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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति वळी, आपणी चालु भाषामां करवानु, भणवानु, हसवानु, बोलवानी वात, खाबानो मोदक वगैरे विशेषणरूप विध्यर्थ कृदंतोनो पण व्यवहार प्रचलित
... छे. ए पदोमां रहेला छेला अवानुं (भण्+ 'करवानुं' नी
____ अवार्नु ), अवानी (बोल् + अवानी) अने अवानो
! व्युत्पत्ति
(खा + अवानो) अंशनी उपपत्ति विशे वे युक्तिओ सूझे छे : ए ' अवार्नु' वगैरे विध्यर्थ प्रत्ययो छे. आगळ कह्या प्रमाणे 'तव्य' प्रत्यय विध्यर्थनो सूचक छे. 'तव्य' नी पेठे बीजो एक 'अनीय' ( करणीय ) प्रत्यय पण विध्यर्थनो दर्शक छे एटले ‘तव्य' अने 'अनीय' बन्ने समानार्थक छे. जुनी भाषाओमां केटलांक पदो बेवडा प्रत्ययो ले छे ए हकीकत आगळ आवी गई छे. ए जोतां तव्य + अनीय-तव्यानीयतव्वानीय-अव्वानीय. ('तव्य' नुं 'अव्व' उच्चारण ‘भासिअव्वं' वगैरे पदोमां सुप्रसिद्ध छे) आ बेवडा प्रत्ययरूप 'अव्वानीय' पद साथे उक्त ' अवानु,' 'अवानी' अने ' अवानो' अंशनी सरखामणी थई शके एम छे. एमां शब्दपरिवर्तननी अने अर्थनी दृष्टिए पण कोई दोष जणातो नथी. फक्त आवो कोई संवाद शोधवो जोईए. ___ अथवा उक्त 'अवान' नो ' अवा' अंश 'तव्य' नुं परिवर्तन छे अने 'न' अंश संबंधदर्शक 'तण' नुं रूपांतर छे एम पण सरखामणीनी दृष्टिए कही शकाय : करवातणुं-करवाअणुं-करवानुं.
प्रधानपणे विध्यर्थनी सरखामणी करतां उक्त रूपोनी सिद्धिने सारू मने तो प्रथम युक्ति विशेष संगत लागे छे.
११६ जे कृदंतो ऊपर जणाव्यां छे ते सिवाय बीजां कृदंतो उक्त कृतिओमां वपरायां नथी एथी कृदंतनुं विवेचन पूरुं करी हवे सर्वनामोनी चर्चा करूं छु:
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