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आमुख
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मध्ययुगना जैन पंडिताए आ साधारण प्राकृतनो विशेष उपयोग कर्यो छे अने तेनी सरखामणीमां ते युगना ब्राह्मण पंडितो पण तेनो ओछो उपयोग नथी कर्यो. तेमना नाटकोमां तथा गउडवहो, रावणवहो, सेतुबंध, गाथासप्तशती वगैरे अनेक ग्रंथोमां ते साधारणप्राकृत ज वपरायुं छे. जैन पंडितोना प्राकृतमां आर्षनी छांट होय छे त्यारे ब्राह्मण पंडितोना प्राकृतमां आर्षनी छांट विशेषरूपे नथी होती. ए, ते बन्नेनी खास विशेषता छे. अभ्यासमा सरळता थाय ते माटे आर्षप्राकृत अने साधारणप्राकृतनो शब्ददेह प्राकृत व्याकरणोमां त्रण रोते बहेंचेलो छे.
बीजा थरनी अने बीजा थरमांथी ऊतरेली साधारण-प्राकृतनी शब्दकाया जो के आदिम प्राकृत द्वारा घडायेली छे, तो पण ते शब्दकायाना जे शब्दो वैदिक ऋचाओमां जळवायेला शब्दो साथै उच्चारण अने
अर्थनी दृष्टिए सर्वथा समानभाव राखता होय. तेमनुं समुचित नाम तत्सम शब्द ऋग्वेदादि वैदिक साहित्यमा वपरायेला अने बौद्ध-जैन-आगमादिक
प्राकृत साहित्यमां वपरायेला एवा केटलाक शब्दो नीचे प्रमाणे छे: भूरि, वसु, धूम, वीर, महावीर, भेदति, मरति, हाति, जन्तु, उत्तम, सह, भीम, देव, विभाग, बाहु, पुरंदर, धीर वगैरे. आ जातना शब्दो उक्त प्राकृत साहित्यमां हजारोनी संख्यामां मळे छे.
वैदिक शब्दोमा अने उक्त साहित्यगत शब्दोमां ज्यां उच्चारण भेद क्र्ते छे छतां अक्षरयोजना अने अर्थदृष्टिए समा' नो नता जळवायेली छे तेवा प्राकृत शब्दसमूहनुं नाम तद्भव शब्द. जेमके - मन्त्र - मंत, भक्त-भक्त, कवि
'तद्भव' अर्थ
कइ, पद-पय, पर्वत - पव्वत-पव्यय, कूप- कूव, यज्ञ - जन्न, पाप-पाव,
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तत्सम' नो अर्थ
११२ “ प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवम् तत आगतम् वा प्राकृतम् ” ( ८-१-१ हे० ) एम कहीने हेमचंद्र कहे छे के "संस्कृत शब्दने स्थाने जे शब्दने आदेशरूपे
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