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गुजराती भाषाती उत्क्रान्ति
सोळमा सैकाना वाक्यप्रकाश नामना औक्तिक जेवा हस्तलिखित ग्रंथमां लख्युं छे के,
" द्वियोक्तिः प्रध्वरा वका, प्रध्वरा कर्तरि स्मृता । वा कर्मणि भावे च धातोः साप्यात् - अनाप्यतः ॥२॥ - अर्थात् क्रियाने सूचवती बोलवानी पद्धति बे जातनी छे: एक पाधरी - सीधी अने बीजी बांकी. कर्तरि प्रयोगबाळी बोलवानी रीत पाधरी छे. ( करुं छं, जाउं छं वगेरे ) अने कर्मणि प्रयोगवाळी तथा भावे प्रयोगवाळी बोलवानी रीत बांकी छे. ( कर्मणि- कराय छे, जवाय छे, हसाय छे. ) ( भावे - जगाय छे, रमाय छे, बीवाय छे. ) ज्यां क्रियापदनुं वचन कर्ता प्रमाणे फरे ते ' कर्तरिप्रयोग' अने ज्यां क्रियापदनुं वचन कर्म प्रमाणे फरे ते ' कर्मणिप्रयोग'. भावेप्रयोगमां तो एकवचन होय छे अने तेनो संबंध क्रिया साधे रहे छे.
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कर्मणि अने भावे प्रयोगनी चर्चा
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वाक्यप्रकाशनो आरंभ
" प्रणम्यात्मविदं विद्यागुरुं श्रीदेववर्धनम् । मुग्धबुद्धिप्रबोधार्थम् - उक्तियुक्तिः प्रतन्यते " ॥ १ ॥ वाक्यप्रकाशनो अंत --
'गुरुतपगणगगनाङ्गणतरणिश्रीरत्नसिंहसूरीणाम् ।
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शिष्याणुना इदम्-औक्तिकम् - उदितम् उदयसंज्ञेन " ॥ १३० ॥ 'मुनि - गगन - शर- इन्दुमिते ( १५०७ ) वर्षे हर्षेण सिद्धिपुरनगरे प्राथमिकस्मृतिहेतोर्विहितो वाक्यप्रकाशोऽयम् । १३१ ॥
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तात्पर्य ए के श्रीदेववर्धन- विद्यागुरु-ना शिष्य अने रत्नसिंहसूरिना हस्तदीक्षित शिष्य उदयसिंहमुनिए प्रस्तुत वाक्यप्रकाशनी रचना सिद्धपुरनगरमा १५०७ विक्रमसंवत्मा करी छे. आ पुस्तकनी पोथी साणंदमां श्रीमती साध्वी हेतश्रीजीना संग्रहमा छे.
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