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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति त्रीजी कलत्र भणइ वि नाह ! जउ अम्ह छांडेसिउ। तिणि जंबुकि जिम साणहार बहुखेद करेशउ ॥२७॥ ऊतर पडऊतर बहू य संखेवि कहीजई । विलखी हुई ते सव्वि बाल जंबूसामि न बूझई । आसा-तरुवर सुक्क जाम अम्हि इशउं करेशउं । नेमिहिं सिउ राइमइ जिम वयगहण करेशउं ॥२८॥ आठइ कलत्रह बूझवीय पंचसय सिंउं प्रभवउ ।
माइ बाप बेउ भणई ताम अम्ह साधु सरीसउ । ठवणि—प्रह विहसइ सुविहाण प्रभवु विनवइ जंबुसामि ।
सजनलोक मोकलावि तम्हि सिउं संजम लेसिउं ॥२९॥ खण एक पडषाएवि राय मोकलावण चालीय । तु सुहडसमूह करेवि भुई कंपई भडभडवई ॥३०॥ जस भय ध्रसकइ राउ जस भय नींद्र न वयरीयहं । एसउ प्रभवउ जाइ नरनारी जोयण मिलीय । पहुतु रायदुवारि पडिहारिइं बोलावीउ । वेगिई राउ भेटावि अम्हि अछउं उत्सुकमणा ए ॥ ३१॥ पुत्त तणउ विझराय तुम्ह दरिसणि ऊमाहीउ ओ। कारण जाणीउ राय वेगिहिं सो मेल्हावीउ ओ। देठि न खंडइ राउ प्रभवउ देषी आवतउ । साचउ ए भडिवाउ पुरुषह आकृति जाणीइ ए ॥ ३२ ॥ रूपगुणे संपन्न रायरमणिमन चोरतु ओ। सोहइ पूनिमचंद जइ द्रव कोणी प्रणमीउ । नुतउ अद्धसीय शरीर जइ कोइ जणणीजाइउ ।
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