Book Title: Gujarati Bhashani Utkranti
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Mumbai University
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्कान्ति (बारमा सैकाथी अढारमा सैका सुधी) व्याख्याता अध्यापक बेचरदास जीवराज दोशी प्रकाशक मुंबई युनिवर्सिटी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति (बारमा सैकाथी अढारमा सैका सुधी) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यानमाला गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ( बारमा सैकाथी अढारमा सैका सुधी ) व्याख्याता अध्यापक बेचरदास जीवराज दोशी 心 प्रकाशक मुंबई युनिवर्सिटी १९४३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by M. N. Kulkarni, at the Karnatak Printing Press, Karnatak House, Chira Bazar, Bombay and published for the University by S. R. Dongerkery, Registrar, University of Bombay, Fort, Bombay 1. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सने १९३८-३९ नां श्री० ठक्कर वसनजी माधवजी व्याख्यानमालानां व्याख्यान आपवा मुंबई - विद्यापीठे मने आमंत्रण आपेलं, ते अनुसार में ता. ५ थी ९ फेब्रुआरी १९४० नी तारीखोए उक्त विद्यापीठना मकानमां 'गुजराती भाषानी उत्क्रांति ( बारमा सैकाथी अढारमा सैका सुधी ) ए विषय ऊपर पांच व्याख्यानो आप्यां. ते अहीं प्रकाशित थाय छे. आ व्याख्यानोने अंगे मने अमदावादना शेठ लालभाई दलपतभाई महाविद्यालयना पुस्तकालयनो, गुजरात विद्यापीठना पुस्तकालयनो, गुजरातवर्नाक्युलरसोसायटीना पुस्तकालयनो तथा माणेकलाल जेठाभाई पुस्तकालयनो सारी रीते उपयोग करवा देवा बदल ते ते पुस्तकालयना संचालकनो हुं आभारी छु तथा जे जे ग्रंथकारो अने ग्रंथसंपादकोना ग्रंथोनो अहीं उपयोग थयेलो छे ते बदल पण हुं तेमनुं ऋण स्वीकारुं छं. व्याख्यानोनां प्रुफो सविशेष सावधानीथी तपास्यां छे, तेम छतां रही गयेला दृष्टिदोष गुणग्राहक वाचको शुद्ध करीने समझवानी कृपा करशे. विषय, व्याकरणशास्त्रानो होवाथी नीरस लागे तेवो छे तो पण अहीं तेने सरळ रीते समझाववा माराथी बनतुं बधुं ज करेलुं छे. आवा विषयो जेम वधारे खेडाय तेम वधारे सरळ अने स्पष्ट थवा योग्य छे. · व्युत्पत्ति अने व्याकरणशास्त्राना मारा प्रिय विषय संबंधे बोलवाने मुंबई - विद्यापीठे मने अवसर आप्यो ते माटे तेनो हुं सविशेष आभारी छु तथा आवा शुष्क विषयने पण मारी धारणा करतां अधिक श्रोताओए सांभळीने मने उत्तेजन आप्युं ते अर्थे तेमनो पण हुं आभारी छु. ओगस्ट ९ - १९४३ अमदाबाद. बेचरदास जीवराज दोशी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १० २० १० ,, २१ विषयानुक्रम व्याख्यान पहेलु-आमुख-पृ० १-२१८ कंडिका विषय पृष्ठ | कंडिका विषय १ उपक्रम १ ९ पोतानी कल्पना प्रमाणे २ हेमचंद्र, गुजरातीना शुद्ध उच्चारणोना प्रचारनो पाणिनि अने वाल्मीकि प्रयत्न छतां पोते कल्पेलां निबंधनो क्रम अशुद्ध उच्चारणो कदी ३ शब्दस्वरूप भुसावानां नथी शब्दस्वरूप विशे अनेक शुद्ध उच्चारणो माटेनो मतो-कपिल प्रयत्न गौतम-कणाद छेवटे अशुद्धने पण शुद्ध जैन मानीने चलावq पड्यु बौद्ध १२ ११ संस्कृतमां पण बीजां पतंजलि-भर्तृहरि उच्चारणोनी असर शब्द अने शब्दार्थ १२-१३ यास्कनुं उदाहरण ४ भाषास्वरूप पाणिनि- उदाहरण “शब्द 'नुं मूल “शप आक्रोशे" धातमां १४ १४ उच्चारणभेदनुं परिणाम ५- भाषाभेदना निमित्तो अने १५ संस्कृतमां अन्य भाषाना भाषाना भेदप्रभेदो १४ धातुनो प्रवेश, ए विशे यास्क अने भाष्यकार शुद्ध उच्चारणवाळा समाजमां पण भाषाभेदना निमित्तो १५ १६-१७ वेदोमां पण अनार्य उच्चारण करनाराओनी शब्दोनो प्रवेश विविध परिस्थिति अने १८ विविध उच्चारणोनुं सांकर्य उच्चारणो ऊपर एनी छतां संस्कृतिनी दृष्टिए विधविध असर भाषा-भाषा वचेना अवेस्तानुं उच्चारण भेदनी परख २२ २५ २६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० २९ कंडिका विषय पृष्ठ | कंडिका विषय पृष्ठ १९ तुलनात्मक रीते सर्व अने तेनी भाषा ऊपर आर्यभाषाओना मूलभूत असर ३५ व्यापक प्राकृतनी चर्चा २८, २९ आर्य भाषामा प्रवेशेल व्यापक प्राकृतनुं साहित्य २९ म्लेच्छ शब्दोनो अर्थ आदिम प्राकृतनुं स्वरूप जाणवा म्लेच्छोनी अने समय सहायता २१-२२ जीवती वैदिक भाषा अने आर्यशाखानी अने म्लेच्छआदिम प्राकृत ए बन्ने शाखानी भाषा जाणनारा एक ज छे द्वैभाषिक आर्यो ३८ २३ जीवती वैदिक भाषामा ३० म्लेच्छपदोने बोलवानी उच्चारणोनुं अनियंत्रण ३० आर्योए स्वीकारेली उच्चा२४ जीवती भाषामा उच्चारणोनी रणपद्धति व्यवस्था न ज रही शके ३० केटलाक द्रविडी शब्दोनां महाभाष्यकारे दर्शावेलां आर्योए करेला उच्चारणो उच्चारणोनां दूषणो ३१ जीवती भाषामा एक ज द्रविडी पदोनां एवां उदाहरणो शब्दनां विविध उच्चारणोनां उदाहरणो ३२ ह्युएनसंगनां उच्चारणो अने। आवेस्तिक पदो आपणा शब्दो अंग्रेजोए करेलां एवां २६ स्थूल पदार्थना परिवर्त विलक्षण उच्चारणोनां ननी पेठे भाषादेह- परिव उदाहरणो ४३ र्तन शीघ्र गम्य थतुं नथी ३३ । २७ आर्योनो विस्तार अने भाष्यकारे अने हेमचंद्र तेमनी भाषानुं परिवर्तन वगेरेए दर्शावेलां एवां विजयी अने पराजित विलक्षण उच्चारणोनां तथा प्रजाना संपर्कथी भाषा अनार्यपदोनी व्युत्पत्तिनां परिवर्तन उदाहरणो २८ आर्योना अंतःपुर सुधी अनार्यशब्दनुं आर्योए फेरआदिम जनतानो प्रवेश वेलु उच्चारण ४० -w ___ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय खास विशेष प्रकारना घोडा' माटेना शब्दो बीजा शब्दो "" ३४ व्यापक प्राकृतनो उद्भव ३५ 'प्राकृत' शब्दनो अर्थ ३६ लौकिक संस्कृतनी घटना अने तेनुं प्रयोजन कंडिका ३३ ३७ लौकिक संस्कृत समग्रलोकव्यापक न हतुं लौकिक संस्कृतनो विकार ते प्राकृत' ए मतनो प्रतिवाद ३८ 39 ८ उक्त प्रतिवाद विशे पांच हेतुओ ३९ लौकिक संस्कृत ऊपर पण आदिम जातिओनी भाषानो प्रभाव ४० ४१ 6 जीवती वैदिक भाषानो वारसो व्यापक प्राकृतमां छे ए विशेनां उदाहरणो गणभेद बाहुल्य ( १ ) धातुओमां नथी ( २ ) आत्मनपद - परस्मैपदनी अनियतता ( ३ ) 'ते' नो ए ( ४ ) कालव्यत्यय ( ५ ) (९) पृष्ठ | कंडिका ४४ ४५ ४६ "" ४७ ४८ ४९ 27 ५१ "" ५३ 22 विषय विभक्तिव्यत्यय ( ६ ) अन्त्यव्यंजन लोप ( ७ ) 6 स्प 'नो प ( ८ ) " र 'नो लोप ( ९ ) 'य 'नो लोप ( १० ) 'ह' नोध ( ११ ) < 'नो ( १२ ) 'द्य 'नो ज (१३) " 'ह' नो 'घ' अने भ (१४),, 'ड' नो 'ल' तथा 'ळ' (१५), अनादिस्थ 'य' अने ' व' नो लोप ( १६ ) ५८ 'र' नो वधारो ( १७ ) अनादिस्थ 'च' अने ' क ' नो लोप ( १८ ) आंतरवर्णनो लोप (१९) ५९ " स्वरभक्ति ( २० ) 'ऋ' नो 'र' अने ८ 2 पृष्ठ ५३ ५४ ५५ 'द' - 'ड' ور ५६ "9 22 (२१) ६० (२२) ६१ 'अव ' नो 'ओ' अने ५७ "" " < अय' नो 'ए' (२३) संयुक्त पूर्वे ह्रस्व (२४) ६२ 'क्ष' नो 'छ' (२५) अनुस्वारनी 20 " पूर्वे हस्व (२६) 'विसर्ग' नो 'ओ' (२७) ६३ संयुक्तनो लोप थां पूर्वस्वरनी दीर्घता ( २८ ) ६३ މ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंडिका विषय निपातोमां दीर्घ (२९) ६४ ६५ उच्चारण अक्षरव्यत्यय (३०) त्वर्थसूचक प्रत्यय (३१) आज्ञार्थसूचक मध्यम ६६ पुरुष एकवचन (३२) संबंधक भूतकृदंत ( ३३ ) 'भि' अने 'हि' (३४) ६७ ४२ "" त्रीजो पुरुष बहुवचन 'रे' प्रत्यय (३५) वैदिक रूपो अने व्यापक प्राकृतनां रूपो ( ३६ ) गुजरातीनो भाववाचक 'आइ' प्रत्यय ( ३७ ) गुजरातीनो 'नो' प्रत्यय अनुस्वारलोप ( ३९ ) द्विवचन अने ( १० ) पृष्ट | कंडिका ( ४० ) बहुवचन लिंग वगेरेनो विपर्यय ( ४१ ) < 'अन' प्रत्यय ( ४२ ) आदिमां در (४७) 33 " ६८ (३८) ६९ ६८ ލމ ७० " भूतकाळमां 'अ ' नो अभाव ( ४३ ) ७१ संधिनो अभाव (४४) केटलाक धातुओ (४५) ७२ ' णो' प्रत्यय ( ४६ ) विभक्ति विनाना प्रयोगो در 34 ४३ ७२ ४४ ४५ 37 ७१ ४९ ४८ विषय ५१ दिवेदिवे गुजराती 'ई' ( ४९ ) अकारांत अने अकारांत सिवायनां नामो माटे समान विधान पृष्ठ (४८) ७३ (५०) 'कुह' अने 'न' नो प्रयोग ४६-४७ पाणिनिना (५१) व्यापक प्राकृतमां जीवती वैदिक भाषानुं प्रतिबिंब तळपदी गुजराती अने जीवती वैदिक भाषा ' प्रकृतिः संस्कृतम्' वाक्यना अर्थनी संगतता अने असंगतता प्राकृतने समझाववा संस्कृत वाहनरूप छे जे 'वैदिक'ने समझाववा संस्कृत वाहनरूप छे समयनो शिक्षितवर्ग संस्कृतप्रिय भाषातत्त्व अने इतिहास दृष्टि आदेश अने स्थानी < 'पालि ' भाषा माटे 'पालि ' वाहन 'प्रकृतिः संस्कृतम् ' विशे रुद्रटनो टीकाकार " ७४ ७४ " ७५ ७६ " ७७ " ७९ "" ८१ ८१ राजशेखरनी प्राकृत - भक्ति ८३ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) पृष्ठ कंडिका विषय पृष्ठ । कंडिका विषय ५२ वाक्पतिराजनी प्राकृत 'ह' नो 'अ' (१६) ९१ भक्ति 'त' नो 'ट', 'दृ' (१५),, ५३-५४ आदिम प्राकृत अने लौकिक 'म' नो 'म्भ' ९२ संस्कृत वच्चेनो भेद ८४ तथा 'क' नो 'ग' (१८),, ५५ व्यापक प्राकृत अने । 'ट' नो 'ड' (१९) , लौकिक संस्कृत ए बन्ने 'व' नो 'ब' तथा बहेनो छे 'द' नो लोप (२०) , नानी बहेन संस्कृत ऊपर ८६ । 'ड' नो 'ल' (२१) , मोटी बहेन प्राकृतनी 'स' नो लोप (२२) प्रबल असरनां उदाहरणो 'य' नो लोप अने 'स्याल' अने 'श्याल ' (१), 'र' नी वृद्धि (२३) 'शूर्प' अने 'सूर्प (२) ८७ 'क' नो लोप (२४) , 'श' नो 'स' 'स' नो 'श' 'द' नो लोप (२५) तथा 'ष' नो 'स' ८८ 'म' नो 'व' (२६) , 'क्ष' नो 'ख' अने 'व' नो 'म' (२७) 'क्ष' (३) 'स' नो 'ष' तथा 'त' नो 'ट' (४) 'ख' नो 'ह' (२८) 'र' नो लोप (५) 'प' नो 'व' (२९) स्वरभक्ति (६) 'व' नो लोप (३०) अनुस्वारयुक्तता (७) , 'क्ष' नो 'ख' (३१) 'आ' नो 'अ' (८) 'य' नो लोप (३२) 'इ' नो 'ए' (९) ९१ 'क्ष' नो 'छ' (३३) 'अ' नो 'आ' (१०) ,, 'त्स' नो'च्छ' (३४) 'ऋ' नो 'रि' (११) 'त' नो 'थ' (३५) , 'ति' नो 'रि' (३६) 'भ' नो 'ब' (१२) 'य' नो 'ज' (३७) 'ण' नो 'ल' (१३) , 'ह' नो 'घ' (३८) ९५ 'औ' नो 'उ' (१४) 'ष्ट्र' नो 'ढ' तथा 'र' 'द' नो 'ज' (१५) , लोप (३९) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १०२ (१२) कंडिका विषय पृष्ठ कंडिका विषय 'श्च' नो 'छ' (४०) ९५ | नाटकोना प्राकृतनी अनुस्वारलोप (४१) , दुर्दशा १०० वचला स्वरनो लोप अने 'प्राकृत' नीच पात्रोनी भाषा छे ? वचला स्वरसहित व्यंजननो 'प्राकृत भाषाना अभ्यास लोप (४२) ,, विना संशोधन कार्य ज 'थ' नो 'ध' (४३) ९६ अशक्य छ 'ई' नो 'ए' (४४) ,, ५८ 'प्राकृत'ना अभ्यास 'क' नो 'ग' 'अ' नो विना भाई-भाई बच्चे 'इ''इ' नो 'ए'(४५) ९६ पडेलु अंतर १०३ 'र' नो 'ल' तथा ५९ व्यापक प्राकृतमा समाती 'ऋ' नो 'ल' (४६) ,, भाषाओ 'ल' नो लोप (४७) ९७ ६० बौद्धमागधी-पालि-नो 'श' नो 'ष' (४८) , परिचय 'द' नो 'त' (४९) , आर्षप्राकृत-अर्धमागधी'र' नो लोप थया पछी नो परिचय . १०७ द्विर्भाव (५०) , 'अर्धमागधी 'नो अर्थ'अय' नो 'ओ' (५१) ९७ विचार 'प' नो 'ब' (५२) , अर्धमागधीमां 'त' श्रति १११ आयव्यंजननो लोप (५३) ,, अर्धमागधी अने जैनस्वर अने संयुक्त वर्णनां । परंपरा विलक्षण उच्चारणो (५४) ९८ आर्षप्राकृतनी पूज्यता १२० 'ण' नो 'न' (५५) ९९ आर्षप्राकृतना सांगोपांग 'ष' नो 'स' (५६) , व्याकरणनो अभाव संस्कृतना अभ्यासिओनुं । ६२ साधारण प्राकृतनो प्राकृतना अभ्यास तरफ परिचय दुर्लक्ष अने तेनुं 'महाराष्ट्र प्राकृत' दुष्परिणाम नो अर्थ १२४ १०४ ११० ११२ ___ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंडिका विषय साधारण प्राकृतनी विविधता चंड अने हेमचंद्र चंड अने लक्ष्मीधर ८ 'तत्सम' नो अर्थ " ' तद्भव' नो अर्थ देश्य एटले तळपदी आर्यसंतानीय देश्य अने अनार्य संतानीय देश्य अनार्य संतानीय देश्य शब्दो राजकुमारोना उछेर माटे अनार्य दासीओ ६३-६४-६५ लौकिक संस्कृतमां पण देश्य शब्दो ६६ शौरसेनी भाषानो परिचय दिगंबर जैन साहित्य अने शौरसेनी भाषा शौरसेनीनी विविधता ६७ मागधी भाषानो परिचय सूत्रमागधी अने व्याकमागधी संकेत मागधीनी विविधता ६८ पैशाची भाषा अने चूलिका - पैशाची भाषानो परिचय पैशाचीनुं प्रभवस्थान (१३) पृष्ठ "" "" १२६ १२७ ७० "" १२९ 23 १३० १३१ १३३ १४४ "" १४६ " १४७ १४९ कंडिका विषय ६९ चूलिका - पैशाची पैशाचीनी विविधता वर्णविकारोनी दृष्टिए भाषाओनो क्रम अपभ्रंशभाषानो परिचय १५० १५१ ७१ ७२ महाभाष्यकार अने अप भ्रंशनो सामान्य अर्थ अपभ्रंशनो विशेष अर्थ भाषाविशेषपरत्वेना " अपभ्रंशनो सामान्य अर्थ १५८ अपभ्रंश अने वैदिकयुगनुं आदिम प्राकृत अपभ्रंशनो ऊहापोह रूढार्थक अपभ्रंश अने नाट्यशास्त्रकार भरत नाट्यशास्त्रमां अपभ्रंश अपभ्रंश अने दाक्षिण्य चिह्न महायानपंथना ललितविस्तर आदि ग्रंथोनां अपभ्रंशपद्यो ललितविस्तरनां पद्यो बोधिचर्यावतारनुं पद्य लंकावतारनां पदो पृष्ठ १५१ १५२ १५४ अपभ्रंश "" १५९ पद्यो १६१ चंड अने रूढार्थ अपभ्रंश १६२ अपभ्रंशप्रबंध १६३ "> " १६० " १६५ " १६८ 23 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) १८२ समय भविष्य , कंडिका विषय पृष्ठ कंडिका विषय पृष्ठ जैनग्रंथ 'वसुदेवहिंडि' भाषानी हेमचंद्रे आपेली वगेरेमा अपभ्रंश पद्य समझुती अने गद्य १७१ हेमचंद्रना शब्दोमां ते उक्त जैन ग्रंथोनो समय १७२ लोकभाषानो नमूनो १८० ललितविस्तरनो समय १७३ हेमचंद्रनां पद्योनी भाषा बोलचालनु अपभ्रंश , अने वर्तमान गुजराती साहित्यिक अपभ्रंशनो भाषा कुवलयमालामां आवेलो अपभ्रंशनुं साहित्य १७४ गुज्जरो लाटो अने मालअवहट्ट अने अपभ्रंश वोनी भाषानो उल्लेख १८३ अपभ्रंशनुं वैविध्य अपभ्रंश अने प्रांतिक राजशेखर अने मार्कंडेये। भाषाओ १८४ जणावेला अपभ्रंशना अंतिम अपभ्रंश के भेदप्रभेदो १७५ ऊगती गुजराती १८५ प्राकृत-संस्कृत अने 'देशीराग' अने 'मेळो' अपभ्रंश ए त्रणे बहेनोमां अर्थनो 'गुर्जरी' शब्द १८६ परस्पर सद्भाव १७५ ७५ गुज्जरीनी वाणीनो नमूनो १८७ गुजरातीनी माता उक्त १७८ ७६ । हेमचंद्रनुं ऊगती गुजअपभ्रंश. व्यापक प्राकृत रातीनुं व्याकरण १८८ मोटी माशी अने संस्कृत स्वरपरिवर्तन नानी माशी लघु उच्चारण १८९ गुजरातीनी मातामही , व्यंजनपरिवर्तन १८९ वैदिक युगर्नु आदिम 'र'नो लोप अने वधारो १९१ प्राकृत १७८ केटलाक शब्दो गुजरातीमां मातामहीनो , केटलाक निपातो १९४ वारसो अनुकरण शब्दो आमुखनो उपसंहार १७९ पादपूरको ७४ हेमचंद्रना समयनी लोक अव्ययो १९८ १९७ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) पृष्ठ कंडिका विषय पृष्ठ कंडिका विषय जातिनुं अनियंत्रण २०२ क्रियापद विभक्ति काळy अनियंत्रण देश्यधातु २१३ शौरसेनीवत्-सूत्रनो कृदंतो २१४ आशय तद्धितप्रत्यय २१६ नामविभक्ति हेमचंद्रे दर्शावेली ऊगती लुप्तविभक्ति गुजराती अने वैदिक संबंधसूचक प्रत्ययो भाषा वच्चेनी समानता २१७ सर्वादि शब्द चालु गुजराती अने इकारांत अने उकारांत नाम २१० वैदिक भाषा वच्चेनी नारीजाति नाम २११ समानता २१८ व्याख्यान बीजुं-बारमो अने तेरमो सैको पृ० २१९-३८९ ام اس ७८ अभयदेव-वादिदेवसूरि देवसूरिनां वाक्यो हेमचंद्र अने सोमप्रभ हेमचंद्रनां वाक्यो धर्मसूरि-विजयसेन | ८७ अभयदेवना शब्दो एमनी कृतिओ देवसूरिना शब्दो २३० __ अभयदेवनो समय हेमचंद्रना शब्दो २३१ देवसूरिनो समय २२० ८८ अभयदेव-देवसूरि-हेमचंद्रे हेमचंद्रनी कृतिओ २२१ वापरेली नामविभक्तिओ ८२ सोमप्रभनो समय २२३ अने तेनी चर्चा २३७ ८३ धर्मसूरिनो समय २२३ प्रथमा अने द्वितीया ८४ विजयसेननो समय विभक्ति २३८ ८५ बारमा अने तेरमा सैकानी भाषामां विशेष्य प्रमाणे भाषामीमांसा २२४ विशेषणमा प्रत्यय न ८६ ते ते कृतिओनां वाक्यो होवानी पद्धतिने वैदिक अने शब्दो २२४ भाषानी एवी पद्धतिनो अभयदेवनां वाक्यो २२५ टेको २४२ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ (१६) कंडिका विषय पृष्ठ । कंडिका विषय ८९ त्रीजी विभक्ति । १०१ 'जणाय' ना 'आय'नी एकवचन व्युत्पत्तिचर्चा २६९ बहुवचन २४५ १०२ करीए'ना 'ईए'नी बेवडा प्रत्ययो अने व्युत्पत्तिचर्चा २७१ वैदिक भाषानी पद्धति २४५ १०३ 'अच्छइ'नी व्युत्पत्तिचर्चा २७२ चतुर्थीने बदले छट्ठी वेबरनी भ्रांत कल्पना २७५ विभक्ति श्रीनरसिंहरावभाईए 'ते माटे' अर्थना द्योतक जणावेलो अर्थ बराबर निपातो नथी 'रेषा' उपरथी 'रेसि' टेसिटोरीनी विवादास्पद लाववानी भ्रामक कल्पना २४७ कल्पना ___२७६ व्युत्पत्ति माटे केवल बीम्स महाशयनी 'अक्ष' अक्षरसाम्य भ्रामक छे २४८ द्वारा 'अच्छ' लाववानी ते बाबतनां उदाहरणो २४८ कल्पना छठी विभक्ति २५२ १०४ 'अच्छि' क्रियापदनी षष्ठी सूचक 'तण'नी व्युत्पत्ति व्युत्पत्तिचर्चा ५. १०५ ‘घेप्प्' धातु- मूळ , पंचमी विभक्ति २५६ १०६ ‘पहोंचवू 'नी व्युत्पत्ति चर्चा ९४ सातमी विभक्ति २८० १०७ भाषामां शैलीनी विशेषता-२८३ ९५ बारमा सैकानी क्रियापद 'भण 'नो उपयोग २८४ विभक्ति १०८ बारमा सैकानां कृदंतो अने। क्रियापदना प्रत्ययोनी तेमना प्रत्ययोनां मूळ २८६ व्युत्पत्ति १०९ भूतकृदंत ९७ भविष्यकालनां क्रियापदो २६४ । ११० वर्तमान कृदंत ९८ विध्यर्थ क्रियापदो २६४ १११ संबंधक भूतकृदंत ५९ कर्मणि क्रियापदो 'करी' अने' करीनेना १०० कर्मणि अने भावेप्रयो 'ई' तथा 'ईने' नी गनी चर्चा व्युत्पत्ति २७९ ९३ पंजा २५७ २५८ २५९ or or २८८ २८९ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) पृष्ठ ३२७ ३२८ ९ कंडिका विषय पृष्ठ | कंडिका विषय ११२ भूतकृदंतो द्वारा भूतकाळ- १२५ 'तण' नो स्वतंत्र उपयोग ३२३ सूचक क्रियापद २९१ १२६ 'वंदणह' वगेरेनी ११३ 'आव्यो 'नी व्युत्पत्ति २९३ व्युत्पत्ति ११४ कर्तृसूचक कृदंत २९४ १२७ 'लेवा'नी व्युत्पत्ति ३२४ ११५ विध्यर्थ कृदंत २९५ | १२८ भविष्यकाळनां क्रियापदो ३२५ 'करवान'नी व्युत्पत्ति २९६ | 'छांडवुनी व्युत्पत्ति ३२६ ११६ बारमा सैकानां सर्वनामो २९६ १२९ 'मेल्हावीओ' वगेरेनी ‘कवण' विशे निरुक्तकार २९९ व्युत्पत्ति ११७ बारमा सैकानां विशेषणो 'बेसाडवुनी व्युत्पत्ति , अने अव्ययो ३०१ १३० 'नात्रां' 'भडिवाउ'नी ११८ 'आवइ 'नी व्युत्पत्ति ___३०४ व्युत्पत्ति ११९ ' ले 'नी व्युत्पत्ति 'रूडं'नी 'व्युत्पत्ति ३२९ १२० तेरमा सैकाना शब्दो 'आंगमे'नी चर्चा १२१ सोमप्रभनो समय ३१४ १३१ ‘सांभळवुनी व्युत्पत्ति ३३० धर्मसूरिनो समय ३१५ १३२ पंचमीसूचक हूंतु 'नी विजयसेनसूरिनो समय ३१५ व्युत्पत्ति १२२ 'आप्युं'नी व्युत्पत्ति ३१६ १३३-१३४ 'साटे' अने 'वडे'नी १२३ 'सवडि 'नी व्युत्पत्ति ३१७ व्युत्पत्ति 'मोरंति 'नी व्युत्पत्ति ३१८, १३५ ‘ठिउ' वगेरेनी चर्चा ३४१ 'जगडो'नी व्युत्पत्ति ३१९ १३६ 'पहेला 'नी व्युत्पत्ति ३४३ 'दीणार' परदेशी शब्द , १३७ 'कडवानी' व्युत्पत्ति ३४४ १२४ 'जोवुनी व्युत्पत्ति , 'रळी'नी व्युत्पत्ति ३४५ 'पाखर'नी व्युत्पत्ति ३२१ बारमा अने तेरमा सैकानुं 'ढांकतुं'नी व्युपत्ति ३२१ ३४७ व्याख्यान त्रीजु-चौदमो अने पंदरमो सैको पृष्ठ ३९१-४३६ १३८ चौदमा सैकाना पद्यगत १४० विनयचंद्रनो समय ४०३ शब्दो ३९१ | जिनपद्मसूरिनो समय १३९ चौदमा सैकाना गद्यगत १४१ चौदमा सैकानी भाषाशब्दो मीमांसा ४०४ mr m m m m पद्य ४०० Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) पृष्ठ कंडिका विषय पृष्ठ कंडिका विषय १४२ 'चडउत्तर'नी व्युत्पत्ति ४०५ 'वहेलो'नी व्युत्पत्ति ४१७ 'वज्जर् 'नी चर्चा ४०६ 'लहकंती' 'जोडती'नी 'सरवणि'नी व्युत्पत्ति व्युत्पत्ति 'झिजई'नी व्युत्पत्ति 'धीरिम' 'मनावइ 'नी 'झबक' वगेरे अनुकरणो ,, व्युत्पत्ति ४१९ 'झरवं'नी चर्चा ४०७, 'मडकर' 'आर्छ' 'संथउ' 'नत्थी' वगेरेनी चर्चा ,, 'बोरीयावाडि'नी व्युत्पत्ति ४२० १४३ भीजवुनी व्युत्पत्ति ४०८ 'थापण' 'थवक्क' १४४ 'अनेरा'नी व्युत्पत्ति ४०९ 'फाडेइ' 'कांचुलिय' 'देखाडवू' 'वाडो' वगे 'कचोळं' नी व्युत्पत्ति ४२१ रेनी चर्चा 'गालिमसूरा' 'कुवडिय' १४५ 'ऊपरि'नी व्युत्पत्ति ४१० 'माणवू' 'खंभ' नी १४६ वलिवलि' 'जित्तउ' व्युत्पत्ति ४२२ 'टोहणकालि' 'हिल्ली'नी 'हिंडोला' 'धारि' व्युत्पत्ति ४१२ 'महमह' ' सिउ' 'गमार''माचइ' 'पतीजसि' 'मलियउ''अनेराकण्हइ' ‘नडबुं'नी व्युत्पत्ति ४१३ नी व्युत्पत्ति ४२३ 'धीय' 'सुहाली' 'पांगरवू' ‘ओछो' 'कने' 'मात्रा' । 'गिहिल्ली' 'थिउ 'नी 'देवंदण' नी चर्चा ४२४ व्युत्पत्ति ४१४ 'कवळीनी व्युत्पत्ति ४२५ 'चूक' 'दीस' 'मुहाडि' 'सारसंभाल' 'यउ' 'भुंडनिलाडि' 'माल' 'हिवडातणइ' उत्ताणु' 'चिणय' 'मिरिय' नी व्युत्पत्ति ४२६ 'अउगी'नी व्युत्पत्ति ४१५ 'थापणिमोसु' 'कूडो' 'दोयलं' 'फरवु 'नी 'विढाविढि' 'छानउ' व्युत्पत्ति 'पाडइ' 'तूल' 'सिउणइ' 'ऊबाहुलि' 'फाग' 'पति''राडिभेडि' ४२७-२८ 'ऊतावलि' 'रहेवा' 'पाडोसि'नी व्युत्पत्ति Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंडिका विषय पृष्ठ कंडिका विषय पृष्ठ 'मापि' 'वोसिरावउ' ४२९ / १६८ कुलमंडनना विशिष्ट 'ऊखल' 'वेचवू' नी प्रयोगो व्युत्पत्ति कुलमंडने आपेला केटलाक १४७-१४८-१४९ चौदमाशतकना प्रयोग अने विभक्तिओ संग्रामसिंहनी बालशिक्षाना वापरवाना नियमो ४६८ केटलाक प्रयोगो ४३०-३७ १६९ पंदरमा सैकानी भाषा१५० संदेशकरासना शब्दो ४३८ मीमांसा १५१ संदेशकरासनी भाषा ४४० १७० पांचमीना प्रत्ययोनी चर्चा ४७३ १५२.१५३ संदेशकरासना कानो | १७१ 'छे' नो उपयोग परिचय | १७२ पारसी लेखक अने जैन पंदरमा सैकानी कृतिओ. ४५० लेखक ए बन्नेनी समान १५४ कुलमंडननी कृति ४५१ गुजराती कुलमंडननो परिचय , १७३-१७४ वैदिक लेखक अने जैन १५५ कुलमंडनना नामविभ लेखकनी समान गुजराती ४७८ क्तिना प्रयोगो ४५२ श्रीदलालनो अभिप्राय ४७९ १५६ तरुणप्रभना प्रयोगो ४५४ १७५ व्यवहितविभक्तिवाळा १५७ सोमसुंदरना प्रयोगो ४५५ । प्रयोगो ४८१ १५८ पारसी लेखक लक्ष्मी १७६ गुणरत्नना प्रयोगो ४८२ धरना प्रयोगो ४५५ गुणरत्नना प्रयोगोनी मीमांसा ४८७ १५९ हेमहंसना प्रयोगो ४५६ वर्तमान कृदंत १६० असाइतना प्रयोगो अने भूतकृदंतनो विवेक ४८८ १६१ भीमना प्रयोगो १७७ 'लेबुं'नी चर्चा १६२ तरुणप्रभना बीजा शब्दो ४५८ । १७८ ‘रखे'नी चर्चा १६३ सोमसुंदरना बीजा शब्दो ४६० १७९-१८० गुणरत्न अने कुल१६४ लक्ष्मीधरना बीजा शब्दो ४६१ मंडननी गुजरातीनां विशिष्ट १६५ हेमहंसना बीजा शब्दो ४६२ लक्षण , ४९० १६६ असाइतना बीजा शब्दो ४६३ चौदमा अने पंदरमा १६७ भीमना बीजा शब्दो ४६४ । सैकानुं पद्य तथा गद्य ४९३ m ___ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mr (२०) कंडिका विषय पृष्ठ कंडिका विषय पृष्ठ व्याख्यान चोथु-सोळमो अने सत्तरमो सैको पृ०५३७-६०२ ।। १८१ लावण्यसमय-नरसिंह 'तिणि' नी चर्चा ५५१ पद्मनाभ-भीम बीजो, १८८ 'लीहाला 'नी चर्चा ५५२ मांडण-सिद्धिचंद्र-विष्णुदास- १८९-१९० सिद्धिचंद्र अने । नाकर अमरेलीना शिलालेखना शब्दो ५५३ १८२ लावण्यसमयना शब्दो ५३८ १९१ विष्णुदासना शब्दो ५५५ १८३ नरसिंहना शब्दो १८४ पद्मनाभना शब्दो ५४१ १९२ नाकरना शब्दो ५५७ १८५ भीम बीजाना शब्दो ५४४ १९३ सत्तरमी सदीनी भाषा१८६ मांडणना शब्दो मीमांसा १८७ सोळमा सैकानी भाषा सोळमा अने सत्तरमा मीमांसा सैकार्नु पद्य तथा गद्य ५६१ व्याख्यान पांचमुं-अढारमी सदीनी गुजराती अने उपसंहार पृ० ६०३-६६५ १९४ लक्ष्मीरत्न-रत्नेश्वर अढारमा सैकानुं पद्य प्रेमानंद-यशोविजय . ६०३ । अने गद्य ६११ १९५ लक्ष्मीरत्न-रत्नेश्वर-प्रेमानंदना २०१ उपसंहार विभक्तिवार प्रयोगो ६०३ | २०२-२१० गुजराती भाषानी १९६ लक्ष्मीरत्ननां क्रियापदो ६०५ उत्क्रांति रत्नेश्वरनां क्रियापदो ६०६ प्रेमानंदनां क्रियापदो २११-२१९ कृतिओनुं अभिधेय ६४१ १९७ लक्ष्मीरत्न-रत्नेश्वर- ६०६ २२० 'गुजरात'नी व्युत्पत्ति ६४८ प्रेमानंदनां कृदंतो २२१ फारसी गुज़र ६५१ १९८ लक्ष्मीरत्न-रत्नेश्वर-प्रेमानंदना २२२ गुजरातनी भौगोलिक मर्यादा६५२ केटलाक शब्दो २२३-२२८ पांचसे वर्ष पूर्वे एक यशोविजयजीना विभक्ति जेवी भाषा, ते संबंधे वाळां नामोनी यादी ६०८ उदाहरणो यशोविजयजीनां क्रिया- २२९ मातृभाषानो विशिष्ट पदोनी, कृदंतोनी अने अभ्यास केटलाक शब्दोनी यादी ६०९ 'छे' नी विशेष चर्चा २०० अढारमी सदीनी (परिशिष्ट) भाषामीमांसा ६१० विशेषशब्दसूचि १९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) सुधारीने वांचq पृ० ७ टिप्पण-(छेल्लेथी त्रीजी पंक्ति) पृ० ७७ (छेल्लेथी सातमी पंक्ति) __ संवार, नाद ___लौकिक संस्कृतनो पृ० ७५ ( छेल्लेथी पहेली पंक्ति) पृ० १४३ पं० ११ (वर्ग ८, गा० ६६) जेवू तो पृ० ४०५ चडउत्तर (१४२ मी कंडिका) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति उपक्रम (बारमा सैकाथी अढारमा सैकासुधी) १ आमुख श्रीमहावीराय नमः प्रणम्य परमात्मानं सकलान् शाब्दिकांस्तथा । वक्ष्ये हैमानुसारेण गुर्जरीवाच उत्क्रमम् ॥ १ प्रस्तुत निबन्धमा विक्रमना बारमा सैकाथी लईने अढारमा सैका सुधीना गुजराती पद्य अने गद्य साहित्यनी भाषानुं - व्याकरणनी दृष्टिए अवलोकन करवानुं छे. एटले के आचार्य हेमचन्द्रे पोताना आठमा अध्यायना चोथा पादमां अपभ्रंशना मथाळा नीचे जे जे नियमो आप्या छे ते नियमो त्यार पछीना साहित्यमां कया कया प्रकारे परिवर्तन पाम्या छे-नामरूप अने विशेषणरूप शब्दोर्नु, नामोने अने धातुओने लगती विभक्तिओनुं, हेत्वर्थकृदंत, संबंधक भूतकृदंत, वर्तमानकृदंत, भूतकृदंत, भविष्यत्कृदंत अने कर्तृसूचककृदंतने लगता प्रत्ययो, अव्ययोनुं तथा मूळ धातुओनुं क्यां केवु परिवर्तन भ्युं छे अने शब्दोमां पण प्राकृत शब्दोमुं, संस्कृत शब्दोचें, देश्य शब्दोनुं अने अन्य भाषाना शब्दोनुं चलण क्यां केवी रीते थतुं आव्युं छे ए बताववा साथे ए बधुं स्पष्टपणे ध्यानमां आवे ए सारु ते ते समयना गुजराती साहित्यमांथी सविस्तर उदाहरणो पण टांकी बताववानां छे. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति २ आचार्य हेमचन्द्रने व्याकरणनी दृष्टिए गुजरातीना पाणिनि समझुं हेमचंद्र गुजरा- छु अने साहित्यिक काव्यनी दृष्टिए गुजरातीनातीना पाणिनि गुजराती साहित्यना-आदिम वाल्मीकि पण तेओ अने वाल्मीकि छे एथी तेमनो समय आ निबंधमा पूर्वावधिरूप छे अने उत्तर मर्यादानी दृष्टिए उपाध्याय यशोविजयजी के कविराज प्रेमानंद सुधी मारे पहोंचवानुं छे. ते बे समयना वचगाळामां थयेला जैन, वैदिक तथा पारसी अने मुसलमान साहित्यकारोनी गुजराती पद्य वा गद्य कृतिओने तपासवानी ___ तेमनी ते ते कृतिओ तो पारविनानी छे एटले ते ते सैकावार मळती एक बे के त्रण कृतिओने ज तपासीने ते द्वारा उक्त परिवर्तनोनी रेखा दोरवा धारी छे. प्रसंग पडतां गमे ते कविनी त्रणथी वधारे कृतिओनो पण उपयोग करीश. ___ पाठोनी चोक्कसाई माटे यथाप्राप्त हस्तलिखित प्रतिओमा आवेला पाठोनो उपयोग करनार छु अने ज्यां मुद्रित पाठ वहेम पडे तेवा नहीं होय त्यां तेमनो पण उतारो टांकीश. निबंधनो विषयानुक्रम आ प्रमाणे गोठन्यो छे: १ आमुख निबंधनो २ बारमो अने तेरमो सैको क्रम ३ चौदमो अने पंदरमो सैको ४ सोळमो अने सत्तरमो सैको ५ अढारमो सैको अने उपसंहार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ते ते सैकाना कविनी कृतिविशे बोलतां पहेला ते ते कविसंबंधे पण यथाप्राप्त वृत्तांतानुसारे संक्षेपमा जणाववानी धारणा राखी छे. मूळ निबंध ऊपर आवतां पहेलां गुजराती भाषाना इतिहास अने क्रमविकास साथे जेमनो गाढ संबंध छे एवा आमुखरूप नीचेना मुद्दाओ तरफ श्रोताओनुं ध्यान खेंचीश : १ शब्दस्वरूप २ भाषास्वरूप ३ भाषाभेदना निमित्तो अने भाषाना भेदप्रभेदो. ३ वर्तमानमां विज्ञाननी अनेक शाखाओमां यांत्रिक शोधोनुं प्रत्यक्ष शब्दस्वरूप - प्रमाण प्रवर्ते छे. जे समये इंद्रियप्रत्यक्षनी आवी यांत्रिक सामग्री न हती ते समये आपणा ऋषिमहर्षिओए चराचरनां जे दृश्यो-पदार्थो बनावटो स्थूलदृष्टिए-नरी आंखेसमझाय तेवां न हतां तेमने समझवा-समझाववा आत्मानुभव-आत्मप्रत्यक्ष -द्वारा अनेक प्रयोगो करेला छे अने तेम करी तेमणे पोतपोताना अमुक चोकस सिद्धांतो घडी राखेला छे. ___ भारतवर्षनां समग्र दर्शनोनुं उत्थान अने तेमना अनेक प्रवाहो तरफ दृष्टि मांडतां ज उक्त हकीकत ध्यानमां आवे एवी छे. १ जैन विचारको, वैदिक विचारको अने बौद्ध विचारको आत्मा, ईश्वर, कर्म वगेरे तर्कातीत प्रमेयोविशे भिन्न भिन्न अभिप्राय धरावे छे. तेमज अंधकार, छाया, तेज वगेरे दृश्यपदार्थोविशे पण तेमनी विचारसरणी भिन्नभिन्न प्रकारनी छे. इंद्रियोमां कई प्राप्यकारी छे अने कई अप्राप्यकारी छे ए बाबत ते बधानी जुदी जुदी मान्यता प्रवर्ते छे, आ बधी विवादास्पद वस्तुओ माटे ते त्रणे विचारकोए लाखो श्लोकोमा लांबी लांबी चर्चाओ करेली छे. ते विचारको वच्चे आवी भिन्नता होवा छतां ते बधा- लक्ष्य एक निर्वाण छे ए ध्यानमा राखवा जेवू छे. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति आपणने सौने विदित ज छे के शब्द, श्रोत्रइंद्रिय द्वारा जाणी शकाय छे. शब्दनां माधुर्य, कठोरता, तीव्रता, मंदता वगैरेने अनुभविए छिए एटलं ज नहीं पण वर्तमान बजारोमां शब्दे एक घणुं मोटुं स्थान रोकी राख्युं छे-आ रीते शब्द, अतिप्रचलित छताय ए शुं छे ? शानो बेनेलो छे ? एनुं मूळ क्यां छे ? एवी एवी जिज्ञासाओ भाग्ये ज कोईने ऊठती हशे. २ जे शब्द आपणे बोलिए छिए तेनी उत्पत्तिनो क्रम आपिशलिनामना वैयाकरणे नीचे प्रमाणे जणाव्यो छे: " नाभिप्रदेशात् प्रयत्नप्रेरितः प्राणो नाम वायुः ऊर्ध्वम् आक्रामन् उरःप्रभृतीनां स्थानानाम् अन्यतमस्मिन् स्थाने प्रयत्नेन विधार्यते । स विधार्यमाणः स्थानम् अभिहन्ति । तस्मात् स्थानाभिघातात् ध्वनिः उत्पद्यते आकाशे, सा वर्णश्रुतिः-स वर्णस्य आत्मलाभः। तत्र वर्णध्वनौ उत्पद्यमाने यदा स्थान-करण-प्रयत्नाः परस्पर स्पृशन्ति सा स्पृष्टता। यदा ईषत् स्पृशन्ति सा ईषत्स्पृष्टता। यदा सामीप्येन पृशन्ति सा संवृतता। दूरेण यदा स्पृशन्ति सा विवृतता। एषः अन्तःप्रयत्नः। स इदानीं प्राणो नाम वायुः ऊर्ध्वम् आक्रामन् मूर्ध्नि प्रतिहतः निवृत्तः कोष्ठम् अभिहन्ति, तत्र कोष्ठे अभिहन्यमाने कण्ठबिलस्य विवृतत्वाद् विवारः। संवृतत्वात् संवारः। तत्र यदा कण्ठबिलं विवृतं भवति तदा श्वासो जायते, संवृते तु नादः। तौ अनुप्रदानम् आचक्षते । तत्र यदा स्थान-करणाभिघातजे ध्वनौ नादः अनुप्रदीयते तदा नादध्वनिसंसर्गाद् घोषो जायते । यदा तु श्वासः अनुप्रदीयते तदा श्वासध्वनिसंसर्गादू अघोषो जायते । अल्पे वायौ अल्पप्राणता। महति महाप्राणता-महाप्राणत्वादू ऊष्मत्वम् । यदा सर्वाङ्गानुसारी प्रयत्नस्तीव्रो भवति तदा गात्रस्य निग्रहः कण्ठबिलस्य च अणुत्वम् स्वरस्य च वायोः तीव्रगतित्वाद् रौक्ष्यं भवति तम्-उदात्तम्-आचक्षते। यदा तु मन्दः प्रयत्नो भवति तदा गात्रस्य स्रसनम् कण्ठबिलस्य च महत्त्वम् स्वरस्य च वायोर्मन्दगतित्वात् स्निग्धता भवति तम्-अनुदात्तम्-आचक्षते। उदात्ता-ऽनुदात्तस्वरसंनिपातात् स्वरित इत्येष कृत्स्नो बाह्यप्रयत्नः"।-सिद्धहेम-१-१-१६ । अर्थात् ___ "कोई पण बोलनार ज्यारे बोलवानो प्रयत्न करे छे त्यारे ते प्रयत्नद्वारा सौथी प्रथम प्राण नामनो वायु नाभिए-कुंटीए-थी गतिमान थाय छे. नाभिएथी गतिमान थयेलो प्राणवायु ऊपर धसारो करे छे अने ते ऊपर धसी आवतो वायु, बोलवानां गमे ते स्थानोमांनां कोई एकमां जगा मेळवे छे. [बोलवानां स्थानो आठ छे: Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १ उर-छाती, २ कंठ-गळु, ३ माथु, ४ जीभनुं मूळ, ५ दांत, ६ नासिकानाक, ७ ओष्ठ-होठ अने ८ ताळवं. प्रयत्न बे छे : आस्यप्रयत्न अने बाह्यप्रयत्न. मुखनी अन्दर थतो प्रयत्न ते आस्यप्रयत्न. होठथी मांडीने कंठमणि-हडियासुधीना भागनुं नाम मुख. मुख सिवाय शरीरना अन्यभागमां-कोठामां-थतो प्रयत्न ते बाह्य प्रयत्न. जिह्वानुं मूळ, मध्यभाग अने अग्रभाग ते त्रण करण छे] कोई एक उच्चारणस्थानमां जगा मेळवतां ज ते प्राणवायु, पोताना आश्रयरूप स्थान साथे अथडाय छे-ए रीते स्थान साथे वायुना अथडावाथी बहार-आकाशमांध्वनि थाय छे. ए ध्वनिनुं नाम शब्द-ए ध्वनि पोते ज शब्दनो आत्मा. हवे ज्यारे ते ध्वनि उत्पन्न थाय छे त्यारे जो स्थान, करण अने प्रयत्नो ए बधां य एक बीजां परस्पर स्पर्श करतां होय तो ते स्पर्शनुं नाम स्पृष्टताप्रयत्न. ते बधां परस्पर जराजरा ज अडकतां होय तो ते जराजरा अडकवानुं नाम ईषत्स्पृष्टता. ते बधां एक बीजांनी समीप रहीने अडकतां होय तो ते क्रियानुं नाम संवृतता अने ते बधां एक बीजांथी दूर रहीने स्पर्श करतां होय तो ते स्पर्शन नाम विवृतता. ए चार प्रयत्नो मुखमां थाय छे माटे तेमनुं नाम आंतर प्रयत्न (आस्यप्रयत्न) छे. वळी पाछो ऊपर धसतो ते प्राणवायु माथामां अथडाई पाछो वळतो आपणा कोठा साथे अथडाय छे. कोठा साथे अथडातां कंठबिल-गळानुं छिद्र-विवृत थाय छे-ए विवृत थवानी क्रियानुं नाम विवार. वळी, ए वायु कोठा साथे अथडातां कंठबिल संवृत थाय छे-संवृत थवानी क्रियानुं नाम संवार. वळी, ते वखते ज्यारे कंठबिल विवृत थाय छे त्यारे एक श्वासरूप क्रिया थाय छे अने कंठबिल संवृत थाय छे त्यारे एक नादरूप क्रिया थाय छे. श्वास अने नाद ए बन्नेनुं एक नाम 'अनुप्रदान' छे. ["अनुप्रदान एटले अनुस्वान अर्थात् घंट के झालर वागी रह्या पछी अथवा वागतां होय त्यारे जे तेमना मुख्य अवाज साथे के पछी झणझणाट थाय छे तेनुं नाम अनुप्रदान” एवो बीजाओनो अभिप्राय छे. ] हवे ते वखते स्थान अने करणोनी अथडामणी थतां ते द्वारा पेदा थता ध्वनिमां ज्यारे नादनुं अनुप्रदान थाय छे त्यारे नाद अने ध्वनिना संसर्गथी घोष नामनी क्रिया थाय छे अने ते वखते ज्यारे श्वासनुं अनुप्रदान थाय छे त्यारे श्वास अने ध्वनिना संसर्गथी अघोष नामनी क्रिया थाय छे. ते वखते वायु अल्प होय तो अल्पप्राणतानो प्रयत्न होय अने वायु वधारे होय तो महाप्राणतानी क्रिया समझवी. ए महाप्राणताने लीधे ऊष्मता थाय छे. ज्यारे ते वखते सर्वांगा. नुसारी प्रयत्न तीव्र होय त्यारे गात्र कठण थाय छे. कंठबिल नानुं थाय छे अने Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति वायुनी तीव्रगतिने लीधे स्वरमा रूक्षता आवे छे-आवी उच्चारणनी क्रियाने 'उदात्त' प्रयत्न कहेवामां आवे छे. वळी, ज्यारे ए सर्वांगानुसारी प्रयत्न मंद होय छे त्यारे गात्र ढीलु पडे छे, कंठबिल मोटुं थाय छे अने वायुनी मंदगतिने लीधे स्वरमां स्निग्धता आवे छे-आ जातनी उच्चारण क्रियाने 'अनुदात्त' प्रयत्न कहेवामां आवे छे. हवे ज्यारे उदात्त स्वर अने अनुदात्त स्वर ए बन्ने स्वरो भेगा थाय त्यारनी उच्चारणप्रवृत्तिनुं नाम 'स्वरित' प्रयत्न छे. आ रीते १ विवार, २ संवार, ३ श्वास, ४ नाद, ५ घोष, ६ अघोष, ७ अल्पप्राण, ८ महाप्राण, ९ उदात्त, १० अनुदात्त अने ११ स्वरित ए अगियार बाह्य प्रयत्नो छे. प्रत्येक स्वर अने व्यंजननां स्थान, करण, आस्यप्रयत्न अने बाह्यप्रयत्ननी समझूती नीचे प्रमाणे छे : अवणे इवर्ण (अ-आ) है क वर्ग, ह अने विसर्ग-कंठ (इ-ई), चव, च वर्ग, य अने श-तालु (उ-ऊ) पवग अने उपध्मानीय-ओष्ठ ऋवर्ण (ऋ-ऋ)) है ट वर्ग, र अने ष-मूर्ध । लवर्ण ) . . .. (ल-लु) त वर्ग, ल अने स-दंत ... तालु ... ओष्ठ ... दंत-ओष्ठ ए ऐ ... ... ओ औ ... ... __ व ... ... जिह्वामूलीय अनुस्वार ङ, ञ, ण, न, म ... जिह्वा ... नासिका पोत पोतानां पूर्वोक्त स्थान अने नासिका ... स्पृष्ट प्रयत्न (आस्यप्रयत्न) ... ईषत्स्पृष्ट प्रयत्न 'क' थी 'म' सुधीना व्यंजनो... य, र, ल, व ... ... ___ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईषद्विवृत प्रयत्न विवृत प्रयत्न विवृततर प्रयत्न अतिविवृततर प्रयत्न अतिविवृततम अ-आ 'अ' थी मांडीने 'लु' सुधीना स्वरोमांना प्रत्येक स्वरनां अढार अढार उच्चारणो थाय छे. नमूना माटे आ नीचे मात्र एक 'अ' ना अढार उच्चारणो आप्यां छे : निरनुनासिक उच्चारण--- श, ष, स, ह ... 'अ ' थी 'औ' सुधीना स्वरो ए-ओ ऐ-औ " "" २ १ ह्रस्व उदात्त अ ४ दीर्घ उदात्त आ ७ अनुदात्त अ ५ अनुदात्त आ ८ स्वरित अ६ स्वरित आ ३ ९ सानुनासिक उच्चारण १० हस्व ११ १२ "" " आमुख " य-ल-व-निरनुनासिक यँ - लँ - वँ - सानुनासिक 29 उदात्त अँ | १३ दीर्घ उदात्त आँ | १४ अनुदात्त आँ । अनुदात्त अँ स्वरित अँ १५ स्वरित १८ މލ क ख च छ, टठ, त थ, पफ, श, ष, स, विसर्ग, जिह्वामूलीय अने उपध्मानीय ⠀⠀⠀ घट, ज झ ञ, ड ढ ण, दधन, बभम, य र ल व ह अने अनुस्वार 3 कगङ, च ज ञ प ब म य र ल व ... ट ड ण, त द न, १६ १७ " आज प्रमाणे 'ल' सुधीना तमाम स्वरोनां अढार अढार उच्चारण समझवानां छे. ए, ओ, ऐ, औ- ए चारनुं संस्कृतप्रयोगोमां ह्रस्व उच्चारण थतुं नथी माटे तेनां प्रत्येकनां ह्रस्व सिवायनां पूर्वोक्त बार बार उच्चारणो समझवां. लव- ए प्रत्येकनां बबे उच्चारणो छे:- एक सानुनासिक अने बीजं निरनु नासिक. लुत उदात्त अ ३ अनुदात्त अ ३ स्वरित अ ३ " "" त उदात्त अँ ३ अनुदात्त अँ ३ स्वरित अँ ३ " "" बाह्य प्रयत्न : विवार, श्वास अने अघोष संवाद, नाद अने घोष अल्पप्राण Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ख घ,छ झ,ठ ढ, थध,फ भ, श ष स महाप्राण केटलाक स्वर अने व्यंजननी उच्चारण प्रक्रियामां प्राचीनोए मतभेद बतावेलो छे. जेमके १ अवर्णनुं स्थान-आखू मुख-मुखमां रहेलां बधां स्थानो. २ ह अने विसर्गनुं स्थान-उरसू-छाती. ३ कवर्गनुं स्थान-जिह्वामूल ४ रेफनुं स्थान-दांतनुं मूल-दंतमूल ५ ए-ऐ,,-कंठ अने तालु ६ ओ-औ -कंठ अने ओष्ठ ७ व नुं स्थान सृक्-गलो' ८ जिह्वामूलीय, स्थान-कंठ ९ अनुस्वारनुं स्थान-कंठ-नासिका १० श ष स ह-ए चार ऊष्माक्षरनो आंतरप्रयत्न विवृत ११ अकारनो , संवृत १२ 'ल' नुं दीर्घ उच्चारण नथी माटे तेना बार भेद समझवा. प्राणवायु अने स्थानोनो अभिघात-अथडामण-थतां जे उच्चारणव्यापार थाय छे तेनुं नाम आस्यप्रयत्न अने प्राणवायु तथा कोठानो अभिघात थतां जे व्यापार थाय छे तेनुं नाम बाह्यप्रयत्न. ए, ते बे प्रयत्नोनुं सामान्य स्वरूप छे. आस्यप्रयत्नो ध्वनि नीकळवाने समये ज थाय छे अने बाह्यप्रयत्नो ध्वनि नीकळ्या पछी थाय छे. ए. ते बे प्रयत्नोनी विशेषता छे." उच्चारणशास्त्रना अभ्यासी माटे उच्चारणो संबंधी आटलं विवरण उपयोगी थशे. शब्दनां उच्चारणो शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम करवा माटे शिक्षासंग्रहमा जे बाह्यविधि बताव्यो छे ते आ प्रमाणे छे: "आम्र-पलाश-बिल्वानां अपामार्ग-शिरीषयोः ॥ ३३ ॥ . वाग्यतः प्रातरुत्थाय भक्षयेद् दन्तधावनम् । खदिरश्च कदम्बश्च करवीर-करञ्जको ।। ३४ ॥ एते कण्टकिनः पुण्याः क्षीरिणश्च यशस्विनः । तेनाऽऽस्य-करणं सूक्ष्मम् माधुर्यं चोपजायते ॥ ३५॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख स्पर्श, गंध, रस अने रूप जेटला स्पष्ट छे तेटलो शब्द नथी. शब्दस्वरूप आq अगम्य जेवू होवाने लीधे ज तत्त्वज्ञाननां प्राचीन पुस्तकोमा तेने माटे घणां पानां रोकायेलां छे एटलं ज नहीं पण तेना संबंधमां प्राचीन चिंतकोए जुदा जुदा विचारो बांधी राख्या छे. सांख्यतत्त्वज्ञानना आद्य पुरुष कपिलमुनिए शब्दने प्रकृतिनो विकार शब्द स्वरूप विशे कह्यो छे. प्रकृति जडस्वरूप छे, व्यापक छे. अनेक मतो आकाश पण प्राकृतिक छे अने तेनी उत्पत्ति कपिल शब्दतन्मात्राओ द्वारा थयेली छे. (' तन्मात्रा 'नो ख्याल 'परमाणु' शब्दथी आवी शके छे.) त्रिफलां लवणाक्तेन भक्षयेच्छिष्यकः सदा । क्षीण(अग्नि)मेधाजनन्येषा स्वरवर्णकरी तथा" ।। ३६॥ यज्ञवल्क्यशिक्षा पृ० ५ तथा नारदीयशिक्षा पृ० ४४३ (बनारस-संस्कृत सिरिझ १८९३) अर्थात् " सवारना पहोरमां ऊठीने आंबानु, खाखरानु, बीलानु, अघेडानु, शिरीषनुं तथा खेरनु, कदंबर्नु, कणेरनुं अने करंजक [कणजी] नुं दातण करवू जोईए, एनाथी वाणीनी शुद्धि थाय छे. ए उपरांत बधां कांटावाळां अने दूधवाळां वृक्षोनां पण दातण स्वरशुद्धि माटे लाभकारक छे. लवण साथे त्रिफळां खावाथी स्वरमां शोभा आवे छे, बुद्धि वधे छे अने अग्नि पण प्रदीप्त थाय छे.” ३ सांख्यतत्त्वकौमुदीमां शब्दने आकाशनो गुण कहीने जणावेलो छ : “प्रकृतेर्महान् ततः अहंकारः तस्माद् गणश्च षोडशकः। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि” ॥ २२॥ व्याख्या-"पञ्चभ्यः तन्मात्रेभ्यः पञ्च भूतानि-आकाशादीनि तत्र शब्दतन्मात्राद् आकाशं शब्दगुणम् ”- (सांख्यतत्त्वकौमुदी) “प्रकृतिथी महान् (महत्-तत्त्व) नीपजे छे, तेमांथी अहंकार अने अहंकारमांथी सोळ पदार्थोनो गण पेदा थाय छे. पांचमांथी पांच भूतो नीपजे छे.” २२. "पांच तन्मात्राओमांथी पांच भूतो-आकाश वगेरे-नीपजे छे. शब्दतन्मात्रामांथी आकाश ऊपजे छे अने आकाशनो गुण शब्द छे.” Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति न्यायदर्शनना अग्रणी गौतममुनिए अने वैशेषिक दर्शनना पुरोधा ___ कणादमुनिए शब्दने आकाशनो गुण कहीने गौतम-कणाद । ५ वर्णन्यो छे. कदंबगोलकन्याये वा वीचितरंगन्याये शब्द- प्रसरण पण तेओ माने छे... जैनदृष्टि मुख्यपणे बे तत्त्वोने स्वीकारे छे: चेतन अने जड. जडना - बे भाग छे–एक अमूर्त कोटिनुं अने बीजं मूर्तकोटिनु. " पुद्गल मूर्तकोटिनुं जड कहेवाय अने आकाश अमूर्त कोटिनु. शब्द मूर्तिमंत छे माटे ज ते, जड पुद्गलनो विशेष प्रकारनो परिणाम छे. शब्द अने आकाश वच्चे गुणगुणीनो वा कार्यकारणनो संबन्ध जैनदृष्टि स्वीकारती नथी. भाषानी-शब्दनी-वर्गणाओ आखा य लोकाकाशमां पथरायेली छे. (' वर्गणा'नी समझ माटे ‘परमाणु' शब्द पूरतो छे.) मूलद्रव्यग्राही द्रव्यार्थिक नयनी दृष्टिए जोतां 'शब्द' नित्य कहेवाय ४ “ गन्ध-रस-रूप-स्पर्श-शब्दानां स्पर्शपर्यन्ताः पृथिव्याः। अप्-तेजोवायूनां पूर्व पूर्वम् अपोह्य आकाशस्य उत्तरः"-गौतममुनिप्रणीत न्यायसूत्र अध्या० ३ आह्नि १ सूत्र ६०. ५ “तत्र आकाशस्य गुणाः शब्द-संख्या-परिमाण-पृथक्त्व-संयोग-विभागाः" वैशेषिक दर्शन-प्रशस्तपादभाष्य. “परिशेषाद् गुणो भूत्वा आकाशस्य अधिगमे लिङ्गम् " वैशेषिकद० आकाशानुमानप्रकार पृ० २५. ६ “सद्द-अंधयार-उज्जोओ पभा छाया-ऽऽतवु त्ति का। वण्ण-रस-गंध-फासा पुग्गलाणं तु लक्खणं" ॥१२॥--उत्तराध्ययनसूत्र अध्य० २८ ७ वक्तानो जे अभिप्राय मूळ द्रव्यविशे प्रवर्ते अने द्रव्यगत गुणादि धर्मो प्रति उपेक्षावृत्ति दाखवे ते अभिप्रायनुं नाम द्रव्यार्थिकनय-भेदनो निषेध न करती अभेदग्राही दृष्टि-सन्मतिप्रकरण गा०३ । ___ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख अने परिणामग्राही पर्यायार्थिक नयनी दृष्टिए जोतां 'शब्द' अनित्य कहेवाय. शब्दनु उपादानकारण शब्दनी वर्गणाओ छे अने प्रेरककारण वा संयोजककारण जीव छे. शब्दना अणुओनी आकृति वज्रजेवी छे. उच्चार्यमाण वा ध्वन्यमान शब्द गतिशील छे. महाप्रेयत्नथी नीपजतो शब्द बाधक सामग्री न होय तो लोकना छेक छेडा सुधी पहोंचे छे अने पछी ते तूटी जाय छे त्यारे मंदप्रयत्नथी पेदा थतो शब्द अमुक ज योजनो सुधी फेलाई पछी वीखराई जाय छे.. भाषानी वर्गणाओ शब्दरूपे परिणमे छे. तेमां रूप, रस, गंध अने अविरोधी बे स्पर्श पण होय छे. वर्गणाओ पोते गतिशील नथी परंतु शब्दरूपे परिणाम पामेली वर्गणाओ गतिशील छे. ८ वक्तानो जे अभिप्राय द्रव्यगत गुणादि धर्मोविशे प्रवर्ते अने मूळद्रव्य प्रति तटस्थता दाखवे ते अभिप्रायनुं नाम पर्यायार्थिक नय-सामान्यने न निषेधती भेदग्राही दृष्टि-सन्मतिप्रकरण गा० ३। ९ " चउहि समएहि लोगो भासाइ निरंतरं तु होइ फुडो। लोगस्स य चरमंते चरमंतो होइ भासाए" ॥१०॥ इह कश्चिद् मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति स ह्यभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि विसृजति तानि च विसृष्टानि असंख्येयात्मकत्वात् परिस्थूलत्वाच्च विभिद्यन्ते, भिद्यमानानि च संख्येयानि योजनानि गत्वा शब्दपरिणामत्यागमेव कुर्वन्ति। कश्चित्तु महाप्रयत्नः स खलु आदाननिसर्गाभ्यां भित्त्वैव विसृजति तानि च सूक्ष्मत्वादू बहुत्वाच अनन्तगुणवृद्धया वर्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति” इत्यादि-आवश्यक सूत्रनियुक्ति-पृ० १७. आ संबंधे वधारे समझवा माटे प्रज्ञापनासूत्रनुं अगियारमुं भाषापद अने तेनुं विवेचन जोई लेवु. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बौद्ध परंपरानी दृष्टिए समग्र विश्व पंचस्कंधात्मक छे, तेमां रूपस्कंधमां र शब्दनो समावेश छे ए जोतां ए दृष्टि पण शब्दनुं भौतिकस्वरूप स्वीकारे छे. महान वैयाकरण पतंजलि अने वाक्यपदीयना प्रणेता भर्तृहेरिए . स्फोटरूप निरवयव शब्दने नित्य कह्यो छे अने पतंजलि - मुखादि द्वारा ध्वन्यमान शब्दने अनित्य कह्यो छे. ते बन्ने वैयाकरणो शब्दना परमाणुओ होवानुं स्वीकारे छे. श्रवणगोचर थता ध्वनिओनुं तेमणे 'वैखैरी' वाणी नाम आपलं छे एटलं ज नहीं पण " अनादिनिधनं शब्द-ब्रह्मतत्त्वं यद्-अक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः" ॥ 1 [वाक्यपदीय श्लो० १] १० बौद्धमतमां चार आर्यसत्योने तत्त्वरूप जणावेलां छः दुःख, समुदय, मार्ग अने निरोध. दुःखना पांच प्रकार छ : विज्ञान, वेदना, संज्ञा, संस्कार अने रूप. दुःखना प्रकारभूत एक 'रूप'मां शब्दनो समावेश छे:-षड्दर्शनसमुच्चय-बौद्धदर्शन, ११ “ किं पुनर्नित्यः शब्दः आहोस्वित् कार्यः ? संग्रहे एतत् प्राधान्येन परीक्षितम् x x x तत्र त्वेष निर्णयः-ययेव नित्यः अथापि कार्यः उभयथाऽपि लक्षणं प्रवर्त्यम् "-महाभाष्य-अभ्यंकरशास्त्री पृ० १३. १२ “अणवः सर्वशक्तित्वाद् भेद-संसर्गवृत्तयः । छाया-ऽऽतप-तमः-शब्दभावेन परिणामिनः ॥ ११२ ॥ स्वशक्तौ व्यज्यमानायां प्रयत्नेन समीरिताः । अभ्राणीव प्रचीयन्ते शब्दाख्याः परमाणवः ॥ ११३ ॥ -वाक्यपदीय प्रथम कांड. १३ “ स्थानेषु विधृते वायौ कृतवर्णपरिप्रहा। वैखरी वाक् प्रयोक्तृणां प्राणवृत्तिनिबन्धना" ॥ -स्याद्वादरत्नाकर प्रथम भाग पृ० ८९, अवतरण. ___ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख शब्दार्थ अर्थात्-" अनादि अनंत अने अक्षरात्मक शब्दब्रह्म, अर्थरूपे विवर्त पामे छे अने तेनाथी जगतनी प्रक्रिया चाली रही छे"-एम कही तेओ शब्दतत्त्वनी अपूर्व–अवर्ण्य प्रतिष्ठा वर्णवे छे. __ आ रीते आपणा महर्षिओने शब्दतत्त्वनुं दर्शन जुदी जुदी दृष्टिए थयेलं छे. ए बधां आर्षदर्शनो अने यांत्रिक शब्दविज्ञाननी वर्तमान दृष्टिए बे वच्चे क्यांय सुमेळ बेसे छे के केम ? एनो खुलासो तो पाकट अनुभववाळो शब्दविज्ञानशास्त्री ज आपी शके. जे रीते शब्दना स्वरूपविशे प्राचीन लोकोए जुदा जुदा अनुभवो . घडी राख्या छे तेज रीते 'शब्द' अने शब्दार्थ' वा ‘पदार्थ' वच्चेना संबंधपरत्वे पण तेमनी भिन्न भिन्न मान्यताओ प्रवर्ते छे. प्राचीन चिंतकोना उक्त विचारो द्वारा आपणे शब्दना स्वरूपविशे कोई एक निर्णीत सिद्धांत नथी मेळवी शकता ए भले, परंतु जे समये आवा यांत्रिक शोधननी आटली बधी सामग्री न हती अने अत्यारे शिष्ट गणाती प्रजा असंस्कारी जीवन गुजारती हती तेवे समये पण आपणा पूर्वज चिंतकोना चिंतनीय प्रदेशमां 'शब्द' पण विशेष स्थान रोकी रह्यो हतो अने ए गूढ तत्त्वने समझवा तेमणे प्रबल प्रयत्न य सेव्यो हतो-एटली ज हकीकत आपणे माटे आजे गौरवरूप नथी? ४ तरतनुं जन्मेलं बाळक मात्र रडवानो ध्वनि करी शके छे, जेम जेम ए मोटु थतुं जाय छे तेम तेम हसवानो ध्वनि य करतुं थई जाय छे. _ पछी तो ए पोतानी वृत्तिओने व्यक्त करवा शारीरिक भाषास्वरूप चेष्टाओनो य आश्रय करतां शीखे छे अने एम करतां करतां अर्थसूचक भांग्या तूट्या व्यक्त शब्दो बोलतुं बोलतुं ते, तद्दन स्पष्ट उच्चारण सुधी आवी जाय छे. ___ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुमां गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ए ज न्याय मानवसमाजनी भाषाना घडतर माटे पण घटमान छे. मानवसमाज पोताना बाल्यकाळमां हतो त्यारे अस्पष्ट 'शब्द'चें मूळ शब्दोनो किकियारीओनो, मूक मानवनी पेठे शारीरिक "शप् आक्रोशे" " निशानीओनो अने विशेष स्पष्ट व्यवहार माटे चित्रोनो - य उपयोग करतो करतो प्रौढ वय पामी स्पष्ट उच्चारणना युगमां आव्यो त्यारथी भाषानी शरूआत थई कहेवाय. स्पष्ट उच्चारणर्नु ज नाम भाषा. 'भाष्' धातुनो मूळ अर्थ · व्यक्त वाणी' छे. ५ बार गाउए बोली बदलाय' ए न्याये जोईए तो भाषाओनो . आरोवारो नहीं जणाय. भाषाभेदनो आ प्रवाह भाषाभेदनां सनातन छे. स्पष्टरीते जुदां जुदां नामपूर्वक भाषा ना निमित्तो अने। भाषाना भेदप्रभेदो भेदनो ऊगम अने तेनो प्रचार थतां भले यगो * वीत्या होय परंतु स्पष्ट भाषानां बीज ब्यारथी रोपायां, भाषाभेदनां बीज पण त्यारथी नखायां भासे छे. ६ भाषाभेदना निमित्तो सर्वकाळे सदा संभवे एवां छे : भौगोलिक परिस्थिति, ऋतुओनी अनियमितता, शीततार्नु भाषाभेदनां निमित्तो __ आधिक्य, उष्णतानी प्रबळता, राज्योनी क्रांति, अन्य अन्य भाषाओनो संपर्क, स्वच्छ-शुद्धभाषाना आग्रहनी खामी, शरीरनुं अने उच्चारणनां साधनोनी रचनानुं वैविध्य, बोलवानां स्थानो, १४ वैयाकरणोए 'शब्द' पदनुं पृथक्करण करीने एम जणाव्युं छे के तेमां 'शप' प्रकृति छे अने 'द' प्रत्यय छे. 'शप' धातुनो अर्थ 'आक्रोश' छे. 'शब्द' पदना मूळमां रहेलो 'शप्' आ किकियारीओनो संवादक जणाय छे. (सिद्धहेमचंद्र अध्याय ४-२-२३७) १५ “भाषि व्यक्तायां वाचि"-सिद्धहेमधातुसंग्रह तथा पाणिनीय धातुसंग्रह. १६ “सर्वेषां कारणवशात् कार्यो भाषाविपर्ययः। माहात्म्यस्य परिभ्रंशं मदस्यातिशयं तथा॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख पण आस्यप्रयत्नो, करणो अने बाह्यप्रयत्नोनी विविध प्रकारनी अशुद्धिओ, अज्ञान, एक ज शब्दना अनेकविध उच्चारणो, विजयी प्रजा अने पराजित प्रजा वच्चे गाढ संपर्क, पराजित प्रजानो ठेठ अंतःपुर सुधी प्रवेश अने लोहीनो संबंध, देशदेशांतरमा भ्रमण अने व्यापारादि कार्य माटे स्थिरवास, मिथ्याअभिमान, अशुद्ध उच्चारण, अशुद्ध वाचन अने व्याकरण तथा व्युत्पत्ति प्रति बेदरकारी वगैरे अनेकानेक कारणो भाषाभेदने नीपजावी शके छे. ७ एक वार एम कल्पी लईए के कोई एक समाज शुद्ध उच्चारणोनी विशेष तरफेण करनारो छे. बहारनो खास संपर्क शुद्ध उच्चारण: नथी. अने व्याकरण वा व्युत्पत्तिशास्त्र साथे सहानुभूति वाळा समाजमा पण छे. तेम छतां प्रकृतिए निर्मलां मानवना उच्चारणनिमित्तो स्थानो सदा एकसरखां होवां के रहेवां संभवित नथी. वळी, उच्चारणस्थानो ऊपर जेमनी असर सदा रहे छे एवी प्राकृतिक गरमी, शरदी, खानपाननी विशेष प्रकारनी अनुकूलता वगैरेनी परिस्थिति सदा एकसरखी रहेवी पण घटमान नथी. एवां एवां सर्व सुलभ अनेक निमित्तोने लीधे उच्चार्यमाण वर्णनो रणको सदा काळ एकसरखो रहेतो नथी. प्रच्छादनं च विभ्रान्ति यथालिखितवाचन॑म् ।। कदाचिद् अनुवादश्च कारणानि प्रचक्षते" -रूपकपरिभाषा (षड्भाषाचंद्रिकामा अवतरण) १७ “शब्दे प्रयत्ननिष्पत्तेरपराधस्य भागित्वम्" -मीमांसादर्शन अ० १, पा० ३ अधि० ८ सूत्र २५. “ महता प्रयत्नेन शब्दमुच्चरन्ति । वायुर्नाभेरुत्थितः उरसि विस्तीर्णः कण्ठे विवर्तितः मूर्धानमपहाय परावृत्तः वक्त्रे विचरन् विविधान् शब्दान् अभिव्यनक्ति। 'तत्र अपराध्येत अपि उच्चारयिता। यथा शुष्के पतिष्यामि इति कर्दमे पतति, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सकृद् उपस्प्रक्ष्यामि इति द्विः उपस्पृशति । ततोऽपराधात् प्रवृत्ता 'गावी' - आदयो भवेयुः । न नियोगतोऽविच्छिन्नपारंपर्या एव इति " - शाबरभाष्य. १६ यदि हि एकान्तेन यादृशः परमुखात् शब्दः श्रूयते तादृगेव सर्वेण सर्वदा उच्चार्येत ततो वृद्धव्यवहारपरम्परायां सत्यां गवादिभिरिव न गाव्यादिभिः कश्चिदपि काल: शून्य आसीत् इत्यध्यवसायाद् अनादित्वमङ्गीक्रियते । अपराधजस्य शब्दस्य संभवात् तु तदाशङ्कायां सत्यां नैकान्ततः सर्वेषामनादित्वम् । ' प्रयत्ननिष्पत्तेः' इति । पूर्वोक्तन्यायावधारितप्रयत्नाभिव्यक्तिरेव हेतुत्वेन उपदिश्यते । अपर आह— 'अप्रयत्ननिष्पत्तेरपराधस्य भागिता ' इति । यो हि अस्खलितप्रयत्नः शब्दम् अभिव्यनक्ति तस्य परम्परागतशब्दोच्चारणमात्रात् सर्वे समानविधाना भवेयुः । यदा तु अप्रयत्न निष्पत्तिरपि शब्दे संभाव्यते तदा तत्र अपराधजरूपान्तरापत्तिप्रसङ्गाद् न नियोगतः सर्वशब्दानां समान विधानत्वम् । अथवा शब्दविषयस्य प्रयत्नस्यैव या निष्पत्तिस्तस्यामपराधः सुनिपुणानामपि अविकलकरणानां दृश्यते किमुत अनिपुण-विगुणकरणानाम् । " यश्च प्रयत्ननिष्पत्तावपराधः कृतास्पदः । शब्दे स तदभिव्यङ्गये प्रसजन् केन वार्यते ? ॥ अतश्चानपराधेन व्यज्यमानेषु साधुता । सापराधेष्वाधुत्वं व्यवस्थैवं च तत्कृता ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १७ ८ गमे ते वर्णनुं उच्चारण करती वखते कोईनुं वलण वधारे पडतुं विवृत होय छे वा संवृत होय छे, घोष होय छे वा अघोष होय उच्चारण करना- छे, कोईनुं वलण वधारे पडतुं नासिक्य रहे छे, एवो ओनी विविध पण संभव छे के दन्त्य अक्षरो ज न बोली शकाय परिस्थिति अने एटले तवर्गने बदले टवर्ग ज बोलाई जाय वा दन्त्य उच्चारणो ऊपर पनी विधविध 'ल' ने बदले 'र' ज नीकळी जाय, मूर्धन्य 'ण' ने बदले 'न' ज आवी जाय, बोलतां बोलतां C असर एकने बदले बीजो पण सवर्ण वर्ण ज खरी पडे, केटलीक वार वर्णोनो विपर्यास पण थई जाय, वधारे पडतुं दीर्घ उच्चारण के वधारे पडतुं ह्रस्व उच्चारण थई जाय, उदात्त अनुदात्त अने स्वरितना मेदनुं अज्ञान होई वधारे पडतुं तीव्र के मंद उच्चारण थई जाय, 'श' 'ष' 'स' के 'च' नो भेद जतो रहे, 'ऋ' नां विविध उच्चारणो प्रवर्ते, 'ऐ' के ' अइ' ना भेदनो तेम ज 'औ' के ' अउ' ना भेदनो ख्याल भूसाई जाय, बे स्वरो अव्यवहित रीते साथै आवतां तेमनुं उच्चारण १८ पाणिनि वगेरे वैयाकरणोए पोताना व्याकरणमां खास एक स्वरसंधिनुं प्रकरण राख्युं छे तेज, आ बाबतनुं प्रबळ उदाहरण छे : दण्ड + अग्रम् - दण्डाग्रम् । तव + एषा - तवैषा । देव + इन्द्र: - देवेन्द्रः । अ + ऊढः = प्रौढः । प्र + ऋणम् - प्रार्णम् । इह + एव - इहेव । बिम्बोष्ठी, प्र + एलयति - प्रेलयति । बिम्बोष्ठी बिम्ब ओष्ठी - { + दधि + अत्र - 1 दध्यत्र, दधियत्र ने + अनम् - नयनम् । लो + अनम् - लवनम् । ते + अत्र तेऽत्र 1 दधि, दधि दधि नदी + एषा -- { ननयेषा नायकः । नै + अक: 'लौ + अक: - लावकः । गो + अक्षः - गवाक्षः । मधु-मधु, मधु वगेरे. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बदलाई जाय, त्वराथी बोलवा जतां वच्चना के अंतिम वर्णो खवाई जाय वा बदलाई जाय, विसर्ग अने 'ह', उपध्मानीय अने 'ह' तथा जिह्वामूलीय अने 'ह' ए बधा वच्चेनो विभाग जतो रहे, बे व्यंजनो अव्यवहित १९ पाणिनि वगेरे वैयाकरणोए पोताना व्याकरणमा खास एक व्यंजनसंधिनुं प्रकरण आप्युं छे ते ज, आ बाबतनुं समर्थक उदाहरण छे: ककुब् + मण्डलम् a_) ककुम्मण्डलम्, अव्यय् + याति-अव्ययाति । ककुब्मण्डलम्. वृक्षौ + इह-) वृक्षाविह, वाग + मयम्-वाड्ययम् । " वृक्षाइह वाग् + हरिः–वाग्धरिः। कः+ उ-कयु। वाक् + शूरः-वाक्छूरः । देवाः + आसते-देवायासते । कः + खनति-क खनति । सुगण + इह-सुगणिह। कः + पचतिक ८ पचति । कन्या + छत्रम्-कन्याच्छत्रम् । कः + शेते-कश्शेते अर्कः-अर्कः, अर्कः । कः+ चरति-कश्चरति ।। त्वक त्वक्क, त्वक् । भवान् + चरः-भवाँश्वरः । पुनर् + रात्रिः-पुनारात्रिः । पुम् + कामा-पुंस्कामा। गूह + तम्-गूढम् । नृन् + पाहि-न:पाहि। उत् + स्थानम्-उत्थानम् । सः+एष—सैष (पादपूरणे)। सम् + कर्ता वाक्-वाकू, वाम् । चक्षुः+ च्योतति-चक्षुश्च्योतति । । त्वङ् करोषि क्षीरम्-ख्षीरम् , क्षीरम् । सम् + राद-सम्राट् । अप्सराः-अफ्सराः, अप्सराः । सुगण + शेते-सुगण्टशेते। तत् + शेते-तच्शेते। भवान् + साधुः--भवान्तसाधुः। तत् + टकारः-तटकारः। कः + अर्थः--कोऽर्थः तत् + लुनम्-तल्लूनम् । देवाः + यान्ति-देवायान्ति । भवान् + लुनाति-भवाळू लुनाति । वगेरे. सस्कर्ता त्वं करोषि त्वमकरोमि Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख रीते साथे आवतां तेम, उच्चारण बदली जाय, संयुक्त व्यंजन- उच्चारण __ करवा जतां आगळ के बच्चे गमे ते स्वर उमेराई जाय अवेस्तानुं उच्चारण तथा 'देव' बोलवा जतां 'दएवं' एवं बोलाई जाय-आवां अनेकानेक कारणोने लीधे नीपजतां भिन्न भिन्न उच्चारणो ज समय जतां भाषामेदना प्रवाहने जन्मावे छे. T ९ 'अमुक प्रकारनां ज उच्चारणो शुद्ध छे अने एथी ऊलटां अशुद्ध छे' एवु प्रामाणिकपणे मानता अने ए ज प्रमाणे ना कल्पना वर्तता एवा भाषासंस्कृतिना केटलाक प्रेमीओ प्रमाणे शुद्ध उच्चा Pat पोते स्वीकारेलां शुद्ध उच्चारणोनो ज प्रचार करवा प्रयत्न छतां पोते अने पोते कल्पेलां अशुद्ध उच्चारणोनो समूळ कल्पेला अशुद्ध ध्वंस करवा प्रबळ प्रयत्न सेवे छतां य ते अशुद्ध । उच्चारणो उक्त कारणोने लीधे समाजमांथी सर्वथा भुसावानां नथी अश्राव्य थयां नथी, थतां नथी तेम थवानां पण नयी ज. उस्मारणा - २० 'स्त्री' नुं 'इस्त्री, 'स्टेशन' नुं 'इस्टेशन,' 'स्थिति' नुं 'इस्थिति' 'भार्या'नुं 'भारजा' वगेरे उच्चारणो सुप्रतीत छ । २१ संस्कृत उच्चारण. एषाम ... प्रति ... ... ... ... ... आवेस्तिक उच्चारण. अअषाम अमेषाम् पइति पेरेथु बएषज स्रएश्त ... . भेषज ... ... श्रेष्ठ ... ... वगेरे अनेक उदाहरणो प्रतीत छे. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति १० शुद्ध उच्चारणोना प्रवर्तन माटे शिक्षाओ रचाई, स्वरोना भेदप्रेमेदो २२ व्याकरण शास्त्रमां ए, ऐ, ओ, औ सिवायना तमाम स्वरोना अढार अढार भेद बतावेला छे अने ए, ऐ, ओ, औना बार बार भेद कहेला छे : हस्व-अ २० दीर्घ --आ लुत -अ ३ ( त्रणनो अंक त्रिमात्रिक उच्चारणनो द्योतक छे ) १ ह्रस्व अ उदात्त २ ह्रस्व अ अनुदात्त ३ ह्रस्व अ स्वरित ४ दीर्घ आ उदात्त ५ दीर्घ आ अनुदात्त ६ दीर्घ आ स्वरित ७ लुत अ ३ उदात्त ८ त अ ३ अनुदात्त ९ त अ ३ स्वरित ह्रस्व अ उदात्त सानुनासिक अने निरनुनासिक ह्रस्व अ अनुदात्त हस्व अ स्वरित 23 "" एज प्रमाणे दीर्घ अने लुत 'अ' ना पण सानुनासिक अने निरनुनासिक एवा बे बे प्रकार समझवा. आ रीते एक 'अ' नां ज अढार उच्चारणो थाय छे. ए ज प्रमाणे 'इ' वगेरे धा स्वरोनां अढार अढार उच्चारणो समझवानां छे. " "" 'ए' वगेरे चार स्वरोनुं 'ह्रस्व ' उच्चारण, पाणिनि वगेरे संस्कृत वैयाकरणोए स्वीकार्य नथी तेथी तेमना प्रत्येकना बार बार प्रकार ज थाय छे. आ प्रमाणे स्वरोनां अनेकविध उच्चारणो थाय छे. ए दरेक उच्चारण अर्थवाहक छेए ध्यानमा राखवानुं छे. वर्तमानमां तो मात्र भेदो ज गणाववाना रहे छे परंतु ते प्रत्येक भेदनुं शुद्ध उच्चारण करवुं के शोधी काढवुं अने तेनी अर्थवाहकता समझवानुं लगभग अगम्य जेवुं जणाय छे. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख २१ शोधाया, उच्चारणसंबंधी नाना मोटा अनेक दोषोनी गवेषणा थई, शुद्ध उच्चारणो . शुद्ध शब्दने ज कामधेनुं रूप अपायुं, अशुद्ध माटेनो प्रयत्न शब्द घातकरूपे वर्णवायो, शुद्ध उच्चारण ज मोक्ष असाधारण साधन कहेवायुं अने सर्वथा शुद्ध उच्चारण करे एवो एक श्रोत्रिय वर्ग ज ऊभो करवामां आव्यो--ए रीते शुद्ध उच्चारणनी प्रतिष्ठा माटे अनेकानेक प्रयत्नो छेवटे अशुद्धने पण शुद्ध मानीने थया छतां य अशुद्ध उच्चारणनी फरियाद मटी नहीं चलावतुं पड्यं अने छेवटे 'शिष्टोनी उच्चारण पद्धति विविध छे' एम ठरावी ए प्राकृत उच्चारणोने—स्वाभाविक उच्चारणोने पण आर्षताने लीधे शुद्ध मानीने नभावी लेवानुं ज आव्यु. २३ “के पुनः संवृतादयः ?-संवृतः, कलः, मातः, एणीकृतः, अम्बूकृतः, अर्धकः, ग्रस्तः, निरस्तः, प्रगीतः, उपगीतः, क्ष्विण्णः, रोमशः" “ग्रस्तं निरस्तमविलम्बितं निर्हतमम्बूकृतं मातमथो विकम्पितम् । संदष्टमेणीकृतमर्धकं द्रुतं विकीर्णमेताः स्वरदोषभावना:-" (महाभाष्य पृ० ३० वा० अ०) २४ “एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुष्ठु प्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुग् भवति" इति । -(सर्वदर्शनसं० पाणिनिदर्शन पृ० २९६ वा० अ०) " नाकमिष्टसुखं यान्ति सुयुक्तैर्बद्धवाग्रथैः।। अथ पत्काषिणो यान्ति ये चिक्कमितभाषिणः ॥" - (सर्वदर्शनसं०पाणिनिदर्शन पृ० २९६ वा० अ०) २५ दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥-(महाभाष्य-पृ. ४ वा० अ०) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति . ११ वर्तमानमा जे भाषा संस्कृत' ना नामथी प्रसिद्ध छे तेमां य __ अनार्यजनसंपर्कने लीधे जुदी जुदी भाषाना शब्दो संस्कृतमां पण पण पेसी गया छे अने विविध उच्चारणो थयांने कारणे मी बीजां उच्चारणोनी असर नीपजतो शब्दभेदँ पण तेमां वधी गयो छे. १२ महान् शब्दशास्त्री यास्के अने आद्य वैयाकरण महर्षि पाणिनिए संग्रहेलो शब्दसंग्रह जोईशुं तो जणाशे के तेमां केटला य धातुओ अन्य भाषाना पेसी गया छे अने केटला य धातुओ तो विविध उच्चारणोने प्रतापे एकमांथी अनेक जेवा थई गयेला छे. यास्के " लोटते लोठते। पिस्यति–बिस्यति । प्रवतेयास्कनुं __प्लवते । कवते-गवते। रजति लजति । ऋण्वतिउदाहरण " ऋणोति । इयर्ति-ईर्ते । ध्रति-धाति-ध्रयति। जयतिजवति । द्रमति-द्रवति "- [ निरुक्त पृ० १९८] ऊपर जणावेला बधा प्रयोगो ‘गति'अर्थवाळा छे. "दाशति–दासति" आ प्रयोग 'दान'अर्थवाळो छे. -[ निरुक्त पृ० २४१] २६ पिक अने तामरस जेवां अनार्यपदो वेदमां पण पेसी गयां छे तथा मूळतः अनार्य एवां शाखि (शाहि-शाह) तुरुष्क (तुर्क-तरक) भिल्ल अने म्लेच्छ (मलेक-मलेछ-मुलक) वगेरे पदो पण विशिष्ट संस्कार पामीने संस्कृतसाहित्यमां प्रचार पामेलां छे. २७ क्षुर-खुर । हर्ष-हरिष । चन्द्र-चन्दिर । वगेरे संस्कृत पदो, विविध उच्चारणनो स्पष्ट संवाद छे. २८ निरुक्क वेंकटेश्वर प्रेसनी आवृत्ति. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख उदाहरण " नवम्-नव्यम्-नूलम् नूतनम्"-न-[निरुक्त पृ० २४४] " हरितः-सरितः" नदी -[निरुक्त पृ० १६१] " तोयम्-तूयम् ” पाणी --[निरुक्त पृ० १६०] " उपरः-उपल:"-मेघ — [निरुक्त पृ० १५४] " गभीरा-गम्भीरा । सरः-स्वरः। वाणी-वाणः"। -एटले वाणी -[निरुक्त पृ० १५६-१५७ ] "ग्मा-उमा । क्षमा-क्षा-क्षमा" । एटले पृथ्वी । – निरुक्त पृ० १५५] पाणिनि “जि-ज्रि अभिभवे । दु-द्रु गतौ। क्षि-क्ष-सै क्षये। पाणिनिनु शु-स्रु गतौ। गृ-घृ सेचने। ध्व-ढ कौटिल्ये। कैगै र्शब्दे । जै-त्रै पाके। पै-वै शोषणे । राख-लाख शोषणअलंमर्थयोः । दाख-धाख शोषण-अलमर्थयोः। वख्-मख् गतौ। रङ्-लङ्ग गतौ । इख-ईख् गतौ । युङ्ग-जुङ्ग गतौ । अर्च-अञ्च् पूजायाम् । ग्रुच्-ग्लुच् स्तेये"। लक्ष लछ्-लाछ् लक्षणे । हीछ्-ही लज्जायाम् । स्फूर्छा-स्मू» विस्मृतौ । धृज-धृप व्वज्-ध्वञ् ध्रज्-ध्रङ् गतौ। वज्-व्रज् गतौ । गुजगुन् अव्यक्ते शब्दे। जज्-जङ्ग युद्धे । तप्-धूप् संतापे। किट्-खिट् उत्रोंसे । यभ-जम मैथुने । चम्-छम्-जम्-झम् अंदने । शुच्य-चुच्य अभिषवे। मील झमील-स्मील-क्ष्मील निमेषणे । २९ सिद्धांतकौमुदी-धातुसंग्रह. [१ पराजय करवो। २ गति करवी-जदूं। ३ क्षीण थर्बु । ४ सींचवें। ५ कुटिलता। ६ शब्द करवो। ७ रांधवू । ८ शोषावें । ९ अलमर्थ-बस-सयुं-पत्यु। १० पूजवू । ११ चोरी करवी। १२ चिह्न-निशान करवू । १३ लाजवू । १४ भूलवू । १५ गूंजवू । १६ जूझवें । १७ तपवू । १८ त्रासबुं । १९ जद्धवृं। २० खावें । २१ प्रवाही पदार्थमां बीजो प्रवाही भेळववो। २२ संकोचावू ।] २२ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति Į शाख - श्लाख् व्याप्तौ । खलू-स्खल् चलेने । जोत्ने । तक्षू – त्वक्ष् तनूकरणे । वाक्षु वा काङ्क्षायाम् । दे पाने । लोक्लोच् दँर्शने । वृध्-ऋध्-ए वृद्धौं । शीभू - चीम् केत्थने । व्ये- ऊय् तन्तुसंताने । ग्रस्-ग्लस् अदने । भक्षू - लक्ष् भक्षणे । टल्–वल् वैक्लेव्ये 1 पृच्-पृज्-पिङ् संपर्चेने । चुण् - छुट् छेदै ने। लज्-लस्ज् व्रीडे" । खड्-खण्ड् मेदे" । एठ्-हेट् विबाधार्यांम् । तस्-दस् उपक्षये । दृश्-दस् दर्शने । यज्-यक्ष पूजायाम् । तिम्-तीम्-ष्टिम् ष्टीम् आर्द्रभावे । अपनी-ओण् अॅपनयने । प्युष- प्यस्-पुस् विभोगे । भृशू -भ्रंश् अधः पर्तेने । -- [ पाणिनि धातुसंग्रह ] २४ धातुओनां रूपोमां— । करति-करोति । अपनयति-ओणति । काशते - काश्यते ध्रुवति । नौति-नुवति । कौति-कुवति । धूनोति- धूनाति लुण्टति-लुण्टयति । श्रणति - श्राणयति । बोधति-बोधयति । पूर्यते- पूरयति । चेतति - चेतयति । घोषति घोषयति । भूषति - भूषयति । I उक्त बधां नामो, धातुओ अने धातुरूपोमां नीपजेली उच्चारणोनी विविधता अछती रहे एवी नथी. । धवति मानते - मानयते । ब्रुडति बोलयति । महति - महयति । स्तनति - स्तनयति । १३ एमां क्युं उच्चारण पहेलुं अने कयुं पछीनुं अथवा कयुं उच्चारण शुद्ध अने क्युं अशुद्ध एवो विभाग शी रीते बतावी शकाय ? छतां ए [ १ व्यापवुं । २ खडी जवुं । ३ प्रकाश । ४ पातळु करवुं । ५ वांछवुं । ६ पाळवुं । ७ जो । ८ वधवं । ९ श्लाघा करवी । १० वणवुं । ११ विह्वल थवुं । १२ मिश्र थवुं । १३ छेदवुं । १४ लाजवं । १५ भेदवुं । करवी । १७ क्षीण थवं । १८ जोवुं । १९ भीनुं थवं । २० दूर करवुं । २१ विभाग करवो । २२ अधःपात थवो । १६ बाधा ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख वृद्धिवाळू धारो येतो संग्रह जोतां एम तो कल्पी शकाय एवं छे के संग्रहकारे जे शब्दने प्रथम लीधो छे तेनुं उच्चारण आद्य उच्चारण होय अने पछी लीधेलो शब्द ते, ए आद्य उच्चारण- बीजं उच्चारण होय. १४ उक्त कल्पना असंगत न भासती होय तो ए बधो शब्दसंग्रह आ नीचे जणावेलां विविध उच्चारणोनो समर्थक छे एम कही शकाय : ऊपर जणावेला शब्दसंग्रहमां क्यांक 'ट' नो 'ठ,' 'प' नो 'व,' . 'र' नो ‘ल,' 'क' नो 'ग,' 'व' नो 'ओ,' तु इय्' नो 'ई' थयो छे. क्यांक 'अ' नो 'आ' परिणाम के 'अय् ,' 'म' नो 'व,' 'श' नो ‘स' बोलायो छे. क्यांक 'न' नो 'तन,' 'क्ष्म' नो 'क्षम' एवं अन्तःस्वरवृद्धिवाळू उच्चारण थयुं छे, क्यांक 'ह' नो 'स,' 'ओ' नो 'उ' तथा अनुस्वारनो वधारो थयेलो छे. क्यांक 'ग' नो 'ज,' 'व' नो वधारो, 'र' नो वधारो, 'इ' नो 'ऐ' अने 'क्ष' नो 'स' थयेलो छे. क्यांक 'ग' नो 'घ,' 'ध' नो 'ह,' 'स' नो 'श,' 'प' नो 'व,' 'द' नो 'ध,' 'व' नो 'म' अने ह्रस्वनो दीर्घ थयेलो छे. वळी क्यांक 'य' नो 'ज,' 'वक्र' ना 'वंक' नी पेठे 'अर्च' नो 'अञ्च् ,' 'दर्श' नो 'दंस्' अने 'लछ्' नो ' लाञ्छ्' थयेलो छे. क्यांक न्यूनाक्षरता आवी गई छे. क्यांक ‘स्फ' नो ‘स्म,' 'त' नो 'ध,' 'क' नो 'ख,' 'च' नो 'छ,' 'ज' अने 'झ,' 'श' नो 'च' तथा 'श' 'स' 'क्ष' अने 'ल' नो वधारो थयेलो छे. क्यांक 'ध' नो 'ज,' 'क्ष' नो 'छ,' 'द' नो 'त,' 'ए' नो 'ऐ,' 'क' नो 'च' थयेलो छे. क्यांक आद्य 'व' लोप पामी शेष 'ऋ' नो 'इ' थई 'ए' थयेलो छे. क्यांक 'क' नो 'च,' 'वे' नो 'ऊ,' 'च' नो 'ज' तथा 'छ,' 'ए' नो 'हे,' 'त' नो 'द' थयेलो छे. क्यांक '' वधी गयो छे, क्यांक 'ष" . अने, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नो 'स' अने 'ऋ' नोर' बोलायो छे. तथा · अपनी ' नो 'अप' उपसर्ग 'ओ' रूपे थई ‘ओण्' धातुमां अंगरूप बनी गयो छे अने "नी' नो अन्त्य 'ई' खरी गयो छे. ए रीते कहेवाती संस्कृत भाषाना उपर्युक्त शब्दोमां अने उदाहरणरूपे टांकेलां केटलांक क्रियापदोमां उच्चारणभेदनो प्रवाह अविच्छिन्नपणे घणा लांबा समयथी चाल्यो आवे छे त्यारे प्राकृत भाषाओमां तो ए प्रवाह निरन्तर वही ज रह्यो छे. १५ उक्त धातुसंग्रहमां बीजी बीजी भाषाना धातुओ पण पेठेला छे संस्कृतमां अन्य सहकाकत ता खुद यास्के अने महाभाष्यकारे पोते भाषाना धातनो पण जणावेली छे : "शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष एव प्रवेश, ए विशे भाष्यते” x x x “विकारमस्य आर्येषु यास्क अने भाषन्ते ‘शवः' इति"-[यास्क निरुक्त पृ. १०४] भाष्यकार “स एषः शवतिर्गतिकर्मा गत्यर्थो धातुः कम्बोजेष्वेव भाष्यते-म्लेच्छेषु प्रकृत्या प्रयुज्यते शवति-गच्छति-इत्यर्थः" - [निरुक्तनी दुर्गाचार्यकृत वृत्ति पृ० १०५-तथा महाभाष्य आह्निक १ पृ० २१] __ आ उपरांत ए ज पाना ऊपर “ सर्वे देशान्तरे" वाक्यना भाष्यमां जणाव्युं छे के-“ हम्मतिः सुराष्ट्रेषु, रंहतिः प्राच्यमध्येषु, गमिमेव तु आर्याः प्रयुञ्जते ।” अर्थात् ' शव् ' एटले — जवु' एवो प्रयोग अनार्य एवा कंबोज देशमा ज प्रचलित छे, आर्यलोको तो 'शव' नो अर्थ * मडढुं' करे छे. ' हम्म् ' एटले — जवु' एवो प्रयोग सुराष्ट्र देशमा प्रचलित छे अने प्राच्यमध्य देशमा 'रंह ' एटले — जवु ' नो प्रयोग चाले छे, त्यारे आर्यलोको 'गम्' (एटले ' जq') नो प्रयोग करे छे. ३० श्रीवासुदेवअभ्यंकरशास्त्रीजीवाळी मराठीभाषांतरयुक्त आवृत्ति. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख " भाष्यकारनो उक्त उल्लेख एवं ठरावे छे के ' गम्' धातु आर्यशाखानो छे, ' शब्' कंबोज प्रदेशनो छे अने ' हम्म्' धातु सुराष्ट्र तरफनो तथा ' रंहू ' धातु प्राच्यमध्य बाजुनो छे. ( प्राच्यमध्य एटले पूर्वना मध्य देशोआर्यावर्तमां जे देशो पूर्वमां आवेला छे तेओमां जे मध्यवर्ती देशो छे ते मगध' वगैरे देशो.) 6 २७ १६ खुद वेदमां पण ' पिक' वगैरे केटलाक शब्दो एवा मळे छे के जेमनी परंपरा म्लेच्छोमां जळवायेली होय. महर्षि वेदोमां पण अनार्य जैमिनिए रचेला मीमांसादर्शनमां " चोदितं तु प्रतीशब्दोनो प्रवेश येत अविरोधात् प्रमाणेन ” – [ अध्याय १ पाद ३ सू० १० अधिकरण ५ ] एवं एक सूत्र छे. तेना भाष्यमां श्रीशबरमुनि जणावे छे के— " अथ यान् शब्दान् आर्या न कस्मिंश्चिदर्थे आचरन्ति म्लेच्छास्तु कस्मिंश्चित् प्रयुञ्जते यथा पिक नेम-सत - तामरस- आदिशब्दाः तेषु संदेहः । किं निगम-निरुक्त-व्याकरणवशेन धातुतोऽर्थः कल्पयितव्यः उत यत्र म्लेच्छा आचरन्ति स शब्दार्थः ? इति " तात्पर्य ए छे के वेदोमां ' पिक' 'नेम' 'सत' ' तामरस' वगेरे एवा केटलाक शब्दो मळे छे के जेमनो प्रयोग आर्य लोको करता नथी पण म्लेच्छो करे छे तो पछी एवा अनार्य शब्दोनो अर्थ शी रीते समझवो ? शुं निगम निरुक्त के व्याकरण द्वारा एवा शब्दोनो अर्थ मेळववो के म्लेच्छो जे अर्थमां ते शब्दोने वापरे छे ते अर्थ ग्रहण करवो ? आना उत्तरमां भाष्यकार जणावे छे के " ज्यां वैदिक परंपरा साथे कशो विरोध न आवतो होय त्यां म्लेच्छोए मानेलो अर्थ लेवामां य कशो बाघ नथी." उपर्युक्त उल्लेखो द्वारा एवं प्रमाणित थाय छे के आर्यभाषामां अनार्य भाषाना शब्दो पेसी गयेला हता अने ते पण लांबा समयथी. ३१ आनंदाश्रम (पूना) वाळी आवृत्ति. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ___“न म्लेच्छितवै नापभाषितवै म्लेच्छो ह वा एष यद् अपशब्दः म्लेच्छा मा भूम इति अध्येयं व्याकरणम् "- [ महाभाष्य पृ० ४] अपभ्रष्ट बोलनारने आ रीते म्लेच्छ थई जवानी सखत धमकी छतां य आर्यभाषामां अनार्य शब्दोनो पेसारो अटकी शक्यो नहीं. १७ तात्पर्य ए छे के उच्चारणोनी शुद्धि जाळवनारा समाजमां पण ए रीते भाषाभेदना निमित्तो हमेशने माटे ऊभा ज होय छे तेथी ऊपर कडं छे तेम स्पष्टभाषानी उत्पत्ति अने तेनां भेदक कारणोनी उत्पत्ति ए बन्ने सहभू होवी असंभवित भासती नथी. १८ एम छे छतां य संस्कृतिनी दृष्टिथी भाषा-भाषा वच्चनो विवेक थई शके छे. भाषाभेदना निमित्तो गमे तेटलां प्रबळ होय तो पण शब्दो पोताना मूळ स्वरूपने छोडता नथी, उच्चारणोमां विविध उच्चारणोनुं विपर्यासनो प्रवाह प्रबळरीते वहेतो होय तो पण तेवां ता विपरीत उच्चारणोमां य प्राचीनतम वटवृक्षना मूळनी संस्कृतिनी दृष्टिए पेठे ते ते शब्दो मूळरूपे दटायेला ज होय छे. धूळभेदनी परख धोया जेवा शब्दशास्त्रीओ एवां मूळ रूपोने शोधी काढी अने तेमनुं परस्पर तुलनात्मक परीक्षण करी भाषा-भाषा वच्चेना विभागने समझी शके छे अने आपणा वेदवाराना इन्द्रादिक शब्दशास्त्रीओए ए रीते ज आर्यभाषा अने अनार्यभाषा वच्चेना भेदने पारखी तारवी बताव्यो छे. १९ अहीं गुजराती भाषाना तुलनात्मक संबंधने लक्ष्यमां राखीने र वर्तमान सर्व आर्यभाषाओना मूळभूत व्यापक सर्व आर्यभाषा- प्राकृत भाषाना प्रादुर्भावनी थोडी चर्चा करी ओना मूलभूत लेवानी छे. व्यापक प्राकृतनी चर्चा भाषा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख २९ ते मूळभूत प्राकृतनुं आदिम स्वरूप आपणी सामे नथी परंतु विशेष . परिवर्तनवाळु तेनुं साहित्यिक स्वरूप वर्तमानमां 3 उपलब्ध छे. प्राचीन प्राकृतमा लिपिबद्ध थयेली साहित्य अशोकनी धर्मलिपिओ वगैरे शिलालेखो, आचारांग वगेरे जैन अंगउपांग ग्रंथो अने मज्झिमनिकाय आदि बौद्ध पिटक साहित्य वगैरेमानुं जे प्राकृत आपणने वांचवा मळे छे ते द्वारा आदिम मूळभूत प्राकृतना स्वरूपनी आछी कल्पना करी शकाय खरी. २० आदिम प्राकृतना समयविशे कहेवू होय तो एम जरूर कही शकाय के जे काळे वेदोनी भाषा जीवती हती ते आदिम प्राकृतनुं काळने आदिम प्राकृतना आविर्भावनो काळ गणी स्वरूप अने समय शकाय—वेदोनी ऋचाओमां जे भाषा वर्तमानमां सचवायेली छे ते आज हजारो वर्षथी बोलाती बंध थई गई छे. परन्तु ज्यारे ते मात्र शिष्टोनी नहीं किन्तु सर्वजनमां व्यापेली साधारण भाषारूपे जीवती हती त्यारे तेनुं ' आदिम प्राकृत' नाम आपी शकाय. २१ उक्त कारणोने लीधे परिवर्तनना प्रवाहमां पडेली जीवती वैदिक भाषाने आर्योनी जीवंत भाषा कहो के आदिम प्राकृत जीवती वैदिक कहोः ज्यारे भाषा बोलवाना व्यवहारमा होय छे त्यारे भाषा अने आदिम "प्राणवंती होय छे, एवी चेतनवंती भाषा कदी एक प्राकृत ए बन्ने । एक जो रूपमां ज जकडाई रहेती नथी, तेमां एक ज शब्दनां अनेक उच्चारणो प्रवर्ते छे. आ जातनुं उच्चारणवैविध्य ज भाषानुं जीवंतपणुं छे. २२ आपणे एक एवो समय कल्पीए के ग्यारे वैदिक भाषा बोलवाना अने लखवाना बन्ने उपयोगमा आवती हती. अहीं ए न भूलवू जोईए के Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जे भाषा लखवाना उपयोगमां रूढ थई गई होय-लिपिबद्ध साहित्यमां ऊतरी गई होय तेमां परिवर्तननो अवकाश नहिवत् रहे छे. परंतु जे भाषा निरंतर बोलवाना प्रवाहमां बहेती होय, जेने स्त्रीओ, वृद्धो, अभण लोको जेवा के गोवाळियासुद्धा वापरता होय ते भाषा परिवर्तनना प्रवाहमां पड्या विना न ज रही शके.. २३ अमुक स्वर उदात्त बोलवो, अमुक स्वर अनुदात्त बोलवो ए प्रकारनां वैदिक शब्दो संबंधे प्रवर्ततां उच्चारणनियजविती वादक मनो जोतां ए जरूर जणाई आवे एवं छे के ब्यारे भाषामां उच्चारणोनुं अनियंत्रण त ते भाषा बोलवाना पूरपाट प्रवाहमा तणावानी अव स्थाए पहोंची हशे त्यारे तेमां ते नियमनो सचवावां शक्य ज नहीं रह्यां होय. संस्कारी लोकोमा य वैदिक स्वरोनां उक्त उच्चारणो आजे अशक्य जेवां थई पड्यां छे तो पछी यास्कनी पहेलांना साधारण जनसमूहमा आजनी जेवी अशक्यता कल्पवी कठण भासती नथी. ऊलटुं पाणिनिए प्रवर्तावेली स्वरप्रक्रियानां नियमनो एम सूचवे छे के तेमना समये साधारण जनसमूहमा उच्चारणोनी अराजकता प्रवर्तती हती अने ते अराजकता वैदिक कर्मकांडमां न पेसे ते माटें तेमने आखी स्वरप्रक्रिया रचवी पडी हती. २४ आजे पण आपणी चालु भाषामां एक शब्द संबंधे य स्वरगत उच्चारणो जुदां जुदां मालूम पड़े छ : काम-कांमजीवती भाषामां कॉम । लींबडो-लेबडो। ईम-एम । जीम जेम । उच्चारणोनी तीम तेम । नथी-नथ । नानु नेनुं । जेनु-जीनुं । व्यवस्था न ज रही शके " ए रीते बोलवाना व्यवहारमा आवता वैदिक शब्दोमां य स्वरगत विविध उच्चारणो प्रवर्ततां हतां. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख संवृत, कल, ध्मात, एणीकृत, अंबूकृत, अर्धक, प्रस्त, निरस्त, प्रगीत, उपगीत, दिवण्ण, रोमश, अविलंबित, निर्हत, संदष्ट महाभाष्यकारे अ दर्शावेलां उच्चार . अने विकीर्ण, वगैरे उच्चारण संबंधी अनेक दोषोनुं MIS महाभाष्यकारे जे विवरण करेलुं छे ते पण तेमनी अगाउ प्रवर्तेली उच्चारणोनी अराजकतानुं समर्थक छे. ३२ जुओ टिप्पण २३ संवृत-उच्चारण करती वखते खरा उच्चारस्थाननी लगोलग जीभ आवी जतां संवृत दोष थाय छे. संवृत = आच्छादित अर्थात् उच्चारणस्थाननी लगोलग जीभ आवी जतां शुद्धउच्चारण ढंकाई जाय छे. ___ कल-उच्चारण करती वखते जीभ खोटा उच्चारणस्थान तरफ वळे त्यारे 'कल' दोष थाय छे. ध्मात-उच्चारण करती वखते जोईए ते करतां प्रमाणमां वधारे श्वासवायुनो संचार थवाथी 'ध्मात' दोष थाय छे: आ ध्मात दोषने लीधे ह्रस्व वर्ण पण दीर्घ जेवो भासे छे. एणीकृत-संशययुक्त उच्चारण. अंबूकृत-उच्चारण करती वखते उच्चार्यमाण शब्द मोढामांने मोढामां ज रहे पण बहार व्यक्त न थाय ते अंबूकृत. __ अर्धक-उच्चारण करती वखते जोईए ते करतां प्रमाणमां न्यूनरीते श्वासवायुनो संचार थवाथी अर्धक दोष थाय छे. अर्धक दोषने लीधे दीर्घ वर्ण पण ह्रस्व जेवो भासे छे. प्रस्त—ज्यारे उच्चारण खवाई गया जेवू थाय त्यारे ग्रस्त दोष थाय. निरस्त-उच्चारणमां ज्यारे निष्ठुरता आवे त्यारे निरस्त दोष थाय. प्रगीत–उच्चारण ज्यारे गीत जेवू थाय त्यारे प्रगीत दोष थाय. उपगीत-ज्यारे उच्चारण प्रगीत जेवू भासे त्यारे उपगीत दोष थाय. क्ष्विण्ण-ज्यारे उच्चारण कंपायमान जणाय त्यारे विण्ण दोष थाय. रोमश-उच्चारण करती वखते ज्यारे जोईए ते करतां प्रमाणमां वधारे घेरापर्यु आवे त्यारे रोमश दोष थाय. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति २५ उच्चारणोनी अराजकता ज भाषाना देहरूप मूळ शब्दोने अनेक आकारोमां परिणमावे छे. स्वरगत तेमज व्यंजनगत उच्चारणोनी विविधताने ली एक शब्द अनेक जेवो भासमान थाय छेः ३२ लोट्-लोट् । प्रव्-प्लव् । हरित् सरित् । क्षुद्रक खुड्डग । क्षुल्लक खुला । पश्चात् पश्चा-पच्छा । युष्मासु - तुम्हासु । युष्मे तुम्हे । अस्मासु अम्हासु । अस्मे - अम्हे । मह्यम्- महं- मझं जीवती भाषामां एक ज शब्दनां विविध उच्चारगोनां उदाहरणो त्वयि - तयि-तइ | । प्रतिपइति । ra-ra | देव एव । त्वा ध्वा । सा-हा | विश्वस्य - विस्प | स्थूल अक्षरवाळां द्वारम्-द्वारेम् । एतस्मिन्- अएतम्हि । सखायः हखय। T पदो आवेस्तिक अह्नि - अस्ति । पश्चात् पस्कात । स्तौमि स्तओमि । भाषानां छे प्र-फ्र । ब्रूते-ते । असि-अहि । हुताश-आतिश । सकृत्-हरेत् । वसुमते- वोहुमइते । तथा तधा । तावत्-दाव । आर्यआरिय-अय्य-अज्ज । भवति - भोदि-भोति । पूर्व-पुरव । देवात् - देवातो - देवादो । एव-य्येव । नर-नल | हंस-हंश । शुष्क-सुस्क । कष्ट - कस्ट । पट्ट पस्ट । अर्थ-अस्त । सार्थ- शस्त । जन-यण । अन्य अन्न अञ्ञ । गच्छ-गश्च । यक्ष-यक । प्रेक्ष- पेस्क। राज्ञा-राचित्रा - रज्ञा । पर्वत - पव्वत । सदन - सतन । शील-सीळ-सील । कुटुम्ब - कुटुंब । स्नान-सिनान । कष्ट-कसट । यादृशजारिस- जादिस - जातिस-यातिस । दृष्ट- दिठ्ठ - तिट्ठ । दूर- तूर । मेघ-मेख । मह । त्वा त्वया - त श्रवणा - श्रोणा - सोणा । । हस्त- झस्त । त्वे-तुवे अविलंबित - बहु वेगथी उच्चारण करतां अविलंबित दोष थाय. निर्हत- उच्चारणमां रूक्षता आवे त्यारे 'निर्हत' दोष थाय. संदष्ट - लांबा स्वर - राग द्वारा उच्चारण करवा जतां संदष्ट दोष थाय. विकीर्ण -- विवक्षित वर्णने बदले तेने भळतो ज बीजो वर्ण बोलाय ते विकीर्ण दोष. ' व ' ने बदले 'ब' नुं के 'प' ने बदले 'फ' नुं उच्चारण विकीर्ण कहेवाय. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ३३ व्याघ्र-वक्ख । राजा-राचा । पृष्ठ - पट्ठे-पिट्ट-पुट्ठे । गौरी-गउरी-गोरी । तृणतण-ति । दयितेन दयिएण- दइयिण-दइएं | देवस्य देवस्स- देवस्सु - देवसुदेवहो । तृणानाम्-तणाणं-तणहं । तरोः तरुहे । दत्त - दिण्ण-दिन्न । 1 आगळ जणावेला यास्क अने पाणिनिना शब्दसंग्रहमां अने आ शब्दोमां जे पहेलो शब्द छे तेने मूळरूपे कल्प्यो छे अने पछीना शब्दोने, ते मूळ शब्दना ज उच्चारणभेदथी नीपजेला कल्प्या छे. २६ अहीं जे स्थूल दृष्टिए जुए तेने तो एम ज भासे एवं छे के ते प्रथम शब्द अने ते पछीना बीजा बीजा शब्दो ते बधा एक बीजाथी तद्दन जुदा जुदा छे ज्यारे खरी रीते तेम नथी, किंतु जे जीवती भाषा उच्चारणभेदना सपाटामां आवे छे तेनुं घडतर ज आम थाय छे. सोनुं विशिष्ट निमित्तने लीधे पोतानी पूर्व आकृति कलशरूपतानो परित्याग करे छे अने अन्य आकृति - मुकुटरूपता - ने धारण करे छे. ए बनाव जेटलो सरळ अने गम्य छे स्थूल पदार्थना परिवर्तननी पेठे तेम कोई पण मूळभाषाना शब्ददेहमां परिवर्तनभाषादेहनुं परिवर्तन शीघ्र गम्य थतुं नथी परिणामांतर - थवानो बनाव एटलो सरल नयी अने गम्य पण नथी. अमुक काळे बधा लोको एक साथे कोई पण चालती भाषाने तजी दे अने तेने स्थाने बीजी तद्दन नवी भाषाने अपनावी ले एवो तर्क पण भाषाना परिणामांतर माटे घटतो नथी. केटलीक एवी प्रवृत्तिओ होय छे के जे लोकधारणाने अधीन रहने चाले छे त्यारे भाषाना परिणामांतरनी प्रवृत्ति तेथी ऊलटी छे. भाषामा तो जमीनमां वावेला बीजनी पेठे कालपरिपाकानुसार परिवर्तननी क्रिया निरंतर चाल्या ज करे छे. परिवर्तननी क्रिया ज एवी छे के जे जाण्ये अजाण्ये प्रवर्तमान रही परिणामांतरने नीपजावे छे. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति २७ जे समयनी भाषाविशे आपणे चर्चा करिए छिए ते, आर्योनी प्रथमावस्थानो समय छे. तेवे समये आर्य प्रजानो निवास अमुक एक परिमित स्थान ऊपर हतो. एथी तेमनी वच्चे बोलाती जीवती भाषा काई चपटी वगाडतां ज परिणामांतरने न पामे. आर्योनां विधविध उच्चारणो चालु होय अने तेने अंगे भाषामां परिणामांतरे य प्रसरतुं होय. आ क्रियानी चालु स्थितिमां ज्यारे आर्यो विस्तरवा लाग्या-सिंधु पंचनद सरस्वती-दृषद्वती आर्योनो विस्तार अने गंगायमुनाने काठे थताक तेओ आखा आर्या - वर्तमां फेलाया अने ठेठ दक्षिण सुधी पहोंची गया भाषानुं परिवर्तन त्यारे तेमनी जे भाषा एक समये खास परिणामांतरथी मुक्त हती ते हवे तेवी ज न रही शकी. ज्यारे अन्य अन्य भाषाभाषी प्रजासाथे अनेक रीते गाढ संपर्क थाय त्यारे मूळ भाषा परिणामांतरने न पामे ए बने पण केम ? विजयवंत प्रजा ज्यां ज्यां पोतानो विजयझंडो फरकावे छे त्यां त्यां तेने लोकप्रिय शासकनी रीते अनेक लोकोना गाढ संबंविजयी अने परा-धमां आववं ज पडे छे. पराजय पामेली प्रजा साथेना जित प्रजाना - संपर्कथी भाषानुं '! व्यवहारमा विजयी प्रजानो भाषाप्रवाह छूटथी वहेतो परिवर्तन होय छे एवे प्रसंगे विजयी प्रजानी अने पराजित प्रजानी भाषा परिणामांतरने नपामे एम बने ज नहीं. विजयी प्रजा पोतानी मूळभाषाने लेश पण विकृत कर्या विना व्यवहार चलाववा जाय तो तेनो भाषाव्यवहार ज अटकी पडे, अने शासकनी स्थितिमां मूकायेली कोई पण प्रजा मात्र भाषाना मूळ देहनी रक्षा माटे पराजित लोकोसाथे भाषाव्यवहार ज न राखे ए तो तदन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख असंभवित छे. आवी परिस्थितिमा बन्ने प्रजा अमुक प्रकारनी बांधछोड जरूर करे एटले शासक प्रजा, पोतानी मूळभाषाना शब्ददेहमा पराजित प्रजानी भाषाना अनेक शब्दो आववा दे अने तेमनुं उच्चारण पोतानी ढबे करे पण पराजित प्रजा समझे एवं अने पराजित प्रजाओए पण तेमनी मूळभाषामां विजयी प्रजानी भाषाना शब्दो भेळवी अने तेमनुं पोतानी ढबे पण शासको समझी शके एवं ज उच्चारण करवु रह्यु. आम बधां अनेकविध सम विषम उच्चारणोनी असर भाषा ऊपर एवी चालु रहे छे के जते दहाडे ते असल भाषा केम जाण्ये खोवाई न गई होय अने तेने स्थाने प्रजामां तद्दन नवी भाषा न आवी गई होय एवी परिस्थिति आवी जाय छे. वखत वहेतां आर्योनी भाषा पण ए ज स्थितिमां मूकाई गई हती. २८ जेम अत्यारे अंग्रेजो आपणाथी अतडा रहे छे, आपणामां भळता नथी, भळवू पडे त्यांय अलिप्त जेवा रहे छे, आपणी साथे तेमनो कौटुंबिक संबंध नथी तेम ते वखते आर्योए नहीं करेलु. एओ तो जेम जेम विस्तरता गया तेम तेम अनेक आदिम जातिओना सहवासमां आवता गया, विविध जातिनी आदिम आर्योना अंतःपुर जनता ठेठ आर्योना अंतःपुर सुधी पहोंची गई, सुधी . आदिम आदिम जातिनी अनेक रमणीओए आर्योनुं गृहिणीपद जनतानो प्रवेश अने तेनी भाषा साना : शोभाव्यु, आम शासक अने शासित बच्चे लोहीनो ऊपर असर संबंध बंधायो अने अनेकानेक आदिम जातिओ __ आर्योमा ओतप्रोत थई गई. आवी परिस्थितिमां शासक अने शासित बच्चे कयो व्यवहार नहीं प्रवों होय ? लेवडदेवडनो, प्रेमनो, विद्याना आदानप्रदाननो, कलहनो, एक बीजाना मनोभाव समझवानो, आदानप्रदानवहार नहीं प्रबार आवी परिस्थिति Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति घरने लगतां अनेक कार्योना आदेशप्रत्यादेशनो आवा आवा अनेक प्रसंगो उपस्थित थतां ते बन्ने प्रजाने बनेने साधारण एवी एक भाषा विना चाली शके खरं ? २९ तन्त्रवार्तिककार कुमारिल भट्ट कहे छे के जेवू पद वेदवेदांगमां वपरायुं छे बराबर तेवू ज आर्य भाषामा पद म्लेच्छभाषामां उपलब्ध होय अने त्यां तेनो अवशल म्लच्छ अर्थ आर्यशाखाद्वारा न थई शकतो होय एवे स्थळे शब्दोनो अर्थ उभय शाखामां सचवायेला एवा अविप्लुत-अविकृत. सहायता पदनो अर्थ समझवा म्लेच्छभाषानो पण आश्रय लेवो पडे तो ते अयुक्त नथी. पण ज्यां आर्योए म्लेच्छभाषानां पदोने पोतानी रीते फेरवी नाखी नवो घाट आप्यो होय ता ३३ " चोदितमशिष्टैरपि शिष्टानवगीतं प्रतीयेत यत् प्रमाणेन अविरुद्धं तद् अवगम्यमानं न न्याय्यं त्यक्तुम् । x x x तस्मात् पिक इति कोकिलो ग्राह्यः, नेमः अर्धम् , तामरसम्-पद्मम्, सत इति दारुमयं पात्रम् xxx परिमण्डलं शतच्छिद्रम्"। “ ये शब्दा न प्रसिद्धाः स्युः आर्यावर्तनिवासिनाम् । तेषां म्लेच्छप्रसिद्धोऽर्थो ग्राह्यो नेति विचिन्त्यते ॥ निरुक्त-व्याक्रियाद्वारा प्रसिद्धिः किं बलीयसी। समुदायप्रसिद्धिर्वा म्लेच्छस्यैवाथ वा भवेत् ॥ आर्याश्च म्लेच्छभाषाभ्यः कल्पयन्तः स्वकं पदम् । पदान्तराक्षरोपेतं कल्पयन्ति कदाचन ॥ न्यूनाक्षरं कदाचिच्च प्रक्षिपन्त्यधिकाक्षरम् । तद्यथा-- द्राविडादिभाषायामेव तावत् व्यञ्जनान्तभाषापदेषु स्वरान्त-विभक्तिस्त्रीप्रत्ययादिकल्पनाभिः स्वभाषानुरूपान् अर्थान् प्रतिपद्यमाना दृश्यन्ते। तद्यथा'ओदनम्' 'चोर्' इत्युक्ते 'चोर' पदवाच्यं कल्पयन्ति । 'पन्थानम्' 'अतर्' इत्युक्ते 'अतर' इति कल्पयित्वा आहुः-सत्यं दुस्तरत्वाद् 'अतर' एव पन्था इति। तथा, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख 'पाप्' शब्दं पकारान्तं सर्पवचनम्-अकारान्तं कल्पयित्वा सत्यं 'पापः' एव असौ-इति वदन्ति । एवं 'माल' शब्दं स्त्रीवचनं 'माला' इति कल्पयित्वा सत्यमित्याहुः। 'वैर' शब्दं च रेफान्तम्-उदरवचनम्-'वैरि'शब्देन प्रत्याम्नायं वदन्ति-सत्यम् सर्वस्य क्षुधितस्य अकार्ये प्रवर्तनाद् उदरं वैरिकार्ये प्रवर्तते इति।। तद् यदा द्रविडादिभाषायामीदृशी स्वच्छन्दकल्पना तदा पारसी-बर्बर-यवनरौमकादिभाषासु किं विकल्प्य किं प्रतिपत्स्यन्ते इति न विद्मः । तस्माद म्लेच्छप्रसिद्धं यत् पदमार्यैर्विकल्प्यते । न कश्चित् तत्र विश्वासो युक्तः पद-पदार्थयोः ॥ निरुक्त-व्याक्रियाद्वारा यस्त्वर्थः परिगम्यते । पिक-नेमादिशब्दानां स एवार्थो भविष्यति ॥ इति प्राप्तम् । एवं प्राप्ते वदामोऽत्र पदं निपुणदृष्टिभिः । विज्ञायेताऽविनष्टं यत् तत् तदर्थं भविष्यति ॥ देशभाषा-ऽपभ्रंशपदानि हि विप्लुतिभूयिष्ठानि न शक्यन्ते विवेक्तुम् । यत् तु वेद-तदङ्गेषु पदं दृष्टमविप्लुतम् । म्लेच्छभाषासु तद्रूपमर्थ क्वचन चोदितम् ।। तत् तथैव प्रतीयेत प्रमाणेनाऽविरोधतः। पिक-नेमादि तद्धयेवं निपुणैरवधारितम् ॥ चोदितं ह्युपदिष्टं वा प्रयुक्तं वा क्रियागतम् । म्लेच्छैरवधृतं पश्चाद् आयद्वैभाषिकैः क्वचित् ।। तादृशं तु प्रतीयेत प्रामाण्येनेति निश्चितम् । न तद् धर्मप्रमाणेन वेदाख्येन विरुध्यते ॥ अपि च पदार्थ-पदसंबन्धज्ञानापेक्षप्रवर्तनात् । प्रसिद्धिर्यत्र तत्रस्था वाक्यायानुगम्यते ॥ पिकादिशब्दवाच्यं वा म्लेच्छैर्यदवधारितम् । अविरोधात् प्रमाणेन तद्विधा वेदनोदितम् ।। चोदितं वा प्रमाणेन वेदेनेत्यस्य संगतिः । आर्यैः सहाऽविरुद्धत्वात् तस्य तैरप्यपेक्षणात् ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति त्यां मात्र साधारण अक्षरसाम्यनो आश्रय लई तेमने म्लेच्छपदो साथे सरखावी अर्थनिश्चय करवामां जोखम छे. प्रस्तुतमां ' पिक ' ' नेम ' वगैरे शब्दो जेवा म्लेच्छभाषामां प्रचलित छे तेवाने तेवा - अविप्लुतअविकृत - आर्यशाखामां पण प्रचलित छे. आर्योए ए पदोने विशेष रीते बदल्यां नथी एटले ए अने एवां बीजां अरूपांतरित अने जेमनो अर्थ आर्यशाखामा उपलब्ध नथी तेवां पदोनो अर्थ समझवा म्लेच्छभाषानी कोई शाखानो आश्रय लेवो पडे तो जरूर लेवो, तेम करतां एटलं जरूर जो जोईए के कोई पण वैदिक विधिने लेश पण बाध न आवतो होय. जे पदो म्लेच्छोए पोतानी परंपराओमां अवधारी राखेला होय अने एवां ज पदो आर्यशाखामा पण उपलब्ध थतां होय, तेमना आर्यशाखानी अर्थनो निर्णय करवा आर्योंनी अने म्लेच्छोनी भाषा अने म्लेच्छजाणारा एवा द्वैभाषिक आर्यो एवां विवादास्पद पदोनी परख करे छे, परख करतां बन्ने पदोनी अविप्लुतता जणाय तो म्लेच्छपरंपरा प्रमाणे तेमनो अर्थ करी शकाय छे. " " वेदोमां पशुना कोई एक अवयव माटे 'क्लोम' वगैरे शब्दो वपरायेला छे. वैदिक अध्वर्युने खबर नथी के 'क्लोम' वगैरे शब्दो पशुना कया अवयवने सूचित करे छे. ' क्लोम ' वगेरेनो खरो अर्थ न जणाय तो वैदिक विधिने दूषण लागे छे. आवे प्रसंगे वैदिक विधिनी शुद्धिने माटे, जे लोको रातदिवस शाखानी भाषा जाणनारा द्वैभा षिक आय यथैव 'क्लोम' आदयः पश्ववयवा वेदे चोदिताः सन्तः अध्वय्र्वादिभिः स्वयम् अज्ञायमानार्थत्वाद् ये नित्यं प्राणिवधाभियुक्तास्तेभ्य एव अवधार्य विनियुज्यन्ते । यथा च निषादेष्ट्यां 'कूटं दक्षिणा' इति विहिते य एव एतेन व्यवहरन्ति तेभ्य एव अर्थतत्त्वं ज्ञात्वा दीयते तथा पिक नेम - तामरस- आदिचोदितं सद् वेदाद् आर्यावर्तनिवासिभ्यश्व अप्रतीयमानं म्लेच्छेभ्योऽपि प्रतीयेत इति "तन्त्रवार्तिक पृ. २२७. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख पशुहननमा अभियुक्त छे एवा वधको पासे जईने अध्वर्युए ए 'क्लोम' वगैरे शब्दोना अर्थो अवधारी लेवा जोईए. अहीं जेम वधको पासेथी पण अर्थ समझवामां वांधो नथी तेम जे जे पदोनो अर्थ आर्यशाखा द्वारा गम्य नथी अने एवां ज पदो म्लेच्छशाखाओमां प्रचलित छे त्यां तेमनो अर्थ म्लेच्छभाषाओ द्वारा करवामां हरकत नथी." ३० वळी, म्लेच्छभाषानां पदोने आर्यलोको केवी रीते फेरवीने बोले छे ते बाबत ते ज ग्रन्थकार जणावे छे केम्लेच्छपदाने "आर्यलोको प्रसंगने लीधे म्लेच्छभाषाओमांथी बोलवानी आयाए पदो मेळवीने तेमने पोतानी रीते कल्पे छे : म्लेच्छ स्वीकारेली उच्चारणपद्धति भाषानां केटलांक पदोमां बीजा पदना अक्षरो मेळवी दईने बोले छे, केटलांक पदोने ओछा अक्षरवाळां करीने वापरे छे अने केटलांक पदोमां अक्षरो वधारी दईने चलावे छे. द्रविड वगैरे देशोनी भाषामां जे पदो व्यंजनांत छे, आर्यों तेमने स्वरांत बनावीने वापरे छे. केटलांक द्रविड पदोने आर्यो केटलाक द्रविडी पोतानी भाषामां वपराती विभक्तिओ लगाडीने वापरे शब्दोनां आयोए के केटलांक तेवां म्लेच्छपदोने आर्यों पोतानी करेला उच्चारणो " भाषामां वपराता स्त्रीलिंगसूचक प्रत्ययो लगाडीने बोले छे अने आ रीते म्लेच्छभाषाओनां अनेक पदोने आर्यो पोतानी रीते अनेक प्रकारे संस्कारयुक्त करे छे अने तेम करीने ते पदो द्वारा स्वभाषाने अनुसरतो अर्थ मेळवता आर्यो आजे पण देखाय छे." " जेमके द्रविड भाषामा ' ओदन' अर्थनो सूचक रकारांत ४ चोर्' ३४ 'चावल' शब्द साथे द्रविडी 'चोर्' शब्दने सरखावी शकाय एम छे. अने संस्कृत 'कूर' अने प्रस्तुत 'चोर् ' ए बे पदो बच्चे पण समानता छे. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति शब्द छे. आर्यो ते शब्दने अकारांत 'चोर' बनावीने वापरे छे. द्रविड भाषानो लकारांत ' माल्' छे तेने आर्यो ' मला ' करीने बोले छे. द्रविड भाषाना 'सर्प' अर्थना पकारांत 'पापू' शब्दनो आर्यों 6 पाप ' एवो बोल तेने 'पाप' कहेवो योग्य छे द्रविड भाषानो ' अतर् ' ( बनावे छे अने ' सर्प' पापरूप छे माटे एम कहीने 'पाप' नुं निर्वचन पण करे छे. शब्द ' मार्ग' अर्थनो छे तेने आर्यो ' अतर ' बोले छे अने जे 'दुस्तर' छे ते ' अतर ' कहेवाय एम कहीने आर्यो द्रविड भाषाना ए अतर् ' शब्दने आर्यप्रसिद्ध ‘तृ–तरतुं' धातुमांथी नीपजावे छे. द्रविडलोकोमां वैरं'' शब्द 'पेट'ना अर्थमां प्रसिद्ध छे. आर्य लोकोमां 'वैरी ' ' शत्रु 'ना अर्थमां जाणीतो छे. आर्यो कहे छे के 'पेट' माणसपासे अकार्य करावे छे माटे ते शत्रु जेवुं छे- आ रीते ' वैरी' अने द्रविड ' वैर् ' वच्चे साम्य साधी आर्यो 'वैर्' ने पण 'पेट' अर्थमां वापरे छे. " 6 शब्द ૪૦ द्रविडी पदोनां एवां उदाहरणो " आ प्रकारे आर्यलोको विजातीय भाषाना अनेक शब्दोने पोतानी ते फेरवीने काममा ले छे. " ३५ स्त्रीवाचक 'महिला' के 'महेला ' पद साधे प्रस्तुत 'माला' पदनी तुलना संभवे छे. ए ३६ वर्तमानमां पण द्रविडी भाषामा 'पेट' अर्थे 'बैर्' शब्द सुप्रतीत छे, हकीकत एक द्रविडी मित्र पासेथी जाणी छे. संस्कृत कोशमां पण ' बेर' शब्द 'शरीर' ना पर्याय तरीके नोंधेलो छे. 'वेर - संहनन - देह - संचराः " ( है मकोश कांड ३, श्लो० २२७. ) अने 'कुबेर' एटले जेनुं बेर- शरीर, कु-कद्रूपुं छे ते एवो अर्थ करीने 'कुबेर' नी व्युत्पत्ति आपता कोशकारे तेमां पण 'बेर' पद ने शरीरवाचक कयुं छे. 'कुत्सितं बेरम् - शरीरम् - अस्य कुष्ठित्वात् कुबेरः " - ( हैमकोश कांड २, श्लो० १०३ ) << Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख तंत्रवार्तिककार कहे छे के “ आर्यावर्तनी पडोशमां आवेली द्रविडादि भाषाओना शब्दोने आर्यो पोताने फावे ते रीते फेरवीने स्वच्छंदपणे वापरे छे तो पछी पारसीक; बर्बर, यवन अने रोमक वगैरे देशोनी भाषाना शब्दोने वापरती वखते आर्यलोको ते ते शब्दोमां कोण जाणे केवो य फेरफार करता हशे अने ते ते शब्दोनुं नवं नवं रूप कल्पीने तेमांथी केवो केवो अर्थ काढता हशे ते संबंधे शुं कही शकाय?" __ जैमिनि, शबर अने कुमारिल भट्टर्नु उपर्युक्त निवेदन एम सिद्ध करवाने पूरतुं छे के जे क्रियाओमां म्लेच्छोनी छाया पण असह्य छे एवी वैदिक विधिओने लगतां विधानोमां य म्लेच्छभाषाना शब्दो पेसी गया हता तो पछी आर्यो अने अनार्यो वच्चे प्रवर्तती जनसाधारणनी भाषामां तो अनार्य शब्दोनो प्रभाव केटलो बधो वधारे हशे ? ए प्रभावने लईने आर्योनी अने आदिम जातिओनी भाषा एकमेक जेवी थई गई हती. ३१ ते ते आदिम जातिओ आर्योना शब्दोने केवी रीते फेरवीने बोलती हशे ते विशे विशेष प्राचीनतम उदाहरणो मळवां दुर्लभ छे छतां य चीनी प्रवासी ह्युएनसंग (विक्रमनो सातमो सैको) नां उच्चारणो द्वारा अने अंग्रेजोनां अत्यारना उच्चारणो द्वारा ए फेरफारोनी कल्पना आवी शके खरी. युएनसंगनां उच्चारणो आपणा शब्दो [देश अने नगरनां नामो] चीनी प्रवासी एनसंगे करेलां सुलच विलक्षण उच्चारणोनां उदाहरणो ओनतोपुलो आनन्दपुर फलिपि ३७ आ बधां नामो माटे जुओ ‘ऑन युआनच्चांग' (वॉटर्स ) नो विशेष नामोनो इंडेक्स तथा 'बुद्धिस्ट रेकर्डझ् ऑफ धि वेस्टर्न वर्ल्ड'नो विशेष नामोनो इंडेक्स. गुर्जर सुराष्ट्र वलभी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ह्युएनसंगनां उच्चारणो आपणा शब्दो मोलपो मालवा मोहोलच महाराष्ट्र कीच कच्छ पोलुकीचेपो भृगुकच्छ अंतल अन्ध्र शेतोतुलु शतद्रु जालंधर उज्जयिनी सिन्धु कोशल ताम्रलिप्ति चम्पा मगध चेलंतोलो उशेयेन सिंतु किओसलो तम्मोलिति चेपो मोकीटो नेपोलो फीशेली पोलोनिस्से किओशंम्मि पोलोयेकिअ ओयुतो मोतुलो किअशिमिलो तचशिलो कींतोलो उतोयेन्न [राजानु नाम] नेपाल वैशाली वाराणसी कौशाम्बी प्रयाग अयोध्या मथुरा काश्मीर तक्षशिला गान्धार उदायन ___ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ४३ एवां विलक्षण उच्चारणो जाणीतां छे. किऔचेये [ रेशमी वस्त्रनुं नाम ] कौशेय इत्यादि. ३२ आधुनिक अंग्रेजोनां ‘भरुच'- 'ब्रोच', ' खंभात' - 'केम्बे,' अंग्रेजोए करेलां मथुरा'नु ' मुत्रा', 'वडोदरा 'नु · बरोडा' वगैरे उच्चारणोनां उच्चारणो जाणीतां छे. उदाहरणा ३३ ए ज रीते आर्यो, ते ते आदिम जातिओना शब्दोने फेरवीने भाष्यकारे अने हेम- केवी रीते वापरता हशे ते बाबत विशेष चद्र वर्गरेए दशा- तो कही शकाय एवं नथी छतां संस्कृत वेलां एवां विलक्षण । उच्चारणोनां तथा अने प्राकृत साहित्यमां सचवायेला एवा केटलाक व्युत्पत्तिनां न शब्दो ऊपरथी आर्योए करेला फेरफारनी कल्पना उदाहरणो थई शके खरी : अनार्य शब्द आर्योए फेरवेलो शब्द तरबूज "त्रपुस (भाष्यकार) *तुरुष्क-तुरुक्क (अमर तथा हेमचंद्र) ४°पारसीक-पारसीय ( ,, ) फारस ३८ “ दधि-त्रपुसं प्रत्यक्षो ज्वरः" महाभाष्य अ० १ पा० १ आह्निक ८ सूत्र ५९. ३९ “ तुरुष्कः पिण्डकः सिल्हो"-(अमर० कां० २ श्लो० १२८ मनुष्यवर्ग) "तुरुष्कः”-( हैमकोश कां. ३ श्लो० ३१२) ४० “वनायुजाः पारसीकाः काम्बोजाः बाल्हिका हयाः” (अमर० कां० २ । श्लो० ४५ क्षत्रियवर्ग तथा हैमकोश कां० ४ श्लो० ३०१) ___ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अनार्य शब्द आर्योए फेरवेलो शब्द शाह "साखि (हेमचंद्र) शाहन्शाह साखानुसाखि-साहंसाही-(कालककथा) साहाणुसाही-साहानसाहि (जिनदेव) रिश्वत् अथवा रुश्वत् वातरूष जीन "जयन-जयण खास विशेष प्रकारना घोडा माटेना शब्दो खोमाह सेराह हरिय खुङ्गाह ४१ “ तुरुष्काः साखयः स्युः”-( हैमकोश कां० ४ श्लो० २५) ४२ “ पत्तो सगकूलं नाम कूलं, तत्थ जे सामंता ते साहिणो भण्णंति । जो सामंताहिवई सयल-नरिंदवंदचूडामणी सो साहाणुसाही भण्णइ"-(कालककथा) "तेनाचचक्षे मम योऽस्ति राजा साहानसाहिः स भण्यतेऽत्र"-(तपा० कालक०) “ये स्युस्तत्र च सामन्तास्ते साखय इति स्मृताः। तेषां तु नृपतिः साखानुसाखिरिति श्रुतः॥"- (जिनदेव-कालक०) ४३ “वातरूषः उत्कोचो लञ्चा" -( हैम-अनेकार्थ० कां० ४ श्लो०३२३) ४४ “जयनं विजये-अश्वादिसंनाहे"-"जयति जयनशाला वाजिनां राजकीया"( हैम-अनेकार्थ० कां. ३ श्लो० ३६८) ४५ “खोङ्गाहः श्वेतपिङ्गले" " हलाहः चित्रितो हयः” “ 'खोङ्गाहः' आदयः शब्दा देशीप्रायाः । व्युत्पत्तिस्तु एषां वर्णानुपूर्तीनिश्चयार्थम् "-(हैमकोश कां. ४ श्लो० ३०३ थी ३०९) आ स्थळे हेमचंद्रे ‘खोङ्गाह' वगेरे बधा शब्दोनी व्युत्पत्ति संस्कृत प्रमाणे आपेली छे. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख क्रियाह नीलक त्रियूह वोल्लाह उराह सुरूहक वोरुखान कुलाह उकनाह शोण हरिक हालक पङ्गुल हलाह बीजा शब्दो खतमथु ( जिनप्रभसूरि) रहमाणु सलामु खिदमत रहमान सलाम हरामु हराम जानवर जानूउरु __ ४६ “ खतमथुः भक्तिः । रहमानो महेश्वरः । अथ रह त्यागे धातुः-रहति रागद्वेषौ त्यजति-इत्येवं शक्तः “शक्तिवयस्ताच्छील्ये " इति शानड्, आत् , मोऽन्त णत्वे कृते रहमाण इति रूपम् ” इत्यादि (जैनसाहित्यसंशोधक खंड ३ अंक १ पृ० २१-२९ फारसी भाषामां ऋषभदेवस्तवन) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ३४ कहेवानुं तात्पर्य ए छे के मूळ जीवती भाषामां आर्योनां विविध उच्चारणोनो उद्भव थयो अने तेमनो अनेक आदिम व्यापक जातिओ साथे गाढ संपर्क थयो एथी एक एवी प्राकृतनो नवा जेवी बीजी सर्व जनसाधारण भाषा नीपजी उद्भव गई के जे आर्योनी न कहेवाय तेम आदिम जातिओनी पण न कहेवाय पण 'व्यापक प्राकृत' ना नामे संबोधी शकाय. ३५ 'प्राकृत' शब्द मनुष्यना विशेषणरूपे वपराय छे तेम भाषाना नाम माटे पण वपराय छे. नागरिक लोको जे जे ना प्रवृत्तिओने संस्काररूपे माने छे ते बधी प्रवृत्तिओ अर्थ - विनानो मनुष्य ' प्राकृत मनुष्य' कहेवाय छे. प्राकृत मनुष्यमा स्वभावनी स्थिरता होय छे, ते प्रकृतिने अनुसरे छे, बनावटी उपायो द्वारा पोतानी स्थितिने फेरवतो नथी, प्रकृति माता तेने जे रीते राखे छे-पोषे छे ते रीते ते वर्ते छे अने वधे छे. जे लोको प्राकृत नथी एटले प्राकृत मानवथी विरुद्ध प्रकारना छे-नागरिक छे तेओ प्रकृति प्रमाणे चालता नथी, एवा लोको पोता ऊपर अनेक प्रकारना बनावटी उपायो द्वारा विविध संस्कारोने लादे छे–पोते दूषणरूप मानेलं प्राकृतपणुं दूर करवा सतत प्रयत्न सेवे छे अने ए रीते मूळे प्राकृत छतां पछी संस्कृत-संस्कारसंपन्न बने छे. चालु भाषामां कहीए तो ‘गामडियु' 'गामठी' 'देशी' 'तळपदुं' अने 'प्राकृत' ए बधा पर्यायवाचक शब्दो छे. आ विशेषणवाचक 'प्राकृत' 'शब्द' 'प्रकृति' साथे संबंधित छे तेम भाषावाचक 'प्राकृत' शब्द पण 'प्रकृति' साथे ज संबंधित छे. प्रकृति एटले स्वभाव-अकृत्रिमता Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ४७ मूळ स्वरूपनी स्थिति. जे भाषा स्वभावद्वारा आवेली छे वा स्वभावद्वारा नीपजेली छे तेने 'प्राकृत' नाम आपी शकाय-वधारे स्पष्टरीते कहीए तो जे भाषानी निष्पत्ति माटे कोई खास प्रकारना कृत्रिम उपायो नथी लेवाया, जेमां एनी मेळे ज विविध उच्चारणो-रूपांतरो जन्म्यां, जेना संस्कार माटे कोई खास शास्त्र नथी रचायुं अने जे, मूळ चालती स्वाभाविक जीवती भाषा हती ते ज उक्त निमित्तोने बळे आपोआप रूपांतर पामी सर्वसाधारणमां प्रसरी-आबाळगोपाळ सुधी पहोंची ते भाषा स्वाभाविक कोटिनी कही शकाय अने एवी ज भाषा 'व्यापक प्राकृत' ना नामने लायक कहेवाय. ३६ मूळ वैदिक भाषाना जीवता देहनी आवी परिस्थिति थतां ए . समये जे लोको आर्यताना ज चुस्त हिमायती लौकिक संस्कृतनी हता, आर्यभाषामां थतां अनेक परिवर्तनो जेमने घटना अने तेनुं - अक्षम्य लागेला तेमने एम भासवं स्वाभाविक छे प्रयोजन के सर्वजनसाधारण भाषानो ज प्रभाव प्रबळपणे वधतो रहे अने आर्योनी भाषाविषयक विशिष्टताने बतावनाएं एक पण साधन न जळवाय तो आर्योनी संस्कृति जाय अने साथे साथे आर्योनी मूळ भाषानो देह पण पडे एटले परिणामे मूळगी आर्यता ज भूसाई जाय, ए रीते संस्कृतिना रक्षणनी प्रबळ प्रेरणाने लीधे इन्द्रादि ऋषिओए ते समये जे कांई मूळरूपे बच्युं हतुं अने विकृतशब्ददेहमांथी य जे कांई मूळरूपे शोधी शकाय एवं हतुं ते बधानो आधार लई आर्योनी भाषानुं एक विशिष्ट बंधारण घडवानुं निर्धायु. उक्त बंधारण करवू पण काई सरल न हतुं, ए तो मूळ प्रयोगो भेगा थाय, विकृत प्रयोगो भेगा थाय—आ प्रयोगो य कोई हजार बे हजार न ___ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति हता, लाखो करोडोनी संख्यामां हता-ए बन्ने प्रकारना प्रयोगोनो संग्रह कर्या पछी तेमनुं तुलनात्मक परीक्षण थाय, मूळरूपनी समझ पडे, विकृतरूपनी ओळख थाय अने आq चोक्कस तारण कर्या पछी ज मूळ प्रयोगोनो निर्णय थाय, आ रीते विशाल संशोधन- कार्य चाल्या पछी ज आर्योनी भाषाना बंधारणतुं घडतर करी शकाय; परंतु आबु दीर्घकालापेक्ष अने महाप्रयाससाध्य आयोजन थतां पहेलां तो ते मूळभाषा अनेक परिणामान्तरो पामी चूकी हती. वेदोमां सुद्धा अनार्य शब्दो पेसी गया हता अने बोलचालना प्रवाहमां पडेली ते मूळभाषानो नमूनो मात्र वेदोनी ऋचाओमां जळवायो हतो अने ते पण सर्वथा अविकृत तो न होतो ज अने बीजी तरफ सर्वजनसाधारण भाषानो प्रवाह प्रभावशाली बनतो जतो हतो. आवी स्थितिमां परंपरा, तुलनात्मक परीक्षण वगैरे कसोटीनो आश्रय लईने ते परिवर्तित भाषाना खोखामां ज प्राण पूरी इन्द्रादि वैयाकरणोए मूळभाषानुं बंधारण घड्यु अने मूळभाषाने सजीवन करवानी पोतानी धारणा पूरी करी. तेमणे करेलु ए बंधारण ते ज लौकिक संस्कृतना देहनी घटना. वर्तमानमा इन्द्रे करेलु ऐन्द्र व्याकरण तो उपलब्ध नथी परंतु तेमना प्रतिनिधिरूप पाणिनिऋषिए रचेलं व्याकरण उपलब्ध छे. ३७ लौकिक संस्कृतनो अर्थ एवो नथी के ते क्यारे य समग्रलोक . व्यापक संस्कृत हतुं परंतु वैदिक संस्कृत करतां लौकिक संस्कृत सीता कोई अपेक्षाए जटा प्रक त तेनी घटना कोई अपेक्षाए जुदा प्रकारनी हती. समग्रलोकव्यापक टिक संस्कतथी तेनो पृथग्भाव बताववा सारु न हतुं इन्द्र, पाणिनि वगैरे ऋषिओए घडेली भाषाने लौकिक संस्कृत नाम अपायुं छे, ए ध्यानमा रहे. ___ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ર ३८ एक एवो मत छे के लौकिक संस्कृत ज विकार पामीने प्राकृतरूपे परिणत थयुं, ए मत मारा नम्र अभिप्रायप्रमाणे प्रामाणिक नथी. 'लौकिक संस्कृतनो विकार ते प्राकृत ' ए मतनो प्रतिवाद लौकिक संस्कृतमांथी प्राकृतनो प्रादुर्भाव मानवा जतां केटलांक बाक कारणो उपस्थित थाय छे: उक्त प्रतिवाद विशे पांच हेतुओ [१] लौकिक संस्कृतनी व्यवस्थित नियंत्रणवाळी घटना थया पहेलां, घटना थई ते वखते तथा त्यार पछी पण सर्वजनसाधारण भाषा कई हती ? [२] लौकिक संस्कृतनी नियत घटनाना समये आर्योनी मूळभाषा तो अनेक परिणामान्तरोने पामी चूकी हती, एटले ए घटनाना समये जे भाषा सर्वजनसाधारण हती तेने शुं नाम आपी शकाय ? [३] लौकिक संस्कृतनी सुबद्ध घटना ज एवा प्रकारनी छे के ते, जे रूपे नियमनमां मूकायेली छे ते रूपे क्यारे पण सर्वजनसाधारण भाषा बनी ज न शके. छतां य जो तेने सर्वजनसाधारण भाषा तरीके स्वीकार - वामां आवे तो सर्वजनसाधारणमां बधा शब्दोनुं एक सरखं ज उच्चारण प्रवर्ततुं हतुं एटले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्रीओ, वृद्धो, बाळको, नटो, बीजा तद्दन अभण लोकोमां- सोनी, घांची, मोची, सुतार, कोळी, आहीर, ओड वगैरे लोकोमा सर्वत्र सदाकाळ एक सरखुं ज उच्चारण प्रवर्ततुं हतुं एम मानवुं जोईए; परंतु अनुभव, एवी मान्यतानो विरोध करे छेने आगळ जणावेला भिन्न भिन्न उच्चारणोवाळा शब्दो पण एवी मान्यताना बाधक छे. ४ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति [४] लौकिक संस्कृतनी घटनाना प्रमुख पुरुष महाभाष्यकार कहे छे के शब्दो करतां अपशब्दो घणा छे अने ए बधा अपशब्दोने 'अपभ्रंश' ना नामे तेओ ओळखावे छे, तो जे शब्ददेह 'अपभ्रंश' नामे तेओए ओळखावेलो छे ते शब्ददेह वैदिक भाषानो न हतो तेम लौकिक संस्कृतनो पण न हतो, त्यारे ए शब्ददेहने कई भाषानो समझवो ? मारा नम्र कथन मुजब ए शब्ददेह जे भाषानो हतो ते भाषाने ज अहीं व्यापक प्राकृतनुं नाम आप्युं छे. अने तेनो प्रादुर्भाव जीवंत वैदिक संस्कृत द्वारा जणाव्यो छे. [५] लौकिक संस्कृतनी घटनाने समये आर्योनी मूळभाषा मूळरूपे तो रही ज न हती, रही होत तो भाष्यकार पोते 'एक शब्दना अनेक अपभ्रंशो छे' एम शामाटे कहेत ? तेमणे जे अनेक अपभ्रंशो बताव्या छे ते आव्या क्याथी ? ए बधा य अपभ्रंशो आदिम जातिओनी भाषामांथी आव्या छे, एम तो केम कही शकाय ? एटले ते बधा अपभ्रंशो जे भाषामांथी ऊतर्या छे ते आर्योनी मूळभाषा हती अने ते ज भाषा व्यापक प्राकृतना प्रादुर्भावमां असाधारण कारण छे एम कहेवामां जराय असंगति नथी. ३९ ते ते आदिम जातिओनी भाषानो प्रभाव लौकिक संस्कृत ऊपर पण पड्यो छे छतां जेम लौकिक संस्कृतनुं मूळ स्रोत वैदिक भाषामां छे तेम आदिम जातिओनी ऊपर पण आदिम जातिओनी भाषानो भाषाथी प्रभावित थयेली व्यापक प्राकृतनुं मूळ प्रभाव स्रोत पण ते ज आदिम वैदिक भाषामां छे. ४७ “एकैकस्य शब्दस्य बहवः अपभ्रंशाः, तद्यथा-'गौः' इत्यस्य शब्दस्य गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका-आदयः अपभ्रंशाः”—(महाभाष्य पृ० ११ वा० स०) ४८ जुओ ऊपरतुं टिप्पण. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ ४० वेदोमां वपरायेला पदो अने पाणिनिए दर्शविले ते पदोनुं बंधारण तथा व्यापक प्राकृतना साहित्यमां वपरायेलां पदो अने कच्चायण, चंड तथा हेमचंद्र वगेरेए दर्शावेलं व्यापक प्राकृतनुं बंधारण, ए उभय बंधारणनी तुलनात्मक समीक्षा करतां ए तद्दन स्पष्ट जणाई आवे छे के जीवती एवी वैदिक भाषानो वारसो व्यापक प्राकृतभाषाए साचवी राख्यो छे. एटले एम कहेतुं जराय वधारे पडतुं नथी के वैदिक, भाषाना जीवंत स्रोत साथे व्यापक प्राकृतनो गाढ संबंध छे. जीवती वैदिक भाषानो वारसो व्यापक प्राकृतमां छे ४१ आ संबंध बतावनाएं केटलांक उदाहरणो आ प्रमाणे छे : [१] वैदिक प्रक्रियामां बहुलं छन्दसि " (6 २-४-३९ ॥ " बहुलं छन्दसि " २-४-७३ । आ प्रकाबाहुल्य रना अनेक सूत्रो आवे छे. तेनो अर्थ ए छे के वैदिक रूपोमां सर्वत्र बहुलाधिकार प्रवर्ते छे त्यारे व्यापक प्राकृतमां तेना समग्र बंधारणमां बहुलाधिकार प्रवर्ते छे. ए, “ क्वचि लोपं " [ संधिकप्प कांड ४ सू० ९] "जिनवचनयुत्तम्हि " [नामकप्प कांड १ सू० १] तथा “ बहुलम् ” [ ८-१-२] “ आर्षम् ” [८-१-३] एवां सूत्रो रचीने कैचायण अने हेमचन्द्रादि वैयाकरणोए स्पष्टपणे बतावेलुं छे. लौकिक संस्कृतमा उक्त बहुलाधिकार तद्दन विरल छे. " [२] लौकिक संस्कृतमां अमुक धातुओ प्रथम गणना धातुओमां गणभेद अमुक बीजा गणना अने अमुक त्रीजा गणना, नथी ए रीते धातुओना दश विभाग करवामां आव्या छे, अने ए विभाग प्रमाणे प्रथमगणना धातुओने विकरण प्रत्यय अ ' लागे छे. बीजा, त्रीजा गणना धातुओने विकरण. L ४९ जुओ कच्चायणनुं पालिव्य विद्याभूषण भ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति प्रत्यय नथी लागतो अने चोथा गणना धातुओने 'य' विकरण लागे छे. ए रीते ते ते धातुओने माटे ते ते गण प्रमाणे जुदा जुदा विकरणोनुं विधान करवामां आव्युं छे, त्यारे वैदिक प्रक्रियाना अने व्यापक प्राकृतना बंधारणमां ते जातनो खास गणभेद नथी अने गणवार जुदा जुदा विकरणोनुं विधान पण चोक्कस नथी. लौकिक सं० वैदिक सं० व्यापक प्राकृत हन्-हन्ति हनति [वै० प्र०२-४-७३ ]हनति-हणइ शी-शेते शयते [ ]सयते-सयए भिद्-भिनत्ति भेदति [वै०प्र० ३-१-८५ ] भेदति-भेदइ मृ-म्रियते मरते मरति-मरइ दा-ददाति दाति [वै० प्र०२-४-७६ दाति-दाइ धा-दधाति धाति [ धाति-धाइ भुज-भुङ्क्ते भोजते [ऋ०वे० ४७४ म०सं०] भोजते वर्ध-वर्धयन्तु वर्धन्तु [वै० प्र० ३-४-११७] वडन्तु [३] लौकिक संस्कृतमा केटलाक धातुओ आत्मनेपदी होय छे । अने केटलाक धातुओ परस्मैपदी होय छे. आत्मनेपद-परस्मैपदनी भारी ना आत्मनेपदी धातुओ माटे आत्मनेपदी प्रत्ययो धातोमाले आत्मनेपदी अनियतता नियत छे अने परस्मैपदी धातुओ माटे परस्मैपदी प्रत्ययो नियत छे, त्यारे वैदिक पद्धतिमा तेम व्यापक प्राकृतमां एवं बंधारण नियत नथी. इच्छति इच्छते [वै०प्र०३-१-८५ ] इच्छते-इच्छए युध्यते युध्यति [ " ] जुज्झति-जुज्झए Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख [४] लौकिक संस्कृतमां त्रीजा पुरुषना एकवचनमां 'ते' प्रत्यय - छे त्यारे वैदिक पदोमां अने व्यापक प्राकृतना पदोमां 'ते' ने बदले 'ए'पण आवे छे. शये [वै० प्र० ७-१-४१] सेए ईशे [ऋ० वे० पृ० ४६८ म० सं०] ईसे-ईसए [५] लौकिक संस्कृतमा वर्तमान होय त्यां वर्तमानकाळ अने भूत होय त्यां भूतकाळ एम काळनो प्रयोग नियत छे, कालव्यत्यय ५ त्यारे वैदिकभाषामां अने व्यापक प्राकृतभाषामां ए रीते काळनो नियत प्रयोग नथी. ए बन्नेमां क्यांय वर्तमानने स्थाने भूतकाळ पण अने भूतकाळने स्थाने वर्तमानकाळ पण वपराय छे. वर्त० म्रियते ने बदले परोक्ष० ममार (वैदिक) [वै० प्र० ३-४-६] परोक्ष० प्रेक्षांचक्रे ,, ,, वर्त०पेच्छइ (व्यापक प्राकृत) [है० व्या० ८-४-४४७] परो० आबभाषे ,, ,, वर्त० आभासइ वर्तः शृणोति ,, ,, भूत० सोहीअ [६] लौकिक संस्कृतमा विभक्तिओनो प्रयोग नियत छे. द्वितीया योग्य होय त्यां द्वितीया अने तृतीया योग्य होय व्यत्यय त्यां तृतीया. ए रीते विभक्तिओनी नियतता छे, त्यारे वैदिक अने व्यापक प्राकृतमां विभक्तिओना प्रयोगनी अनियतता छे. वेदोमां अने व्यापक प्राकृतमां चोथी विभक्तिने बदले छट्ठी विभक्ति वपराय छ : [ वै० प्र० २-३-६२] तृतीया विभक्तिने बदले छटी विभक्ति वपराय छे : [वै० प्र०२-३-६३ ]. व्यापक प्राकृतमां कच्चायणना कहेवा प्रमाणे क्वचित् क्वचित् सप्तमीने बदले तृतीया वपराय छ : ___ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति " सत्तम्याथेच" [पालिव्या० कारककप्प कां० ६ सू० २०] छठीने बदले द्वितीया आवे छे : " क्वचि दुतीया छडीनं अत्थे" [सू० ३६] तृतीया अने सप्तमीने बदले द्वितीया तथा छठी विभक्ति वपराय छे: "ततीयासत्तमीनं च" [ सू० ३७ ] तथा “छट्ठी च" [सू० ३८] ए ज प्रमाणे द्वितीया अने पंचमीने बदले छडी विभक्तिनो प्रयोग थाय छ : “दुतियापंचमीनं च" [सू० ३९] बीजी, त्रीजी अने निमित्तसूचक विभक्तिने बदले सप्तमी वपराय छ : “ कम्म-करण-निमित्तत्थेसु सत्तमी" [सू० ४०] चतुर्थीने बदले सप्तमी तथा पंचमीने बदले पण सप्तमी विभक्तिनो व्यवहार छे: " संपदाने च" [ सू० ४१] "पंचम्यत्थे च" [सू० ४२] ए ज प्रमाणे आचार्य हेमचंद्रना जणान्या प्रमाणे पण द्वितीयादि सप्तमी सुधीनी विभक्तिओने बदले षष्ठी वपराय छ : [ है० व्या० ८-३-१३४ ] द्वितीया अने तृतीयाने बदले सप्तमी वपराय छे : [ है० व्या० ८-३-१३५] क्यांय पंचमीने स्थाने तृतीया अने सप्तमी वपराय छे: [है० व्या० ८-३-१३६] सप्तमीने बदले द्वितीया अने तृतीया वपराय छे अने क्यांय प्रथमाने बदले द्वितीया वपराय छ : [ है० व्या० ८-३-१३७ ] ए ज रीते उभय भाषामां एकवचनने स्थाने बहुवचन अने बहुवचनने स्थाने एकवचन वपराय छे. [७] व्यापक प्राकृतमां शब्दनो अन्त्य व्यंजन लोप पामे छे ___ तेम वैदिक रूपोमां पण शब्दनो अन्त्य व्यंजन अंत्यव्यंजनलोप लोपायेलो मळे छे. वैदिक पश्चात् ने बदले पश्चा-पश्चार्ध [ वै० प्र० ५-३-३३] उच्चात् , , उच्चा [तै० सं० २-३-१४] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख दिद्युत् ,,, युष्मा ताव वैदिक नीचात् ने बदले नीचा [तै० सं० १-२-१४] दिद्यु [" अन्त्यलोपः छान्दसः" __ भाष्य. ऋ० वे० पृ० ४६६ म० सं०] युष्मान् ,,, [वा० सं०१-१३-१। शत० ब्रा० १-२-९] स्यः ," स्य [ वै० प्र० ६-१-१३३ ] व्यापक प्राकृत तावत् ," यावत् ,,, जाव कर्मन् ,, , कम्म [८] व्यापक प्राकृतमा 'स्प' ने बदले 'प' बोलाय छे, तेम वैदिक रूपमां पण 'स्प' ने बदले 'प' वपरायेलो छे. वैदिक ‘स्पृशन्य' ने बदले 'पृशन्य' [ऋ० वे० पृ० ४६६ म० सं०] व्यापक प्राकृत 'स्पृहा' ,, ,, 'पिहा' [९] व्यापक प्राकृतमां अने वैदिक प्रयोगोमां संयुक्त 'र' कार 'र' नो लोप लोप पामे छे. व्या० प्रा० 'अप्रगल्भ' नुं अपगल्भ [तै० सं० ४-५-६-१] अपगब्भ स्प-प वैदिक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति [१०] व्यापक प्राकृत अने वैदिकमां संयुक्त 'य' नो लोप 'य' नो लोप थाय छे. ५६ वैदिक - तृच : [ वै० प्र० ६-१-३४ ] - वास्त्व्यम् अने वास्त्वम् [ वै० प्र० ६-४- १७५ ] त्रि + ऋच: = त्र्यृच : श्याम- -साम [११] वैदिकमां अने व्यापक प्राकृतमां 'ह' नो 'ध' 'ह' नो 'ध' बोलाय छे. व्या० प्रा० [१२] वैदिकमां 'थ' नो 'ध' वैदिक सह- -सध सहस्थ- -सधस्थ गाह- -गाध वहू — वधू शृणुहि — शृणुधि [ वै० प्र० ६-४-१०२] व्या० प्रा० इह- - इध तायह तायध [ वै० प्र० ६-३-९६ ] "" [ निरुक्त पृ० १०१] "" अने व्यापक प्राकृतमां 'थ' नो 'ध' बोलाय छे. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ५७. वैदिक माधव-माथव [ शत० ब्रा० १-३-३-१०, ११, १७] व्या० प्रा० नाथ-नाध [ १३ ] वैदिक अने व्यापक प्राकृतमा 'ध' नो 'ज' 'ध' नो 'ज' बोलाय छे. वैदिक द्योतिस्-ज्योतिस् [अथ० सं० ४-३७-१०] [निरुक्त पृ० १०१, १२ ] द्योतते-ज्योतते द्योतय-ज्योतय [निरुक्त पृ० १७०, १६ ] अवद्योतयति-अवज्योतयति [शत० ब्रा० १. २. ३.१६] अवद्योत्य—अवज्योत्य [का० श्रौ० ४–१४-५ ] व्या० प्रा० धुति--जुति __ उद्द्योत-उजोत [१४] प्राकृतमा दाह-दाघ, विह्वल--विब्भल, जिह्वा-जिब्भा; एवा प्रयोगो थाय छे तेम वैदिकमां आहृणि-आघृणि 'ह' नो 'घ' अने निरुक्त पृ० ३८२, ३९] विदेह-विदेष [शत० ब्रा० १-३-३. १०, ११, १२], मेह-मेघ [ निरुक्त पृ०१०१, १] गृहीत–गृभीत, गृहाण-गृभाय, जहार-जभार; एवा प्रयोगो थाय छे : [ वै० प्र० ३-१-८४] [१५] व्यापक प्राकृत अने वैदिक प्रक्रिया बन्नेमां 'ड' नो 'ल' 'ड' नो 'ल' ' तथा 'ळ' थवानुं बाहुलिक छे. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोढा गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति लौ० सं० वै० सं० व्या० प्रा० ईड-ईल-ईळ (पै०) अहेडमानः अहेळमानः अहेलमानो-अहेळमानो दृढ दृळ्ह [वै० प्र० ६-३-११३] दळ्ह (पालि) साळ्हा [ ] सोळ्हा [१६] वैदिक प्रक्रियामां केटलांक एवां पदो मळे छे के जेमां असंयुक्त एवो अनादिस्थ “य' अने 'व' लोपायेलो छे अनादिस्थ 'य' अने 'व' नो लोप __ अने व्यापक प्राकृतमां पण ए जातना 'य' अने 'व' लोप पामे छे. लौ० सं० वै० सं० व्या० प्रा० प्रयुग पउग [वा० सं० १५-९] पउग वैदिक 'सीमहि' [ऋग्वेद पृ० १३५, ३] रूप ‘षिवु' धातु ऊपरथी आव्युं छे अने तेमां ‘षिवु' नो 'व' लोपायेलो छे. [१७] वै० पृथुजवः पृथुज्रयः [ निरुक्त पृ० ३८३-४० ] व्या० प्रा० 'र'नो वधारो पिथुजवो पिथुजयो. अहीं 'पृथुज्रयः' मां 'व' लो पाया पछी व्यापक प्राकृतमां (लावण्य-लायण्ण) थाय छे तेम ‘य' श्रुति थयेली छे अने अपभ्रंशमां 'व्यास' नुं 'वास,' 'चैत्य' नुं 'चैत्र' थाय छे तेम 'जव' नुं 'ज्रय' ए, 'र' वाळु रूप पण थयेलुं छे ए ध्यानमा राखवा जेवं छे. आवां अपभ्रंशनी जेवां 'र' ना वधारावाळां बीजां पण वैदिक पदो मळे छे. अधिगु-अध्रिगु [ निरुक्त पृ० ३८७-४३] [१८] व्यापक प्राकृतमां अनादिस्थ असंयुक्त एवो 'च' अने असर , 'क' लोप पामे छे. वैदिक पदोमां पण एवो 'च' अने 'क' नो लोप अने 'क' लोपायेलो छे. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख लौ० सं० वै० सं० याचामि यामि [निरुक्त पृ० १००, २४१] अन्तिके अन्ति [ ऋग्वेद पृ० ४९६ म० सं०] व्या० प्रा० कचग्रहः कयग्गहो लोकः लोओ [१९] बन्ने भाषामां अनेक पदोमांनो आंतर अक्षर लोपायेलो आंतरवर्णनो लोप छे. लौ० सं० वै० सं० शतक्रतवः शतक्रत्वः [वै० प्र० ७-३-९७ ] पशवे पश्वे निविविशिरे निविवि) [ऋ० सं० ८-१०१-१८] आगताः आताः [निरुक्त पृ० १४२ दिशानाम] व्यो० प्रा० राजकुल राउल आगत आत-आय प्राकार पार व्यापक प्राकृतमां सस्वर व्यंजन लोपायेलो छे त्यारे वैदिक पदोमां मात्र स्वर लोपायो छे अने ‘आगताः' पदमां तो सस्वर व्यंजन 'ग' लोपायो छे. [२०] बे संयुक्त व्यंजन वच्चे स्वरनो उमेरो थवानी पद्धति बन्ने स्वरभक्ति भाषामां छे. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति लौ० सं० वै० सं० तन्वम्- तनुवम् तै० आ० ७-२२–१] स्वर्गः- सुवर्गः [तै० आ० ४-२-३] त्र्यम्बकम्—त्रियम्बकम् [वै० प्र० ६-४-८६] विभ्वम्--- विभुवम् सुध्यो- सुधियो रात्र्या---- रात्रिया [ यजु० वे०] सहस्यः- सहस्रियः तुग्र्यासु- तुग्रियासु [ वै० प्र० ४-४-११५] व्या० प्रा० क्ष्मा छमा रत्नम्- रतनं-रयणं स्नेहः- सनेहो प्लक्षः-- पलक्खो अर्हति- अरिहइ [२१] व्यापक प्राकृतमां आद्य 'ऋ' ने बदले 'रि' बोलाय छे. त्यारे वैदिकमां तेने बदले 'र' बोलाय छे तथा 'ऋ' नो 'र' अने बने भाषामां केटलाक शब्दोमां आवेला 'ऋ' ना 'उ' बोलाय छे. [कशो बाध न आवतो होय त्यां अहीं आपेलां बां उदाहरणोमां प्रथम प्रथम रूप लौकिक संस्कृतनुं समझवार्नु छ.] लौ० सं० वै० सं० ऋजिष्ठम्- रजिष्ठम् [वै० प्र० ६-४-१६२ ] व्या० प्रा० ऋजु रिजु-रिउ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख वैदिक वृन्द-बुन्द [निरुक्त पृ० ५३२ अं० १२८] तृ-ततुरिः [वै० प्र० ७-१-१०३] गु-जगुरिः [ ] वृणीत-वुरीत [शु० य० सं० पृ० ६२ मंत्र-८ ] कृत-कुट [ निरुक्त पृ० ४२२, ७०] व्या० प्रा० वृन्द-बुन्द ऋषभ-उसभ-उसह ऋतु-उतु-उउ । २२ ] बन्ने भाषामा 'द' नो 'टु' पण बोलाय छे. 'द'-'ड' वै० सं० दुर्दभ-दूडभ [वा० सं० ३. ३६ ] पुरोदाश:--पुरोडाश: [शु० प्रा० ३-४४ ] [वै० प्र० ३-२-७१] व्या० प्रा० दण्ड-डंड दम्भ-डंभ [२३] बन्ने भाषामा 'अव' नो 'ओ' अने 'अय' नो 'अव' नो 'ओ' 'ए' बोलाय छे. 'अय' नो 'ए' वै० सं० श्रवणाश्रोणा [तै० ब्रा० १. ५-१. ४, ५. २.९] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अन्तरयति-अन्तरेति [शत० ब्रा० १. २-२. १८; ४. २०, ३. १. १६] व्या० प्रा० अवहसित-ओहसिअ नयति- नेति [२४] बन्ने भाषामां संयुक्ताक्षरनी पूर्वनो दीर्घ स्वर हस्व संयुक्तनी पूर्वे ह्रस्व बोलाय छे. वै० सं० रोदसीमा- रोदसिप्रा [ऋ. सं. १०. ८८.१०] अमात्र-अमत्र [ऋ. सं० ३. ३६. ४] व्या० प्रा० मात्रा--मत्ता [२५] उभय भाषामा 'क्ष' 'छ' रूपे परिणमेलो छे. 'क्ष' नो 'छ' वै० सं० अक्ष-अच्छ [अथ० सं० ३. ४. ३.] व्या० प्रा० अक्षि-अच्छि [२६] बन्ने भाषामां अनुस्वारनी पूर्वनो दीर्घस्वर हस्व अनुस्वारनी पूर्वनो बोलाय छे. ह्रस्व वै० सं० युवाम् युवम् [ऋ. सं० १-१५-६] व्या० प्रा० मालाम् मालं देवानं देवानाम् Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] व्यापक 'विसर्ग 'नो 'ओ' पण 'ओ' कायम रहेलो छे. देवः पुनः आमुख ६३ प्राकृतमां साधारण रीते ' अ ' पछीना विसर्गनो 'ओ' बोलाय छे त्यारे वैदिक पदोमां 'अ' पछीना विसर्गनो 'ओ' थवानो संभव नथी त्यां व्या० प्रा० देवो पुणो वै० सं० सो चित् [ ऋ० ० पृ० १११२ म० सं०] सः चित् ऋ० सं० १- १९१-१०-११] संवत्सरः अजायत —– संवत्सरो अजायत [ ऋ० सं० १०१९०-२ ] उपप्रयन्तः अध्वरम्—उपप्रयन्तो अध्वरम् [ वै० प्र० ६-१११५] उरः अन्तरिक्षम्—उरो अन्तरिक्षम् [वै० प्र०६-१-११७] शिवासः अवक्रमुः — शिवासो अवक्रमुः [वै० प्र०६-१-११६] आपः अस्मान्- - आपो अस्मान् [वै० प्र०६ - १ - ११८] जुषाणः अग्निः -- जुषाणो अग्निः [ ] वृष्णः अंशुवृष्णो अंशु ] प्राणः अङ्गे– प्राणो अङ्गे [२८] बन्ने भाषामा संयुक्त व्यंजननो लोप थतां पूर्वस्वरनुं दीर्घ संयुक्तनो लोप थतां उच्चारण प्रचलित छे. पूर्वस्वरनी दीर्घता "" [ [बै० प्र० ६-१-११९] "" Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति व्या० प्रा० निःश्वासः—नीसासो दुर्भगः- दूहवो दुस्सहः—– दूसहो वै० सं० दुर्दभ———दूदभ दुर्लभ——दूळभ दुर्नाशदूनाश [ २९ ] बन्ने भाषामा केटलाक निपातोमां रहेलो हस्व स्वर दीर्घ निपातोमां दीर्घ बोलाय छे. [ शु० प्रा० ३-४३ ] उच्चारण प्रसुप्त - पासुत्त प्रकट- -पायड प्रसिद्धि – पासिद्धि वै० सं० एव एवा अच्छ तु —तू नु -अच्छा -नू घ- -घा मक्षु-मक्षू कुकू अत्र — अत्रा यत्र- -यत्रा व्या० प्रा० [ वा० सं० ३ - ३६ । ऋ० सं० ४-९-८] [ वै० प्र० ६-३-१३६ ] ] [ [ बै० प्र० ६-३-१३३ ] [ ] "" "" Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख निपात सिवाय बीजा शब्दोमां पण दीर्घ उच्चारणनो नियम बन्ने भाषामां अनियत रीते प्रवर्ते छे. वै० सं० पुरुषः पूरुषः [वै० प्र० ६-३-१३७ ] व्या० प्रा० परकीयं पारक चतुरन्तम् चातुरन्तं [३०] शब्दमा रहेला अक्षरोनो व्यत्यय, बन्ने भाषामां अक्षरव्यत्यय प्रवर्ते छे. वै० सं० निस्-कर्त्य-निष्टय [वै० प्र० ३-१-१२३ ] कृत्-कर्तुः-तकैः [निरुक्त पृ० १०१-१३] नमसा-मनसा [ऋ० वे० पृ० ४८९ म० सं०] तङ्ककः-कङ्कतः [" तकतेर्गत्यर्थस्य वर्णव्यत्ययेन कङ्कत इति ‘सरन्' भवति"-ऋ० वे० पृ० ११०९ म० सं०] व्या० प्रा० लघुक-हलुअ ललाट–णडाल-णलाड आलान-आणाल [३१] हेत्वर्थ कृदन्तनो सूचक प्रत्यय वैदिक प्रक्रियामां-तवे' छे त्यारे ए ज प्रत्यय व्यापक प्राकृतमां पण हेत्वर्थसूचक प्रत्यय सचवायेलो छे. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति लौ० सं० वै० सं० व्या० प्रा० कर्तुम् कर्तवे [वै० प्र० ३-४-९] कत्तवे-कातवे-करित्तए नेतुम् नेतवे निधातुम् निधातवे गणयितुम् गणेतुये द्रष्टुम् दृशे दक्खिताये 'एतुम्' ('इ' धातुनुं हेत्वर्थक) अर्थ माटे व्यापक प्राकृतमां 'एतसे' पद [पालिप्र० संकीर्ण क० कृ० पृ० २५८] सचवायेलुं छे ते, वैदिक प्रक्रियामां वपराता तुमर्थक ‘से,' 'सेन्' अने 'असे' प्रत्ययोवाळां रूपो साथे सरखाववा जेतुं छे. [वै० प्र० ३-४-९] ए ज प्रकारे अपभ्रंश प्राकृतमां तुमर्थे ' एवं' [है० व्या० ८-४४४१] प्रत्यय आवे छे, ते, वैदिक प्रक्रियाना तुमर्थक ‘तवे' 'तवै' के 'दृशे' रूपमा लागेला तुमर्थक अन्त्य 'ए' प्रत्यय साथे सरखावी शकाय एवो छे. [३२] मध्यम पुरुषना आज्ञार्थ सूचक एकवचनना प्रत्यय 'हि' __वा 'स्व' ने बदले अपभ्रंश प्राकृतमां 'इ' आज्ञार्थसूचक , अने 'ए' एवा त्रण प्रत्ययो आवे छे. मध्यम पुरुष एकवचन तेमांनो 'इ' प्रत्यय वैदिक प्रक्रियामां वपरायेला आज्ञार्थ मध्यम पुरुष एकवचन सूचक ‘बोधि' ( बोध् +इ) [ निरुक्त पृ० १०१ पं० ३] रूप ना 'इ' प्रत्यय साथे विशेष मळतापणुं राखे छे. [३३] सम्बन्धक भूतकृदन्तने सूचववा माटे व्यापक प्राकृतमा संबंधक भूतकृदंत नीचेनां रूपो वपराय छे. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख श्रुत्वा गृहीत्वा इष्ट्वा इष्ट्वीनं विप्लूय वियुत्य लौ० सं० व्या० प्रा० सुणित्वान गहाय त्यारे वैदिक प्रक्रियामां ते अर्थे वपरायेलां रूपो आ प्रमाणे छ : लौ० सं० वै० सं० [वै० प्र० ७-१-४८] पीत्वा पीत्वी [वै० प्र० ७-१-४९] गत्वा गत्वाय [वै० प्र० ७-१-४७] विप्लुत्य [वै० प्र० ६-४-५८] वियूय उक्त बन्ने प्रकारनां रूपोमां विशेष समानता नजरे आवे एम छे. वळी, अपभ्रंश प्राकृतमां [है० व्या० ८-४-४३९] ए अर्थमां वपरातो 'इ' प्रत्यय वैदिक 'पीत्वी' साथे मळतो आवे एवो भासे छे. संबंधक भूतकृदन्त सूचक वैदिकरूप [वै० प्र० ७-१-३८] 'परिधापयित्वा' साथे व्यापक प्राकृतनां ' उवसंकमित्ता' 'निझाइत्ता' 'आगमेत्ता' वगैरे रूपो स्पष्ट साम्य धरावे छे. [३४ ] व्यापक प्राकृतना 'ओसहीहि' रूपमा वैदिक ‘ओषधीभिः' [वै० प्र० ६-३-१३२ ] रूपनु बराबर 'भि' अने 'हि' [३५] व्यापक प्राकृतमां गच्छरे, विच्छुहिरे वगैरे रूपोमां त्रीजा पुरुष बहुवचन माटे 'रे' के 'इरे' प्रत्यय वपराय त्राजा पुरुष बहु छे ते वैदिक प्रक्रियामां आवता दुहे (दुहु+रे) वचन 'रे' प्रत्यय ' रूपना 'रे' साथे साम्य धरावे छे. [वै० प्र० ७-१-८] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्या " ] अम्हे यूयम् गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति [३६ ] नीचे जणावेलां वैदिक रूपो व्यापक प्राकृतनां रूपो साथे वैदिक रूपो अने बराबर सरखावी शकाय एवां छे. व्यापक प्राकृतनां रूपो लौ० सं० वै० सं० व्या० प्रा० पतिना [वै० प्र० १-४-९] पतिना-पइणा गवाम् गोनाम् [वै० प्र०७-१-५७] गोनं-गुन्नं युष्मासु युष्मे [वै० प्र०७-१-३९] तुम्हे अस्मभ्यम् अस्मे । युष्मे [ ] तुम्हे वयम् अस्मे ,, ] अम्हे त्रयाणाम् त्रीणाम् [वै० प्र०७-१-५३] तिनं, तिण्हं नावया [वै० प्र०७-१-३९] नावाय, नावाए देवेभिः [वै० प्र०७-१-१०] देवेहि इतरत् इतरं [वै० प्र०७-१-२६] इतरं [३७ ] भाषामा 'चतुराई,' 'भलाई,' 'पंडिताई,' 'मूर्खाई,' वगैरे शब्दोमां 'चतुर + आइ' एबुं पृथक्करण करी गुजरातीनो भाव शकाय. ए ऊपरथी एवं जणाय छे के प्रकृति वाचक 'आई' प्रत्यय 'चतुर' छे अने तेने भाववाचक 'आइ' प्रत्यय लागेलो छे. आ 'आइ' प्रत्ययनी मूळ प्रकृति 'ताति' रूपे वैदिक रूपोमां सचवायेली छे. वैदिक प्रक्रियामा जणाव्युं छे के “ भावे च" [वै० प्र०४-४-१४४] "भावे चार्थे छन्दसि विषये शिवादिभ्यः 'तातिल' प्रत्ययो भवति 'शिवस्य भावः शिवताति:" वेदोमां ए प्रत्यय 'शिव' 'शम्' अने 'अरिष्ट' शब्दोने लागेछे अने बीजा शब्दोने पण लागे छे-ज्येष्ठताति, सर्वताति. त्यारे लोकभाषामां ए प्रत्यय गुणवाचक शब्दमात्रने लागु घडतो भासे छे. 'ताति' नुं रूपांतर 'ताइ-आइ' लोकभाषामां ज السالسا لا لا لا لا لا नावा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख सचवायेलुं जणाय छे. व्यापक प्राकृतमां तो भाववाचक तरीके 'त्तन-तण, 'इमा' अने 'प्पण' प्रत्ययो वपराय छे. [३८] भाषामां 'केटलानो पगार छे' 'केटला वरसनो छोकरो छे' 'सो रुपियानो पगार छे' 'पांच वरसनो गुजरातीनो 'नो' ' छोकरो छे' ए बधामां 'केटलानो' 'वरसनो' प्रत्यय रुपियानो' पदोमां जे अन्त्य 'नो' छे ते स्पष्टपणे 'परिमाण' अर्थने बतावे छे. वेदोमां ‘पञ्चदशिनोऽर्धमासाः' 'त्रिशिनो मासाः' वगेरे प्रयोगो मळे छे. 'पञ्चदशिनः' एटले 'पंदर दिवसना'--'पंदर दिवसना परिमाणवाळा' अने ' त्रिंशिनः' एटले ‘त्रीश दिवसना परिमाणवाळा' एम परिमाण अर्थने सूचववा सारु दशान्त शब्दोने अने 'त्रिंशत्' वगेरे शब्दोने ‘इन्' प्रत्यय लगाडवो एम वैदिक प्रक्रिया कहे छे. [५-१-५८ ]. जेम वैदिक 'इन्' प्रत्यय परिमाणने सूचवे छे तेम 'केटलानो' 'वरसनो' वगेरे भाषानां पदोने लागेलो 'न' प्रत्यय परिमाण अर्थने बतावे छे. 'केटलानो'-केटली संख्याना परिमाणवाळो, 'सो रुपियानो' सो रुपियानी संख्याना परिमाणवाळो, एवा अर्थमां 'केटला' अने 'रुपिया' वगैरे शब्दोने लागेलो 'न' प्रत्यय मने भासे छे के वैदिक 'इन्' नो औरस छे. ए रीते जोतां 'केटलानो' वगैरे पदो षष्ठी विभक्तिवाळां छे के प्रथमा विभक्तिवाळां छे ? ए विचारणीय छे. वर्तमानमां तो 'केटलानो' वगैरे प्रयोगो बधी भाषामां षष्ठी विभक्तिवाळा मनाय छे. तो पण ए प्रयोगो खरेखर तेवा ज छे के 'परिमाण' दर्शक 'न' प्रत्ययवाळा छे ए जरूर शोधनीय खरं. [३९] व्यापक प्राकृतमां अनुस्वारवाळा केटलाक शब्दोनो अनु . स्वार लोप पामे छे. जेमके 'मांस' ऊपरथी 'मास.' मनुस्वारलोप - वैदिक प्रक्रियामां पण 'मांस' अर्थमां 'मास' शब्द वपरायेलो छे. [ वैदिक ग्रामर कंडिका ८३-१] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति [४०] व्यापक प्राकृतमा द्विवचन अने बहुवचननां रूपो एकसरखां बने छे. जिना, देवा, बुद्धा. वैदिक परंपरामां पण - ए बधां रूपो एकसरखां मळे छे. उभा, देवा, ... वचन नन्ता [ऋग्वेद पृ० १३६-६] इन्द्रावरुणा [ऋ० सं० ७-८२-१-५] मित्रावरुणा, या, सुरथां, दिविस्पृशा, अश्विना [वै० प्र० ७-१-३९] सृण्या वगैरे. व्यापक प्राकृतमा द्विवचननो प्रयोग समूळगो नथी. तेने बदले बहुवचननां रूपो वपराय छे. त्यारे वैदिक रूपोमां द्विवचन सूचवायेलुं छे, परंतु तेना केटलांक रूपो ऊपर जणाव्या प्रमाणे बहुवचन जेवां पण छे. [४१] “सुप्-तिङ्--उपग्रह–लिङ्ग-नराणां काल–हल–अच्-स्वर-कर्तृ-यां च । लिंग वगेरेनो विपर्यय व्यत्ययमिच्छति शास्त्रकृदेषां सोऽपि च सिध्यति बाहुलकेन॥"-वै० प्र०३-१-८५। अर्थात् लिंगनो विपर्यास जेवो वैदिक रूपोमा छे तेवो ज व्यापक प्राकृतमां छे. वैदिक प्रक्रियामां जणावेलुं छे के नामनी विभक्तिओनो, क्रियापदनी विभक्तिओनो, आत्मनेपद-परस्मैपदनो, लिंगनो, पुरुषोनो, कालनो, व्यंजनोनो, स्वरोनो, कारकोनो, कारकवाची प्रत्ययोनो-ए बधांनो वैदिक रूपोमां विपर्यास थाय छे. व्यापक प्राकृतमां पण आवो विपर्यास साधारण छे. [४२] लौकिक संस्कृतमां कर्तृसूचक 'तृन्' प्रत्यय वपराय छे, . तेने बदले व्यापक प्राकृतमा 'अणअ' प्रत्ययनो व्यव त्यय हार थाय छे. वैदिक रूपोमां पण ए तृन्' ने बदले 'अन' प्रत्यय वपरायेलो छे. ५० तंत्रवार्तिक पृ० १५७ ["आकारः छन्दसि' द्विवचनादेशः"]-आनंदाश्रम । ___ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख व्या० प्रा० मार + अणअ-मारणउ-मारकणो [है० व्या०८-४-४४३] बोल्ल+अणअ-बोलणउ-बोलकणो भस्+अणअ-भसणउ–भसकणो-भसनारो वै० सं० कव्यवाहन: - वह + अन = वाहन [वै० प्र०३-२-६५] पुरीषवाहनः [वै० प्र०३-२-६६] पुरीष्यवाहनः हव्यवाहनः [४३] लौकिक संस्कृतमां ह्यस्तन अने अद्यतन भूतकाळनां भतकालमा क्रियापदोनी आदिमां 'अ' मूकवानी पद्धति छ : आदिमां'अ' नो अभूत, अगमत् वगैरे. आ पद्धति केटलांक वैदिक अभाव रूपोमां नथी, तेम व्यापक प्राकृतमां पण नथी. लौ० सं० वै० सं० व्या० प्रा० अमथ्नात् मथीत् [ऋ० वे० पृ० ४६५ म० सं०] मथीअ अरुजन् रुजन् ,, ,, ४६४ , ] रुजीअ भूत् , , ४६५ ,,] भवीअ [४४ ] केटलांक बे पदो बच्चे प्राप्त थतो संधि वैदिक प्रक्रियामां संघिनो अभाव अने व्यापक प्राकृतमा य थतो नथी. वै० सं० व्या० प्रा० [वै० प्र० ६-१-१२६ ] ईषा + अक्षो विसम+ आयवो ] ज्या + इयम् वास + इसी [ " ] पूषा + अविष्टु साउ+ उअयं अभूत् ज्यान २० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति [४५] व्यापक प्राकृतना 'कुण-(कर) अने 'जिण् ' . (जितवु ) धातुचें मूळ वैदिक 'कृ'-(कर) केटलाक धातुओ ऋि० वे० पृ० २२६-२२७ म० सं०] 'जिन्'-- (जित) धातुमां छे. वैदिक 'जेन्य' [ऋ० वे० पृ० ४६५ म० सं०] पदमा उक्त 'जिन्' धातुनी हयाती छे. [४६ ] व्यापक प्राकृतमां इकारान्त, उकारान्त नरजातिक नामोने प्रथमाना बहुवचनमां एक ‘णो' प्रत्यय पण 'णो' प्रत्यय - लागे छे. ते ‘णो' प्रत्यय प्रथमा बहुवचनना वैदिक रूप 'अत्रिण' मां उपलब्ध छे. लौकिक संस्कृतमां 'अत्तारः' अने वैदिकमां ' अत्रिणः' थाय छे. वेदभाष्यकार लखे छे के “तृजन्तस्य 'अत्तु' शब्दस्य जसः छान्दसः 'इनुड्' आगमः"-[३० वे० पृ० ११३-५ सूत्र. मेक्स० ] [४७] व्यापक प्राकृतमां केटलांक पदो विभक्ति विनानां पण चाले छे तेम वैदिक प्रक्रियामां पण प्रयोगो प्रवर्ते छे. वै० सं० व्या० प्रा० [वै० प्र० ७-१-३९] आर्दै चर्मन् (सप्तमी) बहुशत शाकियानां [ , ] लोहिते चर्मन् ( ,,) संगीति योजयेथा [ , ] परमे व्योमन् ( ,, ) ईदृश ते निमित्ता [३० वे० पृ० ४६४ म० सं०] वीळु (द्वितीया ) धरणि कंपयमान [ , ] दळ्हा (,) गय (गजानाम् ) [, ४७२] अभिजु (,) एइ (एते) J - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख [४८] व्यापक प्राकृतमा 'प्रतिदिन' अर्थमां 'दिविदिवि' शब्द वपरायेलो छे ते वैदिक · दिवेदिवे ' नुं स्पष्ट दिवेदिव अनुकरण छे. " वासु महारिसि एउ भणइ जइ सुइसत्थु पमाणु । मायहं चलण नवन्ताहं दिविदिवि गङ्गाहाणु" ॥है०व्या०८-४-३९९. वै० सं० "दधासि श्रवसे दिवेदिवे" " दिवेदिवे प्रतिदिनम्"-वेदभाष्यकार [ऋग्वेद-पृ० २२७ -महाराष्ट्र वैदिक संशोधन मंडळ ] [४९] तळपदी गुजरातीमां 'आ' के 'ए' ना अर्थमां 'ई' शब्द .., आजे पण वपराय छे. तेम वैदिक भाषामा 'आ' के. गुजराती 'ई' * 'ए' ना अर्थमा 'ई' शब्द वपरायेलो छे. गु० प्र० वै० सं० ई, ईने, ईणे, ईर्नु, "मथीत् यत् ईम्".-ईम्-एने. " ईम् एनम् अग्निम्" -वेदभाष्यकार [ऋग्वेद पृ० ४६५ म० सं०] " महे यत् पित्रे ई रसम्"-ईम्-आने. " महे महते, पित्रे पालयित्रे, ईम्-इमम्" वेदभाष्यकार [ऋग्वेद पृ० ४६६ म०सं०] Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति [५० ] व्यापक प्राकृतमा जे जे विधानो अकारान्त नामोने अकारांत अने माटे कों होय छे ते विधानो अकारान्त सिवायनां अकारांत सिवायनां नामोने पण लागु पडे छे. आवी व्यवस्था वैदिक समान विधान प्रक्रियामां सचवायेली छे. व्यापक प्राकृतमां अकारान्त नामोने माटे त्रीजीना बहुवचनमां 'हि' प्रत्ययनुं विधान छे. ते 'हि' प्रत्यय अकारान्त नामो सिवायनां नामोने पण लागे छे. ए ज रीते अकारान्त नामोने माटे विहित थयेलो त्रीजीना बहुवचननो ‘ऐस्' प्रत्यय वैदिक प्रक्रियामां ईकारान्त नामोने पण लागे छे. जेमके-" नद्यैः” [७-१-१० पाणि० काशिका ] [५१] व्यापक प्राकृतमा 'कुह' अव्यय 'क्यां' अर्थमां अने . नं' अव्यय उपमा अर्थमां वपराय छे. वेदनी 'कुह' अने 'न'नो " भाषामां पण 'कुह' [ऋ० वे० पृ० ७३३ म० - सं०, निरुक्त पृ० २२०] 'क्यां' अर्थमां अने 'न' उपमा अर्थमां आवे छे [ऋ० वे० पृ० ४६०-४६२-५२८-म० सं०] उक्त प्रकारे जणावेलां अनेक उदाहरणो द्वारा एम सिद्ध करी शकाय एवं छे के व्यापक प्राकृतना प्रवाहनो सीधो संबंध वेदोनी जीवती मूळ भाषा साथे ज छे. नहीं के जेनुं स्वरूप पाणिनि प्रभृति वैयाकरणोए निश्चित कर्यु छे एवी लौकिक संस्कृत साथे. ४२ उपर्युक्त मत सिद्धरूप छे छतां जे कोई व्यापक प्राकृतनो सीधो संबंध लौकिक संस्कृत साथे साधवा प्रयत्न व्यापक प्राकृतमा करे तेने एम पूछवं जोईए के उक्त वैदिक उदाहजीवती वैदिक रणोमां जणावेला ते ते प्रयोगो लौकिक संस्कृतमां भाषानुं प्रतिबिंब मुद्दल नथी अने व्यापक प्राकृतमां तेनुं प्रतिबिम्ब प्रयोग Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ७५ तो मळे छे तो ए प्रतिबिम्ब व्यापक प्राकृतमां क्याथी आव्यु-बीजी कई भाषामांथी आव्युं ? विचारशील अभ्यासी स्थिरपणे मनन करशे तो स्पष्टपणे जाणी शकशे के व्यापक प्राकृतमा जेमनुं प्रतिबिम्ब छे ते बधा प्रयोगो वेदोनी ए समयनी जीवती मूळभाषामां ज हता, अने ते द्वारा ज ते प्रयोगोनो प्रवाह व्यापक प्राकृतमां भारोभार ऊतो. जे भाषामां ए प्रयोगोनुं अस्तित्व ज नथी एवी लौकिक संस्कृतना प्रतिबिंबरूपे व्यापक प्राकृतने केम कही शकाय? ___ वळी, आर्योना ए प्रारंभिक समयमां आर्योमां जीवती वैदिक भाषानो ज प्रचार हतो. ए सिवाय बीजी कोई भाषा लौकिकभाषारूपे आदरपात्र नहीं बनेली एथी अर्थात् एम सिद्ध थयु के वेदोनी जीवती भाषाना ज परिणामान्तररूप व्यापक प्राकृत नीपजेलुं छे. ४३ वेदोनुं अध्ययन करतां चोक्खं जणाय छे के वैदिक भाषानो . प्रवाह डगले ने पगले जेम व्यापक प्राकृतमा देखाय तळपदी गुजराती छे तेम तळपदी गुजरातीमां पण क्वचित भळेलो ए अने जीवती वैदिक भाषा प्रवाह अछतो नथी रहेतो. ए हकीकत बे एक प्रयोगो द्वारा ऊपर बतावी दीधी छे. मने तो चोकस खात्री छे के वेदोन. फक्त भाषादृष्टिए विशेष गंभीर अध्ययन करवामां आवे तो आर्यावर्तनी तळपदी भाषाओमां अने अनार्यभाषाओमां पण वैदिक भाषानो सचवायेलो प्रवाह जड्या विना नहीं ज रहे. प्रस्तुतमां तो मारो उद्देश वेदोनी जीवती भाषा अने व्यापक प्राकृत भाषा ए बे वच्चेनी सांसर्गिक सांकळ बताववा पूरतो हतो, तेथी तळपदी गुजरातीमां सीधा ऊतरेला वैदिक भाषाना प्रवाह संबंधे विशेष उदाहरणो शोधीने मूकी शक्यो नथी, परंतु ए कार्य करवा जq तो अवश्य छे. ___ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ४४ केटलाक प्राचीन वैयाकरणोए “प्रकृतिः संस्कृतम्-तत्र भवम् 'प्रकृतिः संस्कृतम्' । ., तत आगतम् वा प्राकृतम् ” एम कहीने प्राकृत वाक्यना अर्थनी भाषानी जननी तरीके संस्कृतने मूकी छे. संगतता अने 'प्राकृत' शब्दनो तेओए बतावेलो उक्त अर्थ असंगतता करीते संगत थई शके अने बीजी अपेक्षाए संगत न थई शके एवो छे. प्राकृतना मूळरूपे बतावेला 'संस्कृत' शब्दनो अर्थ 'वेदोनी जीवती संस्कृत' एवो करवामां आवे तो 'प्रकृतिः संस्कृतम्' व्युत्पत्ति संगत थाय खरी. परंतु 'प्रकृतिः संस्कृतम्' ना 'संस्कृत' पदनो 'पाणिनि वगैरे वैयाकरणोए जेनुं बंधारण घड्युं छे एवी परिमार्जित संस्कृत' एवो अर्थ तेमणे विवक्षित को होय तो भाषातत्त्वना विकासनी दृष्टिए तद्दन असंगत ४५ आ विशे विशेष मनन करतां मने एम लागे छे के ज्यारे ते ते प्राकतने प्राकृत व्याकरणोनी रचना थई त्यारे भणेलागणेला समझाववा वर्गमां अत्यारे जेम अंग्रेजीनुं छे तेम संस्कृत भाषानुं संस्कृत वाहनरूप प्राबल्य हतुं अने लोकोमा प्राकृत ज चालु हतुं. छ लोकोमा बोलातुं जीवन्त प्राकृत अने साहित्यिक प्राकृत ए बे वच्चे वर्तमानमां भणेलागणेलाओनी भाषा अने गामडियानी भाषा वच्चे जेवं अन्तर वर्ते छे तेवं अंतर प्रवर्तमान हतुं. एवे समये प्राकृतभाषाना शब्दोनी व्युत्पत्तिने समझवा सारु तुलनात्मक दृष्टिए प्राकृत व्याकरणनी घटनामां वाहन तरीके परिमार्जित संस्कृत भाषानो उपयोग को होय अने ते बताववा ते ते वैयाकरणोए 'प्रकृतिः संस्कृतम्' लख्यु होय तो ए बनवाजोग छे अने संगत पण छे. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख महर्षि पाणिनिए अष्टाध्यायी रची, तेमां लौकिक संस्कृतने लगतां ज विधानो कर्या, बच्चे बच्चे "छन्दसि बहुलम् " " छन्दसि उभयथा " एवां वैदिक विधानो पण मूक्यां. पाणिनि कोई पण विधान करती वखते प्रथम लौकिक संस्कृतने लगतुं विधान करे छे अने पछी खास फेरफार बताववा वैदिक विधानने मूके छे. आनो अर्थ एवो नथी के वैदिक भाषानी प्रकृतिरूप लौकिक संस्कृत भाषा छे अथवा लौकिक संस्कृत भाषामांथी वैदिक भाषा जन्मी छे, ए तो शब्दोनी परस्पर तुलनात्मक परीक्षामाटे अमुक भाषाने वाहनरूपे राखवी आवश्यक छे, दृष्टि ज पाणिनिए वेदोनी भाषानुं व्याकरण बनाववा माटे लौकिक संस्कृतने अग्रस्थान आप्युं छे. जेम 'वैदिक' ने समझाववा संस्कृत वाहनरूप छे G ४६ पाणिनिए वेदोनी भाषानुं व्याकरण प्रथम रच्युं होत अने त्यार पछी ज लौकिक संस्कृतमां थता विशेष फेरफारो पाणिनिना सम- दर्शाव्या होत तो ए, भाषातत्त्वना क्रमविकासनी यनो शिक्षितवर्ग दृष्टिए वधारे उचित थात. परंतु एमना समये संस्कृतप्रिय वेदोनी भाषा जीवती न हती अने एमना वखतनो भोगणेलो समाज खास करीने याज्ञिक समाज लौकिक संस्कृतो विशेष पक्षपाती हतो. तेमणे ए भणेला वर्गनी रुचि तरफ लक्ष्य राखीने पोताना व्याकरणमा लौकिक संस्कृतने प्रथम स्थान आप्युं छे अने बीजुं स्थान वैदिक भाषाने माटे राख्युं छे. तात्पर्य ए के पाणिनिए वैदिकभाषानी पद्धति समझाववा माटे लौकिक संस्कृतने वाहन तरीके वापर्यु छे, तेम प्राकृतभाषाना व्याकरणोने बनावनारा ते ते आचार्योए तुलनात्मक दृष्टिए प्राकृतभाषानी रचनाने समझाववा सारु ज लौकिक संस्कृतने वाहन तरीके , Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति योज्युं छे. परंतु 'प्राकृतनी माता लौकिक संस्कृत छे' एवं समझीने ' प्रकृतिः संस्कृतम्' एवं कहेलुं नथी. ७८ ४७ अत्यारे कोई अंग्रेजने तुलनात्मक पद्धतिथी संस्कृत शिखववा माटे कोई शिक्षक एवी पद्धति योजे के : अंग्रेजी. श्री बोय केमल ओक्स इझू बी नाइन् टेन् 4 संस्कृत. त्रि पोत क्रमेलक उक्षन् अस् भू नवन् दशन् तरु गु० अ० (त्रण) ( छोकरो ) ( ऊंट ) (बळद ) ( छे ) ( होवुं ) ( नव ) (दस) ( झाड ) तो आ पद्धतिनो अर्थ एवो नथी के संस्कृतनी प्रकृति अंग्रेजी भाषा छे, परंतु शीखनारने जे भाषा आवडे छे ते भाषाने वाहनरूपे राखीने जेम उक्त रीते अंग्रेजी मारफत संस्कृत शिखववुं सरळ पडे छे तेम भणेला लोकोमां ज्यारे संस्कृत भाषानो प्रभाव प्रबळ हतो, ते समये तेमने जे भाषा तरफ विशेष आकर्षण होय अने तेमने जे भाषा वधारे अभ्यस्त होय ते भाषाने वाहन तरीके राखीने बीजी कोई भाषा शिखववी वधारे सरळ थाय छे. एटले हुं समझुं छं त्यांसुधी ए दृष्टिए ज प्राकृतव्याकरणना रचना ओए ' प्रकृतिः संस्कृतम्' कहेलुं छे. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ४८ आजे इतिहासनी दृष्टिने प्रधानपणे राखीने भाषातत्त्वना विकास - संबंधे पण आपणे विचारता थया छिए तेम आपणा भाषातत्त्व अने । पूर्वजोमां कोई पण तत्त्व संबंधे इतिहासदृष्टिनो विशेष इतिहासदृष्टि " ख्याल न हतो अने भाषातत्त्वना विकास विशे तो तेमणे ए ख्याल भाग्ये ज राखेलो. एटले तेमणे पोतपोतानां व्याकरणोमां आदेशोनी पद्धति स्वीकारी छे. परंतु कोई पण शब्द वा तेनां रूपोने तेओए शब्दविज्ञाननी दृष्टिए साधी बताव्यां नथी छतां तेमां ... जाण्ये अजाण्ये शब्दविज्ञाननी दृष्टि तो जळवायेली छे. आदेश अने स्थानी "" अने एम छे माटे ज तेमणे "आदेशः स्थानी इव" एबुं विधान करेलुं छे. 'दधि-अत्र' शब्दना संहितावाळा प्रयोगमा तेओ 'इ' ने 'य' ना रूपमा थवानुं कहे छे. पण 'व' रूपमा थवानुं कहेता नथी. एमां ज तेमनी शब्दविज्ञाननी दृष्टि मालूम पडे छे. परंतु ए दृष्टि पाछळना इतिहास विशे तेमनी उपेक्षा हती एटले तेओ, ए अने एवां बीजां अनेक परिवर्तनोने शब्दविज्ञाननी दृष्टिए घटावी शक्या नथी. __ आ रीते शब्दविज्ञाननी दृष्टिना अभावने लीधे तेओए आदेशो करवामां य ' आदेशः स्थानी इव' नुं पोतानुं विधान शब्ददृष्टिए तोडी" नात्यु छे अने सरळ उपाय समझीने 'प्रकृतिः संस्कृतम्' नो उल्लेख करेलो छे. ५१ दधि + अत्र-दध्यत्र. आ प्रयोगमा 'दधि' नो अन्त्य 'इ' स्थानी छे अने तेने स्थाने थयेलो 'य' आदेश छे. 'इ' अने 'य' वच्चे उच्चारणस्थाननी अपेक्षाए समानता छे: 'इ' तालव्य छे अने 'य' पण तालव्य छे, एम ए बे वर्णो वच्चे समानता छे तेथी तेमनी वच्चे 'आदेश' अने 'स्थानी' नो संबंध घटमान छे. एज रीते ज्यां ज्यां जे बे स्वरो, व्यंजनो, स्वर-व्यंजनो के शब्दो वचे उच्चारणस्थाननी, अक्षरानुपूर्वीनी के एवी ज बीजी कोई प्रकारनी समानता होय त्यां ज 'आदेश' अने 'स्थानी' नो संबंध घटी शके छे. आ जातनो समग्र Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति वैयाकरणोनो-सिद्धांत छे. अने आ ज सिद्धांत शब्दविज्ञानशास्त्रनी दृष्टिए पण सुसंगत छे. उक्त सिद्धांत समग्र वैयाकरणोने संमत छे, छतां य अनेक प्रयोगोनी निष्पत्ति करतां तेओए ए सिद्धांतने तोडी नाख्यो छे. . नीचेनां केटलांक उदाहरणोथी ए वात समझी शकाय एम छे: स्थानी आदेश अन्तिक पा० ५।३।६३ बाढ साध पा० ६।४।१५७ युव पा० ५।३।६४ नेद वृद्ध कन अल्प कन S प्रशस्य पा० ५।३।६० प्रशस्य पा० ५।३।६१ वृद्ध पा० ५।३।६२ अपर पश्व पा० ५।३।३२ पश्य पा० ७३१७८ आह पा. ३१४।८४ यच्छ पा० ७॥३१७८ धाव पा० ७३१७८ हेम० ८।४।१ कथ वज्जर बुभुक्ष णीरव ,, ८।४।५ ८१४२० तुल ओहाम , ८।४।२५ अब्भुत्त " ८।४।१४ ऊपर जे जे शब्दो स्थानीरूपे अने आदेशरूपे जणावेला छे तेमां कोई पण प्रकारनी समानता नथी. 'अन्तिक' अने 'नेद' वा 'स्ना' अने 'अब्भुत्त' एमनी वच्चे कोई प्रकारनी समानता नथी ए देखीतुं ज छे. बोल्ल णिज्झर स्ना ___ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ८१ ४९ जो के बहुमत तरीके 'प्रकृतिः संस्कृतम्' वाळी वात छे. तो पण पालिव्याकरणना प्रणेता कच्चायणे पालिभाषाने 'पालि ' भाषा माटे समझाववा वाहन तरीके 'पालि' भाषाने ज राखी 'पालि' वाहन छे. अने प्रकृतिरूपे पण 'पालि' भाषाने ज वापरी छे. एटले 'पालि ' भाषा माटे ' प्रकृतिः संस्कृतम्' नुं कथन सर्वथा असंगत छे. परंतु कञ्च्चायणे ए पद्धति स्वीकारी एथी एनो अर्थ एवो तो नीज के पालिभाषा कांइ अद्धरथी आवी गई छे. वा ए अनादि काळथी एवी ने एवी ज चाली आवे छे. भाषाविज्ञाननी दृष्टिए जोनार प्रत्येक अभ्यासी एम समझी शके एवं छे के ए भाषा पण मूळ वैदिक जीवती भाषाना प्रवाहमांथी ऊतरेली छे. 'प्रकृतिः संस्कृतम्' लखनाराओमां जेम भाषाविज्ञाननी दृष्टि नथी तेम 'पालि' ने अप्रकृतिक समझनार कच्चायणमां पण ए दृष्टि न हती ए स्वीकार्या सिवाय आज तो चाले तेम नथी. ५० वळी, " प्रकृति: संस्कृतम्” नो अर्थ असंगत जेवो लागवाथी केम जाणे रुद्रटना टीकाकार श्रीनमिसाधुए 'प्राकृत ' प्रकृतिः संस्कृतम् शब्दनुं निर्वचन तद्दन जुदी रीते बताव्युं छे. ते विशे रुद्रटनो जणावे छे के - " सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरटीकाकार नाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः तत्र भवम् सैव वा प्राकृतम् × × × वा प्राक् पूर्वं कृतं प्राकृतम् बालमहिलादिसुबोधम् सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते मेघनिर्मुक्तजलमिव एकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितविशेषं सत् संस्कृताद्युत्तरविभेदान् आप्नोति। अत एव शास्त्रकृता प्राकृतम् आदौ निर्दिष्टम् तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते " रुद्रटना काव्यालंकारमां ( २, १२ ) नीचेनो श्लोक मळे छे Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति प्राकृत- संस्कृत-मागध - पिशाचभाषाश्च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषाद् अपभ्रंशः ॥ " (( 6 आ श्लोकमा प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी अने छट्ठी अनेकमेदवाळी अपभ्रंश एम छ भाषानां नाम गणाव्यां छे. तेमां सर्वथी प्रथम ' प्राकृत' नो उल्लेख छे. ग्रंथकार लौकिकसंस्कृतनो उद्भट विद्वान होईने तेनो ज पक्षपाती होय ते बनवाजोग छे, छतांय तेणे बधी भाषाओमां ' प्राकृत' ने ज अग्रस्थान शा माटे आप्युं छे ? एनो खुलासो आपवा श्रीनमिसाधुए ' प्राकृत' शब्दनां पूर्वोक्त बे निर्वचनो कर्यां छे, तेमां पहेलामां बतान्युं छे के - स्वाभाविक वचनव्यापारनुं नाम ' प्रकृति' छे. जे उच्चारणो सहेजे सहेजे नीकळे छे, जेमनी ऊपर व्याकरण वगैरे भाषासंबंधी शास्त्रो संस्कारनो ओप नथी चडाव्यो एवां उच्चारणो ' प्रकृति ' कहेवाय. जे भाषानो देह एवां उच्चारणोथी घडायो छे ते भाषानुं नाम प्राकृत अथवा एवां उच्चारणो द्वारा जे भाषा नीपजी छे ते 'प्राकृत भाषा कहेवाय. बीजा निर्वचनमां 'प्राक् + कृत' एवा बे शब्दोद्वारा ' प्राकृत' शब्द नीपजाव्यो छे अने एनो अर्थ 'जे सर्वथी प्रथम करेलं होवाथी बधी भाषाओनुं कारणरूप छे तेनुं नाम प्राकृत एम बताव्यो छे. पहेला निर्वचनमां जे अर्थ कह्यो छे ते ज अर्थ आ बीजामां बताव्यो छे. मारा नम्र मत मुजब पहेलुं ज निर्वाचन विशेष योग्य छे. जो के पहेला अने बीजाना भावमां खास भेद नथी छतां ' प्राक् + कृत' मांथी प्राकृत शब्द नीपजाववो ए करतां 'प्रकृति' मांथी नीपजाववो विशेष संगत छे तेथी पहेला निर्वचन तरफ मारो पक्षपात छे. प्राकृत शब्दनो जे अर्थ आगळ बतावी गयो धुं ते अने उक्त नमिसाधुए प्राकृतनो जे अर्थ समझाव्यो छे तेमां लेश पण भेद नथी, माटे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख मारा नम्र कथन प्रमाणे 'प्रकृतिः संस्कृतम्' ने बदले 'प्रकृतिः स्वभाव! अर्थ ज भाषाना प्रस्तावमा उचिततम छे. ५१ यायावरीय कविराज राजशेखर कहे छे“ यद् योनिः किल संस्कृतस्य सुदृशां जिह्वासु यद् मोदते ___ यत्र श्रोत्रपथावतारिणि कटुर्भाषाक्षराणां रसः। राजशेखरनी प्राकृत-भक्ति __ गद्यं चूर्णपदं पदं रतिपतेस्तत् प्राकृतं यद्वचः तान् लाटान् ललिताङ्गि! पश्य नुदती दृष्टेनिमेषत्रतम्"। -(बालरामायण ४८-४९) आ श्लोकनुं तात्पर्य ए छे के–“जे भाषा संस्कृतनी जननी छे, स्त्रीओनी जीभ ऊपर रमे छे अने जेने सांभळ्या पछी बीजी भाषाना अक्षरो कर्णकटु लागे छे तेवी प्राकृत भाषाने लाटना लोको बोले छे." राजशेखरनी समझ प्रमाणे संस्कृत भाषा, प्राकृतमांथी आवी छे. कविनी ए समझमां मने तो प्राकृत भाषा तरफ कविनी विशेष भक्ति ज मालूम पडे छे. परंतु भाषाविज्ञाननी दृष्टिए जोतां प्राकृतभाषामाथी संस्कृत भाषा आवी छे एबुं कही शकाय एम नथी. अहीं ए याद राखवू जोईए के 'संस्कृत' शब्दथी कविनी विवक्षा लौकिक संस्कृतनी छे. लौकिक संस्कृतनी घटना अने साहित्यमा विद्यमान व्यापक प्राकृतनी घटना वच्चे कार्यकारणमां होय तेवू साम्य देखातुं नथी; एथी एम केम कही शकाय के प्राकृत ऊपरथी संस्कृत भाषा आवी छे ? ५२ विक्रमना आठमा सैकानो महापंडित वाक्पतिराज पोताना वाकविराजती प्राकृत काव्य 'गउडवहो'मां जणावे छे के:प्राकृत-भक्ति " सयलाओ इमं वाया वसंति एत्तो य णेति वायाओ। एंति समुहं चिय ऐति सायराओ च्चिय जलाई ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति णवं अत्थदंसणं संनिवेससिसिराओ बंधरिद्धीओ अविरलं इणमो आभुवणबन्धं इह णवर पययम्मि ॥ -(गउडवहो पृ० २८-२९ गा० ९२-९३) "जेम मेघनां पाणी समुद्रमां पडे छे अने फरी पाछां समुद्रमाथी बहार नीकळे छे तेम बधी भाषाओ प्राकृतमा समावेश पामे छे अने प्राकृतमांथी बहार नीकळे छे. ९२. नवा नवा अर्थोनी घटना, नवा नवा बंधोनी रचना वगैरे ए बधं ज्यारथी सृष्टि सर्जाई त्यारथी एक मात्र प्राकृत भाषामां सुलभ छे. ९३. 'पायय' अने ‘पयय' ए बन्ने शब्दो 'प्राकृतभाषा'ना सूचक छे. उक्त गाथामां कविए ‘पयय' शब्द प्रयोजेलो छे. गाथानो अर्थ जोतां कवि, प्राकृतभाषा तरफ पोतानी प्रबल भक्तिने सूचवतो होय एवं भासे छे. परंतु कविना ए कथनमां शब्दविज्ञाननी दृष्टि होय एम जणातुं नथी. अथवा विवरणकारना कथन प्रमाणे कविए अहीं 'प्राकृत' शब्दनो उपयोग 'शब्दब्रह्म' माटे को छे अने ते द्वारा एम सूचव्युं छे के सर्व भाषाओ ए 'शब्दब्रह्मनी विकृतिरूप छे. कविना ए सूचनमां पण भाषाने लगती वैज्ञानिक दृष्टि करतां ‘शब्दब्रह्म'नी विशेष भक्ति ज तरी आवे छे. ५३ निष्कर्ष ए आव्यो के वेदोनी ऋचाओमां सचवायेली जे भाषानो नमूनो आपणी सामे छे ते भाषा ज्यारे लोकोनी आदिम प्राकृत अने बोलचालनी हती अने बोलचालनी होवाने लीधे जे लौकिक संस्कृत - वञ्चेनो भेद - आपोआप परिवर्तनो पाम्ये जती हती, जेने संस्कारवा खास कोइ प्रयत्न नथी थयो एवी आबालगोपाल सुधी प्रसरेली भाषा ते आदिम प्राकृत वा व्यापक प्राकृत. अने ए ऋचाओनी भाषाना अने उक्त आदिम प्राकृतभाषाना प्रयोगोने ध्यानमा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ८५ लई संस्कृतभक्तोनी दृष्टिए जे प्रयोगो शुद्ध जणाया तेमने तेमांथी लौकिक संस्कृतनी घटना करनाराओए वीणी, जुदा तारवी, भाषानी जे संकलना करी तेनुं नाम लौकिक संस्कृत भाषा. ५४ धारो के हजारो वर्षोथी बंध पडेली एवी रत्नोनी एक मोटी वखार होय, तेमां घाटघुट विनानां अने चित्रविचित्र वर्णवाळां ए माटे रत्नोनी अनेक प्रकारनां रत्नो भरेलां होय, तेमांथी साधारण वखारनुं उदाहरण लोको ए घाट विनानां रत्नो लई पोतानुं काम चलावे अने बीजा केटलाक लोको तो ए चित्रविचित्र रत्नोने पण ओपीओपीने पोताना काममां ल्ये एटले एनो अर्थ एम तो न ज थाय के पेलां घाटघुट विनानां रत्नोमाथी ए ओपेलां रत्नो नवां ज नीपज्यां छे. ए न्याये अहीं लौकिक संस्कृतनी घटना करनारा ओए पोताने गमी गयेल प्रयोगोने वीणवानी दृष्टिए ( लौकिक संस्कृतनी घटना करवामां ) आदिम प्राकृतनो उपयोग कर्यो होय, एटला मात्रथी कांई एम न कही शकाय के प्राकृत भाषा संस्कृतनी जननी छे. खरी रीते तो आदिम प्राकृत अने लौकिक संस्कृत ए बे प्रवाहो जुदा जुदा वह्या छे तो पण ते बन्नेनुं मूळ कोई एक प्रवाहमां छे एमां शंका नथी अने एम छे माटे ते बन्ने प्रवाहोना शब्ददेहनी घटना अने विद्यमान वैदिक शब्ददेहनी घटना परस्पर आश्चर्यकारक रीते मळती आवे छे. ५५ व्यापक प्राकृत अने वैदिक भाषा ए बन्ने वच्चे गाढ संबंध छे एटले तेनो अर्थ एवो नथी ज के व्यापक प्राकृत अने लौकिक संस्कृत वच्चे को संबंध नथी. ए बन्ने एक प्रवाहमांथी नीकळेली होवाथी मादीकरी नथी पण बे बहेनो छे. लौकिक संस्कृतनुं क्षेत्र परिमित होवाथी ते नानी बहेन छे अने प्राकृतनुं क्षेत्र विशाळ होवाथी ते मोटी बहेन छे. बे बहेनोमां जेवो Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति स्नेहसंबंध होय छे तेवो संबंध ए बे भाषा वच्चे छे. वर्तमानमां तो नथी बोलाती प्राकृत तेम नथी बोलाती संस्कृत. परंतु बन्ने भाषानुं विपुल साहित्य उपलब्ध छे, ए ऊपरथी ए बे बहेनो जेवी भाषाओ वच्चेनो संबंध समझी शकाय एम छे. मोटी बहेन जेम नानी बहेनने पोतानां अलंकारो आपी शोभावे छे तेम प्राकृत भाषाए पोतानां मृदु आभूषणोथी नानी बहेन संस्कृतने मंडनयुक्त करी छे. व्यापक प्राकृत अने लौकिक संस्कृत ए बन्ने बहेनो छे. " ५६ नीचे जणावेलां थोडां उदाहरणो द्वारा आ बाबत स्पष्ट थशे : [१] संस्कृत साहित्यमां 'साळा' अर्थमां 'स्याल' - अने 'स्याल' बन्ने शब्दोनो उपयोग छे. आ विशे विशेष गवेषणा करतां जणाय छे के 'स्याल " श्याल शब्द मूळरूप छे अने " शब्द तेनुं बीजुं उच्चारण छे. ऋग्वेदमां "अश्रवं हि भूरिदाववत्तरा वां विजामातुरुत वा घा स्यालात् ” [ ऋग्वेद पृ० ६६१ - सू० २] ए मंत्रमां 'स्याल' शब्दनो प्रयोग छे. निरुक्तमां पण उक्त मंत्रमां छे तेवा 'स्याल' शब्दनुं निर्वचन आप्युं छे. नानी बहेन संस्कृत ऊपर मोटी बहेन प्राकृतनी प्रबल असरनां उदाहरणो 'स्याल' अने 'श्याल' ५२ प्रस्तुतमां वपरायेलो 'प्राकृत' शब्द तेना 'अमुक प्रकारनी भाषा' एवा रूढार्थनो द्योतक छे. 'प्राकृत' नो व्युत्पत्त्यर्थं तो 'स्वाभाविक भाषा - प्रचलित लोकभाषा' एवो थाय छे परंतु ते अर्थ अहीं विवक्षित नथी. " 'प्राकृत वाणी वदुं " वाक्यमा प्राकृत शब्दनो रूढार्थ नथी परंतु व्युत्पत्त्यर्थ छे माटे ज ए वाक्यमां वपरायेलो 'प्राकृत' शब्द गुजराती भाषाने पण सूचवे छे. ए ५३ 'स्याल' नुं निर्वचन आ प्रमाणे छे. ८८ 'स्यात् लाजान् आवपति — इति वा " ' स्यम्' इति 'सूर्पम् ' उच्यते तस्माद् असौ गृहीत्वा कन्यकाया भगिन्या विवाहकाले लाजान् भृष्टधान्यान् आवपति Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख मागधी प्राकृतमां ‘ स्’ नुं ' श्' उच्चारण प्रवर्ते हे. एटले मागधी प्राकृतना सहवासने लीचे 'स्याल 'नो 'श्याल' थयो अने पछी तो ए बन्ने शब्दो लौकिक संस्कृतमां यथेच्छ विहरवा लाग्या अने कोशकारोए पण ए बन्नेने संस्कृतना शब्दो समझीने कोशमां स्थान आप्युं. केटलाक कोशोमा 'श्याल 'नो ज निर्देश छे. त्यारे केटलाकमां बन्नेनो निर्देश छे. 'श्यालाः स्युर्भ्रातरः पन्याः” (अमर० कां० २, श्लो० ३२, मनुष्यवर्ग ) " पितृव्य-श्याल- मातुला : (हैम० कां० ३, श्लो० २१६ ) " स्यालस्तालव्यदन्त्यादिः पन्या भ्रातरि कथ्यते " - श्लो० १४६ ) 46 "" - ( शब्दर० कां० ३, 'सूर्प' बन्ने शब्दो निरुक्तमां५४ ' शूर्प 'नो [२] ' सूपडुं' अर्थना सूचक 'शूर्प' अने संस्कृत साहित्यमां मळे छे. शूर्प अने सूर्प निर्देश छे, एथी ते शब्द प्राचीन होय एम भासे छे. अने 'शूर्प' ऊपरथी साधारण प्राकृतनी असरने लीधे 'सूर्प' शब्द आव्यो जणाय छे. साधारण प्राकृतमां 'श' अने 'ष' ए बन्नेने बदले एकलो 'स' ध्वनि ज निरपवाद रीते प्रवर्ते छे. कोशकारो ए बन्ने शब्दोने नोंघे छे. “ सूर्पं तालव्यदन्त्ययुक् ” – ( शब्दर० कां ० ४, श्लो० ५८ ) कोशकारे उद्देश्यरूपे 'सूर्प 'नो निर्देश कर्यो छे छतां विधेयमां प्रथम 'शूर्प ' ने नोंघेलो छे ए संवादक ध्यानमा राखवा जेवुं छे. , प्रक्षिपति अग्नौ तस्माद् अयं 'स्याल' उच्यते - ( निरुक्त अ० ६ पा० २ खं० १० नैगम कांड पृ० २९१ निर्णय ० ) तात्पर्य ए छे के 'स्य + अल ' = स्याल. स्य – सूपडुं. अल — फेंक. जे, बहेनना विवाहसमये सूपडावडे जवतलने अग्निमां नाखे – होमे ते स्याल -- साळो. वर्तमान विवाहपद्धतिमा कन्यानो भाई जवतलने अग्निमां होमे छे ए सुप्रतीत छे. ५४ " शूर्पम् — अशनपवनम्' " – ( निरुक्त पृ० २९१ उक्त आवृत्ति ) अशनअन्न, पवन – साफ करवानुं साधन. जेवडे अन्न साफ थाय ते शूर्प. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ س ه ه ه س س गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ए ज रीते संस्कृत साहित्यमां आ नीचे जणावेला जे द्विविध शब्दो प्रवर्ते छे, तेमना द्विधा उच्चारणतुं कारण मोटी बहेन प्राकृतनी व्यापक असर छे, एम समझवानुं छे. काशी-कासी (शब्दर० कां० ४ श्लोक० २५) 'श' नो 'स' , अश्रु-अस्रु , , 'स' २ , १२० नो 'श' तथा बनोस, शाक-साक , , ३ , ४३ शर्करा सर्करा ,, ,, ४ , १२ श्वान-स्वान , , ४ , ३१६ शुभ-सुभ शाम्बरी साम्बरी , ,, ३४८ शूर-सूर " " शर्वरी-सर्वरी शची-सची ,, ,, २ , उर्वशी-उर्वसी स्याल-श्याल , , ३ , १४६ अस्र-अश्र ,, ,, २ , दासी-दाशी ,, ,, ३ , ३५२ (अर्थ-धीवरी) सूरि-भूरि , , ३ , ६ वृषी-वृसी , , ३ , २९८ चाष-चास . , , ४ , ३५४ (अर्थ- विशेष प्रकारचं पक्षी) मषी-मसी , , ३ , ९८ ع ع ع m m ___ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख [३] संस्कृत साहित्यमां 'क्षुर' अने ' खुर' बन्ने शब्दो मळे छे. 'क्ष'नो 'ख' अने 'क्षुर' नो अर्थ छे 'खरी-पशुना पगनी खरी'. न क्षुर' ना 'क्ष' नुं 'ख' उच्चारण ए प्राकृतनी र असरनुं परिणाम छे. रघुवंशनों प्रथम अने द्वितीय सर्गना श्लो० ८५ तथा २जामां महाकवि कालिदासे 'खुर' शब्दनो उपयोग करेलो छे. [४ ] ऋग्वेद मंडल १० सूक्त १५५ ना पहेला मंत्रमा 'विकट' __ 'त' नोट' , शब्दनो प्रयोग छे. भाष्यकार तेनो अर्थ 'विकृत ___ अंग' वा 'विकृत गमन' बतावे छे. संस्कृत साहित्यमां — विकार प्राप्त' अर्थ माटे 'विकृत' शब्द सुप्रतीत छे. पालिभाषाना केटलाक शब्दोमां 'त' नुं 'ट' उच्चारण प्रवर्ते छे. एनी असरने लीधे 'विकृत' नुं 'विकट' उच्चारण थयुं छे. अने ए रीते आवेलो ते 'विकट' शब्द ठेठ ऋग्वेद सुधी पहोंचेलो छे. [५] 'रायण' ना झाड अर्थनो सूचक 'पियाल' अने 'प्रियाल' _शब्द छे. 'प्रियाल' ना 'र' नो लोप थई 'पियाल' 'र' नो लोप " शब्द नीपज्यो छे. अने आ रीते संयुक्त 'र'नो लोप थवानी पद्धति प्राकृतमा ज छे. कोशकारो ए बन्ने शब्दोने संस्कृत समझीने नोंधे छे. “ राजादनः पियाल: स्यात्" ( हैम० कां० ४, श्लो०२०८) "राजादनं प्रियालः स्यात् " (अमर० का २, श्लो० ३५ वनौषधीवर्ग ). कालिदास कुमारसम्भवमां ‘पियाल' शब्दनो उपयोग पण कर्यो छे. “ मृगाः पियालद्रुममञ्जरीणाम्"-(स० ३, श्लो० ३१) __ ५५ " रजःकणैः खुरोद्भुतैः स्पृशद्भिर्गात्रमन्तिकात् ।” “ तस्याः खुरन्यासपवित्रपांसु” इत्यादि । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति आ उपरांत जे शब्दोनां बब्बे उच्चारणो छे अने जेमांनुं एक मूळभूत छे अने बीजुं संस्कृत ऊपर व्यापक प्राकृतनी असरने लीधे नीपजेलुं छे, एवा अनेक शब्दो आ नीचे विशेष स्पष्टताने माटे आपुं छं. ए शब्दो शब्दरत्नाकरकोशमां, अमरकोशमां अने हेमचन्द्रना अभिधानचिन्तामणि वा अनेकार्थसंग्रहमा विद्यमान छे. माटे ते शब्दोना खास खास स्थानो नथी बताववानो, तेम विशेष काळक्षेपना कारणे तेमनो साहित्यमा थयेलो प्रयोग पण नथी नोंधवानो. Po [ ६ ] - हर्ष - हरिष स्वरभक्ति दहू-दहर कम-कमर गर्भ-गरम अनुस्वारयुक्तता 'आ'नो 'अ' 9 वर्षा वरिष वर्ष - वरिष पर्षत् - परिषत् मनोsर्थ मनोरथ [ ८ ] 'आ' कुमार-कुमर फाल- फल कलाज्ञ-कलज्ञ प्राकृतनी असरने लीघे ' भार्या' ना ' भारिया' नी [ ७ ] 'वक्र' ना प्रा० ' वंक 'नी पेठे आवेला शब्दो : भद्र-भन्द्र लक्षण - लाञ्छन अत्तिका - अन्तिका C पेठे संयुक्त व्यञ्जनमां स्वरनो धारो अ " Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख 'इ'-ए नो , [९] मुहिर-मुहेर (अर्थ-मूर्ख) आ, [१०] 'अ'-- 'आ' पति-पाति स, [११] 'ऋ' - 'रि' 'क'नो 'रि' ऋज-रिज-(अर्थ–पति) . [१२] 'भ'- 'ब' 'भ' नो 'ब' करम्भ-करम्ब 'ण' नो 'ल' _, [१३] 'ण' - 'ल' श्लेष्मण-श्लेष्मल *औ' नो 'उ' .., [१४] औ-उ कौङ्कण-कुङ्कुण कौतुक-कुतुक [१५] द-ज 'द' नो 'ज' दस्यती-जस्यती-वैदिक शब्द .... [१६] ह-अ 'ह' नो 'अ' हट्ट-अट्ट [१७] त-ट, त्त-ट्ट 'त'नो 'ट,'' कर्तक–कण्टक (वैदिक शब्द ) पत्तन-पट्टन 'कर्तक' ना 'र' नो लोप अने अनुस्वारर्नु आगमन पण प्राकृतप्रभव छे. जुओ पृ० ८९, अङ्क ५ तथा पृ० ९०, अङ्क ७. ___ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'श्म' नो 'म्भ' [१८] श्म-म्भ तथा क-ग तथा 'क'नो 'ग' काश्मरी-कम्भारी-गम्भारी 'ट'नो', [१९] ट-ड तटाक-तडाक पेटा-पेडा कुटी-कुडी 'व' नो 'ब' तथा [२०] व–ब, 'द' लोप 'द' नो लोप द्वार-बार 'ड' नो 'ल' .. [२१] ड-ल [" ऋफिडादीनां डश्च लः" २-३-१०४ हैमव्या०] ताडक-तालक बालिश-बाडिश जड-जल दुलि-दुडि बिडाल-बिलाल कलेवर-कडेवर कलत्र-कडन बडिश-बलिश . नाडी-नाली 'स' नो 'लोप, [२२] 'स' लोप स्तूप-तूप Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'य' नो लोप अने 'र' नी वृद्धि 'क' नो लोप 'द' नो लोप 'म' नो 'व' प' नो 'व' ' व' नो लोप आमुख [२३] 'य' लोप अने ' र ' वृद्धि चैत्य - चैत्र पामर - ग्रामर - ( आमां 'य' नो लोप नथी.) [ २४ ] 'क' लोप योक्त्र - योत्र [ २५ ] 'द' लोप कुद्दाल--कुदाल [ २६ ] म–व श्रमण-श्रवण ' व' नो 'म' स नो 'ष' तथा [ २८ ] स –ष, ख-ह " " 'ख' नो 'ह' [२७] व-म द्रविड - द्रमिड यवनी - यमनी मुसल—मुषल - मुखल -मुहल [ २९ ] 'प' - व [ "जपादीनां पो वः " २ -३ - १०५ हैमव्या० ] कपाट-कवाट पारापत - पारावत जपा -- जवा लिपि - लिवि [३०] 'व' लोप ऊर्ध्व ऊर्ध ९३ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'क्ष'नो [३१] 'क्ष'-ख क्षुल्लक-खुलक पक्ष-पुख क्षुर-खुर [३२] 'य' लोप 'य' नो लोप श्याली-शाली मत्स्य-मत्स तूर्य-तूर ., [३३] क्ष-छ 'क्ष'नो 'छ' . पक्ष-पिच्छ क्षुरी-छुरी कक्ष-कच्छ 'त्स' नोच्छ, [३४] स-च्छ मत्स–मच्छ 'त' नो 'थ' , [३५] त-थ पीती-पीथी 'ति'नो , [३६] ति-रि प्रतिदान-परिदान 'य' नो 'ज' _[३७] य-ज यभन-जभन जॉनि यानि ५६ “ जानिः यानिः कुलस्त्री च"-(शब्दरत्नाकर कांड ३, श्लो० १४७) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख यातु-जातु यातुधान-जातुधान , 'ह'नो 'घ' [३८] ह-घ । अंहि-अछि घस्र-हस्र 'ष्ट्र' नो 'ढ' तथा [३९] ष्ट्र-ढ, 'र' लोप र लोप दंष्टिका-द्राढिका–दाढिका 'श्च' नो 'च्छ' [४०] श्च-च्छ पश्च-पुच्छ [ 'पुच्छ' वेदमां पण मळे छे ] [४१] अनुस्वारलोप अनुस्वारलोप अम्बा-अब्बा [४२ ] वचला स्वरनो लोप अने वचला स्वरसहित व्यञ्जननो लोप रसना-रस्ना वचला स्वरनो वासर-वास्त्र अने सस्वर व्यंजननो लोप भगिनी-भग्नी वहनी-वेणी (प्रवाह-रघुवंश) उदुम्बर-उम्बुरक-उम्बर प्रदत्त-प्रत्त आदत्त-आत्त सुदत्त-सुत्त ५७ “ प्रासादजालैर्जलवेणिरम्यां रेवां यदि प्रेक्षितुमस्ति कामः-"रघुवंश स० ६, श्लो० ४३) " जलानां वेण्या प्रवाहेण" - " ओघ: प्रवाहो वेणी च इति हलायुधः"-टीका Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ 'थ' नो 'ध' 'ई' नो 'ए' 'क' नो 'ग' 'अ' नो 'इ' 'इ' नो 'ए' ' र ' नो 'ल' तथा 'ऋ' नो 'ल' गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति [ ४३ ] थ-ध मथुरा-मधुरा [ ४४ ] ई-ए पीयूष पेयूष [ ४५ ] क–ग, अ-इ, इ–ए दक-दग द्रकट-द्रगड कन्दुक - गिन्दुक - गेन्दुक [ ४६ ] र-ल, ऋ ऌ [ हैमैव्या० २=३-९९ थी २-३ - १०५ सुधीनां सूत्रो ] हीका का पुरुष-पुलुष तरुण-तलुन क्षुधारु क्षुधालु शीतारु - शीतालु प्रवङ्ग-प्लवङ्ग राक्षा-लाक्ष रोम-लोम चरण-चलन ऋफिड - लफड ५८ पाणिनीय अ० ८।२।१८ थी ८।२।२२ सुधी. "ऌफिड : ऋफिङः । एषोऽपि ऌफिड्डः ऋफिड्डः । " – ( महाभाष्य पृ० ४६ वा० अ० •) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख [४७ ] 'ल'-लोप 'ल' नो लोप । झलरी-झलरी [४८ ] श-प 'श' नो 'प' अभीशु-अभीषु वेश्या-वेष्या [४९] द-त 'द' नो 'त' बादाम-बाताम राजादन-राजातन [५० ] 'र' लोप, द्विर्भाव कुर्कट-कुक्कट 'र'नो लोप थया पछी द्विर्भाव कुर्कर-कुक्कर वप्र-बप्प (अर्थ-बाप) 'अय' नो ओर [५१] अय-ओ - मयूर-मोर 'प'नो वा [५२ ] प-ब ___ तम्पा-तम्बा ( अर्थ-गाय) [५३ ] अन्त्यलोप धामन्-धाम अंत्य व्यंजननो लोप महस-मह तमस्-तम सोमन्-सोम Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उञ्चारणो गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति रोचिस्-रोचि शोचिस्-शोचि चर्मन्-चर्म शवस्-शव होमन्-होम तपस्-तप [५४ ] केटलाक एकार्थक शब्दोनां उच्चारणो स्वर अने संयुक्त एवां विविध देखाय छे के ए उच्चारणो ज एमनी वर्णनां विलक्षण " प्राकृतता ठरावे छे: चन्द्र-चन्दिर-चन्द विकुस्र-विकस-विक्रस बुक्कस-पुक्कस-पुत्कस तविश-तविष-ताविष वनीपकबनीयक-वनबक खोड-खोट-खोर वराणसी-वाराणसी-वाणारसी हण्डे-हजे सुवासिनी-स्ववासिनी मौक्तिक-मुकुतिक-मकुतिक मस्तक-मस्तिक अषाढ-आषाढ एतश-ऐतश बिडोजा-बिडौजा निघण्टु-निर्घण्टु Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख नेतृ-नेत्र दिवोका-दिवौका [५५] ण-न 'ण' नो 'न' पोणिनि वगैरेना धातुसंग्रहमा जे धातुओ मूल णोप " देश-आदिमां 'ण' कारवाळा-नोंघेला छे ते बधा य प्रयोगनी प्रक्रियामां आवतां आदिमां 'न' वाळा थाय छे. 'ष' नो 'स' [५६] ष-स पाणिनि वगेरेना धातुसंग्रहमा जे धातुओ षोपदेश-आदिमां 'ब' वाळा दर्शाव्या छे ते बधा य प्रयोग समये आदिमां 'स' वाळा थई जाय छे. __ आ उपरांत निरुक्त वगैरेनो उल्लेख करीने आगळ (पृ० २२-२५) जे एकार्थक धातुओ अने एकार्थक शब्दोनां भिन्न भिन्न उच्चारणो नोंधी बताव्यां छे, ते द्वारा पण जोई शकाय एम छे के केटला जूना समयथी नानी बहेन संस्कृतने तेनी मोटी बहेन प्राकृते पोतानी मृदुता अने विविध उच्चारणनी रीत आपी तेमां अनेकगणुं वैविध्य वधारी दीधुं छे. ५७ संस्कृत ऊपर व्यापक प्राकृतनो आवो प्रभाव होवा छतां संस्कृतना अभ्यासिओनुं प्राकृतना अभ्यास तरफ संस्कृतना अभ्या , जे दुर्लक्ष्य प्रवर्तमान छे ते विशेष कठे एवं छे. सिओनुं प्राकृतना न अभ्यास तरफ विद्वानोमां वर्तता ए दुर्लक्षने परिणामे नाटकोनुं दुर्लक्ष अने तेनुं प्राकृत भारे अशुद्धिओना गर्तमाथी नीकळी शक्यु दुष्परिणाम नथी. मारे नम्रपणे कहेवू जोईए के नाटकोना ते ते विद्वान संपादकोए नाटकगत प्राकृतना संशोधन तरफ लक्ष्य ज नथी ५९ “णो नः"-६।११६५ पाणिनीय. ६० “धात्वादेः षः सः"-६।१।६४ पाणिनीय. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति राख्यु. तेने लीधे नाटकगत प्राकृतना पाठोनुं ठेकाणुं नथी रह्यु. नाटकनां नाटकोना प्राकृ- केटलांक संस्करणोमां तो नाटकना मूळ पाठ तनी दुर्दशा रूप प्राकृतने नीचे टिप्पणमां मूकी ऊपर तेनुं संस्कृत ज बेसारवामां आव्यु छे. एटलं ज नहीं पण नाट६१ एक उदाहरण-प्रतिमानाटक, संपादक-शिवराम महादेव प्रांजपे, पूना. अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठं पृ. १ इअह्मि इअं म्हि पृ० २ सङ्गीदसाळं सङ्गीदसालं पृ. २ काळसंवादिणा कालसंवादिणा पृ. २ किदं ति किदं ति पृ. ३ वक्कळं वकलं पृ. ३ नोभेण लोभेन पृ० ३ सुळहावराहो सुलहावराहो पृ. ३ किस्स कीस पृ० ३ अय्वरेवा अय्यरेवा पृ. ३ अमेहि अम्हेहि पृ० १० रोदिदव्ये रोदिदव्वे उक्त अशुद्ध पाठोना शुद्ध पाठो में बतावेला छे. नाटकमां एकंदर शौरसेनी भाषा वपरायेली छे, छतां संपादके वक्कळं, सुळह-, -साळं, काळ-वगेरे 'ळ' वाळा प्रयोगो-जे शौरसेनीमां संभवता ज नथी—राखेला छे. एवा 'ळ' वाळा प्रयोगो पैशाची भाषामा प्रचलित छे. वळी, संपादके पृ. ७२ ऊपर एक कोठो आप्यो छे तेमां जणावेलुं छे के नाटकमां बे भाषा-एक संस्कृत अने बीजी प्राकृत-वपरायेली छे. खरी रीते नाटकमां संस्कृत अने शौरसेनी भाषा वपरायेली छे एम स्पष्ट लखवू जोईतुं हतुं. 'प्राकृत' लखवाथी 'शौरसेनी' नो भाव समझवो सुगम नथी. ६२ उदाहरण-रत्नावली-संपादकः एम्. आर. काळे, बी. ए. रत्नावली (श्रीहर्षरचित) मांना बधा मूळ प्राकृतपाठोने टिप्पणमा राखेला छे अने ते पाठोनुं संस्कृत, ऊपर मूकेलं छे. प्राकृत पाठोनुं समानरूप संस्कृत करवा तरफ उपेक्षानां उदाहरणो Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १०१ कोना केटलाक टीकाकौरोने हाये सुद्धां नाटकना प्राकृतनी दुर्दशा थयेली ... आ जातनी फरियाद मारी एकलानी नथी. भाषातत्त्वविशारद श्रीमान विधुशेखरशास्त्रीजीए पण नाटकोना प्राकृत विशे आवी ज फरियाद करेली छे. प्रा० रत्ना० पृ० १३ आलोएदु در " "" 23 "" पृ० १४ मउलीकिद पृ० १७ दासीए-धीए ! पृ० २० केत्तिअ-दूरो पृ० ४६ गुम्मंतरिदाओ पृ० ४७ सुहाअदि पृ० ५२ गुरुओ सं० अवलोकयतु मुकुलायित दास्या:-पुत्रि ! कियद्दूरे गुल्मान्तरिते सुखयति गुरुः शुद्ध आलोकयतु मुकुलीकृत " ६३ 'कर्पूरमंजरी ' नाटिकानी टीका वांचतां आ हकीकत समझी शकाय एम छे, छतां ते माटेनुं उदाहरण नीचे प्रमाणे छे: << ' समोहणासाणं ' ( कर्पूरमंजरी पृ० ४ निर्णय ० ) कर्पूरमंजरीनो उक्त पाठ अशुद्ध छतां टीकाकारे ते अशुद्ध पाठनी टीका करी छे. ' स + मोहण + आसा' आवो पदच्छेद कर्यो छे. टीकाकारे करेलो अर्थ- “ मोहने सुरते आशासहितयोः " छे. खरो पाठ 'छम्मुहणासाणं " छे. तेनो अर्थ " षण्मुखन्यासानाम् " छे अर्थात् " जेमना खोळामां षण्मुख बेठेला छे एवां शिव अने पार्वती " आ अर्थ युक्त छे अने उचित पण छे. आ रीते कर्पूरमंजरीमां तेम ज बीजां पण नाटकोमां टीकाकारोए प्राकृत पाठोनी तरफ तद्दन उपेक्षा राखी छे. ६४ आ संबंधे श्रीविधुशेखरजीनो उल्लेख आ प्रमाणे छे : << संस्कृत दृश्य काव्यसमूहे स्थाने स्थाने प्राकृत अंश विभिन्न विभिन्न पाठे एत व्याकुल हइया उठिया छे ये, ताहा बलिवार नहे x x x संस्कृत पाठकगणेर प्राकृतेर दिके अनादरइ एइ पाठविपर्ययेर अन्यतम प्रधान हेतु । इहार संस्कार हउया नितांत आवश्यक " पालिप्रकाशप्रवेशक पृ० १८, टिप्पण ४२. श्रीविधुशेखरजीनो उक्त उल्लेख वधु लांबो होवाथी तेमांथी अहीं थोडो उतारो आप्यो छे. ते उल्लेखमां तेमणे ' वेणीसंहार' नुं नाम लई तेना पाठोनी अव्यवस्था बतावी छे. दास्याः - दुहितः ! कियद्दूर: गुल्मान्तरितात् सुखायते । गुरुकः वगेरे. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति संभव छे के 'प्राकृत भाषा नीच पात्रोनी भाषा छे' एवा रूढिगत वहेमने लीधे आq बनवा पाम्यु होय. परंतु आ 'प्राकृत' नीच पात्रोनी भाषा की मान्यता तद्दन भूल भरेली छे. जे भाषा एक काळे सर्वसाधारणमा प्रवर्तती हती एटले तेने राजा पण बोले अने रंक पण बोले, ब्राह्मण पण बोले अने चण्डाल पण बोले-एम होवाथी एवी सर्वव्यापक भाषाने नीच पात्रोनी भाषा कही उवेखवी क्यां सुधी उचित छे ? __ आर्यसंस्कृतिना असाधारण प्रतिनिधि भगवान महावीर अने भगवान बुद्धना मुखरूप हिमाचलमाथी जे भाषानी प्रशमरसपूर्ण गंगा वहेली छे, जे भाषाने कविवर हाल, वाक्पतिराज, रुद्रट अने राजशेखर जेवा विद्वानोए आदर आप्यो छे, जे भाषामां आर्यसंस्कृतिने लगतुं विपुल साहित्य उपलब्ध छे, जे भाषाना परिचय विना आर्यसंस्कृतिना इतिहासनो अभ्यास ज अटकी पडे एम छे अने जे भाषाना ज्ञान विना आपणा देशमां प्रवर्तती मराठी, बंगाली, गुजराती, हिंदी, मारवाडी, मालवी, मेवाडी, कच्छी, ____ सिंधी, पंजाबी, भोजपुरी, मगही, आसामी, सिंहली, 'प्राकृत' भाषाना " उडीया, बिहारी, काश्मीरी प्रमुखनो अरे ! तामिल, अभ्यास विना संशोधन कार्य जतेलगु, मलयाळं सुद्धांनो अने लेटिन, जर्मन, फारसी अशक्य छे तथा अंग्रेजी वगेरे भाषानो पण इतिहास जाणी शकाय एम नथी. ट्रॅकामां जे भाषाने अपनाव्या विना सर्वधर्मसमभावना जीवनहितकर सिद्धांतनुं आचरण ज शक्य नथी एवी प्राकृत भाषाने 'नीच पात्रोनी भाषा छे' वा 'अमुक संप्रदायनी भाषा छे' एम समझी तेना ज्ञान-विज्ञान अने संशोधनथी पोतानी जातने वंचित राखी आपणे राष्ट्रने Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १०३ अने राष्ट्रिय साहित्यने केटलं बधुं नुकसान कर्यु छ ? ए अवश्य विचार जोईए. ५८ आपणे नागरिक लोको अने आपणने पोषनारा लाखो करोडो 'प्राकतना गामडिया भाईओ ए बे वच्चे जे अन्तर वध्युं छे अभ्यास विना भाई तेनुं कारण आपणा देशना स्नातकोए अने भाई वञ्चे पडेलु अध्यापकोए प्राकृतभाषाने उवेखी छे ए पण मने अतर लागे छे. एक समयनी सर्वव्यापक भाषाने नीचोनी भाषा समझशुं तो वर्तमानमा व्यापक एवी मराठी, हिंदी, बंगाळी, गुजराती वा सर्वव्यापी जेवी अंग्रेजी ए बधी नीचोनी भाषा छे के ऊंचोनी ? आपणी युनिवर्सिटिओने अने तेमना जेवी बीजी मातबर संस्थाओने मारी नम्र विनंती छे के तेमणे व्यापक प्राकृतभाषाना साहित्यने शब्दविज्ञाननी नवी दृष्टिथी संशोधित करावी, तेना अभ्यास माटे अभ्यापकोने अने विद्यार्थिओने उत्तेजित करी राष्ट्रहितनुं अपूर्व पुण्य उपार्जी तेमनी साची शोभा सिद्ध करवी जोईए. ५९ वेदोनी भाषा साथे विशेष सरखामणी होवाने लीधे ते समयनी . वेदवारानी-बोलचालनी भाषा साथे जेनो संबंध व्यापक प्राकृतमांस " सिद्ध करी बताव्यो छे, संस्कृत भाषा ऊपर पण समाती भाषाओ " जेनी प्रबल असर छे एवी उपर्युक्त व्यापक प्राकृत भाषामां पालि, अर्धमागधी के आर्षप्राकृत, धर्मलिपिओनी भाषा, चक्रवर्ती खारवेल वगैरेना प्राकृत शिलालेखोनी भाषा, साधारण प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची अने अपभ्रंश-ए बधी भाषाओनो समावेश छे. ___ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ६० पालि वगैरे भाषाओगें सामान्य-विशेष स्वरूप अने तेना साहित्यगत अवतरणो आ नीचे आपी दऊं छं. बौद्धमागधी-पालि केटलाक विद्वानो ‘पालि' शब्दने 'पंक्ति' के ___ “पल्ली' मांथी ऊतारे छे. 'पति' एटले शास्त्रनी * पंक्ति अक्षरश्रेणी. बौद्धधर्मनां मूळ पुस्तक पिटक ग्रंथोमां जे अक्षरपति छे तेनुं नाम 'पालि 'भाषा. 'पल्ली' एटले गामडुं अने गामडामां जे भाषा प्रवर्ती ते 'पालि' भाषा. 'पालि' शब्दना मूळरूप अने व्युत्पत्ति संबंधे आ उपरांत बीजा पण अनेक मतो चाले छे. तेमां मोरो पण एक नम्र ६५ जे जे शब्दो भाषानां नामो माटे वपरायेला छे ते बे जातना छे; केटलाक कोई देश साथे संबंध राखनारा अने केटलाक भाषाना स्वभाव साथे संबंध राखनारा. मागधी, शौरसेनी वगेरे शब्दो ते ते देश साथे संबंध धरावे छे अने प्राकृत, अपभ्रंश शब्दो भाषाना स्वभावनी साथे संबंध राखे छे. आ जोतां एक विशिष्ट भाषा माटे प्रसिद्धि पामेलो 'पालि' शब्द शं कोई देश साथे संबंध राखे छे ? के भाषाना स्वभाव साथे संबंध धरावे छे ? आवो प्रश्नथाय ए स्वाभाविक छे. आ संबंध में फार्बस गुजराती सभाना मुखपत्र त्रैमासिक ( १९४१ जुलाई-सप्टेंबर पृ० २५०) मां 'पालिभाषा' ए मथाळा नीचे सविस्तर चर्चा करेली छे. तेमा चर्चायेली हकीकतनो तद्दन संक्षिप्त सार आ प्रमाणे छे: 'पालि' भाषाना सूचक 'पालि' शब्दना मूळ विशे खरी हकीकत आ प्रमाणे छे: 'पालि' शब्द मूळे कोई जातनी भाषाना अर्थनो वाहक ज नथी, परंतु भगवान बुद्धनी 'धर्मदेशना' ना अर्थमां ए शब्द बौद्धसाहित्यमां वारंवार वपरायेलो छे. अने भगवान बुद्धे जे भाषामां लोकोने उपदेश आपेलो ते भाषा माटे तो 'मागधी' शब्द ज वपरायेलो छे. परंतु पाछळथी भगवान बुद्धनी देशना अने मागधी भाषानो अभेद कल्पायो अने ते जातनी अभेद कल्पनाने लीधे देशना-उपदेशवाचक 'पालि' शब्द पण लक्षणाने कारणे 'भाषा' अर्थमां रूढ थयो. आम होवाथी भाषावाचक ‘पालि' शब्दना मूळनी शोध करवी व्यर्थ छे. परंतु देशनावाचक 'पालि' पदना मूळनी शोध आवश्यक खरी. बौद्ध साहित्यना मूळरूप पिटकग्रंथोमां स्थळे स्थळे 'देशना' ना अर्थ माटे 'परियाय' शब्द वपरायेलो छे Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ १०५ अभिप्राय ऊमेरुं कुं. प्राकृतभाषामा 'प्राकृत' शब्दनां 'पाय' अने 'पायड' एवां वे उच्चारणो प्रचलित छे. स्वभाववाचक 'प्रकृति' नां पण ' पयँइ' अने ' पयड' एवां वे रूपांतरो शास्त्रप्रसिद्ध छे. 'पयडि' शब्दनुं तद्धितांतरूप 'पायड', तेनुं स्त्रीलिङ्गी रूप ' पायडी' अने ते ऊपरथी स्वाभाविक भाषावाचक 'पालि' शब्द उतारवो सहेलो भासे छे. षड्भाषाचंद्रिकामां लक्ष्मीधरे बतावेला रूपकपरिभाषाना अवतरणमां प्राकृत भाषा माटे 'प्राकृती' शब्दनो उपयोग थयेलो छे, ए ध्यानमां रहे, अथवा प्रकृति' ऊपरथी जेम ' प्राकृत' शब्द आवे छे तेम प्राकृतिक' शब्द पण आवे छे. ' प्राकृतिक' ने मळतुं उच्चारण, 'पायइअ' के ' पायडिअ ' थाय छे. तेमांना ' पायडिअ ' उच्चारणमांथी 'पायलिअ ' अने ते ऊपरथी पण 'पालि 'शब्द ऊतरी शके छे. अर्थबाध पण नथी. पालि, अर्धमागधी के आर्षप्राकृत - ए त्रणे शब्दो द्वारा सूचवाती " देशना ? अने अशोकनी धर्मलिपिओमां ना पर्याय तरीके 'पलियाय 'पद पण वपरायेलुं छे. आ 'पलियाय' शब्दमां ज 'पालि' शब्दनुं मूळ छे. एथी 'पालि' ना मूळ माटे 'पति' 'पल्ली' के 'प्राकृती' शब्दो कल्पवानी कशी अगत्य नथी. आ संबंधे जेमनी इच्छा सविस्तर जाणवानी होय तेमणे उक्त त्रैमासिकनुं ऊपर जणावेलुं स्थळ जोई लेवुं घटे. ए स्थळे 'पालि' ना मूळ विशे अनेक मतो, तेमनी चर्चा, ते माटेनां साधक बाधक प्रमाणो तथा बीजां अनेक उपयोगी अवतरणो आपीने ए चर्चा करेली छे. << आमुख ८ ६६ जुओ - हेमचंद्र ८1१/६७ तथा 'सक्कया पायया चेव " इत्यादि. अनुयोगद्वारसूत्र तथा स्थानांगसूत्र. ' पायड' माटे जुओ पाइअसद्दमहण्णवो. ६७ ' पयइ ' अने ' पयडि ' माटे जुओ पाइअसद्दमहण्णवो. आ बन्ने शब्दो कर्मशास्त्रसंबंधी जैन ग्रंथोमां 'स्वभाव' अर्थना सूचक तरीके सारी रीते वपरायेला छे. ६८ " षड़विधा सा प्राकृती च शौरसेनी च मागधी " इत्यादि ( लक्ष्मीधर - षड्भाषाचन्द्रिका पृ० ४, श्लो० २३-२५-२६ ) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति भाषामा विशेष भेद नथी. चरोतरनी गुजरातीमां अने अमदावादनी गुजरातीमां जेटलुं अन्तर छे तेटलं अंतर पालि, अर्धमागधी के आर्षप्राकृतमां छे. अशोकैनी धर्मलिपिओमां अने बौद्धधर्मना मूळभूत पिटक ग्रंथोमां तथा अट्ठकथा ६९ अशोकनी धर्मलिपिनी भाषानो नमूनो : " इयं धंमलिपी देवानं प्रियेन प्रियदसिना राना लेखापिता-इध न किंचि जीवं आरभित्पा प्रजूहितव्यं, न च समाजो कतव्यो, बहुकं हि दोसं समाजम्हि पसति देवानं प्रियो प्रियदसि राजा " - ( अशोककी धर्मलिपियाँ गौ० ओ० ) आ लिपिना उतारामां अल्पविराम वगेरे निशानो में करेलां छे. ७० उदाहरण तरीके 'सुत्तनिपात' नी भाषानो नमूनो : गद्य - " एवं मे सुतं । एकं समयं भगवा आळवियं विहरति आळवकस्स क्खस्स भवने । अथ खो आळवको यक्खो येन भगवा तेनुपसंकमि उपसंकमित्वा भगवंतं एतदवोच ” इत्यादि (१० मुं आळवकसुप्त ) पद्य - किं सूध वित्तं पुरिसस्स सेहं ? किं सु सुचिणं सुखमावहाति ? । किं सु हवे सादुतरं रसानं ? कथंजीविं जीवितमाहु सेद्रं ? ॥ १ ॥ सद्दीध वित्तं पुरिसस्स सेनं धम्मो सुचिणो सुखमावहाति । सचं हवे सादुतरं रसानं पञ्चाजीविं जीवितमाहु से ॥ २ ॥ ( सुत्तनिपात १० मुं आळवकसुप्त ) ७१ अट्ठकथानी भाषानो नमूनोः तत्थ दसहि सद्देहि अविवित्तं ति-हत्थिसद्देन, अस्ससद्देन, रथसद्देन, भेरिसद्देन, मुतिङ्गसद्देन, वीणासद्देन, गीतसद्देन, सम्मसद्देन, तालसद्देन, 'अस्नाथ पिवथ खादथा' ति दसमेन सद्देनाति इमेहि दसहि सद्देहि अविवित्तं अहोसि X X x यथापि दुक्खे विज्यंते सुखं नामपि विज्नति । एवं भवे विज्जमाने विभवोऽपि इच्छितव्वको ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १०७ ओमां अने जातककथाओ वगेरे ग्रन्योमा ए भाषा सचवायेली छे. झीणवटथी तपासतां स्पष्ट जणाय छे के समग्र बौद्ध साहित्यमा य जे साहित्य जेटलुं प्राचीन छे तेमां तेटले अंशे पछीना साहित्यमां वपरायेली भाषा करतां प्राचीनपणुं जळवायेलं तरी आवे छे. पछीना साहित्यमां व्याकरणना नियन्त्रणनी असर जणाय छे त्यारे प्राचीन साहित्यमां तेना नियन्त्रणनो विशेष प्रभाव नथी. कच्चायण नामना विद्वाने तेनुं एक सविस्तर व्याकरण रचेलं छे. ते उपरांत बालावतार, महारूपसिद्धि वगैरे नानां मोटां अनेक व्याकरणो अने वृत्तिग्रंथो सिंहल वगेरे लिपिओमां मुद्रित थयेलां उपलब्ध छे. ६१ आर्षप्राकृत-अर्धमागधी-प्राचीन ऋषिओनां प्राकृतभाषामय वचनोमां जे केटलाक प्रयोगो प्राकृतव्याकरणविहित अर्धमागधीनो परिचय - नियन्त्रणना प्रभावथी मुक्त छे ते 'आर्ष' प्रयोगो कहेवाय. जे प्राकृतमां एवा आर्ष प्रयोगो विशेष मळता होय तेनुं नाम आर्ष प्राकृत. जैन परंपरा प्रमाणे ऋषिप्रवर यथापि उण्हे विज्जते अपरं विज्जति सीतलं । एवं तिविधग्गी विनंते निब्बानं इच्छितब्बकं ॥ यथापि पापे विजेते कलाणमपि विजति। एवमेव जाति विनंते अजातिंऽपि इच्छितब्बकं ॥ (निदानकथा-कोसंबीजी) ७२ जातककथानी भाषानो नमूनो "अतीते वाराणसियं सामराजा नाम रजं कारेसि, तदा बोधिसत्तो अमञ्चकुले निव्वत्तित्वा वयप्पत्तो तस्स अत्यधम्मानुसासको अहोसि । रलो पन पण्डवो नाम मङ्गलस्सो; तस्स गिरिदतो नाम अस्सबंधो, सो खञ्जो अहोसि" इत्यादि -(गिरिदंतजातक) ___ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तीर्थंकरो सर्वजन सुगम एवी अर्धमागधी भाषा द्वारा धर्मदेशना प्रवर्तावे छे. परंपरा जे प्राकृतभाषाने ' अर्धमागधी' कहे छे ते भाषामां आर्षप्रयोगोनी बहुलता छे. तेथी अहीं आर्षप्राकृत अने अर्धमागधी खास भेद पाड्यो नथी. वैदिक प्रयोगोनी साधना माटे पाणिनिए जेम वैदिक प्रक्रियानी रचना पोतानी अष्टाध्यायीमां ज समावी दीधी छे, तेम आचार्य हेमचंद्रे पण परंपरामान्य अर्धमागधीना प्रयोगोनी साधना माटे कोई खास भिन्न व्यवस्था न करतां तेने पोतानी अष्टाध्यायीमां 'आम्' ना नाम नीचे समावी दीवी छे. ए रीते आचार्य हेमचंद्रनी दृष्टिए पण अर्धमागधी अने आर्षप्राकृत वच्चे खास भेद जणातो नथी. अर्धमागधीनुं विशिष्ट स्वरूप जरूर होवु जोईए - ए हकीकत वर्तमान जैन आगमोमां मळता केटलाक विशिष्ट प्रयोगो द्वारा समझी शकाय एवी छे; परंतु जेमां मूळ अर्धमागधी भाषा काळवळे घसाई गई छे एवा वर्तमान जैन आगमोमां ए भाषानुं विशिष्ट स्वरूप होवुं जोईए तेतुं सचवायुं नथी अने जेवुं ते सचवायुं छे ते घणुं ज झांखुं - आहुं भासे छे माटे तेने मात्र ' प्राकृत' न कहेतां 'आर्षप्राकृत' कहीए तो ते असंगत नथी अने भूतपूर्वन्याये 'अर्धमागधी' कहीए तो पण बाध आवे एम नथी. आगळ कही गयो छं के पालि, आर्षप्राकृत वा अर्धमागधीमां विशेष अन्तर नयी अनादिमां रहेला असंयुक्त व्यंजनो पालिमां हयात रहे छे तेम आर्षप्राकृतमां पण तेवा व्यंजनो अनेक प्रयोगोमा कायम रहे छे. सप्तमीनुं एकवचन ''सि' वा 'स्सि' आर्ष ७३ “भगवं च णं अद्धमागहीए भासा धम्ममाइक्खइ " - ( समवाय- अंगसूत्र पृ० ६० समिति ) तथा जेमा 'अद्धमागही' नो निर्देश आवे छे एवा पण बीजा अनेक उल्लेख छे. ते माटे जुओ मारा प्राकृतव्याकरण ( विद्यापीठप्रकाशित ) नी प्रस्तावना पृ० १३-१४. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १०९ प्राकृतमां छे ते पालिना 'स्मि' प्रत्ययने अनुरूप छे. 'पुच्छिंसु' वगेरे क्रियापदोमां देखा तो ' इंसु' प्रत्यय पालिमां पण वपराय छे ' अब्बवी' 'अकासी' ' विहरित्था' वगैरे क्रियापदोमां देखाता 'ई' 'सी' अने ' त्था ' प्रत्ययो पालिना 'सि', 'ई' अने ' इत्थ' प्रत्ययोने मळता आवे छे. वळी 'सिलोग ' 'सुणग', 'सोवाग' वगैरे शब्दोमा 'क' ने बदले 'ग' नुं उच्चारण जेम आर्षप्राकृतमां छे तेम पालिमां ' मूग ' ' सागल' वगैरे शब्दोमां 'क' ने बदले 'ग' नो ध्वनि प्रवर्ते छे. 'कृत' अर्थ माटे 'कट' शब्दनो प्रयोग आ ने पाल ने मां प्रचलित छे तथा मागधीभाषामा सर्वत्र ' र ' ने बदले 'ल' नुं उच्चारण प्रवर्ते छे तेम आर्षप्राकृतमां पण 'पतेलस' ( प्रत्रयोदश ) 'गिलास' (ग्रासि ), 'पलिमोक्ख', 'पलिपाग', 'पलिबाहर ', ' एलिक्खग', 'अणेलिस' वगैरे शब्दोमां ' र ' ने बदले 'ल' नो ध्वनि प्रचलित छे. मागधीमां प्रथमाना एकवचनमां 'ए' प्रत्यय वपराय छे तेम आर्षप्राकृतमां 'समणे', 'महावीरे' एवां 'ए' प्रत्ययवाळां प्रथमान्त रूपो पण सुप्रसिद्ध छे. आ रीते वर्तमान आर्षप्राकृत, पालि साथे वधारे टका मळतुं आवे छे. अने तेमां मागधीनी असर ओछा टका रहेली जणाय छे. माटे ज पालि अने आर्षप्राकृत वच्चे विशेष समानता होवानुं जणान्युं छे अने ' अर्धमागधी' शब्दनो अर्थ विचारतां ८८ > ७४ ' तत्र मागधभाषालक्षणं किञ्चित् किञ्चित् प्राकृतभाषालक्षणं यस्यामस्ति सा- अर्ध मागध्या इति व्युत्पत्त्या - अर्धमागधी " - ( व्याख्या प्रज्ञप्ति - भगवती -सूत्रटीका-शतक ५, उद्देशक ४ पृ० १८१ श्रीरायचंद्रजिना ० ) “प्राकृतादीनां षण्णां भाषाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा “र-सोर्ल-शौ मागध्याम्" इत्यादिलक्षणवती सा असमाश्रितस्वकीयसमग्रलक्षणा अर्धमागधी - इति उच्यते, तया धर्ममाख्याति तस्या एव अतिकोमलत्वात् " - ( समवायांगसूत्रवृत्ति पृ० ६० ) " “र-सोर्ल-शौ मागध्याम्" इत्यादि यत् मागधभाषालक्षणं तेन अपरिपूर्णा प्राकृतभाषालक्षणबहुला अर्धमागधी " ( उववाइअसूत्र टीका पृ० ७८ ) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तेना ऊपर एटले आर्षप्राकृत ऊपर मागधीनी असर ठीक देखावी 'अर्धमागधी' नो जोईए छतां ते आजकाल उपलब्ध थता अर्थविचार आर्ष प्राकृतमां जळवाई जणाँती नथी. माटे ज कधुं छे के वर्तमान जैन अंग- उपांग साहित्यमां तेनी मूळभाषा अर्धमागधीनुं झांखुं-आलुं स्वरूप सचवायुं छे अने मूळभाषा विशेष घसाई गई लागे छे. आर्षप्राकृतनी एक खास विशेषता एछे के जेम साधारण प्राकृतमां अनादिस्थ अने असंयुक्त एवा क, ग, च, ज, त, द, प, य, व अने ब लोप पामे छे तथा तेने बदले केटलाक प्रयोगोमां 'य' श्रुति थाय छे अने केटलाक प्रयोगोमां उदत्त स्वर - शेष स्वर- कायम रहे छे तेम आर्षप्राकृतमां धतुं नथी, तेमां तो केटलाक प्रयोगोमां ते व्यञ्जनो कायम रहे छे, केटलाक प्रयोगोमां ते ते व्यञ्जनोने ७५ आ ज हकीकत आचार्य हेमचंद्रे पोताना व्याकरणमां मागधीभाषानुं स्वरूप बतावतां आ प्रमाणे कही छे : ८८ 'यदपि पोराणं अद्धमागहभासानिययं हवइ सुत्तं" इत्यादिना आर्षस्य अर्धमागधभाषानियतत्वम् आम्नायि वृद्धैः तदपि प्रायः अस्यैव विधानात्, न वक्ष्यमाणलक्षणस्य - ( हेमचंद्र ८ -४ - २८७ ) तात्पर्य ए के २८७ मा सूत्रमां मागधी भाषामां 'अ' नो 'ए' थवानी सूचना करेली छे. हेमचंद्र कहे छे के जैन आगमोमां मागधीनुं आ एक लक्षण घटमान छे, बीजां - बाकीनां - लक्षणो प्रायः घटमान नथी. ७६ वर्तमानमा आगमोदयसमिति द्वारा के बीजी संस्थाओ द्वारा जे अंगउपांग सूत्रो प्रकट थयां छे तेमां छपायेला पाठो जोईने आगमोनी मूळ भाषाना स्वरूप संबंधे निश्चित अभिप्राय आपवो कठण छे. तेमां छपायेला पाठो बधा एकधारा नथी, तेम संपादको पाठोनी विशिष्ट शुद्धि माटे उपेक्षा राखी छे. तेम छतां ए अव्यवस्थित पाठोमां रहेली 'त' श्रुति तेम ज क्वचित् आवती 'र' ना 'ल' नी श्रुति द्वारा जाणी शकाय छे के तेमां अत्यारे पण 'अर्धमागधी ' नुं आछु स्वरूप सचवायुं छे. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख बदले कोई बीजा ज व्यञ्जनो संभळाय छे अने वधारे प्रयोगोमां ते बधा व्यंजनोने बदले 'त' श्रुति थाय छे. कूणिक-कूणित, .. आराधक-आराहत, अधिक-अहित, शाकुनिकअर्धमागधीमां ___ साउणित, वर्धकि-वडति, सामायिक-सामायित, अन्तिक - _ 'त' श्रुति ___ अंतित, नाराच-नारात, वचस्-वति, वज्र-वजिर-वतिर, पूजा-पूता, राजेश्वर-रातीसर, आत्मजः-अत्तते, जितेन्द्रिय-जितिंदिय, सतत-सतत, यदा-जता, पाद-पात, नदी-नती, मृषावाद-मुसावात, यदि-जति, सामायिक-सामातित, गायति-गातति, स्थायिन्-ठाति, नैरयिक नेरतित, परिवार-परिताल, कवि-कति वगेरे. आ जातनी त ' श्रुति नथी पालिमां के नथी मागधी वगैरे बीजी भाषाओमा; मात्र एक 'द' ने बदले 'त'नुं उच्चारण पैशाचीमा प्रवर्ते छे : दामोदर-तामोतर. उक्त 'त' श्रुति आर्ष प्राकृतमां क्याथी आवी ? केम आवी ? क्यारे ७७ साधारण रीते एम जणाय छे के उक्त 'आराधक-आराहय-आराहत' वगेरे प्रयोगोमां शब्दनी अंदरना 'क' वगेरे व्यंजनोने बदले 'त' श्रुति देखाय छे; परंतु 'तुम्ह' शब्द एवो छे के जेमां शब्दना आदिभूत 'य' नी 'त' श्रुति धयेली छे. भाषाविज्ञानपंडितो 'तुम्ह' अने 'युष्म' वच्चे समानता बतावे छे तेथी तथा 'त्वया' 'तव' 'तुभ्यम्' 'त्वाम्-त्वा', 'ते','त्वयि' वगेरे 'युष्मद' नां रूपोमां 'त' श्रुति छे तेथी एम कल्पना थाय छे के 'युष्म' नी आदिना 'य' नी 'त' श्रुति थई ते ऊपरथी 'तुम्ह' रूप आव्यु होय. पालि अने प्राकृत जेवी विशेष प्राचीन भाषामा 'तुम्ह' पदनो प्रयोग सुप्रतीत छे ए ऊपरथी आ 'य' नी 'त' श्रुतिनी प्रथा केटली प्राचीन छे तेनी कांई कल्पना आवी शकशे. ७८ 'त' श्रुतिबहुलभाषा संबंधे नाट्यशास्त्रकार भरत मुनि कहे छे के.. "चर्मण्वतीनदीपारे ये चार्बुदसमाश्रिताः। तकारबहुलां नित्यं तेषु भाषां प्रयोजयेत् ॥" -(नाट्यशास्त्र अ० १७, श्लो. ६२ नि०) “अर्थात् जे लोको चर्मण्वतीनदीपार रहेनारा छे अने अर्बुदनो समाश्रय करीने रहेनारा छे ते लोकोमा तकारबहुल भाषानो प्रयोग करवो.” Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति आवी ? वगैरे अनेक प्रश्नो जरूर विचारणीय छे, ते बाबत कोई विद्वान कांई प्रकाश नांखे ए इच्छवा योग्य छे. अहीं तो ए संबंधेनी चर्चा अप्रस्तुत जेवी छे माटे तेने जती करूं छं. ' अर्धमागधी 'ना अर्धमागधी अने स्वरूप बाबत जैन परंपरामां पण एकसरखा विचारो मळता नथी. 'निशीथचूर्णिमां ' " पोराणं अर्द्धमागहभासानिययं हवइ सुत्तं" एवो एक उल्लेख जैन परंपरा छे. एनो अर्थ आ प्रमाणे छे - " पुरातन सूत्र अर्धमागध भाषामां नियत छे." उक्त उल्लेखमां आवेला ' अद्धमागह ' पदनी व्याख्या करतां श्रीजिनदास महत्तरे तेनुं बे रीते विवेचन कर्तुं छे" मगहद्धविसयभासानिबद्धं अर्द्धमागहं " अथवा " अारसदेसीभासाणियतं अद्धमागधं, प्रथम विवेचन प्रमाणे मगधना अडधा - विषयमां-देशमांभागमां जे भाषा प्रचलित होय अने ते भाषामां जे शास्त्र निबद्ध होय ते ' अद्धमागह'- '' अर्धमागध' कहेवाय. अढार ( जातनी ) देशी भाषामां जे शास्त्र नियत होय ते पण ' अद्धमागध' कहेवाय - ए बीजुं विवेचन. आ बन्ने विवेचनो 'अर्धमागधी ' ना स्वरूप विशे कशो स्पष्ट प्रकाश नाखतां नथी. आखा मगध देशनी भाषा अने मगधना अडधा भागमां चालती भाषा शुं भिन्न भिन्न हशे ? ' मागधी' शब्दनी व्युत्पत्ति ऊपरथी आखा मगध देशनी भाषाने ' मागधी ' मानीए तो तेना अडधा भागमां चालती "" भरतनो आ श्लोक स्पष्टपणे अवगत थतो नथी. चर्मण्वती नदी एटले चंबल नदी ! तेने क्ये पार - आ पार के पेले पार ? अर्बुद एटले आबु के बीजुं कांई ? अर्बुदनो समाश्रय एटले अर्बुदनी कई धारनो समाश्रय ? आ बाजुनी के पाछलनी बाजुनी ? वगेरे अनेक प्रश्नो उक्त श्लोकनो स्पष्ट अर्थ जाणवामां बाधक छे. छतां अहीं ए श्लोकनो केवळ शब्दार्थ सूचव्यो छे. कोई विशेषज्ञ आ संबंधे स्पष्टता करशे एवी विनती छे. श्लोक मूकवानो हेतु एटलो ज के कोई एक प्रजानी भाषा 'तवर्ण' प्रधान हती एवं श्रीभरतना पण ध्यानमां हतुं ए बताववानो छे. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ११३ भाषाने कई कहेवी ? एवा अनेक विकल्पोने लीधे मगधदेशना अडधा भागनी भाषानो ज खुलासो थतो नथी. ए ज रीते बीजा विवेचनमां जणावेली अढार देशी भाषाओनुं स्वरूप पण अस्पष्ट छे. अढार देशीभाषाओ कई कई समझवी? अने ते प्रत्येकनुं स्वरूप केतुं समझबुं ? 'नायाधम्मकहा' नामना अंगसूत्रमा अने बीजां सूत्रोमां कोई पण राजपुत्रना विद्याभ्यासनो परिचय आपतां 'अटारसदेसीभासाविसारए' वा 'अट्ठारसविहप्पगारदेसीभासाविसारए' आबुं विशेषण वपरायेलु छे. 'नायाधम्मकहा 'ना टीकाकार 'अट्ठारसदेसीभासा 'नो अर्थ 'अढार प्रकारनी लिपिओ' बतावे छे. आ रीते क्यांय ' अट्ठारसदेसीभासा 'नो कोई स्पष्ट अर्थ प्राप्त थतो नथी. चूर्णिकार श्रीजिनदास महत्तरे — अद्धमागह 'नो जे अर्थ जणाव्यो छे तेना करतां जुदो अर्थ नवाङ्गीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरि ‘अर्ध मागध्या :-अर्धमागधी' एवी व्युत्पत्ति करीने जणावी गया छे. 'अर्द्ध मागध्याः 'नी व्युत्पत्तिने स्वीकारीए तो जे भाषामां ठीक अडधी-बराबर अडधी-मागधी भाषा भळेली होय ते 'अर्धमागधी' भाषा कहेवाय. आ प्रकारे अर्धमागधीने लगता जे जे उल्लेखो मळे छे तेमना द्वारा अर्धमागधीनुं स्पष्ट स्वरूप ख्यालमां नथी आवतुं छतां वर्तमान आर्षप्राकृतमां सचवायेलां-पालि भाषा साथेनुं साम्य अने पूर्वोक्त 'त' श्रुति-ए बन्ने एवं अनुमान कराववाने पूरतां छे के पुस्तकारूढ थया पहेलानां प्राचीन जैनसूत्रोनी भाषानुं रूप तेमनामां सचवायेली वर्तमान भाषाना रूप करतां जुएं होवू जोईए अने ते ठीक तेना ७९ आ वाक्यनो उल्लेख नायाधम्मकहासूत्रमा पृ० ३८ तथा औपपातिकसूत्र पृ० ९८ मां छे. आ संबंधे विशेष जिज्ञासुए मारा प्राकृत व्याकरण (विद्यापीठ) नी प्रस्तावना पृ० १८-१९ नुं टिप्पण जोवू. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'अर्धमागधी' नामने अनुरूप पण होवू जोईए. जो के अर्धमागधीने लगता प्राचीन शास्त्रस्थ उल्लेखो तेना स्वरूप संबंधे स्पष्टता नथी करता अर्थात् “पालि' शब्दनी पेठे 'अर्धमागधी' शब्दे य अनेक विकल्पो ऊभा कर्या छे, तो पण पालि भाषा एटले बौद्ध पिटकोनी मार्गधी भाषा अने जैनसूत्रोनुं आर्षप्राकृत ए बन्नेनुं तुलनात्मक परीक्षण करतां एवं स्पष्ट जणाय छे के आर्षप्राकृतमा बौद्ध पिटकोनी मागधीने मळतुं रूप तो छे अने तदुपरांत 'त' श्रुति वगैरेनी बीजी केटलीक विलक्षणता य छे एथी अर्थात् आर्षप्राकृतमां एक तो बौद्धमागधीने मळतो प्रवाह तथा बीजो कोई तेनाथी विलक्षण लागतो प्रवाह-एम बे प्रवाहो मळेला होई तेनुं नाम 'अर्धमागधी' कहेवायुं होय तो ना न कहेवाय. भाषानी दृष्टिए घसारो पामेलं वर्तमान आर्षप्राकृत जोईने पण उपर्युक्त कल्पना ऊठे छे, तो पछी जो ए जातना घसारा विनानुं आर्षप्राकृत मळतुं होत तो तेना 'अर्धमागधी' नामने खरेखर अनुरूप होत एम केम न बने ? ८० नीचेनी गाथामां बौद्ध पिटकोनी भाषाने 'मागधी' कहेली छे. “सा मागधी मूलभासा नरा या य-आदिकप्पिका । ब्रह्माणो चऽस्सुतालापा संबुद्धा चापि भासरे" ___ -(कच्चायनपालिव्याकरण, प्रस्ता० पृ० ३०) " सो च भगवा मागधो मगधे भवत्ता, सा च भासा मागधा, मागधस्स तथागतस्सायं भासा ति च कत्वा" -(पालिप्रकाश प्रस्ता० पृ० १३, टिप्पण ३२) सिद्धं इद्धगुणं साधु नमस्सित्वा तथागतं । सधम्मसंघ भासिस्सं मागधं सद्दलक्खणं ॥ -(मोगल्लान-पालिव्याकरणनो प्रारंभ) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ११५ जैन मूळ अंग-उपांगमां अने कलिंगराज खारवेलना लेखमां तथा ८१ अंगसूत्रनी भाषानो नमूनो: | 'सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं इहमेगसिं णो सण्णा भवइ, तं जहा-पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि ? दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि ? उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि ? उड्डाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि ? अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि ? अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि ?” -(आचारांगसूत्र प्रारंभ-मुद्रित) जे जे अक्षरो जाडा करीने बताव्या छे तेमने स्थाने 'त' नो पाठ पण प्राचीन लखेली पोथीओमां मळे छे. जेम के भगवया ने स्थाने भगवता, भवद ने स्थाने भवति, आगओ ने स्थाने आगतो. ए'त' श्रुतिवाळो पाठ अधिक प्राचीन छे अने आवा प्रयोगोमां पालिभाषामां पण 'त' श्रुति होय छे. उपांगसूत्रनी भाषानो नमूनोतए णं से एएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं वयासी-जति णं भंते ! तुम्भं समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, णो तं जीवो तं सरीरं। एवं खलु ममं अजए होत्था, इहेव जंबूदीवे दीवे सेयवियाए णगरीए अधम्मिए जाव सगस्स वि य णं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तेति, से णं तुभं वत्तव्वयाए सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसु णेरइयत्ताए उववण्णे।। (रायपसेणइय-उपांगसूत्र) आ पाठमां पण ज्यां ज्यां-जाडा अक्षरो छे त्यां बधे 'त' श्रुतिवाळा पाठो प्राचीन-हस्तलिखित-पुस्तकोमा उपलब्ध छे. ८२ कलिंगराज खारवेलना लेखनी भाषानो नमूनो "नमो अरहतानं नमो सवसिधानं ऐरेन महाराजेन माहामेघवाहनेन चेतिराजवसवधनेन पसथ-सुभलखनेन चतुरंतलुठितगुनोपहितेन कलिंगाधिपतिना सिरिखारवेलेन पंदरसवसानि सिरिकडारसरीरवता कीडिता कुमारकीडिका ततो लेखरूपगणनाववहारविधिविसारदेन सवविजावदातेन नववसानि योवरजं पसासितं Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति संपुणचतुवीसतिवसो तदानि वधमानसेसयो वेनाभिविजयो ततिये कलिंगराजवंसपुरिसयुगे माहारजाभिसेचनं पापुनाति -(कलिंगराज खारवेलनो शिलालेख) हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकोमा जैन आगमोनी जे जातनी भाषा सचवायेली छे ते अने आ खारवेलना लेखनी भाषा ए बे वचे घणी ज समानता छे. मुद्रित आगमोमां जे भाषा जोवा मळे छे तेमां व्यंजनोनो घसारो देखाय छे त्यारे प्राचीन पुस्तकोमा तेवं नथी अने खारवेलना लेखमां पण व्यंजनोनो घसारो तद्दन ओछो छे. ए ध्यानमा राखवा जेवू छे. छेदसूत्रो, मूळसूत्रो, ८३ छेदसूत्रनी भाषानो नमूनो आ प्रमाणे छे: " आयरियउवज्झाए गिलायमाणे अन्नयरं वएन्जा अजो! मामंसि णं कालगयंसि समाणसि अयं समुक्कसियव्वे, से य समुक्कसणारिहे समुक्कसियव्वे; से य नो समुक्कसणारिहे नो समुक्कसियव्वे, अत्थि य इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से समु. कसियन्वे, नत्थि य इत्थ अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से चेव समुक्कसियव्वे." (व्यवहारसूत्र पृ० ४८ मा०) जह कोई वणिको ऊ धूयं सेटिस्स हत्थे निक्खिविउं । दिसिजताए गतो त्ति कालगतो सो य सेठीओ ॥ १७४ ॥ जह रक्खह मज्झ सुता तहेव एयातो देवि ! पालेह । तीए वि ते ऊ पाले विष्णवियं विणीतकरणाए ।। १७७ ॥ सविकारातो दटुं सेठिसुया विण्णवेइ रायाणं । मयहरिय-दाण-निग्गह-वणियागम-रायविण्णवणं ॥ १८० ॥ -व्यवहारसूत्रभाष्य पृ० ३३-३४ मा०) छेदसूत्रना भाष्यनी गाथाओमां 'त' श्रुति छे अने जेमां व्यंजननो घसारो नथी एवा ‘गतो' ' वणिको' वगेरे प्रयोगो पण छे. ८४ मूळसूत्रनी भाषानो नमूनो आ प्रमाणे छ : एसणासमिओ लजु गामे अनियओ चरे । अप्पमत्तो पमत्तेहिं पिंडवातं गवेसए ॥ (६-१७) ___ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख एवं अदीणवं भिक्खू अगारिं च विजाणिया। कहं नु जिच्च-एलिक्खं जिच्चमाणो न संविदे ॥ (७-२२) उसिणपरितावेण परिदाहेण तज्जिओ। प्रिंसु वा परितावेण सायं ण परिदेवए ॥ (२-८) अज्जेवाहं ण लब्भामि अवि लाभो सुए सिया।। जो एवं पडिसंविक्खे अलाभो तं न तज्जए॥ (२-३१) जहा से वासुदेवे संखचक्रगदाधरे । अप्पडिहयबले जोहे एवं भवइ बहुस्सुए ।। (११-२१) -उत्तराध्ययनसूत्र ऋषिभौषित, पयनाओ, ८५ ऋषिभाषितनी भाषानो नमूनो: अधासच्चमिणं सव्वं वायुणा सव्वसंजुत्तेणं अरहता इसिणा वुइतंइध जं कीरते कम्मं तं परत्तोवभुज्जति । मूलसेकेसु रुक्खेसु फलं साहासु दिस्सति ।। जारिसं वुप्पते बीयं तारिसं बज्झए फलं । णाणासंठाणसंबद्धं णाणासण्णाभिसण्णितं ॥ जारिसं किज्जते कम्मं तारिसं भुजते फलं । णाणापयोगणिव्वत्तं दुक्खं वा जइ वा सुहं ।। कल्लाणा लभति कल्लाणं पावं पावातु पावति । हिंसं लभति हतारं जइत्ता य पराजयं ।। सूदणं सूदइत्ताणं जिंदंता वि अणिंदणं । अक्कोसइत्ता अक्कोसं णत्थि कम्मं णिरत्थकं ।। (ऋषिभाषित-पृ. २६) ८६ पयन्नानी भाषानो नमूनो: जत्थ य अज्जाहि समं थेरा वि न उल्लविंति गयदसणा। न य झायंति थीणं अंगोवंगाई तं गच्छं । वजह अप्पमत्ता अज्जासंसग्गि अग्गिविससरिसी। अजाणुचरो साहू लहइ अकित्तिं खु अचिरेण ॥ थेरस्स तवस्सियस्स व बहुस्सुयस्स व पमाणभूअस्स । अज्जासंसग्गीए जणपणयं हविज्जाहि ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति खेलपडिअमप्पाणं न तरइ जह मच्छिआ विमोएडं । अज्जाणुचरो साहू न तरइ अप्पं विमोएडं ॥ जत्थित्थीकरफरिसं लिंगी अरिहा वि सयमवि करिज्जा | तं निच्छयओ गोअम ! जाणिज्जा मूलगुणभद्रं ॥ ( गच्छाचारपयन्ना गा० ६२-६४, ६९, ८५ ) "नियुक्तिओ, “चूर्णिओ, ८७ नियुक्तिनी भाषानो नमूनो : दव्वकरणं तु दुविहं सन्नाकरणं च तो य सन्नाए । कडकरणमकरणं वेलूकरणं च सन्नाए || नोसन्ना करणं पुण पओगसा वीससा य बोद्धव्वं । साई मणाई दुविहं पुण विस्ससाकरणं ॥ धमाधम्मागासा एवं तिविहं भवे अगाईयं । चक्खु अचक्खुफासे एयं दुविहं तु साईयं || ( उत्तराध्ययन अ० ४, पृ० १९५ नियुक्ति गा० १८४ - १८६ ) ८८ चूर्णिओनी भाषानो नमूनो : " एवं शीलं जहित्ताणं दुःशीलभावो दौः शील्यं तस्मिन् दौस्सील्ये रमति मृत् मृगः दुःशीलो सीमंतेहिं णिक्कसिज्जति । x x x श्रुत्वा - सुणिया असोहणी भावो अभावो, जहा असोहणं सीलं जस्सेति असील: अथवा न भावः जहा अभावो देसस गरस वा वट्टति, साणस्स पूतिकरणम्स सूयरस्स कणगकुंडकं चइत्ताणं एवं दुस्सीलनरस्सेति " ( उत्तराध्ययनचूर्णि पृ० २७ ) अंगस्स चूलिता जधा आयारस्स पंच चूलातो, दिद्रिवातस्स वा चूलियागत्ति, विवक्खावसातो अज्झयणादिसमूहो वग्गो जधा अंतगडदसाणं x x x तेसिं चूला वग्गचूडा | वियाहो भगवती तीए चूला विग्राहचूला । पुन्वभणितो अभणितो य समासतोय चूलाए अत्थो भण्णति - इत्यर्थः । - ( नन्दीचूर्णि पृ. ४९ ) उक्त चूर्णिओनी रचनाशैली विलक्षण छे. जेम ललितविस्तर महापुराणनां पथोमां संस्कृतप्राकृतमिश्रित वचनो मळे छे तेम चूर्णिओमां पण छे. आ तो शैलीनी विशेषता छे; परंतु मुद्रित चूर्णिओना पाठो विश्वस्तरीते शुद्ध होय तो ते द्वारा चूर्णिओनी भाषानुं पण वैलक्षण्य जणाई आवे छे, जेने भाषाविज्ञ पाठक सहजमां समझी शके एम छे. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ११९ सूत्रो ऊपरनी प्राकृत व्याख्याओ, वेसुदेवहिंडी, समराइचकहा वगेरे कथाग्रंथो, प्राकृतमा लखायेलां तीर्थंकरचरित्रो वगैरे ग्रंथोमां आर्षप्राकृत सचवायेलुं छे. ८९ सूत्रो ऊपरनी टीकामां वपरायेली भाषानो नमूनो : “सा वि य इत्थिया णीया णिम्माणुसं अडविं जाव तिसायितो पेच्छति महतिमहालयं तत्थ ओइन्नो अभिरमति हत्थी । इमा वि सणियं सणियं उइण्णा तलागातो न दिसातो जाणइ। एक्काए दिसाए सागारं भत्तं पच्चक्खाइत्ता पहाविया जाव दूरं गता ताव तावसो दिदो, तस्स मूलं गया अभिवातितो" इत्यादि (उत्तराध्ययनटीका पृ० ३००) ९० वसुदेवहिंडी (छटो सैको) नी भाषानो नमूनो : “अहं विदिण्णपवेसा सया वि उवगया रायउलं । उवणीयं च मे कुमारीए मल्लं । उक्खित्तं च पस्समाणी परितोसुव्वेल्लमाणनयणजुयला किं पि चिंतिऊण मं पुच्छइ-बालिके! केण इमं दंसियं पुण्णं ? । मया विष्णविया-अम्ह सामिणिघरं अज्ज कओ वि एगो अतिही आगतो तेण आयरेण निम्मितं । ततो तं पुणो वि पडिभिण्णक्खरं भणइ-केरिसो सो तुन्भं अतिही ? कम्मि वा वए वट्टइ ? मया भणिया-न मया इहं पुरवरे नरवइपरिसाए वा तारिसो पुरिसो दिट्ठपुव्वो-तकेमि देवो विज्जाहरो वा भवे, पढमे य जोव्वणे वइ । पीईपुलयायमाणसरीरा पट्टजुयलं कडयजुयलं च दाऊण विसज्जेइ"- (वसुदेवहिंडी द्वि० ख० पृ०३५६ पुण्य०) ९१ समराइच्चकहा (आठमो-नवमो सैको) नी भाषानो नमूनो: “पुच्छिया य राइणा-सुंदरि ! किं ते न संपज्जइ, केण वा ते खंडिया आणा, किं वा मए पडिकूलमासेवियं जं निव्वेएण तुमं अप्पोयगा विव कुमुइणी एवं झिज्जसि त्ति। तओ पडिहिययलद्धनेहं भणियं कुसुमावलीए-अज्जउत्त! ईदिसो मे निव्वेओ णेण चिंतेमि-'अत्ताणयं वावाएमि' त्ति । राइणा भणियं-'सुंदरि ! किंनिमित्तो' ति । कुसुमावलीए भणियं-अज्जउत्त! भागधेयाणि मे पुच्छसु त्ति भणिऊण बाहजलभरियलोयणा सगग्गया संवुत्ता" -(समराइच्चकहा-द्वितीयभव) ९२ महावीरचरिय (अगीआरमो-बारमो सैको) नी भाषानो नमूनोः “ दाहोत्तिण्णजञ्चकंचणच्छाएण पभासरेण समुग्गमंतदिणयरनियराउलं दिसियकवालं कुणंतो सो महावीरजिणो कमेण विहरमाणो वेसालिं नयरिं संपत्तो, तत्थ य xxx सिद्धत्थनरवइबालमित्तो संखो नाम गणराया, सो य भगवंतं पञ्चभिजाणि Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति आर्षप्राकृतनी विशेष पूज्यताने लीधे विक्रमना अढारमा सैकाना विद्वानोए आर्ष प्राकृतनी पण ए प्राकृतमां ग्रंथरचना करी छे. प्राचीन ग्रंथोमांना प्राकृतनी अपेक्षाए पछीना - काळना - ग्रंथोमां पूज्यता भाषातारतम्य थतुं आव्युं छे. आर्षप्राकृतनुं खास कोई स्वतंत्र व्याकरण नथी परंतु एक आचार्य हेमचंद्रे पोताना प्राकृत व्याकरणमां तेने 'आर्षम् ' ना मथाळा नीचे ते ते स्थळे जणावेलुं छे. अंगउपांगादिक ग्रंथोनी भाषा जोतां हेमचंद्रे बतावेलुं आर्षप्राकृतना आर्षनुं निर्वचन पूरतुं नथी. एटले जैन आगमादिक सांगोपांग व्याकरननो अभाव साहित्यनो आधार लई आर्षप्राकृतनुं संपूर्ण व्याकरण करवानो खास अवकाश छे, अने प्राचीन भाषाना अभ्यासिओ माटे तेनी खास अपेक्षा पण छे. १२० ६२ साधारण - प्राकृत — प्राकृत एटले स्वाभाविक भाषा वा लोकोनी बोलचालनी भाषा. काळक्रमे जोतां तेमां पण अंतर तुं आव्युं छे. वेदोमांसचवायेली भाषा जे समये लोकोनी बोलचालनी भाषारूपे जे प्रकारे प्रचलित हशे ते प्रकारनी भाषानुं नाम आदिम प्राकृत अथवा पहेला थरनी प्राकृत. साधारण प्राकृतनो परिचय ऊण पराए भत्तीए महया रिद्धिसमुदएण सक्कारेइ । अह कइवयदिणावसाणे सामी वाणियगामे पहिओ । तस्स य अंतरा रंगतभंगुरतरंगा महाजलुप्पीलपूरियपुलिणा महिलाहिययं व दुग्गेज्झमज्झा रणभूमि व्व कच्छवयमयरहिया गंडईया नाम महानई । तं च सामी नावाए समुत्तिन्नो समाणो वेलयापुत्रिणंसि मुल्लनिमित्तं धरिओ नाविगेहिं । एत्थ य पत्थावे दिणद्धसमओ वह, खरं तावंति वेलुयं सूरस्स करपहकरा, तीए य संतप्पइ कमलकोमलं चलणतलं जिणस्स” - ( पृ० २२४ देव० फण्ड ) ९३ उपाध्याय श्रीयशोविजयजीए पोताना अनेक ग्रंथो प्राकृतमां रचेला छे: गुरुतत्त्वविनिश्चय वगेरे. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १२१ पहेला थरनी प्राकृत ज काळे करीने परिवर्तन पामी भगवान महावीर वा भगवान बुद्धना समयमां लोकोनी बोलचालमा जे आकारे चालती हो, जेनुं बंधारण वैदिक भाषाने मळतुं आवे छे, अने जेनो नमूनो बौद्ध पिटको अने जैन आगमोमां सचवायेलो छे, ते बीजा थरनी प्राकृत-बौद्धमार्गधी, अथवा पालि अथवा आर्षप्राकृत के अर्धमागधी. अशोकनी धर्मलिपिनी भाषा अने कलिंगाधिपति महाराजा खारवेलना लेखनी भाषा-ए बधी प्राकृत बीजा थरनी प्राकृत. बीजा थरनी प्राकृतोमां अमुक रीते जोतां विशेष मळतापणुं भासे छे अने अमुक रीते जोतां ते दरेकनी जुदी जुदी खास विशेषताओ पण छे. समयभेद अने स्थानभेद तथा भाषाभेदनां जे निमित्तो बाबत अहीं (पृ. १४) सविस्तर चर्चा थई गई छे ते निमित्तोने लीधे बीजा थरनी प्राकृतमा विविधता देखाय छे. गउडवेहो, ९४ जुओ टिप्पण ७०. ९५ जुओ टिप्पण ८१. ९६ जुओ टिप्पण ६९-अशोकनी धर्मलिपिनो नमूनो. ९७ जुओ टिप्पण ८२. ९८ 'गउडवहो' नी भाषानो नमनो "कत्तो णाम न दिटुं सच्चं कइसेविएसु मग्गेसु । सीमंते उण मुक्कम्मि तम्मि सव्वं नवं चेअ ।। ८५ । आसंसारं कइपुंगवेहिं तद्दियहगहियसारो वि । अज्ज वि अभिण्णमुद्दो व्व जयइ वायापरिप्फंदो ॥ ८७ ॥ को निंदइ नीययमे गरुययरे को पसंसिउं तरइ । सामण्णं चिय ठाणं थुईण परिणिंदियाणं च ॥ ८२॥ जस्स विअयाहिसेए विवक्खदेवीहिं णवणिओगाहिं । पीआई तक्खणूप्पिअचमरंतरियाई अंसूई ॥ १२०८ ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति दयियाए को वि णिहापरिस्समुभिण्णसेयबिंदुइयं । परिउंबइ सुहेण सहियपडिबोहन्दोलियं वयणं ॥ ११६२॥ 'गउडवहो' नी भाषामां जाणे कृत्रिम प्राकृत वपरायुं होय एम नीचेना प्रयोगो ऊपरथी समझाय छे: विजय ने स्थाने विषय परिचुंबति ने स्थाने परिउंबइ 'गउडवहो 'मां आवा तो अनेक प्रयोगो सुलभ छे. मुद्रित 'गउडवहो' मां न दिटुं ने स्थाने नइट्ट अने सुहेण सहिय ने स्थाने सुह-णसहिय-एम अशुद्ध छपायेलुं छे. सेतुबंध, ९९ ‘सेतुबंध' नी भाषानो नमूनो : णमह अ जस्स फुडरवं कंठच्छाआवडनगअणग्गिसिहं । फुरइ फुरिअट्टहासं उद्धपडित्ततिमिरं विअ दिसाअकं ॥५॥ णट्टारंभक्खुहिआ जस्स भउब्भंतमच्छपहअजलरआ। होंति सलिलुखुमाइअधूमाअंतवडवामुहा मअरहरा ॥ ८ ॥ गमिआ कलंबवाआ दिदं मेहंधआरिअंगअणतलं । सहिओ गजिअसद्दो तह वि हु से पत्थि जीविए आसंघो ॥ १५ ॥ सोहइ विसुद्धकिरणो गअणसमुद्दम्मि रणिवेलालग्गे। तारामुत्तावअरो फुडविहडिअमेहसिप्पिसंपुडो ॥ २२ ।। -(प्रथम आश्वास) अह मउअंपि भरसहं जपइ थोपि अत्थसारब्भहि। पण पि धीरगरु थुइसंबद्ध पि अणलिअं सलिलणिही ॥ ९ ॥ -(छटो आश्वास) 'गउडवहो' नी पेठे 'सेतुबंध' नी भाषामां पण अनेक प्रयोगो कृत्रिम प्राकृतना जणाय छे: च्छाया स्थाने णयण स्थाने णअण पलित्त , " पडित दिसाचकं दिसाअकं च्छाआ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १२३ गअण कर्पूरमञ्जरी वगेरे ग्रंथोमां जे प्राकृत भाषानो उपयोग थयेलो छ ते, उक्त बीजा थरनी प्राकृत भाषामांथी ऊतरेली छे. बीजा थरमांथी ऊतरेली ए प्राकृतमां अनादि व्यंजनोना उच्चारणो विशेष घसाई गयेलां देखाय छे अने ए तेनी खास विशेषता छे. वर्तमानमा जे प्राकृत व्याकरणो उपलब्ध छे अने तेमां प्रधानपणे जे भाषाओनी चर्चा छे ते भाषाओ, उक्त बीजा थरनी भाषाओना परिणामांतररूप छे. __केटलाक लोको 'महाराष्ट्र' शब्दनो वर्तमान संकुचित अर्थ करे छे अने ते देशनी भाषाने ' महाराष्ट्री' कहे छे. त्यारे बीजा विद्वानो -रया , -रआ (रय-वेग) मअरघरा , " मअरहरा मुत्तापयरो , मुतावअरो गयण मुद्रित सेतुबंधमां नीचेना पाठो अशुद्ध छपायेला छे : -सिहम् -अक्कम् -भडब्बत -तलम् आ चारे पाठो अहीं सुधारीने मूकेला छे. १०० कर्पूरमञ्जरीनी भाषानो नमूनो----- "जअ जअ पुन्वदिसङ्गणाभुअङ्ग ! चम्पाचम्पअकण्णऊर ! राढाणिज्जिदराढाचनत्तण ! विक्कमकंतकामरूव ! हरिकेली केलीआर! अवमण्णिदजच्चसुवण्णवण्ण ! सव्वङ्गसुन्दरत्तणरमणिज्ज ! सुहाअ दे भोदु सुरहिसमारम्भो”-पृ. ९. अत्थि एत्थ लाडदेसे चण्डसेणो णाम राआ। तस्स दुहिदा घणसारमञ्जरि त्ति, सा देवण्णएहिं गिद्दिट्ठा जधा एसा चक्कवहिपरिणी भविस्सदि त्ति । तदो सा महाराएण परिणेदव्वा जेण गुरुस्स वि दक्खिणा दिण्णा भोदि ।”-पृ० १०४ कर्पूरमञ्जरी (राजशेखर आशरे नवमो सैको) हारवर्ड ग्रंथमाला. १०१ महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः”-(काव्यादर्श-१,३४. दंडी आशरे छटो सैको) महाकवि दंडी दाक्षिणात्य छे अने तेथी ज ते पोतानी मातृभाषाने 'प्रकृष्ट प्राकृत' कहे ए तेनी मातृभाषानी भक्तिनुं सूचक छे. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'महाराष्ट्र' नो अर्थ संकुचित न करतां 'जेनी बधी बाजुनी सीमा . विशाळ छे एवो मोटो राष्ट्र'-एवो व्यापक अर्थ महाराष्ट्र प्राकृत करे छे अने ते मोटा देशमां व्यापेली भाषाने नो अर्थ 'महाराष्ट्री' कहे छे. मारी नम्र कल्पना 'महाराष्ट्र'ना आ व्यापक अर्थ तरफ ढळे छे. चंड अने हेमचंद्र पोताना व्याकरणमां 'प्राकृत'ने 'महाराष्ट्री' नुं विशेषण नथी आपता, तेमने अनुसरीने हुं पण साधारण प्राकृतभाषा माटे · महाराष्ट्री प्राकृत' शब्दनो प्रयोग न करतां तेने बदले केवळ 'साधारण प्राकृत' नो प्रयोग करूं छं. आज सुधीमां भाषानी चर्चाने लगता त्रण लेखो लख्या छे तेमां सर्वत्र में बे अर्थमां 'प्राकृत' शब्दोनो उपयोग कर्यो छे : आर्षप्राकृत अने साधारणप्राकृत. जैनसूत्रोना प्राचीन प्राकृत माटे आर्षप्राकृत अने ते पछीना प्राकृत माटे साधारण प्राकृत के जेनुं व्याकरण विद्यमान छे. मारा कोई पण लेखमां में 'महाराष्ट्री प्राकृत' जेवा वर्तमान संकुचित अर्थ माटे 'प्राकृत' शब्दने वापर्यो ज नथी. आर्षप्राकृत अने साधारणप्राकृतमां जे विशेषता छे ते आगळ . आवी गई छे परंतु साधारणप्राकृत पण बधुं एक साधारण प्राकृतनी कृतना सरखं नथी. चंडनुं व्याकरण जोईए अने हेमचंद्रनुं की पण विधविधता - व्याकरण जोईए तो ते बन्नेमा विशेष भेद छे, तेनुं एक ज उदाहरण बस छे : आचार्य हेमचंद्र ‘कृत्वा' अर्थे वपराता 'कट्ट' शब्दने आर्षप्राकृत कहे छे, त्यारे चै तेने एवा भेदमां न लेतां पोते साधी बतावेला सामान्य प्रयोगोमां मूके छे. चंडमां चंड अने हेमचंद्र आर्षप्राकृतनो भेद ज नथी. 'पिशाची'ने बदले १०२ “क्त्वः तुं-अतू-तूण-तुआणाः"-८।२।१४६ “कटु इति तु आर्षे"। १०३ “तु-ता-चा-टु-तुं-तूण-तुवाण-ओ-प्पि-वि पूर्वकालेऽर्थे " -सूत्र-१९ । तु, त्ता, च्चा, हु, तुं, तूण, तुवाण, ओ, प्पि, वि, प्पिणु पूर्वकालार्थे भवति । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १२५ वपराता ‘पिसाजी' अने 'तीर्थकर 'ने बदले वपराता ‘तित्थगर' शब्दो माटे चंडे “प्रथमस्य तृतीयः” एवं सूत्र रची ते ते प्रयोगने साधे छे त्यारे आचार्य हेमचंद्र ते प्रयोगोने बाहुलिक तरीके जणावे छे अने तेम जणावी तेवा प्रयोगोनी विरलता बतावे छे. आ परथी एम पण जणाय छे के हेमचंद्रे बतावेला प्राकृतमां अनादि व्यंजनोनो जेवो घसारो मालूम पडे छे तेवो घसारो चंडना बतावेला प्राकृतमां नथी जणातो. ए रीते 'साधारण-प्राकृत 'मां पण काळकृत विशेषताओ रहेली छे. चंडेंनी व्याकरणमां प्रथम साधारण-प्राकृत पछी अपभ्रंश, पछी तु-वंदित्तु सव्वे वि। ता-जिणंदचंदे वदित्ता चा-सुच्चा टु-कटु तुं-भोत्तुं तूण-भोत्तूण ओ-वंदिओ प्पि-कप्पि । एवं वि-वन्दित्वा-बंदेवि प्पिणु-वंदेप्पिणु-"उक्तसूत्रवृत्ति-चंडप्राकृतलक्षण स्वरविधान. (हस्तलिखित) मुद्रितमां तुवाण-वि-प्पिणु आ त्रण प्रत्ययो नथी. १०४-चंडनुं प्राकृतलक्षण-व्यंजनविधान सूत्र १२ तेनां उदाहरणो. तीर्थकर:-तित्थगरो। पिशाची-पिसाजी । वगेरे. १०५ हेमचंद्रे ८।१।१७७ सूत्रमा ए अने एवा बीजा प्रयोगोने बाहुलिक रूपे जणाव्या छे. १०६ जुओ चंडना प्राकृतलक्षणमां भाषाओनो क्रम. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पैशाची, पछी मागधी अने पछी शौरसेनी एवो रचनाक्रम छे, 'त्यारे हेमचंद्रना व्याकरणमां प्रथम साधारण-प्राकृत पछी शौरसेनी पछी मागधी अने पछी पैशाची, चूलिका पैशाची अने छेवटे अपभ्रंश एवो रचनाक्रम छे. वळी, हेमचंद्र अपभ्रंशनो खास जुदो निर्देश करी ते बाबत सविस्तर नियमो आप्या छे, त्यारे चंडे मात्र पोताना सूत्रमा अपभ्रंशनो नामनिर्देश करी तेने लगतुं फक्त एक ज सूत्र ने लोपोऽपभ्रंशेऽधेरिफस्य" आप्यु छे. चंडे० "संस्कृतं प्राकृतं चैवा-ऽपभ्रंशोऽथ पिशाचिका । मागधी सूरसेनी च षड् भाषाश्च प्रकीर्तिताः"॥ चंड अने लक्ष्मीधर ए रीते छ भाषाओने गणावी छे त्यारे लक्ष्मीधेरै वगेरे बीजा केटलाओए "षड्विधा सा प्राकृती च शौरसेनी च मागधी। पैशाची चूलिकापैशाची-अपभ्रंश इति क्रमात्" ॥ २६॥ ए रीते प्राकृती-प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची अने अपभ्रंश-ए क्रमथी छ भाषाओने सूचवेली छे. आ रीते चंड अने ते पछीना वैयाकरणोमां रचनाक्रमनी जे विशेषताओ छे, ते बधी, साधारण प्राकृतमा रहेली विशेषताओनी सूचक भासे छे. तात्पर्य ए के सामान्य रीते साधारण प्राकृत बधुं एक सरखं कहेवाय अने भेददृष्टिथी परीक्षा करीए तो तेमां पण स्थळ अने काळादिकना बळे थयेलां परिवर्तनोनो पार नथी. १०७ जुओ हेमचंद्रना प्राकृतव्याकरणमां भाषाओनो क्रम. १०८ जुओ हेमचंद्रनुं प्राकृतव्याकरण सूत्र ८॥४॥३२९ थी ८१४।४४८ सुधी. १०९ जुओ चंडर्नु प्राकृतलक्षण व्यंजनविधान तृतीय, सूत्र ३७. ११० जुओ चंडनुं प्राकृतलक्षण पृ० ४६ (सत्य०) १११ लक्ष्मीधरनी षड्भाषाचंद्रिका पृ. ४-प्राकृतविनियोग. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १२७ मध्ययुगना जैन पंडिताए आ साधारण प्राकृतनो विशेष उपयोग कर्यो छे अने तेनी सरखामणीमां ते युगना ब्राह्मण पंडितो पण तेनो ओछो उपयोग नथी कर्यो. तेमना नाटकोमां तथा गउडवहो, रावणवहो, सेतुबंध, गाथासप्तशती वगैरे अनेक ग्रंथोमां ते साधारणप्राकृत ज वपरायुं छे. जैन पंडितोना प्राकृतमां आर्षनी छांट होय छे त्यारे ब्राह्मण पंडितोना प्राकृतमां आर्षनी छांट विशेषरूपे नथी होती. ए, ते बन्नेनी खास विशेषता छे. अभ्यासमा सरळता थाय ते माटे आर्षप्राकृत अने साधारणप्राकृतनो शब्ददेह प्राकृत व्याकरणोमां त्रण रोते बहेंचेलो छे. बीजा थरनी अने बीजा थरमांथी ऊतरेली साधारण-प्राकृतनी शब्दकाया जो के आदिम प्राकृत द्वारा घडायेली छे, तो पण ते शब्दकायाना जे शब्दो वैदिक ऋचाओमां जळवायेला शब्दो साथै उच्चारण अने अर्थनी दृष्टिए सर्वथा समानभाव राखता होय. तेमनुं समुचित नाम तत्सम शब्द ऋग्वेदादि वैदिक साहित्यमा वपरायेला अने बौद्ध-जैन-आगमादिक प्राकृत साहित्यमां वपरायेला एवा केटलाक शब्दो नीचे प्रमाणे छे: भूरि, वसु, धूम, वीर, महावीर, भेदति, मरति, हाति, जन्तु, उत्तम, सह, भीम, देव, विभाग, बाहु, पुरंदर, धीर वगैरे. आ जातना शब्दो उक्त प्राकृत साहित्यमां हजारोनी संख्यामां मळे छे. वैदिक शब्दोमा अने उक्त साहित्यगत शब्दोमां ज्यां उच्चारण भेद क्र्ते छे छतां अक्षरयोजना अने अर्थदृष्टिए समा' नो नता जळवायेली छे तेवा प्राकृत शब्दसमूहनुं नाम तद्भव शब्द. जेमके - मन्त्र - मंत, भक्त-भक्त, कवि 'तद्भव' अर्थ कइ, पद-पय, पर्वत - पव्वत-पव्यय, कूप- कूव, यज्ञ - जन्न, पाप-पाव, C C तत्सम' नो अर्थ ११२ “ प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवम् तत आगतम् वा प्राकृतम् ” ( ८-१-१ हे० ) एम कहीने हेमचंद्र कहे छे के "संस्कृत शब्दने स्थाने जे शब्दने आदेशरूपे Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति प्राचीन-पाचीन-पाईण, पुष्प-पुप्फ, पुरुष-पुरुस-पुरिस, कृण-कुण, द्वादश-द्वादस-दुवालस-बारस, चक्र-चक्क, सप्त-सत्त, वधू-वहू वगेरे. करेलो होय वा संस्कृतशब्दमां अमुक फेरफार करीने जे शब्द सधातो होय ते बन्ने प्रकारना शब्दो तद्भव कहेवाय.” ___ आदेशरूप-हे? “ अधसो हे;" ८।२।१४१॥ दाढा “ दंष्ट्राया दाढा" ८।२।१४० । पुरिम "पूर्वस्य पुरिमः” ८।२।१३५ । वगेरे. एवा आदेशो माटे ८।२।१२५ सूत्रथी जोवू. थोडा फेरफारवाळा-हत्थी-हस्ती. मंत-मन्त्र. भत्त-भक्त. आवा अनेक शब्दो तो ऊपर सूचवेला ज छे. हेमचंद्रना कहेवा प्रमाणे तत्सम, तद्भव अने देश्य एम त्रण प्रकारचें प्राकृत छे. चंडनो अभिप्राय पण ए ज प्रकारनो छे. तेणे ए माटे 'संस्कृतयोनि' 'संस्कृतसम' अने 'देशी' एवा शब्दो वापर्या छे.. आ संबंधे मारो नम्र मत एवो छ के प्राकृतभाषाओ माटे 'संस्कृतयोनि' के 'तद्भव' शब्दो ज्यारथी प्रचारमा आव्या त्यारथी एक एवो गोटाळो ऊभो थयो छे के प्राकृतभाषाओनी जननी संस्कृत भाषा छे अने ए गोटाळो आज सुधी पण प्रचलित छे. मारा भाषणमां (पृ. ४९) 'संस्कृत द्वारा प्राकृत भाषा आवी छे' ए मतनोप्रतिवाद में घणी युक्तिओ आपीने करेलो छे. ते संबंधे भाषातत्त्वविचारको जरूर लक्ष्य करशे. 'प्राकृत' शब्दनो अर्थ ज‘स्वाभाविक' छे एटले जे भाषा स्वाभाविक-जन्मसिद्धहोय-जेने बोलवा माटे अध्ययनादिप्रवृत्तिनी जरूर ज न होय. तेवी लोकभाषाओनो प्राकृतभाषाओमा समावेश छ अर्थात् प्राकृत शब्दनो अर्थ ज ए हकीकतने सिद्ध करवाने पूरतो छ के ते संस्कृतजन्य नथी किंतु स्वाभाविक छे. आम छे त्यारे प्राचीन वैयाकरणोए प्राकृत माटे 'संस्कृतयोनि' के 'तद्भव' शब्द वापर्या छे ते शुं तद्दन खोटा छे ? आ प्रश्र्नु समाधान पण भाषणोमां (पृ० ७६) आवी गयुं छे, एथी अहीं पुनरुक्ति नथी करतो. परंतु खास बात तो ए कहेवानी छे के, प्राकृतना 'संस्कृतयोनि' 'तत्सम' अने 'देश्य' एवा त्रण प्रकार कहेवानी जरूर ज नथी. तेने बदले “ तत्सम' 'देश्य' एवा बे ज प्रकार बताववा उचित छे. ___ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १२९ आ उपरांत ए उभयप्राकृतमां एक एवो शब्दसमूह छे, जे वैदिक शब्दो साथै कोई प्रकारनुं साम्य धरावतो नथी, तेम देश्य एटले तळपदी जेमां 'अमुक अंश धातु - प्रकृति - अने अमुक अंश प्रत्यय' एवो विभाग थई शकतो नथी, एवो तळपदी शब्दसमूह 'देशी' चा 'देश्य' प्राकृतना नामथी ख्यात छे. आवो देश्य शब्दसमूह अतिप्राचीन समयथी चाल्यो आवे छे. तेमां बे प्रकारना शब्दो भळेला छे. एक आर्यसंतानी ने बीजा अनार्यसंतानीय. गमे ते एक वा अनेक अर्थोमां आर्योए संकेतेला शब्दो जेमनी व्युत्पत्ति आज हजारो वर्षथी खोवाई गई छे, ( संभव छे के संकेत करती वखते आर्यो पासे तेमनी व्युत्पत्ति होय पण खरी ) तेवा, प्राकृत तेम ज संस्कृतमां ऊतरी आवेला शब्दोने आर्यसंतानीय देश्य समझवा अने आर्योनी साथै आदिम जातिओना गाढ परिचयने ली आदिम जातिओनी भाषाना जे केटलाक शब्दो आर्यभाषामा पेसी गया अने जेमने आर्योए पोतानी उच्चारण आर्य संतानीय देश्य अने अनार्य संता नीय देश्य दाढा - दंष्ट्रा पुरम - पूर्व -अधस्तात् हत्थी - हस्ती मंत - मन्त्र भक्त-भक्त रुक्ख-वृक्ष उक्त शब्दोमां जेम 'हत्थी' अने 'हस्ती' वगेरे शब्दो तत्सम छे तेम ' पूर्व - पुरिम' 'दंष्ट्रा - दाढा ' ' वृक्ष - रुक्ख' वगेरे शब्दो पण तत्सम ज छे. वैयाकरणोए तो पोतानी सगवड माटे आदेशोनी कल्पना करी छे. परंतु खरी रीते ते आदेशरूप कल्पायेला बधा य शब्दो तत्सम ज छे. आ रीते जेनुं साम्य न जाणी शकाय ते 'देश्य' अने जेनुं साम्य जाणी शकाय ते ' तत्सम' एवा बे ज विभाग करीए तो 'तद्भव' के ' संस्कृतयोनि' शब्दोथी जे गोटाळो ऊभो थयो छे ते नहीं रहे अने तुलनात्मक पद्धतिए निरीक्षण करवानी प्रथाने विशेष प्रोत्साहन मळशे. विशेष माटे जुओ-'देश्य प्राकृत अने तेना शब्दोनां मूल ' ( बुद्धिप्रकाश १९४१, मार्च - जून पृ० ९५ ) ९ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति करवानी रीते जाळवी राख्या तेवा मूळे अनार्यसंतानीय शब्दो पण ए देशी शब्दसमूहमां समझवाना छे. अनार्यसंतानीय देश्यनो स्पष्टार्थ ए छे के, जे जे अनार्य जातिओ अहींनी हती, जे जे अनार्य जातिओ बहारथी आवीने अहीं वसी हती, तेवी बधी जातिओ साथे आर्योनो परस्पर भाषाव्यवहार हतो तेथी ते बधी जातिओना शब्दो आर्योनी भाषामां अनार्यः आर्यः नेम ( अडधुं) अनार्यसंतानीय जीनेदेश्यशब्दो जयन-जयण (घोडानुं जीन) चोर (भात) माल - माला ( महिला-स्त्री) वगैरे अनेक शब्दोनी पेठे थोडा के वधु फेरफार साथे भेळवाई गया, एवो ते भेळाई गयेलो शब्दसमूह अनार्यसंतानीय देश्यनी कोटिनो समझवो. चोर __ जे अभ्यासिओ तुलनात्मक भाषाविज्ञाननी दृष्टिए गवेषणा करनारा होय अने साथे साथे द्रविडी वगेरे आदिम जातिओनी भाषाना पण जाणकार होय तेओ, संगृहीत देश्य शब्दोमांथी आदिम जातिओना शब्दोने तुरत ११३ नीम ( अडधुं) फारसी शब्द छे. ११४ 'जीन' माटे ११७ मुं टिप्पण जोवं. ११५-११६ आ बन्ने शब्दो माटे टिप्पण ३४ मुं तथा ३५ मुं जोई लेवं. वर्तमानमां मळयालंभाषामां 'भात' अर्थ माटे 'चोरु' शब्द वपराय छे एम एक मद्रासी मित्र पासेथी जाण्युं छे. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख तारवी शके छे. अक्कों, जयण, तंट, पडुजुवइ, पड्डी वगैरे अनेक शब्दो द्रविडी अने तेलगुना होई अनार्यसंतानीय छे. राजकुटुंबमां रहेती दासीओने लगता उल्लेखो जैन आगमोमां स्थळे राजकुमारोना स्थळे मळे छे. ते ऊपरथी एम स्पष्ट मालूम पडे छे उछेर माटे के ए दासीओनो मोटो भाग अनार्य जातिनो हतो. अनार्य दासीओ सूत्रकार कहे छे के—“तए णं दढपतिण्णे दारए पंचधाईपरिक्खित्तेखीरधाईए मंडणधाईए मजणधाईए अंकधाईए किलावणधाईए अन्नाहि य बहूहिं चिलाइयाहिं xxx बब्बराहिं, बउसियाहिं, जोण्हियाहिं, पण्हवि. याहिं, ईसिणियाहिं, वारुणियाहिं, लासियाहिं, लाउसियाहिं, दमिलीहिं, सिंहलीहि, पुलिंदीहिं, आरबीहिं, पक्कणीहि, बहलीहिं, मुरंडीहिं, सबरीहिं, पारसीहिं, णाणादेसी-विदेस-परिमंडियाहिं इंगियचिंतियपत्थियवियाणाहिं सदेसणेवत्थगहियवसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं, चेडियाचक्कवालतरुणिवंदपरियालपरिवुडे" – (रायपसेणइय पृ० ३३८, कंडिका-२१० गूर्जरग्रन्थ०) उक्त पाठनुं विवरण करनार आचार्य मलयगिरि लखे छे के-"चिलातीभिः अनार्यदेशोत्पन्नाभिः xxx बर्बरीभिः-बर्बरदेशसंभवाभिः बकुशि ११७ 'अक्का' (बहेन) द्रविडी शब्द छे. फारसी 'जीन' शब्दनुं 'जयण' सुधार्यु लागे छे. तेलगु भाषामा 'टुंटी' शब्द छे ए, अहीं ' तंट' रूपे आव्यू जणाय छे तंट (पृष्ठ-पीठ). पडुजुवइ (जुवान स्त्री) ने बराबर समान शब्द तेलगुमां पडुचु छे. पड़ी (पहेलवहेली विआयेली) नो बराबर समान, तेलगुमां पडा छे. तेलगुमां पड्डा एटले 'पहेलवहेली विंआयेली गाय' आ संबंधे वधारे माहिती मेळववानी इच्छावाळा विद्यार्थिए परवस्तु वेंकट रामानुजस्वामी संपादित देशीनाममाला (मुंबई सिरीझ) नो शब्दकोश जोवो. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति काभिः, यौनकाभिः, पल्हविकामिः, ईसिनिकाभिः, वारुणिकाभिः, लासिकामिः, लकुसिकाभिः, द्रमिलामिः, सिंहलीभिः, पुलिन्द्रीभिः, आरबीभिः, पक्वणीभिः, बहलीभिः, मुरण्डीभिः, शबरीभिः, पारसीभिः-एवंभूताभिः नानादेशीभिः नानाविधाऽनार्यप्रदेशोत्पन्नाभिः विदेश....परिमण्डिकाभिः...स्वदेशे यद् नेपथ्यम् परिधानादिरचना तद् गृहीतो वेषो यकाभिस्ताः तथा....निपुणकुशलाभिः विनीताभिः चेटिकाचक्रवालेन अनार्यदेशसंभवेन-" (रायपसेणइय पृ० ३३८, कंडिका २१० गूर्जरग्रंथ० )-अर्थात् दृढप्रतिज्ञ राजकुमारना लालन-पालन अने संवर्धन माटे अनार्यदेशनी अनेक दासीओ राखवामां आवेली : किरात, बर्बर, बकुश, यौनिक यवनिक (?), पल्हविक, ईसिनिक, वारुणिक, लासिक, लकुसिक, द्रमिल, सिंहल, पुलिंद, आरब, पक्कण, बहल, मुरण्ड, शबर अने पारसीक एम ए दासीओ अनेक अनार्य देशोनी जन्मेली हती, विदेशमां आवीने मंडायेली हती, अने पोताना पहेरवेशमा रहेनारी ते दासीओ निपुण, कुशल तथा विनीत हती." ___ आ रीते ठेठ अन्तःपुर सुधी अने वळी राजबीजना उछेर माटे बीजी बीजी प्रजाओनां बाईओने वा भाईओने जे देशमां विशिष्ट स्थान होय ते देशनी भाषामां ते ते अनार्य जातिओना शब्दो भळे ज अने ते भळेला शब्दो आर्य-उच्चारणनो ओप पामी सचवाई वारसा उतार चाल्या ज आवे ए हकीकत निर्विवाद छे. आदिम प्राकृतना काळथी के त्यार पछीना समयथी जे एवा उक्त बन्ने संतानवाळा शब्दो चाल्या आव्या छे अने एमांना जे केटलाक देशीर्शब्दसंग्रह वगैरे देश्यकोशादि ग्रंथोमां सचवाया छे ते 'देश्य ' वा ' देशी' प्राकृतना समझवाना छे. ११८ वर्तमानमा जे ग्रंथ 'देशीनाममाला' शब्दथी जाणीतो छे तेनुं खरं नाम 'देशीशब्दसंग्रह' छे. आचार्य हेमचंद्र पोते ज लखे छे के “विरइज्जइ देसीसह Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १३३ आवा देश्य शब्दो फक्त प्राकृतमां छे एम नथी, वेदो मुद्धामां पण एवा शब्दो पेसी गयेला छे. आ बाबत महर्षि जैमिनि, शबर अने कुमारिलनां वचनोनो आधार लई आगळ ( पृ० २७ ) चर्चा करेली छे. ६३ लौकिक संस्कृतमां पण त्रण प्रकारना शब्दोनो प्रयोग प्रचलित छे. रूट, यौगिक अने मिश्र. जे शब्दोमां यौगिक लौकिक संस्कृतमां शब्दोनी पेठे प्रकृति - प्रत्ययनो विभाग थई शकतो पण देश्य शब्दो नथी ते शब्दो रूढ. जेवा के—- आखण्डल, मण्डप, शुण्ठी, ग्राम, कश्मीर, बर्बर, अलक्तक, कुतु, खल, सूर्मि, नारङ्ग, लवङ्ग, संगहो ( विरच्यते देशीशब्दसंग्रहः ) - देशीनाम० गा० २ अर्थात् " देशीशब्दसंग्रहने रचुं हुं ” अने ए पुस्तकना अंतमां आ उपरांत एनुं बीजं नाम पण सूचवे छे. 'इअ रयणावलिनामो देसीसद्दाण संगहो एसो । << वायरणसेसलेसो रइओ सिरिहेमचंदमुणिवइणा " ॥ ७७ ॥ - देशीनाम • अंतिम गाथा. अर्थात् “जेनुं बीजुं नाम 'रत्नावली' छे ते देशी शब्दोनो संग्रह — के जे ( प्राकृत ) व्याकरणना परिशिष्टरूप छे—मुनिपति श्री हेमचंद्रे रचेलो छे. " उक्त श्लोकना विवरणमां पण तेमणे आ ज वातने टेको आप्यो छे : " इति एष देशीशब्दसंग्रहः स्वोपज्ञशब्दानुशासनाष्टमाध्यायशेषलेश: रत्नावलीनामा आचार्यश्री हेमचन्द्रेण विरचित इति भद्रम् | " आम छतां धनंजयमाला, पाइअलच्छीनाममाला वगेरे कोशनां नामोनी पेठे प्रस्तुत 'देशीशब्दसंग्रह' नी विशेष ख्याति कोई विचक्षणे 'देशीनाममाला ' शब्दथी प्रचारमां आणी छे. ८८ ११९ “ व्युत्पत्तिरहिताः शब्दा रूढा आखण्डल - आदयः "" - (हैम० अभि० श्लो० २ ) अर्थात् " जेमनी व्युत्पत्ति जाणी शकाती नथी परंतु जेमनो अर्थ मात्र लोकप्रचारने आधारे थाय छे ते रूढ शब्दो.” आ रूढ शब्दो अने देश्य के देशी शब्दो ए बधा समानस्वभावना छे, ए ध्यानमा राखवानुं छे. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति गोहिर, कफोणि, कफणि, अंगुरी, हस्त वगेरे. लौकिक संस्कृतमां आवा शब्दोनो पार नथी. शब्दव्युत्पादक वैयाकरणोए 'उणादि' नामनुं एक मोटुं प्रकरण रच्युं छे अने ते द्वारा ते ते बधा रूढ शब्दोमां प्रकृति अने प्रत्ययनी कल्पना करीने ते दरेक शब्दने साधी बताव्यो छे. तो पण ते रूढ शब्दो व्युत्पन्न नथी गणाता. रूढ शब्दो संबंधे लखतां आचार्य हेमचन्द्र कहे छे के—“ न हि अत्र प्रकृति-प्रत्ययविभागेन व्युत्पत्तिरस्ति “ योगः अन्वयः स तु गुण-क्रिया-संबन्धसंभवः” (हैम० अभि० श्लो० २) अर्थात् “जेमनी व्युत्पत्ति जाणी शकाय अने जेमनो अर्थ ए व्युत्पत्ति प्रमाणे प्रवर्ते ते यौगिक शब्द. ए यौगिक शब्दोमां केटलाक शब्दो क्रियाप्रधान, गुणप्रधान अने संबंधप्रधान होय छे.” स्रष्टा, विधाता, विधि ए शब्दो क्रियाप्रधान छे: जे सर्जन करे ते स्रष्टा, जे विधान करे ते विधाता, विधि वगेरे. तेज प्रमाणे रसवती-रसोई-करे ते रसोयो. कुंभ (घडो) करे-घडे ते-कुंभार. लोह-लोढुं-करे-घडे ते लुहार, चामडं करे ते चमार. सीवे ते सई. वगेरे. नीलकंठ, कालकंठ, त्रिलोचन, पंचबाण, दशग्रीव वगेरे गुणप्रधान शब्दो छ: जेनो कंठ नीलो छे ते नीलकंठ-महादेव. जेनो कंठ काळो छे ते कालकंठ-महादेव. जेने त्रण लोचन छे ते त्रिलोचन-महादेव. जेने पांच बाण छे ते पंचबाण-कामदेव. जेने दश ग्रीवाओ-डोक-माथां-छे ते दशग्रीव-रावण वगेरे. _ जेनां त्रण पगलां छे ते त्रिविक्रम-त्रीकम. जेने चार पाग छे ते चोपगुं-पशु-गाय वगेरे. जेमा सात दिवस सुधी पारायण चाले छे ते सप्ताह. ( सप्त+अह-दिवस) जेमां आठ दिवस सुधी उत्सव वा उपवासो शरू होय ते अष्टाह-अट्ठाई. भूपाल, चंद्रचूड, उमापति, सारि, जगन्नाथ वगेरे शब्दो संबंधप्रधान छे. जे भू-पृथ्वी-ने पाले ते भूपाल. (आमां 'भू' ए 'स्व' छे अने 'पाल' शब्द स्वामीपणुं सूचवे छे एटले 'भू' अने 'पाल'एबे वच्चे स्वस्वामिभावसंबंध छे तेथी 'भूपाल' शब्द पण ए ज भावने बतावे छे.) ए जरीते उमा+पति-उमापति. चंद्र + चूडा-चंद्रचूड- जेनी चूडामां चंद्र छे ते-महादेव. सर्प+अरि-सरि Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख xxx तथापि वर्णानुपूर्वीविज्ञानमात्रप्रयोजना तेषां व्युत्पत्तिः न पुनः अन्वर्थप्रवृत्तौ कारणम् इति रूढा अव्युत्पन्ना एव" ( अभिधानचिन्तामणिटीका श्लो० १, पृ० २ यशोवि०) तात्पर्य ए के — हस्त' शब्दमा 'हस् +त' एवो विभाग पाडी तेनी साधना उणादि द्वारा करी बतावी गरुड. वध्यघातकभावसंबंधने लीधे 'सरि' शब्द ऊभो थयो छे. सर्प वध्य छे अने गरुड तेनो घातक छे एटले सपनो अरि-सारि-गरुड. एज प्रमाणे धार्यधारकसंबंध-वृषवाहन. जन्यजनकसंबंध-विश्वजनक. आश्रयआश्रयिसंबंधजलधि, समुद्रशायी. परस्परविरोधनो संबंध- 'सित' ऊपरथी असित (सित-धोळ, असित-काळ) ते ज प्रमाणे सितेतर (सित-धोळ, इतर-भिन्न.) धोळाथी भिन्नसितेतर. ब्राह्मणेतर-ब्राह्मणथी भिन्न-अब्राह्मण. यौगिक शब्दोमां जे बे पदो होय छे तेने बदली पण शकाय छे एटले एकने बदले बीजं पण मूकी शकाय छे. जेमके, जलधि' ने बदले तोयधि, नीरधि. तेम ज जलनिधि, तोयनिधि, नीरनिधि वगेरे. अर्थात् ए यौगिक शब्दोमां ए प्रकारनो फेरफार थई शके छे माटे तेमनो स्वभाव परावृत्तिसह छे : परावृत्ति-अदलाबदली, सह -खमबुं-जे शब्दो परावृत्तिने खमी शके ते परावृत्तिसह. मिश्र शब्दो होय छे तो यौगिक जेवा परंतु तेमनो अर्थ रूढि प्रमाणे थाय छे, नहीं के तेमनी व्युत्पत्ति प्रमाणे. ए शब्दो परावृत्तिसह नथी माटे यौगिक नथीः दशरथ. व्युत्पत्तिनी अपेक्षाए जे दश रथवाळो होय ते 'दशरथ' कहेवाय, परंतु अहीं तेम नथी. अहीं तो रूढिप्रमाणे तेनो अर्थ समझवानो छे अने ते रामचंद्रनो पिता-दशरथ. तेम 'दशरथ' ने बदले 'दशस्यन्दन' शब्द पण न वापरी शकाय अर्थात् मिश्रशब्दोनो स्वभाव परावृत्तिसह नथी. ए ज रीते 'गीर्वाण' जेनी गीर(वाणी) बाण जेवी छे ते गीर्वाण. व्युत्पत्ति प्रमाणे तो जे मर्मवेधी भाषा बोले तेने 'गीर्वाण' कहेवो जोईए परंतु अहीं तेम नथी. अहीं तो तेनो अर्थ रूढिप्रमाणे करवानो छे अने ते गीर्वाण-देव. वळी 'गीर्वाण' ने बदले 'वाणीबाण' शब्द न वापरी शकाय. तात्पर्य ए के यौगिक शब्दो तेमनी व्युत्पत्ति प्रमाणे प्रवर्ते छे, त्यारे मिश्रशब्दो व्युत्पत्तिवाळा होवा छतां तेमनी प्रवृत्ति रूढिप्रमाणे थाय छे अने यौगिक शब्दो परावृत्तिसह छे त्यारे मिश्रशब्दो परावृत्तिसह नथी. ___ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति छे छतां ते अव्युत्पन्न ज छे. कारण के ' हस्' धात्वर्थ साथे 'हस्त' शब्दना वाच्यनो कोई प्रकारनो संबंध नथी. एथी ' हस्त'ना मूळमां ' हस्' धातु छे अने तेने ' त' प्रत्यय लागवाथी 'हस्त' शब्द नीपज्यो छे, ए कहेवुं कल्पनामात्र छे. आ रीते व्युत्पत्तिनी दृष्टिए संस्कृतना रूढ शब्दो अने प्राकृतना देश्य शब्दोमां खास भेद जणातो नथी. परंतु देश्य प्राकृत शब्दोनुं उच्चारण प्राकृतनी पद्धतिए प्रवर्ते छे त्यारे संस्कृत देश्य शब्दोनुं उच्चारण संस्कृतनी रीते प्रवर्ते छे, एवो भेद खरो. ६४ ' देश्य ' शब्दोनुं स्वरूप बतावतां आचार्य हेमचन्द्र कहे छे के." अइपाइअपयट्टभासाविसेसओ देसी " - ( देशीशब्दसंग्रह गा० ४ ) अर्थात् " देशी प्राकृत एटले अनादि काळथी प्रवर्तेली विशेष प्रकारनी प्राकृतभाषा - एक खास प्रकारनी प्राकृतभाषा " विशेष प्रकारनी "" १२० “ अनादिप्राकृत प्रवृत्तभाषाविशेषकः देशी ' अथवा 'अनादिप्राकृत प्रवृत्तभाषाविश्लेषक: देशी << ८८ ८८ अथवा " 'अनादिप्राकृतप्रवृत्त भाषाविशेषतः देशी ' 'अणाइपाइअपयट्टभासाविसेसओ देसी आ वाक्यनो अर्थ बतावतां आचार्य हेमचंद्र लखे छे के - " अनादिप्रवृत्तप्राकृतभाषाविशेष एव अयं देशीशब्देन उच्यते " अर्थात् " अनादि काळथी प्रवृत्त - प्रवर्तेल - जे विशेष प्रकारनी प्राकृतभाषा तेनुं नाम देशी. " हेमचंद्रना आ ' अनादिप्राकृतप्रवृत्तभाषाविशेषकः ' वाक्यमां 'प्रवृत्त' शब्द 'प्राकृत' शब्द पछी छे अने अर्थ करती वखते तेमणे ए शब्दने 'प्राकृत' नी पूर्वे मूकी 'प्राकृत' नुं विशेषण गण्यो छे. ८ मारी नम्र समझ प्रमाणे ते वाक्यनो अर्थ जरा जुदी रीते होवो जोईए अने ते आ प्रमाणे छे: आ• हेमचंद्रे उक्त वाक्यमां जे लक्षण 'देशी' नुं आप्युं छे ते, तेमणे पोते ज ऊपजाव्युं छे वा तेमणे पोते ज नवुं रच्युं छे एम नथी लागतुं. कारण के तेओ पोते ज जणावे छे के तेमनी सामे पादलिप्त वगेरे 33 " Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १३७ प्राकृत भाषा एटले प्राचीनतम आर्यभाषा साथे जेनुं कोई प्रकारनुं साम्य नथी एवी प्राकृतभाषा. आचार्योए रचेलां बीजां अनेक देशीशास्त्रो हता, ते बधान परिशीलन करीने तेमणे आ संग्रह रच्यो छे. (जुओ देशीना० गा० २) एटले तेमणे बांधेलु देशीनुं आ लक्षण विशेष प्राचीन छे. तेनो अर्थ मारी धारणा प्रमाणे आ नीचे जणावेली रीते करवामां आवे तो इतिहासनी दृष्टिए उपयोगी थाय : अनादिप्राकृते प्रवृत्तो यो भाषाविशेषः स देशी अर्थात् जे प्राकृत अनादि काळथी चाल्युं आवे छे तेमां प्रवृत्ति पामेलो-प्रवेश पामेलो जे खास भाषाना शब्दोनो जत्थो ते देशी. आर्य भाषा अनेअनार्यभाषा एम बे भेद तो सुप्रतीत छे. अनार्यो अहींना मूळ वतनी हताअने आर्यो तो फरता फरता अहीं आवी विजयी थया. एरीते जोतां अनार्यो देशी-तळपदा-कहेवाय. आर्योनी जे अनादिप्राकृत भाषा हती तेमां आ देशीरूप अनार्योनी भाषानो प्रवेश थयो अने ते 'देशी' नामथी जाणीती थई. आ अर्थनी अपेक्षाए अनार्यशब्दोने 'देशी' कहेवाय. आर्योनी भाषामां पण रूढ, यौगिक वगेरे त्रणे प्रकारना शब्दो हता परंतु तेमनुं सामूहिक नाम 'अनादिप्राकृत' अने तेमां जे अनार्य शब्दोनुं मिश्रण थयुं तेओ 'देशी' नामथी कहेवाया. आ रीते हेमचंद्रे बतावेला लक्षण वाक्यमां आर्य अने अनार्य शब्दोना मिश्रणनो भाव घटमान लागे छे. बीजो पण अर्थ आ प्रमाणे छ : अनादिप्राकृतप्रवृत्तभाषाविश्लेषकः अर्थात् जे प्राकृत अनादिकालथी चाल्युं आवे छे-आर्योनी जे मूलभाषा छ वा आर्योनो जे मौलिक शब्दसंग्रह छ तेनाथी जे शब्दसंग्रह विश्लिष्ट-विभिन्न छे-पोतानी जातने जुदी रीते तारवी राखे छे-तेनाथी जे शब्दसंग्रह स्वभावे विश्लेषरूप छे तेनुं नाम देशी. आ भावमां पण आर्य अने अनार्य शब्दोना मिश्रणनो भाव छे. आर्य शब्दो करतां रचनानी दृष्टिए, व्युत्पत्तिनी दृष्टिए अनार्य शब्दो विश्लिष्ट छे तेथी ज तेओ आर्यशब्दो करतां जुदा प्रकारना भासे छे. आर्य अने अनार्यजातिना मिश्रणनो प्रसंग ऐतिहासिक छे ते ऊपरथी आ अर्थ सूझ्यो छे. ए सिवाय आ अर्थ माटे बीजो कोई विशेष आधार मळ्यो नथी. सुज्ञ विद्वानो 'देशी' शब्दना स्वरूपविशे गंभीर विचार करी खास प्रकाश नाखशे एवी विनंती छे. विशेष माटे जुओ'देश्य प्राकृत अने तेना शब्दोनां मूल' (बुद्धिप्रकाश १९४१ मार्च-जून पृ० १०० टिप्पण २२) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति उक्त स्वरूपवाळा देश्य प्राकृतनुं कोई पण आर्यभाषा साथे साम्य न होवाथी तेना शब्ददेहनुं पृथक्करण ज न थई शके अने एम छे माटे आचार्य हेमचंद्रे तेमने मळेला शब्दोनो मात्र संग्रह ज कर्यो छे नहीं के पृथक्करणपूर्वकनुं व्याकरण. ६५ देशीशब्दसंग्रह द्वारा संग्रहेला शब्दोमां एवा पण केटलाय शब्दो संग्रहायेला छे जे संस्कृतनो ढोळ चडावीने 'अमरकोश' वगेरे संस्कृत कोशोमां पण संग्रहायेला छे अने संस्कृत साहित्यमा पण वपरायेला छे : जेमकेहरिचन्दण, सयग्धी, सीहरअ, सिहरिणी, सुवण्णबिन्दु, हरि, वेलुलिय १२१ ' हरिचंदण' वगेरे शब्दो जे अर्थमां देशीनाममालामां नोंघेला छे तेना ते ज अर्थमां अमरकोश, अभिधानचिंतामणि (हैम ० ) वगेरे संस्कृत कोशोमां पण संस्कृतानुसारी रीते नोंधायेला छे : १ हरिचंदण एटले कुंकुम - विशेष प्रकारनुं चंदन - गोरुचंदन. देशी • ० " हरिचंदणं च घुसिणे " - दे० वर्ग० ८, गा० ६५ 46 सयग्घी - घरट्टि - वर्ग० ८, गा० ५ 66 अमर ० हरिचन्दनम् - अस्त्रियाम् " - कां • २, मनुष्यवर्ग श्लो० १३१ २ शतघ्नी - सेंकडो माणसोनो घाण काढे एवं विशेष प्रकारनुं हथीयार. " शतघ्नी तु हैमकोश - अभिघा • 'हरिचन्दने तैलपर्णिक गोशीर्षौ ” अभिधा० कां० ३, श्लो० ३०५ 66 चतुस्ताला लोहकण्टक संचिता " कां० २, श्लो० ४५१ वृत्ति. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १३९ वेडिय, सोल्लु, साराडी, संखलय, सेलस, दक्खन वगेरे. आ उपरांत केटलाक एवा पण शब्दोने देशी तरीके गणावेला छे जेमनुं साम्य वैदिक वा ३ सीहर-शीकर-पाणीनां कणो-वरसादनी फरफर पडे ते. देशी. अमर. हैम. "सीहरओ आसारे" "शीकरः अम्बुकणाः स्मृताः” | “वातास्तं वारि वर्ग० ८, गा० १२ -दिग्वर्ग कां० ३, श्लो० ११ शीकरः” | कां० २, श्लो० ७९ ४ शिखरिणी-शिखंड. "सिहरिणिxमजिआइ" x “रसालायां तुxशिखरिणी" -वर्ग० ८, गा० ३३ । -कां० ३, श्लो० ६८ ५ सुवण्णबिंदु-कृष्ण-जेना शरीर ऊपर सुवर्ण वर्णनां बिंदुओ-टपकां-छे. "कण्हे सुवण्णबिंदू" “पाण्डवायनः सुवर्णबिन्दवः" व० ८, गा० ४० -कां० २, श्लो० १३१ (कृष्णनां नामो) ६ हरि एटले पोपट. " हरी कीरे" । “शुक-अहि-कपि-भेकेषु । व. ८, गा० ५९ हरिः" नानार्थव० का ३, श्लो० १७४ ७ वेलुलिय-वैडूर्य-विशेष प्रकार- रत्न जे विदूरनामना स्थळमां नीपजे छे. "वेलुलिअं वेरुलिए" “तत्र वैड्यं वालवायजम्" -व० ७, गा० ७७ कां० ४, श्लो० १२९ ८ वेडिय-मणियारुं वेचनारो वाणियो. "वेडइओ वणिअए" "वैकटिको मणिकारः" -कां० ३, श्लो. ५७४ Tona! ___ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ९ सोल - सूळा ऊपर पकावेलं मांस- मांसना सोळा. देशी • 'मंसम्मि सोल सोमाला " १४० ८८ व० ८, गा० २४ व० ८, गा० ४४ १० साराडी - विशेष प्रकारनुं << ' साराडी आडीए " << ' कितवे x सेलूसो वर्ग ८, गा० २१ " अमर० 'शूलाकृतं भटित्रं स्यात् शूल्यम् " — वैश्यव० कां० २, श्लो० ४५ १३ दक्खज्ज - गीध . ८८ " दक्खज्जा x गिद्धेसु " वर्ग ० ५, गा० ३४ ८८ ११ संखलय - शंखलं - पाणीमां थनारुं जीणुं जीवडुं. “ संखलयं - सम्बू ए " वर्ग ० ८, गा० १६ १२ सेलूस - नटवो. पक्षी. " शराटिः आटिः आडिश्व ' "" कां ० २, सिंहादिवर्ग श्लो० २५ X 66 'शैलूषाः x नटाः - शूद्रवर्ग कां० २ श्लो० १२ "" << ८८ 'दाक्षाय्य - गृध्रौ " - कां० २, सिंहादिवर्ग श्लो० २१ हैम • अभिधा० शूल्यं शूला << कृतं मांसम् " -कां० ३, श्लो० ७७ " आटिः आतिः शरारिः स्यात् "कां० ४, 'शङ्खनकः क्षुल्लकश्च कां ०४, श्लो० २७१ << आ प्रमाणे आवा बीजा पण अनेक देशी शब्दो छे संग्रहायेला छे. अहीं तो मात्र उदाहरण बताववा पूरता तेर शब्दो श्लो० ०४०४ ८८ 'शैलूषो भरतो जे, "" --- "" X नटः कां० २, श्लोक २४२ दक्षाय्यो दूर गृधः " कां० ४, श्लो० ४०१ संस्कृत कोशोमां ज बताव्या छे. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १४१ लौकिक संस्कृत साथे बतावी शकाय एम छे. जेमके-विलुत्तहिअयविलुप्तहृदय, सोवण्णमक्खि-सौवर्णमक्षिका, सिअङ्ग-सिताङ्ग, सुरजेडसुरज्येष्ठ, सूरद्धय-सूरध्वज, हरियाली-हरिताली, सढि–सटिन्. ___ अहीं जे 'विलुप्तहृदय' वगैरे संस्कृत शब्दो आप्या छे तेमना अने तेमना प्रतिबिंबरूप देश्य शब्दोना अर्थमां पण सूक्ष्म कशो भेद नथी ए ध्यानमा रहे. संस्कृत प्रतिरूपवाळा ते शब्दो एक काळे प्राचीन साहित्यमां के अभिधानकोशोमां प्रसिद्ध हशे पण पाछळथी बीजा पर्यायांतरोए तेमनुं स्थान लीधुं एथी तेमनो उपयोग ओछो थई जवाने लीधे ते शब्दोने सुरक्षित राखवानी दृष्टिए आचार्ये तेमने देशीसंग्रहमा संग्रह्या होय ए बनवाजोग छे. १२२ १ विलुत्तहिअअ-जे, वखत आव्ये कार्य करी जाणतो नथी-देशी. अर्थ. विलुप्तहृदय-जेनुं हृदय विलुप्त छे-जे समझदार नथी-व्युत्पत्त्यर्थ. २ सोवण्णमक्खिआ-मधमाखी-देशी० अर्थ. सुवर्णमक्षिका सवर्ण जेवी पीळी माखी-मधमाखी-व्युत्पत्त्यर्थ. सौवर्णमक्षिका सुवण जवी पीळी माखी-मधमाखी-व्युत्पत्त्यर्थ. ३ सिअंग-वरुणदेव-देशी० अर्थ. सिताङ्ग-जेनुं शरीर सित-सफेद छे ते. वरुण जलनो अधिष्ठाता देव छे एटले एनुं शरीर सफेद कहेवाय-व्युत्पत्त्यर्थ. ४ सुरजेह-वरुणदेव-देशी. अर्थ. सुरज्येष्ठ-देवोमां श्रेष्ठ-जलदेव-वरुण-व्युत्पत्त्यर्थ. ५ सूरद्धय-दिवस-देशी० अर्थ. सूरध्वज-सूर्यध्वज-जे समये सूर्य ध्वज समान छे ते समय-दिवस-व्युत्पत्त्यर्थ. ६ हरियाली-धरो-देशी० अर्थ. हरिताली-लीली लीली एवी श्रेणि-धरो-लीली छम जेवी छे माटे, व्युत्पत्त्यर्थ. ___ ७ सढि-सिंह-देशी० अर्थ. सटि-सटा एटले याळ-जे, याळ-केशवाळी-वाळो छे ते सटी-सिंह-व्युत्पत्त्यर्थ. आ प्रमाणे जेमनी सरखामणी वैदिक वा लौकिक शब्दो साथे थई शके छ अर्थात् जेमनी व्युत्पत्ति समझी शकाय छे एवा पण बीजा घणा शब्दो 'देशी' तरीके नोंधायेला छे. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति कादम्बरीमां पृ० १४१, पृ० १४७ तथा पृ० ५११ ऊपर 'पूर्णपात्र' शब्द जे अर्थमां वपरायेलो छ, देशीशब्दसंग्रहमां पण ते ज अर्थमां ‘पुण्णवत्त'-(वर्ग ६ गाथा ५३ ) शब्द नोंधायेलो छे. गवेषणा करवामां आवे तो एवा देश्य शब्दो घणा मळी आवे जेमने संस्कृतनो ढोळ चडावी कविकुलशेखर कालिदासादि कविओए वापर्या होय. वामनरचित काव्यालंकारसूत्रमा तो संस्कृतपूजक खुद वामन ज कहे छे के “ अतिप्रयुक्तं देशभाषापदम् " ( अध्याय सस्कृत काव्यमा ५-१-१३ ) अर्थात् देशी पद होय छतां कविदेश्यप्रयोगनी ओए जेनो अतीव प्रयोग कर्यो होय तेवु देशीपद प्रतिष्ठा संस्कृतकाव्यमां वापरवामां बांधो नथी. जेमके १२३ “ पूर्णपात्राहरणविलुप्यमानवसनभूषणः” ___ कादम्बरी पूर्व०। " पूर्णपात्रं जहार"-का० पू० । “सखीजनेन अपठ्ठियमाणपूर्णपात्राम् ” का० पू० । कादंबरीमां वपरायेलो ‘पूर्णपात्र' शब्द तेनो अर्थ जोतां पूर्ण+पात्र ए रीते नीपजेलो नथी. किंतु देशीशब्दसंग्रहमां “पुण्णवत्तं पमोअहिअवत्थे" (व०६, गा० ५३) अर्थात् 'प्रमोदहृतवस्त्र-प्रमोद द्वारा हराई जतुं वस्त्र' ए अर्थमां 'पुण्णवत्त' शब्द छे अने तेने संस्कृतरूप 'पूर्णपात्र' आपी कादंबरीकारे ऊपरना संदर्भमां वापर्यो छे. पाछळथी आचार्य हेमचंद्रे ए 'पुण्णवत्त' ने 'पूर्णपात्र' बनावी पोताना संस्कृत कोशमां नोंधेलो छ : “उत्सवेषु सुहृद्भिर्यत् बलादाकृष्य गृह्यते । वस्त्र-माल्यादि तत् पूर्णपात्रं पूर्णानकं च तत्" -अभिधा० कां० ३, श्लो० ३४१ आ श्लोकमां हेमचंद्रे ‘पूर्णपात्र' अने 'पूर्णानक' एम बे शब्दो नोंघेला छे. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १४३ " योषिदित्यभिललाष न हालाम् " अहींनो — हालौं' शब्द देश्य होवा छतां कविना संस्कृत काव्यमां पण बाधक नथी. कारण के ए शब्दने कविओए घणो वापर्यो छे. .. यास्के 'सुख' अर्थ माटे बतावेला " शिम्बाता, शतरा, शातपन्ता" (निरुक्त पृ० २१४, अ० ३, सू० ११) वगेरे बीजा पण अनेक शब्दो देश्यनी कोटिना भासे छे. आ रीते वैदिक संस्कृत अने लौकिक संस्कृत ए बन्नेमा देश्यपदोनो प्रवेश कांई आजकालनो नथी-घणो ज प्राचीन छे. एथी एम अवश्य १२४ अलंकारसूत्रनो कर्ता वामन, उपर्युक्त 'हाला' शब्दने देश्य कहे छे. हेमचंद्रकृत देशीशब्दसंग्रहमा ए शब्द विद्यमान नथी परंतु 'दारुडिया' अर्थमां “ हालुओ खीबे"-(वर्ण ८, गा० ६६ ) कहीने हेमचंद्रे — हालुअ' शब्दने देशी तरीके नोंधेलो छे. 'हालुअ' शब्दमां मूळ 'हाला-(मद्य)' शब्द ज छे एथी वामनना कहेवा प्रमाणे 'हाला' शब्द देश्य छे ए खरुं छे. संस्कृतना महाकविओ पोताना काव्यमां ज्यारथी 'हाला' एवा देश्यपदने पण वापरवा लाग्या त्यारथी ए शब्द देश्य छतां संस्कृत जेवो गणावा लाग्यो अने अमरकोशमां तेम ज अभिधानचिंतामणि जेवा संस्कृतनामकोशमां ऊमेराइ गयो : __“सुरा हलिप्रिया हाला"-(अमर० शूद्वर्ग कां० २, श्लो० ३९) "शुण्डा हाला हारहूरं प्रसन्ना वारुणी सुरा"-(अभिधा० कां० ३, श्लो० ५६५) जे हकीकत श्रीवामने कही छे ते ज हकीकतने श्रीभोज सरस्वतीकंठाभरणमां नीचे प्रमाणे जणावे छ: “यद् अव्युत्पत्तिमद् देश्यम् इति पूर्व निरूपितम् । महाकविनिबद्धं यत् तद् अप्यत्र गुणी भवेत् ” । -सर०-प्रथम परिच्छेद श्लो. १०४ । श्रीभोज 'तल्ल' 'गल' 'लडह' अने 'लहरी' शब्दो देश्य छतां पूर्वकविओए प्रयोज्या छे ए वात उदाहरण आपीने जणावे छे. ___ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति कही शकाय एवं छे के, उभय प्रकारना संस्कृत ऊपर देश्य प्राकृतनी कांई ओछी असर नथी. ६६ शौरसेनी---शूरसेन देश अने तेनुं मुख्य नगर मथुरा. जे भाषा मुख्यपणे मथुरा अने तेनी आसपासना प्रदेशोमां शौरसेनी भाषानो प्रवर्तती हती तेनुं नाम शौरसेनी. शूरसेन देशमां कोई परिचय एक काळे प्रवर्ततुं आदिम प्राकृत आ भाषानुं प्रभव स्थान छे. साधारण प्राकृत अने शौरसेनी प्राकृतना शब्ददेहनुं स्वरूप लगभग सरखं छे. विशेषता 'द' श्रुतिनी छे. शब्दमा रहेलो असंयुक्त अने अपदादिभूत 'त', 'द' रूपे परिणमे छे. पूरित-पूरिद, मारुति-मारुदि, मन्त्रित–मंतिद. शूरसेन प्रजा अघोष 'त' ने बदले घोष 'द' नो ध्वनि करनारी हशे. ' शौरसेनी' भाषा एक खास पृथक् भाषा तरीके क्यारथी शरू थई ए बाबत शं कही शकाय ? मथुरा नगरी श्रीकृष्णना वखतथी विख्यात छे. संभव छे के ते पहेलां पण ते विख्यात होय. शूरसेन प्रजाना अतिशय तेजने लीधे वा तेना उच्च साहित्यने लीधे शौरसेनी भाषा विश्रुत थई हशे. वर्तमानमां तो ते भाषाना विशिष्ट साहित्यनी उपलब्धि नथी. भास वगेरे महाकविओए निर्मला नाटकोमा केटलांक पात्रोए शौरसेनीने साचवी राखी छे. जैन परंपरानी दिगम्बर शाखाना . मध्ययुगे निर्मायेला साहित्यमां पण शौरसेनी दिगंबर जैन सचवायेली छे. पालि भाषा अने आर्ष प्राकृतनी साहित्य अने शौरसेनी भाषा प० मूळ शारसनामा असयुक्त व्यज - पेठे मूळ शौरसेनीमां असंयुक्त व्यंजनोनो घसारो ओछो जणाय छे. अने पछीथी ते, साधारण प्राकृतनी पेठे वधतो भासे छे. पालि भाषामां बे शब्दो बच्चे केटलेक आया। __ १२५ “महुरा य सूरसेणा"-(पन्नवणासूत्र-आर्य-अनार्य विचार) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख स्थळे ( यथा + एव-यथरिव ) 'र' उमेराय छे, तेम जैनशाखानी शौरसेनीमां 'दु+ अधिगै-दुराधिग' जेवां पदोमां 'र' उमेरायो छे. दिगम्बरीय साहित्यमां भणित-भणिों, विस्तृत वित्थड इत्यादि प्रयोगोमां 'द' श्रुति नथी, अने जैन-जेण्हे, तत्त्वज्ञ-तच्चण्ह इत्यादि प्रयोगोमां 'ण' ने बदले ‘ह 'नुं उच्चारण आवे छे. ( 'ह' उच्चारणवाळां मुद्रित पदो भ्रांत पाठरूप न होय अने खरां ज होय तो) आ जातना 'ह' उच्चारणनी नोंध शौरसेनीना वर्णविकारमा वररुचि, चंड, हेमचन्द्र के लक्ष्मीधर वगेरे कोई करता नथी. चंड, वररुचि, हेमचन्द्र, वाल्मिकिसूत्रोनो वृत्तिकार __१२६ जुओ "एव-आदिस्स रि पुन्वो च रस्सो" सू० ११ (पालिव्याकरण-संधिकप्प, २ कांड) १२७ जुओ प्रवचनसार अधि० २, गा० ७३ “ समदो दुराधिगा" द्वाभ्यां गुणाभ्यां अधिका"-प्रव० टीका. १२८ जुओ प्रवचनसार अधि० १, गा० ५९ -“वित्थडं विमलं । एगतियं भणिय" ॥ १२९ जुओ प्रवचनसार अधि० ३, गा०६ "अपुणब्भवकारणं जेण्हं" ॥ “सव्वभावतच्चण्ह "-प्रव० अधि० २, गा० १०५ ('ह' उच्चारणवाळां उक्त पदो परमश्रुतप्रभावकमंडळ (मुंबई) द्वारा प्रकाशित 'प्रवचनसार 'मां विद्यमान छे परंतु तेनी साधना माटे कोई प्राकृत वैयाकरण कशुं लखतो नथी तेथी 'न' अने 'ज्ञ' ने बदले ए 'ह' उच्चारणयुक्त पदोवाळो पाठ खरो छे के केम? आना निर्णय माटे प्रवचनसारनी विशेष प्राचीन हस्तलिखित प्रतो तपासवी आवश्यक छ.) । १३० जुओ चंडना प्राकृतलक्षण- (पृ० ४६ ) शौरसेनी प्रकरण. वररुचिना प्राकृतप्रकाशनो बारमो परिच्छेद. हेमचंद्रना प्राकृत व्याकरणमां सूत्र ८-४-२६० थी ८-४-२८५. सिंहराजकृत प्राकृतरूपावतारनो १८ मो शौरसेनी परिच्छेद. लक्ष्मीधरकृत षड्भाषाचंद्रिकामां शौरसेनीविभाग पृ० २४७-२५२ ( मुंबई संस्कृतसिरीझ.) मार्कंडेयकृत प्राकृतसर्वस्व पृ० ८३-९६ ( विझागापट्टम् ) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सिंहराज, लक्ष्मीधर अने मार्कण्डेय ए बधाए शौरसेनी भाषाने उच्चारणनी ____ दृष्टिए जुदी जुदी रीते समझावी छे. एथी शौरसेनी शौरसेनीनी विविधता __ भाषानी विविधरूपता समझी शकाय एवी छे. " शूरसेन देशमां ते कोई एक काळे बोलचालनी भाषा हशे अने ज्यारे ए बोलचालनी भाषा हशे त्यारे तेनी उक्त विविधरूपता अघटमान पण केम कहेवाय ? शौरसेनी भाषाने बौद्ध मागधी जेटली प्राचीन मानवानुं मुख्य कारण तेमां व्यञ्जनोनो घसारो घणो ओछो छ, ए छे. ए भाषा, साहित्य-विशिष्ट साहित्य कोई काळे हशे तो खलं पण अत्यारे तो नथी मळतुं एथी ते संबंधे विशेष शुं कही शकाय ? ६७ मागधी-मगध देश अने तेनुं मुख्य नगर राजगृह. जे आदिम प्राकृत मगधदेशमा प्रवर्ततुं हतुं ते, मागधीनुं प्रभव स्थान मागधीनो ना छे. बौद्ध पिटकोमा जे भाषा सचवायेली छे अने कच्चायन परिचय जेवा महान वैयाकरणे जेनुं स्वरूप बांधी बताव्यु छे ते भाषाने बुद्धभिक्खुओ 'मागधी' नुं नाम आपे छे ए वात आगळ आवी गई छे. (पृ० ११४ टि० ८०) जैन आगमसाहित्यमा जे भाषा सचवायेली छे अने आज सुधीना कोई वैयाकरणे जेनुं संपूर्ण व्याकरण घड्युं नथी ( मात्र एक हेमचंद्राचार्य जनआगम साहित्यमांनां अमुक ज पदोने ' आर्षम्' कही साधी बताव्यां छे) ते भाषाने जैनपरंपरा ' अर्धमागधी' वा 'आर्षप्राकृत'ना नामे ओळखे छे. उक्त रीते कहेवायेली बौद्धपिटकोनी मागधी अने जैनआगमोनी अर्धमागधी ए बन्ने भाषा प्रस्तुतमा ‘मागधी'ना भावमा समावेश पामे एवी छे. १३१ "रायगिह मगह "-पनवणासू० आर्य-अनार्यविभाग. ___ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १४७ त्यारे बीजी तरफ चंड वररुचि अने हेमचंद्र वगैरे वैयाकरणोए पोतपोताना व्याकरणमा जे मागधीनुं स्वरूप बांधी बतान्युं छे ते 'मागधी' पण अहीं 'मागधी' ना भावमां समाय एम छे. मूळे एक छे छतां अहीं उक्त रीते मागधीभाषा बे प्रकारनी कल्पी छे, तेथी अहीं व्यवहारने माटे पिटकोनी अने जैनसूत्रोनी मागधीने सारु 'सूत्रमागधी' अने वैयाकरणोए जणावेली मागधीने माटे 'व्याकरणमागधी' एवा बे संकेतो कल्पवा पडे छे. 'सूत्रमागधी 'ना स्वरूप संबंधी चर्चा तो आगळ आवी गई छे ( पृ० १०४ - १२० ) एटले अहीं 'मागधी ना मथाळा नीचे फक्त ' व्याकरणमागधी' विशे कहेवानुं रहे छे. सूत्रमागधी अने व्याकरणमागधीनो संकेत साधारण प्राकृत, शौरसेनी अने व्याकरणमागधीना वर्णविकारो लगभग सरखा छे. व्याकरणमागधीमां 'र' ने बदले 'ल' अने 'स' ने बदले 'श' ना व्यवहारनी विशेषता छे. ए उपरांत स्त, स्प, स्क, स्म, स्ख, स्ट वगेरे संयुक्त व्यंजनो व्याकरणमागधीमां टकी रह्या छे. 'ज' ' द्य' अने 'य' ए त्रणेने बदले 'य' नो ध्वनि प्रवर्ते छे. 'न्य ' ' 'ज्ञ' अने 'ञ' ए चारेने बदले 'ज्ञ' नुं उच्चारण थाय छे. अनादि 'छ' नुं 'श्च' उच्चारण चाले छे अने 'क्ष' ने बदले आवो जिह्वामूलीय वर्ण वपराय छे. ण्य १३२ जुओ हेमचंद्र प्राकृतव्या० मागधी प्रकरण ८-४-२८७ थी ८-४-३०१. १३३ आ अक्षर 'जिह्वामूलीय' कहेवाय छे. कारण के तेनुं उच्चारण करतां जीभना मूलनो उपयोग थाय छे. , हेमचंद्रना (१-१-१६ सिद्धहेम ) कहेवा प्रमाणे तेनी - 'क्ष' स्थानीय प्रस्तुत वर्णनी - आकृति वज्र जेवी छे: ते वर्ण, ऊपर नीचे पहोळो अने वच्चे सांकडो छे. आ वर्ण 'क' अने 'ख' नी साथे ज रहे छे. जेम विसर्गनुं उच्चारण स्वतंत्र नथी तेम आनुं उच्चारण पण स्वतंत्र नथी. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति "लहशवशनमिलशुलशिलविअलिदमंदाललायिदंहियुगे। वीलयिणे पक्खालदु मम शयलमवय्ययबॉलं "!-हेमचंद्र ८-४-२८८. साधारण प्राकृत अने शौरसेनी करतां व्याकरणमागधीनी विशेषता उक्त गाथा ज बतावी आपे छे. उक्त बन्ने भाषा–साधारण प्राकृत अने शौरसेनीकरतां व्याकरणमागधीमां विजातीय संयुक्त व्यंजनो विशेष प्रमाणमा प्रवर्ते छे. एथी व्यंजनना घसारा विनानी आ भाषा सूत्रमागधी जेटली तो प्राचीन होय ज. आचारांग सूत्रमा ‘अकस्मात्' तथा अशोकनी धर्मलिपिओमां १३४ आ गाथार्नु संस्कृत आ प्रमाणे छ: रभसवशनमिर (नम्र ) सुरशिरोविगलितमन्दारराजित-अंहियुगः । वीरजिनः प्रक्षालयतु मम सकलम् अवद्यजम्बालम् ।। १३५ नीचेना अनेक प्रयोगो ऊपरथी जणाशे के व्याकरणमागधी अने अशोकनी धर्मलिपि ए बे वचे केटली बधी समानता छ : हैमव्या०-व्या० मा० अ. ध. ८-४-२९० कोस्ट (कोष्ठ) ३ अनुसस्टि (अनुशिष्टि) ६ उस्टान ( उत्थान ) ८-४-२९३ अञ (अन्य) ६ अञ ( अन्य ) ८-४-२८८ शालश (सारस) ६ दशि ( दर्शि ) ८-४-२८९ नास्ति (नास्ति) ६ नास्ति ( नास्ति ) अकस्मात् अकस्मात् * ( अकस्मात् ) ८-४-२८८ । ६ पुलुव ( पूर्व ) धर्मलिपिना शब्दो सामे जे अंको मूक्या छे ते धर्मलिपिना अंको समझवा. जेमके “६ नास्ति' एटले छठी धर्मलिपिमा 'नास्ति' प्रयोग छे. आवा बीजा पण व्याकरणमागधीने मळता प्रयोगो ते धर्मलिपिओमां अनेक छे. (जुओ 'अशोक की धर्मलिपियाँ' ओझाजीसंपादन) [* " इत्थ वि जाणह अकस्मात् "-आचार-अंग, अध्य० ७, उ. १ सूत्र १९६ पृ० २४१ आ० समिति०] ८-४-२७० है पुलव (पूर्व) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १४९ 'अनुसस्टि', 'अञ', 'प्रियदशि' 'पुलुव' वगेरे प्रयोगोमा व्याकरणमागधीनां उच्चारणोनी छांट भासे छे. ए ऊपरथी स्पष्टपणे प्रतीत थाय छे के वैयाकरणोए जे मागधीचं स्वरूप घडेलु छे ते प्राचीन छे अने साधारण पण छे. . अहीं ए याद राखवू जोईए के सूत्रमागधी अने व्याकरणमागधी ए बन्ने केटलांक उच्चारणोमां तद्दन विभिन्न जेवी छे. गुजराती भाषा एक होवा छतां जेम तेमां एक शब्द परत्वे पण विभिन्न उच्चारणोने स्थान छे, तेम मागधी भाषा एक होवा छतां तेमां य एक शब्द परत्वे विभिन्न उच्चारणोने स्थान होय ए नवाई जेवू नथी. सूत्रमागधीना साहित्यमां अमुक ज प्रकारनां उच्चारणो आदरपात्र थयां अने व्याकरणमागधीना साहित्यमां एटले विशेषतः नाटकोमा वळी तेनाथी अमुक अंशे जुदां उच्चारणोनो . स्वीकार थयो. व्याकरणमागधीनुं स्वरूप बतावनारा - ते ते वररुचि वगैरे वैयाकरणोए पण उच्चारणनी विविधता ____दृष्टिए तेनुं वैविध्य ज बताव्युं छे. हेमचंद्रादि वैयाकरणोए निरूपेली व्याकरणमागधीभाषानुं खास साहित्य नथी रह्यु, तो पण फक्त नाटकोमांनां केटलांक पात्रोए व्याकरणमागधीने थोडे घणे अंशे जाळवी राखी छे अने गण्यागांठ्यां जैनस्तोत्रोमां पण ए जळवायेली छे. - आचारांगादिसूत्रोमां अने सम्राट अशोकनां शासनोमां व्याकरणमागधीनां केटलांक खास उच्चारणो सचवायां छे. ए ऊपरथी अनुमान थाय छे के ए उच्चारणो पण मगधना मोटा भागमा प्रचलित हशे. अने उक्त अनुमान द्वारा एम पण फलित न थई शके के जेमां व्याकरणमागधीनां बधां य उच्चारणो वपरायां होय एवं कशुं साहित्य ते काळे नहीं ज लखायुं होय एम केम कहेवाय ? १३६ जुओ वररुचि वगेरेए रचेलां व्याकरणोमां मागधीनुं प्रकरण. ___ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति मारा नम्र मत मुजब मागधी भाषा तो एक छे छतां मगध जेवा मोटा प्रदेशमां बोलाती ते एक भाषा पण समानकाले य हमेशा समानउच्चारणोवाळी रहे ए बनवा जोग नथी ज. कोई पण एक विशाल प्रदेशमां बोलाती भाषा माटे आवी परिस्थिति अनिवार्य छे अने ए अनुभवप्रतीत पण छे. ___ आम छे माटे ज वैयाकरणोए पण तेनां भिन्न भिन्न उच्चारणो नोंधी बताव्यां छे. चंड वगेरेए व्याकरणमागधीनुं जे स्वरूप बताव्युं छे ते पण एक सरखं नथी. __ आम होवाथी भिन्न भिन्न वर्णविकारोवाळी होवा छतां ते एक ज मागधी छे पण जुदी जुदी मागधी नथी, ए ध्यानमा राखवानुं छे. ६८ पैशाची अने चूलिकापैशाची-षड्भाषाचंद्रिकामां रूपक परिभाषामांथी अवतरण करीने लक्ष्मीधरे पशाची अने, पाण्ड्य, केकय, बाल्हीक, सिंह अथवा सह्य, चूलिका-पैशाचीनो परिचय ' नेपाळ, कुन्तल, सुधेष्ण, भोज, गांधार, हैव, - कनोजन ए बधा देशोने पिशाच देशो गणाव्या छे, अने तेमने पैशाची भाषाना प्रभव स्थानरूपे मान्या छे. आ देशोनां उक्त बधां नामोनो परिचय जाण्यामां नथी, परंतु पाण्ड्य, केकय, नेपाल, गान्धार-ए देशोनो जे परिचय छे ते ऊपरथी एम मालूम पडे छे के पाण्ड्य दक्षिणमा, केकय नेपाल वगेरे पूर्व-उत्तरमां अने गांधार बाल्हीक पश्चिम-उत्तरमां-आ रीते एक बीजाथी तद्दन भिन्न दिशामां आवेला होय १३७ “पिशाचदेशास्तु वृद्धैरुक्ताःपाण्ड्य-केकय-बालीक-सिंह-नेपाल-कुन्तलाः । सुधेष्ण-भोज-गान्धार-हैव-कनोजनास्तथा" ॥ एते पिशाचदेशाः स्युः तद्देश्यस्तद्गुणो भवेत् ।”-षड्भाषा० पृ. ४, श्लो. २९-३० (मुंबई सं०) ___ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख ते देशो कोई एक भाषाना प्रभवस्थान तरीके केम होई शके ? एटले भाषाविज्ञाननी दृष्टिए विचार करतां एम स्पष्ट समझाय छे के रूपकपरिभाषाकारनी ए मान्यता विज्ञाननी भींत ऊपर रचायेली नथी.. खरी वात एम होई शके के, 'पिशाच' नामनी मनुष्यजाति पैशाची ___ भाषानी जन्मदात्री छे. शोधक विद्वानोना मत प्रमाणे . ए जाति, मूळ वतन उत्तर-पश्चिमना पंजाबनो प्रान्तप्रभवस्थान - प्रदेश छे. अथवा अफगानीस्थाननो पूर्व प्रांतभाग छे. एटले उक्त पंजाबना प्रांतभागमां के अफगानीस्थानना उक्त पूर्व प्रांत प्रदेशमा प्रवर्ततुं वैदिक युगनुं आदिम प्राकृत पैशाची भाषानुं प्रभव स्थान छे. संभव छे के, पैशाची भाषा बोटनारा लोको पोतानुं मूळ वतन तजी दई पाण्ड्य, केकय, भोज, कुंतल, नेपाल, गांधार वगैरे उक्त देशोमां जई वस्या होय. तेमना द्वारा ते ते देशोमां पैशाची भाषानो प्रवेश थयो होय अने ते ऊपरथी ज रूपकपरिभाषाना कर्ताए पाण्ड्य वगेरे देशोने पैशाचीना प्रभव स्थानरूपे कल्प्या होय. आ कल्पना असंगत न होय तो ज रूपकपरिभाषाना कर्ताए कहेला उक्त देशोनो पैशाचीसाथेनो संबंध कांईक संगत थई शके एम छे. ६९ पैशाची अने चूलिका-पैशाचीमां तद्दन नजीवो भेद छे. ___ 'चूलिका-पैशाची' पदनो 'चूलिका' शब्द शिखाचूलिका-पैशाची र ' टोच-नो सूचक छे. ए ऊपरथी एवो भास थाय छे के ‘पैशाची' भाषावाळा प्रदेशथी वधारे पूर्वमां चूलिका-पैशाचीनो प्रचार होय. पैशाची अने चूलिका-पैशाची एवी भाषा छे के जेमां अनादि असंयुक्त व्यंजनोनो घसारो ज नथी. पैशाचीनुं आ स्वरूप ज तेने बौद्धमागधीनी निकटवर्ती ठरावे एबुं छे. कहेवाय छे के पंडित गुणाढ्ये Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'बृहत्कथा' नामना कथाग्रंथने पैशाचीमा रच्यो हतो. चंडे पैशाची माटे एक ज नियम जणाव्यो छे त्यारे वररुचिए तेने माटे चौद सूत्रो रचेलां छे. हेमचंद्रे, सिंहराजे अने लक्ष्मीधेरै पैशाची ___ माटे चोवीस सूत्रो बनावे छे. त्यारे वळी मार्कंडेय तो विविधता पोतानी रीत प्रमाणे पैशाचीने जुदी रीते वर्णवे छे. " पनमथ पनयपकुप्पितगोलीचलनग्गलग्गपतिबिंबं । तससु नखतप्पनेसुं एकातसतनुथलं लुई ” । (हेमचन्द्र-८-४-३२६) पैशाचीनां विचित्र उच्चारणोने बताववा उक्त गाथा पूरती छे. नाटकोमा अमुक अमुक पात्रोए पैशाचीना स्वरूपने साचवी राख्युं छे अने केटलांक एवां जैनस्तोत्रो पण मळे छे जेमां छए भाषानुं थोडं थोड़े स्वरूप सचवायुं छे. _१३८ जुओ चण्डनुं प्राकृतलक्षण-पृ० २४ ( सत्य०) “पैशाचिक्यां र-णयोः ल-नौ" __१३९ जुओ प्राकृतप्रकाश-वररुचि. दशमो पैशाचिक परिच्छेद पृ० १११ थी ११३. १४० जुओ हेमचंद्र ८-४-३०३ थी ८-४-३२८. १४१ जुओ सिंहराज-प्राकृतरूपावतार वीशमो पैशाची परिच्छेद. तथा एकवीशमो परिच्छेद-त्रण सूत्र. १४२ जुओ लक्ष्मीधर षड्भाषाचंद्रिका-पैशाचीनिरूपण पृ. २५७ थी २६३ (मुंबई सं०) १४३ जुओ मार्कंडेय-प्राकृतसर्वस्व पृ० १२३ थी १२७ (विझागापट्टम् ) १४४ आ गाथा संस्कृत रूपांतर आ प्रमाणे छे: “ प्रणमत प्रणयप्रकुपितगौरीचरणाग्रलमप्रतिबिम्बम् । “दशसु नखदर्पणेषु एकादशतनुधरं रुद्रम् ॥" ___ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख अवेस्ताग्रंथोनी प्राचीन भाषाना तथा लोकगीत के लोकवार्ताओमां सचवायेली प्राचीन अने अर्वाचीन पुश्तो भाषाना तथा ते ज प्रकारनी प्राचीन अने अर्वाचीन सिंधी भाषाना स्वरूप साथै पैशाचीना स्वरूपनो तुलनात्मक अभ्यास करवाथी पैशाचीना स्वरूप विशे विशेष प्रकाश पडवानो अधिक संभव छे. ए ज प्रकारे मथुरा-वृंदावन अने तेनी आसपासनी लोकगीत के लोकवार्तामां सचवायेली प्राचीन शौरसेनीना अने वर्तमान प्रचलित लोक भाषाना स्वरूप साथै व्याकरणनियंत्रित शौरसेनीना स्वरूपनो तुलनात्मक रीते अभ्यास करवाथी शौरसेनीना वास्तविक स्वरूपनो स्पष्ट ख्याल आवशे तथा वर्तमान राजगृह - पाटलिपुत्र अने तेनी आसपासनी प्राचीन अने अर्वाचीन लोकभाषा मगहीना स्वरूप साथे व्याकरणनिबद्ध मागधीना स्वरूपनो परस्पर तोलनपूर्वक परिचय करवाथी मागधीना पण खरा स्वरूप विशे विशेष ज्ञातव्य सांपडशे. रुद्रट वगैरे अलंकारशास्त्राना विधाताओए काव्यना शब्ददेह विशे लखतां उक्त बधी भाषाओने अने अपभ्रंशने पण याद करी छे. वररुचिए प्राकृतप्रकाशमां कां छे के पैशाचीनी प्रकृति शौरसेनी छे. मागधीनी प्रकृति शौरसेनी छे अने शौरसेनीनी प्रकृति संस्कृत छे. त्यारे हेमचंद्र कहे छे के शौरसेनीने प्राकृतवत् समझवी, मागधीने शौरसेनीवत् समझवी अने पैशाचीने पण शौरसेनीवत् समझवी. "" "" १४५ “ प्रकृतिः शौरसेनी " - प्रा० प्र० दशमपरिच्छेद सू० २ - प्रा० प्र० एकादशपरिच्छेद सू० प्रकृतिः संस्कृतम् ” प्रा० प्र० द्वादशपरिच्छेद सू० १४६ “ शेषं प्राकृतवत् ” ८-४-२८६ २ २ " ८८ १५३ 66 'शेषं शौरसेनीवत् " ८-४-३०२ शेषं शौरसेनीवत् " ८-४-३२३ "C Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति वैयाकरणोनुं उक्त कथन भाषाना कार्यकारणभावनी दृष्टिए समझवानुं नथी. परंतु तुलनात्मक पद्धतिए भाषानो अभ्यास करवा माटे एक भाषाने समझवा बीजी निकटनी भाषाने वाहनरूपे राखवानी अपेक्षाए घटाववानुं छे. शब्दविज्ञाननी दृष्टिए एवो कार्यकारणभाव घटमान ज नथी ए वात ऊपर चर्चाई गई छे. वर्णविकारोनी दृष्टि भाषानो क्रम गोठववो होय तो सर्वथी प्रथम बौद्ध मागधी - पालि के आर्षप्राकृत आवे, पछी पैशाची, पछी अशोकनी लिपिओ, खारवेलनो शिलालेख, पछी मागधी, शौरसेनी अने छेले साधारण प्राकृत. उत्तरोत्तर वर्णोंनो फेरफार अने घसारो वधतां वधतां साधारण प्राकृतमां ते वधारे जणाय हे. १५४ वर्णविकारोनी दृष्टिए भाषाओनो क्रम ७० अपभ्रंश - भ्रंश एटले पडवुं पोताना मूळ स्थानथी च्युत थ. अपभ्रंश एटले वधारे नीचे पडवुं. अपभ्रंशनो शब्दार्थ एवो छे. प्राकृत शब्द जेम अमुक देशनी ." अपभ्रंशनो परिचय वा अमुक काळनी भाषा माटे नथी परंतु स्वाभाविक भाषानो सूचक छे, तेम ' अपभ्रंश ' शब्द पण तेना व्युत्पत्यर्थनी अपेक्षाए अमुक देशनी वा अमुक काळनी भाषाने बदले भ्रंश पामेली गमे ते भाषानो सूचक छे. " " ८ १४७ — भ्रंशूच् अधःपतने' अर्थात् ' अधःपतन अर्थवाळा भ्रंश ' धातु ऊपरथी 'भ्रष्ट' शब्द बन्यो छे. अप' साधे तेनो प्रयोग · अपभ्रष्ट थाय. अप' उपसर्ग, अधिक अधःपतननो द्योतक छे एथी 'अपभ्रंश ' नो साधारण अर्थ :- घणुं नीचे पडेलुं - घणुं ज भ्रष्ट. ज्यारे भाषा माटे से शब्द वपराय त्यारे तेनो अर्थ :- घणी नीच भाषा - घणी हलकी भाषा एवो थाय. जे स्वरो अने व्यंजनोनो प्रयोग वैदिक संस्कृत अने पाणिनीय संस्कृतमां छे ते ज स्वरो अने व्यंजनोनो प्रयोग प्राकृत भाषाओमां- पालि, प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची अने अपभ्रंश , Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख भाषाओमां-छे मात्र ते ते भाषाओमां सरलउच्चारणनी प्रधानताने कारणे ते ते स्वरो अने व्यंजनो सेजसाज परिवर्तन पामे छे. आ रीते उक्त बन्ने संस्कृत अने बीजी बधी प्राकृतो एक समान छे छतां प्राकृत भाषाओने नीचं स्थान शा माटे ? अने उक्त बन्ने संस्कृत भाषाने उच्चस्थान शा माटे ? आ प्रश्न अवश्य विचारणीय छे. आ संबंधे जे खुलासो हुं समझुं छु ते अहीं संक्षेपमां बतायूँ छु: । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अने शूद्र ए चारेना आत्मामां कशोज भेद नथी, जगनियंताए तो ए चारेने एकसरखा प्रेमथी सा छे, तेम ए चारेना देहनी आकृति के अवयवोमां कशोज भेद नथी. जन्मे छे त्यारे तो ते बधा य एक सरखा ज होय छे छतां य एक समय एवो हतो के ज्यारे एम मनातुं के “वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः" अर्थात् बधा य वर्णोमां ब्राह्मण ज श्रेष्ठ छे. ब्राह्मण ज ब्रह्मदेव- मुख छे, हाथ क्षत्रिय छे, जांघ वैश्य छे अने पग शूद्र छे. आ देशमां ज्यारे धर्मगुरुओनी (मुख्यत्वे ब्राह्मणोनी) सत्ता जोर ऊपर हती त्यारनी आ मान्यता छे अने ए मान्यताने लीधे क्षत्रियोने, वैश्योने अने समाजना पायारूप शुद्रोने जे जे अन्यायो थया छे ते बधा जाणीता छे. मनुस्मृति वगेरे स्मृतिओ तेनी साक्षीरूप छे. मने लागे छ के ब्राह्मणसत्ताक समयमा जेम अन्य वर्णोने हलका-नीच-पतित कहेवामां आव्या छे अने तेमने ब्राह्मण करतां घणा ज ओछा अधिकारो आपवामां आव्या छे अने समस्त स्त्रीवर्गने तो सर्वथा अधम मानीने तेनो भणवानो अधिकार पण खूचवी लेवामां आव्यो छे. तेम ब्राह्मणोए ब्राह्मणेतर वर्णनी अने आम लोकमां प्रचार पामेली भाषाने 'अपभ्रंश' एवं हलकुं नाम आपीने लोकभाषानो तिरस्कार को छे. अभण ब्राह्मणो, तेमनी पत्नीओ, (जुओ टि. १४८) अने ब्राह्मणोनां बालको सुद्धा 'अपभ्रंश 'नो उपयोग करतां हतां तेम छतां जातिवादने प्रधानस्थान आपनारा ते समयना ब्राह्मणोना अमुक वर्गे लोकभाषाने हलकी कहेवानी धृष्टता करेली छे तेने ज परिणामे 'संस्कृत तो देवभाषा छे अने प्राकृत वगेरे भाषाओ हलकी छे' एवी भ्रामक मान्यता फेलायेली छे. लोकभाषा हलकी ज होय तो शुं वेदोनी भाषा लोकभाषा नथी ? पाणिनि जेने शिष्टभाषा कहे छे तेना करतां वेदभाषा तद्दन जुदा प्रकारनी छे, तेना प्रयोगो पण तद्दन विलक्षण छे. जेम जेम हुं विचार करूं छु तेम तेम मने स्पष्ट जणाय छे के वेदोमां वपरायेली भाषा ते समयना लोकोनी प्रकृतिसिद्ध-स्वाभाविक-भाषा छे. जे भाषा प्रकृतिसिद्ध-प्राकृत-होय तेने हलकी केम कहेवाय ? वळी, बीजी बीजी प्राकृतो अने वेदोनी ए स्वाभाविक भाषा वच्चे गाढ संबंध पण छे. प्राकृतभाषा Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ओनो जेटलो संबंध वैदिक भाषा साथे छे तेटलो पाणिनिनी शिष्ट भाषा साथे नथी. प्राकृत भाषाओनो मूळ देह अने वैदिक भाषानो मूळ देह ए बे वच्चे घj ज निकटनुं साम्य छे. त्यारे वेदोमां वपरायेली लौकिक भाषाने आर्ष कहीने पवित्र मानवी अने लोकोमा प्रचार पामेली प्राकृत भाषाओने हलकी-भ्रष्ट-कहीने अवगणवी एमां न्याय छे खरो? जे भाषा अर्थवाहक होय अने जेनां उच्चारणो शक्यताप्रमाणे नियत होय तेवी कोई भाषा भले होय परंतु तेमां 'अमुक भाषा तो सर्वोच्च छे अने अमुक भाषा तो हलकी छे' एवी कल्पना, भाषाना मिथ्या अभिमानथी ऊभी थयेली छे. ज्यारे भाषानो मिथ्या आडंबर वधी गयो अने भाषातत्वने ज प्रधानता अपावा लागी अने ते द्वारा सामान्य लोकोने तिरस्कार पात्र गणवामां आव्या त्यारे भगवान बुद्ध अने भगवान महावीरे लोकभाषाने ज बोलवानुं वाहन बनाव्युं अने समस्त वर्गमां बोलाती भाषाने प्रधान स्थान आपी लोकोनुं प्रतिनिधित्व स्थापित कयु. त्यार पछी जे जे लोकप्रतिनिधिरूप संतो-ज्ञानेश्वरतुकाराम-कबीर-तुलसीदास-नरसिंह वगेरे थया छे, तेमणे पण ते लोकभाषाने ज स्वीकारी छे. आपणे जाणिए छिए के लोकभाषानो आश्रय लेवा बदल ते ते संतोने केवी केवी पीडाओ सहन करवी पडी छे छतां तेओए लोकभाषाने ज प्रधान स्थान आपलं छे. वर्तमानमां पण लोकभाषाने प्रधान स्थान मळशे तो ज ग्रामीण लोको अने नागरिक लोको वच्चेनो कृत्रिम भेद मटी जशे अने ए बन्ने बच्चे पोष्यपोषकनो सनातन संबंध सचवाई रहेशे. अत्यारे जे ए संबंध तुटी गयो छे तेनुं एक कारण लोकभाषानी अवगणना पण छे. ___ कहेवानुं तात्पर्य ए के लोकभाषानुं 'अपभ्रंश' ए नाम जातिवादी ब्राह्मणोए आपेलुं छे. खरी रीते तो जेम एक काळे वेदोनी भाषा लोकभाषारूपे प्रचलित हती तेम 'अपभ्रंश' नामवाळी भाषा पण एक काळे समस्त भारतमा प्रचलित हती. एथी एवी समस्त लोकनुं प्रतिनिधित्व करती भाषाने हलका शब्दथी संबोधवी उचित नथी. 'लोकभाषा अपभ्रंश छे, लोकभाषा हलकी छे' एटलुंज कहीने ब्राह्मणो अटक्या नथी परंतु तेमणे तो एम पण कर्तुं छे के जे जे शास्त्रो ए लोकभाषामा छे ते पण भ्रष्ट भाषामां रचायेलां होई प्रामाणिक नथी, भले ए शास्त्रोमां अहिंसा वगेरे सत्तत्त्वो होय परंतु जेम कूतराना चामडानी कोथळीमां भरेलुं गाय, दूध पण भ्रष्ट छे-हेय छे तेम भ्रष्टभाषामां निरूपायेलां ए सत्तत्त्व पण त्याज्य-हेय छे.. तंत्रवार्तिकना प्रणेता महापंडित श्रीकुमारिले ऊपली हकीकत तंत्रवार्तिकमा (पृ. २३७ आनंदा०) आ प्रमाणे जणावी छे: ___ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख अहीं ए याद राखवु जरूरी छे के अमुक ज भाषाना पक्षपाती प्राचीन पंडितोए आ — अपभ्रंश' शब्दने पोतानी मानीती भाषा सिवायनी भाषा माटे गोठवी काढ्यो छे. मारी दृष्टिए कहुं तो बराबर अर्थवाहक कोई पण लोकप्रतिनिधिक लोकभाषाने ' अपभ्रष्ट' नाम अपाय ज केम ? एटले अहीं भाषा माटे 'अपभ्रंश' अने उच्चारणो माटे ‘भ्रष्ट उच्चारणो' शब्द वापरेला छे ते उक्त प्राचीन पंडितोनी रूढिने अनुसरीने छे. खरी रीते तो तेवी लोकभाषा माटे साधारणभाषा, लोकभाषा, जनपदभाषा, देशीभाषा के प्राकृत भाषा एवां नामो योग्य छे. " असाधुशब्दभूयिष्ठाः शाक्य-जैनागमादयः । असन्निबन्धनत्वाच शास्त्रत्वं न प्रतीयते ॥ ततश्च असत्यशब्देषु कुतस्तेष्वर्थसत्यता । दृष्टापभ्रष्टरूपेषु कथं वा स्यात्-अनादिता" ॥ “ सन्मूलम्-अपि अहिंसादि श्वदृतिनिक्षिप्तक्षीरवत् अनुपयोगि अविश्रम्भ णीयं च"। जेम आपणी भाषाओने गोरा लोकोए ‘वर्नाक्युलर' नाम आप्यु छे तेम ते समयना जातिवादी ब्राह्मणोए साधारण जनभाषाने-लोकभाषाने-अपभ्रंश कही छे. तेम छतां वाक्पति, राजशेखर वगेरे वैदिक ब्राह्मणोए प्राकृतभाषाने घणी घणी प्रशंसी छे अने 'भाषामात्रनी-संस्कृत सुद्धांनी-जननी प्राकृतभाषा छे' एम कही प्राकृतभाषानी भक्तिपूर्वक स्तुति करी छे एटलं ज नहीं पण ते भाषामां तेओए ग्रंथरचना-सेतुबंध, कर्पूरमंजरी-पण करी प्राकृतभाषानो उत्कर्ष साधी बताव्यो छे. ए, आपणी आर्यभावनानो ज विजय छे. वर्तमानमां काशी, बंगालनां नदीयाशांति के भाटपाडा वगेरे स्थळे ज्यां संस्कृतज्ञ पंडितोनुं ज अधिक प्राबल्य छे त्यां बधे उक्त कुमारिलनी वाणीनी असर छे अने आपणा देशमां (गुजरातमां) पण प्राचीन परंपराना पंडित ब्राह्मणो मोटे भागे कुमारिलनी असरथी मुक्त जणाता नथी. वैदिकपरंपरानी शिक्षणसंस्थाओमां प्राकृत भाषाओ शीखवाती होय एवं हजु सुधी तो सांभळ्युं नथी. भाषाने लगती आ जातनी मिथ्या अस्मिता शुं समभावनी के राष्ट्रीयत्वनी विघातक नथी ? जैनो अने ब्राह्मणो-बनेने परमेश्वर आवा प्रकारनी मिथ्याअस्मिताथी दूर राखे. ___ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रांति मागधी अने शौरसेनी शब्द अमुक प्रदेशनी भाषानो बोधक छे, पैशाची शब्द अमुक जातिनी भाषानो ज्ञापक छे. 'अपभ्रंश'नो , । तेवी रीते अमुक देशनी वा अमुक जातिनी भाषा - सामान्य अर्थ माटे 'अपभ्रंश' शब्दनो प्रयोग नथी माटे वैदिक अने लौकिक संस्कृतनु भ्रष्टरूप, आर्षप्राकृत के साधारण प्राकृतनुं भ्रष्टरूप, मागधी, भ्रष्टरूप, शौरसेनीन भ्रष्टरूप, पैशाचीन भ्रष्टरूप-ए बधी विशेष भाषानां भ्रष्टरूपो — अपभ्रंश'ना भावमां समाई जाय छे. प्राकृत भाषानो व्यापक अर्थ छे छतां ते जेम अमुक एक विशिष्ट अर्थने पण सूचवे छे तेम अपभ्रंश शब्दनो भाव पण प्राकृतनी जेवो व्यापक छे छतां ते, अहीं तो एक खास विशिष्ट भाषाना अर्थनो द्योतक छे. जे विशेष भाषाने अपभ्रंश शब्द सूचवे छे ते भाषा अमुक समये वा अमुक संवतमां ज उत्पन्न थई हती एम काई कही शकाय एवं नथी. भाषाविज्ञाननी दृष्टिए जोतां तो अपभ्रंश भाषा पण जन्मनी दृष्टिए वैदिकयुगना आदिम प्राकृत साथे ज संबंध राखे छे. अपभ्रंश अने वैदिक युगमा जे भाषा बोलचालनी हती तेनुं नाम . 'आदिम प्राकृत.' ए आदिम प्राकृत बोलनारा आर्यों आदिम प्राकृत के तेमना संपर्कमां आवेला आदिम लोको ए बधानां उच्चारणो एकसरखां ज होय ए न बनवा जेतुं छे. उच्चारणभेदनी उपपत्ति अने आर्यो तथा आदिम जातिओना संपर्कथी थता शब्दपरिवर्तननी उपपत्ति ए बन्ने बाबत आगळ सविशेष चर्चाई गई छे. (पृ० १४-४४) तात्पर्य ए के उच्चार्यमाण आदिम प्राकृतनां जे उच्चारणो विशेष भ्रंश पामेलां हतां तेमनुं समग्र एक नाम अपभ्रंश एटले जे समय आदिम प्राकृतनो ते ज समय भ्रष्ट उच्चारणरूप अपभ्रंशनो. परंतु अहीं ए याद राखवू जोईए के आदिम प्राकृतनां भ्रष्ट उच्चारणोनो सूचक 'अपभ्रंश' शब्द खास Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख TZOGJTCSIT एक भाषा-विशेषनो सूचक नथी, तो पण विशेषभाषारूप अपभ्रंशर्नु बीज ते भ्रष्ट उच्चारणोमां छे, एमां शक नथी. महाभाष्यकार पतंजलिए वापरेलो अपभ्रंश शब्द-ते, मात्र अशुद्ध के विकृत उच्चारणोनो सूचक छे. महाभाष्यकार कहे छे के, अने अपभ्रंशनो - कोई ब्राह्मणी पोतानी अशक्तिने लीधे 'ऋ' ने बदले सामान्य अर्थ 'ल' नुं उच्चारण करे छे. ते 'ऋतक' ने बदले 'लतक' बोले छे. ब्राह्मणीनुंए 'लतक' उच्चारण भ्रष्ट छे छतां ते भ्रष्ट 'लतक' ना 'ल' नो संधिकार्यमां उपयोग थाय माटे पण महेश्वरे “ऋलक्" सूत्रमा 'ल' नो उपदेश करेलो छे. ए रीते 'अपभ्रंश' शब्द सामान्य अशुद्धिनो-विकृतिनो सूचक हतो ते, वखत जतां, अमुक एक भाषानी अस्मितानुं प्राबल्य वधतां सर्वसाधारण अपभ्रंशनो एवी लोकभाषानो द्योतक थयो. अपभ्रंश पदनो विशेष अर्थ . साधारण एवो यौगिक अर्थ सर्वकाळे वैदिक के लौकिक संस्कृत वगेरे सर्व भाषा परत्वे विद्यमान होय छे. तेनो आदिकाळ के प्रारंभकाळ शोधी न शकाय. परंतु साहित्यमां वपराती भाषाविशेष परत्वे ' अपभ्रंश' शब्द क्यारथी रूढ रीते शरू थयो तेनो ऊहापोह जरूर थई शके. आ ऊहापोह माटे अत्यारे बे जातनां साधनो उपलब्ध छे. तेमांनां _ एक एवां छे के जेमां साहित्यमां वपराती विशेषभाषाविशेष भाषाना अर्थमां अपभ्रंश पदनो व्यवहार छे अने परत्वेना 'अपभ्रंश'नो बीजां एवां छे के जेमां एवां अनेक पद्यो विद्यमान ऊहापोह छे, जे तुलनात्मक भाषाविज्ञाननी दृष्टिए चोक्खां अपभ्रंशनां छे. १४८ जुओ महाभाष्य-"लकारोपदेशो यदृच्छा-अशक्तिजानुकरण-प्लुत्याद्यर्थश्च" “अशक्त्या कथंचिद् ब्राह्मण्या 'ऋतक' इति प्रयोक्तव्ये 'लतक' इति प्रयुक्तम्" इत्यादि (पृ. ४५ अभ्यं०) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत १६० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ७१ अपभ्रंश पदनो रूढ रीते उपयोग करनारां साधनो आ छे : (१)—नाट्यशास्त्रकार भैरते ( आशरे विक्रमना छठा सैकाथी पूर्वनो समय ) पोताना ए शास्त्रना सत्तरमा अध्यायमां रूढार्थक अतिभाषा, आर्यभाषा, जातिभाषा, योन्यन्तरीभाषा, अपभ्रंश अने भाषा, विभाषा, एवां एवां अनेक सामान्य पदो द्वारा नाट्यशास्त्रकार अनेक भाषाओनी माहिती आपी छे. उपरांत मागधी, अवन्तीजा,प्राच्यभाषा, शौरसेनी,अर्धमागधी, बाल्हीका अने दाक्षिणात्या एम सात भाषाओने भाषा तरीके जणावी छे अने वनेचरी भाषाने विभाषा तरीके बतावी छे. वळी शकारी, चांडाली, आभीरोक्ति, शाबरी, द्रामिडी वगैरे शब्दोने खास खास भाषाओनां नामरूपे सूचव्यां छे. भरते प्रयोजेला 'भाषा' पदनी टीका करतां अभिनवगुप्त कहे छे के " भाषा संस्कृताऽपभ्रंशः” अर्थात् “संस्कृतनो अपभ्रंश ते भाषा" अने “भाषाऽपभ्रंशस्तु विभाषा"-" संस्कृतना अपभ्रंशनो पण जे अपभ्रंश ते विभाषा" आमां अभिनवगुप्ते वापरेलो प्रथम अपभ्रंश शब्द, महाभाष्यकारे वापरेला अपभ्रंश जेवो यौगिक छे. अने बीजो अपभ्रंश शब्द मने तो रूढार्थद्योतक लागे छे. १४९ “ संस्कृतं प्राकृतं चैव यत्र पाठ्यं प्रयुज्यते । अतिभाषा आर्यभाषा च जातिभाषा तथैव च ॥ २७ ॥ तथा योन्यन्तरी चैव भाषा नाटये प्रकीर्तिता ॥२८॥ मागधी-अवन्तिजा प्राच्या शौरसेनी-अर्धमागधी। बाल्हीका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः॥४९॥ शकार-आभीर-चण्डाल-शबर-द्रमिल-अन्ध्रजाः । हीना वनेचराणां च विभाषा नाटके स्मृता ॥ ५० ॥ १५० नाट्यशास्त्र अ० १७ श्लो० ४९-५० नी टीका पृ० ३७६ (गाय) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १६१ - आ रीते भरतमुनि पण अपभ्रंश पदने रूढार्थवाचक मानता जणाय छे. तेमने तेनो यौगिकार्थ ज इष्ट होत तो तेओ ते माटे 'भाषा' शब्द वापरीने ज चलावत पण तेमणे अपभ्रंशनो बीजो अर्थ बताववा 'विभाषा' शब्द पण योजेलो छे. _वळी, भरतमुनिए ते प्रसंगमां 'आभीरोक्तिः" शब्द पण वापर्यो छे. महाकवि देण्डी जे अर्थमां "आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंशः" वाक्य वापरे छे, ते अर्थमां भरतमुनिए 'आभीरोक्तिः' शब्द वापरीने नाटकोमा स्पष्टपणे अपभ्रंश पदनो रूढार्थ स्वीकारेलो छे. भरतमुनिना नाट्यशास्त्रमा “ मोरुलउँ गच्चंतउ । नहागमे संभंतउ ॥" नाट्यशास्त्रमा - [अ० ३२ श्लो० ६६] आ अने आवी अपभ्रंशपद्यो भाषावाळां बीजां चार पद्यो मळे छे. १५१ नाट्यशास्त्र अ० १७ श्लो० ५६-पृ० ३७७ (गाय) १५२ काव्यादर्श प्रथम परिच्छेद श्लो० ३६ १५३ भरतना नाट्यशास्त्र (निर्णयसागर प्रेस ) मां अध्याय ३२ मां ए पांचे दोहाओ जे प्रमाणे छपाया छे ते आ प्रमाणे छे: १'मोरुल्लुउ नच्चंतउ” नहागमे संभंतउ" ॥६६॥ २ “ मेह उईतुं नई जोण्हउं । णिञ्च णिप्पहे एहु चंदउ ॥ ७४ ॥ ३ “ एसा हंसवधू हित्था काणणउ । __गंतुं जस्सु (ऊसु )इया कंतं संगइया" ॥ ९९ ॥ ४ “पिय वाइ वायतु सुवसंतकाल। पिय कामुको पिय मदणं जणंतउ"॥ १०८ ॥ ५ " वयदि वादो एह पवाही रुसिद इव"। १६९ आ पांचे ध्रुवाना पाठो ठीक ठीक अशुद्ध छे छतां जे पदो जाडा अक्षरोमां मुक्यां छे ते बधां स्पष्टपणे अपभ्रंशनां रूपो छे. स्व. केशवलालभाईए तो उक्त ध्रुवाना पाठो बदलवामां असाधारण छूट लीधी छे. मारी नम्र समझ प्रमाणे कोई ___ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 6 , तेमां वपरायेलां 'उ' प्रत्ययवाळां पदो अने हेमचंद्रे कहेला अपभ्रंशमां वपरातो स्वार्थिक 'डुल्लुअ' प्रत्यय जेने लागेलो छे एवं ' मोरुलउ ' पद, उक्त पद्यनी कायाने अपभ्रंशनी काया कहेवाने पर्याप्त छे. आ पद्योनी भाषा विशे साक्षरोमां मतभेद छे. स्व० केशवलालभाई ध्रुव ए पद्योने अपभ्रंशनां नथी मानता अने ए पद्योनी जे वाचना मळे छे तेने सुधारीने एटले प्राकृतनुं रूप आपीने वांचे छे. आम वाचना फेरववा छतांय तेओ 'मोरुल्लउ ' पदनुं अपभ्रंशपणुं फेरवी शकता नथी. मारा नम्र मत प्रमाणे ए रीते वाचना फेरववी उचित नथी भासती. अध्यापक गुणे महाशय ते पद्योनी वाचनाने फेरवता नथी. तेओ जेवी ते पधोनी वाचना मळे छे तेवी कायम राखी तेमने अपभ्रंशनां पद्यो माने छे. मारी कल्पनाने श्रीगुणे महाशयनो टेको छे अने ते पद्योनो अपभ्रंशभाव पण मारी तरफेणमां छे. ( २ ) चंडे १५७ ( आशरे विक्रमनो छडो सैको ) पोताना प्राकृत व्याकरणमां " न लोपोऽपभ्रंशेऽधोरेफस्य " सूत्रमां विशेषभाषावाचक रूढ अपभ्रंश पदनो उपयोग करेलो छे. चंड अने रूढार्थ अपभ्रंश पण प्राचीन पाठोने बदली तेमने स्थाने नवा पाठो कल्पवामां भारे जोखम छे अने ए जातनी नवा पाठोनी कल्पना इतिहाससंशोधन माटे मोटा अंतरायरूप छे. श्लोक ६६ मामां ' नहागमे ' पाठ छे. नह - ( नभस् ) श्रावण मासनुं । आगमेआगमन थये । अर्थात् वर्षाऋतुना श्रावणमासनुं आगमन थये मोरो नाचे छे. आवो स्पष्ट अर्थ छतां तेमणे ( के० श्रु० ) ' नह' ने बदले ' मेह' पाठ कल्प्यो छे तेना कारणनी समझण पडती नथी. ८८ १५४ अ- डड-डुल्लाः स्वार्थिक'क'लुक् च ' ८-४-४२९ है० अपभ्रंश प्रकरण. १५५ जुओ पद्यरचनानी ऐतिहासिक आलोचना पृ० २८३-२८६ ( ठक्कर वसनजी माधवजी लेक्चर्स - १९३२ नी सालनुं मुद्रण ) १५६ जुओ भविसयत्तकहानी प्रस्तावना पृ० ५०-५१ १५७ जुओ चंडनुं प्राकृतलक्षण पृ० २४ सू० ३७ (सत्य० > Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १६३ (३) रोजी धरसेनने लगता विक्रमना छहा-सातमा सैकाना एक शिलालेखमां आवेला · अपभ्रंशप्रबंध' पदनो अपअपभ्रंशप्रबंध 4 भ्रंशशब्द साहित्यिक अपभ्रंशभाषानो द्योतक छे. ( ४ ) महाकवि दण्डीए (आशरे विक्रमनो आठमो सैको) पोताना काव्यादर्शमां 'अपभ्रंश' पदनी एक यौगिक व्याख्या करी छे. अने काव्योमां वपराती अपभ्रंश भाषाने लक्ष्यगत करीने बीजी रूढ व्याख्या पण आपी छे. (५) कुवलयमाला कथाना कर्ता दाक्षिण्यचिह्न वा उद्योतनसूरिए (आशरे विक्रमनो नवमो सैको) पोतानी ए कथामा ‘अपअपभ्रंश अने भ्रंश' शब्दने विशेष भाषाना अर्थमां नोंघेलो छे. दाक्षिण्यचिह्न ___ आ उपरांत राजशेखर, भोजर अने १५८ जुओ 'गुजरातना ऐतिहासिक लेखो' (भाग १) पृ० १०७ पंक्ति ५ (श्रीफार्बसगुजरातीसभाग्रंथावलि अंक १५) १५९ " आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः। शास्त्रे तु संस्कृतादन्यद् अपभ्रंशतयोदितम्" ॥ काव्यादर्श १ परि० श्लो० ३६ १६० किंचि अवन्भंसकया का वि य पेसायभासिल्ला"-(कुवलयमालाप्रारंभ हस्त लिखित अ० पा०) १६१ “ ससंस्कृतमपभ्रंशं लालित्यालिङ्गितं पठेत् ” । -काव्यमीमांसा अ० ७ पृ. ३३ पं० ५. “ अपभ्रंशावदंशानि ते संस्कृतवचांस्यपि "। -पृ० ३४ पं० १०. " अपभ्रंशभाषणप्रवणः परिचारकवर्गः "-अ० १० पृ. ५० ५० ५. " सापभ्रंशप्रयोगाः सकलमरुभुवः टक्क-भादानकाच"-अ० १० पृ० ५१ पं० ६. १६२ " अपभ्रंशेन तुष्यन्ति स्वेन नान्येन गुर्जराः ॥" -----सरस्वतीकण्ठाभरण प० २ श्लो. १३. ____ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति चाम्मैट वगैरे विद्वानोए पोताना काव्यशास्त्रने लगता ते ते प्रसिद्ध ग्रंथोमां पण 'अपभ्रंश' पदनो रूढार्थवाचकरूपे उपयोग करेलो छे. ___उक्त बधा उल्लेखो द्वारा साहित्यिक अपभ्रंशनुं अस्तित्व विक्रमना छठा सैकाथी आगळ जतुं नथी. किन्तु भरते करेलो 'आभीरोक्तिः' शब्दनो प्रयोग अने तेमणे उदाहरणरूपे आपेलां उक्त अपभ्रंश पद्यो साहित्यिक अपभ्रंशने विक्रमना छट्ठा सैकाथी पूर्वे लई जाय एम छे. तेम छतांय विद्वानो साहित्यिक अपभ्रंशने वि० छठा सैकाथी पूर्वनुं न स्वीकारता होय तो तेमनो ते मत मारी नम्र कल्पनाथी जोतां संगत भासतो नथी. ___ वात एम छे के कोई पण साहित्यिक भाषानी कविता वा गद्य कांई एकाएक फूटी नीकळतुं नथी. जे भाषा लोकभाषा तरीके जामेली होय, जेना प्रयोगो स्थिरपणाने पाम्या होय अने कवि पोताना सर्वभावोने व्यक्त करी शके एवी जे भाषा समर्थ होय ते भाषा साहित्यमां वापरी शकाय छे. कोई पण लोकभाषाने साहित्यिक भाषारूपे पक्क थतां वखत लागवानो ज. एटले ए अपेक्षाए जोतां भरते उदाहरणरूपे आपेलां पद्यो ज विशिष्ट अपभ्रंश पद्यनु भोजे आपलं उदाहरण आ प्रमाणे छे: "लइ, वप्पुल ! पिअ दुद्धं कत्तो अम्हाणहुँ छासि। पुत्तहु मत्थे हत्थो जइ दहि जम्मे वि जअ ? आसि"॥-सरस्वतीकंठा० पृ० १४५ आ नीचे उक्त अपभ्रंश पद्यनी चालु गुजरातीमां बरोबर छाया बतावी छ : "ले, बापला ! पी दूध क्यांथी अम्होने छाश । पुत्रने माथे हाथ जो दही जन्मे बी जोयुं (?) होय" ॥ आ छाया जोतां एम स्पष्ट जणाय छे के आजनी गुजराती अने ते समयनी प्रचलित भाषा ए बे वच्चे घणुं ज थोडं अंतर छे अने एम छे माटे ज भोजना समयनी गुर्जरलोकप्रचलित भाषाने हुं ऊगती गुजराती कहुं छु. १६३ “ संस्कृतं प्राकृतं तस्य अपभ्रंशो भूतभाषितम् ।। इति भाषाश्चतस्रोऽपि यान्ति काव्यस्य कायताम् ॥" -वाग्भटालंकार द्वितीय परिच्छेद श्लो० १. " अपभ्रंशस्तु यच्छुद्धं तत् तद् देशेषु भाषितम्”-वाग्भटा० श्लो० ३ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १६५ अपभ्रंश भाषाने भरतथी पूर्वे एक वा दोढ सैको लई जवानां ज ए निर्विवाद वात छे. तात्पर्य ए छे के, उक्त प्रकारनां साधनो द्वारा विशिष्ट प्रकारनुं अपभ्रंश-साहित्यिक अपभ्रंश विक्रमना चोथा वा पांचमा सैका सुधी पहोंचवानुं अने विशिष्ट बाधक प्रामाण न मळे त्यां सुधी आ कल्पनाने अवकाश रहेवानो. ७२ तुलनात्मक भाषाविज्ञाननी दृष्टिए जोतां जेमां आवेलां पद्योनी महायानपंथना भाषा चोक्खी अपभ्रंश छे, एवां बीजां साधनोनो ललितविस्तर परिचय आ प्रमाणे छ : आदि ग्रंथोनां अपभ्रंशपद्यो बौद्धमहायानपरंपरानां ललितविस्तर, लङ्कावतारसूत्र, सद्धर्मपुण्डरीक वगैरे अनेक ग्रंथो आजे उपलब्ध छे. तेमां एवां अनेक पद्यो मळे छे जे नथी संस्कृत, नथी ( रूढ ) प्राकृत; किन्तु ते पद्योमां वपरायेलां विभक्त्यन्त पदो जोतां अपभ्रंशनो कोई अभ्यासी तेमने अपभ्रंश पद्यो तरीके ज ओळखे एवां ए चोक्खां अपभ्रंशरूप छे. ___ ललितविस्तरमा आवेलां पद्यो नीचे प्रमाणे पद्यो ललितविस्तरनां ले: “ प्रत्येक बुद्धभि च अर्हभि पूर्णलोको निर्वायमाणु न बलं मम दुर्बलं स्यात् । सो भूयु एकु जिनु भेष्यति धर्मराजो गणनातिवृत्तु जिनवंशु न जातु छियेत् ॥ (वसंततिलका) [अध्याय २१-पृ० ३०३] रणकालि प्राप्ति यदि नाम जयो न दोषः तत्रैव यस्तु निहतो भवते स दोषः। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति स्वप्नांतरे तु यदि ईदृश मे निमित्ता श्रेयो उपेक्ष म रणे परिभावु गच्छेत् ॥ [अध्याय २१-पृ० ३०४ ] ज्वलिथ दीपविमलां ध्वजाग्नि मणिरत्न सर्वि स्थपिथा । . ओलंबयाथ हारां प्रभां कुरुत सर्वि गेहेस्मिन् ॥ संगीति योजयेथा जागरथ अतन्द्रिता इमां रजनीम् प्रतिरक्षथा कुमारं यथा अविदितो न गच्छेथा ॥ ( आर्या ) [अ० १५-पृ० २०१] किं तात ! भिन्नवदनोऽसि विवर्णवक्त्रो हृदयं समुल्लवति वेधति तेऽङ्गमङ्गम् । किं ते श्रुतं अथव दृष्टु भणाहि शीघ्र ज्ञास्याम तत्त्वतु विचिन्त्य तथा प्रयोगम् । [अ० २१-पृ० ३०४ ] निष्क्रान्तु शूरो यद विदु बोधिसत्त्वो नगरं विबुद्धं कपिलपुरं समग्रम् । मन्यन्ति सर्वे शयनगतो कुमारो अन्योन्यहृष्टाः प्रमुदित आलभन्ते । गोपा विबुद्धा तथ अपि इस्त्रिगारा शयनं निरीक्षी न च दृशि बोधिसत्त्वम् । उत्कोसु मुक्तो नरपतिनो अगारे हा! वञ्चिता स्मः कहि गतु बोधिसत्त्वो । राजा श्रुणित्वा धरणितले निरस्तो उत्कोसु कृत्वा अहो मम एकपुत्रो सो स्तेमितो ही जलधरसंप्रसिक्तो आश्वासयन्ती बहुशत शाकियानां ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १६७ गोपा शयातो धरणितले निपत्य केशां लुनाती अवशिरि भूषणानि । अहो सुभाष्टं मम पुरि नायकेना सर्वप्रियेभिर्न चिरतु विप्रयोगः ॥ रूपासु रूपा विमलविचित्रिताङ्गा अच्छा विशुद्धा जगति प्रिया मनापा । धन्या प्रसस्ता दिवि भुवि पूजनीया क्व त्वं गतोऽसी मम शयि छोरयित्वा । [अ० १५-पृ०२२९-२३०] के चागता धरणि कम्पयमान पद्भयाम् संकम्पिता वसुध प्रीतिकरी जनस्य । के चागता ग्रहिय मेरु करेतलेभिः उत्सृष्टपुष्पपुट संस्थित अन्तरीक्षे॥ के चागताश्चतुरि सागर गृह्य मूर्ना । उत्सृष्ट सिञ्चि वसुधां वरगन्धतोयैः ।। के चागता रतनयष्टि गृहीत्व चित्रं संबोधिसत्त्वमुपदर्शय स्थित्व दूरे [अ० २०-पृ० २९७ ] के चागता ग्रहिय भेरि यथैव मेरु आकोट्यमानु गगणे सुमनोज्ञघोषाम् । यस्या वं दश दिशे वजि क्षेत्रकोट्या अद्यावबोद्धुममृतं अनुबुद्धि शास्ता ॥ [अ० २०-पृ० २९९] न पास्यि पानं न च मधु न प्रमादं भूमौ शयिष्ये नी मुकुटं धरिष्ये । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति स्नानं जहित्वा व्रततप आचरिष्ये यावन्न द्रक्ष्ये गुणधरु बोधिसत्त्वम् || [ ललितविस्तर अ० १५-१९०२ आवृत्ति. १६८ संपादक - लेकमन्न ] अध्रुवं विभवं शरदभ्रनिभं नटरङ्गसमा जगि जन्मि च्युति । गिरिनद्यसमं लघुशीघ्रजवं व्रजतायु जगे यथ विद्यु नभे ॥ - ललितविस्तर पृ० २०४ ] बोधिचर्यावतारनं “सत्य इमे दुवि लोकविदूनां दिष्ट स्वयं अश्रुणित्व परेषाम् । पद्य संवृति या च तथा परमार्थो सत्यु न सिध्यति किंच तृतीय ॥ " [ बोधिचर्यावतार परि० ९, पृ० ३६१ पं० १७ कलकत्ता - आवृत्ति ] लङ्कावतारसूत्र लंकावतारनां अपभ्रंश पदो संस्कृत रूपो नित्यासतस्य ( नित्यासत: ) – पृ० ६५ - पं० सोशस्य अणुसो देशेमि यथ वल्पेति वर्णते ६ ( शशस्य ) – पृ० ५८-पं० १० ( अणुश: ) - पृ० ५८-पं० १२ (देशयामि ) - पृ० ५४-पं० १ १ ( यथा ) - पृ० ५२ - पं० ( कल्पयति ) – पृ० ५२-पं० ११ ( वर्ण्यते ) - पृ० ५२-पं० १५ ( उदधेश्व ) पृ० ५२-० ८ पृ० ४५-५० ११ मुदवेश्व निरूप्पमाणे (निरूप्यमाणे ) वदाहि मे ( वद मे ) - पृ० ३२-पं० ६-७-८ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख २ ते भोन्ति ( ते भवन्ति ) - पृ० २६ - पं० परिषद सर्वा अलपी (परिषत् सर्वा अलपीत् ) पृ० २६-पं० ९ अवस्यं ( अवश्यम् ) पृ० १७ पं० १३ कृतावकासः.... रस्मिविमल - ( कृतावकाशः.... रश्मिविमल - ) पृ० १६- पं० १२-१३ प्रतिगृह्ण ( प्रतिगृहाण ) - पृ० ५-पं० १५ अनुकम्प ( अनुकम्पस्व ) पृ० ६ - पं० १ अनुकम्पोऽसि (अनुकम्प्योऽसि ) – पृ० ६ - पं० ७ ललितविस्तरमहापुराणमां वपरायेला - ऍकु, जिनु, जिनवंशु, रणकालि, प्राप्ति, ईदृश, परिभावु, ज्वलिथ 'वजाग्रि, सर्वि, ओलंबयाथ, संगीति, वेधति, दृष्टु, भणाहि, तत्त्वतु, निष्क्रान्तु, प्रमुदित, इस्त्रिगारा, दृशि, उत्कोसु, नरपतिनो, कहि, गतु, शाकियानां, शयातो, अवशिरि, सुभाष्टं, पुरि, १६४ अनुक्रमे आ शब्दोनां संस्कृत अने प्राकृत रूपो नीचे प्रमाणे छे : सं० भण निष्क्रान्तः प्रमुदितः स्त्री- अगारात् अदर्शि उत्क्रोशः नरपतेः सं० एक: जिनः जिनवंशः रणकाले प्राप्ते ईदृशः परिभावः ज्वलथ ध्वजाग्रे सर्वस्मिन् अवलम्बयथ संगीतिम् विध्यति दृष्टम् प्रा० एक्को इको एगो जिणो जिणवंसो रणकाले पत्ते एरिसो परिभावो जलह झग्गे सव्वंसि, सव्वहि अवलंबेह संगीतिं विज्झइ दिहं क्व गतः शाक्यानाम् शय्यातः अपासृजत् सुभाषितं पुरे १६९ प्रा० भणाहि, भण निक्खंतो पमुदितो इथिअगारा दरिसीअ उक्कोसो नरपतिनो कहिं गतो सक्कानं, सक्काणं सेज्जातो अवसरीअ सुभासितं पुरे Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति शयि, छोरयित्वा, धरणि, कम्पयमान, वसुध, ग्रहिय, मेरु, करेतलेभिः संस्थित, चतुरि, सागर, गृह्य, रतनयष्टि, भेरि, जगि, जन्मि, जगे, नद्य-व्रजतायु (व्रजति + आयु), जगे, यथ विद्यु, नभे ए अने एवा बीजा अनेक प्रयोगो अने लङ्कावतार सूत्रमा वपरायेला उक्त प्रयोगो अपभ्रंश सिवाय बीजी कई भाषाना संभवी शके एवा छे ? प्रथमाना 'एकवचनमां 'उ' प्रत्ययवाळं रूप, सप्तमीना एकवचनमां 'इ' प्रत्यवाळू रूप, लोपायेली विभक्तिवाळु रूप अने ए उपरांत वर्णपरिवर्तननी विलक्षणतावाळा भोति, इस्त्रि, ग्रहिय वगेरे विविध प्रयोगो कान ऊपर आवतां ज पोताना विशिष्ट प्रकारना अपभ्रंशभावने सूचित करे छे. ललितविस्तर वगैरेना निदर्शित प्रयोगोनुं पृथक्करण करी भाषाविज्ञानविद श्रीमान विधुशेखर शास्त्री कहे छे के जन्म जगे सं. प्रा० सं० प्रा० शय्यायाम् सेज्जाए | गृहीत्वा घेतूण छर्दयित्वा छडिऊण रत्नयष्टिम् रतनलटिं 'धरणिम् धरणिं भेरिम् भेरि कम्पयमानाः कम्पेमाणा जगति जगे वसुधाम् वसुहं जम्म गृहीत्वा घेतूण जगति मेरुम् नदी करतलैः करतलेहि यथा संस्थिताः संठिआ विद्युत् चतुर्-चतुरो चत्तारो नभसि -सागरान् सागरे __मूल ललितविस्तरमा वपरायेला ए पदो संस्कृत प्राकृत नथी पण कोई त्रीजी ज भाषानां छे ते बाबतनो ख्याल आवे माटे आ बधां पदोनुं संस्कृत अने प्राकृत रूपांतर अही करी बताव्युं छे. मेरुं FFE ___ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १७१ “एई मूल कि ? आमरा बलि अपभ्रंश प्राकृत; ईहा पालिर परवर्ती, अपभ्रंश प्राकृत आलोचना करिले गाथाय एतादृश प्रयोगेर मूल जानिते पारा याईवे'.--- [पालिप्रकाशनो प्रवेशक. पृ० ५४] जैनगंध ए उपरांत जैनग्रंथ वसुदेव हिंडि, आवश्यकचूर्णि, 'वसुदेवहिंडि, कुवलयॉला वगेरे ग्रंथोमां पण स्पष्ट अपभ्रंश पद्यो वगेरेमां अपभ्रंश विद्यमान छे. पद्य अने गद्य १६५ वसुदेवहिंडिनी गाथा आ प्रामाणे छे: ।। “ पासि कप्पि चउरंसियं रेवाय(प) यपुणियं । सेडियं च गेण्हेप्पि ससिप्पभवणियं ॥" -इत्यादि (वसुदे० प्र० भा० पृ० २८ पं० १ पु०) १६६ “ णंदो राया ण वि ( रायनंदु नवि) जाणति जं सगडालो करेहिति । नंदो राया मारेविणु सिरियं रज्जे ठवेहिइ ॥” . -(जिनदासम० आव० चू० पृ० १८४) 'आ गाथा नाना बालको बोले छे' एम चूर्णिमां कहेलुं छे. “ न दुक्कर तोडिय (तोडितु) अंबलंबिया न दुक्करं नचिउ सिक्खियाए । तं दुकरं तं च महाणुभावं जं सो मुणी पमयवणम्मि वुच्छो ॥ -आवश्यकचू० पृ० १८७ १६७ “जो जसु माणुसु वल्लहउ तं जइ अण्णु रमेइ। जइ सो जाणइ जीवइ वि तो तहु पाण लएइ ॥ उन्भडजलयाडंबरसहहिं पावई माणसं दुक्खं । सज्जणु पुणु जाणइ जि खल-जलयहं सहावई ।। (कुव० हस्तलि० अप०) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति कुवलयमालामां तो सुंदर संदर्भवाळु गद्य अपभ्रंश पण मळे छे. कुत्रलय माला विक्रमना नवमा सैकानी गणाय छे. आवश्यकउक्त जैन ग्रंथोनो चूर्णि आशरे आठमा सैकानी छे अने सातमा सैकाना समय विशेषणवंती ग्रंथमां जेनो उल्लेख छे एवो वसुदेवहिं डिग्रंथ पांचमा सैकाना उत्तरार्धमां अने छटानी शरूआतमां होय ए कल्पना अघटमान नथी. १६८ " सो च दुजणु कइसउ ? हूं, सुणउ जइसउ, पढमदंसणे चिय भसणसीलु पहिमांसासउ व्व। तहे मंडलो हि अपञ्चभिण्णायं भसइ मयहिं च मासाइ असइ । खलो घई मायहे वि भसइ चडप्फडंतहं चम्मठिमासाई असइ ति"। इत्यादि (कुव० हस्तलि० अप०) १६९ कुवलयमालाना कर्ता उद्योतन अथवा दाक्षिण्यचिह्न, हरिभद्रसूरिने पोताना गुरु तरीके याद करे छे. हरिभद्रनो समय (विक्रम० ७५७-८२७) आठमो -नवमो सैको सुनिश्चित छे एटले हरिभद्रनी पासे प्रमाणनो अने अन्य शास्त्रनो अभ्यास करनारा कुवलयमालाना कर्ता दाक्षिण्यचिह्ननो समय नवमो सैको छे. १७० आवश्यकचूर्णि अने नंदीचूर्णि ए बने चूर्णिओना कर्ता जिनदासगणिमहत्तर छे. नंदी-चूर्णिनो समय तेना अंतभागमां-- ___“शकराज्ञः पञ्चसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतिषु नन्दो-अध्ययनचूर्णिः समाप्ता" आपेलो छे. शकसंवत् ५९८ बराबर विक्रमसंवत् ७३३. आ ऊपरथी श्रीजिनदासगणिमहत्तरकृत आवश्यक-चूर्णिनो समय पण आठमो सैको ठरावी शकाय छे. १७१ श्रीजिनभद्रगणि ( आशरे सातमो सैको ) प्रणीत 'विशेषणवती 'मां 'वसुदेवहिंडि ' नो उल्लेख नीचे प्रमाणे छे : “ सामाइयचुन्नीए उसभस्स धणादओ भवा सत्त । होति अ पिंडिजंता बारस वसुदेवचरियम्मि ॥३१॥ सीहो सुदाढ नागो आसग्गीवो य होइ अन्नेसिं । सिद्धो मिगडओ त्ति य होइ वसुदेवचरियम्मि" ॥ ३३ ॥ -पृ. ६ (प्रकाशक ऋषभ० के० रतलाम) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १७३ आ रीते जैनग्रंथोना समयमाननी अपेक्षाए साहित्यिक अपभ्रंश वि. ना पांचमा सैकाना उत्तरार्ध सुधी सहेजे लंबाय छे. हवे अहीं महायान परंपराना उक्त ललितविस्तर वगेरेना समय विशे थोडो विचार करी लईए. मोघम रीते एवं मानवामां आवे छे के, विक्रम पूर्व लगभग अँढीसो वर्षथी मांडीने विक्रम संवत चोथी शताब्दीना 'ललितविस्तर' - गाळामां ललितविस्तर वगैरे ग्रंथो लखाया होवा नजिकिन बोलो नो समय जोईए. ललितविस्तर पुराणनी रचनाने मोडामां मोडी चोथा सैकानी मानीए तो साहित्यिक अपभ्रंशनो समय ललितविस्तर यूर्वे एकाद सैको तो मानवो जोईए. कोई पण चालु भाषाने साहित्यिकरूपे आवतां ओछामां ओछो एकाद सैको तो लागी ज जाय ए तद्दन स्वाभाविक कल्पना छे. आ रीते जोतां एम थाय पालनु के बोलचालनुं अपभ्रंश पालि, आर्षप्राकृत के अपभ्रंश अर्धमागधीनुं निकटवर्ती छे अने बोलचालना अपभ्रंश पछी साहित्यिक अपभ्रंशनो आविर्भाव घटमान भासे छे. समयनी दृष्टिए साहित्यिक अपभ्रंशनो शैशवकाळ विक्रमनो पत्रीजो सैको, किशोरकाळ चोथो सैको अने पांचमा भ्रंशनो समय ' सैका पछीथी तेनो खिलतो यौवनकाळ मानी शकाय. 'अपभ्रंशप्रबंध' नो सूचक उक्त शिलालेख अने पांचमा-छटा सैकाना वसुदेवहिंडि ग्रंथमां आवतां अपभ्रंश पद्यो साहित्यिक अपभ्रंशनो जे समय सूचवे छे ते अने उक्त ललितविस्तरनां पद्यो द्वारा साहित्यिक अपभ्रंशनो जे विकासमान यौवनकाळ कल्पायो छे ते वच्चे विशेष अन्तर १७२ “ गाथाभाषा के समस्तग्रंथों का रचनाकाल ख्रिस्तपूर्व दोसों वर्षों से ले कर ख्रिस्त की तृतीयशताब्दी पर्यंतका है”–पाइअ० प्रस्ता० पृ. ४९. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति रहेतुं नथी एटले साहित्यिक अपभ्रंश माटे साधारण रीते पांचमो सैको कहेवो होय तो ते माटे उक्त साधनो साधक छे. ७३ साहित्यनी दृष्टिए जोईए तो अपभ्रंशनुं साहित्य विपुल छे : महा कवि चतुर्मुख, स्वयंभू, त्रिभुवन, तिलकमंजअपभ्रंशनुं का नु रीनो कर्ता जैन महाकवि धनपाल, भविसयत्तकथानो साहित्य कर्ता बीजो जैन कवि धनपाल, पुष्पदंत, कनकामर अने जोइंदु वगैरे कविओए अपभ्रंश साहित्यने सरसरीते केळव्युं छे. केटलाक कविओए अपभ्रंश भाषाने ‘अवह?' (अपभ्रष्ट) शब्दथी अवहट अने पण कही छे ते 'अवहट्ट' अने उक्त 'अपभ्रंश' अपभ्रंश ए बे पदोना अर्थमां खास अंतर जणातुं नथी. आ रीते जैन अने बौद्ध वगेरे कविओए समभावे अपभ्रंश भाषाने खिलववामां सरस फाळो आपेलो छे. देशभेदे के काळभेदे अपभ्रंशमां पण तारतम्य देखाय खलं, वैविध्य अने एम छे माटे 'शौरसेन अपभ्रंश' 'मागध अपभ्रंश' 'पैशाच अपभ्रंश' वगैरे प्रांतिक अपभ्रंशोने जुदां जुदां गणावी शकाय. तात्पर्य ए के, जेम एक सर्वसाधारण 'प्राकृत' छे अने तेना १७३ संदेशकरासना प्रणेता मुसलमान कवि अद्दहमाने पोताना रासमां भाषाओनी गणना करतां 'अपभ्रंश'ने बदले अवहट्ट्य (अपभ्रष्टक ) शब्द वापर्यो छ : __“अवहट्टय-सक्कय-पाइयं च पेसाइयम्मि भासाए"-गाथा ६ । अर्थात् अवहट्टय अपभ्रष्टक, संस्कृत, प्राकृत अने पैशाचिक एम भाषाओनां नाम लीधां छे. मने लागे छे के 'संस्कृत' शब्द 'कृ' ना भूतकृदंत द्वारा नीपज्यो छे अने 'प्राकृत' शब्द पण 'कृ' ना भूतकृदंत 'प्रकृत'नो आभास करावे छे ते जोईने 'अपभ्रंश' भाषा माटे पण भूतकृदंतना रूपनी कल्पना करी 'अपभ्रंश'ने बदले 'अपभ्रष्टक-अवहट्टय' शब्दनी वपराश चालु थई होय. ___ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १७५ प्रांतिक भेदो 'शौरसेन प्राकृत' 'मागध प्राकृत' वगैरे कहेवाया, तेम एक सर्वसाधारण 'अपभ्रंश' छे अने 'शोरसेन अपभ्रंश' वगेरे तेना पेटा भेदो गणाय. अहीं ए हकीकत याद राखवी जोईए के, मूलभेद अने प्रांतिक भेद बच्चे असाधारण अंतर रह्यं नथी. राजशेखरनी काव्यमीमांसा वगैरे अलंकारना ग्रंथोमां अपभ्रंशना ' नागर' टक्क' 'वाचड' वगेरे भेदो गणावेला छे अने ए राजशखर अन भेदगणनानी प्राचीन परंपराने अनसरीने मॉडेये माकडेये जणावला अपभ्रंशना अनेक भेदो सूचवेला छे. एम अपभ्रंशना भेदप्रभेदो _ छतां य ते ते प्रत्येक पेटा भेदना विशिष्ट नमूना न जोवा मळे त्यांसुधी ए संबंधे शुं कही शकाय ? तात्पर्य ए के, एक काळे जे भाषा आपणा देशमां सर्वत्र व्यापक हती अने वर्तमानमा जे फक्त साहित्यमां सचवायेली छे तेवी अपभ्रंश एक अखंड भाषा छे, तेनो मूळ संबंध वैदिक युगना उक्त स्वरूपवाळा आदिम प्राकृत साथे छे. जेम प्राकृत अने संस्कृत बे बहेनो छे तेम अपभ्रंश ए तेमनी त्रीजी बहेन छे. ए त्रणे बहेनोमां परस्पर अने अपभ्रंश ए अत्यंत सद्भाव अने गाढ़ संपर्क होवाथी एकनी त्रणे बहेनोमां शोभा बीजीमां अने बीजीनी शोभा त्रीजीमां एम परस्पर सद्भाव आव्या करे छे. आम छे माटे ज ललित प्रा १७४ नागर अपभ्रंश, वाचड अपभ्रंश, उपनागर अपभ्रंश ए त्रण भेदोने, मार्कंडेय, प्रधान समझे छे. आ उपरांत लाट, वैदर्भ, बार्बर, आवंत्य, पांचाल, टाक, मालव, कैकय, गौड, औडू, पाश्चात्य, पाण्ड्य, कौंतल, सैंहल, कालिंग्य, प्राच्य, कार्णाटक, काञ्च्य, द्राविड, गौर्जर, आभीर, मध्यदेशीय, वैतालिकी वगेरे सत्तावीश भेदोने जणावे छे-(जुओ मार्कंडेय प्राकृतस० पृ० २ विझागा०) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति विस्तरनों प्रांजल संस्कृत प्रवाहमा ए अपभ्रंश पद्योनी शोभा भळी गयेली छे. भाषाना सौष्ठवमाटे एवी शोभानो आश्रय सौ कोई ले छे ए बात जाणीती छे. १७५ ललितविस्तरमहापुराणनो गद्यभाग सरळ संस्कृतमा छे अने पद्यभाग अपभ्रंश भाषामां छे. तेमां आवेलां पद्यो पण ओछां नथी, जेटलुं स्थान गये रोक्युं छे तेटलं ज पद्योए रोक्युं छे. तेना गद्यभागनी प्रांजल प्रवाहरूप संस्कृतभाषानो नमूनो आ प्रमाणे छ : “ततः छन्दकः कण्ठकम् आभरणानि च आदाय अन्तःपुरं प्राविक्षत् । ततः तानि आभरणानि चिरेण कालेन भद्रिकस्य शाक्यकुमारस्य महानाम्न:-अनिरुद्धस्य च अबध्यन्त स्म । तानि महानारायणसंघटनकायार्थम् अन्ये न शक्नुवन्ति स्म धारयितुम् । यदा न कश्चित् तानि धारयितुं शक्नोति स्म तदा महाप्रजापत्या गौतम्या चिन्तितमभूत्-यावदहम् इमानि आभरणानि पश्यामि तावद् मम हृदये शोको भविष्यति यनु (यनु) अहम् इमानि आभरणानि पुष्करिण्यां प्रक्षिपेयम्-इति। ततो महाप्रजापती गौतमी तानि आभरणानि पुष्करिण्यां प्रक्षिपति स्म । अद्यापि सा 'आभरणपुष्करिणी' इत्येवं संज्ञायते।" तत्रेदमुच्यते: निष्कान्तु शूरो यद विदु बोधिसत्त्वो नगरं विबुद्धं कपिलपुरं समग्रम् । मन्यन्ति सर्वे शयनगतो कुमारो अन्योन्यहृष्टाः प्रमुदित आलभन्ते ॥ -ललितविस्तर-अभिनिष्क्रमणपरिवर्त पृ० २२९-२३० १७६ जेम केटलाक लोकभाषामय ग्रंथोमां संस्कृत वा संस्कृत जेवी शैली भळवाथी विशेष शोभा आवे छे तेम ललितविस्तरना प्रांजल संस्कृतमां लोकभाषानी रचनाओ भळवाथी विशेष सौष्ठव आवेलुं छे. प्रबंधचिंतामणि वगेरे प्रबंधग्रंथोनी अने एवा बीजा कथाग्रंथोनी रचनाशैली जोनाराओ आ हकीकत तुरत समझी शकशे. लोकभाषामय रास वगेरेमा जे रीते संस्कृत शैली भळेली छे तेना नमूना आ प्रमाणे छे: ___ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख " आदी देव प्रनम्य नम्य गुरयं वानीय वंदे पयं । सिष्टं धारन धारयं वसुमती लच्छीस चर्नाश्रयं ॥ तं गुं तिष्ठति ईस दुष्ट दहनं सुर्नाथि सिद्धिश्रयं । थिर्च गम जीव चंद नमयं सर्वेस वर्दामयं ॥" -पृ० १ । " मुक्ताहार विहार सार सुबुधा अन्धा बुधा गोपिनी । सेतं चौर सरीरनीर गहिरा गौरी गिरा जोगनी ॥ वीनापानि सुबानि जानि दधिजा हंसारसा आसिनी । लंबोजा चिहुरार भारजघना विघ्ना घना नासिनी ॥" -पृ. १९ " परात् परतरं यांति नारायणपरायणं । न ते तत्र गमिष्यति ये दुष्यंति महेश्वरं ॥” -पृ. २२ " गंगाया भ्रगुलत्त वसन्न मसनं लच्छी उमा दो वरं । " संखं भूतकपाल माल असितं वैजति माला हरि ॥ चर्मेमध्य विभूति भूतिकयुगं विभूति मायाक्रम । पापं विहरति मुक्ति आपनवियं वीयं वर देवयं ॥” -पृ. २२ (पृथ्वीराजरासो-नागरीप्रचारिणी. बनारस) बीजो नमूनो तुलसीदासजीरचित रामायणनो “नमामीश घन ज्ञान रघुवंशदासं सदानन्ददाता सुविद्याप्रकाशं । विशद शैलनीलं कृपालुं निवासं चरणाम्बुजं सेवितं पापनाशम् ॥" “ प्रसन्नाननं नीलवदनं सुश्याम नमो पाहि शरणं सुरामाभिरामं । भाष्यो उमानाथ यशोनाथ नामं देख्यो कृपासिंधुको रामधामम् ॥" (रामाश्वमेध-लवकुशकांड पृ० ११९८ खेम० ) “ वेगवंत मास्त सरिस बुधिबल रूपनिधान । एवमस्तु कह ऋषि गये केशरि सुनि सुख मान ॥ ४८” -किष्किंधा कांड पृ० ६४१ (निर्णय.) १२ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति संस्कृत बहेन संपत्तिशाली छे, तेनां आभूषणो पण तेवां ज महामूल्य छे. परंतु ते बहेन लोकव्यापक नथी थई त्यारे प्राकृत अने अपभ्रंश ए बन्ने बहेनो साधारण छे. तेमनां आभूषणो साधारण छे परंतु ते बन्ने बहेनो लोकव्यापक थयेली छे. लोकमां संपत्तिशालिनुं प्राधान्य अने साधारण जनन अप्राधान्य प्रवर्ते छे, परंतु भाषामां तेम नथी. भाषामां तो संपत्तिशाली भाषा साधारण भाषानो पण आश्रय ले छे अने साधारण भाषा संपत्तिशाली भाषानो पण शृंगार पहेरे छे. गुजरातीनी माता आपणी गुजराती भाषानी मा उक्त अपभ्रंश उक्त अपभ्रंश. I भाषा छे अने व्यापक प्राकृत तेनी मोटी माशी छे, व्यापक प्राकृत मोटी माशी अने अने संस्कृत तेनी नानी माशी छे. वैदिकयुगर्नु संस्कृत नानी माशी. आदिमप्राकृत. ए बधीनी माता के अने गुजरातीनी गुजरातीनी मातामही मातामही छे. मातामहीनो संपर्क परंपराए छता वैदिकयुगनुं गुजरातीए पोतानी मातामहीनो वारसो जाळवी आदिम प्राकृत राख्यो छे. 'आ' के 'ए' अर्थे वपरातो प्रचलित गुजरातीनो 'ई' शब्द, i इवें' अर्थे वपरातुं चालु गुजरातीनुं 'न' मातामहीनो अव्यय, 'मोटाइ' वगैरेमा आवतो भाववाचक वारसो 'आई' प्रत्यय अने 'पांच वरसनो' वगैरे प्रयोगोमां आवतो 'न' प्रत्यय-ए बधुं ए मातामहीना पारंपरिक धावणर्नु परिणाम छे. १७७ काठियावाडमा 'ई' शब्दनो व्यवहार सुप्रतीत छेः 'ई आव्यो' 'ई नथी' 'ई छे' वगेरे. १७८ 'चांदो न होय' 'कर्ण न होय ' 'जम न होय' वगेरे वाक्योमा 'न' नो 'इव' अर्थ जाणीतो छे. १७९ जुओ पृ० ६८-६९ [ ३७-३८] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १७९ आमुखनी शरूआतमां (पृ० १४-- ) भाषाभेदना निमित्तोनी चर्चा ____ विशेष विस्तारथी करी छे. पछी वैदिक वाणी साये ज आमुखनो ___व्यापक प्राकृतनो गाढ संबंध छे, ए हकीकत अनेक उपसंहार उदाहरणो अने युक्तिओ द्वारा स्थापित करी बतावी छे. अने साथे साथे 'प्रकृतिः संस्कृतम्' एटले लौकिक संस्कृत तथा प्राकृत वचेना कार्यकारणभाववाळा, मतने उपेक्षापात्र ठराव्यो छे अने ते मतने संगत करवानी दृष्टि पण सूचवी छे. व्यापक प्राकृतनुं प्रभव स्थान वैदिक युगनुं आदिम प्राकृत छे—नहीं के लौकिक संस्कृत-ए अहीं प्रधान सिद्धांत छे. संस्कृत ऊपर व्यापक प्राकृतनी केवी प्रबळ असर थयेली छे ए बताक्वा माटे प्राचीन अने अर्वाचीन अनेक उदाहरणो बतावी व्यापक प्राकृतनुं प्रभुत्व सूचित कयु छे. अने प्राकृतनी साथे संस्कृतनो संबंध एक बहेन जेवो वर्णवी बताव्यो छे. पछी व्यापक प्राकृतना अवान्तर भेदो-पालि वगैरेनुं साधारण स्वरूप, देश्यप्राकृतनुं स्वरूप अने छेक छेल्ले साहित्यिक अपभ्रंशना समय विशे पण ऊहापोह करी लीधो छे. ७४ आगळ कह्या प्रमाणे अहीं मारे बारमा सैकाथी अढारमा सैका सुधीनी गुजराती भाषानी उत्क्रांति विशे प्रधानपणे कहेवानुं छे अने ते हेमचंद्रे घडेला अपभ्रंशना गजने मापे मापी बताववानुं छे, एथी हवे पछी प्रचलित गुजरातीनी माता अपभ्रंशना स्वरूपनी चर्चा क्रमप्राप्त छे. भाषानु स्वरूप साहित्यद्वारा अने व्याकरणद्वारा पण जाणी शकाय हेमचंदना समयी छ. व्याकरणनुं साधन उपलब्ध छे, तेथी साहित्यने लोकभाषानी डोळवानी अपेक्षा नथी. व्याकरणतुं संपूर्ण साधन हेमचंद्रे , पण फक्त एक हेमचंद्रकृत अपभ्रंश प्रक्रिया ज छे. आपेली समझूती हेमचंद्रे जे अपभ्रंशप्रक्रिया बतावी छे तेने हुं तेमना समयनी प्रचलित लोकभाषानी अथवा ऊगती गुजरातीनी प्रक्रिया समझुं Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति छं अने ते, प्रचलित गुजरातीनी माता छे. व्याकरण उपरांत हेमचंद्रे पोते कुमारपालचरितमां केटलांक पद्यो पण रचेलां छे. तेने हुं साहित्यिक ऊगती गुजरातीनां प्रथम पद्यो कहुं तो मने ए वधारे पडतुं भासतुं नथी अने शरूआतमां जे में हेमचंद्रने गुजरातीना पाणिनि अने वाल्मीकि कहा छे ते तेमना ते व्याकरण अने पद्योनी अपेक्षाए ज कह्या छे. तेमनां पद्योनो नमूनो आ नीचे आ र्छ : देशदना “अम्हे निंदउ कोवि जणु अम्हई वण्णउ कोवि । शब्दोमांते अम्हे निंदहुं कं विन वि न अम्हइं वण्णहुँ कं वि ॥३७॥ लोकभाषानो मई मिल्लेवा भवगहणु मई थिर एही बुद्धि । नमूनो मत्था हत्थउ सुगुरु मई पावडं अप्पहो सुद्धि ॥३८॥ अम्हेहिं केण वि विहिवसिण एहु मणुअत्तणु पत्तु । मङ्मु अदूरे होउ सिवु महु वच्चउ मिच्छत्तु ॥ ३९॥ अम्हहं मोहपरोहु गउ संजमु हुउ अम्हासु । विसय न लोलिम महु करहिं म करहि इअ वीसासु ॥ ४०॥ १८० आ पद्यो ऊगती गुजरातीनां छे. तेनो चाल गुजरातीमां बिंब प्रतिबिंब न्याये जे अक्षरशः अनुवाद थाय छे ते आ प्रमाणे छे: अमने निंदो कोई जण अमने वर्णो कोई। अमे निंदशं कोइने नवि न अमे वर्णवशुं कोई ॥ में (मारे) मेलq भवगहन मेंमां थिर एह बुद्धि माथे हाथो सुगुरु, में पामुं आपनी शुद्धि ॥ अमे केणे बी विधिवशे एह मनुजपणुं पाम्युं । मुज अदूरे हो शिव मुज वयुं जाओ मिथ्यात्व ॥ अमेनो मोहप्ररोह गयो संजम हुओ अममां । विषय न लोलता मुज करे म कर ए विश्वास ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख रे मण ! करसि कि आलडी विसया अच्छहु दूरि । करणई अच्छदं रुधिअई कडूउं सिवफलु भूरि ॥ ४१ ॥ इण परि अप्पर सिक्खविसु तुह अक्खटुं परमत्थु । सुमरि जिणागम धम्मु करि संजमु बच्चु परमत्थु ॥ ४२ ॥ किम् जम्म म्य मरणु किह भवु किध निव्वाणु । एहउ तेण परिजाणियइ जसु जिणवयण प्रम्वाणु ।। ५० ।। जॉम्ब न इंदिय वसि ठवइ तॉम्ब न जिणइ कसाय । जाउं कसायहं न किउ खउ ताडं न कम्मविधाय ॥ ५३ ॥ चंचल संपय ध्रुवु मरणु सव्वु वि एम् भइ । मिलिवि समाणु महामुणिहिं पर संजमु न करेइ ॥ ६२ ॥ तित्थि वि अच्छउ अहव वणि अहवड़ निअगेहे वि । दिवे दिवे करइ जु जीवदय सो सिज्झइ सव्वो वि ॥ ६४ ॥ १८१ रे मन ! करे छे केम आळ विषयो छो दूरे । करणी छे रुंधियां काढुं शिवफल भूर ॥ एणी परे आपने शीखव, तुने कहिए परमार्थ । समर जिनागम धर्म कर संयम जा (कर) परमार्थं ॥ केम जनम केम मरण केम भव केम निर्वाण | एहवं तेणे, परिजणाय जास जिनवचन प्रमाण || जाम न इंद्रिय वशे ठवे ताम न जिणे कषाय । जाव कषायोनो न कियो क्षय ताव न कर्मविघात ॥ चंचळ संपदा ध्रुव मरण सउ - सर्व बी एम भणे । मिली - मळी समान ( साथे ) महामुनिओने पण संजम न करे || तीर्थे बी छो अथवा वने अथवा निजगेहे बी । दिए दिए (दिने दिने ) करे जे जीवदया सो सीझे सउ बी ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सग्गहो-केहिं करि जीवदय दमु करि मोक्खहो-रेसि । कहि कसु-रेसिं तुहुं अवर कम्मारंभ करेसि ॥ ७० ॥ कायकुडुली निरु अथिर जीवियडउ चलु एहु । ए जाणिवि भव-दोसडा असुहउ भावु चएहु ॥ ७२ ॥ ते धन्ना कनुलडा हिअउल्ला ति कयस्थ । जे खणिखणि वि नवुलडअ घुटहिं धरहिं सुअत्थ ॥ ७३ ॥ पइठी कन्नि जिणागमहो वत्तडिआ वि हु जासु । अम्हारउं तुम्हारउं वि एहु ममत्तु न तासु ॥ ॥ ७४ ॥ —(कुमारपाल चरित-आठमो सर्ग-प्राकृत द्याश्रय) उक्त पद्योनी नीचे ज तेमनु चालु गुजरातीमां प्रतिबिंब आपेलं छे. ए हेमचंद्रनां पद्योनी ऊपरथी स्पष्ट समझी शकाय एम छे के-ए भाषा अने वर्तमान पद्योनी भाषा, वर्तमान गुजरातीना वलण तरफ गुजराती भाषा केटला वेगथी गति करी रही छे. अम्हे-अमे, निंदउ-निंदो, कोवि-कोई, वण्णउ-वर्णवो, जणु-जन, मिल्लेवा-मेलवू, एही-ए, पावउं–पामुं, संजमु-संजम-संयम, मण-मन, रुधिअइं-रुधिआं–रुंध्या, कडुउं-कादूं, इणिपरि-एणीपेरे, सुमरि-सुमर्यसुमर-समय-समर. किम्व-केम, प्रम्वाँणु-प्रमाण, वसि-वशे, खउ-खो, एम्व-एम, भणइ-भणे (कहे ), मिलिवि-मळी-मळीने, पर-पण, चणि-वने, गेहे-गेहे (घरे), कायकुडुल्ली-कायकोटडली, जीवियडउ स्वर्ग माटे करे जीवदया दम करे मोक्ष माटे । कहे कोने माटे तुंह ओर कर्मारंभ करे छ । कायकोटड ली निरु अथिर जीवितहुं चळ एह । ए जाणी भवदोषोने अशुभ भाव तजेह ॥ ते धन्य कानलडा हैयलडां ते कृतार्थ । जे क्षणेक्षणे बी नवलडा धुंटे (पीए) धरे श्रुतार्थ ॥ पेठी काने जिनागमनी वातडी बी जास। अमारुं तमारुं बी एह ममत न तास ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १८३ जीवितहूं, जाणिनि-जाणी-जाणीने, पइटी-पेटी, चत्तडिआ-वातडी, अम्हारउं,-अमारं, तुम्हारउं–तमारं, एह-ए. ___ उक्त शब्दोमा प्रथम शब्द हेमचंद्रनो छे, ते पछीनो चालु गुजरातीनो छे अने ते पछी धनुषचिह्नमा क्याय ते मूळशब्दनो अर्थ मूकेलो छे. ७३ मा पद्यमां आवेलुं 'घुटहिं' क्रियापद 'पीए छे' नो अर्थ सूचवे छे. धात्वादेशना प्रकरणमां हेमचंद्रे 'पा'-(पीवु) धातुने बदले ‘घोट' धातु वापरवानी भलामण करी छे: “पिबे: पिज्ज-डल्ल-पट्ट-घोट्टा:[८-४-१०]-सूत्रोक्त ते घोड' धातु, देश्य जणाय छे. 'पिब' नो आदेश नथी. हेमचंद्र अही वापरेलो 'धुंट' धातु, उक्त ‘घोट्ट' नुं रूपान्तर छे अने ते गुजराती ‘धुंटडो' के 'घुट' शब्दमां सचवायेलुं छे. चळी, बीजा · इणि परि' वगैरे शब्दो तो चोक्खा गुजराती ज छे. माटे हेमचंद्रनां ते पधोने गुजराती भाषाना उगम काळनां कहुं छु. एमना समयमा एमना देशर्नु नाम “गुर्जरत्रा' जाणीतुं हतुं, परंतु भाषा माटे हजु ए शब्द रूढ थयो नहोतो एम लागे छे. दाक्षिण्यचिह्न वा उद्द्योतनसूरिनी कुवलयमालामां एक बे स्थळे गुर्जरोनी भाषानो नमूनो कुवलयमालामां कला छ. ए ऊपरथा भाषाना । आवेलो गजरो सत्याल आवे एम नथी. छतां गुर्जरो जे भाषाने लाटो अने बोलता हो ते भाषाने क्या विशेष नामथी ओळखवी ? मालवोनी ए प्रश्न तो थाय छे ज. एनो उकेल करवानां भाषानो उल्लेख विशेष साधनो उपलब्ध नथी छतां ए बाबत उक्त कुवलयमालानो उल्लेख जे थोडो घणो प्रकाश नाग्वे छे ते आ प्रमाणे छे १८१ आ उल्लेख घणो लांबो छे. तेमां अनेक देशना लोकोनी भाषानां जुदा जुदां पदोनां उदाहरण छे. तेमांधी अहीं तो मात्र गुजर, लाट अने मालव लोकोनी भाषानां ज उदाहरण मूकेलां छे. जे पदो जाडा अक्षरमा मूक्यां छे ते, भाषानां पदो छे. पहेली गाथामां गुज्जर पछी लाट अने पछी मालव प्रवासी बोले छे. आ लांबा उल्लेख माटे जुओ विद्यापीठ प्रकाशित प्राकृतव्याकरणनी प्रस्तावना पृ० २०-२३ टिप्पण. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति “धणलोणियपुटुंगे धम्मपरे संधिविग्गहे निउणे । 'न उ रे भल्लर' भणिरे अह पेच्छइ गुजरे अवरे ॥" " हाओलित्तविलित्ते कयसीमंते सोहियंगत्ते । 'अम्हं काउं तुम्हं' भणिरे अह पेच्छइ लाडे ।" " तणुसाममडहदेहे कोवणए माणजीवणे रोहे ।। भाइ य भइणी तुब्भे-भणिरे अह मालवे दिढे ॥" उपर्युक्त उल्लेखोमा ‘जुदा जुदा देशना वाणियाओ जुदी जुदी भाषा बोले छे' ए बाबतनुं सूचन छे. पहेलो उल्लेख गुर्जर बोलनाराओनो छे, . पछी लाट अने मालव बोलनाराओनो छे. (गुर्जर अपभ्रंश अने . वगेरेए बोलेला शब्दो जाडा अक्षरमा मूकेला छे) प्रांतिक भाषाओ जे वखतनो आ उल्लेख छ ते समये बोलचालनी प्रधान भाषा अपभ्रंश हती पण ए प्रधान अपभ्रंशना प्रवाहमां, कारणमां कार्य सत होय छे ए रीते सद्रूपे रहेली प्रांतिक भाषाओ कारणी जेम कार्य पृथक थाय तेम जुदी पड़ी माता-अपभ्रंशनुं स्थान लेती जती हती. एटले ज कुवलयमालाकार गुर्जरोनुं, लाटोनु अने मालवोनुं संभाषण जुहूं जुईं टांकी बतावे छे. ए वात पण खरी छे के, ए वखते भाषा माटे १८२ उपर्युक्त त्रणे पद्योनो अर्थ अनुक्रमे आ प्रमाणे छः हवे, धन अने माखणद्वारा जेओनुं अंग पुष्ट छे, जेओ धर्मपरायण छ. संधि अने विग्रहमां निपुण छे तथा जेओ " न उरे भल्ल-" -'नोरे भलं' एम बोलनाग छे एवा बीजा गुज्जरलोकोने जुए छे. १ हवे, स्नान अने विलेपनथी विलिप्त (?), तथा सेंथावाळा अने सुशोभित शरीरवाळा " अम्हं काउं तुम्हं"-'अमारूं तुमारं (?) एम बोलनारा लाटोने जुए छे. २. हवे, काळा अने मोटा पातळा शरीरवाळा, खारीला, मानपूर्वक जीवनारा, रौद्र तथा “भाइ य भइणी तुन्भे" - भाई अने बेन तमे' एवं बोलनारा मालवी लोकोने दीठा ३. ___ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ के आमुख गुर्जरी, लाटी के मालवी शब्दो रूढ रीते नहीं घडायेला, परंतु संभव छे के समग्र जनपदनी एकतासूचक 'देशी भाषा' एवो कोई व्यापक शब्द चालतो होय. ए समयनी देशी भाषाओ एकमूलक होवा छतां उच्चारणवैचित्र्यने लीधे अंशतः विविक्तप्राय हती एटले ज कुवलयमालाकार ते त्रणेनी जुदी जुदी वाणी बतावे छे. ते त्रणमांनो गुर्जर जे वाणी बोल्यो छे ते भले ते समये ' देशी भाषा' के एवा बीजा कोई सामान्य नामथी ओळखाती होय, परंतु त्यार पछीना समये चालती ए ज वाणीने 'गुर्जरी' वा 'गुजराती' ना अभिधानने योग्य कहेवामां बाध नथी. कुवलयमालाना कर्ता पछी आ० हेमचंद्र आशरे श त्रण सैका बाद आवे छे. विद्वानो हेमचंद्रना समयमा गती गजराती जे लोकभाषा प्रचलित हती तेनुं नाम 'अंतिम अपभ्रंश' आपे छे. मारा नत्र कथन प्रमाणे तेओ जे भाषाने अंतिम अपभ्रंश' कहे छे ते ज आ आपणी ऊगती गुजराती छे. १८३ छेक सोळमा, सतरमा अने त्यार पछीना सैकाना पण कविओ आपणो भाषा माटे यौगिकार्थी अने व्यापक 'प्राकृत' शब्द वापरे छे त्यारे अमुक अमुक कविओ 'गुर्जरभाषा' शब्द वापरे छे. एथी एम जणाय छे के गुजरातनी भाषा माटे प्रांतिकतासूचक ‘गुजराती भाषा' शब्द घणो मोडो रूढ थयेलो होय : (१) “संस्कृत में जाण्यूं नहीं जाणी प्राकृत वाण"-नाकरकवि. (२) “प्राकृत भाषाए सुणीने कडं मधुसूदन”-मधुसूदन कवि. (कविचरित-रा० रा. के. का. शास्त्री. गु० व. पृ. २०३, २२५) (३) “गुर्जर भाषाए नलराना गुण मनोहर गाऊं"-भालण ( उक्त कविच० पृ० ९८) (४) "संस्कृत माहेथी सो॥......गुजरभाष्य"-शामलदास (हस्तलि. पु० यादी भा० २, रा. रा० अंबालाल बु० जानी. फा० गु० पृ. ३७) . (५) “हीरे जड्यूं सोहे हेम । प्राकृत उपर परव्यु तेम”-केशवदास ( उक्त यादी पृ० ५९) (६ ) “करो प्राक्रत शु प्रीतमा इट उपाशी एह"-शामलभट्ट (उक्त यादी पृ० ५२) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति "गुजराती' के 'गुजराती योद्धो' ना अर्थमां आ० हेम चंद्रे ‘गुजर' शब्दनो प्रयोग अनेकवार को छे. परंतु भाषा माटे 'देशीराग' अने ए शब्दनो प्रयोग आ० हेमचंद्रे के ते समयना 'मेळो' अर्थनो गुर्जरी शब्द बीजा विद्वाने को होय एम जाण्यु नथी. 'देशी राग'नो सूचक गुर्जरी' शब्द छे, किन्तु तेवा अर्थमां वपरायेला 'गुर्जरी' नो प्रयोग सौथी प्रथम कोणे को छे ते जाणवानुं साधन नथी. उक्त गुर्जरी' शब्दनो संबंध गुज्जर लोको वा गुज्जरदेश साथे छे एटले राग माटे जेम ‘गुर्जरी' शब्द वपरायो छे तेम भाषा माटे ए शब्द ते वखते केम नहीं वपरायो होय ? ए शोधनीय तो खरं ज. जे माटीमाथी घडो नीपजतो होय ते माटीने अंतिम माटी कहो के 'घडो' कहो ए बधुं सरखुं छे तेम हेमचंद्रना समयनी 'अंतिम १८४ “ गुजरदलम्मि"--गूर्जरसैन्ये-प्रा० द्वया० सर्ग ६ श्लो० ५९. " लज्जिरगुज्जरेहि "-लज्जनशीला ये गुर्जराः तैः-सर्ग ६ श्लो० ६५. " गुज्जरलोओ”-गूर्जरलोकः-सर्ग ६ श्लो० ६८. १८५ हिंदीशब्दसागरमां ' गुर्जरी' रागनो परिचय आ प्रमाणे छे: “भैरव रागकी स्त्री। यह संपूर्ण जातिकी रागिनी है। इसमें तीव्र मध्यम और शेष सब स्वर कोमल लगते हैं । यह रामकली और ललितको मिला कर बनती है इसके गाने का समय दिनको १० दण्डसे १६ दंड तक है। गुर्जरीनो बीजो अर्थ-“गुजरात देशकी स्त्री" पण ते कोशमां आपेलो छे. १८६ फारसी भाषामा 'गुज़री' शब्द स्त्रीलिंगी छे. तेनो अर्थ 'मेळो' छे "वह बाजार जो प्रायः तीसरे प्रहर सडकोंके किनारे लगता है" आ अर्थ 'गुजरी' शब्दनो छे (जुओ उर्दू-हिंदीकोश-हिं.) फारसी भाषामा “निकास-गति । निर्वाहकालक्षेप, पैठ-पहँच-प्रवेश"। अर्थमां नरजातिवाळो 'गुजर' शब्द छे अने एवा ज अर्थवाळु 'गुजरना' क्रियापद छे अने एने मळतो 'गुजरबसर' बोल पण छे. प्रस्तुत फारसी 'गुजर' कोई स्वतंत्र ज शब्द छे के एनो संबंध 'गुर्जर' पद साथे छे ए विचारणीय खलं. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १८७ अपभ्रंश' ना नामथी सूचवाती भाषा अहीं माटीने स्थाने छे अने ते भाषामां अस्थिमज्जान्याये अंतःप्रविष्ट ऊगती गुजराती ‘घडा' ने स्थाने छे. एथी ए ऊगती गुजराती' ने 'कारण' शब्दथी कहेवा करतां अधिकाधिक समान लक्षणोने लीधे 'कार्य' शब्दथी कहेवी ए वधारे सुतर भासे छे. माटे ज अहीं हुं हेमचंद्रे — अपभ्रंश' ना मथाळा नीचे बतावेली भाषाने अंतिम अपभ्रंश' ने बदले 'ऊगती गुजराती' एविशिष्ट नाम आपुं छे. ७५ धर्मघोषसूरि नामना एक जैनाचार्य लगभग बारमा सैकामां हयात हता. तेमना शिष्ये नेमनी स्तुति ते वखतनी गुज्जरीनी र प्रचलित भाषामां रचेली छे. तेमां ‘गुज्जरी' " स्त्री पासे नीचेनां पद्यो कहेवराव्यां छे : " गुज्जरि “बोलइ चालु प्रिय ! मज्झु मणोरह पूरि । देसण सुणहु सुहावणिय वैदेविणु जससूरि ॥ ७ ॥ महियलि विमलउ सयलु जलु वय पहुतउ आसोय मासु धमसूरि--केरळ चित्त जिम्व वय निम्मलु ठिउ आगासु ॥ ८॥ ९८७ गायकवाड प्राच्यविद्यामंदिर तरफथी प्रकाशित थयेला पाटणना भंडारोना सूचिपत्रमा पृ. ३६६-३६७-३६८-३६९-३७. ऊपर श्रीधर्मघोषसूरि अथवा धर्मसूरिनी स्तुति छे. तेमां तेमनो परिचय आपेलो छे. ते स्तुति-परिचय तेमना शिष्य रविप्रभे रचेलो छे. १८८ आ पद्यो ते ज सूचिपत्रमा पृ० ३७१ ऊपर छे. ते, 'बारह नावउंद्वादश मास अपभ्रंश' नामनी धर्मसूरिस्तुतिमा ७-८ मां छे. तेनुं वर्तमान गुजराती पद्य नीचे प्रमाणे छे: गुजरी बोले चालो प्रिय मुज मनोरथ पूर। देशना सुणो सुहावणी वंदीने यशःसूर ॥ माहितले विमल सकल जल, वै पहोंत्यो आसो मास धर्मसूरिकेरुं चित्त जेम वै निर्मल थियु आकाश ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बारमा सैकानी आ भाषा ऊगती गुजराती नथी एम कोण कही शकशे ? ७६ आचार्य हेमचंद्रे पोताना समयनी ऊगती गुजरातीने व्याकरण द्वारा नियंत्रित करवा जे जे नियमो आप्या छे ते बधार्नु हमचद्रनु ऊगता अहीं सविस्तर आलेखन आवश्यक छे, कारण क गुजरातीनुं व्याकरण ___अहीं ते नियमोनी तुलना द्वारा ज बारमा सैकाथी अढारमा सैका सुधीनी गुजराती पद्य के गद्य एकी कतिपय कृतिओनी भाषानुं अवलोकन करवानुं छे :स्वरपरिवर्तन (१) प्रायिक स्वरपरिवर्तन . 'अ' नो आ-कच्च, काच्च ( काच ) (हेमचंद्रनां सूत्रोना , अंको) 'ई' नो ए-वीण, वेण (वीणा) ८-४-३२९ 'उ' नो अ, आ-बाह बाहा, बाहु ( बाहु) 'ऋ' नो अ, इ, उ-तण, तिण, तृणं (तृण) पट्ट, पिट्ठ, पुट्ठ (पृष्ठ) सुकिद, सुकृद (सुकृत) [पालि, आर्षप्राकृत के अर्धमागधीमां 'ऋ' नो उपयोग समूळगो नथी त्यारे अपभ्रंशमां तेनो उपयोग प्रचलित थाय छे जो के ते पण विरल छे.] १८९ वैदिकसंस्कृतमां अने पाणिनीय संस्कृतमा 'ऋ' स्वरनो प्रयोग छे त्यारे पालि, आर्षप्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची अने चूलिकापैशाचीमा 'ऋ' स्वरनो प्रयोग ज नथी. वळी पार्छ अपभ्रंशमां 'ऋ' नो प्रयोग चालु थाय छे. तृण, सुकृत वगेरे एनां उदाहरणो छे. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १८९ 'ल' नो इलि—किलिन्नओ, किन्नओ (कुन) 'ए' नो इ, ई-लिह, ली, लेह (रेखा) 'औ' नो अउ, ओ-गउरी, गोरी, (गौरी) लघु उच्चारण ८-४-४१० (२) लघु उच्चारण व्यञ्जन साथे मळेला 'ए' अने 'ओ'लघु उच्चारण थाय छे. सुधे-(सुखेन) दुलहहो-(दुर्लभस्य) ८-४-४११ पदने छेडे आवेला उं, हुं, हिं अने हे नुं लघु उच्चारण थाय छे. तुच्छउं–(तुच्छकम्) तरुहूं-(तरुभ्यः ) जैहि-(यत्र) तणहं-(तृणानाम्) (३) असंयुक्त अने अनादिस्थ व्यंजननुं व्यंजनपरिवर्तन परिवर्तन १९० भाषामा प्रचलित 'लीटी' के 'लीटी' अने 'लींटो' के 'लीटो' ना मूळमां प्रस्तुत 'लीह' पद छे, वधू+टी-वधूटी. कच्छा+टी-कच्छाटी (काछडी) ग्राम+टीग्रामटी (गामडी) वगेरेनी माफक 'लीह' ने स्वार्थिक 'टी' लागतां 'लीहटी' पद थाय अने ते द्वारा लीटी, लींटी, लीटो अने लींटो ए बधां पदो आवे छे. वधूटी वगेरे माटे जुओ अभिधान-चिंतामणि कां. ३ श्लो० ६० तथा ३३९. १९१ “ “एको' ‘सोत्तं' वगेरे प्रयोगोमां 'ए' अने 'ओ' एकमात्रिक छ एटले ह्रस्व छ” एम पोताना प्राकृतव्याकरणमां आचार्य शुभचंद्र जणावे छे तेम अहीं 'सुधे अने 'दुलहहो' वगेरे प्रयोगोमां वपरायेला 'ए' अने 'ओ' लघुउच्चारणवाळा एटले ह्रस्वरूप छे एम समझवानुं छे. १९२ चाल गुजरातीमां-जई, ज्यां, जहिं वगेरे प्रयोगो प्रचलित छे. अने ए ज प्रमाणे तहिं, कहि, अहिं वगेरे पण छे. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ८-४-३९६ ८-४-३९७ ८-४-४१२ ८-४-४०० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति क' १ नो ग ८८ 6 6 'ख' नो घ 'त' नो इ 'थ' नो ध *प' नो ब 'फ' नो भ 'म' नो व म्ह' नो म्भ 'य' नो M विच्छोहर ( विक्षोभकर ) सुघ (सुख) मुत्र (मुख) कधिदें (कथित ) १९४ कधिद ( कथित ) १९५ सबंध ( शपथ ) सबध ( शपथ ) सभल ( सफल ) ' कामगरो ' नगीनगर ' वगेरे शब्दमां १९३ चालुभाषाना कह्यागरो ' आवेलो अंत्य 'गर' अने ' विच्छोहगर' नो अंत्य 'गर' ए बन्ने समान लागे छे. फारसी भाषामा ' कारीगर' ' शीशागर ' ' कलईगर' वगेरे शब्दोमां जे अंतिम 'गर छे ते प्रत्ययरूप छे अने तेनो अर्थ 'करनेवाला या बनानेवाला छे' 'विच्छाहगर 'नो अंतिम ' र ' अने फारसीनो उक्त ' गर ' प्रत्यय ए बे बच्चे कांई साम्य छे के केम ? ए विचारणीय छे. 'विच्छोहगर ' नो अंतिम 'गर' सं० ' कृ ' ऊपरथी आवेला 'कर' नुं उच्चारणांतर छे. कर्मकर, सुखकर, दुःखकर वगेरे ए बधा शब्दोमां परायेलो अंत्य 'कर' अने अपभ्रंशनो उक्त ' गर ' ए बन्ने समान छे. ८ १९४ ' कह्युं ' ना अर्थमां जे ' कीधुं ' पदनो प्रयोग काठियावाडमां प्रचलित छे. ते ' कीधुं ' अने प्रस्तुत ' कधिद' ए बन्ने पदो सरखाववां जेवां छे. कधिदक कधिअअं - किधिअउं - कीधरं - कीधुं. १९५ ' सोगन' ना अर्थमा वपरातो ' सम' शब्द अने प्रस्तुत 'सबह' ए ने सरखावी शकाय एम छे. सबह - संवह - सम. भमर, भवर (भ्रमर ) गिम्भ, गिम्ह (ग्रीष्म) आवया - आवइ (आपत् ) १९६ आपद्-विपद्-संपदां द: इ: " सूत्रमां आचार्य हेमचंद्र ' आपद् ' वगेरेना अंत्य 'द' नो 'इ' करवानी भलामण करे छे. भाषाविज्ञाननी दृष्टिए 'द' Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख विवया-विवइ (विपत्) संपया-संपइ (संपत्) र' नो लोप अने । वधारो (४) ''नो लोप ८-४-३९८ संयुक्त व्यंजनमा पाछळ आवेलो 'र' विकलो लोपाय छे–पिय, प्रिय ( प्रिय ) (५) 'र' नो वधारो ८-४-३९९ कोई कोई पदमां 'र' वधारारूपे आवी जाय छे–वास, त्रास (व्यास) केटलाक शब्दो (६) केटलाक शब्दो ८-४-४०२ जेह ( यादृश) जेहवू जेवू तेह (तादृश) तेहवं तेवू नुं 'इ' उच्चारण थाय केवी रीते ? 'द' अने 'इ' मा उच्चारणनी दृष्टिए लेश पण साम्य नथी. मने लागे छे. के संपदा-संपया-संपय-संपइ. विपदा-विवया-विवय-विवइ. आपदा-आवया-आवय-आवइ आ प्रकारे 'संपइ' वगेरे शब्दो नीपजाववा भाषाविज्ञाननी दृष्टिए विशेष संगत भासे छे. १९७ प्रस्तुत 'र' नो वधारो वैदिक प्रयोगोमां पण थयेलो छे त्यारे पाणिनीय संस्कृतमां एवा 'र' वधारावाळा प्रयोगो उपलब्ध नथी. वैदिकप्रयोगो माटे जुओ पृ. ५८ कंडिका [१७] प्रस्तुत व्याख्यान. . १९८ 'यादृश' वगेरे ऊपरथी 'जेह' 'जेहबुं' के 'जैसा' पद लाववा माटे नीचेनो क्रम सुघटित भासे छेः Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जइस तइस तैसा केह (कीदृश) केहर्बु-केतुं एह (ईदृश) एहवू-एवं ८-४-४०३ (यादृश) जैसा (तादृश) कइस (कीदृश) कैसा अइस (ईदृश) ८-४-४०७ जेवंड ( यावत् ) जेवटुं (याश-जादिस-जाइस-जइस-जैसा वा जेसा । यादृशकम्-जादिसयं-जाइसयं-जइसयं-जेसयं-जेहय-जेहबुं-जेवू अहीं एक उच्चारणभेद ध्यानमा राखवा जेवो छे अने ते ए के, ‘जेसा' वगेरेनो'जे'मा रहेलो-'ए' विवृत छे-पहोळो छे अने 'जेहवु' वगेरे नो 'ए' संवृत छे-सांकडो छे. ( तादृश-तादिस-ताइस-तइस- तैसा वा तेसा ( ताशकं-तादिसयं-ताइसयं-तइसयं-तेसयं-तेहयं-तेह-तेवू ( कीश-कीदिस-कीइस-कइस-कैसा वा केसा र कीदृशकं-कीदिसयं-कीइसयं-कइसयं-केसयं-केहयं-केहबुं-केर्बु ( ईश-ईदिस-ईइस-अइस-ऐसा वा एसा. । ईदृशकं-ईदिसयं-ईइसयं-अइसयं-एसयं-एहयं-एहQ-एवं. अहीं ए याद राखQ आवश्यक छे के यादिस, तादिस, कादिस, ईदिस वगेरे प्रयोगो पालि प्राकृतमां मुप्रतीत छे: जुओ कच्चायन-किविधान-कृदंत विधान-कांड ६ सूत्र १९। त्यारे आर्षप्राकृतमां जारिस, तारिस, केरिस, एलिस प्रयोगो प्रचलित छे. १९९ आचार्य हेमचंद्र यद्-य + एवड । तद्-त+ एवड । इदम्-इद+एवड । किम्-कि + एवड । ए रीते जेवड, तेवड वगेरे पदोने साधी बतावे छे. सं. ' यावत् ' वगेरेना ‘वत्' अंशनो 'एवढ' आदेश करीने तेमणे ‘यावत्' वगेरेनी साथे 'जेवड' वगेरेनी समानता स्थापित करी छे. संभव छे के ‘कियत् ' 'यावत् ' वगेरेनो 'यत्' अने 'वत्' कोई काले 'वड' रूपे बोलातो होय भने साथे आधस्वर- उच्चारण पण बदलाई जतुं होय. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-४-४०८ ८-४-४३५ ८-४-४१३ ८-४-४३४ तेवड एवड केवड एल केतुल जेत्तुल तेत्तुल एतुल މ अन्नाइस अवराईस तुहार अम्हार आमुख ( तावत् ) ( इयत् ) ( कियत् ) ( इयत् ) ( कियत् ) ( यावत्) ( तावत् ) ( एतावत् ) ( अन्यादृश ) ( ) "" ( त्वदीय) ( अस्मदीय ) ( मदीय) इदम् इद + एतुल— एत्तुल किम् —— कि + एतुल—केतुल यद् — य-ज + एत्तुल ——जेत्तुल तद्— त + एतुल—तेत्तुल एतद् एत + एतुल— एतुल २०१ हेमचंद्र कहे छे के ' अन्यादृश' शब्दनो < तेवडुं एवडुं केवडुं महार २०० आ शब्दोमां प्रकृति अने प्रत्ययनी कल्पना हेमचंद्रे आ प्रमाणे करी छे : प्रकृति. प्रत्यय. एटलं केटलं जेटलं 6 , १९३ तेटलं एटलं अन्य जेवुं बीजा जेवुं अपर जेवुं - तारुं अमारुं मारुं 'अवराइस' एवो आदेश अन्ना' परिवर्तन शक्य ( थाय छे. परंतु भाषाविज्ञाननी दृष्टिए ' अन्या ' अंशनुं 6 छे. 6 अन्ना द्वारा अवरा' परिवर्तननो संभव नथी. माटे जेम अन्यादृश 6 , < अपराश शब्द छे. तेम बीजो तेवा ज अर्थवाळो ' अपरादृश शब्द पण होवो जोईए. ८ ' अने अन्य ए बन्ने शब्दो समान अर्थवाळा छे. ए अपर शब्दनुं ' अवराइस ' उच्चारण सुकर छे. एटले ' अन्यादृश 'नी साथे ' अवराइस ' नो संबंध नथी परंतु 'अपरादृश' साथे छे. १३ "" , Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति केटलाक निपातो ( ७ ) केटलाक निपातरूप देश्य शब्दो हेमचंद्रे कल्पेलो पदोः अर्थ : ( विषण्ण ) विषादयुक्त कहेलुं बच्चे मारगमां ८-४-४२१ वुन्न वृत्तै विच्च ८-४-४२२ धंघल २०४ विट्टाल द्रवक अप्पण अप्पणउं हि निश्च सडल कोड, कुड्ड, - २०५ खेड्ड ( उक्त ) ( वर्त्म ) २०३ ( झेर्केट ) झगडो ( शीघ्र ) वहेलं शीघ्र ( अस्पृश्यसंसर्ग ) वटाळ - अस्पृश्यसंसर्ग (भय) डर-भय } (आत्मीय ) ( दृष्टि ) ( गाढ ) ( असाधारण ) ( कौतुक ) ( क्रीडा ) , २०२ ' वच् + त 'नी दशामां 'व ' नो 'वु' थतां वुक्त' थाय अने द्वारा ' वृत्त ' ने साधी शकाय अथवा 'प्रोक्त- पोक्त- पुत्त वुत्त ' एम बने. २०३ आपणुं दृष्टि - नजर असर करे ते असाधारण कोड क्रीडा - खेल २०४ ' पथमिल्ल ' ( प्रथम ) पद साथे ' वहिल्ल' ने सरखावी शकाय एम छे. पथ मिल-पहमिल - पहिल - वहिल - प्रथमनुं - पहेलुं - वहेलुं - शीघ्र. २०५ संस्कृत ' क्रीडा ' वा 'खेला ' पद साथे ' खेड' ने सरखावी शकाय . " क्रीडा खेला च कूर्दनम् " - अमर० नाट्यवर्ग कां० १ श्लो० ३३. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवर्णी ढकर हेलि २०७ आमुख रम्य - सुंदर आश्चर्य ( रम्य ) ( अद्भुत ) ( हे सखि ! ) हे + आलि ! - हे सखि ! - एलि ! जुअंजुअ < २०६ ' रम्य ' अने 'रवण्ण' करतां रमण ' अने बच्चे विशेष समानता छे. (पृथक्पृथक् ) जुदुंजुदुं , रवण्ण ए १९५ २०७ हेमचंद्र ' हे सखि !' शब्दनो 'हेल्लि' शब्द बनाववानी भलामण करे छे. भाषाविज्ञाननी रीते जोतां ' हे सखि ' अने 'हेल्लि' ए बे पदो वच्चे अक्षर साम्य नथी तेथी ' हे सखि ' नुं 'हेल्लि' थाय ज केवी रीते ? 'सखी' अर्थनो सूचक 'आलि' शब्द प्रसिद्ध छे. ' हे + आलि' अने 'हेल्लि' ए बे बच्चे अर्थनुं अने अक्षरनुं एम बन्ने रीते समानपणुं पण छे तेथी हे + आलि ' ऊपरथी कोई रीते 'हेल्लि' पदने लाववुं अधिक सुगम जणाय छे. अथवा " एत ने स्वार्थिक इल्ल ८ बे शब्दो सं० एतत् प्रा० एत. ए ( ८-२-१६४ ) प्रत्यय लगाडतां ' एतिल्ल ' पद धाय, तेनुं बीजुं उच्चारण एइल ' पण थाय; ए 'एइल ' ऊपरथी भाषानो 'एलो' शब्द आवेलो छे. एलो एटले ए-पेलो. 'एला आम आव ' ' एली आम आव ' वगेरे वाक्योमा ' 'एला' तथा 'एली' नो प्रयोग प्रसिद्ध छे. ' हे + एइल्ली >_< हेल्लि ' ए द्वारा पण प्रस्तुत ' हेल्लि ' ने साधी शकाय. २०८ 'पृथक्-पृथक्' शब्दनो आदेश, 'जुअंजुअ' छे एम हेमचंद्र कहे छे. अक्षरपरिवर्तनना नियमो जोतां कोई पण रीते 'पृथक्-पृथक्' नुं 'जुअंजुअ' एवं रूपांतर संभवे नहीं. हेमचंद्रनुं कथन मात्र अर्थनी दृष्टिए संगत करी शकाय. अक्षरपरिवर्तननी दृष्टि तो 'युतंयुत' शब्द द्वारा ' जुअंजुअ' शब्द साधी शकाय . हैम अनेकार्थसंग्रह कां० २ श्लो० १८६ मां 'पृथक्' अर्थनो वाहक 'युत ' शब्द हेमचंद्र नोंधे छे. “ ' युतः अन्विते पृथक् ” प्रस्तुत 'युत' शब्द द्वारा एकमेक अन्नमन्न ' ( हे० ८-३ - १ ) नी पेठे ' युतंयुत ' ने साधिए तो ते द्वारा ' जुअंजुअ' पद स्वाभाविकपणे आवी शके. प्रस्तुत " ," 'युतंयुत' के " जुजुअ ' पदनी साथै तत्समानार्थक फारसी 'जुदाजुदा ' शब्दनो कोई प्रकारो संबंध छे के केम ए जरूर विचारणीय छे. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नालिअ वढ । (मूढ) मूढ नवखे (नव) नोर्बु-अनोखं दडवड (अवस्कन्द ) झट अथवा धाड-धाडं छुड्डु (यदि) मब्भीसी ( मा भैषीः) न बी-भय न पाम २०९ 'नालिअ' अने 'वढ' ए बन्ने पदो 'मूढ' पदना समानार्थी छे. तेमां 'नालिअ' अने 'मूढ' वच्चे लेश पण अक्षरसाम्य नथी. एथी 'नालिअ' माटे मूळरूपे 'मूढ' पदने न कल्पाय. अनार्य-अनारिय-अनालिय-नालिअ आ रीते कदाच ' नालिअ' पद आव्यु होय. भाषानो 'अनाडी' अने प्रस्तुत 'नालिअ' ए बन्ने समान अर्थना वाहक छे. अथवा “ नालीकः अज्ञे” इत्यादि कहीने आचार्य हेमचंद्रे सं० 'नालीक' शब्दनो 'अज्ञ-मूर्ख' अर्थ पण नोंधेलो छे (अनेकार्थ कां० ३ श्लो० ५२) ए ऊपरथी ए सं. 'नालीक ' अने प्रस्तुत 'नालिअ' ए बे वच्चे सरखामणी थई शके एम छे अने 'मूढ' तथा 'वढ' ए बे बच्चे जे अक्षरसाम्य छे ते स्पष्ट छे. एथी 'वढ' नी साधनामां 'मूढ' पदनो उपयोग करवानो बाध नथी. २१० 'नूतन 'नी पेठे 'नवीन' अर्थनो द्योतक सं० 'नव' शब्द पण छे. नव+क (क-स्वार्थिक)-नवक. प्रस्तुत 'नवक' अने आ 'नवख' ए बे बच्चे विशेष साम्य छे. २११ “सत्थावत्थहं आलवणु साहु वि लोउ करेइ । आदन्नहं मब्भीसडी जो सज्जणु सो देइ॥” । अर्थात् “लोको, स्वस्थ अवस्थावाळाओने तो सारी रीते बोलावे चलावे छे परंतु सज्जन तो ते कहेवाय के जे दुःखीओने पण अभयवचन दे" ए अर्थवाळा उक्त पद्यमां 'अभयवचन' माटे 'मन्भीसडी' शब्द छे. हेमचंद्र ‘मा भैषीः' क्रियापद साथे प्रस्तुत 'मन्भीसडी'ने सरखावे छे अने एज क्रियापद द्वारा 'मब्भीसा' पदने साधी बतावे छे. मने लागे छे के मा+भीषा-माभीषा 'मन्भीसा' ए रीते नाम द्वारा प्रस्तुत 'मब्भीसा' नामने साधq विशेष योग्य छे. भीति, भय अने भीषा ए त्रणे शब्दो 'भय' अर्थना सूचक छे. एथी मा+भीषा द्वारा 'मन्भीसा'ने साधवानी रीत व्याकरणनी दृष्टिए पण अबाधित छे. 'मब्भीसा'ने स्वार्थिक 'ड' लागतां स्त्रीलिंगी 'मन्भीसडी' पद साधq सुलभ छे. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १९७ जाइडिऔं ( यद् यद् दृष्ट तत् तत् ) जे जे जोयुं ते ते ___ तरफ राचवानी वृत्ति अनुकरण शब्दो (८) शब्दानुकरण ८-४-४२३ हुहुरु 'हुडुडु-हडड' शब्दनुं अनुकरण कसरक्क खाती वखते 'कचरक कचरक' चेष्टानुकरण थता ध्वनिनुं अनुकरण धुग्घिअ वांदराना जेवी चपळतावाळी चेष्टानुं अनुकरण उहबईस ऊठबेश-ऊठवू अने बेस, क्रियानुं अनुकरण पादपूरको (९) अर्थ विनाना पादपूरक पदो ८-४-४२४ घेई २१२ सं. यद् + दृष्टि + का = यदृष्टिका-प्रा. जद्दिहिआ. प्रस्तुत 'जाइद्विआ' अने प्रा. 'जद्दिहिआ' वच्चे सरखामणी करी शकाय एम छे. २१३ 'एहिरेयाहिरा' एवं एक संस्कृत पद छे. एहि रे-(रे आव) याहि रे--(रे जा) जे क्रियामां 'रे! आव, रे! जा' एवं वारंवार कहेQ पडे ते क्रियानुं नाम 'एहिरेयाहिरा' क्रिया कहेवाय. आ शब्दमां बे क्रियापदोनो समास थयेलो छे जे अपवादरूप छे. 'मयूरव्यंसकेत्यादयः' (३-१-११६ हैम०) एव॒ सूत्र एवा बधा अपवादभूत समासो माटे छे. भाषानो 'आवरोजावरो' के 'अवरजवर' शब्द उक्त 'एहिरेयाहिरा' नो अर्थ ठीक रीते बतावे छे. जेम 'एहिरेयाहिरा' शब्द क्रियापदोनो बनेलो छे तेम प्रस्तुत 'उट्टबईस' शब्द पण बे क्रियापदो द्वारा सधायेलो छे. जे क्रियामां 'ऊठ' अने 'बेस' एम वारंवार बोलवू पडे वा करवु पडे ते क्रियानुं नाम ' उट्ठ-बईस' छे.' उह' 'उवविस' इति यस्यां क्रियायां सा 'उहबईस' क्रिया-'उह' एटले ऊठ-ऊभो था, 'उवविस' एटले बेस-बेसी जा. एम बीजा पुरुषना एकवचनरूप'उढ-उवविस' ए बे क्रियापदो द्वारा प्रस्तुत 'उठबईस' शब्दने साधवानो छे. 'बईस' ए 'उवविस 'र्नु ज उच्चारणांतर छे. सं. उत्तिष्ठ + उपविश-प्रा० उठ+ उवविस–उट्ठबईस-ऊठबेश. २१४ “पुरुष एवेदं निं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्”-श्वेताश्वरोप० ३,१५। " 'निं' इति वाक्यालंकारे"-(आवश्यकटीका पृ० २४४ आ० स०) उक्त 'निं' अने प्रस्तुत 'घई' बच्चे तुलना करी शकाय एम छे. ___ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अव्ययो खाई (१०) अव्ययो केम किम । किह । किय । ( कथम् ) ८-४-४०१ केम किम जिम ( यथा ) जेम जिह जिम जिध २१५ ‘था' अने 'म' वच्चे कशुं ज साम्य नथी तेथी 'था' नो 'म' बोलाय ज केम ? ए जोतां भाषाविज्ञाननी दृष्टिए 'यथा' द्वारा 'जेम' साधी शकाय तेम नथी. 'यथा' नो अर्थ जोतां मने लागे छे के सं० 'यद् + इव-' यदिव प्रा. जइव-जइवँ-जइम-जेम. आ प्रकारे 'जेम' ने साधवामां आवे तो अर्थ अने अक्षरपरिवर्तन ए बन्ने प्रकारे कशुं बाधक जणातुं नथी. 'यथा' एटले जे प्रकारे-जे रीते. 'यदिव' एटले जेनी पेठे-जे रीते—( यत्-एटले जे. इवपेठे.) आ ज प्रकारे तद् + इव-तदिव-तइव-तइक्-तइम-तेम. क + इव-कइव-कइक्-काम-केम. वगेरेने पण साधी शकाय. अथवा यद् + एवं-यदेवं-जएवं-जएवं-जे-जेम. तद् + एवं-तदेवं-तएवं-तएवँ-तेव-तेम. क + एवं-कएवं-कएवँ-केवँ-केम. ए रीते पण साधी शकाय, यदेवं एटले जे आ रीते. तदेवं-ते आ रीते. कएवं-शी रीते. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख १९९ (तथा) RE EEEEEEEE (यत्र) ज्यां ८-४-४०४ (तत्र) क्यां एथु ताउं ८-४-४०५ (कुत्र) ( अत्र) अहीं ८-४-४०६ जाम ) ( यावत् ) ज्यांसुधी जाउं जामहिं ताम ) ( तावत् ) त्यांसुधी तामहिं ) ८-४-४०९ अवरोप्पर (अपरस्पर) परस्पर-अरस्परस २१६ 'जहिं ' अने ‘जेत्थु' ए बन्ने पदोनो अर्थ 'ज्यां' (यत्र) छे. वर्तमान गुजरातीमां 'जहिं ' अने तेनुं उच्चारणांतर 'जई' प्रचलित छे त्यारे पंजाबीभाषामां 'जित्थे' अने मारवाडी भाषामा 'जठे' ए बने 'ज्यां' अर्थना वाहक छे अने ते बन्ने प्रस्तुत 'जेत्थु' नां भिन्न उच्चारणो छे अने 'जेत्थु' पद पण सं० यत्र प्रा. जत्थ साथे सरखावी शकाय एवं छे. २१७ हेमचंद्र, 'परस्पर' शब्दनी आदिमां 'अ' ऊमेरी प्रस्तुत 'अवरोप्पर'ने साधे छे. मने लागे छे के एम करवा करतां 'अपर' अने 'पर' ए बे शब्दो द्वारा 'अवरोप्पर' शब्दने साधवो ए सुगमतावाळी रीत छे. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ८-४-४१४ ८-४-४१५ ८-४-४१६ ८-४-४१९ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति प्राउ प्राइव प्राइम्व पम्गिम्व अनु अनह ८-४-४१७ तो ८-४-४१८ एम्व पर समाणु ध्रुवु मं मणाउ किर अहवइ दिवे } कउ ) ( कुतः ) } कहन्तिहु सहुं नाहिं ( प्रायः ) ( अन्यथा ) [ ( ततः ) (( तदा ) (एवम्) ( परम् ) (समम् ) ( ध्रुवम् ) ( मा ) ( मनाक् ) (किल ) ( अथवा ) ( दिवा) (सह ) ( नहि ) प्रायः- प्राये बीजी रीते क्यांथी तेथी त्यारे ऐम पण साथै ध्रुव मा मणा निश्चय २१८ एतद् + एवम् - एतदेवम् - प्रा० एअएवं - एअएवँ एवं एम । एतद्-ए, एवम् - एम. जुओ टिप्पण २१५ अथवा दिवस साथै नहीं Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-४-४२० पच्छइ एम्वइ .२१९ एम्वहिं पच्चलिउ एतहे पुणु विणु ८-४-४२७ अवसें । ८-४-४२६ ८-४-४२८ ८-४-४३६ ८-४-४४४ अवस एक्कसि एत्तहे तेत्तहे जेत्तहे सव्वेत्तहे केत्त २२ नं नउ नाइ नावइ जणि आमुख ( पश्चात् ) ( एवमेव ) (एव) (इदानीम् ) ( प्रत्युत ) ( इतस् ) ( पुनः ) ( विना ) ( अवश्यम् ) ( एकश: ) ( अत्र ) ( तत्र ) ( यत्र ) ( सर्वत्र ) ( कुत्र) ( न ) पछी एम ज ज हमणां आम नहीं ने आम अहींथी वळी वण-विना अवश्य २०१ एकवार अहीं तहीं जहीं सर्वत्र-बधे कहीं इव-पेठे जणु इव - पेठे-जाणे २१९ अवेस्तानी भाषामां 'हि' ने बदले 'जी' बोल अनेकस्थळे ( खोर० पृ० ३५, १९५, २४१, ) वपरायो छे. प्रस्तुत 'जि' अने अवेस्तानो 'जी' ए बन्ने कदाच एकमूलक होय. प्राकृतभाषामा 'हि' ना अर्थे 'चिअ' पद वपराय छे. 'जि' 'जी' अने 'चिअ ' ए त्रणेमां घणी समानता छे. २२० 'नं' साधे सरखावी शकाय एवो 'पेठे' अर्थनो' 'न' शब्द वेदमां पण वपरायो छे. जुओ पृ० ७४ कंडिका [ ५१] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ८-४-४४५ (११) शब्दोनी जाति व्यवस्थित नथी एटले नर जातिनो शब्द नान्यतरमा पण वपराय छे, नान्यतर जातिनुं अनियंत्रण जातिनो शब्द नरजातिमां पण वपराय छे. नान्यतर जातिनो शब्द नारीजातिमां पण आवे छे. (कुम्भाः ) नर० नान्यत० कुम्भई ( अभ्राणि) नान्यत० नर० अब्भा ( अन्त्राणि) , नारी० अन्नडी ( शाखाः ) नारी० नान्यत० डॉलई ८-४-४४७ (१२) क्रियापदमां वपरायेला वर्तमानकाळना _ प्रत्ययो भूतकाळने सूचवे छे अने भूतकाळना काळनुं अनियंत्रण प्रत्ययो वर्तमानकाळने सूचवे छे.२४ ८-४-४४६ (१३) शौरसेनी भाषामां जे जे विधानो सूचव्यां छे तेमांनां घणाखरां, आ भाषामां पण समझवानां शौरसेनीवत् के आचार्य हेमचंद्रे शौरसेनी भाषामां जे खास विधानो बताव्यां छे ते आ प्रमाणे छे १ 'त' नो 'द', २ ‘न्त' नो ‘न्द', ३ र्य' नो ‘य्य' के 'ज्ज', ४ 'थ' नो 'ध' के 'ह' ५ 'इह' अव्ययना 'ह' नो २२१ जुओ पृ० ७० [४१] २२२ भाषानो 'आंतरडी' शब्द अने प्रस्तुत 'अन्त्रडी' ए बन्ने तद्दन समान छे. 'अंत्रडी' एटले आंतरडां. २२३ भाषानो 'डाळां' शब्द अने प्रस्तुत 'डालई' ए बन्ने पदो बच्चे सर्वथा समानता छे. मूल "दल विशरणे" अर्थात् 'दल' धातु द्वारा ए शब्द सधायो छे. २२४ जुओ पृ० ५३ [५] तथा पृ० ७० [४१] Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख २०३ विकल्पे 'ध' अने बीजा पुरुषना बहुवचनने सूचवता 'ह' प्रत्ययने बदले विकल्पे 'ध'. उक्त पांच विधानोमां- पहेलुं अने चोएं विधान तो हेमचंद्रे पोते . अहीं स्वीकारेलुं ज छे.—(जुओ व्यंजनपरिवर्तन तु नियम ३ पृ० १८९ कधिद, सवध ) शौरसेनीनां सूत्रनो आशय विधानो उपरांत साधारण प्राकृतमा जे जे विधानो तेमणे बताव्यां छे ते पण प्रस्तुत भाषामां इष्ट छे. ए हकीकत आ “शौरसेनीवत्" (८-४-४४६) सूत्र सूचवे छे. कारण के शौरसेनीना प्रकरणमा " शेषं प्राकृतवत्" (८-४-२८६ ) एवं कही आव्या छे. अहीं ए ध्यानमा राखवानुं छे के शब्दविज्ञाननी दृष्टिए मागधी, पैशाची के चूलिकापैशाची साथे हेमचंद्रे बतावेली प्रस्तुत अपभ्रंशनुं साम्य नथी परंतु प्राकृत अने शौरसेनी साथे छे, एवो आशय आ “शौरसेनीवत्" सूत्रनो छे. वळी, आ सूत्रद्वारा कोई एवं विधान करे के हेमचंद्रे बतावेलुं अपभ्रंश, शौरसेनी-अपभ्रंश छे तो ते बराबर नथी. हेमचंद्र, पोताना समयनी लोकव्यापक भाषानुं व्यापक व्याकरण बनावे छे. एटले तेमना समयमा प्रवर्तती व्यापक भाषानां जे जे व्यापक लक्षणो छे ते, तेमणे सूचव्यां छे. परंतु तेमणे शौरसेन अपभ्रंश, पैशाच अपभ्रंश वगैरे कोई एकदेशीय भाषानां लक्षणो सूचववा प्रयास कर्यो होय एवं सूचन तेमना व्याकरणमांथी मळतुं नथी. तेमने कोई एकदेशीय भाषा ज इष्ट होत तो “ स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" (८-४-३२९) सूत्रमा तेओ 'अपभ्रंश' एवो सामान्य शब्द ज न मूकत; किन्तु कोई विशेष शब्दनुं सूचन करत. वळी, ए सूत्रनी वृत्तिमां " "प्राय'-ग्रहणात् यस्य अपभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते तस्यापि कचित् प्राकृतवत् शौरसेनीवच्च कार्य भवति" एवी भलामण पण न करत. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति आ० हेमचंद्र गुजराती छे एटले तेओ पोते रचेला व्याकरणमां व्यापक अपभ्रंशमां समायेली एवी पोताना समयनी अने पोताना प्रदेशनी भाषानां व्यापक लक्षणो आपे ए स्वाभाविक छे अने एम छे माटे तेमनां ए लक्षणोने वर्तमान गुजरातीनी अपेक्षाए ऊगती गुजरातीनां लक्षणो कहुं हुं. वळी, तेमणे रवेलां उक्त पद्यो अने बीजां उदाहरणोथी पण एम जणाई आवे छे के तेओ पोताना समयनी गुजराती भाषाने समझावी रह्या छे जेने में अहीं 'ऊगती गुजराती' नाम आप्युं छे. हेमचंद्र बीजा कोई अपभ्रंशोनो निषेध नथी करता परंतु ते बाबत कशी चर्चा पण नयी करता, ए ध्यानमा राखवानुं छे. नामविभक्ति (१४) नामनी विभक्तिओ अकारान्त नाम-नरजाति २०४ एकवचन प्रथमा उ, 22371,0 द्वितीया उ, ० तृतीया एण, एं बहुवचन ० ८-४-३३१ ( ८-४-३३२ ० [८-४-३३१ ८-४-३३३ हिं, एहिं ८-४-३४२ ८-४-३४७ ८-४-३३५ २२५ नानको, रेवलो, घोडो, गधेडो, बाजरो वगेरे प्रयोगोमां जे अंतिम 'ओ' छे ते ज आ प्रत्यय छे. ज्यां छे त्यां प्रत्ययनो लोप समझवानो छे. माणस, कुंभार, लुहार वगेरे रूपो लुप्त प्रत्ययवाळां छे. ० २२६ में, तें, तेणें, माणसें वगेरे तृतीया विभक्तिवाळां रूपोमां जे अंतिम 'ए' छे तेज आ प्रत्यय छे. केणे, जेणे, एणे वगेरेमां 'एण' प्रत्यय वपरायेलो छे. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख २०५ cho là चतुर्थी सु, स्सु, हो,० हं, ० (८-४-३३८ १८-४-३३९ पञ्चमी हु, हे ८-४-३३६ १८-४-३३७ षष्ठी सु, स्सु, हो,० (८-४-३३८ 1८-४-३३९ सप्तमी इ, ऐ हिं८-४-३३४ ८-४-३४७ संबोधन उ, ओ, ० हो, ० [८-४-३४६ ८-४-३३० (१५) '०' एटले अनेक प्रयोगोमां नामने प्रथमा, ८-४-३४४-३४५ द्वितीया, चतुर्थी, षष्ठी अने संबोधननी विभक्तिओ नथी लागती परंतु ते ते विभक्तिओमां नामनो अंतिम दीर्घ स्वर मात्र ह्रस्व थाय छे अथवा ह्रस्व स्वर मात्र दीर्घ थाय छे : प्र० गु० सं० 'ढोल्ल'नुं ढोला प्र० ए० (ढोला) धर्वले 'रेहा 'नुं रेह (रेह) रेखा 'घोड 'नुं घोडा प्र० ब० (घोडा) घोर्टक 'वग्गा'नुं वग्ग द्वि० ए० (वाग-चोक९) वलगा ___२२७ कूवे, घरे, दरिए वगेरे सप्तमी विभक्तिवाळां रूपोमां जे अंतिम 'ए' छे ते ज आ प्रत्यय छे. २२८ मूळ ‘धव' एटले पति-धणी. धव+उल्ल-(' उल्ल' स्वार्थिक) धवुल्लधउल्ल-ढउल्ल-ढोल-ढोल्ला. एवो परिवर्तनक्रम भासे छे. __ २२९ 'घोटक' नो 'ओ' संवृत छे त्यारे ते द्वारा सधायेला 'घोडा' नो 'ओ' विवृत छे. वळी, 'घोडियु' नो 'ओ' संवृत छे. आ रीते एक ज शब्दना स्वरमां उच्चारणनी विविधता ध्यानमा राखवा जेवी छे. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति (१६) व्यंजनादि प्रत्ययो लागतां नामनो अंतिम स्वर विकल्पे दीर्घ थाय छः देवसु, देवासु (१७) ८-४-३३५ त्रीजीना बहुवचननो प्रत्यय लागतां नामना अंतिम 'अ' नो विकल्पे 'ए' थाय छे : देवहिं देवाहिं, देवेहि (१८) ८-४-३४५ केटलाक प्रयोगोमां षष्ठी विभक्तिमां मूळ लुप्तविभक्ति नाम ज वपराय छे, जेमके; गय (गज-गजानाम् ) (१९) ८-४-४२२ संबंध बताववा माटे गमे ते पदनी पछी संबंधसूचक तण' अने 'केर' शब्दो पण वपराय छ : प्रत्ययो जसु-केरउं (जस-केरं-जेनुं) अम्हह-तणा ( अमतणा–अमारा) (२०) ८-४-४२५ ते माटे' एवो अर्थ बताववा सारु गमे ते पदनी पछी · केहिं', 'तेहिं ', 'रेसि', 'रेसिं', अने 'तणेण' ए पांचमांनो गमे ते एक शब्द मूकाय छे : तउ केहिं—(तारा माटे) अन्नहि रेसि-( अन्यने माटे) वडत्तणहो तणेण—( वडाईने माटे) सर्वादिशब्द (२१) सर्वादि शब्द. ८-४-३६६ साह । (सर्व) व० उ० सव्व सहु, सौ ८-४-३६५ औय (इदम् ) आ, आय २३० भाषाना सब (हिन्दी ) अने सउ के साउ ( गुजराती ) शब्दनी साथे प्रस्तुत 'सव्व' अने 'साह'नी सरखामणी सुघटमान छे. २३१ भाषानो 'आ' अने पारसीलोकमां बोलातो 'आय' ए बन्ने शब्दनी साथे प्रस्तुत 'आय' नुं विशेषतः साम्य छे. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ आमुख २०७ ८-४-३६७ कैवेण ] ( किम् ) कोण काई काई को, क्यो अकारान्त सर्वादि शब्दोने लागती विशेष विभक्तिओना प्रत्यय ८-४-३५५ पञ्चमी एक० हां-जहां, तहां, कहां (ज्यांथी, त्यांथी, क्याथी) ८-४-३५६ ,, ,, इहे--(क' अने 'कवण' ने ज लागे छे) किहे, जिहे ( कॅईथी, जॅईथी) ८-४-३५७ सप्तमी एक० हिं- सव्वहिं, सव्वाहिं ८-४-३५८ षष्ठी एक० आसु ('ज', 'त', 'क', अने ‘कवण' ने ज लागे छे) जासु । तासु । कासु जस्स तस्स । कस्स जास ) तास ) कास शेष पूर्ववत् (२२) विशेष रूपाख्यान द्वि० एक० । । ध्रु, जु, जं ( यत्) ८-४-३६० (जे) प्र० एक० ) ,२३४ द्वि० एक० , , त (तत्) , २३३ 'यत्' - 'ज' उच्चारण तो सुघट छे परंतु 'धुं' उच्चारण केम थयुं ? ए समझातुं नथी. कदाच 'g' उच्चारण, मूल प्रस्तुत 'यत्' नहीं किन्तु बीजं कोई पद होय. अहीं 'ध्रु' अने 'ज' बन्ने समानार्थक होई हेमचंद्र साथे जणावेलां होय. २३४ 'तत्' ना 'तं' उच्चारणमां वधारानो 'र' उमेरावाथी 'त्र' उच्चारण नीपज्यु छे. आवो 'र' नो वधारे प्राचीन भाषामा स्वाभाविक छे. जुओ पृ. ५८ कंडिका [१७]. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति प्र० एक०, द्वि० एक० इमु नान्यतर-(इदम् ) ८-४-३६१ ।। ,, ,, , , , एहो नरजाति-(एषः, एतम्)८-४-३६२ व० गु० एह, ए " , , , , एह नारीजाति-(एषा, एताम् ) व० गु० एह, ए " " , " " एहु नान्यतरजाति ( एतत् ) व० गु० एह, ए ब० एइ नर० । एते, एतान् । ८-४-३६३ नारी० २ एताः व ० गु० ए, एय. नान्य० । एतानि , "ओइ नर० (अमी, अमून् । ८-४-३६४ नारी० अमू व ० गु० ओ, ओइ नान्य० ( अमूनि । (२३) तुम्ह- (युष्मद् ) ए० व० ब० व० प्र० तुहं (तुं) तुम्हे तुम्हई (तमे, तमो)२८-४-३६८ 1८-४-३६९ ८-४-३७० द्वि० पई, तइं तुम्हे, तुम्हई [८-४-३६९ _, तृ० पई, तई (तें) तुम्हेहिं (तमें, तमोए) [८-४-३७१ २३५ भाषामां त्रणे जातिमां 'ए' के 'एह' शब्द प्रचलित छे. २३६ भाषानो 'ओ' शब्द अने प्रस्तुत 'ओइ' बन्ने समान छे. 'ओ पेलो आव्यो' एवा प्रयोगोमां 'ओ' शब्द वपराय छे अने ते दूरताना के परोक्षपणाना भावनो सूचक छे. संस्कृतनो 'अदस्' पण ए ज भावनो द्योतक छे. " " " " Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख २०९ अम्हहं ८-४-३७२ च० तउ, तुज्झ, तुध्र (तुज) तुम्हहं [८-४-३७३ , पं० तर, तुज्झ, तुध्र तुम्हहं , १० तउ, तुझ, तुध्र तुम्हहं स० पई, तई तुम्हासु[८-४-३७४ (२४) अम्ह-(अस्मद् ) ए० ब० ८-४-३७५ प्र० हउं (हुं) अम्हे, अम्हई ( अमे, अमो)[८-४-३७६ ८-४-३७७ द्वि० मई अम्हे, अम्हई ___ तृ० मई (में) अम्हेहिं ( अमें, अमोए) [८-४-३७८ ८-४-३७९. च० महु, मज्झु अम्हहं [८-४-३८० पं० महु, मझु ष० महु, मज्झु (मुज, मज) अम्हहं स० मई अम्हासु [ ८-४-३८१ अकारांत नान्यतर (२५) अकारान्त नाम नान्यतर जाति८-४-३३१ प्र० ए०) , द्वि०ए० उ कुण्ड (कुण्डम् ) ८-४-३५३ प्र० ब०) ई कुंडई, कुंडाई (कुण्डानि) द्वि० ब० व० गु० कुंडां (२६) 'क' छेडावाळु नाम नान्यतर जाति ८-४-३५४ प्र० ए० उं कुंडउँ (कुण्डकम् ) कुं९ द्वि० ए० ,,,, शेष नरजाति प्रमाणे. २३७ भाषामां वपरातां केळं, कोळु, काळू वगेरे अंतमां 'उ' वाळा शब्दो प्रस्तुत 'कुण्डउं' साथे सरखावी शकाय एवा छे. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति इकारात उकारात (२७) इकारान्त अने उकारान्त नरजाति नाम ए० ब० प्र० २३८ • ० च० ० हुँ, हं [८-४-३४० पं० हे हुँ [८-४-३४१ ष० ० ८-४-३४१ स० हि हुं हिं [८-४-३४० (२८) '' प्रथमा अने द्वितीया विभक्तिमां मूळ नाम ज वपराय छे अने मूळ नामना अंत्य स्वरनो दीर्घ थईने पण वपराय छे. कइ, कई ( कविः कवयः ) व० गु० कवि, कविओ. भाणु, भाणू (भानुः, भानवः ) व० गु० भाण, भानु, भानुओ. (२९) चतुर्थी अने षष्ठी विभक्तिना एकवचनमां पण ए ज रीते वपराय छे:-कइ, कई ( कवेः) भाणु, भाणू ( भानोः) (३०) नाम-इकारांत उकारान्त-नान्यतर जाति ब० ई-वारि-वारीइं, वारिइं महु-महूई, महुई शेष इकारान्त नरजाति प्रमाणे. २३८ चालु गुजरातीमां इकारांत प्रथमा 'रवि,' 'हरि' ए रीते थाय छे. २३९ 'हरिएं, 'रविएं' ए रीते तृतीया विभक्ति चालु गुजरातीमां प्रचलित छे. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारीजाति नाम अने ऊकारांत नारीजाति ए० प्र० द्वि० ८-४-३४९ तृ० च० पं० ष० ८-४-३५२ स० सं० आमुख (३१) आकारांत, इकारांत, ईकारांत, उकारांत ० ० Mithe २४० हे० he he 2,0 हि, (३२) विशेष रूपाख्यान ष० का - कहे ब० रह, ओ, " उ, ओ, हिं the h हु, ० he has the ܘ,3 हिं हो. ० ० ० २११ ( कस्याः ) ता-तहे ( तस्याः ) जा - जहे (यस्याः ) क्रियापद विभक्ति ( ३३ ) क्रियापदने लगती विभक्तिओ [ ८-४-३४८ [ ८-४-३५० [ ८-४-३५१ २४० भाषामां पण माळ, नदी, रात, वऊ, बुद्धि वगेरे प्रयोगो प्रचलित छे, जेओ लुप्तविभक्तिवाळा छे. [ ८-४-३५९ २४१ भाषामा प्रतीत गाईओ, नदीओ के नदीयो, नदीयुं वगेरे प्रयोगोमां अंते जोडायेला ओ, यो के युं ए त्रणेनी साधनाना मूलमां प्रस्तुत 'ओ' के 'उ' होवानुं सुघटमान देखाय छे. २४२ भाषामां प्रचलित वऊए, गाईए, भेंशे वगेरे तृतीयाविभक्तिवाळा प्रयोगोनो अंतिम 'ए' अने प्रस्तुत 'ए' प्रत्यय ए बन्ने तद्दन समान छे. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति वर्तमानकाळ एक० बहु० ८-४-३८५ १. पु० उं, मि. हुं, म, मु, मो [८-४-३८६ ८-४-३८३ २. पु० हि, सि, से. हु, ह, ध, इत्था [८-४-३८४ ३. पु० दि, दे, इ, ए. हिं, न्ति, न्ते, इरे [ ८-४-३८२ (३४) भविष्यकाळ वर्तमानकाळना प्रत्ययोने शरूआतमा ‘स' के 'स्स' लगाडवाथी ते प्रत्ययो भविष्यकाळमां वपराय छे. स्सउं, स. स्सहूं, सहुं [८-४-३८८ स्सहि, सहि४५ स्सहु, सैडे स्सँई, सइ २४स्सहिं, सहिं वगैरे. शेष प्राकृत प्रमाणे. २४३ भाषामां वपरातां करुं छु, बोलुं छु, कहं छं वगेरेनो अंतिम ‘उं' अने प्रस्तुत 'उ' ए बन्ने तद्दन समान छे. २४४ भाषामां वपरातां प्रथम पु० ए० करीश, प्रथम पु० ब० करीशुं क्रियापदो अने प्र० ए० करिस्सउं, प्र० ब० करिस्सहुं क्रियापदो ए बन्ने बच्चे निकटनी समानता छ अर्थात् 'करीश,' 'करीशु' मां अंते रहेला 'ईश' अने 'ईशु' (ते बने) ना मूळमां अनुक्रमे 'स्सउं' अने 'स्सहुँ' प्रत्ययो छे. २४५ 'तुं करशे' अने 'तुहं करिस्सहि' ए बन्ने एकसरखां क्रियापदो छ अर्थात् 'करशे' नो अंतिम 'शे', 'करिस्सहि' ना अंतिम ‘स्सहि' प्रत्यय द्वारा सधायेलो छे. २४६ ए ज प्रमाणे 'तमे लखशो' अने 'तुम्हे लिखिस्सहु' ए बन्ने पण तद्दन समानतावाळां क्रियापदो छ अर्थात् भविष्यकाळना बीजा पुरुषना बहुवचननो 'शो', प्रस्तुत 'स्सहु' प्रत्यय द्वारा सधायेलो छे. २४७ 'ते करशे' अने 'तेओ करशे' ए क्रियापदो अने 'सु करिस्सइ' 'ते करिस्सहिं' ए क्रियापदो पण एकसरखां छे अर्थात् भविष्यकाळना तृतीय पुरुषना एकवचननो अने बहुवचननो 'शे', प्रस्तुत 'स्सइ' अने ‘स्सहिं' प्रत्यय द्वारा अनुक्रमे सधायेलो छे. ए रीते चालु गुजरातीमां वपराता भविष्यकाळना समग्र प्रत्ययो, ऊगती गुजरातीमां वपराता भविष्यकाळना प्रत्ययो द्वारा सधायेला छे. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख (३५) आज्ञार्थ अने विध्यर्थ इ, उ, ए. शेष प्राकृत प्रमाणे. ( ३६ ) विशेष रूपाख्यान ८-४-३८७ २ पु० ए० ८- ४- ३८९ कीसु (क्रिये) कराउं छं ( ३७ ) विशेष धातुओ ८-४-३९० हुच्च, पहुच्च ८-४-३९१ ब्रुव ८-४-३९२ वुर्जे ८-४-३९३ प्रस्स ८-४-३९४ गृण्ह देश्यधातु ८-४-३९५ (प्र+भू-प्रभू - पहोंचवुं पूरं धनुं) (ब्रू-बोलवु ) ( व्रज-जवुं ) ( स्पशू - जोवुं ) ( ग्रह - गृहूणा - ग्रहण करवुं ) ( ३८ ) देश्य धातुओ छोल झलक्क २१३ २५० ( तक्ष - छोलवु ) ( ज्वलू - जळवुं - बळवुं - झळकवुं ) २४८ चालु गुजरातीमां आज्ञार्थ के विध्यर्थमां वपरातां (तुं ) कर्य -कर, लख्यलख, भण्य-भण, (तमे) करो, भणो, लखो, (तुं ) करे, भणे, लखे वगेरे क्रियापदोमां जे य-अ, ओ अने ए प्रत्ययो वपराय छे तेनी साधना प्रस्तुत 'इ', 'उ' अने 'ए' द्वारा समझवानी छे. प्रस्तुत 'इ' प्रत्यय तो वेदमां पण वपरायेलो छे. जुओ-प्रस्तुत भाषण पृ० ६६ कंडिका [ ३२] २४९ कच्छी भाषामा 'जवुं' अर्थमां 'वँञ्' धातु प्रचलित छे. तेनी साथे प्रस्तुत 'वुञ्' नी समानता छे. २५० प्रस्तुत 'छोल्ल' धातुना मूलनी खबर नथी पडती. हेमचंद्रना कहेवा प्रमाणे 'तक्ष' अने 'छोल्ल' ए बन्ने धातुओ समानार्थक छे. ए बे बच्चे लेश पण अक्षरसाम्य नथी तेथी ए बे वच्चे कोई संबंध होई शके नहीं. ' छाल ऊतारवी ' अने 'छोलवु ' ए बन्नेनो भाव एक समान छे तेथी कदाच 'छल्ली' (छाल) शब्द साथै 'छोलवु ' नो संबंध जोडी शकाय . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति खुडुक्क घुडुक्क DE: कृदंतो (खटकवू) (घुष्ट 'घुडुडु' एम गाजवू ) (( संबाध-संवाह(आक्रम-चांपवू-दाबवू-दबावq ) (धृष्ट नकामुं गाजवू ) ( प्राप्–पामवं ) वगेरे (३९) विध्यर्थ कृदंत व० गु० इएव्वउं करिएव्वउँ करवा जेवू एल्वउं (तव्य) २ करेव्वउं-करवू एवा ( ४० ) संबंधक भूतकृदन्त इ (मारि-मारीने ) इउ (भजिउ-भांजीने-मांगीने ) इवि (चुंबिवि-चुंबीने) ८-४-४३८ । करेवा ८-४-४३९ २५१ प्रस्तुत 'चम्प' ना मूळनी खबर पडती नथी. दोधकवृत्तिमां 'चम्प' नो पर्याय 'आक्रम' जणावेलो छ. संभव छे के 'क्रम' ना 'क' नो 'च' थई 'चम' थतां ते द्वारा 'चम्प' आव्युं होय अथवा 'चांपवू' अर्थमां संबाध-संवाह पद पण वपराय छे एटले ते 'संवाह' ना आय 'सं' नो 'चं' थई 'वाह' द्वारा 'चंप' आव्यु होय. आ बाबत निर्णीत कशु जणायु नथी. __ २५२ प्राप्-पराव ए जातनो अक्षरपरिवर्तन-क्रम छ 'प्रा' ना 'प्' अने 'र' वच्चे 'अ' वधतां प्+अ++आप्-'पराप्', पछी अंत्य 'प' नो 'व' थये 'पराव' पद थाय. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-४-४४० ८-४-४४१ एवं आमुख २१५ अवि (विछोडवि-वछोडीने-छोडावी दईने ) एप्पि - ( जेप्पि-जिल्वा-जीतीने ) एप्पिणु--- ( देप्पिणु-दईने) एवि -- (लेवि-लेई-लेईने ) एविणु-- (झाएविणु-ध्याईने ध्यान करीने ) (४१) हेत्वर्थकृदन्त (देवं देवा माटे) अण ( करण-करवामाटे) अणहं ( भुंजणहं-भोजन करवा माटे) अणहिं (भुंजहिं- ,, ) एप्पि (जेप्पिणु-जीतवा माटे) एप्पिणु (चएप्पिणु-त्याग करवा माटें) एवि (पालेवि-पालवा माटे) एविणु (लेविणु-लेवा माटे) (४२) गमेप्पिणु, । (गत्वा-जईने) गप्पिणु अथवा गमेप्पि । (गन्तुम्-जवा माटे) ८-४-४४२ (४३) कर्तृसूचक कृदन्त मारणउ-मारनार बोलणउ-बोलनार अणअ वजणउ-वागनार-बजनार भसणउ-भसनार ८-४-४४३ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति (४४) तद्धितप्रत्यय ८-४-४२९ कोई पण नामने स्वार्थमां अ, अड, उल, ८-४-४३० अड-अ, उल्ल-अ, उल्ल-अड-उलुड प्रत्ययो लागे छे. अ—करालिअ+अ-करालिअअ (करालक-कराल) अड—दोस + अड-दोसड ( दोष-दोषडा) उल्-कुडी + उल्ल-कुडुली (कुटी-कोटडली-कोटडी) अड-अ-हिअअ+ अडअ-हिअडउ. ( हृदय है९) उल्ल-अ-चूडा + उल्लअ-चूडुल्लअ (चूडलो) उल्लड-बल + उल्लड-बलुल्लड (बल–बळ) उल्ल-अड-अ-बल + उल्लडअ-बलुल्लडअ ( ,, ) (४५) पूर्वोक्त प्रत्ययो लाग्या पछी नामने स्त्रीलिङ्गी ८-४-४३१ करवू होय तो तेने छेडे 'ई' आवे छे अने 'अ' प्रत्यय जेने छेडे छे तेवा पूर्वोक्त प्रत्ययो लाग्या पछी नामने स्त्रीलिंगी करवू होय तो तेने छेडे 'आ' आवे छे. ८-४-४३२ गोरडी--(गोरी) धूलडिआ (धूली-धूड-धूडली) ८-४-४३३ (४६) उक्त 'आ' प्रत्यय लागतां पूर्वना 'अ' नो 'इ' थाय छे. (धूलड + आ =धूलडिआ) (४७) 'प्पण' प्रत्यय भावसूचक छे. २५३ मूळ प्रत्ययो 'अ' 'अड' अने 'उल्ल' ए त्रण छे. ते त्रणेने एकबीजामां भेळववाथी बीजा लगभग बार प्रत्ययो नीपजे छे. ते आ प्रमाणे : १ अ-अड। २ अड-अ। ३ अ-उल्ल ४ उल्ल-अ। ५ अड-उल्ल । ६ उल्ल-अड। ७ अ - अड-उल्ल । ८ अ-उल्ल-अड। ९ अड-अ-उल्ल। १० उल्ल-अ-अड। ११ अड-उल्ल-अ। १२ उल्ल-अड-अ। २५४ भाषामां घडपण, देवपणुं, मनुष्यपणुं वगेरेनो पण, पणुं भावसूचक छे, प्रस्तुत 'प्पण' अने भाषानो पण, पणुं-ए बधा तद्दन समान छे. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-४-४३७ वड्डप्पणु वडपण. ऊपर जणावेला नियमोमां आ० हेमचंद्रे पोताना समयनी व्यापक भाषानुं व्याकरण समावेलं छे. आपेला ए नियमो मोटा मोटा छे अने व्यापक जेवा छे. वैदिक भाषा अने व्यापक प्राकृतभाषा वच्चे जे समानता बतावी गयो धुं ( पृ० ५१-७४ ) ते जोतां स्पष्ट जणाई आवे एम छे के प्रस्तुत ऊगती गुजरातीमां पण ते समानता केटला बधा अंशमां ऊतरी आवी छे. हेमचंद्रे दर्शावेळी ऊगती गुजराती अने वैदिक भाषा वच्चेनी समानता ७७ आगळ कर्तुं छे तेम वैदिक काळना व्यापक अर्थवाळा आदिम अपभ्रंश द्वारा हेमचंद्रे बतावेला अंतिम अपभ्रंशनी के उगती गुजरातीनी उत्पत्ति थई अने ते द्वारा आ आपणी वर्तमान गुजराती आवी एटले वैदिक काळनुं उक्त अपभ्रंश, ऊगती गुजरातीनी जननी थाय अने वर्तमान गुजरातीनी मातामही थाय पुत्रीमां मातानां खास खास लक्षणो ऊतर्या विना रहे नहीं एटलुं ज नहीं, मातामहीनो स्वभाव तो ऊतरे ज. पौत्रीमां पण हेमचंद्रे बतावेली भाषा करि देवाहो करि आमुख वास गय नं ( आज्ञार्थ बीजो पुरुष एकवचन ) ....... कर + इ–करि-' इ' प्रत्यय.... बोध + इ ( संबोधन बहुवचन ) ........ ( संबंधक भूतकृदन्त ) ........ ( क्यां )........ कुह दिविदिवि ( रोज रोज ) ........ ( व्यास 'र' वधारे )....' अधिगु' नुं ( षष्ठी विभक्ति )... ( उपमासूचक ) ........ २१७ वैदिक भाषा बोधि बोधि ― देवासः पीत्वी ' अध्रिगु' चर्मन् ( सप्तमी विभक्ति ) न कुह दिवे दि Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति चालु गुजराती चालु गुजराती : वैदिक भाषा: अने वैदिक भाषा 'चांदो न होय'-न (उपमासूचक)....न । वञ्चे समानता [जुओ पृ० ७४ कं० ५१] भलाई-(भलं + आई ).... (शिवताति) भावसूचक 'ताति' प्रत्यय. [जुओ पृ० ६८ कं० ३७] ___ अहीं उक्त समानता विशे विशेष न कहेतां हवे बारमा अने तेरमा सैकानी गुजराती भाषाना प्रयोगोनुं आ० हेमचंद्रनी दृष्टिए पृथक्करण करी बताक्वानुं छे. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान बीजूं बारमो अने तेरमो सैको ७८ बारमा अने तेरमा सैकानी गुजरातीनो सैको) सोमप्रभ, । नमूनो बताववा अहीं बारमा सैकाना श्रीअभयदेवसूरि, धर्मसूरि अने वादिदेवसूरि अने आ० हेमचंद्रनी तथा तेरमा सैको) एमनी न (तरमी सैकाना सोमप्रभसूरि, धर्मसूरि अने श्रीविजयसेनकृतिओ सूरिनी कवितानो आधार लीधेलो छे. आ बे सैका अने त्यार पछीनो चौदमो सैको आवे त्यां सुधी केवळ जैन पंडितोनी कवितानो आधार लेवानो छे. ए त्रण सैका दरमियान वैदिक परंपराना वा बीजी कोई परंपराना गुजराती पंडिते रचेलं गुजराती साहित्य मने मळ्युं नथी. पन्नरमाथी तो उक्त बने परंपराना पंडितोनी अनेक कृतिओना नमूना सुलभ छे. ___ बारमा सैकानी त्रण कृतिओ अहीं लीघेली छे, एत्रणे पद्य छे. तेमां सौथी प्रथम ' श्रीथंभणपार्श्वनाथ' नुं स्तोत्र छे. तेना रचयिता श्रीअभयदेवसूरि. ७९ अभयदेवसूरिनुं वृत्तान्त प्रभावकचरित्रमा अने खरतरगच्छनी पट्टावलीओमां पौराणिकरीते नोंधायेलुं छे. तेमनुं जन्मअभयदेवनो , स्थान धारा-राजा भोजनी धारानगरी. दीक्षित समय थया पछी तेओ आचार्य पद मेळवी गुजरात तरफ आव्या हता अने पाटणमां लांबा समय सुधी रह्या हता. बार जैन अंगोमांना नव अंग ऊपर तेमनी रचेली वृत्तिओ उपरांत बीजुं पण आचारविषयक २५५ जुओ प्रभावकचरित्र-श्रीअभयदेवप्रबंध. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पंचाशकवृत्ति वगेरे घणुं साहित्य तेमनुं रचेलुं छे. ' अंगो ऊपरनी वृत्तिओ तेमणे पाटणमां रहीने रचेली छे' ए हकीकत ते ते वृत्तिओमां आवेली प्रांत-पुष्पिकामां तेमणे पोते ज जणावेली छे. जैन परंपरामां ' नवांगीवृत्तिकार' तरीके तेमनी विशेष ख्याति छे. तेमनो समय - बारमो सैको सुनिश्चित छे. तेमनुं अवसान पाटणमां के कपडवंजमां थयेलुं एवं लखेलुं छे. गुजरातमा सेतीनदीने कांठे थांभणा नामनुं गाम छे. त्यां श्रीयंभणपार्श्वनाथनी स्तुति करतां तेमणे जे स्तोत्र बनावेलं, तेने अहीं नमूनारूपे मूकेलुं छे. स्तोत्रनां बधां मळीने ३० पद्यो छे. तेमांथी अहीं अमुक ज लीघेलां छे. जैन परंपराना खरतरगच्छमां आ स्तोत्रनो विशेष प्रचार छे. स्तोत्रनी भाषा ते समयनी चालु लोकभाषा छे. रचनार गुजराती, रचवानुं स्थळ गुजरातनुं एक गाम ए जोतां स्तोत्रनी भाषा पण सापेक्ष रीते गुजराती कहेवाय. स्तोत्रनी कडीओ ज ए हकीकतने साबीत करे छे. ८० बीजी कृति श्रीवादिदेवसूरिनी छे. ए कृति ते, वादिदेवसूरिए रचेलुं पोताना गुरु श्रीमुनिचंद्रनुं स्तवन तेनी भाषा ते देवसूरिनो समय समयनी गुजराती छे. वादिदेवसूरि संस्कृत अने प्राकृत भाषाना प्रकांड पंडित हता, प्रखर नैयायिक अने अद्भुत कवि हता. २२० २५६ " शिष्येण - अभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता । ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य श्रुतभक्त्या समासतः ॥ ९ ॥ " " एकादशसु शतेषु - अथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् । अहिलपाटकनगरे विजयदशम्यां च सिद्धेयम् " ॥ अर्थात् श्रीअभयदेवसूरिए ज्ञाताधर्मकथांगसूत्रनी विवृति विक्रमवर्ष ११२० भां अणहिलपाटक- अणहिलवाड - पाटणमां रहीने विजयादशमीने दिवसे पूरी करी. व्याख्याप्रज्ञप्ति - भगवती सूत्र- नी टीका पण तेमणे ११२८ मां पाटणमां रहीने रची छे. आ माटे जुओ भगवती सूत्रनी में लखेली प्रस्तावना - ' व्याख्याप्रज्ञप्तिना टीकाकार' - पृ० २४ ( विद्यापीठप्रकाशन ) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २२१ श्रीहरिभद्रसूरिनी अनेकान्तजयपताका ऊपर टिप्पण लखनार मुनिचंद्रसूरि-देवसूरिना गुरु–पण महापंडित, तपस्वी अने सुविहिताग्रणी हता अने वादिदेवसूरिना शिष्यो भद्रेश्वरसूरि तथा रत्नप्रभसूरि वगैरे पण महाविद्वान हता. वादिदेवसूरिनुं जन्मस्थान 'महाहृत' आजनुं 'मदुआ'. आबुनी आसपास गुजरात देशना अष्टादशशती नामना एक प्रांतमां ते स्थान आलुं छे. सूरिनो जन्म विक्रम संवत् ११४३. जाँति पोरवाड. पिता वीरनाग, माता जिनदेवी. आचार्य- मूळनाम पूर्णचंद्र. 'मदुआ'मां महामारिनो उपद्रव थयो. वीरनाग पोताना ए गामने छोडीने भरूचमां रहेवा आव्यो. मुनिचंद्रसूरि पासे पूर्णचंद्रे भरूचमां ज दीक्षा लीधी. दीक्षित नाम रामचंद्र. विक्रम संवत् ११७४ मां रामचंद्र, देवसूरि थया अने वादकळामा विशेष पटु होवाने लीधे तेमनी ख्याति 'वादि देवसूरि' ने नामे थई. गुजरातना चक्रवर्ती राजा जयसिंह देवनी सभानुं ए रत्न हता. तेमनो 'स्याद्वादरत्नाकर' नामनो चोराशी हजार श्लोकप्रमाण एक अद्भुत न्यायग्रंथ आजे संपूर्ण तो नथी मळतो परंतु जेटलो मळे छे ते ऊपरथी एमनु असाधारण पांडित्य समझी शकाय एम छे. मातृभाषामां रचेला पोताना गुरुना स्तवनमां तेमणे घणी ज सरळ अने मधुर भाषा वापरी छे. अहीं ते स्तवन पूरेपूरुं लीधेलुं छे. ८१ त्रीजी कृति गुजराती भाषाना पाणिनी अने साहित्यिक गुजरा . तीना आद्यकवि बारमा सैकाना सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचंद्रनी कृतिओ ' हेमचंद्रनी५८ छे. आचार्य हेमचंद्रे स्वोपज्ञवृत्तिवाळा सिद्धहेमना आठमा अध्यायना चोथा पादमां जे पद्यो उदाहरणरूपे मूकेलां छे, .. २५७ जुओ प्रभावकचरित्र-श्रीदेवसूरिप्रबंध. २५८ जुओ प्रभावकचरित्र-श्रीहेमचंद्रसूरिप्रबंध तथा हेमचंद्राचार्य (श्रीसयाजी बालज्ञानमाळा पुष्प १३८ मुं) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तेमांथी अहीं केटलांक पद्यो लीधेलां छे अने बीजां तेमना छंदोनुशासनमाथी अवतारेलां छे. व्याकरणनां पद्योमा हेमचंद्रे पोते रचेलां केटलां अने बीजानां रचेलां पण तेमणे संग्रहेलां केटलां एवो विभाग करवो जोईए ए खरं पण कयुं पद्य कोणे रचेलुं छे एवो निर्णय करवो हाल तुरत कठण छे. वळी, एमां हेमचंद्रे पोते ज बनावेलां केटलां पद्यो छे ते पण स्पष्टपणे जणातुं नथी. छतां ए पद्योमा हेमचंद्रनां पोतानां पद्यो नथी ज एम पण कही शकाय एवं नथी. छंदोनुशासनमां उदाहरणरूपे दर्शावेलां पद्योमा केटलांक संस्कृत भाषामय छे, केटलांक साधारण प्राकृतनां छे अने केटलांक हेमचंद्रनी पोतानी मातृभाषानां छे. ए बधां त्रिविध पद्यो हेमचंद्रे पोते न बनावेलां होय एवं कांई नथी. परंतु ए पद्योमां राजा सिद्धरांजे अने कुमारपाळ संबंधी जे केटलांक पद्यो छे ते अने बीजां संयम वा जैनधर्मने लगतां जे पद्यो छे ते तो हेमचंद्रनां पोतानां कही शकाय एवां छे. वळी, ए पद्योमा जे बीजां अनेक पद्यो रतिरसने लगतां छे ते पण हेमचंद्रनां पोतानां नथी एम केम कहेवाय ? रतिरसने लगतां पद्यो कदाच लोकप्रचलित पण होई शके, एथी एमना कर्ता विशे कोईनुं चोकस नाम न कल्पी शकाय. अहीं तो ए अनेक प्रकारना भाववाळां मातृभाषामय पद्योने उदाहरण रूपे मूकेलां छे. कुमारपाळ चरितना आठमा सर्गमा १४ थी ८३ सुधीनां स्वभाषामय पद्योमां श्रीहेमचंद्र कुमारपाळने उपदेश आपेलो छे अने ते बधां पद्यो तेमनां पोतानां ज छे. एमांनां थोडांक पद्यो तो आगळ जणावी गयो छु. २५९ जे पद्यो राजाओने लगतां छे ते बधां छंदोनुशासनमांथी लीधेला -आ साथे आपेला-उतारामां 'राजा' शब्दथी सूचित कर्यां छे. २६० 'प्राकृतद्याश्रय' नुं बीजं नाम 'कुमारपाळचरित' छे. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २२३ सोमप्रभनो समय ८२ तेरमा सैकाना शतीर्थी महापंडित सोमप्रभसूरिए विशेषतः साधारण प्राकृतमां रचेला कुमारपाळ प्रतिबोधमांथी भाषानी बे कृतिओनी अहीं थोडी वानकी बतावेली रचना पाटणमां ज छे. विक्रम संवत् १२४१ मां कुमारपाळ प्रतिबोधनी थयेली छे एटले तेमनो समय तेरमो सैको नक्की छे. ८३ तेरमा सैकानी कृतिओमां अहीं प्रथम ए सोमप्रभनी कृतिओ लीची छे, पछी महेन्द्रसूरिना शिष्य धर्मसूरिनुं २६३ धर्मसूरिनो समय जम्बूचरित्र मूक्युं छे. जम्बूचरित्रना छेला पैद्यमां तेनी रचनानो समय विक्रम संवत् १२६६ जणावेलो छे. एटले धर्मसूरिना समय विशे पण शंका नथी. ८४ तेरमा सैकानी त्रीजी कृति तरीके रेवंतगिरिरासमांनां अनेक पद्यो अहीं जणावेलां छे. तेना कर्ता विजयसेनसूरि छे, विजय सेननो समय रासने प्रांतभागे कर्ताए पोतानुं नाम स्पष्टपणे जणावेलुं छे. कर्ता, महामात्य वस्तुपालना धर्मगुरु हता एटले तेमनी हयाती तेरमा सैकामां ज होय. ते ते कृतिओनी रचना - कर्ताना समय वगेरे विशे जे अहीं आटलं जणान्युं छे, तेथी अधिक जणाववुं प्रस्तुत नथी. २६१ आचार्य सोमप्रभे अमुक एक श्लोकना सो अर्थो करी बताव्या छे माटे तेओ 'शतार्थी' तरीके पण प्रसिद्ध छे. २६२ “ शशिजलधिसूर्यवर्षे शुचिमासे रविदिने सिताष्टम्याम् । जिनधर्मप्रतिबोधः क्लृप्तोऽयं गूर्जरेन्द्रपुरे " ॥ २६३ “ महिंद सूरिगुरुसीस धम्म भणइ हो धामीउ ह । "" बारह वरस सहि कवितु नीपनूं छासठए २६४ “ रंगिहि ए रमइ जो रासु सिरिविजयसेणि सूरि निम्मविउ ए " Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ८५ हवे उक्त बन्ने सैकानी ते ते कृतिओनी भाषामीमांसा ज करूं. ___ बारमा सैकामां रचायेली उक्त त्रणे कृतिओनी बारमा अने तेरमा मापाने में ऊगती गजरातीनुं नाम आपलु छ. सैकानी भाषा जगतो आंबो अने फूलेल, फळेल एवो मोटो घटादार आंबो ए बे बच्चे अंतर तो छे, परंतु उद्गम्यमान अने उद्गत ए बन्ने स्थितिओनुं अहीं सामानाधिकरण्य होवाथी कहेवा पूरती ज ते बे जुदी स्थितिओ बच्चे उष्ट्र अने अश्व जेवो भेद मानी न शकाय. 'जे उद्गम्यमान छे ते ज उद्गतदशाने पामे छे' ए न्याये बारमा सैकानी जे ऊगती गुजराती छे, ते ज वर्तमानमां घटादार आंबा जेवी उद्गत स्थितिए पहोंचेली छे. भाषामीमांसाना प्रस्तुत प्रसंगे मारे प्रधानपणे बतावq पण ए ज छे. हेमचंद्रे बतावेला जगती गुजरातीना नियमो अने प्रत्ययो वगैरेने आगळ संक्षेपमां बतावी गयो छु, ते नियमो अने प्रत्ययो वगेरेनी दृष्टिए उक्त कृतिओना प्रयोगोमां जे विशेष भेदभाव ज्यारथी जणावो शरू थयो छे तेने यथास्थाने देखाडतो रहीश, पण ज्यां कशो भेदभाव नथी एवां स्थळोने बताववानी अपेक्षा नथी. एवां स्थळो तो सहज सुज्ञान छे.. भाषानुं फरतुं वलण बताववा माटे ते ते कृतिओमाथी केटलांक वाक्यो . अने केटलाक शब्दोने टांकी बतावीश अने आवश्यते कृतिओनां वाक्यो अनेकतानी दृष्टिए वच्चे बच्चे प्रत्ययो अने शब्दोना इति हासनी पण चर्चा करीश. ८६ शरूआतमां आ नीचे बारमा सैकानी अने तेरमा सैकानी गुजरातीनां केटलांक वाक्यो अने शब्दो क्रमवार नोंधी बतावं छु, जेमने बांचतां ज भाषाना वलणनो ख्याल आवी जशे. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २२५ १ अभयदेव ( बारमो सैको) ऊगती गुजराती : चालु गुजराती : अभयदेवनां तुहु सामिउ तुहु माय-बप्पु तुं सामी-स्वामी-तुं माबाप वाक्यो तुहु मित्त पियंकरु, तुं मित्र प्रियंकर, तुहुँ गइ तुहु मइ तुहु जि तुं गति तुं मति तुं ज ताणु तुहु गुरु खेमंकरु । त्राण तुं गुरु खेमंकर । हउं दुहभर भारिउ वराउ हुं दुःखभर भार्यो वराक राउ निब्भग्गह राय निर्भाग्योनो लीणउ तुह कमकमलसरणु लीनो तुह क्रमकमलशरण जिण! पालहि चंगह। २० जिन ! पाळ चंग । तुह पत्थण नहु होइ विहलु। तुह प्रार्थना न ज होय विफल देवसूरिनां २ वादिदेवमूरि वाक्यो जिम बोलइ तिम्व जो करइ जेम बोले तेम जे करे सीलु अखंडु धरेइ । १८ शील अखंड धरे। हेमचंद्रनां ३ हेमचंद्र वाक्यो सायरु उप्परि तणु धरेइ सायर ऊपर त्र (तृ) ण धरे तलि घल्इ रयणाई। तले घाले रयणोने । सामि सुभिच्चु वि परिहरइ सामी सुभृत्य बी परहरे सम्माणेइ खलाई । २। संमाने खलोने। एक्कहिं अर्खेि हिं सावणु एके आंखे श्रावण २६५ 'अक्खिहिं' ए विशेष्य छे अने 'एक्कहिं' तथा 'अन्नहिं' विशेषण छे. ते ज रीते 'पियहो' ए विशेष्य छे अने 'परोक्खहो' ए विशेषण छे. प्रस्तुत रचनामां विशेष्य अने विशेषण बन्ने विभक्तिवाळां छे त्यारे चालु भाषामां 'भला माणसनु' वगेरे वाक्योमा मात्र विशेष्यने विभक्ति लागेली होय छे, विशेषणने नहींविशेषण लुप्तविभक्तिक होय छे. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ऊगती गुज० अन्नहिं भद्दवउ । १२ । हिअडा ! फुट्टि तड त्ति करि कालक्खेवें कोई | १४ एह कुमारी एहो नरु । १६ अम्हे थोवा रिउ बहुअ २६७ कायर एम्व भणति I पुत्तें जाएं कवणु गुणु अवगुणु कवणु मुएण । जा बप्पीकी मुंहडी चंपिज्जइ अवरेण । ३५ जेवड अंतरु रावण - रामहं तेवड अंतरु पट्टण - गामहं । ४६ पियसंगमि कउ निद्दडी पिहो परोक्खहो केम्व | मई बिन्नि वि विन्नासिआ निद्द न एम्व न तेम्व | ४९ कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहिं बरिहिणु कहिं मेछु । चालु गुज० अन्ये भादरवो । हैडा ! फूट तड करी कालक्षेपे कां । एह कुमारी एह नर । अमे थोडा रिपु बहु कायर एम भणे छे- कहे छे । पुत्रे जाये कोण गुण अवगुण कोण मुये । जो बापुकी भोंयडी चंपाय अवरें । जेवडुं आंतरुं रावण - रामनुं तेवडुं आंतरुं पाटण - गामनुं । प्रियसंगमे क्यांथी नींदरडी प्रिय परोक्षे केम | में बन्ने बी वणसाव्या - वणसाड्या नींद न एम न तेम । कहीं शशधर कहीं मकरधर कहीं बरिहिण कहीं मेह २६६ भाषानुं 'कां' अने प्रस्तुत 'काई' बन्ने समानार्थक छे. मारवाडीमां तो 'कां' नो अर्थ 'कांइ' पद बतावे छे. २६७ 'भणंति' क्रियापद 'कहे छे' अर्थने सूचवे छे, वर्तमान भाषामा 'भण ' नो अर्थ 'भणवुं ' थाय छे त्यारे मराठीमां तो तेनो 'कहेतुं' अर्थ ज प्रचलित छे : भणम्हण - म्हणणें. २६८ जुओ टि० २६५. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २२७ ऊगती गुज० चालु गुज० दूरठिआहं वि सज्जणहं दूरथियां बी सज्जनोनो होइ असल नेहु। ५८। होय अशिथिल नेह । सरिहिं न सरेहिं न सरिताओए न सरोए न सरवरेहिं नवि सरोवरोए नवि __उज्जाण-वणेहिं । उद्यान-वनोए। देस रैण्णा होंति वढ! देशो रमण होय छे मूढ ! निवसंतेहिं सुअणेहिं ।५९ निवसंतां सुजनोए । एक कुडुल्ली पंचहिं रूद्धी एक कोटडली पांचे रुंधी तहं पंचहं वि जुअंजुअ बुद्धी ते पांचेनी बी जुदीजुदी बुद्धी बहिनु ए ! तं घरु कहि किंव बहेन ए ! ते घर कहे केम नंदउ जेत्थु कुटुंबडं नंदो ज्यां कुटुंब अप्पण-छंदउं । ६० आपण-छंदुं । गयउ सु केसरि पिअहु जलु गयो ते केसरी पिओ जल नच्चिंतइं हरिणाई नचिंतां हरणां जसु केरएं हुंकारडएं मुहहुँ जस केरे होंकारडे मोंथी पडंति तृणाई । ६१ । पडे तरणां । सिरि जरखंडी लोअडी शिरे जरखंडी लोबडी गलि मणिअडा न वीस गले मणका न वीश तो वि गोट्टडा कराविआ तो बी गोठडा कराव्या मुद्धए उट्टबईस । ६३ मुग्धाए ऊठबेश । २६९ 'देस रवण्णा' वाक्यमा विशेष्य लुप्तविभक्तिक छे अने विशेषण 'रवण्णा' ए विभक्तिवाळु छे. 'आ भलो माणस छे' ए चालु भाषानी वाक्यरचना एज प्रकारनी छे. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति हिअडा! जइ वेरिअ घणा हैडा ! जो वेरी घणा तो किं अभि चडाढुं ?। तो च्यम्-शुं आभे चडहुं ? । अम्हाहिं बे हत्थडा अमोने बे हाथडा जइ पुणु मारि मराहुं । ७४ जो पण-वळी मारी मरहुं । पाइ विलग्गी अंबडी पाये वळगी आंतरडी सिरु ल्हसिउं खंधस्सु शिर ल्हचियुं खांध तो वि कटारइ हत्थडउ तो बी कटारे हाथडो बलि किज्जउं कंतस्सु।८२ बलि कीजुं-(करं-वारि जाउं-) कांत । ते जि पंडिअ ते जि ते ज पंडित ते ज गुणवंत ते तिहुअण गुणवंत ते त्रिभुवन सिर उवरि शिर उपर ताहं चिअ जम्मु जाणहु जे तेओनो ज जन्म जाणो जे मत्तविलासिणिहिं न वि मत्तविलासिनीओथी नवि खोइआ सुद्धझाणओ।२६ क्षोदाया शुद्धध्यानथी। कित्ति तहारी वण्णविणु का कीरति तारी वर्णवीने कवि अन्नु न वण्णहिं । अन्यने न वर्णे हे-वर्णे मालइ माणिवि किं भमर मालती माणी च्यम् अ॒ भमर धत्तुरइ लग्गहिं ? १६ धत्तुरे लागे हे-लागे? कुइ धन्नु जुआणउ । ३९ कोई धन्य जुवानियो जे निअहिं न परदोस जे जुए हे न परदोष गुणिहिं जि पयडिअतोस गुणोए ज प्रकटिततोष ते जगि महाणुभावा ते जगे महानुभावा विरला सरलसहावा। १२४ विरला सरलस्वभावा Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २२९ ८७ बारमा सैकानी भाषाना शब्दो अने चालु भाषाना शब्दो (१) अभयदेव | बद्धउ-वधो वाधो अभयदेवना शब्दो आलस-आलस-आळस जय जय-जे जे विलवंतउ-विलवंत-विलवंतो-विलपंतो कप्पिउं–कल्प्यु समरंत समरंत-स्मरंत-समरता जंपिउं–जल्प्यु पिक्खइ-पेखे किय–करी की पसाइण-पसाये-(प्रसादने लीधे ) सिद्धि-सिद्धिओ-सिद्धिउं कि वि–के इ सिझहि-सीझे हे-सीझे छे–सिद्ध केण–केणे-शेणे - थाय छे. | झंखंत-झंखंत-झंखतो होइ-होय ( थाय ) सोहिय–शोभित-सोहियु-सोहूं नित्थारइ-निस्तारे (पार उतारे ) जोयहि-जोवे हे-जोवे छे दय करि-दया करी पाल-पाल-( रक्षा कर ) आणा-आण-आज्ञा हउँ-हूं जसु-जस-जेना एउ एउ-ए ए थंभेइ-थंभे छे-थंभावे छे. उंबरु-ऊंबरो हरउ-हरो (दूर करो) अप्पु–आप (पोतानी जात) सेवहि-सेवे हे-सेवे छे किज्जउ-कीजो करजो मदउ-मरडो-(नाश करो) जग-जगमां पक्खालिय–पखाळेल-प्रक्षालित | होसु-होईश नर-नर-नरो-( माणसो) महारिय–माहरी-मारी झायहि-झाये हे-ध्याये छे ( ध्यान एम-एम करे छे) विन्नवइ-वीनवे Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ( २ ) वादिदेवसूरि गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति | कोइल कोयल वाणि वाण सोते नमे नमेउ-नमो देवसूरिना शब्दो जयओ-जयो ( जय पामो ) मोडिअ - मोड्यु जिम - जेम खडुलाई रुंखडलां सिंचाइ -सींचे चक्खाणंतओ-वखाणतो - खाणतो वयणु-वेण जिणि जेणे सोसीउ - शोषन्युं - शोष्यं जो - जे नंदउ - नंदो वूहउ - बह्यो सत्थाहु--सथवारो सुमरियई - सुमरीए - समरीए गख्यउ गरवो मज्जहिं - माचे हे - माचे छे. जे तणा - जे तणा -- जेना संख - संख्या रयणह-रतननी खाणि-खाण दलेइ-दे छे. आवई - आवे नासइ- नासे नउलुनोळ नोळियो ठावड - ठाडे -स्थाने हिंड - हिंडे मोरह तणा - मोर तणा - मोरना सप्पु - साप हंसुला - हंसला गउ-गयुं विहल - विफल दिडु - दीठो संपडहिं-सांपडे हे सांपडे छे. छिदहिं-छेदे हे-छेदे छे. जाल--जाळ रणिहिं- यणिए (रेण्ये ) उडिउ ऊठयो Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २३१ (३) हेमचंद्र | वलया-बलोयां हेमचंद्रना शब्दो फुट-फुट्यां एइ-ए 'तडत्ति-तड' दईने एह-ए भग्गउं-भांग्यु घोडा-घोडा पसरिअउं–पसर्यु जाणीअइ-जाणीए करि-करे-करमां-( हाथमां ) वालइ-वाळे कप्पिजइ-कापीजे केसरि केसरी माहउ-माह-माघ मास लहइ-लहे-ल्ये-लिए सत्थरि-साथरे-(पथारीए) लक्खेहिं-लाखोए-लाखोथी मग्गसिरु-मागशर कडु-कडु-कडवू वलहउँ-वालहुं-वालं गोवइ-गोवे-गोपे (गुप्त राखे ) तडप्फडइ-तडफडे-तरफडे अप्पणा-आपणा हत्थि हायें हाथे अग्गिएं-आगे-आगे-अम्निए मोक्कलडेण-मोकळे वाएं-वाए-(पवनने लीधे ) आवइ-आवे के केम तुज्मु-तुज आणहि-आण ( लाव) मझु-मज-मुज तो वि-तो बी भण-भण (कहे) घर-घर सणेही–सनेही-स्नेही कज्जु-काज मुइअ-मुई ( मरेली) देक्खु-देखो जीवइ-जीवे गय–जोनां पयारेहि-परे उड्डावंतिअए उडावतीए-उडाडतीए गइअ-गई अद्धा-आधा-अरधा | गजहि-गाजे हे-गाजे छे Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति एहउं–एहवं-एवं | मच्छे-मच्छे पच्छइ–पछी गिलिजइ–गळाय विहाणु-वहाणुं (प्रातःकाळ) मच्छु-मच्छ माछल्लु वड्डाई-वडां-( मोटां) किअउं–कीयुं-यु जोइ-जो-(देख) दिट्टउं-दीर्छ कुहइ-कोहे-( सडे) तेवडउं-तेवहुं डज्झइ-दाझे निहालहि-निहाळ-(देख) छारु–छार-(राख) बप्पीहा ! बपैया ! जलि-जले-जलवडे चूडुलउ-चूडलो वल्लहइ-वल्लभे-वल्लभवडे झलक्किअउ-झळक्यो-(झाळ लागेलो) पूरिअ-पूरी-पूरी करी हिअइ-हैये वारइवार-बारेवार वारंवार खुडुक्कइ-खटके धार-धारा गोरडी-गोरडी-(स्त्री) देड-देउ–द्यो घुडुक्कइ-घडके ('घडड' एम गाजे) मग्गहु-मग्गउ-मागो संकडु-सांकड-संकट कोइ–कोइ एहु-एह-ए भमरा-भमरा तेवडु-तेवडो लिंबडइ-लिंबडे ( लिंबडा ऊपर) । पलु-पळ (समय) दियहडा-दिहाडा-दहाडा हसिउ-हस्यो-हसायो विलंबु-विलंब-(विलंब कर ) माणुस-माणस फुल्लइ-फूले | विच्छोह-वछो- ( वियोग) झडप्पडहिं-झटपट झटपटे विच्छोहगरु-विच्छोहकर-(वियोगकर) पच्छि-पछी-पाछळ | गिलि गिलि-गळ गळ (गळीजा अच्छइ-छे गळीजा) Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २३३ ३ माणिअइ–माणीए पाणीउ-पाणी-(जळ) होसइ-होशे-हशे. नवइ-नवे करतु-करतो पइसीसु-पेसीश केम केम कीसु-कराउं छु. बलंति–बळे छे समप्पउ-समापो समाप्त थाओ उल्हवइ-ओलवे छे लालसउ-लालचू अप्पणें-आपणे वहइ-वहे रिउरुहिरे-रिपुरुधिरे-(रिपुना वदलि वादळे रुधिरवडे) भइ–भमे काई-काइ मई में होसइ-होशे-( थशे) भणिअउ भण्यो कह्यो माणि-माने केहउ केहवो केवो देसडा-देशोने मग्गण-मागण रूअडउ-रूपियो एहु-एह-ए पहुच्चइ-पहोंचे जेहु तेहु-जेवो तेवो दूअडउ-दूतडो होइ-होय आवट्टइ-ओटे छे. नेह-नेह-स्नेह कणिअ-कणी गलंति-गळे छे–(नीकळी जाय छे) ओहट्टइ-ओटे छे-(ओट थाय छे) ते ज्जि-तेज वलणाई-बहेळा फिवि-पीटी डोंगर-डुंगर अकिआ अकीया-अणकयु खल-खोळ कुड्ड-कोड छइल-छेल (चतुर ) करीसुं-करीशुं करीश वंका-वांका Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति । बइल-बेल-(बळद) लेखडउ-लेखडो झुपडा-झुपडां पहाविअइ-पठावाय-पाठवाय. लग्गइ-लागे बाह-बांह-बांय कुडुल्ली-कोटडली–कोटलडी-कोटडी विछोडवि-विछोडी-वछोडी-वछोटी सहेसइ-सहशे-स्हेशे जाहि-जाय-जा अधिन्नइ-अधीन नीसरहि-नीसरे-नीसर-नीहर अवसें अवश्य जेप्पि-जीपी-जिती सुक्कइं-सूकां देप्पिणु-देवीने देईने-दईने पण्णई-पान लेवि-लेवीने-लईने देजहिंदीजे हे-(देवाय छे)। मुआ-मुआ आइउ–आयो-आव्यो परावहि-पराव–प्राप्-परापत करे छे वत्तडी–वातडी मुअइ-मुए छे–मरे छे कनडइ-कानडे जाइ-जाय छे धूलडिआ-धूलडी-धूळ थाह-थाह-ताग संदेसे-संदेशे पविसइ-पेसे तुहारेण-तुहारे-तारे बइहउ-बेठो धाइ-धाय छे ( दोडे छे) चडिआ–चड्या ठाइ-ठाय-स्थिर रहे डालई-डाळां कढणु-कढवू-( उकाळवू ) मोडंति-मोडे छे–मरडे छे घणकुट्टणु-घणकुट्टण-घणथी कूटयूँ बोलहिं-बोले हे-(कहे छे) मंजिट्टए-मजीठे हूओ-हुओ (थयो) कोट्टरई-कोतरां सहेबउं-सहेQ संचि-संच-(संचय कर) जग्गेवा-जागवू द्रम्मु-दाम जिआवंतिहिं-जीवाडंतीओए Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २३५ सुणिवि-सुणि-(सांभळी) कंठिआ-कंठी (गळे पहेरवानी कंठी) वसंति-वसंते-वसंतऋतुमां वट्ठलओ-वाटलो सुमरि-सुमरी (याद करी) चंदुल्लओ-चंदलो-चांदलो-चांदलियो तक्खणि-टांकणे (ते वखते) गंडुअ-गेंद-कंदुक (दडो) पहिउ-ई-(पथिक-प्रवासी) मन्नावि-मनावी गाम्वि-गांव-गामे देक्खिवि-देखी पट्टणि-पाटणे वेल्लडी-वेलडी हट्टि-हाटे सत्थ-साथ-(समूह) चउहट्टि-चौटे मुआ-मुआ राउलि रावळे-रावणे घट्टई-घाट-घाटडी (ओढवानुं | देउलि देवळे स्त्री- वस्त्र) दीसइ-दीसे छे त्रुट्टी-त्रुटी-तुटी पत्तिजइ-पतीजे ( विश्वास कीजे ) छड्डेविणु-छंडीने मेलइ-मेले (छोडे) गोवालीअण-गोवालण भोलिम-भोळप लग्गी-लागी जगु-जग पाइ-पाय मुज्झइ-मुंझे छे-मुंझाय छे ज लइ-जळे छे झलकंति-झलकती-चळकती तवइ-तवे छे-तपे छे २७० भाषामा 'पथिक-प्रवासी' ना अर्थमां प्रस्तुत 'पइ' शब्दनो व्यवहार चालु छे. ज्यारे आपणे त्यां कोई नोतरियो नोतरं देवा आवे छे त्यारे बोले छे के "सगटंम सइ परोणो पइ” सगटंम एटले सहकुटुंब, सह-सहित, परोणो एटले अतिथि अने पइ एटले पथिक-प्रवासी-मुसाफर. अर्थात् कुटुंब साथे अने मेमान तथा पथिक साथे-ए बधांने लईने जमवा आववानुं नोतरुं छे. “सगटंम सइ परोणो पइ" ए वाक्य काठियावाडमां प्रचलित छे अने अमरेलीमां तो में अनेकवार सांभळ्युं पण छे. पथिक-पहिअ-पइ-ए त्रणे समान शब्दो छे. ___ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति मन्नइ-माने छे | उच्छलिल-ऊछळेल उक्खिविअ-ऊखेवीने (ऊंची करीने) | पंडर-पांडरुं (धोलु) कद्दम-कादव रणझणंत-रणझणतुं भग्गा भाग्या गहिल्लि-घेली मग्गुलया-मारगडा सिंती-सींचाती भमइ–भमे छे. पत्तउ-पहोंत्यो-( आव्यो) सामलि-शामळी मलंतर-मलतो मरडतो अञ्चब्भुअ-अचंबो धरइ-धरे छे फुलिअ-फलिअ-फूली–फळी दुबली-दुबळी लंघइ-लांघे-(टपी जाय) घण-घj नउक्खी-नोखी बंडुर-पांडरुं (धोळु) गंग-गंगा कालइ-काळे पुक्कारइ-पोकार करे ( बोले) वुड्ड-वध्यु चक्किण-चक्रे तुडु-तुटुंयं दलिओ-दळ्यु-दळ्यो सुमरइ-सुमरे छे-समरे छे. लेइ ले छे पलिअ-पळ्यिां सवु-सव-सब जर-जरा संतवणु-संतपन सतावतुं जज्जरइ-जादरुं करे छे-( जीर्ण ति-तें करे छे) सिंदुरिअ-सिंदुरिया होएसइ-होशे ( थशे-थाशे) अम्गलि-आगले-आगळ पारणओ-पारणुं (तप कर्या पछीनुं मेहमज्झि-मेहमध्ये मेहमां भोजन) अंधारइ-अंधारे पद्धडी-पद्धति-पाधरी . तोरी-तोरी-तारी हणिअ-हणी Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २३७ मुहु-मों-म्हों भंडार-भंडार धण-धण हारु-हार आइउ-आयो-आव्यो घल्लिर–घाल्यो कुक्कडि-कूकडी तिणु-तृण रडिअ-रडी (बोली) निट्ठ-नेठ–नेटु ( अंत) इण-एणे अंसु-आंसु कारणि-कारणे पलुट्टउ-पलुट्यो,-(नीकळी पड्योचुंबिजइ--चुंबीजे-चुंबाय छे. दडी पड्यो) बारमा सैकानी त्रणे कृतिओनां केटलांक वाक्यो अने केटलाक शब्दो ऊपर जणाव्या छे अने ते वाक्यो अने शब्दोनी सामे आजनुं गुजराती मूक्युं छे. ए ऊपरथी बारमा सैकानी अने आजनी गुजराती वच्चे उद्गग्यमान-उद्गततानो जे संबंध ऊपर बताव्यो छे ते वधारेमा वधारे स्पष्ट थाय एम छे. वाक्यो अने शब्दोना वलणने ध्यानपूर्वक जोवाथी बारमा सैकानी अभयदेव, वादिदेवसूरि अने हेमचंद्रनी मातृभाषाने ऊगती गुजराती कहेवामां जरा पण वांधो जणातो नथी अने ए हकीकत दीवा जेवी चोक्खी छे माटे ए विशे विशेष लखवानी अगत्य पण नथी. ८८ अभयदेव वगैरेनी उक्त त्रण कृतिओमां वपरायेलां प्रत्ययो अने सर्वनामो तथा अव्यय वगैरेने लगतो विचार करीए : अभयदेव-वादिदेव- नरजातिनां अने नान्यतरजातिनां नामोने हेमचंद्रे वापरेली o माटे प्रथमाना अने द्वितीयाना एकवचनमां 'उ' अने तेनी चर्चा प्रत्यय विशेष वपरायेलो छे. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा २३८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अभयदेव-देउ' (देव) 'वराउ' ( वराक) 'राउ' (राजा) अणिसिद्धउ-(अनिषिद्धक )-नरजा०. प्रथमा अने नितीवित 'माहप्पु' (माहात्म्य), मणु (मन) पमाणु (प्रमाण) नान्य० जा०. देवसरि- चंदु' (चांदो) 'भारु' (भारो) 'कुमारु' ( कुमार )-नरजा०. 'नाणु' (ज्ञान) — चरणु' ( चरण-चारित्र ) संमत्तु ( सम्यक्त्व ) नान्य० जा०. हेमचंद्र-'सायरु' (सागर) दुमु (द्रुम) वायसु (वायस) नरजा०. 'घरु' (घर) कजु (काज) बल (बल) नान्य० जा०. अहीं आ 'उ' प्रत्ययनो इतिहास लखवानुं प्रस्तुत नथी तो पण कहेवू जोईए के ते 'उ' प्रत्यय घणो प्राचीन छे. आगळ जणावेलां ललितविस्तरनां पद्योमा ए 'उ' प्रत्यय छूटथी वपरायेलो छे. एटले ते, विक्रमना पांचमा सैका जेटलो तो जूनो खरो. 'सो' चित्' वगेरे वैदिक प्रयोगोमां जे 'ओ' वपरायो छे ते ज, आ 'उ' ना मूळमां छे. केटलाक प्रयोगोमां फक्त नरजातिवाळां नामोने 'ओ' प्रत्यय लागेलो छे. अभयदेव- अपवित्तओ', 'रोगहरो', 'समो'. देवमूरि- वक्खाणंतओ', 'सो', 'जो'. हेमचंद्र-जो', 'एहो', 'एसो'. 'उ' अने 'ओ' प्रत्ययना उपयोगनी सरखामणी करतां 'ओ' प्रत्ययनो उपयोग ओछो छे अने 'उ' प्रत्ययनो उपयोग तेना ( 'ओ'ना) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २३९ करता वधारे छे. हेमचंद्रना छंदोनुशासनगत पद्योमां 'ओ' प्रत्ययनो उपयोग फक्त प्रथमा माटे नान्यतरजातिमां पण थयेलो छे: 'विरइओ अंगु' – १४, पंकओ' - ६०, ' दलिओ' - ७१. परंतु आवा प्रयोगो अतिविरल छे. 'उ' अने 'ओ' प्रत्यय सिवाय मूळ अंग पण प्रथमा अने द्वितीयामां वपरायेलां छे : " अभयदेव - समरंत, जण, नर, – काय, काम, नीरोय, कय, झंखंत, निष्फल. देवमूरि- भवियजण, संसार, मुणिंद, मुणिचंद, थिर. हेमचंद्र – मेह, खग्ग, वग्ग, फल, गय, पलुव, गय (गत ). आ ते प्रथमा अने द्वितीयामां मूळ अंग वापरवानी रीत ललितविस्तरना समयथी चाली आवे छे. आवां अंगो त्रणे लिंगमां वपरायेलां छे. नान्यतरजातिनां 'क' प्रत्ययान्त नामोने प्रथमाना एकवचनमां 'उं' प्रत्यय लागेलो छे अने बहुवचनमां तथा द्वितीयाना बहुवचनमां 'आइ', 'आई', 'इ', 'ईं', 'आ' अने 'आं' प्रत्ययो लागेला छे. अभयदेव - सुहाइ, कलत्तइ, रज्जइ, दुरियइ. देवसूरि - खडुलाई, गावडां, पन्हुत्तरइ, पसन्ना. हेमचंद्र - रयणाई, कुंभई, वलया, विसमा. हेमचंद्र – भग्गउं, पसरिअउं, क्लहउं, एहउं, तेवडउं [ प्रथमा एकवचन ] ऋग्वेदमां [पृ० १९४, ४६९-म० सं०] ' अद्भुता ' ( अद्भुतानि ) कर्त्या ( कर्तव्यानि ) विश्वा ( विश्वानि ) काव्या ( काव्यानि ) वगैरे, उक्त वलया 'नी पेठे 'आ' प्रत्ययवाळा प्रयोगो अनेक मळे छे. ते जोतां ' वलया' वगेरेमां वपरायेला 'आ' नुं मूळ मळी जाय छे " Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अने 'गावडां' मां जे 'आं' लागेलो छे तेनुं मूळ पण ते 'आ' होय अथवा व्या० प्रा० ना ' आनि' ऊपरथी नीपजेलो ते 'आं' होय. __ चालु गुजरातीमां पूर्वोक्त 'चंदु' जेवू 'उ' प्रत्ययवाळू रूप नथी देखातुं पण फक्त नान्यतरजातिमां 'भग्गउं' नी पेठे 'केळु' वगेरे 'उ' प्रत्ययवाळां रूपो प्रचलित छे. 'ओ' प्रत्ययवाळां रूपो ‘घोडो, छोकरो, लाडवो' वगैरे व्यवहारमा छे अने बहुवचनमां नरजातिमां 'आ' 'आओ,' तथा 'ओ' प्रत्ययनी अने नान्यतरजातिमां 'आं' प्रत्ययनी वपराश छे. आ उपरांत पहेली बन्ने विभक्तिमां मूळ अंग पण वपराय छे. ___ 'छोकरो, घोडो' वगैरेमा जे 'ओ' प्रत्यय छे तेना मूळमां वैदिक 'सो चित्' वाळो 'ओ' छे. अने घोटक :-घोडओ-घोडउ-घोडो ए रीते तेनो क्रमपरिवर्त छे. छोकरा, घोडा वगैरेमा जे 'आ' प्रत्यय छे ते वैदिक 'देवाः' 'जनाः' प्रयोगना 'आः' प्रत्ययनुं रूपांतर छे. 'माणसो' 'देवो' वगैरेमा छे तो पूर्वोक्त 'ओ' प्रत्यय परंतु ते बहुवचनमां फेरवायो छे अने 'छोकराओ' वगैरे प्रयोगोमांना 'आओ' नुं मूळ, उक्त ' आः' अने 'ओ' ए बन्ने प्रत्ययना मिश्रणमां छे अर्थात् ‘छोकराओ' वगेरेमां 'आ' अने 'ओ' एम बेवडो प्रत्यय लागेलो छे. अथवा वैयाकरण पाणिनिए वैदिक अने लौकिक उभय प्रकारना नामोने लगता प्रत्ययोने जणावतां प्रथमाना बहुवचनमा ‘अस्' प्रत्यय जणावेलो छे. जे 'सखायः ‘वाचः' वगैरे रूपोमां मूळरूपे जळवाई रह्यो छे. संभव छ के ते 'अस्,' 'ओ' रूपे परिणाम पामी 'माणसो' वगैरेमां लाग्यो होय. अहीं वधु संगत ए छे के — माणसो' वगैरेमांनो बहुत्वसूचक 'ओ' प्रत्यय पूर्वोक्त एकवचननो 'ओ' न होय किन्तु ते आ 'वाचः'ना Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २४१ 'अस् 'नो 'ओ' होय. एकवचननो 'ओ' लईए तो तेने बहुवचनमां फेरववो पडशे अने उक्त बहुवचनना 'अस्'नो 'ओ' लईए तो ते सीधो ज लागी शकशे. एथी ‘माणसो' वगेरे रूपोमां उक्त ‘अस् 'नो 'ओ' लगाङवाने बांधो नथी. 'छोकराओ' वगेरेमां पण ते ज 'ओ' लेवो; पण तेवां रूपोमां बेवडो प्रत्यय लागेलो छे. 'छोकराओ' वगेरे रूपोना अंतिम ‘आ-ओ' प्रत्ययनी अहीं चर्चा करी तो छे परंतु चालु भाषामां एवां रूपोनो व्यवहार वधारे जणातो नथी ए ध्यानमा राख. बीजी विभक्तिमां दीणयं' जेवू शुद्ध प्राकृत रूप वपरायेलं छे पण आवां रूपो अतिविरल छे. दय, संख वगेरे रूपो बीजी विभक्तिनां छे. अहीं विभक्ति लोपायेली छे, एटलं ज नहीं किन्तु मूळ अंग — दया' 'संख्या'नो अंत्य 'आ' पण 'अ'मां फेरवायेलो छे. अपभ्रंशमां सविभक्तिक नामना अंत्य स्वरनो हस्व उच्चार पण थाय छे. (जुओ पृ० २०५, १५) ए धोरणे ' दया' अने 'संखा', 'दय' अने 'संख' थयेलुं छे. घणे स्थळे नारीजातिना नामनी प्रथमा विभक्तिमां पण ' दय' अने ‘संख' जेवां रूपो वपरायेलां छे अने 'उ' प्रत्ययवाळां रूपो पण आवे छे. अभयदेव-निष्फल्ल, जुग्गय, पत्थण, महारिय, जत्त. वादिदेवमूरि-संख, संख. हेमचंद्र-बोड्डिअ, एह, स, मुइअ, गइअ, धण. अभयदेव-विसंठुलु, अब्भुअउ. साधारण रीते जोतां 'आ', 'ई', अने 'ऊ' ए त्रण प्रत्ययो नारीजातिना सूचक छे. अजा, प्रजा, दया, संख्या वगैरेमां 'आ' प्रत्यय छे. नारी, नदी, शची वगैरेमां 'ई' प्रत्यय छे अने वधू, करभोरू वगरेमां 'अ' प्रत्यय छे. ऊगती गुजरातीमां 'ई' अने 'ऊ' प्रत्ययो धणे भागे सचवायेला छे त्यारे स्त्रीत्वसूचक 'ई' अने 'ऊ' प्रत्ययनी १६ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सरखामणीमां 'आ' प्रत्यय सचवायो नथी. 'जुग्गया' ने बदले जुग्गय, 'संखा' ने बदले ' संख' 'गंगा' ने बदले 'गंग' अने ' जत्ता' ने बदले ' जत्त' एवां जे अनेक रूपो उपलब्ध छे ते नारीजातिसूचक उक्त 'आ' प्रत्ययनी वपराशनी अल्पता सूचवे छे. अने ए ज रीते (सं० ) निष्फला प्रार्थना - ( प्रा० ) निष्फला पत्थणा । (अभय ० ) निष्फल पत्थण । २४२ (सं०) मदीया यात्रा – (प्रा० ) मईया जत्ता - ( अभय ० ) महारिय जत्त । वगैरे प्रयोगोमां जेम संस्कृत अने प्राकृतमां विशेष्य अने विशेषण बन्नेमां नारीत्वसूचक ' आ ' प्रत्यय जळवायो छे तेम अभयदेव वगैरेनी गुजरातीमां ते बन्ने स्थळे ए आ' प्रत्यय टक्यो नथी ते पण उक्त हकीकतनुं ज समर्थन छे. " ८ खरी बात तो ए छे के विशेषण अने विशेष्यमां लिंग अने संख्या समान होय तो ज विशेषण - विशेष्यभावनुं धोरण जळवाई रहे छे. संस्कृत अने प्राकृतमां समासमां नहीं वपरायेलां विशेषण मात्र विकारी छे एटले विशेष्यनी जातिने अनुसरनारां छे. सं० " 'एका यात्रा' प्रा० एगा जत्ता' आने बदले भाषामा ' एक जात्रा' नो प्रयोग सुप्रतीत छे. ए प्रयोगमां 'जात्रा' विशेष्य छे अने ' एक ' तेनुं विशेषण छे. विशेष्य नारीजातिमां छे तेथी विशेषण पण खरी रीते नारीजातिमां ज होवुं जोईए एटले 'एक' ने बदले 'एका' प्रयोग थवो जोईए; पण लोकभाषानी खासियत प्रमाणे एवा प्रयोगोमां स्त्रीसूचक 'आ' टकतो नथी; परंतु तेनुं पद्धतिने वैदिक हस्व उच्चारण थाय छे. अहीं ए ख्यालमा रहे के भाषामा विशेष्य प्रमाणे विशेषणमां प्रत्यय न होवानी भाषानी एवी पद्धतिनो टेको ' एक जात्रा' प्रयोगनो ' एक ' शब्द स्त्रीलिंगी S ज छे. L फक्त 'एका' ने बदले एक उच्चारण थयुं छे. चालु गुजरातीनी पेठे आ रीत उक्त त्रणे कृतिओमां बराबर उप Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २४३ लब्ध छे. आ अने आवा बीजा अनेक प्रयोगो जोतां भाषामां वपरातां विशेषणो विकारी पण छे अने अविकारी पण छे, ए हकीकतनुं मूळ उक्त रूपोमां रहेलुं मालूम पडे छे. वैदिक पद्धतिमां बराबर आवां तो नहीं पण आने मळतां अनेक रूपो मळे छे : __ आगळ (पृ०७२ [४७]) जणावेला ' लोहिते चर्मन् ,' 'परमे व्योमन्' वगैरे प्रयोगोमां 'चर्मन्' अने 'व्योमन्' विशेष्य छे. अने विशेष्य होवाथी ते बन्ने विशेषण प्रमाणे सातमी विभक्तिमा आववां जोईए छतां ते बन्ने विभक्तिना संसर्ग विनानां ज छे. एटले जेम उक्त वैदिक रचना विशेषण अने विशेष्यना समानविभक्तिकताना नियमने तोडी पाडे छे. तेम तेथी आगळ वधीने चालु भाषाना प्रयोगो विशेषण अने विशेष्यना सर्वथा विकारीपणाना नियमने अवगणे छे अने आ अवगणनानुं मूळ उक्त वैदिकरचनामां समायुं होय तो ना नहीं. उक्त 'व्योमन्' वगैरे प्रयोगो छे तो विभक्तिना संसर्ग विनाना परंतु तेमने सप्तमी विभक्तिनां समझधानां छे ए न भुलाय. 'वाया विसंठुलु' जेवा प्रयोगोमां 'विसंठुलु' शब्द 'वाया' नुं विशेषण छे एटले साधारण रीत प्रमाणे तो 'वाया विसंठुल' एम थर्बु जोईए पण लोकभाषानुं तंत्र विशेष अनियत होवाने लीधे ‘वाया विसंठुलु' प्रयोग पण थयो छे. छोकरो, घोडो, लाडवो वगैरे प्रयोगो प्रथमा विभक्तिवाळा छे, तेमां मूळ अंग अकारान्त छे अने 'ओ' प्रत्यय छे ए ध्यानमा रहे. 'घोडो' वगैरेमां अंगने अकारान्त मानवामां न आवे तो 'छोकरी', 'घोडी' वगेरे स्त्रीलिंगी रूपोनी निष्पत्ति केवा प्रकारना अंगथी थशे ? ए वात तो नक्की छे, के 'छोकरी', 'घोडी' वगैरेमां मूळ 'छोकर+ ई', 'घोडअ+ई' ए जातनो प्रकृति-प्रत्ययविभाग छे. 'घोडो' के 'छोकरो' ऊपरथी 'घोडी' के 'छोकरी' रूपो नथी नीपजी शकता. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बारमा सैकानी गुजरातीमा हस्व के दीर्घ इकारान्त वा उकारान्त स्त्रीलिंगी नामोने माटे प्रथमा अने द्वितीयाना एकवचनमां कोई खास प्रत्यय नथी. जेवू ने तेवु मूळ अंग ज वपराय छे वा तेना अन्त्य स्वरमा हस्व के दीर्घ जेवो फेरफार करीने वपराय छे. बहुवचनमां पण क्यांय उक्त रीते मूळ अंग ज वपराय छे अने क्यांय मूळ अंगने 'उ' के 'ओ' प्रत्यय लागेलो छे. अभयदेव-सिद्धिउ, सिद्धि. वादिदेवमूरि-खाणि, वाणि. हेमचंद्र--थलि, कुमारी, निद्दडी, रयणी, बुद्धी, माली. चालु गुजरातीमां 'वेलडीओ', 'नदीओ' वगेरे 'ओ' प्रत्ययवाळां रूपो प्रतीत छे. काठियावाडीमां ए 'ओ' ने बदले 'य' श्रुतियुक्त 'ई' प्रत्यय पण प्रचलित छे. 'वाडीयु' 'सखीयु', 'आंगळीयु' वगैरे. वैदिक भाषामां नद्यः, वध्वः वगैरे रूपोमां 'य' अने 'व' श्रुतियुक्त 'अस्' प्रत्यय लागेलो छे. पालिभाषामां नदियो, इथियो, वधुयो वगैरेमा जे अंत्य-'य' श्रुतियुक्त–'ओ' छे तेनुं मूळ उक्त ‘अस्' प्रत्ययमां छे. एक ए 'ओ' ने बदले प्राकृतमा 'उ' अने 'ओ' एम बे प्रत्ययो नोंधाया छे. अने हेमचंद्रनी ऊगती गुजरातीमां पण ए बे प्रत्ययोनी भलामण छे. 'ओ' ऊपरथी 'उ' थईने ते बे प्रत्यय जुदा बनेला जणाय छे. 'ओ' वाळू स्त्रीलिंगी रूप विशेष प्राचीन छे. ८९ उक्त त्रणे कृतिओमां त्रीजी विभक्ति माटे जुदा जुदा प्रत्ययोत्रीजी विभक्ति वाळां रूपो वपरायेलां छे. । अभयदेव-पसाइण, नामिण, सूलिण, रसायणेण. वादिदेव०- तवि, जिणि. एकवचन हेमचंद्र-वाएं, तें अग्गि, उड्डावंतिए, पुत्ते, J सरिण, कवणेण, सिरेण. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २४५ ? अभयदेव-छप्पन्निहिं बहुवचन वादिदेव०–सूरिहिं, जचंधिहि, लोयणिहि ) हेमचंद्र-गुणहिं, लक्खेहिं त्रणे कृतिओना उक्त प्रयोगो जोतां इण, एण, इ, एं, मात्र अनुस्वार, ए, (एकवचनमा) अने बहुवचनमां इहिं, हिं, इहि अने एहिं प्रत्ययो वपराया छे. चालु गुजरातीमां 'ए' प्रत्यय विशेष प्रचारमा छे. अने कचित् कचित् 'एण' अने 'इण' प्रत्ययो पण वपराय छे. छोकरे, घोडे, माणसे वगैरेमां 'ए' प्रत्यय छे अने 'केणे,' 'एणे,' 'तेणे' रूपोमां तथा 'किणि' 'इणि,' तिणि' जेवा केटलाक तळपदा ग्रामीण प्रयोगोमां ‘एण' अने 'इण' वपराया छे. ___ वैदिकमां त्रीजी विभक्ति माटे मूळ 'एन' प्रत्यय छे. ए 'एन' प्रत्यय ज उक्त इण, एण, इ, एं, मात्र अनुस्वार के 'ए' ना मूळमां छे. पालिमां 'एन' अने प्राकृतमां 'एण' के 'एणं' प्रत्ययोनो प्रचार छे. ए जोतां गुजरातीना त्रीजी विभक्तिना एकवचने पोतानी मूळ परंपरा साचवी राखेली छे. बहुवचनमां वैदिक 'एभिस्' प्रत्यय छे. उपर्युक्त ' इहिं,' हिं, “इहि' अने 'एहिं' प्रत्ययोर्नु मूळ आ 'एभिस्'मां छे. चालु गुजरातीमां ए 'एभिस्' साथे संबंध धरावतो कोई प्रत्यय नथी सचवायो पण तेने बदले उक्त 'ए' प्रत्यय वपराय छे. एकवचननो 'ए' भाषामां बहुवचनमां पण वपरावा लाग्यो छे : छोकराओए, माणसोए, छोकरांए वगैरे रूपोमां उक्त 'ए' प्रत्यय तो छे बेवडा प्रत्ययो ' पण ते अनुक्रमे उक्त रीते बहुत्वसूचक एवा आ-ओ, अने वैदिक ओ अने आं प्रत्यय पछी लागेलो छे. एटले ए बधा अने एवा बीजा पण प्रयोगो बेवडा प्रत्ययवाळा छे ए ध्यानमा रहे. जेणे, केणे' ' तेणे' 'एणे' ए बधा त्रीजी ___ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति विभक्तिवाळा सर्वनामना प्रयोगो छे. तेमां मूळ अंग 'ज' 'क' 'त' अने 'ए' छे, तेमने 'एण' प्रत्यय लाग्या पछी फरी पाछो 'ए' प्रत्यय लागेलो छे. एकवार प्रत्यय लागेलुं रूप, अमुक वखते, लागेला प्रत्ययनो अर्थ सूचवा असमर्थ नीवडे छे त्यारे फरीवार तेने बीजो प्रत्यय लगाडवो पडे छे. ए धोरणे उक्त प्रयोगोने बेवडा प्रत्ययो लागेला छे. आ बेवडा प्रत्यय लगाडवानी पद्धति कांइ आजकालनी नथी, बारमा सैकामां तो ते हती ज एम 'जिणि ' वगेरे रूपो ज बतावी आपे छे. वैदिक भाषामां केटलांक क्रियापदोमां बबे अने ऋण ऋण विकरण प्रत्ययो लगाङवानुं विधान वैदिकप्रक्रियामां छे. ए जोतां बेवडा के वडा प्रत्ययो लगाडवानी पद्धति घणी ज जूनी जणाय छे. " नेषतु ' - नयतेर्लोट् शप - सिपौ द्वौ विकरणौ । तरुप्रेम - तरेम - इत्यर्थः तरतेर्विध्यादौ लिङ् उः–शप्–सिप् चेति त्रयो विकरणाः " [ वै० प्र० ३-१-१८५ ] ९० उक्त कृतिओमां चोथी विभक्तिनो प्रयोग दुर्लभ छे, पण तेने बदले छट्टीनो प्रयोग मळे छे. चोथीने बदले छट्ठी विभक्ति वापरवानी प्रथा वेदकाळ जेटली जूनी छे. ए वात आगळ कवाई गई छे. ( पृ० ५३ [६] ) चतुर्थीने बदले छट्टी विभक्ति हेमचंद्र – वडत्तणहोतणेण - ( वडपणमाटे ) आ प्रयोगमा 'वडत्त हो' एटलं रूप षष्ठीवाळु छे अने 'तणेण' शब्द " ते माटे ' ना अर्थने सूचववा जोडेलो छे. हेमचंद्र कहे छे के ' ते माटे' अर्थने बताववा 'तेमाटे ' अर्थना द्योतक निपातो ' के हिं', 'तेहिं', 'रेसि', 'रेसिं' अने 'तणेण ' ए पांच निपातो वापरवाना छे. ( ८-४-४२५ ) वळी, विक्रमना Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको आठमा सैकाना विद्वान आचार्य हरिभद्रसूरि पोतानी समराइच्चकहामां 'रेसिं'ने बदले (२७१ रेसमि' पद वापरे छे. त्यां तेनुं पाठांतर ‘रसम्मि' पण नोंधायेलुं छे. तथा पंचाशकमां १७२रेसिम्मि' पद ए ज आचार्ये वापरेलुं छे. आ रीते 'रेसंमि' अने 'रेसिम्मि' निपातो पण तादीना अर्थने सूचवे छे. एमने निपातो एटला माटे का छे के तेमनुं मूळ मालूम पडतुं नथी. सर्वनाम 'क' अने 'त' नुं तृतीयाबहुवचन केहिं', 'तेहिं' ___ थाय छे. ए ' केहिं', 'तेहिं ' ऊपरथी उक्त तादर्थ्य'रेषा' ऊपरथी सूचक 'केहिं', 'तेहिं' ने लाववानी कल्पना 'रेसि' लाववानी थयेली छे. तथा 'रेषा' ने प्रा० 'रेसा' रूपे कल्पी भ्रामक कल्पना ते ऊपरथी 'रेसि' के 'रेसिं' ऊपजाववानी कल्पना थयेली छे. आचार्य हरिभद्र जेने रेसंमि अने रेसिंमि' रूपे नोंधे छे अने हेमचंद्र जेने ‘रेसि' वा 'रेसिं' आकारे जणावे छे एवा 'रेसिं' निपातनुं खलं स्वरूप अनिश्चित छे त्यां एनी व्युत्पत्तिनी कल्पना पण शी रीते थई शके ? ९१ मारा नम्र मत मुजब उक्त बन्ने कल्पनाओ केवळ अक्षरसाम्यने आभारी छे. व्युत्पत्तिना क्षेत्रमा मात्र अक्षरसाम्यनो आधार सविशेष २७१ "जो उण सद्धारहिओ दाणं देइ जसकित्ति रेसंमि । अहिमाणेण व एसो देइ अहं किं न देमि त्ति ॥ पाठांतर-रसम्मि'-समरा० पृ. १५७ (जे०) २७२ सव्वगुणपसाहणमो णेओ तिहिं अट्ठमेहिं परिसुद्धो। दंसण-नाण-चरित्ताण एस रेसिमि सुपसत्थो-पंचा० १९-गाथा-४०। टीका “ रेसिंमि निमित्तम्-" अभयदेव । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति भ्रामक छे. एटले जे व्युत्पाद्यरूप माटे अर्थसाम्य के अक्षरसाम्य बने साथै सचवाई शके एवी व्युत्पत्ति न करी शकाती होय त्यां गमे ते कल्पना करवा जतां साची व्युत्पत्तिने बदले व्युत्पत्त्याभासने समर्थन आपवा जेवुं थाय छे. बळी, प्रसंग छे तेथी कहुं हुं : व्युत्पत्ति माटे केवल अक्षर साम्य भ्रामक छे ' जूनी गुजराती भाषा' नामना पुस्तकमां तेना साक्षर लेखके पृ० १७५ ऊपर 'पहेलवहेलुं' नी व्युत्पत्तिसंबंधे विचार कर्यो छे. तेमां तेमणे एम जणान्युं छे के [ " " व्हेल व्हेलुं'. प्रथम 'प' नो लोप थतां बनतुं ' हलविहल' रूप जूनी गुजरातीमां वपरायुं छे. एटलां वांनां 'हल्लविहल्लु' बेटा हई आपिओ ( संदर्भ ८४ -२ ) तेम ज ' उवएसमालकहाणय छप्पय ' मां 'हल्लविहल' रूप वपरायुं छे " - पृ० १७५] तेमनुं आ लखाण मात्र अक्षरसाम्य ऊपर अवलंबतुं होई भ्रांतिमूलक छे. एमणे जे 'संदर्भ' अने 'उवएसमाल कहाणय' नो आधार टांक्यो छे तेमां ' हलविहल' शब्दनो अर्थ ज ' पहेलवहेलुं ' नथी. राजा कोणिकना बे भाई नामे ' हल ' अने ' विहल ' छे ए जैनकथामां सुप्रतीत छे. एटलां वांनां हल्लुविहल्ल बेटा हूई आपिओ' ए वाक्यनो खरो अर्थ आ प्रमाणे छे : एटलां वानां - - एटली चीजो. हल विहल बेटा हूई - हल्ल विहल बेटाने - हल्ल, विहल नामना बेटाने - पुत्रोने आपिआ-आप्यां. 6 ते बाबतनां उदाहरणो तेम ज ' उवएसमालकहाणय ' ( गाथा ५२ ) मां " हल्ल विहलहं हार गुरु गयवर सिउ दिउ " हल विहलहं- एटले हल अने विहल्लने, गुरुयमोटा, गयवर - हाथी, सिउ साथै, हार-हार, दिउ - दीधो. आ ते वाक्य के शब्दनो वास्तविक अर्थ समझ्या विना मात्र अक्षर - साम्यने वळवाथी व्युत्पत्तिना क्षेत्रमां घणा भ्रमो नीपजे छे. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २४९. ए ज लेखके ' पलांठी ' शब्दने ' पदयष्टि' ऊपरथी लावतां ( पृ० ७६ ) मात्र अक्षरसाम्यनो आधार लई एवो ज भ्रम पैदा करेलो छे. 'पलांठी ' नुं सं० मूळ ' पर्यस्तिका' प्रा० ' पल्हत्थिऔं ' मां छे. " ' निर्व्याधिक ' ऊपरथी ' नरवो' ( पृ० ३५० ) गह्वरक ऊपरथी ' गभारो' ( पृ० ७६ ) अने ' प्रहरणक' ऊपरथी ' परोणो " ( पृ० ३४८ ) लावतां ए उक्त लेखके मात्र अक्षरसाम्यने आधारे भ्रांत व्युत्पत्ति जणावी छे. खरी रीते ' नीरुज' ( निर् + 'रुज् ' वा रुजा ) ऊपरथी' नरवो ' ' गर्भागार' ऊपरथी ' गभारो' अने ' प्रतोदन ' ऊपरथी ' परोणो ' शब्द आवेला छे. अभिधान - चिंतामणिमां आचार्य हेमचंद्रे कहेलुं छे के " पटु-उल्लाघ - वार्त - कल्यास्तु नीरुजि" ( काण्ड ३- लो० १३८ ) अर्थात् पटु, उल्लाघ, वार्त, कल्य अने नीरज् ए बधा, रोगरहित - साजा - अर्थने दर्शा - वनारा पर्याय शब्दों छे. “ निष्क्रान्तो रोगात् नीरुक् " एवी व्युत्पत्ति 'नीरुज्' शब्दनी तेमणे आपली छे. 'रुज्' अथवा ' रुजा' बन्ने शब्दो लई शकाय एम छे. ए कांडना श्लोक १२६ मां 'रोग' 'रुजा,' ' मान्द्य, ' ' व्याधि' वगैरेने पर्यायशब्दो रूपे नोंघेला छे. ܕ २७३ “ नेव पल्हत्थियं कुज्जा - " ( उत्तरा० अ० १, गा० १९ ) “ नैव पर्यस्तिकाम्-जानुजङ्घोपरेिवस्त्रवेष्टनात्मिकां कुर्यात् " - ( उत्तरा० शांति ० टीका ) पर्यस्तिका परिकरः पर्यङ्कः च - अवसक्थिका ' " - ( हैम० अभि० कां ० ३, श्लो० ३४३ ) चोरामां वा बीजे स्थळे वृद्ध माणसोनी- -कड ऊपर कपड़े वींटीने - बेसवानी रीतनुं नाम पर्यस्तिका - पल्हत्थिया छे. भाषामां प्रचलित पलांठी के पलोंठी शब्दनो संबंध प्रस्तुत 'पल्हत्थिया' साथे छे. वडीलोनी सामे 'पर्यस्तिका ' नी ढबे बेसवुं ए अविनय छे एम उत्तराध्ययनसूत्रमां कहेलुं छे. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'गह्वर' नो अर्थ “पोतानी मेळे थयेलो मोटो खाडो' के 'गुफा' थाय छे. “ अखातबिले तु गह्वरं गुहा" ( अभिधान० कां० ४-श्लो० ९९ ) गह्वर' नो उक्त अर्थ अने 'गभारा' नो 'घरनी अंदरनो भाग' ए अर्थ; ए बे वच्चे लेश पण साम्य नथी. खरी रीते 'गर्भागार' शब्द ऊपरथी ‘गभारो' शब्द आवेलो छे. जैनमंदिरमा ज्यां जिनमूर्तिओने प्रतिष्ठित करेली होय छे ते स्थळy नाम ‘गभारो' छे. केटलाक लोको ‘गभारो' ने बदले 'गंभारो' उच्चारण पण करे छे. 'गर्भागार' शब्दनी व्युत्पत्ति बतावतां आचार्य हेमचंद्र कहे छे के “अगारस्य गर्भो गर्भागारम्” “गर्भागारोऽपवरको वासौकः शयनास्पदम् ( अभिधानचि० कां० ४-श्लो० ६१) अमरकोशमां पण 'गर्भागार' शब्दने नोंघेलो छे. ( पुरवर्ग कां० २-श्लो० ८) त्यां अमरनो टीकाकार कहे छे के 'गर्भागार' “वासगृह' द्वे गृहमध्यभागस्य ‘माजघर' इति प्रसिद्धस्य" --(पृ० ७४) ‘प्रवयण' के 'प्रतोदन' ऊपरथी ‘परोणो' शब्द आवेलो छ अवयण-परवयण–परउयण-परोयण–परोणो. आचार्य हेमचंद्र कहे छे के “प्रतोदस्तु प्रवयणं प्राजनं तोत्र-तोदने (अभि० कां०३-श्लो० ५५७) अमरकोशमां पण एनी नोंध छ : (वैश्य-वर्ग कां० २ श्लो० १२ ) त्यां अमरनो टीकाकार कहे छे के “प्राजनं तोदनं तोत्रं त्रीणि वृषादेः ताडनोपयोगिनः तोत्रस्य आसूड चाबूक इति ख्यातस्य” (पृ० २१२). ___ 'गुजराती भाषानुं बृहद् व्याकरण' ना समर्थ लेखक एक स्थळे (बृहद् व्याकरण-पृ०१३४ ) " दीसि अगासि तावडि दाझइ” एवं ( कान्ह० खंड-१ पवाडु-१५३ ) वाक्य आपे छे. २७४ “ गर्भागारं वासगृहम् ”—(अमरकोश ) २७५ " प्राजनं तोदनं तोत्रम्”-( अमरकोश) Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको [ ए आखुं पद्य आ प्रमाणे छे : " बंदीवान घणा सीदाता दीठा पाडइ ढाठि, दीसि अगासि तावडि दाझइ राति बाइ टाढि " - ( १,१५३ ) अर्थ :- सीदाता - पीडाता एवा घणा बंदीवान दीठा के जेओ राडो पाडे छे. अगासि - अगासामां- छापरा विनानी खुल्ली जम्यामां - जेओ तावड - तडकावडे के तडकामां दाझे छे अने रात्रे टाढ वाय छे ] उक्त व्याकरणकार आ वाक्यमां वपरायेल ' तावडि' शब्दना 'डि' ने पांचमी विभक्तिनो जूनो प्रत्यय कहे छे. तेओ लखे छे के " डी (' थी ' ने ठेकाणे जूनो प्रत्यय ) " २५१ परंतु उक्त लखाण अक्षरसाम्यनी भ्रांतिमांथी नीपजेलुं छे. 'डि' ए पांचमीनो प्रत्यय नथी अने ' तावडि' ए रूप पांचमी विभक्तिनुं पण नथी. ' तडका 'ना अर्थमां 'ताप' शब्दनी पेठे ' तावड ' ( तावडो ) शब्द पण पालणपुर तरफनी भाषामा अने मारवाडी भाषामा प्रचलित छे. तेनुं त्रीजी विभक्तिनुं एकवचन ' तावडि' रूप छे. अन्त्य 'इ' त्रीजीनो प्रत्यय छे. मूळ ' सं०- ताप - प्रा० - ताव' शब्द छे अने 'ड' स्वार्थिक प्रत्यय छे. “ खाटला तावडे नाख्या " ( खाटला तडके नाख्या) एवं वाक्य जैन प्रतिक्रमणसूत्र - अतिचारना पाठमां सुप्रसिद्ध छे. ए वाक्यमां 'तावडे' सप्तमी विभक्तिवालुं रूप छे. 'डि' प्रत्यय पांचमीनो होय तो 'तावडे' रूप ज क्यांथी थाय ? मात्र अक्षरसाम्यनो आधार लेवाथी केवा प्रकारनी भ्रांतिओ जन्मे छे ए सादी हकीकतने बतावत्रा ज अहीं थोडुं विषयांतर जेवुं करीने पण आटलं उदाहरणरूपे कचवाते मने जणाववुं पड्युं छे. 'जूनी गुजराती भाषा' ना अने ' गुजराती भाषानुं बृहदव्याकरण' ना विद्वान लेखकोए करेली भाषासेवा विशेष प्रशंसनीय छे. अहीं तेमनी खोड बताक्वानो Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति मारो आशय नथी. परंतु गुजराती भाषानी व्युत्पत्तिनुं क्षेत्र खेडाया विनानुं छे, एटले तेमां गमे तेने हाथे आवी भ्रांतिओ थाय ज. आपणे आवी भ्रांतिओथी बचीए ए एक ज उद्देशने लक्ष्यमा राखीने में ऊपलं लखाण करेलुं छे. एथी कोई साक्षर एनो विपरीत अर्थ न ज करे एवी तेमने मारी फरी फरीने नम्र विनंती छे. ९२ उक्त त्रणे कृतिओमां वपरायेलां छठी विभक्तिवाळां रूपो नीचे छट्ठी विभक्ति प्रमाणे छ : अभयदेव--तुह, समग्गह, निब्भग्गह (ब०), दीणह. देवमूरि—मेरुहु, सायरु (लुप्त वि०), तारयहं (ब०), सेलहं, मोरहतणा, जेतणा (ब०), रयणह, भवियाणं, मणुयहं (ब०) मणुयह. हेमचंद्र-परस्सु, दुल्लहहो, सुअणस्सु, अइमत्तहं (ब०) गय (लुप्त वि० ) कासु, चिंतंताहं (ब० ) लोयहो, कंगुहे (स्त्री० ) मायहं (ब०) कंतहो, सीहहो, जिणहं, लोअहं (ब०) निवइणो, –रयणिहुं. उक्त रूपो ऊपरथी जणाय छे के एकवचनमा ‘ह,' 'हु', 'हो', ‘स्सु', 'सु' अने ‘णो' प्रत्यय छे. स्त्रीलिंगमां 'हे' प्रत्यय छे. बहुवचनमां 'हं' ‘आणं' अने 'ह' प्रत्यय छे. 'तण' शब्द षष्ठी विभक्तिनो सूचक छे. अने एनो प्रयोग लुप्त के अलुप्त षष्ठी विभक्तिवाळा नामनी साथे थाय छे. ___ 'नो' प्रत्यय षष्ठीना एकवचन माटे पालिभाषामां छे. अने ‘णो' प्रत्यय प्राकृतमां छे. वैदिक भाषामा 'मधुनः' (षष्ठी एकवचन) वगैरे रूपोमा जे अन्त्य 'नस्' छे ते ऊपरथी उक्त 'नो' के 'णो' आवेला छे. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको __ २५३ वैदिक ‘स्य' (१० ए० ) ऊपरथी पालि के प्राकृतमा ‘स्स' अने ते द्वारा 'सु' अने ‘स्सु' आवेला छे. अने ए 'सु' ऊपरथी 'हु' अने 'हो' ने आववानी संभावना उचित लागे छे. 'दिवस' ना ‘स' नुं 'ह' उच्चारण विहित छे. [८-१-२६३ ] तेम 'सु' प्रत्यय ऊपरथी ‘हु' अने 'हो' प्रत्यय आववाने बाध नथी जणातो. 'ह' प्रत्यय पण उक्त ‘स्स' माथी जन्मेलो छे. अहुरो ( असुरः ), हो (सः) [खोरदेहअवेस्ता पृ० १५४, २२७ ] वगेरे प्रयोगोमां ‘स' ने बदले 'ह' बोलवानी पद्धति अवेस्ता भाषामां सुप्रतीत छे. एटले ए रीत घणी जूनी जणाय छे. स्त्रीलिंगी 'हे' नो संबंध थोडे घणे अंशे ' स्य' साथे जोडी शकाय; परंतु तेनुं मूळ बराबर स्पष्ट कळातुं नथी. खोरदेहअवेस्ता पृ० १८१ ऊपर षष्ठीना एकवचन माटे ' अहुरह्या' रूप नोंघेलुं छे. तेमां ' अहुर' प्रकृति छे अने 'ह्या' प्रत्यय छे. प्रस्तुत 'ह्या' ए ष० ए० 'स्य' २७६ 'स' ने बदले 'ह' ना उच्चारणवाळा अनेक प्रयोगो खोरदेहअवेस्तामां मळे छे. तेमांना थोडाएक आ नीचे आपुं छ: अस्मात्-अमात्-पृ०६९ सप्तदश-हप्तदश-पृ० १५४ सा-हा-पृ०६५ अस्मि-अमि-पृ०१५४ असि-अहि-पृ०७८ समाः-हमा-पृ०१२६ सखयः-हखय-पृ०२७४ प्राकृतभाषामां 'तस्य' के 'तस्याः' ने बदले 'से' रूपनो व्यवहार सुप्रसिद्ध छे (८-३-८१ हेम.) खोरदेहअवेस्तामां 'तस्य' के 'तस्याः ' ना अर्थमां अनेक स्थळे 'हे' रूप वपरायेलं छे (पृ. २३७ तथा २५६ ) ए प्रा० 'से' अने आवेस्तिक 'हे' वच्चे विशेष साम्य छे. वळी, क्यांय 'ह' ने बदले 'स' पण वपरायो छे. 'अह्नि' ने बदले 'अस्नि'-( खोर० अ० पृ० ९६) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नुं जुईं उच्चारण छे. एटले षष्ठीना एकवचन उक्त 'हे' नो संबंध ‘स्य' ना भिन्न उच्चारण 'ह्या' साथे जोडी शकाय एम छे. 'ह्या' मां 'य' छे तेथी तेनु ' हे ' एबुं परिणामांतर थवं अशक्य नथी. आ रीते जोतां 'ह्या' के 'हे' ए बनेना मूळमां वैदिक ‘स्य' ज रहेलो छे. वळी, 'जरथुश्त्रहे, 'स्पितामहे ' ' अस्पहे ' (खोरदेहअवेस्ता पृ० २२८,२८३) वगैरे प्रयोगोमां अवेस्तानी भाषामां षष्ठीविभक्तिना एकवचनमा 'हे' प्रत्यय वपरायेलो छे. हेमचंद्रे स्त्रीलिंगी नामने माटे षष्ठी विभक्तिमां जे 'हे' प्रत्यय बताव्यो छे ते 'हे' अने उक्त आवेस्तिक 'हे' ए बे बच्चे संबंध बांधी शकाय के केम ए प्रश्न छे परंतु ए बन्ने प्रत्ययोमा साम्य तो घणुं छे. बहुवचननो ‘आणं' तो वैदिक ' देवानाम् ' (पा० देवानं, प्रा० देवाणं) मां वपरायेला 'आनाम्' साथे संबंध धरावे छे. 'हं' प्रत्यय वैदिक सर्वेषाम्' पालि · सव्वेसं' अने प्राकृत 'सव्वेसिं' ना अंत्य 'सं' तथा 'सिं' प्रत्यय साथे संबंध धरावे छे अने ' हुँ' प्रत्यय, उक्त 'हं' नुं उच्चारणान्तर छे. 'मोरहतणा' अने ‘जेतणा' रूपोमां वपरायेलो अंत्य 'तण' षष्ठीनो सूचक छे. 'मोरह' ए रूप पोते ज षष्ठ्यंत छे. छतां ए रूप षष्ठीनो अर्थ बताववा असमर्थ नीवड्यं त्यारे तेने संबंधसूचक 'तण' लगाडीने षष्ठीनो अर्थ बताव्यो छे. आचार्य हेमचंद्रे 'संबंध 'नो अर्थ सूचकवा माटे 'तण' अने 'केर' पदो वापरवानी भलामण करेली छे अने 'अम्हहंतणा' वगैरे उदाहरणो पण जणावेलां छ: (८-४-४२२ हे.) ए रीते अहीं षष्ठीसूचक प्रत्यय बेवडायो छे. 'जेहतणा'-'जे तणा' ए रूप पण ए रीते बनेलुं छे. २७७ षष्ठीना एकवचन माटे 'हे' प्रत्ययवाळां अनेक रूपो खोरदेहअवेस्तामां वपरायेलां छे: असुरस्य-अहुरहे पृ०६८. विश्वस्य-वीस्पहे-पृ०१५१. श्यामस्य-सामहे-पृ०२२९. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २५५ आ 'तण' नी उत्पत्ति विशे एक मत सुनिश्चित नथी. केटलाक विद्वानो षष्ठीविभक्तिवाळा आत्मनः–अत्तनो-अत्तणो षष्ठीसूचक 'तण' नी व्युत्प रूपना अंगभूत 'तण' ऊपरथी उक्त 'तण' ने त्तिचर्चा नीपजावे छे. त्यारे केटलाक विद्वानो तद्धितना 'पुरातन' वगैरे शब्दोमां वपरायेला 'तन' प्रत्यय ऊपरथी उक्त 'तण' नी व्युत्पत्ति बतावे छे. संबंध अर्थने सूचववा माटे कीय (परकीय, जनकीय, राजकीय ६-३-३१ हे०), इक ( वार्षिक, मासिक ६-३-८० हे० ), ण (पुराण ६-३-८६ हे० ) अने तन (पूर्वाण्हेतन, अपराण्हेतन, सायंतन, चिरंतन, अद्यतन ६-३-८७,८८ हे०) वगैरे अनेक प्रत्ययो वपराय छे. 'तन' वगैरे प्रत्ययो लाग्या पछी तैयार थयेलं अंग विशेषण रूप बने छे, अने तेथी ते विशेष्यनी पेठे लिंग अने विभक्ति-वचनोने धारण करे छः रामतणो भाई. रामतणी वात. रामतणु कुल. मारा विचार मुजब 'पुरातन' वगेरेमां वर्तता 'तन' जपरथी 'तण' लाववामां आवे तो विशेष्य-विशेषणभावनी घटना बराबर थशे. जो के ए 'तन' संस्कृतमां सार्वत्रिक प्रत्यय नथी तो पण लोकभाषामां एने सार्वत्रिक थयेलो मानी शकाय एम छे. एवां तो बीजां घणां उदाहरणो छे के जे प्राचीन समयमां सार्वत्रिक न होय अने पछीथी सार्वत्रिक थई गयां होय : __सप्तमीनो 'स्मिन् ' प्रत्यय संस्कृत व्याकरणनी दृष्टिए सर्वित्रिक नथी पण लोकभाषामां तो ए सर्वत्र व्यापक जेवो छे अने एम छे तेथी ज पालिभाषामां अने आर्षप्राकृतमा 'बुद्धस्मिं,' 'बुद्धम्हि' (पा० ) 'लोगंसि,' 'बंभचेरंसि' ( आ० ) वगैरे प्रयोगो उपलब्ध छे. २७८ संस्कृत व्याकरणमा सप्तमीना एकवचनो 'स्मिन् ' प्रत्यय मात्र सर्वादि 'सर्वनामो' पूरतो छ----" ढसि-ड्योः स्मात्-स्मिनौ'-(पाणि ० ७ । १।१५। काशिकावृत्ति) Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति __ आपणी भाषामा प्रचलित षष्ठी विभक्तिवाळां (रामतणो के रामनो बगेरे ) रूपो विशेषण जेवां छे. एटले तेमनी विशेषणरूपता टकाववा विशेषणरूप 'चिरंतन' ना 'तन' ऊपरथी 'तण' आवे तो विशेष सुगमता थाय एम छे. 'आत्मन :'-'अत्तनो'-'अत्तणो' रूपना 'तणो' अंश ऊपस्थी 'तण' ने नीपजावीए तो तेमां नीचेनी आपत्तिओ छे : १. 'आत्मनः' रूप फक्त षष्ठी-विभक्तिवाळू ज नथी, द्वितीया अने पंचमीमां पण ए ज रूप वपराय छे एथी प्रस्तुतमां षष्टीना चोक्कस अर्थनी असंगति थशे. २. 'त्तनो' अंशमां 'त्तन्' एटलो अंश 'आत्मन्' ना 'मन्' मुं रूपांतर छे अने मात्र ‘अस्' षष्ठीसूचक प्रत्यय छे एथी 'त्तनो' ऊपरथी आणेलो 'तण' षष्टीने केम सूचवी शकशे ? वळी ‘त्तनो' ना 'त्त' अने 'ओ' ने कोई पण सबळ आधार विना बदली पण केम शकाय ? ३. उक्त 'त्तनो' अंशमां विशेष्य प्रमाणे परिवर्तन पामवानुं सामर्थ्य ज नथी तो ए ऊपरथी ऊपजेला 'तण' मां ए सामर्थ्य शी रीते आवे ? उक्त ‘चिरंतन' मां आवेलो 'तन' संबंधसूचक प्रत्यय छे एथी ए ऊपरथी 'तण' ने लावीए तो उक्त एक पण आपत्तिनो संभव नथी. चालु गुजरातीना षष्ठी विभक्तिना 'नो' 'नी' 'न' प्रत्ययोना मूळमां पण आ 'तन' प्रत्यय छे. ९३ उक्त त्रणे कृतिओमां पंचमीनो प्रयोग विरल छे. हेमचंद्रना पंचमी विभक्ति “वच्छहे गृण्हइ फलई" ए वाक्यमां 'हे' प्रत्यय पंचमीनो सूचक छे. तृतीया अने पंचमी विभक्तिनो अर्थ लगभग सरखा जेवो छे. तृतीयाना बहुवचनमां वैदिक-भाषामां Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २५७ 'भिस्' प्रत्यय वपराय छे. ते ऊपरथी पालिमां अने प्राकृतमां ' हि ' प्रत्यय आवेलो छे. प्रस्तुत 'हे' नुं मूळ आ ' हि' मां छे. तृतीयानो 'हि' बहुवचननो छे, पण लोकभाषामां ते एकवचनना 'हे' नुं मूळ बनी के छे. वैदिक भाषामा अने लोकभाषामा विभक्ति अने वचनना व्यत्ययनो पार ज नथी. ९४ सप्तमी विभक्तिनां रूपो ते कृतिओमां नीचे प्रमाणे छे : अभय ० -सत्थिहिं ( ब० ), जग ( लुप्त वि० ) सातमी विभक्ति देवसूरि — अडविहिं, सूरिहिं ( ब०) कमलि, ठावडइ, मेहागम, ( लुप्त वि० ), सरयागमि, रयणिहिं. हेमचंद्र – महिहि, एक्कहिं, अक्खिहिं, पंकइ, अप्पिए, दिs, गयणि, सव्वंगे, पट्टणि, हड्डि उक्त रूपोमां 'हिं', 'इ', ' हि ' अने 'ए' प्रत्ययो वपरायेला छे. वैदिक भाषामां सप्तमीना 'देवे' रूपमां वपराता 'ए' प्रत्यय साथे प्रस्तुत 'इ' अने 'ए' प्रत्ययनो संबंध छे. अने वैदिक ' सर्वस्मिन् ' पालि 'बुद्धम्हि ' मां वपरायेला ' म्हि ' साथै उक्त ' हिं' अने 'हि' नो संबंध जोडी शकाय एम छे. चालु गुजरातीमां 'ए' प्रत्यय टकी रह्यो छे. 'घरे गयो', 'खळे गयो', 'खेतरे गयो' वगैरे प्रयोगोमां सप्तमीना 'ए' प्रत्ययनो प्रयोग तद्दन स्पष्ट छे. गुजरातीमां सप्तमीना अर्थ माटे 'महिं ' के ' मई' वचन पण हाल वपराय छे. पालिना सप्तमीना उक्त ' म्हि ' प्रत्यय साथे ते 'महिं ' के 'मई' अने ' में ' ( (हिन्दी) नी सरखामणी थई शके एम छे. सप्तमीना सूचक 'मां' अने ' मांहि' बोलनो संबंध पण ते 'महिं' साथै घटावी शकाय खरो. केटलाक भाषाविज्ञो 'महिं ' साथे ' मध्ये 'नी सरखामणी करे छे. गुजरातीमां कोई पण प्रत्यय लगाड्या विना Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पण सप्तमीनो अर्थ दर्शावी शकाय छे. 'जग जश व्याप्यो' एवां वाक्योमां 'जग' सप्तमी विभक्तिवाळु पद छे. अभयदेवनी कृतिमां आवा ज अर्थमां 'जग' पद वपरायेलुं छे. संबोधननी विभक्तिओनी प्रक्रिया प्रथमा जेवी छे. एटले ए माटे खास कशुं लखवानुं नथी. ९५ हवे ए त्रणे कृतिओमांनां केटलांक क्रियापदो, कृदंतो, बारमा सैकानी सर्वनामो अने अव्ययोनो विचार करीए : क्रियापद विभक्ति अभयदेव-द्वि० पु० ए० कुणसु, जय, पालिहि, पालहि, भव, अवहारि, जोयहि, पाल, पसीअसु. " , ब० पसीयह. तृ० पु० ए० होइ, मदउ, हरउ, थंभेइ, भुंजइ, नियइ. पच्चइ ( कर्मणि ). ,, ,, ब० लहंति, झायहि, सेवहि. प्र० पु० ए० होसु (भविष्य० ). वादिदेव०द्वि० पु० ए० ........ ,, ,, ब० वंदओ, नमहु. तृ० पु० ए० जयओ, सिंचइ, सुमरियई, नंदउ, कहेइ, प्पलइ. ,,,, ब० हेमचंद्र-तृ० पु० ए० मज्जहिं, हरिसिज्जंति, संपडहिं. जाणीअइ (कर्मणि), परिहरइ, गृण्हइ, गजहि, अच्छइ, माणिअइ, धरेइं, होसइ, होइसइ. वण्णिअइ, कप्पिज्जइ, गिलिजइ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 "" बारमो अने तेरमो सैको ब० द्वि० पु० ए० प्र० पु० ए० ९६ उक्त रूपो ऊपरथी नीचेना प्रत्ययो तारवी शकाय छे : प्र० पु० ए० -उ, उं । द्वि० - ० पु० ए० - सु, उ, हि, इ,० – कांइ नहीं । बहुव० ह, हु, ओ 1 तृ० पु० ए० - इ, ई, उ, हि । ,, बहु० - न्ति, हिं, ई । क्रियापदना प्रत्ययोनी व्युत्पत्ति २५९ ( कर्मणि ). चइज्ज, भमिज्ज, ठवइ, होइ, पहुच्चइ. भुंजति, घेप्पंति (कर्मणि ). सरई, बोलहिं, अणुहरहिं. होस ( भविष्य ० ). आणहि, देक्खु, अच्छि, विसूरहि, भणि. किज्जउं, कीसु, करीसुं, पावीसुं. बराबर मळतो आवे छे. साथ संबंध राखे छे. बीजा पुरुष एकवचन अने बहुवचनना प्रत्ययो आज्ञार्थने सूचवे छे. आज्ञार्थनो 'सु' वैदिक प्रत्यय 'स्व' नी साथे 'हि' पण वैदिक ' हि ' 'इ' प्रत्यय उक्त ' हि ' मांथी नीपजेलो छे. अने 'इ' प्रत्ययवाळु रूप वेदोमां पण मळे छे. एटले बारमा सैकामां वपरातो आज्ञार्थसूचक 'इ' प्रत्यय कांई नवो नथी पण वेदकाळ जेटलो जूनो छे, ए ख्यालमां रहे. आ बाबत हुं आगळ बतावी गयो छं. ( पृ० ६६ कं० ३२ ) "" चालु भाषामां वपरातां कर, लख, भण वगेरे क्रियापदो पण मूळे 'इ' प्रत्ययवाळां ज छे. कोई पण प्रत्यय विनानुं आज्ञार्थ - क्रियापद वेदनी भाषामा पण उपलब्ध छे. पच, लिख, भव वगैरे. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बहुवचनमां वपरायेला 'ह' नुं मूळ, वैदिक 'थ'—साथे मळता आक्ता अने पालिमां वपराता 'थ' (आज्ञार्थ द्वितीय पुरुष बहुवचन ) अने प्राकृतमां वपराता ( आ० द्वि०पु० ब०) 'ह' प्रत्ययमां छे. 'हु' नो संबंध पालिमां वपराता — व्हो' (भवव्हो, ददव्हो, कुरुव्हो ) साथे छे, अने 'वंदओ'-' वंदो'-' वांदो' प्रयोगमां वपरायेला 'ओ' नो संबंध पण उक्त 'व्हो' साथे जोडी शकाय एम छे : व्हो-हो-ओ एवं परिवर्तन संभवे छे. अने द्वितीय पुरुषनो सूचक 'उ' प्रत्यय उक्त 'ओ' मांथी फळेलो छे. वैदिक संस्कृतमां बीजा पुरुषना आज्ञार्थ बहुवचनमां 'ध्वम् ' प्रत्ययनो व्यवहार छे. उक्त 'व्हो' अने आ 'ध्वम्' वच्चे जे साम्य टकी रहेलं छे ते स्पष्ट छे. चालु भाषामां करो, लखो, भणो वगेरे द्वितीयपुरुष सूचक आज्ञार्थ क्रियापदोमां वपराता 'ओ' नुं मूळ उक्त 'व्हो' मां छे. आज्ञार्थ त्रीजा पुरुष एकवचनमां पण 'उ' अने 'ओ' प्रत्यय वपरायेला छे. वैदिक 'तु' अने प्राकृत 'उ' मांथी ए 'उ' प्रत्यय आवेलो छे. अने 'ओ' पण उक्त 'उ' - रूपान्तर छे. " जयो जयो मा जुगदंबे " मां वपरायेला 'जयो' अने अहीं वपरायेला 'जयओ' ए बे वच्चे साधारण उच्चारण भेद सिवाय बीजो कशो भेद नथी. अहीं वर्तमान काळना त्रीजा पुरुषना एकवचनमां 'इ,' 'ई' अने 'हि' प्रत्ययो वपरायेला छे. बहुवचनमा ‘न्ति,' 'हिं,' अने 'ई' प्रत्ययो वपरायेला छे. वैदिक 'ति' प्रत्यय, पालि 'ति' अने प्राकृत 'इ' ऊपरथी त्रीजा पुरुषना एकवचनना 'इ' अने 'ई' प्रत्यय आवेला छे. वैदिक ‘न्ति'–पालि ‘न्ति' अने प्राकृत ‘न्ति' ऊपरथी बहुवचननो ‘न्ति' प्रत्यय आवेलो छे. आचार्य हेमचंद्रे त्रीजा पुरुषना बहुवचनमां 'हिं' प्रत्ययनुं विधान करेलुं छे. अहींनो - हिं' अने हेमचंद्रे कहेलो (८-४३८२) 'हिं' बन्ने एक ज छे. आ 'हिं' प्रत्यय ऊपरथी त्रीजा Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको पुरुषना बहुवचननो 'हि' प्रत्यय नीकळेलो छे. ते बेमा मात्र साधारण उच्चारणनो भेद छे. अहीं तृ० पु० बहुवचनमां वपरायेलो 'ई' ते बहुवचनना उक्त 'हिं' साथे समानता धरावे छे. ते बे वच्चे मात्र 'ह' श्रुति जेटलो भेद छे. वळी एकवचनमां वपरायेलो 'हि' पण उक्त 'हिं' साथे पोतानुं स्वत्व साचवी रह्यो छे. उच्चारणनी दृष्टिए जोतां ए बे वच्चे नासिक्य श्रुतिनी विशेषता छे. अने अर्थदृष्टिए एकवचन बहुवचन जेवो भेद पण छे. परंतु आवो वचनभेद तो वेदोनी भाषामां पण प्रचलित छे. एटले परंपराए पण वेदभाषामूलक एवी ऊगती गुजराती भाषामां एवो भेद बाध न ज करे. तात्पर्य ए के उक्त कृतिओमां वपरायेला 'हिं' 'हि' अने 'ई' ए त्रणे त्रीजा पुरुषना सूचक छे अने त्रणे परस्पर समानतावाळा छे. ___ आ "हिं' प्रत्ययनुं मूळ कळी शकातुं नथी. कदाच वैदिक 'सन्ति' अने आवेस्तिक ‘हेति' क्रियापदमां न्यूनाधिकता करीने आपणा पूर्वजोए आ 'हिं' प्रत्यय नीपजावेलो होय. 'हेति' क्रियापद खोरदेहअवेस्तामां (पृ० ५,२३,३५) अनेकवार वपरायेलुं छे. अथवा तृतीय पु० एकव० ना वैदिक 'ति' ऊपरथी आवेला उक्त 'इ' प्रत्ययमां । ह' श्रुति अने नासिक्य श्रुतिनी विशेषता ऊमेरी तेने बहुत्वसूचक 'हिं' प्रत्ययरूपे योजवामां आव्यो होय एवी संभावना थई शके. २७९ वाग्व्यापारनी दृष्टिए स्वरमा 'ह' नुं मिश्रण सर्वथा स्वाभाविक छे. आजे पण 'एबुं' ने बदले 'हेवू' अने 'आवां' ने बदल 'हावां' नो ध्वनि सुप्रतीत छे. एथी 'इ' प्रत्ययमां 'ह' श्रुति ऊमेरायानी कल्पना असंगत नथी. २८० नासिक्यश्रुति माटे हेमचंद्र पोते ज कहे छे के अ, इ अने उ वर्ण ( ह्रस्व अने दीर्घ) जो विराममां आवेला होय तो तेनी नासिक्यश्रुति पण थाय छे अर्थात् विराममा आवेलो अ-अं, इ-इँ, उ-उँ ए रूपे पण बोलाय छे. हेमचंद्रे १-२-४१ (अ-इ-उ-वर्णस्य अन्ते अनुनासिक :-अनीदादेः) सूत्रमा उक्त हकीकत कहेली Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति उक्त कृतिओमां पहेला पुरुष- बहुवचन वपरायुं नथी. एकवचनमां 'उ' अने 'उ' प्रत्यय वपराया छे. वैदिक ‘मि' प्रथम पुरुषना एकवचननो प्रत्यय छे. ते ऊपरथी 'उ' प्रत्यय सीधी रीते आवी शके एम नथी परंतु प्रथम पुरुषना बहुवचनमां वपराता प्रा० 'मु' साथे ए - उं' के 'उ' नी सरखामणी करी शकाय एम छे. ___ आचार्य हेमचंद्रे प्रथम पुरुषना बहुवचनमा ‘हु' प्रत्यय जणावेलो छे अने साम-साम, खटा-खट्राँ, दधि-दधि, कुमारी-कुमारी , मधु-मधु एवां उदाहरणो पण आपेलां छे. हेमचंद्रनुं आ विधान जोतां उक्त नासिक्यश्रुतिनी कल्पनाने प्रबल संवाद मळे छे. आ दृष्टिए जोतां 'इ' प्रत्यय 'ई' रूपे बने अने तेमां वाग्व्यापारनी दृष्टिए 'ह' श्रुति ऊमेराय ए कल्पना असंगत भासती नथी. २८१ विद्वानोमां एक एवी कल्पना प्रवर्ते छे के संस्कृत वा प्राकृत क्रियापदोमां वपराता पुरुषवाचक प्रत्ययो 'अस्' धातुनां रूपो ऊपरथी आव्यां छे वा सर्वनामोनां रूपो ऊपरथी आव्यां छे. तेमनी आ हकीकत समझाय ए माटे आ नीचे वर्तमानकाळ तृ० पु. ना प्रत्ययो अने 'अस्' धातुनां रूपो तथा 'अस्मद् ' सर्वनामनां रूपो आपुं छु: वैदिक प्र० 'अस' धातुनां रूपो३-ति अन्ति अस्ति सन्ति २–सि थ असि स्थ १-मि म अस्मि स्म पालि प्र० 'अस्'-नां रूपो ३ ति अंति अत्थि संति २ सि थ असि, अहि अत्थ १ मि म अस्मि, अम्हि अस्म, अम्ह प्राकृत प्र० ति अंति अस्थि संति २ १ सि मि थ, ह मो, मु, म असि म्हि म्हो म्हु म्ह Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २६३ छे. जो के ते आकृतिओमां वपरायो नथी तो पण प्रसंगवशात् तेनी उत्पत्ति विशे थोडुं जणावी दऊं. 'डं' अने 'हुं' मां 'ह' ध्वनिपूरतो भेद छे. ‘उं' मां ‘ह' श्रुति भळवाथी 'उं' नो 'हुं' थइ जाय एम छे. आ 'ह' श्रुतिनो स्पष्ट खुलासो थई शकतो नथी, परंतु उच्चारणोनी विविधताने कारणे स्वरमां ‘ह' ने भेळवीने बोलतां सुगमता थती होय तो ना नहीं. घणा लोको 'आवुं' ने बदले ' हावुं' अने ' एवं ' ने बदले 'हेवुं ' " बोले छे; ए सुप्रतीत छे. बारमा सैकानी गुजराती भाषामा प्रथम पुरुष एकवचनमां 'उं' प्रत्ययवाळां रूपो छे. तेम चालु गुजरातीमां करूं छु, भणुं हुं, लखुं हुं वगैरे क्रियापदो 'उं' प्रत्ययवाळां छे. उक्त बधा प्रत्ययो अने 'अस्' धातुनां रूपो जोतां अने तेमने बराबर सरखावतां एम जणाय छे के प्रत्ययो अने रूपो वच्चे समानतानी कल्पना निराधार नथी. 'अस्मद् ' नां वैदिकरूपो < पालिरूपो प्राकृतरूपो एक ० बहु ० एक० अहम् अस्मे, वयम् । अहं, बहु ० एक० अम्हे, वयं । अहं, अहयं, हं अम्हि, अम्मि, म्मि बहु ० अम्हे, भे 'अस्मद्' नां आ रूपो पैकी अहं, अहयं के हं साधे हेमचंद्रे जणावेला प्रथम पुरुषना बहुवचनना ' हुँ' प्रत्ययनी सरखामणी करी शकाय एम छे अने एकवचनना 'उं' प्रत्ययनी सरखामणी 'वयं' वा 'मयं' रूप साथे अथवा एकव ० ' अहयं' साथै के प्राकृत 'मु' वा 'मो' प्रत्यय साथे करी शकाय एम छे. 'हुं' अने 'उं' ए बन्ने प्रत्ययोने पेला पुरुषना बहुवचन अने एकवचनमां वापरवानी सूचना अनुक्रमे ८-४-३८६ अने ८-४- ३८५ सूत्रमां आचार्ये करेली छे. 'हुं' अने 'उं’ प्रत्ययोनुं निश्चित मूळ हुं शोधी शक्यो नथी तो पण सरखामणीनी कल्पनाने अहीं दर्शाववानी वृत्ति रोकी शक्यो नथी. अम्ह अम्हो मो वयं Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ९७ ऊपर जणावेलां क्रियापदोमां केटलांक भविष्यकाळनां क्रियापदो छे. अने केलांक वर्तमानकाळनां पण कर्मणि-क्रियापदो छे. २६४ 'होसु, ' ' करीसुं' अने 'पावीसुं' ए त्रणे क्रियापदो प्रथम पुरुष एकवचन भविष्यकाळनां छे. अंत्य 'उ' के 'उं ' प्रथम पुरुषने सूचवे छे अने 'स्' भविष्यकाळने बतावे छे. वैदिक भाषामां भविष्यकाळने सूचववा ‘उं’ ' स्यति,' ‘स्यते' वगैरे ‘स्' वाळा प्रत्ययो छे. तेम अहीं पण भविष्यकाळने सूचववा 'उ' के 'उं' प्रत्ययने 'स्' लगाडेलो छे. 'सू' ने बदले 'हू' पण लगाडी शकाय छे. होहु, करहुं अने पात्रहु-एम ए रूपो 'हू' वाळां थई भविष्यकाळने सूचवी शके छे. भविष्यकाळनां क्रियापदो बारमा सैकानां आ रूपो वर्तमान गुजरातीमां पण जेवां ने तेवां ज रह्यां छे. करीशुं—करशुं, पामीशुं - पामशुं. फक्त 'सू' ना 'शू' जेटलो भेद थयो छे. ( 'होसइ' रूप श्रीजा पुरुष एकवचननुं छे. तेना अंत्य 'इ' त्रीजा पुरुषने सूचवे छे अने 'स' भविष्यकाळने. वैदिक भाषामां त्रीजा पुरुष एकवचननो 'स्यति' अने 'होसइ' नो ' सइ ' ए बेमां एकदम निकटता छे. चालु भाषामां वपरातुं होशे हशे क्रियापद अने उक्त 'होस' ए मां सर्वथा समानता छे. ९८ ' भमिज्ज' अने ' चइज्ज' क्रियापदो कर्तृसूचक छे, पण ते विव्यर्थने बतावे छे. विध्यर्थ एटले 'आम करवुं विध्यर्थ क्रियापदो जोईए.' ' भमिज्ज'–भमजे - भमनुं जोईए. ' चइज्ज ' एटले तज - तज जोईए. ए क्रियापदोमां ' इज्ज' नो 'ज्ज' प्रत्यय अंश Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ बारमो अने तेरमो सैको छे अने 'इ' तेनो पूर्वग छे. वैदिक भाषामां विध्यर्थ माटे 'यात्' वगैरे आदिमां 'य' वाळा प्रत्ययो वपराय छे. पालिभाषामां 'एय्य' वगैरे प्रत्ययो छे अने प्राकृतमां 'एज्ज' वा 'इज्ज' के 'एज्जा' वा 'इज्जा' नो प्रचार छे. उक्त भिमिज्ज'- चइज्ज'मां 'इज्ज' प्रत्यय लागेलो छे. उक्त यात्-एय्य-एज्ज ए बधां परस्पर समानतावाळां छे. आ उपरांत कर्तृसूचक एक — जइ' प्रत्यय पण विध्यर्थने सूचवे छे. जे हालनां करिज्जइ-करजे, भमिज्जइ-भमजे, पामिज्जइ-पामजे वगैरे रूपोमां वपरायेलो छे. ९९ जाणीअइ-जणाय छे, कप्पिज्जइ-कपाय छे, गिलिज्जइ-गळाय छे, माणिअइ-मणाय छे; वगैरे क्रियापदो उक्त कृतिओमां वपरायां छे. अने ते बधां कर्मणिरूपो छे. वैदिकभाषामां कर्मणि-क्रियाकर्मणि-क्रियापदो पदोमां कर्मसूचक 'य' प्रत्यय वपराय छे. क्रियते, पीयते, गीयते, स्थीयते, दीयते, धीयते, वगैरे. पालिमां पच्चते, पञ्चति, तुसियति, मथीयति, गच्छीयते, करीयते, कय्यति वगैरे कर्मणि-भावे रूपोमां य, इय, ईय अने य्य प्रत्यय लागेलो छे. प्राकृतमां कर्म अने भाव अर्थमां 'ईअ' अने 'इज्ज' प्रत्ययोनी भलामण आचार्य हेमचंद्रे करी छ: (८-३-१६०) वैदिक 'य' पालिना 'य' ' इय', ईय, के य्य अने प्राकृतना ‘ईअ' वा 'इज्ज' ए बधा समानवंशना छे. ए बधामां थोडा थोडा उच्चारणभेद सिवाय बीजो भेद नथी. बधार्नु मूळ एक छे. १०० अहीं प्रसंगवशात् कर्म अने भावे रूपनी थोडी चर्चा करी लईए : Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषाती उत्क्रान्ति सोळमा सैकाना वाक्यप्रकाश नामना औक्तिक जेवा हस्तलिखित ग्रंथमां लख्युं छे के, " द्वियोक्तिः प्रध्वरा वका, प्रध्वरा कर्तरि स्मृता । वा कर्मणि भावे च धातोः साप्यात् - अनाप्यतः ॥२॥ - अर्थात् क्रियाने सूचवती बोलवानी पद्धति बे जातनी छे: एक पाधरी - सीधी अने बीजी बांकी. कर्तरि प्रयोगबाळी बोलवानी रीत पाधरी छे. ( करुं छं, जाउं छं वगेरे ) अने कर्मणि प्रयोगवाळी तथा भावे प्रयोगवाळी बोलवानी रीत बांकी छे. ( कर्मणि- कराय छे, जवाय छे, हसाय छे. ) ( भावे - जगाय छे, रमाय छे, बीवाय छे. ) ज्यां क्रियापदनुं वचन कर्ता प्रमाणे फरे ते ' कर्तरिप्रयोग' अने ज्यां क्रियापदनुं वचन कर्म प्रमाणे फरे ते ' कर्मणिप्रयोग'. भावेप्रयोगमां तो एकवचन होय छे अने तेनो संबंध क्रिया साधे रहे छे. २६६ कर्मणि अने भावे प्रयोगनी चर्चा २८२ वाक्यप्रकाशनो आरंभ " प्रणम्यात्मविदं विद्यागुरुं श्रीदेववर्धनम् । मुग्धबुद्धिप्रबोधार्थम् - उक्तियुक्तिः प्रतन्यते " ॥ १ ॥ वाक्यप्रकाशनो अंत -- 'गुरुतपगणगगनाङ्गणतरणिश्रीरत्नसिंहसूरीणाम् । (c शिष्याणुना इदम्-औक्तिकम् - उदितम् उदयसंज्ञेन " ॥ १३० ॥ 'मुनि - गगन - शर- इन्दुमिते ( १५०७ ) वर्षे हर्षेण सिद्धिपुरनगरे प्राथमिकस्मृतिहेतोर्विहितो वाक्यप्रकाशोऽयम् । १३१ ॥ 66 Colle तात्पर्य ए के श्रीदेववर्धन- विद्यागुरु-ना शिष्य अने रत्नसिंहसूरिना हस्तदीक्षित शिष्य उदयसिंहमुनिए प्रस्तुत वाक्यप्रकाशनी रचना सिद्धपुरनगरमा १५०७ विक्रमसंवत्मा करी छे. आ पुस्तकनी पोथी साणंदमां श्रीमती साध्वी हेतश्रीजीना संग्रहमा छे. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २६७ चालु भाषामां कर्तरिप्रयोगनो विशेष प्रचार छे अने कर्मणिप्रयोगनो प्रचार विरल ले. परंतु भूतकाळमां कतरिने बदले कर्मणिनो विशेष व्यवहार छे. रामे (तृ० वि०) रावण (प्र० वि०) हण्यो, अमें ( तृ० वि० ) पुस्तक (प्र० वि०) लख्यु, तेओए (तृ० वि०) चोपडी (प्र० वि० ) वांची. आ बधा कर्मणिप्रयोगो छे. 'रामवडे रावण हणायो,' 'अमारा वडे पुस्तक लखायुं,' 'तेओ बड़े चोपडी वंचाई' आ प्रयोगो पण कर्मणि छे, मात्र बोलवानी रीतनो भेद __२८३ चालु भाषामां भूतकाळ माटे विशेषे करीने कर्मणिप्रयोगो रह्या छे, कतरिप्रयोगो प्रमाणमां घणा ओछा छे तेनु शुं कारण ? आ संबंधे विशेष विचारतां एम जणाय छे के, संस्कृतादि प्राचीन भाषाओमां भूतकाळने दर्शावनारा कर्तृसूचक प्रत्ययो छे अने कर्मसूचक वा भावसूचक भूतकृदंतो पण छे : 'रामे रावण हण्यो' एम कहेवा माटे संस्कृतमां रामः रावणम् अहन् अवधीत् के जघान (कर्तरिप्रयोग) एम बोलाय अने रामेण रावणो हतः (कर्मणिप्रयोग) एम पण बोलाय, त्यारे भाषामां भूतकाळने माटे कोई खास कर्तृसूचक प्रत्ययो नथी पण तेने बदले विशेषे करीने कर्म के भावना सूचक भूतकृदंतो द्वारा नीपजेलां क्रियापदो वपराय छे. 'हन्' नुं कर्मणि भूतकृदंत प्रा० 'हणिओ' थाय अने भाषामा क्रियापद तरीके तेनुं 'हण्यो' एवं उच्चारण थाय. कर्मणिभूतकृ. साथे आवतो कर्ता त्रीजी विभक्तिमां ज होय, ए जोतां भाषामां भूतकाळने माटे कर्तरिप्रयोगने तद्दन अल्प अवकाश छे. हा, ज्यां संस्कृतादि प्राचीन भाषाओमां भूतकाळ माटे कर्तरिभूतकृ. पण वपराय छे त्यां भाषामां पण ए ज रीते व्यवहार छे अने एवे स्थळे भाषामां पण भूतकाळमां कर्तरिप्रयोगनो प्रचार छ : रामः गतः-रामो गओ-राम गयो. पण आ जातनां कर्तरिभूतकृ० घणां विरल छे. अर्थात् भाषामां भूतकाळ माटे कर्मणिभूतकृ० द्वारा नीपजेलां क्रियापदोना प्रयोगोनी अधिकता होवाथी भूतकाळमां कर्तरिप्रयोगने घणो ओछो अवकाश छे अने आम छे तेथी भाषामां भूतकाळ माटे कर्मणि के भावे प्रयोगोनो विशेष प्रचार छे. 'राम गयो' एम कहेवा माटे संस्कृतादिभाषाओमां 'रामः अगच्छत् , अगमत् , जागम, गतः' एम बोलाय अने 'रामेण गतम् ' एम पण बोलाय त्यारे भाषामां तो एकलं 'राम गयो' एम ज बोलाय ए ध्यानमा रहे. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति छे. कर्तरिप्रयोगमा कर्ता प्रथमा विभक्तिमां अने कर्म बीजी विभक्तिमां आवे छे, त्यारे कर्मणिप्रयोगमा कर्ता त्रीजी विभक्तिमा अने कर्म पेली विभक्तिमां आवे छे. वाक्यप्रकाशनो कर्ता कहे छे के : " कालेऽतीते प्राकृतोक्तौ न भेदः कर्तृकर्मणोः । यथा जिनोऽवदद् धर्मम् धर्मोऽवादि जिनेन वा " ॥ ५ ॥ आ श्लोकं विवरण करतां ते ग्रंथकार लखे छे के - " प्राकृतोक्तौ कालेऽतीते कर्तृकर्मणोः भेदो न स्यात् । जिनो धर्ममवदत् । धर्मोऽवादि जिनेन वा । अत्र 'वीतरागं धर्म बोलिउ ' इति - उदाहरणद्वयेऽपि समानमेव प्राकृतजनानां वचः । इदं च देशविशेषे जनभाषामाश्रित्य उक्तम् । अन्यथा कचिद् देशे वाक्यद्वयेऽपि भाषाभेदो दृश्यते यथा - ' जिनोऽवदद् धर्मम्' इत्यत्र 'वीतराग धर्म बोलतु उ' इति वदन्ति 'धर्मोऽवादि जिनेन ' ' वीतरागि धर्म बोलिउ ' इति भेदोऽपि दृश्यते । " कहेवानुं तात्पर्य ए छे के कोई प्रदेशमां जनसाधारणनी भाषामां भूतकाळसूचक प्रयोगोमां कर्मणि के कर्तरि संबंधी वाक्यभेद नथी त्यारे कोई प्रदेशमां ए बन्ने प्रयोगोने बोलवानी जुदी जुदी रीत पण छे. कर्मणि अने कर्तरि प्रयोग उपरांत ' कर्मकर्तरि नामनो एक त्रीजो प्रयोग पण छे तेनुं उदाहरण आपतां ते ज ग्रंथकार लखे छे के–“ सुखं भाइ ए ग्रंथ ( सुखे भणाय ए ग्रंथ ) आफणी कण वीकाई ( आफरडापोतानी मेळे - कण- दाणा वेकाय - वेचाय) भगवन् ! तुम्हि बंदाउ आफणी( भगवन् ! तमे वृंदाओ आफरडा - पोताने गुणे), आफणी अम्हि पूजाउं ( आफरडा-अमारी मेळे - अमे पूजाइए ), पचाणु आफणी कूर ( पचाणोरंधाणो - आफरडो कूर - कुरियानो भात ), मंडाइ आफणी कन्या ( मंडाई " Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २६९ आफरडी कन्या कन्या पोतानी मेळे मंडाय छे–शणगाराय छे." वगैरे. कर्मकर्तरिप्रयोग कर्मनी शक्तिनो प्रकर्ष बतावे छे अने एम छे माटे ज ते प्रयोगमां बीजा कर्तानी अपेक्षाने गौण करीने कर्मने कर्ता गणवामां आवे छे. आपणी भाषामां पण आवा प्रयोगोनो प्रचार तो छे ज. कर्मणि अने कर्मकर्तरिप्रयोगोमां क्रियापदोनी साधनामां खास अन्तर नथी. १०१ अहीं एक वात खास विचारवानी छे के साधारण रीते प्राकृत ___ भाषामां · ईअ' अने ' इज्ज' प्रत्ययवाळा धातुओ चालु भाषामा कर्मणिमां वपराया छे. उक्त कृतिओमां वपरायेलां 'जणाय छे' वगेरे : जाणीअड' ‘कप्पिज्जइ' वगैरे अंगो पण ए मांना 'जणाय' नी व्युत्पत्तिचर्चा प्राकृतना धोरणने अनुसरे छे, तो पछी भाषामां 'जणाय छे', 'कपाय छे' एवा प्रयोगोमां जे • “जणा', 'कपा' एवं आकारांत अंग छे ते क्यांथी आव्युं ? अने शी रीते आव्यु ? आ विशे चोक्कस निर्णय आपवो कठण छे तोपण निर्णयसाधक जे केटलीक सामग्री मारा ध्यानमा छे ते अहीं जणावी दउं छु: ___ 'जणाय छे', 'कपाय छे' जेवा प्रयोगो कर्तामां पण मळे छे. हेमहंस-" मोर कीगाई" (केकायते), फिणाय छे (फेनायते समुद्रः), कहटाय छे ( कष्टायते ), रोमन्थायते-वागोळे छे, लोहितायते-लाल थाय छे, बफाय छे ( बाष्पायते ), धुंधवाय छे (धूमायते), ऊष्मायते; सुहाय छे (सुखायते-सुखमनुभवति ), दुहाय छे (दुःखायते ), शब्दायते, कलहायते, वैरायते, आमांना 'सुहाय छे', 'दुहाय छे', 'कहटाय छे' 'बफाय छे' 'धुंधवाय छे' वगैरे प्रयोगो तो भाषामां पण प्रचलित छे. 'दुहाय छे' वगैरे प्रयोगोमां जे 'आय' प्रत्यय छे, तेनुं ज अनुकरण करीने लोको 'जणाय छे' 'कपाय छे', 'वेचाय छे' वगेरे प्रयोगोमां Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति < < आय' केम न बोलता होय ? ते एक संभावना. 'दुहाय छे' वगेरेमां आय' कर्तृसूचक छे अने ' जणाय छे' वगैरेमां कर्मसूचक छे. छतां अनुकरण करतां ते भेद रहेतो नथी एटले विपर्यास पण थई शके. २७० यायते (जवाय छे ), ज्ञायते ( जणाय छे ), ध्मायते ( धमाय छे ), घ्रायते ( सुंधाय छे), आम्नायते ( अभ्यासाय छे) वगेरे प्रयोगो कर्मणि छे अने तेमां स्पष्टपणे 'आय' नो ध्वनि रहेलो छे. ए बधा प्रयोगो शुद्ध संस्कृतना छे. ए प्रयोगोना पूर्व संस्कारथी अने विशेष परिचयथी ' जगाय छे,' ,''बोलाय छे' वगेरेमां ' आय' आवी शके एम छे, ए बीजी संभावना. भाषामा थयेला बधा विकारो प्राकृतमां थईने ज आत्रे एवो कांइ एकांत नियम नथी. केटलाक एमे आवे अने केटलाकनो सीधो संबंध संस्कृतमां पण होय. रूप पालि भाषामा 'कृ' धातुनां करीयति, करिय्यति, करिय्यते, कयिरति अने कयति एवां अनियत रूपो थाय छे. आमांनुं ' करिय्यति ' लोकभाषामा ऊतर्यु होय अने तेना 'करि' नो'कर' थई 'करय्यति' करायति'कराय ' एवं रूप नीपजतां चालु ' कराय छे' एवं रूप तेमांथी नीपजी शके एवं छे. आ क्रममां कोई प्रकारना अर्थभेदने स्थान नथी. एक 'कराय छे' रूप नीपज्या पछी एनां जेवां ' जणाय छे,' 'बोलाय छे,' ' वर्णवाय छे' वगैरे रूपो ते ज रीते आवी शके तेम छे, ए त्रीजी संभावना. 'चोराविज्जइ' के 'चोरावीअइ' जेवां सादां कर्मणि रूपो थाय छे. तेना ' चोरा ' अंशना अनुकरण द्वारा 'कराय छे,' 'जणाय छे' वगैरे रूपो आवी शके छे. चोराविज्जइ - चोरावीअइ- चोराईअइ- चोराअइ- चोरायछे. ए चोथी संभावना. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २७१ संस्कृतमा केटलाक धातु ज एवा छे के जेमने स्वार्थमां 'आय' प्रत्यय लागे छे अने ए प्रत्यय लाग्या पछी ज तेमनां क्रियापद तरीकेनां रूपो नीपजे छे: कतरि कर्मणि गुप्- गोपायति- गोपाय्यते धूपायति- धूपाय्यते विच्छ- विच्छायति- विच्छाय्यते पण-- पणायति- पणाय्यते पन्- पनायति- पनाय्यते उक्त रूपोमां ‘गुप्' ऊपरथी गोपाय' अने तेनुं कर्मणि ‘गोपाय्य" बने छे. अहीं विचारवा जेवू छे के जेम उक्त अमुक धातुओने ज स्वार्थिक 'आय' प्रत्यय लागे छे तेम लोकभाषामां कर्मणि प्रयोगमां वपराता धातुमात्रने ते 'आय' केम न लागी शके ? ए पांचमी संभावना. _ विशेष विचारतां लागे छे के ‘जणाय छे' वगैरेमां आवेलो 'आय' ज्ञायते, ध्मायते वगैरेना अनुकरणरूप होय अथवा 'करिय्यति' द्वारा ‘करय्यति' थई ते द्वारा करायति' आव्युं होय अथवा 'गोपाय्यते' नी पेठे तेनी उत्पत्ति होय. आ बाबत आ करतां पण विशेष गवेषणाने अव-- काश छे. १०२ बीजुं विचारवानुं ए छे के पहेला पुरुषना बहुवचनमा ‘करीए छीए' 'बोलीए छीए,' ‘भणीए छीए वगैरे रूपो 'करीए छीए' व्यवहारमा प्रचलित छे अने बारमा सैकानी गुजरातीमां ना 'ईए' नी व्यत्पत्तिचर्चा तो पहेला पुरुषना एकवचननो 'उं' अने बहुवच ननो 'हुँ' प्रत्यय आचार्य हेमचंद्रे बतावेलो छे. आ 'उ' प्रत्ययवाळू रूप तो आजे पण चालु छे. अने 'हुँ' प्रत्ययने Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૨ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बदले 'ईए' प्रत्यय चालु व्यवहारमां छे. वादिदेवसूरिनी कृतिमां “सुमरियई' एटले ‘स्मरीए-याद करीए' एवो प्रयोग मळे छे. तो ते प्राचीन 'इयई' के चालु ईए' क्याथी आव्यो ? 'अमे करीए छीए' वगैरे 'ईए' प्रत्ययवाळां क्रियापदो कर्तृसूचक छे. एटले तेमां ‘ईअ' के जे कर्म अने भावसूचक प्रत्यय छे तेने लाववो अने तेना अर्थनो व्यत्यय करी 'करीए' रूप नीपजावईं ते करतां कर्तामां वपराता 'करिज्जई' ना 'इज्जई' प्रत्यय ऊपरथी उक्त 'इअई' अने चालु ईए' प्रत्यय नीपजावी प्रचलित 'करीए छीए' वगैरे रूपो बनाववां विशेष उचित जणाय छे. प्राकृतमां सर्वपुरुष अने सर्ववचनमां हसिज्जइ, बोल्लिज्जइ, नमिज्जइ, होइज्जइ, ठाइज्जइ वगैरे रूपो नीपजे छे. हसिज्जइ-हसीजइहसीअइ-हसीए. ए ज प्रमाणे बोलिज्जइ-बोलीजइ-बोलीअइ-बोलीए. नमिज्जइ-नमीजइ-नमीअइ-नमीए. होइज्जइ-होईजइ-होईअइ-होईए. ठाइज्जइ-ठाईजइ-थाईअइ-थाईए-थईए के थाईए. आ प्रकारे विशेष सुगमता पूर्वक प्रचलित 'ईए' प्रत्यय आवी शके छे. अहीं ए ध्यानमा राखवार्नु छे के उक्त 'इज्जई' सर्वपुरुष अने सर्ववचनने सूचवे छे. तेनो अंत्य 'इ' त्रीजा पुरुषना एकवचननो 'इ' नथी. ए 'इज्जई' प्राकृतमां विध्यर्थने सूचवे छे (८-३-१६५ हे०) त्यारे अहीं तेने वर्तमानकाळमां लाववानो छे. विध्यर्थनो प्रत्यय वर्तमानकाळने सूचवे अने वर्तमानकाळनो प्रत्यय विध्यर्थने सूचवे ए वात वेदोनी भाषामां, प्राकृतमां तेम ज लोकभाषामां नवाईनी नथी. १०३ त्रीजी कृतिमा 'छे' ना अर्थने बतावनाएं 'अच्छइ' 'अच्छा 'नी रूप मळे छे अने 'बेसी रहे'ना अर्थवाळु 'अच्छि' व्युत्पत्तिचर्चा रूप मळे छे. धातुसंग्रहमां 'अस्' धातु अनेक छे. पहेला गणनो ‘अस्' Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २७३ 'दीप्ति,' 'गति' अने 'आदान' एम त्रण अर्थोने बतावे छे. बीजा गणनो 'अस्' सत्ता-विद्यमानताना भावने सूचवे छे. त्रीजो चोथा गणनो 'अस्' 'क्षेपण' अर्थनो वाचक छे. एक दशमा गणनो 'अस्' धातु चंद्राचार्यने ( बौद्ध चंद्रगोमिने) मते ‘विभाग' अर्थने बतावे छे. बीजा गणनो 'आस्' धातु उपवेशन–बेसवाना भावनो दर्शक छे. उक्त धातुओमांथी 'छे' ना अर्थने सूचवनार ‘अच्छइ' क्रियापदनुं मूळ बीजा गणना 'अस्' धातुमां छे. केटलेक स्थळे उक्त 'आस्' अने 'अस्' बन्ने सरखा जेवा अर्थमां वपराया छे. हेमाचार्य पोताना व्याकरणमां ' अच्छ'नो संबंध 'आस्' साथे बतावे छे अने 'अस्'नुं 'अत्थि' रूप जणावे छे. 'अत्थि' रूप सर्व पुरुष अने सर्व वचनमां वपराय छे. अर्थदृष्टिए जोईए तो 'अस्' मांथी 'अच्छ' नीपजाववो विशेष संगत लागे छे. 'स्' - 'छ' परिणाम संभवित छे अने संगत पण छे. मूर्धन्य 'ष' नु, तालव्य 'श' नुं अने दंत्य ‘स' नु छ' रूपे परिवर्तन हेमचंद्र पोते बतावे छे. षट्-छ.। षट्पद-छप्पय । षष्ठ–छट । षण्मुख-छम्मुह । शमी-छमी। शाव-छाव। शिरा-छिरा। सुधा-छुहा । सप्तपर्ण-छत्तिवण्ण। स्पृहा-छिहा । [८-१-२६५, २६६. ८-२-२३.] हेमचंद्रे पोते ‘अस्' ना 'स्' नो 'छ' कही बताव्यो नथी, पण 'अस्' ना छवाळा जे जूना प्रयोगो मळे छे ते ऊपरथी तेने समझवानो रह्यो. जैन आगम व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवतीसूत्र-नामना अंगमां ‘अत्थि' अने 'अच्छिति' तथा ' अच्छेज्जए' एवा बन्ने प्रकारना प्रयोगो मळे छ :___" तो मे अत्थि उटाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी अच्छिति" १८ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवतीसूत्र शतक २. उद्देशक १. स्कंदकनो अधिकार पृ० २४२ राय० जिना० ) उक्त वाक्यनो अर्थ एम छे के एक स्कन्दक नामनो तपस्वी पोताना मनमां आवी धारणा राखे छे के—“ ज्यां सुधी मारां उत्थान, बल, वीर्य अने पुरुषपराक्रम हयात छे त्यां सुधीमां अने ज्यां सुधी मारा धर्मोपदेशक धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीर जिन अच्छिति-जीवता बेठा छे-हयात छे.” (त्यां सुधीमां हुं तेमनी पासे जाउं ए श्रेयरूप छे) उक्त 'अच्छिति' क्रियापदनुं मूळ, सत्तासूचक 'अस्' मां छे. ए ज व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवतीसूत्रमा बीजे स्थळे (शतक १, उद्देशक ७, प्रश्न २५८ मां ) जणावेलुं छे के-“जीवे णं भंते! गब्भगए समाणे उत्ताणए वा पासिलए वा अंबखुज्जए वा अच्छेज्जए वा, चितुज्जए वा, निसीएज्ज वा, तुयट्टेज वा, माउए सुबमाणीए सुवइ, जागरमाणीए जागरइ, सुहिआए सुहिए भवइ, दुहिआए दुहिए भवइ ?" अर्थात् “हे भगवन् ! गर्भमां गयेलो जीव चत्तो अच्छेज्जए-होय, पडखाभेर होय, केरीनी जेबो कुब्ज होय, चिडेजएऊभेलो होय, निसीज्जए-बेठेलो होय के तुयहेज-सूतेलो होय ? तथा ज्यारे माता सूती होय त्यारे सूतो होय, माता जागती होय त्यारे जागतो होय, माता सुखी होय त्यारे सुखी होय अने माता दुःखी होय त्यारे दुःखी होय ?" अहीं 'अच्छेजए' नो अर्थ आपतां टीकाकार कहे छे के "'आसीत' सामान्यतः” अर्थात् “साधारणपणे 'होय" एवो अर्थ समझवो. 'बेसबुं' एवा खास अर्थनी सूचना माटे मूळकारे 'निसीएज्ज-' 'निषीदेत्' एवं जुएं क्रियापद आप्युं छे. तेथी अहींनी 'अच्छेन्जए' क्रिया ' होवा'ना अर्थने-सत्ताना भावने-सूचवे छे. अने ए अर्थ जोतां 'होवा' सत्ता-अर्थवाळा 'अस्' धातु द्वारा उक्त 'अच्छिति' के Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २७५ 'अच्छेज्जए' क्रियापदने नीपजावq असंगत नथी. टीकाकारे जणावेलु 'आसीत' पद उक्त 'अस्' धातु- पर्यायसूचक छे ए ख्यालमां रहे. श्रीमान वेबर साहेब भगवतीसूत्रना उपर्युक्त पाठनो आधार लई 'अच्छेज्जए' नो अर्थ जाय-गति करे' एवो कल्पे भ्रात छे. अने तेम कल्पी ए ' अच्छेज्जए' क्रियापदना कल्पना " ' अच्छ' अंगने ‘गति' अर्थवाळा ‘गच्छ' धातुमांथी लाववानी बात करे छे. तेमनी ते वात सर्वथा भ्रांत छे. उक्त पाठमां 'अच्छेज्जए' नो ‘जाय' अर्थ ज नथी. व्युत्पत्तिशास्त्रना ऊंडा अने प्रामाणिक अभ्यासी नरसिंहराव भाईए श्रीमान दिवेटिया महाशय अहींना 'निसीएज्ज'नो जणावेलो अर्थ । अर्थ 'ते सुवे'एवो आपे छे. अने 'अच्छेज्जए'नो बराबर नथी - अर्थ “बेशे" एवो करे छे-[गुजराती भाषा अने साहित्य पृ० २४९] अहीं मारे विशेष नम्रपणे जणावयूँ जोईए के उक्त पाठमांगें 'निसीएज्ज' क्रियापद 'नि-शी' ऊपरथी नथी ज आव्युं, परंतु सं० निषीदेत् , पालि-निसीदेय्य, प्राकृत-निसीएज्ज ए रीते आवेलुं छे. 'निसीएज्ज' नी टीका करतां टीकाकार कहे छे के “निसीएज्ज-निषदनस्थानेन, 'तुयट्टेज 'त्ति शयीत" अर्थात् मूळकार 'सुवा' ना अर्थ माटे 'तुयट्टेज' क्रियापद जुदुं ज आपे छे एटले 'निसीएज्ज'नो अर्थ 'बेसे' एवो ज अहीं लेवानो छे. नहीं के 'अच्छेज्जए' नो 'बेसे'. वेबर महाशय तो 'तुयट्टेज्ज' ने बदले 'उयट्टेज्ज' पाठ आपे छे अने ए पाठनो अर्थ तेओ 'ऊठे' एवो करे छे. तेमनो आ अर्थ पण तद्दन खोटो छे अने मूळपाठ पण तेमणे खोटो कल्पेलो छे. 'ऊठवा' ना अर्थमां प्राकृत साहित्यमा 'उयट्टेज्ज' क्रियापद ज नथी. 'उह' धातु 'ऊठवा 'ना अर्थने बतावे छे परंतु 'उह', 'उयटेज्ज' रूप कोई काळे Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति संभवतुं नथी. ए तो तेमणे मूळपाठ अने तेनी टीका तरफ ध्यान नथी आप्यु तेथी ज मुद्रणमां पाठनी अने समझणमां अर्थनी भ्रांति थई गई छे. बीजा टेसीटोरी साहेब 'ऋछ' धातु ऊपरथी 'अच्छ' धातुनी कल्पना करे छे, ते पण बराबर नथी. तेमनी आ कल्पना टेसीटोरीनी मात्र अक्षरसाम्यने आभारी छे. वळी, व्यंजन कल्पना विनाना एकला 'ऋ' नुं प्राकृत उच्चारण 'रि' विवादास्पद थाय छे. ए हेमचंद्रना ८-१-१४० ना नियम ऊपर तेमनुं लक्ष्य नथी गयु. खरी रीते 'ऋच्छ' माथी बहु बहु तो 'रिच्छ' लावी शकाय पण 'अच्छ' आववानो संभव नथी. आम छतां य नियमोनी अनिश्चितताने लीधे तेओ 'ऋच्छ' मांथी 'अच्छु' लाववामां कदाच सफळ थाय पण 'अच्छ' अने 'ऋच्छ' ना अर्थमा जे जमीनआसमान जेटलं अंतर छे तेनुं शुं ? वर्णनो विकार थतां अर्थमां पण फेर थाय छे, एबुं बनतुं कदी जाण्यु नथी. एटले 'ऋच्छ' माथी 'अच्छ' उपजाववानी कल्पना पण संगत भासती नथी. बीजा केटलाक महाशयो 'अक्ष' माथी 'अच्छ' लाववानी वात करे . छे. जेओ एम कहे छे तेओ 'अक्ष' धातुनो म्सि महाशयनी · दीप्ति' अर्थ बतावे छे. में पाणिनीयनो अने हेम'अक्ष' द्वारा __ चंद्रनो एम बन्ने धातुसंग्रह तपास्या पण तेमां एकेमां । 'अच्छ' लाववानी कल्पना 'अक्ष' धातु ' दीप्ति' अर्थमां नथी. 'अ' अने __ 'अस्' धातु “दीप्ति' अर्थमां छे अने 'अक्ष' धातु ' व्याप्ति' अने 'संघात' अर्थमां छे. “अक्ष' मांथी 'अस्' लाववानी कल्पना निरपवाद वर्णविकारनी दृष्टिए अने धात्वर्थनी दृष्टिए एम बन्ने रीते असंगत छे. स्व० श्रीमान नरसिंहराव भाईए 'अक्ष' माथी 'अस्' लावनार गृहस्थनो मत पोताना उक्त पुस्तकमां (पृ० २५३) सविस्तर Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २७७ जणावेलो छे. तेमां तेओ जणावे छे के भोजपुरी भाषामां वपराता 'हशे' के L 'हो' अर्थने सूचवता 'होखे ' रूपमा देखाता 'ख'नी उपपत्ति करवा सारु उक्त महाशय, ' अक्ष' मांथी ' अख' अने ' अस' बन्नेने लाववानुं सूचवे छे. आ संबंधे मारे ‘अक्ष' मां ' अख्' अने ' अस्' नुं मूळ शोधनार बीम्स साहेबना मतनो विशेष नम्रताथी अनादर करवो रह्यो . भोजपुरी ' होखे 'ना 'ख' नी उपपत्ति बीजी रीते पण प्रामाणिकपणे थई शके एम छे: जैन - आगम उत्तराध्ययन सूत्रना मूळमां- अध्ययन बीजुं गाथा बेरिंमीमां- 'होक्खामि' अने 'होक्खं ' एवा बे स्पष्ट प्रयोगो मळे छे. आशरे दशमा सैकाना विद्वान टीकाकार शांतिसूरिए ए बन्ने प्रयोगोने भविष्यकाळ प्रथम पुरुष एकवचनना जणाव्या छे अने तेनो संस्कृत पर्याय ' भविष्यामि ' जणावेलो छे. 6 ष्यामि ' ए भविष्यकाळ प्रथम पुरुष एकवचननो प्रत्यय छे. संभव छे के ए‘अस्' धातुमांथी नीपजेलो होय. 'भू' धातुनुं प्राकृत अंग 'हो' छे. ए 'हो' ने आ ' व्यामि' प्रत्यय लागतां ' होण्यामि' एवं थाय. 'ध्यामि' ना आदिभूत मूर्धन्य 'ष' नुं लोकभाषानी रीतप्रमाणे 'ख' उच्चारण थतां ' होख्यामि' एवं नीपजे अने पछी 'ख्यामि 'नो संयुक्त 'य' प्राकृत पद्धति प्रमाणे लोप पामतां, शेषनो द्विर्भाव थया पछी 1 'ख्खा' नो ' क्खा' थतां 'होक्खामि ' रूपनी सहेजे उपपत्ति थई शके 'छे अथवा ' हो + स्सामि' अने 'हो + स्सं' एवो विभाग राखीए. तेमां २८४ प्रस्तुत गाथा आ प्रमाणे छे : cc 'परिजुनेहिं वत्थेहिं होक्खामि त्ति अचेलए । अदुवा सचेलए होक्खं इइ भिक्खु न चिंतए " ॥ " होक्खामि - भविष्यामि " - टीका । “ होक्खं - भविष्यामि " - टीका । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'हो' ते 'भू' धातुनुं प्राकृत अंग छे अने 'स्सामि' तथा 'सं' ते भविष्यकाळना प्रथम पुरुषना एकवचनना प्रत्ययो छे (८-३-१६९) संस्कृतमां वपरातो 'स्यामि' अने आ प्राकृत ‘स्सामि' तद्दन मळता छे. पालिभाषामां पण एवो ज ‘स्सामि' अने ‘स्सं' प्रत्यय छे. 'होस्सामि' अने 'होस्सं' मां आवेला 'स' - 'ह' उच्चारण तो हेमचंद्रे नोंघेलं छ (८-३-१६७ ). उक्त ‘होक्खामि' अने ‘होक्ख' रूपमां ‘स्सामि' अने ‘स्सं' ना 'स' नुं 'ख' उच्चारण थयेलुं छे. 'अस्मि' वगैरे रूपोमां पालि अने प्राकृत बन्ने भाषामा 'स' - 'ह' उच्चारण सुप्रतीत छे. तेम ज खोरदेह-अवेस्तानी भाषामां तो 'स' नुं 'ह' उच्चारण विशेष प्रचलित पण छेः हन्ती (सन्ति) पृ० ५, हस्तेम् (सूक्तम् ) पृ० ९. वोहुँ (वसु) पृ०९-खोरदेह-अवेस्ता। हार्ताम्-(सताम् ) पृ० १२, हुमतांचा ( सुमत ) पृ० २८, हाँ (सा) पृ० ६५, हर्धे (सह) पृ० ७९,९०, हप्त-( सप्त-) पृ० १५४, हथा (सत्रा) पृ० १८०, अहुरह्या (असुरस्य) पृ० १८१, ह्वो"(स्वः) पृ० १८४, (-खोरदेह-अ०) वगेरे अनेक प्रयोगोमां 'स' नुं 'ह' उच्चारण विद्यमान छे. ए ज रीते खोरदेहअवेस्तामां 'स' ने बदले 'ख' नुं उच्चारण पण प्रचलित छे. ख्यात्(स्यात् ) पृ० १७४, १८४, ख्यामों ( स्याम ) पृ० १८४, नेमख्यामही-(नमिष्यामहे ) पृ० १८३ वगैरे. जेम अवेस्तानी भाषामां ‘स' नुं 'ख' उच्चारण उपलब्ध छे तेम प्राचीन प्राकृतमां पण ते जरूर संभवी शके अने तेथी ज उक्त उत्तराध्ययन सूत्रमा 'होस्सामि' नुं ' होक्खामि' अने 'होस्सं' - ‘होक्खं' एवां रूपो मळे छे. संभव छे के 'स' नुं 'ह' मा परिवर्तन थया पछी ते 'ह' 'ख' रूपे उच्चारातो होय. 'ह' अने 'ख' मां कंठस्थाननी समानता छे अने प्राकृतमा 'ख' नु परिवर्तन 'ह' मां थाय पण छे. जेम 'ख' 'ह' रूपे परिणमे छे तेम Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको वाग्व्यापारनी विलक्षणताने लीधे सीधो 'स' 'ख' रूपे परिणमे अथवा 'स' नो 'ह' थई ते 'ख' रूपे परिणमे. एक 'पाषाण' अने 'पंड' शब्दना पाषाण-पासाण-पाहाण-पाखाण. वनपंड-वनसंड-वनखंड. ("षण्डः कानने इट्चरे" हेम० अने० कां० २, श्लो० १२७)आवा अनेक ध्वनिओ सुप्रतीत छे.. तात्पर्य ए के 'होखे' रूपमा 'ख' जोई तेनी उपपत्ति माटे श्री बीम्ससाहेबे ‘अक्ष' माथी ‘अख' ऊपजावी अने तेने 'हो' साथे जोडवानी जे कल्पना करी छे तेने अवकाश नथी एटले “अक्ष' मांथी 'अख' भने 'अस' ने उपजाववानी कल्पना पण निरवकाश छे. . १०४ बीजं 'बेसी रहे' अर्थवाळु — अच्छि' रूप 'आस्' धातुमांथी आवेलं छे. 'आस्' ना 'अच्छ' माटे तो हेमचंद्रनो पोतानो संवाद होवाथी कोई विवादने अवकाश नथी. (८-४-२१५ हे०) १०५ त्रीजी कृतिमा ‘घेप्प' धातु 'ग्रहण' अर्थमां वपरायो छे. हेमचंद्र तेने 'ग्रह' साथे सरखावे छे पण खरी रीते तेम नथी. जे अर्थमां ‘ग्रह' धातु छे ते ज अर्थमां वेदनी भाषामा 'गृभ' धातु छे. 'हृ-गृहोः भः छन्दसि' ३-१-८४-पाणि० सूत्रना वार्तिकमां वैदिक ‘गृभ' धातुनो उल्लेख छे. गृभ्णामि, गृभाय वगेरे रूपो ए ‘गृभ' धातुनां छे अने ‘घेप्पंति' रूपवाळा ‘घेप्' धातुचें मूळ ए 'गृभ' मा छे, नहीं के * ग्रह' मां. १०६ हेमचंद्रे आपेलां पद्योमा 'खणेण पहुच्चइ दूअडउ' ए वाक्यमां * पहुच्चइ' क्रियापद मळे छे. “क्षणमा दूत पहोंचे छे-आवे छे' एवो ए वाक्यनो अर्थ छे. ___ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'पहोंचq' क्रियापदनी व्युत्पत्ति विचारवा जेवी छे. स्व० श्रीमान नरसिंहराव भाई ‘प्राप्त' कृदन्त ऊपरथी निष्पन्न 'पहोंचबुं'नी थता प्रा० ‘पत्त' पदमा 'पहोंचवू' क्रियापदना व्युत्पत्तिचर्चा मूळने शोधे छे. 'प्राप्त' अने 'पहोंचवू' ना अर्थमां विशेष भेद नथी. 'प्राप्त' शब्द थी सूचवातुं ‘प्रापण' विशेष व्यापक छे, त्यारे ‘पहोंचवू' द्वारा सूचवाती 'प्राप्ति' 'प्रापण' करतां संकुचित छे. 'सुख पाम्यो', 'दुःख पाम्यो', 'लाभ पाम्यो', 'बायडी पाम्यो' ‘भायडो पामी' वगेरे वाक्योमा ‘पाम्यो' नो जे भाव छे ते, 'नदीए पहोंच्यो', 'घाटे पहोंच्यो', 'गाम पहोंच्यो' 'माणस पहोंच्यो' वगैरे वाक्यमां वपरायेला 'पहोंच्यो' ना भाव करतां सहेज जुदो पडे छे. तात्पर्य ए के 'सुख पाम्यो', 'भायडो पामी' वगेरे वाक्यमां जे कर्ता छे ते गतिशील ज होय छे एवो नियम नथी त्यारे 'गाम पहोंच्यो' वगैरे वाक्यमां कर्ता गतिशील होवो ज जोईए, ए जातनो भेद ‘प्राप्त' अने 'पहोंच्यो' मां स्पष्टपणे जोई शकाय छे. संस्कृत अने प्राकृतोमां तो सुखं प्राप्त:सुहं पत्तो, नदी प्राप्त:- नई पत्तो, ग्रामं प्राप्तः——गामं पत्तो, वगैरे प्रयोगोमां एक सरखी रीते ‘पत्त' शब्दनो उपयोग थयेलो छे. ए जोतां 'प्राप्त' ना 'पत्त' द्वारा आवता 'पहुच्च' मां अर्थनी विषमता नथी. परंतु ‘पत्त' मां 'ह' अने 'उ' आव्या सिवाय ‘पहुच्च' बनी ज न शके एथी पहुच्च' रूपनी निष्पत्ति माटे ‘पत्त' मा 'इ' अने 'उ' ने प्रक्षिप्त मानवा पडे छे. ___ आ संबंधे श्रीमान् दिवेटीया साहेब पोताना व्याख्यानमां जणावे छे के [""पत्तउं' मां आगन्तुक 'उ' समेत 'इ' प्रविष्ट थाय छे एटले 'पहुत्तउं' बने छ, आम थवानुं कारण अविदित छे पण उच्चारणनी अनुकूळता ज कारण हशे एम जणाय छे" पृ० २४४.]-आ रीते अहीं Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २८१ तेमने 'इ' अने 'उ' ने प्रक्षिप्त मानीने काम चलावतुं पडे छे. तथा तेमणे बीजे प्रसंगे 'ह' ना प्रक्षेप माटे जणाव्युं छे के " हकारना आ देखीता निष्कारण प्रक्षेपनो नियम प्राकृतमां पण जूज प्रसंगोमां मळी आवे छे. नापितः (सं० ) हाविओ (प्रा०) [सि० हे० ८१-२३० ], पनसः (सं० ) फणसो (प्रा०) इत्यादि इत्यादि सि० हे० ८-१-२३२"-(पृ०५३१४.) बीजी कोई गति न ज होय तो 'ह' अने 'उ' ना प्रक्षेपनो आधार लेवो उचित छे परंतु ज्यां एवा प्रक्षेप विना पण काम चाली शके छे त्यां ए जातना प्रक्षेपने स्वीकारवानी अपेक्षा नथी एवो मारो नम्र मत छे. 'प्र' उपसर्ग साथेना 'भू' धातुना भूतकृदंत प्रभूत' उपरथी ‘पहुच्च' ने निपजाववाथी 'हु' ना प्रक्षेपनी मुश्केली टळी जाय छ : प्रभूत-पभूत-पभुत्त-पहुच्च-आ क्रमे 'प्रभूत' ऊपरथी ‘पहुच्च' आवी शके एम छे. 'पहोत्यु' पद पण आ 'प्रभूत' ऊपरथी आवेलुं छे ए ख्यालमा रहे. ___ 'भू' धातुनो ‘सत्ता'अर्थ जोतां 'प्रभूत' मां तेनो ए अर्थ बदलायो केम ? अने ‘प्राप्त' नो अर्थ आव्यो केम ? ए प्रश्न अहीं थाय खरो. परंतु उपसर्ग साथे आवतां मूळ धातुना अर्थमां फेरफार के न्यूनाधिकता २८५ स० श्रीनरसिंहरावभाई आ स्थळे ४४ मा टिप्पणमां स० श्री भांडारकर महाशयनो मत टांकतां जणावे छे के-" अल्पप्राणवर्णनी पछी ते ज शब्दमा ऊष्माक्षर आवे तो ए अल्पप्राणनो महाप्राण बने छे.” 'पनस' नुं 'फणस' अने. 'परुष' - ‘फरुस' थवामां श्री. भांडारकरे बतावेलो नियम लागु थतो जणाय छे. परंतु 'पाटि' नुं 'फाडि' थवामां नियम लागु थतो जणातो नथी. श-ष-स-ह आटला ऊष्माक्षरो छे. (१-१-१७ सिद्धहेम) ए जोतां 'पाटि' मां कोई ऊष्माक्षर नथी. ___ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति थाय छे ए सिद्धांत सर्व प्रतीत छे. एथी 'प्र' नी साथेनो 'भू' 'पहोंचवा' अर्थने बतावे छे. 'भू' ना अर्थ विशे लखतां आचार्य हेमचंद्र कहे छे के “ उपसर्गवशाच्च धातोरनेकोऽर्थः प्रकाशते यथा-'प्रभवति' इति स्वाम्यर्थः प्रथमतः उपलम्भश्च"-(धातुपारायण पृ० २) अर्थात् 'प्रभवति' एटले प्रभुस्वामी–थाय छे–समर्थ थाय छे ए एक अर्थ अने बीजो अर्थ प्रथम प्राप्ति-प्रथम पहोंच-गमन. 'पहुच्च' ना मूळरूप 'प्रभूत' नो आ बीजो अर्थ लेवानो छे, एटले अर्थ संबंधी असामंजस्य रहेतुं नथी अने 'हु' ने प्रक्षिप्त मानवानी पण अपेक्षा नथी. अथवा एक बीजो ज 'भू' धातु 'प्राप्ति' अर्थवाळो छे. ते ऊपरथी 'प्रभूत' अने ते द्वारा ‘पहुत्त' ने निपजाववाथी व्युत्पत्तिनो मार्ग विशेष सरळ थई जाय छे. __ 'सत्ता' ना अर्थवाळा 'भू' धातुनो आश्रय लेतां तेनो अर्थ फेरववा 'प्र' उपसर्गनुं शरण लेवू पडे छे अने 'प्राप्ति' अर्थवाळा 'भू' धातुनो आधार लईए तो उपसर्गनी अधीनता तो जती रहे छे अने कोई अपवाद पण बहोरवो पडतो नथी. __" भूङः प्राप्तौ णिङ् ।३।४।१९। भुवः प्राप्त्यर्थाद् णिङ् वा स्यात् भावयते, भवते–प्राप्नोति इत्यर्थः ।.... सर्व भवते-प्राप्नोति-इत्यर्थः"(सिद्धहेम० ) " भूङः प्राप्तौ णिङ्-भावयते पदम्-प्राप्नोति–इत्यर्थः । पक्षे उत्साहाद् भवते लक्ष्मीम्"-(धातुपारायण पृ० ४) “ भू १८४५ प्राप्तौ-आत्मनेपदी भावयते-भवते" ( वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी पृ० ३०१ उत्तरार्ध) “प्राप्ते तु भावितम् । लब्धम् , आसादितम् , भूतम्" ( अभिधान० कां० ६, श्लोक० १२६) उक्त बधां प्रमाणो 'प्राप्ति' अर्थवाळा 'भू' धातुनां निदर्शक छे. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ૨૮૨ बळी, हेमचंद्र ( ८ -४ - ३९० ) पण ' पहुच्चइ' ना ' हुच्च' अंगने 'भू' धातु द्वारा साधी बतावे छे. आ रीते 'प्राप्ति' अर्थवाळा 'भू' धातु द्वारा 'प्रभूत' नीपजाबी ते द्वारा 'पहुच्च' लाववुं विशेष सरळ छे. प्रसंगवशात् अहीं ए पण जणाववुं जोईए के श्रीनरसिंहराव भाईना उल्लेखमां 'नापित' मां जे 'ह' ना प्रक्षेपनी कल्पना छे ते पण संगत नथी. ' नापित' शब्दनुं मूळ 'स्ना' – 'हा' धातुमां छे. एटले तेमां मूळथी ज 'ह' छे पण 'ह' बहारथी ऊमेरवानी जरूर नथी. १०७ आचार्य हेमचंद्र कहे छे के, 'भू' धातु केटलेक स्थळे 'विद्यमानता' ना अर्थने बतावे छे. - " धनानि सन्ति भाषामां शैलीनी विशेषता धन छे.” केटलेक स्थळे 'थवुं' एटले 'पहेलां न होय अने पछी थाय' एवा अर्थने पण बतावे छे. श्रुतधरः पुत्रो भवति" - पंडित पुत्र थाय छे.' ( धातुपारायण पृ० २ ). उक्त कृतिओमां ए बन्ने अर्थने सूचवनारां 'भू' धातुनां क्रियापदो आव्यां छे. 66 १ ' अपवित्तओ वि जण होइ पवित्तउ ' - ४ - अपवित्र जण पण पवित्र थाय छे. २ ' कह होसु हयासउ' – २८ - हताश एवो हुं केम थईश एटले हताश एवा मुजनुं शुं थशे ? ३ ' होइ विहाणु ' - २८ - सवार थाय छे. ४ ' लहुइहूआ ' - २९ – नाना थया. ५ ' होसइ करतु म अच्छि ' - ३१ - ' हशे ' करतो म-न- बेस' ' – ५८ - सज्जनोनो स्नेह होय छे. ६ ' सज्जणहं होइ ने Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ७ " देस खण्णा होंति " - ५९ - देशो रम्य थाय छे. ऊपर जे वाक्यो आप्यां छे तेमां मूळ वाक्योमां तो बधे 'भू' धातुनो ज प्रयोग छे. छतां अनुवादमां क्यांय ' थाय छे' ए रीते 'स्था ' धातुना क्रियापदथी अर्थ बताव्यो छे अने क्यांय 'भू' धातुना ' होय छे' क्रियापदथी अनुवाद आप्यो छे. आ एक प्रकारनी भाषाशैली छे. हेमाचार्यनां जमानामां वा तेमनाथी पूर्वना जमानामां पण जे अर्थ आपणे हमणां 'स्था' ना 'था' धातुथी अने 'अस्' ना 'छे' द्वारा बताविए छिए ते अर्थ पण 'भू' धातु द्वारा सूचवातो परंतु पछीना समयमां एक ‘भू' धातुना अर्थ माटे 'अस्' ' अनें' 'भू' एम त्रण जुदा जुदा धातुओ वपरावा लाग्या एटले 'स्था ' विद्यमानता सूचत्रवा 'स्था', अने 'होवुं' अर्थ ' छे ' – ‘अस्’, माटे ' हो ' ' भू' 'थवुं ' अर्थ माटे ' था ' एवो विभाग थई गयो. 6 आ तो एक भाषाशैलीना परिवर्तननुं उदाहरण छे. एवं ज बीजुं उदाहरण 'भण ' धातुने लगतुं छे. हेमाचार्यना ' भण्' नो उपयोग समयमां वा तेमनाथी य पूर्वना समयमां ' कहेवा 'ना अर्थमां ' भण' धातुनो प्रयोग अनेकानेक स्थळे थयेलो छे अर्थात् 'ते कहे छे' एवा अर्थमां ' भणति' एवं क्रियापद वपरायेलुं छे त्यारे आपणी चालु भाषामा ' भण' धातुनो प्रयोग मात्र ' भणतर भगवाना' अर्थमा आवी संकोच पाम्यो छे. आपणे त्यां ' भणे छे' एटले ' विद्याभ्यास करे छे' एवो ज अर्थ रह्यो छे. 6 भण' धातुनो मूळ अर्थ ' शब्द करवो अवाज करवो' छे. छंदोनुशासनना उक्त ३२ मा पद्यमां ' भणि' क्रिया ' कहे' ना अर्थने बतावे छे. आपणी भाषामा 'भण' नो अर्थ संकोच पाम्यो छे त्यारे मराठी Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २८५ भाषामां ' भण' ऊपरथी आवेला ‘म्हण' नो मूळ अर्थ सामान्य कहेवू'वात चीत करवी' ए सर्वत्र प्रचलित छे. __ए ज रीते हिंदी भाषामां आपणी भाषानी पेठे 'थर्बु' ना अर्थ माटे जुदो धातु नथी, परंतु 'थर्बु' नो अर्थ 'भू' धातु द्वारा ज सूचवाय छे. आम प्रत्येक भाषानी जुदी जुदी विशिष्टता होय छे. शैलीभेदनी एक बीजी वात पण कहेवा जेवी छे. आपणी चालु भाषामां 'मास्तरे छोकराने ऊठबेश करावी' ए वाक्यमां 'करावी' साथे 'ऊठबेश' पदनो संबंध छे त्यारे हेमचंद्रे आपेला एक दोहामां ए ज रीते वपरायेला 'कराएं' क्रियापदनो संबंध 'ऊठबेश' साथे नथी परंतु ' ऊठबेश करनार' साथे छे. ते वाक्य आ प्रमाणे छ: “ तो वि गोड्डो कराविआ मुद्धए उट्टबईस" ६३–“ तथापि मुग्धया गोष्ठका :—-गोपालाः उत्थानोपवेशनं कारिताः ” अर्थात् ' ते मुग्ध स्त्रीए गोवाळोने ऊठबेश करावी.' उक्त वाक्यना विवरण ऊपरथी चोक्खं जणाय छे के ‘कराविआ' नो संबंध गोवाळो साथे छे नहीं के ऊठबेश साथे. संस्कृत शैलीनी रचना आवी ज होय छे, अने विद्वानोनी रचनामां ते शैली जाण्ये अजाण्ये पण आवी ज जवानी. 'मुग्ध स्त्रीवडे गोवाळो ऊठबेश करावाया' आवो अनुवाद उक्त वाक्यनो अक्षरशः अनुवाद छे, परंतु एवो अनुवाद सारो जणातो नथी. १०८ उक्त त्रणे कृतिओमां वपरायेलां कृदंतोनो परिचय आ प्रमाणे छ : २८६ आ प्रयोगनी साधना माटे जुओ सिद्धहेम २।२।८। “हृ-क्रोनवा" (कारक प्रकरण) मुद्धा गोवाले उट्ठबईस करावेइ अथवा 'मुद्धा गोवालेहिं उट्ठबईस करावेइ.” ए रीते प्रेर्य कर्ता 'गोवाल' बीजी अने त्रीजी विभक्तिमां वाराफरती आवे छे. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अभयदेव-समरंत, करि, विलवंतउ, जंपिउ, चिट्ठिउ, कप्पिउ, बारमा कानां अवलंबिउ, किय, पत्तउ, पियंकरु, खेमंकरु, झंखंत, कृदंतो अनेतेमना सोहिय, थुणंतउ, मुयवि, जोइवि, पासिवि, दुक्खिय, प्रत्ययोनां मूळ पयासिउ. उक्त पदोमां ‘करि', 'अवलंबिउ', 'मुयवि', 'जोइवि' अने 'पासिवि ' ए बधां संबंधक भूतकृदन्त छे. ‘समरंत', ' विलवंतउ', ' झंखंत', अने 'थुणंतउ' ए वर्तमानकृदंत छे. ‘पियंकरु' अने खेमंकरु' ए कर्तृसूचक कृदंत छे. तथा जंपिउ, चिट्ठिउ, कप्पिउ, किय, पत्तउ, पयासिउ, अने दुक्खिय ए बधां भूतकृदंत छे अने क्रियापदने स्थाने वपरायां छे. देवमूरि-वक्खाणंतओ-वर्तमानकृदंत. परिवारियओ, सोसीउ, वूहउ, फेडिय, वक्खाणिय, दिहु, पसन्ना, उहिउ.-भूतकृदन्त. पयडिवि, मुणिवि.-संबंधक भू० कृदंत. हेमचंद्र-निसिआ, लिहिआ, दडा, दिट्ठउ, फुट्ट, पसरिअउं, आवासिउ, वाहिउं, मुइअ, गइअ, किअउं, दिद्वउं, पूरिअ, हुआ, मुंडियउं, निहित्तउं, संसित्तउ, मुएण, जोइउ, भग्गा, लग्गया, निम्मविअ, मुआ, त्रुट्टी, किउ, आइउ, पइट, बइट्टउ, पइट्टउ, विलग्गी, अकिया, लुक्का, पणहइ, विनासिआ, विद्वत्तउं, चडिआ, हसिउ, पम्हट्टउ. -भूत० कृ० दारंतु, चिंतताहं, करतु, नवंताहं, संता, झलकंति, जिआवंतिहिं, रणझणंत, सिंती.-~-वर्त० कृ० ___ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको सुणिवि, सुमरि, मन्नावि, देक्खिवि, भणवि, करेप्पिणु, विछोडेवि, जेप्पि, देप्पिणु, लेवि, झारविणु, गंप्पिणु, गप्पि, गमेप्पि, जिणेप्पि, घडेविणु.-संबंधक भू० कृ० अब्भत्थणि, विच्छोहगरु, सोएवा, जग्गेवा.--सामान्य कृ० १०९ उक्त कृदंतोनी रचना जोतां ते बे प्रकारनां जणाय छे. एक तो एवां छे के जेओ संस्कृतमाथी प्राकृतना धोरणे वर्णविकार पामी सीधां आव्यां छे : दृष्ट-दिट्ठ, लग्ग-लग्न, मृत-मुअ, प्रनष्ट-पणट्ठ, दग्ध-दड्ड, प्रविष्ट-पइट, कृत-किय, भूत-हूअ वगेरे. बीजां धातुना अंगद्वारा मूळथी प्राकृतना धोरणे तैयार थयेलां छे. _ प्राकृतमां भूतकृदंत बनाववा माटे धातुमात्रने 'त'-'अ' प्रत्यय लागे छे. एक एवो नियम छे के प्राकृतमां कोई पण व्यंजनांत धातुने अंते 'अ' ऊमेराय छे. [८-४ -२३९ हे० ] तथा अकारांत सिवायना स्वरांत धातुने छेडे पण 'अ' विकल्पे उमेराय छे. [८-४-२४० हे० ] अने भूत कृदंतोमा लागेला ए 'अ' नो 'इ' थाय छ: (८-३-१५६ हे०) आ प्रक्रिया द्वारा जंप +अ+ अ = जंपिअ, पसर + अ + अ = पसरिअ, शुष्–सोस्+अ +अ = सोसिअ-सोसीअ. 'ध्या' धातु, झा+अ+ अ =झाइअ. 'व्याख्यान' ऊपरथी नामधातु-बक्खाण+अ+ अ = वक्खाणिअ. 'लुक्क' 'तुट्ठ' वगैरे भूतकृदंतो अनियमित रीते सधायेलां छे. ११० वर्तमान कृदंत माटे प्राकृतमा 'अंत' अने 'माण' प्रत्यय छे : (८-३-१८१ हे० ) धातुना अंगने ए प्रत्ययो वर्तमानकृदंत लागतां ज वर्तमान कृदंत बने छे अने प्रत्ययो लाग्या पछी पूर्वोक्त नियमथी धातुने लागेला अंत्य 'अ' नो 'ए' पण थाय छे : (८-३-१५८ हे० ) Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति स्मृ-सुमर् + अ + अंत सं० स्मरत् - सुमरंत, सुमरेंत; दृ-दार् + अ + अंत = दारंत ( दारयत् ), कृ + अ + अंत = करंत ( कुर्वत्) आ कृतिओमां वपरायेलां बधां वर्तमान कृदंतो 'अंत' प्रत्ययवाळां छे. संस्कृतमां ' माण' प्रत्यय आत्मनेपदी धातुने ज लागे छे, पण प्राकृतमां 'माण' प्रत्ययनो व्यवहार सर्वत्र अबाधित छे. छतां आ कृदंतोमां तेनो प्रयोग देखातो नथी. 4 २८८ चालु भाषामां वर्तमान कृदंतना 'अंत' अने 'अत' प्रत्ययो प्रचलित छे: वदंती, जमंतो, हलंतो अने करतो, जमतो, भणतो वगैरे. प्राकृतनो 'अंत' अने आ 'अंत' तथा ' अत' ए बन्ने एक ज छे. हेमचंद्रना ३१ मा पद्यमां ' करतु' पद वर्तमान कृदंतरूपे वपरायुं छे, एटले आपणी आजनी भाषामां वपरातो वर्तमान कृदंतनो 'अत ' प्रत्यय ठेठ हेमाचार्यना समयथी चाल्यो आवे छे अने वर्तमान कृदंत माटे विशेषे करीने ए एक ' अत' प्रत्ययनो ज भाषामां व्यवहार छे. १११ संबंधक भूतकृदंत माटे हेमाचार्य अनेक प्रत्ययो आपे छे. इ, इउ, इवि, अवि, एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु-आ संबंधक भूतकृदंत आठ प्रत्ययो संबंधक भूतकृदंतना छे. प्राकृतमां संबंधक भूतकृदंत माटे तुम्, अ, तूण अने तुआण प्रत्ययोनो व्यवहार छे. प्राकृतना आ प्रत्ययो अने हेमाचायें बतावेला जगती गुजरातीना उक्त प्रत्ययो वच्चे साम्य जणातुं नथी. संस्कृतमां ज्यां ' क्त्वा' ने बदले 'य' वपराय छे ते ऊपरथी प्राकृतनो 'अ' अने उक्त 'इ' ' इउ' आव्या होय अने पालिमां संबंधक भूतकृदंतना 'सुणित्वा' वगेरे प्रयोगोमा 'त्वा' प्रत्यय आवे छे. ते ' त्वा' वा 'इत्वा' ऊपरथी ' इवि ' के ' अवि' आव्या होय अने ' त्व' नो 'प्प' थई ते द्वारा ' एप्पि' अने एवि ' आव्या होय तथा वैदिकमां परायेला संबंधक भूतकृदंतना ' त्वीन' प्रत्यय द्वारा के Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २८९ पालि-प्रयोग ' सुणित्वान' वगैरेमां वपरायेला ' इत्वान' द्वारा ‘एप्पिणु' अने ‘एविणु' आव्या होय एवी संभावना छे. 'इष्टीनं' 'पीवी' वगेरे वैदिक रूपो साथे आ रूपोनी समानता छे, एम आगळ (पृ० ६७) जणावी गयो छु. आमांना 'इ' 'इउ' ए बे प्रत्ययो अभयदेवे वापरेला छे. वादिदेवसूरिए ‘इवि' प्रत्यय वापरेलो छे. अने उदाहरण आपवानी दृष्टिए आ० हेमचंद्रे ते बधा प्रत्ययोने वापर्या छे. चालु भाषामां करी, जमी, भणी वगैरेमां 'ई' प्रत्ययनो उपयोग छे 'करी' अने र अने करीने, जमीने, भणीने वगैरेमां 'ईने' प्रत्यय 'करीने नाई, लागेलो छे. हवे 'ई' अने 'ईने' आ बे प्रत्ययोनी तथा 'इने' नी उत्पत्ति विशे विचार करतां अने तुलनात्मक रीते व्युत्पत्ति ' परीक्षण करतां मालूम पडे छे के उक्त 'इ' प्रत्ययनो विकार थतां 'ई' प्रत्यय आव्यो होय अथवा 'इवि' के 'एवि' प्रत्यय द्वारा तेना संक्षिप्त रूप तरीके आ 'ई' आव्यो होय. कर+इ = करि, ते ऊपरथी 'करी' अथवा 'करिवि' ऊपरथी 'करी' के 'करेवि' ऊपरथी 'करी' वगेरे 'ई' प्रत्ययवाळां रूपो जतरवानो संभव छे. अभयदेवे 'करि' तो वापर्यु ज छे अथवा प्राकृत 'करिअ' ऊपरथी पण 'करी' नो 'ई' प्रत्यय आववो सुघट छे. 'करीने' वगैरेमांनो 'न' मारा विचार प्रमाणे कोई आगंतुक नथी; परंतु ते संबंधक-भूतकृदंतनो अंगभूत होय एम लागे छे. वैदिक, पालि, प्राकृत ए बधी भाषाओमां संबंधक भूतकृदंतना प्रत्ययोमा 'न' अंगभूत तरीके स्पष्ट छे. तो पछी आधुनिक गुजरातीमां तेने आगंतुक मानवान कशुं कारण जणातुं नथी. तेनी उपपत्ति करवानी रीत आ प्रमाणे छ : मने जणाय छे के वैदिक ' त्वीन' प्रत्ययमां गुजराती 'करीने' ना 'ईने ' नुं मूळ होय; परंतु तेमां अंते 'ए' क्याथी आव्यो ? आ 'ए' वा 'ईने' Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति माटे त्वीन' नी साथे तेनो समानार्थक 'इ' प्रत्यय ऊमेरीए तो ‘वीनइ' थाय अने वखत जतां आ 'त्वीनइ', 'तीनइ ''ईनइ''ईने' ना रूपमां आवी शके. समानार्थक बेवडा प्रत्ययोनो व्यवहार लोकभाषामां सुप्रतीत छे. एटले अहीं पण 'वीन +इ' एवो बेवडो प्रत्यय लगाडीए तो हरकत जेवू जणातुं नथी. 'ई' अने 'ईने' प्रत्ययनी उपपत्ति विशे आ एक तुलनात्मक कल्पना छे. ते माटे कोई संवाद के उदाहरणो आपी शकाय तेम नथी. मात्र 'ईने' ना 'न' ने आगंतुक न मानवो अने प्रत्ययनुं अंग मानवो एवा विचारमाथी उक्त कल्पना ऊभी थई छे. आ माटे भाषाशास्त्रना विद्वानो विशेष प्रकाश नाखी ते प्रत्ययोनो शुद्ध इतिहास आपशे एवी आशा छे. 'करी' 'करीने' एवा प्रयोगोनी पेठे संबंधक भूतकृदंत माटे ‘भागु' ' भागुने' 'बांधु' 'बांधुने' 'जीतु', 'जीतुने' एवा प्रयोगो पण काठीओनी भाषामां चालु छे. श्रीमेघाणीजीनी रसधारोमा एवा अनेक प्रयोगो" उपलब्ध छे. ए प्रयोगोनी साधना आ प्रमाणे छ : प्राकृतमां संबंधक भूतकृदंत तरीके - उं' 'उ' 'ऊण' वगैरे प्रत्ययो प्रसिद्ध छे : (८-२-१४६). ' भागु' वगैरेमां (भाग +उ) 'उ' प्रत्यय छे अने ' भागुने' वगेरेमां (ऊण +इ २८७ जेमां ‘भागीने' वगेरे अर्थसूचक ‘भागुने' वगेरे प्रयोगो आवे छे एवां सौराष्ट्रनी रसधारमा आवेलां वाक्यो आ प्रमाणे छे : "हाल्य, काम पतावुने वळे नीकळीए" "गाम सोंसरवा थउने जोता जाइएं" “कागळमां वींटुने पछेडी लाव्य" "डायरामां बेसुने बडाइ हांकशे" “तरत आवुने मने चोर ठेरवशे” -सौराष्ट्रनी रसधार भाग ३, घोडांनी परीक्षा. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ___२९१ ऊनइ-ऊने ) ऊने प्रत्यय छे । ऊन' मां छेडे मळेलो 'इ' संबंधक भूतकृदंतने सूचवे छे, ए हकीकत हमणां ज आवी गई छे. ११२ संस्कृतमां अने प्राकृतोमा भूतकाळने सूचववा माटे मोटे भागे स्वतंत्र क्रियापदो ज वपराय छे अने भूतकृदंतो भूतकृदंतो द्वारा ओछां वपराय छे, त्यारे गुजराती भाषामा भूतकाळने भूतकाळसूचक सूचववा माटे मोटे भागे भूतकृदंतो ज वपराय क्रियापद छे. आ रिवाज पण काइ आजकालनो नथी. वेदोमा ४ पण भूतकाळनी क्रियाने सूचक्वा भूतकृदंतो वपरायेलां छे. ए प्राचीन पद्धति प्रमाणे अभयदेव, वादिदेवसूरि अने हेमचंद्रे पण पोतानां पद्योमा भूतकाळने सूचक्वा भूतकृदंतो वापरू छे. एटले जे भूतकृदंतो संस्कृतादि प्राचीन भाषाओमां क्रियादर्शक विशेषणरूप हतां ते आपणी भाषामा क्रियापदरूप बनी गयां छे. खरी रीते क्रियापद मुख्यपणे क्रियानुं सूचक छे एटले ते द्रव्य-सत्त्वरूप नथी अने एम छे माटे तेने जाति न होय अने जाति न होवाथी क्रियापदने लिंग पण न होय. आ सिद्धांत वैदिकादि प्राचीन बधी भाषामां सचवायो छे, परंतु लोकभाषामां ते सिद्धांत टकी शक्यो नथी. कारण के लोकभाषामां तो विशेषणरूप भूतकृदंतोने क्रियापदरूपे वापरवानी प्रथा निरपवादरीते संमत छे, तेथी ज तेमां विशेषणनी जेम लिंग वगैरे टकी रह्यां छे. 'रामे रावणने मार्यो' ए वाक्यमां ' मार्यो' क्रियापद छे. छतां ते रावणर्नु विशेषण छे. एटले ज ते नरजातिमां छे. वळी, ए वाक्यमां बीजी खूबी ए छे के 'मारित:-मारिओ-मार्यो' ए रीते ' मार्यो 'नी २८८ "स्कनम्" ( ऋ० सं० ५-३-२४ निरुक्त पृ० २४०) “पपिवान् " (ऋ० सं० ८-३-२० निरुक्त पृ० ४६५) “जातानि" (ऋ० सं०८-७-४-५ निरुक्त पृ० ४६१) Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति उपपत्ति छे, एटले ते, प्रथमा विभक्तिवाळु छे छतां कर्मरूप एटले द्वितीया विभक्तिवाळा 'रावण'नुं विशेषण छे. 'माळीए कूकडीने मारी,' 'शिकारीए पक्षीने मायु' ए वाक्योमां पण 'मारी' 'मायु'-एमां एक कूकडीनुं विशेषण होई नारीजातिमां छे अने बीजुं पक्षीनु विशेषण होई नान्यतरजातिमां छे. वाक्यनां बन्ने विशेष्यो कर्म छे माटे द्वितीयांत छे छतां तेनां विशेषणो प्रथमांत छे. आ पण लोकभाषानी विलक्षणतानो एक नमूनो छे. एवा बधा प्रयोगोमां भूतकृदंत प्रथमाना एकवचन के बहुवचनमां आवशे पण बीजी कीई विभक्तिमां नहीं आवे. भले तेनुं विशेष्य द्वितीया विभक्तिमा होय. __कर्मणि भूतकृदंतवाळा संस्कृतादि भाषाना प्रयोगोमां ('रामेण रावणो हतः') 'रावण' कर्म छे छतां तेनो कर्मार्थ उक्त थवाने लीधे ते प्रथमा विभक्तिमां आवे छे, त्यारे भाषामां तेवो नियम नथी. भाषामा उक्तार्थ कर्म बीजी विभक्तिमां पण आवे छे अने प्रथमा विभक्तिमां पण आवे छे. तात्पर्य ए के भाषामां भूतकृदंतो क्रियापदने स्थाने वपरावा लाग्यां छतां तेमां, क्रियापदमां अघटमान एवां जाति अने विशेष्य प्रमाणेनुं परिवर्तन टकी रह्यां छे अने विभक्ति तो एक प्रथमा ज तेने लागे छे. ___ भाषामां पण जे भूतकृदंतो क्रियापदरूपे वपराय छे तेमांनां केटलांक सीधां संस्कृत ऊपरथी प्राकृतना वर्ण विकारने पामीने आवेलां छे अने केटलांक प्राकृतनी प्रक्रियाथी ज पहेलेथी सधाईने पछी भाषामां आवेलां छे. __ आपणी भाषामां विशेषे करीने भूतकृदन्तोमांथी भूतकाळसूचक क्रियापदो आव्यां छे. एथी मूक्युं, चूक्यो, लाग्यो वगेरे प्रयोगोमां ‘मुक्त' ऊपरथी 'मुक्क' 'च्युतक' ऊपरथी 'चुक्क' अने 'लग्न' ऊपरथी 'लग्ग' आवे त्यार बाद ते द्वारा भूतकाळ सूचववानुं थतां वळी पाछो भूतकृदंतने Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २९३ लागतो ( भूतकाळसूचक) 'इअ' (इ+अ)-प्रत्यय तेमने लागे छे. मुक्त-मुक्क, मुक्क + इअ +क= मुक्किउं-मूक्युं, ए ज रीते चुक्क + इअ = चुक्किअ-चुकिओ-चूक्यो. लग्ग + इअ = लग्गिअ-लग्गिओ-लाग्यो. 'मृ' धातु ऊपरथी प्राकृत मरिअ-मरिओ अने ए ऊपरथी 'मर्यो' रूप आवे एम छे, तथा 'मृ' धातु ऊपरथी थता 'मृत' द्वारा मृतकम्-मुअउं–मुउं रूप पण आवे छे तेथी ‘मुउं' माटे बीजा कोई धातुनी कल्पना युक्त नथी. ११३ ' आव्यो' माटे ६९ मा पद्यमां हेमचंद्रे ‘आइउ' रूप मूक्युं छे. 'आव्यो' नी आइड' रूपनी निष्पत्ति माटे 'आयात' वा व्युत्पत्ति आगत'ने मूळरूपे कल्पवामां आवे छे अने तेमांथी ‘आइउ' रूप नीपजी पण शके. परंतु 'आव्यो' मांजे 'व' श्रुति छे ते जोतां ‘आव्यो' माटे ‘आयात' वा 'आगत' शब्द बंध बेसे के केम ? ए मने विचारणीय लागे छे. 'आववाना' अर्थमां 'आ' साथे ‘पत्' धातुनो प्रयोग मळे छे. “ आगमने xx x आपतति, चोपतिष्ठति, उपनयति, तथा उपसादयति"- ( क्रियाकलाप–पृ० ५, श्लो० १४) आपतित:-आवइओ अने 'आवइओ' रूप ऊपरथी 'आविओ' 'आइओ' के 'आव्यो' वगैरे रूपो विना बाधाए आवी शके छे. जो के 'पत्' धातु ऊपरथी प्राकृतमा 'पडू' रूप आवे छे, पण तेनुं 'ड'करण निश्चित नथी. कारण के पैउंमचरियमां अने जैनसूत्र ज्ञातीधर्मकथामा 'आ' साथे 'पत्'- 'आवय' रूप पण वपरायुं छे एटले घणा जूना वखतथी वपराशमां चाल्या आवता 'आवय' ऊपरथी 'आवइओ' नीपजावी तेमांथी 'आव्यो' रूप नीपजावीए तो 'व' श्रुतिर्नु २८९-जुओ पाइअसद्दमह० 'आवय' शब्द. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति समाधान थई जाय तेम छे. नहीं तो ' आयात ' के ' आगत' ऊपरथी 'आव्यो' लाववामां आयात-आयातो- आआओ-आओ अथवा आगतआगयो आयो एम रचना निपजावी अंत्य ओकारने बळे 'व' ना प्रक्षेपनी कल्पना करवी पडे एम छे. परंतु उक्त ' आइउ' रूप निपजाववा तो आधी पण वधारे खेंचवुं पडे एम लागे छे. हिंदीनुं ' आया 'के मराठीनुं 'आले' रूप ‘आगत' ऊपरथी सुखपूर्वक आवी शके एवं छे, तेमां ' व' ' श्रुति नथी. त्यारे आपणा ' आव्यो नी तेथी भिन्न प्रकारनी रचना होवामां बांधाने अवकाश नथी. वळी, ऊगती गुजरातीमां अनेक स्थळे ' आवे छे' अर्थमां ' आवइ' क्रियापद वपरायेलुं छे. ' आयात' वा ' आगत' कृदंत द्वारा 'आवइ' आववानो संभव नथी; किन्तु आपततिआपतइ - आवतइ - आवयइ - आवइ ए रीते ' आवइ' क्रियापद सहेजे साधी शकाय छे. कहेवानुं ए के जे रीते 'आवइ' क्रियापद आवे छे ते ज रीते 'आव्यो' ए भूतकाळसूचक पद पण आन्युं छे-ए बन्नेना मूळमां मने तो ' आ + पत् 'नो संबंध भासे छे. पद्योमां 'कृ' धातु ऊपरथी नीपजेलुं ' किय' क्रियापद वपरायुं छे त्यारे चालु भाषामा 'कृ' धातुथी ऊपजेलुं ' करिअ ' अने तेमांथी आवेलं कर्यु' पद वपराय छे - ए ध्यानमां रहे. हिंदीमां 'कर्यु' अर्थमां ' किया ' पदनो प्रचार छे. " कर्तृसूचक कृदंत ११४ पियंकरु, विच्छोहगरु ए बधां कर्तृसूचक कृदंतो छे. तेमांनो अंत्य 'करु' के 'गरु, ' ' कृ + अ' द्वारा 'कर' थईने उत्पन्न थयेलो छे. (जुओ पृ० १९०, टिप्पण १९३ ) ' अब्भत्थणि 'नुं मूळ ' अभ्यर्थन' छे अने ते भाववाचक 'अन' प्रत्ययवाळं कृदंत छे. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २९५ ११५ ‘सोएवा' अने 'जग्गेवा' ए, भाववाची के कर्मवाची कृदंत छे _ अने तेनो विध्यर्थ कृदंत तरीके पण उपयोग छे. विध्यर्थ कृदंत - वैदिक भाषामां ‘तव्य'ने बदले ‘तवै' पद वपराय छ ः " न म्लेच्छितवै नापभाषितवै." पालिमा ‘तव्य'ने बदले 'तब्ब' के 'तव्व' "तय्य' वा 'तेय्य अने प्राकृतमा 'तव्य' के ' अव्व' पदनो व्यवहार छ : भवितब्ब,; मातब्बं, आतय्यं के आतेव्यं (पालि ) भवितव्वं, भासिअव्वं, सुणेअव्वं (प्राकृत ) त्यारे जगती गुजरातीमां ‘तव्य ने बदले ‘इएव्वउं' 'एव्वउं' अने 'एवा' पदो आवे छे. प्रस्तुत ‘सोएवा' अने ‘जग्गेवा'मां 'सो+एवा,' जग्ग+एवा' एवो पदविभाग छे. 'स्वप्सूर्बु' धातुने स्थाने प्राकृतमां 'सोव्–सो' धातु पण आवे छे अने तेने ‘एवा' लागतां 'सोएवा' रूप बने छे. 'सोएवा' एटले सूवानुं अने ‘जग्गेवा' एटले जागवान. प्राकृतमा ‘तव्य' प्रत्यय लागतां पहेलां धातुने छेडे रहेला अंत्य 'अ' ना 'इ' अने 'ए' थाय छे-[८-३-१५७ हे०]. हसिअव्व, हसेअव्व ( हसितव्य ) ए प्रयोग जोतां तेमांना 'इअव्य, एअव्व' अंशनी साथे उक्त 'इएव्वउं', 'एव्वउं' अने 'एवा' बराबर मळता आवे छे. आपणी भाषामां पूछq (प्रष्टव्य ), देखq ( द्रष्टव्य ), जाणवू (ज्ञातव्य ), बोलवु (वक्तव्य ), जq (यातव्य ), आवq ( आपतितव्यआगन्तव्य ), करवू (कर्तव्य ) वगेरे पदो कृदंतरूप छे अने तेमां जे अंतिम ‘अq' छे तेनुं मूळ उक्त (तव्य ) छे. तेम ज लेवू (लातव्य ), देवु ( दातव्य ), सहेवु ( सोढव्य-सहेव्वउं.) वगेरेमा जे अंतिम *एवं' अंश छे तेनुं मूळ पण उक्त 'तव्य' छे. 'सहेव्वउं' रूप हेमचंद्रना ७२ मा पद्यमां आवेलं पण छे. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति वळी, आपणी चालु भाषामां करवानु, भणवानु, हसवानु, बोलवानी वात, खाबानो मोदक वगैरे विशेषणरूप विध्यर्थ कृदंतोनो पण व्यवहार प्रचलित ... छे. ए पदोमां रहेला छेला अवानुं (भण्+ 'करवानुं' नी ____ अवार्नु ), अवानी (बोल् + अवानी) अने अवानो ! व्युत्पत्ति (खा + अवानो) अंशनी उपपत्ति विशे वे युक्तिओ सूझे छे : ए ' अवार्नु' वगैरे विध्यर्थ प्रत्ययो छे. आगळ कह्या प्रमाणे 'तव्य' प्रत्यय विध्यर्थनो सूचक छे. 'तव्य' नी पेठे बीजो एक 'अनीय' ( करणीय ) प्रत्यय पण विध्यर्थनो दर्शक छे एटले ‘तव्य' अने 'अनीय' बन्ने समानार्थक छे. जुनी भाषाओमां केटलांक पदो बेवडा प्रत्ययो ले छे ए हकीकत आगळ आवी गई छे. ए जोतां तव्य + अनीय-तव्यानीयतव्वानीय-अव्वानीय. ('तव्य' नुं 'अव्व' उच्चारण ‘भासिअव्वं' वगैरे पदोमां सुप्रसिद्ध छे) आ बेवडा प्रत्ययरूप 'अव्वानीय' पद साथे उक्त ' अवानु,' 'अवानी' अने ' अवानो' अंशनी सरखामणी थई शके एम छे. एमां शब्दपरिवर्तननी अने अर्थनी दृष्टिए पण कोई दोष जणातो नथी. फक्त आवो कोई संवाद शोधवो जोईए. ___ अथवा उक्त 'अवान' नो ' अवा' अंश 'तव्य' नुं परिवर्तन छे अने 'न' अंश संबंधदर्शक 'तण' नुं रूपांतर छे एम पण सरखामणीनी दृष्टिए कही शकाय : करवातणुं-करवाअणुं-करवानुं. प्रधानपणे विध्यर्थनी सरखामणी करतां उक्त रूपोनी सिद्धिने सारू मने तो प्रथम युक्ति विशेष संगत लागे छे. ११६ जे कृदंतो ऊपर जणाव्यां छे ते सिवाय बीजां कृदंतो उक्त कृतिओमां वपरायां नथी एथी कृदंतनुं विवेचन पूरुं करी हवे सर्वनामोनी चर्चा करूं छु: Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २९७ अभयदेव-(द्वि०) तइ, (१०) तुह, (१०) मह, (प्र०) . तुह, (१०) जसु, (प्र०) सो, (१०) बारमा सैकानां " कासु, (४०) अम्हेहि, (तृ०) पइ, (प्र०) सर्वनामो " तुहु, तुहुँ, (प्र०) हउँ, (प्र०) कि, के, (द्वि०) मइ, (तृ० ) केण, तइ, (प्र०) अहमेव, ( स्त्री० प्र०) कि, (४०) अन्निण, (प्र०) सु. (प्र०) तुम्ह, एउ, एउं, (प्र०) अन्न, एह, महारिय. २ वादिदेवमूरि-जिणि, सो, जो, कोइ, ते, जेतणा, को, जेहि, जेहिं, तुह. ३ हेमचंद्र-एइ. एह, एइ, जो, ते, तसु, ते (तेन ), जु, तुह, महु, बिहुँ, मई, तुहुं, के, जे, बिन्नि, जेण, जसुकेरए, हडं, तउकेहिं, अन्नहिरेसि, अन्नई, काई, तहो, तुहारेण, अम्हार्हि, अवरु, (१०) एहु, ताहं, सा, को, पई, कासु, दोणि, एह (स्त्री०) एहो, एहु (नान्यत०), जं, तं, सु, तुझु, मझु, कवणेण, आयई, ( इमानि ), आयहो ( अस्य ), बिहि, महु, तई, ताए, स, अन्ने, तुहुं, तुम्हेहिं, अम्हेहिं, अम्हे, कस्सु, कवणहिं, कवणु, तहारी, अन्नु, कुइ, तह, तुह, जसु, स, तोरी, कवण, ( स्त्री०) ताहं. आ बधां सर्वनामोनी विभक्तिओ विशे जे कहेवानुं छे ते आगळ आवी गयुं छे. अहीं तो एमांनां अमुक विशे कहेवानुं छे. उक्त पद्योमां गुजरातीना प्रचलित 'तुं' माटे 'तुहुं' 'तुहुँ' के, 'तुहु' पद वपरायेलुं छे. हेमचंद्रे 'तुहुँ' आपेलुं छे. वैदिकमां त्वम् , पालिमां वं अने तुवं, प्राकृतमां तुं, तुवं, तुह अने तुमं पदो वपराय छे. __'तुं' ना बहुवचन माटे 'तमे' अने ते सारु हेमचंद्र 'तुम्हे' अने 'तुम्हई' रूपो आपे छे. वैदिकमां युष्मे, पालिमां तुम्हे अने प्राकृतमा तुभे, तुझे, तुम्हे, तुम्हे अने उय्हे रूपो वपरायेलां छे. ___ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति त्रीजीना एकवचनमां वैदिक त्वया, पालि त्वया के तया, प्राकृत-ते, तइ, तए, तुमे, भे वगैरे रूपो थाय छे. ऊगती गुजरातीमां 'पई' अने 'तई' रूपो हेमचंद्रे आपेलां छे. प्रस्तुत पद्योमां त्रीजीना एकवचनमा तइ, तइं, पइ, पइं, रूपो वपरायेलां छे. चालु गुजरातीमां 'ते' रूप प्रचलित छे. हेमचंद्रे आपेला 'पई' अने 'तई' नुं मूळ वैदिक ' त्वया' मां छे. 'त्वया' ऊपरथी 'तई' तो सरळ रीते आवी शके छे. ____ भाववाचक वैदिक 'वन' प्रत्ययर्नु ‘प्पण' रूपांतर हेमचंद्रे आपलं छे. ए जोतां अने वाग्व्यापारनी दृष्टिए जोतां पण 'आत्मा'ना 'अप्पानी पेठे “त्व'नो 'ए' थवो स्वाभाविक छे. आ रीते वैदिक ' त्वया' ना 'त्व'नो 'प' ऊपजे अने ते द्वारा ऊगती गुजरातीना “पई' रूपनी निष्पत्ति थाय. प्राकृत 'भे' रूपनी साथे पण प्रस्तुत 'पई'नी सरखामणी करी शकाय. ___ षष्ठी विभक्तिमां तुह, तुज्झ, तहारी अने तोरी ए पदो उक्त पद्योमां चपरायेलां छे. वैदिक-तव, पालि-तव, तुम्ह अने तुम्ह, प्राकृत-तव, तुह तुब्भ-उब्भ, तइ, वगैरे अनेक रूपो वपराय छे. अपभ्रंशमां एने माटे तउ, तुझ अने तुध्र रूपो कहेलां छे. 'तुज्झ'नुं मूळ पालि 'तुम्ह'मां जणाय छे. 'तुह' पण एमाथी आवेलु होय. 'तहारी' अने 'तोरी' पदो तद्धितांत छे. हेमचंद्र कहे छ के युष्मदू, अस्मद् वगेरे शब्दोने संबंधसूचक 'आर' प्रत्यय लागे छे. [८-४-४३४ हे० ] तुह + आर= तुहार. स्त्रीलिंगी तुहारी, ते ऊपरथी तहारी. भाषामा 'तारी'के 'हारी' रूप प्रचलित छे. 'तोरी' नुं मूळ पण ए 'तुहारी' छे. कवितामां 'तारु' अर्थमां 'तोरी' अने 'मारु' अर्थमां 'मोरी' पदो वपरायेलां छः मोरी अरजी, तोरी कृपा. 'तुहार'नी पेठे 'महार' 'महारी' वगैरे पदो पण समझवानां छे. अभयदेवनी कवितामां ‘महारिय' पद ए ज अर्थमां Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको २९९ आवेलुं छे. भाषामा ' मारूं' के 'म्हारं' बन्ने प्रवर्ते छे. पद्यमां वपरायेला * तुहारेण' नी पण एज उपपत्ति छे. 'तुहार' ऊपरथी तृतीयामां * तुहारेण'. 'अमे' ने बदले पद्यमां 'अम्हे' वपरायुं छे. वैदिक 'अस्मे,' पालि 'अम्हे' अने प्राकृत 'अम्हे छे. अपभ्रंशमां हेमचंद्रे 'अम्हे' अने 'अम्हई' आपेलां छे. एकवचनमा 'हउं' के 'हउँ' पद वपरायेलुं छे. चालु भाषामा 'हुँ' छे, वैदिक अहम् , पालि अहं, प्राकृत हं, अहं, के अहयं वगैरे छे. ऊगती गुजरातीमां हेमचंद्र 'हउं' आपे छे. ते 'हउं' अने पद्योमा वपरायेलां 'हउं' वगैरे तद्दन मळतां छे. .. पद्योमा (स्त्री० ) एह, एइ, (पुं० ) एहो, (न०) एहु पदो भाषाना 'ए' अर्थमां वपरायेलां छे. उक्त कवितामा त्रणे लिंगमां जुदां जुदां रूपो मूकेलां छे. त्यारे भाषामा 'ए' शब्द त्रणे लिंगमां सरखो छे. वैदिक 'एतद्', पालि 'एत', प्राकृत 'एअ' अने भाषामां ए. भाषामां ‘एणी' रूप पण प्रचलित छे, ते वैदिक 'एन' नुं स्त्रीलिंगी छे. 'आयई' रूप 'आ' अर्थमां वपरायुं छे. हेमचंद्र ‘इदम्' ने बदले 'आय' नी भलामण करे छे. भाषा, 'आ' ते उक्त 'आय' मांथी आव्यु छे अने भाषानुं 'इ' वैदिक 'इ' ऊपरथी आव्यु छे, ते आगळ कही दीधुं छे. पृ० ७३ [ ४९]. उक्त कविताओमां कवण, काइं उपरांत नरजाति अने नारीजातिनां कि, के, कुइ, कुवि, कोइ वगेरे रूपो आवेलां छे. वै० कश्चित् , 'कवण' विशे " पालि कोचि, प्रा० कोइ अने भाषामां पण कोइ. निरुक्तकार भाषामां वपरातुं 'काइ' हेमचंद्रे बतावेला ‘काई' माथी थोडा फेरफार साथे आवेलुं छे. 'कवणं' शब्दनु मूळ अज्ञात छे, पण २९० जुओ टिप्पण २३२. ___ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० गुजराती भाषानी उत्कान्ति 6 'कः ' नुं निरुक्त करतां यास्काचार्य ' कमनः वा क्रमण : ' शब्दनो निर्देश करे छे, ए ऊपरथी मालूम पड़े छे के 'कमन' के 'क्रमण' शब्दनो निर्देश करनार यास्कनी सामे 'कवण' शब्दनी हयाती होय. 'कवण' - 'कमन' के 6 'क्रमण' मां विशेष फेर नथी. यास्काचार्य लखे छे के.-" कः कमनोवा क्रमणो वा सुखो वा " [ पृ० ७३८ ]. उक्त पद्योमा 'ते' ना अर्थ माटे 'सो', 'सु', 'सा' के 'तं' पद वपरायां छे. वैदिकादि भाषाओमां ' ते 'नां रूपो लिंगप्रमाणे जुदां जुदां थाय छे. आ पद्योमां पण तेनो ए रीते व्यवहार थयेलो छे, त्यारे भाषामा तो त्रणे लिंगमां प्रथमाना एकवचनमां 'ते' पद ज वपराय छे, एटलुं ज नहि पण बधी विभक्तिओमां 'ते' रूप ज मूळ अंग तरीके वपराय छे. भाषामा ' ते 'नी आवी वपराश क्यारथी शरू थई ए बाबत हवे पछीनां अवतरण द्वारा जणाववानी छे. 'जे' ना अर्थ माटे पण उक्त पद्योमां 'ते' माटे जणावेली रीते 'ज' शब्द वपरायेलो छे. त्यारे भाषामा तो त्रणे जातिमां 'जे' वपराय छे अने सर्व विभक्तिओमां पण 'जे' अंग चाले छे. 'जसु केरए' मां 'जसु' छट्ठी विभक्तिवालुं रूप छे अने तेने संबंधसूचक 'केर' प्रत्यय लागेलो छे. [ ८-२-१४७ ] मा सूत्रमां हेमचंद्र, संबंधदर्शक 'केर' प्रत्ययनी नोंध करे छे. संस्कृत ' कीय' अने आ 'केर' बच्चे साम्य होय एवं मालूम पडे छे. < तउकेहिं - तारा माटे, अन्नहिरेसि - अन्यने माटे. ( पृ० २४६ - २४७) भाषामां वपरातां (स्त्री० ) जेणी, केणी अने तेणी उक्त ' एणी ' ना अनुकरण ऊपरथी आव्यां लागे छे. ' बिन्नि' नो भाषाप्रचलित प्रयोग ' बन्ने' छे. ' दोण्णि' अने ' बिन्नि' बन्ने समानार्थक पदो छे. अहींनुं 'बिहुं ' रूप षष्ठीनुं सूचक छे. भाषामां Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३०१ वपराता षष्ठीदर्शक ‘बेउनु' रूपनुं मूळ ए 'बिहुँ' मां छे. भाषामां ते रूपने बेवडो प्रत्यय लागेलो छे. ११७ विशेषणो अने अव्ययो बाबत खास लखवा जेवू हशे त्यां जणावीश, पण तेनी यादी तो आपी दउं छु : अव्यय बारमा सैकानां विशेषणो अने अव्ययो विशेषण ३ हेमचंद्र--- अभयदेवरवण्ण-रमण-सुंदर. झत्ति—झटिति-झट जुअंजुअ-युत (?) जुदीजुदी इअ-इति-ए प्रमाणे लहु-लघु-लौकर-शीघ्र विशेषणो बाबत खास कांई लखवा जेवू नथी; एथी वधारे वि-अपि-बी, पण विशेषणोनी नोंध करी नथी. विकारी य, च–अने अने अविकारी विशेषणोनी रीत तह-तथा-तथा विशे आगळ कहेवाई गयुं छे. किं-कांइ हेमचंद्र पोताना पद्यमां 'जु,जुदु' मामा-मा-न अर्थ माटे 'जुअंजुअ' निपातने हु–चोकस नोंधे छे– (८-४--४२२ ) पुण–पुनः-वळी ____ अनेकार्थसंग्रह कोशमां तेमणे निरु-नक्की " युत ः अन्विते पृथक् "-(कां० २ जइ–यदि-जो श्लो० १८६) कहीने 'युत' शब्दने अहह-अहाहा 'पृथक् ' अर्थमां बताव्यो छे. “युतं- कह-कथं केवी रीते ___ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अव्यय युतं' नुं प्राकृत उच्चारण 'जुअंजुअं' जि- हि , -ज-(निश्चय ) थई शके एम छे. हेमचंद्रनो कोश च । जोतां ते 'जुअंजुअ' शब्द 'युत' एम-एवम्-एम ऊपरथी आव्यो होय एम लागे छे. २ देवमरिपरंतु फारसी शब्दकोशमा 'जुदा' जिम ? शब्दने फारसी तरीके नोंघेलो छे. जिम्ब ! एटले उक्त 'जुअंजुअ' शब्द फारसी जिंब । -जेम 'जुदा' साथे संबंध राखे छे के जिव ) उक्त युत' साथे? हेमचंद्रनी कृतिरूप ' अभिधानचिंतामणि'मा 'पृथक्' नावइ-उपमादर्शक अर्थ माटे ‘युत' शब्द नथी, तेम इहुं-इह-अहीं अमरकोशमां पण नथी, एथी संदेह तिम, तेवॅइ, तिंव-तेम थाय छे के 'जुअंजुअ' शब्द ता-तावत्-त्यां सुधी 'जुदाजुदा' फारसी शब्दनुं अनु-जा-यावत्-ज्यां सुधी करण न होय ? अभयदेवनी कृतिमां एथु-अत्र-अहीं 'लल्लि' शब्द वपरायो छे ते देश्य छे. जहिं-जहीं-जइं-ज्यां ("ललं सस्पृहम् "देशी० वर्ग ७ तहिं-तहीं तइं-त्यां गा० २६. भाषामा 'लल्लोचप्पो- किं शुं भाबापु') अने तेनो अर्थ 'खुशामत' ३ हेमचंद्रथाय छे. अव्ययोनी नोंध करतां तेमां एत्थु–अत्र-अहीं साथे साथे संस्कृत अने गुजराती तोवि-तोय २९१ जुओ टिप्पण २१९ मुं. 'च' नो पण 'निश्चय' अर्थ थाय छे एथी 'च' नी साथे पण प्रस्तुत 'जि'ने अने भाषाना 'ज' ने सरखावी शकाय. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३०३. अव्यय पर्यायो मूक्या छे. 'अइभन' (आश्चर्य) पुणु-पुनः-वळी वगैरे केटलांक अव्ययो देश्य छे. एमनां जइ-जो मूळनी माहिती मळी शकी नथी. विणु-विना-वना 'किम्', अवेस्तामां 'चीम् ' उच्चारण पच्छइ, पच्छि–पश्चात्-पछी थाय छे ते विशे विचारणीय जेतुं छे. अह-अथ–जो चीम् -( खोरदेह-अवेस्ता-पृ०- एम्ब-एवम्-एम ८२) चीम् -(ते ज पुस्तक म-मा-म पृ० १३६) अहीं 'चीम् ' जाम-यावत्-ज्यां सुधी उच्चारण नोंधीने 'शुं' नी व्युत्प- पर-परम्-पण २९२ 'शुं' ना मूळ माटे विद्वानोए ‘कीदृशकम्-कीइसअं-कीइसउं-कीशुं' पदने आधाररूपे कल्पेलुं छे. परंतु अवेस्तामा 'शुं' अर्थे ज 'चीम्' पद वपरायेलुं छे ए जोतां 'शुं'नी व्युत्पत्ति माटे विशेष गवेषणा करवी जोईए एम मने लागे छे.. __वळी, 'शु' नी पेठे 'कशुं' ना मूळ माटे पण साक्षरोमां ऊपरनी कल्पना प्रवर्ते छे त्यारे 'कशु' अर्थमां वपरायेलो एक 'किस' शब्द सूत्रकृतांगसूत्र १ श्रु. १ अ० नी प्रथम गाथामां मळे छः 'परिगिज्झ किसामवि' अर्थात् (किसां-कशु, अवि-पण, परिगिज्झ-परिग्रहरूपे राखीने बंध तूटतो नथी ) ए, ए वाक्यनो भाव छे. मने लागे छे के 'किम् ' नी पेठे कोई बीजो एक 'किस' शब्द 'कशा' ना अर्थमा पहेलां वपरातो हतो, ए हकीकत गाथामां वपरायेलुं 'किस' पद सूचवे छे अने वर्तमान आपणुं 'कशु' अने उक्त 'किस' ए बने बच्चे शब्द तथा अर्थनी दृष्टिए साम्य पण घणुं छे. गाथामा वपरायेला 'किस' शब्दनुं मूळ मने जड्यु नथी परंतु टीकाकार शीलांक तेने माटे सं० 'कृश' शब्द वापरे छे. वळी, ७० मा टिप्पणमां बतावेली सुत्तनिपातनी गाथाओमां 'किंसु' शब्द प्रश्न अर्थमां वपरायेलो छे. “किंसु सुचिण्णं "-क्युं सुचीर्ण ? " किंसु सादुतरं”क्यु स्वादिष्ठ ? वगेरे. ए 'किंसु' (सं० किंस्वित् ) शब्द साथे पण प्रस्तुत 'कशु' नी सरखामणी थई शके एम छे. गुजरातमां केटलाक लोको 'च्यम् छे' एम बोले छे. ए 'च्यम' अने अवेस्ता- 'चीम्' तद्दन समान छे ए ध्यानमा राखवा जेवं छे. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति - --- - .. ........ .... नाह-नाह...नहा अव्यय त्तिमां ए ' चीम् ' उच्चारण उपयोगी | उअ-उत-ओ-पश्य छे के केम ? ए विचारवा विद्वानो, केम-कथम्-केम ध्यान खेंचुं छु. छुडु-जो, शीघ्र ११८ 'आवई' क्रियापद 'आप- किध-कथम्के म तति' ऊपरथी लावq सरळ पडे एम सई-स्वयम्-स्व-पोते छे. ' आवइ' ना मूळमां ' आयाति' जि-हि-ज-नक्की नी कल्पना दूर पडे छे अने 'आगच्छति' तो तेथी पण विशेष एत्तहे-आ तरफ दूर जाय छे. माटे ‘आपतति' पद विशेष संगत छे. ए माटे आगळ कहिं-कहीं-कई-क्यां (पृ० २९३ कंडिका ११३) 'आव्यो' ना लखाणमां लखी गयो जेत्थु-यत्र-ज्यां छं. अथवा 'गति' अर्थ माटे अइभन-आश्चर्य संस्कृतमा हेमचंद्रे 'अम्' अने । अवसें अवश्यम्-अवश्य 'अ' एम बे धातुओ आप्या छे. तेत्तहे-ते तरफ 'अम्' धातु तो मात्र गति'ने सूचवे जणि-जाण्ये छे त्यारे 'अव्' ना 'गति' ऊपरांत बीजा पण अनेक अर्थो छे. चिअ--चैव-नक्की आ+ अमति-आमति अथवा आ+ अज-अद्य-आज अवति-आवति ऊपरथी पण ओ-ओ 'आवइ' पद आवी शके छे अने णं-इवार्थे ए रीते बनेला 'आव' नुं भूतकृ- जणु-इवार्थे--जाण्ये दंत 'आविअ' थाय अने ते द्वारा । कइअहिं–कयें-क्यारे उक्त 'आव्यो' रूप नीपजी शके. पञ्चलिउ-प्रत्युत-उलटुं २९३ जुओ टिप्पण २९१. ___ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३०५ ११९ हेमचंद्र ‘ले छे' अर्थमां 'लेइ' क्रियापद वापरे छे. उक्त __ लेइ 'नी निष्पत्ति माटे केटलाक विद्वानो 'नी' " धातुने अने केटलाक ‘लभ-लह' धातुने कल्पे छे. मारा विचार मुजब बीजा गणना ‘ग्रहण' अर्थवाळा 'ला' धातुमाथी आ ' लेइ' लावq वधु सुगम छे. जेम ‘दा' नुं — देइ' अने ‘धा' नुं 'धेइ' रूप नीपजे छे तेम शब्दविषयक के अर्थविषयक कशी क्लिष्ट कल्पना कर्या विना 'ला' ऊपरथी 'लेइ' आवी जाय छे. क्रियारत्नसमुच्चयमां गुणरत्नसूरिए ‘लिअइ' क्रियानो प्रतिशब्द 'लाति' आप्यो छे. 'लीजइ' क्रियानो प्रतिशब्द 'लायते' जणाव्यो छे, अने ‘लइ' ('ले') नी छाया ' लातु' मूकी छे. अत्यार सुधीमां में मात्र बारमा सैकानी त्रणे कृतिओमा आवतां नामो, क्रियापदो, विभक्तिओ, अव्ययो, विशेषणो वगैरे विशे विचार कर्यो अने ते संबंधे व्युत्पत्ति विषयक विवेचन पण कर्यु. ___ हवे पछीना सैकाओनी कृतिओना उतारामां जे नामो वगैरे आवशे ते बाबत विशेष लखवानुं न रहे ए उद्देशथी अहीं में आटलं लांबु लखी नाख्युं छे. हेमचंद्रे जे ऊगती गुजरातीनुं व्याकरण लख्युं छे तेना नियमो साथे उक्त त्रणे कृतिओना प्रयोगोने सरखावतां साधारण उच्चारणभेद सिवाय बीजो एवो खास कोई विशेष भेद जणायो नथी. अने साधारण पण जे भेद जणायो छे ते, ते ते स्थळे आगळ कहेवाई गयो छे. १२० हवे तेरमा अने त्यार पछी अनुक्रमे अढारमा सैकासुधीना प्रयोगोनी व्याकरण अने व्युत्पत्तिनी दृष्टिए मीमांसा करं ए प्रसंग प्राप्त छे. al ___ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ (१) सोमप्रभ - अप्पिउ-आप्युं सवड - सवड संचरंत संचरतुं गहिर—घेरुं मोरंति - मोरे - मोडे छे-मरडे छे पसन्निअ - प्रसन्ना संझाइ - सांजे आणेवि आणी जोवइ जोअड } जुए छे गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तेरमा सैकाना शब्दो घरवत्त-घरवात पक्खर - पाखर करिसइ-करशे जो आवs - जोवावे छे-जोवरावे छे गउ-गयो करहि-करे महारउ - मारुं खंड-खंडे ढक्क ढांक्युं जगड - जगडे छे वार - बार - बारणं - द्वारप्रवेश दीणार -- दीनार ( फारसी ) संबर - साबर जंत - जंत्र उच्छलिवि-ऊछळीने करडं-करूं खाईसु-खाईश लिप्पिहिसि - लेपाईश खदु - खाधुं तक्खणि- टांकणे - बखत सर हक्कारेवि-हाकरी - साकरी - बोलावी जलूअ - जळो सहुं- सउं - साथे कवडिइं-कोडीए पिअइ-पीए छे कूवि कूत्रे तुझ्इ-तुट्ये - त्रुट्ये Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) धर्मसूरि- जंबूचरिय— नमेव नमी चवीसह - चोवीशे –सामिहिं तणउं-स्वामितणुं - स्वामीनुं रयं रचुं वषाणउं - वखाणुं जु-जे पूछीई-पूछाय छे नारिहि तण - नारीतणे बाप तण - बापने चवेसि - चवशे बारमो अने तेरमो सैको होसइ ) होशे- थशे होसिइ S ऊठिउ-ऊठ्यो } नाचेई नाचे छे आविउ-आव्यो सुमिण - सोनुं - स्वप्न माईमायो जायउ - जायो-थयो - वाघे अठवरीसउ-आठ वरसनो हूउ-हूयो-थयो गुरुपासि- गुरुपासे तासु तणइ-तस तणे - तेने पहुत्तओ पहोत्यो पहुतु पहूतु चालिउचाल्यो दह-वांदवा माटे बंदिउ - वांदी सेणीयं -श्रेणिके-श्रेणिकवडे, देजिउं-देजो तम्हि तमे अम्हि अमे इसउं - इस्युं - एवं करेशउं - करशुं परणी - परणी - परणीने नीछइ - निधें लेसिउं -लेशुं परिणेवउ-परणं मन्त्रीउ - मान्युं आठइ-आठे एकवार - एकवार परिणीय - परणी घरि-घरे आवीउ आव्यो ३०७ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति लियइ-ले छे | परणी-परणेली नीम-नियम-नीम बुझवणइ-बुझववा मग्गावइ–मगावे-मागु करे-शोधे छे बइठउ-बेठो बीजा-बीजा चोरेहिंसिउं-चोरो-चोरो साथे पाठवए-पाठवे पइठउ-पेठो मन-नहीं लीयंता-लेता अच्छई-छे जाणीइए-जाणीए ते ते किम-केम थंभीया थंभ्या होइसिइ-हशे–थशे टगमग-टगमग अढार-अढार जोयंता-जोता नात्रां-नात्रां-नातरां साठि-साटुं कहेई-कहे-कहे छे कीजइ-कीजे पितर-पितरो विजावडई-विद्यावडे तम्हारा तमारा माय दुलंघीय तणइ वयणे-मायतणे- किम केम माताने-दुर्लध्य वचने | तृपति-तृपति-तरपत-धरपत-तृप्ति दीजइ-देजे पिंड-पिंड किस-किश्यु-शुं पडइ-पडे करेसो-करशो लोयहं तणइ-लोकतणे लेसो-लेशो करेसिइ-करशे ऊभा-ऊभा एवडु-एव९ जोसिइं-जोशे ऊमाहीआ-ऊमाह्या बाप-बाप लेसिउ-लेशो मरवि-मरी Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३०९ माइबप्प-माबाप भइंसु-मेंसो-पाडो किम किम-केम केम हुऊ हूओ-थयो मेल्हेसिउ-मेलशो-छोडशो पुत्रजन्मि-पुत्रजन्मे हणीजइ-हणीजे-हणाय इशउं-ई\-एबुं इण परि-एणि पेरे करेशउंकरशु तिणि तेणे नेमिहिंसिउ-नेमिशु-नेमि साथे सुह तणी-सुखतणी-सुखनी बूझवीय-बूझवी बेउ-बेउ-बन्ने छांडेसिउ-छांडीशो-छांडशो सिउं-\-साथे करेसिउ-करशो लेसिउं-लेशं हउं–हुँ मोकलावण-मोकलवा रूयडउं-रूड़े चालीय-चाल्या हत्थि-हाथी भुई–भों काग-काग-कागडो ध्रसकइ-ध्रसके-त्रसके–बीए निवडउं-निवडुं-पहुं बोलावीउ-बोलाव्यो चीति-चित्तमां भेटावि-भेटाव धरेसिउ-धरशो अम्हि -हुं छंडेसिं-छांडशो अछउं-छु तृस-श-तरश पुत्त तणउ विझराय-विन्ध्यराय तणो पुत्र छीपइ-छीपे मेल्हावीउ-मेळाव्यो-मेळवाव्यो मेळाप कराव्यो करेशउ-करशो देठि-दृष्टि उतर पडउतर-उत्तर पडुत्तर आवतउ-आवतो Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बीजी-बीजी सुक-सूकुं जाणीइ-जाणीये चोरतु-चोरतो जणणी जाइउ-जननी जायो कोई-कोई नयणे-नयणे छुटूं-छुट्यु खमि-खम-क्षमा कर अम्हे-अमें (तृ०) संतावीया-संताप्या, सताव्या कोणी-कोणिक पनुती-पनोती माइ-माई-मा जिणि जेणे जाईउ-जायो-पेदा थयो मोकलावी-मोकलावी लेइशउं-लेशुं वइराग-वइराग-वैराग्य अम्ह-अमने अथवा अमे बोलीइ-बोलीए मेल्ही-मेली-छोडी अहइ-आठे | साचउ-साचो भडिवाउ-भटवाद-'हुँ भट-शूर छु' एबुं बोलवू नवाणवइ-नवाणुं-नव्वाणुं हुउं-हूयुं–थयु इणि-एणे दीठउ-दीठो मेल्हतउ-मेलतो छोडतो तम्हे-तमे भलई-भले अछजिउ-अछजो-छो-रहेजो झूझ-झूझ-युद्ध झूझसिउं-झूझीश वहूयर-वहूवारु माइबप्पो-माबाप कहं-कहे घरहूंतु-घरेथी नींसरइ-नीसरे चालीउ-चाल्यो -साथ-साथ भाद्रवए-भादरवे कसकेरी-कोनी परिहरए-परिहरे अनइ-अन्य-अने ___ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत - बहुत - घणा लेवा-लेवा माटे चालीउ - चाल्यो पासि-पासे गयउ गयो अंगमइ - अंगमे हू-हूयुं -- थयुं पालतां - पालतां पाछिलडं-पाछलो छेलो प्रभवउ - प्रभवो (नाम) पढाई - पढे संभलई - सांभळे भगइ-भणे- कहे बारमो अने तेरमो सैको रेवंतगिरे - रेवतगिरि नो रासुरास सुमरेवि - समरी चिंतउ-चिंतो-चिंतवो जे-जे छासठए-छासठे विज्जावि - विद्यादेवी बसाउ - बेसा - बेसाड्यो पाटि - पाढे गणगणे तेरमा सैकाना विजय सेनसूरिना ( ३ ) विजयसेनसूरि रेवंतगिरिरास शब्दो पणमेव प्रणमी भणिसु-भणिशुं पामिसिहं - पामशे धामीउ - धमी- धार्मिक रातिदिवस- रातदिवस नीपनूं- नीपन्युं नीपज्यं सोलह-सोळ पणास - प्रनाशो - नाश करो | दंसणु-दर्शन माटे | देसदेसंतरु- देशदेशांतरनो, देशदेशांतरथी आवइ - आवे छे पोरुयाड - पोरवाड ३११ गुरजरधर - गुजरातनी भूमि २९४ वर्तमानमां केटलाक लोको पोतानी ओळखाण 'धामी' शब्दद्वारा आवे छे. मने लागे छे के प्रस्तुत 'धामी' अने ओडकवाचक 'धामी' ए बन्ने शब्दो एक छे. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति मणहरु-मनहर धवलकि-धोळकामां सोरठदेसु–सोरठदेस बिहु-बेउ बंधवि-बांधवे वायइ-वाय छे सूमू-सुषम-सत्ययुग वाउ-वायु-वा दूसममाझि-दुष्षमकाळमाहि तक्खणि-टांकणे धरिउ-धर्यो तुट्टइ-तूटे बिहु नरपवरे-बन्ने प्रवर नराए- गुंजारव-गुंजारव उत्तम पुरुषोए कराविउ-कराव्यु भाउ-भाव अहिणवू-नवू कारिउ-कारव्युं-कराव्यु नियनाउं–निजनाम गढवाढ मढ-मठ-माढ-मेडी चंदरु-चंदर लिहाविउ-लखाव्यु घरि-घरे-घर वडे पुत्तलिय-पूतळी आरामि-आराम वडे कलस-कलश-कळश्यो तहि पुरि-ते पुरमां-नगरमां मंडपु-मंडप संठाविओ-संठव्यो-संस्थाप्यो तोरण-तोरण सुरठ-सोरठ रुणझणि-रणझण भरावीय-भरावी भाउ-भाई-भाउ उद्धरिउ-ऊधयु जसि-जस वडे दालिधु (दु?)-दलदर पाग-पगथियां गलइ-गळे छे ऊडई-ऊडे झलहलइ-झळहळे छे ओहट्टए-ओटे छे-ओट थाय छे- कसमीर-काश्मीर देश ओछं थाय छे पव । परब परव ___ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३१३ बंध-बंधु जोइउ-जोयु आविय-आव्या ठिउ-थयो करंतह-करतां मिल्हेवि-मेलीने-मूकीने गलियु-गळ्यु-गळी गयु किउ-कियो-कों लेवमु-लेपमय जइजइकारो-जेजेकारो जलधार-जलधारा थप्पिउ-थाप्यो संतविउ-संताप पाम्यो पच्छिम-पच्छम-पश्चिम आविउ-आव्यु कप्पिउ-काप्यु इम-एम विलेव तणीय–विलेपननी–विलेपन नियम-नियम करवानी लइउ--लियो-लीधो वंछ-वांछा पभणइ-पभणे-कहे छे नियदेसि-निजदेशे-पोताना देशमां सद्दाविय-साद पाडीने-'जयजय'नो पराइय-पाछा फर्या साद पाडीने] दीठु-दीर्छ पच्छलु-पाछळ वज्जइ-वाजे छे जोएसि-जोईश नच्चइ-नाचे छे तुं-तुं पेखिवि-पेखी-पेखीने वलंतउ-वळतो सोहए-सोहे छे–शोभे छे देहलिहि-डेलिए डेलिमां दावइ-दावे छे-आपे छे-देवरावे छे पुडि–पडियामां पूरइ-पूरे छे आरोविउ आरोप्यु आरोही-आरोही-चडी पच्छलु-पाछळ पहिलाइ–पहिले–पहेले बीजइ-बीजे गहगणए माहि-ग्रहगणमां पणमई-प्रणमे छे जिम–जेम ___ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पामइं–पामे छे पन्वयमाहि-पर्वतमाही ठामि ठाभि-ठाम ठाम तेम-तेम ठविय-ठव्या-स्थाप्या तित्थमाही-तीर्थमांही ते-ते रमइ-रमे नर-नर जो-जे धन-धन्य रासु-रास जे-जे तूसइ-तूसे-तुष्ट थाय कलिकालि-कलिकाले पूरइ-पूरे मल-मयलिया-मलमेला–मलवडे मेला रली-रळीयात-इच्छा-होश-उत्कंठा पामेइ–पामे छे | कडव-कडपलो-समूह-कडव समय–समेतशिखर (पहाडनु नाम) १२१ तेरमा सैकाना सोमप्रभ, धर्मसूरि अने विजयसेनसूरिनी कृतिओमाथी लईने ऊपर जे जे शब्दो आप्या छे ते बधा पोतानी रचनाद्वारा कही आपे छे के अमे बधा गुजराती भाषाना छिए. आ बाबत विशेष चर्चा करतां पहेलां उक्त त्रणे ग्रंथकारोनो थोडो परिचय आपी दउं:सोमप्रभ-आ आचार्ये 'कुमारपालप्रतिबोध' नामनो कथाग्रंथ विक्रम __ संवत् १२४१ मां बनावेलो. अर्थात् कुमारपाळना सोमप्रभनो समय 4 स्वर्गवास पछी अगीयार वर्षे ज तेमणे उक्त ग्रंथनी रचना करेली. आ आचार्ये "कल्याणसारसवितानहरेक्षमोह" इत्यादि एक आखा श्लोकना सो अर्थ करी बतावेला तेथी तेमनी ख्याति 'शता २९५ ए आखो श्लोक आ प्रमाणे छ : "कल्याणसारसवितानहरेक्षमोह कान्तारवारणसमानजयाद्यदेव । धर्मार्थकामदमहोदयवीरधीर सोमप्रभावपरमागमसिद्धसूरे ॥” Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३१५ थिक' तरीके थयेली हती. तेमणे तेमनो मे 'कुमारपालप्रतिबोध' नामनो ग्रंथ गुर्जरेन्द्रपुरमा एटले अणहिलपुरमा रहीने लखेलो छे, एवं तेमणे पोते ज जणावेलुं छे. कुमारपालप्रतिबोधमां अंते लखेलुं छे के “ शशि-जलधि-सूर्यवर्षे शुचिमासे रविदिने सिताष्टम्याम् । जिनधर्मप्रतिबोधः क्लुप्तोऽयं गूर्जरेन्द्रपुरे" ॥ पृ० ४७८. तेमनां जे पद्यो अहीं ऊधर्यां छे ते कुमारपालप्रतिबोधमाथी लीधेलां छे. धर्मसूरि विशे विशेष वृत्तांत न आपतां संक्षेपमा जणावं छं के ___ जंबूस्वामी रासमां तेमणे ते कृतिनो १२६६ नो धर्मसूरिनो समय ५ समय जावेलो छे अने पोताना गुरुनुं नाम महेन्द्रसूरि जणावेलुं छे. त्रीजी कृति-रेवंतगिरिरास-ना कर्ता श्रीविजयसेनसूरि छे. रासनी शरू . आतमां तेमणे गुजरातमां आवेला धोळकाना राजा विजयसेनसूरिनो वीरधवलने याद कर्यो छे अने पोरवाड कुलना शणगारसमय समान-आसराजना पुत्र-वस्तुपाल अने तेजपाल ए बे भाईओनां नामने पण संभायाँ छे. तथा आ विजयसेनसूरि वस्तुपाल तेजपालना धर्माचार्य हता अने तेमणे विक्रम संवत् १२८८ ना फागण सुद १० बुधे गिरनार ऊपर महं० वस्तुपाले करावेला श्री समेतावतारमहातीर्थप्रासादनी प्रतिष्ठा करावेली. (प्राचीन जैनलेखसंग्रह पृ० ६६.) आ रीते उक्त त्रणे आचार्योंना समय-तेरमा सैका विशे शंका मटी जाय छे. बारमा सैकानी अंतिम अपभ्रंश वा ऊगती गुजराती भाषानी उक्त कृतिओनी भाषामा संस्कृत प्राकृतनी असर तद्दन मटी नथी, जो के २९६ जुओ टिप्पण २६३-२६४ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्युत्पत्ति ३१६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति भाषानुं वलण ऊगती गुजरातीनुं छे. तो पण कर्ता, संस्कृत अने प्राकृतनुं पांडित्य तेमां झबक्या विना रहेलुं नथी. आ परिस्थिति अहीं आपेली सोमप्रभनी कृतिमां पण देखाय छे तेम छतां ऊपर आपेला शब्दो तेमनुं गुजराती तरफनुं वलण स्पष्ट कर्या विना रहेता नथी. एटले सोमप्रभनी कृति पण हजी ऊगती गुजराती अवस्थावाळी गुजराती भाषानी कृति छे. तेमणे आपेला केटलाक शब्दोनी व्युत्पत्तिनी विचारणा आ प्रमाणे छ :१२२ चालु भाषाना 'आप्यु ने बदले तेमणे ' अप्पिउ' पद मूक्युं छे. 'अप्पिउ' मांथी ज 'आप्यु' आव्यु छे, अने 'आप्युं'नी ___अप्पिउ' तथा ' अर्पित ए बन्ने तद्दन समान शब्दो । छे. संस्कृत भाषाना प्राचीनतम वैयाकरणोए 'अर्पयति' रूपने साधवा माटे 'गति' के 'प्रापण-(लई जq )' अर्थवाळा 'ऋ' धातुने मूळरूपे राख्यो छे अने तेने प्रेरणासूचक ‘णि' प्रत्यय लगाड्या पछी 'प' लगाडी ते 'ऋ' ऊपरथी 'अर्प' अंगने तेओ बनावे छे. आ रीते ' अर्प' अंग थयुं अने ते द्वारा भाषा- 'आपq' क्रियापद पण आव्युं. परंतु अहीं ते 'अप' नो ' आपवू-देवू' अर्थ शी रीते आव्यो? ते मुद्दो खास विचारणीय छे. ___ 'दा' एटले 'देवु' तेनुं प्रेरक अंग ‘दाप्' एटले ‘देवरावq' ए रीते '' एटले 'जवू' अथवा 'लई जर्बु' तेनुं प्रेरक अंग ‘अर्प' एटले जवावq-जवरावQ-जनारने प्रेरणा करवी अथवा लई जनारने प्रेरणा करवी-लई जवाडवू–पहोंचाडवू. 'गति'-अर्थवाळा 'ऋ' द्वारा आवेला ‘अर्प' अंगमां 'देवा' नो अर्थ शीघ्र समाई शकतो नथी. परंतु 'लई जवु' अर्थवाळा 'ऋ' धातु Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३१७ ऊपरथी आवेला ‘अर्प' अंगमां य सीधी रीते नहीं किंतु लक्षणाद्वारा 'देवू' नो अर्थ मांडमांड समाई शके छे. ___ 'देवरावे छे' एवं क्रियापद सांभळतां जेम ‘प्रेरणा' नो स्पष्ट भास थाय छे तेम ‘आपे छे' क्रिया सांभळतां लेश पण प्रेरणानो भास थतो नथी त्यारे 'अपावे छे' मां ते भास तदन स्पष्ट थाय छे. 'अमुकने खांड पहोंचाडी आव्या-आपी आव्या' एवा वाक्यमा 'पहोंचाडी आवद्' अने ' आपी आवर्बु' बन्ने पर्याय जेवां जणाय छे. एथी ' अर्प' अंगमां गतिने वा प्रापणने अपेक्षीने ते भावने गमे ते रीते घटाववो ज रह्यो. अथवा मने लागे छ के-'देवा'ना- आपवा 'ना अर्थमां — दानी पेठे स्वतंत्र रीते कोई — अप्प' धातु देश्य होय के जेना उपरथी आपणुं ' आपq' पद आवे छे. अने वैयाकरणोए ए ' अप्प' मूळ नक्की करवा 'ऋ' ऊपरथी तेने 'प' लगाडीने एक नवं ' अप्प' नी जेवू ' अर्प' अंग कल्पी काढ्यु होय. वैयाकरणोए कल्पेला · अर्प 'मां स्पष्टपणे · आपवा' नो भाव घटमान नथी, माटे ज अहीं देश्य ' अप्प' ने कल्पवानी वात करी छे. १२३ सवडि' शब्द ज्यां वपरायो छे ते स्थळनुं अनुसंधान करतां तेनो अर्थ 'सवड-सगवड' ज घटी शके छे. 'सवडि'नी सोमप्रभ, स्पर्श इंद्रियनुं स्वरूप समझावे छे. ते संबंधे व्युत्पत्ति लखतां कहे छे के “शिशिर ऋतुमा स्पर्श इंद्रिय इच्छे छे के हवा विना- घर होवू जोइए, अग्निनी सगडी होवी जोइए, तथा केसर, तेल अने घणां वस्त्रोनी सवड-सगवड-होवी जोइए" "सिसिरम्मि निवायघरं अग्गिसयडि । घणघुसिण तेल्ल बहुवत्य सवडि ॥" आ रीते जोतां अने विचारतां अहीं — सवडि'नो सवड-सगवड अर्थ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति घटमान छे. 'सवडि'नी व्युत्पत्ति निश्चित थई शकी नथी. परंतु सं० सपर्या–प्रा० सपरिया-सवलिया साथे प्रस्तुत ' सवडि'नी सरखामणी करी शकाय. 'सपर्या'मां मूल धातु ‘सपर' छे. 'पूजा-आदर-मान' ए तेनो अर्थ छे. कोई अतिथि के मित्र अन्यने घरे जाय अने त्यां तेनी जे बधी अनुकूलता सचवाय ते ज तेनां पूजा-आदर-मान कहेवाय. 'सवड के 'सगवड'ना आशयमां अनुकूलतानो भाव प्रधानपणे रहेलो छे ए दृष्टिए सपर्या-सवलिया अने ‘सवडि' ए बधार्नु मूळ एक होय एम लागे छे अथवा 'तत्क्षण' अर्थवाळा ‘सपदि' पद साथे 'सबडि'नी तुलना करी शकाय. आवनार अतिथि के मित्रने जे अनुकूलता तत्क्षण अपाय ते 'सवर्ड'ना भावमां आवे छे एटले 'तत्क्षण' अने 'तत्क्षण थनारी अनुकूलता' ए बे बच्चे अभेद कल्पिए तो “सपदि' अने ‘सवडि'नुं साम्य साधी शकाय. आ रीते भाषामां प्रचलित 'सोई' शब्दनी पण 'सपदि' पद साथे तुलना करी शकाय. सपदि-सवदि-सवइ-सउइ-सोई. अथवा अरबी भाषामां 'सगवड' अर्थ माटे ‘सहूलत' पद छे. तेने ज घाटघूट-ठीक संस्कार-आपी ‘सवडि' शब्दने प्रचारमा आथ्यो होय. "संचरंत' पद भाषाना संचरता' पदने मळतुं छे. 'मोरंति' क्रियापदमां — मोर' धातु छे. भाषामां “मोरवू' क्रियापद प्रतीत छे. 'दीवानी शग मोरजो' ए वाक्यमां “मोर' धातुनो उपयोग काठियावाडमां प्रतीत छे. आचार्य हेमचंद्र 'मोर' धातुने ‘भञ्ज' (भांगवू) धातुनो पर्याय कहे छे. 'मोर' धातु देश्य मालूम पडे छे अथवा 'नगरमर्दी' 'प्राकारमर्दी' वगैरे प्रयोगोमां वपरायेला 'क्षोद' अर्थवाळा ‘मृद्' ( नवमो गण) धातु साथे 'मोर' धातुनी सरखामणी थई शके एम छे : मृद्-मुद्-मुड-मोड-मोर्-आवो क्रम कल्पी शकाय. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३१९ 'जगडइ '_' जगडो करे छे' अर्थवाळु · जगड् ' क्रियापद पण देश्य . छे. देशीनाममालामां वर्ग ३ गा० ४४ मां हेमचंद्रे ना 'जगडिअ'२९७ शब्द आपेलो छे. देशीनाममालाना व्युत्पत्ति संपादक रामानुजस्वामी · जगडिअ' शब्दने बराबर मळतो तेलगु शब्द ' जगडमु' आपे छे. संभव छे के आपणी भाषानो 'जगडो' शब्द तेलगु भाषामांथी आपणे त्यां आव्यो होय. 'वारु' शब्द 'बार' ना अर्थमां छे. 'बार-बार-द्वार-दरवाजो' ए बधा समान अर्थना शब्दो छे. ' दीणार' शब्द परदेशी छे. परंतु ते घणा समयथी आपणा संस्कृत . प्राकृत साहित्यमां आवी गयेलो छे. जैनसूत्र कल्प'दीणार' परदेशी । सूत्रना मूळमां अने अमरकोशमां ते शब्द वपरायेलो शब्द र छे. “ दीनारेऽपि च निष्कोऽस्त्री " ( अमरकोश कां० ३ नानार्थव० श्लो० १४). . ___ गुजरातीनो 'साबर' अने आ ‘संबर' ए बन्ने शब्दो एकसरखा छे. हेमचंद्र ८-४-१७४ मां 'उच्छल' धातुनो निर्देश करे छे. भाषामां प्रचलित 'ऊछळवू' क्रियापदनुं मूळ उक्त 'उच्छल' धातु छे. 'उत्+ शल 'के 'उत् + सल' एवो तेनो पदविभाग छे. 'शल्' अने 'सल्' ए बन्ने धातुओ गतिना सूचक छे. सोमप्रभे वापरेला ‘उच्छलिवि'नी व्युत्पत्ति पण उक्त 'उच्छल' ऊपरथी करवानी छे. १२४ सोमप्रभ ‘जोवू-देखवू' अर्थमां ‘जोवई'के 'जोअइ' क्रियापद । वापरे छे. 'जोवे छे' अर्थ- चालु भाषानुं क्रियापद 'जोवुनी व्युत्पत्ति अने उक्त जोवई के जोअइ' ए बन्ने समान छे. २९७ “ विद्दविअम्मि जगडिओ”-देशी । २९८ जुओ 'दीणार' शब्द-पाइअसद्द० । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 6 जोव्' धातुनुं मूळ अवगत नथी. वर्णसाम्यनी अपेक्षाए ' जोवनी साथे मळता आवे एवा ' द्युत्' ' जुत्' अने 'युत् ' ए त्रण धातुओ उपलब्ध छे. ' द्युत्' एटले दीपवुं - द्योतते एटले दीपे छे. 'विद्युत् विद्योतते'वीजळी दीपे छे-चमके छे. 'जुत्' अने 'युत्' एटले भासवुं. जोतते-योतते एटले भासे छे. ' द्युत्' वगेरे त्रणे धातुओमां सीधी रीते 'आंखे जोवा' नो भाव देखा तो नथी अने 'द्योतते' 'जोतते' 'योतते' नो प्रयोग अकर्मक जणाय छे : ' नरं द्योतते' एटले 'माणसने जुए छे' ए रीते ए धातुनो प्रयोग क्यांय जोयो नथी. भाषामां वर्ततो ' जोव्' धातु सकर्मक छे अने 'आंखे जोवुं ' एतेनो अर्थ छे. आ बधुं जोतां ' जोव्' धातुनुं अक्षरसाम्य 'द्युत् ' वगेरे धातुओ साथे होवा छतां ते ( ' जोव्' धातु) द्युत्, जुत् के युत् ऊपरथी आव्यो होय एवी कल्पना थई शकती नथी. श्रीमान नरसिंहराव भाईना लखवा मुजब डॉ० टेसीटोरी ' जोबू ' धातुने उक्त ' द्युत्' मांथी नीपजावे छे. अक्षरसाम्य जोतां डॉक्टरसाहेबनी कल्पना असंगत नथी परंतु अर्थ - दृष्टिए जोतां ऊपर जणावेली गूंच आवे छे. हा, एम मानवामां आवे के ' द्युत् ' नुं रूपांतर थया पछी तेनो अर्थ पण फरी जाय छे अने ते अकर्मक धातु रूपान्तर पामी सकर्मक पण थई जाय छे, तो बांधो नथी. परंतु भाषामां जे अर्थ रूढ छे ते अर्थमां ' द्युत्' नो उपयोग शोध्या सिवाय उक्त कल्पना विशेष क्लिष्ट जणाय छे. लक्षणानो उपयोग करवामां आवे अने भाषामां आवेला ' जोव् ' नो मूळ स्वभाव बदली नांखवामां आवे तो कदाच बने. मने लागे छे के आवी क्लिष्ट कल्पना करवा करतां ' जोव्' धातुने देश्य मानीए तो हरकत नथी. ३२० - धातुनो आ० हेमचंद्रे कुमारपाळचरित्रमां बेत्रण स्थळे ' जोअ ' प्रयोग करेलो छे. " सत्तु वि मित्तु वि दोन्नि वि जोअहु " - ( सर्ग ८ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३२१ श्लो० ० २६ ) शत्रु अने मित्र बन्नेने जुओ. " जिण-आगम जोइ ". (सर्ग ८ - लो० ६१ ) जिन आगमने जो - जिन आगमनी गवेषणा कर. " जो अंतहे " ( सर्ग ८ - लो० १६ ) आ बचे स्थळे टीकाकारे जोअ ' नुं प्रतिबिंब आप्युं छे तो 'द्युत् ;' परंतु " धातूनामनेकार्थत्वात् " कहीने ते ' द्युत् ' नो 'जोवुं' अर्थ जणावेल छे. 6 •) " पक्खर ' अने भाषानो ' पाखर ' ए बन्ने समान शब्द छे. हेमचंद्र पोताना 'अभिधानचिंतामणि' नामक संस्कृत कोशमां (कां० 'पाखर' नी व्युत्पत्ति ४, श्लोक ० ३१७) ' तुरगसन्नाह' ना अर्थमां 'प्रक्षर' अने 'पखर' शब्द नोंधे छे तथा देशीनाममालामां ( वर्ग ६, गा० १० ए ज अर्थमा ' पक्खर' शब्द जणावे छे. विशेष विचारतां उक्त 'पक्खर ' पदनी तुलना 'पक्ष' – ( पडखं ) पद साथे करी शकाय एम छे : घोडानी पीठ ऊपर बन्ने पडखे जे बख्तर वा सुशोभित झूल नखाय छे ते, ' पाखर ' शब्दनो अर्थ छे. 'पावर' घोडानां बन्ने पडखांने शोभावे छे - बन्ने पडखानुं भूषण छे. ए रीते ' पडखां' ना संबंधने लईने ते ' बख्तर' वा 'झूल' नुं नाम 'पाखर' पड्युं होय. आ दृष्टिए जोतां पक्ष + र' पक्खर' अने ते द्वारा 'पाखर' पद वाग्व्यापारनी दृष्टिए निर्दोष रीते आवी शके एम छे. 'पक्खर' नो 'र' 'मधुर' ना 'र' नी पेठे मत्वर्थीय छे अने ' पखाज ' –( पक्षवाद्य ) पदमांनो ' पख' तथा 'पाखर' नो ' पख' ए बने समानार्थी छे. 6 'जोआवइ' एटले 'जोवरावे छे.' आ धातुनो संबंध उक्त ' जोवू' धातु साथे छे. L ' ढक्किय' एटले 'ढांकेलं.' ऊपरऊपरथी जोतां ढक्क ढांक' धातु देश्य लागे छे परंतु खरी रीते तेम नथी. संस्कृतमां ' स्थग्-संवरणे' धातु २१ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति - छे. " संवरणम् - आच्छादनम् ” ( धातुपारायण पृ० १३७ धातु अंक १०३० ). उक्त आच्छादन — ढांकअर्थवाळा ' स्थग्' धातु ऊपरथी 'ढक्क्' धातु आवेलो छे, अने भाषानुं ' ढांकवुं' ए उक्त 'ढांक' नी व्युत्पत्ति L ढक्क' द्वारा आवेलुं छे. 6 • खाइसु " मां प्रथम पुरुषना एकवचननो 'उ' प्रत्यय छे अने तेनुं पूर्वग 'इस' पद भविष्यकाळने सूचवे छे. प्रथम पुरुषना एकवचन ' उं' ऊपरथी " खाइसु' नो 'उ' आव्यो छे अने पाछळथी भाषामां आवतां, भविष्यकाळसूचक ते 'इस्' पद क्यांय 'अस्' रूपे बदली गयुं छेः करशे, करशो वगैरे. त्यारे क्यांय ते 'इस्' कायम पण रधुं छे: खाईशुं, खाईश, जमीश, पीश वगैरे. संव० १२४१ पछी १२६६ नी कृति जोईए तो तेमां बपराता प्रयोगोए विशेष गुजरातीपणुं धारण कर्तुं छे एम जणाया विना रहेतुं नथी. संव० १२६६ नी जंबूचरियनी कृतिने ऊगती गुजराती कहेवा करतां कुमार - गुजराती शब्दथी कहीए तो पण बराबर बंध बेसे एवं छे. तेमां पहेला पुरुष माटे आवेलो 'हूं' 'ऊठिउ' 'करशुं' माटे 'करेशडं' ( आमां दंत्य ' स' ने बदले तालव्य 'श' वपरायो छे, ते ध्यानमां रहे ) ' परणवुं माटे 'परिणेत्रउ', 'मान्युं ' माटे 'मन्नीउ' तथा 'लेशो' अर्थे 'लेसिउ' 'पामशे' माटे 'पामिसिहं, अने टगमग, नात्रां, ऊभा, चोरतु, भुइँ, नीम, भेटाव, छूटं, पालतां नींसरइ, पती, वहूयर, नीपनूं वगैरे अनेक प्रयोगो १२६६ नी भाषाने आपणी चालु भाषानी बहु पासे लावे छे. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ बारमो अने तेरमो सैको १२५ 'तण' पद संबंधने सूचवे छे. साधारण रीते ' तण' नो प्रयोग . पदनी लगोलग राखवानी पद्धति छे. आ कृतिमां ते 'तण'नो स्वतंत्र उपयोग ' पद्धतिमा फेरफार थयो छे, 'माय दुलंधीय तणइ वयणे' अने 'पुत्त तणउ विझराय' ए वाक्योमां 'तण' नो प्रयोग पूर्वनी रीते थयेलो नथी. प्रथम वाक्य 'माय तणइ दुलंधीय वयणे' एम होवू जोईए अने बीजुं वाक्य 'पुत्त विझराय तणउ' एम होवू जोईए. 'माताना दुर्लव्य वचनने लीधे' ए प्रथम वाक्यनो अर्थ छे अने बीजा वाक्यनो 'विंध्यराजनो पुत्र' एवो अर्थ छे. पहेला वाक्यमां 'माय' अने 'तणइ' नी वच्चे वचनना विशेषणरूप 'दुलंघीय' पदनुं व्यवधान छे अने बीजामां 'तणउ' नो प्रयोग विझराय'नी पछी जोईए ते पूर्व थयेलो छे. आ समय पछीना रासाओमां घणे स्थळे 'तण' ना अने षष्ठी विभक्तिओना प्रत्ययोना आवा ऊलटा-सूलटा प्रयोगो थयेला छे. _ 'पहूत' नी व्युत्पत्ति विशे चर्चा आगळ (पृ० २८०) आबी गई छे. आ कृतिमां ते, ' पहूत' अने ' पहुत' एम बन्ने रीते वपरायेलो छे. १२६ ‘वांदवा माटे' अर्थ बताववा : वंदणह' ' लेवा माटे' 'लेवा' 'मोकलाववा माटे'. 'मोकलावण' अने 'वंदणह' वगेरेनी ' 'बूझक्वा माटे' 'बूझवणइ' शब्दो वपराया छे. ते नागोवा व्युत्पत्ति पदोनी व्युत्पत्ति आ प्रमाणे करवानी छ : वंद + अणह, मोकलाव + अण, बुझव + अणइ. 'अणह' ' अण' अने ' अणइ' ए त्रणे तुमर्थने दर्शावनारा वा चतुर्थीना अर्थने दर्शावनारा प्रत्ययो छे. 'अण, अणहं, अणहिं, एवं, एवि, एप्पि, एविणु, अने एप्पिणु' ए आठ प्रत्ययो 'तुम् ' ना अर्थने सूचवे छे एम हेमचंद्र कहे छे (८-४-४४१). प्रस्तुतमां 'वंद् + अणहं' ऊपरथी 'वंदणहं' अने ते द्वारा 'वंदणह' पद आवेलुं छे. 'वंदणह' पदनी बीजी रीते पण निष्पत्ति थई शके एम Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति छे : सं० 'वन्दनस्य'. षष्ठी, चतुर्थीना अर्थमां थाय छे माटे ' वन्दनस्य' एटले 'वन्दनाय-' 'वांदवा माटे'. चतुर्थीने बदले वपरायेली षष्ठीना एकवचन ' स्य' ‘स्स' ‘स्सु' 'हु,' अने ए 'हु' ऊपरथी 'वंदणह'नो अंत्य 'ह' आवी शके एम छे अथवा षष्ठीना बहुवचन 'हं' ऊपरथी पण ते 'ह' आवी शके एम छे अने अर्थघटनामां पण कशो वांधो रहेतो नथी. संभव छे के चतुर्थीसूचक प्रत्ययो ऊपरथी तुमर्थसूचक 'अणहं' के 'अणहिं' ना 'हं' के 'हिं' अक्षरो आव्या होय अने 'अण' ते संस्कृतमां वपराता भावसूचक 'अन' नुं प्रतिरूपक होय. तुमर्थे जे एकलो 'अण' आवे छे ते लुप्त चतुर्थ्यंत पण होई शके छे. 'बुझवणइ' मां लागेलो 'अणइ' प्रत्यय उक्त "अणहिं ' ऊपरथी आवेलो छे अने 'मोकलावण' नो अंतिम 'अण' ते तुमर्थक उक्त 'अण' प्रत्यय पोते छे. १२७ ' लेवा' मां ला+एवा छे. हेमचंद्र ‘तव्य' ने बदले 'एवा' वापरवानी भलामण करे छे. (८-४-४३८) लातव्य' ने बदले 'लेवा'. अहीं लातव्य'मां तव्य' भावसूचक छे तेथी ‘लातव्य' एटले 'ग्रहण कर लेवु' एवो अर्थ ' लेवा' नो थाय अने ए 'लेवा' पदने लुप्त चतुर्थीवाळु मानीए तो तेनो 'लेवा माटे' अर्थ पण थाय. मने लागे छे के अहीं ' लेवा' ने लुप्त चतुर्थी विभक्तिवाळु मानीए तो अर्थघटना बराबर थाय अथवा लातव्याय-लाएतव्वाय-लाएअव्वाय-लेअव्वायलेब्वाय----लेवा ए रीते पण चतुर्थ्यत ‘लातव्य' ऊपरथी व्याकरणना नियमानुसार 'लेवा' पद आवी शके छे. आ 'लेवा' पद पछी 'निमित्ते' पद लगाडीए तो 'लेवा निमित्ते' थाय अने ते ऊपरथी 'लेवा नेमाटे' पद उद्भवे. वळी, उक्त 'लेवा' पदनी साथे 'बुझवणई' मां वपरायेलो तुमर्थक 'अणई' प्रत्यय लगाडीए तो 'लेवा+ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३२५ अणइ' ऊपरथी लेवाणइ' पद नीपजे अने ते द्वारा चालु भाषाप्रचलित 'लेवाने' पदने साधवामां कोई प्रकारनो बाध देखातो नथी. आ रीतनी व्युत्पत्तिमा 'तुमर्थ' नो बेवडो प्रयोग छे ए ध्यानमा रहे. 'बुझवणइ' नी उपपत्ति साथे 'अणइ' नी उपपत्ति बतावी गयो. उक्त - लेवा' अने 'लेवाने' नी पेठे करवा, रमवा, करवाने, रमवाने, करवाने माटे, रमवाने माटे वगैरे पदोनी योजना घटाववानी छे. भाषामां वपराता ‘लेवात'' 'बोलवात'' वगैरे प्रयोगोनी उपपत्ति आगळ (पृ० २९५-९६ ) बतावी दीधी छे. लियइ, लीयंता वगेरे रूपो ‘ला' ( ग्रहण करवू लेवु ) धातु ऊपरथी लाववानां छे. ए बाबतनी चर्चा आगळ (पृ० ३०५) आवी गई छे. ‘मग्गावइ' शोधे छे-मागे छे-मागु करे छे. धातुसंग्रहमां 'मार्ग' धातुनो 'अन्वेषण' अर्थ आपेलो छे परंतु ते, 'मागवा' ना अर्थमां पण वपराय छे. “ याञ्चायां भिक्षते मार्गयते याचति, याचते"- ( क्रियाकलाप पृ० ५२, श्लो० १९०) उक्त ' मार्ग' धातु ऊपरथी प्रेरणाना अर्थमां * मार्गयति—मग्गावइ' रूप आवे छे. _ 'परिणेवउ' एटले 'परणवू'-'परणवानुं'. 'परिणेवउ' शब्द भावसूचक छे. परि + णी+तव्य-परिणेतव्य-परिणेतव्यक-परिणेअव्वउ-परिणेवउ. हेमचंद्र ‘तव्य' ने बदले ‘इएव्वउं' 'एव्वउं' अने ‘एवा' वापरवानी सूचना करे छे. एमांथी अहीं 'एव्वउं' लगाडीए तो पण परिणी+एव्वउंपरिणेवउं– परिणेवउ' रूप आवे. १२८ भविष्यकाळनां क्रियापदोभविष्यकाळनां त्रीजो पुरुष-होसइ, होइसइ, करेसिइ, पामिसिइं. क्रियापदो ___ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ पहेलो पुरुष — करेशउं, लेसिउं, झूझसिउं. बीजो पुरुष –करेसो, करेशिउ, लेसो, छांडेसिउ, छंडेसिउ, धरेसिउं, मेल्हेसिउं. आमां ‘उं' प्रत्ययवाळां रूपो प्रथम पुरुषनां छे. 'उ' अने 'ओ' प्रत्ययवाळां रूपो बीजा पुरुषनां छे. बीजा पुरुषनो उक्त 'उ' के 'ओ', बीजा पुरुषना बहुवचन ' हु' ऊपरथी आवेलो छे अने बीजा पुरुषनो 'उं' ए तो आ 'उ' नुं उच्चारणांतर छे. गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तथा 'इ '' इं' प्रत्ययवाळां रूपो त्रीजा पुरुषनां छे. आ रूपोमां 'स' तालव्य पण छे, अने ' स' दंत्य पण छे. तालव्य 'श' नी शरूआत प्रस्तुत कृतिमां देखाय छे. प्रथम पुरुषना ' उं' वगेरे प्रत्ययोनी चर्चा आगळ ( पृ० २६२ ) आवी गई छे. ' छांडेसिउ' के 'छांडवु' नी व्युत्पत्ति ' छंडेसिउ' मां मूळ धातु ' छड्ड' छे. हेमाचार्य छड्ड' धातुने देश्य गणे छे अने तेने ' मुच्' नो पर्याय कहे छे. संस्कृत धातुसंग्रहमां ' छर्द' धातु C " दशमा गणमां आवेलो छे. त्यां तेनो अर्थ ' वमन ' बतावेलो छे. प्रस्तुतमां तो तेनो अर्थ 'छांडवुं – त्याग करवो - छोडवुं ' थाय छे. संस्कृतना ' छर्द' ऊपरथी प्रस्तुत छड्ड' ने लावीए तो ते वाग्व्यापारना नियमने अनुसारे आवी शके एम छे.. छर्द-छ- छड्ड-छांड के छंड. परंतु आ व्युत्पत्तिने प्रामाणिक बनाववा माटे संस्कृतना ' छर्द धातुनो अर्थ विस्तारवो पडशे. ए अर्थ न विस्ताराय तो ' छर्द' ऊपरथी उक्त ' छांड' न आवी शके. आचार्य हेमचंद्र ८-२-३६ सूत्रमां " छर्द' नुं ' छड्ड' करवानी भलामण करे छे एथी समझाय छे के ' छर्द ' ऊपरथी आवेलो ' छड्ड' पोतानो संकुचित अर्थ 'वमन' मूकी ' त्याग Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको छोडवुं - मूकी देवुं ' - एवा विशाल अर्थमां आवी गयो छे. कुमारपालचरित्रमां ' छड्डिअ ' नो अर्थ आपतां टीकाकार पूर्णकलश कहे छे के "छर्दितम्वान्तम्-त्यक्तम्" इत्यर्थः (सर्ग ३, श्लो० ९ ) अर्थात् ए स्थळे ' छड्ड' धातु 'छांडवा 'ना अर्थमां वपरायेलो छे, एथी 'छर्द' ऊपरथी ' छड्ड' नी व्युत्पत्ति करवी विशेष उचित छे. आ कृतिमां 'मेल्हेसिउ ' मेलशो - क्रियापदमां वपरायेलो 'मेल्ह ' धातु पण 'तजवा' ना अर्थनो छे. हेमचंद्रे आ धातुने पण 'मुचू' नो पर्याय को छे. 'मेल्ह ' धातु देश्य छे. संस्कृत धातुसंग्रहमां 'मुच्' धातुनो पर्याय अने प्रस्तुत 'मेल्ह' ने मळतो आवे एवो कोई धातु हयात नथी. १२९ बत्रीशमी कडीमां 'मेल्हावीउ '' मेळाव्यो' एवं पद आवे छे. तेनुं मूल सं० " मिल-श्लेषणे" (छट्टो गण ) धातुमां छे. मिलन, मेलाप, संमेलन, मळवुं वगैरे शब्दो ए ' मिल' ऊपरथी आपेला छे. 'देजिडं' क्रियापद मूळे ' देजिहु' छे अने ते ऊपरथी अहीं 'देजिउं' नोंघेलुं छे. व्याकरणना नियम प्रमाणे दा + अ + ज्ज + हु= दाएजेहु - देहूं- देजिहुं- देजिउं- देजिउ-देजो. आ क्रियापदमां बीजा पुरुष बहुवचनना 'हु' ऊपरथी 'हुं' द्वारा 'उं' थयेलो छे. ३२७ 'देसु' मां व्याकरणोक्त रीते दा + अ + स + हुं दाएसहुं-देसहुंदेसु - देशुं. अहीं प्रथम पुरुष बहुवचनना 'हुं' द्वारा 'उ' आवेलो छे. 'बइसारीउ' एटले 'बेसाड्यो' के 'बेसार्यो' -उपवेशितः - ' उप ' साथैना ' विश' ने प्रेरणासूचक 'आर' लगाडी तेनुं भूतकृदंत करीए तो ' उवविसारिओ' थाय. एक साथे बे ' व ' 'बेसारखं 'नी व्युत्पत्ति आतां उच्चारण करनारे ' उववि' ने उच्चारण क. जे पदमां एक करतां बधारे समान स्वरो के बदले 'बइ व्यंजनो आवे Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति छे, त्यां वाग्व्यापार आवुं ज विपरिणाम उपजावे छे. हेमचंद्रे प्रेरणासूचक ' आड ' प्रत्ययनी नोंध आपी छे : ८-३-१५१. तेनुं उदाहरण - भमाडइ. आ ' आड' प्रत्यय प्राकृतमां सर्वव्यापक नथी; परंतु गुजरातीमां सर्वव्यापक थयेलो छे. ऊंघाड्यो, जमाड्यो, रमाड्यो वगेरे. 'बइसारिउ 'मां जे 'आर' छे ते 'भमाउ'ना ' आड' मांथी आवेलो छे. १३० 'नोत्रीं' नो अर्थ प्रसिद्ध छे. ते शब्दनी व्युत्पत्ति स्पष्टपणे समझाती नथी तो पण मूळ ' ज्ञाति' शब्द ऊपरथी ए शब्द जन्म्यो जणाय छे. 'भडिवाउ' शब्द भटवादः - भडवादो-भडवाओ - भडिवाउ - ए रीते आव्यो लागे छे. 'भटवाद' एटले शूरतानी ख्याति करवी - 'हुं शूर छु' - एम बोलवु अहीं राजा कहे छे के " आ साचो 'भडिवाउ'-' भटवाद' हे " एटले आ ( प्रभव चोर ), जे पोतानी शूरतानी ख्याति करे छे ते साची छे-खोटी नथी. ( कडी ३२ ). भाषामा एक 'भडवो' शब्द तृतीयप्रकृति जेवा के नबळा पण बहुबकवादी माणस माटे वपराय छे. मने लागे छे के तेने उक्त भटवाद - भडिवाउ-भडवो - ए रीते लावी शकाय . ' भटवाद' नो अर्थ मात्र 'शूर छु एवं बोलनारो' - ' खरो शूर नहीं ' एवो थाय छे अने ते अर्थ उक्त ' भडवो' शब्दमां बंध बेसे एम छे. 'भडिवाउ नी व्युत्पत्ति अहीं 'लुं' अर्थमां ' अछउं ' अने ' तमे छो' अर्थमां ' अछिजउं ' क्रियापदनो प्रयोग आवेलो छे. तेथी 'छे' क्रियापद 'अस्' ऊपरथी २९९ जेम ' ग्रामान्तरम्' अने ' गामतरुं' ए बन्ने शब्दो बच्चे समानता छे तेम ' ज्ञात्यन्तरम्' अने 'नातरु' ए बे पदो वच्चे पण समानता छे अथवा ज्ञाति + इतर - ज्ञातीतर- नातीतर - नातीयर - नातरुं एम पण समानता लागे छे. प्रस्तुत ' नात्रां' पदनी व्युत्पत्ति शोधवा जेवी छे. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३२९ आव्युं छे. 'आस्' ऊपरथी नथी आव्यु-एवी पूर्वोक्त (पृ० २७२ कं० १०३ ) हकीकत मजबूत थाय छे. 'रूयडउं' अने ‘रुडु' बन्ने समान अर्थवाळा शब्दो छे. ए _ शब्दोना मूळमां 'रुच' धातु होवानो संभव छे. ना व्युत्पत्ति 'रुचिर' अने ‘रूडं' शब्दोनो अर्थ पण समान छे: रुचिरम्-रुचिरकम्-रुइरयं-रुइरउं-रुइरुं-रुडु एवो क्रम घटमान छे. 'र'नो 'ड' थवामां बाध नथी. __रूपकम्-रूवयं-रूवयडं-रूवय९-रूअटुं-रूडं-ए रीते पण 'रूहूं' ने साधी शकाय. परंतु 'रुचिर' ऊपरथी लाववामां विशेष औचित्य छे. 'अंगमंइ ' क्रियापद स्वीकारवा'ना अर्थमां वपरायेलुं छे. 'अङ्गमय' शब्दद्वारा बनता नामधातु ' अङ्गमययति' एटले 'अंगमय करे छे-स्वीकारे छे' एमां उक्त 'अंगमइ-आंगमेनुं मूळ होय. " मरण 'आंगमेनी चर्चा आंगमे ते भरे मूठी" ए रीते पोताना भजनमां प्रीतम कवि 'आंगमे' क्रियापदनो उपयोग करे छे. तेना मूळनी स्पष्ट कल्पना नथी आवती; परंतु 'जेओ मरणने स्वीकारवा तैयार होय अथवा मरण ऊपर आक्रमण करी शके एटले मरवाना भय विनाना होय तेओ अथवा जेओ मरणनी प्रतीक्षा करनारा होय-मरणनी वाट जोनारा होय, तेओ पोतानुं काम साधी ले छे–' एवो अर्थ ऊपरना वाक्यनो छे. ए जोतां उक्त 'अंगमय 'मां के ‘आक्रमति'-(आक्रमण करे छे) ना ‘आक्रम् 'मां उक्त 'अंगमइ 'नुं मूळ होय वा 'आगमयते'( वाट जूए छे) ना 'आगमय 'मां. ३०० हिंदीभाषामां 'स्वीकार' अर्थ माटे 'अंगवना' क्रियापद छे. प्रस्तुत 'अंगमई' अने हिंदी 'अंगवना' ए बन्ने वच्चे अधिक साम्य छे. कदाच उक्त 'अंगमय' ऊपरथी ए क्रियापदो आव्यां होय. 'अंगमइ' ना मूळरूपे अहीं जे 'आक्रम्' अने 'आगमय' नी सूचना करी छे ते विचारास्पद छे. ___ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अहींनो 'पाछिलउ' शब्द 6 पाछला' एटले 'छेला' अर्थने सूचवे छे. वै० पश्चा-पच्छा-स्वार्थिक 'इल्ल' - ( ८-२ - १६४ हे० ) पच्छिल + -क-पच्छिलुओ-पच्छिलउ - पाछिलउ - पाळलो. ३३० छासठए-छासठमां, षट्षष्टि — छासहि, अने ते ऊपरथी सातमी विभक्ति छासट्टिए - छासठए. १३१ अहीं 'सांभळवुं ' अर्थमां ' संभलई' क्रियापद वपरायेलुं छे. 'सांभळवु 'ना मूळ विशे थोडो विवाद छे. केटलाक विद्वानो 'निशामयति 'ना 'निशामय' ऊपरथी सांभळवु ' लावे छे त्यारे लावे छे त्यारे बीजा केटलाक तेने नीपजावे छे. मारी दृष्टिए आ बन्ने कल्पना 'सांभळवु 'नी व्युत्पत्ति ' संस्मरति ' ऊपरथी गौरववाळी छे : 'निशामय' ऊपरथी 'सांभळवं' लाववामां ' निशामय' ना 'नि' नो लोप कल्पवो पडे, पछी तेमां 'ळ' लाववा माटे वळी बीजी कल्पना करवी पडे. अर्थनी घटना तो बराबर छे, पण उक्त बे विचित्र कल्पनाओ करवी पडे. 6 ' संस्मरति ' ऊपरथी ' सांभळ' ने लावतां वाग्व्यापारना धोरणे वर्णपरिवर्तननी घटना कदाच बरोबर धाय, परंतु अर्थनुं विशेष ताण पडे एम छे. ' संस्मरति ' ' संभार - याद करवुं' एवा अर्थने सूचवे छे. जे मननो व्यापार छे तेने बदलावी ' संस्मरति ' ने कानना व्यापाररूप 'सांभळवा' अर्थमां ताणीने लाववो पडे छे. 6 L शब्दः श्रावण' एटले श्रवण प्रत्यक्ष - कर्णगम्य न्यायनी भाषामां श्रावणः ' एवो प्रयोग अनेकवार थयेलो छे. मारी धारणा छे के आ श्रावण' शब्दने ' मुण्डं करोति मुण्डयति' नी पेठे नामधातु बनावी ते " Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३३१ ऊपरथी 'श्रावणयति' क्रियापद सुगमरीते निपजावाय. अहीं संवादक प्रमाण पण उपलब्ध छे : शालिभद्रसूरि ( राजगच्छीय वज्रसेन सूरिशिष्यसंवत् १२४१ ) ना ' भरतेश्वर बाहुबलिरास मां " भावि भवीयण सांभणउ " ए वाक्यमां ' सांभळो' अर्थमां ' सांभणउ' क्रियापद वपरायेलुं छे. प्रस्तुत 'श्रावणय' अने आ ' सांभणउ ' नुं 'सांभण' ए बन्ने अंगो तद्दन मळतां छे. [ रासना मूळ पाठ माटे जुओ-नागरीप्रचारिणी पत्रिका-कार्तिक १९९८ नवीन संस्करण - पृ० १९५, ' वीरगाथाकालका जैन - भाषासाहित्य ' ] ए 'श्रावणयति' ऊपरथी आपणुं ' सांभळवं' क्रियापद आवी शके: ' व' ना कारणे 'सां ' ना अनुनासिकपणानी घटना थाय, 'व' नो 'भ' 'भ' थाय, ' व' अने 'भ' बन्ने एकस्थानीय छे एटले ए फेरफारमा बाध नहीं आवे. पछी 'ण' अने 'ल' ए बन्ने पण नासिक्य होवाने लीधे 'ण', 'ल 'ना रूपमां आवी जाय. 'लोणी' ( नवनीत - माखण ), 'निशाळ' (लेखशाला ) वगैरे शब्दोमां ए रीते 'न' नो 'ल' अने 'ल' नो 'न' थयो छे, ए सुप्रसिद्ध छे. आ रीते 'सांभळवं' ने निपजावतां वाग्व्यापारना धोरणे बांधी जातो नथी, तेम अर्थसंबंधी पण कशी ताण नथी पडती. १३२ आ कृतिमां 'घरथी — घरमांथी' एम पांचमीना अर्थ माटे ' घरहूंतु ' शब्द आव्यो छे. प्रस्तुत पंचमीसूचक 'हूंतु 'नी उपपत्ति आ रीते थई शके एम छे : हेमचंद्रना कहेवा प्रमाणे 'हु' अने 'हुं' ए बन्ने प्रत्ययो पंचमीने सूचवे छे. 'हु' एकवचन छे अने 'हुं' बहुवचन छे. वच्छहु ( वृक्षात् ) सिंगहुं (शृङ्गेभ्य : ) वगैरे उदाहरणो सुप्रतीत छे : ( ८-४–३३६, ३३७ पंचमीसूचक 'हंतु 'नी व्युत्पत्ति Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति हे० ) जेम ' हुं' वगेरे पंचमीने सूचवे छे तेम 'तस्' प्रत्यय पण पंचमीनो द्योतक छे एनां पण ग्रामतः, नगरतः, ततः कुतः वगेरे उदाहरणो जाणतां छे. आ स्थळे ' हुं + तस्' ए बने पंचमीसूचकोने साथे राखीए तो 'हुंतो' एवो एक अखंड शब्द नीपजे अथवा एकवचन 'हु' अने 'तस्' द्वारा आवतो प्राकृत 'तो' ए बन्नेने जोडीए तो पण ' हुत्तो ' द्वारा 'हुंतो' पद आत्रे. आ रीते नीपजता ' हुंतो' ना 'उ' नुं दीर्घीकरण तथा 'ओ' नुं ह्रस्वीकरण करी ते ' हुंतो' द्वारा प्रस्तुत ' हूंतु 'ने साधवामां लेश पण दूषण नथी. अर्थघटना बराबर रहे छे अने अक्षररचना पण खांडी थती नथी. सरखामणी माटे जणाववुं जरूरी छे के प्राकृतमां पंचमी बहुवचन माटे एक 'सुंतो' प्रत्यय छे एम वररुचि अने हेमचंद्र बन्ने कहे छे. "भ्यसो हिंतो सुंतो " (प्रा० प्र० परि० ५ सू० ७ तथा ८-३-९ हेम० ) प्रस्तुत 'सुंतो' अने उक्त रोते साधेलो तो' ए बन्ने बच्चे विशेष समानता छे, 'स' अने 'ह' नो जे भेद छे ते नगण्य छे. अहीं एक वात खास ध्यानमा राखवानी छे अने ते ए के सं० 'भू' अने प्रा० 'हू' धातुनुं वर्तमान कृदंत 'हंत' के 'होत' बने छे अने ते द्वारा हूंतो इंतओ, होंतो के होंतओ वगेरे पदो आवेलां छे. प्रस्तुत पंचमीसूचक ‘ढुंतो' अने आ वर्तमान कृदंतरूप 'हूंतो ' ए बे वच्चे केवळ अक्षरसाम्य छे, अर्थनुं साम्य लेश पण नथी, एथी जेओ वर्तमानकृदंत 'तो' साथै पंचमीद्योतक 'हुंतो 'नो संबंध कल्पे छे तेओ केवळ अक्षरसाम्यने अवलंबेला छे. हेमचंद्रे आपला 'जहां होंतउ आगदो' ' तहां होंत आगदो' ' कहां होंतउ आगदो' ( ८-४-३५५ ) वगैरे प्रयोगोमां पण 'जहां '' तहां' अने 'कहां 'नो अंतिम 'हां' ज पंचमीनो सूचक छे अने ' होंतउ' वर्तमान कृदंत छे ए ध्यानमा रहे. प्राकृत द्वयाश्रय सर्ग ८, श्लोक २६ मां हेमचंद्रे " जो जहां होतउ सो तहां " Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३३३ होतउ" एवं वाक्य आपीने पंचमीसूचक 'हां' ने ज समझावेलो छे अने 'होतउ' पद तो वर्तमान कृदंतरूपे मूकेलं छे. ते वाक्यनी टीका करतां आचार्य पूर्णकलश लखे छे के “ होतउ भवन् जायमानः ” अर्थात् टीकाकार पण ए ‘होतउ' पदने वर्तमान कृदंत ज समझे छे. ए ज प्रमाणे " जहां होतउ आगदो" वगैरे वाक्योनी समझ आपनार दोधकवृत्तिकार पण ‘होतउ'नो भवन्' अर्थ आपे छे अर्थात् ' होतउ' के 'होतउ' ए बन्ने वर्तमानकृदंत ज छे, तेनो पंचमीना अर्थ साथे लेश पण संबंध नथी, अने तेमने हेमचंद्रे पंचमीना अर्थ माटे वापरेला पण नथी ए ध्यानमां रहे. १३३ प्रस्तुत कृतिमां आ पद्य छ: " प्रभव भणइ हो जंबुसामि एक साठि ज कीजइ । बिहुँ विजावडई एक विज भणीय ज दीजइ" ॥२१॥ अर्थात् " प्रभव भणे (कहे ) : हे जंबुस्वामी ! एक साटुं ज कीजीए। बे विद्यावडे एक विद्या स्तम्भनीका ज दीजीए" ॥ उक्त कडीनो उक्त अर्थ जोतां एमां वपरायेलां ' साठि' अने 'विजा , वडई' ए बे पद विशेष ध्यान खेंचे तेवां छे. आज'साटे' अने 'वडे काल वेपारीओनी भाषामा 'साटुं' शब्द विशेष * प्रचलित छे. कोई पण सोदो नक्की करवो होय त्यारे वेपारीओ ‘साटुं' शब्द वापरे छे अथवा कोई चीजनी अदलाबदली करवी होय त्यारे पण ‘साटुं' शब्दनो व्यवहार जाणीतो छे. 'साटापाटा करवा' ए प्रयोगमा ‘साटा' शब्दनो जे अर्थ छे ते 'साटुं' नो पर्याय ज छे. ___ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति विक्रमना बारमा सैकामां हयाती धरावनार आचार्य श्रीलक्ष्मणगणिए बनावेला 'सुपासंनाहचरिअ ' मां पृ० २३३ ऊपर 'सह' शब्द 'बदला' ना अर्थमां वपरायेलो छे, अने पृ० २७५ ऊपर 'सही' शब्द 'सोदा 'ना ३३४ ३०१ आ ग्रंथमां प्राकृत भाषानो प्रधान प्रयोग छे. तेमां एवा अनेक शब्दो उपलब्ध छे, जे हालनी गुजरातीमां पण वपराय छे. भोलियां - भोळी. पृ० ५१४, गा० ८४. बलद्दीउ - बळदीयो. पृ० २७५, गा० ७. लद्देउं - लादीने ( आमां मूळ 'लद्द' धातु छे ) पृ० २७५, गा० ७. मइलेसि - तुं मेलुं करे छे ( ' मइल' नाम धातु छे. ) पृ० २३२, गा० ५०. धुत्तारसि - धूते छे. ( ' धुत्त ' धातु छे ) पृ० ११४, गा० १५२. गड्ड - गाडर - पृ० ११४, गा० १५७. उज्जमेमि-ऊजमुं छं - उद्यम करूं छं. पृ० ११६, गा० १८१. खेडंति - खेडे छे. पृ० २३७, गा० ५०. पया-पाड. पृ० २३७, गा० ४४. टलियं - टळ्युं. पृ० २३७, गा० ४८. चीरी - चीर - ( कपडानो चीरो के फळनी चीर ) पृ० ५८४, गा० ३१. डंगा–डांग { पृ० २३८, गा० ५९. ३८८, गा० ६४. पृ० टोपिआ - टोपी. पृ० २६३, गा० १३५. वहियवट्ट-वहीवट--- वहिय- वही-चोपडो वह वृत्त छंटिओ-छांट्यो. पृ० ३५५, गा० १७. पोट-पोटकुं- पोटलं. पृ० ३५५, गा० २७. 'विहरावसु-वहोराव- आप पृ० ६३१, गा० ३०. करव - पाणीनो करवो. पृ० ६३१, गा० ३२. लत्ता-लात. पृ० २३८, गा० ६०. गड्डय - गाडुं - पृ० २३८, गा० ५८ वगेरे. - चोपडानुं नामुं पृ० ५१४, गा. ७६. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३३५ अर्थमां वपरायेलो छे. ज्यां ते शब्द वपरायो छे ते पद्यो आ प्रमाणे छ : " दायव्वमस्थि अन्नं पि किं पि सो भणइ तुम्ह जं एत्थ । तस्स य सट्टे खग्गं गिन्हह एवं ति सो भणिउं ॥” (गा० ५८) अर्थात् “ते कहे छे के तमोने जे बीजुं कांइ देवानुं छे तेने साटे-तेना साटामां-बदलामां-मारुं आ खड्ग ल्यो." ‘सट्टी'नो निर्देश : " आगच्छामि सदेसं विकिणिउं किं पि किं पि किणिऊणं । घडिय च्चिय मह सट्टी इह वणिएहिं समं जेण" ॥ (गा० १४) अर्थात्-" कांइ कांइ वेचीने अने खरीदीने स्वदेश तरफ आq छु, कारण के अहीं वाणियाओ साथे मारु साटुं थयेलुं ज छे." आ रीते प्रथम पद्यमांनो 'सट्ट' शब्द 'साटे' ना भावने जणावे छे अने बीजा पद्यनो 'सट्टी' शब्द 'साटुं–सोदो' अर्थने सूचवे छे. ___ अहीं वपरायेला ' सट्ट' अने ' सट्टी' ए बन्ने शब्दो देश्य जणाय छे, अने ते एक ज शब्दनां रूपांतर जेवां भासे छे. प्रस्तुत कृतिमां वपरायेलो ‘साठि' शब्द अने उक्त 'सट्टी' शब्द समान छे. भाषामां ‘तेलने साटे घऊ दे' एवा वाक्यमा जे अर्थमां — साटे' शब्द चपरायो छे ते अर्थमां अथवा 'साटा'ना अर्थमां आ 'साठि' शब्द अहीं वपरायो छे, 'तैलस्यार्थे गोधूमं देहि' वाक्यना 'तैलस्यार्थे' पदनुं प्राकृत उच्चारण ‘तेलस्सट्टे' थाय, तेनुं जगती गुजरातीमां तेलस्सहि' थाय. 'तेलस्सठि' पदमां ‘तेल' प्रकृति छे. अने ‘स्सहि 'मांनो ‘स्स' षष्ठीनो छे, तथा ' अहि' पद प्रयोजनवाचक 'अर्थ' ऊपरथी आवेलुं सप्तमी विभक्तिवार्छ रूप छे.' प्रयोजन' अर्थवाळा 'अर्थ', 'अह' उच्चारण थाय छे अने 'धन' अर्थवाळा 'अर्थ'- ' अत्थ' उच्चारण थाय छे ए ध्यानमा रहे. “ अट्ठो Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति प्रयोजनम् , अत्थो धनम्” (८-२-३३-हेमचंद्र ) अहीं 'स्यार्थे' ऊपरथी साघेला ‘स्सहि पद साथे प्रस्तुत कृतिमां वपरायेला ‘साठि'नी तुलना करी शकाय एम छे. अने संभव छे के वखत जतां ते, “वदला'ना अर्थमां रूढ थई गयो होय. केटलांक वाक्योमा जे 'साटे' शब्द चतुर्थीना अर्थने बतावे छे ते 'साटे'नुं मूळ उक्त ‘स्सहि 'मां भासे छे. १३४ : बिहुं विजावडई' एटले 'बे विद्याने बदले-बे विद्याओने लईने--एक थंभणी विद्या आप.' बिहुँ' : विजा' 'वडई' एम त्रण जुदां जुदां पद छे. 'बिहुँ' शब्द पांचमी- बहुवचन छे, 'विज्जा' शब्दने पण पांचमीनुं बहुवचन लागेलं छे; परंतु ते अहीं लुप्त छे. 'बिहुँ' मां जे विभक्तिवचन छे ते ज विभक्तिवचन विशेषणविशेष्य भावने लीधे 'विज्जा'मां पण होय, ए स्वाभाविक छे. “तिलेभ्य : प्रति माषान् अस्मै प्रयच्छति" एटले 'तिलान् गृहीत्वा माषान् ददाति' इत्यर्थ:" अर्थात् 'तलने लईने तेने बदले अडद आपे छे.' जे वस्तु बदलामा लेवानी होय छे ते पांचमी विभक्तिमां आवे छे अने 'बदलो' अर्थ बताववा बदलामां लेवानी वस्तुनी साथे एटले ते वस्तुवाचक पद साथे 'प्रति' अर्थपूरक तरीके लागे छे. “ यतः प्रतिनिधि-प्रतिदाने प्रतिना"-(२-२-७२ हेमचंद्र तथा २-३-११ पाणिनि ). जेम उपर्युक्त वाक्यमां बदलामां लेवाना 'तल' पांचमी विभक्तिमा छे अने तेने 'प्रति' लागेलो छे तेम अहीं बदलामा लेवानी 'बे विद्या' ने पांचमी विभक्ति लागेली छे अने साथे ए ज न्याये 'प्रति' नो उपयोग थयेलो छः प्रति-पडि-वडि-ए रीते अहीं 'विजा' साथे 'प्रति' नुं प्रतिरूप 'वडि' शब्द वपरायो छे. आदिभूत 'प' नुं पण 'व' मां Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३३७ परिवर्तन थाय छे (८-१-२३३ हेम०-प्रभूतम्-वहुत्तं). 'बिहुँ' मां लागेलो हुँ' पांचमीना बहुवचननो सूचक छे. अहीं वपरायेलो ‘वडई' ते उक्त प्रति' ना ‘वडि' नुं रूपांतर छे. अथवा 'वडि'ने त्रीजीना एकवचननो 'ए' द्वारा थयेलो 'ई' लागीने ते 'वडिई'-' वडई' नीपजेलं छे. भाषामां अव्ययोने पण विभक्ति लागे छे. ऊपरथी, नीचेथी, ऊपरनु, नीचेर्नु वगरे, तेम अहीं अव्ययरूप 'प्रति' ना 'वडि' ने विभक्ति लागी तेनुं 'वडिई' थयुं छे अने ते ऊपरथी 'वडई' आव्युं छे.. ___ चालु भाषामां तृतीयाना अर्थ माटे जे 'वडे' पूरक के नामयोगी पद वपराय छे तेनुं मूळ उक्त प्रति'मां छे ए संशय विनानी वात छे. पंचमी अने तृतीयाना अर्थमां खास अंतर नथी. एटले पंचमीवाळा पद साथे वपरातो 'प्रति' तृतीयाना अर्थनो पण द्योतक थई शके छे. 'तलवडे घऊं लऊं छु' 'तेलवडे धी लऊं छु' वगैरे प्रयोगोमां स्थिर व्यवहारवाळो 'वडे' शब्द 'हाथवडे खाऊं छु,' 'आंखवडे जोऊ छु' इत्यादि प्रयोगोमां 'बदला' ने बदले मात्र ‘हेतु'नो भाव बतावे छे अने ए रीते ते तृतीयाना अर्थनो द्योतक छे. 'पेटवडिए' ' पैसावडिए' वगैरे प्रयोगोमां मळतुं ‘वडिए' पद प्रस्तुत - विजावडई 'ना ‘वडई' पदना अर्थ साथे बराबर मळतुं आवे छे. अने तेनुं मूळ पण उक्त 'प्रति 'मां छे. ए ज रीते 'हाथवति लखुं छु' 'कानवति सांभळं छु' वगैरे वाक्योमां वपरायेलो अने हेतुना भावनो सूचक ‘वति' शब्द पण 'प्रति 'मांथी आवेलो छ : प्रति-पति-वति. अहीं जणावेली बारमा सैकानी कृतिओमां त्रीजी वगैरे विभक्तिना केवळ प्रत्ययो वपरायेला हता त्यारे आ तेरमा सैकानी कृतिमां विभक्ति उपरांत विभक्तिना अर्थनो द्योतक उपसर्ग पण नामनी साथे लागेलो छे Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ए फेरफार ध्यानमा राखवा जेवो छे अने आजनी भाषामा पण ए फेरफार चालु छे. बारमा अने तेरमा सैकामां हयाती धरावता श्रीजिनदत्तसूरिए रचेला उपदेशरसायनमां गा० २९ मां प्रस्तुत ' विज्जावडई' जेवो ' लहणावई' ( लहणावट्टइ-पाठांतर ) प्रयोग आवे छे. चालु भाषामा 'लेणा पेटे' ' हिसाब पेटे' 'रकम पेटे' वगेरे प्रयोगोमां 'पेटे' पदनो जे अर्थ छे ते ज अर्थ अहीं 'लहणाबाईना ' वट्टई' शब्दनो छे. त्यांनो प्रसंग आ प्रमाणे छे: “जो मंदिरनो कोई देवादार, मरतां मरतां घर अने हाट वगेरे दे तो ते, 'लेणा पेढे' लेवामां आवे छे." मूळ पद्य आ प्रमाणे छे : "" जइ किर कु वि मरंतु घर - इ - देइ त लिज्जहि लहणावई. आ पद्यना विवरणमां जणावेलुं छे के – “ यदि किल कश्चिद् देवदव्याधमर्णः ऋणमोक्षाय, म्रियमाणः सन् वस्वन्तराभावेन गृहं हां वा जिनाय ददाति तदा गृह्यते लभ्यद्रव्यानुसारेण " विवरणकारे 'लहणाबाई' शब्दनो अर्थ 'लभ्यद्रव्यानुसारेण' कर्यो छे, पूर्वोक्त 'लेणा पेटे'नी साथे तद्दन मळतो छे. अहींनो 'वट्टई' शब्द अने पूर्वोक्त ' वडई' ए बन्ने पदो समानमूलक भासे छे. 'लेणा पेटे' कहो के 'लेणा बदले' कहो ए बन्नेनो एक ज भाव छे. 'प्रति' नुं 'पटि' रूपांतर पण थाय छे. अने ए 'पटि' ऊपरथी उक्त 'बई ' ने लाववुं सुगम लागे छे. " प्रसंगवशात् ' प्रति 'ना अन्य अर्थ अने रूपांतर विशे पण चर्चा करवी अस्थाने नथी. जेम ' प्रतिदान' मां लागेलो 'प्रति' 6 बदलाना अर्थने बतावे छे, तेम ' प्रतिनिधि'मां लागेलो 'प्रति ' Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ बारमो अने तेरमो सैको 'मुख्यनी समान' एवा भावने सूचवे छे. “ प्रद्युम्नो वासुदेवात् प्रति" एटले प्रद्युम्न वासुदेवनो प्रतिनिधि छे-वासुदेवनी जग्याए छे–वासुदेवने स्थाने छे–वासुदेवनी पेठे छ अर्थात् अहींनो प्रति समानताना भावनो द्योतक छे. ए रीते मुख्य-सादृश्यना भावमां 'पेठे' शब्द आवे छे. 'आ राजा कर्णनी पेठे दान दे छे' ‘आ शूर, वीर अर्जुननी पेठे लडे छे' ' युधिष्ठिरनी पेठे आ राजा धार्मिक छे.' वगैरे प्रयोगोमां जे 'पेठे' शब्द आवेलो छे ते, मुख्य पुरुष कर्ण, अर्जुन अने युधिष्ठिरसादृश्य राजामां छे, ए हकीकतने दर्शावे छे. एटले ' प्रद्युम्नो वासुदेवात् प्रति' वाक्यमा जे भाव 'प्रति'नो छे ते ज भाव उक्त वाक्योमां वपरायेला 'पेठे' नो छे. ए जोतां ‘प्रति अने पेठे' मा अर्थ- साम्य छे एमां संशय नथी. अक्षर घटना जोतां ए बेनी वर्णानुपूर्वी पण समान ज छे. पण ' प्रति' ऊपरथी 'पेठे' आवे शी रीते ? ___ आ प्रश्ननो उकेल आ रीते छ: आवेस्तिक भाषामां अनेक स्थळे 'प्रति'ने स्थाने 'पइति' पद वपरायेलुं छे अने 'परि' ने स्थाने 'पइरि' पद वपरायेलुं छे. पेइतिश्तांम्-(प्रतिष्ठाम् पृ० ३५ खोरदेह अ०) पइतिश्तातेए ८, १०, १३-(प्रतिष्ठातवै पृ० ३६ खो० अ०) पईति-(प्रति-सामे) (पृ० ४६ खो० अ०) परि-(परि पृ० ६ खो०अ०) ईरि-(परि पृ० २४ खो०अ०) प्राकृत भाषामां ‘पर्यंत' शब्दने बदले ‘परंत' शब्द प्रवर्ते छे. (८-१-५८-हे.) 'परंत' मां 'परि + अन्त' एवां बे पदो छे. पालिमां केटलाक प्रयोगोमां ‘परि' ने बदले 'पयिर' एवं उच्चारण प्रवर्ते छे: पर्यस्त-पयिरत्त, पर्युपास्ते-पयिरुपासति, पर्युदाहाएः-पयिरुदाहसु. वाग्व्या __ ३०२ जुओ पालिप्रकाश पृ० १६ टिप्पण* Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पारनो नियम जोतां ‘परि' ऊपरथी 'पयिर'-पइर–थतां 'पेर'थर्बु शक्य छे. 'पर्यन्त' ऊपरथी 'पेरंत' ध्वनि पण ए रीते आवेलो छे, आ रीते 'प्रति' - 'पइति' अने 'प्रति' ना ज 'परि' नुं 'पइरि' परिवर्तन घणुं जूनुं छे. उक्त 'पेठे' पदमां पण जे 'प्रति' छे ते, 'पइति' के 'पइटि' थया पछी तेना अव्यवहित स्वरो एक बीजामां मळी जतां 'पेठे' पदरूपे ऊपज्यो छे. 'प्रकार' दर्शक 'पेरेनी उपपत्ति तो प्रकारेण-पयारेण-पयरेण'पयरे-पइरे-पेरे' ए रीते समझवानी छे; परंतु समानतावाचक 'पेरे' शब्दना मूळ माटे समानतादर्शक प्रति-पडि-पइडि-पइरि-पेरे आ रीते ते 'पेरे'नो उत्पत्तिक्रम योजाय तो विशेष संगत लागे छे. प्राकृतमा 'प्रति'र्नु 'परि' उच्चारण सुप्रतीत छे. परिहा (प्रतिष्ठा ), परिडिअं (प्रतिष्ठितम् ) -(८-१-३८ हे०) 'तमारा प्रत्ये' 'राजा प्रत्ये' एवा अर्थमां भाषामां 'पे' शब्द वपराय छे. ते सीधुं ज 'प्रति' नुं रूपांतर छे. प्रति-पइ-पे. आ 'पे' द्वितीयाना वा षष्ठीना अर्थनो द्योतक छे. आ रीते 'पेठे' 'पेटे' 'पे' ए बधां 'प्रति'नां परिवर्तनो छे. 'प्रति' अने 'परि' ना अर्थो पण अनेक बतावेला छे: प्रति“प्रति--इत्थंभूत-भागयोः॥ ३३ ॥ प्रतिदाने प्रतिनिधौ वीप्सा-लक्षणयोरपि” ।-(अनेकार्थसंग्रह-हे०) प्रति-प्रत्ये, भाग, प्रतिदान, प्रतिनिधि, वीप्सा अने लक्षण. ___ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको परि " परि व्याधौ उपरमे वर्जने लक्षणादिषु । आलिङ्गने च शोके च पूजायां दोषकीर्तने ॥ ४४॥ भूषणे सर्वतोभावे व्याप्तौ निवसनेऽपि च " ॥ - ( अनेकार्थसंग्रह - हे ० ) ३४१ परि-व्याधि, उपरम, वर्जन, प्रत्ये, लक्षण, इत्थंभाव, आलिंगन, शोक, पूजा, दोषकीर्तन, भूषण, सर्वतोभाव-चारे बाजु व्याप्ति अने निवसन - रहे. १३५ अहीं 'रेवंतगिरि' रासमां ' थवा ' ना अर्थमां ' ठिउ '-' थयो ' पदनो प्रयोग करेलो छे. 'हूउ' शब्दनो प्रयोग 'थवा ' ना अर्थमां थतो आव्यो छे. अने अहीं 'ठिउ' नो प्रयोग पण ए ज अर्थने सूचवे छे. सोरठदेसु-सोरठदेश. ' सोरठ' माटे 'सुरठ' शब्द पण वपरायेलो छे. सुषम एटले सारो वखत सुषम - सुसम अने 'सुसम' ऊपरथी ' सूमू' अथवा सुखमय-सुखमयु- सुहमउ-सुहमु - सूमू प्रस्तुत कृतिमां 'लेपमय ' ने बदले ' लेवमु' शब्द वपरायेलो छे. 'लेपमय 'ना ' मय 'नो 'मु' थतां 'लेवमु' शब्द बने छे तेम ' सुखमय 'ना 'मय 'नो 'मु' थतां 'सुहमु ' शब्द आवे अने ते ऊपरथी 'सूमू' नीपजे. दूसममाझि, पव्वयमाहि, तित्थंमाहि-ए बधा प्रयोगो सातमी विभक्तिना छे. आगली कृतिओमां अने प्रस्तुत कृतिमां पण सातमी विभक्तिने सूचववा माटे ए, इ, हिं वा हि वपरायेला छे, त्यारे आ प्रयोगोमां सप्तमी विभक्ति माटे 'माझि ' के 'माहि' पूरकनो उपयोग थयो छे, ए फेरफार ध्यानमा राखवा जेवो छे. मूळ ' मध्ये ' ऊपरथी 'मज्झे' अने ते ऊपरथी Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ' माझि ' तथा ' मध्ये ' ऊपरथी 'माधि' अने ते ऊपरथी 'माहि' ( पृ० २५७ ). 'सद्दाविय' ‘भराविय' 'आरोही' ए बधां संबंधक भूतकृदंतो छे अने एनी घटना विषे आगळ ( पृ०२८८, १११ ) कवाई गयुं छे. अहींनो ' पच्छलु' शब्द 'पाछळ' अर्थनो सूचक छे. जंबूस्वामिरासमां वपरायेलो ' पाछलिउ ' अने आ ' पच्छलु' ए बन्नेनुं मूळ एक ज छे. रासु, देसदेसंतरु, धरिउ, कप्पिउ, कारिउ, वायइ, ऊडई, मंडपु, उद्धरिउ, गलइ, झलहलइ, पुत्तलिय, कराविउ, कसमीर, गलियु, आविउ, वलंतउ, करंतह, दीठु, आविय, जोएसि, ठामिठामि, पामेइ, सोहए, आवइ, जइजइकार, देहलिहि ( सप्तमी विभक्ति) वगैरे. ए बधा शब्दो सर्वथा स्पष्ट छे. अने तेना अर्थो पण तेवा ज छे. ' ठामिठामि' सप्तमी विभक्तिनुं रूप छे. 'ठाम'नुं मूळ धातुमां छे. ‘ घरि ' ' आरामि' ‘जसि' वगेरे तृतीया विभक्तिवाळां रूपो छे. ' विलेवतणीय' एटले विलेपन संबंधी ( इच्छा ) विलेप - ' विलेव ' ने 'तण' लाग्या पछी 'रामतणी कहानी पेठे ' विलेवतणीय' ए ' विलेवतण' नुं स्त्रीलिंगी रूप छे अथवा ' मदीय'नी पेठे संबंधसूचक ' ईय', 'तण'ने फरी वार लागेलो छे. 'स्था' 'पहिलाइ ' एटले 'पहेले' अने 'बीजइ' एटले 'बीजे - ए बन्नेमा लागेलो अन्त्य 'इ' सप्तमी सूचक जे. अहीं 'तुं' सर्वनाम ' तुं' ना अर्थे वपरायेलुं छे. आगली कृतिओमां आ रीते स्पष्टपणे 'तुं' नो प्रयोग न हतो. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको ३४३ 'रेवंतगिरे ' रूप षष्ठी विभक्तिवालुं छे. ए, संस्कृत ' गिरेः ' नुं प्रतिरूप छे. अथवा 'गिरि' नुं ' गिर' बनावी ते ऊपरथी 'गिरे ' ए सप्तमी विभक्तिबाळु पण थाय. एनो " गिरिनिमित्ते ' एटले 'गिरिसंबंधी ' एवो षष्ठी ' पहेला 'नी व्युत्पत्ति जेवो ज अर्थ थाय. १३६ 'प्रथम' अने 'पहिलं ' ए बन्ने समान अर्थवाळा शब्दो छे. 6 " ' प्रख्याति' अर्थवाळा ' प्रथ' धातुने अम प्रत्यय लागतां ' प्रथम ' < शब्द बने छे. ( उणादि ० ३४७ ) ' प्रथम ' नुं प्राकृत पढम, पुढम, पदुम के पुदुम थाय छे. ( ८-१-५५ ). स्वार्थिक 'इल' लागतां ' पढमिलु' पण थाय छे. ' पहिलं ' शब्दना मूळमां पण उक्त ' प्रथ ' धातु छे. प्राकृतमां नाथ - नाह, कथा-कहा वगैरेनी पेठे 'थ' नुं 'ह' उच्चारण व्यापक छे. छतां हेमचंद्रे 'प्रथम' माटे 'थ' ना 'ढ' नुं विधान कर्यु छे. आ विधान प्रमाणे साहित्यिक प्राकृतमां भले ' पढम' रूप थाय परंतु लौकिकमां ' पृथिवी' ना 'पुढवी' अने 'पुहवी' एवां बे रूपोनी पेठे 'प्रथम' नां ' पहम' अने ' पढम' एवां बे रूपो स्वीकारिए तो 'पहम'नुं 'पहमिल' थई ते द्वारा प्रस्तुत 'पहिला' के चालु ' पहेलो' पद साधी शकाय. अथवा उक्त ' प्रथ' धातुनुं भूतकृदंत ' प्रथित' ते द्वारा 'पहिअ' अने तेने 'इल' प्रत्यय लागतां ' पहिइल' पद आवे. चालु 'करेलुं ' 'गयेलु' वगैरेनी जेवुं ज ' पहिइल' पद छे. ए ऊपरथी 'पहिला ' 'पहिलो' वगैरे पदो नीपजी शके. उक्त बन्ने पद्धतिमां मूळ ' प्रथ' धातु छेए ध्यानमा रहे. प्रथते प्रसिद्धि याति असौ प्रथम : जे प्रसिद्धि पामे ते प्रथम. आवी ज व्युत्पत्ति उक्त ' पहिल' नी छे. हेमचंद्रे तो शीघ्रवाची 'वहिल ' ने देश्य को छे अने अव्युत्पन्न गणी निपातरूपे जणाव्यो छे. ( ८-४-४२२ हे० ) प्रस्तुत 'पहिइल ' - पहिल ऊपरथी 'वहिल ' ने Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नीपजावी शकाय एम छे अने अर्थमां पण बांधो आवे तेम नथी. निरुक्तकार 'प्रथम'–नुं पृथक्करण करतां ‘प्रतम' शब्द आपे छे अने 'प्रतम' नो अर्थ 'प्रकृष्टतम' जणावे छे. "प्रथम इति मुख्यनाम प्रतमो भवति"-वृत्ति-" प्रथमाः प्रतमाः प्रकृष्टतमाः मुख्या इत्यर्थः" —(निरुक्त-पृ० १५५ मेघनाम प्रकरण) निरुक्तकारे दर्शावेल पृथक्करण अने वैयाकरणोए जणावेल पृथक्करण ए बेमां कशो अर्थभेद नथी. १३७ गिरनाररास 'कडवा 'मां छे. 'कडवू' एक प्रकारना पद्यसमू'कडवा' नी व्युत्पत्ति र हनुं नाम छे. भाषामां कडपलो, कडब, खडकलो, " वगेरे शब्दो समूहना अर्थने सूचवे छे. तेम प्रस्तुत 'कडवु' शब्द अमुक प्रकारना पद्यसमूहनो द्योतक छे. संस्कृतमां आने माटे 'कटप्र' शब्द छे अने प्राकृतमा 'कडप्प' शब्द छे. आ शब्द विशे लखतां आचार्य हेमचंद्र लखे छे के " कडप्पो कटप्रशब्दभवोऽप्यस्ति स च कवीनां नातिप्रसिद्ध इति निबद्धः" - ( देशी० व० २, गा० १३ ) हेमचंद्रनुं आ कथन 'कटप्र' शब्दने संस्कृत ठरावे छे परंतु ते शब्द अतिप्रसिद्ध न होवाथी तेने तेमणे देश्य गण्यो छे. विचार करतां जणाय छे के समूहवाचक 'कलाप' शब्द अने 'कदम्ब' वा 'कदम्बक' शब्द ए प्रस्तुत 'कटप्र' नां परिणामो होय. कटप्र-कडप्प-कडाप-कलाप. कटप्र-कडप्प-कडंप ३०३ 'प्रथम' अर्थ माटे प्राकृतमां 'पढम' शब्द छे. 'प्रथम' अने ‘पढम' ए बन्ने परस्पर सरखावी शकाय तेवां पदो छे. निरुक्तकारे 'प्रथम' ना अर्थ माटे 'प्रकृष्टतम' शब्द वापरेलो छे. ते ऊपरथी नीचेनी कल्पनाने अवकाश मळ्यो छे: प्राकृतभाषामा 'प्रकृष्ट' माटे 'पकड' पदनी वपराश सुप्रतीत छे, एथी 'प्रकृष्टतम' नुं प्राकृत उच्चारण ‘पकद्धृतम' थाय अने ए ‘पकडतम' द्वारा पकडतम-पयडुतम पयडम-पड़म-पढम ए रीते आ ‘पढम' शब्द न आवी शके ? Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमो अने तेरमो सैको कडंव-कदम्ब अस्तु. प्रस्तुत 'कडवं' शब्दनुं मूळ उक्त मां छे, ए ज अहीं जणाववानुं छे. " 'रळी' शब्द ' मनोरथ 'रळी' नी व्युत्पत्ति -मननी होंश –मननी रुचि 'अर्थने बतावे छे. 'रुचि' ने स्वार्थिक 'ल' लागतां ते ऊपरथी बनता स्त्रीलिंगी ' रुइली' ऊपरथी 'रळी' शब्दने लाववानी कल्पना करी शकाय . कल्पना असंगत होय तो 'रळी' शब्दने देश्य मानवो रह्यो . आ रीते तेरमा सैकानी उक्त त्रणे कृतिओना नाम वगेरेनो परिचय थयो. ३४५ कटप्र ' Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) अभयदेवसूरि- बारमो सैको थंभणयपास - स्तोत्र ( पंचप्रतिक्रमण पं० सुखलालजीसंपादित १९२१ ) जय तिहुअणवरकप्परुक्ख ! जय जिण ! धन्नंतरि ! जय तिहुअणकल्लाणकोस ! दुरिअक्करिकेसरि ! तिहुअणजणअविलंघिआण ! भुवणत्तयसामिअ ! | कुणसु सुहाइ ! जिणेस ! पास ! थंभणपुरट्टिअ ॥ १ ॥ तइ समरंत लहंति झत्ति वरपुत्त - कलत्तइ धष्ण-सुवण - हिरणपुण्ण जण भुंजइ रज्जइ । पिक्as मुक्ख असंखसुक्ख तुह पास ! पसाइण इअ तिहुअणवरकप्परुक्ख सुक्खा कुण मह जिण ! ॥ २ ॥ जरजज्जर परिजुण्णकण्ण नहुट्ठ सुकुट्ठिण चक्खक्खीण खरण खुण्ण नर सल्लिय सूलिण । तुह जिण ! सरणरसायणेण लहु हुँति पु-णव जय धन्नंतरि ! पास ! मह वि तुह रोगहरो भव ॥ ३ ॥ विज्जा - जोइस - मंत-तंतसिद्धि अपयत्तिण भुवण अट्टविह सिद्धि सिज्झहि तुह नामिण । तुह नामिण अपवित्तओ वि जण होइ पवित्तर तं तिहुअणकलाणकोस तुह पास ! निरुत्तउ ॥ ४ ॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति खुद्द उत्तइ मंत--तंत-जंताइ विसुतइ चरथिरगरल—गहु—ग्गखग्गरिउवग्ग विगंजइ । दुत्थियसत्य अणत्थतत्थ नित्थारइ दय करि दुरियइ हरउ स पासदेउ दुरियक्करिकेसरि ॥ ५ ॥ तुह आणा थंभेइ भीमदपुर सुरवर रक्खस–जक्ख–फर्णिदविंद चोरा-इनल - जलहर ! जल - थरचारि रउद्दखुद्द पसु - जोइणि- जोइय इय तिहुअणअविलंघिआण जय पास ! सुसामिय ! ॥ ६ ॥ पत्थियअत्थ अणत्थतत्थ भत्क्तिम्भरनिब्भर रोमंचचिय चारुकाय किन्नर -नर-सुरवर | जसु सेवहि कमकमलजुयल पक्खालियकलिमलु सो भुवणत्तयामि पास मह मद्दउ रिउबलु ॥ ७ ॥ बहुविहुवन्नु अन्नु सुन्नु वन्निउ छप्पन्निहिं । मुक्ख-धम्म - कामत्थकाम नर नियनियसत्थिहिं । जं झायहि बहुदरिसणत्थ बहुनामपसिद्धउ सो जोइयमणकमलभसल सुहु पास पवद्धउ ॥ ८ ॥ X X X मह मणु तरलु पमाणु नेय वाया विविसंठुलु न य तणुरवि अविणयसहावु आलसविहलंघलु । तुह माहप्पु पमाणु देव ! कारुणपवित्तउ इ इ मा अवहीर पास ! पालिहि विलवंतउ ॥ १८ ॥ किं किं कप्पिउ न य कलुणु किं किं व न जंपिउ किं व न चिट्टिउ कि देव ! दीणयमवलंबिउ | Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य कासु न किय निष्फल लल्लि अम्हेहि दुहत्तिहि तह वि न पत्तउ ताणु किं पि पर पहु ! परिचतिहि ॥ १९ ॥ तुहु सामिउ तुहु माय बप्पु तुहु मित्त पियंकरु तुहुँ गइ तुहु मइ तुहु जि ताणु तुहु गुरु खेमंकरु । हउँ दुहभरभारिउ वराउ राउ निब्भग्गह लीउ तुह कमकमलसरणु जिण पालहि चंगह ॥ २० ॥ पइ कि विकय नीरोय लोय कि वि पावियसुहसय किवि ममंत महंत के वि कि वि साहियसिवपय । किवि गंजियरिउवग्ग के वि जसधवलियभूयल मइ अवहीरहि केण पास ! सरणागयवच्छल ! ॥ २१ ॥ हउँ बहुविहदुहतत्तगत्तु तुह दुहनासणपरु हउँ सुयाह करुणिक्कठाणु तुह निरु करुणारु | हउँ जिण ! पास ! असामिसालु तुहु तिहुअणसामिय जं अवहीरहि मइ झंखंत इय पास ! न सोहिय ॥ २३ ॥ जुग्गाऽजुग्गविभाग नाह न हु जोयहि तुह सम भुवणुवयार सहावभाव करुणारससत्तम । सम-विसमई किं घणु नियइ भुविदाह समंतउ इय दुहिबंधव ! पासनाह ! मइ पाल धुणंतउ ॥ २४ ॥ नदीह दी मुवि अन्नु वि किवि जुग्गय जं जोइवि उवयारु करहि उवयारसमुज्जय । are दीणु निहीणु जेण तइ नाहिण चत्तउ तो जुग्गउ अहमेव पास ! पालहि मइ चंगउ ॥ २५ ॥ अह अन्नु विजुग्गयविसेसु कि वि मन्नहि दीणह जं पासिवि उवयार करइ तुह नाह समग्गह । ३५१ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सु च्चिय किल कल्लाणु जेण जिण ! तुम्ह पसीयह किं अन्निण तं चेव देव ! मा मइ अवहीरह ॥ २६ ॥ तुह पत्थण न हु होइ विहलु जिण! जाणउ किं पुण हउँ दुक्खिय निरु सत्तचत्त दुक्कहु उस्सुयमण । तं मन्नउ निमिसेण एउ एउ वि जइ लब्भइ सच्चं जं भुक्खियवसेण किं उंबरु पच्चइ ॥ २७ ॥ तिहुअणसामिय ! पासनाह ! मइ अप्पु पयासिउ किज्जड जं नियरूवसरिसु न मुणउ बहु जंपिउ । अन्न न जिण ! जग तुह समो वि दक्खिन्नदयासउ जइ अवगन्नसि तुह जि अहह कह होसु हयासउ ॥ २८ ॥ एह महारिय जत्त देव ! इहु न्हवणमहूसउ जं अणलिय गुणगहण तुम्ह मुणिजणअणिसिद्धउ । एम पसीहसु पासनाह ! थंभणयपुरहिय ! इय मुणिवरु सिरिअभयदेवु विन्नवइ अणिंदिय ! ॥ ३० ॥ (२) वादिदेवमूरि-बारमो सैको गुरुश्रीमुनिचन्द्रस्तवन नाणु चरणु संमत्तु जसु रयणत्तउ सुपहाणु । जयओ सु मुणिसुरि इत्थु जगि मोडिअवम्महखाणु ॥ १॥ उवसमरयणसमुद्दसमु विहलियजलसाहारु (-लयासारु ) बंदओ मुणिसुरि भवियजण जिम छं (छिं) दउ संसार ॥ २॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य ३५३ अमियमहुरदेसणरसिण भवियण-रुखडुलाई जिंव सिंचइ मुणिचंदसुरि तिअं तु वि कुविकाई (?)॥ ३ ॥ वक्खाणंतओ जिणवयणु सिरिमुणिचंद मुणिंद । चउदिसि मुणिपरिवारियओ नावइ पुन्निमचंदु ॥ ४ ॥ जिणि छटुंमिमाइतवि सोसीउ इंहु नियदेहु । वरकरुणाजल–णीरुनिहि सो गुरु मुणिसुरि लेहु ॥ ५ ॥ जो विहिपक्खसमुद्धरणु पंचमहव्वयधारु । सो नंदउ मुणिचंदसुरि जिणि वूहउ तवभारु ॥ ६ ॥ मेरुहु जिंव थिर मञ्झ गुरु सायरु जिम्व गंभीरु । सिरिमुणिसुरि तवनाणनिहि जच्चसुवन्नसरीरु ॥ ७ ॥ जं संसारमहाडविहिं निवडिय-जण-सत्थाहु । सो गुरु मुणिसुरि सुमरियई सरणविहीणहं नाहु ॥ ८ ॥ जिंव तारयहं पयनु ससि सेलहं मेरु पहाणु । तिंव सूरिहिं मुणिचंद सुणि ( सूरि ? ) गरुयउ निज्जियमाणु ॥९॥ मोहमहाचलि कुलिससमु सुयजलपूरियपारु । सुविहिय मुणिसुरिसेहरउ मुणिसुरि बालकुमारु ॥ १० ॥ ता मज्जहिं परतित्थिय मा (जा) न वि कोइ कहेइ । जिणसासणि उज्जोयकरु मुणिसुरि एत्थु वसेइ ॥ ११॥ ते धन्ना परि गावडां जहिं विहरइ मुणिसूरि । हरइ मोहु फेडइ दुरिउ संसओ प्पलइ दूरि ॥ १२॥ कुंददलुजलजसपसर धवलिय सयल तिलोय । कम्मपयडिपयडणपवणु मुणिसुरि नमहु असोओ॥ १३ ॥ जिण कुग्गह फेडिय नरहं पयडिवि निम्मलनाणु । सो मुणिसुरि महु-माइगुरु अइमणहरसंठाणु ॥१४॥ ___ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति मुणिसूरिहि जे तणा गुणा तहिं को संख मुणेइ ? । किं रयणायरु कु वि मुणिवि रयणह संख कहेइ ? ॥ १५ ॥ दुद्धरदप्पगइंदहरि कोइलकोमलवाणि । सो मुणिचंदु नमेहु परसंजमरयणह खाणि ॥१६॥ हरिभद्दसूरिकयगंथ जिणि वक्खाणिय नियबुद्धि । सो मुणिचंदु नमेह पर जिव पावहु वरसुद्धि ॥ १७ ॥ जिम बोलइ तिम्ब जो करइ सील अखंडु धरेइ । मुणिसुरि पंडियत्तोसयरु पन्हुत्तरइ दलेइ ॥ १८ ॥ जिंव महुयर आवई कमलि गंधाइढीय सत्त । तिम मुणिसूरिहि सीसगण सुयमइरंदासत्त ॥ १९ ॥ जहिं विहरइ मुणिचंदसुरि तहिं नासइ मिच्छत्त । चरइ नउलु जहिं ठावडइ सप्पु किं हिंडइ तेथु ? ॥२०॥ जिम्ब मेहागम तोसियहि मोरहतणा निकाय । तिम्व मुणिसूरिहिं आगमणि भवियाणं समुदाय ॥२१॥ सरयागमि जिव हंसुला हरिसिज्जति न-भंति (नभंमि)। तिम्व मुणिसुरि पडिषंडिया जण तुह आगम निब्भंति ॥२२॥ तह मणुयहं गउ विहल जमु जेहि न मुणिमुरि दिछु । किं व जच्चंधिहि लोयणिहि जेहिं न ससिहरु दिहु ॥ २३ ॥ जाहे पसन्ना तुह नयण तह मणुयह सयकाल । हियइच्छिय सुह संपडहिं अनु छिंदहिं दुहजाल ।। २४ ।। दूसमरयणिहिं सूर जिम्व तुह उहिउ मुणिनाह । सिरिमुणिचंद मुणिंद परमहु फेडइ कुग्गाह ॥ २५ ॥ (मारी हाथप्रत) Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य ( ३ ) हेमचंद्रन अवतरणो-चारमो सैको ( आठमो अध्याय पाद चोथो - अपभ्रंश प्रकरण ) एइ ति घोडा एह थलि एइ ति निसिआ खग्ग । एत्थु मुणिसिम जाणीअइ जो न वि वालइ वग्ग ॥ १ ॥ सायरु उपरि तणु धरइ तलि घल्लूइ रयणाई । सामि सुभिच्च वि परिहरइ सम्माणेइ खलाई ॥ २ ॥ गुणहिं न संपइ, कित्ति पर, फल लिहिआ भुंजंति । केसरि न लहइ बोड्डिअ - (कोड्डिअ ) - वि गय लक्खेहिं घेप्पंति ॥३॥ वच्छहे गृहइ फलई जणु कडु पल्लव वज्जेइ । तो वि महद्दुमु सुअणु जिव ते उच्छंगि धरेइ ॥ ४ ॥ जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु । तसु हजं कलिजुगि दुलहहो बलि किज्जउं सुअणस्तु ॥ ५ ॥ अग्गिएं उन्हउ होइ जगु वाएं सीअलु ते । जो पुणु अग्गिं सीअला तसु उण्हत्तणु के ॥ ६ ॥ विप्पिअ - आरउ जइ वि पिउ तो वि तं आणहि अज्जु ॥ अग्गिण दड्ढा जइ वि घरु तो तें अगं कज्जु ॥ ७ ॥ संगरसहिं जु वणिअइ देक्खु अम्हारा कंतु । अइमत्तहं चत्तं कुसहं गय कुंभई दारंतु ॥ ८ ॥ वायसु उड्डावंति ए पि दिउ सहस - | अद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट्ट तड त्ति ॥ ९ ॥ भगउं देक्खिवि निअय बलु बलु पसरिअउं परस्सु । उम्मिल ससिरेह जिवें करि करवालु पियस्सु ॥ १० ॥ ३५५ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जहिं कप्पिज्जइ सरिण सरु छिज्जइ खग्गिण खग्गु । तहिं तेहइ भडघडनिवहि कन्तु पयासइ मग्गु ॥११॥ एकहिं अक्खिहिं सावणु अन्नहिं भदवउ । माहउ महिअलसत्थरि गंडस्थले सरउ ॥ १२ ॥ अंगिहिं गिम्ह सुहच्छीतिलवणि मग्गसिरु तहे मुद्धहे मुहपंकइ आवासिउ सिसिरु ॥ १३ ॥ हिअडा ! फुट्टि तड ति करि कालक्खेवें काई । देक्खउं हयविहि कहिं ठवइ पई विणु दुक्खसयाई ॥ १४ ॥ जीविउ कासु न वलुहउं धणु पुणु कासु न इछु । दोष्णि वि अवसर-निवडिआई तिण-सम गणइ विसिङ ॥ १५॥ एह कुमारी एहो नरु एहु मणोरह-ठाणु । एहउं वढ ! चिन्तन्ताहं पच्छइ होइ विहाणु ॥ १६ ॥ जइ पुच्छह घर वड्डाई तो वड्डा घर ओइ । विहलिअ-जण-अब्भुदरणु कंतु कुडीरइ जोइ ॥ १७ ॥ आयई लोयहो लोअणइं जाई सरई न भंति । अप्पिए दिइ मउलिअहिं पिए दिट्टइ विहसंति ॥ १८ ॥ आयहो दकलेवरहो जं वाहिउं तं सारु । जइ उट्टब्भइ तो कुहइ अह डझइ तो छारु ॥ १९ ॥ साहु वि लोउ तडप्फडइ वड्डत्तणहोतणेण । वड्डप्पणु परिपाविअइ हत्थिं मोक्कलडेण ॥ २०॥ जइ न सु आवइ दूइ ! घरु काई अहोमुहु तुज्झु । वयणु जु खंडइ तउ सहि ! एसो पिउ होइ न मज्झु ॥ २१ ॥ ___ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य सुपुरिस कंगुहे अणुहरहिं भण कजें कवणेण । जिवँ जिवें वड्डतणु लहहिं तिवँ तिव नवहिं सिरेण ॥ २२ ॥ जइ स सणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह । बिहिं वि पयारेहिं गइअ धण किं गजहि खल मेह ! ॥ २३ ॥ महु हिअउं तई, ताए तुहुं स वि अन्ने वि नडिजइ । पिअ! काई करउं हउं, काई तुहुं, मच्छे मच्छु गिलिजइ ॥२४॥ तुम्हेहिं अम्हेहिं जं किअउं दिट्ठउं बहुअजणेण । तं तेवडउं समर-भरु निजिउ एकखणेण ॥२५॥ अम्हे थोवा रिउ बहुअ कायर एम्ब भणंति । मुद्धि ! निहालहि गयणतलु कइ जण जोण्ह करंति ॥२६॥ बप्पीहा ! पिउ पिउ भणवि कित्तिउ रुअहि हयास !। तुह जलि महु पुणु वल्लहइ बिहुं वि न पूरिअ आस ॥२७॥ बप्पीहा ! काई बोल्लिएण निग्विण ! वारइवार । सायरि भरिअइ विमलजलि लहहि न एक इ धार ॥ २८॥ बलि अब्भत्थणि महुमहणु लहुहूआ सो इ।। जइ इच्छह वड्डत्तणउं, देहु, म मग्गहु को इ ॥ २९॥ भमरा एत्थु वि लिंबडइ के वि दियहडा विलंबु । घणपत्तलु छायाबहुलु फुलइ जाम कयंबु ॥ ३०॥ दिअहा जंति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छि । जं अच्छड़ तं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि ॥ ३१॥ संता भोग जु परिहरइ तसु कंतहो बलि कीसु । तसु दइवेण वि मुंडियउं जसु खलिहडउं सीसु ॥ ३२॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३५८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति चूडुलउ चुण्णीहोइसइ मुद्धि ! कवोलि निहित्तउ | सासानलजालझलक्किअउ बाहसलिलसंसित्तड ॥ ३३॥ हिअइ खुडुक्कइ गोरडी गयणि घुटुक्क मेहु । वासारत्ति वासु अहं विसमा संकडु एहु || ३४ ॥ पुत्ते जाएं कवणु गुणु अवगुणु कवणु मुरण | जा बप्पीकी मुंहडी चंपिज्जइ अवरेण ॥ ३५॥ तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेवड विथारु । तिसहे निवारणु पलु वि न वि पर धुहुअइ असा ॥ ३६ ॥ जं दिउं सोमग्गहणु असइहिं हसिउ निसंकु | पिअमाणुसविच्छोहरु गिलि गिलि राहु ! मयंकु || ३७ ॥ सवधु करेपिणु कधिदु मई तसु पर सभलउं जम्मु । जासु न चाउ न चारहडि न य पम्हउ धम्भु ॥ ३८ ॥ जइ केइ पावीसुं पिऊ अकिआ कुछ करीसुं । पाणीउ नवइ सरावि जिवँ सव्वंगे पइसीसु ॥ ३९॥ उअ कणिआरु पफुल्लिअउ कञ्चणकांतिपयासु । गोरीवयणविणिज्जिअउं नं सेवइ वणवासु ॥ ४० ॥ वासु महारिसि एउ भणइ जइ सुइसत्थु पमाणु । मायहं चलण नवताहं दिवि दिवि गङ्गाण्हाणु ॥ ४१ ॥ केम समप्पउ दुट्टु दिणु किध रयणी छुडु होइ । नववदंसणलालसर वहइ मणोरह सोइ ॥ ४२ ॥ ओ गोरीमुहनिज्जिअउ बद्दल लुक्कु मियंकु । अन्नु वि जो परिहवियतणु सो किवँ भवइ निसंकु ॥ ४३ ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य ३५९ मई भणिअउ बलिराय ! तुहुं, केहउ मग्गण एहु । जेहु तेहु नवि होइ वढ ! सई नारायणु एहु ॥ ४४ ॥ तिलहं तिलत्तणु ताउं पर जाउं न नेह गलंति । नेहि पणइ ते जि तिल तिल फिट्टवि खल होति ॥ ४५ ॥ जेवडु अंतर रावण-रामहं तेवडु अंतर पट्टण-गामहं ॥ ४६॥ बंभ ! ते विरला के वि नर जे सव्वंग छइल। जे वंका ते वंचयर जे उज्जुअ ते बइल्ल ॥ ४७ ॥ महु कंतहो गुठ्ठिअहो कउ झुपडा बलति । अह रिउरुहिरें उल्हवइ अह अप्पणे न भंति ॥ ४८ ॥ पियसंगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम्व । मई बिन्नि वि विन्नासिआ निद्द न एम्ब न तेम्व ॥ ४९ ॥ कंतु जु सीहहो उवमिअइ तं महु खंडिउ माणु । सीहु निरक्खय गय हणइ पिउ पयरक्ख–समाणु ॥ ५० ॥ चंचलु जीविउ ध्रुवु मरणु पिअ ! रूसिजइ काई । होसइ दिअहा रूसणा दिव्वई वरिससयाइं ॥ ५१ ॥ माणि पणइ जइ न तणु तो देसडा चइज्ज । मा दुजणकरपल्लवेहिं दंसिज्जंतु भमिज ॥ ५२ ॥ किर खाइ न पिअइ न वि दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअडउ । इह किवणु न जाणइ जह जमहो खणेण पहुच्चइ दूअडउ ॥५३॥ एत्तहे मेह पिअंति जलु एत्तहे वडवानल आवट्टइ । पेक्खु गहीरिम सायरहो एक वि कणि नाहिं ओहट्टइ ।। ५४ ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जिव सुपुरिस तिवँ घलई जिव नइ तिवँ वलणाई । जिव डोंगर तिवँ कोट्टर हिआ ! विसूरहि काई ॥ ५५ ॥ दिवेहिं वित्तउं खाहि वढ ! संचि म एक्कु विद्रमु । को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु ॥ ५६ ॥ विवेकस्तु थिरत्तणउं जोव्वणि कस्तु मरड्डु | सो लेखडउ पठ्ठाविअइ जो लग्गइ निच्च ॥ ५७ ॥ कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहिं बरिहिणु कहिं मेहु । दूरठिआहं वि सज्जणहं होइ असलु नेहु ॥ ५८ ॥ सरिहिं न सरेहिं न सरवरेहिं न वि उज्जाणवणेहिं । देसवण्णा होंति वढ ! निवसंहिं सुअणेहिं ॥ ५९ ॥ एक कुली पंचहिं रुद्धी तहं पञ्चहं वि जुअंजुअ बुद्धी । बहिए ! तं घरु कहिं किंव नंदउ जेत्थु कुडुंबउं अप्पणछंदउं ॥ ६० ॥ गयउ सु केसरि पिअद्दु जलु निश्चिंत हरिणाई । जसु केरएं हुंकारडएं मुहहुं पडंति तृणाई ॥ ६१ ॥ जइ रच्चसि जाइट्टिए हिअडा ! मुद्धसहाव ! | लोहे पुणण जिव घणा सहेसइ ताव ॥ ६२ ॥ सिरि जरखंडी लोअडी गलि मणिअडा न वीस । तो वि गोडा कराविआ मुद्धए उबईस ॥ ६३॥ अम्मडि ! पच्छायावडा पिउ कलहिअउ विआलि । as विवरी बुद्धी होइ विणासहो कालि ॥ ६४ ॥ ढोला ! एह परिहासडी अइभन कवणहिं देसि । हउं झिज्जरं तउकेहिं पिअ ! तुहुं पुणु अन्नहिरेसि ॥ ६५ ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य जिभिदिउ नायगु वसि करहु जसु अधिन्नई अन्नई । मूलि विणदृइ तुंबिणिहे अवसे सुक्कई पण्णइं ॥६६॥ एक्कसि सील-कलंकिअहं देज्जहिं पच्छित्ताई जो पुणु खण्डइ अणुदिअहु तसु पच्छित्ते काई ॥ ६७ ॥ पहिआ ! दिही गोरडी दिट्ठी मग्गु नीअंत । अंसूसासेहिं कंचुआ तिंतुव्वाण करंत ॥ ६८ ॥ पिउ आइउ सुअ वत्तडी झुणि कन्नडइ पइट्ठ । तहो विरहहो नासंतअहो धूलडिआ वि न दिट्ठ ॥ ६९॥ संदेसें काई तुहारेण जं संगहो न मिलिज्जइ ।। सुइणंतरि पिएं पाणिएण पिअ ! पिआस किं छिज्जइ ॥ ७० ॥ एत्तहे तेत्तहे वारि घरि लच्छि विसंठुल धाइ । पिअपब्भट्ट व गोरडी निश्चल कहिं वि न ठाइ ॥ ७१ ॥ देसुच्चाडणु सिहिकढणु घणकुट्टणु जं लोइ । मंजिट्टए अइरत्तिए सव्वु सहेव्वळ होइ ॥ ७२ ॥ सोएवा पर वारिआ पुप्फवईहिं समाणु । जग्गेवा पुणु को धरइ जइ सो वेउ पमाणु ॥ ७३ ।। हिअडा ! जइ वेरिअ घणा तो किं अब्भि चडाहुं । अम्हाहिं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुं ॥ ७४ ॥ बाह विछोडवि जाहि तुहुं हडं तेवइ को दोसु । हिअयहिउ जइ नीसरहि जाणउं मुंज! सरोसु ॥ ७९ ॥ जेप्पि असेसु कसायबलु देप्पिणु अभउ जयस्सु । लेवि महव्वय सिवु लहहिं झाएविणु तत्तस्सु ॥ ७६ ॥ गप्पिणु वाणारसिहिं नर अह उज्जेणिहिं गप्पि । मुआ परावहिं परमपउ दिव्वंतरई म जंपि ॥ ७७ ॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति गंग गमेष्पिणु जो मुअइ जो सिवतित्थ गमेपि । कीलदि तिदसावास गउ सो जमलोउ जिणेपि ॥ ७८ ॥ वलयावलिनिवडणभएण धण उद्धब्भुअ जाइ । वलहविरहमहादहहो थाह गवेसइ नाइ ॥ ७९ ॥ पेक्खेविणु मुहु जिणवरहो दीहर - नयण सलोणु । नावइ गुरुमच्छरभरिउ जलणि पविसइ लोणु ॥ ८० ॥ चंपयकुसुमहो मज्झि सहि ! भसलु पइइउ । सोहइ इन्दनीलु जणि कणइ बइट्ठउ || ८१ ।। पाइ विलग्गी अंडी सिरु ल्हसिउं खंधस्सु । तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउं कंतस्सु ॥ ८२ ॥ सिरि चडिआ खंति प्फलई पुणु डालई मोडति । तो वि महद्दुम सउणाहं अवराहिउ न करंति ॥ ८३ ॥ हैम - छन्दोनुशासन - ( पृ० ३५ थी ४६) सायरु रयणायरु बोल्लहिं जं बुहसत्थ, तं सच्चु जि जाय निसायरकुच्छुह जत्थ । जह एक हूओ सिरिकंठसिरे अवयंसु, अवरु सिरिनाहउरि भूसणु उल्लसिअंसु ॥ ४ ॥ ( छंद - अवतंसक ) रेहहि अरुणकंति धरणीअलि इंदगोवया, पाउससिरि नाइ पय जावयबिंदु लग्गया । एह वि विज्जुलेह झलकंति अ बहलकंतिआ, लक्खिज्जइ जायरूवनिम्मविअ व्व कंठिआ ॥ ७ ॥ ( छंद - इन्द्रगोप ) Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य लायण्णविब्भमं तरंगंतिहिं निदडवम्महं जिआवंतिहिं । प्रेमि प्रियाहिं जे पुलोइज्जइ ता मत्तलोइ सग्गु पाविज्जइ ॥ १३ ॥ (छंद-वित्रम) निच्छिउ करिवि चंदु दोण्णि खंड तहि निम्मिय मयनयणाइ गंड। वरकुसुम घडेविणुं गंधचंगु कोमलु तह विरइओ एहु अंगु॥१४॥ (छंद-कुसुम) सुणिवि वसंति पुरपोढपुरंधिहं रासु। सुमरिवि लडह हुओ तक्खणि पहिउ निरासु ॥ १५ ॥ (छंद-रास) ते जि पंडिअ, ते जि गुणवंत, ते तिहुअणसिर उवरि, ताहं चिअ जम्मु जाणहु, जे मत्तविलासिणिहिं नवि खोइअ सुझाणओ ॥ २६ ॥ (छंद-मत्तविलासिनी) गाम्बि पट्टणि हट्टि चउहट्टि राउलि देउलि पुरि जं दीसइ । लडहअंगिअ विरहिंदजालएण तं सा एक वि कय बहुरूवकलिआ ॥३० ॥ (छंद-बहुरूपा) मायाविअहं विरुद्धवायवसवंचिअलोअहं परतित्थिअहं असारसत्थसं पाइअमोहहं । को पत्तिज्जइ सम्मदिहि जहवत्थुअवयणहं जिणहं मग्गि निश्चलनिहि त्तमणु करुणाभवणहं ॥ २॥ (छंद-वस्तुवदनक) अज वि नयण न गेण्हइ तरलिम अन्ज वि वयणु न मेल्लङ्ग भोलिम। अन्ज वि थणहरु भरु न पडिच्छइ तु वि मुद्धाहं दंसणि जगु मुज्झइ ॥ ६॥ (छंद-वदनक) Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति कद्दमभग्गा मग्गुलया बहुपिहुला दुत्तरजलुल्या । तिम्व भरु बहसु गुणधवलया ! जिम्व केम्वइ न हति पिसुणया ॥ ॥ १५ ॥ ( छंद-गुणधवल) (राजा) कित्ति तहारी वण्णविणु कइ अन्नु न वण्णहिं । मालइ माणिवि किं भमर धत्तुरइ लगहिं ॥ १६॥ (छंद-भ्रमरधवल ) (राजा) पहु ! तुह वेरि अरण्णि गय, निच्चु वि निवसहिं जिम्व ससय । घणकंटयदुसंचरणि, तहिं झुंबड करीरवणि ॥ १९ ॥ ( छंद-बटक ) पई विणु तहिं सुहय ! विलासु कवणु । विणुं चंदई मुहु जामिणिहिं कवणु ॥ ७ ॥ ( छंद - सुभगविलास ) सहि ! वहुलओ चंदुलओ पडिहाइ । रयणिवहूए कीलणगंडुओ नाइ ॥ १७ ॥ मन्नावि प्रिओ जइ वि कयदुन्नओ । (छंद - क्रीडनक ) जं महमहइ दुसहर बउलामोअउ || १८ || ( छंद - बकुलामोद) देक्खिवि वेलडी मलयमारुअधूआ । सुमरिवि गोरडी पंथिअसत्य मुआ || २३ || (छंद्र - मलयमारुत ) प्रियमहु संगमि ओअ मंगलिअई करई । किंसुअरूविण वणसिरि घट्ट धरइ || २५ || ( छंद - मांगलिका ) तारावलि भणि मा, भणि मुत्ताहलमाली । रइकलहिण त्रुट्टी ससि– रयणिहुं सुविसालि || ३२ ॥ ( छंद - मुक्ताफलमाला ) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य ३६५ कुइ धन्नु जुआणउ विअसिअदीहरनयणिए । माणिज्जइ तरुणिए विन्भमविलसियवयणिए ॥ ३९ ॥ (छंद-विभ्रमविलसितवदन ) एल्यु करिमि भणि काइं प्रिउ ! न गणइ लग्गी पाइ । छड्डेविणु हउं मुक्की अवदोहय जिम्व किर गावि ॥ ४६॥ (छंद-अपदोहक) कित्तिओ वण्णउं मयणु किअउ जिण सो वि नारायणु । तहु गोवालीअणहु घणपिम्मविलासपरायणु ॥ ४६॥ (छंद-प्रेमविलास) जलइ जइ वि कुसुमलयाहरु तवइ चंदु जह गिम्हि दिवायरु । तु वि ईसाभरपरितरलिअ पिअसहि ! वयणु न मन्नइ बालिअ ॥५७॥ (छंद-कुसुमलतागृह) परनरमुहषेच्छणविरयए पयनहमणिपडिबिंबिअ जि परि । दहमुहमुहपंति पलोइआ सीअए भय-विम्हयहासकरि ॥ ५६ ॥ (छंद-मुखपङ्क्ति) (राजा) करवालपहारिण उच्छलिल करिसिरमुत्ताहलरयणमाला । रेहइ समरंगणि जयसिरिए उक्खिविअ नाइ सयंवरमाला ॥ ५८॥ (छंद-रत्नमाला) निअवि वयणु तहिं विब्भमपओ। नं विहिण खित्तु दहि पंकओ ॥६०॥ (छंद-पंकज) गजइ घणमाला घण घडहड । नं मयणनिवइणो कुंजरघड ॥६१॥ (छंद-कुंजर) al Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति खलिअक्खरउं वयणु मुहु पंडरु तुह अक्खइ सहि ! मणु मयणाउरु ॥६२ ॥ (छंद-मदनातुर) ओ रणझणंत भमइ भमरावलि । मयणधणुह गुणवल्लि णं सामलि ॥६३ ॥ (छंद-भ्रमरावलि) गोरडिअहिं उवमिअइ न पर अञ्चब्भुअ। जइ किर हवइ फुल्लिअफलिअ कुंकुमलय ॥ ६६ ॥ (छंद-कुंकुमलता) (राजा) लंघइ सायर गिरि आरुहइ तुह अहंग । ससिसेहरहसिउज्जल नउक्खी कित्तिगंग ॥६७॥ (छंद-शशिशेखर) जं सहि ! कोइल कल पुक्कारइ फुलु तिलओ। तं पत्तु वसंतु मासु कामहु लीलालओ॥६८॥ (छंद-लीलालय) (राजा) रेहइ तुह करि चंदहासओ ! नं रिउसिरीए केसपासओ॥६९ ॥ (छंद-चंद्रहास) जसु लोहचक्किण वि न दलिओ झाणु । तर्हि वीरि किं करउ स कुसुमबाणु ।। ७१ ॥ (छंद-कुसुमबाण) मालइकुसुमु न लेइ चंदणु चयइ । तुह दसणउम्माही मग्गु जि निअइ ॥७२॥ (छंद-मालतीकुसुम) मलयानिलु मलयजरसु ससहरु कुसुमत्थरणु । विरहानलजलिअहि तसु सवु वि तणुसंतवणु ॥ ७७॥ (छंद-कुसुमास्तरण) निसुणिअ माइंदइ महुअरिसंलावु । ओ पवसिअतरुणि ! तिं पत्थुअओ पलावु ॥ ७८ ॥ (छंद-मधुकरिसंलाप) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य (राजा) सिंदुरिअ गुरुकुंभत्थल गयघड तुहु बलि अग्गलि । नराव ! उत्थर किर संधावलि ॥ ८३ ॥ ( छंद -संध्यावलि ) विज्जुलय मेहमज्झि अंधारइ गोरी । कवण हत्थभल्लि कुसुमाउह ! तोरी ॥ ८६ ॥ ( छंद - विद्युल्लता ) संतदृहं मयगलहं चिक्कारिहिं कलिअ । रणाई वि वज्जरहिं पंचाणण ललिअ || ८७॥ कर असोअदल मुहु कमलु हसिउ नवमल्लिभ । अभिणव वसंतसिरि एह मोहणठइलिअ || ८९ ॥ (छंद - पंचाननललित ) हिंडर सा धण जाम्व गहिल्लि विरहिण आखित्ती । देख वहु ता आणंदी जणु अमइण सिंती ॥ ९१ ॥ (छंद - अभिनववसंतश्री ) ३६७ पत्तउ एहु वसंत कुसुमाउलमहुअरु | माणिणि माणु मलंतर कुसुमाउहसहयरु ॥ ९४ ॥ ( छंद -क्षिप्तिका ) अलि मालइपरिमललुद्ध न अन्निहिं रइ करइ | सा भमरविलासविअड्ढ न अन्नहिं मणु धरई ।। ९५॥ (छंद - कुसुमाकुलमधुकर ) (छंद-भ्रमरविलास ) तुह विरहिं सा अइदुब्बली घण आवंडुर देह | अहिमयरकिरणिहिं विक्खिविअ चंदलेह जिम्व एह ॥ १०२ ॥ (छंद - चंद्रलेखिका) Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति (राजा) तुह चंडिण भुअदंडिण निवइ धरमाणिण महिवलओ। जलहिसुआलिंगणपहवसुहु देउ जणदणु कलउ ।। १०३ ॥ (छंद-सुतालिंगन) जइ गंगाजलि धवलि कालइ जउणाजलि जइ खित्तओ। रायहंसि नहु वुड न तुटु सुज्झत्तणु तु वि तेत्तउ ॥ १०७॥ (छंद-राजहंस) सल्लइपल्लवकवलप्पणु रेवानइजलि मजणु । तं कुंजरविलसिउ सुमरइ गयविरहिओ करेणुगणु ॥ १०६ ॥ (छंद-कुंजरविलसित) पलिअ केस चल दसणावलि जर जज्जरइ सरीरबलु । सन्वि वि गलिहि अणंगललिअ किज्जउ धम्मु महंतफलु ॥१०९॥ (छंद-अनंगललिता) गोरी गोहि दरफुरिओहि। कलहंसीगइ कलहे लग्गइ ॥ ११५॥ (छंद-चंपककुसुम) जे निअहिं न परदोस गुणिहिं जि पयडिअ तोस । ते जगि महाणुभावा विरला सरलसहावा ॥ १२४ ॥ (छंद-महानुभावा) कइअहिं होएसइ तं दिवसु आणंदसुहारसपावणउ । होही प्रियमुहससिचंदिमई जहिं नयणचउरह पारणओ ॥१२७॥ (छंद-पारणक) परगुणगहणु सदोसपयासणु महुमहुरक्खरहि अमिअभासणु । उक्यारिण पडिकिओ वेरिअणहं इअ पद्धडी मणोहर सुअणहं ॥१२८ ॥ (छंद-पद्धडी) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य (राजा) हणिअ दुजीहप्पसरणु पिअपुरिसोत्तम विणयाणंदणु । उअ गरुडपयम्मिं निबद्धरइ नरवर हरइ न कासु मणु ? ॥ ७ ॥ (छंद - गरुडपद ) तुह दंसणतुरंतिए सुंदर ! मुद्धिए सुणि जं किउ पञ्चल्लिउ । हारु निअंबि निवेसिउ रसणादामु वि थणसिहरोवरि घल्लिउ ||२४|| (छंद - रसनादाम ) पिउ आइउ निवडिउ पइहिं सपणयवयणिहिं अणुणिवि माणु मुआविअ । इअ सिविणयभरि आलिंगिमि जाम्बहिं ताम्बहिं सहि ! हय कुक्कडि रडिअ ॥ २७ ॥ ( छंद - स्वप्नक) (राजा) तुह रणि नट्ट रसायलि गय अरि कारणि इण किर भुअंगविक्कतय ! | ताहं विलासभवणि पुरि लीलावणि परिअंचहिं निवसहिं चिरु गयभय ॥ २८ ॥ ( छंद - भुजंगविक्रान्त ) किं झाइउ तिण अविचलचित्तिण किं निम्मलु तवु किउ समरिउमित्तिण । जं तुह मुहविब्भमहरु कंदोट्टविसह तरुणि ! चुंबिज्जइ भमरिण ॥ ३६ ॥ (छंद - कंदोट्ट ) गयघड तुरयघट्ट रहवूह महाभडनिवह रयणभंडार समिद्धुवि । उवगंधव्वनयरसमु पुहइवइत्तणु तिणु जिम्व चयहिं विवेअवंत कि वि ॥ ४२ ॥ (छंद-उपगन्धर्व ) सइ विज्जुल अविउत्तर तुहुं जलहर करि गुंदलु निह न जाणसि विरहिअहं । इअ भणि चिंतवि किंपि अमंगल दइअहुं अंसुपवाहु पलु उ पंथिअहं ॥। ४५ ।। (छंद-गोंदल ) ३६९ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति एह ललिअदेह बाल । नाइ जाइफुल्लुमाल ॥ ७२ ॥ (छंद-पुष्पमाला) ( बारमो सैको पूरो) (१) सोमप्रभमरि-तेरमो सैको जीव-मन:-करणसंलाप ( कुमारपालप्रतिबोध पृ० ४२५-) जे उण पइं फरिसिण-पमुह पंच पहाण निउत्त । मत्त निरंकुस हस्थि जिम्ब करिहिंति कज्ज अजुत्त ॥९॥ तहं मज्झिम फेडिवि कु वि पहाणु मइ अन्नह अप्पिउ तस्स ठाणु । एयाई पलोयउ सामिसाल पयडंतई निचु अणत्थ-जाल ॥१०॥ फरिसिंदिउ पभणइ हउं जि एक्क रुंधेवि सरीरु समग्गु थक्कु । इह अप्पु मणु व न हि अल्कि कोइ अवरिंदिय अणु वर मज्झ जोइ ॥ ११ ॥ न हु गम्मु अगम्मु व किं पि गणइ अब्बंभ कलुस अहिलास कुणइ । सकलत्ति वि हुंतइ महइ वेस पररमणि गमणि पयडइ किलेस ॥ १२ ॥ ___ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य सिसिरम्मि निवाय घर-ऽग्गिसयडि घणघुसिणतेल्ल बहुवत्थ सवडि। चंदणरस कुसुमजलावगाह धारागिहि गिंभि महेइ नाह ! ॥ १३ ॥ पाउसि पयपंकपसंग त? (तड्डु ? ) वंछइ अच्छिद भवणयलु लद्ध । जइ कुणइ विविह विसयाणुवित्ति तेह वि हु न एहु पावेइ तित्ति ॥ १४ ।। एक वि फासिंदिउ बुहयण निंदिउ करइ किंपि दुच्चरिउ तिहि । नाणाविहु जम्मिहि पीडिओ कम्मिहि ___ सहसि विडंबण सामि जिह ॥ १५॥ तह भक्खाभक्खविवेयमूद रसविसयगिद्धिदोलाधिरूढु। अविभाविय पेयापेयक्थु रसणु वि कुणेइ बहुविहु अणथु ॥ १६ ॥ जं हरिण-ससय-संबर-वराह वणि संचरंत अकयावराह । तण-सलिलमित्त संतुट्ठ चित्त मम्मररवसवणुब्भंतनेत्त ॥ १७ ॥ हिंसंति के वि मिगयापयट्ट पसरंतनिरंतरतुरयघट्ट । करकलियकुंतकोदंडबाण संसयतुलरोवियनिययपाण ॥ १८ ॥ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जं गहिरि सलिलि वियरंत मीण निकरुण के वि निहणहिं निहीण । जं लावय-तित्तिरि-दहिय-मोर मोरंति अद्दोस वि के वि घोर ॥ १९ ॥ तं रसणह विलसिउ, दुक्कयकलुसिउ, तुम्हहं कित्तिउ कित्तियइ । जं वरिससएण वि अइनिउणेण वि, कह वि न जंपिउ सकियइ ॥ २०॥ घाणिंदिउ जं किर सुरहि दव्वु । वियलियविवेउ तं महइ सव्वु । जं असुरहि तिहिं पुण करेइ रोसु ता एउ वि जाण अणप्पदोसु ॥ २१ ॥ तह जइ वि दिहि वन्निअ अबला तह वि हु दुरप्प अच्चंत चवला । सुइ असुइ वि किंपि न परिहरेइ जं जुत्तु अजुत्तु वि तं निएइ ॥ २२ ॥ 'परदारपवत्तणि फरिसणस्स दूइत्तु एह पयडइ अवस्स । लोलत्तकरणि रसणह सहाय इय न कुणइ कित्तिय पहु अवाय ॥ २३ ॥ जिव सवणु सुणइ विडवग्गवयण तिव मुणिउवएसु न रुद्ध नयणु । तह गेय-वेस-कलिसवणहेउ उत्तम्मइ निच्चु वि निविवेउ ॥ २४ ॥ इय विसयपलक्कओ, इहु एक्केक्कु, इंदिउ जगडइ जग्गु सयलु। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य ३७३ जेसु पंच वि एयई, कयबहुखेयई, खिलहिं पहु ! तसु कउ कुसलु ॥ २५ ॥ स्थूलिभद्रकथा तो विचिंतइ मंति सगडालु निवकोसु निहिउ सयलु अन्नदिअहि विन्नवइ नरवरु एयस्स किं देह पहु। दिवसि दिवसि इत्तिउ धणुक्कर सो जंपइ तइ वन्निययो तिणि एयह धणु देमि । मंति भणइ परकव्वचरण पढइ तेण सलहेमि ॥३१॥ नंदु जंपइ पढइ परकव्व कह एस वररुइ सुकइ कहइ मंति मह धूय सत्त वि एयाई कव्वाइं पहु ! पढई बालाउ हुंत वि तत्थ तुम्ह नरनाह जइ मणि वट्टइ संदेहु । ताउ पढंति य कोउगिण ता तुम्हे निसुणेहु ॥ ३२ ॥ जवणियंतरि ताउ ठवियाउ तो वररुइ आगइउ थुणइ नंदु तं ताउ निसुणहि चक्कम्मि तम्मि य कमिण कव्व सव्व सव्वाउ पभणहिं Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तो नरनाहिण वरुण कुविऊण वारु निसिद्धु । वररुइ ताव विलक्खमण उलग्गइ सुरसिंधु ॥ ३४ ॥ खिविवि संझिहिं सलिल दीणार गोसग्गि सुरसरि थुणइ हाइ जंत सुचारु पाइण उच्छलिवि ते विवररुइहिं चडहिं हत्थि तेण घाइण लोउ परंपइ वररुह गंग पसन्निय देव | मुणिवि नंदु वृत्तंतु इहु सयडालस्स कइ || ३५ ॥ सो पप गंग जइ देइ दीणार पेच्छयंतह मह इमस्स तो देइ निच्छिउ संझाइ तो सिक्खवि ब पुरिसु तत्थ मंतिण विसज्जिउ सो वचिव पच्छ ठिओ जा अच्छइ पेच्छंतु । दिओ वररुइ तेण तओ तहिं दीणार ठवंतु ॥ ३६॥ ते वि अप्पिय तेण आणेवि मंतिस्स गोसग्गि गओ सपरिवार तहिं नंदु नरवइ तो गंग वररुइ थुणइ जंतु हत्थ - पारहिं जोवइ तत्थ न किंचि वि सो लहइ होइ विसण्णु मणेण । ते नंदह दीणार तओ दंसिय सयडालेण ॥ ३७ ॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य ३७५ कहिउ सयलु वि संझवुत्तंतु तो जाओ वररुइ विमणु पुण वि मंतिच्छिदाई मग्गइ ओलग्गइ मंतिघर-दासी सा वि घरवत्त जंपइ तहिं किज्जइ भोअणु-निवह सिरियय परिणयत्थु । तह पक्खर-सन्नाह-गुड-असिपमुहाउहसथु ॥ ३८॥ दवि ल अ डिंभरुवाण सो पाढइ को वि नहु मुणइ एउ जं मंति करिसइ मारिविणु नंदु निवु नंदरजि सिरियओ ठवेसइ तिग–चच्चर-चउहट्टइहि एउ पढ़तई ताई । नंदिण बाहिं निग्गयण अन्नहिं दिअहिं सुआई ॥ ४० ॥ पुरिसु पेसिवि निवइ सवियक्कु जोआवइ मंतिघरु कहिउ तेण किज्जंत आउहु ता मंतीहि पणमिअह कुविओ नंदु जोअइ न सम्मुहु घरि गउ मंति भणेइ तउ सिरिया ! जइ महु पुत्तु । तुहुं नंदह पडिहारु तउ करहि महारउं वुत्तु ॥ ४१॥ नंदु कुद्धऊ तेण मह सीसु, तुहु खंडि पणमंतयह Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तासु पुरओ असिदंडघाइण, रक्खेती से कुल मज्झ दोसि हम्मंतु राइण, इय सुणि सिरियउ पिउवयणु करयलढक्कियकन्न । कंपड़ हा हा केम्व हउं पिउवहु करउं अहन्नु ॥ ४२ ॥ मंति साहइ वच्छ ! मा झूर, उनीसत्थिहिं हिउ कुलहि कज्जि जं एकु मुचइ कुलरक्खिण कारणिण तेण मज्झ मरणं पि रुचइ हउं खाइसुविसु तालउड्डु नंद पणामु करंतु । पिउवहपावि न लिप्पि हिसि मई गयजीवु हणंतु ॥ ४३ ॥ तेण मन्त्रिउ कह वि पिउवयणु तो मंतिण तालउडु, खद्ध नंदरायह नमंतिण सिरिएण तक्खणि खंडिउं तासु सीसु खग्गण फुरंतिण, हा हा करिवि भणेइ निवु सिरिअय ! किउ किं अकजु । सो जंपइ जो पहु-अहिउ तिण पिउणा विन कज्जु ॥ ४४ ॥ ताव चिंतइ मंतिमय किच्चि राएण सिरिअउ भणिउ देमि तुझ मंतित्तु तुट्ठउ सो जंपइ पयह उचिउ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य थूठभद्दु महु अस्थि जेट्टउ सो नंदिण कोसाघरह भणिअउ हक्कारेवि । गिन्हसु पिउपउ तिण भणिउ गिन्हडं पहु ! चिंतेवि ॥ ४५ ॥ ____x xxx एवं ति भणिय तो थूलभद्दु चिंतेइ तत्थ परमत्थ भद्दु । मणुयत्तह सारु तिवग्गसिद्धि तिहि विग्घहेउ अहिगारसिद्धि ॥ ४७॥ जं तत्थ रायचित्ताणुकूल आरंभ कुणंतह पावमूल । कउ मंतिहि जायइ विमलधम्मु जिणि लब्भइ सासउ सिद्धिसम्मु ॥ ४८॥ परपीड करेविणु जं पभूअ गिन्हहिं निउगि रुहिरु व्व जलूअ । नरनाहिण घिप्पइ नं पि दव्यु निप्पीलिवि सडं पाणेहिं सव्वु ॥४९॥ परवसहं सव्वु भयभिभलाह अन्नन्नपओअणवाउलाहं । अहिगारिजणहं कामभोअ संभवहिं वियंभिअ गुरु पमोय ॥ ५० ॥ कोसाघर बारस वच्छरेहि विसइहिं न तित्तु लोउत्तरेहिं । बहु रज्जकज वक्खित्तचित्तु किं संपइ होहिसि मूढचित्तु ॥५१॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पइ जम्ममरणु कल्लोलमत्तु भवजलहि भमिवि मणुअत्तु पत्तु । परिहरिवि विसयफलु तासु लेहि किं कोडि कवडिई हारवेहि ॥ ५२ ॥ वज्जेवि धम्मु जो विसयसुक्खु परिणामविरसु सेवइ सुर रक्खु सो पिअइ दुइ जरगहिउ सुटु सो भक्खइ मंसु गलंतु कुछ ॥ ५३॥ दिण पंच करिवि नरवइनिओगु संपाइवि अप्पह पावजोगु । दुव्वारदुसह दुहलक्खरूवि गंतव्वु जीव ! नरयंधकूवि ॥ ५४॥ महु महुरु चएवि निवाहिगारु पेरंत विडंबण दुक्खसारु । करि जीव ! धम्मु वन्जिवि पमाउ जिम्ब नरइ न पावइ पच्चवाउ ॥ ५५॥ परिहरिवि सव्व सावजकम्मु जो जीवु न जुव्वणि कुणइ धम्मु । सो मरणयालि परिमलइ हत्थु गुणि तुट्टइ जिम्व धाणुक्कु एत्थ ।। ५६ ॥ इय विसयविरत्तउ पसमपसत्तउ थूलभद्दु संविग्गमणु । सिव सुक्ख कयायरु भवभयकायरु महइ चित्ति दुच्चर चरणु ।। ५७ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य पंच मुट्ठिहिं केस लुंचेवि पाउरिअ कंबल रयणु छिंदिऊण रयहरणु निम्मिवि निवह पासि गंतूण तुह धम्मलाहु होउत्ति जंपिवि नरवर ! चिंतिउं एउ मई थूलभद्द पभणेइ । राइण वुत्तु सुचिंतिअउं अह सो पुरह चलेहि ॥ ५८ ॥ ( २ ) महेन्द्रसूरिशिष्य-धर्मसूरि- जंबूसा मिचरिय-तेरमो सैको ( प्राचीनगुर्जरकाव्यसंग्रह - वडोदरा ) जिण चउवीसइ पय नमेवि गुरुचरण नमेवी | जंबूसामिहिं - तणउ चरिय भविउ निसुणेवी । करि सानिध सरसत्ति देवि जिम रयं कहाणउं । जंबूसामिहिं गुणगहण संखेवि वषाणउं ॥ १ ॥ जंबूदीपह भरहखित्ति तिहिं नयरपहाणउं । राजगृह नामेण नयर पहुविं वक्खाणउं । राज करइ सेणियनरिंद नरवरहं जु सारो । तासु-तणइ पुत्त बुद्धिमंत मंति अभयकुमारो ॥ २ ॥ अन्नदिणंतरि वद्धमाण विहरंत पहूतओ सेणिउ चालिउ वंदणह बहुभत्ति तुरंतु X X X ३७९ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सामिय बंदिउ बद्धमाण सेणीयं पूछीइं । कवणह नारिहि-तणइ उयारे एह जीव चवेसिइ । कवणह बापह-तणइ कुलि एउ मंडण होसइ । उसभदत्तसेठिहिं घरणि धारणिउरि नंदण । होसिइ नामिइं जंबुसामि तिहुयणि आणंदण ॥ १६ ॥ ऊठिउ देव अणाढिउ हरषिइं नाचेई । धनु धनु अम्हतणउं कुल एसु पुत्त होसिइ । चविउ विमाणह बंभलोय धारणिउरि आविउ । सुमिणप्रभाविइं उसभदत्त अंगेहि न माईउ ॥ १७ ॥ जायउ पुत्रु पहाण जाम दस दिसि उदयंतउ । बद्धइ नामिहिं जंबुसामि गुणगहण करंतु । अठवरीसउ हूउ जाम गुरुपासि पहूतु । ब्रह्मचारि सो लियइ नीम भववासविरत्तउ ॥ १८ ॥ जोयणवेसह पहुतु जाम कन्ना मग्गावइ । बीजा धूया पाठवए तस वि वारावय । मन देजिउं तम्हि, अम्ह देसु, अम्हि इसउं करेशउं । सांझहं परणी प्रहह जाम नीछई व्रत लेसिउं ॥ १९ ॥ माय दुलंघीय तणइ वयणि परिणेवउ मन्नीउ । आठइ कन्या एकवार परिणीय घरि आवीउ । आठइ परणी मृगनयणी बुझवणइ बइटउ । पंचसए चोरेहं सिउं प्रभवउ घरि पइठउ ॥ २० ॥ नीद्र अणावीय सोयणीय आभरण लीयंता । ते सवि अछई थंभीया टगमग जोयंता । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य प्रभवउ भणइ हो जंबुसामि एक साठि ज कीजइ । बिहुं विज्जावडई एक विज्ज थंभणीय ज दीजइ ॥ २१ ॥ हिव हूं कहि न विज ( ? ) लेवि पुण किसउं करेसो । आठइ परिणी ससिक्यणी नीछई व्रत लेसो । रूपवंत अणुरत्त रमणि एउ एम चएसिइ | अहंता सुतणीय आस मुझ जीव करेसि ॥ २२ ॥ एवड अंतर नरहं होइ प्रभवउ चिंतेई । संवेगरसि जउ गयउं मन प्रभवउ पूछेइ | सिद्धिरमणि ऊमाहीआ ह तम्हि संजम लेसिउ । करुणई विलवई माइप किम किम मेल्हेसिउ ॥ २३ ॥ इंदियाल न वि जाणीइए को किम होइसि । अढार नात्रां एकभवि जंबूस्वामि कहेई । पितर तम्हारा जंबुसामि ! किम तृपति लहेराई । पिंड पडइ लोयहंतणइ ए ऊभा जोसि ॥ २४ ॥ बाप मरवि भइंसु हुऊ पुत्रजन्मि हणीजइ । इण परि प्रभवा ! पितरतृप्ति तिथि धीवारे कीजइ । अणता सुतणी य आस हूं तउं छांडेसिउ । तिण करसणि जिम कलत्र भणइ अवतरता करेशिउ || २५ || तम्ह रुपिहिं हउं लोभ करउं देषि मणहर रूयडउं । हत्थिकडेवर काग जिम भवसायर निवडउं । बीज कलत्र कवि नाह ! जइ अम्ह छंडेसिउं । तिणिं वानरि जिम पच्छ्रुताप बहु चींति धरेसिउं ॥ २६॥ बिंदुसमाणउं विसयसुक्ख आदर किम कीजइ । इंगालवाहग जेम तुम्हि तृस किम न छीपइ । ३८१ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति त्रीजी कलत्र भणइ वि नाह ! जउ अम्ह छांडेसिउ। तिणि जंबुकि जिम साणहार बहुखेद करेशउ ॥२७॥ ऊतर पडऊतर बहू य संखेवि कहीजई । विलखी हुई ते सव्वि बाल जंबूसामि न बूझई । आसा-तरुवर सुक्क जाम अम्हि इशउं करेशउं । नेमिहिं सिउ राइमइ जिम वयगहण करेशउं ॥२८॥ आठइ कलत्रह बूझवीय पंचसय सिंउं प्रभवउ । माइ बाप बेउ भणई ताम अम्ह साधु सरीसउ । ठवणि—प्रह विहसइ सुविहाण प्रभवु विनवइ जंबुसामि । सजनलोक मोकलावि तम्हि सिउं संजम लेसिउं ॥२९॥ खण एक पडषाएवि राय मोकलावण चालीय । तु सुहडसमूह करेवि भुई कंपई भडभडवई ॥३०॥ जस भय ध्रसकइ राउ जस भय नींद्र न वयरीयहं । एसउ प्रभवउ जाइ नरनारी जोयण मिलीय । पहुतु रायदुवारि पडिहारिइं बोलावीउ । वेगिई राउ भेटावि अम्हि अछउं उत्सुकमणा ए ॥ ३१॥ पुत्त तणउ विझराय तुम्ह दरिसणि ऊमाहीउ ओ। कारण जाणीउ राय वेगिहिं सो मेल्हावीउ ओ। देठि न खंडइ राउ प्रभवउ देषी आवतउ । साचउ ए भडिवाउ पुरुषह आकृति जाणीइ ए ॥ ३२ ॥ रूपगुणे संपन्न रायरमणिमन चोरतु ओ। सोहइ पूनिमचंद जइ द्रव कोणी प्रणमीउ । नुतउ अद्धसीय शरीर जइ कोइ जणणीजाइउ । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य नयणे छूटुं नीर संवेगजलहरि वरिसिउ । सामी खमि अपराध अम्हे लोक संतावीया ए ॥ ३३ ॥ पडिवज बोलइ राउ कोणी मन आनंदियउ । धन्न पती माइ इसिउ पुत्र जिणि जाईउ ओ । तो मोकलावी राउ चोरपल्लीसा संचरए । सजनह कही एउ अम्हे संजम लेइशउं ॥ ३४ ॥ किण कारणि वइराग तं कारण अम्ह बोलीइ ए । मेल्ही अट्टइ बाल कणयकोडि नवाणवइ ए । अनइ रिद्धि बहूत तिहिं पुण पार न जाणीय ए । जंबूसामिचरित्त महिमंडलि हूउं अच्छरीय || ३५ ॥ इणि कारण वयराग तृण जिम दीठउ मेल्हतउ ओ । अम्ह सोइ जि सामि तम्हे भलई अछजिउ ओ । मोहनरिदं-शउं झूझ संजमकित्तिई झूझसिउं ओ ॥ ३६॥ ठवणि—प्रभवउ पंचसएण अ वहूयर माइ- बप्पो । सवि कहं ए रूठ जाइ नीयघरहूंतु नींसरइ ए । चालीउ ए सिवपुरिसाथ सारथवय तिहिं जंबुसामि । कंचण ए रयणिहिं दाण जिम घण वरसइ भाद्रवए । सयतऊ ( ? ) ए ईह गोलोक भवियजणसंवेगकरो ॥ ३७ ॥ ठवणि— कस केरी पिइ माइ पुत्र कलत्र धन्न धण । देसी कुडिसारिच्छ जिण जिम जंबू परिहरए । अनइ लोक बहूत व्रत लेवा तिहिं चालीउ । वंदिय जिणभवणाई सोहम्मसामिपासि गयउ ॥ ३८ ॥ भवसायर ऊतार जम्मण - मरणह बीहतउ ओ । ३८३ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पंचमहव्वयभार मेरुसमाणउ अंगमइ ए। अनु तेतउ परिवार सोहमसामिहिं दिक्खीउ ओ । हूउं केवलनाण संजमराजह पालतां ए ॥ ३९ ॥ वीर जिणिंदह तीथि केवलि हूउ पाछिलउ । प्रभवउ बइसारीउ पाटि सिद्धिं पहुतु जंबुस्वामि । जंबुसामिचरित पढई गुणइं जे संभलई । सिद्धिसुक्ख अणंत ते नर लीलांहिं पामिसिइं ॥ ४० ॥ महिंदसूरिगुरुसीस धम्म भणइ हो धामीऊ ह । चिंतउ रातिदिवसि जे सिद्धिहि ऊमाहीया ह । बारहवरससएहिं कवितु नीपनूं छासठ ए। सोलह विज्जाएवि दुरिय पणासउ सयलसंघ ॥ ४१ ॥ रेवंतगिरिरासु-तेरमो सैको (प्राचीनगुर्जरकाव्यसंग्रह-वडोदरा ) परमेसर तित्थेसरह पयपंकय पणमेवि । भणिसु रासु रेवंतगिरे अंबिकदेवि सुमरेवि ॥१॥ गामा-ऽऽगर-पुर-वण-गहण-सरि-सरवरि सुपएसु । देवभूमि दिसि पच्छिमह मणहरु सोरठदेसु ॥२॥ जिणु तहिं मंडलमंडणउ मरगयमउड महंतु निम्मल सामल सिहरभरे रेहइ गिरि रेवंतु ॥ ३॥ तसु सिरि सामिउ सामलउ सोहग सुंदरसारु । जाइव निम्मलकुलतिलउ निवसइ नेमि कुमार ॥ ४ ___ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य तसु मुहदसणु दस दिसि वि देस देसंतरु संघ । आवइ भावरसालमणउ हलि रंगतरंग ॥५॥ पोरुयाडकुलमंडणउ नंदणु आसाराय । वस्तुपाल वरमंति तहिं तेजपाल दुइ भाय ॥६॥ गुरजरधर-धुरि धवलकि वीरधवलदेवराजि । बिहु बंधवि अवयारियउ सूमू दूसममाझि ॥ ७॥ नायलगच्छह मंडणउ विजयसेण सूरिराउ । उवएसिहि बिहु नरपवरे धम्मि धरिउ दिदु भाउ ॥ ८ ॥ तेजपालि गिरनारतले तेजलपुरु नियनामि । कारिउ गढ-मढ-पवपवरु मणहरु घरि आरामि ॥९॥ तहि पुरि सोहिउ पासजिणु आसारायविहारु । निम्मिउ नामिहि निजजणणि कुमरसरोवरु सारु ॥ १० ॥ तहि नयरह पूरवदिसिहि उग्रसेण गढदुग्गु । आदिजिणेसर पमुह जिणमंदिरि भरिउ समग्गु ॥ ११ ॥ (प्रथम कडव) दुविहि गुज्जरदेसे रिउरायविहंडणु। कुमरपालु भूपाल जिणसासणमंडणु । तेण संठाविओ सुरठदंडाहिवो । अंबओ सिरे-सिरिमालकुलसंभवो । पाज सुविसाल तिणि नठिय । अंतरे धवल पुणु परव भराविय ॥ १॥ धनु सु धवलह भाउ जिणि पाग पयासिय । बारविसोत्तरवरसे जसु जसि दिसि वासिय । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जिम जिम चडई तडि कडणि गिरनारह । तिम तिम ऊडई जण भवणसंसारह । जिम जिम से उजलु अग्गि पालाटए (?)। तिम तिम कलिमलु सयलु ओहट्टए ॥ २ ॥ जिम जिम वायइ वाउ तहि निज्झरसीयलु । तिम तिम भवदुहदाहो तक्खणि तुट्टइ । निच्चलु कोइलकलयलो मोरकेकारवो । सुम्मए महुयर महुरु गुंजारवो । पाज चडंतह सावया लोयणी। लाषारामु दिसि दीसए दाहिणी ॥ ३ ॥ जम्मणु जोव जीविय तसु तहिं कयत् । जे नर उज्जितसिहरु पेक्खइ वरतित्यू । आसि गुरजरधरय जणि अमरेसरु । सिरिजयसिंघदेउ पवरु पुहवीसरु । हणवि सोरठु तिणि राउ षंगारउ । ठविउ साजणु दंडाहिवं सारउ ॥ ८ ॥ अहिणवु नेमिजिणिंद तिणि भवणु कराविउ । निम्मलु चंदरु बिंबे नियनाउं लिहाविउ । थोरविक्खंभवायंभरमाउलं। ललियपुत्तलियकलसकुलसंकुलं । मंडपु दंडघणु तुंगतरतोरणं । धवलिय बज्झि रुणझणिरिकिंकणिघणं । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य इकारस्यसही पंचासीय वच्छरि । नेमिभुयणु उद्धरिउ साजणि नरसेहरि ॥ १० ॥ मालवमंडल गुहमुहमंडणू । भावडसाहु दालिधुखंड | आमलसार सोवन्न तिणि कारिउ । किरि गयणंगण सूरु अवयारिउ । अवर सिहर वरकलस झलहलइ मणोहर । नेमिभुयणि तिणि दिइ दुह गलइ निरंतर ॥ ११ ॥ (द्वितीय कडव ) दिसि उत्तर कसमीरदेसु नेमिहि उम्माहिय । अजिउ रतन दुइ बंध गरुय संघाहिव आविय ॥ १ ॥ हरसवसिण घण कलस भरिविति न्हवणु करंतह । गलिउ लेवमु नेमिबिंबु जलधार पडतह ॥ २ ॥ संघाहि संघेण सहिउ नियमणि संतविउ | हा हा विगु धिगु मह विमलकुलगंजणु आविउ ॥ ३ ॥ सामिय सामल धीरचरण मह सरणि भवंतरि । इम परिहरि आहार नियम लइउ संघधुरंधरि ॥ ४ ॥ एकवीस उपवास तामु अंबिकदिवि आविय । पभणइ स पसन्न देवि जय जय सदाविय ॥ ५॥ उविणु सिरिनेमिबिंबु तुलिउ तुरंतउ । पच्छलु मन जोएसि वच्छ ! तुं भवणि वलंतउ ॥ ६॥ X X X ३८७ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पदम भवणि देहलिहि देउ छुडि पुडि आरोविउ । संघाहिवि हरिसेण तम दिसि पच्छलु जोइउ ॥ ८ ॥ ठिउ निच्चलु देहलिहि देवु सिरिनेमि कुमारो । कुसुमवुट्टि मिल्देवि देवि किउ जइजइकारो ॥ ९ ॥ वसाही पुन्निमह पुन्नवतिण जिणु थप्पिउ । पच्छिमदिसि निम्मविउ भवणु भवदुहतरु कप्पिउ ॥ १० ॥ न्हवणविलेवतणीय छ भवियण जण पूरिय । संवाहिव सिरि अजितु रतनु नियदेसि पराइय ॥ ११ ॥ ( तृतीय कडव ) गिरि गस्यासिहरि चडेवि अंबजंबाहिं बंबालिउं ए । संमिणी ए अंबिकदेवि देउलु दीठु रम्माउलं ए ॥ १ ॥ चज्जइ ए ताल कंसाल वज्जइ मदल गुहिरसर | रंगिहिं नच्चइ बाल पेखिवि अंबिक मुहकमलु ॥२॥ सुभकरु ए ठविउ उच्छंगि विभकरो नंदणु पासिक ए । सोहइ ए ऊजिलसिंगि सामिणि सीहसिंघासणी ए ॥ ३ ॥ दाव ए दुक्खहं भंगु पूरइ ए वंछिउ भवियजण | रक्ख ए चउवि संघु सामिणि सीहसिंघासणी ए ॥ ४ ॥ दस दिसि ए नेमकुमारि आरोही अबलोइउं ए । दीजई ए तहि गिरनारि गयणंगणु अवलोणसिहरो ॥ ५ ॥ पहिलइ ए सांबकुमार बीज सिहरि पज्जून पुण । पणमई ए पामई पारु भवियण भीसण भवभमण ॥ ६ ॥ ठाम ठामि रयणसोवन्न बिंब जिणेसर तहिं ठविय । पणमइ ए ते नर धन जे न कलिकालि मलमयलिया ए ॥ ७ ॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारमा अने तेरमा सैकानुं पद्य जं फलु ए सिहरसमेय-अट्ठावय-नंदीसरिहिं । तं फलु ए भवि पामेइ पेखेविणु रेवंतसिहरो ॥ ८॥ गहगण ए माहि जिम भाणु पत्रयमाहि जिम मेरुगिरि । त्रिहु भुयणे तेम पहाणु तित्थंमाहि रेवंतगिरि ॥९॥ रंगिहि ए रमइ जो रासु सिरिविजयसेणि सूरि निम्मविउ ए। नेमिजिणु तूसइ तासु अंबिक पूरइ मणि रली ए॥ (चतुर्थ कडवक) [ तेरमो सैको पूरो] Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान त्रीजें चौदमो अने पन्दरमो सैको १३८ हवे चौदमा सैकानी कृतिओनां नामो वगैरेनो परिचय आपवा चौदमा सैकाना शरूआतमां तेमांथी अहीं उपयोगी एवी शब्दसूची पद्यगत शब्दो आपी दउं: (१) विनयचंद्र-नेमिनाथचतुष्पदिका ( चौदमो सैको) सोहग-सौभाग्य गयउ-गयो चडिउत्तरिय-चडऊतर प्रमाणे विणठउ-विनठ्यु-वणस्युं-बगड्यु बारमास-बारमास काइ-कांइ-शु वजरिय-उच्चरित-ऊच्चार्या प्रमाणे- अछइ छे कह्या प्रमाणे श्रावणि-श्रावणे-श्रावण महिने नत्थी-नथी सरवणि-सरवडांमां तेजु-तेज विरहिरि-विरहिनो गयणि-गगनमा झिज्झइ-झीझे-क्षीण थाय भाद्रवि-भादरवे झबक्कड़-झबके छे रोअइ-रोवे छे सहियइ-सहेवाय निरधार-निराधार झूरि-झूर-खेद कर रोइ-रुए वंछित वांछित | अप्पणु-आपणुं-पोतानुं Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति भिजंति-भीजे छे आसो-आसो मास कडयं-कडवू हिमसीउ-हिमशीत-हिम जेवु ठंडु पति-पतिना नेमिहिरेसि-नेमिने माटे रक्खसि-राक्षसी आपणपउं—आपणुं मन नहीं खय-खय-क्षय दुजणतणा-दुर्जनना दिक्खाडिउ-देखाड्यो पूरि-पूर छेहु-छेह-छेद-दगो तउ-तो दयाल दयाळु अनेरा-अनेरा-बीजा कीजइ-कीजे वरह-सयाई-चरोना सेंकडा- भराविउ-भराव्यो सेंकडो वरो बोलइ-बोले छे वाडु-बाडो नेमिसमं-नेमिशुं–नेमि सरखं-साथे कत्तिग-कृत्तिका कार्तिक सवि-सर्व-सब-बधुं संझ-सांज उग्गइ-ऊगे रातिदिवसु-रातदिवस भरिया-भर्या विलवंत-विलपती-विलाप करती एकलडी-एकलडी-एकली दयकरि ) . दयकरि । दया करीने ऊवेषिसि-उपेक्षा करे छे–बेदरकारी मूकि-मूकी राखे छे नीठुरु-नठोर ओहडु-ओट-अपसरण कडडेरा-करडा-कठण मिल्हइ–मेले छे भिजइ-भींजे छे सउ-सउ-बधुं सायरु-सायर-सागर विवरीउ–विपरीत Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त-तुं कदाग्रह - कदाग्रह नेसि - लइ जाय छे-दोरी जाय छे करिसि - करे छे पहिलउं - पहेलो मंडिमांड - राणे गणिउ -गण्यो निरदोसु - निर्दोष ऊपर-ऊपर मूकड - मूक्यो मुझुमुज क्षित्तिग-क्षितिज हुइ - होय अछइ - बेसी रहे छे वलि वलि—–वळ वळ-पाछो वळ पाछो वळ नेमितणी नेमिनी भग्गउ भागो भाग्यो घरबास - घरवासथी जाइ-जाय छंडिवि --छंडीने किम-केम जित्तर- जित्यो चौदमो अने पन्दरमो सैको सासु-सास- श्वास नास-नासा- नाक मगसिरि-मागशरमां मालि - माळा ऊपर - मांडा ऊपर टोहणकालि - टोवाने वखते लग्गी अछि - लागी रहीश राखि राखिराख राख पडिउ - पड्यं रयणि रेण-रात्री करती करती जाइ-जाय छे इइसी-ऐसी - एवी कोइ कोइ कायरु-कायर रिणि रणे लक्खु–लाखो अग्गलि - आगळनी मिल्हउं–मेलुं छोडुं एहु - ए -एह मिल्हि -मेल- मूक हिल्लि - हेळ - हेला-हेडो हेत रक्तउ-रक्त- आसक्त ३९३ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तू-तुं चडाविउ -चडाव्यो-चडावलोबीह-बीक हे हे कु-हे हे कु' एवो अवाज अजिउ-हजी अवगन्नेसइ-अवगणशे नेमिहिपास-नेम करतां पोसि-पोस महिने छुहिय-क्षुधित-भुख्याने पाह-पाशमांथी-पाशना भयथी रुचंति-रुचे छे सीउ-सी-शीत चातकु-चातक वणसइ-वनस्पति जुन्वणु-जोबन अनेरउ-अनेरो-बीजो भरियउ-भर्यो भत्तारु-भरतार परणि-परण खरी-खरी कुइ-कोइ अच्छंतइ-छते रहेते छते भोली-भोळी नडइ-सेवे गमारी-मार-मूरख लहिउ-लईने प्राप्त करीने अप्पणु-पोतानी जाते रासमि-गधेडे गइवरु-गजवर-उत्तम हाथी माह मासि–महा-मा-महिने कु-कोण प्रिय लइ ? -प्रियनी पासे लई जा चडइ-चडे पासि) माचइ-माचे-मत्त थाय अरन्नि-अरण्यमां रोइसि–रुए छे माहरी-मारी पतीजसि-विश्वास करे छे हियडामाहि-हैयामां धीय-धी-दीकरी-छोकरी भुंड निलाडि-मुंडा ललाट-कपाळ अछइ-छे वाळी-मुंडा नसीबवाळी मोदक मोदक तप्पइ–तपे सुहाली-सुंवाळी ( खावानी) ___ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको वरउं–वरं-परj राणी-राणी चैत्र मासि-चैत्रमासे घाउ-घा-घाव पंगुरइ-पांगरे-प्रांकुरित थाय कोयल-कोयल वणि वणि-वने वने करइ-करे टहका-टौका वेझइ-वींधे छे करि-करमां-हाथमां मातउ–मातो मांडी-मांड-बलात्कारे-पराणे रमियइ-रमीए खिलिजइ-खीले-विकसे लिज्जइ लीजे-लईए सिणगारु–शणगार थिउ-थयो ऊवरि-ऊपर चुक्कइ-चूके बंधववयणु-भाईना वचनथी पुट्टि-फूट-फूटिजा वइसाहइ-वैशाखे वीसरिवा-वीसरवा-भूलवा रि-रे भमरउ–भमरो संभलि-सांभळ दीस-दी-दिवस रुणझुणइ-रणझणे छे विलसउ-विलसो खाउ पियउ-खाओ पीओ मुहाडि–एम ज कर सहु कोइ-सौ कोइ जिट्ठ-जेठ धाउं-दोड़ें मूछी-मूर्छित थई पडियउ-पड्यो पडिखि-प्रतीक्षी-वाट जोइने जेवडु-जेवडो हियउं-हैयुं हरिय-हरी-दूर करी जाय-जाया-पुत्री विरती संसार--संसारथी विरक्ति पामी सेविसु-सेवीश संभारि-संभारी चिणय-चणा गज्जुविज्जु-पाजवीज | खज्जति-खवाय छे Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति करिसु-करीश झखि-झंख मिलिउ-मळीने-मेगी थईने तपु-तप मिरिय–मरी-मरीयां-तीखां तउं-तुं अउगी-ऊगी नथी-हजी नानी छे । सुख-सुखवडे-सुखथी आल-अनर्थ नकामुं–अलीक- हिव-हवे प्रपंच दोहिल्लउ-दुःखवाळु-दोयलं-दुर्लभ | रितुकेरा-ऋतुना किमइ-केमे मिलिवा-मळवा ध्राइ–धराय फिरइ-फरे दिक्ख-दीक्षा अणुहरइ-अनुसरे बारइ–बारे ( संख्या ) ऊबाहुलि-उद्घाहुक भाय-भाई ! गई गई परमेसर पासि–परमेश्वर पासे भणिया-भण्या-कह्या (२) जिनपद्मसूरि-श्रीस्थूलिभद्रनो फाग ( चौदमो सेको) मुणिवइ-मुनिपतिना पाडलियमाहि-पाटलिपुत्रमाही फागुबंधि-फागबंधवडे चउमासमाहि-चोमासामांही झलकंत-झळकतुं-चळकतुं भंडारो-भंडार वरीसालइ-वरिसाले–वर्षाकाळे- लियइ-ले छे चोमासाने समये वय-वै-निश्चय सूचक अव्यय गहगहिया-गहगह्या-गेंक्या- कोसवेसाघरि-कोशा नामनी होशवाळा थया वेश्याने घरे Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ३९७ गुरह-गुरुनी | चमकिय-चमकी मोकलावइ-मोकलावे वधावी-वधावी–वेश्याने वधामणी आपी आवइ-आवे छे लहकंती-लेका करती आवियउ आव्यो आविय-आवी दासडिय–दासीए जोडंती-जोडती अतिहि-अतिशय मंगेवी मांगी मागी ऊतावलि उतावळी धीरिम-धीरता -रायपासि-मुनिराजनी पासे धरेवी-धरी धर्मलाभु-धर्मलाभनो आशीर्वाद खलहल खळखळ रहियउ-रह्यो झबझब-झबक झबक हियवि हैये वीजुलिय–वीजळी झिरिमिरि-झरमर थरहर-थरथर वाहला-बहेळा-पाणीना वहेळा साजते-सज्ज थाय छे-तैयार थाय छे भणिसु-भणीश-कहीश मनावइ-मनावे छे केवी केई पहिरणि-पहेरवामां माणमडप्फर-अमिमानथी मरडाती। लहलह-चंचल-हल्या करतो नाचते-नाचे छे मेहारवभरजलटि-मेघनी गर्जनाना झगमग झगमग शब्दसमूहने–अवाजोने-लीधे ऊलटेला-उत्साहमां आवेला थापणि–थापणमां खलभलइ-खळभळे छे थवक्का–थोकडा-स्तबक अतिआछउ-अतिआळु-घगुं सिरि-शिरमां-माथे ज पातळ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पहिरेइ-पहेरे छे फाडेई–पाडे-बे भाग करे मोतियहारो-मोतीनो हार कांचुलिय-कांचळी कानिहि-कानमा उरमंडलि-छातीना विस्तार ऊपर मुक्का-मूक्या ताडेइ-ताणे छे काजलि काजल वडे कचोला-कचोळा संथउ सेंथो गालि-मसूरा-गालमसूरियां बोरीयावडि–बोरनी भातवाळी के जेमां कूवडिय-कूई सोनानां बोर टांकेलां छे एवी खंभ खंभा-स्तंभो झबकइ-झबके छे रिमिझिमि-रुमझुम-रमझम गाजंते-गाजे छे सुवाजइ-सारी रीते वागे छे चरणलग्गि-चरणमा लागी- पहिल्ली-पहेली पगे लागी जव-जब-ज्यारे वायंते-वाय छे कउतिगि-कौतुके झलहलिया झळांझळां थयां आकासि-आकाशे नाचइ–नाचे छे वांकउ बांकुं मोटइ-मोटे घडियउ-घड्यो–घडेलो ऊगटि-ऊगटावडे घरीजइ-धरीजे भीजइ-भींजे छे मू-सिउ-मारी साथे छंडियु-छंड्यो-तज्यो परिणेवा-परणवा लोहिहि-लोढावडे सिरीहिसु-श्रीसाथे हियउ-हैयुं साचउ-साचुं पावसु-प्रावृष-चोमासुं नवलइ–नवले–नवलमां माणीजइ-माणीजे-माणीए- लोउ लोक अनुभवीए कवणु-कोण Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ३९९ रमेवा-रमवा माटे । पहिलउं–पहेलु मयण हिंडोला–मदनना हिंडोळा तयणंतरि-तदनंतरे-त्यार पछी-तरत जणु-जाण्ये-इव–अर्थे अच्छइ-छे संखतूरा-शंख अने तूर्य-वाजां अवगणिय-अवगणी नाहि-नाभि खडग्गिण-खड्ने हुउ-थयो–हुयो ऊरू-साथळ धनु धनु-धन्य धन्य घाघरि-घाघरी मलियउ-मळ्यो-मसळी नाख्यो मयमयंत-महेकती फागु-फाग परवाल-परवाळं रमेवउ-रमवो जोएवा-जोवा गावेवउ-गावो मिलिय-मळ्या कियउ-कयु-का आहणए-आघात करे छे जयजयकारो-जेजेकार जोवंती-जोती जीतउ-जीत्यो बोलावइ-बोलावे छे मल्लसल्ल-मल्लरूप शल्य बारह वरिसहं तणउ-बार वरसनो किय–कियो करेलो राचइ-राचे खेला रमनारा मूं-मने चैत्रमासि-चैत्रमासे पत्थरु-पत्थर हिवडा-हमणां मइ लियउ में लीधुं तं लियउ-तें लीधुं ज होइ-ज थाय पाडिउ-पाड्यो Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૦ चौदमा सैकाना गद्यगत शब्दो अनेरीकन्हइ अनेराकues आगलउ - आगलो - वधारो ओछउ - ओछो कान - काने मात्रिं - मात्राए मात्र, देवंदण - देववंदन अनेरानी कने अनेरानी पासे कह्यांकां हुइ - होय सझाइ - सझाय - सज्झाय - स्वाध्याय हुउ-थयो हुयइ - होय पाटी-पाटी पोथी - पोथी गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति १३९ ( १ ) अतिचार महारउ - माहरो हउ हो -थाओ जि-जे अंतराइउ - अंतराय - विघ्न हथयो कीधउं कीधो कमळी-कवलिका सांपडा, सांपुढं- चापडो सांपडी, सांपडी - चापडी हंती सक्ति छती शक्ति गुणतां गणतां पगु-पग लागउ-लाग्यो थुकु, थुंकु थुंक लग्गउ-लाम्युं हुई होय दिवसमांहि - दिवसमां सबहि-बधानुं ( २ ) नवकारव्याख्यान ( चौदमोसैको) यउ - आ सारसंभाल - याद राखीने संभाळ लेवीस्मरण राखीने ध्यान राखवुं तेह तेनुं करता-करतां पढतां-भणतां पनर - पन्नर - पंदर करत-करते Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्या ग्या-गया चौदमो अने पन्दरमो सैको ४०१ वयरी-वैरी हुंतइ-छते अरिहइ–योग्य छे मंगलीक मंगळीक अरिहंत-अरिहंतोने हिवडातणइ-हमणा तणे-हमणाने किसा-केवा पहिलउं–पहेलु रागद्वेषरूपीआ-रागद्वेषरूप सुमरेवउं-स्मरQ-समर-याद करवू चउत्रीश-चोत्रीश पढेवउ-पढवा योग्य नमस्कारु-नमस्कार भारी-भारे-दीर्घ करिउ-करीने पंचत्तालीस-पीस्तालीश ग्या " जिसउं–जैसुं-जेवू उत्ताणु-चत्तुं तिसइ-तैसे-तेवे ऊपरि-ऊपर संबंधियइ-संबंधना चउवीसमह-चोवीशमाना विभागि-विभागे बार-बार आंग-अंग अछइ-छे सर्वहीं सर्वने उपायी-उत्पादी-पेदा करी किसउ-कैसो केवो सर्वही माहि-सर्वनी अंदर-बधांनी यउ-आ अंदर चउवीसी-चोवीश ध्यातव्यु-ध्यावा योग्य स्मरतां-स्मरतां गुणेवउ-गणवा योग्य माहात्म्यु-माहात्म्य (३) अतिचार-(संवत्-१३६९) तुम्हि-तमे विराया-पिराया-पराया बीजाना आलोउ-आलोओ-आलोचना करो सिउणइ-सोणे-सोणामां पढिडं, पढिउ--पढ्यु-भण्युं सिउणांतरि-स्वप्नांतरे Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति भवसगलाहइ माहि-भवसघलानी मांय | हव-हवे कुडउ-कूडो-खोटो गुणिउ-गण्यु थापणिमोसउ–थापणनी चोरी- पति-प्रति थापणने खोटी करवी । लिखिउ-लिख्यो-लख्यो विढाविढि–वढवाड साखि-साख-साक्ष्य छानउं–छान कुणहइ उस- कोणनी साथे-कोईनी वावरिउं–वावयु ___ साथे पाडइ–पाडे-महोल्लामां-शेरीमा राडिभेडि-राडभेड नवउं-नQ विराइउं-छेतरेलं-छेतरीने मेळवेलु मेलिउ--मेळव्यु-भेळव्यु लीधउं-लीधुं तूल-तोले खलइ-खळे सवहइ-सर्वन-बधार्नु पाडोसि-पाडोशे-पाडोशमां आपणा-आपणा पुराणउ-पुराणुं जूनुं कूडी-खोटे वाछल्य-वात्सल्य मापि-मापे विषइ-विशे लुहुडपणि लघुपणमां-नानपणमां अम्हारउ-अमारो सील-शील वोसिरावउ-वोसरावो त्याग करो खंड्या खंड्या विघन-विघन नीम-नीम-नियम पच्चक्खउ-पचखो-पच्चक्खाण करो हियामांहि-हैयामां खमिउं–खम्यु-क्षमा करी धरउ-धरो नइ-ने-अने ऊचरउ-ऊचरो-बोलो पावु-पाप सवू-सर्व हिवु, हिव / हवे निंदउ-निंदो । प्रवर्ताविउ-प्रवर्ताव्यु Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ चौदमो अने पन्दरमो सैको संवरू-संवरो--अटकावो प्ररूपिउ-प्ररूप्यु-प्ररूप्यो खमाविउं-खमाव्यु-क्षमा आपी ऊखल-ऊखल वहरु-वेर घरटी-घंटी करउं-करं कटारी-कटार संस्थापिउ-संस्थाप्यु पावटा-पावडा अवलपिउ-ओळव्यो वेचि-खरची-व्यय करी घरट-घरट-दळवाना मोटा घंट खांडा-खड्ग-खांडु सज्याइ-सजाय-सज्झाय अरहट्ट-रेंट ऊजम-ऊजम-उद्यम द्रवि-द्रव्य । हुओ-हुयो-थयो पूर्वोक्त शब्दो विशे विवेचन करतां पहेला उक्त ते ते कृतिओना कर्ता विनयचंद्र अने जिनपद्मसूरिना समयविशेनां प्रमाणो आपुं: १४० विनयचंद्रे प्रस्तुत कृतिमां पोतानो समय नथी जणाव्यो, तेमा ___ फक्त रत्नसिंह ( रयणसिंह ) सूरिने पोताना गुरु तरीके विनयचंद्रनो समय 'जणावेला छे, परंतु विनयचंद्रे करेला कल्पसूत्रटिप्पैर्ने ऊपरथी तेमनो समय विक्रम संवत् १३२५ नो छे ए चोक्कस छे. बीजी कृतिना कर्ता जिनपद्मसूरि पोताने खरतरगच्छना जणावे छे अने __ तेओने विक्रम संवत् १३९० मां आचार्यपदें जिनपद्मसूरिनो समय मळ्युं हतुं. उक्त बन्ने हकीकत ऊपरथी श्रीविनयचंद्र अने जिनपद्मसूरिनो समय चौदमो सैको सुनिश्चित छे. ३०४ जुओ जैनगुर्जरकविओ-विक्रमनी चौदमी सदी भाग १, पृ०५ टिप्पण. ३०५ जुओ जैनगुर्जरकविओ-विक्रमनी चौदमी सदी भाग १, पृ० ११. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति Art कृतिमां अतिचारना अने नवकारव्याख्यानना ऊतारा आपेला छे; ते बन्ने गद्यमां छे. एमां ' अतिचार' नी भाषा तो तद्दन लौकिक छे ए ख्यालमा रहे. ए ऊतारानो विषय सांप्रदायिक छे छतां ते ऊपरथी पण भाषा अने तेना वलणनी कल्पना आवी शके छे. ए बधा ऊतारा संवत् १३४० अने संवत् १३६९ ना अरसामां लखायेला ताडपत्र ऊपरथी लई स्व० विद्यावल्लभ साक्षर श्री चिमनलालभाई दलाले ' प्राचीनगुर्जरकाव्यसंग्रह 'मां मूकेला छे अने ते ऊपरथी तेमने अहीं ऊतारेला छे. एटले ए ऊतारा पण चौदमा सैकाना छे. १४१ तेरमा सैकानी कृतिओमां जे जातनी भाषापद्धति छे लगभग तेज जातनी भाषापद्धति उक्त चौदमा सैकानी कृतिओमां पण छे. जे उच्चारणभेद छे ते तद्दन साधारण छे. ४०४ चौदमा सैकानी भाषामीमांसा तादर्थ्यनुं सूचक पूर्वोक्त ( पृ० २४६) 'रेसि' पद ' नेमिहिरेसि' प्रयोगमां वपरायुं छे. ए सिवाय ' नेमितणी' 'दुज्जणतणा षष्ठीसूचक प्रयोगो पण पूर्वनी जेवा वपराया छे. " ' घरवासथी' एवो अर्थ सूचववा घरवास' शब्द ज वपरायो छे, एटले ते लुप्तविभक्तिवाको प्रयोग छे एम कहेवाय. ए ज रीते ' संसारथी' ने बदले 'संसार' 'राजुलना पतिना' अर्थमा 'पति राजुल ' पासे ले' एवं सूचववा ' प्रिय लइ पासि ' ' पाशमांथी' एवं बताववा फक्त ' पाह' ' मुनिपतिना' अर्थे 'मुणिवइ' अने' चरणमां लागी' अर्थ बताववा ' प्रियनी " चरण लग्गी' आवा प्रकारना लुप्त विभक्तिवाळा के व्यवहित विभक्तिवाळा प्रयोगो ए कृतिओमां आवेला छे. कविताओमां आ जातना प्रयोगो ३०६ जुओ प्राचीनगुर्जरकाव्यसंग्रह पृ० ८७ तथा ९१. " 6 बारह वरिसहं तणउ ' वगैरे Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४०५ सुलभ छे अने आ जातनी कविताओमां आजे पण एवां पदो वापरवानी प्रथा चालु छे. संस्कृत कविताओमां आवा प्रयोगो नहीं मळे अने प्राकृतमां पण घणा विरल. लोकभाषामां ज आवा प्रयोगो अवतरे छे अने छूटथी पराय पण छे. संस्कृतमां प्रथमांत ' शत' संख्यासाथे वपरातुं संख्येय षष्ठीमां पण आवे छे : 'करस्य शतानि - हाथना सेंकडा - सेंकडो हाथो' एनी ज पेठे अहीं ' वरह सयाइ ' प्रयोग वपरायेलो छे. वरस्य शतानि - वरना सेंकडासेंकडो वरो. चालु भाषामां आ जातनी प्रयोगपद्धति नथी चालती. आ तो संस्कृत - प्राकृतनुं प्रतिबिंब छे. गर्ज-गज्ज-ते ऊपरथी गाजते, नृत्य-नच्च-नाचते, सरज-सज्ज - साजंते, वक्रक-कय- वांकउ, ए पदोमां स्वरभारनी सुरक्षितता माटे संयुक्त अक्षरनी पूर्वनो स्वर भारे थाय छे. त्यारे सौभाग्य-सोभग्ग-सोहागसोहग, झबक्कड़-झबकर, विनष्टक - विनय - विणठउ - ए पदोमा संयुक्त अक्षरनी पूर्वनो स्वर, भारे थया विना पण स्वरभार जळवाई रह्यो छे, तेनुं कारण ते ते पदोमां 'ह' 'झ' अने 'ठ' महाप्राण छे, ए जणाय छे. उच्चारणनी रीतोमा स्वरभार जाळववानी अनेक पद्धतिओ छे. उच्चारणकर्तानुं मुख पोताने ज्यां जे रीत अनुकूळ जणाय त्यां तेनो आश्रय आपोआप लई ले छे ए ध्यानमा राखवानुं छे. १४२ ' चडिउत्तरिय ' नो अर्थ प्रसिद्ध छे. पाछलुं पद ' उत्तरिय ' 'उत्' साथैना 'तू' ना 'तरिय' ऊपरथी आवेलुं छे. आगलुं 'चडि' 'चडिय' ऊपरथी. ८-४-२०६ मां हेमचंद्र 'आरोह' नो पर्याय ' चड' धातु छे एम जणावे छे. आ 'चड' धातु देश्य होय एम लागे छे. 'चडऊत्तर' नी व्युत्पत्ति Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ‘वजरिय' पद ‘वजर्' धातु ऊपरथी आव्युं छे. 'कथ्' धातुना 'वजर' नी चर्चा , पर्याय रूपे 'वजर्' ने ८-४-२ मां सूचवेलो " छेः उच्चरित-उच्चरिअ-बुच्चरिअ के प्रोच्चरित-पुच्चरिअ -वुच्चरिअ-बजरिअ-ए रीते संभव छे के वुच्चरिअ-वजरिअ-द्वारा 'वजर्' धातु अने पुच्चरिअ-पजरिअ द्वारा ‘पजर' धातु नीपज्यो होय. अन्यथा 'वजर् ' अने ‘पज्जर' ए बन्ने धातुओ देश्य छे, एम मानवू जोईए. 'सरवणि' शब्दनुं मूळ 'सु' धातुमां छे. 'कुण्डिकातो जलं स्रवति'सरवणि' , कुंडीमांथी पाणी स्रवे छे–टपके छे-झरे छे.' ए प्रयोगमा जे अर्थ 'सु' धातुनो छे, ते ज अर्थ 'सरवणि' मां वपरायेला 'सु' धातुनो छे. 'सु' ऊपरथी आवेलो 'प्रस्रवण' शब्द संस्कृतमां प्रसिद्ध छे. स्रवण' ऊपरथी · सरवण' शब्दने लाववानो छे. 'श्रावणनां सरवडा' प्रयोगमा जे भाव ' सरवडा' पदनो छे, ते ज भाव अहीं — सरवणि' नो छे. 'झिज्जइ' एटले 'क्षीण थाय छे.' प्राकृतमा केटलेक स्थळे 'क्ष' . नुं 'झ' उच्चारण थाय छे. (८-२-३) एम हेमचंद्र कहे छे अने 'झिज्जइ' 'झीणं' एवां उदाहरणो आपे छे. ए ऊपरथी एम कही शकाय एम छे के 'क्षीयते' अने आ — झिजइ' बन्ने एकसरखां क्रियापदो छे. ' झबक्कइ' के ' झबकइ ' ए वीजळीना झबकाराना अनुकरण ऊपरथी आवेलु क्रियापद छे. ए ज रीते ‘खलभल' 'झलहल' 'थरहर' 'रिमिझिमि' 'झिरिमिरि' वगैरे ए बधां पदो अनुकरण ऊपरथी झबक्क वगेरे - आवेलां छे. क्षोभ सूचववा खलभल, आंखमांथी र अनुकरणों चमकारावाळु पाणी पडतुं जणाववा के तेजनी चमक सूचववा झलहल, कंपनने दर्शाववा थरहर--थरथर, घूघरानो अवाज Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको सूचववा रिमिझिमि - रुमझुम - रमझम - अने धीमे धीमे वरसाद वरसतो सूचववो होय त्यारे झिरिमिरि - झरमर पद वपराय छे. भमराना अवाज माटे ' रुणझुण '-' रणझण' पद वपराय छे. ' रुणझुण 'मां तो 'शब्द करवो' अर्थनो 'रण' धातु अने ए ज अर्थनो बीजो ' ध्वन - झण' धातु वपरायेलो छे. 'झूरखूं ' क्रिया लोकमां प्रतीत छे. हेमचंद्र 'खिद - खेद करवो ' धातुना पर्याय रूपे 'जूर' धातुने जणावे छे ( ८ -४ -१३२ ) प्रस्तुत 'झूर 'नुं मूळ ए 'जूर 'मां छे परंतु उच्चारणमां भेद छे. धातुसंग्रहमां 'वयोहानि' अर्थमां ४०७ झूखं 'धूर' अने 'जूर' तथा 'रोग' अर्थमां ' ज्वर' धातु हेमचंद्रे आपेला छे. अक्षरघटनानी दृष्टिए धूर, जूर, ज्वर अने उक्त 'झुर' बधा मळता आवे छे, परंतु अर्थनी समानता, सीधी रीते नथी जणाती तेथी 'झुर' के 'जूर' धातुने देश्य कहेवा ए ठीक छे. जेम घणे स्थळे 'छे' अर्थमां ' अछिइ' वपरायुं छे तेम ' नथी ' अर्थमां ' नत्थिइ' नो प्रयोग पण होवो जोईए. एम नत्थी होय तो 'नत्थी' ना अंत्य दीर्घ 'ई' नी उपपत्ति थई शके. प्रस्तुतमां 'नत्थिइ' पद नथी वपरायुं परंतु 'नत्थिइ' ऊपरथी ऊतरेलुं ' नत्थी' पद तो वपरायेलुं छे. 'निराधार' ने बदले 'निरधार' पद वपरायुं छे. 'आत्मीय' अर्थने सूचववा प्राकृतमां 'अप्पणय' पद वपराय छे. अहनुं ' अप्पणु' पद ते ' अप्पणय' ऊपरथी आव्युं छे. 'आपणपउं ' मानुं 'आपण' तो समझाय छे. परंतु पाछलं 'पउं' दुर्गम जेवुं लागे छे. आपण + अप्पक ( आत्मक) कल्पीए तो ' आपणप्पय' थाय अने ते ऊपरथी ' आपणपउं' आवे. 'आपणपउं' एटले ' आपोआप जाते Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पोते' एवो अर्थ थाय. अहीं एवो अर्थ घटे पण छे. परंतु जेमां एक साथे 'आत्मा + आत्मा' एम बे आत्मा लाग्या होय तेवो प्रयोग संस्कृत प्राकृतमां भाग्ये ज मळे छे. मात्र भाषामां मळे छे. १४३ 'भिज्जति–भिजइ' अने 'भीजइ' ए त्रणे क्रियापदो · भीजावं पीगळवु-नरम थq'ना भावने सूचवे छे. विनयचंद्रनी कृतिमां ‘भिज' पद छे अने त्यार पछीनी कृतिमां 'भी' पद छे. वर्तमानमा ए ऊपरथी आवेलु भींजवू' पद छे. 'भिद्यते' भिजति–भिजइभीजइ-ए रीते ए क्रियापदनो ऊगम छे. 'भिद्' धातु ‘विदारण' अर्थने सूचवे छे अने 'मिद्' तथा 'मिद्य' धातु 'स्नेह' अर्थने जणावे छे. ‘विदारण' एटले ‘फाड-चीरो करवो'. आ क्रिया जेम बाह्य पदार्थने लागु पडे छे तेम आंतरिक मन, बुद्धि अने आत्माने पण लागु पडे छे. एक ज प्रकारना संकल्पवाळां मन, बुद्धि अने आत्मा ज्यारे पोते स्वीकारेला संकल्पथी चळतां नथी त्यारे तेओ ‘भेदातां नथी' एवी क्रियाना व्यवहारने योग्य बने छे. अहीं पण जे 'भिज्ज' के 'भीज्' क्रिया वपराणी छे ते, एक ज प्रकारनां संकल्पने वरेलो आत्मा 'एकनो बे नथी थतो-भेदातो नथीभीजातो नथी' ए अर्थने बतावे छे. ए जोतां अर्थ अने वर्णतिकार ए बन्ने दृष्टिए उक्त ‘भिद्यते' क्रियापदमा प्रस्तुत 'भिज' भीज्' के 'भीजवुनुं मूळ रहेलु छे. अथवा 'स्निग्ध थq-कोमळ थर्बु-आर्द्र थर्बु' ए अर्थमां 'मिद्' अने 'मिद्य' धातुओ वर्ते छे, तेमांना 'घ'वाळा 'मिद्य' धातु ऊपरथी मिद्यति-मिज्जति-म्हिजति–भिज्जति-भीजति अने ए ऊपरथी 'भींजवू' ए रीते उक्त 'भिज्' अने 'भीज्' ए बन्ने पदो आवी शके एम छे. आ पक्षे 'मिथ' मां 'ह' ने प्रक्षिप्त समझी ते ऊपरथी 'भ' लाक्वानी कल्पना करवानी छे. अर्थमां तो कशी ताणखेंच नथी रहेती. 'मिद्यति' Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४०९ एटले ' स्निग्ध थाय छे.' अने ते ऊपरथी आवेला 'भिज्जति' एटले पण ' स्निध थाय छे - नरम थाय छे - पोतानो आग्रह भूकी सामाने अनुसरे छे.' उक्त बे कल्पनाओमां जे प्रामाणिक अने संगत लागे तेने अहीं लेवानी छे. विशेष तपासतां जणायुं के पोताना अनेकार्थसंग्रहमां ' भेद ' शब्दना अर्थो बतावतां आचार्य हेमचंद्र कहे छे के, " भेदो विदारणे द्वैधे उपजाप - विशेषयोः " ( कां० २, श्लो० २२७ ) अर्थात् भेद- विदारखं - फाडवुं, भेद - द्वैध - द्विधा थवुंबे प्रकारे थ चलित थवुं, भेद-उपजाप - एक प्रकारनो जाप, भेद - विशेषता – जुदाई. आ जोता तो उक्त 'भिद्' धातु ऊपरथी 'भिज्जू' के 'भीज्' 'भींजावु पद आवे तो अयुक्त नथी ने 'मिद्'नी कल्पनानी जरूर नथी. " १४४ ' अनेरी कन्हइ ' ' अनेरा कण्हइ' पदमांनुं 'अनेरी' के 'अनेरा पढ़ ' अन्यतर - अन्नयर - अन्नइर - अनइर - अनेर' ए रीते लाववानुं छे. अहीं पण 'अइ' नो 'ए' स्वरभारने साचवी ले अनेरा छे. तेथी " 'अन्न' नुं 'आन' थतुं अटके छे. संबंधसूचक ' ईय' प्रत्ययवाळा ' अन्यतरीय ' ऊपरथी 'अनेरी' अने संबंधसूचक षष्ठीविभक्तिवाळा ' अन्यतरस्य - अन्नतरस्य-अन्नत राहअन्नतरा' ऊपरथी ' अनेरा' लावी प्रस्तुतमां ' अनेरी' अने ' अनेरा 'ना अंत्य 'ई' अने 'आ'नी उपपत्ति समझवानी छे. 'नेमिसमं' साथेनो 'सम' शब्द ' सरखा 'ना अर्थनो द्योतक छे. "नेमिसमं' एटले ' नेमिसमान - नेमि जेवुं . ' ' दिक्खाडिउ ' -- देखाड्यो. हेमचंद्र कहे छे के ' दृश' धातुनो समानार्थक बीजो एक 'देक्ख' धातु छे ( ८ देखाडवुं ४ - १८१ ) तेनुं प्रेरक देक्ख् + आड- देक्खाड अने तेनुं भूतकृदंत ' देक्खाडिओ' ऊपरथी 'दिक्खाडिओ' संस्कृतमां Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ‘दृश्' धातुना ‘द्रक्ष्यति' ‘दृक्षीष्ट' वगेरे रूपोमां जे ' द्रक्ष' वा 'दृक्षू ' अंग जळवायुं छे ते उक्त 'देक्ख' वा 'दिक्ख 'ना मूळमां छे ए ध्यानमा रहे. 'छेहु ' आ० हेमचंद्र 'अंत' अर्थवाळा 'छेअ' शब्दने देश्य कहे छे ( देशीश० वर्ग-३, गा०३८) अहींनो 'छेहु ' ' विश्वासना अंतने - विश्वासघातने' सूचवे छे. एटले प्रस्तुत 'छेहु' अने उक्त देश्य 'छेअ ' ए बे बच्चे वधारे पडती समानता छे. संस्कृत 'छेद ' अने प्राकृत 'छेअ ' तथा उक्त देश्य 'छेअ' ए त्रणे शब्दो परस्पर मळता आवे छे. अहीं ' वाडु' शब्दनो अर्थ ' वाडो' छे. हेमचंद्र " पाटकस्तु तदर्धे स्यात् ” ( अभिधान० कां ४, श्लो० २८ ) कहीने वाडो गामना अडधा भागने ' पाटक' कहे छे. अत्यारनी भाषामा वपरातो ' पाडो' के ' वाडो' नुं मूळ ए ' पाटक' छे. नगरनी पासेना 'परा' ने हेमचंद्र ' शाखापुर' कहे छे ( अभिधान० कां ४, श्लो० ० ३७ ) आजनुं 'शापुर' ए शुं ए ' शाखापुर' ऊपरथी आव्युं छे के तेन संबंध कोई शाह - पादशाह साथे छे ? १४५ ' ऊपरि 'मां 'ऊ' दीर्घ शा माटे छे ? आ अने आगली कृतिओमां ज्यां ज्यां 'ऊपरि' शब्द आव्यो छे त्यां ऊपरि बघे ते आदिमां दीर्घ 'ऊ' वाळो छे. जैन आगमोमां ' उपरि 'ना अर्थमां अनेक स्थळे ' उप्पि' शब्द आवे छे. आ ऊपरथी मालूम पडे छे के ' ऊपरि 'ना आद्य ' ऊप 'नुं मूळ ए ' उप्प 'मां होवु जोईए. एम होय तो ' ऊपरि 'ना आद्य दीर्घनी संगति थई शके 'छे. वैयाकरणो ' ऊर्ध्व' ने 'रि' प्रत्यय कल्पी ' उपरि' शब्दनी कल्पना Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४११ करे छे (७-२-११४ ) ' ऊर्ध्व + रि- उन्भरि-ऊपरि' ए जोतां पण 'ऊपरि' नो आद्य 'ऊ' दीर्घ छे, ते बराबर छे. संस्कृत वैयाकरणोए ' उपरि 'मां मूळ ‘ऊर्ध्व' शब्द तो कल्प्यो परंतु साथै ' ऊर्ध्व' नो ' उप ' आदेश पण कल्प्यो छे. आ कल्पनाथी 'उपरि' शब्दनी निष्पत्ति तो थई परंतु तेनुं मूळ 'ऊर्ध्व 'मां छे तेनी निशानी भुंसाई गई त्यारे भाषानां ' ऊपरि' मां तेनी निशानी जळवाई रही छे. गुजराती जोडणीमां ' उपरि 'नी जोडणी आदिमां हस्वरूपे स्वीकारी छे. मने लागे छे के तेमां उक्त संस्कृत कल्पनानुं अनुकरण छे; परंतु शब्दना मूळने वीसारी देवामां आव्युं छे. ' ऊर्ध्व'ने 'रि' प्रत्यय लाग्या पछी ते द्वारा ऊपर जणाव्या प्रमाणे 'ऊपरि' पद बराबर आवी शके एम छे. ' ऊर्ध्व ' नो ' उप ' कल्पवानी जरूर नथी. अवेस्तानी भाषामां 'ऊपर' अर्थमां अनेक स्थळे 'उपइरि' शब्द आवेलो छे. ( खोरदेह अ० पृ० ४५ ) एज प्रमाणे ' नीचे ' ना अर्थमां ' अधइरि' शब्द अवेस्तामां वपरायेलो छे. ( पृ० ४५ ) ' उपइरि', 'अधइरि' नो 'इरि' जोतां एम भासे छे के ए 'इरि ' नुं मूळ ' ऊर्ध्वतरे ' ' अधस्तरे' मां रहेला सप्तमीविभक्तिवाळा 'तरे' पदमां होय. आ रीते तो वैयाकरणोए कल्पेलो 'रि' प्रत्यय पण संगत लागतो नथी. अवेस्तामां ' उपइरि' ए चतुरक्षर पद होई विलंबित उच्चारणवाळु छे माटे ज तेमां आद्य 'उ' लघु छे त्यारे भाषामां तो ए ३०७ आद्य वैयाकरण पाणिनिए कहां छे के 'ऊर्ध्व' शब्दनो ' उप ' आदेश करवो अने तेने 'रि' प्रत्यय लगाडवो. - ( ७- २ - ११४ ) खरी रीते ऊर्ध्व+र ( स्वार्थिक ) ते द्वारा प्राकृत उब्भर, तेनुं सप्तमी एकव० उब्भरे, अने ए 'उभरे ' द्वारा ' उप्पर' 'ऊपर' वगेरे पदो आवेलां छे. अने केवल ' उप्पि' पद तो ऊर्ध्वे - उब्भे - उप्पे - उपिं ए रीते आवेलुं छे. गूजरातीना प्राचीन नमूनाओमां अनेक स्थले उप्पर, ऊपरि, ओपरि एवां पदो उपलब्ध छे. आम, संस्कृत कहेवातुं 'उपरि', खरी रीते तो प्राकृत छे. Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पद, त्र्यक्षर होवाथी द्रुत उच्चारणवाळु बने छे तेथी ज त्यां तेनो आध 'उ' गुरु रहेवो जोईए. पूर्वोक्त 'उप्पिं' तो 'ऊर्खे'-' उप्पहिं' ऊपरथी सीधुं ज आव्यु छे. तेने 'रि' प्रत्यय नथी लाग्यो. १४६ धातुसंग्रहमा पहेला गणमां ‘अवरोध' अर्थमां ‘वल' धातु जणावेलो छे, ते ऊपरथी 'बलि-वलि' क्रियापद आवी शके छे. 'वलि बलि' ए बीजा पुरुषना एकवचन- क्रियापद छे. तेनो अर्थ- कळवळ-पाछो वळ-रोकाई जा' छे. 'जित्तउ' अने 'जीतउ' ए बन्ने एक ज अर्थमां छे. 'जित्यो' तेनो अर्थ छे. ते ज अर्थमां 'जि' धातुन 'जिप्पिअ' रूप पण थाय छे. मने लागे छे के ‘जिप्पिअ' ना अनुकरण द्वारा 'जित्तउ' मां बेवडो 'त्त' अने जीतउ'नो 'जी' दीर्घ थयो जणाय छे.. ___ 'टोहणकालि' एटले ‘टोवाने वखते'. 'टोवु' एटले “खेतरमा पक्षी वगैरेने आवतां रोकी राखवा जे अवाजो करवा पडे ते क्रिया.' संस्कृत धातुसंग्रहमा ‘स्तुभ्' धातु ‘क्रियानिरोध'ना अर्थने सूचवे छे. थोभ, थोभो, थोभनारो वगैरे पदो उक्त 'स्तुभ्' ऊपरथी आवेलां छे. ए प्रमाणे ' स्तोभन'_' थोभण-थोहणटोहण' ए रीते 'स्तुभ' ऊपरथी 'टोहण' शब्द आवे छे अने अर्थनी सुघटना पण रहे छे. भाषानो 'टोयो' शब्द पण 'स्तुभ' ना 'स्तोभक :थोभओ-थोहओ-टोयो'-ए रीते आवेलो छे. ‘हिली' शब्द क्रीडावाचक 'हेला' नुं रूपांतर छे. 'हेला' एटले विलास. अथवा 'हेलि' एटले 'आलिंगन'. ए ऊपरथी पण 'हिलि' पद आव्यु होय. परंपराए अहीं बन्ने अर्थ घटमान छे. अहीं 'हिल्लि' नो सीधो अर्थ 'हेळ' साहचर्य छे. ___टोg Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमार चौदमो अने पन्दरमो सैको ४१३ 'गमार' शब्द फारसी 'गुमराह' न रूपांतर लागे छे. हेमचंद्र ‘मुहगमार मुंझावु' धातुना पर्याय तरीके 'गुम्म' धातुनो निर्देश करे छे (८-४-२०७) तथा ' मूढ' अर्थमां 'गुम्मइअ' शब्द होवान पण जणावे छे ( देशी० व०२, गा० १०३) 'गमार' साथे उक्त 'गुम्म' वा 'गुम्मइअ'र्नु कांई साम्य छे के केम ? ए विचारवा अहीं 'गुम्म्' नो उल्लेख कयों छे. सुभाषितसंग्रहकार जयवल्लभ पोताना वज्जालग्गमां ‘गवार' अने 'गामार'-(गाहावज्जा श्लो०१५-१६) एम बे शब्दोनो ‘गामडीयो-मूर्ख-अज्ञान' अर्थमां प्रयोग करे छे. प्रस्तुत ‘गमार' अने जयवलुमे प्रयोजेला ‘गामार' के 'गवार' वच्चे अर्थभेद नथी. संभव छ के 'जेमना आचारविचार ग्राम्य होय' तेवा लोक माटे 'ग्राम्याचार' शब्द वपरायो होय अने ते द्वारा उक्त त्रणे पदो आवेलां होयः ग्राम्याचार-गम्माचार-गम्मायार-गामार-गमार के गवार. माद्यति-मज्जति-मज्जइ-माजइ-माचइ-ए रीते 'हर्ष' अर्थवाळा 'मद' धातु ऊपरथी ‘माचइ' अने चालु ‘माचवु' पदो आव्यां छे. ___ प्रत्येषि–पतिइज्जसि-पतीजसि ए रीते ‘पतीजसि' पद आव्यु छे. एनो अर्थ 'तुं विश्वास करे छे'. 'रुच्' धातुद्वारा ‘रुञ्चति' क्रियापद आव्यु छे. भर्तृ-भर्तार-ए रीते ‘भत्तार'. खरी-खरेखरी. एनी व्युत्पत्ति अवगत नथी. 'नडइ' क्रियापद अहीं 'सेवा' अर्थने सूचवे छे. “राजुल एनी . सखीने कहे छे के हे भोळी सखी! तुं खरेखर गमार छे. नेमिकुमार विद्यमान होय त्यां सुधी पोते कोई बीजा पुरुषने सेवे तो समझQ के गजवरनो योग थयो छतां ते Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति आ अर्थ अहीं बराबर घटमान छे. माटे अहींना ' नडड' पदनुं मूळ 'लड- उपसेवायाम्' धातुमां समझतुं ( धातुपारायण ४१४ गधेडे चडे छे. "" पृ० २४९, धातु - ५५ ) 6 'दुहिता' ऊपरथी 'धूआ' ( ८-२-१२६) ' धूआ ' मां स्वर परिवर्तन थवाथी 'धीय' पद आवे छे. काठियावाडीलोककथामां ' दीकरी 'ना अर्थमां जे 'धी' शब्द आवे छे ते पण आ रीते आवेलो छे. प्रस्तुत कृतिमां ' धूय' अने ' धीय' ए बन्ने शब्दो वपराया छे. भाषामां वपरातो सुंवाळी ( पूरी ) अने प्रस्तुत 'सुहाली' बन्ने समान अर्थना छे. 'सुहाली' शब्द देश्य जणाय छे अथवा सुखवाचक देश्य सुहल्लि (देशी ० ० ८, गा० ३६ ) साथै पण तेनो संबंध होय. प्र + अङ्कुर = ' प्राङ्कुर' ते ऊपरथी नाम धातु ' प्राङ्कुरयति' प्रस्तुत 'पंगुरइ' नुं मूळ आ ' प्राङ्कुरयति' मां छे. भाषानुं पांगरखुं 'पांगरे ' क्रियापद पण आ रीते आवेलुं छे. देश्यसंग्रहमां ' बलात्कार' अर्थे 'मड्डा' शब्दनो उल्लेख छे. ते ऊपरथी अहींनो ' मांडी' शब्द आव्यो छे अथवा C " मांडवुं ' ज अर्थ लईए तो मण्ड' धातु ऊपरथी ते पदने लाववुं भाषानो 'मांडमांड' शब्द उक्त 'मड्डा' ऊपरथी आव्यो छे. 'गहिली एटले घेली - मूरखी. ' ग्रहिल ' पद उपरथी 'गहिल्ली' पद आव्युं छे. ' विध्यति ' f 6 'विज्झइ ' ' ऊपरथी वेझइ -- वींझे-वींधे - आव्युं छे. मत्तक : ' -मत्तओ - मातउ मातो. थिउ-थयो. स्थित : थितो - थिओ - थिउ - थयो. ३०८ सौराष्ट्रनी रसधारमां ' दीकरी' अर्थ माटे 'धी' शब्द वपरायेलो छे. Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ' च्यवते' एटले पडे छे-च्युत थाय छे. 'च्यवते'मां वपरायेला 'च्यु' ___ऊपरथी 'च्युतक, ' ते ऊपरथी 'च्युतकयति' अने चूक ते द्वारा चुअक्कइ-चुक्कइ-चूके. अथवा ‘पचति' ने स्थाने जेम ‘पचतकि' पद बने छ (७-३-२९) तेम ‘च्यवते' अने ते ऊपरथी: च्यवतके-चउतके-चुअके-चुअक्के-चुक्के-चूके अथवा 'खरी जवु-पडी जवु' अर्थवाळा ‘चुत' धातु द्वारा चोतति-चोतकतिचोअकति–चोअकइ-चुक्कइ-चुक्के-चूके एम पण लावी शकाय. हेमचंद्र आ ' चुक्क' ने 'भ्रंश' धातुनो पर्याय कही देश्यकोटिनो गणे छे. (८-४-१७७). 'दिवस' ऊपरथी दीस. 'मुहाडि' शब्द देश्य लागे छे. 'एम ज करवू' एवा अर्थे हेमचंद्र 'मुहिअ' अने बीजा देश्य संग्रहकारो ‘मुहिआ' शब्द आपे छे. (देशी० वर्ग ६, गा० १३४ ). संभव छे के उक्त 'मुहाडि ' नो संबंध देश्य ' मुहिआ' के ' मुहिअ' साथे होय. भुंडनिलाडि-मुंड-भंडं, 'निलाड' ललाट. ' ललाट' ने बदले 'णिडाल' के ‘णिलाड' शब्द हेमचंद्रने संमत छे. (८-१-४७ तथा ८-२-१२३) 'भुंड' नी व्युत्पत्ति अस्पष्ट छे. ___ 'माल' शब्द देश्य छे. ते ऊपरथी सप्तमी · मालि–मांचडा उपर'माळा उपर (देशी० व० ६, गा० १४६). 'चणक' ऊपरथी 'चिणय-चणो.' " चणको हरिमन्थकः" (अभिधान० कां० ४, श्लो० २३७). मरिचि-मिरिय (८-१-४६) मरी-तीखां. ' अउगी' एटले अ+ऊगी-'हजु तुं ऊगी नथी एवी छो' एटले 'मुग्धा छो' एम जणाय छे. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'आल' शब्द अनर्थने सूचवे छे. 'आळपंपाळ' मां रहेलो 'आळ' जे भावने जणावे छे, तेज भाव अहींना 'आल' नो छे. “ आलं स्यात्अनर्थ हरितालयोः" ( अनेकार्थसं० कां० २, श्लो० ४६३ हे० ). 'झख' धातु देश्य छे. 'नीसासो मेलवो' 'विलाप करवो' 'पोतानी जातने ओळंभो देवो' ए तेना त्रण अर्थ छे. अहीं त्रणे अर्थो घटे एम छे. ' झख' ना मूळनी खबर नथी. तत्समान — झंख' माटे जुओ (८-४-२०१, ८-४-१४८, ८-४-१५६ हे०). उक्त ' झख' बीजा पुरुषy एकवचन छे अने 'झंख' धातु ऊपरथी आवेलं होय. 'दोहिल्लउ' भाषामां — दोयलु'-अहीं सखी, राजुलने कहे छे के "तुं सुंवाळी छे अने तप ‘दोहिलं' अर्थात् 3. 'कठोर 'छे–दुःखकारक छे." आ अर्थ जोतां दुःख-दुक्ख-दुह-तेने 'इल' प्रत्यय लागी अने ते द्वारा 'दोहिलउ' शब्द आवे. भाषामां प्रचलित ‘दुहवq' क्रियापदनुं मूळ 'दुःख' धातुमा छे, अथवा ‘दुर्लभ' 'दुलह' 'दुल्लहउ'मां वर्णव्यत्यय अने स्वरपरिवर्तन थवाथी पण 'दोहिलउ' नीपजे. अहीं ‘दुःख करवा 'नो भाव वधारे संगत छे. 'तृप्ति' अर्थवाळा 'ध्रा' धातु ऊपरथी 'ध्राइ' क्रियापद आव्युं छे. भाषानुं 'धरावु' पद पण 'ध्रा 'मांथी आव्युं छे. 'फिरइ' एटले फर्या करे छे. 'चालवू-फर्या करवू' अर्थमां — स्फर' धातु छे (धातुपारायण पृ० २१६, धातु ८४) फरवू ते ऊपरथी स्फरति-फरति-फरइ-फिरइ-ए रीते 'फिरइ' पद लाववानुं छे. ___ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४१७ ऊबाहुलि-ऊंचा हाथ करेला छे एवी-उत्साहवाळी-उतावळी. उद् + . बाहु-उब्बाहु, स्वार्थिक 'ल' लाग्या पछी 'उब्बाहुली' ऊबाहुाल से ऊपरथी ऊबाहलि.' संभव छे के 'ऊमाहवू' उत्साह थवो'–क्रियापदनुं मूळ, प्रस्तुत — उब्बाहु ' पदमा होय. अथवा औत्सुक्य' अर्थमां आ० हेमचंद्र — उब्बाहुलि' शब्दने (देशी० वर्ग १, गा० १३६) देश्यरूपे नोंधे छे. ते — उब्बाहुल' शब्द ऊपरथी अहीं'ऊबाहुलि' स्त्रीलिंगी रूप आव्युं होय. फागुबंधि-फागबंधवडे.-फागुबंध एटले विशेष प्रकारनी पद्यरचनानो प्रकार. हेमचंद्र, 'वसंतनो उत्सव' अर्थमां 'फागु' शब्दने देश्यरूपे जणावे छे. (देशी० व०६, गा०८२) 'फाग' नो संबंध 'फागण' महिना साथे छे ए जाणीतुं छे. वर्षा + काल'-वर्षाकाल वरिसाल' तेनुं सप्तमी एकवचन वरिसालइ-वरसादने समये-चोमासामां. 'ऊतावलि' शब्दनुं मूळ 'उत्' साथेना ‘त्वरा' अर्थवाळा 'वर' धातुमा छे. 'वर' ना 'त्व' मां 'त्' अने 'व' वच्चे 'आ' ऊमेरवाथी 'तावर' थतां ते द्वारा उक्त 'ऊतावलि'-उतावळो'-'उतावळ' वगैरे शब्दो आवे छे. __ 'रहेवा' अर्थवाळा देश्य ‘रह' धातु ऊपरथी रहियउ' रह्यो-पद आव्यु छे. पाणीनो वहेलो' अर्थमां ‘वहेळा' शब्द भाषामां प्रसिद्ध छे. देश्य संग्रहमा 'वाहली' 'विरओ' अने 'वहोलो' ए त्रण शब्दो नोंधेला छे. (देशी० वर्ग ७, गा०३९“वहोलो वाहली विरओ त्रयोऽपि एते लघु जलप्रवाहवाचकाः"). प्रस्तुत संग्रहमां वाली वहेलो २७ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ‘वाहला' बहुवचन छे, तेनुं मूळ 'वाहल' पद 'वाहली' शब्द साथे संबंध धरावे छे. संभव छे के मूळ 'वह-वहेवू' धातु साथे वाहली, वहोलो के वहेळा पदनो संबंध होय. __ चमत्कृत-चमक्किय–चमकिय-चमकी ए क्रम 'चमकिय' नी निष्पत्तिनो छे. ‘वधावी' ना मूळमां प्रेरणासूचक प्रत्यय साथेनो 'वृध्व धर्बु' धातु छे. वृध्-प्रेरणा अर्थ-वर्ध-प्रा० वद्धाव. ते ऊपरथी भूतकृदंत ‘वद्धाविया' अने ते द्वारा ‘वधावी.' भाषामां 'लेको' शब्द स्त्रीओनी विशेष प्रकारनी चेष्टानो सूचक छे. लेको प्रस्तुत 'लहकंती' पद 'लेका करती'ना भावने ' दर्शावे छे. एना मूळमां · लस्' धातु द्वारा बनेलो 'लसक' शब्द छे. 'लसकं करोति लसकयति' ए रीते नामधातुरूप 'लसक' ऊपरथी वर्तमान कृदंत 'लसकयन्ती' अने ते द्वारा 'लहकंती' नीपजे छे. अथवा विशिष्ट प्रकारना नृत्य माटे वपराता 'लास्य' शब्दने 'क' लगाडीए तो 'लास्यक' थाय. 'लास्यक 'नुं नामधातु तरीकेनुं 'लास्यकयति' आनुं वर्तमानकृदंत 'लास्यकयन्ती' ते ऊपरथी पण 'लहकंती' पद आवे. मूळ बन्नेमां ‘लस्' धातु समझवानो छे. जोडंती-जोडती — युक्त' ऊपरथी जुत्त-जुट्ट-जुड्ड-जोड-जोडंती. ए रीते ' युक्त' मांथी 'जोड' धातु नीपजावी तेनुं वर्तमानकृदंत ‘जोडंती.' हिंदीमां — जोडवा' अर्थ माटे — जुट' शब्द प्रचलित छे, आ कल्पना क्लिष्ट जणाती होय तो संबंधवाची (“ यौड़ संबन्धे " धातुसंग्रह भ्वादि०) 'यौड्' धातु ऊपरथी प्रा० 'जोड' अने तेनुं वर्तमान कृदंत ‘जोडंती.' एम बन्ने रीते 'जोडती' ने नीपजावी शकाय एम छे. जोडंती वर्तमानकृदंत 'जाडता. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको मने लागे छे के 'यौड्' धातु मौलिक नथी. ते पण ‘युक्त' ऊपरथी आव्यो जणाय छे. धातुसंग्रहमां एवा बीजा घणा धातुओ छे जेओ भूतकृदंत ऊपरथी आवेला छे. सं० भृत-प्रा० भट, ते ऊपरथी 'भट-भृतौ' धातु. सं० पिष्ट-प्रा० पिट्ठ-ते ऊपरथी 'पीड' धातु. सं० ऋद्ध-प्रा० इद्ध. ते ऊपरथी 'एध्–वृद्धौ' धातु वगेरे. प्रसिद्ध भाषाशास्त्री महामहोपाध्याय श्रीमान विधुशेखर शास्त्रीजी 'केटलाक धातुओ भूतकृदंत ऊपरथी आवेला छे' एवो अभिप्राय धरावे छे अने तेमणे पोतानो ए अभिप्राय — द्विवेदीस्मारक' लेखसंग्रहवाळा पुस्तकमां व्यक्त पण कर्यो छे. आ ऊपरथी भूतकृदंत द्वारा धातुओ बनाववानी पद्धति विशेष प्राचीन छे ते स्पष्टपणे मालूम पडे छे. आ पद्धति गुजराती वगैरे चालु भाषामां ज छे एम नथी परंतु संस्कारपूर्ण मनाती संस्कृत भाषामां पण ते, तरत ख्यालमां न आवे ए रीते उतरेली छे. 'धीरिम' पदमां अंत्यनो ' इम' भाववाचक प्रत्यय छे. धीरिम एटले - धीरपणुं, मुणिस + इम-मुणिसिम—मनुष्यपणुं. आ कादम' प्रत्यय घणो ज प्राचीन छे. अवेस्तामां मित्रता-दोस्ती-ना अर्थमां ' हखेमा' शब्द आवे छे. ते 'सखि + इमा' ऊपरथी आवेलो छे. ( खोर० अ० पृ० १८४, शब्द अं० २९) ८-२-१५४ सूत्रमा हेमचंद्रे भाववाचक प्रत्ययोनी गणनामां आ 'इमा'ने पण नोंघेलो छे. संस्कृतमां ते ' इमन् ' रूपे प्रसिद्ध छे. मनावइ-मनावे छे. 'मन्' धातु- प्रेरक ' मानय' प्रा० ' मनाव.' ते ऊपरथी मनावइ. 'मन' एटले जाणवू-मनाव-जणावq-समझाव. 'मनाव'नो प्रयोग — मनाववा' अर्थमां रूढ थवाथी संकुचितार्थक छे, तेथी 'जणावq' एवा विशाळ अर्थमां ते न वपराय. ___ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्छ ४२० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'मडप्फर' शब्द देश्य छे. तेनो अर्थ छे: अभिमान. ( देशी०व०६ गा० १२० ) · मडप्फर' लोकभाषानो शब्द छे एम हेमचंद्र कहे छे. (८-२-१७४) 'अच्छ' ऊपरथी 'आछ' एटले निर्मळ-अतिआछउ-अतिनिर्मळ. __ भाषामां बहु बारीक कपडा माटे 'आर्छ' शब्द वपराय छे. संभव छ के ए ‘आर्छ' शब्द पण पूर्वोक्त निर्मळ अर्थवाळा ‘अच्छ' ऊपरथी आव्यो होय अने ए पक्षे लक्षणाद्वारा अर्थसंगति घटमान छे. अथवा 'आ' साथेना ‘छाद' अर्थात् ('आच्छाद'-ढांक_) 'आच्छाद' धातु साथे वस्त्रवाची 'आर्छ' शब्दनो संबंध होय. अन्यथा बारीक कपडा माटेना ‘आछा' शब्दनी व्युत्पत्ति शोधनीय रही. सं० परिदधाति-प्रा० परिधाति-परिहाइ-पहिरेइ-ए रीते 'पहिरेइ'नी निष्पत्ति छे. 'परिधान' ऊपरथी ‘परिहाण' अने व्यत्यय थतां पहिराणपहिरण-ए रीते ‘पहिरण' शब्द आवे, तेनु सप्तमीमां-पहिरणि. . संथउ-सीमन्तकः ऊपरथी सीमंतओ-सीअंतउ-सीतउ-संथउसिथउ सेंथो. 'बोरीयावडि'--एक प्रकारना वस्त्रनी जात छे. सं० 'बदर' नुं बोर' ए प्रा० उच्चारण छे. अने ‘वडि' नुं मूळ 'पट' बोरीयावडि शब्दमां छे. आ जोतां जे कपडामां ‘बोर' नी भात होय वा जे कपडामां सोनेरी कसबबाळां बोर–बोरियां टांकेलां होय ते कपड़े 'बोरियावडि' कहेवाय. प्रस्तुतमां 'बोरियावडि' शब्द ‘कांचळी' माटे वपरायेलं विशेषण छ: बदरिकापटी-बोरियावडी. 'बदर' ना · बोर' माटे जुओ (८-१-१७०). हंसनी भातवाळु वस्त्र 'हंसवडि' अने गज-हाथी-नी भातवाळु वस्त्र 'गजवडि' ने नामे ख्यात छे Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४२१ (जुओ पृथ्वीचंद्रचरित्र पृ० १०३ प्रा० गु० का० सं०) भाषानुं 'बोरियु' पद उक्त रीते 'बदर' ऊपरथी लाववानुं छे ते ख्यालमां रहे. बोर-बोरियु के 'बदर' मां कदनुं साम्य छे माटे ज ते बे वच्चे संबंध साधी शकाय छे. 'वा' ऊपरथी प्रा० वाअंते-वायंते. 'वा'-बा. __'स्थापना' ऊपरथी ' थापणा' अने ते ऊपरथी थापण'. ' स्थापना' एटले स्थापित करवं. ते अर्थ संकुचित थईने ‘थापण' एटले मात्र धनमाल वगैरेनुं पोताने के बीजाने त्यां स्थापित करवं. 'स्तबक' एटले गुच्छो. ते ऊपरथी ‘थवक्क' भाषानो 'थोक' 'थोकडो' वगेरेनु मूळ 'थवक्क'मां छे. फाडेइ-मूळ सं० पाटयति, प्रा० फाडेइ. ' बच्चे बराबर बे भाग करे छे' एवो अर्थ अहीं ' फाडेइ ' नो छे. 'सेंथो पाडवो' प्रयोग भाषामां प्रचलित छे. तेमां पण 'पाडवो' मां ‘पत्' धातु न समझतां उक्त 'पाट' धातु समझवानो छे. . 'कञ्चुक' ऊपरथी कञ्चुकिका. अंदरना 'क' ने बदले स्वार्थिक 'ल' लागतां कञ्चुलिका–कञ्चुलिआ–कांचली-कांचळी. __'तन्' एटले ताण-विस्तारQ. सं० तानयति. प्रा० ताणेइ. ते जपरथी 'ताडेइ' ताणे छे. __'कचोला' नुं मूळ देश्य 'कचोलय' मां छे. आ शब्द घणो प्राचीन छे. आठमा सैकामां रचायेली कुवलयमालाना आरंभमां जेनी नोंध छे एवा __'पउर्मचरिय' जेवा प्राचीन ग्रंथमां पण ए शब्दनो कचोळू ३ उल्लेख छे. भाषामां तेने माटे ‘कचोळु' शब्द प्रसिद्ध छे. अर्थ जोतां एवो संभव छे के काच + पुटक–काचपुटक ३०९ जुओ ‘कचोलय' शब्द-पाइअसद्द० । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति काचपुडय-काचपुलय–काचउलय-काचोलय-कचोलय. ए रीते ते शब्द आव्यो होय. बारमा सैकाना सुपासनाहचरियमां पण ते शब्द वपरायेलो छे. “ कच्चोलयमुहमेत्त” (सुपास० च० पृ० २०१० ६५) आ जोतां आपणे त्यां काचनां पात्रोनी उत्पत्तिनो इतिहास विशेष प्राचीन जणाय छे. 'गालिमसूरा'नुं मूळ, देश्य — गल्लमसूरिका' शब्दमां छे. 'गल्लम . सूरिया' शब्द जैनसूत्र-जीतकल्पमां वपरायो छे. गालमसूरियु ' प्रस्तुत ‘गालिमसूरा' नुं मूळ 'गलमसूरिया' शब्द छे. अथवा 'गाल' माटे ‘गल' अने 'मसूरिका' माटे 'मसृणिका' ने योजी शकाय. 'मसृण' एटले 'कोमळ.' गाल माटे जे कोमळ होय ते 'गालमसूरियु' ए रीते तेनी व्युत्पत्ति साधी शकाय. 'गल्ल' अने 'मसृण' ए बन्ने शब्दोने उपर्युक्त अर्थमां हेमचंद्रे पोताना कोशमां नोंघेला छे. ( अभिधान० कां० ३, श्लो २४६ तथा कां० ३, श्लो० ७७ ). चालु भाषामां ते माटे 'गालमसूरियु' शब्द सुप्रसिद्ध छे. __कूवडिय मूळ कूप स्त्री-कूपिका. प्रा० कूविया, 'ड' लागतां 'कूवडिया' ते ऊपरथी 'कूवडिय' एटले कूई. 'माणीजइ' एटले माणवू–भोगव_-अनुभव. देशीशब्दसंग्रहमां (वर्ग ६, गा० १३०) 'अनुभूत' अर्थमां माणवू 'माणिअ' शब्द नोंघेलो छे. एथी एम मालूम पडे छे के 'अनुभव' अर्थवाळो 'माण' धातु देश्य छे. प्रस्तुत 'माणीजइ' क्रियापद आ ‘माण' ऊपरथी लाववानुं छे अने भाषामा प्रचलित 'माणदुं' पद पण ए 'माण' मूलक छे. ' स्तंभ' ऊपरथी ‘खंभ' (८-२-८) खंभ एटले खांभी-थांभलो. ३१० जुओ 'गलमसूरिया' शब्द-पाइअसद्द० । ___ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४२३ ' हिंडोला 'नुं मूळ देश्यपद 'हिण्डोलक' छे. "प्रेङ्खा हिण्डोलकाख्यः " ( अभिधान कां० ३, श्लो० ४२२ ) कहीने आचार्य हेमचंद्र 'हिण्डोलक'ने 'प्रेङ्खा' नो पर्याय कहे छे. ' हिण्डोलक' नो अर्थ भाषाप्रसिद्ध 'हिंडोळो' छे. ' घाघरिं ' नुं मूळपद देश्य ' घग्घर' छे. ' घग्घर' एटले घाघरो . " घग्घरं जघनस्थवस्त्रभेदः " ( देशी० व० २, गा० १०७ ) " मयमयंत' के 'मघमघंत' ए बन्ने पर्याय शब्दो छे. 'सुगंधना प्रसरण' अर्थमां ए पद वपराय छे. 'गंधनो प्रसार' ए अर्थे वपराता ' प्रसर्' धातुना पर्याय तरीके ' महमह' धातुने हेमचंद्रे आपेलो छे. ( ८ -४ -७८ ) " महमहइ मालइ . " भाषामा प्रचलित ' मघमघवुं ' नुं मूळ उक्त 'महमह' छे. सं० - आहन्ति प्रा० - आहणए - आघात करे छे. सीधुं प्राकृत जेवुं पद पण भाषामां आवी गयुं छे. C 'खड्ग' ऊपरथी ' खडग्ग' ते ऊपरथी तृतीयांत खडग्गिण-खड्गवडे. मूं (मज्झ - मुज-मूं ) + सिउ-मारी साथे. " 'मलियउ 'मसळी नाख्यो. सं० ' मृद 'ना पर्याय तरीके हेमचंद्र ਸਲ ' धातुने नोंधे छे ( ८-४-१२६ ). ए ' मल' ऊपरथी 'मलिय ' अने 'क' लगाडवाथी 'मलियउ .' 'अनेरा कण्हर' एटले बीजानी कने-पासे. आमांना ' कण्हड़' शब्दने केटलाक 'कर्ण' ऊपरथी लावे छे. परंतु ' कर्ण 'नो कने ' पासे ' अर्थ प्रतीत नथी, त्यारे ' कण्ठ' शब्द 'पासे 'ना अर्थने स्पष्टपणे बतावे छे. "कण्ठो ध्वनौ संनिधाने ग्रीवायाम्" अनेकार्थ० कां० २, श्लो० १०१ ) ए जोतां ' पासे' अर्थवाळा Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'कण्ठे' ऊपरथी · कण्णे' थईने ‘कण्हइ' आवी शके एम छे. ' कूवाने काठे' वगैरे वाक्योमां तो सीधो 'कंठ' शब्द 'पासे' अर्थमां वपराय पण छे. — ओछउ' एटले ओछो. तुच्छ-उच्छ. अने ए ऊपरथी · ओछउ' शब्द आव्यो होय अथवा ए कोई देश्य शब्द होय. 'न्यूनता'ना अर्थमां प्रश्नव्याकरण सूत्रमा उच्छत्त' (तुच्छत्व ) शब्दने वापरेलो छे एटले 'तुच्छक' ऊपरथी 'ओछउ' लाववानी कल्पना बंध बेसे एवी छे. ___ 'कने कानो का' मां जे अर्थमां ‘कानो' शब्द छे ते अर्थमां प्रस्तुत 'कानइ' पद वपरायुं छे अने तेनुं मूळ 'कर्ण' छे. 'कर्ण' नो अहीं लाक्षणिक अर्थ लेवानो छे. 'मात्रा' नो अर्थ 'कानो मात्रा' प्रयोगमांना ‘मात्रा' प्रमाणे समझवानो छे. मात्र, मात्रि बन्नेनुं मूळ 'मात्रा' ' शब्द छे. ' मात्रा' नो प्रस्तुत अर्थ हेमचंद्र पोताना कोशमां पण आपे छे. “मात्रा परिच्छदे-अक्षरावयवे" (अनेकार्थक कां० २ श्लो० ४३७ )अर्थात् मात्रा एटले अक्षरनो अवयव-भाग. ___'देववन्दन , मां बे 'व' साथे आववाथी एक 'व' लोप पाम्यो छे एथी 'चैत्यवन्दन–चेइअवंदण–चीवंदण' नी पेठे 'देवंदण' पद नीपज्युं छे. देवकुल देवउल-देउल वगेरेमां आ जातनो लोप छे अने तेने हेमचंद्रे बतावेलो पण छे :-(८-१-२६८-२७१) संव० १३४० नुं उच्चारण ' मात्रिं' छे अने ए ज अर्थमां १३६९ नुं उच्चारण ‘मात्र' छे. ए ज रीते १३४० नुं उच्चारण (संपुटकम् ) 'सांपुडं, (संपुटिका ) 'सांपुडी' छे, तेने बदले १३६९ नुं उच्चारण 'सांपडासांपडी' छे. जे चालु उच्चारणनी निकटनुं छे. ३११ जुओ 'उच्छ' पुं० [दे०]-पाइअसद्द० । Hel Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४२५. कमली - पुस्तकना रक्षण माटे वपराय छे. ए दररोज वांचवाना पुस्तकने लपेटवाना खपमां आवे छे. कमळी के कबळीकवळी कवळी बन्ने पर्याय छे. कमळी, वांसनी पातळी सळीओ अथवा पातळी चीपोने एक पछी एक गूंथवाथी बने छे. श्रीमान पुण्यविजयजीना कथन मुजब 'कम्बिकावली' के 'कम्ब्याली' (कम्बी + आली ) ऊपरथी ' कमली' शब्द आव्यो छे. मारी समझ प्रमाणे मूळ "कैम्बिका' छे. 'क' ने बदले स्वार्थिक 'ल' लागतां कम्बिकाकम्बकी- कम्बली ऊपरथी 'कमली' पद आवेलुं छे. ' कमली 'मां 'ल' लावा माटे ' आवली ' के ' आली 'नी कल्पना करवा करतां ' वीजळी' नी जेम स्वार्थिक ' ल 'नी कल्पनामां विशेष लाघव छे. अहीं जे ' अतिचार'ना ऊतारा आप्या छे ते खास कोई विशिष्ट ग्रंथ नथी, परंतु जैन परम्परामां नियत पाक्षिक सांध्यकर्म माटे स्वदोषालोचमनी जे क्रियाओ योजायेली छे, ते क्रियाओ करतां श्रावक-श्राविकाओए ए पाठोने बोलवाना होय छे. एथी ए अतिचारोनी भाषा तत्कालीन उच्चारण पद्धतिने पण समझावी शके एम छे. जेमके ' अंग' ने बदले ' आंग ' ' गया' ने बदले 'ग्या ' ' सज्झाय ' ने बदले 'सज्याइ' ' पठितम्' ऊपरथी 'पढियं' अने तेने बदले 'पढ्यं' चालु ' पढयुं'. ' विघ्न'ने बदले ' विघन. ' ' वैरी'ने स्थाने 'वयरी. ' 6 पराया ' ( परकीय) ने बदले 'पिराया' इत्यादि. जे प्रयोगो तळपदा छे तेमने तळपदी भाषामा लखनारा पुरातन कविओए पोतानी कवितामां एवा ज मूक्या छे अने वर्तमान कविओ पण एव पदोने प्रयोजे छे. ३१२ रामईयो कबिआओ " - " रिष्टरत्नमय्यौ कम्बिके पृष्ठके इति भावः रायसेन ० ( गू० ग्रं० ) पृ० २३७ पं० १ । "" "" Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ' सारसंभाल ' शब्द ' वारंवार स्मरण 'ना भावने सूचवे छे. तेमां आवेलां 'सार' ' अने ' संभाल' ए बन्ने पदो सारसंभाळ 'स्मरण' ना अर्थने बतावे छे. 'स्मृ' ऊपरथी 'स्मार ' अने ते द्वारा 'सार' तथा ' संस्मृ ' ऊपरथी ' संस्मार ' अने ते द्वारा ' संम्हार संभाल ' ए रीते ' सारसंभाल ' पदनी उपपत्ति छे. 'पंचत्तालीस ' एटले 'पीस्ताळीश.' मूळपद ' पञ्च + चत्वारिंशत् ' छे. ते ऊपरथी ‘पंच + चत्तालीसा' बे 'च' एक साथे आववाथी बोलवामां अगवड आवे छे माटे उच्चारण करतां एक 'च' आपोआप चाल्यो गयो, एटले प्रस्तुत ' पंचत्तालीस' पद आव्युं. ए ज रीते पञ्च + दश - प्रा० पणदह - पण्णरह अने ए ऊपरथी 'पन्नर' के 'पंदर' " 'आ' एवा अर्थमा 'उ' शब्दनो प्रयोग छे. हेमचंद्र 'आ' अर्थे " आय' शब्दनो निर्देश करे छे ( ८-४-३६५ ) प्रस्तुत 'उ' अने उक्त 'आय' ए बन्ने समान भासे छे: आय - आयउ - उ. 'हमणाने' एवा अर्थमां ' हिवडातणइ' पद वपरायुं छे. 'हिवडा' ना मूळमां 'अधुना' पद छे. तेने संबंधसूचक 'तण' अने त्यार बाद ' सप्तमी 'नो 'इ' लागवाथी 'हिवडा - तणइ' पद आवेलुं छे. 'दीर्घ' ना अर्थमां 'भारी' शब्दनो प्रयोग छे. चालु भाषामा पण 'दीर्घ' ने माटे 'भारे' प्रयोग प्रचलित छे. 'भृ' एटले 'धारण करवुं '. जेने धारण करवो पडे ते ' भार' अर्थात् बोझो. दीर्घ उच्चारण करतां उच्चारण करनार भार - बोझो अनुभवे छे, माटे 'दीर्घ' उच्चारणवाळा वर्णो ' भारी' के 'भारे ' कहेवाय छे. ' उत्तान ' - चत्तुं. उत्ताणु " ते ऊपरथी उत्ताणु. उत्तान 'मां' तन्' धातु अने ' उत्' उपसर्ग छे. ' तन् एटले प्रसवुंविस्तरयुं. जेनो विस्तार ऊपर तरफ होय ते उत्तान. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ कूडो चौदमो अने पन्दरमो सैको 'थापणिमोसु' एटले आवेली थापणने चोरी लेवी अर्थात् कोई घरे आवीने थापण मूकी गयुं होय ते ज्यारे पार्छ थापण लेवा आवे त्यारे नामुकर जq तेनुं नाम 'थापणिमोसु'. 'थापणि' पदनी व्युत्पत्ति चर्चाई गई छे. 'मोसु' ना मूळमां ‘मुष्' 'चोर' धातु छे. 'मुष्' ऊपरथी भाववाचक नाम — मोष' अने ते ऊपरथी · मोसु'. कुडउ एटले कूडो-खोटो. कुडी एटले खोटी. मूळ शब्द · कूट' छे. ते ऊपरथी कूटक-कूडय-कूडउ अने स्त्रीलिंगे " कुडी. — कूट' शब्दना अर्थो आपतां हेमचंद्र लखे छे के " माया, दम्भ, अनृत अने तुच्छ वगेरे" ( अनेकार्थसं० कां० २, श्लो० ८३ ) प्रस्तुतमां — कूट' शब्दने — अनृत'-जूटुं-असत्यअर्थनो समझवानो छे. विढाविढि एटले वढवाड के वढवेड. चालु — वढवाड' के ' वढवेड' नुं मूळ — विढाविढि' छे. संस्कृत धातुसंग्रहमा — व्यधंच्–ताडने' (धातु पारा० पृ० १७२) अने वर्धण-छेदन-पूरणयोः वढवाड (धातुपारा० पृ० २५६ ) एवा बे धातुओ छे. 'व्यध्' ऊपरथी 'विध् ' + आविध्-' विधाविध ' ए ऊपरथी के ' व ' ऊपरथी वड + आवड- वडावड्ड' ए ऊपरथी - विढाविढि' के आजनुं वढवेड 'वा — वढवाड' पद आवेलुं छे. ऊपरनी व्युत्पत्तिमां अर्थसंदर्भ अने वर्णपरिवर्तन ए बन्ने दृष्टि समुचितपणे रहेली छे अथवा 'विढाविढि' शब्द देश्य होय. छानउ-छान-कोई न जाणे तेवु. छन्नम्-छन्नकम् छन्नयं-छन्नउंछानउ-छा- ए रीते ए पद आवेलुं छे. 'छन्न' नो धात्वर्थ · ढांकेलं' छे, परंतु अहीं तेनो ते अर्थसंकुचित करी तेने मात्र 'गुप्त' अर्थमां समझवानुं छे. ३१३ ‘उवासगदसाओ ' सूत्रमा 'कूडलेहकरणे' एवो प्रयोग मळे छे. तेमांनो 'कूड' शब्द 'खोटा' अर्थनो छे. Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति __ पाडइ–पाडे-पाडामां-महोल्लामां. मूळ शब्द 'पाटक' छे. तेनी चर्चा आगळ (पृ० ४१०) आवी गई छे. 'तूल' एटले तोलां. 'तुलण-उन्माने' धातु ऊपरथी जे वडे तोल कराय तेवा अर्थमां 'तुला' शब्द आवे छे. प्रस्तुत 'तूल' नुं मूळ पण ए 'तुला' छे. स्वप्नके-सिविणए-सिउणइ-एटले सोणे स्वप्नमां. ए रीते 'सिउणइ' पद आवे छे. 'प्रति' ऊपरथी 'पति' एटले प्रत्ये-तरफ. राडिभेडि-राडभेड-बढवाड. 'राडि'ना मूळमां 'राटि' शब्द छे. रिट परिभाषणे' धातु ऊपरथी ‘राटि' शब्द राडभेड आव्यो छे. परिभाषण एटले कलह, 'राटि' शब्दने हेमचंद्र 'युद्ध' अर्थमां जणावे छे. ( अभिधान० कां० ३, श्लो० ४६२-"राटिः समिति-संगरौ) देशीशब्दसंग्रहमां (व० ७ गा० ४) पण ए ज अर्थमां 'राडि' शब्दने नोंघेलो छे. 'भेडि' शब्द उक्त रीते 'व्यध् ' ऊपरथी - विढि' नीपजावी ते ऊपरथी लाववो जोईए अथवा ‘भिद्' धातु ऊपरथी निष्पन्न थता 'भिदि' ऊपरथी 'भेडि' शब्द लाववो जोईए. चालु भाषामां — गाळभेळ' मां जे — भेळ' पद छे तेनो संबंध प्रस्तुत · भेडि' साथे छे ए ध्यानमा रहे. विराइउं–ठम्यु. विप्रतारितकम्-विप्पतारिअयं-विपतारिअयं-विआरिअयं ( व्यत्यय ) विराइअं-विराइउं ए रीते ‘विराइउं' पदने लाववानुं छे. पाडोसि-पाडोशमां. 'प्रति + वस्' धातुमां प्रस्तुत 'पाडोसि' शब्दनुं मूळ छे. प्रतिवासे–प्रतिवासके–पडिवासएपाडोश पाडिवसए-पाडिउसए–पाडोसए-पाडोसि. ' प्रवचनम्'नुं प्राकृत 'पावयणं' 'प्ररोहः 'नुं 'पारोहो' वगैरे (८-१-४४) ___ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४२९ नीपजे छे, अने “घवृद्धेर्वा" (८-१-६८) प्रमाणे ' वास', ' वस' पण बने छे. तेनी पेठे अहीं 'प्रतिवास'- ' पाडिवस' समझवानुं छे. ___ 'मापि' शब्द त्रीजीनुं एकवचन छे. मापि–माप वडे. 'मापित' शब्दने हेमचंद्र नोंधे छे. (देशी० वर्ग ८ गा० ४८) " 'मा' माने' धातुने प्रेरणासूचक 'प' लगाडी ते द्वारा भाववाचक के करणवाचक ' माप' पद आवे छे. ते ऊपरथी मापेन-मापि. अहीं 'प'नो प्रेरणासूचक मूळ अर्थ तिरोहित थयेलो छे. 'माप' एटले 'माप करवू' अथवा जे वडे माप कराय ते. अहीं — माप'ने करणार्थक समझवानुं छे. __वोसिरावउ-व्युत्सृज्' ऊपरथी प्रा० बोसिर (८-४-२२९) तेनुं प्रेरक — वोसिराविओ' ते ऊपरथी 'वोसिरावउ' ऊखल-सं० उदूखल-प्रा० उऊखल-ओक्खल-(-८-१-१७१ हे०)-ऊखल. “ उदूखलम्-कण्डनभाण्डम् "-(अभिधान० कां० ४, श्लो० ८२) कण्डनभाण्ड एटले खांडवानुं साधन, आ 'उदूखल' शब्द देश्य जणाय छे. 'वेचि' एटले खर्च करी. 'खर्च करवा' अर्थमां हेमचन्द्र ‘वेच्चइ' (८-४-४१९) पद आपे छे. प्रस्तुत · वेचि' ए वेचवू 3 वेच्चइ 'मां वपरायेला 'वेच्च' धातुन संबंधक भूतकृदंत छे. 'वेच्चइ' नो अर्थ करतां दोधकवृत्तिमां — व्ययति' पद मूक्युं छे. 'वि' साथेना ‘क्री' धातुना विक्री' प्रा० 'विक्की' ऊपरथी 'क'नो 'च' थई “वेच्चइ' पदनी निष्पत्ति छे. भाषामां : वि + क्री'थी नीपजेलो 'विक्रय-बकरो-वेचाण' शब्द सुप्रतीत छे. प्रस्तुतमा 'वापरतुं''खर्च करवो' अर्थ माटे लक्षणानो आश्रय लेवो पडशे. ३१४ भाषामा 'वेचवू' ने बदले 'वेकवू ' क्रियापद पण प्रचलित छे. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्कान्ति १४७ चौदमी सदीना उक्त शब्दोनो परिचय आप्या पछी चौदमी सदीना ' संग्रामसिंह ' नामना एक विद्वाने बनावेला ' बालशिक्षा' नामना ग्रंथ विशे थोडुं जणाववुं प्रस्तुत छे. संग्रामसिंह जाते श्रीमालवंशनो छे. तेमना पितानुं नाम ठक्कर कूरसी अने पितामहनुं नाम साढाक ग्रंथनी प्रशस्तिमां रच्या साल १३३६ जणावेली छे एटले संग्रामसिंहनो चौदमो सैको अफर छे. ए ग्रंथकारे पोताना समयना संस्कृत भणनाराओ माटे ए ग्रंथ लख्यो छे, तेमां साथे साथे ग्रंथनी समझुती माटे ते समयनी भाषा पण वापरी छे. अने संस्कृत प्रयोगोने समझाववा तुलनात्मक रीते तत्कालीन शब्दप्रयोगोने योजेला छे एटले ते ग्रंथमांना केटलाक प्रयोगो चौदमी सदीनी भाषा विशे विशेष स्पष्ट प्रकाश नाखे एवा छे माटे ज हवे ते ग्रंथना प्रयोगोनो विचार करीश. ४३० चौदमा शतक ना संग्रामसिंहनी बालशिक्षाना केटलाक प्रयोगो ३१५ वर्तमानकाळ- कर्तरिप्रयोगने समझाववा ग्रंथकार, नीचेनां उदाहरणो आपे छे-करई, लियई, दियई. चालु भाषा - करे छे, ले छे, दे छे. कर्मणि प्रयोग कीजई (कराय छे ), दीजई (देवाय छे ), लीजई (लेवाय छे ). कर्मणिप्रयोगने ग्रंथकार वक्रोक्ति कहे छे. ( पृ० २६६ ) विध्यर्थ - करिजे ( करजे ), लेजे, देजे. आज्ञार्थ - करि (कर्य -कर), लई (ले), दई (दे ). ३१५ “ सतां प्रसादः स हि यद् मयाऽपि श्रीमालवंश्येन कृतिः कृतेयम् । साढाकभूठक्कर कूरसिंहपुत्रेण षट् - त्रि - त्रियुतैकवर्षे " ॥ - ( पुरातत्त्व पु० ३, अंक १, पृ० ४१ ) Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४३१ आज्ञार्थ-विध्यर्थ कर्मणि-कीजउ (कराओ), दीजउ (देवाओ), लीजउ (लेवाओ). भूतकाळ-कीधउं (कीबूं-कर्यु ), दीधउं (दीर्छ ), लीधउं (लीधुं) कालि कीधउं ( काले कीg-शस्तन भूत ) आजु कीधउं (आजे कीgअद्यतन भूत). क्रियातिपत्ति-जई करत-(जो करत ), जई लेत ( जो लेत), जई देत ( जो देत). __ क्रियाति० कर्मणि-जई कीजत (जो करात ), लीजत ( लेवात ), दीजत (देवात). भविष्यकाळ-करिसिई ( करशे), लेसिई (लेशे), देसिई (देशे), नही करई (नहीं करे ), नही लियई (नहीं ल्ये ), नही दियई (नहीं थे). कर्मणि भविष्यकाळ-कीजिसिई (कराशे), लीजिसिई (लेवाशे ), दिजिसिई (देवाशे), नही कीजई ( नहीं कराय ), नही लीजई ( नहीं लेवाय ). श्वस्तन भविष्य-कालि करिसई ( काले करशे). आशीर्वाद-शत्रु जिणिसई (शत्रुने जीतशे), वर्ष शयु (सउ) जीविसई (वर्ष सो जीवशे). केटलांक कृदंतो कर्तरि वर्तमान कृदंत-करतउ (करतो), लेतउ (लेतो), देतउ (देतो). कर्मणि-,, ,-कीजतउ (करातो), लीजतउ (लेवातो), दीजतउ (देवातो.) Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति कर्तासूचक करणाहरु (करणहार-करनार), लेणाहरु (लेवणहार लेनार ), देणाहरु (देवणहार-देनार ), भूतकृदंत-कीधउं ( कीधुं-कर्यु), दीधउं (दीधु ), लीधउं ( लीधुं.) संबंधकभूतकृदंत-करीउ (करी-करीने ), लेउ (लई-लईने ). देउ (दई-दईने ). हेत्वर्थकृदंत-करिवा (करवा-करवा माटे ), लेवा (लेवा ), देवा (देवा ), करी जाणुं (करवा माटे जाणुं). भाषामां — लखी जाणुं' 'बोली जाणुं' वगैरे प्रयोगो सुप्रतीत छे. पढी सकउ ( भणवा माटे शकुं-शक्तिवाळो छु–भणी शकुं छु). विध्यर्थ कृदंत-करिवउ (करवं-करवा जेवू), लेवउ (लेवू लेवा जेवू), देवउ ( देवु देवा जेवू ). ऊपर जणावेलां उदाहरणोमां ते काळना कर्तरिप्रयोगो अने चालु कर्तरिप्रयोगोमां नहीं जेवं अंतर छे. फक्त कर्मणिप्रयोगोमां विशेष भेद छे. ते समये पण भूतकाळ माटे कर्मणिप्रयोगनो उपयोग थतो, आजे पण तेम ज छे. तेथी भूतकाळना कर्मणिप्रयोग साथे भेद नथी ए ध्यानमां रहे. ऊपर जणावेलां 'करई ' वगेरे प्रयोगोमां अंत्य 'ई' दीर्घ छे. तेनुं कारण अंत्यनुं उच्चारण दीर्घ थतुं होय एम लागे छे परंतु हवे पछी आवनारां क्रियापदोनां पदो जोतां अंते दीर्घ उच्चारणनी पण अनियतता जणाय छे. संव० १३३० अने १३६९ मां लखवामां आवेला अतिचारना ऊतारामां — सर्दू मृषावादु', 'सर्व लोभु 'वगैरे प्रयोगोमां ‘सवू' नो 'ऊ' दीर्घ छे अने–वादु, लोभु वगैरेनो अंत्य — उ' हस्व छे एटले जोडणीनी नियतता कळाती नथी. ऊपर जणावेला संबंधक, हेत्वर्थ अने विध्यर्थ कृदंतने लागेला प्रत्ययोनी चर्चा आगळ आवी गई छे. Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४३३ १४८ हवे संग्रामसिंहे ते समयनी भाषानां जे केटलांक नामो, अव्ययो, क्रियापदो वगैरे आप्यां छे तेमांथी अमुक पदोनी अहीं वर्तमान चालु शब्दो साथे तुलना करी आ चौदमा सैकानी भाषा विशेर्नु विवेचन पूरुं करीश. आजु (आज) वलीउ (वळीने) परम ( परम-परमदिवस) एतलु (एटलु) अजूणर्नु (आजर्नु) जेतलुं (जेटलु) कालूणउं (कालूनुं-काल) तेतलु ( तेटलु) हिवडां ( हमणां) केतलुं (केटलु) नही त ( नहीं तो) धुरिलं (धुर--पहेलु) लिगई ( लगी–कालथी लईने अहुणउ ( ओणर्नु ) ___अथवा अहींथी-अहीं लगी) जानावासउ ( जानीवासो) यिम (जेम) अउडक (ओडक-'शाह' वगैरे) तिम (तेम) चांद्रिणु (चांदरj) एकवार ( एकवार) वादलुं ( वादळु) सवईवार (सवेवार-सर्ववार-बधीवार) फुईहाईउ (फईनुं) जहियं (जई-ज्यारे) कऊसीङ (कोशीशुं-गढ- कांगरुं) तहिंयं (तई-त्यारे) छेतरिउ (छेतर्यो) कीहां (क्यां-कहीं-कई) भोगला ( भोगळ) जीहां (ज्यां-जहीं-जई) झटकई ( झटके-झट) तीहां ( त्यां-तहीं-तई) जूउ (जु,) सगलइ ( सघळे सर्वत्र) ताहरु (तारु) अम्हारउं ( अमारु) माहरउं (माएं) सरीषउ ( सरखो) तुम्हारं (तमारु) २८ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अम्ह सरीषउ ( अम सरखो) आहरजाहर (आवजाव-अवरजवर) तू सरीषउ (तुं सरखो) मेराइउ ( मेरायु) मू सरीषउ (हुं सरखो-मुं सरखो) उपवासीउ ( उपवासीयो-उपवासी) बाहिरि ( बाहिर–बहार) मसिहाईउ (मसियाइ-माशीनुं ) छहिलङ (छेलु) बलबलीउ (वळवळीयो-हल हल पुरु ( पोर-गयुं वर्ष) करनार-बोलबोल करनार ) उसीआलं ( ओशीयालु) कांकसी ( कांचकी) भूराइ (भूराइ–भडकती) पाणउ (खाणियो) द्रडबडाहिउ ( दबडाव्यो) ओलाणि ( ओलवाण) आरंभई (आरंभे छे) बोलइ (बोले छे) बूझइ (बूझे छे) खाअइ (खाय छे) थोभई (थोमे छे) सीबई (शीखे छे) विचारइ (विचारे छे) कहइ (कहे छे) सोहइ (सोहे छे) आवइ (आवे छे) ऊगइ (ऊगे छे) त्रासइ (त्रासे छे) त्रुटइ (त्रुटे छे) आपइ (आपे छे) राषइ (राखे छे) सांभरइ (सांभरे छे) ऊपजइ (ऊपजे छे) नीपजइ (नीपजे छे) बालइ (बाळे छे) पीअइ (पीए छे) मुलइ ( मोळे छे–शाक मोळे छे) सुहाइ ( सुहाय छे) करडइ ) (करडे छे) काटइ । (काटे छे) वीछलइ ( वींछळे छे ) संधूषा (संधूके छे) चिणइ (चणे छे) ऊजालइ (ऊजाळे छे) चूयइ (चूवे छे) भेटइ (भेटे छे) सेवइ (सेवे छे) Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४३५ नासइ (नासे छे) भावइ-(भावे छे–फावे छे-गमे छे ) जिमइ ( जमे छे) परिणइ-(परणे छे) भीषई (भीखे छे) खण्डु [ खंजु ] हालइ (खंजवाळे छे ) जाणई ( जाणे छे) फिरइ-( फरे छे) विणसइ ( वणसे छे) निरषइ (निरखे छे-नरखे छे) अच्छइ (छे, ऊभो छे, विद्यमान छे, परषइ ( परखे छे) __ बेठो छे) बुहारइ (बोरे छे-वाळे छे) जाइ-(जाय छे) ताणइ ( ताणे छे) निकलइ (नीकळे छे) वीटइ (वींटे छे) आथमइ ( आथमे छे) धूणइ (धूणे छे) हालइ ) ( हाले छे) कलकलइ (ककळे छे) चालइ ) (चाले छे) दिअइ (दे छे) पूजइ (पूगे छे-पूरे छे) ऊडइ (ऊडे छे) वरसइ (वरसे छे) मरदइ ( मरडे छे) घासइ (घासे छे -घसारो खमे छे) वघारइ (वघारे छे) वीनवइ (वीनवे छे) ऊकलइ (ऊकळे छे) नाहइ (नहाय छे) लुहइ (लुए छे-साफ करे छे) वीषरइ ( वीखरे छे) उ [ओ] ढइ ( ओढे छे) वापरइ ( वावरे छे-बापरे छे) मनावइ ( मनावे छे) बांधइ ( बांधे छे) लहइ ( लभते-पामे छे) सूंघई (सूंघे छे ) ढीलइ ( ढीलु-शिथिल-थाय छे) बलइ-(बळे छे) ढांकइ ( ढांके छे) समारइ (समारे छे) छणइ ( छणे छे–छिणे छे) विढइ (वढे छे) आंजइ (आंजे छे) Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सांभळा ( सांभळे छे) ताच्छइ ( तासे छे) लांषइ-( नांखे छे) च्छोलइ (छोले छे) धोअइ (धोवे छे) चाटइ (चाटे छे) पुढइ (पोढे छे) पालटइ (पालटे छे) चूंटइ (चूंटे छे) फटइ ( फटाय छे–फाटे छे) हुअइ ( होय छे) जषेलइ-(ऊखेळे छे) थीजइ (थीजे छे) पल्हालइ-(पलाळे छे) भीजइ (भीजे छे) लेअइ ( नयति-लई जाय छे) वाधइ ( वधे छे) जोअइ ( जोवे छे) सूअइ (सूए छे) षोत्रइ ( खोतरे छे) क्लइ (कळे छे) चोपडइ (चोपडे छे) द्रउडइ (दोडे छे) गूंथइ (गूंथे छे) मीचइ (मींचे छे) बइसइ (बेसे छे) कुरमाइ (करमाय छे) संझोरइ (संझेरो करे छे–दुकान उंजइ ( उंजे छे-उंगे छे) वधावे छे) ऊघडइ (ऊघडे छे) सूजइ (सूजे छे-सोजो आवे छे ) घूदइ ( खूदे छे) चूकइ (चूके छे) धूजइ (धूजे छे) वाजइ ( वजाडाय छे-बाजे छे) काढइ ( काढे छे) खाजइ (खवाय छे-खाय छे) चडइ ( चडे छे) मोकलइ ( मोकले छे) जणाइ ( जणाय छे-जाणे छे) मांजइ (मांजे छे) कराइ (कराय छे–करे छे) लिअइ (गृह्णाति-ले छे ) छूटइ ( छूटे छे) क्षिरइ (खरे छे) वषाणइ ( वखाणे छे) ___ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४३७ छिबइ (छबे छे) परवारइ-(परवारे छे-पार करे छे-पूरं करे छे-भूत० परवार्या–पार पाभ्या-पूरं करीने ऊठ्या) फडफडइ ( फडफड थाय छे) नाथइ ( नाथे छे) ऊपडइ ( ऊपडे छे) नीमटइ (नीमटे छे-निवर्ते छे) चांपइ-चांपे छे ऊलषइ-(ओळखे छे) गंधाअइ-(गंधाय छे) छेकइ (छेदे छे-छेके छे–चेके छे) राचइ (राचे छे-रचाय छे) दाझइ (दझाय छे-दाझे छे) वगेरे १४९ संग्रामसिंहे जणावेला ऊपरना शब्दोथी जोई शकाय एम छे के चौदमा सैकाना पूर्वार्धनी गुजराती भाषा अने चालु गुजराती भाषा वच्चे शाब्दिक अंतर घणुं ओछे छे. भलु, भली, भलं ए त्रण उदाहरण संग्रामसिंह त्रण जातिने समझवा माटे आपे छे. स्त्रीजातिनुं अने नान्यतरजातिनुं रूप तो ते भाषामां अने वीसमा सैकानी भाषामां तद्दन सरखं छे. नरजातिनुं रूप वर्तमानमां भलो' प्रचलित छे. ए उपरांत ते भाषामां क्रियापदो साथे 'छे' उमेरवानी पद्धति नथी जणाती. वळी, ते समयनी भाषानां शब्दो अने क्रियापदोमां ज्यां 'ल' छे, त्यां चालु भाषामां 'ळ' प्रचलित छे. अत्यार सुधीमां तेरमा अने चौदमा सैकानी कृतिओना शब्दो विशे जे विवेचन कर्यु छे अने तेमनी जे यादी ऊपर आपी छे ते ऊपरथी ते शब्दोनुं वलण आपणा तरफनुं स्पष्टपणे मालूम पडे छे, संग्रामसिंहना शब्दोनी सामे में जे काउंसमां हालतुं गुजराती रूप आप्युं छे ते ज तेनो प्रत्यक्ष पुरावो छे. ___ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति १५० आशरे चौदमा सैकाना अंतनी वा पंदरमा सैकाना आरंभनी के त्यार पछीनी जाती एक इस्लामी कविनी कृतिनो परिचय आपी हवे पन्दरमा सैकानी कृतिओ तरफ आपनुं ध्यान खेंचुं छं. ४३८ संदेशक रास सिरिया - सरज्यां काया-कायला-कागडा करकरायंतु-' का का' करे गंगा-गंगा नदी वाडवाड विलग्गा-वळ गेली सुंबिणी - तुंबडी गामगहिल्ली - गामनी घेली गामडानी घेली स्त्री ताली - ताळी दुद्ध-दूध खीरी - खीर कुक्कस - कुशका रब्बडिया-राबडी संदेशक रासना शब्दो -कर्ता - अद्दहमाण [ मुसलमान - अब्दुल रहमान - अब्दुल रहेमान ] कुलि -- कुले - कुळमां रासउ-रास भासीअइ-भाषाय छे - कहेवाय छे सुदवच्छ - सदयवत्सनी कथा नलचरिउ - नलचरित मुक्खु - मूरख अंगुट्ठि - अंगुठे बोलाविउ-बोलाव्यो जाइसि-जाय छे रामायण - रामायण कयवर - कविवर करंतिय - करती - करंती वाडइहिं-वाडे-वाडामां मूलत्थाणु - मूलतान (?) तिह हुंत त्यांथी हउं हुं लेह-लेख खंभाइत्तिहिं - खंभातमां - खंभात तरफ आएसियउ - आदेशित - आदेश पामेलो एय - ए वयण - वेण Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४३९ तुह-तुं सासु-श्वास आइयउ-आव्यो दीहुन्हउ-दीर्घ अने उष्ण हिव हवे गग्गिर-गळगळी चउवेइहि-चतुर्वेदिओ वडे-चोबा- थरहरीअ-थरहरी ___ ओए-चोबाओ वडे रुइवि-रोईने वेउ-वेद बाहडी-बांह फुसवि-पूंछीने-साफ करीने- समाइ-समाय ___ अॅसीने-लुईने जं किं पि–जे काई नयण नेण जंपिन्वउ-जंपवू-कहेवू वजरिउ कह्यु जाइव्बउ–जावु-जवू पहिय-पै-पथिक जिण-जेणे तणु-तन घल्लिआ–घाली-नाखी णामि-नामे अत्थलोहि-अर्थना लोमे जजरिउ-जर्जरित इक्कली-एकली अच्छइ-छे मिल्हीआ-मेली महु-मारो संदेसडउ-संदेशडो णाहु-नाथ तुह-तुं उल्हाव–ओलवq-शांत करवू उत्तावलउ-ऊतावळो गम्मियउ-गमियो-गयो झूरंति-झूरंती-झूरती-खेद करती आयउ-आव्यो भणो-भणो-कहेवू संनेहडउ-संदेश हरि गउ-हरि गयो-लई गयो हउ-हुं तक्खरु-तस्कर-चोर कहणह-कथन माटे-कहेवा माटे बेवि-बेई एकतु ) एक हत्थ-हाथ बलियडइ बलोयामां कहणुं कर्तुं Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति कसु-कोना जाइ-जाय जाउ-जाउं भणो-कहो सरणि-शरणे पिक्खइ-पेखे-जुए [ भाई मधुसूदन मोदीनी पासे 'संदेशकरास'ना आरंभना थोडा भागनी नकल हती, आ शब्दो में तेमाथी ऊतारेला छे. भारतीय विद्याभवननी मुद्रित प्रत अने उक्त नकलमां क्याय क्यांय पाठफेर छे.] १५१ उक्त 'संदेशकरास' के 'संनेहयरीसनी पूर्ण पोथी हजु सुधी 'संदेशक रास'नी हुँ मेळवी शक्यो नथी. ए रासनी गाथाओ अपभ्रंश भाषा एटले ऊगती गुजरातीमां लखायेली छे, ए हकीकत रासनी गाथाओ ज कही आपे छे. रासमांनी ऊगती गुजरातीनो ३१६ प्रस्तुत रासने आचार्यश्री जिनविजयजी भारतीय विद्याभवन (मुंबई) द्वारा प्रकाशित करवाना छे. एना बधा फरमा तेमणे मने वांचवा आप्या छे. ए फरमाओमां मूलरास उपरांत तेनी ऊपर, टिप्पण तथा अवचूरिका पण सामेल छे. आखो रास वांच्या पछी ते विशे अहीं जे जणाव्यु छे ते करतां थोडं विशेष निवेदन करवा नुं छे अने ते संक्षेपमां आ प्रमाणे छः कर्ता-रासकारे रासमां पोतानुं नाम 'अद्दहमाण' (“ तह तणओ कुलकमलो + + + अद्दहमाणपसिद्धो"-गा० ४, पृ. ३) जणावेलुं छे. टिप्पणकारे अने अवचूरिकाकारे ते माटे ‘अब्दल रहमान' शब्द वापर्यो छे. (“ अब्दल रहमान नामा"--टि. “ अब्दल रहमानः अभूत् "-अवचू० पृ० ३) कुल-रासकारे पोताना कुल-वंश-माटे 'कोलिय-कौलिक' शब्द वापर्यो छे. भाषामां जे जातने 'कोळी' कहेवामां आवे छे ते जातसूचक 'कोळी' शब्द अने प्रस्तुत 'कोलिय' ए बने आम तो मळता शब्दो छे; परंतु अर्थदृष्टिए ए बन्ने Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको " < शब्दो एक छे के केम ? ए विचारणीय खरुं. रासना टिप्पणमां ' कोलिय ' शब्द ऊपर कशी नोंध ज नथी त्यारे अवचूरिकामां ( " कौलिकेन तन्तुवायुना " - पृ० ८ ) 'कौलिक' नो अर्थ ' तन्तुवाय' कर्यो छे. तन्तुवाय ' एटले वणकर- - झुलाहो. भारतवर्षना प्रखर क्रान्तिकार भक्तराज श्रीकबीर, उच्चप्रतिभावाळा कवि हता अने धंधे वणकरहता तेम प्रस्तुत रासकार, विशिष्ट प्रतिभावाळो कवि होई धंधे वणकर हतो; ए परिस्थिति भारतवर्षमां नवाई पमाडनारी नथी. अहीं सोनी अखो पण कवि थई गया छे अने प्रायः गमे ते धंधो करवा छतां अहींनुं मानस, प्रतिभारहित रघुं नथी. आरास वांचतां कविनी प्रतिभा विशे शंका पण रहेती नथी. ४४१ देश - रासकार पोताना देश विशे कोई स्पष्ट वात करता नथी; परंतु ( " पच्चाएस पहूओ पुव्वसिद्धो य मिच्छदेसो त्थि " - गा० ३, पृ० २ ) एम कहीने मोघम रीते ' म्लेच्छदेश' ने पोतानो देश जणावे छे अने साथै ऊमेरे छे के ए ' म्लेच्छ देश ' पश्चिम दिशामां आवेलो छे अने प्रधान छे तथा पूर्वकाळथी सुप्रसिद्ध छे. टिप्पनकार तथा अवचूरिकाकार पण आ बाबत आथी वधारे कशुं ज बोलता नथी. प्रस्तुतमां ' म्लेच्छ देश' एवा अस्पष्ट शब्दथी रासकारना देश विशे कशी खास माहिती सांपडती नथी. संभव छे के रासकारना समये ' म्लेच्छ देश' शब्द, कोई विशेष देशनुं नाम होय; परंतु वर्तमानमां तो ए पद, कोई विशेष देश सूचवतुं नथी. < (( पिता -रासकार, पोताना पितानुं नाम ' मीरसेन ' जणावे छे. ( " आरद्दो मीरसेणस्स तह तणओ " - गा० ३-४, पृ० २ - ३ ) ' आरद्दो' ए मीरसेननुं विशेषण छे. अने ए ' आरहो ' पद - मीरसेनना जाति-वंशनुं द्योतक छे. टिप्पनकार अने अवचूरिकाकार बन्ने आरो' ' नो अर्थ ' तन्तुवाय - वणकर ' करे छे. ( " आरद्दो देशीत्वा [त् ] तन्तुवायो मीरसेनाख्यः तस्य मीरस्य मीरसेनस्य तनयः” – पृ० २-३ ) रासकार, वंशपरंपराथी 'वणकर' होय, एम आ ऊपरथी लागे छे. मीरसेन' नाम ऊपरथी एवी पण कल्पना ऊठे छे के 'रासकार अने वर्तमानमां काठियावाडमां वसती शूरवीर जात 'मेर' ए बे बच्चे कांईक संबंध होय, आ बाबत जरूर शोधनीय छे. " " " समय - रासकारे पोताना समय विशे कशी माहिती आपी नथी; परंतु टिप्पनकारे पोतानो समय विक्रम संवत् १४५६ एटले पंदरमा सैकानो मध्यकाल · Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति । स्पष्टपणे जणावेलो छ : (“ श्रीमद्-देवेन्द्रशिष्यः शर-रस-युग-भू-वत्सरे वृत्तिमेताम् । लक्ष्मीचन्द्रः चकार अखिलगुणनिधयः सूरयः सो (शो) धयन्तु "-पृ० ९०) अर्थात् “देवेन्द्रना शिष्य लक्ष्मीचन्द्रे १४५६ ना विक्रम वर्षमां आ वृत्ति बनावी छे. मूळ रास बन्या पछी आ टिप्पन, पचास वर्ष पछी बन्युं होय एवी संभावना करीए तो रासकारनो समय मोडामां मोडो चौदमा शतकनो प्रांतभाग वा पन्दरमा शतकनो प्रारंभ कल्पी शकाय अने बीजुं कोई बाधक वा साधक प्रमाण न मळे त्यांसुधी प्रस्तुतमां रासकारना समय विशे करेली अटकळ असंगत जणाती नथी. अथवा एम पण बनवाजोग छे के रासकार अने टिप्पनकार, ए बन्ने समसमयी पण होय. भाषा-संदेशकरासनी भाषा, चौदमा अने पंदरमा सैकानी अहीं आपेली बीजी कृतिओनी भाषा जेवी ज विशुद्ध अने सरळ ऊगती गुजराती छे. तेमां केटलांक एवां विलक्षण उच्चारणो छे जेने लीधे ज ते, नवा वांचनारने अपरिचित जेवी लागे एवी छे. व्याकरणनी दृष्टीए पण रासनी भाषा अने चौदमा-पंदरमा सैकानी कृतिओनी भाषा-ए बे बच्चे खास अंतर जणातुं नथी, फक्त रासनी भाषा खास लौकिक अने प्रांतिक होई तेमां व्याकरण- तंत्र विशेष ढीलु जणाय छे अने ए ढीलाश ज रासना केटलाक प्रयोगोमां प्रतिबिम्बी रही छे. रासकारे, आ पोतानी कृतिमां केटलाक शब्दो पोताना प्रांतना वापरेला छे, जेमने टिप्पनकारे तथा वृत्तिकारे “देश्य ' तरीके जणावेला छे. तेमांना कोई कोई शब्द फारसी जेवा पण जणाय छे. रासकारे वापरेला विलक्षणध्वनिवाळामांनां अने प्रांतिक शब्दोमांनां केटलांक, उदाहरणरूपे आ नीचे आपुं छु : प्रचलित उच्चारण : रासकार- उच्चारण : '()' आ निशानमा मूकेला शब्दो अर्थसूचक छे धाम पृ० ७७ हाम-(तेज) पल्लंक पृ० ७६ पल्लंघ-(पलंग) पृ० ३८ साइअ-(सांइ-स्वामी ) धूमिण पृ० ७८ धूइण-(धूमाडा वडे) धूविज्जइ पृ० ७७ धूइज्जइ-(धूपाय छे) पउत्त । पृ० ८८ पउक्क-(प्रयुक्त) पजुत सामी Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको पचल्लिर } पृ० ३६ आ निवेसिय पृ० ७७ निवेहिय-(निवेशित) वरिसणेण पृ० ३३ वरिहणेण-(वर्षणवडे) जिम) जिब पृ० ६५ यव -(जेम) बप्पीहिय पृ० ५८ वव्वीहिय-(बपैयाओ वडे) तामिस्स) तामीस पृ० २० तामिच्छ-(अंधकार-काजळ) मम्मह पृ० ३२ मणमत्थ-(मन्मथ-कामदेव) वम्मह) पृ० ५५ पहल्लिर-(हल्या करतुं-हलहल करतुं चंचळ) पृ० ५१ करप्पियइ-(खरपाय छे-कळपाय छेकप्पियइ। कपाय छे-घसाय छे) आउल आकुल | आवल-( आकुल) केयइ । रूपो केतइ पृ० ७६ 'व' केवइ-(केतकि) केतगि श्रुतिवाळां । चाययिहि) चायइहि । चावइहिपृ० ५५ (चातकोवडे) नीचेना रूपोमां रासकार 'ए' नो 'अ' अने 'ऐ' नो 'अय' उच्चार करे छे: (रासकारनां आ उच्चारणो खास ध्यान आपवा जेवां छे अने तेनां आवां उच्चारणोनुं कारण पण शोधवा जेवू छे. फारसी : 'झहर' 'गैर' 'पैगंबर' शब्दोनां आपणां चालु 'झेर' 'गेर'-(गेरसमझ) “पयंगंबर' उच्चारणो अने रासकारनां आ उच्चारणो सरखाववां जेवां छे) रुनयेण पृ० २८ रुनयण-(रुदितकेन-रोवावडे) कहिययेण पृ. ३६ कहिययण-(कथितकेन-कहेवावडे) -रहिययेण पृ. ३६ -रहिययण-(रहितकेन-रहितवडे) शैलजा-सेलजा । पृ० १७ सयलज्ज-(शैलनी जाई-पुत्री-पार्वती) सइलजा नीचेना भाषा-शब्दो पण भाषाना इतिहासनी दृष्टिए समझवा जेवा छ : Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पृ० ८१ पच्छुत्ताणिय-(पस्ताणी) | पृ० ८२ साव] पृ० ८५ सवि -(सर्व-सब) पृ० ४३ सिव) पृ० ८९ वटाउ-(वटेमाणु) पृ. ९० अचिंतिउ-(ओचिंतु) पृ० ७८ इम-(एम) पृ० ७६ फोफल-(पूगफल-सोपारी) पृ० ७१ दीवालिय-(दीवाओनी ओळ पृ० ७१ कुंडवाल-(कुंडाळू वळीने) ___ -दीवाळी (पृ. ६८ तिलक्किवि- पृ. ६६ जलरिल्ल-(जलनो रेलो-प्रवाह) (टीलीने-टीलुं करीने). नामधातुर पृ० ५८ पउदंडउ-(पगदंड-केडी) । पृ० १२ सरलाइवि ( (सरळ थईने-सरळ करीने) पृ० ५७ उल्हवइ-(ओलवे छे) पृ० ५८ मावइ-(मावे छे-माय छे) पृ० ४० बोलियंतो-(बोळातो) पृ० ४४ सुन्नारह-(सोनारनी-सोनीनी) पृ० ७६ उयारइ-(अपवरके-ओरडे) पृ० ७६ विच्छाइया-(बीछाया पृ० ३१ बाहडी-(बाहु-बांय) बिछावेला पृ० ३१ बलियडइ-(बलोयां) "पृ० १२ उत्तावलि-(उतावळ) पृ० २९ मनाइ-(मनाव) रासकारे वापरेला केटलांक अव्ययो:पृ० ३८ किहु-(कशु) पृ० ११ अरु-(ओर) पृ० ३६ कि-(के) पृ० ५१ कइयलग्गि-(क्यां लगी) रासकारे वापरेला केटलाक प्रांतिक शब्दो : पृ. २३ पिंग-(पान खाईने ‘धुंकेला रस' अर्थे आ शब्द वपरायो छे. 'थूक नाखवा'ना पात्रनुं नाम 'पीकदान' प्रतीत छे. ए 'पीकदान' नो 'पीक' अने प्रस्तुत 'पिंग' ए बन्ने सरखां जणाय छे. मारी स्मृति प्रमा। 'थूक' माटे वपरातो 'पीक' शब्द फारसी छे.) पृ० २३ चंबा-(चंपल-जोडा. सं० चर्म-प्रा०-चम्म. प्रस्तुत 'चंबा' नो संबंध 'चम्म' शब्द साथे होई शके. अमारी शेठ लालभाई दलपतभाई आर्ट्स कॉलेजना पठाणे कहेलं के पंजाबमां Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको केटलेक ठेकाणे 'जोडा' अर्थ माटे 'चंबा' शब्द वपराय छे.) पृ० ११ लक्क-(लंक-कटी-कड-केड. स्त्रीने 'सिंहलंकी' कहेवामां आवे छे. 'सिंहलंकी' एटले सिंह जेवी पातळी कडवाळी. आ माटे नीचेना संवादो मळ्या छे :-- " सीहलालंकीनो वर ऊतर्यो वाडीए रे हुं तो शेने रे मसे जोवा जाउं रे” ! (मुखगीत सौ० अजवाळी पंडित) " लोलागळ लांकाळ गूंज छ तुं मोदळने गढे, (त्यां तो) सिंगळदीप सोंढाळ कंपवा लागे कवटाउत !”– (रा० मेघाणीजी-सोरठी बहारवटीआ भाग २, आ० ४, पृ० २०६) “ जोर इतनो कीयो के लंक लचकी गई"- (रा० तोगाभाई गीगाभाई) रा० मेघाणीजीनी 'रढीआळी रात' भा० २, पृ० १२५ आ० ४, गीत ९७, तथा 'सोरठी गीतकथाओ' पृ० १२, दुहो २९, समस्या १ ली-ए बने स्थळे पण 'लंक' शब्द 'कटी' अर्थमां वपरायेलो छे. __ मारा मित्र पं० हसराजजी पंजाबी जैन, एम. ए. ( अध्यापक गुजरात विद्यापीठ) कहे छे के पंजाबी भाषामा 'कटी' अर्थ माटे 'लक' शब्दनो व्यवहार छे.) . प० २३ झसुर-( तांबूल-तंबोल-नागरवेलर्नु पान. आ शब्दने देशी शब्दसंग्रहमां आचार्य हेमचंद्रे नोंघेलो छ:-" झसुरं तंबोल-ऽत्थेसु" गा० ६१, वर्ग ३ " झसुरम् ताम्बूलम् अर्थश्च ” अर्थात् 'झसुर ' एटले तबोल अने धन” पृ० ५५ झंखरु । -('डुडुयालक' अथवा 'डंडयालक' नामनो एक पृ० ७८ झखडु खास प्रकारनो पवन छे, जे वाय छे त्यारे विरहिणी स्त्रीओने त्रास थाय छे.-अवचूरिका तथा टिप्पनक) आ 'डुडुयालक ' वा 'डुंडयालक' पवन विशे बीजी कशी माहिती नथी. पृ० २ आरद्द-(तन्तुवाय-वणकर) पृ० ३५ पडिल्ली-(अधिक) पृ० ८१ उवाडयणि-(गर्दभी-गधेडी) Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पृ० ७९ ढंखर-(झांखरूं-सूकुं के बळी गयेलं झाड-ठुठं. देशीसंग्रहमां हेमचंद्रे 'सूका झाड' अर्थनो 'झंखर' शब्द आपेलो छे: वर्ग ३, गाथा ५४) पृ० ६८ सोरंड-(क्रीडाभाजन ) पृ० ६५ अरमणि-(करवत) पृ० ३९ वरक्किय-(पटी-कपडं-बूरखो ? " लइवि वरक्किय ससिसउन्नु फंसहि वयणु" गा० ९८, पृ. ३९ अर्थात्" “वरकिय' ने लईने-दूर करीने-चंद्र जेवा संपूर्ण मुखने साफ कर" आ अर्थ जोतां 'वरक्किय' शब्दनो संबंध 'बूरखा' साथे कदाच होय. टिप्पनकारे “वरकी पटि (टी)” अने अवचूरिकाकारे 'वरक्की' ने बदले “वराकी पटीं" एम कहेलं छे. रासकारे 'छे' अर्थनो द्योतक धातु, आ प्रमाणे वापर्यो छे : पृ० ६८ अच्छिहि-(छे) पृ० १५ आहि-(छे, हे के है अथवा आहे ) पृ० ३१ अच्छउं-(छु) तादर्थ्य अर्थ माटे-चतुर्थीना अर्थ माटे रासकारे (“ नहु रहइ बुहा कुकवित्तरेसि"-गा. २१, पृ. ९) 'रेसि' निपातने पण वापरेलो छे. जे विशे आगळ कहेवाई गयुं छे. आ प्रमाणे रासनी भाषानो संक्षिप्त परिचय कराववा प्रस्तुत आ थोडं निवेदन कर्यु छे. रासनी वस्तु-आ विशे भाषणमा जणावेलुं छे. विशेषमा जणाववानुं के रासनी नायिका 'विजयनगर-विक्रमपुर-बीकानेर' नी छे. संदेशवाहक 'सामोरु' के 'सामोर' जेनुं बीजुं नाम 'मूलत्थाण' छे त्यांथी पोताना मालिकनो लेख लई खंभात तरफ जाय छे. नायिकानो पति खंभातमा कमावा गयो छे, आ संदेशवाहकने खंभात जतो जाणी नायिका तेने पोताना पतिने आपवानो संदेशो पहोंचाडवा कहे छे. 'खंभात' माटे मूळमां ‘खंभाइत्त' शब्द वपरायेलो छे. मूलकारे पोते 'मूलत्थाण' नो परिचय आपतां कर्तुं छे के (“ तवणतित्थु चाउद्दिसि मियच्छि ! वखाणियइ" -गा०६५, पृ० २६) अर्थात् “ज्यां सूर्यनो कुंड-सूर्यनुं प्रसिद्ध तीर्थ-छे ते Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ नामो, क्रियापदोबाओ अहीं नौकरी छ. चौदमा सै चौदमो अने पन्दरमो सैको परिचय मळे माटे तेमांनी केटलीक गाथाओ अहीं नोंधेली छे. अने तेमांथी लीधेलां नामो, क्रियापदो वगेरेनी सूची पण ऊपर आपेली छे. चौदमा सैकाना बीजा बे नमूना अहीं आप्या छे, तेनी साथे आ 'रासक'नी भाषानो सुमेळ छे, अने रासकमां वपरायेलां नामो वगैरे जोतां तेनुं वलण स्पष्टपणे अद्यतन गुजराती तरफ छे, एम जणाया विना रहेतुं नथी. रासकनी बीजी खास विशेषता तो ए छे के तेनो कर्ता एक मुसलमान पंडित छे. कर्तानुं नाम ' अद्दहमाण' छे. तेना पितार्नु 'संदेशकरास' ना नाम मीरसेन' छे. पोताना देश- विशेष नाम कानो परिचय " तेणे जणाव्युं नथी. 'उदाहरणरूप एवो पूर्वप्रसिद्ध 'म्लेच्छ देश' रासकर्तानी निवासभूमि छे' एम तेणे मोघम जणाव्युं छे. रासनी वस्तु 'मेघदूत'नी वस्तु जेवी छे. एक पथिक मूलत्थाणमूलतान ? थी खंभात सुधी प्रवास करे छे. बच्चे तेने एक विरहिणी 'मूलत्थाण' नगर जगतमा चारेकोर सुप्रसिद्ध छे.” 'सामोरपुर 'नुं बीजुं नाम 'मूलत्थाण' छे. आमां जणावेलं 'सामोरपुर' क्या आव्यु ? ए कशुं मारा जाण्यामां नथी; परंतु मूलत्थाण-मूलस्थान अने मूलतान ए बधां सरखां पदो, कोई एक ज नगरनां सूचक छे के भिन्न भिन्न नगरनां ? ए प्रश्ननुं तत्काल तो समाधान थई शके नहीं; परंतु शब्दसाम्य जोतां कोई एने 'मूलतान' जरूर कल्पी शके. रास विशे विशेष-रासमां रासकारे गाथाओ उपरांत विविध छंदो वापरेला छ जेनो परिचय टिप्पनक अने अवचरिकामां आपेलो छे. टिप्पनकार पोते प्रान्ते आपेली प्रशस्तिमां जणावे छे के “ आ रास तेणे 'गाइड' नामना क्षत्रियना मुखथी सांभळ्यो छे तेथी रासना टिप्पनमां असल मूळ रास करतां कांई फेरफार वा भूल रही गई होय तो ते 'गाहड' जाणे, हुं कशुं जाणुं नहीं." टिप्पनकार पोरवाड वंशनो छे. तेना पितानुं नाम 'हालिग' छे, मातानुं नाम 'तिलष्वाः' लखेलं छे पण ते अस्पष्ट छे. कदाच 'तिलाख्या' एटले 'तलकबाई' होय. टिप्पनकार, रुद्रपल्लीय गच्छना जैनसाधु छे. ___ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति स्त्री मळे छे. ते स्त्री, पोतानो अर्थलोभी पति खंभातथी हजु सुधी कमाईने आव्यो नथी माटे झूरे छे, ते पथिक पासे पोताना विरहदुःखनी वराळ काढे छे, अने पोतानो पति शीघ्र पाछो फरे माटे तेनी साथै संदेशो मोकले छे. रासनी आ, प्रधान वस्तु छे. रासकारे रासमाटे 'संदेसय ' अने 'संनेहय' एम बन्ने शब्दो वापरेला छे. पोते ज्यांथी प्रवास आरंभ्यो छे ते 'मूलथाण 'नुं वर्णन रासकारे विशेष प्रकारे कर्युं छे. तेमां खास करीने तेणे जणाव्युं छे के जे नगरमा रहेनारा चतुर्वेदी लोको वेदोने प्रकाशे छे, ज्यां सुदवच्छ एटले ' सदयवत्स' अने नलनुं चरित्र वंचाय छे, क्यांय क्यांय भारतनी कथा कहेवाय छे अने रामायणनी पारायणो चाले छे, क्यांक संगीत, नाटक, रास अने नाचनो प्रचार छे, वगैरे वगैरे. ४४८ १५२ रासकार एक मुसलमान छतां रासमां जे भाषा तेणे वापरी छे ते शुद्ध छे अने तेमां फारसी शब्द घणा विरल छे तथा रासकारनां आरासनुं टिप्पन, हिसार दुर्ग-हिसारगढ - मां अषाड शु० दि० आठम ने बुधवारे लखेलुं छे. आ हिसारगढ ते पंजाबमां आवेलुं वर्तमान ' हिसार 'छे. अवचूरिका पं० नयसमुद्रे लखेली छे. आ संबंधे कोई विशेष वृत्तांत मळतो नथी. नयसमुद्र, अवचूरिकानो कर्ता छे ? के तेनी नकल करनारो ? ए विशे पण कोई हकीकत जडती नथी. रासनी जुदी जुदी प्रतोमां अनेक पाठांतरो छे. जेमांना आवश्यक एवां बधां प्रस्तुत रासमां आपवामां आवेलां छे. प्रस्तुत रासनी अनेक प्रतो उपलब्ध छे. में जाते आ रासनी प्रति पाटण, पूना अने जोधपुरना राजभंडरमां जोयेली छे, ए रीते बीजे पण आ रासनी प्रतो होवानो संभव खरो. रासनुं नाम ' संदेशकरास ' वा 'संनेहयरास, ए बन्ने रीते ग्रंथकारे आपेलुं छे. ए बेमांथी ' संदेशक - रास नाम विशेष उचित छे. , अहीं जे पृष्ठांक के गाथांक आपेला छे ते मारी सामेना फरमाओ प्रमाणे छे. आ फरमाओ वांचवा आपवा माटे आचार्य श्रीजिनविजयजीनो अने भारतीय विद्याभवननो हूं ऋणी छं. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको કચ્છ केटलांक उच्चारणो विशेष विलक्षण छे. वळी, केटलाक तळपदा देश्य शब्दोने पण रासकारे वापरेला छे. रासनी शरूआतमां ते, सृष्टिकर्ता परमेश्वरने याद करे छे अने पछीनी गाथामां पोतानो देश, पिता तथा पोतानुं नाम ए बधांने नोंधी बतावे छे. । प्रस्तुत रासकार, अहीं जणावेली बीजी कृतिओना प्रणेताओनी पेठे तळ गुजरातनो नथी तेथी तेनी भाषाने ऊगती गुजराती कहेवा करतां रासकारना समयनी तेना प्रांतमां चालती ‘देशी भाषा' कहेवी वधारे उचित छे. रासकार पोताना देश तरीके पश्चिममां आवेलो कोई ' म्लेच्छदेश' कहे छे, वळी, ते मूलतान वा सामोरू (शाम्बपुर-श्रीजिन०) थी नीकळे छे अने विजयनगर (विक्रमपुर-बीकानेर नहीं परंतु बीकानेरनी आसपासनुं विक्रमपुर-श्रीजिन० )नी विरहिणी साथे वातचीत करे छे अने ते गुजरातमां ठेठ 'खंभात' सुधी आवे छे. एथी एम जणाय छे के रासकारे वापरेली भाषा ऊगती गुजराती जेवी छे अने ते वर्तमानमां सर्वत्र व्यापेली हिंदी भाषा जेवी ‘देशी भाषा' लागे छे. तेम छतां प्रस्तुत रासकारनी भाषा अहीं जणावेली गुजरातना लेखकोनी चौदमा-पंदरमा सैकाओनी बीजी कृतिओनी भाषा जेवी पण छे एटले ए अर्थमां ज में तेनी भाषाने ऊगती गुजराती कहेली छे; अर्थात् रासनी भाषामाटे अहीं वपरायेला 'ऊगती गुजराती' शब्दनो अर्थ 'ऊगती गुजराती जेवी' समझवानो छे. ___ चौदमा अने पंदरमा सैकानी गुजराती कृतिओना अहीं जे नमूना आपेला छे ते पूरता छे. आ रासनी कृतिना नमूनाथी तेमां भाषासंबंधी के बीजी कशी विशेषता नथी ऊमेराती छतां प्रस्तुत कृति एक इस्लामी कविनी छे ते एनी एक खास विशेषता छे अने जे जमानामां सांप्रदायिक वृत्तिना उछाळावाळो जनसमाज हतो ते जमानानो प्रस्तुत इस्लामी कवि ते संकुचित भावथी तद्दन पर रहेलो जणाय छे. अने रासमां कवि, नगरना वर्णन २९ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति प्रसंगे वेदो, रामायण, महाभारत, नलचरित, सुदवच्छकथा वगैरे हिंदुकथाओने आदरपूर्वक याद करे छे, ए प्रस्तुत कृतिनी बीजी विशेषता छे. १५३ वर्तमान समयना बन्ने परम्पराना बंधुओने, तेमां य साहित्यसर्जकोने प्रस्तुत कविद्वारा एकतानी - उदारभावनी अने शुद्ध मानवतानी प्रेरणा मळे ए पण एक उद्देश आ रासकनो नमूनो आपवानो छे. मने लागे छे के भाषानो, इतिहासनो, भूगोळनो, तत्त्वज्ञाननो के एवा बीजा कोई पण विषयनो विचार, उदार भावनो के उच्च मानवतानो पोषक होवो ज जोईए, एम न होय अने विपरीत परिणाम लावनारो होय तो मारे मन ए विचार, विकाररूप छे एथी ज अहीं सहेज विषयांतर करीने पण मारे आ उदार इस्लामी कविनी कृतिनो नमूनो सादर आपी ते बाबत लखवी पडी छे. अत्यार सुधी मारे विशेषे करीने जैनकृतिओने ज आधारे चलावj पड्युं; पण पन्दरमा सैकाथी जैन अने वैदिक पन्दरमा सैकानी एम बन्ने प्रकारना कविओनी कृतिओ मळवी कृतिओ शरू थाय छे एटले हवे ते बन्ने प्रकारना महानुभाव कविओनी कृतिओनो उपयोग करवानो छु अने तेमां य वैदिक कविओनी कृतिओनो उपयोग वधारे करीश. पन्दरमा सैकानी केटलीक जैन गद्यकृतिओ पण उपलब्ध छे, एटले पधनी साथे गद्यनो पण उपयोग थशे. पद्य करतां गद्य, भाषाना चोक्कस स्वरूपने समझवामां वधारे सहायरूप छे. पद्यमां कवि कविताने बहाने अनियत रूपो पण वापरे छे त्यारे गद्यमां तेम चालतुं नथी. १५४ प्रारंभमां उक्त ' बालशिक्षा' जेवा एक औक्तिक ग्रंथनां अवतरणो जणावीश. Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको संस्कृतना जिज्ञासुओ माटे श्रीकुलमंडनसूरिए 'मुग्धावबोध' नामर्नु कुलमंडननी कृति ... एक औक्तिक रच्युं छे. अने तेमां गुजराती भाषाद्वारा संस्कृतनी कारकविभक्तिओ . अने कृदंत वगैरेने समझावेलां छे. प्रस्तुत औक्तिक प्रधानपणे गुजराती भाषानो ग्रंथ नथी; परंतु संस्कृतने शीखववा माटे तेमां गुजराती भाषाने वाहनरूपे वापरवामां आवी छे–ए ध्यानमा रहे. __ए औक्तिकमां वाहनरूपे वपरायेली गुजराती भाषानां प्रयोगो अने पदो आपणने पन्नरमा सैकानी गुजरातीनो सविशेष परिचय आपे एम छे. कुलमंडन तपागच्छना हता. तेमना गुरुनु नाम देवसुंदरसूरि अने गुरुना गुरु-प्रगुरुनुं नाम चंद्रशेखरसूरि हतुं. उक्त औक्तिकमां ज तेनी रचनानो समय वि० सं० १४५० नोंघेलो छे. 'श्रीगायकवाड प्राचीन ग्रंथमाला'मां प्रगट थयेला 'पाटणना भंडारोनुं सूचिकुलमंडननो पत्र' नामना पुस्तकमां पृ० २१५ अने पृ० २५८ परिचय ऊपर कुलमंडनना गुरु प्रगुरु वगैरेनो उल्लेख करेलो छे. पृ० २५८ ऊपर आपेली एक प्रशस्तिमा १४४२ विक्रमसंवत्मा कुलमंडनना आचार्यपदनो उत्सव थयानो उल्लेख छे. " तथा सौवर्णिकश्रेष्ठाश्चक्रुः सूरिपदोत्सवम् । महर्या लखमसिंहो रामसिंहश्च गोवलः ॥ २८ ॥ द्वि-वार्धि-युग-भू-वर्षे प्रीणिताशेषभूतलम् । श्रीकुलमण्डनात् सूरिश्रीगुणरत्नसंज्ञिनाम्" ॥ २९॥ युग्मम् ॥ वळी, विक्रम संवत् १४६६मां रचायेला क्रियारत्नसमुच्चयना कर्ता श्रीगुणरत्नसूरि अने प्रस्तुत कुलमंडनसूरि बने एक गुरुना शिष्य छे, ए Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति हकीकत गुणरत्ने पोते क्रियारत्नसमुच्चयनी विस्तीर्ण प्रशस्तिमां नोंधेली छे अने प्रशस्तिना बावनमा लोकमां ' श्रीचंद्रशेखर' ने पोताना प्रगुरु तरीके अने देवसुंदर ' ने पोताना गुरु तरीके तेमणे याद पण कर्या छे (श्लो० ५४). C कुलमंडने पोताना औक्तिकमां गुरुरूपे चंद्रशेखरसूरिनुं अने देवसुंदरसूरिनुं एम बे नाम लखेलां छे, एथी जेओ कुलमंडननी गुरुपरंपराथी अपरिचित छे तेमने, एमना बे गुरु होवानो संदेह थवो स्वाभाविक छे; परंतु ऊपर कह्या प्रमाणे ' चंद्रशेखर ' एमना दादागुरु हता अने साक्षात् गुरु ' देवसुंदर' हता, एथी तेमणे ए बन्नेने पोताना ग्रंथमां संभार्या छे. एटले कुलमंडनसंबंधी बेगुरुवाळा संदेहने अवकाश ज नथी. एमना समय पन्नरमा सैका विशे पण उपर्युक्त उल्लेखो स्पष्ट हकीकत आपे छे, एथी ए बाबत पण अशंक छे. १५५ उक्त औक्तिकमां आवेला विभक्तिविचारना प्रकरणमा साते विभक्तिओनो परिचय आ प्रमाणे आपेलो छे : १ - चन्द्र ऊगइ. वीतराग वांछित दिइ. जु. सु. कउण ऊगइ ? कुलमंडनना नामविभक्तिना प्रयोगो ३१७ कुलमंडने पोताना मुग्धावबोध - औक्तिकमां आरंभमां पोताना प्रगुरु चंद्रशेखरने संभार्या छे अने अंतमां पोताना दीक्षागुरु देवसुंदरने याद कर्या छे. ते श्लोको आ प्रमाणे छे : “श्रीचन्द्रशेखर गुरून् वन्दे यैरुक्तियुक्तिभिः । मादृशस्यापि बालस्य चक्षुरुदघाटितं हृदः 22 - ( आरंभ ) 'लक्षणाप्तवचनाम्बुधिबिन्दु बिन्दु - बाण-कृत- भू-मित १४५० वर्षे । औक्तिकं व्यधित मुग्धकृते श्रीदेवसुन्दरगुरुक्रमरेणुः ॥ ( अंत ) ८८ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४५३ ए वाक्योमां चंद्र, वीतराग, जु, सु अने कउण ए प्रथमा विभक्तिवाळां छे. २-चैत्रु कटु करइ. किसउं करइ ? एमां 'कटु' अने ' किसउं' पद बीजी विभक्तिवाळां छे. ३-जीव धर्मिई संसार तरइ. चैत्रु लोक सिउं वात करइ. जीणई करी करइ. किसिइं तरइ ? धर्मि. कीणई सिउं? ___ एमां धर्मिइं, जीणइं, किसिई, कीणइं, धर्मि; अने लोक ए बधां पद तृतीया विभक्तिनां छे. कुलमंडन कहे छे के 'ई' प्रत्यय तृतीयानो सूचक छे. ४-विवेकिउ मोक्षनई कारणि खपइ. धर्म सुखनई कारणि हुइ. कउणनई कारणि ? मोक्षनइं. किसानई कारणि धर्मु हुइ ? सुखनइं. साधु मोक्षनई कारणि तपु करइ. __ अहीं मोक्षनइं, सुखनई, कउणनई अने किसानई; ए बधां पद चोथी विभक्तिवाळां छे. ५-वृक्षतउ पान पडइ, कउणतउ पडइ ? वृक्षतउ. अहीं वृक्षतउ अने कउणतउ पद पांचमी विभक्तिवाळां छे. औक्तिककार कहे छे के, तउ, हूंतउ, थउ, थकउ, ए बधा पांचमी विभक्तिना प्रत्ययो छे. ६-चैत्रतणउं धनु गामि छइ. गुरुतणउं वचन हउं सांभलउं. एमां चैत्रतणउं, गुरुतणउं पदो षष्ठी विभक्तिवाळां छे. तणउ, रहई, किहिं ए बधां पदो षष्ठीनां सूचक छे. ७-चैत्रु ग्रामि वसइ. अहीं 'ग्रामि' पद सातमीनुं छे. 'इ' प्रत्यय सातमी विभक्तिनो दर्शक छे.. Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ऊपरनां उदाहरणो द्वारा एम जणाय छे के पन्नरमा सैकानी गुजरातीमां प्रथमामां अने द्वितीयामां कोई प्रत्यय न हतो, मूळ नाम ज वपरातुं, अथवा — उ' प्रत्यय वपरातो. त्रीजी विभक्तिमां 'ई' प्रत्यय हतो अथवा त्रीजी विभक्तिमा मूळ नाम एम ने एम प्रत्यय विना पण वपरातुं. चोथीमां, चालु 'ने' ने बदले 'नई' प्रत्यय वपरातो. पांचमीमां तउ, हूंतउ, थउ, थकउ प्रत्ययो हता. छठ्ठीमां तणउ, रहई, किहिं अने सातमीमां 'इ' प्रत्यय प्रचलित हतो. आ सिवाय ते समयनुं बीजं गद्य-पद्य साहित्य अवलोकतां बीजा पण केटलाक प्रत्ययोनी माहिती मळे छे. वि० सं० १४११ ना तरुणप्रभ, १४५७ ना सोमसुंदर, १४७१ ना लक्ष्मीधर बेराम अने १५०० ना हेमहंसनां गद्यो ऊपरथी अने १४१७ ना असाइत तथा १४८८ ना भीमकविना पद्य-प्रबंधद्वारा नामने लगता प्रत्ययो विशे जे हकीकत मळे छे ते आ प्रमाणे छे :१५६-तरुणप्रभ-(सं० १४११) १-कथानकु, जनपदु, विजयवती, हरिदत्तु, संतुष्ट, " सौधर्मेन्द्र, दुक्खपूर्वक, सरीरदुक्ख. २-चैत्य, संशयु, वांछितु, धर्मदेशना, जीव. ३-तिणि, नामि, प्रभावि, कर्मिहिं, राजेन्द्रि, अनेरई, किणिहिं, शिष्यहं, वांछकहं, ईंहंवडइ, मूल्यवडई. __ ५-दूषितत्व–इतउ, भाव-इतउ, पुरु-हूंतउ, मुख-हूंतउं, जोग-इतउ, दीप-हूंती, दहन हूंता. ४-६-गुण-रहई, महाराज, हारनउ, महात्मातणा, स्नेहतणउ, तीहंरहई, तेहरहइ, तेहनउं, घरतणी, भुंइनइ, लोकहंतणा, धर्मनंदनी, सिद्धांतनउं, बिडं, श्रेष्ठिहिंतणउ, मूहीं जि रहई, तिहीं जि रहइं. तरुणप्रभ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४५५ ७–जंबूद्वीप-माहि, भरतक्षेत्रमाहि, अनेरइ, दिवसि, धर्मविचार विषइ, द्वारदेसि, माहि, लेसाल, तीहंमाहि, लोकि, किणिहिं, खणीत-इ... १५७ सोमसुंदर- (सं० १४५७) १-प्रसनचंद्र, रहिउ, भरथेश्वर, प्रामिडं, करिवउ, सोमसुंदरना प्रयोगो " पहिरियां (ब.) सोनार, आविउ, स्त्री, मूंओ, - वेला, साप, दूकडओ, माहरु, हलाविउ.. २-रूप, शोभा, असारता, क्लेश, दुःख, राज्य, आरिसा, मूंहई, एहनई. ३-तीणई, नामिइं, अनंतवीर्यइ, बापनई, वइरिई, परशुरामि, तेणिं, राय-सिउँ, भाईए, बहिने, स्त्रीए (ब.) तेहे, बीजीए, बीहतीए, एकिं, पेलई, महासतीइ, गुरे, देवताए, कुपीए. ५-भावथी, विस्मयथिकई, हाथिथिकु. ४-६ तेहनी, तेहनउ, अनंतवीर्यनु, अनंतवीर्यनउं, क्षत्रीनी, राजर्षिनु, शरीरनी, बेटीनु, दुर्मुखनां, लोकन, आपणउ, केहनइं, एकिनई, ब्राह्मणनां, रूपनी, जातमात्रनां. ७-तापसनइ, उडवलइ, भूइहरइ, वेलाई, करतइ, काउसम्गि, गृहस्थवेषि, अंत:पुरमाहि, -भवनि, अनेरे, सभा–माहि, पालिई, चोरे, गए, तेहे, अंधारइ, नीमाहमाहि. १५८-श्री लक्ष्मीधर बेराम (पारसी लेखक सं० १४७१) पारसी लेखक १-एकु, भतार, नमस्कार, घर, बहइन, लक्ष्मीधरना प्रयोगो द्रउर्घध, बइहइनि, स्तंभ, कोपु, व्याघ्र, तह्मो, अमइ, दुःख. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति २-वचन, खाद्य, आत्मा, सुंपणउं,-स्थानक, नइग्रहट, सउखउ, स्थानइकु. ३-तेहे, स्त्री, स्त्रीए, पुरुषइ, राजा, पुरुषइं, आपणइ, तीणइ, कलत्रि, सुहए. ५-शरीरतु, वस्त्र उपर थकु, सुखनिद्रा थकु, स्वामीतउ, सउषतउ. ४-६-पुरुषतणी, तीह, स्त्रीरहई, तमरहइं, राजारहइ, स्त्रीरहइ, पुरुषरहई, लोकतणी, मुक्तात्मारहई, पुरुषतणउं, तउझरहइं, देवतणा, तुझरहई. ७-विचालइ, वस्त्रि, सातमइ, दिवसइ, मांचि, सरीरमांहि, पृथ्वीमांहि, पात्रि. १५९-हेमहंस--(सं० १५००) १-बइठा, अरिहंत, वीसामउ, सिद्ध, हणिया, विहरमाण, ऋषीश्वर, छहउं, सातमउं, बि, पद, हूआं, छही, सातमी, पहिलङ, हेमहंसना प्रयोगो उत्कष्टउं, श्रीनउकार, पांखुडीइ. २-श्रीमतीहई, ते, घडउ, भरतारहई, अवसर, मर्म, घणउं, मान, महत्व, राजाहूइ. ३-जेतलइ, वाणीगुणे, जेहे, आपण, घणे, भेद, पदि, मध्यस्थपणई विधिइं. ४-६-तेहंहूई, चंद्रमंडलनी, समाप्तिनउ,ऊगता सूर्यनी, रायना, लोकनां, मनुक्षनां, सिद्धहूई, आचार्यहूइ, शिष्यनइं, द्वादशांगीनउ, कहिनी (कोनी), राजारहई, सिद्धसिला ऊपरि, अनेराहूई, द्वादशांगीनउं, नदीनइ, एहनूं , श्रावकरहइ, शिष्यहई, मरकतमणिनी, श्रावकनी, कर्म जि हुई, फूलनी. ५-धर्मथकी, ईहांथकउ, संकटइथिकु, वाडिथिकुं, किहांथिकु, नगरथकु. Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ७ - समवसरणि, मनुष्यलोकमांहि, आपणइ, घरि, पगिपगि, घडामांहि, घरमांहि, शिय्याई, अमुकई, स्थानकि, मांहि, मनइमांहिं. १६० - असाइत - ( सं० १४१७ ) १ नरवाहन, राइ, झूझार, भाई, लहुडु, शकतिकुमार, पुर, ब्राह्मण चारि, वरणांतरि, जिन, थापीआ, व्यवहारीया, प्रयोगो पुढिउ, प्रभात, ऊगिउ, सूर, नरवि. असाइतना २ - कवित, वीरकथा, वंश, राज, वेदशास्त्र, अपराध, कणयापुर, राजन, शब्द, वीनती, पुरुष, चरण. ३ - प्रसादि, प्रधानि, तेणीइ, भरतारि, कारणि, कारिणइ. ५ ४-६- तास, एहनु, यादवतणु, तेहतणि, राइचा, तेहतणां, कुयरितणा, वडनी, साविजन. ४५७ ७ – आदिहि, मनि, वीरमाहि, गोदावरीइ, चउहट्टे, पुरि, पाटण, तेणि, निस, वाडी, कणयापुरि, वनि, वषारि, सरि, डालि. १६१ - भीम - ( सं० १४८८ ) भीमना प्रयोगो १ - विप्प, जयवंती, ज्योतिषकला, वत्तारउ, कुंजर, कंदर्पू, बलीउ, नगर, दोसी, पींडी, एकि, इकि, को, छपल, वित्तीय नरवीरो, सुदयवच्छो, माहेसो. २ - गुण, पसाउ, गजराउ, कलोल, विसमा, पोलि, प्रसाद, नाद, पुत्त, नीर, सुदयवत्स. ३ - कुलकम्मि, गजि, मइगलि, नेहिनं, सुद्दयवत्ससिउ, रंगि, सुद्दयवच्छिसिउ, दोरी, अरथिई. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ५ - निजमंदिरथिकूं, संकलह. ४-६-तसु, तास, संवच्छरह, अंगतणउं, एकाउलिनउ, चेटकनउं, चउसठिनूं, पानतणां, फूलतणा, सुगंधीतणी, पारिषिनइ, आपापणी, केवीतणां, पारिषितणां, वंसह, करिण, वत्सतण्ड, वच्छतणउ. ७ - सुरपुरि, नरभुवणि, पायालि, कालि, कलि, चउहटइ, माथि, तीणइ, पगि, हाटमांहि, अंतरिषि, कन्नि, लक्षणे, नयणंमि, ति - वारिहिं, मसाहाणि. १६२ तरुणप्रभ - ( सं० १४११ ) क्रियापदो, सर्वनामो अने बीजा शब्दो तरुणप्रभना बीजा शब्दो क्रियापदो लिखियइ–लखाय | देखी करी - देखी | बइसाली - बेसारी | जाइसिइ - जाशे छे करी - जोई करी | वढइ-वढे छे जशे नहीं - नथी वीनवइ - वीनवे छे छह-छे हूंत हतो हूंती - हती करजं करूं नीपनउ-नीपन्यो गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पढाई - पढे छे थाई - थाय - थाय छे नीपज्यो | थाई थई - थईने गयउ गयो हुयइ - होय छह-छे नथी - नथी चींतवइ) चींतवे छे चीतवइ) छई-छे हो हो ले करी- लई करी गंधाइ - गंधाय छे आपि - आप पाउ धारावउं-प मारिवा - मारवा मारि-मार कीजउ - कीजो - करजो चीतवइ-चीतवे छे। साही करी-धरी छता-छता परीछइ-प्रीछे परीक्षे-जाणे मागि- माग नीगम - नीगमे छे - बीतावे छे देखीसिहं देखशे बोल-बोले छे -धरावुं | देखइ-देखे छे वाइवा छे थाहरावी -ठेरावी मारि मारि - मार मार करी आपिसिइ - आपशे काढियां कढाय छे (बहार काढवु ) भागा - भाग्या हुउतउ-होत जायतइ-जात विहराविउ-होराव्युं - आप्युं Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको सर्वनामो एकि-एके तुम्हे-तमे किहां-क्यां अम्हे-अमे किणहिं केणेसु-ते अम्हरहई-अमने कोईथी तुम्हारउ-तमारो ज-जे माहरइ-मारे कुणरहई-कोईने माहरउं-मारो-मारं तुम्हारइ-तमारे स-तेणी बीजा शब्दो आघउ-आघो सामुही-सामी सगलू-सघळो घरे-घरे पाछउ-पाछो पेट-पेट ऊतावला-ऊतावळा ओरहा-ओरा-नजीक असवार-असवार-अस्वार दीकिरी-दीकरी जदपिहि-जदपि यद्यपि वहिलइ-वहेळामां तुम्ह पाखइ-तमारा विना घी-धी परिवार कना-परिवार-कनेथी- रेडायां-रेडायां-ढोळायां परिवार पासेथी जूवन-जोबन तेह कन्हइ-तेनी कने | पहुतउ-पहोंत्यो-पहोंच्यो एक गमा-एक गम-एक तरफ काजु-काज-कार्य बीजा गमा-बीजी गम-बीजी तरफ बिडंगमा-बन्ने-गमा बन्ने तरफ धननाशु-धननाश ढलिउ-ढळ्यो-ढळी पड्यो विसाहणउं–वसापुं-खावानुं वसागुं दीकिरउ-दीकरो माहिलउ–मांडलो मांयलो डोकरी-डोकरी-डोशी वाणउत्रि-वाणोतरे दीकिरा कन्हइ-दीकरा कने-दीकरा दुहेलउं–दोहिलं-दुःखड़े पासे Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति । सोमसुंदरना १६३ सोमसुंदर--(संवत्-१४१५) बीजा शब्दो क्रि० बी० श० प्रामी-पामी–प्राप्त करी ठाकुर-ठाकुर-ठाकोर- धाडि-धाड एउ-हवो-थयो मालिक चूंकिं-थूकवडे मारी-मारी त्रिणि-त्रण मारीउ–मार्यो आफणी-आफर९लीधउं-लीधुं परस्परई-परस्पर - आपोआप-एनी मेळे जायु-जायो-जण्यो आषउ-आखोजु-जो पूछिउ-पूछ्यो क्षाति ख्याति तु-तो जाणिवु-जाणवो गाढेरी-गाढ-घणी बेटउ-बेटो प्रामिउ-पाम्यु देषाडी-देखाडी बतावी बाकडा-बा की बोकडा–बोकडा मूलगु-मूल-मुख्य-वडो ऊतरि-ऊतर पिरीआ–परिया वंशज पगरणि-पगरण-प्रसंग अहियासिया सह्याकेडई-केडे-पाछळ हवं-थयु भीषारी-भीखारी सोनीया सोनैया ई-मूई–मरी रोती रहइ नहीं रोती रहे केडां-केडे-पाछळ कडाहि-कडाई सम-सम विछूटी-बछूटी हवी-हुई-थई पोटलउ-पोटलो-पोटलं भइंसा-भंसा-पाडा आणी-आणी-लावी पाउ-धरिया-प-धार्या परहुणाना-परोणाना पाटकी-खाटकी तेडउ-तेड्यो अन्यात-अज्ञात छींक-छींक करउं छउं-करुं छु परहणउ-परोणो रूडां-रूडां देषउं-देखं छं टुंठउ-ठुठं विरूआं–विरूप-वरवां देषइ-देखे छे धराइ-धराय (कर्मणि) तूनारानउं–तूणारानु- -कद्रूपां परिणं-परण __ तूंणनारनु पणि-पण लांपळ-नांखो जमहर-जौहर यमगृह परही-परी-परे–दूर ऊपर नहीं Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मीधरना बीजा शब्दो सं० १४७१ ) क्रि० हुई- हुइ-थइ अछइ छे सांभल्या पछी थई पामिउं - पाम्युं कीव कीधो रही बोलिउं बोल्युं करु-करो थाउं - थईए सांभल्यउं-सांभळ्युं दीधी अछउं छं छीए दुइ-होय छे काढी काढे लिउ-ल्यो - लई जाओ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४६१ १६४ अर्दाग्वीरा ( पारसी साक्षरनी कृति खाउं खाओ ताणउ-ताणो बोलिउ – बोल्यो दीड दीठो पडइ-पडे क्रि० दीघउ दीघो करइ-करे खाधउं - खाधुं कीधी गिउ गयो ई-गई घाली बइसइ - बेसे छे सुआरिउ-सूवाड्यो राइ - राखे छे फिरीनइ - फरीने बइठी-बेठी उच्चरइ | अछइ पहुतु पहोंत्यो बी० श० पछइ पछी सातइ- साते | बहनि - बेहेन - भार्या एतलउ-एतलुं -एटलुं जइमु जिम यम जइम स्त्री • ऊचरे छे बीजा | ऊभी महाभारतर महाभारे }आल्यो आव्यु आव्यः ) करई करे छे हुऊअ-हुआ-थयो कलत्र देषाडउं–देखाडुं भर्त्तार कहइ-कहे छे स्तंभ | आव जेम आगलि आगलइ) बहन-बहन बेन | बी० श० षण - खंड ( ? ) स्त्री प्रति हाड तारां-तमारां लंडी लोंडी | हाथ बेहू-बेऊ जोडइया जोड्या ऊषधी-औषधी आदेश इसुं एवं आत्मा | हेठ हेठे आगळ जणाविवउं - जणा ववानुं स्तुति घणी | ऊपर-ऊपर | सइरु - शरीर | पुहरि - पहोर पालि- आजुबाजु Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बी० श० बी० श० वली-वळी (सखाइआ-सहायो सउगंधपणउं-सुगंधपणुं नइग्रहउ-निग्रह जोइउ-जोयो भउवन-भुवन विभन्न-विभिन्न स्थानइकु-स्थानक किरि-किल वइनोद-विनोद विहच्यउ]. सउंदर-सुंदर जीवती सउखउ-सुख विहच्यउ।' तऊं-तूं प्रचउर-प्रचुर द्रउगंध-दुर्गध अनइ-अने हउइ-होय ___ १६५-हेमहंस-( संवत् १५००) हेमहंसना बीजा शब्दो कि क्रि० बी० श० बी० श० आपवउं-आपQ ग्या-गया कुटुंब भारे-भारे-दीर्घ-गुरु आलइ-आले छे छईन्छे (बहु०) चीठी भारी-भारी-दीर्घ-गुरु दिइ-दे छे हओ-हो पाशइ-पासे काजकाम-कामकाज हीडइ-हींडे छे हुइ-होय वन भणी-वन- किमइ-केमे परिणेवा-परणवा | ध्याईइं–ध्याईए तरफ सासू-सासू घाती-घाली-नाखी कहइ छइ-कहेछे सादि-सादे सिउं-शुं । ढांकी छै थिउ--थयो नणंद-नणंद मूंकिउ-मूक्यो मिलशइ दीहाडउ-दहाडो ढांकणूं-ढांक' मूकां छइ-मूक्यां छे छइ-छे पगि-पगे-पगमा महामर्जादी-महाआप्या मेलशइ गुर-गुरु मर्जादी कहि छइ सहू को-सऊ कोई श्रावक-श्रावक फीटी-मटी सीझइं घणु-घणो मसाण-मसाण फेडी-फेडी-मटाडी करई आण्यो हवडां-हमणां ऊघाडी कीधउं तावडइं-तावडे- लगारेक-लगारेक कीधी वांछइ । तापने लीधे तकताक-तक-लाग घाल्यो Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४६३ कि० क्रि० बी० श० बी० श० चीतवउं परणिवा दूकडु-पासेठाली-ठालीखमावइ नींकलवइ-नीक- खाली चूकइ ळवे- पुहुतउ ना-ना मगावइ नीकळवाथी सघलु-सघळो सलसलीनइ थाकु-थावयोनइ-ने सळवळीने आंबानी कोठो कोठो–पेट चमकिउ करइ मउडइ) मोडे मोडे घणीक लगइ ग्याथिउ--थयो खीजई मउडइ ) -विलंबे घणे सुधी गया १६६-असाइत-(संवत् १४१७) असाइतना बीजा शब्दो कि० क्रि० । बी० श० बी० श० भणि-भणे-कहे धरी नरवि-नरपति साध-साधु-शाह मारिस-मारीश गाइ करि-करमां-हाथमां कोई छुरी-छरी वाट मारि-मारे कहि रूडी-रूडी वागि-वागे-चोकडे कीया अवधार कूअरी-कुंवरी सावज गया हती नरमली-निर्मळी अनोपम कहीइ-कहेवाय मेहला मेल्यां। बावनवीर गढ़ वरणव्योस-वरण कीउ त्रिपनमु मढ–मठ -वीश बलतउ पणि-पण मंदिर वरण आवीउ मढि-मठमां पोलि-पोळ कार ऊडी गयु-ऊडी बारि-बारणामां पगार-प्राकार गयो पंचसि-पांचसें सकति-शक्ति कर संभारुवीनती रषि-ऋषि होइ कुपी धरूं Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसीउ दीजि करइ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति क्रि० कि० बी० श० बी० श० मिल्या मारु पंषिणी-पंखणी कासमीर ऊठाडु-ऊठाड्यो मेलु मूकुं छोडूं ईडा-ईंडां सरसति ऊठिउ ग्यु-गयुनि -ने विघन थयु चडु-चड्यो भरतारि-भरतारे उदभूत-अद्भुत लगुनि-लगण- परमेसु-परमेश वणास्यु धरसि सुधी कोइ-कोई १६७ भीम-(संवत् १४८८) भीमना बीजा शब्दो क्रियापदो जंपइ | सुझइ पूरइ निसुणि हउं-ह-थो मंडाइ उतारइ झल्लि-झाली अछ। पडिउ साहए-साधयति दडवड्यां धडहडइ विधंसह आवरह गडअडइ कहइ वषाणिउ धाइ संभलि–सांभळ चडावइ ढलइ घसइ तोलई किद्ध सोहइ आपूं लूटी लिई-लूंटी मंति–माय छे थिउ जइ-जईने मंडिउ मांड्यो ठवइ-स्थापे संचरइ जीवइ आआ-आव्या थिउ पुहतउ पापरिउ विन्नवइ, लांषइ-नांखे धमधमई पंषावरिउ मिली वहाव्यां | गमइ कंपाव ढोइई जोइइ मरइ आणयू भंज पूर्या दुलंति । पामीइ ___ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजगामिनी चौदमो अने पन्दरमो सैको ४६५ बी० ० मालि-माळे पाधरि–पादरे गयगामिणि पादर तरफ गयगमणि किरियाणा सागिल्लि ( देश्य )-समूह पयपंकय आणणि-आनने पतिभत्ति सोह जूअल-युगल जुवाणतणा जस-जेनी कि-शुं? रंभथंभ-रंभास्तंभ नितंब सौवन्नवन्न प्रलंबित वेणि रोक-रोचिस्-कांति नित्त नेत्र शशिहर तारुणि-तरुणी केवीतणां-कोईनां आरुणि-अरुण घाउ–चा मयमत्त-मदमत्त गइंद-गजेंद्र पंचायण-पंचानन अहिणवउ-अभिनव परचंड लोयण-लोचन दंतसल बावन-बावन अग्गइ-आगे नरनाह हाराउलि-हारावलि वत्तारउ-वारो नेउर-नूपुर जोणां-जोj अनइ भाइ बाथि-बाथमा भणी-तरफ नातरूं ३१८ “सत्थर-संगोल्ली-संगेल्ला णिअरम्मि"-[ देशीश० वर्ग ८ गा० ४] गयंदु Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नवू पायक-पायग आज जोह-योध भाट शिला रहतां आघउ-आघो लाज निलवटि-ललाट पट्टे षडि-खडी तिते कलि-काले शृंगार हार अनइ-अने पगर-पगारा कपूर बी० श० हाट हालकुलोल-हालकलोल छडचोक-छडेचोक अपुव्व वि-क्षिप्रं-जलदी वेउधुनि-वेदध्वनि नीसाणडे परिगर-परिकर उरथल रगत्त-रक्त पिथल-पृथुल तिलय-तिलक सरिस-सदृश अवहि-अवधि माहेसो रिणतूर-रणतूर्य मयमत्ता कडयडइं-कडकडीने कड दईने करोडि-करोडमा हा-धूळ ऊडवी विगति–वीगत केसर तेल वास्यां-सुगंधी पीडी Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४६७ १६८ पन्दरमा सैकाना विशिष्ट प्रयोगो—कुलमंडन संबंधक भूतकृदंतनो 'ई' प्रत्यय छे : करी, कुलमंडनना है विशिष्ट प्रयोगो . . लेई, देई ( संबंधक भूतकृदंत ) शिष्य शास्त्र पढी अर्थ पूछइ. हेत्वर्थ कृदंतनो ' इवा' प्रत्यय छ: करिवा, लेवा, देवा. कुंभकार घडा घडिवा माटी आणइ. हेत्वर्थ कृदंतनो 'ई' प्रत्यय पण छे : करी जाणइ, करी सका, लई जाणइ, लई सकइ, देई जाणइ, देइ सकइ. वर्तमान कृदंतनो — अतउ' के 'तउ' प्रत्यय छे : शिष्य शास्त्र पढतउ हउं सांभलउं, करतउ, लेतउ (नरजाति) करती, लेती (नारीजाति) करतउं, लेतउं ( नान्यतरजाति) करसणी हल खेडतउ बीज वावइ. साधारण कर्तृसूचक कृदंतनो ‘णहार' प्रत्यय छे: करणहार, लेणहार, देणहार, धर्म करणहार जीव सुख प्रामइ. ___ कर्मणि वर्तमान कृदंतनो — ईजतउ' प्रत्यय छे : शिष्यिइं शास्त्र पढीजतउं हउं सांभलउं. कीजतउ, लीजतउ, पढीजतउ, (नरजाति ), कीजती (नारीजाति ), कीजतउं ( नान्यतरजाति). सूत्रधारइ कीजतउ प्रासाद अथवा कीजती वावी अथवा कीजतउं देहरउं लोक देखइ.. कुलमंडन कहे छे के कर्तरिप्रयोग ए 'पाधरी' उक्ति छे अने कर्मणि तथा भावे प्रयोग — वांकुडी' उक्ति छे. (पृ० २६६) आ बे Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति उपरांत एक त्रीजी · कर्मकर्ता ' उक्तिनुं उदाहरण देखाडतां कुलमंडन कहे छे के- 'ए ग्रंथ सुखिं पढायइ'. 'इहां सोनउं सडंगउं वीकाइ'". सकर्मक क्रियापद संबंधी भूतकाळनी उक्तिने समझावतां कुलमंडन जणावे छे के लोकभाषामां भूतकाळमां कर्मणि प्रयोग ज थाय छे. “प्राकृत उक्ति सकर्मक अतीत कालि कर्मि जि बोलीयइ"_जेमके 'श्रावकिई देवु पूजिउ' वळी ते कहे छ के-" अनइ जेह उक्ति माहि गत्यर्थ अथवा अकर्मक क्रिया हुइ, तिहां प्राकृतवार्ता अतीतकालि कर्ता बोलायइ" अर्थात् जे वाक्यमा भूतकाळ सूचक क्रियापद गत्यर्थक होय अथवा अकर्मक होय त्यां भूतकाळनो प्रयोग लोकभाषामां कर्तरि पण थाय छे. जेमके-- ____ चैत्रु गामि गिउ, तारउ ऊगिउ, लोग ऊठिउ, सूतउ, जागिउ. 'सति' सप्तमीनो प्रयोग मेघि वरिसतइ मोर नाचइ (मेघि' सति कुलमंडने आपला स०) गुरि अर्यु कहतइ प्रमादीउ ऊंघइ ('गुरि' केटलाक प्रयोगो सति स०) गोपालिई गाए दोहीतीए चैत्रु आविट अने विभक्तिओ ('गाए' सति स० ) चैत्रिई गाईतइ मैत्रु नाचइ वापरवाना नियमो ' ('गाईतइ' सति स०) ऊपरि-ऊपर) परारु-परार-गये वर्षे ने अगाउने वर्षे | आनो योग थतां - हेठि हेठे गिइ कालि-गइ काले | अनेरइ दीसि-अन्य दीवसे तउ-तो | पाछलि-पाछळ कन्हइ कने नाम षष्ठीमां आवेळे Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको | जिमण गमा-जमणी गमा-जमणी तरफ तं ते सविडं गमां-सर्वगम-बधी बाजु जइ-जो ऊपिलु-ऊपलुं जां यावत् । आनो योग थतां | आगिलु-आगलं तां तावत् नाम द्वितीया ले छे ताहरउं–तारं पापलि–पाखे । आना योगमां । जिहां-ज्यां __विना । द्वितीया अने षष्ठी किहां-क्यां पाखइ-पाखे । आना योगमा तिवारई-तेवारे-त्यारे विना । द्वितीया जिवारई-जेवारे-ज्यारे ईई-अहीं सदैवइ-सदैव तिहां-त्यां एकवार-एकवार हवडां-हमणां जिम जेम किवारई-केवारे-क्यारे इम-एम अनेरीवार-अन्यवारे-बीजे वखते पउर-पोर-गये वर्षे किम-केम आजु-आज तिम-तेम कालि-काल अहुण-ओण-आ वर्षे आवतइ कालि-आवती काले आगलि-आगळ कांई-काई डावा गमा-डाबी गम-डाबी तरफ अनइ काई-अन्य शुं-बीजुं शुं-बीजुं बिहुं गमा-बन्ने गम बन्ने तरफ काई बाहिरि-बहार तउ किसउ-तो शुं-तेथी शुं अथवा हेठिलं-हेठलु तेथी केQ बाहिरलं-बहारलं-बारखलं तम्हारउं–तमारं Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० माहरउं मारुं अम्हारउ - अमारुं तेहतणउं - हनुं - तेनुं अनेरातणउं– अन्यनुं किहतणउं - केहनुं - केनुं जिसउं - जेवुं अनेसउं - अन्यनी जेवुं सरीषउं - सरखं तेतलडं - तेटलं केतलउं - केटलं तेवडउं तेवडुं गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति कियद्-वृद्धम् - केवडउं- केवडुं- केटलं बहुं—केटलं मोटुं तेतला - तेटला तईय लगइ ) त्यांलगी-ते > समयथी मांडीनेत्यारथी मांडीने तहींय लगइ हउ हो आथ ( घ?) उ-आघो हेठउं हेतुं पइलउ - पेलो पाछिलउ-पाछलं छेहिलउं छे पूर्विलउं - पूर्वलुं - पूर्वनुं जेहतणउं - जेहनुं -जेनुं एहतणउं - एहनुं - एनं किसउं केधुं तिसउं तेवुं इसउं - एवं जेतलउ - जेटलुं एतलउ - एटलुं जेवडउं- जेवडुं एवडउं - एवडुं जेतला- जेटला केतला -केटला जईय लगइ जहींइ लग ज्यां लगी- जे - समयथी मांडीने - ज्यारथी मांडीने अजी -हजी - आज सुधी अईय आ कु जि कांइ-कोण जाणे शुं ( ? ) किसउं - किमू-कशुं -शुं ओलिउ - ओल्यो पहिलउं - पहेलुं - पेलुं आगिलउं - आगलुं मांहिलउं - मायलुं वचेनुं वेगळं वेगळं इहांतणउ - अहींनं Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ग्रामतणउ-गामर्नु आजूनउ-आजनुं केही गमातणउं-कई गमनु-कई बाजुनु पराजु-परायु अहुणोकउं–ओणुकुं परोकउं–पोरंकुं कालूणउं-कालूनुं-कालनुं मउडउं–मोड़ें वहिलउं-वहेलं ऑरहउं–ओरं गाढ–घ-गाटुं १६९ पन्दरमा सैकानी गुजरातीनो स्पष्ट ख्याल आवे ते ताटे अहीं में तेने लगता विशेष प्रयोगो जणाव्या छे. अने १४११ थी १४८८ सुधीनी पांच कृतिओना ऊतारा पण आप्या छे. आ गुजराती अने आपणी गुजराती वच्चे हवे तो नहीं जेवो ज भेद छे. 'अइ' अने 'अउ' वाळां पदोनो उच्चार आपणे तेमनो गुण करीने एटले 'अइ' नो 'ए' अने 'अउ'नो 'ओ' करीने करिए छिए त्यारे . पन्दरमा सैकानी गुजरातीमां तेमनो गुण थया विना पन्दरमा सैकानी । । ज एम ने एम उच्चारण थाय छे. बीजं, अत्यारसुधीनी भाषामीमांसा गुजरातीमां प्रथमानु एकवचन 'ओ' कारवाळु नहोतुं जणातुं ते, आ कृतिओमा उपलब्ध थाय छे. जो के 'ओ'कारवाळा पदनो उपयोग विशेष नथी थयो देखातो; पण छे तो खरो अने साथे चंद्र, सोनार, वीतराग, जीव, एवां प्रथमामां आजे य वपरातां पदो पण ए कृतिओमां वपरायां छे. अने प्राचीन परंपरानो 'उ' एटले जनपदु, हरिदत्तु वगैरे 'उ' वाळा पण प्रथमांत प्रयोगो देखाय छे. तात्पर्य ए के प्राचीन अने अर्वाचीन बन्ने प्रकारना प्रयोगोनी वपराश आ कृतिओमां छे. ए ज प्रमाणे अत्यार सुधीनी कृतिओमां त्रीजी विभक्तिमां 'ई' के ___ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'इ' प्रत्यय वपरातो, ते नामने छेडे जुदो रहेतो के नामना अंत्यस्वर साथे मळीने रहेतो. प्रस्तुत कृतिओमां तेवा प्रयोगो उपरांत नामना अंत्य स्वर साथे मळीने के जुदो रहेतो 'ए' पण वपरायेलो छे; जेहे, घणे, बीजीए, देवताए. आपणी चालु गुजरातीमां तृतीयाना 'ए'नो उपयोग पण ए रीते ज प्रवर्ते छे. ___ पन्दरमा सैकानी कृतिओमां वपरायेली षष्ठीना प्रत्ययोमां-रहई, रहइ, हुई, तणउं, तणी, नी, तणा, नां, नउं, मुं, नउ, नु, ह अने चा एटलानो समावेश छे. आमांना केटलांक तो परंपराथी चाल्यां आवे छे; परंतु रहइ, रहई, हुई, नां, नु, नु, नी अने 'चा' एटला प्रत्ययो आ सदीमां नवा आव्या छे. नवा एटले अभूतपूर्व एम नहीं पण अगाउ नहीं वपरायेला एवा. 'तणउ' नो 'नु' 'तणई' नो 'नी' अने 'तणउं' नो 'मुं' ए रीते ‘नु' 'नी' अने 'नु' नी उपपत्ति छे. चालु भाषामां आ प्रत्ययो छूटथी वपराय छे. त्यारे उक्त कृतिओमां ए प्रत्ययो उपरांत 'तणउ' वगेरे प्रत्ययो पण वपरायेला छे. चालु भाषामां य कवितामां 'तणो 'नो उपयोग चालु छे, ए ध्यानमा रहे. चोथी, छठी अने बीजीना प्रत्ययोमा विशेष भेद नथी. एथी चोथी अने बीजीना प्रत्ययोनी चर्चा जुदी नथी करतो. पन्दरमी सदीमां वपरायेला 'रहइ' रहइं' के ' हुई' ना मूळनो ख्याल स्पष्ट नथी आवतो छतां हेमाचार्य सूचवेला तादर्थ्यसूचक 'रेसि' के रेसिं 'मां तेमनुं मूळ संभवित छे अथवा तादर्थ्यसूचक 'रेसि' + 'केहिं' ए रीते बे निपातना जोटा द्वारा आवेला रेसिकेहिं' ए जातना पदमां पण तेमना मूळनो संभव छे. चतुर्थी अने षष्ठीमां भेद नथी एथी ज तादर्थ्यसूचक उक्त निपातो, षष्ठीसूचक ‘रहइ' वगैरे Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको प्रस्तुत प्रत्ययोना मूळमां होवानी कल्पना थाय छे. केटलाक विद्वानो ' अर्थके'-अरथके-अरहए-रहए-रहई के हूई करीने ‘रहइ' के ' हूई' नी उपपत्ति कल्पे छे. 'चा'नुं मूळ हेमचंद्रे बतावेला संबंधसूचक 'एचय' प्रत्ययमां छे. ८-२-१४९ सूत्रमा ' तुम्हेच्चयं' ' अम्हेच्चयं' नुं उदाहरण आपीने हेमचंद्र ‘एचय' प्रत्ययनी साबीती आपे छे. प्राकृतमां तो ‘एचय 'नो उपयोग मात्र ‘युष्मद् ' अने — अस्मद् ' पूरतो छ, त्यारे लोकभाषामां ते व्यापक बनेलो छे. एथी ज कवि असाइत 'राइचा' ए, 'एचय' प्रत्ययवाळु पद वापरे छे. चालु भाषामां वपराता 'शिला ऊपर' जेवा प्रयोगो पण पन्नरमी सदीनी कृतिओमां मळे छे. 'सिद्धसिला ऊपरि' वगैरे. अत्यार सुधीमां सातमी विभक्ति माटे — माहि' के 'माहिं ' पूरकनो उपयोग थतो आव्यो छे. तथा नामना अंत्य स्वर साथे मळेलो के जुदो 'इ' प्रत्यय वपरातो आव्यो छे त्यारे पन्नरमा सैकानी कृतिओमां नामना अंत्य स्वर साथे मळेलो 'ए' प्रत्यय पण वपरायेलो छे. चोरे, अनेरे, गए, लक्षणे इत्यादि. अहीं जणावेली पन्नरमी सदी पहेलांनी गुजराती कृतिओमां ए रीते सप्तमीसूचक 'ए' प्रत्ययनो उपयोग थयो जाण्यो नथी. चालु गुजरातीमां आ 'ए' प्रत्यय अने — मां' पूरक विशेषे करीने प्रचलित छे. १७० पांचमीना प्रत्ययो तउ, इतउ, हूंतउ, थउ, थकउ, थिकु, थिकू , थिकई, थकी. एमांना आदिना त्रण, परंपराथी पांचमीना प्रत्ययोनी । " चाल्या आवे छे अने । थउ' वगैरे पन्दरमी चर्चा सदीनी कृतिओमां वपरायेलां पंचमीनो अर्थ बताव Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नारां पूरक पदो छे. एने प्रत्ययो कहो तो पण चाले. मूळ ' स्थित' के * स्थितक' माथी उक्त ' थउ' वगैरेनी उपपत्ति छे एम केटलाक विद्वानो कहे छे. 'वृक्ष थकउ पान पडइ' एटले · वृक्षमां स्थित रहेढं पांदडं पडे छे' आमां 'थकउ' ए प्रथमांत छे अने ‘पान' नुं विशेषण छे, एटले 'थकउ' वगैरेमांथी पांचमीनो अर्थ नीकळतो जणातो नथी. जेम षष्टीसूचक 'तण' प्रत्ययवाळां पदो विशेषणरूप छे तेम ‘थकउ' वगेरे पदो जेने लागेलां छे ते पदो पण विशेषणरूप छे अने ते पण विकारी. अहीं ए याद राखq घटे के तण' तो संबंधसूचक प्रत्यय छे; त्यारे प्रस्तुत — स्थित' शब्द कोई प्रकारना विभक्त्यर्थने स्वतंत्रपणे जणावतो नथी; परंतु कुलमंडने ए ' थकउ' वगैरेने पंचमीना प्रत्ययो तरीके जणावेला छे, एटले ए पंचमीना प्रत्ययो छे एमां शक नथी; छतां तेनी उपपत्ति माटे बतावायेलो ‘स्थित' के ‘स्थितक' शब्द बराबर छे के केम ? ए विचारणीय छे. सप्तमीना - माहि 'ना मूळरूपे सूचवायेलो ' मध्ये' शब्द पोते ज सातमीनो भाव सूचवे छे तेम ‘स्थित' शब्दद्वारा कोई रीते पांचमीनो भाव द्योतित थतो नथी. 'वाघथी बीउं छु' 'वळाथी भावनगर बार गाउ छे' 'माराथी ते मोटो छे' ए पदोमां रहेला ‘थी'नुं मूळ — स्थित' कल्पीए तो अर्थ केम घटाववो ? 'वृक्षइतउ' मां 'इ' तृतीयानो सूचक छे अने ' तउ' नुं मूळ पंचमीसूचक 'तसू' मां छे; ए जोतां 'इतउ' ए, 'इ+तउ' एम बे प्रत्ययो मळीने एक प्रत्यय बनेलो छे. तृतीया अने पंचमीना अर्थमां सादृश्य पण ठीक ठीक छे, एटले 'इ' अने 'तउ' ना मेळमां कशो बाध भासतो नथी. अथवा जेम 'मध्ये' पद सप्तमीने सूचवे छे तेम 'इतस्' अव्यय पंचमीनुं द्योतक छे. तेने स्वार्थिक 'अक' लागतां ' इतकस्'. ते Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४७५ द्वारा इतकओ - इतअओ - इतअउ - इतर ए रीते पण 'इतर'ने समझावी शकाय. 'इतर 'नी पेठे एक 'तउ' प्रत्यय पण पंचमीने सूचवे छे. ते 'तउ' अने संस्कृतमां पंचमीना अर्थे वपरातो 'तस्' ए बे बच्चे विशेष समानता छे. एथी तस्- (७-३-३१ हैं० ) तकस्- तअओ - अउ - तउ ए रीते ' तउ' ने साधी शकाय अने ते ' तउ' द्वारा ' थउ ' ने पण लावी शकाय. ' तकस्' ना 'क' नो लोप न करीए तो तकओ - तकउ - थकउ ए रीते 'थकउ' ने पण लावी शकाय अने हेमचंद्रे सूचवेला ( ८-४-३४१ ) पंचमीना ' हुं 'ने फरी वार पंचमीसूचक 'तो' ( तसू - तो ) लगाडवाथी ' हुंतो ' ने साधी शकाय अथवा प्राकृतमां पंचम्यर्थे वपरातो ' सुंतो ' ' हुंतो ' अने प्रस्तुत 'तो' ए बधा एक ज केम न होय ? स्वरोनुं परिवर्तन भाषामां साधारण रीते प्रचलित छे एटले छेडे के बच्चे भिन्नभिन्न स्वरवाळा ए प्रत्ययोनी उपपत्ति उक्त रीते संगत थई शकशे. आ माटे विशेष स्पष्ट करवा भाषाविदोने मारी नम्र विनंती छे. १७१ पन्दरमा शतक पहेलांनी गुजरातीमां 'छे' नो उपयोग कोई बीजा क्रियापदनी साथ थतो जाण्यो नथी त्यारे पन्दरमा शतकना अंतनी गुजरातीमां ' कहड़ छन्' ' कहि छइ' - एवा प्रयोगो मळे छे, तेनो अर्थ ' कहे छे' ए स्पष्ट छे. ए ऊपरथी मालूम पडे छे के चालु गुजरातीमां जे रीते 'छे' नो प्रयोग सहायक - क्रियापद तरीके थाय छे, ते ज रीते पन्दरमा शतकना अंतनी गुजरातीमां पण 'छे' नो उपयोग थयेलो छे. आ प्रकारे प्रत्ययो, क्रियापदो अने आगळ जणावेला शब्दो जोतां पन्नरमा शतकनी गुजराती, अत्यारनी गुजरातीनी विशेष निकट छे. १७२ पन्दरमा शतकनी गुजरातीना नमूनाओमां एक नमूनो लक्ष्मी Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति धर नामना पारसी पंडित गृहस्थे लखेला गुजराती-गद्यनो छे. ते पारसी लेखक लेखके लखेली गुजराती अने बीजा तरुणप्रभ अने जैन लेखक वगेरे जैन लेखकोए लखेली गुजराती, भाषा तरीके ए बन्नेनी समान गुजराती एक जछे. पारसी पंडिते वापरेलां नामरूपो अने क्रियापदोनी सूची अहीं आपेली छे; तथा नमूनामांथी विभक्तिवार साते विभक्तिओनां उदाहरणो पण जणावेलां छे. ए ऊपरथी उक्त पारसी लेखके वापरेली भाषाना स्वरूपनो स्पष्ट ख्याल आवी शके एम छे अने ए भाषा, पन्नरमा शतकना बीजा लेखकोए वापरेली भाषा करतां लेश पण भिन्न नथी, ए पण ए उदाहरणो द्वारा समझी शकाय एम छे. ___ ए पारसी लेखकनी भाषा सांप्रदायिक वृत्तांतनी साथे संकळायेली छे अने तेथी तेमां केटलाक शब्दो एवा छे के जेनो आपणने परिचय न होय, पण एम होवाथी कांई भाषाना देहमां भेद थतो नथी. आ नमूनाथी एम चोकस सिद्ध थाय छे के गुजरातना रहीश तरीके गुजराती लखनारा जैन, वैदिक, पारसी वा अन्य लेखकोनी भाषा जुदी जुदी नथी होती. जे कोई, जैन अने ब्राह्मण वा तदितर एवा गुजराती लेखकोनी भाषामां भेद कल्पे छे ते भ्रममां छे. उक्त पारसी लेखकनी भाषामां वपरायेला केटलाक शब्दो ऊपर पवित्र अवेस्तावाणीनां उच्चारणोनी असर मालूम पडे छे. अवेस्तावाणीमां 'एषाम्' ने बदले 'अएषाम् ' 'श्रेष्ठ' ने स्थाने 'सएश्त' 'देव'- 'दएव' ‘एतेषाम् ', ' अएतेषाम् ' 'अन्येषाम्'- 'अन्यएषाम् ' 'प्रति', 'पइति' 'दीर्घायु', 'दरेगायु' 'उभय'नुं 'उबोयो' 'भूरि'नुं 'बूइरि' 'भरति'र्नु 'वरइती' 'नारी'नुं 'नाइरी' अने — भेषज 'नुं 'बएषज' एवां उच्चारणो Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४७७ विशेषपणे प्रचलित छे. तेम उक्त पारसी लेखकनी गुजरातीमां 'भुवन'नु 'भउवन' विनोद 'नुं 'वइनोद' 'सुख'- 'सउख' 'दुर्गधि'नुं 'दउगंधि' 'सुगंधपणुनुं 'सउगंधपणुं' 'निग्रह', 'नइग्रह' अने 'सुंदरनु ‘सउंदर' एवां स्वरविश्लेष अने स्वरवृद्धिवाळां पण रूपो वपरायेलां छे. जे लेखकनो गाट परिचय प्राकृत साथे होय तेनी कृतिमां केटलांक प्राकृत उच्चारणो आवी जवानां, जेनो गाढ परिचय संस्कृत साथे होय तेनी कृतिमां संस्कृतनी असर थवानी ज, तेम पारसी लेखकनी भाषामां एमनी साथे विशेष परिचयवाळी अवेस्तावाणीनां उच्चारणो आवे ए स्वाभाविक छे. 'अग्विीरा'ना मुद्रित पुस्तकमां 'स्था ने बदले अनेक स्थळे 'स्छा' छपायेलुं छे, तथा 'स्वर्ग'ने बदले 'स्वर्ग' छपायेलुं छे. लखेली प्रतिओमां 'थ' अने 'छ एक सरखा जेवा जणाय छे. तथा बेवडा 'ग्ग'ने बदले लिपि लखनारा '' जेवो वर्ण लखे छे, एथी 'थ' अने 'छ'नो तथा 'ग्ग' अने ''नो विश्लेष न समझायाथी 'स्था ने स्थाने 'स्छा' तथा 'स्वर्ग'ने स्थाने 'स्वर्ग' छपायेलं जणाय छे, एवो मारो नम्र अभिप्राय छे. ए पुस्तकनी भाषा पन्नरमा सैकानी छे एम तेनी अंतिम पुप्पिका ऊपरथी ज मालूम पडे छे. पुष्पिका आ प्रमाणे छे:__“संवत्सरेषु चतुर्दशशतेषु संवत्सर ७१ वर्षे " इत्यादि “अध्यारू बहिरामश्रुत अध्यारू लक्ष्मीधर लक्षतं" संवत १५०७ वर्षे मार्ग्रसर सितात द्वादिशी तिथौ सोम दिने अश्विनी नक्षत्रे वरैआन जोग्य ( वरियान्-वरीयसि-योगे ) प्रवर्तमाने श्री:नागसारकायां शुभं भवति" __ आ बन्ने प्रांत लेखो द्वारा पन्नरमा शतकना उत्तरार्धे तथा सोळमा शतकना आरंभे जे जातनी गुजराती प्रवर्तती हती तेनो स्पष्ट ख्याल आवे एम छे. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बारमा शतकनी गुजराती ते ऊगती गुजराती के प्राचीन गुजराती, तेरमा अने चौदमा शतकनी गुजराती विशेष खीलेली के किशोर गुजराती अने पन्नरमा शतकनी गुजराती ते मध्यम वयनी गुजराती के आपणी तद्दन पासेनी गुजराती छे. ४७८ उक्त कृतिओमां क्यांय क्यांय ' सागिल्लि' जेवा देश्य शब्दो वपरायेला छे अने बीजी भाषाना 6 गमार' जेवा शब्दो पण उपयोगमां आवेला परंतु ते घणा ज विरल छे. छे; १७३ अहीं आपेली पन्नरमा शतकनी कृतिओमां बे कृतिओ वैदिक परंपराना कवि असाइत अने कवि भीमनी छे. कवि असाइतनी 'हंसाउली' मां ' जातीसमरण' थापणिमोसु '' मिथ्याती ' ' आठ कर्म' 'वीरवचन ' वगैरे जैन पारिभाषिक शब्दो वपराया छे तेथी एम जणाय छे के कवि ( असाइत ) जैन धर्मना पारिभाषिक शब्दोनो विशेष परिचय धरावे छे अर्थात् जैन संप्रदाय साथे तेनो संसर्ग ठीक प्रमाणमां हशे. ते बन्ने कविओनी भाषा तरफ विद्वानोनुं लक्ष्य खेंचाय ए माटे आ स्थळे थोड्रंक वधारे जणाववुं जरूरी छे. साक्षरोमां एक एवो जूनो मत प्रचलित छे के जैन कविओनी भाषा अने वैदिक कविओनी भाषा वच्चे अंतर छे. जैन कविओनी भाषा प्राकृतमूलक छे अने वैदिक कविओनी भाषा संस्कृतमूलक छे. बन्नेनी भाषा छे तो गुजराती परंतु तेना मूळ प्रवाहो जुदा जुदा छे. आ मत, हुं मानुं छं ते प्रमाणे तद्दन भ्रांतिमूलक छे अने अद्यतन विद्वानो पण आ मतने मिथ्या माने छे. अहीं आपेली असाइतनी अने भीमनी कृति ऊपरथी आपणे स्पष्टपणे जाणी शकीए छिए के वैदिक लेखकनी अने जैन लेखकनी समान गुजराती 6 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दमो सैको ४७९ वैदिक हो के जैन हो वा अन्य कोई हो परंतु जे कोई गुजराती छे तेनी भाषामां भेदभाव नथी. विषयने लीधे भाषामां जे विशेषता आवे ते समझी शकाय एम छे. परंतु एकनी भाषा संस्कृतमूलक छे अने बीजानी भाषा प्राकृतमूलक छे एवो भेद तो तेमनी भाषा वच्चे नथी ज. अहीं में कवि असाइतनी अने कवि भीमनी कृतिना जे शब्दो अने क्रियापदो आप्यां छे ते ऊपरथी स्पष्ट मालूम पडे छे के जैन कवि अने वैदिक कविनी गुजराती भाषा बच्चे को ज भेद नथी. आ संबंधे सद्गत साक्षरवर भाई चिमनलाल दलाले वसंतमां (व० पु० १५ अं० ३-७-१९७२) नीचे प्रमाणे जणावेलुं छे :--- " प्रस्तुत काव्यनी भाषा कोई पण प्रसिद्ध थयेला जैनेतर गूजराती ग्रंथ करतां घणी जूनी छे. प्राकृत तथा अपभ्रंश शब्दो तथा प्रयोगोथी आ काव्य एटलुं बधुं भरपूर छे के जो तेना कर्ताए मंगलमां गणपतिर्नु 1 नाम ना लीधुं होत तो ते जैन काव्य तरीके श्री दलालनो __गणीने उपेक्षवामां आवे.” " कविए संस्कृत शब्दोने अभिप्राय ___ बदले प्राकृत तथा अपभ्रंश शब्दो ज वापरेला छे. जे जूनी गूजराती ने जैन गुजरातीमां भेद समझनाराओए विचारवा जे छे. आ काव्यनी जूदी जूदी प्रतोमां भाषाना घणा फेरफारो छे; परंतु जे प्रतोमाथी अवतरणो आपेलां छे, तेमांनी एक सं० १४८८ मां लखेली होवाथी तेमां मूळ भाषा घणे मोटे भागे असल स्वरूपमा सचवायेली छे." __ भाई श्रीदलालनु उक्त कथन अक्षरशः खलं छे. पुनरुक्तिदोष स्वीकारीने पण अहीं असाईत अने भीमना केटलाक प्रयोगो फरी वार नोंधी बता, छं: Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति असाइत भीम मढ-(मठ) नरनाह-( नरनाथ ) अहिणवउ-(अभिनवक) पगार-(प्राकार) कलि-( कल्ये) सौवन्न-( सौवर्ण) सकति-(शक्ति) पगर-(प्रकर) वन-(वर्ण) राष-(ऋषि) अपुव्व-( अपूर्व) तिलय-( तिलक) कासमीर-( काश्मीर ) आणणि-(आनने ) नेउर-( नूपुर) सरसति-( सरस्वती) करियाणा-(क्रयाणक) लोयण-(लोचन) विघन मयमत्त-( मदमत्त) पायक्क-(पाइक्क–पदाति) परमेस गयंदु-(गजेन्द्र) सरिस-(सदृश) भरतारि वेउ-(वेद) भत्ति-(भक्ति) वागि धुनि-(ध्वनि) गय–(गज) वीनती घाउ-(घात) पयपंकय-(पदपङ्कज ) त्रिपनमु नरवि असाइत भीम क्रि० भणि | कहीइ । विनवइ ऊठाडु भंजइ कीया ऊठिउ सूझइ गया जोइइ मारिस विधंसद १७४ कवि असाइते अने कवि भीमे वापरेला ऊपर जणावेला शब्दो पोते ज कही आपे छे के ए कविओनी भाषा संस्कृतमूलक छे के प्राकृतमूलक छे ? में आगळ कयुं छे तेम गुजराती भाषा के कोई पण क्रि० होई कहइ तोलइ मंडाइ वणास्युं आवरइ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४८१ आर्यशाखानी तळपदी भाषानुं मूळ आदिम अपभ्रंशमां छे, प्राकृत तेनी मोटी माशी छे अने संस्कृत तेनी नानी पण समृद्ध माशी छे. एटले गुजराती कविओ संस्कृतनो प्रयोग न करे एम तो न ज बने. गुजरातीना जैन कविओ पण पोतानी कृतिओमां संस्कृत पदोनो उपयोग छूटथी करे छे; परंतु एटलामात्रयी कांइ तेमनी भाषा संस्कृतमूलक छे एम कहेवाय खरं ? घरेणां--अलंकृति-जोईने कोईना मूळ कारणनी शोध न थई शके; परंतु मूळ उपादान, योजना वगैरे ऊपरथी मूळ कारण समझी शकाय. आ जोतां गुजराती जैन अने वैदिक वा अन्य कविनी भाषा विशे अंतर समझ, ए भूलभरेलुं छे. जेओ प्राचीन गुजरातीनो अभ्यास करे छे तेओ उक्त हकीकतने स्पष्टपणे समझी शके छे. १७५ मूळ नाम अने विभक्तिसूचक शब्दने आगळपाछळ मूकवानी पद्धति विशे आगळ (पृ० ३२३) लखाई गयुं छे. प्रस्तुतमां केटलाक एवा प्रयोगो मळे छे के मूळ नाम अने विभक्तिसूचक शब्द वच्चे 'जि' अव्ययन व्यवधान होय. जेम केव्यवहितविभक्ति- कर्म जि हुई ( कर्मने ज), तीही जि रहइ वाळा प्रयोगो (तेने ज), महीं जि रहइ (मने ज) वगैरे. संस्कृत जेवी सुबद्ध भाषामां पण आवां उदाहरणो छे; भले विरल होय छतां छे तो खरां. जेमके तं पातयां प्रथममास'-'तं प्रथमं पातयामास' जोईए, ए ज रीते प्रभ्रंशयां यो नहुषं चकार' एने बदले 'यो नहुषं प्रभ्रंशयांचकार' शुद्ध पाठ छे. लोकभाषामां तो आवा व्यवधानवाळा प्रयोगो चाल्या ज करे छे. ३१९ रघुवंश सर्ग ९, श्लो० ६१ तथा सर्ग १३, श्लो० ३६. ___ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति १७६ पन्नरमा सैकाना श्रीगुणरत्नसूरिए विक्रमसंवत् १४६६ मां रचेला पोताना ' क्रियारत्नसमुच्चय ' मां ते समयनी प्राकृतवार्ता – लोकवार्ता - लोकभाषा - मां चालतां केटलांक क्रियापदो अने वाक्यो आपेलां छे. जेने जाणवाथी ते समयनी चालु भाषानो विशेष स्पष्ट ख्याल आवशे माटे ते बधांने आ नीचे ૪૮૨ गुणरत्नना प्रयोगो जणावी दउं छं: उक्त कुलमंडन अने प्रस्तुत गुणरत्न बन्ने गुरु-भाई हता, ए वात आगळ ( पृ० ४५० ) जणावाई गई छे. तृतीय पुरुष द्वितीय पुरुष " वर्तमान- एड करइ ( ए करे छे ) लियइ ( ले छे" लाति " गुणरत्न ) जायइ ( जाय छे ) " आपतति " गुण० ) सुअर (सूए छे ). बहु ० -- ए घणां करई (एओ घणा करे छे ) ए घणां लिई (एओ घणां ले छे ) तूं करें (तुं करे छे ) तूं लिअँ (,, ले छे ) तूं दिऔं (,, दे छे ) बहु ० तुम्हे करउ ( तमे करो छो ) लिअउ ( ल्यो छो ) "" दिअउ (, यो छो) "" दिअइ (दे छे ) आवइ ' ( आवे छेजागइ ( जागे छे ) "" ३२० क्रियारत्नसमुच्चय- बनारस यशोविजय जैन पाठशाळाए यशोविजय जैन ग्रंथमाळाना दशमा पुस्तकरूपे प्रसिद्ध करेलो छे. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम पुरुष अथवा अस्मद्-पुरुष हूं करडं ( हुं करूं छं ) लिडं (,, लउं छं ) दिउं (,, दउं छं ) बहु ० - अम्हे करउ - ( अमे करिए छिए ) भावेप्रयोग — देवदत्तई हुईअइ ( देवदत्तवडे होवाय छे-धवाय छे ) तई सुईअइ ( तारा वडे सुवाय छे ) मई बइसीअर ( मारा बडे बेसाय छे ) चौदमो अने पन्दरमो सैको बहु -0 75 कर्मणि प्रयोग — कीजइ ( कराय छे ) लीजइ ( लेवाय छे ) दीजइ (देवाय छे ) "" -कीजई ( घडा कराय छे ) लीजई ( घडा लेवाय छे ) दीजई (घडा देवाय छे ). રે तूं कीजं (तुं कराय छे ) हूं कीजउं ( हुं कराउं छं ) सेहि आवश्यकु पढिडं ( शैक्षे आवश्यक पढ्युं ) बहु ० - तुम्हे कीजउ ( तमे कराओ छो) देवदत्त वहिल जिमि पाछइ गाम जाइसि - ( देवदत्त वहेलुं जमी पछी गाम जाय छे - जशे ) विध्यादि अर्थ - करेवडं ( करवुं ) लेवउं (लेबुं ) देवडं ( देवुं ) तृतीय पुरुष बहु० - करिजो ( तेओ करे के करज्यो ) लेजो ( तेओ ल्ये के लेज्यो) देजो ( तेओ दे के देज्यो ) द्वितीय पुरुष तूं करिजे (-तुं करजे) लेजे (लेज्ये) देजे (देज्ये ) बहु० तुम्हे करिजो ( तमे करज्यो) Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अस्मद् - पुरुष — हूं, अम्हे करिजडं ( हुं करूं, अमे करिए ) लेजउं ( हुं लउं के अमे लइए ), देजउं (दउं के दइए ) वा प्रथम- पुरुष ૪૮૪ करत ( हुं तुं ते अमे तमे लेअत ( देअत ( " "" "" "" "" श्रावक विनउ जिनरहई करिवउ ( श्रावके विनय जिननो करवो ) जन्मनउं फल लेजउं ( जन्मनुं फळ लेवुं ) देजउ (देवुं ) दानु देवउं ( दान देवुं ) अम्हे भीख जीमवी ( अमारे भीख जमवी) जूनउं वस्त्र पहिरवडं ( अमारे जूनुं वस्त्र पहेरवुं ) गुरि अणुजाणिउ चेलउ व्याकरण पढत ( गुरुए अनुज्ञात थयेलो चेलो व्याकरण भणत-भणे ) 35 "" 55 कर्मणि 35 तूं करिजे (तुं कर) हूं करिजउं ( हुं करूं ) कर्मणि तीणई कीजइत - ( ते वडे कराय) "" "" तेओ करत ) लेत ) देत ) भावे- - हुई अत - ( तेवडे होवाय - थवाय ) कर्तर अनुमति अर्थ } त्री जो पु० - - करउ ( करो) लिउ ( " लातु " गुण ० -ल्यो ) दिउ (द्यो ) हुउ ( हो ) बीजो पु० "" तूं करि (कर) लइ (ले) दइ (दे) जा (जा) आवि (आव), पढि ( पढ), गुणि ( गुण गण) कीजउ ( तारा वडे कराय) लीजउ ( लेवाय८८ लायताम् " गुण ० ) आशीर्वाद- -एउ राज्य करउ (ए राज्य करो ) एहना वइरी मरउ ( एना वेरी मरो ) Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४८५ भूतकाळ : अद्यतनभूत—आजनउ—(आजनो) आजु कीधउं (आजे कीधुं-यु), आजु लीधउं ( आजे लीधुं “ अलासीत्" गुण), आजु दीधउं ( आजे दीधुं). ह्यस्तनभूत-कालनउ (कालनो) कालि कीध (काले कीg-कर्यु) कालि लीघउं ( काले लीधुं " अलात् ” गुण० ) तत्प्राक्तन–तेह पहिलउ (तेनी पहेलो-तेनी पहेलांनो) भूत-सामान्यभूत आगइ करतउ (आगे-पहेलां करतो) आगइ लेतउ (आगे लेतो) बहु० आगइ करता (आगे करता) आगइ लेता (आगे लेता) भूत० कर्म०-आगइ कीधळ (आगे कीg-करायुं) आगइ लीधउं आगे लीg- लेवायु ( आगइ दीधउं ( आगे दीधुं-देवायुं) ईणई धर्म कीधउं (एणे धर्म कर्यो) ईणइं पुरुषई दस ग्राम पाम्यां (ए पुरुषे दस गाम पाम्यां) ईणई वस्त्र वीक्यां (एणे वस्त्र वेक्यां-वेच्यां) लहुडपणि दिहाडी प्रति हूं बि करस पी जिमतु (लघुपणमां नानपणमां दहाडा प्रत्ये हुं बे करस घी जमतो) एउ पाँच जोयण भूमि चालतउ (ए पांच जोजन भूमि चालतो) तूं दिहाडी प्रति ५० श्लोक व्याख्यानि भणतउ (तुं दहाडा प्रत्ये ५० श्लोक व्याख्यानमां भणतो-कहेतो) Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति आगई ए चेला दिहाडी प्रति बि सहस्र सज्झाय गुणता (आगे ए चेला दहाडा प्रत्ये बे सहस्र-हजार-सीय गणता) तुम्हे त्रिन्नि सई ग्रन्थ लिखता (तमे त्रणसें-श्लोक-ग्रंथ लखता) अम्हे सउ श्लोक पढता ( अमे सो श्लोक पढता–भणता) एउ गामि गिउ (ए गामे गयो) स्मर हो-संघ साथइ श्रीशजइ श्रीगुरु चालिआ (स्मर-स्मरण कर हो-संघ साथे श्रीशत्रुजये श्रीगुरु चालवाना-चाल्या) जाण हो-मित्र अहे दिहाडे आपणि जलकेलि करता (जाण हो मित्र! ए दहाडे-दिवसे-आपणे जलकेलि करवाना-करता) जाण हो-आपणि देवपणइ तीणइ विमानि वसता ( जाण हो ___आपणे देवपणे ते विमाने वसवाना-बसता) बीजो पुरुष-म करे (तुं म कर ) म करिजे (म करजे) म करिसि (म करीश ) म दिइ (म दे) म देजे (म देजे) म देसि (म दईश) म जा (म जा) म रहिजिउं (म रहेज्यो-रहेजे) आक्षेप-आक्रोश-म कीधु (म कीg-कर्यु-म करतो ) म लीधु (म लीधुं-म लेतो), म दीधु (म दीधुं-म देतो) म जईड (म जाजतो) रखे जीवतउ ( रखे जीवतो) रखे जातउ (रखे जातो) रखे करतउ (रखे करतो) रखे जीवतउ जे परावज्ञाई छतीइं जीवइ ( रखे जीवतो जे परावज्ञा छतां जीवे छे) क्रियातिपत्ति-जइ किमइ अमुकं करत, लिअत, दिअत, तउ अमुकं हुयत (जो कांई अमुक करत, लेत, देत, तो अमुक होत–थात) ३२१ 'स्वाध्याय' अने 'सज्झाय' ए बन्ने पर्यायशब्दो छे. जैनसंप्रदायमां 'सज्झाय' शब्द विशेष प्रचलित छे. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको भविष्यकाळ—आजनउ (आजनो), कालनउ (कालनो), तेह परहउ (तेनी परनो-पछीनो): करिसिइं (करशे) लेसिइं (लेशे) देसिई (देशे) बीजो० पु०-तूं करिसिइ (तुं करशे-करीश) लेसिइ (लेशे__ लईश ) देसिइ (देशे-दईश) बी० ब०-तुम्हे करिसिङ (तमे करशो) प्रथ० पु० ए० तथा ब०-हूं करिसु ( हुं करीश ) अम्हे करिसिउं (अमे करीशुं) आशीर्वाद—करिज्यउ (करज्यो ) पढिज्यउ ( पढयो) मरिज्यउ ( मरज्यो) हुज्यउ ( होज्यो) ऊपर जणावेलां क्रियापदो अने वाक्योने श्रीगुणरत्ने क्रियापदने . लगती संस्कृत विभक्तिओनी वपराश केवी रीते प्रयोगोनी मीमांसा करवी ? ते समझाववा नोंघेलां छे. ते क्रियापदोनो व्यवहार अने आपणो चालु क्रियापदोनो व्यवहार एक बीजा ओतप्रोत छे. मात्र ते क्रियापदोमां 'अइ' 'अउ' के ' अउं' वगैरे अंतस्थित स्वरो जुदा जुदा रहेला छे, त्यारे आपणा उच्चारणमां ए स्वरो 'ए' 'ओ' के 'उ' रूपे परिणमी गया छे. त्वरित उच्चारणमां एवो परिणाम सुघट छे. गुणरत्ने भूतकाळ अने भविष्यकाळना त्रण त्रण भेदो संस्कृतनी अपेक्षाए जणाव्या छे; परंतु ते वखतनी अने अत्यारनी गुजरातीमां भूतकाळ के भविष्यकाळनी विविधता बतावनारां क्रियापदो जुदां जुदा रह्यां नथी. पन्नरमी शताब्दी, 'कीधउं' वा आज- 'कीर्छ'-'कयु' ए एक ज क्रियापद, अद्यतन ह्यस्तन के परोक्ष भूत एम त्रणे भूतकाळने जणावे छे, त्यारे संस्कृतमां तेम नथी. तेमां तो ह्यस्तन- अकरोत्' अद्य Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तन-'अकार्षीत् ' अने परोक्ष-'चकार' एम एक 'कृ' धातुनां त्रण जुदां जुदां क्रियापदो छे. प्राकृतमा संस्कृतनी पेठे नथी परंतु गुजराती जे छे. एक 'करीअ' वा 'करित्था' ('कृ' मुं) क्रियापद सर्वप्रकारना भूतकाळ माटे प्राकृतमा प्रचलित छे. __चालु भाषामां उक्त भूतकाळोनी स्पष्टता बताववी होय तो अद्यतन माटे 'आजे कयु' ह्यस्तन माटे ‘काले कयु' अने परोक्ष माटे 'घ' पहेलां कर्यु' एम बोलवु आवश्यक छ, एम गुणरत्न सूचवे छे. __ एज प्रमाणे अद्यतन भविष्य माटे ‘आजे करीश' ह्यस्तन भविष्य माटे 'काले करीश' अने घणा दूरना भविष्य माटे 'घणुं मोडेथी-पछीथी-करीश' -एम पण बोलवु जरूरी छे. संस्कृतमां जुदा जुदा भविष्यकाळने सूचववा जुदां जुदां क्रियापदोनो व्यवहार छे त्यारे प्राकृतमां तो गुजरातीनी जेवू धोरण छे. गुणरत्न कहे छे के रोज बे लाडवा जमतो' 'सो श्लोक भणतो' . पांच गाऊ चालतो' वगैरे प्रयोगोमां आवेलां वर्तमानकृदंत अने - (जिमतु) जमतो ( भणतउ) भणतो अने भूतकृदंतनो विवेक " (चालतउ) चालतो-ए बधां भूतकाळसूचक पदो कतरि भूतकृदंत छे. जिमितः के जिमितवान् (जिमतु-जमतो) भणित: के भणितवान् (भणतउ-भणतो), चलितः के चलितवान् ( चालतउचालतो) ए रीते ए पदोनी उपपत्ति श्रीगुणरत्न सूचवे छे. मने लागे छे के ए उपपत्ति बराबर छे. एवां भूतकाळसूचक पदो अने 'करतउकरतो' वगैरे वर्तमानकृदंतनां पदो उच्चारणनी दृष्टिए लगभग मळतां छे छतां ए बन्नेनी उपपत्तिमा अहीं जणाव्या प्रमाणे विशेष अंतर छे, ए ध्यानमां राखवा जेतुं छे. Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको ४८९ १७७ - लेवू'मां मूळ 'ला' धातु छे ए आगळ जणावी गयो छु. तेना विशेष समर्थनमां जणाववानुं के अहीं श्रीगुणरत्ने लखु 'लिअइ' वगेरे क्रियापदोनी प्रतिकृति तरीके मूकेलां 'लाति' ' लातु' 'लायताम् ' ' अलासीत्' ' अलात् ' वगेरे बधां य क्रियापदो 'ला' धातुनां छे. एथी · लिअइ' वगेरेमा ‘ला' धातुनी उपपत्ति विशेष घटमान छे. बीजूं, चौदमा सैकानो संग्रामसिंह ' लहइ' 'लिअइ' अने ' लेअइ' एवां जुदां जुदां त्रण क्रियापदो दर्शावे छे अने ते दरेकर्नु मूळ जुदुं जुहूं समझे छेः 'लहइ 'नु ‘लभते'-( लभ ) 'लिअई'नु (ला) 'गृह्णाति' अर्थ अने ' लेअई'- 'नयति' (नी) एम बतावीने 'लभ' ऊपरथी 'लहइ' 'ला' ऊपरथी 'लिअइ' अने 'नी' ऊपरथी 'लेअइने नीपजावे छे. एथी पण ‘लिअइ'मां ‘लानी उपपत्तिने टेको मळे छे. गुणरत्न 'आवइ'नुं प्रतिबिंब ' आपतति' जणावे छे. माटे ज आगळ हुं 'आपतति' ऊपरथी 'आवइ' आव्यानी वात जणावी आव्यो छु. १७८ गुणरत्ने दर्शावेलां पदोमां एक ‘रखे' पद आवे छे, ते निषेधवाचक छे. आपणी चालु भाषामां य ए पद रखे - उपरांत ‘राख-राख' ए, पद पण प्रचलित छे. ए पद व्युत्पन्न छे अने तेनी व्युत्पत्ति आ प्रमाणे छे: पाणिनिना धातुसंग्रहमां “ओख राख लाख द्राखु धाखू शोषण-अलमर्थयोः १२१-१२५” ए रीते एक ‘राख' धातु छे तेनो अर्थ 'शोषण' अने 'अलमर्थ' छे. 'अलमर्थ 'नी समझ आपतां सिद्धान्तकौमुदीना टीकाकार कहे छे के “अलमर्थः भूषणक्रिया, पर्याप्तिः, वारणं Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति वा"। (कौमुदी पृ० ६८-भ्वादि-प्रकरण) अर्थात् अलमर्थ एटले शोभा, पूरतापणुं अने वारण-वारदुं-निषेध करवो-अटकाव. उक्त ‘रखे' वा 'राख' पद, प्रस्तुत निषेधवाची ‘राख' धातुमाथी आवेलुं छे. बीजा पुरुषना एकवचन आज्ञार्थमां 'राख' धातुनुं 'राख' रूप थाय छे, भने ' राख राख' मां ए ज मूळभूत छे. 'राखो राखो' ए बहुवचन छे; अने ते ऊगती गुजरातीना 'राखहु' ऊपरथी आवेलुं छे. राखहि-राखइ ऊपरथी रखे'नी उपपत्ति घटमान छे. अथवा ऊगती गुजरातीमां ' राख'ना आज्ञार्थ बीजा पुरुष एकवचनमा राखि, राखु, राखे, राखेज्जे वगैरे अनेकरूपो थाय छे. तेमांनां कोईपण एक ऊपरथी निषेधवाचक ' रखे' सारी रीते आवी शके छे. रहेवा द्यो' पद पण निषेधने सूचवे छे. तेमांना ' रहेवा' अंशनी उपपत्ति उक्त ‘राख-राहू' ऊपरथी समझवानी छे. १७९ बारमीथी पन्नरमी सदी सुधीनी गुजरातीनी जे कृतिओ अहीं आपेली छे तेमां 'जे'ना अर्थमां 'जु' शब्दनो प्रयोग विशेषप्रमाणमां मळे छे, त्यारे प्रस्तुत गुणरत्न 'जु' ने बदले 'जे' पद पण वापरे छे, अने आपणे वर्तमानमां 'जे नर' 'जे स्त्री' वगैरे प्रयोगोमां ए 'जे' नो ज व्यवहार करिए छिए. ए ज रीते प्रस्तुत कृतिओमा वर्तमान भाषामा प्रचलित एवा 'ते, 'ए' प्रयोगो पण मळे छे. वळी, कर्मणि-प्रयोगमा क्रियासूचकरूपे ‘कीजइ' वगेरे पदो ऊगती गुजरातीथी पन्नरमी सदी सुधीमां विशेषे करीने वपरातां आव्यां छे त्यारे पन्नरमा सैकानो कुलमंडन 'पढायइ', 'वीकाइ,' 'बोलायइ' (प्रस्तुत निबंध पृ० ३६४ पं० ४-५ तथा १२ ) वगैरे पदोने कर्मकर्तरि तरीके नोंधे छे, अने ए रीते कर्मणिमा एक नवा 'आय' प्रत्ययनो (पृ० २६९,२७१) वधारो करे छे. वर्तमानमा कर्मणि प्रयोगोमां ' खवाय Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमो अने पन्दरमो सैको छे,' ' नमाय छे,' 'देवाय छे' वगेरे पदोमां उक्त 'आय' नो ज प्रधान उपयोग छे. आगळ जणाज्या प्रमाणे सोळमा शतकना एक औक्तिकमां मंडाइ ( मंडाय छे–शणगाराय छे ) वीकाइ (वीकाय–वेचाय-छे) भणाइ (भणाय छे) वगैरे कर्मकर्तरि प्रयोगोमां (प्रस्तुत निबंध पृ० २१५) पण उक्त 'आय' प्रत्यय वपरायेलो छे, ए ध्यानमा रहे. १८० उक्त तरुणप्रभ, सोमसुंदर, लक्ष्मीधर, हेमहंस, कुलमंडन, गुणरत्न, असाइत अने भीम ए बधा पन्नरमा सैकाना छे. एमांना कोईना समय बाबत लेश पण शंकाने स्थान नथी. तेथी ए कविओ विशे अहीं विशेष लखवु अप्रस्तुत छे. पन्नरमा सैकानी गुजरातीमां केटलांक लक्षणो ते पहेलांनी गुजरातीनां छे एटले ज हुं प्रस्तुत गुजरातीने मध्य गुजराती कहुं छु, पण हवे पछी सोळमा, सत्तरमा अने अढारमा शतकनी गुजरातीमां शरूआतना वे शतकनी गुजराती केटलेक अंशे पन्नरमा शतकनी गुजरातीने अनुसरे छे अने अढारमा शतकनी गुजराती आवी एटले तो जाणे के ते आपणी चालु ज गुजराती छे एम स्पष्टपणे मालूम पडे छे. अढारमा शतकनी गुजरातीमां प्रमाणमां प्राचीनतानां लक्षणो ओछां अने अर्वाचीनतानां क्यारे; त्यारे सोळमा अने सत्तरमा शतकनी गुजरातीमा हजु केटलेक अंशे प्राचीनतानी छाप खसी नथी. Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पंदरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यभाग ( १ ) विनयचंद्र - चौमो सैको नेमिनाथचतुष्पदिका (प्राचीन गुर्जरकाव्यसंग्रह, वडोदरा ) सोहगसुंदर घणलायन्नु सुमरवि सामिउ सामलवन्तु । सखि पति राजल चडिउत्तरिय बारमास सुणि जिम वज्जरिय ॥ १ ॥ नेमि कुमरु सुमरवि गिरनारि सिद्धी राजल कन्न कुमारि । आंकिणी ॥ श्रावणि सरवणि कडुयं मेहु गज्जइ विरहिरि झिज्जर देहु । विज्जु झक्कड़ रक्खसि जेव नेमिहि विणु सहि सहियइ केम ॥ २ ॥ सखी भणइ सामिणि मन झूरि दुज्जणतणा म बंछित पूरि । गयउ नेमि तउ विणठउ काइ अछछ अनेरा वरह सयाइ || ३ || बोलइ राजल तर इहु वयणु नत्थी नेमिसमं वररयणु । धरइ तेजु गहगण सवि ताव गयणि न उग्गइ दिणयरु जाव || ४ || भाद्रवि भरिया सर पिक्खेवि सकरुण रोअइ राजलदेवि । हा एकलडी मइ निरधार किम ऊवेषिसि करुणासार ॥ ५ ॥ भइ सखी राजल मन रोइ नीठुरु नेमि न अप्पणु होइ । सिंचिय तरुवर परि पलवंति गिरिवर पुण कडडेरा हुंति ॥ ६ ॥ साचउं सखि वरि गिरि भिज्जंति, किमइ न भिज्जइ सामलकंति । घण वरिसंतइ सर फुवंति सायरु पुण घणु ओहडु लिति ॥ ७ ॥ आसो मासह अंसुप्रवाह राजल मिल्हड़ विणु नमिनाह । दह चंदु चंदण हिमसीउ विणु भत्तारह सउ विवरीउ ॥ ८ ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सखि नवि खीना नेमिहिरेसि मन आपणपउं तउं खय नेसि । जिणि दिक्खाडिउ पहिलङ छेहु न गणिउ अट्ट भवंतर नेहु ॥९॥ नेमि दयालू सखि निरदोसु कीजइ उग्रसिण ऊपरि रोसु । पसुय-भराविउ मूकउ वाडु मुझु प्रियसरिसउ कियउ विहाडु ॥ १०॥ कत्तिग क्षित्तिग ऊगइ संझ रजमति झिझिउ हुइ अतिझंझ । राति दिवसु अछइ विलवंत वलि वलि दय करि दय करि कंत ॥११॥ नेमितणी सखि मूकि न आस कायरु भग्गउ सो घरवास । इम इइसी सनेहल नारि जाइ कोइ छंडवि गिरनारि ॥ १२ ॥ कायरु किम सखि नेमि जिणंदु जिणि रिणि जित्तउ लक्खु नरिंदु । पुरइ सासु जा अग्गलि नास ताव न मिल्हउं नेमिहि आस ॥ १३ ॥ मगसिरि मग्गु पलोअइ बाल इण परि पभणइ नयणविसाल। जो मइ मेलइ नेमिकुमार तसु णीवेल(?) वहउ सविवार ॥ १४ ॥ एहु कदाग्रहु तउ सखि मिल्हि करिसि काइ तिणि नेमिहि हिल्लि । मंडि चडाविउ जो किर मालि 'हे हे कु' करइ टोहणकालि ॥ १५॥ अठभव सेविउ सखि मइ नेमि तसु ऊमाहउ किम न करेमि । अवगन्नेसइ जइ मइ सामि लग्गी अछिसु तोइ तसु नामि ॥ १६ ॥ पोसि रोस सवि छंडिवि नाह राखि राखि मइ मयणह पाह । पडिउ सीउ नवि रयणि विहाइ लहिय छिद सवि दुक्ख अमाइ ॥१७॥ नेमि नेमि तू करती मुद्धि जुन्यणु जाइ न जाणिसि सुद्धि । पुरिसरयणभरियउ संसारु परणि अनेरउ कुइ भत्तारु ॥ १८ ॥ भोली तउ सखि खरी गमारि वरि अच्छंतइ नेमिकुमारि । अन्नु पुरिसु कुइ अप्पणु नडइ गइवरु लहिउ कु रासभि चडइ ॥ १९॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य माहमासि माचइ हिमरासि देवि भणड़ मइ प्रिय लइ पासि । तइ विणु सामिय दहइ तुसारु नवनव मारिहि मारइ मारु ॥ २० ॥ इहु सखि रोइसि सहु अरन्नि हत्थि कि जा ( ना ?) मइ धरणउ कन्नि । तउ न पतीजिसि माहरी माइ सिद्धिरमणिरत्तउ नमि जाइ ॥ २१ ॥ कंति वसंत हियडामाहि वाति पहीजउं किमह लसाइ । सिद्धि जाइ तउ का इत बीह सरसी जाउ त उग्रसेणधीय ॥ २२ ॥ फागुण वा - गुण पन्न पडंति राजलदुक्खि कि तरु रोयंति । गब्भि गलिवि हउं काइ न मूय भणइ विहंगल धारणिधूय ॥ २३ ॥ अजिउ भणिर करि सखि विम्मासि अछर्इ भला वर नेमिहि पास । अनु सखि मोदक जउ नवि हुंति छुहिय सुहाली कि न रुवंति ॥ २४ ॥ मणह पासि जड़ वहिलउ होइ नेमिहि पासि ततलउ न कोई । जइ सखि वरउ त सामल धीरु घण विणु पियड़ कि चातकु नीर ॥ २५॥ चैत्रमासि वणसई पंगुरइ वणि वणि कोयल टहका करइ । पंचबाण करि धनुष धरेवि वेझइ मांडी राजलदेवि ॥ २६ ॥ जुइ सखि मातउ मासु वसंतु इणि खिलिज्जइ जड़ हुइ कंतु । रमियर नव नव करि सिणगारु लिज्जड़ जीवियजुव्वण सारु ॥ २७ ॥ ४९७ सुणि सखि मानिउ मुझु परिणयणु नवि ऊवरि थिउ बंधववयणु । जइ पडिवन्नइ चुक्कइ नेमि जीविय जुव्वणु जलणि जलेमि ॥ २८ ॥ वइसाहह विहसिय वणराइ मयणमित्तु मलयानिलु वाइ । फुट्टि र हियडा ! माझि वसंतु विलवइ राजल पिक्खिर कंतु ॥ २९ ॥ सखी दुक्ख वीसरिवा भाइ संभलि भमरउ किम रुणझुण । दीस पंच थिरु जोव्वणु होइ खाउ पियउ विलसउ सहु कोइ ॥ ३० ॥ ३२ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति रमणि पसंसइ राजल कन्न जीह कंतु वसि ते पर धन्न । जसु प्रिउ न करइ किमइ मुहाडि सा हउं इक्क ज भुंडनिलाडि ॥ ३१ ॥ जिट्ठ विरहु जिम तप्पइ सूरु घणविओगि सुसियं नइपूरु । पिक्खिर फुल्लिउ चंपइविल्लि राजल मूछी नेहगहिल्लि ॥ ३२ ॥ मूछी राणी हा सखि ! धाउं पडियउ खंडइ जेवडु घाउ । हरिय मूछ चंदण-पवणेहिं सखि आसासइ प्रियवयणेहिं ॥ ३३ ॥ भणइ देवि विरती संसार पडिखि पडिखि मइ जादवसार । नियपडिवन्नउं प्रभु संभारि मइ लइ सरिसी गढि गिरिनारि ॥ ३४ ॥ आसाह दिदु हियउं करेवि गज्जु विज्जु सवि अवन्नेव । भइ वयणु उग्रसेणह जाय करिसु धम्मु सेविसु प्रियपाय || ३५ ॥ मिलिउ सखी राजल पभणंति चिणय जेम न मिरिय खज्जति । अउगी अच्छि सखि झखि मन आल तपु दोहिल्लउ तरं सुकुमाल || ३६ अठभव विलसिउ प्रियह पसाइ किमइ जीवु सखि सुख न धाइ । हिव प्रिय सरिसउं जीविय मरणु इण भवि परभवि निमि जु सरणु ॥ ३७ अधिक मासु सवि मासहि फिरइ छह रितुकेरा गुण अणुहर | मिलिवा प्रिय ऊबाहुलि हय सउ मुकलाविय उग्रसेणधूय ॥ ३८ ॥ पंच सखी सइ जसु परिवारि प्रिय ऊमाही गइ गिरिनारि । सखीसहित राजल गुणरासि लेइ दिक्ख परमेसरपासि ॥ ३९ ॥ निम्मल केवलनाणु लहेवि सिद्धी सामिणि राजलदेवि । रयणसिंहसूरि पणमवि पाय बारइ मास भणिया मइ भाय ॥ ४० ॥ नेमि कुमरु सुमरवि गिरनारि सिद्धी राजल कन्नकुमारि । ४९८ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ४९९ (२) जिनपद्मसूरि-चौदमो सैको सिरिथूलिभदफागु (प्राचीन गुर्जरकाव्यसंग्रह, वडोदरा) पणमिय पास जिणंद पय अनु सरसइ समरेवी । थूलिभद्द मुणिवइ भणिसु फागुबंधि गुण केवी ॥ १ ॥ अह सोहग सुंदर रूववंतु गुणमणिभंडारो । कंचण जिम झलकंतकंति संजमसिरिहारो । थूलिभद्दमुणिराउ जाम महियलि बोहंतउ । नयररायपाडलियमाहि पहुतउ विहरंतउ ॥ २ ॥ वरिसालइ चउमासमाहि साहू गहगहिया । लियइ अभिग्गह गुरह पासि नियगुणमहमहिया । अज्जविजयसंभूयसूरि गुरु वय मोकलावइ । तसु आएसि मुणीस कोसवेसाघरि आवइ ॥ ३ ॥ मंदिर तोरणि आवियउ मुणिवरु पिक्खेवी । चमकिय चित्तिहि दासडिय वेगि जाइ वधावी । वेसा अतिहि उतावलीय हारिहि लहकंती। आविय मुणिवररायपासि करयल जोडंती ॥ ४ ॥ भास-धर्मलाभु मुणिवइ भणि सु चित्रसाली मंगेवी । रहियउ सीहकिसोर जिम धीरिम हियवि धरेवी ॥ ५॥ झिरिमिरि झिरिमिरि झिरिमिरि ए मेहा वरिसंति । खलहल खलहल खलहल ए वहिला वहति Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति झबझब झबझब झबझब ए वीजुलिय झबकइ थरहर थरहर थरहर ए विरहिणिमणु कंपइ ॥ ६॥ महुरगंभीरसरेण मेह जिम जिम गाजते । पंचबाण निय कुसुमबाण तिम तिम साजते । जिम जिम केतकी महमहंत परिमल विहसावइ । तिम तिम कामिय चरण लग्गि नियरमणि मनावइ ॥ ७ ॥ सीयलकोमल सुरहि वाय जिम जिम वायते । माणमडप्फर माणणि य तिम तिम नाचते । जिमजिम जलभरभरिय मेह गयणंगणि मिलिया । तिमतिम कामीतणा नयण नीरिहि झलहलिया ॥ ८ ॥ भासमेहारवभरऊलटिय जिम जिम नाचइ मोर । तिम तिम माणिणि खलभलइ साहीता जिम चोर ॥ ९ ॥ अइ सिंगारु करेइ वेस मोटइ मनऊलटि । रइय रंगि बहुरंगि चंगि चंदणरस ऊगटि । चंपयकेतकिजाइकुसुम सिरि धूप भरेइ । अतिआछउ सुकमाल चीरु पहिरणि पहिरेइ ॥ १० ॥ लहलह लहलह लहलह ए उरि मोतियहारो । रणरण रणरण रणरण ए पथि नेउरसारो। झगमग झगमग झगमग ए कानिहि वरकुंडल । झलहल झलहल झलहल ए आभरणहं मंडल ॥ ११ ॥ मयण खग्ग जिम लहलहंत जसु वेणीदंडो। सरलउ तरलउ सामलउ रोमावलिदंडो। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य तुंग पयोहर उल्लसह सिंगारथवक्का | कुसुमबाण निय अमियकुंभ किर थापणि मुक्का ॥ १२ ॥ भास - काजलि अंजिवि नयणजय सिरि संथ फाडेई । बोरीयावाड कांचुलिय पुण उरमंडल ताडे ॥ १३ ॥ कन्नजुयल जसु लहलहंत किर मयणहिंडोला चंचल चपल तरंगचंग जसु नयण कचोला 1 सोहइ जासु कपोलपालि जणु गालिमसूरा । कोमल विमलु सुकंठु जासु वाजइ संखतूरा ॥ १४ ॥ लवणिमर सभरकूवडिय जसु नाहि य रेहइ । मयणराय किर विजयखंभ जसु ऊरू सोहइ । जसु नहपल्लव कामदेवअंकुस जिम राजइ । रिमिझिमि रिमिझिमि ए पायकमलि घाघरिं य सुवाजइ ॥ १५ ॥ नवजोवनविलसंतदेह नवनेहगहिल्ली । परिमललहरिहि मयमयंत रइकेलि पहिली । अहर बिंब परवालषंड वर चंपावन्नी । नयणसलूणी य हावभावबहुगुणसंपन्नी ॥ १६ ॥ भास — इय सिणगार करेवि वर जब आवी मुणिपासि । जोएवा कउतिगि मिलिय सुरकिंनर आकासि ॥ १७ ॥ अह नयणकडक्खहं आहणए वांकउ जोवंती 1 हावभाव सिणगार भंगि नवनवि य करंति । तह वि न भीजइ मुणिपवरो तउ वेस बोलावइ । तवणुतुल्लु तुह देह नाह ! मह तणु संतावइ ॥ १८ ॥ ५०१ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बारहवरिसहंतणउ नेहु किणि कारणि छंडिउ । एवडु निठुरपणउ कंइ मूसिउ तुम्हि मंडिउ । थूलिभद्द पभणेइ वेस अह खेदु न कीजइ । लोहिहि घडियउ हियउ मझ तुह वयणि न भीजइ ॥ १९ ॥ मह विलवंतिय उवरि नाह अणुराग धरीजइ । एरिसु पावसु कालु सयलु मूसिउ माणीजइ । मुणिवइ जंपइ वेस सिद्धिरमणी परिणेवा । मणु लीणउ संजमसिरीहिसुं भोग रमेवा ॥२०॥ भास-भणइ कोस साचउ कियउ नवलइ राचइ लोउ । मूं मिल्हिवि संजमसिरिहि जउ रातउ मुणिराउ ॥२१॥ उवसमरसभरपूरियउ रिसिराउ भणेइ । चिंतामणि परिहरवि कवणु पत्थर गिण्हेइ । तिम संजमसिरि परिचएवि बहुधम्मसमुज्जल। आलिंगइ तुह कोस कवणु पसरंतमहाबल ॥२२॥ पहिलउ हिवडा कोस कहइ जुव्वणफलु लीजइ । तयणंतरि संजमसिरीहि सुह-सुहिण रमीजइ । मुणि बोलइ जि मइ लियउ तं लियउ ज होइ । कवणु सु अच्छइ भुवणतले जो मह मणु मोहइ ॥२३॥ भास-इण परि कोसा अवगणिय थूलिभद्दमुणिराइ । तमु धीरिम अवधारि-करि चमकिय चित्ति सुहाइ ॥२४॥ अइबलवंतु सु मोहराउ जिणि नाणि निधाडिउ । झाणखडग्गिण मयणसुभड समरंगणि पाडिउ। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०३ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य कुसुमवुट्टि सुर करइ तुहि हुउ जयजयकारो। धनु धनु एहु जु थूलिभद्द जिणि जीतउ मारो ॥२५॥ पडिबोहिवि तह कोसवेस चउमासि अणंतरु । पालिय-ऽभिग्गह ललिय चलिय गुरुपासि मुणीसरु । 'दुक्करदुक्करकारगु'त्ति सूरिहि सु पसंसिउ संखसमुज्जलजसु लसंतु सुरनरहं नमंसिउ ॥ २६ ॥ नंदउ सो सिरिथूलिभद्द जो जुगह पहाणो। मलियउ जिणि जगि मल्लसल-रइवल्हमाणो । खरतरगच्छि जिणपदमसूरि किय फागु रमेवउ । खेला नाचई चैत्रमासि रंगिहि गावेवउ ॥ २७ ॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्यभाग चौदमो सैको अतिचार संवत्-१३४० आशरे -(प्राचीन गुर्जरकाव्यसंग्रह, वडोदरा) कालवेला पढयं, विनयहीणु बहुमानहीणु उपधानहीणु गुरुनिण्हव अनेराकण्हई पढ्यं अनेरई कहई व्यंजनकूडु अर्थकूडु तदुभयकूडु कूडउ अक्खरु कानइ मात्रिं आगलउ ओछउ दे-वंदणवांदणइ पडिक्कमणइ सझाउ करतां पढतां गुणतां हुउ हुयइ, सूत्रु अथु बेउ कूडां कह्यां हुइ, ज्ञानोपकरण पाटी पोथी कमली सांपुडं सांपुडी आशातन पगु लागउ धुंकु लागउ पढतां प्रद्वेष मच्छरु अंतराइउ हउं कीधउ हुई तथा ज्ञानद्रव्यु भक्षितु उपेक्षितु प्रज्ञापराधि विणास्य विणासितउं ऊवेख्यं, कुंती सक्ति सारसंभाल न कीधियइ अनेरइ ज्ञानाचारि उ कोइ अतीचारु हुउ सुक्ष्मबादरु मनि वचनि काइ पक्षदिवसमांहि तेह सवहि मिच्छा मि दुक्कडं । प्रतिषिद्ध जीवहिंसादिकतणइ करणि, कृत्य देवपूजा धर्मानुष्ठानतणइ अकरणि, जि जिनवचनतणइ अश्रद्दधानि विपरीतपरुपणा एवं बहु प्रकारि जु कोइ अतीचारु हुयउ पक्षदिवसमांहि ॥ (२) नवकारव्याख्यानम्-(प्राचीन गुर्जरकाव्यसंग्रह, वडोदरा) नमो अरिहंताणं॥ माहरउ नमस्कारु अरिहंत हउ । किसा जि अरिहंत; रागद्वेषरूपिआ अरि वयरी जेहि हणिया, अथवा चतुषष्टि इंद्रसंबंधिनी Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५०५ पूजा महिमा अरिहइ जि उत्पन्नदिव्यविमलकेवलज्ञान, चउत्रीस अतिशयि समन्वित, अष्टमहापातिहार्यशोभायमान महाविदेहि खेत्रि विहरमान-तीह अरिहंत भगवंत माहरउ नमस्कारु हउ ॥१॥ नमो सिद्धाणं ॥ महारउ नमस्कार सिद्ध हउ । किसा जि सिद्ध दुष्टाष्टकर्मक्षउ करिउ जि मोक्षि ग्या। आठ कर्म किसा भणियइ ? ज्ञानावरणीउ x x x अंतराउ ईह आठकर्मक्षउ करिउ जि सिद्धि ग्या । किसी ज सिद्धि; लोकतणइ अग्रविभागि पंचत्तालीस लक्षयोजनप्रमाणि जिसउं उत्ताणु छत्तु तिसइ आकारि ज सिद्धिसिला, अमलनिर्मल जलसंकास जु अजरामरस्थानु तेह ऊपरि योजनसंबंधियइ चउवीसमह य विभागि जि सिद्ध अनंत सुखलीण ति सिद्ध भणियइ । तीह सिद्ध महारउ नमस्कारु हउ ॥२॥ नमो आयरियाणं ॥ माहरउ नमस्कारु आचार्य हुउ। किसा जि आचार्य ? पंचविधु आचारु जि परिपालइ ति आचार्य भणियइ । किसउ पंचविधु आचारु ? ज्ञानाचारु + ++ वीर्याचारु, यउ पंचविधु आचारु जि परिपाल इति आचार्य भणिइ। तीह आचार्य माहरउ नमस्कार हउ । नमो उवज्झायाणं॥ माहरउ नमस्कार उपाध्याय हुउ। किसा जि उपाध्याय ? द्वादशांगी जि पढइ पढावइ । किसी ज द्वादशांगी ? आचारांगु सुयगड + + + दृष्टिवादु ए बार आंग जि पढइ पढावइ ति उपाध्याय भणियइ । तीह उपाध्याय माहरउ नमस्कारु हुउ। ___ नमो लोए सव्वसाहूणं ॥ ईणि लोकि जि कोई अछइ साधु । यउ लोकु च किसउ भणियइ । अढाई द्वीपसमुद्र पनर कर्मभूमि । xxx ईह पनर कर्मभूमिमाहि जि केई अच्छइ साधु । xxx तीह साधु सर्वहीं माहरउ नमस्कारु हुउ। ___ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति । एसो पंच नमोकारो ॥ एउ पंचपरमेष्ठिनमस्कार । पंच परमेष्टि किसा ? जि पूर्वोक्त भणिया अरिहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु इह पंचपरमेष्ठिनमस्कारु भावि क्रियमाणु हुँतउं किसउं करइ ? सव्वपावप्पणासणो ॥ सर्वपापप्रणास कारियउ हुइ । ईणि जीवि चतुर्गतिकि संसारि भवभ्रमणु करतइ हुंतइ जि असुभलेश्या उपायी पापु सु ईणि पंचपरमेष्ठिनमस्कारि महामंत्रि सुमरीतइ हुंतइ क्षउ हुयइ । । ___ मंगलाणं च सव्वेसिं पढम होइ मंगलं ॥ ईणि संसारि दधि-चंदनदूर्वादिक मंगलीक भणियइ । तीह मंगलीक सर्वहीमांहि प्रथमु मंगलु एहु । ईणि कारणि सुभकार्यआदि पहिलउं सुमरेवउं जिव ति कार्य एहतणइ प्रभावइ वृद्धिमंता हुयइ । यउ नमस्कारु अतीत–अनागत-वर्तमानचउवीसीआदिजिनोक्तसारु । सु तुम्हे विसेषहइ हिवडातणइ प्रस्तावि अर्थयुक्तु ध्येयु ध्यातव्यु गुणेवउ पढेवउ । xxx अनइ एहु नमस्कार स्मरता इहलोकतणा भय नासइ । xxx ईणि नवकारि नव पद पांच अधिकार सत्तसहि अक्षर तीहमाहि छ भारी इकसठि लघु । इसउं नमस्कारतणउं माहातम्यु। अतिचार संवत् १३६९-(प्राचीन गुर्जरकाव्यसंग्रह, वडोदरा) तउ तुहि ज्ञानाचार + + + पंचविध आचार विषझ्या अतीचार आलोउ । ज्ञानाचारि कालवेला पढिउ गुणिउ विनयहीनु बहुमानहीनु उपधानहीनु गुरुनिन्हवु अनेरीकन्हइ पढिउं अनेरउ कहिउ । व्यंजनकूट अक्षरकूट कानइ मात्र आगलउ ओछउ देवबंदणइ पडिक्कमणइ सज्झाओ करतां पढतां गुणतां हुओ हुइ, अर्थकूट तदुभयकूट ज्ञानोपकरणि पाटी Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५०७ पोथी ठवणी कमली सांपडा सांपडी पति आसातना पगु लागउ थुकु लागउ पढतां गुणतां प्रद्वेषु मच्छर अंतराइ हुउ कीधउं हुइ भवसगलाहइमांहि तेह मिच्छा मि दुक्कडं । - मृषावादि सहसातकारि आलु अभ्याख्यानु दीधउं, रहसमंत्रभेदु कीधर मृषोपदेसु दीधउ कुडउ लेखु लिखिउ कुडी साखि थापणिमोसउ कुणहइसउ राडिभेडि कलहु विढाविढि जु कोइ अतिचारु मृषावादि व्रति भवसगलाइमाहि हुउ त्रिविधि त्रिविधि मिच्छा मि दुक्कडं । __ अदत्तादानि विराइउं छानउं फीटुउं लीधउं दीधउं वावरिलं, घरि बाहिरि खेत्रि खलइ पाडइ पाडोसि अणमोकलाविउ चोरीच्छाई चोर प्रति प्रयोगु कीघउ, नवउं पुराणउ रसु विरसु सजीवु निजीयु मेलिउं, कूडी तूल कूडइ मापि कूडउ कहिउ हुइ, अतीचारु अदत्तादानि ति भवसगलाइमांहि हुउ तेह सवहइ मिच्छा मि दुक्कड्ड । __मैथुनव्रति लुहुडपणि आपणा विराया सील खंड्या सिउणइ सिउणांतरि दृष्टिविपर्यासु आठमि-चउदसितणा नीमभंगु, अनंगक्रीडा परविवाहकरणु तिवाभिलाषु धरिउ हुइ अनेरा जु कोइ अतिचारु मैथुनव्रति भवसगलाइमांहि हुअउ तेह सवहइ त्रिविधि त्रिविधि मिच्छा मि दुक्कडं । __हव हियामाहिं सम्यक्त्व धरउ । अरिहंत देवता सुसाधु गुरु जिणप्रणीतु धर्म सम्यक्त्वदंडकु ऊचरउ । हिव अठार पापस्थानक वोसिरावउ, सर्व प्राणातिपात सर्वृ मृषावाद सर्दू अदत्तादान सर्व मैथुन सर्व परिग्रह सर्दू क्रोधु सर्व मानु सर्व माया सर्व लोभु राग द्वेषु कलहु अभ्याख्यानु पैशुन्यु रति-अरति परपरिवादु मायामृषावादु मिथ्यात्वदरिसणसल्यु ए अढार पापस्थान मोक्षमार्ग संसर्ग विघनसमान त्रिविधि त्रिविधि वोसिरावउ, अतीतु निंदउ अनागतु पच्चक्खउ वर्तमान संवरु । सागारु प्रत्याख्यानु उ । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति खमिउं खमाविउं मई खमिउ छव्विह जीवनिकाय । सिद्धह दिन्ना लोयणा नइ मह वइरु न पावु ॥ हिव दुकृतगरिहा करउं । जु अणादि संसारमाहि हीडतइ हूतइ ईणि जीवि मिथ्यात्वु प्रवर्ताविउ । कुतीर्थ्य संस्थापिउ कुमार्ग प्ररूपिउ सन्माणु अवलपिउ। हिवु ऊपाजि मेव्हिं, सरीरु कुटुंबु जु पापि प्रवर्तिउ, जि अधिगरण हल ऊखल घरट घरटी खांडां कटारी अरहट्ट पावटा कूप तलाव कीधां कराव्यां अनुमोद्या ते सवे त्रिविधि त्रिविधि वोसिरावउ । देवस्थानि द्रवि वेचि पूजा महिमा प्रभावना कीधी तीर्थजात्रा रथजात्रा कीधी पुस्तक लिखाव्यां साधर्मिक वाछल्य कीधां तप नीयम देववंदनवांदणांइ सज्याइ अनेराइ धर्मानुष्ठानतणइ विषइ जु ऊजमु कीधर सु अम्हारउ सफल हुओ। इति भावनापूर्वकु अनुमोदउ । ( चौदमो सैको पूरो) Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यभाग ( १ ) पंदरमो सैको एक मुसलमान साक्षरनी कृति संदेशकरास - कर्ता आशरे पंदरमो सैको ( रा० मधुसूदन मोदीनी हाथप्रत ) रयणायर - घर - गिरि-तरुवराई गयणंगणम्मि रिक्खाई । जेण ज्ज सयल सिरिया सो बुहयण वो सुहं दिंतु ॥ १ ॥ पच्चास पहूओ पुव्वपसिद्धो य मिच्छदेसो वि । तह विस संभूओ आरो मीरसेणस्स (क्खो ) ॥ ३॥ तह तणओ कुलि कमलो पाईयकव्वेसु गीयविसएसु । अद्दहमाण पसिद्धो संनेहयरासयं रईयं ॥ ४ ॥ पुव्वछेयाणं णमो सुकईण य सदसत्यकुसलाण । तिअलोए सुच्छंद जेहिं कथं जेहिं निद्दिट्टं ॥ ५ ॥ अवहट्टय - सक्कय - पाइयं च पेसाइयम्मि भासाए । लक्खणछंदाहरणे सुकइत्तं भूसियं जेहिं ॥ ६ ॥ ताणाऽणु कई अम्हारिसाणं सुइ - सदसत्थरहियाणं । लक्खणछंदपमुकं कुकवित्तं को पसंसेइ ? ॥ ७ ॥ जइ परहुएहिं रडियं सरसं सुमनोहरं च तरुसिहरे । ता किं भुवणारूढा मा काया करकरायंतु ? ॥ ९ ॥ मीरसेणतनय अद्दहमाण - अब्दलरहमान Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जइ अत्थि णई गंगा तिअलोए णिच्चपयडियपहावा । वच्चइ सायरसमुहा ता सेससरी म वच्चंतु ? ॥ १३ ॥ जइ सरवरम्मि विमले सूरे उइयम्मि विअसिआ नलिणी। ता किं वाडिविलग्गा मा विअसउ तुंबिणी कह वि ? ॥ १४ ॥ जइ भरहभावछंदे नच्चइ नवरंगचंगिमा तरुणी । ता किं गामगहिली तालीसदे ण णच्चेइ ? ॥ १५ ॥ जइ बहुलदुद्धसंमिलिया य उल्ललइ तंदुला खीरी । ता कणकुक्कससहिआ रब्बडिया मा दडव्वडउ ? ॥ १६ ॥ जा जस्स कव्वसत्ती सा तेण अलजरेण भणियव्वा । जइ चउमुहेण भणियं ता सेसा मा भणिजंतु ॥ १७ ॥ + + तं जि पहिउ पिक्खेविणु पियउक्कंखिरिय मंथर गय सरलाविअ उत्तावलि चलिअ तह मणहर चलंतिअ चंचलरवणि भरि छुड्डवि खिसीअ रसणावलि किंकणि गय पसरि ॥२७॥ गाहा तं निसुणेविणु रायमरालगइ चरणंगुट्टि धरत्ति सलजिर उल्लिहइ । तं पंथिउ कणयंगि तत्थ बोलाविअउ । कह जाइसि हिव पहिय कह व तुह आइअउ ॥ ४२ ॥ णयरणामु सामोरु सरोरुहदलनयणि णायरजण संपुन्न हरिस ससिहरवयणि । धवलतुंगपायारिहिं तिउरिहिं मंडियउ ण हु दीसइ कुइ मुक्खु सयल जण पंडियउ॥४३॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य विविविअक्खण सत्थिहिं जइ पवसीइ णिरु सुम्मइ छंदु मणोहरु पायउ महुरयरु | कह व ठाइ चउवेइहि वेउ पयासिअइ कह बहुरूवि णिबद्धउ रासउ भासीअइ ॥ ४४ ॥ कह व ठाइ सुदवच्छ कत्थ वर नलचरिउ कत्थ व विविहविणोइहि भारह उच्चरिउ कह व ठाइ आसीसिअ चाईय दय वरिहिं रामायण अहिणवीअइ कत्थ वि कयवरिहिं ॥ ४५ ॥ के आइन्नहि वंशवीणा - काहल - मुरउ कह पयवन्त्रणिबद्ध सुम्मइ गीयरउ । यहि सुमत्थ पीण उन्नयथणिहिं चलहि चोअ करंतीअ कत्थ वि णणिहिं ॥ ४६ ॥ नर अउव्व विभविय विविहनडनाड हि मुच्छिजहि पवसंति य वेसावाड हि महिका व मयविंभल गुरुकरिवरगमणि अन्न रयणतांडकहि परिघोलिरसवणि ॥ ४७ ॥ + तवणि तित्थु चाउदास मियच्छि ! वखाणीयइ मूलथाण सुपसिद्धउ महियलि जाणियइ । तिह हुंत हउं इक्किणि लेहउ पेसियउ भाइत्तिहिं वच पहु आएसियउ ॥ ६७ ॥ एय वयण आयन्निव सिंधुब्भववयणि ससिउ सासु दीउन्हउ सलिलब्भवनयणि । + ५११ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तोडि करंगुलि करुण सगग्गिरगिरपसरु जालंधरि व समीरिण मुद्ध थरहरीअ चिरु ॥ ६८ ॥ रुइवि खणद्धउ फुसवि नयण पुण वज्जरिउ खंभाइत्तह णामि पहिय तणु जजरिउ । तह अच्छड् महु णाहु विरहउल्हावयरु अहियकालु गम्मियउ ण आयउ णिद्दयरु ॥ १९॥ __ + + + संनेहडङ सवित्थरउ हउ कहणह असमत्थ भण प्रिय एकतु वलियडइ बे वि समाणइ हत्थ ॥ ८३ ।। संदेसडउ सवित्थरउ पर मई कहणु न जाइ । जो कालुंगुलिमूंदडउ सो बाहडी समाइ ॥ ८४ ॥ तुरिय णिअगमणु इच्छंतु तत्तक्खणे दोहिया सुणवि साहेइ सुविअक्खणे कहसु अह अहिउ जं किंपि जंपिव्वउ मग्गु अइदुग्गु मई मुंध ! जाइव्वउ ॥ ८५॥ + + + जिण हउं विरहकुहरि एव करि घल्लिआ अत्थलोहि अकयत्थि इकल्ली मिल्हीआ संदेसडउ सवित्थरु तुह उत्तावलउ पहिअ पिअ गाह क्यु तह डोमिलउ ॥ ९५ ॥ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५१३ पियविरहविउए संगमसोए दिवसरयणि झूरंति मणे णिरु अंगि सुसंतहं बाह फुरंतहं अप्पह णिदय किपि भणो तसु सुयण निवेसिय भाइण पेसिय मोहवसिण बोलंत खणे मह साइयवक्खरु हरि गउ तक्खरु जाउ सरणि कसु पहिय ! भणो ॥९८॥ इहु डोमिलिउ भणेविणु नित्त महु महुरवयणि हुईय णिमिस णिफंद सरोरुहदलनयणि । ण हु किहु कहिउ ण पिक्खइ जं पुणु अवरु जणु चित्त भित्ति णं लिहिय मुद्ध सच्चविअ क्खणु ॥ ९९ ॥ (२) कवि-असाईत-संवत् १४१७-हंसाउली (गुजरात वर्नाक्युलर सोसाइटीना हस्तलिखित गुटकामांथी ) सकति संभूअ सकति संभूअ पत्त परमेसु । सिद्ध बुद्धि वर विघनहर करु कवित मनि धरूं आदिहि । कासमीरमुषमंडणी हंसगमणि सरसति सामिणि । तास प्रसादि वेदव्या वालमीक रषि इम एहनु उपदेस । तास प्रसादि असाईत भणि वीरकथा वरणव्योस ॥ १॥ अमरावतीसमाणं पेषि प्रमाणं पहूअवयाणं पुर पाटण पहिठाणं अहिठाणं वीरबावनया ॥ २॥ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति चउपई यादवतणु वंश वरणवू । वचनरसनाटिकअभिनवु । एता उदभूत वीत कवीत । भणता गणता पसरि चीत ॥३॥ चउपई सालिवाहन सुत उत्तम ठाइ राज करि तिहां नरवाहन राइ बावनवीरमाहि झूझार-लहुड्डु भाई शकतिकुमार । शखिरबद्ध दस सहस प्रासाद कनककलसधज नरवि नाद । गोदावरीइ निरमलनीर पुर पहिठाण वसि तिहां तीर ॥५॥ ब्राह्मण वेदशास्त्र अभ्यसि चारि वरण वरणांतरि वसि । बि सहस जिहां जिन थापीआ वीस सहस माहि व्यवहारीया॥६॥ उत्तम धवलहर पोलि पगार वास नगर नव जोअण बार चउरासी चउहट्टे वुहरीइ राइचा उसव बंदिणि दीइ ॥ ७॥ सांथ जात्र जूवटा घणा कलहट कोलाहल तेहतणां । एक चउषलीया कुडी घसि वेसहरि मंदिर वीससि ॥ ८ ॥ रूडी रूपि राजकूअरी त्रिणिसि साठि अंतेउरी। बहू वाराइत वानि घणि दासी त्रीस सहस तेहतणी ॥९॥ राजरुधि नवनधि नरमली चतुरंग सेन छत्रीसि कुली। बावनवीर सदा गहिगहि पणि त्रिपनमु न वि सासहि ॥ १०॥ तेणि पुरि पाटणि नयरनरिंद एक वार पुढिउ निरु नीद । थयुं प्रभात सुपनंतर होइ ऊगिउ सूर न जागि सोइ ॥११॥ गियु कणयापुर पाटणि ठाइ परणि कुंयरि कनकभ्रम राइ । हंसाउली कर ग्रहीउ जसि सपन प्रेम मनि लागु जसि ॥१२॥ ____ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य रवि पुढ परवसि चीत कोइ न जाणि मन भयभीति । राजद्वारि मिल्या जे मानि राइ ऊठाडु जई प्रधानि ॥ १३ ॥ ऊठिउ राजा थयु गुण दोस कप्पिउ काल मन वसीउ रोस । भणि काज वणास्युं मुझ धरी छुरी करि मारुं तुझ ॥ १४ ॥ भणि मनकेसरि सामि हू साध देव म मारिस विण अपराध । राजा करि सो निसि होइ विण अपराध न मारि कोइ ॥ १५ ॥ X X X ऋणि प्रछनगति चालीया विषम वाट वन लंघी गया । किहा विप्र कहा योगी थाइ देशांतरी तणी मलि जाइ ॥ ३० ॥ एक बस एक उद्वस घाट सावज चोर चरड ते वाट । अनेक उपाय अनोपम कीया त्रिहू मासे कणयापुर गया ॥ ३१ ॥ कणयापुर पाटण घणदेस कनकभ्रम कहीइ नगर नरेस | गढ मढ मंदिर पोलि पगार वास नगर नव जोअण बार ॥ ३२ ॥ दूहा सरोवर पालि ऊतरया बाडी करया विश्राम | ततक्षणि चाल्यु कापडी गजन करीय प्रणाम ॥ ३३ ॥ चउपई बिहू जण सरसु नगर नरेस कणयापुरि कीधु परवेस । राजलक्षण जे जाणइ विवेक साहमी आवी मालणि एक ॥ ३४ ॥ एहवी बुद्धि न जाणि अन तेणीइ परण्या पुरुष रत्तन ॥ ३५ ॥ X ५१५ X X विवध फूल फल नव नैवेद्य वीणा वंश गाइ गुणभेद । सोइ जि परवरी पंचसि नारि दीठी कुंयरि मंत्रि मढि बारि ॥ ५२ ॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति यु देवी तव बुद्धि निधान हाकि मुनिकेसर प्रधान । नरहत्या तिकीधी घणी मुझ मढि म रहेसि पापिणी ।। ५३ ।। हंसाउली शब्द जव सुणी जाण्युं देवि कुपी मुझ भणी | करजोडीनि ऊभी रहि गतपूरव भव वीतक कहि ॥ ५४ ॥ देवि अवधारु मुझ वीनती पेलि भवि हूं पंषिणी हती । ईडा मेहला सेवन कीउ दव बलतउ तेणि वनि आवीउ ।। ५५ ।। मझ भरतारि साहस नवि कीउ अपति मेहलीनि ऊडी गयु । जातीसमरणि संभारु सो इ मारु पुरुष न मेलुं कोई ॥ ५६ ॥ x X द्वितीय खंड - मास दिवस मनि निस्यु धरु सयंवरतणी सजाई करु | कुयरितणा चरण प्रणमेवि चाल्यु चित्रक संबल लेवि ॥ ६३ ॥ चतुर्थ खंड राजा भणि सेठि मनि धरु विवहारीआ कहि ते करु । तारि चोर चलाव्यु जसि सेरीइ श्रावक मिलीया तिसि आपण पा माहि मचका करि महेसरी भलु छि सेठि । धोति कमाइ पहिरणि सरि सनान सहू तापस भणि ॥ २८ ॥ X X एक भणी मिथ्याती तजु आठ कर्म काई ऊपारजु । जो तारतणी मनहोर आइ उपाइ मेलावु चोर ॥ २९ ॥ कुंरि वषारि दीधी देठि बिठउ दीठउ सूमणसेठि । X X Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य वछराज वषारि गयु तव सेठ साहमु ऊठीउ ॥ ५ ॥ ते वनि मि मेहलउ भाई लेइ चंदन चालिसु तिणि ठाइ । देई दाघ आवुं जेतलि तम थापणि आपु तेतलि ॥ ८ ॥ विवहारीया वीर बीससु दीटुं रतन सेठि मनि हस्यु ॥ ९ ॥ ते द्रव्य आप्युं तेणि वार वहित्रा सरि दीधु भार ॥ 11 0 कुमर पूठि वहित्रा थर सात गाऊ सोवनगिरि गयु । जइ जोऊं सरोवरपालि नहीं शब ते वडनी डालि ॥ ११ ॥ कुंयर चरण विमासि हीइ इहा उपद्रव साविजनुं होइ ॥ १२ ॥ ते चंदन सुपिडं ते धणी अचरिज वात कही आपणी । आपु थापणि जे तुम्ह हाथि हवि चालसुं अवर कहि साथि ॥ १५॥ आघा पाछा पगला भरि थापणिमोसु करवा करि । दीठा बार रतन बे तुरी लोभि सेठितणी बुद्धि फरी ॥ १६ ॥ ५१७ धन भणीइ अनरथनूं मूल धन अदेषु माथाशूल । धन कारणि एक कूडा करि धन वदि सगा सहोदर मरि ॥ १७ ॥ कुणबा रोस धन कारणि पडि धन कारणि एक वाहणि चडि । धन कारणि हुइ कृपण कठोर धन कारिणइ एक पइसइ चोर ॥ १८॥ धन कारण एक नीद्र न करि धन कारणि राजा रणि मरि । धन कारण रानि एक रलि धन वदि हाथे हृदा वलि ॥ १९ ॥ धन कारण एक पाडि वाट मारि अबला बंभण भाट ॥ २० ॥ भणि चडउ अस्व पूठि पल्हाण बार रतन तम आपु आणि ॥ २१ ॥ कुंयर तुरी छोडेवा गयु एक चड्डु एक वागि लीउ अश्व ऊपर जब दीठउ सेठि बूब पडावी सूमणसेठि ॥ २२ ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पंचम खंड-- चुपई सहित सुषासण आव्या तुरी ग्यु रा लगुनि सहु संचरी। भणि हंस अपराधी धरु सेठि सकुटंब सूली धरिउ ॥९॥ भणि वच्छ करमि दीजि दोस पिता मंत्रेई म धरसि रोस । लषिउ विधाता ते दिन तसिउ ऊपरि त्रणा कुहाडु कस्युं ॥१०॥ पुनरपि वछराज इम भणि निहालि हरिचंद चरित तइ सुणि । राम युधिष्टर चाल्या धर्म हंसराज नवि छूटा कर्म ॥ ११ ॥ ततषिण हंस विमासि हीइ वीरवचन केणी परि लोपीइ । राजरीति चित चाहि रंग मेहल्यु सेठि लेई सप्तांग ॥१२॥ कीधु बहू आलोच आवासि सुपिउ राजप्रधानह पासि । सकल सेन सहित चालीया पुर पहइठाण नगर ते गया ॥ १३ ॥ भेट्या मात तात परिवार तलीया तोरण वनरवालि छाबि सेसि भरी वछ काजि ॥ १४ ॥ भणता दोष दरिद्र तनि टलि भणि असाईत अफला फलि । भणि भणावि नित गुणि नवनधि आवि अंगणि ॥१७॥ संवत १४ चऊ चंद्रमुनि शंष वछहंसबर चरित असंघ । बावन वीरकथा रस लीउ एह पवाडु असाईत कहिउ ॥ १८ ॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य (३) सदयवत्सचरित्र उर्फे सदयवत्सप्रबंध संवत् १४८८- कर्ता भीम कवि-(आचार्य श्री आनंदशंकर ध्रुव संपादित वसंत वर्ष १५ अं० ३-७ वर्ष १९७२) संवत् १४८८ वर्षे फाल्गुन x x x भौमे श्रीपत्तने लिखित विद्वज्जनमनःप्रमोदाय विनोदमात्रम् । छ । श्रीः । इम भणीइ भीम तसु गुण थुणिसु जो हरसिद्धि वर लब्ध । अथवा कवि भीम तास गुण विन्नविसु जो हरसिद्धि वर लब्ध वस्त विप्प जंपइ विप्प जंपइ निसुणि नरनाह । जयवंती ज्योतिषकला कुलकम्मि अम्ह अछइ अग्गइ । वत्तारउ संवच्छरह नष्ट-जन्म नवि चित्ति लगइ । जं सुरपुरि जं नरभुवणि जं जं हुइ पायालि । नरवर निजमंदिरथिकू तं जाणूं तिणि कालि ॥ १५ ।। लगन लिहंत वहंत तीणइ कहीय षडि कर झल्लि । जइ पुच्छिसि पहु वच्छ पहु मरइ ति कुंजर कल्लि ॥ १९ ॥ धाइ धसइ अनइ धडहडइ किरि आसाढि अंबर गडअडइ । आपूं अंगतणउं शृंगारु आफू एकाउलिनउ हार । आफू अधिक वलीउ पसाउ जे बलीउ बांधइ गजराउ । गजि चउहटइ जइ मंडिउ गाह पानतणां सवि लाण्यां लाह । फूलतणा तहि पूर्या पगर मइगलि माथि की— नगर । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पुहतउ श्रेणी सुगंधीतणी राजवस्त्र मेली रेवणी । लांषइ केसर नइ कपूर वास्यां तेल वहाव्यां पूर ।। ३६ ॥ तीणइ दीठइ दोसी दडवडइ पारिषिनइ पगि पीडी चडइ । फडीया फोफलीया सूनार नाठा लोक न जाणइ सार ॥ ३७ ॥ हाटमांहि हउं हालकुलोल किरि कमलावति करइ कलोल । पोता लाष्या पारिषितणां कापडि सरिस किरियाणा घणां ॥३८॥ एकि अटगलि मालि गढि चड्या इकि पाधरि दस दिसि दडवड्यां। इकि छावडां अछइ छडछोक ते सीकिइ थ्या लूसइ लोक ॥३९॥ आगइ पंचायण पाषरिउ आगइ पन्नग पंषावरिउ । आगइ गज अंगि ज मदरूत वलि वारुणी भवि थिउं भूत ॥४१॥ सुंडाहल पूरइ परचंड दंतूसल जाणे जमदंड । पाडइ विसमा पोलि प्रसाद नर-नरिंद उतारइ नाद ॥ ४२ ॥ पाधडीतव आविउ धाइउ ते नारीभरतार बुंबारव पण करइ अपार । कोइ सुभट शूर साहसिक शुद्ध कोइ धीरवीर वंसह विशुद्ध ॥५१॥ कोइ जाइउ चउदिसि चपल अंग कोइ अकल अटल आहवि अहंग। कोइ खित्तीय षलषंडणसमत्थ को अछइ छयल्ल खिति खग्गह हत्थ ॥५२॥ तव धायु धबड धसमसंत किरि आवइ केसरि कसकसंत । बर्बरीय झांटि झटकइ कवालि वलकलिउ वटाणु थिउ भ्रुकुटि भागि ॥५३॥ गडअडिउ गयंदु कि पडिउ पन्व सुर अंतरिषि पेक्खि अपुव्व । जयजयशब्दु जंपइ जगत पड्ड वच्छ अच्चरिउ पेक्खि पुत्त ॥ ५६ ॥ ___ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य गयगमणि रमणि तुरगय गमंत झड अनिललग्ग अंगज नमति । पयपंकय लंकतलि चिडरडंति पतिभत्ति चित्ति धरि चडवडंति ॥ ४७ ॥ जस जंघजूअल वररंभथंभ पिथल कि उरथल करिण कुंभ । करपल्लव नव शाषा अशोक सौवन्नवन्न सारीररोक ॥ ४८ ॥ मुखकमल अमल शशिहरसरिच्छ निलवटि तिलय ताडीक मच्छ । कुंडल कि कन्नि पायार मार कोसीसनिकर परिगर अपार ॥ ४९ ॥ तिलपुल्ल नास संजुत्त मत्त त्रडि दाडिम दंत अहरा रगत । अंजनसह षंजनसरिस नित्त सीमंत कुंत किरि मयरकित्त ॥ ५० ॥ हुइ भइ कामकोदंडमंड कटि बिंब प्रलंबित वेणीदंड । उर हार तारश्रेणीसमान तनमंडल अवर न उपमान ॥ ५१ ॥ नाह कुरंगा रंणथलि जलविणु किमु जीवंती । नयण सरोवर प्रीतिजल नेहिनं नीर पियंति ॥ धरवीरराय धूआ मुहुसाले मज्झ राय नरवीरो । वर वीर सुदयवच्छ वंछउं शिव पुज्जि हे सहि ए ॥ ८ ॥ कलिजुग कामुकतित्थो पत्यंतय अत्थ साहए सयलो । मास अवहि अग्ग मणवंछिय देव माहेसो ॥ X X X हव धउल; राग धन्यासी आसणतणर अणाविउ ए नरवरिई ए तरल तुरंग | साहणपति पणाविउ ए पलाणि पवंग । तीणइ वरराउ चडाविउ ए ॥ ९४ ॥ ५२१ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति चडंति षेवि जे जुडंति ते तुरंग आणयू जे सुद्धषित्त सालिहुत्त लक्षणे वषाणिउ। पायाल हुंति कीकी पयड होम दीउ आसणे सोहंति सुदय क्सवीर ते तुरंग आसणे ॥ ९५ ॥ चिहुं दिसि चामर ढलइ ए सिरवरि ए सोहइ छात्र । विप्र वेउ-धुनि उच्चरइ ए आआ आगलि ए नानाविध पात्र ॥ बहु बंदिण कलरव करइ ए ॥ ९६ ॥ करंति बंदिणा अणिक मंगलिकमालयं । विचित्त नित्ति पत्त पाडराग रंगतालयं । चडी तुरंगि चंगि अंगि सार सुंदरी रसे। ति चालवंति नारि च्यारि चामरं चिहु दिसे ॥ ९७ ॥ वर आगलि थिउ संचरइ ए आआ राण ले ए सरिसउ राउ। पायदल पार न पामीइ ए आआ बलीयडउ ए नीसाणडे घाउ । हय दीसइ गयरायसारसी ए ॥ ९८ ।। करिति सारसी गइंद संडिसुंडि डंबरं नीसाणढोलढक्कघाउ हुअ ताव अंबरं । उचित्तवाउ दिति राउ वेगि ताव रइकरो प्रेमि सुदयवच्छवीर पत्त __ तोरणइ वरो ॥ ९९ ॥ गयगामिणि गुण विन्नवइ ए आआ शशिमुखी ए करइ सिणगार । हार एकाउलि उरि ठवइ ए आआ कंद' ए समउ कुमार अहिण वउ इंद नरिंदवरो ॥ ३०० ॥ नरिंद इंद मत्त लोइ लोयमज्झि सोहए अदिदिट्ट माणिणी मणंतरंगि मोहए। भवानिपत्ति पायभत्ति कंत लद्ध कामिणी ते सुद्दवीर वन्नवंति गे गयंदगामिणी ॥३०१॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५२३ कुंडलीउ ततः मौक्तिकदाम छंदः। पउमिणि हस्तिनी चित्रणी वारा संखिणी सार किद्ध संगारा । रतिपतिरंगि मिलवि सहि रामा पिक्खवि सुदयवत्स वर कामा ।। जे कामनरिंदतणइ दलि सार गुडया मयमत्त पयोहर भार । जे हिलि सागिल्लि चलइ चमकंति ते सुद्दयवत्स सिउ रंगि रमंति । जे अद्वय दिट्ठ कि नट्ट कुरंगि जे उप्पम रेह सनेह सुचंगि । जे चंदनि अंगि गमंति ते सुद्दयवच्छि सिउ रंगि रमंति ॥ करइ निज मानिनि आणणि सोह जे जाण जुवाण तणइ मनि मोह। . जे पस्तित्ति उर न मंति ते सुद्दयवच्छि सिउ रंगि रमंति ॥ ठवइ उरि हार कि तारयश्रेणि दुलंति नितंब प्रलंबित वेणि । जे तारुणि आरुणि नित्त घुमंति ते सुइयवच्छि सिउ रंगि रमंति । छप्पय हे सही कहि कुण कजि अज उल्हास अंगि बहु । कुंकुमि कजलि कणयकुसुमि सिंगार किद्ध मुह । भरीय सेसि सीमंत कंत कंदप्पराय करि । गुडी साहण मयमत्त नित्त सज्ज कि उप्परि । माणिसि निसि मयंक मधुरति मधुप पहु वत्सतणूउ मुझ मनि वसिउं। उल्हवण अनिल त कि तनुरयणि सुदयवत्समुख निहि जिसिउ ।। छप्पय अग्गइ अहरा रत्त अहिविलि विलासीय । अग्गइ लोयण लोल अनइ कन्नलिहिं कलासीय । अग्गइ सिहिण सुथोर अनइ हाराउलि भारीय । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अग्गर गय मंधारि अनइ नेउर झंकारीय | अग्गइ सुकाम किय कामिनी अनइ वसंति निशि उज्जली । पुहु वच्छतणउ भ्रमरंगि ससि अनइ सुवर सुद्दा मिली ॥ X X X बंदिण तण बहिन क्षत्रिणि क्षित्रिणी मानइ भाइ भणी । ए नातरूं नवूं नही आज भाटभुवनि रहतां नही लाज ॥ X X X जिणि पाटणि पोढा प्रासाद मेरुशिखर सिउ वह विवाद | गरुउ गढ ऊंचा आवास किरि अहिणव दीसइ कविलास ॥ ६७ ॥ माहि महेस विष्णु न ब्रह्म सहू समचरइ कुलोचित धर्म | जिनशासन गाढउं गहगहइ जीवदया देषी मन हरइ ॥ ६८ ॥ दिनकर भगतितणउ अतिभाव अधिकउ परमेसरी प्रभाव । जे जोगिनि चउसठिनूं ठाम चउसठि चेटकनउं तिहि ठाम ॥६९॥ गणपतिक्षेत्रपालनी ख्याति दिवसपाहि रूडेरी राति । ठामि ठामि मंडल मंडाइ ठामि ठामि नितु गुणीया गाइ ॥ ७० ॥ ठामि ठामि ढोणां ढोइडं ठामि ठामि जोणां जोइइ । सातइ वसण संसालइ जेउ मांहि घणां छई माणस तेउ ॥ ७१ ॥ इकि लीला लक्ष्मी लेइ जाई भोला भमहि सान बीकाई । मणा न कामणमोहणतणी वरतई धूरत विद्या घणी ॥ ७२ ॥ वसई वासि छत्रीसई कुली माहि मोटा बहुत्तरि मंडली । चउरासी सूरा सामंत घ्यारि महाधर मंत्रि अनंत ॥ ७३ ॥ चउरासी चुहटानि जुगति वरणावरणतणी बहु विगति । उत्तिम मध्यम लोक अपार भामा भला न पामई पार ॥ ७४ ॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५२५ करइ राज सालिवाहण राउ वइरीतणइ विधंसइ ठाइ । अऊठ पीठ पहिलं पहिठाण सामीय आलितणूं अहिठाण ।। ७५॥ वस्तकंत संभलि कंत संभलि कहइ कमलच्छि जु मई लुप्पइ मयरहर ते न पालि पत्थउ करिज्जइ । सीह विच्छूटइ संकलह ति किम देव दोरी धरिजइ । हत्थी अंकुस अवगणइ किम साहीजइ कन्नि । तिम प्रियतम पाधारतां मुक्क विमासण मन्नि ॥ ७८ ॥ सुणि सुदयवीरवयणं सच्चं जं चवइ सावलिंगी ए । पिय दिवस पंच पच्छइ तिहि गमिसु जिहि न पुच्छेसि ।। ७९।। तिणि वयणि सुद्द जंपइ मणि धरेवि रोसो हसेवि मुहकमले । तिहुयणि ते को ठाणं जिहि जुवई रहइ मह महिला ॥ ८० ॥ वयणशशी नयणमई हंसगई उरि करिंद मग्गि हरी । कणय पहाणंगंगी जत्थ तुयं तत्थ जीवभमणं च ॥ ८१ ॥ तिणि वयणि सुद्दवीरो गहबरिउ लग्गगल इसि वलंतो। गयगमणि म धरि दुहिलिउ निवारि नयणंमि नीर भरियाई ॥ ८२ ।। हव अडयल वलियौ रमणी रोयंति वारिहिं । लोअण लोहि सकज्जल वारिहिं । अबल जि नावू बुल्लइ वारिहिं । जं मणि मुणइ स करे तिवारिहिं ॥ ८३ ॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अडयल आगि विरहि विलक्खौ पाणी लागी अंगि तिहां सप्पाणी। कज्जललग्ग दिह दुउ पाणी पीबूं पुरिसि पशूवरि पाणी ।। ८५ ॥ नर नवरंग सही सावुजल किं कारणि पशु जेम पीयौ जल ! नारी नरकरि लागौ कजल पीधि भीजइ भय भरइ न अंजल ॥ ८६ ॥ x एकि भणइ ऊतारउ लांव एक सेक दिवरावय पांव । एकि भणइ आलस मेल्हीइ एकी भणिइ मंडल मांडीइ ॥ १८ ॥ एकि भणिइ अम्ह हळूउ हाथ एकि भणइ दिउ कडूउ काथ। आपापणी कला सवि कहइ गुणीया अनइ वइद गहगहइ ॥ १९ ॥ गूजर वइद जिह्वारई हसिउ जाणे धरणि धनंतरि जिसिउ । दीठइ रूपि सरूप ओलषइ वैद अनेरा आलिइ झषई ॥ २० ॥ एहनइ अंगि अग्गलउ अनंग नरवर को दीठउ नवरंग । मूरतिइ मूरछा भाजिसिइ मिलिउ लोक देषी लाजसिइ ॥ २१ ॥ किरि हाकी ऊठि हनुमंत किरि कोपानलि चडिउ कृतांत । चडक्ड चउपट चालिउ इम किरि आविउ गुरु भारथ भीम ॥ १०॥ मोकलि बांह गाढा बलवंत मोकलि जे सूरा सामंत । मोकलि राउत रणि वाउला मोकलि जे आंगइ आउला ॥ १७ ॥ जिणिइ अरथिई न भाजइ भीड जिणिइ न टलइ परणी पीड । मागणमित्र काजि टालीइ ते संपत्ति सघली बालीइ ॥ २८ ॥ अरथिई सघला सीझई काज अरथिइं आपणां कीजइ राज । अरथिई सवि ढांकइ अखत्र वेची अरथ विछोडीसु मित्र ॥ २९ ।। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य बांध्या राय विछोडइ बंध पी कुवेला ऊडइ कंध । गढगाढिम नवि सीझइ अत्थ तिणि वेला वाणीउ समत्थ ॥ ३१ ॥ दहा सूदा ! तुहाला साथ थिउं आंतरू अति उरतउ। हब जोसिइ जगनाथ साहस सामलया भणइ ।। ४९ ॥ उंले आंतरिएहि तड पइलुं पामीउं नही । बाहण विचि विहि लेहि निहरइ नीजामा पषड् ॥ ५० ॥ ऊभी आस करेहि अबला आहेडी तणी। बर पइंठउ वि मरेहि केसरिनां पग किम नीसरइ ॥५१॥ नाह तुहाला नेह किम ऊसंकल एक भवि । जां दसवार न देह ए आपणउ न होमीइ ॥५२॥ माणिकठि जलेहि पडइ तउ प्रापति पामीइ । नाह नवेरइ देहि दरसणि देषेवू थिउं ॥ ५३॥ आसाल्धी एक पीहरि मेलही पारणी । तिहनइ आज अनेकि ऊचाटइ ऊपांपलां ।। ५४ ॥ सूदा शोक सरोष मनि माहरइ कांइ नही । सही समे घड लाष कीधां आज अणोसरा ॥ ५५॥ जिणुणी काजि न दीह आंक्या आवेवातणा। ते लेपेतां लीह करी कुडेरं दाझिसइ ॥ ५६ ॥ आगइ एक न धरि वाआहि अनइ पंच पुहुता पडमाहि । अतिऊंचा अंजनवनदेह किरि महिमंडलि आव्या मेह ।। ८७ ॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति घोरंधार अंधारं करइ दिनकरतणा किरण आवरइ । सेवालीउ चडावइ शीत केवीतणां कंपावइ चीत ।। ८८॥ सूलीभंजण भंजइ अंग जीणि दीठइ पायक हुइ पंग। अजउ अमउ बेहू भड भला उडीनइ शिरि तोलई शिला ॥ ८९ ।। इस्या वीर सूदानइ साथि बावनसरिसा आवइ बाथि । अणीधार नवि लागइ अंगि बीजइ झुझि न आवइ वंगि ।। ९० ॥ ऊभा भड लूंटी लिई लोह तीहं आगलि कुण जीपइ जोह। रायनइ हय मर हाथी बहू आघउ थिउ आराली सहू ।।९१॥ निवडनिहाय धरणि धमधमई बूंबारव गयणंगणि गमइ । हारवि नवि सूझइ सूर रणि विसर्या वाजइ रिणतूर ॥९२ ॥ मयमत्ता दंतूसल मोडि दीइं घाउ कडयडई करोडि । घोडेसिउं घाल्या असवार रथपायक नवि लाभइ पार ॥९३ ॥ x छप्पय पुहुरि पहिल्लै विप्पराउ जागंतु लोइ । तां निसिभरि नारी मसाहाणि सूलीतलि रोइ । परिठवी पुट्ठ दया परदइ मर पत्तो । कामिणी पूछीय कज्ज कंध ऊधरिऊ भत्तो।। भोजन दियंतमिसि डायणी षाइ मांस मत्थइरि चडी। उत्तिम तिवार असि वावरी करि स चूडि तुट्टवि पडी ॥ २२ ॥ बीजइ पुहुरि प्रधानपुत्र बलवंत बइठ्ठौ । तां उल्हाणौ अगनि तेज दूरहिय दिवौ । पावककजि पहुतु प्रेत परवरियौ पष्षलि । विचि खीचड कलकलइ बद्ध बावीस कुमतलि। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५२९ मुझ स्वामि होमसइं एवनौ एक गहीय बीजा गहिसु । धसि लिद्ध धगंतौ लकहूं तीण ऊडी ग्या सई सहस ॥ २३ ॥ खित्तीय तीजइ पुहुरि दैत नयरीदिसि दिक्खइ । वितर वंसइ बंधि पूठि थ्यौ परिकम पिक्खइ । सत्त कमाड ऊघाडि रायसुति सूती लीधी । आणी आपनिवासि युवति जागती कीधी। मुझ वरि कि समरि जीण ऊगिरह बिहु त्रीजउ समरूं सभट । पडछांहि ऊभ असिमर सरिस कीय कंकाल बिखंड घट ॥२४॥ चउथइ चतुर चकोर वीरवंसुद्धर जग्गै । तां ऊठवि मडूं मुरेडिउ जूअजीअउडु विमग्गै । सुद्द भणइ त न सारवट्ट कवडी न कडत्तह । तिणि तक्खणि आणयौ पाट जीण राइ रमंतह । शरकमल हराविउ हेलरसि प्राणिप्रेतग्रह टालियौ । त्रिहुं मित्र अजग्गिइ एकलई तिह ति पिंड प्रजालयौ ॥ ॥ राउ हरषिउ राउ हरषिउ सुतह संपत्त । तव नयरी आणंद हूउ पंचशबद वाजिन वजइ । माय ताय जोहार किय गरूय वीर गंभीर गजइ । तिणि अवसरि पय प्रणमया सुदयवच्छ तिणि वार । माडी आसीसह दिइ राउ सिरि सुंपिउ भार ॥ ७२ ।। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्यभाग पंदरमो सैको प्राचीन गुजराती गद्यसंदर्भ[ गु० वि० ]माथी संवत् १४११-तरुणप्रभ" राजा अनइ महामात्यु बे जणा अश्वापहार-इतउ अटवी-माहि गया. भूखिया हुया. वणफल खाधां. नगरि आविया । राजा सूपकार तेडी करी कहइ 'जि के भक्ष्यभेद संभवई ति सगलाई करउ' सूपकारे कीधा, राजा आगइ आणिया. राजेंद्रि चीतविउं–मधुर मोदक-पूपकादिक भक्ष्यभेद पाछेई भाविसिइं इणि कारणि पहिलउं बाकुल-ढोकलादिक भक्ष्यभेद भषी करी पाछइ मधुराहारभक्षणु कीधउं. किसइ कारणि ? जिम सवहीं आहारतणा स्वाद लिउं. महतइ पुणि जीमी करी वमन-विरेचनादिकु कीधउं. राजेंद्रि पुणि सर्वाहारभोगलुब्धि हूंतइ वमन-विरेचनादिकु न कीधउं । तिणि आहारि दोषि राउ मूयउ।” पृ० ५ “ गच्छि एकि लघु क्षुल्लकु एक वरसालइ बाहिरि बालकह-माहि वाहलइ त्रेपणउं पेट हेठइ देई अनइ तरिवा लागउ. महात्मा आविया, चेला तरता देखी करी वढई ति तेतलई गुरु आविया. गुरि कहिउं--- " महात्माउ! चेलउ लहुडउ, भोलउभागडउ. म अडवडाउ ( वडवडाउ) ते ती वार चेलउ परहंसिउ. गुरे भणिउं—म वच्छ उगउ रहि. को काई नही कहइ, तउ चेलउ घणेरउं परहंसिउ. गलसरण भरिवा लागउ. गुरे माथइ हाथु देई करी आपणपा आगइ कीधउ, वसति आविया.” पृ० ४८ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५३१ (२) संवत् १४५७ सोमसुंदर" ताम्रलिप्ती नगरीइं तामलि श्रेष्टि वैराग्यई तापसी दीक्षा लिइं. नदीनई तटिं साठि वर्ष सहस्र तप करिं पारणइं भिक्षा चिहुं भागिं करई. एक भाग मत्स्यादिक जलचररहई दिइं. बीजो भाग गोग्रास-स्थलचररहई दिइं. त्रीजो भाग काकादिक खेचररहई दिइं. चउथु भाग २१ वार पाणीई धोई पारणुउं करई." पृ० ७६. ___ "श्रीमहावीरनु जीव श्रीआदिनाथनइं (समयि ) भरतेश्वरनउ बेटओ मरीचि नामि हुतउं. श्रीआदिनाथकन्हई मोकली दीक्षा लिवरावीओ. एक वार ग्लान थिओ. मनमांहिं जाणिउं–को सरवा(सखा ?)ईओ करउं. पछई कपिल क्षत्रीरहई धर्म कहई. बूझ्या, पूठि श्रीआदिनाथ कन्हइ दीक्षा लेवा मोकलई. ते पूछई-तूं कहई किसिउं धर्म नथी श्रीआदिनाथ कन्हई कां मोकलई ? पछई मरीचि कहिउं–कपिल ! धर्म इहांइ छई, परई छई. इसिउं माइउं गोईउं वचन बोलिउं, तीणई करी मरीचि कोडाकोडि सागरोपम भमिओ. पछई श्रीमहावीर थिओ.” पृ० ७९ संवत् १४७८-माणिक्यसुंदर"सव्वे भल्ला मासडा पण वइसाह न तुल। जे दवि दाधा रूंषडां तीहं माथइ फुल्ल ॥” पृ० १३५ "अंगदेशि श्रीपुरिनगर, तिहां श्रेष्ठि लक्ष्मीधर-श्रीलक्ष्मीई सधर. तेहतणु पुत्र हुं श्रीपति पणि विषम देवगति. दस कोडि द्रव्य हूंती पणि Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति बापुजी साथि पहुती. पिता परोक्ष हूआ, पूठिई जं वाहणमाहि घातिउं तं समुद्र सातिउं. कई वाणउत्रे ग्रसिउं, हाट चोरे मुसिउं, थलवटनउं थलवटइ रहिउँ, कांई ठाकुर अहिउं, घर बलिउं, समग्र मंडाण टलिडं, समग्र द्रव्य निस्तरिउं, एकलक्ष द्रव्य ऊगरिउं. पछइ अवर काजकाम छांडिडे, प्रवहण पूरिवा मांडिउं. भलइ दिवसि प्रवहण पूरिउ. त्रिन्नि सई साठि क्रियाणां चडाव्यां, सप्तविध पकवान चडाव्यां, सप्तविध करंबा लिया, पोता सपाणी भरिया, देव समुद्रवायस पूजाव्या, पाभिल मादल वाजिवा लागां, बावरि कोलणि नाचेवा लागी, गलेला हेलाहेल करवा लागा. कूउषंभउ ऊभउ कीधउ, नांगर ऊपाडिउ, सिढ ताडिउ, घामतीउ घामतउ लीचइवा लागु, वाऊरीऊ तलि पइठउ, नीजामउ नालि बइठउ, आउलां पडइं, सूकाणी सूकाण चालवई, मालिम वाहण जालवई, सुरवर लहलह्या, वादित्रनादि समुद्र गाजी रह्या.” " छासिइं केरउ आफर दासिइ केर नेह ।। कंबलकेर मोलीउं पिसत न लागइ पेव ॥” पृ० १४०-१४१ (४) संवत् १५००-हेमहंस“ पुलिंदानु जीव मरी जंबूद्वीप मणिमंदिरि नगरि राजा मृगांक राजा, विजया राणी, तेहनइ गर्भि अवतरिउ. xxx महोत्सव करी राजसिंह कुमार नाम दीधउं. मउडइ मउडइ बहुत्तरि कलापारीण हूउ. xxx मतिसागर मुहतानउ बेटउ सुमतिकुमार. तेहसिउं राजसिंहनइ मित्राई छ। xxx तिसई नगरलोके मिली राजाहइ एकांतिं वीनवइ-स्वामी ! अझे Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५३३ किम करूं ? ए राजसिंह कुमार नगरमाहिं जीणइ जीणइ सेरीइं सांचरइ तिहां तिहां आपणां बालक रोव्यतां मूंकी मूंकीनइ सौभाग्यना व्यामोहिआ स्त्रीना वृन्द गमे गमे जोड़वा धाइ. अह्मारां घरनां काजकाम सघलाइ सीदाइ छइ xxx पछइ कुमर कहइ-मित्र! चालउ तेह देशांतर xxx भणी जईइ. x इसिउं विमासी बेहू जण षड्ग हाथि लेई तिहां भणी नीकल्या. ठामि ठामि अनेक आश्चर्य जोअता जोअता जाइ छइ. एकवार अरण्यमाहिं सूनइ देवकुलिं सूते कहिएक पुरुष- करुण स्वर सांभलिऊ. कुमार ऊठी षड्ग हाथि लेई तेहभणी चालिउ. आगलि गिउ देषइ तु विकराल राक्षसइं पुरुष एक कक्षामाहं चांपिउ छइ. ते आक्रंद करइ छइ. कुमरई राक्षसहइ कहिउं-ए बापडउ मूकि , ईणई ताहरु सिउं विणासिउं.?" पृ० १६७ थी संवत् १४७१ पारसी पंडित लक्ष्मीधर बहेरामजी-अग्विीरा (गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी संग्रह) [२] १. पछइ ते सातइ बइहइनि तेह अग्विीरा पुरुषतणी सातेए भार्या हुई, तीह सातइरहई दीनतणउ कोमल नावर कीधी अछइ ॥ २. जउ तेहे स्त्री एतलडं वचनु सांभल्यउं सांभल्या पछी अपार दुःखिनी थई, यम तीह स्त्रीरहई महाभारतर दुःख पामिउं ॥ .. ३. ते स्त्री गुस्तास्प राजा आगलइ अनइ अपर बीजा मग्दईअस्न आगलि गेई । नमस्कार कीधउ । पछइ ऊभी रही। तेहे स्त्रीए बोलिउं Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जु तहमो मज्दईअस्न ईउ इसुं म करु । जउ अमइ सात बहइन अछउं अनइ सातइनउ एउ एकु जि भतर अछइ । अझइ सातइ बहइन एह भर्तारतणी कलत्र अछउं । जइमु एकु धर सातषणउं हुइ । तेहि सात षण हेठइ विचालइ एकु स्तंभ कीधउ अछइ । जइ कमइ ते स्तंभ काढीइ तु सातइ षण पडइ । पछइ गुस्तास्प राजा तअं वचन सांभुली कोपु कीधउ । तीह स्त्री प्रति राजा बोलिउ। जउ तहमरहइं महावायु लिउ । व्याघ्र तह्मरहई खाउं । तमारां हाड लुंडी ताणउ । ____४. पछइ अग्विीरा पुरुषइ जिम दीठउ जउ गुस्तास्प राजा कोपु कीधउ, राजारहइं अग्विीरा पुरुषइं संतोष दीधउ । तेउ अग्विीरा पुरुष गुस्तास्प राजा आगलइ गइय । हाथ बेहू जोडइया । स्तुति अपार घणी कीधी । तउ अग्विीरा बोलइय। जइ कमइ आदेश हुइ तु षाद्य पाउं । आत्मा आराधउं । सुपणउं करउं । पछइ मंगि ऊषधी दीधी। पछइ गुस्तास्प राजां आदेश दीघउ, बोलिउं जउ इसुं करइ । ५. पछइ अन्विीरा पुरुष आपणइ अग्निस्छा(स्था)नक गिउ । तीणइ अग्विीरा पुरुषई इजिस्नि कीधी आत्मा आराधय षाद्य षाधउं। तेहे स्त्रीए मंगि ऊषधी सज्ज कीधी। अनइ पात्रि ठाहरि मधूभक्षण सरसी घाली । अग्विीरा पुरुष हेठ वस्त्रि बइसइ । राजारहइ अनइ बीजां मज्दईअस्नरहई जणाविवउं कीधउं। पछइ गुस्तास्प राजा अनइ अपर बीजाइ मदईअस्न आव्या । तेह अग्विीरा पुरुषरहई मंगि ऊषधी दीधी। वस्त्र ऊपरि सुआरिउ। अनइ एवंद कीधा गहि सारी । जिम ते एवंद अग्विीरा पुरुषतणउं सइरु पुहरि बइठा राषइ अनइ नस्क अवस्तावाणी पढइ उच्चरि. ६. अनइ ते साते भार्या अग्विीरा पुरुषतणा वस्त्र पालि फिरीनइ बइठी अनइ अवस्तावाणी उच्चरइ अछइ । जांजाण सात अहोरात्र हुइ. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदमा अने पन्दरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य [३] १. अनइ तेह अग्विीरा पुरुषतणा शरीरतु आत्मा जीव चकातदाइती इसइ नामि पर्वत अनइ चंदोरपुहलि नामि मांचि पहुतु । सातमइ दिवसइ आत्मा वली आव्यः । तनउ सरीरमांहि आव्युः । २. अग्विीरा पुरुषः वस्त्र उपर थकु ऊथ्यउ । जाणे किरि तउ सुखनिद्राथकु ऊथ्यः । उत्तम निर्मलु मनु अछइ अनइ उत्तमरहई आनंद करई । ३. तेहे भार्या कलत्रि अग्विीरा दीठउ अनइ जोइउ । पछइ पछइ तेह स्त्रीरहइ उत्तम आनंदु हऊअ जाणे किरि ते स्त्री स्वर्ग(ग)भुवनइ जीवती नींपनी अछइ । पछ तेहे एवंद आगलि अग्विीरा पुरुषरहई प्रणाम नमस्कार कीधउ । अनइ गुस्तास्प राजा आगलि जई अनइ दलग गोस्पदस्त फरइसुस्त्र मइदीओमाह अनइ बीजाइ मज्दईअलरहई प्रबोध दीधउ । [४] ७. जंअं प्रचउर चालइ तउझरहइ तीणइं स्वर्ग करी अनइ सखाईआ थाउं स्वर्ग्रलोक अनइ नरकलोकइ अनइ चंदोरपउहउलइ जातां बलिषांच नही। ८. जअं स्वर्गलोकतणी समृद्धि रद्धि समाधानउ रूडउं अतहइ सउखउ उत्तमक्रीडा रुलीआतपणउं अतहइ वइनोद उछव रामति अनइ सउगंधपणउं तुझरहइ आव देषाडउं । अनइ मुक्तात्मारहई जेउ आनंद हर्ष अछइ। ९. अनइ नरक भउवन घोरांधकारं अतहइ मलिन अतहि रौद्र अंधकार महाभयंकारी द्रउगंध अछइ तीउं तउझरहइ देषाडउं । अनहु Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जउ विभन्न विहच्यउ विहच्यउ देव अनइ राक्षसी विद्या पापकमियारहई नइग्रहउ करइ अछड्। १०. अनइ जीउं सत्यवंततणउं दानशीलीया दादारतणां स्छानइकु तीउ तउझरहई देषाडउं अनइ जीउं असत्यवादीयांतणउं स्छानकु तीर्ड देषाडउं । ११. अनइ जीउँ स्छानइकु शुद्धिप्रबोधीयां नइमेलबोध ज्ञानवंततण अहउरमज्दस्वामीतउ अमरतउ गरूआतउ अनइ स्वर्गलोकीय सउंदर रूडा सउषतउ अनइ नरकीय नइग्रहतउ अनइ भला शबोच्छान मृतक उठ्यातणा शरीरतणउं अक्षयत्वतणउ स्छानिक अनइ ईअब्दतणा अस्तित्व आथइपणातउ अनइ देवतणा नास्तिकत्व अणछतापणातउ जीउ स्ठानकु तीउं सहऊए तुझरहई देषाडउं जइम तऊं पृथ्वीमांहि जि काई दीठऊं हउइ तीउं सुहए कहइ । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान चोथु सोळमो अने सत्तरमो सैको १८१ हवे आपणे सोळमा अने सत्तरमा शतकनी गुजरातीनी कृतिओ तपासी जोईए. सोळमा सैकाना प्रसिद्ध कवि लावण्यसमय ( जैन ), कविराज सोलमो को नरसिंह महेता, पद्मनाभ, भीम-बीजो, अने लावण्यसमय मांडणनी कृतिओ अहीं लीधेली छे अने सत्तरमा (जैन) नरसिंह, सैकाना सिद्धिचंद्र ( जैन ), विष्णुदास अने पद्मनाभ, भीम नाकरनी कृतिओनो अहीं ऊतारो करेलो छे. बीजो, मांडण ए कतिओमां फक्त एक विष्णुदा सैको सिद्धिचंद ऊतारो हस्तलिखित चोपडा ऊपरथी करेलो छे. (जैन)विष्णुदास बाकीनी बधी कृतिओ मुद्रित छे अने ते मुद्रणमां अने नाकरनी पाठनी गरबड प्रायः नथी, एवी खात्री जणायाथी कृतिओ ते बधी मुद्रित कृतिओने उपयोगमा लीधी छे. तेमां फक्त एक सिद्धिचंद्रनी कृति गद्यरूप छे. उक्त लावण्यसमयथी मांडीने नाकर सुधीना तमाम कविओनो समय अहीं आपेली ते ते कृति ओने प्रांतभागे आपेलो छे अने जेमनो समय कृतिने प्रांतभागे नथी लेवायो तेमनो समय बीजां अनेक पुष्टप्रमाणोथी सुनिश्चित छे एथी ए कविओना समय विशे कशुं लखवापणुं रहेतुं नथी अने तेमने लगता बीजा परिचयनी अहीं अपेक्षा नथी. Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नाम १८२ लावण्यसमयक्रि० क्रि० धरी नमीय लीइ घोली नाम रसि (ऋषि) नांमई दुरीया | आगलङ बोहातणउं घणउ अछ। बोलिसु दूरि त्रीजउं जेहना जयु लही कहिसई सुणज्यो करइ वेचाई आवी आपिया करि वुहरी वलिउ प्रहि ऊगमि प्रणमतां नवइं निधान वागी भोजनि लपठइ जाण आणइ जेहवा ठाम सङ आदर नाम आठ चित्रकुट-पासई बोहा, धनहीणउं ढली जाणीइं कह नमई घर जयु हुइ करइ भला केतला भारति भगवति मनि गुरूपय पवित्र जस जसवाय बुद्ध पारि कूडली चडवा भरइ तेल-पतर्नु व्यवहार चउहटई वाधा रहई कहई पोढइ ऊधरइ जाई भटकई नमाया नडाया द्राम धन Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमो अने सत्तरमो सैको नाम क्रि० थाइ चढइ क्रि० दीठा नाम विण भमाया दया वली ठेसि मानव सेवु गमाया तिम सेवऊ उदर दोहिलां कोइ दीइ समाया प्रणमिसु तविया लहिउ भणइ धर्मतणा भल भेद हीअडड दिइ मान भुअणि द नारि निज नाम यमुनानूं बाइ वायु हरि . पछि छबीलाजीनी घड़ी १८३ कविराज नरसिंह महेताक्रि० कि० नाम मूकू म्यल्ये जडी खपी नाथन मूक्यु कीधी आप्यू करी हरजीशु मूकशि द्याढानो हुआ ध्रुवतणी ग्रिहि दीजि भलेरो तूनिं दि छे व्यना रिहि खम्यां न जाय मुहुनिं मांड्यूं दीघो लंपटपणू वैराग गाजे बिठो करूं सुखे तेहनां निश्चे ___ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति क्रि० क्रि० रली टेव एक आव्यो जाण्यूं हएस नाम तोरी नात्य सार्थ अभिदान अवयं गिहिलो मिहिणूं प्रीत्य आव्यो सुष्य नथी भालवेश (भळावीश) छूटशो छोडशो हणी निवारी पूरिआं पामिओ मूकी छि किहि छि कहीश पिरि भाभी नरसिंआनी तम्यो रीसाव्यो ग्यो कीधु जपि राक्ष, राक्ष्य कीजि दीजि आवी देखाड्यो बोल्या जीभलडी कोण शृंगारमाहि अणबोल्यो गर्भवासतY कहि धरो छि मुहनि धायो होइला अहमो-अहम्यो यहिंई, यवारि विना भाइ रीस पिरि त्यहां व्यचार गोपेश्वर तूंहनि वाहलं क्रिया सोल का मूकशू गैला कां क्यम-क्यमे नरसिंनि वैकुंठि गायना थाशि कयू मेहल्यु आपशि चढी पीयूला आपी खलभलशो मारशि भीजशि थाइ रात्यदिवसे । सेवां ___ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमो अने सत्तरमो सैको ५४१ नाम माल समि वारि क्रि० आवी नाम नाम रात्य स्वप्नमाहि भाखर टाढी शाहनि कायि तमनि पोता। अदेखाइ भोजाइई माहरूं नरसिंहानी मुने तिणि वनमा पोताना माटि | वेहवाइइं कर्मचा मन्य ज्येहनी तमची वनमोझारिरिहि | आंधलो १८४ पद्मनाभ क्रि० क्रि० कि. वीन→ जिमाइ (जमाय) अवगणिउ | आविउ कवू पाचइ रीसावीउ प्रणमूं आव्या निकंदीउ सकी। करूं सांभलइ गाहीऊं लोपि ( लोपे) आणूं लाभ नाथीउ करि फरि (फरे ) हुइ (होय ) पाv चडइ आवि ( आवे) छोडवि धरु (धर्यो) वलइ पामा पडावि ( पडावे ) करिउ करीसूं दाखवि खाइ (खाय) करयो ( करजो) बाले ) डगमगइ पूजी पूरीसिंउ (पुरशुं) बालि ) आणिया पूरूं जाणीइ भणइ बोलाइ आव्या | ग्या छ। नीम्यू थाइ वीनवड पलइ छूटीइ छ। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोल्यूं भणइ जिहां ५४२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति कि. क्रि० क्रि० क्रि० करूं (कर्यु) जोवा आणइ रहीया फलइ दिसिइ जाणी चडि आदरी चवि ( वच् ) विटालि हती आथडइ सुणइ मिली थाइ (थाय) लही, लहि ना० ना० ना० ना गौरीनंदन जाग सरसत्ति नामि बीजि दिवसि पीपल राजंगणि धुरि मूलगु पहिलू यादवकुलि प्रधान तीरथ जिणि-जेणे प्रतिज्ञा गाइ (गाय-गौ) भेटणूं जिम धान नवखंडे पंडित गूजरातिनूं माधवि सोनगिरातणी तुरकाणूं पुण्यतणी मोतीभरिउ जगि महितइ (महेते) परसिद्धि जहे अधर्म সন্ধি विवहारीया तासतणा आगिलां जूनां बेढि (युद्ध) तिणि (ते-तस्मिन् ) कर्म तिणि ( तेणे) वरस अवसरि हरिनूं असी (एवी) साठि बंध विप्रनइ मत्ति विग्रह सहू मेलु थाल Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम नाम ईधणां कोठार घणा मग चोखा सोळमो अने सत्तरमो सैको ५४३. नाम फडीउ अह्मारइ विन योगिणी इम भाट सरसती कण साचूं नीचतणि गरुडि पाखइ (पाखे- घरि सिंघवाहिनी विना) एकतणूं रखिश्वर अह्मतणा देउल मन सवि ईणीपरि साखि अढार डुंगरतणा वृषभ जव त्रापडा अजूआलं सज काठा साचुरि महिषिसुर दिग्गज खोडि (खोड) आयस (आदेश) लोभि आठ तेत्रीसइ कापड पाडूंआं (पातक) विराल (वराळ) कोडि साह वाहणि सुरलोकि सरगलोकथी विदेसि ततखिणि अपछरा असी (अंशी) पाला अंतरिखइ विमानि दीवेल अणाथि पाधर हाथि देवता कोलं दारिद्र दीव्य एरावत चक्षु कन्याविक्रय सूरज पनर अन्यान चंद्र बारोतरू सूकडी (सुखड) सगां तिहां गढ अगर वाट गडा सवि हस्ति नहीं ईधण चुसठि पूर्णिय ___ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 करु देशु देखी गाथा stuttrika ५४४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति १८५ भीम (बीजो)नाम नाम कि० क्रि० भाषा ललाटि जाणूं सम्यक युगदीश्वरी ऊपजइ कहोस उमया दीसह ऊपरि अंतरि निवर्त नियमना उपाशी एक तन्न जाणइ मारि अज्ञानि मुखि करी पामीइं बिसारी किरणविषि यहां प्रणमीजई यथा क! मध्यदिवस सिहियई जय अवतरिआ योगीजन्न ऊतारि कुसुमतणी सनेह आव्या अगाधि बोलिसु सनातन बोलियां दीपइ यति रसनइ मार वैराग येह (जे) विस्तरह बइठा तेह ( तेनो) त्यजइ --करुणाकरत' येहुनी कविजन प्रापति लोचननइ किशा कारणि उल्हसइ पामइ रहां दीचूं अ५ ७ ३ ४. * * * 1 3 1 4 हु अ ४ अ . . येहनूं वाध मुगति tabousiekvienos सोहइ कीधु विना धरि पामीइ रचियूं आगइ जाइ करी थाइ मोहि करइ मिशइ तहमो जोइ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमो अने सत्तरमो सैको ५४५ आवइ त्यजीइ राजि दुःख आव्यु सांभलु गयु का धरइ सोहह झिरइ खडभडइ कहइ नाम नाम क्रि० महाम्हो-महामोह घरि हसइ ( अहंत्व) उग्रसेननई धरि गंथतणु आइ ( आयुष् ) भरइ सवि अवनीकेरु ऊचरह एहनु इहिनिशि ( अह शिंघासणि निश) दिन दिन सांचरी नारायणतणूं भेषज विचार उच्छव -जनतणा यादव करइ प्रसादि छपनकोडि कराव्या आखेप समरथ मोटा गोव्यंद कांपइ कवणमात्र आगलि खद्योत सभामांहि विगूतु माणिकजमली रातां (जमली-पासे) रूपई रमिट गुंजा खमणा (क्षपणक) नथी १८६ मांडणनाम नाम कि० आगइ कविग्या मोटा बोलइ वहइ पूरइ (पूर-प्रवाह) तेता भरीया छांडेवू कर्यु जोएवा विमासइ किउ सांभलि क्रि० वायु (वगाड्यो) सांभळवा मिल्या ___ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ सकति आपणी मुंघी नाम मूरखनइ किसी आगली संख खिण श्रोता कोद्रवमां तेहनी घयसि (वेंश) घाणी व्यास कोइ इम करतां डांगि गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति क्रि० नाम | गुणनी एकु वात मनि | बहिरा गुलि कां घरि चडइ पाणि ( हस्त) विगोइ आराहि श्रवण कांइ साहमु एम हरिवडइ | तम्हे मधु | आकडि यश निर्विष अन्य युगपतितणु कोठी (कोठीफल) डोकरिनइ यमभागो (यमी वाघ भागेलो ) यम — जेम पापतणइ प्रभावि दीजइ जाणइ ग्रहइ लहइ जाणइ कुटीइ सांपडइ खाइ छांडीन करइ आदरइ थाइ लीयु दीउ | तिजु भजु सांभलवु जोइ ल्यु मूक्यू क्रि० भल्या होइ बूझइ वांचि छूटीइ | कर्या वामी सांचर्या नीगमी मीचइ | चलइ चालइ दांमी सकि जण्या | कर्यं काढि छंडइ चडइ आफलइ भसावइ थाइ जाइ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम वनि योगी पर्यंकि क्रि० मरि तजी पिठु भइसकेडि (भेंशनी पाछळ ) धोतीआं पाधरूं पाडी ऊंधूं पाम्यु मूकइ सोळमो अने सत्तरमो सैको | आंखि सोले वाले नाम गदी आणु हैआ काछ स्वांन नीसरा गर्या |लोपी क्रि० सोळमा सैकानी भाषामीमांसा खरचइ | देखइ नाम ऊंट माथइ ढेदनई उवटि | हांणि जइन | पेटि क्रि० आर्यु भयु त्यजू घडइ फलइ नाम दाखवइ शीखवइ विणसइ १८७ सोळमी सदीनी उक्त पांचे कृतिओनो उपयोगपूर्वक अभ्यास करतां तेमां बे जातनां लक्षणो नजरे पडे छे. केटलांक प्राचीनतानां अने केटलांक नवीनतानां नाम के क्रियापदने छेडे आवता अइ, अई, अउ, अउं वगेरे एमना एम रहेला छे, ए प्राचीनतानी छाप छे. जेमके - अछइ, कहिसइ, सेवऊ, बोलइ, वहइ, भाइ, निवर्तइ, प्रणमीजइ, बुझइ वगैरे. केटलाक प्रयोगोमा एज कृतिओमां नामने छेडे आवता 'अइ' वगेरे ' ' इं' के 'उं' रूप थई नामना अंत्य व्यंजनमां मळी गया छे. अथवा " अइ' वगेरेनो 'ए, ''ओ' रूप गुण थयो छे. अने ते 'ए' के 'ओ' नामना अंत्य व्यंजनमां मळीने रहेला छे, ए छाप नवीनतानी छे. आवां तरक कूचा सूनत मनतणा ऊचनीच पोगर - ( पाणी ) क्रि० | देखाड ५४७ पुष्कर Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति प्राचीनतानी छापवाळां रूपो पन्दरमी शताब्दीनी कृतिओमां आवे छे खरां, पण ते ओछां. त्यारे प्रस्तुत कृतिओमां नवीनतानी छापवाळां आवां रूपो वधारे वपरायां छे; जेमके-सुणज्यो, धननु, भाले, जयु, ढली, द्याढानो, यमुनानूं , वडना, छबीलाजीनी, शिवनी, गर्भवासतणूं, पोतानूं , मूंनिं, मुहुनि, मुहनिं, मूनें, तूनिं, त्यारि, ते वारि, माथि, नाथनिं, दामोदरें, सेवु, हरजिशें, कोद्रवमां, माहि, माहि, मांहिं, पिठु, वांचि, भाषायूँ , हरिनूं , येनु, वीनवू , कवू , करूं, नवखंडे, माधवि, देसि, नाथीउ, धरु, भरिउ, ग्यो, ग्या, आव्यु, दीधो, रह्यो, छूटशो, छोडशो, आप्यूं , रिहिशो, ग्यो, कह्यो, पूरिआं, आपी, प्रणमतां, ऊघडतुं, जागतां, सुणतां, देहरां, सगा, धोती, मोजां, अनुभवतां, जोतां, गिहिलो, आंधलो, नरसिंओ, आगलां वगेरे. जो के ए बधां रूपो छे तो सोळमी सदीनां छतां अहीं एमनो समय न जणाव्यो होय तो वांचनारा ए रूपोने वीसमी सदीनां ज कहे एवां ए छे. ___ वळी, केटलांक प्रांतिक उच्चारणो पण ए कृतिओमां देखा दे छे: ('वि' ने बदले 'व्य' ) व्यना, व्यचार, अहीं 'इ' ने बदले 'य' नुं उच्चारण थयेलुं छे अने ते वाग्व्यापारने अनुसरतुं छे. नरसिंहनी अने क्वचित् भीमनी कृतिओमां एवां 'य' वाळां रूपो विशेष नजरे पडे छे. मन्य, गोव्यंद, कारज्य, क्यमे, म्यल्ये, प्रीत्य, रात्य, वन्य-(वनि). मांडण अने भीमनी कृतिओमां 'ज' ने बदले “य' उच्चारण थयेलं जणाय छे : यम (जेम ) युगपति ( जुगपति ), युगदीश्वरी (जगदीश्वरी), यीवतां (जीवतां), येह (जेह), यिशू (जिशू), ये (जे). ___ ज्यां आपणे 'ओ' अने 'ए'नुं उच्चारण करिए छिए त्यां हजु सुधी उक्त कृतिओमां 'इ' नुं अने 'उ' नुं उच्चारण पण प्रवर्ते छे : मूकशि Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमो अने सत्तरमो सैको (मूकशे), किहिछि ( कहे छे), जाशि ( जाशे), वांचि (वांचे ), पिठु (पेठो), पाछु (पाछो), घयसि (धेश ), रिहि ( रहे ), मूकी घि (मूकी दे) अर्थात् आवां रूपो ऊपर हजु सुधी प्राचीनतानी थोडी थोडी असर रहेली छे. नांम, दांमि, परणांम, वगैरे शब्दोमां 'म' नी पूर्वनो स्वर, 'म' नी असरने लीधे अनुनासिक थयेलो छे. अने ए तो वाग्व्यापारनुं ज फल छे. ___ मांडण 'शक्ति' ने बदले “ सकति' एवो 'स' वाळो प्रयोग करे छे. अने भीम 'उपासीइ' ने बदले - उपाशीइ' एवो 'श' वाळो प्रयोग वापरे छे. मूळ श, ष, प्राकृतमा ‘स' रूपे परिणमे छे, तेथी 'सकति' प्रयोग खोटो नथी अने 'स', भाषामा 'श' नुं रूप ले छे, तेथी उपाशीइ ' रूप पण खोटुं नथी. __पन्दरमी सदीनी कृतिओमां 'जे' ने बदले ‘जु' अने 'ते' ने बदले 'स' एवा प्रयोगो वपरायेला तेने बदले प्रस्तुत कृतिओमां आपणी पेठे 'जे' अने 'ते' प्रयोगो स्पष्टपणे एकवचनमां वपरावा शरू थई गया छे. ___ अत्यार सुधीनी कोई कृतिओमां · ल' ने बदले 'ळ' वपरायो जाण्यो नथी ए ध्यानमा राखवानुं छे. _ 'राख' ने बदले ‘राक्ष' प्रयोग तो — पुंसु' ना — पुंक्षु' जेवा उच्चारणवाळो कहेवाय. 'क्ष' नो 'ख' बोलाय छे, परंतु अहीं तो 'ख' नो 'क्ष' बोलायो छे. बीजा-सनातन (सनातन ), तन्न-(तन), जन्न-(जन) वगेरे प्रयोगो पण एवा ज छे. अथवा कविताना प्रभावथी तेमनो कदाच बचाव करी शकाय. Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नरसिंह महेतो 'अमची' 'तमची' प्रयोगो वापरे छे. प्रा० · अम्हेचय'नी प्रतिकृति · अमची' अने प्रा० 'तुम्हेच्चय'नी प्रतिकृति ‘तमची' छे. एनी उपपत्ति विशे आगळ कहेवाई गयुं छे. 'होइला' अने गैला' प्रयोगो भासे छे मराठी जेवा, पण गुजरातीमां तेवा प्रयोगो प्रचलित छे. 'होएलुं' अने ‘गएलुं' ए प्रयोगो सर्वविदित छे. तेवा ज बीजा करेलु, भणेलं, जागेलं, पीधेलु, खाधेलुं वगैरे. 'हूअ' अने ‘गअ' भूतकृदंतने स्वार्थिक 'इल्ल' प्रत्यय लगाडतां 'हूइल' के 'हूएल' अने 'गइल' के 'गएल्ल' एवां रूपो नीपजे छे. ए रूपो उक्त 'होइला' ‘गैला 'ना मूळमां छे. 'शुं होएलु', क्यां गएलो-गयलो-एवा प्रयोगो सुरत तरफ प्रचलित होवानो मने ख्याल छे. अत्यार सुधी ‘ऊपरि' प्रयोग आवतो पण हवे ‘ओपरि' पण शरू थयो छे. ए बन्ने पदो जोडणीनी दृष्टिए शुद्ध छे. ___ 'जेहना' अने ‘येहनूं' एम आखा 'ह' वाळी अने अडधा 'ह'वाळी जोडणी पण उपलब्ध थवा लागी छे. __वळी, एक विलक्षणता एवी जणाय छे के आदि 'ज' ने बदले 'य'नुं उच्चारण भीम अने मांडण बन्नेमां मळे छे. 'य' नुं 'ज' उच्चारण तो विशेष विदित छे; परंतु 'ज' - 'य' उच्चारण तो अविदित जेतुं छे; माटे मने विलक्षण जेवू लागे छे. प्राचीन भाषाओमां मागधी भाषामां 'ज' ने बदले 'य' बोलाय छे. प्रा० जाति मा० यादि, प्रा० जहा मा० यधा, प्रा० जाणति मा० याणदि, (८-४-२९२ हैम० ). अत्यारे घणा लोको 'ह' ने बदले 'स' बोली शुद्ध बोलवानी कल्पना सेवे छे तेम कदाच 'ज' ने बदले 'य' नुं उच्चारण भीमे कर्यु होय अथवा ए प्रांतिक उच्चारण होय तो ना नहीं. Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमो अने सत्तरमो सैको ५५१ सोळमी सदीनी गुजरातीनी जे वानकी ऊपर आवी छे ते ऊपरथी साफ जणाय छे के तेमां आपणा वलणनी गुजरातीनी छाप बेसवा लागी छे; एटलं ज नहीं पण विशेष स्पष्टपणे ते छाप बैठेली छे अने आगळ जतां ते वधारे स्पष्टपणुं धारण करनारी छे; ए आपणे हवे तद्दन नजीकमां ज जाणी लेवाना छीए. पद्मनाभे 'ते अवसरे' अर्थ बताववा 'तिणि अवसरि' एवो प्रयोग वापर्यो छे. जैन सूत्रोमां अनेक स्थळे' ते काले, ते समये ' तिणि एवा अर्थ माटे ' तेणं कालेणं तेणं समएणं' प्रयोग ठेकठेकाणे आवे छे. आ प्रयोगमांनुं सप्तमीसूचक 'तेणं' अने पद्मनाभनुं ' तेणि ' ए बन्ने एकसरखां छे. हेमचंद्र कहे छे के ( ८-३-१३७ ) ' तेणं' मां सप्तमीना अर्थमां तृतीया वपरायेली छे. ' तिणि ' ए तृतीयांत पण छे अने सप्तम्यंत पण छे. तिण+इ-तिणि. 'इ' तृतीयानो अने सप्तमीनो एम बन्नेनो छे. अहीं पद्मनाभना प्रयोगमां तृतीया अने सप्तमी बन्ने घटमान छे. तृतीयानो 'इ' तृतीयाना 'ए' नी प्रतिकृति छे ए ध्यानमा रहे. कांळ, सर्व चराचरनो आधार छे अने हेतु पण छे एटले कालवाचक नाम सप्तमी अने तृतीया ए बन्ने विभक्तिओनो उपभोग करी शके छे. 'लिप्त' पद ऊपरथी भाषानुं 'लपटवुं' क्रियापद आव्युं छे. अने लावण्यसमये वापरेलुं 'लपठई' क्रियापद पण ए 'लिप्त ' नुं प्रतिबिंब छे : ए, लिप्त - लिपत - लिपट-लपट-लपठ - ए रीते नीकळ्युं छे. 6 'लपठ ' ऊपरथी १८८ लावण्यमये एक स्थळे एम कयुं छे के " त्यागी गुरुओ अपरिग्रही - अकिंचन - होवा जोईए, छतां तेओ गरथ-धन- भेगो करी देहरांनो ऊधार करता देखाय छे. तेमनुं ते काम चंदन बाळीने Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीभाडा ५५२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति निभाडा करवा जेवू छे." आ माटे लावण्यसमयनी असल उक्ति आ प्रमाणे छ : " गुरु गरथिं देहरां ऊधरइ चंदन बाली लीहाला करइ" आ हकीकत कोइ सामाजिक प्रसंग माटे हुं अहीं नथी टांकतो. नारे __ तो 'नीभाडा' अने ‘लीहाला' ए बन्ने शब्दनी ' समानता बताववी छे. संस्कृतमा ' आपाक' अने 'आवाप शब्द 'निभाडा' ना अर्थ माटे प्रचलित छे. प्राकृतमां 'आवाग' के 'आवाय' 'आवाव' शब्द ते ज अर्थने बतावे छे, हिंदीमां तेने बरावर मळतो अने ते ज अर्थनो शब्द 'आवा' छे. संस्कृतमा 'घडा' ने सूचवनार कुम्भ, घट, कुट, निप वगैरे अनेक शब्दो छे. निप-आपाक -निपापाक-प्रा० निवावाअ; स्वार्थिक 'ड' लागतां निवावाअडो' असे ए ऊपरथी वाग्व्यापारना धोरणे निवाडो, निभाडो के निहाडो रूप आवी शके. प्रस्तुत 'लीहाला' नुं मूळ उक्त ' निवाडो' पदमां संभवी शके छे. 'न' नो अने 'ड' नो 'ल' परिणाम सुप्रतीत छे. तथा 'व' नो 'भ' अने 'भ' नो 'ह' परिणाम पण प्रचलित ज छे. 'निभाडा' पदमां आद्य 'नि' लाववा में अहीं निप' शब्द कल्प्यो छे. अथवा संभव छे के 'भट्ठी' शब्दमां जे भ्रस्ज्' धातु छे ते धातुना 'भ्रष्ट' (पक्व) पद द्वारा 'भाडो' प्रयोग आव्यो होय अने तेने पूर्वग — नि' लागतां 'निभाडो' बन्युं होय. ___ जैन कविनी अने ब्राह्मण कविनी ते ते समयनी गुजराती भाषामां कशुं अंतर नथी ए बताक्वा ज अहीं में सोळमी सदीनी कृतिओमाथी नामो अने क्रियापदो वधारे आप्यां छे. आटलाथी कोईने असंतोष रहे तो ते, आ साथे आपेला बन्ने प्रकारना कविओनी कृतिओना ऊताराओने चांचवा जरूर प्रयत्न करे एवी मारी नम्र विनंती छे. ___ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमो अने सत्तरमो सैको ५५३ वळी, आपेला ए शब्दो आपणी प्रचलित गुजरातीनी पासे ज आवी गया छे, ए बताववानो पण ए वधारे शब्दोना उल्लेखनो हेतु छे... १८९ हवे क्रमप्राप्त सत्तरमी सदीनी त्रण कृतिओ अहीं लीघेली छे. पहेली गद्य कादंबरी, ते श्रीसिद्धिचंद्र (जैन) नी छे. तेनी साथे सत्तरमा सैकानो एक शिलालेख छे, जे, गाम अमरेलीने लगतो छे. बीजी कृतिमां महाभारत ते श्रीविष्णुदासर्नु छे अने त्रीजी कृति महाभारत-आरण्यकपर्व ते वैश्यकवि श्रीनाकरनी छे. सिद्धिचंद्रना गुरु भानुचंद्रे कादम्बरीनी टीका लग्खी छे. तेमनाथी ते टीका पूरी न लखी शकाई. टीका लखतां लखतां बच्चे ज तेओ पंचत्व पाम्या एटले बाकीनो भाग तेमना शिष्य प्रस्तुत सिद्धिचंद्रे पूरो कर्यो छे. तेओ बादशाह अकबरना समसमयी हता एटले तेमनो सत्तरमो सैको सुनिश्चित छे, ते ज रीते महाभारतने गुजरातीमां ऊतारनार श्रीविष्णुदास तथा वैश्य कवि नाकरनो समय सत्तरमो सैको पण तेमनी ते ते कृतिओमां आपेलो छे. एथी तेओ विशे विशेष कांइ लखवानुं रहेतुं नथी. १९० सिद्धिचंद्रनी गद्य कादंबरी तथा अमरेलीनो शिलालेख : नाम नाम क्रि० क्रि० नदीनिं (-ने) घणूं करि (करे ) कहुं ( -ह्यु) तटिं (-टे) प्रसंन भणई छइ) एक त्यहां (त्यां) चांडालीइं (-लीए) धरी भणइ छिं वचन शौद्रकंशूकनूं आवी छिं (छे) दीसि छ। एक समि (-में ) तम योग्य तेडी दक्षिण देशथी ते माटे कीधो मोकलो राजद्वारि (-रे) एह तमे राखो थया कहो* राजई (-जाए) प्रेमशू का | मोकल्यो छि Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रि० तेणे हूं कां पड्यो पायं. ५५४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नाम नाम कि० माहि (मा) ते छि लीधो अविनय कीधांना ल्यावी ढूं छ (छे) शुकिं (-के) राखो पधारा (D) राजानि (-ने) पांख राख्यो प्रधान लाव्यो जत कहि छि एहनि पूर्छ (-छ्यु) मोहलमां तमनि ( -ने) मागे प्रगणे २२ पछि जाणी शुकनि (-ने) नवापुराना लाव्यो करी क्षेत्रमाहि माहजन त्यहां विठ (वेठ) पालतो अगस्त्यनो पछइ (-छी) मरडी माहरी पोतानो लीधो तेहने कांठिं तेहनि (-ने) पड्यो शीबलनूं एकशुक (कशंक) रहों कां तेहना कहशुं विना बिसारी कही कोटरमा पुत्रादिके (४०) यो सांभलो मुनि (-ने) वृक्षतले रहि (हे) | कही ( कहेली) ऋषिनी पासे आवतां कहि छह पांदडाना पड्यो सूंपी (सोंपी) मुनि, मुनें (-ने ) पुंजमां दीठो | करि (२) ३२२ नीचे रेखावाळा शब्दो अमरेलीना शिलालेखना छे. बिठा हता लेई गयो पूर्छ दीठो थयो जणतां ___ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमो अने सत्तरमो सैको नाम नाम छानि (--) ते तपोवन स्नाननिं (-ने त्यहां थकी (सप्तमी) चतुर्थी ) अतिदुखी तेहनो हस्ते (तृतीया) ती-(ते) नाम माप (-फ) सूहर (सुब्बर) ढूंकडं वरखे हु दने तलिं-(-ले) नाम आवू १९१ विष्णुदास-महाभारत नाम क्रि० क्रि० सहु मनमाहि हवो लेइनि (ने) महासंग्राम शरषी चाल्या जीत्यानी माहारि करवा करो हदि शू बाळी करी थाय हाम सजाई किहि (कहे-के ) हवा (थया) त्यारि एहनि (-ने) देषाडु आपी माहारी रलीआत्य मारि (रे) विद्यार्नु तुझ नामी कार्ण (कारण) संघात्य समयूँ रहीइ कि अमारा मुझनि (ने) अमारो करवू अवीधारो हु (हुं) नगरवीषि तेणि समि कहि (हे) आगि लोकमां जांणो ईद्रि (इन्द्रे) फरशूरामनि हाथे होइ (होय) करी शरषो (तृ०) करूं सकि (शके) होय पमाडु ग्रही बोल्या तेहनि थाय Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थयो पापी नीज वीना थया ५५६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नाम नाम क्रि० क्रि० स्वामी जै (जईने) मेहेली ( मेली) पांडव साथे तहमो बलीनि (बळीने) ये हेलामात्र का मारीश मोझार्य जाओ नीर्मो तमनि (-ने) शेवक किहिजो बिठा अहमारो त्यारि शर्ण्य अमारे (-२) आणी थया माहादेवतणित्रीपुरार्य सकि (शके) पड्या आव्या हवो (थयो) वृत्तांत स्तव्यां टाल्यू अधीको कर्य (कर) लोहमि (लोहमय) देत्य क! वीध्याता(विधाता) ब्रह्मानिं (-ने) करो करवू कोणि (कोणे) जेजेकार ब्रह्मानि सांभल्य (-ल) मुक्ष (मुख्य) अमरनी हणाए ( हणाय) कयूं न जाय ततषेव एकाग्रपणि बांहा (बाहु) वरत्यो त्यारि शीव प्रसंन हणवा भोगवि माहादेव हौआ ( थया) अमरत' श्रव (सर्व) आणी जोयूं तेहनो ते माटि दीसि (से) तम विना श्रव (सर्व) कर्णतणु रच्यो कहावि (-वे) अह्मो अतीहास पूरवा नावि (न-आवे) थाय होम कर्या त्रण्ये संचर्या Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना० (ने) करी सोळमो अने सत्तरमो सैको १९२ नाकर महाभारत-आरण्यक पर्वना० क्रि० क्रि० श्रीगणपतिनई(-ने) घटि (-टे) प्रणमी गयूं तम्यो (तमो) ताह्रूं जोडीनइं (-ने) आवरित दुंदल किहां करीनई (-ने) अविलोकिमोदक-आहार माहा आपु ( -पो) (अवलोक) अंतामी ज्योध शोभतो सरज्यूं कविनइं (ने) तूं शोभइ (-में छ) मेहलु-(भेलो) पसाइ (-य)- देहिनई (-) (प्रसाद) तिहां करु (-रो) बोलिड गुणभंडार हर्ष थाइ ( --य) सांभलु (-लो) मुहुनई वेलाइ स्तवइ (स्तवे छे) ऊठी दीन तम्यो जाणी सांचवड अम्यो करु ऊपनां माहरी धीर (धैर्य) पामा हुइ सार तम्हारइ तिहां करुनई आविउ (-व्यो) त्रैलोकमांहां साहि किहिवा (कहेवा) करिवु (-रवो) विना रायनी थाइ (थाय) दिइ (ये) ते माटइ तम्यो कहेश पोष खोडि गृहस्थना ऊगरतूं इतिहास पडिउ रिहिशि (रहेशे) मुख्य दिइ (थे) हुइ सान आंगणइ (-णे )/लिहिवु (लेवो) वालिवु (वाळवो) श्वाननइ-(-ने) नाकार-(नाकारो) थयूं जाणी दामणु Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ कि क्रि० गया का तेह्नई तेवू सर्व मांडी एकांति गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ना० ना० आपणु (-णो) आई आवी तहमनई का घरमांहि निःश्वास लूंस्या बइशी जेह्नई जिहां नापिउ (न आप्यो) आविआ जेवी वृत्तांत करिउ ( कों) कहूं दुहुविआं(दुहव्यां) थाइ पछई भीमि नीपना | कहइ छइ आ ज्यमिवा (जमवा) करशु (-शो) शा माटि मुहुनइं (-ने) बइठु भांजशि (-शे) राइ (राय-राजा) उवेखिआं कहूं आज मोटा पोष्यूं मई (में) झरइ मुखिथु कुहु (कहो) त्याज कणकोठार ज्यमूं आपिऊं (आप्यु) तव (त्यारे) अन्नकाजि ऊपरि भोगवू पाम्या नयणे) ऊठिआ सांभलु १९३ सत्तरमी सदीनी उक्त त्रण कृतिओमांथी लईने जणावेलां सवि भक्तिक नामो अने क्रियापदो ऊपरथी स्पष्ट जणाय सत्तरमी सदानी ले के ते कतिओनी गुजराती भाषामां अने अद्यतन भाषामीमांसा गुजराती भाषामां नहीं जेवो ज भेद छे. केटलांक रूपोमां जूनापणुं टक्युं छे; परंतु वधारे प्रमाणमा ते नथी रह्यु. विपत उच्चरइ आव्यू पूर्वे मूकी पर वट Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमो अने सत्तरमो सैको ५५९ ज्यां त्रीजी के सातमी विभक्तिमां आपणे छेडे 'ए' वापरिए छिए त्यां ते कृतिओमां हजु केटलांक रूपोमां 'इ' टकी रह्यो छे. ए ज रीते बीजीमां पण छेडे 'इ' देखाय छे. क्रियापदोमांथी पण 'इ' सर्वथा तो खस्यो नथी, एम छतां नामनां अने क्रियापदनां रूपो अद्यतन गुजरातीनां वधारे प्रमाणमां ए कृतिओमां देखाया विना रहेतां नथी : दक्षिण देशथी, त्यहांथकी, नयणे), मोहलमां, ते माटे, पोतानो, अगस्त्यनो, तेहना, तेहने, कोटरमां, नवापुराना, माहजन, अविनय कीधानां, तम योग्य, दने, प्रगणे, जीत्यानी, विद्यार्नु, हाथे, पांडव साथे, लोकमां, स्वामी, युद्धनो, अमरनी, रायनी, गृहस्थना, नाकार, तेवू , जेवी, आईं वगेरे तथा लेई, तेडी, मोकलो, मोकल्यो, पधारा, लाव्यो, पड्यो, कह्यु, ल्यावी छु, मरडी लीधो, लेई गयो, सांभलो, हतुं, थयो, पायूं, चाल्या, थाय, करो, आपी, नामी, बोल्या, अवीधारो, मारीश, जांणो, थयो, पमाडु, देषाडं, जाओ, हणाए, वरत्यो, रच्यो वगेरे. __जाणो, स्वामी वगेरे पदोमां अनुनासिकथी पूर्वमां आवेलो स्वर अनुनासिक बोलाय छे, एनी उपपत्ति आगळ आवी गई छे. माहारी, माही, ताहरूं, जेह्वी, तेवू–एमां 'ह' श्रुति धीरे धीरे खसवा तरफ छे. एकमां सस्वर 'ह' छे त्यारे बाकीनामां मात्र 'ह' ज छे : अमो-अम्यो, तमो-तम्यो; एमां 'अम्यो' 'तम्यो' मा 'ह' नीकळी गयो छे. 'संघाते' ने बदले वपरायेला संघात्य' मां 'ए' ने बदले 'य' वपरायो छे. संघाते-संघाति-संघात्य. ए, एनो क्रम छे.. 'सर्व' ने बदले श्रव, “सरखो ने बदले 'शरषो' 'विधाता' ने बदले 'वीध्याता' 'कारण' नी जग्याए कार्ण, 'इतीहास' ने स्थाने 'अतीहास' 'शरणे' ने स्थाने 'शर्ण्य' ए बधां अद्यतन गुजरातीनां तळपदां उच्चारणो छे. Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ___ 'शिव' नुं 'शीव' अने 'निज' नुं 'नीज' उच्चारण कविताने कारणे थयेलुं जणाय छे. 'लोहमय' ऊपरथी · लोहमि' शब्द आव्यो छे. 'मय' नो ग्रा० — मईअ' अने ते ऊपरथी 'मि-' ' लोहमि' एटले लोढामय-नयु लोढार्नु. सत्तरमी सदीनी कृतिओनी भाषा अद्यतन गुजरातीने अनुरूप छे, एटले ए संबंधे विशेष कहेवापणुं रहेतुं नथी. ३२३ जुओ “मयटि अइः वा।" ८1१५० । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमो सैको ( १ ) कवि - लावण्यसमय- संवत १५८९ - खिमऋषिरास वगेरे भारति भगवति मनि धरी गुरूपय नमीय पवित्र । बोलिसु बुद्धइ आगलउं बोहातणउं चरित्र ॥ १ ॥ जस जसवाय अछइ घणउ जय ति जसभद्र सूरि । त्रीजउं कहीइ किन्ह रसि नांमई दुरीया दूरि ॥ २ ॥ प्रहि ऊगमि नितु प्रणमतां लहींई नवई निधान । भोजनि कूर कपूर रस भूप भला बहुमान || ३ ॥ कविजन कहिसई केतलां जेहना जेहवा ठाम । सुणज्यो सहु आदर करी आठ प्रभावक नाम ॥ ४ ॥ X X X चित्रकूटपासई वडगाम सुश्रावक बोहानूं ठाम । धनहीणउ रूपइ रूडली पंचद्रम सारु कूडली ॥ २२ ॥ करइ तेल - घतनुं व्यवहार चित्रकूट चउहटर वेचाई । पोढइ पाथरि लपठई पाईं ढली कूडली कर्मपसाय ॥ २३ ॥ ग्रामलोक मनि आवी मया आपिया पंच द्राम करि दया । वुहरी घृत वलिउ जब वली वागी ठेसि वली तिम ढली ॥ २४ ॥ जाई धर्मतणा भल भेद ही अडई वरु न आणइ पेद । परनई आपईं किंपि म जोइ जां आपा निज कर्म न होई ॥२५॥ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति धन विण मानव कहु किम करई धन विण उदर दोहिला भरई । धन विण भुअणि भला नही भोग धन विण नहीं सकल संयोग २६ धन विण नारि नेह नवि धरइं धन विण दास करम न करई । धन विण कोइ न देवई मान धन विण अंतर फोफल पान ॥२७॥ सगा सणीजा जे संसारि धन विण नवि चडवा दई बारि । यती पाधरा जे वनि रहई सूध मनि धर्मलाभ न कहइं ॥ २८॥ रयणि दिवसि जाई जागतां भाइ भटकइ काइ मागतां । धननु धणी जिहां जिहां जाइं असगा हुई सगा ते थाइ ॥२९॥ तपगछि गुरू गोयमसमा श्रीसौभाग्यनंदिसूरि सार । श्री अमरसमुद्र गुरू राजीआ श्रीहंससंयमसार ॥ १६५॥ जयवंता गुरु जाणीइं जास नमइं नरराय । श्रीसमयरत्न सहि गुरु जयु प्रणमीय तेहना पाय ॥ १६६॥ संवत पनरनव्यासीई माघमासि रविवारि । अहिमदावाद विशेषीइं पुर-बुहादीन मझारि ॥ १६७ ॥ संघ सुगुरू आदेसडई जिह्वा करी पवित्र । बोहा बलिभद्र किहरसि जसभद्र रचिउं चरित्र ॥ १६८॥ गुणतां घरि गुरूअडि घणी भणतां लहीइं भोग । थुणतां थिर कीरति हुइ सुणतां सवि संयोग १६९ ॥ -अंत. श्रावकविधिसज्झाय जे गुरु गांठि गरथ ज करइ ते निश्चइ पिंड पापि भरइ । गरथ ऊपरि वाधइ मोह गरथई आणइं मन अंदोह ॥ ८॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य रातदिवस मन गरथइ रमइ मुनिवर चारित्र सहीआं गमई। गरथिं वाधइ कलह विवाद गरथई जीव करइ उनमाद ॥९॥ गरथ लगइ अनरथ ऊपजइ गरथिं मन मयला नीपजइ । गुरु गरथिं देहरां ऊधरइ चंदन बाली लीहाला करइ ॥ १०॥ गरथ सहित जे गुरुइ आदर ते निश्चइ सवि कूड़े करइ । मयलू चीवर जे कादवि धूइ तेह वली ऊघडतुं जूइ ॥ ११ ॥ रतन विरांसइ पत्थर लीइ अमृत ठामि विष घोली पीइ । गज मूकी षर ओपरि चढइ सुख कारणि कूयामांहि पडइ ॥ १२॥ वरि सेवु दृष्टिविष साप कुगुरू म सेवऊ अति बहु पाप । साप मरण दीइ एक जि वार कुगुरू मरण दिइ अनंती वार ।।१३।। मालिनी कनक तिलक भाले हार हीइ निहाले । ऋषभपय पषाले पापना पंक टाले । अरजिनवर माले फूटरे फूलमाले । नरभव अजुआले राग निइं रोस टाले ॥१॥ समोसरणि बइट्टा चित्त मोरइ पइटा । असुष अति अरिहा ऊपचिय ते अदीठा । सुपरिकरि गरीठा सौख्य पाम्या अनीठा । भव हुउ मझ मीठा संभव स्वामि दीठा ॥ ३ ॥ मदन मद नमाया क्रोध जोधा नडाया । भव मरण भमाया रागदोसे गमाया । सकलगुण समाया लक्ष्मणा जास माया । प्रणमिसु जिनपाया चंग चंद्रप्रभाया ॥ ८ ॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तवगच्छ दिवायर लच्छिसायर सोमदेवसूरीसरो । श्रीसोमजय गणधार गिरूआ समयरत्न मुनीश्वरो । मालिनी छंदइ कय पबंधिइ तविया जिन ऊलट घणइ । मइ लहिउ लाभ अनंत मुनि लावण्यसमय सदा भणइ ॥२८॥ ( ऐतिहासिक राससंग्रह–भाग बीजो सं. श्रीविजयधर्मसूरि ) (२) कवि-नरसिंह महेता-संवत १५१२ हारमाला (संपादक श्री. केशवराम शास्त्री) बाइ मुहुनिं हरि जोवानी टेव पडी माहरा नाथनिं न मूकू एक घडी । वेधलू मन अलगूं न रिहि [एहवी ] हरजीशुं प्रीत्य जडी-बाइ० आखा द्याढानो रली खपी आव्यो [माहरी ] भाभीई मूक्यूं न पाणी। मि जाण्यूं ध्रुव तणी पिरिं करूं भाभी नहीं गोराणी-बाइ० नामानूं छापरां छाहि आप्यूं कबीरानी अविचल वाणी । ते पांई तां हूं हएस भलेरो छबीलुजी मूकशि पाणी-बाइ० धन वृन्दावन धन ए भाभी धन यमुनानूं पाणी । धन नरसिंआनी जीभलडी पछि छबीलाजीनी वाणी-बाइ० कोण छबीलो नि कोण छि नाथ कोणि दीधो ताहरि माथि हाथ ? विषया शृंगार मांहिं भीनो रहां हरि मलवानो ए मारग क्यहां ? ___ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७ सोळमा अने सत्तरमा सैकार्नु पद्य तथा गद्य लम्पटपणूं तूं मूकि धि अणबोल्यो अध्यातम ग्रिहि । ज्ञान वैराग पन्थ जो म्यल्ये गर्भवासतणूं दूख टलि। आ सहू संन्यासी किहिछि तूनि । पछि कहीश वायु नहि मुहनिं । भीम भणि नरसिंआ कां भमि । गुरु व्यना ज्ञान न होइ क्यमे । भाइ भोजाइई रीस ज कीधी नरसिंहानी केही पिरि । रीसाव्यो ग्यो वनमा त्यहां सेवा साची शिवनी करी । चैत्र सुदि सप्तमी सोमवार नरसिंई मन्य कीधु व्यचार । तप मांड्यू महाउग्र मोदूं हूं रह्यो [ निरन्तर] वन मोझारि गोपेश्वरिं का स्वप्न मांहि मागां ते आपूं तूंहनि । मि माग्यू (ज्ये) स्वामी तमनिं वाहनं ते क्रिपा करीनिं दीजि मुनें भाला चक्रव्रत्य प्रसन्न हुआ नि आवि मस्तक्य दीजी हाथ । सोल सहस्र गोपीवृन्द रमतां रास देखाड्यो वैकुण्ठनाथ । हित जाणी पोताना माटि महादेव बोल्या वचन ते वारि । नरसिंआ तूं लीला गाजे ये कीधी कृष्ण-अवतार । रिहि रे भगवा लवलव करतो भलो हांआं-तां-आंथो जा । रलतां ताहरूं सेहर न वहितो टाढी चोली भाखर खा । अदेखाइ करतो टीट [रिहिनिं] आंहांथो पहरो ऊठी जा । ___ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ओ पेला छि वडना टेटा भावि तेटला वीणी खा । जो तूं हित वांछां पोतानूं ( तो तूं) सुंदर शाम छबीलो गा। भणि नरसिंओ कयूं करि माहरूं माल धरीनिं वैष्णव था । कोणे कह्यो कपटी कोणे कयो कामी कोणे कह्यो तालकूटिओ रे आव्यो। आपवा मूकवा नहिं कांइ एहने कोहो रे मामिरूं शू रे लाग्यो । गोपालजी तमची भक्त छि दोहली पण दासनिं सदा सोह्यली-ध्रुव ॥१॥ तिणि समि पुत्रीइं वचन एहवू का सभामांहि बिठो शुं ताल वाये ?। सासरा माहरां मांहि मिहिणूं दि छे ते वचन मि खम्यां न जाये ॥ २ ॥ चङ्ग नि ताल अहम्यो देह सार्थि मूकशुं धरणी आकाश यवारिं एक थाशि । लोकडा बोलशि ते पण सहीशि कृष्णजीनूं भजन क्यम मेहरु यू जाशि ? ॥३॥ तिणि सर्मि वेहवाइई हास्य एहवू कयू मेहल्यूं उष्णोदक त्यारिं पाणी। रात्य दिवस ज्येहनी सेवा करां छां समण आपशि ते रे आणी ॥४॥ चैत्र सुदि द्वादशी मेघघटा चढी गडगडीनिं कुंडी मांहि वूडूं। समण घाती ज्येहवो नरसिंओ सूझब्यु तेहवो समस्त वैष्णवनिं त्रूठो॥५॥ ३३ तूं दयाशील हूं दीन दामोदरा ! इन्दिरानाथ ! एहवू विचारी। चरणनि शरण आव्यो क्रिपानाथ ! हूं, करिनिं गोपाल संभाल्य माहरी ॥१॥ देवना देव ! सुण्य देवकीनन्दन ! [भक्तपालक एहवू बरद ताहरूं] एह जाणी घटे त्यम करो त्रीकमा ! अवर्य अधिपत्य को नथी माहरे ॥२॥ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य माहरा कर्मनिं भालवेश भूधरा ! 'पतितपावन' ताहरूं बरद जाशि । छोडतां तो हि किम छूटशो सामला ! छोडशो तो उपहास्य थाशि ॥३॥ दुष्ट भावि भरी ते हणी पूतना तेह यमदूतपथ [थी] निवारी । मामकी नारि कीर्तन करी ऊधरी एम तो कोहने को मोरारि ॥ ४ ॥ नाम जपतां द्रुपदी[नां] पट पूरिआं ध्रुव भगत पामिओ अचल पद आगे। इमातो] ताहरूं नाम नरसिंओ जपि राक्ष चरणे रखे लाज लागि ॥५॥ गर्व न कीजि गिहिलडा ! शृं मान गमायु । नाम नारायण मूकीनिं शृं काम कमायु गर्व० ॥ १॥ शाहनि कायि आविओ शू कारज्य कीबूं । अमृत आलिं ढोलिऊ हलाहल पीबूं गर्व० ॥२॥ छते नेत्रे तूं आंधलो मन्य जोनां विचारी । जेहवी जनेता आपणी तेहवी परनारी गर्व० ॥ ३ ॥ कृष्णजी व्यनां ज्ये तूं कहि ते कारज्य काचूं । विश्वासिं सिध्य पामीइं मन्य जोनां साचूं गर्व० ॥ ४ ॥ रङ्ग लाग्यो रूडा रामशू तेहनूं कारण एह । भीम भणि इम जाणज्यो जूठो छे देह गर्व० ॥ ५ ॥ माहरि ताहरा नामनो आशरो तूं विना कूण करि सार माहरी ? । दीननो नाथ तूं सदा य दामोदरा! अवसरि आव्यनि लि ऊगारी ॥१॥ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति भक्तनी लाज तूं राक्ष्य लक्ष्मीवरा ! नाम 'दयाल' तूं बरद भारी । तारे कूण छे सेवक सामला ! माहरि किहिवानिं [इ] ठाम ताहरी ॥ २ ॥ मण्डलीक रायनूंं नाम वायूं घणूं तो चीत धरो नाथ माहरा ! | भणि नरसिंओ भूतलिं अवतरी अहर्निश हूं गुण गांउं तोरा ॥ ३ ॥ ५७० ४१ तूं किशा ठाकुर हूं कशा सेवक जो कर्मचा लेख मूंशा न जाय । मण्डलिक हारनिं (काजि ) पिरिंपिरिं प्रभवि छबीला व्यना दूख कहूं न जाय ॥ १ ॥ को कहि लम्पट को कहि लोभिओ को किहि तालकूटिओ रे खोटो । सार करि माहरी दीन जाणी हरि हार आपां तो कहूं नाथ मोटो ॥ २ ॥ बहु पारों सूंदरी कण्ठ बांहो धरी केशवा कीर्तन इम होये । अज्ञान लोक ते अशुभ वाणी वदि पूर्ण भक्त ते प्रेमिं जूइ ॥ ३ ॥ यहिंइ महादेवजीईं पूर्ण क्रीपा करी तहिंनो मिं लक्ष्मीनाथ गायो । माहमिरा–वेला लाज जाती हूती गुरुड मेहलीनि चरणे धायो ॥ ४ ॥ मूहनिं विहिवाइ अतीशि विगोयो उष्ण जल मूकीनिं हास्य कीधूं । द्वादश मेघर्ति मोकल्या श्रीहरि ! आपणा दासनें मान दीधूं ॥ ५ ॥ सोरठमांहिं मुनिं सहूई साचो कह्यो पुत्रीनिं माहमिरूं वारू की नागरी नात्य मांहिं इंडूं चढाविऊं नरसिंआनिं अभिदान दीधूं || ६ || । ४५ देवा ! अमची वार कां बधिर होईला आपूला भक्त कां वीसरी गैला । द्रू प्रह्लाद अमरीष विभीषण नांमिंचे हाथ तिं दूध पीयूला ॥ १ ॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य म्लेच्छ माटि तें कबीरने ऊधर्यो नामाचां छापरां आप्यां छाहीं । जिदेवनिं पदमावती आपी मुंहूनि नागरा माटि रखे मेहलां वाही ॥ २ ॥ अहमो खलभलतां तम्यो खलभलशो वैकुण्ठ एकला क्यम रिहिशो । वृन्दावन मांहिं राधिका संगि मूंहूनि एकलो मूकी क्यम विनोद करशो ? ३ जो राजा मण्डलिक मुंहूनि मारशि भींजशि धूल केइ हाणि थाशि । भकत्त्य करतां किहिशि नरसिंओ मार्यो तो ' भक्त वछल' ताहरूं बरद जाशि ४ ५८ आप्प रे हार सुत नन्द - वसुदेवना अद्याप्य तूजनिं लाज थोडी । कंसना भय थकी नाशी गोकुल गयो आहीरं रह्यो प्रीत्य जोडी ॥ १ ॥ (हल्या ! ) गरज माटि मायबाप तिं बि करां भव- इन्द्र - अपर-मुनि-रुषि जोतां । कंसनो वध करि काज ताहरूं सरूं (पछि) बापडां मूक्यां ते वन्य रोतां २ (हल्या ! ) तान्दूल लेइनि विप्रनिं रभ्य मोकली तेहनूंं भवन कीधूं वैकुण्ठ सरखूं । माहरि दान तां गानछि भूधरा ! नित्य प्रतिं ताहरां चरण निरखूं ॥ ३ ॥ (हल्या ! ) भगत्य कीधि आहीरनो नव्य हवो तो तूं हार मूनिं क्यम्म आपि । भणि नरसिंओ सरवरी थोडी [ रही ] आप्य तस्कर ! मूंने शुं संतापि ॥४॥ ५७१ ७५ हूं मागूं तां मुझनिं मया करू गायना चारण गोवालिआ ! परदुःखभंजन पींडारिआ ॥ १ ॥ जे जे मागे तेहनिं ते आपां तो हूंनि शें नापां नारायणिआ ! रास्यदिवसे सेवां करूं तोरी सार्य कर्य मोरी सामलिआ ! भणि नरसैं हूं अवर्य न लेश ताहरी भक्ति विना अवतार म देश || ३ || Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति दामोदरें कीधी दया मुगट सहित मुनि आप्यो हार । बाजूबंध बिहिरखा आप्या त्रिभुवन वरत्यो जेजेकार । ध्रुव । राजा ! तूं गिहिलो थयो छां खड्ग लेइनिं आव्यो सङ्गय । जे वाहलाश्रू रङ्गभरि रमतां ते गोपालजीआं राख्यो रङ्ग दामो० ॥ १॥ एह वात साचूं जाणो हृदय आणो दृढ विश्वास । नरसैंआचो स्वाम्य भलिं मिलिओ सफल मनोरथ पुहुती आश दामो० २ संवत पन्नर बारोतर सपतमी अने सोमवार रे । मार्गशीर्ष-अजुआलि पखे [आ] नरसिंनि आप्यो हार रे ॥१॥ पचाश पद निर्मल गायां ते वैष्णव सुखे सुणाइ रे । अगम अगोचर अधात्म तेहनां पातिक सघलां जाइ रे॥२॥ जे जन भाव धरीनिं सांभलि ते नर निर्मल थाइ रे । भणि नरसैंओ हरि-पद पामे निश्चे वैकुण्ठि जाइ रे ॥ ३ ॥ कवि-पद्मनाभ-संवत् १५१२ कान्हडदेप्रबंध (संपादक स० डाह्याभाई देरासरी) दुहा गौरीनंदन वीनवू ब्रह्मसुता सरसत्ति । सरस बन्ध प्राकृत कवू दिउ मुझ निर्मल मत्ति ॥१॥ आदि पुरुष अवतार धुरि यादवकुलि जयवंत । असुरवंस निकन्दीउ ते प्रण श्रीकन्त ॥२॥ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५७३ जिणि जमुनाजलि गाहीऊ जिणि नाथीउ भुयङ्ग । वासुदेव धुरि वीनवू जिम पा{ मन रङ्ग ॥३॥ पद्मनाभ पण्डित सुकवि वाणी वचन सुरङ्ग । कीरति सोनगिरा तणी तिणि उच्चरी सुचङ्ग ॥ ४ ॥ जालहुर जगि जाणइ सामतसी सुत जेह । तास तणा गुण वर्णवू कीरति कान्हडदेह ॥ ५॥ (पृ० १) तिणि अवसरि गूजरधर राइ सारङ्गदे नामि बोलाइ । तिणि अवगणिउ माधव बम्भ तांहि लगइ विग्रह आरम्भ ॥ १३ ॥ रीसावीउ मूलगु प्रधान करी प्रतिज्ञा नीम्युं धान । गूजरातिनूं भोजन करूं जु तुरकाणूं आणूं अरहूं ॥ १४ ॥ माधव महितइ करिउ अधर्म नवि छूटीइ आगिलां कर्म । जिहां पूजीइ सालिग्राम जिहां जपीइ हरिनूं नाम ॥ १५ ॥ जिणि देसि कीजइ जाग जिहां विप्रनइ दीजइ त्याग । जिहां तुलसी पीपल पूजीइ वेद पुराण धर्म बूझीइ ॥ १६ ॥ जिणि देसि सहू तीरथ जाइ स्मृति पुराण मानीइ गाइ । नवखण्डे अपकीरति कही माधवि म्लेच्छ आणिया तहिं ॥१७॥ (पृ० २) मन्त्र महोषधी देवता अनुदिनि पूरि ऋद्धि । पद्मनाभ पंडित भणइ पुण्यतणी परसिद्धि ॥ १२२ ।। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जूनां धान हुइ बलहीण तिणि करी देह थाइ खीण । असी वात राउल जे भणइ बीजि दिवसि महाजन सुणइ ॥ १२३ ॥ राजंगणि सवि ग्या संचरी पहिल सवि सहू मेलु करी । जई रा लगुनि भेटणं करूं मोती भरिउ थाल ते धरु ॥ १२४ ॥ वीवहारीया राय वीनवइ अह्मो आलहिणूं करिसूं सवइ । करयो वेढि, म छंडु मान वरस साठि पूरीसिंउ धान ॥ १२५ ॥ रामसींह फडीउ इम भणइ कण कोठार घणा अह्म तण । मग चोखा जब काठा गहुं पूरूं वरु जु आयस लहु ॥ १२६ ॥ वीरम भइ उधारु जीउ वरस त्रीस हूं पूरुं घीउ । मागूं सीख पसाय अझ कर भुंजाइइ बिमणउं वावरु ॥ १२७॥ जइसी दोसी इम भइ वस्त्र वखारि घणी अतणइ । लेवा तणी म करसिउ माठि कापड हूं पूरूं वरस साठि ॥ १२८ ॥ भोलु साह भइ लिउ तेल असी वरस पूरुं दीवेल । बाले एलु छइ पारु वलते वारे नाहणं करु ॥ १२९ ॥ राय भइ महाजन परि कही कोरुं धान जिमाइ नहीं । जमलि साखि दीइ परधान ईंधण विण नवि पाचइ धान ॥१३०॥ मोहणसाह कहर ए परि वात एतली छड् पाधरी । सूकडी अगर अह्मारइ घणां वरस साठि पूरुं ईंधणां ॥ १३१ ॥ राय भणइ ई साचूं सही पाखइ गोल न सकीइ रही । भीमु साह ईणी परि भणइ देउल मन भाजु आपणइ ॥ १३२ ॥ वरस अढार लगइ त्रापडा गुल ढीकलीइ पूरूं गडा | तेह पारखूं जोउ राय गुलनु गोलु बिमणु जाय ॥ १३३॥ ( पृ० ८२ ) X X X Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५७५ सेजवाल काढि कारण करी पापी पापबुद्धि आदरी । लोभि एक विटालि आप लोभि एक करि घण पाप ॥१८३॥ लोभि एक नर लोपि धर्म लोभि करइ पाडूंआं कर्म । लोभि मिली माल आथडइ लोभि एक नर वाहणि चडइ ॥१८४॥ लोभि एक विदेसि वलइ लोभि एक नर पाला पलइ । लोभि एक दाखवि अणाथि लोभि बूटां बालि हाथि ॥ १८५॥ लोभि एक फरि दारिद्र लोभि चोर न आवि निद्र । लोभि काजि पीयारि मरइ लोभि कन्याविक्रय करइ ॥१८६॥ लोभी जमलु वासि म वसे लोभि एक सेडि सांडसे । लोभि एक थाइ अन्यान लोभि एक पडावि बान ॥ १८७॥ लोभि धर्म लोप आदरइ लोभि सगां सहोदर मरइ । लोभि एक नर पाडइ वाट मारइ विप्र नगारी भाट ॥ १८८॥ लोभि एक नर छंडि मान नीच तणि घरि खाइ धान । लोभि एक तणूं मन राखि लोभि एक दीइ कूडी साखि ॥१८९॥ (पृ० ८९) डुंगरतणां शिखर डगमगइ थ्यु अजूआलु साचुरि लगइ दिग्गज आठ रहीया अवलोकि धुम विराल गई सुरलोकि ॥२४२॥ जाणी वात न लाई खेव ततखिणि जोवा आव्या देव । हस्ति चडिउ एरावत इन्द्र अंतरिखइ सूरज नइ चन्द्र ॥ २४३ ॥ नैऋत वरुण सवि सुर मिली नरवाहन तिहां आविउ वली । तिहां चुसठि योगिणी हती हंसि चडी आवी सरसती ॥ २४४ ॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति गरुडि चडी हरि आव्या अनइ आवी शक्ति सिंघवाहनी । सप्त रखिश्वर साचू चवि ब्रह्मादिक तिहां आव्या सवि ॥ २१५ ॥ आव्या रूद्र वृषभ सज करी महिषिसुर आविउ संचरी । पाछा रहि आवसि खोडि आव्या सुर तेत्रीसइ कोडि ॥ २४६ ॥ सरगलोकथी साचु मानि सवि अपछरा चडि विमानि । सवि देवता अंतरिख रही दीव्य चक्षु विण दिसिइ नहि ॥ २४७ ॥ (पृ० ९४) संवत पंनर बारोतरू तिणइ दिनि सोमवार विस्तरु । जालहुर गढ उत्तम ठाउ राउल कान्हमालदे नाउ ॥ ३३८ ॥ पद्मनाभ मति आणइ नवी तेह तणी कीरति वर्णवी । एक चित्त जे नर सांभलइ तेह तणां सवि दुष्कृत टलइ ॥ ३३९ ॥ जे फल लाभइ दीधइ दानि जे फल गंगा तणइ सनानि । जे फल हुइ तप कीधइ सदा जे फल हुइ दर्शनि नर्मदा ॥ ३४० ॥ जे फल सत्य वचन प्रमाण जे फल हुइ सांभलि पुराण । जे फल लहि तापसि सवि जे फल हुइ बंध छोडवि ॥ ३४१॥ जे फल पामइ कीधइ जागि जे फल भेटि हुइ प्रयागि । जे फल पामइ गंगाद्वारि जे फल हुइ भेटि केदारि ॥ ३४२ ॥ जे फल हुइ विद्या उद्धरि जे फल भेटि गोदावरी । जे नारायण दीठइ नेत्रि जे फल हुइ दानि कुरुक्षेत्रि ॥ ३४३ ॥ जे फल पामइ साहसि सती जे फल माहमास गोमती । जे फल लही द्वारिकां खट मासि जे फल भेटि हुइ प्रभासि ॥३४४ ॥ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य जे फल हुइ मुक्तिपुरी साति रामनाम उच्चरइ प्रभाति । कान्ह चरित्र जिको नर भणइ एक चित्ति जिको नर सुणइ ||३४५ ॥ तीर्थ फल बोल्यूं जेतलं पामइ पूण्य सवितेतलं । पूण्यि संग सवि सज्जन मलइ पूण्यि आस मनोरथ फलइ ॥ ३४६ ॥ प्राकृतबंध कवित मति करी कलयुग कथा अभय विस्तरी । चाहूआण कुलि कीरति घणी पूरु आस सवि कह तणी ॥ ३४७ ॥ ( पृ० १०३ ) ( ४ ) कवि- भीम - प्रबोधप्रकाश ( संपादक श्री० केशवराम शास्त्री, गु० व० सो० ) भाषानूं कारण नहीं कारण अर्थविशेष । सम्यक एह ऊपर कहूं पिंगलगाथा एक ॥ ३ ॥ ये अज्ञानि ऊपजइ विश्व चराचर शूर । किरण विषि दीसइ यथा मध्य दिवस जलपूर ॥ ५ ॥ येहूं स्वरूप विचारतां मोह निवर्तइ एह । कुसुमतणी माला विष यथा भुजंगम - देह ॥ ६ ॥ ( पृ० १ ) हरि सदा उपाशी आतमबोध अगाधि । सनातन आनंदघन वर्जित अखिल उपाधि ॥ ७ ॥ शास्त्रसम्पत्ति गुरुवचनि आत्मतत्त्व अनन्त । अनुभवतां जाणइ यति शमदम साधनवन्त ॥ ८ ॥ ३७ ५७७ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति श्रद्धा भक्ति वैराग अति ध्यानविचार विवेक । साधन विना न पामी जोतां जन्म अनेक ॥ ९ ॥ शंकर करुणाकरतं प्रणमीजइ पदद्वन्द्व । येनी अनुकम्पा करी प्रापति परमानंद ॥ १० ॥ ( अमृत उदरि छि सुर तणइ तो हि तेह मरंत कंठि हलाहल विष वहइ जय जय ते जीवंत ) त्रीजा लोचननइ मिशइ ललाटि पावकरूप । परम तेज परगट कर्यू जाणे ज्योतिस्वरूप ॥ ११ ॥ जय जय जय युगदीश्वरी उमया उज्ज्वलअंगि । आदिशक्ति अंतर रही आलिंगी शिवलिंगि ॥ १२ ॥ अंतर मारुत नियमना नाडी सूक्षम तन्न । ब्रह्म रुद्र गुरु मुखि करी जाणइ योगीजन्न ॥ १३॥ ( पृ० २ ) प्राण पवन मन समरसइ अनुभव करतां एह । सिहियई परमानंदनु वाधइ सदा सनेह ॥ १४ ॥ मुगति-मूल ए शांतरस नव रसनइ धुरि येह । मोक्ष-पणइ ते ( णइ) कारणि बोलिस महिमा तेह ॥ १५ ॥ आगइ नाटक बोलियां कविजन बहु महिमाइ । वली किशा कारणि करी कीधु तहूमो उपाइ ? ॥ १ 11 विवेक विचार विस्तरइ त्यजइ महाम्हो - दंभ | भीम भइ ते (इ) कारण ए ग्रंथ तणु आरंभ ॥ १७ ॥ सांभलतां सुख पामीइ भणतां दुःख सवि जाइ । एहनु अर्थ विचारतां मति अतिनिर्मल थाइ ॥ १८ ॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५७९ इहिनिशि अविलोकन करइ एह प्रबोधप्रकाश । ते नर नारायण तणूं पामइ पद अविनाश ॥ १९ ॥ (पृ० ३) नायक नंदी रंगाचार उत्तम मध्यम पात्र विचार । लघु गुरु गण पिङ्गल प्रस्ताव नाटक भेद न जाणूं भाव ॥ २५ ॥ विष्णुभक्तजन तणा प्रसादि प्रबोधचंद्रोदय अनुवाद । कहोस विचार सार संक्षेप पंडित रखे कर आखेप ॥ २६ ॥ यहां मोटा कवि रवि उयोत त्यहां हूं कवण मात्र खद्योत । माणिक जमली गुंजा यथा दोष म देशु देखी कथा ॥ २७ ॥ वैकुंठपति पुरुषोत्तम एव अवतरिआ हरि घरि वासुदेव । कंटक कंस महारिपु मारि उग्रसेननई राजि बिसारी ॥ २८ ॥ जरासन्ध सालव शिशुपाल भीषम दुर्योधन भूपाल । दरशन मात्र हयाँ ते आइ दी● राज युधिष्ठिर राइ ॥ २९ ॥ अवनीकेर भार ऊतारि आव्या हरि द्वारिका मझारि । शिंघासणि सोहइ सामला दिन दिन दीपइ चडती कला ॥ ३० ॥ नवनिधिपूरित द्वारामती भव-आमय भेषज गोमती । श्रीजसवंत संत प्रतिहार इहिनिशि उच्छव मंगल चार ॥ ३१ ॥ सभामांहि बइठा धरि धीर छपन कोडि कुल यादव वीर । सुभट महाभट समरथ शूर निज सेवक उद्धव अक्रूर ॥ ३२ ॥ राजा गुणसागर गोव्यंद श्रीपति पूरण-परमानंद । धर्मशिला हरि आगलि सार रचियूं नाटक करी विचार ॥ ३३ ॥ (पृ० ४) * Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० गुजराती भाषानी गुत्क्रान्ति कामिनीकंठि अलिंगित हाथ सभामांहि आव्या रतिनाथ ॥ ४६॥ रातां लोचन मदयौवन रूपई मोहि त्रिभोवन-जन्न । अबला अङ्गसंग उल्हसइ दुहुदिशि जोइ हलूइ हसइ ॥ ४७॥ करि धरि कूच मूछ वल भरइ क्रोध सहित वाणी ऊचरइ । किहां गयु ते पापाचरण येणई कयूं मोहनूं मरण ॥ ४८ ॥ रूप अनोपम चंचल नारि नमता पीन पयोधर भार । सोलकला मुख यिशु मयंक कटितटि झटित केसरी लंक ॥ ४९ ॥ हरिणाखी हंसगामिनी यौवन मदमाती कामिनी । दाडिमकली दंत निर्मला अधर सुरंग अंगि कोमला ॥ ५० ॥ कंकण हार चीर चूनडी मस्तकि मणिमण्डित राखडी । सवि शणगार करी सांचरी कामसहित सोहइ सुंदिरी ॥ ५१ ॥ रतिपति करइ विनोदइ वात कुसुम धनुष निज कोकिलनाद । वसंत अबला अंब अनेक अम्ह यीवतां किशु विवेक ॥ ५२ ॥ माहरां सकल सफल आयुध (मई) शुम्भ निशुम्भ कराव्या युद्ध । वध्यु सरिसु वानर वालि रावण-आइ हर्यु अगालि ॥ ५३ ॥ विश्वामित्र पराशर ईश मुझ भई कांपइ सुर तेत्रीश। ब्रह्मा लोकपितामह येह पुत्री सरिसु कर्यु सनेह ॥ ५४॥ इहिल्या सरिस विगूतु इन्द्र गुरुनारीशू रमिउ चन्द्र । त्रिभोवन कोई नथी ते सही ये माइ वशि आवइ नहीं ॥ ५५ ॥ (पृ० ५) * उत्तम पात्र विवेक विचार त्यजीइ मोहादिक परिवार । बीजा अंकतणु आरंभ ते मांहि प्रथमइ आव्यु दंभ ॥१॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य भइ दंभ भाइ दंभ जन सांभलु । महामोहि मझनई कयूं अरे वत्स ! अमरिख धरइ || कुलअंगार विवेकरिपु आपण कलहु करइ | तीरथि तीरथि मोकल्या शमदम संयम सार ॥ ऊपजवा दे अमरखे ते तूं बोल विचार ॥ २ ॥ ये मन कहियूं महाराजि ते तां कारय कीधूं आज मुगतिपुरी ये मांहि इशी मई वशि कीधी वाराणसी ॥ ३ ॥ निशि वेश्या मुख आसवपान दीहइ धूरत मांडइ ध्यान सर्वज्ञा दीक्षिता तापसा सकल लोक मई कीधा अश्या ॥ ४ ॥ दीपंथी गंगातीर त्रिभुवन - तापन उग्र शरीर दंभ करइ मनमांहि विचार जाणो करि आव्यु इहकार ॥ ५ ॥ तत्क्षणि आव्य सभा मझारि ते देखी कांपइ नरनारि । जन समोह जो सांचरइ खट दर्शननी नंदा करइ ॥ ६ ॥ गुरुतरमत प्राभाकर भाट्ट जन व्याकरण न जाणइ वाट । पाठइ भणी सकइ नवि वेद तु किम कहइ अर्थनु भेद ॥ ७ ॥ स्मृतिपुराण व्याससंवाद ज्योतिक न्याय कपिल काणाद । नाटक पिंगल सहित सही ए मूरख जन जाणइ नहीं ॥ ८ ॥ ब्रह्म एक नई जीव अनन्त जुआ शास्त्र कहइ वेदान्त | परतखिं वद विरोध अगाध बौद्ध विषइ केहु अपराध ॥ ९ ॥ तापस मुनि मसवासी सती कहइ इहकार किशां ए यति ? | शिखासूत्रनु कीधु नाश भिक्षा कारण ए संन्यास ॥ १० ॥ कपटई जंगम योगी थया त्रिडंडी बेहू भव गया । चारवाक खमणा खडभडइ आगइ हीन वली पडइ ॥ ११ ॥ ५८१ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति गंगामज्जन हरि उच्चरइ सदा साधुमारगि सांचरइ । श्रद्धासहित करइ खटकर्म एनइ कहि ते दंभक धर्म ॥ १२ ॥ (पृ० १७) दिगंबर आव्यु सभा पुस्तक पाणिं धरंत, कहइ कथा सिद्धांतनी नमो नमो अरिहंत ॥ १६ ॥ आप विमल काया मलिन झिरइ सदा नवद्वार, ते जलि किम निर्मल हुइ गाथा कहि विचार ॥ १७॥ वस्तु-सुणु श्रावक सुणु श्रावक परम सिद्धांतः क्रोध-लोभ परहरीइ मति गुरुभक्ति आदरकर खटरस भोजन विविधपरि प्रणाम करी आगलि धरु जीवदया-मति विस्तर छोडु निंदाभाव, गुरु अवगुण देखी करी करता रखे कुभाव ॥ १८ ॥ गुरुनां चरण उपासता मनि न धरता रीस, आगइ पाम्या केवली तीर्थंकर चुवीस ॥ १९ ॥ श्रद्धा प्रति क्षपणक कहइ सांभलि माह्री वाणि, श्रावक कुल छोडइ रखे ए शीखामण जाणि ॥ २० ॥ ते देखी शांति टलवली, करुणासहित वीमासइ वली; ए तां रूपई दीसइ इशी श्रद्धा हुइ पणि तामसी ॥ २१ ॥ वली जोएवा उपक्रम किउ, भिक्षुक एक सभां आविउ; मस्तक मुण्डित पुस्तक पाणिं वदइ ते बोधागमवाणि ॥ २२ ॥ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५८३ सुणु सेवक सिद्धांत कवू , क्षणक्षण विश्व ऊपजइ न ; स्त्री ऊपरि गुरु आणइ भाव, करता रखे कदाचि कुभाव ॥२३॥ अहो साधु ए सौगत धर्म, मोक्षमहासुख प्राप्ति कर्म । श्रद्धानई शीखामण कही ए तई कुल छांडेवू नहीं ॥ २४ ॥ शांति भणइ ए सचूड पिंड बुद्धउपासक मुण्डितमुण्ड । जमली ऊभी माता जिसी श्रद्धा हुइ पणि तामसी ॥ २५ ॥ (पृ० ३१) संवत १५ रुद्रनी वीस षट आगलां वरस च्यालीस । दषणायन वरखा रतु सार श्रावण सुदि दसमी गुरुवार ॥ ७३ ॥ भवभयभंजन श्रीभारती पंचप्रवाहि वहि सरस्वती । श्रीसोमेश्वर निज आवास भुवि मांहि बीजु कैलास ॥ ७४ ॥ तीरथतिलक क्षेत्र प्रभास यहां वसइ द्विज नरसिंह व्यास । ते घरि सेवक वैष्णवदास कीधु एह प्रबोधप्रकाश ॥ ७५॥ (पृ० ७४) प्रबोधचन्द्रोदय-विस्तार नाटक शांत महारससार । भीम भणइ नाराइणदास अंक समापति छ? प्रकाश ॥ ८३॥ (पृ० ७६) ____ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति (५) कवि-मांडण-प्रबोधवत्रीशी (सं० स० मणिलाल बकोरभाइ व्यास) भक्तिवीशी आगइ कवि ग्या मोटा कवि जे बोलइ ते वाणी नवी । गंगा अतिषण पूरइ वहइ सकति आपणी जल संग्रही । गुणसागर ए भरीया तो य ' चोरी भागि मुंघी न होइ' ॥१॥ मूरख नइ मति दीजइ किसी हीइ न जाणइ कांइ उल्हसी । जेता अवगुण तेता ग्रहइ गुणनी वात न एक लहइ । मनि जाणइ मारइ छे झंख — बहिरा आगली वायु संख' ॥ २ ॥ खिण सांभळवा श्रोता मिल्या जाणे 'तिल कोद्रवमा भल्या' । तेहनी घयसि न घाणी होइ वांचि व्यास न बूझइ कोइ । इम करतां ते नवि छूटीइ 'सेवंतरां डांगि कुटीइ' ॥ ३ ॥ हरिभक्ति श्रीसुख सांपडइ हरिभक्ति यश मोटा चडइ । हरिभक्ति नर निर्विष होइ हरिभक्ति किंकर न विगोइ । हरि छांडीनइ अन्य आराहि 'कोठी सरसा कांठा खाइ' ॥ १५ ॥ यमभागु नर तीरथ करइ यमभागु बहु तप आदरइ । यमभागु वनि योगी थाइ यमभागु ज क्लेश कराय । पर्यंकि पुढ्यां हरिगुण लीयु 'गुलि मरि तु विष कां दीउ' ॥ १६॥ तु रण खेद तु जु घरि तिजु पाणि खेद तु जु कहि भजु । श्रवण खेद सांभल वु कांइ चक्षु खेद कहि साहमूं जोइ । एम ज भक्ति होइ हरिवडइ 'कांइ न ल्यु तम्हे मधु आकडि' ॥ १७ ॥ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५८५ पाप तणइ प्रभाविं करी ए काया माया आवरी । किंकरि करी मूक्यू आपणु नाम न जांणि युगपति तणु । सत्संगति तजी कीध आघ 'डोकरि नइ घरि पिठु वाघ' ॥ १८ ॥ दल अहंकारतणां सांचर्यां जन्मकोडि पातक परवर्यां । मोहबाण मेल्हि अति घणां राखि न चरण शरण तम्ह तणां । नारायण नामि शू की'वाइं वादल यम ठेलीयूं ॥१९॥ शंघ तणइ बलि शंघ ज रहि (तिम) ताहरी माया तूंह ज लहइ । शेव करंतां सूधु काय मझ मन राखि न तोरे पाइ । कहि मंडण अमचा नृप होइ स्वामि विना कुंण सामु जोइ ? ॥२०॥ पाखंडवीशी पाखंडी गुरु माथइ कर्या वामी वेद उवटि सांचर्या । धर्म तणी हांणि नवि सयु उपरि आलि धन वावयु । मिथ्यालापि हौआ संयमी ' भइसि केडि पाडी नीगमी' ॥ ८१ ॥ मीचइ आंखि न मीचइ हैआ न चलइ काछ चालइ धोतीआं । लाई भूती विभूती न लइ तन सांकली नई मन सांकलइ । दांमी ऊंट सकि नवि कोई ए गाहादि दामंतां जोई ॥ ८४ ॥ अंगि राख मनइ राखडी बाहरि बांग मांहि बांगडी । भालि चंदन मन माहि चंदली माहि वन अंतरि वनी ।। ८५ ।। वैष्णव धर्म लोक नइ कहइ करणी चंडाली मध्य ग्रहइ । सहितु टालि बि शीस न होइ महिषी ऊंट न चारइ कोइ ॥ किम होशि नामि निर्मला ठालि ऊखलि बि मूसलां' ॥ ८७ ॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जु योगी तु काइ क्रोध आतमसुख तु काइ निरोध । सन्यासी तु कांइ असंतोष जु तप तु शू कारण लोक । जु विद्या तु कां कूड़े कवइ माथा मानि शीसक शवइ ॥ ८८ ॥ वैष्णव काहावि वशि नवि एक ब्रह्म क्रिया विण ब्राह्मणवेष । ज्ञांन हीन ज्ञांनी मांहि भलइ एक प्रश्न पूछी नीकलइ । इंद्रि साधि नही कहि सध कूडइ लोहडइ कटक जु खध ॥ ८९ ॥ योग न जांणइ योगी कहइ खमणु तु जु खम नर हुइ । इंद्रि वशि तु वैष्णव नाम पाखंडी पंडित परणांम । कूडा बोल न आवि वरइ विण पांणी मोजां उतरइ । रोली राख लाख सिद्ध थाइ हौआ साध व्याध घरि खाइ ॥ ९०॥ रूढ पड्यां नर क्षण सांभलइ पाप करंतु नवि पाछु वलइ । शीख शवे घरि ग्यां वीसरी पोथां थोथां नांख्यां करी । व्यास वचनि मन नु हि थीर 'उंटघटि यम नांम्युं नीर' ॥ ९४ ॥ धंधु धर्म पाप पाधरूं मोहि मनी बिठा खरूं । शवकहि शीख देअंता होइ बूडता आपिं नवि जोइ । साप डशु किम उखध करइ भांड मरइ सम खातुं शरइ ॥ ९६ ॥ माहि मइला नइ करि सनांन परद्रोही नई आपि दांन । मुहि मीठा अंतरि गुण जूआ माहि मोटा विषना लाडूआ । इम करंता किम जाशु पारि 'मींनी जइ आवी केदारि' ॥ ९७ ॥ घरनां पातक तीरथि जाइ तीरथनां कोटी गण थाइ । पाप अजांणि लघु लेखवु जाणिं मेर समान भोगवु । विण विश्वाधार वाहार कुंण धाइ ? दीहइ चड्यूं चुहुटुं लूसाइ ॥९८॥ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५८७ एक कहिशि निंदा करइ ' मोदक मंदाग्नि न वि जरइ'। रहि जवासु जलि सूकाइ ‘गणिकापुत्र न तात सुहाइ' । सर्वा घृत यामि न वि सहइ लूंडी पेटि क्षीर नवि रहि ॥ ९९ ॥ मंडण कविता नामि गणइ माथि मणि काकींडा तणइ । कूडी काया हरि गुण सीध कुडी वडइ हाथीउ लीध । उखाणे हरि लागू मन्न यम उकरडामाहि रतन ॥ १० ॥ हास्यवीशी पापमती नइ मदिरा पीध वढकणी वहु नइ प्रीय पक्ष कीध । हृदय सूनुं भांगि वावरइ व्याधिं पीड्यु दुःकृत करइ । कमार्गी नइ कसंगति जडी यम कारेली लींबडी चडी ॥ १०१॥ थोडी विद्या थ्यु ठीकरु धन थोडं धनवंत थ्यु सरूं । उणु घडु गाजि ते घणु पूरू पांणी ग्रहइ आपणूं। गर्वइ सर्व सुवर्णमइ होइ कीडी चडी काटरलइ जोइ ॥ १०२॥ परणी नारि तजी वन गयु आलस अंगि तपसी थयु । कांम बांण न सक्यु जालवी रडवडती स्त्री आंणी नवी । श्वान भसावइ हीडइ चक्यु बाहरि न ग्यु घर न राखी सक्यु ॥१०३॥ पुण्य विना नवि पाधलं क्षेत्र पुण्य विना गौ विणसइ वेत्र । बीजु विणज करइ अपाइ करइ पाधरूं ऊंधू थाइ । पुण्य विना दुःख दारिद्र नडइ बढें घरि कुहांडां घडइ ॥ १०८॥ माता पिता मारग दाखवइ सजन लोक मिली शीखवइ । गुरू स्मृति वाणी सांभलि देखइ नृप शरि दंडा फलइ । एतां वारीतां कर्म कीध 'भुकंतु गाधह चोरे लीध' ॥ ११०॥ ___ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति करणी नवि देखइ आपणां लोकधर्म देखाडइ घणा । शीबली फूल मभ माहि ग्रहइ बाहरि शोभा जोई वहि । कहि कारणि नवि खरचइ रूउ 'उखरली खाटि चंदूउ' ॥१११॥ मूर्खवीशी मूरखशू मन करशु संग रंग माहि ते करशि भंग । 'सोना झाल म पांणी खोइ' 'मडू मालि चडाव्यु किम टोहि' । ढेढनंइ राज कराव्युं करइ मातु बोकड मुखि मूतरइ ॥ १२२ ॥ पहिलं वचन न की— तात बीजी लोपी गुरनी वात। लोके पुरणा न कीधी रीति भय भूपति न आव्युं चीति । वारीतु नर प्रांणि पलइ जां न भीतिं शर आफलइ ॥ १२६ ॥ आंणीतां आघेरू जाइ वारीतां वांकेरूं थाइ । स्वान पूंछ नली खटमास तु हि न छंडइ वंक अभ्यास । शीख देअंतां साइ{ भडइ 'मुलि लोहि न पोगर चडइ' ॥१३१॥ सज्जनवीशी कुलवंतु नइ क्रिया घणी इंद्रय वशि नइ तीरथ मणी । धनपूरित नइ अंतरि दया विनय विवेक नइ भूपति मया । श्राद्धपात्र नइ मल्यु रवि राहु ‘मा प्रीसणइ मुहुसालि वीवाह' ॥२०१॥ निर्मल काया नइ निरोग बीजइ आश्रमि पाम्यु योग । कविता विण प्रतिबोध न कवइ व्यास वचन विण ना रद चवइ । वाडव विष्णुभक्ति आवर्यु आगइ शंख गंगोदक भर्यु ॥२०२॥ ___ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५८९ इंदिइ वसि जु राख्यां आप त्यजूं कल्पना मन संताप । स्वामिशरण नवि मूकइ घडी मनसा मेहेलि संतोषि जडी । हेमकचोलू करि जो होइ घालई भीख नही को कोइ ॥ २०३॥ जइन तणी ल्यु जयणा सार वरतु वेदकर्म आचार । असुरतणु आंणु वीसास शेवु आदिपुरूष अविनाश । ए रजमांहि तज काढि जोइ 'सोले वाले गदीआणु होइ' ॥ २१९ ॥ द्वैतवीशी के उपवीत पेटि न वि भण्यां तरक म सूनति साथि जण्या । शिर नो लूचि श्रावक नीसरा फाटे कान न योगी गर्या । कर्मविकारि कर्यां आपणा ऊचनीच कूचा मन तणा ॥ २२२ ॥ (सोळमो सैको पूरो) Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरमो सैको (१) अकबरसंमानित कवि सिद्धिचंद्र--सत्तरमो सैको संक्षिप्त गुजराती कादंबरी। “विदशा नगरी, वेत्रवती नदीनिं तटिं । त्यहां राजा शौद्रकं राज्य करि । एक समिं दक्षिण देशथी एक चांडाली परम सुंदरी, शुक एक लेई राजद्वारि आवी । प्रतिहारिं राजानिं आवी विनती करी कह्यु-एक चांडाली द्वारि अतिसुरूपा अतिचतुरा शुक हस्त धरी आवी छ । राजाई मांहिं तेडी, शुक परम गुणी चतुर, तेणे शुकिं राजानि केटलाएक श्लोक भणी आशीर्वाद कीधो । राजा घणूं प्रसंन थया। चांडालीई कह्युएह शुकनूं नाम वैशंपायन छिं। अत्यंत गुणी सकल कला प्रवीण छिं। तम योग्य छिं ते माटे ल्यावी ढूं। एह तमे राखो। ते राजाई प्रेमशू राख्यो । पछइ राजाई पोतानो प्रधान कुमारपाल नामि, तेहनिं कहुं-ए कशुक उत्तम भणई छइ । प्रधांने कहुं—एहनिं शाप दीसि छइ, वर छि ते माटे उत्तम भणइ छिं। मोहलमां मोकलो । वृत्तांत सर्व कहेशिं । ते राजाई शुक महोलमां मोकल्यो। पछि राजा भोजन करी मोहलमां पधारा। शुकनि प्रसंन मनिं पूर्वापर शुक वृत्तांत पूर्छ । शुक कहि छि-विंध्याटवी स्थानक दंडकारण्य क्षेत्रमाहि छि। त्यहां अगस्त्यनो आश्रम छि । त्यहां माहरी जन्मभूमि छिं। त्यहां पंपासर नामि सरोवर छि। तेहने कांठिं एक शीबलने वृक्ष छिं । तेहना कोटरमां माहरी माता मुनि जणतां मुई। पिता मुनें पालतो । ते एकवार आहेडीई कोटि मरडी लीधो। पछि Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५९१ हूं पांख विना वृक्षतले पांदडांना पुंजमां पड्यो। छानि रहों ते आहेडीई न दीठो । त्यहां हूं तृषाक्रांत थयो । त्यहां थकी तपोवन ढूंकडे हतुं त्यहां हुं अतिदुखिं दुकडो गयो। ते तपोवन जाबालि ऋषि रहि । तेहनो पुत्र हारित सरोवरिं स्नाननिं आवतां हुं अतिदुखी पड्यो दीठो। पछि शिष्य हस्ते हुं लीधो । जल पायूं । पछि ऋषिपुत्र, स्नान करी अशोकवृक्ष तलिं जाबालि शिष्यसंयुक्त वृंदमां बिठा हता त्यहां मुनि लेई गयो । ऋषिई पूछं पुत्रनिं-येह, एह शुक क्यहां थकी लाव्यो ? कहयु-वनमाहिं दुखी तृषाक्रांत पड्यो तो दया जाणी लाव्यो । ऋषि त्रिकालदर्शी मुज सांहांजोई मुंने कहुँ, अविनय कीधांना एह फल । पछि शिष्य-पुत्रादिके ऋषिनि पूछ-एहनो स्वामी ! शो अविनय छि ? ते ऋषिई कहयु-एकांत रात्रिं विधिपूर्वक कहशुं । पछि रात्रि मुंनि पासे बिसारी सर्व आगलि ऋषिई कथा कही, 'ती कथा सांभलो' इम कही वैशंपायन शुक, ते, हवि राजा शौद्रक आगलिं जाबालि ऋषिनी कही कथा कहि छइ__उजेणी नगरी पुरीशिरोमणि । त्यहां सूर्यवंशी तारापीड राजा अति विख्यात । तेहनो मंत्री शुकनाश नामि ब्राह्मण धीर अतिचतुर । ते मंत्रानि सर्व राजकार्य सूंपी राजा क्रीडा करि । ते राजाने पुत्र नहीं" ( पुरातत्त्व पुस्तक ५ (चैत्र १९८३) पृ० २४४) अमरेलीनो शिलालेख सं० १६५० नो संवत १६५० वरषे भादरवा सद १३ दने श्रीदीवान पान नवरंगषान हवाले प्रगणे अमरेली मीर श्री मिहमद हुसेन आहिशन नवापुराना माहजन समतजोग जत तमनि विठ माप छ. हीदवाण गय त्रुकणे सूहर मागे तेने....गधेडे गाल. (पुरातत्त्व पु० ५ पृ० १८१) ___ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति (३) कवि श्री विष्णुदास-सत्तरमो सैको-महाभारत ( हस्तलिखित प्रति-श्रीफार्बस गुजराती सभा-अं० १३३ ) प्रभातकाल हवो सहु चाल्या करवा माहासंग्राम । दुर्योधन पांडव जीत्यानी करी हृदि शू हाम ॥७॥ त्यारि कर्ण किहि माहारी वीद्यानुं सकल कार्ण देषाओँ । कि पांडव मुझनि मारि कि हु तेहनि नाश पमाडु ॥ ८ ॥ आगि ईद्रि धनुष समयूँ फरशूरामनि हाथे । तेह वाय करि ग्रही युद्ध मि करवू पांडव साथे ॥९॥ अर्जुनना शरषी माहारि बाकी सर्ब सजाई होय । एहनि सारथी क्रष्ण छि तेहवो माहारि नथी कोय ॥१०॥ ते शरषो आपणि शल्य छि सत्य जाणो मनमांहि । ते माहारो सारथी होइ तो युद्ध करूं जै त्यांहि ॥११॥ दुर्योधन एहवू वाक्य सांभली मनमां थयो रलीआत्य । का कर्ण हुं सैन्य लेइनि आवू तुझ संघात्य ॥१२॥ पछि कर्ण सावधान थयो माहाधीर्यपणूं मन्य आंणी। तेणि समि वली शल्य प्रत्यि दुर्योधन बोल्यो वांणी ॥ १३ ॥ आहो ! ! ! शल्य तू माटि हुँ रणमां रुडं भाव्यो। कर्णतणूं सारथीपणूं करि ए प्रारथवा आव्यो ॥ १४ ॥ तुझ देषीनि ए समरांगण्य सुभट सहु को त्राहासि । यम अर्जुननि एक ऋष्ण त्यम कर्णतणि तू पासि ॥१५॥ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५९३ ते ते सुभट पड्या रणमा ये माहाबलीआ होय।। कर्णसंघात्यिं तुझ देषी उभा न रहि कोय ॥१६॥ शल्य किहि हुं हीनप्राक्रमी एहवू तूझ मन्य आवि। ये तू मुझनि कर्णतणुं सारथीपणुं करावि ।। १७ ।। क्रोधवाणे इम शल्य उचर्यों अरे पापी छू बोलि। हु एकलो संग्राम करूं पण नही को माहारि तोलि ॥१८॥ ग्राहारि पर्वत चूर्ण करूं अनि वसुधा पांण्य वीदारूं । किहि तो समुद्रतणुं जल शोधूं को न सकि बल माहारूं ।। १९ ।। अणप्रीव्यू अविचायू वायक आंहां बोल्यो तूं इम । सुतपूत्रनो मुनि सारथि करवा ईछि क्यंम ।। २० ॥ जो त्यि एहवां वाक्य कह्यां तो युध करुं नवि लेश । अतीक्रोधि उठी त्यांहाथो संचर्यो शल्य नरेश ॥ २१ ॥ दुर्योधन कहि अहो शल्य हु तव वचने मन्य राचूं । तुझथी अधीको कर्ण नही ए तू बोल्यो मुक्ष साचूं ।। २२ ।। आर्तिवंत पूरुषनि राषवा पोते बर्द कहावू । शत्रू सर्वनि शल्यरूप त्थिं साचू नाम धराव्यूं ॥ २३ ॥ दुर्योधन किहि हु मुझ अर्थे वाक्य कहुं छु एह । तुझ सरषो को सुभट नथी रणमां हय राषि येह ॥ २४ ॥ शल्य कहि सारथीपणूं हवि मि करवू नीरधार । ए रणमां कयूं कर्णनूं हुं नही करु एक लगार ॥ २५ ॥ दुर्योधन कहि अहो शल्य तूं आंणे मन्य विश्वास । एक मार्कंडयनु उक्त छि ते तुझनि कहुं अतीहास ।। २६ ॥ ___ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति माहारा पीतानि किहि मार्कंडेय सांभलि कौरवराय । को एक कालि देवदानव शुं युद्ध अपमीत थाय ॥ २७ ॥ हाहाकार तव थै रह्यो रे भूवन त्रण्य मोझार्य । प्रथम युद्ध तारकि करूं ते रणमां पाम्यो हार्य ॥ २८॥ ५९४ त्रय पूत्र तेहनि हवा रे एक नांम कमलाक्ष । बीजो पूत्र ते वीद्युमाली त्रीजो ते तारकाक्ष ॥ २९ ॥ त्रोहि मलीने माहातप मांड्यो ब्रह्मा थया तुष्टमांन । कह्यं पूत्र मागो मन्य भावि ते आपू वरदान || ३० ॥ तारकसुत वलता वदि ते ब्रह्मानि शीर नामी । प्राणीमात्रथी अमो न मरीइ ए वर आपो स्वामी ॥ ३१ ॥ पछि ब्रह्मा कहि मृत्युरुपसृष्टीमां अमर नही को प्रांणी । ते माटि बीजो वर मागो ए कारण मन्य जाणी ॥ ३२ ॥ करी वीचार वीरंची प्रति पछि एहवूं बोल्या त्यांहि । त्रण्य भूवनमां रह्या थका अमो वीरू त्रीभोवनमांहि ॥ ३३ ॥ सहस्र वर्षे ते नगर पछि मलि एगठा यारि । एके बांणे वेध करि अहमो मरूं पीतामह त्यारि ॥ ३४ ॥ सत्यवर आपी अनि वीध्याता हौआ अंतरध्यांन । रचवा त्रण्ये नगर वीचारी जोयू आभीतर ज्ञान ॥ ३५ ॥ पछि मयदांनवनि जै कयूं तेणि नगर रच्यां ततकाल । एक कनक एक रुप्यतणूं एक लोहमि अधीक वीशाल ॥ ३६ ॥ स्वर्ग कनक अंत्रीक्षि रूप्यमय कह्यं न जाय वीयांण । लोहमि नगर रहि वसुधातलि शत योजन प्रमांण ॥ ३७ ॥ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सेकानुं पद्य तथा गद्य घर प्रकार अनेक अटाली युक्त्य मनोहर दीसि । अनेक द्वार वीराजीत रचना ये जोतां मन हींसि ॥ ३८ ॥ हेमनगरनो तारकाक्ष ते यै रह्यो अधीकारी । रूप्यनगर कमलाक्ष भोगवि माहाप्राक्रम बलधारी ॥ ३९ ॥ लोहमि नगरतणो अधीपति ते वीद्युन्माली कहावि । त्रय भुवनमां माहाबलीओ येहनी यमली को नावि ॥ ४० ॥ एणि प्रकारि त्रये बांधव राज्य करि अवश्यमेव । मनमां ये ईछा करि ते त्यांहां पांमि ततषेव ॥ ४१ ॥ तारकाक्षनो पूत्र हरी तेणि माहां उग्रतप कीधो । वीरंची प्रगट हवा वरकारणि सत्य बोल करि दीधो ॥ ४२ ॥ हरी कहि ब्रह्माजी मुझनि एक वर करो पसाय । स्वामी अमारा नगरवीषि एक अमृतवापी थाय ॥ ४३ ॥ तेणि समि ब्रह्माजी अंतर ध्यान हवा वर आपी । हेां मात्रमांहां नीमी एक अमृतकेरी वापी ॥ ४४ ॥ पछि उन्मत्त हवा ते दानव माहाबलीआ ये होय । त्रण्य लोकमां देवरुषेश्वर दुषी कर्या श्रव कोय || ४५ ॥ तेणि समि जई अमर कहि श्रीब्रह्मानि शीर नामी । त्रैलोक्यमां तरकसुत आगलि क्यम रहीअि अह्नो स्वांमी ॥ ४६ ॥ ब्रह्माजी वलता इम बोल्या अमर तहमो अवीधारो । ये पापी तमनि दुषदायक ते तां द्वेषी अमारो ॥ ४७ ॥ जाओ शर्ण्य माहादेवतणि त्यांहां किहिजो नीज वृत्तांत | ईश वीना कोणि पापीनो आणी न सकि अंत ॥ ४८ ॥ ५९५ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति ब्रह्मनि पछि मुक्ष करी सुर त्यांहां आव्या ततषेव । मन एकाग्रपणि स्तव्यां त्यारि प्रसंन थया माहादेव ॥ ४९ ॥ ब्रह्मा कहि तारकसुत आगलि अमर दुषी श्रत्र थाय । ता वीना तेहनो नाश करी को न सकि शंभूराय ॥ ५० ॥ पछि ईश किहि हुं मारीश हेलां मात्र मोझार्य । त्यारि दीव्यरूप अमरि रथ नीर्मो बिठा श्रीत्रीपुरार्य ॥ ५१ ॥ रुद्र कहि सारथी करो को मुझ पि अधीको होय | ते तां तिमि एणि रथ बिठा देत्य हणाए तेह ॥ ५२ ॥ पछि ब्रह्मानि सारथी कर्या रे वरत्यो जे जे कार । दानव हणवा ईश संचयी आणी प्रेम अपार ॥ ५३ ॥ जई युद्धनो समि रच्यो पूरवा अमरनी हांम । पाशुपर्वतास्त्र बांहा मेहेली शीव करे माहासंग्राम ॥ ५४ ॥ ५९६ ये पुर तेणि समि बलीनि भस्मरूप थया त्यांहि । तारकासुत त्रये पापी पछि पड्या रणमांहि ॥ ५५ ॥ पर्म कीपा कीधी माहादेवि वचन पोतानूं पाल्यूं । जयजयकार हवो त्रीभोवनमां अमरतणुं दुख टाल्यूं ॥ ५६ ॥ दुर्योधन किहि अहो शल्य तूं सांभल्य सत्य उपाय | ते माटि हवि कर्णतणुं सारथीपणं कर्य राय ॥ ५७ ॥ रुद्ररुप ए कर्ण भणि जि तू ते वीरंची समान्य । तेणि त्यांहां कर्यू त्यम त्यिं करवूं कार्य नीदांन्य || ५८ ।। तेमाटि वली सांभल्य तुझनि हु कहु एक अतीहास । दुर्योधन राजा इम बोलि किहि शेवक बीष्णुदास ॥ ५९ ॥ * * * Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५९.१ ते शल्यपर्वमां कथा सबंध कवीता किहे बांधीश प्रतीबंध ॥ ११ ॥ संवत सोल पंचावनो सार येष्ट शुद चोथ्य शनवार ॥ १२ ॥ ते दीन पूर्ण थई ए कथा बुद्धमांने बोलीश सर्वथा ॥ १३ ॥ गाई सांभलि तेहने वैकुंठवास बेहु करजोडी किहि वीष्णुदास ॥ १४ ॥ ( ४ ) वैश्यकवि नाकर-सत्तरमो सैको - महाभारत आरण्यक पर्व (सं० श्री केशवराम शास्त्री ) प्रथम ते प्रणमी श्रीगणपतिनई जोडीनई बि पाणि । विधन हरु तम्यो कृपा करीनई आपु अविचल वाणि ॥ १ ॥ एकदंत ज शोभतु गजवदन शोभइ तेह | दल देव दया करी निज बुद्धि आपु एह ॥ २ ॥ मोदक - आहार अंतर्ज्यामी कविनई करु पसाइ । संमुख स्वामी अवलोकतां बुद्धि-ज्ञान परिपूरण थाइ ॥ ४ ॥ देव दानव असुर किंनर स्तव गुणभंडार | मुहुनई दीन जाणी दामणु करु माहूरी सार ॥ ६ ॥ शुभ कारण प्रथम स्तवइ त्रैलोक मांहां देव । ताहरी कृपा विना पामइ नहीं बुद्धिज्ञान ज खेव ॥ ७ ॥ ते माटइ महाराज ! मुहुनई करुनई परम कृपाइ । इतिहास किहिवा बुद्धि माहूरी सफलित-हृदया थाइ ॥ ८ ॥ कहेश महापुराण नई कविता खोडि म देशु । मुझ बुद्धि-माने करूं रचना कृपा श्रीपरमेश ॥ १४ ॥ ( पृ० ३ ) Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति धरणि ढलिउ धर्मराजाजी। मूर्छा पडिउ नहीं घटि सानजी ॥ १॥ सान नहीं घटि रायनई शौनक दिइ प्रतिबोध । ज्ञान ताह्रूं किहां गयूं माहा धर्मराजा ज्योध ॥ २ ॥ अज्ञाने इम आवरिउ तूं अंतर्गति अविलोकि । सुखदुःख सरज्यूं देहिनई हर्ष किहि तिहां शोक ॥ ३ ॥ अरे पडी वेलाइ पांडवो तम्यो म मेड्लु चित्ति धीर । तम्हारइ तिहां साहि छइ स्वामी श्रीज्यदुवीर ॥ ४ ॥ मूर्छा वली रायनी तव बोलिउ धर्मकुमार ।। शौनकजी तम्यो सांभलु गृहस्थना आचार ॥ ५॥ ब्रह्म क्षत्री वैश्य शूद्र जे मुख्य च्यारि वर्ण । प्रातःकाले ऊठी स्नान संध्या [अनई ] सेवा स्मरण ॥ ६॥ उपवीतधारी सांचवइ ते आपणां सत्कर्म । ज्यज्ञ-ज्याजन-अध्ययन-अध्यापन-दान-प्रतिग्रहधर्म ॥ ७ ॥ शूद्र सेवा विप्रनी वली कथाकीर्तन बुद्धि । अन्य वर्ण अलगा ते थकी तेह्नई तेही विधि ॥ ८ ॥ अष्टादश अन्न ऊपनां हुइ शाकपाक विवेक । पणि शौनकजी तम्यो सांभलु पिहिलु दयाधर्मविवेक ॥ ९॥ अतिथि आविउ आंगणइ तेह्नई न करिवु नाकार । गौ गवानिक वास वायस श्वाननइ दिइ आहार ॥ १० ॥ परिवार पोषइ आपणु नइ ऊगरतूं रिहिशि कष्ट । [ पवि ] त्र अन्न ते प्रासतु जु हुइ घरमांहि ज्येष्ठ ॥ ११ ॥ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य यथासंपदा जेहून जेवी तेहूनई तेवूं दान | राजानई तां राजरीतिइ रंकनई [ रंकसमान ] ॥ १२ ॥ पणि रत्नमणि कनकभूषण देतां अन्न अवारि । विमुख को वालि नहीं पछर्इं लिहिवु आहार ॥ १३ ॥ तो हि आशा माटि थयूं अनई विपत आवी आज । गम्यं श्रीगोविंदनई जे द्वारिकां तणु राज ॥ १४ ॥ मई पाप पूर्वे शां कर्यं लूंस्या कणकोठार | अतिथि को आविउ आंगणइ तेहूनई नापिउ आहार ॥ १५ ॥ दुर्बलनी मई भूख न लही अन्नकाजि करिउ नाकार | याचकजन मई दुहुविआं तेनई मुखि करिउ तिरस्कार ॥ १६ ॥ पाक पूरण नीपना हूं ज्यमित्रा बइठु ज्येष्ठ । अन्नकाजि उवेखिआं मई पोतई पोप्यूं पेट ॥ १७ ॥ अंतर मई एहवुं करिउ ते आडूं आयूं पाप । ऋषि ! तहमनई मूकी हूं व्यमूं तु भोगवूं किहां आप ।। १८ ।। निःश्वास मूकी ऊठिआ नई गया जिहां गुरु धौम्य । वृत्तांत सर्व मांडी कह्यं एकांति बइशी भोभि ॥ १९ ॥ मुहुई राइ जाणी आविआ मोटा जे द्विजराज । नाकार मुखि नवि कहूं देह प्राण थाइ त्याज ॥ २० ॥ तव धौम्य कहइ छइ धर्मनई चिंता म करशु चिंति । विपत सघली भांजशि कहूं ऊपरि दृष्टांत ॥ २१ ॥ * ५९९ * Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जनमेजे राइ ऊच्चरइ ते जल नयण) झरइ । राइ कहइ वैशंपायन मुहुनई कुहु रे ॥ १॥ वैशंपायन मुहुनई कुहु एक संदेह मोटु आपि । धौम्य ऋषिनई किहां थकु ए कश्यपसुत तणु जाप ॥ २ ॥ सद्य प्रभाकर प्रगटिउ अनई आपिऊ वरदान । मूल मंत्र ज किहां थकु किम पाम्या परमनिधान ॥३॥ वैशंपायन वलतूं वदइ उत्तर सांभलु राइ । एक समइ इच्छा थई स्वर्ग मांहि सुरराइ ॥ ४ ॥ सूरजनूं एक स्तोत्र कीबूं नाम शत ऊपरि अष्ट । अंतर्गति आराधतां सविता थया संतुष्ट ॥ ५ ॥ आवीनई ऊभा रह्या आपिऊ वरदान । आ वैभव ताहरु अचल रिहिज्यो इम कही थया अंतर्धान ॥६॥ एहवइ ऋषिजी आविआ करि वीणा हरिगुणगान । आसन आपी अरचिआ नई स्तवइ सुरराजान ॥ ७॥ (पृ० ३०) जनमेजे वलि पूछइ वात वैशंपायन कुहु साक्षात । एकमास ए अंतरि रहुं ते पांडवे किम निर्वा ॥१॥ तेह्मां विघ्न थयां जे यथा तेनी मुहुनई कुहुनई कथा । वैशंपायन किहि सुणि राइ ! एक मासमां विघ्न बि थाइ ॥२॥ सुखसमरिधि वनमांहि रमइ एकवार एह्वु आव्यु समइ । मृगया रमवा वनमां गया पांचे भाइ जूजुआ थया ॥ ३ ॥ त्रणि दिशाई तेह परवर्या निकुल सिहिदे एकठा पल्या । इम ते वनमां पांचे भाइ तेह समइ सांभलिनइं राइ ॥ ४ ॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ६०१ मध्याह्न आश्रम सूना थाइ ऋषिजी नितिकर्म करवा जाइ । शालवतणी सुता सुंदरी जिद्रथनई कन्या ते वरी ॥ ५ ॥ लग्न केरु ते दिन आविउ जिद्रथनई संदेशु काविउ । परणेवा पधारज्यो तम्यो आंहि सामग्री कीधी अम्यो ॥६॥ जिद्रथि जान शणगारी बहु हय गज रथ ते लीधा बहु । भेरी मृदंग वाजइ घणी साथि................तणी ॥ ७ ॥ स्त्रीजन रथ मांहि गान करइ एणी पिरि जिद्रथ परवरइ । दुत-कामिकनी वाटे जाइ नीसाणना निर्घोष वगडाइ ॥ ८ ॥ तेणइ समि वनमांहि द्रुपदी एकली मनमांहि वदी। दुंदुभिनाद बहु सांभली स्त्रीनां गान सुणी मनि रली ॥९॥ कोइक राजा वरवा जाइ ते जोवा केरूं मन थाइ । पर्णकुटी ऊघाडी करी द्रुपदी जोवा ते नीसरी ॥ १० ॥ ऊपरि ऊपरि जोइ चढी जिद्रथ केरी दृष्टिइं पडी। तव प्रधाननई पूछ्यू भूपि ए स्त्री कुण दीसि तेजस्वरूप ॥ ११ ॥ सूरज्यकोटि दीसि झात्कार एवी जानमां नथी कुहु नारि । कोटरास परधान किहिवाइ तेनि पूछवा मूकिउ राई ॥ १२ ॥ जाउ मित्र आवु पूछी वात कुहुनी कामिनी कुण मा–तात । तिहारि प्रधान पूछवा गयु द्रुपदी आगलि ऊभु रा ॥ १३ ॥ परधाने जै कयूं कामिनी ते मुहुनई किहि तूं भामिनी । परधान केवु सोभइ त्यांहि बावल वृक्ष ऊभु वनमांहि ॥ १४ ॥ एड्वी ऊभी द्रुपदनी बाल सिंहनी नारी पूछि शिआल | तिहारि द्रुपदी बोली वाणि पांडवपत्नी मुहुनई जाणि ॥ १५ ॥ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति एटलं सांभली पाछु बल्यु जिद्रथनई ते आवी मिल्यु । स्वामी पांडव केरी नारि एकली ऊभी मठनइ द्वारि ॥ १६ ॥ पांडव तु मृगया गया बन्नि कुहु नवि दीसह पासई जन्न । एहूवूं आवी प्रधानिकं द्रियनूं मन वल्लभ थयूं ॥ १७ ॥ द्रुपदी जाणी अवश्यमेव रथ खेडी चालिउ तत्खेव । जान जाती मेहूली यदा द्रुपदीनि हरवा आव्यु तदा ॥ १८ ॥ कृष्णा मन्त्रि विचार त्यांहि एकलु रथ कुहु आइ आहि । मनमां एह्वी आवी भ्रांति सूनूं मंदिर हूं एकांत ॥ १९ ॥ शुं जाणिदं कुहु कपटी राइ मननी वात कली नवि जाइ । एहूवी वात विचारइ मन्नि वैशंपायन किहि राजन्न ॥ २० ॥ एटलि रथ आविउ ढूकडु मन्न केरु भागु ऊभरु । जिद्रथनइं उलखिउ नारिं तिहारई प्राण आवइ ठाहूरि ॥ २१ ॥ एह तु पूज्य परुहुणु राइ मुझ दीटइ रलिआयति थाइ । एहं रिदइ विचारी जोइ एहूना मननूं कपट न होइ ॥ २२ ॥ रथ तां आवी रह्य क्षणमांहि द्रुपदी ऊभां छइ ते त्यांहि । मुखि छेडु देइ पूछइ बात आसन आप्यूं किहि बिसु भ्रात ॥ २३ ॥ भलई पधार्या नणदुइ ! तम्यो परुणागति शी कीजिई अम्यो । हवडां मृगया ग्या छइ राइ पाण्डव ते तां पांचे भाइ ॥ २४ ॥ मृग मारीनई ल्यावशि घइरि करज्यो भोजन रूडी परि । वासी ते तानई नवि रुचइ ताजूं हुइ ते तमनई पचइ ॥ २५ ॥ जिद्रथ किहि हूं भूख्यु नथी पाछई एहवी वाणी कथी । तां मुझ साथ आवे सही पांडव पासई वनि शुं रही ? ॥ २६ ॥ ए वनवासी मूंडा देखी मुझ घिरि आवी थाज्ये सुखी । तिहारि वचन इम बोल्यां सती जा जा अकर्मी थयु कुमति ||२७|| ( पृ० २९८ ) Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान पांचमुं अठारमी सदीनी गुजराती अने उपसंहार १९४ हवे जे कृतिमां बराबर अद्यतन गुजराती वपरायेली छे तेवी अढारमी सदीनी त्रण चार कृतिओमांथी मेळवेलां नामो अने क्रियापदो इत्यादि जोई लईए. ए कृतिओ विशे विशेष कशुं लखवापणुं रहेतुं नथी, अढारमी सदीनी कृतिओमां पहेली कृति खेमाहडालियानो रास - कर्ता अढारमा सैकाना लक्ष्मीरत्न (जैन), बीजी श्रीमद्भागवत - रचनार कविओ लक्ष्मीरत्न कवि रत्नेश्वर अने त्रीजी कविराज प्रेमानंदनी कृति (जैन) रत्नेश्वर - छे अने ते राजा नैषधनी कथा. तथा चोथी कृतिरूपे प्रेमानंद अने यशोविजय (जैन) द्रव्यगुणपर्यायनो रास ( मूळ पद्य अने अर्थ गद्य ) अने जंबुस्वामिरास पद्य कर्ता उपाध्याय यशोविजय. ए चारे कृतिओना कर्ताना समय विशे सुनिश्चितपणुं छे, एटले ए बाबत खास कशुं लखवापणुं नथी. १९५ विभक्तिना क्रमप्रमाणे नामो अने क्रियापदो तेमांथी आ प्रमाणे ताख्यां छे : ए कविओना नामविभक्तिवाळा सात विभक्तिनां रूपो प्रयोगो विभक्ति - १ लक्ष्मीरत्न - जनेसर, नृप, पुरुष, भत्रीक, खेमो, भगवंत, गुजरदेस, गुणनीलो, वरण. Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति रत्नेश्वर-सूत, वाडव, अबोल्यो, बेठो, व्यासपुत्र, बालक, नाना, शुकजी, अर्जुन, सर्वे, ऊभा, सामा. प्रेमानंद-पांडव, अरजुन, तापश, आव्यो, जुधीष्टर, बडबडतो, वलता, नल, धर्म, पांडवो. विभक्ति-२लक्ष्मीरत्न-चरण, विलास, कथा, जल, गुरू, रास, सानिद्ध. रत्नेश्वर-बाद, निःश्वास, मोक्षमार्ग, गमन, वेष, कौतुक, मस्तक, शुकने, मुनिवरने, कर्मने. प्रेमानंद-ध्यांन, जश, सरस्वतीने, राज, पुत्रने, त्रीपुरार, शेवा, द्रुपदीने, मुने, रीधशीधने. विभक्ति-३-- प्रेमानन्द-नांमी, मे, (में) नले, कद्रष्टे, दीवशे, प्रतापे, नामें, पांडवे. लक्ष्मीरल-कुंभे, ज्ञाने, नांमें, नामें, जिणे, भुजबलें, साथे. रत्नेश्वर-तेणे, समे, शरीरे, हरखे, अतिथिरूपे, युधिष्ठिरे. विभक्ति-४ तथा ६प्रेमानंद-सुतनु, नैशदतणो, नैशदराएनी, पर्वनो, वश्यानो ( रहेवार्नु), तेहेनी, भीमशेन्यनी, शेहेदेवने, चंद्रनु, भाइनी, तेहनां, कोहोने (कोने), देशनो, तेहनो, तेहना, नलनी, नलनु, तेहना, तेहेनी, ताहारू. रत्नेश्वर-पाम्यानो, परीक्षितने, अवधूततणो, जेनी, जेहनूं , वरसना, जेना, त्रिवल्लीनी, जेना. लक्ष्मीरत्न-श्रीजीनतणा, वेंपारीनी, वेसानां, गुजरनो, धर्मतणि, केइनें, जीवन, तेनु, जेनी. ___ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमो सैको अने उपसंहार विभक्ति-५लक्ष्मीरत्न-......... रत्नेश्वर-कंठथकी, कर्येथी, आननथी, आसनथी. प्रेमानंद-घेरथी विभक्ति-७--- प्रेमानंद-वनमुझार, कैलाशे, पाशे, मध्यांने, दीशाए, वेलाए, रूदयामां, वनमां, काले. रत्नेश्वर-माहोमांह्य, सबलामध्ये, मनमा, कण्ठविशे, धेर्य, आसन्य, मोटामध्ये, सभामां, ठाम्य, आकाशे. लक्ष्मीरत्न-एणे, मध्यषण्डे, सहेसमां, मेहदनिमें ( मेदनीमां ), जगमां, धन्याश्रीमां. क्रियापदो वर्तमान भूत भविष्य १९६ । कीजें वो बोल्यालक्ष्मीरत्न प्रगट्यो (वीत्या ) प्रणमुं कह्या | बुंठा बांध्यु निपर्नु सांभलज्यो कीधी ! पडीओ रचुं दिधुं । वांणि थयुं छे करज्यो दीठो लीधुं कह । आ Hette Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आव्यो वशा धरू FE EFFEE EFFERE गयो थयू ६०६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति वर्तमान भूत भविष्य रत्नेश्वर- साधे पूच्या ढांक्यां होनार सांभलज्यो दीसे बोध्यां आव्यां कहे लवे छे पाम्यो अतिशोभ्यो प्रमाणे आवे बेठो विखाणे वाधे आव्या प्रेमानंद--- दीउ थ्यू हशे नीशरे भागशे करू आव्यो पांम्यो आवशे आदरू जांउ रहो कहु पांमु धराव्यू वदे आपे गयो चांपे पड्यो छर बोल्या आव्यू केहे छे भोगव्यू होए जी कोहो कृदंतो १९७ लक्ष्मीरत्न-आवता, करतां, खातां, जातां, रडतां, चढतै, ए कविओना सांभलतां, कहंदा. कृदंतप्रयोगो रत्नेश्वर-विचारी, सुणीने, थेने, मेहली, करंता, लै, फरंता, जोवा, दीसंतां, निरखी, देखी, राखीने, रहीने, करतो, हरवा, करवा. परणो बेठा आप्यु नथी मुको आधे लगाडे छांडी Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमो सैको अने उपसंहार ६०७ प्रेमानंद-हारीने, आराधवा, तलाशवाने, आंणी, चढावी, जोतोजोतो, करीने, लैई, वीशरतो, वशवू , भमयंती, करतां, आपी, करवा, करी, शांभली. ए कविओना केटलाक शब्दो १९८ केटलाक शब्दो लक्ष्मीरत्न-भावह, कीरतार, पीत्या, दीवाकर, मंडांण, गढ, बेंसणो, अढार, वनराइ, सरग, तलेटी, मढ, मंदर, पोल, सप्तभुमीयां, वरण, हाट, सरइयां,-पातशाह, मेम्मद बेगडो, हेमर, घांन, ओमराओ, राणाराओ, मे' तो, माजन, दरबार, भाट, सेठ, मार्छ, मेह, मेहदनि, काटु-(कष्टमय), दकाल, परजा, माप, बेटा, भोजाइ, देवांन-( देहवर्ण) नात्य, जात्य, जुठां, माषि, पंषि, जोसी, मुरत, मानव्य, कागल, क्रम, रंक, बरद, दोषण, पसाय. रत्नेश्वर-नाना-शास्त्र-विचक्षण-वाडव, सघलां, सूरय, वात घणाइक, आप, मुख्य (मुखे), अश्वमेव (अवश्यमेव ), झलहल, उपवीत, आश्रम्म, कौतुक, केडे, हाड (हाडकां), वक्ष, वर्तुल, ऊंडेरी, वांका, भुज, आजानु, ज्योत्य, जनमन, जमा, सामा, अम्यो (अमो), अमने, अम, ते माट्ये, पदोदक, ग्राम्य, निपट, समंधी, भरथार, द्वेखी (द्वेषी), न्हाभय, कंपारव, म्हा_डूं, सूरज, हीसे, कूडूं, कुच्छित, शोहर, उज्जड, धूंसर, वीज, वरसाद, बादल, ओगणपंचास, गीर्वाण, प्राकृत, तोहे. प्रेमानंद सरस्वती, प्रणाम्य, नैशद, वैशंपायेन, चातुरमाश, आरणीक, दौतकवन, अरजुन, कैलाश, त्रीपुरार, शम (समय), तापश, कुंतीशुत, रातनीरात, चांपे, चर्ण, अंतशकर्ण, भीमशेन्य, पाशे, दातणपाणी, प्रातशांमग्री, रीश, व्रक्ष, नीकुल, पोहोर, वरणागी, शेहेदेव, काम, रोश, मध्यांन, जोश, जोगणी, शांमु, बेहेदश, नीस्वाश, वीशरतो, रूदय, Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति रूषी, वीजोग, शरषो, आशन, शीध, शोमो भाग, कष्ट, शंतोष, दाशी, जुधीष्टर, व्रथा, वेमांन, आक्षांन, जग्न, रीतुपर्ण, राय, वीरक्षेत्र, चोवीशा, न्यात्त, पदबंध, कालावाला, मुहुरत्त, शुरत, शार, शतर, बारोठा, वर. १९९ विभक्तिवाळां नामोनी यादी यशोविजयजी - १ शारद. तूठी. कुकवि वीर. आपण. गाम. संतोष. वडो. सो. अवबोध. जे. ते. केहवा. सोभागी. २ दया. जाप. आंबेल ( अम्ल - खाटी ) द्वाखने. वाणीने. सान्निध्य सूत्र मही. रचना. ते प्रत्यें. उपाय. स्वशिष्यने. अभ्यास. ३ तें. हियडे. जसविजये. शिष्ये बुद्धिं रसे. भट्टाचार्यइ. हेतइं. जेणे. वचनद्वारे. अभ्यासे. अनुसारे. जेण तेण लीलाए. आपणे. ४ भरणने काज हितहेत. जे माटई. उपकारनई हेत ते मार्टि भणवाने काजे. अतिलोभथी. सुखथी. दुःखथी. ५ विशेषथी. सामान्यथी. ६ मुज. काव्यनो. विबुधतणुं. तेहनुं. भोजनतणी. भवना. स्त्रीने तास. तुम्हारो शुदिनो. प्रश्नरो. • बाईरी. अवधिज्ञानरी. तेहनो. तेहनी. ७ पद. कंठे. जिहां. तळे. इहां. खंभात मध्ये. क्षत्रीकुण्डग्रामे तेमांहे. गणमां. सूरीश्वरमां . समुदायमांहे. कासीये. संबोधन - आत्मार्थियो ! प्राणियो. Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमो सैको अने उपसंहार तूठी कहे| थास्यइ कियो दिऊं करे होजो कीजई छइ जोतरीया के (अनेकवार) कीधी मूक्या त्रणे काळनां क्रियापदोनी यादी वर्तमान भूत भविष्य पूजु र्छ होय दीधो रह्यो । करशे उपशमे वाचई छइ आपो छ। आरोप्यां चाली करो विचारयो कर्या ऊपना नचावे जाणज्यो देखाडइ छई विणट्ठ देषाड्यु करुं छं दीठं कर्या कीजे थया सोहे, सोभे वाध्यो सांभलजो गाय छे शणगार्या उंघजो भणज्यो चढ्या थयो लेखवे कहे छे । हुआ | प्रकाशी कृदंतोकरत. हुंत. चढता. रमंत. सुणीने. देदीप्यमान. करीने. झरता. केटलाक शब्दोउपगंग. सुरंग. हुं. दक्षिणावत्त. पवित्त. त्रिभुवन. गाम. सीम. रूखडां. वानर. पेरे. सरवर. वालुका. ग्राम. आचारजपदकमल. पवित्र. साचो. उंट, रसबूंट. द्राख. साकर. मोहनगारां. कुंजर. अंबर. लगी. सांबला. नवला. वेष. चकडोळ. रंगरोळ. बारी. उच्छव. वादित्र. कजल. तूर. जामाता. सनूर. गाजावाजा. समाचार. न्यायाचार्य. तो. नंदनवन. आज्ञामाफकपणुं. निसदीस. लिखावित. साध्यो Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति २०० अहीं उपयोगमां लीघेली अढारमी सदीनी चारे कृतिओमांथी निदर्शनरूपे जणावेलां साते विभक्तिवाळां रूपो, अढारमी सदीनी क्रियापदो, कृदंतो अने बीजा शब्दोने वांचवाथी ए भाषामीमांसा स्पष्ट जणाइ आवे छे के ए कृतिओमां वपरायेली गुजराती ते अद्यतन गुजराती छे. ते कृतिओना केटलाक प्रयोगोमां जूनी गुजरातीनी छांट देखाय छे खरी पण ते नगण्य जेवी छे, एथी अद्यतन गुजरातीनो आरंभ अढारमी सदीथी थयो छे एम मानवाने वा कहेवाने को बाध नथी. जूनी गुजरातीनी छांटवाळा जे थोडाक प्रयोगो छे ते आपोआप समझाय एवा छे, एटले तेने जुदा गणाववानी जरूर जणाती नथी. जे समयथी जैन अने वैदिक परंपराना गुजराती कविओनुं गुजरातीसाहित्य उपलब्ध थाय छे ते काळनी कृतिओना क्रमवार उत्तरोत्तर उदाहरणो वधारे प्रमाणमां आपतो आव्यो छु अने ते रीत छेक छेली अढारमी सदी सुधी राखेली छे. जे साक्षर बंधुओ हजु पण जैन अने जैन नहीं एवा कविओनी भाषा वच्चे भेदभाव वा भिन्नप्रवाहमूलकता समझता होय तेओ कृपा करीने बारमी सदीथी अढारमी सदी सुधीनी गुजरातीनां अहीं आपेलां ए निदर्शन-प्रयोगो ध्यानपूर्वक जरूर तपासे एवी तेमने मारी नम्र विनंती छे; अने ए भ्रम भांगवा सारु ज निदर्शनो वधारे आपवानी उक्त पद्धति अहीं स्वीकारी छे अने साथे साथे प्रत्येक भाषणना अंतिम पानांओमां में बारमी सदीथी मांडीने अढारमी सदी सुधीना गुजराती पद्य अने गद्य साहित्यना नमूनाओ पण आप्या छे. ते नमूनाओनुं सळंग निरीक्षण पण उक्त भ्रम भांगवाने पूरतुं छे. सदीवार ऋण कविओ तो लीवेला ज छे. ६१० अहीं सुधी उक्त सदीओना साहित्यनुं निरीक्षण करेलुं छे. हवे ए निरीक्षणनो निष्कर्ष बताववा अंतिम वचनरूप उपसंहार करीने आ व्याख्यान पूरां थशे. Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमा सैकानुं पद्य तथा गद्य Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमो सैको (१) कवि लक्ष्मीरत्न-संवत् १७४१-खेमा हडालियानो रास दुहा आद्य जनेसर आद्य नृप आद्य पुरुष अवतार । भवभय भाव? भगवंत नरु करुणानिधी कीरतार ॥ १ ॥ प्रणमुं तास प्रथम चरण द्यो मुझ वचन विलास । सांभलज्यो भवीक जन्न हुँ रचुं म रास ॥२॥ कवण षेमो क्या हुवो प्रगट्यो कवण प्रकार । सानिद्ध करज्यो गुरू सदा कहु कथा तस सार ॥ ३ ॥ गुरु माता गुरु पीत्या कीजें गरु पाये सेव । ज्ञांन दीवाकर गुरु कह्या नमो नमो गुरुदेव ॥४॥ कुंभ बांध्युं जल रहे जल विना कुंभ न होई । ज्ञाने बांध्युं मन रहे गुरू विना ज्ञान न होई ॥५॥ चौपइ. राग रामगीरी जंबुद्वीप भरत एणे ठाम मध्यषंडे मोटा मंडाण । गुजर देस छे गुंणनीलो पावा नामें गढ बेंसणो॥१॥ गढ उपर छे सोभा घणि अढार भार वनराइ तणि । मोटा श्रीजीन तणा प्रसाद सरग सरीशुं मांडे वाद ॥२॥ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति वसे सेंहेर तलेटी तास चांपानेर नामें शुवीलास । गढ मढ मंदर पोल प्रकास सप्त भुमीयां उत्तम आवास ॥ ३॥ वरण अढार त्या सुषि वसे सोभा देषि मन सुलसें । वेंपारीनी नही रे मणा सातसें हाट सरइयां तणां ॥ ४॥ नित्य चोकडीयां कोडी करे वेसानां मंदर वीससे । पातसाह तिहां परगडो राज्य करे मेंम्मद्द वेगडो । सतरसेंस गुंजरनो धणि जिणें भुजबलें कीधी पोहवि घणि ॥६॥ सवालष हेमर सोभता दस सहेसनां गज दीपता । सीतेर षांन बहोतेर ओमराओ अवर घणां छे रांणा राओ ॥७॥ नगर सेठ मेंतो चांपसी अहनिस धर्म तणि मति वसी । सेठ साथे माजन सोहाइं एक दीवस दरबारे जाई ॥८॥ मारगं मलिओ दिधु मांन ओमराओ सालोदुषांन । षांन साथै आवता सेठ बंब भाट तव दीठो दृष्ट ॥९॥ ___ x x x x x इंम करतां दिन केता वोल्या वरस थयुं छे मार्छ । मेह न कुंठा मेहदनिमें वरस निपर्नु काटुं ॥ ३० ॥ पडीओ दकाल के परजा पीडे को केइने नव्य आपें । आप आपणे मापें षातां धाने कीमें न धापे ॥ ३१॥ मात पीता बंधव ने बेटा भाई ने भोजाई।। नात्य जात्य गोत्रीजन जुठां एक अन्न साथें सगाई ॥ ३२ ॥ अन वीना देवांन न दीपे बुध्य शुध्य सवी जाई । कीडी कुंजर माषि पंषि अन सहु को षाय ॥ ३३ ॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमा सैकानुं पद्य तथा गद्य जांण्या जोसी अनने मागे पण मुरत अन्न जोईई । अन्न वीना शुर सेवा न माने तो मानव्य कम वगोइं ॥ ३४ ॥ अने रथ चंचल चालै अन रतनसी मागें । अन वीना तो वस्त्र न थाई कागल रूडो न लागें ॥ ३५ ॥ अन वीना क्रम एक न चाले सर्व जीवनुं काम । सहु कोमां अन्नदाता मोटो तेनुं सुरनर करे वषांण ॥ ३६॥ अन वीना तेणे अवसरे वस्त्र वीना निसंक । पातसाह तां पडीयां देखें जातां रडतां रंक ॥ ३७॥ राग धन्यासरी धन्य धन्य षेमो देदरांणि जेनी कीरत जगमा जाणि जी। दिधां दांन ते चढतै पाणि जी कविजने वात वषांणि जी ॥ धन्य० ॥१२९॥ पातसाई घणु मांन ज दीइं साह बरद जेणे लीधुं जी। जातां बरद जेणे राण्यां सघलां देइं दांन मन प्रघलां जी ।। धन्य० ॥१३०॥ गरुया साधुतणा गुण गाया अनें वलि रीषि राया जी। कवीजन मत कोई दोषण म देज्यो गुण हुवा ते गाया जी ॥ धन्य० ॥१३२॥ संवत सतर एकतालिसा वरखे रास रच्यो मन हरखे जी । मागसर सुद पुंन्यम गुरूवारे गांम उंनाउं मोझार जी ॥ धन्य०१३३॥ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पंडित हीररत्न परसीध्या तस पसाय रास कीधो जी । छडी ढाल धन्याश्रीमां गावै सांभलतां सुष पावें जी ॥ १३४ ॥ X X X X कीजे धर्म भवीक जन वृंदा लक्ष्मीरतन कहंदा जी ॥ १३५ ॥ ( ऐतिहासिक राससंग्रह, भाग १ लो, सं. श्रीविजयधर्मसूरि ) ( २ ) कवि - रत्नेश्वर - संवत् १७४९ - श्रीमद्भागवत ( संपादक - श्रीकेशवराम शास्त्री ) (पृष्ठ १४५) सूत कहे सांभलज्यो शौनक देवरात नृप तेह | तेणे ए विध्य पूछया वाडव कहे विचारी जेह ॥ ५० ॥ नानाशास्त्रविचक्षण वाडव मांहोमांा विचारी । विविध विरोधी साधन बोध्यां सघलां संशय कारी ॥ ५१ ॥ कोय कहे जे विष्णू देवता को कहे शिव देव । कोय कहे ते सघला मध्ये सूरय सारो देव ॥ ५२ ॥ कोय कहे जे कालदेवता कोय स्वभाव प्रमाणे । को कर्म श्रेष्ठ कहे इम अनेक वात विखाणे ॥ ५३ ॥ हवे घणाइक वाद सुणीने आकुल अन्तर्वेद | सांभल्य शौनक राजऋषि ते मनमां पाम्यो खेद ॥ ५४ ॥ आप अबोल्यो थैने बेठो मुख्य मेहली निःश्वास | मोक्षमार्ग पाम्यानो मनमां नव्य आव्यो विश्वास ॥ ५५ ॥ पूर्व पुण्य परीक्षितने आव्या व्यासपुत्र शुकदेव । ज्ञानसुधाभरसागरशाशिवर तेणे समे अश्वमेव ॥ ५६ ॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमा सैकानुं पद्य तथा गद्य सुंदर धाम स्वरूपी शुकजी स्वेच्छा गमन करंता । वेष विशद अवधूत तणो लै महितल मांह्य फरंता ॥ ५७ ॥ झलहल तेजलता सम जेहूनी जटा यत्न विन वाधे । कण्ठ विशे उपवीत अचल त्यहां माला मोहिनी साधे ॥ ५८ ॥ जेहूनूं चिन्ह जणाय नहीं जे कोण वर्ण आश्रम्म । यथालाभ संतोषी शुकजी पूरणरूपी परम ॥ ५९ ॥ माना बालक कौतुक जोवा केडे फरता क्रोड | कर्दम ने तृण तनुये वलगां अलगां बंधन छोड ॥ ६० ॥ सोल वरसना शुकजी त्यहिये कोमल चरण सुगात्र । कर उर स्कन्ध कपोल सुकोमल सुंदर शोभापात्र ॥ ६१ ॥ दर्शनीय ने दीरघलोचन उत्तम नासाकीर । तुल्यकर्ण भ्रुकुटी मुख सुंदर कम्बुकण्ठ सुशरीर ॥ ६२ ॥ कंठ थकी हेठेरां दीसे युग्म हाड व्हां जेह | ते जेहूनां मांसे करी ढांक्यां नव्य दीसंतां तेह ॥ ६३ ॥ जेहूनूं वक्ष विशाल ने वली वर्तुल नाभिकूप । ऊंडेरी त्रिवल्लीनी रेखा उदर अनूप सुरूप ॥ ६४ ॥ नग्न दिगंबर वांका वलता अलकजटा भगवान । नारायण सरखो दीसंतो जेहना भुज आजानु ॥ ६५ ॥ श्याम शरीरे सदा काल जे यौवनवननी ज्योत्य । अंगतणी त्यहां उत्तम शोभा स्त्रीजनमन उद्योत ॥ ६६ ॥ हरखे हास्य करंता आवे निरखी सुंदर शोभा । शुकने देखी आसनथी सहू थया मुनिजन ऊभा ॥ ६७ ॥ ६१७ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति यद्यपि शुक योगीनो अंतर्य तेज गूढ महिमाय । तेह्वां लक्षण जाणे मुनिवर सर्वे साहमा जाय ॥ ६८ ॥ विष्णुरात आव्या अतिथिनी पूजा कीधी सार । मस्तक नामी आत्मनिवेदन कीबूं नृप निरधार ।। ६९ ॥ पूज्या अरच्या शुकजी आसन्य बेठा अंतर्यामी । पाछल्य आव्यां अबला बालक नाठां विस्मय पामी ॥ ७० ॥ मोटा मध्ये मोटो मुनिवर तेह सभामां पेठो। ब्रह्मऋषि राजऋषि सुरऋषि मंडलमध्ये बेठो ॥ ७१ ।। मुनिजनकेरा मंडलमध्ये अतिशोभ्यो भगवान । ग्रहतारानक्षत्र विच्ये जाण्ये ऊग्यो इंदुसमान ॥ ७२ ॥ जेहनी बुद्धि अकुण्ठित ते मुनि आसन्य बेठा शांत । वैष्णवराज परीक्षित तेने अति पाम्यो अभ्रांत्य ॥ ७३ ॥ कर जोडी शिर मोडी कीधो मुनिवरने परणाम । विनयवचन मन स्थिर राखीने पूछे परीक्षित आम ॥ ७४ ॥ अहो अम्यो त्यां अधुना ब्रह्मन थैने क्षत्रीराज । सज्जन अमने सेवे एहवा अम्यो थया छू आज ।। ७५ ॥ कृपा करीने अतिथिरूपे आव्या छो अम घेर्य । ते माट्ये अम्यो तीरथ कीधा सर्वोपरि करी पेर्य ।। ७६ ॥ जेहनूं स्मरण कर्येथी नरनां मंदिर पावन थाय । तेहतूं दर्शन स्पर्श पदोदक कोण कहे महिमाय ।। ७७ ॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ६१९ (पृ० १०३) मास घणा वही चाल्या तोहे अर्जुन नाव्या गाम्य । घोररूप अपशुकन देखता धर्मराय ते ठाम्य ॥ ५॥ कालतणी गति घोर निहाली अवला ऋतुना धर्म । क्रोध लोभ अनृत आकुल नर करता पातक कर्म ॥ ६ ॥ कपटसहित विहार विलोक्यो राय युधिष्ठिर निपट । माहोमाहे मैत्र्य करे नर मन मध्ये रहे कपट ॥ ७ ॥ मात पिता ने सुहृद समंधी स्त्री भरथारशुं देखी । माहोमांहे कलह करंता राय युधिष्ठिरे देखी ॥ ८ ॥ एह्वां चिह्न अनेक ज दीठां अत्य अरिष्टशू कर्म । दिवसे दिवसे लोकविशे म्हा लोभ अपार अधर्म ॥ ९॥ आ जो रे नरवीर निहाली अति उत्पात विघात । आकाशे उत्पात घणा ने अवनीगत उत्पात ॥ १८॥ अंगविशे उपचिह्न घणां ए आपणने भयकारी। आपणने ए म्हाभय कहे छे मोह पामे गति माह्ररी ।। १९ ॥ लोचन जंघा ने कर माहा फरके वारंवार । हृदे विशे कंपारव अति कांइ म्हा भंडूं होनार ॥ २० ॥ आ जो रे आ फालू सूरज सामूं रहीने रोय । आननथी अंगारा ऊडे कांइक भूईं होय ॥ २१ ॥ मारे सन्मुख श्वान रहीने गाढे रोतो जाय । शंका विन मुझ आगल्य ऊभो तेणे ते भय थाय ॥ २२॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अधम पशु दक्षिण दिश जातां उत्तम पशु तां वाम । अश्व न हींसे रोता दीसे काइक कूडूं काम ॥ २३ ॥ मृत्युदूत कपोत रह्यो करतो कुच्छित शोह्र ।। उलूक मन कंपावे माझं घुर्धर शब्दे घोर ॥ २४ ॥ कलकल शब्द काक लवे छे सर्व तणां सुख हरवा । ए सर्वे अपचिह्न अनेरां अवनी उज्जड करवा ॥ २५ ॥ धूसर दिश ने रवि शशी पाछल्य जलकुंडल भयकारी । पर्वत साथ्ये पृथ्वी कांपे भय उपजावे भारी ॥ २६ ॥ वीज पडे वरसाद विना ने घन विन वादल गाजे । एड्वा आ उत्पात विलोकी मारूं मन अति भाजे ॥ २७ ॥ __ (पृष्ट २२९) त्रेपन श्लोक तणो विस्तार रत्ने कर्यु यत्ने विस्तार । संवतनी संख्या सविलास सत्तरशे ओगणपंचास ॥ १०८॥ कार्तिक विधु सह एकादशी वार विधुसहित उल्सी । मेघतनय दर्भावती गाम श्रीमाली रत्नेश्वर नाम ॥ १०९ ॥ गीर्वाण वाणीनो कवि तोहे प्राकृतनी मति हवी । कवि प्रेमानंद ( हस्तलिखित गुटको–गु० व० सो०) लख्या वर्ष- १७६२ रचना पछी २४ वर्षे लखायेल (आरंभ) अथ श्रीनैशदराएनी कथा लखी छे. Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ६२१ राग केदारोश्रीशंकरश्रुतनु* ध्यान ज धरू सरस्वतीने प्रणांम्य ज करू । आदरू जोडवा जश नैशदतणो रे ॥ १ ॥ डोठ नैशधराएनी कहु कथा पुन्य श्लोक जे राए । वैशंपायेन वांणी वदे आरणीक पर्वनो महीमा ए ॥ २॥ राज हारीने गया पांडव वशा दौतकवन मुझार । एकलो अरजुन गयो कैलाशे आराधवा त्रीपुरार ॥ ३ ॥ एहेवे शमे एक तापश आव्यो वेहेदश एहेवू नामी । पुजा कीधी पांडवे ने आप्यो वश्यानो ठांमी ॥ ६ ॥ चातुरमाश ते त्यांहां रहो तेहेनी कुंतीश्रुत करे शेवा ए। रातनी राते वारा करता पांडव चांपे पाए ॥ ७ ॥ एकवार जुधीष्टर बेठा तलाशवाने चर्ण । ते शमे अरजुन शंभारो भराई आव्यूं अंतशकर्ण ॥ ८ ॥ भीमशेन्यनी पाशे जो हु मागु दातणपांणी । तो बडबडतो जाए रीश चढावी मोटां व्रक्ष आपे आंणी ॥११॥ प्रातशामग्री नीकुल पाशे कदाच जो हु मागु । एक पोहोर तां वार लगाडे एटली करे वरणागी ॥ १२ ॥ * लिपिकार, बधे, 'शु' ने बदले 'श्रु' लखे छे. Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति शेहेदेवने जो काम दीउ तो शाधु मंन आंणे रोश । मध्यांने घेरथी नीशरे जोतो जोतो जोश ॥ १३ ॥ दक्षण दीशाए जोगणी छे जो जांउ तो दुख पांमु । पुरव दीशाए परवरू तो चंद्रनु घर शांमु ॥ १४ ॥ एहेवी रीत तो त्रणे भाइनी मे तो रहु नव जाए । द्रुपदीने मोकलु तो कोइ हरण करीने जाए ॥ १५ ॥ वण मागे वेलाए आपे मुने जे जोईए ते आंणी । फल जल मुख आगल लैई मेले ते तो गांडीवपांणी ॥ १६ ॥ तेहनां गुण हु नथी वीशरतो रहो छउ रूदयामां राखी। श्रुष शंतोष वीनां छउ श्रुनो मुनी हु पारथ पाखी ॥ १७ ॥ नीस्वाश मुकीने धर्म एम केहे छे कोहोनी बेहेदश रूपी । वन क्शवूने वीजोग पड्यो हु शरषो कोई दुषी ॥१८॥ राज आशन भुवन रीध शीधने हारी। एहेवू कोहोने थयू हशे स्वामी पीडा पांमी नारी ॥ १९॥ वलता ब्रेहेदश एणी पेर बोल्या श्रु आंणे वैराग्य । नल दुख पांम्यो अरे पांडवो नथी तेहनो शोमो भाग ॥२०॥ रूप राएनु न मले धन नल नरेश शमांन । तेहना जेवु कष्ट तमो नथी भोगव्यू राजांन ॥२१॥ भीमक कुमारी नलनी नारी रूप कहु श्रु मांडी । ते नारी जाहां नही फल पाणी नले ते वनमा छांडी ॥ २२॥ दाशी रूप धरू दमयंती कुबडु थयू नलनु गात्र । तेहना दुख आगल अरे राए जुधीष्टर ताहारू दुख कोण मात्र ॥ २३॥ ___ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमा सैकानुं पद्य तथा गद्य कर जोडीने धर्म एम बोल्या कोहो त्रेहेदश रूषी राए । घणु दुख पांम्यो नलराजा ते श्रु कारण केहेवाए ॥ २४ ॥ कोण देशनो नरेश काहावे केम परणो दमयंती । ते नारी नले केम छांडी कां मुकी भमयंती ॥ २५ ॥ उतपत्य कोहो नल दमयंतीनी अथ ईती कंथा ए । दुषीआनु दुष प्रकाश करतां भागे मन था ए ॥ २६ ॥ वलण वथा ए माहारी भागशे एम कहे जुधीष्टर राए । कहे भट प्रेमानंद नैशदतणी कथा ए ॥ २७ ॥ अंतिम भाग, पृ० ३८६ ) माता पीता गुरु वीप्र वैष्णव शेवा करे शर्व कोए जी । परनंदा परनारी परधंन को कद्रष्टे न जोए जी ॥ ३३ ॥ हेवू राज नलनाथे कीधु पुन्यश्लोक धराव्यू नांम जी । पुत्रने राज आशन आपी गयो तप करवा राजन जी ॥ ३४ ॥ अनशन व्रत करी देह मुको आव्यूं दीव्य वेमांन जी । वैकुंठ नल दमयंती पोहोतां पांम्यो श्रीभगवान जी ॥ ३५ ॥ ६२३ दश के श्रुण राए जुधीष्टर एहेवो हवो नथी नव्य होए जी । ए दुख आगल ताहरा दुख ने जुधीष्टर श्रु रोए जी ॥ ३६ ॥ काले अरजुन आवशे राजा करी उतम काज जी । कथा शांभली पागे लागो मुनीवरने माहाराज जी ॥ ३७ ॥ परताप गयो माहारा मननो शांभली साधु चरीत्र जी । अवीचल वांणी हेदशजीनी हु पत्तीत थयो पवीत्र जी ॥ ३८ ॥ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति थोडे दीवशे अरजुन आव्या रीझा धर्मराजंन जी । वैशंपायेन केहे जनमेजयेने थयू पुरण नल आक्षांन जी ॥ ३९ ॥ शांभले भणे वा लखे पुस्तक शर्व तीरथनु फल थाए जी । अष्ट मादांन जग्न तणु फल आपे वैकुंठ राए जी ॥ ४०॥ करकोटकने नल दमयंती श्रुदेवने रीतुपर्ण राए जी। ए पांचेनां नाम ले श्रुतां उठतां तेने घेरथी कलीजुग जाए जी ॥४१॥ वीरक्षेत्र वडोदरू नांमे गुरू देश गुजरात जी। कृष्णश्रुत कवी भट प्रेमानंद वाडव चोवीशा न्यात्त जी ॥ ४२ ॥ गुरूप्रतापे पदबंधन कीधु कालावाला भांषी जी। आरणीक पर्वमां मुल कथामाहे नैशधलीला भाषी जी ॥ ४३ ॥ मुहुरत्त कीधु श्रुरतमांहे थयू पुरण नंदरबार जी । कथा नलदमयंतीजीनी शारमांहे शार जी ॥ ४४ ॥ शंवत शतर बाशेठा वरषे जेठवदी दशमी मंगलवारजी । थै कथा पुरण वीस्तारजी........ ॥ ४५ ॥ लख्या वर्ष-शंवत १७८६ ना आषाड श्रुदी ६ मंदीवारे शंपुरण लखुं छे. (४) कवि-उपाध्याय-यशोविजयजी-संवत् १७२९---जंबूस्वामिरास शारद सार दया करो आपो वचन सुरंग । तुं तूठी मुज उपरे जाप करत उपगंग ॥ १ ॥ तर्क काव्यनो ते तदा दीधो वर अभिराम । भाषा पण करी कल्पतरु शाखा सम परिणाम ॥ २ ॥ ___ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमा सैकानुं पद्य तथा गद्य मात ! नचावे कुकवि तुज उदर भरणने काज | हुं तो सद्गुण पद ठवी पूजुं हुं मत लाज ॥ ३ ॥ तंबू धर्म साधन कंबू दक्खिणावत्त । अंबू भवदव उपशमे जंबू चरित्त पवित्त ॥ ४ ॥ पवित्र करे जे सांभल्युं त्रिभुवन जंबूचरित्र | आंबेल पण मुज वाणीने करशे रसे पवित्र ॥ ५ ॥ अमृत पारणं काननुं भविजनने हित हेत । करतां मुज मंगळ होजो ए भारती संकेत ॥ ६ ॥ श्रीनयविजय विबुधतणुं नाम परम छे मंत । तेनुं पण सान्निध्य लही कीजे ए वृत्तंत ॥ ७ ॥ X X X अमृत मधुर वाणी वदे तव जलधर गंभीर । वीर भविक हित कारणे समरथ साहस धीर ॥ १ ॥ सांभल श्रोता सर्व कहेशुं सरस ते वात । सांभलता मत उंघजो मत करजो व्याघात ॥ २ ॥ उंघे ते सुंघे मही चुंघें नहि रसघूंट । साकर द्राखने परिहरे कंटक रातो उंट ॥ ३ ॥ निद्रा विकथा परिहरी गुरुमुख साहमुं जोय । सुणे जे हिडे उल्लसी श्रोता साचो सो य ॥ X ( पृ० २ ) X X 11 ( पृ० ४ ) X ६२५ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति गाम सीम ए रूखडां मोहनगारां हुंत । वानर परे चढता जिहां आपण बेउ रमंत ॥ १ ॥ तेह ए सरवर तेह जल तेह ज तीर मनोहार । कंठे आरोप्यां जिहां ताल नलीनना हार ॥२॥ सोहे एह ज वालुका उज्वल जेसी कपूर । बाललीलाए आपणे कर्या जिहां घर भूरि ॥३॥ वात लगावी इम अनुज भवदत्त भेटे ग्राम । जे आचारजपदकमल पवित्र कियो अभिराम ॥ ४॥ (पृ० ६) हवे निज कर जोडी कहे नभसेना शुचि बोल । रहो पाम्ये संतोष करी मन धरी अचल अडोल ॥१॥ परिणत वये व्रत आदरो हमणां गृही व्रत लाग । कीम अणपहेर्यो पहेरणे सोहे अभिनव पाग ॥२॥ चक्रवर्ति भोजन तणी इच्छा कर्ये शुं होय । घर संपत्ति सरखे सुखे वर्ते दुःखी न सोय ॥ ३॥ जिम थवीरा अतिलोभथी आपही आप विणट्ठ । तिम अति इच्छा मत करो सुणो संबंध ते इट्ट ॥ ४ ॥ (पृ० ५७) मीठं लागे तेल तस घृत नवि दीर्छ जेण । भवसुख तेम राचे म को शिवसुख संभरे तेण ॥ ७ ॥ ___ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमा सैकानुं दुखःथी विरमे जन सकल सुखथी विरमे बुध । सुखदुःख सरखा लेखवे भवना ते मुनि शुद्ध ॥ ८ ॥ हय जेम देवाणुप्पिये ! जातिवंत गुणवास । उत्पथगामी तेम न हुं सुण तस कथा विलास ॥ १० ॥ ( पृ० ५९ ) X X तथा गद्य X X मद झरता कुंजर जाणे सनिर्जर शैल । अंबर लागी अंबाडी सुरगज शुं करे मेल ॥ ७ ॥ धवल धोरी जोतरीया रथनी कीधी तैयारी । शणगार्या सांबेला धवल मंगल दिए नारी ॥ ८ ॥ गाय गीत सुहासणि पहेरी नवला वेष मद मुदित हुआ सवि गाम अने संनिवेश । केइ चढ्यारे सुखासन केइ चढ्या चकडोळ अतिचतुर विचक्षण करे घणा रंगरोळ ॥ ९ ॥ अष्ट मंगल चाले आगे वळी चाटुकार असि - कुंत - फलक- गृह नर्मकार रतिकार | तिल नांख्या न तळे आवे तेम हुआ पंथ धरणीनो कण पण न रह्यो कोइ अपंथ ॥ १० ॥ उच्छव जुए नरनारी बारी चढी चौबारी व्याकुल थइ वादित्र - शब्द सुणी सवि नारी । तूर दुग्ध जामाता कलि कज्जल सिंदूर खट होय ए वल्लभ स्त्रीने सहज सनूर ॥ ११ ॥ ६२७ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति गाजा बाजा सुणीने अर्ध तिलक करी एक अजित हग एक जोवा चाली छेक । एक नेउर पहेरे एक ज चरण पखाले आधि कंचुकी पहेरी जोवा कांइक चाले ॥ १२ ॥ धसमसती कांइक कज्जल गले घाले । कस्तुरी लोचन ठवती आधी चाले । बावना चंदन रस पाए लगाडे बाला । अळतो हृदय स्थळ लाए करे चकचाला ॥ १३ ॥ ( पृ० ८० ) X X X तास शिष्य श्रीजितविजयबुध श्रीनयविजय गुरु भाया जी । वाचक जस विजये तस शिष्ये जंबूगुण ए गाया जी ॥ ६ ॥ X ९ नन्द ३ तत्त्व ७ मुनि १ उडुपति संख्या वरसतणी ए धारोजी । खंभनयर मांही रहीय चोमासुं रास रच्यो छे सारो जी ॥ ७ ॥ ( पृ० ८३ ) Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य ( उपाध्याय यशोविजयजीए खंभातथी लखेलो कागळ ) इहां धर्मकर्म सुखइ निवर्तइ छइ. तुम्हारा धर्मोद्यमना समाचार जणावीने परमसंतोष उपजाववा. तथा तुम्हारो लिख्यो लेख १ प्रथम चैत्र शुदिनो लिख्यो आव्यो, समाचार प्रीछया, संतोष ऊपना. तथा प्रश्नरो उत्तर :___ साध्वी नानबाईरी अवधिज्ञानरी कपटमात्र जणाई छई. तथा खंभातमध्ये श्रावक, सूत्र वाचई छइ, x x x x x तथा गुरुशिष्य संवाद तो बुद्धिं जाणवो. ___ वडो लेख लिखावी मोकल्यो छइ, सा. गदाधर थानइ ठाऊको मोकल्यो छई. तिणमां नय निक्षेप प्रमाणरी मणा न रही छइ. वारंवार विचारयो. ___तथा श्रीवर्धमान स्वामी क्षत्रीकुण्डग्रामे हवा. ते तो आगम-प्रमाण मध्ये अंतर्भवइ छइ. सामान्यथी आम सद्भावे तो शेषवत्-अनुमान प्रवर्तई. जे माटई अबाधित स्याद्वाद प्रवचनरूप कार्य छइ, ते आम कारण विना न संभवेई. पूर्ववदादि शब्दरो ए अर्थ छइ. तथा न्यायाचार्य बिरुद तो भट्टाचार्यइ न्यायग्रन्थ रचना करी देखी प्रसन्न हुइ दिऊं छइ. ग्रन्थ समाप्तिं लिख्या छइ.- x x x न्यायग्रन्थ २ लक्ष कीधो छइ. x x x तथा धर्मलाभ जाणज्यो, धर्मोद्यम विशेषथी कर्यो, धर्मस्नेह वृद्धिवंत राष (ख) ज्यो. उपाध्याय श्रीयशोविजय संवत्-१७२९-द्रव्यगुणपर्याय रास-(प्रारंभ) राग—देशाख चोपाइ गद्य–तिहां प्रथम गुरुनई नमस्कार करीनई प्रयोजन सहित अभि Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति धेय देखाडइ छई[पहिलइ बि पदे मंगलाचरण देषाड्यु-नमस्कार कर्या ते १, आत्मार्थी इहां अधिकारी २, तेहनइं अवबोध थास्यइउपकाररूप प्रयोजन ३. द्रव्यनो अनुयोग ते इहां अधिकार श्री गुरु जीतविजय मनि धरी __ श्री नयविजय सुगुरु आदरी । आतम--अरथीनई उपकार करं द्रव्यअनुयोग विचार ॥ १ ॥ गद्य श्रीजीतविजय पंडित अनइं श्रीनयविजय पंडित ए बेहु गुरुनई चित्तमांहिं संभारीनई आतमार्थी ज्ञानरुचि जीवना उपकारनई हेतइं, द्रव्यानुयोग विचार करुं छं. अनुयोग कहिइं सूत्रार्थ व्याख्यान. तेहना ४ मेद शास्त्रई कहिया--- १ चरणकरणानुयोग-आचार वचन-आचाराङ्ग-प्रमुख २ गणितानुयोग-संख्याशास्त्र-चन्द्रप्रज्ञप्ति-प्रमुख ३ धर्मकथानुयोग-आख्यायिकावचन--ज्ञाता–प्रमुख ४ द्रव्यानुयोग-षद्रव्यविचार-सूत्रमध्ये सूत्रकृतांग, प्रकरणमध्ये सन्मति, तत्त्वार्थप्रमुख महाशास्त्र. ते माटि ए प्रबन्ध कीजई छइ. तिहां पण द्रव्य-गुणपर्यायविचार छइ, तेणई ए द्रव्यानुयोग जाणवो. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढारमा सैकानुं पद्य तथा गद्य अंतिम प्रशस्ति-गद्य तपगच्छरूप जे नन्दनवन ते मांहे सुरतरु सरिखो प्रगट्यो छे. श्रीहीरविजयसूरीश्वर. ते केहवा छे ? सकलसूरीश्वरमां जे सोभागी छेसौभाग्यवंत छे. जिम ताराना गणमां चंद्रमा सोभे तिम सकलसाधुसमुदायमांहे देदीप्यमान छे. (२७३ गाथा ) ___ तास पाटे-तेहनो पट्टप्रभाकर श्रीविजयसेन सूरीश्वर, आचार्यनी छत्रीशछत्रीशीइं विराजमान, अनेकज्ञानरूप जे रत्न तेहनो अगाध समुद्र छे. साहि ते पातस्याह, तेहनी सभामाहे वादविवाद करतां जयवादरूप जे जस ते प्रत्यें पाम्यों विजयवंत छे. अनेक गुणे करी भर्यो छे. (२७४ गाथा) तेहने पाटे श्रीविजयदेवसूरीश्वर थया, अनेक विद्यानो भाजन, वळी महिमावंत छे, निरीह-ते निःस्पृही, जे छे. तेहने पाटे आचार्य श्रीक्जियसिंहसूरीश्वर थया, पट्टप्रभावक समान, सकलसूरीश्वरना समुदाय मांहे लीहवाली छइ, अनेक सिद्धांत तर्क ज्योति:न्यायप्रमुख ग्रन्थे महाप्रवीण छे. (२७५ गाथा) ते-जे श्रीगुरु तेहनो उत्तम उद्यम–जे भलो उद्यम, तेणे करीने गीतार्थगुण वाध्यो. तेहनी जे हितशिक्षा तेहने अनुसारे-तेहनी आज्ञामाफकपणुं तेणे करी ए ज्ञानयोग ते द्रव्यानुयोग-ए शास्त्राभ्यास साध्योसंपूर्णरूपे थयो. (२७६ गाथा) x x x x __ श्रीकल्याणविजयनामा वड वाचक-महोपाध्याय विरुद पाम्या छे. श्रीहीरविजयसूरीश्वरना शिष्य जे छे, उदयो-जे उपना छे. जस गुणसंतति ते श्रेणि गाई छे-सुर किन्नर प्रमुख निसदीस-रात्रिदिवस गुणश्रेणि सदा काले गाय छे. (२७८ गाथा) x x x तेहना शिष्य गुरुश्री लाभविजय वड पंडित छे. (२७९ गाथा)x x गुरु श्रीजीतविजय Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नामे तेहना शिष्य परंपराये थया x श्रीनयविजय पंडित तेहना गुरुभ्रातागुरुभाई संबंधे थया, (२८० गाथा ) जेणे बहु उपाय करीने कासीये स्वशिष्यने भगवाने काजे मूक्या, तिहां न्यायविशारद एहवुं विरुद पाम्या (२८१ गाथा ) x X * ते गुरुनी भक्ति x तेणे करीने एह वाणी द्रव्यानुयोगरूप प्रकाशी - प्ररूपी वचन द्वारे करीने. कवि जसविजय भई कहे छे, ए भणज्य - हे आत्मार्थियो प्राणियो ! भणज्यो- दिन दिन दिवसे दिवसे बहु अभ्यास करीने, भणज्यो अति अभ्यासे. ( २८३ गाथा ) ए X X X संवत् १७२९ वर्षे भाद्रवा वदि २ दिने लिखि । साहा कपूरसुत साहा सुरचंदे लिखावितम् ॥ छ ॥ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २०१ व्याख्यानोना पुरोवचनमां शब्द अने भाषाना स्वरूप विशे संक्षेपमां जणावेलुं छे. पछी भाषाभेदनां निमित्तो विशे सविस्तर चर्चा करेली छे. ए प्रसंगे निरुक्तकार यास्के आपेला शब्दोने अने प्रधान वैयाकरण पाणिनिना धातुसंग्रहमांना धातुओने निदर्शन रूपे जणावेला छे. भाषाभेदनां बीजां अनेक निमित्तो जणाव्यां छे. तेमां आर्य अने अनार्यए बे जातिओनो गाढ संपर्क पण एक खास निमित्त छे. ते बाबत पण केटलाक पूरावा आपीने सविस्तर विवेचन करेलुं छे. वेदोमां य अनार्य शब्दोनो संपर्क छे ए हकीकत पण जैमिनिना वचन साथे टांकी बतावी छे. एटलं ज नहीं पण जेमनो अर्थ अवगत न थतो होय एवा वैदिक अनार्य शब्दोनो अर्थ अनार्यसमाज पासेथी मेळवबो एवं कुमारिलभट्टर्नु सविस्तर निवेदन जणावीने एवं पूरवार कयु छे के आर्य अने अनार्योनो गाढ संपर्क अने आर्योनी भाषा ऊपर तेनी प्रबल असर ए कल्पित कथा नथी ज. अनार्यों द्वारा थतुं आर्यशब्दोगें उच्चारण अने आर्यों द्वारा थतुं अनार्यशब्दोनुं उच्चारण ख्यालमां आवे ए माटे चीनी प्रवासी हुएनसिंगनां उच्चारणो साथे बीजां पण केटलांक उच्चारणो• जणावेलां छे. प्राकृतभाषाओना मूळ उपादानने समझवा सारु वैदिक भाषानी घटना साथे तेमनी आंतरघटनानी सरखामणी विशेष विस्तारथी सप्रमाण करी बतावी छे. अने एथी ए आशय सिद्ध कर्यो छे के वेद समयनी प्रचलित भाषानुं ज नाम प्राकृतभाषाओ छे. यास्कना अने पाणिनिना समयनां एक ज शब्दनां भिन्न भिन्न उच्चारणो ज ते शब्दोनी प्राकृतमयता सूचक्वाने पूरतां छे. संस्कृत ऊपरथी प्राकृत आव्यानो मत अने प्राकृत ऊपरथी Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति संस्कृत आव्यानो मत केवी रीते अप्रमाण छे ते पण वीगतथी दर्शावेलु छे अने हेमचंद्रे कहेला "प्रकृतिः संस्कृतम्" वचननी संगति अने असंगति बन्ने युक्तिपूर्वक दर्शावेलां छे अने संस्कृत ऊपर प्राकृतनी असर तथा प्राकृत ऊपर संस्कृतनी असर ए बन्ने हकीकत पण विशेष उदाहरणो साथे बतावेली छे. साथे प्राकृतभाषानी अवहेलना करवाथी आपणे जे काई खोयुं छे ते दर्शावी हवे एवी अवहेलनानो त्याग करवा विशेष नम्रतापूर्वक साक्षरसमस्तने विनंती करेली छे. पछी तो प्राकृत भाषाओ-पालि, अशोकनी धर्मलिपिनी भाषा, खारवेलनी धर्मलिपिनी भाषा, आर्षप्राकृत, अर्धमागधी, सामान्य प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, अपभ्रंश वगैरे भाषाओनो संक्षेपमा परिचय आपेलो छे. जैन परंपराना दिगंबर संप्रदायना प्रवचनसार वगैरे ग्रंथोनी भाषानुं पण स्वरूप साथे साथे दर्शावेलुं छे अने 'अपभ्रंशनो समय तथा ते विशेनां प्रमाणो' ए बाबत थोडा विस्तारथी चर्चेली छे अने एम सिद्ध कर्यु छे के अपभ्रंश साहित्यने पांचमा सैकाथी आरंभी शकाय. ललितविस्तरमहापुराण, भरतनुं नाट्यशास्त्र वगेरेना संवादोथी अपभ्रंशनो समय चर्यों छे. आनी पछी हेमचंद्रे रचेलु अपभ्रंशनुं के ऊगती गुजरातीनुं व्याकरण साररूपे गोठवेलुं छे अने हेमचंद्ररचित पद्योद्वारा ए साबीत करी बताव्युं छे के हेमचंद्रे जे ए व्याकरण रचेलुं छे ते तेमनी मातृभाषानुं एटले के गुजरातीनुं छे. ए गुजराती अद्यतन गुजराती नहीं पण तेमना समयनी गुजराती एटले ऊगती गुजराती के प्राचीन गुजराती अथवा जेने केटलाक विद्वानो अंतिम अपभ्रंश कहे छे, ते छे. साथे ए पण जणावेलुं छे के तळपदी भाषाओनुं के लोकप्रचलित भाषा ओनुं मूळ वेदवाराना आदिम अपभ्रंशमां छे अने प्राकृत वा संस्कृत भाषा तो तळपदी भाषाओनी मोटी अने नानी माशी जेवी छे. आदिम अपभ्रंश, प्राकृत अने संस्कृत एक प्रवाहमांथी आवेली होईने बहेन जेवी छे. देश्य Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६३५ प्राकृतना स्वरूपने पण अहीं प्रस्तावोचितरीते बतावेलुं छे अने संस्कृतना महाकविओ य तेनी असरथी बची नथी शक्या एम बतावी देश्यभाषाना प्रभुत्वने पण सूचवेलुं छे अने ते पण उक्त कविओना शब्दोमां ज जणावेलुं छे. गुजराती भाषानी उत्क्रांति बताववा माटे ते भाषा साथे संबंध धरावती , आटली नानी मोटी अनेक चर्चाओ कर्या पछी गुजराती भाषानी - ना बारमा सैकानी कविताना नमूनाओमांथी ते सैकानी उत्क्रांति " भाषानो परिचय आपवा प्रयत्न कर्यो छे. ते माटे जोईए ते करतां य वधारे निदर्शनो, वाक्यो वगैरे एटला माटे मूक्यां छे के अहीं बेठां बेठां ज आपणे आजथी आठसो वरस पहेलांनी आपणी गुजराती भाषाना स्वरूपने सरळताथी समझी शकीए. २०२ बारमा सैकानी गुजराती भाषानो शब्ददेह प्राकृतनी जेवो छ एटले के तेमां विजातीय संयुक्त अक्षरो जेवा के 'क', 'क्ल', 'क्त' वगैरे मुद्दल नथी आवता. 'श' के 'ष' नो प्रयोग नथी. ते बन्नेने बदले एकलो 'स' ज देखाय छे. स्वरोमां ऐ, औ, अने, ल पण देखाता नथी. संयुक्त 'र' वाळा एटले 'अंबडी' जेवा प्रयोगो उपलब्ध छे. परंतु 'आचार्य' जेवा तो नहीं ज. क्रियापदोमां अंते अइ, अई, के अउ वगैरे जुदा जुदा स्वरो देखाय छे, तेमनो गुण थतो जणातो नथी अने नामोमां पण एवा स्वरवाळा विभक्तिप्रत्ययो गुणविनाना ज उपलब्ध छे.. __ अभयदेवनी कृति ईश्वरनी स्तुतिरूप छे. वादी देवसूरिनी कृति गुरुनी स्तुतिरूप छे अने हेमचंद्रनी कृति लौकिक बनावोने वर्णवे छे. एथी त्रणेनी भाषा एक ज छतां आगला बेनी भाषा करतां हेमचंद्रनी भाषा थोडी वधारे सुबोध छे अने तळपदी जेवी छे. Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति । २०३ तेरमा सैकानी भाषाने समझवा पण ठीक ठीक सामग्री मूकेली छे. तेरमा सैकानी भाषामां अने बारमा सैकानी भाषामां नहींवत् अंतर छे छतां प्रमाणमां तेरमा सैकानी भाषामा प्राकृतपणुं ओछं देखाय छे. नामना अने क्रियापदना देहनी रचना आपणी अद्यतन गुजरातीना वलणवाळी छे. सोमप्रभनी रचना करतां धर्मसूरिना जंबूचरियमां अने विजयसेनसूरिना रेवंतगिरिरासमां आपणुं आधुनिक वलण वधारे स्पष्ट छे. सोमप्रमे जणावेलां आ पांच पद्यो पण तेमना समयनी लोकभाषानो–चालु गुजरातीनो-ख्याल आपवाने पूरतां छे : खड्ड खणाविय सई छगल, सई आरोविय रुक्ख । पई जि पवत्तिय जन्न सइं, किं बुब्बुयहि मुरुक्ख ॥ १ ॥ तीयह तिन्नि पियाराई, कलि-कज्जलु-सिंदूरु । अन्नइ तिन्नि पियाराई, दुद्ध जम्वाइउ तूर ॥ २ ॥ अह कोइलकुलरवमुहुलु भुवणि वसंतु पयट्ट । भट्ट व मयणमहानिवह पयडिअविजयमर? ॥ ३ ॥ वडरुक्खह दाहिणदिसिहिं जाइ विदन्भिहि मग्गु। वामदिसिहि पुण कोसलिहि जहिं रुच्चइ तहिं लग्गु ॥ ४ ॥ पिया हउँ थक्किय सयल दिणु तुह विरहग्गि किलंत । थोडइ जलि जिम मच्छलिय तल्लोविल्लि करंत ॥ ५ ॥ ___ (कुमारपालप्रतिबोध पृ० २५-३२-३८-५७-८६) सोमप्रभनी कृतिनो नमूनो अने तेमांना शब्दो वगेरे आगळ बतावी गयो छु. तो पण तेमना समयनी प्रचलित गुजरातीनो विशेष स्पष्ट ख्याल आवे ते माटे अहीं फरीवार तेमणे अवतरणरूपे जणावेलां उक्त पांच पद्यो फक्त ___ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६३७ नमूना रूपे जणावेलां छे. तेमनी कृतिमां बीजां तो आवां अनेक पद्यो तेमणे अवतरणो रूपे मूकेलां छे. तेरमी सदीनी गुजरातीभाषानो ख्याल आप्या पछी चौदमी सदीनी कृतिओना लीधेला नमूनामांथी शब्दो-नामो क्रियापदो वगेरे जणाव्यु छे अने तेरमा करतां चौदमी सदीनी भाषामां शी विशेषता आवी छे तथा चालु गुजरातीनी साथे ते केटला वधारे प्रमाणमां भळी जाय एवी बनेली छे ते बधुं वीगतथी बताव्युं छे. साथे साथे बारमी, तेरमी अने चौदमी सदीनी गुजरातीभाषानां नाम-विभक्तिओ, क्रियापदविभक्तिओ, कृदंतो वगैरे विशे पण लांबुं विवेचन करेलु छे अने वच्चे बच्चे व्युत्पत्तिसंबंधी केटलीक चर्चाने पण छेड्या सिवाय रही शक्यो नथी, बारमा अने तेरमा सैका करतां चौदमा सैकानी गुजरातीमां विशेष फेरफार थयेलो छे अने तेनुं वलण वधारे प्रमाणमां नवी गुजरातीने मळतुं थवा मांड्युं छे. २०४ अत्यार सुधी जेमनो प्रयोग न हतो एवा विजातीय संयुक्त अक्षरो क्ष, क्त, व्य, त्य, र्य, ष्ट, ष्ट, द्ध, र्ग, श्य, न्य, ध्य, म्य, ख्य, ल्य, क्तव, त, , म, स्थ वगेरे व्यंजनो चौदमा सैकानी गुजरातीमां वपरावा मांड्या छे. संस्कृतभाषानो प्रभाव जोतां अने तळपदां उच्चारणो विशेष अशुद्ध भासतां तत्कालीन लेखकोए क्लिष्ट छतां शुद्धिपोषक होई ए संयुक्त व्यंजनोनो वापर स्वीकार्यों होय एवो भास थाय छे. आ समय पछी उत्तरोत्तर विजातीय संयुक्ताक्षरोवाळा शब्दो खूब वधता गया छे. पहेलां जे श, ष, स त्रणेने बदले एकलो 'स' ज वपरातो हतो ते हवे बंध थयो अने यथास्थान श, ष अने स ए त्रणे चौदमा सैकानी गुजरातीमां वपरावा लाग्या छे. अंत्य एवा, अइ, अउ, वगेरे भेगा पण थवा लाग्या छे अने गद्यनी भाषामां तळपदापणुं वधतुं चाल्युं छे. अत्यार सुधी 'ऐ' ने बदले 'अइ' के 'अय' वपराता ते बंध थई चौदमा सैकामां 'ऐ' Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पण वपरावा मांड्यो छे. आ रीते आ सैकामां गुजरातीनी मोटी माशी प्राकृतनी असर ओछी थवा लागी छे. अने समृद्ध एवी नानी माशी संस्कृतनी असर ठीक प्रमाणमां जणावा लागी छे. २०५ पन्दरमा सैकानी गुजराती भाषामां चौदमा सैकानी जे संस्कृतजन्य विशेषता हती ते, वधारे प्रमाणमां कळावा लागी छे. 'औ' स्वरनो प्रयोग पन्दरमा सैकानी गुजरातीमां थवो शरू थयो छे अंतिम 'अइ' वगेरे स्वरोनो गुण करीने पन्दरमा सैकानी भाषा बोलीए तो ते अद्यतन गुजराती जेवी जणाया विना रहेती नथी. आ सैकाथी षष्ठी विभक्तिना ' रहई' वगेरे प्रत्ययो नवा ज शरू थया छे, जो के तेमनुं मूळ, तेनी माता अपभ्रंशमां रहेलुं छे ज. पन्दरमा सैका पहेलांनी गुजरातीमां सर्वत्र " कहइ ', ' करइ' एवां ' छइ' विनानां ज क्रियापदो वपरातां हतां ते ea आ सैकाथी ' छइं' वाळां वपरावां लाग्या छे अने ए पद्धति ठेठ आज सुधी चाली आवी छे. पन्दरमा सैकाथी जैन अने वैदिक बन्ने कविओनी कृतिओनो उपयोग करेलो छे. अने तेमां य जैन करतां वैदिक कविओनी कृतिओनो वधारे उपयोग छे. २०६ सोळमा सैकानी गुजरातीमां आद्य 'ज' ने बदले 'य' नुं उच्चारण थयेलुं मालूम पडे छे. हवे अहीं ' अइ' वगैरे लगभग संयुक्त थयेला वपरावा लाग्या छे. 'जेहूनुं' 'ताहरूं' वगेरे प्रयोगोमां 'हू' श्रुति संभळावा लागी छे अने सप्तमीविभक्तिवाळां नामो जेवां के ' आसनि ' ' गामि' वगेरेने बदले ' आसन्य ' ' गाम्य' एवा ' य 'कारवाळा प्रयोगों पण वपरावा लाग्या छे, तथा जे नाम, छेडे 'इ' वाळु छे जेमके हरि, रात्रि, प्रीति एनो अंत्य 'इ' 'य'रूपे बदलाईने वपरायेलो छे, एटले हर्य, रात्य, प्रीत्य एवा प्रयोगो थयेला छे. आवा प्रयोगो वाग्व्यापारजन्य विलक्षणताना पुरावारूप छे, ए स्पष्ट छे. Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २०७ सत्तरमा सैकानी गुजरातीमां घणे स्थळे अंतिम दीर्घ 'ऊ' वपरायेलो छे. जेम ‘' ने बदले 'नूं' वगेरे. अने 'ऐ' तथा ' औ' नो प्रयोग छूटथी थवा लाग्यो छे, तथा 'ऋ' आदिवाळा शब्दोमां 'ऋ' ज कायम रह्यो छे, पण तेने बदले 'रि' नो प्रयोग वधारे प्रमाणमां नथी. २०८ आ पछी अढारमा सैकानी भाषा तो अद्यतन गुजराती छे, एथी ए विशे विशेष विवेचन नथी कयु; परंतु जे रीते पन्दरमा सैकानी गुजरातीने समझाववा विभक्तिवार उदाहरणो, क्रियापदो, सर्वनामो वगैरे वीगतथी आप्यु छे ते रीते अढारमा शतकनी एटले आजनी गुजराती भाषाने समझाववा अनेक रूपो सविस्तररूपे आपेलां छे. आजे आपणे ज्यां 'स' नुं उच्चारण करिए छिए त्यां पण अढारमा शतकनी गुजरातीमां तालव्य 'श' नुं उच्चारण रहेलुं छे अने ज्यां आपणे त्यां 'ळ' नुं उच्चारण प्रर्वते छे त्यां 'ल' नुं उच्चारण थयेलुं छे. बारमाथी ते ठेठ अढारमा शतक (एक श्रीयशोविजयजीनी कृतिमां क्यांय 'ळ' देखाय छे परंतु ते संशोधननो के मुद्रणनो दोष केम न होय ?) सुधीनी गुजरातीमां क्यांय 'अबला', 'वली', 'काल' वगैरे शब्दोमां 'ळ' नुं उच्चारण जोवामां नथी आव्यु एटले कदाच 'ळ' नुं उच्चारण तद्दन आधुनिक होय अने दक्षिणना सहवासथी आव्युं होय ए बनवा जोग छे. प्राचीन समये वेदमां तेम ज प्राकृतभाषाओ पैकी पालिभाषामां अने पैशाचीभाषामां स्वतंत्र 'ळ' नुं उच्चारण चाले छे एटले ए पण संभव छे के दाक्षिणात्य वेदपाठीओना वा 'ळ' वाळी भाषाना सहवासथी वर्तमान गुजरातीमां 'ळ' नुं उच्चारण उमेरायु होय. २०९ चौदमा सैकानी गुजरातीथी ठेठ अढारमा सैकानी गुजराती सुधीनी रचनाओमां कोई प्रकारना नियत बंधारणवाळी निश्चित जोडणी देखाती Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नथी, त्यार पहेलां वधारे पडती अनिश्चितता नथी भासती, तथा 'मुख्य' ने बदले 'मुक्ष्य' जेवां केटलांक विचित्र उच्चारणो पण सोळमी सदीनी कृतिओमां रही गयेलां छे. सैकावार एक एक सळंग कृतिनी भाषा परीक्षा कराय अने ए रीते अढारमा सैका सुधीनुं संपूर्ण गवेषण थाय तो गुजराती भाषानुं घडतर, बंधारण, व्युत्पत्ति, जोडणी अने एक एक शब्दोनां भिन्न भिन्न उच्चारणो ए बधी हकीकतो विशे वधारेमां वधारे प्रकाश पडे अने शब्दोना रूपान्तरो तथा तेमना अर्थना इतिहास विशे पण घणुं न, जाणवानुं मळे; परंतु ए कार्य अनेक वर्ष अने अनेक व्यक्ति साध्य छ एथी अहीं तो में मारी शक्ति अने मर्यादा विचारी स्थालीपुलाकन्याये सैकावार ऋण त्रण कृतिओने तपासवान निधीरेलुं अने ते प्रमाणे ते तमाम कृतिओनुं गवेषण करी गुजराती भाषानो क्रमिक विकास जे रीते हुं समझ्यो छु ते रीते बताववा प्रयत्न कर्यो छे. २१० उक्त बधी कृतिओमां प्राकृत अने संस्कृत शब्दोनी बहुलता छे. प्राचीन अपभ्रंशनो शब्ददेह प्राकृतरूप छे अने गुजरातीनी माता ए प्राचीन अपभ्रंश छे एथी तेरमा सैका सुधीनी गुजरातीमां प्राकृतनी बहुलता दीसे ए स्वाभाविक छे. चौदमा पछी ते बन्नेनी-संस्कृत अने प्राकृतनीबहुलता छे अने तेमां देश्य प्राकृत शब्दो पण वपरायेला छे; परंतु संस्कृत अने प्राकृत करतां देश्य शब्दोना टका ओछा छे अने आगळ जणाव्या प्रमाणे आर्योनी पवित्रतम वैदिक भाषामां पण अनार्योना शब्दो पेसी गया छे, ते रीते अनार्य शब्दोना संसर्गथी संस्कृत भाषा पण बची नथी तो लोकभाषामां एवा शब्दो आवे ए सहज जेवू छे. चौदमा सैकानी भाषाथी ठेठ अढारमा सैका सुधीनी गुजराती भाषामां क्यांय क्यांय एवा शब्दो वपरायेला छे अने ते विशे यथास्थान निदर्शन पण करावेलु छे. एवा फारसी वगैरेना शब्दो घणा ज ओछा आवेला छे ते ध्यान बहार न जाय. गमार, तरक, Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६४१ सुनत, ओमराओ वगैरे शब्दो ए जातना छे. एवा परदेशी शब्दो अढारमी सदीनी कृतिमां प्रसंगवशात् थोडा वधु वपराया छे. अहीं जणावेली कृतिओनी अभिधेयवस्तुनो परिचय विशेषपणे कराव्यो नथी, तेम तेनो सार पण चालु गुजरातीमां आप्यो नथी, अहीं मात्र एक व्याकरणसापेक्ष शब्ददृष्टिनी प्रधानता होवाने लीधे आगळना व्याख्यानोमां एवं आपेलुं नथी. तेम छतां मने लागे छे के परिमित शब्दोमां अमुक अमुक कृतिओनो सारभूत परिचय अहीं उपसंहारमां आएं तो अस्थाने नथी. २११ अहीं सर्व प्रथम आपेली बारमा सैकानी अभयदेवनी कृतिमां जैन परंपराना वीशमा तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ भगवाननी स्तुति छे. तेमां एक साचा भक्तनी जेम स्तुतिकारे पोतानी दीनता प्रगट करेली छे. अने ते दीनताने मटावा परमेश्वर पोतानी सहाये आवे एवी मागणी पण अनेक ते जणावेली छे. कृतिओनुं अभिधेय बीजी कृति वादी देवसूरिनी बनावेली तेमना गुरुनी स्तुतिरूप छे. तेमां गुरुनो महिमा अने जेमनी स्तुति छे ते पुरुषनो संयमविषयक, ज्ञानविषयक अने साधुतासंबंधी प्रकर्ष वर्णवेलो छे. त्रीजी कृतिमां हेमचंद्रना आठमा अध्यायना चोथा पादमांना केटलाक दोधको छे, अने तेमना छंदोनुशासनमांनां पण केटलांक पद्यो छे. ए धां पद्यमा केलांक तो हेमचंद्रनां पोतानां छे अने वधारे भाग लोकप्रचलित पद्योनो छे. त्रीजी कृति, आगली बे करतां विशेष लांबी राखी छे. आगली बेनो विषय मर्यादित होवाथी तेनी भाषाघटना पण मर्यादित होय त्यारे श्रीजी कृतिनो विषय तद्दन लौकिक - लोकव्यापक छे, एथी एनी भाषाघटना द्वारा ते समयनी गुजरातीनो स्पष्ट ख्याल आवे तेम ज ते समयनी भाषानुं बंधारण पण समझी शकाय ए हेतुथी ज अहीं त्रीजी कृतिने विशेष स्थान आपेलुं छे. ४१ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति २१२ तेरमा सैकानी त्रण कृतिओ पैकी पहेलीमां जीव, मन अने इंद्रियोनो संवाद छे. एमां इन्द्रियोना विषयो-स्पर्श, रस, रूप, गंध अने शब्दोना मोहक सामर्थ्यवें वर्णन छे अने अंते इन्द्रियनिग्रहरूप संयमनी भलामण करेली छे. त्यार पछी स्थूलिभद्र, वररुचि, नंद अने मन्त्री शकटालनी संक्षिप्त कथा छे, तथा वेश्याने त्यां जईने परमहंसवृत्तिथी रहेनार स्थूलिभद्रना चारित्रनो प्रकर्ष गवायेलो छे. बीजी कृतिमां जंबूस्वामिनु चरित्र छे. जम्बूकुमार एक वैश्यपुत्र छे, संपन्न छ, यौवनवंत छे. तेणे साक्षात भगवान महावीरनी वाणी सांभळी, तेथी आत्मराज्यनो नाश करनारा काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर, मान अने माया वगेरेनुं जेमां प्राबल्य छे एवी दैहिक विलासनी प्रवृत्तिने तजी देवानो निश्चय कर्यो. आम छतां मातानो भक्त ते जंबू मात्र माताना ज आग्रहथी आठ कन्याओने परण्यो. परणतां पहेलां तेणे पोतानो निश्चय ते ते कन्याओना वाली ओने जणाव्यो. वालीओए ए बात कन्याओने जणावी अने तेमने बीजे परणवानी सूचना करी छतां कन्याओए जंबूने ज परणवानो आग्रह राख्यो, जंबू परण्यो. रात्रे घेर आव्यो. घरमां ऋद्धि अढळक छे. लग्ननी धमालनो लाग जोई प्रभव नामनो चोर पोताना साथीदार खातरियाओ साथे जंबूना घरमां चोरी माटे पेठो. कोई विद्याना बळे तेने घारण मूकी, घरनां बधांने तेणे सूवाडी दीधां अने ताळां ऊघाडवानी कळावडे पेटीओनां ताळां खोली नाख्यां. मात्र एक जंबू ऊपर तेना घारणनी असर न थई एटलुं ज नहीं पण ते चोरो ऊपर जंबूनी दृष्टि पडतां ज ते बधा थंभी गया-आम के तेम एक पगलं पण न चाली शके एवा स्तब्ध थईने ऊभा रह्या. जंबू ते चोरोने कशुं य हनकन केतो नथी. तेम तेणे तेमने थंभाव्या पण नथी. ते तो पोते सवारना प्रथम प्रहरमां भगवान महावीरना Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार चरणमां साधना माटे जतो होवाथी ए वात पोतानी स्त्रीओने समझावे छे. अने स्त्रीओ तेने अहीं रहेवा समझावे छे. प्रभव साथे पण तेनो वार्तालाप थाय छे. प्रभवने ए जोईने आश्चर्य थयु के हु तो धन अने स्त्रीओ माटे धाडो पार्दू त्यारे आ महानुभाव ते बधुं मूकीने आरण्यक जीवन जीववा इच्छे छे. छेवटे सवारे, जंबू , तेना माता-पिता, आठे स्त्रीओ अने प्रभव वगेरे बधा चोरो महावीर पासे जईने वनव्रत स्वीकारे छे अने जीवनशुद्धिनो मार्ग मेळवे छे. जतां पहेलां प्रभव, राजा कोणिक पासे जाय छे अने पोते जेनी जेनी जे चीज चोरी हती ते, अने ते बधुं क्या राख्यु छे ते सघळु बतावे छे अने राजा-प्रजानी क्षमा मागे छे. आ बधी हकीकत प्रचलित भाषामां कविए प्रस्तुत बीजी कृतिमां सरस रीते वर्णवी छे. त्रीजी कृतिमां गिरनारनो रास छे. तेमां गिरनारनु, 'तेनी यात्रार्नु अने ते समयना केटलाक ऐतिहासिक पुरुषोनुं नाम-स्मरण छे. ए कृति देशीना रागमा छे अने अमुक कडवामां वहेंचायेली छे. २१३ चौदमा सैकानी नेमिनाथचतुष्पदिका (चोपाई) मां नेमिनाथ अने आठ भवथी तेनी सहचरीरूपे रहेती आवेली राजुल वा राजिमती ए बेना प्रेमनुं वर्णन छे. नेमिनाथ वीतराग थवानी वृत्तिवाळा छे अने राजिमती तेमना तरफ आकर्षायेली छतां तेमनाथी त्यजायेली होई पोतानी हैया-वराळ आ चोपाईमां बराबर बतावे छे. कविए ए वस्तुने बराबर वर्णक्वा आ कृतिमां बार मास वर्णवेला छे अने तेमां राजिमती तथा तेनी सखीओनो संलाप चीतरेलो छे. छेवटे राजिमती पण नेमिनाथ पासे जई संयमिनी थईने रहे छे. आनी भाषा पण बोलचालनी छे अने ते द्वारा चौदमा सैकानी गुजरातीनो आपणे घणो स्पष्ट ख्याल मेळवी शकिए एम छीए. बीजी कृति थूलिभद्रनो फाग छे. आमां त्यागी थूलिभद्र पोतानी पूर्व Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति परिचित अने गाढप्रेमपात्र वेश्याने त्यां आवीने रह्या छे, छतां ध्रुवनी जेम एटला बधा निश्चळ रह्या छे के जेथी वेश्या, वेश्या मटी पतिव्रता बने छे अने गृहस्थधर्म ले छे. प्रस्तुत फागमा वेश्या अने जति थूलिभद्र बच्चे थयेलो संवाद सरस रीते ओजस्वी शब्दोमां वर्णवायेलो छे. २१४ चौदमा सैकानुं गद्य पण नमूनारूपे मूकेलं छे. तेनी भाषा तो बोलचालनी ज छे. गद्यनो विषय जैन संप्रदायनी धार्मिक विधिओने लगतो छे. एटले तेनी भाषा तळपदी छतां सांप्रदायिक शब्दोथी मिश्र थयेली छे. आम छतां य ए गद्यनी भाषा, पद्यनी भाषा करतां चौदमा सैकानी भाषानो विशेष स्पष्ट ख्याल आपे एवी छे. वळी संस्कृतना विद्यार्थिओ माटे संग्रामसिंह नामना पंडिते ते समयनी चालु बोलीमां 'बाल-शिक्षा' नामनुं एक व्याकरण रचेलं छे. तेमां संस्कृतभाषानां नाम-रूपो, क्रियापदरूपो अने बीजा अनेक शब्दो समझाववा ते पंडिते तुलनात्मकदृष्टिने प्रधान स्थान आपीने पोताना समयनी प्रचलित भाषाना प्रयोगोनो आश्रय लीधो छे. ते ग्रंथमाथी नमूनारूपे अहीं केटलोक ऊतारो आपेलो छे. भाषाना प्रयोगोने समझवा सारु कथावार्ताना साहित्य करतां आ ऊतारो विशेष उपयोगी छे. २१५ पन्दरमा सैकाना पहेला दसकाथी ते अंतिम दसका सुधीनी भाषाना नमूना आपेला छे. ते गद्य अने पद्य बन्ने प्रकारना छे. गद्यना नमूनामां नानी नानी वार्ताओ छे. पद्यना नमूनाओमां सर्व प्रथम कवि असाईतनी हंसाउलीनो उपयोग पूरतो ऊतारो लीधेलो छे अने बीजो ऊतारो कवि भीमनी सदयवत्सनी कथाने लगतो छ; ए गद्य अने पद्य उभयना नमूना पन्दरमा सैकानी गुजरातीनो घणो स्पष्ट ख्याल आपे छे. प्रस्तुत व्याख्यानोने लगतां वांचन-परिशीलन अने परस्पर तोलनने लीधे मने जे थोडो घणो अनुभव थयो छे ते ऊपरथी नम्रतापूर्वक कही Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६४५ शकुं छं के पद्य करतां गद्यसाहित्य, भाषाना बंधारण, घडतर अने नानाविध प्रयोगोनो वधारे स्पष्ट ख्याल आपी शके छे. पद्यमां तो कवि, कविताना कारणे भाषाना प्रयोगो ऊपर पोतानो स्वच्छंद पण चलावी शके छे अने तेने लीधे (जन ) ' जन्न' (सनातन ) ' सनातन्न' जेवा विलक्षण प्रयोगो पेदा थाय छे; त्यारे गद्यमां तेम करवानुं स्थान ज नथी. तेमां तो भाषानो स्वाभाविक सरल प्रवाह वये जाय छे तेथी ते ते समयनुं अकृत्रिम गद्य भाषा विशे विशेष स्पष्ट समझ आपे छे. पन्दरमा सैकाना एकंदर छ नमूनाओने अहीं रजू करेला छे. चार गद्यना छे अने बे पद्यना छे. आ सैकानी भाषानां नामरूपो, क्रियापदो, सर्वनामो, कृदंतो अने बीजा अनेक शब्दोनुं निदर्शन करावीने पन्दरमा सैकानी भाषानो सविशेष परिचय आपेलो छे तथा जैन अने जैन नहीं एवा कविओनी भाषामां कशो य भेद नथी एवी स्थापित हकीकतने स्पष्टतापूर्वक वधू वीगतथी रजू करेली छे. वळी, आगळ कह्या एवा 'बाल-शिक्षा' जेवा 'मुग्धावबोध औक्तिक' ( कुलमंडन ) - मांथी पण बीगतवार ऊतारो मूकेलो छे तथा कुलमंडनना ज गुरुभाई श्रीगुणरत्नसूरिए रचेला क्रियारत्नसमुच्चयमांथी पण उपयुक्त भाग ऊतारी क्रियापदो अने तेनां भूतकाळ वगैरे भिन्न भिन्न काळमां थतां भिन्न भिन्न रूपो संबंधी माहिती आपेली छे. आगला सैकाओ करतां आ सैकानी भाषानी चर्चाए विशेष स्थान रोकेलुं छे. २१६ सोळमा सैकानी पांच कृतिओनो अहीं उपयोग करेलो छे. एमां एक, जैन कवि लावण्यसमयनी छे अने बीजी चार अनुक्रमे नरसिंह, पद्मनाभ, भीम ( बीजो ) अने कवि मांडणनी छे. आ बधी कृतिओमांथी नाम वगेरेनां निदर्शनो आपी सोळमा सैकानी भाषानुं स्वरूप समझमां आवे ते ते चर्चा करेली छे. लावण्यसमये संस्कृतनी जेवा मालिनी वगेरे छंदो वापरेला छे तेना पण थोडा नमूना आप्या छे. सोळमा सैकाना कवि Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति मांडणे 'पाखंड ' ' हास्य' 'मूर्ख' वगेरे जुदा जुदा बत्रीश विषयो पसंद करीने ते दरेक ऊपर वीश वीश कडीनी एक एक वीशी बनावी छे अने मां की कडी अनेक ऊखाणां (उपाख्यान ) आपीने पोताना अभिमत अर्थने विशेष स्फुट करेलो छे. आ वीशीओमां अर्थगांभीर्य छे अने मांडणना मनना क्रांतिकारक भाव पदेपदे भरेला छे. अहीं ए बधी वीशीओनो वीगतवार परिचय न आपी शकाय; परंतु ए वीशीओमा जेम कवि मांडणे ऊखाणां बराबर गोठववामां अजब चातुर्य दाखव्युं छे तेम प्राकृत भाषामा लखायेला एक जैनस्तोत्रमां तेना रचयिताए गाथाए गाथाए ऊखाणां गोठवीने पोतानुं पांडित्य प्रगटेलुं छे. ए स्तोत्रकार कोण छे ? ते क्या समयनो छे ? वगेरे बीगतो जणाई नथी तेम छतां मांडण करतां तो ए प्राचीन होवानो भास थाय छे. एटले मांडणनी कृति ऊपर ए प्राचीन स्तोत्रनी असर होय तो ना न कहेवाय. मांडण " गुलि मरि तु विष कां दीउ ? " - १ ली वीशी - १६ " पइठी नाचरं किशुं घुंघटु ? " - १४ मी वीशी - २६२ 77 " पाके भांड न काना जडइ ' - १५ मी वीशी - २८३ स्तोत्रकार " जो मरइ गुलेणं चिय तस्स विसं दिज्जए कीस ? " जैन स्तो० 66 सं० पृ० ७९, गा० १५ ' जइ नच्चणे पयट्टा ता किं घुंघट्टकरणेणं" उक्त पु० गा० २१ " पक्काणं भंडाणं किं पुण कण्णाई लग्गंति ?”–उक्त पु०गा० १३ उक्त स्तोत्रकार अने मांडण बच्चे आ जातनुं विशिष्ट साम्य जणाय छे अने तेथी उक्त 'ओहाणबंध ' मां श्री जिनस्तोत्रनुं कवि मांडणे अनुकरण कर्यु होय ओवी उक्त कल्पनाने टेको मळे छे. कवि मांडण जैनधर्मथी Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६४७ परिचित हतो तेम सर्वधर्मसमभावी हतो, ए तो एनी वीशीओ ऊपरथी स्पष्टपणे जणाय छे. २१७ सत्तरमी सदीनी गद्य कादंबरीनो तथा अमरेलीना शिलालेखनो नमूनो आपी पछी विष्णुदासना महाभारतनो तथा नाकरकृत आरण्यकपर्वनो ऊतारो आपेलो छे. अने ए सैकानी भाषानो स्पष्ट ख्याल आवे ते माटे पूरतां निदर्शनो जणावेलां छे. २१८ आ पछी छेवटे अढारमा शतकनी चार कृतिओना नमूना ऊतार्या छे. तेमां प्रथम लक्ष्मीरत्न (जैन) कृत खेमाहडालियानो रास छे, बीजी कृति कवि रत्नेश्वरकृत भागवतनी छे अने त्रीजी आपणा सुप्रसिद्ध कवि प्रेमानंदनी कृति नळकथा छे. छेक छेल्ले न्यायविशारद-न्यायाचार्य महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीनी कृतिनो नमूनो पण आपी दीघो छे. ए अढारमा शतकनी गुजराती विशे कशुं लखवापणुं छे नहीं. एथी तेना नाम अने क्रियापदोना प्रयोगोनुं मात्र निदर्शन कराव्युं छे. जे गुजराती आपणे बोलिए छिए ते अने अढारमा शतकनी गुजराती बन्ने एक जेवी छे एम कहीए तो खोटुं नथी. जरा तरा उच्चारण फेर सिवाय बीजो कशो भेद नथी अने एम छे माटे ज ए गुजराती विशे कशें लख्यु नथी, आ रीते में करेली प्रतिज्ञाप्रमाणे अने मारी समझप्रमाणे में आपनी सामे बारमा शतकथी मांडीने अढारमा शतक सुधीनी गुजराती भाषानो परिचय आप्यो छे अने तेम करी “गुजराती भाषानी उत्क्रांति" ना विषयने में बनी शके तेटलो न्याय आपवा प्रयत्न कर्यो छे. वळी, जैन, जैन नहीं तेवा ब्राह्मण, वैश्य, मुसलमान अने पारसी एवा अनेक कविओनी-पंडितोनी कृतिओना नमूना अहीं आपेला छे अने तेमनी दरेकनी कृतिना शब्दो वगैरे आपी वाचकोने ते ते कृतिओनी भाषानो पूरो परिचय मळे Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति तेवी रीते वीगतथी चर्चा करेली छे अने ए रीते हुं मारी पूर्वे करेली प्रतिज्ञाने, कृपाळु परमात्मानी कृपाथी अहीं पार पाडी शक्यो छं. २१९ प्रस्तुत प्रबंधमां में प्रधानपणे शब्ददृष्टिए ज विवेचन करेलुं छे. एथी गुजराती कृतिओना जे नमूनाओ अहीं जणाव्या छे तेमनुं काव्यदृष्टिए के छंददृष्टिए में लेश पण निरूपण कर्यु नथी. वळी, प्रस्तुत प्रबंधमां शुद्ध साहित्यनी दृष्टिए चर्चा करेली छे. तेमां क्यांय संप्रदायभेदे वा एवा बीजा संकोचवाळा भावे स्थान लेश पण नथी रोक्यु ए तरफ आप सौनुं ध्यान खेंचु छु.। हुँ जाणुं छु के, भाषानी चर्चा साथे इतिहास अने भूगोळनी चर्चाने गाढ संबंध छे. अने एम छे माटे मारे अहीं गुजरातनो इतिहास अने भूगोळ विशे जरूर थोडु घणुं कहेवू जोईए, छतां आगला पानाओमां में ए विशे एक अक्षर पण उच्चार्यों नथी, प्रथम तो ए विशे मारे विशेष कहेवापर्यु नथी. जे कांई ते बाबत आज सुधी कहेवाई के लखाई गयुं छे, तेमां खास नवु उमेरवानुं नथी. एथी अहीं ए बाबतनुं पिष्टपेषण न करवानुं ज उचित समजु छं. २२० 'गुजरात' नी व्युत्पत्ति माटे घणा विद्वानोए चर्चा करी छे. __प्राकृत ‘गुज्जरत्ता' अने संस्कृत ‘गुर्जरत्रा' ए बन्ने 'गुजरात'नी - शब्दो घणा जूना छे. विक्रमना नवमा दशमा व्युत्पत्ति सैकाना संस्कृत-प्राकृत शिलालेखोमां ‘गुर्जरत्रा' अने 'गुज्जरत्ता' ए बन्ने शब्दो वपरायेला छे. बीजे केटलेक स्थळे गुर्जरधरा, गुर्जरमण्डल अने गुर्जरदेश ए रीते पण 'गुजरात' देशने सूचवेलो छे. वादी देवसूरि, देशवाची 'गूर्जर' शब्दने नोंधे छे. (स्याद्वादरत्नाकर पृ० ७०३ पं० १४). आ० हेमचंद्र " गूर्जरः सौराष्ट्रादिः” (उणादि सू० ४०४) Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६४९ कहीने सौराष्ट्र वगैरे माटे 'गूर्जर' शब्दने वापरे छे. तथा " गूर्जरी स्त्री" नोंधीने 'गूर्जरी' शब्दने गुजरातनी स्त्रीजाति-'गुजरातण'-माटे वापरे छे. अने तेमणे 'गुर्जरत्रा' शब्दने पण देश माटे वापरेलो छे. ___ * गूर्जर' शब्दनु मूळ गमे ते धातुमां होय परंतु हेमचंद्र ते शब्दने 'गूर्' धातुमाथी नीपजावे छे. 'गूर्' एटले ‘गति करवी'. 'आर्य' शब्दना मूळमां जेम ‘गति' अर्थवाळो 'ऋ' धातु छे तेम प्रस्तुत 'गूर्जर' शब्दमां पण 'गति' अर्थवाळो 'गूर्' धातु छे एम हेमचंद्रनो अभिप्राय छे. आपणा देशनुं नाम जे प्रजाना नाम साथे संकळायेलुं छे ते प्रजा खरेखर गतिशील ज हशे, नहीं तो क्यां ते प्रजानुं निवासस्थान अने क्यां आ आपणो देश ? आटलुं मोटुं अंतर गतिशील प्रजा ज छेदी शके अने नवं राष्ट्रस्थान निर्मी शके. “चराति चरतो भगः" नी उक्तिने गूर्जरोए सार्थक करी छे. 'गुर्जरत्रा' शब्द तो प्राकृत 'गुजरत्ता' नो मात्र संस्कार जणाय छे. छेडाना 'त्ता' के 'अत्ता' नो विशिष्ट अर्थ समझी शकातो नथी. 'गूर्जरैः आत्ता गृहीता भूमिः गूर्जरात्ता' एम कहीने 'गुज्जरत्ता' के गूर्जरत्रा' नुं मूळ कल्पी शकाय, पण ज्यांसुधी 'गूर्जरात्ता' शब्द माटे विशिष्ट संवादी उल्लेख न मळे, त्यांसुधी ए नरी कल्पना ज कहेवाय आ तो अंतिम ‘त्ता' के 'अत्ता' नो अर्थ मेळववानी मात्र युक्ति कहेवाय. वळी, तद्धितनी प्रक्रियामां हेमचंद्र ७–२-१३३-१३४ सूत्रमा एक 'त्रा' प्रत्ययनो निर्देश करे छे अने 'देवत्रा वसेत् , मनुष्यत्रा' एवां 'त्रा' प्रत्ययवाळां उदाहरणो पण आपे छे, परंतु मारी समझ छे त्यां सुधी उक्त * आप्टेना संस्कृत कोशमा 'गूर्जर' अने 'गुर्जर' एम बन्ने शब्दो नोंधेला छे, तेम ज साक्षरवर केशवलाल ध्रुवे अने चीमनलालभाई दलाले 'गुर्जर' शब्दने वापरेलो पण छे तेथी अहीं में ए बन्ने शब्दोनो उपयोग करेलो छे. Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति 'त्रा' प्रत्यय लागीने ‘गुर्जरत्रा' शब्द बन्यो होय ए हकीकत मने ठीक ठीक रीते गळे ऊतरती नथी. ए ज रीते ' गुर्जरराष्ट्र' ऊपरथी पण 'गुजरत्ता' शब्द आवी शकतो नथी. “गुर्जरराष्ट्र' मांनो 'र' तो वाग्व्यापारने बळे कदाच लोप पामी जाय, परंतु अंत्य 'ष्ट' नो ‘त्त' केम थाय ? चाग्व्यापारने परिणामे 'टु' थवो जोईए. ए ज रीते 'गुर्जरधरा' ऊपरथी पण 'गुर्जरत्रा' नथी आवी शकतो. 'गुज्जरत्ता' ए कोई देश्य पद छे अने संस्कृतमां तेनुं अनुकरण 'गुर्जरत्रा' थयेलुं छे. 'सुलतान' नुं संस्कृत 'सुरत्राण' करवामां आव्युं छे तेम कोई संस्कृतना भक्ते 'गुज्जरत्ता' - 'गुर्जरत्रा' बनान्यु लागे छे. अथवा संभव छे के देशवाचक 'कुशावर्ताः' 'आर्यावर्ताः' 'ब्रह्मावर्ताः' नी पेठे ‘गुर्जरावर्ताः' ऊपरथी 'गुजरावत्ता-गुजरायत्तागुज्जरत्ता' आव्युं होय अने ते ऊपरथी कोईए ‘गुर्जरत्रा' कल्प्यु होय. स० नरसिंहरावभाई कहे छे तेम 'गुजरत्ता' नो अंतिम 'त्ता' के 'अत्ता', 'ठाकोर' नी 'ठकरात' जेवो छे. तेमनुं आ कथन ज्यां सुधी 'ए माटे विशेष बाधकप्रमाण न मळे त्यां सुधी तो मने स्वीकारवा जेवू लागे छे. ___ चीनी प्रवासी ह्युएनत्सिंगे पोतानी जबानमा ‘कियुचेलो' शब्द 'गुजरात' देशने माटे वापरेलो छे; एथी एम जणाय छे के ते वखते देश माटे 'गुर्जर' शब्द ज विशेष प्रसिद्ध हशे नहीं के-'गुर्जरत्रा' के 'गुजरत्ता'. लगभग सातमा सैकाना 'वसुदेवहिंडि' नामना प्राकृत ग्रंथमां 'पेढिया' ना मथाळावाळा प्रकरणमां 'द्वारिका' नगरीनुं सुंदर वर्णन करेलुं छे. तेमां जणावेलुं छे के- "अत्थि पच्छिमसमुद्दसंसिया निउणजणवन्नियगुणा चत्तारि जणवया। तं जहा-आणहा कुसहा सुरहा सुक्करवा त्ति । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६५१ तेसिं च जणवयाणं अलंकारभूया x x x नयरी बारवई नाम"-पृ० ७७)-" पश्चिम समुद्र कांठानो आश्रय करीने चार देशो आवेला छे. आणट्टा-आनर्त, कुसहा-कुशावर्त, सुरहा-सौराष्ट्र अने सुक्करट्ठा एटले शुष्कराष्ट्र. कदाच कच्छना रणनो प्रदेश वा थरपारकरना रणनी साथे संबंध राखतो सिंधनो प्रदेश 'शुष्कराष्ट्र' शब्दथी सूचवेलो होय. 'सुक्कर' शब्दनुं साम्य शुष्कराष्ट्र, शुक्रराष्ट्र के शुक्लराष्ट्र शब्दो साथे छे. परंतु अहीं पश्चिम समुद्रना अने रणना संबंधने लीधे 'सुक्करहा' ऊपरथी 'शुष्कराष्ट्र' नी कल्पना सूझी छे. . कहेवानुं ए छे के वसुदेवहिंडि ग्रंथनो प्रादुर्भाव थतां सुधीमा आखा गुजरात माटे उक्त शब्दो सिवाय कोई बीजो शब्द प्रचार नहीं पामेलो होय. "गुज्जर' अने ' आणहा' ना समास · गुज्जराणहा' द्वारा पण 'गुज्जरत्ता' पद नथी आवी शकतुं. आ बधुं जोतां गुज्जर, गूर्जर, गुर्जरत्रा के गुज्जरत्ता ए बधां पदोनी व्युत्पत्ति विशेष शोधनी अपेक्षा राखे छे. २२१ हेमचंद्रे भले 'गुर्जर' माटे 'गूर्' धातुनी कल्पना करी; परंतु मूळ शब्द गूर्जर नथी. ए तो ‘गुज्जर' ऊपरथी उपजावेलो शब्द छे अने 'गुजर' शब्दनो उच्चार पण आपणे जे जातनी जोडणी करिए छिए तेवो ज छे वा अन्य प्रकारे छे ए बाबतनो निर्णय आपवो पण कठण छे. ज्यां सुधी ए शब्दना मूळ धातुनी खरी कल्पना न आवे त्यां सुधी ए विशे कांई ज न कही शकाय. फारसीमां गुज़र, गुजरना, गुजरी, गुजारना अने गुजारा एवा पांच शब्दो प्रस्तुत 'गुज्जर' पदनी साथे शब्ददृष्टिए समाफारसी नता धरावे एवां छे. गुज़र एटले १ निकास-गति, गुज़र २ पैठ–पहुंच-प्रवेश, ३ निर्वाह. गुज़रना एटले (मूळ गुजर) वीत, पहोंचq अने हाजर थवं. गुजरी (मूळ गुज़र) एटले ___ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति दिवसे त्रीजे प्होरे-सडकोनी पासे भराती बजार. 'गुजारना' नो अर्थ उक्त 'गुजरना' ने मळता जेवो छे. “गुज़ारा' एटले–१ निर्वाह, २ निर्वाह माटे देवातो पगार अने महेसूल लेवानुं थाणुं. _ 'गुजर' नो बीजो उच्चार ' गजर' पण प्रचलित छे; परंतु ते मूळ नथी किंतु 'गुज्जर' ऊपरथी आवेलो छे अने घणुं करीने ' ठाकोर 'नो जेम अंग्रेजोए 'टागोर' ध्वनि बनाव्यो छे तेम ज ए ‘गजर' पद पण सर्जायु छे. २२२ हेमचंद्रना समये गुजरातनी भौगोलिक मर्यादा घणी विशाळ हती: विद्यावारिधि श्री आनंदशंकरभाई कहे छे (वसंत भौगोलिक मर्यादा वर्ष ३७, अंक ४ पृ० २०२) तेम आपणो गुजरात आनर्त, सौराष्ट्र अने लाट ए त्रण प्रदेश मळीने थयेलो छे. आनर्तनी मर्यादा--उत्तरे आबु, पश्चिमे काठियावाड, पूर्वे माळवा, दक्षिणे मही, खंभात, अने लगभग नर्मदाकांठा सुधीनो प्रदेश छे. सौराष्ट्र एटले ज काठियावाड अने लाट ते, के जेनुं मुख्य नगर भरूच छे. लाटनो विस्तार मही अने नर्मदाथी मांडी दक्षिणे नवसारी अने दमण सुधी. लाटर्नु मुख्य बंदर सोपारा. 'कच्छ ' अने 'सौवीर' ए बे विशाळ गुजरातना पाडोशी प्रदेशो छे. अहीं जे जे कृतिओना नमूना आप्या छे तेना करनारा, एक अपवाप सिवाय बधा तळ गुजरातना छे ए ध्यानमा रहे. आपणे जे समयमा रहिए छिए ते छे तो एक रीते सुवर्णयुग; परंतु गुजरात, महाराष्ट्र, अवध, बंगाळ अने उत्कल वगैरे आपणा भारतीय प्रांतोनी भाषा वर्तमानमां एकबीजाथी एटली भिन्न भासे छे के जेने Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६५३ लईने आपणा राष्ट्रीय संगठनमां मोटी नडतर आवे छे, अने ते स्थिति सोनानी थाळीमा मेख जेवी छे. २२३ आजथी पांचवें वर्ष पूर्वे के तेथी य वधारे पूर्वना समयमां . आपणा देशनी स्थिति आवी न हती. ते समये जे पांचसे वर्ष पूर्वे एक जेवी भाषा भाषा चालती ते लगभग प्रत्येक प्रांतवासीनी समअने झमां आवी जाय एवी एक जेवी हती अने आने ते संबंधे ___लईने आपणे ते समये भाषादृष्टिए एक प्रजा जेवा उदाहरणो हता, आ माटे बे-चार उदाहरणो पूरतां छे. समय मोडामां मोडो तेरमो सैकोवज्रयानसंप्रदाय-सरहपा सिद्ध, निवास–पूर्वभारत नालंदा. “घोरंधारे चंदमणि जिमि उज्जोअ करइ परम महासुह एकु खणे दुरिआ अशेष हरइ". " जइ नग्गा विअ होइ मुत्ति ता सुनह-सियालह लोमोप्पाटने अस्थि सिद्धि ता जुवइनितंबह". "पिच्छीगहणे दिट्ठ मोक्ख ता मोरह चमरह उब्धे भोअणे होइ जाण ता करिह तुरंगह ". आ भाषा, पूर्वभारतमां आवेला राजगृह-नालंदामां वसनार एक सरहपा नामना सिद्ध पुरुषनी छे. तेमां मार्मिक उपदेश छे. एनी ते तळपदी भाषा छे. आनी साथे हेमचंद्रना तथा सोमप्रभना आगळ जणावेला दोहानी भाषाने सरखावशो तो लेश पण फेर नहीं जणाय. क्यां पाटण अने क्यां नालंदा ? छतां आटलं बधु भाषासाम्य हतुं. कण्हपा, महीपा ___ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अने जयानंतपानां पण आवां ज पद्यो छे, परंतु विस्तारभयना कारणे तेने अहीं नथी आपतो. ___ २२४ ज्ञानेश्वर नामना समर्थ ग्रंथकार महाराष्ट्रमां थया छे. तेमनी गीतामां 'अवधारिजोजी' 'बोले' 'जरी' 'बोबडी' 'काष्ठं' 'पुत्रस्नेहें' 'व्याजें' (तृतीया ), 'पुसत' (पूछत ), 'हरिख' (हरख), 'कीजे', 'अपेक्षिजे' 'किजत' 'मज प्रती' 'नृपनाथु' 'विक्रांतु 'देख (जो)' 'मथिजे' 'उपजे' जाळिजे' तेणें सुखें' 'कारुण्ये ( तृतीया) 'कीजे' 'भोगिजे' 'अर्जुनु' 'किजसी' 'सांडिजे' (छांडिजे), 'वेढिजे' 'स्वीकारिजे-जेवा अनेक प्रयोगो गुजरातीने मळता आवे छे. ज्ञानेश्वरनो समय लगभग चौदमो सैको छे. एमनी गीतानी भाषा अने चौदमा शतकनी कोई एक गुजराती कृतिनी भाषा-ए बेनी विशेष झीणवटथी तुलना करवामां आवे तो मने लागे छे के ते बे वच्चे समानपणुं वधारे जाणी शकाय. २२५ 'ढोला मारूरा दुहा'नी भाषाने माध्यमिक राजस्थानी रूपे गणेली छे. तेनो समय तेरमा सैकाथी शरू थाय छ : " आडा डूंगर भुइँ घणी तियां मिळीजइ एम । मनिहूं खिणहि न मेल्हियइ चकवी दिणियर जेम ॥ ७२ ॥ ज्यू ए डूंगर संमुहा त्यूं जइ सजण हुंति । चंपावाडी भमर ज्यउँ नयण लगाइ रहति ॥ ७३ ॥ जिणि देसे सजण वसइ तिणि दिसि वजउ वाउ । उआं लगे मो लग्गसी ऊही लाख पसाउ ॥ ७४ ॥ कउआ ! दिऊं वधाइयां प्रीतम मेलइ मुझ । काढि कलेजउ आपणउ भोजन दिउंली तुज्झ ॥७५॥ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६५५ जब सोऊं तब जागवइ जब जागू तब जाइ । मारू ढोलउ संभरइ इणि परी रयण विहाइ ॥ ७६ ॥ आ भाषा पण आपणी तेरमा-चौदमा शतकनी गुजरातीनी जेवी छे. फेर घणो ज ओछो छे. __आ संबंधे विशेष जिज्ञासावाळा अभ्यासीए दोहाकोश (कलकत्ता संस्कृतसिरिझ), डाकार्णवतंत्र (कलकत्ता संस्कृतसिरिझ), ढोलामारूरा दूहा (काशी-नागरीप्रचारिणी सभा), ज्ञानेश्वरीगीता (राजवाडेनुं संपादन) वगेरे प्राचीन लोकभाषाना ग्रंथोनी भाषानुं गंभीरपणे अवलोकन करवू आवश्यक छे. २२६ आ बाबत नीचेनां अवतरणो वांचवाथी विशेष स्पष्ट थाय एम छे. ए अवतरणो नागरीप्रचारिणी पत्रिका ( काशी वर्ष ४६ अंक ३ नवीनसंस्करण कार्तिक १९९८ संग्रा० नाहटाजी) माथी लीधेलां छे. अवतरणो बधा गद्य छे अने चौदमी सदीनां छे. अवतरणोमां कशो फेरफार न करता तेमने यथामुद्रित अहीं ऊतारेलां छे. अवतरणोमां मुद्रणनी अशुद्धि जणाय छे खरी; परंतु मूळ आधार विना तेने वगर सुधार्ये ज चलावी लेवी पडी छे. चार अवतरणोमां बीजं, मालवानी भाषानुं द्योतक छे. त्रीजु पूर्व देशनी भाषानुं सूचक छे. चोधुं महाराष्ट्री वाणीनुं निदर्शक छे अने पहेला अवतरणनी भाषानुं विशेष नाम अवतरणमां कळातुं नथी तेम छतां ए पहेलं, सरखामणीनी दृष्टिए जोतां प्राचीन गुजरातीनुं जणाय छे. योजके आ चारे अवतरणो जुदा जुदा चार देशनी चार नायकाना मुखमां मूकेलां छ : (१) “ अहे बाई एहु तुम्हारा देसु कवण लेखा माहि गणियइ । किसउ देसु गुजरातु, सांभलि माहरी वात । एउ जु लाधउ माणुसओ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जमारओ, आलिमात्रि कांइ हारउ । ए जि सम्यक्त्वमूल बारह व्रत पालियहि xxx आशातना टालियहिं । पूजिय श्रीआदिनाथ देवता, पापु नासिइ शत्रुजय सेवता। ___ अनी किसउ घणउं भणियइ माहरी माइ, एहु देसु गुजराति छाडी करि अनइ अनेरइ देशि किसी परि मनु जाइ । जिणि देशि मादल तणा धोंकार, तिविल तणा दोंकार, वंश तणा पौंकार, नृत्य तणा समाचार, ताल तालकार, आवजी–पखावजी–पटावजी-खंधावजी-भूगलिया-करडिझलरि-पडह–समेतु पंच सबदु वाइयइ । गूजरी गीतु गाइयइ । लास्यु तांडवु नाचियइ । मृदंगु वाइयइ ।” (२)" जब मालवा देश की वावली बोलण लागी, तब अवर देश की परिभागी । दिक्खु रे मोरी बहिणी फुणि फुणि मोरा देसु काहउ वक्खाणहि । मोरा देश की बात न जाणहि । जिणि देशि मंडवगढ केरा ठाउ, जयसिंघ देव राउ । मसूर का थान, अवर देश का काहउ मान । काटा सूतु अरु तुट्टणा, कोरा साडा अरु भूणा । ठाली अरु वाजणी पेटिली अरु नाचणी, दिक्खु रे मोरी बहिणी। बलि बलि काहउ बिललाइ, तोरा बोल्या सहु वाइयइ । मालव देश की परिनीकी सिरि की टीकी । सेत चीर का साडा । पूजियइ आदिनाथ युगराज"। (३) “ अथ पूर्वी नायिका का बोल्या सुणहुगे रे भइया । इथु जुगी जाणिवउ धीरे, दिखु रे मोरी बहिनी फुनि फुनि मोर देसु कितबु खर ति आहि। मोरे देस की बात न जानसि, जेहि देस ऐसे मानुस कैसे—इक्कु धीरे वीरे विवेकिए। पर मदापके मोडन मराट मल्ल, तुम्ह कतुके जान, कतुके परान, ववा की आन। अम्हां तुम्हां बडा अंतरु आहि। कइसु अंतरु, तुम्ह के मानुस तरि मोटे, ऊपरि मोटे विचि छोटे। अत अम्ह के मानुस Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ६५७ तरि नान्हे ऊपरि नान्हे विचि पूनु कर सु साटविउ आहि । अइस दीसतु हइ जइसा पूनम का चांदु। अध कोदव के,चावर खाइयहि, गीतु गाइयइ । सुठि नीके वानिए वसहिं । कइसे वानिए ।" (४) " मरहठी तरि हा या जनमु आवागमणु कवणा गति न होइ रे बप्पा । तरि भविक जनत्तं पुच्छिसि भई अनिक देस देशांतर चातुर्दिशा मागु मया देखुणी। अपूर्व सर्ब तीर्थाचा भेटु गीत राचु गीतल्लास कट समस्त गूमटा । तरिया इकि नहीं सागिन पुरी सत्तरि सहस्र सहस्र गुजराताचा भीतरि गिरि सेतुजंचा ऊपरि । श्रीऋषभनाथाचा रंगमंडपि अनिक गीत ताल एकाग्र चित्तुं कारुणी। निजकरकमलाचा द्रव्य उपार्जनी । परमेसर वीतरागाचा भवनि वेचनी पुनरपि जनमुनिवारिणे अहं एवमेव सत्यं।" __ आ बाबत देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा अशोकनां शासनोने प्रधानतः लक्ष्यमा राखी · आर्यावर्तनी सर्व गम्य लोकभाषा' संबंधे एक निबंध लखवा जेवो छे. ए विशे अहीं विशेष लखतां विषयांतर थवाना भयने लीधे आटलेथी ज अटकुं छं; परंतु मारी खात्री थई छे के आपणे त्यां समग्र देश समझी शके एवी एक लोकभाषा जरूर हती अने वर्तमानमां पण छे; परंतु आपणु पारतंत्र्य, ए हकीकत कळवा देतुं नथी, एथी परिणामे आपणे बधा भारतवासी भाषादृष्टिए अभिन्न-एक-छतां परस्पर विरोधपोषक भिन्नताने अनुभवी रह्या छिए. आ रीते उक्त उदाहरणोथी एम स्पष्टपणे मालूम पडे छे के पूर्व भारत, दक्षिण अने आपणो गुजरात ए बधा वच्चे एक एवी लोकप्रतिनिधिक लोकभाषा–प्राचीन बोली-प्रवर्तती हती अने तेने ते दरेक देशनो समाज समझतो हतो त्यारे आ सुवर्णयुगमां आपणुं ए जातनुं भाषा ४२ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति समतानुं तत्त्व गमाइ गयुं छे अने आपणे बधा प्रांतवासी, एक भारतवासी छतां भाषादृष्टिए खंड खंड थइ गया छीए. २२७ जे वखते प्रांते प्रांतना लोको यात्रानिमित्ते, प्रवासनिमित्ते, व्यापारनिमित्ते निरंतर भेगा थता हता, गुजरातना वणजारानी पोठो नीचे ठेठ रामेश्वर सुधी अने ऊपर ठेठ काबुल सुधी जती हती; तथा पूर्वमा मणिनगर सुधी पहोंचती हती, तेम दक्षिणना, पूर्वना अने उत्तरना वणजारानी पोठो आखा देशने वृंदी वळती हती अने गामेगाम महिनाना महिना सुधी पडावो पडता हता. जे वखते भारतीय नीजामाओ भारतना प्रत्येक जळमार्गो द्वारा भारतमा बधां बंदरोमां पहोंची शकता हता, काशीविश्वनाथनो यात्री गंगाजळनी कावड खांधे उपाडी ठेठ रामेश्वरसुधीनो मार्ग पगे कापतो हतो, मोटा मोटा जैनसंघो पगपाळा पार्श्वनाथपहाड सुधीनी यात्रा करता हता अने सर्व संप्रदायना त्यागीओ पगे चाली चालीने गामेगाम भारतीय संस्कृतिनो घोष गजवता हता ते वखते आपणा आखा. देशमां लगभग एक जेवी बोली प्रर्वतती हती. __ वळी, आपणा मोटा पुरुषो पण लोकव्यापक भाषामा ज पोतानो व्यवहार चलावता हता, तेओ संस्कृतादिभाषाना प्रखर पंडितो हता छतां लोकव्यापक भाषा ऊपर तेमनो असाधारण अधिकार हतो, अने तेने लीधे ज भारतीय ग्रामजनता साथेनो तेमनो संसर्ग अखंड रह्यो हतो. २२८ ज्यारथी आ बधुं छिन्न-भिन्न थयु, प्रांतप्रांतनो व्यवहार तूटी गयो अने पंडित लोको संस्कृतप्रिय ज बनी बेठा, त्यारथी भाषानी एकता तूटी अने नगर तथा ग्राम बच्चे- एकतानुं सूत्र पण तुट्यु. मोटी मोटी राज्यक्रांतिओ, राजा अने प्रजामां धननुं सर्वोपरि प्राधान्य, राजाओनी धर्मांधता, प्रजामां स्वरक्षणना सामर्थ्यनो अभाव, पथ्यवाणीनुं पाणी सिंचनारा Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५९ उपसंहार धर्मगुरुओनो अभाव, ग्रामजनो तरफ नागरिकोनी उपेक्षा तथा सर्वधर्मसमभावनी भावनानी खामी अने जन्मजातिवादनी धर्मरूपता वगैरे अनेक कारणो आपणी भाषानी तथा आपणां नगर अने ग्रामनी एकतानां खंडक छे. अने आपणा भागलाना निमित्तरूप छे. आज सुधी पण ते परिस्थिति मटी नथी. तेम थवानां सर्व कारणो हवे तो तद्दन खुल्लां पडी गयां छे, वळी, अत्यारनो गमे ते प्रांतनो साक्षर, अध्यापक वा विद्यार्थी पोतानी बोलचालनी भाषामां पण कां तो संस्कृत शब्दो वधारे आणे छे अथवा अंग्रेजी शब्दो अधिक लावे छे, परंतु मातृभाषा अने एना तळपदा शब्दो तरफ लक्ष्य नथी करतो, आने ज परिणामे भाषामां भ्रष्टता वधे छे अने तेओनुं बोलेलुं वा लखेलुं साहित्य, गामडामां रही खेती करनारा, कोश हांकनारा के बीजा ग्रामवासी सुधी पहोंचतुं नथी. ते साक्षरो, अध्यापको अने विद्यार्थिओ तथा पेलो ग्रामवासी एक प्रांतना, एक ग्रामना होवा छतां एक बीजाने परदेशी जेवा लागे छे. आम थवाथी ग्राम अने नगर, साक्षर तथा निरक्षर ए बधा बच्चे भेदनी भीत, तिरस्कारनी रीत वगेरे अंतरायो ऊभा थया छे अने तेनुं परिणाम पण आपणे आकरामां आकरुं भोगवी रह्या छीए. २२९ अत्यारना गमे ते प्रांतना नागरिक अध्यापक वर्ग अने नागरिक छात्रवर्गने जोईशुं अने तेमनी साथे एक बे घडी मातृभाषानो , वार्तालापनो प्रसंग योजीशुं तो तेमनी पासे कोई . विशिष्ट अभ्यास - एक मातृभाषा जेवं विचार दर्शाववानुं वाहन छे के केम ? एवो प्रश्न थया विना नहीं रहे. ___ आ परिस्थिति मूळथी ज उच्छेदनीय छे. आपणा अध्यापको अने छात्रो पोतपोतानी मातृभाषाना अध्ययन तरफ अने तेना तळपदापणा तरफ गंभीरताथी जोशे, तळपदी भाषानुं सारं अध्ययन करशे अने मातृभाषाने Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति समझनारनी साथे मातृभाषाने ज बोलवानुं व्रत लेशे तो उक्त स्थिति आपोआप टळी जशे. गामडां अने नगरो संधाई जशे तथा सर्वसाधारण जनता अने शिक्षित जनता वचे जे कृत्रिम भेद ऊभो थयो छे ते आपोआप तूटी जशे. जे स्थान अत्यारे अंग्रेजीने आपेलुं छे ते स्थाने मातृभाषाने बेसाडीए अने अत्यारनुं मातृभाषानुं स्थान अंग्रेजीने आपीए तो बधुं सरळ रीते साधी शकाय एम छे. आ माटे आपणे पोते ज धारीए तो घणुं करी शकीए एम छीए. अत्यारनी आपणी भाषाविषयक दुःखद स्थिति थयाना कारणनो आरोप वधारेमां वधारे आपणा ऊपर ज छे. शुद्ध स्वदेशीनी प्रतिज्ञाने पाळनारो, कोईनो पण अनादर नहीं करीने शुद्ध अने अमिश्र एवी रूढ तळपदी स्वभाषामां ज बोलवानी अने लखवानी प्रतिज्ञा ल्ये तो आपोआप भाषानो उत्कर्ष थवानो ज. आ प्रयत्न आपणे नहीं करीए तो बीजु कोण करशे ? भाषानी समृद्धि वधारवा माटे जे अत्यारे अनेक संस्थाओ विद्यमान छे तेमणे मातृभाषाना प्रकर्ष माटे प्रबळतम प्रयत्न सेववो जोईए. भाषाना प्राचीन साहित्यनां सुंदरमा सुंदर संपादन संशोधन अद्यतनरीते करवां-कराववां जोईए. भाषाना प्राचीन साहित्यना उपासकोने उत्साहित करवा जोईए अने प्राकृत तथा प्राचीन गुजरातीना खंतीला अभ्यासीओ वधे ते माटे उदारता पण दाखववी जोईए. भाषामां व्युत्पत्तिशास्त्र, ध्वनिशास्त्र, जोडणीना सिद्धांतो विशे अनेकानेक पुस्तको तैयार कराववां जोईए. गुजराती भाषानुं सर्वांगीण व्याकरण, प्रामाणिक शब्दकोश, प्रामाणिक व्युपत्तिकोश, प्रामाणिक पिंगळ वगेरे भाषानां पोषक अंगोनी खामी हवे क्या सुधी रहेशे ? अत्यारे तो आपणी मातृभाषा गुजरातीना व्याकरणमां पण अंग्रेजीनी छाया पथरायेली छे ए शुं आपणे माटे लज्जास्पद नथी ? संस्कृत के अंग्रेजी भाषाने आपणा बुद्धिपोषण माटे भले उपयोगमा लईए परंतु ते द्वारा आपणी Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार तळपदी मातृभाषानुं शोषण न थाय ए ध्यानमा रहेQ जोईए. ज्यां सुधी मातृभाषानुं तळपदुं दूध आपणे न पीईए त्यां सुधी मातृभाषाना उदयनो सूर्य ऊगवो कठण छे. __ जेवो पूर्वे हतो एवो समय फरी आवे एटले आपणा बधानी एक भाषा बने अने ग्राम तथा नगर वच्चे तथा साक्षर अने निरक्षर वच्चैनो भाषानो अंतराय तूटी जाय-एवी परमात्मा प्रति मारी नम्र प्रार्थना छे अने 'गुजराती भाषानी उत्क्रांति' नां भाषणोनी समाप्ति करतां मने लागे छे के ए प्रार्थना विशेष उचित ज छे. Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :'छे' क्रियापदनो वृत्तांत आपतां आगळ जणावी गयो र्छ के 'अस्' ना अंत्य 'स' नो 'छ' थवाथी 'अछइ' रूप 'छे' नी विशेष 4 थाय अने तेमांथी 'छे' पद नीपजे. हेमचंद्र ‘अस्' चर्चा " - ‘अत्थि' रूप ज आपे छे एटले 'अस्' ना 'सू' नो 'छ' कल्पवो के केम ए एक प्रश्न छे. 'अत्थि' ने बदले एक स्थळे 'अत्थई' रूप वपरायेलुं छे. मलधारी राजशेखरसूरिए रचेला 'नेमिनाथफागु' मां “राइमए-सम तिहु भुवणि अवर न अत्थइ नारे । मोहणविल्लि नवलडीय उप्पनीय संसारे ॥७॥" ( अर्थात्-~-त्रण भुवनमां राजिमती जेवी बीजी कोई नारी नथी. ए, संसारमा नवल एवी मोहन वेल ऊपजेली छे.) ए गाथामां 'छे ना अर्थमां 'अस्थइ' क्रियापद वपरायेलं छे. मारी समझ प्रमाणे ए मुद्रणदोष पण नथी. ज्ञानेश्वरीगीतामां अनेक स्थळे 'छे ना अर्थमां ज 'आथी' के 'आथि' रूप वपरायेलुं छे. चालु मराठी- 'आहे' रूप 'अस्' ना 'स्' नो 'ह' थईने नथी आव्यु परंतु 'आथी' ना 'थ' नो 'ह' थईने आव्युं छे अने 'आहे' लाववानो ए क्रम मने विशेष उचित जणाय छे. ते ज प्रमाणे 'अस्' ना 'स्' नो 'छ' न करतां ‘असू' ना उक्त 'अत्यइ' ऊपरथी 'स्थ' नो 'च्छे थई 'अच्छई' अने तेमांथी अछइ-छह-छे एम 'छे नी व्युत्पत्ति करीए तो सरळ क्रम लागे छे. तवर्गनो चर्ग थवानुं सुप्रतीत छे अने प्राकृतमा 'थ' नो 'छ' परिणाम सूत्रसिद्ध छे. मिथ्या-मिच्छा, तथ्य–तच्छ, पथ्य-पच्छ, सामर्थ्य-सामच्छ. (८-२-२१-२२ हैम०) Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषशब्दोनी सूचि अकबर-५५३ अप्राप्यकारी-३ अघेडा--९ अफगानीस्तान-१५१ अघोष-५, ७ अभयदेवसूरि-११३, २१९, २२५, अच्छइ--२७२,६६३ २४७, २८६,२९८,३०१,३४९, अट्ठकथा-१०६ ६३५, ६४१ अणहिलपुर-३१५ अभयदेवप्रबंध-२१९ अतर्-४० अभिधानचिंतामणि-जुवो हेमचंद्र अतिविवृततम-७ अभिनवगुप्त-१६० अतिविवृततर-७ अभ्यंकरशास्त्री वासुदेव-१२, २६ अद्दहमाण (अब्दुल रहेमान )-१४४ अमरकोश-४३, ८७, ८९, ९०, १३८, ४३८, ४४७ १३९, १४०, १४३, १९४, २५० अनाडी-१९६ अमरेली (नो शिलालेख)-५५३, अनार्य (शब्द)-२७ ५५४, ६४७ अनार्य (भाषा)-२८ अमूर्तकोटिनु-१० अनार्यजनसंपर्क-२२ अयोध्या-४२ अनुदात्त-६, ७ अर्दाग्वीरा (लक्ष्मीधर बेरामकृत)-४६१, अनुप्रदान-५ ४७७ अनुयोगद्वारसूत्र-१०५ अर्धमागधी-१०३,-भाषाचर्चा १०७ थी अनुस्वान-५ १२.. अनेकान्तजयपताका-२२१ अर्बुद-१११ अनेरा-४०९ अर्वाचीन सिंधी-१५३ अपभ्रंश-१, ८२, ५०, १०३-भाषाचर्चा १५४ थी १७८ अल्पप्राण-७ अपभ्रष्ट-१५७ अल्पप्राणता-५ अपशब्दो-५० अवध-६५२ अपरादृश-१९३ (अवराइस) | अवहट्ट-१७४ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति अवेस्ता-२५३ आर्यो-२६, ३४, नुं गृहिणीपद-३५ अवेस्ताग्रंथो-१५३ आर्यावर्ताः ६५० अवेस्तावाणी-४७६, ४७७ आर्यभाषा-२८ अशोकनी धर्मलिपिओ-२९, १०६, आर्षम्-१०८ १४८, ६३४, ६५७ आर्षप्राकृत-१०३, १०७ -नी भाषा १०३ आवरोजावरो-१९७ 'अस्-७८ आवश्यकचूर्णि-१७१, १७२ असाइत-४५४, ४५७, ४६३, ४७८ आवश्यकसूत्र-१०, ४७९,४८०, ४९१, ६५४ आवेस्तिक-३२-उच्चारण-१९ 'अंगउपांग ग्रंथो-२९, ११५ आव्यो-२९३, अंग्रेजी-१०२, १०३,६६० आसामी-१०२ अंग्रेजो-३५ आस्यप्रयत्न-५, ६, १५ अंतःपुर-१४ आळवकसुत्त-१०७ अंधकार-३ आंगमे-३२९ अन्तल ( अन्ध्र)-४२ आंबानु-९ इन्द्रादि ऋषिओ-४७ ईश्वर-३ आकाश-९ आचारांग-२९, ११५, १४८ आणा-६५१ . आत्मा-३ आदिम जातिओना शब्दो-४३ आदेश-८० आनर्त-६५१ आनंदपुर-४१ 'आनंदाश्रम-१६ आपिशलि-४ आप्टे-६४९ आप्यु-३१६ आबु-६५२ उकनाह (अश्वविशेष)-४५ उक्षन्-७८ उच्चारण-नी अराजकता ३२ -ना दोषो २१, ३२ -ना भेद २६, ३३ उज्जयिनी ( उशेयेन) ४२ उठुबईस-१९७ उडिया-११० उणादि-जुओ हेमचंद्र ___ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषशब्दोनी सूचि ६६७ उत्कल ६५२ ऐन्द्रव्याकरण-४८ उत्तराध्ययनसूत्र ११७, ११८, ११९, २७७, २७८- चूर्णि-११९,- ओछो-४२४ टीका-११९ ओझा हीराचंद गौरीशंकर-१४८ उत्ताणु-४२६ ओनंतोपुलो (आनंदपुर)-४१ उदयसिंह मुनि (रत्नसिंह सूरिना ओमराओ-६४१ शिष्य)-२६६ ओयुतो (अयोध्या )--४२ उदायन (उतोयेन-राजानुं नाम)-४२ ओहाणबंध-६४५ उद्योतनसूरि (अथवा दाक्षिण्यचिह्न) ऑन युआन च्चांग (वॉटर्स)-४१ १६३, १७२, १८३ औपपातिकसूत्र-१०८,११३ उपदेशरसायन-३३८ उपरि-४१० कच्चायण) ५१, ८१, १०७, ११४, उराह (अश्वविशेष)-४५ कच्चायन । १४६ उर्दूहिंदीकोश-१८६ कचोळं-४२१ उवएसमालकहाणय छप्पय-२४८ कच्छ-४२-ना रणनो प्रदेश-६५१ उववाइअसूत्र-१०८,११३ कच्छी-१०२ उवासगदसाओ-४२७ कडवा-३४४ कण्हपा सिद्ध-६५३ ऊखल-४२९ कणादमुनि-१० ऊतावली-४१७ कणेरनु-९ ऊबाहुली-४१७ कदंबर्नु-९ कदंबगोलकन्याय-१० कनकामर-१७४ ऋक्संहिता-५९, ६२, ६३, ६४, ७० कने-४२३ ऋग्वेद-५३, ५५,५९,६५,७०,७१, कपडवंज-२२० ७२, ७३, ७४,८६, ८९, २३९ कपिलमुनि-९ ऋषभदेवस्तवन (फारसी भाषामां)-४५ कबीर-१५६ ऋषिभाषित-११७ करवानु-२९६ करी-करीने-२८९ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति क्रियाकलाप-२९३, ३२५ क्रियारत्नसमुच्चय-३०५, ४५१, ४८२, कर्पूरमंजरी-१०१, १२३, १५७ करंजकर्नु (कणजीतुं)-९ कवण-२९८ कवळी-४२५ कंबोज-२७ काठियावाड-१७८, ६५२ कात्यायन श्रौतसूत्र-५७ कादंबरी-१४२ कान्हडदे प्रबंध-२५० काबुल-६५८ कामगरो-१९० कालककथा-४४ कालिदास-८९, १४२ काले एम. आर.-१०० काव्यमीमांसा-१६३, १७५ काव्यादर्श-१२३, १६१, १६३ काव्यालंकारसूत्र-८१, १४२ काशी-१५७-विश्वनाथ-६५८ काश्मीर-४२ काश्मीरी-१०२ किअशिमिलो (काश्मीर )-४२ किओसलो (कोशल)-४२। किओशम्मी ( कौशाम्बी)-४२ किऔचेये (कौशेय-रेशमीवस्त्र)-४३ किस-३०३ कियुचेलो-४१,६५० कीच (कच्छ)-४२ कीg-१९० कींतोलो-( गान्धार )४२ क्रियाह (अश्वविशेष)-४५ कुमारपाल-२२२, ३१४ कुमारपालचरित-१८०, १८२ कुमारपालप्रतिबोध-२२३,३१४,३१५, ३२०, ६३६ कुमारसंभव-८९ कुमारिल-१५६, १५७, ६३३ -तंत्रवार्तिककार-३६, ४१ कुलमंडनसूरि-४५१, ४५२, ४६७, ४६९, ४८२, ४९१, ६४५ कुलाह (अश्वविशेष)-४५ कुवडिय-४२२ कुवलयमाला-१६३, १७१, १७२, १८३, १८५ कुशावर्त-६५०, ६५१ कुसट्ठा-६५१ कूडो-४२७ केम--१९८ केशवदास-१८५ कोणिक-६४२ कोशल-४२ कोसंबीजी धर्मानंद-१०७ कौशाम्बी-४२ कौशेय-४३ कंबोज-२७ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खतमधु - ४५ खरतरगच्छ - २१९ खाखरानुं - ९ खारवेल - १०३, ११५, ११६ -नी धर्मलिपिनी भाषा - ६३४ खिदमत - ४५ खुङ्गाह - खोङ्गाह (अश्वविशेष ) विशेषशब्दोनी सूचि खंभ - ४२२ खंभात - ४३ खेरनुं - ९ खोरदेह अवस्ता - २५३, २५४, २७८, ३०३, ३३९, ४११ गज्जर- ६५२ गतिशील - ११ गद्य कादंबरी - ५५३, ६४७ गभारो - २४९, २५० गउडवो - ८३, ८४, १२१,१२२,१२७ गच्छाचारपयन्ना- ११७ गमार-४१३ गहिल्ली - ४१४ गाथासप्तशती - १२७ गायकवाड प्राचीन ग्रंथमाला - ४५१ गालिमसूरा - ४२२ गिरनारनो रास - ६४३ गिरिदंतजातक - १०७ गुज़र ( फारसी ) - ६५१ गुजरात - १५७, ६४७ गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १६३ | गुज्जराणट्ठा- ६५१ | गुणरत्नसूरि- ३०५, ४५१, ४८२, ४८७, ४४ ४८८, ४८९, ४९०, ४९१, ६४५ | गुजराती भाषा अने साहित्य - २७५ गुजराती भाषानुं बृहद्व्याकरण ( क० प्रा० त्रिवेदी ) - २५० | गुज्जरत्ता- ६४७ गुणाढ्य - १५२ गुणे-१६२ गुरुतत्त्वविनिश्चय- १२० | गुर्जर - ४१, १८३ गुर्जरत्रा - ६४७ गुर्जर देश- ६४७ गुर्जरधरा - ६४७ गुर्जरमंडल - ६४७ गुर्जरराष्ट्र - ६५० गुर्जरावर्त - ६५० गुर्जरेंद्रपुर- ३१५ गूर्जर - ६४७ गूर्जरात्ता- ६४९ गौतममुनि - १० गौ: -५० | गंगायमुना - ३४ गांधार-४२ ७ घोष - ५, घाघरिं-४२३ ६६९ चडउत्तर-४०५ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति चतुराई-६८ | जिनदत्तसूरि-३३८ चतुर्मुख-१७४ जिनदास महत्तर ११२, ११३, १७२. चर्मण्वती नदी-१११ जिनदेव-४४ जिनदेवी-२२१ चीम्-३०३ जिनपद्मसूरि-३९६, ४०३ चूक-४१५ जिनप्रभसूरि-४५ चूर्णिओ-११८ जिनविजयजी-४४०, ४४८, ४४९ चूलिकापैशाची-१०३, १५०, १५१ जिह्वा-(नुं मूल) ५ चेतन-१० जिह्वामूलीय-६, ७, १८ चेलंतोलो-(जालंधर) ४२ जीतकल्प-४२२ जीन-४४ चोर्-३९ जुअंजुअ-१९५ च्यम्-३०३ जुदाजुदा-१९५ चंड-५१, १२४, १२५, १४५, १४७ जूनी गुजराती भाषा (चतुरभाई पटेल)१५०, १५२, १६२ २४८ चंपा-( चेंपो) ४२ जेम-१९८ जैन-२,-विचारको-३ छाया-३ जैन गुर्जर कविओ (श्री मोहनलाल देसाई) छेदसूत्रो-११६ छंदोनुशासन-२२२, ६४१ जैनदृष्टि-१० छांडq-३२६ जैनसाहित्यसंशोधक-४५ जैमिनि-२७, ४१, ६३३ जगडो-३१९ जैसा-१९२ जड-१० जोइंदु-१७४ जयण-जयन-४४ जोडंती-४१८ जयवल्लभ-४१३ जोQ-३७९ जयसिंह (सिद्धराज)-२२१, २२२ जंबूकुमार ) जयानंतपा सिद्ध-६५३ जर्मन-१०२ जंबूचरित-२२३ जातककथा-१०३ जंबूसामिचरिय (प्राचीन गुर्जर काव्यजानवर-जानूउरु-४५ संग्रह)-३७९ जबूस्वामी । ६४२ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषशब्दोनी सूचि ६७१ जंबूस्वामीरास-३१५, ६०३ तावडि-२५०, २५१ ज्ञानेश्वर-१५६, ६५४ तिलकमंजरी-१७४ ज्ञानेश्वरी गीता-६५५, ६६२ तुकाराम-१५६ तुर्क-४३ झबक-४०६ तुरुष्क-तुरुक-४३ झिज्जइ-४०६ तुलसीदास-१५६ झरवू-४०७ तेलगु-१०२ तैत्तिरीय आरण्यक-६० टेन-७८ तैत्तिरीय ब्राह्मण-६१ टेसीटोरी-२७६, ३२० तैत्तिरीय संहिता-५४, ५५ टोg-४१२ तैसा-१९० ट्री-७८ तोगाभाई गीगाभाई-४४५ त्रपुस (तरबूज)-४३ डाकार्णवतंत्र-६५५ त्रि-७८ त्रिफळां-९ ढोलामारूरा दूहा-६५४, ६५५ त्रिभुवन-१७४ ढोल्ला-२०५ त्रियूह (अश्वविशेष )-४५ ढांकQ-३२२ थरपारकर-६५१ तइम-१९८ थवक-४२१ तचशिलो (तक्षशिला )-४२ थापण-४२१ तण-३२३ थापणिमोसु-४२७ तन्त्रवार्तिक-१६, ७०, १५६ थंभणपार्श्वनाथ-२१९ तम्मोलिति (ताम्रलिप्ति)-४२ थांभणा-२२० तरबूज-४३ थ्री-७८ तरुणप्रभ-४५४, ४५८, ४७६, ४९१ तरु-७८ दमण-६५२ तळ गुजरातना-६५२ दलाल चीमनलालभाई-४०४, ४७९, ताडेइ-४२१ तामील-१०२ | दशन्-७८ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति दंडी-१६१,१६३ धामी-३११ दिवेटिया नरसिंहरावभाई-२७५,२७६, धीय-४१४ २८०, २८१, ३२०, ६५० धीरिम-४१९ दीणार-३१९ ध्रुव आनंदशंकर भाई-६५२ दीस-४१५ ध्रुव केशवलाल भाई-१६१,१६२,६४९ दृषद्वती-३४ ध्वन्यमान (शब्द)-१२ देखाडQ-४०९ देववर्धन (विद्यागुरु)-२६६ नडq-४१३ देवसूरि-२२५,२८६,३०२,६४१ नत्थी-४०७ देश्य-१२९,-प्राकृतनो परिचय १२९ थी नदीया शांति-१५७ १४४ नमिसाधु-८१ देश्य प्राकृत अने तेनां शब्दोनां मूळ नरवो-२४९ १२९, १३७ देशी-१२९ नरसिंह महेता-१५६, ५३७, ५३९, दोयलं-४१६ ५४८, ५५०, ६४५ दोहाकोश-६५५ नर्मदा, ६५२-कांठा-६५२ द्रविड-३९ नवन् (नाइन् )-७८ द्रव्यार्थिकनय-१० नवसारी-६५२ द्रव्यगुणपर्यायनो रास-६०३ नंदराजा-६४२ द्वारिका-६५० नंदीचूर्णि-११८, १७२ द्विवेदीस्मारक ग्रंथ-४१९ नाकर कवि-१८५, ६४७ -नुं आरण्यकपर्व-६४७ धनपाल (तिलकमंजरीनो कर्ता)-१७४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ३३१, ६५५ धनपाल बीजो (भविसयत्तकहानो नात्रां-३२८ कर्ता)-१७४ नाट्यशास्त्र-१११, १६०, १६१ धनंजयनाममाला-१३३ नाद-७ धरसेन राजा-१६३ नायाधम्मकहा-११३ धर्मघोषसूरि-१८६ नारदीयशिक्षा-९ धर्मसूरि (महेन्द्रसूरिना शिष्य)-२१९, नालीक-१९६ २२३, ३०७, ३१४, ३१५, ६३६ । नालंदा (पूर्व भारत)-६५३ ___ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषशब्दोनी सूचि ६७३ नाहटाजी-६५५ परोणो (आरवाळी लाकडी)-२४९,२५० निदानकथा-१०७ पर्यायार्थिकनय-११ निरनुनासिक-७, २२, २३ पलांठी-२४९ निरुक्त ५७, ५८, ५९, ६०, ६१, ६६, पल्ली-१०४ ७४, ८६, ८७, १४३, २९१, ३४४ पहिरेइ-४२० निरुक्तनी वृत्ति (दुर्गाचार्य)-२६ पहेलवहेलु-२४८ नियुक्ति-११८ पहेला-३४३ नीभाडा-५५२, ५५७ पहेलु-१९४ नीलक (अश्वविशेष)-४५ पहोंचवु-२८० पाइअलच्छीनाममाला-१३३, ४२१, नेपोलो ४२२, ४२५ पाइअसहमहण्णव-१०५, १७३, २९३, नेमिनाथ-६४३ नेमिनाथ चतुष्पदिका-३९१ पाखर-३२१ नेमिनाथफागु-६६१ पाटण-२२०,२२३, ६५३-ना भंडारोनुं न्यायदर्शन-१० सूचिपत्र-१८७, ४५१ न्यायसूत्र-१० पाडोसि ) नेपाल ४२ नेम-३८ पाडोशी -४२९ पइ-२३५ पउमचरिय-४२१ पतंजलि-१२ पद्मनाभ-५३७, ५४१, ५५१ पद्यरचनानी ऐतिहासिक आलोचना-१६२ पनवणासूत्र-१४४, १४६ पयय-८४ पयन्नाओ-११७ परमाणु-७, १० पराजित प्रजा-३५ परिणाम-१० पाणिनि-२, २०, २२, २३, २४, ९९, १०८, २५५, २८९, ४११, ६३३-नुं व्याकरण २३, ९६, ९९, -काशिका ७४, २८२-नुं दर्शन २१, -नो धातुसंग्रह १४, ३२५, ४८९-ना टीकाकार ४८९-नो शब्दसंग्रह ३३,-नी वैदिकप्रक्रिया ५१,५२, ५३,५४, ५५,५६, ५७, ५८,५९, ६०, ६१, ६३, ६४, ६५, ६६, ६७, ६८, ६९, ७०, ७१, ७२, ७४-नी 'शिक्षाओ'२० Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पाप-४० पोरवाड-२२१ पायय-८४ | पोलुकीचेपो ( भृगुकच्छ )-४२ पारसी-२, ६४७ पोलोनिस्से (वाराणसी)-४२ पारसीक ) म पोलोयेकिअ (प्रयाग)-४२ पारसीय पंगुल (अश्वविशेष)-४५ पार्श्वनाथ (भगवान )६४१-पहाड ६५८ पंचनद-३४ पालिप्रकाश ६६, ३३९-नो प्रवेशक पंचस्कंधात्मक-१२ १०१, ११४, १७० पंचाशक-२४७ पालिभाषा-८१, १०३, १०४-नो पंजाब-१५१ परिचय १०४,-नी व्युत्पत्ति (टिप्पण) पंजाबी-१०२ १०४ पंडित ( सौ. अजवाळी)-४४५ पालिव्याकरण-५१, ११४, १४५ पांगरवू-४१४ पिक-२७, ३८ प्रकृति-९ पिटकग्रंथो-१०६ प्रज्ञापनासूत्र-११ पियाल ) प्रतिमानाटक-१०० प्रबंधचिंतामणि-१७६ पिशाच-१५१ प्रभव-६४२ पुण्यविजयजी-४२५ प्रभावकचरित-२२१ पुद्गल-१० प्रभावकचरित्र-२१९ पुरातत्त्व (त्रैमासिक)-४३० प्रयाग-४२ पुश्तो (भाषा)-१५३ प्रवचनसार-१४५ पुष्पदंत-१७४ प्रश्नव्याकरण-४२४ पूर्णचंद्र-२२१ प्राकृत (प्राक् + कृत)-८२ पूर्वदेशनी भाषा-६५५ प्राकृतप्रकाश (वररुचि)-१४५, १५२ पृथ्वीचंदचरित्र-४२१ प्राकृत मनुष्य-४६ पृथ्वीराजरासो-१७७ प्राकृतरूपावतार (सिंहराज)-१४५, १४७ पैशाची-८२, १०३, १११,-भाषानो प्राकृतलक्षण (चंडनुं )-१२५, १२६, परिचय-१५०, १५१, १५२ पोत-७८ प्राकृतसर्वस्व (मार्कंडेयर्नु)-१४५, १५२ प्रियाल -८९ ___ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषशब्दोनी सूचि ६७५ प्राचीन गुजराती-६५५ बीलानु-९ प्राचीन गुर्जरकाव्यसंग्रह-४०४ । बुद्ध भगवान-१०२, १५६ प्राचीन जैनलेखसंग्रह-३१५ बुद्धिप्रकाश-१२९, १३७ प्राच्यमध्यदेश-२६ बुद्धिस्ट रेकार्ड ओफ धि वेस्टर्न वर्ल्ड--४१ प्राच्यमध्यबाजु-२७ बृहत्कथा-१५२ प्राप्यकारी-३ बेसारवू-३२७ प्रांजपे (शिवराम महादेव )-१०० बोधिचर्यावतार-१६८ प्रेमानंद-२,६०३, ६०४, ६०५, ६०६, बॉय-७८ ६०७, ६४७ बोरीयावडी-४२० प्रेमानंदनी नळकथा-६४७ बौद्धदर्शन-१२ प्लुत-२० बौद्ध (परंपरा)-१२ बौद्ध (विचारको)-३ फरवू-४१९ बंग-बंगाळ-६५२ फलिपि( वलभि)-४१ बंगाळी-१०३ फाग-४१७ ब्रह्मावर्ताः-६५० फाडेइ-४२१ ब्राह्मण-६४७ फारस-४३ बाच-४३ फारसी-१०२, ४४३ फीशेली (वैशाली)-४२ भगवती सूत्र-१०८, २७३, २७४ भगवान महावीर-१५६, ६४२ बरोडा-४३ भडिवाउ-३२८ बालरामायण-८३ भद्रेश्वर सूरि-२२१ बालशिक्षा (संग्रामसिंह)-४३०, ४५०, भरत मुनि-१११, १६०, १६१, ६३४ ६४४, ६४५ भर्तृहरि-१२ बालावतार (पालिव्याकरण )-१०७ भरूच-४३, २२१, ६५२ बाह्यप्रयत्न-५, ७, १५ भविसयत्तकहा-१६२ बिहारी-१०२ भागु ) . बी-७८ बीम्स-२७६, २७७ भाटपाडा-१५७ भागुने १-२९० Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भानुचंद्र - ५५३ भालण- १८५ भाषा - आर्योनी - ३५, सर्वजन - साधारणनी - ४९, स्वरूप - ३, - परिवर्तन - ३०, भेदनां निमित्तो - ३, १४, २८ भाष्यकार (शबरमुनि ) - २७ भाष्यकार ( सायण ) - ८९ भांडारकर - २८१ भीमकवि - ४५४, ४५७, ४६४, ४७८, ४७९, ४८०, ४९१, ६४४ भीम बीजो-५३७, ५४४, ५४८, ५४९, ५५० भींजवु - ४०८ भू-७८ भृगुकच्छ-४२ भोज - १४३, १६३ भोजपुरी - १०२ भौतिकस्वरूप - १२ (माकीटो) } -४२, १४६ मगही - १०२ मज्झिमनिकाय - २९ मडप्फर- ४२० मणिनगर - ६५८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति मथुरा ( मोतुलो) मथुरा मुत्रा } -४३, १४४, १५३ - ४३ मदुआ ( मद्दाहृत ) मधुसूदन कवि - १८५ मधुसूदन मोदी - ४४० मन्भीसडी - १९६ मराठी - १०२, १०३ मलियउ - ४२३ महाप्रयत्न - ११ महाप्राणता-५ महाभाष्य - १२, १६, २१, २६, २८, ४३, ५०, १५९ }-२२१ महाराष्ट्र (मोहोलच ) }-४२, महाराष्ट्र प्राकृत १२४ महाराष्ट्री - १२३, ६५५ महारूपसिद्धि पालिव्याकरण- १०७ महावीर - १०२, १५६ - चरिय - ११९ मही- ६५२ महीपा सिद्ध - ६५३ -४२, १२३, ६५२ महेश्वर- १५९ मळ्याळ - १०२ मंत्री शकटाल - ६४२ मंद प्रयत्न- ११ मागधी - ८२, १५८ - भाषानो १०३, परिचय १४६ थी १५० माणवु - ४२२ मात्रा - ४२४ माध्यमिक राजस्थानी - ६५४ मापि - ४३० मारवाडी - १०२ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहमाणु -४५ विशेषशब्दोनी सूचि ६७७ मार्कंडेय-१४६, १५२, १७५ रखे-४८९ माल्-४० रघुवंश-८९, ९५, ४८१ मालवा रडवानो (ध्वनि)-१३ (मोलपो) १-४१, ६५२ रत्नप्रभसूरि-२२१ मालवानी भाषा-६५५ रत्नावली-१०० मालवी-१०२ रत्नेश्वर-६०३, ६०४, ६०५, ६०६, मांडण कवि-५३७,५४५, ५४८,५४९ ६०७, ६४७ ५५०, ६४५ ___ -नुं भागवत-६४७ मांडणनी वीशीओ-६४५ रहमान । मीमांसादर्शन-१५, २७ मुग्धावबोध औक्तिक-४५१, ४५२, रहियउ-४१७ ६४४ रळी-३४५ मुनिचंद्रसूरि-२२०, २२१ | राजगृह-१४६, १५३, ६५३ मुसलमान-२, ६४७ राजशेखर कवि-८३, १०२, १५७, मूर्तकोटिनु-१० १६३, १७५ मूळभूत-व्यापक प्राकृत-२८, २९ राजशेखर मलधारी (जैन)-६६१ ।। मूळसूत्रो-११६ राजा नैषधनी कथा (प्रेमानंदनी कृति)मेघाणी झवेरचंद भाई-२९० मेल्हावीउ-३२७ मेवाडी-१०२ म्लेच्छ-२७-थई जवानी धमकी-२८. राडमड १-४२ -भाषा-३६, -परंपरा-३८ राडिभेडि मोरंति-३१८ | रामचंद्र-२२१ रामानुजस्वामी-परवस्तु वेंकट-१३१ यजुर्वेद-६० रामायण (तुलसीकृत)-१७७ यशोविजयजी-२, १२०, ६०३, ६०८, रामेश्वर-६५८ ६३६,६४७/ रायपसेणिय-११५, १३१, ४२५ याज्ञवल्क्य शिक्षा-९ रावणवहो-१२७ यास्क-२२, २६, १४३, ६३३ रिश्वत्-रुश्वत्-४४ | रुद्रट-८१, १०२, १५३ राजिमती-६४३ राजुल -६४३ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति रूडं-३२९ | वज्जर-४०६ रूपकपरिभाषा-१५, १०५, १५१ वज्जालग्ग-४१३ रूपस्कंध-१२ वज्र जेवी-११ रेवंतगिरिरास-२२३, ३१५, ३८४ । वज्रयानसंप्रदाय-६५२ रेसिं, रेसिम्मि-२४७ वडे-३३३ वडोदरा-४३ लक्ष्मणगणि-३३४ वढ-१९६ लक्ष्मीचंद्र ( देवेंद्रना शिष्य)-४४२ ।। वढवाड-४२७ लक्ष्मीधर-१०५, १२६, १४५, १५०, वररुचि-१४५, १४६, १४९, १५२, १५१, १५२ १५३, ६४२ लक्ष्मीधर बेराम (पारसी लेखक)-४५४, वरिसाल-४१७ ४५५, ४६१, ४७६, ४९१ वर्गणाओ-१० लक्ष्मीरत्न-६०३, ६०४, ६०५, ६०६, वलभी (हालतुं वळा गाम )-४१ वसुदेवहिंडी-११९, १७१, १७२, -नो खेमाहडालियानो रास-६४७ ६५०, ६५१ ललितविस्तर महापुराण-१६५, १६८, वस्तुपाल-२२३ १६९, १७०, १७३, १७६, ६३४ वहेलो-४१७ लवण-९ वंदणह-३२३ लंकावतारसूत्र-१६५, १६८, १७० वाक्पतिराज-८३, १०२, १५७ लाट-६५२ वाक्यपदीय-१२ लावण्यसमय-५३७, ५३८, ५५१, वाक्यप्रकाश-२६६, २६८ वाग्भट-१६४ लीटी-१८९ वाजसनेयीसंहिता-५५, ५८, ६१, ६४ लेटिन-१०२ वाडो-४१० लेवू-४८९ वातरूष-४४ लेंको-४१८ वादिदेवसूरि-२१९, २२०, २२१, लौकिकसंस्कृत-४८, ४९, ५०, ५१, ३५२, ६३५, ६४७ ५८, ५९, ६०, ६६, ६७, ६८, ७०, ७१, ७२, ७४, ७५, ७७. वामन-१४२ ७८ । वाराणसी-४२ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषशब्दोनी सूचि वाल्मीकि-२ ५३, ५४, ५५, ५६, ५७, ५८, विकृत शब्ददेह-४७ ५९, ६० थी ६८, ७१, ७२, ७३ विजयसेनसूरि-२१९, २२३, ३११, ___-ग्रामर (मेक्डोनल)-६९ ३१४ वैर-४० विद्यापीठप्रकाशित-१८३ वैशाली-४२ विधुशेखर शास्त्री-१०१, १७०, ४१९ वैशेषिक-१०-दर्शन १० विनयचंद्र-३९१, ४०३ -प्रशस्तपादभाष्य-१० विराइउं-४२९ वैश्य-६४७ विवार-५, ७ वोरुखान (अश्वविशेष)-४५ विवृत-७ वोल्लाह ( , )-४५ विवृततर-७ वोसिरावउ-४३० विवृतता-५ व्यवहारसूत्र-११६ विष्णुदास-५३७, ५५३, ५५५, ६४७ व्याख्याप्रज्ञप्ति-२२० -नुं महाभारत ६४७ व्यंजनो (अव्यवहित)-१८ वीचितरंगन्याय-१० व्यंजनो (संयुक्त)-१९ वीरनाग-२२१ वृंदावन-१५३ वेकबुं-४३० शतद्रु (शेतोतुल)-४२ ... वेचवू-४३० शतपथब्राह्मण-५५, ५७, ६२ वेणीसंहार-१०१ शबरमुनि-२७, ४१ वेद-९५ शब्द-४, १३, -स्वरूप-३-तन्मात्रावेदोनी ऋचाओ-२९, नी भाषा-२९, ओ-९- नुं प्रसरण-१०-ना परमाणुओ-१२-तत्त्व-१३ - मां 'क्लोम' शब्द-३८ वेदभाष्यकार-७३ विज्ञान-१३-र्नु उपादान कारण वेबर-२७५ ११-भेद-२२-अनार्य-२७-नुं वैखरी-१२ उच्चारण-३५ वैदिक-२-विचारको २,-अध्वर्यु ३८ । शब्दरत्नाकर-८७, ८८, ९०, ९४ -भाषा ४७, ५१. ५३. शब्दार्थ-१३ । ७४, ७५, ७६, ७७-रूपो ६८ शांतिसूरि (जैन)-२४९, २७७ -संस्कृत-४८, ५०, ५२, शामळ-१८५ ____ www Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सलामु ४५ शासकप्रजा-३५ समग्रलोकव्यापक संस्कृत-४८ शाह-४४ समराइचकहा-११९, २४७ शाहन्शाह-४४ समवायांगसूत्र-१०८, १०९ शिक्षासंग्रह-८ सरवणि-४०६ शिरीषनुं-९ सरस्वती-३४ शीलांक (जैन टीकाकार )-३०३ सरस्वतीकंठाभरण-१४३, १६३, १६४ शुक्लयजुर्वेदप्रातिशाख्य-६१, ६४ सरहपा सिद्ध-६५३ शुक्लयजुर्वेदसंहिता-६१ सर्वदर्शनसंग्रह-२१ शुक्रराष्ट्र । शुक्लराष्ट्र -६५१ सलाम, शुष्कराष्ट्र ) सवडि-३१७ शूरसेन-१४४ साखानुसाखी-४४ शूर्प-८७ साखी-४४ शोण-४५ साटे-३३३ शौरसेनी-८२, १००, १०३ | साधारण प्राकृत-१२०-नो परिचय १२० -भाषानो परिचय-१४४ थी १२८ श्याल-८६ सानुनासिक-७ श्रीमद्भागवत (रत्नेश्वरकृत)-६०३ ।। सारसंभाल-४२६ श्रोत्रइन्द्रिय-४ साहाणुसाही-४४ श्रोत्रियवर्ग-२१ साहानसाही-४४ साहंसाही-४४ षड्दर्शनसमुच्चय-१२ सिद्धपुर-२६६ षड्भाषाचन्द्रिका-१५, १०५, १४५, सिद्धिचंद्र (जैन)-५३७, ५५३ १५०, १५२ सुक्करट्ठा-६५१ सुखलालजी पंडित-३४९ सदयवत्सनी कथा-६४४ सुत्तनिपात-१०६, ३०३ सद्धर्मपुंडरीक-१६५ सुपासनाहचरिय-३३४,४२२ सन्मतिप्रकरण-१० सुरट्ठा (सौराष्ट्राः)-६५१ सम-१९० सुराष्ट्र-२६, २७ (सुलच)-४१ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषशब्दोनी सूचि हक (अश्वविशेष)-४५ | स्वरित-६, ७ लतान ( सुरत्राण )-६५० स्वयंभू-१७४ सूत्रकृतांग-३०३ संग्रामसिंह-४३०, ४३३, ४३७, सूनत-६४१ ४८९,६४४ सूमू-३४१ संथउ (सिंथउ, सेंथो)-४२० सूपे-८७ संदेशकरास-१७४, ४३८ (संनेयरास) सेढी नदी-२२० -४४०, ४४२ सेतुबंध-१२२, १२७, १५७ संवार-५, ७ सेराह ( अश्वविशेष)-४५ संवृतता-५ सोनुं-३३ संस्कृत-८२, ६६०-भाषा २२,-नुं सोरठी बहारवटीया-४४५ उच्चारण १९ सोपारा-६५२ सांख्यतत्त्वज्ञान-९ सोमप्रभ-२१९, २२३, ३०६, ३१४, सांख्यतत्त्वकौमुदी-९ ३१६, ३३६, ३७०, ६५३ सांपुडं ( सांपुडी)-४२४ सोमसुंदर-४५४, ४५५, ४६०, ४९१ सांभळवू-३३० सौराष्ट्र-काठियावाड-६५२ सिंधी-१०२ सौराष्ट्रनी रसधार-२९०,४१४ । सिंधु-३४ (सिंतु)-४२ सौवीर-६५२ सिंहराज (वाल्मीकिसूत्रोनो वृत्तिकार )स्थान-४ १४६, १५२ स्थानी-८० सिंहललिपि-१०७ स्थानांगसूत्र-१०५ सिंहली-१०२ स्थूलिभद्र (थूलिभद्र)-६४४ -नो फाग-३९६ हराम (हरामु)-४५ स्पृष्टप्रयत्न-६ हरिक (अश्वविशेष)-४५ स्पृष्टताप्रयत्न--५ हरिभद्रसूरि-१७२, २२१ स्फोटरूप-१२ स्याद्वादरत्नाकर-२२१, ६४७, ६४८ हरिय (अश्वविशेष)-४४ स्याल-८६ । हलायुध (कोशकार )-९५ स्वरो (अव्यवहित)-१७-ना भेद- हलाह (अश्वविशेष) ४५ प्रभेदो २० 'हसवानो ध्वनि-१३ ___ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ हंसराजजी पंजाबी - ४४५ ६४४ हंसाउलि - ४७८, हाल (कवि ) - १०२ हालक ( अश्वविशेष ) - ४५ हिल्ली - ४१२ हिवडातणइ -४२६ हिंडोला - ४२३ हिंदी - १०२, १०३ हिंदी शब्दसागर - १८६ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति हूंतु (पंचमीसूचक ) - ३३१ हेमचंद्र - १, २, ४४, ५१, १२४, १२५, ६६१; - नो कोश अभिधानचिंतामणि ४०, ४३, ४४, ८७, ८९, ९०, १३३, १३४, १३५, १३८, १३९, १४०, १४२, १४३, २५०, ४१५, ४२२, ४२३, ४२८, -नो अनेकार्थसंग्रह - ४४, ९०, १९५, १९६, २७९, ३४०, ३४१, ४०९, ४१६, ४२३, ४२६;-नुं व्याकरण - ४, १४, ५३, ५४, ६६, ६७, ७१, ७३, ९२,९३, ९६, १०८, १४५, १४७, १६२, १८३, २८५;- नुं धातुपारायण - २८२, २८३, ३२२, ४२७९ - नो देशीशब्दसंग्रह ( देशीनाममाला ) - १३१, १३२, १३३, १३७, १३८, १३९, १४०, १४२, १४३, ३१९, ३२१, ३४४, ४१०, ४१४, ४१५, ४१७, ४२३, ४२९, ४४६; - नुं उणादिसूत्र - ३४३, ६४८; -नुं प्राकृतद्वयाश्रय-१८६; -नुं छंदोनुशासन- ३६२;-नां अवतरणो - ३५५ हेमहंस - ४५४, ४५६, ४६२, ४९१ हेलि - १९५ १२६, १३६, १४३, १४५, १४६, १४८, १४९, १५२, १५३, १७९, १८०, १८३, १८५, १८६, १९६, २०३, २१३, २१७, २१९, २२३, २२५, २४७, २७६, २७९, २८४, २८६, २८७, २९३, २९५, २९७, २९८, २९९, ३०१, ३०४, ३०५, ३२०, ३२४, ३३६, ३३७, ३४३, ३४४, ४०९, ४१०, ४१५, ४१९, ४२३, ४२५, ४२६, ४२९, ४४६, ४५०, ४५१, ४७३, ६३४, ६३५, ६४१, ६४९, ६५१, ६५२, ६५३, | ह्युएनसंग - ४१, ६३३, ६५० Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________