव: । क्रव्यमत्तीति-क्रव्यात्,अन क्विप्, अर्थमाह-आममांस-भक्ष इति । क्रव्यादः पक्वमांस-भक्ष इति-अत्राण आममांसवाच्यपि क्रव्यशब्दः 'क्रव्याद' इति निपातनसामर्थ्यात् वृत्ती पक्व मासे वर्तते । अथवा कृतविकृत्तशब्दस्य पक्वमांसार्थस्य पृषोदरादित्वात् क्रव्यादेशः । अत्र कृत्तविकृत्तमत्तीति वाक्यम् । सिद्धी प्रत्ययौ विषयनियमार्थ वचनम् ॥१५१॥ त्यदाद्यन्यसमानादुपमानाद्वयाप्येदृशष्टक्सको च ।५।१।१५२। एभ्य उपमानेभ्यो व्याप्येभ्य पराद् दृशाप्य एव ट्कसकौ, क्विप् Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६. ) च स्युः । त्यादृशः । त्यादृक्षः । त्यादृक् । अत्यादृशः । अन्यादृक्षः । अन्यादृक् । सदृशः । दृक्षः । सदृक् । व्याप्य इति किम् । तेनेव दृश्यते ॥१५२॥ त्यदाद्यन्य.-। व्याप्ये व्याप्येभ्यः पराद् दृशेाप्य एवेति-सूत्रस्थ-व्याप्यशब्दस्य देहलीदीपकन्यायेनोभयोविशेषणत्वमिति भावः, तथा चोपपदस्यापि कर्मणि वर्तमानत्वमपेक्षितम्, प्रत्ययार्थोऽपि कर्मव, अन्यथा कृत्प्रययत्वेन कर्तरि प्रसङ्गः स्यात् । “दृशृप्रेक्षणे" 'त्यत्' शब्दः सर्वादिः, स्य इव दृश्यते इति टकि-त्यादृशः इति । इवार्थ उपमानमुपपदार्थेन्तर्भूतमिति तत्र वर्तमानत्वं त्यदादेः, 'अन्यत्यदादेराः' ।३।२।१५२॥ इति सूत्रेणान्यशब्दस्य त्यदादेश्च दृगादावुत्तरपदे आः स्यात् । टिकि टकारो ङयर्थः, ककारो गुणाभावार्थः । सकि त्यादृक्षः--अत्र धातुशकारस्य “यज-सृज०' ।२।१।८७। इति षः, तस्य षढोः कः सि' ।२।१।६२। इति ककारः, प्रत्ययसकारस्य 'नाम्यतस्था'०।२।३।१५। इति षकारः, सकि ककारोऽनुबन्धो गुणाभावार्थः । क्विपि तु त्यादृक् इति-अत्र शस्य 'ऋत्विज्' ।२।१।६६। इति गः, तस्य "विरामे वा" ।१।३।५१। इति ककारः । सदृश इत्यादि-'अत्र हल्दृशदृ?'।३।२०५१ इति सामान्य शब्दस्यसादेशः वचनभेदान्नात्र यथासंख्यम् ॥१५॥ कर्तुणिन् ।५।१।१५३॥ कत्र दुपमानात्पराद्धातोणिन् स्यात् । उष्ट्रकोशी ॥१५३॥ कर्तुणिन्-“कर्तरि" ॥५॥१॥३॥ इति णिन्प्रत्ययः कर्तरि । 'क्रुशं आह वानरोदनयोः' उष्ट्र इव क्रोशतीति-उष्ट्रकोशी अशीलार्थो जात्यर्थश्चारम्भ ॥१५३॥ अजातेः शोले ।।१।१५४। अजात्यर्थानाम्नः पराच्छीलार्थार्धातोणिन् स्यात् उष्णभोजी। प्रस्थायी । अजातेरिति किम् । शालीन भोक्ता । शील इति किम् । उष्णभोजो मन्दः ॥१५४॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२७ ) अजाते:०-उष्णं भुङ्क्त इत्येवंशील:-उष्णभोजी 'भुजंप पालनाभ्यवहारयोः' इति धातुः । अजातेरिति 'प्रसज्यप्रतिषेधादसत्त्ववाचिनोऽप्युपंसर्गावत्यतः उदाहरति-प्रस्थायीति-'ष्ठां गतिनिवृत्तो' प्रतिष्ठते 'इत्येवंशील इति णिनि 'आत ऐः ।४।३।५३॥ इत्याकारस्य ऐकारे तस्य चायादेशे-प्रस्थायी । शालीन् भोक्ता इति–अत्र शालेर्जातित्वान्नानेन प्रत्ययः, किन्तु शीलार्थे 'तन् शीलधर्मसाधुषु' ।५।२।२७। इति तृन्प्रत्ययः, अस्य कृत्त्वेपि न तत्कणि षष्ठी तन्नुदन्ता०' ।२।२।६०। इति निषेधात्,किन्तु 'कर्मणि' १२।२।४०। इति द्वितीया । उष्ण भोजो मन्दः इति--मन्दत्वात् पथ्यायोष्णं भक्ते, न तु तथास्वभाव इत्यस्याप्रवृत्त्या 'कर्मणोऽण' ।५।१।७२। इत्यणेव भवतीति भावः ॥१५४॥ साधौ ।।१।१५॥ नाम्नः परात्साध्वर्थाद्धातोणिन् स्यात् । साधुकारी ॥१५॥ साधी-अशीलार्थ आरम्भः । ‘डुकृग् करणे' साधु करोतीति णिनि, वृद्धौ, : ङ्स्युक्तसमासे च–साधुकारी ॥१५५॥ ब्रह्मणो वदः ।।१।१५६॥ ब्रह्मणः पराद्वदेणिन् स्यात् । ब्रह्मवादी ॥१५६॥ .. ब्रह्मणो०-"अयमाथशीलार्थ आरम्भ' जात्यर्थोऽमरूपविधिनिवृत्त्यर्थश्च 'चद व्यक्तायां वाचि' ब्रह्म-वेदं जगद्विवर्तकारणं वा ब्रह्माणं हिरण्यगर्भ वा वंदतीति णिनि उपान्त्यवृद्धौ डस्युक्तसमासे च-ब्रह्मवादी ॥१६॥ व्रताभीक्ष्ण्ये ।।१।१५७। अनयोर्गम्यमानयो नाम्नः पराद्धातोणिन् स्यात् । स्थण्डिलवर्ती। क्षीरपायिण उशीनराः ॥१५७॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ( ३२८ ) व्रताऽऽभीक्ष्ण्येव्रतं शास्त्रितो नियमः, आभीक्ष्ण्यं पौनस्पुन्यम् । 'वृतूङ् वर्तने' स्थण्डिले वर्तत इति-स्थण्डिलवती । पां पाने पूनः पुनः क्षीरं पिबन्तीति णिनि आत ऐकारे, आयादेशे च देशे'।२।३१७०। इति नस्य णत्वे क्षीरपाणि उशीतराः, उशीनरा उशीनरनामक देशवासिनो जनाः । अशीलार्थं जात्यथं च । वचनम् ॥१५७॥ करणाद्यजे भूते ।।१।१५८॥ करणार्थान्नाम्नः पराद्भ तार्थात् यजेणिन् स्यात् । अग्निष्टोमयाजी ॥१५॥ करणाद्-'यजी देवपूजासंगतिकरणदानेषु' अग्निष्टोमेनेष्टवानिति णिनि, उपान्त्यवृद्धौ, ङस्युक्तसमासे च-अग्निष्टोमयाजी, अग्निष्टोमस्तोत्रण समाप्यमानो यो यागः स लक्षणयाऽग्निष्टोमस्तेनापूर्व भावितवानित्यर्थः ॥१५८॥ निन्द्य व्याप्यादिन्विक्रियः ।।१।१५६ व्याप्यान्नाम्नः परात् भूतार्थाद्विकियः कुत्से कतरीन् स्यात् । सोमविक्रयो । निन्द्य इति किम् । धान्यविक्रायः ॥१५६॥ निन्द्य०-'कुत्स्ये कर्तरीति-यत्कर्म क्रीणातिक्रियया सम्बध्यमानं कर्तु: कुत्सामावहति तत्र त्यर्थः । 'डुक्रींग्श् द्रव्यविनिमेये' विनिमयः परिवर्तः, सोमं विक्रीतवानितीनि गुणेऽयादेशे, ङस्युक्तसमासे च-सोमविक्रयी। धान्य विक्राय इति-अत्र 'कर्मणोऽण् ।५।१।७२। इत्यणेव भवति । विक्रयणमलि विक्रयः, सोमस्य विक्रयः-सोमविक्रयः, सोऽस्यास्तीति विग्रहे मत्वर्थीय इनि सोमविक्रयीत्यादीनां सिद्धावपि तत्र कुत्सायाः प्रतीतिनं स्यात्, कथञ्चित् सत्यामपि तत्प्रतीतो सोमं विक्रीणातीत्यर्थेऽणेव स्यादिति तद्वाधनार्थमिदं सूत्रमावश्यकम्, अन्यथा वाऽसरूपन्यायेन सत्यपि सूत्र पक्षेऽण् . स्यात्, 'सिद्ध सत्यारम्भो नियमार्थः' इति न्यायेन तद्वाधनार्थमिदं सूत्रम् ॥१५॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) हनो णिन् ।५।१११६०॥ व्याप्यान्नाम्न परात् भूतार्थाद्धन्ते निन्द्य कर्तरि णिन् स्यात् । पितृघाती ॥१६०॥ हनो णिन् । “हनंक हिंसागत्योः" पितरं हतवानिति "ञ्जिति धात्" ४।३।१००! इति पितृघाती । हननंघातः, पितुर्घातः पितृघातः, सोऽस्यास्तीत्यर्थे मत्वर्थीय इन् प्रत्ययः, तथा च पितृघातीति रूपसिद्धिर्यद्यपि भवति. तथापि ताहराप्रयोगस्य निन्दार्थमात्रे नियमार्थ सूत्रम् ।।१६०।। ब्रह्मणवृत्रात् क्विप् ५।१।१६१॥ एभ्यः कर्मभ्यः परा तार्थाद्धन्तेः क्विप् स्यात् । ब्रह्महा । भ्रूणहा । वृत्रहा ॥१६॥ ब्रह्म०-- ब्रह्माणं हतवानिति क्विपि--ब्रह्महा, एवंभ्रूणहा । विवप०' ,वृत्रहा ।५।१।१४८। इत्यनेनैव सिद्ध नियमार्थं वचनम्, चतुर्विधश्चात्र नियमः, ब्रह्मादिभ्यः एव हन्ते ते क्विप् नान्यस्मात्, तथा ब्रह्मादिभ्यो हन्तेरेव भूतेनान्यस्माद्धातोः क्विप्, तथा ब्रह्मादिभ्यो हन्ते ते क्विबेव नान्यःप्रत्ययः, तथा ब्रह्मादिभ्यो हन्तेर्भूत एव काले क्विप नान्यस्मिन्निति ब्रह्मादिभ्यो हन्तेर्भूते बिबेव नान्य इति नियमेन क्विपाऽणादिरेव बाध्यते न तक्तवद, मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान्' इति हि न्यायः ॥१६१।। कृगः सुपुण्यपापकर्ममन्त्रपदात् ।।१।१६२॥ सोः पुण्यादेश्व कर्मणः परात् भूतार्थात् कृगः क्विप् स्यात् । सुकृत् । पुण्यकृत् । कर्मकृत् । मन्त्रकृत् । पदकृत् ॥१६२॥ कुगः सुपुण्य०-। "डुकृग् करणे" सुष्टु कृतवानिति क्विपि तस्य लोपे प्रत्ययलक्षणन्यायेन "हस्वस्य तः पित्कृति०" ।४।४।११३। इति तागमे Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३० ) सुकृत् । इदमपि नियमार्थं वचनम् । त्रिविधश्चात नियमः । एभ्य कृग एव भूते क्विप् नान्यस्माद् धातो:, तथा एभ्यः कृगो भूत एव क्विप्, तथा एभ्यः परात् कृगो भूते क्विबेव नान्यः प्रत्ययः ॥ १६२॥ सोमात्सुगः ५।१।१६३। सोमाद्वद्याप्यात्परात् भूतार्थात् सुगः क्वित् स्यात् । सोमसुत् 1198311 सोमात्० ० - । " षु ग्ट् अभिषवे" अभिषवः क्लेदनं सन्धानाख्यं पीडन मन्थने वा सोमं सुतवानिति क्विपि तागमे च सोमसुत् । अयमपि नियमार्थो योगः । चतुर्विधश्चात्र नियमः । सोमादेव, सुगं एव, भूत एव, क्विति ॥१६३|| अग्नेश्चे: ।५।१।१६४ ॥ अग्नेर्व्याप्यात्परात् भूतार्थाच्चेः विवप् स्यात् । अग्निचित् ॥१६४ अग्नेश्चेः । “चिट्र चयने" अग्नि चितवानिति क्विपि तागमे च अग्निचित् । अत्रापि चतुर्विधो नियमः । अग्नेरेव, चेरेव, भूत एव क्विवेवेति 1 ।।१६४।। कर्मण्यग्न्यर्थे |५|१|१६५। कर्मणः परात् भूतार्थाच्चेः कर्मण्यग्न्यर्थे क्विप् स्यात् । श्येनचित् ॥ १६५॥ कर्मण्य० - । कर्मण्यग्न्यर्थ इति - कर्मैवोपपदं तदेव च प्रत्ययार्थः, तच्च कर्माग्निनिमित्तकं चेद् भवेदिति समुदितोऽर्थः । श्येन इव चीयते स्मृति Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३१ ) क्विपि, तागमे, ङस्युक्तसमासे च श्येनचितु, श्येनाकारतया निर्मित इति भावः । बहुलाधिकाराद् ढिविषय एवायं द्रष्टव्यः ॥१६५॥ वृशः क्वनिप् ।५।१।१६६॥ व्याप्यात्परात् भूतार्थात् दृशेः क्वनिप् स्यात् । बहुदृश्वा ॥१६६॥ दृशः क्वनिप्- दृशृक्षणे" बहून् दृष्टवानिति क्वनिपि कित्त्वात गुणाभावे बहुदृश्वा 'मन्वन्' ।५।१।१४७॥ इति क्वनिपि सिद्ध भूतकाले प्रत्ययान्तरबाधनार्थं वचनम् ॥१६६॥ सहराजभ्यां कृग्युधेः ।।१।१६७। आभ्यां कर्मभ्यां पराद् भूतार्थात् कृगो युधेश्च क्वनिप् स्यात् । सह कृत्वा । सहयुध्वा । राजकृत्वा । राजयुध्वा ॥१६७॥ सहराज०-। प्रत्ययान्तरबाधनार्थोऽयं योगः । वचनभेदेन निर्देशादिह न यथासंख्यमित्याह-आभ्यां कर्मभ्यामित्यादि । क्वनिपि ककार: कित्कार्यगुणाभावार्थः, पकारः पित्कार्यतागमार्थः, इकार उच्चारणार्थः, 'वन्' इत्यवशिष्यते। 'डुकृग् करणे' सह कृतवानिति-सहकृत्वा । 'युधिच् सम्प्रहारे' सह युद्धवानिति-सहयुध्वा । राजानं कृतवान्, राजानं योधितवानिति-राजकृत्वा, राजयुध्वा । युधिरत्रान्तर्भूतण्यर्थः सकर्मकः • ॥१६७॥ .. अनोजने ड: ।।१।१६८॥ कर्मणः परादनुपूर्वात् भूतार्थाज्जनेर्डः स्यात् । पुमनुजः ॥१६८॥ अनोजनेंर्ड:- । 'जनैचि प्रादुर्भावे' डप्रत्यये डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः, अकारोऽवशिष्यते । पुमांसमनुजात इति डेऽन्त्यस्वरादिलोपे डम्युक्तसमासे Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२ ) व पुमनुजः इति-यस्याग्रजः पुमान् स एवमुच्यते। अनुपूर्वो जनिर्जननोपसर्जनायां प्राप्ती वर्तमानः सकर्मकः ॥१६८।। सप्तम्याः ।।१।१६६। सप्तम्यन्ताह ताज्जनेर्डः स्यात् । मन्दुरजः ॥१६॥ . सप्तम्या:-- अयोग्यतया कर्मण इति न सम्बध्यते, नहि सप्तम्यन्तस्य । कर्मत्वं सम्भवति । मन्दुरा-अश्वशाला, पुस्त्रीलिङ्गः, तत्र जात इति - .. मन्दुरजः, ‘ड्यापो० ।२।४।६६। इति ह्रस्वः ।।१६६।। अजातेः पञ्चस्याः ।।१।१७० . . . पञ्चम्यन्तादजात्यर्थात् भूतार्थात् जनेर्डः स्यात् । बुद्धिजः । अजातेरिति किम् । गजाज्जातः ॥१७०॥ अजाते:०। बुद्धर्जातो-बुद्धिजः । गजात् जात इति-गजशब्दस्य तत्सज्जातिप्रवृत्तिनिमित्त-त्वमिति नात्र प्रत्ययोऽपितु वाक्यमेव तिष्ठतीति भावः । गजस्याकृतिग्राह्यत्वेन 'आकृतिग्रहणा जातिः' इति वचनाज्जातित्वमवसेयमिति ।।१७०।। क्वचित् ।।१।१७१। उक्तादन्यत्रापि यथालक्ष्यं डः स्यात् । किञ्जः । अनुजः । अजः । स्त्रीजः। ब्रह्मज्यः । वराहः । आखः ॥१७१॥ क्वचित-। उक्तादन्यत्रापीति-यान्युपपदानि यश्च धातुः पूर्वसूत्रेषु निर्दिष्टस्तेभ्योऽन्येष्वप्युपपदेषु सत्सु, अन्यस्मादपि धातोरयं प्रत्ययो । भवतीति भावः । उपपदव्यभिचारमाह-किञ्जइति-किं जातेनेति किञ्जः, केन जात इति वा किजः, अनितिपितृकः । कर्मणो व्यभिचारमाह Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३३ ) अनुजः-अनुजातः । न जातोऽजः । अजातिव्यभिचारमाह-स्त्रिया जातं-स्त्रीजम् । उपपदव्यभिचारं प्रपञ्च्य प्रकृतिव्यभिचारमाह-ज्यांश् हानो' ब्रह्मणि जीनवानिति ब्रह्मज्य इति-अत्रोपपदस्य सत्त्वे धातोरन्यत्वमिति भावः । उपपदधातूभयव्यभिचारमाह-हनंक हिंसागत्योः' वरमाहतवानिति-वराहः । उपपदधातुकारकव्यभिचारमाह-'खनूग् अवदारणे' आखात:-आखः ॥१७१॥ सुयजोङवनिप् ।।१।१७ । आभ्यां भूताभ्यां वनिप् स्यात् । सुत्वानौ । यज्वा ॥१७२॥ सुयजो० । “सुगट् अभिषवे""यजी देवपूजासंगतिकारणदानेषु"वनिपि वन्' अवशिष्यते शेषा अनुवन्धा ङ कारो गुणानिषेधार्थः,पकारः पित्कार्यार्थः इकार उच्चारणार्थः । सुतवन्ताविति-सुत्वानौ । इष्टवानितियज्वा । “मन्-वन्" 1५।१४७। इति सामान्यसूत्रविहिताभ्यां क्वनिप्-वन्भ्यां सिद्ध भूते नियमार्थं वचनम् । मन्नादि-सूत्रस्थक्वचिद्ग्रहणस्यैव प्रपञ्चः ।।१७२।। ज़ षोऽतृः ।।१।१३। ज़ षेर्भूतार्थादतः स्यात् । जरती ॥१७३॥ ज़ पोऽतृ०-। "ज पच जरसि' अतृ-प्रत्यये ऋकारोऽनुबन्धः । जीर्यति स्मेति अतृप्रत्यये गुणे ऋदित्त्वात् स्त्रियां "अधातूदृदितः" ॥२४।२। इति ड्यां-जरती । उकारानुबन्धं कृत्वा ऋकारानुबन्ध "अभ्वादे:०"।१।४।६० इति दीर्घत्वप्रतिषेधार्थः ।।१७३।। क्तक्तवतू ।।१।१७४। भूतार्थाद्धातोरेतौ स्याताम् । कृतः । कृतवान् ॥१७४॥ . क्तक्तवतू०-। "डुकृग् करणे" अनुस्वारेत्त्वादनिट, क्रियते स्मेति-कृतः "तत्साप्या०" ।३।३।२१। इति कर्मणि क्तः । करोति स्मेति क्तवतीकृतवान् “कर्तरि" इति क्तवतुः ।।१७४॥ इति पञ्माध्याये प्रथमः पादः . Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पञ्चमाध्याये द्वितीयः पादः - - श्रुसदवस्भ्यः परोक्षा वा ।।२।१॥ एभ्यो भूतार्थेभ्यः परोक्षा वा स्यात् । उपशुश्राव । उपससाद । अनूवास। पक्षे। उपाश्रौषीत् । उपाशृणोत्। उपासदत् । अन्ववात्सीत् । अन्ववसत् ॥१॥ श्रुसद०-भत इति अनुवर्तते इत्याह भूतार्थेभ्यः इति भूतार्थमात्रे परोक्षा भवति, तत्र न परोक्षत्वविवक्षाया• आवश्यकतेति भावः । "श्रुट् श्रवणे" इत्यतः परोक्षाणवि "द्विर्धातुः०" ।४।१।१। इति द्वित्वे सति 'श्रश्र' इति ततो "व्यञ्जनस्या०" ।४।१।४४। इंति पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपे 'शुश्रु' इति, ततो "नामिनो०" ।४।३।५१॥ इति वृद्धी शुश्री' इति, "ओदौतो." ।१।२।२४॥ इत्यावादेशे उपेन योगे=उपशुश्राव । 'षद्लु विशरणगत्यवसादनेषु" विशरणं शंटनम्, अवसादोऽनुत्साहः, अतो णवि द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपे “णिति" ।४।३।५०। इत्युपान्प्यवृद्धौ-उपससाद । 'वसं निवासे' अतो णवि द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपे सस्वरस्य वकारस्य च 'यजादि०" ।४।१।७२।। इति य्वति-ऊकारे उपान्त्यवद्धौ अनूना योगे समानदीचे च-अनुवास । अद्यतनभतकाले 'अद्यतनी' ।५।२।४॥ इत्यद्यतनी विभक्तिर्भवतीति श्रधातोरद्यतन्या दिप्रत्यये 'सिजद्यतन्याम्'३।४।५३ इति सिचि 'स: सिज०' । ।४।३।५।। इतीति 'सिचि परस्मैः' ।४।३।३५। इति वद्धौ ‘अड धातो.' ।४।४।२६। इत्यडागमे 'नाम्यन्तस्था०' ।।३।१५। इति सस्य षत्वे-उपाश्रौषीत् । अनद्यतनभूतकाले 'अनद्यतने ह्यस्तनी" ।५।२।७। इति शस्तनी विभक्ति भवतीति श्रधातो-ह्य स्तन्या दिवि तु श्रौति०" ।४।२।१०८। इति 'शू' इत्यादेशे 'श्वादेः अनुः' ।३।४।७५। अनुविकरणे 'भ्र श्नोः' . ।२।१॥५३॥ इति गुणेऽडागमे च उपाशृणोत् । सद्धातोरद्यतनीदौ लुदित्त्वात् ‘लदिद्' ।३।४।६४। इत्यडि अडागमे च-उषासदत् । ह्यस्तन्या Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३५ ) . दिवि तु 'श्रोति०' | ४|२| १०८ । इति सीदादेशे, शवि अडागमे च - उपासीदत् । 'वस्' धातोरद्यतनीदो सिचि 'सस्तः सि' | ४ | ३ |२| इति धातुसकारस्य तकारे 'व्यञ्जनाना० ' | ४ | ३ | ४५ ॥ इत्युपान्त्यवृद्धावडागमे च अन्ववात्सीत् । ह्यस्तनीदिव तु शवि अडागमे च = अन्ववसत् । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेन भूतानद्यतनेऽपीयं ह्यस्तन्या न बाध्यते रूपत्वात् 'असरूपोऽपवादे० ' | ५|१|१६ । इत्येवाद्यतन्यादिसिद्धौ बा - aai 'त्यादिष्वन्योन्यं नासरूपोत्सर्गविधिरिति न्यायं ज्ञापयति ॥१॥ अस तत्र क्वसु-कानौ तद्वत् |५|२|२| परोक्षामात्रविषये धातोः परौ क्वसुकानौ स्यातां तौ च परोक्षेव । शुश्रुवान् । सेदिवान् । ऊषिवान् । पेचिवान् । पेचानः ॥२॥ 1 O , तत्र क्वसु० - । 'तत्त्र' इत्यस्यार्थमाह = परोक्षामात्रविषये इति = परोक्षामात्रं परोक्षासांमान्यम्, न केवलं पूर्वसूत्रविहिता परोक्षैवेति भावः । क्वसुकानाविति = | अत्र 'क्वसुः ' ' कर्तरि' | ५|9|३ | इति कर्तरि भवति । क्वसौ ककारः कित्कार्यगुणाभावाद्यर्थः, उकारे नागमाद्यर्थः, 'वस' इत्यवशिष्यते । कानस्य 'पराणि कानाऽऽनशी०' | ३ | ३|२०| इत्यात्मनेपदसंज्ञाविधानात् स ' तत्साप्या०' | ३|३|२१| इति भावकर्मणोः, 'इङितः ०' | ३|३|२२| इति कर्तरि 'ईगित:' | ३ | ३६५ इति फलवति कर्तरि चः भवति । काने ककारः कित्कार्यार्थः, 'आन' इत्यवशिष्यते । 'श्रुट् श्रवणे' अनोऽनेन सूत्रेण क्वसौ तस्य परोक्षावद्भावेन द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्ज'नलोपे 'शुश्रवस्' शब्दः, तस्य सौ = शुश्रुवानिति । 'षद्लृ' विशरणगत्यसादनेषु' अतः क्वसो 'अनादेशादे० ' | ४|१|२४ । इत्यत एकारे द्वित्वनिषेधे 'घसेकस्वरातः ०' | ४|४|२| इतीटि 'सेदिवस्' शब्दः, तस्मात्सौ = सेदिवानिति, 'वसं निवासे' अतः क्वसौ 'यजादि ० ' |४|१/७२ | इति य्वृति, सस्वखस्योकारे द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपे समानदीर्घे 'घस्वसः' |२| ३ | ३६ | इति सस्य षे 'घ सेकस्वरातः ० ' | ४|४|११ । इतीटि 'उषिवस्' शब्दस्य सौ = उषिवानिति । 'डुपचष् पाके' अतः क्वसौ, अत एकारे, द्वित्वाभावे, इटि च पेचिवानिति । 'पच्' धातोरीदित्त्वात् फलवति कर्तर्यात्मनेपदे काने तस्य परोक्षावद्भावादत एकारे Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) द्वित्वाभावे च पेचानः । भताधिकारेणैवोक्त परोक्षाविषयत्वे लब्धे 'तत्र' ग्रहणं परोक्षामात्रप्रतिपत्त्यर्थम् तेन पेचिवान्' इत्यादि सिद्धम् || २ || वेयिवदनाश्वदनूचानम् | ५ | २|३| एते भूतेऽर्थे क्वसुकानान्ताः कर्त्तरि वा निपात्यन्ते । समीयिवान्। अनाश्वान् । अनूचानः । पक्षे । अगात् । उपैत् । उपेयाय । नाशीत् । नाश्नात् । नाश । अन्ववोचत् । अन्ववक् । अन्वब्रवीत् । अनूवाच | ३|| , वेविद० - पूर्वसूत्रेण परोक्षामात्रविषयेविहितो, किञ्च धातुमात्रात् तो द्वावपि विहितो, इह च भूतमात्रे धातुविशेषात् क्वसुर्धातुविशेषाच्च कान इष्ट इति, किञ्चान्यदपि किञ्चिदलाक्षणिकं कार्यं वक्ष्यमाणरीत्या सम्पाद - नीयमिति निपातनमारभ्यते । समीयिवनिति । अत्र निपातन - सामर्थ्यात् क्वसुरेव न कानः । सम्पूर्वस्य 'इ'गती' इति धातो. क्वसौ" घसेकस्वरात ०" | ४ |४| ४८ द्वित्वे " योऽनेकस्वरस्य ” | २|१|५६ । इति यत्वापवादे" इण: " ।२।१।५१। इतीयादेशे समानदीर्घे "समीयिवस्" शब्दस्य सौ- समीयिवान् । 'अशश् भोजने'' इति 'अश्' धातोः क्वसौ द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोsa आकारे समानदीर्घे ङस्युक्तसमासे नत्रोऽनादेशे 'अनाश्वस्'- - शब्दस्य सौ - अनाश्वानिति निपातनसामर्थ्यात् क्वसुरेव भवति न कानः, घसेकस्वरातः ' | ४|४|२| इतीट् प्राप्तस्तदभावश्च निपातनात् भवति । 'अनूचान इति । अनुपूर्वीत् 'वचं भाषणे' इत्यतः, अथया 'ब्रू' ग्क् व्यक्तायां । वाचि' इति ब्रधातोः स्थाने 'अस्ति ब्रुवो०' | ४|४|१| इति वचादेशादनुपूर्वात् कर्तरि काने सति 'यजादि ० ' | ४|४|१|| इति स्वरसहितवकारस्य वृति - उकारे ततो द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपे समानदीर्घे च- अनूचानः, निपातनसामर्थ्यादत्र क्वसुर्न भवति । निपातनस्येष्टविषयत्वात् कर्तुं रन्यत्र' अनुक्त' इत्येव भवति । वावचनात् पक्षेऽद्यतन्यादयोऽपि भवतीत्याह - पक्षे अगात् इत्यादि । इणोऽद्यन्यां 'इणिकोर्गा' | ४|४| २३ | इति गादेशे 'पिबेति' ३|४| ६६ । इति सिचो लोपेऽडागमे च - अगात् । उपपूर्वस्येणो ह्यस्तन्या दिवि 'एत्यस्ते द्धि' | ४|४|३०| इति वृद्धौ - उपैत् । उपपूर्वस्य परोक्षाण Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३७ ) E वि द्वित्वे 'नामिनो०' ।४।३॥५१॥ इति वृद्धौ ‘पूर्वस्यास्वे.' ।४।१।३७। इति पूर्वस्येयादेशे= उपेयाय । अश्नातेरद्यन्यादौ सिचि, तस्येटि, देरीति, सिनो लुपि, आद्यस्वरवृद्धी समानदीचे च---आशीत्, तेन नत्रा योगे नाशीत् इति वाक्यम् ह्यस्तनीदिवि, श्नाविकरणे, वृद्धी,नञा योगे च नाश्नादिति वाक्यम् । परोक्षाणवि द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपेऽत आकारे=आश, नजायोगे नाशेति वाक्यम् अनुपूर्वाद् वचेरद्यतन्या दो 'शास्त्यसू०' ।३।४।६० इत्यङि 'श्वयत्यसू' ।४।३।१०४। इत्यनेन धातोर्वोचादेशेऽडागमेच=अन्ववोचत् । प्रतिपदोक्तस्यवचे 'व्यञ्जनाद्दे:०' ।४।३।७८। इति दिवो लोपेऽडागमे चस्य 'चजः कगम्' ।२।१।८६। इति कत्वे च=अन्ववक्। हस्तन्यां ब्रगो वचा देशाभावे 'ब्रूतः परादिः' ।४।३।६३। इतीति गुणेऽवादेशेऽडागमे चअन्वब्रवीत् । लक्षणपतिपदोक्तयोः वचोः परोक्षाणवि, द्वित्वे, पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपे, सस्वरस्य पूर्ववकास्य वृति उकारे, उपान्त्य वृद्धीअनूवाच ।।३।। अद्यतनी ।।२।४॥ भूतार्थाद्धातोरद्यतनी स्यात् । अकार्षीत् ॥४॥ अद्यतनी-भूतार्थादिति-भूतशब्देन भूतकालवृत्तित्वरूपोऽर्थ उच्यते, तथा च भतकालवृत्तावर्थे स्वार्थे वर्तमानाद धातोरिति; नहि धातर्भते वर्तते तस्य शब्दस्वरूपत्वेन सदावर्तमानत्वात्, किन्तु तदर्थभूता क्रिया भतकालविषयिणी वाच्या इयं चाद्यतनी ह्यस्तन्यादिभिः परत्वाद् बाध्यत इत्यद्यतनमात्रविषया विज्ञया । 'डकृग करणे' अतोऽद्यतनीदी, सिचि, . 'स: सिज०' ।४।३।६५। इति देरीति, 'सिचि परस्मै०' ।४।३।४४। इति वृद्धौवडागमे संस्य षे च ॥५॥ विशेषाऽविवक्षाव्यामिश्रे ।५।२॥५॥ अनद्यतनादिविशेषाऽविवक्षायां व्यामिश्रणे च सति भूतार्थाद्धातोरद्यतनी स्यात् । रामो वनम् गमत् । अद्य ह्यो वाऽभुक्ष्महि Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) 1 विशेषा० - अद्यतनेऽपि काले परोक्षत्वविवक्षायामद्यतनी नेष्टा, ह्यस्तनेऽपि कः ले ह्यस्तनत्वाविवक्षायां सेष्टेति पूर्वसूत्र ेण तत्सिद्धयभावादिदं सूत्र - मारब्धम् । अनद्यतना - दीत्यत्रादिपदेन परोक्षा ग्राह्या । व्यामिश्रणं - अद्यतन्या विषयेण सहानद्यतन्यादिविषयस्य सन्दिग्धरूपतया विवक्षितत्वम्, तत्रानद्यतननिमित्तां ह्यस्तनीं वारयितुमद्यतनी विधीयते । गमेरद्यनौदावङि अडागमे च - रामो वनमगसत् सतोऽप्यत्र विशेषस्याविवक्षा, यथा-अनुदरा कन्येति । 'भुजं पालनाभ्यवहारयो' अभ्यवहारो भोजनम्, तत्र पालने परस्मैपदम्, भोजनादौ तु 'भुनजोऽत्रा' | ३|३|३७| इत्यात्मनेपदेऽद्यतन तृतीयत्रिकबहुवचने महिप्रत्यये सिचि अनुस्वारेत्वादिडभावे 'सिजाशिषा ०' | ४ | ३ | ३५ | सिचः कित्त्वाद् गुणाभावे 'चजः कगम्' | २|११८६ | इति जस्य गत्वे 'अघोषे प्रथमोऽशिट : ' | १| ३ |५० । इति गस्य कत्वे 'नाम्यन्तस्था०' | २|३ | १५ | इति सस्य षत्वेऽडागमे च अभुक्ष्महि ||५|| रात्रौ वसोऽन्त्ययामास्वप्तर्यद्य |५|२६| रात्रौ भूतार्थवृत्तेर्वसतेरद्यतनी स्यात् स चेदर्थो यस्यां रात्रौ भूतस्तस्या एवान्त्ययामं व्याप्त्थास्वप्तरि कर्त्तरि स्यात् । अद्यतनेनैवान्त्ययामेनावच्छिन्ने अद्यतने चेत्प्रयोगोऽस्ति नाद्यतनान्तरे । अमुत्रावात्सम् । रात्र्यऽन्त्ययामे तु मुहूर्तमपि स्वापेऽमुत्रावसमिति ॥ ६ ॥ रात्रौ ० - अतीताया रात्रः पूर्वार्धस्य मतान्तरेण प्रहरत्रयस्य वाऽनद्यत - नत्वेन तत्र ह्यस्तन्याः प्राप्ते 'येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्य वाधको भवति' इति न्यायेनास्य तदपवादत्वस्यौचित्याद् ह्यस्तन्या अपवादोऽयं योगः । अन्त्ययामास्वप्तरीति पदं व्याचष्टे - स चेदर्थो इत्यादि । अद्य इत्यस्यार्थमाह- अद्यतनेनैवा इत्यादि । अमुवावात्समिति-याय्ये प्रत्युत्थाने प्रत्युत्थितं कश्वित् कचिदाह - क्व भवानुषितः ? स तं प्रति उत्तररूपेणेदं वाक्यमाह - अमुत्रावात्सम् । अत्र यद्यप्यनद्यतनत्वं वासक्रियायां स्पष्टम्, तथापि विशेषविहितत्वादनद्यतननिमित्तां ह्यस्तनीं प्रबाध्याद्यतनी - विधीयतेऽनेनेति भावः 'वसं निवासे' अतोऽद्यतनी तृतीय Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) विकैकवचनेऽमि सिचि 'व्यञ्जना०' ।४।३।४५। इत्युपान्त्यवृद्धौ ‘सस्तः सि' ।४।३।६२। इति धातुसकारस्य तेऽडागमे च-अवात्समिति भवति । स चेदित्यादिना कृतस्य नियमस्य फलमाह-रात्र्यन्त्ययामे इत्यादि--अत्राद्यतननिमित्ता हस्तन्येव परत्वात् भवतीति भावः ॥६॥ अनद्यतने शस्तनो शरा। आ न्याय्यादुत्थानादान्याय्याच्चसंवेशनादहरुभयतः सार्द्धरात्रं वाऽद्यतनः। तस्मिन्नसति भूतार्थाद्धातोह्य स्तनी स्यात् । अकरोत ॥७॥ अनद्यतने- अनद्यतनशब्दस्याद्यतनभिन्नार्थकत्वादद्यतनशब्दार्थमाहआ न्याय्यादुत्थानादा'न्यायाच्च संवेशनादिति-न्याय्य उत्थानसमयो' रात्रेश्चतुर्थो यामः, रात्रेश्चतुर्थयामादारभ्या-गामिन्या रात्र: पूर्व यामत्रयं तदभिव्याप्येत्यर्थः, 'एतदवच्छिन्नमहोऽद्यतन इत्येक मतम् मतान्तरेणाहअहरुभयतः सार्धरात्रं वेति-अंतीतरात्र रन्त्ययामद्वयम्, वर्तमानदिनस्य यामचतुष्टयम्, आगामिन्या रात्रेराद्य यामद्वयमद्यतन इति मतान्तरमिति भावः। ह्यस्तनी-ह्यस्तनीति विभक्त नाम, न तावता ह्यस्तनकालवृत्तावर्थे तस्या विधानमिनि मन्तव्यम् अद्यतनभिन्नार्थत्वात् तस्याः। उदाहरति अकरोदिति-एककर्तृ काद्यतनभिन्नभूतार्थविषयक उत्पत्त्यनुकूलो व्यापार इति क्रमेणार्थः 'डुकृग् करणे' अतो ह्यस्तन्या दिवि 'कृरतनादेरुः' ।३।४।८३। इत्युविकरणे धातोगुणे विकरणस्य 'उश्नो' ।४।३।२। इति गुणेऽडागमे च-अकरोत् ॥७॥ ख्याते दृश्ो ।।२।। लोकविज्ञाते प्रयोक्तः शक्यदर्शने भूतानद्यतनेऽर्थे वर्तमानार्धातो ह्य स्तनी स्यात् । अरुणसिद्ध राजोऽवन्तीम् । ख्यातं इति किम् । । चकार कटन् । दृश्य इति किम् । जघान कंसं किल वासुदेवः ॥८॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४० ) ख्याते०-- ख्यातशब्दं व्याचष्टेलोकविज्ञाते इति न केवलं प्रयोक्त निविषयेऽपितु सकललोकप्रसिद्ध । दृश्यशब्दं व्याष्चटे चप्रयोक्त : शक्यदर्शने इतिसति प्रयत्ने प्रयोक्त्रा द्रष्टुयोग्ये विषय इत्यर्थः। यत्र प्रयोक्त्रा सोऽर्थो न दृष्ट: किन्तु तत्सत्त्वकाले समीप एव तस्यार्थस्य वृत्ततया दर्शनयोग्यता तस्य भवति । अत्र यद्यपि प्रयोक्त्राऽदृष्टत्वेन परोक्षत्वमिति परोक्षायाः प्राप्तिस्तथापि लोकख्यातत्वेन प्रयोक्ता तस्यार्थस्य स्वप्रत्यक्षत्वमिव मन्यते इति तद् द्योतयितुं परोक्षापवादो ह्यस्तनी विधीयत इति भावः । अरुणत् सिद्धरा- .. जोऽवन्तीमिति-सिद्धराजचरितस्य प्रयोक्त गन्थकृत्समये सकललोकविज्ञाततया भूतत्वेन तत्र सूत्रार्थघटनमिति भावः । 'रुध पी आवरणे' अतो ह्यस्तन्या दिवि 'रुधां स्वरा०' ।३।४।८२। इति स्वरात्परतः श्नविकरणे नस्य णेऽडागमे, धस्य ते च-अरुणत् । चकार कटमिति-कटादिकरणस्य साधारणकार्यतया कैश्चिदेव तत्समीपवर्तिभिष्टत्वेन ज्ञातत्वेन वा नं सकललोकख्यातत्वं तस्येति भावः । जघान कंसं किल वासुदेव इति-वासुदेवकर्तृ ककंसहननस्य प्रयोक्त दर्शनयोग्यत्वाभावः, तस्य तज्जन्मनो बहुकालपूर्ववृत्त-तया द्रष्टुमशक्यत्वात् । यदि च तत्समानकालवृत्तिरेव जनो वाष्यं प्रयुक्त तदा 'कंसमहन् वासुदेवः' इति प्रयोग इष्ट स्यादिति भावः । हनक हिसागत्योः' इत्यस्य परोक्षायां जघान ।।८।। अयदि स्मृत्यर्थे भविष्यन्ती ।५।२६। स्मृत्यर्थे धातावुपपदे भूतानद्यतनार्थवृत्त तिोभविष्यन्ती. स्यात्, अयद्योगे। स्मरसि साधो स्वर्गे स्थास्यामः । अयदीति किम् । अभिजानासि मित्र यत्कलिङ्गेष्ववसाम ॥६॥ अयदि०-। 'भूते' 'अनद्यतने' इति पदद्वयं पूर्वतोऽनुवृत्तम् । 'स्मृत्यर्थे' इति पदं चतदर्थकधातुपरम्, स च धातुरिह सप्तम्यन्तेन निर्दिष्टत्वादुपपदं न तु प्रत्ययप्रकृतिः, तदाह-स्मृत्यर्थे धातावुपपदे इति । स्मरसि साधो। स्वर्गे स्थास्यामः--अत्र ‘पश्य मृगो धावति' इत्यादाविक वाक्यार्थस्यैव स्मरणकर्मत्वम् । इदं वाक्यं जातिस्मरणेन ज्ञा-निदृष्ट्या वा, नहि सर्वसाधारणेन जनेन पूर्वशरीरानुभूतं स्वर्गाधिकरणर्कस्थानं स्मरण Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१ ) विषयीभवितुमर्हतीति वाक्यगप्रोगोऽनुचितः स्यादिति । अभिजानासीत्यादि-अत्र यदः प्रयोगादस्याप्रवृत्त्या ह्यस्तनी भवति ॥६॥ वा काङ्क्षायाम् ।।२।१०। स्मृत्यर्थे धातावुपपदे प्रयोक्तुः क्रियान्तराकाङक्षायां सत्यां भूतानद्यतनार्थाद्धातोर्भविष्यन्ती वा । स्यात् । स्मरसि मित्र काश्मीरेषु दत्स्यामोऽवसाम वा । तत्रौदनं भोक्ष्यामहे, अभुञ्जमहि वा ॥१०॥ अयदीति नानुवर्तते । स्मरसीत्यादि-अत्र वासो लक्षणं भोजनं लक्ष्यमिति लक्ष्यलक्षणयोः संबन्धे प्रयोक्तुराकाङ्क्षा भवति, यत्परार्थमुपादीयते तत. लक्षणम्, यदर्थ च किञ्चिदुपादीयते तत् लक्ष्यमिति भोजनार्थं वासः समाश्रित इति वासस्य लक्षणत्वं स्पष्टम्, एवं भोजनार्थ वास उपादीयत इति भोजनस्य लश्यत्वमपि स्पष्टमेव, अथवा परिज्ञातं लक्षणम्, अपरिज्ञातं लक्ष्यम्, वासो लक्षणं तेन हि भोजनं च लक्ष्यते, भोज़नं लक्ष्यम्, न तु लक्षणमपरिज्ञातत्वात्, परिज्ञातं हि अपरिझातस्य लक्षणं भवति, यथाऽग्नेधुम इति, लक्ष्यलक्षणयोश्च परस्परं सम्बन्धः प्रसिद्धः, प्रयोक्ता लक्षणे प्रयुक्त लक्ष्यं प्रति साकाङ्क्ष इति पूर्वक्रियायां लक्षण भूतायां लक्ष्यभूताऽन्या क्रिया प्रयोक्ताऽपक्ष्यत एव ॥१०॥ कृतास्मरणाऽतिनिन्हवे परोक्षा ।२।११। । कृतस्यापि चित्तविक्षेषादिनाऽस्मरणेऽत्यन्तनिन्हवे वा गम्ये भूतानद्यतनार्थाद्धातो परोक्षा स्यात् । सुप्तोहं किल विललाप । कलिङ्गषु ब्राह्मणो हतस्त्वया । नाई क लिङ्गान जगाम ॥११॥ कृताऽस्मरणा०-। अपरोक्षकालार्थ आरम्भः । सुप्तोऽहं किल विललापेति Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२ ) -किल संप्रश्नवार्तयोः । विपूर्वस्य 'लप व्यक्त वचने' इत्यस्य 'परोक्षाणवि-विललापेति, स्वापसमये चित्तस्य निद्राधीनतया विक्षिप्तत्वेऽपि कृतस्य व्यापारस्य प्रत्यक्षत्वमुपपन्नम् । न चा-प्रत्यक्षविषयीभूतस्यार्थस्य पश्चादपि कथं स्मरणम्, अनुभवजन्यं ज्ञानं स्मृतिरिति लक्षणादिति वाच्यम्, स्वेन कृतस्य व्यापारस्य सर्वथानुभवाभावस्याशक्यतया तस्मिन् कालेऽनुभवस्यानुव्यवसायाभावेऽपि तस्य वस्तुती जातत्वेन स्मरणसम्भवात् । सूत्रेऽति ग्रहणादेकदेशापह्नवे ह्यस्तन्येव- .. न कलिङ्गषु ब्राह्मण-महमहनम् ॥११॥ परोक्षे ।।२।१२॥ भूतानद्यतने परोक्षार्थाद्धातोः परोक्षा स्यात् । धर्म दिदेश तीर्थङ्करः ॥१२॥ परोक्ष-। अक्षाणां परः परोक्षः, अत एव निर्देशात् साधु: अव्युत्पन्नो वा असाक्षात्कारार्थः ॥१२॥ ह शश्वद्य गान्तः प्रच्छय ह्यस्तनी च ।।२।१३। हे शश्वति च प्रयुक्त पञ्चवर्षमध्यप्रच्छये च भूतानद्यतने परोक्षेऽर्थे वर्तमानाद्धातोह्य स्तनोपरोक्षे स्याताम् । इति हाकरोत् । इति ह चकार । शश्वदकरोत् । शश्वच्चकार । किमगच्छस्त्वं मथुराम् । किं जगन्थ त्वं मथुराम् ॥१३॥ हशश्वद्- पञ्चवर्ष युगम्, तस्यान्तर्मध्यम्, तत्र पृच्छ्यते यः स युगान्तप्रच्छयः । स च भूतानद्यतनस्य परोक्षस्यार्थस्य विशेषणमित्याह-पञ्चवर्षमध्यप्रच्छ्य' इत्यादि । युगान्तःप्रच्छ्य इत्यस्योदाहरणमाह-किमगच्छस्त्वं मथुरामित्यादि-मथुरागमनं हि न युग-तो दूरवति, आसन्नस्यैवान पृच्छाविषयत्वात्, ततोऽधिकदिनस्य विषयतायां तु परोक्षैव स्यात् ॥१३॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४३ ) अविवक्षिते ।।२।१४॥ भूतानद्यतने परोक्षे परोक्षत्वेनाविवक्षितेऽर्थे वर्तमानाद्धातोह्यस्तनी स्यात् । अहन कंसं किल वासुदेवः ॥१४॥ अविवक्षिते-। एवं परोक्षानद्यतने विवक्षावशादद्यतनी-शस्तनीपरोक्षास्तिस्रो विभक्तयः सिद्धाः ॥१४॥ वाऽद्यतनी पुरादौ ।५।२।१५॥ भूतानद्यतने परोक्षे परोक्षत्वेनाविवक्षितेऽर्थे वर्तमानाद्धातोः पुरादावुपपदे अद्यतनी वा स्यात् । अवात्सुरिह पुरा छात्राः । पक्षे अवसन्। ऊषुर्वा । तदाभाषिष्ट राघवः । पक्षे अभाषत । बभाषे वा ॥१५॥ . वाऽद्यतनी पुरादौन्। 'परोक्षे' इति निवृत्तम् । अपरोक्षे ह्यस्तन्याः परोक्षे तु परोक्षाया अपवाद: । वावचनात् पक्षे यथाप्राप्तितेऽपि भवतः । 'वसं निवासे' इति 'वस्' धातुः, ततोऽद्यतनो-प्रथमत्रिक-बहुवचनेऽनि सिचि 'सिज्विदोऽभूवः" ।४।२।१२। इत्यन पूसादेशे 'व्यञ्जनानामनिटि' ।४।३।४५। इत्युपान्त्यवृद्धौ ‘सस्तः सि' ।४।३।६२। इति धातुसकास्य तकारस्य · तकारेऽटि च=अवात्सुरिति । ह्यस्तनीप्रथम त्रिकबहुवचनेऽनि शवि पूर्वाकारलोपेऽटि च=अवसम् । परोक्षाप्रथम त्रिकबहुवचने उसि य्वति द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपे समानदीप॑ च ऊषः । 'भाषि च व्यक्तायां वाचि' इति आ 'भाष' धातोरात्मनेपदेऽद्यतनीतप्रत्यये सिचि तस्यादाविटि सस्य षे तद्योगे तकारस्य टेऽटि च=अभाषिष्ट । ह्यस्तनीतप्रत्यये शवि अटि च=अभाषत । परोक्षाया एप्रत्यये द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपे ह्रस्वे भस्य वेबभाषे। भतमात्रविवक्षयाऽद्यतन्या: सिद्धौ पुरादियोगे तद्वचनं स्मृत्यर्थहशश्वत्-स्मयोगे सामान्यविवक्षयाऽद्यतनी न भवतीति ज्ञापनार्थम् ।।१५॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४ ) स्मे च वर्तमाना ।।२।१६। भूतानद्यनतनेऽर्थे वर्तमानाद्धातो: स्मे पुरादौ चोपपदे वर्तमाना स्यात् । पृच्छति स्म पुरोधसम् । वसन्तीह पुरा छात्राः । अथाह वर्णी ॥१६॥ स्म०-। पृच्छति स्म पुरोधसम्-'प्रछंत् ज्ञीप्सायाम्" स्वरेभ्यः' ।१।३।३०।' इति छस्य द्वित्वे पूर्वस्य चत्वे 'प्रन्छ' इत्यतस्तिवि'शविकरणे 'ग्रहनश्च०' ।४।१।१४। इति य्वृति-पृच्छति, पृष्टवानित्यर्थः, पुरोधसं पुरोहितम् । . वसन्तीह पुरा छात्रा इति-'वसं निवासे' अतोऽन्तिप्रत्यये शवि 'लुगस्या०'.. ।२।१।११३॥ इति पूर्वाकारलोपेच-वसन्ति,निवासं कृतवन्त इत्यर्थः। अथाऽऽहवर्णी-ब्रूगः' पञ्चानां०' ।४।२।११८ इति-आह । एवं च पुरादियोगें:द्यतनी-ह्यस्तनी-परोक्षा-वर्तम नाश्चतस्रोविभक्तयः सिद्धाः, स्मपुरायोगे तु परत्वाद्वर्तमानव-नटेन स्म पुराऽधीयते । एवं-हशश्वत्स्मयोगेऽपि-इतिह स्मोपाध्यायः कथयति, शश्वदधीयते स्म । त्रययोगेऽप्येवम्-न ह स्म वै पराऽग्निरपरशुवृक्णं दहतीति ।।१६।। ननौ पृष्टौक्तौ सद्वत् ।।२।१७। ननावुपपदे पृष्टप्रतिवचने भूतेऽर्थे वर्तमानाद्धातोर्वर्तमानेव वर्त्तमाना स्यात् । किमकार्षीः कटं चैत्र । ननु करोमि भोः । नुन कुर्वन्तं मां पश्य ॥१७॥ ननौ०-। 'अनद्यतन' इति निवृत्तम् । पृष्टस्य धात्वर्थस्योक्तिः प्रतिवचनंपृष्टोक्तिरित्याह-पृष्टप्रतिवचने इति । सद्वद्वचनादत्र विषये शत्रानशावपि भवतः । तेन 'ननु' कुर्वन्तं मां पश्येति' सिद्धम् ‘डकृग् करणे' इत्यतोऽद्यतन्या' मध्यमपुरुषैवचने सौ, सिचि, सेरादावीति, वृद्धी, सस्य षत्वे, सेरिदित्त्वात् सस्य विसर्गेऽटि च-अकार्षीः । वर्तमानामिवि, उविकरणे, . धातोविकरणस्य गुणे-करोमि, अकार्षमिति तदर्थः । शतरि उविकरणे धातोर्गुणेऽस्य अतः शित्युत्' ।४।२।८६। इत्युकारे विकारणस्य वादेशे Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४५ ) . 'कुर्वत्' शब्दस्य द्वितीयैवचनेऽमि कुर्वन्तमिति ॥१७॥ नन्वोर्वा ।।२।१८॥ नन्वोरुयपदयोः पृष्टोक्तौ भूतेऽर्थे वर्तमानाद्धातोर्वा वर्तमाना स्यात् साच सद्वत् । किमकार्षीः कटं चैत्र । न करोमि भोः । न कुर्वन्तं मां पश्य । नाकार्षम् । नु करोमि भोः । नु कुर्वाणं मां पश्य । न्दकार्षम् ॥१८॥ नन्वो०- न निषेधे, नु बितर्के पादपुरणे च । अत्र वर्तमानाविधानस्य वैकल्पिकत्वात पक्षेऽद्यतनीत्याह नाकार्षमिति-किमकार्षीरिति प्रश्नेऽद्यतन्याः प्रयोगेण प्रतिवचनेऽपिपशेऽद्यतन्येव प्रयुक्ता-नाकर्षमिति, यदि च ह्यस्तन्या प्रश्नः कृतः स्यात् तदा सैवोत्तरेऽपि प्रयुज्येत, किन्तु नात्राद्यतनादीनां विवक्षेति सामान्य भतार्थकतयाऽद्यतन्यैव प्रश्नस्तयैव पाक्षिकमुत्तरमिति । कृधातुमात्मनेपदिनमाश्रित्यानशि उविकरणे धातोगुणेऽत उकारे उविककरणस्य वा देशे नस्य णत्वेऽमि कुर्वाणमिति, कुर्वन्त-मित्यर्थः ।।१८।। सति ।।२।१६। वर्तमानार्थाद्धातोर्वर्तमाना स्यात् । अस्ति कूरं पचति। मांसं न भक्षयति । इहाधीमहे । तिष्ठन्ति पर्वताः ॥१६॥ सति०-। सन्-विद्यमानो वर्तमान इत्यर्थः, स च प्रारब्धापरिसमाप्तःक्रियाप्रबन्ध इति मनसि निधायाह-वर्तमानार्थादिति । 'असक भूवि' अतस्तिवि अस्ति, अत्रात्मधारणानकूल क्रियायाः प्रारब्धत्वम्, तदीयस्थितेरुत्तरत्रानुवर्तनाच्चापरिसमाप्तत्वं स्फुटम् । 'डुपची पाके' अतस्तिवि शवि च-करं पचति । 'भक्षण अदने' असो गिवि तिवि शवि च--मांसं न भक्षयति,-- अत्र मांसभक्षणं न कर्तव्यमित्येवंरूपो नियम आत्मधर्मो विवक्षितः, तस्य सर्वदाऽसमाप्तत्वेन वर्तमाना: योग उचित एवेति । 'इङक अध्ययने' नित्यमधिपूर्वोऽयम, अतो वर्तमानाया उत्तमपुरुषबहुवचने महेप्रत्यये-इहाधीमहे, Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६ ) अत्र क्रियान्तरव्यवधानेऽप्यध्ययनादिक्रियायाः प्रारम्भापरिसमाप्ति रस्त्येव परैर्भूतभविष्यद्भन्नत्वं वर्तमानत्वमिति मत्वा पर्वतादीनां सर्वकाले स्थितत्वेन तत्र वर्तमानाप्रयोगः कथमित्याशङ्कितं तदुत्तरयति - तिष्ठन्ति पर्वता इति अत्र स्फुटैव प्रारम्भापरिसमाप्तिः, 'ष्ठां गतिनिवृत्तौ ' इति स्थाधातोवर्तमानान्तिप्रत्यये शवि 'श्रीति०' | ४|२| १०८ | इति तिष्ठादेशे' पूर्वाकारलोपे च = तिष्ठन्ति ॥ १६ ॥ शत्रानशावेष्यति तु सस्यौ |५|२|२०| सदर्थाद्धातोः शत्रानशौ स्यातां भविष्यन्तीविषयेऽर्थे स्य-युक्तौ । यान् । शयानः । यास्यन् । शयिष्यमाणः ॥ २० ॥ शनानशा ० - शत्-प्रत्यये शकार ऋकारश्चानुबन्धी 'अत्' इत्यवशिष्यते, आनशि च शकारोऽनुबन्ध:, 'आन' इत्यवशिष्यते, 'नवाऽऽद्यानि० ' | ३ | ३|१६| इति शत: परस्मैपदत्वात् स परस्मैपदिनो धातोर्भवति । 'पराणि ० ' ।३।३।२०। इत्यानश आत्मनेपदत्वात् स आत्मनेपदिनो धातोर्भवति 'यांक् प्रापणे तो शतरि समान दीर्घे च- ' यात्' शब्दः, अतो घुटि सौ परे 'ऋदुदितः ' | १|४|७० । इति स्वरात्परतो नागमे संयोगान्तलोपे च यान् । 'शीक् स्वप्ने' अतो आनशि 'शीरू: ए शिति' | ४ | ३ | १०४ । इत्येकारेऽयादेशे च 'शयान' शब्दः, तस्य प्रथमायां शयानः । एष्यदर्थे स्यसहिते शंतरि याधातो:यास्यन् । स्यसहित आनशि शीधातो - शयिष्यमाण: - ' अतो म आने ' | ४|४|११४ | इति मोन्तः ॥ २० ॥ तौ माङघाकोशेषु |५|२|२१| माङ्युपपदे आक्रोशे गम्ये तौ शत्रानशावेव स्याताम् । मा पचन् वृषलो ज्ञास्यति । मा पचमानोऽसौ मर्तुकामः ॥ २१ ॥ 'शात्रानशो' - रनुवृत्तावपि 'तो' ग्रहणमवधारणार्थ - मित्याह - 'शत्रानशा-वेवेति । सतीत्यनुवर्तत इति भूतादो न स्यादिति । न । बहुवचनाद सत्यपि Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४७ ) भवति । मा पचन् वृषलो ज्ञास्यति-माङ निषेधे, वृषलो दासजातिः, 'पचन् इति' शतप्रत्ययान्तः, भूतकालिकपचनाभावविशिष्टो वृषलोऽग्रे ज्ञास्यतीति प्रयोगार्थः । मा पचमानोऽसौ मर्तु काम इति-पचमान इत्यानश्प्रत्ययान्तः, मतु कागो यस्य स मर्तु कामः, 'तुमश्च०' ।३।२।१४०। इति मलोपः, भूतकालिकपचनाभावविशिष्टोऽसौ मरणेच्छुरिति प्रयोगार्थः । 'एव' इत्यवधारणे तेनात्र विषयेऽसरूपविधिनाप्यद्यतनी न भवति ॥२१॥ वा वेत्तेः क्वसुः ।।२।२२। सदद्वत्तेः क्वसुर्वा स्यात् । तत्त्वं विद्वान् । विदन ॥२२॥ 'मण्डकप्लुति' न्यायेन 'सति' इत्यस्यात्रानुवर्तनादाह-सदादिति । सूत्र वावचनात् पक्षे शतृप्रत्ययो वर्तमाना विभक्तिश्चापि भवति तत्त्वं विद्वानिति-'विदक ज्ञाने' अतः क्वसौ सौ 'ऋदुदितः ।१।४।७०। इति स्वरात् परतो नागमे 'न्स्-महतोः' ।१।४।१६। इति दीर्घे संयोगान्तलक्षणे सकारलोपे चविद्वान्, एवं शंतरि नागमे संयोगान्तलक्षणे तलोपे च-विदन्, उभयत्र व्यञ्जनान्तत्वात् सिलोपः क्वसौ ककार: कित्कार्यार्थः । उकारो ड्याद्यर्थः । अत्र 'असरूपो०' ।५।१।१६। इति विकल्पे सिद्ध वाग्रहणमत्र प्रकरणेऽसरूपविधेर्लक्ष्यानुरोधार्थम्, अत एव 'वयः-शक्ति०' ।५।२।२४। इत्यत्रानभिधानान्न वाऽसरूपः शतृरित्युक्तम् ॥२२॥ पूड्यजः शानः ।।२।२३। आभ्यां सदाभ्यां परः शानः स्यात् । पवमानः । यजमानः ॥२३॥ पुङ यजः०-शाने शकारोऽनुबन्धः आन' अवशिष्यते । अर्थविशेषोक्ति विना विहितः शानः ‘कर्तरि' ।।१।३। इति कर्तरि भवति । 'पूङ् पवने' पवते इति शाने शवि गुणेऽवादेशे 'अतो म आने' ।४।४।११४॥ इति मागमे च पवमानः । 'यजी देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु' यजति यजते वेति शाने शवि मागमे च यजमानः । 'पराणि०' ।३।३।२०। इत्यानश आत्मनेपदसंज्ञा, Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८ ) पूडो ङित्त्वात् 'इङितः०' ।३।३।२२। इत्यामनेपदम्, यजेरीदित्त्वात् फलवति कर्तरि 'ईगितः' ।३।३।१५। इत्यात्मनेपदमित्याभ्यामप्यात्मनेपदस्य प्राप्त्या पूर्वसूत्रणेबानशः सिद्धया रूपे विशेषाभावेन सूत्रस्य वैयर्थ्यमिति । न । आनशा योगे. 'तृप्तार्थ०' ।३।११८५। इति सूत्रेण षष्ठीसमासनिषेध उक्तः, न च यजेरफलवति कर्तर्यानश्प्रत्ययोऽस्तीति वचनम्, एव मुत्तरत्रापि । शकार: शिकार्यार्थः ॥२३ वयः शक्तिशोले ।५२।२४। एषु गम्येषु सदर्थाद्धातोः शानः स्यात् । स्त्रियं गच्छमानाः । समइनामाः । परान्निन्दमानाः ॥२४॥ वय शक्ति०–'वयः-प्राणिनां कालकृता बाल्याद्यवस्था । स्त्रियं गच्छमाना इति-स्त्रीगमनं तद्योग्यमवस्थाविशेषं द्योतयति, 'गम्लगती इति 'गम्' धातुः परस्मैपदी, अतः शाने शवि 'गमि०' ।४।२।१०६। इत्यन्तस्य छादेशे मागमे च गच्छमानाः । समश्नाना इति-शक्तिः सामयम्, समीहितकार्यसम्पादतयोग्यतेति यावत् । सम्यग्भोजनकर्तृत्वं सामर्थ्यद्योतकमेव, नासमर्थो भोक्त मपि प्रभवति, कुतः सम्यग्भोजनम्, अशश् भोजने' अतः शाने श्नाविकरणे समा योगे-समश्नानाः । परान् निन्दमाना इति-शीलं स्वभावः, परनिन्दा न सर्वसाधारणी प्रकृतिः, किन्तु कस्यचिदेव स्वभावः । । विभावः । 'णिदु कुत्सायाम्' इति निन्द्' धातो: शाने शवि मागमे च-निन्दमानाः । अत्रानभिधानान्न वाऽसरूपः शत: ।।२४।। धारीडोऽकृच्छतृश् ।५।२।२५॥ सुख साध्ये सत्यर्थे वर्तमानाद् धारेरिङश्च परोऽतृश् स्यात् । धारयन्नाचाराङ्गम् । अधीयन् द्रु पुष्पीयम् ॥२५॥ धारीडो०--'चुरादेराकृतिगणत्वेन 'ग्ण धारणे' इत्यत्तो णिचि वृद्धौ 'धारि' इत्यतोऽनेनातृशि शवि गुणे पूर्वाकारलोपे-धारयत्, ततः सौ नागमे Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४९ ) संयोगान्तलक्षणे तलोपे व्यञ्जनान्तलक्षणे सिलोपे च धारयन् आचाराङ्गम् । अधिपूर्वात् 'इक् अध्ययने' इत्यतोऽतृशि इयादेशोः समानदीर्घे च 'अक्षीयन्' इत्यतः सौ — अधीयन् द्र मपुष्पीयमिति -- दशवेकालिकसूत्रस्य प्रथममध्ययनमित्यर्थः । इङ आनशि प्राप्ते धारेः शत्रानशौ: प्राप्ती वचनम् । वासरूपोऽपि नेष्यते एव || २५ || सुद्विषार्हः सत्रिशत्रु स्तुत्ये | ५ | २|२६| सदर्थेभ्य एभ्यो यथासङ्ख्यं सत्रिणि शत्रौ स्तुत्ये च कर्त्तर्य तृश् स्यात् । सर्वे सुन्वन्तः । चौरं द्विषन् । पूजामर्हन् । एष्विति किम् । सुरां सुनोति ॥ २६ ॥ 0 सुग्- द्विषा - ऽर्हः ० - सत्री - यजमानः । सर्वे सुन्वन्त इति यागे यजमाना एव ऋत्विग्भिः कर्तव्यं सोमाभिषवणं कुर्वन्तीति यजमाना इत्यर्थोऽनेन वाक्येन लभ्यते, 'षु', 'अभिषवे' क्लेदनं सन्धाख्यं पीsनमन्थने वाऽभिषवः, अतो शिश्नुविकरणे वादेशे सुन्वन्तः । 'द्विषीर् अप्रीती' अतोऽतृशि - चौरं द्विषन् -- 'द्विषो वाऽतृशः । २२८४ | इति विकल्पेन कर्मणि षष्ठीति द्वितीया भवति, शत्रुरित्यर्थः । 'अर्ह पूजायाम् ' अतोऽतृशि शवि पूर्वाकारलोपे सौ-पूजाम् — अर्हन्- स्तुत्य इत्यर्थः । सुरां सुनोतीति-अर्थनिर्देशस्याभावे सामान्यसूत्रेणापि 'शत्त०' अन स्यादिति सूत्रस्यानर्थक्येन एष्वेवार्थेषु 'एभ्यो धातुभ्य इति नियामकं सूत्रमिदमावश्यकमिति भावः ॥२६॥ तनुशीलधर्मसाधुषु |५|२|२७| शीलादिषु सदर्थाद्धातोस्तृन् स्यात् । कर्त्ता कटम् । वधूमूढां मुण्डयितारः श्राविष्टायनाः । गन्ता खेलः ॥ २७ ॥ = तृन् शील० = | शीलादिष्विति - शीलादिरर्थो धात्वर्थस्य विशेषणम्, तथाहि धात्वर्थः शीलं यत्र विवक्ष्यते, एवं धात्वर्थो धर्मत्वेन यत्र बिचक्ष्यते, Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५० ) धात्वर्थसम्पादने साधुत्वं यत्र विवक्ष्यत इत्येवं क्रमेणार्थः कार्यः । कृधातोरनेन तनि गुणे सौ=कर्ता कटमिति='तन्नदन्ता०' ।।२।१०। इति षष्ठीनिषेधाद द्वितीया, करणमस्य शीलमित्यर्थः। मुण्डां कुर्वन्तीति णिचि अन्त्यस्वरादिलोपेऽनेन तृनि इटि गुणेऽयादेशे जसि-वधूमढां मुण्डयितारः श्राविष्ठायना इति='श्राविष्ठायन' इति गोत्रविशेषस्य नाम, तद्गोत्रीया जना वधूमूढां मुण्डन्तीति तेषां धर्मः धर्मः कुलाद्याचारः। गन्ता खेल इति खेटं लीलया गच्छतीति खेलः, खेटे यो . . लीलया गच्छति स साधु गच्छतीत्यर्थः ॥२७।। भाज्यऽलङ्कग्निराकृग्भूसहिरुचिवृति वृधिचरिप्रजनापअप इष्णुः ।।२।२८॥ एभ्यः शोलादिसदर्थेभ्य इष्णुः स्यात् । भ्राजिष्णु: । अलङ्करिष्णुः। निराकरिष्णुः । भविष्णुः। सहिष्णुः। रोचिष्णुः । वत्तिष्णू । वद्धिष्णुः । चरिष्णुः । प्रजनिष्णुः । अपत्रपिष्णुः । ॥२८॥ भाज्यलङ्कग्०-। भ्राजनशीलो भ्राजनधर्मा साधु भ्राजते वेति 'भ्राजि दीप्तौ' इति ‘भ्राज्' धातोरिष्णौ-भ्राजिष्णुः ॥२८॥ . उदः पचिपतिपदिमदेः ।।२।२६। उत्पूर्वेभ्य एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्य इष्णुः स्यात् । उत्पचिष्णुः । उत्पतिष्णुः । ऊत्पदिष्णुः । उन्मदिष्णुः ॥२६॥ उदः पचि-। पतेर्नेच्छन्त्यन्ये। भूजेः ष्णुक् ।।२।३०। . Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( ३५१ ) . आभ्यां शोलादिसदर्थाभ्यां ष्णुक् स्यात् । भूष्णुः । जिष्णुः॥३०॥ भूजे०:-। ककारः कित्कार्यार्थः । 'भू सत्तायाम्' भूष्णुः। 'जि जये'जिष्णुः ॥३०॥ स्थाग्लाम्लापचिपरिमृजिक्षेः स्नुः ।।२।३१॥ एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यः स्नुः स्यात् । स्थास्नुः। ग्लास्नुः । म्लास्नुः । पक्ष्णुः । परिमाणुः । क्षेष्णुः ॥३१॥ स्था-ग्ला० । 'ष्टां गतिनिवृत्तौ स्थास्नुः । ग्लै हर्षक्षये' इह हर्षक्षयो धात्वपचयः-ग्लास्नु:, 'ग्लैं गात्रविनामे' विनामः कान्तिक्षयः-म्लास्नुः । 'डुपची पाके' पचतीत्येवंशील इति स्नो 'चजः कगम्' ।२।१।८६॥ इति चस्य के 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।५॥ इति सस्य षे 'रषवर्णा०' ।२।३।६३॥! इति नस्य णे पक्ष्णुः । 'मृजोक् शुद्धौ' परिमाष्टीत्येवंशीलः इति स्नी 'लघोरूपान्त्यस्य' ।४।३।४। इत्युपान्त्यगुणे 'मृजोऽस्य' ।४।३।४२॥ इति वृद्धी 'यजसज०।२।१।८७। इति जस्स षत्वे 'षढोः ।२।११६२।। इति षस्य कत्वे 'नाम्यन्त स्था०' ।२।३।१५॥ इति प्रत्ययसकारस्य षत्वे नस्य णत्वे च--परिमाणु: । 'क्षि क्षये' 'क्षित् निवासगत्योः'-क्षेष्णु:-अत्र नाम्यन्तलक्षणो गुणः, नामिनः परतया सस्य षः, 'क्षिषश् हिंसायाम्' इत्यस्य न सानुबन्धत्वात् ॥३१॥ प्रसिगृधिधृषिक्षिपः क्नुः ॥५॥२॥३२॥ एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यः क्नुः स्यात् । त्रस्नुः। गृध्नुः । धृष्णुः । क्षिप्नुः ॥३२॥ वसि०-। 'त्रसैच् भये'-त्रस्नुः । 'गृधच अभिकाङ्क्षायाम्'-गृध्नुः । 'त्रिधृषाट् प्रागल्भ्ये'-धृष्णुः क्षिपंच प्रेरणे' 'क्षिपीत् प्रेरणे'-क्षिप्नुः । अत्र प्रत्ययस्य कित्त्वात् सर्वत्र गुणाभावः ॥३२॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२ ) सम्भिक्षाशंसेरुः ।५।२॥३३॥ शीलादिसदल्सिन्नन्ताद् भिक्षाशंसिभ्यां च उः स्यात् । लिप्सुः । भिक्षुः । आशंसुः ॥३३॥ सन्भिक्षा०-। सूत्र ‘सन्' शब्द उपात्तः, स च द्विविधः-'तुमर्हा०'. ।३।४।२१ इति विहितः सन् प्रत्य रूपः, षन संभक्तौ इति ‘षणूयी दाने' इति धातुगणपठितः सन् धातुरूपः, तत्र कस्येह ग्रहणमिति विचारणायां भिक्षिसाहचर्याद्धातोरेव ग्रहणमित्याशङ्कामपनेतुमाह-सन्नन्तादितिः-प्रत्ययं विना 'सन्नन्तादित्यर्थो न ज्ञायते इति प्रत्ययग्रहणमिति ज्ञायते । प्रत्ययग्रहणे 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ।७।४।११५। 'विशेषणमन्तः' ।७।४।११३। इति सन्नन्तादित्यर्थों लभ्यते । 'तुमर्हाः' ।३।४।२१। इति सन्नन्तादनेनोप्रत्यये अतः' ।४।३।१२। इत्यकारलोपे लिप्सुः । आङ् शंस्' इति 'आ शस्ङ इच्छायाम' इत्यस्य ग्रहणम्, न तु “शंस् स्तुतौ च' इत्यस्य, तत्राङ्योगस्यानियतत्वात ॥३३॥ विन्दु-इच्छू ।।२।३४॥ शीलादिसदाभ्यां वेत्तीच्छतिभ्यामुर्यथासङ्ख्यं नुपान्त्यच्छान्तादेशौ च निपात्येते । विन्दुः । इच्छु ॥३४॥ विन्द्विच्छू०- वेदनशीलो-विन्दुः । एषणशील इच्छुः ॥३४॥ श वन्देरारुः ।।२।३५॥ आम्यां शीलादिसदाभ्यां आरुः । स्यात् । विशरारुः । वन्दारुः ॥३५॥ श वन्दे०-। विशीयंत इत्येवंशील इति-विशरारुः, 'श श् हिसायाम्' इति धातुः अयमपि कर्तयेव प्रत्ययः, 'विशीर्यते' इत्यत्र कर्मणः कर्तृत्वविवक्षायां 'एकालो०' ।४।३।८६ इति क्य आत्मनेपदञ्च ‘वदुङ्स्तुत्यभिवादनयोः' Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५३ ) स्तुतिगुणैः प्रशंसा,अभिवादनं पादयोः प्रणिपातः वन्दनशीलो-वन्दारुः॥३५॥ दाधेसिशदसदो रुः ।।२।३६। शोलादिसदर्थेभ्यो दारूपधेसिशदसद्भयो रुः स्यात् । दारू । धारूः । सेरुः । शद् । सद्रुः ॥३६॥ दाधे०-: डुदांग दाने देङ पालने दाम् दाने दोच छेदने दांव क लबने' 'दैव शोधने इति सर्वेषां दारूपत्वस्यौपदेशिकत्वप्रयोगिकत्वयोरन्यतरस्य सत्त्वाद् भवतीह दाग्रहणेन, ग्रहणम्, ददाति, दयते, यच्छति द्यति, दाति, दायति इत्येवंशीलो-दारू:, धेग्रहणदारूपमिह गृह्यते न संज्ञा ।धेपाने' धयतीत्येवंशीलो-धारुः । 'पिंगट वन्धने' पिंगश बन्धने सिनोतीत्येवं शीलः,सेरुः । 'शद्शातने' 'शदेः शिति' ।३।३।४१। इत्यात्मनेपदे श्रीति०' . ।४।२।१०८॥ इति शीयादेशे 'शीयते' इति भवति, शीयते इत्येवंशील इतिशद्र : । 'षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु' विशरणं शटनम्, अवसादोऽनुत्साहः, 'षद्लु अवसादने' सीदतीत्येवंशीलः-सद्रः ॥३६॥ शोश्रद्धानिद्रातन्द्रादयिपतिगृहिस्पृहेरालुः ॥५॥२॥३७॥ एभ्यः शीलादिस दर्थेभ्य आलुः स्यात् । शयालुः । श्रद्धालुः । निद्रालुः । दयालु। तन्द्रालुः । पतयालुः । गृहयालुः। स्पृहयालुः ॥३७॥ शीङ ०- ‘शीङ् स्वप्ने' शेते इत्येवंशील इत्याली-शयालुः। 'डुधांग्क् धारणे च' इत्यतः श्रत्पूर्वाद् श्रद्धत्ते इत्येवंशील इत्यालो श्रद्धालुः । निद्राति, निद्रायति इत्येवंशीलः निद्रालुः । तन्द्र तिः सौत्रो धातुः, तत आलौ-तन्द्रालुः । दयते इत्येवंशीलो--दयालुः । पति-गृहिस्पृहयोऽदत्ताश्चौरादिकाः, पतिगृही सौत्राविकारान्तौ वा, पतयतीत्येवंशीलः-पतयालु: गृह्यत इत्येवंशीलोगृह्यालुः, स्पृहयतीत्येवंशीलः-स्पृहयालुः ॥३७॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५४ ). डौ सासहिवावहिचाचलिपापतिः ।५।२।३८। शीलादिसदर्थानां सहिवहिचलिपतां यडन्तानां डौ सति यथा-सङ् ख्यमेत निपान्त्यन्ते। सासहिः । वावहिः। चाचलि। पापतिः॥३८॥ .. डौ सासहि०-। सासह्ययत इत्येवंशीलः-सासहिः । वावह्यते-वावहिः । चाचल्यते-चाचलिः । पनीपत्यते-पापतिः । अत एव वचनात् ङि:,निपातनान् न्यागमाभावः, ङाविति ङ-कारः तृन्नुदन्ता०' ।२।२।८० इत्यत्र विशेषणार्थः ॥३॥ सनिचक्रिदधिजज्ञिनेमिः ।५।२।३६: एते शीलादौ सदाव्युक्तमन्तो ड्यन्ता निपात्यन्ते । सस्त्रिः । चक्रिः । दधिः। जज्ञिः । नेमिः ॥३६॥ सस्त्रि- सस्रीत्येवंशीलः-सनि:, करोतीत्येवंशीलः-चक्रिः, दधातिदधिः, जायते जानाति वा-जज्ञिः, नमति-नेमिः, द्विवर्चनाभाव एत्वं च . निपातनात् ॥३६॥ शृ.कमगमहनवृषभूस्थ उकण् ।५।२।४०॥ शीलादिसर्थेभ्य एभ्य उकण् । शारुकः । कामुकः। आगामुकः । घातुकः । वार्षुक । भावुकः । स्थायुकः ॥४०॥ श कम०-। शृणातीत्येवंशीलः-शारुक: "नामिनो०" ।४।३।५१॥ इति वृद्धिः ॥४०॥ लषपतपदः ।।२।४१॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५५ ) शीलादिसदर्थेभ्य एभ्य उकण् स्यात् । अभिलाषुकः । प्रपातुकः। उपपादुकः ॥४१॥ लष०-। अभिलषतीत्येवंशील:-अभिलाषुकः । योगविभाग उत्तरार्थः ॥४१॥ भूषाक्रोधार्थजुसृगृधिज्वलशुचश्चानः ॥५॥२॥४२॥ भूषार्थेभ्यः क्रोधार्थेभ्यो ज्वादेर्लषादेश्च शीलादिसदर्थेभ्योऽनः स्यात् । भूषणः । कोधनः। कोपन। जवनः। सरणः । गर्द्धन । ज्वलनः। शोचनः । अभिलषणः। पतनः । अर्थस्य पदनः ॥४२॥ ... ... भूषा०- भूषयतीत्येवंशीलो भूषणः । जवति सौत्रो वेगाख्ये संस्कारे वर्तते, तेन चल्यर्थद्वारेण न सिध्यतीतीहोपादानम् । पदेरिदित्त्वादुत्तरेणैव सिद्ध सकर्मकार्थ व वनम्, “इङितो०' ।५।२।४४। इति सूत्रे 'चलशब्दार्थाद' ।५।२।४३॥ इति सूत्रे स्थितस्य 'अकर्मकाद्' इत्यस्यानुवर्तनात् 'इङितो.' ।५।२।४४। इत्यस्याकर्मकादेव प्राप्तेः, पदधातुः स्वभावतः सकर्मक एव, अविवक्षितकर्मतयैव क्वचिदकर्मकत्वमिति, एवत्सर्वं मनसि निधायाहअर्थस्य पदन इति, अर्थज्ञानशील इत्यर्थः ॥४२॥ चलशब्दार्थादकर्मकात् ।।२।४३। चलार्थाच्छब्दार्थाच्च धातोः शीलादिसदर्थादकर्मकादनः स्यात् । चलनः । रवणः । अव र्मकादिति किम् । पठिता विद्या ॥४३॥ चल०-। चलतीत्येवंशील:-चलनः ॥४३।। इडितो व्यञ्जनाद्यन्तात् ।।२।४४। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६ ) व्यञ्जनमादिरन्तश्च यस्य तस्मादिदितो ङितश्च धातोः शीलादिसदर्थादनः स्यात् । स्पर्द्धनः । वर्त्तनः । व्यञ्जनाद्यन्तादिति किम् । एधिता। शयिता । अकर्मकादित्येव । वसिता वस्त्रम् ॥४४॥ इङितो० - । "एधि वृद्धौ” एधत इत्येबंशील इति तृनि एधिता । "वासिक आच्छादने " वस्त इत्येवंशील इति तृनि वसिता वस्त्रम् ॥४४॥ . न णिङ्यसूददीपदीक्ष: ।५।२।४५ । णिङन्तात् यन्तात् सूदादिभ्यश्च शीलादिसदर्थेभ्योऽनो न स्यात् भावयिता । क्ष्मायिता । सूदिता । दीपिता' । दीक्षिता ॥४५॥ न णिङि० "भुङ प्राप्तौ णिङ" | ३ | ४ | १६ | इति वचनाद् धातोः प्राप्यर्थ त्वं ङित्वं, णिङ् च, भावयत इत्येबंशील इति 'तृन् शील०' | ५|२|२७| इति " तृनि भावयिता । 'क्ष्मायैङ् विधूनने' क्ष्मायते इत्येवंशील इति क्ष्मायिता ।। ४५ ।। मक्रमो यङ् |५|२|४६ ॥ शीलादिसदर्थाभ्यां यङन्ताभ्यामाम्यामनः स्यात् दन्द्रमणः । चङ्क्रमणः ।।४६।। द्रम० = | कुटिलं द्रमति क्रामतीत्येवंशीलः = दन्द्रमणः, चङ्क्रमणः । सककार्थं वचनम्, य इति प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थं च । 'अतः ' | ४ | ३ |२| इति हि लुक् प्रत्यये विषयभूतेऽपि भवति ॥ ४६ ॥ यजिजपिदं शिवदादूक: ।५।२।४७ ॥ एम्यो यङन्तेभ्यः शीलादिसदर्थेम्य ऊकः स्यात् । यायजूकः । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५७ ) maina . जञ्जपूकः । दन्दशूकः । वावदूकः ॥४७॥ यजि० =| भृशं पुनः पुनर्वा यजतीत्यवंशीलो--यायजूकः ।।४७।। जागुः ।।२।४८। शीलादिसदज्जिागुरूकः स्यात् । जागरूकः ॥४८॥ जागुः--। यड: इति निवृत्तम् । जागर्तीत्यवंशीलो-जागरूकः ॥४८॥ शमष्टकात् घिनण् ।।२।४६। शीलादिसदर्थेभ्यः शमादिभ्योऽष्टभ्यो घिनण् स्यात् । शमी। दमी । तमी । श्रमी । भ्रमो । क्षमी । प्रमादी । क्लमी ॥४६॥ शमष्टकाद्०-। शांम्यतीत्येवंशील:-शमी । घन्तान्मत्वर्थीयेन सिद्ध्यति तृत्बाधनार्थं तु वचनम् । णकारो वृद्धयर्थः। घकारः उत्तरत्र कत्वगत्वार्थः ॥४६॥ युजभुजभजत्यजरञ्जद्विषदुषद् हदुहाभ्याहनः ॥५॥२॥५०॥ शीलादिसंदर्थेश्य एभ्यो घिनण् स्यात् । योगी । भोगी । भागी। त्यागी । रागी । द्वषो । दोषी। द्रोही। दोही। अभ्याघाती । ___अकर्मकादित्येव । गां दोग्घा ॥५०॥ गुज-मुज०-। युज्यते युनक्ति वा इत्येवंशीलो योगी। भुङ्क्त भुनक्ति भुजतीति वा भोगी। रागीति–'अघिनों' ।४।२।६०। इति नलोपः । गां दोग्घेति-अत्र तृनि 'भ्वादे०' ।२।१८३॥ इति, 'अधश्चतुर्था०' ।२।१।७६) इति, 'ततीय० ॥१॥३॥३९॥ इति च-दोग्धा ॥५०॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८ ) आङः क्रीडमुषः ।५।२॥५१॥ शीलादिसदर्थाभ्यामाभ्यां आपूर्वाभ्यां घिनण् स्यात् । आनीडी। आमोषी ॥५१॥ .. आङः०-। आक्रीडते इत्येवंशील:-आक्रीडी । शीलादिप्रत्ययान्ताः प्रायेण रूढिप्रकारा यथादर्शन मुक्तोपसर्गे-प्रयुज्यन्त इति उपसर्गान्तरे उपसर्गाधिक्ये वा शीलादिप्रत्यया न भवन्ति । एवमुत्तरत्रापि ॥५१॥ प्राच्च यमयसः ।।२।५२। शीलादिसदाभ्यामाङः प्राच्च पराभ्यामाभ्यां घिनण् स्यात् । प्रयामी। आयामी । प्रयासी ।आयासी ॥५२॥ प्राच्च०-। प्रयच्छतीत्येवंशील:-प्रयामी ॥५२॥ मथलपः ।।२।५३। प्रात्पराभ्यामाभ्यां शीलादिसदाभ्यां घिनण् स्यात् । प्रमाथी। प्रलापी॥५३॥ मथलप:-। प्रमथतीत्येवंशीलः-प्रमावी ॥५३॥ वेश्च द्रोः ।।२।५४॥ वेः प्राच्च परात् द्रो शीलादिसदर्थाद् घिनण् स्यात् । विद्रावी । प्रदावी ॥५४॥ वेश्च द्रोः- विद्रवतीत्यवंशील.-विद्रावी ॥५४॥ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६ ) विपरिप्रात्सः | ५|२।५५॥ एभ्यः पराच्छीलादिसदर्थात्सदर्थात्सत्त घिनण् स्यात् । विसारी । परिसारी | प्रसारी ॥५५॥ विपरीति यद्यपि ' वेश्च द्रो:' ।५।२।५४ इति सूत्रात् चकारेण विमनुकृष्य विशब्दात्सते- घिनं सिध्यति, तथापि विपरिप्रात्सर्ते:, इति सूत्रं कृत्वा घिनण करणेऽपि एकस्या अपि मात्राया गौरवो न जायत इत्येतादृशं सूनकरणमपि युक्त प्रतिभाति । अथवा चकारानुकर्षणेन घिनण्करणे गौरवो भवेत् तथाहि चकारं कृत्वानुकर्षणे प्रथमं चकारार्थानुसंधानं कार्यम्, पश्चात्पूर्वसूत्रस्यानुसंधानं कार्यम् तथा विशब्दार्थस्यानुसंन्धानं कार्यम्, तदेतत्सूतार्थलाभो संजायेतेति विग्रहणम् । अत्र सूत्रे विग्रहणे तु केवलविशब्दार्थस्यानुसंधानेन' वार्थलाभो भवति विसरतीत्येवंशीलो -विसारी ।। ५५।। समः पृचैपज्वरे: ।५।२।५६ ॥ शीलादिसदर्थाभ्यां समः पराभ्यां पृणक्तिज्वरिभ्यां घिनण् स्यात् । संपर्क । संज्वरी ॥ ५६ ॥ सम: ० - । 'पृचैप संपर्दो' संपृणक्तीत्येवंशीलः - संपर्की । पिन्निर्देशाद् 'पृचैप् सन्पचने' इति पृचेरादादिकस्य न ग्रहणम् । संज्बरतीत्येवंशील:संज्वरी ॥ ५६ ॥ संवेः सृजः ।५।२।५७| शीलादिसदर्थात्संवियां परात्सृजेधिनण् स्यात् । संसर्गी । विसर्गी ॥ ५७ ॥ संवेः० - । संसृजतीत्येबंशीलः संसृज्यते वा संसर्गी, 'क्त' ऽनिट: ० ' |४|१|१११ इति जस्य गः ॥ ५७ ॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६० ) संपरिव्यनुप्राद्वदः ।।२।५८। शीलादिसदर्थादेभ्यः परादेधिनण् स्यात् । संवादी । परिवादी। विवादी । अनुवादी। प्रवादी ॥५८॥ संपरि०-। नच 'संवेः सृजः' ।५।२।५७) इति सूत्रात् संवि चकारेणानुकृष्यास्य सूत्रस्यार्थो संजायते, तस्मात् संविग्रहणमनर्थकमिति वाच्यम्,.. 'विपरिप्रात्' ।।२।५४॥ इति सूत्रेऽस्याः शङ्काया निराकृतत्वात्, नन्वत्र सूत्रे संविग्रहणमकृत्वा चकारकरणे लाघवं भवेदिति न पूर्वसूत्रेणोत्तरितत्वमिति चेत्सत्यम्-पूर्वसूत्रानुसन्धानं विनाऽपीदृशार्थावगत्यर्थमत्र सूत्रे संविग्रहणम्, एतेनानुसंधानलक्षणगौरवापत्तिरपि न, यतः क्वचिदर्थावगतयेऽपि क्लिष्टतास्वरूपो गौरवो न भवेदिति मात्रागौरवं करोत्या चार्यः, यथा 'स्योजस०' ।११।१८। इति सुपामिति बहुवचनम् । . अत्राप्यर्थावगतये गौरवो न भवेदिति. बहुवचनं कृतमस्ति तथाहि 'तदादेशाः तद्वतवन्ति' इति न्यायेन साध्यसिद्धि' भविष्यति, किं बहुवचनेन ? सत्यम्-न्यायं विनाऽपीत्थं साधितम् । इयं महती शक्तिर्यत्परिभाषां न्यायान् चविनाऽपि साध्यत इति । साध्यसिद्धिः स्याद्यादेशानामपि प्रथमादिसंज्ञाप्रतिपत्तिः । अन्यदपि प्रयोजनं. दृश्येत, तदातदप्यादरणीयमेवेति विद्वद्भिग्यम् । संवदतीत्यवंशीलः-संवादी ॥५॥ विचकत्यस्त्रम्भकषकसलसहनः ।।२।५६।। शोलाविसदर्थेभ्यो विपूर्वेभ्य एभ्यो घिनण् स्यात् । विवेकी । विकत्थी । विनम्भो, विकाषी । विकासी।विलासी। विघाती॥ विच०-। विविनक्तीत्येवंशीलः 'क्त'ऽनिट:०।४।१।१११। इति चस्य के विवेकी । विघातीति-'ञ्णिति घात्' ।४।३।१००। इति घातादेशः ॥५६॥ व्यपाभेर्लषः ।।२।६०॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६१ ) एभ्यः पराल्लषेः शीलादिसदर्थाद् घिनण् स्यात् । विलासी । अपलाषी, अभिलाषी ॥ ६० ॥ व्यपा० - । विलषतीत्येवंशीलः - विलाषी ॥ ६०॥ सम्प्राद्वसात् ।५।२।६१| अभ्यां पराद्वसतेः शीलादिसदर्थाद् घिनण् स्यात् । संवासी । प्रवासी ॥ ६१ ॥ संवसतीत्यवंशीलः -संवासी । शव्निर्देशावस्तेर्न भवति ॥ ६१ ॥ समत्यपाभिव्यभेश्चरः । ५।२।६२। एभ्यः पराच्चरेः शीलादिसदर्थाद् घिनण् स्यात् । सञ्चारी । अतिचारी । अपचारी । अभिचारी । व्यभिचारी ॥ ६२ ॥ संचरतीत्येबंशील :- सञ्चारी ॥ ६२ ॥ समनुव्यवाद्रधः | ५।२।६३॥ एभ्यः पराच्छीलादिसदर्थाद्र्धो घिनण् स्यात् । संरोधी । अनुरोधी। विरोधी । अवरोधी ॥ ६३ ॥ 1 समनु० - । संरुन्धे इत्यवंशील : - संरोधी ॥ ६३ ॥ वेहः | ५|२| ६४ | विपूर्बाच्छीलादिसदर्थाद्दघनण् स्यात् । विदाही ॥ ६४ ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदः -विदहतीत्येवंशील:-विदाही ॥४॥ परेर्देविमुहश्च ।।२।६५॥ परिपूर्वाभ्यां शीलादिसदाभ्यामाभ्यां दहेश्च घिनण् स्यात् । परिदेवी । परिमोही। परिदाही ॥६५॥. . परेदेवि०- । देवीति देवधातोरण्यन्तस्यण्यन्तस्य च ग्रहणम् दीव्यतेर्यन्त- . स्य तु न, तस्य देवीति रूपस्य लक्षणिकत्वात् । परिदेवते परिदेवयति वापरिदेवी ॥६॥ क्षिपरटः ।।२।६६। परिपूर्वाभ्यामाभ्यां शीलादिसदाभ्यां घिनण् स्यात् । परिक्षेपी । परिराटी ॥६६॥ क्षिप०-। परिक्षिप्यति परिक्षिपति वा परिक्षेपी ॥६६॥ वादेश्च णकः।।२।६७। परिपूर्वाच्छीलादिसर्थाद्वादयतेः, क्षिपरटिभ्यां च णकः स्यात् । परिवादकः । परिक्षेपकः। परिराटकः ॥६७॥ वादेश्च०-। परिवादयतीत्येवंशीलः-परिवादकः । सामान्यकर्तरि विहिता अपि प्रत्ययाः प्रकरणवशेन शीलादिविशिष्टमपि कर्तारमभिधास्यत एव, सर्वविशेषस्य सामान्यान्तर्गतत्वात, तथा च कर्तरि विहितो ‘णकतची' ५।१४८। इति णकप्रत्ययः शीलार्थेऽपि वाऽसरूपविधिना भविष्यत्येवेति सूत्रमिदं व्यर्थमिति । न । 'असरूपत्वात्०' ५।१४८। इति सिद्ध पुनर्विधानं शीलादिप्रत्ययेष्वशीलादिकृत्प्रत्ययोऽसरूपविधिन भवतीति ज्ञापनार्थम्, तेन ‘णकतृचौ' ।५।१४८। इति णके, 'नाम्युपान्त्य० ।५।१॥५४॥ इति के Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६३ ) 'अच' | ५|१|४६ | इत्यचि च शीलाद्यर्थेऽलंकारकः, परिक्षिपः परिरट इत्यादि न भवति ॥६७॥ निन्दहिंसक्लिशखाद विनाशिव्याभाषासूयानेकस्वरात् ५।२।६८ । एभ्यः शीलादिसर्थेभ्यो णकः स्यात् । निन्दकः । हिंसकः । क्लेशकः । खादकः । विनाशकः । व्याभाषकः । असूयकः । चकासकः ।। ६८ । निन्द० - - 1 निन्दतीत्येवंशीलो - निन्दकः । क्लिश्नाति, क्लिश्यते वा -- क्लेशकः । विनाशयति--विनाशक: । असूयक इति असूयः कण्वादी, अनेकस्वरत्वादेव सिद्ध सूयग्रहणं कण्ड्वादिनिवृत्त्यर्थम् तेन--कण्डयिता, मन्त्रयिता अत्रतन्नेव । विनाशिग्रहण मन्यस्यष्यन्तस्य निवृत्त्यर्थम् - कारयिता क्लिशेरविशेषेण ग्रहणाद् दैवादिकादिदित्त्वेऽपि अनो न भवति ॥ ६८ ॥ उपसर्गाद्द वृदेविक शः | ५|२२६दी उपसर्गात्परेभ्यः शीलादिसदर्थेभ्य एभ्यो णकः स्यात् । आदेवकः । परिदेवकः । आक्रोशकः ॥ ६६ ॥ उपसर्गा० = | आदेवत इत्येवंशीलः = आदेवकः । देवीति दीव्यतेर्देवतेर्वा ण्यन्तस्य ग्रहणम् । परिदेवयतीत्येवंशीलः = परिदेवकः ॥ वृद्भिक्षिलुष्टि जल्पिकुट्टाट्टाकः । ५।२।७० । एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यष्टाः स्यात् । वराकी । भिक्षाकः । लुण्टाकः । जल्पाकः । कुट्टाकः ॥७०॥ वृङ ० = | वृणीत इत्येवंशौला - वराकी । टकारो ङयर्थ ॥७०॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्सूजोरिन् ।।२।७१॥ आभ्यां प्रात्पराभ्यां शीलाद्रिसदाभ्यां इन् स्यात् । प्रसवी । प्रजवी ॥७१॥ प्रात् । 'सू' इति निरनुबन्धग्रहणात् सुवतेर्ग्रहणम्, न सूतिसूयत्योः । प्रसुवतीत्यवंशील:=प्रसवी ॥७१॥ जीणदृक्षिविश्रिपरिभूवमाभ्यमाव्यथः ।।२।७२। एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्य इन् स्यात् । जयी । अत्ययो । आदरी।। क्षयो। विश्रयी। परिभवी । वमी । अभ्यमी । अव्यथी ॥७२॥ जयतीत्येवंशीलो=जयी । क्षयीति क्षीति क्षिक्षितोर्ग्रहणम् ॥७२॥ सृघस्यदो मरक् ।।२।७३। एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यो मरक स्यात् । समरः'। घस्मरः । अमरः ॥७३॥ सघस्यदो०=| सरतीत्येवंशीलः समरः ॥७३।। भञ्जिभासिमिदो घुरः ।।२।७४। एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यो घुरः स्यात् । भगुरम् । भासुरम् । मेदुरस ॥७॥ भज्यते स्वयमेवेत्येवंशीलं-भङ्गुरमिति घुरस्य पित्त्वात् , 'क्त निट:०' ।४।१।१११। इति जस्य गत्वम्, नकारस्थानीयत्रकारस्य Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६५ ) 'म्नां०' | ३|१| ३६ | इति ङत्वम् । भासते इत्येवंशीलं = भासुरम् । मेद्यति, ^ मेदते वेत्येवं शीलं = मेदुरम् ||७४|| वेत्तिच्छिदभिदः कित् ।५।२।७५। एयः शीलादिसदर्थेभ्यः कित् घुरः स्यात् । विदुरः । छिदुरः । भिदुरः ॥७५॥ वेति० - । वेत्तीत्येवंशीलो - विदुरः । छिद्यते भिद्यते स्वयमेवेत्येवंशील:छिदुर:, भिदुरः, किरवाङ्गुणो न भवति । वेत्तीति तिनिर्देश इतरविदित्रयव्युदासार्थः ।।७५।। भियो रुरुक़लुकम् ।५।२।७६। शीलादिसद ॥७६॥ 1 मियो- बिभेतीत्येवंशीलो भीरुरित्यादि, कित्त्वात्सर्वत्र गुणाभावः । ननु ऋफिडादो भीरुकशब्दपाठेन लत्वे सिद्ध पृथग्लुकप्रत्ययस्य विधानमुचितमिति । उच्यते— 'ऋफिडादीनां ० ' |२| ३ | १०४ | इति सूत्र े पठिता ऋफिडादयो न स्वभावतः क्वचन परिगणिताः, किन्तु प्रयोगत एवानुसर्तव्या इति के तत्र ग्राह्याः के नेति विचारस्य लक्ष्यानुरोधितया ज्ञानगौर'वाधायकत्वाद् वरं लुक् प्रत्ययस्य पार्थक्येन विधानम् ||७६ || यः त एते स्युः । भीरुः । भीरुकः । भीलुकः सृजीणनशष्ट्वरप् । ५२ । ७७ । एम्यः शीलादिसदर्थभ्यः कित् ट्द्वरप् स्यात् । सृत्वरी । जित्वरी । इत्वरः । नश्वरः ॥७७॥ सजी० - सरतीत्येवंशीला - सत्वरी, 'हस्वस्य ० ' | ४|४|११३॥ इति तागमः, Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) टित्त्वात् 'अत्र े ० ' | २|४|२० । इति ङीः । इत्वर इति गमनशीलार्थे निष्पन्नोऽपीत्वरशब्दः क्रूरकर्मणि, पथिके, नीचे, दुर्विधे च वर्तते । इत्वरशब्दस्य हि व्युत्पत्तिनिमित्तमन्यदन्यच्च प्रवत्तिनिमित्तमस्ति ॥७७॥ गत्वर: ।५।२।७८ । गमेष्ट्वरप्मश्चत् निपात्यते । गत्वरी ||७८ || गत्वरीत्यत्र - " अणत्र ये ० | २|४|२०| इति ङीः ॥ ७८ ॥ स्म्यजसहिंसदीपकम्पकमनमोर : | ५ | २|७६ । एभ्यः शीलादिभ्यो रः स्यात् । स्मेरम् । अजस्रम् । हिलः । दीप्रः । कम्प्रः । कस्रः । नम्रः । ॥ ७६ ॥ स्म्यजस०- - 'स्मयत सत्त्येवंशीलं - रमेरम् । अजसिति 'जसूच् मोक्ष' पूर्वः, न जस्यतीत्येवंशीलम् - अजस्रम्, अजस्रशब्दोऽयं स्वभावात् सातत्यविशिष्टां क्रियामाह, तेन धात्वर्थ एव कर्तरि रः प्रत्ययोऽन्यथा क्रियामिधानानुपपत्ते:, तेनाजत्रो घट इनि न भवति । कामयत इत्येवंशीलः कम्रः ॥७६॥ तृषिधृषिस्वपो नजिङ । ५१२ ८० | एभ्यः शीलादिसदभ्यो नजिङ् स्यात् । तृष्णक् । धृष्णक् । स्वप्नजौ ॥८०॥ तृषि - ' तृष्यतीत्येवंशीलो नजिङि, ङित्त्वाद्गुणाभावे 'चज: ० ' | २|१८६ | इति जस्य गत्वे, विरामे वा' | १|३|५१ इति कत्वे च तृष्णक् । इकार उच्चारणार्थः ।।८०।। स्थेशभासपिसकसो वरः । ५२ । ८१ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६७ ) एभ्यः शीलादिसदर्थेभ्यो वरः स्यात् । स्थावरः । ईश्वरः । भास्वरः । पेश्वरः । विकस्वरः॥१॥ स्थेश-तिष्ठतीत्येवंशीलः-स्थावरः ॥१॥ यायावरः ।।२।१२। यासेर्यङन्ताच्छीलादिसदर्थाद् वरः स्यात् । यायावरः ॥२॥ यायावरः--"कुटिलं यातीत्येवंशीलो-यायावरः ।।२।। दिधु ददृज्जगज्जुहूवाक्प्राधीश्रीद्र स्र ज्वायतस्तूकट परिवाभाजादयः क्विप् ।।२।८३। एते क्विबन्ताः शोलादौ सत्य निपात्यन्ते । दिद्युत् । ददृत् । जगत् । जुहूः । वाक् । तत्वप्राट् । धीः । श्रीः । शतद्रूः । स्त्रः। जूः । आयतरतूः । क्टः । परिबाट । विभ्राट् । भाः ८३॥ विद्युत्---"द्योतत इत्येवंशीलोदि-द्युत्, दणातीति-ददृत्, गच्छतीति-जगत्, जुहोतीति-जुहूः, एषु द्वित्वम, दृणातिजुहोत्योह स्वत्वदीर्घत्वे च । वक्तीति• वाक्, तत्त्वं पृच्छतीति-तत्त्वप्राट्, दधाति ध्यायति वा-धीः, श्रयतीति-श्री:, शतं द्रवतीति-शतः, स्रवतीति-स्र :, जवतीति-जूः, आयतं स्तोतीतिआयतस्तूः, कटं प्रवते-कटप्र :, परिव्रजतीति-परिवाटः एषु ढीर्घत्वम्, दधातेराकारस्य ध्यायतेर्याशब्दस्य चेकारः। विभ्राजत इति-विभ्राट् । भासत इति-भाः । शीलादिष्वसरूपबिधिर्नास्ति, तेन-सामान्यलक्षणः . क्विप् न प्राप्नोतीति पुनर्विधीयते । शीलादिप्रत्ययानां पूर्णोऽवधिः ॥३॥ शंसंस्वयंविप्राद् भुवो डुः ।।२।०४। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८ ) एभ्यः पराडू वः सदर्थात् डुः स्यात् । शम्भुः। सम्भुः । स्वयम्भुः। विभुः । प्रभुः॥४॥ शं सुखं तत्र भवति-शम्भुः ॥४॥ पुव इत्रो दवते ।।२।। सदर्थात्पुवो दैवते कर्तरि इनः स्यात् । पवित्रोऽर्हन् ॥८॥ पुव०-"पुनाति पवते वा-पवित्रोऽर्हन् ॥५॥ ऋषिनाम्नोः करणे ।।२।८६।। ऋषिसंज्ञयोः सदर्थात्पुवः करणे इत्र: स्यात् । पविनोयमृषिः। दर्भः पदित्रः ॥८६॥ पूयतेऽने नेति-पवित्रोऽयमृषिः । दर्भः पवित्र: इति-दर्भस्य पवित्र इति । संज्ञा ॥८६॥ लूधूसूखनिचरसहार्तेः ।।२।८७। एभ्यः सदर्थे म्यः करणे इत्रः स्यात् । लवित्रम् । वित्रम् । सवित्रम् । खनित्रम् । चरित्रम् । सहित्रम् । अरित्रम् ॥७॥ -धू-'लुनात्यनेनेति लविनम् । धुवत्यनेनेति-धवित्रम् । सुवत्यनेन-सवित्रम् : निरनुबन्धग्रहणाद् धूग्सूङोर्न भवति । ऋच्छतीर्यति वाऽनेन अरितम् ।८।। नीदावशसूयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतपानहस्त्रट ।५।२। । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) एभ्यः सदर्थेभ्यः करणे त्रट् स्यात् । नेत्रम् । दात्रम् । शस्त्रम् । योत्रम् । स्तोत्रम् । तोत्रम् । सेत्रम् । सेक्त्रम् । मेढ़म् । पत्त्रम् । पात्री । नध्री ॥८॥ नी-दाव्-"नयत्यनेन नेत्रम् । दात्यनेन-दात्रम् ।।८।। हलक्रोडास्थे पुवः ।।२।। सदर्थात्पुवो हलक्रोडयोमुखे करणे ब्रट् स्यात् । पोत्रम् ॥८६॥ हल-"पुनाति पवते वाऽनेन-पोत्रम्, हलस्य सूकरस्य च मु-खमुच्यते ।.८६॥ दंशेत्रः ।।२।। सदादंशेः करणे त्रः स्यात् । दंष्ट्रा ॥१०॥ "दशत्यनया---दंष्ट्रा । प्रत्ययान्तरकरणमाबर्थम्, अन्यथा टित्त्वाद् ङीः स्यात् ॥१०॥ धात्री ।।२।६१॥ . धर्धांगो वा कर्मणि त्रट् स्यात् । धात्री ॥९१॥ धात्री-'नीदाव' ।५।२।८८। इति सूत्रे धाशब्दपाठेनैव 'धे पाने' 'डुधांग्क् धारणे च' इत्यनयोर्ग्रहणसम्भवे धात्रीत्यस्य सिद्धावपि तस्य करणार्थकत्वात् निपातनमाश्रितमित्याह---कर्मणीति । धयन्ति तामिति---धात्री स्तनदायिनी, अथवा--दधति तां भैषज्यार्थमिति धात्री-आमलकी ॥१॥ ज्ञानेच्छार्थिनीच्छील्यादिभ्यः क्तः ।।२।२। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३७० ) ज्ञानेच्छार्थेिभ्यो ओम्द्यः शील्यादिभ्यश्च सदर्थेभ्यः क्तः स्यात् । राज्ञां ज्ञातः राज्ञामिष्टः । राज्ञां पूजितः । भिन्नः । शोलितः । रक्षितः ॥१२॥ ज्ञानेच्छा---"अत्र सकर्मकेभ्यः, कर्मणि, अकर्मकेभ्यः कर्तरि क्तः प्रयुज्यत इति इति कथं लभ्यमिति चेद् उच्यते---एतद्विषये न किमपि विशेषतो विधेयमपि त्वस्मिन्नध्याये प्रथमपादादौ यथा यस्माद्धातोर्यः प्रत्ययो यत्रार्थे विहितस्तत्र व स्यात्, केवलं भूतार्थविषयत्वमेव न स्वीकर्तव्यमिति वर्तमानकालमात्रस्यैवाज्ञ विशेषतो विधेयत्वम् । 'ज्ञांश् अवबोधने" अतः सकर्मकत्वात् कर्मणि क्त ऽनेन वर्तमानकालतायां---राज्ञां ज्ञातः इति---'क्तयो०' ।२।२।११। इत्यत्र वर्तसानकालवर्जनान्न षष्ठीनिषेधः इति ‘कर्तरि ।२।२।०६। षष्ठयां राज्ञामिति, अनुस्वारेत्त्वादिडभावे च---ज्ञात इति, राजभियिमान इत्यर्थः । 'इषत् इच्छायाम्' राज्ञामिष्ट: इति---'सहलुभे०' ।४।४।४६। इति वेट्त्वात् 'वेटोऽपतः' ।४।४।६२। इति क्त परे इडभावे षकारयोगे तकारस्य टकारे---इष्ट इति, राजभिरिष्यमाण इत्यर्थः । 'पूजण् पूजायाम्' राज्ञां पूजितः इति---राजभिः पूज्यमान इत्यर्थः । सर्वत्र 'ज्ञानेच्छार्चा०' ।३।१।८६। इति समासाभावः ॥१२॥ उणादयः ।।२।६३। सदर्थाद्धातोरुणादयो बहुलं स्युः । कारुः । ईडुः ॥६३॥ . उणादयः"ननु किं नाम बहुलमिति वेद् । उच्यते---क्वचित् प्रवृत्तिः, क्वचिदप्रवृत्तिः, क्वचिद्विभाषा, क्वचिदन्यदेव । विधेविघानं बहुधा समीक्ष्य, बाहुलकं चतुर्विधं वदन्ति ॥१॥ इति । 'डुकृग करणे' करोतीति-कारू:, ।।१३।। * इति पञ्चमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः * Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७१ ) प्र० - जंगल में से साधू जाते हों और कोई मृग जीवन बचाने हेतु भाग रहा हो और साधू ने उसे देखा हो कि कौन-सी दिशा में गया है । उसके पीछे कोई शिकारी आकर पूछे तो साधू झूठा जवाब देवे न ? तो क्या महाव्रत का भंग हुआ ऐसा माना जायगा ? उ०- नहीं, उसमें महाव्रत का भंग नहीं होता । साधु को झूठ नहीं बोलने की प्रतिज्ञा है । जितना सच्चा जाने वह सब बोलना ही वैसा नहीं है। सच्चा भी अहितकर नहीं बोल सकता वैसी आज्ञा है । इसमें— तपोवन में आज्ञा नहीं है । एक मन्दिर है । वहाँ वृक्ष उगा । वह वृक्ष गिरे तो मन्दिर टूटे वैसा लगे तो हम श्रावकों को समझावें । समझाने पर भी यदि श्रावक नहीं माने तो हम स्वयं वृक्ष उखाड़ यह आज्ञा । ऐसे समय यदि अपवाद आज्ञा नहीं पाले तो पाप लगता है । वृक्ष काटा जा सकता है | परन्तु वनस्पति नहीं की जा सकती, प्रेरणा भी नहीं की जा सकती । प्र०—क्या शासन के उत्कर्ष के लिये नहीं ? उ० - जो ऐसा माने उसका वे जाने परन्तु ऐसा बोला भी नहीं जा सकता, पाप लगता है । उ० हमारे से जितना बोला जाय उतना ही बोल सकते हैं, ज्यादा कुछ भी नहीं बोल सकते । आज तुम लोग भिखारियों को भीख नहीं देते, और हमको चाहिये उतनी भिक्षा मिलती है । तो हम तुम्हारे यहाँ से लाकर भिखारियों को देने लगे तो तुम तुम्हारे घर में हमको आने दोगे ? हमारी पूरी विधि अलग है | साधु श्रावक को पहचाने और श्रावक साधु को पहचाने तो काम हो जाय । प्रo - आज पुस्तकादि में भी अमुक की प्रेरणा से छपा वैसा लिखा जाता है। - - साध प्रेरणा नहीं कर सकते । वैसा करते हों तो वह गलत है । उपदेश से हुआ वैसा कहा जाता है । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२ ) हमारे से जितना उपदेश में कहा जाय उतना ही बोला जा सकता है। आदेश में जो कहा जाता है वह हम नहीं बोल सकते। हम आदेश करें और उसे नहीं मानें तो उसका पाप हमको लगता है। प०पू० कलिकाल-कल्पतरु आचार्यदेव श्री विजयरामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा भादरवा सुदी पंचमी को उपाध्याय श्रीधर्मसागर जी म. ने 'मरी - हुई माता जैसी कही है । और चतुर्थी को कल्पलता जैसी कही है। देखो कल्पकिरणावली में आपके अक्षर"मुञ्च मृतमातृसदृशीं पञ्चमी, स्वीकुरु च कल्पलतासमां चतुथीम्" | अर्थ-मरी हुई माता जैसी पंचमी को छोड़ दो और कल्पलता समान चतुर्थी को स्वीकार करो। परन्तु आश्चर्य है कि इतने शास्त्रपाठ होते हुए भी आज कई लोग पञ्चमी की संवत्सरी करने को तैयार हुए है । भादरवा सुदी पंचमी की वृद्धि में भादरवा सुदी · बीज की वृद्धि करनी यांनी भादरवा सुदी पहली पंचमी को हो संवत्सरी होती है। .. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पञ्चमाध्याये तृतीयः पादः वय॑ति गम्यादिः ।।३।१॥ गन्यादयो भविष्यत्यर्थे इन्नाद्यन्ताः साधवः स्युः । गमी ग्रामको आगामी ॥१॥ वय॑ति गभ्यादि:--। गमिष्यतीति-गमी ग्रामम्, इन्नौणादिकः सति प्राप्तो वयति भवति । आगमिप्यतीति-आगामी अत्रौणादिको णिन् । ।।१॥ वा हेतुसिद्धौ क्तः ।।३।२। कर्ण्यवर्थाद्धातोर्धात्वर्थहेतोः सिद्धौ सत्यां तो वा स्यात् । मेघश्चेद् वृष्ट सम्पन्ना सम्पत्स्यन्ते वा शालयः ॥२॥ वा हेतुः--। मेघश्चेद् वृष्ट: सम्पत्नाः सम्पत्स्यन्ते वा शालयः इति-अत्र सम्पूर्वात् 'पदिच गो' इत्यतः प्रत्ययश्चिकीर्षित इति तदर्थभूतायाः शालिनिष्पत्तहेतुर्वणं तस्य सिद्धिर्वृषः क्तप्रत्ययेनो-क्त वेति भवति सम्पूर्वाद पदे: क्तप्रत्ययोऽनेन, अनुस्वारेत्त्वादिडमावे क्तस्य धातुदस्य च 'रदाद' ।४।२।६९॥ इति नादेशे--सम्पन्ना इति । अस्य वैकल्पिकत्वात् पक्षे भविष्यन्त्यपि भवतीत्याह-सम्पत्स्यन्त इति ॥२॥ कषोऽनिटः ॥५॥३॥३॥ कषेः कृच्छगहनयोरनिड्धातोर्वर्त्यदर्थात् क्तः स्यात् । कछन् । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७४ ) कष्टा दिशस्तमसा । अनिट इति किम् । कषिताः शत्रवः ॥३॥ कषोऽनिटः=| कृच्छ् दुःखम्, गहनं दुष्प्रबेशम् । 'कषः कृच्छ्रगहने' ।४।४।६७॥ इति क्तयोः कषोऽनिटत्वमुक्तम् । कषिष्यतीति क्त 'तवर्गस्य.' ।१।३।६०॥ इति तस्य टेकप्टमिति । कषिताः शत्रव इति=निर्मूलिता इत्यर्थः । अन्न कषः कृच्छ्रगहनयोर-भावाद-निटत्वं नास्तीति तो भविष्यति न भवति, अपि तु भते । 'कर्षिष्यतीति कष्टम् । 'इत्यत्र कषिष्यतीति तु अर्थकथनमात्रम् यतः कष्टगहनार्थयोः वर्पति क्त एव भवति, असरूपविधिरपि नेष्टः, पूर्वत्र वाग्रहणात् ॥३॥ भविष्यन्ती ।।३॥४॥ वर्त्यदर्थाद्धातोर्भविष्यन्ती स्यात् । भोक्ष्यते ॥४॥ भविष्यन्ती=। 'भुजंप पालनाभ्यव-हारयोः' अभ्यवहारी भोजनम् । त्राणादन्यत्र 'भुनजोऽत्राणे' ।३।३।३७॥ इत्यात्मनेपदे-भोक्ष्यते इति'लघोरूपान्त्यस्य' ।४।३।४॥ इति गुणः, 'चजः कगम्' ।२।१।८६॥ इति जस्य गः, तस्य अघोषे०' ।१।३।५०॥ इति कः, 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।१५। इति सस्य षः ॥४॥ अनद्यतने श्वस्तनौं १५॥३॥५॥ नास्त्यद्यतनो यत्र तस्मिन् वय॑त्यर्थे वर्तमानाद्धातोः श्वस्तनी स्यात् । कर्ता । अनद्यतन इति किम् । अद्य श्वो वा गमिष्यति ॥५॥ अनद्यतनें श्वस्तनी=| 'डुकृग करणे' अतः श्वस्तनीताप्रत्ययेऽनुस्वारेत्त्वादिडभावे गुणे च=कर्ता ॥५॥ परिदेवने ।५॥३॥६॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७५ ) अनुशोचने गम्ये वय॑दर्थाद्धातोः श्वस्तनी स्यात् । इयं तु कदा गन्ता, यैवं पादौ निधत्ते ॥६॥ परिदेवने । अनुशोचन इति=अनु पश्चात्, शोचनं तद्विषयकदुःखप्रकटनमित्यर्थः । भविष्यत्सामान्यस्य विवक्षाया पूर्वेण श्वस्तन्या अप्राप्ती सूत्रमिदम् । विशेषविधानात् कदाकहिलक्षणा विभाषा बाध्यते ॥६॥ . पुरायावतोर्वर्त्तमाना ।।३।७। अनयोरुपपदयोर्वर्ण्यदर्थाद्धातोर्वर्त्तमाना स्यात् । पुरा भुङ्क्ते । यावद्भुङ्क्ते ॥७। पुरायावतो० । भविष्यदनद्यतेऽपि परत्वाद् वर्तमानैव भवति-पुरा श्वो भुङ्क्त', यावच्छ्वो व्रजति ॥७॥ कदाको र्नवा ।।३।। अनयोरुपपदयोर्वय॑दधातोर्वर्त्तमाना वा स्यात् । कदा भुङ्क्ते । कदा भोक्ष्यते । कदा भोक्ता। कर्हि भुङ्क्ते । कहि भोक्ष्यते । कहि भोक्ता ॥८॥ कदाको । सामान्यतो भविष्यति विहिताया वर्तमानाया अभावे, अनद्यतने भविष्यति श्वस्तनी, सामान्ये भविष्यति भविष्यन्ती भवति । ॥८॥ किंवृत्ते लिप्सायाम् ।।३।। विभक्तिडतरडतमान्तस्य किमो वृत्तं किंवृत्तं तस्मिन्नुपपदे प्रष्टु Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६ ) - - - लिप्सायां गम्यमानायां वर्त्यदर्थाद्धातोर्वतमाना वा स्यात् । को भवतां भिक्षां ददाति । दास्यति । दाता वा। एवं कतरः।। कनमः । किंवृत्त इति किम् । भिक्षा दास्यति । लिप्सायामिति । किम् । कः पुरं यास्यति ॥६॥ किंवृत्ते:०=। लब्धुमिच्छा-लिप्सा तस्यां लिप्सायामिति - डुलभिष प्राप्ती' अत इच्छायां सनि 'रभलभ०४।१।२१।। इति पूर्वस्येत्वे द्वित्वाभावे च 'लिप्स' इत्यतो भावे 'शंसिप्रत्ययात्' ।५।३।१०५॥ इति स्त्रियामप्रत्यये आपि चलिप्सा । भिक्षां दास्यतीति-यद्यप्यन लिप्साद्योतकमपि पदं नास्ति, किमादिप्रयोगे सा स्पष्टं प्रतीयते, तथापि वक्त : स्वरादिवैचित्र्यादेव प्रकरणवशा वा लिप्सा प्रतीयत इति किंवृत्तपदा भावे स्यादेवेह वर्तमानेति भावः । कः पुरं यास्यतीति=अत्र गमनविषयकप्रश्न एव न तु लिप्सेति नास्य प्रवत्तिः ॥६॥ लिप्स्यसिद्धौ ।।३।१०। लब्धुमिष्यमाणाद्भक्तादेः सिद्धौ फलावाप्तौ गम्यायां वयंवर्थाद्धातोर्वर्तमाना वा स्यात् । यो भिक्षां ददाति, दास्यति, दाता वा स स्वर्गलोकं याति, यास्यति याता वा ॥१०॥ लिप्स्य० । अकिंवृत्तार्थोऽयमारम्भः भक्तादेः-ओदनादेरित्यर्थः ॥१०॥ पञ्चम्यर्थहतौ ।।३।११। पञ्चम्यर्थः प्रषादि: तस्य हेतुरुपाध्यायागमनादिः तस्मिन्नणे वय॑ति वर्तमानाद्धातोर्वर्तमाना वा स्यात् । उपाध्यायश्वेदागच्छति, आगमिष्यति, आगन्ता वा अश, त्वं सूत्रमधोपच ॥११॥. पञ्चमीविधाने निमित्तभूतो योऽर्थः स पञ्चम्यर्थः; स च Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ३७७ ) प्रषादिरित्याह- प्रीषादिरिति 'प्र' षाऽनुज्ञाऽवसरे० ' |५|४| २६ | इति प्रषादिषु कृत्याः, पञ्चमी, च विधीयन्ते, न्यत्कारपूर्विकारणा प्रषः, अनुज्ञा कामचारानुमतिः, अतिसर्ग इति यावत् अवसर प्राप्तकालता, निमित भूतकालोपनतिरिति यावत्ः एवं हि विधिनिमन्त्रणाधीष्टसं प्रश्न प्रार्थने' |५|४| ४५ । इति सप्तमी पञ्चमी च विधीयेते । आगच्छतीति--'गम्लृ गतौ' आङ पूर्वादतोऽनेन वर्तमानायां शवि 'गमि० ' | ४|२| १०६ | इति छादेशे ‘स्वरेभ्यः' ।१।३।३० । इति छस्य द्वित्वे पूर्वस्य च 'अघोषे० ' | १ | ३ |५० इति चादेशे च - आगच्छति । आगच्छतीत्यत्र “गमोऽनात्मनेः | ४|४|११| इतीट् श्वस्तनीता प्रत्यये 'एकस्वरां ० ' |४| ४|५६ । इती भावे नां०' ||३|३६| इति मस्य ने = आगन्तेति । 'इक् अध्ययने' नित्यमधिपूर्वोऽयम्, ततः पञ्चमीमध्यम्पुरुषस्य स्वे परे - अधीष्व । अत्र भविष्यदुपाध्यायागमनम - ध्यनादिविषयस्य प्रषस्यातिसंर्गस्य प्राप्तकालतायाश्च हेतुर्भवति ॥ ११, । सप्तमी चोर्ध्व मौहूर्तिके | ५|३|१२| ऊर्ध्वमुहूर्ताद्भत्र ऊर्ध्वमौहूर्तिकः तस्मिन्पञ्चम्यर्थहेतौ वत्स्यत्यर्थे वर्त्तमानाद्धातोः सप्तमी वर्त्तमाना च वा स्यात् । ऊर्ध्वमुहूर्त्तादुपाध्यायश्वेदागच्छेत्, आगच्छति, आगन्ता वा । अथ त्वं तर्कमधीष्व ॥ १२ ॥ : - ऊर्ध्वं मुहूर्त्तादिति ऊर्ध्व मुहूर्त शब्दः, 'नाम नाम्ने० ' |३|१|१८| इति ममासः। ऊर्ध्व मुहूर्त्तशब्दाद्भवार्थे 'अध्यात्मा० | ६ |३|७८ । इतीकणि, अस्मादेव निर्देशादुत्तरपदवृद्धौऊर्ध्वं मौहूर्तिकः ऊर्ध्वमुहूर्त्तादुपाध्यायश्चेदागच्छेदित्यवसामान्य भविष्यति भविष्यन्त्यां गमिष्यतीत्यपि भवति ||१२|| क्रियायां क्रियार्थायां तुम् णकच् भविष्यन्ती |५|३।१३। यस्माद्धातोस्तु नादिविधिस्तद्वाच्या क्रियाऽर्थः प्रयोजनं यस्यास्तस्यां क्रियायामुपपदे वर्त्स्यदर्थाद्धातोस्तुमादयः स्युः । कर्तुम्, Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७८ ) कारकः । करिष्यामीति वा याति । क्रियायामिति किम् । भिक्षि. व्ये इत्यस्य जटा । क्रियार्थायामिति किम् । धानतस्ते पतिष्यति वास ॥१३॥ वेति निवृत्तम् ‘णकत् चौ' ।।१।४८। इति सामान्येन सिद्ध क्रियार्थोपपदभाविन्या भविष्यन्त्या बाधा ना भूदिति णकज्विधानम्, असरूपविधिना णकोऽपि भविष्यतीति चेत् ? एवं तर्हि असरूपविधिना तृजादयो मा भूपन्निति पुनर्णकज्विधानम्. तेनोदनस्य पाचको व्रजति, पक्ता व्रजति, पचो व जति, विक्षिपो बजतीत्यादि न भवति । कर्तुम्, कारकः, करिष्यामीति वा यातीति 'डुकृग् करणे' 'क्त्वातुमम्भादे०।५।१।१३। इति भावेऽनेन तुमि अनुस्वारेत्त्वादिडभावे गुणे च-कर्तु मिति एवमनेन णकचि वृद्धावारादेशे च-कारक इति । अनिर्दिष्टार्थत्वात् कर्तरि'।५।१।३।इति कर्तरि णकच् । अनेन भविष्यन्त्यां-करिष्यामिती-हनृप्तः स्यस्य' ।४।४।४। इतीट् । यथा हि नामार्थद्वयोरभेदातिरिक्तः सम्बन्धो न भवति समानत्वात्, तथा क्रिययोरप्यभेद एव सम्बन्धः स्यात्, स चानुपपन्न उभयोः परस्परं भिन्नार्थकत्वात्। अन्यस्य सम्बन्धस्य शब्दोपस्थितस्याभाबाच्चानन्वयापत्तरिति 'इति' शब्देनोभयोः सम्बन्धः क्रियते, इतिशब्दो निमित्तार्थकः, एवं च यथा कतु यातीत्यत्र भविष्यत्कालिककृत्युद्देश्यकं वर्तनकालिकयानमित्यर्थः, यथा वा कारको यातीत्यत्रापि स एवार्थः, केवलमत्र णकचा कर्तृत्वमपि प्रतीयते यथा भविष्यत्कालिककृति कर्तृ कतादृशकृत्योहेश्यकं च यानभित्यर्थः । तथेहापि भविष्यत्कालिककृत्युददेश्यकं यानमित्येव बोधः, स चेतिशब्दसहकारेणैव, एवमन्यत्र प्यूह्यम् ।भिक्षिष्ये इत्यत्र जटा न धारणक्रियामुखेनोक्ता अपितु द्रव्यत्वेनेति भिक्षिष्ये इत्यत्रभविष्यत्सामान्ये भविष्यन्त्येव, न तु तुम्णकचावपीतिभावः । यदि च भिक्षितुम् इत्यपि क्वचिच्छ यते तहि स धारयतीत्यध्याहत्यैत्र कथञ्चिद् व्याख्येयः । धावतस्ते पतिष्यति वास इति-धावूग् गतिशुद्धयोः' इत्यस्य "सृगतो' 'वेगे सर्तेर्धात्' ।४।२।१०७। इत्यादेशरय वा शतरि षष्ठये कवचने-धावतः' अत्रोपपदभूता धावनक्रिया, किन्तु न सा पतनार्थमुपादीयते, किन्तु अन्यार्थं धावतस्तस्य गात्रचाञ्चल्यादिना वासः पतितः ॥१३॥ कर्मणोऽण् ।५।३।१४॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६ ) क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे कर्मणः पराद्वय॑दर्थाद्धातोरण् स्यात् । कुम्भकारो याति ॥१४॥ कर्मणोऽण् -। 'कर्मणोऽण्' ।५।१।७२। इति सामान्येन विहितोऽण् णकचा पूर्वसूत्रविहितेन बाध्येतासरूपविधिश्च नास्तीति पुनर्विधीयते, सोऽपवादत्वाण्णकचं बाधते, परत्वात् सामान्यस्याणो बाधकान् टकादीनपि, वकगायो ब्रजति, सुरापायो व्रजति, गोदायो ब्रजति । कुम्भकारो यातीतिभविष्यकालिककुम्भकर्तृक कुम्भकरणोद्देश्यकं च यानमित्यर्थः ॥१४॥ भाववचनाः ।।३।१५॥ भावश्चता घक्तयादयः ते क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे वर्त्यदर्थाद्धातोः स्युः । पाकाय, पक्तये, पचनाय, वा याति ॥१५॥ भाववचनाः- क्रियार्थोपपदेन तुमा मा बाधिषतेतिवचनम्, असरूपविध्यभावस्य ज्ञापितत्वात् । पाकाय, पक्तये, पचनाय वा यातीति 'डपचींपाके पचनं पाकः, अत्रानेन यञि 'क्त'ऽनिट०' ।४।१।११। इति चस्य कत्वम्, 'ञ्णिति' ।४।३।५०। इत्युपान्त्यवृद्धिश्च, 'तुमोऽर्थे ' ।२।२।६१। इति चतु -पाकायेति, अत्र घत्रो भाववचनत्वं 'भावाककोंः ' ।५।३।१८। इति भावे विधानात् । एवमनेन क्तौ-पक्तये-अत्र क्त र्भाववचत्वं 'स्त्रियां क्तिः' ।५।३।६१। इति भावे क्तिविधानात् । पचनायेति-अत्रानेनानटप्रत्ययः, अनटो भाववचनत्वं च 'अनट्" ।५।४।२४। इति भावेऽनटो विधानात् । सूत्रे वचनग्रहणाद्य षां याभ्यः प्रकृतिभ्यः परे भाववाचकत्वं दृष्टं ते ताभ्य एव प्रकृतिभ्यः स्युः ।।१५।। पदरुजविशस्पृशो घम् ।।३।१६। एभ्यो घञ् स्यात् । पादः । रोगः । वेशः । स्पर्शः ॥१६॥ . पदरू ज०-। वय॑तीति निवृत्तम् । 'कर्तरि' ।५।१।३। इति कर्तरि घा Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८० ) भवतीत्यर्थः । पद्यते, पत्स्यते, अपादि, पेढे वा–पादः, कालविशेषविवक्षाया अभाबात् कालत्रयेऽपि प्रत्ययो भवति । रोग इति–'क्तऽनिट:०' ।४।१।१११। इति जस्य गत्वम् ॥१६॥ सत्तः स्थिरव्याधिबलमत्स्से ।।३।१७। सत्तरेषु कर्तृषु धञ् स्यात् । सारः स्थिरः । अतीसारो व्याधिः : सारो बलम् । विसारो मत्स्यः ॥१७॥ सरति कालान्तरमिति-सारः स्थिरः ॥१७॥ भावाऽकोंः ॥५॥३॥१८॥ भावे कर्तृवर्जे च कारके धातोर्घ स्यात् । पाकः । प्राकारः। दायो दत्तः ॥१८॥ भावाऽकप्रोः-। पचनं-पाकः । प्रकुर्वन्ति तमिति कर्मणि घत्रिप्राकारः । दीयते इति कर्मणि घत्रि दायोदत्तः, कैश्वित् कर्तृ वजिते कारकेऽभिधेये संज्ञायामेव पत्र क्तः, स्वमते. तु न तथेति ज्ञापनाय द्वितीयमुदाहरणमसंज्ञायामुदाहृतम् । करणाधिकरणयोरनट् तदपवादश्च व्यञ्जनान्तेभ्यो घत्र वक्ष्यते । भावो भवत्यर्थः साध्यरूपः क्रियांसामाऱ्या धात्वर्थः, स धातुनवोच्यते तत्रैव च त्यादयः क्त्वातुममस्तव्यानीयादयश्च भवन्ति । यस्तु भावो धात्वर्थ धर्मः सिद्धता नाम लिङ्ग-संख्यायोगी स द्रव्य वद्धात्वर्थादन्यः, तत्रायं धत्रादिविधिः, तेन तद्योगे लिङ्गवचनभेद: सिद्धो भवति–पाकः-पाको-पाकाः, पचनम् पचने पचनानि, पक्तिः -पक्ती-पक्तय इति । ॥१८॥ इडोऽपादाने तु टिद्वा ॥५॥३॥१६॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८१ ) इङो भावाकोंर्घञ् स्यात् स चापादाने वा टित् । अध्यायः । उपाध्यायी । उपाध्यायः ॥१६॥ इङोऽपादाने०-। अध्ययनम्, अधीयत इति वा-अध्यायः । उपेत्याधीयतेऽस्या इति-उपाध्यायी । टिद्विधानसामर्थ्यात् स्त्रियां क्तिर्बाध्यते । उपेत्याधीयतेऽस्मादिति-उपाध्यायः । सर्वत्र 'नामिनो'० ।४।३।११। इति वृद्धिः, एदेतोः०' ।१।२।२३॥ इत्यादेशः ॥१६॥ श्रोर्वायुवर्णनिवृत्ते ।।३।२०। श्रोर्भावाकोरेष्वर्थेषु धस्यात् । शारो वायुः वर्णो वा। नीशार प्रावरणम् ॥२०॥ श्री०-- शीर्यते ओषधादिभिरिति-शारो वायुः, ‘श श् हिंसायाग्' इति धातुः, कर्मणि घत्र । मालिन्येन शीर्यत इति-शारो वर्णः, अत्रापि कर्मणि पत्र , शारः कर्बुरवणः । निवृत्त निवरणं प्रावरणमित्यर्थः इत्याह नीसार: प्रावरणम्, निशीर्यते शीताद्यपद्रवो येनेति वाक्यम्, करणे घा, 'बब्युपस० ३।२।८६। इति दीर्घत्वम्, नीशारो हिमानिलापहं वस्त्रमित्यर्थः ॥२०॥ निरभेः पूत्वः ।।३।२१॥ निरभिभ्यां यथा ङ्ख्यमाभ्यां भावाकोंर्घस्यात् । निष्पावः । अभिलावः ॥२१॥ निरम:०।- 'पू' इति पूग्पूडोः सामान्येन ग्रहणम् । यथासंख्यमिति'यथासंख्यमनुदेशः समानाम्' इति न्यायेन निरुपसर्गेण पुवः सम्बन्धः, अभिना च लुवः । ननु च 'पूग् पूङ् लू' इति वयो धातवः, उपसमी तु द्वौ, अतः संख्यावैषम्याद् यथासंख्येन न भवितव्यमिति चेत् । नपूरूपमुत्सृष्टानुवन्ध-सामान्यमेकमेव, ततो नास्ति वैषम्यमित्यदोषः । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८२ ) निष्पूयत इति कर्मणि घत्रि वृद्धाववाबेशे 'निर्दु ।' ।२।३।६। इति षत्वे च निष्पावः, अयं कडङ्गरे राजमाषे श्वेतशिम्बिधान्यादौ च वर्तते । ॥२१॥ रोरुपसर्गात् ।।३।२२॥ उपसर्गपूर्वाद्रौतेर्भावाकोंर्घस्यात् । संरावः।।२२॥ रोरुपसर्गात् । संरवणं-संरावः ।।२२।। भूश्यदोऽल् ॥५॥३॥२३॥ एभ्य उपसर्गपूर्वेभ्यो भावाकोरल् स्यात् । प्रभवः । संश्रयः । विघसः । उपसर्गादित्येव । भावः । श्रायः । घासः ॥२३॥ भूश्रयदो०-। 'अदंक भक्षणे' इनि सोपसर्गादतेरलि 'घस्ल.' ।४।४।१७। इति घसादेशे च विघसः । 'भूश्योः 'युवर्ण०' ।।३।२८। इति सिद्धरनेनालो विधानमुपसर्गा-देवेति नियमार्थम् । लकारो 'मिग्मीगो०' ।४।२।८। इत्यत्र विशेषणार्थः ॥२३॥ न्यादो नवा ।।३।२४। निपूर्वाददेरलि घस्लभावो ऽतो दीर्घश्च वा स्यात् । न्यादः। निघसः ॥२४॥ न्यादो०-। विकल्पेन निपातनात् निपातनाभावे पूर्वेण-निघस इति । ।। २४ ॥ संनिव्युपाद्यमः ॥५॥३॥२५॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८३ ) एभ्य उपसर्गेभ्यः पराद्यमेर्भावाकरल् वा स्यात् । संयमः । संयामः । नियमः । नियामः । वियमः वियामः । उपयमः । उपयामः । ।। २५॥ , संनि० 0 - 1 संयमनं = संयमः, एबं सर्वत्र अल्, पक्षे घञ ॥२५॥ नेर्न दगदपठस्वनक्वण: ।५।३।२६। निरुपसर्गात् परेभ्य एभ्यो भावाकरल् वा स्यात् । निनदः । निनादः । तिगदः । निगादः । निपठः । निपाठः । निस्वनः । निस्वानः । निक्वणः । निक्वाणः ॥ २६ ॥ नैर्नद० - णद अव्यक्त शब्दे ||२६|| वणे क्वणः ||३|२७| वीणायां भवो वैणः । तदर्थादुपसर्गपूर्वात्ववणेर्भावाकरल्वा स्यात् । प्रक्वणः प्रक्वाणो वीणाया: वैण इति किम् । प्रक्वाणः शृङ्खलस्य ॥२७॥ वैणे० - । वैण इत्यत्र 'भवे | ६ | ३ | १२ | इत्यण | अनुपसर्गस्य 'न वा क्वणः • ५३४८ सूत्रेण विकल्पोऽस्ति ||२७|| युवर्ग वृहवशरणगम्-ऋद्ग्रहः । ५।३।२८ इवर्णोवर्णान्तेभ्यो व्रादेॠ' दन्तेभ्यो ग्रहेश्च भावाकरल् स्यात् । चयः । क्रयः । रवः । लवः । वरः । आदरः । वशः । रणः । गमः । करः । ग्रहः ||२८|| युवर्ण० - । उपसर्गाद् 'वा' इति च निवृत्तम् । घत्रोऽपवादोऽयं योगः । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४ ) चिंगट चयने' अतोऽलिगुणे च-चयः । डुकींग्श् द्वव्यविनिमेये'-क्रयः । 'रुक शब्दे'-रवः । 'लूग्श् छेदने'-लवः । 'कृत 'विक्षेपे' कृश हिंमायाम्'-करः ॥२८॥ वर्षादयः क्लीबे ५॥३॥२६॥ एतेऽलन्ता: क्लीबे यथादर्शनं भावाकत्रों निपात्यन्ते । वर्षम् । भयम् ॥२६॥ वर्षादयः०-। नपुसके 'क्लीबे क्तः' ।।३।१२४। इति, 'अनट' ।।३। २४१ इति च विहितक्ताननिवृत्त्यर्थं वचनम् । अनसके भाषे 'तत् साप्या.' ।३।३।२१। इति विहितः क्तस्तु न निवर्त्यते विजातीयत्वात्-वृष्यते स्म-- वृष्टं मेघेन, भीतं बटुना, अत्र 'कृत्याः, तानाः, सल्, जिन् भावे । नं.६॥ इति लिङ्गानुशासनानपुसकत्वं विज्ञेयम् । नन्वेकत्र लिङ्गानुशासनेन नपुंसकत्वं दर्शित मपरत्र 'क्लीबे क्तः' ।५।३।१२३।। इति सूत्रेणेति कोऽनयो विशेष इति चेत् ? उच्यते-लिङ्गानुशासनेन नपुसकत्वविधानं तान्सस्य, न तु क्तविधानम्, सूत्रेण च नप सके क्तविधानमिति विशेषः, किञ्च नपंसकविहितक्तस्य कर्तरि 'वा क्लीबे' ।।२।६२। इति षष्ठी भवति, यथा-मयरस्य मयरेण वा नृत्तमिति, अन्यक्तस्य कर्तरि 'क्तयोः ।। इति षष्ठी विधानात् तृतीयैव भवति, यथा प्रकृते ॥२६॥ समुदोजः पशौ ।।३।३०। आभ्यां परादजः पशुविषयार्थवृत्तेर्भावाकोरल स्यात् । समजः पशूनाम् । उदजः पशूनाम् । पशाविति किम् । समाजो मृणाम् ॥३०॥ समुदोज०- 'अज क्षेपणे 'च' चकाराद् गती, संवीयते-समज इति,समूह इत्यर्थः । उदज इति- रणमित्यर्थः। समाज इति–अन घन । धनि Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८५ ) अलि वाजेर्वीभावो न भवति, अघा.' ।४।४।२। इत्यत्र तयोर्वर्जनात् ॥३०॥ सृग्लहः प्रजनाक्षे ।।३।३१। आभ्यां यथासङ्ख्यं प्रजनाविषयार्थवृत्तिभ्यां भावाकोरल स्यात् । गवामुपसरः । अक्षाणां ग्लहः । प्रजमाक्ष इति किम् । उपमारो भृत्य राज्ञाम् ॥३१॥ सृग्लह०-। प्रजनो गर्भग्रहणम् । गर्भग्रहणार्थ स्त्रीषु पुसां प्रथमं सरणमुपसर उच्यते । अक्षाणां ग्लह इति-ग्रहणमित्यर्थः, ग्रहः सूत्रनिपातनाल्लत्वम्, ग्लहिः प्रकृत्यन्तरं वा । उपसारो भर्त्य राज्ञामिति-भतिवेतनं तदर्थ नृपसमीपगमनमित्यर्थः ॥३१॥ प र्माने ।।३।३२।. पर्मानार्थाडावाकोरल स्यात् । मूलकपणः । मान इति किम् । पाणः ॥३२॥ घञोऽपवादोऽयं योगः। 'पणि व्यवहारस्तुत्योः पण्यते इति कर्मण्यलि-पणः, मूलकस्य पण:-मूलकपणः, मूलकादीनां संव्यवहाराथं परि'मितो मुष्टिरित्यर्थः । पाण इति-नात्र मानार्थः किन्तु सामान्यतो व्यवहारो वा स्तुतिर्वेति नास्य प्रवृत्तिरिति घनो भवतीत्यर्थः ॥३२॥ संमदप्रमदौ हर्षे ।।३॥३३॥ एतौ भावाकर्बोर्हर्षेऽर्थेऽलन्तौ स्याताम् । संमदः, प्रमदो वा स्त्रीणाम् । हर्ष इति किम् । समादः । प्रमादः ।३३। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमद०-निपातनम् रूपनिग्रहार्थम्, तेनोपसर्गान्तरयोगे न भवति-प्रसंमाद:, संप्रमादः, अभिसंमादः ॥३३॥ हनोऽन्तर्घनान्तर्घणौ देशे।५।३।३४। अन्तःपूर्वाद्धन्तेरल घनघणादेशौ च निपात्येते, देशेऽर्थे भावा- .. कोंः । अन्तर्घनः । अन्तर्घणो वा देशः। अन्तर्घातोऽन्यः ॥३४॥ हनो०- ‘अन्तर्' इत्यव्ययं मध्यार्थे वर्तते, 'हनंक हिंसा-गत्योः,' अन्तर्हण्यतेऽस्मिन्निति-अन्तर्हन इत्यादि, अत्र देशेऽन्तर्गता अन्य जना हन्यन्त इति । भावः ।३४। प्रघणप्रघाणौ गृहांशे ॥५॥३॥३५॥ . प्रपूर्वाद्धन्तेहांशेऽर्थेऽल् घणघाणादेशौ च निपात्येते । प्रघणः । प्रघाणो वा द्वारालिन्दकः । प्रधातोऽन्यः ॥३५॥ प्रघण०-। गृहस्य द्वारदेशे द्वौ प्रकोष्ठको अलिन्दसंज्ञाको, एको बाह्योऽपर आभ्यन्तरः, तत्र वाह्यो प्रकोष्ठे निपातनमिदम्, प्रकर्षण हन्यते प्रविशद्भिजनैरित्यन्वर्थात् । तथा चात्र कर्मण्यल प्रत्ययः । यद्यपि सूत्रे गृहांशस्य सामान्येनार्थतयोपादानं तथापि प्रयोगार्थबलाद् द्वारप्रकोष्ठ एव. निपातनमिति लभ्यते, अन्यत्र घोव तस्मिन् परे च 'ञ्णिति घात्' ।४।३।१००। इति घातादेशः, तथा चाह-प्रघातोऽन्य इति ॥३५॥ निघोद्घसङ्घोद्घनाऽपघनोपघ्नं निमितप्रशस्तगणात्याधानाङ्गासन्नम् ॥५॥३॥३६॥ हन्तेनिघादयो यथासङ्ख्यं निमिताद्यर्थेषु कृतघत्वादयोऽलन्ता Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८७ ) . निपात्यन्ते । समन्ततो मितं निमितम् । निघा वृक्षाः । उद्धः प्रशस्तः । सङ्घः प्राणिसमूहः । अत्याधीयन्ते च्छेदनार्थ कुट्टनार्थ वा काष्ठादीनि यत्र तदत्याधानम् । उद्घनः । अपघनः शरीरावयवः । उपघ्नः आसन्न ।३६। । निघोद्ध०-- निविशेषं निश्चयेन वाहन्यन्ते ज्ञायन्ते-निघा वृक्षाः । उत्कर्षण हन्यते ज्ञायते-उद्घः प्रशस्तः । संहतिः संघः। उद्घन्यतेऽस्मिन्निति-उद्घनः । अपहन्यतेऽनेनेति-अपघन शरीरावयव इति। उपन्यते समीपे इति ज्ञायते-उपघ्न आसन्नः ॥३६॥ भत्तिनिचिताऽझो. घनः ।।३।३७। हन्तेादावर्गेऽल्पनादेशश्च निपात्यते । मूत्तिः काठिन्यम् । अभ्रस्य धन । निचितं निरन्तरम् । घनाः केशाः । अमेघः । घनः ।३७। मूत्तिः =। अभ्रस्य धन इति-मेघस्य काठिन्यं परिपूर्णत्वमित्यर्थः । घनाः केशा इति-निरन्तरा इत्यर्थः । घन इति=मेघ इत्यर्थः ॥३७।। व्ययोद्रोः करणे ॥५॥३॥३८॥ एभ्यः पराद्धन्तेः करणेऽल घनादेशश्च निपात्यते । विघनः। अयोघनः । द्रुघनः ॥३८॥ व्ययो०=। ननु भावाकारित्यस्यानुवृत्तः सत्त्वात् कर्तृभिन्ने कारके विधीयमानः प्रत्योऽभिधानसामर्थ्यादिह करणे स्यादेवेति करणग्रहणमनावश्यकमिति चेत् ? उच्यते =अभिधानसामर्थ्यात् क्वचन करणार्थस्यैव प्रतीतिरस्तु, तथापि क्वचित् भावस्य कर्तृभिन्नकारकाणां चार्थतया प्रवेशो मा ज्ञायीति तद्वारणाय स्पष्टप्रतिपत्तये च करणग्रहणम् । अन्यथाऽत्र करणे Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८८ ) प्रत्ययोऽन्यत्र वेति संशयःस्यादेव । विहन्यतेऽनेन तिमिरमिति विघनः सूर्य अथवा वयःपक्षिणो,हन्यन्तेऽनेनेति वा विघन:=पाश इति। द्रुघन इति-द्रु ईन्य तेऽने-नेति द्रुधनः=कुठारः । अत्र'हनो घि'।२।३,६९।इत्यस्य व्याप्या प्रवृत्तेः 'पूर्वपदस्या०' ।२।३।६४। इति न णत्वमिति स्त्रियांमस्य सूत्रस्य न प्रवृत्तिरपितु परत्वादनडेव=विहननी, अयोहननी,द्र हननी ॥३८॥ स्तम्बाद् घ्नश्च ।।३।३६। स्तम्बात्पराद्धन्तेरल घनघनादेशौ च निपात्येते, करणे । स्तम्बध्नो दण्डः । स्तम्वघनो यष्टिः।३६। स्तम्बाद् । स्तम्बो हन्यतेऽनेन-स्तम्बघ्नो दण्ड: । स्त्रियां परत्वादनडेव स्तम्बहननी यष्टि: ॥३६॥ परेघः ॥५॥३॥४०॥ परिपूर्वाद्धत्तेरल घादेशश्च करणे निपात्यते । परिघोऽर्गला।४०। परेघ० । परिहन्यतेऽनेनेति करणेऽलि घादेशे च परिघ इति तदर्थमाह अर्गला इति ॥४०॥ हः समाह्वयाह्वयौ घ् तनाम्नोः ॥५॥३॥४१॥ यू ते नाम्नि चाणे यथासङ्ख्यं समाङपूर्वादाङ्पूर्वाच्च होऽल ह्वयादेशश्च निपात्यते । समाह्वयः प्राणियू तम् । आह्वयः संज्ञा ।४१॥ करण इति निवृत्तम्। 'हग स्पर्धाशब्दयोः' =समाह्वयः प्राणिधू तमिति ॥४१॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यभ्युपश्चात् ||३।४२। एभ्यः परात् वो भावाकत्रौरल् स्यात्त द्योगे वा उश्च । निहवः । अभि हवः । उपहवः । विहवः ॥ ४२ ॥ न्यभ्यु० = = नि अभि उप वि' एषां समाहारः । समाहारस्य क्लीबत्वेऽपि सीतत्वात् पुंस्त्वेन निर्देश:, ' आगमशासनमनित्यम् इति - न्यायाद्वा क्लब - त्वेऽपि नागमाभावो विज्ञेयः, तथा निर्देशे लाघवं बीजमित्यर्थ । ननु सूत्रे 'वाश्चोत्' इति समानाधिकरणविभक्तया निर्देशादृ त्तावपि 'वा उश्च' इत्युततया सामानाधिकरण्यं गम्यते । यथा दुग्धं दधि भवतीत्यत्र सामानाधि करण्येन निर्देशात् कृत्स्नस्य दुग्धस्य दधितया विपरिणातो विवक्षितस्तथा 'वा उश्च' इत्यनेनवाशब्द उकाररूपेण विपरिवर्तत विवक्षितः, अन्यथा स्थानिनि षष्ठी विभक्त रौचित्यात् षष्ठ्याः निर्देश ' षष्ठ्यान्त्यस्य' ४१०६ ॥ इति परिभाषया वाषब्दाकारस्यैवोनारः स्याद् इष्यते च सर्वस्य अनेनालि वाशब्दस्योकारे गुणेऽनादेशे च = निहव इत्यादि । जुहो तिनेव सिद्ध रूपान्तरकिवृत्त्यर्थं वचनम् ||४२|| A ( ३८६ ) आङझे युद्ध |५|३|४३| आङो हो युद्धेऽर्थे भावाकरल् स्यात् वा उश्च । आहवो युद्धम् । युद्ध इति किम् । आह्वायः ॥ ४३ ॥ आङो -0 आहूयन्ते योद्धारोऽस्मिन्निति आहवो युद्धम् । आह्वाय इति - अत्र घञ ॥४३॥ आहावो निपानम् । ५।३।४४| x निपानं पश्वादिपानार्थी जलाधारः तस्मिन्नर्थे आ पूर्वात् Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६० ) ह्वो भावाक!रल आहावादेशश्च निपात्यते । आहावो वीनाम् ॥४४॥ आहावो०-। आहूयन्ते वयः पानायास्मिन्नित्याहावो वीनामितिनिपानमित्यर्थः ।।४४॥ भावेऽनुपसर्गात् ।५॥३॥४५॥ अनुपसर्गात् भावे ह्वोऽल् स्यात् वा उश्च । हवः । भाव इति किम् । व्याप्ये ह्वायः । अनुपसर्गादिति किम् । आह्वायः ॥४५॥ भावे०-। भावाकलोरित्यस्यानुवृत्तेः सत्त्वादनुक्तऽपि 'भावे' भावार्थे प्रत्ययः स्यादेवेति भावग्रहणं व्यर्थमिति चेत् । उच्यते-'सन्नियोगशिष्टानां सहैव प्रवृत्तिः सहैव निवृत्तिः' इति न्यायेनोभयोरप्यर्थयोः सहैवानुवृत्तिः स्यादिति भाववत् कर्तृभिन्ने कारकेऽपि प्रत्ययः स्यादिति तद्वारणाय भावाभिधानमावश्यकम्, क्वचिदेकदेशानुवृत्तश्च विनिगमकप्रमाणव्याख्यानादिसापेक्षत्वेन तदाश्रयणापेक्षया 'व्याख्यानाद्वरं करणम्' इति न्यायेन भावपदग्रहणस्यैव लघीयस्त्वम् । ह्वान-हवः। व्याप्ये हाय इति-हूयते इति कर्मणि पनि ह्वाय इत्येव भवतीत्यर्थः । आह्वाय इति-अत्र घत्र - वेत्यर्थः ॥४५॥ हनो वा वध् च ॥५॥३॥४६॥ अनुपसर्गाद्धन्तेर्भावेऽल् वा स्यात् तद्योगे च हनो वध् । वधः । घातः ॥४६॥ हनो०-। घत्रि हनो घातादेशे-घातः ॥४६।। व्यधजपमद्भयः ।।३।४७। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६१ ) एभ्योऽनुपसर्गेभ्योभावाकत्रों रल स्यात् । व्यधः । जपः । मदः ॥४७॥ ब्यध०-। एकवचनेनापि निर्वाहे सत्यपि बहुवचननिर्देशः किमर्थ इति चेत् । उच्यते-व्याप्त्यर्थम्, तेन 'भावे' इति निवृतम् ॥४७॥ नवा क्वणयमहसस्वनः।।३।४८। अनुपसगेभ्य एभ्यो भावाकोरल् वा स्यात् । क्वणः । क्वाणः । यमः । यामः । हसः । हासः । स्वनः । स्वानः ॥४८॥ नवा क्वण०-। अप्राप्तविभाषेयम् । क्वाण इत्यादौ घन ॥४८॥ आङो रुप्लोः .१५॥३॥४६॥ आङ पराभ्यां रुप्लुभ्यां भावाकोरल वा स्यात् । आरवः, आरावः । आप्लवः ॥४९॥ आङो०-। रौतेर्घत्रि प्लवतेरलि नित्यं प्राप्ते विकल्पः ॥४६॥ वर्षविघ्नेऽवाद् ग्रहः ॥५॥३॥५०॥ अवपूर्वाद् अहेवर्षविध्नेऽर्थे भावाक!रल् वा स्यात् । अवग्रहः । अवग्राहः । वर्षविघ्ने इति किम् अवग्रहोऽर्थस्य ॥५०॥ वर्षविघ्नेऽर्थ इति--वर्षस्य वृष्टेः, विघ्नः प्रतिबन्धः, तस्मिन्नर्थ इत्यर्थः । 'युवर्ण०' ।५।३।२८। इति नित्यमलि प्राप्ते पक्षे घनः प्रवृत्त्यर्थ विकल्प- . विधानम् । 'ग्रहीश् उपादाने' अवपूर्वादतोऽनेनालि पक्षे घत्रि उपान्त्यवृद्धौ च-अवग्रहः, अवग्राहः,-वृष्टे: प्रतिबन्ध इत्यर्थः ॥५०॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९२ ) प्राश्मितुलासूत्रे ॥५॥३॥५१॥ प्रसूति ग्रहे रक्सौ तुलासूत्रे चार्थे भावाक!रल्वा स्यात् । प्रग्रहः । प्रवाह ॥५१॥ प्रगृह्यते इति-प्रग्रहः, प्रग्राहः, अश्वादेः संयमनरज्जुस्तुलासूत्रं चोच्यते . ॥५१॥ वृगो वस्त्रे ॥५॥३॥५२॥ प्रपूर्वाद्वगो वस्त्रविशेषेऽर्थे भावाकत्रों रल् वा स्यात् । प्रवरः । प्रवारः । वस्त्र इति किम् ? प्रबरो यतिः ॥५-२॥.. वृगो०-। प्रवृण्वन्ति तमित्यलि प्रवरः, घनि वृद्धो 'घड्युपसर्गस्य. ३।२।१६। इति दी च प्रावारः, उत्तरासङ्ग इत्यर्थः । प्रवरो यतिरिति -बस्वाभादस्याप्रवृत्या 'युवर्ण: ।५।३३२८५ इति नित्यमल भवतीत्यर्थः ॥५२॥ उदः श्रेः ।।३॥५३॥ उत्पूर्वाच्छे वाकत्रोरल वा स्यात् । उच्छ्यः । । उच्छायः ॥५३॥ उदाः -। नित्यमलि प्राप्ते विकल्पः । 'श्रिग् सेवायाम्' उत्पूर्वादलोऽनेनालि गुणे पक्षे पनि वृद्धौ ‘प्रथमा०' ।१।३।४। इति शस्य छत्वे तकारस्य चत्वे च उच्छ्यः , उच्छ्राय इति ॥५३॥ युपूद्रोर्घञ् ॥५॥३॥५४॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६३ ) उत्पूर्वेभ्य एभ्यो भावाकोंर्घस्यात् । उद्यावः । उत्पावः । उत्पावः । उद्रावः ॥५४॥ युपू०-। वेति निवृत्तम् पृथग्योगात्, यदि हि वानुवृत्तिरभिमता स्यात् तहि पूर्वसूत्र एवैषामपिधातूनां ग्रहणेकृते विकल्पेनाल एव विधाने पक्षे त्रः स्वभावत एव सिद्धिः । अलोऽपवादो योगः ॥५४।।। ग्रहः ।।३।५। उत्पूर्वात् ग्रहे वाकत्रों घंञ् स्यात् । उद्ग्राह ॥५५॥ ग्रहः०-। अलोऽपवादः ।।५।। न्यवाच्छापे ॥५॥३॥५६॥ आभ्यां परात् ग्रहेराक्रोशेनम्ये भावाकोंर्घञ् स्यात् । निग्राहः । अवग्राहो वा ते जाल्म भूयात् । शाप इति किम् । निग्रहश्चौरस्य ॥५६॥ न्यवा०-। शापोऽशुभाशंसनम् । निग्राहः, अवग्राहो वेति-निग्राहो बाधः अवग्राहोऽभिभवः । निग्रहश्चौरस्येति-निग्राहो बन्धनम्, अवग्रहः= सामान्यज्ञातम् ॥५६॥ प्राल्लिप्सायाम् ।।३।५७। प्रपूर्वात् ग्रहेलिप्सायां गम्यायां भावाकत्रोर्घञ् स्यात् । पात्रप्रनाहेण चरति पिण्डपातार्थी भिक्षुः लिप्सायामिति किम् ? जुबः प्रग्रहः शिष्यस्य ॥५७॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४ ) प्राल्लिप्सायाम्--। लब्धुमिच्छा-लिप्सा। प्रात्रप्रग्राहेणेति-पात्रं ग्रहीत्वेत्यर्थः । अत्र 'पिण्डपाता त्यनेन लिप्सा दर्शिता। स्त्र वः प्रग्रहः शिष्यस्येति अत्रालेव भवति ॥५७॥ समो मुष्टौ ।।३।५८ संपूर्वात् ग्रहेमुष्टिविषये धात्वर्थे भावाकोंर्घन स्यात् । संग्राहो मल्लस्य . मुष्टाविति किम् । संग्रहः शिष्यस्य ॥५८॥ समो मुष्टौ-। मुष्टिर-लिसंनिवेशो न परिमाणम्, तत्र 'माने' ।।३।८१. : इत्येव सिद्धत्वात् । संग्राहो मल्लस्येति-मुष्टेढिर्य मित्यर्थः । संग्रहः शिष्यस्येति-मुष्टयर्थाभावादस्या वृत्त्या 'युवर्ण' १५॥३।२८। इत्यलेव भवति ॥५॥ युदुद्रोः ॥५॥३॥५६॥ संपूर्वेभ्य एभ्यो भावाकोंर्घञ् स्यात् । संयावः । संदावः । संद्रायः ॥५६॥ मुद्रो:-। 'युक् मिश्रणे' 'दुद्रगतो' सम्पूर्वादतो घनि वृद्धावावादेशे च-संयाव इत्यादि ।।५।। नियश्चानुपसर्गाद्वा ॥५॥३॥६०॥ अनुपसर्गान्नियो युदुद्रोश्च भावाकनोर्घ वा स्यात् । नयः । नायः । यवः । यावः । दवः । दावः । दावः । अनुपसर्गादिति किम् । प्रणयः ॥६०॥ नियश्चा० । ‘णींग प्रापणे' अतोऽनेन घनि वृद्धावायादेशे च आवादेशे, पक्षे 'युवर्ण०' ।।३।२८। इत्यलि गुणेऽयादेशेऽवादेशे च-नयः, नाय इत्यादि । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणय इति-अत्रालेव, 'अदुरुपसर्गा०' ।।३७७। इति नकारस्य णकारः ॥६०॥ वोदः ॥५॥३॥६१॥ उत्पूर्वान्नियो भावाकोंर्घञ् स्यात् वा । उन्नायः । उन्नयः ।६१। वोदः । पूर्वसूत्रतो वाशब्दानुवृत्त्या विकल्पे सिद्वेऽत्र वाग्रहणं किमर्थमिति चेत् ? उच्यते इदमेव वाग्रहणं ज्ञापयति--यद्--यत्र नवा शब्दोपादानं तत एव विकल्पानुवत्तिर्न तु वाशब्दोपादाने, तथा च पूर्वसूत्रतो वाशब्दानुवृत्त्यसम्भवादन वाशब्दोपादानं सार्थकम् । अनेन घत्रि पक्षे इवर्णान्तलक्षणेऽलि च--उन्नायः, उन्नयः ॥६१।। अवात् ।।३।६२॥ अवपूर्वान्नियो भावाकोंर्घञ् स्यात् । अवनायः ॥६२॥ अवात-"अनेन घत्रि-अवनाय इति ॥६॥ परेद्य ते ।।३।६३॥ परिपून्नियो द्यूतविषयार्थाद्धावाकोंर्घ स्यात् । परिणायेन शारीन हन्ति । द्यूत इति किम् । परिणयोऽस्याः ॥६३॥ परिणायेनेति-समन्तान्नयनेनेत्यर्थः । परिणयोऽस्या इति परिणयो विवाहः, 'युवर्ण०' ।।३।२६। इति नित्यमल् ॥६३।। भुवोऽवज्ञाने वा ।।३।६४। परिपूर्वा भुवोऽवज्ञानार्थात भावाकोंर्घञ् स्यात् वा। परिभावः । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६ ) परिमवः। अवज्ञान इति किम् । समन्ता, तिः परिभवः ॥६४॥ भुवो०-अवज्ञानमसत्कारपूर्वकोऽवक्षेपः । समन्तात् भूतिः परिभव इतिअत्रोवर्णान्तलक्षणोऽलेव ॥६४॥ यज्ञ ग्रहः ।।३॥६५॥ परिपूर्वाद् अहेर्यज्ञविषये भावाकोंर्घन स्यात् । पूर्वपरिग्राहः । .. यज्ञ इति किम् । परिग्रहोऽर्थस्य ॥६५॥ पूर्वः प्रथमः कर्मारम्भात्पूर्व परिग्रहणं स्फ्ये वेदे स्वीकरणं पूर्वपरिग्राहः, स्पयो नाम काष्टनिर्मितं खङ्गाकृति यज्ञीयं पात्रम्, तदस्ते कृत्वा समन्ताल्लेखया यज्ञाङ्गभूतां वेदि स्वीकरोति याज्ञिकस्तत्रेदमुदाहरणम् । परिग्रहोर्थस्येति-धनादेः परिग्रहणं स्वीकार इत्यर्थः, नात्र घत्र किन्तु 'युवर्ण' ।५।३।२८। इत्यलेव भवतीति ॥६॥ संस्तोः ।।३।६६। संपूर्वात्स्तोतेर्भावाकोंर्घन । यज्ञविषये । संस्तावः छन्दोगानाम् ॥६६॥ संस्तोः-संस्तुवन्त्यत्रेति-संस्रावः छन्दोगानामिति-सामवेदिनो ब्राह्मणाश्छन्दोमा उच्यन्ते, समेत्य स्तुवन्ति छन्दोगा यत्र देशे स देशः संस्ताव उच्यते, एवमधिकरणे कारके प्रत्ययः ॥६६॥ प्रात् स्नुद्र स्तोः ॥५॥३॥६७। प्रात् परेभ्य एभ्यो भावाकवोर्धन स्यात् । प्रस्नावः । प्रद्राब, Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६७ ) प्रस्तावः ॥६७॥ कथं स्रावः द्राव: ? बहुलाधिकारात् ॥६७।। अयज्ञ स्त्रः ३६८ प्रपूत्स्त्रिोभावाकोंर्घन स्यात् न चेद्यज्ञविषयः । प्रस्तारः । अयज्ञ इति किम् । बहिष्प्रस्तरः ॥६८।। अयज्ञ स्त्र:-स्तृ गश् आच्छादने'-प्रस्तार इति-इष्ट-कासन्निवेशविशेषः । बहिष्प्रस्तर इति-बहिषः प्रस्तरो मुष्टिविशेषः, 'समासे०' ।२।३।१३। इति षत्वम् ॥६॥ वेरशब्दे प्रथने शिश६वी वे परात्स्त्रोऽशब्दविष विस्तीर्णत्वेऽर्थे घन स्यात् । विस्तार पटस्य । प्रथन इति किम् । तृणस्य विस्तरः । शब्द इति किम् । .वाक्यविस्तरः ॥६६॥ वेरशब्दे०--"विस्तार: पटस्येति---पटस्य विस्तीर्णतेत्यर्थ । तृणस्य विस्तर इति-छादनमित्यर्थः । वाक्यविस्तर इति-अत्र प्रथनस्य शब्दविषयत्वीद. . स्याप्रवृत्त्या ऽलेव भवतीत्यर्थः ।।६।। छन्दोनाम्नि शि३७०। . . विपूर्वात् स्त्रो गायत्र्यादिसंज्ञाविषये भावाकोंर्घन स्यातू । विष्टारपङ्क्तिः ॥७०॥ छन्दोनाम्नि-" विष्टारङ्क्तिरिति-समुदायस्यैव छन्दोनाम, विस्तीर्यन्तेऽक्षराण्यस्मिन्नित्यधिकरणे ६ , 'वेः स्त्रः' ।२।३।२३। इति संज्ञा सस्य षः Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८ ) ॥७० क्ष श्रोः शिश७१। विपूर्वाभ्यामाभ्यां भावाकोंर्घन स्यात् । विक्षावः । विश्राव ॥७॥ अषो:-"टुक्ष क् शब्दे' 'युट् श्रवणे' विपूर्वादतो घत्रि-विक्षावः, विश्राव ॥७॥ न्युदो ग्रः ।।३।७२० आभ्यां पराद् ग्रो भावाकोंर्धन स्यात् । निगारः । उद्गार ॥७२॥ न्युदो-"गृ.तु निगरणे' 'गृ शशब्दे' इत्युभयोः ‘ग्र' इत्यनेन ग्रहणम् ॥७२॥ किरो धान्ने ।२३७३। न्युत्पूर्वात्किरतेान्यविषयार्थात् भावाकोंर्घन स्यात् । निकारः। उत्कारो धान्यस्य । धान्य इति किम् । फलनिकरः ॥७३॥ निकारः, उत्कारो वा धान्यस्येति-राशिरित्यर्थः । फलनिकर इतिफलानां राशिरित्यर्थः, अन्न धान्यार्थाभावादस्याप्रवृत्त्या ऋदन्तलक्षणेऽलि गुणे च तयारूपमित्यर्थः ॥७३॥ नेषुः शिश७४ निपूर्वात् , वृणोतेवणातेवा धान्यविशेषेऽर्थे भावावोंर्घन स्यात् । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ३६६ ) नीवारा बीहयः ॥७४॥ मैवु:-निवियन्ते इति-नीवारा नाम व्रीय इति-'घञ्युपसर्गः' ।३।२।८६। इति दीर्घत्वम् ॥७४॥ इणोऽभषे शिश स्थितेरचलनमभ्रषः, तद्विषयार्थात् निपूर्वादिणो भावाकोंर्घन स्यात् । न्यायः । अभ्रष इति किम् । न्ययं गतश्वीरः ॥७॥ इणो-अभ्रषशब्दं व्याचष्टे-स्थितेरचलनमभ्रषः इति-स्थितिलॊकमर्यादा तस्या अचलनं तदपरित्यागोऽभ्रष इत्यर्थः, भ्रषग् चलने 'च' चकाराद् भये, अतो घत्रि भ्रषणं भ्रषः न भ्रषः-अभ्रषः ! शास्त्रलोकप्रसिद्धयादिना नियतमयनमिति इक गतो' निपूर्वादतो पनि वृद्धौ आयादेशे इकारस्य च यादेशे न्यायः । न्ययं गतश्चौर इति-अत्रेवर्णान्तलक्षणेऽलि गुणेऽयादेशे च न्यय इति, न्ययो नाशस्तं प्राप्त इत्यर्थः । निकृष्टमयनं गतिरिति व्युत्पत्त्या न्ययशब्दः नाशे मृत्यावेवेति ॥७५।। परेः क्रमे ५७६ कमः परिपाटिः, तद्विषयार्थात्परिपूर्वादिणो भावाकोंर्घस्यात् । तव पर्यायो भोक्तम् । क्रम इति किम् । पर्ययो गुरोः ॥७॥ परेः कमे-'क्रम पादविक्ष पे' अतो घत्रि 'मोऽकमि०' ।४।३॥५५॥ इति वृद्धिनिषेधे च-क्रमः । तव पर्यायो भोक्त मिति-क्रमेण पदार्थानां क्रियासम्बन्धः पर्यायः, क्रियाऽत्र मोजनम्, भोक्तारः पदार्थभूताः, क्रमेण नियतपूर्वापरीभावेन भोजनक्रियया सह सम्बन्धात् क्रमत्वं स्पष्टमिति भावः । पर्ययो गुरोरिति-अत्र क्रमविषयत्याभावान्न भवति प्रत्यय इति भावः ॥७६।। व्युपाच्छीङः ।।३।। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साभ्यां पराक्रम विषयात सोडो घिस्यात् । तव राजविशायः । मन राजोपशायः । क । इति दिम् ? विश्यः ॥७७॥ व्युपा- 'शीक़ स्वप्ने" इति शीवातो ने। घनि वृद्धाबाया देशेव-तब राजविशायः, मम राजो शायः इति, राजनियोज्यः कश्चित् राजतनीधे जागति, अन्यश्च स्वपिति तत्रैव, तत्र च क्रमो नियतो भवति, तत्र क्रमप्राप्तं पर्यायसाध्यं शयनं यद्, तदुच्यते प्रकृतशब्देन । विशय इति विशयः--- संशयः, अत्र पर्यायो न विवक्षि त इ हत्यस्याप्रवृत्या इकारान्तलक्षणोऽल् भवतीति भावः ॥७७॥ . हस्तप्राप्ये चेरस्तेये।।३।७८। हस्तेन प्राप्तुं शक्यं हस्तप्राप्यं, तद्विषयाच्चिगो भावाकोंघन स्यात्, नचेच्चेरर्थश्चौर्येण । पुष्पप्रचायः । हस्तप्राप्य इति किम् । पुष्पप्रचायः । हस्तप्राप्य इति किम् ? पुष्पप्रचयं कराँति वृक्षाग्रे । अस्तेय इति किम् । स्तेयेन पुष्पप्रचयः करोति ॥७॥ हस्त---हस्तेनेत्यत्र उपायान्तरनिरपेक्षेणेति शेष: उपायान्तरसापेक्षण हि तेन सर्व वस्तु प्राप्तुशक्यमेव, तेन कोऽर्थो बोध्यः ? उच्यते---हस्तेनोपाया:तरनिरपेक्षण प्राप्तुं शक्यमिति । न तानद्धस्तप्राप्यशब्दस्यत्तादृशार्थपरत्वम, यदेव प्रांशूनोपायान्तरनिरक्षण हस्तेन प्राप्त शक्यते तदेव सर्वेषोपायान्तरसापेक्षणेति तत्र न स्याद् प्रत्ययोऽतो हस्तप्राध्या ददेन प्रत्यासत्तिः प्राप्यस्य लक्ष्यते, तेन प्रत्यासत्तिविषये धात्वर्थे विधानम् । चिमट चयने अनो पत्रि षष्ठीसमासे त--पुष्पप्रचायः । पुष्पप्रचयं करोति gक्षाग्रे--तरुशिखरस्थानां पुष्पाणां हस्तप्राप्यत्वानवगते तेषा सरुमारायान्योपायेन हस्तप्राप्यत्वं न तूपायान्त रनरपेक्ष्येणेति तत हस्तप्राप्यत्वं नास्तीति भावः । स्तेयेन पुष्पप्रचयं करोतीति---आत्रे---कारान्तलक्षणोऽल . विज्ञयः । हस्तप्राप्यशब्देन प्रमाणमप्युच्यते---यद्धस्ते संभवति न हस्तादतिरिच्यते इति, ततश्च ‘माने' ।५।३।८। इत्यनेनैव सिद्ध नियमार्थ वचनम् Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०१ ) अस्तेय एवेति, तेन पुष्पायां हस्तेन प्रचयं करोति चौर इत्यत्र 'माने' ||३|| इत्यनेनापि घञ न भवति ॥ ७८ ॥ . चिति देहावासोपसमाधाने कश्चादेः | ५|३|७८ । एष्वर्थेषु चेर्भावाकर्घञ्स्यात् तद्योगे च चेरादेः कः । चीयत इति चितिः यज्ञेऽग्निविशेषस्तदाधारो वा । आकायमग्नि चिन्वीत । कायो देहः । ऋषिनिकायः । उपसमाधानमुपर्युपरि राशीकरण. ए. म् गोमय निकायः ॥७६॥ चिति० - इह ग्राह्यं चितिशब्दार्थमाह- चीयते इति चितियंज्ञ ेऽग्निविशेषः सिति कर्मणि प्रत्यय इति भावः । पक्षान्तरमाह - तदाधारो देतिअग्निविशेषस्याधारभूतं कुण्डमिह वाच्यमित्यर्थः तथा चाधिकरणे घत्रिति भाव: आकायमपि चिन्वीतेति - यज्ञीयमग्निविशेषं चयनेन सम्पादयेदित्यर्थः, अधिकरणे प्रत्ययविधाने तु आधारभूतस्याकायस्य चिनोतेर्योगे नुक्त' कर्म बोध्यम्, अथवा चिनोतेर्द्विकर्मकत्व स्वीकारादुभे अपि कर्मणी एव, तथा चाचीयतेऽग्निरस्मिन् अथवा आचीयन्ते इष्टका अस्मिन्निति = आकायोऽग्निस्थापनस्थलविशेषः, तमग्नि च चयनेन सम्पादयेदित्यर्थः । देहे उदाहरति-कांय:, तदर्थमाह- देह इति । आवासे उद हरति ऋषिनिकाय इति ऋषीणामावास इत्यर्थः । उपसमाधानशब्दार्थमाह - उपसमाधानमुपर्युपरि राशिकरणमिति । उपसमाधाने उदाहरति- गोमय निकाय इति - गोमयस्यो - पर्युपरि राशिकरणमित्यर्थः । 'चः के इत्येव सिद्ध आदिग्रहणमादेरेव यथा स्यात् तेन चेर्यङ्लु-िनिकेचाय इत्येव भवति ॥७६॥ " सङ्घेऽनूर्ध्वं । ५।३।८० । नास्ति कुतश्चिदूर्ध्वमुपरि किञ्चिद्यस्मिन् सोऽनूर्वः, तस्मिन् प्राणिसमुदाये Sr भावाकर्शोर्घञ् स्यात्, तद्योगे चादेः कः । ताकि कनिकायः । सङ्घ इति किम् । सारसमुच्चयः । अनूद्ध इति Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०२ ) किम् । शूकरनिचयः ॥८॥ संघेऽनर्व-अनज़शब्दस्य संघेन सह सामानाधिकरण्यं प्रकटयति-नास्ति कुतश्चिदित्यादि इति-समुदायान्तर्गतवस्तूनामूधिोभावो यत्र भवेत् तादृशः संघो वाच्य इति तात्पर्यम् । संघशब्दः प्राणिसमुदायपर इत्याहप्राणिसमुदायेऽर्थ इति । तार्किकनिकाय इति तार्किकाणां समुदाय इत्यर्थः । पदकृत्यं पृच्छति-संघ इति किमिति-प्राणिसमुदायवाचकसंघशब्दमपहाय समूदायमात्रवाचकः कश्चित् शब्दो ग्राह्यः सूत्र इति प्रश्नः, अनदर्ध्वपदस्य बहुव्रीहित्वेन विगृहीतत्वादन्यः पदार्थः कश्चित् शब्दो ग्राह्य एवेति संघशब्दस्थानीयशब्दान्तराभावेऽवाचकत्वमेव सूत्रस्य स्यात् 'उत्तरयतिसार समुश्चय इति-सारादिपदं न प्राणिपरमपि तु प्राण्यप्राणिसाधारणधर्मविशेषपरमेवेति तत्समुदाये वाच्येऽस्याप्रवृत्त्या इवर्णान्तलक्षणोऽलेव भवतीति भावः । पुनः पृच्छति–अनवं इति किमिति, उत्तरयति-सूकरनिचय इति–नात्रोवधिोभावाभाव इत्यलेवेत्यर्थः, ननु कमिहोधिोभाव इति चेत् ? उच्यते-सूकरा स्वत एवैकस्योपर्येक इति क्रमेणाल्पस्थान एव शतशस्तिष्ठन्तीति तेषां स्वभावः, एवं चोपसमाधानार्थादप्ययं भिन्न इति उपयु परिभावमात्रेणोपसमाधानार्थे पूर्वेणापि घत्र । यं उपासमाधानार्थादस्य भिन्नत्वमित्थं समर्थनीयम्-उपसमाधानमुपयुपरिराशिकरणमिति केनापि यदि ते राशीभवनाय प्रेरिताः स्युग्थवा वलात्कृता स्युस्तदैवात्रोपसमाधानार्थत्वम्, न च तथेत्यस्योपसमाधानार्थाद्भिन्नत्वम् ।।८।। माने ।।३।८१॥ माने गम्ये धातोर्भावाकोंर्घस्यात् । एको निष्पावः । समित्संग्राहः । मान इति किम् । निश्चयः ॥८१॥ माने-। मानमियत्ता, साच द्वधा-संख्या परिमाणं च । 'पूङ पवने' 'पूगश् पवने'–एको निष्पावः, एकपदोपानमियत्ताज्ञापनार्थम् । ग्रहीश् उपादाने'-समित्संग्राहः-मुष्टिरित्यर्थः । निश्चय इति-मानार्थाभावादस्या- . प्रवृत्त्येवर्णान्तलक्षणोऽलेव भवति । अल एवापवादो योगः, क्त्यादिभिस्तु बाध्यते, घत्रपि 'मध्येऽपवादा: पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान्' Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०३ ) इति हि न्यायः, यथा--एका तिलोच्छितिः, द्वे प्रसृती अत्र माने ॥१॥ स्थादिभ्यः कः ।।३।१२। एग्यो भावाकत्रोंः कः स्यात् । आखत्थो वत्तते । प्रस्थ । प्रपा ॥२॥ स्थादिभ्यः०-| आखूनामुत्थोनम्-आखूत्थो वर्तते इति 'उदः स्था०' ।१।३।४४। इति सकारलोपः, ‘इडेत्पुसि०' ।४।३।६४। इत्याकारलोपश्चात्र विज्ञेयः । प्रतिष्ठन्त्यस्मिन्निति-प्रस्थः । प्रपिबन्त्यस्यामिति-प्रपा, 'पां पाने' इति धातुः । सर्वापवादो योगः ॥२।। ट्वितोऽथुः ।।३।८३॥ टिवतो धातो वाक त्रों रथु स्यात् । वेपथुः ॥८३।। द्वितोऽथुः । दु इत् यस्य तस्मादित्यर्थः । 'दुवेपृङ् चलने' अतोऽनेनाथौवेपथुः । असरूपत्वाद् घनलावपि–सामान्यसूत्रे घत्रि-वेपः, उवर्णान्तलक्षणेऽलि वेपः ॥८३।। डिवतस्त्रिमक्तत्कृतम् ।।३।०४। डिवतो धातोर्भावाकोंस्त्रिमक् स्यात्, तेन धात्वर्थेन कृतमित्यर्थे । प-िकमम् ॥८४॥ वित०-। पाकेन कृतम्-पक्त्रिममिति–पाकेन निवृत्तमित्यर्थः । चजः कगम्' २।१।८६। इपि चस्य कत्वम् ।।८४॥ यजिस्वपिरक्षियतिप्रच्छो नः ।।३।८५ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०४ ) एभ्यो भावाकत्रों नः स्यात् । यज्ञः । स्वप्नः । रक्ष्णः । यत्नः । प्रश्नः ॥८॥ यजि०-। 'यजी देतपूजासंगतिकरणदानेषु' अतो ने 'तवर्गस्य०' १।३।६०। इति नस्य को ज्ञयोज इति ज्ञे-यज्ञ इति । 'प्रछंत् ज्ञीप्सायाम्' ज्ञीप्साजिज्ञासा, अतो ने 'अनुनासिके०' ४।१।१०८। इति छस्य शे ‘न शात्' ।१।३।६२। इति निषेधे–प्रश्नः ॥६५॥ विच्छो नङ् ।।३।८६॥ विच्छे वाकत्रों नङ् स्यात् । विश्नः ॥८६॥ विच्छो नङ् । 'विछत् गतौ' अतो नङि 'अनुनासिके०' ।४।१।१०८॥ इति छस्य शे=विश्नः, प्राग्वत् अप्रतिषेधः ॥८६॥ उपसर्गादः किः ।।३।८७। उपसर्गपूर्वाद्दासंज्ञात् भावाकों: किः स्यात् । आदि:, निधिः । ॥ ८७॥ उपसर्गा० । 'धातोः०' ।३।१६। इति प्रादेरूपसर्गसंज्ञा प्राग विहिता। 'अवी०' ।३।३।५। इत्यनेन ‘दादाने' 'देङ् पालने' 'डुदांगक दाने' दोंच छेदने' ट्धे पाने' 'डुधांगक धारणे च' इति षण्णां दासंज्ञा विहिता। दारूपाद् दासंज्ञकात् सोपसर्गादनेन को 'इडेत् पुसि०' ।४।३।६४। इत्याक्रारलोपे च=निधिः ।।७।। व्याप्यादाधारे ।।३।८। व्याप्यात् पराद्दासंज्ञादाधारे किः स्यात् । जलधिः ॥८॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०५ ) - 'व्याया०=। व्याप्यमिति कर्मणः संज्ञा । आधार इत्यधिकरणस्य संज्ञा । जलं धीयतेऽस्मिन्नितिजलधिः ॥८॥ - अन्तद्धिः ।।३।। अन्तः पूर्वार्धागो भावाकत्रों: कि स्यात् । अन्तद्धिः ॥८६॥ अन्तधिः । पूवेणोपसर्गपूर्वत्वाभावादप्राप्तौ वचनम् । अन्तर्धानम्= अन्तधिः ॥८६॥ अभिव्याप्तौ भावेऽनजिन् ॥५॥३॥६०। अभिव्याप्तौ गम्यायां धातोर्भावेऽनजिनौ स्याताम् । संरवणम् । सांराविणम् । अभिव्याप्तौ इति किम् । संरावः ॥१०॥ अभिव्याप्ती०=| क्रियया स्वसंबन्धिनः साकल्येनाभिसंबन्धोऽभिव्याप्तिः । 'रुक् शब्दे' समन्ताद्राव इति वाक्येनेनाने गुणे च संरवणमिति, एवमनेन जिनि तु 'नित्यं त्रिनोऽण्' ।७।३।५८। इति स्वार्थे नित्यमणि आद्यस्वरस्य वृद्धौ ‘अनपत्ये' ।७४।५५ इत्यन्त्यस्वरादिलोपनिषेधे सांराविणम् । संराव इति=अत्रा-भिव्याप्तिविवक्षाविरहादस्याप्रवृत्त्या 'रुधातोः 'रोरुपसर्गात् ।।३।२२। इत्यनेनालोऽपवादे घनिसंरावः ॥१०॥ स्त्रियां क्तिः ।।३।६१।। धातो वाकोः स्त्रियां क्तिः स्यात् । कृतिः। स्त्रियामिति किम् । कारः ॥६१॥ स्त्रियां-। ननु 'स्त्रियामिति कस्य विशेषणमिति चेद् ? उच्यते विशेषणं सन्निहितस्य भवति, सन्निहितं चात्र द्वयं धातुः, प्रत्यश्च, तत्र धातोरिह Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०६ ) विशेष्यत्वं न सम्भवति, तस्यासत्त्वरूपत्वेन तस्य स्त्रियामवर्तनात्, तथा च पारिशेष्यात् प्रत्यय एवावशिष्यते, शब्दे चार्थस्य विशेषणत्वमयुक्तमिति तदर्थे विशेषणम्, एवं च स्त्रीत्वविशिष्टे भावेऽकतरि च कारके वाच्ये क्तिः प्रत्यय इति फलितम् पत्रादेरपवादः । कार इति-अत्र स्त्रीत्वाविवक्षणादस्याप्रवृत्या घत्र ॥९१॥ श्यादिभ्यः ।।३।६२। एभ्यो धातुभ्यो भावाकोः क्तिः स्यात् । श्रुतिः । प्रतिश्रुत् । संपत्तिः ।संपत् ।६२। श्यादिभ्य०-। वक्ष्यमाणैः क्विबादिभिः सह समावेशार्थ वचनम् । श्रट श्रवणे' अनेन स्त्रियां क्तौ कित्त्वाद् गुणाभावे-श्रुतिरिति, एवं सम्पदादिगणपाठात् 'कत्सम्पदादिभ्यः क्विप'।५।३।११४। इति क्विति 'हस्वस्य तः पित्कृतिः' ।४।४।११३। इति तागमे च प्रतिश्रुत् इति । 'षद्लु विशरणगत्यवशादनेषु' अतः क्तौ-संपत्तिः, क्विपि च-संपत् 'स्त्रीखलना अलो बाधकाः, स्त्रियाः खलनौ' इति न्यायेन विशिष्य विहिती खलनो परत्वादेनं बाधेते ॥१२॥ समिणासुगः ॥५॥३॥६३। संपूर्वादिण आपूर्वात्सुगश्च भावाकोः स्त्रियां क्तिः स्यात् । समितिः । आसुतिः ॥६३। समिणासुग०-। 'समज०' ५।३।६६। इत्यनेन सुग इणश्च क्यप विधास्यते, स क्ति बाधेतेति तद्वाधनायेदम् । ‘इंक गतौ'सम्पूर्वादतोऽनेन क्तौ-समितिः। 'पुग्ट अभिषवे' आङपूर्वादतोऽनेन क्तौ-आसुतिः ॥१३॥ सातिहेतियूति जूतिज्ञप्तिकोत्तिः ।५।२।६४॥ एते भाराकोः क्त्यन्ता निपात्यन्ते । सातिः । हेतिः । यूतिः । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ४०७ ) जूतिः । ज्ञप्तिः । कोत्तिः ॥१४॥ साति--सातिरिति-'पिंग्ट् बन्धन' इत्यस्य इकारस्य, 'पिंग्ट अभिषवे' इत्यस्योकारस्य चात्वं निपात्यते, 'षोंच अन्तकर्मणि' अस्य ओकारस्य 'आत् सन्ध्यक्षरस्य' ।४।२।१। इत्यात्वे जाते तस्य 'दोसो' ।४।४।११॥इति इत्वे प्राप्ते तद भावश्च निपात्यते,तथा च त्रयाणामपि सातिरितिभवतीति भावः।हेतिरिति-हिंट गतिवृद्धयोः अस्य इकारस्य एकार:, 'हनंक हिंसाग' त्योः इत्यस्यान एकारो वा निपात्यते, तथा च द्वयोरपि हेतिरिति भवतीतिभावः । यूतिः,जूतिरिति-'युक् मिश्रणे' 'जुगतौ अनयोर्दीर्घत्वं निपात्यते इत्यर्थः । ज्ञप्तिरिति ='जाण' मारणादिनियोजनेषु' मारणादयो 'मारणतोषण०' ।४।२।३०। इति सूत्रोक्ताः; तेषु नियोजने चार्थे जानातिश्चु रादिः, चुरादित्वात् णिचि 'अति' ।५।२।२१। इति प्वागमे ‘मारण.' ।४।२।३०। इति ह्रस्वे ‘णेरनिटि' ।४।३।८३ इति णिलोपे च ज्ञप्तिः। 'कृ तण संशब्दने' संशब्दनं ख्यातिः, कृतः कीतिः' ।४।४।१२३। इति कीर्तादेशे णिचि क्तो णिलोपे च कीर्तिः । आभ्यां 'णिवेत्त्या०' ।५।३।१११। इति ण्यन्तलक्षणोऽनो न भवति निपातनात् ॥१४॥ गापापचो भावे ॥५॥३॥६५॥ एभ्यो भावेस्त्रियां क्तिः स्यात् ।सङ्गीतिः । प्रपीतिः । पक्तिः।१५। गापाo-। 'गा' शब्देन 'गै शब्दे' 'गांङ् गौ' इत्युभयो हणम्, गामादाग्रहणेष्वविशेषः' इति न्यायात्, 'गै' इत्यस्य 'आत् सन्ध्यक्षरस्य' ।४।२।१। इत्यात्वे. 'गा' इति भवनाश्च । आभ्यामनेन क्तौ 'ईर्व्यञ्जने०' ।४।३।८७। इत्याकारस्य ईत्वे-संगीतिरति । 'पा' इति गापचिसाहचर्यात पिबतेहणम्, पाधातोः प्राग्वदीत्त्वे-प्रपीतिरिति । 'डुपचीष् पाके' इति पचधातोश्चस्य 'चजः कगम्' ।२।१।८६। इति कत्वे पक्तिः । सामान्यविहितस्य क्त बधिक्स्य 'उपसर्गा०' ।५।३।११०। इति प्राप्तस्याङो बाधकोऽयं योगः, पचेस्तु'षितोऽङ् ।५।३।१०७। इत्यङ् प्राप्त इति तद्बाधकोऽप्ययंः योगः।६५। स्थो वा ॥५॥३॥६६॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०८ ) स्थोभावे स्त्रियां तिर्वा स्यात् । प्रस्थितिः । आस्था ॥६६॥ स्थो वा = | पूर्ववदङोऽपवादः 'ष्ठां गतिनिवृत्तौ इति स्थाधातोरनेन 'दोसो०' |४|४|११ । इतीत्वे प्रस्थितिरिति । वावचनाद् ' उपसर्गा०' |५|३|११० । इत्यङि - आस्था ॥ ६६ ॥ आस्यटिव्रज्यजः क्यप् ॥५॥३॥६७॥ एभ्यो स्त्रियां क्यप् स्यात् । आस्ता । उट्या । व्रज्या । इज्या 112011 आस्यटि०० - । 'आसिक् उपवेशने' आस्या | 'अट गतौ - अट्या | 'व्रज गतौ' - व्रज्या | 'यजीं देवपूजासंगतिकरणदानेयु' अतः क्तौ ' जादि ० ' |४|१|७६ इति वृति- इज्या । पित्करणमुत्तरत्र तागमार्थम् ॥६७॥ भृगो नाम्नि ||३|६| भृगो भावे स्त्रियां संज्ञायां क्यप् स्यात् । भृत्या | नाम्नीति किम् । भृतिः ॥ ६८ ॥ भृगो०- 1 भरणं भृत्या, 'भृग् भरणे' 'टंडुभू' ग्क् पोषणे च' चकाराम धारणे, अतोऽनेन स्त्रियां भावे क्यप् तागमश्च । भृतिरिति - 'स्त्रियां क्तिः ||३|८१ इति क्तिः ॥ ॥ समजनिपन्निषद्शीङ्सुग्विदिचर मिनीणः ||३|६६ । एभ्यो भावाकत्रः स्त्रियां नाम्नि क्यप् स्यात् । समज्या । निपत्या । निषद्या । शय्या । सुत्या । विद्या । यर्या । मन्या । इत्या | नाम्नीत्येव । संवीतिः ॥६॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०६ ) समज.-। योगविभागाद्भाव एवेति निवृत्तम् । समजल्यस्वामिति साबज्या। निपतन्त्यस्यामिति-निपत्या। निषदनं निषीदन्त्यस्यामिति वानियम । मेरतेऽस्वामिति विङति थि सब' ४१३।१०॥ इति शम्या । सबनं सुन्वन्त्यस्यामिति वा-सुत्या । वेदनं विदन्ति तस्यां तया वा हितादितमि. तिविद्या । चरणं चरन्त्यनयेति वा-चर्या । मननं मन्यतेऽनयेति वा-मन्या । अयनमेत्यनयेतिवा-इत्या । सम्पूर्वादजेः क्तौ 'अघन ०। ।४।४।२२ इति वींभावे-संवीतिः ॥१६॥ कृगः शच वा ।।३।१००। कृगो भावाकोः स्त्रियां शो वा स्यात्,क्यप् च क्रिया । कृत्या । कृतिः ॥१०॥ कृग०- 'डुकृग् करणे अतोऽनेन शे 'रि: शक्याऽऽशीर्ये' ।४।३।११०। इति तो 'रि' इत्यादेशे 'धातो:०' ।२।१।५०। इतीयादेशे-क्रिया, क्यपि तु तागमे-कृत्या । अस्य वैकल्पिकृत्वात् पक्षे क्तो कृतिः । क्रियेति यदा भावकर्मणोः शस्तदा मध्ये क्यः भवति, न तु इयादेश इति वेद्यम् ।।१०।। मृगवेच्छायामातृष्णाकृपाभाश्रद्धाऽन्तौं ।।३।१०१। एते स्त्रियां निपात्यन्ते ॥१०१॥ मृगयेच्छा - 'इच्छा' भावे निपात्यते, शेषास्तु भावाक!ः । मृगयः श: शव च क्यापवादो निपात्यते-मृगया। इच्छतेः शः क्याभावश्च-इच्छा। याचितृष्योर्ननङो-याञ्चा, तृष्णा । क्रपेरङ रेफस्य च ऋकार:-कृपा । भातेरङ-भा । श्रत्पूर्वादन्तपूर्वाच्च दधातेरङ-श्रद्धा, अन्तर्द्धा ॥१०॥ परेः सृचरेर्यः ।।३।१०२॥ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ४१० ) वाटाटयात् ।।३।१०३॥ अटेर्यङन्तात् स्त्रियां मावाकोंर्यो वा स्यात् । अटाट्या । अटाटा ॥१०॥ वाटाट्यात०-। अटाटयति धातुपाठऽदृष्टत्वादाह-अटेर्यडन्तादिति 'अट' गतो' भृशं पुनः पुनर्वा अटनमिति अयति०'।३।४।१०। इति यङि' 'स्वरादेद्वितीयः' ।४।१।४। इति द्वितीयस्यैकस्वररांशस्य ‘टय' इत्यस्य द्वित्वे पूर्वस्यानादिव्यञ्जनलोपे 'आगुणा०' ।४।१।४१॥ इत्यस्य आकारे च 'अटाट्य' इति यङन्तो धातः, ततोऽनेन ये 'अतः' ४।३।८। इत्यकारलोपे 'योऽशिति' ।४।३।८०। इति यलोपे स्त्रियामापि च-अटाट्या । अस्य वैकल्पिकत्वात् पक्षे शंसिप्रत्ययात्' ।५।३।१०५॥ इत्यप्रत्यये प्राग्वदकारस्यकारयोर्लोपे स्त्रियामापि च-अटाटा १०३॥ जागुरश्च ।।३।१०४॥ जागुः स्त्रियां भावाककोरः, यश्चस्यात् । जागरा, जाग।१०४॥ जागुरश्च०-। 'जागृक् निद्राक्षये' अतोऽप्रत्यये, गुणे,, स्त्रियामापि चजागरा, जागर्या ॥१०४॥ श सिप्रत्ययात् ।।३।१०५॥ शंसेः प्रत्ययान्तात् च भावाकों स्त्रियामः स्यात् । प्रशंसा। गोपावा ॥१०॥ शंसिप्रत्ययात्। 'शंसू स्तूती च' चकाराद् हिंसायाम, अतोऽनेन 'अ' प्रत्यये स्त्रियामापि च= प्रशंसा । 'गुपौ रक्षणे' अतः 'गुपो घूप०' ।३४११ इति स्वार्थे आयप्रत्यये उपान्त्यगुणे च 'गोपाय' इति प्रत्ययान्ताद् धातोरनेन 'अ' प्रत्यये पूर्वाकारलोपे स्त्रियामापि च=गोपाया। 'शंस्' Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( ४११ ) धातोरूदित्त्वात् 'ऊदितो वा' ।४।४।४२। इति. क्त वायां वेट्त्वम्, बेटत्वाच्च क्त परे 'वेटोऽपतः' ।४।४।६२। इतीटो निषेधात् ‘क्त टो०' ५।३।१०६। इत्यप्रत्ययो न प्राप्नोति, तत्र तट इत्युक्तत्वात्, तथा च 'अ' प्रत्ययविधानार्थमत्र शंसेरुपादानम् ।।१०।। क्त टोगुरोर्व्यञ्जनात् ।।३।१०६॥ तस्येट यस्मात् ततो गुरुमतो व्यञ्जनान्ताद्धातो वाकत्रों: . स्त्रियामः स्यात् । ईहा। क्तेट इति किम् । स्रस्तिः । गुरोरिति किम् । स्फूतिः। व्यञ्जनादिति किम् । संशीतिः ॥६०६॥ क्तेटो०=। 'ईहि चेष्टायाम्' अतोऽनेन 'अ' प्रत्यये स्त्रियापि ईहा। स्रस्तिरितिस्रसूङ अवस्रसने' अस्योदित्त्वात् क्त वि वेट त्वेन 'वेटोऽपतः' ।४।४।६२। इति क्त इटो निषेधेन तऽनिटत्वादस्या-प्रवृत्त्या स्त्रियां तो 'नो व्यञ्जनस्या०' ।४।२।४५॥ इति नलोपे-स्रस्तिः। 'स्फुर्जा विस्मृतो' अस्यादित्त्वात् 'आदितः' ।४।४।७। इतीटो निषेधाद-निट्त्वमिति स्त्रियां क्तो 'राल्लुक' ।४।१।११०। इति छ्लोपे 'भ्वादे०' ।२।१।६३॥ इति दीर्घत्वे दिर्हस्वरः' ।१।३।३श इति द्वित्वे च स्फत्तिः । संशीलिरिति-- 'शीङक स्वप्ने' अत्र व्यञ्जनान्तत्वाभावादस्या प्रवृत्त्या स्त्रियां क्तो= संशीतिः १०शा षितोऽङ् ।।३।१०। षितो धातोर्भावाकतो: स्त्रियामङ् स्यात् । पचा ॥१०॥ षितोऽङ =। 'डुपचीष् पाके' अस्य पित्त्वादनेन स्त्रियामङि आपि च= पचा। 'जष्च् जरसि' 'वर्णदृशोऽङि' ।४।३।७। इति गुणे-जरा। ॥ १०७॥ भिदादयः ।।३।१०८। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१२ । एते भावाकगों : स्त्रियामङन्ता यथालक्ष्यं निपात्यन्ते । भिवा । शिवा ॥१०॥ भिवादयः- 'भिह पी विदारणे' अतोऽनेनाडि ङित्त्वाद्गुणाभावे स्त्रियामापि च-भिदेति-विदारणमित्यर्थः, अन्तिरे तु भित्तिरिति भवति, कुण्यमित्युच्यते । 'छिह पी द्वैधीकरणे'-छिदा-वेधीकरणमित्यर्थः, अर्थान्तरे तु छित्तिरिति, चौर्यादिकरणाद्राजापराध उच्यते । । । एकत्सर्व निपातवाल्लभ्यम्, उक्त वद-अकृतस्य क्रिया चैव, प्राप्तेाधनमेव च । अधिकार्थविवक्षा च, त्रयमेतन्निपातनात् ॥१०॥ भीषिभूषिधिन्ति पूजिकविकुम्बिनिस्पहिलोलिदोलिभ्यः १४३१०६। एल्यो यन्तेभ्यः स्त्रियां भावाकत्रों रङ् स्यात् । भीमा भूषा । चिन्ता। पूजा । कथा । कुम्बा । चर्चा | स्पृहा । तोला। दोला। भीषि०-। ण्यन्तत्वादने प्राप्ते वचनम् । 'त्रिभीक भये' णो 'बिभेतेीष च'।३।३।१२। इत्यात्वे भीषादेशेऽनेन स्त्रियामङि आपि च-भीषा । 'भूष अलंकारे' अतो णौ स्त्रियामङि आपि च-भूषा । “चिनु स्मृत्वाम्-चिन्ता। 'पूजण पूजायाम्'--पूजा । 'कथण वाक्यप्रबन्धे'-कथा। 'कुक्या भाच्छादने -कुम्बा । 'चर्षण अध्ययने-चर्चा | स्पृहण ईप्तायाम्'–स्पृहा । तुलण उन्माने'-तोला । 'दुलण उत्क्षेपे'–दोला । स्पृहेरदस्तत्वाद जो न गुणः, एवं कथेरूपान्त्य-वृद्ध्यभावः । सर्वत्र 'णे निर्टि' ।४।३८३। इति णिलोपः ॥१०६।। उपसर्गादातः ।।३।११०॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ ) . उपसर्ग पूर्वादादन्तात् स्त्रियों भावाकओरङ् स्यात् : उपदा । उपसर्गादिति किम् । दत्तिः ॥११०॥ उपसर्गा-"डुदांगक दाने" उपपूर्वस्यास्य स्त्रियामहि 'इनपुसि' । ३६४ इत्याकारलोपे आपि च-उपदा । दत्तिरिति-अत्र 'दत्' ।४।४।१०। इति.. ददातेर्ददादेशः ।।११०॥ णिवेत्त्यासश्रन्यघट्टवन्देश्नः ॥५॥३॥१११॥ ण्यान्तावत्यादिभ्यश्च स्त्रियां भावाकोंरनः स्यात् । कारणा। वेदना । आसना । श्रन्थना । घट्टना । बन्दना ॥१११॥ णिवेत्त्यास०–'डुकृग् करणे' अतो णिगि वृद्धौ ‘कारि' इत्ययतोऽनेन स्त्रियामने 'णेरंनिटि' ।४।३।८३॥ इति णिलोपे ‘आत्' ।२।४।१८। इत्यापिकारणा। 'विदक ज्ञाने' अतोऽने उपान्त्यगुणे च-वेदना । 'आसिक उपवेशने' अतोऽने-आसना। 'श्रथुङ शैथिल्ये' शैथिल्यमगतढता, 'श्रन्थश मोहनप्रति हर्षयो' अनयोः-श्रन्थना। घट्टि चलने' अस्य-घट्टना । 'वदुङ् स्तुत्यभिवादनयोः' अस्य-वन्दना । वेत्तीति तिन्निर्देशो ज्ञानार्थपरिग्रहार्थः ॥१११॥ इषोऽनिच्छायाम् ।।३।११२। अनिच्छादिषेः स्त्रियां भावाकत्रो रनः स्यात् । अन्वेषणा । आनि छायामिति किम् । इष्टिः ॥११२॥ इषोनिच्छादार्थाद-नुपूर्बादनेन स्त्रियामने उपान्त्यमुणे आपि च-अन्वेषणा। . इष्टिरिति-'तवर्गस्य०' ।१।३।६०। इति षयोगे सकारस्थ टकारः ॥११२।। पर्यधेवा ।।३।११३॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१४ ) आम्यां परादनिच्छादिषे वाकयों: स्त्रियामनो वा स्यात् । पर्येषणा । परीष्टिः अध्येषणा, अधीष्टिः ॥११३॥ रष्वर्णा० ।२।३।६३। सूत्राण्णकारः ॥११३।। कुत्संपदादिभ्यः क्विप् ॥५॥३॥११४।। कधादिभ्योऽनुपसर्गभ्यः पदादिग्यश्च समादिपूर्वभ्यः स्त्रियां भावाकयों: किरप् स्यात् । क्रुत् । युत् । संपत् । विपत् ॥११४॥ क्रुघसंपदा-"क्रुधंच कोपे" कुत्-'विरामे वा' ।१।३।५१। इति घस्य तकारः । 'युधिंच संप्रहारे'-युत् । 'पदिच् गतौ' अतस्सोपसर्गात् स्विपि-- संपत्, विपत् ॥११४॥ भ्यादिभ्यो वा ।।३।११५ एभ्यः स्त्रियां भावाकयों: क्विप् वा स्यात् । भीः । भौतिः । ह्रीः ह्रीतिः ॥११॥ भ्यादिभ्यो वा-"त्रिभीक भये'-भीः, भीतिः । 'ह्रींक लज्जायाम'-ह्रीः ह्रीतिः ॥११॥ व्यतिहारे ऽनीहादिभ्यो अः ॥५॥३॥११६॥ व्यतीहारविषयेभ्य ईहादिवर्जेभ्यो धातुभ्यः स्त्रियां अः स्यात्, बाहुलका. वे । व्यावक्रोशी। अनीहादिभ्य इति किम्-व्यतीहा । व्यतीला ॥११६॥ व्यनिहारे--"व्यतिहरणं-व्यतिहारः, परस्परस्य कृतप्रतिकृतिः अन्येना Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१५ ) . चरितस्य कार्यस्यानुकरणमिति यावत् । 'कुशं प्राह्वानरोदनयो:' परस्परमाक्रोशनमित्यनेन त्र 'नित्यं त्रत्रिनोऽण' |५|३|५८ । इति स्वार्थेऽणि 'अत्र'०' | २|४| २० | इति ङ्यां च व्यावक्रोशी- अत्र 'य्वः' | ७|४|५| इत्का न भवति 'नत्रस्वाङ्गादेः | ७|४|| इति निषेधात् । परस्परमीहेति - व्यतीहा, ईक्षि दर्शने' परस्परमीक्षणं - व्यतीक्षा, उभयत्र 'क्त' टो० ' |५|३|१०६ | इति स्त्रियामप्रत्ययः ।। ११६ ।। नञोऽनिः शापे | ५|३|११७ । नमः पराद्धातोः शापे गम्ये भावाकत्रः स्त्रियामनिः स्यात् । अजननिस्ते भूयात् । शाप इति किम् । अकृतिः पटस्य ॥११७॥ नत्रोऽनिः० – शापोऽनिष्टार्थाशंसनम् आकोश इति यावत् । 'जनैचि प्रादुभवे' प्रादुर्भाव उत्पत्तिः नञ्पूर्वादतोऽनेनानी- अजननिस्ते भूयादितिअयथाकारिणस्ते उत्पत्तिरेव मास्तु, उत्पन्नस्य वासत्त्वं भवतु येनानुत्पन्न इव प्रतीयेथाः । अकृतिः पटस्येति - अत्र 'नत्र ' ।३।१।५१ | इति समासः, नात्र शापोऽपि तु तत्त्वकथनमिति नास्य प्रवृत्तिः ।।११७।। ग्लाहाज्यः | ५|३|११८ । एभ्यः स्त्रियां भावाकत्रो रनिः स्यात् । ग्लानिः । हानिः । ज्यानिः ॥ ११८ ॥ ग्ला० - 'ग्लै हर्षक्षये' हर्षक्षयो धात्वपचयः, 'आत् सन्ध्यक्षरस्य' | ४|२|१| इत्यात्वेऽनेनानी - ग्लानिरिति - बलहीनते - त्यर्थः । 'ओहांक् त्यागे' – हानिरिति अपचयः । ' ज्यांश् हानौ'- ज्यानिरिति - अपचयः ॥ ११८ ॥ प्रश्नाख्याने वेञ ५|३ | ११६ प्रश्ने आख्याने च गम्ये स्त्रियां भावाकत्रों र्धातोरिव् वा स्यात् । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१६ ) कt कारि, कारिकां, क्रियां, कृत्यां, कृति, वा अकार्षीः । सर्वो aft, afrai rai, कृत्यां, कृति, वा अकार्षम् ॥ ११६ ॥ , प्रश्ना० - । डुकुं ग् करणे' अतोऽनेन वा इत्रि वृद्धौ च कारिमिति । वावचनात् 'पर्याया०' |५| ३ | १२० । इति स्त्रियां णके वृद्धौ आणि 'अस्या०' २|४|१११। इत्यस्येकारे - कारिकामिति 'कृग: ० ' | ५ | ३ | ११० । इति शः क्यष् च भवति, तत्र भावे थे 'क्यः शिति' 1४/३१७० । इति क्ये रिशक्या ०' ४ | ३ |११० । इति ऋतो 'रि' इत्यादेशे आपि च- क्रिसमिति, क्यपि ताग मे - कृत्यमिति । तौ — कृतिमिति । यथा प्रश्ने तथाख्यानेऽपीत्याहकारमित्यादि ॥ ११६ ॥ तु पर्यायार्णोत्पत्तौ च णकः । ५।३।१२० । एष्वर्थेषु प्रश्नाख्यानयोश्च गम्ययोः स्त्रियां भावाकर्द्धातोर्णकः स्वात् । मचचः आसिका । भवतः शायिका । अर्हसि त्वमक्षकाम् । ऋणे इक्षुभक्षिकां मे धारयसि । इक्षुमक्षिका उदपादि । कां कारिकामकार्षीः । सर्वां कारिकामकार्षम् 11 १२०11 पर्यायाऽर्हणो० - क्त्याद्यपवादः । पर्यायः - क्रमः परिपाटिरिति यावत् । अर्हणमई:- योग्यता । उत्पत्तिर्जन्म | 'आसिक् उपवेशने' अतोऽनेन स्त्रियां के आपि 'अस्या०' | २|४|१११ । इत्यकारस्येत्वे च भवत आंसिका, 'कर्तरि' | २२८६ | इति कृतः कर्तरि षष्ठी, एतावत्कालं मयाऽन्येन वाऽऽसनमधिष्ठितमिदानीं भवतः क्रमः प्राप्त इत्यर्थः । ' शी स्वप्ने' अतो के वृद्धावापि इत्वे च - भवतः शायिका । 'भक्षण् अदणे' इति चुरादिः, अतो णिचि णके णिलोपे आपि इत्वे च भक्षिका, इक्षूणां भक्षिकेति प्राग्वत् समासे - अर्हसित्वमिक्षभक्षिकामिति । ऋणे इक्षुभक्षिकां मे धारयसीतिइक्षुभक्षणमृणत्वेन धारयसीत्यर्थः । एतौ पूर्वमुक्तो - अर्हणेत्यस्योदाहरणौ । इदानीमुत्पत्तीत्यस्योदाहरणं वक्ष्यते— इक्षुभक्षिका उदपादीति - उत्पन्नेत्यर्थः । प्रश्ने आख्याने च प्राग्वद् ज्ञेयम् प्रश्न ख्यानयोगेऽपि पर्यायादिषु परत्वात् क एव भवति, नेत्र ॥१२१॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१७ ) नाम्निः पुंसि च ।।३।१२१॥ धातोः परो भावाकोः स्त्रियां संज्ञायां णकः स्यात् यथालक्ष्यं पुसि च । प्रच्छरिका। शालभजिका। अरोचकः ॥१२१॥ नाम्नि०-। प्रच्छर्दनं प्रच्छद्य तेऽनयेति वा-प्रच्छदिका--रोगसंज्ञेषा । शालो वृक्षविशेषः, शाला भज्यन्ते यस्यां सा--शालभञ्जिका-एवं नामा क्रीडेत्यर्थः । सि चेत्यस्योदाहरणमाह-अरोचक इति–अरोचनं न रोत्र तेऽस्मिन्निति वा--अरोचकः ।।१२१॥ भावे ।।३।१२२॥ धात्वर्थनिर्देशे धातोर्णकः स्यात् । शायिका ॥१२२॥ . भावे०-: 'शीक् स्वप्ने' इत्यस्य वृद्धावायादेशे आपि 'अस्या०'।२।४।१११ इत्यकारस्यत्वे च शायिका ॥१२२॥ क्लीबे क्तः ।।३।१२३॥ नपुंसके भावे धातो क्तः स्यात् । हसितं तव । क्लीबे इति किम् । हासः ॥१२३॥ प्रलो-- पत्राद्यपवादः। स्त्रियां भावाकोरिति च निवृत्तम् । ननु 'तत् साप्या०' ।३।३।२१। इति सूत्रेणैव लिङ्गत्रयसाधारण्येन भावकर्मणोः क्तस्य विधानाद्भावे च नपुंसकत्वस्य स्वतः सिद्धत्वेन सामान्यसूत्रेणेव सिद्ध सूत्रमिदं व्यर्थमिति चेत् ? अनोच्यते-'भूते' इत्यधिकृत्य 'क्तक्तवतू' ।५।१।१७४। इत्यनेन क्तप्रत्ययविधानात् तस्यैवार्थे 'तत् साप्या०' ।३।३।२१॥ इत्यने भावकर्मणी कथिते, अनेन तु कालसामान्ये नपुसके भावे को विधीयते । यद्यपि 'क्लीबे' इत्यस्याभावेऽपि धात्वर्थरूपे भावे कस्यापिलिङ्गस्यासत्वेन सामान्ये नपुंसकमिति नियमान्नपुसकत्वं प्राप्तम्, घनाद्यन्तानां Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१८ ) भावार्थकत्वेऽपि सामान्य विहितत्वेऽपि च पुस्त्वम् नुशासनवशात्, तथापि सामान्यतो भावमात्रे विधाने घनादीनां बाधकत्वमस्य न स्यादिति तदर्थ नपुंसकत्वविशिष्टे भावे विधानमावश्यकम् । किञ्च तत् स.प्या०।३।३।२१ इति सूत्रेणाकर्मकेभ्य एव क्तस्य भावे विधानमनेन च सकर्मकेभ्योऽपीति 'गतं तिरश्चीनमनूरूसारथेः' इत्यादिप्रयोगाः सकर्मकेभ्योऽपि विहिताः । तथा चावश्यकमेवास्य पृथग्विधानमिति । 'हस हसने अतोऽनेन क्त स्याद्य० ।४।४।३२। इतीटि-हसितं तवेति-अत्र 'कर्तरि' ।२।२।८६। इति षष्ठी। हास इति-अत्र क्लीबत्वाभावादस्याप्रवृत्त्या: भावाकों: ।५।३।१८। इति घनि-हासः ॥१२३।। अनट् ।।३।१२४॥ क्लीबे भावेऽर्थे धातोरनट् स्यात् । गमनम् ॥१२४॥ अनट्०-। योग बिभाग उत्तरत्रानड्मात्रस्यानुवृत्त्यर्थः । ढकार उत्तरत्र ड्यर्थः ॥१२४॥ यत्कर्मस्पर्शात्करृङ्गसुखं ततः ॥५॥३॥२५॥ येन कर्मणासंस्पृष्टस्य कर्तुरङ्गस्य सुखं स्यात्ततः पराद्धातोः क्लीबे भावे ऽनट् स्यात् । पयपानं सुखं । कर्मेति किम् । तूलिकाया उत्थानं सुखम् । स्पर्शादिति किम् । अग्निकुण्डस्योपासनं सुखम् । कति किम् । शिष्येण गुरोः स्नापनं सुखम् । अङ्गति किम् । पुत्रस्य परिष्वजनं सुखम् । सुखमिति किम् । कण्टकानां मर्दनम् । नित्यसमासार्थमिदम् ॥१२५॥ यत्कर्मस्पर्शा०-। पयः पानं सुखमिति–पयसः पाने शरीरोपः चयेन पान-. कालेऽमि तस्य जिह्वया स्पर्शात् शरीरे हषों जायत एवेति शरीरसुखोत्पत्तिनियता । तूलिकाया उत्थानं सुखमिति--उत्पूर्वात् स्थाधातोः पूर्वेणान Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( ४१६ ) टि 'उदः स्था०' ।१।३।४४। इति सलोपे-उत्थानमिति, अस्तीह कर्तु : शरीरसुखए, नतु कर्मणा संस्पृष्टस्य तिहि ? आदानेन तलिकाख्येन। तूलिकोत्थितो हि जनः प्रातः स्वशरीरसुखमनुमवति, स्वाप-समये च तदनुभवाभावादिति तलिक यां शयनमिति न प्रत्युदामृतम् । शिष्येण गुरोः स्नापनंसुवमिति ष्णांक शोचे' असो णिगि अति ही०।४।२।२१।इति प्वागमः,अन स्नापयतेन गुरुः कर्ता, किं तहि ? कर्म । पुत्रस्य परिष्वजनं सुखमिति= "ध्वजित् सङ्गे' परिपूर्व', 'स्वञश्च' ।२।३॥४५॥ इति सस्य षत्वम् । अत्र शरीरस्य सुखं तदा विज्ञायेत, यदि पुत्र स्पृष्टे तद् दृश्येत, अस्पृष्टे न दृश्येत, न च तथा भवतीति न शरीरस्य सुखम् ततः च पुत्रे स्पृष्टे रोमहर्षादिदर्शनादस्पृष्टे चादर्शनात् तत् शरीर सुखमेवेति वाच्यम्, तथा सति पत्रमात्रस्पर्शनात् सुखं दृश्येत, नहि परपुत्रस्पर्श तद् दृश्यते, तथाहि-स्वजन्यावविशिष्टपुत्रस्पर्शज्ञानेन सुखमिति न शरीरस्य तत्, नहि शरीरसुखोत्पादक वस्तु विज्ञातमेव सुखमुत्पादयति ना-विज्ञातम्,अजानन्नपि हिस्वत्वादिना पय आदिवस्तुनि नत्यानात् सुखमनुभवति शरीरं चास्योपचीयते, न तथा पुत्रस्पर्गेन, रोमहर्षादि तु ज्ञान-जन्यमेव, न तत्र स्पर्शो हेतुः, अस्पृष्टऽपि कस्मिञ्चिद्वस्तुनि दृष्टमात्रे स्मृतमात्रे वा तद्धर्षदर्शनात्, तथा च तत्र मानस्येव प्रीतिरिति । अमेन सूत्रेण प्रत्ययाभावात् ‘ङस्युक्त०' ।३।१।४८। इति सूत्रेण समासस्य सर्वत्र प्रत्युदाहरणेऽभाव इति वेद्यम् । पूर्वेण सिद्ध किमर्थं सूत्रमित्याह-नित्यसमासार्थमिति । अयमाशयः-पूर्वेण प्रत्यये कर्मणो डस्यक्तत्वाभावात् समासो न स्याद् अनेन प्रत्यये तु कर्मणो ङस्युक्तत्वात् ‘ङस्युक्त० ।३।१।४६। इति स्यादितिं ॥१२५॥ रम्यादिभ्यः कर्तरि ।।३।२६। एभ्य कर्तरि अनट् स्यात् । रमणी । कमनी ॥१२६॥ रम्यादिभ्यः०-। 'रमि क्रीडायाम्' अन्तर्भावितण्यर्थो सकर्मकः, रमते इ-त्यनटि टित्त्वात् स्त्रियां छीप्रत्यये रमणी, रमयति सि. मित्यर्थः । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।।१२६।। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२० ) . . कारणम् ।।३।१२७॥ कृगकर्तर्यनट् वृद्धिश्च स्यात् । कारणम् ॥१२७॥ कोरणम्--। करौंतीति–कारणमिति ॥१२७॥ .FHTTE7' - भुजिपत्यादिभ्यः कर्मापादाने ॥३॥१२॥ भुज्यादः कम्मणि पत्याचापादानेऽनट् स्यातः । भोजनम् । निरदनम् । प्रपतन । अपादानम् ।।१२८॥ भुजि० । भुज्यते इति भोजनम् । निरदन्ति तदिति-निरदनमिति । . प्रपतत्यस्मादिति प्रपतनः । अपाददात्यस्मादिति=अपादानम् ॥१२८॥ करणाधारे ।।३।१२६॥ अनयोरर्थयोर्धातोरनट् स्यात् । एषणी । संक्तुधानी ।।१२।। करणाऽऽधारे। 'भावाकोः ।५।३।१८। इत्यादिमा सामान्यतो भाषाकोंर्घनादयो विहिताः, अयं तु तद्विशेषे करणे आधारे घेति विशेषविहितत्वात् 'सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत्' इति घत्रादीनामपवादोऽयम् । 'इषत् इच्छायाम्' इष्यतेऽनयेति एषणी। धीयतेऽस्यामिति=धानी, सक्तूनां धानी=सक्त धामी ।।१२६।। पुन्नाम्नि घः ।।१३।। पुसः संज्ञायाँ गन्यायां धातोः करणाधारयोंघः स्यात् । इन्सच्छदैः । किरः । पुमिति किम् । विश्वयनी । नाम्नीति किम् । प्रहरणो दण्डः ॥१३०॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२१ ) पुन्नाम्निघः । छाद्यतेऽनेनेतिछदः, दन्तानां छदः दन्तच्छदः ओष्ठ इत्यर्थः । एत्य कुर्वन्त्यस्मिन्नित्याकर इति खनिरित्यर्थः विचीयतेऽनयेति-विचयनीतिस्त्रीना मेदमिति नास्य प्रवृत्तिः । ग्रहरणो दण्ड इति ह्रीयतेऽनेनेति योगार्थोऽत्र न संज्ञेति नास्य प्रवृत्तिः । घकारः 'एकोपसर्गस्य ० ' | ४|२|३४| इत्यत्र विशेषणार्थः ॥१३०|| गोचर संचर वहव्रजव्यजखलापणनिगमबकभगकषाकषनिकषम् ||५|३|१३१ ॥ एते करणाधारयोः पुन्नाम्ति धान्ता निपात्यन्ते । गोचरः । संचरः । वहः । व्रजः । व्यजः । खलः । आपणः । निगमः । बकः । बाहुलकावर्त्तरि भगः । बाहुलका गम् । कषः । आकषः । निकषः ॥ १३१ ॥ गोचर० - । गावश्चरन्ति अस्मिन्निति अस्मिन्निति - गोचरः । व्युत्पत्तिमात्रमिदम्, विषयस्य तु संज्ञा - ' अनेकान्तात्मक वस्तुगोचरः सर्वसंविदाम्' । संचरन्तेऽनेनेति-संचर इति कलेवरमित्यर्थः वहन्ति ते--नेति - त-वहःवृषस्कन्धदेशः । वृजन्त्यस्मिन्निति-ग्रजः गोसम्बन्धी समूहः । व्यजत्यनेनेतिव्यज इति निपातनाद्वभावाभाव:, व्यजः -- तालवृन्तमिति प्रतीयते । खलन्त्यस्मिन्निति--खलः -- दुर्जन इत्यर्थः । एत्य पणायन्त्यस्मिन्निति-आपणो - हट्ट इत्यर्थः, 'अशवि ० ' | ३ | ४ | ४ | इति विकल्पेन - यविधानादाया भावपक्षे रूपम् । निगच्छन्ति तत्रेति = निगम इति - नगरीत्यर्थः, निगमः पन्थाः, निगच्छत्यनेनेत्यभिघानचिन्तामणिः, निमच्छन्ति तत्र तेन वा निगमः पुटभेदनं शास्त्रं चेति पारायणम् । वक्तीति - बकः -- न्यङ्क्वादित्वात् कत्वं ववयोरैक्यं च ननु करणाधिकरणयोरस्मिन् सूत्रे निपातनं तथापि कथं कर्तरि वक्तीति वाक्यमिति चेत् ? अत्राह - बाहुलकात् कर्तरीति । भज्यतेऽनेनास्मिन् वा - भगः, 'भजीं सेवायाम्' इति धातुः, 'क्त' नि०' | ४|१|१११ ॥ इति जस्य गः, भज्यते आश्रीयतेऽनेन कृत्वा लोकै रालोक इति भगः सूर्यः, भज्यतेऽनेनास्मिन् वा भगः स्त्रीचिह्नम्, पुंसि क्लीबे चायम्, ननु घान्तस्य पुंस्त्वानुशासनात् कथं क्लीवत्वमित्याह Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२२ ) बाहुलकाद्-भगमिति । 'केष हिंसायाम्' कषत्यस्मिन्निति--कषः-शाणः । आगत्य कषत्यस्मिन्निति-आकषः । निकषत्यस्मिन्निति--निकष:शाणः ॥१३१॥ व्यञ्जनाद् घन ॥५॥३॥१३२। व्यञ्जनान्ताद्धातोः पुन्नाम्नि करणाधारयोर्घ स्यात् । वेदः ॥१३२॥ व्यञ्जना०-घस्यापवादः । विदन्त्यनेन विन्दति विन्दते वा-वेदः, - अत्र. विग्रहवाक्ये क्रमेण 'विदक् ज्ञाने' 'विद्लुती लाभे' 'विदिप विचारणे' इति . धातुः ।।१३२॥ अवात्तृ स्तृभ्याम् ॥५॥३॥३३॥ आभ्यामवपूर्वाभ्यां करणाधारयोः पुन्नाम्नि घञ् स्यात् । अवतारः । अवस्तारः ॥१३३॥ अवात् । अवतरन्त्यनेनास्मिन् वेति-अवतारः, 'तृ प्लवन-तरणयोः, इति प्लवनं मज्जनम्, तरणमुल्लङ्घनम्, नद्यादीनामवतरणमार्गोऽवतारः । 'स्त गश् आच्छादने' अवस्तृणन्त्यनेनास्मिन्निति वा--अवस्तारो जवनिका तृ स्तृभ्यामिति द्विवचनं करणाधार इति यथासंस्यनिवृत्त्यर्थम् ।।१३३॥ न्यायावायाध्यायोद्यावसंहारावहाराधारदारजारम् ।५।३।१३४॥ एते पुन्नाम्नि करणाधारयोर्घजन्ता निपात्यन्ते । न्यायः । अवायः। अध्यायः। उद्यावः । संहारः । अवहारः । आधारः। दाराः । जारः ॥१३४॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२३ ) न्याया० - - 1 स्वरान्तार्थ आरम्भः । निपूर्वस्येणो नीयतेऽनेनेति--न्यायः । एत्य वयन्ति वायन्ति वा तत्रेत्यावायः । अधीयतेऽनेनास्मिन् वा -- अध्यायः । उद्य ुवन्ति तेन तस्मिन् वा उद्यावः । संहरन्ति तेन --संहारः । अवहरन्ति तेन तस्मिन् वा -- अवहारः । अध्रियते तत्रेत्याधारः । दीर्यन्ते एभिरितिदाराः । जीर्यतेऽनेनेति - जारः ॥ १.३४ || उदङ्को तो । ५/३/१३५०. उत्पूर्वादञ्चः पुन्नाम्नि करणाधारयोर्घञ् स्यात् नचेत्तोयविषयो धात्वर्थः । तैलोदङ्कः । अतोय इति किम् । उदकोदञ्चनः ।। १३५।। उदङ्गको० न चेत् तोयविषयो धात्वर्थ इति जलं चेत् तेन भाजनेन नोदच्यत ==न व्यापार्यते इत्यर्थः । 'अञ्च गतौ च' चात् पूजायाम् तैलमुदच्यते उद्धियतेऽनेनास्मिन् वेतितैलोदङ्कः, चर्ममयं भाण्डमित्यर्थः । उदच्यतेऽनेन उदङ्कः, तैलस्योदङ्कः-तैलोदङ्कः 'कृति' | ३|१|७७ | इति षष्ठीसमासः, त्रि 'क्त' निट' : ० |४|१|१११ | इति चस्य कत्वम् ' म्नां०' ||३|३८| इति नस्य ङत्वं चात्रावसेयम् । उदकमुद च्यतेऽनेन पात्रणेति वाक्यम्, अत 'करणाधारे' | ५ | ३|१२६ । इत्यनडेव भवतीति भाव: । 'व्यञ्जना० ' |५|३|१३२ | इति सिद्ध तोये प्रतिषेधार्थं वचनम् । नह्य त्पूर्वस्याञ्चतेर्घत्रि घे वा रूपे विशेषोऽस्तीति घत्रि प्रतिषिद्ध े घे सति विशेषाभावेन प्रतिषेधस्य वैयर्थ्यं स्यादिति तत्सार्थक्याय घोऽपि न भवति ।। १३५ || आनायो जालम् | ५|३|१३६ । आङ्पूर्वान्नियः कारणाधारे पुन्नाम्नि जालार्थे घञ स्यात् । आनायो मत्स्यानाम् ॥१३६॥ आनायो जालम् — आनयन्ति तेनेति - आनायो मत्स्यानामिति ॥१३६॥ | Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२४ ) खनो डडरेकेकवकघञ्च ।।३।१३७। खने पुन्नाम्नि करणाधारयोरेते घञ्च स्युः । आख: । आखरः। आखनिकः । आखनः । आखान ॥३७॥ खनो०-'खनूग अवदारणे' अतः आसायते आखन्यते वाऽनेनारिमन् वेतिआख इत्यादयः । एते खनित्रवचना इति कौमुदीकारः ॥३७॥ इकिस्तिवस्वरूपार्थे ।५।३।१३८॥ धातो स्वरूपेऽर्थे च वाच्ये एते स्युः । भञ्जिः । कृधिः । वेत्तिः । अर्थ-यजेरङ्गानि । भुजिः क्रियते । पचति परिवर्तते ॥१३८॥ किश्तिव-भजिरिति-अत्रे प्रत्ययः, भब्धातुरित्यर्थः, कुधिरिति धधातुरित्यर्थः, अत्र किप्रत्ययः । 'विदक ज्ञाने' इति 'विद्धातोः पितवि उपान्त्यबुणे च-वेत्तीति, विद्धातुस्त्यिर्थः येजेरङ्गानीति-यजधातोरिप्रत्यये किस्वाभावात् वृदभावे च यजेरिति-देवपूजादेरित्यर्थः । भुजिरिति-अत्र किप्रत्ययः, पालनमभ्यवहारो वेत्यर्थः । 'डुपचीष् पाके' इति पितवि शित्त्वात् शवि विकरणे च पचतिरिति-पाक इत्यर्थः, अत्र बाहुलकाद् भावेऽपि शव क्यभावश्च भवति । क्वचिदेभ्यो विनापि स्वरूपत एत्र धातुनिर्देशो यथा पूर्वसूत्र खन इति, तत्र वाहुलकात् तदभावः समाधेयः, अनुकरणत्वेन भेदविवक्षायाऽप्रवृत्तिर्वाऽस्तु ।।१३८।। दुःस्वीषतः कृच्छाकृच्छार्थान्खल् ।५।३।१३६। कृछवृत्तेदुरोऽर्थादकृच्छ्रवृत्तिभ्यां च स्वीषड़यां पराद्धातोः खल् स्यात् । दुःशवम् । दुष्करः । सुशयम् । सुकरः ईषच्छयम् । ईषत्कर। कृच्छाकृच्छार्थ इति किम् । ईषल्लभ्यं धनम् ॥१३६॥ . दुःस्वीषतः- कृच्छ्-दुःखम् । अकृच्छ-सुखम् । न चान 'दुर्' शरदरय Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२५ ) , 1 1 1. सुखार्थत्वं संभवति, नवा सुशब्दस्य दुःखार्थत्वम्, अथ च द्वावुक्तौ शब्दास्त्रयः, तत्र कस्य शब्दस्य कि विषयत्वमिति यद्यपि न्यायेन निर्णेतुमशक्यम्, तथापि स्वयोग्यताबलादेव कस्य किमर्थविषयकत्वमिति निश्चेयभित्याहकृच्छ्रवृत्तेदुरोऽर्थादकृच्छवृत्तिभ्यां च स्वीषयामिति-अर्थादित्युभयान्त्रयि, अर्थात् —तदर्थाभिधानयोग्यताया इत्यर्थः तथा च यतो दुर: कृच्छार्थाभिधानयोग्यताऽतस्तदर्थविषयत्वं तस्य, सुशब्दस्य सुखार्थाभिधानयोग्यतेति तदर्थपरत्वं तस्य ईषतश्च यद्यपि नोभयमध्ये कस्याप्यर्थस्याभिधाने योग्यता पूर्वा, तथापि दुःखमल्पमपि बहु विज्ञायते, सुखं ववपि स्वरूपं विज्ञायत इति लौकिकानुभवबलेन तस्य सुखविषयत्वं कल्पयितुं शक्यत इति तस्याप्यकृच्छार्थ परत्वमेव निर्णेयमिति भावः । ' तत् साप्या०' | ३ | ३|२१| इत्यनेन खलस्य भावकर्मणोविधिः । दुःशयमि त्यादि, – दुःखेन शय्यते, दुःखेन क्रियते इत्यादि वाक्यं विज्ञेयम् । दुःशयम्, सुशयम्, ईषत्शयमित्यत्र भावे खल, धातोरकर्मकत्वात् अन्यत्र कर्मणि धातोः सकर्म कत्वात् ईषल्लभ्यं घऩमिति - अल्पं लभ्यमित्यर्थ, अत्र शकित कि'० | ५|२८| इत्यनेन पवर्गान्तलक्षणो यः कृत्यादीनामपवाद: । खकार उत्तरत्र मागमार्थः, लकारः ‘खलर्थाश्च' इत्यत्र विशेषणार्थः । इह स्त्रीप्रत्ययात् प्रभृति असरूपविधेरभावात् स्पर्धे ‘अल: स्त्रीखलनाः स्त्रियास्तु खलनी' परत्वात् भवतः । तत्र 'चयः, जयः, लवः, इत्यादावलोऽवकाश:, 'कृतिः, हृति' इत्यादी स्त्रीप्रत्ययस्य, 'चितिः स्तुतिः, इत्यादी तूभयं प्राप्नोति, अलोऽ विशेषेणाभिधानात्तव परत्वात् स्त्रीप्रत्ययो भवति । तथा 'दुर्भेद:, सुभेद: इत्यादी खलोsवकाशः, अलस्तु पूर्व एव दुश्चयम्, सुचयम्, दुर्लवम्' इत्यादी तूभयप्राप्तौ परत्वात् खल् भवति । तथा इध्मव्रश्चनः, पलाश - च्छेदनः इत्यादावनस्यावकाशः, अलस्तु पूर्वक एव, 'पलाशशातनो विलवनः' • इत्यादी तूभयप्राप्तौ परत्वादनो भवति । एवं 'हृतिः, कृतिः' इत्यादी स्त्रीप्रत्ययस्यावकाश: 'दुर्भदः, सुभेद:' इत्यादी खलः, 'दुर्भेदा, सुभेदा' इत्यादावुभयप्राप्तौ परत्वात् खल् भवति । तथा 'इध्मव्रश्चनः पलाशछेदनः ' इत्यादावनस्यावकाश, कृतिरित्यादौ स्त्रीप्रत्यस्य, 'शक्तुधानी, तिलपिडनी' इत्यादी तूभयप्राप्तौ परत्वादनडेव भवति । च्व्यर्थे कर्माप्याद् भूकृगः | ५ | ३|१४० । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२६ ) कृच्छाकृच्छार्थेभ्यो दुःस्वीषद्भ्यः पराभ्यां च्व्यर्थवृत्तिकर्तृ कर्मवाचिभ्यां यथासङ्ख्यं भूकृग्भ्यां परः खल स्यात् । दुराढय भवम् । स्वाढय भवम् । ईषदाढय भवं भवता। दुराढय करः। स्वाढयकरः । ईषदाढय करश्वे त्रस्त्वया । च्व्यर्थ इति किम् । दुराढच न भूयते ॥१४०॥ व्य० च्व्यर्थवृत्तिकर्तृ कर्मवाचिभ्यामित्यत्र पराभ्यामिति शेषः, तेन 'च्व्यर्थवृत्तिकर्तृ कर्मवाचिभ्यां पराभ्यां यथासंख्यं भूकृग्भ्या मिति अर्थो लभ्यते । दुःखेनानाढय नाढ्य न भयत इति=दुराढ्य भबं भवता। सुखेनानाढय नाढय न भूयते स्वाढयं भवम्, ईषदाढ्यंभवं भवता । दुःखेनानाढ्य आढ्यः क्रियते-दुराढ्यंकरश्चैत्रत्वया । सुखेनानाढ्यः आढ्यः । क्रियते स्वाढ्यंकरः, ईषदाढ्यंकरश्चैत्रस्त्वया । सर्वत्र 'खित्यनव्यया०'. ।३।२।१११। इति मागमः ॥१४०।। . शासूयुधिदृशिधृषिमृषातोऽनः ।।३।१४१॥ कृच्छकृछार्थदुःस्वीषत्पूर्वेभ्य एभ्य आदन्ताच्च धातोरनः स्यात् । दुःशासनः । सुशासनः । ईषच्छासनः। एवं दुर्योधनः । सुयोधनः । ईषद्योधनः । दुर्दर्शनः । दुर्धर्षणः। दुर्मर्षणः । दुरुत्थानम् ॥१४१॥ शासू०=| खलोऽपवादोऽयं योगः । 'तत् साप्या०' ।३।३।२१। इति भावकर्मणोरयं विधि: । दुःखेन शिष्यते इति दुःशासनः । सुखेन शिष्यते= सुशासनः, ईषच्शासनः ।।१४१॥ * इति पञ्चमाध्यायस्य ततीयः पादः । * शास्त्रो ना शब्द काजे, सकल जगत नी साथ झझूमे । भक्तो जेना सदाये, गुरुवर कही, पाद अंगूठ चूमे ॥ . व्याख्याता विश्व ना ओ, जिवचन कही सद्य संसार तारो। __सूरि श्री रामचन्द्र ! प्रवरगणनिधे ! वन्दना ने स्वीकारो॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पञ्चमाध्याये चतुर्थः पादः - - सत्सामीले सद्वद्वा ।श४।१। समीपमेव सामीप्यं, वर्तमानस्य सामीप्ये भूते भविष्यति चार्थे वर्तमानाद्धातोर्वर्तमाना इव प्रत्यया वा स्युः। कदा चैत्र । आग तोसि । अयमागच्छामि। आगच्छन्तमेव मां विद्धि । पक्षे। अयमागमम् । एषोऽस्म्यागतः। कदा चैत्र गमिष्यसि । एष गच्छामि । गच्छन्तमेव मां विधि। पक्षे। एष गमिष्यामि । गन्तास्मि । गमिष्यन्तमेव मां विद्धि ॥१॥ सत्सामीप्ये०=| सामीप्यमिति-- अन्त 'भेषजादिभ्यष्ट्यण' ।७।२।१६४। इति स्वार्थे ट्यण् । 'वर्तमाना इव प्रत्यया वा' स्युरिति-कोऽर्थः ? उच्यते-'सति' ।५।२।१६। इति सूत्रादारभ्यापादपरिसमाप्तेविहिताः' स्युरित्यर्थः । अयमागममिति–'गम्लु गौ' अतो वर्तमान-समीपे भूतेऽद्यतन्या अम्प्रत्यथः, 'लदिद्० ३।४।६४। इत्यङ च । एषोऽस्म्यागत इत्यत्र गत्यर्थत्वात् भते कर्तरि क्तः, धातोरनिट्त्वाच्च नेट, प्रत्ययस्य कित्त्वाच्च मलोपः । कदा चैत्र ! गमिष्यसीति-भविष्यन्त्याः स्यसिप्रत्ययः, 'गमोऽनात्मने' ।४।४।५१। इति चेट ॥१॥ भूतवच्चाशंस्ये वा ।।४।२। अनागतस्यार्थस्य प्राप्तुमिच्छा आशंसा तद्विषय आशंस्यः, तदर्थाद्धातोभूतवत्सद्वच्च प्रत्यया वा स्युः । उपाध्यायश्चेदागमत् । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४.८ ) एते तर्कमध्यगीष्महि । उपाध्यायश्चेदागच्छति। एते तर्कमधीमहे। पक्षे । उपाध्यायश्चेदागमिष्यत्यागन्ता बा । एते तर्कमध्येष्यामहे । अध्येतास्महे वा। आशंस्य इति किम् । उपाध्याय आगमिष्यति । तर्कमध्येष्यते मैत्रः ॥२॥ भूतवच्चा०-। आशंस्यस्य भविष्यत्त्वादयमतिदेशः । गम्धातोरद्य-.. तन्याः प्रथमत्रिकैकवचनेऽङि–आगमत् । 'इंक् अध्ययने' नित्यमधिपूर्वः, अतोऽद्यतन्यास्तृतीयत्रिकबहुवचने महिप्रत्यये सिचि 'वाऽद्यतनी.' ।९।४।२८। इति गीङादेशे ङित्त्वावणाभावे च-अध्यगीष्महि ॥२॥ क्षिप्राशंसार्थयोर्भविष्यन्तीसप्तम्यौ ।।४।३। क्षिप्राशंसार्थयोरुपपदयोराशंस्यार्थाद्धातोर्यथासङ्ख्यं भविष्यन्तीसप्तम्यौ स्याताम् । उपाध्यायाचेदागच्छति। आगर त् । आगमिष्यति । आगन्ता। क्षिप्रमाशु एते सिद्धान्तमध्येष्यामहे । उपाध्यायचेदागच्छति । आगमत् । आगमिष्यति । आगन्ता वा आशंसे संभावये युक्तो ऽधीयीय ॥३॥ क्षिप्रा०-। यथासंख्यमिति-क्षिप्रार्थे भविष्यन्ती, आशंसावाचिनि चोपपदे सप्तमीत्यर्थः। 'भूतवच्चा०' ।।४।२। इत्यस्मिन् प्राप्तेऽस्यारम्भः । क्षिप्रार्थे उपपदे पूर्वसूत्रवारणाय क्षिप्रार्थे नेति योगे वक्तव्ये भविष्यन्तीवचनं श्वस्तनीविषयेऽपि भविष्यन्ती यथा स्यादित्येवमर्थम । तेन उपाध्यायश्चेच्छ्वः शीघ्रमागमिष्यति, एते श्वः क्षिप्रमध्येष्यामहे' इत्यत्र भवष्यन्ती सिद्धा। उपाध्यायश्चेदागच्छति, आगमत् इति-पूर्वेण वर्तमाना अद्यतनी च । आगमिष्यति, आगन्तेति-पूर्वस्य वैकल्पिकत्वात् पक्षे भबिष्यन्ती श्वस्तनी च । क्षिप्रमाशु एते सिद्धान्तमध्येप्यामहे इति-- अत्र क्षिप्रार्थे उपपदेऽनेन भविष्यन्ती । आशंसे संभावये युक्तोऽधीयीयेतिअत्राशंसायोगेऽनेन सप्तम्यामधीयीयेति । क्षिप्रवाचिनि आशंसावाचिनि चोपदे सप्तम्येव भवति शब्दतः परत्वात् =आशंसे क्षिप्रमधीयीय ।।३।। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२६ ) सम्भावने सिद्धवत् ।।४।४। हेतो शक्तिश्रद्धानं सम्भावनं, तस्मिन्विषयेऽसिद्धेऽपि वस्तुनि सिद्धवत् प्रत्यया । समये चेत्प्रयत्नोऽभूदुदभूवन्विभूतयः ॥४॥ सम्भावने०=| सम्भावनं व्याचष्टे हेतोः शक्ति श्रद्धानमिति=कारणे कार्योत्पादशक्तेविश्वास इति भावः । समये चेत् प्रयत्नोऽभूद् उदभूवन् विभूतय इति=यद्यषि प्रयत्नस्याप्यनिष्पन्नत्वमेवेति कारणसत्ताप्यनिश्चिता, तथापि कारणस्यापि कारणे सति कारणस्यापि सम्पन्नत्वं सम्भाव्यते, प्रयत्नकारणभूताया इच्छायाः सत्त्वेन प्रयत्नस्यापि सम्पनत्वेन सम्भावना । तथा च विभत्युइवे कारणभूतस्य प्रयत्नस्य विभूत्युदावने विश्वास इह प्रयोक्त विवक्षित इति ॥४॥ नानद्यतनः प्रबन्धासत्त्योः ।।४।। धात्वर्थस्य प्रबन्धे आसत्तौ च गम्यायां धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो न स्यात् । यावज्जीवं भृशमन्नमदात्, दास्यति वा । येयं पौर्णमास्यतिकान्ता एतस्यां जिनमह प्रावत्तिष्ट । येयं पौर्णमास्यागामिन्येतस्यां जिनमहः प्रतिष्यते ॥५॥ नाऽनद्यतनः=। प्रवन्धः सातत्यम। आसत्तिः सामीप्यम्, तच्च कालतः, . • सजातीयेन कालेनाव्यवहितकालतेति यावत् । भूतानद्यतने भविष्यदन द्यतने श्नस्तनी विहिता तयोः प्रतिबंधोऽनेन सूत्रेण । यावज्जीव भशमन्नमदात्, दास्यति वेति=दाधातोरद्यतन्याः सिचि 'पिबेति'०।४।३।६६। इति तस्य लोपे अदात्' इति, अनान्नदानस्य जीवनान्तर्गतवादिकालसमकालाव्यकहितत्वं गम्यम, न तु सर्वकार्यपरित्यागपूर्वकमन्नदानमानपरत्वमसम्भवात्, एवमन्यत्रापि योज्यम्, एतौ प्रबन्धे उदाहरो ज्ञेयो, पूर्वं भतानद्यतने परं भविष्यदनद्यतने । आसत्तावदाहरति=येयमित्यादि, 'वृतङ वर्तने' प्रपूदितोऽद्यतनीत सिधि इटिगुणेऽटि पत्वं च-प्रावत्तिष्ट ।।५।। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३० ) एष्यत्यवधौ देशस्यार्वाग्भागे ।।४।६। देशस्य योऽवधिस्तद्वाचिन्पुपपदे देशस्यैवाग्भिागे य एष्यन्नर्थस्तद्वत्तेधातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो न स्यात् । योऽयमध्वा गन्तव्य आ शत्रजयात् तस्य यदवरं वलन्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्ष्यामहे । एष्यतीति किम् । यो ऽयमध्वा अतिक्रान्त आ शत्रुञ्ज- .. यात्तस्य यदरं वलभ्यास्तत्र युक्ताद् द्विरध्यमहि । अवधाविति किम् । योयमध्वा निरवधिको गन्तव्य स्तस्य यदवरं वलभ्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्तास्महे । अर्वाग्भाग इति किम् योयमध्वा गन्तव्य आ शत्रु जयात्तस्य यत्परं वलभ्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्तास्महे । एष्यत्यवधी०=। अप्रबन्धार्थमनासत्त्यर्थ च वचनम् । यद्यय्यनद्यतन इति प्रकृतं तथापीहष्यतीतिवचनात् श्वस्तन्या एव निषेधः । योऽयमध्वा गन्तव्य इत्यादि शत्रजयावधिकमार्गस्य यदवरं वलभ्याः सकाशात् तत्रेत्याद्यर्थः, 'भुजंप पालनाभ्यवहारयोः' भूनजोऽत्राणे' ।३।३।३७॥ इत्यात्मनेपदे भविष्यन्त्याः ष्यामहेप्रत्यये जस्य 'चजः कगम्' ।२।११८६। इति गत्वे 'अघोषे०' ।१।३।५०। इति गस्य कत्वे 'नाम्यन्तस्था०' ।२।३।१५। इति सस्य षत्वे च= भोक्ष्यामहे इति, द्विरिति सुच्प्रत्ययान्तम्, द्वौ वारावित्यर्थः । गन्तव्य इत्यनेन भविष्यत्कालतां दर्शयति, तस्य यदवरमित्यनेनाध्वनो विभागम्, द्विरित्यनेन क्रियाप्रबन्धाभावम् ॥६।।.. कालस्यानहोरात्राणाम् ।।४।७। कालस्य योऽवधिस्तद्वाचिन्युपपदे कालस्यैवाग्भिागे य एष्यन्नर्थस्तद्वत्तेर्धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो न स्यात् । न चेत्सोऽर्वारभागोऽहोरात्राणाम् । योऽयमागामी संवत्सरः तस्य यदवरमानहायण्यास्तत्र जिनपूजां करिष्यामः । अनहोरात्राणामिति Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३१ ) किम् । योऽयं मास आगामी तस्य योऽवरः पञ्चदशरास्तग युक्ताद् द्विरध्योतास्महे ॥७॥ कालस्या =| आग्रहायष्या इति=अग्रं हायनस्येति 'द्वित्रिचतु०' ।३।१।५६। इति समासः, 'पूर्वपद०' ।२।३।६४। इति णत्वम् अग्रहायणमेब 'प्रज्ञादित्वादणि ह्यां= आग्रहायणी, मार्गशीर्षादारभ्य संवत्सरप्रवृत्तेः, मृगशीर्षपूणिमेत्यर्थः । योगविभाग उत्तरार्थः ॥७॥ परे वा ।।४।। वालस्य योऽवधिस्तद्वाचिन्युपपदे कालस्यैव परेभागे ऽनहोरात्रसम्बन्धिनि य एष्यन्नर्थस्तद्वत्तेर्धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो वा न स्यात् । आगामिनो वत्सरस्याग्रहायण्याः परस्ताद् द्विः सूत्रमध्येध्यामहे । अध्येतास्महे वा ॥८॥ परेवा०-। देशस्याग्भिागे' इति परद्वयवर्ज पूर्वसूत्रद्वयमनुवर्तते, तथा च योऽर्थ उपपन्नस्तमाह-वालस्य योऽवधिन्त्यिादिना। प्रबन्धासत्तिविव क्षायामपि परत्वादयमेव विकल्पः-आगामिनः संवत्सरस्याग्रहायण्याः - परस्तादविच्छिन्नं सूत्रमध्येष्यामहे, अध्येतास्महेवा ॥८॥ सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्तौ क्रियातिपत्तिः।।४।६। सप्तम्या अर्थो निमित्तिं हेतुफलकथनादिसामग्री, कुतश्चिद्वैगुण्याक्रियायाऽनभिनिवृत्तौ क्रियातिपत्तौ सत्यामेष्यदर्थाद्धातोः, सप्तम्यथे क्रियातिपत्तिः स्यात् । दक्षिणेन चेदयास्यन्न शकटं पर्याभविव्यत् ॥९॥ सप्तम्यर्थे०-। 'सप्तम्ययर्थे' इति व्याख्याति-सप्तम्या अर्थो निमित्त हेतुफलकथनादिसामग्रीति-सप्तमीपदेन न स्यादिर्लाह्या, अपि तु 'यात्, Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३२ ) माताम, कुस्०' ।३।३।७। इति परिभाषित्ता त्यादिविमत्ति ग्राह्या, अर्थपदेन न धनादिग्राह्यमपितु निमित्तम्, 'वय॑ति०' ।५।४।२५। इति हेतुफलकथने सप्तमी विधीयते, आदिपदेन 'कामोक्ता०' ५।४।२६। इत्यादिसत्रोक्तसप्तमीनिमित्तस्य संग्रहः । दक्षिणेन चेद् अयास्यत् न शकटं पर्याभविष्यदितिअव दक्षिणगमनं हेतुरपर्याभवनं फलम्, तयोः कुतश्चित् प्रमाणाद् भविषयन्तीमनभिनिवृत्तिमवगम्यैवं प्रयुक्ते ॥६॥ भते ।।४।१०। भूतार्थाद्धातोः क्रियातिपत्तौ सत्यां सप्तम्यर्थे कि यातिपत्तिः स्यात् । दृष्टो मया तव पुत्रोऽन्नार्थी चक्रम्यमाणः, अपरश्चातिथ्यों, यदि स तेन दृष्टोऽभविष्यदुताभोक्ष्यत । अयमोक्ष्यत ॥१०॥ 'सप्तम्युता०' ।५।४।२१। इत्यारभ्य सप्तम्यर्थेऽनेन विधाम् । दृष्टो र र तव पुत्रोऽन्नार्थीत्यादि-पुत्रोऽन्नार्थी, अपच कश्चनातिथ्यर्थी, पृथक चक्रम्यमाणो, तयोर्थदि परस्परं मेलनं स्यात. स्यादवश्यं भवतः पत्रो भृक्तवान, स चातिथिलाभेन कृतकृत्य स्यात्, किन्तु मार्गभेदेन तयोगमनात् क्रिया न सम्पन्नेति कथनाभिप्रायः, तथा च हेतुहेतमद्भाविवक्षया न तत्र सप्तमी, किन्त्वनेन क्रियातिपत्तिनिमित्ता क्रियातिपत्तिरेव । दृष्टोऽभविष्यदित्यत्राश्रद्धाया गम्यमानत्वात् ‘जातु०' ।५।४।१७। इति सप्तमीनिमितम् । उताभोक्ष्यतेत्यत्र च 'सप्तम्युता०' ।४।५।२१। इति सप्तमीमित्तम ॥१०॥ वोतात्प्राक् ।।४।११॥ र प्तम्पुसायो ढ इत्यत्र यदुतशब्दसंकीर्तनं ततः प्राक् सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्तौ भूतार्था द्धातोर्वा क्रियातिपत्तिः स्यात् । कणं नाम. संयतः सन्चऽनामाढे तत्र भवानाधायकृतमसेविष्यत, घिग्गर्हामहे । पक्षे । कथं सेवेत ? कथं सेवते ? धिग्गर्हामहे । उतात्प्रागिति Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३३ ) किम् । कालो यदभोक्ष्यत भवान् ॥ ११॥ वात्प्राक् । कथं नाम संयत इत्यादि - संयतः सन् - माधुकरीं वृत्ति भजमानो मुनिजनः सन्, अनागाढे - प्रबलकारणाभावेऽपि तत्रभवान्पूज्यः, आधाय कृतमिति 'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः' | ४ | ३ | ४ | इति समासः, भवन्तं मनसिकृत्य भवत्कृते कृतमाहारमिति यावत्, 'सेवृङ सेवने' इत्यस्य 'असेविष्यत' इति, 'संयतः सन्' इति कथनेन तस्य तादृशकार्यकरणस्य बुद्धिपूर्वकत्वं ध्वनयति, अत एव गर्हा, अबुद्धिकृते हि कर्मणि क्षमा कतु ं शक्यते, न बुद्धिकृते । 'कथमि० ' | ५|४| १३ | इति सप्तमीनिमित्तमत्र । कालो यदभोक्ष्यत भवानिति - 'सप्तमी यदि' | ५|४ | ३४ | इति सप्तमीनिमित्तस्योतात्परत्वेनास्याप्रवृत्त्या 'भूते' | ५|४|१०| इति क्रियातिपत्तिः ||११|| क्षेपेऽपिजात्वोर्वर्त्तमाना | ५|४|१२| क्षेपेगम्येऽपिजात्वोरुपपदयोर्धातोर्वर्तमाना स्यात् । अपितत्र भवान् जन्तून् हिनस्ति, जातु तत्रभवान् भूतानि हिनस्ति, धिग्गह महे ॥१२॥ क्षेपे० o भूत इति निवृत्तम् । क्षेपो गर्हा । कालसामान्ये विधानात् कालविशेषे विहिता अपि प्रत्ययाः परत्वादनेन बाध्यन्ते । अपि तत्र भवानि - त्यादि - इह सप्तमीनिमित्ताभावात् क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिर्नोदाह्रियते ।।१२।। कथम सप्तमी च वा । ५|४|१३| कथं शब्दे उपपदे क्षेपे गम्ये धातोः सप्तमी वर्त्तमाना व वा स्यात् । कथं नाम तत्रभवान् मांसं भक्षयेत्, भक्षयति का गर्हामहे अन्याय्यमेतत् । पक्षे । अबभक्षत् । अभक्षव्रत् । भक्षयांचकार । मक्षयिता । भक्षयिष्यति । अत्र सप्तमी निमित्तम Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३४ ) स्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिः । कथं नाम तत्रभवान्मांसमभक्षयिष्यत् । पक्षे यथाप्राप्तम् । भविष्यति तु क्रियातिपतने नित्यमेव सा । वथंनाम तत्रभवान्मांसमभक्षयिष्यत् ||१३|| कथमि० - । अद्यन्तयाम् - अबभक्षत्, ह्यस्तन्याम् - अभक्षयत् परोक्षायाम्भक्षयाञ्चकार, श्वस्तन्याम् - भक्षयिता, भविष्यन्त्याम् भक्षयिष्यति । क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिरिति - 'वोतात् प्राक्' | ५ | ४ | ११ | इति वा क्रियातिपत्तिरित्यर्थः । नित्यमेव सेति -- 'सप्तम्यर्थे० ' | ५|४|६| इति नित्यमेव क्रियातिपत्तिरित्यर्थः ॥ १३ ॥ किंवृत्ते सप्तमीभविष्यन्त्यौ | ५|४ | १४ | किंवृत्ते उपपदे क्षेपे गये सप्तमीभविष्यन्त्यौ स्याताम् । किं तत्रभवाननृतं ब्रूयाद् वक्ष्यति वा । को नाम कतरो नाम यस्मै तत्रभवाननृतं ब्रूयात्, वक्ष्यति वा ॥ १४॥ किवृत्ते 0 - 1 सर्वविभक्त्यपवाद: अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिः किं तत्र भवाननृतमवक्ष्यत् पक्षे ब्रूयाद् वक्ष्यति च । भविष्यति तु नित्यम् -तत्र भवाननृत मवक्ष्यत ॥ १४ ॥ अश्रद्धामर्षेऽन्यत्रापि |५|४|१५| अकवृत्ते किंवृत्ते चोपपदे अश्रद्धामर्षयोर्गम्ययोः सप्तमीभविष्य - न्त्यौ स्याताम् । न श्रद्दधे न सम्भावयामि तत्र भवान्नामादत्तं गृहणीयात् । गृहीष्यति वा न श्रद्दधे किं तत्रभवानद समाददीत । आदास्यते वा । न मर्षयामि, न क्षमे तत्रभवान्नामादत्तं गृहणीयात्, ग्रहीष्यति वा ॥१५॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३५ ) अश्रद्धा०-क्षेप इति निवृत्तम । अश्रद्धा असंभावना । अमर्षोऽक्षमा। अन्यवेति पदं व्याचष्टे-अकिंवृत्ते इति । सर्वविभक्त्यपवादः। वचनभेदाद् यथासंख्यं नास्ति । न श्रद्दधे न सम्भावयामि इति-अत्र 'सति' ।५।१६। इति वर्तमाना, श्रुत्पूर्वस्य दधातेः श्रद्दधे,सम्पूर्वस्य ण्यन्तस्य भवतेःसम्भावयामि, द्वौ अऽपि समानाथी,नत्रा योगादसम्भावना गम्यते। तत्रभवानित्यादि-अत्रानेन सप्तमीभविष्यन्त्यौ, धातुश्च ‘ग्रहीश् उपादाने' इति, अकिंवृत्ते प्रयोगः अथ किंवृत्ते प्रयोग माह-न-श्रद्दधे किं तत्र भवान् अदत्तेत्यादि अत्र दाधातुः । अमर्षे उदाहरणा-माह-न मर्षयामोत्यादिना ॥१५।। किंकिलास्त्यर्थयोर्भविष्यन्ती ।।४।१६। किंकिलेऽत्स्यर्थे चोपपदेऽश्रद्धामर्षयोर्गम्ययोर्भविष्यन्ती स्यात् । न श्रद्धे, न मर्षयामि कि किल नाम तदभवान्परदारानुपकरिप्यते, न श्रद्दधे,मर्षयामि अस्ति नाम भवति नाम तत्रभवान्परदारानुपरिष्यते ॥१६॥ . किङ्किला०-। सप्तम्यपवादः। किङ्किल इति-किङ्किलेति शब्दसमुदाये उपपदे इत्यर्थः, एतेन किंकिलशब्दयोः प्रत्येकमुपपदत्वं निरस्यति, कस्मात् पुनस्तयोश्च प्रत्येकमुपपदत्वं न भवति ? केवलकिंशब्दस्याश्रद्धामर्षयोवृत्त्यसम्भवात् समुदायस्य च सम्भवात् । वचनभेदादश्रद्धामर्ष इति यथा संख्यं नास्ति । न अद्दधे इत्यादि-उपकरिष्यत इति 'गन्धना०' ।३।३।७६। इतिसूत्रण साहसे आत्मनेपदम्, अत्र सप्तमीनिमित्त नास्तीति क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिर्न भवति ॥१६॥ जातुयद्यदायदौ सप्तमी ।।४।१७। ... एखूपपदेष्वश्रद्धामर्षयोः सप्तमी स्यात् । न श्रद्दधे, न क्षमे जातु तत्रभवान् सुरां पिबेत् ! एवं यत्, यदा, यदि सुरां पिबेत् ॥१७॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६ ) जातुव० 1 भविष्यन्त्यपवाद: । अत्र सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिः न श्रद्दधे न क्षमे जातु तत्र भवान सुरामपास्यत्, पक्ष-विवेत् । भविष्यति तु नित्यम् - जातु तत्र भवान् सुरामपारयत् ॥१७॥ क्षेपे च यच्चयत्रे | ५|४|१८| यच्चयत्त्रयोरुपपदयोः क्ष पेऽश्रद्धामर्षयोश्च गम्ययोः सप्तमी स्यात् । धिग्गहूमहे यच्च यत्र वा तत्र भवानस्मानाक्रोशेत् । न श्रद्दधे न क्षमे यच्च यत्र वा तत्र भवान्परिवादं कथयेत् ॥१८॥ अश्रद्धामर्षयोर्भ - विष्यन्त्याः, क्षेपे तु सर्वविभक्तीनामपवादः । अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिर्भवति घिग गर्हामहे न श्रद्दधे न क्ष - यच्च यत्र वा तत्रभवानस्मानाक्रोक्ष्यत्, पक्षेआक्रोशेत् । भविष्यति तु नित्यम् - धिग् गमहे, न श्रद्दधे न क्षमे - यच्च यत्र वा तत्रभवान् परिवादमकथयिष्यत् || १८ || चित्रे | ५|४|१६| आश्चर्य गम्ये यच्चयत्रयोरुपपदयोः सप्तमी स्यात् । चित्रमा धर्यं यच्च यत्र वा तत्रभवानकल्प्यं सेवेत ॥ १६ ॥ चित्र े – सर्वविभक्त्यपवाद: । अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिर्भवति - चित्रं यच्च यत्र वा तत्र भवानकल्प्य मसेविष्यत्, पक्ष सेवेत । भविष्यति तु नित्यम् - चित्रं यच्च यत्र वा तत्रभवानकल्प्यमसेविष्यत ॥ १६ ॥ शेषे भविष्यन्त्ययदौ | ५|४|२०| यच्चयत्राभ्यामन्यस्मिन्नुपपदे चित्रो गम्ये भविष्यन्ती स्यात् नतु Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३७ ) यदिशब्दे | चित्रमाश्चर्यमन्धोनाम गिरिमारोक्ष्यति । शेष इति किम् । यच्चयत्रयोः पूर्वेण सप्तम्येव । अयदाविति किम् । चित्र यदि स भुञ्जीत ॥ २०॥ शेषे० – 'सर्वविभक्तयपवाद: । चित्रमाश्चर्येत्यादि - अत्र सप्तमीनिमित्तं नास्तीति न क्रियातिपत्तिः । चित्रं यदि स भुञ्जीतेति - अनाश्रद्धाप्यस्तीति 'जातु ० ' | ५|४| १७ | इत्यनेन सप्तमी ||२०|| सप्तम्युताय बढे | ५|४|२१| बाढार्थयोरताप्योरुपपदयोः सप्तमी स्यात् । उतापि वा कुर्यात् । बाढे इति किम् ? उत दण्डः पतिष्यति, अपिधास्यति द्वारम् ॥२१॥ सप्तम्यु० – सर्वविभक्तयपवाद: । उत अपि वा कुर्यादिति - 'डुकृग् करणे' अतोऽनेन सप्तम्यां 'कृग्तुनादेरुः | ३|४|८३ | इत्युप्रत्यये 'नामिनो' | ४ | ३ || इति ऋतो गुणे 'कृगो यि च |४| २ || इत्युलोपे 'अतः शित्युतु' |४|२|| इत्यत उकारे 'कुरुच्छुर: ' | २|१|६६ | इति दीर्घनिषेधे च कुर्यात् । उत दण्ड: पतिष्यतीति - अत्र प्रश्नो गम्यते । अपिधास्यति द्वारमिति'अत्राच्छादनं गम्यते । वोतात् प्रागिति निवृत्तम् । इतः प्रभृति सप्तमीनिमित्ते सति भते भविष्यति च क्रियातिपतने नित्यं क्रियातिपत्तिः उताकरिष्यत् अप्यकरिष्यत् ||२१|| सम्भावनेऽलमर्थे तदर्थानुक्तौ |५|४|२२| अलमोर्थे शक्तौ यत्सम्भावनं तस्मिन्गम्येऽल मर्थार्थस्याप्रयोगे रूप्तमी स्यात् । अपि मासमुपवसेत् । इति अलमर्थ किम् । निदेशस्थायी चैत्रः प्रायेण यास्यति । तदर्थानुक्तादिति किम् । शक्तश्चैत्रो धर्म करिष्यति ||२२|| सम्भावने० – सम्भावनम् - श्रद्धानम् । सर्वविभक्तयपवाद: । अपि मांसमुपवसेदिति - शक्यमनेन मासोवासावायेत्यर्थः । निदेशे - आज्ञायां तिष्ठतीति ग्रहादिभ्यो णिन् | ५ | १|५३ | इति, निर्देशस्थायीत्यादि-नात्र ――――――――― Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३८ ) तस्य गमने सामर्थ्यम्, नवा श्रद्धानं यतः प्रायेण यास्यतीत्युक्त: निदेशस्थायिनाऽसमर्थेनापि गन्तव्यमेव, तत्रापि प्रायेणेत्यूक्तयाऽसामर्थ्यमपि व्यज्यते, यद्यपि श्रद्धाभावोऽप्यत्र तथापि न स वाच्य इति न द्वयङ्गविकलता । अत्र सप्तमीनिमित्तमस्तीति भते भविष्यति च क्रियातिपतने नित्यं कियातिपत्तिर्भवति-अपि पर्वतं शिरसाऽभेत्स्यत् । तथा 'काकिन्या हेतोरपि मातुः स्तनं छिन्द्यात्' इत्यत्र 'क्ष पेऽपि० ।५।४।१२। इति वर्तमानां बाधित्वा, चित्रमाश्चर्यमपि शिरसा पर्वतं भि-न्द्यादित्यत्र तु 'शेषे० ।५।४।२०। इति भविष्यन्ती च बाधित्वा परत्वादनेन सप्तम्येव भवति ।।२२।। . अयदि श्रद्धाधातौ नवा ।।४।२३। संभावनार्थे धातावुपपदेऽलमर्थविषये संभावने गम्ये सप्तमी वा स्यात् नतु यत् शब्दे । श्रद्दधे संभावयामि जीत भवान् । पक्ष, मोक्ष्यते अभुङ्क्त, अभुक्त वा । अयदीति किम् सम्भावयामि, द्र जीत भवान् । श्चद्धाधाताविति किम् । अपि शिरसा पर्वतं भिन्द्यात् ॥२३॥ अयदि०-। पूर्वेण नित्यं प्राप्ते विकल्पः । भोक्ष्यत इत्यत्र भविष्यन्ती । अभूक्त इत्यत्र शस्तनी । अभुक्त इत्यत्राद्यतनी संभावयामि यदित्यादिअत्र पूर्वेण नित्यं सप्तमी । अपि शिरसेत्यादिअत्रापि-पूर्वेण नित्यं सप्तमी। अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते भविष्यति च क्रियातिपतने नित्यं कियातिपत्ति:-संभावयामि नाभोक्ष्यत भवान् ॥२३॥ . सतीच्छार्थात् ॥५॥४॥२४॥ सदर्थादिच्छार्थात्सप्तमी वा स्यात् । इच्छेत् । इच्छति ॥२४॥ सतीच्छार्थात् -। 'इषत् इच्छायाम्' अतः सप्तम्यां वर्तमानायां परतः शविकरणे गमिष०' ।४।२।१०६॥ इति षस्य छे, तस्य 'स्वेरेभ्यः' ।१।३।३०। इति द्वित्वे, 'अघोषे०' ।१।३।५०। इति पूर्वस्य चे-इच्छेत्, Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६ ) इच्छति । 'क्षेपेऽपि० ।५।४।१२। इत्यादावपि परत्वादयं विकल्प:-अपि संयतः सन्नकल्प्यं सेवितुमिच्छेत्, अपि संयतः सन्नकल्प्यं सेवितुमिच्छति, धिग् गर्हामहे । भूतभविष्यतोरभावात् सत्यपि सप्तमीनिमित्ते सत्यपि च क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिर्न भवति ॥२४॥ वय॑ति हेतुफले ।।४।२५॥ हेतुभूते फलभूते च वय॑त्यर्थे वर्तमानात्सप्तमी वा स्यात् । यदिगुरु नुपासीत शास्त्रान्तं गच्छेत् । यदि गुरूनुपासिष्यते शास्त्रान्तं सङ्गमिष्यते । वय॑तीति किम् । दक्षिणेन चेद्याति न शकटं पर्याभवति ॥२५॥ वय॑ति०-। हेतु:-कारणम् फलं-कार्यम् । यदि गुरूनुपासीत शास्त्रान्तं गच्छ दिति-उपपूर्वात् 'आसिक उपवेशने' इत्यतोऽनेन सप्तम्यामुपासीतेति, 'गम्लगती' अतोऽनेन सप्तम्यां गमिष०।४।२।१०६। इति मस्य छ, द्वित्वे, पूर्वस्य चे ज-गच्छेदिति । अस्य वैकल्पिकत्वात् पक्षे भविष्यति भविष्यन्तीत्याह-यदि गुरूनुपासिष्यते शास्त्रान्त गमिष्यतीति-गमोऽनुस्वारेत्त्वेऽपि 'गमोऽनात्मने' ।४।४।५१। इतीटि-गमिष्यति । अत्र गुरूपासनं हेतुः, शास्त्रान्तगमनं फलम् । अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भविष्यति क्रियातिपतले क्रियातिपत्ति:- दक्षिणेन चेदयास्यन्न शकटं पर्याभविष्यत् ॥२५॥ - कामोक्तावकच्चिति ।।४।२६। इच्छाप्रवेदनगम्ये सप्तमी स्यात्, न तु कच्चित्प्रयोगे। कामो मे भुजीत भवान् । अकच्चिदीति किम् । कच्चिज्जीवति मे माता ॥२६॥ कामोक्ता०-। सर्वविभक्त्यपवादोऽयम् । कामो मे भुञ्जीत भवानितिभवानिति-'भुजंप पालनाभ्यवहारयोः' 'भुनजोऽत्राणे०' ।३।३।३७। इत्या Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४० ) त्मनेपदेऽनेन सप्तम्यां भुञ्जीत । कच्चित् जीवति मे मातेति - - मातुर्जीवनमभिलषितमिति कचिच्छब्देन प्रवेदयति । असप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते भविष्यति च क्रियातिपतने नित्यं क्रियातिपत्तिः -- कामो मे भोक्ष्यत भवान् ||२६|| इच्छार्थे सप्तमीपञ्चम्यौ | ५|४|२७| इच्छार्थे धातावुपपदे कामोतो गम्यायां सप्तमीपञ्चम्यौ स्याताम् । इच्छामि भुञ्जती, भुङ्क्तां वा भवान् ||२७|| इच्छार्थे०=।सर्वविभक्त्यपवादोऽयं योगः । अत्र सत्यपि सप्तमीनिमित्ते इच्छार्थे उपपदे कामोौ क्रियातिपतनस्यासामर्थ्येनासंभवात् क्रियातिपत्तिर्न भवति ॥ २७॥ विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाऽधीष्टसम्प्रश्नप्रार्थने । ५४२८. 1 विध्यादिविशिष्ट षु कर्तृ कर्मभावेषु प्रत्ययार्थेषु सप्तमीपञ्चम्यौ स्याताम् । विधिः क्रियायां प्रेरणा । कंटं कुर्यात् । करोतु भवान्, प्रेरणायामेव यस्यां प्रत्याख्याने प्रत्यवायस्तन्निमन्त्रणम् । द्विस=ध्यमावश्यकं कुर्यात् । करोतु । यत्र प्रेरणायामेव प्रत्याख्याने कामचारस्तदामन्त्रणम् । इहासीत । आस्ताम् । प्रेरणेव सत्कापूर्विका अधिष्टम् । व्रतं रक्षेत् । रक्षतु । संप्रश्नः संप्रधारणा । किं नु खलु भो व्याकरणमधीयीय । अध्यये । उत सिद्धान्तमधीयीय । अध्ययै । प्रार्थनं याञ्च । प्रार्थना मे तर्कमधीयी | अध्ययै ॥ २८॥ 1 . सर्वविभक्तयपवादो योगः । ' तत्साप्या ० ' | ३ | ३ |२१| इत्यादिना ये प्रत्यया विहितास्तेषां ये भावकर्मकर्तारोऽर्थास्तेषामयं विध्यादिरर्थो विशेषणमित्याह विध्याविशिष्टेषु कर्तृ कर्मभावेषु प्रत्ययार्थेष्विति ||२८|| Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ( ४४१ ) प्रैषाऽनुज्ञावसरे कृत्यपञ्चम्यौ ।।४।२६ी प्रेषादिविशिष्ट कादावर्थे कृत्याः पञ्चमी च स्युः । न्वत्कारपूविका प्रेरणा प्रेषः । भवता खलुः कटः कार्यः। भवान् कटं करोतु। भवान् हि प्रेषितः, अनुज्ञातः, भवतोऽवसरः कटकरणे ॥२६॥ अनुज्ञा कामचारानुमतिः, अतिसर्ग इति यावत् । अवसरः प्राप्तकालता, निमित्तभतकालोपनतिः । भवता खलु कट: कार्य इति'भवता' इत्यत्र 'कृत्यस्य वा' ।२।२।२८। इति षष्ठीविकल्पनात् कर्तरि तृतीया 'खलु' इत्यवधारणादिद्योतकमव्ययम्, कृत्येन कर्मण उक्तत्वात कट इत्यत्र प्रथमा, 'वर्ण०' ।५।१।१७। इति ध्यणि वृद्धी-कार्यः । एकवैव प्रयोगेऽर्थत्रयस्य संगति दर्शयति-भवान् हीत्यादिना । यद्यपि कृत्याः सामान्येन भावकर्मणोविहितास्तथापि सर्वप्रत्ययापवादभूतया पञ्चम्या बाध्येरन्निति पुविधीयते ।।२९।। सप्तमी चोर्ध्वमौहूत्तिके ।।४॥३०॥ प्रषादिषु गम्येषु ऊर्ध्वमौहूत्तिकेऽर्थे वर्तमानात्सप्तमी कृत्यपञ्चम्यौ च स्युः । ऊर्द्ध मुहूर्तात् कटं कुर्यात् भवान् । भवता कटः कार्यः । कटं करोतु भवान्। भवान् हि प्रेषितोऽनुज्ञातः, - भवतोऽवसरः कटकरणे ॥३०॥ सप्तमी०-। ऊर्ध्वं मुहूर्तादु-परि मुहूर्तस्य भवोऽर्थ ऊर्ध्व मौहूर्तिकः ॥३०॥ स्मे पञ्चमी (५॥४॥३१॥ स्मे उपपदे प्रषादिषु गम्येषु ऊद्ध मौहूंतिकार्थाद्धातोः पञ्चमी स्यात् । ऊर्ध्व मुहूर्तात् भवान् कटं करोतु स्म। भवान् हि प्रेषि Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४२ ) तोऽनुज्ञातः, भवतोऽवसरः कटकरणे ॥३१॥ स्मे पञ्चमी-। कृत्यानां सप्तम्याश्चापवादः। स्मशब्द: स्पष्टार्थक: ॥३१॥ अधीष्टौ ।।४।३२॥ स्मे उपपदे ऽध्येषणायां गम्यायां पञ्चमी स्यात् । अङ्ग स्म विद्वन्नणुव्रतानि रक्ष ॥३२॥ अधीष्टो०- ऊर्ध्व मौहूर्तिक इति निवृत्तम्, पृथग्योगात् । सप्तम्यपवादः । अहिंसासत्यास्तेब्रह्मचर्यापरिग्रहनामानि जैनश्रावकाणां देशतःपालनीयानि पञ्च व्रतानि अणुव्रतान्युच्यन्ते ॥३२॥ . . कालवेलासमो तुम्वाऽवसरे ॥१४॥३३॥ एखूपपदेष्वसरे गम्ये धातोस्तुम्वा स्यात्। कालोभोक्तम्। वेलाभोतुम् । समयो भोक्तुम् । पक्षे । कालो भोक्तव्यस्य । अवसर इति किम् । कालः पचति भूतानि ॥३३॥ कालवेला०-। कालो भोक्तव्यस्येति-अत्र प्रषा०' ।५।४।२९। इति तव्यः । कालः पचति भूतानीति-कथमिह न भवतीति चेद् । उच्यते-कालोऽत्र द्रव्यं न त्ववसर इति, यद्यप्यवसररूपोऽपि कालो द्रव्यमेव द्रव्यभिन्नस्यासत्त्वात्, तथापि स कालत्वेनैव सामान्येन निर्दिष्टो नावसरत्वेन-प्राप्तकालत्वेन इति न भवतीत्यवसरग्रहणस्य सार्थकम् ॥३३॥ सप्तमी यदि ॥४॥३४॥ यच्छब्दप्रयोगे कालादिषूपपदेषु सप्तमी स्यात् । कालो यवधीयोत भवान् । वेला यद्भुञ्जीत समयो यच्छयोत ॥३४॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४३ ) सप्तमी यदि० -। तुमोऽपवादः ॥३४।। शक्तार्हे कृत्याश्च ।।४।३५॥ शक्तेऽहे च कर्तरि गम्ये कृत्याः सप्तमी च स्युः। भवता खलु भारो वाह्यः । उह्य त । भवान् भारं वहेत् । भवान् हि शक्तः। भवता खलु कन्या वोढव्या। उद्यते । भवान् खलु कन्यां वहेत् । भवानेतदहति ॥३५॥ शक्ताह-सप्तभ्या बाधो मा भूदिति कृत्य ग्रहणम् । बहुवचनमिहोत्तरत्र च यथासंख्यनिवृत्त्यर्थम् । भवता खलु भारो वाह्यः, उह्य तेति-'भवता' इत्यत्र कृत्यस्य कर्तरि 'कृत्यस्य वा' इति षष्ठीविकल्पनात् 'हेतु०' ।२।२।४४ इति तृतीया, खलुरवधारणादौ, वहीं प्रापणे' अतो यणि 'ञ्णिति'।३।३।५० इत्युपान्त्यवृद्धौ-वाह्यः, कर्मणि सप्तम्यां क्ये च 'यजादि०' ।४।१७। इति वृति–उह्य त, एतदपेक्षया भवतेत्यत्र स्वतः कर्तरि तृतीया, प्रत्ययो 'तत्साप्या०।३।३।२१।इति कर्मणि। तैःकर्मणः उक्तत्वात्ततःप्रथमा विज्ञेया, उक्तार्थानामप्रयोग' इति हि न्यायः । इदं शक्तार्थे कर्मण्यु दाहृतम् । अधुना शक्तार्थे कर्तर्युदाहरति-भवान् भारं वहेदिति-अत्र 'कर्तरि सप्तमी, तथा च कर्तुरुक्तत्वात् 'भवान्' इत्यत्र प्रथमा, कर्मणोऽनुक्तत्वाच्च भारमित्यत्र द्वितीया । उक्तप्रयोगे शक्तार्थं संगमर्यात-भवान् हि शक्तः इति । क्रमप्राप्तेऽहंथ उदाहरति-भवता खल इत्यादिना ॥३५॥ णिन्चाऽवश्यकाधर्मण्ये ।।४।३६। अनयोर्गम्ययोः कर्तरि वाच्ये णिन् कृत्याश्च स्युः। अवश्यंकारी। अवश्यंहारी । अवश्यांगेयो गीतस्य । शतंदायी । गेयो गाथानाम् ॥३६॥ अवश्यंभाव आवश्यकम् । ऋणेऽधमोऽधमणः, तस्य भाव Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधमर्ण्यम् । णिना बाधा मा भूदिति कृत्यविधामम् । कृत्वात् कतरि णिनो विधानात, तत्साहचर्यात् ताहशा एव कृत्या विधेयाः, तेच . 'भव्यगेय० ।५।१७। इत्यादिना निपातिता एव नान्याः । अवश्यंकारीतिमयूरव्यंसकादित्वात् समासः ॥३६।। अर्हे तृच ।।४।३७। अहे कर्तरि वाच्ये तृच् स्यात् । भवान् कन्याया वोढा ॥३७॥ अहं तच्=। ‘णकतृचौ' ।५।४।४। इति सामान्येन सिद्ध तृज्विधानं 'शक्ताह कृत्याश्च ।५।४।३५॥ इति सप्तम्या बाधा मा भूदित्येवमर्थम् । ॥ ३७ ॥ आशिष्याशी:-पञ्चम्यौ ।॥४॥३८॥ आशीविशिष्टार्थादाशी पञ्चम्यौ स्याताम् । जीयात् । जयतात् । आशिषीति किम् । चिरञ्जीवति मैत्रः ॥३८॥ , आशिष्या०-। आशासनमप्राप्तस्य प्रार्थनमाशी:पदवाच्यम् । जीया- . दिति अन 'दीर्घश्चि०' ।४।३।१०८। इति दीर्घत्वम् । चिरंजीवति मैत्र इति-नात्र प्रार्थनमपि तु वस्तु स्थितिकथनमिति नास्य प्रवृत्तिः । ॥ ३८॥ - - माङयद्यतनी ॥५॥४॥३६॥ माङि उपपदेऽद्यतनी स्यात् । माकार्षीत् ॥३६॥ माझ्यवतनी-। सर्वविभक्तयपवादः । 'डुकृग करणे' अतोनेनाद्यतनीदिप्रत्यये सिचि 'दिस्योरीट्' ।४।४।८६। इतीटि 'सिचि परस्मै समानस्या Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८५ ) - - ङिति' ।४।३।४४॥ इति वृद्धौ ‘अड् धातोः' ।४।४।२६। इत्यत्र 'अमाङा' इति वचनादडभावे-मा कार्षीत् ।।३६।। सस्मे शस्तनी च ।।४।४०॥ स्मयुक्ते माङय पपदे शस्तन्यद्यतनी च स्यात् । मा स्म करोत् । मा स्म कार्षीत् ॥४०॥ सस्मे० -। मा शब्देन निषेध उच्यते, स्मशब्देन च स एव घोत्यते ॥४०॥ धातोः सम्बन्धे प्रत्ययाः ।।४।४१॥ धात्वर्थानां . संबन्धे विशेषणविशेष्यभावे सत्ययथाकालमपि प्रत्ययाः साधवः स्युः। विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो भविता । भावि कृत्यमासीत् । गोमानासीत् ॥४१॥ धातोः । यद्यपि धातुशब्दो भ्वादिष्वेव वर्तते, तथाप्यिभिधेयेभिधानोपचारं कृत्वा धात्वर्थो धातुशब्देन निर्दिष्ट इत्याह धात्वर्थानां सम्बन्धे इति । कः पुनः सम्वन्ध इत्याह-विशेष्यविशेषण भावे सतीति । अयथाकालमपि प्रत्ययाः साधवो भवन्तीति=यो यस्यात्मीय-कालो यथाकात्वम्, 'यथाऽथा' ।३।१।४१। इति वीप्सायां समासः, न यथाकालमयथाकालम् । • एतदुक्त भवति-स्वः स्वैविधायक-वाक्यैर्यत्र, यस्मिन् यस्मिन् काले ये ये विहितास्ततोऽन्यत्र कालेऽपि प्रयुक्ताः प्रत्ययाः साधवो भवन्तीति । उदाहरति = विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो भवितेति='दृशू क्षणे' विश्वं दृष्टवानिति विश्वदश्वा, 'दशः क्वनिप्' ५।१।६६। इति क्वनिप, तत्र वन् अवशिष्यते. 'इस्युक्त कृता' ।३।१।४६। इति समासः, 'अनद्यतने श्वस्तनी' ।५।३।५। इति श्वस्तनीता-प्रत्यये च=भविता, अत्र विश्वदश्वा' इति भूतकाल-प्रत्ययो भनितेति भविष्यस्कालेन' प्रत्ययेनाभिसंबध्यमानः साधुर्भवति, तथा चेह विश्वदश्वाऽस्य पुत्रो भवितेति' भूतकालो भविष्यकालेनापि संबध्यमानो भविष्यत्कालः सम्पद्यते । तथा च कोऽर्थः ? Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४६ ) उच्यते = सोऽस्य पुत्त्रो भविता यो विश्वं द्रष्टेति न च भविष्यत्कालो भूतकालेन संबध्यमानो भूतकालतां प्रतिपद्यते, न ह्यत्रायमर्थः प्रतीयते - सोऽस्य पुत्रो भूतो यो विश्वं दृष्टवानिति, विशेषणं हि गुणत्वात् विशेष्यकालमनुरुध्यते, विशेष्यस्य तु मुख्यत्वान्नानुरुध्यते । भावि कृत्यमासीदिति - भविष्यतीति=भावि, 'भुवो वा' । उणा० ६२२ । इति णित् इन्, 'वत्स्यति गम्यादि:' | ५|३|१ | इति च भविष्यत्त्वम्, 'असक् 'भुवि' अतो ह्यस्तनीदिवि - आसीदिति । सर्वत्र त्याद्यन्तवाच्योऽर्थो विशेष्यः, स्याद्यन्तवाच्यस्तु विशेषणम् । अत्रापि विशेषणं विशेष्यकालतां प्रतिपद्यते । यतोऽत्रायमर्थः प्रतीयते - तत् कृत्यमासीत् यद् भूतमिति । बहुवचनात् अधात्वधिकार - विहिता अपि प्रत्ययास्तद्धिता धातुसम्बन्धे सति कालभेदे साधवो भवन्त्यत आह- गोमानासीत् - इति गावो विद्यन्तेस्येति वर्तमानकालि कसत्त्वविवक्षायां 'तदस्या०' | ७|२| १ | इत्यनेन वर्तमानकालमस्तीत्युपादाय विहितो मतुः 'आसीत्' इति भूतकालान्वयिनि कर्तरि न स्यादतोऽनेन तस्य साधुत्वमाख्यायते ॥। ४१॥ भृशाऽभीक्ष्णे हि स्वौ यथाविधि त-ध्वमौ च तद्य मदि |५|४|४२ | भृशाभीक्ष्ण्ये सर्वकालेऽर्थे वर्त्तमानाद्धातोः सर्वविभक्तिवचनविषये हिस्वt स्याताम् । यथाविधि धातोः संबन्धे यत एव धातोर्यस्मिनेव करके हिस्वा तस्यैव धातोस्तत्कारक विशिष्टस्यैव सम्बन्ध अनुप्रयोगे सति तथा पच्चम्या एव तध्वमौ तयोः सम्बन्धिनि बहुत्वविशिष्ट युष्मद्यर्थे हिस्वौ च स्यातां यथाविधि धातोः सम्बन्धे । लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनातीत्यादि । अधीष्वाध ष्वेत्येवायमधीते इत्यादि । लुनीत लुनीतेत्येवं यूयं लुनीथ । लुनीहि लनीहीत्येवं यूयं लुनीथ । अधीध्वमधीध्वमित्येव यूयमधीध्वे । अधीष्वाधीष्वेत्येवं यूयमधीध्वे । यथाविधोति किम् । लुनीहि . लुनीहीत्येवायं लुनाति, छिनत्ति, लूयते वेति धातोः संबन्धमा भूत् ॥४२॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४७ ) भशाऽऽभीक्ष्ण्ये० - । गुणक्रियाणामधिश्रयणादीनां क्रियान्तरैरव्यवहितानां साकल्येन सम्पत्तिः फलातिरेको वा भृशत्वम् । प्रधानक्रियाया विक्लेदादेः क्रियान्तरैरव्यवहितायाः पौनस्पुन्यमाभीक्ष्ण्यम् । 'धातोः सम्बन्धे' इति पूर्वतोऽनुवृत्तम्, तद्धि यथाविधि ' इत्यनेन सम्बध्यते, तथा च वाक्यद्वयं संपाद्य सूत्र व्याख्याति - भृणाऽऽभीक्ष्ण्ये सर्वकालेऽर्थे वर्तमानादित्यादिना सर्वे भूतभविष्यवर्तमानकाला सन्त्यस्येति बहुव्रीहौ सर्वकाले, अत्र नैकस्मिन्नर्थे सर्व कालत्वं संभवति, किन्तु 'अर्थे' इत्यत्र जातावेकवचनम्, तथा च सर्वकालेष्वर्थेषु इत्यर्थो बोध्यः । अत्र परस्मैपदिभ्यो हिः, आत्मनेपदिभ्यश्च स्वः, तत्र हिः कर्तर्येव, स्वस्तु भावकर्म-कर्तृषु आत्मनेपदस्य सर्वत्र विधानातु, एवं च मध्यमपुरुषैकवचनीयप्रत्ययद्वयमिदमिति मध्यमपुरुषैकवचन एवं प्रयुज्येतेत्याशङ्कावारणायाह - सर्वविभक्तिवचनविषय इति - यदि मध्यमपुरुपैकवचन एवानयोविधानमभिमतं स्यात्, तर्हि तध्वमोर्विषयेऽप्यनयोविधानमनुचितं स्यात् । तौ च पञ्चमीसम्बन्धिनौ ज्ञेयो अन्यथा तयोः विभक्तित्वाभावेन तदन्तस्य पदत्वं न स्यात् । किमविशेषेण हिस्वयोविधानम् ? नेत्याह--यथाविधिधातोः सम्बन्धे इति । धातोः सम्बन्धस्य विध्यनतिक्रमं दर्शयति-यस एव धातोरित्यादिना, अयमाशय:पः - हिस्वौ सकल- विभक्तिवचनविषये भवत इति पूर्वयुक्तम्, तथा च वचनविभक्तिभेदावगमो न स्यात् न च तथा सति साधीयसी अर्थप्रतीतिर्भवतीति स एव धातुर्यथोचितविभक्तिवचनेन सहानुप्रयुज्यत इति पुरुषवचनयोरभिव्यक्तिर्भवति । द्वितीय वाक्यार्थमाह तथा पञ्चम्या एवेत्यादिना यथाविधि धातोः सम्बन्धे इत्यन्तेन यथाविधीत्यस्य देहलीदी पन्यायेनोभयवाक्येऽपि सम्बन्धात् तदन्वयि धातोः सम्बन्धे इत्यप्युभयान्वयीति भावः । तद्यष्मदीत्यस्यार्थमाह- तयोरित्यादिना युष्मद्यर्थे इत्यन्तेन तध्वमौ हि बहुत्वविशिष्टे युष्मदभिधेये भवतः इत्येतदुद्विहितावपि तौ तत्रैवाभिधेये भवि प्यतः । उदाहरति-लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनातीत्यादीति - अतिशयेन वा लवनमिति 'लुनीहि लुनीहि' इत्यस्यार्थः एककर्ता के वर्तमानकालिकं लवनमिति 'लुनाति' इत्यस्यार्थः, इतिशब्दस्तु अभेदान्वये तात्पर्यं ग्राहयति, एवं चातिशयेन पौनस्पुन्येन वा लवनाभिन्नं वर्तमानकालिक मेककर्तृ क लवनमिति वाक्यार्थः । इति - शब्दाभावे च प्रयोगेण सहानुप्रयोगस्यान्वय न 'स्यात्, . आख्यातयोरसत्त्वरूपार्थवाचकयोः स्वतः सम्बन्धस्य दुरुपपादत्वात् । ननु इतिशब्देन व्यवधानात् 'लुनाति' इत्यस्यानुप्रयोगत्वं कथम् ? अनु पश्चादव्यवधानेन प्रयोगो ह्यनुप्रयोग इति चेत् ? इति - शब्दस्य Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ४४८ ) पूर्ववाक्यार्थानुवादकत्वमावेण व्यवधायकत्वाभावान्न दोषः, व्यवधानं हि परेण भवति, इतिशब्दश्च पूर्वोक्तार्थमेवानुवदतीति तस्य न व्यवधायकत्वमिति भावः । अत्रादिपदेन-लुनीहि लुनीहीत्येवेमौ लुनीतः लुनीहीत्येवेमे लुनन्ति इत्याद्य दाहरणानि ज्ञेयानि । एवमुत्तरत्राप्यादिपदेनोदाहरणानि ज्ञेयानि । लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनाति, छिनत्ति, लूयते वेति धातोः सम्बन्धे मा भूदिति-'यथाविधि' इत्यस्य 'यत एव धातोः' इत्याद्यर्थं दर्शयताचार्येण सूचितम्-धातुभेदे कारकभेदे नेदं सूत्रं प्रवतंत इति, .. प्रकृतप्रयोगे च 'छिनत्ति' इत्यस्यानुप्रयोगे धातभेदः, 'लयते' इत्यस्यानुप्रयोगे च कारकभेदः, धातुसाम्येऽपि 'लुनानि' इत्यस्य कर्तरि प्रयोगात् लयते' इत्यस्य कर्मणि प्रयोगात्, तत्रास्य प्रवृत्तिवारणाय यथाविधिग्रहणमावश्यकमिति भावः । लुनीहि लनीहीत्यादौ च भृशाभीक्ष्ण्ये द्विवचनम् ।। ननु च भृगाभीक्ष्ण्ययोर्यङपि विधीयते न तु तत्र द्विवचनम्, इह तु . द्विवचनमित्यत्र को हेतु: ? उच्यते--यङ् स्वार्थिकत्वात् प्रकृत्यर्थोपाधीः भृशाभीक्ष्ण्ये समर्थोऽवद्योतयितुमिति यदभिव्यक्तये द्विर्वचनं नापेक्षते, हिस्वादयस्तु कर्त कर्मभावार्थत्वेनास्वार्थिकत्वादसमर्थाः ,प्रकृत्यर्थोपाधी भृशाभीक्ष्ण्येऽवद्योतयितुमिति तदवद्योतनाय द्विवचनमपेक्षन्ते इति ॥४२॥ प्रचावे नवा सामान्यार्थस्य ।।४।४३॥ धात्वर्थानां समुच्चये गम्ये सामान्यार्थस्य धातोः सम्बन्धे सति धातोः परौ हिस्वी तध्वमौ च तद्य ष्मदि वा स्याताम् । बीहीन वप लुनीहि पुनीहि इत्येवं यतते यत्यते वा । पक्ष । बोहोन वपति लुनाति पुनाति इत्येवं यतते यत्यते वा सूत्रमधीष्व नियुक्तिमधीष्व भाष्यमधीष्वेत्येवमधीते पठ्यते वा । पक्ष। सूत्रमधीते नियुक्तिमधीते भाष्यमधीते इत्येवमधीते पठ्यते वा। प्रोहीन वपत लुनीत पुनीतेत्येवं यतध्वे, । व्रीहीन वप लुनीहि पुनीहीत्येवं चेष्टध्वे । पक्ष । व्रीहीन वपथ लुनीथ पुनीथेत्येवं. यतध्वे । सूत्रमधीष्व नियुक्तिमधीष्व भाष्यमधीष्वेत्येवमधीब्वे । सूत्रमधीष्व, नियुक्तिमधीष्व, भाष्यमधोष्वेत्येवमधाध्वे । पक्ष। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४६ ) . भाष्यमधीध्वे इत्येवमधीध्वे । सामान्यार्थस्येति किम् ? व्रीहीन वप लुनीहि पुनीहि इत्येवं वपति लुनाति पुनातीति माभूत् ॥४३॥ प्रत्ये०-भशाऽऽभीक्ष्ण्ये यथाविधीति च नानुवर्तते । प्रचये-समुच्चय इत्यर्थ इत्याह-धात्वर्थानां समुच्चये इति-स्वतः साघनमेदेन वा भिद्यमानस्य एकत्रानेकस्य धात्वर्थस्याध्यावापे इत्यर्थ । सामान्यार्थस्येतिस्वतः. साधनभेदेन वा भिद्यमानयोर्धात्वोर्धातूनां वा मध्ये योऽर्थः सामान्यतया भासते सर्वेषु स एवार्थो विशिष्य यस्य धातोस्तादशस्य धातोरनुप्रयोगे सतीति भावः । हिस्वाविति-परस्मेपदितो हि, आत्मने पदितः स्वो भवतीत्यर्थ, एवमन्यत्रापि । व्रीहीन् वप लुनीहि पुनीहि इत्यत्र धात्वर्थानां स्वरूपत एव भेद , वपनलवनपवनानां धात्वर्थानां मध्ये यत्नरूपोऽर्थ सामान्यतया भासत इति तदर्थक एव धातुः-यति रनु-प्रयुज्यते, तत्र कर्तृत्वविवक्षायां यतते' इति भावविवक्षायां 'यत्यते' इति चेति सर्वत्र प्रयोगे ऊहनीयम्, अत्रानुप्रयोगार्थेन सामान्येन सह समुच्चीयविशेषाणामभेदान्वयः, तथा. चं वपनाद्यभिन्नो वर्तमानकालिको यत्न इति रूपेण वाक्यार्थ ऊहनीयः, एवं ययासम्भवमन्यत्रापि विज्ञयमिति । व्रीहीन वपेत्यादि-अत्रानुप्रयोगे स्वरूपत एव विशेषात् सामान्यार्थत्वाभावः ॥४३॥ - निषेधेऽलंखल्वोः क्त्वा ।।४।४४। निषेधार्थ योरलंखल्वोरुपपदयोर्धातोः क्त्वा वा स्यात् । अलंकृत्वा । खलुकृत्वा । अलं रुदितेन ॥४४॥ नियेथे०–'क्त्वा वा' स्यादिति–'क्त्वातु० ।।१।१३। इति सूत्रण क्त्वाप्रत्ययस्य भावे विधानम्, भावे च-अनः-क्तोऽन्ये च प्रत्यया विधीयन्ते, तेषा-मप्यवकाशाय पूर्वसूत्रात् नवाग्रहणमनुवर्त्य विकल्पेन क्त्वा-प्रत्ययो विधीयते, अन्यथाऽत्र वाऽसरूपविधेनिवर्ततनेन नित्यमेव तेषां बाधः स्यात् । क्त वान्तयोग एव खलुशब्दो पिंधवाचक इति पक्षे खलुशब्दो नोदाह्रियते। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५० ) अलं रुदितेनेति—'क्लीबे क्तः०' ।५।३।१२३। इति तो भावे, कृताद्य:' ।२।२।४७। इति तृतीया, रोदनेन किमित्यर्थः ॥४४॥ परावरे ।।४।४॥ परे अवरे च गम्ये क्त्वा वा स्यात् । अतिक्रम्य नदी गिरिः। . अप्राप्य नदी गिरिः। नद्यतिक्रमणे गिरिः, नद्यप्राप्त्या गिरिः ॥४५॥ पराऽबरे-अतिक्रम्य नदी गिरिरित्यस्यार्थमाह-नद्यतिक्रमणे गिरिः । अप्राप्य नदी गिरिरित्यस्यार्थमाह-नद्यप्राप्त्या गिरिः । नदीपर्वतयोः परापरत्वमात्र प्रतीयते, अस्ति प्राप्यत इति वा न द्वितीया क्रियेति तुल्यकर्तृकक्रियान्तराभावात् 'प्राक्काले' ५।४।४७। इति न सिध्यतीति वचनम् ॥४५॥ निमील्यादिमेङस्तुल्यकर्तृ के ।।४।४६। तुल्यो धात्वर्थान्तरेण कर्ता यस्य तदवृत्तिभ्यो निमील्यादिभ्यो मेङश्च धातोः सम्बधे क्त्वा स्यात् । अक्षिणी निमील्य हसति । मुखं व्यादाय स्वपिति । अपमित्य याचते । पक्ष अपमात याचते । तुल्यकर्तृक इति किम् । चैत्रस्याक्षिनिमीलने मैत्रोहति ॥४६॥ निमील्यादि०-"मील निमेषणे' निमेषणं संकोचः, अतोऽनेन क्त्वि 'ऊर्याद्य०' ।२।१।२। इति नेर्गतिसंज्ञायां 'गति०' ।३।१।४२॥ इति तत्पुरुषे क्त्वो यबादेशे च निमील्येति, यदैव हसति तदैव नयनयुगलं संमोलयती नास्तीह वाक्ये पूर्वकालतेति परेण न प्राप्नोतीति वचनम् । एवं मुखं व्यादाय स्वपितीत्यत्रापि बोध्यम् । अपमित्य याचते इति--पूर्वमसो याचते पश्चादपमयत इति प्राक्कालता नास्तीति मेडो ग्रहणम् ।।४६।। . Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ४५१ ) प्राक्काले ।५।४।४७। परकालेन धात्वर्थन तुल्यकर्तृ के प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानाद्धातोः सम्बन्धे क्त्वा वा स्यात् । आसित्वा भुङ्क्ते । आस्यते भोक्तुम् । प्राक्काल इति किम् । भुज्यते पीयते वा ॥४७॥ प्राक्काले-"प्राक्काले" इत्युत्तरत्र यथासंभवमाभिधानतोऽनुवर्तनीयम् । भूज्यते, पीयते वेति-अत्र न उभयक्रिया क्रियत इति नास्ति प्राक्कालत्वम, । अनेन भूज्यते, अनेनैव पीयते इत्यर्थस दभावात् तुल्यकत कत्वमस्तीति न व्यङ्गविकलता अथ 'यदनेन भुज्यते ततोऽयं पचति' 'यदनेनाधीयते ततोऽयं शेते' इत्यत्र कथं क्त्वा न भवति ? उच्यते-यत्र यच्छब्देन सह तत शब्दः प्रयुज्यते तत्र ततःशब्देनैव प्राक्कालताऽभिधीयत इत्युक्तार्थत्वात् क्त्वा न भवति ॥४७।। खणम् चाभीक्ष्ण्ये ।।४।४८॥ अभीक्ष्ण्ये परकालेन तुल्यकर्तृ के प्रावकालेऽर्थे वत्तेमानाद्धातोः सम्बन्धे ख्णम्, वत्वा च स्यात् । भोज भोजं याति । भुक्त्वा: भुक्त वा याति ॥४८॥ ख्णम् चा०-"वाधिकारेणैव पक्षे क्त वाप्रत्ययस्य सिद्धौ चकारेण तस्य विधाने वर्तमानादिप्रत्ययान्तर-निवृत्त्यर्थम् । खित्त्वं ख्णमः चौरंकारमाक्रोशति, स्वादुकारं भुङ्क्ते' इत्युत्तरार्थम् ।।४।। पूर्वाग्रे प्रथमे ।।४।४६॥ एषूपपदेषु परकालेन तुल्यकर्तृ के प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानाद्धातोः सम्बन्धे खणम् वा स्यात् । पूर्व भोज याति । पूर्व भुक्तवा याति। एवमग्रे भोजम् । अग्रे भुक्त्वा । प्रथम भोजम् । प्रथम भुक्तवा। पूर्व भुज्यते ततो याति ॥४६॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५२ ) पूर्वाऽग्रेप्रथमे=। अनाभीक्ष्ण्यार्थं वचनम् । पूर्वप्रथमसाहचर्यात् अग्रे शब्दः कालवाची गाह्यः । पूर्व भोज यातीत्यादि पूर्वादयश्चात्र व्यापारान्तरापेक्षे प्राक्काल्ये गमनापेक्षे तु क्त वारुण्माविति नोक्तार्थता, ततश्चायमर्थोऽन्यभोक्तृभुजिक्रियाभ्यः स्वक्रियान्तरेभ्यो वा पूर्व भोजनं कृत्वा यातीत्यर्थः ॥४६॥ अन्यथैवंकथमित्यमः कृगोऽनर्थकात् ।।४।५०। एभ्यः परात्तुल्यकर्तृकार्थात् कृगोऽनर्थकाद्धातोः सम्बन्धे रणम्वा स्यात् । अन्यथाकारम्, एवङ्कारम्, कथङ्कार, इत्थङ्कारं भुङ्क्ते । पक्षे । अन्यथाकृत्वा । अनर्थकादिति किम् । अन्यथाकृत्वा शिरोभुङ्क्त॥५०॥ अन्यव०-। अत्र पक्षे क्त वैव भवति, न वर्तमानादिः । एवमुत्तरत्रापि । अन्यथा भुङ्क्ते इत्यस्य योऽर्थः स एव 'अन्यथा-कारं भुङ्क्त इत्यस्येति करोतेरन्यथादिभ्यः पृथगर्थाभातः आनर्थक्यम् ।।५०॥ यथातथादीर्घोत्तरे ।।४।५१।। आभ्यां तुल्यकर्तृ कार्थादनकात कृगो धातोः सम्बन्धे. हणम्या स्यात् ईय॑श्चेदुत्तरयति । कथं त्वं भोक्ष्यस इति पृष्टोऽसूयया तं प्रत्याह, यथाकारमहं भोक्ष्ये किं तवानेन ? ईर्योत्तर इति किम् । यथाकृत्वाऽहुं भोक्ष्ये तथा द्रक्ष्यसि ॥५१॥ यथाकारमहंमोक्ष्ये-यथाहं भोक्ष्ये तथाहं भोक्ष्ये किं ते मया इत्यर्थः ॥५१॥ शापे व्याप्यात् ।।४।५२। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५३ ) कर्मणः परात्तुल्यकर्तृकार्थात् कृमो धातोः सम्बन्धे ख्ण वा स्यात आक्रोशे गये । चोरङ्कारमानोशति । शाप इति किम् । चोरंकृत्वा हेतुभिः कथयति ॥५२॥ शापे०-। अनर्थकादिति निवृत्तम् । चोरङ्कारमाक्रोशतीति--करोतिरिहोच्चारणे, चोरशब्दमुच्चार्याक्रोशति, चोरोऽसीत्याक्रोशतीत्यर्थः । चोरं कृत्वा हेतुभिः कथयतीति--अत्र हि न तस्याक्रोशेऽभिप्रायः, किन्तु तस्य चोरत्वप्रकटने, तदर्थमेव-चोरत्वकारणप्रतिपादनमिति । चोरोऽसोत्याक्रोशवाक्ये चोरशब्दस्य यदुच्चारणं तदाक्रोशस्यैव सम्पादनार्थम्, न त्वसौ चोरः क्रियतेऽशक्यत्वात्, न च चोरोऽसीति शतकृत्वोऽपि ब्रुवता पुरुषस्य शक्यते चोरत्वमुत्पादयितुमिति ॥५२॥ स्वाद्वर्थादर्दीर्घात् ।।४।५३॥ स्वाद्वर्थाददीर्घान्ताद्वयाप्यात्परात्तुल्यकर्तृ कार्थात् कृगो धातोः सम्बन्धे ख्णम्वा स्यात् । स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते । मिष्टङ्कारं भुङ्क्ते। पक्षे । स्वादुं कृत्वा । अदीर्घादिति किम् । स्वाद्वीं कृत्वा यवागू भुङ्क्ते ॥५३॥ स्वादुकारं यवागू भुङ्क्त, अस्वादु स्वादु कृत्वा-स्वादुकारं भुङ्क्त इत्यत्र तु डी-व्यो विकेल्पित्वात् दीर्घो न भवति ॥५३॥ विहग्भ्यः कात्स्न्ये णम् ॥५॥४॥५४॥ कात्य॑वतो व्याप्यात्परेभ्यस्तुल्यकर्तृ के प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानेभ्यो विदिभ्यो दृशेश्च धातोः सम्वन्धे णम्वा स्यात् । अतिथिवेदं भोजयति। कन्यादर्श वरयति । काग़ इति किम् । अतिथि विदित्वा भोजयति ॥५४॥ विदृग्भ्यः०-। 'विदिच् सत्तायाम्' 'विदक् ज्ञाने' 'विद्लुती लाभे' Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५४ ) 'विदिप विचारणे' इति चत्वारो विदयः, तत्र सत्तार्थ-कोऽकर्मकः, व्याप्यात् परत्वं च सकर्मकस्यैव संभाव्यत इति तं वर्जयित्वा बहुवचनादन्ये त्रयोऽपि विदयो विद्ग्रहणेन गृह्यन्ते, अन्यथा 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य' इत्युपतिष्ठेत । अतिथिवेदं भोजयतीति यं यमतिथि जानाति लभते विचारयति वा तं तं सर्व भोजयतीत्यर्थः, विदित्रयग्रहणादर्थत्रयं ज्ञेयम् । कन्यादर्श वरयतीति-यां याम् अन्यां पश्यति तां तां सर्वा वरयतीत्यर्थः । अतिथि विदित्वा भोजयतीति-अत्र हि भोजनेतिथित्व- .. शानं हेतुः, न त्वतिथ्यन्वेषणे तात्पर्यम्, तथा च न कात्यमिति भावः । ॥ ५४॥ यावतो विन्दजीवः ।।४।५॥ कावतो व्याप्याद्यावतः पराभ्यां तुल्यकर्तृकाभ्यां विन्दतिजीविभ्यां धातोः सम्बन्धे णम्वा स्यात् । यावद्वेदं मक्ते। यावज्जीवमधीते ॥५५॥ यावतो०- विन्देति शनिर्देशाल्लाभार्थस्य ग्रहणम् । यावद्वदं भुङ्क्त इति यावल्लभते तावद्भक्त इत्यर्थः । थावज्जीवमधीत इति--यावज्जीवति तावदधीत इत्यर्थः। जीवेः पूर्वकालासंभवादपूर्वकाल एव विधिः ।। ५५॥ चर्मोदरात्पूरेः ।।४॥५६॥ आभ्यां व्याप्याभ्यां परात्त ल्यकर्त्तकार्थात्पूरयतेर्धातोः सम्बन्धे णम्बा स्यात् । चर्मपूरमास्ते । उदरपूरं शेते ॥५६॥ चर्मो०=चर्मपूरमास्ते इति-चर्म पूरयित्वाऽऽस्त इष्यर्थः । उदरपूर शेत इति- उदर पूरयित्वा शेत इत्यर्थः ॥५६॥ वृष्टिमाने ऊलुक चास्य वा ।।४।५७। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५५ ) व्याप्यात्परात्पूरयतेर्धातोः सम्बन्धे णभ्वास्यात्, पूरयतेरूतेलु वच वा समुदायेन चेद् द्वष्टयत्ता गम्यते । गोष्पदप्रम् | गोष्पदपूरं वृष्टोमेघ ॥ ५७ ॥ e • समुदायेन चेद् वृष्टीयत्ता गम्यत इति । समुदायेन - प्रकृतिप्रत्ययोपपदसमुदायेन । अनेन णमि ऊकारस्य लोपे ङस्युक्तसमासे च - गोष्पद प्रम्, लोपस्य वैकल्पिकत्वात् तदभावे – गोष्पदपुरं वृष्टो मेघः इति - यावता गोष्पदादि पूर्यते तावद् वृष्ट इत्यर्थः । गोष्पदप्रमिति प्रातेर्धातोः 'आतो डो०' |५|१|७६ । इति डेन, गोऽपदपुरमित्यणा च क्रियाविशेषणत्वे सिध्यति, तत्र णम्विधानमव्ययत्वेन तरामाद्यर्थमनुस्वारश्रवणार्थं च तेन गोष्पद'तराम् ' गोष्पदप्रतमाम्, गोष्पदप्ररूपं गोष्पदप्रकल्पं देश्यं देशीयम्, गोष्पदपुरं - तरां तमां रूपं कल्पं देश्यं देशीयं' इत्यादि सिद्ध: भवति, अन्यथा हि गोष्पदप्रतरं गोष्पदपुरतरमित्याद्येव स्यात् ॥ ५७॥ चेलार्थात् क्नोपः | ५|४|५८ । G चेलार्थात् व्याप्यात्परात्क्नोपयतेस्तुल्यकर्तृ कार्थाद्व ष्टिमाने गये धातोः सम्बन्धे णम्वा स्यात् । चेलक्नोपं वृष्टो मेघः ॥५८॥ अयमप्यप्राक्काले विधिः । चेलक्नोपं दृष्टो मेघ इति यावता चेलं क्नूयते - आर्द्रीभवति तावद्वृष्ट इत्यर्थः ॥ ५८ ॥ 1 गात्रपुरुषात्स्नः | ५|४|५६ । आभ्यां व्याप्याभ्यां परात्तुल्यकर्तृ कार्थात्स्नातेवृष्टिमाने गम्ये धातोः सम्बन्धे णम्वा स्यात् । गात्रस्नायं वृष्टः । पुरुषस्नाय वृष्टः ॥५६॥ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५६ ) गान० - "गावस्नायं वृष्ट इत्यादि - - यावता गात्रं पुरुषश्च स्नाप्यते तावद्वृष्ट इत्यर्थः ।।५६ ।। 'शुष्कचूर्णरूक्षात्पिषस्तस्यैव | ५|४|६० | एभ्यो व्याप्येभ्यः परात्पिषेर्णम्वा स्यात् तस्य व धातोः सम्बन्ध । शुष्कपेषं पिनष्टि । एवं चूर्णपेषम्, रूक्षपेषम् ॥६०॥ 'शुष्कपेषं पिनष्टीति शुष्कं पिनष्टीत्यर्थः । प्रयोगानुप्रयोग क्रिययोरैक्यात् तुल्यकर्तृकत्वं प्राक्कालत्वं च नास्तीत्यत्र प्रकरणे पक्षे क्त वा न भवति । घनादयस्तु भवन्त्येव - शुष्कस्य पेषं पिनष्टि ॥ ६०॥ कृग्रहोऽकृत जीवात् । ५।४।६१। आभ्यां व्याप्याभ्यां पराद्यथासङ्ख्यं कृगो ग्रहेश्च तस्यैव सम्बन्धे णवा स्यात् । अकृतकारं करोति । जीवग्राहं गृह्णाति ॥ ६१॥ कृग्ग्रहो ० - " अकृतकारं करोतीति-अकृतं करोतीत्यर्थः । जीवग्राहं गृह्णातीति- जीवन्तं गृह्णातीत्यर्थः ॥ ६१ ॥ निमूलात्कषः | ५|४|६२ ॥ निमूलाद्याप्यात्परात्क षेस्तस्यैव सम्बन्धे णच्वा स्यात् । निमूलकाषं कषति ॥ ६२ ॥ निमूलात् ० - " निमूलमित्यतात्येऽव्ययीभावः, निर्गतानि मूलान्यस्येति बहुव्रीहि निमूसका कषतीति-निमूलं कषतीत्यर्थः । पूर्वकालाभावात् पक्ष नक्तू वा, किन्तु घत्र वेत्याह-निभूलस्य काषं कषतीति ॥ ६२ ॥ हनश्च समूलात् |५|४|६३ । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५७. ) समूलाद्वयाप्यात्पराद्धन्तेः कषेश्च तस्य व सम्बन्धे णवा स्यात् । समूलघातं हन्ति । समूलकाषं कषति ॥६३॥ हनश्च-“समूलमिति साकल्येऽव्ययीभावो बहुव्रीहिर्वा । समूलघातं हन्तीतिसमूलं हन्तीत्यर्थः । समूल काषं कषतीति-समूलं कषतीति-समूलं कषतीत्यर्थ ॥६३।। करणेभ्यः ।।४।६४॥ करणार्थात्पराद्धन्तेस्तस्यैव सम्बन्धे णवा स्यात् । पाणिवातं कुड्यमाहन्ति ॥६४॥ करणेभ्यः-पाणिघातं कुड्यमाहन्तीति-पाणिना हन्तीत्यर्थः, ड्युक्त-त्वेन . नित्यसमासः, 'णिति घात्' ।४।३।१००। इति घातादेशः ।।६४॥ स्वस्नेहनार्थात्पुषपिषः ।।४।६५॥ स्वशब्दार्थात् स्नेहनार्थाच्च करणार्थात्पराद्यथासङ्ख्यं पुषः पिषश्च तस्य व सम्बन्धे णम्वा स्यात् । स्वपोषं पुष्णाति । एवमात्मपोषम् । उदपेषं पिनष्टि । एवं क्षीरपेषम् ॥६५॥ स्वस्नेहना-'आत्मा आत्मीयं ज्ञातिर्धनं च स्वम्, स्निह्यते-सिच्यते येनोदकादिना तत् स्नेहनम् । स्वपोषं पुष्णातीत्यादि-अत्र इत्यपि ज्ञेयंस्वपोषं पुष्यति पोषति वा, पुषग्रहणेन त्रयाणामपि पुषां ग्रहणम्, स्वेन पुष्णातीत्याद्यर्थः । स्नेहनार्थे पिष उदाहरणमाह-उदपेषं पिनष्टीत्यादिउदकादिना पिनष्टीत्यर्थः ॥६५॥ हस्तार्थाद् ग्रहत्तिवृतः ।।४।६६। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५८ ) हस्ताात्करणवाचिनः परेभ्य एभ्यस्तस्यैव सम्बन्धे णम्वा स्यात् । हस्तग्राहं गह्णाति । एवं करगाहम् । हस्तवर्त वर्त्त यति । पाणिवर्त वर्तते ॥६६॥ हस्ताद-। हस्तग्राहं गृह्णातीति-हस्तेन गृह्णातीत्यर्थः । वर्तिवृत इतिवर्ततेर्ण्यन्तस्याण्यन्तस्य च ग्रहणम् ॥६६।। बन्धेर्नाम्नि ।।४।६७। बन्धिः प्रकृति म विशेषणं च, बन्धेर्बन्धनस्य यन्नाम संज्ञा तद्विषयात्करणार्थात्पराद् बन्धेस्तस्यैव सम्बन्धे गम्वा स्यात् । क्रौञ्चबन्धम्बद्धः ॥६७॥ बन्धे०-। नाम्नोऽपि बन्धनविषयस्य व प्रत्ययार्थत्वमिष्टमिति तदुपायमाह -बन्धिरित्यादिना एकमेव पदं तन्त्रेणोभयत्रान्वेति, एकत्र च धातुनिर्देशे इ: प्रत्ययः, परत्र च तदर्थनिर्देश इति योऽर्थः सम्पन्नस्तमाह-बन्धबन्धनस्यत्योदिना । क्रौञ्चबन्धम्बद्ध इति-क्रौञ्च इतिशब्दो बन्धनामधेयः क्रौञ्चाकारो बन्धः क्रौञ्चशब्देनोच्यते, तेन बन्धेन बद्ध इत्यर्थः ।।६७॥ आधारात् ॥५॥४॥६॥ आधारार्थात्पराद् बन्धेस्तस्यैव सम्बन्धे णम्वा स्यात् । चारकबन्धम्बद्धः ॥६॥ आधाराव-। चारकबन्धम्बद्ध इति–चारके बद्धइत्यर्थः ।।६८॥ कर्तुर्जीवपुरुषान्नश्वहः ।।४।६६। आभ्यां कर्तृभ्यां परद्यथासङ्ख्यं नशेवहेश्च तस्यैव संबन्ध Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५६ ) वा स्यात् । जीवनाशं नश्यति । पुरुषवाहं वहति । कंतु रिति किम् । जीवेन नश्यति ॥ ६६ ॥ कर्तुं ० - । जीवनाशं नश्यतीति- जीवतीत्यच् जीवो नश्यतीति- जीवन् नश्यतीत्यर्थः । पुरुषत्राहं वहतीति पुरुषः प्र ेष्यो भूत्वा वहतीत्यर्थः पृणाति प्रषण - मित्यत्र पुरुषः क्रियाशब्दः प्रष्यपर्यायः । जीवेन नश्यतीति- इदमर्थंकथनम्, प्रयोगस्तु अस्मिन्नर्थे जीवनाशं नश्यतीत्यादि न भवति, जीवेननाशं घञन्तं नश्यतीति भवति ॥ ६६ ॥ ऊर्ध्वात्पू:- शुषः | ५|४|७०। कर्तु रूर्ध्वात्परात्पूरः शुषश्च तस्यैव संबन्धे णम्वा स्यात् । ऊर्ध्वपूरं पूर्यते । ऊर्ध्वशोषं शुष्यति ॥ ७० ॥ ऊर्ध्वात् ० -1, ऊर्ध्वपुरं पूर्यत इति - ऊर्ध्वः पूर्यंत इत्यर्थः ऊर्ध्वशोषं शुष्यतीति - ऊर्ध्वः शुष्यतीत्यर्थः ॥ ७० ॥ व्याप्याच्चेवात् । ५।४।७१। व्याप्यात्कर्तुं श्वोपमानात्पराद् धातोस्तस्यैव सम्बन्धणम्वा स्यात् । सुवर्णनिधायं निहितः । काकनाशं नष्टः ॥ ७१ ॥ व्याप्या० - । सुवर्णनिधायं निहित इति - सुवर्णमिव निहित इत्यर्थः । काकनाशं नष्ट इति - काक इव नष्ट इत्यर्थः || ११|| उपात्किरो लवते |५|४८७२ । उपपूर्वात्किरते र्लवनार्थस्य धातोः सम्बन्धे णभ्वा स्यात् । उपस्काएं मद्रका लुनन्ति । लवन इति किम् ? उपकीर्य याति ॥ ७२ ॥ लवण इति वचनात् तस्यैवेति निवृत्तम् । न्यस्येतिवा. कामचारः । उपस्कारं मद्रका इत ऊध्वं तस्यैवालुनन्तीति-विक्षिपन्तो Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुमन्तीत्यर्थः, पूर्व विक्षिपन्तः, पश्चात् लुनन्तीत्यर्थः । 'किरो लबने' ।४।४।६३। इति लवनविषये सडादिः । उपकीर्य यातीति-विक्षिप्य गच्छतीत्यर्थः, अत्र लवनार्थाभावान्न ‘णम्' किन्तु त्क्वैव, एवं लवनार्थाभावाच्च सडपि न भवतीति भावः ।।७२॥ दंशेरतृतीयया ॥५॥४॥७३॥ तृतीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृकार्थादुपपूर्वाशेर्धातोः सम्बन्धे णम्वा स्यात् । मूलकेनोपदशं, मूलकेनोपदंश्य भुङ्क्ते ॥७३॥ वंशे०-। मूलकेनोपदंशमित्यादि-मूलका-धुपदंशेः कर्मापि प्रधानस्य भृजे: करणमिति ततीयैव भवति, प्रधानक्रियोपयुक्त हि. कारके गुणक्रिया न स्वानुरूपां विभक्तिमुत्पादयितुमलमप्रधानत्वादेव, यथेष्यते ग्रामो गन्तुम् पक्त्वा भु-ज्यते ओदन इति । अत्र 'तृतीयोक्तवा' ।३।१।५०। इति वा तत्पुरुषः ॥७३॥ हिंसादिकाप्यात् ।।४।७४। हिसार्थाद्धातोर्धात्वन्तरेणैकाप्यात्तुल्यकर्तृ कार्यात्त तीयान्तेन योगे । णम् वा स्यात् । दण्डेनोपघातं, दण्डोपघातम् । दण्डेनोपहत्य च गाः सादयति । एकाप्यादिति किम् । दण्डेनोपहत्य चौरं गोपालको गाः खेटयति ॥७४॥ वण्डेनोपघातम् इत्यादि-'तृतीयोक्त बा ।३।१।५०। सूत्रात् विकल्पेन समासः, दण्डेनोपहननमिति वाक्यम् । 'सादयति' अत्र षद धातुः णिग्॥७४॥ उपपीडरुधकर्षस्तत्सप्तम्या ।।४।७५॥ तथा तृतीयया युक्ता सप्तमी सत्सप्तमी, तदन्तेन योगे उपपूभ्य . एस्पस्तुल्यकर्तृकार्थेभ्यो धातोः संबन्धे णम्वा स्यात् । पार्वाभ्यासुपपीडं पाोपपोडं शेते । पार्श्वयोरुपपीडं पावोपपीडं शेते । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६१ ) . व्रजेनोपरोधं ब्रजोपरोधम् । व्रजे उपरोधं व्रजोपरोधंगाः स्थापयति ।पाणि-नोपकर्ष पाण्युपकर्षम् । पाणावुपकर्ष पाण्युपकर्ष गृह्णाति ७५॥ उपपीड०-। 'कर्ष' इति शन्निर्देशाद् भौवादिकस्य 'कर्षन्ति शाखां ग्रामम्' इति द्विकर्मकस्याकर्षणार्थस्य ग्रहणम्, न तु तौदादिकस्य पञ्चभिहलैः कृषतीति विलेखनार्थस्य, तेन भूमावुपकृष्य तिलान् वपति, हलेनोपकृष्य वपतीत्यत्र न भवति ।।७५।। प्रमाणसमासत्त्योः ।।४।७६। आयाममानं प्रमाणं, समासत्तिः संरम्भपूर्वकः सन्निकर्षः, तयोर्मम्ययोस्तृतीयान्तेन सप्तम्यन्तेन च योगे तुल्यकर्तृ कार्थाद्धातोः संबन्धे णम्वा स्यात् । व्यङ्ग लेनोत्कर्ष व्यङ्ग लोत्कर्षम् । व्यङ्गो उत्कर्ष व्यगुलोत्कर्ष गण्डिकाश्छिनसि । केशैहिं केशग्राहं । केशेषु ग्राहं केशग्राहं युध्यन्ते । पक्षे । द्वयङ्ग लेतो कुष्य मण्डिकाश्छिनत्ति ॥७६॥ द्वयोरङगुल्योःसमाहारः-व्यङगुलम्।संख्या।७।०।१२४। सूत्रात् डसमासान्तः केशाहमित्यावियुद्धसंरम्भादत्यतं संनिकृष्य अत्यासन्नी-भूय युध्यन्ते इत्यर्थः ॥७६॥ पञ्चम्या त्वरायाम् ।।४।७७। त्वरायां गम्यायां पञ्चम्यन्तेन योगे तुल्यकर्तृकार्थाद्धातोः सम्बन्धे णम्वा स्यात् । शय्याया उत्थायं शय्योत्थायं धाति । पक्षे । शय्याया उत्थाय धावति । त्वरायासिति किम् । आशनादुत्थाय याति ॥७७॥ पञ्चम्या०-शय्यया उत्थायमित्यादि-शय्याया उत्थितेनावश्यकदेवस्मर Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२ ) णादिकं विधाय किमपि कार्यमारभ्यत इति क्रमः, तत् परित्यज्यधावति आवश्यकादिकृत्यमपि नापेक्षते इत्यर्थः ॥७७।। द्वितीयया ॥४७॥ द्वितीयान्तेन योगे त्वरायां गम्यायां तुल्यकर्तृकार्थाद्धातोः सम्बबन्धे णम्वा स्यात् । लोष्टान्ग्राहं लोष्टग्राहम् । लोष्टान् गृहीत्वा । युध्यन्ते ।७। द्वितीयया-। 'ग्रहीश्-ग्रह उपादाने' अतो णमि उपान्त्यवृद्धी वा समासे च-लोष्टान् ग्राहं लोष्टग्राहमिति। लोष्टान् ग्राहमित्यत्र लोष्टानां कृदन्तस्य कर्मत्वेन 'कर्मणि कृतः' ।२।२।८३। इति प्राप्ताऽपि षष्ठी 'तृन्नुदन्ता०' ।२।२।६०। इति निषिध्यत इति ‘कर्मणि' ।२।२।४०। इति द्वितीयेव । योगविभागः उत्तरार्थः ।।७८॥ स्वाङ्गेनाऽधुवेण ॥४७॥ यस्मिन्नङ्ग च्छिन्ने भिन्ने वा प्राणी न म्रियते तदध्रुवं, तेन स्वाङ्गन द्वितीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृ कार्थाद्धातोः सम्बन्धो णम्वा स्यात् । भ्र वौ विक्षेपं भू विक्षेपम् । भ्र वौविक्षिप्य वा जल्पति । स्वाङ्ग नेति किम् । क क मुन्मूल्य ऽल्पति । अधू वेणेति किम् । शिर उत्क्षिप्य वक्ति॥७॥ स्वाङ्गना०-। अविकारोऽद्रवं मूर्तं प्राणिस्थ स्वाङ्गमुच्यते । च्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं च प्रतिमादिषु । इति लक्षणं स्वाङ्गम् । भ्र वौ विक्षेपमिति-औप्रत्यये 'भ्रूश्नो' ।२।१॥५३॥ इत्युवादेशे-भ्र वौ' इति ॥७६।। परिक्लेश्यन ।।४।८०॥ परिक्लेश्येन म्वाङ्ग न द्वितीयान्तेन योगे तुल्य कर्तृ कार्थाद् धातोः Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६३ ) सम्बन्धे णम्वा स्यात् । उरांसि प्रतिषेषं उरः प्रतिषेषम् । उरांसि प्रतिपेष्य वा युध्यन्ते ॥८०॥ परिक्लेश्येन०To - 1 परिसमन्तात् क्लिश्यमानं - पीड्यमानं परिक्लेश्यम् । ध्रु वार्थोऽयमारम्भः । उरांसि प्रतिपेषमित्यादि - उरांसि परितः पीडयन्तो युध्यन्त इत्यर्थः ||८०|| विशपत पदस्कन्दो वीप्साभीक्ष्ण्ये | ५|४ | ८ १| द्वितीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृ कार्थाद्विशादेर्वीप्साभीक्ष्ण्ययोर्गम्ययोर्धातोः संबन्धे णम्वा स्यात् । गेहं गेहमनुप्रवेशं गेहानुप्रवेशमास्ते गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशं गेहानुप्रवेशमास्ते । गेहंगे हमनुप्रपातं गेहानुप्रपातमास्ते । गेहमनुप्रपातमनुप्रपातं गेहानुप्रपातमास्ते । गेहं गेहमनुप्रपादं गेहानुप्रपादमास्ते । गेहमनुप्रपादमनुप्रपादं गेहानुप्रपादमस्ते । गेहं गेहमवस्कन्दं गेहावस्कन्दमास्ते । पक्षे । गेहं गेहमनुप्रविश्यांस्ते । गेहमनुप्रविश्यानुप्रविश्यास्ते . इत्यादि ॥८१॥ विशपत०10 - 1 विश्यादिक्रियाभिः साकल्येनोपपदार्थानां व्याप्तुमिच्छावीसा | प्रकृत्यर्थस्य पौनस्पुन्येनासेवनम् - आभीक्ष्ण्यम् । यदाहुः - सुप्सु वीप्सा, तिङसु अव्ययकृत्सु चाभीक्ष्यमिति । गेहं गेहमनुप्रवेशमित्य दिषु वीप्सायामुपपदस्य, आभीक्ष्ण्ये तु धातोद्विवचनन् । 'गेहानुप्रवेश - मास्ते' इत्यादी तु वीप्साभीक्ष्ण्ये शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् समासेनैवोक्त, इति द्विचनं न भवति । 'ख्णम् चाभीक्ष्ण्ये' | ५|४|४८ । इत्यनेनाभीक्ष्ण्ये णम् सिद्ध एव विकल्पेनोपदसमासार्थं वचनम्, तेन हि समासाभावः स्यात् ॥ ८१ ॥ कालेन तृष्यस्वः क्रियान्तरे । ५।४।८२ | Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६४ ) स्क्रियाच्यक्यामकाभ्यां तृव्यसूभ्यां द्वितीयान्तेन कालार्थेन योगे सम्बन्धे वा स्यात् । द्वयहं तर्ष द्वयहतर्ष गावः पिवन्ति । द्वहमन्यासं द्व हात्यासं गावः पिबन्ति । क्रियान्तर इति क्रिस् । अहरत्य-स्येषन् मतः ॥ ८२ ॥ 0 कालेन ० - । क्रियामन्तरयतीति- क्रियान्तरः- क्रियाव्यवधायक इत्यर्थं इत्याह क्रियाव्यवधायकार्थाभ्यामिति । द्वयहं तर्ष द्वयहतषं गावः पिबन्तीतिद्वयोरोः समाहारः द्व ेऽहनी समाहृते वा द्विगो० ' ७३६६ । इत्यटि 'नोऽपद्रस्य०' ।७।४।६१। इत्यन्त्यस्वरादिलोपे 'कालाध्वनो : ० ' | २|२| १२ | इति द्वितीयायां द्वयहमिति, 'त्रितृषच् - तृषु पिगसायाम्' अतोऽनेन णमि उपान्त्यगुणे च - तर्षमिति, समासे च द्वयहतर्षमिति, 'पां पाने' इत्यस्य पिबादेशेपिबन्तीति, अत्र कालवाचकं व्यवधायकमिति भवति प्रत्ययः । असूच् - अस् क्षेपणे' इति धातुः । द्वयहमत्या समित्यादि - इह पूर्वत्र चोदाहरणे तर्षेणात्यासेन च गवां पानक्रिया व्यवधीयते, अद्य पीत्वा द्वयहमतिक्रम्य पिबन्तीत्यर्थः । अहरत्यस्येषून् गत इति - अत्राह शब्दात् 'काला' | २|२|४२ | इति द्वितीया, संकलस्याह्न इष्वत्यासेन व्याप्तत्वात् इषुशब्दात् तु कर्मण्येव, अस्यतिर्नात्र तिवाहनार्थं कोऽपि तु क्षेपणार्थकः एवं चाहर्व्याप्येषन् क्षिप्त्वा गत इत्यर्थः, अ - त्रात्यासेन अह इषवश्च व्याप्यन्ते, गति - क्रिया न व्यवधीयत इति नात्र णविधिः ॥८२॥ नाम्ना ग्रहादिशः | ५|४। ८३ । नामशब्देन द्वितीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृ कार्थात् ग्रहेरादिशेश्च धातोः सम्बन्धे णम्वा स्यात् । नामानि ग्राहं नामग्राहमाह्वयति । समान्यादेश नामादेशं दत्ते । पक्षे । नाम गृहील्स ते ॥८३॥ नाम्ना०= । नामान्यादेशं नामादेशं दत्त इत्यस्य पक्षे नामादिश्य क्ले इति भवति ||३|| कृगोऽव्यनेनाऽनिष्टोक्तौ क्त्वाणमौ ।५४।८४ | Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६५ ) अव्ययेन योगे तुल्यकर्त कार्यात्कृगोऽनिष्टोक्तौ गम्यायां धातोः सम्बन्धे क्त्वाणमौ स्याताम् । ब्राह्मणपुत्रस्ते जातः किं तर्हि वृषल नीचः कृत्वा, नीचैः कृत्य, नीचैः कारं कथयसि, उच्चै मि प्रियमाख्येयम् । अनिष्टोक्ताविति किम् । उच्चैः कृत्वाऽऽचष्टे ब्राह्मण पुत्रस्ते जात इति । अव्ययेनेति किम् । ब्राह्मण पुत्रस्तेजातः किं तहि वृषल मन्दं कृत्वा कथयसि ॥४॥ कृगो०- अनिष्टोक्ताविति-अनिष्टोक्तिः प्रियस्योच्चैरप्रियस्य नीच्चैः कथनमिष्टम्, तद्विपरीतमनिष्टम्, तथा चाप्रियस्योच्चरुक्तिः प्रियस्य नीचैरनिष्टोक्तिरिति फलितम् । 'डुकृग्-कृ करणे' अतोऽनेन क्त विकृत्वा, वा समासे क्त वो यबादेशे-कारम्, वा समासे च=नीचैः कारम् । ब्राह्मण ! पुत्रस्ते जात इत्यादि-अनानिष्टोक्तिः कथमिति दर्शयितुमाह= उच्चै म प्रियमाख्येयमिति पुत्रजन्मस्येष्टत्वेऽपि मन्दस्वरेण तदभिधानं नेष्टमिति भावः । वाऽधिकारेणैव पक्षे क्त वाया: सिद्धौ समासार्थं तद्विधामम, अन्यथा हि णम एव पाक्षिकः समासः स्यात्, न तु क्त वः । क्त्वा चेत्यकृत्वा णम्विधान मुत्तरत्रोभयानुवृत्त्यर्थम् ।।४।। तियंचाऽपवर्गे ॥४॥ क्रियासमाप्तौ गम्यायां तिर्यचाऽव्ययेन योगे तुल्यकर्तृ कार्थात कृगो धातोः संबन्धे क्त्वाणमौ स्याताम् । तिर्यकृत्वा,तिर्यक्कारमास्ते । अपवर्ग इति किम् । तिर्थक्कृत्वा काष्ठं गतः ॥१५॥ तिर्यचा०=| अपवर्गः-क्रियासमाप्तिः समाप्तिपूर्वको वा विरामः त्यागो वा । क्रियासमाप्तविति=इदमुपलक्षणम्, तेन समाप्तिपूर्वके विरामे त्यागे वेत्यर्योऽपि लभ्यते । तिर्यक् कृत्वेत्यादि- समाप्य विरम्य वा उत्सृज्यवाऽऽस्ते इत्यर्थः । तिर्यक् कृत्वा काष्ठं गत इति-अनृजः कृत्वा, पार्श्वतः कृत्वेत्यर्थः, नह्यत्र कस्याश्चन क्रियायाः समाप्तिः विरामस्त्यागो वा गम्यत इत्यस्या प्रवृत्त्या 'प्राक्काले' ।५।४।४७। इति क्त वैव भवतीति भावः ॥८॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६६ ) स्वाङ्गतश्च्व्य र्थनानाविनाधार्थेन भुवश्च ।।४।८६॥ तसन्तेन स्वाङ्गन, च्व्यर्थवृत्तिभिर्नानाविनाभ्यां धार्थप्रत्ययान्तैश्च योगे तुल्यकर्तृकार्थात् भुवः कृगश्च धातोः संबन्धे क्त्वाणमौ स्याताम् । मुखतो भूत्वा । मुखतोभूय । मुखतोभावमास्ते। नाना भूत्वा, नानाभूय, नानाभावं गतः, विनाभूत्वा, विनाभूय, विनाभावं गतः, द्विधा भूत्वा, द्विधाभूय, द्विधाभाठमास्ते । एवं पार्श्वतः कृत्वा, पार्श्वतः कृत्य, पार्श्वतः कारं शेते इत्यादि । च्व्यर्थ इति किम् । नाना कृत्वा भक्ष्याणि भुङ्क्ते ॥८६॥ स्वाङ्गत०:-"स्वाङ्गत' इति शब्दस्वरूपं न,ग्राह्यमपि तु तस्प्रत्ययान्त स्वाङ्ग व्याख्यानात्, तथा च न स्वाङ्गशब्द इहोपपदमपि तु तद्वाचकं शब्दमात्र तस्प्रत्ययान्तमिति मनसिकृत्याह तसन्तेन स्वाङ्ग नेति । वचनभेदाद् धातुप्रत्यययथासंख्यं नास्ति । मुखतो भूत्वा, मुखतोभूय, मुखतोभावमास्त इति-स्वाङ्गवाचकान्मुखशब्दात् 'आद्यादि०' ।७।२।८४। इति सम्भवद्विभक्तयन्तात् तसौ–'मुखतः' इति, 'भू सत्तायाम्' अतः क्ति व 'भूत्वा' इति तृतीयोक्त वा' ।३।१।५०।, इति, समासे क्त वो यबादेशे–'मुखतोभय' इति, णमि वृद्धावावादेशे च 'भावम्' इति समासेतु 'मुखतोभावम्' इति । 'स्वाङ्गतः इति पृथग्निर्देशान्न तस्य च्व्यर्थवृत्तित्वमिह विवक्षितम् । नानाभूत्वेत्यादि-'अनाना नाना भूत्वा गत' इति वाक्यम् । धार्थाः प्रत्यया धा-धमक-एधाध्यमत्र इत्याह-द्विधा भूत्वेत्यादि द्वाभ्या प्रकाराभ्यामिति प्रकारार्थे एको राशिद्वी इति विचालार्थे च 'विचाले च' ।७।२।१०५॥ इति द्विधा पाश्वतः कृत्वेत्यादि-तसन्तेन स्वाङ्गन कृग उदाहरणमिदम्, पार्श्वशब्दः स्वाङ्गवाचकः ॥८६।। । तूष्णीमा ।।४।। तूष्णी योगे तुल्यकर्तृ कार्थात् भ वो धातोः सम्बन्धे क्त्वाणी स्याताम् । तूष्णीं भूत्वा । तूष्णीभ य । तूष्णीभावमास्ते ॥८७।। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६७ ) तूष्णीमा-तूष्णीं भूत्वेति-तूष्णीं शब्दो न केवलं मौनार्थकोऽपि तु मौनवत्यपि प्रयुज्यते, तण च पूर्वममौनो-मौनाभाववान् मौनः-मौनवान्, भूत्वेति तात्पर्यमिहोन्नेयमिति ॥८७॥ आनुलोम्येऽन्वचा ॥५॥४८ अन्वचाऽव्ययेन योगे तुल्यकत कार्थात् भुव आनुलोभ्ये गम्ये धातोः सम्बन्धे क्त्वाणमौ स्याताम् । अन्वग भूत्वा, अन्वग्भावमास्ते । आनुम्य इति किम् । अन्वग् भूत्वा विजयते । पश्चाद्भूत्वेत्यर्थः ॥८॥ आनुलोम्ये०-आनुलोम्यमनुकूलता परिचित्ताराधनम् । अन्वगभूत्वेत्यादि. अनुक्कलो भूत्वा तिष्ठतीत्यर्थः। अनुपूर्वादञ्चते हुलकादौणादिके विपि उपान्त्यनकारलोपे स्वरादिगणपाठादव्ययत्वे 'अन्वच्' इति, तदनुकरणात् तृतीयकवचने 'अन्वचा' ,इति निर्देशः कृतः, एवं 'तिर्यचा०' ।५।४।८५॥ इत्यत्रापि तिर्यचा' इति, न तु अच्च्०' ।२।१।१०४। इति चादेशे 'तिरश्चा' इति, चादेशे दीधं च 'अनूचा' इति भवति ॥८॥ . इच्छार्थे कर्मणः सप्तमी ।।४।। इच्छार्थे धातावुपपदे तुल्यकर्तृकार्थात्कर्मभूताद्धातोः सप्तमी स्यात् । भुजीयेति इच्छति । इच्छार्थ इति किम् । भोजको याति । कर्मण इति किम् ? इच्छन् करोति ॥८६॥ .. इच्छार्थे०–'भुजंग्भुज् पालनाभ्यवहारयोः' अभ्यवहारो भोजनम्, भुनजोऽत्राणे' ।३।३।३७। इत्यात्मनेपदे सप्तम्यां तृतीयपुरुषैकवचने ईय-प्रत्ययेभुञ्जीय, 'इषत् इच्छायाम्' अतो वर्तमानातिवि 'गमि०' ।४।२।१०६। इत्यन्त्यस्य छादेशे-इच्छति ॥८६॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६८ ) शकधृषशारभलभसहार्हग्लाघटास्तिसमर्थार्थे च तुम् शक्याद्यर्थेषु इच्छार्थेषु च धातुषु समर्थार्थेषु नामसूपपदेषु कर्मभूताद्धातोस्तुम् स्यात् । शक्नोति पारयति वा भोक्तुम् । एवं धष्णोति, जानाति, आरभते, लभते, सहते, अर्हति, ग्लायति, घटते, अस्ति, समर्थः, इच्छति, वा भोक्तुम् ॥६०॥ शक-समर्थार्थत्वादेव सिद्धेशकग्रहणमसमर्थार्थम् । क्रियायां क्रियार्थीयो०' ।५।३।१३। इत्यनेन क्रियायां क्रियायामुपपदे तुम् विहित इत्यसति क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे, अक्रियोपपदे च न स्यादिति वचनम्, अयमाशयः-अक्रियार्थेष्वपि शकादिषु तुम् यथा स्यादित्येवमर्थोऽयमारम्भः, नहि शक्नोति भोक्त मित्यादौ क्रियार्थोपपदं गम्यते, कि तहि ? अर्थान्तरमन्यदेव इह ताबच्छक्नोति भोक्तुम, सहते भोक्तुम, जानाति भोक्तुमिति प्रावीण्यं गम्यते, ग्लापयति भोक्त मिति तदशक्तता गम्यते, घटते भोक्तुम् अर्हति भोक्त मिति तद्योग्यतामात्रम्, आरभते भोक्त मिति भुजेराद्यावस्था न क्रियान्तरम, लभते भोक्त मिति अप्रत्याख्यानम्, अस्ति भोक्तुमिति सम्भवमात्रमिति ॥६॥ ॥ इति पञ्चमाध्याय ॥ प्रशंसा की भूखी आत्मायें सच्चे गुरु से और सच्चे धर्म सेवंचित रहती है। जिन आत्माओं को अपनी प्रशंसा सुननी अच्छी लगती है, ऐसी आत्मा प्रायः करके धर्म से वंचित रहती है। क्योकि यह वहां ही धर्म करे, ऐसी ही जगह पर जावे कि जहां उनकी प्रशंसा होती हो । ऐसे प्रशंसा के भूखे लोगों की प्रशंसा करके उसका गलत लाभ लेने वाले भी बहुत होते है ऐसे इनके घर लेते है । परस्पर प्रशंसा करके आनन्द मानते है। परिणाम यह पाता है कि धर्म प्रवृत्ति करने पर भी, दानादि करने पर भी ये विचारे धर्म से वंचित रह जाते है। परमपूज्य कलिकालकल्पतर आचार्षदेव श्रीविजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा Page #476 -------------------------------------------------------------------------- _