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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
प्राचीन-पाचीन-पाईण, पुष्प-पुप्फ, पुरुष-पुरुस-पुरिस, कृण-कुण, द्वादश-द्वादस-दुवालस-बारस, चक्र-चक्क, सप्त-सत्त, वधू-वहू वगेरे. करेलो होय वा संस्कृतशब्दमां अमुक फेरफार करीने जे शब्द सधातो होय ते बन्ने प्रकारना शब्दो तद्भव कहेवाय.” ___ आदेशरूप-हे? “ अधसो हे;" ८।२।१४१॥
दाढा “ दंष्ट्राया दाढा" ८।२।१४० ।
पुरिम "पूर्वस्य पुरिमः” ८।२।१३५ । वगेरे.
एवा आदेशो माटे ८।२।१२५ सूत्रथी जोवू. थोडा फेरफारवाळा-हत्थी-हस्ती.
मंत-मन्त्र.
भत्त-भक्त. आवा अनेक शब्दो तो ऊपर सूचवेला ज छे. हेमचंद्रना कहेवा प्रमाणे तत्सम, तद्भव अने देश्य एम त्रण प्रकारचें प्राकृत छे. चंडनो अभिप्राय पण ए ज प्रकारनो छे. तेणे ए माटे 'संस्कृतयोनि' 'संस्कृतसम' अने 'देशी' एवा शब्दो वापर्या छे..
आ संबंधे मारो नम्र मत एवो छ के प्राकृतभाषाओ माटे 'संस्कृतयोनि' के 'तद्भव' शब्दो ज्यारथी प्रचारमा आव्या त्यारथी एक एवो गोटाळो ऊभो थयो छे के प्राकृतभाषाओनी जननी संस्कृत भाषा छे अने ए गोटाळो आज सुधी पण प्रचलित छे. मारा भाषणमां (पृ. ४९) 'संस्कृत द्वारा प्राकृत भाषा आवी छे' ए मतनोप्रतिवाद में घणी युक्तिओ आपीने करेलो छे. ते संबंधे भाषातत्त्वविचारको जरूर लक्ष्य करशे. 'प्राकृत' शब्दनो अर्थ ज‘स्वाभाविक' छे एटले जे भाषा स्वाभाविक-जन्मसिद्धहोय-जेने बोलवा माटे अध्ययनादिप्रवृत्तिनी जरूर ज न होय. तेवी लोकभाषाओनो प्राकृतभाषाओमा समावेश छ अर्थात् प्राकृत शब्दनो अर्थ ज ए हकीकतने सिद्ध करवाने पूरतो छ के ते संस्कृतजन्य नथी किंतु स्वाभाविक छे. आम छे त्यारे प्राचीन वैयाकरणोए प्राकृत माटे 'संस्कृतयोनि' के 'तद्भव' शब्द वापर्या छे ते शुं तद्दन खोटा छे ? आ प्रश्र्नु समाधान पण भाषणोमां (पृ० ७६) आवी गयुं छे, एथी अहीं पुनरुक्ति नथी करतो. परंतु खास बात तो ए कहेवानी छे के, प्राकृतना 'संस्कृतयोनि' 'तत्सम' अने 'देश्य' एवा त्रण प्रकार कहेवानी जरूर ज नथी. तेने बदले “ तत्सम' 'देश्य' एवा बे ज प्रकार बताववा उचित छे.
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