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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
मारो आशय नथी. परंतु गुजराती भाषानी व्युत्पत्तिनुं क्षेत्र खेडाया विनानुं छे, एटले तेमां गमे तेने हाथे आवी भ्रांतिओ थाय ज. आपणे
आवी भ्रांतिओथी बचीए ए एक ज उद्देशने लक्ष्यमा राखीने में ऊपलं लखाण करेलुं छे. एथी कोई साक्षर एनो विपरीत अर्थ न ज करे एवी तेमने मारी फरी फरीने नम्र विनंती छे.
९२ उक्त त्रणे कृतिओमां वपरायेलां छठी विभक्तिवाळां रूपो नीचे छट्ठी विभक्ति प्रमाणे छ : अभयदेव--तुह, समग्गह, निब्भग्गह (ब०), दीणह. देवमूरि—मेरुहु, सायरु (लुप्त वि०), तारयहं (ब०), सेलहं,
मोरहतणा, जेतणा (ब०), रयणह, भवियाणं, मणुयहं
(ब०) मणुयह. हेमचंद्र-परस्सु, दुल्लहहो, सुअणस्सु, अइमत्तहं (ब०) गय
(लुप्त वि० ) कासु, चिंतंताहं (ब० ) लोयहो, कंगुहे (स्त्री० ) मायहं (ब०) कंतहो, सीहहो, जिणहं, लोअहं
(ब०) निवइणो, –रयणिहुं. उक्त रूपो ऊपरथी जणाय छे के एकवचनमा ‘ह,' 'हु', 'हो', ‘स्सु', 'सु' अने ‘णो' प्रत्यय छे. स्त्रीलिंगमां 'हे' प्रत्यय छे. बहुवचनमां 'हं' ‘आणं' अने 'ह' प्रत्यय छे. 'तण' शब्द षष्ठी विभक्तिनो सूचक छे. अने एनो प्रयोग लुप्त के अलुप्त षष्ठी विभक्तिवाळा नामनी साथे थाय छे. ___ 'नो' प्रत्यय षष्ठीना एकवचन माटे पालिभाषामां छे. अने ‘णो' प्रत्यय प्राकृतमां छे. वैदिक भाषामा 'मधुनः' (षष्ठी एकवचन) वगैरे रूपोमा जे अन्त्य 'नस्' छे ते ऊपरथी उक्त 'नो' के 'णो' आवेला छे.
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