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गुजराती भाषानी उत्क्रान्ति माटे त्वीन' नी साथे तेनो समानार्थक 'इ' प्रत्यय ऊमेरीए तो ‘वीनइ' थाय अने वखत जतां आ 'त्वीनइ', 'तीनइ ''ईनइ''ईने' ना रूपमां आवी शके. समानार्थक बेवडा प्रत्ययोनो व्यवहार लोकभाषामां सुप्रतीत छे. एटले अहीं पण 'वीन +इ' एवो बेवडो प्रत्यय लगाडीए तो हरकत जेवू जणातुं नथी. 'ई' अने 'ईने' प्रत्ययनी उपपत्ति विशे आ एक तुलनात्मक कल्पना छे. ते माटे कोई संवाद के उदाहरणो आपी शकाय तेम नथी. मात्र 'ईने' ना 'न' ने आगंतुक न मानवो अने प्रत्ययनुं अंग मानवो एवा विचारमाथी उक्त कल्पना ऊभी थई छे. आ माटे भाषाशास्त्रना विद्वानो विशेष प्रकाश नाखी ते प्रत्ययोनो शुद्ध इतिहास आपशे एवी आशा छे. 'करी' 'करीने' एवा प्रयोगोनी पेठे संबंधक भूतकृदंत माटे ‘भागु' ' भागुने' 'बांधु' 'बांधुने' 'जीतु', 'जीतुने' एवा प्रयोगो पण काठीओनी भाषामां चालु छे. श्रीमेघाणीजीनी रसधारोमा एवा अनेक प्रयोगो" उपलब्ध छे. ए प्रयोगोनी साधना आ प्रमाणे छ : प्राकृतमां संबंधक भूतकृदंत तरीके - उं' 'उ' 'ऊण' वगैरे प्रत्ययो प्रसिद्ध छे : (८-२-१४६). ' भागु' वगैरेमां (भाग +उ) 'उ' प्रत्यय छे अने ' भागुने' वगेरेमां (ऊण +इ
२८७ जेमां ‘भागीने' वगेरे अर्थसूचक ‘भागुने' वगेरे प्रयोगो आवे छे एवां सौराष्ट्रनी रसधारमा आवेलां वाक्यो आ प्रमाणे छे :
"हाल्य, काम पतावुने वळे नीकळीए" "गाम सोंसरवा थउने जोता जाइएं" “कागळमां वींटुने पछेडी लाव्य" "डायरामां बेसुने बडाइ हांकशे" “तरत आवुने मने चोर ठेरवशे”
-सौराष्ट्रनी रसधार भाग ३, घोडांनी परीक्षा.
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