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आमुख
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मूळ स्वरूपनी स्थिति. जे भाषा स्वभावद्वारा आवेली छे वा स्वभावद्वारा नीपजेली छे तेने 'प्राकृत' नाम आपी शकाय-वधारे स्पष्टरीते कहीए तो जे भाषानी निष्पत्ति माटे कोई खास प्रकारना कृत्रिम उपायो नथी लेवाया, जेमां एनी मेळे ज विविध उच्चारणो-रूपांतरो जन्म्यां, जेना संस्कार माटे कोई खास शास्त्र नथी रचायुं अने जे, मूळ चालती स्वाभाविक जीवती भाषा हती ते ज उक्त निमित्तोने बळे आपोआप रूपांतर पामी सर्वसाधारणमां प्रसरी-आबाळगोपाळ सुधी पहोंची ते भाषा स्वाभाविक कोटिनी कही शकाय अने एवी ज भाषा 'व्यापक प्राकृत' ना नामने लायक कहेवाय. ३६ मूळ वैदिक भाषाना जीवता देहनी आवी परिस्थिति थतां ए
. समये जे लोको आर्यताना ज चुस्त हिमायती लौकिक संस्कृतनी हता, आर्यभाषामां थतां अनेक परिवर्तनो जेमने घटना अने तेनुं
- अक्षम्य लागेला तेमने एम भासवं स्वाभाविक छे प्रयोजन
के सर्वजनसाधारण भाषानो ज प्रभाव प्रबळपणे वधतो रहे अने आर्योनी भाषाविषयक विशिष्टताने बतावनाएं एक पण साधन न जळवाय तो आर्योनी संस्कृति जाय अने साथे साथे आर्योनी मूळ भाषानो देह पण पडे एटले परिणामे मूळगी आर्यता ज भूसाई जाय, ए रीते संस्कृतिना रक्षणनी प्रबळ प्रेरणाने लीधे इन्द्रादि ऋषिओए ते समये जे कांई मूळरूपे बच्युं हतुं अने विकृतशब्ददेहमांथी य जे कांई मूळरूपे शोधी शकाय एवं हतुं ते बधानो आधार लई आर्योनी भाषानुं एक विशिष्ट बंधारण घडवानुं निर्धायु.
उक्त बंधारण करवू पण काई सरल न हतुं, ए तो मूळ प्रयोगो भेगा थाय, विकृत प्रयोगो भेगा थाय—आ प्रयोगो य कोई हजार बे हजार न
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