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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति जं गहिरि सलिलि वियरंत मीण निकरुण के वि निहणहिं निहीण । जं लावय-तित्तिरि-दहिय-मोर
मोरंति अद्दोस वि के वि घोर ॥ १९ ॥ तं रसणह विलसिउ, दुक्कयकलुसिउ, तुम्हहं कित्तिउ कित्तियइ । जं वरिससएण वि अइनिउणेण वि, कह वि न जंपिउ सकियइ ॥ २०॥
घाणिंदिउ जं किर सुरहि दव्वु । वियलियविवेउ तं महइ सव्वु । जं असुरहि तिहिं पुण करेइ रोसु ता एउ वि जाण अणप्पदोसु ॥ २१ ॥ तह जइ वि दिहि वन्निअ अबला तह वि हु दुरप्प अच्चंत चवला । सुइ असुइ वि किंपि न परिहरेइ जं जुत्तु अजुत्तु वि तं निएइ ॥ २२ ॥ 'परदारपवत्तणि फरिसणस्स दूइत्तु एह पयडइ अवस्स । लोलत्तकरणि रसणह सहाय इय न कुणइ कित्तिय पहु अवाय ॥ २३ ॥ जिव सवणु सुणइ विडवग्गवयण तिव मुणिउवएसु न रुद्ध नयणु । तह गेय-वेस-कलिसवणहेउ उत्तम्मइ निच्चु वि निविवेउ ॥ २४ ॥ इय विसयपलक्कओ, इहु एक्केक्कु, इंदिउ जगडइ जग्गु सयलु।
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