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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
(५) कवि-मांडण-प्रबोधवत्रीशी (सं० स० मणिलाल बकोरभाइ व्यास)
भक्तिवीशी आगइ कवि ग्या मोटा कवि जे बोलइ ते वाणी नवी । गंगा अतिषण पूरइ वहइ सकति आपणी जल संग्रही । गुणसागर ए भरीया तो य ' चोरी भागि मुंघी न होइ' ॥१॥ मूरख नइ मति दीजइ किसी हीइ न जाणइ कांइ उल्हसी । जेता अवगुण तेता ग्रहइ गुणनी वात न एक लहइ । मनि जाणइ मारइ छे झंख — बहिरा आगली वायु संख' ॥ २ ॥ खिण सांभळवा श्रोता मिल्या जाणे 'तिल कोद्रवमा भल्या' । तेहनी घयसि न घाणी होइ वांचि व्यास न बूझइ कोइ । इम करतां ते नवि छूटीइ 'सेवंतरां डांगि कुटीइ' ॥ ३ ॥
हरिभक्ति श्रीसुख सांपडइ हरिभक्ति यश मोटा चडइ । हरिभक्ति नर निर्विष होइ हरिभक्ति किंकर न विगोइ । हरि छांडीनइ अन्य आराहि 'कोठी सरसा कांठा खाइ' ॥ १५ ॥ यमभागु नर तीरथ करइ यमभागु बहु तप आदरइ । यमभागु वनि योगी थाइ यमभागु ज क्लेश कराय । पर्यंकि पुढ्यां हरिगुण लीयु 'गुलि मरि तु विष कां दीउ' ॥ १६॥ तु रण खेद तु जु घरि तिजु पाणि खेद तु जु कहि भजु । श्रवण खेद सांभल वु कांइ चक्षु खेद कहि साहमूं जोइ । एम ज भक्ति होइ हरिवडइ 'कांइ न ल्यु तम्हे मधु आकडि' ॥ १७ ॥
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