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आमुख
४८ आजे इतिहासनी दृष्टिने प्रधानपणे राखीने भाषातत्त्वना विकास
- संबंधे पण आपणे विचारता थया छिए तेम आपणा भाषातत्त्व अने
। पूर्वजोमां कोई पण तत्त्व संबंधे इतिहासदृष्टिनो विशेष इतिहासदृष्टि
" ख्याल न हतो अने भाषातत्त्वना विकास विशे तो तेमणे ए ख्याल भाग्ये ज राखेलो. एटले तेमणे पोतपोतानां व्याकरणोमां आदेशोनी पद्धति स्वीकारी छे. परंतु कोई पण शब्द वा तेनां रूपोने तेओए शब्दविज्ञाननी दृष्टिए साधी बताव्यां नथी छतां तेमां
... जाण्ये अजाण्ये शब्दविज्ञाननी दृष्टि तो जळवायेली छे. आदेश अने स्थानी
"" अने एम छे माटे ज तेमणे "आदेशः स्थानी इव" एबुं विधान करेलुं छे. 'दधि-अत्र' शब्दना संहितावाळा प्रयोगमा तेओ 'इ' ने 'य' ना रूपमा थवानुं कहे छे. पण 'व' रूपमा थवानुं कहेता नथी. एमां ज तेमनी शब्दविज्ञाननी दृष्टि मालूम पडे छे. परंतु ए दृष्टि पाछळना इतिहास विशे तेमनी उपेक्षा हती एटले तेओ, ए अने एवां बीजां अनेक परिवर्तनोने शब्दविज्ञाननी दृष्टिए घटावी शक्या नथी. __ आ रीते शब्दविज्ञाननी दृष्टिना अभावने लीधे तेओए आदेशो करवामां य ' आदेशः स्थानी इव' नुं पोतानुं विधान शब्ददृष्टिए तोडी" नात्यु छे अने सरळ उपाय समझीने 'प्रकृतिः संस्कृतम्' नो उल्लेख करेलो छे.
५१ दधि + अत्र-दध्यत्र. आ प्रयोगमा 'दधि' नो अन्त्य 'इ' स्थानी छे अने तेने स्थाने थयेलो 'य' आदेश छे. 'इ' अने 'य' वच्चे उच्चारणस्थाननी अपेक्षाए समानता छे: 'इ' तालव्य छे अने 'य' पण तालव्य छे, एम ए बे वर्णो वच्चे समानता छे तेथी तेमनी वच्चे 'आदेश' अने 'स्थानी' नो संबंध घटमान छे. एज रीते ज्यां ज्यां जे बे स्वरो, व्यंजनो, स्वर-व्यंजनो के शब्दो वचे उच्चारणस्थाननी, अक्षरानुपूर्वीनी के एवी ज बीजी कोई प्रकारनी समानता होय त्यां ज 'आदेश' अने 'स्थानी' नो संबंध घटी शके छे. आ जातनो समग्र
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