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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
धन विण मानव कहु किम करई धन विण उदर दोहिला भरई । धन विण भुअणि भला नही भोग धन विण नहीं सकल संयोग २६ धन विण नारि नेह नवि धरइं धन विण दास करम न करई । धन विण कोइ न देवई मान धन विण अंतर फोफल पान ॥२७॥ सगा सणीजा जे संसारि धन विण नवि चडवा दई बारि । यती पाधरा जे वनि रहई सूध मनि धर्मलाभ न कहइं ॥ २८॥ रयणि दिवसि जाई जागतां भाइ भटकइ काइ मागतां । धननु धणी जिहां जिहां जाइं असगा हुई सगा ते थाइ ॥२९॥
तपगछि गुरू गोयमसमा श्रीसौभाग्यनंदिसूरि सार । श्री अमरसमुद्र गुरू राजीआ श्रीहंससंयमसार ॥ १६५॥ जयवंता गुरु जाणीइं जास नमइं नरराय । श्रीसमयरत्न सहि गुरु जयु प्रणमीय तेहना पाय ॥ १६६॥ संवत पनरनव्यासीई माघमासि रविवारि । अहिमदावाद विशेषीइं पुर-बुहादीन मझारि ॥ १६७ ॥ संघ सुगुरू आदेसडई जिह्वा करी पवित्र । बोहा बलिभद्र किहरसि जसभद्र रचिउं चरित्र ॥ १६८॥ गुणतां घरि गुरूअडि घणी भणतां लहीइं भोग । थुणतां थिर कीरति हुइ सुणतां सवि संयोग १६९ ॥
-अंत. श्रावकविधिसज्झाय जे गुरु गांठि गरथ ज करइ ते निश्चइ पिंड पापि भरइ । गरथ ऊपरि वाधइ मोह गरथई आणइं मन अंदोह ॥ ८॥
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