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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जु योगी तु काइ क्रोध आतमसुख तु काइ निरोध । सन्यासी तु कांइ असंतोष जु तप तु शू कारण लोक । जु विद्या तु कां कूड़े कवइ माथा मानि शीसक शवइ ॥ ८८ ॥ वैष्णव काहावि वशि नवि एक ब्रह्म क्रिया विण ब्राह्मणवेष । ज्ञांन हीन ज्ञांनी मांहि भलइ एक प्रश्न पूछी नीकलइ । इंद्रि साधि नही कहि सध कूडइ लोहडइ कटक जु खध ॥ ८९ ॥ योग न जांणइ योगी कहइ खमणु तु जु खम नर हुइ । इंद्रि वशि तु वैष्णव नाम पाखंडी पंडित परणांम । कूडा बोल न आवि वरइ विण पांणी मोजां उतरइ । रोली राख लाख सिद्ध थाइ हौआ साध व्याध घरि खाइ ॥ ९०॥ रूढ पड्यां नर क्षण सांभलइ पाप करंतु नवि पाछु वलइ । शीख शवे घरि ग्यां वीसरी पोथां थोथां नांख्यां करी । व्यास वचनि मन नु हि थीर 'उंटघटि यम नांम्युं नीर' ॥ ९४ ॥ धंधु धर्म पाप पाधरूं मोहि मनी बिठा खरूं । शवकहि शीख देअंता होइ बूडता आपिं नवि जोइ । साप डशु किम उखध करइ भांड मरइ सम खातुं शरइ ॥ ९६ ॥ माहि मइला नइ करि सनांन परद्रोही नई आपि दांन । मुहि मीठा अंतरि गुण जूआ माहि मोटा विषना लाडूआ । इम करंता किम जाशु पारि 'मींनी जइ आवी केदारि' ॥ ९७ ॥ घरनां पातक तीरथि जाइ तीरथनां कोटी गण थाइ । पाप अजांणि लघु लेखवु जाणिं मेर समान भोगवु । विण विश्वाधार वाहार कुंण धाइ ? दीहइ चड्यूं चुहुटुं लूसाइ ॥९८॥
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