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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
अधम पशु दक्षिण दिश जातां उत्तम पशु तां वाम । अश्व न हींसे रोता दीसे काइक कूडूं काम ॥ २३ ॥ मृत्युदूत कपोत रह्यो करतो कुच्छित शोह्र ।। उलूक मन कंपावे माझं घुर्धर शब्दे घोर ॥ २४ ॥ कलकल शब्द काक लवे छे सर्व तणां सुख हरवा । ए सर्वे अपचिह्न अनेरां अवनी उज्जड करवा ॥ २५ ॥ धूसर दिश ने रवि शशी पाछल्य जलकुंडल भयकारी । पर्वत साथ्ये पृथ्वी कांपे भय उपजावे भारी ॥ २६ ॥ वीज पडे वरसाद विना ने घन विन वादल गाजे । एड्वा आ उत्पात विलोकी मारूं मन अति भाजे ॥ २७ ॥
__ (पृष्ट २२९) त्रेपन श्लोक तणो विस्तार रत्ने कर्यु यत्ने विस्तार । संवतनी संख्या सविलास सत्तरशे ओगणपंचास ॥ १०८॥ कार्तिक विधु सह एकादशी वार विधुसहित उल्सी । मेघतनय दर्भावती गाम श्रीमाली रत्नेश्वर नाम ॥ १०९ ॥ गीर्वाण वाणीनो कवि तोहे प्राकृतनी मति हवी ।
कवि प्रेमानंद ( हस्तलिखित गुटको–गु० व० सो०) लख्या वर्ष- १७६२ रचना पछी २४ वर्षे लखायेल
(आरंभ) अथ श्रीनैशदराएनी कथा लखी छे.
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