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चौदमो अने पन्दरमो सैको
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सुलभ छे अने आ जातनी कविताओमां आजे पण एवां पदो वापरवानी प्रथा चालु छे.
संस्कृत कविताओमां आवा प्रयोगो नहीं मळे अने प्राकृतमां पण घणा विरल. लोकभाषामां ज आवा प्रयोगो अवतरे छे अने छूटथी पराय पण छे.
संस्कृतमां प्रथमांत ' शत' संख्यासाथे वपरातुं संख्येय षष्ठीमां पण आवे छे : 'करस्य शतानि - हाथना सेंकडा - सेंकडो हाथो' एनी ज पेठे अहीं ' वरह सयाइ ' प्रयोग वपरायेलो छे. वरस्य शतानि - वरना सेंकडासेंकडो वरो. चालु भाषामां आ जातनी प्रयोगपद्धति नथी चालती. आ तो संस्कृत - प्राकृतनुं प्रतिबिंब छे.
गर्ज-गज्ज-ते ऊपरथी गाजते, नृत्य-नच्च-नाचते, सरज-सज्ज - साजंते, वक्रक-कय- वांकउ, ए पदोमां स्वरभारनी सुरक्षितता माटे संयुक्त अक्षरनी पूर्वनो स्वर भारे थाय छे. त्यारे सौभाग्य-सोभग्ग-सोहागसोहग, झबक्कड़-झबकर, विनष्टक - विनय - विणठउ - ए पदोमा संयुक्त अक्षरनी पूर्वनो स्वर, भारे थया विना पण स्वरभार जळवाई रह्यो छे, तेनुं कारण ते ते पदोमां 'ह' 'झ' अने 'ठ' महाप्राण छे, ए जणाय छे. उच्चारणनी रीतोमा स्वरभार जाळववानी अनेक पद्धतिओ छे. उच्चारणकर्तानुं मुख पोताने ज्यां जे रीत अनुकूळ जणाय त्यां तेनो आश्रय आपोआप लई ले छे ए ध्यानमा राखवानुं छे.
१४२ ' चडिउत्तरिय ' नो अर्थ प्रसिद्ध छे. पाछलुं पद ' उत्तरिय ' 'उत्' साथैना 'तू' ना 'तरिय' ऊपरथी आवेलुं छे. आगलुं 'चडि' 'चडिय' ऊपरथी. ८-४-२०६ मां हेमचंद्र 'आरोह' नो पर्याय ' चड' धातु छे एम जणावे छे. आ 'चड' धातु देश्य होय एम लागे छे.
'चडऊत्तर' नी व्युत्पत्ति
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