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आमुख
अने परिणामग्राही पर्यायार्थिक नयनी दृष्टिए जोतां 'शब्द' अनित्य कहेवाय.
शब्दनु उपादानकारण शब्दनी वर्गणाओ छे अने प्रेरककारण वा संयोजककारण जीव छे. शब्दना अणुओनी आकृति वज्रजेवी छे. उच्चार्यमाण वा ध्वन्यमान शब्द गतिशील छे. महाप्रेयत्नथी नीपजतो शब्द बाधक सामग्री न होय तो लोकना छेक छेडा सुधी पहोंचे छे अने पछी ते तूटी जाय छे त्यारे मंदप्रयत्नथी पेदा थतो शब्द अमुक ज योजनो सुधी फेलाई पछी वीखराई जाय छे..
भाषानी वर्गणाओ शब्दरूपे परिणमे छे. तेमां रूप, रस, गंध अने अविरोधी बे स्पर्श पण होय छे. वर्गणाओ पोते गतिशील नथी परंतु शब्दरूपे परिणाम पामेली वर्गणाओ गतिशील छे.
८ वक्तानो जे अभिप्राय द्रव्यगत गुणादि धर्मोविशे प्रवर्ते अने मूळद्रव्य प्रति तटस्थता दाखवे ते अभिप्रायनुं नाम पर्यायार्थिक नय-सामान्यने न निषेधती भेदग्राही दृष्टि-सन्मतिप्रकरण गा० ३। ९ " चउहि समएहि लोगो भासाइ निरंतरं तु होइ फुडो।
लोगस्स य चरमंते चरमंतो होइ भासाए" ॥१०॥ इह कश्चिद् मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति स ह्यभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि विसृजति तानि च विसृष्टानि असंख्येयात्मकत्वात् परिस्थूलत्वाच्च विभिद्यन्ते, भिद्यमानानि च संख्येयानि योजनानि गत्वा शब्दपरिणामत्यागमेव कुर्वन्ति। कश्चित्तु महाप्रयत्नः स खलु आदाननिसर्गाभ्यां भित्त्वैव विसृजति तानि च सूक्ष्मत्वादू बहुत्वाच अनन्तगुणवृद्धया वर्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति” इत्यादि-आवश्यक सूत्रनियुक्ति-पृ० १७.
आ संबंधे वधारे समझवा माटे प्रज्ञापनासूत्रनुं अगियारमुं भाषापद अने तेनुं विवेचन जोई लेवु.
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