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आमुख
मारा नम्र कथन प्रमाणे 'प्रकृतिः संस्कृतम्' ने बदले 'प्रकृतिः स्वभाव! अर्थ ज भाषाना प्रस्तावमा उचिततम छे.
५१ यायावरीय कविराज राजशेखर कहे छे“ यद् योनिः किल संस्कृतस्य सुदृशां जिह्वासु यद् मोदते
___ यत्र श्रोत्रपथावतारिणि कटुर्भाषाक्षराणां रसः। राजशेखरनी प्राकृत-भक्ति
__ गद्यं चूर्णपदं पदं रतिपतेस्तत् प्राकृतं यद्वचः तान् लाटान् ललिताङ्गि! पश्य नुदती दृष्टेनिमेषत्रतम्"।
-(बालरामायण ४८-४९) आ श्लोकनुं तात्पर्य ए छे के–“जे भाषा संस्कृतनी जननी छे, स्त्रीओनी जीभ ऊपर रमे छे अने जेने सांभळ्या पछी बीजी भाषाना अक्षरो कर्णकटु लागे छे तेवी प्राकृत भाषाने लाटना लोको बोले छे."
राजशेखरनी समझ प्रमाणे संस्कृत भाषा, प्राकृतमांथी आवी छे. कविनी ए समझमां मने तो प्राकृत भाषा तरफ कविनी विशेष भक्ति ज मालूम पडे छे. परंतु भाषाविज्ञाननी दृष्टिए जोतां प्राकृतभाषामाथी संस्कृत भाषा आवी छे एबुं कही शकाय एम नथी. अहीं ए याद राखवू जोईए के 'संस्कृत' शब्दथी कविनी विवक्षा लौकिक संस्कृतनी छे. लौकिक संस्कृतनी घटना अने साहित्यमा विद्यमान व्यापक प्राकृतनी घटना वच्चे कार्यकारणमां होय तेवू साम्य देखातुं नथी; एथी एम केम कही शकाय के प्राकृत ऊपरथी संस्कृत भाषा आवी छे ?
५२ विक्रमना आठमा सैकानो महापंडित वाक्पतिराज पोताना वाकविराजती प्राकृत काव्य 'गउडवहो'मां जणावे छे के:प्राकृत-भक्ति
" सयलाओ इमं वाया वसंति एत्तो य णेति वायाओ। एंति समुहं चिय ऐति सायराओ च्चिय जलाई ॥
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