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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति नो 'स' अने 'ऋ' नोर' बोलायो छे. तथा · अपनी ' नो 'अप' उपसर्ग 'ओ' रूपे थई ‘ओण्' धातुमां अंगरूप बनी गयो छे अने "नी' नो अन्त्य 'ई' खरी गयो छे.
ए रीते कहेवाती संस्कृत भाषाना उपर्युक्त शब्दोमां अने उदाहरणरूपे टांकेलां केटलांक क्रियापदोमां उच्चारणभेदनो प्रवाह अविच्छिन्नपणे घणा लांबा समयथी चाल्यो आवे छे त्यारे प्राकृत भाषाओमां तो ए प्रवाह निरन्तर वही ज रह्यो छे.
१५ उक्त धातुसंग्रहमां बीजी बीजी भाषाना धातुओ पण पेठेला छे संस्कृतमां अन्य सहकाकत ता खुद यास्के अने महाभाष्यकारे पोते भाषाना धातनो पण जणावेली छे : "शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष एव प्रवेश, ए विशे भाष्यते” x x x “विकारमस्य आर्येषु यास्क अने भाषन्ते ‘शवः' इति"-[यास्क निरुक्त पृ. १०४]
भाष्यकार “स एषः शवतिर्गतिकर्मा गत्यर्थो धातुः कम्बोजेष्वेव भाष्यते-म्लेच्छेषु प्रकृत्या प्रयुज्यते शवति-गच्छति-इत्यर्थः" - [निरुक्तनी दुर्गाचार्यकृत वृत्ति पृ० १०५-तथा महाभाष्य आह्निक १ पृ० २१] __ आ उपरांत ए ज पाना ऊपर “ सर्वे देशान्तरे" वाक्यना भाष्यमां जणाव्युं छे के-“ हम्मतिः सुराष्ट्रेषु, रंहतिः प्राच्यमध्येषु, गमिमेव तु आर्याः प्रयुञ्जते ।” अर्थात् ' शव् ' एटले — जवु' एवो प्रयोग अनार्य एवा कंबोज देशमा ज प्रचलित छे, आर्यलोको तो 'शव' नो अर्थ * मडढुं' करे छे. ' हम्म् ' एटले — जवु' एवो प्रयोग सुराष्ट्र देशमा प्रचलित छे अने प्राच्यमध्य देशमा 'रंह ' एटले — जवु ' नो प्रयोग चाले छे, त्यारे आर्यलोको 'गम्' (एटले ' जq') नो प्रयोग करे छे. ३० श्रीवासुदेवअभ्यंकरशास्त्रीजीवाळी मराठीभाषांतरयुक्त आवृत्ति.
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