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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
पंडित हीररत्न परसीध्या तस पसाय रास कीधो जी ।
छडी ढाल धन्याश्रीमां गावै सांभलतां सुष पावें जी ॥ १३४ ॥
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कीजे धर्म भवीक जन वृंदा लक्ष्मीरतन कहंदा जी ॥ १३५ ॥ ( ऐतिहासिक राससंग्रह, भाग १ लो, सं. श्रीविजयधर्मसूरि )
( २ ) कवि - रत्नेश्वर - संवत् १७४९ - श्रीमद्भागवत ( संपादक - श्रीकेशवराम शास्त्री )
(पृष्ठ १४५)
सूत कहे सांभलज्यो शौनक देवरात नृप तेह | तेणे
ए विध्य पूछया वाडव कहे विचारी जेह ॥ ५० ॥ नानाशास्त्रविचक्षण वाडव मांहोमांा विचारी ।
विविध विरोधी साधन बोध्यां सघलां संशय कारी ॥ ५१ ॥ कोय कहे जे विष्णू देवता को कहे शिव देव । कोय कहे ते सघला मध्ये सूरय सारो देव ॥ ५२ ॥ कोय कहे जे कालदेवता कोय स्वभाव प्रमाणे ।
को कर्म श्रेष्ठ कहे इम अनेक वात विखाणे ॥ ५३ ॥ हवे घणाइक वाद सुणीने आकुल अन्तर्वेद | सांभल्य शौनक राजऋषि ते मनमां पाम्यो खेद ॥ ५४ ॥ आप अबोल्यो थैने बेठो मुख्य मेहली निःश्वास | मोक्षमार्ग पाम्यानो मनमां नव्य आव्यो विश्वास ॥ ५५ ॥ पूर्व पुण्य परीक्षितने आव्या व्यासपुत्र शुकदेव । ज्ञानसुधाभरसागरशाशिवर तेणे समे अश्वमेव ॥ ५६ ॥
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