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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
करणी नवि देखइ आपणां लोकधर्म देखाडइ घणा । शीबली फूल मभ माहि ग्रहइ बाहरि शोभा जोई वहि । कहि कारणि नवि खरचइ रूउ 'उखरली खाटि चंदूउ' ॥१११॥
मूर्खवीशी मूरखशू मन करशु संग रंग माहि ते करशि भंग । 'सोना झाल म पांणी खोइ' 'मडू मालि चडाव्यु किम टोहि' । ढेढनंइ राज कराव्युं करइ मातु बोकड मुखि मूतरइ ॥ १२२ ॥ पहिलं वचन न की— तात बीजी लोपी गुरनी वात। लोके पुरणा न कीधी रीति भय भूपति न आव्युं चीति । वारीतु नर प्रांणि पलइ जां न भीतिं शर आफलइ ॥ १२६ ॥
आंणीतां आघेरू जाइ वारीतां वांकेरूं थाइ । स्वान पूंछ नली खटमास तु हि न छंडइ वंक अभ्यास । शीख देअंतां साइ{ भडइ 'मुलि लोहि न पोगर चडइ' ॥१३१॥
सज्जनवीशी कुलवंतु नइ क्रिया घणी इंद्रय वशि नइ तीरथ मणी । धनपूरित नइ अंतरि दया विनय विवेक नइ भूपति मया । श्राद्धपात्र नइ मल्यु रवि राहु ‘मा प्रीसणइ मुहुसालि वीवाह' ॥२०१॥ निर्मल काया नइ निरोग बीजइ आश्रमि पाम्यु योग । कविता विण प्रतिबोध न कवइ व्यास वचन विण ना रद चवइ । वाडव विष्णुभक्ति आवर्यु आगइ शंख गंगोदक भर्यु ॥२०२॥
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