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________________ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति घटमान छे. 'सवडि'नी व्युत्पत्ति निश्चित थई शकी नथी. परंतु सं० सपर्या–प्रा० सपरिया-सवलिया साथे प्रस्तुत ' सवडि'नी सरखामणी करी शकाय. 'सपर्या'मां मूल धातु ‘सपर' छे. 'पूजा-आदर-मान' ए तेनो अर्थ छे. कोई अतिथि के मित्र अन्यने घरे जाय अने त्यां तेनी जे बधी अनुकूलता सचवाय ते ज तेनां पूजा-आदर-मान कहेवाय. 'सवड के 'सगवड'ना आशयमां अनुकूलतानो भाव प्रधानपणे रहेलो छे ए दृष्टिए सपर्या-सवलिया अने ‘सवडि' ए बधार्नु मूळ एक होय एम लागे छे अथवा 'तत्क्षण' अर्थवाळा ‘सपदि' पद साथे 'सबडि'नी तुलना करी शकाय. आवनार अतिथि के मित्रने जे अनुकूलता तत्क्षण अपाय ते 'सवर्ड'ना भावमां आवे छे एटले 'तत्क्षण' अने 'तत्क्षण थनारी अनुकूलता' ए बे बच्चे अभेद कल्पिए तो “सपदि' अने ‘सवडि'नुं साम्य साधी शकाय. आ रीते भाषामां प्रचलित 'सोई' शब्दनी पण 'सपदि' पद साथे तुलना करी शकाय. सपदि-सवदि-सवइ-सउइ-सोई. अथवा अरबी भाषामां 'सगवड' अर्थ माटे ‘सहूलत' पद छे. तेने ज घाटघूट-ठीक संस्कार-आपी ‘सवडि' शब्दने प्रचारमा आथ्यो होय. "संचरंत' पद भाषाना संचरता' पदने मळतुं छे. 'मोरंति' क्रियापदमां — मोर' धातु छे. भाषामां “मोरवू' क्रियापद प्रतीत छे. 'दीवानी शग मोरजो' ए वाक्यमां “मोर' धातुनो उपयोग काठियावाडमां प्रतीत छे. आचार्य हेमचंद्र 'मोर' धातुने ‘भञ्ज' (भांगवू) धातुनो पर्याय कहे छे. 'मोर' धातु देश्य मालूम पडे छे अथवा 'नगरमर्दी' 'प्राकारमर्दी' वगैरे प्रयोगोमां वपरायेला 'क्षोद' अर्थवाळा ‘मृद्' ( नवमो गण) धातु साथे 'मोर' धातुनी सरखामणी थई शके एम छे : मृद्-मुद्-मुड-मोड-मोर्-आवो क्रम कल्पी शकाय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004874
Book TitleGujarati Bhashani Utkranti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMumbai University
Publication Year1943
Total Pages706
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, History, & Grammar
File Size22 MB
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