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सोळमा अने सत्तरमा सैकानुं पद्य तथा गद्य
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एक कहिशि निंदा करइ ' मोदक मंदाग्नि न वि जरइ'। रहि जवासु जलि सूकाइ ‘गणिकापुत्र न तात सुहाइ' । सर्वा घृत यामि न वि सहइ लूंडी पेटि क्षीर नवि रहि ॥ ९९ ॥ मंडण कविता नामि गणइ माथि मणि काकींडा तणइ । कूडी काया हरि गुण सीध कुडी वडइ हाथीउ लीध । उखाणे हरि लागू मन्न यम उकरडामाहि रतन ॥ १० ॥
हास्यवीशी पापमती नइ मदिरा पीध वढकणी वहु नइ प्रीय पक्ष कीध । हृदय सूनुं भांगि वावरइ व्याधिं पीड्यु दुःकृत करइ । कमार्गी नइ कसंगति जडी यम कारेली लींबडी चडी ॥ १०१॥ थोडी विद्या थ्यु ठीकरु धन थोडं धनवंत थ्यु सरूं । उणु घडु गाजि ते घणु पूरू पांणी ग्रहइ आपणूं। गर्वइ सर्व सुवर्णमइ होइ कीडी चडी काटरलइ जोइ ॥ १०२॥ परणी नारि तजी वन गयु आलस अंगि तपसी थयु । कांम बांण न सक्यु जालवी रडवडती स्त्री आंणी नवी । श्वान भसावइ हीडइ चक्यु बाहरि न ग्यु घर न राखी सक्यु ॥१०३॥ पुण्य विना नवि पाधलं क्षेत्र पुण्य विना गौ विणसइ वेत्र । बीजु विणज करइ अपाइ करइ पाधरूं ऊंधू थाइ । पुण्य विना दुःख दारिद्र नडइ बढें घरि कुहांडां घडइ ॥ १०८॥ माता पिता मारग दाखवइ सजन लोक मिली शीखवइ । गुरू स्मृति वाणी सांभलि देखइ नृप शरि दंडा फलइ । एतां वारीतां कर्म कीध 'भुकंतु गाधह चोरे लीध' ॥ ११०॥
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