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बारमो अने तेरमो सैको
[ ए आखुं पद्य आ प्रमाणे छे :
" बंदीवान घणा सीदाता दीठा पाडइ ढाठि,
दीसि अगासि तावडि दाझइ राति बाइ टाढि " - ( १,१५३ ) अर्थ :- सीदाता - पीडाता एवा घणा बंदीवान दीठा के जेओ राडो पाडे छे. अगासि - अगासामां- छापरा विनानी खुल्ली जम्यामां - जेओ तावड - तडकावडे के तडकामां दाझे छे अने रात्रे टाढ वाय छे ] उक्त व्याकरणकार आ वाक्यमां वपरायेल ' तावडि' शब्दना 'डि' ने पांचमी विभक्तिनो जूनो प्रत्यय कहे छे. तेओ लखे छे के " डी (' थी ' ने ठेकाणे जूनो प्रत्यय ) "
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परंतु उक्त लखाण अक्षरसाम्यनी भ्रांतिमांथी नीपजेलुं छे. 'डि' ए पांचमीनो प्रत्यय नथी अने ' तावडि' ए रूप पांचमी विभक्तिनुं पण नथी. ' तडका 'ना अर्थमां 'ताप' शब्दनी पेठे ' तावड ' ( तावडो ) शब्द पण पालणपुर तरफनी भाषामा अने मारवाडी भाषामा प्रचलित छे. तेनुं त्रीजी विभक्तिनुं एकवचन ' तावडि' रूप छे. अन्त्य 'इ' त्रीजीनो प्रत्यय छे. मूळ ' सं०- ताप - प्रा० - ताव' शब्द छे अने 'ड' स्वार्थिक प्रत्यय छे. “ खाटला तावडे नाख्या " ( खाटला तडके नाख्या) एवं वाक्य जैन प्रतिक्रमणसूत्र - अतिचारना पाठमां सुप्रसिद्ध छे. ए वाक्यमां 'तावडे' सप्तमी विभक्तिवालुं रूप छे. 'डि' प्रत्यय पांचमीनो होय तो 'तावडे' रूप ज क्यांथी थाय ?
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मात्र अक्षरसाम्यनो आधार लेवाथी केवा प्रकारनी भ्रांतिओ जन्मे छे ए सादी हकीकतने बतावत्रा ज अहीं थोडुं विषयांतर जेवुं करीने पण आटलं उदाहरणरूपे कचवाते मने जणाववुं पड्युं छे. 'जूनी गुजराती भाषा' ना अने ' गुजराती भाषानुं बृहदव्याकरण' ना विद्वान लेखकोए करेली भाषासेवा विशेष प्रशंसनीय छे. अहीं तेमनी खोड बताक्वानो
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