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गद्यभाग
चौदमो सैको अतिचार संवत्-१३४० आशरे -(प्राचीन गुर्जरकाव्यसंग्रह, वडोदरा)
कालवेला पढयं, विनयहीणु बहुमानहीणु उपधानहीणु गुरुनिण्हव अनेराकण्हई पढ्यं अनेरई कहई व्यंजनकूडु अर्थकूडु तदुभयकूडु कूडउ अक्खरु कानइ मात्रिं आगलउ ओछउ दे-वंदणवांदणइ पडिक्कमणइ सझाउ करतां पढतां गुणतां हुउ हुयइ, सूत्रु अथु बेउ कूडां कह्यां हुइ, ज्ञानोपकरण पाटी पोथी कमली सांपुडं सांपुडी आशातन पगु लागउ धुंकु लागउ पढतां प्रद्वेष मच्छरु अंतराइउ हउं कीधउ हुई तथा ज्ञानद्रव्यु भक्षितु उपेक्षितु प्रज्ञापराधि विणास्य विणासितउं ऊवेख्यं, कुंती सक्ति सारसंभाल न कीधियइ अनेरइ ज्ञानाचारि उ कोइ अतीचारु हुउ सुक्ष्मबादरु मनि वचनि काइ पक्षदिवसमांहि तेह सवहि मिच्छा मि दुक्कडं ।
प्रतिषिद्ध जीवहिंसादिकतणइ करणि, कृत्य देवपूजा धर्मानुष्ठानतणइ अकरणि, जि जिनवचनतणइ अश्रद्दधानि विपरीतपरुपणा एवं बहु प्रकारि जु कोइ अतीचारु हुयउ पक्षदिवसमांहि ॥
(२) नवकारव्याख्यानम्-(प्राचीन गुर्जरकाव्यसंग्रह, वडोदरा)
नमो अरिहंताणं॥ माहरउ नमस्कारु अरिहंत हउ । किसा जि अरिहंत; रागद्वेषरूपिआ अरि वयरी जेहि हणिया, अथवा चतुषष्टि इंद्रसंबंधिनी
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