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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति सु च्चिय किल कल्लाणु जेण जिण ! तुम्ह पसीयह किं अन्निण तं चेव देव ! मा मइ अवहीरह ॥ २६ ॥ तुह पत्थण न हु होइ विहलु जिण! जाणउ किं पुण हउँ दुक्खिय निरु सत्तचत्त दुक्कहु उस्सुयमण । तं मन्नउ निमिसेण एउ एउ वि जइ लब्भइ सच्चं जं भुक्खियवसेण किं उंबरु पच्चइ ॥ २७ ॥ तिहुअणसामिय ! पासनाह ! मइ अप्पु पयासिउ किज्जड जं नियरूवसरिसु न मुणउ बहु जंपिउ । अन्न न जिण ! जग तुह समो वि दक्खिन्नदयासउ जइ अवगन्नसि तुह जि अहह कह होसु हयासउ ॥ २८ ॥ एह महारिय जत्त देव ! इहु न्हवणमहूसउ जं अणलिय गुणगहण तुम्ह मुणिजणअणिसिद्धउ । एम पसीहसु पासनाह ! थंभणयपुरहिय ! इय मुणिवरु सिरिअभयदेवु विन्नवइ अणिंदिय ! ॥ ३० ॥
(२) वादिदेवमूरि-बारमो सैको
गुरुश्रीमुनिचन्द्रस्तवन नाणु चरणु संमत्तु जसु रयणत्तउ सुपहाणु । जयओ सु मुणिसुरि इत्थु जगि मोडिअवम्महखाणु ॥ १॥ उवसमरयणसमुद्दसमु विहलियजलसाहारु (-लयासारु ) बंदओ मुणिसुरि भवियजण जिम छं (छिं) दउ संसार ॥ २॥
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