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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
कादम्बरीमां पृ० १४१, पृ० १४७ तथा पृ० ५११ ऊपर 'पूर्णपात्र' शब्द जे अर्थमां वपरायेलो छ, देशीशब्दसंग्रहमां पण ते ज अर्थमां ‘पुण्णवत्त'-(वर्ग ६ गाथा ५३ ) शब्द नोंधायेलो छे. गवेषणा करवामां आवे तो एवा देश्य शब्दो घणा मळी आवे जेमने संस्कृतनो ढोळ चडावी कविकुलशेखर कालिदासादि कविओए वापर्या होय. वामनरचित काव्यालंकारसूत्रमा तो संस्कृतपूजक खुद वामन ज कहे
छे के “ अतिप्रयुक्तं देशभाषापदम् " ( अध्याय सस्कृत काव्यमा ५-१-१३ ) अर्थात् देशी पद होय छतां कविदेश्यप्रयोगनी
ओए जेनो अतीव प्रयोग कर्यो होय तेवु देशीपद प्रतिष्ठा
संस्कृतकाव्यमां वापरवामां बांधो नथी. जेमके
१२३ “ पूर्णपात्राहरणविलुप्यमानवसनभूषणः”
___ कादम्बरी पूर्व०। " पूर्णपात्रं जहार"-का० पू० ।
“सखीजनेन अपठ्ठियमाणपूर्णपात्राम् ” का० पू० । कादंबरीमां वपरायेलो ‘पूर्णपात्र' शब्द तेनो अर्थ जोतां पूर्ण+पात्र ए रीते नीपजेलो नथी. किंतु देशीशब्दसंग्रहमां “पुण्णवत्तं पमोअहिअवत्थे" (व०६, गा० ५३) अर्थात् 'प्रमोदहृतवस्त्र-प्रमोद द्वारा हराई जतुं वस्त्र' ए अर्थमां 'पुण्णवत्त' शब्द छे अने तेने संस्कृतरूप 'पूर्णपात्र' आपी कादंबरीकारे ऊपरना संदर्भमां वापर्यो छे. पाछळथी आचार्य हेमचंद्रे ए 'पुण्णवत्त' ने 'पूर्णपात्र' बनावी पोताना संस्कृत कोशमां नोंधेलो छ : “उत्सवेषु सुहृद्भिर्यत् बलादाकृष्य गृह्यते । वस्त्र-माल्यादि तत् पूर्णपात्रं पूर्णानकं च तत्"
-अभिधा० कां० ३, श्लो० ३४१ आ श्लोकमां हेमचंद्रे ‘पूर्णपात्र' अने 'पूर्णानक' एम बे शब्दो नोंघेला छे.
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