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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति
एटलं सांभली पाछु बल्यु जिद्रथनई ते आवी मिल्यु । स्वामी पांडव केरी नारि एकली ऊभी मठनइ द्वारि ॥ १६ ॥ पांडव तु मृगया गया बन्नि कुहु नवि दीसह पासई जन्न । एहूवूं आवी प्रधानिकं द्रियनूं मन वल्लभ थयूं ॥ १७ ॥ द्रुपदी जाणी अवश्यमेव रथ खेडी चालिउ तत्खेव । जान जाती मेहूली यदा द्रुपदीनि हरवा आव्यु तदा ॥ १८ ॥ कृष्णा मन्त्रि विचार त्यांहि एकलु रथ कुहु आइ आहि । मनमां एह्वी आवी भ्रांति सूनूं मंदिर हूं एकांत ॥ १९ ॥ शुं जाणिदं कुहु कपटी राइ मननी वात कली नवि जाइ । एहूवी वात विचारइ मन्नि वैशंपायन किहि राजन्न ॥ २० ॥ एटलि रथ आविउ ढूकडु मन्न केरु भागु ऊभरु । जिद्रथनइं उलखिउ नारिं तिहारई प्राण आवइ ठाहूरि ॥ २१ ॥ एह तु पूज्य परुहुणु राइ मुझ दीटइ रलिआयति थाइ । एहं रिदइ विचारी जोइ एहूना मननूं कपट न होइ ॥ २२ ॥ रथ तां आवी रह्य क्षणमांहि द्रुपदी ऊभां छइ ते त्यांहि । मुखि छेडु देइ पूछइ बात आसन आप्यूं किहि बिसु भ्रात ॥ २३ ॥ भलई पधार्या नणदुइ ! तम्यो परुणागति शी कीजिई अम्यो । हवडां मृगया ग्या छइ राइ पाण्डव ते तां पांचे भाइ ॥ २४ ॥ मृग मारीनई ल्यावशि घइरि करज्यो भोजन रूडी परि ।
वासी ते तानई नवि रुचइ ताजूं हुइ ते तमनई पचइ ॥ २५ ॥ जिद्रथ किहि हूं भूख्यु नथी पाछई एहवी वाणी कथी ।
तां मुझ साथ आवे सही पांडव पासई वनि शुं रही ? ॥ २६ ॥ ए वनवासी मूंडा देखी मुझ घिरि आवी थाज्ये सुखी । तिहारि वचन इम बोल्यां सती जा जा अकर्मी थयु कुमति ||२७||
( पृ० २९८ )
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