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आमुख
रे मण ! करसि कि आलडी विसया अच्छहु दूरि । करणई अच्छदं रुधिअई कडूउं सिवफलु भूरि ॥ ४१ ॥ इण परि अप्पर सिक्खविसु तुह अक्खटुं परमत्थु । सुमरि जिणागम धम्मु करि संजमु बच्चु परमत्थु ॥ ४२ ॥ किम् जम्म म्य मरणु किह भवु किध निव्वाणु । एहउ तेण परिजाणियइ जसु जिणवयण प्रम्वाणु ।। ५० ।। जॉम्ब न इंदिय वसि ठवइ तॉम्ब न जिणइ कसाय । जाउं कसायहं न किउ खउ ताडं न कम्मविधाय ॥ ५३ ॥ चंचल संपय ध्रुवु मरणु सव्वु वि एम् भइ । मिलिवि समाणु महामुणिहिं पर संजमु न करेइ ॥ ६२ ॥
तित्थि वि अच्छउ अहव वणि अहवड़ निअगेहे वि । दिवे दिवे करइ जु जीवदय सो सिज्झइ सव्वो वि ॥ ६४ ॥
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रे मन ! करे छे केम आळ विषयो छो दूरे । करणी छे रुंधियां काढुं शिवफल भूर ॥
एणी परे आपने शीखव, तुने कहिए परमार्थ । समर जिनागम धर्म कर संयम जा (कर) परमार्थं ॥ केम जनम केम मरण केम भव केम निर्वाण | एहवं तेणे, परिजणाय जास जिनवचन प्रमाण || जाम न इंद्रिय वशे ठवे ताम न जिणे कषाय । जाव कषायोनो न कियो क्षय ताव न कर्मविघात ॥ चंचळ संपदा ध्रुव मरण सउ - सर्व बी एम भणे । मिली - मळी समान ( साथे ) महामुनिओने पण संजम न करे || तीर्थे बी छो अथवा वने अथवा निजगेहे बी ।
दिए दिए (दिने दिने ) करे जे जीवदया सो सीझे सउ बी ॥
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