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आमुख
स्पर्श, गंध, रस अने रूप जेटला स्पष्ट छे तेटलो शब्द नथी. शब्दस्वरूप आq अगम्य जेवू होवाने लीधे ज तत्त्वज्ञाननां प्राचीन पुस्तकोमा तेने माटे घणां पानां रोकायेलां छे एटलं ज नहीं पण तेना संबंधमां प्राचीन चिंतकोए जुदा जुदा विचारो बांधी राख्या छे.
सांख्यतत्त्वज्ञानना आद्य पुरुष कपिलमुनिए शब्दने प्रकृतिनो विकार शब्द स्वरूप विशे कह्यो छे. प्रकृति जडस्वरूप छे, व्यापक छे. अनेक मतो आकाश पण प्राकृतिक छे अने तेनी उत्पत्ति
कपिल शब्दतन्मात्राओ द्वारा थयेली छे. (' तन्मात्रा 'नो ख्याल 'परमाणु' शब्दथी आवी शके छे.)
त्रिफलां लवणाक्तेन भक्षयेच्छिष्यकः सदा ।
क्षीण(अग्नि)मेधाजनन्येषा स्वरवर्णकरी तथा" ।। ३६॥ यज्ञवल्क्यशिक्षा पृ० ५ तथा नारदीयशिक्षा पृ० ४४३ (बनारस-संस्कृत
सिरिझ १८९३) अर्थात् " सवारना पहोरमां ऊठीने आंबानु, खाखरानु, बीलानु, अघेडानु, शिरीषनुं तथा खेरनु, कदंबर्नु, कणेरनुं अने करंजक [कणजी] नुं दातण करवू जोईए, एनाथी वाणीनी शुद्धि थाय छे. ए उपरांत बधां कांटावाळां अने दूधवाळां वृक्षोनां पण दातण स्वरशुद्धि माटे लाभकारक छे. लवण साथे त्रिफळां खावाथी स्वरमां शोभा आवे छे, बुद्धि वधे छे अने अग्नि पण प्रदीप्त थाय छे.” ३ सांख्यतत्त्वकौमुदीमां शब्दने आकाशनो गुण कहीने जणावेलो छ :
“प्रकृतेर्महान् ततः अहंकारः तस्माद् गणश्च षोडशकः।
तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि” ॥ २२॥ व्याख्या-"पञ्चभ्यः तन्मात्रेभ्यः पञ्च भूतानि-आकाशादीनि तत्र शब्दतन्मात्राद् आकाशं शब्दगुणम् ”- (सांख्यतत्त्वकौमुदी)
“प्रकृतिथी महान् (महत्-तत्त्व) नीपजे छे, तेमांथी अहंकार अने अहंकारमांथी सोळ पदार्थोनो गण पेदा थाय छे. पांचमांथी पांच भूतो नीपजे छे.” २२. "पांच तन्मात्राओमांथी पांच भूतो-आकाश वगेरे-नीपजे छे. शब्दतन्मात्रामांथी आकाश ऊपजे छे अने आकाशनो गुण शब्द छे.”
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