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४१२ गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति पद, त्र्यक्षर होवाथी द्रुत उच्चारणवाळु बने छे तेथी ज त्यां तेनो आध 'उ' गुरु रहेवो जोईए. पूर्वोक्त 'उप्पिं' तो 'ऊर्खे'-' उप्पहिं' ऊपरथी सीधुं ज आव्यु छे. तेने 'रि' प्रत्यय नथी लाग्यो.
१४६ धातुसंग्रहमा पहेला गणमां ‘अवरोध' अर्थमां ‘वल' धातु जणावेलो छे, ते ऊपरथी 'बलि-वलि' क्रियापद आवी शके छे. 'वलि बलि' ए बीजा पुरुषना एकवचन- क्रियापद छे. तेनो अर्थ- कळवळ-पाछो वळ-रोकाई जा' छे.
'जित्तउ' अने 'जीतउ' ए बन्ने एक ज अर्थमां छे. 'जित्यो' तेनो अर्थ छे. ते ज अर्थमां 'जि' धातुन 'जिप्पिअ' रूप पण थाय छे. मने लागे छे के ‘जिप्पिअ' ना अनुकरण द्वारा 'जित्तउ' मां बेवडो 'त्त' अने जीतउ'नो 'जी' दीर्घ थयो जणाय छे.. ___ 'टोहणकालि' एटले ‘टोवाने वखते'. 'टोवु' एटले “खेतरमा पक्षी वगैरेने आवतां रोकी राखवा जे अवाजो करवा पडे ते क्रिया.' संस्कृत धातुसंग्रहमा ‘स्तुभ्' धातु ‘क्रियानिरोध'ना अर्थने सूचवे छे. थोभ,
थोभो, थोभनारो वगैरे पदो उक्त 'स्तुभ्' ऊपरथी
आवेलां छे. ए प्रमाणे ' स्तोभन'_' थोभण-थोहणटोहण' ए रीते 'स्तुभ' ऊपरथी 'टोहण' शब्द आवे छे अने अर्थनी सुघटना पण रहे छे. भाषानो 'टोयो' शब्द पण 'स्तुभ' ना 'स्तोभक :थोभओ-थोहओ-टोयो'-ए रीते आवेलो छे. ‘हिली' शब्द क्रीडावाचक 'हेला' नुं रूपांतर छे. 'हेला' एटले
विलास. अथवा 'हेलि' एटले 'आलिंगन'. ए
ऊपरथी पण 'हिलि' पद आव्यु होय. परंपराए अहीं बन्ने अर्थ घटमान छे. अहीं 'हिल्लि' नो सीधो अर्थ 'हेळ' साहचर्य छे.
___टोg
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