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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
जिव सुपुरिस तिवँ घलई जिव नइ तिवँ वलणाई । जिव डोंगर तिवँ कोट्टर हिआ ! विसूरहि काई ॥ ५५ ॥ दिवेहिं वित्तउं खाहि वढ ! संचि म एक्कु विद्रमु । को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु ॥ ५६ ॥ विवेकस्तु थिरत्तणउं जोव्वणि कस्तु मरड्डु | सो लेखडउ पठ्ठाविअइ जो लग्गइ निच्च ॥ ५७ ॥ कहिं ससहरु कहिं मयरहरु कहिं बरिहिणु कहिं मेहु । दूरठिआहं वि सज्जणहं होइ असलु नेहु ॥ ५८ ॥ सरिहिं न सरेहिं न सरवरेहिं न वि उज्जाणवणेहिं । देसवण्णा होंति वढ ! निवसंहिं सुअणेहिं ॥ ५९ ॥
एक कुली पंचहिं रुद्धी तहं पञ्चहं वि जुअंजुअ बुद्धी । बहिए ! तं घरु कहिं किंव नंदउ जेत्थु कुडुंबउं अप्पणछंदउं ॥ ६० ॥
गयउ सु केसरि पिअद्दु जलु निश्चिंत हरिणाई । जसु केरएं हुंकारडएं मुहहुं पडंति तृणाई ॥ ६१ ॥ जइ रच्चसि जाइट्टिए हिअडा ! मुद्धसहाव ! | लोहे पुणण जिव घणा सहेसइ ताव ॥ ६२ ॥ सिरि जरखंडी लोअडी गलि मणिअडा न वीस । तो वि गोडा कराविआ मुद्धए उबईस ॥ ६३॥ अम्मडि ! पच्छायावडा पिउ कलहिअउ विआलि । as विवरी बुद्धी होइ विणासहो कालि ॥ ६४ ॥ ढोला ! एह परिहासडी अइभन कवणहिं देसि । हउं झिज्जरं तउकेहिं पिअ ! तुहुं पुणु अन्नहिरेसि ॥ ६५ ॥
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