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आमुख
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प्रांतिक भेदो 'शौरसेन प्राकृत' 'मागध प्राकृत' वगैरे कहेवाया, तेम एक सर्वसाधारण 'अपभ्रंश' छे अने 'शोरसेन अपभ्रंश' वगेरे तेना पेटा भेदो गणाय. अहीं ए हकीकत याद राखवी जोईए के, मूलभेद अने प्रांतिक भेद बच्चे असाधारण अंतर रह्यं नथी. राजशेखरनी काव्यमीमांसा वगैरे अलंकारना ग्रंथोमां अपभ्रंशना ' नागर'
टक्क' 'वाचड' वगेरे भेदो गणावेला छे अने ए राजशखर अन भेदगणनानी प्राचीन परंपराने अनसरीने मॉडेये माकडेये जणावला अपभ्रंशना अनेक भेदो सूचवेला छे. एम
अपभ्रंशना भेदप्रभेदो
_ छतां य ते ते प्रत्येक पेटा भेदना विशिष्ट नमूना न
जोवा मळे त्यांसुधी ए संबंधे शुं कही शकाय ?
तात्पर्य ए के, एक काळे जे भाषा आपणा देशमां सर्वत्र व्यापक हती अने वर्तमानमा जे फक्त साहित्यमां सचवायेली छे तेवी अपभ्रंश एक अखंड भाषा छे, तेनो मूळ संबंध वैदिक युगना उक्त स्वरूपवाळा आदिम प्राकृत साथे छे. जेम प्राकृत अने संस्कृत बे बहेनो छे तेम अपभ्रंश ए
तेमनी त्रीजी बहेन छे. ए त्रणे बहेनोमां परस्पर अने अपभ्रंश ए अत्यंत सद्भाव अने गाढ़ संपर्क होवाथी एकनी त्रणे बहेनोमां शोभा बीजीमां अने बीजीनी शोभा त्रीजीमां एम परस्पर सद्भाव आव्या करे छे. आम छे माटे ज ललित
प्रा
१७४ नागर अपभ्रंश, वाचड अपभ्रंश, उपनागर अपभ्रंश ए त्रण भेदोने, मार्कंडेय, प्रधान समझे छे. आ उपरांत लाट, वैदर्भ, बार्बर, आवंत्य, पांचाल, टाक, मालव, कैकय, गौड, औडू, पाश्चात्य, पाण्ड्य, कौंतल, सैंहल, कालिंग्य, प्राच्य, कार्णाटक, काञ्च्य, द्राविड, गौर्जर, आभीर, मध्यदेशीय, वैतालिकी वगेरे सत्तावीश भेदोने जणावे छे-(जुओ मार्कंडेय प्राकृतस० पृ० २ विझागा०)
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