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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
गंग गमेष्पिणु जो मुअइ जो सिवतित्थ गमेपि । कीलदि तिदसावास गउ सो जमलोउ जिणेपि ॥ ७८ ॥
वलयावलिनिवडणभएण धण उद्धब्भुअ जाइ । वलहविरहमहादहहो थाह गवेसइ नाइ ॥ ७९ ॥ पेक्खेविणु मुहु जिणवरहो दीहर - नयण सलोणु । नावइ गुरुमच्छरभरिउ जलणि पविसइ लोणु ॥ ८० ॥ चंपयकुसुमहो मज्झि सहि ! भसलु पइइउ । सोहइ इन्दनीलु जणि कणइ बइट्ठउ || ८१ ।। पाइ विलग्गी अंडी सिरु ल्हसिउं खंधस्सु । तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउं कंतस्सु ॥ ८२ ॥ सिरि चडिआ खंति प्फलई पुणु डालई मोडति । तो वि महद्दुम सउणाहं अवराहिउ न करंति ॥ ८३ ॥
हैम - छन्दोनुशासन - ( पृ० ३५ थी ४६) सायरु रयणायरु बोल्लहिं जं बुहसत्थ, तं सच्चु जि जाय निसायरकुच्छुह जत्थ ।
जह एक हूओ सिरिकंठसिरे अवयंसु, अवरु सिरिनाहउरि भूसणु उल्लसिअंसु ॥ ४ ॥ ( छंद - अवतंसक ) रेहहि अरुणकंति धरणीअलि इंदगोवया, पाउससिरि नाइ पय जावयबिंदु लग्गया ।
एह वि विज्जुलेह झलकंति अ बहलकंतिआ, लक्खिज्जइ जायरूवनिम्मविअ व्व कंठिआ ॥ ७ ॥ ( छंद - इन्द्रगोप )
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