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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
स्मृ-सुमर् + अ + अंत सं० स्मरत् - सुमरंत, सुमरेंत; दृ-दार् + अ + अंत = दारंत ( दारयत् ), कृ + अ + अंत = करंत ( कुर्वत्) आ कृतिओमां वपरायेलां बधां वर्तमान कृदंतो 'अंत' प्रत्ययवाळां छे. संस्कृतमां ' माण' प्रत्यय आत्मनेपदी धातुने ज लागे छे, पण प्राकृतमां 'माण' प्रत्ययनो व्यवहार सर्वत्र अबाधित छे. छतां आ कृदंतोमां तेनो प्रयोग देखातो नथी.
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चालु भाषामां वर्तमान कृदंतना 'अंत' अने 'अत' प्रत्ययो प्रचलित छे: वदंती, जमंतो, हलंतो अने करतो, जमतो, भणतो वगैरे. प्राकृतनो 'अंत' अने आ 'अंत' तथा ' अत' ए बन्ने एक ज छे.
हेमचंद्रना ३१ मा पद्यमां ' करतु' पद वर्तमान कृदंतरूपे वपरायुं छे, एटले आपणी आजनी भाषामां वपरातो वर्तमान कृदंतनो 'अत ' प्रत्यय ठेठ हेमाचार्यना समयथी चाल्यो आवे छे अने वर्तमान कृदंत माटे विशेषे करीने ए एक ' अत' प्रत्ययनो ज भाषामां व्यवहार छे.
१११ संबंधक भूतकृदंत माटे हेमाचार्य अनेक प्रत्ययो आपे छे. इ, इउ, इवि, अवि, एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु-आ संबंधक भूतकृदंत आठ प्रत्ययो संबंधक भूतकृदंतना छे. प्राकृतमां संबंधक भूतकृदंत माटे तुम्, अ, तूण अने तुआण प्रत्ययोनो व्यवहार छे. प्राकृतना आ प्रत्ययो अने हेमाचायें बतावेला जगती गुजरातीना उक्त प्रत्ययो वच्चे साम्य जणातुं नथी. संस्कृतमां ज्यां ' क्त्वा' ने बदले 'य' वपराय छे ते ऊपरथी प्राकृतनो 'अ' अने उक्त 'इ' ' इउ' आव्या होय अने पालिमां संबंधक भूतकृदंतना 'सुणित्वा' वगेरे प्रयोगोमा 'त्वा' प्रत्यय आवे छे. ते ' त्वा' वा 'इत्वा' ऊपरथी ' इवि ' के ' अवि' आव्या होय अने ' त्व' नो 'प्प' थई ते द्वारा ' एप्पि' अने एवि ' आव्या होय तथा वैदिकमां परायेला संबंधक भूतकृदंतना ' त्वीन' प्रत्यय द्वारा के
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