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आमुख
बदले कोई बीजा ज व्यञ्जनो संभळाय छे अने वधारे प्रयोगोमां ते बधा व्यंजनोने बदले 'त' श्रुति थाय छे. कूणिक-कूणित,
.. आराधक-आराहत, अधिक-अहित, शाकुनिकअर्धमागधीमां
___ साउणित, वर्धकि-वडति, सामायिक-सामायित, अन्तिक
- _ 'त' श्रुति
___ अंतित, नाराच-नारात, वचस्-वति, वज्र-वजिर-वतिर, पूजा-पूता, राजेश्वर-रातीसर, आत्मजः-अत्तते, जितेन्द्रिय-जितिंदिय, सतत-सतत, यदा-जता, पाद-पात, नदी-नती, मृषावाद-मुसावात, यदि-जति, सामायिक-सामातित, गायति-गातति, स्थायिन्-ठाति, नैरयिक नेरतित, परिवार-परिताल, कवि-कति वगेरे.
आ जातनी त ' श्रुति नथी पालिमां के नथी मागधी वगैरे बीजी भाषाओमा; मात्र एक 'द' ने बदले 'त'नुं उच्चारण पैशाचीमा प्रवर्ते छे : दामोदर-तामोतर.
उक्त 'त' श्रुति आर्ष प्राकृतमां क्याथी आवी ? केम आवी ? क्यारे ७७ साधारण रीते एम जणाय छे के उक्त 'आराधक-आराहय-आराहत' वगेरे प्रयोगोमां शब्दनी अंदरना 'क' वगेरे व्यंजनोने बदले 'त' श्रुति देखाय छे; परंतु 'तुम्ह' शब्द एवो छे के जेमां शब्दना आदिभूत 'य' नी 'त' श्रुति धयेली छे. भाषाविज्ञानपंडितो 'तुम्ह' अने 'युष्म' वच्चे समानता बतावे छे तेथी तथा 'त्वया' 'तव' 'तुभ्यम्' 'त्वाम्-त्वा', 'ते','त्वयि' वगेरे 'युष्मद' नां रूपोमां 'त' श्रुति छे तेथी एम कल्पना थाय छे के 'युष्म' नी आदिना 'य' नी 'त' श्रुति थई ते ऊपरथी 'तुम्ह' रूप आव्यु होय. पालि अने प्राकृत जेवी विशेष प्राचीन भाषामा 'तुम्ह' पदनो प्रयोग सुप्रतीत छे ए ऊपरथी आ 'य' नी 'त' श्रुतिनी प्रथा केटली प्राचीन छे तेनी कांई कल्पना आवी शकशे.
७८ 'त' श्रुतिबहुलभाषा संबंधे नाट्यशास्त्रकार भरत मुनि कहे छे के.. "चर्मण्वतीनदीपारे ये चार्बुदसमाश्रिताः। तकारबहुलां नित्यं तेषु भाषां प्रयोजयेत् ॥"
-(नाट्यशास्त्र अ० १७, श्लो. ६२ नि०) “अर्थात् जे लोको चर्मण्वतीनदीपार रहेनारा छे अने अर्बुदनो समाश्रय करीने रहेनारा छे ते लोकोमा तकारबहुल भाषानो प्रयोग करवो.”
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