________________
सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य ५८५ पाप तणइ प्रभाविं करी ए काया माया आवरी । किंकरि करी मूक्यू आपणु नाम न जांणि युगपति तणु । सत्संगति तजी कीध आघ 'डोकरि नइ घरि पिठु वाघ' ॥ १८ ॥ दल अहंकारतणां सांचर्यां जन्मकोडि पातक परवर्यां । मोहबाण मेल्हि अति घणां राखि न चरण शरण तम्ह तणां । नारायण नामि शू की'वाइं वादल यम ठेलीयूं ॥१९॥ शंघ तणइ बलि शंघ ज रहि (तिम) ताहरी माया तूंह ज लहइ । शेव करंतां सूधु काय मझ मन राखि न तोरे पाइ । कहि मंडण अमचा नृप होइ स्वामि विना कुंण सामु जोइ ? ॥२०॥
पाखंडवीशी पाखंडी गुरु माथइ कर्या वामी वेद उवटि सांचर्या । धर्म तणी हांणि नवि सयु उपरि आलि धन वावयु । मिथ्यालापि हौआ संयमी ' भइसि केडि पाडी नीगमी' ॥ ८१ ॥ मीचइ आंखि न मीचइ हैआ न चलइ काछ चालइ धोतीआं । लाई भूती विभूती न लइ तन सांकली नई मन सांकलइ । दांमी ऊंट सकि नवि कोई ए गाहादि दामंतां जोई ॥ ८४ ॥ अंगि राख मनइ राखडी बाहरि बांग मांहि बांगडी । भालि चंदन मन माहि चंदली माहि वन अंतरि वनी ।। ८५ ।। वैष्णव धर्म लोक नइ कहइ करणी चंडाली मध्य ग्रहइ । सहितु टालि बि शीस न होइ महिषी ऊंट न चारइ कोइ ॥ किम होशि नामि निर्मला ठालि ऊखलि बि मूसलां' ॥ ८७ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org