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________________ १७४ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति रहेतुं नथी एटले साहित्यिक अपभ्रंश माटे साधारण रीते पांचमो सैको कहेवो होय तो ते माटे उक्त साधनो साधक छे. ७३ साहित्यनी दृष्टिए जोईए तो अपभ्रंशनुं साहित्य विपुल छे : महा कवि चतुर्मुख, स्वयंभू, त्रिभुवन, तिलकमंजअपभ्रंशनुं का नु रीनो कर्ता जैन महाकवि धनपाल, भविसयत्तकथानो साहित्य कर्ता बीजो जैन कवि धनपाल, पुष्पदंत, कनकामर अने जोइंदु वगैरे कविओए अपभ्रंश साहित्यने सरसरीते केळव्युं छे. केटलाक कविओए अपभ्रंश भाषाने ‘अवह?' (अपभ्रष्ट) शब्दथी अवहट अने पण कही छे ते 'अवहट्ट' अने उक्त 'अपभ्रंश' अपभ्रंश ए बे पदोना अर्थमां खास अंतर जणातुं नथी. आ रीते जैन अने बौद्ध वगेरे कविओए समभावे अपभ्रंश भाषाने खिलववामां सरस फाळो आपेलो छे. देशभेदे के काळभेदे अपभ्रंशमां पण तारतम्य देखाय खलं, वैविध्य अने एम छे माटे 'शौरसेन अपभ्रंश' 'मागध अपभ्रंश' 'पैशाच अपभ्रंश' वगैरे प्रांतिक अपभ्रंशोने जुदां जुदां गणावी शकाय. तात्पर्य ए के, जेम एक सर्वसाधारण 'प्राकृत' छे अने तेना १७३ संदेशकरासना प्रणेता मुसलमान कवि अद्दहमाने पोताना रासमां भाषाओनी गणना करतां 'अपभ्रंश'ने बदले अवहट्ट्य (अपभ्रष्टक ) शब्द वापर्यो छ : __“अवहट्टय-सक्कय-पाइयं च पेसाइयम्मि भासाए"-गाथा ६ । अर्थात् अवहट्टय अपभ्रष्टक, संस्कृत, प्राकृत अने पैशाचिक एम भाषाओनां नाम लीधां छे. मने लागे छे के 'संस्कृत' शब्द 'कृ' ना भूतकृदंत द्वारा नीपज्यो छे अने 'प्राकृत' शब्द पण 'कृ' ना भूतकृदंत 'प्रकृत'नो आभास करावे छे ते जोईने 'अपभ्रंश' भाषा माटे पण भूतकृदंतना रूपनी कल्पना करी 'अपभ्रंश'ने बदले 'अपभ्रष्टक-अवहट्टय' शब्दनी वपराश चालु थई होय. Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.004874
Book TitleGujarati Bhashani Utkranti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMumbai University
Publication Year1943
Total Pages706
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, History, & Grammar
File Size22 MB
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