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आमुख
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अपभ्रंश भाषाने भरतथी पूर्वे एक वा दोढ सैको लई जवानां ज ए निर्विवाद वात छे. तात्पर्य ए छे के, उक्त प्रकारनां साधनो द्वारा विशिष्ट प्रकारनुं अपभ्रंश-साहित्यिक अपभ्रंश विक्रमना चोथा वा पांचमा सैका सुधी पहोंचवानुं अने विशिष्ट बाधक प्रामाण न मळे त्यां सुधी आ कल्पनाने अवकाश रहेवानो.
७२ तुलनात्मक भाषाविज्ञाननी दृष्टिए जोतां जेमां आवेलां पद्योनी महायानपंथना भाषा चोक्खी अपभ्रंश छे, एवां बीजां साधनोनो ललितविस्तर परिचय आ प्रमाणे छ : आदि ग्रंथोनां अपभ्रंशपद्यो
बौद्धमहायानपरंपरानां ललितविस्तर, लङ्कावतारसूत्र, सद्धर्मपुण्डरीक वगैरे अनेक ग्रंथो आजे उपलब्ध छे. तेमां एवां अनेक पद्यो मळे छे जे नथी संस्कृत, नथी ( रूढ ) प्राकृत; किन्तु ते पद्योमां वपरायेलां विभक्त्यन्त पदो जोतां अपभ्रंशनो कोई अभ्यासी तेमने अपभ्रंश पद्यो तरीके ज ओळखे एवां ए चोक्खां अपभ्रंशरूप छे.
___ ललितविस्तरमा आवेलां पद्यो नीचे प्रमाणे पद्यो
ललितविस्तरनां ले:
“ प्रत्येक बुद्धभि च अर्हभि पूर्णलोको निर्वायमाणु न बलं मम दुर्बलं स्यात् । सो भूयु एकु जिनु भेष्यति धर्मराजो गणनातिवृत्तु जिनवंशु न जातु छियेत् ॥ (वसंततिलका)
[अध्याय २१-पृ० ३०३] रणकालि प्राप्ति यदि नाम जयो न दोषः तत्रैव यस्तु निहतो भवते स दोषः।
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