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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
धरणि ढलिउ धर्मराजाजी।
मूर्छा पडिउ नहीं घटि सानजी ॥ १॥ सान नहीं घटि रायनई शौनक दिइ प्रतिबोध । ज्ञान ताह्रूं किहां गयूं माहा धर्मराजा ज्योध ॥ २ ॥ अज्ञाने इम आवरिउ तूं अंतर्गति अविलोकि । सुखदुःख सरज्यूं देहिनई हर्ष किहि तिहां शोक ॥ ३ ॥ अरे पडी वेलाइ पांडवो तम्यो म मेड्लु चित्ति धीर । तम्हारइ तिहां साहि छइ स्वामी श्रीज्यदुवीर ॥ ४ ॥ मूर्छा वली रायनी तव बोलिउ धर्मकुमार ।। शौनकजी तम्यो सांभलु गृहस्थना आचार ॥ ५॥ ब्रह्म क्षत्री वैश्य शूद्र जे मुख्य च्यारि वर्ण । प्रातःकाले ऊठी स्नान संध्या [अनई ] सेवा स्मरण ॥ ६॥ उपवीतधारी सांचवइ ते आपणां सत्कर्म । ज्यज्ञ-ज्याजन-अध्ययन-अध्यापन-दान-प्रतिग्रहधर्म ॥ ७ ॥ शूद्र सेवा विप्रनी वली कथाकीर्तन बुद्धि । अन्य वर्ण अलगा ते थकी तेह्नई तेही विधि ॥ ८ ॥ अष्टादश अन्न ऊपनां हुइ शाकपाक विवेक । पणि शौनकजी तम्यो सांभलु पिहिलु दयाधर्मविवेक ॥ ९॥ अतिथि आविउ आंगणइ तेह्नई न करिवु नाकार । गौ गवानिक वास वायस श्वाननइ दिइ आहार ॥ १० ॥ परिवार पोषइ आपणु नइ ऊगरतूं रिहिशि कष्ट । [ पवि ] त्र अन्न ते प्रासतु जु हुइ घरमांहि ज्येष्ठ ॥ ११ ॥
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