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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति लौ० सं० वै० सं०
व्या० प्रा० कर्तुम् कर्तवे [वै० प्र० ३-४-९] कत्तवे-कातवे-करित्तए
नेतुम्
नेतवे
निधातुम्
निधातवे गणयितुम्
गणेतुये द्रष्टुम् दृशे
दक्खिताये 'एतुम्' ('इ' धातुनुं हेत्वर्थक) अर्थ माटे व्यापक प्राकृतमां 'एतसे' पद [पालिप्र० संकीर्ण क० कृ० पृ० २५८] सचवायेलुं छे ते, वैदिक प्रक्रियामां वपराता तुमर्थक ‘से,' 'सेन्' अने 'असे' प्रत्ययोवाळां रूपो साथे सरखाववा जेतुं छे. [वै० प्र० ३-४-९]
ए ज प्रकारे अपभ्रंश प्राकृतमां तुमर्थे ' एवं' [है० व्या० ८-४४४१] प्रत्यय आवे छे, ते, वैदिक प्रक्रियाना तुमर्थक ‘तवे' 'तवै' के 'दृशे' रूपमा लागेला तुमर्थक अन्त्य 'ए' प्रत्यय साथे सरखावी शकाय एवो छे. [३२] मध्यम पुरुषना आज्ञार्थ सूचक एकवचनना प्रत्यय 'हि'
__वा 'स्व' ने बदले अपभ्रंश प्राकृतमां 'इ' आज्ञार्थसूचक , अने 'ए' एवा त्रण प्रत्ययो आवे छे. मध्यम पुरुष एकवचन
तेमांनो 'इ' प्रत्यय वैदिक प्रक्रियामां वपरायेला
आज्ञार्थ मध्यम पुरुष एकवचन सूचक ‘बोधि' ( बोध् +इ) [ निरुक्त पृ० १०१ पं० ३] रूप ना 'इ' प्रत्यय साथे विशेष मळतापणुं राखे छे.
[३३] सम्बन्धक भूतकृदन्तने सूचववा माटे व्यापक प्राकृतमा संबंधक भूतकृदंत नीचेनां रूपो वपराय छे.
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