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आमुख
श्रुत्वा
गृहीत्वा
इष्ट्वा
इष्ट्वीनं
विप्लूय
वियुत्य
लौ० सं०
व्या० प्रा० सुणित्वान
गहाय त्यारे वैदिक प्रक्रियामां ते अर्थे वपरायेलां रूपो आ प्रमाणे छ : लौ० सं० वै० सं०
[वै० प्र० ७-१-४८] पीत्वा पीत्वी
[वै० प्र० ७-१-४९] गत्वा गत्वाय
[वै० प्र० ७-१-४७] विप्लुत्य
[वै० प्र० ६-४-५८] वियूय उक्त बन्ने प्रकारनां रूपोमां विशेष समानता नजरे आवे एम छे. वळी, अपभ्रंश प्राकृतमां [है० व्या० ८-४-४३९] ए अर्थमां वपरातो 'इ' प्रत्यय वैदिक 'पीत्वी' साथे मळतो आवे एवो भासे छे.
संबंधक भूतकृदन्त सूचक वैदिकरूप [वै० प्र० ७-१-३८] 'परिधापयित्वा' साथे व्यापक प्राकृतनां ' उवसंकमित्ता' 'निझाइत्ता' 'आगमेत्ता' वगैरे रूपो स्पष्ट साम्य धरावे छे. [३४ ] व्यापक प्राकृतना 'ओसहीहि' रूपमा वैदिक ‘ओषधीभिः'
[वै० प्र० ६-३-१३२ ] रूपनु बराबर 'भि' अने 'हि' [३५] व्यापक प्राकृतमां गच्छरे, विच्छुहिरे वगैरे रूपोमां त्रीजा
पुरुष बहुवचन माटे 'रे' के 'इरे' प्रत्यय वपराय त्राजा पुरुष बहु छे ते वैदिक प्रक्रियामां आवता दुहे (दुहु+रे) वचन 'रे' प्रत्यय
' रूपना 'रे' साथे साम्य धरावे छे. [वै० प्र० ७-१-८]
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