Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ ग व 10 for ई विआहपण्णत्ती (खण्ड-४) नित नया उन्मेष जिस मस्तिष्क का संधान है। वाचना के प्रमुख तुलसी का सकल अनुदान है। भाष्य-युग की शृंखला में एक नव्य प्रयोग है। राष्ट्रभाषा में विनिर्मित “भगवती”- अनुयोग है ।। वाचना - प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक : भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भगवान् महावीर (ईस्वी पूर्व ५९९ -५२७) की वाणी द्वादशांगी में संकलित है। उस द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम है-विआहपण्णत्ती जो 'भगवती सूत्र' के नाम से सुप्रसिद्ध है। जैन साहित्य में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से भगवती को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है। इसमें दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र, जीवविद्या, लोकविद्या, सृष्टिविद्या, परामनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का समावेश है। प्रस्तुत खंड में पांच शतकों (१२ से १६) के मूलपाठ, संस्कृत छाया तथा हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन विस्तृत भाष्य के साथ हुआ है। साथ में | अभयदेवसूरि-कृत वृत्ति भी प्रकाशित है। बारहवें शतक में जागरिका, परमाणु, जीव विभक्ति, पुनर्जन्म, सप्तभंगी आदि का सूत्रात्मक शैली में विवेचन है। तेरहवें शतक में पंचास्तिकाय, शरीर, भाषा और मन का संबंध, भावितात्मा अणगार की विक्रिया आदि महत्त्वपूर्ण विषयों का समाहार है। चौदहवें शतक में तमस्काय, तेजोलेश्या, परमाणु, देवों की विनय विधि तथा देवों की दिव्य शक्तियों का विलक्षण वर्णन है। पंद्रहवां शतक समग्र भारतीय इतिहास के लिए एक महत्त्वपूर्ण सूचना-स्रोत है। इसमें गोशालक के जीवन-वृत्त का रोचक शैली में निरूपण है। सोलहवें शतक में एक महत्त्वपूर्ण सूचना है-'वायुकाय के बिना अग्निकाय नहीं होती। भगवान महावीर के पास देव-आगमन के प्रसंग भी बहुत उतोरक हैं। निर्जरा का तुलनात्मक विवेचन, अधिकरण, मुनि की शल्य-चिकित्सा आदि महत्त्वपूर्ण प्रसंग भी इसमें समाविष्ट है। प्रस्तुत ग्रंथ को समग्र दृष्टि से भारतीय दार्शनिक वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई विआहपण्णत्ती (खण्ड-४) (शतक-१२-१६) (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा अभयदेवसूरिकृत वृत्ति एवं परिशिष्ट-शब्दानुक्रम आदि सहित) वाचना-प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक/भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती लाडनूं - ३४१ ३०६ (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं - ३४१३०६ (राज.. © जैन विश्व भारती, लाडनूं सौजन्य : पूज्य दादाजी स्व. महालचंदजी डागा, पूज्य दादीजी स्व. लिछमी देवी डागा की पुण्य स्मृति में उनके पौत्र पूनमचंद एवं प्रपौत्र राकेश, पंकज, ऋषभ डागा (सरदारशहर-चेन्नई) प्रथम संस्करण : अक्टूबर २००७ पृष्ठ संख्या : ४८९+२०=५०९ मूल्य : ५००/- (पांच सौ रुपया मात्र) टाईप सेटिंग : सर्वोत्तम प्रिण्ट एण्ड आर्ट मुद्रक : पायोराईट प्रिण्ट मीडिया प्रा. लि., उदयपुर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHAGAWAI VIĀHAPANNATTİ (Prakrit Text, Sanskrit Renderings, Hindi Translation and Bhasya [Critical Annotations] with Vitti of Abhayadevasūri and Appendices-Indices etc.) Synod-chief (Vachana-pramukha) ACHARYA TULSI [Volume - IV ] (Sataka 12-16) Editor and Annotator (Bhāşyakāra) ACHARYA MAHAPRAJNA JAIN VISHVA BHARATI Ladnun - 341 306 (Rajasthan) INDIA Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers : Jain Vishva Bharati Ladnun - 341 306 (Raj.) Jain Vishva Bharati, Ladnun Courtsey : Mr. Poonamchand (Grandson) & Rakesh, Pankaj, Rishabh Daga (Great Grand Sons) in the auspicious memory of Late Shri Mahalchand ji Daga, Late Smt. Lichmidevi Daga (Sardarshar-Chennai) First Edition : October 2007 Pages : 489+20=509 Price: Rs. 500/ Type Setting : Sarvottam Print & Art Printed by : PAYORITE PRINT MEDIA PVT. LTD. UDIPUR Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ।।१।। पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खस्स तस्स प्पणिहाणपव्वं ।। जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से।। ।।२।। विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिंतन, जयाचार्य को विमल भाव से।। पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।। जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ।। विनयावनत आचार्य तुलसी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती भाष्य वन्दना वाणी वन्दना सत्य की अभिव्यक्ति में अक्षर सहज अक्षर बना । वन्दना उस आप्त वाणी की करें पुलकितमना । भारती कैवल्य-पथ से अवतरित अधिगम्य है । सुचिर-संचित तम-विदारक रम्य और प्रणम्य है ।। वीर वन्दना पुरुष के पुरुषार्थ का अधिकृत प्रवक्ता जो रहा । चेतना - निष्णात हो जो कुछ हुआ सबको सहा । समन्वय का सूत्र सम्यग् दृष्टि का पहला चरण । वीर प्रभु के चरण-चिह्नों का करें हम अनुसरण ।। भिक्षु-वन्दना अगम आगम के पदों का काव्य था जिसने लिखा सहज प्रज्ञा से अपथ का पंथ था जिसको दिखा । भिक्षु का वर मार्गदर्शन भाग्य से उपलब्ध है । सूत्र - सम्पादन नियति का वह बना प्रारब्ध है । । जय कालु-वन्दना सुचिर पोषित आप्त-वाङ्मय- धेनु का दोहन किया मुनिपजय ने भिक्षुगण में प्रवर सूर्योदय किया । उदय की इस उर्वरा का बीज हर आलेख है । पूज्य कालू के सुचिन्तन का नया अभिलेख है । वाचना- प्रमुख आचार्य तुलसी- वन्दना नित नया उन्मेष जिस मस्तिष्क का संधान है । वाचना के प्रमुख तुलसी का सकल अनुदान है । भाष्य - युग की श्रृंखला में एक नव्य प्रयोग है । राष्ट्रभाषा में विनिर्मित "भगवती" अनुयोग है ।। विनयावनत आचार्य महाप्रज्ञ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उस और सिञ्चित द्रुम-निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगे । संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया । अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं । संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है संपादक : भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ संस्कृत छाया युवाचार्य महाश्रमण सहयोगी संस्कृत छाया मुनि विमल कुमार श्रुतलेखन, सम्पादन एवं अनुवाद सहयोगी मुनि महेन्द्र कुमार मुनि धनंजय कुमार सहयोगी सम्पादन भाष्य मुनि दिनेश कुमार मुनि योगेश कुमार वीक्षा-समीक्षा मुनि हीरालाल ___ संविभाग हमारा धर्म है । जिन-जिनने गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने । -आचार्य तुलसी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवई विआहपण्णत्ती का चतुर्थ खंड पाठक के सम्मुख प्रस्तुत हो रहा है। इसके सम्पूर्ण मूलपाठ का सम्पादन अंगसुत्ताणि भाग २ में हो चुका है। हमने जो सम्पादन-शैली स्वीकृत की है, उसमें पाठ-शोधन और अर्थ बोध दोनों समवेत हैं। अर्थ बोध के लिए शुद्ध पाठ अपेक्षित है और पाठ शुद्धि के लिए अर्थ-बोध अनिवार्य है। प्रस्तुत संस्करण अर्थ-बोध कराने वाला है। इसमें मूल पाठ के अतिरिक्त संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और सूत्रों का हिन्दी भाष्य समवेत है। पाठ-सम्पादन का काम जटिल है। अर्थ-बोध का काम उससे कहीं अधिक जटिल है। कथा-भाग और वर्णन-भाग में तात्पर्य-बोध की जटिलता नहीं है। किन्तु तत्त्व और सिद्धांत का खण्ड बहुत गंभीर अर्थ वाला है। उसकी स्पष्टता के लिए हमारे सामने दो आधारभूत ग्रंथ रहे हैं १. अभयदेव सूरिकृत वृत्ति - इसे अभयदेवसूरि ने स्वयं विवरण ही माना है और उसे पढ़ने पर वह विवरण-ग्रंथ का बोध ही कराता है, व्याख्या- ग्रंथ का बोध नहीं देता । २. भगवती जोड़ - इसमें श्रीमज्जयाचार्य ने अभयदेवसूरि की वृत्ति का पूरा उपयोग किया है। 'धर्मसी का टबा' का भी अनेक स्थलों पर उपयोग किया है। इसके अतिरिक्त आगम और अपने तत्त्वज्ञान के आधार पर अनेक समीक्षात्मक वार्तिक लिखे हैं । हमने भाष्य के लिए आगम-सूत्रों, श्वेताम्बर - दिगम्बर परम्परा का ग्रंथ साहित्य, वैदिक और बौद्ध परंपरा के अनेक ग्रंथों का उपयोग किया है। 'आयारो' का भाष्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। भगवती का भाष्य हिन्दी में लिखा गया है। ठाणं, सूयगडो आदि की सम्पादन- शैली यह रही - मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा स्थान और अध्ययन की समाप्ति पर टिप्पण अथवा भाष्य । भगवती की संपादन शैली में एक नया प्रयोग किया गया है- प्रत्येक सूत्र अथवा प्रत्येक आलापक (प्रकरण) के साथ भाष्य की समायोजना है। अन्त में छह परिशिष्ट हैं १. नामानुक्रम (क) व्यक्ति और स्थान (ख) देवलोक-संबंधी (ग) पशु-पक्षी २. शब्द एवं शब्द-विमर्शानुक्रम ३. भाष्यविषयानुक्रम ४. पारिभाषिक शब्दानुक्रम ५. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति-शतक बारह से सोलह ६. आधारभूत ग्रंथ सूची | प्रत्येक शतक के पहले एक आमुख है । पाद-टिप्पण में संदर्भ वाक्य उद्धृत हैं। उपलब्ध आगम-साहित्य में 'भगवती सूत्र' सबसे बड़ा ग्रंथ है । तत्त्वज्ञान का अक्षयकोष है। इसके अतिरिक्त Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (II) इसमें प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने वाले दुर्लभ सूत्र विद्यमान हैं। इस पर अनेक विद्वानों ने काम किया है। किन्तु जितने श्रम-बिन्दु झलकने चाहिए, उतने नहीं झलक रहे हैं, यह हमारा विनम्र अभिमत है। गुरुदेव तुलसी की भावना थी कि भगवती पर गहन अध्यवसाय के साथ कार्य होना चाहिए। हमने उस भावना को शिरोधार्य किया है और उसके अनुरूप फलश्रुति भी हुई है। इसका मूल्यांकन गहन अध्ययन करने वाले ही कर पाएंगे। हमारा यह निश्चित मत है कि सभी परम्पराओं के ग्रंथों के व्यापक अध्ययन और व्यापक दृष्टिकोण के बिना प्रस्तुत आगम के आशय को पकड़ना सरल नहीं है। सहयोगानुभूति जैन परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चुकी हैं। देवगिणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उसके वाचना-काल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह सफल नहीं हो सका। अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, तटस्थ दृष्टि-समन्वित तथा सपरिश्रम होगी, तो वह अपने-आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारंभ हुआ। हमारी इस वाचना के प्रमुख आचार्यश्री तुलसी रहे हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन-कर्म के अनेक अंग हैं-पाठ का अनुसंधान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन आदि आदि। इन सभी प्रवृत्तियों में गुरुदेव का हमें सक्रिय योग, मार्ग-दर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्ति-बीज है। प्रस्तुत ग्रंथ भगवती का सानुवाद और सभाष्य संस्करण है। प्रथम खण्ड में भगवती के प्रथम दो शतक व्याख्यात हैं। दूसरे खण्ड में तृतीय शतक से सप्तम शतक तक तथा तीसरे खण्ड में आठवें शतक से ग्यारहवां शतक तक व्याख्यात हैं। प्रस्तुत खंड में बारहवें से सोलहवें शतक तक व्याख्यात हैं। मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य और उनके संदर्भ-स्थल तथा परिशिष्ट-ये सब प्रस्तुत संस्करण के परिकर हैं। प्रस्तत ग्रंथ में संस्कत छाया का कार्य युवाचार्य महाश्रमण ने किया है। इस कार्य में मुनि विमलकुमारजी उनके सहयोगी रहे हैं। भाष्य के श्रुत लेखन, संपादन एवं अनुवाद में मुनि धनंजय कुमार मेरे सहयोगी रहे हैं। मुनि महेन्द्रकुमारजी प्रस्तुत ग्रंथ के पन्द्रहवें शतक के भाष्य एवं अनुवाद में सहभागी रहे हैं। संपादन एवं भाष्य के कार्य में मुनि दिनेशकुमार का भी सहयोग रहा है। इसकी वीक्षा समीक्षा, प्रूफरीडिंग आदि में मुनि हीरालालजी ने बहुत श्रम किया है। मुनि योगेशकुमार ने परिशिष्ट निर्माण, प्रूफरीडिंग आदि में तन्मयता से कार्य किया है। मुनि आलोक कुमार का भी इस कार्य में यथेप्सित योग रहा है। संस्कृत छाया के पुनरवलोकन में साध्वी श्रुतयशा एवं साध्वी मुदितयशा ने अपने अध्यवसाय का नियोजन किया है। पाण्डुलिपि लेखन में अनेक समणियों ने निष्ठापूर्वक श्रम किया है। प्रस्तुत ग्रंथ के सम्पादन में अनेक साधु-साध्वियों का योग है। गुरुदेव के वरद हस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले हम सब संभागी हैं। फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं, जिनका इस कार्य में स्पर्श हुआ है। -आचार्य महाप्रज्ञ २ अक्टूबर २००७ उदयपुर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय मुझे यह लिखते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि 'जैन विश्व भारती' द्वारा आगम-प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य संपन्न हुआ है, वह मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और बहुमूल्य बताया गया है। हम बत्तीस आगमों का पाठान्तर शब्दसूची तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सुसंपादित मूलपाठ प्रकाशित कर चुके हैं। उसके साथ-साथ आगम-ग्रंथों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं प्राचीनतम व्याख्या-सामग्री के आधार पर सूक्ष्म ऊहपोह के साथ लिखित विस्तृत मौलिक टिप्पणों से मंडित संस्करण प्रकाशित करने की योजना भी चलती रही है। इस शृंखला में आठ ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं १. दसवेआलियं ५. समवाओ २. उत्तरज्झयणाणि ६. नंदी ३. सूयगडो ७. अनुओगदाराई ४. ठाणं ८. नायाधम्मकहाओ आयारो पर संस्कृत में आचारांग-भाष्यम् भी प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत आगम भगवई विआहपण्णत्ती इसी श्रृंखला का महत्त्वपूर्ण आगम है। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख आचार्यश्री तुलसी एवं अप्रतिम विद्वान् संपादक-भाष्यकार आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने जो श्रम किया है, वह ग्रंथ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा। भगवई विआहपण्णत्ती खण्ड १ में प्रथम दो शतकों का प्रकाशन भाष्य-सहित सन् १९९४ में हो चुका है। सन् २००० में प्रकाशित द्वितीय खंड में तीसरे से सातवें शतक तथा सन् २००५ में प्रकाशित तृतीय खंड में आठवें से ग्यारहवें शतक तक का समावेश है। प्रस्तुत चतुर्थ खण्ड में बारहवें से सोलहवें शतक तक की सभाष्य प्रस्तुति है। श्रद्धेय युवाचार्यश्री महाश्रमण के अतिरिक्त मुनिश्री हीरालालजी, मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी, मुनिश्री विमलकुमारजी, मुनि धनंजयकुमारजी, मुनि दिनेशकुमारजी और मुनि योगेशकुमारजी ने इसे सुसज्जित करने में अनवरत श्रम किया है। ग्रंथ की पाण्डुलिपि तैयार करने में आदरणीय समणीवृन्द का बहुत सहयोग रहा है। इसकी कंपोजिंग में सर्वोत्तम प्रिण्ट एण्ड आर्ट के श्री किशन जैन एवं श्री प्रमोद प्रसाद का योग रहा है। ऐसे सुसम्पादित आगम ग्रंथ को प्रकाशित करने का सौभाग्य जैन विश्व भारती को प्राप्त हुआ है। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा। २ अक्टूबर २००७ उदयपुर सुरेन्द्र चोरड़िया अध्यक्ष, जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-निर्देशिका भ.-भगवई भ. जो. भगवती जोड़ भ. वृ.-भगवती वृत्ति राय. वृ. रायपसेणइयं वृत्ति अणु.-अणुओगदाराई अनु. चू.-अनुयोगद्वार चूर्णि आ. चू.-आयार चूला आप्टे-Apte's Sanskrit English Dictionary आव.चू. आवश्यक चूर्णि उवा.-उवासगदसाओ उत्तर.-उत्तरज्झयणाणि उत्तर. वृ.-उत्तराध्ययन वृत्ति ओव.-ओववाइयं व्य. भा.-व्यवहार भाष्य व्य. सू. व्यवहार सूत्र सम.-समवाओ सूय. सूयगडो सूर.-सूरपण्णत्ती सूर्य. वृ.-सूर्यप्रज्ञप्ति वृत्ति स्था. वृ.-स्थानांग वृत्ति जंबू. जंबुद्दीवपण्णत्ती जीवा.-जीवाजीवाभिगमे जै. आ. व. को.-जैन आगम वनस्पति काश जै. सि. को.-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश अ.-अध्ययन उ.-उद्देशक त. रा. वा.-तत्त्वार्थ राजवार्तिक ख.-खण्ड गा.-गाथा प.-पत्र त. सू.-तत्त्वार्थ सूत्र त. सू. भा. वृ.-तत्त्वार्थसूत्राधिगम भाष्य वृत्ति दश. चू.-दशवैकालिक चूर्णि दश. नि.-दशवैकालिक नियुक्ति पु.-पुस्तक पू.-पूर्ति स्थल दस-दसवेआलियं पृ.-पृष्ठ पण्ण.-पण्णवणा (भा.)-भाष्य पण्हा.-पण्हावागरणाई भा.-भाग पा.यो. द.-पातञ्जल योग दर्शन प्रज्ञा. वृ.-प्रज्ञापना वृत्ति Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम १९१ बारहवां शतक सूत्र पृष्ठ सूत्र आमुख १३३-१५३ अनेक अथा अनंत बार उपपात पद ७१-७६ पहला उद्देशक आठवां उद्देशक संग्रहणी गाथा १५४-१५८ देवों का द्विशरीर-उपपात पद ७७-७८ १-२९ शंख-पुष्कली पद ५-१६ १५९-१६२ पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक उपपात पद ७८-७९ दूसरा उद्देशक नौवां उद्देशक ३०-४० उदयन आदि का धर्म-श्रवण पद १७-२० १६३-१६८ पंचविध देव पद ८०-८१ ४१-६५ जयंती-प्रश्न पद २०-२७ १६९-१७७ पंचविध देवों का उपपात पद ८१-८३ तीसरा उद्देशक १७८-१८२ पंचविध देवों का स्थिति पद ८३.८४ ६६-६८ पृथ्वी पद ૨૮ १८३-१८४ पंचविध देवों का विक्रिया पद ८४-८५ चौथा उद्देशक १८५-१९० पंचविध देवों का उद्वर्तन पद ८५-८६ ६९-८० परमाणु-पुद्गल संघात-भेद पद २९-४४ पंचविध देवों का संस्थिति पद ८६-८७ ८१-१०१ पुद्गल-परिवर्त पद ४४-५३ १९२-१९६ पंचविध देवों का अन्तर पद ८७-८८ पांचवां उद्देशक १९७-१९९ पंचविध देवों का अल्प-बहुत्व पद ८८-८९ १०२-११९ वर्णादि और अवर्णादि की अपेक्षा ५४-६१ दसवां उद्देशक द्रव्य-विमर्श २००-२०४ अष्टविध आत्म पद ९०-९३ १२०-१२१ कर्म विभक्ति पद २०५ अष्टविध आत्मा का अल्पबहुत्व ९३-९४ छठा उद्देशक पद १२२-१२४ चंद्र-सूर्य-ग्रहण पद ६३-६६ २०६-२१० ज्ञान-दर्शन का आत्मा के साथ ९४-९५ १२५-१२६ शशि-आदित्य पद ६६-६७ भेदाभेद पद १२७-१२९ चंद्र-सूर्य का कामभोग पद ६७-६९ २११-२२६ स्याद्वाद-पद ९५-१०४ सातवां उद्देशक १३०-१३२ समस्त जीवों का जन्म-मृत्यु पद ७०-७१ तेरहवां शतक पृष्ठ सूत्र आमुख १०७-१०८ ४ संख्येय-विस्तृत नरकों में ११२-११३ पहला उद्देशक १०९ उद्वर्तन पद संग्रहणी गाथा ५-२३ संख्येय-विस्तृत नरकों में ११३-११८ १-३ संख्येय-विस्तृत नरकों में उपपात पद १०९-११२ सत्ता पद सूत्र Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४-३९ ४०-४१ ४२-४३ ४४ ४५ ४७-५४ ५५-६० ६१-७३ ७४-८७ ८८-९२ ९३-९४ सूत्र पृष्ठ आमुख (xviii) पृष्ठ सूत्र पृष्ठ दूसरा उद्देशक ११९-१२४ छठा उद्देशक तीसरा उद्देशक १२५ सांतर-निरंतर उपपन्नादि पद १५० चौथा उद्देशक ९६-१०० चमरचंच आवास पद १५०-१५२ नरक और नैरयिकों में अल्प-महत् पद १२६-१२७ १०१-१२३ । उद्रायण कथा पद १५२-१६० नैरयिकों के स्पर्शानुभव पद १२८ सातवां उद्देशक नरकों का बाहल्य-क्षुद्रत्व पद १२८-१२९ १२४-१२५ । भाषा पद १६१-१६२ नरक-परिसामन्त पद १२९ १२६-१२७ मन पद १६३-१६४ लोक मध्य पद १२९-१३१ १२८-१२९ काय पद १६४-१६६ लोक पद १३२-१३४ १३०-१४६ मरण पद १६६-१६९ धर्मास्तिकाय आदि का परस्पर १३४-१४१ आठवां उद्देशक स्पर्श पद १४७-१४८ कर्म प्रकृति पद १७० धर्मास्तिकाय आदि का अवगाढ़ पद १४२-१४६ नौवां उद्देशक लोक पद १४६-१४८ १४९-१६७ भावितात्म-विक्रिया-पद १७१-१७५ पांचवां उद्देशक दसवां उद्देशक आहार पद १६८-१६९ छाद्मस्थिक समुद्घात पद १७६ चौदहवां शतक पृष्ठ सूत्र १७९-१८० सातवां उद्देशक पहला उद्देशक ७७-७९ गौतम का आश्वासन पद २०९-२१० संग्रहणी गाथा १८१ ८०-८१ तुल्य पद २१०-२१२ लेश्यानुसारी उपपात पद १८१-१८३ भक्त-प्रत्याख्यान का आहार पद २१३-२१४ नैरयिक आदि का गति विषयक पद १८३-१८४ ८४-८९ लव सप्तम देव पद २१४-२१५ नैरयिक का अनंतर उपपन्नक आदि पद १८४-१८७ आठवां उद्देशक दूसरा उद्देशक ९०-१०० अबाधा-अंतर पद २१६-२१७ उन्माद पद १८८-१९० १०१-१०६ वृक्ष का पुनर्भव पद २१८-२१९ वृष्टिकाय करण पद १९०-१९१ १०७-१०९ अम्मड़ अंतेवासी पद २१९-२२२ तमस्कायकरण पद १९१-१९२ ११०-११२ अम्मड़ चर्या पद २२२-२२४ तीसरा उद्देशक ११३-११४ अव्याबाध देव शक्ति पद २२४-२२५ विनय विधि पद १९३-१९५ ११५-११६ शक्र का शक्ति पद २२५ नैरयिक-नैरयिकों का प्रत्यनुभव पद १९५ ११७-१२२ जुंभक देव पद २२५-२२७ चौथा उद्देशक नौवां उद्देशक पुद्गल जीव परिणाम पद १९६-१९९ १२३-१२५ सरूप-सकर्म लेश्या पद २२८-२२९ पांचवां उद्देशक १२६-१२८ आत्मा-अनात्मा-पुद्गल पद अग्निकाय का अतिक्रमणपद २००-२०२ १२९ इष्ट-अनिष्ट आदि पुद्गल पद २२९ प्रत्यनुभव पद २०२-२०३ १३०-१३१ देवों का सहस्र भाषा पद २३० देव का उल्लंघन-प्रलंघन पद २०३-२०४ १३२-१३५ सूर्य पद २३०-२३१ छट्ठा उद्देशक १३६-१३७ श्रमणों का तेजोलेश्या पद २३१-२३२ नैरयिक का आहार आदि पद २०५.२०६ दसवां उद्देशक देवेन्द्र का भोग पद २०७-२०८ १३८-१५५ केवली पद २३३-२३५ १-२ ८२-८३ ४-१५ १६-२० २१-२४ २५.२८ २९-३९ ४०-४३ ४४-५३ २२९ ५४-६० ६१-६७ ६८-७० ७१-७३ ७४-७६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xix) आमुख १-१९ २०-२१ २२-२९ ३०-३६ ३७-४३ ४४-५२ ५३-५६ ११९ ५७-५९ ६०-७१ ७२-७५ २९९ ७६ पन्द्रहवा शतक पृष्ठ सूत्र पृष्ठ २३९-२४३ १०४-१०६ गोशाल द्वारा सर्वानुभूति का भस्म २९३-२९४ गोशालक पद २४५-२५० राशि करण पद भगवान् का विहार पद . २५०-२५१ १०७-१०९ गोशाल द्वारा सुनक्षत्र का २९४-२९५ प्रथम मासखमण पद २५१-२२५ परिताप-पद दूसरा मासखमण पद २५५-२५७ ११०-११४ गोशाल का भगवान् के वध के २९५-२९६ तीसरा मासखमण पद २५७-२५९ लिए तेज-निसर्जन पद चतुर्थ मासखमण पद २५९-२६१ ११५ श्रावस्ती में जनप्रवाद पद गोशाल का शिष्य रूप में २६२-२६४ ११६-११८ गोशाल से श्रमणों का प्रश्न २९७-२९८ अंगीकरण पद व्याकरण पद तिल-स्तंभ पद २६५-२६६ गोशाल का संघ भेद पद २९८-२९९ बाल तपस्वी वैश्यायन पद २६६-२७४ १२० गोशाल का प्रतिक्रमण पद तिल के पौधे की निष्पत्ति : २०७-२७६ १२१-१२७ गोशाल के द्वारा नानासिद्धान्त ३००-३०२ गोशाल का अपक्रमण पद प्ररूपण पद गोशाल के तेजोलेश्या का उत्पत्ति २७६-२७७ ।। १२८-१३८ अयम्पुल आजीविकोपासक पद ३०२-३०५ पद १३९-१४० गोशाल द्वारा अपनी मरणोत्तर ३०५-३०६ गोशाल की पूर्व कथा का उपसंहार २७७-२७९ क्रिया का निर्देश पद १४१ गोशाल का परिणाम-परिवर्तन ३०६-३११ गोशाल का अमर्ष पद २७९ पूर्वक कालधर्म पद गोशाल का स्थविर आनंद के २७९.२८५। १४२-१४३ गोशाल का निर्हरण पद ३११-३१५ समक्ष आक्रोश का प्रदर्शन पद १४४-१४६ भगवान् के रोग-आतंक ३१५-३१६ आनंद स्थविर का भगवान से २८५-२८७ प्रादुर्भवन पद निवेदन पद १४७-१४८ सिंह का मानसिक दुःख पद ३१६-३१७ आनंद स्थविर द्वारा गौतम आदि २८७ १४९-१५२ भगवान् द्वारा सिंह को ३१७-३१९ को अनुज्ञापन पद आश्वासन पद गोशाल का भगवान् के प्रति २८८-२९२ १५३-१६१ सिंह द्वारा रेवती के घर से ३१९-३२४ आक्रोश पूर्व स्वसिद्धांत निरूपण भैषज्य आनयन पद १६२-१६३ भगवान् का आरोग्य पद भगवान् द्वारा गोशाल के वचन २९२ १६४ सर्वानुभूति का उपपात पद ३२४-३२५ का प्रतिकार पद सुनक्षत्र का उपपात पद ३२५ गोशाल का पुनः आक्रोश पद २९२-२९३ १६६-१९० गोशाल का भवभ्रमण पद ३२५-३४० सोलहवां शतक ७७-७८ पद ७९-८० ८१-९६ ९७-९८ ९९-१०० १०१ पद ३२४ १०२ १०३ सूत्र आमुख ३४३ ८ -२७ ३४८-३५१ पहला उद्देशक संग्रहणी गाथा वायुकाय पद अग्निकाय पद क्रिया पद ३४५ ३४५-३४६ २८-३२ ३३-३४ ३५-४० ४१-४३ अधिकरणी-अधिकरण पद दूसरा उद्देशक जीवों का जरा-शोक पद शक्र का अवग्रह अनुज्ञापन पद शक्र संबंधी व्याकरण पद चैतन्य-अचैतन्य कृत कर्म पद ३५२-३५३ ३५३-३५४ ३५४-३५६ ३५६-३५७ ३४६ ३४६-३४७ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४४-४७ ४८-५० ५१-५३ ५४ ५५-५८ ५९-६० ६१-६४ ६५-७५ ७६-९० तीसरा उद्देशक कर्म पद अर्श छेदन में वैद्य का क्रिया पद चौथा उद्देशक नैरयिक का निर्जरा पद पांचवां उद्देशक शक्र का उत्क्षिप्त प्रश्न व्याकरण पद गंगदत्त देव के संदर्भ में परिणममाण-परिणय पद गंगदत्त देव का आत्म विषयक पद गंगदत्त देव का पूर्वभव पद छट्टा उद्देशक स्वप्न पद पृष्ठ ३५८ ३५८-३६० ३६१-३६४ ३६५ ३६५-३६८ प्रश्न पद गंगदत्त देव द्वारा नाट्य- उपदर्शन ३६९-३७० ३६८-३६९ ३७०-३७३ ३७४-३७६ [-पक्षी ( xx ) १. नामानुक्रम - (क) व्यक्ति और स्थान (ख) देव (ग) पशु-प २. शब्दार्थ एवं शब्द - विमर्शानुक्रम सूत्र ९१ ३. भाष्य-विषयानुक्रम ४. पारिभाषिक शब्दानुक्रम ५. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति - शतक १२-१६ ६. आधारभूत ग्रंथ सूची ९२-१०५ १०६-१०७ गंध- पुद्गल १०८-१०९ सातवां उद्देशक आठवां उद्देशक ११०-११५ लोक के चरमान्त में जीव अजीव आदि मार्गणा पद ११६ ११७ ११८-१२० परमाणु पुद्गल गति पद क्रिया पद अलोक में गति निषेध पद नौवां उद्देशक १२१-१२२ बलि का सभा पद दसवां उद्देशक परिशिष्ट भगवान् का महास्वप्न दर्शन पद स्वप्न फल पद १२३ - १२४ अवधि पद १२५-१२९ १३०-१३४ ग्यारहवां उद्देशक द्वीपकुमार आदि पद बारहवां से चौदहवां उद्देशक पृष्ठ ३९७-४०१ ४०२-४०४ ४०५-४०७ ४०८-४११ ४१२-४१५ ४१६-४२५ ४२६-४८२ ४८३-४८९ पृष्ठ ३७६-३७८ ३७८-३८२ ३८२-३८३ ३८४ ३८५-३८८ ३८८ ३८८-३८९ ३८९-३९० ३९१ ३९२ ३९३ ३९४ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं सतं बारहवां शतक Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख बारहवें शतक में विषय की विविधता है। विषय वस्तु का प्रारंभ श्रमणोपासक शंख के जीवनवृत्त से होता है। इसमें पाक्षिक पौषध का उल्लेख है। वह एक नई जानकारी देता है। सूत्र ग्यारह से तेरह में पाक्षिक पौषध और पौषध का अन्तर स्पष्टतया उल्लिखित है। श्रमणोपासक शंख के प्रसंग में तीन जागरिका का उल्लेख हुआ है वह अपूर्व है। कषाय के द्वारा कर्म की सात प्रकृतियों में परिवर्तन होता है। यह विषय कर्मशास्त्रीय दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। श्रावकों द्वारा शंख पोक्खली को वंदन-नमस्कार किया गया, इससे पारस्परिक शिष्टाचार की नई दृष्टि मिलती है। वैदिक साहित्य में गार्गी और मैत्रेयी का तत्त्वज्ञान प्रसिद्ध है, वैसे ही प्रस्तुत आगम में श्रमणोपासिका जयंती अपने तत्त्वज्ञान से विख्यात है। जयंती के द्वारा पूछे गए प्रश्न और भगवान् महावीर के द्वारा दिए गए उत्तर तत्त्वज्ञान की एक अमूल्य राशि है।' प्रस्तुत शतक में परमाणु के संघात से होने वाले स्कंध तथा स्कंध भेद से होने वाले परमाणु और स्कंधों का लंबा विवरण दिया गया है। यह पदार्थ संरचना की दृष्टि से बहुत मननीय विषय है। संघात-भेद के अनुपात से पुद्गल परिवर्त का बोध किया जाता है। पुद्गल परिवर्त संसार-भ्रमण का बोध कराने वाला एक गणितीय प्रकल्प है। इससे अनादिकालीन संसार परिभ्रमण की जानकारी मिलती जीव और पुदगल के मध्य भेद रेखा खींचना बहुत कठिन काम है। फिर भी स्वभाव और विभाव के वर्गीकरण पर उनकी भिन्नता का बोध किया जा सकता है। क्रोध, मान आदि अठारह पापों का एक वर्गीकरण है। वह जीव का वैभाविक गुण है। वह जीव और पुद्गल के संयोग से निष्पन्न होता है इसीलिए उसमें पुद्गल के गुणों का निरूपण किया गया है। बुद्धि आदि जीव के क्षायोपशमिक गुण हैं इसलिए उन्हें वर्णातीत कहा गया है। जीवों की विभक्ति कर्म के कारण होती है। यह कर्मशास्त्रीय दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है।१० जैन दर्शन का विकास आत्मा के परिपार्श्व में हुआ इसलिए उसमें पुनर्जन्म की चर्चा बार-बार होती है। प्रस्तुत शतक में 'अणंत खुत्तो'-अनंत बार जन्म के चक्र को अजा-व्रज के उदाहरण द्वारा बतलाया गया है। लोक का परमाणु जितना प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जहां जीव का जन्म और मरण न हुआ हो।" पुनर्जन्म के सिद्धांतानुसार उत्पाद होता रहता है, और जीव नाना रूपों को धारण करता रहता है। एक जीव सब जीवों के माता-पिता भाई, बहन आदि के रूप में उत्पन्न हो चुका है। यह पूरा प्रकरण ज्ञानवर्द्धक होने के साथ-साथ बहुत रोचक भी है। भीष्म ने अपने अपूर्व संस्कार की बात कही-जिस भूमि खंड पर किसी की चिता न बनी हो, उस भूमि पर चिता बनाने की बात कही, उस समय देववाणी हुई। उसमें आत्म-सिद्धांत की प्रतिध्वनि मिलती है मम प्राणपरित्यागे, तत्र संस्क्रियतां तनुः। न कोपि यत्र दग्धः प्राग् भूमिखंडे सदा शुचौ॥ अमानुष प्रचारे च, शृंगे कुत्रापि चोन्नते। अमुचन् देवता वाणी, क्वापि तत्रोद्यमो यदा॥ अत्र भीष्मशतं दग्धं, पाण्डवानां शतत्रयं । द्रोणाचार्यसहस्रं तु, कर्णसंख्या न विद्यते॥ जीव कहां से आया और कहां जाएगा-ये पुनर्जन्म के दो महत्त्वपूर्ण विषय हैं। इस विषय में सूत्र १५४ से ६१ तक का प्रकरण बहुत १. भ. १२/४-१० ७. भ. १२/८१-१०० २. भ. १२/२०-२१ ८. भ. १/३१२-३१३ का भाष्य ३. भ. १२/२२-२५ ६. भ. १२/१०२-१११ ४. भ. १२/२६ १०. भ. १२/१२० ५. भ. १२/४१-६४ ११. भ. १२/१३०-१३२ ६. भ. १२/६६-८० १२. भ. १२/१३३-१५२ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : आमुख रोमांचक है। देव द्विशरीरी नाग और द्विशरीरी वृक्ष के रूप में उत्पन्न होता है और वह लोगों के द्वारा पूजनीय भी होता है और वह सहयोगी भी बनता है। पुनर्जन्म के विविध नियमों की जानकारी की दृष्टि से यह शतक बहुत मननीय है। इस शतक में स्याद्वाद की त्रिभंगी का उल्लेख मिलता हैरत्नप्रभा पृथ्वी स्याद् अस्ति, स्यान्नास्ति, स्याद् अवक्तव्य। परमाणु पुद्गल स्याद् अस्ति स्यान्नास्ति, स्याद् अवक्तव्य।' द्विप्रदेशी स्कंध से लेकर पंच प्रदेशी स्कंध तक के भंगों का विस्तृत उल्लेख है। छह प्रदेशी से अनंत प्रदेशी स्कंध तक के भंगों का समवतार किया गया है। सप्तभंगी के विषय में पंडित दलसुख मालवणिया ने विस्तार से चर्चा की है१. विधिरूप और निषेधरूप इन्हीं दोनों विरोधी धर्मों का स्वीकार करने में ही स्याद्वाद के भंगों का उत्थान है। २. दो विरोधी धर्मों के आधार पर विवक्षा-भेद से शेष भंगों की रचना होती है। ३. मौलिक दो भंगों के लिए और शेष सभी भंगों के लिए अपेक्षा-कारण अवश्य चाहिए। प्रत्येक भंग के लिए स्वतंत्र दृष्टि या अपेक्षा का होना आवश्यक है। प्रत्येक भंग का स्वीकार क्यों किया जाता है, इस प्रश्न का स्पष्टीकरण जिससे हो वह अपेक्षा है, आदेश है, दृष्टि है या नय है। ऐसे आदेशों के विषय में भगवान का मन्तव्य क्या था? उसका विवेचन आगे किया जाएगा। ४. इन्हीं अपेक्षाओं की सूचना के लिए प्रत्येक भंग-वाक्य में 'स्यात् ऐसा पद रखा जाता है। इसी से यह वाद स्याद्वाद कहलाता है। इस और अन्य सूत्र के आधार से इतना निश्चित है कि जिस वाक्य में साक्षात् अपेक्षा का उपादान हो वहां 'स्यात्' का प्रयोग नहीं किया गया है और जहां अपेक्षा का साक्षात् उपादान नहीं है, वहां स्यात् शब्द का प्रयोग किया गया है। अतएव अपेक्षा का द्योतन करने के लिए 'स्यात्' का प्रयोग करना चाहिए यह मन्तव्य इस सूत्र से फलित होता है। ५. जैसा पहले बताया है स्यावाद के भंगों में से प्रथम चार भंग की सामग्री अर्थात् चार विरोधी पक्ष तो भगवान् महावीर के सामने थे। उन्हीं पक्षों के आधार पर स्याद्वाद के प्रथम चार भंगों की योजना भगवान् ने की है किन्तु शेष भंगों की योजना भी भगवान् की अपनी है, ऐसा प्रतीत होता है। शेष-भंग प्रथम के चारों का विविध रीति से सम्मेलन ही है। भंग-विद्या में कुशल (भ. ६/५) भगवान के लिए ऐसी योजना करना कोई कठिन बात नहीं कही जा सकती। ६. अवक्तव्य यह भंग तीसरा है। कुछ जैन दार्शनिकों ने इस भंग को चौथा स्थान दिया है। आगम में अवक्तव्य का चौथा स्थान नहीं है। अतएव यह विचारणीय है कि अवक्तव्य को चौथा स्थान कब से, किसने और क्यों दिया। ७. स्याद्वाद के भंगों में भी विरोधी धर्मयुगलों को लेकर सात ही भंग होने चाहिए। न कम, न अधिक, ऐसी जो जैन दार्शनिकों ने व्यवस्था की है, वह निर्मूल नहीं है। क्योंकि त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और उससे अधिक प्रदेशिक स्कंधों के भंगों की संख्या जो प्रस्तुत सूत्र में दी गई है, उससे यही मालूम होता है कि मूल भंग सात वे ही हैं, जो जैन दार्शनिकों ने अपने सप्तभंगी के विवेचन में स्वीकृत किये हैं। जो अधिक भंग संख्या सूत्र में निर्दिष्ट है, वह मौलिक भंगों के भेद के कारण नहीं है, किन्तु एकवचन-बहुवचन के भेद की विवक्षा के कारण ही है। यदि वचनभेद-कृत संख्यावृद्धि को निकाल दिया जाए तो मौलिक भंग सात ही रह जाते हैं। अतएव जो यह कहा जाता है कि आगम में सप्तभंगी नहीं है, वह भ्रममूलक है। पापियार ३. आगम-युग का जैन-दर्शन पृ. ११२-११४। १. भ. १२/२११-२१७ २. भ. १२/२१८-२२५ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल संगहणी-गाहा १. संखे २. जयंति ३. पुढवि ४. पोग्गल ५. अड्वाय ६. राहु ७. लोगे य । ८. नागे य६. देव १०. आया, दसुद्देसा ॥१॥ बारसमसए संख - पोक्खली- पदं १. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं नगरी होत्था - वण्णओ । कोट्ठए चेइएवणओ । तत्थ णं सावत्थीए नगरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासया परिवसंति अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया, अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नामं भारिया होत्या- सुकुमालपाणिपाया जाव सुरूवा, समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहर । बारसमं सतं : बारहवां शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक संस्कृत छाया संग्रहणी गाथा १. शङ्खः २. जयंती ३. पृथिवी ४. पुद्गलः ५. अतिपातः ६. राहुः ७. लोकः च । ८. नागः च ६. देवः १०. आत्मा, द्वादशमे शते दशोद्देशाः ॥ शङ्ख-पुष्कलि-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रावस्ती नाम नगरी आसीत् - वर्णकः । कोष्ठकं चैत्यम्-वर्णकः । तत्र श्रावस्त्यां नगर्यां बहवः शङ्खप्रमुख्याः श्रमणोपासकाः परिवसन्ति आढ्याः यावत् बहुजनस्य अपरिभूताः अभिगतजीवाजीवाः यावत् यथापरिगृहीतैः तपः कर्मभिः आत्मानं भावयन्तः विहरन्ति । तस्य शङ्खस्य श्रमणोपासकस्य उत्पला नाम भार्या आसीत् सुकुमालपाणिपादा यावत् सुरूपा, श्रमणोपासका अभिगतजीवाजीवा यावत् यथापरिगृहीतैः तपः कर्मभिः आत्मानं भावयन्ती विहरति । तत्थ णं सावत्थीए नगरीए पोक्खली नामं समणोवासए परिवसइ - अड्डे, अभिगयजीवाजीवे तत्र श्रावस्त्यां नगर्यां पुष्कली नाम श्रमणोपासकः परिवसति - आढ्यः, अभिगतजीवाजीवः यावत् यथापरि जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं गृहीतैः तपः कर्मभिः आत्मानं भावयन् भावेमाणे विहरइ ॥ विहरति । भाष्य हिन्दी अनुवाद संग्रहणी गाथा बारहवें शतक के दस उद्देशक हैं - १. शंख २. जयंती ३. पृथ्वी ४. पुद्गल ५. अतिपात ६. राहु ७. लोक ८. नाग ६. देव १०. आत्मा । शंख- पुष्कली पद १. 'उस काल और उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी - वर्णक । कोष्ठक चैत्यवर्णक | १. सूत्र १ प्रस्तुत सूत्र में श्रावक के धार्मिक स्वरूप का वर्णन है। विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य भगवई २ / ६४ का भाष्य । उस श्रावस्ती नगरी में शंख आदि अनेक श्रमणोपासक रहते थे। वे संपन्न यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभवनीय, जीवअजीव को जानने वाले यावत् यथा परिगृहीत तपः कर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहे थे। उस श्रमणोपासक शंख के उत्पला नाम की भार्या थी - सुकुमाल हाथ पैर वाली यावत् सुरूपा । वह श्रमणोपासका जीव अजीव को जानने वाली यावत् यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करती हुई रह रही थी। श्रावस्ती नगरी में पुष्कली नाम का श्रमणोपासक रहता था - संपन्न, जीवअजीव को जानने वाला यावत् यथा परिगृहीत तपः कर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ रह रहा था। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. १ : सू. २-५ भगवई २. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी २. उस काल और उस समय में भगवान् महावीर परिसा जाब पज्जुवासइ। तए ण ते समवसृतः। परिषद् यावत् पर्युपास्ते। आए। परिषद् यावत् पर्युपासना की। वे समणोवासगा इमीसे कहाए लट्ठा ततः ते श्रमणोपासकाः अनया कथया श्रमणोपासक इस कथा को सुनकर हृष्टसमाणा जहा आलभियाए जाव लब्धार्थाः सन्तः यथा आलभिकायां तुष्ट चित्त वाले हो गए। आलभिका की पज्जुवासंति। तए णं समणे भगवं । यावत् पर्युपासते। ततः श्रमणः भगवान् भांति वक्तव्यता यावत् पर्युपासना की। महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महावीरः तेषां श्रमणोपासकानां तस्यां श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोमहतिमहालियाए परिसाए धम्म च महामहत्यां परिषदि धर्म परिकथयति पासकों को उस विशालतम परिषद् में धर्म परिकहेइ जाव परिसा पडिगया॥ यावत् परिषद् प्रतिगता। कहा यावत् परिषद् लौट गई। ३. तए णं ते समणोवासगा समणस्स ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्म निसम्म हट्टतट्टा समणं भगवं महावीरं श्रुत्वा निशम्य हष्टतुष्टाः श्रमणं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, पसिणाई पुच्छंति, पुच्छित्ता अट्ठाई वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रश्नान् पृच्छन्ति, परियादियंति, परियादियित्ता उठाए पृष्ट्वा अर्थान् पर्याददति, पर्यादाय उठेति, उद्वेत्ता समणस्स भगवओ उत्थया उत्तिष्ठन्ति, उत्थाय श्रमणस्य महावीरस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ भगवतः महावीरस्य अन्तिकात् चेइयाओ पडिनिक्खमंति, कोष्ठकात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, पडिनिक्वमित्ता जेणेव सावत्थी नगरी प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव श्रावस्ती नगरी तत्रैव तेणेव पहारेत्थ गमणाए॥ प्रादीधरत् गमनाय। ३. वे श्रमणोपासक श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गए। उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर प्रश्न पूछे। पूछकर अर्थ को ग्रहण किया, ग्रहण कर, उठकर खड़े हुए। खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर के पास से, कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर जहां श्रावस्ती नगरी थी वहां जाने के लिए चिंतन किया। ४. तए णं से संखे समणोवासए ते ततः सः शङ्खः श्रमणोपासक: तान् समणोवासए एवं बयासी-तुम्भे णं श्रमणोपासकान् एवमवादीत्-यूयं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं पाणं खाइमं देवानुप्रियाः! विपुलम् अशनं पानं खाद्यं साइमं उवक्खडावेह। तए णं अम्हे तं। स्वाद्यम् उपस्कारयत। ततः वयं तत् विपुल असणं पाणं खाइमं साइमं अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् अस्साएमाणा विस्साएमाणा आस्वादयन्तः विस्वादयन्तः परिभाएमाणा परिभुजेमाणा परिवयं परिभाजयन्तः परिभुजानाः पाक्षिकं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो। पौषधं प्रतिजाग्रतः विहरिष्यामः। ४. 'वह श्रमणोपासक शंख उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार बोला-देवानुप्रिय ! तुम विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार करवाओ। हम उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक दूसरे को खिलाते हुए, भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहरण करेंगे। ५. तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयमढे विणएणं पडिसुणेति॥ ततः ते श्रमणोपासकाः शङ्कस्य ५. उन श्रमणोपासकों ने श्रमणोपासक शंख के श्रमणोपासकस्य एतदर्थं विनयेन इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया। प्रतिश्रृण्वन्ति। भाष्य १. सूत्र ४-५ विशेष विवरण के लिए उत्तराध्ययन ५/२३ का टिप्पण त्तिकार ने पाक्षिक पौषध का अर्थ अव्यापार पौषध किया द्रष्टव्य है। जयाचार्य ने अनारंभ पौषध का दसवें व्रत में समावेश है। सूत्रकृतांग में पाक्षिक पौषध शब्द का प्रयोग है। उसकी व्याख्या किया है। वृत्तिकार ने इस सन्दर्भ में मतान्तर का उल्लेख किया है। में पौषध के चार प्रकार बतलाए गए हैं उसके अनुसार पौषध का अर्थ है पर्व दिन का अनुष्ठान। वह दो १. आहार पौषध ३. ब्रह्मचर्य पौषध प्रकार का होता है-इष्ट जन को भोजन देना और आहार आदि का २. शरीर-संस्कार पौषध ४. अनारंभ पौषधर त्याग करना। शंख इष्ट जन को भोजन देने वाला पौषध करना १. भ. १२/४-५ पौषधं अव्यापारपौषधम्। धर्म तणी ते पुष्ट जीमी पोषह नाम तसु। २. सूय. २/७/२६ का टिप्पण दशमों ब्रत अदुष्ट, पिण नहीं व्रत इग्यारमो॥ ३. भ. जो. ४/२४६/२५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२: उ. १: सू.६ भगवई चाहता था।' यह मतान्तर का अर्थ संगत नहीं है। सूत्रकृतांग के पाक्षिक पौषध से अनारंभ पौषध का अर्थ ही संगत है। उवासगदसाओ में 'पोसहोववास' (पौषधोपवास) शब्द का प्रयोग मिलता है। इसमें दो शब्द हैं पौषध और उपवास' यह प्रतिपूर्ण पौषध का द्योतक है। तत्वार्थवार्तिक में पर्व के दिन किए जाने वाले उपवास का अर्थ प्रोषधोपवास किया है। प्रोषधोपवास की विस्तृत जानकारी के लिए जैनेन्द्र कोश द्रष्टव्य है। शब्द-विमर्श अस्साएमाणा-थोड़ा स्वाद लेते हुए। विस्साएमाणा-विशेष स्वाद लेते हुए। परिभाएमाणा-देते हुए। परिभुञ्जमाणा-परिभोग करते हुए। अतीतकालीन प्रत्यय में वार्तमानिक प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। तात्पर्यार्थ यह होगा-आस्वादन करने के बाद हम पाक्षिक पौषध का प्रतिजागरण करते हुए विहार करेंगे।' ६. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स ततः तस्य शङ्खस्य श्रमणोपासकस्य ६. 'उस श्रमणोपासक शंख के मन में इस अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए अयमेतद्पः आध्यात्मिकः चिन्तितः आकारवाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, मणोगए संकप्पे समुष्पज्जित्था-नो। प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न खलु मे सेयं तं विपुलं असणं पाणं समुदपादि-नो खलु मम श्रेयः तत् । हुआ। यह मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं है कि मैं खाइमं साइमं अस्साएमाणस्स । विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यं उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य विस्साएमाणस्स परिभाएमाणस्स आस्वादयतः विस्वादयतः परिभाजयतः का स्वाद लेता हुआ, विशिष्ट स्वाद लेता परिभुजेमाणस्स पक्वियं पोसहं परिभुजानस्य पाक्षिकं पौषधं हुआ, परस्पर एक दूसरे को खिलाता हुआ, पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, सेयं खलु प्रतिजाग्रतः विहर्तुम्, श्रेयः खलु मम भोजन करता हुआ, पाक्षिक पौषध की मे पोसहसालाए पोसहियस्स। पौषधशालायां पौषधिकस्य ब्रह्मचारिणः प्रतिजागरणा करता हुआ विहरण करूं। बंभचारिस्स ओमुक्कमणिसुवण्णस्स अवमुक्तमणिसुवर्णस्य व्यपगतमाला- यह मेरे लिए श्रेयस्कर है कि मैं बवगय - मालावण्णग - विलेवणस्स वर्णक-विलेपनस्य निक्षिप्तशस्त्र- पौषधशाला में उपवास करूं। ब्रह्मचारी निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स मुसलस्य एकस्य अद्वितीयस्य रहूं। सुवर्ण-मणि को छोड़कर, माला, अबिइयस्स दब्भसंथारोवगयस्स दर्भसंस्तारोपगतस्य पाक्षिकं पौषधं सुगंधित चूर्ण और विलेपन से रहित, शस्त्र पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स प्रतिजाग्रतः विहर्तुम् इति कृत्वा एवं मूसल आदि का वर्जन कर, अकेला, दूसरों विहरित्तए त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य यत्रैव श्रावस्ती के सहाय्य से निरपेक्ष होकर, दर्भजेणेव सावत्थी नगरी, जेणेव सए गिहे, नगरी, यत्रैव स्वकं गृहं, यत्रैव उत्पला संस्तारक पर बैठकर पाक्षिक पौषध की जेणेव उप्पला समणोवासिया, तेणेव श्रमणोपासिका, तत्रैव उपागच्छति, प्रतिजागरणा करूं। इस प्रकार संप्रेक्षा की, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उप्पलं उपागम्य उत्पलां श्रमणोपासिकाम् संप्रेक्षा कर, जहां श्रावस्ती नगरी थी, जहां समणोवासियं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता आपृच्छति, आपृच्छ्य यत्रैव पौषध- अपना घर था, जहां श्रमणोपासिका जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, शाला तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य उत्पला थी, वहां आया, वहां आकर उवागच्छित्ता पोसहसालं अणु- पौषधशालां अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य श्रमणोपासिका उत्पला से पूछा, पूछकर पविस्सइ, अणुपविस्सित्ता पोसहसालं पौषधशालां प्रमाष्टिं, प्रमृज्य उच्चार- जहां पौषधशाला थी, वहां आया, वहां पमज्जइ, पमज्जित्ता उचारपास- प्रस्रवणभूमिं प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य आकर पौषधशाला में अनुप्रवेश किया, वणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दर्भसंस्तारकं संस्तृणोति, संस्तृत्य अनुप्रवेश कर पौषधशाला को प्रमार्जित दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता। दर्भसंस्तारकम् आरोहति, आरुह्य किया, प्रमार्जित कर उचार-प्रस्रवण भूमि दन्भसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता पौषधशालायां पौषधिकः ब्रह्मचारी का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर दर्भपोसहसालाए पोसहिए बंभचारी अवमुक्तमणिसुवर्णः व्यपगत-माला- संस्तारक को बिछाया, बिछाकर दर्भ णिसुवण्णे बवगयमाला- वर्णकविलेपनः निक्षिप्तशस्त्र-मुसलः संस्तारक पर आरूढ़ हुआ, आरूढ़ होकर १. भ. १२/४-५ : अन्ये तु व्याचक्षते-इह किल पौषधं पर्वदिनानुष्ठानं तच द्वेधा-इष्टजनभोजनदानादिरूपमाहारादिपौषधरूपं च। तत्र शंखः इष्टजनभोजनदानरूपं पौषधं कर्तुकामः। २. सूय. २/७/२६ ३. उवा. १/४२ ४. त. रा. वा. ७/२: अशनपानभक्ष्य लेह्यलक्षण चतुर्विधाहारपरित्याग इत्यर्थः। प्रौषधशब्दः पर्वपर्यायवाची। प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः। ५. भ. वृ. १२/४-५ : आसाएमाणत्ति ईषत्स्वादयन्तो बहु च त्यजन्तः इक्षुखण्डादेरिव "विस्साएमाणत्ति विशेषेण स्वादयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः खजूरादेरिव 'परिभाएमाण' त्ति ददतः ‘परिभुंजेमाण' त्ति सर्वमुपभुजाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः, एतेषां च पदानां वार्त्तमानिकप्रत्ययान्तत्वेऽप्यतीतप्रत्ययान्तता द्रष्टव्या......यचेहातीत-कालीनप्रत्ययान्तत्वेऽपि वार्तमानिकप्रत्ययोपादानं तद्भोजनानंतर-मेवाक्षेपेण पौषधाभ्युपगमप्रदर्शनार्थम्। , Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. १ : सू. ७-६ वण्णगविलेवणे निक्खित्तसत्थमुसले एगे अबिइ दब्भसंथारोवगए पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणे विहरइ ॥ १. सूत्र ६ शंख ने प्रतिपूर्ण पौषध का संकल्प किया, उसमें प्रतिपूर्ण पौषध का स्वरूप निर्दिष्ट है: • उपवास - चतुर्विध आहार का त्याग। • ब्रह्मचर्य । ७. तए णं ते समणोवासगा जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव साई - साइं गिहाई, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, वक्खडावेत्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति, सहावेत्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले साइमे उवक्खडाविए, संखे य णं समणोवासए नो हव्वमागच्छ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं संखं समणोवासगं सद्दावेत्तए ॥ असणपाण खाइम - ८. तए णं से पोक्खली समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी -अच्छह णं तुब्भे देवाणुपिया ! सुनिव्बुयवीसत्था, अहण्णं संखं समणोवासगं सद्दावेमित्ति कट्ट तेसिं समणोवासगाणं अंतियाओ पडनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सावत्थीए नगरीए मज्झमज्झेणं जेणेव संखस्स समणोवासगस्स गिहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता संखस्स समणोवासगस्स गिहं अणुपविट्ठे ॥ ६. तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं समणोवासयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्टा आसणाओ एक: अद्वितीयः दर्भसंस्तारोपगतः पाक्षिकं पौषधं प्रतिजाग्रत् विहरति । ८ भाष्य • मण सुवर्ण का वर्जन | • माला, सुगंधित द्रव्य और विलेपन का वर्जन । • शस्त्र और मूसल की प्रवृत्ति का वर्जन । आनंद श्रावक ने अपनी पौषधशाला में पौषध किया था, वहां यही विवरण मिलता है। ' ततः ते श्रमणोपासकाः यत्रैव श्रावस्ती नगरी यत्रैव स्वकानि-स्वकानि गृहानि, तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् उपस्कारयन्ति, उपस्कार्य अन्योन्यं शब्दयन्ति शब्दयित्वा एवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रियाः ! अस्माभिः तत् विपुलम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यम् उपस्कारितम्, शङ्खः च श्रमणोपासकः नो 'हव्वं' आगच्छति, तत् श्रेयः खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं शङ्खः श्रमणोपासकं शब्दयितुम् । ततः सः पुष्कली श्रमणोपासकः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत्-आसध्वम् यूयं देवानुप्रियाः ! सुनिवृत्त - विश्वस्ताः, अहं शङ्ख श्रमणोपासकं शब्दयामि इति कृत्वा तेषां श्रमणोपासकानाम् अन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य श्रावस्त्याः नगर्याः मध्यमध्येन यत्रैव शङ्खस्य श्रमणोपासकस्य गृहम्, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य शङ्खस्य श्रमणोपासकस्य गृहम् अनुप्रविष्टः । ततः सा उत्पला श्रमणोपासिका पुष्कलिं श्रमणोपासकम् आयन्तं पश्यति दृष्ट्वा हृष्टतुष्टा आसनात् भगवई पौषधशाला में ब्रह्मचर्य पूर्वक उपवास किया, सुवर्ण मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित चूर्ण और विलेपन से रहित, शस्त्र मूसल आदि का वर्जन कर अकेले, सहाय्य निरपेक्ष होकर दर्भ संस्तारक पर बैठकर पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करने लगा । ७. वे श्रमणोपासक जहां श्रावस्ती नगरी थी, जहां अपना अपना घर था, वहां आए । वहां आकर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार करवाया, तैयार करवाकर एक-दूसरे को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार बोले- देवानुप्रिय ! हमने वह विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया है। देवानुप्रिय ! श्रमणोपासक शंख अभी तक नहीं आया, इसलिए यह श्रेयस्कर है कि हम श्रमणोपासक शंख को बुला लाएं। ८. वह श्रमणोपासक पुष्कली उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार बोला- देवानुप्रियो ! तुम अच्छी तरह बैठो, विश्वस्त रहो, मैं श्रमणोपासक शंख को बुला लाता हूं। ऐसा कहकर उसने श्रमणोपासकों के पास से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच जहां श्रमणोपासक शंख का घर था, वहां आया, वहां आकर श्रमणोपासक शंख के घर में अनुप्रविष्ट हुआ। १. उवा. १/६० - पोषहसालाए पोषहियस्स बंभयारिस्स उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स ववगयमालावण्णविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमूसलस्स एगस्स अबीयस्स दब्भसंथारोवगए............. | ६. श्रमणोपासका उत्पला ने श्रमणोपासक पुष्कली को आते हुए देखा, देखकर हृष्ट तुष्ट हो गई, आसन से उठी, उठकर सात Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. १ : सू. १०-१२ अब्भटेइ, अब्भुढेत्ता सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता पोक्खलिं समणोवासगं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता आसणेणं उवनिमंतेइ, उवनिमंतेत्ता एवं वयासी-संदिसतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पयोयणं? अभ्युत्तिष्ठति, अम्युत्थाय सप्ताष्टौ पदानि अनुगच्छति, अनुगम्य पुष्कलिं श्रमणोपासकं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा आसनेन उपनिमन्त्रयति, उपनिमन्त्र्य एवमवादीत्-संदिशतु देवानुप्रिय ! किमागमनप्रयोजनम् ? आठ कदम सामने गई। सामने जाकर श्रमणोपासक पुष्कली को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित किया। निमंत्रित कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! कहिए, आपके आगमन का प्रयोजन क्या है ? भाष्य १. सूत्रह लोकोपचार अथवा सामाजिक विधि है। यह जिन-आज्ञा सम्मत उत्पला ने पुष्कली को वंदन-नमस्कार किया। इस विषय पर धार्मिक अनुष्ठान नहीं है।' जयाचार्य ने एक टिप्पणी की है। श्रावक को वंदन-नमस्कार करना १०. तएणं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समणोवासियं एवं वयासी-कहिण्णं देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए ? ततः सः पुष्कली श्रमणोपासकः उत्पलां १०. श्रमणोपासक पुष्कली ने श्रमणोपासिका श्रमणोपासिकाम् एवमवादीत-कुत्र उत्पला से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! देवानुप्रिये ! शङ्कः श्रमणोपासकः? श्रमणोपासक शंख कहां है ? ११. तए णं सा उप्पला समणोवासिया ततः सा उत्पला श्रमणोपासिका ११. वह श्रमणोपासिका उत्पला श्रमणोपासक पोक्खलिं समणोवासयं एवं वयासी-एवं पुष्कलिं श्रमणोपासकम् एवमवादीत्- पुष्कली से इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए एवं खलु देवानुप्रियाः! शङ्खः श्रमणोपासक शंख ने पौषधशाला में पोसहसालए पोसहिए बंभचारी श्रमणोपासकः पौषधशालायां पौषधिकः ब्रह्मचर्यपूर्वक उपवास किया है, सुवर्ण, ओमुक्कमणिसुवण्णे बवयगयमाला- ब्रह्मचारी अवमुक्तमणिसुवर्णः व्यपगत- मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित चूर्ण वण्णग-विलेवणे निक्खित्तसत्थमुसले माला-वर्णक-विलेपनः निक्षिप्तशस्त्र- और विलेपन से रहित, शस्त्र-मूसल आदि एगे अबिइए दब्भसंथारोवगए पक्खियं मुसलः एकः अद्वितीयः दर्भ- का वर्जन कर, अकेले, सहाय्य निरपेक्ष पोसहं पडिजागरमाणे विहरइ॥ संस्तारोपगतः पाक्षिकं पौषधं होकर, दर्भ-संस्तारक पर बैठकर, पाक्षिक प्रतिजाग्रत् विहरति। पौषध की प्रतिजागरणा करता हुआ विहार कर रहा है। १२. तएणं से पोक्वली समणोवासए जेणेव ततः सः पुष्कली श्रमणोपासकः यत्रैव १२. वह पुष्कली श्रमणोपासक जहां पौषधशाला पोसहसाला, जेणेव संखे समणोवासए, पौषधशाला, यत्रैव शङ्कः श्रमणो- थी, जहां श्रमणोपासक शंख था, वहां तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासकः, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य आया, वहां आकर गमनागमन का गमणागमणाए पडिक्कमइ, गमनागमने प्रतिक्रामति, प्रतिक्रम्य शङ्ख प्रतिक्रमण किया, प्रतिक्रमण कर पडिक्कमित्ता संखं समणोवासगं बंदइ श्रमणोपासकं वन्दते नमस्यति, श्रमणोपासक शंख को वन्दन-नमस्कार नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत-एवं किया, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं खलु देवानुप्रिय ! अस्माभिः तत् बोला-देवानुप्रिय ! हमने वह विपुल अशन, से विउले असण-पाण-खाइम-साइमे विपुलम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यम् पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया है, उवक्खडाविए, तं गच्छामो णं उपस्कारितम्, तत् गच्छामः देवानुप्रिय ! तुम चलो, हम विपुल अशन, देवाणुपिया! तं विउलं असणं पाणं देवानुप्रिय ! तत् विपुलम् अशनं पानं पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए, खाइमं साइमं अस्साएमाणा खाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयन्तः विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक दूसरे १. भ. जो. ४/२४६/४६-५३ आसन आमंत्रण करी रे बोलै इह विध वाय। बंदे ते गुणग्राम, नमस्कार शिर नाम नैं। आज्ञा यो देवानुप्रिया ! रे कवण प्रयोजन आय ? साहमी आवी नाम, विनय रीत निज साचवी॥ श्रावक साहमी आय, आसन आमंत्र्यो बलि। नवकार ना पद पंच, श्रावक नै तिहां दालियो। निज छंदे कहिवाय, पिण नहीं अरिहंत आगन्या॥ नमस्कार नी संच, ए आज्ञा नहिं जिन तणी॥ नमस्कार पिण ताहि, गृहस्थ नैं करिवा तणी। जिन आज्ञा दे नाहि, धर्म नहीं आज्ञा बिना। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. १ : सू. १३, १४ विस्साएमाणा परिभुंजे माणा पडिजागरमाणा विहरामो ॥ परिभाषमाणा पक्खियं पोसहं १३. तए णं से संखे समणोवासए पोक्खलिं समणोवासगं एवं वयासी- नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! तं विउलं असणं पाणं खामं साइमं विस्साएमाणस अस्साएमाणस्स परिभाषमाणस्स परिभुंजेमाणस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, कप्पड़ मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स ओमुक्कमणिसुवण्णस्स ववगयमाला - वण्णगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबिइयस्स दव्भसंथारोवगयस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, तं छदेणं देवाणुप्पिया ! तुभे तं विलं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुंजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरह ॥ विस्वादयन्तः परिभुञ्जानाः प्रतिजाग्रतः विहरामः । १० १. सूत्र १३ वृत्तिकार न चंद शब्द का अर्थ स्वाभिप्राय किया है। शंख भोजन करने की आज्ञा नहीं दे रहा है किन्तु यह कह रहा है- तुम अपनी १४. तए णं से पोक्खली समणोवासए संखस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पोसहसालाओ पडिनिक्खम, पडिनिक्खमित्ता सावत्थिं नगरिं मज्झमज्झेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते समणोवासए एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! संखे समणोवासए १. भ. वृ. १२/१३ : छंदेणं ति स्वाभिप्रायेण न तु मदीयाज्ञयेति । २. भ. जो. ४ / २४६ / ६६, ६७ ततः सः शङ्खः श्रमणोपासकः पुष्कलिं श्रमणोपासकम् एवमवादीत्-नो खलु कल्पते देवानुप्रियाः ! तत् विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयतः विस्वादयतः परिभाजयतः परिभुञ्जानस्य पाक्षिकं पौषधं प्रतिजाग्रतः विहर्तुम्, कल्पते मम पौषधशालायां पौषधिकस्य ब्रह्मचारिणः अवमुक्तमणिसुवर्णस्य व्यपगतमालावर्णक - विलेपनस्य निक्षिप्त- शस्त्र - मुसलस्य एकस्य अद्वितीयस्य दर्भसंस्तारोपगतस्य पाक्षिकं पौषधं प्रतिजाग्रतः विहर्तुम्, तत् छन्देन देवानुप्रिया ! यूयं तत् विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयन्तः विस्वादयन्तः परिभाजयन्तः पाक्षिकं पौषधं परिभुञ्जानाः प्रतिजाग्रतः विहरत । वृत्ति टवा रे मांहि, छंदेणं नों अर्थ इम । निज इच्छाई ताहि, पिण म्हारी आज्ञा नथी ॥ पाक्षिकं परिभाजयन्तः पौषधं भाष्य ततः सः पुष्कली श्रमणोपासकः शङ्खःस्य श्रमणोपासकस्य अन्तिकात् पौषधशालायाः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य श्रावस्ती नगरीं मध्यमध्येन यत्रैव ते श्रमणोपासकाः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् - एवं खलु देवानुप्रियाः । शङ्खः श्रमणोपासकः पौषधशालायां भगवई को खिलाते हुए, भोजन करते हुए, पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहार करेंगे। इच्छा से जो चाहते हो वह करो।' जयाचार्य ने इसकी समीक्षा में लिखा है-भोजन करने के साथ धर्म का संबंध जुड़ा हुआ नहीं है इसलिए पौषध में भोजन करने की आज्ञा नहीं है। १३. वह श्रमणोपासक शंख श्रमणोपासक पुष्कली से इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय मुझे यह नहीं कल्पता ( मेरे लिए यह करणीय नहीं है) कि मैं उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेता हुआ, विशिष्ट स्वाद लेता हुआ, परस्पर एक दूसरे को खिलाता हुआ, भोजन करता हुआ पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करता हुआ विहरण करूं। मुझे यह कल्पता है (मेरे लिए यह करणीय है) कि मैं पौषधशाला में ब्रह्मचर्यपूर्वक उपवास करूं, सुवर्ण, मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित चूर्ण और विलेपन से रहित होकर, शस्त्र - मूसल आदि का वर्जन कर अकेले, सहाय्य निरपेक्ष होकर, दर्भ-संस्तारक पर बैठकर पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करता हुआ विहरण करूं । देवानुप्रियो ! इसलिए तुम अपने छंद (अभिप्राय) के अनुसार उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक दूसरे को खिलाते हुए, भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहार करो। १४. श्रमणोपासक पुष्कली ने श्रमणोपासक शंख के पास से पौषधशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच जहां वे श्रमणोपासक थे, वहां आया। वहां आकर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! श्रमणोपासक शंख पौषधशाला में ब्रह्मचर्यपूर्वक उपवास यावत् विहरण कर रहा है। देवानुप्रियो ! आज्ञा बार, तो जीमात्रै तेहनें। किम है धर्म उदार, न्याय दृष्टि करि देखियै ।। जीमैं Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई पोसहसालाए पोसहिए जाव विहरइ, तं छंदेणं देवाणुपिया ! तुब्भे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिजागरमाणा विहरह, संखे णं समणोवासए नो हव्वमागच्छइ । तए णं ते समणोवासगा तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा जाव विहरति ॥ धम्म १५. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकपे समुपज्जित्था - सेयं खलु मे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता तओ पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दियरे तेयसा जलते पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सुद्धपावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवर परिहिए साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पायविहारचारेणं सावत्थि नगरिं मज्झमज्झेणं निग्गच्छर, निग्गच्छिता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण - पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासति ॥ १६. तए णं ते समणोवासगा कल्लं पाउप्पभाषाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पहाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घा भरणालंकियसरीरा सएहिं सएहिं गिहेहिंतो पडिनिक्खमंति, ११ पौषधिकः यावत् विहरति, तत् छन्देन देवानुप्रियाः ! यूयं विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् प्रतिजाग्रतः विहरत, शङ्खः श्रमणोपासकः नो 'हव्वं' आगच्छति । ततः ते श्रमणोपासकाः तत् विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयन्तः यावत् विहरन्ति । ततः तस्य शङ्खः स्य श्रमणोपासकस्य पूर्वरात्रापररात्रकालसमये धर्मजागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि-श्रेयः खलु मे कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा नमस्थित्वा यावत् पर्युपास्य ततः प्रतिनिवृत्तस्य पाक्षिकं पौषधं पारयितुम् इति कृत्वा एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति पौषधशालायाः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य शुद्धप्रवेश्यानि मांगल्यानि वस्त्राणि प्रवरं परिहितः स्वकात् गृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य पादविहारचारेण श्रावस्तीं नगरीं मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य यत्रैव कौष्ठकं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपासते । ततः ते श्रमणोपासकाः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति स्नाताः कृत - बलिकर्माणः यावत् अल्प-महार्घ्याभरणालंकृतशरीराः स्वकेभ्यः स्वकेभ्यः गृहेभ्यः श. १२ : उ. १ : सू. १५, १६ यह तुम्हारा अभिप्राय है कि तुम उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक-दूसरे को खिलाते हुए, भोजन करते हुए, पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहरण करो, श्रमणोपासक शंख अभी नहीं आएगा। उन श्रमणोपासकों ने उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए यावत् पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहरण किया। १५. मध्यरात्रि में धर्म जागरिका करते हुए श्रमणोपासक शंख के मन में इस आकारवाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ - यह मेरे लिए श्रेय है कि मैं कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार कर यावत् पर्युपासना कर वहां से प्रतिनिवृत्त होकर पाक्षिक पौषध का पारणा करूं, ऐसी संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर पौषधशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर शुद्ध प्रवेश्य मांगलिक वस्त्रों को विधिवत् पहना, पहनकर अपने घर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर पैदल चलकर श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोष्ठक चैत्य था- जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया, आकर दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करने लगा। १६. उन श्रमणोपासकों ने दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर स्नान, बलिकर्म किया यावत् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। इस प्रकार सज्जित होकर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. १ : सू. १७-१६ १२ पडिनिक्खमित्ता एगयओ मेलायंति, प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य एकतः मेलायित्ता पायविहारचारेणं सावत्थीए मिलन्ति, मिलित्वा पादविहारचारेण नगरीए मझमज्झेणं निम्गच्छंति, श्रावस्त्याः नगर्याः मध्यमध्येन निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव निर्गच्छन्ति, निर्गम्य यत्रैव कोष्ठकं समणे भगवं महावीरे, तेणेव चैत्यं, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य श्रमणं महावीरं जाव तिविहाए पज्जुवासणाए भगवन्तं महावीरं यावत् त्रिविधया पज्जुवासंति॥ पर्युपासनया पर्युपासते। अपने-अपने घरों से निकलकर एक साथ मिले। एक साथ मिलकर पैदल चलते हुए श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोष्ठक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करने लगे। १७. तए णं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ जाव आणाए आराहए भवइ॥ ततः श्रमणः भगवान् महावीरः तेषां श्रमणोपासकानां तस्यां च महामहत्यां परिषदि धर्म परिकथयति यावत् आज्ञया आराधकः भवति। १७. श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणो पासकों को उस विशालतम परिषद में धर्म कहा यावत् आज्ञा के आराधक होते हैं। १८. तए णं ते समणोवासगा समणस्स ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्म श्रुत्वा निसम्म हट्टतुद्दा उठाए उठेति, उद्वेत्ता । निशम्य हृष्टतुष्टाः उत्थया उत्तिष्ठन्ति, समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव संखे नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, शङ्ख श्रमणोपासकः, तत्रैव उपागउवागच्छित्ता संखं समणोवासयं एवं च्छन्ति, उपागम्य शङ्ख श्रमणोपासकम् वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिया ! हिज्जो । एवमवादीत्-त्वं देवानुप्रिय ! 'हिज्जो' अम्हे अप्पणा चेव एवं वयासी-तुम्हे णं अस्मान् आत्मना चैव एवमवादीतं यूयं देवाणुप्पिया! विउलं असणं पाणं देवानुप्रियाः! विपुलम् . अशनं-पानं खाइमं साइमं उवक्खडावेह। तए णं खाद्यं स्वाद्यम उपस्कारयत। ततः वयं अम्हे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं तत् विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम साइमं अस्साएमाणा विस्साएमाणा आस्वादयन्तः विस्वादयन्तः परिभापरिभाएमाणा परिभुंजेमाणा पक्खियं जयन्तः परिभुजानाः पाक्षिकं पौषधं पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामो। प्रतिजाग्रतः विहरिष्यामः। ततः त्वं तए णं तुमं पोसहसालाए पोसहिए पौषधशालायां पौषधिकः ब्रह्मचारी बंभचारी ओमुक्कमणि-सुवण्णे अवमुक्तमणि-सुवर्ण-व्यपगतमालाववगयमाला - वण्णग - विलेवणे वर्णक-विलेपनः निक्षिप्तशस्त्रमुसलः निक्वित्तसत्थमुसले एगे अबिइए एक: अद्वितीयः दर्भ-संस्तारोपगतः दन्भसंथारोवगए पक्खियं पोसहं पाक्षिकं पौषधं प्रतिजाग्रत् विहरसि, पडिजागरमाणे विहरिए, तं सुट्ठ णं तुमं तत् सुष्ठु त्वं देवानुप्रिय ! अस्मान् देवाणुपिया ! अम्हे हीलसि ॥ हेलयसि। १८. वे श्रमणोपासक श्रमण भगवान् महावीर के समीप धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हुए, उठकर खड़े हुए, खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर जहां श्रमणोपासक शंख था, वहां आए, वहां आकर श्रमणोपासक शंख से इस प्रकार बोले- देवानुप्रिय! गत दिवस तुमने स्वयं ही हमें इस प्रकार कहा था-देवानुप्रिय ! तुम विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाओ। हम उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक-दूसरे को खिलाते हुए और भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहार करेंगे। तुमने पौषधशाला में ब्रह्मचर्यपूर्वक, सुवर्ण, मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित चूर्ण और विलेपन से रहित होकर, शस्त्र-मूसल आदि का वर्जन कर, अकेले, सहाय्य निरपेक्ष होकर दर्भ-संस्तारक पर पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहार किया। देवानुप्रिय! तुमने हमारी बहुत अवहेलना की। १६.अज्जोति! समणे भगवं महावीरे ते आर्य इति ! श्रमणः भगवान महावीरः समणोवासए एवं वयासी-मा णं तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत्-मा अज्जो ! तुम्भे संखं समणोवासगंहीलह आर्य ! यूयं शङ्ख श्रमणोपासकं हीलयत निंदह खिंसह गरहह अवमण्णह। संखे निन्दत 'खिंसह' गर्हध्वम् अवमन्यणं समणोवासए पियधम्मे चेव, दढधम्मे ध्वम्। शङ्खः श्रमणोपासकः प्रियधर्मा चेव, सुदक्खुजागरियं जागरिए॥ चैव, दृढ़धर्मा चैत्र, सुद्रष्ट्रजागरिकायां जागरिकः। १६. 'आर्यों! इस संबोधन से संबोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! तुम श्रमणोपासक शंख की अवहेलना, निंदा, भर्त्सना, गर्हा, और अवज्ञा मत करो। श्रमणोपासक शंख प्रियधर्मा है, दृढ़धर्मा है, उसने सुद्रष्टा जागरिका की है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र १६ २०. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी - कतिविहा णं भंते ! जागरिया पण्णत्ता ? प्रियधर्मा - दृढधर्मा के लिए ठाणं ४ / ४२ का टिप्पण द्रष्टव्य है। तं गोयमा ! तिविहा जागरिया पण्णत्ता, जहा - बुद्धजागरिया, अबुद्धजागरिया, दक्खुजागरिया ॥ २१. से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइतिविहा जागरिया पण्णत्ता, तं जहाबुद्धजागरिया, अबुद्धजागरिया, सुदक्खुजागरिया ? जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पण्णनाणदंसणधरा अरहा जिणे केवली तीयपचुप्पन्नमणागयवियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी एए णं बुद्ध बुद्ध जागरंति । उच्चार जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया भासासमिया एसणासमिया आयाणभंडमत्तनिक्रखेवणासमिया पासवण - खेल - सिंघाण जल्ल-परिट्ठावणियासमिया मणसमिया वइसमिया कायसमिया मणगुत्ता वइगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिंदिया गुत्तबंभचारी - एए ण अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति । जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंतिएएणं सुदक्खुजागरियं जागरंति । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - तिविहा जागरिया पण्णत्ता, तं जहा - बुद्धजागरिया, अबुद्धजागरिया, सुदक्खुजागरिया ॥ १३ भाष्य भदन्त इति ! भगवान् गौतम ! श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत्कतिविधा भदन्त ! जागरिका प्रज्ञप्ता ? गौतम ! त्रिविधाः जागरिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - बुद्धजागरिका, अबुद्धजागरिका, सुद्रष्टृजागरिका । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेत्रिविधा: जागरिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाबुद्धजागरिका अबुद्धजागरिका, सुद्रष्टृजागरिका । गौतम ! ये इमे अर्हन्तः भगवन्तः उत्पन्न - ज्ञानदर्शनधराः अर्हाः जिनाः केवलिनः अतीतप्रत्युत्पन्नानागतविज्ञायकाः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः एते बुद्धाः बुद्धजागरिकायां जाग्रति । ये इमे अनगाराः भगवन्तः ईर्यासमिताः भाषासमिताः एषणासमिताः आदानभाण्डामात्रनिक्षेपणासमिताः उच्चारप्रश्रवण क्ष्वेल - सिंघाण - 'जल्ल' परिष्ठा-पनिकासमिताः मनः समिताः वचः समिताः कायसमिताः मनोगुप्ताः, वाक्- गुप्ताः कायगुप्ताः गुप्ताः गुप्तेन्द्रियाः गुप्तबह्मचारिणः- एते अबुद्धाः अबुद्धजागरिकायां जाग्रति । ये इमे श्रमणोपासकाः अभिगतजीवाजीवाः यावत् यथापरिगृहीतैः तपःकर्मभिः आत्मानं भावयन्तः विहरन्तिएते सुद्रष्टृजागरिकायां जाग्रति । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेत्रिविधा: जागरिकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाबुद्धजागरिका, अबुद्धजागरिका सुद्रष्टृजागरिका । श. १२ : उ. १ : सू. २०, २१ २०. भंते! इस सम्बोधन से संबोधित कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भंते! जागरिका कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है ? गौतम! जागरिका तीन प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे- बुद्ध जागरिका, अबुद्ध जागरिका और सुद्रष्टा जागरिका । २१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - जागरिका तीन प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे- बुद्ध जागरिका, अबुद्ध जागरिका और सुद्रष्टा जागरिका । गौतम ! जो अर्हत् भगवान् उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक, अर्हत्, जिन, केवली, अतीत, वर्तमान और भविष्य के विज्ञाता, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, वे बुद्ध बुद्धजागरिका करते हैं। जो अनगार भगवान् विवेकपूर्वक चलते हैं, विवेकपूर्वक बोलते हैं, विवेकपूर्वक आहार की एषणा करते हैं, विवेकपूर्वक वस्त्र पात्र आदि को लेते और रखते हैं, विवेकपूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक के मैल, शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन करते हैं, मन, वचन और काया की संयत प्रवृत्ति करते हैं, मन, वचन और काया का निरोध करते हैं, अपने आपको सुरक्षित रखते हैं, इन्द्रियों को सुरक्षित रखते हैं, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखते हैं, वे अबुद्ध अबुद्ध जागरिका करते हैं। जो ये श्रमणोपासक जीव अजीव को जानने वाले यावत् यथा परिगृहीत तपःकर्म द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं, वे सुद्रष्टा जागरिका करते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - तीन प्रकार की जागरिका प्रज्ञप्त है, जैसे- बुद्ध जागरिका, अबुद्ध जागरिका, सुद्रष्टा जागरिका। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. १ : सू. २२-२४ १४ भगवई भाष्य. १. सूत्र २०-२१ सदा जागृत रहता है इसलिए उसकी जागरिका का नाम बुद्ध ___ सोना और जागना-ये दो विपरीत शारीरिक क्रियाएं हैं। इसी जागरिका है। प्रकार सुषुप्ति और जागरिका-ये दो विपरीत आंतरिक क्रियाएं होती २. अबुद्ध जागरिका-केवली के अतिरिक्त शेष साधुओं की हैं। अज्ञान और प्रमाद की निद्रा से मुक्त होना जागरिका है। उसके जागरिका का नाम अबुद्ध जागरिका है। तीन प्रकार हैं ३. सुद्रष्टा जागरिका-तत्त्ववित् और व्रती श्रावक की १. बुद्ध जागरिका-ज्ञानावरण के क्षीण होने पर केवली जागरिका का नाम सुदृष्ट्र जागरिका है।' २२. तए णं से संखे समणोवासए समणं ततः सः शङ्खः श्रमणोपासकः श्रमणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, बंदित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, नमंसित्ता एवं वयासी-कोहवसट्टे णं वन्दित्वा नमस्यित्वा भंते ! जीवे किं बंधइ ? किंपकरेइ ? किं एवमवादीत्-क्रोधव-शातः भदन्त ! चिणाइ? किं उवचिणाइ! जीवः किं बध्नाति ? किं प्रकरोति ? किं चिनोति ? किम् उपचिनोति? संखा ! कोहवसट्टे णं जीवे आउय- शङ्ख ! क्रोधवशातः जीवः आयुष्कवर्जाः वज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ सप्तकर्मप्रकृतीः शिथिल-बन्धनबद्धाः सिढिलबंधणबद्धाओ धणिय-बंधण- धणिय बन्धनबद्धाः प्रकरोति, ह्रस्वबद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठिइयाओ कालस्थितिकाः दीर्घकालस्थितिकाः दीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदाणु- प्रकरोति, मन्दानुभावाः तीव्रानुभावाः भावाओ तिब्वाणुभावाओ पकरेइ, प्रकरोति, अल्पप्रदेशाग्राः बहुप्रदेशाग्राः अप्पपएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ प्रकरोति, आयुष्कं च कर्म स्यात् पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ, बध्नाति, स्यात् नो बध्नाति, सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं चणं असातवेदनीयं च कर्म भूयः भूयः कम्मं भुज्जो-भुज्जो उवचिणाइ, उपचिनोति, अनादिकं च 'अणवदग्गं' अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं दीर्घाद्धं चतुरन्तं संसारकन्तारं चाउरतं संसारकंतारं अणुपरियट्टइ॥ व्यतिव्रजति। २२. श्रमणोपासक शंख ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव क्या बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? शंख ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धन-बद्ध प्रकृतियों को गाढ़ बंधन-बद्ध करता है, अल्पकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश-परिमाण वाली करता है, आयुष्य कर्म का बंध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता, वह असातवेदनीय कर्म का बहुत-बहुत उपचय करता है और आदिअन्तहीन दीर्घपथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। २३. माणवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ? मानवशातः भदन्त! जीवः किं बध्नाति ? किं प्रकरोति? किं चिनोति? किंम् उपचिनोति? २३. भंते ! मान के वश आर्त बना हुआ जीव क्या बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥ एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते। २४. मायवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ ? मायावशातः भदन्त ! जीवः किं २४. भंते! माया के वश आर्त बना हुआ जीव किं पकरेइ ? किं चिणाइ ? किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किं क्या बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता उवचिणाइ? चिनोति ? किम् उपचिनोति? है? किसका चय करता है? किसका उपचय करता है? १. भ. १२/१६-२१ : बुद्धा; केवलावबोधेन, ते च बुद्धानां-व्यपोढाज्ञाननिद्राणां चाबुद्धानां छद्मस्थ-ज्ञानवतां या जागरिका सा तथा तां जाग्रति। जागरिका-प्रबोधो बुद्धजागरिका तां कुर्वन्ति।.........अबुद्धाः ...........सुदु दरिसणं जस्स सो सुदक्खू तस्स जागरिया-प्रमादकेवलज्ञानाभावेन यथासंभवं शेषज्ञानसभावाच युद्धसदृशास्ते निद्राव्यपोहेन जागरणं सुदक्खुजागरिया तां जागरितः कृत्यानित्यर्थः । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५ श. १२ : उ. १ : सू. २५-२७ एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ। एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते। इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। २५. लोभवसष्टे णं भंते! जीवे किं बंधइ? किं पकरे? किं चिणाइ? किं उबचिणाइ? २५. लोभवशातः भदन्त ! जीवः किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किं चिनोति? किम् उपचिनोति? २५. भंते ! लोभ के वश आर्त बना हुआ जीव क्या बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥ एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते। भाष्य १. सूत्र २२-२५ ३. अनुभाव परिवर्तन-मंद अनुभाव को तीव्र अनुभाव के रूप कषाय का आलापक कर्म परिवर्तन का आलापक है। प्रस्तुत में बदला जा सकता है। प्रकरण में परिवर्तन के चार सूत्रों का निर्देश है ५. प्रदेश संख्या परिवर्तन-अल्प प्रदेश परिमाण को बह प्रदेश १.बंध परिवर्तन-शिथिल बंधन-बद्ध कर्म को गाढ बंधन-बद्ध परिमाण में बदला जा सकता है। किया जा सकता है। प्रस्तुत संदर्भ में भगवई (१/४६-४७) सूत्र और उसका भाष्य २. स्थिति परिवर्तन-हस्व काल की स्थिति को दीर्घकाल की तथा उत्तरज्झयणाणि २६/२३ का सूत्र तथा उसका टिप्पण द्रष्टव्य स्थिति में बदला जा सकता है। है। तुलना के लिए देखें-ठाणं ४/७५-६५, कषाय और पुनर्जन्म के सन्दर्भ में देखें-ठाणं ४/३५४,४८२,४८५, ६५३। २६. तए णं ते समणोवासगा समणस्स ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य २६. वे श्रमणोपासक भगवान महावीर के पास भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहूँ भगवतः महावीरस्य अन्तिकम् एतमर्थं इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर भीत, सोचा निसम्म भीया तत्था तसिया श्रुत्वा निशम्य भीताः अस्ताः तृषिताः त्रस्त, दुःखित और संसार-भय से उद्विग्न संसारभउम्बिग्गा समणं भगवं महावीरं संसारभयोदविग्नाः श्रमणं भगवन्तं हो गए, उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को बंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता जेणेव महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर संखे समणोबासए तेणेव उवागच्छंति, नमस्यित्वा यत्रैव शङ्कः श्रमणोपासकः जहां श्रमणोपासक शंख था, वहां आए, उबागच्छित्ता संखं समणोबासगं बंदंति तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य शङ्ख वहां आकर श्रमणोपासक शंख को वंदननमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एयमढं सम्म श्रमणोपासकं वन्दन्ते नमस्यन्ति, नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस विणएणं भुज्जो-भुज्जोखामेति। तएणं वन्दित्वा नमस्थित्वा एतमर्थं सम्यक् अर्थ के लिए सम्यक् विनयपूर्वक बार-बार ते समणोवासगा पसिणाई पुच्छंति, विनयेन भूयः भूयः क्षमयन्ति। ततः ते क्षमायाचना की। उस समय उन पुच्छित्ता अट्ठाइं परियादियंति, श्रमणोपासकाः प्रश्नान् पृच्छन्ति, श्रमणोपासकों ने प्रश्न पूछे। प्रश्न पूछकर परियादियित्ता समणं भगवं महावीरं पृष्ट्वा अर्थान् पर्याददते, पर्यादाय अर्थ को हृदय में धारण किया। हृदय में वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते धारण कर श्रमण भगवान् महावीर को जामेव दिसं पाउम्भूया तामेव दिसं नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यस्याः वंदन नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर पडिगया॥ एव दिशः प्रादुर्भूताः तस्यामेव दिशि जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट प्रतिगताः। २७. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त इति! भगवान् गौतमः श्रमणं महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, एवं वयासी-पभू णं भंते ! संखे वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-प्रभुः समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुडे भदन्त! शङ्खः श्रमणोपासक: भवित्ता अगाराओ अणगारियं देवानुप्रियाणाम् अन्तिकं मुण्डः भूत्वा पव्वइत्तए? अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम्। नो इणद्वे समठे। गोयमा! संखे नो अयमर्थः समर्थः। गौतम ! शङ्खः समणोवासए बहूहिं सीलव्वय-गुण- श्रमणोपासकः बहुभिः शीलव्रत-गुण २७. भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को 'भंते' ऐसा कहकर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते! क्या श्रमणोपासक शंख देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारता में प्रव्रजित होने में समर्थ है ? यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम ! श्रमणो. पासक शंख बहुत शीलव्रत, गुण, विरमण, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ भगवई श. १२ : उ. १ : सू. २८,२६ वेरमण - पच्चक्खाण - पोसहोववासेहिं विरमण-प्रत्याख्यान-पौषधोपवासैः अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं यथापरिगृहीतैः तपःकर्मभिः आत्मानं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासग- भावयन् बहुनि वर्षाणि श्रमणोपासकपरियागं पाउणिहिति, पाउणित्ता पर्यायं प्राप्स्यति, प्राप्य मासिक्या मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेहिति, संलेखनया आत्मानं जोषिष्यति, झूसेत्ता सर्हि भत्ताई अणसणाए जोषित्वा षष्टि भक्तानि अनशनेन छेदेहिति, छेदेत्ता आलोइयपडिक्कंते छेत्स्यति, छित्त्वा आलोचितसमाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा प्रतिक्रान्तः समाधि-प्राप्तः कालमासे सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए। कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे अरुणाभे उववज्जिहिति। तत्थ णं अत्यंगतियाणं विमाने देवत्वेन उपपत्स्यते। तत्र देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती अस्त्येककानां देवानां चत्वारि पण्णत्ता। तत्थ णं संखस्स वि देवस्स पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र चत्तारि पलिओवमाइंठिती भविस्सति॥ शङ्कस्यापि देवस्य चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः भविष्यति। प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा, यथा-परिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करेगा। पालन कर एक महीने की संलेखना के द्वारा अपने शरीर को कृश बनाएगा, कृश बना कर साठ भक्त का छेदन करेगा, छेदन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण कर, समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर सौधर्म कल्प में अरुणाभ विमान में देवरूप में उपपन्न होगा। वहां कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम प्रज्ञप्त है। वहां शंख देव की स्थिति भी चार पल्योपम होगी। भाष्य १. सूत्र २७ शीलव्रत आदि की जानकारी के लिए द्रष्टव्य भगवई २/१४ का भाष्य। २८. सेणं भंते ! संखे देवे ताओ देवलोगाओ सः भदन्त ! शङ्कः देवः तस्माद् आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं देवलोकाद् आयुःक्षयेण भवक्षयेण अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति? स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र कहिं उववज्जिहिति ? गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति गौतम! महाविदेहवर्षे सेत्स्यति, बुझिहिति मुचिहिति परिणिव्वाहिति 'बुज्झिहिति' मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सब्वदुक्खाणं अंतं काहिति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति। २८. भंते ! वह शंख देव आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर उस देवलोक से च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त और परिनिर्वृत होगा, सब दुःखों का अन्त करेगा। २६.सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावत् विहरति। २६. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है। ऐसा कहकर यावत् भगवान् गौतम संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण करने लगे। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद उदयणादीणं धम्मसवण-पदं उदयनादीनां धर्मश्रवण-पदम् उदयन आदि का धर्मश्रवण-पद ३०. तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी। तस्मिन् काले तस्मिन् समये कौशाम्बी ३०. उस काल और उस समय कौशाम्बी नाम नाम नगरी होत्था-वण्णओ। नाम नगरी आसीत्-वर्णकः। चन्द्रा- की नगरी थी-वर्णक। चंद्रावतरण चैत्यचंदोतरणे चेइए-वण्णओ। तत्थ णं वतरणं चैत्यम्-वर्णकः। तत्र कौशाम्ब्यां वर्णक। उस कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स नगर्यां सहस्रानीकस्य राज्ञः पौत्रः, राजा का पौत्र, शतानीक राजा का पुत्र, रण्णो पोत्ते, सयाणीयस्स रण्णो पुत्ते, शतानीकस्य राज्ञः पुत्रः, चेटकस्य राज्ञः चेटक राजा का दौहित्र, मृगावती देवी का चेडगस्स रणो नत्तुए, मिगावतीए । नतृकः, मृगावत्याः देव्याः आत्मजः, आत्मज, श्रमणोपासिका जयन्ती का देवीए अत्तए, जयंतीए समणो- जयन्त्याः श्रमणोपासिकायाः 'भत्तिज्जए' भतीजा उदयन नामक राजा था-वर्णक। वासियाए भत्तिज्जए उदयणे नाम । उदयनः नाम राजा आसीत्-वर्णकः । उस कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक राजा राया होत्था-वण्णओ। तत्थ णं तत्र कौशाम्ब्यां नगर्यां सहस्रानीकस्य की पुत्रवधु, शतानीक राजा की भार्या, कोसंबीए नयरीए सहस्साणीयस्स राज्ञः स्नुषा, शतानीकस्य राज्ञः भार्या, चेटक राजा की पुत्री, उदयन राजा की रण्णो सुण्हा, सयाणीयस्स रण्णो चेटकस्य राज्ञः दुहिता, उदयनस्य राज्ञः माता, श्रमणोपासिका जयन्ती की भाभी भज्जा, चेडगस्स रण्णो धूया, माता, जयन्त्याः श्रमणोपासिकायाः श्रमणोपासिका मृगावती नामक देवी थीउदयणस्स रणो माया, जयंतीए भातृव्या मृगावती नाम देवी आसीत्- सुकुमाल हाथ-पैर वाली, यावत् सुरूपा, समणोवासियाए भाउज्जा मिगावती सुकुमारपाणिपादा यावत् सुरूपा जीव-अजीव को जानने वाली यावत् नामं देवी होत्था-सुकुमालपाणिपाया । श्रमणोपासिका अभिगतजीवाजीवा यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को जाव सुरूवा समणोवासिया। यावत् यथापरिगृहीतैः तपःकर्मभिः भावित करती हुई विहार कर रही थी। उस अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरि- आत्मानं भावयन्ती विहरति। तत्र कौशाम्बी नगरी में सहस्रानीक राजा की ग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं कौशाम्ब्यां नगर्यां सहस्रानीकस्य राज्ञः पुत्री, शतानीक राजा की बहन, उदयन भावेमाणी विहरइ। तत्थ ण कोसंबीए दुहिता, शतानीकस्य राज्ञः भगिनी, राजा की भुआ, मृगावती देवी की ननद, नगरीए सहस्साणीयस्स रण्णो धूया, उदयनस्य राज्ञः पितृष्वसा, मृगावत्याः वैशालिकश्रावकों-अर्हतों की पूर्व शय्यातर सयाणीयस्स रण्णो भगिणी, उदयणस्स देव्याः ननान्दा, वैशालिकश्रावकाणाम् रहने वाली जयंती नामक श्रमणोपासिका रण्णो पिउच्छा, मिगावतीए देवीए अर्हतां पूर्वशय्यातरी जयन्ती नाम थी-सुकुमाल हाथ पैर वाली यावत् सुरूपा, नणंदा, वेसालियसावयाणं अरहंताणं । श्रमणोपासिका आसीत्-सुकुमाल- जीव-अजीव को जानने वाली यावत् यथापुब्बसेज्जातरी जयंती नाम समणो- पाणिपादा यावत् सुरूपा अभिगत- परिगृहीत तपः कर्म के द्वारा अपने आपको वासिया होत्था-सुकुमालपाणिपाया जीवाजीवा यावत् यथापरिगृहीतैः भावित करती हुई रह रही थी। जाव सुरूवा अभिगयजीवाजीवा जाव तपःकर्मभिः आत्मानं भावयन्ती अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं विहरति। भावेमाणी विहरइ॥ भाष्य १. सूत्र ३० जयन्ती को पूर्व शय्यातरी कहा गया है। सेज्जातर का अर्थ होता है साधुओं को आवास के लिए स्थान देने वाला। जयंती अर्हतों को स्थान देने वाली थी। मुनि के लिए अर्हत् शब्द का प्रयोग किया गया है। भगवान् महावीर के साधुओं के लिए मुख्यतः निग्रंथ शब्द का प्रयोग होता था। अर्हत् शब्द का प्रयोग भगवान् पार्श्व की शिष्य Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ . भगवई श. १२ : उ. २ : सू. ३१-३३ परम्परा में विद्यमान मुनियों के लिए होता था। इससे फलित होता है कि जयंती भगवान् पार्श्व के अर्हतों को आवास के लिए स्थान देती थी। अर्हत् का एक विशेषण है वैशालिक श्रावक। वैशालिक शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है। उत्तराध्ययन के मूल पाठ में नायपुत्त शब्द का प्रयोग है इससे ज्ञात होता है वैशालिक भगवान् महावीर का विशेषण है। शान्त्याचार्य की बृहवृत्ति में एक पाठान्तर का उल्लेख है। उसमें भगवान पार्श्व के लिए वेसालिए शब्द का विशेषण मिलता है। प्रस्तुत आगम के दूसरे शतक में वैशालिक श्रावक का प्रयोग निग्रंथ के साथ हुआ है। इससे स्पष्ट है कि वैशालिक श्रावक अर्हत् का अर्थ है भगवान् पार्श्व के शासन का मुनि। वैशालिक श्रावक निग्रंथ का अर्थ है- भगवान महावीर के शासन का मुनि।' अभयदेव सूरि ने वैशालिक का अर्थ भगवान महावीर किया है। किन्तु अर्हत् के साथ वैशालिक का प्रयोग है इसलिए यह अर्थ विचारणीय है। ३१. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढ़े जाव परिसा पज्जुवासइ॥ तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः यावत् परिषद् पर्युपास्ते। ३१. उस काल उस समय भगवान् महावीर आए यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। ३२. तए णं से उदयणे राया इमीसे कहाए ततः सः उदयनः राजा अनया कथया लद्धढे समाणे हद्वतुढे कोडुबियपुरिसे लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टः कौटुम्बि सदावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी- पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कोसंबिं एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! नगरिं सभिंतरबाहिरियं आसित्त- कौशाम्बी नगरी साभ्यन्तरबाहिरिकाम् सम्मज्जिओवलितं करेत्ता य कारवेत्ता __ आसिक्त-सम्मार्जितोपलिप्तां कृत्वा च य एयमाणत्तियं पचप्पिणह। एवं जहा कारयित्वा च एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत। कृणिओ तहेव सव्वं जाव पज्जुवासइ॥ एवं यथा कूणिक: तथैव सर्वं यावत् पर्युपास्ते। ३२. इस कथा को सुनकर राजा उदयन हृष्ट तुष्ट हो गया। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रियो ! शीघ्र ही कौशांबी नगरी के भीतरी और बाहरी क्षेत्र को सुगंधित जल से सींचो, झाड़ बुहारकर गोबर का लेप करो, लेपकर मेरी आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो। इस प्रकार जैसे कौणिक राजा की वक्तव्यता (औपपातिक ५६-६९) वैसे ही सम्पूर्ण वर्णन यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। छात, ३३. तए णं सा जयंती समणोवासिया ततः सा जयन्ती श्रमणोपासिका अनया ३३. वह श्रमणोपासिका जयंती इस कथा को इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्टतुट्ठा कथया लब्धार्था सती हृष्टतुष्टा यत्रैव सुनकर हृष्ट-तुष्ट हो गयी। वह जहां जेणेव मिगावती देवी तेणेव उवाग- __ मृगावती देवी तत्रैव उपागच्छति, मृगावती देवी थी, वहां आई, आकर च्छइ, उवागच्छित्ता मिगावर्ति देविं एवं उपागम्य मृगावती देवीं . मृगावती देवी से इस प्रकार बोलीवयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे एवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रिये! देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर भगवं महावीरे आदिगरे जाव सवण्णू श्रमणः भगवान् महावीरः आदिकरः तीर्थंकर आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी आकाशगतेन आकाशगत-धर्मचक्र से शोभित यावत् जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे चंदोतरणे चक्रेण यावत् सुखंसुखेन विहरन् सुखपूर्वक चंद्रावतरण चैत्य में प्रवास योग्य चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं चन्द्रावतरणे चैत्ये यथाप्रतिरूपम् स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं ___ अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। भावेमाणे विहरइ। आत्मानं भावयन् विहरति। तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिए! तत् महाफलं खलु देवानुप्रिये! देवानुप्रिये ! ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम, तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं तथारूपाणाम अर्हतां भगवतां गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक है नामगोयस्स वि सवणयाए जाव एयं णे नामगोत्र-स्यापि श्रवणस्य यावत् एतत् यावत् यह मेरे इहभव और परभव के लिए इहभवे य, परभवे य हियाए सुहाए नः इहभवे च, प्रेत्यभवे च हिताय हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए सुखाय क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिक- आनुगामिकता के लिए होगा। भविस्सइ ॥ त्वाय भविष्यति। १. देखें उत्तर ६/१७ का टिप्पण ५. भ. १२/३० : वैशालिकोभगवान्महावीरस्तस्य वचनं श्रृण्वन्ति, २. वही, ६/१७। श्रावयन्ति या तद्रसिकत्वादिति वैशालिकश्रावकास्तेषाम् आर्हतानाम् ३. (क) नव सुत्ताणि, पृ. १०८ अर्हदेवतानां साधूनामिति गम्यं 'पूर्वशय्यातरा' प्रथमस्थानदात्री (ख) उत्तरज्झयणाणि अध्ययन छह का आमुख साधवो ह्यपूर्वे समायातास्तद्गृह एव प्रथमं वसतिं याचन्ते तस्याः ४. देखें भ. २/२५ तथा उसका भाष्य। स्थानदात्रीत्वेन प्रसिद्धत्वादिति सा पूर्वशय्यातरा। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६ ३४. तए णं सा मिगावती देवी जयंतीए ततः सा मृगावती देवी जयन्त्या समणोवासियाए एवं वुत्ता समाणी श्रमणोपासिकया एवम् उक्ता सती हतुट्ठचित्तमाणंदिया णंदिया पीइ- हृष्टतुष्टचित्ता आनन्दिता नन्दिता मणा परमसोमणस्सिया हरिसवस- प्रीतिमना परमसौमनस्यिता हर्षवशविसप्पमाणहियया करयलपरिग्गहियं विसर्पहृदया करतलपरिगृहीतं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट दशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं जयंतीए समणोवासियाए एयमह । कृत्वा जयन्त्याः श्रमणोपासिकायाः विणएणं पडिसुणेइ॥ एतमर्थं विनयेन प्रतिशृणोति। श. १२ : उ. २ : सू. ३४-३६ ३४. श्रमणोपासिका जयंती के इस प्रकार कहने पर वह मृगावती देवी हृष्ट-तुष्ट चित्तवाली, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मनवाली परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गयी। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकारवाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर श्रमणोपासिका जयंती के इस अर्थ को विनय पूर्वक स्वीकार किया। ३५. तए णं सा मिगावती देवी कोडुबिय- ततः सा मृगावती देवी कौटुम्बिक- पुरिसे सदावेइ, सदावेत्ता एवं वयासी पुरुषान शब्दयति, शब्दयित्वा खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! लहु- एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! करणजुत्तजोइय जाव धम्मियं लघुकरणयुक्तयौगिक यावत् धार्मिक जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह उवट्ठवेत्ता यानप्रवरं युक्तमेव उपस्थापयत मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह॥ उपस्थाप्य मां एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत। ३५. मृगावती देवी ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रियो ! शीघ्र गति-क्रिया की दक्षता से युक्त यावत् धार्मिक यानप्रवर को तैयार कर शीघ्र उपस्थित करो। उपस्थित कर मेरी इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। ३६.तए णं ते कोडुंबियपुरिसा मिगावतीए देवीए एवं वुत्ता समाणा धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेंति, उवट्ठवेत्ता तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति॥ ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः मृगावत्या देव्या एवम् उक्ताः सन्तः धार्मिकं यानप्रवरं युक्तमेव उपस्थापयन्ति, उपस्थाप्य ताम् आज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति। ३६. मृगावती देवी के इस प्रकार कहने पर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने धार्मिक यान प्रवर को शीघ्र उपस्थित कर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। ३७. तए णं सा मिगावती देवी जयंतीए ततः सा मृगावती देवी जयन्त्या समणोवासियाए सद्धिं बहाया श्रमणोपासिकया सार्धं स्नाता कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्या- कृतबलिकर्मा यावत् अल्पमहााभरणालंकिय-सरीरा बाहिं खुजाहिं भरणालंकृतशरीरा बहुभिः 'खुज्जाहिं' जाव चेडियाचक्कवाल-वरिसधर-थेर- यावत् चेटिकाचक्रवाल-वर्षधरकंचुइज्ज - महत्तरगवंद - परिक्खित्ता । स्थविर-कञ्चुकीय-महत्तरकवृन्दअंतेउराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता परिक्षिप्ता अन्तः पुरात् निर्गच्छति, जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव निर्गत्य यत्रैव बाहिरिका उपस्थानशाला धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, यत्रैव धार्मिकः यानप्रवरः तत्रैव उवागच्छित्ता धम्मिए जाणप्पवरं उपागच्छति, उपागम्य धार्मिकं यानप्रवरं दुरूढा॥ 'दुरूढ़ा। ३७. मृगावती देवी ने श्रमणोपासिका जयंती के साथ स्नान किया, बलिकर्म किया यावत् अल्पभार बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। बहुत कुब्जा यावत् चेटिका समूह, वर्षधर (कृतनपुंसक पुरुष) स्थविर कंचुकी जनों और महत्तरक गण के वृंद से घिरी हुई अंतःपुर से निकली। निकलकर जहां बाहरी उपस्थान शाला है, जहां धार्मिक यानप्रवर है, वहां आई। वहां आकर धार्मिक यानप्रवर पर आरूढ़ हो गई। ३८. तए णं सा मिगावती देवी जयंतीए ततः सा मृगादेवी देवी जयन्त्या समणोवासियाए सद्धिं धम्मियं श्रमणोपासिकया सार्धं धार्मिकं यानप्रवरं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी 'दुरूढ़ा' सती निजकपरिवारसंपरिव्रता नियगपरियालसंपरिबुडा जहा यथा ऋषभदत्तः यावत् धार्मिकात् उसभदत्तो जाव धम्मियाओ यानप्रवरात् प्रत्यारोहति। जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ॥ ३८. वह मृगावती देवी श्रमणोपासिका जयंती के साथ धार्मिक यानप्रवर पर आरूढ़ होकर अपने परिवार से परिवृत होकर ऋषभदत्त की भांति वक्तव्यता (भ.६/१४५) यावत् धार्मिक यानप्रवर से नीचे उतरी। ३६. तए णं सा मिगावती देवी जयंतीए ततः सा मृगावती देवी जयन्त्या ३६. वह मृगावती देवी श्रमणोपासिका जयंती के Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. २ : सू. ४०-४२ समणोवासियाए सद्धिं बहूहिं जहा देवाणंदा जाव बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उदयणं रायं पुरओ कट्टु ठिया चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी नमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिकडा पज्जुवासइ ॥ ४०. तए णं समणे भगवं महावीरे उदयणस्स रण्णो मिगावतीए देवीए जयंतीए समणोवासियाए तीसे य महतिमहालियाए परिसाए जाव धम्मं परिकहेइ जाव परिसा पडिगया, उदयणे पडिगए, मिगावती वि पडिगया ॥ जयंती - पसिण-पदं ४१. तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म तुट्ठा समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी कहणणं भंते ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति ? जयंती ! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं कोह - माण - माया - लोभ-पेज्ज-दोसकलह - अभक्खाण-पेसुन्न - परपरिवायअरतिरति मायामोस - मिच्छादंसणसल्लेणं - एवं खलु जयंती ! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छति ॥ ४२. कहण्णं भंते! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति ? जयंती ! पाणाइवायवेरमणेणं मुसावायवेरमणेणं अदिण्णादाणवेरमणेणं मेहुणवेरमणं परिग्गहवेरमणेणं कोहमाण- माया - लोभ - पेज्ज - दोस- कलहअब्भक्खाण - पेसुन्न परपरिवायअरतिरति मायामोस - मिच्छादंसणसल्लवेरमणणं - एवं खलु जयंती ! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति । · २० श्रमणोपासकया सार्धं बहुभिः यथा देवानन्दा यावत् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा उदयनं राजानं पुरतः कृत्वा स्थिता चैव सपरिवारा शुश्रूषमाणा नमस्यन्ती अभिमुखा विनयेन प्राञ्जलिकृता पर्युपास्ते । ततः श्रमणः भगवान् महावीरः उदयनस्य राज्ञः मृगावत्याः देव्याः जयन्त्याः श्रमणोपासिकायाः तस्यां च महामहत्यां परिषदि यावत् धर्मं परिकथयति यावत् परिषत् प्रतिगता, उदयनः प्रतिगतः, मृगावत्यपि प्रतिगता । जयन्ती प्रश्न-पदम् ततः सा जयन्ती श्रमणोपासिका श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् कथं भदन्त ! जीवाः गुरुकत्वं 'हव्वं' आगच्छन्ति ? जयन्ति ! प्राणातिपातेन मृषावादेन अदत्तादानेन मैथुनेन परिग्रहेण क्रोधमान-माया-लोभ-प्रेयस्- 'दोस' - कलहअभ्याख्यान - पैशुन्य परपरि वादअरतिरति मायामृषा - मिथ्यादर्शनशल्येन एवं खलु जयन्ति ! जीवाः गुरुत्वं हवं' आगच्छन्ति । - कथं भदन्त ! जीवाः लघुकत्वं 'हव्वं' आगच्छन्ति ? जयन्ति ! प्राणातिपातविरमणेन मृषावादविरमणेन अदत्तादानविरमणेन मैथुनविरमणेन परिग्रहविरमणेन क्रोधमान-माया-लोभ-प्रेयस्- 'दोस' -कलहअभ्याख्यान- पैशुन्य - परपरि - वादअरति-रति-मायामृषा - मिथ्यादर्शनशल्य - विरमणेन एवं खलु जयन्ति ! जीवाः लघुकत्वं 'हव्वं' आगच्छन्ति । भगवई साथ बहुत जैसे - देवानंदा की वक्तव्यता यावत् श्रमण भगवान् महावीर को वंदननमस्कार कर राजा उदयन को आगे कर स्थित हो परिवार सहित शुश्रूषा और नमस्कार करती हुई सम्मुख रहकर विनयपूर्वक बद्धांजलि पर्युपासना करने लगी। ४०. श्रमण भगवान् महावीर ने राजा उदयन, मृगावती देवी और श्रमणोपासका जयंती को उस विशालतम परिषद् में यावत् धर्म कहा यावत् परिषद् लौट गई, उदयन और मृगावती भी लौट गई। जयंती- प्रश्न पद ४१. वह श्रमणोपासिका जयंती श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गई। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार कहा - भंते! जीव गुरुता को कैसे प्राप्त होते हैं ? भारी कैसे बनते हैं ? जयंती ! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति रति, मायामृषा और मिथ्यादर्शन शल्य के द्वारा जीव गुरुता को प्राप्त होते हैं, भारी बनते हैं। ४२. भंते! जीव लघुता को कैसे प्राप्त होते हैं ? हल्का कैसे बनते हैं ? जयंती ! प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान - विरमण, मैथुनविरमण, परिग्रह - विरमण, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति मायामृषा और मिथ्यादर्शन शल्य के विरमण के द्वारा जीव लघुता को प्राप्त होते हैं, हल्का बनते हैं। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २१ श. १२ : उ. २ : सू. ४३-४८ ४३. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं आउली- कथं भदन्त ! जीवाः संसारम् आकुली ४३. भंते ! जीव संसार को अपरिमित कैसे करेंति ? कुर्वन्ति? करते हैं? जयंती ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छा- जयन्ति! प्राणातिपातेन यावत् जयंती ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनदसणसल्लेणं-एवं खलु जयंती! मिथ्यादर्शनशल्येन-एवं खलु जयन्ति ! शल्य के द्वारा जीव संसार को अपरिमित जीवा संसारं आउलीकरेंति॥ जीवाः संसारम् आकुलीकुर्वन्ति। करते हैं। ४४. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं परित्ती- करेंति ? जयंती! पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं-एवं खलु जयंती ! जीवा संसारं परित्तीकरेंति॥ कथं भदन्त! जीवाः संसारं परीतीकुर्वन्ति? जयन्ति ! प्राणातिपातविरमणेन यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविरमणेन-एवं खलु जयन्ति ! जीवाः संसारं परीतीकुर्वन्ति। ४४. भंते ! जीव संसार को परिमित कैसे करते हैं? जयंती! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विरमण से जीव संसार को परिमित करते हैं। ४५. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं दीही- कथं भदन्त! जीवाः संसारं ४५. भंते ! जीव संसार को दीर्घकालिक कैसे करेंति ? दी/कुर्वन्ति? करते हैं? जयंती ! पाणाइवाएणं जाव मिच्छा- जयन्ति ! प्राणातिपातेन यावत् जयंती ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनदसणसल्लेणं-एवं खलु जयंती! मिथ्यादर्शनशल्येन-एवं खलु जयन्ति ! शल्य के द्वारा जीव संसार को दीर्घजीवा संसारं दीहीकरेंति॥ जीवाः संसारं दीर्थीकुर्वन्ति। कालिक करते हैं। ४६. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं हस्सी- कथं भदन्त ! जीवाः संसारं ह्रस्वी- करेंति ? कुर्वन्ति? जयंती! पाणाइवायवेरमणेणं जाव। जयन्ति ! प्राणातिपातविरमणेन यावत् मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं-एवं खल मिथ्यादर्शनशल्येन-एवं खलु जयन्ति ! जयंती ! जीवा संसारं हस्सीकरेंति॥ जीवाः संसारं ह्रस्वीकुर्वन्ति। ४६. भंते ! जीव संसार को अल्पकालिक कैसे करते हैं? जयंती ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विरमण के द्वारा जीव संसार को अल्पकालिक करते हैं। ४७. कहणं भंते ! जीवा संसारं अणुपरि- कथं भदन्त ! जीवाः संसारम् यति ? अनुपरिवर्तन्ते? जयंती! पाणाइवाएणं जाव मिच्छा- जयन्ति! प्राणातिपातेन यावत् दसणसल्लेणं-एवं खलु जयंती ! मिथ्यादर्शनशल्येन-एवं खलु जयन्ति ! जीवा संसारं अणुपरियट्टति॥ जीवाः संसारम् अनुपरिवर्तन्ते। ४७. भंते ! जीव संसार में अनुपरिवर्तन कैसे करते हैं? जयंती ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के द्वारा जीव संसार में अनुपरिवर्तन करते हैं। १८. कहण्णं भंते ! जीवा संसारं वीति- कथं भदन्त ! जीवाः संसारं ४८. भंते ! जीव संसार का व्यतिक्रमण कैसे वयंति ? व्यतिव्रजन्ति? करते हैं? जयंती ! पाणाइवायवेरमणेणं जाव जयन्ति ! प्राणातिपातविरमणेन यावत् जयंती ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनमिच्छादसणसल्लवेरमणेणं - एवं मिथ्यादर्शनशल्यविरमणेन-एवं खलु शल्य विरमण से जीव संसार का जयंती ! जीवा ससारं वीतिवयंति॥ जयन्ति ! जीवाः संसारं व्यतिव्रजन्ति। व्यतिक्रमण करते हैं। भाष्य १.सूत्र ४१-४८ जयंती ने भगवान् महावीर से उन्नीस प्रश्न पूछे। भगवान् महावीर ने उनके उत्तर दिए। संक्षिप्त प्रश्न और संक्षिप्त उत्तर। किसी श्रमणोपासिका द्वारा पूछे गए प्रश्नों की यह एक लंबी तालिका है। प्रथम आठ प्रश्न गौतम स्वामी के द्वारा पूछे गए। जयंती द्वारा भी ये ही प्रश्न पूछे गए। यह आश्चर्य की बात है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि उस समय ये प्रश्न बहुत चर्चित रहे हों। इन प्रश्नों की जानकारी के लिए देखें-भगवई १/३८४-३६१ का भाष्य। १. भ. १/३८४-३६१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. २ : सू. ४६-५२ २२ भगवई ४६. भवसिद्धियत्तणं भंते ! जीवाणं किं सभावओ ? परिणामओ? जयंती ! सभावओ, नो परिणामओ॥ भवसिद्धिकत्वं भदन्त ! जीवानां किं स्वभावतः ? परिणामतः? जयन्ति ! स्वभावतः, नो परिणामतः। ४६. भंते ! क्या जीव भवसिद्धिक स्वभाव से होते हैं ? परिणाम से होते हैं? जयंती ! स्वभाव से होते हैं, परिणाम से नहीं होते। ५०. सब्वेवि णं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सर्वेऽपि भदन्त ! भवसिद्धिकाः जीवाः ५०. भंते! क्या सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध सिज्झिस्संति ? सेत्स्यन्ति? होंगे? हंता जयंती! सब्वेवि णं भवसिद्धिया। हन्त जयन्ति ! सर्वेऽपि भवसिद्धिकाः हा, जयंती ! सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध जीवा सिज्झिस्संति॥ जीवाः सेत्स्यन्ति। होंगे। ५१. जइ णं भंते ! सब्वे भवसिद्धिया जीवा यदि भदन्त ! सर्वे भवसिद्धिकाः जीवाः ५१. भंते ! यदि सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो सिज्झिस्संति, तम्हा णं भवसिद्धिय- सेत्स्यन्ति, तस्मात् भवसिद्धिक- जाएंगे तो क्या यह लोक भवसिद्धिक जीवों विरहिए लोए भविस्सइ ? विरहितः लोकः भविष्यति? से रहित नहीं हो जायेगा? नो इणढे समहे॥ नो अयमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। ति ५२. से केणं खाइणं अट्ठणं भंते ! एवं तत् केन 'खाइणं' अर्थेन भदन्त ! बुचइ-सव्वेवि णं भवसिद्धिया जीवा एवमुच्यते-सर्वेऽपि भवसिद्धिकाः जीवाः सिज्झिस्संति, नो चेव णं भवसिद्धिय- सेत्स्यन्ति, नो चैव भवसिद्धिकविरहितः विरहिए लोए भविस्सइ? लोकः भविष्यति? जयंती ! से जहानामए सव्वागाससेढी जयन्ति ! अथ यथानामकः सर्वाकाशसिया-अणादीया अणवदग्गा परित्ता श्रेणिः स्यात्-अनादिका अनवदग्रा परिवुडा, सा णं परमाणुपोग्गलमेत्तेहिं परीता परिवृता, सा परमाणुपुद्गलखंडेहिं समए-समए अवहीरमाणी- मात्रैः खण्डे समये-समये अपहियमाणी अवहीरमाणी अणंताहिं ओसप्पिणी- अपह्रियमाणी अनन्ताभिः अवसर्पिणीउस्सप्पिणीहिं अवहीरंति, नो चेव णं उत्सर्पिणीभिः अपहियन्ते, नो चैव अवहिया सिया। अपहृता स्यात्। से तेणटेणं जयंती ! एवं वुच्चइ-सव्वेवि तत् तेनार्थेन जयन्ति! एवमुच्यतेणं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति, सर्वेऽपि भवसिद्धिकाः जीवाः नो चेव णं भवसिद्धियविरहिए लोए सेत्स्यन्ति, नो चैव भवसिद्धिकभविस्सइ॥ विरहितः लोकः भविष्यति। ५२. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जायेंगे तो यह लोक भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा? जयंती ! जैसे कोई सर्व-आकाश श्रेणी है-अनादि, अंतहीन, अपरिमित और अन्य श्रेणियों से परिवृत। उस श्रेणी से एक परमाणु-पुद्गल जितना खण्ड प्रति समय अपहृत करें तो भी अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में उनका अपहार नहीं होता। जयन्ती ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सब भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जायेंगे फिर भी यह लोक भवसिद्धिक जीवों से विरहित नहीं होगा। भाष्य 1. सूत्र १६-५२ एक शिशु युवा बनता है, यह 'अभूतभवन्' परिणाम है। भवसिद्धिक भगवती के प्रथम शतक में भवसिद्धिक को शाश्वत बतलाया। अभूतभवनात्मक परिणाम नहीं है। यदि सर्व भवसिद्धिक जीव सिद्ध गया है। अनुयोगद्वार के अनुसार भवसिद्धिक अनादि पारिणामिक होंगे तो यह संसार भवसिद्धिक (मोक्षगमन योग्य) जीवों से खाली हो है। प्रस्तुत प्रकरण का निर्देश है-भवसिद्धिक स्वभावतः होता है, जायेगा। इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा-जयंती ! संपूर्ण परिणामतः नहीं होता। अनुयोगद्वार में अनादि पारिणामिक भाव के आकाश की एक श्रेणी है-अनादि, अंतहीन, अपरिमित और अन्य प्रकरण में भवसिद्धिक का उल्लेख है। प्रस्तुत सूत्र में सादि श्रेणियों से परिवृत। उस श्रेणी से एक परमाण-पुदगल जितना खंड पारिणामिक भाव की अपेक्षा से 'परिणाम से नहीं होता' का निर्देश प्रतिसमय अपहत करें तो भी अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल है। इसलिए इन दोनों में परस्पर विरोध नहीं है। वृत्तिकार के अनुसार में उनका अपहार नहीं होता। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सब जैसे पुदगल स्वभाव से मूर्त होता है वैसे ही भवसिद्धिक स्वभाव से भवसिद्धिक जीव सिद्ध हो जाएंगे फिर भी यह लोक भवसिद्धिक होता है। वृत्तिकार ने परिणाम का अर्थ 'अभूतभवन्' किया है, जैसे जीवों से विरहित नहीं होगा। १. भ. १/२६२ एवं उसका भाष्य। ३. भ. वृ. १२/४६-५२ : स्वभावतः पुद्गलानां मूर्तत्ववत्। २. अनु सू. २८८ ' 'परिणामओ' ति परिणामेन अभूतस्य भवनेन पुरुषस्य तारुण्यवत्। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३. ५३. सुत्तत्तं भंते ! साहू ? जागरियत्तं श. १२ : उ. २ : सू. ५३-५४ ५३. भंते ! जीवों का सुप्त रहना अच्छा है? जागृत रहना अच्छा है? जयंती ! कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है, कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है। सुप्तत्वं भदन्त ! साधु ? जागरिकत्वं साधु? जयन्ति! अस्त्येककानां जीवानां सुप्तत्वं साधु, अस्त्येककानां जीवानां जागरिकत्वं साधु। जयंती ! अत्थेगतियाणं जीवाणं सुत्तत्तं साह, अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू॥ ५४. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है- कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है, कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है ? ५४. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- अत्थेगतियाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अस्त्येककानां जीवानां सुप्तत्वं साधु, अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं अस्त्येककानां जीवानां जागरिकत्वं साहू ! साधु ? जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया जयन्ति ! ये इमे जीवाः अधार्मिकाः अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अधर्मानुगाः अधर्मिष्ठाः अधर्माअहम्मपलोई अहम्मपलज्जणा। ख्यायिनः अधर्मप्रलोकिनः अधर्मअहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्तिं प्ररञ्जनाः अधर्मसमदाचाराः अधर्मेण कप्पेमाणा विहरंति, एएसिणं जीवाणं चैव वृत्तिं कल्पमानाः विहरन्ति, एतेषां सुत्तत्तं साहू। एए णं जीवा सुत्ता जीवानां सुप्तत्वं साधु। एते जीवाः सुप्ताः समाणा नो बहणं पाणाणं भूयाणं सन्तः नो बहूनां प्राणानां भूतानां जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए जीवानां सत्वानां दुःखनाय शोचनाय सोयणयाए जूरणयाए तिप्पणयाए खेदनाय तिप्पनाय पिट्टनाय पिट्टणयाए परियावणयाए बटुंति। एए णं परितापनाय वर्तन्ते। एते जीवाः सुप्ताः जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा सन्तः आत्मानं वा परं वा तदुभयं वा नो तदुभयं वा नो बहूहिं अहम्मियाहिं बहुभिः अधार्मिकाभिः संयोजनाभिः संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। संयोजयितारः भवन्ति। एतेषां जीवानां एएसि णं जीवाणं सुत्ततं साहू। सुप्तत्वं साधु। जयंती! जे इमे जीवा धम्मिया जयन्ति ! ये इमे जीवाः धार्मिकाः धम्माणुया धम्मिट्ठा धम्मक्खाई ___धर्मानुगाः धर्मिष्ठाः धर्माख्यायिनः धर्मधम्मपलोई धम्मपलज्जणा धम्म- प्रलोकिनः धर्मप्ररञ्जनाः धर्मसमुदाचाराः समुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं धर्मेण चैव वृत्तिं कल्पमानाः विहरन्ति, कप्पेमाणा विहरंति, एएसि णं जीवाणं एतेषां जीवानां जागरिकत्वं साधु। एते जागरियत्तं साह। एए णं जीवा जागरा जीवाः जागराः सन्तः बहूनां प्राणानां समाणा बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं भूतानां जीवानां सत्वानाम् अदुःखनाय सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अशोचनाय अखेदनाय अतिप्पनाय अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्ट- अपिट्टनाय अपरितापनाय वर्तन्ते। एते णयाए अपरियावणयाए बटुंति। एए णं जीवाः जागराः सन्तः आत्मानं वा परं जीवा जागरा समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहुभिः धार्मिकाभिः वा तदुभयं वा बहूहि धम्मियाहिं संयोजनाभिः संयोजयितारः भवन्ति। संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। एए एते जीवाः जागराः सन्तः धर्मजागणं जीवा जागरा समाणा धम्म- रिकया आत्मानं जागरितारः भवन्ति। जागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो एतेषां जीवानां जागरिकत्वं साधु। तत् भवंति। एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं तेनार्थेन जयन्ति! एवमुच्यते-अस्त्येकसाह। से तेणटेणं जयंती! एवं कानां जीवानां सुप्तत्वं साधु, अस्त्येकवुच्चइ-अत्थेगतियाणं जीवाणं सुत्तत्तं कानां जीवानां जागरिकत्वं साधु। जयंती ! जो ये जीव अधार्मिक, (अधर्म का अनुगमन करने वाले) अधर्मिष्ठ, अधर्मवादी, अधर्म को देखने वाले, अधर्म में अनुरक्त, अधर्म का आचरण करने वाले, अधर्म के द्वारा आजीविका करने वाले हैं, उन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है। उन जीवों के सुप्त रहने से वे अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी करने के लिए, शोकाकुल करने के लिए, खिन्न करने के लिए, रुलाने के लिए, पीटने के लिए, परितप्त करने के लिए प्रवृत्त नहीं होते। उन जीवों के सुप्त रहने से वे स्वयं को अथवा दूसरे को अथवा स्वपर-दोनों को अनेक अधार्मिक संयोजनाओं में संयोजित नहीं करते। अतः उन जीवों का सुप्त रहना अच्छा है। जयंती! जो ये जीव धार्मिक, धर्मानुग, धर्मिष्ठ, धर्म का आख्यान करने वाले, धर्म का प्रलोकन करने वाले, धर्म से रंजित, धर्म का आचरण करने वाले और धर्म के द्वारा ही आजीविका चलाते हुए विहरण करते हैं, उन जीवों का जागृत रहना अच्छा है। उन जीवों के जागृत रहने से वे अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी न करने के लिए, शोकाकुल न करने के लिए, खिन्न न करने के लिए, न रुलाने के लिए, न पीटने के लिए और परितप्त न करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। उन जीवों के जागृत रहने से वे स्वयं को, दूसरे को, दोनों को अनेक धार्मिक संयोजनाओं में संयोजित करते हैं। वे जीव जागृत होने पर धर्म जागरिका के द्वारा अपनी आत्मा को जागृत करते हैं। इसलिए उन जीवों का जागृत रहना अच्छा है। जयंती! इस Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ भगवई श. १२ : उ. २ : सू. ५५,५६ साह, अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू॥ अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कुछ जीवों का सुप्त रहना अच्छा है, कुछ जीवों का जागृत रहना अच्छा है। भाष्य १. सूत्र ५३-५४ जीवों का सोना अच्छा या जागना अच्छा? इन प्रश्नों का उत्तर भगवान् ने अनेकान्त दृष्टि से दिया। अधर्म पक्ष वाले जीवों का सोना अच्छा है, धर्म पक्ष वाले जीवों का जागना अच्छा है। सूत्रकृतांग में तीन पक्ष बतलाए गए हैं- अधर्म पक्ष', धर्म पक्ष और मिश्र पक्षा' प्रस्तुत विषय का विशद वर्णन उन तीन पक्षों के मूल पाठ में प्राप्त है। इसका संक्षिप्त सार यह है जो व्यक्ति अधर्म का आचरण करता है और अधर्म या अनैतिकता से आजीविका करता है, वह सुप्त है, उसका सोना ही अच्छा है। जो व्यक्ति धर्म का आचरण करना है और धर्म या नैतिकता से आजीविका करता है, वह जागृत है, उसका जागना ही अच्छा है। सुप्त का सोना इसलिए अच्छा है कि वह जागृत अवस्था में दूसरों को दुःख देता है और स्वयं को तथा दूसरों को अधार्मिक संयोजनाओं में संयोजित करता है। जागृत व्यक्ति जागृत अवस्था में दूसरों को दुःख नहीं देता इसलिए उसका जागना अच्छा है। वह जागृत रहकर स्वयं को तथा दूसरों को अनेक धार्मिक संयोजनाओं से संयोजित करता है। धर्म-जागरिका से जागृत रहता है। शब्द-विमर्श दुःखणयास इत्यादि शब्दों के लिए द्रष्टव्य भगवई ७/११४ धार्मिक-श्रुत चारित्र रूप धर्म का आचरण करने वाला। अधर्मिष्ठ-जिसको अधर्म इष्ट है। अधर्मानुग-जो धर्म का अनुगमन नहीं करता। अधर्माख्याति-अधर्म का आख्यान करने वाला, अधर्म के द्वारा ही जिसकी ख्याति है। ___ अधर्मप्रलोकी-जो धर्म का उपादेय रूप में अवलोकन नहीं करता। अधर्मप्ररञ्जन-अधार्मिक कार्यों में अनुरक्त रहने वाला। अधर्म समुदाचार-धर्म के सदाचार का पालन नहीं करने वाला। ५५. बलियत्तं भंते ! साह? दुब्बलियत्तं साहू ? जयंती! अत्यंगतियाणं जीवाणं बलियत्तं साह, अत्थेगतियाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू॥ बलिकत्वं भदन्त ! साधु ? दुर्बलिकत्वं साधु ? जयन्ति! अस्त्येककानां जीवानां बलिकत्वं साधु, अस्त्येककानां जीवानां दुर्बलिकत्वं साधु। ५५.भंते ! जीवों का बलिष्ठ होना अच्छा है ? दुर्बल होना अच्छा है ? जयंती ! कुछ जीवों का बलिष्ठ होना अच्छा है, कुछ जीवों का दुर्बल होना अच्छा है। ५६.भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है- कुछ जीवों का बलिष्ठ होना अच्छा है, कुछ जीवों का दुर्बल होना अच्छा है? ५६. से केणद्वेणं भंते! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- अत्थेगतियाणं जीवाणं बलियत्तं साहू, अस्त्येककानां जीवानां बलिकत्वं साधु, अत्थेगतियाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं अस्त्येककानां जीवानां दुर्बलिकत्वं साहू ? साधु ? जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव जयन्ति ! ये इमे जीवाः अधार्मिका: अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा यावत् अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पमानाः विहरंति, एएसि णं जीवाणं दुब्बलियत्तं __विहरन्ति, एतेषां जीवानां दुर्बलिकत्वं साहू। एए णं जीवा दुब्बलिया समाणा साधु। एते जीवाः दुर्बलिकाः सन्तः नो नो बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं बहूनां प्राणानां भूतानां जीवानां सत्वानां सत्ताणं दुक्खणयाए जाव परिया- दुःखनाय यावत् परितापनाय वर्तन्ते। वणयाए वटुंति। एए णं जीवा एते जीवाः दुर्बलिकाः सन्तः आत्मानं वा दुब्बलिया समाणा अप्पाणं वा परं वा परं वा तदुभयं वा नो बहुभिः तदुभयं वा नो बहुहिं अहम्मियाहिं अधार्मिकीभिः संयोजनाभिः संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। संयोजयितारः भवन्ति। एतेषां जीवानां एएसि णं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू। दुर्बलिकत्वं साधुः। . जयंती ! जो ये जीव अधार्मिक यावत् अधर्म के द्वारा आजीविका चलाते हुए विहरण कर रहे हैं, उन जीवों का दुर्बल होना अच्छा है। उन जीवों के दुर्बल होने से वे अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी यावत् परितप्त करने के लिए प्रवृत नहीं होते । उन जीवों के दुर्बल होने से स्वयं को, दूसरे को, दोनों को अनेक अधार्मिक संयोजनाओं में संयोजित नहीं करते इसलिए उन जीवों का दुर्बल होना अच्छा है। ३. वही, २/२/७२-७४। १. सूय. २/२/५२-६२॥ २. वही, २/२/६३-७०। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. २ : सू. ५७,५८ जयंती ! जे इमे जीवा धम्मिया जाव जयन्ति ! ये इमे जीवाः धार्मिकाः यावत् धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, धर्मेण चैव वृत्तिं कल्पमानाः विहरन्ति, एएसि णं जीवाणं बलियत्तं साहू। एए एतेषां जीवानां बलिकत्वं साधु। एते णं जीवा बलिया समाणा बहूणं जीवाः बलिकाः सन्तः बहूनां प्राणानां पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं भूतानां जीवानां सत्वानाम् अदुःखनाय अदुक्खणयाए जाव अपरियावणयाए यावत् अपरितापनाय वर्तन्ते। एते बटुंति। एए णं जीवा बलिया समाणा जीवाः बलिकाः सन्तः आत्मानं वा परं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहूहिं वा तदुभयं वा बहुभिः धार्मिकीभिः धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो संयोजनाभिः संयोजयितारः भवन्ति। भवंति। एएसि णं जीवाणं बलियत्तं एतेषां जीवानां बलिकत्वं साधु। तत् साहू। से तेणटेणं जयंती! एवं तेनार्थेन जयन्ति! एवमुच्यतेबुचइ-अत्यंगतियाणं जीवाणं बलियत्तं अस्त्येककानां जीवानां बलिकत्वं साधु, साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं अस्त्येककानां जीवानां दुर्बलिकत्वं दुब्बलियत्तं साहू॥ साधु। जयंती ! जो ये जीव धार्मिक यावत् धर्म के द्वारा आजीविका चलाते हुए विहरण करते हैं, उन जीवों का बलवान होना अच्छा है। वे जीव बलवान होने पर अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी न करने के लिए यावत् परितप्त न करने के लिए प्रवृत्त होते हैं। वे जीव बलवान होने पर स्वयं को, दूसरों को, दोनों को अनेक धार्मिक संयोजनाओं में संयोजित करते हैं इसलिए उन जीवों का बलवान होना अच्छा है। जयंती! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कुछ जीवों का बलवान होना अच्छा है, कुछ जीवों का दुर्बल होना अच्छा है। ५७. दक्खत्तं भंते ! साहू ? आलसियत्तं दक्षत्वं भदन्त ! साधु ? आलसिकत्वं ५७. भंते ! जीवों का दक्षत्व अच्छा है ? आलस्य साधु ? अच्छा है? जयंती! अत्थेगतियाणं जीवाणं जयन्ति! अस्त्येककानां जीवानां जयंती ! कुछ जीवों का दक्षत्व अच्छा है, दक्खत्तं साहू, अत्थेगतियाणं जीवाणं दक्षत्वं साधु, अस्त्येककानां जीवानाम् कुछ जीवों का आलस्य अच्छा है। आलसियत्तं साहू॥ आलसिकत्वं साधु। ५८. से केणटेणं भंते! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- ५५. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा अत्थेगतियाणं जीवाणं दक्खत्तं साह, अस्त्येककानां जीवानां दक्षत्वं साधु, है-कुछ जीवों का दक्षत्व अच्छा है ? कुछ अत्थेगतियाणं जीवाणं आलसियत्तं अस्त्येककानां जीवानाम आलसिकत्वं जीवों का आलस्य अच्छा है? साहू ? साधु? जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव जयन्ति ! ये इमे जीवाः अधार्मिकाः जयंती ! जो ये जीव अधार्मिक यावत् अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा यावत् अधर्मेण चैव वृत्तिं कल्पमानाः अधर्म के द्वारा आजीविका चलाते हुए विहरंति, एएसि णं जीवाणं । विहरन्ति, एतेषां जीवानाम् विहरण करते हैं, उन जीवों का आलस्य आलसियत्तं साहू। एए णं जीवा । आलसिकत्वं साधु। एते जीवाः अच्छा है। वे जीव आलसी होने पर अनेक आलसा समाणा नो बहूणं पाणाणं ___ आलसाः सन्तः नो बहूनां प्राणानां प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखी भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणयाए भूतानां जीवानां सत्वानां दुःखनाय यावत् परितप्त करने के लिए प्रवृत्त नहीं जाव परियावणयाए बटुंति। एए णं यावत् परितापनाय वर्तन्ते। एते जीवा होते। वे जीव आलसी होने पर स्वयं को, जीवा आलसा समाणा अप्पाणं वा परं आलसाः सन्तः आत्मानं वा परं वा दूसरों को, दोनों को अनेक अधार्मिक वा तदुभयं वा नो बहूहिं अहम्मियाहिं तदुभयं वा नो बहुभिः अधार्मिकीभिः संयोजनाओं में संयोजित नहीं करते। संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति। संयोजनाभिः संयोजयितारः भवन्ति। इसलिए उन जीवों का आलस्य अच्छा है। एएसि णं जीवाणं आलसियत्तं साहू। एतेषां जीवानाम् आलसिकत्वं साधु। जयंती ! जे इमे जीवा धम्मिया जाव। जयन्ति ! ये इमे जीवाः धार्मिकाः यावत् जयंती ! जो ये जीव धार्मिक यावत् धर्म के धम्मेणं चेव वितिं कप्पेमाणा धर्मेण चैव वृत्तिं कल्पमानाः विहरन्ति, द्वारा आजीविका चलाते हुए विहरण करते विहरंति, एएसि णं जीवाणं दक्वत्तं एतेषां जीवानां दक्षत्वं साधु, एते जीवाः हैं, उन जीवों का दक्षत्व अच्छा हैं। वे जीव साहू, एए णं जीवा दक्खा समाणा दक्षाः सन्तः बहूनां प्राणानां भूतानां दक्षता के कारण अनेक प्राण, भूत, जीव बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जीवानां सत्वानाम् अदुःखनाय यावत् और सत्त्वों को दुःखी न करने के लिए अदुक्रवणयाए जाव अपरियावणयाए अपरितापनाय वर्तन्ते। एते जीवाः । यावत् परितप्त न करने के लिए प्रवृत्त होते वटुंति। एए णं जीवा दक्खा समाणा दक्षाः सन्तः आत्मानं वा परं वा तदुभयं हैं। वे जीव दक्षता के कारण स्वयं को, अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहूहिं वा बहुभिः धार्मिकीभिः संयोजनाभिः दूसरे को, दोनों को अनेक धार्मिक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. २ : सू. ५६,६० २६ धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो संयोजयितारः भवन्ति। एते जीवाः भवंति। एए णं जीवा दक्खा समाणा दक्षाः सन्तः बहुभिः आचार्यवैयावृत्यैः बहहिं आयरियवेयावच्चेहिं उवज्झाय- ___ उपाध्यायवैयावृत्यैः स्थविरवैयावृत्यैः वेयावच्चेहि थेरखेयावच्चेहिं तवस्सि- तपस्विवैयावृत्यैः ग्लानवैयावृत्यैः शैक्षवेयावचेहि गिलाणवेयावच्चेहिं सेहवेया- वैयावृत्यैः कुलवैयावृत्यैः गणवैयावृत्यैः बच्चेहिं कुलवेयावचेहिं गणवेयावच्चेहि __संघवैयावृत्यैः साधार्मिकवैयावृत्यैः संघवयावचेहिं साहम्मियवेयावच्चेहिं आत्मानं संयोजयितारः भवन्ति, एतेषां अत्ताणं संजोएत्तारो भवंति, एएसि णं जीवानां दक्षत्वं साधु । जीवाणं दक्वत्तं साहू। से तेणटेणं जयंती ! एवं वुच्चइ- तत् तेनार्थेन जयन्ति ! एवमुच्यतेअत्थेगतियाणं जीवाणं दक्खत्तं साहू, अस्त्येककानां जीवानाम् आलसिकत्वं अत्यंगतियाणं जीवाणं आलसियत्तं साधु। साहू॥ संयोजनाओं में संयोजित करते हैं। वे जीव दक्षता के कारण अनेक आचार्यों के वैयावृत्य, उपाध्यायों के वैयावृत्य, स्थविरों के वैयावृत्य, तपस्वियों के वैयावृत्य, ग्लानों के वैयावृत्य, शैक्षों के वैयावृत्य, कुलों के वैयावृत्य, गणों के वैयावृत्य, संघों के वैयावृत्य और साधर्मिकों के वैयावृत्य द्वारा अपने आप को संयोजित करते हैं, इसलिए उन जीवों का दक्षत्व अच्छा है। जयंती! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कुछ जीवों का दक्षत्व अच्छा है, कुछ जीवों का आलस्य अच्छा है। भाष्य १. सूत्र ५५-५८ व्यक्ति आचार्य आदि की सेवा में व्याप्त होता है। दस प्रकार के दुर्बलता और बलवत्ता, आलस्य और दक्षता की व्याख्या भी वैयावृत्य के लिए द्रष्टव्य है- ठाणं १०/१७.५/४४-४५। सुप्त और जागृत के समान है। एक उल्लेखनीय बात है कि दक्ष ५१. सोइंदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ ? श्रोत्रेन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किम चिनोति? किं उपचिनोति ? जयंती ! सोइंदियवसट्टे णं जीवे जयन्ति ! श्रोत्रेन्द्रियवशातः जीवः आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ आयुर्वर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीः शिथिलसिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधण- बन्धनबद्धाः 'धणिय बन्धनबद्धाः बद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठिझ्याओ प्रकरोति, ह्रस्वकालस्थितिकाः दीर्घदीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदाणु- कालस्थितिकाः प्रकरोति, मन्दानुभावाः भावाओ तिब्वाणुभावाओ पकरेइ, तीव्रानुभावाः प्रकरोति, अल्पप्रदेशाग्राः अप्पपएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ बहूप्रदेशाग्राः प्रकरोति, आयुश्च कर्म पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ स्यात् बध्नाति, स्यात् नो बध्नाति, सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च असातवेदनीयं च कर्म भूयः-भूयः णं कम्मं भुज्जो-भुज्जो उवचिणाइ, उपचिनोति, अनादिकं च 'अणवदग्गं' अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं __ च दीर्घाद्धं चतुरन्तं संसारकन्तारम् चाउरतं संसारकतारं अणुपरियट्टइ॥ अनुपरिवर्तते। ५६. भंते ! श्रोत्रेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है? किसका उपचय करता है ? जयंती! श्रोत्रेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बंधन-बद्ध प्रकृतियों को गाढ बन्धन-बद्ध करता है, अल्पकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश-परिमाण वाली करता है। आयुष्य कर्म का बंध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता। वह असातवेदनीय कर्म का बहुत-बहुत उपचय करता है और आदि-अन्तहीन दीर्घपथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। ६०. चक्खिदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ ? चक्षुरिन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किं चिनोति? किम् उपचिनोति? ६०. भंते ! चक्षुरिन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है? किसका उपचय करता है? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥ एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते? Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ श. १२ : उ. २ : सू. ६१-६५ भगवई ६१. पाणिदियवसद्दे णं भंते ! जीवे किं बंधड ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ ? घ्राणेन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किं चिनोति? किम् उपचिनोति? ६१. भंते ! घ्राणेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥ "गुपारपट्टइ॥ एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते। ६२. रसिंदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं रसेन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? । बध्नाति? किं प्रकरोति? किं किं उवचिणाइ? चिनोति? किम् उपचिनोति? ६२. भंते ! रसनेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥ एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते। ६३. फासिदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ? स्पर्शनेन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं ६३. भंते ! स्पर्शनेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ बध्नाति ? किं प्रकरोति? किं । जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या चिनोति? किम् उपचिनोति? प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है? एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते। इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनूपर्यटन करता है। एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥ भाष्य १. सूत्र ५६-६३ ___इन्द्रिय लोलुपता से कर्म बंधन दृढ़ होता है। इसके अतिरिक्त असात वेदनीय कर्म का बार बार उपचय होता है। इन्द्रिय लोलुपता के साथ असात वेदनीय के उपचय का संबंध बहुत विमर्शनीय है। इसका फलित यह है कि इन्द्रिय विजय और स्वास्थ्य का घनिष्ठ संबंध है। इसी प्रकार इन्द्रिय लोलुपता और रोग का भी घनिष्ठ संबंध है। तुलना के लिए देखें-भगवई १/४६-४७ तथा १२/२२२५ का भाष्य। शब्द-विमर्श इंदिय वसट्टे-इन्द्रिय की परतंत्रता से पीड़ित, आत। ६४. तए णं सा जयंती समणोवासिया ततः सा जयन्ती श्रमणोपासिका ६४. वह श्रमणोपासिका जयंती श्रमण भगवान् समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकम् महावीर से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण एयमढे सोचा निसम्म हहतुट्ठा सेसं एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा शेषं कर हृष्ट-तुष्ट हो गई (भ.१/१५२-१५५) जहा देवाणंदा तहेव पव्वइया जाव यथा देवानन्दा तथैव प्रव्रजिता यावत् शेष देवानंदा की भांति वक्तव्यता, वैसे ही सम्बदुक्खप्पहीणा॥ सर्वदुःखप्रहीना। प्रव्रजित हो गई यावत् सब दुःखों को क्षीण कर दिया। ६५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ६५. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही १. भ. वृ. १२/५६-६३--श्रोत्रेन्द्रियवशेन-तत्पारतन्त्र्येण ऋतः पीडितः श्रोत्रेन्द्रियवशातः श्रोत्रेन्द्रियवशं वा ऋतो-गतः श्रोत्रेन्द्रियवशातः । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद पुढवी-पदं ६६. रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? पृथ्वी-पदम् राजगृहं यावत् एवमवादीत्-कति भदन्त! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः? पथ्वी पद ६६. राजगृह नाम का नगर था, यावत् गौतम स्वामी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भंते ! पृथ्वियां कितने प्रकार की प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! पृथ्वियां सात प्रकार की प्रज्ञप्त हैं, जैसे-प्रथम, द्वितीय यावत् सातवीं। गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, गौतम! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथातं जहा-पढमा, दोचा जाव सत्तमा॥ प्रथमा, द्वितीया यावत् सप्तमी। ६७. पढमा णं भंते! पुढवी किंगोत्ता पण्णत्ता ? गोयमा ! घम्मा नामेणं, रयणप्पभा गोत्तेणं, एवं जहा जीवाभिगमे पढमो नेरइयउद्देसओ सो चेव निरवसेसो भाणियब्बो जाव अप्पाबहुगं ति॥ प्रथमा भदन्त! पृथिवी किं गोत्रा ६७. भंते ! प्रथम पृथ्वी का गौत्र क्या प्रज्ञप्त प्रज्ञप्ता? गौतम! घर्मा नाम्ना, रत्नप्रभा गोत्रेण, गौतम ! घम्मानामक प्रथम पृथ्वी का गौत्र एवं यथा जीवाभिगमे प्रथमः रत्नप्रभा है। इस प्रकार जैसे जीवाभिगम नैरयिकोद्देसकः सो चैव निरवशेषः (३) का प्रथम नैरयिक उद्देशक है, वह भणितव्यः यावत् अल्पबहुकम् इति। निरवशेष वक्तव्य है यावत् अल्प-बहुत्व। भाष्य १. सूत्र ६६-६७ द्रष्टव्य भगवई १/१११ का भाष्य। ६८. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ ६८. तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। ६८. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल परमाणुपोग्गलाणं संघात - भेद-पदं ६६. रायगिहे जाव एवं वयासी -दो भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं भवइ ? गोमा ! दुपए सिए बंधे भवइ । से भिज्जमाणे दुहा कज्जइ - एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ परमाणुपोग्गले भवइ ॥ ७०. तिष्णि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, साहणित्ता किं भवइ ? गोयमा ! तिपएसिए खंधे भवइ । से भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि कज्जइ दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए बंधे भवइ । तिहा कज्जमाणे तिण्णि परमाणुपोग्गला भवति ॥ ७१. चत्तारि भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, साहणित्ता किं भवइ ? गोयमा ! चउपसिए खंधे भवइ । से भिज्जमाणे दुहा वितिहा विचउहा वि कज्जइ दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे भवड़, अहवा दो दुपएसिया बंधा भवंति । तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए बंधे भवइ । चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक संस्कृत छा परमाणुपुद्गलानां संघात-भेद पदम् राजगृहं यावत् एवमवादीत् - द्वौ भदन्त ! परमाणुपुद्गलौ एकतः संहन्येते, संहत्य किं भवति ? गौतम! द्विप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । सः भिद्यमानः द्विधा क्रियते - एकतः परमाणु - पुद्गलः, एकतः परमाणुपुद्गलः भवति । त्रय भदन्त ! परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति ? गौतम ! त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । सः भिद्यमानः द्विधा अपि त्रिधा अपि क्रियते द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । त्रिधा क्रियमाणः त्रयः परमाणुपुद्गलाः भवन्ति । चत्वारः भदन्त ! परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति ? गौतम! चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति । सः भिद्यमानः द्विधा अपि त्रिधा अपि चतुर्धा अपि क्रियते द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः भवति अथवा द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः । त्रिधा क्रियमाणः एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । हिन्दी अनुवाद परमाणु- पुद्गलों का संघात-भेद पद ६९. राजगृह नाम का नगर यावत् गौतम स्वामी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भंते ! दो परमाणु- पुद्गल एकत्र संहत होते हैं, उस संहति से क्या निष्पन्न होता है ? गौतम! द्विप्रदेशी स्कन्ध निष्पन्न होता है। उसके दो भागो में विभक्त होने पर दो स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल हो जाते हैं। ७०. भंते! तीन परमाणु-पुद्गल एकत्र संहत होते हैं, उस संहति से क्या निष्पन्न होता है ? गौतम ! तीन प्रदेशी स्कन्ध निष्पन्न होता है। वह टूटने पर दो या तीन भागों में विभक्त होता है दो भागों में विभक्त होने पर एक ओर एक परमाणु - पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है। तीन भागों में विभक्त होने पर तीन स्वतंत्र परमाणु - पुद्गल हो जाते हैं। ७१. भंते! चार परमाणु- पुद्गल एकत्र संहत होते हैं उस संहति से क्या निष्पन्न होता है ? गौतम ! चार प्रदेशी स्कन्ध निष्पन्न होता है। वह टूटने पर दो, तीन अथवा चार भागों में विभक्त होता है। दो भागों में विभक्त होने पर एक ओर एक परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर तीन प्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा दो द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। तीन भागों में विभक्त होने पर एक ओर स्वतंत्र दो परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. ४ : सू.६६-७३ ३० चउहा कज्जमाणे चत्तारि परमाणु- चतुर्धा क्रियमाणः चत्वारः परमाणुपोग्गला भवंति॥ पुद्गलाः भवन्ति। चार भागों में विभक्त होने पर-चार स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल हो जाते हैं। ७२. पंच भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं भवइ ? पञ्च भदन्त! परमाणुपुद्गलाः एकतः ७२. भंते ! पांच परमाणु-पुद्गल एकत्र संहत संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति? होते हैं, उस संहति से क्या निष्पन्न होता गौतम ! पांच प्रदेशी स्कन्ध निष्पन्न होता है। वह टूटने पर दो, तीन, चार अथवा पांच भागों में विभक्त होता हैदो भागों में विभक्त होने पर-एक ओर एक परमाणु-पुद्गल दूसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है। गोयमा ! पंचपएसिए खंधे भवइ। से गौतम! पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः भवति। भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि चउहा वि सः भिद्यमानः द्विधा अपि त्रिधा अपि पंचहा वि कज्जइ चतुर्धा अपि पञ्चधा अपि क्रियतेदुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणु- द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणुपोग्गले, एगयओ चउपएसिए खंधे पुद्गलः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवइ; अहवा एगयओ दुपसिए खंधे, भवति, अथवा एकतः द्विप्रदेशिक: एगयओ तिपसिए खंधे भवइ। स्कन्धः भवति, एकतः त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः भवति। तिहा कुज्जमाणे एगयओ, दो त्रिधा क्रियमाणः एकतः द्वौ परमाणु परमाणुपोग्गला एगयओ तिपएसिए पुदगलौ एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः खंधे भवइ, अहवा एगयओ परमाणु- भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गल, पोग्गले, एगयओ दो दुपएसिया खंधा एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः। भवंति। चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि चतुर्धा क्रियमाणः एकतः त्रयः परमाणुपरमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए पुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिक: स्कन्धः खंधे भवइ। भवति। पंचहा कज्जमाणे पंच परमाणु- पञ्चधा क्रियमाणः पञ्च परमाणुपोग्गला भवंति॥ पुद्गलाः भवन्ति। तीन भागों में विभक्त होने पर-एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। चार भागों में विभक्त होने पर-एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध होता है। पांच भागों में विभक्त होने पर पांच स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल हो जाते हैं। ७३. छब्भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं भवइ ? षट् भदन्त! परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति? ७३. भंते ! छह परमाणु-पुद्गल एकत्र संहत होते हैं, उस संहति से क्या निष्पन्न होता गोयमा छप्पएसिए खंधे भवइ। से गौतम! षड् प्रदेशिकः स्कन्धः भवति। भिज्जमाणे दुहा वि तिहा वि जाव सः भिद्यमानः द्विधा अपि त्रिधा अपि । छब्बिहा वि कज्जइ यावत् षड्विधा अपि क्रियतेदुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणु- द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणुपोग्गले, एगयओ पंचपएसिए खंधे पुद्गलः, एकतः पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः भवइ; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, भवति, अथवा एकतः द्विप्रदेशिकः एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ स्कन्धः, एकतः चतुष्प्रदेशिक: स्कन्धः अहवा दो तिपएसिया खंधा भवंति। भवति, अथवा द्वौ त्रिप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः। तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु त्रिधा क्रियमाण: एकत द्वौ परमाणुपोग्गला, एगयओ चउपएसिए खंधे पुद्गलौ, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भव; अहवा एगयओ परमाणु- भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, पोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, ___एकतः द्विप्रदेशिक: स्कन्धः, एकतः एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः भवति, अथवा तिण्णि दुपएसिया खंधा भवंति। त्रयः द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्तिः। गौतम ! छह प्रदेशी स्कन्ध निष्पन्न होता है। वह टूटने पर दो अथवा तीन यावत् छः भागों में विभक्त होता हैदो भागों में विभक्त होने पर-एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर पांच प्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध, दूसरी ओर चार प्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा दो तीन-तीन प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। तीन भागों में विभक्त होने पर-एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध, तीसरी ओर तीन प्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई चहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति। पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ । छहा कज्जमाणे छ परमाणुपोग्गला भवंति ॥ ७४. सत्त भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, साहणित्ता किं भवइ ? गोयमा ! सत्तपएसिए खंधे भवइ । से भिज्जमाणे दुहा विजाब सत्ता वि कज्जइ दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ । तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ । चहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए बंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिण्णि दुपएसिया बंधा भवंति । पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दो दुपए ३१ त्रयः चतुर्धा क्रियमाणः एकतः परमाणुपुद्गलाः, एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः । पञ्चधा क्रियमाणः एकतः चत्वारः परमाणुपुद्गलाः एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । षड्ढा क्रियमाणः षट् परमाणुपुद्गलाः भवन्ति । सप्त भदन्त ! परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति ? गौतम! सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । सः भिद्यमानः द्विधा अपि यावत् सप्तधा अपि क्रियते द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः षट्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति । त्रिधा क्रियमाणः एकः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः द्वौ त्रिप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः अथवा एकः द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ, एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । चतुर्धा क्रियमाणः एकतः त्रयः परमाणुपुद्गलाः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः त्रयः द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति । पञ्चधा क्रियमाणः एकतः चत्वारः परमाणुपुद्गलाः, एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः त्रयः परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको श. १२ : उ. १ : सू. ७४ चार भागों में विभक्त होने पर एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। पांच भागों में विभक्त होने पर एक ओर चार स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर एक द्विप्रदेशी स्कन्ध होता है। छह भागों में विभक्त होने पर छह स्वतंत्र परमाणु - पुद्गल हो जाते हैं। ७४. भंते! सात परमाणु- पुद्गल एकत्र संहत होते हैं, उस संहति से क्या निष्पन्न होता है। गौतम! सप्त प्रदेशी स्कंध निष्पन्न होता है। वह टूटने पर दो अथवा यावत् सप्त भागों में विभक्त होता है। दो भागों में विभक्त होने पर एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल दूसरी ओर छह प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर पांच प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है। तीन भागों में विभक्त होने पर एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल दूसरी ओर पांच प्रदेशी स्कंध होता है, अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु - पुद्गल, दूसरी ओर दो त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है। चार भागों में विभक्त होने पर एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर चार प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु - पुद्गल, दूसरी ओर तीन द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। पांच भागों में विभक्त होने पर एक ओर चार स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल दूसरी ओर दो Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ४ : सू. ७५ ३२ भगवई सिया खंधा भवंति। स्कन्धौ भवतः। छहा कज्जमाणे एगयओ पंच षड्ढा क्रियमाणः एकतः पञ्च परमाणुपरमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए पुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिक: स्कन्धः खंधे भवइ। भवति। सत्तहा कज्जमाणे सत्त परमाणु- सप्तधा क्रियमाणः सप्तपरमाणुपुद्गलाः पोग्गला भवंति॥ भवन्ति । द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। छह भागों में विभक्त होने पर-एक ओर पांच स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध होता है। सात भागों में विभक्त होने पर सात स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल हो जाते हैं। ७५, अट्ठ भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं भवइ ? अष्ट भदन्त! परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति? ७५. भंते ! आठ परमाणु-पुद्गल एकत्र संहत होते हैं, उस संहति से क्या निष्पन्न होता गोयमा ! अट्ठपएसिए खंधे भवइ। से गौतम! अष्टप्रदेशिक: स्कन्धः भवति। गौतम ! अष्टप्रदेशी स्कन्ध निष्पन्न होता भिज्जमाणे दुहा वि जाव अट्टहा वि सः भिद्यमानः द्विधा अपि यावत् है। वह टूटने पर दो अथवा यावत् आठ कज्जइअष्टधा अपि क्रियते भागों में विभक्त होता हैदुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणु- द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणु- दो भागों में विभक्त होने पर-एक ओर एक पोग्गले, एगयओ सत्तपएसिए खंधे पुद्गलः, एकतः सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर सात भवइ; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, भवति, अथवा एकतः द्विप्रदेशिकः प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा स्कन्धः, एकतः षट्प्रदेशिकः स्कन्धः द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर छह प्रदेशी एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ। भवति, अथवा एकत: त्रिप्रदेशिक: स्कंध होता है अथवा एक ओर तीन प्रदेशी पंचपएसिए खंधे भवइ; अहवा दो स्कन्धः, एकतः पञ्चप्रदेशिक: स्कन्धः स्कंध, दूसरी ओर पांच प्रदेशी स्कंध होता चउप्पएसिया खंधा भवंति। भवति, अथवा द्वौ चतुष्प्रदेशिको है अथवा दो चतुष्प्रदेशी स्कंध होते हैं। स्कन्धौ भवतः। तिहा कज्जमाणे एगयओ दो त्रिधा क्रियमाणः एकतः द्वौ परमाणु- तीन भागों में विभक्त होने पर-एक ओर दो परमाणुपोग्गला भवंति, एगयओ पुद्गलौ भवतः, एकतः षट्प्रदेशिकः . स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर छह छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ स्कन्धः भवति, अथवा एकतः प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक परमाणुपोग्गले, एगयओ दुष्पएसिए परमाणुपुद्गलः, एकतः द्विप्रदेशिक: स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ स्कन्धः, एकतः पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः द्विप्रदेशी स्कन्ध, तीसरी ओर पंचप्रदेशी अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ एकतः त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः, एकतः परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी चउप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा स्कन्ध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ एकतः द्विप्रदेशिक: स्कन्धः, एकतः द्वौ है अथवा एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध, चउप्पएसिए खंधे भव; अहवा त्रिप्रदेशिकौ स्कन्धौ भवतः। दूसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ दो एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर दो तिपएसिया खंधा भवंति। त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं। चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि चतुर्धा क्रियमाणः एकतः त्रयः चार भागों में विभक्त होने पर-एक ओर परमाणुपोग्गला, एगयओ पंचपएसिए परमाणुपुदगलाः, एकतः पञ्चप्रदेशिक: तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर खंधे भवइ; अहवा एगयओ दोण्णि स्कन्धः भवति, अथवा एकतः द्वौ पांच प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलौ, एकतः द्विप्रदेशिक: दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे स्कन्धः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणु- भवति, अथवा एकतः द्वौ परमाणु- स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र पोग्गला एगयओ दो तिपएसिया पुदगलौ, एकतः द्वौ त्रिप्रदेशिको स्कन्धौ परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो त्रिप्रदेशी खंधा भवंति; अहवा एगयओ भवतः, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः स्कंध होते हैं अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणुपोग्गले, एगयओ दो एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः एकतः स्कंध, तीसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है खंधे भवः अहवा चत्तारि दुपएसिया द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ, एकतः अथवा चार द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई खंधा भवंति । पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइः अहवा एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिण्णि दुपएसिया खंधा भवंति । छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला, दो दुपएसिया बंधा भवंति । सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए खंधे भवड़ । अट्ठहा कज्जमाणे अट्ठ परमाणुपोग्ला भवति ॥ ७६. नव भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, साहणित्ता किं भवइ ? गोयमा ! नवपएसिए खंधे भवइ । से भिज्जमाणे दुहा वि जाव नवहा वि कज्जइ दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ अपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ चउप्पएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ । भवइ; तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ सत्तपए सिए खंधे अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए, खंधे, एगयओ छप्पएसिए बंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो ३३ त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा चत्वारः द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवति । पञ्चधा क्रियमाणः एकतः चत्वारः परमाणुपुद्गलाः, एकतः चतुःप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः त्रयः परमाणुपुद्गलाः एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः त्रयः द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति । षड्ढा क्रियमाणः एकतः पञ्च परमाणुपुद्गलाः, एकतः त्रिप्रदेशिक : स्कन्धः भवति, अथवा एकतः चत्वारः परमाणुपुद्गलाः द्वौ द्विप्रदेशिकौ स्कन्धौ भवतः । सप्तधा क्रियमाणः एकतः षट् परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । अष्टधा क्रियमाणः अष्ट परमाणुपुद्गलाः भवन्ति । नव भदन्त ! परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति ? गौतम ! नवप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । सः भिद्यमानः द्विधा अपि यावत् नवधा अपि क्रियते द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणुपुद्गलः, एकत: अष्टप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः त्रिप्रदेशिक : स्कन्धः, एकतः षट्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । स्कन्धः एकतः त्रिधा क्रियमाणः एकतः परमाणुपुद्गलौ, एकतः सप्तप्रदेशिकः भवति, अथवा परमाणुपुद्गलः एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः षट्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः द्वौ श. १२ : उ. ४ : सू. ७६ पांच भागों में विभक्त होने पर एक ओर चार स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर चतुष्पदेशी स्कन्ध होता है अथवा एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर तीन द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। छह भागों में विभक्त होने पर एक ओर पांच स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर चार स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कन्ध होते हैं। सात भागों में विभक्त होने पर एक ओर छह परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध होता है। आठ भागों में विभक्त होने पर आठ स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल हो जाते हैं। ७६. भंते! नौ परमाणु- पुद्गल एकत्र संहत होते उस संहति से क्या निष्पन्न होता है ? गौतम ! नौ प्रदेशी स्कंध निष्पन्न होता है। वह टूटने पर दो यावत् नौ भागों में विभक्त होता है दो भागों में विभक्त होने पर एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर आठ प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर सातप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर छहप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर पांच प्रदेशी स्कन्ध होता है। तीन भागों में विभक्त होने पर एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर सात प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर छहप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर पांच प्रदेशी स्कंध होता है, अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ४ : सू. ७६ ३४ चउप्पएसिया खंधा भवंति; अहवा चतुष्प्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा । एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः । तिपएसिए खंधे, एगयओ चउप्पएसिए त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः, एकतः खंधे भवः अहवा तिणि तिपएसिया चतुष्प्रदेशिक: स्कन्धः भवति, अथवा खंधा भवंति। त्रयः त्रिप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति। चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि । चतुर्धा क्रियमाणः एकतः त्रयः परमाणुपोग्गला, एगयओ छप्पएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः षट्प्रदेशिक: खंधे भवः अहवा एगयओ दो। स्कन्धः भवति, अथवा एकतः द्वौ परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलौ, एकतः द्विप्रदेशिकः खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ स्कन्धः, एकतः पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, भवति, अथवा एकतः द्वौ एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ परमाणुपुद्गलौ, एकतः त्रिप्रदेशिकः चउप्पएसिए खंधे भव; अहवा स्कन्धः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ, एकतः खंधे भवः अहवा एगयओ चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए। एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः खंधे, एगयओ दो तिपएसिया खंधा द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ भवंतिः अहवा एगयओ तिण्णि त्रिप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः अथवा दुप्पएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए एकतः त्रयः द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः खंधे भवइ। एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः भवति। पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि । पञ्चधा क्रियमाणः एकतः चत्वारः परमाणुपोग्गला,एगयओ पंचपएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः पञ्चप्रदेशिकः खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिण्णि। स्कन्धः भवति अथवा एकतः त्रयः परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिक: खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे स्कन्धः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवद अहवा एगयओ तिण्णि भवति अथवा एकतः त्रयः परमाणुपरमाणुपोग्गला, एगयओ दो पुद्गलाः, एकतः द्वौ त्रिप्रदेशिको तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा स्कन्धौ भवतः, अथवा एकतः द्वौ एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ। परमाणुपुद्गलौ, एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको दो दुपएसिया खंधा, एगयओ स्कन्धौ, एकतः त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, परमाणुपोग्गले, एगयओ चत्तारि एकतः चत्वारः द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः दुपएसिया खंधा भवंति। भवन्ति। छहा कज्जमाणे एगयओ पंच षड्ढा क्रियमाणः एकतः पञ्चपरमाणुपरमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए पुद्गलाः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः खंधे भवइ; अहवा एगयओ चत्तारि भवति, अथवा एकतः चत्वारः परमाणुपोग्गला, एगयओ दुप्पएसिए परमाणु-पुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिक: खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ स्कन्धः, एकतः त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः अहवा एगयओ तिण्णि परमाणु- भवति अथवा एकतः त्रयः पोग्गला, एगयओ तिण्णि दुप्पएसिया परमाणुपुद्गलाः, एकतः त्रयः खंधा भवंति। द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति। सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छ सप्तधा क्रियमाणः एकतः षट् परमाणुपोग्गला, एगयओ तिप्पएसिए परमाणुपुदगलाः, एकतः त्रिप्रदेशिक: भगवई पुद्गल, दूसरी ओर दो चतुष्प्रदेशी स्कंध होते हैं, अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा तीन त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं। चार भागों में विभक्त होने पर-एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर छह प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर पांच प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणुपुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणुपुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर दो त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर तीन प्रदेशी स्कंध होता है। पांच भागों में विभक्त होने पर-एक ओर चार स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर पांच प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणुपुद्गल, दूसरी ओर चार द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। छह भागों में विभक्त होने पर-एक ओर पांच स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर चार प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर चार स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है, अथवा एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर तीन द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। सात भागों में विभक्त होने पर-एक ओर छह स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर , Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३५ श. १२: उ. ४ : सू. ७७ खंधे भवइ; अहवा एगयओ पंच स्कन्धः भवति, अथवा एकतः पञ्च परमाणुपोग्गला, एगयओ दो परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको दुपएसिया खंधा भवंति। स्कन्धौ भवतः। अट्टहा कज्जमाणे एगयओ सत्त अष्टधा क्रियमाणः एकतः सप्त परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिकः खंधे भवइ। स्कन्धः भवति। नवहा कज्जमाणे नव परमाणु- नवधा क्रियमाणः नव परमाणुपुद्गलाः पोग्गला भवंति॥ भवन्ति। त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर पांच स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। आठ भागों में विभक्त होने पर एक ओर सात स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध होता है। नौ भागों विभक्त होने पर-नौ स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल हो जाते हैं। ७७. दस भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ दश भदन्त ! परमाणुपुद्गलाः एकतः साहण्णंति, साहणित्ता किं भवइ ? संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति? ७७. भंते ! दस परमाणु-पुद्गल एकत्र संहत होते हैं, उस संहति से क्या निष्पन्न होता गौतम ! दस प्रदेशी स्कंध निष्पन्न होता है। वह टूटने पर दो यावत दस भागों में विभक्त होता है। दो भागों में विभक्त होने पर-एक ओर स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल दूसरी ओर नौ प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर अष्टप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर सात प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर छह प्रदेशी स्कंध होता है अथवा दो पांचप्रदेशी स्कंध होते हैं। गोयमा ! दसपएसिए खंधे भवइ। से गौतम! दशप्रदेशिकः स्कन्धः भवति।। भिज्जमाणे दुहा वि जाव दसहा वि सः भिद्यमानः द्विधा अपि यावत् दशधा कज्जइ अपि क्रियतेदुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणु- द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणुपोग्गले, एगयओ नवपएसिए खंधे पुद्गलः, एकतः नवप्रदेशिक: स्कन्धः भवइ अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, भवति, अथवा एकतः द्विप्रदेशिक: एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवइ स्कन्धः, एकतः अष्टप्रदेशिकः स्कन्धः अहवा एगयओ तिपएसिए खंधे, भवति, अथवा एकतः त्रिप्रदेशिक: एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ स्कन्धः, एकतः सप्तप्रदेशिक: स्कन्धः । अहवा एगयओ चउप्पएसिए खंधे, भवति, अथवा एकतः चतुष्प्रदेशिक: एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा स्कन्धः, एकतः षट्प्रदेशिक: स्कन्धः दो पंचपएसिया खंधा भवंति। भवति, अथवा द्वौ पञ्चप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः। तिहा कज्जमाणे एगयओ दो। त्रिधा क्रियमाणः एकतः द्वौ परमाणुपोग्गला, एगयओ अट्टपएसिए । परमाणुपुद्गलौ, एकतः अष्टप्रदेशिक: खंधे भवइ अहवा एगयओ स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलः, एकतः द्विप्रदेशिक: खंधे एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ स्कन्धः, एकतः सप्तप्रदेशिकः स्कन्धः अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ एकतः त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः, एकतः छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ षट्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा परमाणुपोग्गले, एगयओ चउप्पएसिए एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भव: चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा पञ्चप्रदेशिक: स्कन्धः भवति, अथवा एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; अहवा एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ, एकतः एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ षट्प्रदेशिक: स्कन्धः भवति, अथवा तिपएसिए खंधे, एगयओ पंचपएसिए एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः खंधे भवइ; अहवा एगयओ दुपएसिए पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा खंधे, एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ भवंति अहवा एगयओ दो तिपएसिया चतुष्प्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा खंधा, एगयओ चउप्पएसिए खंधे एकतः द्वौ त्रिप्रदेशिको स्कन्धौ, एकतः भवइ। चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति। तीन भागों में विभक्त होने पर-एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर अष्टप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर सप्तप्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा एक ओर स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर छ: प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणुपुद्गल, दूसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर पंचप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर छह प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर पंचप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर दो चतुष्प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर दो त्रिप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है। , Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ४ : सू. ७७ ३६ भगवई चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि चतुर्धा क्रियमाणः एकतः त्रयः । परमाणुपोग्गला, एगयओ सत्तपएसिए । परमाणुपुद्गलाः, एकतः सप्तप्रदेशिक: खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो। स्कन्धः भवति; अथवा एकतः द्वौ परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलौ, एकतः द्विप्रदेशिकः । खंधे, एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ; स्कन्धः, एकतः षट्प्रदेशिक: स्कन्धः अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, भवति, अथवा एकतः द्वौ परमाणुएगयओ तिप्पएसिए खंधे, एगयओ पुद्गलौ, एकतः त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः, पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एकतः पञ्चप्रदेशिक: स्कन्धः भवति, एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ अथवा एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, दो चउप्पएसिया खंधा भवंति; अहवा एकतः द्वौ चतुष्प्रदेशिकौ स्कन्धौ भवतः एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः दुपएसिए खंधे, एगयओ तिपएसिए द्विप्रदेशिक: स्कन्धः, एकतः त्रिप्रदेशिक: खंधे, एगयओ चउप्पएसिए खंधे। स्कन्धः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवइ; अहवा एगयओ परमाणु- भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, पोग्गले, एगयओ तिण्णि तिपएसिया एकतः त्रयः त्रिप्रदेशिकाः स्कन्धाः खंधा भवंति; अहवा एगयओ तिणि भवन्ति; अथवा एकतः त्रयः दुपएसिया खंधा, एगयओ चउप्पएसिए द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः एकतः खंधे भव; अहवा एगयओ दो चतुष्प्रदेशिक: स्कन्धः भवति, अथवा दुपएसिया खंधा, एगयओ दो एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ, एकतः तिपएसिया खंधा भवंति। द्वौ त्रिप्रदेशिकौ स्कन्धौ भवतः। पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि पञ्चधा क्रियमाण: एकतः चत्वारः परमाणुपोग्गला, एगयओ छप्पएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः षट्प्रदेशिकः खंधे भवइ; अहवा एगयओ तिण्णि स्कन्धः भवति, अथवा एकतः त्रयः परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिक: खंधे, एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ स्कन्धः, एकतः पञ्चप्रदेशिक: स्कन्धः अहवा एगयओ तिण्णि परमाणु- भवति, अथवा एकतः त्रयः परमाणुपोग्गला, एगयओ तिपएसिए खंधे, पुद्गलाः एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, अथवा एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एगयओ दो दुपएसिया खंधा, एगयओ एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ, एकतः चउप्पएसिए खंधे भवइ, अहवा चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः दपएसिए खंधे, एगयओ दो द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ तिपएसिया खंधा भवंति; अहवा त्रिप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः त्रयः तिण्णि दुपएसिया खंधा, एगयओ द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः, एकतः तिपएसिए खंधे भवइ; अहवा पंच त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः भवति, अथवा दुपएसिया खंधा भवंति। पञ्च द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति। छहा कज्जमाणे एगयओ पंच षड्ढा क्रियमाणः एकतः पञ्च परमाणुपरमाणु-पोग्गला, एगयओ पंचपएसिए पुद्गलाः, एकतः पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः खंधे भवइ; अहवा एगयओ चत्तारि भवति, अथवा एकतः चत्वारः परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिकः खंधे, एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ स्कन्धः, एकतः चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः अहवा एगयओ चत्तारि परमाणु- भवति, अथवा एकतः चत्वारः चार भागों में विभक्त होने पर-एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर सात प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर छह प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध, तीसरी ओर एक पंच प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणुपुद्गल, दूसरी ओर दो चतुष्प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, चौथी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर तीन त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर तीन द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर दो त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं। पांच भागों में विभक्त होने पर-एक ओर चार स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर छह प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर पंचप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर एक त्रिप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणुपुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर दो त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर तीन द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा पांच द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। छह भागों में विभक्त होने पर-एक ओर पांच स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर पांच प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर चार स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर चार Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३७ श. १२ : उ. ४ : सू. ७८ पुद्गलाः, एकता परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो त्रिप्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल दूसरी ओर चार द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। ख भवडा तिपएसिए पोग्गला, एगयओ दो तिपएसिया परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्वौ त्रिप्रदेशिको खंधा भवंति; अहवा एगयओ तिणि स्कन्धौ भवतः, अथवा एकतः त्रयः परमाणुपोग्गला, एगयओ दो परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको दुपएसिया खंधा, एगयओ तिपएसिए स्कन्धौ, एकतः त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो भवति, अथवा एकतः द्वौ परमाणुपोग्गला, एगयओ चत्तारि परमाणुपुद्गलौ, एकतः चत्वारः दुपएसिया खंघा भवंति। द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति। सत्तहा कज्जमाणे एगयओ छ सप्तधा क्रियमाणः एकतः षट् परमाणुपोग्गला, एगयओ चउप्पएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः चतुष्प्रदेशिक: खंधे भवइ; अहवा एगयओ पंच स्कन्धः भवति, अथवा एकतः पञ्च परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिक: खंधे, एगयओ तिपएसिए खंधे भव: स्कन्धः, एकतः त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः अहवा एगयओ चत्तारि परमाणु- भवति, अथवा एकतः चत्वारः पोग्गला, एगयओ तिणि दुपएसिया परमाणुपुद्गलाः, एकतः त्रयः खंधा भवंति। द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति। अट्टहा कज्जमाणे एगयओ सत्त- अष्टधा क्रियमाणः एकतः सप्त परमाणुपोग्गला एगयओ तिपएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः त्रिप्रदेशिकः खंधे भव; अहवा एगपओ छ स्कन्धः भवति, अथवा एकतः षट् परमाणुपोग्गला, एगयओ दो परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्वौ द्विप्रदेशिको दुपएसिया खंघा भवंति। स्कन्धौ भवतः। नवहा कज्जमाणे एगयओ अट्ठ नवधा क्रियमाणः एकतः अष्ट परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपएसिए परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिक: खंधे भवइ। स्कन्धः भवति। दसहा कज्जमाणे दस परमाणु- दशधा क्रियमाणः दश परमाणुपुद्गलाः पोग्गला भवंति॥ भवन्ति। सात भागों में विभक्त होने पर-एक ओर छह स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर चतुष्प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर पांच स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर एक द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर एक त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर चार स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर तीन द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। आठ भागों में विभक्त होने पर-एक ओर सात स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर छह स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो द्विप्रदेशी स्कंध होते हैं। नौ भागों में विभक्त होने पर-एक ओर आठ स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध होता है। दस भागों में विभक्त होने पर-दस स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल हो जाते हैं। ७६. संखेज्जा णं भंते ! परमाणुपोग्गला संख्येयाः भदन्त! परमाणुपुद्गलाः ७८. भंते ! संख्येय परमाणु पुद्गल एकत्र संहत एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं एकतः संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति? होते हैं, उस संहति से क्या निष्पन्न होता भवइ ? गोयमा ! संखेज्जपएसिए खंधे भवइ। गौतम! संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति। गौतम ! संख्येय प्रदेशी स्कंध निष्पन्न होता से भिज्जमाणे दहा वि जाव दसहा वि सः भिद्यमानः द्विधा अपि यावत् दशधा है। वह टूटने पर दो अथवा यावत् दस संखेज्जहा वि कज्जइअपि संख्येयधा अपि क्रियते अथवा संख्येय भागों में विभक्त होता है। दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणु- द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणु- दो भागों में विभक्त होने पर-एक ओर एक पोग्गले, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे पुद्गलः, एकतः संख्येयप्रदेशिक: स्कन्धः स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर भवइअहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, भवति, अथवा एकतः द्विप्रदेशिक: संख्येयप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवः स्कन्धः, एकतः संख्येयप्रदेशिकः ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ स्कन्धः भवति. एकतः त्रिप्रदेशिक संख्येयप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक संखेज्जपएसिए खंधे भव; एवं जाव स्कन्धः, एकतः संख्येयप्रदेशिक: ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर संख्येय अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, स्कन्धः भवति, एवं यावत् अथवा प्रदेशी स्कंध होता है। इसी प्रकार यावत् एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भव; एकतः दशप्रदेशिक: स्कन्धः, एकतः अथवा एक ओर दस प्रदेशी स्कंध, दूसरी अहवा दो संखेज्जपएसिया खंधा संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा दो भवंति। द्वौ संख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः। संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं। तिहा कज्जमाणे एगयओ दो त्रिधा क्रियमाणः एकतः द्वौ परमाणु- तीन भागों में विभक्त होने पर-एक ओर दो परमाणुपोग्गला, एगयओ संखेज्ज- पुदगलौ, एकतः संख्येयप्रदेशिक: स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ४ : सू. ७८ एसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले; एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपए सिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिपएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ; एवं जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपए सिए खंधे, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा तिण्णि संखेज्जपएसिया खंधा भवंति । चहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ संखेज्जएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दुपए सिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ तिप्पएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ; एवं जाव अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे भवइ, अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपए सिए खंधे, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति जाव अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ दो संखेज्जपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, एगयओ तिण्णि संखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ तिण्णि संखेज्जपएसिया खंधा भवंति जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, एगयओ तिणि संखेज्जपएसिया खंधा भवंति अहवा चत्तारि संखेज्ज ३८ स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, एवं यावत् अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः दशप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः द्वौ संख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ संख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, एवं यावत् अथवा एकतः दशप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ संख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा त्रयः संख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति । चतुर्धा क्रियमाणः एकतः त्रयः परमाणुपुद्गलाः, एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति अथवा एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, एवं यावत् अथवा एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः दशप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः द्वौ परमाणुपुद्गलौ, एकतः द्वौ संख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ संख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः यावत् अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः एकतः दशप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ संख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः त्रयः संख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति, अथवा एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः त्रयः संख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति, यावत् अथवा एकतः दशप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः त्रयः संख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति, अथवा चत्वारः संख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति । भगवई संख्येयप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है। इसी प्रकार यावत् अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर दस प्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर दो संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर दो संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं। इसी प्रकार यावत् अथवा एक ओर दस प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर दो संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा तीन संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं। चार भागों में विभक्त होने पर एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु - पुद्गल, दूसरी ओर त्रिप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है। इसी प्रकार यावत् अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर दस प्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर दो स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर दो संख्यय प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर दो संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं, यावत् अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर दस प्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर दो संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर कदाचित् तीन संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर तीन संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा चार संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६ श. १२ : उ. ४ : सू. ७६ पएसिया खंधा भवंति। एवं एएणं कमेणं पंचगसंजोगो वि एवम् एतेन क्रमेण पञ्चकसंयोगः अपि भाणियन्वो जाव नवगसंजोगो। भणितव्यः यावत् नवकसंयोगः। दसहा कज्जमाणे एगयओ नव दशधा क्रियमाणः एकतः नव परमाणुपरमाणुपोग्गला, एगयओ संखेज्ज- पुद्गलाः, एकतः संख्येयप्रदेशिकः पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ स्कन्धः भवति, अथवा एकतः अष्ट अट्ठपरमाणुपोग्गला, एगयओ परमाणुपुद्गलाः, एकतः द्विप्रदेशिकः, दुपएसिए, एगयओ संखेज्जपएसिए एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति। खंधे भवइ। एएणं कमेणं एक्केक्को एतेन क्रमेण एकैक : पूरयितव्यः यावत् पूरेयव्वो जाव अहवा एगयओ अथवा एकतः दशप्रदेशिकः स्कन्धः, दसपएसिए खंधे, एगयओ नव एकतः नव संख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः संखेज्जपएसिया खंधा भवंतिः अहवा भवन्ति, अथवा दश संख्येयप्रदेशिकाः दस संखेज्जपएसिया खंधा भवंति। स्कन्धाः भवन्ति। संखेज्जहा कज्जमाणे संखेज्जा संख्येयधा क्रियमाणः संख्येयाः परमाणुपोग्गला भवंति।। परमाणुपुद्गलाः भवन्ति। इसी प्रकार इनके क्रमशः पांच संयोग भी वक्तव्य है यावत् नौ संयोग तक। दस भागों में विभक्त होने पर-एक ओर नौ स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर आठ स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध होता है। इनको क्रमशः एक-एक पूर्ण करना चाहिए यावत् अथवा एक ओर दस प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर नौ संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा दस संख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं। संख्येय भागों में विभक्त होने पर-संख्येय स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल होते हैं। ७६. असंखेज्जा भंते! परमाणुपोग्गला असंख्येयाः भदन्त! परमाणुपुद्गलाः ७६. भंते ! असंख्येय परमाणु-पुद्गल एकत्र एगयओ साहण्णंति, साहणित्ता किं एकतः संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति? संहत होते हैं उस संहति से क्या निष्पन्न भवइ? होता है? गोयमा! असंखेज्जपएसिए खंधे गौतम! असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः गौतम! असंख्येय प्रदेशी स्कंध निष्पन्न भवइ। से भिज्जमाणे दुहा वि जाव भवति। सः भिद्यमानः द्विधा अपि होता है। वह टूटने पर दो अथवा यावत् दस दसहा वि, संखेज्जहा वि, असंखेज्जहा यावत् दशधा अपि, संख्येयधा अपि, अथवा संख्येय अथवा असंख्येय भागों में वि कज्जइअसंख्येयधा अपि क्रियते विभक्त होता है। दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणु- द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणु- दो भागों में विभक्त होने पर-एक ओर स्वतंत्र पोग्गले, एगयओ असंखेज्जपएसिए पुदगलः, एकतः असंख्येयप्रदेशिकः परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर असंख्येय खंधे भवइ जाव अहवा एयगओ स्कन्धः भवति यावत् अथवा एकतः प्रदेशी स्कंध होता है यावत् अथवा एक ओर दसपएसिए खंधे भवइ, एगयओ दशप्रदेशिक: स्कन्धः भवति, एकतः दस प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर असंख्येय असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ; अहवा असंख्येयप्रदेशिक: स्कन्धः भवति, प्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा एक ओर एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे, अथवा एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः, संख्येय प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर असंख्येय एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भव; एकतः असंख्येयप्रदेशिक: स्कन्धः प्रदेशी स्कंध होता है अथवा दो असंख्येय अहवा दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवति, अथवा द्वौ असंख्येयप्रदेशिको प्रदेशी स्कन्ध होते हैं। भवंति। स्कन्धौ भवतः। तिहा कज्जमाणे एगयओ दो त्रिधा क्रियमाणः एकतः द्वौ परमाणु- तीन भागों में विभक्त होने पर-एक ओर दो परमाणुपोग्गला,एगयओ असंखेज्ज- पुद्गलौ, एकतः असंख्येयप्रदेशिक: स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर पएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ स्कन्धः भवति, अथवा एकतः परमाणु- असंख्येय प्रदेशी स्कन्ध होता है अथवा एक परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए पुद्गलः, एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी खंधे, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे एकतः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर भवइ जाव अहवा एगयओ परमाणु- भवति यावत् अथवा एकतः परमाणु- असंख्येय प्रदेशी स्कंध होता है यावत् पोग्गले, एगयओ दसपएसिए खंधे, पुद्गलः, एकतः दशप्रदेशिक: स्कन्धः, अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणुएगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भव; एकतः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः पुद्गल, दूसरी ओर दस प्रदेशी स्कंध, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, तीसरी ओर असंख्येय प्रदेशी स्कंध होता है एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे, एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणुएगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ, असंख्येयप्रदेशिक: स्कन्धः भवति, पुद्गल, दूसरी ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध, अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः तीसरी ओर असंख्येय प्रदेशी स्कंध होता है पाता Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ४ : सू. ८० एगयओ दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे, एगयओ दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति एवं जाव अहवा एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे, एगयओ दो असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति; अहवा तिण्णि असंखेज्जपएसिया खंधा भवति । चहा कज्जमाणे एगयओ तिष्णि परमाणुपोग्गला, एगयओ असंखेज्जएसिए खंधे भव । एवं चउक्कगसंजोगो जाव दसगसंजोगो । एए जहेब संखेज्जपएसियस्स, नवरं - असंखेज्जगं एगं अहिगं भाणियव्वं जाब अहवा दस असंखेज्जपएसिया खंधा भवंति । संखेज्जहा कज्जमाणे एगयओ संखेज्जा परमाणुपोग्गला, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ संखेज्जा दुपएसिया बंधा, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ; एवं जाव अहवा एगयओ संखेज्जा दसपएसिया धा एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ; अहवा एगयओ संखेज्जा संखेज्जपएसिया खंधा, एगयओ असंखेज्जपएसिए खंधे भवइ; अहवा संखेज्जा असंखेज्जएसिया खंधा भवंति । असंखेज्जहा कज्जमाणे असंखेज्जा परमाणुपोग्गला भवंति ॥ ८०. अनंता णं भंते! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, साहणित्ता किं भवइ ? गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवइ । से भिज्जमाणे दुहा वितिहा वि जाव दसहा वि संखेज्जहा वि असंखेज्जहा वि अणंतहा विकज्जइ दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ अणतपएसिए खंधे भवइ जाव अहवा दो अणतपएसिया खंधा भवति । तिहा कज्जमाणे एगयओ दो ४० द्वौ असंख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकः द्वौ असंख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, एवं यावत् अथवा एकतः संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ असंख्येयप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा त्रयः असंख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति । चतुर्धा क्रियमाणः एकतः त्रयः परमाणुपुद्गलाः, एकतः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । एवं चतुष्कसंयोगः यावत् दशकसंयोगः । एते यथैव संख्येयप्रदेशिकस्य, नवरम्असंख्येयकम् एकम् अधिकं भणितव्यं यावत् अथवा दश असंख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति । संख्येयधा क्रियमाणः एकतः संख्येयाः परमाणुपुद्गलाः, एकतः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः संख्येयाः द्विप्रदेशिकाः स्कन्धाः, एकतः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, एवं यावत् अथवा एकतः संख्येयाः दशप्रदेशिकाः स्कन्धाः, एकतः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एकतः संख्येयाः संख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः, एकतः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा संख्येयाः असंख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति । असंख्येयधा क्रियमाणः असंख्येयाः परमाणुपुद्गलाः भवन्ति । अनन्ताः भदन्त ! परमाणुपुद्गलाः एकतः संहन्यन्ते, संहत्य किं भवति ? गौतम ! अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः भवति । सः भिद्यमानः द्विधा अपि त्रिधा अपि यावत् दशधा अपि संख्येयधा अपि असंख्येयधा अपि अनन्तधा अपि क्रियते द्विधा क्रियमाणः एकतः परमाणुपुद्गलः एकतः अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः भवति यावत् अथवा द्वौ अनन्तप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः । त्रिधा क्रियमाणः एकः द्वौ परमाणु भगवई अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणुपुद्गल, दूसरी ओर दो असंख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कन्ध, दूसरी ओर दो असंख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं। इसी प्रकार यावत् अथवा एक ओर संख्येय प्रदेशी स्कन्ध, दूसरी ओर दो असंख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा तीन असंख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं। चार भागों में विभक्त होने पर एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल दूसरी ओर असंख्येय प्रदेशी स्कंध होता है। इसी प्रकार चार संयोग यावत् दस संयोग । ये संख्येय प्रदेशी की भांति वक्तव्य है, इतना विशेष है - असंख्येय में एक अधिक वक्तव्य है यावत् अथवा दस असंख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं। संख्येय भागों में विभक्त होने पर एक ओर संख्येय स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर असंख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर संख्येय द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर असंख्येय प्रदेशी स्कंध होता है। इसी प्रकार यावत् अथवा एक ओर संख्येय दसप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर असंख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर संख्येय संख्येयप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर असंख्येय प्रदेशी स्कंध होता है अथवा संख्येय असंख्येय प्रदेशी स्कंध होते हैं। असंख्येय भागों में विभक्त होने परअसंख्येय स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल होते हैं। ८०. भंते ! अनन्त परमाणु- पुद्गल एकत्र संहत होते हैं, उस संहति से क्या निष्पन्न होता है ? गौतम ! अनन्त प्रदेशी स्कंध निष्पन्न होता है। वह टूटने पर दो, तीन यावत् दस, संख्येय, असंख्येय और अनन्त भागों में विभक्त होता है दो भागों में विभक्त होने पर एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु- पुद्गल, दूसरी ओर अनन्त प्रदेशी स्कंध होता है यावत् दो अनन्त प्रदेशी स्कंध होते हैं । तीन भागों में विभक्त होने पर एक ओर दो Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४१ श. १२ : उ. ४: सू. ८० स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर अनन्तप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर द्विप्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर अनन्तप्रदेशी स्कंध होता है यावत् अथवा एक ओर एक स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर असंख्येय प्रदेशी स्कंध, तीसरी ओर अनन्त प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर दो अनन्तप्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर दो अनन्तप्रदेशी स्कंध होते हैं। इसी प्रकार यावत् अथवा एक ओर दस प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर दो अनन्त प्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर संख्येय प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर दो अनन्तप्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा एक ओर एक असंख्येय प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर दो अनन्तप्रदेशी स्कंध होते हैं अथवा तीन अनन्तप्रदेशी स्कंध होते परमाणुपोग्गला,एगयओ अणंत- पुद्गलौ, एकतः अनन्तप्रदेशिक: स्कन्धः पएसिए खंधे भवड; अहवा एगयओ भवति, अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, परमाणुपोग्गले, एगयओ दुपएसिए एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः खंधे, एगपओ अणंतपएसिए खंधे । अनन्तप्रदेशिक: स्कन्धः भवति यावत् भवइ जाव अहवा एगयओ परमाणु- अथवा एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः पोग्गले, एगयओ असंखेज्जपएसिए असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः खंधे, एगयओ अणंतपएसिए खंधे अनन्तप्रदेशिक: स्कन्धः भवति अथवा भव; अहवा एगयओ परमाणु- एकतः परमाणुपुद्गलः, एकतः द्वौ पोग्गले, एगयओ दो अणंतपएसिया अनन्तप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, अथवा खंधा भवंति; अहवा एगयओ एकतः द्विप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ दुपएसिए खंघे, एगयओ दो अनन्तप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः, एवं अणंतपएसिया खंधा भवंति, एवं जाव यावत् अथवा एकतः दशप्रदेशिक: अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे, स्कन्धः, एकतः द्वौ अनन्तप्रदेशिको एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा स्कन्धौ भवतः, अथवा एकतः भवंति; अहवा एगयओ संखेज्ज- संख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः, एकतः द्वौ पएसिए खंघे, एगयओ दो अणंत- अनन्तप्रदेशिको स्कन्धौ भवतः अथवा पएसिया खंधा भवंति; अहवा एगयओ एकतः असंख्येयप्रदेशिकः स्कन्धः, असंखेज्जपएसिए खंधे, एगयओ दो एकतः द्वौ अनन्तप्रदेशिको स्कन्धौ अणंतपएसिया खंधा भवंति; अहवा भवतः, अथवा त्रयः अनन्तप्रदेशिकाः तिणि अणंतपएसिया खंधा भवंति। स्कन्धाः भवन्ति। चउहा कज्जमाणे एगयओ तिण्णि चतुर्धा क्रियमाणः एकतः त्रयः परमाणुपरमाणुपोग्गला, एगयओ अणंत- पुद्गलाः, एकतः अनन्तप्रदेशिकः पएसिए खंधे भवइ। स्कन्धः भवति। एवं चउक्कसंजोगो जाव असंखेज्जग- एवं चतुष्कसंयोगः यावत् असंख्येयकसंजोगो। एते सव्वे जहेव असंखेज्जाणं संयोगः। एते सर्वे यथैव असंख्येयानां भणिया तहेव अणंताण वि भाणियब्वं, भणिताः तथैव अनन्तानामपि नवरं-एक्कं अणंतगं अन्भहियं भणितव्यम् नवरम्-एकं अनन्तकम् भाणियब्वं जाव अहवा एगयओ अभ्यधिकं भणितव्यं यावत् अथवा संखेज्जा संखेज्जपएसिया खंधा, एकतः संख्येयाः संख्येयप्रदेशिकाः एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ, स्कन्धाः, एकतः अनन्तप्रदेशिक: अहवा एगपओ संखेज्जा असंखेज्ज- स्कन्धः भवति, अथवा एकतः संख्येयाः पएसिया खंघा, एगपओ अणंत- असंख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः, एकतः पएसिए खंधे भवइअहवा संखेज्जा अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा अणंतपएसिया खंधा भवति। संख्येयाः अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति। असंखेज्जहा कज्जमाणे एगयओ असंख्येयधा क्रियमाणः एकतः असंखेज्जा परमाणुपोग्गला, एगयओ असंख्येयाः परमाणुपुद्गलाः, एकतः अणंतपएसिए खंधे भवइ अहवा अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एगपओ असंखेज्जा दुपएसिया खंधा, एकतः असंख्येयौ द्विप्रदेशिको स्कन्धौ, एगयओ अणंतपएसिए खंधे भवइ जाव एकतः अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः भवति अहवा एगयओ असंखेज्जा यावत् अथवा एकतः असंख्येयाः संखेज्जपएसिया खंधा, एगयओ संख्येयप्रदेशिकाः स्कन्धाः, एकतः अणंतपएसिए खंधे भव; अहवा अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः भवति, अथवा एगयओ असंखेज्जा असंखेज्ज- एकतः असंख्येयाः असंख्येयप्रदेशिकाः चार भागों में विभक्त होने पर-एक ओर तीन स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर अनन्तप्रदेशी स्कंध होता है। इसी प्रकार चतुष्क संयोग यावत् असंख्येय संयोग। जैसे असंख्येय प्रदेशी स्कंध की वक्तव्यता वैसे ही अनन्त प्रदेशी स्कंध की वक्तव्यता, इतना विशेष है अनन्त में एक अधिक वक्तव्य है यावत् अथवा एक ओर संख्येय संख्येयप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर अनन्तप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर संख्येय असंख्येय प्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर अनन्तप्रदेशी स्कंध होता है अथवा संख्येय अनन्तप्रदेशी स्कंध होते हैं। असंख्येय भागों में विभक्त होने पर-एक ओर असंख्येय स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल, दूसरी ओर अनन्तप्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर असंख्येय द्विप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर अनन्तप्रदेशी स्कंध होता है यावत् अथवा एक ओर असंख्येय संख्येयप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर अनन्त प्रदेशी स्कंध होता है अथवा एक ओर असंख्येय असंख्येयप्रदेशी स्कंध, दूसरी ओर अनन्त Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. ४ : सू. ८० ४२. पएसिया खंधा, एगयओ अणंत- स्कन्धाः, एकतः अनन्तप्रदेशिक: पएसिए खंधे भवइ; अहवा असंखेज्जा स्कन्धः भवति, अथवा असंख्येयाः अणंतपएसिया खंधा भवंति। अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः भवन्ति। अणंतहा कज्जमाणे अणंता परमाणु- अनन्तधा क्रियमाणः परमाणुपुद्गलाः पोग्गला भवंति॥ भवन्ति। प्रदेशी स्कंध होता है अथवा असंख्येय अनंत प्रदेशी स्कंध होते हैं। अनन्त भागों में विभक्त होने पर-अनन्त स्वतंत्र परमाणु-पुद्गल होते हैं। भाष्य १. सूत्र ६६-८० तत्त्वार्थ सूत्र में पुद्गल द्रव्य के दो प्रकार बतलाए गए हैं-अणु और स्कंध।' अणु अबद्ध होता है, दूसरे अणुओं से असंयुक्त होता है। स्कंध अणुओं के संघात से बनता है। उमास्वाति ने स्कंध की उत्पत्ति के दो हेतु बतलाए हैं-१. संघात २. भेद। भाष्यकार ने तीन हेतुओं का निर्देश किया है १. संघात-दो परमाणु के संघात से द्विप्रदेश स्कंध बनता है। द्विप्रदेश स्कंध में एक अणु के मिलाने पर त्रिप्रदेश स्कंध हो जाता है। इस प्रकार अनेक परमाणुओं का संयोग होने पर अनेक प्रदेश वाले स्कंध बन जाते हैं। २. भेद-त्रिप्रदेश स्कंध में से एक परमाणु के अलग होने पर वह द्विप्रदेश स्कंध बन जाता है। ३. संघात-भेद-एक द्विप्रदेश स्कंध में से एक परमाणु पृथक् होता है, उसी समय एक दूसरा परमाणु आकर मिल जाता है। ये दोनों कार्य एक ही समय में होते हैं इसलिए यह तीसरा विकल्प बनता है। अणु केवल भेद से उत्पन्न होता है।' स्थानांग में संघात और भेद के दो-दो कारण बतलाए गए हैं१. परमाणुओं का संघात अपने स्वभाव से होता है। २. परमाणुओं का संघात दूसरे निमित्तों से होता है। १. स्कंध का भेद अपने स्वभाव से होता है। २. स्कंध का भेद दूसरे निमित्तों से होता है। प्रस्तुत प्रकरण में संघात और भेद के अनेक भंग (विकल्प) बतलाए गये हैं। देखें यंत्रदो परमाणु : संघात १ भेद १ द्विधा १ १/१ तीन परमाणु : संघात १-भेद २ द्विधा १ १/२ द्विधा २ १/१/१ चार परमाणु : संघात १-भेद ४ द्विधा १ १/३ द्विधा २ २/२ त्रिधा ३ १/१/२ चतुर्धा ४ १/१/१/१ पांच परमाणु : संघात १=भेद ६ द्विधा १ १/४ २ २/३ त्रिधा ३ १/१/३ ४ १/२/२ चतुर्धा ५१/१/१/२ पंचधा ६ १/१/१/१/१ छह परमाणु : संघात १-भेद १० १ १/५ २२/४ ३ ३/३ विधा ४ १/१/४ ५ १/२/३ ६ २/२/२ ७ १/१/१/३ ८ १/१/२/२ पंचधा ११/१/१/१/२ षड्ढा १०१/१/१/१/१/१ सात परमाणु : संघात १-भेद १४ द्विधा १ १/६ २ २/५ द्विधा चतुर्धा ३३/४ १. त. सू. ५/२५-अणवः स्कन्धाश्च। २. वही ५/२६-संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते। ३. त. सू. भा. वृ. ५/२६-संघातात् भेदात् संघातभेदादित्येभ्यस्त्रिभ्यः कारणेभ्यः स्कंधाः उत्पद्यन्ते द्विप्रदेशादयः। तद्यथा-द्वयोः परमाणवोः संघातात् द्विप्रदेशः, द्विप्रदेशस्याणोश्च संघातात् त्रिप्रदेशः, एवं संख्येयानामसंख्येयानां च प्रदेशानां संघातात् तावत्प्रदेशाः। ४. वही, ५/२६ भाष्य की टीका-एतदेव ह्यनन्तरोक्ता व्यणुकादयः स्कंधाः संघातभेदाभ्यामेकसामयिकाभ्यामुद्भवन्ति, अविभागीयः कालः परमनिरुद्धश्च समयः स तत्रैकस्मिन् समये अभिन्नकाले व्यणुकस्कंधादेकोऽणुभिर्भिद्यते परः संहन्यते समकमेवेत्यतः संघातभेदाभ्यामुत्पद्यते। ५. त. सू. ५/२७ भेदादणुः। ६. ठाणं, २/२२१-२२२ दोहिं ठाणेहिं पोग्गला साहण्णंति, तं जहासई या पोग्गला साहण्णंति, परेण वा पोग्गला साहण्णंति। दोहिं ठाणेहिं पोग्गला भिज्जंति, तं जहासई वा पोग्गला भिज्जंति, परेण वा पोग्गला भिज्जंति। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई त्रिधा चतुर्धा पंचधा त्रिधा चतुर्धा षड्ढा सप्तधा आठ परमाणु : संघात १ = भेद २१ द्विधा पंचधा षड्ढा ४१/१/५ ५ १/२/४ ६२/२/३ ७१/३/३ ८१/१/१/४ ६ १/१/२/३ १०१/२/२/२ त्रिधा ११ १/१/१/१/३ १२१/१/१/२/२ १३ १/१/१/१/१/२ १४१/१/१/१/१/१/१ ११/७ २२/६ ३३ / ५ ४४/४ ५१/१/६ ६ १/२/५ ७ १/३/४ ८२/२/४ ६ २/३/३ १० १/१/१/५ १११/१/२/४ १२ १/१/३/३ १३ १/२/२/३ १४ २/२/२/२ १५_ १/१/१/१/४ सप्तधा अष्टधा नव परमाणु : संघात १ = भेद २८ द्विधा १६१/१/१/२/३ १७१/१/२/२/२ १८१/१/१/१/१/३ १६१/१/१/१/२/२ २०१/१/१/१/१/१/२ २११/१/१/१/१/१/१/१ ११/८ २२/७ ३३/६ ४४ / ५ ५१/१/७ ६ १/२/६ ७१/३/५ 59/8/8 ६२/३/४ ४३ चतुर्धा पंचधा षड्ढा सप्तधा त्रिधा चतुर्धा पंचधा १०. ३/३/३ ११ १/१/१/६ अष्टधा नवधा दस परमाणु : संघात १ = भेद ४० द्विधा १२१/१/२/५ १३१/१/३/४ १४ १/२/२/४ १५ १/२/३/३ १६ २/२/२/३ १७१/१/१/१/५ १८१/१/१/२/४ १६१/१/१/३/३ २०१/१/२/२/३ २१ १/२/२/२/२ २२१/१/१/१/१/४ २३१/१/१/१/२/३ २४.१/१/१/२/२/२ २५१/१/१/१/१/१/३ २६ १/१/१/१/१/२/२ २७१/१/१/१/१/१/१/२ २८१/१/१/१/१/१/१/१ ११/६ २२ / ८ ३३/७ ४ ४/६ ५५/५ ६ १/१/८ ७१/२/७ ८१/३/६ ६. १/४/५ श. १२ : उ. ४ : सू. ८० १०२/२/६ ११२/३/५ १२२/४/४ १३ ३/३/४ १४ १/१/१/७ १५१/१/२/६ १६ १/१/३/५ १७१/१/४/४ १८१/२/३/४ १६ १/३/३/३ २०२/२/२/४ २१ २/२/३/३ २२१/१/१/१/६ २३१/१/१/२/५ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्ढा विधा सप्तधा श. १२ : उ.४ : सू.८१ भगवई पंचधा २४ १/१/१/३/४ २५ १/१/२/२/४ सप्तधा २६ १/१/२/३/३ अष्टधा २७ १/२/२/२/३ नवधा २८ २/२/२/२/२ दशधा १०० २६ १/१/१/१/१/५ संख्येयधा १२ ३० १/१/१/१/२/४ असंख्येयधा ३१ १/१/१/१/३/३ अनन्त परमाणु : संघात १-भेद ५७५ ३२ १/१/१/२/२/३ द्विधा ३३ १/१/२/२/२/२ ३४ १/१/१/१/१/१/ चतुर्धा ३५ १/१/१/१/१/२/३ पञ्चधा ३६ १/१/१/१/२/२/२ षड्डा अष्टधा ३७ १/१/१/१/१/१/१/३ सप्तधा ३८ १/१/१/१/१/१/२/२ अष्टधा नवधा ३६ १/१/१/१/१/१/१/१/२ नवधा दशधा ४० १/१/१/१/१/१/१/१/१/१ दशधा संख्येय परमाणु : संघात १-भेद ४६० संख्येयधा द्विधा असंख्येयधा विधा अनन्तधा चतुर्धा सर्व भेद-भंग-१६७८ पंचधा द्विप्रदेशी षड्डा त्रिप्रदेशी सप्तधा चतुष्प्रदेशी अष्टधा पञ्चप्रदेशी नवधा दशधा सप्त-प्रदेशी संख्येयधा अष्ट-प्रदेशी असंख्येय परमाणु : संघात १-भेद ५१७ नव-प्रदेशी दश-प्रदेशी विधा संख्येयप्रदेशी४६० चतुर्धा असंख्येयप्रदेशी ५१७ पञ्चधा अनन्त-प्रदेशो ५७५ पोग्गलपरियट्ट-पदं पुद्गलपरिवर्त-पदम् पुद्गल परिवर्त पद ८१. एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं एतेषां भदन्त! परमाणुपुद्गलानां ८१. भंते ! इन परमाणु-पुद्गलों के संघात और साहणणाभेदाणुवाएणं अणंताणंता संहननभेदानुपातेन अनन्तानन्ताः भेद के अनुपात से अनंत-अनंत पुद्गलपोग्गलपरियडा समणुगंतव्वा भवंतीति पुद्गलपरिवर्ताः समनुगन्तव्याः परिवर्त सम्यक् प्रकार से अनुगमनीय होते हैं। मक्खाया? भवन्तीति आख्याताः? क्या ऐसा कहा गया है? हंता गोपमा! एएसि णं परमाणु- हन्त गौतम! एतेषां परमाणुपुद्गलानां गौतम ! हां, इन परमाणु-पुद्गलों के संघात पोग्गलाणं साहणणाभेदाणुवाएणं संहननभेदानुपातेन अनन्तानन्ताः और भेद के अनुपात से अनंत-अनंत अणंताणंता पोग्गलपरियट्टा समणु- पुद्गलपरिवर्ताः समनुगन्तव्याः पुद्गल-परिवर्त्त सम्यक् प्रकार से गंतव्या भवतीति मक्खाया। भवन्तीति आख्याताः। अनुगमनीय (एक के बाद एक) होते हैं, ऐसा कहा गया है। षट्प्रदेशी द्विधा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४५ श. १२ : उ. ४ : सू. ८२-८६ १२. कविहे णं भंते ! पोग्गलपरियट्टे । कतिविधः भदन्त! पुदगलपरिवर्तः पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तः? गोयमा! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे गौतम! सप्तविधः पुद्गलपरिवर्तः पण्णत्ते, तं जहा-ओरालियपोग्गल- प्रज्ञप्तः, तद्यथा-औदारिकपुद्गलपरियट्टे, वेउब्बियपोग्गलपरियट्टे, परिवर्तः, वैक्रियपुद्गलपरिवर्तः, तेयापोग्गलपरियट्टे कम्मापोग्गल- तैजसपुद्गलपरिवर्तः, कर्मकपुद्गलपरियट्टे मणपोग्गलपरियट्टे वइपोग्गल- परिवर्तः, मनःपुद्गलपरिवर्तः, परियट्टे, आणापाणुपोग्गलपरियट्टे॥ वाकपुद्गलपरिवर्तः, पुद्गलपरिवर्तः। ६२. भंते! पुदगल-परिवर्त्त कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! पुद्गल-परिवर्त सात प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त, वैक्रिय पुद्गल परिवर्त, तैजस पुद्गलपरिवर्त्त, कर्म पुद्गल-परिवर्त्त, मनः पुद्गलपरिवर्त्त, वचन पुद्गल-परिवर्त्त और आनापान पुद्गल-परिवर्त। ८३. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे पोग्गल- नैरयिकाणां भदन्त! कतिविधः ५३. भंते ! नैरयिकों के कितने प्रकार के परियट्टे पण्णत्ते? पुद्गलपरिवर्तः प्रज्ञप्तः? पुद्गल-परिवर्त्त प्रज्ञप्त हैं? गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे । गौतत! सप्तविधः पुद्गलपरिवर्तः गौतम! नैरयिकों के सात प्रकार के पुद्गलपण्णत्ते तं जहा-ओरालियपोग्गल- प्रज्ञप्तः, तद्यथा-औदारिकपुद्गल- परिवर्त्त प्रज्ञप्त हैं, जैसे-औदारिक पुद्गलपरियट्टे, वेउब्वियपोग्गलपरियट्टे जाव। परिवर्तः, वैक्रिय-पुद्गलपरिवर्तः यावत् परिवर्त, वैक्रिय पुद्गल परिवर्त्त यावत् आणापाणुपोग्गलपरियट्टे। एवं जाव आनापान-पुद्गलपरिवर्तः। एवं यावत् आनापान पुद्गल-परिवर्त। इसी प्रकार वेमाणियाणं॥ वैमानिकानाम्। यावत् वैमानिक देवों के। १४. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स एकैकस्य भदन्त! नैरयिकस्य कियन्तः ८४. भंते ! प्रत्येक नैरयिक के अतीत में कितने केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा औदारिकपुद्गलपरिवर्ताः अतीताः? औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त हए हैं? अतीता? अणंता। अनन्ताः । अनंत। केवइया पुरेक्खडा ? कियन्तः पुरस्कृताः? भविष्य में (पुरस्कृत) कितने होंगे? कस्सइ अत्थि, कस्सइ नत्यि। कस्यचित् अस्ति, कस्यचित् नास्ति। किसी के होंगे, किसी के नहीं होंगे। जिसके जस्सत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा यस्यास्ति जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः होंगे, उसके जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, तिण्णि बा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा वा, उत्कर्षेण संख्येयाः वा असंख्येयाः उत्कृष्टतः संख्येय, असंख्येय अथवा अनंत। असंखेज्जा वा अणंता वा॥ वा अनन्ताः वा। ८५. भंते ! प्रत्येक असुरकुमार के अतीत में कितने औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त हुए हैं? ८५. एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स एकैकस्य भदन्त! असुरकुमारस्य केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा कियन्तः औदारिकपुदगलपरिवर्ताः अतीता ? अतीताः? अणंता। अनन्ताः । केवइया पुरेक्खडा ? कियन्तः पुरस्कृताः? कस्सइ अस्थि, कस्सइ नथि। कस्यचित् अस्ति, कस्यचित् नास्ति। जस्सत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा यस्यास्ति जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा वा, उत्कर्षेण संख्येयाः वा असंख्येयाः असंखेज्जा वा अणंता वा। एवं जाव वा अनन्ताः वा। एवं यावत् वेमाणियस्स॥ वैमानिकस्य। अनंत। भविष्य में कितने होंगे? किसी के होंगे, किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय, असंख्येय अथवा अनंत। इसी प्रकार यावत् वैमानिक के। ८६. भंते ! प्रत्येक नैरयिक को अतीत में कितने वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त्त हुए हैं? ८६. एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स ८६. एकैकस्य भदन्त! नैरयिकस्य केवइया वेउब्वियपोग्गलपरियट्टा कियन्तः वैक्रियपुद्गलपरिवर्ताः अतीता? अतीताः? अणंता। अनन्ताः । एवं जहेब ओरालियपोग्गलपरियट्टा एवं यथैव औदारिकपदगलपरिवर्ताः अनंत। इसी प्रकार जैसे औदारिक पुदगल परिवर्त्त Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ४ : सू. ८७ - ६१ तहेब वेउब्वियपोग्गल परियट्टावि भाणियव्वा । एवं जाव वेमाणियस्स । एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टा । एते एगत्तिया सत्त दंडगा भवंति ॥ ८७. नेरइयाणं भंते! केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता? केवइया पुरेक्खडा ? अनंता । एवं जाव वेमाणियाणं । एवं वेउब्वियपोग्गलपरियट्टावि । एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टा वेमाणियाणं । एवं एए पोहत्तिया सत्त चउव्वीसतिदंडगा ॥ ८८. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? नत्थि एक्को वि । केवतिया पुरेक्खडा ? नथ एक्को वि ॥ ८६. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? एवं चेव । एवं जाव थणियकुमारत्ते ॥ ६०. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स पुढविक्काइत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टाअतीता ? अनंता । केवतिया पुरेक्खडा ? कस्सइ अत्थि, कस्सइ नत्थि । जस्सत्थि जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा । एवं जाव | मंतर - जोइसिय वेमाणियत्ते जहा असुरकुमारते ॥ ६१. एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स ४६ तथैव वैक्रियपुद्गलपरिवर्ताः अपि भणितव्याः । एवं यावत् वैमानिकस्य । एवं यावत् आनापानपुद्गलपरिवर्ताः । एते एकत्विकाः सप्त दण्डकाः भवन्ति । नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तः औदारिक- पुद्गलपरिवर्ताः अतीताः ? कियन्तः पुरस्कृताः? अनन्ताः । एवं यावत् वैमानिकानाम् । एवं वैक्रिय- पुद्गलपरिवर्ताः अपि । एवं यावत् आनापानपुद्गलपरिवर्ताः वैमानिकानाम् । एवम् एते पृथकत्वकाः सप्तचतुर्विंशति- दण्डकाः । एकैकस्य भदन्त ! नैरयिकस्य नैरयिकत्वे कियन्तः औदारिकपुद्गल-परिवर्ताः अतीताः ? नास्ति एकोऽपि । कियन्तः पुरस्कृताः? नास्ति एकोऽपि एकैकस्य भदन्त ! नैरयिकस्य असुरकुमारत्वे कियन्तः औदारिकपुदगलपरिवर्ताः अतीताः ? एवं चैव । एवं यावत् स्तनितकुमारत्वे । भदन्त ! एकैकस्य नैरयिकस्य पृथ्वीकायिकत्वे कियन्तः औदारिकपुद्गलपरिवर्ताः अतीताः ? अनन्ताः । कियन्तः पुरस्कृताः? कस्यचित् अस्ति कस्यचित् नास्ति । यस्यास्ति जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा उत्कर्षेण संख्येयाः वा असंख्येयाः वा अनन्ता वा । एवं यावत् मनुष्यत्वे । वानमन्तर- ज्योतिष्क- वैमानिकत्वे यथा असुरकुमारत्वे । एकैकस्य भदन्त ! असुरकुमारस्य भगवई की वक्तव्यता वैसे ही वैक्रिय पुद्गलपरिवर्त की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् वैमानिक के। इसी प्रकार यावत् आनापान पुद्गल परिवर्त की वक्तव्यता । यह परिवर्त चौबीस दंडकों में ही होता है। इनके प्रत्येक जीव की अपेक्षा सात-सात दंडक होते हैं। ८७. भंते! नैरयिकों के अतीत में कितने औदारिक कितने होंगे ? पुद्गल परिवर्त हुए हैं ? भविष्य में अनंत। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों में परिवर्त की वक्तव्यता । इसी प्रकार वैक्रिय पुद्गल - परिवर्त की भी वक्तव्यता । इसी प्रकार यावत् आनापान पुद्गल परिवर्त की वैमानिकों में वक्तव्यता । यह परिवर्त पृथक्-पृथक् अनेक जीवों की अपेक्षा चौबीस दंडकों में ही होता है। ८८. भंते! प्रत्येक नैरयिक के नैरयिक के रूप में अतीत में कितने औदारिक पुद्गल - परिवर्त हुए हैं ? एक भी नहीं। भविष्य में कितने होंगे ? एक भी नहीं। ८६. भंते! एक-एक नैरयिक के असुरकुमार के रूप में अतीत में कितने औदारिक पुद्गलपरिवर्त हुए हैं ? पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार के रूप में। ६०. भंते! एक-एक नैरयिक के पृथ्वीकायिक के रूप में अतीत में कितने औदारिक पुद्गल - परिवर्त हुए हैं ? अनंत । भविष्य में कितने होंगे ? किसी के होंगे, किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय, असंख्येय अथवा अनंत। इसी प्रकार यावत् मनुष्य के रूप में। वाणमंतर, ज्योतिष्क, और वैमानिक के रूप में असुरकुमार की भांति वक्तव्यता । १. भंते! प्रत्येक असुरकुमार के नैरयिक के Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ४ : सू. ६२-६४ भगवई ४७ नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गल- नैरयिकत्वे कियन्तः औदारिकपरियट्टा ? पुद्गलपरिवर्ताः? एवं जहा नेरइयस्स वत्तव्वया भणिया, एवं यथा नैरयिकस्य वक्तव्यता तहा असुरकुमारस्स वि भाणियब्वा भणिता, तथा असुरकुमारस्यापि जाव वेमाणियत्ते। एवं जाव थणिय- भणितव्या यावत् वैमानिकत्वे। एवं यथा कुमारस्स। एवं पुढविक्काइयस्स वि। स्तनितकुमारस्य। एवं एवं जाव वेमाणियस्स । सम्बेसि पृथ्वीकायिकस्यापि एवं यावत् एक्को गमो ॥ वैमानिकस्य। सर्वेषाम् एकः गमः। रूप में अतीत में कितने औदारिक पुद्गलपरिवर्त्त हुए हैं? इसी प्रकार जैसे नैरयिक की वक्तव्यता, वैसे ही असुरकुमार की वक्तव्यता यावत् वैमानिक के रूप में। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक की भी वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की भी वक्तव्यता। सबका एक ही गमक-समान वक्तव्यता है। ६२. भंते ! प्रत्येक नैरयिक के नैरयिक के रूप में अतीत में कितने वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त हुए १२. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवतिया वेउब्बियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? अणता। केवतिया पुरेक्खडा? एकुत्तरिया जाव अणंता वा। एवं जाव थणियकुमारत्ते॥ एकैकस्य भदन्त! नैरयिकस्य नैरयिकत्वे कियन्तः वैक्रियपुद्गलपरिवर्ताः अतीताः? अनन्ताः । कियन्तः पुरस्कृताः? एकोत्तरिकाः यावत् अनन्ता वा । एवं यावत् स्तनितकुमारत्वे। अनंत। भविष्य में कितने होंगे? एकोत्तरिक-किसी के होंगे, किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे उसके जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय, असंख्येय अथवा अनंत। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार के रूप में। ६३. पुढविकाइयत्ते-पुच्छा। पृथ्वीकायिकत्वे-पृच्छा। नत्थि एक्कोवि। नास्ति एकोऽपि। केवतिया पुरेक्खडा? कियन्तः पुरस्कृताः? नत्यि एक्कोवि। एवं जत्थ वेउब्बिय- नास्ति एकोऽपि। एवं यत्र वैक्रियशरीरं सरीरं तत्थ एकुत्तरिओ, जत्थ नत्थि तत्र एकोत्तरिकः, यत्र नास्ति तत्र यथा तत्थ जहा पुढविकाइयत्ते तहा पृथ्वीकायिकत्वे तथा भणितव्यं यावत् भाणियव्वं जाव वेमाणियस्स वैमानिकस्य वैमानिकत्वे। तैजसवेमाणियत्ते। पुद्गलपरिवर्ताः, कर्मकपुद्गलपरिवर्ताः, तेयापोग्गलपरियट्टा, कम्मापोग्गल- च सर्वत्र एकोत्तरिकाः भणितव्याः, परियट्टा य सव्वत्य एकुत्तरिया, मनःपुद्गलपरिवर्ताः सर्वेषु पञ्चेन्द्रियेषु भाणियब्वा, मणपोग्गलपरियट्टा एकोत्तरिकाः, विकलेन्द्रियेषु नास्ति। सव्वेसु पंचिदिएसु एगुत्तरिया वाक्पुद्गलपरिवर्ताः, एवं चैव, नवरम्विगलिंदिएमु नत्थि। वइपोग्गल- एकेन्द्रियेषु नास्ति भणितव्या परियट्टा एवं चेव, नवरं-एगिदिएसु आनापानपुद्गलपरिवर्ताः सर्वत्र नत्थि भाणियब्वा। आणापाणुपोग्गल- एकोत्तरिकाः यावत् वैमानिकस्य परियट्टा सव्वत्थ एकुत्तरिया जाव वैमानिकत्वे । वेमाणियस्स वेमाणियत्ते ॥ ६३. पृथ्वीकायिक के रूप में-पृच्छा। एक भी नहीं। भविष्य में कितने होंगे? एक भी नहीं। इसी प्रकार जहां वैक्रिय शरीर हैं, वहां एकोत्तरिक (सूत्र १२ की भांति), जहां वैक्रिय शरीर नहीं है वहां पृथ्वीकायिकत्व की भांति वक्तव्य है यावत् वैमानिक का वैमानिक के रूप में। तैजस पुदगल-परिवर्त्त और कर्म पुदगल-परिवर्त्त सर्वत्र (नैरयिक से वैमानिक तक) एकोत्तरिक वक्तव्य हैं। मनःपुद्गल-परिवर्त समस्त पंचेन्द्रियों में एकोत्तरिक-किसी के होंगे, किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय, असंख्येय अथवा अनंत। विकलेन्द्रियों में नहीं होंगे। इसी प्रकार वचन पुद्गल-परिवर्त्त की वक्तव्यता, इतना विशेष है-एकेन्द्रियों में वक्तव्य नहीं है। आनापान पुदगल-परिवर्त्त सर्वत्र (नैरियक से वैमानिक तक चौबीस दंडकों में) एकोत्तरिक यावत् वैमानिक के वैमानिक रूप में। १४. नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिया नैरयिकाणां भदन्त! नैरयिकत्वे कियन्तः १४. भंते ! नैरयिकों के नैरयिक के रूप में Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. ४ : सू. ६५-६६ ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ? औदारिकपुद्गलपरिवर्ताः अतीताः? नत्थि एक्कोवि। केवतिया पुरेक्खडा ? नत्थि एक्कोवि। थणियकुमारत्ते॥ नास्ति एकोऽपि। कियन्तः पुरस्कृताः? नास्ति एकोऽपि। एवं यावत् स्तनित कुमारत्वे । अतीत में कितने औदारिक पुद्गल-परिवर्त हुए हैं? एक भी नहीं। भविष्य में कितने होंगे? एक भी नहीं। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार के रूप में। एवं जाव ६५. पुढविकाइयत्ते-पुच्छा। पृथ्वीकायिकत्वे-पृच्छा। अणता । अनन्ताः केवतिया पुरेक्खडा ? कियन्तः पुरस्कृताः? अणंता। एवं जाव मणुस्सत्ते। अनन्ताः। एवं यावत् मनुष्यत्वे। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियत्ते जहा वानमन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकत्वे यथा नेरइयत्ते । एवं जाव वेमाणियाणं । नैरयिकत्वे। एवं यावत् वैमानिकानां वेमाणियत्ते। एवं सत्त वि वैमानिकत्वे। एवं सप्त अपि पुद्गलपोग्गलपरियट्टा भाणियब्वा-जत्थ परिवर्ताः भणितव्याः-यत्र अस्ति तत्र अस्थि तत्थ अतीता वि पुरेक्खडा वि अतीताः अपि पुरस्कृता अपि अनन्ताः अणंता भाणियव्वा, जत्थ नत्थि तत्थ भणितव्याः, यत्र नास्ति तत्र द्वौ अपि दोवि नत्थि भाणियन्वा जाव नास्ति भणितव्यौ यावत् १५. पृथ्वीकायिक के रूप में-पृच्छा अनंत। भविष्य में कितने होंगे? अनंत। इसी प्रकार यावत् मनुष्यत्व में। वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक के रूप में नैरयिकत्व की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् वैमानिकों के वैमानिक के रूप में। इसी प्रकार सात पुद्गल-परिवर्त वक्तव्य हैं-जहां हैं, वहां अतीत और भविष्य में अनंत वक्तव्य हैं। जहां नहीं हैं, वहां अतीत और भविष्य दोनों में वक्तव्य नहीं हैं यावत् १६. वेमाणियाणं वेमाणियत्ते केवतिया वैमानिकानां वैमानिकत्वे कियन्तः १६. वैमानिकों के वैमानिक के रूप में अतीत में आणपाणुपोग्गलपरियट्टा अतीता? आनापानपुद्गलपरिवर्ताः अतीताः? कितने आनापान पुद्गल-परिवर्त्त हुए हैं? अणंता। अनन्ताः । अनंत। केवतिया पुरेक्खडा ? कियन्तः पुरस्कृताः? भविष्य में कितने होंगे? अणंता॥ अनन्ताः । अनंत। भाष्य १. सूत्र ८१-६६ रूप में परिणमन करता है। यह औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त है। पुद्गल-परिवर्त्त संसार भ्रमण का एक अद्भुत लेखा-जोखा इसी प्रकार शेष छह वर्गणा के प्रायोग्य सब पुद्गल द्रव्यों का है। एक परमाणु व्यणुक आदि अनंत अणुओं के साथ संयोग और अपने-अपने रूप में परिणमन करने पर वैक्रिय पुदगल-परिवर्त्त आदि वियोग करता हुआ अनंत परिवर्त (परिवर्तन) करता है। परमाणु प्रकार बनते हैं। नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के चौबीस दंडकों में अनंत हैं और प्रत्येक परमाणु में (संयोग-वियोग जनित) अनंत सभी पुद्गल परिवर्त्त होते हैं। परिवर्त्त होते हैं। इस प्रकार परिवर्त्त अनंतानंत हो जाते हैं। अनादि व्यक्ति के विषय में अतीत और भविष्य-दो दृष्टियों से विचार काल से संसार में परिभ्रमण करने वाला जीव पुदगल का परिवर्तन किया गया है। नैरयिक व्यक्ति अतीत में अनंत पुद्गल-परिवर्त्त कर करता रहता है। पुद्गल की आठ वर्गणाएं होती हैं। आहारक शरीर चुका है। भविष्य में कोई नैरयिक पुद्गल-परिवर्त करता है, कोई नहीं केवल मुनि के ही होता है इसलिए उसके अनंतानंत परिवर्त नहीं करता। अभव्य और दूर भव्य (सुदूर काल से मोक्ष में जाने वाला) होते। प्रस्तुत प्रकरण में शेष सात वर्गणाओं के आधार पर सात नैरयिक जीव के पुद्गल-परिवर्त्त होंगे। जो नैरयिक जीव नरक से परिवर्त्त बतलाए गए हैं निकल कर मनुष्य जन्म ले संख्येय अथवा असंख्येय भवों को पार कर औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त-औदारिक शरीर में वर्तमान जीव मुक्त होगा, उसके पुद्गल-परिवर्त्त नहीं होगा। पुद्गल-परिवर्त्त औदारिक शरीर प्रायोग्य सब पुद्गल द्रव्यों का औदारिक शरीर के अनंतकाल से पूरित होता है इसलिए उसका निषेध किया गया है।" १. भ. वृ. १२/८१ : साहणण त्ति प्राकृतत्वात् संहननं-संघातो, भेदश्च- २. भ. १/१६-२४ का भाष्य। वियोजनं तयोरनुपातो-योगः संहननभेदानुपातस्तेन सर्वपुद्गलद्रव्यैः सह ३. भ. वृ. १२/८४-अतीतानंता अनादित्वात् अतीतकालस्य जीवस्य परमाणूनां संयोगेन वियोगेन चेत्यर्थः 'अणंताणंत ति अनंतेन गुणिता चानादित्वात् अपरापरपुद्गलग्रहणस्वरूपत्याचेति। अनंता अनंतानंताः, एकोऽपि हि परमाणुद्वर्यणुकादिभिरनन्ताणुकान्तै- ४. वही, १२/८४-कस्यापि जीवस्य दूरभव्यस्याभव्यस्य वा ते सन्ति, र्द्रव्यैः सह संयुज्यमानोऽनन्तान् परिवर्तान् लभते, प्रतिद्रव्यं परिवर्तभावात् कस्यापि न सन्ति, उद्धृत्य यो मानुषत्वमासाद्य सिद्धिं यास्यति अनंतत्याच परमाणूनां, प्रतिपरमाणु चानन्तत्वात् परिवर्तानां परमाणु- संख्ययैरसंख्येयैर्वा भवैर्यास्यति यः सिद्धिं तस्यापि परिवत्र्तो नास्ति पुद्गलपरिवर्तानामनन्तानंतत्वं द्रष्टव्यमिति। अनंतकालपूर्यत्वात्तस्येति। , Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४६ श. १२ : उ. ४ : सू. ६६ १. एक नैरयिक के औदारिक पुद्गल-परिवर्तअतीतकाल भविष्यकाल अनन्त | किसी के होगा, किसी के नहीं, जिसके होगा ज. १,२,३ उ. संख्येय, असंख्येय, अनंत। २. एक असुरकुमार के औदारिक पुदगल-परिवर्तअतीतकाल भविष्यकाल अनन्त | किसी के होगा,किसी के नहीं, जिसके होगा | ज. १,२,३ उ. संख्येय, असंख्येय, अनंत। इसी तरह वैमानिक तक सभी दंडक वक्तव्य हैं। इसी तरह वैक्रिय आदि सातों ही पुद्गल-परिवर्त वक्तव्य हैं। ३. नैरयिकों के औदारिक पुद्गल-परिवर्तअतीतकाल | भविष्यकाल अनंत अनंत इसी तरह वैमानिकों तक सभी दंडक वक्तव्य हैं। इसी तरह वैक्रिय आदि सातों ही पुद्गल-परिवर्त वक्तव्य हैं। ४. एक नैरयिक के नैरयिक रूप में औदारिक पदगल-परिवर्तअतीतकाल भविष्यकाल नहीं नहीं ५. एक नैरयिक के असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार के रूप में औदारिक पुद्गल-परिवर्त अतीतकाल भविष्यकाल नहीं नहीं ६. एक नैरयिक के पृथ्वीकायिक रूप में औदारिक पुदगल-परिवर्तअतीतकाल | भविष्यकाल | किसी के होगा, किसी के नहीं, जिसके होगा ज. १,२,३, उ. संख्येय, असंख्येय, अनन्त। इसी तरह मनुष्य-रूप में तक दंडक (१३-२१) वक्तव्य हैं। वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक की रूप में असुरकुमार की भांति वक्तव्यता। ७. एक नैरयिक के नैरयिक रूप में वैक्रिय पुदगल-परिवर्तअतीतकाल | भविष्यकाल | किसी के होगा, किसी के नहीं, जिसके होगा | ज. १,२,३, उ. संख्येय, असंख्येय, अनंत। इसी तरह स्तनितकुमार रूप में तक वक्तव्य हैं। ८. एक नैरयिक के पृथ्वीकायिक रूप में वैक्रिय पदगल-परिवर्तअतीतकाल | भविष्यकाल नहीं नहीं इसी तरह अप्काय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय रूप में वक्तव्य है। वायुकायिक, तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय, मनुष्य, वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक की रूप में नैरयिक की तरह वक्तव्यता। इसी तरह असुरकुमार से वैमानिक केवैमानिक रूप तक वक्तव्यता। ६. एक नैरयिक के नैरयिक-रूप में तैजस-कर्म-आनापान पुद्गल-परिवर्त्त | अतीतकाल | भविष्यकाल अनंत किसी के होगा, किसी के नहीं, जिसके होगा | ज. १,२,३, उ. संख्येय, असंख्येय, अनन्त। इसी तरह यावत् वैमानिक रूप में। इसी तरह शेष सभी दंडकों के सभी दंडकों के रूप में वक्तव्य हैं। १०. एक नैरयिक के नैरयिक रूप में मनःपुदगल-परिवर्तअतीतकाल भविष्यकाल अनंत किसी के होगा, किसी के नहीं। जिसके होगा ज. १,२,३, उ. संख्येय, असंख्येय, अनंत। इसी तरह एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय को छोड़ सभी दंडकों के रूप में वक्तव्य है। ११. एक नैरयिक के एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय रूप में मनः पुद्गल-परिवर्त्त अतीतकाल| भविष्यकाल नहीं नहीं इसी तरह शेष सभी दंडकों की सभी दंडकों के रूप में वक्तव्यता। १२. एक नैरयिक के नैरयिक रूप में वचन पुदगल-परिवर्त्त| अतीतकाल भविष्यकाल अनंत | किसी के होगा, किसी के नहीं, जिसके होगा ज. १,२,३, उ. संख्येय, असंख्येय, अनंत। इसी तरह एकेन्द्रिय को छोड़ सभी दंडकों में वक्तव्यता। १३. एक नैरयिक के एकेन्द्रिय रूप में वचन पदगल-परिवर्तअतीतकाल | भविष्यकाल नहीं नहीं इसी तरह एकेन्द्रिय को छोड़ सभी दंडकों में वक्तव्यता। १४. नैरयिक के नैरयिक रूप में औदारिक पुदगल-परिवर्तअतीतकाल| भविष्यकाल नहीं नहीं इसी तरह यावत् स्तनितकुमार रूप में। १५. नैरयिकों के पृथ्वीकायिक रूप में औदारिक पुदगल-परिवर्तअतीतकाल | भविष्यकाल नहीं नहीं इसी तरह यावत् मनुष्य रूप में। वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक रूप में नैरयिक की तरह वक्तव्य हैं। १६. इसी तरह यावत् वैमानिकों के वैमानिक रूप में औदारिक पुद्गल-परिवर्त अतीतकाल | भविष्यकाल नहीं नहीं इसी तरह सातों पुद्गल-परिवर्त वक्तव्य हैं, जो जहां है वहां अतीतकाल व भविष्यकाल में अनंत। जहां नहीं है वहां दोनों ही नहीं, यावत वैमानिकों के वैमानिक रूप में आनापान पुदगल-परिवर्त्त अतीतकाल भविष्यकाल अनंत अनंत अनंत अनंत | Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. ४ : सू. ६७ ५० १७. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते- ओरालियपोग्गलपरियट्टे ओरालिय- औदारिकपुद्गलपरिवर्तः औदारिक- पोग्गलपरियट्टे ? पुद्गलपरिवर्तः? गोयमा ! जण्णं जीवेणं ओरालिय- गौतम! यत जीवेन औदारिकशरीरे सरीरे वट्टमाणेणं ओरालियसरीर- वर्तमानेन औदारिकशरीरप्रायोग्यानि पायोग्गाइं दवाइं ओरालियसरीरत्ताए द्रव्याणि औदारिकशरीरत्वेन गृहीतानि गहियाई बधाई पुट्ठाई कडाइं पट्टवियाई बद्धानि स्पृष्टानि कृतानि प्रस्थापितानि निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभि- निर्विष्टानि अभिनिर्विष्टानि अभिसमण्णागयाइं परियादियाइं परिणा- समन्वागतानि पर्याप्तानि परिणामिमियाइं निजिण्णाई निसिरियाई तानि निर्जीर्णानि निःसृतानि निःनिसिट्ठाई भवंति। सृष्टानि भवन्ति। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ- तत् तेनार्थेन गौतम! एवम् उच्यतेओरालियपोग्गलपरियट्टे ओरालिय- औदारिकपुदगलपरिवर्तः औदारिकपोग्गलपरियट्टे। पुद्गलपरिवर्तः। एवं वैक्रियपुद्गलएवं वेउब्वियपोग्गलपरियट्रेवि, नवरं- परिवर्तोऽपि, नवरम्-वैक्रियशरीरे वेउब्वियसरीरे वट्टमाणेणं वेउब्विय- वर्तमानेन वैक्रियशरीरप्रायोग्यानि सरीरप्पायोग्गाई दवाइं वेउब्विय- द्रव्याणि वैक्रिय-शरीरत्वेन गृहीतानि, सरीरत्ताए गहियाई, सेसं तं चेव सव्वं, शेषं तत् चैव सर्वम्, एवं यावत् एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, आनापानपुद्गल-परिवर्तः, नवरम्नवरं-आणापाणुपायोग्गाई सव्वदव्वाई आनापानप्रायोग्यानि सर्वद्रव्याणि आणापाणुत्ताए गहियाई, सेसं तं आनापानत्वेन गृहीतानि, शेषं तच्चैव । भवाता १७. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त औदारिक पुद्गल-परिवर्त है? गौतम ! औदारिक शरीर में वर्तन करते हुए जीव के द्वारा औदारिक शरीर के प्रायोग्य द्रव्य औदारिक शरीर के रूप में गृहीत, बद्ध, स्पृष्ट, कृत, प्रस्थापित, निविष्ट, अभिनिविष्ट (तीव्र अनुभाव के रूप में प्रस्थापित), अभिसमन्वागत (उदय के अभिमुख), पर्याप्त, परिणामित, निर्जीर्ण, निःसृत और निःसृष्ट होते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त है। इसी प्रकार वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त भी वक्तव्य है, इतना विशेष है-वैक्रिय शरीर में वर्तन करते हुए जीव के द्वारा वैक्रिय शरीर के प्रायोग्य द्रव्यों का वैक्रिय शरीर के रूप में ग्रहण, शेष पूर्ववत्, इसी प्रकार यावत् आनापान पुद्गलपरिवर्त्त, इतना विशेष है-आनापान के प्रायोग्य समस्त द्रव्यों का आनापान के रूप में ग्रहण, शेष पूर्ववत्। चेव॥ भाष्य 1. सूत्र १७ २. निर्विष्ट-जीव उन पुद्गलों का विन्यास करता है। प्रस्तुत सूत्र में औदारिक पुद्गल-परिवर्त आदि के नामकरण ३. अभिनिविष्ट-विधिपूर्वक स्थापित पुदगलों का जीव से संलग्न का प्रयोजन बतलाया गया है। औदारिक पुद्गल-परिवर्त करने वाला हो जाना। जीव औदारिक वर्गणा के पुद्गलों की तेरह अवस्थाओं से गुजरता है- ४. अभिसमन्वागत-गृहीत पुद्गलों में विधि पूर्वक रसानुभूति की १. गृहीत-जीव के द्वारा स्वीकृत। क्षमता उत्पन्न होना। २. बद्ध-जीव के प्रदेशों द्वारा गृहीत पुद्गलों का आत्मीकरण। ५. पर्याप्त-जीव के अवयवों द्वारा उनपुद्गलों के रस का ग्रहण करना। ३. स्पृष्ट-जीव के द्वारा उन पुद्गलों का स्पर्श होता है। पुट्ठ का ये पांच अवस्थाएं स्थिति से संबद्ध हैं। वैकल्पिक अर्थ है पुष्ट। जीव अन्य-अन्य पुद्गलों का ग्रहण कर पुष्ट १. परिणामित-रसानुभूति की दृष्टि से परिणामांतर होता है। करता रहता है। २. निर्जीर्ण-रस के क्षीण होने पर वे पुद्गल निर्जीर्ण होते हैं। ४. कृत-परिणामान्तर का कार्य चलता रहता है। ३. निःसृत-निर्जीर्ण पुद्गल जीव प्रदेशों से निकलने लग ये प्रथम चार अवस्थाएं औदारिक पुद्गलों के ग्रहण से जाते हैं। संबद्ध हैं। ४. निसृष्ट-जीव के प्रदेशों से वे पुद्गल सर्वथा' त्यक्त होते हैं। १. प्रस्थापित-गृहीत पुद्गलों का स्थिरीकरण होता है। ये चार अवस्थाएं विगमन से संबद्ध हैं। १. भ. वृ. १२/६७-'गहियाई ति स्वीकृतानि, 'बधाई ति जीव प्रदेशैरात्मी करणात्, कुतः? इत्याह- 'पुट्ठाई ति यतः पूर्व स्पृष्टानि तनौ रेणुवत् अथवा पुष्टानि पोषितान्यपरापरग्रहणतः कडाई ति पूर्व परिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृतानि 'पट्टवियाई ति प्रस्थापितानि-स्थिरीकृतानि जीवेन, "निविट्ठाई' ति यतः स्थापितानि ततो निविष्टानि जीवेन स्वयम, 'अभिनिविट्ठाई' ति अभि-अभिविधिना निविष्टानि सर्वाव्यपि, जीवे लग्नानीत्यर्थः 'अभिसमन्नागयाई' ति अभिविधिना सर्वाणीत्यर्थः समन्वागतानि संप्राप्तानि जीवेन रसानुभूतिं समाश्रित्य परियाइयाई ति पर्याप्तानि जीवेन सर्वावयवैरात्तानि तद्रसादानद्वारेण 'परिणामियाई ति रसानुभूतित एव परिणामान्तरमापादितानि। 'निज्जिण्णाई' ति क्षीणरसीकृतानि "निसिरियाई' त्ति जीवप्रदेशेभ्यो निःसृतानि, कथं ?-निसिट्ठाई ति जीवेन निःसृष्टानि स्थप्रदेशेभ्यस्त्याजितानि। २. वही, भ. १२/६७-इहाद्यानि चत्वारि पदान्यौदारिकपुद्गलानां ग्रहण-विषयाणि तदुत्तराणि तु पञ्चस्थितिविषयाणि तदुत्तराणि तु चत्वारि विगमविषयाणीति। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५१ श. १२ : उ. ४ : सू.६८-१०० ६८. ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते! औदारिक पुद्गलपरिवर्तः भदन्त! १८. भंते ! औदारिक पुद्गल-परिवत कितने केवइकालस्स निव्वत्तिज्जइ ? कियत्कालात् निर्वय॑ते? काल में निर्वर्तित होता है? गोयमा ! अणंताहिं ओसप्पिणीहिं गौतम! अनन्ताभिः अवसर्पिणीभिः गौतम ! अनंत अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल उस्सप्पिणीहिं एवतिकालस्स उत्सर्पिणीभिः एतावत्कालात निवर्त्यते। में निर्वर्तित-निष्पन्न होता है। निव्वत्तिज्जइ। एवं बेउब्बिय- एवं वैक्रियपुद्गलपरिवर्तोऽपि । एवं इसी प्रकार यावत् आनापान पुद्गलपोग्गलपरियट्टे वि। एवं जाव यावत् आनापानपुदगलपरिवर्तोऽपि । परिवर्त भी। आणापाणुपोग्गलपरियट्टेवि ॥ भाष्य १. सूत्र १८ प्रस्तुत सूत्र में पुद्गल-परिवर्त्त का कालमान बतलाया गया है। एक पुद्गल परिवर्त्त का कालमान अनंत उत्सर्पिणी और अनंत अवसर्पिणी जितना है। देखें अनुयोगद्वार सूत्र ६१६ का टिप्पण। १६. एयस्स णं भंते ! ओरालिय-पोग्गल- एतस्य भदन्त! औदारिकपुद्गलपरि- ६६. भंते ! औदारिक पुद्गल-परिवर्त निर्वर्तना परियट्टनिव्वत्तणाकालस्स, वेउब्विय- वर्तनिर्वर्तनाकालस्य, वैक्रिय-पुद्गल- काल, वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त्त निर्वर्तनापोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकालस्स जाव परिवर्तनिर्वर्तनाकालस्य यावत् आना- काल यावत् आनापान पुद्गल-परिवर्त आणापाणुपोग्गलपरियट्टनिव्वतणा- पानपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालस्य च निर्वर्तनाकाल में कौन किनसे अल्प, बहु, कालस्स य कयरे कयरेहितो अप्पा कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः तुल्य अथवा विशेषाधिक है? वा? बहुया वा? तुल्ला वा ? वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? विसेसाहिया वा ? गोयमा! सम्वत्थोवे कम्मगपोग्गल- गौतम! सर्वस्तोकः कर्मकपुद्गलपरि- गौतम ! सबसे अल्प कर्म पुद्गल-परिवर्त्त परियट्टनिब्वत्तणाकाले, तेयापोग्गल- वर्तनिवर्तनाकालः, तैजसपुद्गलपरिवर्त- निर्वर्तनाकाल है, तैजस पुद्गल-परिवर्त्त परियट्टनिवत्तणाकाले अणंतगुणे, निर्वर्तनाकालः अनन्तगुणः, औदारिक- निर्वर्तनाकाल कर्म पुदगल-परिवर्त्त से ओरालियपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले पुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालः अनन्त- अनंतगुण है, औदारिक पुद्गल-परिवर्त अणंतगुणे, आणापाणुपोग्गल- गुणः, आनापानपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तना- निर्वर्तनाकाल तैजस पुद्गल परिवर्त से परियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, मण- कालः अनन्तगुणः, मनःपुद्गल- अनंतगुण है, आनापान पुद्गल-परिवर्त पोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले अणंतगुणे, परिवर्तनिर्वर्तनाकालः अनन्तगुणः, निर्वर्तनाकाल औदारिक पुदगल-परिवर्त से वइपोग्गलपरियट्टनिव्वत्तणाकाले वाकपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालः अनंतगुण है, मनःपुद्गल-परिवर्त निर्वर्तना अणंतगुणे, बेउब्वियपोग्गलपरियट्ट- अनन्तगुणः, वैक्रियपुद्गलपरि- काल आनापान पुद्गल-परिवर्त से अनंतगुण निव्वत्तणाकाले अणंतगुणे ॥ वर्तनिर्वर्तनाकालः अनन्तगुणः। है, वचन पुद्गल-परिवर्त्त निर्वर्तनाकाल मनःपुद्गल-परिवर्त से अनंतगुण है, वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त्त निर्वर्तनाकाल वचन पुद्गलपरिवर्त्त से अनंत गुण है। १००. भंते ! औदारिक पुद्गल परिवर्त्त यावत् आनापान पुद्गल-परिवर्त्त में कौन किनसे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? १००. एएसि णं भंते! ओरालिय- एतेषां भदन्त! औदारिकपुद्गल- पोग्गलपरियट्टाणं जाव आणापाणु- परिवर्तानां यावत् आनापानपुद्गलपोग्गलपरियट्टाण य कयरे कयरेहितो परिवर्तानां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः अप्पा वा ? बहुया या ? तुल्ला वा ? वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विसेसाहिया वा ? विशेषाधिकाः वा? गोयमा ! सव्वत्थोबा वेउन्विय- गौतम! सर्वस्तोकाः वैक्रियपोग्गलपरियट्टा, बइपोग्गलपरियट्टा पुद्गलपरिवर्ताः, वाकपुद्गलपरिवर्ताः अणंतगुणा, मणपोग्गलपरियट्टा अनन्तगुणाः, मनःपुद्गलपरिवर्ताः अणंतगुणा, आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अनन्तगुणाः, आनापानपुद्गलपरिवर्ताः गौतम ! सबसे अल्प वैक्रिय पुद्गल परिवर्त है, वचन पुद्गल-परिवत वैक्रिय पुद्गलपरिवर्त से अनंतगुण है, मन पुद्गल परिवर्त वचन पुद्गल-परिवर्त्त से अनंतगुण है, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ४ : सू. १०० ५२ भगवई अणंतगुणा, ओरालियपोग्गलपरियट्टा अनन्तगुणाः, औदारिकपुद्गलपरिवर्ताः अणतगुणा, तेयापोग्गलपरियट्टा अनन्तगुणाः, तैजसपुद्गलपरिवर्ताः अणंतगुणा, . कम्मगपोग्गलपरियट्टा अनन्तगुणाः, कर्मकपुद्गलपरिवर्ताः अणंतगुणा॥ अनन्तगुणाः । आनापान पुद्गल-परिवर्त मन पुद्गलपरिवर्त्त से अनंतगुण है, औदारिक पुद्गल परिवर्त्त आनापान पुद्गल-परिवर्त से अनंतगुण है, तैजस पुद्गल-परिवर्त औदारिक पुद्गल-परिवर्त से अनंतगुण है और कर्म पुद्गल-परिवर्त्त तैजस पुद्गल परिवर्त से अनंतगुण है। भाष्य १. सूत्र -१०० ४. यद्यपि औदारिक पुदगलों से आनापान के पुद्गल सूक्ष्म प्रस्तुत सूत्र में पुद्गल-परिवर्त के निर्वर्तना-निष्पत्ति काल पर और बहुप्रदेश वाले होते हैं फिर भी उनका ग्रहण केवल पर्याप्तक तुलनात्मक विमर्श किया गया है। अवस्था में होता है। पर्याप्तक अवस्था में भी औदारिक शरीर पुद्गल १. सात पुद्गल-परिवत्तों में कर्म पुद्गल-परिवर्त्त का निर्वर्तना की अपेक्षा उसका ग्रहण अल्प मात्रा में होता है। इस हेतु से काल सबसे कम है। वृत्तिकार के अनुसार इसका हेतु यह है-कर्म के औदारिक पुद्गल-परिवर्त निर्वर्तना-काल से आनापान पुद्गलपुद्गल-स्कंध सूक्ष्म और बहुतम परमाणुओं से निष्पन्न होते हैं परिवर्त निर्वर्तना-काल अनंत गुण अधिक होता है।' इसलिए एक बार में उनका ग्रहण बहु संख्या में होता है। नारक आदि ५. आनापान पुद्गलों से मनःपुद्गल सूक्ष्म और बहुप्रदेश वाले सभी स्थानों में वर्तमान जीव प्रति समय उनका ग्रहण करता है हैं इसलिए उनका अल्प काल में ग्रहण होता है। मन एकेन्द्रिय आदि इसलिए कर्म वर्गणा के समस्त पुद्गलों का ग्रहण स्वल्प काल में हो जीवों के नहीं होता। वह केवल गर्भज पञ्चेन्द्रिय के ही होता है। जाता है। बहकाल साध्य होने के कारण आनापान पुदगल-परिवर्त्त निर्वर्तना २. तैजस वर्गणा के पुद्गल कर्म वर्गणा के पुद्गलों से स्थूल हैं काल से मनः पुद्गल-परिवर्त्त निर्वर्तना-काल अनंत गुण अधिक और वे अल्प-प्रदेशों से निष्पन्न होते हैं। उनका एक बार ग्रहण होता होता है। है और अल्प परमाणु स्कंधों का ग्रहण होता है इसीलिए कर्म पुद्गल. ६. भाषा द्वीन्द्रिय आदि जीव जातियों में भी होती है फिर भी परिवर्त निर्वर्तना-काल से तैजस पुद्गल परिवर्त्त निर्वर्तना काल अनंत ___ मनः पुद्गलों की अपेक्षा भाषा के पुद्गल अति स्थूल होते हैं इसलिए गुण अधिक होता है। उनका ग्रहण एक साथ अल्प मात्रा में होता है इसलिए मनःपुद्गल३. औदारिक वर्गणा के पुद्गल अति स्थूल होते हैं, इसलिए परिवर्त्त निर्वर्तना-काल से भाषा पुदगल-परिवर्त निर्वर्तना-काल एक साथ उनके अल्प अणुओं का ही ग्रहण किया जाता है। अनंत गुण अधिक होता है। औदारिक शरीर वाला प्राणी ही उनका ग्रहण करता है इसलिए ७. वैक्रिय शरीर दीर्घकाल लभ्य है इसलिए भाषा पुद्गल तैजस पुद्गल-परिवर्त्त निर्वर्तना-काल से औदारिक पुद्गल- परिवर्त्त परिवर्त्त निर्वर्तना-काल से वैक्रिय पुद्गल परिवर्त्त निर्वर्तना-काल निर्वर्तना-काल अनंत गुण अधिक होता है। अनंत गुण अधिक होता है।' १. भ. वृ. १२/६८,६६-सर्वस्तोकः कार्मणपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालः ते हि सूक्ष्मा बहुतमपरमाणुनिष्पन्नाश्च भवन्ति, ततस्ते सकृदपि बहवो गृह्यन्ते, सर्वेषु च नारकादिपदेषु वर्तमानस्य जीवस्य तेऽनुसमयं ग्रहणमायान्तीति स्वल्पकालेनापि तत्सकलपुद्गलग्रहणं भवतीति। २. वही, १२/१८,६६-ततस्तैजसपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणो यतः स्थूलत्वेन तैजसपुद्गलानामल्पानामेकदा ग्रहणम्, एकग्रहणे चाल्पप्रदेश निष्पनत्वेन तेषामल्पानामेव तदणूनां ग्रहणं भवत्यतोऽनन्तगुणोऽसाविति। ३. वही, १२/६८,६६-तत औदारिकपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणो, यत औदारिकपुद्गला अतिस्थूराः, स्थूराणां चाल्पानामेवैकदा ग्रहणं भवति अल्पतरप्रदेशाश्च ते ततस्तद्ग्रहणेऽप्येकदाऽल्पा एवाणवो गृह्यन्ते, न च कार्मणतैजसपुद्गलवत्तेषां सर्वपदेषु ग्रहणमस्ति, औदारिकशरीरिणामेव तद्ग्रहणात् अतो बृहतैव कालेन तेषां ग्रहणमिति। ४. वही, १२/१८,६६-यद्यपि हि औदारिकपुद्गलेभ्य आनाप्राणपुद्गलाः सूक्ष्माः बहुप्रदेशिकाश्चेति तेषामल्पकालेन ग्रहणं संभवति, तथाऽप्य- पर्याप्तकावस्थायां तेषामग्रहणात् पर्याप्तकावस्थायामप्यौदारिक-शरीर पुद्गलापेक्षया तेषामल्पीयसामेव ग्रहणान्न शीघ्रं तद्ग्रहणमित्यौदारिकपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालादनन्तगुणताऽऽनाप्राणपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तना कालस्येति। ५. वही, १२/६८,६६-ततो मनःपुद्गलपरिवर्तनिवर्तनाकालोऽनन्तगुणः कथम् ? यद्यप्यानप्राणपुद्गलेभ्यो मनःपुद्गलाः सूक्ष्माः बहुप्रदेशाश्वेत्यल्पकालेन तेषां ग्रहणं भवति तथाऽप्येकेन्द्रियादिकायस्थितियशान्मनसश्चिरेण लाभान्मानसपुद्गलपरिवर्तों बहुकालसाध्य इत्यनन्तः गुणः उक्तः। ६. वही, १२/६८,६६-ततोऽपि वाक्पुद्गलपरिवर्तनिवर्तनाकालोऽनन्तगुणः कथम्? यद्यपि मनसः सकाशाद् भाषा शीघ्रतरं लभ्यते द्वीन्द्रियाद्यवस्थायां च भवति तथाऽपि मनोद्रव्येभ्यो भाषाद्रव्याणामति स्थूलतया स्तोकानामेवैकदा ग्रहणात्ततोऽनन्तगुणो वाक् पुद्गल परिवर्तनिर्वर्तनाकाल इति। ७. वही, १२/६८,६६-ततो वैक्रियपुद्गलपरिवर्तनिवर्तनाकालोऽनन्तगुणो वैक्रियशरीरस्यातिबहुकाललभ्यत्वादिति। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५३ श. १२ : उ. ४ : सू. १०१ सात पुद्गल-परिवत्र्तों के क्रम पूर्वोक्त क्रम से विपरीत हैं। वृत्ति में इसका संक्षिप्त उल्लेख है।' जयाचार्य ने उसका विवरण प्रस्तुत किया है। विशद जानकारी के लिए देखें यंत्र पुद्गल-परिवर्त १ कर्म पुद्गल-परिवर्त २ तैजस पुद्गल-परिवर्त्त ३ औदारिक पुद्गल-परिवर्त आनप्राण पुद्गल-परिवर्त्त ५ मन पुद्गल-परिवर्त ६ वचन पुद्गल परिवर्त ७ वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त निर्वर्तना-काल सबसे थोड़ा अनन्तगुणा अनन्तगुणा अनन्तगुणा अनन्तगुणा अनन्तगुणा अनन्तगुणा पुद्गल-परिवर्त अल्प-बहुत्व वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त सबसे थोड़ा वचन पुद्गल-परिवर्त्त अनंत गुण अधिक मन पुद्गल-परिवर्त्त अनंत गुण अधिक आनप्राण पुद्गल-परिवर्त | अनंत गुण अधिक औदारिक पुद्गल परिवर्त | अनंत गुण अधिक तैजस पुद्गल-परिवर्त अनंत गुण अधिक कर्म पुद्गल-परिवर्त्त अनंत गुण अधिक . १०१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं जाव विहरइ ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति भगवान् यावत् विहरति । १०१. भंते ! वह ऐसा ही है, भंते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार भगवान यावत् विहरण करने लगे। १. वही, १२/१००-सर्वस्तोका वैक्रियपुद्गलपरिवर्त्ता बहुतमकालनिर्वर्तनीयत्वात्तेषां, ततोऽनन्तगुणावाविषया अल्पतरकालनिर्वत्येत्वात्। एवं पूर्वोक्तयुक्त्या बहुबहुतराः क्रमेणान्येऽपि वाच्या इति। २. भ. जो. ४/२५७.६६-७२१. पूर्वे कही प्रतीत, अल्प बहु अद्धा तणु। तेह थी ए विपरीत, अंतिम थकी पिछाणियै। २. जेहनो थोड़े काल, हुवै निवर्तन तेहनां। पोग्गल-परियट्ट न्हाल, घणां हुवै छै ते सही॥ ३. कार्मण पुद्गल सोय, परावर्त निवर्तना। तास काल अवलोय, सर्व थकी थोड़ो कह्यो। ४. इतरे थोड़ो काल, पूरो है छै कार्मण। तो सर्व थकी बहु न्हाल, कम्मा पोग्गल-परियट्टा।। वैक्रिय पुद्गल देख, परिवर्तन नों काल जे। सर्व थकी संपेख, बहु काले करि नीपजै॥ ६. तेहया पुद्गल. ताम, परावर्त वैक्रिय तणां। न्याय विचारो आम, सर्व थकी थोड़ा कह्या॥ ७. जेहनों बहुलो काल, ते पुद्गल थोड़ा कह्या। अल्प अद्धा जसु न्हाल,ते पुर्दगल-परिवर्त बहु॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद वण्णादिं अवण्णादिं च पञ्च दब्ब- वर्णादि अवर्णादिं च प्रतीत्य द्रव्यवीमंसा-पदं विमर्श-पदम् १०२. रायगिहे जाव एवं बयासी अह राजगृहं यावत् एवमवादीत्-अथ भंते ! पाणाइवाए, मुसावाए,अदिण्णा- भदन्त! प्राणिपातः, मृषावादः, दाणे, मेहुणे, परिग्गहे-एस णं अदत्तादानं, मैथुनं, परिग्रह:-एष कतिवण्णे, कतिगंधे, कतिरसे, कतिवर्णः, कतिगन्धः, कतिरसः, कतिफासे पण्णत्ते? कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? वर्णादि और अवर्णादि की अपेक्षा द्रव्यविमर्श पद १०२. राजगृह नाम का नगर यावत् गौतम स्वामी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भंते! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह-ये कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। गौतम ! पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, और चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, गौतम! पञ्चवर्णः, द्विस्पर्शः, पञ्चचउफासे पण्णत्ते ॥ रसः, चतुस्पर्शः प्रज्ञप्तः। १०३. अह भंते ! कोहे, कोवे, रोसे, दोसे, अथ भदन्त! क्रोधः, कोपः, रोषः, १०३. भंते ! क्रोध, कोप, रोष, दोष (द्वेष), अखमा, संजलणे, कलहे, चंडिक्के, दोषः, अक्षमा, संज्वलनम्, कलहः, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चाण्डिक्य, भंडणे, विवादे-एस णं कतिवण्णे जाव __ 'चंडिक्के', भण्डनम्, विवाद:-एष भण्डन और विवाद-ये कितने वर्ण यावत् कतिफासे पण्णते ? कतिवर्णः यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं? गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, गौतम! पञ्चवर्णः, द्विस्पर्शः, पञ्च- गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चउफासे पण्णत्ते॥ रसः, चतुस्पर्शः प्रज्ञप्तः। चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। १०४. अह भंते ! माणे, मदे, दप्पे, थंभे, अथ भदन्त! मानं, मदः, दर्पः, स्तम्भः, १०४. भंते ! मान, मद, दर्प, स्तम्भ, गर्व गब्बे, अत्तुक्कोसे, परपरिवाए, गर्वः, आत्मोत्कर्षः, परपरिवादः, आत्मोत्कर्ष, परपरिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष उक्कोसे, अवक्कोसे, उण्णते, उण्णामे, उत्क्रोषः, अवोत्कर्षः, उन्नतः, उन्नामः, (अवोत्कर्ष), उन्नत, उन्नाम और दुर्नाम-ये दुण्णाम-एस णं कतिवण्णे जाव दुर्नाम:-एषः कतिवर्णः यावत् कति- कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त कतिफासे पण्णत्ते ? स्पर्शः प्रज्ञप्तः? गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, गौतम! पञ्चवर्णः, द्विस्पर्शः, पञ्चरसः, गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चउफासे पण्णत्ते॥ चतुस्पर्शः प्रज्ञप्तः। चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। १०५. अह भंते ! माया, उवही, नियडी, अथ भदन्त! माया, उपधिः, निकृतिः, १०५. भंते ! माया, उपधि, निकृति, वलय, वलए, गहणे, णूमे, कक्के, कुरुए, वलयः, गहनम् ‘णूमे', कल्कः, 'कुरुए' गहन, णूम, कल्क, कुरुए, जैम्ह, जिम्हे, किब्बिसे, आयरणया, गृहणया, जैम्हः, किल्विषः, आचरणं, गूहनं, । किल्विषक, आचरण, गूहन, वंचन, वंचणया, पलिउंचणया, सातिजोगे- वञ्चनं, परिकुञ्चनं, साचियोगः- एषः । परिकुंचन और साचियोग-ये कितने वर्ण एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे कतिवर्णः यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं? पण्णत्ते? गोयमा! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, गौतम! पञ्चवर्णः, द्विगन्धः, पञ्चरसः, गौतम ! ये पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस चउफासे पण्णत्ते॥ चतुस्पर्शः प्रज्ञप्तः। और चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ.५: सू. १०२-१०७ १०६. अह भंते ! लोभे, इच्छा, मुच्छा, अथ भदन्त! लोभः, इच्छा, मूर्छा, १०६. भंते ! लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, कंखा, गेही, तण्हा, भिज्झा, कांक्षा, गृद्धिः, तृष्णा, भिध्या, तृष्णा, भिध्या, अभिध्या, आशीष, अभिज्झा, आसासणया, पत्थणया, अभिध्या, आशंसनं, प्रार्थना, लालपनं, प्रार्थना, लालपनता, कामाशा, भोगाशा, लालप्पणया, कामासा, भोगासा, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, जीविताशा, मरणाशा, नंदी और राग-ये जीवियासा, मरणासा, नंदिरागे-एस णं मरणाशा नन्दी-रागः-एषः कतिवर्णः कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, गौतम! पञ्चवर्णः, द्विगन्धः, पञ्चरसः, गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चउफासे पण्णत्ते॥ चतुस्पर्शः प्रज्ञप्तः । चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। १०७. अह भंते ! पेज्जे, दोसे, कलहे, अथ भदन्त! प्रेयः, दोषः, कलहः, १०७. भंते ! प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, अब्भक्खाणे, पेसुन्ने, परपरिवाए, अभ्याख्यानम्, पैशुन्यम्. परपरिवादः, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति, मायामृषा अरतिरती, मायामोसे, मिच्छादसण- अरतिरतिः, मायामृषा, मिथ्यादर्शन- और मिथ्यादर्शन शल्य-ये कितने वर्ण सल्ले-एस णं कतिवण्णे जाव। शल्यः-एषः कतिवर्णः यावत् कति- यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं? कतिफासे पण्णते ? स्पर्शः प्रज्ञप्तः? गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, गौतम! पञ्चवर्णः, द्विगन्धः, पञ्चरसः, गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चउफासे पण्णत्ते॥ चतुस्पर्शः प्रज्ञप्तः। चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। भाष्य १. सूत्र १०२-१०७ के द्वारा प्रकाशित करना। जीव और पुद्गल एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जीव के अक्षमा-दूसरे के अपराध को सहन न करना। प्रभाव से पुद्गल में परिवर्तन होता है और पुद्गल के प्रभाव से जीव में संज्वलन-क्रोधाग्नि से प्रज्वलित होना। परिवर्तन होता है। प्रस्तुत प्रकरण में पुदगल से प्रभावित जीव की कलह-जोर से या अभद्र शब्दों में आपस में बोलना। अवस्थाओं के विषय में एक संवाद प्रस्तुत है। चाण्डिक्य-आकृति को रौद्र बनाना। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के गुण हैं। प्राणातिपात भण्डन-दंड आदि के द्वारा युद्ध करना। तत्त्वार्थभाष्यानुआदि जीव की अवस्थाएं हैं। यहां उपचार वश प्राणातिपात आदि से सारिणी में इसका अर्थ कलह किया गया है।' जनित कर्म अथवा प्राणातिपात की वृत्ति का जनक कर्म के विषय में विवाद-विरोधी स्वीकृति से व्यवहृत होने वाला वचन। वर्ण आदि की जिज्ञासा की गई है। इसके उत्तर भी कर्म पुद्गल के क्रोध एक सामान्य प्रज्वलनात्मक भाव है। कोप और रोष आधार पर दिए गए हैं। कर्म के पुदगलों में पांच वर्ण, दो गंध, पांच इसकी विशेष अवस्थाएं हैं। दोष आदि क्रोध के कार्य हैं।' रस और चार स्पर्श होते हैं। मान-आत्म-पूजा की आकांक्षा से उत्पन्न अहंकार।' शब्द-विमर्श मद-हर्ष, मादक वस्तु के सेवन से होने वाली मदावस्था की क्रोध-प्रज्वलनात्मक भाव। भांति, जिस अवस्था में अस्पष्ट बोलने की स्थिति बन जाती है, कोप-क्रोध के उदय से होने वाला स्वभाव का विचलन। उसका नाम मद है। रोष-क्रोध की संतति। दर्प-बल से उत्पन्न अहंकार। दोष-अप्रीति, अपने को या दूसरे को दूषित करना। स्तम्भ-नम्रता का अभाव, न झुकने की मनोवृत्ति।' तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी में इसका अर्थ है-द्वेष के परिणाम को वचन गर्व-शौण्डीर्य, जाति आदि का अहंकार। १. भ. वृ. १२/१०२-प्राणातिपातजनितं तज्जनकं वा चारित्रमोहनीयं क्रोधकार्य, द्वेषो वाऽप्रीतिमात्रम् अक्षमा- परकृतापराधरयासहनम्, कर्मोपचारात् प्राणातिपात एव, एवमुत्तरत्रापि। संज्वलनो-मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलनं, कलहो-महता शब्देनान्यो२. वही, १२/१०२-चउफासेत्ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णाख्याश्चत्वारः स्पर्शाः ऽन्यमसमञ्जसभाषणं एतच क्रोधकार्य, चाण्डिक्यं-रौद्राकारकरणं, सूक्ष्मपरिणामपरिणतपुद्गलानां भवंति, सूक्ष्मपरिणामं च कर्मेति। एतदपि क्रोधकार्यमेव, भण्डनं दण्डादिभियुद्धं, एतदपि क्रोधकार्यमेव, ३. त. सू. भा. वृ. ८/१०-द्वेषणं द्वेषः तत्परिणामस्य वचनद्वारेण प्रकाशनात् विवादो विप्रतिपत्तिसमुत्थवचनानि, इदमपि तत्कार्यमेवेति। क्रोधैकार्थाः निर्देशनात्। वैते शब्दाः । ४. वही,-भण्डनं कलहः। ६. त. सू. भा. वृ. ८/१० की टीका-सर्वदात्मपूजाऽऽकाक्षित्यात् मानः । ५. भ. पृ. १२/१०३-कोहेत्ति क्रोधपरिणामजनकं कर्म, तत्र क्रोध इति ७. वही,-दर्पो बलकृतः। सामान्यं नाम, कोपादयस्तु तद्विशेषाः। तत्र कोपः क्रोधोदयात् स्वभावात् ८. वही टीका-स्तंभनात् स्तंभः अवनतेरभावात्। चलनमात्रे, रोषः-क्रोधस्यैवानुबंधो, दोषः आत्मनःपरस्य वा दूषणं एतच ६. वही टीका-गर्यो जात्यादिः । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२:उ.५: सू. १०७ भगवई आत्मोत्कर्ष-दूसरों से अपने को बड़ा मानना। परपरिवाद-अहंकार की वह मनोदशा, जिसके वशीभूत मनुष्य दूसरों की हीनता प्रदर्शित करता है। उत्कर्ष-उत्कृष्टता की भावना।' अपोत्कर्ष, अपकर्ष-अहंकारवश दूसरे की हीनता का प्रदर्शन। उन्नत-उन्नति, न झुकना, अड़कन। वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ उन्नय किया है-मानवश नय और नीति का अतिक्रमण। उन्नाम-अहंकारवश नत न होना। दुर्नाम-दोषपूर्ण नमन। वृत्तिकार के अनुसार स्तंभ आदि मान के कार्य अथवा पर्यायवाची नाम हैं। मान उत्कर्ष का भाव है। मद और दर्प इसकी विशेष अवस्थाएं हैं। स्तंभ आदि मान के कार्य हैं। माया-छिपाने की मनोवृत्ति। उपधि आदि उसके भेद हैं। उपधि-ठगने के लिए वंचनीय पुरुष के पास जाने की चेष्टा', प्रछन्न व्यवहार। निकृति-आदर प्रदर्शित कर दूसरे को ठगना, पूर्व कृत माया को ढांकने के लिए दूसरा मायाजाल रचना। भाष्यानुसारिणी में इसका अर्थ दूसरे को तिरस्कृत करने के लिए मायाजाल रचना किया है। वलय-प्रवंचना के भाव से वलय की तरह वक्र वचन बोलना अथवा चेष्टा करना। ग्रहण-दूसरे को व्यामूद बनाने के लिए प्रयुक्त वचन-जाल। णूम-दूसरे को ठगने के लिए निम्नता का आश्रय लेना। कल्क-हिंसा आदि के लिए दूसरे को ठगने का अभिप्राय। कुरुक-दूसरों को विमुग्ध बनाने के लिए किया जाने वाला वेश १. सूय. १/२/५१ का टिप्पण। २. भ. पृ. १२/१०४.-'माणेत्ति' मानपरिणामजनकं कर्म, तत्र मान इति सामान्य नाम, मदादयस्तु तद्विशेषाः। तत्र मदो हर्षमात्रं, दो दृप्तता, स्तंभः-अनम्रता, गर्व-शौण्डीर्य, अत्तुक्कोसे त्ति आत्मनः परेभ्यः सकाशाद् गुणैरुत्कर्षणम्-उत्कृष्टताऽभिधानं, परपरिवादः--परेषामपवदनं परिपातो वा गुणेभ्यः परिपातनमिति, उक्कोसे ति उत्कर्षणं आत्मनः परस्य वा मनाक् क्रिययोत्कृष्टताकरणं उत्काशनं वा-प्रकाशनमभिमानात् स्वकीयसमृद्ध्यादेः, अवक्काशे ति अपकर्षणमवकर्षणं वा अभिमानादात्मनः परस्य वा क्रियारंभात् कुतोऽपि व्यावर्त्तनमिति अप्रकाशो वाऽभिमानादेवेति, उण्णए ति उच्छिन्नं नतं- पूर्वप्रवृत्तं नमनमभिमानादुन्नतम्, उच्छिन्नो वा नमोनीतिरभिमानादेवोन्नयो नयाभाव इत्यर्थः 'उण्णामे' ति प्रणतस्य मदानुप्रवेशादुन्नमनं, 'दुन्नामे' ति मदादुष्टं नमनं दुर्नाम इति, इह च स्तम्भादीनि मानकार्याणि मानवाचका वैते ध्वनय इति। ३. त. सू. भा. वृ. ८/१० की टीका-बाह्यचेष्टयोपधीयते बाह्यत इत्यु पधिरन्यथापरिणामश्चित्तस्य। ४. भ. वृ. १२/१०५-'माय' ति सामान्य उपध्यादयस्तभेदाः। तत्र 'उवहि' त्ति उपधीयते येनासावुपधिः-वञ्चनीयसमीपगमनहेतुर्भावः, "नियडि ति नितरां करणं निकृतिः-आदरकरणेन परवञ्चनं पूर्वकृतमायाप्रच्छादनार्थ परिवर्तन, बहुरूपिया का कार्य। जिम्ह-दूसरों को ठगने के लिए किया जाने वाला मंदता अथवा निष्क्रियता का प्रदर्शन। किल्विष-ज्ञान और ज्ञानी के विषय में किया जाने वाला माया-जाल। आचरण-हिंसा करने के लिए किया जाने वाला अहिंसा का आचरण। उदाहरण स्वरूप पश्य लक्ष्मण ! पंपायां, बकः परमधार्मिकः। दृष्ट्वा दृष्ट्वा पदं धत्ते, जीवानां वधशंकया। गृहन-अपने स्वरूप को छिपाने की वृत्ति। वंचन-दूसरे को ठगना। प्रतिकुंचन-वचन की वक्रता। सातिओग–अविश्वास का संबंध, मूल्यवान द्रव्य के साथ कम मूल्य वाली वस्तु का किया जाने वाला मिश्रण, प्रतिरूपकरण की क्रिया। लोभ-रागात्मक प्रवृत्ति। इच्छा आदि उसके भेद हैं। इच्छा-अभिलाषा, तीन लोक को पाने की अभिलाषा।' मूर्छा-पदार्थ के संरक्षण में होने वाला अनुबंध, प्रकृष्ट मोह वृत्ति। कांक्षा-अप्राप्त पदार्थ की आशंसा। जो नहीं है, भविष्य में उसे पाने की इच्छा। गृद्धि प्राप्त पदार्थ में होने वाली आसक्ति, प्राप्त इष्ट वस्तुओं में अभिरक्षण की प्रवृत्ति। तृष्णा-प्राप्त पदार्थ का व्यय न हो, इस प्रकार की इच्छा। भिध्या-विषयों के प्रति होने वाली सघन एकाग्रता। अभिध्या-विषयों के प्रति होने वाली विरल एकाग्रता। या मायान्तरकरणं, 'वलए' ति येन भावेन वलयमिव वक्रं वचनं चेष्टा वा प्रवर्तते स भावो वलयं, 'गहणे' ति परव्यामोहनाय यवचनजालं तद्गहनमिव गहनं, णूमे त्ति परवञ्चनाय निम्नताया निम्नस्थानस्य वाऽश्रयणं तन्नूमं ति कक्केत्ति कल्कं हिंसादिरूपं पापं तन्निमित्तो यो वञ्चनाभिप्रायः स कल्कमवोच्यते 'कुरूए' ति कुत्सिते यथा भवत्येवं रूपयति-विमोहयत्ति यत्तत् कुरुपं भाण्डादि कर्म माया विशेष एव 'जिम्हेत्ति' येन परवञ्चनाभिप्रायेण जैह्मयं-क्रियासु मान्द्यमालंबते स भायो जेझयम वेति 'किब्बिसे' ति यतो मायाविशेषाज्जन्मान्तरेऽवैव का भवे किल्विषः-किल्विषिको भवति स किल्विष एवेति, आयरणयत्ति यतो मायाविशेषादादरण-अभ्युपगम कस्याऽपि वस्तुनः करोत्यसावादरणं, प्रत्ययस्य च स्वार्थिकत्वाद् आयरणया, आचरणं वा परप्रतारणाय विविधक्रियाणामाचरणं, गूढनया गूहनं गोपायनस्वरूपस्य, वंचणया-वंचनं परस्य प्रतारणं, पलिउंचणया प्रतिकुञ्चनं सरलतया प्रवृत्तस्य वञ्चनस्य खण्डनं, साइजोगेत्ति अविसम्भः संबंधः सातिशयेन वा द्रव्येण निरति शयस्य योगास्तत्प्रतिरूपकरणमित्यर्थः, मायैकार्थाः वैते ध्वनय इति। ५. त. सू. भा. वृ. ८/१० की टीका-इच्छाभिलाषरत्रैलोक्यविषयः। ६. वही, .......मूळ प्रकर्षप्राप्ता मोहवृद्धिः। ७. वही,.......भविष्यत्कालोपादानविषयाकांक्षा। ना Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५७ श. १२ : उ. ५ : सू. १०८-१११ भिध्या में होने वाली एकाग्रता में दृढ़ अभिनिवेश होता है इसलिए वह ध्यान की कोटि में चली जाती है। अभिध्या में होने वाली एकाग्रता में अभिनिवेश मंद रहता है इसलिए वह चित्त लक्षण वाली आशीष-वस्तु-प्राप्ति के लिए दिया जाने वाला आशीर्वाद। प्रार्थना-दूसरे से इष्ट वस्तु की याचना करना। लालपनता-प्रार्थना को बार-बार दोहराना। कामाशा-शब्द, रूप आदि को पाने की इच्छा। भोगाशा-गंध आदि को पाने की इच्छा। जीविताशा-जीवित रहने की इच्छा। मरणाशा-मरने की इच्छा। नंदि-समृद्धि में होने वाला हर्ष।' राग-रञ्जनात्मक मनोवृत्ति। प्रस्तुत प्रकरण में क्रोध, मान, माया और लोभ के पर्यायवाची नाम निर्दिष्ट हैं। क्रोध के दस, मान के बारह, माया के पंद्रह और लोभ के सतरह-इनकी समन्वित संख्या चौपन है। कोश की दृष्टि से ये क्रोध आदि के एकार्थक नाम हैं। समभिरूढ़ नय की दृष्टि से विचारणा करने पर प्रत्येक शब्द का अपना स्वतंत्र अर्थ है। अभयदेवसूरि ने भगवती की वृत्ति में नंदि-राग को एक शब्द मानकर उसकी व्याख्या की है। समवायांग के आधार पर ये दोनों पृथक् होने चाहिए। एक मानने पर चौपन की संख्या की संगति नहीं बैठती। तुलना के लिए द्रष्टव्य समवाओ ५२/१। प्रश्न व्याकरण में असत्य वचन के तीस नाम बतलाए गए हैं। उस प्रकरण में माया के निम्न निर्दिष्ट शब्दों का उल्लेख है-कक्कणा, वञ्चना, साती, किल्विष, वलय, गहन और णूम। सूत्रकृतांग में प्रकीर्ण रूप में अनेक शब्द उपलब्ध हैं। १०८. अह भंते ! पाणाइवायवेरमणे, जाव अथ भदन्त! प्राणातिपातविरमणं परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव यावत् परिग्रहविरमणम्, क्रोधविवेकः मिच्छादसणसल्लविवेगे- एस णं यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेकः-एषः कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? कतिवर्णः यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, गौतम! अवर्णः, अगन्धः, अरसः अफासे पण्णत्ते॥ अस्पर्शः प्रज्ञप्तः । १०८. भंते ! प्राणातिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण, क्रोध-विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक-ये कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं? गौतम! ये वर्ण-रहित, गंध-रहित, रसरहित और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं। १०६. अह भंते ! उप्पत्तिया, वेणइया, कम्मया, पारिणामिया-एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता ? गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पण्णत्ता॥ अथ भदन्त! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा, पारिणामिकी-एषा कतिवर्णा, यावत् कतिस्पर्शा प्रज्ञप्ता? गौतम! अवर्णा, अगन्धा, अरसा, अस्पर्शा प्रज्ञप्ता। १०६. भंते ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी-ये कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाली प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! ये वर्ण-रहित, गंध-रहित, रसरहित और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं। ११०. अह भंते! ओग्गहे, ईहा, अवाए,धारणा-एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णता? गोयमा ! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पण्णत्ता ॥ अथ भदन्त! अवग्रहः, ईहा, अवायः, धारणा-एषा कतिवर्णा यावत् कतिस्पर्शा प्रज्ञप्ता? गौतम! अवर्णा, अगन्धा, अरसा, अस्पर्शा प्रज्ञप्ता। ११०. भंते ! अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये कितने वर्ण यावत कितने स्पर्श वाली प्रज्ञाप्त हैं? गौतम ! ये वर्ण-रहित, गंध-रहित, रसरहित और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं। १११. अह भंते ! उठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कार-परक्कमे-एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? अथ भदन्त! उत्थानं, कर्म, बलः, वीर्यः, पुरुषकार-पराक्रमः-एषः कतिवर्णः यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? १११. भंते ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम-ये कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं ? १. भ. वृ. १२/१०६-'लोभे ति सामान्य इच्छादयस्तविशेषाः तत्रेच्छा अभिलाषमात्र.......मूर्छा-संरक्षणानुबंधः कांक्षा-अप्राप्ताशिंसा, 'हि' त्ति गृति-प्राप्तार्थेष्वासक्तिः, 'तण्हं ति तृष्णा प्राप्तानामव्ययेच्छा, 'भिज्ज' ति अभिव्याप्त्या विषयाणां ध्यानं तदेकाग्रत्वमभिध्या विधानादिवदकारलोपाद्भिध्या, 'अभिज्झ' त्ति न भिध्या अभिध्या, भिध्यासदृशं भवान्तरं, तत्र दृढाभिनिवेशो भिध्या ध्यानलक्षणत्वात्तस्याः अदृढाभिनिवेशस्त्यभिध्या चित्तलक्षणत्यात्तस्याः, ध्यानचित्तयोस्त्वयं विशेषः-जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं ति, आसासणय त्ति आशंसनं-मम पुत्रस्य-शिष्यस्य वा इदमिदं च भूयादित्यादिरूपा आशीः 'पत्थणय' ति प्रार्थन-परं प्रतीष्टार्थयाञ्चा, लालप्पणय ति प्रार्थनमेव भृशं लपनतः, कामास त्ति शब्दरूपप्राप्तिसंभावना, भोगासत्ति गंधादिप्राप्तिसंभावना, जीवितासत्ति जीवितव्यप्राप्तिसंभावना मरणासत्ति कस्याञ्चिदवस्थायां मरणप्राप्तिसंभावना, इदं च क्वचिन्न दृश्यते, नंदि रागे त्ति समृद्धौ सत्यां रागो हषों-नंदिरागः। २. पण्हा. २/२ ३. सूयगडो १/१६/३-५, १/८/११॥ , Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ५ : सू. ११२-११३ ५८ भगवई गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, गौतम! अवर्णः, अगन्धः अरसः गौतम ! ये वर्ण-रहित, गंध-रहित, रसअफासे पण्णत्ते॥ अस्पर्शः प्रज्ञप्तः। रहित और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त है। भाष्य १. सूत्र १०८-१११ हेतु भी क्षयोपशम है। विरमण, विवेक, बुद्धि चतुष्टय और अवग्रह चतुष्क-ये सब फिर उत्पत्ति मात्र को ही हेतु कैसे माना जाए? इसके चेतना की अवस्थाएं हैं। इसी प्रकार उत्थान आदि भी आत्मिक हैं।' समाधान में उन्होंने लिखा-ज्ञानावरण का क्षयोपशम आंतरिक है। इसलिए ये वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से रहित हैं। वह बुद्धि के सभी प्रकारों के लिए समान है इसलिए यहां उसकी बुद्धि-चतुष्टय के लिए द्रष्टव्य नंदी सूत्र ३८ का टिप्पण। विवक्षा नहीं है। इस बुद्धि का कार्य किसी शास्त्र और कर्म के अवग्रह-चतुष्क के लिए द्रष्टव्य-नंदी ३६/५० का टिप्पण। अभ्यास से निरपेक्ष है इसलिए इसका हेतु उत्पत्ति ही बतलाया गया उत्थान-आदि के लिए द्रष्टव्य भगवई १/१४०-१४६ का है। भाष्य। पारिणामिकी बुद्धि का आधार है परिणाम। सुदीर्घ काल तक ___अभयदेवसूरि के अनुसार जिस बुद्धि में उत्पत्ति ही प्रयोजन पूर्वापर घटनाओं का अवलोकन करने से उत्पन्न होने वाला आत्मधर्म होता है, वह औत्पत्तिकी है। एक वितर्क उपस्थित हआ-इस बुद्धि का परिणाम कहलाता है। परिणाम से उत्पन्न बुद्धि है पारिणामिकी। ११२. सत्तमे णं भंते ! ओवासंतरे सप्तमः भदन्त! अवकाशान्तरः कतिवर्णः ११२. भंते ! सातवां अवकाशान्तर कितने वर्ण कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? यावत् कितने स्पर्श वाला प्रज्ञप्त है? गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, गौतम! अवर्णः अगन्धः अरसः अस्पर्शः गौतम ! वर्ण-रहित, गंध-रहित, रस-रहित अफासे पण्णत्ते॥ प्रज्ञप्तः । और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त है। ११३. सत्तमे णं भंते ! तणुवाए कतिवण्णे सप्तमः भदन्त! तनुवातः कतिवर्णः ११३. भंते ! सातवां तनुवात कितने वर्ण, यावत् जाव कतिफासे पण्णत्ते ? यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? कितने स्पर्श वाला प्रज्ञप्त है। गोयमा! पंचवण्णे दुगंधे पंचरसे गौतम! पञ्चवर्णः द्विगन्धः पञ्चरसः, गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और अट्ठफासे पण्णत्ते॥ अष्टस्पर्शः प्रज्ञप्तः। आठ स्पर्श वाला प्रज्ञप्त है। एवं जहा सत्तमे तणुवाए तहा सत्तमे एवं यथा सप्तमः तनुवातः तथा सप्तमः इसी प्रकार जैसे सातवें तनुवात की घणवाए, घणोदधी, पुढवी। छठे घनवातः, घनोदधिः, पृथिवी। षष्ठः वक्तव्यता, वैसे ही सातवें घनवात, घनोदधि ओवासंतरे अवण्णे। तणुवाए जाव छट्ठी अवकाशान्तरः अवर्णः। तनुवातः यावत् और पृथ्वी की वक्तव्यता। छठा पुढवी-एयाइं अट्ठफासाई। एवं जहा ____षष्ठीपृथिवी-एतानि अष्टस्पर्शानि। एवं अवकाशान्तर वर्ण-रहित है। तनुवात सत्तमाए पुढवीए वत्तव्यया भणिया तहा ___ यथा सप्तम्याः पृथिव्याः, वक्तव्यता यावत् छठी पृथ्वी-इनमें आठ स्पर्श हैं। इसी जाब पढमाए पुढवीए भाणियब्वं । भणिता तथा यावत् प्रथमायाः पृथिव्याः प्रकार जैसे सातवीं पृथ्वी की वक्तव्यता, वैसे जंबुद्दीवे दीवे जाव सयंभूरमणे समुद्दे, । भणितव्यम्। जम्बूद्वीपः द्वीपः यावत् ही यावत् प्रथम पृथ्वी की वक्तव्यता। साहम्मे कप्पे जाव इंसिपब्भारा पुढवी, स्वयम्भूरमणः समुद्रः, सौधर्मः कल्पः जम्बूद्वीप द्वीप यावत् स्वयंभूरमण समुद्र, नेरइयावासा जाव वेमाणियावासा- यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथिवी, नैरयिका- सौधर्मकल्प यावत् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी, एयाणि सव्वाणि अट्ठफासाणि॥ वासाः यावत् वैमानिकावासाः-एतानि नैरयिकावास यावत् वैमानिकावास-ये सभी सर्वाणि अष्टस्पर्शानि । आठ स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। भाष्य १. सूत्र ११२-११३ युक्त हैं। उनकी परिणति स्थूल ह इसलिए वे अष्टस्पर्शी हैं।" ____ अवकाशान्तर आकाश का एक विभाग है इसलिए वह वर्ण द्रष्टव्य भगवई १/२५६-२५७ का भाष्य तथा भगवई आदि से रहित है। तनुवात आदि पौद्गलिक हैं इसलिए वर्ण आदि से १/२८२-३०७ का भाष्य। १. भ. वृ.१२/१०८-वधादिविरमणानि जीवोपयोगस्वरूपाणि जीवोपयोगश्चा- ३. वही, १२/१०६-पारिणामिय ति परि:-समन्तानमनं परिणामः-सुदीर्घ मूर्तोऽमूर्त्तत्वाच तस्य वधादिविरमणानाममूर्तत्वं तस्माचा-वर्णादित्यमिति। कालपूर्वापरावलोकनादिजन्यआत्मधर्मः स कारणं यस्याः सा २. वहीं, १२/१०१-उप्पत्तिय त्ति उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, पारिणामिकी बुद्धिरिति वाक्यशेषः। ननु क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः? सत्यं, स खल्वंतरंगत्यात् सर्वबुद्धि- ४. भ. पृ. १२/११२-११३-तनुवातादीनां च पञ्चवर्णादित्वं पौद्गलिकत्वेन साधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति। मूर्त्तत्वात् अष्टस्पर्शत्वं च बादरपरिणामत्वात्। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५६ श. १२ : उ. ५ : सू. ११४-११६ ११४. नेरइयाणं भंते ! कतिवण्णा जाव नैरयिकाणाम् भदन्त! कतिवर्णाः यावत् ११४. भंते ! नैरयिकों के कितने वर्ण यावत् कतिफासा पण्णत्ता? कतिस्पर्शाः प्रज्ञप्ताः? कितने स्पर्श प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! वेउब्विय-तेयाइं पडुच्च गौतम! वैक्रिय-तैजसानि प्रतीत्य गौतम ! वैक्रिय और तैजस शरीर की पंचवण्णा, दुगंधा, पंचरसा, अट्ठफासा पञ्चवर्णाः, द्विगन्धः, पञ्चरसाः, अपेक्षा पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और पण्णत्ता। कम्मगं पडुच्च पंचवण्णा, अष्टस्पर्शाः प्रज्ञप्ताः। कर्मकं प्रतीत्य आठ स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। कर्म शरीर की दुगंधा, पंचरसा, चउफासा पण्णत्ता। पञ्चवर्णाः, द्विगन्धाः, पञ्चरसाः, अपेक्षा पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और जीवं पडुच्च अवण्णा जाव अफासा चतुस्पर्शाः प्रज्ञप्ताः । जीवं प्रतीत्य चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। जीव की अपेक्षा पण्णत्ता। एवं जाव थणियकुमारा॥ अवर्णाः यावत् अस्पर्शाः प्रज्ञप्ताः एवं वर्ण-रहित यावत् स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं। यावत् स्तनितकुमाराः। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों की वक्तव्यता। ११५. पुढविक्काइयाण-पुच्छा। पृथिवीकायिकानां-पृच्छा। गोयमा! ओरालिय-तेयगाई पडुच गौतम! औदारिक-तैजसानि प्रतीत्य पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता। पञ्चवर्णाः यावत् अष्टस्पर्शाः प्रज्ञप्ताः। कम्मगं पडुच्च जहा नेरइयाणं। जीवं कर्मकं प्रतीत्य यथा नैरयिकाणाम्। जीवं पडुच्च तहेव। एवं जाव चरिंदिया, प्रतीत्य तथैव। एवं यावत् चतुरिन्द्रियाः, नवरं-बाउक्काइया ओरालिय-वेउब्बिय- नवरम्-वायुकायिकाः औदारिकतेयगाई पडुच पंचवण्णा जाव अट्ठफासा वैक्रिय-तैजसानि प्रतीत्य पञ्चवर्णाः पण्णत्ता, सेसं जहा नेरइयाणं। यावत् अष्टस्पर्शाः प्रज्ञप्ताः, शेषं यथा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नैरयिकाणाम्। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः वाउक्काइया॥ यथा वायुकायिकाः। ११५. पृथ्वीकायिकों की पृच्छा । गौतम ! औदारिक और तैजस शरीर की अपेक्षा पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। कर्म शरीर की अपेक्षा नैरयिकों की भांति वक्तव्यता। जीव की अपेक्षा नैरयिकों की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता, इतना विशेष है-वायुकायिक औदारिक, वैक्रिय और तैजस शरीर की अपेक्षा पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं, शेष नैरयिकों की भांति वक्तव्य हैं। पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक वायुकायिक की भांति वक्तव्य हैं। ११६. मणुस्साणं-पुच्छा। मनुष्याणाम्-पृच्छा। ओरालिय - बेउब्बिय-आहारग-तेयगाई औदारिक-वैक्रिय-आहारक-तैजसानि पडुच्च पंचवण्णा जाव अट्ठफासा प्रतीत्य पञ्चवर्णाः यावत् अष्टस्पर्शाः पण्णत्ता। कम्मगं जीवं च पडुच्च जहा प्रज्ञप्ताः। कर्मकं जीवं च प्रतीत्य यथा नेरइयाणं। वाणमंतर-जोइसिय- नैरयिकाणाम्। वानमन्तर-ज्योतिष्कवेमाणिया जहा नेरइया। वैमानिकाः यथा नैरयिकाः। ११६. मनुष्यों की पृच्छा। वे औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस शरीर की अपेक्षा पांच वर्ण, यावत् आठ स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। कर्म शरीर और जीव की अपेक्षा वे नैरयिकों की भांति वक्तव्य हैं। वाणमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव नैरयिकों की भांति वक्तव्य हैं। धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय-ये सभी वर्ण-रहित हैं, इतना विशेष हैपुद्गलास्तिकाय पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श वाला प्रज्ञप्त है। ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय-ये चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए- धर्मास्तिकायः यावत् पौद्गलास्तिएए सब्वे अवण्णा, नवरं-पोग्ग- कायः-एते सर्वे अवर्णाः, नवरम्लत्थिकाए पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, पौद्गलास्तिकायः पञ्चवर्णः, द्विगन्धः, अट्ठफासे पण्णत्ते। पञ्चरसः, अष्टस्पर्शः प्रज्ञप्तः। नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए- ज्ञानावरणीयः यावत् आन्तरायिक:एयाणि चउफासाणि॥ एतानि चतुस्पर्शानि। भाष्य १. सूत्र ११४-११६ वैक्रिय और तैजस शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न हैं इसलिए वे अष्टस्पर्शी हैं। कर्म शरीर सूक्ष्म-पुदगलों से निष्पन्न है इसलिए वह चतुस्पर्शी है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ५ : सू. ११७-११८ ६० भगवई ११७. कण्हलेसा णं भंते ! कतिवण्णा कृष्णलेश्या भदन्त! कतिवर्णा यावत् ११७. भंते ! कृष्ण लेश्या कितने वर्ण यावत् जाव कतिफासा पण्णत्ता? कतिस्पर्शा प्रज्ञप्ता? कितने स्पर्श वाली प्रज्ञाप्त है। दब्बलेसं पडुच पंचवण्णा जाब द्रव्यलेश्यां प्रतीत्य पञ्चवर्णा यावत् द्रव्य लेश्या की अपेक्षा पांच वर्ण यावत् अट्ठफासा पण्णत्ता। भावलेसं पडुच अष्टस्पर्शा प्रज्ञप्ता । भावलेश्यां प्रतीत्य आठ स्पर्श वाली प्रज्ञप्त है। भाव लेश्या की अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा अवर्णा, अगन्धा, अरसा, अस्पर्शा अपेक्षा वर्ण-रहित, गन्ध-रहित, रस रहित पण्णत्ता। एवं जाव सुक्कलेस्सा। प्रज्ञप्ता। एवं यावत् शुक्ललेश्या। और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार यावत् शुक्ल लेश्या की वक्तव्यता। सम्मदिठी, मिच्छदिट्ठी, सम्मामिच्छ- सम्यग्दृष्टिः, मिथ्यादृष्टिः, सम्यग्- सम्यक्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सम्यमिथ्यादिट्ठी, चक्खुदंसणे, अचक्खुदंसणे, मिथ्यादृष्टिः, चक्षुर्दर्शनम्, अचक्षु- दृष्टि, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधि ओहिंदसणे. केवलदसणे. आभि- दर्शनम. अवधिदर्शनम, केवलदर्शनम, दर्शन, केवलदर्शन, आभिनिबोधिक ज्ञान णिबोहियनाणे जाव विभंगनाणे, आभिनिबोधिकज्ञानम् यावत् विभंग- यावत् विभंगज्ञान, आहार संज्ञा यावत् आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्णा- ज्ञानम, आहारसंज्ञा यावत् परिग्रह- परिग्रह संज्ञा-ये सभी वर्ण-रहित, गन्धएयाणि अवण्णाणि, अगंधाणि, संज्ञा-एतानि अवर्णानि, अगन्धानि, रहित, रस-रहित और स्पर्श-रहित हैं। अरसाणि, अफासाणि। अरसानि, अस्पर्शानि। ओरालियसरीरे जाव तेयगसरीरे- औदारिकशरीरम् यावत् तैजसशरीरम्- औदारिक शरीर यावत् तैजस शरीर-ये एयाणि अट्ठफासाणि। कम्मगसरीरे एतानि अष्टस्पर्शानि। कर्मकशरीरम् आठ स्पर्श वाले हैं। कर्मशरीर चार स्पर्श चउफासे। मणजोगे, वइजोगे य चतुस्पर्शम्। मनोयोगः, वाक्योगः च वाला है। मन योग और वचन योग चार चउफासे। कायजोगे अट्टफासे। चतुस्पर्शः, काययोगः अष्टस्पर्शः। स्पर्श वाले हैं। काय योग आठ स्पर्श वाला सागारोवओगे अणागारोवओगे य अवणे साकारोपयोगः अनाकारोपयोगः च अवर्णः। साकारोपयोग और अनाकारोपयोग वर्ण रहित हैं। भाष्य १. सूत्र ११७ भिन्न है। सक्षम परिणति वाले स्कंध में स्निग्ध और रूक्ष. शीत और द्रव्य लेश्या का अर्थ है वर्ण (रंग)। भाव लेश्या जीव का उष्ण-ये चार स्पर्श होते हैं। बादर परिणति वाले चतुःस्पर्शी स्कंधों आंतरिक परिणाम है। कृष्ण लेश्या से लेकर परिग्रह संज्ञा पर्यन्त सभी में आठ में से चार होते हैं, जैसे-स्निग्ध और रूक्ष में से एक, शीत जीव-परिणाम होने के कारण अवर्ण हैं। और उष्ण में से एक, गुरु और लघु में से एक, कर्कश और मृदु में से चतुस्पर्शी होने का कारण है सूक्ष्म परिणति और अष्टस्पर्शी एक। होने का कारण है बादर (स्थूल) परिणति। यह वृत्तिकार का अभिमत मिथ्यादृष्टि जीव-परिणाम है। इस विषय में जयाचार्य ने है।' अठारहवें शतक में बादर परिणति वाले स्कंध को चतुःस्पर्शी भी विस्तृत समीक्षा की है।' बतलाया गया है। बीसवें शतक के अनुसार चतस्पर्शी का तात्पर्य ११८. सव्वदव्वा णं भंते ! कतिवण्णा जाव सर्वद्रव्याणि भदन्त! कतिवर्णानि यावत् कतिफासा पण्णता? कतिस्पर्शानि प्रज्ञप्तानि?' गोयमा! अत्थेगतिया सव्वदव्वा गौतम! अस्त्येककानि सर्वद्रव्याणि पंचवण्णा जाव अट्ठफासा पण्णत्ता। पञ्चवर्णानि यावत् अष्टस्पर्शानि अत्थेगतिया सव्वदच्या पंचवण्णा जाव प्रज्ञाप्तानि। अस्त्येककानि सर्वद्रव्याणि चउफासा पण्णत्ता। पञ्चवर्णानि यावत् चतुःस्पर्शानि प्रज्ञप्तानि। ११८. भंते ! सर्वद्रव्य कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! कुछ सर्वद्रव्य पांच वर्ण यावत् आठ स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। कुछ सर्वद्रव्य पांच वर्ण यावत् चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। कुछ सर्वद्रव्य एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। १. भ. पृ. १२/११७-भावलेश्या-आतंरपरिणामः, इह च कृष्णलेश्यादीनि परिग्रहसज्ञाऽवसानानि अवर्णादीनि जीवपरिणामत्वात्, औदारिका-दीनि चत्वारिशरीराणि पञ्चवर्णादिविशेषणानि अष्टस्पर्शानि च बादर-परिणाम- पुद्गलरूपत्वात् सर्वत्र च चतुःस्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणामः कारणं, अष्टस्पर्शत्वे च बादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति। २. भ. वृ. १८/११७। ३. वही, २०/३६। ४. भ. जो. ४/२१६/१३-२८। , Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई अत्थेगतिया सव्वदव्वा एगवण्णा, एगगंधा, एगरसा, दुफासा पण्णत्ता । अत्थेगतिया सव्वदव्वा अवण्णा जाव अफासा पण्णत्ता । एवं सव्वपएसा वि, सब्वपज्जवा वि । तीयद्धा अवण्णा जाव अफासा । एवं अणागयद्धा वि, सव्वद्धा वि ॥ १. सूत्र ११८ संबद्ध हैं। प्रस्तुत सूत्र में चार विकल्प हैं। उनमें प्रथम तीन पुद्गल से १. स्थूल परिणति वाले पुद्गल पांच वर्ण वाले यावत् आठ स्पर्श वाले हैं। ६१ अस्त्येककानि सर्वद्रव्याणि एकवर्णानि, एकगन्धानि, एकरसानि द्विस्पर्शानि प्रज्ञप्तानि । अस्त्येककानि सर्वद्रव्याणि अवर्णानि यावत् अस्पर्शानि प्रज्ञप्तानि । अतीताद्धा अवर्णा यावत् अस्पर्शा । एवम् अनागताद्धा अपि, सर्वाद्धा अपि । २. सूक्ष्म परिणति वाले पुद्गल पांच वर्ण वाले यावत् चार स्पर्श वाले हैं। ११६. जीवे णं भंते! गब्भं वक्कममाणे कतिवण्णं, कतिगंध, कतिरसं, कतिफासं परिणामं परिणमइ ? ३. परमाणु - पुद्गल एक वर्ण, एक गंध, एक रस और द्विस्पर्श वाला होता है। स्निग्ध- रूक्ष में से एक और शीत उष्ण में से एक - इस प्रकार दो स्पर्श वाला होता है।' द्विप्रदेशी स्कंध से लेकर अनंत प्रदेशी स्कंध तक के सूक्ष्म परिणति वाले स्कंध भी दो स्पर्श वाले हो सकते हैं। गोयमा ! पंचवण्णं, दुगंधं, पंचरसं, अट्ठफासं परिणामं परिणम । भाष्य १. सूत्र ११६ गर्भ में आने के समय जीव स्थूल शरीर का निर्माण करता है, जीवः भदन्त ! गर्भम् अवक्रामन् कतिवर्णं, कतिगन्धं, कतिरसं, कतिस्पर्श परिणामं परिणमति ? गौतम ! पञ्चवर्णं, द्विगन्धं, पञ्चरसं, अष्टस्पर्श परिणामं परिणमति । १. भ. वृ. १२/११६ - सव्वदव्व' त्ति सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि अत्थेगइया सव्वदव्या पंचवन्नेत्यादि बादरपुद्गलद्रव्याणि प्रतीत्योक्तं, सर्वद्रव्याणां मध्ये कानिचित्पञ्चवर्णादीनीति भावार्थ:, चउफासा इत्येतच पुद्गलद्रव्याण्येव सूक्ष्माणि प्रतीत्योक्तं- 'एगगंधे' त्यादि परमाण्वादिद्रव्याणि प्रतीत्योक्तं यदाह - परमाणुद्रव्यमाश्रित्य - च कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगंधो, द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च ॥ ४. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय - ये चारों द्रव्य अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श वाले हैं। * भाष्य इति च स्पर्शद्वयं च सूक्ष्मसंबंधिनां चतुर्णां स्पर्शानामन्यतरविरुद्धं भवति, तथा हि- स्निग्धोष्णलक्षणं स्निग्धशीतलक्षणं वा रूक्षशीतलक्षणं प्रदेश- द्रव्य का निर्विभाग अंश। पुद्गल मूर्त्त द्रव्य है। उसके प्रदेश वर्ण आदि से युक्त होते हैं। धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य अमूर्त हैं। उनके प्रदेश वर्ण आदि से रहित होते हैं। इसी प्रकार मूर्त द्रव्य के पर्यव मूर्त और अमूर्त द्रव्य के पर्यव अमूर्त होते हैं। " द्रव्य, प्रदेश, पर्याय - तीनों का उल्लेख है। इस प्रकरण में गुण का उल्लेख नहीं है। इससे फलित होता है कि आगम काल में गुण और पर्याय की अभिन्नता रही है। प्रदेश और पर्यव के पश्चात् काल का निरूपण हुआ है। इससे परिलक्षित होता है कि काल प्रदेशयुक्त द्रव्य नहीं है। श. १२ : उ. ५ : सू. ११६ कुछ सर्वद्रव्य वर्ण-रहित यावत् स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार सर्वप्रदेश और सर्वपर्याय की वक्तव्यता । अतीत काल वर्णरहित यावत् स्पर्शरहित होता है। इसी प्रकार अनागत काल और सर्व काल की वक्तव्यता । ११६. भंते! गर्भ में उपपन्न होता हुआ जीव कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श के परिणाम से परिणत होता है। गौतम ! पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श के परिणाम से परिणत होता है। आहार पर्याप्ति आदि पर्याप्तियों की रचना करता है। इस दृष्टि से वह सभी वर्ण, गंध, रस और स्पर्शो का परिणमन करता है। रूक्षोष्णलक्षणं वेति । २. भ. १८/११२-११६ ३. भ. वृ. १२ / ११६ - अवण्णेत्यादि च धर्मास्तिकायादिद्रव्याणि आश्रित्योक्तम् । ४. भ. वृ. १२/११८ - तत्र च प्रदेशा-द्रव्यस्य निर्विभागा अंशाः पर्यवास्तु धर्माः, तैश्चैवं करणादेवं वाच्याः सव्वपएसा णं भन्ते! कइ वण्णा ? पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगइया सव्वपएसा पंचवन्ना जाव अट्ठफासा इत्यादि । एवं च पर्यवसूत्रमपि, इह च मूर्तद्रव्याणां प्रदेशाः पर्यवाश्च मूर्त्तद्रव्यवत्पंचवर्णादयः, अमूर्तद्रव्याणां चामूर्त्तद्रव्यवदवर्णादय इति । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श. १२ : उ. ५ : सू. १२०,१२१ भगवई कम्मओ विभत्ति-पदं कर्मतः विभक्ति-पदम् कर्म-विभक्ति पद १२०. कम्मओ णं भंते! जीवे नो कर्मतः भदन्त! जीवः नो अकर्मतः १२०. भंते ! क्या जीव कर्म से विभक्ति-भाव अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ? विभक्तिभावं परिणमति? कर्मतः जगत् (नरक, मनुष्य आदि भव) में परिणमन कम्मओ णं जए नो अकम्मओ नो अकर्मतः विभक्तिभावं परिणमति? करता है, अकर्म से विभक्ति-भाव में विभत्तिभावं परिणमइ? परिणमन नहीं करता? क्या जगत् कर्म से विभक्ति-भाव में परिणमन करता है? अकर्म से विभक्ति-भाव में परिणमन नहीं करता? हंता गोयमा! कम्मओ णं जीवे नो हन्त गौतम! कर्मतः जीवः नो अकर्मतः हां! गौतम ! जीव कर्म से विभक्ति-भाव में अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, विभक्तिभावं परिणमति, कर्मतः जगत् परिणमन करता है, अकर्म से नहीं, जगत् कम्मओ णं जए नो अकम्मओ नो अकर्मतः विभक्तिभावं परिणमति । कर्म से विभक्ति-भाव में परिणमन करता विभत्तिभावं परिणमइ॥ है, अकर्म से नहीं। भाष्य १. सूत्र १२० चार गतियां-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। उन सबमें अनेक जीव हैं। एक गति में भी अनेक विभाग हैं। इस विभाग का हेतु क्या है? इस जिज्ञासा का समाधान कर्म सिद्धांत के द्वारा दिया गया। प्रत्येक जीव का स्वकृत कर्म होता है। उसके द्वारा ही कोई जीव नारक है, कोई तिर्यंच है कोई मनुष्य है और कोई देव। इस विभाग का हेतु परिस्थिति नहीं है, बाहरी वातावरण नहीं है। यह विभाग किसी ईश्वरीय शक्ति द्वारा कृत नहीं है। इसका हेतु केवल कर्म है। वृत्तिकार ने जगत् का अर्थ जीव समूह या जंगम प्राणी किया है।' उणादि प्रकरण में जगत का अर्थ स्थावर जंगम लोक किया गया है।' इससे फलित होता है कि स्थावर जंगम अथवा वस और स्थावर का विभाग भी कर्म कृत है। १२१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। १२१. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही १. भ. वृ. १२/१२०-कम्मओ ण मित्यादि, कर्मतः सकाशानो अकर्मतः-न कर्माणि विना जीवो 'विभक्तिभावं' विभागरूपं भावं नारकतिर्यग्मुनष्यामरभवेषु नानारूपं परिणाममित्यर्थः, 'परिणमति' गच्छति तथा कम्मओ णं जए ति गच्छति तांस्तान्नारकादिभावान्निति 'जगत्' जीव समूहो जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जंगमाभिधानो जगन्ति जंगमान्याहुरिति वचनादिति। २. भिक्षु शब्दानुशासनम् उणादिप्रकरणम् १/१३४ जगत्-गम्लुं गतौ, गच्छन्ति चराचरप्राणिनो उत्पद्यन्ते यस्मिन्-स्थावरजंगमो लोकः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल चंद-सूर-गण-पदं १२२. रायगिहे जाव एवं वयासी - बहुजणे णं भंते! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ जाव एवं परूवेई - एवं खलु राहू चंद गेहति, एवं खलु राहू चंद गेण्हति ॥ १२३. से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! जण्णं से बहुजणे अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूमि - एवं खलु राहू देवे महिडीए जाव महेसवे वरवत्थधरे वरमल्लधरे वरगंधधरे वराभरणधारी । राहुस्स णं देवस्स नव नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा - संघाडए जडिलए खतए खरए दद्दुरे मगरे मच्छे कच्छभे कण्हसप्पे । राहुस्स णं देवस्स विमाणा पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहा - किण्हा, नीला, लोहिया, हालिद्दा, सुक्किला। अत्थि काल राहुविमाणे खंजणवण्णाभे पण्णत्ते, अत्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवण्णाभे पण्णत्ते, अत्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिवण्णाभे पण्णत्ते, अस्थि पीत राहुविमाणे हालिवण्णाभे पण्णत्ते, अत्थि सुक्किलए राहुविमाणे भासरासिवण्णाभे पण्णत्ते । जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउब्वमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पुरत्थिमेणं आवरेत्ता णं पञ्चत्थिमेणं वीतीवयइ तदा छट्टो उद्देसो : छठा उद्देशक संस्कृ चंद्र-सूर-ग्रहण-पदम् राजगृहं यावत् एवमवादीत् - बहुजनः भदन्त ! अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति- एवं खलु राहुः चन्द्रं गृह्णाति एवं खलु राहुः चन्द्रं गृहणाति । तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? गौतम ! यत् सः बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् ये एते - एवमाहुः मिथ्या ते एवमाहुः । अहं पुनः गौतम ! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि – एवं खलु राहुः देवः महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः वरवस्त्रधरः वरमाल्यधरः वरगन्धधरः वराभरणधारी । राहोः देवस्य नव नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-श्रृंगाटकः जटिलकः, 'खतए' खरक: दर्दुर: मकरः मत्स्यः कच्छपः कृष्णसर्पः। राहोः देवस्य विमानानि पञ्चवर्णानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - कृष्णानि, नीलानि, लोहितानि हारिद्राणि, शुक्लानि । अस्ति कालकं राहुविमानं खञ्जनवर्णाभं प्रज्ञप्तम्, अस्ति नीलकं राहुविमानं अलाबुकवर्णाभं प्रज्ञप्तम् अस्ति लोहितं राहुविमानं मञ्जिष्ठवर्णाभं प्रज्ञप्तम्, अस्ति पीतकं राहुविमानं हारिद्रवर्णाभं प्रज्ञप्तम्, अस्ति शुक्लकं राहुविमानं भस्मराशिवर्णाभं प्रज्ञप्तम् । यदा राहुः आगच्छन् वा गच्छन् वा विकुर्वाणः वा परिचारयमाणः वा चन्द्रलेश्यां पौरस्त्येन आवृत्य पाश्चात्येन व्यतिव्रजति तदा पौरस्त्येन हिन्दी अनुवाद चंद्र-सूर्य ग्रहण पद १२२. राजगृह नाम का नगर यावत् इस प्रकार बोले- भंते! बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं-राहु चंद्र को ग्रहण करता है, राहु चंद्र को ग्रहण करता है। १२३. भंते! यह कैसे है ? क्या ऐसा है ? गौतम ! जो बहुजन परस्पर इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हूं-इस प्रकार राहुदेव महान् ऋद्धिवाला यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात, प्रवर वस्त्रधारक, प्रवर माल्यधारक, प्रवर गंध और प्रवर आभरणधारी होता है। राहुदेव के नौ नाम प्रज्ञप्त हैं, जैसे शृंगारक, जटिलक, क्षत्रक, खरक, दर्दुर मकर, मत्स्य, कच्छप और कृष्णसर्प । राहुदेव के विमानों के पांच वर्ण प्रज्ञप्त हैं, जैसे - कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत । कृष्ण राहुविमान का वर्ण खंजन के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है, नील राहुविमान का वर्ण अलाबुक (तुम्बी) के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है, रक्त राहुविमान का वर्ण मंजिष्ठ के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है, पीत राहुविमान का वर्ण हरिद्रा के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है। शुक्ल (श्वेत) राहुविमान का वर्ण शंख के ढेर के समान आभा वाला प्रज्ञप्त है। जब राहु आता हुआ, जाता हुआ विक्रिया करता हुआ अथवा परिचारणा करता हुआ चन्द्रलेश्या को पूर्व की ओर से आवृत कर पश्चिम की ओर जाता है, तब पूर्व में Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ भगवई श. १२ : उ. ६ : सू. १२३ णं पुरथिमेणं चदे उवदंसेति, पचत्थिमेण चन्द्रः उपदर्शयति, पाश्चात्येन राहुः । राहू। यदा णं राहू आगच्छमाणे वा यदा राहुः आगच्छन् वा गच्छन् वा गच्छमाणे वा विउब्वमाणे वा विकुर्वाणः वा परिचारयमाणः वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पञ्चत्थिमेणं चन्द्रलेश्यां पाश्चात्येन आवृत्य आवरेत्ता णं पुरस्थिमेणं वीतीवयइ तदा पौरस्त्येन व्यतिव्रजति तदा पाश्चात्येन णं पचत्थिमेणं चंदे उवदंसेति चन्द्रः उपदर्शयति, पौरस्त्येन राहुः । पुरस्थिमेणं राहू। एवं जहा पुरथिमेणं पचत्थिमेण य दो एवं यथा पौरस्त्येन पाश्चात्येन च द्वौ आलावगा भणिया एवं दाहिणेणं आलापको भणितौ, एवं दक्षिणेन उत्तरेण य दो आलावगा भाणियब्वा। उत्तरेण च द्वौ आलापको भणितव्यौ। एवं उत्तरपुरस्थिमेणं दाहिणपञ्चत्थि- एवं उत्तरपौरस्त्येन दक्षिणपाश्चात्येन च मेण य दो आलावगा भाणियब्वा। एवं द्वौ आलापको भणितव्यौ। एवं दाहिणपुरथिमेणं उत्तरपञ्चत्थिमेण य दो दक्षिणपौरस्त्येन उत्तरपाश्चात्येन च द्वौ आलावगा भाणियव्वा एवं चेव जाव आलापको भणितव्यौ एवं चैव यावत् तदा णं उत्तरपञ्चत्थिमेणं चंदे उवदंसेति, तदा उत्तरपाश्चात्येन चन्द्रः दाहिणपुरत्थिमेणं राहू। उपदर्शयति, दक्षिणपौरस्त्येन राहः। जदा गं राहू आगच्छमाणे वा यदा राहुः आगच्छन् वा गच्छन् वा गच्छमाणे वा विउब्वमाणे वा विकुर्वाणः वा परिचारयमाणः वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं आवरेमाणे- चन्द्रलेश्याम् आवृण्वन्-आवृण्वन् आवरेमाणे चिट्ठइ तदा णं मणुस्सलोए तिष्ठति तदा मनुष्यलोके मनुष्याः मणुस्सा वदंति-एवं खलु राहू चंदं वदन्ति-एवं खलु राहुः चन्द्रं गृह्णाति, गेण्हति, एवं खलु राहू चंदं गेण्हति। एवं खलु राहुः चन्द्रं गृह्णाति। चन्द्रमा दिखाई देता है और पश्चिम में राहु। जब राहु आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ अथवा परिचारणा करता हुआ चन्द्रलेश्या को पश्चिम की ओर से आवृत कर पूर्व की ओर जाता है, तब पश्चिम में चन्द्रमा दिखाई देता है और पूर्व में राहु। इस प्रकार जैसे पूर्व और पश्चिम के दो आलापक कहे गए हैं, इसी प्रकार दक्षिण व उत्तर के भी दो आलापक वक्तव्य हैं। इसी प्रकार उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम के भी दो आलापक वक्तव्य हैं। इसी प्रकार दक्षिण-पूर्व और उत्तर-पश्चिम के दो आलापक वक्तव्य हैं। इसी प्रकार पूर्ववत् यावत् तब उत्तर-पश्चिम में चन्द्रमा दिखाई देता है और दक्षिण-पूर्व में राहु। जब राहु आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ अथवा परिचारणा करता हुआ चन्द्रलेश्या को आवृत करता हुआ, आवृत करता हुआ स्थित होता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैं-इस प्रकार निश्चित ही राहु चन्द्रमा का ग्रहण करता है, राहु चंद्रमा का ग्रहण करता है। जब राहु आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ अथवा परिचारणा करता हुआ चन्द्र लेश्या को आवृत कर पार्श्व से जाता है, तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैंचन्द्रमा के द्वारा राहु की कुक्षि का भेदन हुआ है, चन्द्रमा के द्वारा राहु की कुक्षि का भेदन हुआ है। जब राहु आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ अथवा परिचारणा करता हुआ चन्द्रलेश्या को आवृत कर पीछे हटता है, दूर जाता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैंराहु के द्वारा चन्द्रमा को छोड़ दिया गया है, राहु के द्वारा चन्द्रमा को छोड़ दिया गया है। जब राहु आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ अथवा परिचारणा करता हुआ चन्द्रलेश्या को आवृत कर नीचे सपक्ष, सप्रतिदिशि-समान दिशा और विदिशा को आवृत कर स्थित होता है, तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैं-राहु के द्वारा चन्द्रमा का ग्रहण कर लिया गया है, राहु के द्वारा चंद्रमा का ग्रहण कर लिया गया है। जदा णं राह आगच्छमाणे वा यदा राहुः आगच्छन् वा गच्छन् वा गच्छमाणे वा विउब्वमाणे वा विकुर्वाणः वा परिचारयमाणः वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं आवरेत्ता णं चन्द्रलेश्याम आवृत्य पार्श्वेन पासेणं वीतीवयइ तदा णं मणुस्सलोए व्यतिव्रजति तदा मनुष्यलोके मनुष्याः मणुस्सा वदंति–एवं खलु चदेणं राहुस्स वदन्ति-एवं खलु चन्द्रेण राहोः कुक्षिः कुच्छी भिन्ना, एवं खलु चदेणं राहुस्स भिन्ना, एवं खलु चन्द्रेण राहोः कुक्षिः कुच्छी भिन्ना। भिन्ना। जदा णं राहू आगच्छमाणे वा यदा राहुः आगच्छन् वा गच्छन् वा गच्छमाणे वा विउब्वमाणे वा विकुर्वाणः वा परिचारयमाणः वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं आवरेत्ता णं चन्द्रलेश्याम् आवृत्य प्रत्यवष्कते तदा पच्चोसक्कइ तदा णं मणुस्सलोए मनुष्यलोके मनुष्याः वदन्ति-एवं खलु मणुस्सा वदंति-एवं खलु राहुणा चंदे राहुना चन्द्रः वान्तः, एवं खलु राहुना वंते, एवं खलु राहुणा चंदे वंते। जदा णं राहू आगच्छमाणे वा यदा राहः आगच्छन् वा गच्छन् वा गच्छमाणे वा विउव्वमाणे वा विकुर्वाणः वा परिचारयमाणः वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं अहे सपक्विं चन्द्रलेश्याम् अधःसपक्षं सप्रतिदिशम् सपडिदिसिं आवरेत्ता णं चिट्ठइ तदा णं आवृत्य तिष्ठति तदा मनुष्यलोके मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-एवं खलु मनुष्याः वदन्ति-एवं खलु राहुना चन्द्रः राहुणा चंदे घत्थे, एवं खलु राहुणा चंदे ग्रस्तः, एवं खलु राहुना चन्द्रः ग्रस्तः। पत्थे। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६५ श. १२ : उ. ६ : सू. १२४ भाष्य १. सूत्र १२२-१२३ आवृत कर दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य) में जाता है तब उत्तर पूर्व में चंद्र प्राचीन ज्योतिष का एक मत यह था-राहु चंद्रमा का ग्रास या सूर्य दिखाई देता है, दक्षिण पश्चिम में राहु। को अमान्य कर प्राचीन जैन खगोल सम्मत मत जब राह देव आता हआ, जाता हआ, विक्रिया करता हुआ इस प्रकार निरूपित किया गया है-राहु चंद्र अथवा सूर्य को कभी परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य) भाग अधोभाग से ग्रहण कर अधोभाग से छोड़ता है, कभी अधोभाग से को आवृत कर उत्तर-पूर्व (ईशान) में जाता है तब चंद्र या सूर्य ग्रहण कर ऊपरीभाग से छोड़ता है, कभी ऊपरीभाग से ग्रहण कर दक्षिण-पश्चिम भाग में दिखाई देता है, उत्तर-पूर्व में राहु। अधोभाग से छोड़ता है, कभी ऊपरीभाग से ग्रहण कर ऊपर के भाग जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ से छोड़ता है। कभी वाम पार्श्व से ग्रहण कर वाम पार्श्व से ही छोड़ता परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के दक्षिण पूर्व (अग्निकोण) भाग है। कभी वाम पार्श्व से ग्रहण कर दक्षिण पार्श्व से छोड़ता है। कभी को आवृत कर उत्तर-पश्चिम (वायव्य) भाग में जाता है तब दक्षिण दक्षिण पार्श्व से ग्रहण कर वाम पार्श्व से छोड़ता है, कभी दक्षिण पूर्व भाग क्षत्रक चंद्र या सूर्य दिखाई देता है, उत्तर पश्चिम में राहु। पार्श्व से ग्रहण कर दक्षिण पार्श्व से ही छोड़ता है।' जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ राहु के पर्यायवाची ६ नाम हैं-शृंगाटक, जटिलक, क्षत्रक, परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के उत्तर पश्चिम (वायव्य) भाग खरक, दर्दुर, मकर, मत्स्य, कच्छप, कृष्ण सर्प। को आवृत कर दक्षिण पूर्व (अग्निकोण) में जाता है तब उत्तर पश्चिम राहु देव के विमान पांच वर्ण के हैं-कृष्ण, नील, लोहित में चंद्र या सूर्य दिखाई देता है, दक्षिण पूर्व में राहु। (रक्त) हरिद्रा (पीत) शुक्ल (श्वेत)। काला राहु विमान खंजन के जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ वर्ण की आभा वाला है। नील राहु विमान आई तुम्बे के वर्ण की परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य की लेश्या को आवृत करता हुआ आभा वाला है। लाल राहु विमान मजीठ के वर्ण की आभा वाला है। रहता है तब लोक में मनुष्य कहते हैं, राहु ने चंद्र को ग्रहण कर लिया पीला राहु विमान हल्दी के वर्ण की आभा वाला है। सफेद राहु है। विमान शंख के ढेर के वर्ण की आभा वाला है। जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ जब राहुदेव एक स्थान से दूसरे स्थान में जाता हुआ, आता परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य की लेश्या को आवृत कर पास में हुआ, विक्रिया करता हुआ, परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य की होकर जाता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैं-चंद्र या सूर्य ने राहु लेश्या को पूर्व में आवृत कर पश्चिम में जाता है तब पूर्व में चंद्र या की कुक्षि को भेदा है-राहु की कुक्षि को भेदकर चंद्र या सूर्य निकल सूर्य दिखाई देता है, पश्चिम में राहु। गया है। जब राहु देव आता हुआ जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ, जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के दक्षिण भाग को आवृत कर परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य की लेश्या को आवृत कर पीछे उत्तर में जाता है तब चंद्र या सूर्य दक्षिण भाग में दिखाई देता है, जाता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते हैं-राहु ने चंद्र या सूर्य का उत्तर में राहु। वमन किया है। जब राहु देव आता हुआ जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ, जब राहु देव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ, परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के उत्तर भाग को आवृत कर परिचारणा करता हुआ, चंद्र या सूर्य की लेश्या को सपक्ष (सर्व पार्श्व दक्षिण में जाता है तब चंद्र या सूर्य उत्तर भाग में दिखाई देता है, पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर रूप) सप्रतिदिशि (सर्वप्रतिदिशि सर्व दक्षिण में राहु। विदिशा) को आवृत कर रहता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य कहते जब राहुदेव आता हुआ, जाता हुआ, विक्रिया करता हुआ हैं-राहु ने चंद्र या सूर्य को ग्रसित (संपूर्ण सर्व भाग को ग्रहण) कर परिचारणा करता हुआ चंद्र या सूर्य के उत्तर पूर्व (ईशान) भाग को लिया है। १२४. कतिविहे णं भंते ! राहू पण्णत्ते ? कतिविधः भदन्त! राहुः प्रज्ञप्तः? १२४. भंते ! राहु कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? गोयमा ! दुविहे राहू पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! द्विविधः राहु प्रज्ञप्तः तद्यथा- गौतम ! राहु दो प्रकार के प्रज्ञाप्त हैं, जैसेधुवराहू य, पन्चराहू य। तत्थ णं जे से ध्रुवराहुः च पर्वराहुः च। तत्र यः सः ध्रुव राहु और पर्व राहु। धुवराहू से गं बहुलपक्खस्स पाडिवए ध्रुवराहुः सः बहुलपक्षस्य प्रतिपदि जो ध्रुव राहु है, वह कृष्णपक्ष की प्रतिपदा पन्नरसतिभागेणं पन्नरसतिभागं चंदलेस्सं पञ्चदशत्रिभागेन पञ्चदशत्रि-भागं से प्रतिदिन चंद्रमा की लेश्या (मंडल) का आवरेमाणे-आवरेमाणे चिट्ठइ. तं जहा- चन्द्रलेश्याम् आवृण्वन्-आवृण्वन् पन्द्रहवां भाग आवृत करता हुआ, आवृत तिष्ठति, तद्यथा करता हुआ स्थित होता है, जैसे१. सूर्य. वृ. प. २८२। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ भगवई श. १२ : उ. ६ : सू. १२५ पढमाए पढम भाग, बितियाए बितियं प्रथमायां प्रथमं भाग, द्वितीयायां द्वितीयं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भाग। भागं यावत् पञ्चदशेषु पञ्चदशमं चरिमसमये चंदे रत्ते भवइ, अवसेसे भागम्। चरमसमये चन्द्रः रक्तः भवति, समये चंदे रत्ते वा विरत्ते वा भवइ। अवशेषे समये चन्द्रः रक्तः वा विरक्तः वा तमेव सुक्कपक्खस्स उबदसेमाणे- भवति। तमेव शुक्लपक्षस्य उपदर्शयन्उवदंसेमाणे चिट्ठइ, पढमाए पढम भागं उपदर्शयन् तिष्ठति, प्रथमायां प्रथम जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भाग। भागं यावत् पञ्चदशमं भागम्। चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ, अवसेसे चरमसमये चन्द्रः विरक्तः भवति, समये चंदे रत्ते वा विरत्ते वा भवइ। अवशेषे समये चन्द्रः रक्तः वा विरक्तः वा तत्थ णं जे से पव्वराह से जहण्णेणं भवति । तत्र यः सः पर्वराहुः सः छण्डं मासाणं उक्कोसेणं बायालीसाए जघन्येन 'षण्णां मासानाम्' उत्कर्षण मासाणं चंदस्स, अडयालीसाए द्वाचत्वारिंशत् मासानां चन्द्रस्य, संवच्छराणं सूरस्स॥ अष्टचत्वारिंशत् संवत्सराणां सूरस्य। प्रतिपदा के दिन पहला भाग, द्वितीया के दिन दूसरा भाग यावत् पन्द्रहवें दिन (अमावस्या) पन्द्रहवां भाग (सम्पूर्णचन्द्रमंडल)। अंतिम समय (कृष्णपक्ष के अंतिम दिन) में चन्द्रमा रक्त (सर्वथा आवृत) होता है, अवशेष समय में चन्द्रमा रक्त (अंशतः आच्छादित) अथवा विरक्त (अंशतः अनाच्छादित) होता है। वही (ध्रुव राहु) शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन एक-एक पन्द्रहवें भाग को उद्घाटित करता है, जैसेप्रतिपदा के दिन पहला भाग उद्घाटित करता है। यावत् पूर्णिमा के दिन पन्द्रहवां भाग उद्घाटित करता है अर्थात् संपूर्ण चंद्रमंडल को उद्घाटित करता है। अंतिमसमय में चंद्रमा विरक्त (सर्वथा अनाच्छादित) होता है, अवशेष समय में चंद्रमा रक्त (आच्छादित) अथवा विरक्त (अनाच्छादित) होता है। जो पर्व राहु है वह जघन्यतः छह मास में चंद्र और सूर्य को तथा उत्कृष्टतः बयालीस मास में चंद्र और अड़तालीस वर्ष में सूर्य को आवृत करता है। भाष्य १. सूत्र १२४ राहु के दो भेद हैं-ध्रुव राहु और पर्व राहु। ध्रुव (नित्य) राहु कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चंद्रमा का एक भाग १/१५ भाग आवृत करता है। द्वितीया को २/१५ भाग आवृत करता है। इस प्रकार अमावस को पन्द्रहवां भाग आवृत करता है। अंतिम समय में चंद्र रक्त (आवृत) होता है, अवशेष समय में चंद्र आवृत और अनावृत दोनों रहता है। उसी प्रकार शुक्ल पक्ष में एक-एक भाग (१/१५ भाग) अनावृत होता हुआ पूर्णिमा को पूर्ण अनावृत हो जाता है। अंतिम समय में चंद्र विरक्त (अनावृत) रहता है, अवशेष समय में चंद्र आवृत और अनावृत दोनों होता है। पर्व राहु कम से कम ६ मास में और अधिक से अधिक ४२ मास में चंद्रमा को आवृत करता है, उसे चंद्रग्रहण कहा जाता है। जघन्यतः छह मास और उत्कृष्टतः ४८ वर्षों से सूर्य को आवृत कर पर्व राहु सूर्यग्रहण करता है। शब्द-विमर्श खञ्जन-दीवट पर जमा हुआ मेल। अलावुक-तुम्बा। वृत्तिकार के अनुसार यहां अपक्व अवस्था वाली तुम्बी विवक्षित है। परिचारणा-काम क्रीड़ा। कुक्षि का भेदन-चंद्रमा का राहु के अंश के मध्य से निकलना। सपक्ष-समान दिशा, सम श्रेणी की दृष्टि से सपक्ष-दाएं बाएं पार्श्व समान। सप्रतिदिश-समान विदिक विदिशाओं में समा ससि-आइच्च-पदं शशि-आदित्य-पदम् १२५. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-चदे तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ससी, चदे ससी? चन्द्रःशशिः, चन्द्रःशशिः ।। गोयमा! चंदस्स णं जोइसिंदस्स गौतम! चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य जोइसरण्णो मियंके विमाणे कंता देवा, ज्योतिषराज्ञः मृगाङ्के विमाने कान्ताः शशि-आदित्य पद १२५. भंते ! किस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-चंद्रमा शशि है, चंद्रमा शशि है? गौतम ! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के मृगांक (मृग के चिह्न-वाला) विमान में १. भ. वृ. १२/१२२,१२३-खञ्जनं-दीपमल्लिकामलस्तस्य यो वर्णस्तदाभा यस्य तत्तथा......तुम्बिका। तचेहापक्वावस्थं ग्राह्यमिति।.....परिचारयन् कामक्रीड़ां कुर्वन्........कुच्छी भिन्नत्ति राहोरंशस्य मध्येन चंद्रो गत इति वाच्यं, चन्द्रेण राहोः कुक्षिभिन्न इति व्यपदिशन्तीति। सपक्ष-समानदिग् यथा भवति, सप्रतिदिक्-समानविदिक् च यथा भवति। २. ठाणं, ३/४१ का टिप्पण। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई कंताओ देवीओ, कंताई आसणसयणखंभभंडमत्तोवगरणाई, अप्पणा वि य णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया सोमे कंते सुभए पियदंसणे सुरूवे । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - चंदे ससी, चंदे ससी ॥ १२६. से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - सूरे तत केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - सूरः आदिच्चे, सूरे आदिचे ? आदित्यः सूरः आदित्यः ? गौतम ! सूरादिकाः समयः इति वा आवालिका इति वा । यावत् अवसर्पिणी इति वा उत्सर्पिणी इति वा । गोयमा ! सूरादिया णं समया इ वा आवलिया इ वा जाव ओसप्पिणी इ वा उस्सप्पिणी इ वा । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ- सूरे तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - सूरः आदिच्चे, सूरे आदिच्चे || आदित्यः सूरः आदित्यः । चंद-सूराणं कामभोग-पदं १२७. चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? १. सूत्र १२५-१२६ वृत्तिकार ने शशि का अर्थ सश्री किया है।' काल गणना में सूर आदि में है इसलिए उसका नाम आदित्य है। " व्याकरण और कोश साहित्य में शशि और आदित्य की व्युत्पत्ति भिन्न प्रकार से मिलती है। शश का अर्थ है खरगोश । जहा दसमसए जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । सूरस्स वि तहेव ॥ १२८. चंदिम - सूरिया णं भंते! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए कामभोगे पचणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोव्वणुट्ठाणबलत्थे पढम जोव्वणुट्ठाणबलत्थाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तविवाहकज्जे अत्थगवेसण ६७ देवाः, कान्ताः देव्याः, कान्तानि आसन-शयन स्तम्भ - भाण्डा-मात्रोपकरणानि, आत्मना अपि च चन्द्रः ज्यौतिषेन्द्रः ज्यौतिषराजा सोमः कान्तः सुभगः प्रियदर्शनः सुरूपः । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - चन्द्रः शशिः, चन्द्रः शशिः । ३. शब्दकल्प द्रुम, भाग ५ । ४. अभिधान चिन्तामणि कोश २/१८ | भाष्य १. भ. वृ. १२ / २५ - सहश्रिया वर्तत इति सश्रीः । २. वही, १२/१२६- तेनार्थेन सूर आदित्य इत्युच्यते, आदौ अहोरात्रसमयादीनां भव आदित्य इति व्युत्पत्तेः, त्य प्रत्ययश्चेहार्षत्वादिति । चन्द्रस्य चन्द्र- सूराणाम् कामभोग-पदम् भदन्त ! ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्यौतिषराज्ञः कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ? यथा दशमशते यावत् नो चैव मैथुनप्रत्ययम् । सूरस्यापि तथैव । चन्द्रमस् - सूर्याः भदन्त ! ज्यौतिषेन्द्राः ज्यौतिषराजानः कीदृशान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति ? गौतम! अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः प्रथमयौवनोत्थानबलस्थः खरगोश के चिह्न वाला अथवा खरगोश को धारण करने वाला । " अदिति के अपत्य का नाम है आदित्य । * प्रथमयौवनोत्थानबलस्थयां भार्यया सार्धं अचिरवृत्तविवाहकार्यः अर्थ श. १२ : उ. ६ : सू. १२६ - १२८ कमनीय देव और देवियां हैं। कमनीय आसन, शयन, स्तंभ, भांड, अमत्र और उपकरण हैं, स्वयं ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र भी सौम्य, कमनीय, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - चंद्रमा शशि है, चंद्रमा शशि है। राहु, शशि और आदित्य -यह पूरा प्रकरण प्रक्षिप्त है। इसका मूल आधार सूर्यप्रज्ञप्ति है। १२६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - सूर्य आदित्य है, सूर्य आदित्य है ? गौतम ! समय, आवलिका यावत् अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी की आदि सूर्य से होती है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- सूर्य आदित्य है, सूर्य आदित्य है । चंद्र-सूर्य का काम भोग पद १२७. भंते ! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चंद्र की कितनी अग्रमहिषी देवियां प्रज्ञप्त हैं ? दशम शतक (१०/१० ) की भांति यावत् परिवार की ऋद्धि का उपभोग करते हैं, मैथुन रूप भोग का नहीं। इसी प्रकार सूर्य की वक्तव्यता । १२८. भंते! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र-सूर्य किसके समान कामभोगों का प्रत्यनुभव करते हुए विहरण करते हैं। गौतम ! जिस प्रकार प्रथम यौवन के उद्गम में बल में स्थित पुरुष ने प्रथम यौवन के उद्गम में बल में स्थित भार्या के साथ तत्काल विवाह किया। अर्थ- गवेषणा ५. (क) भिक्षुशब्दानुशासनं ६ / २ / १६ - अदितेरपत्यम् आदित्यः । (ख) अभिधान चिन्तामणी स्वोपज्ञ टीका २/१ अदितेरपत्यम् लोकरूढ्या आदित्यः । ६. सूर. २०/२-७1 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ भगवई श. १२ : उ. ६ : सू. १२८ याए सोलसवास विष्पवासिए, से णं गवेषणायां षोडशवर्षविप्रवासितः, स तओ लद्धढे कयकज्जे अणहसमग्गे ततः लब्धार्थः कृतकार्यः अनघसमग्रः पुणरति नियगं गिहं हव्वमागए, ण्हाए पुनरपि निजकं गृहं 'हव्वं' आगतः, कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल- स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकपायच्छित्ते सव्वालंकार-विभूसिए मंगल-प्रायश्चित्तः सर्वालङ्कारमण्णुणं थालिपागसुद्धं अट्ठारस- विभूषितः मनोज्ञं स्थालीपाकशुद्धं वंजणाकुलं भोयणं भुत्ते समाणे तंसि अष्टादश-व्यञ्जनाकुल भोजनं भुक्तः तारिसगंसि वासघरंसि अभिंतरओ सन् तस्मिन् तादृशके वासगृहे सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मढे आभ्यन्तरतः सचित्तकर्माणि बाह्यतः विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले मणि- ____धवलित-धृष्ट-मृष्टे विचित्रोल्लोकरयणपणासियंधयारे, बहुसमसुवि- ___ 'चिल्लिय' तले मणिरत्नभत्तदेसभाए पंचवण्णसरससुरभि- प्रणाशितान्धकारे बहुसम-सुविभक्तमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए काला- देसभागे पञ्चवर्ण-सरस-सुरभिगुरुपवरकुंदुरुक्क - तुरुक्क - धूव-मघ- मुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलिते कालामत-गंधुद्धयाभिरामे सुगंधवरगंधिए गुरु-प्रवरकुन्दुरुक - तुरुष्क-धूपगंधवट्टिभूए। मघ-मघायमान-गन्धोधूताभिरामे तंसि तारिसगसि सयणिज्जसि- सुगन्ध-वरगन्धिते गन्धवर्तिभूते । सालिंगणवट्टिए उभओ विब्बोयणे तस्मिन् तादृशके शयनीये सालिङ्गनदुहओ उण्णए मझे णय-गंभीरे __वर्तिके उभयतः 'विब्बोयणे' द्वयतः गंगापुलिणवालुय - उद्दालसालिसए उन्नते मध्ये नत-गम्भीरे गंगापुलिनओयविय - खोमिय - दुगुल्लपट्ट- ___ बालुकावदालशालिशते 'ओयवियपडिच्छयणे सुविरइयरयत्ताणे क्षौमिकदुकु-लपट्टप्रतिच्छदने सुविररत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणग-रूय-बूर- चितरजस्त्राणे रक्तांशुकसंवृते सुरम्ये नवणीय-तूलफासे सुगंधवर-कुसुम- आजिनक - 'रूय' - 'बूर'-नवनीतचुण्ण-सयणोवयारकलिए ताए तूलस्पर्शे सुगन्धवरकुसुम-चूर्णतारिसियाए भारियाए सिंगारागार- शयनोपचारकलिते तया तादृशया चारुवेसाए संगय-गय-हसिय-भणिय- भार्यया शृंङ्गाराकारचारुवेष्या सङ्गतचेट्ठिय - विलास - सललिय - संलाव- गत हसित-भणित-चेष्टित-विलासनिउणजुत्तोवयारकुसलाए सुंदरथण- सललित-संलाप-निपुणयुक्तोपचारजघण-बयण - कर · चरण - नयण- कुशलया सुन्दरस्तन-जघन-वदनलावण्ण - रूव - जोव्वण - विलास- कर-चरण-नयन-लावण्य - रूप - कलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए यौवन-विलासकलितया अनुरक्तया मणाणकलाए सद्धिं इढे सद्दे फरिसे रसे अविरतया मनोनुकूलया सार्धम् इष्टान् रूवे गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे शब्दान् स्पर्शानि रसान् रूपान् गन्धान् पञ्चणुभवमाणे विहरेज्जा, से णं पञ्चविधान् मानुष्यकान् कामभोगान् गोयमा ! परिसे विउसमणकाल- प्रत्यनुभवन् विहरेत्, सः गौतम ! पुरुषः समयंसि केरिसयं सायासोक्वं व्यवशमनकालसमये कीदृशकं सातपञ्चणुब्भवमाणे विहरइ ! सौख्यं प्रत्यनुभवन् विहरति। ओरालं समणाउसो ! ओरालं श्रमणायुष्मन्! तस्स णं गोयमा! पुरिसस्स तस्य गौतम! पुरुषस्य कामभोगेम्यः कामभोगेहिंतो वाणमंतराणं देवाणं वानमन्तराणां देवानाम् इतः अनन्तएत्तो अणंतगुणविसिट्ठतरा चेव । गुणविशिष्टतराः चैव कामभोगाः। कामभोगा। वाणमंतराणं देवाणं वानमन्तराणां देवानां कामभोगेभ्यः कामभोगेहिंतो असुरिंदवज्जियाणं असुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिनां देवा के लिए सोलह वर्ष प्रवासित (विदेश) रहा। वह वहां से धन प्राप्त कर कार्य संपन्न कर, निर्विघ्न रूप से शीघ्र अपने घर वापस आया, स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (तिलक आदि) मंगल (दधि, अक्षत आदि), प्रायश्चित्त और सर्व अलंकारों से विभूषित होकर मनोज्ञ अठारह प्रकार के स्थालीपाक शुद्ध व्यंजनों से युक्त भोजन किया, भोजनकर उस अनुपम वासगृह, जो भीतर से चित्र कर्म से युक्त, बाहर से धवलित, कोमल पाषाण से घिसा होने के कारण चिकना था। उसका ऊपरी भाग विविध चित्रों से युक्त तथा अधोभाग प्रकाश से दीप्तिमान था। मणि और रत्न की प्रभा से अंधकार प्रणष्ट हो चुका था। उसका देश भाग बहुत सम और सुविभक्त था। पांच वर्ण के सरस और सुरभित मुक्त पुष्प पुञ्ज के उपचार से कलित कृष्ण अगर, प्रवर कुन्दुरु और जलते हुए लोबान की धूप से उठती हुई सुगंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंधवर्तिका के समान उस प्रासाद में एक विशिष्ट शयनीय था। उस पर शरीर-प्रमाण उपधान (मसनद) रखा हुआ था, सिर और पैर-दोनों ओर से उभरा हुआ तथा मध्य में नत और गम्भीर था। गंगातट की बालुका की भांति पांव रखते ही नीचे धंस जाता था। वह परिकर्मित क्षौम-दुकूल पट्ट से ढका हुआ था। उसका रजस्त्राण (चादरा) सुनिर्मित था, वह लाल रंग की मसहरी से सुरम्य था, उसका स्पर्श चर्म वस्त्र, कपास, बूर वनस्पति और नवनीत के समान मृदु था। प्रवर सुगंधित कुसुम-चूर्ण के शयन उपचार से कलित था। उसकी भार्या मूर्तिमान श्रृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने, हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण तथा विलास और लालित्य पूर्ण संलाप में निपुण, समुचित उपचार में कुशल, सुन्दर स्तन, कटि, मुख, हाथ, पैर, नयन, लावण्य, रूप, यौवन और विलास से कलित, अनुरक्त, अत्यधिक प्रिय और मनोनुकूल भार्या के साथ इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध इन पांच प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का प्रत्यनुभव Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६६ श. १२ : उ. ६ : सू. १२६ भवणवासीणं देवाणं एत्तो अणंतगुण- नाम इतः अनन्तगुणविशिष्टतराः चैव विसिट्टतरा चेव कामभोगा। कामभोगाः। असरेन्द्रवर्जितानां भवनअमरिंदवज्जियाणं भवणवासियाणं वासिकानां देवानां कामभोगेम्यः देवाणं कामभोगेहितो असुरकुमाराणं असुरकुमाराणां देवानाम् इतः अनन्तदेवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव । गुणविशिष्टतराः चैव कामभोगाः। कामभोगा। असुरकुमाराणं देवाणं असुरकुमाराणां देवानां कामभोगेभ्यः कामभोगेहितो गहगण-नक्वत्त- ग्रहगण - नक्षत्र - तारारूपाणां तारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं एत्तो ज्योतिषिकाणां देवानाम् इतः अनन्तअणंतगुणविसिहतरा चेव कामभोगा। गुण-विशिष्टतराः चैव · कामभोगाः। गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं जोति- ग्रहगण - नक्षत्र - तारारूपाणां सियाणं कामभोगेहिंतो चंदिम- ज्योतिषिकाणां कामभोगेभ्यः चन्द्रमस्सूरियाणं जोतिसियाणं जोतिसराईणं सूर्याणां ज्योतिषिकाणां ज्योतिषराज्ञाम् एत्तो अणंतगुणविसिट्टतरा चेव । इतः अनन्तगुणविशिष्टतराः चैव कामकामभोगा। भोगाः। चंदिमसूरिया णं गोयमा ! जोतिसिंदा । चन्द्रमस्-सूर्याः गौतम! ज्योतिषेन्द्राः जोतिसरायाणो एरिसे कामभोगे ज्योतिषराजानः ईदशान कामभोगान पचणुब्भवमाणा विहरंति॥ प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति । करता हुआ विहरण करता है। गौतम! वह पुरुष व्यवशमन काल (रति के अवसान के समय) में कैसा सातसौख्य का प्रत्यनुभव करता हुआ विहरण करता है? आयुष्मन् श्रमण ! प्रधान। गौतम ! उस पुरुष के कामभोगों से वाणमन्तर देवों के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं। वाणमन्तर देवों के कामभोगों से (असुरेन्द्र को छोड़कर) भवनवासी देवों के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं, असुरेन्द्र को छोड़कर भवनवासी देवों के कामभोगों से असुरकुमार देवों के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं। असुरकुमार देवों के कामभोगों से ग्रह-गण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिष देवों के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं। ग्रह-गण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिष देवों के कामभोगों से ज्योतिषेन्द्र, ज्योतिषराज चन्द्र, सूर्य के कामभोग अनन्त गुण विशिष्टतर होते हैं। गौतम! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र सूर्य इस प्रकार के कामभोगों का प्रत्यनुभव करते हुए विहरण करते हैं। भाष्य १.सूत्र १२८ १. अविरत्ता-अत्यधिक प्रिय। विप्रिय करने पर भी जो विरक्त नहीं होती, उसके लिए अविरत्ता का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य है अत्यधिक प्रिया' २. व्यवशमन काल-पुंग्वेद के विकार का उपशम। इसका तात्पर्य है रति का अवसान। स्थालिपाक शुद्ध व्यंजन के लिए द्रष्टव्य ठाणं ३१८७ का टिप्पण। वासग्रह आदि के लिए द्रष्टव्य भगवई १२६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमंसइ, बंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीर वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति। १२६. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार कहकर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर संयम और तपस्या के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे। १. भ. वृ. १२/१२७.१२८-अविरताएं त्ति विप्रियकरणेऽप्यविरक्तया। २. वही,-व्यवशमनं-पुंवेदविकारोपशमस्तस्य यः कालसमयः स तथा तत्र रतावसान इत्यर्थः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक संस्कृत छाया जीवाणं सब्वत्थ जम्म-मचु-पदं जीवानाम् सर्वत्र जन्म-मृत्यु-पदम् १३०. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं तस्मिन् काले तस्मिन् समये यावत् वयासी केमहालए णं भंते ! लोए एवमवादीत्-कियन्महान् भदन्त! लोकः पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तः? गोयमा ! महतिमहालए लोए पण्णत्ते- गौतम! महामहान् लोकः प्रज्ञप्त:पुरस्थिमेणं असंखेज्जाओ जोयण- पौरस्त्येन असंख्येयाः योजनकोटिकोडाकोडीओ, दाहिणेणं असंखेज्जाओ कोटयः, दक्षिणेन असंख्येयाः योजनजोयणकोडाकोडीओ, एवं पचत्थिमेण कोटिकोटयः, एवं पाश्चात्येनापि, एवम् वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उखु पि, अहे उत्तरेणापि, एवम् ऊर्ध्वमपि, अधः असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ असंख्येयाः योजनकोटिकोटयः आयामविक्खंभेणं॥ आयामविष्कम्भेण। हिन्दी अनुवाद जीवों का सर्वत्र जन्म-मृत्यु पद १३०. उस काल उस समय यावत् गौतम स्वामी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भंते ! लोक कितना बड़ा प्रज्ञप्त है? गौतम! लोक विशालतम प्रज्ञप्त है-पूर्वदिशा में असंख्येय कोटा-कोटि योजन, दक्षिण दिशा में असंख्येय कोटा-कोटि योजन, इसी प्रकार पश्चिम दिशा में भी, इसी प्रकार उत्तर दिशा में भी, इसी प्रकार ऊर्ध्व एवं अधो दिशा में भी असंख्येय कोटाकोटि योजन लम्बा-चौड़ा है। १३१. एयंसि णं भंते ! एमहालगंसि लोगसि अस्थि केइ परमाणु- पोग्गलमत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि ? गोयमा ! नो इणढे समट्टे॥ एतस्मिन् भदन्त! इयन्महति लोके अस्ति कश्चित् परमाणुपुद्गलमात्रम् अपि प्रदेशः, यत्र अयं जीवः न जातः वा, न मृतः वा अपि? गौतम! नो अयमर्थः समर्थः। १३१. भंते ! इस विशालतम लोक में कोई परमाणु-पुद्गल (मात्र) प्रदेश भी ऐसा है, जहां पर इस जीव ने जन्म अथवा मरण न किया हो? गौतम ! यह अर्थ संगत नहीं है। १३२. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचइ- एयंसि तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- १३२. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा णं एमहालगंसि लोगंसि नत्थि केइ इयन्महति लोके नास्ति कश्चित् है-इस विशालतम लोक में परमाणु-पुद्गल परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं परमाणुपुद्गलमात्रम् अपि प्रदेशः, यत्र मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जहां पर इस अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि? अयं जीवः न जातः वा न मृतः वा जीव ने जन्म अथवा मरण न किया हो? अपि? गोयमा ! से जहानामए : परिसे गौतम! अथ यथानामकः कश्चित् गौतम ! जिस प्रकार कोई पुरुष सौ अयासयस्स एगं महं अयावय पुरुषः अजाशतस्य एकं महान्तं बकरियों के लिए एक बड़ा अजाव्रज (बकरी से णं तत्थ जहण्णेणं एक्कं वा दो वा अजाव्रजं कुर्यात्, सः तत्र जघन्येन एकं बाड़ा) तैयार करवाता है। वह वहां तिण्णि बा, उक्कोसेणं अयासहस्सं वा, द्वे वा, त्रीणि वा, उत्कर्षेण वा जधन्यतः एक, दो अथवा तीन उत्कृष्टतः पक्खिवेज्जा, ताओ णं तथा अजासहसं प्रक्षिपेत्, ताः तत्र हजार बकरियों का प्रक्षेप करता है। यदि पउरगोयराओ पउरपाणियाओ प्रचुरगोचराः प्रचुरपानीयाः जघन्येन उन बकरियों के लिए वहां प्रचुर घास और जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं एकाहः द्वयाहः यह वा, उत्कर्षण पानी हो तथा वे बकरियां जघन्यतः एक वा, उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा। षड्मासान् परिवसेयुः। ।। दिन अथवा तीन दिन, उत्कृष्टतः छह मास तक रहे। अस्थि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स अस्ति गौतम! तस्य अजाव्रजस्य गौतम! क्या उस अजाव्रज का कोई केई परमाणुपोग्गलमत्ते वि पएसे, जे णं कश्चित् परमाणुपुद्गलमात्रम् अपि परमाणु-पुद्गल मात्र प्रदेश भी ऐसा रहता Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई तासिं अयाणं उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूएण वा सुक्केण वा सोणिएण वा चम्मेहिं वा रोमेहिं वा सिंगेहिं वा खुरेहिं वा नहेहिं वा अणोक्कतपुब्वे भवइ ? नो इणट्ठे समहे ॥ होज्जा वि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि परसे, जेणं तासिं अयाणं उच्चारेण वा जाव नहेहिं वा अणोक्कंतपुव्वे, नो चेव णं एयंसि एमहालगंसि लोगंसि लोगस्स य सासयं भावं, संसारस्स य अणादिभावं जीवस्स य णिच्चभावं कम्मबहुत्तं, जम्ममरणबाहुल्लं च पडुच्च अत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि। से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - एयंसि णं एमहालगंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणुषोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि ॥ असई अदुवा अणंतखुत्तो उववज्जण-पदं १३३. कति णं भंते! पुढबीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, जहा पढमसए पंचमउद्देसए तहेब आवासा ठावेयव्वा जाव अणुत्तरविमाणेत्ति जाव अपराजिए सव्वट्टसिद्धे ॥ १. सूत्र १३०-१३२ लोक की महानता जीवों की उत्पत्ति के संदर्भ में बतलाई गयी है। इस लोक का छहों दिशाओं में प्रत्येक दिशा का आयाम - विष्कंभ असंख्य योजन कोटाकोटि का है। इतने विशाल लोक में एक परमाणु जितना भी प्रदेश खाली नहीं है, जहां इस जीव ने जन्म न लिया हो, मरण न किया हो। १३४. अयण्णं भंते! जीवे इमीसे रयणष्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावास - ७१ प्रदेशः, यः तासाम् अजानाम् उच्चारेण वा प्रत्रवेण वा क्ष्वेलेन वा 'सिंघाणेण' वा वान्तेन वा पित्तेन वा पूयेन वा शुक्रेण वा शोणितेन वा चर्मभिः वा रोमभिः वा शृङ्गैः वा खुरैः वा नखैः वा अनवक्रान्तपूर्वः भवति? नो अयमर्थः समर्थः । भवेत् अपि गौतम! तस्य अजाव्रजस्य कश्चित् परमाणुपुद्गलमात्रम् अपि प्रदेशः, यः तासाम् अजानाम् उच्चारेण वा यावत् नखैः वा अनवक्रान्तपूर्वः, नो चैव एतस्मिन् इयन्महति लोके लोकस्य च शाश्वतं भावं, संसारस्य च अनादिभावं जीवस्य च नित्यभावं, कर्मबहुत्वं, जन्ममरणबाहुल्यं अस्ति कश्चित् परमाणुपुद्गलमात्रम् अपि प्रदेशः, यत्र अयं जीवः न जातः वा, न मृतः वा अपि । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेएतस्मिन् इयन्महति लोके नास्ति कश्चित् परमाणुपुद्गलमात्रम् अपि प्रदेशः, यत्र अयं जीवः न जातः वा, न मृतः वा अपि । भाष्य असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः -पदम् कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! सप्त पृथिव्याः, यथा प्रथमशते पञ्चमोद्देशे तथैव आवासाः स्थापितव्याः यावत् अनुत्तरविमानः इति यावत् अपराजितः सर्वार्थसिद्धः । पुनर्जन्म के विषय में होने वाली एक जिज्ञासा यह है - यह जीव अनादिकाल से जन्म मरण के अरण्य में पर्यटन कर रहा है। इतना कौनसा स्थान है जहां वह जन्म लेता और मरता नहीं है ? लोक की विशालता का प्रतिपादन कर इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है। अावज ( बकरियों का बाड़ा) के उदाहरण से इसे समझाया गया है। अयं भदन्त ! जीवः अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां निरयावास - त्रिंशत्षु श. १२ : उ. ७ : सू. १३० - १३४ है, जो उन बकरियों के उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, नाक का मैल, वमन, पित्त, पीव (रस्सी), शुक्र, शोणित, चर्म, रोम, सींग, खुर अथवा नखों से आक्रांत न हुआ हो ? यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम ! उस अजाव्रज का कोई परमाणु पुद्गल मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है जो उन बकरियों के उच्चार यावत् अथवा नखों से आक्रांत नहीं होता। वैसे ही इस विशालतम लोक में लोक का शाश्वत भाव, संसार - जन्म-मरण का अनादि भाव, जीव का नित्य भाव, कर्म - बहुत्व और जन्म-मरण के बाहुल्य की अपेक्षा परमाणु पुद्गल मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जहां पर इस जीव ने जन्म अथवा मरण न किया हो। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - इस विशालतम लोक में कोई परमाणु पुद्गल मात्र प्रदेश भी ऐसा नहीं है। जहां इस जीव ने जन्म अथवा मरण न किया हो । अनेक अथवा अनंत बार उपपात पद १३३. भंते ! पृथ्वियां कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है ? गौतम ! पृथ्वियां सात प्रकार की प्रज्ञप्त हैं, जैसे प्रथम शतक के पांचवें उद्देशक (सूत्र ५ / २११ - २५५) की वक्तव्यता है वैसे ही आवासों की वक्तव्यता यावत् अनुत्तरविमान यावत् अपराजित सर्वार्थसिद्ध की वक्तव्यता । १३४. भंते ! क्या यह जीव इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ भगवई श. १२ : उ. ७ : सू. १३५-१३६ सयसहस्सेस् एगमेगसि निरयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए, नरगत्ताए, नेरइयत्ताए उववन्नपुग्वे ? हंता गोयमा! असई अदुवा अणतखुत्तो॥ शतसहसेष एकैकस्मिन निरयावासे पृथिवीकायिकत्वेन यावत् वनस्पतिकायिकत्वेन, नरकत्वेन नैरयिकत्वेन उपपन्नपूर्वः? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः। नरकावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में नरकावास के जीव के रूप में और नैरयिक के रूप में उपपन्न पूर्व है? हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार | १३५. सब्बजीवा वि णं भंते ! इमीसे सर्वे जीवाः अपि भदन्त! अस्यां रत्न- १३५. भंते ! क्या सब जीव इस रत्नप्रभा पृथ्वी रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए प्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत्यु के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् नरकावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के निरयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव निरयावासे पृथिवीकायिकत्वेन यावत् रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में, वणस्सइकाइयत्ताए, नरगत्ताए, वनस्पतिकायिकत्वेन, नरकत्वेन नरकावास के जीव के रूप में और नैरयिक नेरइयत्ताए उववन्नपुब्वे ? नैरयिकत्वेन उपपन्नपूर्वः? के रूप में उपपन्न पूर्व है ? हंता गोयमा! असई अदुवा हन्त गौतम! असकृत् अथवा हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। अणंतखुत्तो॥ अनन्तकृत्वः। १३६. अयण्णं भंते ! जीवे सक्करप्पभाए अयं भदन्त! जीवः शर्कराप्रभायां १३६. भंते ! क्या यह जीव शर्कराप्रभा पृथ्वी के पुढवीए पणुवीसाए निरयावाससय- पृथिव्यां पञ्चविंशतिषु निरयावासशत- पचीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक सहस्सेसु एगमेगसि निरयावासंसि? सहस्रेषु एकैकस्मिन निरयावासे? नरकावास में रहने वाले....? एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो एवं यथा रत्नप्रभायां तथैव द्वौ इसी प्रकार जैसे-रत्नप्रभा पृथ्वी की आलावगा भाणियव्वा। एवं जाव आलापको भणितव्यौ। एवं यावत् वक्तव्यता है वैसे ही दो आलापक वक्तव्य धूमपभाए॥ धूमप्रभायाम् । हैं। इसी प्रकार यावत् धूमप्रभा की वक्तव्यता। १३७. अयण्णं भंते ! जीवे तमाए पुढवीए पंचूणे निरयावाससयसहस्से एगमेगसि निरयावासंसि ? अयं भदन्त! जीवः तमायां पृथिव्यां पञ्चोने निरयावासशतसहस्रे एकैकस्मिन् निरयावासे? १३७. भंते ! क्या यह जीव तमःप्रभा पृथ्वी के निन्यानवें हजार नौ सौ पिचानवें नरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् उपपन्नपूर्व है। शेष वर्णन पूर्ववत्। सेसं तं चेव॥ शेषं तत् चैव। १३८. अयण्णं भंते ! जीवे अहेसत्तमाए पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महति महालएसु महानिरएसु एगमेगंसि निरयावासंसि ? सेसं जहा रयणपभाए॥ अयं भदन्त! जीवः अधःसप्तम्यां पृथिव्यां पञ्चसु अनुत्तरेषु महामहत्सु महानिरयेषु एकैकस्मिन् निरयावासे? शेष यथा रत्नप्रभायाम् । १३८. भंते ! क्या यह जीव अधःसप्तमी पृथ्वी के पांच अनुत्तर विशालतम महानरकावासों में से प्रत्येक नरकावास में रहने वाले.....? शेष वर्णन रत्नप्रभा की भांति वक्तव्य है। १३६. अयण्णं भंते! जीवे चउसट्टीए अयं भदन्त ! जीवः चतुष्षष्टिषु असुर- असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि कुमारावासशतसहसेसु । एकैकस्मिन् असुरकुमारावासंसि पुढविक्काइयत्ताए असुरकुमारावासे पृथिवीकायिकत्वेन जाव वणस्सइ काइयत्ताए देवत्ताए यावत् वनस्पतिकायिकत्वेन देवत्वेन देवित्ताए आसण-सयण-भंडमत्तो- __ देवीत्वेन आसन-शयन-भाण्डामत्रोपवगरणत्ताए उववन्नपुब्वे ? करणत्वेन उपपन्नपूर्वः? हंता गोयमा ! असई, अदुवा हन्त गौतम! असकृत् अथवा अणंतखुत्तो। अनन्तकृत्वः। १३६. भंते ! क्या यह जीव चौसठ लाख असुर कुमारावासों में से प्रत्येक असुरकुमारावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में, देव के रूप में देवी के रूप में, आसन, शयन, भांड, अमत्र और उपकरण के रूप में उपपन्न पूर्व है। हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई सव्वजीवा वि णं भंते ! एवं चेव । एवं जाव थणियकुमारेसु । नाणत्तं आवासे, आवासा पुव्वभणिया ॥ १४०. अयण्णं भंते! जीवे असंखेज्जेसु पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए उबवन्नपुव्वे ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणतखुत्तो । एवं सव्वजीवा वि । एवं जाव वणस्सइकाइए ॥ १४१. अयण्णं भंते ! जीवे असंखेज्जेसु बेइंदियावाससयसहस्सेसु एगमेiसि बेइंदियावासंसि पुढविक्काइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए, बेदियत्ताए उवबन्नपुब्वे ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अनंतखुत्तो। सव्वजीवा विणं एवं चेव । एवं जाव मणुस्सेसु, नवरंतेइदिएसु जाव वणस्सइकाइयत्ताए तेइंदियत्ताए, चउरिंदिएसु चउरिंदियत्ताए, पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु पंचिंदितिरिक्खजोणियत्ताए मणुस्सत्ताए, सेसं जहा बेइंदियाणं, वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मीसाणेसु य जहा असुरकुमाराणं ॥ १४२. अयण्णं भंते ! जीवे सणकुमारे कप्पे बारससु विमाणावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेमाणियावासंसि पुढवि - काइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए देवत्ताए आसण-सयण - भंडमत्तोवगरणत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। एवं सव्वजीवा वि । एवं जाव आणयपाणएसु, एवं आरणच्चुएसु वि ॥ ७३ सर्वे जीवाः अपि भदन्त ! एवं तत् चैव । एवं यावत् स्तनितकुमारेषु । नानात्वम् आवासेषु, आवासाः पूर्वभणिताः । अयं भदन्त ! जीवः असंख्येयेषु पृथिवीकायिकावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् पृथिवीकायिकावासे पृथिवीकायिकत्वेन यावत् वनस्पतिकायिकत्वेन उपपन्नपूर्वः ? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः । एवं सर्वे जीवाः अपि । एवं यावत् वनस्पतिकायिकेषु । अयं भदन्त! जीवः असंख्येयेषु द्वीन्द्रियावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् द्वीन्द्रियावासे पृथिवीकायिकत्वेन यावत् वनस्पतिकायिकत्वेन द्वीन्द्रियत्वेन उपपन्नपूर्वः ? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः । सर्वे जीवाः अपि एवं चैव । एवं यावत् मनुष्येषु, नवरम् - त्रीन्द्रियेषु यावत् वनस्पतिकायिकत्वेन त्रीन्द्रियत्वेन चतुरिन्द्रियेषु चतुरिन्द्रियत्वेन, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकत्वेन, मनुष्येषु मनुष्यत्वेन, शेषं यथा द्वीन्द्रियाणां वानमन्तर- ज्यौतिष्क- सौधर्मेशानेषु च यथा असुरकुमाराणाम् । अयं भदन्त ! जीवः सनत्कुमारे कल्पे द्वा विमानावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् वैमानिकावासे पृथिवीकायिकत्वेन यावत् वनस्पतिकायिकत्वेन देवत्वेन आसन-शयन भाण्डामत्रोपकरणत्वेन उपपन्नपूर्वः ? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः । एवं सर्वे जीवाः अपि । एवं यावत् आनतप्राणतेषु एवम् आरणाच्युतेषु अपि । श. १२ : उ. ७ : सू. १४०-१४२ भंते! सब जीवों के लिए भी । पूर्ववत् वक्तव्यता । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक। उनके आवासों में नानात्व है, आवास पहले शतक (१/२११-२१५) में कहे जा चुके हैं। १४०. भंते! क्या यह जीव असंख्येय लाख पृथ्वीकायिकावासों में से प्रत्येक पृथ्वीकायिक आवास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में उपपन्न पूर्व है ? हां गौतम ! अनेक अथवा अनंत बार इसी प्रकार सब जीव भी वक्तव्य हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों में। १४१. भंते! क्या यह जीव असंख्येय लाख द्वीन्द्रियावासों में से प्रत्येक द्वीन्द्रियावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में और द्वीन्द्रियकायिक के रूप में उपपन्न पूर्व है ? हां गौतम ! अनेक अथवा अनंत बार। इसी प्रकार सब जीव भी वक्तव्य हैं। इसी प्रकार यावत् मनुष्यों में, इतना विशेष है-त्रीन्द्रियों में यावत् वनस्पतिकायिक और त्रीन्द्रिय के रूप में, चतुरिन्द्रियों में चतुरिन्द्रिय के रूप में, पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों में पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक के रूप में, मनुष्यों में मनुष्य के रूप में, शेष द्वीन्द्रियों की भांति वक्तव्य है। वानमंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशानों में असुरकुमारों की भांति वक्तव्यता । १४२. भंते ! क्या यह जीव सनत्कुमारकल्प के बारह लाख विमानावासों में से प्रत्येक विमानावास में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में यावत् वनस्पतिकायिक के रूप में, देव के रूप म, आसन, शयन, भांड, अमत्र और उपकरण के रूप में उपपन्न पूर्व है ? हां गौतम ! अनेक अथवा अनंत बार इसी प्रकार समस्त जीव भी वक्तव्य हैं। इसी प्रकार यावत् आनत - प्राणत कल्पों में, इसी प्रकार आरण- अच्युत कल्पों में भी वक्तव्य हैं। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ भगवई श. १२ : उ. ७ : सू. १४३-१४६ १४३. अयण्णं भंते ! जीवे तिसु वि अट्ठासुत्तरेसु गेविज्जविमाणावाससयेसु एवं चेव॥ अयं भदन्त! जीवः त्रिषु अपि अष्टादशोत्तरेषु ग्रैवेयकविमानावासशतेषु एवं चैव। १४३. भंते ! क्या यह जीव तीन सौ अठारह ग्रैवेयक विमानावासो में.....? इसी प्रकार पूर्ववत्। १४४. अयण्णं भंते ! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु एगमेगसि अणुत्तर विमाणंसि पुढविकाइयत्ताए ? तहेब जाव असई, अदुवा अणंतखुत्तो, नो चेव णं देवत्ताए वा देवीत्ताए बा। एवं सब्बजीवा वि॥ अयं भदन्त! जीवः पञ्चसु अनुत्तर- विमानेषु एकैकस्मिन् अनुत्तरविमाने पृथिवीकायिकत्वेन? तथैव यावत् असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः, नो चैव देवत्वेन वा देवीत्वेन वा। एवं सर्वे जीवाः अपि। १४४. भंते! क्या यह जीव पांच अनुत्तरविमानों में से प्रत्येक अनुत्तरविमान में रहने वाले पृथ्वीकायिक के रूप में.....? वैसे ही यावत् अनेक अथवा अनंत बार। देव के रूप में अथवा देवी के रूप में नहीं। इसी प्रकार सब जीवों की वक्तव्यता। १४५. भंते! क्या यह जीव सब जीवों के माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, पुत्र, पुत्री और पुत्रवधु के रूप में उपपन्न पूर्व है ? १४५. अयण्णं भंते ! जीवे सब्बजीवाणं माइत्ताए, पितित्ताए, भाइत्ताए, भगिणित्ताए, भज्जत्ताए, पुत्तत्ताए, धूयत्ताए, सुण्हत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता गोयमा! असई अदुवा अणंतखुत्तो॥ अयं भदन्त! जीवः सर्वजीवानां मातृत्वेन, पितृत्वेन, भ्रातृत्वेन, भगिनीत्वेन, भार्यात्वेन, पुत्रत्वेन, दुहितृत्वेन, स्नुषात्वेन उपपन्नपूर्वः? । हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः। हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। १४६. भंते ! क्या सब जीव भी इस जीव के माता, पिता, भ्राता, भगिनी, भार्या, पुत्र, पुत्री और पुत्रवधु के रूप में उपपन्न पूर्व हैं ? १४६. सब्बजीवा वि णं भंते ! इमस्स जीवस्स माइत्ताए, पितित्ताए, भइत्ताए, भगिणित्ताए, भज्जत्ताए, पुत्तत्ताए, धूयत्ताए, सुण्हत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता गोयमा! असई अदुवा अणतखुत्तो॥ सर्वे जीवाः अपि भदन्त! अस्य जीवस्य मातृत्वेन, पितृत्वेन, भ्रातृत्वेन, भगिनीत्वेन, भार्यात्वेन, पुत्रत्वेन, दुहितृत्वेन, स्नुषात्वेन उपपन्नपूर्वः? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः । हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। १४७. भंते ! क्या यह जीव सब जीवों के शत्रु, वैरी, घातक, वधक, प्रत्यनीक और प्रत्यमित्र के रूप में उपपन्न पूर्व है ? १४७. अयण्णं भंते ! जीवे सब्वजीवाणं अरित्ताए, वेरियत्ताए, घातगत्ताए, वहगत्ताए, पडिणीयत्ताए, पञ्चामित्तत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता गोयमा! असई अणंतखुत्तो॥ अयं भदन्त! जीवः सर्वजीवानाम् अरित्वेन, वैरित्वेन, घातकत्वेन, वधकत्वेन, प्रत्यनीकत्वेन, प्रत्यमित्रत्वेन उपपन्नपूर्वः? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्त- कृत्वः ? हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। १४८. भंते ! क्या सब जीव भी इस जीव के शत्रु, वैरी, घातक, वधक, प्रत्यनीक और प्रत्यमित्र के रूप में उपपन्न पूर्व हैं ? १४८. सब्बजीवा वि णं भंते ! इमस्स जीवस्स अरित्ताए, वेरियत्ताए, घातगत्ताए, वहगत्ताए, पडिणीयत्ताए, पचामित्तत्ताए उववन्नपुग्वे ? हंता गोयमा! असई अदुवा अणंतखुत्तो॥ सर्वे जीवाः अपि भदन्त! अस्य जीवस्य अरित्वेन, वैरित्वेन, घातकत्वेन, वधकत्वेन, प्रत्यनीकत्वेन, प्रत्यमित्रत्वेन उपपन्नपर्वः? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्त- कृत्वः। हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। १४६. अयण्णं भंते! जीवे सव्वजीवाणं अयं भदन्त! जीवः सर्वजीवानां रायत्ताए जुवरायत्ताए तलवरत्ताए राजत्वेन, युवराजत्वेन, 'तलवर त्वेन माडंबियत्ताए कोडुंबियत्ताए इन्भत्ताए __माडम्बिकत्वेन, कौटुम्बिकत्वेन, सेट्टित्ताए सेणावइत्ताए सत्यवाहत्ताए इभ्यत्वेन, श्रेष्ठित्वेन, सेनापतित्वेन, उववन्नपुवे? सार्थवाहत्वेन उपपन्नपूर्वः? १४६. भंते ! क्या यह जीव सब जीवों के राजा, युवराज, तलवर (कोटवाल), मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह के रूप में उपपन्न पूर्व है ? Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयम ! असई अदुवा हंता अनंतखुत्तो ॥ १५० सव्वजीवा दि णं भंते! इमस्स जीवस्स रायत्ताए जुवरायत्ताए तलवरत्ताए माडंबियत्ताए कोडुंबियत्ताए इब्भत्ताए सेट्ठित्ताए सेणावइत्ताए सत्थवाहत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता गोयमा ! अणंतखुत्तो ॥ असई अदुवा १५१. अयण्णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं दासत्ताए, पेसत्ताए, भयगत्ताए, भाइल्लत्ताए, भोगपुरिसत्ताए, सीसत्ताए, वेसत्ताए उववन्नपुव्वे ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अनंतखुत्तो ॥ १५२. सव्वजीवा विणं भंते ! इमस्स जीवस्स दासत्ताए, पेसत्ताए, भयगत्ताए, भाइल्लत्ताए, भोगपुरिसत्ताए, सीसत्ताए, बेसत्ताए उववन्नपुब्बे ? असई अदुवा हंता गोयमा ! अणंतखुत्तो ॥ हन्त गौतम ! अनन्तकृत्वः । ७५ असकृत् अथवा सर्वे जीवाः अपि भदन्त ! अस्य जीवस्य राजत्वेन, युवराजत्वेन, 'तलवर' त्वेन माडम्बिकत्वेन, कौटुम्बिकत्वेन, इभ्यत्वेन श्रेष्ठित्वेन, सेनापतित्वेन सार्थवाहत्वेन उपपन्नपूर्वः ? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः । अयं भदन्त ! जीवः सर्वजीवानां दासत्वेन, प्रेष्यत्वेन भृतकत्वेन, भागिकत्वेन, भोगपुरुषकत्वेन, शिष्यत्वेन वैश्यत्वेन उपपन्नपूर्वः ? हन्त गौतम! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः । सर्वे जीवाः अपि भदन्त ! अस्य जीवस्य दासत्वेन, प्रेष्यत्वेन भृतकत्वेन, भागिकत्वेन, भोगपुरुषत्वेन, शिष्यत्वेन वैष्यत्वेन उपपन्नपूर्वः ? हन्त गौतम ! असकृत् अनन्तकृत्वः । १. सूत्र १३३-१५२ जीव अनादि काल से संसार में भ्रमण कर रहे हैं। यह सामान्य निर्देश हैं, विधि सूत्र है। इसका निषेध सूत्र है - असकृद् भ्रमण। कुछ जीव ऐसे हैं, जो नाना रूपों में अनेक बार भ्रमण करते हैं। उसके बाद वे मुक्त हो जाते हैं। विवरण के लिए देखें भगवई २ / ७६ का भाष्य । प्रस्तुत प्रकरण में संसरण में प्राप्त होने वाले नाना रूपों का नामोल्लेख किया गया है। 'असई' अथवा 'अणंत खुत्तो'इसका उल्लेख भगवई ६/१०५, ११६ तथा भगवई ११ / ४०,५५ में हुआ है। भाष्य असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु - असंख्यात के साथ फिर शत- सहस्र का प्रयोग क्यों ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। वृत्तिकार ने इसका समाधान दिया है- पृथ्वीकायिक आवासों की १. भ. वृ. १२/१३३-१५२ - इहासंख्यातेषु पृथिवीकायिकावासेषु एतावतैव सिद्धेर्यच्छत-सहस्रग्रहणं तत्तेषामतिबहुत्वख्यापनार्थम्। २. वही, १२/१३३ - १५२ - अनुत्तरविमानेष्वनन्तकृत्वो देवा नोत्पद्यन्ते देवयश्च सर्वथैवेति । अथवा श. १२ : उ. ७ : सू. १५०-१५२ हां, गौतम ! अनेक अथवा अनंत बार। १५०. भंते! क्या सब जीव भी इस जीव के राजा, युवराज, तलवर, मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह के रूप में उपपन्न पूर्व हैं ? हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। ४. वही, २/१-१५। १५१. भंते! क्या यह जीव सब जीवों के दास, प्रेष्य, भृतक, भागीदार, भोगपुरुष, शिष्य और वैश्य के रूप में उपपन्न पूर्व है ? हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। १५२. भंते! क्या सब जीव भी इस जीव के दास, प्रेष्य, भृतक, भागीदार, भोगपुरुष, शिष्य और वैश्य के रूप में उपपन्न पूर्व हैं ? बहुलता बतलाने के लिए शतसहस्र का प्रयोग किया गया है। ' देवियां सौधर्म और ईशानकल्प में होती हैं। उनसे आगे किसी भी स्वर्ग में देवियां नहीं होती इसलिए सनत्कुमार आदि कल्पों में देवित्ताए (सूत्र १४२ ) इस पाठ का ग्रहण नहीं है। हां गौतम ! अनेक अथवा अनन्त बार। अनुत्तरविमान में कोई भी मनुष्य देव रूप में अनंत बार उपपन्न नहीं होता। अनेक बार का भी नियम है। प्रथम चार अनुत्तरविमानों में एक मनुष्य दो बार से अधिक तथा सर्वार्थसिद्ध में एक बार से अधिक उपपन्न नहीं होता । अधोलोकवर्ती नरकों तथा भवनपति देवों के आवासों, ऊर्ध्वलोकवर्ती वैमानिक देवों के आवासों में बादर अग्निकायिक जीव नहीं होते इसलिए 'पढवीकायियत्ताए जाव वणस्सइ कायियत्ताए' इस पाठ में तेउकायियत्ताए पाठ का ग्रहण नहीं है । " • पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव- इस पाठ में पांचों ३ (क) भ. २४ / ३१०, ३५६ । (ख) पण्ण. १५ / ११३। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ.७ : सू. १५३ ७६ भगवई स्थावर जीव निकायों का निर्देश है। इस पाठ की रचना सूक्ष्म स्थावर जीवों की अपेक्षा से की गई है। बादर स्थावर जीव निकाय के प्रसंग में यह नियम सर्वत्र लागू नहीं है। उनके नियम पृथक्-पृथक् हैं।' शब्द-विमर्श नरगत्ताए-नरकावास के जीव के रूप में। घायगत्ताए-मारक के रूप में वहगत्ताए-वधक के रूप में मयगत्ताए-मृतक के रूप में भाइल्लगत्ताए-भागीदार के रूप में वेसत्ताए-वैश्य के रूप में वृत्तिकार के इसका अर्थ द्वेश्य के रूप में किया है। १५३. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति । १५३. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है। ऐसा कहकर यावत् विहरण करने लगे। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल देवाणं बिसरीरेसु उववाय-पदं १५४. तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी - देवे णं भंते ! महिडीए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु नागेसु उववज्जेज्जा ? हंता उववज्जेज्जा ॥ १५५. से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइयसक्कारिय- सम्माणिए दिव्वे सचे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे यावि भवेज्जा ? हंता भवेज्जा ॥ १५६. से णं भंते ! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ? हंता सिज्झेज्जा जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ॥ १५७, देवे णं भंते! महिड्डीए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु मणीसु उववज्जेज्जा ? हंता उववज्जेज्जा । एवं चैव जहा नागाणं ॥ १५८. देवे णं भंते ! महिडीए जाव महेसक्खे अनंतरं चयं चइत्ता बिसरीरेसु रूक्खेसु उववज्जेज्जा ? हंता उववज्जेज्जा । एवं चेव, नवरंइमं नाणत्तं जाव सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भवेज्जा ? अमो उद्देसो : आठवां उद्देशक संस्कृत छाया देवानां द्विशरीरेषु उपपात-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये यावत् एवमवादीत् - देवः भदन्त ! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः अनन्तरं च्यवं च्युत्वा द्विशरीरेषु नागेषु उपपद्येत ? हन्त उपपद्येत । सः तत्र अर्चित- वन्दित - पूजित - सत्कृत- सम्मानितः दिव्यः सत्य: सत्यावपातः सन्निहितप्रातिहार्य : चापि भवेत् ? हन्त भवेत्। सः भदन्त! तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य सिध्येत् यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्यात् ? हन्त सिध्येत् यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्यात् । देव: भदन्त ! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः अनन्तरं च्यवं च्युत्वा द्विशरीरेषु मणिषु उपपद्येत ? हन्त उपपद्येत । एवं चैव यथा नागानाम् । देव: भदन्त ! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः अनन्तरं च्यवं च्युत्वा द्विशरीरेषु रूक्षेषु उपपद्येत? हन्त उपपद्येत । एवं चैव, नवरम्-इदं नानात्वं यावत् सन्निहितप्रातिहार्यः 'लाउल्लोइयमहिए' चापि भवेत् ? हिन्दी अनुवाद देवों का द्विशरीर - उपपात पद १५४. उस काल और उस समय में यावत् इस प्रकार बोले- भंते ! क्या महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर द्विशरीर वाले नागों में उपपन्न होता है ? हां, उपपन्न होता है। १५५. क्या वह वहां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य (प्रधान), सत्य, सत्यावपात और सन्निहित प्रातिहार्य होता है ? हां, होता है। १५६. भंते! क्या वह वहां से अनन्तर निकलकर सिद्ध यावत् सब दुःखों का अन्त करता है ? हां, सिद्ध यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। १५७. भंते! क्या महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव उस देवलोक से अनन्तर च्यवन कर द्विशरीर वाले मणियों में उपपन्न होता है ? उपपन्न होता है। इस प्रकार नाग की भांति वक्तव्यता। १५८. भंते ! क्या महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर द्विशरीरी वाले वृक्षों में उपपन्न होता है ? हां, उपपन्न होता है। इसी प्रकार पूर्ववत् वक्तव्यता, इतना विशेष है- क्या इसमें नानात्व यावत् सन्निहित प्रातिहार्य और लाउल्लोइयमहित - वृक्ष का भूमिभाग गोबर Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२: उ. सू. १५४ - १५६ हंता भवेज्जा। सेसं तं चैव जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा ॥ पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं उवववाय-पदं १५६, अह भंते! गोनंगूलवसभे, कुक्कुडवसभे, मंडुक्कवसभे-एए णं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा हन्त भवेत् । शेषं तत् चैव यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्यात् । १. सूत्र १५४-१५८ अभयदेवसूरि के अनुसार एक भव मोक्षगामी के लिए द्विशरीर शब्द का प्रयोग किया गया है। जो नाग नाग-शरीर को छोड़कर अगले जन्म में मनुष्य शरीर प्राप्त कर मुक्त होता है, वह द्विशरीरी है।' स्थानांग में द्विशरीरी का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है। चतुर्थ स्थान में बतलाया गया है- ऊर्ध्वलोक, तिर्यक् लोक और अधोलोक - तीनों में पृथ्वी, जल, वनस्पति और उदार त्रस प्राणी (पंचेन्द्रिय जीव) द्विशरीर वाले होते हैं। वृत्ति में द्विशरीरी का वही अर्थ है - दूसरे जन्म में मोक्ष जाने वाला । ' दूसरे स्थान में सब जीवों को दो शरीर वाला - आभ्यन्तर और बाह्य शरीर वाला बतलाया गया है। " मरुत देवों का पाठ विचित्र है। उन्हें तथा अन्य देवों को एक शरीरी तथा द्विशरीरी दोनों बतलाया गया है। वृत्तिकार के अनुसार विग्रह गति में कार्मण शरीर की अपेक्षा से एक शरीर है और जन्म के पश्चात् वैक्रिय शरीर की उपलब्धि हो जाती है, इस अपेक्षा से वे द्विशरीरी होते हैं। " चौदहवें शतक में शाल वृक्ष, शालयष्टिका तथा उदुम्बरयष्टिका को मोक्षगामी बतलाया गया है। शालवृक्ष फिर शालवृक्ष बनेगा, वह अर्चित और वंदित होगा। अर्चित और वंदित शालवृक्ष अनंतर भव में मनुष्य जन्म लेकर मुक्त होगा। इस सूत्र के आधार पर द्विशरीरी की वृत्तिकार द्वारा की हुई व्याख्या साधार बन जाती है। १. भ. वृ. १२/१५४-बिसरीरेसु त्ति द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीरास्तेषु, ये हि नाग शरीरं त्यक्त्वा मनुष्यशरीरमवाप्य सेत्स्यन्ति ते द्विशरीरा इति । ७८ २. ठाणं ४ / ४८३ - ४८५ । ३. स्था. वृ. पृ. २३६ - द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीराः, एकं पृथिवीकायिकादि शरीरमेव द्वितीयं जन्मान्तरभावि मनुष्यशरीरं ततस्तृतीयं केषाञ्चिन् न भवत्यनन्तरमेव सिद्धिगमनात् । ४. ( क ) ठाणं २ / १५३-१६० भाष्य (ख) स्था. वृ. प. ५२ - अभ्यन्तः - मध्ये भवमाभ्यन्तरं, आभ्यन्तरत्वं च तस्य जीवप्रदेशैः सह क्षीरनीरन्यायेन लोलीभवनात् भवान्तरगतावपि च जीवस्यानुगतिप्रधानत्वादपवरकाद्यन्तः प्रविष्ट पुरुषवदनतिशयिनामप्रत्यक्षत्वाच्चेति । ५. ठाणं २ / २०६ - २११ । ६. स्था. वृ. प. ५५ मरुतो देवा लोकान्तिकदेवविशेषाः, ते चैकशरीरिणो पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम् उपपात-पदम् अथ भदन्त! गोलाङ्गूलवृषभ:, कुक्कुटवृषभः, मण्डूकवृषभः- एते निःशीलाः निर्व्रताः निर्गुणाः निर्मेरा, निष्प्रत्या अर्चित, पूजित, वंदित, सत्कारित और सम्मानित - इन पांच विशेषणों का संबंध अर्चा से है। दिव्य विशेषण का संबंध दिव्य शक्ति से है। अष्टांग संग्रह में सर्प की दो गतियां बतलाई गई हैं-दिव्य और भौम | दिव्य विशिष्ट शक्ति संपन्न होता है।" अनुग्रह और निग्रह करने की शक्ति तेजोलब्धि से प्राप्त होती है। दिव्य नागों का तैजस शरीर प्रबल होता है। इस अपेक्षा से भी उन्हें द्विशरीरी कहा जा सकता है-एक स्थूल शरीर और दूसरा तैजस शरीर, जो दिव्य शक्ति से सम्पन्न है। भगवई आदि से लिपा हुआ और भींत खड़िया मिट्टी से पुती हुई होती है ? हां, होती है। शेष वर्णन पूर्ववत् यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। सत्य, सत्यावपात, सन्निहिय पाडिहेरे-ये तीनों विशेषण उनकी दिव्य शरीर की शक्ति से संबद्ध हैं। वे दिव्य सर्प स्वप्न में 'दरसाव' देते हैं, वह यथार्थ होता है। उनकी सेवा सफल होती है। प्रतिहार-द्वारपाल की भांति सदा सन्निहित वृत्ति वाला देव भी प्रतिहार कहलाता है। उसके द्वारा दिया जाने वाला सान्निध्य प्रातिहार्य है। सन्निहित प्रातिहार्य - देव- सान्निध्य, यथाभिलषित अर्थ की प्राप्ति का हेतु । अभयदेव सूरि के अनुसार नाग, मणि तथा वृक्ष के पूर्वजन्म के मित्रदेव उनकी साधना करने वाले को इष्ट फल की प्राप्ति कराते हैं। लाडल्लोइयमहिए - उपल आदि से भूमि का सम्मार्जन करना, खड़िया मिट्टी आदि से भींतों को धुलकाना । इन दोनों कर्मों से महत - पूजित यह बद्धपीठ वृक्ष का विशेषण है । " पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक उपपात पद १५६. भंते! क्या वानरों में प्रधान, कुक्कुट में प्रधान, मेंढक में प्रधान-ये शील रहित, व्रत रहित, गुण रहित मर्यादा रहित, विग्रहे कार्मणशरीरत्वात्, तदनन्तरं वैक्रियभावाद् द्विशरीरिणः । ७. भ. १०/१०१-१०६ । ८. अष्टांग संग्रह ४१ / २-४ दिव्यभौमविभागेन, द्विविधाः पन्नगाः स्मृताः । वासुकिस्तक्षकोनन्तः, सगरः सागरालयः ॥ तथा नन्दोपनन्दाद्याः समिद्धाग्निसमप्रभाः । दिव्या गर्जन्ति वर्षन्ति द्योतन्ते द्योतयन्ति ते ॥ धारयन्ति जगत् कृत्स्नं कुर्युः क्रुद्धाश्च भस्मसात्। दृङ्निश्वासैर्नमस्तेभ्यो, नतेष्वस्ति चिकित्सितम् ॥ ६. भ. वृ. १२/१५७ - १५८ - सन्निहितं - अदूरवर्त्ति प्रातिहार्य - पूर्वसंगतिकादि देवताकृतं प्रतिहारकर्म यस्य स तथा । १०. वही, १२ / १५७, १५८ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ७६ निष्पचक्खाणपोसहोववासा काल-मासे ख्यान-पौषधोपवासाः कालमासे कालं कालं किच्चा इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् उक्कोसं सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि उत्कर्ष सागरोपमस्थितिके नरके नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा ? नैरयिकत्वेन उपपद्येत? श. १२ : उ. ८ : सू. १६०-१६२ प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से रहित, काल मास में काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्टतः सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होते समणे भगवं महावीरे वागरेइउववज्जमाणे उववन्ने त्ति वत्तव्वं सिया। श्रमणः भगवान् महावीरः व्याकरोतिउपपद्यमानः उपपन्नः इति वक्तव्यं स्यात्। श्रमण भगवान् महावीर व्याकरण करते हैं-उपपद्यमान उपपन्न होते हैं, यह वक्तव्य १६०. अह भंते! सीहे, वग्घे, वगे, अथ भदन्त! सिंहः, व्याघ्रः, वृकः, १६०. भंते ! क्या सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, चित्तोदार दीविए, अच्छे, तरच्छे, परस्सरे-एए णं द्वीपिकः, ऋक्षः, तरक्षः, पराशरः-एते तेंदुआ, रीछ, लकड़बग्घा और पराशर निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निःशीलाः निव्रताः निर्गुणाः निर्मेराः (वाम्बेट) ये शील रहित, व्रत रहित, गुण निष्पचक्खाणपोसहोववासा कालमासे निष्प्रत्याख्यान-पौषधोपवासाः, काल- रहित, मर्यादा रहित, प्रत्याख्यान और कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए मासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायाम् पौषधोपवास से रहित कालमास में काल उक्कोसं सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि उत्कर्ष सागरोपमस्थितिके नरके करके इस रत्न प्रभा पृथ्वी में उत्कृष्टतः नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा ? नैरयिकत्वेन उपपद्येत? सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होते हैं ? समणे भगवं महावीरे वागरेइ- श्रमणः भगवान् महावीरः व्याकरोति- श्रमण भगवान् महावीर व्याकरण करते हैंउववज्जमाणे उववन्ने ति वत्तव्वं उपपद्यमानः उपपन्नः इति वक्तव्यं उपपद्यमान उपपन्न होते हैं, यह वक्तव्य है। सिया॥ स्यात्। १६१. अह भंते ! ढंके, कंके, विलए, अथ भदन्त! 'ढंके', कङ्कः, विलकः १६१. भंते ! ढंक (द्रोण काक) कंक (सफेद मदए, सिखी-एए णं निस्सीला निब्बया मद्गुकः, शिखी-एते निःशीलाः निर्वताः चील), विलक (पीलक), मद्गुक (जल निग्गुणा निम्मेरा निष्पचक्खाण- निर्गुणाः निर्मेराः निष्प्रत्याख्यान- काक) और मोर-ये शील रहित, व्रत रहित, पोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा पौषधोपवासाः कालमासे कालं कृत्वा गुणरहित, मर्यादा रहित, प्रत्याख्यान और इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं अस्यां रत्नप्रभायाम् पृथिव्याम् उत्कर्ष पौषधोपावास से रहित कालमास में काल सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए। सागरोपमस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट उववज्जेज्जा? उपपद्येत? सागरोपम की स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होते हैं ? समणे भगवं महावीरे वागरेइ- श्रमणः भगवान् महावीरः व्याकरोति- श्रमण भगवान महावीर व्याकरण करते उववज्जमाणे उववन्ने त्ति वत्तव्वं सिया॥ उपपद्यमानः उपपन्नः इति वक्तव्यं हैं-उपपद्यमान उपपन्न होते हैं, यह वक्तव्य स्यात्। भाष्य १. सूत्र १५-१६१ प्रस्तुत प्रकरण में क्रियाकाल और निष्ठाकाल के अभेद का सिद्धांत प्रतिपादित है। नरक में नारक ही उपपन्न होता है, अनारक नहीं। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भगवई १/११-१२ तथा, १/ ३७०-३७१। शाब्दिक तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई ७/१२१। १६२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। १६२. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है, ऐसा कहकर यावत् विहरण करने लगे। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक पंचविह-देव-पदं १६३. कतिविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता ? गोयमा! पंचविहा देवा पण्णत्ता, तं जहा-भवियदव्वदेवा, नरदेवा, धम्मदेवा, देवातिदेवा, भावदेवा॥ संस्कृत छाया पञ्चविध-देव-पदम् कतिविधाः भदन्त ! देवाः प्रज्ञप्ताः? गौतम! पञ्चविधाः देवाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा:-भव्यद्रव्यदेवाः, नरदेवाः, धर्मदेवाः, देवातिदेवाः, भावदेवाः। हिन्दी अनुवाद पंचविध देव पद १६३. भंते ! देव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! देव पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-भव्यद्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव देवातिदेव और भावदेव । १६४. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ भवियदव्वदेवा-भवियदव्वदेवा ? गोयमा! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवेसु उववज्जित्तए। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-भवियदब्वदेवा-भवियदव्वदेवा॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यतेभव्यद्रव्यदेवा-भव्यद्रव्यदेवाः? गौतम! यः भव्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक: वा, मनुष्यः वा देवेषु उपपत्तुम्। तत तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-भव्यद्रव्यदेवा-भव्यद्रव्यदेवाः। १६४. भंते ! भव्यद्रव्यदेव भव्यद्रव्यदेव-यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम ! जो भव्य पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक अथवा मनुष्य मृत्यु के पश्चात् देवों में उपपन्न होने वाले हैं, गौतम! इस अपेक्षा से उन्हें कहा जाता है-भव्यद्रव्यदेव भव्यद्रव्यदेव। १६५. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- नरदेवा-नरदेवा ? नरदेवा-नरदेवाः? गोयमा! जे इमे रायाणो चाउरंत- गौतम! ये इमे राजानः चतुरन्तचक्कवट्टी उप्पण्णसमत्तचक्कर- चक्रवर्तिनः उत्पन्नसमस्तचक्ररत्नयणप्पहाणा नवनिहिपइणो समिद्ध- प्रधानाः नवनिधिपतयः समृद्धकोषाः कोसा बत्तीसरायवरसहस्साणुयात- द्वात्रिंशत् राजवरसहस्रानुयातमार्गाः मम्मा सागरवरमेहलाहिवइणो सागरवरमेखलाधिपतयः मनुष्येन्द्राः । मणुस्सिंदा। से तेणटेणं गोयमा ! एवं तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेवुच्चइ-नरदेवा-नरदेवा॥ नरदेवा-नरदेवाः । १६५. भंते ! नरदेव नरदेव-यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम ! जो ये चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उपपन्न समस्त रत्नों में प्रधान चक्र वाले, नौ निधि के अधिपति, समृद्ध कोश वाले हैं, बत्तीस हजार श्रेष्ठ राजा उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं, समुद्र की प्रवर मेखला के अधिपति और मनुष्यों के इन्द्र हैं, गौतम! इस अपेक्षा से उन्हें कहा जाता है-नरदेव नरदेव। १६६. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ धम्मदेवा-धम्मदेवा ? गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवंतो रियासमिया जाव गुत्तभयारी। से तेणट्टेणं गोयमा! एवं बुचइधम्मदेवा-धम्मदेवा॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- धर्मदेवा-धर्मदेवाः? गौतम! ये इमे अनगाराः भगवन्तः ईर्यासमिताः यावत् गुप्तब्रह्मचारिणः तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-धर्मदेवाधर्मदेवाः । १६६. भंते ! धर्मदेव धर्मदेव-यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम ! जो ये अनगार भगवन्त विवेक पूर्वक चलते हैं यावत् ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखते हैं, गौतम ! इस अपेक्षा से उन्हें कहा जाता है-धर्मदेव धर्मदेव। १६७. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ- देवातिदेवा-देवातिदेवा ? गोयमा! जे इमे अरहंता भगवंतो तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- देवातिदेवा-देवातिदेवाः? गौतम! ये इमे अर्हन्तः भगवन्तः १६७. भंते ! देवातिदेव देवातिदेव-यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम ! जो ये अर्हत् भगवान् उत्पन्न ज्ञान Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई उप्पण्णनाण-दंसणधरा अरहा जिणा उत्पन्नज्ञान-दर्शनधराः अर्हाः जिनाःकेवली तीयपचुप्पन्नमणागयवियाणया । केवलिनः अतीतप्रत्युत्पन्नागतसवण्णू सव्वदरिसी। से तेणटेणं विज्ञायकाः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः। तत् गोयमा! एवं बुचइ-देवातिदेवा- तेनार्थेन गौतम! , एवमुच्यतेदेवातिदेवा॥ देवातिदेवा-देवातिदेवाः। श. १२ : उ. ६ : सू. १६३-१७० दर्शन के धारक, अर्हत्, जिन, केवली, अतीत, वर्तमान और भविष्य के विज्ञाता सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं, गौतम ! इस अपेक्षा से उन्हें कहा जाता है-देवातिदेव देवातिदेव। भावलेवा १६८. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ- भावदेवा-भावदेवा ! गोयमा ! जे इमे भवणवइ-वाणमंतर- जोइस-वेमाणिया देवा देवगतिनामगोयाई कम्माई वेदेति। से तेणटेणं गोयमा! एवं बूचड़-भावदेवा-भावदेवा॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- भावदेवा-भावदेवाः? गौतम! ये इमे भवनपति-वानमन्तरज्यौतिष-वैमानिकादेवाः देवगतिनामगोत्राणि कर्माणि वेदयन्ति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-भावदेवाभावदेवाः। १६८. भंते ! भावदेव भावदेव-यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम ! जो ये भवनपति, वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक देव देवगति नाम-गोत्र कर्मों का वेदन करते हैं, गौतम! इस अपेक्षा से उन्हें कहा जाता है-भावदेव भावदेव। भाष्य १. सूत्र १६३-१६८ २. नरदेव-चक्रवर्ती। प्रस्तुत प्रकरण में पांच प्रकार के देव बतलाए गए हैं ३. धर्मदेव-अनगार, गृहत्यागी मुनि। १. भव्यद्रव्य देव-देव पर्याय में उत्पन्न जीव देव कहलाता है। ४. देवातिदेव-अर्हत्, तीर्थंकर। भव्य शब्द इस अर्थ का सूचक है कि अमुक जीव देव पर्याय में उत्पन्न ५. भाव देव-देव पर्याय में उत्पन्न जीव। होने वाला है। द्रव्य शब्द इस अर्थ का सूचक है कि अभी वह देव शब्दार्थ मीमांसा के लिए तत्त्वार्थाधिगम सूत्र ४/१ पर्याय में उत्पन्न नहीं हुआ है। वृत्तिकार ने भूत भावपक्ष और भावी भाष्यानुसारिणी (पृ. २७३-२७४) द्रष्टव्य है। भाव पक्ष-दो दृष्टियों से एक शब्द को समझाने का प्रयत्न किया है। शब्द-विमर्श जो जीव देव पर्याय से च्युत हो गया है, वह भूत द्रव्य देव है। जो चक्र रत्न-द्रष्टव्य जंबूद्वीप पण्णत्ती ३/४-५ जीव देवता के रूप में उपपन्न होने वाला है, वह भव्य द्रव्य देव है। नव निधि-द्रष्टव्य ठाणं:/२१-२२। यहां भव्य द्रव्य देव प्रस्तुत है।' जंबूद्वीप पण्णत्ती ३/१६७। पंचविह-देवाणं उबवाय-पदं पञ्चविध-देवानाम् उपपात-पदम् पंचविध देवों का उपपात-पद १६६. भवियदव्वदेवा णं भंते ! कओहितो भव्यद्रव्यदेवाः भदन्त! कुतः १६६. भंते ! भव्यद्रव्य देव कहां से उपपन्न होते उववज्जंति-किं नेरइएहितो उववज्जंति? उपपद्यन्ते-किं नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते? हैं-क्या नैरयिकों से उपपन्न होते हैं ? क्या तिरिक्खमणस्सदेवेहिंतो उववज्जंति ? तिर्यग्-मनुष्य-देवेभ्यः उपपद्यन्ते? तिर्यंच, मनुष्य और देवगति से उपपन्न होते गोयमा! नेरइएहितो उववजंति, गौतम! नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते, तिर्यग्तिरिक्ख-मणुस्स-देवेहितो वि मनुष्य-देवेभ्यः अपि उपपद्यन्ते। भेदो गौतम ! नैरयिकों से उपपन्न होते हैं, तिर्यंच, उववज्जति। भेदो जहा वक्कंतीए यथा अवक्रान्त्यां सर्वेषु उपपादयितव्या मनुष्य और देवगति से भी उपपन्न होते हैं। सन्वेसु उववाएयव्वा जाव अणु- यावत् अनुत्तरोपपातिकः इति, नवरम्- जैसे प्रज्ञापना पद (६/८८-६२) अवक्रांति त्तरोवाइय त्ति, नवरं-असंखेज्ज- असंख्येयवर्षायुष्क-अकर्मभूमिक- के अनुसार सब गतियों से उपपन्न होने के बासाउयअकम्मभूमग . अंतरदीवग- अन्तीपक सर्वार्थसिद्धवर्ज यावत् भेद वक्तव्य है यावत् अनुत्तरोपपातिक, सब्वट्ठसिद्धवजं जाव अपरा- अपराजितदेवेभ्यः अपि उपपद्यन्ते । इतना विशेष है-असंख्येय वर्ष आयु वाले जियदेवेहितो वि उववति॥ अकर्मभूमिज, अन्तीपज और सर्वार्थसिद्ध को छोड़कर यावत् अपराजित देवों से भी उपपन्न होते हैं। १७०. नरदेवा णं भंते कओहिंतो नरदेवाः भदन्त! कुतः उपपद्यन्ते-किं १७०. भंते ! नरदेव कहां से उपपन्न होते हैं क्या उववजंति-किं नेरइएहितो-पुच्छा। नैरयिकेभ्यः-पृच्छा । नैरयिकों से ? पृच्छा । १. भ. वृ १२/१६३-भूतभावपक्षे तु भूतस्य देवत्वपर्यायस्य प्रतिपन्नकारणा योग्या देवतयोत्पत्स्यमाना द्रव्यदेवाः, तत्र भाविभावपक्षपरिग्रहार्थमाह भावदेवत्वाच्च्युता द्रव्यदेवाः, भाविभावपक्षे तु भाविनो देवत्वपर्यायस्य भव्याश्च ते द्रव्यदेवाश्चेति भव्यद्रव्यदेवाः। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. ६ : सू. १७१-१७५ गोयमा ! नेरइएहिंतो उववज्जति, नो गौतम! नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते, नो तिरिक्खजोणिएहितो, नो मणुस्सेहितो, तिर्यग्योनिकेभ्यः, नो मनुष्येभ्यः, देवेहितो वि उववज्जति॥ देवेभ्यः अपि उपपद्यन्ते। गौतम! नैरयिकों से उपपन्न होते हैं। तिर्यक्योनिक और मनुष्यों से उपपन्न नहीं होते। देवों से भी उपपन्न होते हैं। १७१. जह नेरइएहिंतो उवज्जंति-किं रयणप्पभापूढविनेरइएहितो उववज्जति जाव अहेसत्तमापुढविनेरइएहितो उववज्जति? गोयमा! रयणप्पभापढविनेरइएहितो उववज्जंति, नो सक्करप्पभापुढविनेरइएहितो जाव नो अहेसत्तमापुढविनेरइएहितो उववज्जति॥ यदि नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते-किं रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते, यावत् अधःसप्तमी पृथिवीनैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते? गौतम! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते, नो शर्कराप्रभापृथिवीनैरयिकेभ्यः यावत् नो अधःसप्तमीपृथिवी-नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते । १७१. यदि नैरयिकों से उपपन्न होते हैं तो क्या रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से उपपन्न होते हैं यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों से उपपन्न होते हैं ? गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से उपपन्न होते हैं। शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से उपपन्न नहीं होते यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों से उपपन्न नहीं होते। १७२. जइ देवेहिंतो उववज्जंति किं भवण- यदि देवेभ्यः उपपद्यन्ते किं भवन- वासिदेवेहिंतो उववज्जति ? वासिदेवेभ्यः उपपद्यन्ते? वानमन्तरवाणमंतर - जोइसिय-वेमाणियदेवेहिंतो ज्योतिष्क-वैमानिकदेवेभ्यः उपपद्यन्ते? उववज्जंति? गोयमा ! भवणवासिदेवेहितो वि गौतम! भवनवासिदेवेभ्यः अपि उववज्जंति, वाणमंतरदेवेहितो, एवं उपपद्यन्ते, वानमन्तरदेवेभ्यः, एवं सव्वदेवेसु उववाएयब्वा, वक्कंतीए सर्वदेवेभ्यः उपपादयितव्या अवक्रान्त्यां भेदेणं जाव सब्वट्ठसिद्धत्ति॥ भेदेन यावत् सर्वार्थसिद्धः इति । १७२. यदि देवों से उपपन्न होते हैं तो क्या भवनवासी देवों से उपपन्न होते हैं? वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों से उपपत्र होते हैं ? गौतम! भवनवासी देवों से भी उपपन्न होते हैं, वाणमंतर देवों से उपपन्न होते हैं, इसी प्रकार समस्त देवों के विषय में प्रज्ञापना पद (६/२२) अवक्रांति की भांति समस्त उपपात वक्तव्य है यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों से। १७३. भंते ! धर्मदेव कहां से उपपन्न होते हैं क्या नैरयिकों से उपपन्न होते हैं ?-पृच्छा। . १७३. धम्मदेवा णं भंते ! कओहिंतो धर्मदेवाः कुतः उपपद्यन्ते-किं उववज्जति-किं नेरइएहिंतो उव- नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते-पृच्छा। वजंति-पुच्छा। एवं वक्कंतीभेदेणं सब्वेसु उववाएयब्वा एवं अवक्रान्तिभेदेन सर्वेषु उपपादजाव सव्वट्ठसिद्धत्ति, नवरं-तम- यितव्या यावत् सर्वार्थसिद्ध इति, अहेसत्तम-तेउ-वाउ-असंखेज्जवासा- नवरम्-तमा - अधःसप्तमी - तेजस्- उयअकम्मभूमग-अंतरदीवगवज्जेसु॥ वायु - असंख्येयवर्षायुष्क - अकर्म भूमक-अन्तीपकवर्जेभ्यः। इसी प्रकार अवक्रांति भेद से सर्व देवों का उपपात वक्तव्य है यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों से, इतना विशेष है-तमःप्रभा, अधःसप्तमी, तेजस्काय, वायुकाय, असंख्येय वर्ष आयु वाले अकर्मभूमिज और अन्तीपज को छोड़कर। १७४. भंते ! देवातिदेव कहां से उपपन्न होते हैं ? क्या नैरयिकों से उपपन्न होते हैं-पृच्छा। १७४. देवातिदेवा णं भंते ! कओहिंतो देवातिदेवाः भदन्त! कुतः उपपद्यन्ते- उववज्जति-किं नेरइएहितो उववज्जंति- किं नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते-पृच्छा? पुच्छा। गोयमा ! नेरइएहितो उववज्जंति, नो गौतम! नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते, नो तिरिक्खजोणिएहितो, नो मणुस्से- तिर्यग्योनिकेभ्यः, नो मनुष्येभ्यः, हितो, देवेहितो वि उववज्जति॥ देवेभ्यः अपि उपपद्यन्ते। गौतम! नैरयिकों से उपपन्न होते हैं। तिर्यक्योनिकों और मनुष्यों से उपपन्न नहीं होते। देवों से भी उपपन्न होते हैं। १७५. जइ नेरइएहितो ? यदि नैरयिकेभ्यः? १७५. यदि नैरयिकों से उपपन्न होते हैं? Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ६३ श. १२ : उ.६ : सू. १७६-१८१ एवं तिसु पुढवीसु उववज्जति, सेसाओ एवं तिसृभ्यः पृथिवीभ्यः उपपद्यन्ते, खोडेयवाओ॥ शेषाः खोडेयव्वाओ। इसी प्रकार प्रथम तीन पृथ्वियों से उपपन्न होते हैं, शेष चार पृथ्वियों से उपपन्न नहीं होते। १७६. जइ देवेहितो? वेमाणिएमु सव्वेसु उववज्जंति जाव सन्वट्ठसिद्धत्ति, सेसा खोडेयव्वा॥ यदि देवेभ्यः? वैमानिकेभ्यः सर्वेभ्यः उपपद्यन्ते यावत् सर्वार्थसिद्धः इति शेषाः खोडेयव्वाओ। १७६. यदि देवों से? सर्व वैमानिक देवों से उपपन्न होते हैं, यावत् सवार्थसिद्ध देवों से उपपन्न होते हैं, शेष देवों का निषेध करना चाहिए। भावदेवाः! कुतः उपपद्यन्ते? १७७. भंते ! भाव देव कहां से उपपन्न होते हैं? १७७. भावदेवा णं भंते! कओहिंतो उववज्जति ? एवं जहा बक्कंतीए भवणवासीणं उववाओ तहा भाणियब्यो। एवं यथा अवक्रान्त्यां भवनवासिनाम उपपातः तथा भणितव्यः। इसी प्रकार जैसे प्रज्ञापना (६/१२) अवक्रांति पद की भांति भवनवासी देवों का उपपात वक्तव्य है। भाष्य १. सूत्र १६६-१७७ पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य। भव्यद्रव्यदेव की उत्पत्ति नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन ये सब मृत्यु के पश्चात् भाव देव बनते हैं इसलिए इनकी चारों स्थानों से होती है। अपवाद सूत्र के अनुसार निम्न जीव निर्दिष्ट उत्पत्ति भव्यद्रव्यदेव के रूप में नहीं होती। स्थानों से मरकर भव्य द्रव्यदेव के रूप में उपपन्न नहीं होते ३. सर्वार्थसिद्ध से च्युत होने वाले देव मनुष्य बनकर मुक्त हो १.असंख्यात वर्ष आयुवाले कर्मभूमिज, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और जाते हैं इसलिए उनकी उत्पत्ति भव्यद्रव्यदेव के रूप में नहीं होती। मनुष्य। इस विषय में प्रज्ञापना का वक्कंति नामक छट्ठा पद द्रष्टव्य है।' २. असंख्यात वर्ष आयुष्य वाले अकर्मभूमिज एवं अंतीपज भावदेव की उत्पत्ति के लिए पण्णवणा ६/८१ सूत्र द्रष्टव्य है। पंचविह-देवाणं ठिइ-पदं पञ्चविध-देवानां स्थिति-पदम पंचविध देवों का स्थिति पद १७८. भवियदव्वदेवाणं भंते ! केवतियं भव्यद्रव्यदेवानां भदन्त! कियत्कालं १७८. भंते ! भव्यद्रव्यदेवों की स्थिति कालं ठिती पण्णता? स्थितिः प्रज्ञप्ताः? कितने काल की प्रज्ञप्त है? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहूत्त, गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहर्तम्, गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई॥ उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि? तीन पल्योपम। १७६. नरदेवाणं-पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सत्त वाससयाई, उक्कोसेणं चउरासीई पुव्वसयसहस्साई॥ नरदेवानां-पृच्छा? गौतम! जघन्येन सप्त वर्षशतानि, उत्कर्षेण चतुरशीतिः पूर्वशतसहस्राणि। १७६. नरदेवों की पृच्छा। गौतम ! जघन्यतः सात सौ वर्ष, उत्कृष्टतः चौरासी लाख पूर्व। १८०. धम्मदेवाणं-पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी॥ धर्मदेवानां-पृच्छा? गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहर्तम्, उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटिः। १८०. धर्मदेवों की पृच्छा। गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कुछ कम पूर्व कोटि। १८१. देवातिदेवाणं-पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं बावतरं वासाई, उक्कोसेणं चउरासीई पुवसयसहस्साई॥ देवातिदेवानां-पृच्छा? गौतम! जघन्येन द्वासप्ततिः वर्षाणि, उत्कर्षेण चतुरशीति पूर्वशतसहस्राणि। १८१. देवातिदेवों की पृच्छा। गौतम ! जघन्यतः बहत्तर वर्ष, उत्कृष्टतः चौरासी लाख पूर्व। १. पण्ण. ६/८५। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. ६ : सू. १८२-१८४ ८४ १८२. भावदेवाणं-पुच्छा। भावदेवानां-पृच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससह- गौतम! जघन्येन दश वर्षसहस्राणि, स्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि। सागरोवमाई॥ १८२. भावदेवों की पृच्छा। गौतम! जघन्यतः दस हजार वर्ष, उत्कृष्टतः तेतीस सागरोपमा भाष्य १. सूत्र १७८-१८२ इसका संबंध भगवान् महावीर की जीवन-सीमा से है। ये दोनों भव्यद्रव्यदेव का उत्कृष्ट आयुमान तीन पल्योपम है। यह नियम तथ्य परक प्रतीत होते हैं। इन्हें स्थायी नियम की कोटि में असंख्यात वर्ष वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच मनुष्यों की अपेक्षा से होता है। कैसे रखा जा सकता है? नरदेव का जघन्य आयुमान सात सौ वर्ष है, इसका निदर्शन है धर्मदेव की जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है। जिसका आयुष्य ब्रह्मदत्त। उत्कृष्ट आयुमान चौरासी लाख पूर्व है, इसका निदर्शन है अंतर्मुहर्त आवशिष्ट है, वह संयम स्वीकार करता है. इस अपेक्षा से भरत। जघन्य स्थिति का प्रतिपादन है। उसकी उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्व एक प्रश्न उपस्थित होता है-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का आयुमान कोटि की बतलाई गई है। वृत्तिकार के अनुसार आठ वर्ष का शिशु सात सौ वर्ष था। उस आधार पर नरदेव का जघन्य आयुष्य दीक्षा के योग्य होता है। इस विषय में प्रस्तुत आगम के पच्चीसवें कालमान निर्धारित किया गया अथवा यह उत्कृष्ट आयुमान की शतक के सूत्र ५-३३ और उसकी जयाचार्य कृत जोड़ द्रष्टव्य है।' भांति सामान्य नियम है? औपपातिक के अनुसार जघन्यतः सातिरेक आठ वर्ष वाला देवातिदेव की जघन्य स्थिति बहत्तर वर्ष की बतलाई गई है। मुक्त हो सकता है। *पद पंचविह-देवाणं विउव्वणा-पदं पञ्चविध-देवानाम् विकुर्वणा-पदम् पंचविध देवों का विक्रिया पद १८३. भवियदबदेवा णं भंते ! किं एगत्तं भव्यद्रव्यदेवाः भदन्त! किम् एकत्वं प्रभुः १५३. भंते ! क्या भव्यद्रव्यदेव एक रूप विक्रिया पभू विउवित्तए ? पुहत्तं पभू विकर्तुम्? पृथक्त्वं प्रभुः विकर्तुम्? करने में समर्थ हैं? अनेक रूप विक्रिया विउवित्तए ? करने में समर्थ हैं? गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, गौतम! एकत्वम् अपि प्रभुः विकर्तुम्, गौतम! एक रूप विक्रिया करने में भी समर्थ पुहत्तं पि पभू विउवित्तए। एगत्तं पृथक्त्वम् अपि प्रभुः विकर्तुम्। एकत्वं हैं, अनेक रूप विक्रिया करने में भी समर्थ विउज्वमाणे एगिदियरूवं वा जाव विकुर्वाणः एकेन्द्रियरूपं वा यावत् हैं। एक रूप विक्रिया करता हुआ एकेन्द्रिय पंचिंदियरूवं वा, पहत्तं विउब्बमाणे पञ्चेन्द्रियरूपं वा, पृथक्त्वं विकुर्वाणः रूप यावत् अथवा पंचेन्द्रिय-रूप, अनेक एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिंदिय- एकेन्द्रियरूपाणि वा यावत् रूप विक्रिया करता हुआ एकेन्द्रिय रूपों रूवाणि वा, ताई संखेज्जाणि वा पञ्चेन्द्रियरूपाणि वा, तानि संख्येयानि यावत् अथवा पंचेन्द्रिय रूपों की विक्रिया असंखेज्जाणि वा, संबद्धाणि वा वा असंख्येयानि वा, संबद्धानि वा करता है। वे रूप संख्येय अथवा असंख्येय, असंबद्धाणि वा, सरिसाणि वा असरि- ___ असंबद्धानि वा, सदृशानि वा संबद्ध अथवा असंबद्ध, सदृश अथवा साणि वा विउव्वंति, विउवित्ता तओ असदृशानि वा विकुर्वन्ति, विकृत्य ततः असदृश होते हैं, विक्रिया करने के पश्चात् पच्छा जहिच्छियाई कज्जाई करेंति। एवं पश्चात् यथेप्सितानि कार्याणि कुर्वन्ति। इच्छानुसार कार्य करते हैं। इसी प्रकार नरदेवा वि, एवं धम्मदेवा वि॥ एवं नरदेवाः अपि, एवं धर्मदेवाः अपि। नरदेव की भी वक्तव्यता, इसी प्रकार धर्मदेव की भी वक्तव्यता। १८४. देवातिदेवाणं-पुच्छा। देवातिदेवानाम्-पृच्छा? गोयमा ! एगत्तं पि पभू विउवित्तए, गौतम! एकत्वम् अपि प्रभुः विकर्तुम्, पुहत्तं पि पभू विउवित्तए, नो चेव णं । पृथक्त्वम् अपि प्रभुः विकर्तुम्, नो चैव संपत्तीए विउब्बिसु वा, विउव्दिति वा, सम्प्राप्त्या व्यकार्युः वा, विकुर्वन्ति वा, विउविस्संति वा। विकरिष्यन्ति वा। १८४. देवातिदेवों की-पृच्छा। गौतम ! एक रूप विक्रिया करने में भी समर्थ हैं, अनेक रूप विक्रिया करने में भी समर्थ हैं। यह विषय विक्रिया करने की शक्ति की दृष्टि से बताया गया है किंतु १. भ. वृ. १२/१७६-सत्तवाससयाई ति यथा ब्रह्मदत्तस्य चउरासीपुव्वसय सहस्साई ति यथा भरतस्य। २. वही, १२/१८०-उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी त्ति तु यो देशोनपूर्व- कोट्यायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिति, ऊनता च पूर्वकोट्या अष्टाभिवर्षः अष्टवर्षस्यैव प्रव्रज्याहत्वात्, यच षड्वर्षस्त्रिवर्षों वा प्रव्रजितोऽतिमुक्तको वैरस्वामी वा तत्कादाचित्कमिति न सूत्रायतारीति। ३. भ. जो. ४५६/३६-३८। ४. औ. १८५। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भावदेवा जहा भवियदव्वदेवा ।। १. सूत्र १८३-१८४ प्रस्तुत आलापक में पंचविध देवों की विक्रिया-रूप निर्माण की क्रिया पर विचार किया गया है। रूप निर्माण के महत्त्वपूर्ण विकल्प बतलाए गए हैं १. एकेन्द्रिय जीव के रूप का निर्माण । अनेक एकेन्द्रिय जीव के रूप का निर्माण । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों का निर्माण किया जाता है। पंचविह- देवाणं उब्वट्टण-पदं १८५. भवियदव्वदेवा णं भंते! अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छति ? कहिं उववज्जंति - किं नेरइएसु उववज्जंति जाव देवेसु उववज्जंति ? गोयमा ! नो नेरइएस उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मणुस्सेसु, देवेसु उववज्जति । 'जइ देवेसु उववज्जंति ? सव्वदेवे सव्ववसिद्धत्ति ॥ उववज्जंति १८६. नरदेवा णं भंते! अनंतरं उब्वट्टित्ता - पुच्छा । गोयमा ! नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोगिएसु, नो मणुस्सेसु नो देवेसु उववज्जति । जइ नेरइएसु उववज्र्ज्जति ? सत्तसु वि पुढवीसु उववज्र्ज्जति ॥ १८७, धम्मदेवा णं भंते! अनंतरं उब्वट्टित्ता - पुच्छा | गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जंति, नो तिरिक्खजोणिएसु, नो मणुस्सेसु, देबेसु उववज्जति ॥ १. ( क ) भ. जो. ४, २६७ /६३ : जाव संबद्धा ते मां हो मां मिल्या, अणमिल्या ते असंबंद्ध हो । भावदेवाः यथा भव्यद्रव्यदेवाः । भाष्य ८५ २. संख्येय रूपों का निर्माण । असंख्येय रूपों का निर्माण | ३. संबद्ध (अपने शरीर से संलग्न) रूपों का निर्माण । असंबद्ध (अपने शरीर से पृथक्भूत) रूपों का निर्माण ।' ४. सदृश रूपों का निर्माण । असदृश रूपों का निर्माण । देवातिदेव में विक्रिया-रूप निर्माण करने की शक्ति होती है पर वे उसका प्रयोग नहीं करते। पञ्चविध-देवानाम् उद्वर्तन-पदम् भव्यद्रव्यदेवाः भदन्त ! अनन्तरम् उद्वर्त्य कुत्र गच्छन्ति ? उपपद्यन्ते किं नैरयिकेषु उपपद्यन्ते यावत् देवेषु उपपद्यन्ते? कुत्र गौतम! नो नैरयिकेषु उपपद्यन्ते, नो तिर्यग्योनिकेषु, नो मनुष्येषु देवेषु उपपद्यन्ते । यदि देवेषु उपपद्यन्ते ? सर्वदेवेषु उपपद्यन्ते यावत् सर्वार्थसिद्धः इति । नरदेवाः भदन्त ! अनन्तरम् उद्वर्त्यपृच्छा । गौतम! नैरयिकेषु उपपद्यन्ते, नो तिर्यग्योनिकेषु, नो मनुष्येषु, नो देवेषु उपपद्यन्ते? यदि नैरयिकेषु उपपद्यन्ते ? सप्तसु अपि पृथिवीषु उपपद्यन्ते । श. १२ : उ. ६ : सू. १८५- १८७ क्रियात्मक रूप में उन्होंने कभी अतीत में विक्रिया नहीं की, वर्तमान में नहीं करते और भविष्य में नहीं करेंगे । भावदेव भव्यद्रव्यदेव की भांति वक्तव्य हैं। धर्मदेवाः भदन्त ! अनन्तरम् उद्वर्त्यपृच्छा । गौतम ! नो नैरयिकेषु उपपद्यन्ते, नो तिर्यग्योनिकेषु, नो मनुष्येषु देवेषु उपपद्यन्ते । पंचविध देवों का उद्वर्तन पद १८५. भंते ! भव्यद्रव्यदेव अनंतर उद्वर्तन कर कहां जाते हैं ? कहां उपपन्न होते हैं-क्या नैरयिकों में उपपन्न होते हैं यावत् देवों में उपपन्न होते हैं ? गौतम ! नैरयिकों में उपपन्न नहीं होते, तिर्यक्योनिकों में उपपन्न नहीं होते, मनुष्यों में उपपन्न नहीं होते, देवों में उपपन्न होते हैं। यदि देवों में उपपन्न होते हैं ? सब देवों में उपपन्न होते हैं यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों में उपपन्न होते हैं। १८६. भंते! नरदेव अनंतर उद्वर्तन कर-पृच्छा। गौतम! नैरयिकों में उपपन्न होते हैं। तिर्यक्योनिकों, मनुष्यों और देवों में उपपन्न नहीं होते। यदि नैरयिकों में उपपन्न होते हैं तो ? सातों पृथ्वियों में उपपन्न होते हैं। १८७. भंते! धर्मदेव अनंतर उद्वर्तन करपृच्छा । गौतम ! नैरयिकों में उपपन्न नहीं होते तिर्यक्योनिकों और मनुष्यों में उपपन्न नहीं होते। देवों में उपपन्न होते हैं। (ख) भ. ५ / १३८ का भाष्य । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ श. १२ : उ. ६ : सू. १८८-१६१ भगवई १८८. जइ देवेसु उववज्जति किं यदि देवेषु उपपद्यन्ते किं भवनवासी- १८८. यदि देवों में उपपन्न होते हैं तो क्या भवणवासि-पुच्छा। पृच्छा । भवनवासी देवों में उपपन्न होते हैं ?- पृच्छा। गोयमा! नो भवणवासिदेवेसु गौतम! नो भवनवासिदेवेषु उपपद्यन्ते, गौतम ! भवनवासी देवों में उपपन्न नहीं उववज्जंति, नो वाणमंतरदेवेसु नो वानमन्तरदेवेषु उपपद्यन्ते, नो होते। वाणमन्तर देवों में उपपन्न नहीं होते, उववज्जंति, नो जोइसियदेवेसु ज्योतिष्कदेवेषु उपपद्यन्ते, वैमानिक- ज्योतिष्क देवों में उपपन्न नहीं होते, उववज्जंति, वेमाणियदेवेसु उववन्जंति। देवेषु उपपद्यन्ते। सर्वेषु वैमानिकेषु वैमानिक देवों में उपपन्न होते हैं। सव्वेसु वेमाणिएसु उववज्जंति जाव उपपद्यन्ते यावत् सर्वार्थसिद्ध- सर्व वैमानिक देवों में उपपन्न होते हैं यावत् सम्वसिद्ध - अणुत्तरोववाइयवेमाणिय- ___ अनुत्तरोपपातिकवैमानिकदेवेषु सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक वैमानिक देवों देवेसु उववज्जंति, अत्थेगतिया सिझंति उपपद्यन्ते। अस्त्येककाः सिध्यन्ति में उपपन्न होते हैं। जाव सब्वदुक्खाणं अंतं करेंति॥ यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्वन्ति। उनमें कुछ धर्मदेव सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। १६. देवातिदेवा अणंतरं उबट्टित्ता कहिं देवातिदेवाः अनन्तरम् उद्वर्त्य-कुत्र १८६. देवातिदेव अनन्तर उद्वर्तन कर कहां गच्छंति ? कहिं उववज्जति ? ___ गच्छन्ति? कुत्र उपपद्यन्ते? जाते हैं? कहां उपपन्न होते हैं? गोयमा ! सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं गौतम! सिध्यन्ति यावत् सर्वदुःखानाम् गौतम! सिद्ध हो जाते हैं यावत् सर्व दुःखों अंतं करेंति॥ अन्तं कुर्वन्ति । का अंत करते हैं। १०. भावदेवा णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता-पुच्छा। जहा वक्कंतीए असुरकुमाराणं उन्वट्टणा तहा भाणियव्या॥ भावदेवाः भदन्त! अनन्तरम् उदवर्त्यपृच्छा। यथा अवक्रान्त्यां असुरकुमाराणाम् उद्वर्तना तथा भणितव्या। १९०. भंते ! भावदेव अनन्तर उद्वर्तन कर-पृच्छा। जैसे-प्रज्ञापना के अवक्रांति पद (६/१०११०२) में असुरकुमार देवों का उद्वर्तन वक्तव्य है वैसे ही यहां वक्तव्य है। भाष्य १. सूत्र १८५-१६० वक्तव्य है, जैसेनरदेव की गति केवल नरक बतलायी गयी है, यह सापेक्ष है। भवनपति, वानमंतर, ज्योतिष्क और सौधर्म ईशान के देवों का नरदेव-अवस्था में मृत्यु होने पर वह नरक में उत्पन्न होता है। नरदेवत्व उपपात बादर पर्याप्तक-पृथ्वी, अप, वनस्पति तथा संज्ञी पर्याप्तक अवस्था का त्याग कर देने पर वह स्वर्ग में भी उत्पन्न हो सकता है संख्येय वर्ष आयुष्य वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में होता है। और मुक्त भी हो सकता है। नरदेव अवस्था का त्याग कर धर्मदेव • सनत्कुमार से सहस्रार तक के देवों का उपपात संज्ञी अवस्था में चले जाने पर उसकी गति में परिवर्तन हो जाता है इसलिए पर्याप्तक संख्येय वर्ष आयुष्य वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में यह परस्पर विरोधी तथ्य नहीं है।' होता है। भावदेव देवगति से उद्वर्तन कर दो गतियों में उत्पन्न होता है • आनत से सर्वार्थसिद्ध तक के देवों का उपपात संज्ञी तिर्यंच गति और मनुष्य गति। यह प्रज्ञापना के अवक्रांतिपद की भांति पर्याप्तक संख्येय वर्ष आयुष्य वाले मनुष्य में होता है। पंचविह-देवाणं संचिट्ठणा-पदं पञ्चविध-देवानां संस्थान-पदम् पंचविध देवों का संस्थिति पद १६१. भवियदव्वदेवे णं भंते !भविय- भव्यद्रव्यदेवः भदन्त! भव्यद्रव्यदेवे १६१. भंते ! भव्यद्रव्य देव भव्यद्रव्य देव के रूप दव्वदेवे त्ति कालओ केवचिरं होइ? कालतः कियचिरं भवति? में कितने काल तक रहता है। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम, उत्कर्षण गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहर्त उत्कृष्टतः उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। त्रीणि पल्योपमानि। तीन पल्योपम। एवं जच्चेव ठिई तच्चेव संचिट्ठणा वि जाव __ एवं या चैव स्थितिः तच्चैव संस्थानम् इसी प्रकार जो भवस्थिति बतलाई गई है, भावदेवस्स, नवरं-धम्मदेवस्स जहण्णेणं __ अपि यावत् भावदेवस्य, नवरम्-धर्म- वही उनका संस्थान काल है। यह नियम एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणा देवस्य जघन्येन एक समयम. उत्कर्षण नरदेव, देवातिदेव और भावदेव-सबके लिए पुब्बकोडी॥ देशोना पूर्वकोटिः। समान है। केवल धर्मदेव इसका अपवाद है। १. भ. वृ. १२/१९६-तत्र च यद्यपि केचिच्चक्रवर्तिनो देवेषूत्पद्यन्ते तथापि ते २. पण्ण. ६/१०१-१०२। नरदेवत्यागेन धर्मदेवत्वप्राप्ताविति न दोषः। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ८७ श. १२ : उ. ६ : सू. १९२-१६६ उसका संस्थान काल जघन्यतः एक समय उत्कृष्टतः कुछ कम पूर्व कोटि है। भाष्य १. सूत्र १६॥ संचिट्ठणा का अर्थ है-एक गति के पर्याय का अनुबंध, एक विषय को विस्तार से समझाया है-कोई संशयशील होने पर छठे गति में होने वाली अवस्थिति।' विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य है गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान में आ जाता है, सम्यक्त्व और भगवई १/१०३-१११ सूत्र तथा भाष्य। चारित्र-दोनों से रहित हो जाता है। तत्काल पुनः प्रथम से छठे धर्मदेव का संस्थान काल जघन्यतः एक समय बतलाया गया गुणस्थान में आ जाता है। एक समय इस अवस्था में रहकर उसकी है। वृत्तिकार के अनुसार एक मुनि अशुभ भाव में गया और उससे मृत्यु हो जाती है। इस अपेक्षा से उसका जघन्य काल एक समय निवृत्त हो पुनः शुभ भाव में आया। शुभ भाव में आने के अनंतर बतलाया गया है। यह नैसर्गिक घटना है। क्रियात्मक भाव का आना प्रथम समय में देहावसान हो गया। इस अपेक्षा से धर्मदेव की और जाना कम से कम असंख्य समय के बिना नहीं हो सकता। एक जघन्यतः एक समय की स्थिति बतलायी गयी है। जयाचार्य ने इस समय के संस्थान-काल का मूल आधार पचीसवें शतक में हैं।' पंचविह-देवाणं अंतर-पदं १६२. भवियदव्वदेवस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो॥ पञ्चविध-देवानाम् अन्तर-पदम् पंचविध देवों का अन्तर-पद भव्यद्रव्यदेवस्य भदन्त! कियत् कालम् १६२. भंते! भव्यद्रव्य देव का अन्तरकाल अन्तरम् भवति? कितना होता है? गौतम! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त से कुछ अन्तर्मुहूर्तमभ्यधिकानि, उत्कर्षेण । अधिक दस हजार वर्ष, उत्कृष्टतः अनंत अनन्तं कालं-वनस्पतिकालः। काल-वनस्पति काल। १६३. नरदेवाणं-पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सातिरेगं सागरोवमं, उक्कोसेणं अणंतं कालंअवड्पोग्गलपरियट देसूणं॥ नरदेवानाम्-पृच्छा। गौतम! जघन्येन सातिरेकं सागरोपमम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालम् अपार्धं पुद्गलपरिवर्तं देशोनम्। १६३. नरदेवों की पृच्छा। गौतम ! जघन्यतः कुछ अधिक सागरोपम, उत्कृष्टतः अनंतकाल-कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्त। १६४. धम्मदेवस्स णं-पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमपुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवई पोग्गलपरियट्ट देसूणं॥ धर्मदेवस्य-पृच्छा। गौतम! जघन्येन पल्योपमपृथक्त्वम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालं यावत् अपार्धं पुद्गलपरिवर्तं देशोनम्। १६४. धर्मदेव की-पृच्छा। गौतम ! जघन्यतः पृथक्त्व पल्योपम, उत्कृष्टतः अनंतकाल यावत् कुछ कम अर्ध पुद्गल परिवर्त। १६५. देवातिदेवाणं-पुच्छा। गोयमा ! नत्थि अंतरं॥ देवातिदेवानाम्-पृच्छा। गौतम! नास्ति अन्तरम् । १९५. देवातिदेवों की पृच्छा । गौतम ! अंतरकाल नहीं। १६६. भावदेवस्स णं-पुच्छा। भावदेवस्य-पृच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अं गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहर्तम, उत्कर्षण उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइ- अनन्तं कालं-वनस्पतिकालः। कालो॥ १६६. भावदेव की पृच्छा। गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्टतः अनंत काल-वनस्पति काल। १. भ. वृ. १२/१६१-संस्थितिरपि तत्पर्यायानुबंधः । २. भ. वृ. १२/१६१-धर्मदेवस्य जघन्येनैकं समयं स्थितिः अशुभभावं गत्त्वा ततो निवृत्तस्य शुभभावप्रतिपत्तिसमयानन्तरमेव मरणादिति। ३. भ. जो. ४/२६/८६-८६ जघन्य समय इक न्हाल, धर्मदेव संचिट्ठणा। ते किण रीत संभाल? तास न्याय इम संभवै॥ शंका पड़ियां ताय, छट्ठा गुणठाणां थकी। प्रथम गुणठाणे आय, सम्यक्त्व चरण विहं गयां॥ शंका मिटियां तेह, चारित्र सम्यक्त्व बिहुं वली। तुस्त तास आबेह, समय एक रही. मरे। इम संचिट्ठणकाल, जघन्य समय इक संभवै। उत्कृष्टे सुविशाल, पूर्व कोड़ देसूण ही॥ (ज. स.) ४. भ. २५/४२५,४२७,५३३। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. ६ : सू. १६७, १६८ १. सूत्र १६२-१६६ भव्यद्रव्य देव का अंतर जघन्यतः अंतमुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का बतलाया गया है। भवनपति और व्यंतर देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की बतलायी गयी है।' अंतर्मुहूर्त के विषय में अभयदेवसूरि ने तीन मतों का उल्लेख किया है प्रथम मत प्राचीन टीकाकार का है। उसके अनुसार कोई भव्यद्रव्य देव दस हजार वर्ष की व्यंतर और भवनपति की स्थिति में उत्पन्न होकर वहां से च्युत हो शुभ पृथ्वी आदि में उत्पन्न होता है। वहां अंतर्मुहूर्त्त रहकर मृत्यु को प्राप्त हो अंतर्मुहूर्त आयुष्य वाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होता है। उस समय वह भव्यद्रव्य देव हो जाता है। पंचविह-देवाणं अप्पाबहुयत्त-पदं १७. एएसि णं भंते ! भवियदव्वदेवाणं, नरदेवाणं, धम्मदेवाणं, देवातिदेवाणं, भावदेवाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा नरदेवा, देवातिदेवा संखेज्जगुणा, धम्मदेवा संखेज्जगुणा, भवियदव्वदेवा असंखेज्जगुणा, भावदेवा असंखेज्जगुणा ॥ १६८. एएसि णं भंते! भावदेवाणं भवणवासीणं, वाणमंतराणं, जोड़सियाणं, वेमाणियाणं - सोहम्मगाणं जाव अच्चुयगाणं, गेवेज्जगाणं, अणुत्तरोववाइयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा अणुत्तरोववाइया भावदेवा, उवरिमगेवेज्जा भावदेवा संखेज्जगुणा, मज्झिमगेवेज्जा संखेज्जगुणा, हेट्ठिमगेवेज्जा संखेज्जगुणा, अच्चुए कप्पे देवा संखेज्जगुणा जाव आणयकप्पे देवा संखेज्जगुणा, सहस्सारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, महासुक्के कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, लंतए कप्पे देवा भाष्य ८८ पञ्चविध- देवानाम् अल्पबहुकत्व-पदम् एतेषां भदन्त ! भव्यद्रव्यदेवानां नरदेवानां धर्मदेवानां देवातिदेवानां, भावदेवानां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? १. पण्ण. ४ / ३१, १६५ । २. (क) भ. वृ. १२ / १६२ - भव्यद्रव्यदेवस्यान्तरं जघन्येन दशवर्षसह दूसरा मत नामोल्लेख रहित है। उसके अनुसार बद्धायु जीव ही भव्य देव के रूप में इष्ट है । जघन्य स्थिति का देव देव - अवस्था से च्युत होकर अंतर्मुहूर्त्त स्थिति वाले भव्यद्रव्य देव रूप में उत्पन्न होता है । उत्पन्न होने के अंतर्मुहूर्त के पश्चात् उसके तीसरे भाग में वह देवआयु का बंध करता है। वह भी अंतर्मुहूर्त काल है। इस प्रकार अंतर्मुहूर्त का अंतर काल हो जाता है। तीसरा मत- जन्म और मरण के अंतराल में होने वाला अंतर्मुहूर्त। इन तीनों मतों में बद्धायु मत अधिक समीचीन लगता है। नरदेव, धर्मदेव और भावदेव के अंतर काल के लिए भगवई १२ / १६२ - १६६ की वृत्ति द्रष्टव्य है। गौतम! सर्वस्तोकाः नरदेवाः, देवातिदेवाः संख्येयगुणाः, धर्मदेवाः संख्येयगुणाः, भव्यद्रव्यदेवाः असंख्येयगुणाः, भावदेवाः असंख्येयगुणाः । एतेषां भदन्तः भावदेवानां भवनवासिनाम्, वानमन्तराणाम्, ज्योतिष्काणाम्, वैमानिकानाम् - सौधर्मकाणां यावत् अच्युतकानाम्, ग्रैवेयकानाम्, अनुत्तरोपपातिकानां वा, कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? गौतम! सर्वस्तोकाः अनुत्तरोपपातिकाः भावदेवाः, उपरितनग्रैवेयकाः भावदेवाः संख्येयगुणाः, मध्यमग्रैवेयेकाः संख्येयगुणाः, अधस्तनग्रैवेयकाः संख्येयगुणाः, अच्युते कल्पे देवा: संख्येयगुणाः यावत् आनतकल्पे देवाः संख्येयगुणाः सहस्रारे कल्पे देवाः असंख्येयगुणाः, महाशुक्रे कल्पे देवाः असंख्येयगुणाः, लन्तके कल्पे देवाः भगवई पंचविध देवों का अल्प - बहुत्व पद १६७. भंते! इन भव्यद्रव्यदेवों, नरदेवों, धर्मदेवों, देवातिदेवों और भावदेवों में कौन किनसे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प नरदेव, देवातिदेव उससे संख्येय गुण अधिक, धर्मदेव उससे संख्येय 'गुण अधिक, भव्यद्रव्य देव उससे असंख्य गुण अधिक और भावदेव उससे असंख्य गुण अधिक हैं। १६८. भंते ! इन भावदेवों-भवनवासी देवों, वाणमंतर देवों, ज्योतिष्क देवों और वैमानिक देवों-सौधर्म यावत् अच्युतकल्प, ग्रैवेयक और अनुत्तरोपपातिक देवों में कौन किनसे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प अनुत्तरोपपातिक भावदेव, उपरि ग्रैवेयक भावदेव उससे संख्येय गुण अधिक, मध्यम ग्रैवेयक उससे संख्येय गुण अधिक, अधस्तन ग्रैवेयक उससे संख्येय गुण अधिक, अच्युतकल्पवासी देव उससे संख्येय गुण अधिक यावत् आनतकल्पवासी देव उससे संख्येय अधिक महाशुक्रकल्पवासी देव उससे असंख्य गुण अधिक, लान्तककल्पवासी त्राण्यन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि । (ख) भ. जो. ४ / २६७ /६२। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ८६ असंखेज्जगुणा, बंभलोए कप्पे देवा असंख्येयगुणाः, ब्रह्मलोके कल्पे देवाः । असंखेज्जगुणा, माहिद कप्पे देवा असंख्येयगुणाः, माहेन्द्रे कल्पे देवाः असंखेज्जगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवा असंख्येयगुणाः सनत्कुमारकल्पे देवाः असंखेज्जगुणा, ईसाणे कप्पे देवा असंख्येयगुणाः, ईशानकल्पे देवाः असंखेज्जगुणा, सोहम्मे कप्पे देदा असंख्येयगुणाः, सौधर्मेकल्पे देवाः संखेज्जगुणा, भवणवासिदेवा असंख्येयगुणाः, भवनवासिदेवाः असंखेज्जगुणा, वाणमंतरा देवा असंख्येयगुणाः, वानमन्तराः देवाः असंखेज्जगुणा, जोतिसिया भावदेवा असंख्येयगणाः, ज्योतिष्काः भावदेवाः संखेज्जगुणा॥ असंख्येयगुणाः। श. १२ : उ. ६ : सू. १६६ देव उससे असंख्येय गुण अधिक, माहेन्द्रकल्पवासी देव उससे असंख्येय गुण अधिक, सनत्कुमारकल्पवासी देव उससे असंख्येय गुण अधिक, ईशानकल्पवासी देव उससे असंख्येय गुण अधिक, सौधर्मकल्पवासी देव उससे असंख्येय गुण अधिक, भवनवासी देव उससे असंख्येय गुण अधिक, वाणमंतर देव उससे असंख्येय गुण अधिक, ज्योतिष्क भावदेव उससे असंख्येय गुण अधिक हैं। भाष्य १. सूत्र १६७-१९८ विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भगवई १२/१९७-१९८ की वृत्ति। १६६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति! १६१. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद अट्ठविह-आय-पदं अष्टविध-आत्म-पदम् २००. कतिविहा णं भंते ! आया पण्णत्ता? कतिविघाः भदन्त! आत्मानः प्रज्ञप्ताः? गोयमा ! अट्टविहा आया पण्णत्ता, तं गौतम! अष्टविधाः आत्मानः प्रज्ञप्ताः, जहा-दवियाया, कसायाया, जोगाया, तद्यथा-द्रव्यात्मा, कषायात्मा, उवओगाया, नाणाया, दंसणाया, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, चरित्ताया, वीरियाया॥ दर्शनात्मा, चरित्रात्मा, वीर्यात्मा। अष्टविध आत्म-पद २००. भंते! आत्मा कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? गौतम ! आत्मा आठ प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य आत्मा, कषाय आत्मा, योग आत्मा, उपयोग आत्मा, ज्ञान आत्मा, दर्शन आत्मा, चरित्र आत्मा और वीर्य आत्मा। भाष्य १. सूत्र २०० ४. उपयोग आत्मा-चैतन्य की क्रिया में प्रवृत्त जीव। वृत्तिकार जीवास्तिकाय के बीस नाम बतलाए गए हैं, उनमें दसवां नाम ने इसका वैकल्पिक अर्थ किया है-विवक्षित वस्तु के जानने में प्रवृत्त आया-आत्मा है।' जीव। यह सब जीवों के होती है। प्रस्तुत सूत्र में आत्मा के आठ प्रकार बतलाए गए हैं, उनमें ५. ज्ञान आत्मा-सम्यक् दर्शन के साथ होने वाली ज्ञान की द्रव्य आत्मा मूल है और शेष सात उसके पर्याय हैं। उपलब्धि ज्ञान आत्मा है। यह सम्यग् दृष्टि के होती है। १. द्रव्य आत्मा-द्रव्य त्रिकालवर्ती है। वह त्रिकालवर्ती चैतन्य ६. दर्शन आत्मा-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाली लक्षण वाला जीव द्रव्य आत्मा है। यह सब जीवों के होती है। दृष्टि दर्शन आत्मा है। यह सब जीवों के होती है। २. कषाय आत्मा-क्रोध आदि कषायों से आविष्ट आत्मा। यह ७. चारित्र आत्मा-सावध प्रवृत्ति से विरत होना चारित्र अनुपशांत और अक्षीण कषाय वाले जीवों के होती है। आतमा है। यह व्रत-संपन्न जीवों के होती है। ३. योग आत्मा-मन, वचन और शरीर का प्रवर्तक जीव का .. वीर्य आत्मा-उत्थान, बल आदि की शक्ति वीर्य आत्मा व्यापार। यह योगवान जीव के होती है। है। यह सभी संसारी जीवों के होती है।' २०१. जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स २०१. यस्त भदन्त! द्रव्यात्मा तस्य कसायाया ? जस्स कसायाया तस्स कषायात्मा? यस्य कषायात्मा तस्य दवियाया? द्रव्यात्मा? गोयमा! जस्स दवियाया तस्स गौतम! यस्य द्रव्यात्मा तस्य कषायात्मा कसायाया सिय अस्थि सिय नथि, । स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति, यस्य पुनः जस्स पुण कसायाया तस्स दवियाया कषायात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमम नियम अत्थि॥ अस्ति । २०१. भंते ! जिसके द्रव्य आत्मा है क्या उसके कषाय आत्मा है? जिसके कषाय आत्मा है, क्या उसके द्रव्य आत्मा है ? । गौतम ! जिसके द्रव्य आत्मा है उसके कषाय आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है । जिसके कषाय आत्मा है उसके द्रव्य आत्मा नियमतः है। २०२. जस्स णं भंते! दवियाया तस्स यस्य भदन्त! द्रव्यात्मा तस्य जोगाया ? जस्स जोगाया तस्स योगात्मा? यस्य योगात्मा तस्य दवियाया? द्रव्यात्मा? २०२. भंते ! जिसके द्रव्य आत्मा है क्या उसके योग आत्मा है ? जिसके योग आत्मा है, क्या उसके द्रव्य आत्मा है ? १. भ. २०/१७॥ २. भ. पृ. १२/२००-द्रव्यं-त्रिकालानुगाम्युपसर्जनीकृतकषायादिपर्यायं तद्रूप आत्मा द्रव्यात्मा सर्वेषां जीयानाम्। ३. वही, १२/वीर्य-उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणामिति। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स जोगाया सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स दवियाया नियमं अत्थि ॥ २०३. जस्स णं भंते! दवियाया तस्स उवओगाया ? जस्स उवओगाया तस्स दवियाया ? -एवं सव्वत्थ पुच्छा भाणियव्वा । गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स उवओगाया नियमं अत्थि । जस्स वि उवओगाया तस्स वि दवियाया नियमं अत्थि । जस्स दवियाया तस्स नाणाया भयणाए । जस्स पुण नाणाया तस्स दवियाया नियमं अस्थि । जस्स दवियाया तस्स दंसणाया नियमं अत्थि । जस्स वि दंसणाया तस्स वि दवियाया नियमं अस्थि । जस्स दवियाया तस्स चरिताया भयणाए, जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया नियमं अत्थि । जस्स दवियाया तस्स वीरियाया भयणाए, जस्स पुण वीरियाया तस्स दवियाया नियमं अत्थि ॥ २०४. जस्स णं भंते! कसायाया तस्स जोगाया- पुच्छा। गोयमा ! जस्स कसायाया तस्स जोगाया नियमं अत्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाया सिय अत्थि सिय नत्थि । एवं उवओगायाए वि समं कसायाया नेयब्वा । कसायाया य नाणाया य परोप्परं दो वि भइयव्वाओ। जहा कसायाया य उवओगाया य तहा कसायाया य दंसणाया य, कसायाया य चरिताया य दो वि परोप्परं भइयव्वाओ। जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया य वीरियाया य भाणियव्वाओ। एवं जहा कसायायाए वत्तव्वया भणिया तहा जोगायाए वि उवरिमाहिं समं भाणियव्वाओ। जहा दवियायाए वत्तव्वया भणिया तहा उवओगायाए बि ६१ गौतम! यस्य द्रव्यात्मा तस्य योगात्मा स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति, यस्य पुनः योगात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमम् अस्ति । यस्य भदन्त ! द्रव्यात्मा तस्य उपयोगात्मा यस्य उपयोगात्मा तस्य द्रव्यात्मा ? एवं सर्वत्र पृच्छा भणितव्या । गौतम! यस्य द्रव्यात्मा तस्य उपयोगात्मा नियमम् अस्ति । यस्यापि उपयोगात्मा तस्यापि द्रव्यात्मा नियमम् अस्ति। यस्य द्रव्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा भजनया यस्य पुनः ज्ञानात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमम् अस्ति । यस्य द्रव्यात्मा तस्य दर्शनात्मा नियमम् अस्ति । यस्यापि दर्शानात्मा तस्यापि द्रव्यात्मा नियमम् अस्ति। यस्य द्रव्यात्मा तस्य चरित्रात्मा भजनया, यस्य पुनः चरित्रात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमम् अस्ति । यस्य द्रव्यात्मा तस्य वीर्यात्मा भजनया, यस्य पुनः वीर्यात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमम् अस्ति । यस्य भदन्त ! कषायात्मा तस्य योगात्मा पृच्छा । गौतम ! यस्य कषायात्मा तस्य योगात्मा नियमम् अस्ति, यस्य पुनः योगात्मा तस्य कषायात्मा स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति। एवम् उपयोगात्मना अपि समं कषायात्मा नेतव्यः । कषायात्मा च ज्ञानात्मा च परस्परं द्वौ अपि भक्तव्यौ । यथा कषायात्मा च उपयोगात्मा च तथा कषायात्मा च दर्शनात्मा च । कषायात्मा च चरित्रात्मा च द्वौ अपि परस्परं भक्तव्यौ । यथा कषायात्मा च योगात्मा च तथा कषायात्मा च वीर्यात्मा च भणितव्यौः । एवं यथा कषायात्मनः वक्तव्यता भणिता तथा योगात्मनः अपि उपरितनैः समं भणितव्या । यथा द्रव्यात्मनः वक्तव्यता भणिता तथा उपयोगात्मनः अपि उपरितनैः समं श. १२ : उ. १० : सू. २०३ - २०४ गौतम ! जिसके द्रव्य आत्मा है उसके योग आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। जिसके योग आत्मा है उसके द्रव्य आत्मा नियमतः है। २०३. भंते! जिसके द्रव्य आत्मा है, क्या उसके उपयोग आत्मा है ? जिसके उपयोग आत्मा है, क्या उसके द्रव्य आत्मा है ? इसी प्रकार सर्वत्र पृच्छा करणीय है । गौतम ! जिसके द्रव्य आत्मा है उसके उपयोग आत्मा नियमतः है। जिसके उपयोग आत्मा है उसके द्रव्य आत्मा नियमतः है। जिसके द्रव्य आत्मा है, उसके ज्ञान आत्मा की भजना है। जिसके ज्ञान आत्मा है उसके द्रव्य आत्मा नियमतः है। जिसके द्रव्य आत्मा है, उसके दर्शन आत्मा नियमतः है। जिसके दर्शन आत्मा है, उसके द्रव्य आत्मा नियमतः है। जिसके द्रव्य आत्मा है, उसके चरित्र आत्मा की भजना है। जिसके चरित्र आत्मा है, उसके द्रव्य आत्मा नियमतः है। जिसके द्रव्य आत्मा है, उसके वीर्य आत्मा की भजना है। जिसके वीर्य आत्मा है, उसके द्रव्य आत्मा नियमतः है। २०४. भंते! जिसके कषाय आत्मा है उसके योग आत्मा होती है ? पृच्छा । गौतम ! जिसके कषाय आत्मा है उसके योग आत्मा नियमतः है। जिसके योग आत्मा है उसके कषाय आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। इसी प्रकार उपयोग आत्मा भी कषाय आत्मा के समान ज्ञातव्य है । कषाय आत्मा और ज्ञान आत्मा- ये दोनों परस्पर भजनीय है। जैसे कषाय आत्मा और उपयोग आत्मा की वक्तव्यता है वैसे ही कषाय आत्मा और दर्शन आत्मा, कषाय आत्मा और चरित्र आत्मा- ये दोनों परस्पर भजनीय है। जैसे कषाय आत्मा और योग आत्मा की वक्तव्यता है वैसे ही कषाय आत्मा और वीर्य आत्मा भी वक्तव्य है। इसी प्रकार जैसे कषाय आत्मा की वक्तव्यता कही गई है वैसे ही योग आत्मा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२:उ. १०. सू. २०४ भगवई उपरिल्लाहि सम भाणियब्वा। जस्स भणितव्या। यस्य ज्ञानात्मा तस्य नाणाया तस्स दसणाया नियम अस्थि, दर्शनात्मा नियमम् अस्ति, यस्य पुनः जस्स पुण दमणाया तस्स नाणाया दर्शनात्मा तस्य ज्ञानात्मा भजनया। भयणाए। जस्स नाणाया तस्स यस्य ज्ञानात्मा तस्य चरित्रात्मा स्यात् चरित्ताया सिय अस्थि सिय नत्थि, अस्ति स्यात् नास्ति, यस्य पुनः जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया चरित्रात्मा तस्य ज्ञानात्मा नियमम नियम अत्थि। नाणाया वीरियाया दो अस्ति। ज्ञानात्मा वीर्यात्मा द्वौ अपि वि परोप्परं भयणाए। जस्स दंसणाया परस्परं भजनया। यस्य दर्शनात्मा तस्य तस्स उवरिमाओ दो वि भयणाए, उपरितनौ द्वौ अपि भजनया, यस्य पुनः जस्स पुण ताओ तस्स दंसणाया नियम तौ तस्य दर्शनात्मा नियमम् अस्ति। अत्थि। जस्स पुण चरित्ताया तस्स यस्य पुनः चरित्रात्मा तस्य वीर्यात्मा वीरियाया नियमं अस्थि, जस्स पुण नियमम् अस्ति, यस्य पुनः वीर्यात्मा वीरियाया तस्स चरित्ताया सिय अस्थि तस्य चरित्रात्मा स्यात् अस्ति स्यात् सिय नथि॥ नास्ति। की वक्तव्यता ऊपरवर्ती आत्माओं के साथ वक्तव्य है। जैसे द्रव्य आत्मा की वक्तव्यता कही गई है वैसे ही उपयोग आत्मा की वक्तव्यता ऊपरवर्ती आत्माओं के साथ वक्तव्य है। जिसके ज्ञान आत्मा है उसके दर्शन आत्मा नियमतः है। जिसके दर्शन आत्मा है उसके ज्ञान आत्मा की भजना है। जिसके ज्ञान आत्मा है उसके चरित्र आत्मा स्यात् है स्यात् नहीं है। जिसके चरित्र आत्मा है, उसके ज्ञान आत्मा नियमतः है। ज्ञान आत्मा और वीर्य आत्मा-ये दोनों परस्पर भजनीय है। जिसके दर्शन आत्मा है उसके उपरिवर्ती दो आत्मा-चरित्र आत्मा और वीर्य आत्मा की भजना है। जिसके चरित्र और वीर्य आत्मा हैं, उसके दर्शन आत्मा नियमतः है। जिसके चरित्र आत्मा है, उसके वीर्य आत्मा नियमतः है। जिसके वीर्य आत्मा है उसके चरित्र आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। भाष्य १. सूत्र २०१-२०४ प्रस्तुत प्रकरण में आठ आत्माओं की उपलब्धि और अनुपलब्धि पर स्याद्वाद की दृष्टि से विचार किया गया है। द्रव्य आत्मा मूल आधार है इसलिए उसकी उपलब्धि का सर्वत्र विवरण है। द्रव्य आत्मा के साथ कषाय आत्मा की उपलब्धि की भजना/ विकल्प है। सकषाय जीव के कषाय आत्मा होती है। वीतराग के कषाय आत्मा नहीं होती। इस दृष्टि से कहा गया है-कषाय आत्मा स्यादस्ति स्यानास्ति। __ मन, वचन, काया की प्रवृत्ति वाले जीव के योग आत्मा होती है। अयोग अवस्था वाले और मुक्त जीवों के योग आत्मा नहीं होती। उपयोग जीव का लक्षण है इसलिए द्रव्य आत्मा और उपयोग आत्मा के साहचर्य का नियम है। ज्ञान आत्मा सम्यग् दृष्टि के होती है, मिथ्या दृष्टि के नहीं होती इसलिए द्रव्य आत्मा के साथ उसकी उपलब्धि का विकल्प है-स्यादस्ति स्यान्नास्ति। दर्शन आत्मा की द्रव्य आत्मा के साथ नियमतः उपलब्धि है इसलिए दोनों का साहचर्य है। अभयदेव सूरि ने दर्शन आत्मा के संदर्भ में चक्षु दर्शन आदि १. भ. वृ. १२/२०३-यथा चक्षुर्दर्शनादिदर्शनवतां जीवत्वमिति। २. भ. जो ४/२६८/१६: का उल्लेख किया है। यह विमर्शनीय है। दर्शन का संबंध दो कर्मों के साथ है १. दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम और क्षय से होने वाला सामान्य बोध-अनाकार उपयोग दर्शन है। २. मोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम और क्षय से होने वाला दृष्टिकोण दर्शन है। यहां मोह के विलय से संबद्ध दर्शन विवक्षित है। जयाचार्य ने वृत्तिकार के मत की समीक्षा में लिखा है-दसवें गुणस्थान में अनाकार उपयोग नहीं होता। यदि दर्शन का संबंध दर्शनावरणीय कर्म के विलय के साथ माना जाए तो द्रव्य आत्मा और दर्शन आत्मा के साहचर्य का नियम नहीं हो सकता।' द्रव्य आत्मा के साथ चरित्र आत्मा की उपलब्धि का विकल्प है। विरत के चरित्र आत्मा होती है, अविरत और मुक्त के चरित्र आत्मा नहीं होती। मुक्त जीव के करण वीर्य नहीं होता इसलिए द्रव्य आत्मा के साथ वीर्य आत्मा की उपलब्धि का विकल्प है। योग आत्मा के साथ कषाय आत्मा की उपलब्धि का विकल्प है। वह सकषाय और अकषाय-दोनों के होती है। शतक पचीसम जोग, आख्यो सप्तमुद्देशके। अनाकार उपयोग, दशमें गुणठाणे तणी॥ ३. वही, ४/२६८/२७-३६। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई द्रष्टव्य यंत्र १. द्रव्य आत्मा के साथ कषाय आत्मास्यात् है, स्यात् नहीं है। योग आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। उपयोग आत्मा नियमतः है। ज्ञान आत्मा स्यात् है स्यात् नहीं है। दर्शन आत्मा नियमत: है । चारित्र आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। ४. उपयोग आत्मा के साथद्रव्य आत्मा नियमतः है। कषाय आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। योग आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। ज्ञान आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। दर्शन आत्मा नियमतः है। चरित्र आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। वीर्य आत्मास्यात् है, स्वात् नहीं है। ७. चरित्र आत्मा के साथ द्रव्य आत्मा नियमतः है। कषाय आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। योग आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। उपयोग आत्मा नियमतः है। ज्ञान आत्मा नियमतः है। दर्शन आत्मा नियमतः है। वीर्य आत्मा नियमतः है। अट्ठविह-आयाणं अप्पाबहुत्त-पदं २०५. एयासि णं भंते! दवियायाणं, कसायायाणं जाव वीरियायाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा ६ ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ चरित्तायाओ, नाणायाओ अनंतगुणाओ, अनंतगुणाओ, कसायायाओ जोगायाओ विसेसाहियाओ वीरियायाओ विसेसाहियाओ उवओगदवियदसणायाओ तिण्णि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ॥ ६३ २. कषाय आत्मा के साथद्रव्य आत्मा नियमतः है। योग आत्मा नियमतः है। उपयोग आत्मा नियमतः है। ज्ञान आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। दर्शन आत्मा नियमतः है। चरित्र आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। वीर्य आत्मा नियमत: है । ५. ज्ञान आत्मा के साथद्रव्य आत्मा नियमतः है। कषाय आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। योग आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। उपयोग आत्मा नियमतः है। दर्शन आत्मा नियमतः है। चारित्र आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। वीर्य आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। ८. वीर्य आत्मा के साथ द्रव्य आत्मा नियमत: है । कषाय आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। योग आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है । उपयोग आत्मा नियमतः है। ज्ञान आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। दर्शन आत्मा नियमतः है। चरित्र आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। अष्टविध-आत्मनाम् अल्पबहुत्व- पदम् एतेषां भदन्त ! द्रव्यात्मनां कषायात्मनां यावत् वीर्यात्मनां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? गौतम ! सर्वस्तोकाः चारित्रात्मानः, ज्ञानात्मानः अनन्तगुणाः कषायात्मानः अनन्तगुणाः, योगात्मानः विशेषाधिकाः वीर्यात्मानः विशेषाधिकाः, उपयोगद्रव्य - दर्शनात्मानः त्रयोऽपि तुल्याः विशेषाधिकाः । श. १२ : उ. १० : सू. २०५ ३. योग आत्मा के साथ द्रव्य आत्मा नियमतः है। कषाय आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। उपयोग आत्मा नियमतः है। ज्ञान आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। दर्शन आत्मा नियमतः है। चरित्र आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। वीर्य आत्मा नियमतः है। ५. दर्शन आत्मा के साथद्रव्य आत्मा नियमतः है। कषाय आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। योग आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। उपयोग आत्मा नियमतः है। ज्ञान आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। चरित्र आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। वीर्य आत्मा स्यात् है, स्यात् नहीं है। अष्टविध - आत्मा का अल्पबहुत्व-पद २०५. भंते! द्रव्य आत्मा, कषाय आत्मा यावत् वीर्य आत्मा- इनमें कौन किनसे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम! सबसे अल्प चरित्र आत्मा, ज्ञान आत्मा उससे अनंतगुण अधिक, कषाय आत्मा उससे अनंतगुण अधिक, योग आत्मा उससे विशेषाधिक, वीर्य आत्मा उससे विशेषाधिक, उपयोग आत्मा, द्रव्य आत्मा और दर्शन आत्मा-ये तीनों वीर्य आत्मा से विशेषाधिक और परस्पर तुल्य हैं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. १० : सू. २०६-२०६ ६४ भगवई भाष्य १. सूत्र २०५ चरित्र आत्मा सबसे अल्प है। वृत्तिकार के अनुसार चरित्र आत्मा संख्येय है।' जयाचार्य ने इसका विशद विवेचन किया है। चरित्र आत्मा का अर्थ सर्व विरति विवक्षित है। उसकी अपेक्षा से चरित्र आत्मा को संख्येय कहा गया है। ज्ञानात्मा चरित्रात्मा से अनंत गुण अधिक है। सिद्ध और सम्यग् दृष्टि अनंत हैं। इस अपेक्षा से ज्ञानात्मा को चारित्रात्मा से अनंत गुण अधिक बतलाया गया है। कषाय आत्मा ज्ञानात्मा से अनंत गुण अधिक है। कषायोदय वाले जीव सिद्धों से अनंत गुण अधिक हैं। योग आत्मा कषाय आत्मा से विशेषाधिक है। अकषाय जीव योगवान् होते हैं। वीर्य आत्मा योग आत्मा से विशेषाधिक है। अयोगवान् जीवों के वीर्य आत्मा होती है। उपयोग, द्रव्य और दर्शन आत्मा सब जीवों में समान रूप से होती हैं इसलिए परस्पर तुल्य हैं। वीर्य आत्मा और सिद्ध-इन दोनों का योग होने पर तीनों आत्माएं वीर्य आत्मा से विशेषाधिक हो जाती हैं। नाणदंसणाणं अत्तणा भेदाभेद-पदं २०६. आया भंते ! नाणे ? अण्णे नाणे? ज्ञानदर्शनयोःआत्मनो-भेदाभेद-पदम आत्मा भदन्त! ज्ञानम् ? अन्यत् ज्ञानम्? ज्ञान-दर्शन का आत्मा के साथ भेदाभेद पद २०६. भंते ! आत्मा ज्ञान है ? अथवा आत्मा से भिन्न कोई ज्ञान है? गौतम ! आत्मा स्यात् ज्ञान है, स्यात् अज्ञान है। ज्ञान नियमतः आत्मा है। गोयमा! आया सिय नाणे सिय गौतम! आत्मा स्यात् ज्ञानं स्यात् अण्णाणे, नाणे पुण नियमं आया॥ अज्ञानम्, ज्ञानं पुनः नियमम् आत्मा। २०७. आया भंते ! नेरइयाणं नाणे? अण्णे नेरइयाणं नाणे? आत्मा भदन्त! नैरयिकाणां ज्ञानम्? अन्यत् नैरयिकाणां ज्ञानम्? गोयमा ! आया नेरइयाणं सिय नाणे, सिय अण्णाणे। नाणे पुण से नियम आया। एवं जाव थणियकुमाराणं॥ गौतम! आत्मा नैरयिकाणां स्यात् ज्ञानम्, स्यात् अज्ञानम्। ज्ञानं पुनः तत् नियमम् आत्मा। एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम्। २०७. भंते ! क्या नैरयिकों की आत्मा ज्ञान है? अथवा नैरयिकों की आत्मा से भिन्न कोई ज्ञान है? गौतम ! नैरयिकों की आत्मा स्यात् ज्ञान है, स्यात् अज्ञान है। उनका ज्ञान नियमतः आत्मा है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देवों की वक्तव्यता। २०८. आया भंते! पुढविकाइयाणं आत्मा भदन्त! पृथिवीकायिकानाम् २०८. भंते ! पृथ्वीकायिक जीवों की आत्मा अण्णाणे? अण्णे पुढविकाइयाणं अज्ञानम्? अन्यत् पृथिवीकायिकानाम् अज्ञान है ? पृथ्वीकायिक जीवों की आत्मा अण्णाणे? अज्ञानम्? से भिन्न कोई अज्ञान है ? गोयमा ! आया पुढविकाइयाणं नियम गौतम! आत्मा पृथिवीकायिकानां गौतम ! पृथ्वीकायिक जीवों की आत्मा अण्णाणे, अण्णाणे वि नियमं आया। नियमम् अज्ञानम्, अज्ञानम् अपि नियमतः अज्ञान है, उनका अज्ञान भी नियमम् आत्मा। नियमतः आत्मा है। एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। बेइंदिय- एवं यावत् वनस्पतिकायिकानाम्। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तेइंदियाणं जाव वेमाणियाणं जहा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियाणां यावत वैमानिकानां की वक्तव्यता। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय यावत् नेरइयाणं॥ यथा नैरयिकाणाम्। वैमानिक देवों की नैरयिकों की भांति वक्तव्यता। २०६. आया भंते ! दंसणे? अण्णे दंसणे? आत्मा भदन्त! दर्शनम्? अन्यत् दर्शनम? गोयमा! आया नियमं दसणे, दंसणे ___ गौतम! आत्मा नियमं दर्शनम्, दर्शनम् वि नियमं आया॥ अपि नियमम् आत्मा। २०६. भंते! क्या आत्मा दर्शन है ? क्या आत्मा से भिन्न कोई दर्शन है? गौतम ! आत्मा नियमतः दर्शन है, दर्शन भी नियमतः आत्मा है। ३. भ. वृ. १२/२०५। १. भ. वृ. १२/२०५-चरित्रिणां संख्यात्वात् २. भ. जो. ४/२६८.८६-६२। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २१०. आया भंते ! नेरइयाणं दंसणे ? अण्णे नेरइयाणं दंसणे? आत्मा भदन्त! नैरयिकाणां दर्शनम्? अन्यत् नैरयिकाणां दर्शनम्? श. १२ : उ. १० : सू. २१०-२१२ २१०. भंते ! क्या नैरयिकों की आत्मा दर्शन है? क्या नैरयिकों की आत्मा से भिन्न कोई दर्शन है ? गौतम ! नैरयिकों की आत्मा नियमतः दर्शन है, उनका दर्शन भी नियमतः आत्मा है। इसी प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक, निरन्तर दंडक वक्तव्य है। गोयमा ! आया नेरइयाणं नियमं दसणे, दंसणे वि से नियमं आया। एवं जाव बेमाणियाणं निरंतरं दंडओ॥ गौतम! आत्मा नैरयिकाणां नियमम् दर्शनम्, दर्शनम् अपि तत् नियमम् आत्मा। एवं यावत् वैमानिकानां निरन्तरं दण्डकः। भाष्य १. सूत्र २०६-२१० इस आलापक में आत्मा, ज्ञान और दर्शन की सापेक्ष चर्चा की गई है। ज्ञान और दर्शन आत्मा के गुण हैं, लक्षण हैं। गुण और गुणी का संबंध भेदाभेदात्मक है। जो सर्वथा भिन्न है वह उस द्रव्य का गुण नहीं हो सकता। सर्वथा अभिन्न होने पर गुण और गुणी-ये दो नहीं हो सकते। प्रस्तुत प्रकरण में ज्ञान और अज्ञान के आधार पर आत्मा के भेदाभेद की चर्चा की गई है। अज्ञान के दो अर्थ हैं १. ज्ञानावरण कर्म के उदय से होने वाला ज्ञान का अभाव।। २. मिथ्या दृष्टि का सहचारी ज्ञान।। सूत्र २०६ में बतलाया गया-ज्ञान और अज्ञान नियमतः आत्मा है। सूत्र २०८ में बतलाया गया-अज्ञान भी नियमतः आत्मा है। सूत्र २०६ के संदर्भ में एक प्रश्न प्रस्तुत होता है-मिथ्यादृष्टि के साहचर्य से जैसे ज्ञान अज्ञान बनता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि के साहचर्य से दर्शन अदर्शन क्यों नहीं बनता? अभयदेव सूरि ने इस विषय में इतना उल्लेख किया है-सम्यग् दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के दर्शन में कोई विशिष्टता नहीं होती।' प्रस्तुत प्रश्न का समाधान दर्शन के स्वरूप में खोजा जा सकता है। दर्शन सामान्य और निर्विकल्प बोध है इसलिए वह मिथ्यादृष्टि के साहचर्य से अदर्शन नहीं बनता। ज्ञान विशेष और सविकल्प बोध है इसलिए मिथ्यादृष्टि के साहचर्य से वह अज्ञान बन जाता है। सियवाद-पदं स्याद्वाद-पदम् २११. आया भंते ! रयणप्पभा पुढवी ? आत्मा भदन्त! रत्नप्रभा पृथिवी? अण्णा स्यणप्पभा पुढवी ? अन्या रत्नप्रभा पृथिवी? गोयमा ! रयणप्पभा पुढवी सिय गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी स्यात् आत्मा, आया, सिय नोआया, सिय अवत्तव्वं- स्यात् नो आत्मा, स्यात् अवक्तव्यम्आयाति य नोआयाति य॥ आत्मा इति च नो आत्मा इति च। स्याद्वाद पद २११. भंते! रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है? रत्नप्रभा पृथ्वी से भिन्न कोई आत्मा है ? गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा है-आत्मा नहीं है, स्यात् अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा-दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। २१२. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- स्यणप्पभा पुढबी सिय आया, सिय रत्नप्रभा पृथिवी स्यात् आत्मा, स्यात् नोआया, सिय अवत्तव्वं- आयाति य नो आत्मा, स्यात् अवक्तव्यम्-आत्मा नोआयाति य? इति च नो आत्मा इति च? गोयमा! अपणो आदिढे आया, गौतम! आत्मनः आदिष्टः आत्मा, परस्स आदिढे नोआया, तदुभयस्स परस्य आदिष्टः नो आत्मा, तदुभयस्य आदिढे अवत्तव्वं- रयणप्पभा पुढवी आदिष्टः अवक्तव्यं-रत्नप्रभा पृथिवी आयाति य नोआयाति य। आत्मा इति च नो आत्मा इति च। २१२. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा है, स्यात् अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा-दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है? गौतम ! स्वपर्याय की अपेक्षा आत्मा है, पर पर्याय की अपेक्षा आत्मा नहीं है, स्वपर्याय और पर पर्याय की अपेक्षा अवक्तव्य हैरत्नप्रभा पृथ्वी-आत्मा और नो आत्मादोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा है, स्यात् अवक्तव्य- आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ- तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेस्यणप्पभा पढवी सिय आया, सिय रत्नप्रभा पृथिवी स्यात् आत्मा, स्यात् नोआया, सिय अवत्तवं-आयाति य । नो आत्मा, स्यात् अवक्तव्यम्-आत्मा नोआयाति य॥ इति च नो आत्मा इति च। १. भ. वृ. १२/२०१-सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टयोदर्शनस्याविशिष्टात्वादात्मा दर्शनं दर्शनमप्यात्मैवेति। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ भगवई श. १२ : उ. १० : सू. २१३-२१८ २१३. आया भंते ! सक्करप्पभा पुढवी ? जहा स्यणप्पभा पुढवी तहा सक्करपभावि। एवं जाव अहेसत्तमा॥ आत्मा भदन्त! शर्कराप्रभा पृथिवी? यथा रत्नप्रभा पृथिवी तथा शर्कराप्रभा अपि। एवं यथा अधःसप्तमी। २१३. भंते ! शर्कराप्रभा पृथ्वी आत्मा है ? रत्नप्रभा पृथ्वी की भांति शर्कराप्रभा पृथ्वी की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी की वक्तव्यता। २१४. आया भंते। सोहम्मे कप्पे-पुच्छा। आत्मा भदन्त! सौधर्मः कल्पः-पृच्छा। गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया गौतम! सौधर्मः कल्पः स्यात् आत्मा सिय नोआया, सिय अवत्तव्वं- स्यात् नो आत्मा, स्यात् अवक्तव्यम्आयाति य नोआयाति य॥ आत्मा इति च नो आत्मा इति च। २१४. भंते ! सौधर्मकल्प आत्मा है?-पृच्छा। गौतम ! सौधर्म कल्प स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा है, स्यात् अवक्तव्यआत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। २१५. से केणटेणं भंते ! जाव आयाति य नो आयाति य? तत् केनार्थेन भदन्त! यावत् आत्मा इति च नो आत्मा इति च? गोयमा! अप्पणो आइढे आया, गौतम! आत्मनः आदिष्टः आत्मा, परस्स आइडे नोआया, तदुभयस्स परस्य आदिष्टः नो आत्मा, तदुभयस्य आइडे अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति आदिष्टः अवक्तव्यम्-आत्मा इति च य। से तेणटेणं तं चेव जाव आयाति य नो आत्मा इति च। तत् तेनार्थेन तच्चैव नोआयाति य। एवं जाव अचुए कप्पे॥ यावत् आत्मा इति च नो आत्मा इति च। एवं यावत् अच्युतः कल्पः। २१५. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है, यावत् आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है ? गौतम ! स्वपर्याय की अपेक्षा आत्मा है, परपर्याय की अपेक्षा नो आत्मा है, दोनों की अपेक्षा अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा दोनों एक साथ कहना शक्य नहीं है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं हैं। इसी प्रकार यावत् अच्युतकल्प की वक्तव्यता। २१६. आया भंते ! गेवेज्जविमाणे? अण्णे गेवेज्जविमाणे? एवं जहा स्यणप्पभा तहेव। एवं अणुत्तरविमाणा वि। एवं ईसिपब्भारा आत्मा भदन्त! ग्रैवेयकविमानम्? अन्यत् ग्रैवेयकविमानम्? एवं यथा रत्नप्रभा तथैव। एवम् अनुत्तरविमानानि अपि, एवम् ईषत्प्राग्भारा अपि। २१६. भंते ! ग्रैवेयक विमान आत्मा है? ग्रैवेयक विमान से भिन्न कोई आत्मा है? इसी प्रकार रत्नप्रभा की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार अनुत्तरविमान की भी, इसी प्रकार ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी की भी वक्तव्यता। वि॥ २१७. आया भंते! परमाणुपोग्गले? अण्णे परमाणुपोग्गले ? एवं जहा सोहम्मे तहा परमाणुपोग्गले वि भाणियचे॥ आत्मा भदन्त! परमाणुपुद्गलः, अन्यः परमाणुपुद्गलः? एवं यथा सौधर्मः तथा परमाणुपुद्गलः? अपि भणितव्यः। २१७. भंते! परमाणु-पुद्गल आत्मा है? परमाणु-पुद्गल से भिन्न कोई आत्मा है ? जैसे सौधर्मकल्प की वक्तव्यता, वैसे परमाणु-पुद्गल की वक्तव्यता। २१८. आया भंते ! दुपएसिए खंधे ? अण्णे दुपएसिए खंधे? आत्मा भदन्त! द्विप्रदेशिक: स्कन्धः? अन्यः द्विप्रदेशिक: स्कन्धः? २१८. भंते ! द्विप्रदेशिक स्कंध आत्मा है? द्विप्रदेशिक स्कंध से भिन्न कोई आत्मा है ? गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कंध १. स्यात् आत्मा गोयमा! दपएसिए खंधे १. सिय आया २. सिय नोआया ३. सिय अवत्तव्य-आयाति य नोआयाति य गौतम! द्विप्रदेशिकः स्कन्धः १. स्यात् आत्मा २. स्यात् नो आत्मा ३. स्यात् अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च २. स्यात् नो आत्मा है ३. स्यात् अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ श. १२ : उ. १० : सू. २१६,२२० भगवई ४. सिय आया य नोआया य ५. सिय आया य अवत्तव्वं-आयाति - य नोआयाति य ४. स्यात् आत्मा च नो आत्मा च ५. स्यात् आत्मा च अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च ४. स्यात् आत्मा और नो आत्मा है ५. स्यात् आत्मा और अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ६. स्यात् नो आत्मा और अवक्तव्यआत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ६. सिय नोआया य अवत्तव्वं आयाति य नोआयाति य॥ ६. स्यात् नो आत्मा च अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च। २१६. से केणटेणं भंते ! एवं तं चेव जाव नोआया य अवत्तवं- आयाति य नोआयाति य? तत् केनार्थेन भदन्त! एवं तच्चैव यावत् नो आत्मा च अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च? . गोयमा ! १. अण्पणो आदिढे आया गौतम! १. आत्मनः आदिष्टः आत्मा २. परस्स आदिढे नोआया २. परस्य आदिष्ट: नो आत्मा ३. तभयस्स आदिढे अवत्तव्यं ३. तदुभयस्य आदिष्ट: अवक्तव्यं दुपएसिए खंधे-आयाति य नो- द्विप्रदेशिकः स्कन्धः-आत्मा इति च नो आयाति य आत्मा इति च ४. देसे आदितु सम्भावपज्जवे देसे ४. देशः आदिष्ट: सदभावपर्यवः देश: आदिढे असन्भावपज्जवे आदिष्टः असद्भावपर्यवः द्विप्रदेशिक: दुप्पएसिए खंधे आया य नोआया स्कन्धः आत्मा च नो आत्मा च २१६. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-इसी प्रकार पूर्ववत् यावत् नो आत्मा और अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है? गौतम ! १. स्वपर्याय की अपेक्षा आत्मा है २. परपर्याय की अपेक्षा से नो आत्मा है ३. दोनों की अपेक्षा द्विप्रदेशी स्कंध अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ४. द्विप्रदेशी स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कंध आत्मा भी है, नो आत्मा भी देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे ५. देशः आदिष्टः सदभावपर्यवः देश: आदितु तदुभयपज्जवे दुपएसिए आदिष्टः तदुभयपर्यवः द्विप्रदेशिकः खंधे आया य अवत्तव्वं-आयाति स्कन्धः आत्मा च अवक्तव्यम्-आत्मा य नोआयाति य इति च नो आत्मा इति च। ६. देसे आदिढे असन्भावपज्जवे देसे आदिढे तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंधे नोआया य अवत्तव्वंआयाति य नोआयाति य। ६. देशः आदिष्ट: असद्भावपर्यवः देशः आदिष्टः तदुभयपर्यवः द्विप्रदेशिक: स्कन्धः नो आत्मा च अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च। ५. उसका देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है और उसका देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट है, इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कंध आत्मा है और अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ६. उसका देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट है इसलिए द्विप्रदेशी स्कंध नो आत्मा और अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है। यावत् नो आत्मा है और अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। से तेणटेणं तं चेव जाव नोआया य अवत्तब्वं-आयाति य नोआयाति य॥ तत् तेनार्थेन तच्चैव यावत् नो आत्मा च अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च। २२०. आया भंते! तिपएसिए खंधे? अण्णे तिपएसिए खंधे ? गोयमा! तिपएसिए खंधे १. सिय आत्मा भदन्त! त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः? अन्यः त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः? गौतम! त्रिप्रदेशिक: स्कन्धः १. स्यात् आत्मा २. स्यात् नो आत्मा २२०. भंते ! त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा है? त्रिप्रदेशिक स्कंध से भिन्न कोई आत्मा है ? गौतम ! त्रिप्रदेशिक स्कंध १. स्यात् आत्मा आया २. सिय नोआया २. स्यात् आत्मा है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. १० : सू. २२१ ३. सिय अवत्तव्यं - आयाति य नोआयाति य ४. सिय आया य नोआया य ५. सिय आया य नोआयाओ य ६. सिय आयाओ य नोआया य ७. सिय आया य अवत्तव्यं - आयाति य नोआयाति य ८. सिय आया य अवत्तव्वाईआयाओ य नोआयाओ य ६. सिय आयाओ य अवत्तव्वंआयाति य नोआयाति य १०. सिय नोआया य अवत्तव्वंआयाति य नोआयाति य ११. सिय नोआया य अवत्तव्वाईआयाओ य नोआयाओ य १२. सिय नोआयाओ य अवत्तव्वंआयाति य नोआयाति य १३. सिय आया य नोआया य अवत्तव्वं-- आयाति य नो आयाति य ॥ २२१. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चतिपएसिए खंधे सिय आया - एवं चैव उच्चारेयव्वं जाब सिय आया य नोआया य अवत्तव्वं - आयाति य आयाति य ? गोयमा ! १. अप्पणो आदिट्ठे आया २. परस्स आदिट्ठे नोआया ३. तदुभयस्स आदिट्ठे अवत्तव्वं आयाति य नोआयाति य ४. देसे आदि सन्भावपज्जवे देसे आदि असन्भावपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य नोआया य ६८ ३. स्यात् अवक्तव्यम् - आत्मा इति च नो आत्मा इति च ४. स्यात् आत्मा च नो आत्मा च ५. स्यात् आत्मा च नो आत्मानः च ६. स्यात् आत्मानः च नो आत्मा च ७. स्यात् आत्मा च अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च ८. स्यात् आत्मा च अवक्तव्यानि - आत्मानः च नो आत्मानः च ६. स्यात् आत्मानः च अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च १०. स्यात् नो आत्मा च अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च ११. स्यात् नो आत्मा च अवक्तव्यानि - आत्मानः च नो आत्मानः च १२. स्यात् नो आत्मानः च अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च १३. स्यात् आत्मा च नो आत्मा च अवक्तव्यम् - आत्मा इति च नो आत्मा इति च । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेत्रिप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात् आत्मा एवं चैव उच्चारयितव्यं यावत् स्यात् आत्मा च नो आत्मा च अवक्तव्यम् - आत्मा इति च नो आत्मा इति च । गौतम ! १. आत्मनः आदिष्टः आत्मा २. परस्य आदिष्टः नो आत्मा ३. तदुभयस्य आदिष्टः अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च ४. देशः आदिष्टः सद्भावपर्यवः देशः आदिष्टः असद्भावपर्यवः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः आत्मा च नो आत्मा च भगवई ३. स्यात् अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा- दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ४. स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा है। ५. स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा नहीं हैं। ६. स्यात् आत्मा हैं, स्यात् आत्मा है। ७. स्यात् आत्मा है और अवक्तव्य हैआत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ८. स्यात् आत्मा है और अवक्तव्य हैंआत्मा हैं और नो आत्मा हैं- दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ६. स्यात् आत्मा हैं और अवक्तव्य है- आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १०. स्यात् नो आत्मा है और अवक्तव्य है- आत्मा और नो आत्मा- दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ११. स्यात् नो आत्मा और अवक्तव्य हैं- आत्मा हैं और नो आत्मा हैं- इन दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १२. स्यात् नो आत्मा हैं और अवक्तव्य है - आत्मा और नो आत्मा- दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १३. स्यात् आत्मा, नो आत्मा और अवक्तव्य है- आत्मा और नो आत्मादोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। २२१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है- त्रिप्रदेशिक स्कंध स्यात् आत्मा है इस प्रकार उच्चारितव्य है यावत् स्यात् आत्मा, नो आत्मा और अवक्तव्य है- आत्मा और नो आत्मा- दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है ? गौतम ! १. स्वपर्याय की अपेक्षा आत्मा है। २. पर पर्याय की अपेक्षा आत्मा नहीं है ३. दोनों की अपेक्षा अवक्तव्य है- आत्मा और नो आत्मा- दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ४. त्रिप्रदेशी स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है इसलिए त्रिप्रदेशी स्कंध आत्मा भी है, नो आत्मा भी है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५. देसे आदि सब्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा असब्भावपज्जवा तिपएसिए खंधे आया य नोआयाओ य ६. देसा आदिट्ठा सब्भावपज्जवा देसे आदि असन्भावपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाओ य नो आयाओ य ७. देसे आदि सम्भावपज्जवे देसे आदिट्ठे तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य अवत्तव्वं - आयाति य नोआयाति य ८. देसे आदि सन्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसिए खंधे आया य अवत्तव्वाईआयाओ य नोआयाओ य ६. देसा आदिट्ठा सम्भावपज्जवा देसे आदिट्ठे तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाओ य अवत्तव्यंआयाति य नोआयाति य १०. देसे आदि असम्भावपज्जवे देसे आदि तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे नोआया य अवत्तव्वंआयाति य नोआयाति य ११. देसे आदिट्ठे असन्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसिए खंधे नोआया य अवत्तव्बाईआयाओ य नोआयाओ य १२. देसा आदिट्ठा असब्भावपज्जवा देसे आदिट्ठे तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे नोआयाओ य अवत्तव्वं - आयाति य नोआयाति य ६६ ५. देशः आदिष्टः सद्भावपर्यवः देशाः आदिष्टाः असद्भावपर्यवाः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः आत्मा च नो आत्मानः च ६. देशाः आदिष्टाः सद्भावपर्यवाः देश: आदिष्टः असद्भावपर्यवाः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः आत्मानः च नो आत्मा च ७. देशः आदिष्टः सद्भावपर्यवः देशः आदिष्टः तदुभयपर्यवः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः आत्मा च अवक्तव्यम् - आत्मा इति च नो आत्मा इति च ८. देशः आदिष्टः सद्भावपर्यवः देशाः आदिष्टाः तदुभयपर्यवाः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः आत्मा च अवक्तव्यानिआत्मानः च नो आत्मानः च ६. देशाः आदिष्टाः सद्भावपर्यवाः देशः आदिष्टः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः अवक्तव्यम् - आत्मा इति च तदुभयपर्यवः आत्मानः च 'च नो आत्मा १०. देशः आदिष्टः असद्भावपर्यवः देश: आदिष्टः तदुभयपर्यवः त्रिप्रादेशिकः स्कन्धः नो आत्मा च अवक्तव्यम् - आत्मा इति च नो आत्मा इति च ११. देशः आदिष्टः असद्भावपर्यवः देशाः आदिष्टाः तदुभयपर्यवाः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः नो आत्मा च अवक्तव्यानि - आत्मानः च नो आत्मानः च १२. देशाः आदिष्टाः असद्भावपर्यवाः देशः आदिष्टः तदुभयपर्यवः त्रिप्रदेशिकः स्कन्धः नो आत्मानः च अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च श. १२ : उ. १० : सू. २२१ ५. त्रिप्रदेशी स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं, उसके देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं इसलिए त्रिप्रदेशी स्कंध आत्मा भी है, नो आत्मा भी हैं। ६. त्रिप्रदेशी स्कंध के देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं, उसका देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं, इसलिए त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा भी है, नो आत्मा भी है। ७. त्रिप्रदेशिक स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट है, इसलिए त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा है और अवक्तव्य है- आत्मा और नो आत्मा- दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ८. त्रिप्रदेशिक स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसके देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं इसलिए त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा है और अवक्तव्य हैं- आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ६. त्रिप्रदेशिक स्कंध के देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं, उसका देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट है इसलिए त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा हैं और अवक्तव्य है - आत्मा और नो आत्मा- दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १०. त्रिप्रदेशिक स्कंध का देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट है इसलिए त्रिप्रदेशिक स्कंध नो आत्मा है और अवक्तव्य है- आत्मा और नो आत्मा- दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ११. त्रिप्रदेशिक स्कंध का देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं उसके देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं इसलिए त्रिप्रदेशिक स्कंध नो आत्मा है और अवक्तव्य हैं- आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १२. त्रिप्रदेशिक स्कंध के देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं, उसका देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट है इसलिए त्रिप्रदेशिक स्कंध नो आत्मा हैं और Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२ : उ. १० : सू. २२२,२२३ १०० १३. देसे आदिद्वे सब्भावपज्जवे देसे १३. देशः आदिष्ट: सदभावपर्यवः देशः आदिढे असम्भावपज्जवे देसे आदिष्टः असद्भावपर्यवः देशः आदिढे तदुभयपज्जवे तिपएसिए आदिष्टः तदुभयपर्यवः त्रिप्रदेशिकः खंधे आया य नोआया य स्कन्धः आत्मा च नो आत्मा च अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च। भगवई अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १३. त्रिप्रदेशिक स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट है इसलिए त्रिप्रदेशिक स्कंध आत्मा, नो आत्मा और अवक्तव्य हैआत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-त्रिप्रदेशिक स्कंध स्यात् आत्मा है पूर्ववत् यावत् (आत्मा) नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। य। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुचइ- तिपएसिए खंधे सिय आया तं चेव जाव नोआयाति य॥ तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेत्रिप्रदेशिकः स्कन्धः स्यात् आत्मा तच्चैव यावत् नो आत्मा इति च। २२२. आया भंते ! चउप्पएसिए खंघे? अण्णे चउप्पएसिए खंधे ? गोयमा! चउप्पएसिए खंधे१. सिय आया २. सिय नोआया सिय अवत्तव्वं- आयाति य नोआयाति य आत्मा भदन्त! चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः? अन्यः चतुष्प्रदेशिक: स्कन्धः? गौतम! चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः१. स्यात् आत्मा २. स्यात् नो आत्मा ३. स्यात् अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च ४-७. सिय आया य नोआया य ४-७. स्यात् आत्मा च नो आत्मा च ८-११. सिय आया य अवत्तव्वं ८-११. स्यात् आत्मा च अवक्तव्यम् १२-१५. सिय नोआया य अवत्तव्वं १२-१५. स्यात् नो आत्मा च अवक्तव्यम् १६. सिय आया य नोआया य १६. स्यात् आत्मा च नो आत्मा च अवत्तब्वं- आयाति य नोआयति अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च १७. सिय आया य नोआया य १७. स्यात् आत्मा च नो आत्मा च अवत्तव्वाई-आयाओ अवक्तव्यानि-आत्मानः च नो नोआयाओ य आत्मानः च १८. सिय आया य नोआयाओ य १८. स्यात् आत्मा च नो आत्मानः च अवत्त-आयाति य नोआयाति अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च १६. सिय आयाओ य नोआया य १६. स्यात् आत्मानः च नो आत्मा च अवत्तवं-आयाति य नोआयाति अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा य॥ इति च। २२२. भंते ! चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है? चतुष्प्रदेशी स्कंध से भिन्न कोई आत्मा है ? गौतम! चतुष्प्रदेशी स्कंध१. स्यात् आत्मा है। २. स्यात् नो आत्मा है। ३. स्यात् अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ४-७. स्यात् आत्मा है और नो आत्मा है। ८-११. स्यात् आत्मा और अवक्तव्य है। १२-१५. स्यात् नो आत्मा है और अवक्तव्य है। १६. स्यात् आत्मा है, नो आत्मा है और अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १७. स्यात् आत्मा, नो आत्मा और अवक्तव्य हैं-आत्मा और नो आत्मादोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १८. स्यात् आत्मा है, नो आत्मा हैं और अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १६. स्यात् आत्मा हैं, नो आत्मा है और अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। २२३. से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- चउप्पएसिए खंधे सिय आया य चतुष्प्रदेशिकः स्कन्धः स्यात् आत्मा च नोआया य अवत्तव्यं-तं चेव अढे ___ नो आत्मा च अवक्तव्यं तच्चैव अर्थे पडिउच्चारेयब्बं? प्रत्युचारयितव्यम्? २२३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-चतुष्प्रदेशिक स्कंध स्यात् आत्मा, नो आत्मा और अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १०१ श. १२ : उ. १० : सू. २२३ नहीं है-पूर्ववत् वही अर्थ प्रत्युच्चारित है? गौतम! १. स्व-पर्याय की अपेक्षा आत्मा गोयमा! १. अप्पणो आदिढे आयय। गौतम! १. आत्मनः आदिष्टः आत्मा। २. परस्स आदिढे नोआया २. परस्य आदिष्ट: नो आत्मा ३. तदुभयस्स आदिढे अवत्तव्वं- आयाति य नोआयाति य ३. तदुभयस्य आदिष्टः अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च ४-७. देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे ४-७. देशः आदिष्टः सद्भावपर्यवः । आदिढे असब्भावपज्जवे चउभंगो देशः आदिष्टः असद्भावपर्यवः । चतुर्भङ्गः ६.११. सम्भावणं तदुभयेण य ८-११. सद्भावेन तदुभयेन च चउभंगो चतुर्भङ्गः १२-१५. असम्भावेणं तदुभयेण य १२-१५. असद्भावेन तदुभयेन च चउभंगो चतुर्भङ्गः १६. देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे १६. देशः आदिष्टः सद्भावपर्यवः देशः आदिढे असम्भावपज्जवे देसे आदिष्ट: असद्भावपर्यवः देशः आदितु तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए आदिष्टः तदुभयपर्यवः चतुःप्रदेशिक: खंधे आया य नोआया य स्कन्धः आत्मा च नो आत्मा च अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च २. पर-पर्याय की अपेक्षा नो आत्मा (आत्मा नहीं) है। ३. दोनों की अपेक्षा अवक्तव्य है-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ४-७. चतुष्प्रदेशी स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है-इस प्रकार चार भंग होते हैं। ८.११. सद्भाव पर्याय और तदुभय पर्याय की अपेक्षा चार भंग। १२-१५. असद्भाव पर्याय और तदुभय पर्याय की अपेक्षा चार भंग। १६. चतुष्प्रदेशी स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट है इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा, नो आत्मा और अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १७. चतुष्प्रदेशी स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं, उसके देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है, नो आत्मा है और अवक्तव्य हैं-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य १७. देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे १७. देशः आदिष्टः सद्भावपर्यवः देशः आदिढे असम्भावपज्जवे देसा आदिष्ट: असद्भावपर्यवः देशाः आदिवा तदुभयपज्जवा आदिष्टाः तदुभयपर्यवाः चतुःप्रदेशिक: चउप्पएसिए खंधे आया य स्कन्धः आत्मा च नो आत्मा च नोआया य अवत्तब्वाई-आयाओ अवक्तव्यानि-आत्मानः च नो य नोआयाओ य आत्मानः च। नहीं है। TOIDI १८. देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसा १८. देशः आदिष्टः सद्भावपर्यवः आदिट्ठा असम्भावपज्जवा देसे देशाः आदिष्टाः असदभावपर्यवाः देशः आदिढे तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए आदिष्टः तदुभयपर्यवः चतुःप्रदेशिक: खंधे आया य नोआयाओ य स्कन्धः आत्मा च नो आत्मानः च अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च १८. चतुष्प्रदेशी स्कंध का देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसके देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं, उसका देश तदुभय-पर्यव के रूप में आदिष्ट है, इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा है, नो आत्मा हैं और अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। १६. चतुष्प्रदेशी स्कंध के देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट हैं, उसका देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, उसका देश तदुभय पर्याय के रूप में आदिष्ट १६. देसा आदिट्ठा सम्भावपज्जवा देसे १६. देशाः आदिष्टाः सदभाव-पर्यवाः आदिढे असन्भावपज्जवे देसे देशः आदिष्ट: असद्भावपर्यवः देशः आदिढे तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए आदिष्टः तदुभयपर्यवः चतुष्प्रदेशिकः खंधे आयाओ य नोआया य स्कन्धः आत्मानः च नो आत्मा च । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १२ : उ. १० : सू. २२४,२२५ १०२ अवत्तव्वं-आयाति य नोआयाति । अवक्तव्यम्-आत्मा इति च नो आत्मा इति च। य। से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ- चउपएसिए खंधे सिय आया सिय नोआया सिय अवत्तव्वं-निक्खेवे ते चेव भंगा उच्चारेयब्वा जाव आयाति य नोआयाति य॥ तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेचतुष्प्रदेशिक: स्कन्धः स्यात् आत्मा स्यात् नो आत्मा स्यात् अवक्तव्यंनिक्षेपे ते चैव भनाः उच्चारयितव्याः यावत् आत्मा इति च नो आत्मा इति च। है इसलिए चतुष्प्रदेशी स्कंध आत्मा हैं, नो आत्मा है और अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-चतुष्प्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है, स्यात् नो आत्मा है, स्यात् अवक्तव्य है-निक्षेप में वे ही भंग उच्चारणीय हैं यावत् आत्मा और नो आत्मा-दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। २२४. आया भंते ! पंचपएसिए खंधे ? आत्मा भदन्त! पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः? अण्णे पंचपएसिए खंधे ? अन्य पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः? गोयमा! पंचपएसिए खंधे गौतम! पञ्चप्रदेशिकः स्कन्धः१. सिय आया १. स्यात् आत्मा २. सिय नोआया २. स्यात् नो आत्मा ३. सिय अवत्तब्वं- आयाति य नो- ३. स्यात् अवक्तव्यम्-आत्मा इति च आयाति य नो आत्मा इति च ४-७. सिय आया य नोआया य ४-७. स्यात् आत्मा च नो आत्मा च ८-११. सिय आया य अवत्तब्वं ८-११. स्यात् आत्मा च अवक्तव्यम् १२-१५. नोआया य अवत्तव्वेण य १२-१५. नो आत्मा च अवक्तव्येन च १६. सिय आया य नोआया य १६. स्यात् आत्मा च नो आत्मा च अवत्तव्वं अवक्तव्यम् १७. सिय आया य नोआया य १७. स्यात् आत्मा च नो आत्मा च अवत्तव्वाई अवक्तव्यानि १८. सिय आया य नोआयाओ य १८. स्यात् आत्मा च नो आत्मानः च अवत्तव्वं अवक्तव्यम् १६. सिय आया य नोआयाओ य १६. स्यात् आत्मा च नो आत्मानः च अवत्तम्बाई अवक्तव्यानि २०. सिय आयाओ य नोआया य २०. स्यात् आत्मानः च नो आत्मा च अवत्तव्वं अवक्तव्यम् २१. सिय आयाओ य नोआया य २१. स्यात् आत्मानः च नो आत्मा च अवत्तन्वाई अवक्तव्यानि २२. सिय आयाओ य नोआयाओ य २२. स्यात् आत्मानः च नो आत्मानः च अवत्तब्ब॥ अवक्तव्यम्। २२४. भंते! पांच-प्रदेशी स्कंध आत्मा है? पांच प्रदेशी स्कंध से भिन्न कोई आत्मा है? गौतम! पांच प्रदेशी स्कंध१. स्यात् आत्मा है। २. स्यात् नो आत्मा है। ३. स्यात् अवक्तव्य-आत्मा और नो आत्मा-दोनों को एक साथ कहना शक्य नहीं है। ४-७. स्यात् आत्मा है और नो आत्मा है। ८-११. स्यात् आत्मा है और अवक्तव्य है। १२-१५. नो आत्मा है और अवक्तव्य है। १६. स्यात् आत्मा है, नो आत्मा है और अवक्तव्य है। १७. स्यात् आत्मा है, नो आत्मा है और अवक्तव्य हैं। १८. स्यात् आत्मा है, नो आत्मा हैं और अवक्तव्य है। १६.स्यात् आत्मा है, नो आत्मा हैं और अवक्तव्य हैं। २०. स्यात् आत्मा हैं, नो आत्मा है और अवक्तव्य है। २१. स्यात् आत्मा हैं, नो आत्मा है और अवक्तव्य हैं। २२. स्यात् आत्मा हैं, नो आत्मा हैं और अवक्तव्य है। २२५. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- पंचपएसिए खंधे सिय आया जाव सिय पञ्चप्रदेशिक: स्कन्धः स्यात् आत्मा आयाओ य नोआयाओ य अवत्तव्वं? यावत् स्यात् आत्मानः च नो आत्मानः च अवक्तव्यम्? गोयमा ! १. अप्पणो आदिढे आया। गौतम! १. आत्मनः आदिष्टः आत्मा। २. परस्स आदिढे नोआया २. परस्य आदिष्टः नो आत्मा ३. तदभुयस्स आदिढे अवत्तव्यं ३. तदुभयस्य आदिष्टः अवक्तव्यम् २२५. भंते! किस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-पांच-प्रदेशी स्कंध स्यात् आत्मा है यावत् स्यात् आत्मा हैं, नो आत्मा हैं और अवक्तव्य है? गौतम! १. स्व पर्याय की अपेक्षा आत्मा है। २. पर पर्याय की अपेक्षा नो आत्मा है। ३. तदुभय पर्याय की अपेक्षा अवक्तव्य है। , Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १०३ श. १२ : उ. १०: सू. २२५ ४. देसे आदिटे सम्भावपज्जवे देसे आदिढे असम्भावपज्जवे ४. देशः आदिष्टः सदभावपर्यवः देश: आदिष्टः असद्भावपर्यव: एवं दुयगसंजोगे सव्वे पडंति, एवं द्विकसंयोगे सर्वे पतन्ति, त्रिकसंयोगे तियसंजोगे एक्को न पडइ। एक: न पतति। छप्पएसियस्स सव्वे पडंति। जहा षट् प्रदेशिकस्य सर्वे पतन्ति। यथा षट् । छप्पएसिए एवं जाव अणंतपएसिए। प्रदेशिकः एवं यावत् अनन्तप्रदेशिकः। ४. पंच-प्रदेशी स्कंध का एक देश सद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है, एक देश असद्भाव पर्याय के रूप में आदिष्ट है। इस प्रकार द्विक्-संयोग में सर्व भंग आते हैं। त्रिक-संयोग में एक-आठवां भंग नहीं आता। षट्प्रदेशी स्कंध में सर्व भंग आते हैं। जैसेषट्प्रदेशी स्कंध की वक्तव्यता, इसी प्रकार यावत् अनंतप्रदेशी स्कंध की वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र २११-२२५ प्रस्तुत आलापक में 'आया' 'नो आया' और सिय ये तीन शब्द विमर्शनीय हैं। यहां आया-आत्मा शब्द सत् के अर्थ में प्रयुक्त है। नो आत्मा का अर्थ है असत्। 'सिय' शब्द सर्वथा एकांत का निषेध करने वाला है। यह अनेकांत का द्योतक है। इसी के आधार पर स्याद्वाद का सिद्धांत प्रतिष्ठित हुआ। नयचक्र के अनुसार स्यात् शब्द नियम का निषेध करने वाला, वस्तु की सापेक्षता को सिद्ध करने वाला है। ___स्यात् के आधार पर पृथ्वी, परमाणु, स्कंध आदि के सत्असत् स्वरूप का निर्णय किया गया है। इस निर्णय की प्रक्रिया में अनेक विकल्प/भंग बनते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी१. स्यात सत् है। २. स्यात् सत् नहीं है। ३. स्यात् अवक्तव्य है। वह अपने पर्यायों के आदेश (अपेक्षा) से सत् है। पर पर्यायों के आदेश से सत नहीं है। स्व और पर-दोनों पर्यायों के युगपत आदेश से वह अवक्तव्य है। परमाणुस्यात् सत् है। स्यात् सत् नहीं है। स्यात् अवक्तव्य है। द्विप्रदेशी स्कंध के छह भंग होते हैं१. स्यात् सत् है। २. स्यात् सत् नहीं है। ३. स्यात् अवक्तव्य है। ४. स्यात् सत् है, स्यात् सत् नहीं है। ५. स्यात् सत् है, स्यात् अवक्तव्य है। ६. स्यात् सत् नहीं है, स्यात् अवक्तव्य है। द्विप्रदेशी स्कंध दो परमाणुओं के मिलन से बनता है। उसके दो अंश हैं इसलिए उसकी सप्तभंगी नहीं होती। त्रिप्रदेशिक आदि स्कंधों में सप्तभंगी होती है। त्रिप्रदेशी, चतुष्प्रदेशी और पंचप्रदेशी स्कंधों में अनेक भंगों की रचना उनके अंशों के आधार पर की गई है। प्रस्तुत आलापक में अंशों के आधार पर भंगों की रचना की गई है इसलिए द्विप्रदेशी स्कंध में सप्तभंगी नहीं, त्रिप्रदेशी आदि स्कंधों में सप्तभंगी हो सकती है। दार्शनिक युग में वस्तु के धर्मों के आधार पर सप्तभंगी की रचना की गई फलतः प्रत्येक धर्म की सप्तभंगी बनती है। त्रिप्रदेशी स्कंध के तेरह भंग होते हैं१. स्यात् सत् है। २. स्यात् सत् नहीं है। ३. स्यात् अवक्तव्य है। ४. स्यात् सत् है, स्यात् सत् नहीं है। ५. स्यात् सत् है, स्यात् सत् नहीं हैं। ६. स्यात् सत् हैं, स्यात् सत् नहीं है। ७. स्यात् सत् है, स्यात् अवक्तव्य हैं। ८. स्यात् सत् है, स्यात् अवक्तव्य हैं। १. नयचक्र गाथा २५३ नियम णिसेहण सीलो णिपादणादो य जो हु खलु सिद्धो। सो सियसद्दो भणियो, जो सावेक्खं पसाहेदि। २. भ. वृ. १२/२१२-'अप्पणो आइडेत्ति आत्मनः-स्वस्य रत्नप्रभाया एव वर्णादिपर्यायैः 'आदिष्टे आदेशे सति तैय॑पदिष्टा सतीत्यर्थः आत्मा भवति, स्वपर्यायापेक्षया सतीत्यर्थः, परस्स आइडे नोआय' त्ति परस्य शर्करादिपृथिव्यन्तरस्य पर्यायैरादिष्टे-आदेशे सति तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थः नो आत्माअनात्मा भवति, पररूपाऽपेक्षयाऽसतीत्यर्थः, तदुभयस्य आदिढे अवत्तव्यं' ति तयोः-स्वपरयोरुभयं तदेव वोभयं तदुभयं तस्य पर्यायैरादिष्टे-आदेशे सति तदुभयपर्यायैर्व्यपदिष्टेत्यर्थः अवक्तव्यं अवाच्यं वस्तु स्यात्। ३. वही, १२/२१८,२१६-द्विप्रदेशिके व्यंशत्वादस्य त्रिप्रदेशिकादौ तु स्यादिति सप्तभङ्गी। ४. प्रमाण नयतत्त्यालोक ४/१४-एकत्र वस्तुन्येकैक धर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात् कारांकितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभंगी। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १२: उ.१०: सू. २२६ १०४ भगवई ६. स्यात् सत् हैं, स्यात् अवक्तव्य है। १०. स्यात् सत् नहीं है, स्यात् अवक्तव्य है। ११. स्यात् सत् नहीं है, स्यात् अवक्तव्य हैं। १२. स्यात् सत् नहीं हैं, स्यात् अवक्तव्य है। १३. स्यात् सत् है, स्यात् सत् नहीं है, स्यात् अवक्तव्य ११ असंयोगी भंग-१-३ आ | नो । द्विसंयोगी भंग ४-१५ आ. नो.|| आ. अ. नो. अ. ११ १ १ १२ १२ २१ ॥ २१ २१ २२ त्रि संयोगी भंग १६-१६ आ. नो. आ. अ. नो. अ. १ | 'पंच प्रदेशी स्कंध भंग २२ असंयोगी भंग-१-३ आ. | नो. द्विसंयोगी भंग ४-१५ आ. नो. | आ. अ. नो. अ. ११ १२ वृत्तिकार के अनुसार त्रिप्रदेशिक स्कंध के तेरह भंगों में प्रथम तीन भंग सकलादेश (प्रमाण) के हैं। चौथा, पांचवां, छठा भंग एक वचन और बहुवचन की विवक्षा से किए गए हैं। दो प्रदेश का एक प्रदेश में अवगाह होता है, इस हेतु से दो प्रदेशों में एक वचन की विवक्षा की गई है। जहां भेद की विवक्षा है वहां बहुवचन का प्रयोग किया गया है। द्रष्टव्य स्थापना स्वपर्याय से-आत्मा पर पर्याय से-नो आत्मा तदुभय पर्याय से-अवक्तव्य-आत्मा, नो आत्मा १. देश-एक वचन। २. देश-बहुवचन। • एक परमाणु : भंग ३ | आत्मा | नो आत्मा | अवक्तव्य द्विप्रदेशी स्कंध : भंग ६ असंयोगी भंग १-३ आत्मा | नो आत्मा | अवक्तव्य द्वि संयोगी-३ आ, नो, | आ, अ | नो. अ त्रिप्रदेशिक स्कंध : भंग १३ असंयोगी भंग १-३ | आ नो अ • चतुष्प्रदेशी स्कंध, भंग १९ द्विसंयोगी भंग-४-१२ आ. नो | आ. अ । नो. अ ११ । ११ । ११ १२ । १२ । २१ । २१ २१ त्रिसंयोगी भंग १३ | आ. | नो । अ १२ । १२ २१ । २१ २२ । २२ त्रिसंयोगी भंग १६-२२ २१ आ. १२ पंच प्रदेशी स्कंध के त्रिसंयोगी विकल्पों में आठवां भंग नहीं होता। छह प्रदेशी स्कंध के तेईस भंग होते हैं, उनमें आठवां भंग भी होता है २२ २२६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। २२६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है, यावत् विहरण करने लगे। ३. भ. वृ. १२/२२०,२११-त्रिप्रदेशिकस्कंधे तु त्रयोदशभंगास्तत्र पूर्वोक्तेषु सप्तस्वाद्याः सकलादेशास्त्रयस्तथैव, तदन्येषु तु त्रिषु त्रयस्त्रय एकवचन-बहुवचनभेदात्। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं सतं तेरहवां शतक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत शतक में पुनर्जन्म के विषय में अनेक नियमों का निर्देश मिलता है। इस विषय में सूत्र ३ से सूत्र ३८ तक का विषय मननीय है। जैन दर्शन के अनुसार दिशा आकाश का ही एक विभाग है। प्रस्तुत शतक में उनकी उत्पत्ति के मूल का निर्देश है।' इस विषय की विशद जानकारी के लिए प्रस्तुत आगम का दसवां शतक,' आचारांग भाष्य' तथा श्री भिक्षु आगम विषय कोश द्रष्टव्य हैं। प्रस्तुत शतक में लोक की व्याख्या पंचास्तिकाय के आधार पर की गई है। पंचास्तिकाय का निरूपण प्रस्तुत आगम के अनेक शतकों में हुआ है - प्रस्तुत प्रकरण में उनके कार्यों का विवरण दिया गया है, वह अपूर्व है । * पंचास्तिकाय के अवगाह की चर्चा भी महत्त्वपूर्ण है। भगवान् महावीर ने आठ राजाओं को दीक्षित किया था। उनमें एक नाम है उद्रायण।" सौवीर के अधिपति उद्रायण की प्रव्रज्या का उल्लेख उत्तराध्ययन में मिलता है।" स्थानांग और उत्तराध्ययन में उद्रायण का केवल नामोल्लेख है। उदायण शब्द जैन साहित्य में बहुत प्रचलित है इसलिए उदायन के लिए उदायण का प्रयोग किया जाता रहा है। यह सही नहीं है। सिन्धु सौवीर के राजा का वास्तविक नाम उद्रायण है। प्रस्तुत शतक में उसका संक्षिप्त जीवन-परिचय भी उपलब्ध है। उसकी विशेष जानकारी उत्तरवर्ती साहित्य में मिलती है। सिन्धु-सौवीर जनपद - सिन्ध सौवीरेसु जनवएसु-इस वाक्यांश से ज्ञात होता है कि सिन्धु सौवीर में बहुवचन का प्रयोग अनेक देशों के समुच्चय का सूचक है। आधुनिक विद्वान् सौवीर को सिन्धु और झेलम नदी के बीच का प्रदेश मानते हैं। कुछ विद्वान् इसे सिन्धु नदी के पूर्व में मुल्तान तक का प्रदेश मानते हैं । " सिन्धु- सौवीर ऐसा संयुक्त नाम ही विशेष रूप से प्रचलित है किन्तु सिन्धु और सौवीर पृथक् पृथक् राज्य थे। उत्तराध्ययन में उद्रायण को सौवीरराज कहा गया है।" उत्तराध्ययन की टीका से भी इसकी पुष्टि होती है। इसमें उद्रायण को सिन्धु, सौवीर आदि सोलह जनपदों का अधिपति बतलाया गया है। 12 सिन्धु, सौवीर आदि सोलह जनपदों के नाम उपलब्ध नहीं हैं। प्रस्तुत प्रकरण में उद्रायण की दो रानियों का उल्लेख मिलता है- पद्मावती और प्रभावती । प्राचीन भारत वर्ष के लेखक ने इस विषय में दो मान्यताएं बतलाई है - पहली मान्यता के अनुसार उद्रायण का विवाह ईस्वी पूर्व ५४३ में वैशाली गणराज्य के प्रमुख चेटक की पुत्री प्रभावती के साथ तथा ईस्वी पूर्व ५२० में पद्मावती के साथ हुआ। दूसरी मान्यता के अनुसार उद्रायण का विवाह ईस्वी पूर्व ५८४ में प्रभावती से हुआ । " प्रस्तुत शतक में शरीर, भाषा और मन के संबंध का विस्तृत विवेचन किया गया है। इस विवेचन से फलित होता है कि जीव के साथ शरीर का अव्यवहित संबंध है, भाषा और मन का संबंध व्यवहित है इसलिए भाषा और मन को अचित्त तथा शरीर को सचित्त बतलाया गया है । १४ आगम साहित्य में मरण के अनेक वर्गीकरण हैं। भगवती के दूसरे शतक में बालमरण के बारह प्रकार बतलाए गए हैं, उनमें १. भ. १३/५० -५४ २. भ. १०/१-७ ३. आ. भाष्य १/४ ४. भिक्षु आगम विषय कोश, पृ. ५६७-५६८ ५. भ. १३/५५-६० ६. भ. १३/७४-८७ ७. ठाणं ८/४१ ८. उत्त. १८/४७ ६. इण्डिया इज डिस्क्राइन्ड इन अर्ली ट्रेक्टस ऑफ बुद्धिज्म एण्ड जैनिज्म, पृ. ७० १०. पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्शिएन्ट इंडिया, पृ. ५०७, नोट- १। ११. उत्त. १८/४८ १२. सुखबोधा प. २५२ १३. प्राचीन भारत वर्ष पृ. १३१-१३५ १४. भ. १३ / १२४ - १२८ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : आमुख १०८ भगवई आवीचिमरण, अवधिमरण और आत्यंतिकमरण का उल्लेख नहीं है।" समवायांग में सतरह प्रकार के मरण बतलाए गए हैं, उनमें इन तीनों का उल्लेख मिलता है। " भावितात्मा अणगार की विक्रिया का वर्णन बहुत विस्तार से किया गया है। विक्रिया करने की साधना के सूत्र उपलब्ध नहीं है। उनकी परंपरा संभवतः गुप्त रखी गई थी इसीलिए वे अज्ञात हो गए। प्रस्तुत शतक में कुछ उद्देशक प्रज्ञापना से संबद्ध हैं। इस प्रकार अनेक महत्त्वपूर्ण विषय इस शतक में चर्चित हुए हैं। विस्तार से अध्ययन किया जाए तो प्रस्तुत आगम का प्रत्येक शतक स्वतंत्र ग्रंथ जैसा प्रतीत होता है। १. भ. २ / ४६ २. सम. १७/६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगहणी गाहा मूल १. पुढवी २. देव ३. मणंतर, ४. पुढवी ५. आहारमेव ६. उववाए । ७. भासा ८- ६. कम्मणगारे, केयाघडिया १०. समुग्धाए ॥ १ ॥ संखेज्जवित्थडेसु नरएसु उववाय-पदं १. रायगिहे जाव एवं बयासी-कति णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा । ३. इमीसे णं भंते! स्यणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं १. केवतिया नेरइया उववज्जंति ? २. केवतिया काउलेस्सा उववज्जंति ? ३. केवतिया कण्हपक्खिया उववज्जंति ? ४. केवतिया सुक्कपक्खिया उववज्जंति ? ५. केवतिया सण्णी उववज्जंति ? ६. केवतिया असण्णी उववज्जंति ? ७, केवतिया भवसिद्धिया उववज्जंति ? ८. केवतिया अभवसिद्धिया तेरसमं सतं : तेरहवां शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक संस्कृत छाया संग्रहणी गाथा १. पृथ्वी २. देव ३. अनन्तर ४. पृथ्वी ५. आहारमेव ६. उपपातः । ७. भाषा ८ - ९. कर्म, अनगारः केयाघडिया १०. समुद्घातः।। २. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां कियन्ति निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? पण्णत्ता ? गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा गौतम! त्रिंशत् निरयावासशतसहस्राणि पण्णत्ता । प्रज्ञप्तानि । ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि असंखेज्जवित्थडा वि ॥ ते भदन्त ! किं संख्येयविस्तृता: ? असंख्येयविस्तृताः ? गौतम ! संख्येयविस्तृताः असंख्येयविस्तृताः अपि । अपि संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु उपपात-पदम राजगृहं यावत् एवमवादीत् कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथारत्नप्रभा यावत् अधः सप्तमी । अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु एकसमये १. कियन्तः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ? २. कियन्तः कापोतलेश्याः उपपद्यन्ते ? ३. कियन्तः कृष्णपाक्षिकाः उपपद्यन्ते ? ४. कियन्तः शुक्लपाक्षिकाः उपपद्यन्ते ? ५. कियन्तः संज्ञिनः उपपद्यन्ते ? ६. कियन्तः असंज्ञिनः उपपद्यन्ते ? ७. कियन्तः भवसिद्धिकाः उपपद्यन्ते ? ८. कियन्तः अभवसिद्धिकाः उपपद्यन्ते कियन्तः आभिनिबोधिक हिन्दी अनुवाद संग्रहणी गाथा १. पृथ्वी २. देव ३. अनंतर ४. पृथ्वी ५. आहार ६. उपपात ७. भाषा ८- ६. कर्म, अनगार, के आघड़िया १०. समुद्घात । संख्येय- विस्तृत नरकों में उपपात पद १. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा- भंते! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! पृथ्वियां सात प्रज्ञप्त हैं, जैसेरत्नप्रभा यावत् अधः सप्तमी । २. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितने लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं? गौतम! तीस लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। भंते! क्या वे संख्येय योजन विस्तार वाले हैं? असंख्येय योजन विस्तार वाले हैं ? गौतम! संख्येय योजन विस्तार वाले भी हैं, असंख्येय योजन विस्तार वाले भी हैं। ३. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से, संख्येय विस्तार वाले नरकों में एक समय में - १. कितने नैरयिक उपपन्न होते हैं ? २. कितने कापोत लेश्या वाले उपपन्न होते हैं? ३. कितने कृष्ण पाक्षिक उपपन्न होते हैं ? ४. कितने 'शुक्लपाक्षिक उपपन्न होते हैं? ५. कितने संज्ञी उपपन्न होते हैं? ६. कितने असंज्ञी उपपन्न होते हैं? ७. कितने भवसिद्धिक उपपन्न होते हैं ८. कितने अभवसिद्धिक उपपन्न होते हैं? ९. कितने आभिनिबोधिक ज्ञानी उपपन्न Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श. १३ : उ. १ : सू. ३ भगवई उववज्जति ? ६. केवतिया आभिणि- ज्ञानिनः उपपद्यन्ते? १०. कियन्तः होते हैं? १०. कितने श्रुतज्ञानी उपपन्न होते बोहियनाणी उववज्जति ?१०. केवतिया श्रुतज्ञानिनः उपपद्यन्ते? ११. कियन्तः हैं? ११. कितने अवधिज्ञानी उपपन्न होते सुयनाणी उववज्जति ? ११. केवतिया अवधिज्ञानिनः उपपद्यन्ते? है? १२. कितने मति अज्ञानी उपपन्न होते ओहिनाणी उववज्जति ? १२. केवतिया १२. कियन्तः मतिअज्ञानिनः । है ? १३. कितने श्रुत अज्ञानी उपपन्न होते मइअण्णाणी उववज्जति ? उपपद्यन्ते? १३. कियन्तः श्रुत- हैं? १४. कितने विभंगज्ञानी उपपन्न होते १३. केवतिया सुयअण्णाणी अज्ञानिनःउपपद्यन्ते? १४. कियन्तः हैं? १५. कितने चक्षुदर्शनी उपपन्न होते हैं? उववज्जति ? १४. केवतिया विभंग- विभङ्गज्ञानिनः उपपद्यन्ते? १६. कितने अचक्षुदर्शनी उपपन्न होते हैं? नाणी उववज्जंति ? १५. केवतिया १५. कियन्तः चक्षुर्दर्शिनः उपपद्यन्ते? १७. कितने अवधिदर्शनी उपपन्न होते हैं? चक्खुदंसणी उबवज्जंति ? १६. १६. कियन्तः अचक्षुर्दर्शिनः उपपद्यन्ते? १८. कितने आहार संज्ञा उपयुक्त उपपन्न केवतिया अचखुदसणी उबवज्जंति ? १७. कियन्तः अवधिदर्शिनः होते हैं? १६. कितने भय-संज्ञा-उपयुक्त १७. केवतिया ओहिदसंणी उववज्जति ? उपपद्यन्ते? १८. कियन्तः उपपन्न होते हैं? २०. कितने मैथुन-संज्ञा१८. केवतिया आहारसण्णोवउत्ता आहारसंज्ञोपयुक्ताः उपपद्यन्ते? उपयुक्त उपपन्न होते हैं? २१. कितने उववज्जति ? १६. केवतिया भय- १६. कियन्तः भयसंज्ञोपयुक्ताः परिग्रह संज्ञा-उपयुक्त उपपन्न होते हैं? सण्णोवउत्ता उववजंति ? २०. केवतिया उपपद्यन्ते? २०. कियन्तः २२. कितने स्त्रीवेदक उपपन्न होते हैं? मेहुणसण्णोवउत्ता उववज्जति ? मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः उपपद्यन्ते? २३. कितने पुरुषवेदक उपपन्न होते हैं? २१. केवतिया परिग्गहसण्णोवउत्ता २१. कियन्तः परिग्रह-संज्ञोपयुक्ताः २४. कितने नपुंसक वेदक उपपन्न होते हैं? उववजंति ? २२. केवतिया इथि- उपपद्यन्ते? २२. कियन्तः स्त्रीवेदकाः २५-२८. कितने क्रोध कषाय वाले उपपन्न वेदगा उववज्जंति ? २३. केवतिया- उपपद्यन्ते? २३. कियन्तः पुरुषवेदकाः होते हैं? यावत् कितने लोभ कषाय वाले पुरिसवेदगा उववज्जंति? २४. केव- उपपद्यन्ते? २४. कियन्तः नपुंसक- उपपन्न होते हैं? २६.३३ कितने श्रोत्रेन्द्रियतिया नपुंसगवेदगा उववज्जंति ? वेदकाः उपपद्यन्ते? २५-२८. कियन्तः उपयुक्त उपपन्न होते हैं? यावत् कितने २५.२८. केवतिया कोहकसाई क्रोधकषायिनः उपपद्यन्ते यावत् स्पर्शनेन्द्रिय-उपयुक्त उपपन्न होते हैं? उववज्जंति जाव केवतिया लोभकसाई कियन्तः लोभकषायिनः उपपद्यन्ते? ३४. कितने नो-इन्द्रिय-उपयुक्त उपपन्न उववज्जंति ? २६-३३. केवतिया २६-३३. कियन्तः श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ताः होते हैं? ३५. कितने मन योग वाले उपपन्न सोइंदियोवउत्ता उववज्जति जाव उपपद्यन्ते यावत् कियन्तः स्पर्शे- होते हैं? ३६. कितने वचन योग वाले उपपन्न केवतिया फासिदियोवउत्ता उववज्जति ? न्द्रियोपयुक्ताः उपपद्यन्ते? होते हैं? ३७. कितने काय योग वाले उपपन्न ३४. केवतिया नोइंदियोवउत्ता ३४. कियन्तः नोइन्द्रियोपयुक्ताः होते हैं ? ३८. कितने साकार-उपयोग वाले उववज्जति ? ३५. केवतिया मणजोगी उपपद्यन्ते? ३५. कियन्तः मनोयोगिनः उपपन्न होते हैं? ३६. कितने अनाकारउववज्जंति? ३६. केवतिया वइजोगी उपपद्यन्ते? ३६. कियन्तः वाग्योगिनः उपयोग वाले उपपन्न होते हैं? उववज्जति ? ३७. केवतिया कायजोगी उपपद्यन्ते? ३७. कियन्तः काययोगिनः उववज्जति ? ३८. केवतिया उपपद्यन्ते? ३८. कियन्तः साकारोसागारोवउत्ता उववज्जंति? पयुक्ताः उपपद्यन्ते? ३६. कियन्तः ३६. केवतिया अणागारोवउत्ता अनाकारोपयुक्ताः उपपद्यन्ते? उववज्जति ? गोयमा ! इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु नरकावासों में से संख्येय विस्तार वाले संखेज्जवित्थडेसु नरएसु जहण्णेणं संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु जघन्येन एकः नरकों में १. जघन्यतः एक, दो अथवा एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः तीन, उत्कृष्टतः संख्येय नैरयिक उपपन्न संखेज्जा नेरइया उववज्जति । जहण्णेणं नैरयिकाः उपपद्यन्ते। जघन्येन एकः वा होते हैं। २. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं __द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः उत्कृष्टतः संख्येय कापोतलेश्या वाले उपपन्न संखेज्जा काउलेस्सा उववज्जंति । कापोतलेश्याः उपपद्यन्ते। जघन्येन होते हैं। ३. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षण ___उत्कृष्टतः संख्येय कृष्णपाक्षिक उपपन्न होते उक्कोसेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया । संख्येयाः कृष्णपाक्षिकाः उपपद्यन्ते। एवं हैं। ४.१४. इसी प्रकार शुक्लपाक्षिक भी, उववति । एवं सुक्कपक्खिया वि, एवं शुक्लपाक्षिकाः अपि, एवं संज्ञिनः, एवम् इसी प्रकार संज्ञी, असंज्ञी, भवसिद्धिक, सण्णी, एवं असण्णी, एवं भवसिद्धिया, असंज्ञिनः, एवं भवसिद्धिकाः, अभव- अभवसिद्धिक, आभिनिबोधिकज्ञानी, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ श. १३ : उ. १ : सू. ३ भगवई अभवसिद्धिया, आभिणिबोहियनाणी, सिद्धिकाः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः, सुयनाणी, ओहिनाणी, मइअण्णाणी, श्रुतज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः, मतिसुयअण्णाणी, विभंगनाणी। चक्खु- अज्ञानिनः, श्रुतअज्ञानिनः, विभङ्गदसणी न उववज्जति । जहण्णेणं एक्को ज्ञानिनः। चक्षुर्दर्शिनः न उपपद्यन्ते। वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं जघन्येन एकः वा द्वौ वा, त्रयः वा संखेज्जा अचक्खुदंसणी उववजंति, उत्कर्षेण संख्येयाः अचक्षुर्दर्शिनः एवं ओहिदंसणी वि। आहार- उपपद्यन्ते, एवम् अवधिदर्शिनः अपि। सण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोउत्ता आहारसंज्ञोपयुक्ताः अपि यावत् वि। इत्थीवेयगा न उबवज्जंति, परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः अपि। स्त्रीवेदकाः पुरिसवेयगा न उववज्जति। जहण्णेणं न उपपद्यन्ते, पुरुषवेदकाः न एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं उपपद्यन्ते। जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः संखेज्जा नपुंसगवेयगा उववज्जंति । एवं वा, उत्कर्षेण संख्येयाः नपुंसकवेदकाः कोहकसाई जाव लोभकसाई। उपपद्यन्ते। एवं क्रोधकषायिनः यावत् सोइंदियोवउत्ता न उववज्जंति, एवं जाव लोभकषायिनः। श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ताः न फासिदिओवउत्ता न उववज्जति । उपपद्यन्ते, एवं यावत् जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, स्पर्शेन्द्रियोपयुक्ताः न उपपद्यन्ते। उक्कोसेणं संखेज्जा नोइंदिओवउत्ता जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उववज्जति। मणजोगी न उववज्जंति, उत्कर्षेण संख्येयाः नोइन्द्रियोपयुक्ताः एवं बइजोगी वि। जहण्णेणं एक्को वा दो उपपद्यन्ते। मनोयोगिनः न उपपद्यन्ते, वा। तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा एवं वाग्योगिनः अपि। जघन्येन एकः वा कायजोगी उववज्जंति। एवं सागारो- द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः वउत्ता वि, एवं अणागारोवउत्ता वि॥ काययोगिनः उपपद्यन्ते। एवं साकारोपयुक्ताः अपि, एवम् अनाकारोपयुक्ताः अपि। श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंगज्ञानी की वक्तव्यता। १५. चक्षुदर्शनी उपपन्न नहीं होते १६. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय अचक्षुदर्शनी उपपन्न होते हैं। १७. इसी प्रकार अवधिदर्शनी भी। १८-२१. इसी प्रकार आहार संज्ञाउपयुक्त यावत् परिग्रह-संज्ञा-उपयुक्त भी। २३. स्त्रीवेदक उपपन्न नहीं होते २३. पुरुष वेदक उपपन्न नहीं होते। २४. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय नपुंसकवेदक उपपन्न होते हैं। २५-२८. इसी प्रकार क्रोध कषाय वाले यावत् लोभकषाय वाले उपपन्न होते हैं। २६-३३ श्रोत्रेन्द्रिय-उपयुक्त उपपन्न नहीं होते यावत् स्पर्शनेन्द्रिय उपयुक्त उपपन्न नहीं होते। ३४. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन उत्कृष्टतः संख्येय नोइन्द्रिय-उपयुक्त उपपन्न होते हैं। ३५-३६ मनयोग वाले उपपन्न नहीं होते। इसी प्रकार वचन योग वाले भी। ३७. जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय काय योग वाले उपपन्न होते हैं। ३८-३६ इसी प्रकार साकार उपयोग वाले भी, अनाकार उपयोग वाले भी। भाष्य जा १. सूत्र ३ निरूपण है। भाव लेश्याएं देव और नरक सबमें छह होती हैं।' इस सूत्र में उनचालीस प्रश्न पूछे गए हैं। उनके उत्तर भी इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कापोत लेश्या वाले जीव पैदा होते हैं, इसका सूत्र में प्रदत्त हैं। तात्पर्य है कि उसमें कापोत लेश्या का निर्देश है। वहां पैदा होने कापोत लेश्या-रत्नप्रभा पृथ्वी में कापोत लेश्या वाले जीव वाला जीव कापोत लेश्या के साथ ही उत्पन्न होता है। उपपन्न होते हैं, इसका तात्पर्य यह है-रत्नप्रभा में एक कापोत लेश्या जिन जीवों का संसार-भ्रमण अर्द्ध-पुद्गल परिवर्त का शेष होती है। उपपत्ति का नियम यह है-जिस गति में जीव उपपन्न होता ___ रहता है, वे शुक्लपाक्षिक हैं। जिनका इससे अधिक रहता है, वे है, अंतर्मुहर्त पहले उस गति की लेश्या हो जाती है। इसी नियम के कृष्णपाक्षिक हैं। आधार पर यह कहा जा सकता है-रत्नप्रभा में कापोत लेश्या वाले संज्ञी असंज्ञी दोनों उत्पन्न होते हैं। इस विषय में जयाचार्य ने जीव उपपन्न होते हैं। विस्तृत समीक्षा की है। उनके अनुसार विभंगज्ञान की उत्पत्ति से नरक और देवलोक में प्राप्त लेश्या द्रव्य-लेश्या है इसलिए पहले नारक जीव असंज्ञी कहलाता है। रत्नप्रभा पृथ्वी में असंज्ञी नरक में कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं बतलाई गई हैं। जीव उत्पन्न होता है, वह अंतर्मुहूर्त तक विभंगज्ञान को प्राप्त नहीं देवों में छहों लेश्याएं उपलब्ध होती हैं। यह द्रव्य लेश्याओं का करता इसलिए उसे असंज्ञी कहा गया। १. जीवा. ३/६८1 (ख) विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना पद १७ और उसकी वृत्ति। २. उत्तरा. वृ. (शान्त्याचार्य) प. ६६२॥ ६. भ. वृ. प. १३/३ : ३. पण्ण. १७/३७। जेसिमबहो पोग्गल परियट्टो सेस ओउ संसारो। ४. पण्ण. १७/४६,५०। ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिगे पुण कण्हपरवीआ॥ ५. (क) श्री भिक्षु आगम विषय कोश पृ. ५०७। ७. भ. जो. ढा. २७२, गा. ३१-५४॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. १ : सू. ४ नरक में उत्पत्ति के समय द्रव्येन्द्रियां नहीं होती, इसलिए चक्षुदर्शनी उत्पन्न नहीं होते।' वृत्तिकार ने यहां एक प्रश्न उपस्थित किया है वहां अचक्षु दर्शनी कैसे उत्पन्न होते हैं ? वृत्तिकार ने इसका समाधान भी प्रस्तुत किया है। यहां अचक्षु दर्शन का अभिधेय सामान्य उपयोग मात्र है इसलिए उत्पत्ति के समय वह हो सकता है। ' नरक में भव-प्रत्ययिक नपुंसक वेद है इसलिए उसमें स्त्री वेद और पुरुष वेद उपपन्न नहीं होते। उत्पत्ति के समय इन्द्रियां नहीं होती इसलिए रत्नप्रभा में संखेज्जवित्थडेसु नरएस उब्बट्टण-पदं ४. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं केवतिया नेरइया उव्वति ? केवतिया काउलेस्सा उव्व ंति जान केवतिया अणागारोवउत्ता उव्व ंति ? ११२ गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसा निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उब्बति । जहणणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उव्वति । एवं जाव सण्णी । असण्णी न उव्व ंति। जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा भवसिद्धिया उव्वति । एवं जाव सुअण्णाणी । विभंगनाणी न उब्वट्टंति, चक्खुदंसणी न उब्वति । जहणणेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उब्वति । एवं जाव लोभकसाई । सोइंदियोवउत्ता न उव्वति एवं जाव फासिंदियोवउत्ता न उव्व ंति। जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा नोइंदियोवउत्ता उव्वति । मणजोगी न उव्वनंति, एवं वइजोगी वि । जहणणेणं एक्को वा दो वाणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कायजोगी उव्वहंति । एवं सागारोवउत्ता, अणागारोवउत्ता ॥ भगवई श्रोत्रेन्द्रिय आदि इन्द्रियों से उपयुक्त जीव उत्पन्न नहीं होते । गर्भावक्रमण के समय भाव इन्द्रियों का होना बतलाया गया है। द्रष्टव्य भगवई १ / ३४०, ४१। यहां भाव इन्द्रिय विवक्षित नहीं है। नरक में द्रव्य मन नहीं होता किंतु चैतन्य रूप भाव मन सदा रहता है । इस अपेक्षा से नोइन्द्रिय उपयुक्त की उपपत्ति होती है। ' १. भ. वृ. १३/३ - इन्द्रियत्यागेन तत्रोत्पत्तिरिति । २. वही, १३ / ३ - इन्द्रियानाश्रितस्य सामान्योपयोगमात्रस्याचक्षुदर्शनशब्दाभि उत्पत्ति के समय मनयोग और वचनयोग नहीं होता इसलिए मनोयोगी और वाग्योगी की उत्पत्ति का निषेध है। काययोग संसारी जीवों के सदा रहता है। संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु उद्वर्तन पदम अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु एकसमये कियन्तः नैरयिकाः उद्वर्तन्ते ? कियन्तः कापोतलेश्याः उद्वर्तन्ते यावत् कियन्तः अनाकारोपयुक्ताः उद्वर्तन्ते ? गौतम ! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशत्षु निरयावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु एकसमये जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा उत्कर्षेण संख्येयाः नैरयिकाः उद्वर्तन्ते । जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः कापोतलेश्याः उद्वर्तन्ते । एवं यावत् संज्ञिनः । असंज्ञिनः न उद्वर्तन्ते । जघन्येन एकः वा द्वो वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः भवसिद्धिकाः उद्वर्तन्ते। एवं यावत् श्रुतअज्ञानिनः । विभङ्गज्ञानिनः न उद्वर्तन्ते, चक्षुर्दर्शिनः न उद्वर्तन्ते। जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः अचक्षुर्दर्शिनः उद्वर्तन्ते । एवं यावत् लोभकषायिनः । श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ताः न उद्वर्तन्ते, एवं यावत् स्पर्शेन्द्रियोपयुक्ताः न उद्वर्तन्ते । जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः नोइन्द्रियोपयुक्ताः उद्वर्तन्ते। मनोयोगिनः न उद्वर्तन्ते, एवं वाग्योगिनः अपि । जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः काययोगिनः उद्वर्तन्ते । एवं साकारोपयुक्ताः, अनाकारोपयुक्ताः । संख्येय विस्तृत नरकों में उद्वर्तन पद ४. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय विस्तृत नरकों में कितने नैरयिक उद्वर्तन करते हैं? कितने कापोत लेश्या वाले उद्वर्तन करते हैं यावत् कितने अनाकार उपयोग वाले उद्वर्तन करते हैं ? गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय विस्तृत नरकों में एक समय में जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्ये नैरयिक उद्वर्तन करते हैं। जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येयकापोतलेश्या वाले उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार यावत् संज्ञी। असंज्ञी उद्वर्तन नहीं करते । जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय भवसिद्धिक उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार यावत् श्रुत अज्ञानी की वक्तव्यता। विभंगज्ञानी उद्वर्तन नहीं करते, चक्षुदर्शनी उद्वर्तन नहीं करते । जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय अचक्षुदर्शनी उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार यावत् लोभ कषाय वाले । श्रोत्रेन्द्रिय-उपयुक्तउद्वर्तन नहीं करते, इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रिय-उपयुक्त-उद्वर्तन नहीं करते । जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः नो इन्द्रिय-उपयुक्त उद्वर्तन करते हैं। मन योग वाले उद्वर्तन नहीं करते, इसी प्रकार वचन योग वाले भी जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय काय योग वाले उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार साकार उपयोग वाले, अनाकार उपयोग वाले की वक्तव्यता । धेयस्योत्पादसमयेऽपि भावाद् अचक्षुदर्शनिनः उत्पद्यते इत्युच्यत इति । ३. वही, १३/३। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ११३ श. १३ : उ.१ : सू. ५ भाष्य १. सूत्र ४ उद्वर्तना का अर्थ है नरक से निर्गमन होना। वृत्तिकार के अनुसार यह पर-भव के प्रथम समय में होती है। नारक जीव असंज्ञी में उत्पन्न नहीं होते इसलिए रत्नप्रभा से असंज्ञी की उद्वर्तना का निषेध किया गया है। संखेज्जवित्थडेस नरएम सत्ता-पदं संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु सत्ता-पदम् संख्येय-विस्तृत नरकों में सत्ता पद ५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां ५. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्ज- विंशति निरयावासशतसहस्रेषु संख्येय- नरकावासों में से संख्येय विस्तृत नरकों में वित्थडेसु नरएसु केवतिया नेरइया विस्तृतेषु नरकेषु कियन्तः नैरयिकाः कितने नैरयिक प्रज्ञप्त हैं? कितने कापोत पण्णत्ता? केवतिया काउलेस्सा जाव प्रज्ञप्ताः? कियन्तः कापोतलेश्याः यावत् लेश्या वाले यावत् कितने अनाकार उपयोग केवतिया अणागारोवउत्ता पण्णत्ता? कियन्तः अनाकारोपयुक्ताः प्रज्ञप्ताः? वाले प्रज्ञप्त है ? कितने अनन्तर उपपन्नककेवतिया अणंतरोववण्णगा पण्णत्ता? कियन्तः अनन्तरोपपन्नकाः प्रज्ञप्ताः? । प्रथम समय में उपपन्न होने वाले प्रज्ञप्त हैं ? केवतिया परंपरोववण्णगा पण्णत्ता? कियन्तः परम्परोपपन्नकाः प्रज्ञप्ताः? कितने परंपर-उपपन्नक-द्वितीय आदि समय केवतिया अणंतरोवगाढा पण्णत्ता? कियन्तः अनन्तरावगाढाः प्रज्ञप्ताः? में उपपन्न होने वाले प्रज्ञप्त हैं? कितने केवतिया परंपरोवगाढा पण्णत्ता? । कियन्तः परम्परावगाढाः प्रज्ञप्ताः? अनंतर अवगाढ-अवगाहन करने वाले प्रज्ञप्त केवतिया अणंतराहारा पण्णत्ता? कियन्तः अनन्तराहाराः प्रज्ञप्ताः? हैं? कितने परंपर अवगाढ प्रज्ञप्त हैं? कितने केवतिया परंपराहारा पण्णत्ता ? कियन्तः परम्पराहाराः प्रज्ञप्ताः? अनंतर-आहार वाले प्रज्ञप्त हैं? कितने केवतिया अणंतरपज्जत्ता पण्णत्ता? कियन्तः अनन्तरपर्याप्ताः प्रज्ञप्ताः? परंपर-आहार वाले प्रज्ञप्त हैं? कितने केवतिया परंपरपज्जत्ता पण्णत्ता? कियन्तः परम्परपर्याप्ताः प्रज्ञप्ताः? अनंतर-पर्याप्तक प्रज्ञप्त हैं? कितने परंपरकेवतिया चरिमा पण्णत्ता ? केवतिया । कियन्तः चरमाःप्रज्ञप्ताः? कियन्तः पर्याप्तक प्रज्ञप्त हैं? कितने चरम भव वाले अचरिमा पण्णत्ता? अचरमाः प्रज्ञप्ता:? प्रज्ञप्त हैं? कितने अचरम भव वाले प्रज्ञप्त गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्ज- विंशति निरयावासशतसहस्रेषु संख्येय- नरकावासों में से संख्येय-विस्तृत नरकों में वित्थडेसु नरएसु संखेज्जा नेरझ्या विस्तृतेषु नरकेषु संख्येयाः नैरयिकाः संख्येय नैरयिक प्रज्ञप्त हैं, संख्येय कापोत पण्णत्ता, संखेज्जा काउलेस्सा पण्णत्ता, प्रज्ञप्ताः, संख्येयाः कापोतलेश्याः लेश्या वाले प्रज्ञप्त हैं, इसी प्रकार यावत् एवं जाव संखेज्जा सण्णी पण्णत्ता। प्रज्ञप्ताः, एवं यावत् संख्येयाः संज्ञिनः संख्येय संज्ञी प्रज्ञप्त हैं। असंज्ञी स्यात् है, असण्णी सिय अत्थि, सिय नत्थि। जइ प्रज्ञप्ताः। असंज्ञी स्यात् अस्ति, स्यात् स्यात् नहीं है। यदि है तो जघन्यतः एक, दो अस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि नास्ति। यदि अस्ति जघन्येन एकः वा द्वौ अथवा तीन उत्कृष्टतः संख्येय प्रज्ञप्त हैं। वा, उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता। वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः प्रज्ञप्ताः । संख्येय भविसिद्धिक प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार संखेज्जा भवसिद्धिया पण्णत्ता। एवं संख्येयाः भवसिद्धिकाः प्रज्ञप्ताः। एवं यावत् संख्येय परिग्रह-संज्ञा-उपयुक्त प्रज्ञप्त जाब संखेज्जा परिग्गहसण्णोबउत्ता यावत् संख्येयाः परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः हैं। स्त्रीवेदक नहीं हैं, पुरुषवेदक नहीं हैं, पण्णत्ता। इत्थिवेदगा नत्थि, पुरिसवेदगा प्रज्ञप्ताः। स्त्रीवेदकाः न सन्ति, संख्येय नपुंसकवेदक प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार नत्थि, संखेज्जा नपुंसगवेदगा पण्णत्ता। पुरुषवेदकाः न सन्ति, संख्येयाः क्रोध कषाय वाले, मान कषाय वाले असंज्ञी एवं कोहकसाई वि, माणकसाई जहा नपुंसकवेदकाः प्रज्ञप्ताः। एवं क्रोधकषायी की भांति प्रज्ञप्त हैं, इसी प्रकार यावत् लोभ असण्णी, एवं जाव लोभकसाई। अपि, मानकषायी यथा असंज्ञी, एवं कषाय वाले। संख्येय श्रोत्रेन्द्रिय उपयुक्त संखेज्जा सोइंदियोवउत्ता पण्णत्ता, एवं यावत् लोभकषायी। संख्येयाः प्रज्ञप्त हैं, इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रियजाव फासिदियोवउत्ता। नोइंदियोवउत्ता श्रोत्रेन्द्रियोपयुक्ताः प्रज्ञप्ताः, एवं यावत् उपयुक्त प्रज्ञप्त हैं। नोइंद्रिय उपयुक्त जहा असण्णी। संखेज्जा मणजोगी स्पशन्द्रियोपयुक्ताः। नोइन्द्रियोपयुक्ताः असंज्ञी की भांति प्रज्ञप्त हैं। संख्येय मन पण्णत्ता। एवं जाव अणागारोवउत्ता। यथा असंज्ञी। संख्येया: मनोयोगिनः योग वाले प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार यावत् अणंतरोवण्णगा सिय अस्थि, सिय प्रज्ञप्ताः। एवं यावत् अनाकारोपयुक्ताः । अनाकार उपयोग वाले प्रज्ञप्त हैं। अनंतरनत्थि। जइ अस्थि जहा असण्णी।। अनन्तरोपपन्नकाः स्यात् अस्ति स्यात् उपपन्नक स्यात् हैं, स्यात् नहीं हैं। यदि हैं संखेज्जा परंपरोववण्णगा पण्णत्ता। एवं नास्ति। यदि अस्ति यथा असंज्ञी। तो असंज्ञी की भांति प्रज्ञप्त हैं। संख्येय १. भ. वृ. १३/४-उद्वर्तना हि परभवप्रथमसमये स्यात् न च नारका असज्ञिषूत्पद्यन्तेऽतस्तेऽसज्ञिनः सन्तो नोद्वर्तन्त इत्युच्यते। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. १: सू. ६ ११४ भगवई जहा अणंतरोववण्णगा तहा अणंतरोवगाढगा अणंतराहारगा अणंतर- पज्जत्तगा। परंपरोवगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरोववण्णगा॥ संख्येयाः परम्परोपपन्नकाः प्रज्ञप्ताः। एवं यथा अनन्तरोपपन्नकाः तथा अनन्तरावगाढकाः, अनन्तराहारकाः, अनन्तरपर्याप्तकाः। परम्परावगाढकाः यावत् अचरमाः यथा परम्परोपपन्नकाः। परंपर-उपपन्नक प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार अनंतर-उपपन्नक की भांति अनंतरअवगाढक अनंतर-आहार वाले, अनंतर पर्याप्तक प्रज्ञप्त हैं। परंपर-अवगाढक यावत् अचरम भव वाले परंपर-उपपन्नक की भांति प्रज्ञप्त हैं। भाष्य करने वाले। परंपरावगाढ-विवक्षित क्षेत्र का द्वितीय, तृतीय आदि समय में अवगाहन करने वाले। अनंतर-आहारक-प्रथम समय में आहार करने वाले। परंपर-आहारक-द्वितीय, तृतीय आदि समय में आहार करने वाले। १. सूत्र ५ प्रस्तुत आलापक में सत्ता-रत्नप्रभा में विद्यमान नारक जीवों के बारे में चिंतन किया गया है। असंज्ञी अवस्था से उत्पन्न नारकों को अंतर्मुहर्त तक विभंगज्ञान उपलब्ध नहीं होता। वे जीव नरक में कभी होते हैं, कभी नहीं होते। शब्द-विमर्श नोइन्द्रिय-उपयुक्त-उत्पत्ति के समय नारक जीव नो इन्द्रियोपयुक्त होते हैं। मन योग के विकसित होने पर नो इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रहती इसलिए नो इन्द्रियोपयुक्त जीव कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। अनंतरोपपन्नक-प्रथम समय में उत्पन्न । परंपरोपपन्नक-उत्पत्ति समय की अपेक्षा द्वितीय, तृतीय आदि समयों में वर्तमान। अनंतरावगाढ-विवक्षित क्षेत्र का प्रथम समय में अवगाहन अनंतर-पर्याप्तक-पर्याप्त होने के प्रथम समय वाले। परंपर-पर्याप्तक-पर्याप्त होने के द्वितीय, तृतीय आदि समय वाले। चरम-अभयदेव सूरि ने चरम के दो अर्थ किए हैं १. जिन जीवों का नारक भव चरम है, उन्हें चरम कहा गया है। २. नारक भव के चरम समय में वर्तमान जीव चरम हैं। ६. इमीसे णं भंते ! स्यणप्पभाए पुढवीए अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां ६. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेस त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु नरकावासों में से असंख्येय विस्तृत नरकों में असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं असंख्येयविस्तृतेषु नरकेषु एकसमयेन एक समय में कितने नैरयिक उपपन्न होते हैं केवतिया नेरइया उववज्जति जाव कियन्तः नैरयिकाः उपपद्यन्ते यावत् यावत् कितने अनाकार उपयोग वाले उपपन्न केवतिया अणागारोवउत्ता उबवज्जति? कियन्तः अनाकारोपयुक्ताः होते हैं? उपपद्यन्ते? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए ___ गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां गौतम! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु नरकावासों में से असंख्येय-विस्तृत नरकों में असंखेज्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं असंख्येयविस्तृतेषु नरकेषु एकसमये एक समय में जघन्यतः एक, दो अथवा जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, तीन, उत्कृष्टतः असंख्येय नैरयिक उपपन्न उक्कोसेणं असंखेज्जा नेरइया उत्कर्षेण असंख्येयाः नैरयिकाः होते हैं। इसी प्रकार संख्येय-विस्तृत नरकों उववज्जंति एवं जहेव संखेजविडत्थडेसु उपपद्यन्ते। एवं यथैव संख्येयविस्तृतेषु के तीन गमक की भांति असंख्येय-विस्तृत तिण्णि गमगा तहा असंखेजवित्थडेसु त्रयः गमकाः तथा असंख्येयविस्तृतेषु नरकों के तीन गमक वक्तव्य हैं, इतना वि तिणि गमगा भाणियब्वा, अपि त्रयः गमकाः भणितव्याः, नवरम्- विशेष है-संख्येय के स्थान पर असंख्येय नवरं-असंखेज्जा भाणियब्बा, सेसं तं असंख्येयाः भणितव्याः, शेषं तत् चैव वक्तव्य है। शेष पूर्ववत् यावत् असंख्येय चेव जाव असंखेज्जा अचरिमा यावत् असंख्येयाः अचरमाः प्रज्ञप्ताः, अचरम भव वाले प्रज्ञप्त हैं, इतना विशेष पण्णत्ता, नवरं-संखेज्जवित्थडेसु नवरम्-संख्येयविस्तृतेषु असंख्येय- है-संख्येय-विस्तृत और असंख्येय-विस्तृत असंखेज्जवित्थडेसु वि ओहिनाणी विस्तुतेष अपि अवधिज्ञानिनः अवधि- नरकों में भी अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी आहिंदसणी य संखेज्जा उच्चट्टावेयव्वा, दर्शिनः च संख्येयाः उदवर्तयितव्याः, संख्येय उद्वर्तन करते हैं। सेसं तं चेव॥ शेष तचैव। १. भ. वृ. १३/५-चरमो नारकभवेषु स एव भवो येषां ते चरमाः नारकभवस्य वा चरमसमये वर्तमानाश्चरमाः। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ११५ श. १३ : उ. १: सू. भाष्य १. सूत्र ६ तीन गमक-उत्पत्ति, उद्वर्तना और सत्ता-ये तीन गमक हैं। अवधिज्ञान और अवधिदर्शन के साथ उद्वर्तना करने वाले जीव बहुत थोड़े होते हैं इसलिए उन्हें संख्येय कहा गया है। ७. सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया शर्कराप्रभायां भदन्त! पृथिव्यां कियन्ति ७. भंते! शर्कराप्रभा पृथ्वी के कितने लाख निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता? निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि? नरकावास प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! पणुवीस निरयावाससयसहस्सा गौतम! पञ्चविंशतिः निरयावासशत- 'गौतम! पच्चीस लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। पण्णत्ता। सहस्राणि प्रज्ञप्तानि। ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा? ते भदन्त! किं संख्येयविस्तृताः? भंते! क्या वे संख्येय-विस्तृत हैं? असंख्येय असंखेज्जवित्थडा ? ' असंख्येयविस्तृताः? विस्तृत हैं? एवं . जहा रयणपभाए तहा एवं यथा रत्नप्रभायां तथा शर्कराप्रभायां । इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी की वैसे ही सक्करप्पभाए वि, नवरं-असण्णी तिसु अपि, नवरम्-असंज्ञी त्रिषु अपि गमकेषु शर्कराप्रभा पृथ्वी की वक्तव्यता, इतना वि गमएसु न भण्णति, सेसं तं चेव॥ नभण्यते, शेषं तच्चैव। विशेष है-असंज्ञी के तीनों गमक वक्तव्य नहीं हैं, शेष पूर्ववत्। ८. वालुयप्पभाए णं-पुच्छा। गोयमा ! पन्नरस निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, सेसं जहा सक्करप्पभाए, नाणतं लेसासु, लेसाओ जहा पढमसए॥ वालुकाप्रभायां-पृच्छा। गौतम! पञ्चदश निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, शेषं यथा शर्कराप्रभायाम्, नानात्वं लेश्यासु, लेश्याः यथा प्रथमशते। ८. वालुकाप्रभा की पृच्छा। गौतम! पंद्रह लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। शेष शर्कराप्रभा की भांति वक्तव्य है, लेश्या में नानात्य है। लेश्या प्रथम शतक (१/२४४) की भांति वक्तव्य है। ६. पंकप्पभाए णं-पुच्छा। पंकप्रभायां-पृच्छा। गोयमा! दस निरयावाससयसहस्सा गौतम! दश निरयावासशतसहस्राणि पण्णत्ता, एवं जहा सक्करप्पभाए, प्रज्ञप्तानि, एवं यथा शर्कराप्रभायाम, नवरं-ओहिनाणी ओहिंदसणी य न नवरम-अवधिज्ञानिनः अवधिदर्शिनः च उब्वटुंति, सेमं तं चेव॥ न उद्वर्तन्ते, शेषं तच्चैव। ६.पंकप्रभा की पृच्छा। गौतम! दस लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार शर्कराप्रभा की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी उदवर्तन नहीं करते। शेष पूर्ववत्। १०. धूमप्पभाए णं-पुच्छा। गोयमा! तिण्णि निरयावाससयसहस्सा, एवं जहा पंकप्पभाए॥ धूमप्रभायां-पृच्छा। गौतम! त्रीणि निरयावासशतसहस्राणि, एवं यथा पंकप्रभायाम्। १०. धूमप्रभा की पृच्छा। गौतम! तीन लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार पंकप्रभा की भांति वक्तव्यता। ११. तमाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! एगे पंचूणे निरयावाससय- सहस्से पण्णत्ते। सेसं जहा पंकप्पभाए॥ तमायां भदन्त! पृथिव्यां कियन्ति ११. भंते! तमा पृथ्वी के कितने लाख निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि? नरकावास प्रज्ञप्त हैं? गौतम! एकं पञ्चोनं निरयावास- गौतम! पांच कम एक लाख (निन्यानवें शतसहस्रं प्रज्ञप्तम्। शेषं यथा हजार नौ सौ पिचानवें) नरकावास प्रज्ञप्त पंकप्रभायाम्। हैं। शेष पंकप्रभा की भांति वक्तव्यता। १२. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए कति · अधःसप्तम्यां भदन्त! पृथिव्यां कति अणुत्तरा महतिमहालया महानिरया अनुत्तराः महामहान्तः महानिरयाः पण्णत्ता? प्रज्ञप्ताः ? .. १२. भंते! अधःसप्तमी पृथ्वी के कितने अनुत्तर, विशालतम महानरक प्रज्ञप्त हैं? १. भ. वृ. १३/६-उववज्जंति, उव्यदृति पन्नत्तत्ति एते त्रयो गमाः। २. वही, १३/६-ते हि तीर्थकरादय एव भवन्ति, ते च स्तोकाः स्तोकत्याच संख्याता एवेति। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. १ : सू. १३-१५ गोयमा ! पंच अणुत्तरा महतिमहालया महानिरया पण्णत्ता, तं जहा - काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे। ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा १ असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जवित्थडाय ॥ १३. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महानिरएसु संखेज्जवित्थडे नरए एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जंति ? एवं जहा पंकष्पभाए, नवरं-तिसु नाणेसु न उववज्जंति, न उब्वट्टंति, पण्णत्तएसु तव अत्थि । एवं असंखेज्जबित्थडेसु वि, नवरं - असंखेज्जा भाणियव्वा । १४. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस किं सम्मद्दिट्ठी नेरइया उववज्जंति ? मिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जंति ? सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जंति ? गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि नेरइया उववज्जंति, मिच्छदिट्ठी वि नेरइया उववज्जंति, नो सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जंति ॥ १५. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु किं सम्मदिट्टी नेरइया उव्वति ? एवं चैव ॥ ११६ गौतम ! पञ्च अनुत्तराः महामहान्तः महानिरयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - कालः, महाकालः, रोरुकः, महारोरुकः, अप्रतिष्ठानः । ते भदन्त ! किं संख्येयविस्तृताः ? असंख्येयविस्तृताः? गौतम! संख्येयविस्तृतः च असंख्येयविस्तृताः च । १. सूत्र १३ अधः सप्तमी में सम्यक्त्व रहित जीव उत्पन्न होते हैं तथा उद्वर्तन करते हैं इसलिए उनके उपपात और उद्वर्तन- दोनों में तीन ज्ञान नहीं होते। अधः सप्तम्यां भदन्त ! पृथिव्यां पञ्चसु अनुत्तरेषु महामहत्सु महानिरयेषु संख्येयविस्तृते नरके एकसमये कियन्तः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ? एवं यथा पंकप्रभायां, नवरं त्रिषु ज्ञानेषु न उपपद्यन्ते, न उद्वर्तन्ते, प्रज्ञप्तकेषु तथैव अस्ति । एवम् असंख्येयविस्तृतेषु अपि, नवरम् - असंख्येयाः भणितव्याः । भाष्य अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावास शतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु किं सम्यग्दृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ? मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ? सम्यग्मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ? गौतम! सम्यग्दृष्टयः अपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते, मिथ्यादृष्टयः अपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते, नो सम्यग्मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते । अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु किं सम्यग्दृष्टयः नैरयिकाः उद्वर्तन्ते ? एवं चैव । भगवई गौतम! पांच अनुत्तर विशालतम महानरक प्रज्ञप्त हैं, जैसे-काल, महाकाल, रोरुक, महारोरुक और अप्रतिष्ठान । भंते! क्या वे संख्येय- विस्तृत हैं ? असंख्येय- विस्तृत हैं? गौतम ! संख्येय विस्तृत और असंख्येय विस्तृत हैं। 'पण्णत्तएसु' यह पाठ सत्ता के गमक का सूचक है। सत्ताकाल में सम्यक्त्व लाभ हो सकता है इसलिए तीनों ज्ञान की प्राप्ति होती है, 'तहेव' शब्द के द्वारा यह सूचित किया गया है । द्रष्टव्य भगवई १३/३ १३. भंते! अधः सप्तमी पृथ्वी के पांच अनुत्तर विशालतम महानरकों में से संख्येयविस्तृत नरकों में एक समय में कितने नैरयिक उपपन्न होते हैं ? इस प्रकार पंकप्रभा की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-मति, श्रुत और अवधिज्ञानी उपपन्न नहीं होते, उद्वर्तन नहीं करते किन्तु वहां मति, श्रुत तथा अवधि ज्ञान की सत्ता है। इसी प्रकार असंख्येय - विस्तृत महानरकों की वक्तव्यता, इतना विशेष है- संख्येय के स्थान पर असंख्येय वक्तव्य है। १४. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय- विस्तृत नरकों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उपपन्न होते हैं ? मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न होते हैं ? सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न होते हैं ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि नैरयिक भी उपपन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक भी उपपन्न होते हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न नहीं होते। १५. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय- विस्तृत नरकों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उद्वर्तन करते हैं ? पूर्ववत् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्से संखेज्जवित्थडा नरगा किं सम्मद्दिहीहिं नेरइएहिं अविरहिया ? मिच्छदिट्ठीहिं नेर एहिं अविरहिया ? सम्मामिच्छदिहिं नेरइएहिं अविरहिया ? गोयमा ! सम्मद्दिद्दीहिं नेरइएहिं अविरहिया, मिच्छदिट्ठीहिं वि नेरइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छदिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया विरहिया वा । एवं असेखेज्जवित्थडे वि तिणि गमगा भाणियव्वा । एवं सक्करपभाए वि एवं जाव तमाए वि ॥ १७. अहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेज्जवित्थडे नरए किं सम्मद्दिट्ठी नेरइया-पुच्छा। गोयमा ! सम्मद्दिट्ठी नेरइया न उववज्जंति, मिच्छदिनेरइया उववज्जंति, सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया न उववज्जंति । एवं उब्वहंति वि, अविरहिए जव रयणप्पभाए । एवं असंखेज्जवित्थडे वि तिणि गमगा ॥ १८. से नूणं भंते! कण्हलेस्से, नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएस उववज्जंति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव उववज्जति ॥ १. सूत्र १४-१६ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मरण नहीं होता इसलिए रत्नप्रभा पृथ्वी में सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते, उद्वर्तन भी नहीं होता । १६. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइकण्हलेस्से जाव उववज्जंति ? ११७ अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृताः नरकाः किं सम्यग्दृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिताः ? मिथ्यादृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिताः ? सम्यग्मिथ्यादृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिताः ? गौतम ! सम्यग्दृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिता, मिथ्यादृष्टिभिः अपि नैरयिकैः अविरहिताः सम्यग्मिथ्यादृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिताः विरहिताः वा । एवम् असंख्येयविस्तृतेषु अपि त्रयः गमकाः भणितव्याः । एवं शर्कराप्रभायाम् अपि एवं यावत् तमायाम् अपि । भाष्य अधः सप्तम्यां भदन्त ! पृथिव्यां पञ्चसु अनुत्तरेषु यावत् संख्येयविस्तृते नरके किं सम्यग्दृष्टयः नैरयिकाः-पृच्छा । गौतम ! सम्यग्दृष्टयः नैरयिकाः न उपपद्यन्ते, मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते, सम्यग्मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः न उपपद्यन्ते । एवम् उद्वर्तन्ते अपि, अविरहितः यथैव रत्नप्रभायाम् । एवम् असंख्येयविस्तृतेषु अपि त्रयः गमकाः । सः नूनं भदन्त ! कृष्णलेश्यः नीललेश्यः यावत् शुक्ललेश्यः भूत्वा कृष्णलेश्येषु नैरयिकेषु उपपद्यते ? हन्त गौतम! कृष्णलेश्यः यावत् उपपद्यते । १. भ. वृ. १३/१४- १७-न सम्ममिच्छो कुणइ कालं इति वचनात् मिश्रदृष्टयो न म्रियन्ते नापि तद्भवप्रत्ययं तेषामवधिज्ञानं स्यात् येन मिश्रदृष्टयः मध्यकाल में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान की प्राप्ति हो सकती इसलिए रत्नप्रभा पृथ्वी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों से विरहित और अविरहित दोनों हो सकती है। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेकृष्णलेश्यः यावत् उपपद्यन्ते ? श. १३ : उ. १ : सू. १६-१६ १६. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय- विस्तृत नरकों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिकों का विरह होता है ? मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का विरह होता है ? सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का विरह होता है? गौतम! सम्यग्दृष्टि नैरयिकों का विरह नहीं होता, मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का विरह नहीं होता, सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का अविरह अथवा विरह दोनों होते हैं। इसी प्रकार असंख्येय- विस्तृत नरकों में तीन गमक वक्तव्य हैं। इसी प्रकार शर्कराप्रभा की वक्तव्यता, इसी प्रकार यावत्तमा की वक्तव्यता । १७. भंते! अधः सप्तमी के पांच अनुत्तर यावत् संख्येय- विस्तृत नरकों में सम्यग्दृष्टि नैरयिकों की पृच्छा । गौतम ! सम्यग्दृष्टि नैरयिक उपपन्न नहीं होते, मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न होते हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न नहीं होते। इसी प्रकार उद्वर्तन की वक्तव्यता । अविरह की रत्नप्रभा की भांति वक्तव्यता । इसी प्रकार असंख्येय- विस्तृत नरकों में भी तीन गमक वक्तव्य हैं। १८. भंते! वे कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत् शुक्ललेश्या वाले होकर कृष्णलेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं ? हां गौतम ! कृष्णलेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। १६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - कृष्णलेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं ? सन्तस्ते उत्पद्येरन् । २. वही, - कादाचित्कत्वेन तेषां विरहसंभवादिति । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १३ : उ.१: सू. २०-२३ ११८ गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्स- गौतम! लेश्यास्थानेषु संक्लिश्यमानेषु माणेसु संकिलिस्समाणेसु कण्हलेसं संक्लिश्यमानेषु कृष्णलेश्यां परिणमति, परिणमइ, परिणमित्ता कण्हलेसेसु परिणम्य कृष्णलेश्येषु नरकेषु उपपद्यन्ते नेरइएसु उववज्जंति। से तेणटेणं जाव तत तेनार्थेन यावत उपपद्यन्ते। उववज्जति॥ गौतम! लेश्या-स्थानों में संक्लेश होते होते वे कृष्णलेश्या में परिणत होते हैं, परिणत होकर कृष्णलेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कृष्णलेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। २०. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति ? हंता गोयमा ! जाव उववज्जंति॥ सः नूनं भदन्त! कृष्णलेश्यः यावत् शुक्ललेश्यः भूत्वा नीललेश्येषु नैरयिकेषु उपपद्यन्ते? हन्त गौतम ! यावत् उपपद्यन्ते। २०. भंते! वे कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या वाले होकर नीललेश्या वाले नैरयिकों में • उपपन्न होते हैं? हां गौतम! नीललेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। २१.सेकेणटेणं जाव उववज्जति ? तत् केनार्थेन यावत् उपपद्यन्ते? गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्स- गौतम! लेश्यास्थानेषु संक्लिश्यमानेषु माणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा नीललेस्सं वा विशुध्यमानेषु वा नीललेश्यां परिणमइ, परिणमित्ता नीललेस्सेसु परिणमति, परिणम्य नीललेश्येषु नेरइएसु उववज्जंति। से तेणटेणं नैरयिकेषु उपपद्यन्ते। तत् तेनार्थेन गोयमा ! जाव उववज्जंति। गौतम! यावत् उपपद्यन्ते। २१. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-नील लेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं? गौतम! लेश्यास्थान में संक्लेश होते होते अथवा विशुद्धि होते होते नीललेश्या में परिणत होते हैं। परिणत होकर नीललेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैनीललेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। २२. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से, नील- सः नूनं भदन्त! कृष्णलेश्यः, नीललेश्यः लेस्सेजाव सुक्कलेस्से भवित्ता यावत् शुक्ललेश्यः भूत्वा कापोतलेश्येषु काउलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति ? नैरयिकेषु उपपद्यन्ते? एवं जहा नीललेस्साए तहा काउलेस्साए एवं यथा नीललेश्यायां तथा कापोतवि भाणियव्या जाव से तेणटेणं जाव लेश्यायाम् अपि भणितव्याः यावत् तत् उववज्जति॥ तेनार्थेन यावत् उपपद्यन्ते। २२. भंते! वे कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत् शुक्ललेश्या वाले होकर कापोतलेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं? गौतम! इस प्रकार नीललेश्या वाले नैरयिकों की भांति कापोतलेश्या वाले नैरयिक भी वक्तव्य हैं यावत् इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कापोतलेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। भाष्य १. सूत्र १८-२२ संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान-इन दोनों का जयाचार्य ने विशद लेश्या का परिवर्तन होता रहता है। संक्लिष्ट परिणाम और विवेचन किया है। विशुद्ध परिणाम-उस परिवर्तन के हेतु हैं। संक्लिष्ट परिणाम तीव्रतम कापोतलेश्या के परिणमन में भी नीललेश्या की भांति दोनों होता है तब नीललेश्या यावत् शुक्ललेश्या के स्थानों को छोड़कर नियम काम करते हैं। जीव कृष्णलेश्या में परिणत हो जाता है। नरक में कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं प्राप्त होती नीललेश्या कृष्णलेश्या की अपेक्षा विशुद्ध है इसलिए हैं। इसका तात्पर्य है-मृत्यु से अन्तर्मुहर्त पूर्व जिस लेश्या वाले नरक नीललेश्या में परिणमन के दो नियम हैं-प्रशस्त लेश्या के स्थान में उत्पन्न होता है उसी लेश्या का परिणमन हो जाता है। लेश्या का अविशुद्धि को प्राप्त होते हैं और अप्रशस्त लेश्या के स्थान विशुद्धि यह निरूपण लेश्या-स्थान के परिवर्तन के आधार पर किया गया है। को प्राप्त होते हैं। उस अवस्था में नीललेश्या का परिणमन होता है। लेश्या-स्थान का संबंध द्रव्य लेश्या से है। २३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। २३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। १. भ. वृ. १३/१८,२१-लेश्याभेदेषु 'संकिलिस्समाणे'सु त्ति अविशुद्धिं गच्छत्सु कण्हलेसं परिणमइ त्ति कृष्ण लेश्यां याति ततश्च 'कण्हलेसे' त्यादि। संकिलिस्समाणेसु वा विसुद्धमाणेसु वा त्ति प्रशस्त लेश्या स्थानेषु अविशुद्धिं गच्छत्सु अप्रशस्तलेश्या स्थानेषु च विशुद्धिं गच्छत्सु, नीललेश्यां परिणमतीति भाः। २. भ. जो, ढा. २७४, गा. ३१-५६। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद २४. कतिविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता? कतिविधाः भदन्तः! देवाः प्रज्ञप्ताः? गोयमा! चउबिहा देवा पण्णत्ता, तं गौतम! चतुर्विधाः देवाः प्रज्ञप्ताः, जहा-भवणवासी, वाणमंतरा, तद्यथा-भवनवासिनः, वानमन्तराः, जोइसिया, वेमाणिया॥ ज्योतिष्काः, वैमानिकाः। २४. भंते! देव के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम! देव के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-भवनवासी, वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक। २५. भंते! भवनवासी देव के कितने प्रकार प्रज्ञप्त २५. भवणवासी णं भंते! देवा कतिविहा भवनवासिनः भदन्त! देवाः कतिविधाः पण्णत्ता? प्रज्ञप्ताः? गोयमा! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाअसुरकुमारा-एवं भेओ जहा। असुरकुमारा:-एवं भेदः यथा द्वितीयशते बितियसए देवुद्देसए जाव अपराजिया, देवोद्देशके यावत् अपराजिताः, सव्वट्ठसिद्धगा॥ सर्वार्थसिद्धकाः। गौतम! दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे असुरकुमार-इसी प्रकार भेद द्वितीय शतक के देव उद्देशक (२/११७) की भांति यावत् अपराजित, सर्वार्थसिद्धक। २६. केवतिया णं भंते! असुरकुमारा- कियन्ति भदन्त! असुरकुमारावास- २६. भंते! असुरकुमारों के कितने लाख आवास वाससयसहस्सा पण्णत्ता? शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि? प्रज्ञप्त हैं। गोयमा! चोयटिं असुरकुमारावास- गौतम! चतुष्षष्टिः असुरकुमारावास- गौतम! असुरकुमारों के आवास चौसठ लाख सयसहस्सा पण्णत्ता। शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि। प्रज्ञप्त हैं। ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा ? तानि भदन्त ! किं संख्येयविस्तृतानि? भंते! क्या वे संख्येय-विस्तृत हैं? असंख्येय असंखेज्जवित्थडा? असंख्येयविस्तृतानि? विस्तृत हैं? गोयमा! संखेज्जवित्थडा वि, गौतम! संख्येयविस्तृतानि अपि, गौतम! संख्येय-विस्तृत भी हैं, असंख्येय असंखेज्जवित्थडा वि॥ असंख्येयविस्तृतानि अपि। विस्तृत भी हैं। भाष्य १. सूत्र २६ असुरकुमार के चौसठ लाख आवास, द्रष्टव्य भगवती १/ २१२-२१५ का भाष्य। सबसे छोटे भवन जंबूद्वीप के समान हैं। मध्यम भवन संख्येय योजन विस्तार वाले हैं। उत्कृष्ट भवन असंख्येय योजन विस्तार वाले हैं।' २७. चोयट्ठीए णं भंते! असरकुमारा- चतुष्षष्टौ भदन्त! असुरकुमारावास- बाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु शतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु असुरकुमारावासेसु एगसमएणं केवतिया असुरकुमारावासेषु एकसमये कियन्तः । असुरकुमारा उबवज्जति जाव केवतिया असुरकुमाराः उपपद्यन्ते यावत् कियन्तः तेउलेस्सा उववज्जति ? केवतिया तेजोलेश्याः उपपद्यन्ते? कियन्तः कण्हपक्खिया उववज्जति ? कृष्णपाक्षिकाः उपपद्यन्ते? एवं जहा स्यणप्पभाए तहेव पुच्छा, एवं यथा रत्नप्रभायां तथैव पृच्छा। तथैव १. भ. वृ. प. १३/२६-इह गाथा-जंबुद्दीवसमा खलु भवणा, जे हुंति सव्व खुड्डागा। संखेज्ज वित्थड़ा मज्झिमा उ, सेसा असंखेज्जा। २७. भंते! असुरकुमार के चौसठ लाख आवासों में से संख्येय-विस्तृत असुरकुमारों के आवासों में एक समय में कितने असुरकुमार उपपन्न होते हैं? यावत् कितने तेजोलेश्या वाले उपपन्न होते हैं? कितने कृष्ण पाक्षिक उपपन्न होते हैं? इस प्रकार रत्नप्रभा की भांति वही पृच्छा और वही व्याकरण, For Private & Personal use only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १३ : उ. २ : सू. २८ १२० तहेव वागरणं, नवरं-दोहिं वेदेहिं व्याकरणं, नवरं-द्वाभ्यां वेदाभ्याम् उववज्जति, नपुंसगवेयगा न उपपद्यन्ते, नपुंसकवेदकाः न उववजंति, सेसं तं चेव। उन्बटुंतगा वि उपपद्यन्ते, शेषं तच्चैव। उद्वर्तमानकाः तहेव, नवरं-असण्णी उबमुति।। अपि तथैव, नवरम्-असंज्ञिनः ओहिनाणी ओहिदसणी य ण उन्बटुंति, उद्वर्तन्ते। अवधिज्ञानिनः अवधिसेसं तं चेव। पण्णत्तएम तहेव, नवरं । दर्शिनः च न उद्वर्तन्ते, शेषं तच्चैव। संखेज्जगा इथिवेदगा पण्णत्ता, एवं प्रज्ञप्तकेषु तथैव, नवरम्-संख्येयकाः पुरिसवेदगा वि, नपुंसगवेदगा नत्थि। स्त्रीवेदकाः प्रज्ञप्ताः, एवं पुरुषवेदकाः कोहकसाई सिय अत्थि सिय नत्थि। अपि, नपुंसकवेदकाः न सन्ति। जइ अत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा क्रोधकषायी स्यात् अस्ति, स्यात् तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नास्ति। यदि अस्ति जघन्येन एकः वा द्वौ पण्णत्ता। एवं माणकसाई मायकसाई। वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः प्रज्ञप्ताः । संखेज्जा लोभकसाई पण्णत्ता, सेसं तं एवं मानकषायिनः मायाकषायिनः। चेव। तिसु वि गमएसु चत्तारि संख्येयाः लोभकषायिनः प्रज्ञप्ताः, शेष लेस्साओ भाणियवाओ। एवं तच्चैव। त्रिषु अपि गमकेषु चतस्रः असंखेज्जवित्थडेसु वि, नवरं-तिसु वि लेश्याः भणितव्याः। एवम् असंख्येयगमएसु असंखेज्जा भाणियब्वा जाव विस्तृतेषु अपि, नवरम्-त्रिषु अपि असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता॥ गमकेषु असंख्येयाः भणितव्याः यावत् असंख्येयाः अचरमाः प्रज्ञप्ताः। इतना विशेष है-दो वेद वाले उपपन्न होते हैं, नपुंसक वेदक उपपन्न नहीं होते। शेष पूर्ववत्। उद्वर्तना भी रत्नप्रभा की भांति वक्तव्य है, इतना विशेष है-असंज्ञी के रूप में उद्वर्तन करते हैं। अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी उद्वर्तन नहीं करते। शेष पूर्ववत् किन्तु वहां अवधिज्ञान और अवधिदर्शन की सत्ता है, इतना विशेष है-संख्येय स्त्रीवेदक प्रज्ञप्त हैं, इसी प्रकार पुरुषवेदक भी। नपुंसकवेदक नहीं हैं। क्रोध कषाय वाले स्यात् हैं, स्यात् नहीं हैं। यदि हैं तो जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार मानकषाय वाले, मायाकषाय वाले। लोभकषाय वाले संख्येय प्रज्ञप्त हैं, शेष पूर्ववत्। उपपत्ति, उद्वर्तन, सत्ता-इन तीन गमकों में चार लेश्याएं वक्तव्य हैं। इसी प्रकार असंख्येय- विस्तृत असुरकुमार के आवासों की वक्तव्यता, इतना विशेष है-तीन गमकों में असंख्येय वक्तव्य हैं यावत् असंख्येय अचरम भव वाले प्रज्ञप्त हैं। भाष्य १. सूत्र २७ असंज्ञी के रूप में उद्वर्तन-असुरकुमार से लेकर ईशान तक के देव पृथ्वी, पानी और वनस्पति-इन असंज्ञी जीवों में उत्पन्न होते हैं। इस दृष्टि से असंज्ञी के रूप में उद्वर्तन का सूत्र निर्दिष्ट है। अवधिज्ञान और अवधिदर्शन के साथ तीर्थंकर आदि विशिष्ट जीवों का उद्वर्तन होता है। असुरकुमार से उदृत्त तीर्थंकर आदि नहीं होते इसलिए इस निषेध सूत्र का विधान किया गया है। 'पण्णत्तएम तहेव'-सत्ता का सूत्र रत्नप्रभा (भगवई १३/५) की भांति वक्तव्य है। असुरकुमार देवों में क्रोध, मान और माया-इन तीनों से युक्त देव कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। लोभ युक्त देव सर्वदा होते हैं। प्रज्ञापना में देवों को बहुलतया परिग्रह संज्ञा में उपयुक्त बतलाया है। लोभ को सार्वदिक मानने का यह पुष्ट आधार है। द्रष्टव्य भगवती १/२४५ का भाष्य। चार लेश्याएं-कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तैजस लेश्या। २८. केवतिया णं भंते ! नागकुमारा- कियन्ति भदन्त! नागकुमारावासवाससयसहस्सा पण्णत्ता ? शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि? एवं जाव थणियकुमारा, नवरं-जत्थ एवं यावत् स्तनितकुमाराः, नवरम्-यत्र जत्तिया भवणा॥ यावन्ति भवनानि। २८. भंते! नागकुमारों के आवास कितने लाख प्रज्ञप्त हैं? इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जहां जितने भवन (द्रष्टव्य भगवती १/२१३) प्रज्ञप्त हैं। भाष्य १. सूत्र २८ द्रष्टव्य भगवई १/२१२-२१५ का भाष्य। १. भ. वृ. १६/२७-असुरादीशानान्तदेवानामसज्ञिष्वपि पृथिव्यादिषूत्पादात्। २. भ. वृ. १६/२७-क्रोधमानमायाकषायोदयवन्तो देवेषु कादाचित्का अत उक्तं सिय अत्थीत्यादि लोभकषायोदयवन्तस्तु सार्वदिका अत उक्तं 'संखेज्जा' लोभकसाई ‘पन्नत्तत्ति'। ३. प्रज्ञा. ८/१०-११ | Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६. केवितया णं भंते ! वाससयसहस्सा पण्णत्ता ? वाणमंतरा गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरा वाससयसहस्सा पण्णत्ता । ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा ॥ १. सूत्र २६ वाणमंतर देवों के आवास संख्येय योजन विस्तार वाले हैं। संग्रह गाथा में उसके तीन प्रकार बतलाए गए हैं ३०. संखेज्जेसु णं भंते! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवतिया वाणमंतरा उववज्जंति ? एवं जहा असुरकुमाराणं संखेज्जवित्थडे तिणि गमगा तहेव भाणियव्वा वाणमंतराण वि तिण्णि गमगा ॥ ३१. केवतिया णं भंते! जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा ? एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोइसियाण वि तिणि गमगा भाणियव्वा नवरंएगा तेउलेस्सा। उबवज्जंतेसु पण्णत्तेसु य असण्णी नत्थि, सेसं तं चैव ॥ १. भ. वृ. १३/२६ : १२१ कियन्ति भदन्त ! शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! असंख्येयानि वानमन्तरावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । तानि भदन्त ! किं संख्येयविस्तृतानि ? असंख्येयविस्तृतानि ? गौतम ! संख्येयविस्तृतानि, नो असंख्येयविस्तृतानि । भाष्य २. (क) पण्ण. १७ / ५३ । वानमन्तरावास संख्येयेषु भदन्त ! वानमन्तरावासशतसहस्रेषु एकसमये वानमन्तराः उपपद्यन्ते ? कियन्तः जंबूद्दीवसमा खलु उक्कोसेणं हवंति ते नगरा । खुड्डा खेत्तसमा खलु विदेह समगा उ मज्झिमगा ।। उत्कृष्ट आवास जंबूद्वीप के समान । जघन्य आवास खेत के समान । मध्यम आवास विदेह के समान । ' एवं यथा असुरकुमाराणां संख्येयविस्तृतेषु त्रयः गमकाः तथैव भणितव्याः वानमन्तराणाम् अपि त्रयः गमकाः । १. सूत्र ३१ वाणमंतर देवों में चार लेश्याएं बतलाई गई हैं। ज्योतिष्क देवों में केवल एक तेजोलेश्या होती है।' वाणमंतर देवों में असंज्ञी उत्पन्न ३२. सोहम्मे णं भंते! कप्पे केवतिया सौधर्मे भदन्त ! कल्पे कियन्ति विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? विमानावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावासगौतम ! द्वात्रिंशत् विमानावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । सयसहस्सा पण्णत्ता । कियन्ति भदन्त ! ज्योतिष्कविमानावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! असंख्येयानि ज्योतिष्कविमानावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । तानि भदन्त ! किं संख्येयविस्तृतानि ? एवं यथा वनमन्तराणां तथा ज्योतिष्काणाम् अपि त्रयः गमकाः भणितव्याः, नवरम् - एका तेजोलेश्या । उपपद्यमानेषु प्रज्ञप्तेषु च असंज्ञी नास्ति, शेषं तच्चैव । श. १३ : उ. २ : सू. २६-३२ २६. भंते! वाणमंतरों के आवास कितने लाख प्रज्ञप्त हैं? गौतम! वाणमंतरों के असंख्येय लाख आवास प्रज्ञप्त हैं। भंते! क्या वे संख्येय - विस्तृत हैं? असंख्येय- विस्तृत हैं? गौतम! संख्येय- विस्तृत हैं। असंख्येयविस्तृत नहीं हैं। ३०. भंते! वाणमंतरों के संख्येय लाख आवासों में एक समय में कितने वाणमंतर उपपन्न होते हैं ? इस प्रकार जैसे संख्येय- विस्तृत असुरकुमारों के तीन गमक वक्तव्य हैं वैसे ही वाणमंतरों के तीन गमक वक्तव्य हैं। ३१. भंते! ज्योतिष्क देवों के कितने लाख विमानावास प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! असंख्येय लाख विमानावास प्रज्ञप्त हैं। भाष्य होते हैं। ज्योतिष्क देवों में वे उत्पन्न नहीं होते इसलिए उनकी सत्ता भी नहीं होती। भंते! क्या वे संख्येय- विस्तृत हैं? इस प्रकार वाणमंतरों की भांति ज्योतिष्क देवों के तीनों गमक वक्तव्य हैं, इतना विशेष है- केवल एक तेजोलेश्या होती है। असंज्ञी का उपपात और सत्ता नहीं होती, शेष पूर्ववत् । ३२. भंते! सौधर्मकल्प में कितने लाख विमानावास प्रज्ञप्त हैं? गौतम! बत्तीस लाख विमानावास प्रज्ञप्त हैं। (ख) भ. वृ. १३/३१ - व्यंतरेषु लेश्याचतुष्टयमुक्तमेतेषु तु तेजोलेश्यैवैका वाच्या । ३. भ. वृ. १३/३१ - व्यन्तरेष्वसंज्ञिनः उत्पद्यन्त इत्युक्तमिह तु तन्निषेधः, प्रज्ञप्तेष्वपीह तन्निषेध उत्पादाभावादिति । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १३ : उ. २ : सू. ३३,३४ ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा? असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि॥ १२२ तानि भदन्त! किं संख्येयविस्तृतानि? असंख्येयविस्तृतानि? गौतम! संख्येयविस्तृतानि अपि, असंख्येयविस्तृतानि अपि। भंते! वे क्या संख्येय-विस्तृत हैं? असंख्येयविस्तृत हैं? गौतम! संख्येय-विस्तृत भी हैं, असंख्येयविस्तृत भी हैं। हैं? ३३. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे बत्तीसाए सौधर्मे भदन्त! कल्पे द्वात्रिंशति ३३. भंते! सौधर्मकल्प के बत्तीस लाख विमाणावाससयसहस्सेसु संखेज्ज- विमानावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेष विमानावासों में से संख्येय विस्तृत विमानों वित्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं केवतिया विमानेषु एकसमये कियन्तः सौधर्माः में एक समय में कितने सौधर्मदेव उपपन्न सोहम्मा देवा उववज्जति ? केवतिया देवाः उपपद्यन्ते? कियन्तः तेजोलेश्याः होते हैं? कितने तेजोलेश्या वाले उपपन्न होते तेउलेस्सा उववज्जति ? उपपद्यन्ते? एवं जहा जोइसियाणं तिण्णि गमगा एवं यथा ज्योतिष्कानां त्रयः गमकाः इसी प्रकार जैसे ज्योतिष्क देवों के तीन तहेव तिण्णि गमगा भाणियव्या, तथैव त्रयः गमकाः भणितव्याः, नवरम्- गमक होते हैं, वैसे ही सौधर्मकल्प के तीन नवरं-तिसु वि संखेज्जा भाणियव्या, त्रिषु अपि संख्येयाः भणितव्याः, गमक वक्तव्य हैं, इतना विशेष है- तीनों में ओहिनाणी ओहिदंसणी य चयावेयव्वा, अवधिज्ञानिनः अवधिदर्शिनः च संख्येय वक्तव्य हैं, अवधिज्ञानी, सेसं तं चेव। असंखेज्जवित्थडेसु एवं च्यावयितव्याः शेषं तच्चैव। अवधिदर्शनी च्यवन करते हैं, शेष पूर्ववत्। चेव तिण्णि गमगा, नवरं-तिसु वि असंख्येयविस्तृतेषु एवं चैव त्रयः असंख्येय विस्तृत में भी पूर्ववत् तीन गमक गमएसु असंखेज्जा भाणियब्वा। गमकाः, नवरम्-त्रिषु अपि गमकेषु वक्तव्य हैं, इतना विशेष है-तीनों गमकों में ओहिनाणी ओहिदसणी य संखेज्जा असंख्येयाः भणितव्याः । अवधिज्ञानिनः असंख्येय की वक्तव्यता। संख्येय चयंति, सेसं तं चेव। एवं जहा सोहम्मे अवधिदर्शिनः च संख्येयाः च्यवन्ते, शेष अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी च्यवन करते हैं। वत्तब्वया भणिया तहा ईसाणे वि छ तच्चैव। एवं यथा सौधर्मे वक्तव्यता शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार जैसे सौधर्म की गमगा भाणियव्वा। सणंकुमारे एवं भणिता तथा ईशानेऽपि षट् गमकाः वक्तव्यता है, वैसे ही ईशान के छह गमकों चेव, नवरं-इत्थीवेयगा उववज्जतेसु भणितव्याः। सनत्कुमारे एवं चैव की वक्तव्यता। सनत्कुमार की वक्तव्यता पण्णत्तेसु य न भण्णंति, असण्णी तिसु नवरम्-स्त्रीवेदकाः उपपद्यमानेषु पूर्ववत्, इतना विशेष है-स्त्रीवेदक उपपन्न वि गमएसु न भण्णंति, सेसं तं चेव। प्रज्ञप्तेषु च न भण्यन्ते, असंज्ञिनः त्रिषु नहीं होते और उनकी सत्ता भी नहीं हैं। एवं जाव सहस्सारे, नाणत्तं विमाणेसु अपि गमकेषु न भण्यन्ते, शेषं तच्चैव। असंज्ञी में तीनों गमक वक्तव्य नहीं हैं, शेष लेस्सासु य, सेसं तं चेव॥ एवं यावत् सहस्रारे, नानात्वं विमानेषु पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् सहस्रारकल्प लेश्यासु च, शेषं तच्चैव। की वक्तव्यता, उनके विमानों और लेश्याओं में नानात्व है, शेष पूर्ववत्। भाष्य १.सूत्र ३३ विमान के लिए द्रष्टव्य भगवई १/२१५। लेश्या के लिए अवधिज्ञान और अवधि दर्शन के साथ तीर्थंकर आदि का द्रष्टव्य भगवई ३/१८३-१८५ तथा ७/६७-७३ का भाष्य। च्यवन होता है।' लेश्या के विषय में जयाचार्य ने विस्तृत समीक्षा की है। ३४. आणय-पाणएमु णं भंते! कप्पेसु आनत-प्राणतेषु भदन्त! कल्पेषु ३४. भंते! आनत-प्राणत कल्प में कितने सौ केवतिया विमाणावाससया पण्णत्ता? कियन्ति विमानावासशतानि प्रज्ञप्तानि? विमानावास प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! चत्तारि विमाणावाससया गौतम! चत्वारि विमानावासशतानि गौतम! चार सौ विमानावास प्रज्ञप्त हैं। पण्णत्ता। प्रज्ञप्तानि। तेणं भंते! किं संखेज्जवित्थडा ? तानि भदन्त! किं संख्येयविस्तृतानि? भंते! क्या वे संख्येय विस्तृत हैं? असंख्येय असंखेज्जवित्थडा ? असंख्येयविस्तृतानि? विस्तृत हैं? गोयमा! संखेज्जवित्थडा वि, गौतम! संख्येयविस्तृतानि अपि, गौतम! संख्येय-विस्तृत भी हैं, असंख्येयअसंखेज्जवित्थडा वि। एवं असंख्येयविस्तृतानि अपि। एवं विस्तृत भी हैं। इसी प्रकार संख्येय विस्तृत संखज्जवित्थडेसु तिण्णि गमगा जहा संख्येयविस्तृतेषु त्रयः गमकाः यथा तीनों गमक सहस्रार कल्प की भांति १. भ. वृ. १३/३२,३३-सौधर्मसूत्रे 'ओहिनाणी' ततश्च्युता यतः तीर्थकरादयो २. भ. जो. ढा. २७५,. गा. ५७-६० तथा वार्तिक। भवन्त्य तोऽवधिज्ञानादयश्च्यावयितव्याः। प Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई सहस्सारे, असंखेज्जवित्थडेसु उववज्जंते चयंतेसु य एवं चैव संखेज्जा भाणियव्वा, पण्णत्तेसु असंखेज्जा, नवरं - नोइंदियोवउत्ता अत्तरोववण्णगा अतरोवगाढगा अनंतराहारगा अणंतरपज्जत्तगा य एएसिं जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता, सेसा असंखेज्जा भाणियव्वा । आरण- अच्चुए एवं चैव जहा आणयपाणएसु, नाणत्तं विमाणेसु । एवं गेवेज्जगा वि ॥ ३५. कति णं भंते! अणुत्तरविमाणा कति पण्णत्ता ? गोयमा ! पण्णत्ता । ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा ? असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! असंखेज्जवित्थडा य॥ संखेज्जवित्थडे य १२३ सहस्रारे, असंख्येयविस्तृतेषु उपपद्यमानेषु, च्यवमानेषु च एवं चैव संख्येयाः भणितव्याः, प्रज्ञप्तेषु असंख्येयाः, नवरम्-नोइन्द्रियोपयुक्ताः अनन्तरोपपन्नकाः अनन्तरावगाढकाः अनन्तराहारकाः अनन्तरपर्याप्तकाः च एतेषां जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः प्रज्ञप्ताः शेषाः असंख्येयाः भणितव्याः । 'आरणअच्युतेषु' एवं चैव यथा आनतप्राणतेषु नानात्वं विमानेषु । एवं ग्रैवेयकाः अपि । ३६. पंचसु णं भंते! अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जबित्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोववाइया उववज्जंति ? केवतिया सुक्कलेस्सा उववज्जंतिपुच्छा तहेव । गोयमा ! पंचसु णं अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जबित्थडे अणुत्तरविमाणे एसमएणं जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा अणुत्तरोववाइया उववज्जंति, एवं जहा वेज्ज विमा संखेज्जवित्थडेसु, नवरं - किण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया, तिसु अण्णाणेसु एएन उववज्जंति, न चयंति, न वि पण्णत्तएसु भाणियव्वा, अचरिमा वि खोडिज्जति जाव संखेज्जा चरिमा पण्णत्ता, सेसं तं चैव । असंखेज्जवित्थडे वि एएन भण्णंति, प्रज्ञप्तानि ? पंच अणुत्तरविमाणा गौतम! पञ्च अनुत्तरविमानानि प्रज्ञप्तानि । तानि भदन्त ! किं संख्येयविस्तृतानि ? असंख्येयविस्तृतानि ? भदन्त ! अनुत्तरविमानानि गौतम ! संख्येयविस्तृतं च असंख्येयविस्तृतानि च । १. सूत्र ३५ मध्यम विमान एक लाख योजन का है इसलिए वह संख्यात योजन विस्तार वाला है।' भाष्य ३६. पञ्चसु भदन्त ! अनुत्तरविमानेषु संख्येयविस्तृते विमाने एकसमये कियन्तः अनुत्तरोपपातिकाः उपपद्यन्ते ? कियन्तः शुक्ललेश्याः उपपद्यन्ते पृच्छा तथैव। गौतम ! पञ्चसु अनुत्तरविमानेषु संख्येयविस्तृते अनुत्तरविमाने एकसमये जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः अनुत्तरोपपातिकाः उपपद्यन्ते, एवं यथा ग्रैवेयकविमानेषु संख्येयविस्तृतेषु नवरम् - कृष्णपाक्षिकाः, अभवसिद्धिकाः, त्रिषु अज्ञानेषु एते न उपपद्यन्ते, न च्यवन्ते, नापि प्रज्ञप्तकेषु भणितव्याः, अचरमाः अपि 'खोडिज्जंति' यावत् संख्येयाः चरमाः प्रज्ञप्ताः, शेषं तच्चैव । असंख्येयविस्तृतेषु अपि एते न भण्यन्ते, १. भ. वृ. सू. १३/३५: - तत्र मध्यमं संख्यातविस्तृतं योजनलक्षप्रमाणत्वादिति । श. १३ : उ. २ : सू. ३५, ३६ वक्तव्य हैं। असंख्येय विस्तृत विभानावासों में संख्येय उपपन्न होते हैं और च्यवन करते हैं, किंतु वहां असंख्येय की सत्ता है, इतना विशेष है - नोइन्द्रिय उपयुक्त, अनंतर उपपन्नक, अनंतर अवगाढक, अनंतर आहारक और अनंतर पर्याप्तक- ये जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय प्रज्ञप्त हैं, शेष में असंख्येय की वक्तव्यता । आरण- अच्युत पूर्ववत् आनतप्राणत की भांति वक्तव्य हैं, विमानों में नानात्व की वक्तव्यता। इसी प्रकार ग्रैवेयक की भी वक्तव्यता । ३५. भंते! अनुत्तरविमान कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! पांच अनुत्तरविमान प्रज्ञप्त हैं। भंते! क्या वे असंख्येय- विस्तृत हैं ? गौतम! संख्येय- विस्तृत भी है, असंख्येय विस्तृत भी हैं। संख्येय- विस्तृत हैं ? ३६. भंते! पांच अनुत्तरविमानों में से संख्येयविस्तृत विमानों में एक समय में कितने अनुत्तरोपपातिक उपपन्न होते हैं? कितने शुक्ललेश्या वाले उपपन्न होते हैं- पृच्छा पूर्ववत् । गौतम! पांच अनुत्तरविमानों में से संख्येय- विस्तृत अनुत्तरविमान में एक समय में जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय अनुत्तरोपपातिक उपपन्न होते हैं, इसी प्रकार - संख्येय- विस्तृत ग्रैवेयक विमानों की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है- कृष्णपाक्षिक, अभवसिद्धिक, तीन अज्ञान वाले न उपपन्न होते हैं, न च्यवन करते हैं, न ही वहां सत्ता की वक्तव्यता है, अचरम को छोड़कर यावत् संख्येय चरम प्रज्ञप्त हैं, शेष पूर्ववत् । असंख्येय- विस्तृत में भी इनकी वक्तव्यता Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भगवई श. १३ : उ. २ : सू. ३७-३६ नवरं-अचरिमा अत्थि, सेसं जहा गेवेज्जएसु असंखेज्जवित्थडेसु जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता॥ नवरम्-अचरमाः अस्ति, शेषं यथा प्रैवेयकेषु असंख्येयविस्तृतेषु यावत् असंख्येयाः अचरमाः प्रज्ञप्ताः। नहीं है। इतना विशेष है-अचरम-भव वाले होते हैं, शेष असंख्येय विस्तृत ग्रैवेयक विमानों में यावत् असंख्येय अचरम भव वाले प्रज्ञप्त हैं। ३७. चोयट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारा- चतुष्षष्टौ भदन्त! असुरकुमारावास- ३७. भंते! असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों वाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु शतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु असुर- ___में से संख्येय-विस्तृत असुरकुमारावासों में असुरकुमारावासेसु किं सम्मट्टिी कुमारावासेषु किं सम्यग्दृष्टयः असुर- क्या सम्यक् दृष्टि असुरकुमार उपपन्न होते असुरकुमारा उववज्जंति? मिच्छदिट्टी कुमाराः उपपद्यन्ते? मिथ्यादृष्टयः हैं? क्या मिथ्यादृष्टि असुरकुमार उपपन्न असुरकुमारा उववज्जंति ? असुरकुमाराः उपपद्यन्ते? होते हैं? एवं जहा रयणप्पभाए तिण्णि एवं यथा रत्नप्रभायां त्रयःआलापकाः इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा में तीन आलापक आलावगा भणिया तहा भाणियब्वा।। भणिताः तथा भणितव्याः। कहे गये हैं, वैसे ही वक्तव्य हैं। एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि तिण्णि एवं असंख्येयविस्तृतेषु अपि त्रयः इसी प्रकार असंख्येय-विस्तृत असुरगमगा, एवं जाव गेवेज्जविमाणे, गमकाः एवं यावत् ग्रैवेयकविमाने, कुमारावासों में तीनो गमक वक्तव्य हैं, इसी अणुत्तरविमाणेसु एवं चेव, नवरं-तिप्तु अनुत्तरविमानेषु एवं चैव, नवरम्-त्रिषु प्रकार यावत् ग्रैवेयक विमानों की वि आलावएस मिच्छादिट्ठी अपि आलापकेष मिथ्यादृष्टय वक्तव्यता। इसी प्रकार अनुत्तर विमानों की सम्मामिच्छादिट्ठी य न भण्णंति, सेसं सम्यमिथ्यादृष्टयः च न भण्यन्ते, शेषं वक्तव्यता, इतना विशेष है-तीनों तं चेव॥ तच्चैव। आलापकों में मिथ्यादृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि वक्तव्य नहीं हैं, शेष पूर्ववत्। ३८. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से नीललेस्से स नूनं भदन्त! कृष्णलेश्यः नीललेश्यः ३५. भंते! वे कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत् जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु यावत् शुक्ललेश्यः भूत्वा कृष्णलेश्येषु शुक्ललेश्या वाले होकर कृष्णलेश्या वाले देवेसु उववज्जंति ? देवेषु उपपद्यन्ते? देवों में उपपन्न होते हैं? हंता गोयमा ! एवं जहेव नेरइएसु पढमे हन्त गौतम! एवं यथैव नैरयिकेषु प्रथमे हां गौतम! इसी प्रकार प्रथम उद्देशक (१३/ उद्देसए तहेव भाणियव्वं । नीललेस्साए उद्देशके तथैव भणितव्यम्। नील- १८-२२) नैरयिकों की भांति वक्तव्य है। वि जहेव नेरइयाणं, जहा नीललेस्साए लेश्यायाम् अपि यथैव नैरयिकाणाम्, नीललेश्या वाले भी नैरयिकों की भांति एवं जाव पम्हलेस्सेसु, सुक्कलेस्सेसु एवं यथा नीललेश्यायां एवं यावत् पद्म- वक्तव्य हैं। जैसे नीललेश्या वाले, उसी चेव, नवरं-लेस्सहाणेसु विसुज्झमाणेसु लेश्येषु, शुक्ललेश्येषु एवं चैव, प्रकार यावत् पद्मलेश्या वाले, शुक्ललेश्या विसुज्झमाणेसु सुक्कलेस्सं परिणमंति, नवरम-लेश्यास्थानेषु विशुध्यमानेषु- वाले की वक्तव्यता। इतना विशेष है-लेश्या परिणमित्ता सुक्कलेस्सेसु देवेसु विशुध्यमानेषु शुक्ललेश्यां परिणमन्ति, स्थान की विशुद्धि होते-होते शुक्ललेश्या में उवतज्जंति। से तेणद्वेणं जाव परिणम्य शुक्ललेश्येषु देवेषु उपपद्यन्ते। परिणत होते हैं, परिणत होकर शुक्ललेश्या उववज्जति॥ तत् तेनार्थेन यावत उपपद्यन्ते। वाले देवों में उपपन्न होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-यावत् उपपन्न होते हैं। ३६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। ३६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल ४०. नेरइया णं भंते! अणंतराहारा, ततो निव्वत्तणया, एवं परियारणापदं निरवसेसं भाणियव्वं ॥ १. सूत्र ४० ४१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक संस्कृत छाया नैरयिकाः भदन्त ! अनन्तराहारा, ततः निर्वर्तनं, एवं परिचारणापदं निरवशेषं भणितव्यम् । नैरयिक उत्पात क्षेत्र की प्राप्ति के प्रथम समय में ही आहार भाष्य लेते हैं। उसके बाद शरीर की रचना करते हैं। इस विषय में प्रज्ञापना का परिचारणा पद द्रष्टव्य है। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ॥ हिन्दी अनुवाद ४०. भंते! नैरयिक अनन्तर आहारक, उसके पश्चात् शरीर की निष्पत्ति, इसी प्रकार परिचारणा- पद (प्रज्ञापना पद ३४ ) निरवशेष वक्तव्य है। ४१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक हिन्दी अनुवाद मूल संस्कृत छाया नरय-नेरइयाणं अपमहंत-पदं नरक-नैरयिकानाम् अल्पमहत्-पदम् ४२. कति णं भंते ! पुढवीओ कति भदन्त! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं गौतम! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाजहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा॥ रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमी। नरक और नैरयिकों में अल्प-महत् पद ४२. भंते! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम! पृथ्वियां सात प्रज्ञप्त हैं, जैसे रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमी। ४३. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंच अधःसप्तम्यां भदन्त! पृथिव्यां पञ्च ४३. भंते! अधःसप्तमी पृथ्वी के पांच अनुत्तर अणुत्तरा महतिमहालया महानिरया अनुत्तराः महामहान्तः । महानिरयाः । विशालतम महानरक प्रज्ञप्त हैं, जैसे-काल, पण्णत्ता, तं जहा-काले, महाकाले, प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कालः, महाकालः, महाकाल, रोरुक, महारोरुक, अप्रतिष्ठान। रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे। ते णं रोरुकः, महारोरुकः, अप्रतिष्ठानः। ते वे नरक षष्ठी तमा पृथ्वी के नरकों से नरगा छट्टीए तमाए पुढवीए नरएहितो नरकाः षष्ठ्याः तमायाः पृथिव्याः । महत्तर-अधिक लम्बाई वाले हैं, महामहत्तरा चेव, महावित्थिण्णतरा चेव, नरकेभ्यः महत्तराः चैव, महा- विस्तीर्णतर-अधिक चौड़ाई वाले हैं, महामहोगासतरा चेव, महापइरिक्कतरा विस्तीर्णतराः चैव, महावकाशतराः अवकाशतर हैं, महा प्रतिरिक्ततर-अधिक चेव, नो तहा महप्पवेसणतरा चेव, चैव, महाप्रतिरिक्ततराः चैव, नो तथा एकान्त वाले हैं, तमा की भांति आइण्णतरा चेव, आउलतरा चेव, महाप्रवेशनतराः चैव, आकीर्णतराः चैव, महाप्रवेशनतर नहीं हैं, आकीर्णतर नहीं हैं, अणोमाणतरा चेव। आकुलतराः चैव, अनवमानतराः चैव। आकुलतर नहीं हैं, अनवमानतर नहीं हैं-अतिशय रूप से भरे हुए नहीं हैं। तेसु णं नरएसु नेरइया छट्ठीए तमाए तेषु नरकेषु नैरयिकाः षष्ठ्याः तमायाः अधःसप्तमी के नरकावासों के नैरयिक छठी पुढवीए नेरइएहितो महाकम्मतरा चेव, पृथिव्याः नैरयिकेभ्यः महाकर्मतराः चैव, तमा पृथ्वी के नैरयिकों से महाकर्मतर हैं, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, महाक्रियातराः चैव, महाश्रवतराः चैव, महाक्रियातर हैं, महाआश्रवतर हैं, महावेदणतरा चेव, नो तहा अप्प- महावेदनातराः चैव, नो तथा महावेदनतर हैं, वैसे अल्पकर्मतर नहीं हैं, कम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अल्पकर्मतराः चैव, अल्पक्रियातराः चैव, अल्पक्रियातर नहीं हैं, अल्पआश्रवतर नहीं अप्पासवतरा चेव, अप्पवेदणतरा चेव, अल्पाश्रवतराः चैव, अल्पवेदनातराः हैं, अल्पवेदनतर नहीं हैं, अल्पर्द्धिकतर हैं, अप्पिड्डियतरा चेव, अप्पजुतियतरा चैव, अल्पर्धिकतराः चैव, अल्पद्युति- अल्प द्युतिकतर हैं, वैसे महर्द्धिकतर नहीं हैं, चेव, नो तहा महिड्डियतरा चेव, कतराः चैव, नो तथा महर्धिकतराः चैव, महाद्युतिकतर नहीं हैं। महज्जुतियतरा चेव। महाद्युतिकतराः चैव। छट्ठीए णं तमाए पुढवीए एगे पंचूणे षष्ट्यां तमायां पृथिव्याम् एकं पञ्चोनं षष्ठी तमा पृथ्वी के पांच कम एक लाख-नौ निरयावाससयसहस्से पण्णत्ते। ते ण निरयावासशतसहसं प्रज्ञप्तम्। ते नरकाः सौ पिचानवें नरकावास प्रज्ञप्त हैं। वे नरक नरगा अहेसत्तमाए पुढवीए नरएहितो अधःसप्तम्याः पृथिव्याः नरकेभ्यः नो अधःसप्तमी पृथ्वी के नरक जैसे महत्तर नहीं नो तहा महत्तरा चेव, महा- तथा महत्तराः चैव, महाविस्तीर्णतराः हैं, महाविस्तीर्णतर नहीं हैं, महा वित्थिण्णतरा चेव, महोगासतरा चेव, चैव, महावकाशतराः चैव, महा- अवकाशतर नहीं हैं, महाप्रतिरिक्ततर नहीं महापइरिक्कतरा चेव, महप्पवेसणतरा प्रतिरिक्ततराः चैव, महाप्रवेशनतराः हैं, महाप्रवेशनतर हैं, आकीर्णतर हैं, चेव, आइण्णतरा चेव, आउलतरा । चैव, आकीर्णतराः चैव, आकुलतराः आकुलतर हैं, अनवमानतर हैं। चेव, अणोमाणतरा चेव। चैव, अनवमानतराः चैव। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई तेसु णं नरएसु नेरइया अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहिंतो अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेदणतरा चेव, नो तहा महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चैव, महासवतरा चैव, महावेदणतरा चेव, महिडियतरा चेव, महज्जुइयतरा चेव, नो तहा अपिडियतरा चेव, अप्पजुइयतरा चेव । छट्टीए णं तमाए पुढवीए नरगा पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नरएहिंतो महत्तरा चेव, महावित्थिष्णतरा चेव, महोगासतरा चेव, महापरिक्कतरा चेव, नो तहा महष्पवेसणतरा चेव आइण्णतरा चेव आउलतरा चेव, अणोमाणतरा चेव । तेसु णं नरएसु नेरइया पंचमाए धूमष्पभाए पुढवीए नेर एहिंतो महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा चेव, महासवतरा चेव, महावेदणतरा चेव, नो तहा अप्पकम्मतरा चेव, अप्पकिरियतरा चेव, अप्पासवतरा चेव, अप्पवेदणतरा चेव, अपिडियतरा चेव, अप्पजुतियतरा चेव, नो तहा महड्डियतरा चेव, महज्जुतियतरा चेव । पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिण्णि निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । एवं जहा छट्टीए भणिया एवं सत्त वि पुढवीओ परोप्परं भण्णंति जाव रयणप्पभंति जाव नो तहा महड्डियतरा चेव, अप्पजुतियतरा चैव ॥ १. सूत्र ४३ शब्द विमर्श महत्तर - लंबाई में बड़ा । महावित्थिण्णतर-चौड़ाई में बड़ा । महोगासतरा- महान् अवकाशतर । महापरिक्कतरा – महान् एकांत वाला। १२७ तेषु नरकेषु नैरयिकाः अधः सप्तम्याः पृथिव्याः नैरयिकेभ्यः अल्पकर्मतराः चैव, अल्पक्रियातराः चैव, अल्पाश्रवतराः चैव, अल्पवेदनातराः चैव, नो तथा महाकर्मतराः चैव, महाक्रियातराः चैव, महाश्रवतराः चैव, महावेदनातराः चैव महर्धिकतराः चैव, महाद्युतिकतराः चैव, नो तथा अल्पर्धिकतराः चैव, अल्पद्युतिकतराः चैव । षष्ट्यां तमायां पृथिव्यां नरकाः पञ्चम्याः धूमप्रभायाः पृथिव्याः नरकेभ्यः महत्तराः चैव, महाविस्तीर्णतराः चैव, महावकाशतराः चैव, महाप्रतिरिक्ततराः चैव, नो तथा महाप्रवेशनतराः चैव, आकीर्णतराः चैव, आकुलतराः चैव, अनवमानतराः चैव । तेषु नरकेषु नैरयिकाः पञ्चम्याः धूमप्रभायाः पृथिव्याः नैरयिकेभ्यः महाकर्मतराः चैव महाक्रियातराः चैव महाश्रवतराः चैव, महावेदनातराः चैव, नो तथा अल्पकर्मतराः चैव अल्पक्रियातराः चैव, अल्पाश्रवतराः चैव, अल्पवेदनातराः चैव अल्पर्धिकतराः चैव, अल्पद्युतिकतराः चैव, नो तथा महर्धिकतराः चैव, महाद्युतिकतराः चैव । पञ्चम्याः धूमप्रभायाः पृथिव्याः त्रीणि निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । एवं यथा षष्ठ्यां भणिताः एवं सप्त अपि पृथिव्यः परस्परं भण्यन्ते यावत् रत्नप्रभायाम् इति यावत् नो महर्धिकतराः चैव, अल्पद्युतिकतराः चैव । भाष्य श. १३ : उ. ४ : सू. ४३ उन नरकों के नैरयिक अधः सप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों से अल्पकर्मतर हैं, अल्पक्रियातर हैं, अल्पआश्रवतर हैं, अल्पवेदनतर हैं, वैसे महाकर्मतर नहीं हैं, महाक्रियातर नहीं हैं, महाआश्रवतर नहीं हैं, महावेदनतर नहीं हैं, महर्द्धिकतर हैं, महाद्युतिकतर हैं वैसे अल्पर्द्धिकतर नहीं हैं, अल्पद्युतिकतर नहीं हैं। छट्टी तमा पृथ्वी के नरक पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के नरकों से महत्तर हैं, महाविस्तीर्णतर हैं, महाअवकाशतर हैं, महाप्रतिरिक्ततर हैं, वैसे महाप्रवेशनतर नहीं हैं, आकीर्णतर नहीं हैं, आकुलतार नहीं हैं, अनवमानतर नहीं हैं-अतिशय रूप से भरे हुए नहीं हैं। उन नरकों के नैरयिक पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों से महाकर्मतर हैं, महाक्रियातर हैं, महाआश्रवतर हैं, महावेदनतर हैं, वैसे अल्पकर्मतर नहीं हैं, अल्पक्रियातर नहीं हैं, अल्पआश्रवतर नहीं हैं, अल्पवेदनतर नहीं हैं, अल्पर्द्धिकतर हैं, अल्पद्युतिकतर हैं, वैसे महर्द्धिकतर नहीं हैं, महाद्युतिकतर नहीं हैं। पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के तीन लाख नरकावास प्रज्ञप्त हैं। इस प्रकार जैसे छठी नरक की वक्तव्यता वैसे ही सात पृथ्वियां परस्पर वक्तव्य हैं यावत् रत्नप्रभा तक यावत् वैसे महर्द्धिकतर नहीं हैं, अल्प द्युतिकतर हैं। महापवेसणतरा-छठे नरक तमा में जितने जीवों का प्रवेश होता है, सातवी पृथ्वी में उससे असंख्य गुण हीन होता है, इस दृष्टि से 'नो महापवेसणतर' बतलाया गया है। महाप्रवेशतर नहीं है इसलिए वे नरकावास नरक जीवों से अत्यंत आकीर्ण नहीं हैं, आकुल नहीं हैं, अतिशय रूप से भरे हुए नहीं हैं। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श. १३ : उ. ४ : सू. ४४,४५ भगवई नेरइयाणं फासाणुभव-पदं नैरयिकाणां स्पर्शानुभव-पदम् नैरयिकों का स्पर्शानुभव-पद ४४. रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः भदन्त! ४४. भंते ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस केरिसयं पुढविफासं पञ्चणुन्भवमाणा कीदृशकं पृथिवीस्पर्श प्रत्यनुभवन्तः प्रकार के पृथ्वीस्पर्श का प्रत्यनुभव करते हुए विहरंति ? विहरन्ति? विहरण करते हैं? गोयमा ! अणिढे जाव अमणामं। एवं गौतम! अनिष्टं यावत् 'अमणाम'। एवं गौतम! अनिष्ट यावत् अमनोहर। इसी जाव अहेसत्तमपुढविनेरइया। एवं यावत् अधःसप्तमीपृथिवीनैरयिकाः। एवं प्रकार यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों आउफासं, एवं जाव वणस्सइफासं॥ अप्-स्पर्श एवं यावत् वनस्पति- की वक्तव्यता। इसी प्रकार जल-स्पर्श, स्पर्शम्। इसी प्रकार यावत् वनस्पति का स्पर्शी भाष्य १. सूत्र ४४ दी गई है। इस विषय में प्रश्न उपस्थित होता है-नरक में बादर अनिष्ट आदि के लिए द्रष्टव्य भगवई १/३५७ । तैजसकाय की सत्ता नहीं है इसलिए तैजसकायिक स्पर्श का ग्रहण अप्कायिक स्पर्श के बाद 'एवं जाव वणस्सइ फासं' सूत्र है। युक्ति संगत नहीं है। सूक्ष्म तैजसकाय की सत्ता है पर वह सामान्यतः इस सूत्र से तेउफासं और वाउफासं-तैजस स्पर्श और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय नहीं बनता। इस प्रश्न का समाधान वायुस्पर्श का ग्रहण किया जाता है। जीवाजीवाभिगम में इन दोनों अभयदेवसूरि ने बहुत युक्तिसंगत किया है-नरक में तैजसकायिक की का स्पष्ट उल्लेख नहीं है।' अभयदेवसूरि ने लिखा है-यावत् पाठ के भांति ज्वलनधर्मा अग्नि है। उसका स्पर्श होता है। साक्षात् द्वारा तैजसकायिक स्पर्श सूत्र और वायुकायिक स्पर्श सूत्र की सूचना तैजसकायिक का स्पर्श असंभव है। नरकों का बाहल्य-क्षुद्रत्व पद ४५. भंते ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी की अपेक्षा विस्तार में सर्वथा महती है ? सब प्रान्त-भागों में सर्वथा छोटी है? नरयाणं बाहल्ल-खुडत्त-पदं नरकाणां बाहल्य-'खुडत्त'-पदम् ४५. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी दोचं इयं भदन्त! रत्नप्रभापृथिवी द्वितीयां सक्करप्पभं पुढविं पणिहाय शर्कराप्रभां पृथिवीं प्रणिधाय सर्वमहती सब्वमहंतिया बाहल्लेणं, सव्वखुड्डिया बाहल्येन, सर्व 'खुड्डिया' सर्वान्तेषु? सव्वंतेसु ? हंता गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा- हन्त गौतम! इयं रत्नप्रभापृथिवी पुढवी दोचं पुढविं पणिहाय जाव द्वितीयां पृथिवीं प्रणिधाय यावत् सर्व सब्वखुड्डिया सव्वतेसु। 'खुड्डिया' सर्वान्तेषु। हां गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी की अपेक्षा विस्तार में सर्वथा महती है, सर्व प्रान्त-भागों में सर्वथा छोटी भंते ! दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी की अपेक्षा विस्तार में सर्वथा महती है ? पृच्छा। दोचा णं भंते! पढवी तचं पढविं द्वितीया भदन्त! पृथिवी तृतीयां पृथिवीं पणिहाय सब्वमहंतिया बाहल्लेणं- प्रणिधाय सर्वमहती बाहल्येन-पृच्छा। पुच्छा। हंता गोयमा! दोचा णं पुढवी जाव हन्त गौतम! द्वितीया पृथिवी यावत् सब्वखुड्डिया सव्वंतेसु। एवं एएणं सर्व 'खुड्डिया' सर्वान्तेषु। एवम् एतेन अभिलावेणं जाव छट्ठिया पुढवी __ अभिलापेन यावत् षष्ठिका पृथिवी अहेसत्तमं पुढविं पणिहाय जाव अधःसप्तमीं पृथिवीं प्रणिधाय यावत् सर्व सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु॥ 'खुड्डिया' सर्वान्तेषु। हां गौतम ! दूसरी पृथ्वी यावत् सर्व प्रान्त भागों में सर्वथा छोटी है। इस अभिलाप के द्वारा यावत् छठी पृथ्वी अधःसप्तमी पृथ्वी की अपेक्षा यावत् सर्व प्रान्त-भागों में सर्वथा छोटी है। भाष्य १. सूत्र ४५ सर्वान्तों-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं में उसकी लंबाईरत्नप्रभा मोटाई में एक लाख अस्सी हजार योजन वाली है। चौड़ाई एक रज्जु प्रमाण है।' १. जीवा. ३/१२३। तेजरकायिकस्येव परमाधार्मिकविनिर्मित ज्वलनसदृशवस्तुनः स्पर्शः २. भ. वृ. सू. १३/४४-इह यावत्करणात्तैजसकायिकस्पर्शसूत्रं वायुकायिक- तेजस्कायिकस्पर्श इति व्याख्येयं न तु साक्षात् तेजस्कायिकस्यैव स्पर्शसूत्रं च सूचितं, तत्र च कश्चिदाह ननु सप्तस्वपि पृथिवीषु असंभवात्। तेजस्कायिकवर्ज पृथिवीकायिकादिस्पर्शों नारकाणां युक्तः तेषां ताषु ३. भ. वृ. सू. १३/४५-सर्वथा महती अशीतिसहस्राधिकयोजनलक्षप्रमाणविद्यमानत्वात् बादरतेजसां तु समयक्षेत्र एव सद्भावात् सूक्ष्मतेजसां त्यात् रत्नप्रभावाहल्यस्य शर्कराप्रभाबाहल्यस्य च द्वात्रिंशत्सहस्राधिकपुनस्तत्र सद्भावेपि स्पर्शनेन्द्रियाविषयत्वादिति? अत्रोच्यते, इह च योजनलक्षमानत्वात्। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १२६ श. १३ : उ. ४ : सू. ४६-४८ द्रष्टव्य यंत्रनरक रत्नप्रभा शर्कराप्रभा बालुकाप्रभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा अधःसप्तमी बाहल्य १८०००० योजन १३२००० योजन १२८००० योजन १२०००० योजन ११८००० योजन ११६००० योजन १०८००० योजन निरयपरिसामंत-पदं निरयपरिसामन्त-पदम् नरक-परिसामन्त-पद ४६. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अस्यां भदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां ४६. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी नरक के निरयपरिसामंतेसु जे पुढविक्काइया निरयपरिसामन्तेषु ये पृथिवीकायिकाः पार्श्वभागों में जो पृथ्वीकायिक यावत् जाव वणस्सइकाइया तेणं जीवा यावत् वनस्पतिकायिकाः ते जीवाः । वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे जीव महाकम्मतरा चेव, महाकिरियतरा महाकर्मतराः चैव, महाक्रियातराः चैव, महाकर्मतर हैं? महाक्रियातर हैं? चेव, महासवतरा चेव, महावेदणतरा महाश्रवतराः चैव, महावेदनातराः चैव? महाआश्रवतर हैं ? महावेदनतर हैं ? चेव? हंता गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए हन्त गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां हां गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी नरक के पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं चेव जाव निरयपरिसामन्तेषु तत् चैव यावत् पार्श्वभागों में जो पृथ्वीकायिक यावत् महावेदणतरा चेव। एवं जाव महावेदनातराः चैव। एवं यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे महाकर्मतर अहेसत्तमा॥ अधःसप्तमी। यावत् महावेदनतर हैं। इस प्रकार यावत् अधःसप्तमी की वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र ४६ किया है, उसमें आउकाइया के पश्चात् तेउकाइया पाठ भी पुढविकाइया जाव वणस्सइ काइया-इस सूत्र में यावत् पद के उल्लिखित है। यहां विमर्श आवश्यक है। तैजसकायिक पद के द्वारा द्वारा आउकाइया, वाउकाइया-ये दो पद ग्रहणीय हैं। यदि सूक्ष्म तैजसकायिक जीवों का ग्रहण हो सकता है क्योंकि नरक में 'तेउकाइया' पाठ का ग्रहण करें तो 'सुहुम तेउकाइया'-इस पाठ का बादर तैजसकायिक का सद्भाव नहीं है। ग्रहण किया जा सकता है। वृत्तिकार ने जीवाभिगम का पाठ उद्धत लोगमज्झ-पदं लोकमध्य-पदम् लोकमध्य-पद ४७. कहि णं भंते ! लोगस्स आयाममज्झे कुत्र भदन्त! लोकस्य आयाममध्यं ४७. भंते ! लोक का आयाम-मध्य कहां प्रज्ञप्त पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तम्? गोयमा! इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए गौतम! अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अवकाशान्तर ओवासंतरस्स असंखेज्जइभाग अवकाशान्तरस्य असंख्येयतमभागम् के असंख्येय भाग का अवगाहन करने पर, ओगाहेत्ता, एथ णं लोगस्स अवगाह्य, अत्र लोकस्य आयाममध्यं वहां लोक का आयाम-मध्य प्रज्ञप्त है। आयाममज्झे पण्णत्ते। प्रज्ञप्तम्। ४८. कहि णं भंते ! अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ? गोयमा! चउत्थीए पंकप्पभाए ओवासंतरस्स सातिरेगं अद्धं ओगाहेत्ता, एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते॥ १. जीवा. ३/५ कुत्र भदन्त! अध:लोकस्य आयाममध्यं ४८. भंते ! अधोलोक का आयाम-मध्य कहां प्रज्ञप्तम्? प्रज्ञप्त है? गौतम! चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्याम् गौतम! चतुर्थ पंकप्रभा पृथ्वी के अवकाशान्तरस्य सातिरेकम् अर्द्धम् अवकाशान्तर के कुछ अधिक अर्द्धभाग का अवगाह्य, अत्र अधःलोकस्य अवगाहन करने पर, वहां अधोलोक का आयाममध्यं प्रज्ञप्तम्। आयाम-मध्य प्रज्ञप्त हैं। २. पृ. प. १३/४६ , Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० भगवई श. १३ : उ. ४ : सू. ४६-५२ ४६. कहि णं भंते! उद्दलोगस्स कुत्र भदन्त! ऊर्ध्वलोकस्य आयाममध्यं आयाममज्झे पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तम्? गोयमा! उप्पिं सणंकुमारमाहिंदाणं गौतम! उपरि सनत्कुमारमाहेन्द्राणां कप्पाणं हेटिं बंभलोए कप्पे रिट्ठविमाणे कल्पानाम् अधः ब्रह्मलोके अरिष्टविमानं पत्थडे, एत्य णं उद्दलोगस्स। प्रस्तृतम्, अत्र ऊर्ध्वलोकस्य आयाममज्झे पण्णत्ते॥ आयाममध्यं प्रज्ञप्तम्। ४६. भंते ! ऊर्ध्वलोक का आयाम-मध्य कहां प्रज्ञप्त है? गौतम ! सनत्कुमार माहेन्द्रकल्प के ऊपर ब्रह्मलोक कल्प अरिष्ट विमान प्रस्तर के नीचे वहां ऊर्ध्वलोक का आयाम-मध्य प्रज्ञप्त है। ५०. कहि णं भंते ! तिरियलोगस्स कुत्र भदन्त! तिर्यग्लोकस्य आयाममध्यं ५०. भंते ! तिर्यक्लोक का आयाम-मध्य कहां आयाममज्झे पण्णत्ते? प्रज्ञप्तम्? प्रज्ञप्त है? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पवर्तस्य गौतम ! जंबूद्वीपद्वीप के मंदर पर्वत के पव्वयस्स बहुमज्झदेसभाए इमीसे बहुमध्यदेशभागे अस्याः रत्नप्रभायाः बहुमध्य देश-भाग में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेहिल्लेसु पृथिव्याः उपरितनाधस्तनेषु 'खुड्डग' उपरितन और अधस्तन इन दोनों क्षुल्लक खुडगपयरेसु, एत्थ णं तिरियलोग- प्रतरेषु, अत्र तिर्यग्लोकमध्ये प्रतरों में, तिर्यक्लोक का मध्य है वहां आठ मज्झे अट्ठपएसिए रुयए पण्णत्ते, जओ अष्टप्रदेशिक: रुचकः प्रज्ञप्तः, यतः रुचक प्रदेश प्रज्ञप्त हैं, जहां से ये दस दिशाएं णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तं इमाः दश दिशाः प्रवहन्ति, तद्यथा- निकलती हैं, जैसेजहा१. पुरत्थिमा २. पुरथिमदाहिणा १. पौरस्त्या २. पौरस्त्य-दक्षिणा १.पूर्व २. पूर्व-दक्षिण ३. दक्षिण ४. दक्षिण३. दाहिणा ४. दाहिणपचत्थिमा ३. दक्षिणा ४. दक्षिण-पाश्चात्या पश्चिम ५. पश्चिम ६. पश्चिम-उत्तर ५. पचत्थिमा ६. पचत्थिमुत्तरा ५. पाश्चात्या ६. पौरस्त्य-उत्तरा ७. उत्तर ८. उत्तर-पूर्व .. ऊर्ध्व १०. अधः। ७. उत्तरा ८. उत्तरपुरस्थिमा ६. उद्दा ७. उत्तरा ८. उत्तर-पौरस्त्या ६. ऊर्ध्वा १०. अहो॥ १०. अधः।। ५१. एयासिणं भंते ! दसण्हं दिसाणं कति नामधेज्जा पण्णत्ता ? गोयमा ! दस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहाइंदा अग्गेयी जमा य, नेरई वारुणी य वायव्वा। सोमा ईसाणी या, विमला य तमा य बोद्धब्वा॥१॥ एतासां दशानां दिशानां कति ५१. भंते ! इन दस दिशाओं के कितने नाम नामधेयानि प्रज्ञप्तानि? प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! दश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! दस नाम प्रज्ञप्त हैं जैसेतद्यथा इन्द्रा आग्नेयी यमा च, इन्द्रा, आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋति, वारुणी, नैर्ऋती वारुणी च वायव्या। वायव्या, सोमा, ईशानी, विमला और तमा सोमा ऐशानी च, ज्ञातव्य है। विमला च तमा च बोद्धन्या॥ ५२. इंदा णं भंते दिसा किमादीया, इन्द्रा भदन्त! दिशा किमादिका, किं- ५२. भंते ! इंद्रा दिशा का आदि स्रोत क्या है ? किंपवहा, कतिपदेसादीया, प्रवहा, कतिप्रदेशादिका, कतिकतिपदेसादीया, वह कहां से प्रवाहित है? आदि में उसके कतिपदेसुत्तरा, कतिपदेसिया, प्रदेशोत्तरा, कतिप्रदेशिका, कितने प्रदेश हैं? उत्तरोत्तर कितने प्रदेशों किंपज्जवसिया, किंसंठिया पण्णत्ता? किंपर्यवसिता,किंसंस्थिता प्रज्ञप्ता? की वृद्धि होती हैं? उसके कितने प्रदेश हैं? क्या वह पर्यवसित है? उसका संस्थान क्या गोयमा! इंदा णं दिसा रुयगादीया, गौतम! इन्द्रा दिशा रुचकादिका, रुयगप्पवहा, दुपएसादीया, दुपएसुत्तरा, रुचकप्रवहा, द्विप्रदेशादिका, लोगं पडुच्च असंखेज्जपएसिया, अलोगं द्विप्रदेशोत्तरा, लोकं प्रतीत्य पडुच्च अणंतपएसिया, लोगं पडुच असंख्येयप्रदेशिका, अलोकं प्रतीत्य सादीया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च अनन्तप्रदेशिका, लोकं प्रतीत्य सादिका सादीया अपज्जवसिया, लोगं पडुच सपर्यवसिता, अलोकं प्रतीत्य सादिका मुरवसंठिया, अलोगं पडुच अपर्यवसिता, लोकं प्रतीत्य मुरज गौतम ! इंद्रा दिशा का आदि स्रोत रुचक है। वह रुचक से प्रवाहित है, आदि में दो प्रदेश वाली है, उत्तरोत्तर दो दो प्रदेश की वृद्धि वाली है। लोक की अपेक्षा असंख्येय प्रदेश हैं, अलोक की अपेक्षा अनन्त प्रदेश हैं। लोक की अपेक्षा सादि-सपर्यवसित है। अलोक की अपेक्षा सादि-अपर्यवसित है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३१ श. १३ : उ. ४ : सू. ५३-५४ सगडुद्धिसंठिया पण्णत्ता॥ संस्थिता, अलोकं प्रतीत्य 'शकरोद्धि' संस्थिता प्रज्ञप्ता। लोक की अपेक्षा मुरज संस्थान वाली, अलोक की अपेक्षा शकट-उद्धि संस्थान वाली प्रज्ञप्त है। ५३. अग्गेयी णं भंते ! दिसा किमादीया, आग्नेयी भदन्त! दिशा किमादिका, ५३. भंते! आग्नेयी दिशा का आदि स्रोत क्या किंपवहा, कतिपएसादीया, कतिपएस- किंप्रवहा, कतिप्रदेशादिका, कतिप्रदेश- है? वह कहां से प्रवाहित है? आदि में वित्थिण्णा, कतिपएसिया, किंपज्जव. विस्तोर्णा, कतिप्रदेशिका, किंपर्यवसिता, कितने प्रदेश हैं? कितने प्रदेश का विस्तार सिया, किंसंठिया पण्णत्ता ? किंसंस्थिता प्रज्ञप्ता? है? उसके कितने प्रदेश हैं? क्या वह पर्यवसित है? संस्थान क्या है? गोयमा ! अग्गेयी णं दिसा रुयगादीया, गौतम! आग्नेयी दिशा रुचकादिका, गौतम! आग्नेयी दिशा का आदि स्रोत रुयगप्पवहा, एगपएसादीया एगपएस- रुचकप्रवहा, रुचकप्रदेशादिका, एक- रुचक है। वह रुचक से प्रवाहित है। आदि वित्थिण्णा-अणुत्तरा, लोगं पडुच्च प्रदेशविस्तीर्णा-अनुत्तरा, लोकं प्रतीत्य में एक प्रदेश है। एक प्रदेश का विस्तार है। असंखेज्जपएसिया, अलोगं पडुच्च असंख्येयप्रदेशिका, अलोकं प्रतीत्य उसके उत्तरोत्तर प्रदेश की वृद्धि नहीं होती। अणंतपएसिया, लोगं पडुच्च सादीया अनन्तप्रदेशिका, लोकं प्रतीत्य सादिका लोक की अपेक्षा असंख्येय प्रदेश हैं। सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च सादीया सपर्यवसिता, अलोकं प्रतीत्य सादिका अलोक की अपेक्षा अनंत प्रदेश हैं। लोक अपज्जवसिया, छिण्णमुत्तावलिसंठिया अपर्यवसिता, छिन्नमुक्तावलिसंस्थिता की अपेक्षा सादि-सपर्यवसित है। अलोक पण्णत्ता। प्रज्ञप्ता। की अपेक्षा सादि-अपर्यवसित है। वह छिन्न मुक्तावलि संस्थान वाली प्रज्ञप्त है। जमा जहा इंदा, नेरई जहा यमा यथा इन्द्रा, नैर्ऋती यथा आग्नेयी।। याम्या इन्द्रा की भांति नैर्ऋति आग्नेयी की अग्गेयी। एवं जहा इंदा तहा दिसाओ एवं यथा इन्द्रा तथा दिशाः चतस्रः, यथा भांति वक्तव्य है। इस प्रकार इन्द्रा की चत्तारि, जहा अग्गेई तहा चत्तारि आग्नेयी तथा चतसः विदिशाः। भांति चार दिशाएं वक्तव्य हैं। आग्नेयी की विदिसाओ॥ भांति चार विदिशाएं वक्तव्य हैं। ५४. विमला णं भंते ! दिसा किमादीया, विमला भदन्त! दिशा किमादिका, ५४. भंते ! विमला दिशा का आदि स्रोत क्या किंपवहा, कतिपएसादीया, कतिपएस- किंप्रवहा, कतिप्रदेशादिका, कति- है? वह कहां से प्रवाहित है ? आदि में वित्थिण्णा, कतिपएसिया, किंपज्ज- प्रदेशविस्तीर्णा, कतिप्रदेशिका, कितने प्रदेश हैं ? कितने प्रदेश का विस्तार वसिया, किसंठिया पण्णत्ता? किंपर्यवसिता, किंसंस्थिता प्रज्ञप्ता? है? उसके कितने प्रदेश वाली हैं? क्या पर्यवसित है ? संस्थान क्या है ? गोयमा ! विमला णं दिसा रुयगादीया, गौतम! विमला दिशा रुचकादिका, गौतम ! विमला दिशा का आदि स्रोत रुचक रुयगप्पवहा, चउप्पएसादीया, दुपएस- रुचकप्रवहा, चतुःप्रदेशादिका, द्विप्रदेश- है। वह रुचक से प्रवाहित है। उसके आदि वित्थिण्णा-अणुत्तरा, लोगं पडुच्च विस्तीर्णा-अनुत्तरा, लोकं प्रतीत्य में प्रदेश चार हैं। दो प्रदेश का विस्तार है। असंखेज्जपएसिया, अलोगं पड़च असंख्येयप्रदेशिका. अलोकं प्रतीत्य उसके उत्तरोत्तर प्रदेश की वृद्धि नहीं होती अणंतपएसिया, लोगं पडुच्च सादीया। अनन्तप्रदेशिका, लोकं प्रतीत्यं सादिका लोक की अपेक्षा असंख्येय प्रदेश हैं। सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च सादीया सपर्यवसिता, अलोकं प्रतीत्य सादिका अलोक की अपेक्षा अनंत प्रदेश हैं। लोक अपज्जवसिया, रुयगसंठिया पण्णत्ता। अपर्यवसिता, रुचकसंस्थिता प्रज्ञप्ता। की अपेक्षा सादि-सपर्यवसित है। अलोक एवं तमा वि॥ एवं तमा अपि। की अपेक्षा सादि-अपर्यवसित है। वह रुचक संस्थान वाली प्रज्ञप्त है। इसी प्रकार तमा दिशा की वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र ४७-५४ दिशा के विषय में द्रष्टव्य भगवई १०/१-७ का भाष्य। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ५५-५६ लोय-पदं ५५. किमियं भंते! लोएत्ति पवचइ ? गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोएत्ति पच्चइ, तं जहा - धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिका आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए ॥ ५६. धम्मत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? गोयमा ! धम्मत्थिकाए णं जीवाणं आगमण-गमण भासुम्मेस-मणजोगवजोग- कायजोगा, जे यावण्णे तहप्पगारा चला भावा सव्वे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति । लक्खणे णं धम्मत्थिकाए ॥ ५७. अधम्मत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? गोयमा ! अधम्मत्थिकाए णं जीवाणं ठाण- निसीयण- तुयट्टण, मणस्स य एगत्तीभावकरणता, जे यावणे तहप्पगारा थिरा भावा सव्वे ते अधम्मथिका पवत्तंति । ठाणलक्खणे णं अधम्मत्थिकाए ॥ ५८. आगासत्थिकाए णं भंते! जीवाणं अजीवाण य किं पवत्तति ? गोयमा ! आगासत्थिकाए णं जीवदव्वाण य अजीवदव्वाण य भायणभूएएगेण वि से दोहि वि पुणे सयं पि माएज्जा । कोडिसएण वि पुणे, कोडसहसं पि माएज्जा ॥ १ ॥ अवगाहणालक्खणे णं आगासत्थिकाए ॥ ५६. जीवत्थिकाए णं भंते! जीवाणं किं पवत्तति ? गोयमा ! जीवत्थिकाए णं जीवे १३२ लोक-पदम् किमिदं भदन्त ! लोक इति प्रोच्यते ? गौतम! पञ्चास्तिकायाः, एष एतावान् लोक इति प्रोच्यते, तद्यथाधर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, जीवास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः । धर्मास्तिकाये भदन्त ! जीवानां किं प्रवर्तते ? गौतम! धर्मास्तिकाये जीवानाम् आगमन-गमन भाषोन्मेष मनोयोगवाक्योग काययोगाः, ये चाप्यन्ये तथा प्रकारा: चलाः भावाः सर्वे ते धर्मास्तिकाये प्रवर्तन्ते । गतिलक्षणः धर्मास्तिकायः । अधर्मास्तिकाये भदन्त ! जीवानां किं प्रवर्तते ? गौतम ! अधर्मास्तिकाये जीवानां स्थान- निषीदन- त्वग्वर्तनानि, मनसः च एकत्व भावकरणं, ये चाप्यन्ये तथाप्रकाराः स्थिराः भावाः सर्वे ते अधर्मास्तिकाये प्रवर्तन्ते । स्थानलक्षणः अधर्मास्तिकायः । आकाशास्तिकाये भदन्त ! जीवानाम् अजीवानाम् च किं प्रवर्तते? गौतम! आकाशास्तिकाये जीवद्रव्याणाम् अजीवद्रव्याणाम् च भाजनभूतः - स पूर्णः, एकेनापि द्वाभ्यामपि पूर्णः शतमपि मायात् । कोटिशतेनापि कोटिसहस्रमपि पूर्णः, मायात् ॥ अवगाहनालक्षणः आकाशास्तिकायः । जीवास्तिकाये भदन्त ! जीवानां किं प्रवर्तते ? गौतम ! जीवास्तिकाये जीवः भगवई लोक-पद ५५. भंते! लोक किसे कहा जाता है ? गौतम ! पांच अस्तिकाय हैं, जैसेधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय । यह पंचास्तिकाय जितने आकाश खंड में व्याप्त है, वह लोक कहलाता है। ५६. भंते ! धर्मास्तिकाय की सत्ता में जीवों का क्या प्रवर्तन होता है ? गौतम! धर्मास्तिकाय की सत्ता में जीवों का आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मन, योग, वचन योग, काययोग -ये तथा इस प्रकार के जितने चल (गत्यात्मक) भाव हैं, धर्मास्तिकाय की सत्ता में उन सबका प्रवर्तन होता है। गति धर्मास्तिकाय का लक्षण है। ५७. भंते! अधर्मास्तिकाय की सत्ता में जीवों का क्या प्रवर्तन होता है ? गौतम ! अधर्मास्तिकाय की सत्ता में जीवों की स्थिति, निषीदन, शयन, मन का एकत्व भावकरण-ये तथा इस प्रकार के जितने भी स्थिर (अगत्यात्मक) भाव हैं, अधर्मास्तिकाय की सत्ता में उन सबका प्रवर्तन होता है। स्थिति अधर्मास्तिकाय का लक्षण है। ५८. भंते! आकाशास्तिकाय की सत्ता में जीवों और अजीवों का क्या प्रवर्तन होता है ? गौतम ! आकाशास्तिकाय जीव द्रव्यों और अजीव द्रव्यों का भाजन भूत (आधारभूत ) है। आकाश का एक प्रदेश एक परमाणु से भर जाता है, दो परमाणु से भी भर जाता है, उसमें सौ भी समा जाते हैं। वह सौ करोड़ से भी भर जाता है, उसमें हजार करोड़ भी समा जाते हैं। अवगाहना आकाशास्तिकाय का लक्षण है। ५६. भंते ! जीवास्तिकाय की सत्ता में जीवों का क्या प्रवर्तन होता है ? गौतम ! जीवास्तिकाय की सत्ता में जीव Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३३ श. १३ : उ. ४ : सू. ६० अणंताणं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं, अनन्तानां आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाणाम, अणंताणं सुयनाणपज्जवाणं, अनन्तानां श्रुतज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं ओहिनाणपज्जवाणं, अनन्तानां अवधिज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं, अनन्तानां मनःपर्यवज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं केवलनाणपज्जवाणं, अनन्तानां केवलज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं मइअण्णाणपज्जवाणं, अनन्तानां मतिअज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं सुयअण्णाणपज्जवाणं, अनन्तानां श्रुतअज्ञानपर्यवाणाम्, अणताणं विभंगनाणपज्जवाणं, अनन्तानां विभङ्गज्ञानपर्यवाणाम्, अणंताणं चम्खुदंसणपज्जवाणं, अनन्तानां ___ चक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम्, अणंताणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं, अनन्तानां अचक्षुर्दर्शनपर्यवाणाम्, अणंताणं ओहिदंसणपज्जवाणं, अनन्तानां अवधिदर्शनपर्यवाणाम, अणंताणं केवलदसणपज्जवाणं उवयोगं । अनन्तानां केवलदर्शनपर्यवाणाम, गच्छति। उपयोगं गच्छति। उवयोगलक्खणे णं जीवे॥ उपयोगलक्षणः जीवः। अनंत आभिनिबोधिकज्ञान पर्यव, अनंत श्रुतज्ञान पर्यव, अनंत अवधिज्ञान पर्यव, अनंत मनःपर्यवज्ञान पर्यव, अनंत केवलज्ञान पर्यव , अनंत मतिअज्ञान पर्यव, अनंत श्रुतअज्ञान पर्यव, अनंत विभंगज्ञान पर्यव, अनंत चक्षुदर्शन पर्यव, अनंत अचक्षुदर्शन पर्यव, अनंत अवधिदर्शन पर्यव और अनंत केवलदर्शन पर्यव के उपयोग को प्राप्त होता उपयोग जीव का लक्षण है। ६०. पोग्गलत्थिकाए णं भंते! जीवाणं पुद्गलास्तिकाये भदन्त! जीवानां किं किं पवत्तति ? प्रवर्तते? गोयमा! पोग्गलत्थिकाएणं जीवाणं । गौतम! पुद्गलास्तिकाये जीवानाम् ओरालिय - बेउब्बिय . आहारातेया औदारिक - वैक्रिय - आहारक-तैजसकम्मा सोइंदिय-चक्विंदिय-घाणिदिय- कर्मक . श्रोत्रेन्द्रिय · चक्षुरिन्द्रियजिभिंदिय . फासिदिय - मणजोग- घ्राणेन्द्रिय - जिह्वेन्द्रिय - स्पर्शेन्द्रियवइजोग - कायजोग - आणापाणूणं च । मनोयोग - वागयोग - काययोग-आनागहणं पवत्तति। पानानां च ग्रहणं प्रवर्तते। गहणलक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए॥ ग्रहणलक्षणः पुद्गलास्तिकायः। ६०. भंते ! पुद्गलास्तिकाय की सत्ता में जीवों का क्या प्रवर्तन होता है ? गौतम ! पुद्गलास्तिकाय की सत्ता में जीव औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मनयोग, वचनयोग, काययोग और आनापान के ग्रहण का प्रवर्तन करता है। ग्रहण पुद्गलास्तिकाय का लक्षण है। भाष्य १. सूत्र ५५-६० अधर्मास्तिकाय स्थिति का माध्यम है। प्रस्तुत आलापक में पंचास्तिकाय के सदभाव में होने वाली गतिशील द्रव्य दो हैं-जीव और पुद्गल। प्रस्तुत आलापक प्रवृत्तियों का संग्रह किया गया है। में जीव की गति और स्थिति का उल्लेख किया गया है। स्थूल धर्मास्तिकाय का लक्षण गति है। विश्व में जितनी भी गति है, पुद्गल द्रव्य की गति पर-प्रेरित होती है किन्तु परमाणु तथा सूक्ष्म वह धर्मास्तिकाय के सद्भाव में होती है। वह गति का प्रवर्तक नहीं है परिणति वाले परमाणु-स्कंधों की गति स्वतः होती है। उनकी फिर भी उसका गति के साथ अविनाभाव संबंध है-धर्मास्तिकाय के गति और स्थिति के माध्यम भी धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय होने पर गति होती है, उसके न होने पर गति नहीं होती। गति की बनते हैं। लोक और अलोक की सीमा भी इन्हीं के आधार पर शक्ति जीव और पुद्गल-इन दो द्रव्यों में है। इनके सिवाय कोई भी होती है। द्रव्य गतिशील नहीं है। आकाश दो खण्डों में विभक्त हैजीव और पुद्गल में गति की शक्ति है फिर उन्हें किसी १. लोकाकाश माध्यम की आवश्यकता क्यों? यह प्रश्न सहज उपस्थित होता है। २. अलोकाकाश। व्याख्याकारों ने इसका एक दृष्टान्तात्मक उत्तर दिया है। मत्स्य में जिस आकाश खण्ड में गति और अगति के माध्यम द्रव्य हैं गति की शक्ति है फिर भी वह जल के माध्यम के बिना चल नहीं तथा गति करने वाले जीव और पुद्गल द्रव्य हैं, वह आकाश खण्ड सकता। यह दृष्टांत बहुत स्थूल है फिर भी इससे माध्यम की लोकाकाश है। जिस आकाश खण्ड में गति और अगति के माध्यम अनिवार्यता प्रदर्शित होती है। भौतिक माध्यम व्यापक नहीं हो द्रव्य नहीं हैं तथा गति करने वाले जीव और पुद्गल द्रव्य नहीं हैं, वह सकता इसलिए अभौतिक माध्यम की खोज जरूरी होती है। आकाश खण्ड अलोकाकाश है। धर्मास्तिकाय उस खोज का परिणाम हो सकता है। उमास्वाति ने अस्तिकाय की द्रव्य-संख्या, गति और प्रदेश Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ६१ संख्या पर विचार किया है। उनके अनुसार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय तीनों एक द्रव्य हैं, एक व्यक्तिक हैं। जीव और पुद्गल अनंत द्रव्य हैं, अनंत व्यक्तिक हैं। ' धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-ये तीनों निष्क्रिय हैं, गति शून्य है।' गति का माध्यम वही हो सकता है, जो स्वयं गति एवं स्थिति शून्य हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय गति शून्य हैं इसलिए वे गति के माध्यम हैं। आकाशास्तिकाय सब द्रव्यों के लिए आधार भूत है और व्यापक है इसलिए उसमें गति संभव नहीं है। गति का अर्थ है एक देश से दूसरे देश में जाना-देशाद् देशान्तरप्राप्तिः गतिः । आकाशास्तिकाय व्यापक है इसलिए उसमें गति का सिद्धांत घटित नहीं होता। आकाश का लक्षण है अवगाह । अवगाहन के नियम विचित्र हैं। आकाश का एक प्रदेश एक परमाणु से भी भर जाता है, दो परमाणु भी उसमें समा जाते हैं, सौ परमाणु भी समा जाते हैं, सैकड़ों कोटि परमाणु भी उसमें समा जाते हैं और हजारों कोटि परमाणु भी उसमें समा जाते हैं। उत्कृष्टतः अनंत प्रदेशी स्कन्ध भी समा जाते हैं। वृत्तिकार ने इसका हेतु बतलाया है पुद्गल के परिणमन की विचित्रता । उन्होंने अपने वक्तव्य का समर्थन दो उदाहरणों के द्वारा किया है १. जैसे एक कक्ष के आकाश को एक दीप की रश्मियां भी भर देती हैं, सौ दीपकों का प्रकाश भी उसमें समा जाता है।" २. जैसे जड़ी बूटियों के प्रयोग से एक तोला पारद में सौ तोला सोना समा जाता है। पुनः जड़ी बूटियों के प्रयोग से एक तोला पारद से सौ तोला सोना पृथक् किया जा सकता है। धम्मत्थिकायादीणं परोप्परं फास-पदं ६१. एगे भंते! धम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? गोयमा ! जहण्णपदे तिहिं, उक्कोसपदे छीिं । केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? जहण्णपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं । haतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? सत्तहिं । १. त. सू. ५/५ । २. त. सू. ५/६ । ३. भ. २५/१४७ - १४८ । १३४ ४. भ. वृ. सू. १३/५८-यथापवरकाकाशमेकप्रदीपप्रभापटलेनाऽपि पूर्यते । द्वितीयमपि तत्तत्र माति। यावच्छतमपि तेषां तत्र माति । ५. भ. वृ. सू. १३/५८ - तथौषधिविशेषापादितपरिणामादेकत्रपारदकर्षे सुवर्णकर्षशतं प्रविशति । पारदकर्षीभूतं च सदौषधिसामर्थ्यात् पुनः पारदस्य भगवई क्षेत्र की अपेक्षा द्रव्य अधिक सूक्ष्म होता है। इसलिए एक आकाश-प्रदेश में अनंतप्रदेशी स्कंध भी समा जाता है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने काल, क्षेत्र, द्रव्य और भाव की सूक्ष्मता पर विचार किया है। उनके अनुसार काल सूक्ष्म होता है। काल से क्षेत्र अधिक सूक्ष्म, क्षेत्र से द्रव्य और अधिक सूक्ष्म होता है। पर्याय द्रव्य से भी अधिक सूक्ष्म होते हैं।' क्षेत्र से द्रव्य सूक्ष्म है, इस आधार पर एक आकाश प्रदेश में अनंत प्रदेशी स्कन्ध के समाने का सिद्धांत समझा जा सकता है। जीवास्तिकाय है इसलिए जीव ज्ञान और दर्शन की प्रवृत्ति करता है। ज्ञान और दर्शन के अनंत पर्याय हैं। उन पर्यायों के आधार पर वह ज्ञेय को जानने के लिए प्रवृत्त होता है। पुद्गलास्तिकाय की सत्ता है इसीलिए जीव के शरीर और इन्द्रिय की रचना, योग की प्रवृत्ति तथा आनापान का ग्रहण होता है। दूसरे शतक में ग्रहण का अर्थ समुदित होना किया गया है। " पृथक् होना तथा समुदित होना-यह पुद्गल की विशेषता है। अन्य द्रव्य परस्पर संबंध स्थापित नहीं कर सकते। अन्य द्रव्यों में परस्पर संबंध और विसंबंध नहीं होता। एक: धर्मास्तिकायादीनां परस्परं स्पर्श-पदम भदन्त ! धर्मास्तिकायप्रदेश: कियद्भिःः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? गौतम ! जघन्यपदे त्रिभिः, उत्कर्षपदे षड्भिः । कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? जघन्यपदे चतुर्भिः, उत्कर्षपदे सप्तभिः । कियद्भिः आकाशास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? सप्तभिः । ग्रहण का वैकल्पिक अर्थ ग्राह्य भी किया जा सकता है। उत्तराध्ययन में ग्रहण शब्द का प्रयोग ग्राहक और ग्राह्य- इन दोनों अर्थों में किया गया है। चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति - इस पद में ग्रहण का प्रयोग ग्राह्य के अर्थ में किया गया है।" रूवस्स चक्खु गहणं वयंति - इस पद में ग्रहण का प्रयोग ग्राहक के अर्थ में किया गया है। तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई २ / १२४-१३५, ७/२१२२१६, तथा १८ / १३४ - १४२ । कर्षः सुवर्णस्य च कर्षशतं भवति विचित्रत्वात् पुद्गलपरिणामस्येति । ६. (क) विशेषावश्यक भाष्य गाथा ६२१-६२३। (ख) नंदी १८/८ का टिप्पण | ७. भ. २ / १२६ । ८. उत्तर. ३२ / २२ 1 ६. उत्तर. ३२ / २३। धर्मास्तिकाय आदि का परस्पर स्पर्श-पद ६१. भंते! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? गौतम ! जघन्य-पद में तीन से, उत्कृष्टपद में छह से स्पृष्ट है। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? जघन्य-पद में चार से, उत्कृष्ट-पद में सात से। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? सात से। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ६२,६३ जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? अनंत से। पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट भगवई १३५ केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? अणतेहिं। अनन्तैः। केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपदेसेहिं पट्टे ? । कियद्भिः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? अणंतेहि। अनन्तैः। केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुढे ? कियद्भिः अद्धासमयैः स्पृष्टः? । सिय पुढे सिय नो पुढे, जइ पुढे नियम स्यात् स्पृष्टः स्यात् नो स्पृष्टः, यदि अणंतेहिं॥ स्पृष्टः नियमम् अनन्तैः। अनन्त से। कितने अद्धा-समय से स्पृष्ट है? स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो नियमतः अनंत से। ६२. एगे भंते! अधम्मत्थिकायपदेसे एकः भदन्त! अधर्मास्तिकायप्रदेशः ६२. भंते! अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पट्टे? कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? . धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है? गोयमा! जहण्णपदे चउहि, उक्कोस- गौतम! जघन्यपदे चतुर्भिः, उत्कर्षपदे गौतम! जघन्य-पद में चार से, उत्कृष्ट पद पदे सत्तहिं। सप्तभिः। में सात से। केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट जहण्णपदे तिहिं, उक्कोसपदे छहि। जघन्यपदे त्रिभिः, उत्कर्षपदे षभिः।। जघन्य-पद में तीन से, उत्कृष्ट-पद में छह से। शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्य है। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स॥ शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य। भाष्य १. सूत्र ६१-६२ जघन्यतः तीन प्रदेशों की स्पर्शना-यह स्थिति लोकान्त के कोने में होती है। धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश ऊर्ध्ववर्ती एक प्रदेश तथा पार्श्ववर्ती दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की जघन्यतः तीन प्रदेशों से स्पर्शना होती है। द्रष्टव्य स्थापना काय के प्रदेशों से स्पर्शना होती है। छह दिशाओं के छह तथा एक उस प्रदेश के स्थान में स्थित। लोकान्त में भी अलोकाकाश के प्रदेश विद्यमान हैं इसलिए धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश आकाश के सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश के पार्यों में तथा तीन, चार, पांच अथवा छह दिशाओं में अनंत जीवों के अनंत प्रदेश विद्यमान हैं। इसलिए जीवास्तिकाय के अनंत प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। इसी प्रकार वह पुदगलास्तिकाय के भी अनंत प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। __ अद्धासमय समयक्षेत्र में ही होते हैं इसलिए धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश उनसे क्वचित् स्पृष्ट होता है, क्वचित् नहीं होता। यदि होता है तो वह अनंत अद्धासमयों से स्पृष्ट होता है। अधर्मास्तिकाय के प्रदेश की स्पर्शना धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्य है। उत्कृष्टतः धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की छह प्रदेशों से स्पर्शना होती है। विवक्षित एक प्रदेश एक ऊर्ध्ववर्ती, एक अधोवर्ती, चार-चार दिशाओं से स्पृष्ट होते हैं। द्रष्टव्य स्थापना- ... धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश जघन्यतः अधर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। विवक्षित प्रदेश से एक ऊर्ध्ववर्ती, दो पार्श्ववर्ती, एक उस प्रदेश के स्थान में स्थित। उत्कृष्टतः धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश की सात अधर्मास्ति ६३. एगे भंते! आगासत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? एकः भदन्त! आकाशास्तिकायप्रदेशः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? ६३. भंते ! आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट गोयमा ! सिय पुढे सिय नो पुढे। जइ गौतम ! स्यात् स्पृष्टः स्यात् नो स्पृष्टः, पुढे जहण्णपदे एक्केण वा दोहिं वा तीहिं यदि स्पृष्टः जघन्यपदे एकेन वा द्वाभ्यां वा, उक्कोसपदे सत्तहि। एवं वा त्रिभिः वा, उत्कर्षपदे सप्तभिः। एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। अधर्मास्तिकायप्रदेशैः अपि। १. भ. वृ. १३/६१,६२-सप्तमस्तु धर्मास्तिकायप्रदेशस्य एवेति। गौतम! स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो जघन्य-पद में एक, दो अथवा तीन से, उत्कृष्ट-पद में सात से। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ६४ केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? छहिं । केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? सिय पुढे सिय नो पुट्ठे । जइ पुढे नियमं अणतेहिं । एवं पोगलत्थिकायपदेसेहिं वि, अद्धासमएहिं वि॥ केवतिएहिं पुढे ? सत्तहिं । १३६ कियद्भिः स्पृष्टः ? षड्भिः । कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? आकाशास्तिकायप्रदेशैः एवं स्यात् स्पृष्टः स्यात् नो स्पृष्टः, यदि स्पृष्टः नियमम् अनन्तैः । पुद्गलास्तिकायप्रदेशैः अध्वासमयैः अपि । अपि, भाष्य आगासत्थिकायपदेसेहिं कियद्भिः स्पृष्टः ? सप्तभिः । १. सूत्र ६३ धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट होता है तो वह धर्मास्तिकाय के पांच प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। आकाशास्तिकाय लोक और अलोक दोनों में है। लोक में विद्यमान आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश अधर्मास्तिकाय से स्पृष्ट होता है और अलोक में विद्यमान वह धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं होता। लोकान्तवर्ती धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश से एक अग्रवर्ती अलोकाकाश का प्रदेश स्पृष्ट होता है। यदि आकाश का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश, उसके अधोवर्ती ऊपरिवर्ती तथा तीन दिशाओं में वर्तमान धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है तो वह धर्मास्तिकाय के छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। यदि आकाश का एक प्रदेश वक्रगत होता है तो वह धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। यदि आकाश का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश, उसके अधोवर्ती, ऊपरिवर्ती तथा चार दिशाओं में वर्तमान धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट होता है तो वह धर्मास्तिकाय के सात प्रदेशों से स्पृष्ट होता है।' यदि आकाश के एक प्रदेश के अग्रवर्ती, अधोवर्ती और ऊपरिवर्ती धर्मास्तिकाय के प्रदेश होते हैं तो वह धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से पृष्ट होता है। अधर्मास्तिकाय के स्पर्श के नियम धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्य हैं। जीवास्तिकाय के प्रदेश -स्पर्श के नियम-यदि अलोकाकाश का प्रदेश है तो वह जीव से स्पृष्ट नहीं है। यदि वह लोक का प्रदेश है तो वह जीवास्तिकाय के अनंत प्रदेशों से स्पृष्ट है। यदि आकाश का एक प्रदेश लोकान्त के कोने में स्थित होता है तो वह धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश, उसके द्वारा अवगाढ एक प्रदेश, दो दिशाओं में स्थित अधोवर्ती और ऊपरिवर्ती एक-एक प्रदेश- इस प्रकार वह धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। यदि आकाश का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश, पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश - स्पर्श नियम भी जीवास्तिकाय की उसके अधोवर्ती, ऊपरिवर्ती तथा दो दिशाओं में वर्तमान भांति वक्तव्य हैं। अद्धासमय के नियम भी इसी प्रकार वक्तव्य हैं। ६४. एगे भंते! जीवत्थिकायपदेसे एक: भदन्त ! जीवास्तिकायप्रदेश: कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? जघन्यपदे चतुर्भिः, उत्कर्षपदे सप्तभिः । एवं अधर्मास्तिकायप्रदेश: अपि । केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? जहण्णपदे चउहिं, उक्कोसपदे सत्तहिं । एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। आकाशास्तिकाय प्रदेशैः १. भ. वृ. सू. १३/६३ - सिय पुट्ठेत्ति लोकमाश्रित्य सिय नो पुट्टेति अलोकमाश्रित्य जइ पुट्टेत्यादि यदि स्पृष्टस्तदा जघन्यपदे एकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः, कथम् ? एवंविधलोकान्तवर्तिना धर्मास्तिकायैकप्रदेशेन शेष धर्मास्तिकायप्रदेशेभ्यो निर्गतेनैकोऽग्रभागवर्त्य लोकाकाशप्रदेशः स्पृष्टो वक्रगतस्त्वसौ द्वाभ्यां यस्य चालोकाकाशप्रदेशस्याग्रतोऽधस्तादुपरि च धर्मास्तिकायप्रदेशाः सन्ति स त्रिभिर्धर्मास्ति कायप्रदेशैः रपृष्टः, स चैयम् F यस्त्वेवं # लोकान्ते कोणगतो भगवई वक्तव्यता । आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? छह से। जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो नियमतः अनंत से। इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता । इसी प्रकार अद्धासमय की भी वक्तव्यता । ६४. भंते! जीवास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? जघन्य-पद में चार से, उत्कृष्ट - पद में सात से। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता । आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? सात से। व्योमप्रदेशोऽसावेकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन तदवगाढेनान्येन चोपरिवर्तिना अधोवर्तिना वा द्वाभ्यां च दिग्द्वयावस्थिताभ्यां स्पृष्ट इत्येवं चतुर्भिः । यश्चाध उपरि च तथा दिग् द्वये तत्रैव वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स पंचभिः । यः पुनरध उपरि च तथा दिक्त्रये तत्रैव च प्रवर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स षड्भिः । यश्चाध उपरि च तथा दिक्चतुष्टये तत्रैव च वर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स सप्तभिर्धर्म्मास्तिकायप्रदेशः स्पृष्टो भवतीति । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? अणतेहिं । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ ६५. एगे भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? एवं जहेव जीवत्थिकायस्स । १३७ कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? अनन्तैः । शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य । एकः भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? एवं यथैव जीवास्तिकायस्य । १. सूत्र ६४-६५ जीवास्तिकाय का एक प्रदेश लोकान्त के कोने में होता है, उस समय वह धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है - एक प्रदेश ऊपर अथवा नीचे, दो प्रदेश दो दिशाओं में, एक प्रदेश वह जिस पर जीव का प्रदेश अवगाढ है। ६७. तिष्णि भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ? जहणपदे अहिं, उक्कोसपदे सत्तर सहिं । एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि । भाष्य जीवास्तिकाय का एक प्रदेश आकाश आदि के एक प्रदेश पर केवली - समुद्घात के समय में ही उपलब्ध होता है।' जीव के असंख्य प्रदेश होते हैं। वे समुदित अवस्था में रहते हैं। ६६. दो भंते! पोग्गलत्थिकायपदेसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ? गोयमा ! जहण्णपदे छहिं, उक्कोसपदे बारसहिं । एवं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं वि। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठा ? बारसहिं । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ द्वौ भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशौ कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टौ ? गौतम! जघन्यपदे षड्भिः, उत्कर्षपदे द्वादशभिः । एवं अधर्मास्तिकायप्रदेशैः अपि । कियद्भिः आकाशस्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टौ ? द्वादशभिः । शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य । श. १३ : उ. ४ : सू. ६५-६७ वास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? अनंत से। शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता । उनमें संकोच और विस्तार की क्षमता है पर एक प्रदेश कहीं पृथक् रूप में उपलब्ध नहीं होता। यह सामान्य नियम है। केवली समुद्घात एक विशेष नियम है। उस समय जीव का एक-एक प्रदेश आकाश के एक-एक प्रदेश पर अवगाढ होता है। द्रष्टव्य, भगवई २/७४ का भाष्य । पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश का तात्पर्य है एक परमाणु । जीवास्तिकाय के एक प्रदेश की भांति इसके स्पर्श की वक्तव्यता । ६५. भंते! पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? इसी प्रकार जीवास्तिकाय की भांति वक्तव्यता। त्रयः भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशाः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टाः ? जघन्यपदे अष्टभिः, उत्कर्ष दे सप्तदशभिः। एवम् अधर्मास्तिकायप्रदेशैः अपि । आगासत्थिकायपदेसेहिं कियद्भिः आकाशास्तिकायप्रदेश: केवतिएहिं पुट्ठा ? स्पृष्टाः ? सत्तरसहिं । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । सप्तदशभिः । शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य । सतरह से। शेष धर्मास्तिकाय की भांति एवं एएणं गमेणं भाणियव्वा जाव दस, एवम् एतेन गमेन भणितव्याः यावत् दश, वक्तव्यता । इस गमक के अनुसार यावत् नवरं - जहण्णपदे दोण्णि पक्खिवियव्वा, नवरम् - जघन्यपदे द्वौ प्रक्षेप्तव्यौ, दस तक की वक्तव्यता, इतना विशेष हैउक्कोसपदे पंच। चत्तारि पोम्गलत्थि - उत्कर्षपदे पञ्च। चत्वारः पुद्गलास्ति- जघन्य-पद में दो का प्रक्षेप करणीय हैं, कायस्स पदेसा जहण्णपदे दसहिं, कायस्य प्रदेशा: जघन्यपदे दशभिः, उत्कृष्ट-पद में पांच का। पुद्गलास्तिकाय के उक्कोसपदे बावीसाए। पंच पोग्गल- उत्कर्ष दे द्वाविंशत्या । पञ्च चार प्रदेश जघन्य पद में दस से, उत्कृष्टत्थिकायस्स पदेसा जहणपदे बारसहिं पुद्गलास्तिकायस्य प्रदेशाः जघन्यपदे पद में बाईस से। पुद्गलास्तिकाय के पांच १. भ. वृ. १३/६४ - जघन्यपदे लोकांत कोणलक्षणे सर्वाल्पत्वात्तत्र स्पर्शक- जीवप्रदेश एवावगाढ इत्येवं एकश्च जीवास्तिकायप्रदेश एकत्राकाशप्रदेशानां चतुर्भिरिति कथम् ? अध उपरि वा एको द्वौ च दिशोरेकस्तु यत्र प्रदेशादौ केवीसमुद्घात एव लभ्यते इति । ६६. भंते! पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? गौतम ! जघन्य पद में छह से, उत्कृष्ट पद में बारह से। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता । आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट हैं ? बारह से । शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता। ६७. भंते! पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? जघन्य - पद में आठ से, उत्कृष्ट-पद में सतरह से । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ भगवई श. १३ : उ. ४ : सू. ६८-६६ उक्कोसपदे सत्तावीसाए। छ पोग्गल- द्वादशभिः, उत्कर्षपदे सप्तविंशत्या। षड् थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे चोद्दसहि, पुद्गलास्तिकायस्य प्रदेशाः जघन्यपदे उक्कोसपदे बत्तीसाए। सत्त पोग्गल- चतुर्दशभिः, उत्कर्षपदे द्वात्रिंशता। थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे । सप्त पुद्गलास्तिकायस्य प्रदेशाः सोलसहि, उक्कोसपदे सत्ततीसाए। अट्ठ जघन्यपदे षोडशैः, उत्कर्षपदे पोग्गलत्थिकायस्स पदेसा जहण्णपदे सप्तत्रिंशता। अष्ट पुद्गलास्तिकायस्य अट्ठारसहिं, उक्कोसपदे बायालीसाए। प्रदेशाः जघन्यपदे अष्टादशभिः, उत्कर्षपदे द्वाचत्वारिंशता। नव पोग्गलस्थिकायस्स पदेसा जहण्ण- नव पुद्गलास्तिकायस्य प्रदेशाः पदे वीसाए, उक्कोसपदे सीयालीसाए। जघन्यपदे विंशत्या, उत्कर्षपदे दस पोग्गलत्थिकायस्स पदेसा सप्तचत्वारिंशता। दश पुद्गलास्तिजहण्णपदे बावीसाए, उक्कोसपदे । कायस्य प्रदेशाः जघन्यपदे द्वाविंशत्या, बावन्नाए। आगासस्थिकायस्स सम्वत्थ उत्कर्षपदे द्विपञ्चाशता। आकाशाउक्कोसगं भाणियब्वं॥ स्तिकायस्य सर्वत्र उत्कर्षकं भणितव्यम्। प्रदेश जघन्य पद में बारह से। उत्कृष्ट पद में सत्ताईस से। पुद्गलास्तिकाय के छह प्रदेश जघन्य पद मे चौदह से, उत्कृष्ट-पद में बत्तीस से। पद्गलास्तिकाय के सात प्रदेश जघन्य-पद में सोलह से, उत्कृष्ट-पद में सैंतीस से। पुद्गलास्तिकाय के आठ प्रदेश, जघन्य-पद में अठारह से, उत्कृष्ट-पद में बयालीस से। पुद्गलास्तिकाय के नौ प्रदेश जघन्य-पद में बीस से, उत्कृष्ट-पद में सैंतालीस में। पुद्गलास्तिकाय के दस प्रदेश जघन्य-पद में बाईस से, उत्कृष्ट-पद में बावन से। आकाशास्तिकाय सर्वत्र उत्कृष्टतः वक्तव्य ६८. संखेज्जा भंते! पोग्गलत्थि- संख्येयाः भदन्त! पुद्गलास्तिकाय- ६८. भंते ! पुद्गलास्तिकाय के संख्येय प्रदेश कायपदेसा केवतिएहिं धम्मत्थि- प्रदेशाः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं? कायपदेसेहिं पुट्ठा! स्पृष्टाः? जहण्णपदे तेणेव संखेज्जएणं दुगुणेणं जघन्यपदे तेनैव संख्येयेन द्विगुणेन । जघन्य-पद में उसी संख्येय से। दो अधिक दुरूवाहिएणं, उक्कोसपदे तेणेव । द्विरूपाधिकेन, उत्कर्षपदे तेनैव द्विगुण संख्येय से। उत्कृष्ट-पद मे उसी संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं। संख्येयेन पञ्चगुणेन द्विरूपाधिकेन। संख्येय से दो अधिक पंच गुणित संख्येय से। केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं ? कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? कितने अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट एवं चेव। केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं ? एवं चैतत्। कियद्भिः आकाशास्तिकायप्रदेशः स्पृष्टः? तेनैव संख्येयन पंचगणेन द्विरूपाधिकेन। पूर्ववत्। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं। केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं ? कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? उसी संख्येय से दो अधिक पंच गुणित संख्येय से। जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पष्ट होते हैं? अनंत से। पुदगलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट अणंतेहि। केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपदेसेहिं ? अणंतेहि। केवतिएहिं अद्धासमएहिं ? सिय पुढे, सिय नो पुढे। जइ पुढे नियम अणंतेहिं॥ अनंतैः। कियद्भिः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः? अनंतैः। कियद्भिः अद्धासमयैः स्पृष्टः? स्यात् स्पृष्टः स्यात् नो स्पृष्टः। यदि स्पृष्टः नियमम् अनंतैः। अनंत से। कितने अद्धासमय से स्पृष्ट हैं? स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट हैं तो नियमतः अनंत से। ६६. भंते ! पुदगलास्तिकाय के असंख्येय प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं? ६६. असंखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकाय- असंख्येयाः भदन्त! पुदगलास्ति- पदेसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं कायप्रदेशाः कियद्भिः धर्मास्तिकाय- प्रदेशैः स्पृष्टाः? जहण्णपदे तेणेव असंखेज्जएणं दुगुणेणं । जघन्यपदे तेनैव असंख्येयेन द्विगुणेन दुरूवाहिएणं, उक्कोसपदे तेणेव । द्विरूपाधिकेन, उत्कर्षपदे तेनैव असंखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवा- असंख्येयेन पञ्चगुणेन द्विरूपाधिकेन। जघन्य-पद में उसी असंख्येय से दो अधिक द्विगुणित असंख्येय से, उत्कृष्ट-पद में उसी असंख्येय से दो अधिक पंच गुणित असंख्येय Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १३६ श. १३ : उ. ४ : सू. ७० हिएणं। सेसं जहा संखेज्जाणं जाव नियम अणतेहिं॥ शेषं यथा संख्येयानां यावत् नियमम् अनन्तैः। से। शेष संख्येय की भांति वक्तव्यता यावत् नियमतः अनंत से। ७०. अणंता भंते ! पोग्गलत्थिकायपदेसा अनन्ताः भदन्त! पुद्गलास्तिकाय- ७०. भंते! पुद्गलास्तिकाय के अनंत प्रदेश केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पट्टा ? प्रदेशाः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेश: धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट स्पृष्टाः? एवं जहा असंखेज्जा तहा अणंता वि एवं यथा असंख्येयाः तथा अनन्ताः अपि इस प्रकार जैसे असंख्येय की वक्तव्यता निरवसेसं॥ निरवशेषम्। वैसे ही अनंत की निरवशेष वक्तव्यता। भाष्य द्विप्रदेशी स्कंध उत्कृष्ट पद में धर्मास्तिकाय के बारह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। दो आकाशास्तिकाय के दो प्रदेशों में अवगाढ है, इस प्रकार अवगाढ़ प्रदेश दो, नीचे दो, ऊपर दो, पूर्व में दो, पश्चिम में दो, दक्षिण और उत्तर में एक-एक। इस प्रकार वह धर्मास्तिकाय के बारह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। द्रष्टव्य स्थापना १. सूत्र ६६-७० अभयदेवसूरि ने द्विप्रदेशी आदि स्कंधों के विषय में चूर्णिकार और वृत्तिकार के मत प्रस्तुत किए हैं। चूर्णिकार के अनुसार द्विप्रदेशी स्कंध लोकान्तवर्ती एक आकाश प्रदेश में समवगाढ है। वह आकाश प्रदेश द्विप्रदेशी स्कंध के दोनों प्रदेशों को अवगाहन दे रहा है। एक ही आकाश-प्रदेश को नय दृष्टि से विभक्त मानने पर वह द्विप्रदेशी स्कंध धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। उसके ऊपर अथवा नीचे जो धर्मास्तिकाय का प्रदेश है, उसका भी नय दृष्टि से भेद मान लेने पर वह दो परमाणुओं का स्पर्श करता है तथा पार्श्ववर्ती धर्मास्तिकाय के दो प्रदेश एक-एक अणु का स्पर्श करते हैं। इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कंध जघन्य-पद में धर्मास्तिकाय के छह प्रदेशों से स्पृष्ट हो जाता है। यदि नय मत का आश्रय न लिया जाए तो व्यणुक स्कंध जघन्यतः धर्मास्तिकाय के चार प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। वृत्तिकार का अभिमत यह है-दो बिंदुओं की स्थापना करें और उन्हें दो परमाणु मान लें। अर्वाचीन परमाणु धर्मास्तिकाय के अर्वाक् स्थित प्रदेश से स्पृष्ट होता है। परभागवर्ती परमाणु परतः स्थित धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट होता है-इस प्रकार दो से स्पृष्ट तथा जिन दो प्रदेशों के मध्य में परमाणु स्थापित है उनमें से एक से एक, दूसरे से दूसरा स्पृष्ट-इस प्रकार चार से स्पृष्ट। दो प्रदेशों से अवगाढ होने के कारण स्पष्ट है। इस प्रकार संयोग करने पर द्विप्रदेशी स्कंध धर्मास्तिकाय के छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। द्रष्टव्य स्थापना द्विप्रदेशी स्कंध आकाशास्तिकाय के बारह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। लोकान्त में भी आकाश-प्रदेश विद्यमान है इसलिए इसका जघन्य पद नहीं है। चूर्णिकार के मतानुसार एक आकाश-प्रदेश में त्रिप्रदेशी स्कंध अवगाढ है। उसे तीन भागों में विभक्त किया जाए। इस प्रकार अवगाढ प्रदेश तीन, अधोवर्ती अथवा ऊपरिवर्ती तीन, पार्श्ववर्ती दो-कुल मिलाकर त्रिप्रदेशी स्कंध धर्मास्तिकाय के आठ प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। जयाचार्य ने वृत्तिकार के मत का अनुसरण कर लिखा है-त्रिप्रदेशी स्कंध तीन आकाश प्रदेशों में अवगाढ, तीन अधोवर्ती अथवा उपरिवर्ती, दो पार्श्ववर्ती-इस प्रकार वह धर्मास्तिकाय के चार्वाचीनः परमाणुः धर्मास्तिकायप्रदेशेनास्थितेन स्पृष्टः, परभागवर्ती च परतः स्थितेन एवं द्वौ, तथा ययोःप्रदेशयोर्मध्ये परमाणु स्थाप्येते तयोरग्रेतनाभ्यां प्रदेशाभ्यां तौ स्पृष्टौ एकेनैको द्वितीयेन च द्वितीय इति चत्वारो, द्वौ चावगाढत्वादेव स्पृष्टावित्येवं षट्। २. भ. पृ. १३/६६-बारसहिं इह जघन्यपदं नास्ति। लोकान्तेपि आकाश प्रदेशानां विद्यमानत्वादिति द्वादशभिरित्युक्तम्। ३. भ. वृ. १३/६७-पूर्वोक्तनयमतेनावगाढप्रदेशास्त्रिधा अधस्तनोऽप्यु परितनोपि वा त्रिधा द्वौ पार्श्वतः इत्येवमष्टौ। ०० १. भ. पृ. १३/६६-इह चूर्णिकारव्याख्यानमिदं-लोकान्ते द्विप्रदेशिकः स्कंधः एक-प्रदेशसमवगाढः स च प्रतिद्रव्यावगाहं प्रदेश इति नयमताश्रयणेनावगाह प्रदेशस्यैकस्यापि भिन्नत्वात् द्वाभ्यां स्पृष्टः तथा यस्तस्यो पर्यधस्ताद्वा प्रदेशस्तस्यापि पुद्गलद्वयस्पर्शनेन नयमतादेव भेदाद् द्वाभ्यां, तथा पार्श्वप्रदेशावेकैकमणुं स्पृशतः परस्परव्यवहितत्वाद् इत्येवं जघन्यपदे षड्भि धर्मास्तिकायप्रदेशैर्युणुकस्कंधः स्पृश्यते, नयमतानंगीकरणे तु चतुभिरव व्यणुकस्य जघन्यतः स्पर्शना स्यादिति। वृत्तिकृता त्वेवमुक्तम्-इह यद् बिन्दुद्वयं तत्परमाणुद्वयमिति मन्तव्यं तत्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ७१,७२ आठ प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। ' सूत्रकार ने चार प्रदेशी से दस प्रदेशी स्कंध के लिए एक नियम का निर्देश दिया है। जघन्य पद में द्विगुण, उत्कृष्ट पद में पंच गुण तथा प्रत्येक में दो का और प्रक्षेप किया जाए। दृष्टव्य स्थापनापुद्गल प्रदेश १ ४ ७ ८६ १० ४ ८ १० १२ १४ १६ १८ २० २२ जघन्य पद में ७ १२ १७ २२ २७ ३२ ३७ ४२ ४७ ५२ उत्कृष्ट पद में ७१. एगे भंते! अद्धासमए केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? सत्तहिं । केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? एवं चैव, एवं आगासत्थिकाएहिं वि । केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? अणतेहिं, एवं जाव अद्धासमएहिं ॥ १४० १. भ. जो. ढा. २७८ गा. १०१-१०२ एकः भदन्त ! अद्धासमयः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? सप्तभिः । कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? एवं चैव, एवम् आकाशास्तिकायैः अपि । १. सूत्र ७१ जघन्य पद लोकान्त में ही संभव है। अद्धासमय वहां होता नहीं। फिर वह धर्मास्तिकाय के सात प्रदेशों से स्पृष्ट कैसे हो सकता है ? अभयदेव सूरि ने इस प्रश्न का समाधान एक कल्पना के आधार पर किया है। उनके अनुसार यहां अद्धासमय विशिष्ट परमाणु द्रव्य विवक्षित है। ' भगवई लोकान्त में आकाश के असंख्य प्रदेश नहीं होते इसलिए जघन्य पद में जो असंख्य प्रदेशों का उल्लेख है, वह औपचारिक है। उत्कृष्ट पद में आकाश के अनंत प्रदेशों का उल्लेख भी औपचारिक है। लोक असंख्य प्रदेशात्मक है इसलिए अनंत प्रदेश शब्द का होना संभव नहीं है। ' कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? अनन्तैः, एवं यावत् अद्धासमयैः । इस विषय में जयाचार्य ने टबाकार के अभिमत का उल्लेख ७२. धम्मत्थिकाए णं भंते! केवतिएहिं धर्मास्तिकायः धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? धर्मास्तिकायप्रदेशैः नत्थि एक्केण वि । नास्ति एकेनापि । केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं ? असंखेज्जेहिं । केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं ? भाष्य नयमत विण इम चीन, तीन प्रदेश विषे रह्या । पुद्गल प्रदेश तीन, त्रिण अवगाढ प्रदेश ते ॥ ऊपर तीन कहाय, तल पिण तीन कहीजिये । बेपासे बिहु थाय, इम अठ आख्या वृत्ति कृत ॥ २. भ. वृ. ६१२ - यथा जघन्यपदे औपचारिका अवगाहप्रदेशा अधस्तना उपरितना वा तथोत्कृष्टपदेऽपि न हि निरुपचरिता अनंता आकाशप्रदेशा अवगाहतः सन्ति, लोकस्याप्यसंख्यातप्रदेशात्मकत्वादिति । इह च प्रकरणे इमे वृद्धोक्तगाथे भवतः - धम्माइपएसेहिं दुपएसाई जहन्नपयम्मि । दुगु दुरूहिएणं तेणेव कहं नु हु फुसेज्जा ॥ एत्थ पुण जहन्नपयं लोगंते, तत्थ लोग मालिहिउं । फुसणा दावेयब्वा अहवा खंभाइ कोडीए ॥ भदन्त ! किया है।" प्रस्तुत आलापक में अद्धासमय का अनेक बार उल्लेख है। उसके अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि यहां अद्धासमय का प्रयोग व्यावहारिक काल के लिए किया गया है इसीलिए इकसठवें सूत्र में 'सिय पुढे सिय नो पुट्ठे' का नियम निर्दिष्ट है। व्यावहारिक काल समय-क्षेत्र अथवा मनुष्य लोक में होता है, उसके बाहर नहीं होता । कियद्भिः स्पृष्टः ? कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेश: ? असंख्येयैः । कियद्भिः आकाशास्तिकायप्रदेशैः ? ७१. भंते! एक अद्धासमय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? ७२. भंते! धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? एक से भी नहीं। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? असंख्येय से । आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? ३. भ. वृ. प. १३ / ७१ - इह वर्तमानसमयविशिष्टः समयक्षेत्रमध्यवर्ती परमाणुरद्धासमयो ग्राह्यः, अन्यथा तस्य धर्मास्तिकायादिप्रदेशैः सप्तभिः स्पर्शना न स्यात् । इह च जघन्यपदं नास्ति, मनुष्यक्षेत्रमध्यवर्तित्वादद्धासमयस्य जघन्यपदस्य च लोकान्त एव संभवादिति, तत्र सप्तभिरिति, कथम् ? अद्धासमयविशिष्टं परमाणुद्रव्यमेकत्र धर्मास्तिकायप्रदेशेऽवगाढमन्ये च तस्य षट्सु दिश्विति सप्तेति । सात से। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? पूर्ववत् । इसी प्रकार आकाशास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता । वास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? अनंत से। इसी प्रकार यावत् अद्धासमय से । ४. भ. जो. ढा. २७८, गा. १७५-१७७ टबा विषे इम जेह, विशिष्ट अणु द्रव्य अंत नै। अद्धा समयपणेह, वांछितपणां थकी कहां ।। ते समय अनंता सोय, जे एक समय नै ठाम है। अथवा पासे जोय, गये काल अनंता बरतिया | तथा अनागत काल, अनंत वर्तस्यै ते भणी । तसु सद्भाव निहाल, एहवो कह्यो वा मझे ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई असंखेज्जेहिं । केवतिएहिं अणंतेहिं । केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपदेसेहिं ? जीवत्थिकायपदेसेहिं ? ७३. अधम्मत्थिकाए णं भंते ! अनन्तैः । अणतेहिं । केवतिएहिं अद्धासमएहिं ? कियद्भिः अद्धासमयैः ? सिय पुट्ठे, सिय नो पुट्ठे । जइ पुट्ठे स्यात् स्पृष्टः स्यात् नो स्पृष्टः । यदि नियमा अणतेहिं ॥ स्पृष्टः नियमात् अनन्तैः । haतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? असंखेज्जेहिं । केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं ? नत्थि एक्केण वि । सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । एवं एएणं गमएणं सव्वे वि सट्टाणए नत्थि एक्केण वि पुट्ठा, परट्ठाणए आदिल्लएहिं तिहिं असंखेज्जेहिं भाणियव्वं, पच्छिल्लएसु तिसु अणंता भाणियव्वा जाव अद्धासमयो त्ति जाव केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुढे ? नत्थि एक्केण वि ॥ १४१ असंख्येयैः । कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेश: ? अनन्तैः । कियद्भिः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैः ? अधर्मास्तिकायः भदन्त ! कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? असंख्येयैः । कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेशैः ? नास्ति एकेनापि । शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य । एवम् एतेन गमकेन सर्वेऽपि स्वस्थानके नास्ति एकेनापि स्पृष्टाः परस्थानके आदिमैः त्रिभिः असंख्येयैः भणितव्यम्, पाश्चात्येषु त्रिषु अनन्ताः भणितव्याः यावत् अद्धासमयः इति यावत् कियद्भिः अद्धासमयैः स्पृष्टः ? नास्ति एकेनापि । भाष्य १. सूत्र ७२-७३ पूर्व आलापक में प्रदेश- स्पर्श के नियम बतलाए गए हैं। प्रस्तुत दो सूत्रों में अस्तिकाय की स्पर्शना विवक्षित है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश-तीनों के प्रदेश तुल्य हैं- ये तीनों असंख्य प्रदेश वाले हैं। " धर्मास्तिकाय लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर अवगाढ है इसलिए वह धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट नहीं होता। जहां धर्मास्तिकाय है वहां अधर्मास्तिकाय है। इस अपेक्षा से धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। एक जीव के प्रदेश असंख्य होते हैं। यहां अनंत प्रदेश का उल्लेख जीवास्तिकाय की अपेक्षा से है। जीवास्तिकाय अनंत जीवों का समुच्चय है। १. ठाणं ४/४६५ - चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहा धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीवे । २. भ. २ / ४६ । ३. भ. २ / १२८ । ४. भ. वृ. १३/७३ - केवलं यत्र धर्मास्तिकायादिः तत्प्रदेशैरेव चिन्त्यते तत्स्वस्थान- मितरच परस्थानम् । - श. १३ : उ. ४ : सू. ७३ असंख्येय से । जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? अनंत से। पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? अनंत से। कितने अद्धासमय से स्पृष्ट है ? स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो नियमतः अनंत से। अधर्मास्तिकाय की धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता । आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन सबके लिए वही नियम लागू होता है। ये अपने स्थान में अपने किसी भी एक प्रदेश से स्पृष्ट नहीं होते। पर स्थान के नियम इस प्रकार हैं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश के प्रदेश असंख्य हैं इसलिए इनके स्पर्श में असंख्य प्रदेशों का स्पर्श वक्तव्य है। जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय के प्रदेश अनंत हैं इसलिए इनके स्पर्श में अनंत प्रदेशों का स्पर्श वक्तव्य है।' यहां अद्धासमय निरुपचरित है । अतीत का समय नष्ट हो जाता है और अनागत समय उत्पन्न नहीं होता। इस अवस्था में स्वस्थान नियम के अनुसार एक समय दूसरे समय से स्पृष्ट नहीं होता । " ५. वही, परस्थाने च धर्मास्तिकायादित्रयसूत्रेषु चानन्तैः प्रदेशैः स्पृष्ट इति वाच्यं, असंख्यातप्रदेशत्वात् धर्माधर्मास्तिकाययोस्तत्संस्पृष्टाकाशस्य च, जीवादित्रयसूत्रेषु चानन्तैः प्रदेशैः स्पृष्ट इति वाच्यं अनंतप्रेदशत्वात्तेषामिति । ७३. भंते! अधर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? असंख्येय से । अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? एक से भी नहीं। शेष की धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता। इस प्रकार इस गमक के द्वारा सभी स्वस्थान की अपेक्षा एक प्रदेश से भी स्पृष्ट नहीं हैं, परस्थान की अपेक्षा आदि तीन (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय) में असंख्येय वक्तव्य है। अंतिम तीन में अनंत वक्तव्य है यावत् अद्धासमय यावत् कितने अद्धासमयों से स्पृष्ट है ? एक से भी नहीं। ६. वही, - निरुपचरितस्याद्धासमयस्यैकस्यैवभावात् अतीतानागतसमययोश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वान्न समयान्तरेण स्पृष्टताऽस्तीति । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ७४-७६ १४२ भगवई धम्मत्थिकायादीणं ओगाढ-पदं धर्मास्तिकायादीनाम् अवगाढ-पदम् धर्मास्तिकाय आदि का अवगाढ पद ७४. जत्थ णं भंते ! एगे धम्मत्थिकाय- यत्र भदन्त! एकः धर्मास्तिकायप्रदेशः ७४. भंते ! जहां धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश पदेसे ओगाढे, तत्थ केवतिया अवगाढः, तत्र कियन्तः धर्मास्ति- अवगाढ है, वहां धर्मास्तिकाय के कितने धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? कायप्रदेशाः अवगाढाः? प्रदेश अवगाढ हैं? नत्थि एक्को वि। नास्ति एकोऽपि। एक भी नहीं। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा कियन्तः अधर्मास्तिकायप्रदेशाः अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ ओगाढा ? अवगाढाः? एक्को । एकः। एक। केवतिया आगासत्थिकायपदेसा कियन्तः आकाशास्तिकायप्रदेशाः आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ ओगाढा ? अवगाढ़ा? एक्को । एकः। एक। केवतिया जीवत्थिकायपदेसा ओगाढा ? कियन्तः जीवास्तिकायप्रदेशाः जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं? अवगाढाः? अणंता। अनन्ताः । अनंत। केवतिया पोग्गलत्थिकायपदेसा कियन्तः पुद्गलास्तिकायप्रदेशाः पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ ओगाढा ? अवगाढाः? अणता। अनन्ताः । अनंत। केवतिया अद्धासमया ओगाढा ? कियन्तः अध्वासमयाः अवगाढाः? अद्धासमय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं? सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा, जड़ स्यात् अवगाढाः, स्यात् नो अवगाढाः, स्यात् अवगाढ हैं, स्यात् अवगाढ नहीं हैं। ओगाढा अणंता॥ यदि अवगाढाः अनन्ताः। यदि हैं तो अनंत। ७५. जत्थ णं भंते ! एगे अधम्मत्थि- यत्र भदन्त! एकः अधर्मास्तिकायप्रदेशः कायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया __ अवगाढः तत्र कियन्तः धर्मास्तिकायधम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? प्रदेशाः अवगाढाः? एक्को । एकः। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा? कियन्तः अधर्मास्तिकायप्रदेशाः? ७५. भंते ! जहां अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ है वहां धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं? एका अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ नत्थि एक्को वि। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। नास्ति एकोऽपि। धर्मास्तिकायस्य। शेषं यथा एक भी नहीं। शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता। ७६. जत्थ णं भंते ! एगे आगासत्थि- यत्र भदन्त! एक: आकाशास्तिकाय- ७६. भंते! जहां आकाशास्तिकाय का एक कायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया प्रदेशः अवगाढः तत्र कियन्तः धर्मास्ति- प्रदेश अवगाढ है, वहां धर्मास्तिकाय के धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा? कायप्रदेशाः अवगाढाः? कितने प्रदेश अवगाढ हैं? | सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा, जइ स्यात् अवगाढाः, स्यात् नो अवगाढाः, स्यात् अवगाढ हैं, स्यात् अवगाढ नहीं हैं, ओगाढा, एक्को। एवं अधम्मत्थि- यदि अवगाढाः, एकः। एवम् यदि अवगाढ हैं तो एक अवगाढ है। इसी कायपदेसा वि। अधर्मास्तिकायप्रदेशाः अपि। प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेश भी। केवतिया आगासस्थिकायपदेसा? कियन्तः आकाशास्तिकायप्रदेशाः? आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ नत्थि एक्को वि। केवतिया जीवत्थिकायपदेसा? सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा अणंता। एवं जाव अद्धासमया॥ नास्ति एकोऽपि। कियन्तः जीवास्तिकायप्रदेशाः? स्यात् अवगाढाः, स्यात् नो अवगाढाः, यदि अवगाढाः, अनन्ताः। एवं यावत् अध्वासमयाः। एक भी नहीं। जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं ? स्यात् अवगाढ हैं, स्यात् अवगाढ नही हैं, यदि हैं तो अनंत प्रदेश अवगाढ हैं। इसी प्रकार यावत् अद्धासमय की वक्तव्यता। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १४३ श. १३ : उ. ४ : सू.७७-८० ७७. जत्थ णं भंते ! एगे जीवत्थिकाय पदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? एक्को, एवं अधम्मत्थिकायपदेसा वि. एवं आगासस्थिकायपदेसा वि। यत्र भदन्त! एकः जीवास्तिकायप्रदेशः अवगाढः तत्र कियन्तः धर्मास्तिकायप्रदेशाः अवगाढाः? एकः, एवम् अधर्मास्तिकायप्रदेशाः अपि, एवम् आकाशास्तिकायप्रदेशाः अपि। ७७. भंते ! जहां जीवास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढ है, वहां धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ है ? एक, इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेश भी, इसी प्रकार आकाशास्तिकाय के प्रदेश भी वक्तव्य हैं। जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं? अनंत। शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्यता। केवतिया जीवत्थिकायपदेसा ? अणंता। सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स॥ कियन्तः जीवास्तिकायप्रदेशाः? अनन्ताः। शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य। ७८. जत्थ णं भंते ! एगे पोग्गलत्थि कायपदेसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? एवं जहा जीवत्थिकायपदेसे तहेव निरवसेसं॥ यत्र भदन्त! एकः पुद्गलास्तिकायप्रदेशः ७८. भंते ! जहां पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश अवगाढः तत्र कियन्तः धर्मास्तिकाय- अवगाढ है, वहां धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशाः अवगाढाः? प्रदेश अवगाढ हैं? एवं यथा जीवास्तिकायप्रदेशः तथैव इस प्रकार जैसे जीवास्तिकाय के प्रदेश की निरवशेषम्। वक्तव्यता, वैसे ही निरवशेष वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र ७४-७८ और आकाशास्तिकाय का एक-एक प्रदेश अवगाढ है। प्रस्तुत आलापक में प्रदेश के अवगाह, अवस्थिति अथवा अधर्मास्तिकाय की वक्तव्यता धर्मास्तिकाय के समान है। व्याप्ति का विषय निरूपित है। आकाशास्तिकाय के प्रदेश लोक और अलोक-दोनों में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय अखंड है। उनका प्रत्येक अवस्थित हैं इसलिए धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, प्रदेश लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में अवस्थित है इसलिए पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय के प्रदेश की अवस्थिति की भजना धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के दूसरे प्रदेश से अवगाढ है। नहीं होता, उसके एक प्रदेश में दूसरा प्रदेश अवस्थित नहीं होता। लोकाकाश में अवस्थान का नियम धर्मास्तिकाय की भांति जहां धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश है, वहां अधर्मास्तिकाय वक्तव्य है। अलोकाकाश में इन सबकी अवस्थिति नहीं होती। ७६. जत्थ णं भंते ! दो पोग्गलत्थिकाय- यत्र भदन्त! द्वौ पुद्गलास्तिकायप्रदेशौ ७६. भंते ! जहां पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश पदेसा ओगाढा तत्थ केवतिया अवगाढौ तत्र कियन्तः धर्मास्तिकाय- अवगाढ हैं वहां धर्मास्तिकाय के कितने धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? प्रदेशाः अवगाढाः? प्रदेश अवगाढ हैं? सिय एक्को सिय दोण्णि, एवं । स्यात् एकः, स्याताम् द्वौ, एवम् स्यात् एक, स्यात् दो। इसी प्रकार अधम्मत्थिकायस्स वि, एवं अधर्मास्तिकायस्यापि, . एवम् अधर्मास्तिकाय की भी, इसी प्रकार आगासस्थिकायस्स वि। सेसं जहा आकाशास्तिकायस्यापि। शेषं यथा आकाशास्तिकाय की भी वक्तव्यता। शेष धम्मत्थिकायस्स॥ धर्मास्तिकायस्य। धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्य है। १०. जत्थ णं भंते ! तिण्णि पोग्गलत्थि- यत्र भदन्त! त्रयः पुद्गलास्तिकाय- ८०. भंते ! जहां पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश कायपदेसा ओगाढा तत्थ केवतिया प्रदेशाः अवगाढाः तत्र कियन्तः । अवगाढ हैं, वहां धर्मास्तिकाय के कितने धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा ? धर्मास्तिकायप्रदेशाः अवगाढाः? प्रदेश अवगाढ हैं? सिय एक्को, सिय दोण्णि, सिय स्यात् एकः, स्याताम् द्वौ, स्युः त्रयः, स्यात् एक, स्यात् दो, स्यात् तीन। इसी तिण्णि, एवं अधम्मत्थिकायस्स वि, एवं एवम् अधर्मास्तिकायस्यापि, एवम् प्रकार अधर्मास्तिकाय की भी, इसी प्रकार आगासत्थिकायस्स वि। सेसं जहेव आकाशास्तिकायस्यापि। शेषं यथैव आकाशास्तिकाय की भी वक्तव्यता। शेष दोण्हं, एवं एक्केको वड्डियव्वो पदेसो द्वयोः, एवम् एकैकः वर्धितव्यः प्रदेशः की दो प्रदेश की भांति वक्तव्यता। इसी आइल्लएहिं तिहिं अस्थिकाएहिं, सेसेहिं आदिमैः त्रिभिः अस्तिकायैः, शेषैः यथैव प्रकार प्रथम तीन अस्तिकायों में एक एक जहेब दोहं जाव दसण्हं सिय एक्को, द्वयोः यावत् दशानाम् स्यात् एकः, प्रदेश बढाना चाहिए। शेष की दो की भांति सिय दोण्णि, सिय तिण्णि जाव सिय स्याताम् द्वौ, स्युः त्रयः यावत् स्युः दश। वक्तव्यता यावत् दश प्रदेश में स्यात् एक, Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १३ : उ. ४ : सू. ८१-८३ १४४ दस। संखेज्जाणं सिय एक्को, सिय संख्येयानां स्यात् एकः, स्याताम् द्वौ दोण्णि जाव सिय दस, सिय संखेज्जा। यावत् स्युः दश, स्युः संख्येयाः।। असंखेज्जाणं सिय एक्को जाव सिय असंख्येयानाम् स्यात् एकः यावत् स्युः संखेज्जा, सिय असंखेज्जा। जहा। संख्येयाः, स्युः असंख्येयाः। यथा असंखेज्जा एवं अणंता वि॥ असंख्येयाः एवम् अनन्ताः अपि। स्यात् दो, स्यात् तीन यावत् स्यात् दश। संख्येय प्रदेश में स्यात् एक, स्यात् दो यावत् स्यात् दस, स्यात् संख्येय। असंख्येय में स्यात् एक यावत् स्यात् संख्येय, स्यात् असंख्येय। इसी प्रकार असंख्येय की भांति अनंत की वक्तव्यता। ८१. जत्थ णं भंते ! एगे अद्धासमए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा? एक्को । केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा? यत्र भदन्त! एकः अद्धासमयः अवगाढः । तत्र कियन्तः धर्मास्तिकायप्रदेशाः अवगाढाः? ८१. भंते ! जहां एक अद्धासमय अवगाढ है वहां धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं? एकः। कियन्तः अधर्मास्तिकायप्रदेशाः? एका अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ एक्को । केवतिया आगासत्थिकायपदेसा ? एकः। कियन्तः आकाशास्तिकायप्रदेशाः? एक। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ एक्को। केवतिया जीवत्थिकायपदेसा? अणंता। एवं जाव अद्धासमया॥ एकः। कियन्तः जीवास्तिकायप्रदेशाः? अनन्ताः। एवं यावत् अद्धासमयाः। एका जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं? अनंत। इस प्रकार यावत् अद्धासमय। ८२. भंते ! जहां धर्मास्तिकाय अवगाढ है, वहां धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं ? १२. जत्थ णं भंते ! धम्मत्थिकाए ओगाढे यत्र भदन्त! धर्मास्तिकायः अवगाढः तत्र तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा। कियन्तः धर्मास्तिकायप्रदेशाः ओगाढा? अवगाढाः? नत्थि एक्को वि। नास्ति एकोऽपि। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा ? कियन्तः अधर्मास्तिकायप्रदेशाः? एक भी नहीं। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं? असंखेज्जा। केवतिया आगासस्थिकायपदेसा? असंख्येयाः। कियन्तः आकाशास्तिकायप्रदेशाः? असंख्येय। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ असंखेज्जा। केवतिया जीवत्थिकायपदेसा ? अणंता। एवं जाव अद्धासमया॥ असंख्येयाः। कियन्तः जीवास्तिकायप्रदेशाः? अनन्ताः। एवं यावत् अद्धासमयाः। असंख्येय। जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ हैं? अनंत, इस प्रकार यावत् अद्धासमय। ८३. भंते ! जहां अधर्मास्तिकाय अवगाढ है, वहां धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ ८३. जत्थ णं भंते! अधम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायपदेसा ओगाढा.? असंखेज्जा। केवतिया अधम्मत्थिकायपदेसा? यत्र भदन्त! अधर्मास्तिकायः अवगाढः तत्र कियन्तः धर्मास्तिकायप्रदेशाः अवगाढाः? असंख्येयाः। कियन्तः अधर्मास्तिकायप्रदेशाः? असंख्येय। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ नत्थि एक्को वि। नास्ति एकोऽपि। सेसं जहा अधम्मत्थिकायस्स। एवं सव्वे शेषं यथा धर्मास्तिकायस्य। एवं सर्वे सहाणे-नत्थि एक्को वि भाणियब्बो, स्वस्थाने नास्ति एकोऽपि भणितव्यः। परट्ठाणे आदिल्लगा तिण्णि असंखेज्जा परस्थाने आदिमाः त्रयः असंख्येयाः भाणियब्वा, पच्छिल्लगा तिण्णि भणितव्याः, पश्चिमकाः त्रयः अनन्ताः एक भी नहीं। शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्य है। इस प्रकार सब स्वस्थान की अपेक्षा 'एक भी नहीं' यह वक्तव्य है, परस्थान की अपेक्षा प्रथम तीन असंख्येय वक्तव्य हैं, उत्तरवर्ती Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १४५ श. १३ : उ. ४ : सू. ८४-८६ तीन अनंत वक्तव्य हैं यावत् अद्धासमय। यावत् कितने अद्धासमय अवगाढ हैं ? अणंता भाणियब्बा जाव अद्धासमयो भणितव्याः यावत् अद्धासमयः इति । त्ति जाव केवतिया अद्धासमया यावत् कियन्तः अद्धासमयाः अवगाढाः? ओगाढा ? नत्थि एक्को वि॥ नास्ति एकोऽपि। एक भी नहीं। भाष्य १. सूत्र ७६-८३ व्यणुक स्कंध एक आकाश प्रदेश में भी अवगाढ हो सकता है और दो आकाश प्रदेशों में भी अवगाढ हो सकता है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के नियम भी आकाश की भांति वक्तव्य हैं। ५४. जत्थ णं भंते! एगे पुढविक्काइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढविक्काइया ओगाढा ? असंखेज्जा। केवतिया आउक्काइया ओगाढा ? असंखेज्जा। केवतिया तेउकाइया ओगाढा ? यत्र भदन्त! एकः पृथिवीकायिकः ५४. भंते ! जहां एक पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ अवगादः तत्र कियन्तः पृथिवीकायिकाः है, वहां कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ अवगाढाः? असंख्येयाः। असंख्येय। कियन्तः अप्कायिकाः अवगाढाः? । कितने अपकायिक जीव अवगाढ हैं? असंख्येयाः। असंख्येय। कियन्तः तेजस्कायिकाः अवगाढाः? कितने तैजसकायिक जीव अवगाढ हैं ? असंख्येयाः। असंख्येय। कियन्तः वायुकायिकाः अवगाढाः? कितने वायुकायिक जीव अवगाढ हैं ? असंख्येयाः। असंख्येया कियन्तः वनस्पतिकायिकाः अवगाढाः? कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ हैं ? अनन्ताः । अनंत। असंखेज्जा। केवतिया वाउकाइया ओगाढा ? असंखेज्जा। केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ? अणंता। ८५. जत्थ णं भंते! एगे आउक्काइए यत्र भदन्त! एकः अप्कायिकः अवगाढः ८५. भंते ! जहां एक अप्कायिक जीव अवगाढ ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढविक्काइया तत्र कियन्तः पृथिवीकायिकाः है, वहां कितने पृथ्वीकायिक जीव अवगाढ ओगाढा? अवगाढाः? असंखेज्जा। असंख्येयाः। असंख्येय। केवतिया आउक्काइया ओगाढा ? कियन्तः अपकायिकाः अवगाढाः? कितने अप्कायिक जीव अवगाढ हैं? असंखेज्जा। असंख्येयाः। असंख्येय। एवं जहेव पुढविक्काइयाणं वत्तव्वया एवं यथैव पृथिवीकायिकानां वक्तव्यता इस प्रकार जैसे पृथ्वीकायिक जीवों की तहेव सञ्बेसि निरवसेसं भाणियब्वं जाव तथैव सर्वेषां निरवशेषं भणितव्यं यावत् वक्तव्यता वैसे ही सबकी निरवशेष वणस्सइकाइयाणं जाव केवतिया वनस्पतिकायिकानां यावत कियन्तः वक्तव्यता, यावत् वनस्पतिकायिक यावत् वणस्सइकाइया ओगाढा? वनस्पतिकायिकाः अवगाढाः? कितने वनस्पतिकायिक जीव अवगाढ हैं ? अणता॥ अनन्ताः । अनंत। भाष्य १. सूत्र ८४-८५ समग्र लोक इनसे व्याप्त है। उनकी व्याप्ति का नियम यहां बतलाया प्रस्तुत दो सूत्रों में पांच स्थावर काय की वक्तव्यता है। प्रथम चार गया है। पांच स्थावर काय के जीव दो प्रकार के होते हैं सूक्ष्म और स्थावर काय के जीव असंख्य हैं। वनस्पतिकाय के जीव अनंत हैं। बादर। इस नियम का निर्देश सूक्ष्म स्थावर काय के लिए किया गया है। १६. एयंसि णं भंते! धम्मत्थिकाय- एतस्मिन् भदन्त! धर्मास्तिकाय- ८६. भंते ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अधम्मत्यिकाय - आगासत्थिकार्यसि अधर्मास्तिकाय . आकाशास्तिकाये आकाशास्तिकाय-इनमें कोई जीव रहने, चक्किया केई आसइत्तए वा सइत्तए वा ___ 'चक्किया' कश्चित् आसितुं वा शयितुं सोने, ठहरने, बैठने और करवट बदलने में चिहित्तए वा निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा स्थातुं वा निषीदितुं वा त्वग्वर्तितुं समर्थ है ? वा? वा? १. उत्त. ३६/७०,८४,६२,१०८,११७। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ८७,८८ १४६ नो इणढे समझे। अणंता पणत्थ जीवा ओगाढा॥ नो अयमर्थः समर्थः। अनन्ताः पुनरत्र जीवाः अवगाढाः। भगवई यह अर्थ संगत नहीं है। वहां अनंत जीव अवगाढ हैं। १७. से केणटेणं भंते ! एवं बूच्चइ-एयंसिणं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ८७. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा धम्मत्थिकाय . अधम्मत्थिकाय- एतस्मिन् धर्मास्तिकाय-अधर्मास्ति- है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आगासत्थिकायंसि नो चक्किया केई । काय-आकाशास्तिकाये नो 'चक्किया' आकाशास्तिकाय-इनमें कोई जीव रहने, आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठित्तए वा कश्चित् आसितुं वा शयितुं वा स्थातुं वा सोने, ठहरने, बैठने और करवट लेने में निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा? अणंता निषीदितुं वा त्वग्वर्तितुं वा? अनंताः समर्थ नहीं है? वहां अनंत जीव अवगाढ हैं? पुणत्थ जीवा ओगाढा ? पुनरत्र जीवाः अवगाढाः? गोयमा! से जहानामए कूडागार- गौतम! अथ यथानामका कूटागारशाला गौतम ! एक यथानाम कूटागारशाला है। साला सिया-दुहओ लित्ता गुत्ता स्यात्-द्विधा लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारा भीतर और बाहर दोनों ओर से पुती हुई, गुत्तवार णिवाया णिवायगंभीरा। अह । निवाता निवातगंभीरा। अथ कश्चित् गुप्त, गुप्त द्वार वाली, पवन-रहित, निवातणं केई पुरिसे पदीवसहस्सं गहाय । पुरुषः प्रदीपसहस्रं गृहीत्वा कूटागार- गंभीर है। किसी पुरुष ने हजार दीपक लेकर कूडागारसालाए अंतो-अंतो शालायाम् अन्तः-अन्तः अनुप्रविशति, कूटागारशाला के भीतर-भीतर अनुप्रवेश अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता तीसे । अनुप्रविश्य तस्यां कूटागारशालायां किया, अनुप्रवेश कर उस कूटागार शाला के कूडागारसालाए सब्बतो समंता घण- सर्वतः समन्तात् घन-निचित-निरन्तर- सर्वतः समन्तात्-चारों ओर सघन, निचित, निचिय-निरंतर-णिच्छिड्डाई दुवार- निश्छिद्राणि द्वारवदनानि पिदधाति, अन्तर-रहित निश्छिद्र दरवाजों के कपाटों वयणाई पिहेइ, पिहेत्ता तीसे कूडागार- पिधाय तस्यां कूटागारशालायां को ढक दिया, ढककर उस कूटागारशाला सालाए बहुमज्झदेसभाए जहण्णेणं बहमध्यदेशभागे जघन्येन एकः वा द्वौ के बहु मध्य देश-भाग में जघन्यतः एक, दो एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं वा त्रयः वा, उत्कर्षेण प्रदीपसहस्रं अथवा तीन, उत्कृष्टतः हजार दीप पदीवसहस्सं पलीवेज्जा। से नूणं प्रदीपयेत्। प्रज्वलित किए। गोयमा ! ताओ पदीवलेस्साओ अण्ण- तत् नूनं गौतम! ताः 'प्रदीपलेश्याः गौतम ! क्या वे प्रदीप-लेश्याएं अन्योन्य मण्णसंबद्धाओ अण्णमण्णपुट्ठाओ अन्योन्य-संबद्धाः अन्योन्यस्पृष्टाः संबद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य संबद्धअण्णमण्णसंबद्धपुट्ठाओ अण्णमण्ण- अन्योन्यसंबद्धस्पृष्टाः अन्योन्यघटत्वेन । स्पृष्ट, अन्योन्य एकीभूत बनी हुई हैं ? घडत्ताए चिट्ठति ? तिष्ठन्ति? हंता चिट्ठति। हन्त तिष्ठन्ति। हां, बनी हुई हैं। चक्किया णं गोयमा ! केई तासु 'चक्किया' गौतम! कश्चित् तासु गौतम ! क्या कोई उन प्रदीप लेश्याओं में पदीवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव प्रदीपलेश्यासु आसितुं वा यावत् बैठने यावत् करवट बदलने में समर्थ है? तुयट्टित्तए वा ? त्वग्वर्तितुं वा? भगवं! नो इणढे समझे। अणंता भगवन्! नो अयमर्थः समर्थः । अनन्ताः भगवन् ! यह अर्थ संगत नहीं है। वहां पुणत्थ जीवा ओगाढा। पुनरत्र जीवाः अवगाढाः। अनंत जीव अवगाढ हैं। से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ जाव तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते यावत् गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा अणंता पुणत्य जीवा ओगाढा॥ अनन्ताः पुनरत्र जीवाः अवगाढाः । है-यावत् वहां अनंत जीव अवगाढ हैं। भाष्य १. सूत्र ८६-८७ प्रयत्न किया है। दीए का प्रकाश मूर्त होता है फिर भी उसमें आसन, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-ये शयन आदि की क्रियाएं संभव नहीं होती। द्रष्टव्य भगवई-७/२१६ तीनों अमूर्त हैं इसलिए इनमें आसन, शयन आदि की क्रियाएं संभव का भाष्य। नहीं होतीं। सूत्रकार ने दीए के प्रकाश के दृष्टांत से इसे समझाने का लोय-पदं लोक-पदम् लोक-पदम् ८८. कहि णं भंते ! लोए बहसमे, कहिणं कुत्र भदन्त! लोकः बहुसमः, कुत्र ८५. भंते ! लोक कहां बहु सम है ? भंते! लोक भंते ! लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते ? भदन्त! लोकः सर्ववैग्रहिकः प्रज्ञप्तः? कहां सर्व लघु प्रज्ञप्त है? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए । गौतम! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितनउवरिमहेछिल्लेसु खुडगपयरेसु, एत्य णं उपरितन-अधस्तनेषु 'खुड्डग' प्रतरेषु अधस्तन-इन दो क्षुल्लक प्रतरों में यह लोक Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते ॥ ८६. कहि णं भंते! विग्गहविग्गहिए लोए कुत्र भदन्त! विग्रहवैग्रहिकः लोकः पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तः ? गौतम! विग्रहकण्डके, अत्र विग्रहवैग्रहिकः लोकः प्रज्ञप्तः । गोयमा ! विग्गहकंडए, एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते ॥ किंसंठिए णं भंते! लोए पण्णत्ते ? गोमा ! सुपइट्टियसंठिए लोए पण्णत्तेट्ठा विच्छिणे, मज्झे संखित्ते, उपि विसाले; अहे पलियंकसंठिए, मज्झे बरवइरविग्गहिए, उपि उद्धमुइंगा - कारसंठिए । तंसि च णं सासयंसि लोगंसि ट्ठा विच्छिसि जाव उपि उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ-पास, अजीवे वि जाणइपास, तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिब्वाइ सव्वदुक्खाणं अंत करेति ॥ ६०. ६१. एयस्स णं भंते! अहेलोगस्स, तिरियलोगस्स, उडलोगस्स य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे तिरियलोए, उलो असंखेज्जगुणे, अहेलोए विसेसाहिए ॥ १. . लोक १४७ अत्र लोक बहुसमः अत्र लोक: सर्ववैग्रहिकः प्रज्ञप्तः । १. सूत्र ८८-६१ प्रस्तुत आलापक में लोक के विषय में चार प्रश्न उपस्थित कर उनका उत्तर दिया गया है- २. लोक सर्वाधिक संक्षिप्त कहां है ? ३. लोक वक्रशरीर वाला कहां है ? ४. लोक किस संस्थान वाला है? किंसंस्थितः भदन्त ! लोकः प्रज्ञप्तः ? गौतम! सुप्रतिष्ठकसंस्थितः लोकः प्रज्ञप्तः - अधः विच्छिन्नः, मध्ये संक्षिप्तः, उपरि विशालः । अधः पर्यङ्कसंस्थितः, मध्ये वरवज्रवैग्रहिकः, उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थितः । तस्मिन् च शाश्वते लोके अधः विच्छिन्ने यावत् उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थिते उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हत् जिनः केवली जीवान् अपि जानाति पश्यति, अजीवान् अपि जानाति पश्यति, ततः पश्चात् सिध्यति 'बुज्झइ' मुच्यते परिनिर्वाति सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति । एतस्य भदन्त ! अधोलोकस्य तिर्यक्लोकस्य, उर्ध्वलोकस्य च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? गौतम! सर्वस्तोकः तिर्यक्लोकः, ऊर्ध्वलोकः असंख्येयगुणः, अधोलोकः विशेषाधिकः । बहुसम वृद्धि हानि रहित कहां है ? भाष्य १. भ. वृ. १३/८८ - बहुसमे' त्ति अत्यन्तं समः, लोको हि क्वचिद् वर्धमानः क्वचिद् हीयमानोऽतस्तन्निषेधाद् बहुसमो वृद्धिहानिवर्जितः इत्यर्थः । 'सव्वविग्गहिए' ति विग्रहो वक्रं लघुमि (रि) त्यर्थः तदस्यास्तीति विग्रहिकः सर्वथा विग्रहिकः सर्वविग्रहिकः सर्वसंक्षिप्त इत्यर्थः, उवरिमहेद्विल्लेसु श. १३ : उ. ४ : सू. ८६ - ६१ बहुसम तथा इसी स्थान पर सर्व लघु प्रज्ञप्त है। ८६. भंते! यह लोक कहां वक्र शरीर वाला प्रज्ञप्त है ? गौतम ! जहां विग्रह- कण्डक है- प्रदेश की हान वृद्धि के कारण वक्र है, वहां लोक वक्र शरीर वाला प्रज्ञप्त है। ६०. भंते! लोक किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है ? गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक संस्थान वाला प्रज्ञप्त है - निम्न भाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में विशाल है। वह निम्न भाग में पर्यक के आकार वाला, मध्य में श्रेष्ठ वज्र के आकार वाला और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। इस शाश्वत निम्न भाग में विस्तीर्ण यावत् ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में उत्पन्न ज्ञानदर्शन का धारक, अर्हत्, जिन, केवली, जीवों को भी जानता - देखता है, अजीवों को भी जानता देखता है, उसके पश्चात् वह सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत होता है और सब दुःखों का अंत करता है। १. भंते! इस अधोलोक, तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! तिर्यक्लोक सबसे अल्प है। ऊर्ध्वलोक उससे असंख्येय गुण अधिक है। अधोलोक उससे विशेषाधिक है। लोक का आकार कहीं वर्धमान और कहीं हीयमान है। रत्नप्रभा पृथ्वी में दो क्षुल्लक प्रतर हैं। वे शेष प्रतरों की अपेक्षा छोटे हैं इसलिए उन्हें क्षुल्लक प्रतर कहा गया है। उनकी लंबाई चौड़ाई एक रज्जु प्रमाण है। वे तिर्यक् लोक के मध्य भाग में विद्यमान हैं। ऊपरिवर्ती प्रतर से ऊपर की ओर प्रतर की वृद्धि होती है। अधोवर्ती प्रतर से नीचे की ओर प्रतर की वृद्धि होती है। इन दोनों प्रतरों की अवस्थिति है, वहां लोक बहुसम है, सर्व संक्षिप्त है। ' खुड्डागपयरेसु त्ति उपरिमो यमवधीकृत्योद्धर्वं प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ताः, अधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः प्रतरप्रवृद्धिः प्रवृत्ताः ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकप्रतरयोः शेषापेक्षया लघुतरयो रज्जुप्रमाणायाम-विष्कंभयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवर्त्तिनोः एत्थं णं ति एतयोः - प्रज्ञापकेन उपदर्श्यमानतया प्रत्यक्षयोः । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ६२ विग्रह- कंडक का अर्थ है-वक्र अवयव वाला । ब्रह्मलोक लोकपुरुष के कोहनी के स्थान पर है। इस आधार पर लोक को वक्र शरीर वाला कहा गया है। विशेष जानकारी के लिए देखें अणुओगद्दाराई सूत्र ४११ का टिप्पण पृष्ठ २४४ - २४६॥ लोकान्त में कहीं प्रदेश की वृद्धि है और कहीं हानि है। इस आधार पर वह भी विग्रहकंडक बनता है। इस प्रकार यह लोक ब्रह्मलोक तथा लोकान्त- इन दो स्थानों में वक्र शरीर वाला है। संस्थान की जानकारी के लिए देखें भगवई ७ / ३ तथा ११/ ६२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ १४८ १. वही, १३ / ८८ - ८६ - विग्गहविग्गहिए ति विग्रहो वक्रं तद्युक्तो विग्रहःशरीरं यस्यास्ति स विग्रहविग्रहिकः, 'विग्गहकंडए' त्ति विग्रहो वक्रं कण्डकं - अवयवो, विग्रहरूपं कण्डकं विग्रहकण्डकं तत्र तत्र ब्रह्मलोक ६० का भाष्य । प्रस्तुत आगम में लोक के विषय में अनेक आलापक उपलब्ध हैं- भगवई ५ / २४३ - २४४, ११ / ६०-११४। शब्द विमर्श तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । भगवई विग्रह - वक्र, लघु । विग्रहिक - विग्रह वाला । विग्गह विग्गहिए-विग्रह वक्र, विग्रह- शरीर, वक्र शरीर वाला। विग्गह कंडए - विग्रह - वक्र, कंडक अवयव । ६२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। कूप्पर इत्यर्थः यत्र वा प्रदेशवृद्धया हान्या वा वक्रं भवति तद्विग्रहकण्डकं, तच्च प्रायो लोकान्तेष्वस्तीति । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल आहार- पदं ६३. नेरइया णं भंते! किं सचित्ताहारा ? अचित्ताहारा ? मीसाहारा ? गोयमा ! नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा, नो मीसाहारा । एवं असुरकुमारा, पढमो नेरइयउद्देसओ निरवसेसो भाणियव्वो ।। ६४. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक संस्कृत छाया आहार-पदम् नैरयिका : भदन्त ! किं सचित्ताहाराः ? अचित्ताहाराः ? मिश्राहाराः ? गौतम! नो सचित्ताहाराः, अचित्ताहाराः, नो मिश्राहाराः। एवम् असुरकुमाराः। प्रथमः नैरयिकोद्देशकः निरवशेषः भणितव्यः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । हिन्दी अनुवाद आहार पद ९३. भंते! क्या नैरयिक सचित्त आहार वाले हैं ? क्या अचित्त आहार वाले हैं ? क्या मिश्र आहार वाले हैं ? गौतम ! सचित्त आहार वाले नहीं हैं, अचित्त आहार वाले हैं, मिश्र आहार वाले नहीं हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों की वक्तव्यता । प्रथम नैरयिक उद्देशक (पण्णवणा २८ / १ ) निरवशेष वक्तव्य है। ६४. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठो उद्देसो : छठा उद्देशक मल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संतर-निरंतर-उववज्जणादि-पदं ६५. रायगिहे जाव एवं वयासी-संतरं भंते! नेरइया उववज्जंति ? निरंतरं नेरइया उववज्जति ? गोयमा ! संतरं पि नेरइया उववज्जंति, निरंतरं पि नेरइया उववज्जंति। एवं असुरकुमारा वि। एवं जहा गंगेये तहेब दो दंडगा जाव संतरं पि वेमाणिया चयंति, निरंतरं पि चेमाणिया चयंति॥ सान्तर-निरन्तर-उपपन्नादि-पदम् राजगृहं यावत् एवमवादीत्-सान्तरं भदन्त! नैरयिकाः उपपद्यन्ते? निरन्तरं नैरयिकाः उपपद्यन्ते? गौतम! सान्तरमपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते, निरन्तरमपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते। एवम् असुरकुमाराः अपि। एवं यथा गाङ्गेये तथैव द्वौ दण्डको यावत् सान्तरमपि वैमानिकाः च्यवन्ते, निरन्तरमपि वैमानिकाः च्यवन्ते। सान्तर-निरंतर उपपन्नादि पद १५. राजगृह नगर यावत् गौतम स्वामी इस प्रकार बोले-भंते ! नैरयिक सांतर उपपन्न होते हैं ? निरंतर उपपन्न होते हैं? गौतम ! नैरयिक सांतर उपपन्न होते हैं, निरंतर भी उपपन्न होते हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों की वक्तव्यता। इस प्रकार जैसे गांगेय (भगवती/८०-८५) की वक्तव्यता वैसे ही दो दण्डक यावत् वैमानिक सांतर भी च्यवन करते हैं, निरन्तर भी च्यवन करते ह। चमरचंच-आवास-पद अमरिंदस्स कुत्र भदन्त चमरचंच आवास पद ६६. भंते ! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर का चमरचंच नामक आवास कहां प्रज्ञप्त है? चमरचञ्च-आवास-पदम् १६.कहि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स कुत्र भदन्त! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमाररण्णो चमरचंचे नाम __ असुरकुमारराजस्य चमरचञ्चः नाम आवासे पण्णत्ते? आवासः प्रज्ञप्तः? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पन्वयस्स दाहिणे णं तिरियमसंखेज्जे पर्वतस्य दक्षिणे तिर्यग् असंख्येयाः दीवसमुद्दे-एवं जहा बितियसए द्वीपसमद्रा:-एवं यथा द्वितीयशते सभाउद्देसए बत्तब्बया सच्चेव अपरिसेसा सभोद्देशके वक्तव्यता सा चैव नेयव्वा। तीसे णं चमरचंचाए अपरिशेषा नेतव्या। तस्याः चमररायहाणीए दाहिणपञ्चत्थिमे णं चञ्चायाः राजधान्याः दक्षिण-पाश्चात्ये छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडीओ षट्कोटिशतं पञ्चपञ्चाशत् कोटयः पणतीसं च सयसहस्साई पन्नासं च पञ्चत्रिंशत् च शतसहस्राणि पञ्चाशत् सहस्साई अरुणोदगसमुई तिरियं च सहस्राणि अरुणोदकसमुद्रं तिर्यक् वीइवइत्ता, एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स ___ व्यतिव्रज्य, अत्र चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमाररण्णो चमरचंचे नामं असुरकुमारराजस्य चमरचञ्चः नाम आवासे पण्णत्ते-चउरासीइं जोयण- आवासः प्रज्ञप्तः-चतुरशीतिः योजनसहस्साई आयामविक्खंभेणं, दो सहस्राणि आयामविष्कम्भेण, द्वे जोयणसयसहस्सा पन्नहिँ च सहस्साई योजनशतसहस्रे पञ्चषष्ठिः च छच बत्तीसे जोयणसए किंचि सहस्राणि षड़ च द्वाविंशतिः विसेसाहिए परिक्खेवेणं। से णं एगेणं योजनशतानि किंचित विशेषाधिकानि पागारेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। परिक्षेपण। सः एकेन प्राकारेण सर्वतः से णं पागारे दिवढ जोयणसयं उर्ल्ड समन्तात् सम्परिक्षिप्तः। सः प्राकारः उच्चत्तेणं, एवं चमरचंचाए रायहाणीए व्यर्धं योजनशतम् ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन, एवं वत्तव्वया भाणियब्वा सभाविहूणा जाव चमरचञ्चायाः राजधान्याः वक्तव्यता गौतम ! जंबूद्वीप द्वीप में मेरुपर्वत से दक्षिण भाग में तिरछे असंख्य द्वीप समुद्रों के पार चले जाने पर-इस प्रकार जैसे द्वितीय शतक (२/११८-१२१) में चमर-सभा उद्देशक की वक्तव्यता वही अपरिशेष ज्ञातव्य है। उस चमरचंचा राजधानी में दक्षिण-पश्चिम में अरुणोदय समुद्र में छह अरब, पचपन करोड़, पैंतीस लाख पचास हजार योजन तिरछा चले जाने पर वहां असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर का चमरचंच नामक आवास प्रज्ञप्त है-उसकी पीठिका लंबाई-चौड़ाई में चौरासी हजार योजन और परिधि में दो लाख पैंसठ हजार छह सौ बत्तीस योजन से कुछ विशेषाधिक है। ___ वह एक प्राकार से चारों ओर से घिरा हुआ है। वह प्राकार ऊंचाई में डेढ-सौ योजन ऊर्ध्व है। इस प्रकार चमरचंचा राजधानी की वक्तव्यता, वहां सभा नहीं है यावत् चार प्रासाद-पंक्ति हैं। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई चत्तारि पासायांतीओ। ६७. चमरे णं भंते! असुरिदे असुरकुमारराया चमरचंचे आवासे बसहिं उवेति ? नोट्टे समट्टे ॥ ६८. से केणं खाई अद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइचमरचंचे आवासे, चमरचंचे आवासे ? गोयमा ! से जहानामए - इहं मणुस्सलोगंसि उवगारियलेणाइ वा, उज्जाणियलेणाइ बा, णिज्जाणियलेणाइ वा, धारावारियलेणाइवा, तत्थ णं बहवे मस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति सति चिति निसीयंति तुयट्टंति हसंति रमंति ललंति कीति कित्तंति मोहेंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणाणं कल्लाण- फलवित्तिविसेसं पचणुब्भवमाणा विहरंति, अण्णत्थ पुण वसहिं उवेंति । एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं, अण्णत्थ पुण वसहि उवेति । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - चमरचंचे आवासे, चमरचंचे आवासे ॥ १. सूत्र ६८ शब्द-विमर्श लयन । १५१ भणितव्या सभाविहीना यावत् चतस्रः प्रासादपंक्तयः । चमरः भदन्त ! असुरेन्द्रः असुरकुमारराजा चमरचञ्चे आवासे वसतिम् उपैति ? नो अयमर्थः समर्थः । सः यथानामक:- इह तत् केनार्थेन खाइं भदन्त ! एवमुच्यतेचमरचञ्चः आवासः, चमरचञ्चः आवासः ? गौतम! मनुष्यलोके उपकारिकलयनानि वा, औद्यानिकलयनानि वा, नैर्याणिकलयनानि वा, धारावारिकलयनानि वा, तत्र बहवः मनुष्याः च मानुष्यः च आसते शेरते तिष्ठन्ति निषीदन्ति त्वग्वर्तन्ते हसन्ति रमन्ते ललन्ति क्रीडन्ति कीर्त्तयन्ति मोहयन्ति पुरा पुराणानां सुचीर्णानां सुपराक्रान्तानां शुभानां कृतानां कर्मणां कल्याणानां कल्याणफलवृत्तिविशेषं प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, अन्यत्र पुनः वसतिम् उपयन्ति । एवमेव गौतम! चमरस्य असुरेन्द्रस्य चमरचञ्चः असुरकुमारराजस्य आवासः । केवलं क्रीडा - रतिप्रत्ययम्, अन्यत्र पुनः वसतिम् उपैति । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - चमरचञ्चः आवासः, चमरचञ्चः आवासः । औपकारिक लयन - पीठिका | औद्यानिक लयन - उद्यान में होने वाला लयन । निर्यानिक लयन - नगर - निर्गमन के स्थान पर होने वाला जल-प्रपात लयन-जल प्रपात के परिपार्श्व में बना हुआ लयन । ६६. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ ॥ भाष्य तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त । इति यावत् विहरति । श. १३ : उ. ६ : सू. ६७-६६ ६७. भंते! क्या असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर चमरचंचा आवास में निवास करते हैं ? यह अर्थ संगत नहीं है। ६८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - चमरचंच आवास चमरचंच आवास है ? वृत्तिकार ने आसयंति का अर्थ अल्पकालिक आश्रय लेना और सयंति का अर्थ आश्रय लेना किया है। उनका वैकल्पिक अर्थ है - अल्पकाल के लिए सोना और लंबे समय के लिए सोना ।' राजप्रश्नीय की वृत्ति में आसयंति का अर्थ बैठना तथा सयंति का अर्थ सोना किया गया है।' निसीयंति का अर्थ भी बैठना है। बैठने के लिए द्व्यर्थक प्रयोग विमर्शनीय है । इस दृष्टि से अभयदेव सूरि की अर्थ- कल्पना समीचीन लगती है। गौतम ! यथानाम इस मनुष्य लोक में औपकारिक लयन, औद्यानिक लयन, निर्यानिक लयन, प्रपात लयन, वहां बहुत पुरुष और स्त्रियां रहते हैं, सोते हैं, ठहरते हैं, बैठते हैं, करवट बदलते हैं, परिहास करते हैं, रमण करते हैं, मनोवांछित क्रियाएं करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, दूसरों को क्रीडा करवाते हैं, मोहित करते हैं। पूर्वकृत, पुरातन सुआचरित सुपराक्रांत, शुभ और कल्याणकारी कर्मों के कल्याण फल वृत्ति विशेष का प्रत्यनुभव करते हुए विहरण करते हैं, निवास वहां नहीं करते हैं, दूसरे स्थान पर करते हैं। गौतम ! इसी प्रकार असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर चमरचंच आवास में केवल क्रीडा - रति के लिए आते हैं, निवास वहां नहीं करते हैं, दूसरे स्थान पर करते हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- चमरचंच आवास चमरचंच आवास है। १. भ. वृ. १३/६८ - आसयंति' त्ति आश्रयन्ते, ईषद् भजंते, 'सयंति' त्ति श्रयन्ते अनीषद् भजन्ते अथवा आसयंति ईषत्स्वपन्ति सयंति अनीषत्स्वपन्ति । २. राय. वृ. प. १६६ - २००१ ६६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है । यावत् आत्मा को भावित करते हुए विहरण करते हैं। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ६ : सू. १००-१०२ १५२ भगवई १००. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा १००. श्रमण भगवान् महावीर ने किसी दिन अण्णया कयाइ रायगिहाओ नगराओ कदाचिद् राजगृहात् नगरात् गुणशिल- राजगृह नगर से, गुणशीलक चैत्य से गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, कात् चैत्यात प्रतिनिष्क्रामति, प्रति- प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर वे बहिया जणवयविहारं विहरइ॥ निष्क्रम्य बहिः जनपदविहारं विहरति। वहां से बाहर जनपद विहार करने लगे। उद्दायणकहा-पदं उद्रायण कथा-पदम् १०१. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नयरी होत्था–वण्णओ। पुण्णभद्दे नगरी आसीत्-वर्णकः । पूर्णभद्रं चैत्यम् चेहए-वण्णओ। तए णं समणे भगवं वर्णकः । ततः श्रमणः भगवान महावीरः महावीरे अण्णदा कदाइ पुव्वाणुपुचि अन्यदा कदाचित् पूर्वानुपूर्वी चरन् चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे ग्रामानुग्रामं दवन् सुखसुखेन विहरन् सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी यत्रैव चम्पा नगरी यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यं जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्णाति, ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ भावयन् विहरति। उद्रायण कथा-पद १०१. उस काल उस समय में चंपा नामक नगरी थी-वर्णक। पूर्णभद्र चैत्य-वर्णक। श्रमण भगवान् महावीर किसी दिन क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां चंपा नगरी और पूर्णभद्र चैत्य था, वहां आए। वहां आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली, अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे। १०२. तेणं कालेणं तेणं समएणं तस्मिन् काले तस्मिन् समये १०२. उस काल उस समय में सिंधु-सौवीर सिंधूसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए नाम सिन्धुसौवीरेषु जनपदेषु वीतीभयं नाम जनपद में वीतीभय नाम का नगर नगरे होत्था-वण्णओ। तस्स णं नगरम् आसीत्-वर्णकः। तस्य वीती- . था-वर्णक। उस वीतीभय नगर के बाहर वीतीभयस्स नगरस्स बहिया उत्तर- भयस्य नगरस्य बहिः उत्तरपौरस्त्यः उत्तर पश्चिम दिशि भाग में मृगवन नामक पुरथिमे दिसीभाए, एत्थ णं मियवणे दिग्भागः, अत्र मृगवनं नाम उद्यानम् उद्यान था-सर्व ऋतु में पुष्प और फल से नाम उज्जाणे होत्था-सब्बोउय-पुप्फ- आसीत्-सर्वर्तुक - पुष्पफलसमृद्ध- समृद्ध-वर्णक। उस वीतीभय नगर में फलसमिद्धे-वण्णओ। तत्थ णं बीतीभए वर्णकः। तत्र वीतीभये नगरे उद्रायणः उद्रायण नाम का राजा था-वह महान् नगरे उदायणे नामं राया होत्या- नाम राजा आसीत्-महत् हिमवत्- हिमालय, महान् मलय, मेरु और महेन्द्र की महयाहिमवंत - महंत - मलय - मंदर महत्-मलय-मन्दर-महेन्द्रसारः - वर्णकः। भांति-वर्णक। उस उद्रायण राजा के महिंदसारे-वण्णओ। तस्स णं तस्य उद्रायणस्य राज्ञः पद्मावती नाम पद्मावती नाम की देवी थी-सुकुमाल हाथ उहायणस्स रण्णो पउमावती नामं देवी देवी आसीत-सुकुमार-पाणिपादा- पैर वाली-वर्णक। उस उद्रायण राजा के होत्था-सुकुमालपाणिपाया- वण्णओ। वर्णकः। तस्य उद्रायणस्य राज्ञः प्रभावती नाम की देवी थी-वर्णक। यावत् तस्स णं उद्दायणस्स रण्णो पभावती प्रभावती नाम देवी आसीत्-वर्णकः विहरण करने लगे। नामं देवी होत्था-वण्णओ जाव विहरइ। यावत् विहरति। तस्य उद्रायणस्य राज्ञः उस उद्रायण राजा का पुत्र और प्रभावती तस्स णं उद्दायणस्स रण्णो पुत्ते पुत्रः प्रभावत्याः देव्याः आत्मजः अभीची देवी का आत्मज अभीची नाम का कुमार पभावतीए देवीए अत्तए अभीयी नामं नाम कुमारः आसीत्-सुकुमार- था-सुकुमाल हाथ पैर वाला, अक्षीण और कुमारे होत्था-सुकुमालपाणिपाए पाणिपादः अहीन-प्रतिपूर्ण- प्रतिपूर्ण पंचेन्द्रिय शरीर वाला, लक्षण और अहीण - पडिपुण्ण - पंचिंदिय - सरीरे पञ्चेन्द्रिय-शरीरः लक्षण-व्यञ्जन- व्यंजन गुणों से उपपेत, मान, उन्मान और लक्खण-बंजण-गुणोववेए माणुम्माण- गणोपेतः मानोन्मान-प्रमाण-प्रतिपूर्ण प्रमाण से प्रतिपूर्ण, सुजात, सर्वांग सुंदर, पमाण-पडिपुण्ण-सुजायसव्वंग-सुंदरंगे सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गः शशि- चन्द्रमा के समान सौम्य आकार वाला, ससिसोमाकारे कंते पियदसणे सुरूवे सौम्याकारः कान्तः प्रियदर्शन: सुरूपः कांत, प्रिय-दर्शन, सुरूप और प्रतिरूप था। पडिरूवे। प्रतिरूपः। से णं अभीयीकुमारे जुवराया वि सः अभीचीकुमारः युवराजा अपि वह अभीची कुमार युवराज भी था-उद्रायण होत्था-उदायणस्स रण्णो रज्जं च रहुंच आसीत्-उद्रायणस्य राज्ञः राज्यं च राजा के राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठगारं च राष्ट्रं च बलं च वाहनं च कोशं च कोष्ठागार, पुर और अन्तःपुर की स्वयं पुरं च अंतेउरं च सयमेव पचुवेक्ख- कोष्ठागारं च पुरं च अन्तःपुरं च प्रत्युपेक्षणा (निरीक्षण) करता हुआ विहरण माणे-पचुवेक्खमाणे विहरइ। तस्स णं स्वयमेव प्रत्युपेक्षमाणः प्रत्युपेक्षमाणः कर रहा था। उस उद्रायण राजा का अपना Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ.६ : सू. १०३,१०४ भगवई १५३ उद्दायणस्स रण्णो नियए भाइणेज्जे- विहरति। तस्य उद्रायणस्य राज्ञः केसी नाम कुमारे होत्था-सुकुमाल- निजकः भागिनेयः केशी नाम कुमारः पाणिपाए जाव सुरूवे। से णं उदायणे आसीत्-सुकुमारपाणिपादः यावत् राया सिंधूसोवीरप्पामोक्खाणं सोलसण्हं सुरूपः। सः उद्रायण: राजा सिन्धुजणवयाणं वीतीभयप्पामोक्खाणं तिण्हं सौवीरप्रमुख्यानां षोडशानां जनतेसट्ठीणं नगरागरसयाणं, महसेणप्पा- पदानाम्, वीतीभय-प्रमुख्यानां त्रयाणां मोक्खाणं दसण्हं राईणं बद्धमउडाणं त्रिषष्ठीनां नगरा-करशतानाम्, महाविदिन्नछत्त - चामर - बालवीयणाणं, सेनप्रमुख्यानां दशानां राज्ञां बद्धअण्णेसिं च बहुणं राईसर - तलवर - मुकुटानां विदत्तछत्र-चामर-बालमाडंबिय - कोडुंबिय - इब्भ - सेट्ठि - वीजनानाम्, अन्येषां च बहूनां राजेश्वरसेणावइ-सत्यवाहप्पभिईणं आहेवच्चं तलवर - माडम्बिक - कौटुम्बिक-इभ्यपोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं आणा-ईसर- श्रेष्ठि - सेनापति - सार्थवाहप्रभृतीनाम् सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे । आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृत्वम् समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव आज्ञा-ईश्वर-सैनापत्यं कारयन् पालयन् अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं श्रमणोपासकः . अभिगतजीवाजीवः भावमाणे विहरइ॥ यावत् यथापरिगृहीतैः तपःकर्मभिः । आत्मानं भावयन् विहरति। भागिनेय केशी नाम का कुमार था-सुकुमाल हाथ पैर वाला यावत् सुरूप। वह उद्रायण राजा सिन्धु सौवीर आदि सोलह जनपद, वीतीभय नगर आदि तीन सौ तेसठ नगर, आकर, छत्र, चामर, बाल वीजन आदि प्रदत्त महासेन आदि दस मुकुटवत् राजों का, अन्य बहुत राजे, युवराज, कोटवाल, मडंबपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व (पोषण) तथा आज्ञा देने में समर्थ और सेनापतित्य करता हुआ, अन्य से आज्ञा का पालन करवाता हुआ वह श्रमणोपासक जीव अजीव को जानने वाला यावत् यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ रह रहा था। "पा भाष्य १. सूत्र १०२ वृत्तिकार ने सिन्धु सौवीर का अर्थ सिन्धु नदी का पार्श्ववर्ती सौवीर जनपद किया है।' उद्रायण के दो महारानियां थी-पद्मावती और प्रभावती। पद्मावती के विषय में कोई प्रामाणिक स्रोत उपलब्ध नहीं है। १०३. तए णं से उद्दायणे राया अण्णया ततः सः उद्रायणः राजा अन्यदा १०३. वह उद्रायण राजा किसी दिन जहां पौषध कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव कदाचित् यत्रैव पौषधशाला तत्रैव शाला थी, वहां आया। शंख श्रावक की उवागच्छइ, जहा संखे जाव पोसहिए। उपागच्छति, यथा शंखः यावत् भांति यावत् मैं उपवास करूं, ब्रह्मचारी रहूं, बंभचारी ओमुक्कमणिसुवण्णे बवगय- पौषधिकः ब्रह्मचारी उन्मुक्तमणिसुवर्णः सुवर्ण मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित माला-वण्णग-विलेवणे निक्खित्त- व्यपगतमाला-वर्णक-विलेपनः निक्षिप्त- चूर्ण और विलेपन से रहित, शस्त्र, मूसल सत्थ-मुसले एगे अबिइए दन्भ- शस्त्र-मुसलः एकः अद्वितीयः आदि का वर्जन कर, अकेला, दूसरों के संथारोवगए पक्खियं पोसहं दर्भसंस्तारोपगतः पाक्षिकं पौषधं साहाय्य से निरपेक्ष, दर्भ-संस्तारक पर बैठ पडिजागरमाणे विहरइ॥ प्रतिजाग्रत् विहरति। कर पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करूं। १०४. तए णं तस्स उद्दायणस्स रण्णो ततः तस्य उद्रायणस्य राज्ञः पूर्वरात्रा- १०४. उस उद्रायण राजा के पूर्वरात्र-अपररात्र पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्म- पररात्रकालसमये धर्मजागरिकायां काल में धर्म जागरणा करते हुए इस प्रकार जागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे जाग्रतः अयमेतद्प: आध्यात्मिकः का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न संकरपे समुपज्जित्था-धन्ना णं ते समुदपादि-धन्याः ते ग्रामाकर नगर- हुआ-धन्य हैं वे ग्राम, आकर, नगर, गामागर - नगर • खेड-कब्बड-मडंब- खेट - कर्बट - मडम्ब-द्रोणमुखपत्तना- निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडम्ब, दोणमुह-पट्टणा-सम - संबाहसण्णिवेसा श्रमसम्बाधसन्निवेशाः यत्र श्रमणः द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संबाध, सनिवेश, जत्थ ण समणे भगवं महावीरे विहरइ, भगवान् महावीरः विहरति, धन्याः ते जहां श्रमण भगवान् महावीर विहरण कर धन्ना णं ते राईसर-तलवर-माडंबिय- राजेश्वर-'तलवर' माडम्बिक- रहे हैं। धन्य हैं वे राजे, युवराज, कोटवाल, कोडुबिय - इब्भ - सेटि-सेणावइ-सत्थ- कौटुम्बिक - इभ्य - श्रेष्ठि - सेनापति- मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, वाहप्पभितयो जे णं समणं भगवं सार्थवाहप्रभृतयः ये श्रमणं भगवन्तं सेनापति, सार्थवाह आदि, जो श्रमण १. भ. चू. १३/१०२-सिन्धु सौवीरेसु त्ति सिन्धुनद्याः आसनाः, सौवीराः-जनपदविशेषाः सिन्धुसौवीरास्तेषु। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ६ : सू. १०५-१०८ महावीरं वंदंति नमसंति जाव पज्जुवासंति । जइ णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे इहमागच्छेज्जा, इह समोसरेज्जा, इहेव वीतीभयस्स नगरस्स बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिव्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा, तो णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदेज्जा नमसेज्जा जाव पज्जुवासेज्जा ॥ १०५. तए णं समणे भगवं महावीरे उद्दायणस्स रणो अयमेयारूवं अज्झत्थियं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकष्पं समुप्पन्नं वियाणित्ता चंपाओ नगरीओ पुण्णभद्दाओ चेइयाओ पडिनिक्खम, पडिनिक्खमित्ता पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्माणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव सिंधूसोवीरे जणवए जेणेव वीतभये नगरे, जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर || १०६. तए णं वीतीभये नगरे सिंघाडगतिग- चउक्क चच्चर- चउम्मुह- महापहपहेसु जाव परिसा पज्जुवासइ ॥ १०७. तए णं से उद्दायणे राया इमीसे कहाए लट्ठे समाणे तुट्ठे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेड़, सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! वीयीभयं नगरं सन्भितरबाहिरियं जहा कूणिओ ओववाइए जाब पज्जुवासइ। पउमावतीपामोक्खाओ देवीओ तहेब जाव पज्जुवासंति। धम्मकहा॥ १०८. तए णं से उद्दायणे राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म तुट्ठे उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमसित्ता एवं वयासी - एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! १५४ महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति यावत् पर्युपासते । यदि श्रमणः भगवान् महावीरः पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं दवन् सुखसुखेन विहरन् इह आगच्छेत् इह समवसरेत् इहैव वीतीभयस्य नगरस्य बहिः मृगवने उद्याने यथाप्रतिरूपम् अवग्रहं अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरेत्, तदा अहं श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्देयं नमस्येयम् यावत् पर्युपासीय । ततः श्रमणः भगवान् महावीरः उद्रायणस्य राज्ञः एतमेतद्रूपं आध्यात्मिकं चिन्तितं प्रार्थितं मनोगतं संकल्पं समुत्पन्नं विज्ञाय चम्पायाः नगर्याः पूर्णभद्रात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं दवन् सुखंसुखेन विहरन् यत्रैव सिन्धुसौवीरः जनपदः यत्रैव वीतभयं नगरम्, यंत्रैव मृगवनम् उद्यानम् तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य यावत् संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति । ततः वीतीभये नगरे शृङ्गाटक- त्रिकचतुष्क चत्वर - चतुर्मख - महापथपथेषु यावत् परिषद् पर्युपासते । ततः सः उद्रायणः राजा अनया कथया लब्धार्थः सन् हष्टतुष्टः कौटुम्बिक - पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया ! वीतीभयं नगरं साभ्यन्तरबाहिरिकां यथा कूणिकः औपपातिके यावत् पर्युपासते । पद्मावतीप्रमुख्याः देव्यः तथैव यावत् पर्युपासते। धर्मकथा । ततः सः उद्रायणः राजा श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमण भगवन्तं महावीरं त्रिः यावत् नमस्थित्वा एवमवादीत् एवमेतद् भगवई भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करते हैं। यदि श्रमण भगवान् महावीर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम में परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए इस नगर में आएं, इस नगर में समवसृत हों, इसी वीतीभय नगर के बाहर मृगवन उद्यान में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण करें तो मैं श्रमण भगवान् महावीर को वंदन नमस्कार करूं यावत् पर्युपासना करूं। १०५. श्रमण भगवान् महावीर ने-उद्रायण राजा के इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक एवं मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ ऐसा जानकर चंपा नगरी और पूर्णभद्र चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां सिंधु सौवीर जनपद है, जहां वीतीभय नगर है, जहां मृगवन उद्यान है, वहां आए, वहां आकर यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण करने लगे। १०६. उस वीतीभय नगर के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी। १०७. उद्रायण राजा इस कथा को सुनकर हृष्ट तुष्ट हो गया। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रियो ! वीतीभय नगर को आभ्यंतर और बाहर जैसे औपपातिक में कूणिक की वक्तव्यता यावत् पर्युपासना की । पद्मावती प्रमुख देवियों ने वैसे ही यावत् पर्युपासना की। भगवान ने धर्म कहा। १०५. उद्रायण राजा श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठा, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार यावत् नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते! यह Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५५ श. १३ : उ. ६ : सू. १०६,११० अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते! भदन्त! तथैतद् भदन्त! अवितथमेतद् इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते! भदन्त! असंदिग्धमेतद् भदन्त! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते !-से जहेयं । इष्टमेतद् भदन्त! प्रतीष्टमेतद् भदन्त! तुम्भे वदह त्ति कट्ट जं नवरं- इष्टप्रतीष्टमेतद् भदन्त!-तत् यथैदं देवाणुप्पिया ! अभीयिकुमारं रज्जे यूयं वदथ इति कृत्वा यत् नवरम्ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं देवानुप्रिया! अभीचीकुमारं राज्ये अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ स्थापयामि, ततः अहं देवानुप्रियानाम् अणगारियं पब्वयामि। अन्तिके मुण्डः भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजामि। ऐसा ही है। भंते ! यह तथा (संवादिता पूर्ण) है। भंते! यह अवितथ है। भंते ! यह असंदिग्ध है। भंते ! यह इष्ट है। भंते ! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है। भंते ! यह इष्ट-प्रतीप्सित है-जैसा आप कह रहे हैं, ऐसा भाव प्रदर्शित कर, इतना विशेष है-देवानुप्रिय ! अभीची कुमार को राज्य में स्थापित करता हूं। मैं देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होता अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध॥ यथासुखं देवानुप्रिया! मा प्रतिबन्धम्। देवानुप्रिय ! जैसा सुख हो, प्रतिबंध मत करो। १०६. तए णं से उदायणे राया समणेणं ततः सः उद्रायणः राजा श्रमणेन भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे । हट्टतुट्ठ समणं भगवं महावीरं बंदइ हृष्टतुष्टः श्रमणं भगवन्तं महावीरं नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता तमेव वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा आभिसेक्कं हथि गृहइ, द्रहित्ता तमेव आभिषेक्यं हस्तिनं आरोहति समणस्स भगवओ महावीरस्स आरुह्य श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अंतियाओ मियवणाओ उज्जाणाओ अन्तिकाद् मृगवनात् उद्यानात् पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव वीतीभये नगरे तेणेव पहारेत्थ वीतीभये नगरे तत्रैव प्रादीधरत् गमनाय। गमणाए॥ १०६. वह उद्रायण राजा श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर हृष्ट तुष्ट हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदननमस्कार किया, वंदन नमस्कार कर अभिषिक्त हाथी पर चढा। चढकर श्रमण भगवान् महावीर के पास से मृगवन उद्यान से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर जहां वीतीभय नगर था वहां जाने का संकल्प किया। माया ११०. तए णं तस्स उद्दायणस्स रण्णो ततः तस्य उद्रायणस्य राज्ञः अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए अयमेतद्पः आध्यात्मिकः चिन्तितः मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था एवं प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादिखलु अभीयीकुमारे ममं एगे पुत्ते इढे एवं खलु अभीचीकुमारः मम एकः पुत्रः कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः 'मणामे' संमए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे स्थैर्यः वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः रयणे रयणब्भए जीविऊसविए अनुमतः भण्डकरण्डकसमानः रत्नः हिययनंदिजणणे उंबरपुष्पं पिव दुल्लभे रत्नभूतः जीवितोच्छ्रितः हृदयनन्दि सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? तं जननं उदम्बरपुष्पम् इव दुर्लभः जदि णं अहं अभीयीकुमारं रज्जे ठावेत्ता श्रवणाय, किमङ्ग पुनः दर्शनाय? तत् समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं यदि अहम् अभीचीकुमारं राज्ये मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं स्थापयित्वा श्रमणस्य भगवतः पव्वयामि, तो णं अभीयीकुमारे रज्जे य महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा रहे य बले य वाहणे य कोसे य कोहागारे अगाराद् अनगारितां प्रव्रजामि, तदा य पुरे य अंतेउरे य जणवए य अभीचीकुमारः राज्ये च राष्ट्रे च बले च माणुस्सएमु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे वाहने च कोशे च कोष्ठागारे च पुरे च गढिए अज्झोबवन्ने अणादीयं अणवदम्ग अन्तःपुरे च जनपदे च मानुष्यकेषु च दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं कामभोगेषु मूर्च्छितः गृद्धः ग्रथितः अणुपरियट्टिस्सइ, तं नो खलु मे सेयं अध्युपपन्नः अनादिकं 'अणवदग्गं' अभीयीकुमार रज्जे ठावेत्ता समणस्स दीर्घमध्वानं चतुरन्तं संसारकान्तारं ११०. उस उद्रायण राजा के इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआअभीचीकुमार मेरा एकाकी पुत्र है, इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण-करण्डक के समान है। रत्न, रत्नभूत (चिन्तामणि आदि रत्न के समान) जीवन-उत्सव और हृदय को आनंदित करने वाला है। वह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवणदुर्लभ है फिर दर्शन का तो कहना ही क्या? यदि मैं अभीचीकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होता हूं तो अभीचीकुमार राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोश, कोष्ठागार, पुर, अंतः पुर, जनपद और मनुष्य संबंधी काम-भोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त होकर आदि अंतहीन दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार में अनुपर्यटन करेगा। मेरे लिए यह Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १३ : उ. ६ : सू. १११ १५६ भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अनुपरिवर्तिष्यते, तत् नो खलु मम श्रेयः अगाराओ अणगारियं पन्वइत्तए, सेयं अभीचीकुमारं राज्ये स्थापयित्वा खलु मे नियगं भाइणेज्जं केसिं कुमारं । श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ मुण्डः भूत्वा अगाराद् अनगारितां महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता प्रव्रजितुम्, श्रेयः खलु मम निजकं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए-एवं भागिनेयं केशिनंकमारं राज्ये स्थापयित्वा संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव वीयीभये नगरे । श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वीयीभयं मुण्डः भूत्वा अगाराद्, अनगारितां नगरं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव प्रव्रजितुम्-एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य यत्रैव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, तेणेव वीतीभये नगरे तत्रैव उपागच्छति, उवागच्छइ उवागच्छित्ता आभिसेक्कं उपागम्य वीतीभयं नगरं मध्यमध्येन यत्रैव हत्थि ठवेइ, ठवेत्ता आभिसेक्काओ स्वकं गृहं यत्रैव बाहिरिका हत्थीओ पचोरुभइ, पचोरुभित्ता जेणेव उपस्थानशाला, तत्रैव उपागच्छति, सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उपागम्य आभिषेक्यं हस्तिनं स्थापयति उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि स्थापयित्वा आभिषेक्यात् हस्तिनः पुरत्थाभिमुहे निसीयति, निसीइत्ता । प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य यत्रैव सिंहासने कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, सदावेत्ता एवं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखे निषीदति, वीयीभयं नगरं सम्भितरबाहिरियं निषद्य कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, आसियसमज्जिओवलितं जाव शब्दयित्वा एवमवादीत-क्षिप्रमेव भो सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य देवानुप्रियाः। वीतीभयं नगरं साभ्यन्तरकारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य बाहिरिकाम आसिक्तसम्मार्जितोपलिप्तां एयमाणत्तियं पचप्पिणह। ते वि यावत् सुगंधवरगन्धगन्धिकां तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति॥ गन्धवर्तिभूतां कुरुत च कारयत च एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत। ते अपि तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति। श्रेय नहीं है कि मैं अभीचीकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होऊं, मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं अपने भागिनेय केशीकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होऊ-इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर जहां वीतीभय नगर था, वहां आया, आकर वीतीभय नगर के बीचोंबीच जहां अपना घर है, जहां बाहरी उपस्थान शाला है, वहां आया, आकर अभिषिक्त हस्ती को स्थापित किया, स्थापित कर अभिषिक्त हाथी से उतरा, उतरकर जहां सिंहासन था, वहां आया, आकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा, बैठकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही वीतीभय नगर के भीतर और बाहर पानी का छिड़काव करो, झाड़-बुहार जमीन की सफाई करो, गोबर की लिपाई करो यावत् प्रवर सुरभि वाले गंध-चूर्णों से सुगंधितगंधवर्ती तुल्य करो, कराओ, ऐसा कर और करवाकर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा कर आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। १११. तए णं से उदायणे राया दोचं पि ततः सः उद्रायणः राजा द्विः अपि कोटेबियपरिसे महावेड. सहावेत्ता एवं कौटम्बिकपरुषान शब्दयति. शब्दयित्वा वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! केसिस्स कुमारस्स महत्थं महग्यं महरिहं केशिनः कुमारस्य महार्थं महाय॑ महार्ह विउलं एवं रायाभिसेओ जहा सिवभहस्स। विपुलं एवम् राजाभिषेकः यथा कुमारस्स तहेव भाणियच्चो जाव परमाउं शिवभद्रस्य कुमारस्य तथैव भणितव्यं पालयाहि, इट्ठजणसंपरिबुडे सिंधू- यावत् परमायुः पालय, इष्टजनसोवीरपामोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं सम्परिवृतः सिन्धुसौवीरप्रमुख्यानां वीयीभयपामोक्खाणं तिण्णि तेसट्ठीणं षोडशानां जनपदानां वीतीभयनगरागरसयाणं महसेणपामोक्खाणं प्रमुख्यानां त्रयाणां त्रिषष्टीनां नगराकरदसण्हं राईणं, अण्णेसिं च बहूणं शतानाम् महसेनप्रमुख्यानां दशानां राईसर-तलवर - माडंबिय - कोडुंबिय- राज्ञां, अन्येषां च बहूनां राजेश्वरइन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्यवाहप्पभिईणं 'तलवर' - माडम्बिक-कौटुम्बिक-इभ्यः आहेवच्चं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं आणा- श्रेष्ठि - सेनापति-सार्थवाह-प्रभृतीनाम् ईसर-सेणावचं कारेमाणे, पालेमाणे आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृत्वम् विहराहि त्ति कट्ट जयजयसदं पउंजंति॥ आज्ञा-ईश्वर-सेनापत्यं कारयन् पालयन् विहर इति कृत्वा जयजयशब्दं प्रयुञ्जन्ति। १११. उस उद्रायण राजा ने दूसरी बार कौटम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! केशीकुमार के लिए शीघ्र ही महान् अर्थ वाला, महान् मूल्यवाला, महान् अर्हता वाला, विपुल इस प्रकार राज्याभिषेक जैसे शिवभद्रकुमार की वक्तव्यता वैसे ही वक्तव्य है यावत् परम आयुष्य का पालन करो। इष्ट जनों से संपरिवृत होकर सिन्धु-सौवीर आदि सोलह जनपद, वीतीभय आदि तीन सौ तेसठ नगर-आकर, महासेन आदि दस राजा, अन्य बहुत राजे, युवराज, कोटवाल, मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व तथा आज्ञा देने में समर्थ और सेनापतित्व करते हुए तथा अन्य से आज्ञा का पालन करवाते हुए Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५७ श. १३ : उ. ६ : सू. ११२-११७ विहार करो, इस प्रकार 'जय-जय' शब्द का प्रयोग किया। ११२. तए णं से केसीकुमारे राया जाए–महयाहिमवंत-महंत-मलय-मंदरमहिंदसारे जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ॥ ततः सः केशीकुमारः राजा जातः- महत् हिमवत्-महत्-मलय-मन्दर-महेन्द्रसारः यावत् राज्यं प्रशासन विहरति। ११२. वह केशी कुमार राजा हो गया- महान् हिमालय, महान् मलय, मेरू और महेन्द्र की भांति यावत् राज्य का प्रशासन करता हुआ विहरण करने लगा। ११३. तए णं से उदायणे राया केसि रायाणं __ आपुच्छइ॥ ततः सः उद्रायणः राजा केशिनं राजानम् आपृच्छति। ११३. उस उद्रायण राजा ने केशी राजा से पूछा। ११४. तए णं से केसी राया कोडुबियपुरिसे ततः सः केशी राजा कौटुम्बिकपुरुषान् ११४. केशी राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को सदावेइ-एवं जहा जमालिस्स तहेव शब्दयति-एवं यथा जमालेः तथैव बुलाया-इस प्रकार जैसे जमालि की सभितरबाहिरियं तहेव जाव साभ्यन्तरबाहिरिकां तथैव यावत् वक्तव्यता, वैसे ही वक्तव्य है यावत् भीतर निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेंति॥ निष्क्रमणाभिषेकम् उपस्थापयन्ति। और बाहर उसी प्रकार यावत् अभिनिष्क्रमण अभिषेक उपस्थित किया। ११५. तए णं से केसी राया अणेग- ततः सः केशी राजा अनेकगणनायक- गणनायग-दंडनायग-राईसर-तलवर- दण्डनायक - राजेश्वर . 'तलवर' - माडंबिय - कोडूंबिय - इन्भ - सेहि- माडम्बिक - कौटुम्बिक - इभ्य-श्रेष्ठिसेणावइ-सत्थवाह - दूय • संधिपाल- सेनापति-सार्थवाह दूत-सन्धिपालसद्धिंसपरिबुडे उद्दायणं रायं सीहा- साधु संपरिवृतः उद्रायणं राजानं सणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयावेति, सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखेनिसीयावेत्ता अट्ठसएणं सोवणियाणं निषादयति, निषाद्य अष्टशतेन कलसाणं एवं जहा जमालिस्स जाव सौवर्णिकानां कलशानां एवं यथा जमालेः महया-महया निक्खमणाभिसेगेणं यावत् महता महता निष्क्रमणाभिषेकेण अभिसिंचति, अभिसिंचित्ता करयल- अभिषिञ्चति, अभिषिच्य करतलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए परिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं बद्धावेति, अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयति, बद्धावेत्ता एवं वयासी-भण सामी ! किं वर्धयित्वा एवमवादीत्-भण स्वामिन्! देमो ? किं पयच्छामो ? किणा वा ते किं ददमः? किं प्रयच्छामः? केन वा ते अट्ठो? अर्थः? ११५. अनेक गणनायक, दंडनायक, राजे, ईश्वर, कोटवाल, माडम्बिक, कौटुम्बिक इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और संधिपालों के साथ, उनसे घिरे हुए केशी राजा ने उद्रायण राजा को प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बिठाया, बिठाकर एक सौ आठ स्वर्ण कलश इस प्रकार जैसे जमालि (९/१८२) की वक्तव्यता यावत् महान् महान् निष्क्रमण अभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषिक्त कर दोनों हथेलियों से संपुट आकार वाली दस नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर 'जय हो विजय हो' के द्वारा वर्धापित किया, वर्धापित कर इस प्रकार बोला-स्वामी! बताओ हम क्या दें? क्या वितरण करें? तुम्हें किस वस्तु का प्रयोजन है? ११६. तए णं से उद्दायणे राया केसिं रायं एवं बयासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया! कुत्तियावणाओ स्यहरणं च पडिग्गहं च आणियं, कासवगं च सदावियं-एवं जहा जमालिस्स, नवरं-पउमावती अग्गकेसे पडिच्छइ पियविप्पयोगदूसहा॥ ततः सः उद्रायणः राजा केशिनं राजानम् एवमवादीत्-इच्छामि देवानुप्रियाः! कुत्रिकापणात् रजोहरणंच प्रतिग्रहं च आनीतं, काश्यपकं च शब्दायितम्-एवं यथा जमालेः, नवरम्-पद्मावती अग्रकेशान् प्रतीच्छति प्रियविप्रयोग-दुस्सहा। ११६. उद्रायण राजा ने केशी राजा से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! मैं कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र को लाना तथा नापित को बुलाना चाहता हूं-इस प्रकार जैसे जमालि की वक्तव्यता, इतना विशेष है-प्रिय का विप्रयोग दुःसह है, इस प्रकार कहती हुई पद्मावती ने अग्रकेशों को ग्रहण किया। ११७. तए णं से केसी राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं स्यावेति, तः सः केशी राजा द्विः अपि उत्तरापक्रमणं सिंहासनं रचयति. ११७. केशी राजा ने दूसरी बार उत्तराभिमुख सिंहासन की रचना कराई। रचना कराकर Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १३ : उ. ६ : सू. ११८,११६ १५८ स्यावेत्ता उद्घायणं रायं सेया-पीतएहिं रचयित्वा उद्रायणं राजानं श्वेत-पीतकै: कलसेहिं ण्हावेति, पहावेत्ता सेसं जहा कलशैः स्नपयति, स्नपयित्वा शेषं यथा जमालिस्स जाव चउबिहेणं अलंकारेणं जमालेः यावत् चतुर्विधेनालंकारेण अलंकारिए समाणे पडिपुण्णालंकारे अलंकृतः सन् प्रतिपूर्णालंकारः सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता सीयं सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय । अणुप्पदाहिणीकरेमाणे सीयं दुरुहइ, शिविकाम् अनुप्रदक्षिणीकुर्वाणः दुरुहित्ता सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे शिविकाम् आरोहति, आरुह्य सण्णिसण्णे, तहेव अम्मधाती, नवरं सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखे सन्निषन्नः, पउमावती हंसलक्षणं पडसाडगं गहाय तथैव अम्बाधात्री, नवरं पद्मावती सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी सीयं हंसलक्षणं पटशाटकं गृहीत्वा शिविकाम् दुरुहइ, दुरुहित्ता उदायणस्स रण्णो अनुप्रदक्षिणीकुर्वाणः शिविकाम् । दाहिणे पासे भदासणवरंसि सण्णिसण्णा आरोहति, आरुह्य उद्रायणस्य राज्ञः सेसं तं चेव जाव छत्तादीए तित्थगरा- दक्षिणे पार्श्वे भद्रासनवरे सन्निषन्ना शेषं तिसए पासइ, पासित्ता पुरिससहस्स- तत् चैव यावत् छत्रादीन् तीर्थंकरातिवाहिणिं सीयं ठवेइ, पुरिससहस्स- शयान् पश्यति, दृष्ट्वा पुरुषसहस्रवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुभइ, वाहिनीं शिविकां स्थापयति, पुरुषपच्चोरुभित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे सहस्रवाहिन्याः शिविकायाः तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य यत्रैव श्रमणः भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ, भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरथिम उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः दिसीभागं अवक्कमड़, अवक्कमित्ता। वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ॥ उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् ' अपक्रामति, अपक्रम्य स्वयमेव आभरणमाल्यालंकारम् अवमुञ्चति। राजा उद्रायण को श्वेत-पीत कलशों से स्नान कराया, करा कर शेष जमालि की भांति वक्तव्यता यावत् चतुर्विध अलंकारों से अलंकृत किया। वह प्रतिपूर्ण अलंकृत होकर सिंहासन से उठा, उठकर शिविका की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ शिविका पर आरूढ हो गया। आरूढ होकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख आसीन हुआ। वैसे ही धाय मां भद्रासन पर आसीन हुई। इतना विशेष है-पद्मावती हंस लक्षण वाला पटशाटक ग्रहण कर शिविका की अनुप्रदक्षिणा करती हुई शिविका पर आरूढ हो गई, आरूढ होकर वह उद्रायण राजा के दक्षिण पार्श्व में प्रवर भद्रासन पर आसीन हुई। शेष पूर्ववत् यावत् छत्र आदि तीर्थंकर के अतिशयों को देखा, देख कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका को ठहराया। हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका से नीचे उतरा, उतर कर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वंदन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर उत्तर पूर्व दिशा (ईशान कोण) में गया। जाकर स्वयं आभरण, माल्य और अलंकार उतारे। ११८. तए णं सा पउमावती देवी हंसल- ततः सा पद्मावती देवी हंसलक्षणेन क्खणेणं पडसाडएणं आभरणमल्ला- हंसशाटकेन आभरणमाल्यालंकारं लंकारं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता हार- प्रतीच्छति, प्रतीष्य हार-वारिधारवारिधार-सिंदुवार-छिन्न-मुत्तावलि- सिन्दुवार-छिन्न - मुक्तावलिप्रकाशानि प्पगासाई अंसूणि विणिम्मुयमाणी- अश्रूणि विनिर्मुञ्चती-विनिर्मुञ्चती विणिम्मुयमाणी उद्दायणं रायं एवं उद्रायणं राजानम् एवम् अवादीत्वयासी-जइयव्वं सामी! घडियध्वं यतितव्यं स्वामिन! घटितव्यं स्वामिन! सामी ! परक्कमियव्वं सामी ! अस्सि पराक्रमितव्यं स्वामिन्! अस्मिन् च अर्थे च णं अढे नो पमादेयव्वं त्ति कटु केसी नो प्रमत्तव्यम् इति कृत्वा केशी राजा राया पउमावती य समणं भगवं महावीरं पद्मावती च श्रमणं भगवन्तं महावीर वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता वन्देते नमस्यतः, वन्दित्वा नमस्यित्वा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूताः तस्यामेव पडिगया॥ दिशि प्रतिगताः। ११८. पद्मावती देवी ने हंसलक्षण युक्त पटशाटक में आभरण, माल्य और अलंकार ग्रहण किए। ग्रहण कर हार, जल-धारा, सिन्दुवार (निर्गुण्डी) के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान बार बार आंसू बहाती हुई उद्रायण राजा से इस प्रकार बोली- स्वामी! संयम में प्रयत्न करना। स्वामी! संयम में चेष्टा करना, स्वामी! संयम में पराक्रम करना, स्वामी! इस अर्थ में प्रमाद मत करना-यह कह कर केशीराजा और पद्मावती ने श्रमण भगवान महावीर को वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए। ११६. तए णं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ सेसं जहा उसभदत्तस्स जाव सम्बदुक्खप्पहीणे॥ ततः सः उद्रायणः राजा स्वयमेव पञ्चमष्टिकं लोचं करोति शेषं यथा ऋषभदत्तस्य यावत् सर्वदुःखप्रहीनः। ११६. उद्रायण राजा ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया। शेष ऋषभदत्त की भांति वक्तव्यता यावत् सब दुःखों को क्षीण कर दिया। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५६ श. १३ : उ. ६ : सू. १२०,१२१ १२०. तए णं तस्स अभीयिस्स कुमारस्स ततः तस्य अभीचेःकुमारस्य अन्यदा १२०. अभीचीकुमार ने किसी दिन पूर्वरात्र और अण्णदा कदाइ पुब्वरत्तावरत्तकाल- कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये अपररात्र काल समय में कुटुम्ब जागरिका समयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स कुटुम्ब-जागरिकां जाग्रतः अयमेतद्- की। जागरणा करते हुए इस प्रकार का अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पथिए। रूपः आध्यात्मिक: चिन्तितः प्रार्थितः आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मणोगए संकप्पे समुष्पज्जित्था एवं मनोगतः संकल्पः समुदपादि-एवं खलु एवं मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैं उद्रायण खलु अहं उरायणस्स पुत्ते पभावतीए अहम् उद्रायणस्य पुत्रः प्रभावत्याः देव्याः का पुत्र प्रभावती देवी का आत्मज हूं। देवीए अत्तए, तए णं से उद्दायणे राया आत्मजः, ततः सः उद्रायणः राजा माम् उद्रायण राजा मुझे छोड़कर अपने भानजे ममं अवहाय नियगं भाइणेज्ज केसि अपहाय निजकं भागिनेयं केशिनं कुमारं केशीकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण कुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ राज्ये स्थापयित्वा श्रमणस्य भगवतः भगवान् महावीर के पास मुंड होकर अगार महावीरस्म अंतियं मुंडे भवित्ता महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा से अनगारिता में प्रव्रजित हो गए हैं-इस अगाराओ अणगारियं पन्बइए-इमेणं अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितः-अनेन प्रकार के महान् अप्रीतिकर मनोमानसिक एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मणो- एतद्पे ण महता अप्रीतिकेन दुःख से अभिभूत होकर अपने अंतःपुर माणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे मनोमानसिकेन दुःखेन अभिभूतः सन् परिवार से संपरिवृत होकर, अपने भांड और अंतेउरपरियालसंपरिबुडे सभंडमत्तो- अंतःपुरपरिवारसंपरिवृतः स्वभाण्ड- उपकरण लेकर वीतीभय नगर से निकल बगरणमायाए वीतीभयाओ नयराओ मात्रोपकरणमादाय वीतीभयाद् नगराद् गया, निकल कर क्रमानुसार विचरण और निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता पुव्वाणुपुचि निर्गच्छति, निर्गत्य पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्राम घूमते हुए जहां चंपा नगरी थी, चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव ग्रामानुग्राम दवन् यत्रैव चम्पा नगरी, जहां कूणिक राजा था वहां आया, आकर चंपा नयरी, जेणेव कूणिए राया, तेणेव यत्रैव कोणिकः राजा, तत्रैव कूणिक राजा की शरण में रहने लगा। वह उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कूणियं रायं उपागच्छति, उपागम्य कोणिकं राजानम् वहां विपुल भोग समिति से समन्वागत था। उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। तत्थ वि णं से उपसंपद्य विहरति। तत्रापि सः वह अभीचीकुमार श्रमणोपासक भी विउलभोगसमितिसमन्नागए यावि विप्लभोगसमितिसमन्वागतः चापि था-जीव-अजीव को जानने वाला यावत् होत्था। तए णं से अभीयीकुमारे ____ अभवत्। ततः स अभीचीकुमारः यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा अपने समणोवासए यावि होत्था-अभिगय- श्रमणोपासकः चापि अभवत्- आपको भावित करते हुए विहार करने लगा। जीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं __ अभिगतजीवाजीवः यावत् यथा- उसके मन में उद्रायण राजर्षि के साथ वैर तबोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, परिगृहीतैः तपःकर्मभिः आत्मानं का अनुबंध हो गया। उदायणम्मि रायरिसिम्मि समणुबद्धवेरे ___ भावयन् विहरति, उद्रायणे राजर्षों यावि होत्था॥ समनुबद्धवैरः चापि अभवत्। १२१. इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए निरय- अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां निरय- १२१. इस रत्नप्रभा पृथ्वी नरक के परिपार्श्व में परिसामंतेसु चोयटिं असुरकुमारा- परिसामन्तेषु चतुष्षष्टिः असुरकुमारा- चौसठ लाख असुरकुमार आवास प्रज्ञप्त हैं। वाससयसहस्सा पण्णत्ता। तए णं से वासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि। ततः सः इस अभीचीकुमार ने बहुत वर्षों तक अभीयीकुमारे बहूई वासाइं अभीचीकुमारः बहूनि वर्षाणि श्रमणो- श्रमणोपासक पर्याय का पालन किया। समणोवासगपरियागं पाउणइ, पासकपर्यायं प्राप्नोति, प्राप्य पालन कर अर्द्धमासिकी अनशन/संलेखना पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अर्द्धमासिक्या संलेखनया त्रिंशत् के द्वारा तीस भक्त का छेदन किया, छेदन तीसं भत्ताई अणसणाए छेएइ, छेएत्ता भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, छित्त्वा तस्य कर उस स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्तः किए बिना कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर कालमासे कालं किचा इमीसे कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां इस रत्नप्रभा पृथ्वी नरक के परिसामंत में रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु पृथिव्यां निरयपरिसामन्तेषु चतुष्षष्टिः चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से किसी चोयट्ठीए आयावाअसुरकुमारावास- आतापक-असुरकुमारावासशतसहस्रेषु एक आतापक असुरकुमारावास में आतापक सयसहस्सेसु अण्णयरंसि आयावा- अन्यतरे आतापक-असुरकुमारावासे असुरकुमार देव के रूप में उपपन्न हुआ। वहां असुरकुमारावासंसि आयावाअसुर- आतापक-असुरकुमारदेवत्वेन उपपन्नः । कुछ आतापक असुरकुमार देवों की स्थिति कुमारदेवत्ताए उववण्णो। तत्थ णं तत्र अस्त्येककानाम् आतापकानाम् एक पल्योपम प्रज्ञप्त है। वहां अभीचीकुमार अत्थेगतियाणं आयावगाणं असुर- असुरकुमाराणाम् देवानाम एकं पल्योपमं देव की एक पल्योपम स्थिति प्रज्ञप्त है। कुमाराणं देवाणं एगं पलिओवमं ठिई स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र अभीचेः अपि Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० भगवई श. १३ : उ. ६ : सू. १२२,१२३ पण्णत्ता, तत्थ णं अभीयिस्स वि देवस्स एग पलिओवमं ठिई पण्णत्ता॥ देवस्य एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता। भाष्य १. सूत्र ११०-१२१ प्रस्तुत सूत्र में उद्रायण के मानसिक द्वन्द्व और उत्तराधिकारी की नियुक्ति का एक रोमांचक प्रसंग वर्णित है। इस प्रसंग पर दो दृष्टियों से विचार करना आवश्यक है। उद्रायण ने अपने पुत्र अभीचीकुमार के हित की चिंता की, उसे मूर्छा और संसार-भ्रमण से बचाने के लिए अपना उत्तराधिकार नहीं सौंपा। इस चिंतन में व्यवहार का अतिक्रमण स्पष्ट है। इस अतिक्रमण से अभीची को भयंकर मानसिक आघात लगा। उसका वर्णन १३/१२० सूत्र में किया गया है। उसका बाहरी परिणाम यह हुआ कि अभीची कुमार अपने देश को छोड़कर चंपा के अधिपति कूणिक की शरण में चला गया। आंतरिक परिणाम यह हुआ कि वह उद्रायण राजर्षि के प्रति प्रगाढ़ वैर से आक्रांत हो गया। इस वैरानुबंध का परिणाम अभीचीकुमार के हित में नहीं रहा। अभीचीकुमार आयुष्य पूरा कर असुरकुमार के आवास में उत्पन्न हुआ। जयाचार्य ने अभीचीकुमार की द्वेष से होने वाली हानि का उल्लेख किया है किन्तु वह आयुष्य बंधकाल में सम्यग्दृष्टि रहा या मिथ्यादृष्टि हो गया, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है।' जयाचार्य ने एक इंगित अवश्य दिया है-अभीची कुमार के मन में जो द्वेष था, उस प्रकार के द्वेष से जीव सम्यक्त्व और व्रत को गंवा देता है और कोई-कोई जीव अनंत संसारी भी हो जाता है। भगवती के तीसवें शतक के अनुसार सम्यग्दृष्टि जीव के केवल वैमानिक देव के आयुष्य का बंध होता है। अभीची कुमार मृत्यु के उपरांत असुरकुमारावास में उत्पन्न हुआ। इस आधार पर क्या यह संभावना नहीं की जा सकती कि वह अपने वैरानुबंध के कारण सम्यग्दृष्टि से भी विरहित हो गया? । मनोमानसिक-मन की वह अवस्था, जिसमें आंतरिक वेदना होती है किन्तु बाहर में कोई विकार प्रदर्शित नहीं किया जाता। उस मानसिक दशा को मनोमानसिक कहा जाता है। आयावा-आतापक, यह असुरकुमार देवों की एक विशेष श्रेणी है। वृत्तिकार के अनुसार इस विषय में अन्य कोई जानकारी उपलब्ध १२२. से णं भंते ! अभीयीदेवे ताओ सः भदन्त! अभीचीदेवः तस्माद् देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं देवलोकाद् आयुःक्षयेण भवक्षयेण ठिइक्खएणं अणंतरं उच्चद्विता कहिं स्थितिक्षयेण अनन्तरं उद्वर्त्य कुत्र गच्छिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गमिष्यति? कुत्र उपपत्स्यते? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति । गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् जाव सञ्चदुक्खाणं अंतं काहिति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति। १२२. भंते! वह अभीचीदेव उस देवलोक से आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर उद्वर्तन कर कहां जायेगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा। १२३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। १२३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही १. भग. जो. ढा. २८७. गा.८,९इण रीते श्रावक नां व्रत पालै, और दोषण तो सगला टालै रे। पिण राय उदाई सूं अंतरंगा धेषो, ते तो दिन-दिन अधिक विशेषो रे॥ पनरै दिन रो संथारो आयो, जद पिण नहीं स्वमायो रे। ते श्री जिनधर्म विराधी मैं मूओ, ते तो मरनैं असुर देव हूओ रै॥ २. भग. जो. ढा. २८७, गा. १७ एहवा द्वेष सूं सम्यक्त व्रत खोवै, केइ अनंत-संसारी होवे रे। इण रे कर्म थोड़ा तिणसूं दैगो निकालो, नहिं तो रुलै अनंतो कालो रे॥ ३. भ. ३०/१६,२२॥ ४. भ. पृ. १३/१२०-मनसो विकारो मानसिकं मनसि मानसिकं न बहिरुप___ लक्ष्यमाणविकारं यत्तन्मनोमानसिकं तेन। ५. 'आयाव' त्ति असुरकुमारविशेषाः, विशेषतस्तु नावगम्यत इति। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद भासा-पदं १२४. रायगिहे जाव एवं बयासी- आया भंते ! भासा ?अण्णा भासा ? | भाषा-पदम् राजगृहं यावत् एवमवादीत्- आत्मा भदन्त! भाषा? अन्या भाषा? भाषा पद १२४. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! भाषा आत्मा है? भाषा आत्मा से अन्य है? गौतम! भाषा आत्मा नहीं है, भाषा आत्मा से अन्य है। भंते! भाषा रूपी है? भाषा अरूपी है? गौतम! भाषा रूपी है। भाषा अरूपी नहीं है। भंते! भाषा सचित्त है? भाषा अचित्त है? गौतम! भाषा सचित्त नहीं है, भाषा अचित्त भंते! भाषा जीव है? भाषा अजीव है? गौतम! भाषा जीव नहीं है, भाषा अजीव है। गोयमा! नो आया भासा, अण्णा गौतम! नो आत्मा भाषा, अन्या भाषा। भासा। रूविं भंते ! भासा ? अरूविं भासा? रूपिणी भदन्त! भाषा? अरूपिणी भाषा? गोयमा! रूविं भासा, नो अरूविं गौतम! रूपिणी भाषा, नो अरूपिणी भासा। भाषा। सचित्ता भंते ! भासा? अचित्ता सचित्ता भदन्त! भाषा? अचित्ता भाषा? भासा? गोयमा ! नो सचित्ता भासा, अचित्ता गौतम! नो सचित्ता भाषा, अचित्ता भासा। भाषा। जीवा भंते ! भासा ? अजीवा भासा? जीवा भदन्त! भाषा? अजीवा भाषा? गोयमा! नो जीवा भासा, अजीवा गौतम! नो जीवा भाषा, अजीवा भाषा। भासा। जीवाणं भंते ! भासा ? अजीवाणं जीवानां भदन्त! भाषा? अजीवानां भासा? भाषा? गोयमा ! जीवाणं भासा, नो अजीवाणं गौतम! जीवानां भाषा, नो अजीवानां भासा। भाषा। पचि भंते ! भासा ? भासिज्जमाणी पूर्वं भदन्त! भाषा? भाष्यमाणा भाषा? भासा ? भासासमयवीतिक्कंता भाषासमयव्यतिक्रान्ता भाषा? भासा? गोयमा ! नो पुचि भासा, भासिज्ज- गौतम! नो पूर्व भाषा, भाष्यमाणा भाषा, माणी भासा, नो भासासमयवीतिकंता नो भाषासमयव्यतिक्रान्ता भाषा। भासा। पुचि भंते ! भासा भिज्जति ? पूर्वं भदन्त! भाषा भिद्यते? भाष्यमाणा भासिज्जमाणी भासा भिज्जति ? भाषा भिद्यते? भाषासमयव्यतिक्रान्ता भासासमयवीतिक्कंता भासा भाषाभिद्यते? भिज्जति ? गोयमा ! नो पुचि भासा भिज्जति, गौतम! नो पूर्वं भाषा भिद्यते, भाष्यमाणा भासिज्जमाणी भासा भिज्जति, नो भाषा भिद्यते, नो भाषासमयव्यतिक्रान्ता भासासमयवीतिक्कंता भासा भाषा भिद्यते। भिज्जति॥ भंते! जीवों के भाषा होती है? अजीवों के भाषा होती है? गौतम! जीवों के भाषा होती है, अजीवों के भाषा नहीं होती। भंते! बोलने से पहले भाषा होती है? बोलते समय भाषा होती है? बोलने का समय व्यतिक्रांत होने पर भाषा होती है? गौतम! बोलने से पहले भाषा नहीं होती, बोलते समय भाषा होती है, बोलने का समय व्यतिक्रांत होने पर भाषा नहीं होती। भंते! बोलने से पहले भाषा का भेदन होता है? बोलते समय भाषा का भेदन होता है? बोलने का समय व्यतिक्रांत होने पर भाषा का भेदन होता है? गौतम! बोलने से पहले भाषा का भेदन नहीं होता, बोलते समय भाषा का भेदन होता है, बोलने का समय व्यतिक्रांत होने पर भाषा का भेदन नहीं होता। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ.७ : सू. १२५ १६२ भगवई भाष्य १. सूत्र १२४ उसी शब्द को भाषा कहा जा सकता है, जिसका भाषा प्रस्तुत प्रकरण में भाषा पर विमर्श किया गया है। विमर्श के पर्याप्ति के द्वारा के शब्द रूप में परिणमन होता है, जो भाषा वर्गणा पांच बिन्दु हैं के पुद्गलों की संहति होता है। पहला बिन्दु-भाषा आत्मा है अथवा आत्मा से भिन्न है ? . 'पुल्विं भंते भाषा'.....इस सूत्र में भाषा और अभाषा का अंतर इसका उत्तर है-भाषा आत्मा नहीं है। आत्मा चैतन्यमय है। बतलाया गया है। भाषा वर्गणा के पुद्गल पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। उन्हें भाषा पौद्गलिक है। दोनों में स्वरूप भेद है। भाषा नहीं कहा जाता। वक्ता भाषा वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण दूसरा बिन्दु-भाषा रूपी है अथवा अरूपी? करता है फिर उन्हें शब्द रूप में परिणत करता है। ये दोनों अवस्थाएं इसका उत्तर है-भाषा रूपी है। वह पौद्गलिक है इसलिए वह भी भाषा की कोटि में नहीं आती। शब्द रूप में परिणत पुद्गलों का रूपी अथवा मूर्त है। वृत्तिकार के अनुसार भाषा के द्वारा कान में विसर्जन होता है, उस निसर्ग-काल का नाम है भाषा। तात्पर्य की अनुग्रह अथवा उपघात होता है इसलिए उसका रूपित्व सिद्ध है। दृष्टि से विचार करें तो व्यंजनाक्षर अथवा उच्चारण को भाषा के रूप यदि भाषा रूपी है तो वह चक्षु के द्वारा उपलब्ध क्यों नहीं होती? में स्वीकृत किया गया है। जब भाषा द्रव्य के पुद्गल भाषा-रूप इसका उत्तर बहुत स्पष्ट है-जो चक्षु के द्वारा ग्राह्य नहीं होता, वह परिणमन को छोड़ देते हैं, उस समय के लिए 'भाषा समय अरूपी होता है, यह नियम नहीं है। परमाणु, हवा, पिशाच आदि वीतिक्कता' का प्रयोग किया गया है। रूपी हैं फिर भी वे चक्षु के द्वारा ग्राह्य नहीं हैं।' इस संदर्भ में द्रष्टव्य है भगवई १/४४२-४४३ का भाष्य। तीसरा बिन्दु-भाषा सचित्त है अथवा अचित्त? शब्द के विषय में भारतीय दर्शनों में व्यापक चिंतन हुआ है। इसका उत्तर है-पौद्गलिक पदार्थ जीव-प्रदेशों की व्याप्ति के नैयायिक शब्द को अनित्य मानते हैं। मीमांसक दर्शन के अनुसार कारण सचित्त होता है, जैसे जीवच्छरीर में चेतना व्याप्त है इसलिए शब्द नित्य है।' शब्दाद्वैत का सिद्धांत है-शब्द ब्रह्म है। भाषा और वह सचित्त है। भाषा का स्वरूप इससे भिन्न है। वह जीव के द्वारा अभाषा विषय के साथ उक्त सिद्धांतों का तुलनात्मक अध्ययन किया निःसृष्ट पुद्गलों की संहति है इसलिए वह सचित्त नहीं है। जा सकता है। भाषा और अभाषा का सिद्धांत शब्द की अनित्यता चौथा बिन्दु-भाषा जीव है अथवा अजीव? का सिद्धांत है। इसका उत्तर है-भाषा जीव नहीं है। जीव श्वास-उच्छ्वास वक्ता दो प्रकार के होते हैं-मंद प्रयत्न वाला और तीव्र प्रयत्न आदि प्राण वाला होता है। भाषा के श्वास-उच्छ्वास आदि प्राण वाला। नहीं होते। मंद प्रयत्न वाला वक्ता भाषा वर्गणा के पुद्गलों का अभिन्न रूप पांचवां बिन्दु-भाषा जीवों के होती है अथवा अजीवों के? में ग्रहण करता है और अभिन्न रूप में ही उनका विसर्जन करता है। इसका उत्तर है-भाषा वर्णात्मक होती है। वर्ण का उच्चारण प्रज्ञापना में भेदन और अभेदन-दोनों प्रकार बतलाए गए हैं। तालु आदि आठ स्थानों से होता है इसलिए यह कहा जा सकता प्रस्तुत प्रकरण में केवल भेदन का ही उल्लेख है। है-भाषा जीवों के होती है। यद्यपि अजीव के योग से शब्द उत्पन्न प्रज्ञापना के अनुसार मंद प्रयत्न वाले वक्ता द्वारा निःसृष्ट होता है फिर भी वह भाषा नहीं है। भाषा वर्गणा के पुद्गल-स्कंधों का संख्येय योजन के बाद भेदन होता शब्द को भाषा मानने के दो आधार हैं है। अभयदेव सूरि ने 'भासिज्जमाणी भासा' इसकी महत्त्वपूर्ण • भाषा पर्याप्ति जन्यता व्याख्या की है। उनके अनुसार जिस अवस्था में शब्द परिणाम • भाषा वर्गणा के पुदगलों का परिणमन। विद्यमान है, उस अवस्था तक वह भाष्यमाण है।" १२५. कतिविहाणं भंते ! भासा पण्णत्ता? कतिविधाः भदन्त! भाषाः प्रज्ञप्ताः? १२५. भंते ! भाषा के कितने प्रकार प्रज्ञाप्त हैं ? गोयमा ! चउब्विहा भासा पण्णत्ता, तं गौतम! चतुर्विधाः भाषाः प्रज्ञप्ताः, गौतम ! भाषा के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जहा-सच्चा, मोसा, सच्चामोसा तद्यथा-सत्या, मृषा, सत्यामृषा, जैसे-सत्या, मृषा, सत्यामृषा,असत्यामृषा। असचामोसा॥ असत्यामृषा। १. भ. वृ. १३/१२४। ताई किं भिण्णाई णिसिरति? अभिण्णाई णिसिरति? गोयमा! भिण्णाई २. वही, - भाषासमयव्यतिक्रांता-भाषासमयो-निसृज्यमानावस्थातो यावद्- णिसिरति अभिण्णाई वि णिसिरति। जाई भिण्णाई णिसिरति ताई भाषापरिणामसमयस्तं व्यतिक्रांता या सा तथा भाषा भवति। अणंतगुणपरिवुड्डीए परिवड्डमाणाइं परिवड्डमाणाई लोयंतं फुसंति। जाई ३. न्याय सूत्र २/२/१३-३८। अभिण्णाई णिसिरति ताई असंखेज्जाओ ओगाहणवग्गणाओ गंता ४. भारतीय दर्शन परिचय, पृ. ८०। भेयमावज्जंति, संखेज्जाई जोयणाई गंता विद्धसमागच्छंति। ५. उत्तररामचरित २/७/२०-शब्दब्रह्मणस्तादृशं विवर्तनितिहासं। ७. भ. पृ. १३/१२४-अत्र च यस्यामवस्थायां शब्द परिणामस्तस्यां ६. प्रज्ञा. ११/७२-जीवेणं भंते! जाई दव्याई भासत्ताए गहियाई णिसिरति भाष्यमाणताऽवसेयेति। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६३ श. १३ : उ.७ : सू. १२६ मण-पदं १२६. आया भंते ! मणे ? अण्णे मणे? मनः पदम् आत्मा भदन्त! मनः? अन्यत् मनः? मन पद १२६. भंते! मन आत्मा है? मन आत्मा से अन्य गोयमा ! नो आया मणे, अण्णे मणे। गौतम! नो आत्मा मनः,अन्यत् मनः। रूविं भंते ! मणे ? अरूविं मणे? रूपि भदन्त! मनः? अरूपि मनः? गोयमा! रूविं मणे, नो अरूविं मणे।। गौतम! रूपि मनः, नो अरूपि मनः। सचित्ते भंते ! मणे ? अचित्ते मणे ? सचित्तं भदन्त! मनः? अचित्तं मनः? गोयमा! नो सचित्ते मणे, अचित्ते मणे। गौतम! नो सचित्तं मनः, अचित्तं मनः । जीवे भंते ! मणे ? अजीवे मणे ? जीवं भदन्त! मनः? अजीवं मनः? गोयमा! नो जीवे मणे, अजीवे मणे॥ गौतम! नो जीवं मनः, अजीवं मनः। जीवाणं भंते ! मणे ? अजीवाणं मणे ? । जीवानां भदन्त! मनः? अजीवानां मनः? गोयमा ! जीवाणं मणे, नो अजीवाणं । गौतम! जीवानां मनः, नो अजीवानां मनः। पूचि भंते ! मणे? मणिज्जमाणे पूर्वं भदन्त! मनः? मन्यमानं मनः, मणे ? मणसमयवीतिक्कंते मणे ? मनःसमयव्यतिक्रान्तं मनः? मणे। गौतम! मन आत्मा नहीं है। मन आत्मा से अन्य है। भंते! मन रूपी है? मन अरूपी है ? गौतम! मन रूपी है, मन अरूपी नहीं है। भंते! मन सचित्त है? मन अचित्त है? गौतम! मन सचित्त नहीं है, मन अचित्त है। भंते! मन जीव है? मन अजीव है? गौतम! मन जीव नहीं है। मन अजीव है। भंते! मन जीवों के होता है? मन अजीवों के होता है? गौतम! जीवों के मन होता है, अजीवों के मन नही होता। भंते! पहले मन होता है? मनन के समय मन होता है? मनन का समय व्यतिक्रांत होने पर मन होता है? गौतम! पहले मन नहीं होता, मनन के समय मन होता है , मनन का समय व्यतिक्रांत होने पर मन नहीं होता। भंते! पहले मन का भेदन होता है? मनन के समय मन का भेदन होता है? मनन का समय व्यतिक्रांत होने पर मन का भेदन होता है? गौतम! पहले मन का भेदन नहीं होता, मनन के समय मन का भेदन होता है, मनन का समय व्यतिक्रांत होने पर मन का भेदन नहीं होता। गोयमा ! नो पुचि मणे, मणिज्जमाणे गौतम! नो पूर्वं मनः, मन्यमानं मनः, नो मणे, नो मणसमयवीतिक्कते मणे। मनःसमयव्यतिक्रान्तं मनः। पुचि भंते ! मणे भिज्जति, मणिज्ज- पूर्वं भदन्त! मनः भिद्यते? मन्यमानं मनः माणे मणे भिज्जति, मणसमय- भिद्यते? मनःसमयव्यतिक्रान्तं मनः वीतिक्कते मणे भिज्जति? भिद्यते? गोयमा ! नो पुदि मणे भिज्जति, गौतम! नो पूर्वं मनः भिद्यते, मन्यमानं मणिज्जमाणे मणे भिज्जति, नो मनः भिद्यते, नो मनःसमयव्यतिक्रान्तं मणसमयवीतिक्कंते मणे भिज्जति॥ मनः भिद्यते। भाष्य १. सूत्र १२६ जैन दर्शन के अनुसार मन एक पौद्गलिक संरचना है। जयाचार्य ने इस पर विशद विवेचन किया है। इस प्रकरण में उसके विषय में पांच बिन्दुओं से विमर्श किया गया है। • मन अचेतन है इसलिए वह आत्मा नहीं है। • मन पौद्गलिक है इसलिए वह अरूपी नहीं है। • मनोवर्गणा के पुद्गलों का निसर्ग काल मन है इसलिए वह सचित्त नहीं है। • मन जीव नहीं है। • मन जीव के होता है। मनः पर्याप्ति के द्वारा मनन में उपकारी मनोवर्गणा के पुदगलों का ग्रहण किया जाता है। यह मन की पूर्वावस्था है। उन पुद्गलों के निसर्गकाल में मन होता है। मनन में प्रयुक्त पुद्गल मनन अवस्था को छोड़ परिवर्तित हो जाते हैं, यह मन की व्यतिक्रांत अवस्था है, उत्तर अवस्था है। मनन के समय मनोवर्गणा के पुद्गलों का भेदन होता है। इस विषय की विशद जानकारी वृत्ति में नहीं है। मनन के भेद के आधार पर इसे समझा जा सकता है। तीव्र प्रयत्न वाला मननकर्ता मनन काल में ही मन के पुद्गल द्रव्यों का भेदन कर देता है। मंद प्रयत्न वाला मननकर्ता निसर्ग काल में मनोवर्गणा के पुद्गलों का भेदन नहीं करता, निसर्ग काल के पश्चात् उनका भेदन होता है। १. भग. जो. ढा. २८८, गा. ३०-३६॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १३ : उ. ७ : सू. १२७,१२८ १६४ १२७. कतिविहे णं भंते ! मणे पण्णत्ते ? कतिविधं भदन्त! मनः प्रज्ञप्तम्? गोयमा ! चउबिहे मणे पण्णत्ते, तं गौतम! चतुर्विधं मनः प्रज्ञाप्तम्? जहा-सच्चे, मोसे, सचामोसे, तद्यथा-सत्यं, मृषा, सत्यामृषम्, असचामोसे॥ असत्यामृषम्। १२७. भंते! मन के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम! मन के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-सत्य,मृष, सत्यामृष,असत्यामृष। काय-पदं १२८. आया भंते ! काये ? अण्णे काये ? काय-पदम् आत्मा भदन्त! कायः? अन्यः कायः? काय-पद १२८. भंते! काय आत्मा है? काय आत्मा से अन्य है? गौतम! काय आत्मा भी है, काय आत्मा से अन्य भी है। भंते! काय रूपी है? काय अरूपी है? गौतम! काय रूपी भी है, काय अरूपी भी भंते! काय सचित्त है? काय अचित्त है? गौतम! काय सचित्त भी है, काय अचित्त भी गोयमा ! आया वि काये, अण्णे वि गौतम! आत्मा अपि कायः, अन्यः अपि काये। कायः। रूविं भंते ! काये? अरूविं काय? रूपि भदन्त! कायः अरूपि कायः? गोयमा! रूविं वि काये, अरूविं वि गौतम! रूपि अपि कायः, अरूपि अपि काये। कायः। सचित्ते भंते! काये ? अचित्ते काये? सचित्तः भदन्त! कायः? अचित्तः कायः? गोयमा! सचित्ते वि काये, अचित्ते वि गौतम! सचित्तः अपि कायः, अचित्तः काये। अपि कायः। जीवे भंते! काये? अजीवे काये? जीवः भदन्त! कायः? अजीवः कायः? गोयमा! जीवे वि काये, अजीवे वि गौतम! जीवः अपि कायः, अजीवः अपि काये। कायः। जीवाणं भंते! काये ? अजीवाणं काये? जीवानां भदन्त! कायः? अजीवानां कायः? गोयमा! जीवाण विकाये, अजीवाण गौतम! जीवानाम् अपि कायः, विकाये। अजीवानाम् अपि कायः। पुचि भंते! काये? कायिज्जमाणे पूर्वं भदन्त कायः? चीयमानः कायः? काये? कायसमयवीतिक्कते काये? कायसमयव्यतिक्रान्तः कायः? भंते! काय जीव है? काय अजीव है? गौतम! काय जीव भी है, काय अजीव भी है। गोयमा ! पुचि वि काये, कायिज्जमाणे गौतम! पूर्वम् अपि कायः, चीयमानः विकाये, कायसमयवीतिकंते वि काये। अपि कायः, कायसमयव्यतिक्रांतः अपि कायः। पुचि भंते! काये भिज्जति? पूर्वं भदन्त! कायः भिद्यते? चीयमानः कायिज्जमाणे काये भिज्जति? कायः भिद्यते? कायसमयव्यतिक्रांतः कायसमयवीतिक्कंते काये भिज्जति? कायः भिद्यते? भंते! काय जीवों के होता है? काय अजीवों के होता है? गौतम! काय जीवों के भी होता है, काय अजीवों के भी होता है। भंते! पहले काय होता है? चीयमान अवस्था में काय होता है? काय का समय व्यतिक्रांत होने पर काय होता है? गौतम! पहले भी काय होता है, चीयमान अवस्था में भी काय होता है, काय का समय व्यतिक्रांत होने पर भी काय होता है। भंते! पहले काय का भेदन होता है? चीयमान अवस्था में काय का भेदन होता है? काय का समय व्यतिक्रांत होने पर काय का भेदन होता है? गौतम! पहले भी काय का भेदन होता है, चीयमान अवस्था में भी काय का भेदन होता है, काय का समय व्यतिक्रांत होने पर भी काय का भेदन होता है। गोयमा ! पुचि वि काये भिज्जति, गौतम! पूर्वमपि कायः भिद्यते, चीयमानः कायिज्जमाणे वि काये भिज्जति, अपि कायः भिद्यते, कायसमयकायसमयवितिक्कंते वि काये व्यतिक्रांतः अपि कायः भिद्यते। भिज्जति॥ भाष्य १. सूत्र १२७-१२८ आत्मा शरीर में रहती है। उसके द्वारा अपनी प्रवृत्तियों का काय के विमर्श के पांच बिन्दु हैं संचालन करती है। कर्म का बंध शरीर के माध्यम से होता है। शरीर पहला बिन्दु-काय आत्मा है अथवा आत्मा से भिन्न है ? ही कर्म वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है और वही उसका फल इसका उत्तर है-शरीर और आत्मा में भेदाभेद है। आत्मा भोग करता है। शरीर से सर्वथा भिन्न नहीं है इसलिए शरीर आत्मा भी है। वह शरीर शरीर के साथ आत्मा का गहरा संबंध है। वृत्तिकार ने उसके से सर्वथा अभिन्न नहीं है इसलिए वह शरीर से भिन्न भी है। लिए तीन दृष्टांत प्रस्तुत किए हैं-जैसे क्षीर और नीर, अग्नि और Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६५ लौह पिण्ड, स्वर्ण और उपल।' इसलिए शरीर का स्पर्श करने पर आत्मा का संवेदन होता है और इसीलिए शरीर के द्वारा किए हुए कर्म का आत्मा भवान्तर में भी वेदन करती है । अत्यंत भेद मानने पर अकृत कर्म के भोग की दोषापत्ति होती है। आत्मा और शरीर का अत्यंत अभेद मानने पर शरीरांश का छेदन करने पर आत्मांश का छेदन करने की दोषापत्ति होती है। शरीर को जलाने पर आत्मा भी जल जाती है। इस प्रकार पुनर्जन्म का अभाव सिद्ध हो जाता है इसलिए आत्मा शरीर से कथञ्चित् भिन्न भी है। वृत्तिकार ने काय के विषय में एक मतान्तर का उल्लेख किया है। मतान्तर के अनुसार यहां काय शब्द का प्रयोग कार्मण शरीर के अर्थ में किया गया है। कार्मण शरीर और संसारी आत्मा का परस्पर निश्चित संबंध है। इसका तात्पर्य है- कार्मण शरीर की अपेक्षा आत्मा शरीर से अभिन्न है। औदारिक अथवा स्थूल शरीर की अपेक्षा आत्मा शरीर से भिन्न है। जयाचार्य ने शरीर को आत्मा मानने का विश्लेषण सापेक्ष दृष्टि के आधार पर किया है। उनके अनुसार जैसे जीव को गुरुलघु कहा गया है, वह सापेक्ष दृष्टि का निरूपण है। वास्तव में जीव अगुरुलघु होता है किन्तु औदारिक आदि प्रथम चार शरीरों की अपेक्षा जीव को गुरुलघु कहा गया है। यह प्रतिपादन जीव और शरीर का कथञ्चित् अभेदोपचार करके किया गया है। उसी प्रकार यहां शरीर को आत्मा भी सापेक्ष दृष्टि से बतलाया गया है ? दूसरा बिन्दु-काय रूपी है अथवा अरूपी ? शरीर पौद्गलिक है इसलिए वह रूपी है। वह आत्मा से कथंचित् अभिन्न है, इस अपेक्षा से वह अरूपी भी है। अभयदेवसूरि ने अरूपी मानने का हेतु यह बतलाया है- कार्मण शरीर अतिसूक्ष्म है" अतः रूपी के लिए भी अरूपी की विवक्षा की गई है। द्रष्टव्य भगवती जोड़ ढाल २५५ गाथा ५६-५७ का वार्तिक । तीसरा बिन्दु-काय सचित्त है अथवा अचित्त ? जीवच्छरीर चैतन्य युक्त होने के कारण सचित्त है। मृत शरीर चैतन्य वियुक्त होने के कारण अचित्त है। चौथा बिन्दु - काय जीव है अथवा अजीव ? १. भ. वृ. १३/१२८ २. वही, १३ / १२८ । ३. भग. जो. ढा. २८८ गा. ५२-५४ बंधक नैं अधिकार, गुरु लघु जीव भणी कह्यो । ते धुर शरीर च्यार, तेह सहित जंतू लियो । तेम इहां कहिवाय, काया जीव सहीत ते । आतम कहियै ताय, नय वच वबहारे करी ॥ काल वर्ण अवलोय, भमर को भगवंत जिम । नय ववहारे जोय, पंच वर्ण निश्चै नये ॥ ४. भ. वृ. १३/ १२८ । ५. भग. जो. ढा. २८८ गा. ६२। ६. भ. वृ. १३/ १२८ । ७. वही, १३ / १२८ । ८. भग. जो, ढा. २८८ गा. ६६-७४ श. १३ : उ. ७ : सू. १२८ है इस प्रश्न का उत्तर है - शरीर उच्छ्वास आदि प्राण से युक्त इसलिए वह जीव है। मृत शरीर अजीव है। * अभयदेवसूरि के अनुसार कार्मण शरीर अजीव है । उसमें उच्छ्वास आदि नहीं होते। ' पांचवां बिन्दु-काय जीवों के होता है अथवा अजीवों के ? इस प्रश्न का उत्तर है- जीवों के काय-शरीर होता है। अजीवों के भी शरीराकार होता है। जैसे मूर्ति शरीराकार वाली होती है। भाषा और मन के विषय में वर्तमान का नियम है-भाष्यमाण भाषा है और मन्यमान मन । काय का नियम त्रैकालिक है। भाषा और मन तात्कालिक होते हैं-जिस समय बोला जाता है, उस समय भाषा होती है। जिस समय मनन किया जाता है, उस समय मन होता है। शरीर चिरस्थायी और दीर्घकालिक है। काय का एक अर्थ है चय। जिस समय वह चीयमान है, उस समय भी काय है। उससे पूर्व भी उसका चय होता रहा है और भविष्य में भी उसका चय होता रहेगा। इस अपेक्षा से उसका अस्तित्व त्रैकालिक है। अभयदेवसूरि ने 'पुब्बिं काये' इसकी व्याख्या मेंढक के उदाहरण से की है। मेंढक का मृत शरीर जीव का संबंध होने से पहले का है। जीवच्छरीर जीव के द्वारा चीयमान काय है। मृत शरीर काय समय व्यतिक्रांत का उदाहरण है। मृत्यु के पश्चात् वह चीयमान नहीं होता । " जयाचार्य ने 'पुब्विं वि काये' की व्याख्या पोट्ट परिहार और गर्भ की चौबीस वर्ष की स्थिति के आधार पर की हैं। " फूल के जीव मरकर तिल संकलिका में सात तिल के रूप में पैदा हुए। उनके लिए तिल का पौधा पूर्ववर्ती काय है। उन जीवों ने अपने प्रयत्न से नए काय की रचना नहीं की ।' एक जीव बारह वर्ष तक गर्भ में रहा, वह वहां से मरकर उसी गर्भ में फिर से पैदा हो गया। उसका शरीर पूर्ववर्ती काय है । " काय के पुद्गलों का भेदन त्रैकालिक है। काय चिरस्थायी है। उसमें चयापचय की क्रिया होती रहती है। श्रमयुक्त अवस्था के समय कायवर्गणा के जिन पुद्गलों का निसर्ग होता है, उनका भेदन काय मुक्त होने के उत्तर काल में होता है। कठोर श्रम की अवस्था में मुक्त पुद्गलों का भेदन वर्तमान क्षण में होता है। होस्यै जीव संबंध जिम मृत दर्दुर तनु त । तेहनी परे प्रबंध, एह वचन लोकीक नों॥ प्रथम जीव थी काय, मूंआ डेडका नों तनु । लोक कहै ते मांय, जंतू आवणहार है ॥ वनस्पति रे मांही, कह्यो पोटपरिहार प्रभु । फूल जीव मर ताहि, हुस्यै सप्त तिल सूंघणी ॥ वर्ष चउवीस विचार, गर्भ विषे काया रहै। रही तिहां वर्ष बार, तेहिज तथा अन्य ऊपजै ॥ ते माटे ए वाय, जीव संबंधज काल थी। पहिलां कहिये काय, जीव पर्छ तिहां ऊपजै ॥ काइज्जमाणे काय, जीव जिको काया प्रतै । चिणवा लागो ताय, गर्भ अवस्था काय पिण । ६. भ. १५/७२-७३। १०. भ. २ / ८३-८४ | Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भगवई श. १३ : उ.७ : सू. १२६-१३४ १२६. कतिविहे णं भंते ! काये पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तविहे काये पण्णत्ते, तं जहा–ओरालिए, ओरालियमीसए, वेउब्बिए, वेउब्वियमीसए, आहारए, आहारगमीसए, कम्मए॥ कतिविधं भदन्त! कायः प्रज्ञप्तम्? गौतम! सप्तविधः कायः प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- औदारिकं, औदारिकमिश्रकं, वैक्रियम्, वैक्रियमिश्रकं, आहारकं, आहारकमिश्रकं, कर्मकम्। १२६. भंते! काय के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम! काय के सात प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र, कार्मणा मरण-पदं १३०. कतिविहे णं भंते ! मरणे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे मरणे पण्णत्ते. तं जहा-आवीचियमरणे, ओहिमरणे, आतियंतियमरणे, बालमरणे, पंडियमरणे॥ मरण-पदम कतिविधं भदन्त! मरणं प्रज्ञप्तम्? गौतम! पञ्चविधं मरणं प्रज्ञप्तम. तद्यथा-आवीचिकमरणम्, अवधिमरणम्, आत्यन्तिकमरणम्, बालमरणम्, पण्डितमरणम्। मरण-पद १३०. भंते! मरण के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम! मरण के पांच प्रकार प्रज्ञप्त है, जैसे-आवीचि मरण, अवधि मरण, आत्यंतिक मरण, बाल मरण, पंडित मरण। १३१. आवीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहादव्वावीचियमरणे, खेत्तावीचियमरणे, कालावीचियमरणे, भवावीचियमरणे, भावावीचियमरणे॥ आवीचिकमरणं भदन्त! कतिविधं प्रज्ञप्तम्? गौतम! पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाद्रव्यावीचिकमरणम्, क्षेत्रावीचिकमरणम्, कालावीचिकमरणम्, भवावीचिकमरणम्, भावावीचिकमरणम्। १३१. भंते! आवीचि मरण कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम! पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे द्रव्य आवीचि मरण, क्षेत्र आवीचि मरण, काल आवीचि मरण, भव आवीचि मरण, भाव आवीचि मरण। १३२.दव्वावीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे द्रव्यावीचिकमरणं भदन्त! कतिविधं १३२. भंते! द्रव्य आवीचि मरण कितने प्रकार पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तम्? का प्रज्ञप्त है? गोयमा ! चउब्बिहे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- गौतम! चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेनेरइयदव्यावीचियमरणे, तिरिक्व- नैरयिकद्रव्यावीचिकमरणम्, तिर्यग्- नैरयिक द्रव्य आवीचि मरण, तिर्यक् योनिक जोणियदव्वावीचियमरणे, मणुस्स- योनिकद्रव्यावीचिकमरणम्, मनुष्य- द्रव्य आवीचि मरण, मनुष्य द्रव्य आवीचि दब्बावीचियमरणे, देवदव्यावी- द्रव्यावीचिकमरणम्, देवद्रव्यावीचिक- मरण, देव द्रव्य आवीचि मरणा चियमरणे॥ मरणम्। १३३. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- नेरइयदव्वावीचियमरणे . नेरइयदव्वा- नैरयिकद्रव्यावीचिकमरणं . नैरयिक- वीचियमरणे? द्रव्यावीचिकमरणम्? गोयमा ! जण्णं नेरइया नेरइए दव्वे गौतम! यत् नैरयिकाः नैरयिके द्रव्ये वट्टमाणा जाई दव्वाई नेरइयाउयत्ताए वर्तमानाः यानि द्रव्याणि नैरयिकागहियाई बधाई पुट्ठाई कडाई पट्टवियाई युष्कतया गृहीतानि स्पृष्टानि कृतानि निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमण्णा- प्रस्थापितानि निर्विष्टानि अभिनिगयाई भवंति ताई दव्वाई आवीचि- र्विष्टानि अभिसमन्वागतानि भवन्ति मणुसमयं निरंतरं मरंति त्ति कट्ट। से तानि द्रव्याणि आवीचिमनुसमयं निरन्तरं तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-नेरइय- __ म्रियन्ते इति कृत्वा। दवावीचियमरणे, एवं जाव देवदव्वा- तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेवीचियमरणे॥ नैरयिकद्रव्यावीचिमरणम्, एवं यावत् देवद्रव्यावीचिमरणम्। १३३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-नैरयिक द्रव्य आवीचि मरण नैरयिक द्रव्य आवीचि मरण है? गौतम! क्योंकि नैरयिक नैरयिक द्रव्य में वर्तमान जो द्रव्य नैरयिक आयुष्य के रूप में गृहीत, बद्ध, स्पृष्ट, कृत, प्रस्थापित, निविष्ट, अभिनिविष्ट और अभिसमन्यागत होते हैं, वे द्रव्य तरंग की भांति प्रतिक्षण निरंतर विच्युत होते रहते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-गौतम! नैरयिक द्रव्य आवीचि मरण, इस प्रकार यावत् देव द्रव्य आवीचि मरण है। १३४. खेत्तावीचियमरणे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? क्षेत्रावीचिकमरणं भदन्त! कतिविधं प्रज्ञप्तम्? १३४. भंते! क्षेत्र आवीचि मरण कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहानेरइयखेत्तावीचियमरणे देवखेत्तावीचियमरणे ॥ जाव १३५. से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइनेरइयखेत्तावीचियमरणे नेरइयखेत्तावीचियमरणे ? गोयमा ! जण्णं नेरइया नेरइयखेत्ते ट्टमाणा जाई दव्बाई नेरइयाउयत्ताए गहियाई एवं जहेब दव्वावीचियमरणे तहेब खेत्तावीचियमरणे वि । एवं जाव भावावीचियमरणे ॥ · १३६. ओहिमरणे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहादव्वोहिमरणे, खेत्तोहिमरणे, कालोहिमरणे, भवोहिमरणे, भावोहिमरणे ॥ १३७. दव्वोहिमरणे णं भंते कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहानेरइयदव्वोहिमरणे जाव देवदव्वोहिमरणे ॥ १३८. से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ - इदव् वोहि मरणे ? गोयमा ! जे णं नेरइया नेरइयदव्वे माणा जाई व्वाई संपयं मरंति, ते णं नेरइया ताई दव्वाइं अणागए काले पुणो वि मरिस्संति से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव दब्वोहिमरणे । एवं तिरिक्खजोणिय- मणुस्स - देवदव्बोहिमरणेवि । एवं एएणं गमेणं खेत्तोहिमरणे वि, कालोहिमरणे वि, भवोहिमरणे वि, भावोहिमरणे वि ॥ १३६. आतियंतियमरणे णं भंते ! - पुच्छा । गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहादव्वातियंतियमरणे, खेत्तातियंतिय १६७ गौतम! चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथानैरयिकक्षेत्रावीचिकमरणम् यावत् देवक्षेत्रावीचिकमरणम्। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेनैरयिक क्षेत्रावीचिकमरणं नैरयिकक्षेत्रावीचिकमरणम् ? गौतम ! यत् नैरयिकाः नैरयिकक्षेत्रे वर्त्तमानाः यानि द्रव्याणि नैरयिकायुष्कतया गृहीतानि एवं यथैव द्रव्यावीचिकमरणं तथैव क्षेत्रावीचिकमरणम् अपि । एवं यावत् भावावीचिकमरणम् । अवधिमरणं भदन्त! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाद्रव्यावधिमरणम्, क्षेत्रावधिमरणम्, भवावधिमरणम्, कालावधिमरणम्, भावावधिमरणम् । द्रव्यावधिमरणं भदन्त ! प्रज्ञप्तम् ? गौतम! चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथानैरयिकद्रव्यावधिमरणम् देवद्रव्यावधिमरणम्। यावत् कतिविधं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेनैरयिकद्रव्यावधिमरणं नैरयिकद्रव्यावधिमरणम् ? गौतम! ये नैरयिकाः नैरयिकद्रव्ये वर्तमानाः यानि द्रव्याणि साम्प्रतं म्रियन्ते, ते नैरयिकाः तानि द्रव्याणि अनागते काले पुनः अपि मरिष्यन्ति । तत् तेनार्थेन गौतम! यावत् द्रव्यावधिमरणम् । एवं तिर्यग्योनिकमनुष्यदेवद्रव्यावधिमरणम् अपि । एवम् एतेन गमेन क्षेत्रावधिमरणम् अपि, कालावधिमरणम् अपि भवावधिमरणम् अपि, भावावधिमरणम् अपि । आत्यन्तिकमरणं भदन्त ! पृच्छा । गौतम! पञ्चविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथाद्रव्यात्यन्तिकमरणम्, क्षेत्रात्यन्तिक श. १३ : उ. ७ : सू. १३५ - १३६ गौतम! चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेनैरयिक क्षेत्र आवीचि मरण यावत् देव क्षेत्र वीचिमरण १३५. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - नैरयिक क्षेत्र आवीचिमरण नैरयिक क्षेत्र आवीचिमरण है? गौतम! जो नैरयिक नैरयिक क्षेत्र में वर्तमान जो द्रव्य नैरयिक आयुष्य के रूप में गृहीत होते हैं, इस प्रकार जैसे द्रव्य आवीचिमरण की वक्तव्यता वैसे ही क्षेत्र आवीचिमरण भी वक्तव्य है। इसी प्रकार यावत् भव आवीचि मरण। १३६. भंते! अवधि मरण कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम! पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य अवधि - मरण, क्षेत्र अवधि - मरण, कालअवधि मरण, भव अवधि-मरण, भावअवधि मरणा १३७. भंते! द्रव्य अवधि मरण कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम! चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेनैरयिक द्रव्य अवधि - मरण यावत् देव द्रव्य अवधि मरण। १३८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - नैरयिक द्रव्य अवधिमरण नैरयिक द्रव्य अवधिमरण है? गौतम! जो नैरयिक नैरयिक- द्रव्य में वर्तमान जिन द्रव्यों से संप्रति मरते हैं, वे नैरयिक उन्हीं द्रव्यों से अनागत काल में पुनरपि मरेंगे। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- यावत् द्रव्य अवधि-मरण है । इसी प्रकार तिर्यक् योनिक, मनुष्य और देव द्रव्य अवधि मरण की वक्तव्यता। इसी प्रकार इस गमक से क्षेत्र अवधि-मरण, काल अवधि-मरण, भव अवधि - मरण और भाव अवधि मरण की वक्तव्यता। १३६. भंते! आत्यंतिक मरण की 'पृच्छा । गौतम! पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य आत्यंतिक मरण, क्षेत्र आत्यंतिक मरण Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ७ : सू. १४०-१४५ मरणे जाव भावातियंतियमरणे ॥ १४०. दव्वातियंतियमरणे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहानेरइयदव्वातियंतियमरणे देवदव्वातियंतियमरणे ॥ जाव १४१. से केणट्टेणं भंते! एवं बुचड़नेरइयदव्वातियंतियमरणे - नेरइयदव्वातियंतियमरेण ? गोयमा ! जे णं नेरइया नेरइयदव्वे माणा जाई दब्वाई संपयं मरंति, ते णं नेरइया ताई दव्वाइं अणागए काले नो पुणो वि मरिस्संति। से तेणट्टेणं जाव नेरइयदव्वातियंतियमरणे । एवं तिरिक्खजोणिय - मणुस्स - देवदव्वातियंतियमरणे । एवं खेत्तातियंतियमरणे वि, एवं जाव भावातियंतियमरणे वि ॥ १४३. पंडियमरणे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहापाओवगमणे य, भत्तपच्चक्खाणे य॥ १४४. पाओवगमणे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुि पण्णत्ते, तं जहा - नीहारिमे य, अनीहारिमे य । नियमं अपडिकम्मे ॥ १६८ मरणम् यावत् भावात्यन्तिकमरणम् । १४२. बालमरणे णं भंते! कतिविहे बालमरणं भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? पण्णत्ते ! गोयमा ! दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा - १. वलयमरणे २. बसट्टमरणे ३. अंतोसल्लमरणे ४. तब्भवमरणे ५. गिरिपडणे ६. तरुपडणे जलप्पवेसे ८. जलणपवेसे ६. विसभक्खणे १०, सत्थोवाडणे ११. वेहाणसे १२. गद्धपट्टे ॥ ७. द्रव्यात्यन्तिकमरणं भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथानैरयिकद्रव्यात्यन्तिकमरणं यावत् देवद्रव्यात्यन्तिकमरणम् । १४१. तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेनैरयिकद्रव्यात्यन्तिकमरणं नैरयिकद्रव्यात्यन्तिकमरणम् ? गौतम! ये नैरयिकाः नैरयिकद्रव्ये वर्त्तमानाः यानि द्रव्याणि साम्प्रतं म्रियन्ते, ते नैरयिकाः तानि द्रव्याणि अनागते काले नो पुनरपि मरिष्यन्ति । तत् तेनार्थेन यावत् नैरयिक द्रव्यात्यन्तिकमरणम् एवं तिर्यग्योनिकमनुष्य- देवद्रव्यात्यन्तिकमरणम् । एवं क्षेत्रात्यन्तिकमरणमपि, एवं यावत् भावात्यन्तिकमरणमपि । गौतम! द्वादशविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा१. वलयमरणम् २. वशार्त्तमरणम् ३. अन्तःशल्यमरणम् ४. तद्भवमरणम् ५. गिरिपतनम् ६. तरुपतनम् ७. जलप्रवेशः ८. ज्वलनप्रवेशः ६. विषभक्षणम् १०. शस्त्रावपाटनम् ११. वैहायसः १२. गृध्रपृष्ठः । पण्डितमरणं भदन्त! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथापादोपगमनं च, भक्तप्रत्याख्यानं च। पादोपगमनं भदन्त! कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथानिर्धारि च अनिर्धारि च । नियमम् अप्रतिकर्म । १४५. भत्तपच्चक्खाणे णं भंते ! कतिविहे भक्तप्रत्याख्यानं भदन्त ! कतिविधं पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तम् ? भगवई यावत् भाव आत्यंतिक मरण । १४०. भंते! द्रव्य आत्यंतिक-मरण कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम! चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-नैरयिक द्रव्य आत्यंतिक मरण यावत् देव द्रव्य आत्यंतिक मरणा १४१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - नैरयिक द्रव्य आत्यंतिक मरण नैरयिक द्रव्य आत्यंतिक - मरण है? गौतम ! जो नैरयिक नैरयिक- द्रव्य में वर्तमान जिन द्रव्यों से संप्रति मरते हैं, वे नैरयिक उन्हीं द्रव्यों से अनागत काल में पुनरपि नहीं मरेंगे। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- यावत् नैरयिक द्रव्य आत्यंतिकमरण है। इसी प्रकार तिर्यक् योनिक, मनुष्य और देव द्रव्य आत्यंतिक मरण की वक्तव्यता। इसी प्रकार क्षेत्र आत्यंतिकमरण तथा इसी प्रकार यावत् भाव आत्यंतिक मरण की वक्तव्यता। १४२. भंते! बाल मरण कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम! बारह प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे - वलय-मरण, वशार्त्त-मरण, अंत:शल्य-मरण, तद्भव-मरण, गिरि-पतन, तरु- पतन, जल प्रवेश, ज्वलन- प्रवेश, विष- भक्षण, शस्त्रावपाटन, वैहायस, गृद्धपृष्ठ | १४३. भंते! पंडितमरण कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेप्रायोपगमन, भक्तप्रत्याख्यान । १४४. भंते! प्रायोपगमन कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेनिर्हार, अनिर्धारि । यह नियमतः अप्रतिकर्म होता है। १४५. भंते! भक्तप्रत्याख्यान कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहानीहारिमे य, अनीहारिमे य। नियमं सडकम्मे ॥ १६६ गौतम! द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथानिर्धारि च अनिर्धारि च । नियमं सप्रतिकर्म । १. सूत्र १३०-१४५ मरण का अर्थ है - आयुष्य की समाप्ति । वह एक प्रकार का ही होता है। प्रक्रिया हेतु और अवस्था भेद के आधार पर उसके सतरह प्रकार किए गए हैं। १. भग. जो. ढा. २५६ गा. ४ आवीचि मरण-प्राणी आयुष्य कर्म के पुद्गलों के आधार पर ता है। वे पुद्गल स्कंध प्रति समय उदय में आते रहते हैं। आयुष्य के नए-नए पुद्गल स्कंध उदय में आते हैं और पूर्व पूर्व वाले विच्युत होते रहते हैं । मरण की इस प्रक्रिया का नाम आवीचि मरण है। एक लहर उठती है और नीचे गिर जाती है, फिर दूसरी उठती है और नीचे गिर जाती है। प्रस्तुत मरण वीचि या लहर की भांति होता है। ' अभयदेवसूरि ने वैकल्पिक पाठ 'अवीचिक' की व्याख्या की है। उसका आशय यह है - आयुष्य कर्म पुद्गल निरंतर विपाक में आते १४६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।। भाष्य आ कहितां समस्त प्रकार, वीचि किलोल नीं परै धार । समय- समय आउस्बो वेदंत, तिण सूं समय-समय ए मरंत ॥ रहते हैं। उनके उदय क्रम में कोई वीचि विच्छेद नहीं होता, यह अवीचिक मरण है। अवधि - मरण - जीव आयुष्य कर्म के जिन पुद्गलों का एक बार वेदन कर मर जाता है। फिर दूसरी बार उन पुद्गलों का वेदन कर मरेगा। वह अवधिमरण कहलाता है। आत्यंतिक मरण - जीव आयुष्य कर्म के जिन पुद्गलों का वेदन कर मरता है, उनका पुनः वेदन नहीं करेगा, वह आत्यंतिक-मरण कहलाता है। द्रष्टव्य भगवई २ / ४६ का भाष: समवाओ १७ /६ तथा उत्तरज्झयणाणि ५ का आमुख | बहियाई आदि पदों के लिए द्रष्टव्य-भगवई भाष्य । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति । श. १३ : उ. ७ : सू. १४६ गौतम! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेनिर्धारि, अनिर्धारि । यह नियमतः सप्रतिकर्म होता है। २. भ. वृ. १३/१३०. '३५७ का १४६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसोः : आठवां उद्देशक हिन्दी अनुवाद कर्म प्रकृति पद १४७. भंते! कर्म प्रकृतियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? संस्कृत छाया कम्मपगडि-पदं कर्मप्रकृति-पदम् १४७. कति णं भंते! कम्मपगडीओ कति भदन्त! कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ताओ? गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ गौतम! अष्ट कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः। एवं पण्णत्ताओ। एवं बंधटिइ-उद्देसो बन्धस्थिति उद्देशः भणितव्यः निरवशेषः भाणियच्चो निरवसेसो जहा यथा प्रज्ञापनायाम्। पण्णवणाए॥ गौतम! कर्म प्रकृतियां आठ पज्ञप्त हैं। इस प्रकार बंध-स्थिति उद्देशक प्रज्ञापना की भांति निरवशेष वक्तव्य है। भाष्य १. सूत्र १४७ बंध स्थिति के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना २३/२४-२०२। १४६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। १४८. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल भावियप विउव्वणा-पदं १४६. रायगिहे जाब एवं वयासी - से जहानामए केइ पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उड वेहासं उप्पएज्जा ? हंता उप्पएज्जा ॥ १५०. अणगारे णं भंते! भावियप्पा केवतियाई पभू केयाघडियाकिच्चहत्थगयाई रुवाई विउब्वित्तए ? गोयमा ! से जहानामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, चक्करस वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा वेउब्वियसमुग्धाणं समोहरणइ जाव पभू णं गोयमा ! अणगारे णं भाविअप्पा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं बहूहिं इत्थिरूवेहिं आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं संथडं फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए । एस णं गोयमा ! अणगारस्स भाविअप्पणो अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विउव्विसु वा विव्वति वा विउव्विस्मति वा।। १५१. से जहानामए केइ पुरिसे हिरण्णपेलं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भावियप्पा हिरण्णपेलहत्थकिञ्चगएणं अप्पाणेणं उडुं वेहासं उप्पएज्जा ? नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक संस्कृत छाया भावितात्म-विकरण-पदम् राजगृहं यावत् एवमवादीत् सः यथानामकः कश्चित् पुरुषः 'केयाघडियं' गृहीत्वा गच्छेत्, एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा 'केयाघडिया' कृत्यहस्तगतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहायसम् उत्पतेत् ? हन्त ! उत्पतेत्। अनगारः भदन्त ! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः 'केयाघडिया' कृत्य हस्तगतानि रूपाणि विकर्तुम्? गौतम! सः यथानामकः युवतिं युवा हस्तेन हस्तौ गृहणीयात्, चक्रस्य वा नाभिः अरकायुक्ता स्यात् एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यते यावत् प्रभुः गौतम! अनगारः भावितात्मा केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं बहुभिः स्त्रीरूपैः आकीर्णं व्यतिकीर्णम् उपस्तृतं संस्तृतं स्पृष्टम् अवगाढावगाढं कर्तुम् । एषः गौतम ! अनगारस्य भावितात्मनः अयमेतद्रूपः विषयः, विषयमात्रम् उक्तः, नो चैव सम्प्राप्त्या व्यकार्षीत् वा विकरोति वा विकरिष्यति वा । अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः हिरण्यपेटां गृहीत्वा गच्छेत् एवमेव अनगारोऽपि भावितात्मा हिरण्यपेटाहस्तकृत्यगतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहायसम् उत्पतेत्? हिन्दी अनुवाद भावितात्म-विक्रिया-पद १४६. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा - भंते! जैसे कोई पुरुष रज्जु से बंधी घटिका लेकर जाए, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी क्या हाथ में रज्जु से बंधी घटिका ले स्वयं कृत्यागत होकर (माया या विद्या का प्रयोग कर) ऊपर आकाश में उड़ता है ? हां, उड़ता है। १५०. भंते! भावितात्मा अनगार हाथ में रज्जु से बंधी घटिका ले, स्वयं कृत्यागत होकर कितने रूपों का निर्माण करने में समर्थ है ? गौतम! जैसे कोई युवक युवती का हाथ प्रगाढता से पकड़ता है तथा गाड़ी के चक्के की नाभि आरों से युक्त होती है, उसी प्रकार भावितात्मा अनगार वैक्रिय समुद्घात से समवहत होता है यावत् गौतम ! वह भावितात्मा अनगार संपूर्ण जंबूद्वीप द्वीप को अनेक स्त्री रूपों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उपस्तृत (बिछौना साबिछाया हुआ ) संस्तृत (भली भांति बिछौना सा बिछाया हुआ ) स्पृष्ट और अवगाढावगाढ ( अत्यन्त सघन रूप से व्याप्त) करने में समर्थ है। गौतम! भावितात्मा अनगार की विक्रिया शक्ति का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है । भावितात्मा अनगार ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। १५१. जैसे कोई पुरुष हिरण्य-पेटी को लेकर जाए, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार हाथ में हिरण्य पेटी को ले, कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता है? Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ भगवई श. १३ : उ. ६ : सू. १५२-१५७ सेसं तं चेव। एवं सुवण्णपेलं, एवं स्यणपेलं, वइरपेलं, वत्थपेलं, आभरणपेलं, एवं वियलकडं, सुंबकडं, चम्मकडं, कंबलकडं, एवं अयभारं, तंबभारं, तउयभारं, सीसगभारं, हिरण्णभारं, सुवण्णभारं, वइरभारं॥ शेषं तत् चैव। एवं सुवर्णपेटाम्, एवं रत्नपेटां, वज्रपेटां, वस्त्रपेटाम्, आभरणपेटाम् एवं विदलकटं, शुम्बकटं, चर्मकटं, कम्बलकटम्, एवं अयोभारं, ताम्रभारं, त्रपुकभारं, सीसकभारं, हिरण्यभारं, सुवर्णभारं, वज्रभारम्। शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार स्वर्णपेटी, इसी प्रकार रत्नपेटी, वज्रपेटी, वस्त्रपेटी, आभरणपेटी, इसी प्रकार बांस की खपाचियों से बनी हुई चटाई अथवा टाटी, खस से बनी हुई टाटी, चमड़े से गुंथी हुई खाट, ऊनी कंबल, इसी प्रकार लोहभार, ताम्रभार, पीतलभार, शीशकभार, हिरण्यभार, स्वर्णभार, वज्रभार। १५२. से जहानामए वग्गुली सिया, दो वि अथ यथानामिका वल्गुलिः स्यात्, द्वौ पाए उल्लंबिया-उल्लंबिया उखुपादा अपि पादौ उल्लम्ब्य-उल्लम्ब्य अहोसिरा चिद्वेज्जा, एवामेव अणगारे ऊर्ध्वपादा अधःशिरा तिष्ठेत्, एवमेव वि भाविअप्पा वग्गुलीकिच्चगएणं अनगारोऽपि भावितात्मा वल्गुलिअप्पाणेणं उडं वेहासं उप्पएज्जा ? कृत्यगतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहायसम् उत्पतेत्? एवं जण्णोवइयवत्तब्वया भाणियव्वा एवं यज्ञोपवीत-वक्तव्यता भणितव्या जाव विउविस्सति वा॥ यावत् विकरिष्यति वा। १५२. जैसे कोई वल्गुलिका (चमगादड़) होती है, वह दोनों पैरों को लटका कर ऊर्ध्व पैर और अधःशिर स्थित होती है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी स्त्यं वल्गुलिका कृत्यागत होकर ऊपर आव..श में उड़ता है? इस प्रकार यज्ञोपवीत (भगवई ३/२०३) की वक्तव्यता कथनीय है यावत् विक्रिया करेगा। १५३. से जहानामए जलोया सिया, अथ यथानामिका जलौका स्यात्, १५३. जैसे कोई जोंक होती है, वह पानी में उदगंसि कार्य उबिहिया-उबिहिया उदके कायम् उद्विध्य-उद्विध्य गच्छेत्, शरीर को उछाल उछाल कर चलती है, इसी गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं जहा एवमेव अनगारः, शेषं यथा वल्गुल्याः। प्रकार अनगार भी। शेष वल्गुलिका की वग्गुलीए॥ भांति वक्तव्यता। न. १५४. से जहानामए बीयंबीयगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे- समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव॥ अथ यथानामक: बीजंबीजकशकुनः १५४. जैसे कोई बबीला पक्षी होता है, वह दोनों स्यात्, द्वौ अपि पादौ समतुरङ्गायन्- पैरों को एक साथ तुल्य रेखा में उठाता समतुरङ्गायन् गच्छेत्, एवमेव अनगारः, हुआ, उठाता हुआ चलता है, इसी प्रकार शेषं तत् चैव। भावितात्मा अनगार भी, शेष पूर्ववत्। १५५. से जहानामए पक्खिविरालए सिया, रुक्खाओ रुक्खं डेवेमाणे-डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं अथ यथानामकः पक्षिविडालकः स्यात्, १५५. जैसे कोई विराल पक्षी (बड़ी चमगादड़) रुक्षात् रुक्षं 'डेवेमाणे-डेवेमाणे' होता है, वह एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर गच्छेत्, एवमेव अनगारः, शेषं तत् चैव। कूदता हुआ चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी। शेष पूर्ववत्। चेव॥ १५६. से जहानामए जीवंजीवगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणेसमतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव॥ अथ यथानामक: जीवंजीवकशकुनः स्यात्, द्वौ अपि पादौ समतुरङ्गायन्समतुरङ्गायन् गच्छेत् , एवमेव अनगारः, शेषं तत् चैव। १५६. जैसे कोई चकोर पक्षी होता है, वह दोनों पैरों को एक साथ तुल्य रेखा में उठाता हुआ, उठाता हुआ चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी। शेष पूर्ववत्। १५७. से जहानामए हंसे सिया, तीराओ अथ यथानामक: हंसः स्यात्, तीरात् तीरं अभिरममाणे-अभिरममाणे तीरम् अभिरममाणः-अभिरममाणः गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि गच्छेत, एवमेव अनगारः अपि भाविअप्पा हंसकिचगएणं अप्पाणेणं. भावितात्मा हंसकृत्यगतेन आत्मना, सेसं तं चेव॥ शेषं तत् चैव। १५७. जैसे कोई हंस होता है, वह एक तट से दूसरे तट पर क्रीड़ा करता हुआ, क्रीड़ा करता हआ चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार स्वयं हंसकृत्यागत होकर क्रीड़ा करता है, पूर्ववत्। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ श. १३ : उ. ६ : सू. १५८-१६४ भगवई १५८. से जहानामए समुद्दवायसए सिया, वीईओ वीइं डेवेमाणे-डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, तहेव॥ अथ यथानामकः समुद्रवायसकः स्यात्, १५८, जैसे कोई समुद्रकाक होता है, वह एक वीचेः वीचिं 'डेवेमाणे-डेवेमाणे' गच्छेत्, तरंग से दूसरी तरंग पर कूदता हुआ, कूदता एवमेव अनगारः, तथैव। हुआ चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी, तथावत्। १५६. से जहानामए केइ पुरिसे चक्कं अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः चक्रं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि गृहीत्वा गच्छेत्, एवमेव अनगारः अपि भाविअप्पा चक्कहत्यकिञ्चगएणं भावितात्मा चक्रहस्तकृत्यगतेन अप्पाणेणं, सेसं जहा केयाघडियाए। एवं । आत्मना, शेषं यथा 'केयाघडियाए'। छत्तं, एवं चम्म॥ एवं छत्रम्, एवं चर्म। १५६. जैसे कोई पुरुष चक्र को ग्रहण कर चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार स्वयं चक्र हाथ में ले, कृत्यागत होकर चलता है। शेष रज्जु से बंधी घटिका की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार छत्र, इसी प्रकार चर्म की वक्तव्यता। १६०. से जहानामए केइ पुरिसे रयणं अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः रत्नं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव। एवं वइरं, गृहीत्वा गच्छेत्, एवं चैव। वेरुलियं जाव रिटं। एवं उप्पलहत्थगं, एवं वजं, वैडूर्यं यावत् रिष्टम्। एवम् एवं पउमहत्थगं, कुमुदहत्थगं, नलिण- उत्पलहस्तकं, एवं पद्महस्तकं, एवं हत्थग, सुभगहत्थगं, सुगंधियहत्थग, कुमुदहस्तकं, नलिनहस्तकं, सुभगपोंडरीयहत्थगं, महापोंडरीयहत्थगं, हस्तकं, सुगन्धिकहस्तकं, पुण्डरीकसयपत्तहत्थगं, से जहानामए केइ पुरिसे हस्तकं, महापुण्डरीकहस्तकं, शतसहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा, एवं पत्रहस्तकम्। अथ यथानामकः कश्चित् चेव॥ पुरुषः सहस्रपत्रकं गृहीत्वा गच्छेत्, एवं चैव। १६०. जैसे कोई पुरुष रत्न को ग्रहण कर चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी। इसी प्रकार वज, वैडूर्य यावत् अरिष्टा इसी प्रकार उत्पल-हस्तक, इसी प्रकार पद्म हस्तक, कुमुद-हस्तक, नलिन-हस्तक, सुभग-हस्तक, सौगंधिक-हस्तक, पौण्डरिक-हस्तक, महापोण्डरिक-हस्तक, शतपत्र-हस्तक। जैसे कोई पुरुष सहस्रपत्रक ग्रहण कर चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी। १६१. से जहानामए केइ पुरिसे भिसं अवदालिय-अवदालिय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भिसकिच्चगएणं अप्पाणेणं, तं चेव।। अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः विसम् अवदलय्य-अवदलय्य गच्छेत्, एवमेव अनगारः अपि विसकृत्यगतेन आत्मना, तत् चैव। १६१. जैसे कोई पुरुष नाल-तंतु को विदीर्ण कर, विदीर्ण कर चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी स्वयं नालतंतु कृत्यागत होकर चलता है। पूर्ववत्। १६२. से जहानामए मुणालिया सिया, अथ यथानामिका मृणालिका स्यात्, १६२. जैसे कोई कमलिनी होती है वह पानी में उदगंसि कायं उम्मज्जिया-उम्मज्जिया उदके कायम् उन्मज्ज्य-उन्मज्ज्य उन्मज्जन कर (डुबकी लगा कर) उन्मज्जन चिट्ठज्जा, एवामेव, सेसं जहा तिष्ठेत्, एवमेव, शेषं यथा वल्गुल्याः । कर ठहरती है, इसी प्रकार भावितात्मा वग्गुलीए॥ अनगार भी। शेष वल्गुलिका की भांति वक्तव्यता १६३. से जहानामए वणसंडे सिया-किण्हे अथ यथानामक: वनषण्ड: स्यात्- किण्होभासे जाव महामेहनिकरंबभूए, कृष्णः कृष्णावभासः यावत् पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे महामेघनिकुरम्बभूतः प्रासादीयः पडिरूवे, एवामेव अणगारे वि दर्शनीयः अभिरूपः प्रतिरूपः, एवमेव भाविअप्पा वणसंडकिच्चगएणं अप्पाणेणं अनगारः अपि भावितात्मा उखु वेहासं उप्पएज्जा! वनषण्डकृत्यगतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहायसम् उत्पते? सेसं तं चेव॥ शेषं तत् चैव। १६३. जैसे कोई वनषंड होता है-कृष्ण, कृष्ण अवभास वाला यावत् काली कजरारी घटा के समान चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी स्वयं वनपंड कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता शेष पूर्ववत्। १६४. से जहानामए पुक्खरणी सिया- सा यथानामिका पुष्करिणी स्यात्- १६४. जैसे कोई पुष्करिणी होती है-चतुष्कोण Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १३ : उ. ६ : सू. १६५, १६६ जाव चक्कोणा, समतीरा, अणुपुब्बसुजायवप्पगंभीरसीयलजला सहुन्नइयमहुरसरणादिया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एवामेव अणगारे वि भाविअप्पा पोक्खरणीकिच्चगएणं अप्पाणेणं उद्धं वेहासं उप्पएज्जा ? हंता उप्पएज्जा । १६५. अणगारे णं भंते! भाविअप्पा केवतियाई पभू पोक्खरणीकिच्चगयाई रूबाई विउब्वित्तए ? सेसं तं चैव जाव विउब्विस्सति वा ॥ १६६. से भंते! किं मायी विउब्वति ? अमायी विव्वति ? गोयमा ! मायी विउव्वति, नो अमायी विउव्वति । मायी णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ, नत्थि तरस आराहणा । अमायी णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कंते कालं करेड़, अत्थि तस्स आराहणा ॥ १७४ चतुष्कोणा, समतीरा, अनुपूर्वसुजातवप्रगम्भीरशीतलजला यावत् शब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादिता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा, एवमेव अनगारः अपि भावितात्मा पुष्पकरिणी कृत्यगतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहायसम् उत्पतेत् ? हन्त! उत्पतेत्। अनगारः अपि भदन्त ! भावितात्मा कियन्ति प्रभुः पुष्पकरणीकृत्यगतानि रूपाणि विकर्तुम्? शेषं तत् चैव यावत् विकरिष्यति वा । अथ भदन्त ! किं मायी विकरोति ? अमायी विकरोति ? गौतम! मायी विकरोति, नो अमायी विकरोति । मायी तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति, नास्ति तस्य आराधना । अमायी तस्य स्थानस्य आलोचितप्रतिक्रान्तः कालं करोति, अस्ति तस्य आराधना । १. सूत्र १४६ - १६६ प्रस्तुत आगम में भावितात्मा अनगार के विषय में अनेक सूत्र उपलब्ध हैं १. भ. ३ / १८६ - १६३ । २. (क) जैनेन्द्र कोश - ऋद्धि शब्द । भाष्य • भगवई ३ / १५४ - १६३ • भगवई ३ / १८६-२४३ भावितात्मा अनगार नाना रूपों की विक्रिया (निर्माण) करने में समर्थ होता है। इसका उल्लेख भगवती के तीसरे शतक में भी उपलब्ध है। ' विवरण के लिए द्रष्टव्य ३ / १६६ - २२० का सूत्र एवं भाष्य । प्रस्तुत प्रकरण में भावितात्मा के द्वारा की जाने वाली विक्रिया के अनेक प्रकारों का उल्लेख किया गया है। स्थानांग में छह प्रकार के ऋद्धिमान पुरुष बतलाए गए हैं। उनमें चारण और विद्याधर का उल्लेख है। ' धवला और तत्त्वार्थवार्तिक में ऋद्धि के अनेक प्रकार बतलाए गए हैं।' प्रस्तुत प्रकरण में भावितात्मा की बहुविध विक्रिया का भगवई वाली, समतीर वाली, क्रमशः सुन्दर तट वाली, गंभीर और शीतल जल वाली यावत् जिसमें उन्नत शब्द और मधुर स्वर का नाद हो रहा है, वह चित्त को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी स्वयं पुष्पकरिणी कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता है ? हां, उड़ता है। १६५. भंते! भावितात्मा अनगार कितने पुष्पकरिणी कृत्यागत रूपों का निर्माण करने में समर्थ है ? शेष पूर्ववत् यावत् विक्रिया करेगा। १६६. भंते! क्या मायी विक्रिया करता है? अमायी विक्रिया करता है? निरूपण किया गया है। इस निरूपण में प्राणी के साथ भावितात्मा की विक्रिया का वर्णन तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। शब्द विमर्श उठाता हुआ । गौतम! मायी विक्रिया करता अमायी विक्रिया नहीं करता। मायी इस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना काल को प्राप्त होता है, उसके आराधना नहीं होती। अमायी उस स्थान की आलोचनाप्रतिक्रमण कर काल को प्राप्त होता है, उसके आराधना होती है। वियलकडं - बांस की खपाचियों से बनी हुई चटाई (अथवा ) टाटी | सुंब कडं - खस से बनी हुई टाटी । चंब कडं - चमड़े से गुंथी हुई खाट । कंबल कडं - ऊनी कंबल । उल्लंबिया - लटका कर । उब्बिहिय उब्बिहिय - उछाल उछाल कर । बीजबीजक - बबीला | जीवजीवक - चकोर | बल्गुलिका - छोटी चमगादड़ । समतुंरगेमाणे- दोनों पैरों को एक साथ समतुल्य रेखा में (ख) ठा. ६ / ३१ का टिप्पण | ३. जैनेन्द्र कोश - ऋद्धि शब्द । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १७५ श. १३ : उ.६ : सू. १६७ डेवेमाणे-कूदता हुआ। पविखविराली-बड़ी चमगादड़। अभिरममाणे-क्रीड़ा करता हुआ। वेरुलिय-गरुड़। अवदालिय-विदीर्ण कर। भिस-नाल तंतु। प्राणी की विशेष जानकारी के लिए जैन आगम प्राणी कोश, वनस्पति की विशेष जानकारी के लिए जैन आगम वनस्पति कोश तथा रत्न आदि की विशेष जानकारी के लिए उत्तराध्ययन ३६/६१६६ का टिप्पण द्रष्टव्य है। १६७. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। १६७. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। इस प्रकार यावत विहरण करने लगे। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद छाउमत्थियसमुग्घाय-पदं १६८. कति णं भंते! छाउमत्थिय समुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा! छ छाउमत्थिया समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा–वेयणासमुग्याए, एवं छाउमत्थियसमुग्धाया नेयव्या जहा पण्णवणाए जाव आहारग- समुग्यायेत्ति॥ छानस्थिकसमुद्घात-पदम् छानस्थिक समुद्घात पद कति भदन्त! छाद्मस्थिकसमुद्घाताः १६८. भंते! छानस्थिक समुद्घात कितने प्रज्ञप्त प्रज्ञप्ताः? हैं? गौतम! षट् छाद्मस्थिकाः समुद्घाताः गौतम! छाद्मस्थिक समुद्घात के छह प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घातः, एवं प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-वेदना समुद्धात, इस छाद्मस्थिकसमुद्घाताः नेतव्याः यथा प्रकार छाद्मस्थिक समुद्घात प्रज्ञापना की प्रज्ञापनायां यावत् आहारकसमुद्घातः भांति ज्ञातव्य है यावत् आहारक समुद्घात। इति। भाष्य १. सूत्र १६७ समुद्घात के लिए द्रष्टव्य भगवई २/७४ का भाष्य। १६६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। १६६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। इस प्रकार यावत् विहरण करने लगे। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोदसमं सतं चौदहवां शतक Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत शतक का प्रारंभ पुनर्जन्म के नियमों से होता है। लेश्या पुनर्जन्म की व्याख्या का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।' प्रस्तुत आगम के किसी भी शतक में एक विषय का प्रतिपादन नहीं है। इसमें प्रकीर्ण सिद्धांतों का संकलन किया गया है। पहले उद्देशक का संबंध पुनर्जन्म से है। दूसरे उद्देशक में उन्माद का एक बृहद् आलापक है। स्थानांग में उन्माद के दो प्रकार बतलाए गए हैं। प्रस्तुत शतक के सोलहवें सूत्र के साथ उसकी अक्षरशः तुलना होती है। ठाणं में उन्माद प्राप्ति के छह हेतु बतलाए हैं, उनमें भी यक्षावेश और मोहनीय कर्म से होने वाले उन्माद का उल्लेख है। सामान्य धारणा यह है-कोई दिव्य शक्ति किसी मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर उन्माद पैदा कर देती है। प्रस्तुत प्रकरण में इस विषय में एक नए रहस्य का उद्घाटन होता है। दिव्य शक्ति का शरीर में प्रवेश अनिवार्य नहीं है। वह अशुभ पुद्गलों का शरीर में प्रक्षेप कर उन्माद पैदा कर सकती है। यह तथ्य और विस्मयकारी है कि बड़े देव छोटे देवों में भी अशुभ पुदगलों का प्रक्षेप कर उन्माद पैदा कर सकते हैं। इससे भी अधिक विस्मयकारी तथ्य यह है कि पृथ्वीकायिक आदि सूक्ष्म जीवों में भी उन्माद पैदा किया जा सकता है।' छठे शतक में तमस्काय का निर्माण करने वाली तीन शक्तियों का उल्लेख है-देव, असुर और नाग।' प्रस्तुत शतक में देवेन्द्र ईशान के द्वारा तमस्काय के निर्माण की प्रक्रिया बतलाई गई है। विनय विधि (प्रोटोकाल) का एक लंबा प्रकरण है। देवों की विनय विधि का वर्णन बहुत ही रोचक है।" विनय विधि का वर्णन दसवें शतक में भी प्राप्त है। उसमें विमोहन का उल्लेख है किन्तु शस्त्र द्वारा आक्रमण का उल्लेख नहीं है। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। प्रस्तुत शतक में नैरयिकों के प्रत्यनुभव का संक्षिप्त विवरण है। पूर्ण पाठ के लिए जीवाभिगम देखने का निर्देश है। अंग सूत्र में उपांग देखने का निर्देश सूचित करता है कि यह आलापक जीवाभिगम से प्रस्तुत आगम में संकलित है। परमाणु पुद्गल का निरूपण स्यावाद की पद्धति से किया गया है। परमाणु पुद्गल की चरम और अचरम अवस्थाओं को मान्य किया गया है। प्रज्ञापना में परमाणु पुद्गल के चरम और अचरम इन दोनों भंगों का निषेध है। केवल अवक्तव्य भंग ही मान्य है।" पांचवें उद्देशक में अंतराल गति का बहुत महत्त्वपूर्ण निरूपण किया गया है। भगवान् महावीर और गौतम का संबंध महावीर के जीवन वृत्त का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। इसका आयारो तथा आयारचूला पर्युषणाकल्प आदि में उल्लेख न होना आश्चर्य की बात है। लव सप्तम देव", अनुत्तरोपपातिक देव, अव्याबाध देव और जूंभक देव" का वर्णन विलक्षण है। इस प्रकार का वर्णन अन्य आगमों में उपलब्ध नहीं है। देवेन्द्र शक्र द्वारा सिर का चूर्ण करना, फिर संधान कर देना और संबद्ध व्यक्ति को उसका आभास भी न होना एक आश्चर्यकारी घटना का विवरण है। आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ है पर इस दिव्य शक्ति के सामने अकिंचित्कर सा लगता है। १.भ., १४/१-२ २. ठाणं, २/७५ ३. ठाणं, ६/४३ ४. भ., १४/१८-२० ५. वही, ६/७६ ६. वही, १५/२५-२७ ७. वही, १४/२६-३६ ८. वही, १०/२४-३८ ६. वही, १४/४०-४२ १०. वही, १४/५१ ११. (क) पण्ण. १०/६ (ख) प्रज्ञा. वृ. प. २३५ १२. वही, १४/५४-६० १३. वही, १४/७७-७६ १४. वही, १४/८४-८५ १५. वही, १४/८६-८५. १६. वही, १४/११३-११४ १७. वही, १४/११७-१२१ १८. वही, १५/११५-११६ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : आमुख १८० भगवई आत्मा और पुनर्जन्म का प्रतिपादन आगम साहित्य का प्रमुख कार्य रहा है। शालयष्टिका और उदुम्बरयष्टिका वृक्ष के बारे में गौतम की जिज्ञासा और महावीर का उत्तर प्रत्यक्ष ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण निदर्शन है।' इस आलापक से अकाम निर्जरा के महत्त्व का भी अंकन किया जा सकता है। प्रस्तुत आगम के छठे शतक में आभामंडल का प्रशस्त वर्णन किया गया है।' प्रस्तुत शतक में बतलाया गया है - आभामंडल के परमाणु-पुद्गल अवभास, उद्योत, ताप और प्रभास करते हैं।' श्रमण निर्ग्रथों की तेजोलेश्या का उत्तरोत्तर होने वाला विकास एक साधक के लिए बहुत प्रेरक है।" प्रस्तुत शतक का एक महत्त्वपूर्ण विषय है परिव्राजक अम्मड़ का प्रकरण इस प्रकार यह शतक अन्यत्र अचर्चित और अनुपलब्ध विषय सामग्री की दृष्टि से बहुत मननीय है। १. वही, १४/१०१-१०६ २. भ., ६/२०-२३ ३. वही, १४ / १२३-१२५ ४. वही, १४ / १३६ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोहसमं सतं : चौदहवां शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक मूल संगहणी गाहा १. चर २. उम्माद ३. सरीरे, ४. पोग्गल ५. अगणी तहा ६. किमाहारे। ७, ८. संसिट्ठमंतरे खलु, ६. अणगारे १०. केवली चेव ॥१॥ संस्कृत छाया संग्रहणी गाथा १. चर २. उन्माद ३. शरीरं ४. पुद्गल ५. अग्निः तथा ६. किमाहारः । ७-८. संसृष्टमन्तरं खलु ६. अनगारः १०. केवली चैव॥१॥ हिन्दी अनुवाद संग्रहणी गाथा १. चर २. उन्माद ३. शरीर ४. पुद्गल ५. अग्नि ६. आहार कैसा हो? ७.८. संसृष्ट, अन्तर १. अनगार १०. केवली। लेस्साणुसारि-उववाय-पदं लेश्यानुसारि-उपपात-पदम् लेश्यानुसारी उपपात पद १. रायगिह जाव एवं वयासी-अणगारे णं राजगृहं यावत् एवमवादीत्-अनगारः १. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार भंते! भावियप्पा चरमं देवावासं भदन्त! भावितात्मा चरमं देवावासं कहा-भंते! भावितात्मा अनगार ने चरम वीतिक्कते, परमं देवावासमसंपत्ते, एत्थ व्यतिक्रान्तः, परमं देवावासमसम्प्राप्तः, देवावास का व्यतिक्रमण किया, परम णं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते! अत्र अन्तरा कालं कुर्यात्, तस्य भदन्त! देवावास को संप्राप्त नहीं किया, इस मध्य वह कहिं गती? कहिं उववाए पण्णत्ते? कुत्र गतिः? कुत्र उपपातः प्रज्ञप्तः? काल करे तो भंते! उसकी गति और उसका उपपात कहां प्रज्ञप्त है? गोयमा ! जे से तत्थ परिपस्सओ तल्लेसा गौतम! ये तस्य तत्र परिपार्श्वतः गौतम! वहां जो परिपार्श्व है-मध्यवर्ती देवाबासा, तहिं तस्स गती, तहिं तस्स तल्लेश्याः देवावासाः, तत्र तस्य गतिः, देवलोक हैं, जिस लेश्या में वर्तमान भावितात्मा उववाए पण्णत्ते। से य तत्थ गए विराहेज्जा तत्र तस्य उपपातः प्रज्ञप्तः । सः तत्र गतः अनगार ने काल किया, उस लेश्या के अनुरूप कम्मलेस्सामेव पडिपडति, से य तत्थ गए विराध्येत्, कर्मलेश्यामेव प्रतिपतति, सः जो देवावास हैं वहां उसकी गति और उपपात नो विराहेज्जा, तामेव लेसं तत्र गतः नो विराध्येत्, तामेव लेश्याम् प्रज्ञप्त है। वह वहां जाकर उत्पत्ति-कालीन उवसंपज्जित्ताणं विहरइ॥ उपसम्पद्य विहरति। लेश्या के परिणाम की विराधना करता है तो कर्म लेश्या से उसका प्रतिपतन हो जाता है, अशुभतर लेश्या में चला जाता है। वह वहां जाकर विराधना नहीं करता है तो उसी लेश्या की उपसंपदा में रहता है। भाष्य १. सूत्र । ६० तथा श्लोक ३४/६० का टिप्पण, प्रज्ञापना १७/६०-६६, भगवई प्रस्तुत सूत्र में पुनर्जन्म के दो नियमों का विधान किया गया है- ३/१८३। १. आयुष्य के बंध के समय जैसी लेश्या होती है, उसी के अनुरूप आयुष्य का बंध आत्म-परिणाम के आधार पर होता है। आयुष्य का बंध होता है। जैसा आत्म-परिणाम होता है, आयुष्य का बंध उसके अनुरूप होता २. मृत्यु के समय जीव की जो लेश्या होती है, उसी लेश्या में है।' उसका उपपात होता है। आयुष्य बंध का संबंध भावी गति से है। मूल गतियां चार हैं-नरक, जीव जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या में उत्पन्न होता है, इस तिर्यंच, मनुष्य और देव। उनके अवान्तर प्रकार अनेक हैं। प्रज्ञापना में सिद्धांत की जानकारी के लिए द्रष्टव्य है उत्तरज्झयणाणि ३४/५८. आयुष्य बंध के समय का निर्देश उपलब्ध है। आत्म-परिणाम की धारा १. भ. ६/११४-११६ २. पण्ण, ५/५६-६१ का भाष्य Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. १ : सू. २ १८२ बदलती रहती है। उसमें आरोह-अवरोह होता रहता है। जीवन में आयुष्य का बंध एक बार होता है।' आयुष्य का बंध अनिर्णीत रहता है, उस स्थिति में आयुष्य बंध के योग्य परिणामों में उतार-चढाव आता रहता है। इस सिद्धांत का निष्कर्ष है - चरम देवावास का व्यतिक्रमण और परम देवावास की असंप्राप्ति । लेश्या के प्रतिपतन का सिद्धांत कर्म लेश्या पर आधृत है। वृत्तिकार कर्मया का अर्थ कर्म के कारण होने वाली जीव की परिणति किया है । इसका तात्पर्य है भाव लेश्या ।' कर्म लेश्या से संबद्ध परमाणु स्कंधों के लिए भी कर्म लेश्या पद का प्रयोग होता है। द्रष्टव्य भगवई १४ / १२३-१२५। उत्तराध्ययन में छहों लेश्याओं को कर्म लेश्या कहा गया है। उसके चौंतीसवें अध्ययन का आमुख द्रष्टव्य है। यदि देवावास में उत्पन्न देव उत्पत्ति के समय होने वाले परिणाम की आराधना करता रहता है तो शुभ लेश्या निरंतर बनी रहती है। यदि वह उत्पत्तिकालीन परिणाम की विराधना करता है तो उसका प्रतिपात हो जाता है, अशुभ लेश्या आ जाती है। देवावास की द्रव्यलेश्या वही रहती है क्योंकि देवता की द्रव्य लेश्या अवस्थित होती है। " वैमानिक देवों में द्रव्य लेश्या तीन होती हैं-पीत, पद्म और शुक्ल । भाव लेश्या छहों ही होती हैं।" २. अणगारे णं भंते! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिक्कंते, परमं असुरकुमाराबासमसंपत्ते, एत्थ णं अंतरा कालं करेज्जा, तस्स णं भंते! कहिं गती? कहिं उववाए पण्णत्ते? गोयमा ! जे से तत्थ परिपस्सओ तल्लेसा असुरकुमारावासा, तहिं तस्स गती, तहिं तस्स उबवाए पण्णत्ते से य तत्थ गए विराहेज्जा कम्मलेस्सामेव पडिपडति, से य तत्थ गए नो विराहेज्जा, तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ | १. द्रष्टव्य भ. ५ / ४६ - ६१, ६८-७१ का भाष्य । २. भ. वृ. सू. १४ / १- कम्मलेस्सामेव त्ति कर्म्मणः सकाशाद्या लेश्याजीवपरिणतिः सा कर्म्मलेश्या भावलेश्येत्यर्थः । ३. उतर. ३४ / १। ४. भ. वृ. १४/१ - स पुनरनगारस्तत्र मध्यमभागवर्तिनि देवावासे गतः विराहिज्ज त्ति येन लेश्यापरिणामेन तत्रोत्पन्नस्तं परिणामं यदि विराधयेत्तदा .... 'तामेव प्रतिपतति' तस्या एव प्रतिपतति अशुभतरतां याति न तु भगवई जयाचार्य ने लेश्या के प्रतिपात की विशद समीक्षा की है। उनके अनुसार शुभ लेश्या के मध्य में अशुभ लेश्या के परिणाम भी आ सक किन्तु उनमें तीव्र अशुभ लेश्या के परिणाम नहीं होते, अशुभ लेश्या के मंद परिणाम हो सकते हैं। उनकी विवक्षा नहीं की इसलिए शुभ लेश्या की निरंतरता का सूत्र प्रतिपादित किया गया है। इस प्रकरण में आयुष्य तथा स्थिति आदि के बंध की योग्यता का प्रतिपादन किया गया है। एक अनगार उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसाय स्थानों में वर्तमान है, उन प्रशस्त अध्यवसाय स्थानों के आधार पर उसने सौधर्म आदि देवस्थिति के बंध की योग्यता का अतिक्रमण कर दिया, परभागवर्ती देवस्थिति आदि के बंध की योग्यता प्राप्त नहीं हुई है। इस नियम से आयुष्य-बंध का एक सिद्धांत फलित होता है कि आयुष्य बंध के प्रसंग जीवन में अनेक बार आते हैं, अध्यवसाय स्थानों उतार-चढ़ाव आता रहता है। ये सब आयुष्य बंध के प्रसंग हैं। " शब्द विमर्श आदि । चरम - अर्वाग्वर्ती, पूर्ववर्ती, जैसे- सौधर्म । परम-परवर्ती, उत्तरवर्ती, जैसे- सनत्कुमार। परिपार्श्व - मध्यवर्ती, जैसे- सौधर्म और सनत्कुमार के मध्य ईशान अनगारः भदन्त ! भावितात्मा चरमम् असुरकुमारावासं व्यतिक्रान्तः परमम् असुरकुमारावासमसम्प्राप्तः, अत्र अन्तरा कालं कुर्यात्, तस्य भदन्त ! कुत्र गतिः ? कुत्र उपपातः प्रज्ञप्तः ? गौतम! ये तस्य तत्र परिपार्श्वतः तल्लेश्याः असुरकुमारावासाः, तत्र तस्य गतिः, तत्र तस्य उपपातः प्रज्ञप्तः । सः तत्र गतः विराध्येत्, कर्मलेश्यामेव प्रतिपतति सः च तत्र गतः नो विराध्येत्, तामेव लेश्याम् उपसम्पद्य विहरति । कर्म लेश्या - भाव लेश्या । २. भंते! भावितात्मा अनगार ने चरम असुरकुमारावास का व्यतिक्रमण किया, परम असुरकुमारावास को प्राप्त नहीं किया, इस मध्य वह काल करे तो उसकी गति और उसका उपपात कहां प्रज्ञप्त है? गौतम ! वहां जो परिपार्श्व है, मध्यवर्ती असुरकुमारावास हैं, जिस लेश्या में वर्तमान भावितात्मा अनगार ने काल किया, उस लेश्या के अनुरूप जो असुरकुमारावास हैं, वहां उसकी गति और उसका उपपात प्रज्ञप्त है। वह वहां जाकर उत्पत्तिकालीन लेश्या के परिणाम की विराधना करता है तो कर्म लेश्या से उसका प्रतिपतन हो जाता है, अशुभतर लेश्या में चला जाता है। वह वहां जाकर विराधना नहीं करता है तो उसी लेश्या की उपसंपदा में रहता है। द्रव्यलेश्यायाः प्रतिपतति सा हि प्राक्तन्येवास्ते, द्रव्यतोऽवस्थित लेश्यात्वा देवानमिति । ५. त. भा. सू. वृ. ४/२३. प्र. ३०५ भावलेश्या पुनरध्यवसायरूपत्वात् षडपि वैमानिकानां सन्तीत्यवगन्तव्यम् । ६. भ. जो. ढाल २६१ गाथा २६-५०१ ७. भ. वृ. सू. १४/१ 1 ८. भ. ३०/१०-११- द्रष्टव्य भगवई १ / ३५६-३६३ का भाष्य । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई एवं जाव थणियकुमारावासं, जोइसियावासं, एवं वेमाणियावासं जाव विहरइ ॥ १. सूत्र २ सम्यग्दृष्टि केवल वैमानिक देव के आयुष्य का बंध करता है। ' फिर भावितात्मा अनगार के असुरकुमार के आयुष्य का बंध कैसे हो सकता है? इस प्रश्न के समाधान में वृत्तिकार ने दो हेतु प्रस्तुत किए हैं१. भावितात्मा पूर्व काल की अपेक्षा से कहा गया है और वह अंत काल में संयम की विराधना कर देता है इसलिए उसका उपपात - नो इणट्ठे समट्ठे। नेरइया णं एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं उववज्जति । नेरइयाणं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते । एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं - एगिंदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियव्वे । सेसं तं चैव ॥ एवं यावत् स्तनितकुमारावासम् ज्योतिष्कावासम् एवं वैमानिकावासं यावत् विहरति । १८३ नेरइयादीणं गतिविसय-पदं नैरयिकादीनां गतिविषय-पदम् उरस्सबलसमण्णागए ३. नेरइयाणं भंते ! कहं सीहा गती ? कहं नैरयिकादीनां भदन्त ! कथं शीघ्रा सीहे गतिविसए पण्णत्ते ? गतिः ? कथं शीघ्रः गतिविषयः प्रज्ञप्तः ? गोमा ! से जहानाम - केइ पुरिसे तरुणे गौतम ! अथ यथानामकः - कश्चित् बलवं जुगवं जुवाणे अप्पातंके थिरग्गहत्थे पुरुषः तरुणः बलवान् युगवान् युवा दढ पाणि-पाय- पास पिछं तरोरुपरिणते अल्पातङ्कः स्थिराग्रहस्तः दृढपाणितलजमलजुयल - परिघनिभबाहू चम्मेहग- पाद-पार्श्व-पृष्ठान्तरोरुपरिणतः दुहण - मुट्ठिय समाहत - निचितगत्तकाए तलयमलयुगल-परिघनिभबाहु लंघण-पवण- चर्मेष्टक- द्रुघण- मुष्टिक- समाहतजइण - वायाम - समत्थे छेए दक्खे पत्तट्ठे निचित-गात्रकायः औरस्यबल - कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए समन्वागतः लङ्घन पवन-जविनआउंटियं बाहं पसारेज्जा, पसारियं वा व्यायाम-समर्थः छेकः दक्षः प्राप्तार्थः बाहं आउंटेज्जा, विक्खिणं वा मुट्ठि कुशलः मेधावी निपुणः निपुणसाहरेज्जा, साहरियं वा मुट्ठि शिल्पोपगतः आकुञ्चितं बाहुं प्रसारयेत्, विक्खिरेज्जा, उम्मिसियं वा अच्छिं प्रसृतं वा बाहुम् आकुञ्चेत् विकीर्णं मुष्टिं निम्मिसेज्जा, निम्मिसियं वा अच्छिं संहरेत्, संहृतं वा मुष्टिं विकुर्यात् उम्मिसेज्जा, भवे एयारूवे ? उन्मिषितं वा अक्षिं निमिषेत् निमिषितं वा अक्षिम् उन्मिषेत्, भवेत् एतद्रूपः ? १. भ. ३०/१०-११, द्रष्टव्य भ. १ / ३५६-३६३ का भाष्य । २. भ. वृ. सू. १४ / २ - पूर्वकालापेक्षया भावितात्मत्वम् अन्तकाले च संयमविराधना असद्भावादसुरकुमारादितयोपपात इति न दोषः । ३. भ. वृ. १४ / २ - बालतपस्वी वाऽयं भावितात्मा द्रष्टव्य इति । ४. भ. जो. खंड ३, ढाल २६१. गाथा ५४-५७ । भाष्य इहां भावितात्म अणगार, किम उपजै असुर मझार । पिण चरण विराधक हुंत, कोई असुर विषै उपजंत ॥ असुरकुमार में होता है।' २. प्रस्तुत प्रकरण में भावितात्मा का प्रयोग बाल तपस्वी के लिए किया गया है। नो अयमर्थः समर्थः । नैरयिकाः एकसामयिकेन द्विसामयिकेन वा त्रिसामयिकेन वा विग्रहेण उपपद्यन्ते । नैरयिकानां गौतम ! तथा शीघ्रा गतिः, तथा शीघ्रः गतिविषयः प्रज्ञप्तः । एवं यावत् वैमानिकानाम् नवरम् - एकेन्द्रियाणां चतुर्सामयिकः विग्रहः भणितव्यः । शेषं तत् चैव । जयाचार्य ने वृत्तिकार के अभिमत के साथ एक बात और स्पष्ट की है - बाल तपस्वी भी गृहस्थ होता है अतः उसके लिए भी अनगार शब्द का प्रयोग किया जा सकता है।" श. १४ : उ. १ : सू. ३ इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारावास, ज्योतिष्कावास, वैमानिकावास यावत् विहरण करता है। नैरयिक आदि का गति विषयक पद ३. भंते! नैरयिकों के कैसी शीघ्र गति होती है? किस प्रकार का शीघ्र गति काल प्रज्ञप्त है ? गौतम! जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान्, युगवान्, युवा, स्वस्थ और सधे हुए हाथों वाला है, उसके हाथ, पांव, पार्श्व, पृष्ठान्तर और दृढ तथा विकसित हैं। सम श्रेणी में स्थित दो ताल वृक्ष और परिघा के समान जिसकी भुजाएं हैं। चर्मेष्टक, पाषाण, मुद्गर और मुट्ठी के प्रयोगों से जिसके शरीर के पुट्ठे आदि सुदृढ हैं। जो आंतरिक उत्साह बल से युक्त है। लंघन, प्लवन, धावन और व्यायाम करने में समर्थ है। छेक, दक्ष, प्राप्तार्थ, कुशल, मेधावी, निपुण और सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है। वह पुरुष संकुचित भुजा को फैलाता है, फैलाई हुई भुजा को संकुचित करता है। खुली मुट्ठी को बंद करता है, बंद मुट्ठी को खोलता है। खुली आंखों को बंद करता है, बंद आंखों को खोलता है। क्या नैरयिकों का गति-काल इतनी शीघ्रता से होता है ? यह अर्थ संगत नहीं है। नैरयिक एक समय, दो समय अथवा तीन समय वाली विग्रह गति से उपपन्न हो जाते हैं। गौतम ! नैरयिकों के वैसी शीघ्र गति, वैसा शीघ्र गति-काल प्रज्ञप्त है। इस प्रकार यावत् वैमानिक, इतना विशेष है - एकेन्द्रियों के चार समय वाली विग्रह गति वक्तव्य है, शेष पूर्ववत् । पूर्व काल तणी अपेक्षाय, भावितात्मपणुं अंतकाल विराधि चरित्र, कोइ असुर विषै तथा बाल तपस्वी देख भावितात्मा कह्यो तसु लेख । को वृत्ति थी ए अधिकार, घर रहित माटे अणगार ॥ इम याबत थणियकुमारावासं, जोतिषि नां आवास प्रकाशं । वैमानीक आवासाज एम, यावत विचरंता सुर तेम ॥ कहिवाय । उपपत्तः ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ.१ : सू. ४,५ १५४ भगवई भाष्य १.सूत्र ३ प्रस्तुत आगम के चौंतीसवें शतक में 'एगसमयेणं विग्गहेणं नैरयिकों की गति भुजा को फैलाने और संकुचित करने से उववज्जेज्जा' यह स्पष्ट पाठ है।' अधिक त्वरित बतलाई गई है। इसका हेतु यह है-भुजा को फैलाने विमर्श के लिए द्रष्टव्य भगवई १/३३५-३३८ का भाष्य। और संकुचित करने में असंख्य समय का काल लगता है। नैरयिक सूत्रकार ने एकेन्द्रिय जीवों की विग्रह गति चार समय वाली एक, दो अथवा तीन समय में नरक के उत्पत्ति स्थान में चले जाते हैं बतलाई है। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या में लिखा है- सनाड़ी से इसलिए उनकी गति अति त्वरित है। बाहर अधोलोक में मरने वाला जीव विदिशा से दिशा में आता है। सूत्र में विग्रह शब्द का प्रयोग एक समय, दो समय और तीन । जीवों की गति अनुश्रेणी होती है, इस नियम के अनुसार उसकी गति समय-तीनों के साथ किया गया है। अभयदेवसूरि ने एक समय की का कालमान एक समय होता है। वह जीव दूसरे समय में लोक के गति के साथ विग्रह शब्द के योग को अस्वीकृत किया है।' उन्होंने मध्य में प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है, चौथे विग्रह को वक्र का पर्यायवाची माना है इसलिए उन्होंने एक समय वाली __ समय में निश्चित दिशा में व्यवस्थित उत्पत्ति स्थान में जाता है। गति के साथ विग्रह शब्द को अस्वीकार किया है किंतु विग्रह का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार सूत्र का यह पाठ बहुलता की अपेक्षा से केवल वक्र नहीं है। है। अन्यथा एकेन्द्रिय जीवों की पांच समय वाली गति भी होती सिद्धसेन गणि ने भाष्य को उद्धत करते हए विग्रह शब्द के है।' पर्यायवाची तीन शब्दों का उल्लेख किया है-विग्रह, अवग्रह और जयाचार्य ने वृत्तिकार के मत की समीक्षा की है और बतलाया श्रेण्यन्तर संक्रान्ति। है कि यह मत आगम सम्मत नहीं है।' नेरइयादीणं अणंतरोववन्नगादि-पदं नैरयिकादीनाम् अनन्तरोपपन्नकादि-पदम नैरयिक का अनंतर उपपन्नक आदि पद ४. नेरइया णं भंते! किं अणंतरोववन्नगा? । नैरयिकाः भदन्त! किम् ४. भंते! क्या नैरयिक अनंतर उपपन्नक है? परंपरोववन्नगा? अणंतर-परंपर- अनन्तरोपन्नकाः? परम्परोपपन्नकाः? परंपर उपपन्नक हैं? अनंतर-परंपर अनुपपन्नक अणुववन्नगा ? अनन्तर-परम्पर-अनुपपन्नकाः? गोयमा! नेरइया अणंतरोववन्नगा वि, गौतम! नैरयिकाः अनन्तरोपपन्नकाः गौतम! नैरयिक अनंतर उपपन्नक भी हैं, परंपरोववन्नगा वि, अणंतर-परंपर- अपि, परम्परोपपन्नकाः अपि, अनन्तर- परंपर उपपन्नक भी हैं, अनंतर-परंपर अणुववन्नगा वि॥ परम्पर-अनुपपन्नकाः अपि। अनुपपत्रक भी हैं। जया हैं? ५. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-नेरइया तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ५. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है अणंतरोववनगा वि, परंपरोववन्नगा वि, नैरयिकाः अनन्तरोपपन्नकाःअपि, नैरयिक अनंतर उपपन्नक भी हैं, परंपर अणंतर-परंपर-अणुववन्नगा वि ? परम्परोपपन्नकाः अपि, अनन्तर- उपपन्नक भी हैं, अनंतर-परंपर अनुपपत्रक भी परम्पर-अनुपपन्नकाः अपि। गोयमा! जे णं नेरइया पढमसमयोव- गौतम! ये नैरयिकाः प्रथमसमयोपपन्नकाः गौतम! जो नैरयिक प्रथम समय उपपन्नक हैं, वे बन्नगा ते ण नेरइया अणंतरोववन्नगा, जे तेनैरयिकाः अनन्तरोपपन्नकाः,येनैरयिकाः नैरयिक अनंतर उपपत्रक हैं। जो नैरयिक णं नेरइया अपढमसमयोग्वनगा ते णं अप्रथमसमयोपपन्नकाः ते नैरयिकाः अप्रथमसमय उपपन्नक हैं. वे नैरयिक परंपरनेरइया परंपरोववन्नगा, जे णं नेरइया परम्परोपपन्नकाः, ये नैरयिकाः विग्रह- उपपन्नक हैं। जो नैरयिक विग्रह गति-अंतराल विम्गहगइसमावन्नगा ते णं नेरइया गतिसमापन्नकाः ते नैरयिकाः अनन्तर- गति में समापत्रक हैं, वे नैरयिक अनंतर-परंपर अणतर-परंपर-अणुववन्नगा। से तेणटेणं परम्पर-अनुपपन्नकाः। तत् तेनार्थेन अनुपपन्नक हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा जाव अणंतर-परंपर-अणुववन्नगा वि। एवं यावत् अनन्तर-परम्पर-अनुपपन्नकाः है-यावत् अनंतर-परंपर अनुपपन्नक भी हैं। निरंतरं जाव वेमाणिया॥ अपि। एवं निरन्तरं यावत् वैमानिकाः। इसी प्रकार निरंतर यावत् वैमानिक। १. भ. वृ. सू. १४/३-एगसमएण व ति एकेन समयेनोपपद्यन्त इति योगः, तेच याति, चतुर्थेन तु वसनाडीतो निर्गत्य दिगव्यवस्थितमत्पादस्थानं ऋजुगतावेव, या शब्दो विकल्पे, इह च विग्रहशब्दो न संबंधितः, तस्यैक प्राप्नोतीति, एतच बाहुल्यमंगीकृत्योच्यते, अन्यथा पंचसमयोऽपि विग्रहो सामयिकस्याभावात् दुसमएण व ति द्वौ समयौ यत्र स द्विसमयस्तेन भवेदेकेन्द्रियाणाम्। विग्रहेणेति योगः, एवं त्रिसमयेन वा विग्रहेण-वक्रेण। ५. भ. जो. खंड ३. ढाल २६१. गाथा १०३-१०५॥ 2. तत्त्वार्थाधिगम सू. २/२६ स्वोपज्ञ भाष्य. पृ. १८२-१८३. विग्रहो बक्रितम्, वृत्ति में बहु बाता विरुद्ध, सूत्र थी अणमिलती अशुद्ध। विग्रहोऽवग्रहः श्रेण्यन्तरसंक्रान्तिरित्यनर्थान्तरम्। ते अशुद्ध किण रीत मानीजै, मिलती है ते अंगीकार कीजै॥ ३. भ. ३४/३ उज्जु आयत्ताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं छद्मस्थ अणाहारि सोय, सूत्र में कह्या समया दोय। उववज्जेज्जा। तीन समय कह्या वृत्तिकार, ए पिण पंच समय जिम धार॥ ४. भ. वृ. प. १४/३-वसनाड्या बहिस्तादधोलोके विदिशो दिशं यात्येकेन, तिणसुं अणमिलती न मनाय, विरुद्ध बात बहु वृत्ति माय। जीवानामनुश्रेणिगमनात्, द्वितीयेन तु लोकमध्ये प्रविशति, तृतीयेनोवं वर न्याय विचार बरीत, राखो सूत्र तणीज प्रतीत॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र ४-५ शब्द विमर्श अनंतर उपपन्नक- जिस नैरयिक के उपपात में एक समय का कालमान होता है, वह अनंतर उपपन्नक कहलाता है। परंपर उपपन्नक - जिस नैरयिक के उपपात में दो अथवा तीन समय ६. अणंतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति ? तिरिक्खमणुस्सदेवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति ॥ ७. परंपरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति ? गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं पिपकरेंति, नो देवाउयं पकरेंति ॥ ८. अनंतर परंपर- अणुववन्नगा णं भंते! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति - पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति । एवं जाव वेमाणिया, नवरं - पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोववन्नगा चत्तारि बि आउयाई पकरेंति । सेसं तं चैव ॥ ६. नेरइया णं भंते! किं अणंतरनिग्गया ? परंपरनिग्गया ? अणंतर- परंपर अनिग्गया ? गोयमा ! नेरइया अणंतरनिग्गया वि परंपरनिग्गया वि, अणंतर- परंपरअनिग्गया वि ॥ १८५ भाष्य १०. से केणद्वेणं जाव अणंतर- परंपरअनिग्गया वि? अनन्तरोपपन्नकाः भदन्त ! नैरयिकाः किं नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति ? तिर्यग्- मनुष्यदेवायुष्कं प्रकुर्वन्ति ? गौतम! नो नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति यावत् नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति । का कालमान होता है, वह परंपर उपपन्नक कहलाता है। अनंतर परंपर अनुपपन्नक - जो नैरयिक विग्रह गति (अंतराल गति) में होता है, उसका उपपात अभी नहीं हुआ है इसलिए वह अनंतरपरंपर अनुपपन्नक कहलाता है। परंपरोपपन्नकाः भदन्त ! नैरयिकाः किं नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति यावत् देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति? गौतम! नो नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति, तिर्यग्योनिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति, मनुष्यायुष्कं अपि प्रकुर्वन्ति, नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति । १. सूत्र ६-८ अनन्तर उपपन्नक और अनन्तर- पंरपर अनुपपन्नक नैरयिकों में आयुष्य बंध के अनुरूप अध्यवसाय स्थान नहीं होता, इसलिए अनंतर- परम्पर-अनुपपन्नकाः भदन्त ! नैरयिकाः किं नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति ? - पृच्छा। गौतम! नो नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति यावत् नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति । एवं यावत् वैमानिकाः, नवरम् - पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः मनुष्याः च परम्परोपपन्नकाः चत्वारि अपि आयुष्कानि प्रकुर्वन्ति । शेषं तत् चैव । नैरयिकाः भदन्त ! किम् अनन्तरनिर्गताः ? परम्परनिर्गताः ? अनन्तर - परम्पर- अनिर्गताः ? गौतम! नैरयिकाः अनन्तरनिर्गताः अपि, परम्परनिर्गताः अपि अनन्तरपरम्पर- अनिर्गताः अपि । श. १४ : उ. १ : सू. ६-१० तत् केनार्थेन यावत् अनन्तर - परम्परअनिर्गताः अपि ? ६. भंते! अनंतर उपपन्नक नैरयिक क्या नैरयिक आयुष्य का बंध करते हैं? क्या तिर्यंच, मनुष्य और देव आयुष्य का बंध करते हैं? गौतम! न नैरयिक आयुष्य का बंध करते हैं, यावत् न देव आयुष्य का बंध करते हैं। ७. भंते! परंपर उपपन्नक नैरयिक क्या नैरयिक, आयुष्य का बंध करते हैं यावत् देव आयुष्य का बंध करते हैं? भाष्य उनके आयुष्य का बंध नहीं होता। परंपर उपपन्नक के आयुष्य का बंध होता है। आयुष्य बंध के समय की जानकारी के लिए द्रष्टव्य भगवई ५/५६ - ६१ का भाष्य । गौतम ! नैरयिक आयुष्य का बंध नहीं करते, तिर्यक्योकि आयुष्य का बंध करते हैं, मनुष्य आयुष्य का भी बंध करते हैं, देव आयुष्य का बंध नहीं करते। ८. भंते! अनन्तर- परंपर अनुपन्नक क्या नैरयिक आयुष्य का बंध करते हैं- पृच्छा । गौतम! नैरयिक आयुष्य का बंध नहीं करते यावत् देव आयुष्य का बंध नहीं करते। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। इतना विशेष है-परंपर उपपन्नक पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिक और मनुष्य चारों गतियों के आयुष्य का बंध करते हैं, शेष पूर्ववत् । ६. भंते! क्या नैरयिक अनंतर निर्गत हैं? क्या परंपरा निर्गत हैं? क्या अनंतर परंपर अनिर्गत हैं? गौतम! नैरयिक अनंतर निर्गत भी हैं, परंपर निर्गत भी हैं, अनंतर परंपर अनिर्गत भी हैं-न अनंतर निर्गत हैं, न परंपर निर्गत हैं। १०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - यावत् अनंतर परंपर अनिर्गत भी हैं ? Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ भगवई श. १४ : उ. १ : सू. ११-१४ गोयमा! जे णं नेरइया पढमसमय- निग्गया ते णं नेरइया अणंतरनिग्गया, जे णं नेरइया अपढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया परंपरनिग्गया, जे णं नेरइया विग्गहगतिसमावन्नगा ते णं नेरइया अणंतर-परंपर-अनिग्गया। से तेणटेणं गोयमा! जाव अणंतर-परंपर-अनिग्गया वि। एवं जाव वेमाणिया॥ गौतम! ये नैरयिकाः प्रथमसमयनिर्गताः ते नैरयिकाः अनन्तरनिर्गताः, ये नैरयिकाः अप्रथमसमयनिर्गताः ते नैरयिकाः परम्परनिर्गताः, ये नैरयिकाः विग्रहगतिसमापन्नकाः ते नैरयिकाः अनन्तर-परम्पर-अनिर्गताः। तत् तेनार्थेन गौतम! यावत् अनन्तरपरम्पर-अनिर्गताः अपि। एवं यावत् वैमानिकाः। गौतम! जो नैरयिक प्रथम समय निर्गत हैं, वे नैरयिक अनंतर समय निर्गत हैं। जो नैरयिक अप्रथम-समय निर्गत हैं, वे नैरयिक परंपर निर्गत हैं। जो नैरयिक विग्रहगति समापन्नक हैं, वे नैरयिक अनंतर-परंपर अनिर्गत हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-यावत् अनंतर-परंपर अनिर्गत भी हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। ११. अणंतरनिग्गया णं भंते! नेरइया किं अनन्तरनिर्गताः भदन्तः नैरयिकाः किं नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाज्यं नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति यावत् देवायुष्कं पकरेंति? गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो __गौतम! नो नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति यावत् देवाउयं पकरेंति॥ नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति। प्रकुर्वन्ति? ११. भंते! अनंतर निर्गत नैरयिक क्या नैरयिक आयुष्य का बंध करते हैं यावत् देव आयुष्य का बंध करते हैं? गौतम! नैरयिक आयुष्य का बर नहीं करते यावत् देव आयुष्य का बंध नहीं करते। १२. परंपरनिग्गया णं भंते! नेरइया कि परम्परनिर्गताः भदन्त! नैरयिकाः किं नेरइयाउयं पकरेंति-पुच्छा। नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति-पृच्छा। गोयमा! नेरइयाउयं पि पकरेंति जाव __ गौतम! नैरयिकायुष्कम् अपि प्रकुर्वन्ति देवाज्यं पि पकरेंति॥ यावत् देवायुष्कम् अपि प्रकुर्वन्ति। १२. भंते! परंपर निर्गत नैरयिक क्या नैरयिक आयुष्य का बंध करते हैं? पृच्छा। गौतम! नैरयिक आयुष्य का भी बंध करते हैं यावत् देव आयुष्य का भी बंध करते हैं। १३. भंते! अनंतर-परंपर अनिर्गत नैरयिक की पृच्छा। १३. अणंतरं-परंपर-अनिग्गया णं भंते! नेरइया-पुच्छा। गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाज्यं पकरेंति। निरवसेसं जाव। वेमाणिया॥ अनन्तर-परम्पर-अनिर्गताः भदन्त! नैरयिकाः-पृच्छा। गौतम! नो नैरयिकायुष्कं प्रकुर्वन्ति यावत् नो देवायुष्कं प्रकुर्वन्ति। निरवशेषं यावत् वैमानिकाः। गौतम! नैरयिक आयुष्य का बंध नहीं करते यावत् देव आयुष्य का बंध नहीं करते। निरवशेष यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र :-१३ तक नहीं पहुंचा, संप्रति विग्रह गति में विद्यमान है, वह अनंतर निर्गत शब्द विमर्श और परंपर निर्गत दोनों से भिन्न है इसलिए वह अनंतर-परंपर अनिर्गत अनंतर निर्गत-जो जीव नरक से निकल कर दूसरे स्थान में पैदा कहलाता है। हो गया, वह उत्पत्ति के प्रथम समय में अनंतर निर्गत कहलाता है। अनंतर निर्गत के आयुष्य का बंध नहीं हेता। परंपर निर्गत के परंपर निर्गत-जो जीव नरक से निकल कर दूसरे स्थान में पैदा आयुष्य का बंध होता है आयुष्य बंध के समय के लिए द्रष्टव्य भगवई हो गया, वह उत्पत्ति के दूसरे आदि समयों में परंपर निर्गत कहलाता है। ५/५६-६१ का भाष्य। अनंतर-परंपर अनिर्गत-जो जीव नरक से निकलकर उत्पत्ति क्षेत्र १४. नेरइया णं भंते! किं अणंतर- नैरयिकाः भदन्त! किम् अनन्तर- १४. भंते! क्या नैरयिक अनंतर खेद के साथ खेदोववन्नगा? परंपरखेदोववनगा? खेदोपपन्नकाः? परम्परखेदोपपन्नकाः? उपपन्नक हैं? परंपर खेद के साथ उपपन्नक अणंतर-परंपर-खेदाणुववन्नगा? अनन्तर-परम्पर-खेदोपपन्नकाः? हैं? अनंतर-परंपर खेद के साथ अनुपपन्नक गोयमा! नेरइया अणंतरखेदोक्वनगा वि, परंपरखेदोववन्नगा वि, अणंतर-परंपर खेदाणुववन्नगा वि। एवं एएणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणियन्वा॥ गौतम! नैरयिकाः अनन्तरखेदोपपन्नकाः अपि, परम्परखेदोपपन्नकाः अपि, अनन्तर-परम्पर-खेदानुपपन्नकाः अपि। एवम् एतेन अभिलापेन ते चैव चत्वारः दण्डकाः भणितव्याः। गौतम! नैरयिक अनंतर खेद के साथ उपपन्नक भी हैं, परंपर खेद के साथ उपपन्नक भी हैं, अनंतर-परंपर खेद के साथ अनुपपन्नक भी हैं। इसी प्रकार इस अभिलाप की भांति चारों दंडक वक्तव्य हैं। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १८७ श. १४ : उ. १ : सू. १५ भाष्य १. सूत्र १४ शब्द विमर्श अनंतर-खेदोपपन्नक-जो नैरयिक खेद प्रधान उपपत्ति के प्रथम समय में विद्यमान होता है, वह अनंतर खेदोपपन्नक कहलाता है। परंपर-खेदोपपन्नक-जो नैरयिक खेद प्रधान द्वितीय आदि समय में विद्यमान होता है, वह परंपर खेदोपपन्नक कहलाता है। अनंतर-परंपर-खेद-अनुपपन्नक-विग्रहगति में विद्यमान नैरयिक अनंतर-परंपर खेद-अनुपपन्नक कहलाता है। चार दण्डक १. अनंतर खेदोपपन्नक आदि का प्रश्न। २. अनंतर खेदोपपन्नक आदि के आयुष्य का प्रश्न। ३. अनंतर खेद निर्गत आदि का प्रश्न। ४. अनंतर खेद निर्गत आदि के आयुष्य का प्रश्न। १५. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। १५. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद उम्माद-पदं उन्माद-पदम् उन्माद पद १६. कतिविहे णं भंते! उम्मादे पण्णत्ते? कतिविधः भदन्त! उन्मादः प्रज्ञप्तः? १६. भंते! उन्माद कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गोयमा! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं गौतम! द्विविधः उन्मादः प्रज्ञप्तः, गौतम! उन्माद दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जहा–जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य तद्यथा-यक्षावेशः च, मोहनीयस्य च । जैसे-यक्षावेश और मोहनीय कर्म के उदय से कम्मस्स उदएणं। तत्थ णं जे से कर्मणः उदयेन। तत्र यः सः यक्षावेशः सः । होने वाला। जो यक्षावेश का उन्माद है वह जक्खाएसे से णं सुहवेयणतराए चेव सुखवेदनतराक: चैव, सुखविमोचन- सुख वेदनतर है, उसका वेदन अतिशय क्लेश सुहविमोयणतराए चेव। तत्थ णं जे से तराकः चैव। तत्र यः सः मोहनीयस्य । रहित होता है और सुख विमोचनतर है, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं से णं कर्मणः उदयेन सः दुःखवेदनतराक: चैव उससे अतिशय क्लेश के बिना मुक्ति होती है। दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए दुःखविमोचनतराकः चैव। जो मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला उन्माद है, उसका वेदन यक्षावेश के उन्माद की अपेक्षा अतिशय क्लेशपूर्वक होता है और वह दुःखविमोचनतर है, उससे यक्षावेश उन्माद की अपेक्षा अतिशय क्लेशपूर्वक मुक्ति होती है। चेव॥ १७. नेरइयाणं भंते! कतिविहे उम्मादे नैरयिकानां भदन्त! कतिविधः उन्मादः १७. भंते! नैरयिकों के कितने प्रकार का उन्माद पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः? प्रज्ञप्त है? गोयमा! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं गौतम! द्विविधः उन्मादः प्रज्ञप्तः, गौतम! दो प्रकार का उन्माद प्रज्ञप्त है, जैसेजहा-जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य तद्यथा-यक्षावेशः च, मोहनीयस्य च यक्षावेश और मोहनीय कर्म के उदय से होने कम्मरस उदएणं॥ कर्मणः उदयेन। वाला। १८. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- १८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा नेरइयाणं दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं नैरयिकानां द्विविधः उन्मादः प्रज्ञप्तः, है-नैरयिकों के दो प्रकार का उन्माद प्रज्ञप्त जहा-जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य तद्यथा-यक्षावेशः च, मोहनीयस्य च है, जैसे-यक्षावेश और मोहनीय कर्म के उदय कम्मस्स उदएणं? कर्मण: उदयेन? से होने वाला? गोयमा! देवे वा से असुभे पोग्गले गौतम! देवः वा सः अशुभान् पुद्गलान् गौतम! देव अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करते हैं, पक्खिवेज्जा, से णं तेसिं असुभाणं प्रक्षिपेत्, सः तेषाम् अशुभानां उन अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से नैरयिक पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खाएसं पुद्गलानां प्रक्षेपनया यक्षावेशम् उन्मादं यक्षावेश के उन्माद को प्राप्त होते हैं। उम्मादं पाउणेज्जा, मोहणिज्जस्स वा प्राप्नुयात्, मोहनीयस्य वा कर्मणः मोहनीय कर्म के उदय से नैरयिक मोहनीय के कम्मस्स उदएणं मोहणिज्जं उम्मायं उदयेन मोहनीयं उन्मादं प्राप्नुयात्। उन्माद को प्राप्त होते हैं। पाउणेज्जा। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-नेरइयाणं तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते- गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा दविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं जहा- नैरयिकानां द्विविधः उन्मादः प्रज्ञप्तः, तद् है-नैरयिकों के दो प्रकार का उन्माद प्रज्ञप्त जक्वाएसे य, मोहणिज्जस्स य कम्मस्स। यथा-यक्षावेशः च, मोहनीयस्य च है, जैसे-यक्षावेश और मोहनीय कर्म के उदय उदएणं॥ कर्मणः उदयेन। से होने वाला। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १८६ श. १४ : उ. २ : सू. १६,२० १६. असुरकुमाराणं भंते ! कतिविहे उम्मादे असुरकुमाराणाम् भदन्त! कतिविधः १६. भंते! असुरकुमारों के कितने प्रकार का पण्णत्ते? उन्मादः प्रज्ञप्तः? उन्माद प्रज्ञप्त है? गोयमा! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! द्विविधः उन्मादः प्रज्ञप्तः, गौतम! दो प्रकार का उन्माद प्रज्ञप्त है, जैसेजक्वाएसे य, मोहणिज्जस्स कम्मस्स य तद्यथा-यक्षावेशः च मोहनीयस्य च यक्षावेश और मोहनीय कर्म के उदय से होने उदएणं॥ कर्मणः उदयेन। वाला। २०. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-असुर- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- कुमाराणं दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं असुरकुमाराणां द्विविधः उन्मादः प्रज्ञप्तः, जहा-जक्खाएसे य, मोहणिज्जस्स य । तद्यथा-यक्षावेशः च, मोहनीयस्य च कम्मस्स उदएणं? कर्मणः उदयेन? गोयमा! देवे वा से महिड्डियतराए असुभे गौतम! देवः वा सः महर्द्धिकतराक: पोग्गले पक्खिवेज्जा, से णं तेसिं अशुभान् पुद्गलान् प्रक्षिपेत्, सः तेषाम् असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए अशुभानां पुद्गलानां प्रक्षेपनया जक्खाएसं उम्मादं पाउणेज्जा, यक्षावेशम् उन्माद , प्राप्नुयात्, मोहणिज्जरस वा कम्मस्स उदएणं मोहनीयस्य वा कर्मणः उदयेन मोहनीयम् मोहणिज्जं उम्मायं पाउणेज्जा। से उन्मादं प्राप्नुयात्। तत तेनार्थेन यावत तेणटेणं जाव उदएणं। एवं जाव। उदयेन। एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम्। थणियकुमाराणं। पुढविक्काइयाणं जाव पृथिवीकायिकानां यावत् मनुष्याणाम्- मणुस्साणं-एएसिं जहा नेरइयाणं, एतेषां यथा नैरयिकानाम् वानमन्तरवाणमंतर-जोइस-वेमाणियाणं जहा ज्योतिषवैमानिकानां यावत् असुर- असुरकुमाराणं॥ कुमाराणाम्। २०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-असुरकुमारों के दो प्रकार का उन्माद प्रज्ञप्त है, जैसे-यक्षावेश और मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला? गौतम! महर्द्धिकतर देव अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करते हैं, उन अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेप से असुरकुमार यक्षावेश के उन्माद को प्राप्त होते हैं। मोहनीय कर्म के उदय से वे मोहनीय के उन्माद को प्राप्त होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-यावत् कर्म के उदय से होने वाला। पृथ्वीकायिक यावत् मनुष्य-इनमें उन्माद नैरयिक की भांति वक्तव्य है। वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक में उन्माद असुरकुमारों की भांति वक्तव्य है। भाष्य १. सूत्र १६-२० मोहनीय का एक प्रकार है मिथ्यात्व। उसके उदय से उन्माद हो कुछ कारणों से व्यक्ति की विवेक चेतना विलुप्त हो जाती सकता है। है। उस अवस्था का नाम है उन्माद। प्रस्तुत प्रकरण में उन्माद के दो मोहनीय का दूसरा प्रकार है चरित्र मोहनीय । उसका उदय होने हेतु बतलाए गए हैं। उसके अन्य हेतु भी होते हैं। यहां वे विवक्षित पर मनुष्य विषय से होने वाली विकृति को जानकर भी उससे निवृत्त नहीं हैं। स्थानांग में अवर्णवाद को भी उन्माद का हेतु बतलाया नहीं हो पाता। मोहनीय का एक भेद है वेद-कामवासना। उसका प्रबल गया है। उदय होने पर उन्माद की स्थिति बन जाती है।' चरक ने उन्माद के दो प्रकार बतलाए हैं-दोषज और आगंतुक। मोहजन्य उन्माद की तुलना के लिए आयुर्वेद के प्रज्ञापराध शब्द दोषज के चार प्रकार हैं-वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज। पर ध्यान देना उपयोगी होगाआगंतक उन्माद के आठ प्रकार हैं-१. देवोन्मत्त, २. गुरु, वृद्ध, सिद्ध धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टः कर्म यत् कुरुतेऽशुभम्। ऋषि के शाप, ३. पितृग्रहोन्मत्त, ४. गंधर्वोन्मत्त, ५. यक्षोन्मत्त, ६. प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोषप्रकोपणम्॥ राक्षसोन्मत्त, ७. ब्रह्मराक्षसोन्मत्त, ८.पिशाचोन्मत्ता यच्चान्यदीदृशं कर्म, रजोमोहसमुत्थितम्। मस्तिष्कीय अव्यवस्था आदि अनेक शारीरिक स्थितियां भी प्रज्ञापराधं तं शिष्टा, ब्रुक्ते व्याधिकारणम्॥ उन्माद का कारण बन सकती हैं। बुद्धया विषमविज्ञानं विषमं च प्रवर्तनम्। सूत्रकार ने यक्षावेश से होने वाले उन्माद की तुलना में मोह जन्य प्रज्ञापराधं जातीयान्मनसो गोचरं हि तत्॥' उन्माद को अधिक जटिल बतलाया है। अभयदेवसूरि ने मोहजन्य उन्माद आगमकार ने यक्षजन्य उन्माद को सुख-वेदनतर और सुखकी व्याख्या दो दृष्टिकोण से की है। विमोचनतर तथा मोहजन्य उन्माद को दुःख-वेदनतर और दुःख १. ठाणं ६/४३ २. चरक निदान ७/१० ३. भ. वृ. सू. १४/१६ तत्र मोहनीयं-मिथ्यात्वमोहनीयं तस्योदयादुन्मादो भवति यतस्तदुदयवर्ती जन्तुरत्तत्वं तत्त्वं मन्यते तत्त्वमपि चातत्त्वं । चारित्रमोहनीयं वा यतस्तदुदये जानन्नपि विषयादीनां स्वरूपमजानन्निव वर्तते अथवा चारित्रमोहनीयस्यैव विशेषो वेदाख्यो मोहनीयं, यतस्तदुदयविशेषेऽप्युन्मत्त एव भवति, यदाह चिंतेई, दडमिच्छई दीहं नीससई तह जरे दाहे। भत्तअरोअग मुच्छा उम्माय न याणई मरणम्॥ ४. चरक शारीरक १/१०२, १०८-१०६ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. २ : सू. २१-२३ विमोचनतर बतलाया है। अभयदेवसूरि का अभिमत है-यक्षावेशजन्य उन्माद का संबंध एक जन्म से है और मोहजन्य उन्माद का संबंध संसार-भ्रमण से है। संसार का स्वभाव है दुःख का वेदन। अभयदेवसूरि ने विमोचन की व्याख्या में एक युक्ति संगत हेतु प्रस्तुत किया है। इस हेतु का आशय यह है- यक्षावेश जन्य उन्माद को यंत्र मात्र से भी समाप्त किया जा सकता है। मोहजन्य उन्माद विद्या, मंत्र, तंत्र और देवानुग्रह वाले चिकित्सकों से भी साध्य नहीं होता। इस हेतु से समझा जा सकता है - यक्षावेश जन्य उन्माद सुख-विमोचनतर है और मोहजन्य उन्माद दुःख - विमोचनतर है । ' बुट्टिकायकरण - पर्द २१. अत्थि णं भंते! पज्जपणे कालवासी बुट्टिका पकरेति ? हंता अस्थि ॥ २२. जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया का काउकामे भव से कहमियाणि पकरेति ? गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया अभितरपरिसए देवे सहावे । तए णं ते अभितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसए देवे सद्दावेंति । तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे सहावेंति । तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे सहावेंति । तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दावेंति । तए णं ते आभिओगिया देवा सद्दाविया समाणा बुद्धिकाइए देवे सहावेंति । तए णं ते बुद्धिकाइया देवा सद्दाविया समाणा बुद्विकायं पकरेंति । एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया वुकायं पकरेति ॥ १६० भगवई मोहजन्य उन्माद सब प्राणियों में होता है किंतु यक्षावेश जन्य उन्माद नैरयिक और देव गण में कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर आगम में साक्षात् उपलब्ध है- देव अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप कर नैरयिक जीवों में यक्षावेश जन्य उन्माद पैदा कर सकता है, महर्द्धिक देव अल्पर्द्धिक देवों में अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेप कर यक्षावेश जन्य उन्माद पैदा कर सकता है। अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेपण की विधि के आधार पर तांत्रिक विधि द्वारा अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेपण को समझा जा सकता है। मारण, उच्चाटन आदि तांत्रिक प्रयोगों में भी अशुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण किया जाता है। वृष्टिकायकरण-पदम् अस्ति भदन्त ! पर्जन्यः कालवर्षी वृष्टिका प्रकरोति ? हन्त अस्ति । यदा भदन्त ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः वृष्टिकायं कर्तुकामः भवति सः कथम् इदानीं प्रकरोति ? गौतम! तदा चैव सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः आभ्यन्तरपरिषत्कान् देवान् शब्दयति । ततः ते आभ्यन्तरपरिषत्काः देवाः शब्दायिताः सन्तः मध्यमपरिषत्कान् देवान् शब्दयन्ति ततः ते मध्यमपरिषत्काः देवाः शब्दायिताः सन्तः बाह्यपरिषत्कान् देवान् शब्दयन्ति । ततः ते बाह्यपरिषत्काः देवाः शब्दयिताः सन्तः बाह्यबाह्यकान् देवान् शब्दयन्ति । ततः ते बाह्यबाह्यकाः देवाः शब्दायिताः सन्तः आभियोगिकान् देवान् शब्दयन्ति । ततः ते आभियोगिकाः देवाः शब्दायिताः सन्तः वृष्टिकायिकान् देवान् शब्दयन्ति। ततः ते वृष्टिकायिकाः देवाः शब्दायिताः सन्तः वृष्टिकायं प्रकुर्वन्ति । एवं खलु गौतम ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः वृष्टिकायं प्रकरोति । २३. अत्थि णं भंते! असुरकुमारा वि देवा अस्ति भदन्त ! असुरकुमाराः देवाः वुट्ठकार्य करेंति ? वृष्टिकायं प्रकुर्वन्ति ? हंता अत्थि ॥ हन्त अस्ति । १. भ. वृ. सू. १४/१६ - मोहजन्योन्माद इतरापेक्षया दुःखविमोचनतरो भवत्यन्तसंसारकारणत्वात्, संसारस्य च दुःखवेदनस्वभावत्वात् इतरस्तु सुखवेदनतर एव, एक भविकत्वादिति, तथा मोहजोन्माद इतरापेक्षया दुःखविमोचनतरो भवति, विद्यामंत्रतंत्रदेवानुग्रहवतामपि वार्त्तिकानां तस्याऽसाध्यत्वात्, इतरस्तु ट २१. भंते! वर्षाकाल में बरसने वाला पर्जन्य क्या वर्षा करता है ? हां, करता है। २२. भंते! जब देवराज देवेन्द्र शक्र वर्षा करना चाहता है तब वह कैसे करता है ? गौतम ! तब देवराज देवेन्द्र शक्र आभ्यंतर परिषद् के देवों को आमंत्रित करता है। आभ्यंतर परिषद् के देव शक्र का निर्देश प्राप्त कर मध्यम परिषद् के देवों को बुलाते हैं। मध्यम परिषद् के देव आभ्यंतर परिषद् का निर्देश प्राप्त कर बाह्य परिषद् के देवों को बुलाते हैं। बाह्य परिषद् के देव मध्यम परिषद् का निर्देश प्राप्त कर बाह्यबाह्यक परिषद् के देवों को बुलाते हैं। बाह्यबाह्यक परिषद् के देव बाह्य परिषद् के निर्देश पर आभियोगिक देवों को बुलाते हैं। आभियोगिक परिषद् के देव बाह्यबाह्यक परिषद् के निर्देश पर वृष्टिकायिक देवों को बुलाते हैं। वे वृष्टिकायिक देव आभियोगिक देवों के निर्देश पर वर्षा करते हैं। गौतम ! इस प्रकार देवराज देवेन्द्र शक्र वर्षा करता है। २३. भंते! क्या असुरकुमार देव वर्षा करते हैं? हां, करते हैं। सुखविमोचनतर एव भवति यंत्रमात्रेणाऽपि तस्य निग्रहीतुं शक्यत्वादितिसर्वज्ञमंत्रवाद्यपि, यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः । मिथ्यामोहोन्मादः, स केन किल कथ्यतां तुल्यः ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६१ श. १४ : उ. २ : सू. २६ २४. किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा किंप्रत्ययं भदन्त! असुरकुमाराः देवाः २४. भंते! असुरकुमार देव किस कारण से वर्षा बुट्टिकायं पकरेंति? वृष्टिकायं प्रकुर्वन्ति? करते हैं? गोयमा! जे इमे अरहंता भगवंतो- गौतम! ये इमे अर्हतः भगवन्तः-एतेषां गौतम! जो ये अरहंत भगवान हैं, इनके जन्म एएसि णं जम्मणमहिमासु वा जन्ममहिमसु वा निष्क्रमणमहिमसु वा महिमा में, निष्क्रमण महिमा में, केवलज्ञान निक्खमणमहिमासु वा नाणुप्पाय- ज्ञानोत्पादमहिमसु वा परिनिर्वाण- उत्पत्ति महिमा में, परिनिर्वाण महिमा में। महिमासु वा परिनिव्वाणमहिमासु वा, महिमसु वा, एवं खलु गौतम! गौतम! इस प्रकार ये असुरकुमार देव वर्षा एवं खलु गोयमा! असुरकुमारा देवा असुरकुमाराः देवाः वृष्टिकायं प्रकुर्वन्ति । करते हैं। इस प्रकार नागकुमार भी, इसी बुट्टिकायं पकरेंति। एवं नागकुमारा वि, एवं नागकुमाराः अपि, एवं यावत् प्रकार यावत् स्तनितकुमार। इसी प्रकार एवं जाव थणियकुमारा। वाणमंतर- स्तनितकुमाराः । वानमन्तर ज्योतिष्क- वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक की जोइसिय-वेमाणिया एवं चेव ॥ वैमानिकाः एवं चैव। वक्तव्यता। भाष्य १.सूत्र २१-२४ प्राचीन है अथवा उत्तरकालीन, यह अन्वेषणीय है। स्थानांग में देव कृत प्रस्तुत प्रकरण में वर्षा के दो कारणों का उल्लेख है- वर्षा का उल्लेख है। उसके अनुसार देव बादलों का एक स्थान से दूसरे १. प्राकृतिक रूप में होने वाली वर्षा। स्थान पर संहरण कर लेते हैं किन्तु वहां बादलों के निर्माण की बात २. देव कृत वर्षा। नहीं है।' असुरकुमार देव जन्म आदि महोत्सव के लिए जाते हैं, इसका तीर्थंकरों के जन्म, महाभिनिष्क्रमण, केवलज्ञान उत्पाद और उल्लेख भगवई ३/८७ में भी है। परिनिर्वाण महिमा-इन चार अवसरों पर देव वृष्टि करते हैं। यह उल्लेख तमुक्कायकरण-पदं तमस्कायकरण-पदम् तमस्कायकरण पद २५. जाहे णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया यदा भदन्त! ईशानः देवेन्द्रः देवराजः २५. भंते! जब देवराज देवेन्द्र ईशान तमस्काय तमुक्कायं काउकामे भवति से तमस्कायं कर्तुकामः भवति सः कथम् (सघन अंधकार) करना चाहता है, तब वह कहमियाणिं पकरेति ? इदानीं प्रकरोति? कैसे करता है? गोयमा! ताहे चेव णं से ईसाणे देविंदे गौतम! तदा चैव सः ईशानः देवेन्द्रः गौतम! देवराज देवेन्द्र ईशान आभ्यंतर परिषद् देवराया अभितरपरिसए देवे सदावेति। देवराजः आभ्यन्तरपरिषत्कान् देवान् के देवों को बुलाता है। वे आभ्यंतर परिषद् के तए णं ते अम्भितरपरिसगा देवा शब्दयति। ततः ते आभ्यन्तरपरिषत्काः देव देवराज देवेन्द्र ईशान के निर्देश पर मध्यम सदाविया समाणा मज्झिमपरिसए देवे देवाः शब्दायिताः सन्तः मध्यमपरिषत्कान परिषद् के देवों को बुलाते हैं। मध्यम परिषद् सहावेति। तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा देवान् शब्दयन्ति। ततः ते मध्यम- के देव आभ्यंतर परिषद् के देवों के निर्देश पर सदाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे परिषत्काः देवाः शब्दायिताः सन्तः बाह्य परिषद् के देवों को बुलाते हैं। बाह्य सद्दावेंति। तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा बाह्यपरिषत्कान् देवान् शब्दयन्ति। ततः परिषद् के देव मध्यम परिषद् के निर्देश पर सदाविया समाणा बाहिरबाहिरगे देवे ते बाह्यपरिषत्काः देवाः शब्दायिताः बाह्यबाह्यक देवों को बुलाते हैं। वे बाह्यबाह्यक सद्दाति। तए णं ते बाहिरबाहिरगा देवा सन्तः बाह्यबाह्यकान् देवान् शब्दयन्ति। देव बाह्य परिषद् के देवों के निर्देश पर सदाविया समाणा आभिओगिए देवे ततः ते बाह्यबाह्यकाः देवाः शब्दायिता: आभियोगिक देवों को बुलाते हैं। वे सदाति। तए णं ते आभिओगिया देवा सन्तः आभियोगिकान्देवान् शब्दयन्ति। आभियोगिक देव बाह्यबाहक परिषद् के सद्दाविया समाणा तमुक्काइए देवे ततः ते आभियोगिकाः देवाः शब्दायिताः निर्देश पर तमस्कायिक देवों को बुलाते हैं। वे सद्दावेति। तए णं ते तमुक्काइया देवा सन्तः तमस्कायिकान्देवान् शब्दयन्ति। तमस्कायिक देव आभियोगिक देवों के निर्देश सदाविया समाणा तमुक्कायं पकरेंति। ततः ते तमस्कायिकाः देवाः शब्दायिताः पर तमस्काय करते हैं। गौतम! इस प्रकार एवं खलु गोयमा! ईसाणे देविंदे देवराया सन्तः तमस्कायं प्रकुर्वन्ति। एवं खलु देवराज देवेन्द्र ईशान तमस्काय करता है। तमुक्कायं पकरेति॥ गौतम! ईशानः देवेन्द्रः देवराजः तमस्कायं प्रकरोति। २६. अस्थि णं भंते! असुरकुमारा वि देवा तमुक्कायं पकरेंति ? हंता अत्थि॥ १. ठाणं ३/३५६-३६० अस्ति भदन्त! असुरकुमाराः अपि देवाः तमस्कायं प्रकुर्वन्ति? हन्त अस्ति। २६. भंते! क्या असुरकुमार देव भी तमस्काय करते हैं? हां, करते हैं। , Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १४ : उ. २ : सू. २७,२८ १६२ २७. किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा किं प्रत्ययं भदन्त! असुरकुमाराः देवाः तमुक्कायं पकरेंति ? तमस्कार्य प्रकुर्वन्ति? गोयमा! किड्डारतिपत्तियं वा पडिणीय- गौतम! क्रीडारतिप्रत्ययं वा प्रत्यनीक- विमोहणट्ठयाए वा गुत्तीसारक्खणहे वा विमोहनार्थाय वा गुप्तिसंरक्षणहेतुं वा अपणो वा सरीरपच्छायणट्टयाए, एवं आत्मनः शरीरप्रच्छादनार्थाय, एवं खलु खलु गोयमा! असुरकुमारा वि देवा गौतम! असुरकुमाराः अपि देवाः तमुक्कायं पकरेंति। एवं जाव तमस्कायं प्रकुर्वन्ति एवं यावत् वेमाणिया॥ वैमानिकाः। २७. भंते! असुरकुमार देव किस कारण से तमस्काय करते हैं? गौतम! क्रीड़ा-रति के लिए, प्रत्यनीक-शत्रु को विमूढ बनाने के लिए, गोपनीय द्रव्य के संरक्षण के लिए, अपने शरीर को प्रच्छन्न करने के लिए। गौतम! इस प्रकार असुरकुमार देव तमस्काय करते हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। १. सूत्र २५.२७ __भगवई ६/७६ में बतलाया गया है-देव, असुर और नाग तमस्काय का निर्माण करते हैं। वहां इसकी प्रक्रिया और हेतुओं का निर्देश नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में तमस्काय के निर्माण की प्रक्रिया के साथ उसका निर्माण करने के चार हेतु बतलाए गए हैं १. क्रीडारति-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं १.क्रीडा रूप रति २. क्रीडा-खेलना, रति का अर्थ है मैथुन। २. शत्रु को दिशामूढ बनाने के लिए। ३. गोपनीय द्रव्य की सुरक्षा के लिए। ४. अदृश्य होने के लिए। द्रष्टव्य भगवई ६ का आमुख तथा ६/७०-११८ का भाष्य। २८. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। २८. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद विनय विधि पद २६. भंते! महाकाय महाशरीर देव भावितात्मा अनगार के बीचोंबीच होकर जाता है? विणयविहि-पदं २६. देवे णं भंते ! महाकाए महासरीरे अणगारस्म भावियप्पणो मझमझेणं वीइवएज्जा? गोयमा! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा॥ विनयविधि-पदं देवः भदन्त! महाकायः महाशरीरः अनगारस्य भावितात्मनः मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्? गौतम! अस्त्येककः व्यतिव्रजेत्, अस्त्येकक: नो व्यतिव्रजेत्। गौतम! कोई जाता है, कोई नहीं जाता। ३०. से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते- ३०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो अस्त्येकक: व्यतिव्रजेत्, अस्त्येकक: नो है-कोई जाता है, कोई नहीं जाता? वीइवएज्जा? व्यतिव्रजेत् ? गोयमा ! दुविहा देवा पण्णत्ता, तं गौतम! द्विविधाः देवाः प्रज्ञप्ताः, गौतम! दो प्रकार के देव प्रज्ञप्त हैं, जैसे-मायी जहा-मायीमिच्छादिट्ठीउववन्नगा य, तद्यथा-मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकाः च, मिथ्यादृष्टि उपपन्नक, अमायी सम्यग्दृष्टि अमायीसम्मट्टिीउववनगा य। तत्थ णं अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकाः च । तत्र यः उपपन्नक। जो मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव जे से मायीमिच्छदिट्ठीउववन्नए देवे से णं सः मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकः देवः सः हैं, वे भावितात्मा अनगार को देखते हैं, देख अणगारं भावियप्पाणं पासइ, पासित्ता अनगारं भावितात्मानं पश्यति, दृष्ट्वा । कर वंदन-नमस्कार नहीं करते, सत्कार नो बंदइ, नो नमसइ, नो सक्कारेइ, नो नो वन्दते, नो नमस्यति, नो सत्करोति, सम्मान नहीं करते, कल्याणकारी, मंगल, देव सम्माणेइ, नो कल्लाणं मंगलं देवयं नो सम्मन्यते, नो कल्याणं मङ्गलं दैवतं और प्रशस्त चित्त वाले भावितात्मा अनगार चेइयं पज्जुवासइ। से णं अणगारस्स चैत्यं पर्युपास्ते। सः अनगारस्य की पर्युपासना नहीं करते। वे भावितात्मा भावियप्पणो मझमज्झेणं वीइवएज्जा। भावितात्मनः मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्।। अनगार के बीचोंबीच से होकर जाते हैं। जो तत्थ णं जे से अमायीसम्मदिही उववन्नए तत्र यः सः अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकः । अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव हैं, वे देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ, देवः सः अनगारं भावितात्मानं पश्यति, भावितात्मा अनगार को देखते हैं, देखकर पासित्ता वंइइ नमसइ सक्कारेइ सम्माणेइ दृष्ट्वा वन्दते नमस्यति सत्करोति वंदन-नमस्कार करते हैं, सत्कार-सम्मान कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं सम्मन्यते कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं करते हैं, कल्याणकारी, मंगल, देव और पज्जुवासइ। से णं अणगारस्स पर्युपास्ते। सः अनगारस्य भावितात्मनः । प्रशस्त चित्त वाले भावितात्मा अनगार की भावियप्पणो मझमझेणं नो मध्यमध्येन नो व्यतिव्रजेत्। तत् तेनार्थेन पर्युपासना करते हैं। वे भावितात्मा अनगार के वीइवएज्जा । से तेणद्वेणं गोयमा! एवं गौतम! एवम् उच्यते-अस्त्येककः बीचोंबीच होकर नहीं जाते। गौतम! इस वुचइ-अत्थेगतिए वीइवएज्जा, व्यतिव्रजेत्, अस्त्येककः नो अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई जाता है, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। व्यतिव्रजेत्। कोई नहीं जाता। ३१. भंते! महाकाय महाशरीर असुरकुमार भावितात्मा अनगार के बीचोंबीच होकर जाता ३१. असुरकुमारे णं भंते! महाकाए असुरकुमाराः भदन्त! महाकायः महासरीरे अणगारस्स भावियप्पणो महाशरीरः अनगारस्य भावितात्मनः मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा? मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्? एवं चेव। एवं देवदंडओ भाणियन्वो जाव एवं चैव। एवं देवदण्डक: भणितव्यः वेमाणिए॥ यावत् वैमानिकः। पूर्ववत्। इसी प्रकार देवदण्डक वक्तव्य है यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. ३ : सू. ३२-३८ ३२. अत्थि णं भंते! नेरइयाणं सक्कारे इ वा? सम्माणे इ वा ? किइकम्मे इ वा ? अभुट्ठाणे इ वा ? अंजलिपग्गहे इ वा ? आसणाभिग्गहे इ वा ? आसणाणुप्पदाणे इ वा ? एंतस्स पचुग्गच्छणया ? ठियस्स पज्जुवासणया ? गच्छंतस्स पडिसंसाहणया ? नो इट्ठे समहे ॥ ३३. अत्थि णं भंते! असुरकुमाराणं सक्कारे इ वा ? सम्माणे इ वा जाव गच्छंतस्स पडिसंसाहणया वा ? हंता अत्थि । एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं जाव चउरिंदियाणं - एएसिं जहा नेरइयाणं ॥ ३४. अत्थि णं भंते! पचिंदिय-तिरिक्खजोणियाणं सक्कारे इ वा जाव गच्छंतस्स पडसंसाहणया वा ? हंता अत्थि । नो चेव णं आसणाभिग्गहे इवा, आसणाणुप्पयाणे इ वा ॥ ३५. अस्थि णं भंते! मणुस्साणं सक्कारे इ वा? सम्माणे इ वा ? किइकम्मे इ वा ? अन्भुट्ठाणे इ वा ? अंजलिपग्गहे इ वा ? आसणाभिग्गहे इ वा ? आसणाणुप्पदाणे इवा? एतस्स पचग्गच्छणया ? ठियस्स पज्जुवासणया ? गच्छंतस्स पडिसंसाहणया ? हंता अत्थि । वाणमंतर - जोइस-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं ॥ ३६. अपिडिए णं भंते! देवे महिड्डियस्स देवरस मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ? नो इट्टे समट्ठे ॥ ३७. समिडिए णं भंते! देवे समिडियस्स देवरस मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ? नो इण समट्टे, पमत्तं पुण बीइवएज्जा । ३८. से णं भंते! किं सत्थेणं अक्कमित्ता भू? अणक्कमित्ता पभू ? १६४ अस्ति भदन्त ! नैरयिकानां सत्कारः इति वा? सम्मानम् इति वा? कृतिकर्म इति वा ? अभ्युत्थानम् इति वा ? अञ्जलिप्रगहः इति वा ? आसनाभिग्रहः इति वा? आसनानुप्रदानम् इति वा, प्रत्युद्गमनम् ? स्थितस्य पर्युपासना ? गच्छतः प्रतिसंसाधना ? नो अयमर्थः समर्थः । आयतः अस्ति भदन्त ! असुरकुमाराणां सत्कारः इति वा? सम्मानम् इति वा? यावत् गच्छतः प्रतिसंसाधना वा ? हन्त अस्ति । एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम् । पृथ्वीकायिकानां यावत् चतुरिन्द्रियाणाम् - एतेषां नैरयिकानाम् । यथा अस्ति भदन्त ! पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां सत्कारः इति वा यावत् गच्छतः प्रतिसंसाधना वा ? • अस्ति । नो चैव आसनाभिग्रहः इति वा आसनानुप्रदानम् इति वा । अस्ति भदन्त ! मनुष्याणां सत्कारः इति वा? सम्मानम् इति वा? कृतिकर्म इति वा ? अभ्युत्थानम् इति वा ? अञ्जलिप्रग्रहः इति वा ? आसनाभिग्रहः इति वा? आसनानुप्रदानम् इति वा ? आयतः प्रत्युद्गमनम् ? स्थितस्य पर्युपासना ? गच्छतः प्रतिसंसाधना ? हन्त अस्ति । वानमन्तर - ज्योतिषवैमानिकानां यथा असुरकुमाराणाम् । अल्पर्द्धिकः भदन्त ! देवः महर्द्धिकस्य देवस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ? नो अयमर्थः समर्थः । समर्द्धिकः भदन्त ! देवः समर्द्धिकस्य देवस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ? नो अयमर्थः समर्थः, प्रमत्तं पुनः व्यतिव्रजेत् । सः भदन्त ! कि शस्त्रेण अवक्रम्य प्रभुः ? अनवक्रम्य प्रभुः ? भगवई ३२. भंते! नैरयिकों में सत्कार सम्मान, कृतिकर्म, अभ्युत्थान, अंजलि - प्रग्रह, आसनअभिग्रह, आसन अनुप्रदान, आते हुए के सामने जाना, स्थित की पर्युपासना करना, जाते हुए को पहुंचाना आदि होता है ? यह अर्थ संगत नहीं है। ३३. भंते! असुरकुमारों में सत्कार, सम्मान यावत् जाते हुए को पहुंचाना आदि होता है ? हां, होता है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता । पृथ्वीकायिक यावत् चतुरिन्द्रिय-ये नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। ३४. भंते! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों में सत्कार यावत् जाते हुए को पहुंचाना आदि होता है ? हां, होता है। आसन - अभिग्रह और आसनअनुप्रदान नहीं होता। ३५. भंते! मनुष्यों में सत्कार, सम्मान, कृतिकर्म, अभ्युत्थान, अंजलि - प्रग्रह, आसन- अभिग्रह, आसन- अनुप्रदान, आते हुए के सामने जाना स्थित की पर्युपासना करना, जा को पहुंचाना आदि होता है ? हां, होता है। वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिकों की असुरकुमारों की भांति वक्तव्यता । ३६. भंते! अल्पर्धिक देव महर्द्धिक देवों के बीचोंबीच होकर जाते हैं ? यह अर्थ संगत नहीं है। ३७. सम ऋद्धि वाला देव सम ऋद्धि वाले देव के बीचोंबीच होकर जाता है ? यह अर्थ संगत नहीं है। यदि प्रमत्त हो तो जा सकता है। ३८. भंते! क्या वह शस्त्र से प्रहार कर जाने में समर्थ है ? प्रहार किए बिना जाने में समर्थ है ? Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमा! अक्कमित्ता पभू, नो अणक्कमित्ता पभू॥ १६५ गौतम! अवक्रम्य प्रभुः नो अनवक्रम्य प्रभुः। श. १४ : उ. ३ : सू. ३६-४३ गौतम! प्रहार कर जाने में समर्थ है। प्रहार किए बिना जाने में समर्थ नहीं है। ३६. से णं भंते! किं पुचि सत्येणं सः भदन्तः! किं पूर्वं शस्त्रेण अवक्रम्य ३६. भंते! क्या वह पहले शस्त्र से प्रहार करता अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा? पुचि पश्चात् व्यतिव्रजेत्? पूर्वं व्यतिव्रज्य है, पश्चात् बीचोंबीच होकर जाता है? क्या वीइवइत्ता पच्छा सत्येणं अक्कमेज्जा? पश्चात् शस्त्रेण अवक्राम्येत्? पहले बीचोंबीच होकर जाता है, पश्चात् शस्त्र से प्रहार करता है? गोयमा! पनि सत्थेणं अक्कमित्ता गौतम! पूर्वं शस्त्रेण अवक्रम्य पश्चात् गौतम ! पहले शस्त्र से प्रहार करता है, पश्चात् पच्छा वीइवएज्जा, नो पनि वीइवइत्ता व्यजिव्रजेत. नो पर्व व्यतिव्रज्य पश्चात बीचोंबीच होकर जाता है। पहले बीचोंबीच पच्छा सत्येणं अक्कमिज्जा। एवं एएणं । शस्त्रेण अवक्राम्येत्। एवम् एतेन होकर जाकर पश्चात् शस्त्र से प्रहार नहीं अभिलावेणं जहा दसमसए आइडी- अभिलापेन यथा दशमशते आत्म- करता। इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार उद्देसए तहेब निरवसेसं चत्तारि दंडगा। द्धिकोद्देशके तथैव निरवशेषं चत्वारः जैसे दसवें शतक (१०/२४-३०) में आत्मभाणियन्वा जाब महिड्डिया वेमाणिणी। दण्डकाः भणितव्याः यावत् महर्द्धिका ऋद्धि उद्देशक, वैसे चारों दण्डक निरवशेष अप्पिड्डियाए वेमाणिणीए॥ वैमानिकी अल्पर्द्धिकया वैमानिक्या। वक्तव्य हैं, यावत् महान्-ऋद्धि वाली वैमानिक देवी अल्प-ऋद्धि वाली वैमानिक देवी का शस्त्र से प्रहार कर जाने में भी समर्थ है। भाष्य १. सूत्र २६-३६ नहीं है, मस्तिष्कीय चिन्तन और शारीरिक अवयव भी विकसित नहीं प्रस्तुत प्रकरण में लोकोपचार विनय की प्रतिपत्ति का विवरण हैं फिर भी यत् किञ्चित् मात्रा में वे शिष्टाचार का पालन करते हैं। दिया गया है। इसका आश्य है-नैरयिक जीव लोकोपचार विनय करना हाथी यूथपति का सम्मान करते हैं। गाएं गौरोचन वाली गाय का सम्मान नहीं जानते। करती हैं। बंदर भी अपने मुखिया का सम्मान करते हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में देवता द्वारा शस्त्र आक्रमण अथवा शस्त्र प्रहार अपने पौरूष का लोकोपचार विनय नहीं है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में भाषा का विकास प्रदर्शन हो सकता है। नेरइय-नेरइयाणं पञ्चणुभव-पदं नैरयिक-नैरयिकानां प्रत्यनुभव-पदम् नैरयिक-नैरयिकों का प्रत्यनुभव पद ४०. रयणपभपुढविनेरइया णं भंते! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः भदन्त! ४०. भंते ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस केरिसयं पोग्गलपरिणाम पञ्चणुब्भव- कीदृशकं पुद्गलपरिणामं प्रत्यनुभवन्तः प्रकार के पुद्गल परिणाम का प्रत्यनुभव करते माणा विहरंति? विहरन्ति? हुए विहरण करते हैं? गोयमा! अणिढं अकंतं अप्पियं असुभं गौतम! अनिष्टम् अकान्तम् अप्रियम् गौतम! अकांत, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ अमणुण्णं अमणाम। एवं जाव अहेसत्त- अशुभम् अमनोज्ञम् 'अमणाम'। एवं और अमनोहर। इसी प्रकार यावत् मापुढविनेरइया॥ यावत् अधःसप्तमी पृथिवीनैरयिकाः। अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिकों की वक्तव्यता। ४१. रयणपभपुढविनेरइया णं भंते! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः भदन्त! ४१. भंते! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस केरिसयं वेदनापरिणाम पचणुब्भवमाणा कीदृशकं वेदनापरिणाम प्रत्यनुभवन्तः प्रकार के वेदना परिणाम का प्रत्यनुभव करते विहरंति? विहरन्ति? हुए विहरण करते हैं? गोयमा ! अणिहं जाव अमणाम। गौतम! अनिष्टं यावत् 'अमणाम'। एवं गौतम! अनिष्ट यावत् अमनोहर। इस प्रकार एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइय- यथा जीवाभिगमे द्वितीये नैरयिकोद्देशके जैसे जीवाभिगम के द्वितीय नैरयिक उद्देशक उद्देसए जावयावत् में यावत्४२. अहेसत्तमापढविनेरइया णं भंते! अधःसप्तमीपथिवीनैरयिकाः भदन्त! ४२. भंते! अधःसप्तमी पृथ्वी के नैरयिक किस केरिसयं परिग्गहसण्णापरिणामं कीदृशकं परिग्रहसंज्ञापरिणाम प्रकार के परिग्रह संज्ञा परिणाम का प्रत्यनुभव पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति? प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति? करते हुए विहरण करते हैं? गोयमा ? अणिढे जाव अमणाम। गौतम! अनिष्टं यावत् 'अमणाम'। गौतम! अनिष्ट यावत् अमनोहर। ४३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त! इति। ४३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद पोग्गल-जीव-परिणाम-पदं पुद्गल-जीव-परिणाम-पदम् ४४. एस णं भंते! पोग्गले तीतमणतं एषः भदन्त! पुद्गलः अतीतमनन्तं सासयं समयं लुक्खी? समयं शाश्वतं समयं रुक्षी? समयम् अरुक्षी? अलुक्खी? समयं लुक्खी वा समयं रुक्षी वा अरुक्षी वा? पूर्वं च अलुक्खी वा? पुचि च णं करणेणं करणेन अनेकवर्णम् अनेकरूपं परिणाम अणेगवण्णं अणेगरूवं परिणामं परिणमति? अथ सः परिणामः निर्जीर्णः परिणमइ ? अहे से परिणामे निज्जिण्णे भवति, ततः पश्चात् एकवर्णः एकरूपः भवइ, तओ पच्छा एगवण्णे एगरूवे स्यात्? सिया? पुद्गल जीव परिणाम पद ४४. भंते! यह पुद्गल अनंत और शाश्वत अतीत में किसी एक समय रुक्ष होता है? किसी एक समय अरूक्ष (स्निग्ध) होता है? किसी एक समय रूक्ष अथवा अरूक्ष होता है? पूर्व में जो एक वर्ण आदि परिणाम वाला है, वह करण के द्वारा अनेक वर्ण, अनेक रूप परिणाम का परिणमन करता है? वह परिणाम निर्जीर्ण होता है, उसके पश्चात् वह एक वर्ण, एक रूप हो जाता है? हां गौतम! यह पुद्गल अनंत और शाश्वत अतीत में किसी एक समय रूक्ष होता है, किसी एक समय अरूक्ष (स्निग्ध) होता है। किसी एक समय रूक्ष अथवा अरूक्ष होता है। पूर्व में जो एक वर्ण आदि परिणाम वाला है, वह करण के द्वारा अनेक वर्ण, अनेक रूप आदि परिणाम का परिणमन करता है। वह परिणाम निर्जीर्ण होता है, उसके पश्चात् एक वर्ण, एक रूप हो जाता है। हंता गोयमा! एस णं पोग्गले तीतमणंतं सासयं समयं तं चेव जाव एगरूवे सिया॥ हन्त गौतम! एषः पुद्गलः अतीतमनन्तं शाश्वतं समयं तत् चैव यावत् एकरूपः स्यात्। ४५. एस णं भंते! पोग्गले पडुप्पन्नं सासयं समयं लुक्खी ? एवं चेव॥ एषः भदन्त! पुद्गलः प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं समयं रुक्षी? एवं चैव। ४५. भंते! पुद्गल शाश्वत वर्तमान में किसी एक समय रूक्ष होता है? पूर्ववत्। ४६. एस णं भंते ! पोग्गले अणागयमणतं सासयं समयं लुक्खी ? एवं चेव॥ एषः भदन्त! पुद्गलः अनागतमनन्तं शाश्वतं समयं रुक्षी? एवं चैव। ४६. भंते! यह पुद्गल अनंत और शाश्वत अनागत में किसी एक समय रूक्ष होता है? पूर्ववत्। ४७. एस णं भंते! खंधे तीतमणतं सासयं समयं लुक्खी ? एवं चेव खंधे वि जहा पोग्गले॥ एषः भदन्त! स्कन्धः अतीतमनन्तं शाश्वतं समयं रुक्षी? एवं चैव स्कन्धोऽपि यथा पुद्गलः । ४७. भंते! यह स्कन्ध अनंत और शाश्वत अतीत में किसी एक समय रूक्ष होता है? इसी प्रकार स्कन्ध भी पुद्गल की भांति वक्तव्य है। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र ४४-४७ प्रस्तुत प्रकरण में परिणामी नित्यवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। एकान्त नित्यवाद में पदार्थ सदा एक रूप वाला होता है। परिणामी नित्यवाद के अनुसार पदार्थ में परिणमन होता रहता है, वह बदलता रहता है। परिणमन को रूक्ष स्निग्ध स्वरूप के द्वारा समझाया गया है। पुद्गल कभी रूक्ष होता है, कभी स्निग्ध होता है और कभी रूक्षस्निग्ध दोनों होता है। १६७ भाष्य जो रूक्ष है, वह स्निग्ध कैसे हो सकता है ? जो स्निग्ध है, वह रूक्ष कैसे हो सकता है? इसका उत्तर 'करण' पद के द्वारा दिया गया है। करण का अर्थ है परिणमन । वह स्वाभाविक भी होता है और प्रायोगिक भी होता है। पदार्थ सदा एक रूप नहीं रह सकता। उसमें परिणमन का चक्र चलता रहता है। यह परिवर्तन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। कभी-कभी परिणमन प्रायोगिक होता है-दूसरे के निमित्त से होता है। परिणमन के कारण पदार्थ अनेक वर्णों और अनेक रूपों में परिवर्तित होता रहता है। अनेक वर्ण और अनेक रूप की व्याख्या दो दृष्टियों से की जा सकती है। परमाणु एक साथ अनेक वर्ण और अनेक रूप वाला नहीं होता इसलिए उसकी व्याख्या समय-भेद के आधार पर की जा सकती है। दीर्घकाल में परिणमन के द्वारा वह अनेक वर्ण और अनेक रूप वाला होता है। स्कंध एक साथ अनेक वर्ण और अनेक रूप वाला हो सकता है। वर्तमान में एक वर्ण, एक रूप वाला होता है। स्कंध भी एक वर्ण, एक रूप वाला हो सकता है। श. १४ : उ. ४ : सू. ४८ पुद्गल - पद के द्वारा परमाणु और स्कंध दोनों का ग्रहण होता है, पर प्रधान रूप में इस प्रकरण में परमाणु का प्रतिपादन है। तीसरे विकल्प का संबंध स्कंध से है, यह अभयदेवसूरि का अभिमत है। उनके अनुसार रूक्ष अथवा स्निग्ध-इन दोनों पदों का संबंध परमाणु और स्कंध दोनों से है। एक समय में रूक्ष और अरूक्ष-यह परमाणु में घटित नहीं होता, इसलिए इसका संबंध स्कंध से है । द्व्यणुक आदि स्कंधों का एक देश रूक्ष और एक देश स्निग्ध-यह युगपत् स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श एक स्कंध में ही संभव है।' प्रस्तुत प्रकरण का सैंतालीसवां सूत्र स्कंध का प्रतिपादक है। अभयदेवसूरि ने इस सूत्र की पीठिका में लिखा है- पुद्गल के स्वरूप का निरूपण किया गया। स्कंध भी पुद्गल का एक प्रकार है इसलिए उसके स्वरूप का निरूपण किया जा रहा है।' इससे स्पष्ट है कि पुद्गल सूत्र में परमाणु और स्कंध - दोनों का संग्रहण किया गया है। स्कंध के सूत्र में केवल स्कंध का निरूपण है। यदि पुद्गल सूत्र की व्याख्या केवल परमाणु के आधार पर की जाए तो रूक्ष- अरूक्ष- इस तृतीय भंग की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है - परमाणु जिस समय रूक्ष है, उस समय स्निग्ध भी है। जिस समय स्निग्ध है उस समय रूक्ष भी है। सत्ता की दृष्टि से उसमें रूक्ष और स्निग्ध- दोनों गुण विद्यमान हैं । अभिव्यक्ति की दृष्टि से उसमें कभी रूक्ष धर्म व्यक्त होता है, कभी स्निग्ध धर्म व्यक्त होता है। प्रथम भंग अभिव्यक्ति की दृष्टि से, तीसरा भंग सत्ता की दृष्टि से संगत हो सकता है। वर्तमान की दृष्टि से विचार करें तब परमाणु एक वर्ण, एक रूप इस अभिमत का समर्थन जीव-सूत्र ( भगवई १४१४८) के तृतीय वाला होता है। पूर्ववर्ती परिणाम निर्जीर्ण हो जाता है, इसलिए वह भंग से होता है। ४८. एस णं भंते! जीवे तीतमणतं सासयं एषः भदन्त ! जीवः अतीतमनन्तं समयं दुक्खी ? समयं अदुक्खी ? समयं शाश्वतं समयं दुःखी ? समयम् दुक्खी वा अदुक्खी वा ? पुव्वि च णं अदुःखी ? समयं दुःखी वा अदुःखी वा ? करणेणं अणेगभावं अणेगभूयं परिणामं पूर्वं च करणेन अनेकभावम् अनेकभूतं परिणमइ ? अहे से वेयणिज्जे निज्जिण्णे परिणामं परिणमति ? अथ तत् वेदनीयं भवइ, तओ पच्छा एगभावे एगभूए निर्जीर्णं भवति, ततः पश्चात् एकभावः सिया ? एकभूतः स्यात् ? समय, हंता गोयमा ! एस णं जीवे तीतमणंतं हन्त गौतम! एषः जीवः अतीतमनन्तं सासयं समयं जाव एगभूए सिया । एवं शाश्वतं समयं यावत् एकभूतः स्यात् । नं सासयं एवं एवं प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं समयम्, एवम् अणागयमणंतं सासयं समयं ॥ अनागतमनन्तं शाश्वतं समयम् । १. भ. वृ. सू. १४ / ४४-३६ - समयमेकं यावदरूक्षस्पर्शसद्भावात् 'अरूक्षी' स्निग्धस्पर्शवान् बभूव । इदं च पदद्वयं परमाणौ स्कंधे च संभवति । तथा समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा त्ति समयमेव रूक्षश्चारूक्षश्च रुक्षस्निग्धलक्षणस्पर्शद्वयोपेतो बभूव, इदं च स्कंधापेक्षं यतो द्व्यणुकादि स्कंधे देशो ४८. भंते! यह जीव अनंत और शाश्वत अतीत में किसी एक समय दुःखी होता है ? किसी एक समय अदुःखी होता है? किसी एक समय दुःखी अथवा अदुःखी होता है? पूर्व में जो एक भाव आदि परिणाम वाला वह करण के द्वारा अनेक भाव, अनेक भूत आदि परिणाम वाला हो जाता है? वह वेदनीय निर्जीर्ण होता है, उसके पश्चात् वह एक भाव, एक भूत परिणाम वाला हो जाता है ? हां गौतम ! यह जीव अनंत और शाश्वत अतीत में किसी एक समय यावत् एक भूत परिणाम वाला हो जाता है। इसी प्रकार • शाश्वत वर्तमान में किसी एक समय में, इसी रूक्षो देशश्चारूक्षो भवतीत्येवं युगपत् रूक्षस्निग्धस्पर्शसंभवः । २. वही, १४ /४७ - अनंतरं पुद्गलस्वरूपं निरूपितं पुद्गलश्च स्कन्धोऽपि भवतीति, पुद्गलभेदभूतस्य स्कन्धस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह । ३. वही, १४ /४७- पुद्गलः परमाणुः स्कंधरूपश्च । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. ४ : सू. ४६ - ५१ १. सूत्र ४८ प्रस्तुत सूत्र में वेदनीय के आधार पर होने वाली जीव की अनेकरूपता का प्रतिपादन है। कोई भी संसारी जीव सदा दुःखी या सदा सुखी नहीं रहता। वह दुःख का हेतु मिलने पर किसी समय दुःखी और सुख का हेतु मिलने पर किसी समय सुखी होता है। एक साथ दुःखी और सुखी - यह तीसरा विकल्प विमर्शनीय है। अभयदेवसूरि ने 'अपने-अपने हेतु से सुखी अथवा दुःखी बनता है'- इस हेतु के आधार पर इसकी व्याख्या की है। उसके साथ उन्होंने आगमिक मत भी उद्धृत किया है - जीव के एक समय में एक उपयोग होता है इसलिए सुख-दुःख का संवेदन एक साथ नहीं हो सकता। ४६. परमाणुपोग्गले णं भंते! किं सासए ? असासए ? गोयमा ! सिय सासए, सिय असासए ॥ 'एक समय में जीव दुःखी और सुखी इस भंग की व्याख्या परमाणु के तृतीय भंग की भांति की जा सकती है-जीव जिस समय दुःखी है, उस समय सुखी भी है और जिस समय सुखी है, उस समय दुःखी भी है। सत्ता की दृष्टि से उसमें सुख और दुःख- दोनों विद्यमान ५०. से केणणं भंते! एवं बुच्चइ - सिय सासए, सिय असासए ? गोयमा ! दव्वट्टयाए सासए, वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासए । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - सिय सासए, सिय असासए | १६८ ५१. परमाणुपणं भंते! किं चरिमे ? अचरिमे ? गोयमा ! दव्वादेसेणं नो चरिमे, अचरिमे। खेत्तादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे । कालादेसेणं सिय चरिमे, सिय भाष्य हैं। अभिव्यक्ति की दृष्टि से कभी दुःख व्यक्त होता है, कभी सुख व्यक्त प्रथम दो अभिव्यक्ति की दृष्टि से तथा तीसरा भंग सत्ता की दृष्टि से संगत हो सकता है। परमाणुपुद्गलः भदन्त ! किं शाश्वतः ? अशाश्वतः ? गौतम! स्यात् शाश्वतः स्यात् अशाश्वतः । १. सूत्र ४६-५० जैन दर्शन में सत्य को देखने के लिए दो दृष्टियों का विधान किया गया है - द्रव्यार्थिक दृष्टि और पर्यायार्थिक दृष्टि | इस अभिमत का समर्थन पुद्गल सूत्र (भगवई १४/४४) के तृतीय भंग से होता है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य परिणामीनित्य है । पूर्व आलापक (भगवई १४ /४४-४७) में पुद्गल द्रव्य की परिणामीनित्यता बतलाई गई । प्रस्तुत सूत्र में जीव की परिणामीनित्यता वेदनीय के आधार पर प्रतिपादित की गई है। वेदनीय के आधार पर जीव में सुखदुःख का अनुभव होता रहता है। उसके निर्जीर्ण होने पर जीव एक भाव और एक भूत परिणाम में चला जाता है, सुख-दुःख के हेतु से होने वाले सुखात्मक और दुःखात्मक संवेदन समाप्त हो जाते हैं। उपयोग की अपेक्षा जीव अनेक भाव-भविक भी रहता है।' यहां वह विवक्षित नहीं है। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - स्यात् शाश्वतः ? स्यात् अशाश्वतः ? गौतम! द्रव्यार्थतया शाश्वतः, वर्णपर्यवैः गन्धपर्यवैः रसपर्यवैः स्पर्शपर्यवैः अशाश्वतः । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - स्यात् शाश्वतः स्यात् अशाश्वतः । भाष्य भगवई प्रकार अनंत और शाश्वत अनागत में किसी एक समय में। परमाणुपुद्गलः भदन्त ! किं चरमः ? अचरम: ? गौतम ! द्रव्यादेशेन नो चरमः, अचरमः । क्षेत्रादेशेन स्यात् चरमः स्यात् अचरमः । कालादेशेन स्यात् चरमः स्यात् अचरमः । ४६. भंते! परमाणु पुद्गल क्या शाश्वत है ? क्या अशाश्वत है ? गौतम ! स्यात् शाश्वत है, स्यात् अशाश्वत है। द्रव्य ध्रुव है और पर्याय परिवर्तनशील होता है। इन दो दृष्टियों के आधार पर परमाणु पुद्गल को कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत बतलाया गया है। ५०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - स्यात् शाश्वत है ? स्यात् अशाश्वत है ? गौतम ! द्रव्य की दृष्टि से शाश्वत है। वर्ण पर्यवों, गंध पर्यवों, रस पर्यवों और स्पर्श पर्यवों की दृष्टि से अशाश्वत है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - परमाणु पुद्गल स्यात् शाश्वत है, स्यात् अशाश्वत है। १. भ. वृ. १४/४८ - दुःखी च सुखी च तद्धेतुयोगात् न पुनरेकदा सुखदुःख- २. भ. १८ / २१६ - २२० वेदनमस्ति एकोपयोगत्वात् जीवस्येति । ५१. भंते! परमाणु पुद्गल क्या चरम है ? क्या अचरम है ? गौतम! द्रव्य की अपेक्षा चरम नहीं है, अचरम है। क्षेत्र की अपेक्षा स्यात् चरम है, स्यात् अचरम है। काल की अपेक्षा स्यात् चरम है, Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १६६ श. १४ : उ. ४ : सू. ५२,५३ भावादेशेन स्यात् चरमः स्यात अचरमः। अचरिमे। भावादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे॥ स्यात् अचरम है। भाव की अपेक्षा स्यात् चरम है, स्यात् अचरम है। भाष्य १. सूत्र ५१ प्रस्तुत सूत्र में परमाणु-पुद्गल के चरम और अचरम रूप पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार आदेशों (अपेक्षाओं) से विचार किया गया है। परमाणु अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होता, अतः द्रव्यादेश से वह अचरम है। अमुक नाम वाले केवली के केवली-समुद्घात के समय जो परमाणु किसी क्षेत्र में अवगाढ है, वह केवली समुद्घात के संपन्न होने पर फिर कभी उस क्षेत्र में उस केवली के समुद्घात के साथ संयोग नहीं करेगा- इस क्षेत्रादेश से परमाणु चरम है। अमुक नाम वाले केवली के केवली-समुद्घात काल में जो परमाणु केवली-समुद्घात विशेषित होता है फिर वह किसी काल में नहीं होता- इस कालादेश से परमाणु चरम है। अमुक नाम वाले केवली के केवली-समुद्घात के समय जो परमाणु विशेष वर्ण आदिभाव में परिणत हुआ, वह उस केवली-समुद्घात के सम्पन्न होने पर केवली-समुद्घात से विशेषित वर्ण आदि में परिणत नहीं होगा-इस भावादेश से परमाणु चरम है। अभयदेवसूरि ने यह व्याख्या चूर्णिकार के अभिमत के आधार पर की है। उन्होंने अपनी ओर से इसमें कुछ नहीं लिखा है।' ___ कुछ परमाणु ऐसे होते हैं जिनका स्कंध रूप में परिणमन त्रिकाल में भी नहीं होता। इन परमाणुओं के आधार पर चरम की व्याख्या की जा सकती है। जो परमाणु विससा परिणाम से परिणत हैं, उनकी अपेक्षा से भी चरम की व्याख्या की जा सकती है। वे परमाणु प्रयोग और मिश्र परिणाम की कोटि में कभी नहीं आते। ५२. कतिविहे णं भंते! परिणामे पण्णत्ते? कतिविधः भदन्त! परिणामः प्रज्ञप्तः? ५२. भंते! परिणाम कितने प्रकार का प्रज्ञप्त गोयमा! दविहे परिणामे पण्णत्ते, तं जहा-जीवपरिणामे य, अजीवपरिणामे य। एवं परिणामपयं निरवसेसं भाणियव्वं॥ गौतम! द्विविधः परिणामः प्रज्ञप्तः, तद् यथा-जीवपरिणामः च अजीवपरिणामः च। एवं परिणामपदं निरवशेष भणितव्यम्। गौतम! परिणाम दो प्रकार का प्रज्ञाप्त है, जैसे-जीव परिणाम और अजीव परिणाम। इस प्रकार परिणाम पद (पण्णवणा पद १३) निरवशेष वक्तव्य है। ५३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। ५३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे। १. भ. वृ. १४/५१॥ २. (क) धवला ४/१,५, ४, गाथा १९/३२७। (ख) श्लोकवार्तिक २ भाग १/५/८-१०/१७३।१०। ३. (क) भ. ८/२४। (ख) तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी ५/३२ भाष्य की वृत्ति पृ. ३६०। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल अगणिकायस्स अतिक्कमण-पदं ५४. नेरइए णं भंते! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं बीइवएज्जा ? गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा ॥ कमइ । तत्थ णं जे से अविग्गहगतिसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं नो बीइवएज्जा से तेणद्वेणं जाव नो बीइवएज्जा ॥ पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक ५५. से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइअत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा ? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेअस्त्येककः व्यतिव्रजेत् अस्त्येककः नो व्यतिव्रजेत् ? य, च गोयमा ! नेरइया दुबिहा पण्णत्ता, तं गौतम ! नैरयिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, जहा - विग्गहगतिसमावन्नगा तद्यथा-विग्रहगतिसमापन्नकाः अविग्गहगतिसमावन्नगा य । तत्थ णं जे अविग्रहगतिसमापन्नकाः च । तत्र यः सः विग्रहगतिसमापन्नकः नैरयिकः सः अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् । से विग्गहगतिसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा । सेणं तत्थ झियाएज्जा ? नो इणट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्थं संस्कृत छाया अग्निकायस्य अग्निकायस्य-अतिक्रमण-पदम् नैरयिकः भदन्त ! मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ? गौतम ! अस्त्येककः व्यतिव्रजेत्, अस्त्येककः नो व्यतिव्रजेत् । सः तत्र धमेत् ? नो अयमर्थः समर्थः, नो क्रामति । तत्र यः सः अविग्रहगतिसमापन्नकः नैरयिकः सः अग्निकायस्य मध्यमध्येन नो व्यतिव्रजति। तत् तेनार्थेन यावत् नो व्यतिव्रजेत् । भाष्य १. सूत्र ५४-५५ प्रस्तुत प्रकरण में विग्रह गति का अर्थ अंतराल गति और अविग्रह गति का अर्थ उत्पत्ति स्थान है। नरक में बादर अग्निकाय नहीं होता इसलिए अविग्रह गति समापन्नक उसके मध्य से नहीं जाते। बादर अग्निकाय के विषय में वृत्तिकार ने कुछ विस्तार से लिखा है। बादर अग्निकाय केवल मनुष्य क्षेत्र में ही होता है। नरक में अग्नि का १. भ. वृ. १४ / ५४-५५ - नारकक्षेत्रे बादराग्निकायस्याभावात् मनुष्यक्षेत्र एव तद्भावात् यच्चोत्तराध्ययनादिषु श्रूयते - 'हुयासणे जलंतंमि दड्ढपुव्यो खलु तत्र शस्त्र हिन्दी अनुवाद अग्निकाय का अतिक्रमण पद ५४. भंते! क्या नैरयिक अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है ? गौतम ! कोई जाता है, कोई नहीं जाता। ५५. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैकोई जाता है, कोई नहीं जाता ? गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे - विग्रह गति समापन्नक और अविग्रह गति समापन्नक - नरक में अवस्थित। उनमें जो विग्रह गति समापन्नक नैरयिक हैं, वे अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाते हैं। क्या वह अग्निकाय में जलता है ? यह अर्थ संगत नहीं है। वह शस्त्र से आक्रांत नहीं होता। जो अविग्रह गति समापन्नक नैरयिक हैं, वे अग्निकाय के बीचोंबीच होकर नहीं जाते। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- यावत् कोई नैरयिक अग्निकाय के बीचोंबीच होकर नहीं जाता। वर्णन है, वह अग्नि तुल्य द्रव्य है, जैसे-तेजोलेश्या के पुद्गल । ' द्रष्टव्य-उत्तरज्झयणाणि १६ / ४६ का टिप्पण | विग्रह गति में कार्मण शरीर होता है। वह सूक्ष्म है इसलिए वह अग्नि में दग्ध नहीं होता और न वह अग्नि-शस्त्र से आक्रांत होता । विग्रह गति के लिए द्रष्टव्य भगवई १ / ३३५-३३८ का भाष्य । अणेगसो ।' इत्यादि तदग्निसदृशद्रव्यान्तरापेक्षयाऽवसेयं संभवन्ति च तथाविधशक्तिमन्ति द्रव्याणि तेजोलेश्याद्रव्यवदिति । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ श. १४ : उ.५ : सू. ५६-५८ भगवई ५६. असुरकुमारे णं भंते! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा? गोयमा! अत्यंगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा॥ असुरकुमारः अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्? गौतम! अस्त्येकक: व्यतिव्रजति, अस्त्येककः नो व्यतिव्रजति। ५६. भंते! क्या असुरकुमार अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है? गौतम! कोई जाता है, कोई नहीं जाता। ५७. से केणद्वेणं जाव नो वीइवएज्जा? तत् केनार्थेन यावत् नो व्यतिव्रजेत्? ५७. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-यावत् कोई असुरकुमार अग्निकाय के बीचोंबीच होकर नहीं जाता? गोयमा! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, गौतम! असुरकुमाराः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, गौतम! असुरकुमार दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, तं जहा-विग्गहगतिसमावन्नगा य, तद् यथा-विग्रहगतिसमापन्नकाः च, जैसे-विग्रह गति समापन्नक और अविग्रह गति अविग्गहगतिसमावन्नगा य। अविग्रहगतिसमापन्नकाः च। समापन्नक। तत्थ णं जे से विग्गहगतिसमावन्नए तत्र यः सः विग्रहगतिसमापन्नकः जो विग्रह गति समापन्नक असुरकुमार हैं, वे असुरकुमारे से णं-एवं जहेव नेरइए जाव असुरकुमारः सः-एवं यथैव नैरयिकः । नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं, यावत् वह शस्त्र कमइ। यावत् क्रामति। से आक्रांत नहीं होता। तत्थ णं जे से अविग्गहगतिसमावन्नए तत्र यः स; अविग्रहगतिसमापन्नकः जो अविग्रह गति समापन्नक हैं, उनमें कोई असुरकुमारे से णं अत्थेगतिए असुरकुमारः सः अस्त्येककः अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है, कोई अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा, अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्, नहीं जाता। अत्यंगतिए नो वइवएज्जा। अस्त्येकक: नो व्यतिव्रजेत्। जे णं वीइवएज्जा से णं तत्य यः व्यतिव्रजेत स तत्र धमेत? जो बीचोंबीच होकर जाता है, क्या वह झियाएज्जा? जलता है? नो इणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं नो अयमर्थंः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं यह अर्थ संगत नहीं है। यह शस्त्र से आक्रांत कमइ। से तेणटेणं एवं जाव क्रामति। तत् तेनार्थेन एवं यावत् नहीं होता। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा थणियकुमारा। एगिदिया जहा नेरइया॥ स्तनितकुमाराः। एकेन्द्रियाः यथा है-यावत् कोई असुरकुमार अग्निकाय के नैरयिकाः। बीचोंबीच होकर नहीं जाता। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार की वक्तव्यता। एकेन्द्रिय नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र ५६-५७ विषय में वृत्तिकार ने विमर्श किया है। स्थावर काय में अग्नि और असुरकुमार में उत्पन्न होने के पश्चात् कोई मनुष्य लोक में आता वायु-ये गति त्रस हैं इसलिए इनका अग्निकाय के बीचोंबीच होकर है, वह अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है। वे सब मनुष्य लोक में जाना प्रत्यक्ष है किन्तु आगम में लब्धि-त्रस ही विवक्षित हैं। नहीं आते इसलिए यह नियम का विकल्प है। जो मनुष्य लोक में आता इसी प्रकार वायु सचित्त पृथ्वी को भी अग्नि के मध्य होकर ले है, वह अग्निकाय से दग्ध और अग्नि-शस्त्र से आक्रांत नहीं होता। जाती है। यह भी स्पष्ट है किन्तु यहां स्वतंत्रतापूर्वक होने वाली गति एकेन्द्रिय की वक्तव्यता नैरयिक की भांति बतलाई गई है। वृत्तिकार की विवक्षा है। इस विषय में वृत्तिकार ने चूर्णिकार का मत भी उद्घत ने बतलाया है-उत्पत्ति स्थान में अवस्थित एकेन्द्रिय जीव स्थावर होने किया है।' के कारण अग्निकाय के बीचोंबीच होकर नहीं जाते। इस नियम के ५८. बेइंदिया णं भंते! अगणिकायस्स द्वीन्द्वियाः भदन्त! अग्निकायस्य मझमज्झेणं वीइवएज्जा? मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्? जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिए वि, नवरं- यथा असुरकुमाराः तथा द्वीन्द्रियोऽपि, जे णं बीइवएज्जा से णं तत्थ नवरम्-यः व्यतिव्रजेत् सः तत्र धमेत? झियाएज्जा? हंता झियाएज्जा। सेसं तं चेव। एवं जाव हन्त! धमति। शेषं तत् चैव। एवं यावत् चउरिदिए॥ चतुरिन्द्रियः। ५८. भंते! क्या द्वीन्द्रिय अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है? जैसे-असुरकुमार वैसे द्वीन्द्रिय की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जो जाता है, क्या वह जलता है? हां, जलता है। शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता। १. भ. वृ. १४/५६-५७। , Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १४ : उ. ५ : सू. ५६-६१ २०२ ५६. पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक: भदन्त! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइ- अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्? वएज्जा ? गोयमा! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, गौतम! अस्त्येककः व्यतिव्रजेत्, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा॥ अस्त्येककः नो व्यतिव्रजेत्। ५६. भंते! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक-अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है? गौतम! कोई जाता है, कोई नहीं जाता। ६०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-विग्रह गति समापन्नक और अविग्रह गति समापन्नक। विग्रह गति समापन्नक नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। यावत् वह शस्त्र से आक्रान्त नहीं होता। अविग्रह गति समापन्नक पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ऋद्धि प्राप्त, अऋद्धि प्राप्त। जो ऋद्धि प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक हैं, उनमें कोई अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है, कोई नहीं जाता। जो बीचोंबीच होकर जाता है क्या वह जलता है? ६०. से केणढेलं? तत् केनार्थेन? गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया गौतम! पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-विग्गहगति- द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-विग्रहसमावनगा य, अविग्गहगतिसमावनगा गतिसमापनकाः च, अविग्रहगतिय। विग्गहगतिसमावन्नए जहेव नेरइए समापन्नकाः च। विग्रहगतिसमापन्नकाः जाव नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। यथैव नैरयिकः यावत् नो खलु तत्र शस्त्रं अविग्गहगतिसमावन्नगा पंचिंदिय- क्रामति। अविग्रहगतिसमापन्नकाः तिरिक्वजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः जहा-इड्डिष्पत्ता य, अणिड्डिष्पत्ता य। प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-ऋद्धिप्राप्ताः च, तत्थ णं जे से इहिप्पत्ते पंचिंदिय- अनर्द्धिप्राप्ताः च। तत्र यः सः ऋद्धिप्राप्तः तिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः सः अस्त्येकक: अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीइवएज्जा, अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। अस्त्येकक: नो व्यतिव्रजेत्। जे णं बीइवएज्जा से णं तत्थ यः व्यतिव्रजेत् सः तत्र धमेत्? झियाएज्जा? नो इणद्वे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं नो अयमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं, कमइ। तत्थ णं जे से अणिहिप्पत्ते क्रामति। तत्र यः सः अनर्द्धिप्राप्तः पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकः सः अस्त्येकक: अत्थेगतिए अगणिकायस्स मझमझेणं अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्। वीइवएज्जा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। अस्त्येककः नो व्यतिव्रजेत्। जे णं वीइवएज्जा से णं तत्य यः व्यतिव्रजेत् सः तत्र धमेत्? झियाएज्जा? हंता झियाएज्जा। से तेणटेणं जाव नो हन्त धमेत। तत् तेनार्थेन यावत् नो वीइवएज्जा। एवं मणुस्से वि। वाणमंतर- व्यतिव्रजेत् एवं मनुष्योऽपि वानमन्तरजोइसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे॥ ज्योतिष्क-वैमानिकाः यथा असुर- कुमारः। यह अर्थ संगत नहीं है। वह शस्त्र से आक्रान्त नहीं होता। जो पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिक ऋद्धि प्राप्त नहीं है, उनमें कोई अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है, कोई नहीं जाता। जो बीचोंबीच होकर जाता है, क्या वह जलता है? हां, जलता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-यावत् कोई नहीं जाता। इसी प्रकार मनुष्य की वक्तव्यता। वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार की भांति वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र ५८-६० क्षेत्र से बहिर्वर्ती है, उसके लिए वह संभव नहीं है। वहां अग्निकाय का ऋद्धि प्राप्त का अर्थ है वैक्रिय लब्धि संपन्न। मनुष्य लोकवर्ती अभाव है इसलिए मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अग्निकाय के बीचोंबीच पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अग्निकाय के बीचोंबीच जा सकता है। जो मनुष्य नहीं जा सकते। पञ्चणुब्भव-पदं प्रत्यनुभव-पदम् प्रत्यनुभव-पद ६१. नेरइया दस ठाणाई पञ्चणुम्भवमाणा नैरयिकाः दश स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः ६१. नैरयिक दस स्थानों का प्रत्यनुभव करते विहरंति, तं जहा-अणिहा सद्दा, अणिवा विहरन्ति, तद्यथा-अनिष्टाः शब्दाः, हुए विहार करते हैं, जैसे-अनिष्ट शब्द, रूवा, अणिट्ठा गंधा, अणिट्ठा रसा, अनिष्टाः रूपाः, अनिष्टाः गन्धाः, अनिष्ट रूप, अनिष्ट गंध, अनिष्ट रस, अणिहा फासा, अणिट्ठा गती, अणिहा अनिष्टाः रसाः, अनिष्टाः स्पर्शाः, अनिष्ट स्पर्श, अनिष्ट गति, अनिष्ट स्थिति, ठिती, अणिढे लावण्णे, अणिढे जसे अनिष्टा गतिः, अनिष्टा स्थितिः, अनिष्ट लावण्य, अनिष्ट यशोकीर्ति और Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई कित्ती, अणि उट्ठाण-कम्म-बल-वीरियपुरिसक्कार-परक्कमे । ६२. असुरकुमारा दस ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा - इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा जाव इट्ठे उहाण-कम्मबल-वीरिय- पुरिसक्कार- परक्कमे । एवं जाव थणियकुमारा ॥ ६३. पुढविक्काइया छट्टाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा - इवाणिट्ठा फासा, इट्ठाणिट्ठा गती, एवं जाव पुरिसक्कार- परक्कमे । एवं जाव वणस्सइकाइया ॥ ६४. बेइंदिया सत्तद्वाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति, तं जहा - इट्ठाणिट्ठा रसा, सेसं जहा एगिंदियाणं ॥ ६५. तेइंदिया अट्टहाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा - इट्टाणिट्टा गंधा, सेसं जहा इंदियाणं ॥ ६६. चउरिंदिया नवद्वाणाई पचणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा - इट्ठाणिट्ठा रूवा, सेसं जहा तेइंदियाणं ॥ ६७. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दस ठाणाई पचणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहासिद्दा जाव पुरिसक्कारपरक्कमे । एवं मणुस्सा वि, वाणमंतरजोइसिय- वेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥ देवस्स उल्लंघण - पल्लंघण-पदं ६८. देवे णं भंते! महिडीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू १. भ. ६ / १८३-१८५ २०३ अनिष्टं लावण्यम्, अनिष्टं यशः कीर्तिः, अनिष्टः उत्थान - कर्म-बल-वीर्य पुरुषकार - पराक्रमः । असुरकुमाराः दशस्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति तद् यथा - इष्टाः शब्दाः, इष्टाः रूपाः यावत् इष्टः उत्थान-कर्मबल-वीर्य-पुरुषकार-प -पराक्रमः । एवं यावत् स्तनितकुमाराः । पृथिवीकायिकाः षट् स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, तद् यथाइष्टानिष्टाः स्पर्शाः, इष्टानिष्टाः गतिः, एवं यावत् पुरुषकार-पराक्रमः एवं यावत् वनस्पतिकायिकाः । द्वीन्द्रियाः सप्त स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति तद् यथा - इष्टानिष्टाः रसाः, शेषं यथा एकेन्द्रियाणाम् । त्रीन्द्रियाः अष्ट स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति तद् यथा - इष्टानिष्टाः गन्धाः, शेषं यथा द्वीन्द्रियाणाम् । चतुरिन्द्रियाः नव स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, तद् यथा इष्टानिष्टाः रूपाः, शेषं यथा त्रीन्द्रियाणाम् । पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः दश स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति तद् यथाइष्टानिष्टाः शब्दाः यावत् पुरुषकारपराक्रमः । एवं मनुष्याः अपि वानमंतर - ज्योतिष्क-वैमानिकाः यथा असुरकुमाराः । १. सूत्र ६१-६७ प्रस्तुत आलापक में चारों गति के जीवों के अनुभव का बहुत ही स्वाभाविक निरूपण किया गया है- नरक गति में जीव अनिष्ट शब्द, रूप आदि का अनुभव करते हैं और उनका पुरुषार्थ भी अनिष्ट होता श. १४ : उ. ५ : सू. ६२-६८ अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम । देवस्य उल्लंघन - प्रलंघन-पदम् देवः भदन्त ! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः बाह्यकान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः ६२. असुरकुमार दस स्थानों का प्रत्यनुभव करते हु विहार करते हैं, जैसे- इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत् इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य पुरुषकार, पराक्रम । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता । ६३. पृथ्वीकायिक छह स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे- इष्ट-अनिष्ट स्पर्श, इष्ट-अनिष्ट गति, इसी प्रकार यावत् पुरुषकार, पराक्रम । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक की वक्तव्यता । ६४. द्वीन्द्रिय सात स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे- इष्ट अनिष्ट रूप शेष एकेन्द्रिय की भांति वक्तव्य है। ६५. त्रीन्द्रिय जीव आठ स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे- इष्ट-अनिष्ट गंध, शेष द्वीन्द्रिय की भांति वक्तव्य है। भाष्य है। देव गति में जीव इष्ट शब्द, रूप आदि का अनुभव करते हैं और उनका पुरुषार्थ भी इष्ट होता है। ६६. चतुरिन्द्रिय जीव नव स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे- इष्ट-अनिष्ट रूप, शेष त्रीन्द्रिय की भांति वक्तव्य है। ६७. पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक जीव दस स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे - इष्ट-अनिष्ट शब्द यावत् पुरुषकार, पराक्रम । इसी प्रकार मुनष्य की वक्तव्यता । वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार की भांति वक्तव्य हैं। यह निरूपण प्रमुखता की दृष्टि से किया गया है।' द्रष्टव्य भगवई, ६ / ५-१४, १८३ - १८५ तथा ३ / ९२ का भाष्य । देव का उल्लंघन - प्रलंघन पद ६८. भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव क्या बाहरी Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ.५ : सू.६६,७० २०४ भगवई तिरियपव्वयं वा तिरियभित्तिं वा तिर्यकपर्वतं वा तिर्यगभित्तिं वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा? उल्लंधितुं वा प्रलंधितुं वा? पुद्गलों को ग्रहण किए बिना तिर्यक् पर्वत अथवा तिर्यक् भित्ति का एक बार उल्लंघन करने में अथवा बार-बार उल्लंघन करने में समर्थ है? यह अर्थ संगत नहीं है। नो इणढे समझे॥ नो अयमर्थः समर्थः। ६६. देवे णं भंते! महिड्डीए जाव महेसक्खे देवः भदन्त! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः ६६. भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू बाह्यकान् पुदगलान पर्यादाय प्रभः ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव क्या तिरियपब्वयं वा तिरियभित्तिं वा तिर्यकपर्वतं वा तिर्यगभित्तिं वा बाहरी पुद्गलों को ग्रहण कर तिर्यक् पर्वत उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा ? उल्लंधितुं वा प्रलंधितुं वा? अथवा तिर्यक् भित्ति का एक बार उल्लंघन करने में अथवा बार-बार उल्लंघन करने में समर्थ है? हंता पभू॥ हन्त प्रभु। हां, समर्थ है। भाष्य १. सूत्र ६८-६६ विक्रिया के लिए बाह्य पुद्गलों का ग्रहण आवश्यक है। इस नियम की जानकारी के लिए द्रष्टव्य भगवई ६/१६३-१६५। तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई ३/१८६-१८७ शब्द विमर्श तिर्यक पर्वत-मार्ग का अवरोध करने वाला पर्वत। तिर्यक भित्ति-प्राकार आदि की भींत अथवा पर्वत खण्ड।' तिर्यक् भित्ति का प्रयोग आचारांग में भी मिलता है। ७०. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। ७०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। १. भ. द. १४/६८-तिरियपव्वयं-तिरश्चीनं पर्वतं गच्छतो मार्गावरोधकं........तिर्यगभित्ति-तिरश्चीनां प्राकारवरण्डिकादिभित्तिं पर्वतखण्डं वेति। २. आयोरा ६/५ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल यादीणं किमाहारादि-पदं ७१. रायगिहे जाव एवं क्यासि - नेरइया णं भंते! किमाहारा, किं परिणामा, किंजोणिया, किंठितीया पण्णत्ता ? गोयमा ! नेरइया णं पोग्गलाहारा, पोग्गल परिणामा, पोग्गलजोणिया, पोग्गलद्वितीया, कम्मोवगा, कम्मनियाणा, कम्मद्वितीया, कम्मुणामेव विप्परियासमेंति । एवं जाव वेमाणिया । छट्टो उद्देसो : छठा उद्देशक ७२. नेरइया णं भंते! किं वीचीदव्वाई आहारेति ? अवीचीदव्वाई आहारेति ? गोयमा ! नेरइया वीचीदव्वाई पि आहारेंति, अवीचीदव्वाई पि आहारेति ॥ नैरयिकानाम् किमाहारादि-पदम् राजगृहं यावत् एवमवादीत् - नैरयिकाः भदन्त ! किम् आहाराः, किं परिणामाः, किं योनिकाः, किं स्थितिकाः प्रज्ञप्ताः ? १. सूत्र ७१ नैरयिक पुद्गल का आहार करने वाले हैं। ' नैरयिक पुद्गल योनि वाले हैं। उनकी योनि दो प्रकार की होती है-शीत योनि और उष्ण योनि । ' १. पण्ण. २८/५ २. वही, ६/२ गौतम ! नैरयिकाः पुद्गलाहाराः, पुद्गलपरिणामाः, पुद्गलयोनिकाः, पुद्गलस्थितिकाः, कर्मोपगाः, कर्मनिदानाः, कर्मस्थितिकाः, कर्म एव विपर्यासम् आयान्ति । एवं यावत् वैमानिकाः । प्रज्ञापना के अनुसार नैरयिक द्वारा आहार में गृहीत पुद्गलों का श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय आदि के रूप में परिणमन होता है। भाष्य रयिकों की स्थिति के हेतु आयुष्य कर्म के पुद्गल हैं। स्थिति का विशद विवेचन स्थिति पद में मिलता है । " ३. वही, २८ / २४ ४. वही, ४ / १-२४ ५. भ. वृ. १४/७१ - 'कम्मोवगे त्यादि कर्म्म- ज्ञानावरणादि पुद्गलरूपमुपगच्छन्ति नैरयिकाः भदन्त ! किं वीचिद्रव्याणि आहरन्ति ? अवीचिद्रव्याणि आहरन्ति ? गौतम! नैरयिका: वीचिद्रव्याणि अपि आहरन्ति अवीचिद्रव्याणि आहरन्ति । अपि आहार, परिणाम, योनि और स्थिति- ये सब पौद्गलिक हैं। इनके कारण नैरयिक जीवों की अवस्था बदलती रहती है। उसका हेतु कर्म। इस विषय का विवरण चार पदों के द्वारा किया गया है। किसी जीव के कर्म का संग्रहण होता है, नरक पर्याय के निमित्तभूत कर्म का बंध होता है। उसी के आधार पर स्थिति का निर्धारण होता है। कर्म के द्वारा ही विपर्यास पर्यायान्तर होता है। कर्म के द्वारा होने वाले विपर्यास का नियम सभी जीव दंडकों पर लागू होता है। हिन्दी अनुवाद नैरयिक का आहार आदि पद ७१. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा- भंते! नैरयिक किन द्रव्यों का आहार करते हैं? उनका परिणमन किस रूप में होता है ? उनकी योनि क्या है? उनकी स्थिति का आधार क्या है ? गौतम ! नैरयिक पुद्गल द्रव्यों का आहार . करते हैं। शरीर पोषक पुद्गल के रूप में उनका परिणमन होता है। योनि पौद्गलिक है। स्थिति का आधार आयुष्य कर्म के पुद्गल हैं। नैरयिक जीव कर्म का बंधन करने वाले हैं। उनके नारक होने का हेतु कर्म है। कर्म पुद्गल के कारण उनकी नारक के रूप में अवस्थिति है और कर्म के कारण ही वे विपर्यासपर्यायान्तर को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता । ७२. भंते! क्या नैरयिक वीचि द्रव्यों का आहार करते हैं? अवीचि द्रव्यों का आहार करते हैं? गौतम ! नैरयिक वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं, अवीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं। बंधनद्वारेणोपयान्तीति कर्मोपगाः, कर्म्मनिदानं नारकत्वनिमित्तं कर्मबंधनिमित्तं वा येषां ते कर्मनिदानाः तथा कर्म्मणः- कर्मपुद्गलेभ्यः सकाशात् स्थितिर्येषां ते कर्म्मस्थितयः तथा कम्मुणामेव विप्परियासमेतित्ति कर्मणैव हेतुभूतेन, मकार आगमिकः, विपर्यासं-पर्यायान्तरं पर्याप्तापर्याप्तादिकमायान्तिप्राप्नुवन्ति अतस्ते पुद्गलस्थितयो भवन्तीति । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ.६ : सू. ७३ २०६ भगवई ७३. से केणटेणं भंते! एवं बूच्चइ-नेरइया वीचीदवाई पि आहारेंति, अवीची- दव्वाई पि आहारेंति? ७३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैनैरयिक वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं, अवीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं ? गोयमा! जे ण नेरइया एगपएसूणाई पि दब्वाई आहारेंति, ते णं नेरइया वीचीदव्वाई आहारेंति, जे णं नेरड्या पडिपुण्णाई दवाई आहारेंति, ते णं नेरइया अवीचीदव्वाई आहारेंति। से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-नेरइया वीचीदव्वाई पि आहारेंति, अवीचीदवाई पि आहारेंति। एवं जाव वेमाणिया॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते नैरयिकाः वीचिद्रव्याणि अपि आहरन्ति, अवीचिद्रव्याणि अपि आहरन्ति? गौतम! ये नैरयिकाः एक प्रदेशोनानि अपि द्रव्याणि आहरन्ति, ते नैरयिकाः वीचिद्रव्याणि आहरन्ति, ये नैरयिकाः प्रतिपूर्णानि द्रव्याणि आहरन्ति, ते नैरयिकाः अवीचिद्रव्याणि आहरन्ति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेनैरयिकाः वीचिद्रव्याणि अपि आहरन्ति, अवीचिद्रव्याणि अपि आहरन्ति। एवं यावत् वैमानिकाः। गौतम! जो नैरयिक एक प्रदेश न्यून द्रव्य का भी आहार करते हैं, वे वीचि द्रव्यों का आहार करते हैं। जो नैरयिक प्रतिपूर्ण द्रव्यों का आहार करते हैं, वे अवीचि द्रव्यों का आहार करते हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- नैरयिक वीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं, अवीचि द्रव्यों का भी आहार करते हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। भाष्य १.सूत्र ७२-७३ २. नैरयिक आहार के रूप में जिन पुद्गलों का ग्रहण करते __वीचि द्रव्य और अवीचि द्रव्य का अर्थ आगम पाठ में स्वयं हैं, उनमें सर्व पुद्गलों का आहार करते हैं अथवा कुछ न्यून पुद्गलों स्पष्ट है। इसका तात्पर्यार्थ समझाने के लिए अभयदेव सूरि ने का आहार करते हैं? टीकाकार और चूर्णिकार दोनों के मत उद्धृत किए हैं। इनके उत्तर में कहा गया हैटीकाकार का मत है-जितने द्रव्य-समुदाय से आहार पूर्ण १. नैरयिक ग्रहण के बाद असंख्यातवें भाग का आहार करते होता है, उसमें एक आदि प्रदेश न्यून रहता है, उस द्रव्य-समुदाय हैं, अनंतवें भाग का आस्वाद लेते हैं। की संज्ञा वीचि द्रव्य है। परिपूर्ण द्रव्य-समुदाय की संज्ञा अवीचि द्रव्य २. नैरयिक ग्रहण के बाद अपरिशेष सर्व पुदगलों का आहार करते हैं। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या आहार-द्रव्य वर्गणा के आधार इन दोनों सूत्रों में विरोधाभास है। बाईसवें सूत्र में इस नियम पर की है। उनके अनुसार सर्वोत्कृष्ट आहार-द्रव्य वर्गणा अवीचि ___का विधान है-असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं। तेईसवें सूत्र में द्रव्य है। एक आदि प्रदेश से हीन आहार-द्रव्य वर्गणा वीचि द्रव्य हैं। इस नियम का विधान है-अपरिशेष सर्व पुद्गलों का आहार करते वर्गणा दो प्रकार की होती है-जघन्य और सर्वोत्कृष्ट। सर्वोत्कृष्ट वर्गणा में एक परमाणु का अधिक योग होने पर वह ग्रहण के अयोग्य प्रज्ञापना के टीकाकार मलयगिरि ने इस विरोधाभास का बन जाती है। संभवतः चूर्णिकार ने इन दो प्रकार की वर्गणाओं के सम्यक् समाधान प्रस्तुत किया है। उन्होंने ग्रहण को विशिष्ट आधार पर अवीचि द्रव्य और वीचि द्रव्य की व्याख्या की है। बतलाया है। उनके अनुसार नैरयिक उज्झित शेष पुद्गलों का ही प्रज्ञापना के आहार-पद में नैरयिकों के आहार का विस्तृत आहार के रूप में ग्रहण करते हैं- आहार वर्गणा के जो पुद्गल वर्णन है। इस प्रकरण में वीचि द्रव्य और अवीचि द्रव्य का कोई आहार-परिणाम योग्य हो चुके हैं उनका अपरिशेष सर्व ग्रहण करते उल्लेख नहीं है। हैं, यह अवीचि द्रव्य का आहार है। प्रज्ञापना की भाषा में यह सर्व प्रज्ञापना पद अठाईस के बाईसवें और तेईसवें सूत्र में अपरिशेष का आहार है।' नैरयिकों के आहार के संदर्भ में दो प्रश्न उपस्थित किए गए हैं वीचि द्रव्य की व्याख्या कर्म ग्रन्थ के आधार पर की जा १. नैरयिक आहार के रूप में जिन पुद्गलों का ग्रहण करते हैं, सकती है। उसके अनुसार जघन्य वर्गणा से लेकर सर्वोत्कृष्ट वर्गणा ग्रहण के बाद उनमें से कितने भाग का आहार करते हैं? कितने भाग से न्यून जो आहार है, वह वीचि द्रव्य का आहार है। का आस्वाद लेते हैं? १. भ. वृ. १४/७२-७३-वीचिः-विवक्षितद्रव्याणां तदवयवानां च परस्परेण २. कर्म ग्रंथः पांचवां भाग गाथा ७५-७६.........व्याख्या पृ. २०६-२१६ पृथग्भावः 'वीचिर् पृथग्भावे' इति वचनात् तत्र वीचिप्रधानानि द्रव्याणि ३. पण्ण. २८/१-२४,६८, १०२. वीचिद्रव्याणि एकादिप्रदेशन्यूनानीत्यर्थः एतनिषेधादवीचिद्रव्याणि। अयमत्र ४. पण्ण, वृ. प. ५०३-५०४. यान् पुद्गलान् आहारतया गृहन्ति, इह ग्रहणं भावः-यावता द्रव्यसमुदायेनाहारः पूर्यते, स एकादिप्रदेशोनो वीचिद्रव्या- विशिष्टमवसेयम्, ततो ये उज्झितशेषाः केवलाः आहारपरिणामयोग्याः युच्यते, परिपूर्णस्त्यवीचिद्रव्याणीति टीकाकारः, चूर्णिकारस्त्वाहारद्रव्य- एवावतिष्ठन्ते तेऽत्राहारतया, गृह्यमाणाः पृष्टाः द्रष्टव्याः।........तान् किं वर्गणामधिकृत्येदं व्याख्यातवान्। तत्र च याः सर्वोत्कृष्टाहारद्रव्यवर्गणास्ता सर्वानपि आहारयन्ति उत नो सर्वान् सर्वैकदेशभूतान्? भगवानाह-तान् अवीचिद्रव्याणि, यास्तु ताभ्य एकादिना प्रदेशेन हीनास्ता वीचिद्रव्याणीति। सर्वान्-अपरिशेषान् आहारयन्ति उज्झितशेषाणामेव केवलानामाहार'एगपएसऊणाइंपि दव्वाई' ति एकप्रदेशोनान्यपि अपि शब्दानेकप्रदेशो- परिणामयोग्यानां गृहीतत्वात्। नान्यपीति। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई देविंदाणं भोग-पदं ७४. जाहे णं भंते! सक्के देविंदे देवराया दिव्वाई भोग भोगाई भुंजिकामे भवइ से कहमियाणिं पकरेति ? गोयमा ! ताहे चेव णं से सक्के देविंदे देवराया एवं महं नेमिपडिरूवगं विजब्बड़ - एगं जोयणस्यसहस् आयामविक्खंभेणं, तिण्णिजोयणसयसहस्साई जाव अर्द्धगुलं च किंचि - विसेसाहियं परिक्खेवेणं । तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो । तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स बहुमज्झसभागे, एत्थ णं महं एगं पासायवडेंसगं बिउब्वइ-पंच जोयणसयाई उहूं उच्चत्तेणं, अडाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गय - मूसिय-पहसियमिव वण्णओ जाव पडिरूवं । तस्स णं पासायवडेंसगस्स उल्लोए पउमलयाभत्तिचित्ते जाव पडिरूवे । तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव मणीणं फासो, मणिपेढिया अट्टजोयणिया जहा वेमाणियाणं । तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं महं एगे देवसयणिज्जे विउब्वइ, सयणिज्जवण्णओ जाव पडिरूवे । तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं, दोहि य अणिएहिं - नट्टाणिएण य गंधव्वाणिएण य सद्धिं महयायनट्ट - गीय-वाइय-तंतीतल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडुपवाइयरवेणं दिव्वाई भोग भोगाई ॥ ७५. जाहे ईसाणे देविंदे देवराया दिव्वाई भोगभोगाई भुंजिउकामे भवइ से कहमियाणिं पकरेति ? जहा सक्के तहा ईसाणे वि निरवसेसं । एवं सकुमारे वि, नवरं - पासायवडेंसओ छ जोयणसयाई उङ्कं उच्चत्तेणं, तिण्णि जोयणसयाई विक्खंभेणं, मणिपेढिया २०७ देविंदाणं भोग-पदं यदा भदन्त ! देवेन्द्रः देवराजा दिव्यानि भोगभोगानि भोक्तुकामः भवति सः कथम् इदानीं प्रकरोति ? तस्य गौतम ! तदा सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजा एकं महान्तं नेमिप्रतिरूपकं विकरोति एकं योजनशतसहस्रम् आयामविष्कम्भेण त्रीणि योजनशतसहस्राणि यावत् अर्द्धाङ्गुलं च किञ्चिद् विशेषाधिकं परिक्षेपेण । नेमिप्रतिरूपकस्य उपरि बहुसमरमणीयः भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावत् मणीणां स्पर्शः । नेमिप्रतिरूपकस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र महान्तम् एकं प्रासादावतंसकं विकरोति पञ्चयोजनशतानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन, अर्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण, अभ्युद्गतउच्छ्रित- प्रहसितमिव वर्णकः यावत् प्रतिरूपम् । तस्य तस्य प्रासादावतंसकस्य उल्लोकः पद्मलता भक्तिचित्रः यावत् प्रतिरूपः । तस्य प्रासादावतंसकस्य अन्तर् बहुसमरमणीयः भूमिभागः यावत् मणीणां स्पर्शः । मणिपीठिका अष्टयोजनिका यथा वैमानिकानाम्। तस्या:मणिपीठिकायाः उपरि महान्तम् एकं देवशयनीयं विकरोति । शयनीयवर्णकः यावत् प्रतिरूपः । तत्र सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजा अष्टाभिः अग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः द्वाभ्यां च अनीकाभ्यां नाट्यानीकेन च गन्धर्वानीकेन च सार्धं महत् आहतनाट्य-गीत-वादित - तन्त्रीतल-ताल-तुडिय - घनमृदङ्गपटुप्रवादितवेण दिव्यानि भोगभोगानि भुञ्जानः विहरति । यदा ईशानः देवेन्द्रः देवराजा दिव्यानि भोगभोगानि भोक्तुकामः भवति सः कथम् इदानीं प्रकरोति? यथा शक्रे तथा ईशाने अपि निरवशेषम् । एवं सनत्कुमारे अपि, नवरम्-प्रासादावतंसकः षड् योजनशतानि ऊर्ध्वं उच्चत्वेन त्रीणि श. १४ : उ. ६ : सू. ७४, ७५ देवेन्द्र का भोग-पद ७४. भंते! जब देवराज देवेन्द्र शक्र दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगना चाहते हैं, वह यह कैसे करते हैं ? गौतम ! तब वे देवराज देवेन्द्र शक्र एक महान् चक्र - नाभि के प्रतिरूप का निर्माण करते हैं - एक लाख योजन लंबा-चौड़ा और उसका परिक्षेप तीन लाख यावत् साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है। उस चक्र नाभि प्रतिरूप के ऊपर बहु सम रमणीय भूमि भाग प्रज्ञप्त है यावत् मणि का स्पर्श । उस चक्र प्रतिरूप के बहुमध्य देश भाग है, वहां एक महान् प्रासादावतंसक का निर्माण करता हैऊंचाई में पांच सौ योजन उसका विस्तार ढाई सौ योजन । वह प्रासादावतंसक अपनी ऊंचाई से आकाश को छूने वाला मानो श्वेतप्रभा पटल से हंसता हुआ प्रतीत हो रहा है। इस प्रासादावतंसक के चंदोवा में पद्मलता की भांति खचित चित्र चित्रित हैं यावत् प्रतिरूप। उस प्रासादावतंसक के भीतर बहुसम रमणीय भूमि है यावत् मणि का स्पर्श । मणिपीठिका वैमानिक की भांति आठ योजन की है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक महान् देवशयनीय का निर्माण करता है, शयनीय का वर्णन यावत् प्रतिरूप। वहां देवराज देवेन्द्र शक्र सपरिवार आठ अग्रमहिषियों तथा दो अनीकों - नाट्यानीक और गंधर्वानीक के साथ आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बनाए गए वादित्र, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग की महान् ध्वनि से दिव्य भोगाई भोगों को भोगता हुआ विहरण करता है। 0 ७५. जब देवराज देवेन्द्र ईशान दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगना चाहते हैं, वह यह कैसे करते हैं ? जैसे शक्र वैसे ईशान की निरवशेष वक्तव्यता । इसी प्रकार सनत्कुमार की वक्तव्यता, इतना विशेष है- प्रासादावतंसक ऊंचाई में छह सौ योजन उसका विस्तार Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १४ : उ.६ : सू. ७६ २०८ तहेव अट्ठजोयणिया। तीसे णं मणि- योजनशतानि विष्कम्भेण, मणिपीठिका पेढियाए उरि, एत्थ णं महेगं सीहासणं तथैव अष्टयोजनिका। तस्याः च विउब्वइ, सपरिवार भाणियव्यं । तत्थ णं मणिपीठिकायाः उपरि, अत्र महान्तम् सणकुमारे देविदे देवराया बावत्तरीए एकं सिंहासनं विकरोति, सपरिवार सामाणियसाहस्सीहि जाव चउहि य भणितव्यम्। तत्र सनत्कुमारः देवेन्द्रः बावत्तरीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि य देवराजा द्वासप्ततिभिः सामानिकबहूहि सणंकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं ___ साहस्रीभिः यावत् चतुर्भिः द्वासप्ततिभिः देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे आत्मरक्षदेवसाहस्रीभिः बहभिः महयाहयनट्ट जाव विहरइ। एवं जहा सनत्कुमारकल्पवासिभिः वैमानिकैः देवैः सणंकुमारे तहा जाव पाणओ अच्चुओ, च देवीभिः च साधू सम्परिवृतः महत्नवरं-जो जस्स परिवारो सो तस्स आहतनाट्य यावत् विहरति। एवं यथा भाणियब्यो। पासायउच्चत्तं-जं सएस- सनत्कुमारः तथा यावत् प्राणतः सएसु कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं, अद्धद्धं अच्युतः, नवरम्-यः यस्य परिवारः सः वित्थारो जाव अचुयस्स नवजोयणसयाई तस्य भणितव्यः। प्रासादोचत्वम्-यत् । उई उच्चत्तेणं, अद्धपंचमाइं जोयणसयाई स्वकेषु-स्वकेषु कल्पेषु विमानानाम् विक्खंभेणं। तत्थ णं अचुए देविंदे उचत्वम्, अर्धाधु विस्तारः यावत् देवराया दसहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव अच्युतस्य नवयोजनशतानि ऊर्ध्वम् विहरइ, सेसं तं चेव॥ उच्चत्वेन, अर्द्धपञ्चानि योजनशतानि विष्कम्भेण। तत्र अच्युतः देवेन्द्रः देवराजा दशभिः सामानिकसाहसीभिः यावत् विहरति, शेषं तत् चैव। तीन सौ योजन, उसी प्रकार मणिपीठिका आठ योजन की। उस मणिपीठिका के ऊपर एक महान् सिंहासन का निर्माण करता है, परिवार सहित वक्तव्य है। देवराज देवेन्द्र सनत्कुमार बहत्तर हजार सामानिक देव यावत् दो लाख इठ्यासी हजार आत्मरक्षक देव सनत्कुमार-कल्पवासी बहुत वैमानिक देवता, देवियों के साथ संपरिवृत होकर आहत नाट्यों यावत् विहरण करता है। इस प्रकार जैसे सनत्कुमार उसी प्रकार यावत् प्राणत, अच्युत की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जो जिसका परिवार है, वह उसका वक्तव्य है। प्रासाद की ऊंचाई-अपने-अपने कल्प के विमानों की ऊंचाई, विस्तार उससे आधा यावत् अच्युत के प्रासादावतंसक की ऊंचाई नौ सौ योजन, उसका विस्तार साढ़े चार सौ योजन है। वहां देवराज देवेन्द्र अच्युत दस हजार सामानिकों के साथ यावत् विहरण करता है। शेष पूर्ववत्। भाष्य १. सूत्र ७४-७५ शब्द-विमर्श नेमि प्रतिरूपक-चक्र के आकार वाला, गोलाकार भवन।' ७६. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति ७६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। १. भ. पृ. १४/७३ नेमिः चक्रधारा तद्योगाचक्रमपि नेमिः तत्प्रतिरूपकं-वृत्ततया तत्सदृशं स्थानमिति शेषः। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद गोयमस्स आसासण-पदं ७७. रायगिहे जाव परिसा पडिगया। गौतमस्य आश्वासन-पदम् राजगृहः यावत् परिषद् प्रतिगता। गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासीचिर संसिट्ठोसि मे गोयमा! चिरसंथुओसि मे गोयमा! चिरपरिचिओसि मे गोयमा! गौतम अयि! श्रमणः भगवान् महावीरः भगवन्तं गौतमम् आमन्त्र्य एवमवादीत्चिरसंसृष्टः असि मम गौतम! चिरसंस्तुतः असि मम गौतम! चिरपरिचितः असि मम गौतम! गौतम का आश्वासन पद ७७. राजगृह नगर यावत् परिषद् वापस नगर में चली गई। अयि गौतम! श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम को आमंत्रित कर इस प्रकार कहागौतम! तुम चिर काल से मेरे संसर्ग में रहे हो। गौतम! तुम मुझसे चिर संस्तुत रहे हो। गौतम! तुम चिर काल से मुझसे परिचित रहे हो। चिरजुसिओसि मे गोयमा! चिरजुष्टः असि मम गौतम! गौतम! तुम मुझसे चिर काल से प्रीति परायण रहे हो। चिराणुगओसि मे गोयमा! चिरानुगतः असि मम गौतम! गौतम! चिरकाल से तुम मेरा अनुगमन करते रहे हो। चिराणुवत्तीसि मे गोयमा! चिरानुवृत्तिः असि मम गौतम! गौतम! तुम चिर काल से मेरा अनुवर्तन करते रहे हो। अणंतरं देवलोए अणंतरं माणुस्सए अनन्तरं देवलोके अनन्तरं मानुष्यके अनंतर (व्यवधान रहित) देवलोक में, अनंतर भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा इओ भवे, किं परं मरणात् कायस्य भेदात् मनुष्य जन्म में भी। और क्या मृत्यु के होने चुता दो वि तुल्ला एगट्ठा अविसेसम- इतः च्युतौ द्वौ अपि तुल्यौ एकार्थों पर-शरीर के छूट जाने पर यहां से च्युत णाणत्ता भविस्सामो॥ अविशेषम् अनानात्वौ भविष्यावः। होकर हम दोनों तुल्य, एकार्थक, अभिन्न ७८. जहा णं भंते! वयं एयमढे जाणामो- यथा भदन्त! आवाम् एतमर्थं जानीवः- और नानात्व से रहित होंगे। भाष्य १.सूत्र ७७ दूसरी कथा अभयदेवसूरि ने प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या में प्रस्तुत गौतम स्वामी के मन में किसी घटना विशेष के कारण विचिकित्सा की है। वह प्रामाणिक प्रतीत नहीं होती। द्रष्टव्य-उत्तरज्झयणाणि के और अधृति पैदा हो गई। इस विषय में दो कथाएं प्रचलित हैं। पहली दसवें अध्ययन का आमुख। कथा उत्तराध्ययन नियुक्ति और बृहद्वृत्ति में उपलब्ध है। पासामो, तहा णं अणुत्तरोववाइया वि पश्यावः, तथा अनुत्तरोपपातिकाः अपि ७८. भंते! जैसे हम इस अर्थ को जानते-देखते देवा एयमढे जाणंति-पासंति? देवाः एतमर्थं जानन्ति पश्यन्ति? हैं, वैसे अनुत्तरोपपातिक देव भी इस अर्थ को हंता गोयमा! जहाणं वयं एयमढे जाणामो- हन्त गौतम! यथा आवाम् एतमर्थं । जानते-देखते हैं? पासामो, तहाणं अणुत्तरोववाइया वि देवा जानीवः पश्यावः, तथा अनुत्तरोपपातिकाः हां, गौतम! जैसे हम इस अर्थ को जानतेएयमढे जाणंति-पासंति॥ अपि देवाः एतमर्थं जानन्ति-पश्यन्ति। देखते हैं, वैसे अनुत्तरोपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते-देखते हैं। ७६. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-वयं एयमढे जाणामो-पासामो, तहा णं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- आवाम् एतमर्थं जानीवः पश्यावः, तथा ७६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जैसे हम इस अर्थ को जानते-देखते हैं वैसे , Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. ७ : सू. ८०, ८१ वि देवा एयमहं अणुत्तरोववाइया जाणंति - पासंति ? गोयमा ! अणुत्तरोववाइयाणं अनंताओ मणोदव्ववग्गणाओ लगाओ पत्ताओ अभिसमण्णागयाओ भवंति से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-वयं एयमहं जाणामो- पासामो, तहा णं अणुत्तरोवाइया वि देवा एयमहं जाणंतिपासंति ॥ तुल्लय-पदं ८०. कतिविहे णं भंते! तुल्लए पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहे तुल्लए पण्णत्ते, तं जहा - दव्वतुल्लए, खेत्ततुल्लए, कालतुल्लए, भवतुल्लए, भावतुल्लए, ठाणतुल्लए॥ १. सूत्र ७८ ७६ प्रस्तुत सूत्र के 'एम' इस वाक्यांश का तात्पर्यार्थ है- हमारा वार्तालाप | महावीर और गौतम ने वार्तालाप किया। गौतम के मन में प्रश्न उठा-क्या हमारे वार्तालाप को अनुत्तरोपपातिक देव जान सकते हैं? भगवान् महावीर ने इस प्रश्न का उत्तर 'हां' में दिया । इस विषय ८१. से केणट्टेणं भंते! एवं बुचड़दव्वतुल्लए दब्बतुल्लए? गोयमा ! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दव्वओ तुल्ले, परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलवइरित्तस्स दव्वओ नो तुल्ले | दुपएसिए खंधे दुपएसियस्स खंधस्स दव्वओ तुल्ले, दुपएसिए खंधे दुपए सियवइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ नो तुल्ले । एवं जाव दसपएसिए । तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जएसियस्स खंधस्स दब्बओ तुल्ले, तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दव्वओ नो तुल्ले, एवं तुल्लअसंखेज्जपएसि वि एवं तुल्लअणतपएसए से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं 'वुच्चइ-दव्वतुल्लए दब्बतुल्लए । से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइखेत्ततुल्लए खेत्ततुल्लए? २१० अनुत्तरोपपातिकाः अपि देवाः एतमर्थं जानन्ति पश्यन्ति ? गौतम! अनुत्तरोपपातिकानाम् अनन्ताः मनोद्रव्यवर्गणाः लब्धाः प्राप्ताः अभिसमन्वागताः भवन्ति । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते - आवाम् एतमर्थं जानीवः पश्यावः, तथा अनुत्तरोपपातिकाः अपि देवाः एतमर्थं जानन्तिपश्यन्ति । भाष्य की विशद जानकारी के लिए द्रष्टव्य भगवई ५ / १०३-१०६ सूत्र तथा उसका भाष्य । तुल्यक-पदम् कतिविधः भदन्त ! तुल्यकः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! षड्विधः तुल्यकः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - द्रव्यतुल्यकः, क्षेत्रतुल्यकः, कालतुल्यकः भवतुल्यकः, भावतुल्यकः, संस्थानतुल्यकः । मानसिक स्तर पर प्रश्न और उत्तर- भवगई ५/८३-८८ । केवली के मन और वचन - भगवई ५ / १००-१०२ तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेद्रव्यतुल्यकः द्रव्यतुल्यकः ? गौतम ! भगव अनुत्तरोपपातिक देव भी इस अर्थ को जानतेदेखते हैं ? परमाणुपुद्गलः परमाणुपुद्गलस्य द्रव्यतः तुल्यः, परमाणुपुद्गलः परमाणुपुद्गलव्यतिरिक्तस्य द्रव्यतः नो तुल्यः । द्विप्रादेशिकः स्कन्धः द्विप्रादेशिकस्य स्कन्धस्य द्रव्यतः तुल्यः, द्विप्रादेशिकः स्कन्धः द्विप्रादेशिकव्यतिरिक्तस्य स्कन्धस्य द्रव्यतः नो तुल्यः । एवं यावत् दशप्रादेशिकः । तुल्यसंख्येयप्रादेशिकः स्कन्धः तुल्यसंख्येयप्रादेशिकस्य स्कन्धस्य द्रव्यतः तुल्यः, तुल्यसंख्येयप्रादेशिकः स्कन्धः तुल्यसंख्येय प्रादेशिक व्यतिरिक्तस्य स्कन्धस्य द्रव्यतः नो तुल्यः, एवं तुल्यासंख्येयप्रादेशिकः अपि एवं तुल्यानन्तप्रादेशिकः अपि । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - द्रव्यतुल्यकः द्रव्यतुल्यकः । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - क्षेत्र - तुल्यकः क्षेत्रतुल्यकः ? गौतम ! अनुत्तरोपपातिक देवों को अनंत मनोद्रव्य वर्गणाएं लब्ध प्राप्त और अभिसमन्वागत हो जाती हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जैसे हम इस अर्थ को जानते-देखते हैं, वैसे अनुत्तरोपपातिक देव भी इस अर्थ को जानते-देखते हैं। तुल्य पद ८०. भंते! कितने प्रकार के तुल्य प्रज्ञप्त है ? गौतम ! छह प्रकार के तुल्य प्रज्ञप्त है, जैसे- द्रव्य तुल्य, क्षेत्र तुल्य, काल तुल्य, भव तुल्य, भाव तुल्य, संस्थान तुल्य । ८१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - द्रव्य तुल्य द्रव्य तुल्य है? गौतम ! परमाणु-पुद्गल परमाणु- पुद्गल से द्रव्यतः तुल्य है। परमाणु- पुद्गल परमाणु पुद्गल व्यतिरिक्त से द्रव्यतः तुल्य नहीं है। द्विप्रदेशिक स्कंध द्विप्रदेशिक स्कंध से द्रव्यतः तुल्य है। द्विप्रदेशिक- स्कंध द्विप्रदेशिक व्यतिरिक्त स्कंध से द्रव्यतः तुल्य नहीं है। इसी प्रकार यावत् दस प्रदेशी की वक्तव्यता । समान संख्येय- प्रदेशी स्कंध समान संख्येय- प्रदेशी स्कंध से द्रव्यतः तुल्य है। समान संख्येय प्रदेशी स्कंध समान संख्येय- प्रदेशी व्यतिरिक्त स्कंध से तुल्य नहीं है। इसी प्रकार समान असंख्येय प्रदेशी स्कंध की भी वक्तव्यता। इसी प्रकार समान अनंत- प्रदेशी स्कंध की भी वक्तव्यता । गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैद्रव्य तुल्य द्रव्य तुल्य है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - क्षेत्र तुल्य क्षेत्र-तुल्य है ? Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गोयमा ! एगपएसोगादे पोग्गले एगपएसोगादस्स पोग्गलस्स खेत्तओतुल्ले, एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसो - • गाढवइरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तओ नो तुल्ले, एवं जाव दसपएसोगाढे । तुल्लसंखेज्ज एसोगादे पोग्गले तुल्लसंखेज्जपएसोगादस्स पोग्गलस्स खेत्तओ तुल्ले, तुल्लसंखेज्जपएसोगाढेपोग्गले तुल्लसंखेज्जपएसोगाढवइरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तओ नो तुल्ले, एवं तुल्लअसंखेज्जपएसोगाढे वि। से तेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - खेत्ततुल्लए खेततुल्लए । से केद्वेणं एवं बुच्चइ - कालतुल्लए कालतुल्लए? गोयमा ! एगसमयठितीए पोग्गले एगसमयदितीयस्स पोग्गलस्स कालओ तुल्ले, एगसमयठितीए पोग्गले एगसमयदितीयवइरित्तस्स पोग्गलस्स कालओ नो तुल्ले, एवं जाव दससमयद्वितीए, तुल्लसंखेज्जसमयद्वितीए एवं चेव, एवं तुल्लअसंखेज्जसमयद्वितीए वि। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-कालतुल्लए कालतुल्लए । सेकेणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ - भवतुल्लएभवतुल्लए? गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स भवट्टयाए तुल्ले, नेरइयवइरित्तस्स भवट्टयाए नो तुल्ले, तिरिक्खजोणिए एवं चेव, एवं मणुस्से, एवं देवे वि। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - भवतुल्लए भवतुल्लए । से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ - भावतुल्लए भावतुल्लए? गोयमा ! एगगुणकालए पोम्गले एगगुणकालगस्स पोग्गलस्स भावओ तुल्ले, एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालावइरित्तस्स पोग्गलस्स भावओ नो तुल्ले, एवं जाब दसगुणकालए, एवं तुल्लसंखेज्जगुणकालए पोग्गले, एवं २११ गौतम ! एकप्रदेशावगाढः पुद्गलः एकप्रदेशावगाढस्य पुद्गलस्य क्षेत्रतः तुल्यः, एकप्रदेशावगाढः पुद्गलः एकप्रदेशावगाढव्यतिरिक्तस्य पुद्गलस्य क्षेत्रतः नो तुल्यः, एवं यावत् दशप्रदेशावगाढः । तुल्यसंख्येयप्रदेशावगाढः पुद्गलः तुल्यसंख्येयप्रदेशावगाढस्य पुद्गलस्य क्षेत्रतः तुल्यः, तुल्यसंख्येयप्रदेशावगाढः पुद्गलः तुल्यसंख्येयप्रदेशावगाढव्यतिरिक्तस्य पुद्गलस्य क्षेत्रतः नो तुल्यः, एवं तुल्यासंख्येयप्रदेशावगाढः अपि । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - क्षेत्रतुल्यकः क्षेत्रतुल्यकः । तत् केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यतेकालतुल्यकः कालतुल्यकः ? गौतम ! एकसमयस्थितिकः पुद्गलः एक समयस्थितिकस्य पुद्गलस्य कालतः तुल्यः, एकसमयस्थितिकः पुद्गलः एकसमयस्थितिकव्यतिरिक्तस्य पुद्गलस्य कालतः नो तुल्यः एवं यावत् दशसमयस्थितिकः, तुल्यसंख्येयसमयस्थितिकः एवं चैव एवं तुल्यासंख्येयसमयस्थितिकः अपि । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते कालतुल्यकः कालतुल्यकः । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेभवतुल्यकः भवतुल्यकः ? गौतम ! नैरयिकः नैरयिकस्य भवार्थतया तुल्यः, नैरयिकव्यतिरिक्तस्य भवार्थतया नो तुल्यः, तिर्यग्योनिकः एवं चैव, एवं मनुष्यः एवं देवः अपि । तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते भवतुल्यकः भव - तुल्यकः । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-भावतुल्यकः भावतुल्यकः ? गौतम ! एकगुणकालकः पुद्गलः एकगुणकालकस्य पुद्गलस्य भावतः तुल्यः, एकगुणकालकः पुद्गलः एकगुणकालकव्यतिरिक्तस्य पुद्गलस्य भावतः नो तुल्यः, एवं यावत् दशगुणकालकः एवं तुल्यसंख्येयगुणकालकः श. १४ : उ. ७ : सू. ८१ गौतम ! एक प्रदेशावगाढ पुद्गल एक प्रदेशावगाढ पुद्गल से क्षेत्रतः तुल्य है। एक प्रदेशावगाढ पुद्गल एक प्रदेशावगाढ व्यतिरिक्त पुद्गल से क्षेत्रतः तुल्य नहीं है। इसी प्रकार यावत् दस प्रदेशावगाढ की वक्तव्यता । समान संख्येय- प्रदेशावगाढ पुद्गल समान संख्येय- प्रदेशावगाढ पुद्गल से क्षेत्रतः तुल्य है । समान संख्येय- प्रदेशावगाढ पुद्गल समान संख्येय- प्रदेशावगाढ व्यक्तिरिक्त पुद्गल से क्षेत्रतः तुल्य नहीं है। इसी प्रकार समान असंख्येय- प्रदेशावगाढ की वक्तव्यता । गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- क्षेत्र तुल्य क्षेत्र तुल्य है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - काल तुल्य काल तुल्य है ? गौतम! एक समय की स्थिति वाला पुद्गल एक समय की स्थिति वाले पुद्गल से कालतः तुल्य है। एक समय की स्थिति वाला पुद्गल एक समय की स्थिति से व्यतिरिक्त पुद्गल से कालतः तुल्य नहीं है । इसी प्रकार यावत् दस समय की स्थिति वाले इसी प्रकार समान संख्येय समय की स्थिति वाले, इसी प्रकार समान असंख्येय समय की स्थिति वाले पुद्गल की वक्तव्यता । गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-काल तुल्य काल-तुल्य है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है भव तुल्य भव तुल्य है। गौतम! नैरयिक नैरयिक से भव की अपेक्षा तुल्य है, नैरयिक-व्यतिरिक्त से भव की अपेक्षा तुल्य नहीं है। इसी प्रकार तिर्यक् योनिक की, इसी प्रकार मनुष्य की, इसी प्रकार देव की वक्तव्यता । गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-भव तुल्य भव तुल्य है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है भाव तुल्य भाव तुल्य है ? गौतम! एक गुण कृष्ण पुद्गल एक गुण कृष्ण पुद्गल से भावतः तुल्य है। एक गुण कृष्ण पुद्गल एक गुण कृष्ण व्यतिरिक्त पुद्गल से भावतः तुल्य नहीं है। इसी प्रकार यावत् दस गुण कृष्ण की, इसी प्रकार समान संख्येय गुण कृष्ण की, इसी प्रकार समान असंख्येय Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. ७ : सू. ८१ २१२ भगवई तुल्लअसंखेज्जगुणकालए वि, एवं पुद्गलः, एवं तुल्यासंख्येयगुणकालकः गुण कृष्ण की वक्तव्यता, इसी प्रकार समान तुल्लअणंतगुणकालए वि। अपि, एवं तुल्यानन्तगुणकालकः अपि। अनंत गुण कृष्ण की वक्तव्यता। जहा कालए, एवं नीलए, लोहियए, यथा कालकः, एवं नीलकः, लोहितकः, कृष्ण की भांति नील, लोहित, हारिद्र और हालिद्दए, सुक्किलए। एवं सुब्भिगंधे, एवं हारिद्रकः, शुक्लकः। एवं सुगन्धः, शुक्ल की वक्तव्यता। इसी प्रकार सुगंध और दुभिगंधे। एवं तित्ते जाव महरे। एवं एवं दुर्गन्धः । एवं तिक्तः यावत् मधुरः । दुर्गन्ध की वक्तव्यता। इसी प्रकार तिक्त कक्खडे जाव लुक्खे। ओदइए भावे एवं कक्खटः यावत् रुक्षः । औदयिकः यावत् मधुर रस की वक्तव्यता। इसी प्रकार ओदइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले, भावः औदयिकस्य भावस्य भावतः कर्कश यावत् रूक्ष स्पर्श की वक्तव्यता। ओदइए भावे ओदइयभाववइरित्तस्स तुल्यः, औदयिक: भावः औदयिक- औदयिक भाव औदयिक भाव से भावतः भावस्स भावओ नो तुल्ले, एवं भावव्यतिरिक्तस्य भावस्य भावतः नो । तुल्य है। औदयिक भाव औदयिक ओवसमिए, खइए, खओवसमिए, तुल्यः, एवम् औपशमिकः, क्षायिकः, व्यतिरिक्त भाव से भावतः तुल्य नहीं है। पारिणामिए। सन्निवाइए भावे सन्नि- क्षायोपशमिकः, पारिणामिकः इसी प्रकार औपशमिक, क्षायिक, वाइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले, सान्निपातिकः भावः सान्निपातिकस्य क्षायोपशमिक और पारिणामिक भाव की सन्निवाइए भावे सन्निवाइयभाव- भावस्य भावतः तुल्यः, सान्निपातिकः वक्तव्यता। सांनिपातिक भाव सांनिपातिक वइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले। भावः सान्निपातिकभावव्यतिरिक्तस्य भाव से भावतः तुल्य है, सांनिपातिक भाव भावस्य भावतः नो तुल्यः। सांनिपातिक व्यतिरिक्त भाव से भावतः तुल्य नहीं है। से तेणटेणं गोयमा! एवं बुचइ- तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-भाव- गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है भावतुल्लए भावतुल्लए। तुल्यकः भावतुल्यकः। भाव-तुल्य भाव-तुल्य है। से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा संठाणतुल्लए संठाणतुल्लए? संस्थानतुल्यकः संस्थानतुल्यकः? है-संस्थान तुल्य संस्थान तुल्य है। गोयमा! परिमंडले संठाणे परिमंडलस्स गौतम! परिमंडलसंस्थानं परिमंडल- गौतम! परिमंडल संस्थान परिमंडल संस्थान संटाणस्स संठाणओ तुल्ले, परिमंडले संस्थानव्यतिरिक्तस्य संस्थानस्य से संस्थानतः तुल्य है। परिमंडल संस्थान संठाणे परिमंडलसंठाणवइरित्तस्स संस्थानतः तुल्यम्, परिमण्डल- परिमंडल संस्थान व्यतिरिक्त संस्थान से संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले, एवं बट्टे, संस्थानं-परिमण्डलसंस्थानव्यति- संस्थानतः तुल्य नहीं है। इसी प्रकार वृत्त, तसे, चउरंसे, आयए। समचउरंससंठाणे रिक्तस्य संस्थानस्य संस्थानतः नो चतुरस्र, आयत की वक्तव्यता। समचतुरस समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्यम्, एवं वृत्तः, त्र्यसः, चतुरस्रः, संस्थान समचतुरस्त्र संस्थान से संस्थानतः तल्ले, समचउरंसे संठाणे समचउ- आयतः। समचतुरस्रसंस्थानं समचतु- तुल्य है। समचतुरस्र संस्थान समचतुरस्र रंससंटाणवइरित्तस्स संठाणस्स संटाणओ रसस्य संस्थानस्य संस्थानतः तुल्यम्, व्यतिरिक्त संस्थान से संस्थानतः तुल्य नहीं नो तुल्ले एवं परिमंडले वि, एवं साई एवं परिमंडलः अपि। एवं सादिः, है। इसी प्रकार परिमंडल संस्थान की खुज्जे वामणे हंडे। से तेणटेणं गोयमा! कुब्जः, वामनः, हुण्डः। तत् तेनार्थेन वक्तव्यता। इसी प्रकार सादि, कुब्ज, वामन एवं बुचइ-संठाणतुल्लए संठाणतुल्लए। गौतम! एवमुच्यते-संस्थानतुल्यक:- और हुंड संस्थान की वक्तव्यता। गौतम! इस संस्थानतुल्यकः। अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-संस्थान तुल्य संस्थान तुल्य है। भाष्य १.सूत्र८०-८१ पुद्गल से काल की दृष्टि से तुल्य है। यह काल तुल्य का निदर्शन है। अनेकांत दर्शन के आधार पर यह कहा जा सकता है- एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से भव की दृष्टि से तुल्य है। यह भव प्रत्येक वस्तु में सदृशता और विसदृशता का गुण-धर्म विद्यमान है। तुल्य का निदर्शन है।। प्रस्तुत आलापक में सदृशता और विसदृशता की छह दृष्टियों से एक गुण काला पुद्गल एक गुण काले पुद्गल से तुल्य है। औदयिक विचारणा की गई है। प्रस्तुत प्रकरण में द्रव्य का अर्थ है व्यक्ति। भाव औदयिक भाव से तुल्य है। यह भाव तुल्य का निदर्शन है। इसका निदर्शन है-एक परमाणु दूसरे परमाणु से द्रव्य की दृष्टि से परिमंडल संस्थान परिमंडल संस्थान से तुल्य है। यह संस्थान तुल्य है। इसी प्रकार द्विप्रदेशी स्कंध द्विप्रदेशी स्कंध से द्रव्य की दृष्टि तुल्य का निदर्शन है! से तुल्य है। समचतुरस्र संस्थान आदि के लिए द्रष्टव्य ठाणं ६/३१ का एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल एक प्रदेशावगाढ़ पुद्गल से क्षेत्र की टिप्पण। अणुओगद्दाराई सूत्र २३४-२३५ का टिप्पण। दृष्टि से तुल्य है। यह क्षेत्र तुल्य का निदर्शन है। __ भाव के लिए भगवई १७/१६-१७ का भाष्य, ठाणं ६/१२४ का एक समय की स्थिति वाला पुद्गल एक समय की स्थिति वाले टिप्पण तथा अणुआगद्दाराई सूत्र २७१-२८७ का टिप्पण। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भत्तपच्चक्वायरस आहार- पदं ८२. भत्तपच्चक्खायए णं भंते! अणगारे मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए कालं करे, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगदिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति ? हंता गोयमा ! भत्तपचक्खायए णं अणगारे मुच्छिए गिद्धे गढ़िए अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति ॥ ८३. से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइभत्तपच्चक्खायए णं अणगारे मुच्छिए गिद्धे गढ़िए अज्झोववन्ने आहारमाहारेति, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगदिए अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति ? भत्तपच्चक्रवायए ण गोयमा ! अणगारे मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने आहारे भवइ, अहे णं वीससाए कालं करेइ, तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने आहारे भवइ । से णणं आहारमाहारेति ॥ गोयमा ! जाव २१३ भक्तप्रत्याख्यातस्य आहार-पदम् भक्तप्रत्याख्यातकः भदन्त ! अनगारः मूर्च्छितः गृद्धः ग्रथितः अध्युपपन्नः आहारम् आहरति, अथ विस्रसया कालं करोति, ततः पश्चात् अमूर्च्छितः अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्नः आहारम् आहरति? भक्तप्रत्याख्यातकः हन्त गौतम ! अनगारः मूर्च्छितः गृद्धः ग्रथितः अध्युपपन्नः आहारम् आहरति, अथ विससया कालं करोति, ततः पश्चात् अमूर्च्छितः, अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्नः आहारम् आहरति । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेभक्तप्रत्याख्यातकः अनगारः मूर्च्छितः गृद्धः ग्रथितः अध्युपपन्नः आहारम् आहरति, अथ विस्रसया कालं करोति, ततः पश्चात् अमूर्च्छितः अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्नः आहारम् आहरति ? गौतम ! भक्तप्रत्याख्यातकः अनगारः मूर्च्छितः गृद्धः ग्रथितः अध्युपपन्नः आहारकः भवति, अथ विस्रसया कालं करोति, ततः पश्चात् अमूर्च्छितः अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्नः आहारकः भवति । तत् तेनार्थेन गौतम! यावत् आहारम् आहरति । १. सूत्र ८२-८३ अभयदेवसूरि ने इस आलापक के विषय में अपनी ओर से संक्षिप्त सी टिप्पणी की है। उसका आशय यह है- गौतम ने प्रश्न पूछा, भगवान् महावीर ने उसका अभ्युपगम किया और कहा- किसी-किसी भक्त प्रत्याख्यान करने वाले व्यक्ति में ऐसा हो सकता है। ' भाष्य जयाचार्य ने वृत्तिकार के मत का अनुसरण किया है। इस पर अपनी ओर से कोई टिप्पणी नहीं की। प्रस्तुत आलापक विमर्शनीय है। विमर्श का पहला बिन्दु यह है - इस आलापक का प्रतिपाद्य क्या है? यह प्रश्न उपस्थित कर गौतम क्या जानना चाहते हैं? यह स्पष्ट नहीं है। १. भ. वृ. १४ / ८२ - अत्रोत्तरं - हंता गोयमा ! इत्यादि, अनेन तु प्रश्नार्थ एव अभ्युपगतः कस्यापि भक्तप्रत्याख्यातुरेवंभूतभावस्य सद्भावादिति । श. १४ : उ. ७ : सू. ८२, ८३ भक्त प्रत्याख्यात का आहार पद ८२. भंते! भक्त प्रत्याख्यान करने वाला अनगार मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त होकर आहार करता है। उसके पश्चात् वह स्वभाव से काल करता है-मारणान्तिक समुद्घात करता है। उसके पश्चात् वह अमूर्च्छित, अगृद्ध, अग्रथित और अनासक्त होकर आहार करता है ? हां गौतम ! भक्त प्रत्याख्यान करने वाला अनगर मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त होकर आहार करता है। उसके पश्चात् वह स्वभाव से काल करता है, उसके पश्चात् अमूर्च्छित, अगृद्ध, अग्रथित, अनासक्त होकर आहार करता है। ५३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - भक्त प्रत्याख्यान करने वाला अनगार मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त होकर आहार करता है। उसके पश्चात् वह स्वभाव से काल करता है। उसके पश्चात् वह अमूर्च्छित, अगृद्ध, अग्रथित और अनासक्त होकर आहार करता है ? गौतम ! भक्त प्रत्याख्यान करने वाला अगर मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और आसक्त होकर आहार करता है। उसके पश्चात् वह स्वभाव से काल करता है, उसके पश्चात् वह अमूर्च्छित अगृद्ध, अग्रथित और अनासक्त होकर आहार करता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- यावत् आहार करता है। गौतम ने केवल स्थिति का निरूपण किया, इतना ही पर्याप्त है अथवा अनशन के बाद आहार करना उचित है या अनुचित, यह प्रतिपाद्य है? यदि स्थिति का निरूपण मात्र है तो भगवान् महावीर के उत्तर से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसा हो सकता है। इससे अधिक कोई प्रतिपाद्य प्रतीत नहीं होता। विमर्श का दूसरा बिन्दु यह है - मारणान्तिक समुद्घात के लिए 'बीससाए कालं करेड' का प्रयोग क्यों किया गया? वृत्तिकार ने 'बीससाए कालं करे' का अर्थ मारणान्तिक समुद्घात क्यों किया? विमर्श का तीसरा बिन्दु यह है - क्या अनशन करने वाला आहार २. भ. जो. ढा. २६२. गाथा १-१३ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ.७: सू. ८४-८७ २१४ भगवई कर सकता है? यदि कर सकता है तो क्या वह मुनि अवस्था में रह हैं। आगम के व्याख्या काल में यह मान्य रहा है कि अनशन काल में सकता है? यदि रह सकता है तो उसके लिए कोई प्रायश्चित्त का यदि असमाधि उत्पन्न हो तो वह आहार कर सकता है। क्या प्रस्तुत विधान है? आलापक में उसकी प्रतिध्वनि है? प्रस्तुत आलापक के अध्ययन से उठने वाले ये सारे प्रश्न अनुत्तरित लवसत्तम देव-पदं लवसप्तमदेव-पदम् लव सप्तम देव पद ८४. अत्यि णं भंते! लवसत्तमा देवा, अस्ति भदन्त! लवसप्तमाः देवाः, ८४. भंते! लवसप्तम देव लवसप्तम देव हैं? लवसत्तमा देवा? लवसप्तमाः देवाः? हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। हां, हैं। २५. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा? लवसप्तमाः देवाः-लवसप्तमाः देवाः? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे गौतम! अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः जाव निउणसिप्पोवगए सालीण वा, तरुणः यावत् निपुणशिल्पोपगतः वीहीण वा, गोधूमाण वा, जवाण वा, शालीनां वा, व्रीहीनां वा, गोधूमानां वा, हरियाणं, हरियकंडाणं तिक्खणं परिजातानाम्, हरितानाम्, हरितकांडानां नवपज्जणएणं असिअएणं पडिसाहरिया- तीक्ष्णेण नवपायनकेन 'असिअएणं' पडिसाहरिया पडिसंखिविया-पडिसंखिविया (दे.) प्रतिसंहृत्य-प्रतिसंहृत्य प्रतिजाव इणामेव-इणामेव त्ति कट्ट सत्त लवे संक्षिप्य प्रतिसंक्षिप्य यावत् इदमेवलएज्जा, जदि णं गोयमा! तेसिं देवाणं इदमेव इति कृत्वा सप्त लवान् लुनीयात्, एवतियं कालं आउए पहुप्पते तो णं ते यदि गौतम! तेषां देवानाम् एतावत् देवा तेणं च भवम्गहणेणं सिझंता कालम् आयुष्कं प्राभविष्यन् तदा ते देवाः बुझंता मुचंता परिनिव्वायंता सव्व- तेन चैव भवग्रहणे न असेत्स्यन् दुक्खाणं अंतं करेंता। से तेणट्ठणं 'बुज्झंता' अमोक्ष्यन् परिनिरवापयिष्यन् गोयमा! एवं बुचइ-लवसत्तमा देवा सर्वदुःखानाम् अंतम् अकरिष्यन्। तत् लवसत्तमा देवा॥ तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-लवसप्तमाः देवाः लवसप्तमाः देवाः। ८५. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-लवसप्तम देव लवसप्तम देव हैं? गौतम! जैसे कोई पुरुष तरुण यावत् सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है। पक्व करने योग्य अवस्था को प्राप्त, परिजात, हरित, हरित कांड वाले, तीक्ष्ण की हुई दांती से विकीर्ण नाल वाले, शाली, व्रीही, गेहूं, यव अथवा यवयव को इकट्ठा कर, मुट्ठी में पकड़कर यावत् अभी अभी ऐसा प्रदर्शित कर चिमुटी बजाने जितने समय में सात लवों को काट देता है, सात लवों को काटने में जितना समय लगता है यदि गौतम! उतने समय तक यदि साधु का जीवन और रह जाता तो वे देव उसी जन्म में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत हो जाते, सब दुःखों का अन्त कर देते। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-लवसप्तम देव लवसप्तम देव हैं। अणुत्तरोबवाइयदेव-पदं १६. अत्थि णं भंते! अणुत्तरोववाइया देवा अणुत्तरोववाइया देवा? हंता अस्थि॥ अनुत्तरोपपातिकदेव-पदम् अनुत्तरोपपातिक देव पद अस्ति भदन्त! अनुत्तरोपपातिकाः देवाः ८६. भंते! अनुत्तरोपपातिक देव अनुत्तरोपअनुत्तरोपपातिकाः देवाः? पातिक देव हैं? हन्त अस्ति। हां, हैं। ८७. से केणटेणं भंते! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ८७. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा अणुत्तरोबवाइया देवा अणुत्तरो- अनुत्तरोपपातिकाः देवाः अनुत्तरोप- है-अनुत्तरोपपातिक देव अनुत्तरोपपातिक देव ववाइया देवा? पातिकाः देवाः? हैं? गोयमा! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं गौतम! अनुत्तरोपपातिकानां देवानाम् गौतम! अनुत्तरोपपातिक देव अनुत्तर शब्द, अणुत्तरा सदा, अणुत्तरा रूवा, अणुत्तरा अनुत्तराः शब्दाः, अनुत्तराः रूपाः, अनुत्तर रूप, अनुत्तर गंध, अनुत्तर रस और गंधा, अणुत्तरा रसा, अणुत्तरा फासा। ___ अनुत्तराः गन्धाः, अनुत्तराः रसाः, अनुत्तर स्पर्श वाले होते हैं। गौतम! इस से तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चइ- अनुत्तराः स्पर्शाः । तत् तेनार्थेन गौतम! अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैअणुत्तरोववाइया देवा अणुत्तरोववाइया एवमुच्यते-अनुत्तरोपपातिकाः देवाः अनुत्तरोपपातिक देव अनुत्तरोपपातिक देव हैं। अनुत्तरोपपातिकाः देवाः। १. (क) व्य. सू. पी. चतुर्थः विभाग पृ. ४५ । जदि वा न निब्बहेज्जा, असमाधी वा से तम्मि गच्छम्मि। (ख) व्य. भा. २/११७ करणिज्जंऽणत्वगते, वबहारो पच्छ सुद्धो धा॥ देवा॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ८८. अणुत्तरोववाइया णं भंते! देवा केवतिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोव वाइयदेवत्ताए उववन्ना? गोयमा ! जावतियं छट्टभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववन्ना ॥ २१५ अनुत्तरोपपातिकाः भदन्त ! देवाः कियता कर्मावशेषेण अनुत्तरोपपातिकदेवत्वेन उपपन्नाः ? १. भ. ५/१०७ । २. भ. ६ / १६ । गौतम! यावत् षष्ठभक्तिकः श्रमणः निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्णाति एतावता कर्मावशेषेण अनुत्तरोपपातिकदेवत्वेन उपपन्नाः । १. सूत्र ८४-८८ लव सप्तम देव-यदि सात लव जितना आयुष्य और होता तो वह मुक्त हो जाता किंतु इतने आयुष्य के अभाव में वह साधु मर कर लव सप्तम देव बनता है। भाष्य अनुत्तरोपपातिक देव-यदि बेले (दो उपवास) जितना आयुष्य और होता तो वह मुक्त हो जाता किंतु उसके अभाव में वह साधु मर कर अनुत्तरोपपातिक देव बनता है। इन दोनों प्रसंगों में एक प्रश्न उपस्थित होता है- संसारी जीव कर्म के आधार पर ही संसार में टिक पाता है। उक्त दोनों प्रकार के देवों के कर्म अत्यल्प शेष रहते हैं फिर वे तैतीस सागरोपम तक तथा वहां से च्युत हो मनुष्य की आयु तक कैसे संसार में रह सकते हैं? अनुत्तरोपपातिक देवों को अनुत्तर शब्द आदि विषय प्राप्त होते ८६. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ ३. त. सू. भा. वृ. ४/२७ - सर्वे चानुत्तरोपपातिनः किल देवाः प्रतनुकर्माणो भवन्तीति । हैं। वे उन विषयों का अनासक्त भाव से उपभोग करते हैं। उनका मोह उपशान्त होता है' इसलिए उनके गाढ़ कर्मों का बंध नहीं होता । अनुत्तरोपपातिक देवों को अल्प वेदना और अल्प निर्जरा वाला बतलाया गया है ।' सिद्धसेन गणि के अनुसार अनुत्तरोपपातिक प्रतनुकर्मा होते हैं।' उक्त आधारों पर सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है- अनुत्तरोपपातिक देवों के घात्य कर्म प्रतनु होते हैं। मुख्यतः भवोपग्राही कर्मों का बंध होता रहता है। उन्हीं के आधार पर संसार में टिके रहते हैं। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । श. १४ : उ. ७ : सू. ८८,८६ ८८. भंते! अनुत्तरोपपातिक देव कितने कर्म अवशेष रहने पर अनुत्तरोपपातिक देव के रूप में उपपन्न हुए ? गौतम ! श्रमण निर्ग्रथ एक बेले (दो दिन के तप) में जितने कर्मों की निर्जरा करता है, इतने कर्मों के अवशेष रहने पर यदि आयुष्य पूरा हो जाए तो वे श्रमण निर्ग्रथ अनुत्तरोपपातिक देव के रूप में उपपन्न होते हैं। इस विषय में पातंजल योग दर्शन का 'भवप्रत्ययो विदेहप्रकृति लयाना' - इस सूत्र का भाष्य और व्याख्या * तथा पातंजल योग दर्शन का ३ / २६ का भाष्य द्रष्टव्य है । लवसप्तम देवों की स्थिति सर्वोत्कृष्ट बतलाई गई है।' ८६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। ४. पा. यो. द. १/११ | ५. पा. यो. द. पृ. ३१६-२१। ६. सू. १ / ६ / २४ तथा उसका टिप्पण । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसो : आठवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद अबाहाए अंतर-पदं १०. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाए य पुढवीए केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते॥ अबाधया अन्तर-पदम् अबाधा अंतर पद अस्याः भदन्त! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ६०. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराप्रभा शर्कराप्रभायाः च पृथिव्याः कियत् पृथ्वी के मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्? गौतम! असंख्येयानि योजनसहस्राणि गौतम! असंख्येय हजार योजन अबाधा अंतर अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्। प्रज्ञप्त है। भाष्य १. सूत्र १० किया है। असंख्येय हजार योजन-इस प्रसंग में वृत्तिकार के अनुसार प्रमाणांगुल के लिए द्रष्टव्य अणुओगद्दाराइं सूत्र ३८६ का प्रमाणांगुल योजन निर्दिष्ट है।' जयाचार्य ने वृत्तिकार का मत स्वीकार टिप्पण। १. भंते! शर्कराप्रभा पृथ्वी और वालुकाप्रभा पृथ्वी के मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त ११. सक्करपभाए णं भंते! पुढवीए शर्कराप्रभायाः भदन्त! पृथिव्याः वालुयप्पभाए य पुढवीए केवतिए अबाहाए वालुकाप्रभायाः च पृथिव्याः कियत् अंतरे पण्णत्ते? अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्? एवं चेव। एवं जाव तमाए अहेसत्तमाए एवं चैव। एवं यावत् तमायाः । य॥ अधःसप्तम्याः च। पूर्ववत्। इस प्रकार यावत् तमा और अधः सप्तमी के मध्य अबाधा अंतर की वक्तव्यता। ६२. अहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए अलोगस्स य केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते॥ अधःसप्तम्याः भदन्त! पृथिव्याः १२. भंते! अधःसप्तमी पृथ्वी और अलोक के अलोकस्य च कियत् अबाधया अन्तरं मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त है? प्रज्ञप्तम्? गौतम! असंख्येयानि योजनसहस्राणि गौतम! असंख्येय हजार योजन अबाधा अंतर अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्। प्रज्ञप्त है। १३. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए जोतिसस्स य केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा ! सत्तनउए जोयणसए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते॥ अस्याः भदन्त! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ६३. भंते! रत्नप्रभा पृथ्वी और ज्योतिष्क के ज्योतिषः च कियत् अबाधया अन्तरं मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त है? प्रज्ञप्तम् ? गौतम! सप्तनवतिः योजनशतम गौतम! सात सौ नब्बे योजन का अबाधा अंतर अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्। प्रज्ञप्त है। ६४. जोतिसस्स णं भंते ! सोहम्मीसाणाण ज्योतिषः भदन्त! सौधर्मेशानानां च ६४. भंते! ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान कल्प य कप्पाणं केवतिए अबाहाए अंतरे कल्पानां कियत् अबाधया अन्तरं के मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त है? पण्णत्ते? प्रज्ञप्तम्? १. भ. वृ. १४/६० इह योजनं प्रायः प्रमाणांगुलनिष्पन्नं ग्राह्यं नगपुढविविमाणाई २. भ. जो. ढा. ३००/११। मिणसु पमाणंगुलेणं तु। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. ८ : सू. ६५-१०० भगवई २१७ गोयमा! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई ___ गौतम! असंख्येयानि योजनसहस्राणि अबाहाए अंतरे पण्णत्ते॥ अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्। गौतम! असंख्येय हजार योजन का अबाधा अंतर प्रज्ञप्त है। ६५. सोहम्मीसाणाणं भंते! सणंकुमार- सौधर्मेशानानां भदन्त! सनत्कुमार- माहिंदाण य केवतिए अबाहाए अंतरे माहेन्द्राणां च कियत् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्? एवं चेव॥ एवं चैव। ९५. भंते! सौधर्म-ईशान और सनत्कुमारमाहेन्द्र के मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त है? पूर्ववत्। पण्णत्ते? १६. भंते! सनत्कुमार-माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प के मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त ६६. सणंकुमार-माहिंदाणं भंते! बंभ- सनत्कुमार-माहेन्द्राणां भदन्त! लोगस्स कप्पस्स य केवतिए अबाहाए ब्रह्मलोकस्य कल्पस्य च कियत् अंतरे पण्णत्ते? अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्? एवं चेव॥ एवं चैव। पूर्ववत्। १७. बंभलोगस्स णं भंते! लंतगस्स य ब्रह्मलोकस्य च भदन्त ! लान्तकस्य च ६७. भंते! ब्रह्मलोक और लांतक कल्प के मध्य कप्पस्स केवतिए अवाहाए अंतरे कल्पस्य कियत् अबाधया अन्तरं कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त है ? पण्णत्ते? प्रज्ञप्तम् ? एवं चेव॥ एवं चैव। पूर्ववत्। १८. भंते! लांतक और महाशुक्र कल्प के मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त है? ६८. लंतयस्स णं भंते! महासुक्कस्स य लान्तकस्य भदन्त! महाशुक्रस्य च कप्पस्स केवतिए अबाहाए अंतरे कल्पस्य कियत् अबाधया अन्तरं पण्णत्ते? प्रज्ञप्तम्? एवं चेव। एवं महासुक्कस्स कप्पस्स एवं चैव। एवं महाशुक्रस्य कल्पस्य सहस्सारस्स य, एवं सहस्सारस्स सहसारस्य च, एवं सहस्रारस्य आनतआणयपाणयाण य कप्पाणं, एवं प्राणतानां च कल्पानाम्, एवं आनत- आणयपाणयाणं आरणचुयाण य प्राणतानाम्, आरणाच्युतानां च कप्पाणं, एवं आरणचुयाणं कल्पानाम् एवम् आरणाच्युतानां गेवेज्जविमाणाण य, एवं गेवेज्ज- ग्रैवेयकविमानानां च, एवं ग्रैवेयकविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य॥ विमानानाम् अनुत्तरविमानानां च। पूर्ववत्। इसी प्रकार महाशुक्र कल्प और सहस्रार के मध्य, इसी प्रकार सहसार और आनतप्राणत कल्प के मध्य, इसी प्रकार आनतप्राणत और आरण-अच्युत कल्प के मध्य, इसी प्रकार आरण-अच्युत और ग्रैवेयक विमान के मध्य, इसी प्रकार ग्रैवेयक विमान और अनुत्तर विमान के मध्य अबाधा अंतर की वक्तव्यता। ६६. भंते! अनुत्तर विमान और ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त पचार १६. अणुत्तरविमाणाणं भंते! ईसिंपन्भा- राए य पुढवीए केवतिए अबाहाए अंतरे पण्णते? गोयमा! दुवालस जोयणे अबाहाए अंतरे पण्णत्ते॥ अनुत्तरविमानानां भदन्त! ईषत्- प्राग्भारायाः पृथिव्याः कियत् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! द्वादशयोजनम् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्। गौतम ! बारह योजन अवाधा अंतर प्रज्ञप्त है। १००. ईसिंपन्भाराए णं भंते! पुढवीए ईषत्प्राग्भारायाः भदन्त! पृथिव्याः १००. भंते! ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी और अलोक अलोगस्स य केवतिए अबाहाए अंतरे अलोकस्य च कियत् अबाधया अन्तरं के मध्य कितना अबाधा अंतर प्रज्ञप्त है? पण्णते? प्रज्ञप्तम्? गोयमा? देसूर्ण जोयणं अवाहाए अंतरे ___ गौतम! देशोनं योजनम् अबाधया गौतम! एक योजन से कुछ न्यून अबाधा अंतर पण्णत्ते॥ अन्तरं प्रज्ञप्तम्। भाष्य १. सूत्र १०० ईषत् प्राग्भारा के संदर्भ में उत्सेध अंगुल का निर्देश किया गया है।' १. भ. वृ. १४/१०० प्रज्ञप्त है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ ८ : सू. १०१-१०५ रुक्खाणं पुणब्भव-पदं १०१. एस णं भंते! सालरुक्खे उण्हाभिहए तहाभिहए दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! इहेब रायगिहे नगरे सालरुक्खत्ताए पच्चायाहिती। से णं तत्थ अच्चिय-बंदिय-पूइय-सक्कारियसम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ ॥ १०२. से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति ॥ १०३. एस णं भंते! साललट्ठिया उहाभिहया तहाभिहया दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! इहेब जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरिषायमूले महेसरिए नगरीए सामलिरुक्खत्ताए पच्चायाहिति । से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय-पूइय-सक्कारियसम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सः ॥ १०४. से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति ॥ १०५. एस णं भंते! उंबरलट्ठिया उहाभिया तहाभिहया दवग्गिजालाभिया कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! इव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पालिपुत् नगरे पाडलिरुक्खत्ताए २१८ रुक्षाणां पुनर्भव-पदम् एषः भदन्त ! शालरुक्षः उष्णाभिहतः तृष्णाभिहतः दवाग्निज्वालाभिहतः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते ? गौतम ! इहैव राजगृहे नगरे शालरुक्षत्वेन प्रत्याजनिष्यति । सः तत्र अर्चित-वन्दित-पूजित-सत्कृतसम्मानितः दिव्यः सत्यः सत्यावपातः सन्निहित प्रातिहार्यः लाउल्लोइयमहिए चापि भविष्यति । स भदन्त ! तस्मात् (तओहिंतो ) अनन्तरम् उद्वर्त्य कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति । एषा भदन्त ! शालयष्टिका उष्णाभिहता तृष्णाभि दवाग्निज्वालाभिहता कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते ? गौतम! इहैव जम्बुद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले महेश्वर्यां नगर्यां शाल्मलिवृक्षत्वेन प्रत्याजनिष्यति । सः तत्र अर्चित-वन्दित-पूजित-सत्कृतसम्मानितः दिव्यः सत्यः सत्यावपातः सन्निहितप्रातिहार्यः लाउल्लोइयमहिए चापि भविष्यति । सः भदन्त ! तस्मात् (तओहिंतो ) अनन्तरम् उद्वर्त्य कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति । एषा भदन्त ! उदुम्बरयष्टिका उष्णाभिहता तृष्णाभिहता दवाग्निज्वालाभिहता कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते? गौतम ! इहैव जम्बुद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे पाटलिपुत्रे पाटलिवृक्षत्वेन प्रत्याज भगवई वृक्ष का पुनर्भव पद १०१. भंते! यह शालवृक्ष गर्मी से अभिहत, तृष्णा से अभिहत, दवाग्नि ज्वाला से अभिहत होकर कालमास में काल को प्राप्त कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम ! इस राजगृह नगर में शालवृक्ष के रूप में पुनः उपपन्न होगा। वह वहां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य (प्रधान), सत्य, सत्यावपात, सन्निहित प्रातिहार्य और लाउल्लोइयमहित - वृक्ष का भूमिभाग गोबर आदि से लिपा हुआ और भींत खड़िया से पुती हुई होगी। १०२. भंते! वह शालवृक्ष वहां से अनंतर उद्वर्तन कर कहां जाएगा ? कहां उपपन्न होगा ? गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा। १०३. भंते! यह शालयष्टिक वृक्ष गर्मी से अभिहत, तृष्णा से अभिहत, दवाग्नि ज्वाला से अभिहत होकर कालमास में काल को प्राप्त कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा ? गौतम ! इस जंबूद्वीप द्वीप में, भारतवर्ष में विंध्यगिरि की तलहटी में महेश्वरी नगरी में शाल्मली वृक्ष के रूप में उपपन्न होगा। वह वहां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, सत्य, सत्यावपात, सन्नि हित प्रातिहार्य और 'लाउल्लोइयमहित' - वृक्ष का भूमिभाग गोबर आदि से लिपा हुआ और भींत खड़िया से पुती हुई होगी। १०४. भंते! वह वहां से अनंतर उद्वर्तन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा । १०५. भंते! यह उदुम्बरयष्टिका गर्मी से अभिहत, तृष्णा से अभिहत और दवाग्नि ज्वाला से अभिहत होकर कालमास में काल को प्राप्त कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा ? गौतम ! इसी जंबूद्वीप द्वीप में भारतवर्ष में पाटलिपुत्र नगर में पाटली वृक्ष के रूप में पुनः Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई पच्चायाहिति । से णं तत्थ अच्चिय-वंदिय पूय-सक्कारिय- सम्माणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहि यावि भविस्स ॥ १०६. से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गमिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति ॥ अम्मड - अंतवास -पदं १०७. तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स सत्त अंतेवासिसया गिम्हकालसमयंसि जे मूलमा संमि गंगाए महानदी उभओ कूलेणं कंपिल्लपुराओ नगराओ पुरिमतालं नयरं संपट्टिया विहाराए । १०८. तए णं तेसिं परिव्वायगाणं तीसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से पुव्वग्गहिए उदए अणुपुब्वेणं परिभुंजमाणे झीणे । १०६. तए णं ते परिव्वया झीणोदगा समाणा तण्हाए पारब्भमाणापारब्भमाणा उदगदातारमपस्समाणा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी - एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इसे अगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए कंचि देसंतर २१६ निष्यति । सः तत्र अर्चित वन्दितपूजित - सत्कृत - सम्मानितः दिव्यः सत्यः सत्यावपातः सन्निहितप्रातिहार्यः लाउल्लोइयमहिए चापि भविष्यति । १. सूत्र १०१-१०६ इस आलापक में प्रत्यक्ष दृष्ट शालवृक्ष, शालयष्टिका और उदुंबरयष्टिका के विषय में गौतम ने प्रश्न पूछा और महावीर ने उनके भावी जन्म का प्रतिपादन किया। अच्चिय आदि विशेषणों की जानकारी के लिए द्रष्टव्य भ. १२/ १५४ १५८ का भाष्य । शालवृक्ष आदि की उन्नत गति का हेतु अकाम निर्जरा है। विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य भगवई १ / ४८- ५० का भाष्य । सः भदन्त ! तस्मात् (तओहिंतो ) अनन्तरम् उद्वर्त्य कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति । भाष्य अम्बड - अन्तेवासि-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये अम्बडस्य परिव्राजकस्य सप्त अन्तेवासिशतानि ग्रीष्मकालसमये ज्येष्ठमूलमासे गंगायां महानद्याम् उभयतः कूलेन काम्पिल्यपुरात् नगरात् पुरिमतालं नगरं सम्प्रस्थिताः विहाराय । १. भ. वृ. १४/१०३ - इह च यद्यपि शालवृक्षादावनेके जीवा भवन्ति तथाऽपि प्रथमजीवापेक्षं सूत्रत्रयमभिनेतव्यम् । ततः तेषां परिव्राजकानां तस्याम् अग्रामिकायां छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि अटव्यां कञ्चित् देशान्तरम् अनुप्राप्तानां तत् पूर्वगृहीतम् उदकम् अनुपूर्वेण परिभुञ्जमानं क्षीणम् । वृत्तिकार ने वृक्षों के विषय में एक विशेष सूचना दी है- शालवृक्ष आदि वृक्षों में अनेक जीव होते हैं। यहां वृक्ष का निर्माता मूल जीव विवक्षित है। ततः ते परिव्राजकाः क्षीणोदकाः सन्तः तृष्णया प्रारभमाणाः प्रारभमाणाः उदकदातारम् अपश्यन्तः अन्योन्यं शब्दयन्ति शब्दयित्वा एवमवादिषुःएवं खलु देवानुप्रियाः ! अस्याम् अग्रामिकायां छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि अटव्यां कञ्चित् देशान्तरमनुप्राप्तानां श. १४ : उ ८ : : सू. १०६-१०६ उपपन्न होगा। वह वहां अर्चित, वंदित, पूजित, सत्कारित, सम्मानित, दिव्य, सत्य, सत्यावपात, सन्निहित प्रातिहार्य तथा लाउल्लोइयमहित होगा । इस प्रकार के प्रश्न गौतम ने क्यों पूछे ? यह प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है । वृत्तिकार ने इस विषय में लिखा है- बहुत लोग वनस्पति को सजीव नहीं मानते। उनकी मान्यता को सामने रखकर गौतम ने वनस्पति के सन्दर्भ में प्रश्न पूछे और भगवान् महावीर से उनका समाधान पाया। १०६. भंते! वह वहां से अनंतर उद्वर्तन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा। अम्मड अंतेवासी पद १०७. उस काल उस समय अम्मड परिव्राजक के सात सौ अंतेवासी ग्रीष्मकाल समय में ज्येष्ठ मास में गंगा महानदी के दोनों तटों पर होते हुए कंपिलपुर नगर से पुरिमताल नगर की ओर विहार के लिए प्रस्थित हुए। १०८. वे परिव्राजक उस विशाल, वस्ती शून्य, आवागमन रहित तथा प्रलंब मार्ग वाली अटवी में कुछ दूरवर्ती प्रदेश में चले गए। पहले जो जल था, उसे पीते गए, पीते गए, आखिर वह समाप्त हो गया। १०६. जल के समाप्त हो जाने पर प्यास से अभिभूत हो गए। उन्हें कोई जल को देने वाला दिखाई नहीं दिया। परिव्राजकों ने एक दूसरे को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! इस विशाल, वस्ती शून्य, आवागमन रहित तथा प्रलंब मार्ग वाली अटवी में कुछ दूरवर्ती प्रदेश में आ गए हैं। पहले २. भ. वृ. १४/१०३ - एवंविधप्रश्नाश्च वनस्पतीनां जीवत्वमश्रद्दधानं श्रोतारमपेक्ष्य भगवता गौतमेन कृता इत्यवसेयमिति । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. ८ : सू. १०६ २२० भगवई मणुपत्ताणं से पुब्बग्गहिए उदए अणु- तत् पूर्वगृहीतम् उदकम् अनुपूर्वेण लिया हुआ जो जल था, वह पीते गए, पीते पुग्वेणं परिभुंजमाणे झीणे। तं सेयं खलु परिभुञ्जमानं क्षीणम्। ततः श्रेयः खलु गए। आखिर वह समाप्त हो गया है। देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे अगामियाए देवानुप्रियाः! अस्माकम् अस्याम् देवानुप्रिय! यह श्रेय है कि हम इस विशाल, छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए अग्रामिकायां छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि वस्ती शून्य, आवागमन रहित प्रलंब मार्ग उदगदातारस्स सब्बओ समंता मग्गण- अटव्याम् उदकदातुः सर्वतः समन्तात् वाली अटवी में किसी जल लेने की अनुमति गवेसणं करित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स मार्गण-गवेषणां कर्तुम् इति कृत्वा देने वाले की चारों ओर मार्गणा-गवेषणा करें। अंतिए एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता अन्योन्यस्य अन्तिके एतमर्थं प्रति- इस प्रकार एक-दूसरे के पास इस अर्थ को तीसे अगामियाए छिण्णावायाए शृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य तस्याम् सुना, सुनकर उस विशाल, वस्तीशून्य, दीहमद्धाए अडवीए उदगदातारस्स अग्रामिकायां छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि । आवागमन रहित प्रलंब मार्ग वाली अटवी में सब्बओ समंता मग्गण-गवेसणं करेंति, अटव्याम् उदकदातुः सर्वतः समन्तात् जल लेने की अनुमति देने वाले व्यक्ति की करेत्ता उदगदातारमलभमाणा दोच्चं पि मार्गण-गवेषणां कुर्वन्ति, कृत्वा चारों ओर मार्गणा-गवेषणा की। मार्गणाअण्णमण्णं सदावेंति, सद्दावेत्ता एवं । उदकदातारम् अलभेमानाः द्विः अपि गवेषणा करने पर, जल देने वाले व्यक्ति के न वयासी-इहण्णं देवाणुप्पिया! उदगदातारो । अन्योन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा मिलने पर दूसरी बार पुनः एक-दूसरे को नत्थि तं नो खलु कप्पइ अम्हं अदिण्णं । एवमवादिषुः-इह देवानुप्रियाः! बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहागिण्हित्तए, अदिण्णं साइज्जित्तए, तं मा उदकदाता नास्ति तत् नो खलु कल्पते देवानुप्रियो! यहां कोई जल लेने की अनुमति णं अम्हे इयाणिं आवइकालं पि अदिण्णं अस्माकम् अदत्तं ग्रहीतुम्, अदत्तं देने वाला नहीं है। हमें अदत्त ग्रहण करना गिण्हामो, अदिण्णं साइज्जामो, मा णं 'साइज्जित्तए' तत् मा वयम् इदानीं नहीं कल्पता, अदत्त का अनुमोदन करना अम्हं तवलोवे भविस्सइ। तं सेयं खलु आपत्कालम् अपि अदत्तं गृह्णीयाम, नहीं कल्पता, इसलिए हम इस आपत् काल अम्हं देवाणुप्पिया! तिदंडए य कुंडियाओ। अदत्तं 'साइज्जामो' मा अस्माकं में भी अदत्त जल का ग्रहण न करें, अदत्त य कंचणियाओ य करोडियाओ य तपःलोपः भविष्यति। तत् श्रेयः खलु जल का अनुमोदन न करें, जिससे कि हमारे भिसियाओ य छण्णालए य अंकुसए य अस्माकं देवानुप्रियाः! त्रिदण्डकान् च तप का लोप न हो। केसरियाओ य पवित्तए य गणेत्तियाओ कुण्डिकाः च काञ्चनिकाः च करोटिकाः देवानुप्रियो! हमारे लिए यह श्रेय है कि हम य छत्तए य वाहणाओ य धाउरत्ताओ य च वृषिकाः च 'छण्णालए' च अंकुशकान् त्रिदंड, कमण्डलु, रूद्राक्ष-माला, मृत्पात्र, एगते एडित्ता गंगं महानई ओगाहित्ता च केसरिकाः च पवित्रकान् च आसन, केसरिका (पात्र प्रमार्जन का वस्त्र वालुयासंथारए संथरित्ता संलेहणा- 'गणेत्तियाओ' च छत्रकान् च उपानहः । खण्ड) टिकठी, अंकुश, छलनी, कलाई पर झुसियाणं भत्तपाण-पडियाइक्खियाणं च धातुरक्तान् च एकान्ते एडयित्वा पहना जाने वाला रुद्राक्ष आभरण, छत्र, पाओवगयाणं कालं अणवकंखमाणाणं गङ्गां महानदीम् अवगाह्य वालुका- पदत्राण और गेरुएं वस्त्र को एकान्त में डाल विहरित्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अंतिए संस्तारकान् संस्तृत्य संलेखनाजुष्टानां । दें, गंगा महानदी का अवगाहन कर, बालुकाएयमद्वं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तिदंडए य (जुषितानां) भक्तपानप्रत्याख्यातानां । संस्तारक बिछाकर संलेखना की आराधना में कुंडियाओ य कंचणियाओ य प्रायोपगतानां कालम् अनवकाङ्क्षतां स्थित हो, भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर करोडियाओ य भिसियाओ य छण्णालए विहर्तुम् इति कृत्वा अन्योन्यस्य प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की य अंकुसए य केसरियाओ य पवित्तए य अन्तिके एतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति, आकांक्षा न करते हुए रहें-इस प्रकार एक गणेत्तियाओ य छत्तए य वाहणाओ य प्रतिश्रुत्य त्रिदण्डकान् च कुण्डिकाः च दूसरे के पास इस अर्थ को सुना, सुनकर धाउरत्ताओ य एगते एडेंति, एडेत्ता गंगं काञ्चनिकाः च करोटिकाः च वृषिकाः च । त्रिदंड, कमण्डलु, रूद्राक्ष-माला, मृत्पात्र, महानई ओगाहेंति, ओगाहेत्ता 'छण्णालए' च अंकुशकान् च केसरिकाः आसन, केसरिका, टिकठी, अंकुश, छलनी, वालुयासंथारए संथरंति, संथरित्ता च पवित्रकान् च 'गणेत्तियाओ' च कलाई पर पहना जाने वाला रुद्राक्ष आभरण, वालुयासंथारयं दुरुहंति, दुरुहित्ता छत्रकान् च उपानहः च धातुरक्तान् च । छत्र, पदत्राण और गेरुएं वस्त्र को एकान्त में परत्थाभिमहा संपलियंकनिसण्णा एकान्ते एडयन्ति, एडयित्वा गङ्गां डालते हैं, अवगाहन कर बालुका का बिछौना करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए महानदीम् अवगाहन्ते, अवगाह्य बिछाते हैं, बिछाकर बालुका के बिछौने पर अंजलिं कट्ट एवं वयासी वालुकासंस्तारकान् । संस्तृणन्ति, आरूढ होते हैं, आरूढ होकर पूर्व की ओर संस्तृत्य वालुकासंस्तारकम् आरोहन्ति, मुंह कर पर्यंकासन में बैठकर, हथेलियों से आरुह्य पौरस्त्याभिमुखाः संपर्यंक- संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के निषण्णाः-करतलपरिगृहीतं शिरसावर्त सम्मुख घुमाकर इस प्रकार बोलेमस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादिषुः Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२१ श. १४ : उ. ८ : सू. १०६ नमोत्थु णं अरहताणं जाव सिद्धि- नमः अस्तु अर्हद्भ्यः यावत् सिद्धि- नमस्कार हो अर्हत् यावत् सिद्धि गति नाम गइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं। गतिनामधेयं स्थानं सम्प्राप्तेभ्यः।। वाले स्थान को संप्राप्त जिनवरों को। नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महा- नमः अस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय नमस्कार हो भगवान् महावीर यावत् सिद्धि वीरस्स जाव संपाविउकामस्स। यावत् सम्प्राप्तुकामाय। गति प्राप्त करने वाले जिनवर को। नमोत्थु णं अम्मडस्स परिवायगस्स अम्हं नमः अस्तु अम्बडाय परिव्राजकाय नमस्कार हो हमारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स। अस्माकं धर्माचार्याय धर्मोपदेशकाय। अम्मड़ परिव्राजक को। पुचि णं अम्हेहिं अम्मडस्स पूर्वम् अस्माभिः अम्बडस्य पहले हमने अम्मड़ परिव्राजक के पास स्थूल परिव्वायगस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए परिव्राजकस्य अन्तिके स्थूलकः । प्राणातिपात का यावज्जीवन के लिए पच्चक्खाए जावज्जीवाए, मुसावाए प्राणातिपातः प्रत्याख्यातः यावज्जीवम्, प्रत्याख्यान किया, मृषावाद और अदत्तादान अदिण्णादाणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, मृषावादः अदत्तादानं प्रत्याख्यातं । का यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान किया, सब्वे मेहणे पञ्चक्खाए जावज्जीवाए, यावज्जीवम्, सर्वं मैथुनं प्रत्याख्यातं सर्व मैथुन का यावज्जीवन के लिए थूलए परिग्गहे पञ्चक्खाए जावज्जीवाए, यावज्जीवम्, स्थूलकः परिग्रहः प्रत्याख्यान किया, स्थूल परिग्रह का इयाणिं अम्हे समणस्स भगवओ प्रत्याख्यातः यावज्जीवम् इदानीम्, वयं यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान किया। महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं । श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके संप्रति हम श्रमण भगवान् महावीर की साक्ष्य पञ्चक्खामो जावज्जीवाए सव्वं मुसावायं सर्वं प्राणातिपातं प्रत्याख्यामः से सर्व प्राणातिपात का यावज्जीवन के लिए पञ्चक्रबामो जावज्जीवाए सव्वं यावज्जीवं सर्वं मृषावादं प्रत्याख्यामः प्रत्याख्यान करते हैं, सर्व मृषावाद का अदिण्णादाणं पञ्चक्खामो जावज्जीवाए यावज्जीवं सर्वम् अदत्तादानं । यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करते हैं, सव्वां मेहुणं पच्चक्खामो जावज्जीवाए प्रत्याख्यामः यावज्जीवं सर्वं मैथुनं सर्व अदत्तादान का यावज्जीवन के लिए सर्वं परिग्गरं पञ्चक्खामो जावज्जीवाए प्रत्याख्यामः यावज्जीवं सर्वं परिग्रह प्रत्याख्यान करते हैं, सर्व मैथुन का सव्वं कोहं माणं मायं लोहं पेज्जं दोसं प्रत्याख्यामः यावज्जीवं सर्वं क्रोधं मानं यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करते हैं, कलह अब्भक्खाणं पेसुण्णं परपरिवायं । मायां लोभं प्रेयः द्वेषं कलहम् सर्व परिग्रह का यावज्जीवन के लिए अरइरई मायामोसं मिच्छादसणसल्लं अभ्याख्यानं पैशून्यं परपरिवाद प्रत्याख्यान करते हैं। सर्व क्रोध, मान, माया, अकरणिज्जं जोगं पचक्खामो अरतिरति मायामृषां मिथ्यादर्शनशल्यम् लोभ, प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, जावज्जीवाए सव्वं असणं पाणं खाइम अकरणीयं योगं प्रत्याख्यामः यावज्जीवं __ पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति, मायामृषा, साइम-चउन्विहं पि आहारं पच्चक्खामो सर्वम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यं- मिथ्यादर्शनशल्य और अकरणीय योग का जावज्जीवाए। चतुर्विधम् अपि आहारं प्रत्याख्यामः यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करते हैं। यावज्जीवम् । सर्व अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-चारों प्रकार के आहार का यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करते हैं। जं पि य इमं सरीरं इट्ट कंतं पियं मणुण्णं यदपि च इदं शरीरं इष्टं कान्तं प्रियं यह शरीर इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, मणामं पेज्जं वेसासियं संमयं बहुमयं मनोज्ञं 'मणाम' प्रेयः वैश्वासिकं सम्मतं स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अणुमयं भंड-करंडग-समाणं मा णं बहुमतम् अनुमतं भाण्डकरण्डकसमानं अनुमत और आभरण करण्डक के समान है। सीयं, मा णं उण्हं, मा णं खुहा, मा णं मा शीतम्, मा उष्णम्, मा क्षुधा, मा इसे सर्दी न लगे, गर्मी न लगे, भूख न सताए, पिवासा, मा णं वाला, मा णं चोरा, मा पिपासा, मा व्यालाः, मा चौराः, मा दंशाः, प्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, हिंस्र णं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइय- मा मशकाः, मा वातिकपैत्तिक- पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश और पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइय विविहा श्लैष्मिक-सान्निपातिक-विविधाः मशक इसे न काटे, वात, पित्त, श्लेष्म और रोगायंका परीसहोवसग्गा फसंत त्ति कट्ट रोगातंकाः परीषहोपसर्गाः स्पशन्त इति संनिपातजनित विविध प्रकार के रोग और एयंपि णं चरिमेहिं ऊसासनीसासेहि कृत्वा एतद् अपि चरमैः उच्छ्वास- आतंक तथा परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श वोसिरामि त्ति कटु संलेहणा-झूसिया निश्वासैः व्युत्सृजामि इति कृत्वा न करें, इसलिए इसको भी हम अंतिम भत्तपाण-पडियाइक्खिया पाओवगया संलेखना-जुष्टाः भक्तपान- उच्छ्वास-निःश्वास तक छोड़ते हैं। ऐसा कर कालं अणवकंखमाणा विहरति। प्रत्याख्याताः प्रायोपगताः कालम् संलेखना की आराधना में स्थित हो भक्ततए णं ते परिवाया बहूई भत्ताई अनवकाङ्क्षन्तः विहरन्ति। ततः ते पान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन की अणसणाए छेदेति, छेदित्ता आलोइय- परिव्राजकाः बहनि भक्तानि अनशनेन अवस्था में मृत्यु की आकांक्षा नहीं करते हुए पडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं छिन्दन्ति छित्त्वा आलोचित- रहते हैं। उन परिव्राजकों ने अनशन के द्वारा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ.८ : सू. ११०-१११ २२२ भगवई किचा बभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णा। प्रतिक्रान्ताः समाधिप्राप्ताः कालमासे तहिं तेसिं गई, तहिं तेसिं ठिई, तहिं तेसिं कालं कृत्वा ब्रह्मलोके कल्पे देवत्वेन उववाए पण्णत्ते। उपपन्नाः। तत्र तेषां गतिः, तत्र तेषां स्थितिः, तत्र तेषाम् उपपातः प्रज्ञप्तः। बहु भक्त का छेदन किया, छेदन कर आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर ब्रह्मलोक कल्प में देव के रूप में उपपन्न हुए। वहीं उनकी गति, वहीं उनकी स्थिति और वहीं उनका उपपात प्रज्ञप्त है। भंते ! उन देवों की कितने काल की स्थिति प्रज्ञप्त है? गौतम! दस सागरोपम की स्थिति प्रज्ञप्त है। तेसि णं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! दससागरोवमाई ठिई पण्णत्ता।। अस्थि णं भंते! तेसिं देवाणं इट्टी इ वा जुई इ वा जसे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कार-परक्कमे इ वा? तेषां भदन्त! देवानां कियत् कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गौतम! दशसागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। अस्ति भदन्त! तेषां देवानां ऋद्धिः इति वा, द्युतिः इति वा, यशः इति वा, बलम् इति वा, वीर्यम् इति वा, पुरुषाकारपराक्रमः इति वा? हन्त अस्ति। ते भदन्त! देवाः परलोकस्य आराधकाः? हन्त अस्ति। भंते! उन देवों के ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम है? हंता अत्थि। ते णं भंते ! देवा परलोगस्स आराहगा? हंता अत्थि॥ हां, है। भंते! वे देव परलोक के आराधक हैं? हां, है। अम्मड-चरिया-पदं अम्बड-चर्या-पदम् अम्मड-चर्या-पद ११०, बहुजणे णं भंते! अण्णमण्णस्स बहुजनः भदन्त! अन्योऽन्यम् ११०. भंते! बहुत लोग परस्पर इस प्रकार का एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं एवमाख्याति एवं भासते एवं प्रज्ञापयति आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण परूवेइ–एवं खलु अम्मडे परिवायए ___ एवं प्ररूपयति-एवं खलु अम्बडः करते हैं-अम्मड परिव्राजक कंपिलपुर नगर के कंपिल्लपुरे नगरे घरसए आहारमाहरेइ, परिव्राजकः काम्पिल्यपुरे नगरे गृहशते सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में घरसए वसहिं उवेइ। से कहमेयं भंते? आहारम् आहरति, गृहशते वसतिम् निवास करता है। भंते! यह कैसे है? उपैति। तत् कथमेतद्? भदन्त! एवं खलु गोयमा! जं णं से बहुजणे एवं खलु गौतम! यत् सः बहुजनः गौतम! जो बहत लोग परस्पर इस प्रकार अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ अन्योन्यम् एवमाख्याति एवं भासते एवं आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु अम्मडे प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयति-एवं खलु करते हैं-अम्मड परिव्राजक कंपिलपुर नगर में परिवायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए अम्बडः परिव्राजकः काम्पिल्यपुरे नगरे सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उबेइ, सच्चे गृहशते आहारम् आहरति, गृहशते निवास करता है। यह अर्थ सत्य है। गौतम! मैं णं एसमझे। अहंपि णं गोयमा! वसतिम् उपैति, सत्योऽयमर्थः। अहम् । भी इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवमाइक्वामि एवं भासामि एवं पण्ण- अपि गौतम! एवमाख्यामि एवं भाषे एवं और प्ररूपण करता हूं-अम्मड परिव्राजक वेमि एवं परूवेमि-एवं खलु अम्मडे प्रज्ञापयामि एवं प्ररूपयामि-एवं खलु कंपिलपुर नगर के सौ घरों में आहार करता परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए अम्बडः परिव्राजकः काम्पिल्यपुरे नगरे है, सौ घरों में निवास करता है। आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उबेइ॥ गृहशते आहारम् आहरति, गृहशते वसतिम् उपैति। १११. से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ-अम्मडे तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- १११. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा परिव्वायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए अम्बडः परिव्राजकः काम्पिल्यपुरे नगरे है-अम्मड़ परिव्राजक कंपिलपुर नगर में सौ आहारमाहरेइ, घरसए वसहि उवेइ ? गृहशते आहारम् आहरति, गृहशते घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास गोयमा! अम्मडस्स णं परिवायगस्स __ वसतिम् उपैति? करता है? पगइभद्दयाए पगइउवसंतयाए पगइ- गौतम! अम्बडस्य परिव्राजकस्य गौतम! अम्मड परिव्राजक प्रकृति से भद्र और पतणुकोहमाणमायालोहयाए मिउमद्दव- प्रकृतिभद्रतया प्रकृत्युपशान्ततया । उपशान्त है। उसके क्रोध, मान, माया और संपण्णयाए अल्लीणयाए विणीययाए प्रकृति-प्रतनुक्रोधमानमायालोभेन लोभ प्रकृति से प्रतनु हैं। वह मृदु मार्दव Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२३ श. १४ : उ. ८ : सू. ११२ छट्ठछटेणं अणिक्वित्तेणं तबोकम्मेणं मृदुमार्दव-सम्पन्नतया आलीनतया उडे बाहाओ पगिज्झिय-पगिझिय विनीततया षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आया- तपः कर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य वेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं सूराभिमुखस्य आतापनभूम्याम् अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसज्झमाणीहिं आतापयतः शुभेन परिणामेन प्रशस्तैः अण्णया कयाइ तदावरणिज्जाणं कम्माणं अध्यवसानैः लेश्याभिः विशुध्यमानाभिः खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं अन्यदा कदाचित् तदावरणीयानां करेमाणस्स वीरियलद्धीए वेउब्धियलद्धीए कर्मणां क्षयोपशमेन ईहापोहमार्गणओहिनाणलद्धी समुप्पण्णा। गवेषणं कुर्वतः वीर्यलब्धि-वैक्रियलब्धिअवधिज्ञानलब्धिः समुत्पन्ना। संपन्न, आलीन (संयतेन्द्रिय) और विनीत है। वह निरंतर बेले-बेले (दो-दो दिन का उपवास) के तप की साधना करता है। दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन भूमि में आतापना लेता है। उसके शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और लेश्या की उत्तरोत्तर होने वाली विशुद्धि से किसी समय तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम हुआ। उसके होने पर ईहा, ऊहापोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए वीर्य लब्धि, वैक्रिय लब्धि और अवधिज्ञान लब्धि उत्पन्न तए णं से अम्मडे परिवायए तीए ततः सः अम्बडः परिव्राजकः तया वीरियलद्धीए वेउब्बियलद्धीए वीर्यलब्ध्या वैक्रियलब्ध्या अवधिज्ञान ओहिनाणलद्धीए समुप्पण्णाए जण- लब्ध्या समुत्पन्नया जनविस्मापनहेतुं विम्हावणहेर्ड कंपिल्लपुरे नगरे घरसए काम्पिल्यपुरे नगरे गृहशते आहारम् आहारमाहरेइ, घरसए वसहि उवेइ। से। आहरति, गृहशते वसतिम् उपैति। तत् तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-अम्मडे तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-अम्बडः परिवायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए परिव्राजकः काम्पिल्यपुरे नगरे गृहशते आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उबेइ॥ आहारम् आहरति, गृहशते वसतिम् उपैति। वह अम्मड़ परिव्राजक उस वीर्यलब्धि, वैक्रिय लब्धि और अवधिज्ञान लब्धि के होने पर जनसमूह को विस्मय में डालने के लिए कंपिलपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-अम्मड़ परिव्राजक कंपिलपुर नगर में सौ घरों में आहार करता है, सौ घरों में निवास करता ११२. पह णं भंते! अम्मडे परिवायए प्रभुः भदन्त! अम्बडः परिव्राजकः ११२. भंते! क्या अम्मड परिव्राजक देवानुप्रिय देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता देवानुप्रियाणाम् अन्तिकं मुण्डः भूत्वा के पास मुंड हो, अगार से अनगारिता में अगाराओ अणगारियं पञ्चइत्तए? अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम्? प्रव्रजित होने में समर्थ है? नो इणढे समझे। नो अयमर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। गोयमा! अम्मडे ण परिवायए गौतम! अम्बडः परिव्राजकः गौतम! श्रमणोपासक अम्मड परिव्राजक समणोवासए अभिगयजीवाजीवे उव- श्रमणोपासकः अभिगतजीवाजीवः जीव-अजीव को जानने वाला, पुण्य-पाप के लद्धपुण्णपावे आसव-संवर-निज्जर- उपलब्धपुण्यपापः आश्रव-संवर- मर्म को समझने वाला, आसव, संवर, किरियाहिगरण-बंध-मोक्खकुसले निर्जरा-क्रियाऽधिकरण-बन्ध-मोक्ष- निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष असहेज्ज देवासुरनाग-सुवण्ण-जक्ख- कुशलः असहाय्यः देवासुरनाग-सुपर्ण- के विषय में कुशल, सत्य के प्रति स्वयं रक्खस-किन्नर किंपुरिस-गरुल-गंधव्व- यक्ष-राक्षस-किन्नर-किंपुरुष-गरुड- निश्चल, देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, महोरगाइएहिं निग्गंधाओ पावयणाओ गान्धर्व-महोरगादिकैः नैर्ग्रन्थात राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व, अणइक्कमणिज्जे, इणमो निग्गंधे प्रवचनात् अनतिक्रमणीयः (इणमो) महोरग आदि देव गणों के द्वारा निग्रंथ प्रवचन पावयणे निस्संकिए निक्कंखिए नैर्ग्रन्थे प्रवचने निःशंकितः निष्कांक्षितः से अविचलनीय, इस निग्रंथ प्रवचन में शंका निव्वतिगिच्छे लट्टे गहियढे पुच्छियढे निर्विचिकित्सः लब्धार्थः गृहीतार्थः रहित, कांक्षा रहित, विचिकित्सा रहित, अभिगयढे विणिच्छियढे अद्विमिंज- पृष्टार्थः अभिगतार्थः विनिश्चतार्थः यथार्थ को सुनने वाला, ग्रहण करने वाला, पेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो! निग्गंथे अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्तः उस विषय में प्रश्न करने वाला, उसे जानने पावयणे अद्वे, अयं परमद्वे, सेसे अणढे, इदमायुष्मन् ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् अर्थः, वाला, उसका विनिश्चय करने वाला, चउद्दसअट्ठमुद्दिद्वपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं इदं परमार्थः, शेषम् अनर्थः, प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि मज्जा वाला, पोसह अणुपालेमाणे, समणे निग्गंथे चतुर्दशाष्ट-मोद्दिष्ट-पूर्णमासीषु आयुष्मन्! यह निग्रंथ प्रवचन यथार्थ है, यह फासुएसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम- प्रतिपूर्ण पौषधम् अनुपालयन् श्रमणान् परमार्थ है, शेष अनर्थ है (ऐसा मानने वाला) साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पाय- निर्ग्रन्थान् प्रासुकएषणीयेन अशन-पान- चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा पच्छणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएणं खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र-प्रतिग्रह-कम्बल- को प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. ८ : सू. ११३,११४ २२४ भगवई पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणे पाद प्रौञ्छनेन औषधभैषज्येन सीलवय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण- प्रातिहारिकेण पीठफलकशय्यासंस्तारकेण पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं प्रतिलाभयन् शीलव्रत-गुण-विरमणतवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ प्रत्याख्यान-पौषधोपवासैः यथापरिजाव दढप्पइण्णो अंतं काहिति॥ गृहीतैः तपःकर्मभिः आत्मानं भावयन् विहरति, यावत् दृढप्रतिज्ञः अन्तं करिष्यति। करने वाला, श्रमण निग्रंथों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रौञ्छन, औषध-भैषज्य, प्रातिहार्य पीठ-फलक, शय्या और संस्तारक का दान देने वाला, बहुत शीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा यथापरिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहा है यावत् दृढप्रतिज्ञ की भांति अंत करेगा। भाष्य १. सूत्र १०७-११२ प्रस्तुत प्रकरण में विमर्शनीय बिन्दु ये हैंऔपपातिक सूत्र में परिव्राजक चर्या का विशद वर्णन है। उसके अम्मड परिव्राजक के शिष्यों ने पहले स्थूल प्राणातिपात आदि अनुसार सांख्य, योग, योगी कापिल आदि अनेक श्रेणी के परिव्राजकों का प्रत्याख्यान किया तथा सर्व मैथुन का प्रत्याख्यान किया। पश्चात् का निर्देश उपलब्ध है। आठ ब्राह्मण परिव्राजकों तथा आठ क्षत्रिय सर्व प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान किया। इन दोनों तथ्यों की परिव्राजकों का नामोल्लेख भी मिलता है। परिव्राजक चर्या के साथ कैसे संगति हो सकती है? अम्मड के अंतेवासी और अम्मड की चर्या का भी विस्तृत विवरण अम्मड के लिए 'श्रमणोपासक' की चर्या का विधान भी कैसे किया गया है। अम्मड का प्रकरण भगवती से औपपातिक में लिया संगत है? गया है अथवा औपपातिक से भगवती में? यह विमर्शनीय है। कथावस्तु के निगमन में अम्मड के शिष्यों को परिव्राजक ही प्रकरण की समग्रता को देखते हुए इस निष्कर्ष तक पहुंचने में बतलाया गया है-तए णं ते परिवाया बहूई भत्ताई अणसणाए छेदेति।' कोई कठिनाई नहीं है कि यह प्रकरण औपपातिक से भगवती में संगृहीत इससे प्रमाणित होता है कि अंत तक वे परिव्राजक रहे। अम्मड भी किया गया है। भगवती में परिव्राजक का कोई प्रकरण नहीं है। केवल अंत तक परिव्राजक रहा। इसलिए श्रमणोपासक का वर्णन एक अम्मड़ के शिष्यों और अम्मड की चर्या का प्रसंग उपलब्ध है। इसका विचारणीय विषय है। दूसरा समर्थन हेतु यह है- भगवती में 'एवं जहा ओबवाइए जाव आराहगा' स्थानांग में अम्मड परिव्राजक का उल्लेख है। वृत्तिकार इस संक्षिप्त पाठ में औपपातिक को देखने का निर्देश दिया गया है। अभयदेवसूरि के अनुसार वह औपपातिक में उल्लिखित अम्मड औपपातिक की वृत्ति में अम्मड के शिष्यों को महर्षि चरक का परिव्राजक से भिन्न है। परिव्राजक बतलाया गया है। अव्वाबाहदेव-सत्ति-पदं अन्यावाधदेव-शक्ति-पदम् अन्याबाध देव शक्ति पद ११३. अस्थि णं भंते! अन्दाबाहा देवा अस्ति भदन्त! अव्याबाधाः देवाः ११३. भंते! अव्याबाध देव अव्याबाध देव हैं? अव्वाबाहा देवा? अव्याबाधाः देवाः? हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। हां, हैं। ११४. से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ११४. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा अन्याबाहा देवा अव्वाबाहा देवा? अव्याबाधाः देवाः अव्याबाधाः देवाः? है-अव्याबाध देव अव्याबाध देव हैं? गोयमा! पभू णं एगमेगे अव्वाबाहे देवे गौतम! प्रभुः एकैकः अव्याबाधः देवः । गौतम! प्रत्येक अव्याबाध देव प्रत्येक मनुष्य के एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि ___ एकैकस्य पुरुषस्य एकैकस्मिन् अक्षिपत्रे प्रत्येक अक्षि-पत्र पर दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देव अच्छिपत्तसि दिव्वं देविहि, दिव्वं दिव्यां देवर्द्वि, दिव्यां देवद्युति, दिव्यं द्युति, दिव्य देवानुभाग, दिव्य बत्तीस प्रकार देवज्जुति, दिव्वं देवाणुभाग, दिव्वं देवानभाग, दिव्यां द्वात्रिंशदविधां की नाट्य विधि का उपदर्शन करने में समर्थ बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेत्तए, नो चेव नाट्यविधिम उपदर्शयितुम, नो चैव है। वह उस पुरुष को किञ्चित् आबाध अथवा णं तस्स परिसस्स किंचि आबाहं वा तस्य पुरुषस्य किञ्चित् आबाधां वा व्याबाध उत्पन्न नहीं करता, छविच्छेद भी वाबाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेयं वा करेइ, व्याबाधां वा उत्पादयति, छविच्छेदं वा करता है, इस कौशल के साथ उपदर्शन एसहमं च णं उवदंसेज्जा। से तेणढेणं करोति, इयत्सूक्ष्मं च उपदर्शयेत्। तत् करता है। १. ओव. पदं ८६-११४ ___५. ओव. पदं १४० अम्मडेणं भंते! परिव्वायए कालमासे कालं किया कहिं २. ओव. पदं ११५-१४० __गच्छिहिति? कहिं उववन्जिहिति? ३. औप. पृ. पत्र १८०-अथ ये घरकपरिव्राजकाः ब्रह्मलोकं गतास्तदुप- ६. स्था. वृ. पत्र ४३४ यश्चौपपातिकोपाङ्गे महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते दर्शनेनाधिकृतार्थं समर्थयन्नाह सोऽन्य इति संभाव्यते। ४. ओव. पदं ११७ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२५ श. १४ : उ. ८ : सू. ११५-११८ बुच्चइ-अव्वाबाहादेवा गोयमा! एवं अव्वाबाहा देवा॥ तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेअव्याबाधाः देवाः अव्याबाधाः देवाः। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-अव्याबाध देव अव्याबाध देव हैं। सक्कस्स सत्ति-पदं ११५. पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया पुरिसस्स सीसं सपाणिणा असिणा छिदित्ता कमंडलुंसि पक्खिवित्तए? हंता पभू॥ शक्रस्य शक्ति-पदम् प्रभुः भदन्त! शक्रः देवेन्द्रः देवराजा पुरुषस्य शीर्ष सपाणिना असिना छित्त्वा कमण्डुले प्रक्षेप्तुम्? हन्त प्रभुः। शक्र का शक्ति-पद ११५. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र हाथ में तलवार ले पुरुष के सिर का छेदन कर उसका कमंडलु में प्रक्षेप करने में समर्थ है? हां, समर्थ है। ११६. से कहमिदाणिं पकरेति ? सः कथम् इदानीं प्रकरोति? ११६. वह यह कैसे करता है? गोयमा! छिंदिया-छिंदिया च णं पक्खि- गौतम! छित्त्वा-छित्त्वा च प्रक्षिपेत्, गौतम! वह पुरुष के सिर को छिन्न-छिन्न कर वेज्जा, भिंदिया-भिंदिया च णं पक्खि- भित्त्वा-भित्त्वा च प्रक्षिपेत्, कुट्टित्वा- उसका कमंडलु में प्रक्षेप करता है। भिन्नवेज्जा, कोट्टिया-कोट्टिया च णं पक्वि- कुट्टित्वा च प्रक्षिपेत्, चूर्णित्वा-चूर्णित्वा भिन्न कर उसका कमंडलु में प्रक्षेप करता है। वेज्जा, चुण्णिया-चुण्णिया च णं च प्रक्षिपेत्, ततः पश्चात् क्षिप्रमेव कूट-पीस कर उसका कमंडलु में प्रक्षेप करता पक्खिवेज्जा, तओ पच्छा खिप्पामेव प्रतिसंघातयेत्, नो चैव तस्य पुरुषस्य । है। उसे चूर्ण चूर्ण कर उसका कमंडलु में प्रक्षेप पडिसंघाएज्जा, नो चेव णं तस्स किंचित् आबाधां वा व्याबाधां वा करता है। उसके पश्चात् क्षण भर में ही सिर पुरिसस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उत्पादयेत्, छविच्छेदं पुनः करोति, का प्रतिसंधान कर देता है। उस पुरुष के उप्पाएज्जा, छविच्छेयं पुण करेइ, एसुहुमं इयत्सूक्ष्मं प्रक्षिपेत्। किञ्चित् आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न नहीं चणं पक्खिवेज्जा॥ करता, छविच्छेद भी करता है। वह इस कौशल के साथ सिर का कमण्डलु में प्रक्षेप करता है। भाष्य १. सूत्र ११३-११६ भी अव्याबाध का लोकान्तिक देव के रूप में उल्लेख किया है। प्रस्तुत आलापक में दिव्य शक्ति के कौशल का प्रतिपादन किया लोकान्तिक देव सम्यग् दृष्टि संपन्न होते हैं। सर्वार्थसिद्धि में भी इनके गया है। बारे में कुछ विशेष विवरण उपलब्ध हैं-'लोकान्तिक देव स्वतंत्र हैं। अव्याबाघ देव मनुष्य के अक्षि-पक्ष्म-आंख की पलक पर इनमें कोई हीन और अधिक नहीं हैं। विषय विरत होने के कारण देवबत्तीस प्रकार के नाटक का उपदर्शन करते हैं, फिर भी उस मनुष्य ऋषि कहलाते हैं। दूसरे देवों के लिए ये अर्चनीय है। ये चतुर्दश पूर्व के को कोई बाधा नहीं पहुंचाते, कष्ट नहीं देते, इसलिए इनकी संज्ञा धारक होते हैं। तीर्थंकर के निष्क्रमण के समय ये प्रतिबोध का दायित्व अव्याबाध है। निभाते हैं। लोकान्तिक देवों में अव्याबाध देव का उल्लेख है।' वृत्तिकार ने जंभगदेव-पदं ११७. अस्थि णं भंते! जंभगा देवा जंभगा देवा? हंता अत्थि॥ मुंभक देव पद ११७. भंते! जूभक देव जृभक देव हैं? जृम्भकदेव-पदम् अस्ति भदन्त! जम्भकाः देवाः जृम्भकाः देवाः? हन्त अस्ति। हां, हैं। ११८. से केणटेणं भंते! एवं बुचइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ११८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा जंभगा देवा जंभगा देवा? जम्भकाः देवाः, जम्भकाः देवाः? है-जंभक देव जंभक देव हैं? गोयमा! जंभगा णं देवा निचं पमदित- गौतम! जम्भकाः देवाः नित्यं प्रमदित- गौतम! जृम्भकाः देवाः नित्यं प्रमुदित- गौतम! Mभक देव नित्य प्रमुदित, बहुत गौत पक्कीलिया कंदप्परति-मोहणसीला। जे प्रक्रीडिताः कंदर्परति-मोहनशीलाः। यः क्रीडाशील, कंदर्प में रमण करने वाले और १ (क) भ. ६/११० ३. त. सू. भा. ४/२५ की वृत्ति । (ख) त. सू. ४/२६ ४. सर्वार्थसिद्धिः ४/२५ की वृत्ति-सर्वे एते स्वतंत्राः हीनाधिकत्वाभावात्, २. भ. वृ. १४/११३-व्याबाधन्ते-परं पीडयन्तीति व्याबाधस्तन्निषेधाद- विषयरतिविरहाद्देवर्षयः, इतरेषां देवानामर्चनीयाः, चतुर्दशपूर्वधराः व्याबाधाः, ते च लोकान्तिकदेवमध्यगताः द्रष्टव्याः । तीर्थकरनिष्क्रमणप्रतिबोधनपरा येदितव्याः । , Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ भगवई श. १४ : उ. ८ : सू. ११६-१२१ णं ते देवे कुद्धे पासेज्जा, से णं पुरिसे महतं अयसं पाउणेज्जा। जे णं ते देवे तुढे पासेज्जा, से णं महतं जसं पाउणेज्जा। से तेणटेणं गोयमा! एवं बुचइ-जंभगा देवा जंभगा देवा॥ तान् देवान् क्रुद्धान् पश्येत्, सः पुरुषः महान्तम् अयशः प्राप्नुयात्। यः तान् देवान् तुष्टान् पश्येत्, सः महान्तं यशः प्राप्नुयात्। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-जृम्भकाः देवाः जृम्भकाः देवाः। कामवासना प्रिय होते हैं। वे देव जिसे क्रुद्ध होकर देखते हैं, वह पुरुष महान अयश को प्राप्त होता है। वे देव जिसे तुष्ट होकर देखते हैं, वह पुरुष महान् यश को प्राप्त होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैमुंभक देव जुंभक देव हैं। ११६. कतिविहा णं भंते! जंभगा देवा कतिविधाः भदन्त! जृम्भकाः देवाः ११६. भंते ! Mभक देव कितने प्रकार के प्रज्ञप्त पण्णत्ता? प्रज्ञप्ताः? गोयमा! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम! दस प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-अन्न अन्नजंभगा, पाणजंभगा, वत्थजंभगा, अन्नजृम्भकाः, पानजृम्भकाः, वस्त्र- मुंभक, पान मुंभक, वस्त्र मुंभक, लयन लेणजंभगा, सयणजभगा, पुष्फजंभगा, जृम्भकाः, लयनजृम्भकाः, शयन- जुंभक, शयन मुंभक, पुष्प मुंभक, फल फलजंभगा, पुष्फ-फल-जंभगा, विज्जा- जृम्भकाः, पुष्पजृम्भकाः, फल- मुंभक, पुष्प-फल मुंभक, विद्या मुंभक, जंभगा, अवियत्तिजंभगा॥ जृम्भकाः, पुष्प-फल-जृम्भकाः, अव्यक्त ज़ुभक। विद्याजृम्भकाः, अव्यक्तिजृम्भकाः। १२०. भंते ! जूभक देव कहां निवास करते हैं? १२०. जंभगा णं भंते! देवा कहि वसहि जम्भकाः भदन्त! देवाः कुत्र वसतिम् उर्वति? उपयान्ति? गोयमा! सव्वेसु चेव दीहवेयढेसु, गौतम! सर्वेषु चैव दीर्घवैताढ्येषु, चित्र- चित्तविचित्तजमगपब्वएस, कंचणपन्चएस विचित्र-यमक-पर्वतेष, काञ्चन-पर्वतेष य, एत्थ णं जंभगा देवा वसहि उवेंति॥ च, अत्र जृम्भकाः देवाः वसतिम उपयान्ति। गौतम! सब दीर्घ वैताढ्य पर्वतों पर चित्रकूट, विचित्रकट, यमक पर्वत पर्वतों पर-इन स्थानों पर जंभक देव निवास करते हैं। १२१. जंभगाणं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! एग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता॥ जम्भकानां भदन्त! देवानां कियत् कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? गौतम! एकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता। १२१. भंते! जंभक देवों की स्थिति कितने काल की प्रज्ञप्त है? गौतम! एक पल्योपम की स्थिति प्रज्ञप्त है। भाष्य १. सूत्र ११७-१२१ नीलवान द्रह हैं। उनके पूर्व पश्चिम तटों पर दस-दस काञ्चन पर्वत हैं। प्रस्तुत आलापक में जृभक देवों के कार्य और प्रकारों का निरूपण इस प्रकार उत्तरकुरु में सौ काञ्चन पर्वत हैं। किया गया है। ये व्यंतर जाति के देव हैं। ये स्वच्छंद विहार करने वाले देवकुरु में शीतोदा नदी के निषध आदि पांच द्रहों के दोनों तटों हैं। ये तुष्ट होकर अनुग्रह तथा रुष्ट होकर निग्रह करते रहते हैं। इनका पर दस-दस कांचन पर्वत हैं। इस प्रकार देवकुरु में सौ काञ्चन पर्वत निवास-स्थान तिर्यक् लोक में है। सूत्रकार ने इनके निम्नवर्ती निवास- अवस्थित हैं। स्थान बतलाए हैं प्रज्ञापना में व्यंतर देवों के असंख्येय भौमेय नगरावास बतलाए . दीर्घ वैताढ्य पर्वत-ये दीर्घ विजयार्ध में अवस्थित हैं। पांच गए हैं। भरत, पांच ऐरावत और पांच महाविदेह-इनमें इनकी संख्या एक सौ शब्द-विमर्श सत्तर है। अन्न भक-भोजन के अभाव और सद्भाव, अल्पता और बहुता, • चित्रकूट विचित्रकूट पर्वत-इनकी अवस्थिति देवकुरु समूह में सरसता और नीरसता-आदि आदि क्रिया के संपादन में समर्थ भक। शीतोदा नदी के दोनों किनारों पर है। पान मुंभक-पानी के अभाव और सद्भाव, अल्पता और बहुता, • यमक पर्वत की अवस्थिति उत्तरकुरु समूह में शीता नदी के सरसता और नीरसता-आदि आदि क्रिया के संपादन में समर्थ भक तट पर है। • काञ्चन पर्वत-ये उत्तरकुरु समूह में शीता नदी से संबद्ध पांच २. पण्ण. २/४१-४७। १. (क) भ. वृ. १४/११७-१२१॥ (ख) भ. जो. ढा. ३०२, गाथा ५२-५७। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२७ श. १४ : उ. ८ : सू. १२२ वस्त्र जंभक-वस्त्र को घटाने-बढाने आदि की शक्ति वाले भक पुष्प-फल जुंभक-पुष्प-फल दोनों की सुरक्षा और विनाश में समर्थ देव। जुंभक देव। लयन जुंभक- मकान आदि की सुरक्षा और विनाश में समर्थ विद्या भक-विद्या को न्यून और अधिक करने की शक्ति वाले जुभंक देव। मुंभक देव। शयन भक-शय्या आदि की सुरक्षा और विनाश में समर्थ भक अव्यक्त भक-पूर्ववर्ती जुंभक एक-एक क्रिया के संपादन में देव। समर्थ होते हैं। अव्यक्त जुंभक के क्रिया संपादन का कोई विभाग नहीं पुष्प जूंभक-पुष्प की रक्षा और विनाश में समर्थ जुंभक देव। होता। वे संभवतः अनेक क्रियाओं के संपादन में समर्थ होते हैं। जयाचार्य फल भक-फल की रक्षा और विनाश में समर्थ भक देव। के अनुसार नाटक प्रमुख आदि के बिगाड़ने और सुधारने की शक्ति वाले मुंभक देव। १२२. सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। १२२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है यावत् विहरण करने लगे। १. भ. जो. ढा. ३०२ गाथा ४५॥ २. भ. वृ. १४/११७-१२१॥ ३. भ. जो. ढा.३०२ गाथा ४५ : विद्या मुंभक ते पर विद्या, उणी अधिक करीजिये। नाटक प्रमुख विगाड़े सुधारे, ते अव्यक्त जुंभगा लीजिए॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल सरूवि सकम्मलेस्स - पदं १२३. अणगारे णं भंते! भावियप्पा अपणो कम्मलेस्सं न जाणइ, न पासइ, तं पुण जीवं सरूविंसकम्मलेस्सं जाणइ पासइ ? हंता गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अपणो कम्मलेस्सं न जाणइ, न पासइ, पुण 'जीवं सरूविंसकम्मलेस्सं जाणइ तं पासइ ॥ १२४. अत्थि णं भंते! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति उज्जोएंति तवेंति पभासेंति ? हंता अत्थि ॥ १२५. कयरे णं भंते! सरूवी सकम्मलेसा पोग्गला ओभासेंति जाव पभासेंति ? गोयमा ! जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेस्साओ बहिया अभिनिस्सडाओ पभासेंति, एवं एए णं गोयमा ! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति उज्जोएंति तवेंति पभासेंति ॥ नवमो उद्देसो : नवां उद्देशक संस्कृत छाया सरूपि-सकर्मलेश्या-पदम् अनगारः भदन्त ! भावितात्मा आत्मनः कर्मलेश्यां न जानाति, न पश्यति, तत् पुनः जीवं सरूपिणं सकर्मलेश्यं जानाति पश्यति? हन्त गौतम! अनगारः भावितात्मा आत्मनः कर्मलेश्यां न जानाति, न पश्यति, तत् पुनः जीवं सरूपिणं सकर्मलेश्यं जानाति पश्यति । अस्ति भदन्त ! सरूपिणः सकर्म लेश्याः पुद्गलाः अवभासन्ते उद्योतन्ते तपन्ति प्रभासन्ते ? हन्त अस्ति । कतरे भदन्त ! सरूपिणः सकर्मलेश्याः पुद्गलाः अवभासन्ते यावत् प्रभासन्ते? गौतम! या इमाः चन्द्रमस्-सूर्याणां देवानां विमानेभ्यः लेश्याः बहिः अभिनिस्सृतान् प्रभासन्ते एवं एते गौतम! ते सरूपिणः सकर्मलेश्याः पुद्गलाः अवभासन्ते उद्योतन्ते तपन्ति प्रभासन्ते । भाष्य १. सूत्र १२३-१२५ प्रस्तुत आलापक में भावितात्मा, कर्मलेश्या, सरूपी और सकर्मलेश्या - ये चार पद विमर्शनीय हैं। भावितात्मा के लिए द्रष्टव्य भगवई १२ / १४६ - १६६ का भाष्य । वृत्तिकार ने कर्मलेश्या का पहला अर्थ कर्म के योग्य लेश्या तथा दूसरा अर्थ कर्म की लेश्या किया है। द्रष्टव्य भगवई १४/१ का भाष्य । भावितात्मा अनगार अपनी कर्म लेश्या को नहीं जानता, नहीं १. भ. वृ. १४/१२४ - १२५ कृष्णादिलेश्यायाः कर्मद्रव्यश्लेषणस्य चातिसूक्ष्मत्वेन छद्मस्थज्ञानागोचरत्वात्। २. भ. वृ. १४/१२५ यो जीवः कर्म्मलेश्यावांस्तं पुनः जीवम् आत्मानं सरूविं ति हिन्दी अनुवाद सरूप-सकर्म लेश्या पद १२३. भंते! भावितात्मा अनगार अपनी कर्म लेश्या को नहीं जानता, नहीं देखता और सरूप तथा सकर्म लेश्या वाले उस जीव को जानता देखता है? हां गौतम ! भावितात्मा अनगार अपनी कर्म लेश्या को नहीं जानता, नहीं देखता और सरूप तथा सकर्म लेश्या वाले उस जीव को जानता देखता है। १२४. भंते! क्या सरूप और सकर्म लेश्या वाले पुद्गल अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करते हैं ? हां, करते हैं। १२५. भंते! कौनसे सरूप और सकर्मलेश्या वाले पुद्गल अवभासित यावत् प्रभासित करते हैं ? गौतम ! जैसे इन चंद्र-सूर्य देवों के विमानों से बाहर निकलने वाली प्रकाश रश्मियां प्रभासित करती हैं। इसी प्रकार गौतम! सरूप और कर्म लेश्या के पुद्गल अवभासित, उद्योतित, तप्त और प्रभासित करते हैं। देखता । वृत्तिकार के अनुसार इसका आशय यह है-कर्म लेश्या और कर्म द्रव्य के श्लेष में हेतुभूत परमाणु स्कंध अति सूक्ष्म हैं इसलिए वे छद्मस्थ के ज्ञान का विषय नहीं बनते।' भावितात्मा अनगार शरीर और आभामंडल के माध्यम से जीव को जानता देखता है।' आत्मा अमूर्त है और उसकी चैतन्य रश्मियां भी अमूर्त हैं। हम उसको नहीं जान सकते, नहीं देख सकते। शरीर जीव के ही होता है सहरूपेण-रूपरूपवतोरभेदाच्छरीरेण वर्तते योऽसौ समासान्तविधेः सरुपी तं सरूपिणं सशरीरमित्यर्थः अत एव सकर्म्मलेश्यं कर्म्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति, शरीरस्य चक्षुग्राह्यत्वाज्जीवस्य च कथञ्चित् शरीराव्यतिरेकादिति । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २२६ श. १४: उ. ६ : सू. १२६-१२६ इसलिए यह जीव का निश्चित लक्षण है। अनियत अथवा परिवर्तन- निकलने वाली रश्मियों में भी अवभास, उद्योत, ताप और प्रभास होता शील आभामंडल जीव के ही होता है। यह भी जीव का निश्चित है, इसी प्रकार शरीर और आभामंडल से निकलने वाली रश्मियों में भी लक्षण है। अवभास, उद्योत, ताप और प्रभास होता है। शरीर और कर्मलेश्या के पुद्गल अवभासित, उद्योतित, तप्त आभामंडल-तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई १/६०-१०० तथा और प्रभासित होते हैं। इससे स्पष्ट है कि जैसे शरीर पौद्गलिक है, वैसे १/१०२ का भाष्य। ही कर्म लेश्या भी पौद्गलिक है। तात्पर्य में वह आभामंडल है। वृत्तिकार ने चंद्र आदि के विमान के पुद्गल को पृथ्वीकायिक आभामंडल के पुद्गल-परमाणु स्कंधों में अवभास, उद्योत,ताप जीव मानकर कर्म लेश्या की व्याख्या की है। उपचार से विमान से और प्रभास की शक्ति होती है। उनकी तुलना चंद्र और सूर्य के विमानों निकलने वाले पुद्गलों को भी कर्मलेश्यत्व बतलाया है।' से बाहर निकलने वाली रश्मियों के साथ की गई है। जैसे चंद्र-सूर्य से जयाचार्य ने वृत्तिकार के अभिमत पर विशद विमर्श किया है। अत्ताणत्त-पोग्गल-पदं आत्राणत्व-पुद्गल-पदम् आत्मा-अनात्मा-पुद्गल पद १२६. नेरइयाणं भंते! किं अत्ता नैरयिकानां भदन्त! किम् आप्ताः १२६. भंते! क्या नैरयिकों के पुद्गल पोग्गला? अणत्ता पोग्गला? आप्त-रमणीय हैं? गोयमा! नोअत्ता पोग्गला, अणत्ता गौतम! नो आप्ताः पुद्गलाः, अनाप्ताः । गौतम! नैरयिकों के पुदगल आप्त नहीं हैं, पोग्गला॥ पुद्गलाः। उनके पुद्गल अनाप्त हैं। १२७. असुरकुमाराणं भंते! किं अत्ता असुरकुमाराणां भदन्त! किम् आप्ताः पोग्गला? अणत्ता पोग्गला? पुद्गलाः? अनाप्ताः पुद्गलाः? गोयमा! अत्ता पोग्गला, नो अणत्ता गौतम! आप्ताः पुद्गलाः, नो अनाप्ताः पोग्गला। एवं जाव थणियकुमाराणं॥ पुद्गलाः। एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम्। १२७. भंते ! क्या असुरकुमारों के पुद्गल आप्त हैं? पुद्गल अनाप्त हैं? गौतम! असुरकुमारों के पुद्गल आप्त हैं, उनके पुद्गल अनाप्त नहीं हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार की वक्तव्यता। १२८. पुढविकाइयाणं भंते! किं अत्ता पृथिवीकायिकानां भदन्त! किम् आप्ताः १२८. भंते! क्या पृथ्वीकायिक जीवों के पुद्गल पोग्गला? अणत्ता.पोग्गला? पुद्गलाः? अनाप्ताः पुद्गलाः? आप्त हैं? पुद्गल अनाप्त हैं? गोयमा! अत्ता वि पोग्गला, अणत्ता वि गौतम! आप्ताः अपि पुद्गलाः, अनाप्ताः गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के पुद्गल आप्त पोग्गला। एवं जाव मणुस्साणं। ___ अपि पुद्गलाः। एवं यावत् मनुष्याणाम्। भी हैं और अनाप्त भी हैं। इसी प्रकार यावत् वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा वानमन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकानाम् मनुष्यों की वक्तव्यता। वाणमंतरों, असुरकुमाराणं॥ यथा असुरकुमाराणाम्। ज्योतिष्कों और वैमानिकों की असुरकुमार की भांति वक्तव्यता। इट्ठाणिट्ठादि-पोग्गल-पदं इष्टानिष्टादि-पुद्गल-पदम् १२६. नेरइयाणं भंते! किं इट्टा पोग्गला? नैरयिकाणां भदन्त ! किं इष्टाः पुद्गलाः? अणिट्टा पोग्गला? अनिष्टाः पुद्गलाः? गोयमा! नो इट्ठा पोग्गला, अणिट्ठा गौतम! नो इष्टाः पुद्गलाः, अनिष्टाः पोग्गला। जहा अत्ता भणिया एवं इट्टा पुद्गलाः। यथा आप्ताः (अत्ता) भणिताः वि, कंता वि, पिया वि, मणुण्णा वि एवं इष्टाः अपि, कान्ताः अपि, प्रियाः भाणियब्वा। एए पंच दंडगा॥ अपि, मनोज्ञाः अपि भणितव्याः। एते पञ्च दण्डकाः। इष्ट-अनिष्ट आदि पुद्गल पद १२६. भंते! क्या नैरयिकों के पुद्गल इष्ट हैं? पुद्गल अनिष्ट हैं? गौतम! नैरयिकों के पुद्गल इष्ट नहीं हैं, उनके पुद्गल अनिष्ट हैं। जैसे आप्त की भणिति है, वैसे ही इष्ट, कांत, प्रिय और मनोज्ञ पुद्गलों की वक्तव्यता। ये पांच दंडक हैं। भाष्य १. सूत्र १२६-१२६ के अनुसार इसका अर्थ है रमणीय। वृत्ति में अत्त का एक अर्थ आत्र-दुःख ___ आप्त पद के मुख्य संस्कृत रूप तीन बनते हैं-आत्म, आप्त और से त्राण देने वाला किया है। यह बलात् किया गया जैसा प्रतीत होता आर्त। प्रस्तुत प्रकरण में आप्त शब्द अधिक प्रासंगिक है। वृद्ध व्याख्या है। १. भ. वृ. १४/१२५ इह च यद्यपि चन्द्रादिविमानपुद्गला एव पृथ्वीकायिकत्वेन २. भ. जो. ढा. ३०२ गा. १२-४३॥ सचेतनत्वात् सकर्मलेश्यास्तथाऽपि तन्निर्गतप्रकाशपुद्गलानां ३. भ. पृ. १४/१२६ आ-अभिविधिना त्रायन्ते-दुःखात् संरक्षन्ति सुखं तद्धेतुकत्वेनोपचारात् सकर्मलेश्यत्वमवगंतव्यमिति। चोत्पादयन्तीति आत्रा: आप्ता वा-एकान्तहिता: अत एव रमणीया इति कुद्वैारख्यातं। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ.६:सू. १३०-१३४ २३० भगवई देवाणं भासासहस्स-पदं १३०. देवे णं भंते! महिहिए जाव महेसक्वे रूवसहस्सं विउब्वित्ता पभू भासासहस्सं भासित्तए? हंता पभू॥ देवानां भाषासहस्र-पदम् देवः भदन्त! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः रूपसहसं विकृत्य प्रभुः भाषासहसं भाषितुम्? . हन्त प्रभुः। देवों का सहस्र-भाषा पद १३०. भंते! महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव हजार रूपों का निर्माण कर सहस्र भाषाएं बोलने में समर्थ हैं? हां, समर्थ हैं। १३१. सा णं भंते! किं एगा भासा? भासासहस्सं? गोयमा! एगा णं सा भासा, नो खलु तं भासासहस्सं॥ सा भदन्त! किम् एका भाषा? भाषा- १३१. भंते! क्या वह एक भाषा है? सहस्त्र सहस्रम्। भाषा है? गौतम! एका सा भाषा, नो खलु तत् गौतम! वह एक भाषा है, वह सहस्र भाषा भाषासहस्रम्। नहीं है। भाष्य १.सूत्र १३०-१३१ देवों की विक्रिया के विषय में एक विस्तृत विवरण तीसरे शतक में उपलब्ध है। प्रस्तुत आलापक में विक्रिया के साथ भाषा के विषय में जिज्ञासा की गई है। जिज्ञासा यह है-हजार रूप और हजार भाषा-यह उचित है अथवा हजार रूप और एक भाषा-यह उचित है? इस जिज्ञासा के उत्तर में भगवान् ने कहा-रूप हजार, पर भाषा एक होती है। वृत्तिकार ने इसका विवेचन किया है। उसका आशय यह है-भाषा उपयोग पूर्वक (चैतसिक प्रवृत्ति पूर्वक) बोली जाती है। एक जीव के एक समय में एक ही उपयोग होता है इसलिए एक जीव के हजार रूपों की भाषा एक ही होती है। सूरिय-पदं सूर्य-पदम् १३२. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं तस्मिन् काले तस्मिन् समये भगवान् गोयमे अचिरुग्गयं बालसूरियं ___ गौतमः अचिरोद्गतं बालसूर्यं जपाजासुमणाकुसुमपुंजप्पकासं लोहितगं सुमनस्-कुसुमपुञ्जप्रकाशं लोहितकं पासइ, पासित्ता जायसहे जाव पश्यति, दृष्टा जातश्रद्धः यावत् समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं समुत्पन्नकुतूहलः यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणआयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता णचासण्णे नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा नमंसमाणे नात्यासन्नः नातिदूरं शुश्रूषमाणः अभिमुहे विणएणं पंजलियडे नमस्यन् अभिमुखः विनयेन पज्जुवासमाणे एवं वयासी प्राञ्जलिपुटः पर्युपासीनः एवमवादीत्किमिदं भंते! सूरिए ? किमिदं भंते! किम् अयं भदन्त! सूर्यः? किम् अयं सूरियस्स अहे? भदन्त! सूर्यस्यार्थः? गोयमा! सुभे सूरिए, सुभे सूरियस्स गौतम! शुभः सूर्यः, शुभः सूर्यस्यार्थः । अटे॥ सूर्य पद १३२. उस काल उस समय, भगवान् गौतम ने सद्यः उदित हुए जवाकुसुम पुञ्ज के प्रकाश के समान रक्तिम बाल सूर्य को देखा। देखकर एक श्रद्धा थावत् कुतूहल प्रबलतम बना। जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर को दांई ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, वंदन-नमस्कार करते हैं। वंदन-नमस्कार कर न अति निकट न अति दूर, शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धांजलि होकर पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोलेभंते! यह सूर्य क्या है? भंते! सूर्य का अर्थ क्या है? गौतम! सूर्य शुभ है, सूर्य का अर्थ शुभ है। १३३. किमिदं भंते ! सरिए ? किमिदं भंते! सूरियस्स पभा? गोयमा! सुभे सूरिए, सुभा सूरियस्स पभा॥ किम् अयं भदन्त! सूर्यः? किम् इयं भदन्त! सूर्यस्य प्रभा? गौतम! शुभः सूर्यः, शुभा सूर्यस्य प्रभा। १३३. भंते! यह सूर्य क्या है? भंते! सूर्य की प्रभा क्या है? गौतम! सूर्य शुभ है, सूर्य की प्रभा शुभ है। १३४. किमिदं भंते सूरिए ? किमिदं भंते! किम् अयं भदन्त! सूर्यः? किम् इयं १३४. भंते! यह सूर्य क्या है? भंते! सूर्य की सूरियस्स छाया? भदन्त! सूर्यस्य छाया? छाया क्या है? १. भगवई ३/४-२३। जीवस्यैकदा एक एबोपयोग इष्यते। ततश्च यदा सत्यायन्यतरस्यां भाषायां वर्तते, २. भ. वृ. १४/१३०-१३१ एकाऽसौ भाषा, जीवैकत्वेनोपयोगैकत्वात्, एकस्य तदा नान्यस्यामित्येकैव भाषा। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३१ गोयमा! सुभे सूरिए, सुभा सूरियस्स गौतम! शुभः सूर्यः, शुभा सूर्यस्य छाया। छाया॥ श. १४ : उ. ६ : सू. १३५-१३६ गौतम! सूर्य शुभ है, सूर्य की छाया शुभ है। १३५. किमिदं भंते ! सरिए ? किमिदं भंते! सूरियस्स लेस्सा? गोयमा! सुभे सूरिए, सुभा सूरियस्स लेस्सा॥ किम् अयं भदन्त! सूर्यः? किम् इयं भदन्त! सूर्यस्य लेश्या? गौतम! शुभः सूर्यः, शुभा सूर्यस्य लेश्या। १३५. भंते ! यह सूर्य क्या है? भंते! सूर्य की लेश्या क्या है? गौतम! सूर्य शुभ है, सूर्य की लेश्या शुभ है। भाष्य १.सूत्र १३२-१३५ वृत्तिकार ने बतलाया है- सूर्य का विमान पृथ्वीकायिक जीवमय इस आलापक की व्याख्या पांचवें शतक (सूत्र २३६-२३८) के है। उन जीवों के आतप नाम कर्म की पुण्य प्रकृति का उदय है इसलिए आधार पर की जा सकती है। वहां बतलाया गया है-'दिन में पुद्गल वह लोक में प्रशस्त रूप में प्रतिष्ठित है। शुभ होते हैं और पुद्गल का परिणमन भी शुभ होता है।' सूर्य शब्द का अर्थ निरुक्त के आधार पर किया गया है-जो शूर सूर्य की विद्यमानता में पुद्गल का परिणमन शुभ होता है इसलिए व्यक्तियों के लिए-क्षमाशूर, तपःशूर, दान-शूर, संग्राम-शूर आदि के सूर्य को शुभ कहा गया है। सूर्य की प्रभा, छाया और लेश्या-ये स्वयं लिए हितकर होता है तथा जो शूर व्यक्तियों में साधु होता है, वह सूर्य शुभ हैं, शुभ पुद्गलों के परिणमन का हेतु बनते हैं इसलिए इन्हें शुभ है।' कहा गया है। समणाणं तेयलेस्सा-पदं श्रमणानां तेजोलेश्या-पदम् श्रमणों का तेजोलेश्या पद १३६. जे इमे भंते! अज्जत्ताए समणा ये इमे भदन्त! आर्यतया श्रमणाः १३६. भंते ! जो ये श्रमण निग्रंथ आर्य रूप में निग्गंथा विहरंति, ते णं कस्स तेयलेस्सं निर्ग्रन्थाः विहरन्ति, ते कस्य तेजोलेश्यां विहार करते हैं, वे किसकी तेजोलेश्या का वीईवयंति? व्यतिव्रजन्ति? व्यतिक्रमण करते हैं? गोयमा! मासपरियाए समणे निग्गंथे गौतम! मासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः गौतम! एक मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। वानमन्तराणां देवानां तेजोलेश्यां वाणमंतर देवों की तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण व्यतिव्रजति। करता है। दुमासपरियाए समणे निग्गंथे । द्विमासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः दो मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ असुरअसुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं असुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासिनां देवानां कुमार को छोड़कर शेष भवनवासी देवों की तेयलेस्सं वीईवयइ। तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति। तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण करता है। एवं एएणं अभिलावणं-तिमासपरियाए। एवम् एतेन अभिलापेन-त्रिमासपर्यायः इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार तीन समणे निग्गथे असुरकुमाराणं देवाणं श्रमणः निर्ग्रन्थः असुरकुमाराणां देवानां मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ असुरकुमार तेयलेस्सं वीईवयइ। तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति। देवों की तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण करता है। चउम्मासपरियाए समणे निग्गंथे गह- चतुर्मासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः ग्रह- चार मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ ग्रह-गण गण-नक्खत्त-तारारूवाणं जोतिसियाणं गण-नक्षत्र-तारारूपाणां ज्योतिष्कानां नक्षत्र, तारा रूप ज्योतिष्क देवों की देवाणं तेयलेस्स वीईवयइ। देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति। तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण करता है। पंचमासपरियाए समणे निग्गंधे चंदिम- पञ्चमासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः चन्द्र- पांच मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ सरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसराईणं मस्सूर्याणां ज्यौतिषेन्द्राणां ज्योती- ज्योतिषेन्द्र जयोतिषराज चंद्र-सूर्य की तेयलेस्सं वीईवयइ। राजानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजति। तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण करता है। छम्मासपरियाए समणे निग्गंथे सोहम्मी- षण्मासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः सौधर्मे- छह मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ सौधर्मसाणाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। शानानां देवानां तेजोलेश्या व्यतिव्रजति। ईशान देवों की तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण करता है। सत्तमासपरियाए समणे निग्गंथे सप्तमासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः सात मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ सणंकुमार-माहिंदाणं देवाणं तेयलेस्सं सनत्कुमार-माहेन्द्राणां देवानां सनत्कुमार-माहेन्द्र देवों की तेजोलेश्या का वीईवयइ। तेजोलेश्या व्यतिव्रजति। व्यतिक्रमण करता है। १. भ. पृ. १४/१३३-१३५-शुभस्वरूपं सूर्यवस्तु, सूर्यविमान पृथ्वीकायिका- ज्योतिषकेन्द्रत्वाच तथा शुभः सूर्यशब्दार्थस्तथाहि सूरेभ्यः क्षमातपोदान नामातपाभिधानपुण्यप्रकृत्युदयवर्तित्वात् लोकेऽपि प्रशस्ततया प्रतीतत्वात् संग्रामादिवीरेभ्यो हितः सूरेषु वा साधुः सूर्यः । , Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ श. १४ : उ. ६ : सू. १३७ भगवई अट्टमासपरियाए समणे निग्गथे । अष्टमासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः । आठ मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ बंभलोग-लंतगाणं देवाणं तेयलेस्सं ब्रह्मलोक-लान्तकानां देवानां । ब्रह्मलोक-लांतक देवों की तेजोलेश्या का वीईवयइ। तेजोलेश्या व्यतिव्रजति। व्यतिक्रमण करता है। नवमासपरियाए समणे निग्गंथे महा- नवमासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः नौ मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ महाशुक्रसुक्क-संहस्साराणं देवाणं तेयलेस्सं महाशुक्र-सहखाराणाम् देवानां तेजो- सहस्त्रार देवों की तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण वीईवयइ। लेश्या व्यतिव्रजति। करता है। दसमासपरियाए समणे निग्गंथे आणय- दशमासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः आनत- दस मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ आनतपाणय-आरणचुयाणं देवाणं तेयलेस्सं प्राणत-आरणा-च्युतानां देवानां तेजो- प्राणत, आरण और अच्युत देवों की वीईवयइ। लेश्यां व्यतिव्रजति। तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण करता है। एक्कारसमासपरियाए समणे निग्गंथे एकादशमासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः ग्यारह मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ ग्रैवेयक गेवेज्जगाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ।। ग्रैवेयकानां देवानां तेजोलेश्यां देवों की तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण करता है। व्यतिव्रजति। बारसमासपरियाए समणे निग्गंथे द्वादशमासपर्यायः श्रमणः निर्ग्रन्थः बारह मास पर्याय वाला श्रमण निग्रंथ अणुत्तरोवबाइयाणं देवाणं तेयलेस्सं अनुत्तरोपपातिकानां देवानां तेजोलेश्यां अनुत्तरोपपातिक देवों की तेजोलेश्या का वीईवयइ। व्यतिव्रजति। व्यतिक्रमण करता है। तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए भवित्ता तेन परं शुक्लः शुक्लाभिजातः भूत्वा उससे आगे शुक्ल, शुक्लाभिजात होकर तओ पच्छा सिज्झति बुज्झति मुचति ततः पश्चात् सिध्यति 'बुज्झति' उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिब्वायति सम्बदक्खाणं अंतं मुच्यते परिनिर्वाति सर्वदुःखानाम् अन्तं परिनिर्वृत होता है, सब दुःखों का अंत करता करेति॥ करोति। भाष्य १. सूत्र १३६ की लेश्या विकसित होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर देवों की तेजोलेश्या प्रस्तुत सूत्र में देवों क. तेजोलेश्या और साधनाजन्य तेजोलेश्या विकसित होती है। का तुलनात्मक विमर्श किया गया है। इस विषय में आर्य शब्द पर आर्यत्व की साधना करने वाला श्रमण निग्रंथ एक वर्ष के साधना ध्यान देना आवश्यक है। जो श्रमण निग्रंथ आर्य रूप में विहार करते हैं, काल में अनुत्तर विमान के देवों की तेजोलेश्या का व्यतिक्रमण कर वे देवों की तेजोलश्या का अतिक्रमण कर देते हैं। देता है। उसके पश्चात् वह शुक्ल, शुक्लाभिजात होकर सिद्ध हो जाता 'जो हेय धर्म का परित्याग कर चुका है, वह आर्य है-यह आर्य पद का सामान्य अर्थ है। प्रज्ञापना में नौ प्रकार के आर्य बतलाए गए हैं, वृत्तिकार ने तेजोलेश्या का अर्थ सुखासिका किया है। शुक्ल उनमें तीन प्रकार हैं-ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य।' प्रस्तुत प्रकरण शब्द शुक्ल लेश्या की ओर संकेत करता है। शुक्लाभिजात शब्द परम में ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य विवक्षित हैं। ज्ञान, दर्शन और शुक्ल लेश्या की ओर संकेत करता है। वृत्तिकार ने इनके लक्षणों का चारित्र की सम्यक् आराधना करने वाले श्रमण की तेजोलेश्या उत्तरोत्तर भी निर्देश दिया है। विकसित होती जाती है। व्यंतर देवों से असुरेन्द्र वर्जित भवनपति देवों १३७. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। १३७. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे। १. पण्ण, १/१२। २. भ. वृ. १४/१३६-तेजोलेश्या-सुखासिका, तेजोलेश्या हि प्रशस्त लेश्योपलक्षणं सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचारात् तेजोलेश्या शब्देन सुखासिका विवक्षितेति। ३. भ. वृ. १४/१३६। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल केवलि - पदं १३८. केवली णं भंते! छउमत्थं जाणड़पासइ ? हंता जाणइ पासइ ॥ १३६. जहा णं भंते! केवली छउमत्थं जाणइ-पास, तहा णं सिद्धे वि छउमत्थं जाणइ पासइ ? हंता जाणइ-पास ॥ १४०. केवली णं भंते! आहोहियं जाणइपासइ ? एवं चैव । एवं परमाहोहियं, एवं केवलिं एवं सिद्धं जाव १४१. जहा णं भंते! केवली सिद्धं जाणइपासइ, तहा णं सिद्धे वि सिद्धं जाणइपासइ ? हंता जाणइ पासइ ॥ १४२. केवली णं भंते! भासेज्ज वा ? वागरेज्ज वा ? हंता भासेज्ज वा, वागरेज्ज वा ॥ १४३. जहा णं भंते! केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा, तहा णं सिद्धे वि भासेज्ज वा वागरेज्ज वा ? नोट्ठे समट्ठे ॥ १४४. से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ - जहा पं केवली भासेज्ज वा बागरेज्ज वा नो तहा णं सिद्धे भासेज्ज वा वागरेज्ज वा ? गोयमा ! केवली णं सउट्टाणे सकम्मे दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक संस्कृत केवलि-पदम् केवली भदन्त ! छद्मस्थं जानाति - पश्यति? हन्त जानाति पश्यति । यथा भदन्त ! केवली छद्मस्थं जानाति - पश्यति, तथा सिद्धोऽपि छद्मस्थं जानाति पश्यति । हन्त जानाति पश्यति । केवली भदन्त ! आधोवधिकं जानातिपश्यति? एवं चैव । एवं परमाधोवधिकं, एवं केवलिनं, एवं सिद्धं यावत् यथा भदन्त ! केवली सिद्धं जानाति - पश्यति, तथा सिद्धोऽपि सिद्धं जानाति पश्यति? हन्त ! जानाति पश्यति । यथा भदन्त ! केवली भाषेत वा व्याकुर्यात् वा, तथा सिद्धोऽपि भाषेत वा व्याकुर्यात् वा? नो अयमर्थः समर्थः । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - यथा केवली भाषेत वा व्याकुर्यात् वा नो तथा सिद्धः भाषेत वा व्याकुर्यात् वा? गौतम! केवली सोत्थानः सकर्मा सबलः हिन्दी अनुवाद केवली पद १३८. भंते! क्या केवली छद्मस्थ को जानता देखता है ? हां, जानता-देखता है। १३६. भंते! जैसे केवली छद्मस्थ को जानतादेखता है, वैसे सिद्ध भी छद्मस्थ को जानतादेखता है ? हां, जानता-देखता है। केवली भदन्त ! भाषेत वा? व्याकुर्यात् १४२. भंते! क्या केवली बोलते हैं ? व्याकरण वा? करते हैं ? हन्त भाषेत वा, व्याकुर्यात् वा । हां, बोलते हैं, व्याकरण करते हैं। १४०. भंते! केवली आधोवधिक को जानतादेखता है ? पूर्ववत् । इसी प्रकार केवली परमाधोवधिक को जानता देखता है। इसी प्रकार केवली को जानता देखता है। इसी प्रकार सिद्ध को जानता देखता है यावत् । १४१. भंते! जैसे केवली सिद्ध को जानतादेखता है, वैसे सिद्ध भी सिद्ध को जानतादेखता है। हां, जानता देखता है। १४३. भंते! जैसे केवली बोलते हैं, व्याकरण करते हैं, वैसे सिद्ध भी बोलते हैं ? व्याकरण करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। १४४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - जैसे केवली बोलते हैं, व्याकरण करते हैं, वैसे सिद्ध नहीं बोलते, व्याकरण नहीं करते ? गौतम ! केवली सउत्थान, सकर्म, सबल, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १४ : उ. १०: सू. १४५ - १५१ सबले सवीरिए सपुरिसक्कार - परक्कमे, सिद्धे णं अणुट्टाणे अकम्मे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार- परक्कमे । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-जहा णं केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा नो तहा णं सिद्धे भासेज्ज वा वागरेज्ज वा ॥ १४५. केवली णं भंते! उम्मिसेज्ज वा ? निम्मिसेज्ज वा ? हंता उम्मिसेज्ज वा, निम्मिसेज्ज वा ॥ १४६. जहा णं भंते! केवली उम्मिसेज्ज वा, निम्मिसेज्ज वा, तहा णं सिद्धे वि उम्मिसेज्ज वा निम्मिसेज्ज वा ? नो इट्ठे समट्ठे । एवं चैव । एवं आउंटेज्ज वा पसारेज्ज वा, एवं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएज्जा ॥ १४७. केवली णं भंते! इमं रयणप्पभं पुढविं रयणप्पभापुढवीति जाणइ - पासइ ? हंता जाणइ - पास ॥ १४८] जहा णं भंते! केवली इमं रयणप्पभ्रं पुढवं रयणप्पभापुढवीत जाणइ - पासइ, तहा णं सिद्धे वि इमं रयणप्पभं पुढविं रणभापुढवीत जाणड़-पासइ ? हंता जाणड़-पास ॥ १४६. केवली णं भंते! सक्करप्पभं पुढविं सक्करप्पभापुढवीति जाणड़-पासइ ? एवं चेव । एवं जाव असत्तमं ॥ १५१. केवली णं भंते! गेवेज्जविमाणं गेवेज्जविमाणे त्ति जाणइ-पासइ ? २३४ सवीर्यः सपुरुषाकार पराक्रमः, सिद्धः अनुत्थानः अकर्मा अबलः अवीर्यः अपुरुषाकार-पराक्रमः । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-यथा केवली भाषेत वा व्याकुर्यात् वा नो तथा सिद्धः भाषेत वा व्याकुर्यात् वा । केवली भदन्त ! उन्मिषेत् वा? निमिषेत् वा? हन्त उन्मिषेत् वा, निमिषेत् वा । यथा भदन्त ! केवली उन्मिषेत वा, निमिषेत् वा, तथा सिद्धोऽपि उन्मिषेत् वा निमिषेत् वा? नो अयमर्थः समर्थः । एवं चैव । एवम् आकुञ्चेत् वा प्रसारयेत् वा, एवं स्थानम् वा, शय्यां वा, निषीधिकां वा चेतयेत् । केवली भदन्त ! इमां रत्नप्रभां पृथिवीं रत्नप्रभा पृथिवी इति जानाति पश्यति ? हन्त जानाति पश्यति । यथा भदन्त ! केवली इमां रत्नप्रभां पृथिवीं रत्नप्रभापृथिवी इति जानाति - पश्यति, तथा सिद्धोऽपि इमां रत्नप्रभां पृथिवीं रत्नप्रभापृथिवी इति जानाति - पश्यति? हन्त जानाति पश्यति । १५०. केवली णं भंते! सोहम्मं कप्पं केवली सोहम्मकप्पे त्ति जाणड़- पासइ ? हंता जाणइ-पासइ । एवं चैव । एवं ईसाणं, एवं जाव अच्चुयं ॥ केवली भदन्त ! शर्कराप्रभां पृथिवीं शर्कराप्रभापृथिवी इति जानाति - पश्यति ? एवं चैव । एवं यावत् अधः सप्तमीम् । भदन्त ! सौधर्म कल्पं सौधर्मकल्पः इति जानाति पश्यति ? हन्त जानाति पश्यति । एवं चैव । एवम् ईशानम्, एवं यावत् अच्युतम् । केवली भदन्त ! ग्रैवेयकविमानं ग्रैवेयकविमानम् इति जानाति पश्यति? भगवई सवीर्य, सपुरुषकार और सपराक्रम होता है। सिद्ध अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जैसे केवली बोलते हैं, व्याकरण करते हैं वैसे सिद्ध नहीं बोलते, व्याकरण नहीं करते। १४५. भंते! केवली उन्मेष करते हैं ? निमेष करते हैं ? हां, उन्मेष करते हैं, निमेष करते हैं। १४६. भंते! जैसे केवली उन्मेष निमेष करते हैं, वैसे सिद्ध भी उन्मेष - निमेष करते हैं ? यह अर्थ संगत नहीं है। पूर्ववत् । इसी प्रकार सिद्ध आकुंचन, प्रसारण, इसी प्रकार स्थान, शय्या, निषद्या नहीं करते हैं। १४७. भंते! केवली 'इस रत्नप्रभा पृथ्वी को यह रत्नप्रभा पृथ्वी है' - ऐसा जानता देखता है ? हां, जानता- देखता है। १४८. भंते! जैसे केवली 'इस रत्नप्रभा पृथ्वी को यह रत्नप्रभा पृथ्वी है - ऐसा जानता देखता है वैसे सिद्ध भी ' इस रत्नप्रभा पृथ्वी को यह रत्नप्रभा पृथ्वी है' - यह जानता - देखता है ? हां, जानता देखता है। १४६. भंते! केवली 'शर्कराप्रभा पृथ्वी को यह शर्कराप्रभा पृथ्वी है' - ऐसा जानता देखता है ? पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् केवली अधः सप्तमी पृथ्वी को जानता देखता है। १५०. भंते! केवली 'सौधर्म कल्प को सौधर्म कल्प है' - ऐसा जानता देखता है ? हां, जानता देखता है। पूर्ववत् । इसी प्रकार केवली ईशान को, इसी प्रकार यावत् अच्युत को जानता देखता है। १५१. भंते! केवली 'ग्रैवेयक विमान को यह ग्रैवेयक विमान है' ऐसा जानता देखता है? Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २३५ श. १४ : उ. १० : सू. १५२-१५५ एवं चेव। एवं अणुत्तरविमाणे वि॥ एवं चैव। एवम् अनुत्तरविमानम् अपि। पूर्ववत्। इसी प्रकार केवली अनुत्तर विमान को जानता-देखता है। १५२. केवली णं भंते ईसिंपन्भारं पुढविं ईसिंपन्भारपुढवीति जाणइ-पासइ ? केवली भदन्त! ईषत्प्राग्भारां पृथिवीम् ईषत्प्राग्भारापृथिवी इति जानातिपश्यति? एवं चैव। १५२. भंते ! केवली 'ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी को यह ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी है'-ऐसा जानतादेखता है? पूर्ववत्। एवं चेव॥ १५३. केवली णं भंते! परमाणुपोग्गलं परमाणुपोग्गले त्ति जाणइ-पासइ ? एवं चेव। एवं दुपएसियं खधं, एवं जाव केवली भदन्त! परमाणुपुद्गलं परमाणु- पुद्गलः इति जानाति-पश्यति। एवं चैव। एवं द्विप्रदेशिकं स्कन्धम्, एवं यावत् १५३. भंते! केवली 'परमाणु पुद्गल को यह परमाणु पुद्गल है' ऐसा जानता-देखता है? पूर्ववत्। इसी प्रकार केवली द्विप्रदेशिक स्कंध को जानता-देखता है, इसी प्रकार यावत् १५४. जहा णं भंते! केवली अणंत- यथा भदन्त! केवली अनन्तप्रदेशिकं पएसियं खंधं अणंतपएसिए खंधे त्ति स्कन्धम् अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः इति जाणइ-पासइ, तहा णं सिद्धे वि जानाति-पश्यति, तथा सिद्धोऽपि अणंतपएसियं खंधं अणंतपएसिए खंधे अनन्तप्रदेशिकं स्कन्धं अनन्तप्रदेशिक: त्ति जाणइ पासइ? स्कन्धः इति जानाति-पश्यति? हंता जाणइ-पासइ॥ हन्त जानाति-पश्यति। १५४. भंते ! जैसे केवली 'अनंत प्रदेशी स्कंध को यह अनंत प्रदेशी स्कंध है' ऐसा जानतादेखता है वैसे सिद्ध भी 'अनंत प्रदेशी स्कंध को यह अनंत प्रदेशी स्कंध है'-ऐसा जानता-देखता है? हां, जानता-देखता है। भाष्य १. सूत्र १३८-१५४ यह पद भवस्थ केवली के लिए प्रयुक्त है। सिद्ध मुक्त केवली हैं। आधोवधिक, परमाधोवधिक के लिए द्रष्टव्य भगवई १/२०२२०६ का भाष्य। १५५. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। १५५. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदसमं सतं पन्द्रहवां शतक Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख भगवती सूत्र का प्रस्तुत शतक न केवल जैन परम्परा के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, अपितु समग्र प्राचीन भारतीय संस्कृति के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण सूचना-स्रोत है। प्रस्तुत शतक में भगवान् महावीर के छद्मस्थ-जीवनकाल तथा तीर्थंकर-जीवनकाल के कुछ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का पूर्णतः प्रामाणिक एवं सर्वांगीण वृत्तान्त आलेखित है। भारतीय संस्कृति की दो धाराएं बहुत प्राचीन हैं-श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परंपरा। कौन पहले और कौन पीछे-यह लंबी चर्चा का विषय है फिर भी यह कहा जा सकता है-श्रमण परम्परा का संबंध द्रविड़, असुर, पणि, व्रात्य आदि प्राचीनतम जातियों से रहा। दशवैकालिक नियुक्ति में श्रमणों के पांच विभाग बतलाए गए हैं: १. निग्रंथ-जैन मुनि २. शाक्य-बौद्ध भिक्षु ३. तापस-जटाधारी, वनवासी, तपस्वी ४. गेरुक-त्रिदंडी, परिव्राजक ५. आजीवक निशीथ चूर्णि में अन्यतीर्थिक श्रमणों के तीस गणों का उल्लेख मिलता है। दशवैकालिक नियुक्ति में श्रमण के अनेक पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं, उनमें चरक का भी उल्लेख है।' आजीवक संप्रदाय श्रमण परंपरा का संप्रदाय है। गोशालक उस संप्रदाय के आचार्य बने। वे आजीवक संप्रदाय के प्रवर्तक नहीं थे। उन्होंने स्वयं अपने आपको आजीवक संप्रदाय का सातवां आचार्य स्वीकार किया। आजीवक संप्रदाय के प्रवर्तक कुण्डियायन थे। उनके पश्चात् ऐणेयक, मल्लराम, मंडित, रोह, भारद्वाज, गौतमपुत्र अर्जुन-ये छह आचार्य हुए। सातवें आचार्य गोशालक बने। इनका आचार्यत्वकाल क्रमशः बाईस, इक्कीस, बीस, उन्नीस, अठारह, सतरह तथा सोलह वर्ष का रहा। आजीवक संप्रदाय भगवान् महावीर के युग में बहुत प्रतिष्ठित और प्रभावशाली था। आगम साहित्य में आजीवक के श्रमणों और गृहस्थ दोनों के धार्मिक तप और व्रत चर्या का उल्लेख मिलता है। स्थानांग में आजीवक के चार प्रकार के तप का उल्लेख है-उग्रतप, घोरतप, रस निर्ग्रहण और जिह्वेन्द्रिय प्रतिसंलीनता।। सम्राट अशोक के शिलालेखों में भी आजीवक भिक्षुओं को सम्राट् द्वारा गुफा दिए जाने का उल्लेख है। वह सम्प्रदाय कब तक चलता रहा, यह ठीक से कह देना कठिन है, पर शिलालेखों आदि से ई. पू. दूसरी शताब्दी तक तो उसका अस्तित्व प्रमाणित होता ही है। दक्षिण भारत में आजीवक संप्रदाय संभवतः ईस्वी चौदहवीं शताब्दी तक जीवित रहा। यह मत डॉ. बाशम द्वारा प्रस्तुत अध्ययन पर आधारित है, जो उन्होंने दक्षिण भारत की भाषाओं के साहित्य के आधार पर बनाया है।१० प्रस्तुत आगम में आजीवकों का स्थविर के साथ संवाद और उस विषय में गौतम की भगवान् महावीर से चर्चा का लंबा प्रकरण है।" इस प्रकरण में आजीवकों के बारह उपासकों के नाम बतलाए गए हैं-१. ताल २. ताल प्रलंब ३. उद्विध ४. संविध ५. अपविध ६. उदक ७. नामोदक ८, नार्मोदक ६. अनुपालक १०. शंखपालक ११. अयंपुल १२. कायरक। १. दश. नि., हारिभद्रीय वृ. प. ६८ २. निशीथ चूर्णि, भाग-२, पृ. ११८-२०० ३. दश. नि., गाथा १५८-१५६ ४. भ., १५/१०१ ५. वही, १५/१०१ ६. ठाणं, ४/३५० ७. जनार्दन भट्ट, अशोक के धर्मलेख, पब्लिकेशन्स डिवीजन, दिल्ली, १६५७, पृ. ४०१ से ४०३। ८. चिमनलाल जयचंद शाह, उत्तर हिन्दुस्तान मा जैन धर्म, लोंगमैन्स एण्ड ग्रीन कं. लंदन, १६३०, पृ. ६४। ६. डा. सत्यरंजन बनर्जी, Foreword to A. L. Bashan's 'Thistory and Doctrines of Ajivikas! १०. डॉ. बाशम, History and Dotrines of Ajivikas pp 188-204 ११. भ., ८/२३०-२४२ , Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : आमुख २४० भगवई आजीवक संप्रदाय का एक प्रमुख दार्शनिक सिद्धांत है-नियतिवाद। शकडालपुत्र नाम का कुंभकार आजीवक संप्रदाय का उपासक था। उपासक दशा के सातवें अध्ययन में उसके नियतिवादी दृष्टिकोण का निर्देश है।' ____ आर्द्रकुमार और गोशालक का सविस्तर संवाद सूत्रकृतांग में उपलब्ध है। नंदी सूत्र में आजीवक अछिन्नछेदनयिक सूत्रों को आजीवक सूत्र परिपाटी के अनुसार बतलाया गया है। आजीवक परिपाटी के अनुसार अछिन्नछेदनयिक सूत्रों का उल्लेख समवाओ में तीन स्थानों पर किया गया है। आजीवक-सम्मत सात परिकर्मों का उल्लेख नंदी और समवायांग'-दोनों में है। उक्त उल्लेखों से ज्ञात होता है भगवान महावीर के शासन के साथ आजीवक संप्रदाय का पर्याप्त संपर्क रहा है। दृष्टिवाद के प्रकरण में आजीवक का उल्लेख मूलस्रोत की एकता की ओर ध्यान आकृष्ट करता है। दृष्टिवाद की परम्परा भगवान् पार्श्व से चली आ रही है। यह स्वीकार करने में कोई बाधक प्रमाण प्रतीत नहीं होता। आजीवक सम्प्रदाय भगवान् पार्श्व की परम्परा से उद्भूत है-दर्शनसार का यह अभिमत भी सर्वथा निराधार नहीं लगता। नियतिवादी श्रमणों के लिए 'पासत्थ' शब्द का प्रयोग भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व का है। इस विषय में 'उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन' की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना प्रासंगिक होगासूत्रकृतांग (१/१/३:२) में नियतिवादियों को पार्श्वस्थ कहा है एवमेगे हु पासत्या, ते भुज्जो विष्पगभिआ। एवं उबढिआ संता, ण ते दुक्ख विमोक्खया॥ वृत्तिकार ने पार्श्वस्थ का अर्थ 'युक्ति से बाहर ठहरने वाला' या 'पाश-बंधन में स्थित' किया है किन्तु ये सारे अर्थ कल्पना से अधिक मूल्य नहीं रखते। वस्तुतः पार्श्वस्थ का अर्थ 'पार्श्व की परम्परा से संबंधित' होना चाहिए। औपपातिक में आजीवकों के सात प्रकार बतलाए गए हैं-द्विगृहान्तरित, त्रिगृहान्तरित, सप्तगृहान्तरित, उत्पलद्वंतिक, गृहसामुदायिक, विद्युतान्तरिक, उष्ट्रिका-श्रमण। ये अपने तप के प्रभाव से अच्युत कल्प तक देवरूप में उत्पन्न होते थे। जैन साहित्य में प्रकीर्ण सामग्री के आधार पर आजीवकों के दर्शन और आचार का एक विशद प्रारूप तैयार किया जा सकता है। वासुदेवशरण अग्रवाल ने पाणिनि के आधार पर मस्करी का अर्थ नियतिवादी किया है 'पाणिनि ने मस्करी शब्द परिव्राजक के लिये सिद्ध किया है (मस्करमस्करिणौ वेणुपरिव्राजकयोः, ६/१/१५४)। यहां मस्करी का अर्थ मक्खलि गोसाल से है जिन्होंने आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना की थी। पतंजलि ने स्पष्ट यही अर्थ लिया है-मस्करी वह साधु नहीं है जो हाथ में मस्कर या बांस की लाठी लेकर चलता हो। फिर क्या है? मस्करी वह है जो यह उपदेश देता है कि कर्म मत करो, शांति का मार्ग ही श्रेयस्कर है (न वै मस्करोऽस्यास्तीति मस्करी परिखाजकः। किं तर्हि। मा कृत कर्माणि, मा कृत कर्माणि शान्तिः श्रेयसीत्याहातो मस्करी पब्रिाजकः, भाष्य ६/१/१५४)। यह निश्चित रूप से मक्खलि गोसाल के कर्मापवाद सिद्धांत का उल्लेख है। वे कर्म या पुरुषार्थ की निन्दा करके नियति या भाग्य को ही सब कुछ मानते थे। किसी प्रकार के फल की प्राप्ति अपने या पराए कर्म या पराक्रम पर निर्भर नहीं करती, यह तो सब भाग्य का खेल है। पुरुषार्थ कुछ नहीं है, दैव ही प्रबल है। मक्खलि के दर्शन में यदृच्छा को कोई स्थान नहीं था, वे तो मानते थे कि क्रूर दैव ने सब कुछ पहले से ही नियत कर दिया है। बौद्ध ग्रंथों में कहा है कि बुद्ध मक्खलि गोसाल को सब आचार्यों में सबसे अधिक खतरनाक समझते थे। __ अन्य प्रमाण से भी इंगित होता है कि पाणिनी को मस्करी के आजीवक दर्शन का परिचय था। (अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः सूत्र में, ४/४/६०) आस्तिक, नास्तिक, दैष्टिक तीन प्रकार के दार्शनिकों का उल्लेख है। आस्तिक वे थे जिन्हें बौद्ध ग्रंथों में इस्सर करणवादी कहा गया है, जो यह मानते थे कि यह जगत् ईश्वर की रचना है। (अयं लोको इस्सर निमित्तो)। पाली ग्रन्थों के नत्थिक दिट्टि दार्शनिक पाणिनि के नास्तिक थे। इसमें केशकम्बली के नत्थिक दिहि अनुयायी प्रधान थे। (इतो परलोक गतं नाम नत्थि अयं लोको उच्छिज्जति, जातक ५/२३६)। यही लोकायत दृष्टिकोण था जिसे कठ उपनिषद् में कहा है-अयं लोको न परः इति मानी। पाणिनि के तीसरे दार्शनिक दैष्टिक या मक्खलि के नियतिवादी लोग थे जो पुरुषार्थ या कर्म का खंडन करके दैव की ही स्थापना करते थे। १. उवा., अध्ययन ७ ६. सम., प्रकीर्णक समवाय १०६ २. सू. द्वितीय, श्रुतस्कंध : छठा अध्ययन ७. दर्शनसार ३. नंदी, सू. १०३ ८. पासत्थ या पार्श्वस्थ की विशेष जानकारी के लिए दृष्टव्य, अतीत का ४. (क) सम., २२/२ अनावरण (ख) सम., ८८/२ ६. सू. वृ. १/३/२ (ग) सम., प्रकीर्णक समवाय १११ १०. ओव. १५८ ५.नंदी, सू. १०१ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २४१ श. १५ : आमुख जैन आगमों में मक्खली गोशाल को गोसाल मंखलिपुत्त कहा है (उवासगदसाओ)। संस्कृत में उसे ही मस्करी गोशालपुत्र कहा गया है (दिव्यावदान पृ. १४३)। मस्करी या मक्खलि या मंखलि का दर्शन सुविदित था। महाभारत में मंकि ऋषि की कहानी में नियतिवाद का ही प्रतिपादन है। (शुद्धं हि दैवमेवेदं हठे नैवास्ति पौरुषम्, शान्तिपर्व १७७ /११ - ४ ) । मंकि ऋषि का मूल दृष्टिकोण निर्वेद या जैसा पतंजलि ने कहा है शान्ति परक था, अर्थात् अपने हाथ-पैर से कुछ न करना । यह पाणिनिवाद का ठीक उल्टा था। मंखलि गोसाल के शुद्ध नाम के विषय में कई अनुश्रुतियां थी। जैन प्राकृत रूप मंखलि था। भगवती सूत्र के अनुसार गोसाल मंख संज्ञक भिक्षु का पुत्र था (भगवती सूत्र १५ ।१) । शान्ति पर्व का मंकि निश्चयरूप से मंखलि का ही दूसरा रूप है। मंखलि नाम उसका क्यों पड़ा, इस संबंध में एक विचित्र - सी कथा बौद्ध परम्परा में प्रचलित है; जिसके अनुसार गोशालक दास था। एक बार वह तेल का घड़ा उठाये आगे-आगे चल रहा था और उसका मालिक पीछे-पीछे। आगे फिसलन की भूमि आई। उसके स्वामी ने कहा- 'तात ! मा खलि, तात! मा खलि' 'अरे! स्खलित मत होना, स्खलित मत होना, पर गोशालक स्खलित हुआ और तेल भूमि पर बह चला। वह स्वामी के डर से भागने लगा। स्वामी ने उसका वस्त्र पकड़ लिया। वह वस्त्र छोड़ कर नंगा ही भाग चला। इस प्रकार वह नग्न साधु हो गया और लोग उसे 'मंखलि' कहने लगे। ' कहा जाता है कि मक्खलि का जन्म गोशाला या गोष्ठ में हुआ था, जिससे उनका यह नाम पड़ा। पाणिनि ने भी गोशाला में जन्म लेने वाले को गोशाल कहा है (गोशालायां जातः गोशालः, ४/३/३५, स्थानान्ते गोशालखरशालाच ) । सामञ्ञफलसुत्त में छह अन्यतीर्थिक तीर्थकरों का उल्लेख मिलता है- पूरणकश्यप, मक्खली गोशाल, अजितकेशकंबल, पकुद कात्यायन, संजयवेलट्ठीपुत्त, निग्गंथ नातपुत्त । ' पूरणकश्यप ने छह अभिजातियां निर्धारित की, उनमें आजीवक संप्रदाय के लिए शुक्लाभिजाति और परमशुक्लाभिजाति का उल्लेख है। " प्रोफेसर हर्मन जेकोबी और प्रोफेसर ल्यूमेन ने इस वर्गीकरण को गोशालक द्वारा किया हुआ माना है किन्तु वह यथार्थ नहीं है। इस विषय में ‘उत्तराध्ययन : समीक्षात्मक अध्ययन' की कुछ पंक्तियों पर ध्यान देना आवश्यक हैं मानवों का छह भागों में विभाजन गोशालक द्वारा नहीं, किन्तु पूरण कश्यप द्वारा किया गया था। पता नहीं, प्रोफेसर ल्यूमैन और डॉ. हर्मन जेकोबी ने उसे गोशालक द्वारा किया हुआ मानवों का विभाजन किस आधार पर माना ? पूरणकश्यप बौद्ध साहित्य में उल्लिखित छह तीर्थंकरों में से एक है।" उन्होंने रंगों के आधार पर छह अभिजातियां निश्चित की थीं १. कृष्णाभिजाति-क्रूर कर्म वाले सौकरिक, शाकुनिक आदि जीवों का वर्ग २. नीलाभिजाति - बौद्ध भिक्षु तथा कुछ अन्य कर्मवादी, क्रियावादी भिक्षुओं का वर्ग । ३. लोहिताभिजाति - एक शाटक निर्ग्रथों का वर्ग । ४. हरिद्राभिजाति - श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र । ५. शुक्लाभिजाति - आजीवक श्रमण श्रमणियों का वर्ग । ६. परमशुक्लाभिजाति - आजीवक आचार्य - नन्द वत्स, कृश सांकृत्य, मस्करी गोशालक आदि का वर्ग । " कुछ विद्वान् अनुयोगद्वार में उल्लिखित पंडरंग शब्द को आजीवक संप्रदाय का सूचक मानते हैं। यह सही नहीं है। प्रोफेसर बलदेव उपाध्याय ने पंडरंग के विषय में अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है 'विक्रम के पञ्चम शतक में सुप्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर ने 'वृहज्जातक' के 'प्रव्रज्यायोग' प्रकरण में ये सात वर्ग किए थे- शाक अथवा रक्तपट, आजीवक, निर्ग्रथ, तापस, चतुर्थ आश्रमी ब्राह्मण, वृद्धश्रावक तथा चरक। इन सात प्रकार के भिक्षुओं में आजीवकों को भी अन्यतम माना है। टीकाकार भट्टोत्पल (११वीं शताब्दी) ने इन्हें 'एकदण्डी' तथा नारायण का भक्त बतलाया है। निशीथ चूर्णि के भाष्यकार के समय (सप्तम शतक) ये लोग 'गोशालक शिष्य' होने के अतिरिक्त 'पाण्डुर भिक्षु' या 'पाण्डुरंग भिक्षु' कहलाने लगे थे। अनुयोगद्वार चूर्णि में पाण्डुरंग का पर्याय 'सरजस्क' है अर्थात् धूल से भरे अंगवाले। आजीवक भिक्षु नग्न ही रहते थे। अतः संभव जान पड़ता है कि शीत को रोकने के लिए वे अपने शरीर पर भस्म लगाते होंगे और इसी कारण उनका नाम 'पाण्डुरंग' (भूरे रंग वाला) साधु पड़ गया होगा ।" १. आचार्य बुद्धघोष, धम्मपद - अडकथा १ - १४३ मज्झिमनिकाय, अट्ठकथा, १-४२२ २. पाणिनिकालीन भारत वर्ष, पृ. ३७६-७७ ३. दीघनिकाय १ - क्षीलखंधवग्गो, अध्याय-२, सामञ्ञफलसुत्तं २ / २-३, पृ. ४१ ४. अंगुत्तर निकाय, ६ / ६ / ३, पृ. ६३। ५. Sacred Books of the East, Vol. XLV, Introduction, p XXX ६. उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन पृ. २४२-२४३ ७. दीघनिकाय, १/२, पृ. १६, २० ८. अंगुत्तरनिकाय, ६ / ६ / ३, भाग ३, पृ. ३५-६३, १४ ६. भारतीय धर्म और दर्शन, लेखक आचार्य बलदेव उपाध्याय, पृ. १६०१६१ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : आमुख २४२ भगवई अनुयोगद्वार में 'पाण्डुरंग' अथवा 'पंडुरंग' शब्द है। इसका अर्थ चूर्णिकार ने सरक्ख-सरजस्क, हरिभद्रसूरि ने भौत-राख लगाने वाला तथा मल्लधारी हेमचन्द्र ने भस्मोद्धूलित गात्र किया है। तात्पर्य में तीनों एक हैं।' निशीथ चूर्णि में अन्यतीर्थिक श्रमण-श्रमणियों के तीस नामों का उल्लेख मिलता है-(१) आजीवक' (२) कप्पडिय' (३) कव्वडिय' (४) कावालिय' (५) कावाल (६) कापालिका (७) गेरु (८) गोव्वय (8) चरक' (१०) चरिका२ (११) तचनिय३ (१२) तच्चणगी" (१३) तडिय' (१४) तावस (१५) तिडंगी परिव्वायग" (१६) दिसापोक्खिय" (१७) परिव्वाय' (१८) पब्रिाजिकारे (१६) पंचगव्वासणीय (२०) पंचग्गिताय (२१) पंडरंग (२२) पंडर भिक्खु (२३) स्तपड५ (२४) रत्तपडा (२५) वणवासी२७ (२६) भगवी (२७) वृद्धसावकर (२८) सक्क-शाक्य (२६) सरकव" (३०) समण (३१) हड्डसरकवा३ इनमें पंडरंग और आजीवक का पृथक्-पृथक् उल्लेख है। भगवान् महावीर के समय में आजीवक संप्रदाय बहुत प्रभावशाली था। उक्त उल्लेखों के आधार पर सहज ही ये निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं १. आजीवक संप्रदाय श्रमण परंपरा का एक संप्रदाय है। २. उसके सिद्धांत, साधना और जीवन चर्या की जानकारी के प्रमुख स्रोत जैन आगम, उसके व्याख्या ग्रंथ तथा बौद्ध पिटक हैं। ३. आजीवक संप्रदाय के आचार्य गोशाल के जीवन वृत्त का विस्तार से विवरण प्रस्तुत शतक (१५) में उपलब्ध है। ४. दृष्टिवाद के प्रकरण में आजीवक परिपाटी का उल्लेख होना उनके सैद्धांतिक चिंतन की विशेषता को प्रदर्शित करता है। ५. नय का सिद्धांत आजीवक संप्रदाय को पार्श्व की परम्परा से जोड़ता है। ६. छह दिशाचरों ने पूर्वगत से अष्टांग महानिमित्त का निर्युहण किया। इससे आजीवक संप्रदाय का पूर्वज्ञान राशि की परंपरा से संबंध जुड़ गया। प्रस्तुत शतक में गोशालक का जीवनवृत्त विस्तार से वर्णित है। इस प्रसंग में दो दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है १. नियतिवाद २. परिवर्त्तवाद (पउट्ट परिहार)" नियतिवाद की चर्चा उवासगदसाओ (अध्ययन ७) में मिलती है। सूत्रकृतांग में भी वह प्रतिपादित है। परिवर्त्तवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन अन्य आगमों में उपलब्ध नहीं है। आवश्यक चूर्णि में पउट्ट परिहार की समीचीन परिभाषा मिलती है। अपने जीवन के अंतिम काल में गोशाल के हृदय परिवर्तन का वृत्त तथा अनागत काल में संसार-भ्रमण के पश्चात् अंत में मोक्ष-प्राप्ति करने की भविष्यवाणी समग्र प्रकरण को रोचक और प्रेरक बना देती है। आंतरिक पश्चात्ताप का माहात्म्य सर्वत्र स्वीकृत है। यहां मृत्यु के पश्चात् बारहवें स्वर्ग में उत्पत्ति का उल्लेख भी प्रस्तुत प्रकरण की प्रामाणिकता के पक्ष में प्रत्यक्ष प्रमाण है। भावी जीवन में गोशाल के जीव द्वारा पुनः १. अणु., २०.२६ २. अ. चू. पृ. १२-पंडुरंगा सारक्खा । अहावृ. पृ. १७-पांडुरंगा-भौताः । अमवृ. पृ. २२-पांडुराङ्गाः-भस्मोद्धूलितगात्राः। ३. निशीथ सूत्र सभाष्य चूर्णि, भाग २, पृ. ११८,२०० ४. वही, २/२०७,४५६ ५. वही, ३/१६८ ६. वही,२/३८ ७. वही, ४/१२५ ८. वही, ४/६० ६. वही, २/३३२ १०. वही, ३/१६५ ११. वही, २/११८,२०० १२. वही, ४/१० १३. वही, ३/३५३,३२५ १४. वही, ४/६० १५. वही, २/२०७,४५६ १६. वही, २/३,३३२ १७. वही, १/१२ १८. वही, ३/१६५ १६. वही, २/११८,२०० २०. वही, ४/१० २१. वही, ३/१६५ २२. वही, ३/१९५ २३. वही, २/११६ २४. वही, ३/४१४ २५. वही, १/११३,१२१ २६. वही, १/१२३ २७. वही, ३/४१४ २८. वही, ४/१० २६. वही, २/११८ ३०. वही, २/३,११८ ३१. वही, ३/२५३ ३२. वही, २/३३२ ३३. वही, २/२०७ ३४. भगवई, १५/४-५ ३५. वही, १५/७३ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २४३ श. १५ : आमुख अत्याचार आदि का वृत्त उसकी आंतरिक चेतना की कलुषता का द्योतक है तथा अंत में चिरकालीन संसार-भ्रमण के पश्चात् मोक्ष प्राप्ति के साथ वृत्त समाप्त होता है। यह समग्र प्रसंग 'शिष्य द्वारा अपने गुरु का विरोध एवं अपलाप के भयंकर दुष्परिणाम का द्योतक है तथा विनय के लिए शिष्य- समुदाय को प्रेरित करता है। गोशाल के संसार भ्रमण के वृत्तांत में जैन दर्शन के 'विभिन्न गतियों में जीव द्वारा गति आगति' के सिद्धांत को उजागर किया गया है जिसका विस्तृत विवेचन भगवती में ही चौबीसवें शतक से लेकर आगे के शतकों में उपलब्ध है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रस्तुत शतक भगवती के उन महत्त्वपूर्ण शतकों में है जिसका अध्ययन जैन विद्या के विभिन्न पक्षों को बहुत ही मार्मिक रूप में उजागर करता है। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचदसमं सतं : पन्द्रहवां शतक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद गोसालग-पदं गोशालक-पदम् गोशालक-पद १. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रावस्ती १. उस काल उस समय श्रावस्ती नाम की नगरी नगरी होत्था-वण्णओ। तीसे णं सा- नाम नगरी आसीत्-वर्णकः। तस्याः थी-वर्णक। उस श्रावस्ती नगरी के बाहर वत्थीए नगरीए बहिया उत्तर-पुरस्थिमे । श्रावस्त्याः नगर्याः बहिस्ताद् उत्तर- उत्तर-पूर्व दिशा में कोष्ठक नाम का चैत्य दिसीभाए, तत्थ णं कोट्ठए नाम चेइए पोरस्त्यः दिग्भागः, तत्र कोष्ठकः नाम था-वर्णक। उस श्रावस्ती नगरी में आजीवकहोत्था-वण्णओ। तत्थ णं सावत्थीए चैत्यम् आसीत्-वर्णकः । तत्र श्रावस्त्यां उपासिका हालाहला नाम की कुंभकारी रहती नगरीए हालाहला नाम कुंभकारी नगर्यां हालाहला नाम कुम्भकारी थी-आय यावत् बहुजन के द्वारा आजीविओवासिया परिवसति-अड्डा । आजीविकोपासिका परिवसति-आढ्या अपरिभवनीय। आजीवक-सिद्धान्त में यथार्थ जाव बहुजणस्स अपरिभूया, आजीविय- यावत् बहुजनस्य अपरिभूता, को सुनने वाली, ग्रहण करने वाली, समयंसि लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा आजीविक-समये लब्धार्था गृहीतार्था (आजीवक सिद्धान्त के) प्रेमानुराग से विणिच्छियट्ठा अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ता, पृष्टार्था विनिश्चितार्था अस्थिमज्जा- अनुरक्त अस्थि मज्जा वाली, 'आयुष्मन्! अयमाउसो! आजीवियसमये अटे, अयं प्रेमानुरागरक्ता, अयम् आयुष्मन् ! यह आजीवक-सिद्धांत यथार्थ है, यह परमार्थ परमद्वे, सेसे अणद्वेत्ति आजीवियसमएणं आजीविकसमयः अर्थः, अयं परमार्थः, है, शेष अनर्थ है। (ऐसा मानने वाली वह) अप्पाणं भावेमाणी विहरइ॥ शेषः अनर्थः इति आजीविकसमयेन इस प्रकार आजीवक-सिद्धान्त के द्वारा अपने आत्मानं भावयन्ती विहरति। आपको भावित करते हुए रह रही थी। २. तेणं कालेणं तेणं समएणं गोसाले तस्मिन् काले तस्मिन् समये गोशालः २. उस काल उस समय चौबीस वर्ष पर्याय मंखलिपुत्ते चउव्वीसवासपरियाए मंखलिपुत्रः चतुर्विशतिवर्षपर्यायः वाला मंखलिपुत्र गोशाल उस हालाहला हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भ- कुंभकारी के कुंभकारापण में आजीवकआजीवियसंघसंपरिखुडे आजीवियसमएणं । कारापणे आजीविकसंघपरिवृतः समुदाय से संपरिवृत होकर आजीवकअप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ आत्मानं भावयन् विहरति। सिद्धान्त के द्वारा अपने आपको भावित करते हुए रह रहा था। भाष्य १. चौबीस वर्ष पर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशाल भगवती शतक १५, सूत्र ५५ के अनुसार भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र गोशाल को जब शिष्य के रूप में स्वीकार किया था, उस समय भगवान् महावीर की दीक्षा को लगभग दो वर्ष पूर्ण हो चुके थे।' इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत प्रसंग के समय भगवान् महावीर के दीक्षा-पर्याय के छब्बीस वर्ष पूर्ण हो चुके थे तथा सत्ताइसवें वर्ष में शेष काल (चातुर्मास के अतिरिक्त काल) में श्रावस्ती में प्रवास के दौरान यह घटना घटी थी। (विस्तार के लिए इसी शतक के सूत्र १४१ का भाष्य द्रष्टव्य है।) १. आचार्य महाप्रज्ञ, श्रमण महावीर, पृष्ठ ११४। प्रस्तुत शतक (सू. ५०-५५) से यह स्पष्ट है कि दूसरे वर्ष के चातुर्मास के अन्त में कोल्लाग सन्निवेश से बाहर प्रणीत भूमि में गोशाल को शिष्य रूप में स्वीकृत किया था। २. श्रमण महावीर, पृष्ठ २८२। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ भगवई श. १५ : सू. ३-७ ३. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णदा कदायि इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउन्भवित्था, तं जहा-साणे, कलंदे, कण्णियारे, अच्छिदे, अग्गिवेसायणे, अज्जुणे गोमायुपुत्ते॥ ततः तस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य अन्यदा कदाचित् इमे षट् दिक्चराः अन्तिकं प्रादुरभूवन्, तद्यथा-सानः, कलन्दः, कर्णिकारः, अच्छिदः, अग्निवैश्यायनः, अर्जुनः गोमायुपुत्रः । ३. एक समय मंखलिपुत्र गोशाल के पास ये छह दिशाचर' अकस्मात् आए, जैसे-शान, कलन्द, कर्णिकार, अच्छिद्र, अग्निवैश्यायन और अर्जुन गोमायुपुत्र। भाष्य सूत्र ३ भी संभवतः अर्जुन गोमायुपुत्र होना चाहिए अथवा दिशाचरों के १. दिशाचर प्रसंग में 'अर्जुन गौतमपुत्र' होना चाहिए। कुछ प्रतियों में सूत्र ३ में देखें-इसी शतक के सूत्र ७७ का भाष्य। 'अर्जुन गौतमपुत्र' पाठ मिलता है।' २. अर्जुन गोमायुपुत्र इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि छट्टे पोट्ट परिहार में यहां दिशाचरों में एक नाम है-अर्जुन गोमायुपुत्र। सूत्र १०१ उदायी ने अर्जुन नामक दिशाचर के शरीर में तथा उसकी मृत्यु होने में 'पोट्ट परिहार' के प्रसंग में गोशाल ने अपना छट्ठा 'पोट्ट परिहार' पर मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर में प्रवेश किया था। 'अर्जुनक गौतमपुत्र' बताया है। यदि ये दो नाम एक हैं, तो यहां पर इस संदर्भ में इसी शतक के सूत्र ७७,१०१,१०२ द्रष्टव्य हैं। ४. तए णं ते छ दिसाचरा अट्टविहं पुव्वगयं ततः ते षट् दिकचराः अष्टविधं पूर्वगतं ४. इन छह दिशाचरों ने अष्टविध महानिमित्त मग्गदसम 'सएहि-सएहि मतिदसणेहिं मार्गदशमं स्वकैः-स्वकैः मतिदर्शनैः का पूर्वगत के दसवें अंग से अपने-अपने निज्जूहंति, निज्जूहित्ता गोसालं नियूंथन्ति नि!थयित्वा गोशालं मतिदर्शन से निर्वृहण किया। नि!हण कर मंखलिपुत्तं उवट्ठाइंसु॥ मंखलिपुत्रम् उपास्थुः (उवट्ठाइंसु) मंखलिपुत्र गोशाल के सामने उपस्थित किया। भाष्य सूत्र ४ १. महानिमित्त देखें-इसी शतक के सूत्र ७७ का भाष्य। ५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तेन ५. उस अष्टांग महानिमित्त के किसी सामान्य अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ अष्टांगस्य महानिमित्तस्य केनचित् अध्ययन मात्र से सब प्राणी, सब भूत, सब उल्लोयमेत्तेणं सब्वेसिं पाणाणं, सव्वेसि उल्लोकमात्रेण सर्वेषां प्राणानाम्, सर्वेषां जीव और सब सत्वों के लिए इन छह भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, सव्वेसि भूतानाम्, सर्वेषां जीवानाम्, सर्वेषां अनतिक्रमणीय व्याकरणों का व्याकरण सत्ताणं इमाई छ अणइक्कमणिज्जाई वा- सत्वानाम् इमानि षट् अनतिक्रमणीयानि किया, जैसे-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, गरणाई वागति, तं जहा-लाभं अलाभं व्याकरणानि व्याकरोति, तद्यथा-लाभम्, जीवित तथा मरण। सुहं दुक्खं जीवियं मरणं तहा। अलाभ, सुखं, दुःखं, जीवितं मरणं तथा।। ६. तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते तेणं __ ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तेन ६. वह मंखलिपुत्र गोशाल महानिमित्त के अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणई अष्टांगस्य महानिमित्तस्य केनचित् किसी सामान्य अध्ययन मात्र से श्रावस्ती उल्लोयमेत्तेण सावत्थीए नगरीए अजिणे उल्लोकमात्रेण श्रावस्त्यां नगर्याम् नगरी में अजिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् जिणप्पलावी, अणरहा अरहप्पलावी, अजिनः जिनप्रलापी, अनर्हत् न होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली न होकर अकेवली केवलिपलावी, असञ्चण्णू ___ अर्हत्प्रलापी, अकेवली केवलिप्रलापी, केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ न होकर सर्वज्ञसवण्णुप्पलावी, अजिणे जिणसई __असर्वज्ञः सर्वज्ञप्रलापी, अजिनः प्रलापी, जिन न होकर जिन शब्द से पगासेमाणे विहरह॥ जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति। प्रकाशित करता हुआ विहरण करने लगा। ७. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग- ततः श्रावस्त्यां नगर्या शृंगाटक-त्रिक- ७. उस श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, तिग-चउक्क-चचर-चउम्मुह-महापह- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु चोराहों, चोहटों, चार द्वार वाले स्थानों, पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति, एवं जनमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, भाषते, एवं प्ररूपयति-एवं खलु प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं एवं परूबेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! गोस- देवानुप्रियाः! गोशालः मंखलिपुत्रः प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र ले मंखलिपुत्ते जिणे जिणपलावी, जिनः जिनप्रलापी, अर्हत् गोशालक जिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् १. अंगसुत्ताणि, भाग २, भगवई, १५/३ का पाठान्तर-'गोयमपुत्ते। , Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २४७ श. १५ : सू. ८-११ अरहा अरहप्पलावी, केवली केबलि-प्प- अर्हत्प्रलापी, केवली केवलिप्रलापी, लावी, सन्दण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिणे सर्वज्ञः सर्वज्ञप्रलापी जिनः जिनशब्दं जिणसई पगासेमाणे विहरइ। से कहमेयं प्रकाशयन् विहरति। तत् कथमेतत् मन्ने एवं? मन्ये एवम्? होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली होकर केवली. प्रलापी, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन होकर अपने आपको जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। तो क्या यह ऐसा ही है? .. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया॥ तस्मिन काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः यावत् परिषद् प्रतिगता। ८. उस काल उस समय स्वामी समवसृत हुए यावत् परिषद् वापस नगर में चली गई। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी भगवतः महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इंदभूती नाम अणगारे गोयमे गोत्तेणं इन्द्रभूतिः नाम अनगारः गौतमः सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए । सगोत्रेण सप्तोत्सेधः समचतुरसबजरिसभनारायसंघयणे कणग- संस्थानसंस्थितः वजर्षभनाराचसंहननः पुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे कनकपुलकनिकष-पक्ष्मगौरः उग्रतपाः तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे । दीप्ततपाः, तप्ततपाः महातपाः, 'ओघोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे । राले' घोरः घोरगुणः घोरतपस्वी संखित्तविउलतेयलेल्से छटुंछटेणं घोरब्रह्मचर्यवासी उत्क्षिप्तशरीरः अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं । संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः षष्ठषष्ठेन तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ॥ अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति। ६. उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी गौतम सगोत्र सात हाथ की ऊंचाई वाले, समचतुरस्र संस्थान से संस्थित, वजऋषभनाराच संहननयुक्त, कसौटी पर खचित स्वर्णरखा तथा पद्मकेसर की भांति पीताभ गौर वर्ण वाले, उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, महान, घोर, घोर गुणों से युक्त, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी, लघिमा ऋद्धि सम्पन्न, विपुल तेजोलश्या को अन्तर्लीन रखने वाले, बिना विराम षष्ठभक्त तपःकर्म तथा संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं। १०. तए णं भगवं गोयमे छट्ठक्ख- ततः सः भगवान् गौतमः षष्ठक्षपण- १०. भगवान् गौतम षष्ठ भक्त के पारणा में मणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं पारणके प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, करोति, द्वितीयायां पौरुष्यां ध्यानं प्रहर में ध्यान करते हैं, तृतीय प्रहर में त्वरता, तइयाए पोरिसीए अतुरिय- ध्यायति, तृतीयायां पौरुष्याम् अत्वरित- चपलता और संभ्रम रहित होकर मुखवस्त्रिका मचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, मचपलमसंभ्रान्तः मुखपोतिका प्रति- का प्रतिलेखन करते हैं, प्रतिलेखन कर पात्रपडिलेहेत्ता भायणवत्थाई पडिलेहेइ, लिखति, प्रतिलिख्य भाजनवस्त्राणि वस्त्र का प्रतिलेखन करते हैं प्रतिलेखन कर पडिलेहेत्ता भायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य भाजनानि पात्रों का प्रमार्जन करते हैं, प्रमार्जन कर भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव प्रमार्जयति, प्रमाय॑ भाजनानि पात्रों को हाथ में लेते हैं, लेकर जहां श्रमण समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उद्गृह्णाति, उद्गृह्य यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं आकर उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ भगवान महावीरः तत्रैव उपागच्छति, श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते करते हैं, वंदन-नमस्कार कर वे इस प्रकार वयासी-इच्छामि णं भंते! तुम्भेहिं नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा बोले-भंते! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर षष्ठ अब्भणुण्णाए समाणे छहक्खमण- एवमवादीत्-इच्छामि भदन्त ! युष्माभिः भक्त के पारणा में श्रावस्ती नगर के उच, पारणगंसि सावत्थीए नगरीए उच्च- अनुज्ञातः सन् षष्ठक्षपणपारणके नीच और मध्यम कुलों की सामुदायिक भिक्षा -नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स श्रावस्त्यां नगरर्याम् उच्च-नीच-मध्यमानि चर्या के लिए घूमना चाहता हूं। भिक्खायरियाए अडित्तए। अहासुहं कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्याय अटितुम्।। देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत देवाणुप्पिया! मा पडिबंध। यथासुखं देवानुप्रिय! मा प्रतिबंधम्। करो। ११. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया ततः भगवान् गौतम ! श्रमणेन भगवता महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य समणस्स . भगवओ महावीरस्स भगवतः महावीरस्य अंतिकात् अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ कोष्ठकात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, ११. भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमण भगवान् महावीर के पास से कोष्ठक चैत्य से बाहर आते हैं, बाहर आकर त्वरता, चपलता और संभ्रम-रहित Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १५ : सू. १२,१३ २४८ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता प्रतिनिष्क्रम्य अत्वरितमचपलमअतुरियमचवलमसंभंते जुगतर- संभ्रांतः युगान्तरप्रलोकनया दृष्ट्या पलोयणाए दिट्ठीए पुरओरियं सोहेमाणे- पुरतः ईयाँ शोधयन्-शोधयन् यत्रैव सोहेमाणे जेणेव सावत्थी नगरी तेणेव श्रावस्ती नगरी तत्रैव उपागच्छति, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सावत्थीए। उपागम्य श्रावस्त्यां नगर्याम् उच्च-नीचनगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडइ॥ भिक्षाचर्याम् अटति। होकर युग-प्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां श्रावस्ती नगर है, वहां आते हैं, आकर श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हैं। १२. तए णं भगवं गोयमे सावत्थीए ततः भगवान् गौतमः श्रावस्त्यां नगर्याम् नगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गुह- घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अड- समुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् बहुजन- माणे बहुजणसद्द निसामेइ, बहुजणो अण्ण- शब्दं निशमयति, बहुजनाः अन्योन्यं मण्णस्स एवमाइक्खड़ एवं भासइ एवं एवमाख्याति, एवं भाषते, एवं प्रज्ञापयति, पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणु- एवं प्ररूपयति-एवं खलु देवानुप्रिय! प्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिण- गोशालः मंखलिपुत्रम्-जिनः जिनपलावी जाव जिणे जिणसदं पगासेमाणे प्रलापी यावत् जिनः जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरइ। से कहमेयं मन्ने एवं? विहरति। तत् कथमेतत् मन्ये एवम्? १२. भगवान् गौतम श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनते हैं, अनेक व्यक्ति परस्पर इस प्रकार का आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी यावत् जिन होकर अपने आपको जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। तो क्या यह ऐसा ही है? १३. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स ततः भगवान् गौतमः बहुजनस्य १३. अनेक व्यक्तियों के पास इस अर्थ को अंतियं एयमहँ सोचा निसम्म जायसढे अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य सुनकर अवधारण कर भगवान् गौतम के मन जाव समुप्पन्नकोउहल्ले अहापज्जतं जातश्रद्धः यावत् समुत्पन्नकुतूहलः में एक श्रद्धा यावत् कुतूहल उत्पन्न हुआ। वे समुदाणं गेण्हइ, गेण्हित्ता सावत्थीओ यथा-पर्याप्तं समुदानं गृह्णाति, यथापर्याप्त भिक्षा लेते हैं, लेकर श्रावस्ती नगर नगरीओ पडिनिक्खमइ, अतुरियम- गृहीत्वा श्रावस्त्याः नगर्याः से बाहर आते हैं, त्वरा-चपलता-और संभ्रमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए प्रतिनिष्क्रामति, अत्वरितमचपलम- . रहित होकर युग-प्रमाण भूमि को देखने वाली परओ रियं सोहेमाणे-सोहेमाणे जेणेव संभ्रान्तः युगान्तर-प्रलोकनया दृष्ट्या दृष्टि से ईर्या का शोधन करते हुए, शोधन कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे पुरतः ईयाँ शोधयन्-शोधयन् यत्रैव करते हुए जहां कोष्ठक चैत्य है, जहां श्रमण तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स कोष्ठकं चैत्यं, यत्रैव श्रमणः भगवान् भगवान् महावीर हैं, वहा आते हैं, आकर भगवओ महावीरस्म अदूरसामंते गमणा- महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न गमणाए पडिक्कमइ, पडिक्कमित्ता। श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अतिनिकट रहकर गमनागमन का प्रतिक्रमण एसणमणेसणं आलोएइ, आलोएत्ता अदूरसामन्ते गमनागमने प्रतिक्रामति, करते हैं, प्रतिक्रमण कर एषणा और अनैषणा भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता समणं प्रतिक्रम्य, एषणाम् अनेषणाम् की आलोचना करते हैं, आलोचना कर भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता आलोचयति आलोच्य भक्तपानं भक्तपान दिखलाते हैं, दिखलाकर श्रमण नमंसित्ता णच्चासन्ने णातिदूरे सुस्सूसमाणे प्रतिदर्शयति, प्रतिदर्थ्य श्रमणं भगवन्तं भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार करते हैं, नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियडे महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-भंते! मैं पज्जुवासमाणे एवं वयासी-एवं खलु अहं नमस्यित्वा, नत्या-सन्नः नातिदूरः षष्ठ भक्त के पारणे में आपकी अनुज्ञा पाकर भंते! छट्टक्ख-मणपारणगंसि तुब्भेहिं शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखः विनयेन श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों अन्भणुण्णाए समाणे सावत्थीए नगरीए प्राञ्जलिपुटः पर्युपासीनः एवमवादीत- में सामुदायिक भिक्षा के लिए घूमते हुए उच्च-नीय-मज्झिमाणि कुलाणि एवं खलु अहं भदन्त! षष्ठक्षपण- अनेक व्यक्तियों के ये शब्द सुनता हूं, अनेक घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे पारणके युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् व्यक्ति परस्पर इस प्रकार का आख्यान, बहुजणसदं निसामेमि, बहुजणो श्रावस्त्यां नगर्याम् उच्च-नीच-मध्यमानि भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैंअण्णमण्णस्स एवमाइक्वइ एवं भासइ कुलानि गृह-समुदानस्य भिक्षाचर्यायै । देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु अटन् बहुजन-शब्दं निशमयामि, जिन-प्रलापी यावत् जिन होकर अपने देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति, एवं आपको जिन शब्द से प्रकाशित करता जिणप्पलावी जाव जिणे जिणसई ___भाषते, एवं प्रज्ञापयति, एवं प्ररूपयति- हआ विहार कर रहा है। भंते! क्या यह ऐसा Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २४६ श. १५ : सू. १४-१६ ही है? भंते! मैं चाहता हूं आप मंखलिपुत्र गोशाल के जन्म से लेकर अब तक का चारित्र कहें। पगासेमाणे विहरइ। से कहमेयं भंते! एवं? एवं खलु देवानुप्रिय! गोशालः मंखलि तं इच्छामि णं भंते! गोसालस्स पुत्रः जिनः जिनप्रलापी यावत् जिनः मंखलिपुत्तस्स उट्ठाण-पारियाणियं । जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति। तत् परिकहियं॥ कथमेतद् भदन्त। एवम् ? तत् इच्छामि भदन्त! गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य उत्थानपारियानिकं परिकथितम्। १४. गोयमादी! समणे भगवं महावीरे गौतम! अयि! श्रमणः भगवान् महावीरः १४. अयि गौतम! श्रमण भगवान् महावीर ने भगवं गोयम एवं वयासी-जणं गोयमा! भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत्-यत् भगवान् गौतम को इस प्रकार कहा-गौतम! से बहजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ गौतम! सः बहुजनः अन्योन्यम् जो ये अनेक व्यक्ति परस्पर इस प्रकार एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ–एवं एवमाख्याति, एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति, आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्प- एवं प्ररूपयति-एवं खलु गोशालः करते हैं-मंखलिपुत्र गोशाल, जिन होकर लावी जाव जिणे जिणसई पगासेमाणे मङ्खलिपुत्रः जिनः जिनप्रलापी यावत् जिन-प्रलापी यावत् जिन होकर अपने विहरइ। तण्णं मिच्छा। अहं पुण गोयमा! जिनः जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति। आपको जिन शब्द से प्रकाशित करता एवमाइक्वामि जाव परूवेमि-एवं खलु तत् मिथ्या। अहं पुनः गौतम! हुआ विहार कर रहा है-वह मिथ्या है। एयम्स गोसालस्स मंखलीपुत्तस्स मंखली एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि-एवं । गौतम! मैं इस प्रकार आख्यान यावत् नामं मंखे पिता होत्था। तस्स णं खलु एतस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य प्ररूपण करता हूं-इस मंखलिपुत्र गोशाल के मंखलिस्स मखस्स भरा नाम भारिया । मंखली नाम मंखः पिता आसीत्। तस्य पिता का नाम मंखलि था। उसकी जाति होत्था-सुकुमालपाणिपाया जाव मंखलिनः मंखस्य भद्रा नाम् भार्या मंख थी। उस मंखलि मंख के भद्रा नाम की पडिरूवा। तए णं सा भदा भारिया आसीत्-सुकुमार-पाणिपादा यावत् भार्या थी-सुकुमार हाथ पैर वाली यावत् अण्णदा कदायि गुग्विणी यावि होत्था। प्रतिरूपा। ततः सा भद्रा भार्या अन्यदा प्रतिरूपा। वह भद्रा भार्या किसी दिन गर्भवती कदापि गुर्विणी चापि अभूत्। १५. तेणं कालेणं तेणं समएणं सरवणे नामं तस्मिन् काले तस्मिन् समये सरवणः १५. उस काल उस समय 'सरवण' नाम का सण्णिवेसे होत्था-रिथिमियसमिद्धे नाम सन्निवेशः आसीत्-ऋद्धिस्ति- सन्निवेश था-ऐश्वर्यशाली, शान्त और समृद्ध जाव नंदणवणसन्निभएपगासे, पासादीए मितसमृद्धः यावत् नन्दनवनसन्निभ- यावत् नंदनवन के समान प्रभा वाला, चित्त दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। तत्थ णं प्रकाशः प्रासादिकः दर्शनीयः अभिरूपः को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय सरवणे सण्णिवेसे गोबहले नामं माहणे प्रतिरूपः। तत्र सरवणे सन्निवेशे गोबलः और रमणीय। उस सरवण सन्निवेश में परिवसइ-अढे जाव बहुजणस्स नाम माहनः परिवसति-आढ्यः यावत् गोबहुल नाम का ब्राह्मण' रहता था-वह अपरिभूए, रिउब्वेद जाव बंभण्णएसु बहुजनस्य अपरिभूतः, ऋग्वेद यावत् समृद्ध यावत् बहुजनों के द्वारा अपरिभूत था, परिचायएसु य नयेसु सुपरिनिहिए यावि ब्राह्मण्यकेषु परिव्राजकेषु च नयेषु सुपरि- ऋग्वेद यावत् अनेक ब्राह्मण' और परिव्राजक होत्था। तस्स णं गोबहुलस्स माहणस्स निष्ठितः चापि आसीत्। तस्य गोबहुलस्य संबंधी नयों में निष्णात था। उस गोबहुल गोसाला यावि होत्था। माहनस्य गोशाला चापि आसीत्। ब्राह्मण के गौशाला भी थी। भाष्य सूत्र १५ १.ब्राह्मण द्रष्टव्य भ. २/२४ का भाष्य। १६. तए णं से मखली मंखे अण्णया ततः सः मंखली मंखः अन्यदा १६. मंखली मंख ने एक दिन गर्भवती भार्या कदायि भद्दाए भारियाए गुब्बिणीए सद्धिं कदाचित् भद्रया भार्यया गुर्विण्या सार्धं भद्रा के साथ प्रस्थान किया। वह चित्रफलक चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं चित्रफलकहस्तगतः मंखत्वेन आत्मानं हाथ में लेकर मंखत्व (भिक्षुत्व वृत्ति) के द्वारा भावेमाणे पुव्वाणुपुन्दि चरमाणे भावयन् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं . अपना जीवन-यापन करता हुआ, क्रमानुसार गामाणगामं दइज्जमाणे जेणेव सरवणे दवन यचैव सरवणः सन्निवेशः यत्रैव विचरण तथा ग्रामानुग्राम पण्जिन करता सण्णिवेसे जेणेव गोबहुलस्स माहणस्स गोबहुलस्य माहनस्य गोशाला तत्रैव हुआ, जहां सरवण सन्निवेश था, जहां / Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १५ : सू. १७-२० २५० गोसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उपागच्छति, उपागम्य गोबहुलस्य गोबहलस्स माहणस्स गोसालाए माहनस्य गोशालायाम् एकदेशे एगदेससि भंडनिक्खेवं करेइ, करेत्ता भाण्डनिक्षेपं करोति, कृत्वा सरवणे सरवणे सण्णिवेसे उच्च-नीय-मज्झिमाइं सन्निवेशे उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यायां अटन् अडमाणे वसहीए सब्बओ समंता वसतौ सर्वतः मार्गणगवेषणां करोति, मग्गणगवेसणं करेइ, वसहीए सवओ वसतौ सर्वतः समन्तात् मार्गणगवेषणां समंता मग्गणगवेसणं करेमाणे अण्णत्थ कुर्वन् अन्यत्र वसतिम् अलभमानः वसहिं अलभमाणे तस्सेव गोबहुलस्स (अलभमाणे) तस्यैव गोबहुलस्य माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि वासावासं माहनस्य गोशालायाम् एकदेशे उवागए॥ वर्षावासम् उपागतः। गोबहुल ब्राह्मण की गौशाला थी वहां आया, आकर गोबहुल ब्राह्मण का गौशाला के एक भाग में भांड का निक्षेप किया, निक्षेप कर सरवण सन्निवेश के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए चारों ओर आवास योग्य स्थान की मार्गणागवेषणा करते हुए, आवास-योग्य स्थान के न मिलने पर उसी गोबहुल ब्राह्मण की गौशाला के एक भाग में वर्षावास किया। १७. तए णं सा भद्दा भारिया नवण्हं ततः सा भद्रा भार्या नवानां मासानां १७. भद्रा भार्या ने बहु प्रतिपूर्ण नव मास साढे मासाणं-बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण य प्रतिपूर्णानाम् अर्धाष्टमानां च रात्रिंदि- सात दिन-रात बीत जाने पर सुकुमार हाथ राइंदियाणं वीतिक्कंताणं सुकुमाल- वानां व्यतिक्रान्तानां सुकुमालपाणिपादं पैर वाले यावत् प्रतिरूप पुत्र को जन्म दिया। पाणिपायं जाव पडिरूवगं दारगं पयाया॥ यावत् प्रतिरूपकं दारकं प्रजाता। १८. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वीतिक्कंते निव्वत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते बारसमे दिवसे अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिष्फन्नं नामधेज्जं करेंति-जम्हा णं अम्हं इमे दारए गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए जाए तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं गोसाले-गोसाले त्ति। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति गोसाले ति॥ ततः तस्य दारकस्य अम्बपितरौ १८. उस पुत्र के माता-पिता ग्यारह दिन बीत एकादशमे दिवसे व्यतिक्रान्ते निवृत्ते जाने पर अशुचिजात कर्म से निवृत्त हुए अशुचिजात-कर्मकरणे सम्प्राप्ते बारहवें दिन इस प्रकार का गुण-युक्त गुणद्वादशमे दिवसे इदमेतद्रूपं गौणं निष्पन्न नामकरण किया-क्योंकि हमारा यह गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुर्वतः-यस्मात् बालक गोबहुल ब्राह्मण की गौशाला में उत्पन्न अस्माकम् अयं दारकः गोबहुलस्य हुआ है इसलिए इस बालक का नाम माहनस्य गोशालायां जातः तत् भवतु 'गोशाल-गोशाल' ऐसा हो। तब उसके माताअस्माकम् अस्य दारकस्य नामधेयं पिता ने उस बालक का नाम गोशाल किया। गोशालः गोशालः इति। ततः तस्य दारकस्य अम्बापितरौ नामधेयं कुरुतः गोशालः इति। १६. तए णं से गोसाले दारए उम्मुक्कबाल- ततः सः गोशालः दारकः उन्मुक्त- १६. उस बालक गोशाल ने बाल अवस्था को भावे विण्णयपरिणयमेत्ते जोवण- बालभावः विज्ञकपरिणतिमात्रः यौवनक- पारकर, विज्ञ और कला का पारगामी बन गमणुप्पत्ते सयमेव पाडिएक्कं चित्त- मनुप्राप्तः स्वयमेव प्रत्येकं चित्रफलकं कर यौवन को प्राप्त किया। स्वयं स्वतंत्र रूप फलगं करेइ, करेत्ता चित्तफलगहत्थगए करोति, कृत्वा चित्रफलकहस्तगतः से चित्रफलक का निर्माण किया, निर्माण कर मंखत्तणेणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ मंखत्वेन आत्मानं भावयन् विहरति। वह चित्रफलक को हाथों में लेकर मंखत्व-वृत्ति के द्वारा अपना जीवन-यापन करता हुआ विचरण करने लगा। भगवओ विहार-पदं २०. तेण कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! तीसं वासाइं अगारवास- मज्झावसित्ता अम्मापिईहिं देवत्तगएहिं समत्तपइण्णे एवं जहा भावणाए जाव एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्चइए॥ भगवतः विहार-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये अहं गौतम! त्रिंशत् वर्षाणि अगारवासमध्य उषित्वा (अगारवासमज्झावसित्ता) अम्बापितृभ्यां देवत्वगताभ्यां समाप्तप्रतिज्ञः एवं यथा भावनायां यावत् एकं देवदूष्यम् आदाय मुण्डः भूत्वा अनागाराद् अनगारितां प्रव्रजितः। भगवान का विहार-पद २०. गौतम! उस काल उस समय मैं तीस वर्ष घर में रह कर माता-पिता के दिवंगत होने पर मेरी प्रतिज्ञा सम्पन्न हो गई, इस प्रकार भावना अध्ययन की वक्तव्यता (आयारचूला १५/२६-२६) यावत् एक देवदूष्य को लेकर मुंड होकर अगारता से अनगारता में प्रव्रजित हो गया। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५१ २१. तए णं अहं गोयमा! पढमं वासं ततः अहं गौतम! प्रथमं वर्षं अर्द्धमासम् अद्धमासं अद्धमासेणं खममाणे अर्द्वमासेन क्षाम्यन् अस्थिकग्रामं निश्रया अद्वियगामं निस्साए पढमं अंतरवासं प्रथमम् अन्तरवासम् वर्षावासम् वासावासं उवागए। दोचं वा मासं मासेणं उपागतः। द्वितीय वर्ष मासं मासेन खममाणे पुवाणुपुचि चरमाणे क्षाम्यन् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्राम गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे दवन् यत्रैव राजगृहं नगरम् यत्रैव नगरे, जेणेव नालंदा बाहिरिया, जेणेव । नालन्दा बाहिरिका, यत्रैव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, तन्तुवायशाला, तत्रैव उपागच्छामि उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं उपागम्य यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् ओगिण्हामि, ओगिण्हित्ता तंतुवाय- अवगृह्णामि अवगृह्य तन्तुवायशालायाः सालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए॥ एकदेशे वर्षावासम् उपागतः। श. १५ : सू. २१-२५ २१. गौतम! मैंने प्रथम वर्ष में अर्द्धमासअर्द्धमास तप करते हुए अस्थिग्राम की निश्रा में प्रथम अंतरवास में वर्षावास किया। दूसरे वर्ष में मास-मास का तप करते हुए क्रमशः विचरण तथा ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए जहां राजगृह नगर था, जहां बाहिरिका नालन्दा थी, जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली, अनुमति लेकर तंतुवायशाला के एक भाग में वर्षावास किया। पढम-मासखमण-पदं २२. तए णं अहं गोयमा! पढमं मासखमणं उपसंपज्जित्ताणं विहरामि॥ प्रथम-मासक्षपण-पदम् ततः अहं गोतम! मासक्षपणम् उपसम्पद्य विहरामि। प्रथम मासखमण-पद २२. गौतम! मैं प्रथम मासखमण तप को स्वीकार कर विहार करने लगा। २३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते चित्त- ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः चित्र- २३. वह मंखलिपुत्र गोशाल चित्रफलक को हाथ फलगहत्थगए मखत्तणेणं अप्पाणं फलकहस्तगतः मंखत्वेन आत्मानं में लेकर मंखत्व वृत्ति से अपना जीवन-यापन भावेमाणे पुव्वाणुपुल्विं चरमाणे भावयन् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं करता हुआ, क्रमानुसार विचरण तथा गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे दवन् यत्रैव राजगृहं नगरम्, यत्रैव ग्रामानुग्राम परिवजन करता हुआ, जहां नगरे, जेणेव नालंदा बाहिरिया, जेणेव नालन्दा बाहिरिका, यत्रैव तन्तुवाय- राजगृह नगर, जहां बाहिरिका नालंदा, जहां तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छइ, शाला, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य । तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर उवागच्छित्ता तंतुवायसालाए एगदेसंसि । तन्तुवायशालायाः एकदेशे भाण्डनिक्षेपं तंतुवायशाला के एक देश में भांड का निक्षेप भंडनिक्स्वेवं करेइ, करेत्ता रायगिहे नगरे करोति, कृत्वा राजगृहे नगरे उच्च-नीच- किया, निक्षेप कर राजगृह नगर के उच्च, नीच उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घर- मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे भिक्षाचर्यायाम् अटन् वसतौ सर्वतः । लिए घूमते हुए चारों ओर आवास-योग्य वसहीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं समन्तात् मार्गणगवेषणां करोति वसतौ स्थान की गवेषणा की, चारों ओर मार्गणाकरेइ, वसहीए सब्बओ समंता मग्गणग- सर्वतः समन्तात् मार्गणगवेषणां कुर्वन् गवेषणा करते हुए कहीं भी आवास योग्य वेसणं करेमाणे अण्णत्थ कत्थ वि वसहि अन्यत्र कुत्रापि वसतिम् अलभमानः स्थान के प्राप्त न होने पर उसी तंतुवाय. अलभमाणे तीसे य तंतुवायसालाए । तस्याः च तन्तुवाय-शालायाः एकदेशे शाला के एक भाग में वर्षावास किया। गौतम! एगदेसंसि वासावास उवागए, जत्थेवणं वर्षावासम उपागतः, यत्रैव अहं जहां मैं था। अहं गोयमा ! गौतम! २४. तए णं अहं गोयमा! पढममासक्व- ततः अहं गौतम ! प्रथममासकक्षपण- २४. गौतम! मैंने प्रथम मासखमण के पारणे में मणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडि- पारणके तन्तुवायशालायाः प्रति- तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, निक्खमामि, पडिनिस्वमित्ता नालंदं निष्क्रामामि, प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दा प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बाहिरियं मझमझेणं निग्गच्छामि, बाहिरिका मध्यमध्येन निर्गच्छामि, बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां निग्गच्छित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव । निर्गत्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैव राजगृह नगर था, वहां आया, वहां आकर उवागच्छामि, उवागच्छित्ता रायगिहे नगरे उपागच्छामि, उपागम्य राजगृहे नगरे । राजगृह नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घर- उच-नीच-मध्यमानि कुलानि गृह- में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए मैंने समुदाणस्स भिक्खायरियार अडमाणे समुदानस्य भिक्षाचर्याम् अटन् । गृहपति विजय के घर में अनुप्रवेश किया। विजयस्स गाहावइस्स गिह अणपवि॥ विजयस्य . गाहावइरस गृहम् अनुप्रविष्टः। २५. तए ण से विजए गाहादई ममं ततः सः विजयः गाहावई माम् आयन्तं २५. गृहपति विजय ने मुझे आते हुए देखा, Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. २६ एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हतुट्ठचित्तमाणंदिए दिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्प - माणहियए विप्पामेव आसणाओ अन्भुट्ठेड़, अभुत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओममुयइ, ओमुत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करे, करेत्ता अंजलि -मउलियहत्थे ममं सत्तट्ठपयाई अणु-गच्छइ, अणुगच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता ममं विउलेणं असण-पाणखाइम साइमेणं पडिला भेस्सामित्ति तुट्ठे, पडिला भेमाणे वि तुट्ठे, पडिलाभिते वि तुट्टे॥ २६. तए णं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धेण दायगसुद्धेणं पडिगाहगसुद्धेणं तिविणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं मए पडिलाभिए समाणेदेवाउए निबद्धे संसारे परित्तीकए, गिहंसि ये से इमाई पंच दिव्वाई पाउब्भूयाई, तं जहा - बसु - धारा बुट्ठा, दसद्धवण्णे कुसुमे निवातिए, चेलुक्वेवे कए, आहयाओ देवदुंदुभीओ, अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो दाणेति घुट्टे ॥ सूत्र २२-२६ प्रस्तुत सूत्र में भावी तीर्थंकर (महावीर) को विजय गृहपति द्वारा प्रदत्त दान का प्रसंग आया है। इस सूत्र के संदर्भ में कुछ विषय विवेचनीय हैं ३. देवायुष्य का बंध ४. पांच दिव्यों का प्रकटीकरण २५२ पश्यति दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पदहृदयः क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य पादुकाः अवमुञ्चति, अवमुच्य एकशाटिकम् उत्तरासंगं करोति, कृत्वा अञ्जलिमुकुलितहस्तः मां सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगम्य मां त्रिः आदक्षिणं- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा मां वन्दे नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा मां विपुलेन अशन-पानखाद्य - स्वाद्येन प्रतिलाभयिष्यामि इति तुष्टः प्रतिलाभयन् अपि तुष्टः प्रतिलाभितः अपि तुष्टः । १. द्रव्य, दाता और प्रतिग्राहक की शुद्धि २. त्रिविध - त्रिकरण शुद्ध दान १. द्रव्य, दाता और प्रतिग्राहक की शुद्धि दान की प्रक्रिया के तीन घटक हैं १. देय द्रव्य ततः तस्य विजयस्य गाहावइस्स तेन द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धेन प्रतिग्राहकशुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन मयि प्रतिलाभते सति देवायुषक: निबद्धः, संसारः परीतीकृतः, गृहे च तस्य इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि तद्यथावसुधारा वृष्टा, दशार्धवर्णः कुसुमः निपातितः, चेलोत्क्षेपः कृतः, आहताः देवदुन्दुभयः अन्तरा अपि च आकाशे अहो दानम्, अहो दानम् इति घुष्टम् । भाष्य २. दाता ३. पात्र ( प्रतिग्राहक ) ये तीनों शुद्ध होने पर शुद्ध दान होता है। अभयदेवसूरि ने 'द्रव्य' की व्याख्या में बताया है - ओदन ( चावल ) आदि द्रव्य जब १. भ. वृ. १५ / २६ - 'दव्वसुद्धेणं' ति द्रव्यं-ओदनादिकं शुद्धं उद्गमादिदोषरहितं यत्र दाने तत्तथा तेन 'दायगसुद्धेणं' ति दायकः शुद्धो यत्राशंसादिदोषरहितत्वात् तत्तथा तेन । भगवई देखकर हृष्टतुष्टचित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रतिपूर्णमन वाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। शीघ्र ही आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा। नीचे उतर कर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र का उत्तरासंग किया। उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, सामने आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदन - नमस्कार किया, वन्दन- नमस्कार कर- मैं महावीर को विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करूंगा यह सोचकर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ। २६. 'गृहपति विजय ने द्रव्य शुद्ध, दाता शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध इस प्रकार त्रिविध, त्रिकरण से शुद्ध दान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया। उस समय उसके घर में ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे- रत्नों की धारा निपातवृष्टि, पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के में 'अहोदानम् - अहोदानम्' की उद्घोषणा हुई। अन्तराल उद्गम आदि दोषों से रहित होता है, तब वह शुद्ध द्रव्य कहलाता तथा 'दायक शुद्धि' का अर्थ है- जो दाता आशंसा आदि दोषों से रहित होता है, वह शुद्ध दायक है।' शुद्ध प्रतिग्राहक अर्थात् सुपात्र । प्रस्तुत प्रसंग में भगवान् महावीर प्रतिग्राहक हैं। पंचमहाव्रतधारी निग्रंथ साधु को 'सुपात्र' की कोटि में रखा गया है।' आचार्य भिक्षु ने लौकिक और लोकोत्तर दान के स्वरूप पर सूक्ष्म विवेचन किया है जिसकी मीमांसा इस प्रकार है' : दान भारतीय साहित्य का सुपरिचित शब्द है। इसके पीछे अनुग्रह का मनोभाव रहा है। एक समर्थ व्यक्ति दूसरे असमर्थ व्यक्ति को दान देता है, इसका अर्थ है, वह उस पर अनुग्रह करता है। दान की परम्परा में असंख्य परिवर्तन हुए हैं। प्रत्येक परिवर्तन के पीछे एक विशिष्ट मान्यता रही है। प्राचीन काल में राजाओं की ओर से दानशालाएं चलती थीं । दुर्भिक्ष आदि में उनकी विशेष व्यवस्था की जाती थी । पदयात्रियों को भी आहार आदि का दान दिया जाता था। सार्वजनिक कार्यों के लिए दान देने की प्रथा सम्भवतः जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, खंड २, पृ. ४२१-४२७। २. ३. भिक्षु विचार दर्शन, पृ. ११६ - १२१। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५३ श. १५ : सू. २६ नहीं जैसी थी। उस समय दान समाज-व्यवस्था का एक प्रधान अंग निश्चय-दृष्टि का निर्णय व्यवहार-दृष्टि से भिन्न भी हो सकता था। उससे पूर्वकाल में जाते हैं तो दान जैसा कोई तत्त्व था ही नहीं। है। सम्भव है जिसे संयमी माना जाए, वह वास्तव में असंयमी हो और न कोई देने वाला था और न कोई लेनेवाला। भगवान् ऋषभनाथ ने जिसे असंयमी माना जाए, वह वास्तव में संयमी हो। यह व्यक्तिगत दीक्षा से पूर्व दान देना चाहा, पर कोई लेने वाला नहीं मिला। बात है। सिद्धान्त की भाषा में यही कहा जा सकता है कि संयमी भगवान् ऋषभनाथ श्रमण बने। एक वर्ष तक उन्हें कोई भिक्षा को दान देना मोक्ष का मार्ग है और असंयमी को दान देना संसार देने वाला नहीं मिला, उसके पश्चात् श्रेयांसकुमार ने उन्हें इक्षुरस का का मार्ग है। संयमी और असंयमी की परिभाषा अपनी-अपनी हो दान दिया। सकती है। आचार्य भिक्षु की भाषा यह है कि जो पूर्ण अहिंसक हो साधुओं को दान देने का प्रवर्तन हुआ तब यह प्रश्न मोक्ष से वह संयमी है और जो मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत, कारित और जुड़ गया। धर्म का अंग बन गया। समाज में दीन-वर्ग की सृष्टि हुई अनुमति से अहिंसा का पालन न करे वह असंयमी है। तब दान करुणा से जुड़ गया। असंयमी मोक्ष-दान का अधिकारी नहीं है। जिसमें कुछ व्रत याचकों ने दान की गाथाएं गायीं। दान सर्वोपरि तत्त्व बन गया। हों, वह संयमासंयमी भी मोक्ष-दान का अधिकारी नहीं है। एक इससे अकर्मण्यता बढ़ने लगी, तब दान के लिए पात्र, अपात्र की आदमी छह काय के जीवों को मारकर दूसरों को खिलाता है, यह सीमाएं बनने लगीं। इससे दाताओं का गर्व बढ़ने लगा, तब दाता के हिंसा का मार्ग है। जीवों को मारकर खिलाने में पुण्य बतलाते हैं, स्वरूप की मीमांसा की जाने लगी। वे सिंह की भांति निर्भय होकर नाद नहीं करते। उन्हें पूछने पर मेमने मांगने वालों का लोभ बढ़ गया, तब देय की मीमांसा होने की भांति कांपने लग जाते हैं। जो जीवों को मारकर खिलाने में पुण्य लगी। दान के कारणों का विशद विवेचन हुआ। भारतीय साहित्य के बतलाते हैं, उनकी जीभ तलवार की तरह चलती है। हजारों-लाखों पृष्ठ इन मीमांसाओं से भरे हैं। आचार्य भिक्षु ने इस २. त्रिविध-त्रिकरण शुद्ध दान अध्याय में कुछ पृष्ठ और जोड़ दिए। उन्होंने दान का मोक्ष और इसका तात्पर्य है-कृत, कारित और अनुमोदित तथा मन, संसार की दृष्टि से विश्लेषण किया। उनका अभिमत है कि जो लोग वचन और काया की शुद्धि।' समूचे दान को धर्म मानते हैं, वे धर्म की शैली को नहीं जान पाए ३. देवायुष्य का बंध हैं। वे आक और गाय के दूध को एक मान रहे हैं।' मोक्ष का मार्ग देव-आयुष्य कर्म-बंध के मुख्य चार हेतु माने गए हैं - संयम है। असंयमी को दान दिया जाए और उसे मोक्ष का मार्ग बताया १. सराग संयम २. संयमासंयम ३. बालतप ४. अकाम निर्जरा। जाए-यह विरोध है। दान को धर्म बताए बिना लोग नहीं देते, इसलिए प्रस्तुत सूत्र के अनुसार शुद्ध दान भी इसका एक हेतु है। सम्भव है दान को धर्म बताया जाता है। भगवती सूत्र में ही बताया गया है-गौतम! प्राणों का अतिपात आचार्य भिक्षु की समूची दान-मीमांसा का सार इन शब्दों में न कर, झूठ न बोल कर, तथारूप श्रमण अथवा माहन को वन्दनहै कि संयमी को दिया जाए, वह दान मोक्ष का मार्ग है और असंयमी नमस्कार कर यावत् उसकी पर्युपासना कर उसे किसी प्रकार के को दिया जाए, वह दान संसार का मार्ग है। संयमी को दान देने से मनोज्ञ एवं प्रीतिकर अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित संसार घटता है और असंयमी को दान देने से संसार बढ़ता है। कर-इस प्रकार जीव शुभ दीर्घ आयुष्य वाले कर्म का बंध करते हैं।१० दाता वही होता है जो संयमी या असयंमी सभी को दे। वह दिगम्बर-परम्परा के अनुसार सम्यग्दृष्टि जीव द्वारा सुपात्र को पग-पग पर संयमी-असंयमी की परख करने नहीं बैठता। अपने व्यवहार विधिपूर्वक दिया गया दान तथा समाधिपूर्वक मृत्यु अच्युतकल्प तक में जिसे संयमी मानता है, उसे मोक्ष-मार्ग की बुद्धि से देता है और में उत्पत्ति के हेतु हैं।" जिसे असंयमी मानता है, उसे संसार-मार्ग की बुद्धि से देता है। १. व्रताव्रत, २०१४ समुचे दान में धर्म कहे तो, नाइ जिण धर्म सेली रे। आक ने गाय रो दूध अग्यांनी, कर दीयो भेल संभेली रे॥ वही, २०१५ इविरत में दांन ले पेलां रो, मोष रो मार्ग बतावे रे। धर्म कह्यां विण लोक नहीं दे, जब कूर कपट चलावे रे॥ ३. वही, १६५७ सुपातर में दीयां संसार घटे छे, कुपातर ने दीयां वधे संसार। ए वीर वचन साचा कर जांणो, तिणमें संका नहीं छे लिगार रे॥ ४. वही, १६.५० पातर कुपातर हर कोइ ने देवे, तिणनें कहीजे दातार। तिणमें पातर दांन मुगत रो पावडीयो, कुपातर सूं रूले संसार रे॥ ५. व्रताव्रत, १७१६ कोइ छ काय जीवां रो गटको करावे, अथवा छ काय मारे ने खवावे। ओ जीव हिंसा नों राहज खोटो, तिण में एकंत धर्म में पुन बतावे॥ ६. वही, १७१२८ जीव खवायां में पुन परूपे, ते सीह तणी परे कदे न गूंजे। परगट कहितां भूडा दीसे, त्यांने प्रश्न पूछ्यां गाडर जिम धूजे।। ७. वही, १७।२६ जीव खवायां में पुन परूपे, त्यां दुष्ट्यां ने कहिजे निश्चे अनारज। त्यांरी जभिवहे तरवार सूं तीखी, त्यां विकलां रा किण विध सीझसी कारज।। ८. भ. वृ. १५/२६-'तिविहेणं' ति उक्तलक्षणेन त्रिविधेन। अथवा त्रिविधेन कृतकारितानुमतिभेदेन। तिकरणसुद्धेणं त्रिकरणशुद्धेण-मनोवाक्कायशुद्धेन। ६. ओव. सू. ३४। १०. भ. ७/२७ का भाष्य। ११. अमितगति श्रावकाचार, ११/१०२। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. २७,२८ ४. पांच दिव्यों का प्रकटीकरण १. रत्नों की धारा निपात वृष्टि- 'वसुहारा वुट्ठा' का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार है- वसुधारा अर्थात् द्रव्यरूपा धारा की वृष्टि । ' वसु का एक अर्थ है-रत्न ।' तदनुसार वसुवृष्टि का अर्थ होगा- 'रत्नों की वृष्टि' । यह 'धारा-निपात' के रूप में होने से इसका तात्पर्य होगा। 'रत्नों की धारा निपात वृष्टि - यह प्रथम दिव्य है। तीर्थंकरों के गर्भ में आने से छह मास पूर्व से लेकर जन्म पर्यन्त उनके जन्म-स्थान में प्रतिदिन तीन वार कुबेर द्वारा साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती है। ' २. पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि- पुद्गल में पांच वर्ण पाए जाते हैं जिनके अंतर्गत सभी वर्ण समाहित हो जाते हैं। तीर्थकरों का एक अतिशय है- बहु वर्ण पुष्प वृष्टि। यह देवकृत अतिशय है-घुटने तक ऊंची पांच रंगवाले फूलों की वृष्टि | " २७. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर- चउम्मुह - महापहपहेसु बहु अण्णमणस्स एवमाइक्खड़ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेई - धन्ने णं देवापिया! विजये गाहावई, कयत्थे णं देवाप्पिया! विजये गाहावई, कयपुण्णे णं देवाणुष्पिया विजये गाहावई, कलक्खे णं देवाणुपिया विजये गाहा - बई, कया णं लोया देवाणुप्पिया! विजयस्स गाहावइस्स, सुलद्धे णं देवाणुपिया ! माणुस्सए जम्मजीवि - फले बिजयस्स गाहावइस्स, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाई पंच दिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा - वसुधारा बुट्ठा जाव अहो दाणे, अहो दाणेत्ति घुट्ठे, तं धन्ने कत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं लोया, सुलद्धे माणुस्सए जीवियफले विजयस्स गाहावइस्स, विजयस्स गाहावइस्स | जम्म २८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयमहं सोचा निसम्म समुप्पन्नसंसए समुप्पन्न - कोउहल्ले जेणेव विजयस्स गाहावइस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासइ विजयस्स २५४ १. भ. वृ. १५ / २६ - वसुहारा वृट्ठ' त्ति वसुधारा द्रव्यरूपा वृष्टा । २. अभि. चि. ( नाममाला), ४ / १२६ । १३. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, खंड २, पृ. ३२१। ४. अभि. चि. ( नाममाला ), १ / ६३ । भगवई ३. ध्वजा फहराने लगी-चेलोत्क्षेप का एक अर्थ होता है-वस्त्रों की वर्षा । " ठाणं में भी 'चेलोत्क्षेप' का उल्लेख इस प्रकार आया है- 'चार कारणों से देव चेलोत्क्षेप करते हैं- १. अर्हन्तों का जन्म होने पर, २. अर्हन्तों के प्रव्रजित होने के अवसर पर, ३. अर्हन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष में किए जाने वाले महोत्सव पर, ४. अर्हन्तों के परिनिर्वाण - महोत्सव पर ।' तीर्थंकरों का एक अतिशय है - रत्नमय ध्वज । " ४. देवदुन्दुभियां बजी - यह भी तीर्थंकरों का एक अतिशय है । " ५. आकाश - अंतराल में 'अहोदानं' 'अहोदानं' की उद्घोषणासाधना काल में तपस्या के पारण में जब कोई तीर्थंकर को दान देता है, तब यह उद्घोषणा देवों द्वारा दान की महिमा को दर्शाने हेतु की जाती है। ततः राजगृहे नगरे श्रृंगाटक - त्रिकचतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख - महापथ- पथेषु बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयतिधन्यः देवानुप्रियाः ! विजयः 'गाहावई', कृतपुण्यः देवानुप्रियाः ! विजयः 'गाहा - वई', कृतार्थः देवानुप्रियाः! विजयः 'गाहावई', कृतलक्षणः देवानुप्रियाः ! विजयः 'गाहावई', कृताः लोकाः देवानुप्रियाः ! विजयस्य 'गाहावइस्स', लब्धं देवानुप्रियाः ! मानुष्यकं जन्मजीवितफलं विजयस्य गाहावइस्स' यस्य गृहे तथारूपः साधुः साधुरूपे प्रतिलाभिते सति इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि तद्यथावसुधारा वृष्टा यावत् अहोदानम्, अहोदानम् इति घुष्टम, तत् धन्यः कृतार्थः, कृतपुण्यः, कृतलक्षणः, कृतालोकाः सुलब्धं मानुष्यकं जन्मजीवितफलं विजयस्य 'गाहावइस्स', विजयस्य 'गाहावइस्स' । ततः गोशालाः मंखलिपुत्रः बहुजनस्य अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य समुत्पन्नसंशयः समुत्पन्न - कुतूहल: यत्रैव विजयस्य 'गाहावइस्स' गृहं तत्रैव उपागच्छति, पश्यति २७. राजगृह नगर के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना एवं प्ररूपण करते हैं- देवानुप्रिय ! गृहपति विजय धन्य है । देवानुप्रिय ! गृहपति विजय कृतार्थ है ! देवानुप्रिय ! गृहपति विजय कृतपुण्य ( भाग्यशाली ) है । देवानुप्रिय ! गृहपति विजय कृतलक्षण (लक्षण-संपन्न) है । देवानुप्रिय गृहपति विजय ने इहलोक और परलोक दोनों को सुधार लिया, देवानुप्रिय ! गृहपति विजय ने • मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, जिस गृहपति विजय के घर में तथारूप साधु के साधु रूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे- रत्नों की धारा निपात वृष्टि यावत् आकाश के अंतराल में 'अहोदानम् - अहोदानम्' की उद्घोषणा । इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, कृतपुण्य, कृतलक्षण है, उसने इहलोक और परलोक दोनों को सुधारा है, विजय गृहपति ने, विजय गृहपति ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। २८. बहुजन के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर मंखलिपुत्र गोशाल के मन में संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ। जहां गृहपति विजय का घर था, वहां आया, आकर गृहपति विजय के घर रत्नों की धारा उपागम्य ५. नाया. १/१४ / ८४, पृ. २६१। ६. ठाणं, ४/४४७, पृ. ४१८ । ७. अभि. चि. ( नाममाला) १/६१ | ८. वही, १/६२। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई गाहावइस्स गिहंसि वसुहारं बुद्धं, दसद्धवण्णं कुसुमं निवडियं, ममं च णं विजयस्स गाहावइस्सगिहाओ पडिनिक्खममाणं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो अयाहिणपयाहिणं करेड़, करेत्ता ममं वंदइ नमसर, वंदित्ता नमसित्ता ममं एवं वयासी - तुब्भे णं भंते! ममं धम्मायरिया, अहणणं तुब्भं धम्मंतेवासी ॥ २६. तए णं अहं गोयमा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमहं नो आढामि, नो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्ठामि ॥ दोच्च-मासखमण-पदं ३०. तए णं अहं गोयमा ! रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमामि, पडिनिक्खमित्ता नालंदं बाहिरियं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता दोच्चं मासखमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरामि ॥ ३१. तए णं अहं गोयमा ! दोच्चमासखमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि, पडिनिक्खमित्ता नालंद बाहिरियं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता रायगिहे नगरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे आणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविट्ठे ॥ ३२. तए णं से आणंदे गाहावई ममं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हतुट्ठ चित्तमादिए दिए पी मणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ, अभुत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पचोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करेत्ता अंजलिमउलियहत्थे ममं सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अगच्छत्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण २५५ विजयस्य 'गाहावइस्स' गृहे वसुधारां वृष्टां दशार्धवर्णं कुसुमं निपतितं मां च विजयस्य 'गाहावइस्स' गृहात् प्रतिनिष्क्रान्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टः यत्रैव मम अन्तिकं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य मां त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा माम् एवमवादीत्-यूयं भदन्त ! मम धर्माचार्याः, अहं तव धर्मान्तेवासी । ततः अहं गौतम! गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य एतमर्थं नो आद्रिये, नो परिजानामि, तुष्णीकः सन्तिष्ठते । द्वितीय- मासक्षपण-पदम् ततः अहं गौतम ! रागृहात् नगरात् प्रतिनिष्क्रामामि प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दां बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि, निर्गत्य यत्रैव तन्तुवायशाला तत्रैव उपागच्छामि, उपागम्य द्वितीयं मासक्षपणम् उपसम्पद्य विहरामि । ततः अंह गौतम! द्वितीयमासक्षपणपारणके तन्तुवायशालायाः प्रतिनिष्क्रामामि प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दां बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि, निर्गत्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैव उपागच्छामि, उपागम्य राजगृहे नगरे उच्च-नीच - मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् आनन्दस्य गाहावइस्स गृहम् अनुप्रविष्टः । ततः सः आनन्दः 'गाहावई' माम् आयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्ह्रदयः क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य पादुकाः अवमुंचति, अवमुच्य एकशाटिकम् उत्तरासंगं करोति कृत्वा अंजलिमुकुलितहस्तः माम् सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, श. १५ : सू. २६-३२ निपात वृष्टि तथा पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि को देखा | गृहपति विजय के घर से मुझे प्रतिनिष्क्रमण करते हुए देखा, देखकर हृष्टतुष्ट हुआ। जहां मैं था, वहां आया, आकर मुझे दांयी ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदननमस्कार किया, वंदन- नमस्कार कर मुझे इस प्रकार बोला- भंते! आप मेरे धर्माचार्य हैं, मैं आपका धर्मान्तेवासी हूं। २६. गौतम ! मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को मैंने आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मैं मौन रहा । दूसरा मासखमण पद ३०. गौतम! मैंने राजगृह नगर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालन्दा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर दूसरा मासखमण स्वीकार कर विहार करने लगा। ३१. गौतम! मैंने दूसरे मासखमण के पारण में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां राजगृह नगर था, वहां आया, आकर राजगृह नगर के उच्च नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए गृहपति आनन्द के घर में मैंने अनुप्रवेश किया। ३२. गृहपति आनन्द ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्टतुष्टचित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्णमन वाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वरहृदय वाला हो गया। वह शीघ्र ही आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा, उतरकर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र से उत्तरासंग किया, उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ भगवई श. १५ : सू. ३३-३५ पयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, अनुगम्य मां त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां वंदित्ता नमंसित्ता ममं विउलाए करोति, कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, खज्जगविहीए पडिलभेस्सामित्ति तुट्टे, वन्दित्वा नमस्यित्वा मां विपुलेन पडिलाभेमाणे वि तट्टे, पडिलाभिते वि खाद्यकविधिना प्रतिलाभयिष्यामि इति तुढे॥ तुष्टः प्रतिलाभयन् अपि तुष्टः प्रतिलाभितः अपि तुष्टः। बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदननमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर-मैं महावीर को विपुल खाद्यविधि से प्रतिलाभित करूंगा, यह सोच कर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ। ३३. तए णं तस्स आणंदस्स गाहावइस्स ततः तस्य आनन्दस्य 'गाहावइस्स' ३३. उस गृहपति आनन्द ने द्रव्यशुद्ध, तेणं दव्वसुद्धेणं दायगसद्धेणं पडिगाहग- तेन द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धेन प्रतिग्राहक- दाताशुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध, त्रिविध, त्रिकरण सुद्धेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं शुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन से शुद्ध दान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर मए पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे, मयि प्रतिलाभिते सति देवायुष्क- देव-आयुष्य का निबंध किया, संसार को संसारे परित्तीकए, गिहंसि य से इमाई पंच निबद्धः, संसारः परीतीकृतः गृहे च परीत किया, उस समय उसके घर में ये पांच दिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा-वसुधारा वुट्ठा, तस्य इमानि पञ्च दिव्यानि । दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपात दसद्धवण्णे कुसुमे निवातिए, प्रादुर्भूतानि, तद् यथा-वसुधारा वृष्टा, वृष्टि, पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा चेलुक्खेवे कए, आहयाओ देवदुंदुभीओ, दशार्धवर्णः कुसुमः निपातितः, फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो चेलोत्क्षेपः कृतः, आहताः देव- अन्तराल में 'अहो दानम् अहो दानम्' की दाणेत्ति घुढे॥ दुन्दुभयः, अन्तरा अपि च आकाशे उद्घोषणा हुई। 'अहो दानम् अहो दाना' इति घुष्टम् । ३४. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- ततः राजगृहे नगरे शृंगाटक-त्रिक- ३४. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, -चउक्क-चचर-चउम्मुह-महापह-पहेसु चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति, एवं राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-धन्ने णं भाषते, एवं प्रज्ञापयति, एवं प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना एवं देवाणुप्पिया! आणंदे गाहावई, कयत्थे णं प्ररूपयति-धन्यः देवानुप्रियाः। आनन्दः । प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय! गृहपति आनंद देवाणुप्पिया! आणंदे गाहावई, कयपुण्णे 'गाहावई', कृतार्थः देवानुप्रियाः! धन्य है। देवानुप्रिय! गृहपति आनन्द कृतार्थ णं देवाणुप्पिया! आणंदे गाहाबई, आनन्दः 'गाहावई', कृतपुण्यः है। देवानुप्रिय! गृहपति आनन्द कृतपुण्य है। कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया! आणदे गा- देवानुप्रियाः! आनन्दः ‘गाहावई', देवानुप्रिय! गृहपति आनन्द कृतलक्षण है। हावई, कया णं लोया देवाणुण्यिा! कृतलक्षणः देवानुप्रियाः! आनन्दः देवानुप्रिय! गृहपति आनंद ने इहलोक और आणंदस्स गाहावइस्स, सुलद्धे णं 'गाहावई', कृताः लोकाः देवानुप्रियाः । परलोक दोनों को सुधार लिया, देवानुप्रिय! देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्म- आनन्दस्य 'गाहवइस्स', सुलब्धं ।। गृहपति आनंद ने मनुष्य जन्म और जीवन का जीवियफले आणंदस्स गाहावइस्स, जस्स देवानुप्रियाः! मानुष्यकं जन्मजीवित- अच्छी तरह से फल प्राप्त किया है, जिस णं गिहंसि तहारूवे साधु साधुरूवे फलम् आनन्दस्य 'गाहावइस्स' यस्य गृहपति आनन्द के घर में तथारूप साधु ने पडिलाभिए समाणे इमाइं पंच दिवाई गृहे तथारूपः साधुः साधुरूपे साधुरूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य पाउन्भूयाई, तं जहा वसुधारा बुट्टा जाव प्रतिलाभिते सति इमानि पञ्च दिव्यानि । प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपातवृष्टि अहो दाणे, अहो दाणे त्ति घुटे, तं धन्ने प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-वसुधारा वृष्टा यावत् 'अहोदानम्-अहोदानम्' की कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं यावत् अहोदानम्, अहोदानम् इति उद्घोषणा, इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, लोया, सुलद्धे माणुस्सए जम्म- घुष्टम्, तत् धन्यः कृतार्थः कृतपुण्यः कृतपुण्य, कृतलक्षण है, उसने इहलोक और जीवियफले आणंदस्स गाहावइस्स, कृतलक्षणः, कृताः लोकाः, सुलब्धं परलोक दोनों को सुधारा है। गृहपति आनन्द आणंदस्स गाहावइस्स॥ मानुष्यकं जन्मजीवितफलम् आनन्दस्य ने, गृहपति आनन्द ने मनुष्य जन्म और 'गाहावइस्स', आनन्दस्य 'गाहावइस्स'। जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। ३५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहजणस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म समुप्पन्नसंसए समुष्पन्न-कोउहल्ले जेणेव ततः गोशालः मंखलिपुत्रः बहुजनस्य ३५. बहुजन के पास इस अर्थ को सुनकर, अन्तिकम् एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य अवधारण कर मंखलिपुत्र गोशाल के मन में समुत्पन्न-संशयः समुत्पन्नकुतूहलः संशय और कुतूहल उत्पन्न हुआ। जहां Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २५७ श. १५ : सू. ३६-३६ आणंदस्स गाहावइस्स गिहे तेणेव यत्रैव आनन्दस्य 'गाहावइस्स' गृहं उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासइ तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य पश्यति आणंदस्स गाहावइस्स गिहंसि वसुहारं आनन्दस्य 'गाहावइस्स' गृहे वसुधारां वुटुं, दसद्धवण्णं कुसुमं निवडियं, ममं च वृष्टाम् दशार्धवर्णं कुसुमं निपतितम्, णं आणंदस्स गाहावइस्स गिहाओ। मां च आनन्दस्य 'गाहावइस्स' गृहात् पडिनिक्खममाणं पासइ, पासित्ता हट्टतुढे प्रतिनिष्क्रान्तं पश्यति, दृष्ट्वा । जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, हृष्टतुष्ट: यत्रैव मम अन्तिकं तत्रैव उवागच्छित्ता ममं तिक्वृत्तो आयाहिण- उपागच्छति, उपागम्य मां त्रिः । पयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा मां वंदित्ता नमंसित्ता ममं एवं वयासी-तुब्भे वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा णं भंते! ममं धम्मायरिया, अहण्णं तुभं माम् एवमवादीत्-यूयं भदन्तः! मम धम्मतेवासी॥ धर्माचार्याः अहं तव धर्मान्तेवासी। गृहपति आनन्द का घर था, वहां आया, आकर गृहपति आनन्द के घर रत्नों की धारा निपात वृष्टि तथा पांच वर्णवाले फूलों की वृष्टि को देखा। गृहपति आनन्द के घर से प्रतिनिष्क्रमण करते हुए मुझे देखा, देखकर हृष्टतुष्ट हुआ, जहां मैं था, वहां आया, आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर मुझे इस प्रकार बोला-भंते! आप मेरे धर्माचार्य हैं, मैं आपका धर्मान्तेवासी हूं। ३६. तए णं अहं गोयमा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमद्वं नो आढामि, नो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्टामि॥ ततः अहं गौतम! गोशालस्य मंखलि- पुत्रस्य एतमर्थं नो आद्रिये नो परिजानामि, तूष्णीकः सन्तिष्ठे। ३६. गौतम! मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को मैंने आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मैं • मौन रहा। तच्च-मासखमण-पदं तृतीय-मासक्षपण-पदम् ३७. तए णं अहं गोयमा! रायगिहाओ ततः अहं गौतम! राजगृहात् नगरात् नगराओ पडिनिक्खमामि, पडि- प्रतिनिष्क्रामामि, प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दा निक्वमित्ता नालंदं बाहिरियं मज्झं- बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि, मज्झेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव निर्गत्य यत्रैव तन्तुवायशाला तत्रैव तंतुवायसाला, तेणेव उवागच्छामि, उपागच्छामि, उपागम्य तृतीयं मासउवागच्छित्ता तचं मासखमणं क्षपणम् उपसम्पद्य विहरामि। उवसंपज्जित्ताणं विहरामि॥ तीसरा मासखमण-पद ३७. गौतम! मैंने राजगृह नगर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर तीसरा मासखमण स्वीकार कर विहार करने लगा। ३८. तए णं अहं गोयमा! तच्चमासखमण ततः अहं गौतम! तृतीय-मासक्षपण- पारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्ख- पारणके तन्तुवायशालायाः प्रति- मामि, पडिनिक्खमित्ता नालंद बाहिरियं निष्क्रामामि, प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दा मझमझेणं निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवाग- निर्गत्य यत्रैव राजगृहं नगरं तत्रैव च्छामि, उवागच्छित्ता रायगिहे नगरे उच्च- उपागच्छामि उपागम्य राजगृहे नगरे नीय-मज्झिमाई कुलाई घर-समुदाणस्स उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृह- भिक्खायरियाए अडमाणे सुणंदस्स गाह- समुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् विइस्स गिह अणुपवितु॥ सुनन्दस्य 'गाहावइस्स' गृहम् अनुप्रविष्टः। - ३८. गौतम! मैंने तीसरे मासखमण के पारण में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां राजगृह नगर था, वहां आया, आकर राजगृह नगर के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए गृहपति सुनंद के घर में मैंने अनुप्रवेश किया। ३६. तए णं से सुणंदे गाहावई मम एज्ज- ततः सः सुनन्द: 'गाहावई' माम् माणं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठचित्त- आयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तः माणदिए णदिए पीइमणे परम- आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः सोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पदहृदयः खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, अन्भटेत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति, पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमयइ, प्रत्यवरुह्य पादुकाः अवमुञ्चति, ३६. गृहपति सुनंद ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्टतुष्टचित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्णमन वाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह शीघ्र आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा, उतरकर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र से Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ४०,४१ २५८ भगवई ओमइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, अवमुच्य एकशाटिकम् उत्तरासंगं करेत्ता अंजलिमउलियहत्थे ममं करोति, कृत्वा अञ्जलिमुकुलितहस्तः सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता। मां सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगम्य ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं मां त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता । कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमंसित्ता ममं विउलेणं सव्वकाम- नमस्यित्वा मां विपुलेन सर्वकामगुणिएणं भोयणेणं पडिलाभेस्सामित्ति गुणितेन भोजनेन प्रतिलाभयिष्यामि तुढे, पडिलाभेमाणे वि तुट्टे, पडिलाभिते इति तुष्टः, प्रतिलाभयन् अपि तुष्टः, वि तुहे। प्रतिलाभितः अपि तुष्टः। उत्तरासंग किया, उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, सामने आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर मैं महावीर को विपुल सर्वरसयुक्त भोजन से प्रतिलाभित करूंगा, यह सोचकर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ। ४०. तए णं तस्स सुणंदस्स गाहावइस्स तेणं ततः तस्य सुनन्दस्य 'गाहावइस्स' तेन ४०. उस गृहपति सुनंद ने द्रव्य शुद्ध,दाता शुद्ध, दवसुद्धेणं दायगसुद्धेण पडिगाहगसुद्धेणं द्रव्यशुद्धन, दायकशुद्धन, प्रतिग्राहक- प्रतिग्राहक शुद्ध-इस प्रकार त्रिविध, त्रिकरण तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं मए शुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन से शुद्धदान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे, संसारे __ मयि प्रतिलाभिते सति देवायुष्क: निबद्धः, देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत परित्तीकए, गिहंसि ये से इमाई पंच संसारः परीतीकृतः, गृहे च तस्य किया, उस समय उसके घर में ये पांच दिव्य दिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा–वसुधारा इमानि दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथा- प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपातवृष्टि, बुट्ठा, दसवण्णे कुसुमे निवातिए, वसुधारा वृष्टा, दशार्धवर्णः कुसुमः पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने चेलुक्खेवे कए, आयाओ देवदुंदुभीओ, निपातितः, चेलोत्क्षेपः कृतः, आहताः लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो देवदुन्दुभयः, अन्तरा अपि च आकाशे ____ अंतराल में 'अहोदानम्-अहोदानम्' की दाणे त्ति घुटे॥ अहोदानम् अहोदानम् इति घुष्टम्। उद्घोषणा हुई। ४१. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- ततः राजगृहे नगरे शृंगाटक-त्रिक- ४१. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, -चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु चतुष्क-चत्वर - चतुर्मुख - महापथ- चौराहो, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, बहुजणो अण्णमण्णस्स एमवमाइक्वइ पथेषु, बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-धन्ने एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयति- प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना, एवं गं देवाणुप्पिया! सुणंदे गाहावई, कयत्ये धन्यः देवानुप्रियाः! सुनन्दः 'गाहावई', प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद णं देवाणुप्पिया! सुणंदे गाहावई, कय- कृतार्थः देवानुप्रियाः! सुनन्दः ‘गाहा- धन्य है, देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद कृतार्थ है, पुण्णे णं देवाणुप्पिया! सुणंदे गाहावई, वई', कृतपुण्यः देवानुप्रियाः! सुनन्दः देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद कृतपुण्य है, कयलक्रवणे णं देवाणुप्पिया! सुणदे 'गाहावई', कृतलक्षण: देवानुप्रियाः! देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद कृतलक्षण है, गाहावई, कया णं लोया देवाणुप्पिया! सुनन्दः 'गाहावई', कृताः लोकाः देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद ने इहलोक और सुणंदस्स गाहावइस्स, सुलद्धे णं देवानुप्रियाः ! सुनन्दस्य 'गाहावइस्स', परलोक दोनों को सुधार लिया है, देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्म- ___ सुलब्धं देवानुप्रियाः! मानुष्यकं जन्म- देवानुप्रिय! गृहपति सुनंद ने मनुष्य जन्म और जीवियफले सुणंदस्स गाहावइस्स, जस्स जीवितफलं सुनन्दस्य 'गाहावइस्स', जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, णं गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे यस्य गृहे तथारूपः साधुः साधुरूपे । जिस गृहपति सुनंद के घर में तथारूप साधु पडिलाभिए समाणे इमाइं पंच दिव्वाइं प्रतिलाभिते सति इमानि पञ्च दिव्यानि के साधुरूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच पाउब्भूयाई, तं जहा-वसुधारा बुट्ठा जाव प्रादुर्भूतानि, तद्यथा-वसुधारा वृष्टा दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा अहो दाणे, अहो दाणे त्ति घुटे, तं धन्ने यावद् अहोदानम् अहोदानम् इति निपातवृष्टि यावत् आकाश के अंतराल में कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं घुष्टम्, तत् धन्यः कृतार्थः कृतपुण्यः 'अहोदानम् अहोदानम्' की उद्घोषणा। लोया, सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीविय- कृतलक्षणः, कृताः लोकाः, सुलब्धं इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, कृतपुण्य, फले सुणंदस्स गाहावइस्स, सुणंदस्स गा- ___ मानुष्यकं जन्मजीवितफलम् सुनन्दस्य कृतलक्षण है, उसने इहलोक और परलोक हावइस्स॥ 'गाहावइस्स', सुनन्दस्य 'गाहावइस्स'। दोनों को सुधारा है, गृहपति सुनंद ने, गृहपति सुनन्द ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ४२-४६ भगवई २५६ ४२. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः बहुजनस्य बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोचा निसम्म अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य समुत्पन्न समुप्पन्नसंसए समुप्पन्न-कोउहल्ले जेणेव संशयः समुत्पन्नकुतूहलः यत्रैव सुनन्दस्य सुणंदस्स गाहावइस्स गिहे तेणेव 'गाहावइस्स' गृहं तत्रैव उपागच्छति, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासइ सुणंदस्स उपागम्य पश्यति सुनन्दस्य गाहावइस्स गिहंसि वसुहारं बुढे, 'गाहावइस्स' गृहे वसुधारां वृष्टाम्, दसद्धवण्णं कुसुमं निवडियं, ममं च णं दशार्धवर्णं कुसुमं निपतितम्, मां च सुणंदस्स गाहावइस्स गिहाओ। सुनन्दस्य 'गाहावइस्स' गृहात् पडिनिक्खममाणं पासइ, पासित्ता हद्वतुढे । प्रतिनिष्क्रान्तं पश्यति, दृष्ट्वा जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, हृष्टतुष्टः यत्रैव मम अन्तिकं तत्रैव उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण- उपागच्छति, उपागम्य मां त्रि: पयाहिणं करेइ, करेत्ता मम वंदइ नमसइ, आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा मां वंदित्ता नमंसित्ता ममं एवं वयासी-तुब्भे । वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा णं भंते! ममं धम्मायरिया, अहण्णं तुम्भं । नमस्यित्वा माम् एवमवादीत्-यूयं धम्मतेवासी॥ भदन्तः! मम धर्माचार्याः, अहं तव धर्मान्तेवासी। ४२. बहुजन के पास इस अर्थ को सुन कर, अवधारण कर, मंखलिपुत्र गोशाल के मन में संशय एवं कुतूहल उत्पन्न हुआ, जहां गृहपति सुनंद का घर था, वहां आया, आ कर गृहपति सुनंद के घर रत्नों की धारा निपात वृष्टि तथा पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि को देखा। गृहपति सुनंद के घर से मुझे प्रतिनिष्क्रमण करते हुए देखा, देखकर हृष्टतुष्ट हुआ, जहां मैं था, वहां आया, आ कर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर मुझसे इस प्रकार बोला-भंते! आप मेरे धर्माचार्य हैं। मैं आपका धर्मान्तेवासी हूं। ४३. तए णं अहं गोयमा! गोसालस्स मखलिपुत्तस्स एयमद्वं नो आढामि, नो परिजाणामि, तुसिणीए संचिट्ठामि॥ ततः अहं गौतम! गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य एतमर्थं नो आद्रिये, नो परिजानामि, तूष्णीकः सन्तिष्ठे। ४३. गौतम! मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को मैंने आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, मैं मौन रहा। चउत्थ-मासखमण-पदं चतुर्थ-मासक्षपण-पदम् ४४. तए णं अहं गोयमा! रायगिहाओ ततः अहं गौतम! राजगृहात् नगरात् नगराओ पडिनिक्खमामि, पडिनिक्ख- प्रतिनिष्कामामि, प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दा मित्ता नालंद बाहिरियं मज्झमज्झेणं । बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि, निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणव निर्गत्य यत्रैव तन्तुवायशाला तत्रैव तंतुवायसाला तेणेव उवागच्छामि, उपागच्छामि, उपागम्य चतुर्थं उवागच्छित्ता चउत्थं मासखमणं मासक्षपणम उपसम्पद्य विहरामि। उपसंपज्जित्ताणं विहरामि॥ चतुर्थ मासखमण-पद ४४. गौतम! मैंने राजगृह नगर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां तंतुवायशाला थी, वहां आया, आकर चतुर्थ मासखमण स्वीकार कर विहार करने लगा। ४५. तीसे णं नालंदाए बाहिरियाए तस्याः च नालन्दायाः बाहिरिकायाः ४५. उस बाहिरिका नालंदा के न अति दूर और अदूरसामंते, एत्थ णं कोल्लाए नामं अदूरसामन्तम् अत्र च कोल्लाक: नाम न अति निकट कोल्लाक नाम का सनिवेश सण्णिवेसे होत्था-सण्णिवेस-वण्णओ। सन्निवेशः आसीत्-सन्निवेशः-वर्णकः। था-सन्निवेश वर्णक। उस कोल्लांक सनिवेश तत्थ णं कोल्लाए सण्णिवेसे बहुले नामं तत्र च कोल्लाके सन्निवेशे बहुलः नाम में बहुल नाम का ब्राह्मण रहता था-आढ्य माहणे परिवसइ-अढे जाव बहुजणस्स माहनः परिवसति आढ्यः यावत् यावत् बहुजन के द्वारा अपरिमित, ऋग्वेद अपरिभूए, रिउब्वेय जाव बंभण्णएसु बहुजनस्य अपरिभूतः, ऋग्वेद यावत् यावत् अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक संबंधी परिवायएसु य नयेसु सुपरिनिट्ठए यावि ब्राह्मण्यकेषु परिव्राजकेषु च नयेषु नयों में निष्णात था। होत्था॥ सुपरिनिष्ठितः चापि आसीत्। ४६. तए णं से बहूले माहणे कत्तियचाउम्मासियपाडिवगंसि विउलेणं महघयसंजुत्तेणं परमण्णेणं माहणे आयामेत्था॥ ततः सः बहुलः माहनः कार्तिक- ४६. बहुल ब्राह्मण ने कार्तिक चातुर्मासिक चातुमासिकप्रतिपदि विपुलेन प्रतिपदा के दिन को मधु-घृत-संयुक्त मधुघृतसंयुक्तेन परमानेन माहनान् परमात्र से ब्राह्मणों को आचमन करायाआचामयत्। भोजन कराया। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ४७-५० २६० भगवई ४७. तए णं अहं गोयमा! चउत्थ-मास- ततः अहं गौतम! चतुर्थ-मासक्षपण- खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पारणके तन्तुवायशालायाः पडिनिरिखमामि, पडिनिक्वमित्ता प्रतिनिष्क्रामामि, प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दां नालंद बाहिरियं मज्झमज्झेणं बाहिरिकां मध्यमध्येन निर्गच्छामि, निग्गच्छामि, निग्गच्छित्ता जेणेव । निर्गत्य यत्रैव कोल्लाकः सन्निवेशः तत्रैव कोल्लाए सण्णिवेसे तेणेव उवागच्छामि, उपागच्छामि, उपागम्य कोल्लाके । उवागच्छित्ता कोल्लाए सण्णिवेसे उच्च- सन्निवेशे उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि नीय-मज्झिमाई कुलाई घर-समुदाणस्स। गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्याम् अटन् भिक्खायरियाए अडमाणे बहुलस्स बहुलस्य माहनस्य गृहम् अनुप्रविष्टः।। माहणस्स गिहं अणुप्पवितु॥ ४७. गौतम ! मैंने चतुर्थ मासखमण के पारण में तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोल्लाक सन्निवेश था, वहां आया, आकर कोल्लाक सन्निवेश के उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए बहुल ब्राह्मण के घर में मैंने अनप्रवेश किया। ४८. तए णं से बहुले माहणे ममं एज्जमाणं ततः सः बहुलः माहनः माम् आयन्तं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टचित्तः णंदिए पीइमणे परमसोमणस्मिए हरिस- आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः वसविसप्पमाणहियए खिप्पामेव परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पहृदयः आसणाओ अन्भुढेइ, अन्भुढेत्ता पाय- क्षिप्रमेव आसनात् अभ्युत्तिष्ठति, पीढाओ पच्चोरुहइ, पचोरुहित्ता अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता एगसाडियं प्रत्यवरुह्य पादुकाः अवमुञ्चति, उत्तरा संग करेइ, करेत्ता अंजलिम- अवमुच्य एकशाटिकम् उत्तरासंगं उलियहत्थे ममं सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ, करोति, कृत्वा अञ्जलिमुकुलितहस्तः अणुगच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण- मां सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति अनुगम्य पयाहिणं करेइ, करेत्ता ममं बंदइ नमसइ, मां त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, वंदित्ता नमंसित्ता ममं विउलेणं कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा महुघयसंजुत्तेणं परमण्णेणं पडिला- नमस्थित्वा मां विपुलेन मधुघृतभेस्सामित्ति तुट्टे, पडिलाभेमाणे वि तुट्टे, संयुक्तेन परमान्नेन प्रतिलाभयिष्यामि पडिलाभिते वि तुट्टे॥ इति तुष्टः, प्रतिलाभयन् अपि तुष्टः, प्रतिलाभिते अपि तुष्टः। ४८. बहुल ब्राह्मण ने मुझे आते हुए देखा, देखकर हृष्टतुष्टचित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्णमन वाला, परम सौमनस्य युक्त तथा हर्ष से विकस्कर हृदय वाला हो गया। वह शीघ्र ही आसन से उठा, उठकर पादपीठ से नीचे उतरा, उतरकर पादुका को खोला, खोलकर एक पट वाले वस्त्र से उत्तरासंग किया, उत्तरासंग कर दोनों हाथ जोड़े हुए सात-आठ कदम मेरे सामने आया, आकर मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर-मैं महावीर को विपुल मधु-घृत-संयुक्त परमान्न से प्रतिलाभित करूंगा, यह सोचकर तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करता हुआ भी तुष्ट हुआ, प्रतिलाभित करके भी तुष्ट हुआ। ४६. तए णं तस्स बहुलस्स माहणस्स तेणं ततः तस्य बलस्य माहनस्य तेन दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पडिगाहगसुद्धेणं द्रव्यशुद्धन, दायकशुद्धेन, प्रतिग्राहक- तिविहेणं तिकरणसुद्धणं दाणेणं मए शुद्धेन, त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे संसारे मयि प्रतिलाभिते सति देवायुष्कः निबद्धः, परित्तीकए, गिहंसि य से इमाई पंच संसारः परीतीकृतः, गृहे च तस्य इमानि दिव्याई पाउन्भूयाइ, तं जहा-वसुधारा पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तद्यथाबुट्ठा, दसद्धवण्णे कुसुमे निवातिए, चेलु- वसुधारा वृष्टा, दशार्धवर्णः कुसुमः खेवे कए, आयाओ देवदुंदुभीओ, निपातितः, चेलोत्क्षेपः कृतः, आहताः अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो देवदुन्दुभयः, अन्तरा अपि च आकाशे दाणेत्ति घुट्टे॥ अहोदानम् अहोदानम् इति घुष्टम्। ४६. बहुल ब्राह्मण ने द्रव्य शुद्ध, दाता शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध, त्रिविध त्रिकरण से शुद्धदान के द्वारा मुझे प्रतिलाभित कर देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया, उसके घर पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपात वृष्टि, पांच वर्णवाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजी, आकाश के अंतराल में 'अहोदानम्अहोदानम्' की उद्घोषणा हुई। ५०. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-धन्ने णं देवाणुप्पिया! बहुले माहणे, कयत्थे णं ततः राजगृहे नगरे श्रृंगाटक-त्रिक- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयति- धन्यः देवानुप्रियाः! बहुलः माहनः, ५०. राजगृह नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६१ श. १५ : सू. ५१,५२ देवाणुपिया! बहुले माहणे, कयपुण्णे णं कृतार्थः देवानुप्रियाः। बहुलः माहनः, धन्य है, देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण कृतार्थ है, देवाणुपिया! बहुले माहणे, कयलक्खणे कृतपुण्यः देवानुप्रियाः! बहुलः माहनः, देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण कृतपुण्य है, णं देवाणुप्पिया! बहुले माहणे, कया णं कृतलक्षणः देवानुप्रियाः! बहुलः देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण कृतलक्षण है, लोया देवाणुप्पिया! बहुलस्स माहणस्स, माहनः, कृताः लोकाः देवानुप्रियाः! देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण ने इहलोक और सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्म- बहुलस्य माहनस्य, सुलब्धं परलोक दोनों को सुधार लिया है, देवानुप्रिय! जीवियफले बहुलस्स माहणस्स, जस्स णं देवानुप्रियाः! मानुष्यकं जन्मजीवित- बहुल ब्राह्मण ने मनुष्य जन्म और जीवन का गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे फलं बहुलस्य माहनस्य, यस्य गृहे फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, जिस पडिलाभिए समाणे इमाई पंच दिब्वाई तथारूपः साधुः साधुरूपे प्रतिलाभिते बहल ब्राह्मण के घर में तथारूप साधुके साधु पाउन्भूयाई, तं जहा-वसुधारा बुट्ठा जाब सति इमानि पञ्च दिव्यानि रूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य अहो दाणे, अहो दाणेत्ति घुटे, तं धन्ने प्रादुर्भूतानि, तद् यथा-वसुधारा वृष्टा प्रकट हुए, जैसे-रत्नों की धारा निपात वृष्टि कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, कया णं यावत् अहोदानम्-अहोदानम्, इति यावत् 'अहोदानम्-अहोदानम्' की लोया, सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीविय- घुष्टम्, तत् धन्यः कृतार्थः कृतपुण्यः उद्घोषणा। इसलिए वह धन्य, कृतार्थ, फले बहुलस्स माहणस्स, बहुलस्स कृतलक्षणः, कृताः लोकाः, सुलब्धं । कृतपुण्य, कृतलक्षण है। उसने इहलोक और माहणस्स॥ मानुष्यकं जन्मजीवितफलं बहलस्य परलोक दोनों को सुधारा है। बहुल ब्राह्मण माहनस्य, बहुलस्य माहनस्य। ने, बहुल ब्राह्मण ने मनुष्य जन्म और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। ५१. तए णं से गोसाले मंखलिपत्ते मम ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः मां तंतवायसालाए अपासमाणे रायगिहे नगरे तन्तुवायशालायाम् अपश्यन् राजगृहे सम्भितरबाहिरियाए मम नगरे साभ्यन्तरबाहिरिकायां मां सर्वतः सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ, समन्तात् मार्गणा-गवेषणां करोति, मम ममं कत्थवि सुतिं वा खुतिं वा पवत्तिं वा कुत्रापि श्रुति, क्षुति, प्रवृत्तिं वा अलभमाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेव अलभमानः यत्रैव तन्तुवायशाला तत्रैव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता साडियाओ य उपागच्छति, उपागम्य शाटिकाः च पाडियाओ य कुंडियाओ य वाहणाओ य पाटिकाः च कुण्डिकाः च उपानहः च चित्तफलगं च माहणे आयामेइ, आया- चित्रफलकं च माहनान् आयच्छति, मेत्ता सउत्तरोढ भंड कारेइ, कारेत्ता आयम्य ('आयामेत्ता' दे) सोत्तरोष्ठं तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमइ, भण्डं (भंडं) कारयति, कारयित्वा पडिनिक्खमित्ता नालंदं बाहिरियं तन्तुवायशालायाः प्रतिनिष्क्रामति, मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता प्रतिनिष्क्रम्य नालन्दा बाहिरिकां जेणेव कोल्लाए सण्णिवेसे तेणेव मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव उवागच्छइ॥ कोल्लाकः सन्निवेशः तत्रैव उपागच्छति। ५१. तंतुवायशाला में मुझे न देखकर मंखलिपुत्र गोशाल ने राजगृह नगर के भीतर, बाहर चारों ओर मार्गणा-गवेषणा की। कहीं भी न मेरा शब्द सुनाई दिया, न छींक सुनाई दी और न कोई वार्ता। (मुझे कहीं भी न पाकर, वह वापिस) जहां तंतुवायशाला थी वहां आया, आकर शाटिका, उत्तरीय वस्त्र, भोजन आदि के बर्तन, पदत्राण, चित्रफलक आदि ब्राह्मण को दे दिए, देकर मस्तक तथा दाढी मूंछ का मुंडन कराया, कराकर तंतुवायशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बाहिरिका नालंदा के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोल्लाक सन्निवेश था, वहां आया। ५२. तए णं तस्स कोल्लागस्स सण्णि- ततः तस्य कोल्लाकस्य सन्निवेशस्य ५२. उस कोल्लाक सन्निवेश के बाहर बहुजन वेसस्स बहिया बहजणो अण्णमण्णस्स बहिस्तात् बहुजनः अन्योन्यं एवमा- परस्पर इस प्रकार का आख्यान यावत् एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-धन्ने णं ख्याति यावत् प्ररूपयति-धन्यः प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण देवाणुप्पिया! बहले माहणे, कयत्ये णं देवानुप्रियाः! बहुलः माहनः, कृतार्थः धन्य है, देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण कृतार्थ है, देवाणुप्पिया! बहुले माहणे, कयपुण्णे णं देवानुप्रियाः! बहुलः माहनः, कृतपुण्यः । देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण कृतपुण्य है, देवाणुप्पिया! बहुले माहणे, कयलक्खणे देवानुप्रियाः! बहुलः माहनः, कृत- देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण कृतलक्षण है, णं देवाणुपिया! बहुले माहणे, कया णं लक्षणः देवानुप्रियाः! बहुलः माहनः, देवानुप्रिय! बहुल ब्राह्मण ने इहलोक और लोया देवाणुप्पिया! बहुलस्स माहणस्स, कृताः लोकाः देवानुप्रियाः! बहुलस्य परलोक-दोनों को सुधारा है, देवानुप्रिय! सुलद्धे णं देवाणुपिया! माणुस्सए माहनस्य, सुलब्धं देवानुप्रियाः! बहुल ब्राह्मण ने, बहुल ब्राह्मण ने मनुष्य जन्म जम्मजीवियफले बहुलस्स माहणस्स, मानुष्यकं जन्मजीवितफलं बहुलस्य और जीवन का अच्छा फल प्राप्त किया है। बहुलस्स माहणस्स॥ माहनस्य, बहुलस्य माहनस्य। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ५३-५६ २६२ भगवई गोसालम्स सिस्सरूवेण अंगीकरण-पदं गोशालस्य शिष्यरूपेण अंगीकरण-पदम् गोशाल का शिष्य रूप में अंगीकरण-पद ५३. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलि- ततः तस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य ५३. 'बहुजन के पास इस अर्थ को सुनकर, पुत्तस्स बहुजणस्स अंतियं एयमढे सोच्चा बहुजनस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा । अवधारण कर मंखलिपुत्र गोशाल के मन में निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए निशम्य अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः । इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था- चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न जारिसिया णं ममं धम्मायरियस्स समुदपादि-यादृशी मम धर्माचार्यस्य हुआ-मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण धम्मोवदेसगस्स समणस्स भगवओ धर्मोपदेशकस्य श्रमणस्य भगवतः भगवान् महावीर की जैसी ऋद्धि, द्युति, महावीरस्स इही जुती जसे बले वीरिए ___ महावीरस्य ऋद्धिः, द्युतिः, यशः, बलं, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम, पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे पत्ते वीर्य, पुरुषाकार-पराक्रमः लब्धः प्राप्तः लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है, अन्य अभिसमण्णागए, नो खलु अस्थि अभिसमन्वागतः, नो खलु अस्ति किसी तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण को तारिसिया अण्णस्स कस्सइ तहारूवस्स तादृशी अन्यस्य कस्यचित् तथारूपस्य वैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, समणस्स वा माहणस्स वा इड्डी जुती जसे श्रमणस्य वा माहनस्य वा ऋद्धिः, पुरुषकार-पराक्रम लब्ध, प्राप्त और बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे यशः, बलं, वीर्य, पुरुषाकार-पराक्रमः अभिसमन्वागत नहीं है, इसलिए निस्संदेह पत्ते अभिसमण्णागए, तं निस्संदिद्धं णं लब्धः प्राप्तः अभिसमन्वागतः, तत् मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् एत्थं ममं धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे निस्संदिग्धम् अत्र मम धर्माचार्यः महावीर होंगे, यह सोचकर उसने कोल्लाक भगवं महावीरे भविस्सतीति कट्ट धर्मोपदेशकः श्रमणः भगवान् महावीरः सन्निवेश के भीतर-बाहर चारों ओर मेरी कोल्लाए सण्णिवेसे सब्भितरबाहिरिए भविष्यति इति कृत्वा कोल्लाके मार्गणा-गवेषणा की, चारों ओर मार्गणाममं सव्वओ समंता मम्गण-गवेसणं करेइ, सन्निवेशे साभ्यन्तरबाह्यके मम सर्वतः गवेषणा करते हुए कोल्लाक सन्निवेश के ममं सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं समन्तात् मार्गण-गवेषणां करोति, बाहर प्रणीतभूमि में वह मेरे साथ हो गया। करेमाणे 'कोल्लागस्स सण्णिवेसस्स' मम सर्वतः समन्तात् मार्गण-गवेषणां बहिया पणियभूमीए मए सद्धिं कुर्वन् 'कोल्लाकस्य सन्निवेशस्य' अभिसमण्णागए॥ बहिस्तात् प्रणीतभूम्यां मया सार्धम् अभिसमन्वागतः। ५४. तए णं से गोसाले मुखलिपुत्ते हटतुढे ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः ५४. मंखलिपुत्र गोशाल ने हृष्ट-तुष्ट होकर ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं हृष्टतुष्टः मां त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां मुझे दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार करेइ, करेत्ता ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता करोति, कृत्वा मां वन्दते नमस्यति, प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर मुझे वंदन नमंसित्ता एवं वयासी-तुब्भे णं भंते ! मम वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-यूयं नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस धम्माय-रिया, अहण्णं तुम्भं अंतेवासी॥ भदन्ताः! मम धर्माचार्याः, अहं तव प्रकार बोला-भंते! आप मेरे धर्माचार्य हैं, मैं अन्तेवासी। आपका अंतेवासी हूं। ५५. तए णं अहं गोयमा! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमढे पडिसुणेमि॥ ततः अहं गौतमः गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य एतमर्थं प्रतिश्रृणोमि। ५५. गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया। ५६. तए णं अहं गोयमा! गोसालेणं ततः अहं गौतम! गोशालेन ५६. गौतम! मैंने मुंखलिपुत्र गोशाल के साथ मंखलिपुत्तेणं सद्धिं पणियभमीए मंखलिपुत्रेण साई प्रणीतभम्यां प्रणीतभमि में छह वर्ष तक लाभ-अलाभ छब्वासाई लाभं अलाभं सुहं दुक्खं षड्वर्षाणि लाभम् अलाभं सुखं दुःखं सुख-दुःख, सत्कार-असत्कार का प्रत्यनुभव सक्कारमसक्कारं पञ्चणुब्भवमाणे सत्कारम् असत्कारं प्रत्यनुभवन् करते हुए अनित्य जागरिका का प्रयोग अणिच्चजागरियं विहरित्था॥ अनित्य-जागरिकां व्यहरत्। किया। , Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६३ श. १५ : सू. ५६ सूत्र ५३-५६ १. प्रणीतभूमि 'पणियभूमीए'-इसका प्रयोग यहां दो बार-सू. ५३ तथा सू. ५६ में किया गया है। इसी शतक के सू. ८५ में भी ‘पणिय' शब्द का प्रयोग ‘पण्य' अर्थ में किया गया है। किन्तु प्रस्तुत सूत्र में यह 'प्रणीतभूमि' अर्थात् 'रमणीक भूमि' के अर्थ में प्रयुक्त है। टीकाकार अभयदेवसूरि ने इसके दो वैकल्पिक अर्थ दिए हैं १. भाण्डविश्रामस्थान २. मनोज्ञभूमि।' श्रीमज्जयाचार्य ने इसे 'रमणीक महि' बताया है। पज्जोसवणाकप्पो में भगवान् महावीर के वर्षावासों की सूची इस प्रकार दी गई है १ अस्थिग्राम ३ चंपा-पृष्ठचंपा १२ वैशाली-वाणिज्य ग्राम १४ राजगृह-नालंदा-बाहिरिका ६ मिथिला २ भदिया १ आलंभिया १ पणियभूमि १पावा इस सूची में आए हुए ‘पणियभूमि' से तात्पर्य निकलता है-भगवान् महावीर ने एक वर्षावास जो 'अनार्य भूमि' में किया, उसका उल्लेख यहां 'पणियभूमि' से किया गया है।' आवश्यक चूर्णि के अनुसार भगवान महावीर ने अनार्य भूमि में दो बार प्रवास किया था-अपने साधना-काल में पांचवें वर्ष में तथा नवें वर्ष में।' आचारांगभाष्य के अनुसार "लाढ प्रदेश उपसर्गबहुल था। वहां विचरण करना दुष्कर होता था। इसलिए वह प्रदेश दुश्चर कहलाता था। भगवान् ने आठवां चातुर्मास राजगृह में बिताया। वहां से विहार कर वे वजभूमि गए। इससे ज्ञात होता है कि साधनाकाल के नौवें वर्ष में भगवान का विहार अनार्य-देश में हआ। "चूर्णिकार के अनुसार वे वहां छह महीने तक रहे। आवश्यक चूर्णि के अनुसार यह ज्ञात होता है कि भगवान् ने अनार्य देश से आश्विन मास में निष्क्रमण किया था। "भगवान् ने नौवां चातुर्मास वजभूमि में किया था, ऐसा प्रतीत होता है। पर्युषणाकल्प में 'एग पणियभूमीए' ऐसा निर्देश पांचव वर्ष में केवल शेषकालीन प्रवास था, वर्षावास नहीं। नवें वर्ष का वर्षावास लाढ (राढ-देश), वज़-भूमि और सुम्हभूमि में १. (क) भ. वृ १५/५३-'पणियभूमीए' त्ति पणितभूमौ-भाण्डविश्रामस्थाने प्रणीतभूमौ वा-मनोज्ञभूमौ। (ख) वही, १५/५६-'पणिएभूमीए' त्ति पणितभूमेरारभ्य प्रणीतभूमौ वा मनोज्ञभूमौ विहतवानिति योगः। २. भ. जो. खं. ४, पृ. ३१२, शतक १५, पद्य १८५ कोल्लाग सन्निवेस रै, बाहिर महि रमणीक। ३. नवसुत्ताणि, पृ. ५२६, पज्जोवसणाकप्पो, सू. ८३-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे अट्ठियगाम नीसाए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए। चंपं च पिट्टिचंपं च नीसाए तओ अंतरावासे वासावासं उवागए। वेसालिं नगरिं वाणियगामं च नीसाए दुवालस अंतरावासे वासावासं उवागए। रायगिह नगरं नालंदं च बाहिरियं नीसाए चोद्दस अंतरावासे वासावासं उवागए। छ मिहिलाए, दो भदियाए, एगं आलभियाए, एगं सावत्थीए, एगं पणियभूमीए, एगं पावाए मज्झिमाए हथिपालगस्स रण्णो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं वासावासं उवागए। ४. अनार्य भूमि में आदिवासियों के बीच भगवान महावीर के प्रयासों का बहुत ही रोचक एवं तथ्यात्मक विवरण आयारो, आवश्यक चूर्णि आदि में उपलब्ध है जिसके आधार पर श्रमण महावीर पृ. ३४-४० में व्याख्या की गई है। ५. (क) आय. चू.. पूर्वभाग, पृ. २६०-'भगवं चिंतेति-बहुं कम्म निज्जरेयव्वं लाढाविसियं वचामि, ते अणारिया, तत्थ णिज्जरेमि, तत्थ भगवं अत्थारिय दिद्रुतं करेति, ततो भगवं निग्गतो लाढविसयं पविट्ठो, कम्मनिज्जरातुरितो, तत्थ हीलणनिंदणाहिं बहुं निज्जरेति जहा यंभचेरेसु......एवं विहरंता भद्दियं णगरी गता, तत्थ वासारते चाउम्मास-खमणेण अच्छति, विचित्तं तवोकम्मं ठाणादीहिं। एत्थ गाथाओचोरा मंडब.......उवसग्गो॥४८० लाढेसु व उवसग्गा घोरा पुन्नेकलसा य दो तेणा। वज्जहया सक्केणं भदिय वासासु चउम्मासो॥४८१ (ख) आयारो, ६/३/१-१४: आ. चू., पृ. ३१७-३२०॥ (ग) आचारांगभाष्यम्, पृष्ठ ४३१-४३७-लाढप्रदेशे उपसर्गबहुलत्वात् चरणं दुष्करमासीत्, तेन स दुश्चरः प्रोक्तः। भगवान् अष्टम वर्षावासं राजगृहे कृतवान्। ततो विहारं कृत्वा वजभूमौ गतवान्। अनेन ज्ञायते साधनाकालस्य नवमे वर्षे अनार्यदेशे भगवतो विहार जातः। (आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २६६ : ततो विहरंता रायगिह गता। तत्थ अट्ठमं वासारत्तं। ......ताहे लाढा वज्जभूमिं सुद्धभूमि च वचति।) तत्र भगवान् षण्मासावधिं तस्थिवान् इति चूर्णिनिर्देशः। (आचारांग चूर्णि, पृ. ३१६ : एवं तत्थ छम्मासे अच्छितो भगवं) आवश्यकचूर्ण्यनुसारेण ज्ञायते भगवान् अनार्यदेशात् प्रथमशरदि-आश्विनमासे निष्क्रमणं कृतवान्। (आवश्यक चूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २६७ : ततो निग्गया पढमसरयदे, सिद्धत्थपुरं गता, सिद्धत्थपुराओ य कुंमागामं संपत्थिया) भगवान् नवमं चतुर्मासं वजभूमौ कृतवानिति प्रतीयते। पर्युषणाकल्पे 'एगं पणियभूमीए' इति निर्देशो दृश्यते। (पज्जोसवणाकप्पो, सूत्र ८३) Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ५६ २६४ भगवई हुआ।' इस अनार्य भूमि में भगवान को वर्षावास में भी कोई मकान या बना हुआ आवास प्राप्त नहीं हुआ। इसलिए उन्होंने वहां अनियतवास किया। यह प्रवास उद्यानादि' में होने से उसे 'पणियभूमि' कहा गया है। इस आधार पर यहां पणियभूमि का तात्पर्य है-वह रमणीक भूमि, जो प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण 'प्रणीत' अर्थात् मनोरम दिखाई देती है। 'पणियभूमि' या 'पणियसाला' का अर्थ 'पण्य-भूमि' यानी 'क्रय-विक्रय शाला' अथवा 'दुकान' भी होता है, जहां भगवान् महावीर ने कभी-कभी प्रवास किया था। पर यहां यह अर्थ संगत नहीं लगता। सरवदे, सिद्धत्थपुरं गता.....' अर्थात्-भगवान् ने अनार्य देश से आश्विन मास में निष्क्रमण किया था। इस प्रकार भगवान् का नवां चातुर्मास वजभूमि में हुआ, जिसे पर्युषणाकल्प में 'पणियभूमि' कहा गया है। अब यह विमर्शनीय है कि भगवान् ने छह वर्ष तक अनित्य जागरिका की या छह मास तक?' उपर्युक्त प्रमाणों से प्रतीत होता है कि भगवान ने अनित्य जागरिका का प्रयोग लगातार छह मास ही किया था, छह वर्ष तक नहीं। दूसरी बात है कि भगवान् महावीर गोशालक के साथ छह वर्ष पणियभूमि में रहे-यह भी कैसे संभव हो सकता है? जबकि पर्युषणाकल्प में पणियभूमि (यानी अनार्य-भूमि) में वर्षावास बिताया था। कुल मिलाकर चैत्र से भाद्रव तक छह मास ही वहां रहे थे तथा आश्विन में वहां से निर्गमन कर पुनः आर्य क्षेत्र में आ गए थे। जहां तक भगवान् महावीर का गोशालक के साथ रहने का प्रश्न है, तो वह काल भी आठ वर्ष से कुछ अधिक का होता है। महावीर के साधना काल के तीसरे वर्ष से दसवें वर्ष के चातुर्मास से पूर्व तक गोशालक उनके साथ रहा, यह आवश्यक चूर्णि के वृत्तान्त से स्पष्ट होता है। इस दृष्टि से भी 'छह वर्ष' का उल्लेख संगत नहीं लगता। (महावीर और गोशालक के सहवास का समग्र काल कब से कब तक था, इस विषय में विस्तार से इसी शतक के सूत्र १४१,१४२ के भाष्यों में प्रकाश डाला गया है।) २. छह वर्ष (छव्वासाइं) यह पाठ चिन्तनीय है। आचारांग चूर्णि एवं आवश्यक चूर्णि के के आधार पर (देखें, ऊपर का भाष्य) यह समय छह वर्ष न होकर 'छह मास' है। प्रस्तुत सूत्र (भग. १५५६) में बताया गया है कि भगवान् महावीर ने छह वर्ष तक 'अनित्य जागरिका' का प्रयोग किया। इसी संदर्भ में आवश्यक चूर्णि में है कि 'तत्थ य छम्मासे अणिच- जागरि विरिति आचासंग चर्णिमें भी 'ए तत्थ मासे अच्छितो भगवं।' अर्थात् वहां भगवान् छह महीने रहे। आचारांगवृत्ति (पत्र २८२) में भी 'तत्र चैवंविधे जनपदे भगवान् षण्मासावधिं कालं स्थितवानिति।' आवश्यक चूर्णि के अनुसार-'ततो निग्गया पढम १. आव. चू., पूर्वभाग, पृष्ठ २९६ 'गोभूमि वज्जलाढेत्ति गोवकोहे य वंसि जिणुदसमो। रायगिहऽहमवासं भवज्जूमी बहुवसम्गा॥४६१ ततो विहरंतो सामी गोभूमी वचति, तत्थ अंतरा अडविधणं, सदा गाबीओ चरंति तेण गोभूमी। तत्थ गोसालो गोवालए भणति-अरे वज्जलाढा। एस पंथो कहिं वचति?, वज्जलाढा णाम मेकच्छा (मेच्छा), ताहे ते गोवा भणंति-कीस अक्कोसासि? सो भणति-असुगए सुयपुत्ता सुट्ट अक्कोसामि, तुडभे एरिसगा मेच्छा, ताहे तेहिं मिलित्ता पिट्टिऊण बंधित्ता वंसीसु छूढो, तत्थ अन्नेहिं पुणो मोइतो अणुकंपाए, ततो विहरंता रायगिहं गता। तत्थ अट्टमं वासारतं चाउम्मासखमणं, विचित्ते य अभिग्गहे, बाहिं पारिता सरदे समतीए दिद्रुतं करेति, सामी चिंतेति-बहुं कम्मं 'ण' सक्का णिज्जरेउं, ताहे सतेमेव अत्थारियदिटुंतं पडिकप्पेति, जहा एगस्स कुडंबियस्स साली लाता, ताहे सो कप्पडियपंथिए भणति-तुभं हियच्छितं भत्तं देमि मम लुणह, पच्छा भे जहासुहं वचह, एवं सो ओवातेण लुणावेति, एवं चेव ममेवि बहुं कम्मं अच्छति, एतं तऽच्छारिएहिं णिज्जरावेयव्वंति अणारियदेसेसु, ताहे लाढावज्जभूमिं सुद्धभूमिं च वचति। ते णिरणुकंपया णिद्दया य, तत्थ विहरितो, तत्थ सो अणारिओ जणो हीलति निंदति जह बंभचेरेसु 'छुच्छुक्करेंति आहंसु समणं कुक्कुरा दंसतु' त्ति एवमादि, तदा य किर वासारतो तंभि जणवए केणइ दखनिओगेण लेहट्ठो आसी वसहीवि न लब्भति। एवं तत्थ छम्मासे अच्छितो भगवं। तत्थ य छम्मासे अणिचजागरियं विहरति। तत्र चैवंविधे जनपदे भगवान् षण्मासावधिं कालं स्थितवानिति। एस नवमो वासारत्तो। २. (क) आ. चू., पूर्वभाग, पृष्ठ २६७-'अणियतवासं सिद्धत्थपुर.........।' (ख) श्रमण महावीर पृ. ३७-'भगवान् महावीर आहार-पानी लेने के लिए गांव में जाते थे। छह मासिक प्रवास में वे वर्षावास बिताने के लिए गांव में गये। कहीं भी कोई स्थान नहीं मिला। उन्होंने वह वर्षावास इधर-उधर घूमकर, पेड़ों के नीचे बिताया।' ३. (क) दस. चूलिका, २/५, हारिभद्रीय टीका, पत्र २८०-अनियत-वासो मासकल्पादिना 'अनिकेतवासो वा' अगृहे उद्यानादौ वासः। (ख) दस. चू., जिनदासकृत, पृ. ३७०-'अणिएवासो' त्ति निकेतं-घरं तमि ण वसियव्वं, उज्जाणाइ वासिणा होयव्वं । ४. आयारो, ६/२/२ 'आवेसण-सभा-पवासु, पणियसालासु एगदा वासो। अदुवा पलियट्ठाणेसु, पलालपुंजेसु एगदा वासो॥ ५. आचारांगभाष्यम्, पृ. ४३२। ६. यह अधिक संभव है कि अनित्य जागरिका का प्रयोग अनार्य भूमि में छह मास के प्रवास में गोशालक के साथ रहते हुए भगवान ने किया। छह वर्ष (छब्वासाइं) का पाठ 'छम्मासाई' के स्थान में लिपिदोष के कारण हो गया हो, ऐसा संभव हैं। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६५ श. १५ : सू. ५७-५६ तिलयंभय-पदं ५७. तए णं अहं गोयमा! अण्णया कदायि पढमसरदकालसमयंसि अप्पबुटिकायंसि गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धिं सिद्धत्थगामाओ नगराओ कुम्मगाम नगरं संपढिए विहाराए। तस्स णं सिद्धत्थगामस्स नगरस्स कुम्मगामस्स नगरस्स य अंतरा, एत्य णं महं एगे तिलथंभए पत्तिए पुष्फए हरियग- रेरिज्जमाणे सिरीए अतीव-अतीव उवसोभेमाणे-उबसोभेमाणे चिट्टइ॥ तिल-स्तम्भक-पदम् ततः अहं गौतम! अन्यदा कदाचित् प्रथमशरत्कालसमये अल्पवृष्टिकाये गोशालेन मंखलिपुत्रेण साधू सिद्धार्थग्रामात् नगरात् कूर्मग्राम नगरं सम्प्रस्थितः विहाराय। तं सिद्धार्थग्राम नगरं कूर्मग्राम नगरं च अन्तरा (तस्य सिद्धार्थ ग्रामस्य कूर्मग्रामस्य नगरस्य च अन्तरा), अत्र महान् एकः तिल- स्तम्भकः पत्रितः, पुष्पितः हरितकरारज्यमानः श्रिया अतीव-अतीव उपशोभमानः उपशोभमानः तिष्ठति। तिल-स्तंभ-पद ५७. गौतम! मैं एक दिन प्रथम शरद् काल समय में अल्पवृष्टिकाल में मंखलिपुत्र गोशाल के साथ सिद्धार्थ ग्राम नगर से कूर्म ग्राम नगर की ओर विहार के लिए संप्रस्थित हुआ। उस सिद्धार्थ ग्राम नगर और कूर्म ग्राम नगर के बीच में एक बड़ा तिल का पौधा पत्र-पुष्पयुक्त, हरा-भरा और विशिष्ट आभा से बहुत-बहुत उपशोभायमान खड़ा था। ५८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तं ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तं ५८. मंखलिपुत्र गोशाल ने उस तिल के पौधे को तिलथंभगं पासइ, पासित्ता मम बंदइ तिलस्तम्भकं पश्यति, दृष्ट्वा मां देखा, देखकर मुझे वंदन-नमस्कार किया, नमंसइ, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! एस णं भते! तिलयंभए किं निष्फजिस्सइ एवमवादीत्-एषः भदन्तः! तिलस्तम्भं यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा या नहीं नो निष्फज्जिस्सइ? एए य सत्त तिल- किं निष्पत्स्यते नो निष्पत्स्यते? एते च होगा? इस पौधे पर लगे सात फूलों के जीव पुष्फजीवा उदाइत्ता-उदाइत्ता कहिं सप्त तिलपुष्पजीवः उद्रुत्य उद्दुत्य ___मर कर कहां जाएंगे? कहां उपपन्न होंगे? गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति? कुत्र गमिष्यन्ति? कुत्र उपपत्स्यन्ते? तए णं अहं गोयमा! गोसालं मखलिपुत्तं ततः अहं गौतम! गोशालं मंखलिपुत्रम् गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार एवं बयासी-गोसाला! एस णं तिलथंभए एवमवादीत्-गोशाल! एषः तिल- कहा-गोशाल! यह तिल का पौधा निष्पन्न निष्फज्जिस्सइ, नो न निष्फज्जिस्सइ। स्तम्भक: निष्पत्स्यते, नो न निष्पत्स्यते। होगा; निष्पन्न नहीं होगा, ऐसा नहीं है। इस एते य सत्ततिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता- एते च सप्ततिलजीवाः उद्रुत्य- पौधे पर लगे सात फूलों के जीव मर कर इसी उद्दाइत्ता एयस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए उद्रुत्य एतस्य चैव तिलस्तम्भकस्य पौधे की एक तिल फली में पुनः उपपन्न होंगे। तिलसंगलियाए सत्त तिला एकस्यां तिलसंगलियाए सप्त तिलाः पच्चायाइसंति॥ प्रत्याजनिष्यन्ते। ५६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं ततः सः गोशालः मम एवम् आचक्षाणस्य आइक्खमाणस्स एयमह नो सद्दहइ, नो एतमर्थं नो श्रद्दधते नो प्रत्येति, नो पत्तियइ, नो रोएइ, एयमढं असद्दहमाणे, रोचते, एतमर्थम् अश्रद्दधानः अप्रतियन् अपत्तियमाणे, अरोएमाणे, ममं पणिहाए अरोचमानः मां प्रणिधाय 'अयं मिथ्या'अयं णं मिच्छावादी भवउ' त्ति कट्ट ममं वादी भवतु' इति कृत्वा मम अन्तिकात् अंतियाओ सणियं-सणियं पच्चोसक्कर, शनैः-शनैः प्रत्यवष्वष्कते, प्रत्यवष्वष्क्य पच्चोसक्कित्ता जेणेव से तिलथंभए तेणेव यत्रैक: सः तिल-स्तम्भकः तत्रैव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं तिलथंभगं उपागच्छति, उपागम्य तं तिलस्तम्भकं सलेट्ठयायं चेव उप्पाडेड, उप्पाडेता एगते सलेष्टुकं चैव उत्पाटयति, उत्पाट्य एडेड। तक्रवणमेत्तं च णं गोयमा! दिवे एकान्ते एडयति। तत्क्षणमात्रं च अभवद्दलए पाउम्भूए। तए णं से दिब्वे गौतम! दिव्यः अभ्रबार्दलकः प्रादुर्भूतः। अन्भवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाति, ततः सः दिव्यः अभ्रबार्दलकः क्षिप्रमेव खिप्पामेव पविज्जुयाति, खिप्पामेव प्रतनतनायति, क्षिप्रमेव विद्योतते, नच्चोदगं णातिमट्टियं पविरलपफुसियं क्षिप्रमेव नात्युदकं नातिमृत्तिकां प्रविरलरयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं प्रपृषत्कं रजःरेणु-विनाशनं दिव्यं वासति, जेण से तिलथंभए आसत्थे सलिलोदकं वर्षां वर्षति, यत्र सः ६. मंखलिपुत्र गोशाल ने जो मैंने कहा, उस अर्थ पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, इस अर्थ पर अश्रद्धा करता हुआ,अप्रतीति करता हुआ, अरुचि करता हुआ, मुझे संकल्पित कर 'यह मिथ्यावादी हो' यह सोचकर मेरे पास से शनैः शनैः पीछे सरक गया, पीछे सरक कर जहां तिल का पौधा था, वहां आया, आकर उस तिल के पौधे को जड़ की मिट्टी-सहित उखाड़ा, उखाड़कर एकांत में फेंक दिया। गौतम! उसी क्षण आकाश में दिव्य बादल घुमड़ने लगा। वह दिव्य बादल शीघ्र ही जोर-जोर से गरजने लगा, शीघ्र ही बिजली चमकने लगी, शीघ्र वर्षा शुरू हो गई। न अधिक पानी बहा, न अधिक कीचड़ हुआ। रजों और धूलिकणों को जमाने वाली दिव्य बूंदाबांदी हुई। उससे तिल Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ६०-६४ पच्चायाते बद्धमूले तत्थेव पतिट्ठिए । ते य सत्त तिलपुप्फजीवा उदाइत्ता - उद्दात्ता तस्सेव तिलथं भगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाता ॥ वेसियायण - बालतवस्सि - पदं ६०. तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मंखलिपुत्ते सद्धिं जेणेव कुम्मग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छामि । तए णं तस्स कुम्मग्गामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नामं बालतवस्सी छछद्वेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उहुं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरः । आइन्चतेयतवियाओ य से छप्पदीओ सव्वओ समंता अभिनिस्सवंति, पाणभूय - जीव-सत्त- दययाए च ण पडियाओ-पडियाओ 'तत्थेव तत्थेव ' भुज्जो - भुज्जो पचोरुभे ॥ ६१. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवरिंस पासइ, पासित्ता ममं अंतियाओ सणियं -सणियं पच्चोसक्कड़, पच्चोसक्कित्ता जेणेव वेसियायणे बालतवस्सी तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी - किं भवं मुणी? मुणिए ? उदाहु जूयासेज्जायरए? ६२. तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमहं नो आढाति, नो परियाणति, तुसिणीए संचि ॥ ६३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सि दोचं पि तच्चं पि एवं वयासी - किं भवं मुणी? मुणिए ? उदाहु जूयासेज्जायरए १ ६४. तए णं से बेसियायणे बालतवस्सी गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं दोचं पि तच्चं पि एवं वृत्ते समाणे आसुरुत्ते रुट्ठे कुबिए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे आयावण २६६ तिलस्तम्भकः आश्वस्तः प्रत्याजातः बद्धमूलः तत्रैव प्रतिष्ठितः । ते च सप्त तिलपुष्पजीवाः उद्द्रुत्य - उद्द्रुत्य तस्यैव तिलस्तम्भकस्य एकस्यां तिलसंगलियाए सप्त तिलाः प्रत्याजाताः । वैश्यायन- बालतपस्वि-पदम् ततः अहं गौतम ! गोशालेन मंखलिपुत्रेण सार्धं यत्रैव कुर्मग्रामं नगरं तत्रैव उपागच्छामि। ततः तस्य कूर्मग्रामनगरस्य बहिस्तात् वैश्यायनः नाम बालतपस्वी षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपः कर्मणा उर्ध्वं बाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूराभिमुखः आतापनभूम्याम् आतापयन् विहरति । आदित्यतेजस्तप्ताः च तस्य षट्पद्यः सर्वतः समन्तात् अभिनिर्सवन्ति, प्राणभूत जीव-सत्वदयार्थाय दयार्थतायै च पतिताः पतिताः 'तत्रैव तत्रैव' भूयः - भूयः प्रत्यवरोहति । ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः वैश्यायनं बालतपस्विनं पश्यति, दृष्ट्वा मम अन्तिकात् शनैः-शनैः प्रत्यवष्वष्कते प्रत्युष्वष्क्य यत्रैव वैश्यायन: बालतपस्वी तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य वैश्यायनं बालतपस्विनम् एवमवादीत्किं भवान् मुनिः ? ज्ञातः ? उताहो यूकाशय्यातरकः ? ततः सः वैश्यायनः बालतपस्वी गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य एतमर्थं नो आद्रियते, नो परिजानाति, तूष्णीकः सन्तिष्ठते । ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः वैश्यायनं बालतपस्विनं द्विः अपि त्रिः अपि एवमवादीत् किं भवान् मुनिः ? ज्ञातः ? उताहो यूकाशय्यातरकः ? ततः सः वैश्यायनः बालतपस्वी गोशालेन मंखलिपुत्रेण द्विः अपि त्रिः अपि एवम् उक्ते सति आशुरक्तः रुष्टः कुपितः 'चंडिक्किए' 'मिसि भगवई के पौधे का रोपण हुआ। वह अंकुरित हुआ, बद्धमूल हुआ और वहीं पर प्रतिष्ठित हो गया। तिल पुष्प के वे सात जीव मर कर उसी तिल के पौधे की एक फली में सात तिलों के रूप में पुनः उपपन्न हो गए। बाल तपस्वी वैश्यायन पद ६०. गौतम! मैं मंखलिपुत्र गोशाल के साथ जहां कूर्मग्राम नगर था, वहां आया। उस कूर्मग्राम नगर के बाहर वैश्यायन नाम का बाल तपस्वी निरंतर षष्ठ- षष्ठ भक्त (दो-दो दिन का उपवास) तपः कर्म में आतापन भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेते हुए विहार कर रहा था। सूर्य के ताप से तप्त होकर जूंएं उसकी जटाओं से निकल कर नीचे गिर रही थी, प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की दया के लिए वह उन जूंओं को पुनः पुनः सिर में डाल रहा था। ६१. मंखलिपुत्र गोशाल ने बाल तपस्वी वैश्यायन को देखा, देखकर मेरे पास से शनैः शनैः पीछे सरक गया, पीछे सरक कर जहां वैश्यायन बाल तपस्वी था, वहां आया, आकर वैश्यायन बाल तपस्वी को इस प्रकार बोला- क्या तुम मुनि हो, पिशाच हो अथवा जूओं के शय्यातर-जूंओं को आश्रय देने वाले? ६२. बाल तपस्वी वैश्यायन ने मंखलिपुत्र गोशाल के इस अर्थ को आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, वह मौन रहा । ६३. मंखलिपुत्र गोशाल ने बाल तपस्वी वैश्यायन को दूसरी बार भी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा- क्या तुम मुनि हो, पिशाच हो अथवा जूओं के शय्यातर? ६४. मंखलिपुत्र गोशाल के दूसरी बार भी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर बाल तपस्वी वैश्यायन तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६७ भूमीओ पचोरुभइ, पचोरुभित्ता तेयास- मिसेमाणे' आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, मुग्याएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता प्रत्यवरुह्य तेजःसमुद्घातेन समवहन्यते, सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता समवहन्य सप्ताष्टपदानि प्रत्यवागोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बहाए वष्कते, प्रत्यवष्वष्क्य गोशालस्य सरीरगंसि तेयं निसिरह॥ मंखलिपुत्रस्य वधाय शरीरके तेजः निसृजति। श. १५ : सू. ६५,६६ रौद्र हो गया, क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर आतापन भूमि से नीचे उतरा, नीचे उतरकर तैजस-समुद्घात से समवहत हुआ, समवहत होकर सात-आठ पैर पीछे सरका, पीछे सरक कर मंखलिपुत्र गोशाल के वध के लिए अपने शरीर से तेज को निकाला। . ६५. तए णं अहं गोयमा! गोसालस्स ततः अहं गौतम! गोशालस्य मंखलिपुत्तस्स अणुकंपणट्ठयाए मंखलिपुत्रस्य अनुकम्पनार्थाय वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स । वैश्यायनस्य बालतपस्विनः उष्णतेजः उसिणतेयपडिसाहरणट्ठयाए एत्थ णं प्रतिसंहरणार्थाय अत्र अन्तरा अंतरा सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि, शीतलिका तेजोलेश्यां निसृजामि यया जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए। सा मम शीतलिकया तेजोलेश्यया वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिणा वैश्यायनस्य बालतपस्विनः उष्णा तेयलेस्सा पडिहया॥ तेजोलेश्या प्रतिहता। ६५. गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल की अनुकंपा के लिए बाल तपस्वी वैश्यायन की उष्ण तेजोलेश्या को प्रतिसंहृत करने के लिए गोशाल तक तेजोलेश्या पहुंचे, उससे पूर्व शीतल तेजोलेश्या को निकाला। मेरी शीतल तेजोलेश्या से बाल तपस्वी वैश्यायन की उष्ण तेजोलेश्या प्रतिहत हो गई। ६६. तए णं से बेसियायणे बालतवस्सी ममं ततः सः वैश्यायनः बालतपस्वी मम ६६. बाल तपस्वी वैश्यायन ने मेरी शीतल सीयलियाए तेयलेस्साए साउसिणं शीतलिकया तेजोलेश्यया स्वकोष्णां तेजोलेश्या से अपनी उष्ण तेजोलेश्या को तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता गोसालस्स। तेजोलेश्यां प्रतिहतां ज्ञात्वा गोशालस्य प्रतिहत जानकर, मंखलिपुत्र गोशाल के मंखलिपत्तस्स सरीरगस्स किंचि आवाहं मंखलिपत्रस्य शरीरकस्य किञ्चित् ' शरीर का किञ्चित् आबाध, व्याबाध, अथवा वा बाबाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं । आबाधां वा व्याबाधां वा छविच्छेदं वा छविच्छेद न करते हुए देखकर अपनी उष्ण पासित्ता साउसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरइ, अक्रियमाणं दृष्ट्वा · स्वकोष्णां तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण किया, प्रतिपडिसाहरित्ता ममं एवं वयासी-से गतमेयं तेजोलेश्यां प्रतिसंहरति, प्रतिसंहृत्य संहरण कर इस प्रकार बोला-भगवन्! मैंने भगवं! गत-गतमेयं भगव! माम् एवमवादीत्-तद् गतमेतद् जान लिया, भगवन्! मैंने जान लिया, जान भगवन् ! गत-गतमेतद् भगवन्! लिया! भाष्य सूत्र ६५-६६ बताया गया है कि इस ऊर्जा का विनाशक (विस्फोटक) परिणमन १. तेजोलेश्या एक साथ सोलह जनपदों को भरमीसात् कर सकता है।' लब्धि, ऋद्धि, योगज उपलब्धि, प्रातिहार्य, अतिशय, पौदगलिक ऊर्जा के विभिन्न रूपों का परस्पर में रूपान्तरण वचनातिशय आदि के विशद विवेचन से जैन वाङ्मय भरा हुआ है। करने की अनेक विधियों एवं तकनीकों का विकास आज विज्ञान ने वैसे बौद्ध एवं वैदिक साहित्य में भी इस विषय में बहुत मूल्यवान किया है। तेजोलेश्या में मनःकायिक प्रभाव के माध्यम से पौदगलिक सामग्री उपलब्ध है। प्रस्तुत शतक में 'तेजोलेश्या' नामक एक विशेष ऊर्जा के रूपान्तरण की प्रक्रिया को काम में लिया जाता है। किस लब्धि की चर्चा है जो चामत्कारिक ढंग से विपुल ऊर्जा-स्रोत के रूप प्रकार निर्दिष्ट विधि के द्वारा तपस्वी अपनी तैजस शक्ति को इस में प्रयुक्त की जाती थी। अनुग्रह करने वाली तेजोलेश्या का 'शीत' रूप में रूपान्तरित कर देता है तथा संक्षिप्त विपुल अवस्थाओं में रख और निग्रह करने वाली तेजोलेश्या को 'उष्ण' कहा जाता है। शीतल सकता है, शीतल तेजोलेश्या उष्ण तेजोलेश्या को किस प्रकार तेजोलेश्या उष्ण तेजोलेश्या के प्रहार को निष्फल बना देती है। निरस्त कर देती है आदि विषय अनुसंधान के विषय हैं तथा अनुपयोग काल में तेजोलेश्या को 'संक्षिप्त' और उपयोग काल में उसे वैज्ञानिक क्षेत्रों में चलने वाले शस्त्रास्त्रों एवं प्रतिरोधी-शस्त्रास्त्रों 'विपुल' अवस्था में रखा जा सकता है। विपुल-अवस्था में वह सूर्य (जैसे-anti-aircraft gun आदि) के प्रयोगों के साथ तुलनीय हैं। बिम्ब के समान दुर्दर्श होती है। वह इतनी चकाचौंध पैदा कर देती है दरअसल में भारतीय अध्यात्म-विद्याओं पर मौलिक कि उसे खुली आंखों से देखा नहीं जा सकता। तेजोलेश्या का प्रयोग अनुसंधान-कार्य वैज्ञानिक पद्धति से किया जाय तो अनेक नए करने वाला अपनी तेजस्-शक्ति को बाहर निकालता है, तब वह तथ्यों का उद्घाटन हो सकता है। साधना आदि के द्वारा चेतना, महाज्वाला के रूप में विकराल होती है। प्रस्तुत शतक में स्पष्ट लेश्या, भाव आदि चैतसिक शक्तियों के विकास की प्रक्रियाओं के १. भ. १/१२१॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू.६६ २६८ भगवई साथ सूक्ष्म पौद्गलिक परिणतियों की व्याख्या को आधुनिक विज्ञान जब वह किसी का निग्रह करने के लिए बाहर निकलता है तब के जैव-पौद्गलिक सिद्धांतों के आधार पर समझने की अपेक्षा है। उसका वर्ण सिन्दूर जैसा लाल होता है। वह तपस्वी के बाएं कंधे से इसमें नवीनतम सूक्ष्मग्राही उपकरणों के अनुप्रयोग भी रहस्यों के । निकलता है। उसकी आकृति रौद्र होती है। वह लक्ष्य का विनाश, उद्घाटन में सहायक बन सकते हैं। दाह कर फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। प्रस्तत सत्रों में शीतल और उष्ण तेजोलेश्या के प्रयोग की चर्चा अनुग्रह करने वाली तेजोलेश्या को 'शीत' और निग्रह करने वाली तेजोलेश्या को 'उष्ण' कहा जाता है। शीतल तेजोलेश्या उष्ण इसके दो पक्ष हैं तेजालेश्या के प्रहार को निष्फल बना देती है। १. तेजोलेश्या-इस लब्धि की अनुग्रह-निग्रह की शक्ति की तेजोलेश्या अनुपयोग काल में 'संक्षिप्त' और उपयोग काल में व्याख्या। इस विषय में प्राचीन ज्ञान एवं आधुनिक विज्ञान के संदर्भ "विपुल' हो जाती है। विपुल-अवस्था में वह सूर्यबिम्ब के समान में मीमांसा करना अपेक्षित है। दुर्दर्श होती है। वह इतनी चकाचौंध पैदा करती है कि मनुष्य उसे २. अनुकंपा-जैन आगमों एवं आचार्य भिक्षु के दर्शन के आधार खुली आंखों से देख नहीं सकता। तेजोलेश्या का प्रयोग करने वाला पर अनुकंपा की मीमांसा। अपनी तैजस-शक्ति को बाहर निकालता है तब वह महाज्वाला के १. तेजोलेश्या रूप में विकराल हो जाती है। तेजोलेश्या का अर्थ है-तैजस-शारीरिक विद्युत् के द्वारा अनुग्रह तेजोलेश्या का स्थान और निग्रह करने की क्षमता। यह हठयोग और तंत्रशास्त्र में प्रसिद्ध तैजस शरीर हमारे समूचे स्थूल शरीर में रहता है। फिर भी कुंडलिनी शक्ति है। उसके दो विशेष केन्द्र हैं-मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठभाग। मन हम शरीरधारी हैं। शरीर दो प्रकार के हैं-स्थूल और सूक्ष्म। और शरीर के बीच सबसे बड़ा संबंध-सेतु मस्तिष्क है। नाभि के अस्थिचर्ममय शरीर स्थूल है। तैजस शरीर सूक्ष्म और कर्म-शरीर पृष्ठभाग में हमारे आहार का प्राण के रूप में परिवर्तन होता है। अतः अतिसूक्ष्म है। हमारे पाचन, सक्रियता और तेजस्विता का मूल तैजस शारीरिक दृष्टि से मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठभाग-ये दोनों शरीर है। वह पूरे स्थूल शरीर में व्याप्त रहता है तथा दीप्ति और तेजोलेश्या के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन जाते हैं। तेजस्विता उत्पन्न करता है। विद्युत, प्रकाश और ताप-ये तीनों तेजोलेश्या के विकास-स्रोत शक्तियां उसमें विद्यमान हैं। शरीर में दो प्रकार की विद्युत् तेजोलेश्या के विकास का कोई एक ही स्रोत नहीं है। उसका हैं-धार्षणिक और धारावाही या मानसिक। घार्षणिक विद्युत् का विकास अनेक स्रोतों से किया जा सकता है। संयम, ध्यान, वैराग्य, उत्पादन शरीर करता है और धारावाही विद्युत् का उत्पादन मस्तिष्क भक्ति, उपासना, तपस्या आदि आदि उसके विकास के स्रोत हैं। करता है। मस्तिष्कीय विद्युत्-धारा स्नायु-मंडल में संचरित रहती है।। इन विकास-स्रोतों की पूरी जानकारी लिखित रूप में कहीं भी वह ज्ञान-तंतुओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचती है और उससे मिले उपलब्ध नहीं होती। यह जानकारी मौलिक रूप में आचार्य शिष्य निर्देशों का शारीरिक अवयवों के द्वारा क्रियान्वयन कराती है। इसका। को स्वयं देते थे। मल हेत तैजस शरीर है। यह शरीर प्राणिमात्र के साथ निरन्तर रहता गोशालक ने महावीर से पूछा-'भंते ! तेजोलेश्या का विकास है। एक प्राणी मृत्यु के उपरान्त दूसरे जन्म में जाता है। अंतराल गति कैसे हो सकता है?' महावीर ने इसके उत्तर में उसे तेजोलेश्या के में भी तैजस शरीर उसके साथ रहता है। कर्म-शरीर सब शरीरों का एक विकास-स्रोत का ज्ञान कराया। उन्होंने कहा-'जो साधक मूल है। उसके बाद दूसरा स्थान तैजस शरीर का है। यह सूक्ष्म निरन्तर दो-दो उपवास करता है, पारणा के दिन मुट्ठीभर उड़द या पुद्गलों से निर्मित होता है, इसलिए चर्म-चक्षु से दृश्य नहीं होता। यह मूंग खाता है और एक चूल्लू पानी पीता है, भुजाओं को ऊंचीकर स्वाभाविक भी होता है और तपस्या द्वारा उपलब्ध भी होता है। सूर्य की आतापना लेता है, वह छह महीनों के भीतर ही तेजोलेश्या स्वाभाविक तैजस शरीर सब प्राणियों में होता है। तपस्या से उपलब्ध होने वाला तैजस शरीर सबमें नहीं होता। 'वह तपस्या से उपलब्ध तेजोलेश्या के तीन विकास-स्रोत हैंहोता है इसका तात्पर्य यह है कि तपस्या से तैजस शरीर की क्षमता १. आतापना-सूर्य के ताप को सहना। बढ़ जाती है। स्वाभाविक तैजस शरीर स्थूल शरीर से बाहर नहीं २. क्षांति-क्षमा-समर्थ होते हुए भी क्रोध-निग्रहपूर्वक अप्रिय निकलता। तपोजनित तैजस शरीर शरीर के बाहर निकल सकता है। व्यवहार को सहन करना। उसमें अनुग्रह और निग्रह की शक्ति होती है। उसके बाहर निकलने ३. जल-रहित तपस्या करना। की प्रक्रिया का नाम तैजस समुद्घात है। जब वह किसी पर अनुग्रह परामनोविज्ञान में मनःप्रभाव (साइकोकाइनेसिस) करने के लिए बाहर निकलता है तब उसका वर्ण हंस की भांति सफेद मन या चेतना के द्वारा पदार्थ के सीधे प्रभावित करने की होता है। वह तपस्वी के दाएं कंधे से निकलता है। उसकी आकृति क्रिया को मनःप्रभाव (साइकोकाइनेसिस) कहा गया है। बाह्य जगत् सौम्य होती है। वह लक्ष्य हित-साधन कर (रोग आदि का उपशमन में मानवीय कार्यों के प्रति सामान्य मान्यता यही है कि प्रत्येक पदार्थ कर) फिर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। कार्य के लिए दैहिक अवयवों, यथा-मस्तिष्क, स्नायुओं, मांसपेशियों Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६६ श. १५ : सू. ६६ व कर्मेन्द्रियों का होना अनिवार्य है। किन्तु जब कोई क्रिया बिना द्वारा यथार्थ बात जान लेती हूं। मैं लोगों के आभामंडल में प्रविष्ट दैहिक माध्यम के, चित्त या मन द्वारा सीधे पदार्थ को प्रभावित करके होकर उनके चरित्र का वर्णन कर सकती हूं। किन्तु शराबी आदमी सम्पन्न होती हो, तो उसे 'परामनोविज्ञान' की श्रेणी में ही रखा के चरित्र को मैं नहीं जान सकती, क्योंकि शराबी आदमी का जाता है। जिस प्रकार बिना दैहिक (ऐन्द्रियिक) माध्यम के मन द्वारा आभामंडल अस्त-व्यस्त हो जाता है। वह इतना धुंधला हो जाता है सीधे ही प्रत्यक्षण कर सकने की क्षमता का विवेचन परामनोवैज्ञानिक कि उसके रंगों का पता नहीं चलता।' कर चुके हैं, उसी प्रकार मन के द्वारा सीधे पदार्थ को प्रभावित करने ओकल्ट साइन्स के वैज्ञानिकों ने यह तथ्य प्रगट किया कि की क्षमता के बारे में भी परामनोविज्ञान में अनुसंधान हुआ है। आदमी जब तक अपने शरीर के विशिष्ट केन्द्रों को चुंबकीय क्षेत्र नहीं तेजोलेश्या 'मनःप्रभाव' की विलक्षण घटना है। बना लेता-एलेक्ट्रो-मेग्नेटिक फील्ड नहीं बना लेता, तब तक उसमें परामनोविज्ञान में एस्ट्रल प्रोजेक्शन और समुद्घात पारदर्शन की क्षमता नहीं जाग सकती। चैतन्य-केन्द्रों और चक्रों की ____एक हब्शी महिला है। उसका नाम है-लिलियन। वह अतीन्द्रिय सारी कल्पना का मूल उद्देश्य है-शरीर को विद्युत् चुम्बकीय क्षेत्र प्रयोगों में दक्ष है। उससे पूछा गया-तुम अतीन्द्रिय घटनाएं कैसे । बना लेना। सहिष्णुता और समभाव-वृद्धि के प्रयोग-उपवास, आसन, बतलाती हो? उसने कहा, 'मैं एस्ट्रल प्रोजेक्शन के द्वारा उन घटनाओं प्राणायाम, आतापना, सर्दी-गर्मी को सहने का अभ्यास-इन सारी को जान लेती हूं। प्रत्येक प्राणी में प्राण-धारा होती है। उसे एस्ट्रल प्रक्रियाओं से शरीर के परमाणु विद्युत-चुंबकीय क्षेत्र में बदल जाते बॉडी भी कहा जाता है। एस्ट्रल प्रोजेक्शन के द्वारा मैं प्राण शरीर हैं। और वह क्षेत्र इतना पारदर्शी बन जाता है कि भीतर की चेतना से बाहर निकल कर, जहां घटना घटित होती हैं, वहां जाती हूं और उस क्षेत्र से बाहर झांक सकती है। सारी बातें जानकर दूसरों को बता देती हूं।' प्राण-शक्ति का आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक महत्त्व विज्ञान द्वारा सम्मत यह एस्ट्रल प्रोजेक्शन की प्रक्रिया जैन हमारे शरीर में शक्ति के दो स्रोत हैं-एक है काम की शक्ति परंपरा की समुद्घात प्रक्रिया है। समुद्घात का यही तात्पर्य है कि का और दूसरा है ज्ञान की शक्ति का। ज्ञान की शक्ति ऊपर रहती जब विशिष्ट घटना घटित होती है तब व्यक्ति स्थूल शरीर से प्राण है, काम की शक्ति नीचे रहती है। नीचे के स्रोत में कामनाएं, शरीर को बाहर निकाल कर घटने वाली घटना तक पहुंचता है और वासनाएं, इच्छाएं, हिंसा, असत्य, चोरी की भावना-ये सारी वृत्तियां घटना का पूरा ज्ञान कर लेता है। यह प्राण शरीर बहुत दूर तक जा पैदा होती हैं। ज्ञान का केन्द्र जो सिर में है, वहां सारी निम्न वृत्तियां सकता है। इसमें अपूर्व क्षमताएं हैं। समाप्त हो जाती हैं। चेतना का विकास, ज्ञान का विकास, बुद्धि का समुद्घात सात हैं-वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, विकास, उदारता, परमार्थ-यह महान् चेतना वहां पैदा होती है। मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तैजस समुद्घात, आहारक शरीर की विद्युत् या प्राण-ऊर्जा जितनी शक्तिशाली बनती समुद्घात और केवली समुद्घात। जब व्यक्ति को क्रोध अधिक है, उतना शक्तिशाली बनता है जीवन। शरीर का आध्यात्मिक आता है तब उसका प्राण-शरीर शरीर से बाहर निकल जाता है। मूल्यांकन है उस ऊर्जा की सुरक्षा करना, ऊर्जा को विकसित यह कषाय समुद्घात है। जब आदमी के मन में अति लालच आता करना और ऊर्जा के स्रोत को मोड़कर नीचे से ऊपर की ओर ले है तब भी प्राण-शरीर बाहर निकल जाता है। इसी प्रकार भयंकर बीमारी में मरने की अवस्था में भी प्राण-शरीर बाहर निकल जाता जाना। अध्यात्म का मार्ग ऊर्जा के ऊर्चीकरण का मार्ग है। है। आज के विज्ञान के सामने ऐसी अनेक घटनाएं घटित हुई हैं। ऊपर का स्रोत खुलता है तो प्राणशक्ति का प्रवेश होता एक रोगी ऑपरेशन थियेटर में टेबल पर लेटा हुआ है। उसका है और नीचे का स्रोत खुला रहता है तो प्राणशक्ति का निर्गमन मेजर ऑपरेशन होना है। डॉक्टर ऑपरेशन कर रहा है। उस समय होता है, बिजली बाहर चली जाती है और आदमी शक्तिशून्य हो उस व्यक्ति में वेदना समुद्घात घटित हुई। उसका प्राण-शरीर स्थूल जाता है। शरीर से निकलकर ऊपर की छत के आसपास स्थिर हो गया। जो इस स्थूल शरीर से परे है, वह इन्द्रियों का विषय नहीं है। ऑपरेशन चल रहा है और वह रोगी अपने प्राण-शरीर से सारा किन्तु हमारे शरीर में कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जिनके विषय में चिंतन और ऑपरेशन देख रहा है। ऑपरेशन करते-करते एक बिन्दु पर डॉक्टर अनुभव करते-करते हम अपनी बुद्धि और चिदशक्ति के द्वारा इन्द्रियों ने गलती की। तत्काल ऊपर से रोगी ने कहा, डॉक्टर! यह भूल कर की सीमा से परे जाकर सूक्ष्म शरीर की सीमा में प्रविष्ट हो सकते रहे हो। डॉक्टर को पता नहीं चला कि कौन बोल रहा है। उसने भूल हैं। उनमें एक तत्त्व है प्राण-विद्युत्। अग्निदीपन, पाचन, शरीर का सुधारी। वेदना कम होते ही रोगी का प्राण-शरीर पुनः स्थूल शरीर सौष्ठव और लावण्य, ओज-ये जितनी आग्नेय क्रियाएं हैं, ये सारी में आ जाता है। प्रोजेक्शन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। होश आने सप्त धातुमय इस शरीर की क्रियाएं नहीं हैं। विद्युत् शरीर-तेजस पर रोगी ने डॉक्टर से कहा, छत पर लटकते हुए मैंने पूरा ऑपरेशन शरीर ही इस स्थूल शरीर की सारी क्रियाओं का संचालन करता है। देखा है। उस सूक्ष्म शरीर में से विद्युत् का प्रवाह आ रहा है और उस विद्युत् शरीर-प्रक्षेपण की अनेक प्रक्रियाएं हैं। इन प्रक्रियाओं में प्राण- प्रवाह से सब कुछ संचालित हो रहा है। उस सूक्ष्म शरीर को प्राणशरीर बाहर चला जाता है। शरीर भी कहा जाता है। यह शरीर प्राण का विकिरण करता है और उस हब्शी महिला लिलियन ने कहा-'मैं एस्ट्रल प्रोजेक्शन के उसी प्राण-शक्ति से क्रियाशीलता आती है। श्वास, मन, इन्द्रियां, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाग श. १५ : सू. ६६ २७० भगवई भाषा, आहार और विचार-ये सब प्राण-शक्ति के ऋणी हैं। प्राणशक्ति कोई व्यक्ति विशिष्ट साधना के द्वारा अपनी इस तेजस तैजस शरीर से निःसृत है। ___ शक्ति को विकसित कर लेता है और किसी व्यक्ति को अनायास प्रश्न होता है कि वह तैजस शरीर किसके द्वारा संचालित है? ही गुरु का आशीर्वाद मिल जाता है तो साधना में तीव्रता आती है वह प्राणधारा को प्रवाहित अपने आप कर रहा है या किसी के द्वारा और कुंडलिनी का अधिक विकास हो जाता है। जिस व्यक्ति का प्रेरित होकर कर रहा है? यदि अपने आप कर रहा है तो तैजस तैजस शरीर जागृत है, उस व्यक्ति के सान्निध्य में जाने से भी दूसरे शरीर जैसा मनुष्य में है वैसा पशु में भी है, पक्षियों में भी है और व्यक्ति की कुंडलिनी को (तैजस शरीर को) उत्तेजना मिल जाती छोटे-से-छोटे प्राणी में भी है। वनस्पति में भी तैजस शरीर है, प्राण- है और वह अर्द्धजागृत कुंडलिनी पूर्ण जागृत हो जाती है। प्रश्न है विद्युत् है। वनस्पति में भी ओरा होता है, आभामंडल होता है। विद्युत् प्रवाहों का। 'क' और 'ख' दो व्यक्ति हैं। 'क' के विद्युत्आभामंडल (ओरा) उस सूक्ष्म शरीर-तैजस शरीर का विकिरण है। प्रवाह बहुत सक्रिय है। 'ख' के विद्युत्-प्रवाह कमजोर हैं। यदि 'ख' प्रश्न होता है, यह रश्मियों का विकिरण क्यों होता है? यदि तैजस 'क' के पास जाता है तो 'क' के विद्युत्-प्रवाह 'ख' को प्रभावित शरीर का कार्य केवल विकिरण करना ही हो तो मनुष्य इतना ज्ञानी, करेंगे, उसमें एक प्रकार के विद्युत् स्पन्दन पैदा हो जाएंगे। इतना शक्तिशाली और इतना विकसित तथा एक अन्य प्राणी इतना गुरु-कृपा का तात्पर्य है उस व्यक्ति का सान्निध्य जिसका अविकसित क्यों? यह सब तैजस शरीर का कार्य नहीं है। तैजस तैजस शरीर जागृत है। गुरु-कृपा से मिलने वाला यह क्षणिक शरीर के पीछे भी एक प्रेरणा है सूक्ष्मतर शरीर की। वह सूक्ष्मतर अनुभव या जागरण क्षणिक ही होता है, स्थायी नहीं होता। एक शरीर है-कर्म-शरीर क्षण में अपूर्व अनुभव हुआ और दूसरे क्षण में वह समाप्त हो गया। तीन शरीरों की एक श्रृंखला है-स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और इलैक्ट्रोड लगाने से क्षणिक अनुभव होता है और उसे हटा देने से सूक्ष्मतर शरीर। स्थूल शरीर यह दृश्य शरीर है। सूक्ष्म शरीर है तैजस वह अनुभव भी समाप्त हो जाता है। वैसा ही यह अनुभव होता है। शरीर और सूक्ष्मतर शरीर है-कर्म-शरीर, कार्मण शरीर। प्राणी की अंततः कुंडलिनी का जागरण साधक को स्वयं ही करना पड़ता है। मूलभूत उपलब्धियां तीन हैं-चेतना (ज्ञान), शक्ति और आनंद। कुंडलिनी-जागरण के मार्ग चेतना का तारतम्य अविकास और विकास, शक्ति का प्रेक्षाध्यान, व्यायाम, तपस्या, भक्ति, प्राणायाम, उपवास, तारतम्य-अविकास और विकास, आनंद का तारतम्य-अविकास संगीत आदि अनेक साधन हैं, जिनके माध्यम से कुंडलिनी जागती और विकास-यह सारा इन शरीरों के माध्यम से होता है। है। पूर्व संस्कारों की प्रबलता से भी कुंडलिनी जागृत हो जाती है। कुंडलिनी : स्वरूप और जागरण कभी-कभी ऐसा होता है कि व्यक्ति गिरा, मस्तिष्क पर गहरा कुंडलिनी-जागरण का प्रश्न शरीरों के साथ जुड़ा हुआ है। आघात लगा और कुंडलिनी जाग गयी। कुंडलिनी के जागने के तीन शरीरों में से जो मध्य का शरीर है, तैजस शरीर (सूक्ष्म शरीर), अनेक कारण हैं। औषधियों के द्वारा भी कुंडलिनी जागृत होती है। उसकी एक क्रिया का नाम है 'तेजोलब्धि'। हठयोग तंत्र में इसे अमुक-अमुक वनस्पतियों के प्रयोग से कुंडलिनी के जागरण में 'कुंडलिनी' कहा गया है। कहीं-कहीं इसे 'चित्शक्ति' कहा जाता सहयोग मिलता है। तिब्बत में तीसरे नेत्र के उदघाटन में वनस्पतियों है। जैन साधना-पद्धति में इसे 'तेजोलब्धि' कहा जाता है। हठयोग का प्रयोग भी किया जाता था। पहले शल्यक्रिया करते, फिर वनौषधियों में इसके पर्यायवाची नाम तीस गिनाए गए हैं। उनमें एक नाम है का प्रयोग करते थे। औषधियों का महत्त्व सभी परम्पराओं में मान्य 'महापथ' । जैन साहित्य में महापथ' का प्रयोग मिलता है। भिन्न- रहा है। प्रसिद्ध सूक्त है-अचिन्त्यो हि मणिमंत्रौषधीनां प्रभावः-मणियों, भिन्न साधना-पद्धतियों में यह भिन्न-भिन्न नाम से पहचानी गयी है। मंत्रों और औषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है। मंत्रों के द्वारा भी यदि इसके स्वरूप-वर्णन में की गयी अतिशयोक्तियों को हटाकर कुंडलिनी को जगाया जा सकता है। विविध मणियों, रत्नों के इसका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो इतना ही फलित निकलेगा विकिरणों के द्वारा भी उसे जागृत किया जा सकता है। कि हमारी प्राणशक्ति का विशेष विकास ही कुंडलिनी का जागरण प्राण-शक्ति की विद्युत् का चमत्कार है। प्राणशक्ति के अतिरिक्त, तैजस शरीर के विकिरणों के अतिरिक्त अंग-संचालन में प्राण-शक्ति का प्रयोग होता है। एक अंगुली कुंडलिनी का अस्तित्व वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध नहीं हो सकता। शरीर को हिलाने के लिए भी कितने बड़े तंत्र का सहारा लेना पड़ता है। की सामान्य क्रियाओं में भी कुंडलिनी का अस्तित्व प्रमाणित होता पहले सोचते हैं, मस्तिष्क के ज्ञानतंतु सक्रिय होते हैं और फिर वे है, पर होता है वह सामान्य शक्ति के विस्फोट के रूप में। वह कुछ क्रियावाही तंतुओं को निर्देश देते हैं। वह निर्देश वहां तक पहुंचता ऐसा आश्चर्यकारी तथ्य नहीं है जिसे अमुक योगी ही प्राप्त कर सकते है, तो अंगुली हिलती है। मस्तिष्क की रचना बहुत विचित्र है। कोई हैं या जिसे अमुक-अमुक योगियों ने ही प्राप्त किया है। कोई भी प्राणी वैज्ञानिक हमारे मस्तिष्क जैसे सूक्ष्म अवयवों का कम्प्यूटर बनाना ऐसा नहीं है, जिसकी कुंडलिनी जागृत न हो। वनस्पति के जीवों की चाहे तो आज की पूरी पृथ्वी भर जाए-इससे भी शायद ज्यादा बड़ा भी कुंडलिनी जागृत है। यदि वह जागृत न हो तो वह सचेतन प्राणी होगा। नहीं हो सकता। वह अचेतन होता है। जैन आगम ग्रंथों में कहा बहुत बार ऐसा होता है कि बल्ब लगे रहते हैं किन्तु प्रकाश गया-चैतन्य (कुंडलिनी) का अनंतवां भाग सदा जागृत रहता है। गायब हो जाता है। हम शरीर को देखते हैं, शरीर की भी यही हालत Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७१ श. १५ : सू. ६६ है। शरीर पड़ा है, आंखें, कान, नाक पूरे के पूरे अवयव हैं, किन्तु उस समय भगवान छह लेश्या वाले और छद्मस्थ थे। मोह कर्म के बिजली गायब हो गई। कारण उनको यह राग आया। कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि चिता में जलाने के लिए शव गोशालक असंयती और कुपात्र था। उसका शारीरिक सहयोग को लिटा दिया, वह बीच में ही खड़ा हो गया। पोस्टमार्टम के लिए भगवान श्री महावीर ने किया। यदि इसमें धर्म समझते तो सारा जगत रोगी को सुलाया गया और डॉक्टर पोस्टमार्टम करने बैठा। अस्त्र दुःखी था, भगवान ने इस उदाहरण को फिर से दुहराया तो नहीं। लगा, वह खड़ा हो गया। आपको आश्चर्य होगा कि यह कैसे हो अपनी तेजोलेश्या के द्वारा गोशालक ने दो साधुओं को जलाकर सकता है ? बिजली गायब हो गई थी, फिर कोई ऐसा बटन दबा, भस्मसात् कर दिया। वहां लब्धिधारी साधु तो बहुत थे। उन महापुरुषों बिजली आ गई और वह जी गया। लोगों ने समझ लिया कि यह तो को उन्होंने नहीं बचाया? यह अनुकंपा सावद्य समझनी चाहिए। भूत हो गया। यह बहुत बड़ा चमत्कार है हमारी प्राण-शक्ति का। जिस समय महावीर में छहों लेश्याएं थीं तथा आठों ही कर्म प्राणशक्ति और विद्युत् एक बहुत बड़ा चमत्कार है। थे, उस समय जो उन्होंने शीतल लेश्या का प्रयोग कर गोशालक को पांचों इन्द्रियों की शक्तियां, बोलने की शक्ति, सोचने बचाया था, वह उनकी छद्मस्थ अवस्था की भूल थी; उस कार्य में की शक्ति, चलने-फिरने की शक्ति, श्वास लेने की शक्ति धर्म की स्थापना करने वाला मूर्ख है।' और जीने की शक्ति-ये सारी शक्तियां एक ही शक्ति के विभिन्न श्रीमज्जयाचार्य ने भी इसी तथ्य को विस्तार से समझाते हुए रूप हैं। मूलतः एक है-प्राणशक्ति। यदि शक्ति नहीं है तो चेतना का बताया हैउपयोग नहीं होता। "यहां वृत्तिकार (अभयदेवसूरि) ने लिखा है कि भगवान् ने ज्ञान का विकास तब होता है जब प्राणशक्ति बढ़ जाती है। यहां जो गोशालक का संरक्षण किया था, वह सरागभाव से किया एक विशिष्ट ज्ञानी, जिसे परिभाषा में चतुर्दशपूर्वी कहा जाता है, वह था। सरागभाव से जो कार्य किया था, उसे धर्म किस प्रकार कह ४८ मिनट के भीतर इतनी बड़ी ज्ञान राशि का अर्जन कर लेता है, सकते हैं? पुनः 'दया के एकरसत्व से' ऐसा जो वृत्तिकार ने लिखा जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। वे इतनी बड़ी ज्ञान-राशि का है, उसका भी 'सरागभाव से स्नेह-सहित अनुकंपा की' ऐसा अर्थ केवल कुछ मिनटों में पुनरावर्तन कर लेते हैं। है। उसे स्नेह-सहित अनुकंपा कहें, या भाव से दया कहें-इसे मोह प्राण-शक्ति जैसे-जैसे सूक्ष्म होती चली जाती है वैसे-वैसे उसकी रूप दया ही जानना चाहिए।..........यह दया सावध जाननी चाहिए। क्षमता और कार्यशक्ति बढ़ती चली जाती है। ध्यान की साधना वृत्तिकार ने यह भी कहा है कि 'आगे (सुनक्षत्र-सर्वानुभूति) मुनि प्राणशक्ति को सूक्ष्म करने की साधना है। श्वास की संख्या जितनी द्वय को नहीं बचाएंगे, वह वीतरागभाव के कारण तथा लब्धि का बढ़ती है, शक्ति उतनी ही खर्च होती चली जाती है। श्वास की प्रयोग नहीं करने के कारण।' यदि वे लब्धि का प्रयोग कर उन्हें संख्या जितनी कम होती है, उतनी ही शक्ति बढ़ती चली जाती है। बचाते तो वे अधिक दयावान् भगवान होते, किन्तु वीतराग होने के विद्युत् के बिना चेतना के केन्द्रों को सक्रिय नहीं किया जा पश्चात् मोह रूप दया नहीं होती, इसलिए वीतरागत्व में रहे, तथा सकता और चेतना के केन्द्रों को सक्रिय किए बिना कोई भी विशिष्टता 'लब्धि का प्रयोग न करने से' ऐसा जो कहा है, उसका अर्थ भी यही प्राप्त नहीं की जा सकती। है कि वीतराग होने के पश्चात् लब्धि का प्रयोग नहीं करते। इसका प्राण की ऊर्जा को संगृहीत करना और उस ऊर्जा का न्याय भी विचारना चाहिए। भगवान ने छद्मस्थावस्था में जो सरागआध्यात्मिकीकरण करना, यह अपेक्षित है। भाव से लब्धि का प्रयोग किया, उसमें धर्म कैसे कह सकते हैं?" ऊर्जा के ऊर्वीकरण के दो मुख्य साधन हैं : श्रीमज्जयाचार्य ने अनेक प्रमाणों से यह बताया है कि 'लब्धि का १. श्वास लेने की समुचित प्रक्रिया का अभ्यास। प्रयोग करना दोष है।' यह स्वयं केवलज्ञानी भगवान् द्वारा अनेक २. चित्त को लंबे समय तक एक बिन्दु पर टिकाए रखने का स्थानों पर प्रतिपादित है। तो फिर छद्मस्थ अवस्था में तीर्थंकर द्वारा अभ्यास। कृत इस कार्य को दोष-मुक्त कैसे कहा जा सकता है? २. अनुकंपा इसका तात्पर्य यह हुआ कि छद्मस्थ-अवस्था के कारण भगवान् प्रस्तुत सूत्र ६५ में प्रयुक्त 'अनुकंपा' शब्द की व्याख्या आचार्य महावीर ने गोशालक की जो अनुकंपा की थी, वह सावध थी तथा भिक्षु और श्रीमज्जयाचार्य ने बहुत विस्तार से अपनी रचनाओं में भगवान महावीर जब तीर्थंकर बन चुके थे, तब उनके सामने ही उनके की है। दो शिष्यों-सर्वानुभूति और सुनक्षत्र अणगार को जब गोशालक ने आचार्य भिक्षु ने प्रस्तुत प्रसंग की मीमांसा में लिखा है-महावीर तेजोलेश्या द्वारा भस्मसात् कर दिया था। फिर भी उस समय चूंकि स्वामी ने अनुकंपा करते हुए लब्धि फोड़कर गोशालक को बचाया। वे छद्मस्थ नहीं थे, उन्होंने शीतल लेश्या का प्रयोग कर अपने १. (क) अनुकंपा री चौपई, ढाल १, गाथा ८-१०; ढाल ६, गाथा १२। ३. भ, वृ. प. ६६५-इह च यद्गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन (ख) गोसाला री चौपई, ढाल १६, गाथा १५, १६॥ . दयैकरसत्वाद्भगवतः। २. (क) भ. जो. (शतक १५ पर रचित पद्य संख्या २४५ पर रचित वार्तिक तथा यच्च सुनक्षत्रमर्वानुभूतिमुनिपुङ्गवयोर्न करिष्यति तद्वीतरागत्वेन पद्य संख्या २४६), खण्ड ४, पृ. ३१७-३१८। लब्ध्यनुपजीवकत्वादवश्यंभाविभावत्वाद्वेत्यवसेयमिति। (ख) भ्रमविध्वंसनम्, अनुकंपाऽधिकार, बोल ४३वां, पृ. १७७-१७६ । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ६६ साधुओं की रक्षा नहीं की। इसके पीछे यही कारण था कि लब्धिका प्रयोग करना सावद्य कार्य है तथा तीर्थंकर कभी सावद्य कार्य नहीं करते। २७२ भगवई में भी उसे देखकर द्वेष भाव उभर आता है।" मित्र के साथ मित्रता और शत्रु के साथ शत्रुता चलती जाती है। ये दोनों राग-द्वेष के भाव हैं, ये धर्म नहीं है। * आचार्य भिक्षु ने इसे छद्मस्थ अवस्था की चूक माना है। इसे लेकर आचार्य भिक्षु की कटु आलोचनाएं हुई हैं। किन्तु यह आचार्य भिक्षु की व्याख्या को न समझने के कारण हुई है। वस्तुतः भगवान् महावीर से बढ़कर उनके लिए कोई आराध्य नहीं था। एक ओर उन्होंने कहा- मुझे भगवान् महावीर का ही आधार है, और किसी का नहीं। दूसरी ओर वे भगवान् महावीर की भी आलोचना करते हैं। भगवान् ने गोशालक को बचाने के लिए शीतल तेजोलेश्या नामक योगशक्ति का प्रयोग किया और वैश्यायन ऋषि गोशालक को उष्ण तेजोलेश्या से मार रहा था, उससे उसे उबार लिया। आचार्य भिक्षु की साध्य साधन की मीमांसा से यह कार्य आत्ममुक्ति का प्रमाणित नहीं होता। इसलिए उन्होंने कहा- 'इस प्रसंग में भगवान् की वीतरागसाधना में चूक हुई, क्योंकि शक्ति का प्रयोग शुद्ध साधन नहीं है।' भगवान महावीर द्वारा प्रस्तुत अनुकंपा (दया) के सिद्धांत को समझने के लिए जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांतों को समझना होगा। आचार्य भिक्षु ने इस दृष्टि से जो स्पष्टता की है, उसका पूर्वाग्रहरहित अनुशीलन अपेक्षित है। 'भिक्षु विचार-दर्शन'' में इस विषय में विस्तृत विश्लेषण किया गया है, जिसके कुछ अंश यहां उद्धृत हैं : सांसारिक उपकार और मोक्ष मार्ग की भिन्नता को स्पष्ट करते हुए आचार्य भिक्षु ने कहा- 'जो सांसारिक उपकार हैं, वे मोहवश किए जाते हैं। सांसारिक जीव उनकी प्रशंसा करते हैं, साधु उनकी सराहना नहीं करते। इन सांसारिक उपकारों में जिन धर्म का अंश भी नहीं है । जो इनमें धर्म बतलाते हैं, वे मूढ़ हैं।" यह धार्मिक तथ्य है; इसकी अभिव्यक्ति करते हुए उनकी अन्तरात्मा में कभी कंपन नहीं हुआ। सांसारिक उपकार में जो व्यावहारिक लाभ है उनकी उन्हें स्पष्ट अनुभूति थी । उसका उन्होंने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। जो व्यक्ति किसी जीव को मृत्यु से बचाता है, उसके साथ उसका स्नेह-बन्ध हो जाता है। इस जीवन में ही नहीं, किन्तु आगामी जन्म में भी उसे देखते ही स्नेह उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति किसी जीव को मारता है उसके साथ उसका द्वेष-बन्ध हो जाता है। पर जन्म १. भिक्षु विचार दर्शन' लेखक- आचार्य महाप्रज्ञ, प्र. जैन विश्व भारती, लाडनूं । २. अनुकंपा, ११1३८-३६ जितरा उपगार संसार तणां छे, जे जे करे ते मोह बस जांणों । साध तो त्यांनें कदे न सरावे, संसारी जीव तिणरा करसी बखांणों ।। संसार तणां उपगार कीयां में, जिण धर्म रो अंस नहीं छे लिगार । संसार तणां उपगार कीयां में, धर्म कहे ते तो मूढ गिंवार || ३. अनुकंपा, ११।४३ जीव नें जीवां बचावें तिण सूं, बन्ध जारों तिणरो राग सनेह । जो पर भव में ऊ आय मिले तो देखत पांण जागे तिण सूं नेह || ४. वही, ११।४४ जीव नें जीव मारे छें तिण सूं, बन्ध जानें तिण सूं धेष वशेख | ते पर भव में ऊ आय मिले तो, देखत पांण जागे तिण सूं धेष ॥ कोई अनुकंपावश किसी का सहयोग करता है और कोई किसी के कार्य में विघ्न डालता है। ये राग और द्वेष के मनोभाव हैं। इनकी परम्परा बहुत लम्बी होती है। आत्म-मुक्ति का सहयोग ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के द्वारा ही किया जा सकता है। " आचार्य भिक्षु की चिन्तन- दिशा स्वतंत्र नहीं थी । उनका चिन्तन जैनागमों की परिक्रमा किए चला, पर परिक्रमा का मार्ग उन्होंने विस्तृत बना दिया। उन्होंने कहा- जीवन और मृत्यु अपने आप में न काम्य है और न अकाम्य। ये परिवर्तन के अवश्यम्भावी चरण हैं। पहले चरण में प्राणी नये जीवन के लिए आता है और दूसरे में नये जीवन के लिए चला जाता है। पुद्गल की भूमिका में जीवन काम्य है और मृत्यु अकाम्य। आत्मा की भूमिका में जीवन और मृत्यु न काय है और न अकाय असंयममय जीवन और मृत्यु अकाम्य है, संयममय जीवन और मृत्यु काम्य है। निष्कर्ष की भाषा में असंयम अकाम्य है और संयम काम्य काम्य और अकाम्य सापेक्ष हैं। इनका निर्णय साध्य के आधार पर ही किया जा सकता है। आचार्य भिक्षु ने कहा- 'जीव जीता है, वह अहिंसा या दया नहीं है। कोई मरता है, वह हिंसा नहीं है। मारने की प्रवृत्ति हिंसा है और मारने की प्रवृत्ति का संयम करना अहिंसा है। " आचार्य भिक्षु की भाषा में संयम और धर्म अभिन्न हैं । जीवन और मृत्यु की इच्छा असंयम है, इसलिए वह अधर्म है। वह अहिंसा नहीं है, किन्तु मोह है। मोहात्मक प्रवृत्ति से जीवन की परम्परा का अन्त नहीं होता, किन्तु वह बढ़ती ही है। मोह-मूढ़ मानस का साध्य जीवन बन जाता है। जो जीवन को साध्य मानकर जीता है, वह पवित्रता या संयम को प्रधान नहीं मान सकता । संयम को प्रधानता वही दे सकता है जिसका साध्य जीवनमुक्ति हो । महावीर की चेतना गोशालक की रक्षा के प्रसंग के समय मोहाणुओं से अनावृत नहीं थी । सुनक्षत्र और सर्वानुभूति अणगार के प्रसंग में अनावृत चुकी थी। ५. अनुकंपा, ११।४५ मित्री सूं मित्रीपणों चलीयो जावे, वेरी सूं वेरीपणों चलीयो जावे । ओ तो राग धेष कर्मा रा चाला, ते श्री जिण धर्म माहें नहीं आवे ।। ६. वही, ११।४६, ५० कोई अणुकंपा आंणी घर मंडावे, कोई मंडता घर ने देवे भंगाय । ओ प्रतख राग ने धेष उघाड़ी, ते आगे लगा दोनूं चलीया जाय ॥ कहि कहि नें कितरोएक कहूं, संसार तणा उपगार अनेक । ग्यांन दरसण चारित नें तप बिनां, मोक्ष तणों उपगार नहीं छे एक ॥। ७. अणुकंपा, ५।११ जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हो हिंसा मत जांण । मारणवाला ने हिंसा कही नहीं मारे हो ते तो दया गुण खांण ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ भगवई श. १५ : सू. ६७,६८ मोहाणुओं और पदार्थों से प्रभावित व्यक्ति जो कार्य करते हैं क्षण में साध्य बन जाता है और वही उसके अगले चरण का साधन उनके लिए हम पूर्ण अहिंसा की कल्पना ही नहीं कर सकते। बन जाता है। पवित्रता ही साध्य है और वही साधन है। पूर्ण अहिंसक वही हो सकता है जो अपने को बाहरी वातावरण आचार्य भिक्षु ने कहा था-'शुद्ध साध्य का साधन अशुद्ध नहीं से सर्वथा अप्रभावित रख सके। बाहरी वातावरण से हमारा तात्पर्य हो सकता और शुद्ध साधन का साध्य अशुद्ध नहीं हो सकता। मोक्ष शक्ति, मोहाणु और पदार्थ से है। इनमें से किसी एक से भी प्रभावित साध्य है और उसका साधन है संयम। वह संयम के द्वारा ही प्राप्त आत्मा हिंसा से नहीं बच सकती। हो सकता है।' साध्य-साधन-संगति ___ दया उपादेय तत्त्व है। अहिंसा का पालन वही कर सकता है, शुद्ध साध्य के लिए साधन भी शुद्ध होने चाहिए। इस विचार जिसका मन दया से भीगा हआ हो। पर साधन की विकृति से दया को आचार्य भिक्षु की भाषा में जो अभिव्यक्ति मिली, वह उनसे पहले भी विकृत बन जाती है। नहीं मिली। आत्मवादी का साध्य है मोक्ष-आत्मा का पूर्ण विकास। उसके आध्यात्मिक जगत् का साध्य है आत्मा की पवित्रता और साधन हैं-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र।' अज्ञानी उसका साधन वही है। आत्मा की अपवित्रता कभी भी आत्मिक को ज्ञानी, मिथ्यादृष्टि को सम्यक्दृष्टि और असंयमी को संयमी पवित्रता का साधन नहीं बन सकती। पहले क्षण का साधन दूसरे बनाना साध्य के अनुकूल है। यह साध्य-साधन की संगति है। ६७. तए णं गोसाले मंखलिपुते मम एवं ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः माम् ६७. मंखलिपुत्र गोशाल ने इस प्रकार वयासी-किं णं भंते! एस एवमवादीत-किं भदन्त! एषः यूका- . कहा-भंते! इस जूओं के शय्यातर ने आपको जूयासिज्जायरए तुब्भे एवं वयासी-से शय्यातरकः युष्मान् एवमवादीत्-तद् इस प्रकार कैसे कहा-भगवन्! मैंने जान गतमेयं भगवं! गत-गतमेयं भगवं? गतमेतद् भगवन्! गत-गतमेतद् भगवन्! लिया, भगवन्! मैंने जान लिया? जान लिया? ६८. तए णं अहं गोयमा! गोसालं मखलि- ततः अहं गौतम! गौशालं मंखलिपुत्रम् ६८. गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस पुत्तं एवं बयासी-तुम णं गोसाला! एवमवादीत-त्वं गोशाल! वैश्यायनं प्रकार कहा-गोशाल! तुमने बाल तपस्वी वेसियायणं बालतवस्सि पाससि, पासित्ता बालतपस्विनं पश्यति, दृष्ट्वा मम वैश्यायन को देखा, देखकर मेरे पास से धीरेममं अंतियाओ सणियं-सणियं अन्तिकात् शनैः-शनैः प्रत्यवष्वष्कते धीरे पीछे सरक गए, जहां बाल तपस्वी पच्चोसक्कसि, जेणेव वेसियायणे बाल- यत्रैव वैश्यायनः बालतपस्वी तत्रैव वैश्यायन था, वहां आए, आकर बाल तपस्वी तवस्सी तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता उपागच्छति, उपागम्य वैश्यायनं बाल- वैश्यायन को इस प्रकार कहा-क्या तुम मुनि वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी-किं तपस्विनम् एवमवादीत्-किं भवान् हो, पिशाच हो अथवा जूओं के शय्यातर? भवं मुणी? मुणिए? उदाहु मुनिः? ज्ञातः? उताहु यूकाशय्यातरकः? बाल तपस्वी वैश्यायन ने तुम्हारे इस अर्थ को जूयासेज्जायरए? तए णं से वेसियायणे ततः सः वैश्यायनः बालतपस्वी तव आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, वह बालतवस्सी तव एयमद्वं नो आढाति, नो एतमर्थं नो आद्रियते, नो परिजानाति, मौन रहा। गोशाल! तुमने बाल तपस्वी परिजाणति, तुसिणीए संचिट्टइ। तए णं तूष्णीकः संतिष्ठते। ततः त्वं गोशाल! वैश्यायन को दूसरी बार भी, तीसरी बार भी तुमं गोसाला! वेसियायणं बालतवस्सि वैश्यायनं बालतपस्विनं द्विः अपि, त्रिः इस प्रकार कहा-क्या तुम मुनि हो? पिशाच दोच्चं पि तचं पि एवं वयासी-किं भवं अपि एवमावदीत्-किं भवान् मुनिः? हो? अथवा जूओं को शय्यातर? तुम्हारे मुणी? मुणिए? उदाहु जूयासेज्जायरए? ज्ञातः? उताहु यूकाशय्यातरकः? ततः दूसरी बार, तीसरी बार इस प्रकार कहने पर तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी तुमं सः वैश्यायन बालतपस्वी त्वया द्विः बाल तपस्वी वैश्यायन तत्काल आवेश में आ दोचं पि तचं पि एवं वृत्ते समाणे आसुरुत्ते अपि त्रिः अपि एवम् उक्ते सति आशुरक्तः गया यावत् पीछे सरका, सरक कर तुम्हारे जाव पच्चोसक्कति, पच्चोसक्कित्ता तव यावत् प्रत्यवष्वष्कते, प्रत्यवष्वष्क्य तव । वध के लिए शरीर से तेजोलेश्या को वहाए सरीरगंसि तेयलेस्स निसिरइ। तए वधाय शरीरके तेजोलेश्यां निसृजति। निकाला। गोशाल! मैंने तुम्हारी अनुकंपा के णं अहं गोसाला! तव अणुकंपणट्ठयाए ततः अहं गोशाल! तव अनुकम्पनार्थाय लिए बाल तपस्वी वैश्यायन की उष्ण वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स उसिण- वैश्यायनस्य बालतपस्विनः उष्णतेजः तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए, वह १. (क) तत्त्वार्थ, १/१ २. अणुकंपा, ४ ११६,२०सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । अग्यांनी रो ग्यांनी कीयां थकां, हुवो निश्चे पेला रो उधार हो। (ख) अणुकंपा, ४।१७ कीयो मिथ्याती रो समकती, तिण उतरीयो भव पार हो। ग्यांन दरसण चारित तप बिना, ओर मुगति रो नहीं उपाय हो। असंजती ने कीयो संजती, ते तो मोष तणां दलाल हो। छोडा मेला उपगार संसार नां, तिण थी सदगति किण विध जाय हो। तपसी कर पार पोहचावीयो, तिण मेट्या सर्व हवाल हो। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ६६,७२ तेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ णं अंतरा सीयलियं तेयलेस्सं निसिरामि, जाए सा ममं सीयलियाए तेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवसिस्स उसिणा तेयलेस्सा पडिहया । तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी ममं सीयलियाए तेयलेस्साए साउसिणं तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता तव यसरीरगस्स किंचि आबाहं वा बाबाहं वा छविच्छेदं वा अकीरमाणं पासित्ता साउसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरति, पडिसाहरित्ता ममं एवं वयासी-से गतमेयं भगवं! गत गतमेयं भगवं ! ६६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं अंतियाओ एयमहं सोचा निसम्म भीए तत्थे तसिए उब्विग्गे संजाय भए ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासीकहणणं भंते! संखित्तविउलतेयलेस्से भवति ? ७०. तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी - जेणं गोसाला एगाए सणहाए कुम्मासपिंडियाए एगेण य वियडासएणं छछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड बाहाओ पगिज्झियपगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहर। से णं अंतो छण्हं मासाणं संखित्तविउलतेयलेस्से भवइ ॥ ७१. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एयमहं सम्मं विणएणं पडिसुणेति ॥ तिलथंभय-निष्पत्तीए गोसालस्स अवक्कमण-पदं ७२. तए णं अहं गोयमा ! अण्णदा कदायि गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं कुम्मगामाओ नगराओ सिद्धत्थग्गामं नगरं संपट्टिए विहाराए । जाहे य मो तं देसं हव्वमागया जत्थ णं से तिल भए । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवं वयासी - तुग्भे णं भंते । तदा ममं एवमाइक्खह जाव परूवेह - गोसाला ! एस णं तिलथंभए निष्फज्जिस्सइ, नो न २७४ प्रतिसंहरणार्थाय अत्र अन्तरा शीतलिकां तेजोलश्यां निसृजामि, यया सा मम शीतलिकया तेजोलेश्यया वैश्यायनस्य बालतपस्विनः उष्णा तेजोलेश्या प्रतिहता । ततः सः वैश्यायनः बालतपस्वी मम शीतलिकया तेजोलेश्यया स्वकोष्णां तेजोलेश्यां प्रतिहतां ज्ञात्वा तव च शरीरकस्य किञ्चित् अबाधां वा व्याबाधां वा छविच्छेदं अक्रियमाणं दृष्ट्वा स्वकोष्णां तेजोलेश्यां प्रतिसंहरति, प्रतिसंहृत्य माम् एवमवादीत्-तद् गतमेतद् भगवन्! गतगतमेतद् भगवन् ! ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः मम अन्तिकात् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य भीतः त्रस्तः तृषितः उद्विग्नः संजातभयः मां वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् कथं भदन्त ! संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः भवति । ततः अहं गौतम ! गोशालं मंखलिपुत्रं एवमवादीत् - यः गोशालः । एकया सनखया कूर्मासपिण्डिकया एकेन च विकटाशयेन षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा उर्ध्वं बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखः आतापनभूम्याम् आतापयन् विहरति । सः अन्तः षण्णां मासानां संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः भवति । ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः मम एतमर्थं सम्यक् विनयेन प्रतिशृणोति । गोशालकस्य तिलस्तम्भक- निष्पत्त्या अपक्रमण-पदम् ततः अहं गौतम ! अन्यदा कदाचित् गोशालेन मंखलिपुत्रेण सार्धं कूर्मग्रामात् नगरात् सिद्धार्थग्रामं नगरं सम्प्रस्थितः विहाराय । यदा च आवां तं देशं हव्वं आगच्छावः यत्र सः तिलस्तम्भकः । ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः माम् एवमवादीत् - यूयं भदन्त ! तदा माम् एवमाख्यात यावत् प्ररूपयत - गोशाल ! एषः तिलस्तम्भकः निष्पत्स्यते, नो न भगवई तुम्हारे शरीर तक पहुंचे, उससे पूर्व शीतल तेजोलेश्या को निकाला। मेरी शीतल तेजोलेश्या से बाल तपस्वी वैश्यायन की उष्ण तेजोलेश्या प्रतिहत हो गई। बाल तपस्वी वैश्यायन ने मेरी शीतल तेजोलेश्या के द्वारा अपनी उष्ण तेजोलेश्या को प्रतिहत जानकर, तुम्हारे शरीर में किञ्चित् आबाध, व्याबाध अथवा छविच्छेद न करते हुए देखकर अपनी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण किया, प्रतिसंहरण कर मुझे इस प्रकार कहा- भगवन्! मैंने जान लिया, भगवन्! मैंने जान लिया जान लिया। ६६. मंखलिपुत्र गोशाल मेरे पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर भीत और प्रकम्पित हो गया, उसके कंठ प्यास से सूख गये। वह उद्विग्न और भय से व्याकुल हो गया। उसने मुझे वंदन - नमस्कार किया, वंदन- नमस्कार कर इस प्रकार कहा - भगवन् ! संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाला कैसे होता है? ७०. गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा- गोशाल! एक मुट्ठीभर कुल्माष पिण्डिका खाता है, एक चुल्लु पानी पीता है, निरंतर बेले बेले की तपस्या करता है, आतापन-भूमि में सूर्य के सामने दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर आतापना लेता है, वह छह मास के अंतराल में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाला हो जाता है। ७१. मंखलिपुत्र गोशाल ने मेरे इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया । तिल के पौधे की निष्पत्ति: गोशाल का अपक्रमण पद ७२. गौतम! मैं एक दिन मंखलिपुत्र गोशाल के साथ कूर्मग्राम नगर से सिद्धार्थग्राम नगर की ओर विहार के लिए प्रस्थित हुआ। हम उस भू-भाग के निकट आये, जहां वह तिल का पौधा था। मंखलिपुत्र गोशाल ने मुझे इस प्रकार कहा - भंते! आपने तब मुझे ऐसा कहा था यावत् प्ररूपणा की थी- गोशाल ! यह तिल का पौधा निष्पन्न होगा; निष्पन्न नहीं होगा, ऐसा नहीं है। ये सात तिल फूलों के जीव मर Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। भगवई २७५ निष्फज्जिस्सइ। एते य सत्त तिल- निष्पत्स्यते। एते च सप्त तिलपुष्पजीवाः पुष्फजीवा उदाइत्ता-उद्दाइत्ता एयस्स चेव उद्धृत्य-उद्वत्य एतस्य चैव तिल- तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगलियाए सत्त । स्तंम्भकस्य एकस्यां तिल 'संगलियाए' तिला पञ्चायाइस्संति, तण्णं मिच्छा। इमं सप्त तिलाः प्रत्याजनिष्यन्ते, तत् मिथ्या। च णं पञ्चवमेव दीसइ-एस णं से इदं च प्रत्यक्षमेव दृश्यते-एषः सः तिलथंभए नो निष्फन्ने, अनिष्फन्नमेव। तिलस्तम्भकः नो निष्पन्नः, अनिष्पन्नः ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उदाइत्ता-उद्दा- एव। ते सप्त तिलपुष्पजीवाः उद्धृत्य- इत्ता नो एयस्सं चेव तिलथंभगस्स एगाए उद्रुत्य नो एतस्य चैव तिलस्तम्भकस्य तिलसंगलियाए सत्त तिला पच्चायाया॥ एकस्यां तिल-'संगलियाए' सप्त तिलाः प्रत्याजाताः। श. १५ : सू. ७३ कर इसी तिल के पौधे की एक तिलफली में . सात तिल के रूप में उपपन्न होंगे, वह मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है-वह तिल का पौधा निष्पन्न नहीं हुआ, अनिष्पन्न ही है। वे सात तिल फूलों के जीव मरकर इस तिल के पौधे की एक तिलफली में सात तिल के रूप में उपपन्न नहीं हुए हैं। ७३. तए णं अहं गोयमा! गोसालं ततः अहं गौतम! गोशालं मंखलिपुत्रम् ७३. गौतम! मैंने मंखलिपुत्र गोशाल से इस मंखलिपुत्तं एवं बयासी-तुमं णं एवमवादीत्-त्वं गोशाल! तदा मम प्रकार कहा-गोशाल! उस समय तुमने मेरे गोसाला! तदा ममं एवमाइक्खमाणस्स एवमाख्यातः यावत् प्ररूपयतः एतमर्थं आख्यान एवं प्ररूपण करने पर इस अर्थ पर जाव परूवेमाणस्स एयमद्वं नो सद्दहसि, नो श्रद्दधसे, नो प्रत्येषि, नो रोचसे श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं नो पत्तियसि, नो रोएसि, एयमढे एतमर्थम् अश्रद्दधानः अप्रतियन्, की। इस अर्थ पर अश्रद्धा करते हुए, अप्रतीति असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे, अरोचमानः मां प्रणिधाय 'अयं करते हुए, अरुचि करते हुए मुझे संकल्पित ममं पणिहाए 'अयण्णं मिच्छावादी भवउ' मिथ्यावादी भवतु' इति कृत्वा मम कर 'यह मिथ्यावादी हो'-ऐसा सोच कर तुम त्ति कट्ट ममं अंतियाओ सणियं-सणियं अन्तिकात शनैः-शनैः प्रत्यवष्वष्कते, मेरे पास से शनैः-शनैः पीछे सरक गए, सरक पच्चोसक्कसि, पच्चोसक्कित्ता जेणेव से प्रत्यवष्वष्क्य यत्रैव सः तिलस्तम्भकं कर जहां तिल का पौधा था, वहां गए, जाकर तिलथंभए तेणेव उवागच्छसि, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तं तिल के पौधे को जड़ की मिट्टी सहित उवागच्छित्ता तं तिलथंभगं सलेट्टयायं तिलस्तम्भकं सलेष्टुकं चैव उखाड़ा, उखाड़ कर एकांत में फेंक दिया। चेव उप्पाडेसि, उप्पाडेत्ता एगतमंते उत्पाटयति, उत्पाट्य एकान्ते एडसि।। गोशाल! उसी समय आकाश में दिव्य बादल एडेसि। तक्खणमेत्तं गोसाला! दिव्वे तत्क्षणमात्रं गोशाल! दिव्यः घुमड़ने लगा। वह दिव्य बादल शीघ्र ही जोरअन्भवद्दलए पाउन्भूए । तए णं से दिव्वे । अभ्रबार्दलकः प्रादुर्भूतः । ततः सः दिव्यः जोर से गरजने लगा, शीघ्र ही बिजली अब्भवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाति, अभ्रबार्दलकः क्षिप्रमेव प्रतनतनायति चमकने लगी। शीघ्र ही वर्षा शुरू हो गई। न खिपामेव पविज्जुयाति, खिप्पामेव क्षिप्रमेव विद्योतते, क्षिप्रमेव नात्युदकं अधिक पानी बहा, न अधिक कीचड़ हुआ। नच्चोदगं णातिमट्टियं पविरलपफुसियं नातिमृत्तिकां प्रविरलपृषत्कं रजःरेणु- रजों और धूलिकणों को जमाने वाली दिव्य रयरेणुविणासणं दिव्वं सलिलोदगं वासं विनाशनं दिव्यं सलिलोदकं वर्षां बूंदाबांदी हुई। उससे तिल के पौधे का रोपण वासति, जेण से तिलथंभए आसत्थे वर्षति, येन सः तिल-स्तम्भकः हुआ। वह अंकुरित हुआ, बद्धमूल हुआ और पच्चायाते बद्धमूले तत्थेव पतिहिए। तेय आश्वस्तः प्रत्याजातः बद्धमूलः, तत्रैव . वहीं पर प्रतिष्ठित हो गया। वे सात तिल फूलों सत्त तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता प्रतिष्ठितः। ते च सप्त तिलपुष्पजीवाः के जीव मर कर उसी तिल के पौधे की एक तस्स चेव तिलथंभगस्स एगाए उद्रुत्य-उद्रदुत्य तस्य चैव तिल- तिलफली में सात तिलों के रूप में उपपन्न तिलसंगलियाए सत्त तिला पचायाया। तं स्तम्भकस्य एकस्यां तिल-'संगलियाए' हुए। इसलिए गोशाल! यह तिल का पौधा एस णं गोसाला! से तिलथंभए निष्फन्ने, सप्त तिलाः प्रत्याजाताः। तत् एषः । निष्पन्न हुआ है, अनिष्पन्न नहीं हुआ। ये सात नो अनिष्फन्नमेव। ते य सत्त गोशाल! सः तिलस्तम्भक: निष्पन्नः, तिल फूलों के जीव मर कर इस तिल के पौधे तिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता एयस्स नो अनिष्पन्नः एव। ते च सप्त तिल- की एक तिलफली में सात तिलों के रूप में चेव तिलथंभयस्स एगाए तिल- पुष्पजीवाः उद्रुय-उद्रदुत्य एतस्य चैव उपपन्न हुए हैं। गोशाल! इस प्रकार वनस्पतिसंगलियाए सत्त तिला पञ्चायाया। एवं तिलस्तम्भकस्य एकस्यां तिल- कायिक जीवों का 'पउट्ट परिहार'' होता खलु गोसाला! वणस्सइकाइया __'संगलियाए' सप्त तिलाः प्रत्याजाताः। है-वनस्पतिकायिक जीव मर कर पुनः उसी पउट्टपरिहारं परिहरंति॥ एवं खलु गौतम! वनस्पतिकायिकाः शरीर में उपपन्न हो जाते हैं। 'पउट्टे परिहारं' परिहरन्ति। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ७४-७६ २७६ भगवई भाष्य सूत्र ७२-७३ बहत ही व्यवस्थित रूप में मिलता है। प्रस्तुत आगम में 'पोट्ट१.पउट्ट परिहार परिहार' की चर्चा दो संदर्भो में हैं___ अभयदेवसूरी ने 'पउट्ट परिहार' का अर्थ इस प्रकार किया है- १. वनस्पतिकायिक जीव का उसी वनस्पतिकायिक शरीर में वनस्पतिकाय का एक ही जीव पुनः पुनः मरकर उसी शरीर में उत्पन्न पुनः उत्पन्न होना। . हो सकता है। यह वनस्पतिकायिक परिवर्तवाद है।' २. गोशालक के अनुसार उसका स्वयं का जीव सोलह वर्षों आवश्यक चूर्णि के अनुसार वनस्पति में पउट्ट परिहार होता है। में पोट्ट-परिहार द्वारा सात बार पुनर्जन्म कर अंत में 'गौतम पुत्र वनस्पति का जीव मरकर पुनः उसी शरीर में पैदा हो जाता है, यह है अर्जुन' के रूप में उत्पन्न होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पउट्ट परिहार। गोशालक ने इस सिद्धान्त के आधार पर पउट्ट परिहार गोशालक के मतानुसार मनुष्य भी पोट्ट-परिहार कर सकता है। के सिद्धान्त को सब जीवों पर लागू किया और नियतिवाद के सिद्धान्त 'पोट्ट-परिहार' का यह सिद्धांत अनेक दृष्टियों से चर्चनीय की स्थापना की। है। विशेषतः 'पुनर्जन्मवाद' के संदर्भ में चल रहे आधुनिक पोट्ट-परिहार (पउट्ट परिहार) का सिद्धांत अनुसंधान कार्य द्वारा कुछ ऐसे घटना-प्रसंग सामने आए हैं जिनमें पुनर्जन्मवाद के अंतर्गत कौन-सा जीव अगले जन्म में कहां एक व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसी मृत शरीर में अन्य व्यक्ति का जन्म ले सकता है ? आदि विषयों की विस्तृत मीमांसा की गई है। जीव उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार की घटनाओं की सुसंगत एक गति से अन्य गति, एक लिंग से अन्य लिंग, एक 'काय' से अन्य व्याख्या अपेक्षित है।' 'काय' आदि में पुनर्जन्म के कुछ नियमों का ब्यौरा जैन आगमों में ७४. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः मम ७४. मंखलिपुत्र गोशाल ने मेरे इस प्रकार मम एवमाइक्खमाणस्स जाव परूवेमा- एवमाख्यतः यावत् प्ररूपयतः एतमर्थं आख्यान यावत् प्ररूपण करने पर इस अर्थ णस्स एयमद्वं नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो नो श्रद्दधते नो प्रत्येति, नो रोचते, पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि रोएइ, एयमé असदहमाणे अपत्तियमाणे एतमर्थम् अश्रद्दधानः अप्रतियन् नहीं की, इस अर्थ पर अश्रद्धा, अप्रतीति अरोएमाणे जेणेव से तिलथंभए तेणेव अरोचमानः यत्रैव सः तिलस्तम्भकः । और अरुचि करता हुआ जहां तिल का पौधा उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताओ तिल- तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तस्मात् था, वहां आया, आकर उस तिल के पौधे से थंभयाओ तं तिलसंगलियं खुड्डइ, तिल-स्तम्भात् तां तिलसंगलियं तिल की फली को तोड़ा, तोड़कर हाथ में खुडित्ता करयलंसि सत्त तिले पप्फोडेइ॥ "खुड्डुइ', 'खुड्डित्ता' करतले सप्त सात तिलों का प्रस्फोटन किया। तिलान् प्रस्फोटयति। ७५. तए णं तस्स गोसालस्स मंस्खलि- ततः तस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य पत्तस्स ते सत्त तिले गणमाणस्स तान् सप्त तिलान् गणयतः अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था एवं खलु प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादिसव्वजीवा वि पउट्टपरिहारं परिहरंति- एवं खलु सर्वे जीवाः अपि 'पउट्ट'एस णं गोयमा! गोसालस्स मखलि- परिहारं' परिहरन्ति-एषः गौतम! पत्तस्स पउट्टे', एस णं गोयमा! गोसा- गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य 'पउट्टे' एषः लस्स मंखलिपुत्तस्स ममं अंतियाओ गौतम! गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य मम आयाए अवक्कमणे पण्णत्ते॥ अन्तिकात् आदाय अपक्रमणं प्रज्ञप्तम्। ७५. उन सात तिलों की गणना करते हुए मंखलिपुत्र गोशाल के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-इसी प्रकार सब जीवों के पोट्ट-परिहार होता है-गौतम! यह मंखलिपुत्र गोशाल का 'पउट्ट' का सिद्धान्त है। गौतम! यह मंखलिपुत्र गोशाल का मेरे पास से स्वयं अपक्रमण हो गया। गोसालस्स तेयलेस्सप्पत्ति-पदं गोशालस्य तजोलेश्योत्पत्ति-पदम् गोशाल के तेजोलेश्या का उत्पत्ति-पद ७६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते एगाए ततः सः गोशालः मंखलिपत्रः एकया ७६. मंखलिपत्र गोशाल एक मद्री भर कल्माष सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य सनखया कूर्मासपिण्डिकया एकेन च पिण्डिका और एक चुल्लु भर पानी पीता है, वियडासएणं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं विकटाशयेन षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन निरन्तर बेले बेले की तपस्या करता है, १. भ. वृ. १५/७३-मृत्वा मृत्वा यस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहार:- ३. जैन दर्शन और विज्ञान, पृ. १०५ (Dr. lan Stevenson, Twenty परिभोगस्तत्रैवोत्पादोऽसौ परिवृत्यपरिहारस्तं परिहरन्ति-कुर्वन्तीत्यर्थः । Cases Suggestive of Re-incarnation में वर्णित घटना की समीक्षा)। २. आव. चू. पृ. २६६-"ते एवं वणप्फइईण पउट्टपरिहारो, पउटपरिहारो नाम ४. जैन दर्शन और विज्ञान, पृ. १०६, १०७। परावर्त्य परावर्त्य तस्मिन्नेव सरीरके उववज्जति तं।" Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २७७ श. १५ : सू. ७७ तबोकम्मेणं उई बाहाओ पगिज्झिय- तपः-कर्मणा उर्ध्वं बाह प्रगृह्य-प्रगृह्य पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए सूराभिमुखः आतापनभूम्याम् आतापयन् आयावेमाणे विहरइ। तए णं से गोसाले विहरति। ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः मंखलिपुत्ते अंतो छण्हं मासाणं अन्तः षण्णां मासानां संक्षिप्त-विपुल- संखित्तविउलतेयलेसे जाए॥ तेजोलेश्यः जातः। आतापन भूमि में सूर्य के सामने दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर आतापना लेता है। मंखलिपुत्र गोशाल छह माह के अंतराल में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाला हो गया। गोसालस्स पुचकहा-उवसंहार-पदं गोशालस्य पूर्वकथा-उपसंहार-पदम् गोशाल की पूर्व कथा का उपसंहार-पद ७७. तए णं तस्स गोसालस्स मखलि- ततः तस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य ७७. 'मंखलिपुत्र गोशाल के पास एक दिन ये पुत्तस्स अण्णदा कदायि इमे छ दिसाचरा अन्यदा कदाचित् इमे षट् दिक्चराः छह दिशाचर' प्रकट हुए, जैसे-शान, कलंद, अंतियं पाउभवित्था, तं जहा-साणे, अन्तिकं प्रादुरभूवन् तद्यथा-सानः, कर्णिकार, अच्छिद, अग्नि-वैश्यायन और कलदे, कणियारे, अच्छिदे, अग्गि- कलन्दः, कर्णिकारः, अच्छिदः, अग्नि- अर्जुन गोमायुपुत्र । उन दिशाचरों ने अष्टविध वेसायणे, अज्जुणे, गोमायुपुत्ते। तए णं तं वैश्यायनः, अर्जुनः गोमायुपुत्रः । ततः ते महानिमित्त का पूर्वगत के दसवें अंग से" छ दिसाचरा अट्टविहं पुञ्चगयं मग्गदसमं षट् दिक्चराः अष्टविधं पूर्वगतं अपने-अपने मति दर्शन से नि!हण किया। सरहिं-सएहिं मतिदसणेहिं निज्जूहंति, मार्गदशमं स्वकैः स्वकैः मतिदर्शनैः । निर्वृहण कर मंखलिपुत्र गोशाल के सामने निज्जूहित्ता गोसालं मखलिपुत्तं निप॒थयन्ति, नियूर्थयित्वा गोशालं उपस्थित किया। उस अष्टांग महानिमित्त के उवट्ठाइंसु। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते मंखलिपुत्रम् उपास्थुः । (उवट्ठाइंसु) सामान्य अध्ययन मात्र से सब प्राणी, सब तेणं अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तेन भूत, सब जीव और सब सत्त्वों के लिए इन उल्लोयमेत्तेणं सब्वेसिं पाणाणं, सब्वेसि अष्टांगस्य महानिमित्तस्य केनचित् छह अनतिक्रमणीय व्याकरणों का व्याकरण भूयाणं, सब्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं उल्लोकमात्रेण सर्वेषां प्राणानाम्, किया, जैसेसत्ताणं इमाई छ अणइक्कमणिज्जाइं वा- सर्वेषां भूतानाम्, सर्वेषां जीवानाम्, गरणाई वागरेति, तं जहा सर्वेषां सत्वानाम् इमानि षट् अनतिक्रमणीयानि व्याकरणानि व्याकरोति, तद्यथालाभं अलाभं सुहं दुक्ख, लाभम् अलाभम् सुखं दुःखं, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन तथा जीवियं मरणं तहा। जीवितं मरणं तथा। मरण। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते णं ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तेन मंखलिपुत्र गोशाल अष्टांग महानिमित्त अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ अष्टांगस्य महानिमित्तस्य केनचित् के सामान्य अध्ययनमात्र से श्रावस्ती नगर में उल्लोयमेत्तेणं सावत्थीए नगरीए अजिणे उल्लोकमात्रेण श्रावस्त्यां नगर्याम् अजिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् न होकर जिणप्पलावी, अणरहा अरहप्पलावी, अजिनः जिनप्रलापी, अनर्हत् अर्हत्- अर्हत् प्रलापी, केवली न होकर केवली. अकेवली केवलिप्पलावी, असवण्णू प्रलापी, अकेवली केवलीप्रलापी, प्रलापी, सर्वज्ञ न होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन सवण्णुप्पलावी, अजिणे जिणसद्ध असर्वज्ञः सर्वज्ञप्रलापी, अजिनः जिन- न होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित पगासेमाणे विहरइ, तं नो खलु गोयमा! शब्दं प्रकाशयन् विहरति, तत् नो खलु करता हुआ विहरण करने लगा। इसलिए गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी, गौतम! गोशालः मंखलिपुत्रः जिनः गौतम! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिनअरहा अरहप्पलावी, केवली केवलि-प्प- जिनप्रलापी, अर्हत् अर्हत्प्रलापी प्रलापी नहीं है, अर्हत् होकर अर्हत्-प्रलापी लावी, सव्वण्णू सव्वण्णुष्पलावी, जिणे केवली केवलिप्रलापी, सर्वज्ञः सर्वज्ञ- नहीं है, केवली होकर केवली-प्रलापी नहीं है, जिणसई पगासेमाणे विहरइ, गोसाले णं प्रलापी, जिनः जिन-शब्दं प्रकाशयन् सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी नहीं है। अजिन मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी, विहरति, गोशालः मंखलिपुत्रः अजिनः होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित अणरहा अरहप्पलावी, अकेवली जिनप्रलापी, अनर्हत् अर्हत्प्रलापी, करता हुआ विहार कर रहा है। मंखलिपुत्र केवलिप्पलावी, असव्वण्णू सव्वण्णुप्पला- अकेवली केवलिप्रलापी, असर्वज्ञः गोशाल अजिन होकर जिन-प्रलापी है, अर्हत् वी, अजिणे जिणसई पासेमाणे विहरई॥ सर्वज्ञप्रलापी, अजिनः जिनशब्द न होकर अर्हत्-प्रलापी है, केवली न होकर प्रकाशयन् विहरति। केवली-प्रलापी है, सर्वज्ञ न होकर सर्वज्ञप्रलापी है, जिन न होकर जिन शब्द से अपने ' आपको प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ७७ १. सूत्र ७७ प्रस्तुत शतक के सूत्र ३ से ७ को यहां (प्रस्तुत सूत्र ७७ में) पुनः लगभग ज्यों का त्यों दोहराया गया है। लगता है 'दिशाचर' वाली घटना जो सूत्र में आ गई थी, उसका अनुसंधान करने के लिए इसे फिर दोहराया गया है। सूत्र ८ से सूत्र १३ में श्रावस्ती में भगवान् महावीर के आगमन तथा श्रावस्ती नगर में फैल रहे संवाद कि 'मंखलिपुत्र गोशालक जिन प्रलापी........होकर अपने आपको 'जिन' शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है, क्या यह ऐसा ही है ?' इस पर गौतम गणधर द्वारा महावीर को प्रश्न पूछना तथा उसके उत्तर में गोशालक के वृत्त को बतलाने का प्रारंभ करना-यहां तक का विषय है। सूत्र १४ से ७५ तक गोशालक का पूरा वृत्तान्त है, जिसमें गोशालक के जन्म, भगवान् महावीर के साथ गोशालक के प्रथम मिलन से लेकर उसके अलग होने तक की घटनाएं वर्णित हैं। सूत्र ७६ में अलग होने के बाद गोशालक द्वारा तेजोलेश्या प्राप्ति की घटना दी गई है। अगले सूत्र (सूत्र ७८) में परिषद् भगवान् के मुख से गोशालक के पूरे वृत्त को सुन कर संतुष्ट होने तथा विसर्जित होने की बात है। सूत्र महावीर | दीक्षा का तीसरा वर्ष | दीक्षा का दसवां वर्ष दीक्षा का ग्यारहवां वर्ष | दीक्षा के बारहवें से पच्चीसवें वर्ष के बीच तेरहवें वर्ष में जिनत्व-प्राप्ति दीक्षा के छब्बीसवें वर्ष में श्रावस्ती आगमन, नगरवासियों के | गोशालक के विषय में चर्चा - गोशालक का पूर्व वृत्त प्रकट करना। महावीर के समवशरण में गोशालक द्वारा तेजोलेश्या का प्रयोग-महावीर हत होने पर छह मास तक रुग्ण । | श्रावस्ती की घटना के सोलह वर्ष पश्चात् दीक्षा के तयालीसवें वर्ष | में निर्वाण-प्राप्ति २. दिशाचर २७८ भाष्य ७६ से पुनः श्रावस्ती में इसकी प्रतिक्रिया तथा आगे का घटना - वृत्त प्रारंभ होता है। अभयदेवसूरि ने दिशाचर का अर्थ 'मर्यादा को मानने वाला' शिष्य किया है। उन्होंने टीकाकार और चूर्णिकार का मत उद्धृत किया है। टीकाकार के अनुसार दिशाचर भगवान् के पार्श्वस्थीभूत शिष्य हैं। चूर्णिकार के अनुसार वे पार्श्वपत्यीय पार्श्व की परंपरा के मुनि हैं।' ३. अष्टांग निमित्त अष्टांग निमित्तों के आठ प्रकार हैं- १. दिव्य २. उत्पात १. भ. १५/२ वृत्ति-दिशं - मेरां चरन्ति - यान्ति मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्याः इति दिक्चराः देशाटावा, दिक्चराः भगवच्छिश्याः पार्श्वस्थीभूताः इति टीकाकारः, पासावचिजा त्ति चूर्णिकारः । २. भ. १५ / ४ : वृत्ति - अष्टविधम्-अष्टं प्रकारं निमित्तमिति शेषः तच्चेदं दिव्यं, औत्पातं, आंतरिक्षं, भौमं, आंगं, स्वरं, लक्षणं, व्यंजनं चेति । इस समग्र वृत्त से यद्यपि यह स्पष्ट नहीं होता कि महावीर से अलग होने के पश्चात् गोशालक को छह दिशाचर कब मिलते हैं तथा कब से वह अपने आपको 'जिन' घोषित करता है, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि श्रावस्ती में अपने २६ वें वर्षावास में भगवान महावीर के आगमन के समय गोशालक का श्रमण पर्याय का चौबीसवां वर्ष चल रहा था (क्योंकि गोशालक ने महावीर के साधना काल के तीसरे वर्ष के प्रारंभ में महावीर के शिष्यत्व को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की थी।); चौबीस वर्ष की पर्याय से पूर्व ही दिशाचरों का मिलन एवं गोशालक द्वारा अपने आपको 'जिन' बताने की घोषणा - ये दोनों घटनाएं हो चुकी थीं। यह तो स्पष्ट है कि गोशाल ने अपने श्रमण-पर्याय के नवें वर्ष में तेजोलेश्या की प्राप्ति की थी। दिशाचरों से मिलन एवं 'जिनत्व' की घोषणा की घटनाएं दश से लेकर तेईस वर्ष के पर्याय काल में हुई ऐसा माना जा सकता है। इन आधारों पर महावीर और गोशालक का तुलनात्मक जीवन-प्रसंगों को इस प्रकार रखा जा सकता है गोशालक दीक्षा का प्रथम वर्ष दीक्षा का आठवां वर्ष - महावीर से अलग हुआ। भगवई दीक्षा का नवां वर्ष-तेजोलेश्या की प्राप्ति दीक्षा के दसवें से तेईसवें वर्ष के बीच दिशाचरों से मिलन एवं जिनत्व की घोषणा दीक्षा के चौबीसवें वर्ष में श्रावस्ती प्रवास के दौरान जनता में 'जिन' होने के विषय में चर्चा अपने वृत्त को जनता में प्रसारित होने पर क्रुद्ध होकर महावीर के पास जाना-अपनी ही तेजोलेश्या से प्रतिहत होकर सात दिन बाद अपने श्रमण- पर्याय के चौबीसवें वर्ष में ही मृत्यु गोशालक की मृत्यु के बाद सत्रहवें वर्ष में महावीर का निर्वाण ३. आंतरिक्ष ४. भौम ५. अंग ६. स्वर ७ लक्षण ८. व्यञ्जन ।' पूर्वगत- दृष्टिवाद का एक अंग, जिसके अंतर्गत चौदह पूर्व होते हैं। ४. मग्गदसमं वृत्तिकार ने गति-मार्ग और नृत्य मार्ग इन दो मार्गों की संभावना की है। उनके अनुसार नवम शब्द यहां लुप्त है इसलिए व्याख्यागत पाठ 'नवम - दसमौ' - इस प्रकार होना चाहिए। * ३. भ. १५ / ४ : वृत्ति - पूर्वगतं पूर्वाभिधान श्रुतविशेषमध्यगतम् । ४. भ. १५ / ४ वृत्ति-गीतमार्गनृत्यमार्ग- लक्षणो सम्भाव्येते, 'दसम' त्ति अत्र नवमशब्दस्य लुप्तस्य दर्शितान्नवमदशमाविति दृश्यं, ततश्च मार्गो नवमदशमौ यत्र तत्तथा । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ७८. तए णं सा महतिमहालया महच्चपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म हहतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, दत्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया ॥ गोसालस्स अमरिस- पदं ७६. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-तिग- चउक्क चच्चर- चउम्मुह- महापहपसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइ - क्खइ जाव परूवेइ-जण्णं देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणे जिणस पगासेमाणे विहरइ तं मिच्छा । समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खड़ जाव परूवेइ-एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखली नामं मंखे पिता होत्था । तए णं तस्स मंखस्स एवं चैव तं सव्वं भाणियव्वं जाव अजिणे जिणसद्दं पगासेमाणे विहरइ, तं नो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरड़, गोसाले मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिस पगासेमाणे विहर ।। ८०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमहं सोचा निसम्म आसुरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पचोरुहित्ता सावत्थि नगरिं मज्झमज्झेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभकारी कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे एवं चावि विहरइ ॥ गोसालस्स आणंदथेरसमक्खे अक्कोसपदंसण-पदं ८१. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे २७६ ततः सा महामहती महार्घ्यपरिषद् श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूता तस्यामेव दिशि प्रतिगता । गोशालस्य अमर्ष-पदम् ततः श्रावस्त्यां नगर्यां श्रृंगाटक- त्रिकचतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख-महापथ- पथेषु बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-यत् देवानुप्रिया ! गोशालः मंखलिपुत्रः जिनः जिनप्रलापी यावत् जिनः जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति तत् मिथ्या । श्रमणः भगवान् महावीरः एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति- एवं खलु तस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य मंखली नाम मंखः पिता आसीत् । तस्य मंखस्य एवं चैव तत् सर्वं भणितव्यं यावत् अजिनः जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति, तत् नो खलु गोशालः मंखलिपुत्रः जिनः जिनप्रलापी यावत् विहरति, गौशालः मंखलिपुत्रः अजिनः जिनप्रलापी यावत् विहरति, श्रमणः भगवान् महावीरः जिनः जिनप्रलापी यावत् जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति । ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः बहुजनस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य आशुरक्तः, रुष्टः कुपितः ‘चंडिक्किए’ 'मिसिमिसेमाणे' आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य श्रावस्तिं नगरीं मध्यमध्येन यत्रैव हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारापणः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारापणे आजीविकसंघपरिवृतः महान्तम् अमर्षं वहमानः एवं चापि विहरति । गोशालस्य आनन्दस्थविरसमक्षे आक्रोशप्रदर्शन-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य महावीरस्य अन्तेवासी भगवतः श. १५ : सू. ७८-८१ ७८. वह विशालतम परिषद् श्रमण भगवान् महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गई। श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर जिस दिशा से आई थी उसी दिशा में लौट गई। गोशाल का अमर्प - पद ७६. श्रावस्ती नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करते हैं - देवानुप्रिय ! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन प्रलापी, यावत् जिन होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है, वह मिथ्या है। श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करते हैं - मंखलिपुत्र गोशाल के पिता का नाम मंखली था। उसकी जाति मं थी। मंख की पूर्ववत सर्ववक्तव्यता यावत् जिन न होकर जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। इसलिए मंखलिपुत्र गोशाल जिन न होकर जिन प्रलापी है यावत् विहार कर रहा है। मंखलिपुत्र गोशाल अजिन होकर जिन प्रलापी है, यावत् विहार कर रहा है। श्रमण भगवान महावीर जिन होकर जिनप्रलापी हैं, यावत् जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करते हुए विहार कर रहे हैं। ५०. मंखलिपुत्र गोशाल बहुजन के पास इस अर्थ को सुन कर अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो गया, क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर आतापन भूमि से नीचे उतरा, नीचे उतरकर श्रावस्ती नगर के बीचोंबीच जहां हालाहला कुंभकारी का कुंभकारापण था, वहां आया, आकर हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में आजीविक संघ से संपरिवृत ' होकर महान् अमर्ष का भार ढोता हुआ विहरण करने लगा । गोशाल का स्थविर आनंद के समक्ष आक्रोश का प्रदर्शन-पद ८१. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर का अंतेवासी आनन्द नाम का Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ८२-८६ २८० नाम थेरे पगइभदए जाव विणीए । आनन्दः नाम स्थविरः प्रकृतिभद्रक: छटुंछट्टेणं अणिक्वित्तेणं तवोकम्मेणं यावत् विनीतः षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे तपःकर्मणा संयमेन तपसा आत्मानं विहरइ॥ भावयन् विहरति। भगवई स्थविर प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। वह निरंतर बेले-बेले तपःकर्म के द्वारा संयम और तपस्या से अपने आपको भावित करता हुआ विहार कर रहा है। ८२. तए णं से आणंदे थेरे छट्ठक्ख- ततः सः आनन्दः स्थविरः षष्ठक्षपण- मणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा पारणके प्रथमायां पौरुष्याम् एवं यथा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, तहेब जाव गौतमस्वामी तथैव आपृच्छति, तथैव उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमु- यावत् उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि दाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारा- अदूरसामंते वीइवयइ॥ पणस्य अदूरसामन्ते व्यतिव्रजति। ८२. आनंद स्थविर ने बेले के पारण में प्रथम गोरिसी में इस प्रकार जैसे गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से पूछा, वैसे ही यावत् उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमता हुआ हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से न अति दूर और न अति निकट जा रहा था। ८१.तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकरावणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासइ, पासित्ता एवं क्यासी-एहि ताव आणंदा! इओ एगं महं उवमियं निसामेहि। ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः आनन्दं ___ ८३. मंखलिपुत्र गोशाल ने आनंद स्थविर को स्थविरं हालाहलायाः कुम्भकार्याः हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से न कुम्भकारापणस्य अदूरसामन्तात् अति दूर और न अति निकट जाते हुए देखा, व्यतिव्रजन्तं पश्यति, दृष्ट्वा देखकर इस प्रकार कहा-आनंद! तुम इधर एवमवादीत्-एहि तावत् आनन्द! इतः आओ, एक बड़ी उपमा को सुनो। एकं महान्तम् उपमितं निशाम्य। ८४. तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं ततः सः आनन्दः स्थविरः गोशालेन ४. स्थविर आनन्द मंखलिपुत्र गोशाल के इस मंखलिपुत्तेणं एवं बुत्ते समाणे जेणेव मंखलिपुत्रेणं एवम् उक्ते सति यत्रैव प्रकार कहने पर जहां हालाहला कुंभकारी के हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, हालाहलायाःकुम्भकार्याः कुम्भकारापणः । कुंभकारापण था, जहां मंखलिपुत्र गोशाल जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव यत्रैव गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव था, वहां आया। उवागच्छइ॥ उपागच्छति। ६५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः आनन्द- ८५. मंखलिपुत्र गोशाल ने आनन्द स्थविर से आणंदं थेरं एवं बयासी- एवं खलु स्थविरम् एवमवादीत्-एवं खलु आनन्द! इस प्रकार कहा-आनन्द! चिर अतीत काल आणंदा! इत्तो चिरातीयाए अद्धाए केइ इतः चिरातीते अध्वनि केचिद उच्चावचाः में कुछ उच्च तथा निम्न, धनार्थी, अर्थ-लुब्ध, उच्चावया वणिया अत्थत्थी अत्थलुद्धा वणिजः अर्थिनः अर्थलुब्धाः अर्थ- अर्थ-गवेषी, अर्थ-कांक्षी, अर्थ-पिपासु वणिक अत्थगवेसी अत्थकंखिया अत्यपिवासा गवेषिणः अर्थकांक्षिताः अर्थपिपासाः अर्थ की गवेषणा के लिए नाना प्रकार के अत्थ-गवेसणयाए नाणाविहविउलपणिय- __ अर्थगवेषणायै नानाविधविपुलपण्य- विपुल पण्य' के भांड लेकर गाड़ी-गाड़ों में भंडमायाए सगडीसागडेणं सुबह भत्त- भाण्डम् आदाय शकटीशाकटेन सुबहु बहुत पथ्य भक्तपान लेकर एक विशाल पाणं पत्थयणं गहाय एगं महं अगामियं भक्तपानं पथ्यदनं गृहीत्वा एकां महतीं बस्ती-शून्य, जल-रहित, आवागमन-रहित अणोहियं छिन्नावायं दीहमद्धं अडविं अग्रामिकाम् अनौधिकां छिन्नापातां प्रलंब मार्ग वाली अटवी में अनुप्रविष्ट हो गए। अणुप्पविट्ठा॥ दीर्घध्वानम् अटवीम् अनुप्रविष्टाः । भाष्य १.पण्य सू. ५६ का भाष्य द्रष्टव्य है। २६. तए णं तेसिं वणियाणं तीसे ततः तेषां वणिजां तस्याम् अग्रामि-८६. उन वणिकों के उस विशाल बस्ती-शून्य, अगामियाए अणोहियाए छिन्नावायाए कायाम् अनौधिकायां छिन्नापातायां जल-रहित, आवागमन-रहित प्रलंबदीहमद्धाए अडवीए किंचि देसं दीर्घाध्वनि अटव्यां किञ्चित् देशम् मार्गवाली अटवी में कुछ दूर जाने पर पहले अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुबगहिए उदए अनुप्राप्तानां सतां तद् पूर्वगृहीतम् लिया हुआ जो जल था, वह बार-बार पीते Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २८१ अणुपुल्वेणं परिभुज्जमाणे-परिभुज्जमाणे उदकम् अनुपूर्वेण परिभुञ्जमानं- झीणे॥ परिभुञ्जमानं क्षीणम्। श. १५ : सू. ८७,८८ पीते समाप्त हो गया। ८७. तए णं ते वणिया झीणोदगा समाणा ततः ते वणिजः क्षीणोदकाः सन्तः ८७. जल के समाप्त होने पर, प्यास के प्रारम्भ तण्हाए परब्भमाणा अण्णमण्णे सद्दावेंति, तृष्णया प्रारभमाणाः अन्योन्यान् होने पर वणिकों ने एक-दूसरे को बुलाया, सदावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवादीत्- बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! हम इस देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे अगामियाए । एवं खलु देवानुप्रियाः! अस्माकम् विशाल बस्ती-शून्य, जल-रहित, आवागमनअणोहियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए अस्याम् अग्रामिकायाम् अनौधिकायाम् रहित प्रलंब मार्ग वाली अटवी में हैं। कुछ दूर अडवीए किंचि देसं अणुपत्ताणं छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि अटव्यां जाने पर पहले लिया हुआ जो जल था, वह समाणाणं से पुल्वगहिए उदए अणुपुल्वेणं किञ्चित् देशम् अनुप्राप्तानां सतां तद् बार-बार पीते पीते समाप्त हो गया। परिभुज्जमाणे-परिभुज्जमाणे झीणे, तं पूर्वगृहीतम् उदकम् अनुपूर्वेण देवानुप्रियो! हमारे लिए यह श्रेय है कि हम सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे परिभुञ्जमानं-परिभुञ्जमानं क्षीणम् इस विशाल बस्ती-शून्य यावत् अटवी में चारों अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स तत् श्रेयः खलु देवानुप्रियाः! अस्माकम् ओर जल की मार्गणा-गवेषणा करें। इस सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेत्तए । अस्याम् अग्रामिकायां यावत् अटव्याम् प्रकार एक दूसरों के पास इस अर्थ को त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अंतिए एयम8 उदकस्य सर्वतः समन्तात् मार्गण- स्वीकार किया, स्वीकार कर उस विशाल पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तीसे णं गवेषणां कर्तुम् इति कृत्वा अन्योन्यस्य बस्ती शून्य यावत् अटवी में चारों ओर जल अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स अन्तिके एतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति, की मार्गणा-गवेषणा करते हुए एक विशाल सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेंति, प्रतिश्रुत्य तस्याम् अग्रामिकायां यावत् वनषंड को प्राप्त किया-कृष्ण, कृष्ण अवभास उदगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं अटव्याम् उदकस्य सर्वतः समन्तात् वाला, यावत् काली कजरारी घटा से समान करेमाणा एगं महं वणसंडं मार्गण-गवेषणां कुर्वन्ति, उदकस्य चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, आसादेंति-किण्हं किण्होभासं जाव सर्वतः समन्तात् मार्गण-गवेषणां कमनीय और रमणीय। महामेहनिकुरंबभूयं पासादीयं दरिस- कुर्वन्तः एवं महान्तं वनषण्डम् णिज्जं अभिरूवं पडिरूवं। आसादयन्ति-कृष्णं कृष्णभा (किण्होभासं) यावत् महत् मेघनिकुरम्बभूतं प्रासादिकं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपं। तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए, तस्य वनषण्डस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र उस वनषंड के बहु मध्य देश भाग में एक बड़ा एत्थ णं महेग वम्मीयं आसादेति। तस्स महान्तम् एकं वल्मीकम् आसादयन्ति। वल्मीक (बांबी) मिला। उस वल्मीक (बांबी) णं वम्मीयस्स चत्तारि वापूओ तस्य वल्मीकस्य वपूंसि चत्वारि के चार ऊंचे और जटा-शटा वाले शिखर थे; अब्भुग्गयाओ, अभिनिसढाओ, तिरियं अभ्युद्गतानि अभिनिस्सटानि वे मध्य भाग में स्वल्प विस्तार वाले थे, निम्न सुसंपम्गहियाओ, अहे पन्नगद्धरूवाओ, (अभिनिसढाओ), तिर्यक् सुसम्प्रगृही- भाग में वे सर्प के अर्द्ध रूप वाले, अर्द्ध पन्नगद्धसंठाणसंठियाओ, पासादियाओ तानि, अधःपन्नगार्द्धसंस्थान- सर्पाकार संस्थान से संस्थित, चित्त को प्रसन्न दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ संस्थितानि, प्रासादिकानि दर्शनीयानि करने वाले, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय पडिरूवाओ॥ अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि। ८८. तए णं ते वणिया हद्वतुहा अण्णमण्णं ततः ते वणिजः हृष्ट-तुष्टाः अन्योन्यं ५५. वणिकों ने हृष्ट-तुष्ट होकर एक दूसरे को सदावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवादिषुः- बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहादेवाणुप्पिया! अम्हे इमीसे अगामियाए एवं खलु देवानुप्रियाः! अस्माभिः देवानुप्रियो! हमने इस विशाल बस्ती-शून्य, अणोहियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए अस्याम् अग्रामिकायाम् अनौधिकायां जल-रहित, आवागभन-रहित प्रलंब मार्ग अडवीए उदगस्स सब्बओ समंता मग्गण- छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि अटव्याम् वाली अटवी में जल के चारों ओर मार्गणागवेसणं करेमाणेहिं इमे वणसंडे उदकस्य सर्वतः समन्तात् मार्गण- गवेषणा करते हुए इस वनषंड को प्राप्त आसादिए-किण्हे किण्होभासे। इमस्स गवषणां कुर्वद्भिः अयं वनषण्डः किया-कृष्ण, कृष्ण अवभास वाला। इस णं वणसंडस्स बहमज्झदेसभाए इमे आसादितः-कृष्णः कृष्णभाः (किण्हो- वनषंड के बहुमध्यदेश भाग में इस वल्मीक वम्मीए आसादिए। इमस्स णं वम्मीयस्स भासे) अस्य वनषण्डस्य बहुमध्य- को प्राप्त किया। इस वल्मीक के चार ऊंचे Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ८६,६० २८२ चत्तारि वप्पूओ अब्भुग्गयाओ, अभिनिसढाओ, तिरियं सुसंपग्गहियाओ, अस्य वल्मीकस्य चत्वारि वपूंसि अहे पन्नगद्धरूवाओ, पन्नगद्धसंटाण- अभ्युद्गतानि अभिनिस्सटानि (अभिसंठियाओ, पासादियाओ दरिस- निसढाओ), तिर्यक् सुसम्प्रगृहीतानि, णिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ तं अधः पन्नगार्द्धरूपाणि, पन्नगार्द्धसेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स संस्थानसंस्थितानि,प्रासादिकानि वम्मीयस्स पढमं वपु भिदित्तए, अवियाई दर्शनीयानि, अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि ओरालं उदगरयणं अस्सादेस्सामो॥ तत् श्रेयः खलु देवानुप्रियाः! अस्माकम् अस्य वल्मीकस्य प्रथमं वपुःभेत्तुम, अपि च 'ओरालं' उदकरत्नम् आसादयिष्यामः। भगवई और जटा-शटा वाले शिखर हैं, वे मध्य भाग में स्वल्प विस्तार वाले, निम्न भाग में सर्प के अर्द्ध रूप वाले, अर्द्ध सर्पाकार संस्थान से संस्थित, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय हैं, इसलिए देवानुप्रिय! हमारे लिए यह श्रेय है कि हम इस वल्मीक के प्रथम शिखर का भेदन करें। इससे हम प्रधान जल-रत्न को प्राप्त करेंगे। १.तए णं ते वणिया अण्णमण्णस अंतियं ततः ते वणिजः अन्योन्यस्य अन्तिकम् एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तस्स एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य तस्य वम्मीयस्स पढमं वपुं भिंदति। ते णं तत्थ वल्मीकस्य प्रथमं वपुः भिन्दन्ति। ते अच्छं पत्थं जचं तणुयं फालियवण्णाभं तत्र अच्छं पथ्यं जात्यं तनुकं ओरालं उदगरयणं आसादेति। तए णं ते स्फटिकवर्णाभं 'ओरालं' उदकरत्नम् वणिया हद्वतुट्ठा पाणियं पिबंति, पिबित्ता आसादयन्ति। ततः ते वणिजः हृष्टवाहणाई पज्जेंति, पज्जेत्ता भायणाई। तुष्टाः पानीयं पिबन्ति। पीत्वा वाहनानि भरेंति, भरेत्ता दोच्चं पि अण्णमण्णं एवं पाययन्ति, पाययित्वा भाजनानि वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हेहिं भरन्ति, भृत्वा द्विः अपि अन्योन्यम् इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पूए भिन्नाए एवमवादिषुः-एवं खलु देवानुप्रियाः! ओराले उदगरयणे अस्सादिए, तं सेयं अस्माभिः अस्य वल्मीकस्य प्रथमस्य खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स वपुषः भिन्नात् 'ओराले' उदकरत्नम् वम्मीयस्स दोच्चं पि वपुं भिंदित्तए, आसादितम्, तत् श्रेयः खलु अवियाई एत्य ओरालं सुवण्णरयणं देवानुप्रियाः! अस्माकम् अस्य अस्मादेस्सामो॥ वल्मीकस्य द्वितीयम् अपि वपुः भेत्तुम्, अपि च अत्र 'ओराले' सुवर्णरत्नम् आसादयिष्यामः। ८६. वणिकों ने एक दूसरे के पास इस अर्थ को स्वीकार किया, स्वीकार कर उस वल्मीक के प्रथम शिखर का भेदन किया। उन्होंने वहां स्वच्छ, पथ्य, जात्य, हल्का और स्फटिक वर्ण की आभा वाले प्रधान जल-रत्न को प्राप्त किया। उन वणिकों ने हृष्ट-तुष्ट होकर जल को पीया, पीकर बैलों को पिलाया, पिलाकर जल पात्रों को जल से भरा, भरकर दूसरी बार एक दूसरे से इस प्रकार कहादेवानुप्रियो! हमने इस वल्मीक के प्रथम शिखर को भेदकर प्रधान जल-रत्न प्राप्त किया, इसलिए देवानुप्रियो! हमारे लिये यह श्रेय है कि हम इस वल्मीक के दूसरे शिखर का भेदन कर वहां प्रधान स्वर्ण-रत्न प्राप्त करेंगे। १०. तए णं ते वणिया अण्णमण्णस्स ततः ते वणिजः अन्योन्यस्य अन्तिकम् अंतियं एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता एतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य तस्य तस्स वम्मीयस्स दोचं पि वप्पुं भिंदंति। ते वल्मीकस्य द्वितीयम् अपि वपुः णं तत्थ अच्छं जचं तावणिज्जं महत्यं भिन्दन्ति। ते तत्र अच्छं जात्यं तापनीयं महग्यं महरिहं ओरालं सुवण्णरयणं महार्थं महाऱ्या महार्हम् 'ओरालं' अस्सादेति। तए णं ते वणिया हट्ठा __सुवर्ण-रत्नम् आसादयन्ति। ततः ते भायणाई भरेंति, भरेत्ता पवहणाई भरेंति, वणिजः हृष्टतुष्टाः भाजनानि भरन्ति, भरेत्ता तचं पि अण्णमण्णं एवं भृत्वा प्रवाहनानि भरन्ति, भृत्वा त्रिः वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे अपि अन्योन्यम् एवमवादिषुः-एवं खलु इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पूए भिन्नाए देवानुप्रियाः! अस्माभिः अस्य वल्मीकस्य ओराले उदगरयणे अस्सादिए, दोच्चाए प्रथमस्य वपुषः भिन्नात् 'ओराले' वापूए भिन्नाए ओराले सुवण्णस्यणे उदकरत्नम् आस्वादितम् द्वितीयस्य अस्सादिए, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! वपुषः भिन्नात् 'ओराले' सुवर्णरत्नम् अम्हं इमस्स वम्मीयस्स तचं पि वपुं आसादितम्, तत् श्रेयः खलु देवानुप्रियाः। १०. वणिकों ने एक दूसरे के पास इस अर्थ को स्वीकार किया, स्वीकार कर उस वल्मीक के दूसरे शिखर का भेदन किया। वहां स्वच्छ, जात्य, ताप को सहन करने वाला, महान् अर्थ वाला, महान मूल्य वाला, महान अर्हता वाला और प्रधान स्वर्ण-रत्न प्राप्त किया। वणिकों ने हृष्ट-तुष्ट होकर पात्रों को भरा, भरकर वाहनों को भरा, भरकर तीसरी बार भी एक दूसरे से इस प्रकार कहादेवानुप्रियो! हमने इस वल्मीक के पहले शिखर का भेदन कर प्रधान जल-रत्न को प्राप्त किया। दूसरे शिखर का भेदन कर प्रधान स्वर्ण-रत्न को प्राप्त किया। इसलिए देवानुप्रियो! हमारे लिए श्रेय हैं कि हम इस Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २८३ श. १५ : सू.६१-६३ ओरालं । भिंदित्तए, अवियाई एत्थं मणिरयणं अस्सादेस्सामो॥ अस्माकम् अस्य वल्मीकस्य तृतीयम् अपि वपुः भेत्तुम् अपि च अत्र 'ओरालं' मणिरत्नम् आसादयिष्यामः। वल्मीक के तीसरे शिखर का भी भेदन करें। यहां हम प्रधान मणिरत्न प्राप्त करेंगे। ११. तए णं ते वणिया अण्णमण्णस्स ततः ते वणिजः अन्योन्यस्य अन्तिकम् ६१. वणिकों ने एक दूसरे के पास इस अर्थ को अंतियं एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता एतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य तस्य स्वीकार किया, स्वीकार कर उस वल्मीक के तस्स वम्मीयस्स तचं पि वपुं भिदंति। ते वल्मीकस्य तृतीयम् अपि वपुः तीसरे शिखर का भेदन किया, वहां विमल, णं तत्य विमलं निम्मलं नित्तलं निक्कलं भिन्दन्ति। ते तत्र विमलं निर्मलं निर्मल, निस्तल (गोलाकर), दूषण-रहित, महत्थं महग्यं महरिहं ओरालं मणिरयणं । निस्तलं (नित्तलं) निष्कलं (निक्कलं) महान् अर्थ वाला, महान् मूल्य वाला, महान् अस्सादेति। तए णं ते वणिया हट्टतुट्ठा महार्थं महाऱ्या महाहँ 'ओरालं' अर्हता वाला और प्रधान मणि-रत्न प्राप्त भायणाई भरेंति, भरेत्ता पवहणाई भरेंति, मणिरत्नम् आसादयन्ति। किया। वणिकों ने हृष्ट-तुष्ट होकर भाजनों भरेत्ता चउत्थं पि अण्णमण्णं एवं ततः ते वणिजः हृष्टतुष्टाः भाजनानि को भरा, वाहनों को भरा, भर कर चौथी वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे भरन्ति, भृत्वा प्रवाहनानि भरन्ति, भृत्वा • बार भी एक दूसरे से इस प्रकार इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वापूए भिन्नाए चतुः अपि अन्योन्यम् एवमवादिषुः-एवं कहा-देवानुप्रियो! हमने इस वल्मीक के पहले ओराले उदगरयणे अस्सादिए, दोच्चाए खलु देवानुप्रियाः! अस्माभिः अस्य शिखर का भेदन कर प्रधान जल-रल को वप्पूए भिन्नाए ओराले सुवण्णरयणे वल्मीकस्य प्रथमस्य वपुषः भिन्नात् प्राप्त किया। दूसरे शिखर का भेदन कर अस्सादिए, तच्चाए वप्पूए भिन्नाए ओरा- 'ओराले' उदकरत्नम् आसादितम् प्रधान स्वर्ण-रत्न को प्राप्त किया, तीसरे ले मणिरयणे अस्मादिए, तं सेयं खलु द्वितीयस्य वपुषः भिन्नात् 'ओराले' शिखर का भेदन कर प्रधान मणि-रत्न को देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स बम्मीयस्स सुवर्णरत्नम् आसादितम्, तृतीयस्य प्राप्त किया। इसलिए देवानुप्रियो! हमारे लिए चउत्थं पि वपु भिंदित्तए, अवियाई उत्तमं वपुषः भिन्नात् 'ओराले' मणिरत्नम् श्रेय है कि हम इस वल्मीक के चौथे शिखर महग्धं महरिहं ओरालं वइररयणं आसादितम्, तत् श्रेयः खलु का भी भेदन करें, उत्तम महान् मूल्य वाला, अस्सादेस्सामो॥ देवानुप्रियाः! अस्माकम् अस्य वल्मीकस्य महान् अर्हता वाला और प्रधान वज्र-रत्न प्राप्त चतुर्थम् अपि वपुः भेत्तुम, अपि च होगा। उत्तमं महायं महाहँ 'ओरालं' वजरत्नम् आसादयिष्यामः। १२. तए ण तेसिं वणियाणं एगे वणिए ततः तेषां वणिजाम् एकः वणिक् हित- १२. उन वणिकों में एक वणिक हित की हियकामए सुहकामए पत्थकामए आणु- कामकः सुखकामकः पथ्यकामकः कामना करने वाला, शुभ की कामना करने कंपिए निस्सेसिए हिय-सुह-निस्सेस- आनुकम्पिकः नैःश्रेयसिक (निस्सेसिए) वाला,पथ्य की कामना करने वाला अनुकंपा कामए ते वणिए एवं बयासी-एवं खलु हित-सुख-निःश्रेयस्कामकः (निस्सेस- करने वाला, निःश्रेयस करने वाला, हित, देवाणुप्पिया! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स कामक:) तान् वणिजः एवमवादिषु- शुभ, और निःश्रेयस की कामना करने वाला पढमाए वप्पूए भिन्नाए ओराले उदगरयणे एवं खलु देवानुप्रियाः! अस्माभिः अस्य था। उस वणिक ने इस प्रकार कहाअस्सादिए, दोचाए बप्पए भिन्नाए ओराले वल्मीकस्य प्रथमस्य वपुषः भिन्नात् देवानुप्रियो! हमने इस वल्मीक के पहले सुवण्णरयणे अस्सादिए, तचाए वापूए 'ओराले' उदकरत्नम् आसादितम् शिखर का भेदन कर प्रधान जल-रत्न प्राप्त भिन्नाए ओराले मणिरयणे अस्सादिए, तं द्वितीयस्य वपुषः भिन्नात् 'ओराले' किया, दूसरे शिखर का भेदन कर प्रधान होउ अलाहि पज्जत्तं णे, एसा चउत्थी सुवर्णरत्नम् आसादितम्, तृतीयस्य स्वर्ण-रत्न प्राप्त किया, तीसरे शिखर का वप्पू मा भिज्जउ, चउत्थी णं वप्पू वपुषः भिन्नात् 'ओराले' मणिरत्नम् भेदन कर प्रधान मणि-रत्न प्राप्त किया, बस सउवसग्गा यावि होत्था॥ आसादितम्, तत् भवतु अलं हमारे लिए पर्याप्त है, इस चौथे शिखर का (अलाहि) पर्याप्तम् अस्माकम् एतद् भेदन मत करो। चौथा शिखर उपसर्गचतुर्थं वपुः मा भिन्द्यताम्, चतुर्थं वपुः सहित है। सोपसर्गं चापि भवेत् (होत्था-अभूत) १३. तए णं ते वणिया तस्स वणियस्स हियकामगस्स सुहकामगस पत्थका- ततः ते वणिजः तस्य हितकामकस्य १३. हित की कामना करने वाले, शुभ की सुखकामकस्य पथ्यकामकस्य कामना करने वाले, पथ्य की कामना करने Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ६४-६६ २८४ भगवई मगस्स आणूकंपियस्स निस्सेसियस्स आनुकम्पिकस्य नैःश्रेयसिकस्य हिय-सुह-निस्सेसकामगस्स एवमा- (निस्सेसियस्स) हित-सुख-निःश्रेय- इक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमह स्यस्कामकस्य एवम् आख्यतः यावत् नो सहति, 'नो पत्तियति नो रोयंति, प्ररूपयतः एतमर्थं नो श्रद्दधते, नो एयमढे असदहमाणा अपत्तिय-माणा प्रतियन्ति, नो रोचन्ते, एतमर्थम् अरोएमाणा तस्स वम्मीयस्स चउत्थं पि अश्रद्दधानाः अप्रतियन्तः अरोचमानाः वप्पं भिंदंति। ते णं तत्थ उग्गविसं तस्य वल्मीकस्य चतुर्थम् अपि वपुः चंडविसं घोरविसं महाविसं अतिकायं भिन्दन्ति। ते तत्र उग्रविषं चण्डविषं महाकायं मसिमूसाकालगं घोरविषं महाविषं अतिकायं महाकायं नयणविसरोसपुण्णं अंजणपुंज-निगरप्प- मषीमूषाकालकं नयनविषरोषपूर्णम् गासं रत्तच्छं जमलजुयल-चंचल- अञ्जनपुञ्जनिकरप्रकाशं रक्ताक्षं चलंतजीहं धरणितलवेणिभूयं उक्कड- यमलयुगलचञ्चलचलतजिह्व धरणितलफुड-कुडिल - जडुल - कक्खड - विकड- वेणीभूतम् उत्कट-स्फुट-कुटिलफडाडोव-करणदच्छं लोहागर-धम्ममाण- जटिल - कक्खट - विकट-स्फटाटोपधमधमेतघोसं अणागलिय-चंडतिव्वरोसं करणदक्षं लोहाकर-ध्मायमाणसमुहं तुरियं चवलं धमतं दिट्ठीविसं सप्पं धमधमायमानघोषम् अनाकलितसंघटेति॥ चण्डतीव्ररोषं श्वमुखं त्वरितं चपलं धमन्तं दृष्टिविषं सर्प संघट्टन्ति। वाले, अनुकंपा करने वाले, निःश्रेयस करने वाले, हित, शुभ और निःश्रेयस की कामना करने वाले उस वणिक के इस प्रकार आख्यान करने पर यावत् प्ररूपण करने पर उन वणिकों ने इस अर्थ पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की। इस अर्थ पर अश्रद्धा करते हुए, अप्रतीति करते हुए, अरुचि करते हुए, उस वल्मीक के चौथे शिखर का भेदन किया। वहां उग्र विष, प्रचण्ड विष, घोर विष और महाविष वाले, स्थूल काय, महाकाय, स्याही और मूषा के समान काले, चपल एवं चलती हुई द्विजिह्वा वाले, पृथ्वी-तल पर वेणी के सदृश, उत्कट, स्फुट, कुटिल, जटिल, कर्कश एवं विकट फटाटोप करने में दक्ष, लुहार की धौंकनी के सदृश धमधम (सूं तूं) घोष करने वाले, अनाकलित प्रचण्ड तीव्र रोष वाले, श्वान की भांति मुंह वाले त्वरित, चपल, दृष्टिविष सर्प का स्पर्श हुआ। ६४. तए णं से दिट्ठीविसे सप्पे तेहिं वणिएहिं ततः सः दृष्टिविषः सर्पः तैः वणिग्भिः६४. वह दृष्टिविष सर्प उन वणिकों का स्पर्श संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते रुठे कविए संघट्टिते सति आशुरक्तः रुष्टः कुपितः होते ही तत्काल आवेश में आ गया। वह रुष्ट चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे सणियं- ___ 'चंडिक्किए' 'मिसिमिसेमाणे' शनैः- हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र, सणियं उढेइ, उठेत्ता सरसरसरस्स शनैः उत्तिष्ठति, उत्थाय सरसरसरस्य क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर वह धीरे-धीरे वम्मीयस्स सिहरतलं द्रुहति, दुहित्ता वल्मीकस्य शिखरतलम् आरोहति, उठा, उठ कर सर सर करता हुआ वल्मीक के आदिचं निज्झाति, निज्झाइत्ता ते वणिए आरुह्य आदित्यं निध्यायति, निध्याय शिखर-तल पर चढा, चढकर सूर्य को एकटक अणिमिसाए दिट्ठीए सवओ समंता तान वणिजः अनिमिषया दृष्ट्या देखा, देख कर अनिमेष दृष्टि से चारों ओर समभिलोएति॥ सर्वतः समन्तात् समभिलोकते। उन वणिकों को देखा। ६५. तए णं ते वणिया तेणं दिट्ठीविसेणं ततः ते वणिजः तेन दृष्टिविषेण सर्पण सप्पेणं अणिमिसाए दिट्ठीए सव्वओ अनिमिषया दृष्ट्या सर्वतः समन्तात् समंता समभिलोइया समाणा खिप्पामेव समभिलोकिताः सन्तः क्षिप्रमेव सभंडमत्तोबगरणमायाए एगाहचं कूडाहचं स्वभाण्डामात्रोपकरणम् आदाय भासरासी कया यावि होत्था। तत्थ णं जे एगाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिः कृता से वणिए तेसिं वणियाणं हियकामए चापि अभूः । तत्र यः सः वणिक् तेषां सुहकामए पत्थकामए आणुकंपिए वणिजां हितकामक: सुखकामकः निस्सेसिए हियसुहनिस्सेसकामए से णं पथ्यकामकः आनुकम्पिकः नैःश्रेयसिकः आणुकंपियाए देवयाए सभंडमत्तोवगरण- हित-सुख-निःश्रेयस्कामकः सः मायाए नियगं नगरं साहिए॥ आनुकंपिकया देवतया स्वभाण्डामात्रोपकरणम् आदाय निजकं नगरं साधितः। ६५. उस दृष्टिविष सर्प द्वारा अनिमेष दृष्टि से चारों ओर देखे जाने पर वे वणिक शीघ्र ही अपने भांड-अमत्र-उपकरण-सहित एक ही प्रहार में कूटाघात की भांति राख के ढेर जैसे हो गए। उन वणिकों की हित की कामना करने वाले, शुभ की कामना करने वाले, पथ्य की कामना करने वाले, अनुकंपा करने वाले, निःश्रेयस करने वाले, हित, शुभ और निःश्रेयस की कामना करने वाले उस वणिक को अनुकंपा करने वाले देव ने अपने भांडअमत्र-उपकरण-सहित अपने नगर में पहंचा दिया। १६. एवामेव आणंदा! तव वि धम्मायरिएणं एवमेव आनन्द! तवापि धर्माचार्येण धम्मोवएसएणं समणेणं नायपुत्तेणं ओरा- धर्मोपदेशकेन श्रमणेन ज्ञातपुत्रेण ले परियाए अस्सादिए, ओराला कित्ति- 'ओराले' पर्यायः आसादितः, ९६. आनन्द! इसी प्रकार तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक ज्ञातपुत्र श्रमण ने प्रधान पर्याय प्राप्त किया, प्रधान कीर्ति, वर्ण, शब्द, श्लोक Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २८५ वण्ण-सद्ध-सिलोगा सदेवमणुया-सुरे लोए 'ओराला' कीर्ति-वर्ण-शब्द-श्लोकाः पुव्वंति, गुब्वंति, थुव्वंति–इति खलु सदेवमनुजासुरे लोके प्लवन्ते, गुप्यन्ति, समणे भगवं महावीरे, इति खलु समणे स्तूयन्ते-इति खलु श्रमणः भगवान् भगवं महावीरे। तं जदि मे से अज्ज महावीरः, इति खलु श्रमणः भगवान् किंचि वि वदति तो णं तवेणं तेएणं एगा- महावीरः। तत् यदि मम सः अद्य हच्चं कूडाहचं भासरासिं करेमि, जहा वा किंचिद् अपि वदति तदा तं तपसा वालेणं ते वणिया। तुमं च णं आणंदा! तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं सारक्खामि संगोवामि जहा वा से वणिए करोमि, यथा वा व्यालेन ते वणिजः। तेसिं वणियाणं हियकामए जाव त्वां च आनन्द! संरक्षामि संगोपयामि निस्सेसकामए आणुकंपियाए देवयाए यथा वा सः वणिक् तेषां वणिजां। सभंडमत्तोवगरणमायाए नियगं नगर हितकामकः यावत् निःश्रेयस्कामकः साहिए। तं गच्छ णं तुमं आणंदा! तव आनुकम्पिकया देवतया स्वभाण्डाधम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणस्स मात्रोपकरणम् आदाय निजकं नगरं नायपुत्तस्स एयमझु परिकहेहि॥ साधितः। तत् गच्छ त्वम् आनन्द! तव धर्माचार्यस्य धर्मोपदेशकस्य श्रमणस्य ज्ञातपुत्रस्य एतमर्थं परिकथय। श. १५ : सू. ६७ प्रसारित हो रहे हैं, गूंज रहे हैं, स्तुति का विषय बने हुए हैं-ये श्रमण भगवान महावीर! श्रमण भगवान् महावीर! इसलिए यदि आज से वे मुझे कुछ कहते हैं तो उन्हें तपः-तेज से एक ही प्रहार में कूटाघात की भांति मैं उसी प्रकार राख का ढेर कर दूंगा, जैसे उस सर्प के द्वारा ये वणिक। आनंद! मैं तुम्हारा संरक्षण और संगोपन करूंगा, जैसे उन वणिकों की हित कामना करने वाला यावत् निःश्रेयस की कामना करने वाले उस वणिक को अनुकंपा करने वाले ने भांड-अमत्रउपकरण-सहित अपने नगर में पहुंचा दिया। इसलिए आनंद! तुम जाओ, तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र को यह अर्थ कहो। आणंदथेरस्स भगवओ निवेदण-पदं आनन्दस्थविरस्य भगवतः निवेदन-पदम आनंद स्थविर का भगवान् से निवेदन-पद ६७. तए णं से आणंदे धेरे गोसालेणं । ततः सः आनन्दः स्थविरः गोशालेन ६७. आनन्द स्थविर मंखलिपुत्र गोशाल के इस मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे भीए जाव मंखलिपुत्रेण एवम् उक्ते सति भीतः प्रकार कहने पर भीत यावत् भय से व्याकुल संजायभए गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स यावत् सञ्जातभयः गोशालस्य हो गया। उसने मंखलिपुत्र गोशाल के पास से अंतियाओ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभ- मंखलिपुत्रस्य अन्तिकात् हालाहलायाः हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से कारावणाओ पडिनिक्खमति, पडि- कुम्भकार्याः कुम्भकारापणात् प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर निक्वमित्ता सिग्यं तुरियं सावत्थिं नगरि प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य शीघ्रं शीघ्र त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता त्वरितं श्रावस्ती नगरी मध्यमध्येन बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव कोष्ठकं कोष्ठक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान् महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चैत्यम् यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं । भगवान् को दांयी ओर से प्रारम्भ कर तीन आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदननमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस वयासी-एवं खलु अहं भंते! छट्ठक्ख- नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रकार कहा-भंते! मैं बेले के पारण में आपकी मणपारणगंसि तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए एवमवादीत-एवं खलु अहं भदन्त! अनुज्ञा से श्रावस्ती नगरी के उच्च, नीच तथा समाणे सावत्थीए नगरीए उच्च-नीय- षष्ठक्षपणपारणके युष्माभिः मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स अभ्यनुज्ञातः सन् श्रावस्त्यां नगर्याम् लिए घूमते हुए हालाहला कुंभकारी के भिक्खायरियाए अडमाणे हालाहलाए उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गृह- कुंभकारापण से न अति दूर और न अति कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते समुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् निकट जा रहा था। मंखलिपुत्र गोशाल ने वीइवयामि, तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारा- हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से न ममं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारा- पणस्य अदूरसामन्ते व्यतिव्रजामि, अति दूर और न अति निकट मुझे जाते हुए वणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं ततः गोशालः मंखलिपुत्रः मां देखकर इस प्रकार कहा-आनंद! तुम यहां पासित्ता एवं वयासी-एहि ताव आणंदा! हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारा- आओ, एक बड़ी उपमा को सुनो। इओ एग मह उवमियं निसामेहि। पणस्य अदूरसामन्तेन व्यजिव्रजन्तं दृष्ट्वा एवमवादीत्-एहि तावत् आनन्द! इतः एकं महान्तम् उपमितं निशाम्य। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ भगवई मंखिलपुत्र गोशाल के इस प्रकार कहने पर मैं जहां हालाहाल कुंभकारी का कुंभकारापण था जहां मंखलिपुत्र गोशाल था, वहां आया। श. १५ : सू. १८ तए णं अहं गोसालेणं मखलिपुत्तेणं एवं ततः अहं गोशालेन मंखलिपुत्रेण एवम् वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभ- उक्ते सति यत्रैव हालाहलायाः कारीए कुंभकारावणे, जेणेव गोसाले कुम्भकार्याः कुम्भकारापणः यत्रैव मंखलिपुत्ते, तेणेव उवागच्छामि। गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव उपागच्छामि। तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते ममं एवं । तत सः गोशाल: मंखलिपुत्रः माम् वयासी-एवं खलु आणंदा! इओ एवमवादीत्-एवं खलु आनन्द! इतः चिरातीयाए अद्धाए केइ उचावया वणिया चिरातीते अध्वनि केचिद् उच्चावचाः एवं तं चेव सव्वं निरवसेस भणियब्वं जाव वणिजः एवं तचैव सर्व निरवशेष नियगं नगरं साहिए। तं गच्छ णं तमं भणितव्यं यावत् निजकं नगरं साधितः। आणंदा! तव धम्मायरियस्स तत् गच्छ त्वम् आनन्द! तव धम्मोवएसगस्स समणस्स नायपुत्तस्स धर्माचार्यस्य धर्मोपदेशकस्य श्रमणस्य एयमद्वं परिकहेहि॥ ज्ञातपुत्रस्य एतमर्थं परिकथय। मंखलिपुत्र गोशाल ने इस प्रकार कहा-चिर अतीत काल में कुछ उच्च तथा निम्न वणिक इस प्रकार पूर्ववत् सर्व निरवशेष वक्तव्य है यावत् अपने नगर पहुंचा दिया। इसलिए आनन्द! तुम जाओ तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण ज्ञातपुत्र को यह अर्थ कहो। ६८. तं पभू णं भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते तत् प्रभुः भदन्त! गोशाल: मंखलिपुत्रः ६८. भंते! क्या मंखलिपुत्र गोशाल अपने तपः तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं भासरासिं तपसा तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं तेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख करेत्तए? विसरणं भंते! गोसालस्स भस्मराशिं कर्तुम? विषयः भदन्त! का ढेर करने में प्रभु है? भंते! क्या तपः-तेज मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं एगाहचं गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य तपसा से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का कूडाहचं भासरासिं करेत्तए? समत्थे णं तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशि ___ढेर करना मंखलिपुत्र गोशाल का विषय है? भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं कर्तुम्? समर्थः भदन्त! गोशालः क्या मंखलिपुत्र गोशाल तपः-तेज से एक एगाहचं कूडाहच्चं भासरासिं करेत्तए? मंखलिपुत्रः तपसा तेजसा एकाहत्यं । प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर कूटाहत्यं भस्मराशिं कर्तुम् ? करने में समर्थ है? पभू णं आणंदा! गोसाले मंखलिपुत्ते प्रभुः आनन्द! गोशालः मंखलिपुत्रः आनन्द ! मंखलिपुत्र गोशाल अपने तपः-तेज तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं तपसा तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं में एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का भासरासिं करेत्तए। विसए णं आणंदा! भस्मराशिं कर्तुम्। विषयः आनन्द! ढेर करने में प्रभु है। आनन्द! अपने तपः-तेज गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं गोशालस्यः मंखलिपुत्रस्य तपसा से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का एगाहचं कूडाहचं भासरासिं करेत्तए। तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं ढेर करना मंखलिपुत्र गोशाल का विषय है। समत्थे णं आणंदा! गोसाले मखलिपुत्ते कर्तुम्। समर्थः आनन्द! गोशालः आनन्द! मंखलिपुत्र गोशाल अपने तपः-तेज तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं मंखलिपुत्रः तपसा तेजसा एकाहत्यं से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का भासरासिं करेत्तए, नो चेव णं अरहते __कूटाहत्यं भस्मराशिं कर्तुम् , नो चैव ढेर करने में समर्थ है। किन्तु वह अर्हत् भगवंते, पारियावणियं पुण करेज्जा। अर्हतः भगवतः, पारितापनिकी पुनः भगवान् को एक प्रहार में कूटाघात की भांति जावतिए णं आणंदा! गोसालस्स कुर्यात्। यावत् आनन्द! गोशालस्य राख का ढेर नहीं कर सकता, वह उन्हें मंखलिपुत्तस्स तवे तेए, एत्तो मंखलिपुत्रस्य तपः तेजः, एतस्मात् । परितापित कर सकता है। आनन्द! अणंतगुणविसिट्टतराए चेव तवे तए अनन्तगुणविशिष्टतरकं चैव तपः तेजः मंखलिपुत्र गोशाल का जितना तपः-तेज है, अणगाराणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण अनगाराणां भगवतां, क्षांतिक्षमाः पुनः उससे अनन्त गुण विशिष्टतर तपः-तेज अणगारा भगवंतो। जावइए णं आणंदा! __ अनगाराः भगवंतः। यावत् आनन्द! अनगार भगवान् का है, अनगार भगवान् अणगाराणं भगवंताणं तवे तेए एत्तो ___ अनगाराणां भगवतां तपः तेजः क्षांतिक्षम होते हैं। आनन्द! अनगार भगवान् अणंतगुणविसिट्टतराए चेव तवे तेए एतस्मात् अनंतगुणविशिष्टतरकं चैव का जितना तपःतेज है उससे अनंत गुण थेराणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण थेरा तपः तेजः स्थविराणां भगवतां, विशिष्टतर तपःतेज स्थविर भगवान् का है, भगवंतो। जावतिए णं आणंदा! थेराणं ____क्षांतिक्षमाः पुनः स्थविराः भगवंतः । स्थविर भगवान् क्षांतिक्षम होते हैं। आनन्द! भगवंताणं तवे तेए एत्तो अणंत- यावत् आनन्द! स्थविराणां भगवतां स्थविर भगवान् का जितना तपः-तेज है, गुणविसिट्टतराए चेव तवे तेए अरहंताणं तपः तेजः एतस्मात् अनंतगुणविशिष्ट- उससे अनन्त गुण विशिष्टतर तपः-तेज भगवंताणं, खंतिखमा पुण अरहंता तरकं चैव तपः तेजः अर्हतां भगवतां, अर्हत् भगवान् का है, अर्हत् भगवान् भगवंतो। तं पभू णं आणंदा! गोसाले क्षांतिक्षमाः पुनः अर्हन्तः भगवंतः। क्षांतिक्षम होते हैं। इसलिए आनन्द! Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २८७ श. १५ : सू. ६६,१०० मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं तत् प्रभुः आनन्द! गोशालः मंखलिपुत्रः भासरासिं करेत्तए, विसए णं आणंदा! तपसा तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं गोसालस्स मखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं भस्मराशिं कर्तुम्, विषयः आनन्द! एगाहचं कूडाहचं गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य तपसा भासरासिं करेत्तए, समत्थे णं आणंदा! तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहचं कर्तुम्, समर्थः आनन्द ! गोशालः । कूडाहचं भासरासिं करेत्तए, नो चेव णं मंखलिपुत्रः तपसा तेजसा एकाहत्यं अरहते भगवंते, पारियावणियं पुण कूटाहत्यं भस्मराशिं कर्तुम्, नो चैव करेज्जा॥ अर्हतः भगवतः, पारितापनिकी पुनः कुर्यात्। मंखलिपुत्र गोशाल अपने तपःतेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर करने में प्रभु है, आनन्द ! अपने तपःतेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर करना मंखलिपुत्र गोशाल का विषय है, आनन्द! मंखलिपुत्र गोशाल अपने तपःतेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर करने में समर्थ है। किन्तु वह अर्हत् भगवान् को (ऐसा) नहीं कर सकता, (केवल) उन्हें परितापित कर सकता है। आणंदथेरेण गोयमाईणं अणुण्णवण-पदं आनन्दस्थविरेण गौतमादीनाम् अनुज्ञापन-पदम् ६६. तं गच्छ णं तुमं आणंदा! गोयमाईणं तत् गच्छ त्वम् आनन्द! गौतमादिभ्यः समणाणं निग्गंथाणं एयमढें परिकहेहि- श्रमणेभ्यः निर्ग्रन्थेभ्यः एतमर्थं परिकथय- मा णं अज्जो! तुम्भं केई गोसालं मा आर्य! युष्मत्स कोऽपि गोशालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए मंखलिपुत्र धार्मिकया प्रतिचोदनया पडिचोएउ, धम्मियाए पडिसारणाए प्रतिचोदयतु, धार्मिकया प्रतिसारणया पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं प्रतिसारयतु, धर्मिकेन प्रत्युपचारेण पडोयारेउ, गोसाले णं मखलिपुत्ते प्रत्युपचारयतु, गोशालः मंखलिपुत्रः समणेहिं निग्गंथेहिं मिच्छं विपडिवन्ने। श्रमणेभ्यः निर्ग्रन्थेभ्यः विप्रतिपन्नः। आनन्द स्थविर द्वारा गौतम आदि को अनुज्ञापन-पद १६.आनंद! इसलिए तुम जाओ,गौतम आदि श्रमण निग्रन्थों को यह अर्थ कहो-आर्यो! तुम मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक प्रतिप्रेरणा से प्रतिप्रेरित मत करो, धार्मिक प्रतिस्मरण से प्रतिस्मारित मत करो, धार्मिक प्रत्युपचार-तिरस्कार से प्रत्युपचारित मत करो। मंखलिपुत्र गोशाल श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व-विप्रतिपन्न है। १००. तए णं से आणंदे थेरे समणेणं ततः सः आनन्दः स्थविरः श्रमणेन भगवया महावीरेणं एवं वृत्ते समाणे समणं भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, बंदित्ता श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमंसित्ता जेणेव गोयमादी समणा नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव निग्गंथा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोयमादी समणे निग्गंथे आमंतेति, उपागच्छति, उपागम्य गौतमादीन् आमंतेत्ता एवं वयासी-एवं खलु अज्जो! श्रमणान् निर्ग्रन्थान् आमन्त्रयति आमन्त्र्य छट्टक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया एवमवादीत्-एवं खलु आर्य! महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे सा- षष्ठक्षपणपारणके श्रमणेन भगवता वत्थीए नगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाई महावीरेण अभ्यनुज्ञाते सति श्रावस्त्यां कुलाई तं चेव सव्वं जाव गोयमाईणं नगर्याम् उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि समणाणं निग्गंथाणं एयमé परिकहेहि, तं तत् चैव सर्वं यावत् गौतमादिभ्यः मा णं अज्जो! तुम्भं केई गोसालं श्रमणेभ्यः निर्गन्थेभ्यः एतमर्थं परिकथय, मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए तत् मा आर्य! युष्मत्सु कोऽपि गोशालं पडिचोएउ, धम्मियाए पडिसारणयाए मंखलिपुत्र धार्मिकया प्रतिचोदनया पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं प्रतिचोदयतु, धार्मिकया प्रतिसारणया पडोयारेउ, गोसाले णं मखलिपुत्ते प्रतिसारयतु, धर्मिकेन प्रत्युपचारेण समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विपडिवन्ने। प्रत्युपचारयतु, गोशालः मंखलिपुत्रः श्रमणेभ्यः निर्ग्रन्थेभ्यः मिथ्या विप्रतिपन्नः। १००. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर आनन्द स्थविर ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर जहां गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ थे, वहां आया, आकर गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित किया, आमंत्रित कर इस प्रकार कहा-आर्यो! मैं बेले के पारण में श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा से श्रावस्ती नगर के उच, नीच तथा मध्यम कुलों में यावत् गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को यह अर्थ कहो-आर्यो! तुम मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक प्रति प्रेरणा से प्रतिप्रेरित मत करो, धार्मिक प्रतिस्मारणा से प्रतिस्मारित मत करो, धार्मिक प्रत्युपचार तिरस्कार से प्रत्युपचारित मत करो। मंखलिपुत्र श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्वविप्रतिपन्न है। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १०१ गोसालस्स भगवंतं पड़ अक्कोसपुव्वं ससिद्धंतनिरूपण-पदं १०१. जावं च णं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमहं परिकहेड, तावं च णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्खम, पडिनिक्खमित्ता आजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्घं तुरियं सावत्थि नगरिं मज्झमज्झेणं निग्गच्छर, निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी - सुदु णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी, साहू णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी - गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी । जेणं से गोसाले मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी से णं सुक्के सुक्का - भिजाइए भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोसु देवत्ताए उववन्ने, अहणं उदाई नामं कुंडियायणीए अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विष्पजहामि, विष्पजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुष्पविसामि, अणुष्पविसित्ता इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । जे वि आई आउसो कासवा ! अम्हं समयंसि केइ सिज्झिंसु वा सिज्झति वा सिज्झिस्संति वा सव्वे ते चउरासीतिं महाकष्पसयसहस्साई, सत्त दिव्वे, सत्त संजूहे, सत्त सण्णिगन्भे, सत्त पट्टपरिहारे, पंच कम्मणि सय सहस्साई सहिं च सहस्साई छच्च सए तिण्णि य कम्मंसे अणुवेणं खवत्ता तपच्छा सिज्झति बुज्झति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा । से जहा वा गंगा महानदी जओ पवूदा, जहिं वा पज्जुबत्थिया, एस णं अद्धा २८८ गोशालस्य भगवन्तं प्रति आक्रोशपूर्वं स्वसिद्धान्त - निरूपण -पदम् यावत् च आनन्दः स्थविरः गौतमादिभ्यः श्रमणेभ्यः निर्ग्रन्थेभ्यः एतमर्थ परिकथयति तावत् च सः गोशालः मंखलिपुत्रः हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारापणात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य आजीविकसंघपरिवृतः महान्तम् अमर्षं वहमानः शीघ्रं त्वरितं श्रावस्त्याः नगर्याः मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव कौष्ठकं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य उदूरसामन्ते स्थित्वा श्रमण भगवन्तं महावीरम् एवमवादीत्-सुष्ठु आयुष्मन् काश्यप ! माम् एवमवादीत् साधु आयुष्मन् काश्यप ! माम् एवमवादीत् - गोशालः मंखलिपुत्रः मम धर्मान्तेवासी, गोशालः मंखलिपुत्रः मम धर्मान्तेवासी । यः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तव धर्मान्तेवासी सः शुक्लः शुक्लाभिजात्याः भूत्वा कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वेन उपपन्नः, अथ उदायी नाम कौण्डिकायणीयस्य अर्जुनस्य गौतमपुत्रस्य शरीरकं विप्रजहामि, विप्रजहाय गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य शरीरकम् अनुप्रविशामि अनुप्रविश्य इमं सप्तमं 'पउट्ट परिहारं ' परिहरामि । येऽपि 'आई' आयुष्मन् काश्यप ! अस्माकं समये केचित् असैत्सुः वा सिध्यन्ति वा सेत्स्यन्ति वा सर्वे ते चतुरशीतिः महाकल्पशतसहस्राणि सप्त दिव्यान् सप्त संयूथान्, सप्त संज्ञिगर्भान्, सप्त 'पउट्ट परिहारे' पञ्च कर्माणि शतसहस्राणि षष्ठिः च सहस्राणि षड् च शतानि त्रीन् च कर्माशान् अनुपूर्वेण क्षपयित्वा ततः पश्चात् सिध्यन्ति 'बुज्झति' मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति सर्वदुःखानाम् अन्तम् अकार्षुः वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा । अथ यथा वा गंगा महानदी यतः प्रव्यूढा, यत्र वा पर्युपस्थिता एषः अध्वा भगवई गोशाल का भगवान के प्रति आक्रोश-पूर्वक स्वसिद्धान्त - निरूपण-पद १०१. जब आनंद स्थविर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को यह अर्थ कहा, तो मंखलिपुत्र गोशाल ने हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर आजीवक संघ से संपरिवृत होकर महान् का भार ढोता हुआ शीघ्र त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोष्ठक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न अति निकट स्थित होकर श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार कहा- आयुष्मन् काश्यप ! तुमने मेरे विषय में अच्छा कहा, आयुष्मन् काश्यप ! तुमने मेरे विषय में इस प्रकार साधु कहा- मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है, मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है। जो मंखलिपुत्र गोशाल तुम्हारा धर्मान्तेवासी था, वह शुक्ल शुक्लाभिजात होकर कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर किसी देवलोक में देवरूप में उपपन्न हुआ है। मैं कोण्डिकायन गौत्रीय हूं, मेरा नाम उदायी है। मैंने गौतम पुत्र अर्जुन के शरीर को छोड़ा, छोड़कर मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर यह सातवां 'पोट्ट परिहार' किया है। आयुष्मन् काश्यप ! हमारे सिद्धान्त के अनुसार र जो सिद्ध हुए हैं, जो सिद्ध हो रहे हैं, जो सिद्ध होंगे, वे सब चौरासी लाख महाकल्प, सात दिव्य, सात संयूथ, सात संज्ञी गर्भ, सात पोट्ट परिहार, पांच लाख साठ हजार छह सौ तीन कर्मों को क्रमशः क्षय कर उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत हुए हैं सब दुःखों को अंत किया है, करते हैं, अथवा करेंगे। जैसे महानदी गंगा जहां से प्रवृत्त हुई है, और जहां पर्यवसित हुई है, वह मार्ग लंबाई में पांच Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई पंचजोयणसयाई आयामेणं, अद्धजोयणं विक्खंभेणं, पंच धणुसयाई उब्वेहेणं । एएणं गंगापमाणेणं सत्त गंगाओ सा एगा महागंगा । सत्त महागंगाओ सा एगा सादीणगंगा । सत्त सादीणगंगाओ सा एगा मदुगंगा । सत्त मदुगंगाओ सा एगा लोहियगंगा । सत्त लोहियगंगाओ सा एगा आवतीगंगा । सत्त आवतीगंगाओ सा एगा परमावती । एवामेव सपुब्बावरेणं एगं गंगासय सहस्सं सत्तरसहस्सा छच्च अगुणपन्नं गंगासया भवतीति मक्खाया। तासिं दुविहे उद्धारे पण्णत्ते, तं जहासुहुमबोंदिकलेवरे चैव बायरबोंदिकलेवरे चैव तत्थ णं जे से सुहुमबोंदिकलेवरे से ठप्पे । तत्थ णं जे से बायरबोंदिकलेवरे तओ णं बाससए गए, वाससए गए एगमेगं गंगाबालुयं अवहाय जातिएणं काले से कोट्ठे खीणे णीरए निल्लेवे निट्ठिए भवति सेत्तं सरे सरपमाणे । एएणं सरप्पमाणेणं तिण्णि सरसयसाहस्सीओ से एगे महाकप्पे, चउरासीतिं महाकष्पसयसहस्साइं से एगे महामाणसे । १. अनंताओ संजूहाओ जीवे चयं चइत्ता उवरिल्ले माणसे संजूहे देवे उबवज्जति । से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ, विहरित्ता ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चत्ता पढमे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति । २. से णं तओहिंतो अनंतरं उब्वट्टित्ता मज्झिल्ले माणसे संजू देवे उबवज्जइ । से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ, विहरित्ता ताओ देवलोगाओ आउक्खणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चत्ता दोचे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति । ३. से णं तओहिंतो अनंतरं उब्वट्टित्ता हेट्टिल्ले माणसे संजूहे देवे उबवज्जइ । से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई जाव चइत्ता तच्चे सण्णिगन्भे जीवे पच्चायाति । २८६ पञ्चयोजनशतानि आयामेन, अर्धयोजनं विष्कम्भेण पञ्च धनुःशतानि उद्वेधेन । एतेन गंगाप्रमाणेन सप्तगंगा सा एका महागंगा । सप्तमहागंगाः सा एका सादीनगंगा । सप्तसादीनगंगा: सा एका मृत्युगंगा ( मदुगंगा ) । सप्त मृत्युगंगाः ( मदुगंगा) सा एका लोहितगंगा । सप्त लोहित गंगाः सा एका आवतीगंगा सप्त आवतीगंगाः सा एका परमावती । एवमेव सपूर्वापरेण एकं गंगाशतसहस्रं सप्ततिः सहस्रा षट् च एकोनपञ्चाशत् गंगाशतानि भवन्तीति आख्यातानि । तेषां द्विविधः उद्धारः प्रज्ञप्तः, तद्यथासूक्ष्मबोन्दिकलेवरः चैव, बादरबन्दि - कलेवरः चैव । तत्र यः सः सूक्ष्मबोन्दिकलेवर: सः ठप्पे (स्थाप्यः) । तत्र यः सः बादरबोन्दिकलेवरः ततः वर्षशते गते, वर्षशते गते एकाम् एकाम् गंगाबालुकाम् अपहाय यावता कालेन सः कोष्ठः क्षीणः नीरजः निर्लेपः निस्थितः भवति तदेतद् सरः सरः प्रमाणम् । एतेन सरः प्रमाणेन तिस्रः सरः शतसाहस्रयः सः एकः महाकल्पः, चतुरशीतिः महाकल्पशतसहस्राणि सः एक: महामानसः । १. अनन्तान् संयूथान् जीवः च्यवं च्युत्वा उपरितने मानसे संयूथे देवे उपपद्यते । सः तत्र दिव्यानि भोगभोगानि भुञ्जानः विहरति, विहृत्य तस्मात् देवलोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा प्रथमे संज्ञिगर्भे जीवः प्रत्यायाति । २. सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य मध्यमे मानसे संयूथे देवे उपपद्यते । सः तत्र दिव्यानि भोगभोगानि भुञ्जानः विहरति, विहृत्य तस्मात् देवलोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा द्वितीये संज्ञिगर्भे जीवः प्रत्यायाति । ३. सः तस्मात् अनंतरं उद्वर्त्य अधस्तने मानसे संयूथे देवे उपपद्यते । सः तत्र दिव्यानि भोगभोगानि यावत् च्युत्वा तृतीये संज्ञिगर्भे जीवः प्रत्यायाति । श. १५ : सू. १०१ सौ योजन चौड़ाई में आधा योजन और गहराई में पांच सौ धनुष है। इस गंगा के प्रमाण वाली सात गंगा से एक महागंगा, सात महागंगा से एक सादीन गंगा, सात सादीन गंगा से एक मृत गंगा, सात मृत गंगा से एक लोहित गंगा, सात लोहित गंगा से एक आवती गंगा, सात आवती गंगा से एक परमावती गंगा । इस प्रकार पूर्वापर के योग से एक लाख सत्रह हजार छह सौ उन्चास गंगा नदी हैं, ऐसा कहा गया है। उनका दो प्रकार से उद्धार प्रज्ञप्त है, जैसे१. सूक्ष्म बोन्दि कलेवर २. बादर बोन्दि कलेवर | सूक्ष्म बन्दि कलेवर है, वह स्थाप्य है। जो बादर बोन्दि कलेवर है, उसमें से सौ सौ वर्षों के बीत जाने पर गंगा की बालुका का एक-एक कण निकाला जाए, जितने काल से वह कोष्ठक क्षीण, रज रहित, निर्लेप और समाप्त हो जाए, वह है शर, शर- प्रमाण। ऐसे तीन लाख शर- प्रमाण काल से एक महाकल्प होता है। चौरासी लाख महाकल्प से महामानस होता है। १. अनंत संयूथ में जीव च्यवन कर उपरितन मानस में संयूथ देव के रूप में उपपन्न होता है। वहां वह दिव्य भोग भोगता है। भोगों को भोगता हुआ विहरण करता है । विहरण कर उस देवलोक से आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर प्रथम संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में पुनः उत्पन्न हुआ। २. वहां से अनन्तर उद्वर्तन कर मध्यम मानस में संयूथ देव के रूप उपपन्न हुआ। वह दिव्य भोगाई भोगों को भोगता हुआ विहरण करता है, विहरण कर उस देवलोक से आयुक्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर च्यवन कर दूसरी बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में पुनः उत्पन्न हुआ । ३. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर निम्नवर्ती मानस में संयूथ देव के रूप में उपपन्न हुआ। वहां दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् च्यवन कर तीसरी बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में उत्पन्न हुआ । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १०१ २६० भगवई ४. से णं तओहिंतो जाव उव्वट्टित्ता ४. सः तस्मात् यावत् उद्वर्त्य ४. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर उपरितन उवरिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववज्जइ। उपरितने मानुषोत्तरे संयूथे देवे मानस में संयूथ देव के रूप में उपपन्न हुआ। से णं तत्थ दिब्वाई भोगभोगाई जाब उपपद्यते। सः तत्र दिव्यानि । वहां दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् च्यवन कर चइत्ता चउत्थे सण्णिगन्भे जीवे भोगभोगानि यावत् च्युत्वा चतुर्थे चौथी बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में उत्पन्न पञ्चायाति। संज्ञिगर्भे जीवः प्रत्यायाति। हुआ। ५. से णं तओहिंतो अणंतरं उन्वट्टित्ता ५. सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य ५. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर मध्यम मज्झिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उव- मध्यमे मानुषोत्तरे संयूथे देवे उपपद्यते। मानुषोत्तर संयूथ देव में उपपन्न हुआ। वहां वज्जइ। से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई सः तत्र दिव्यानि भोगभोगानि यावत् दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् च्यवन कर जाव चइत्ता पंचमे सण्णिगन्भे जीवे च्युत्वा पञ्चमे संज्ञिगर्ने जीवः पांचवीं बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में पञ्चायाति। प्रत्यायाति। उत्पन्न हुआ। ६. से णं तओहितो अणंतरं उवट्टित्ता ६. सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य ६. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर निम्नवर्ती हिडिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे अधस्तने मानुषोत्तरे संयूथे देवे मानुषोत्तर में संयूथ देव के रूप में उपपन्न उववज्जइ। से णं तत्थ दिव्वाइं उपपद्यते। सः तत्र दिव्यानि हुआ। वहां दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् भोगभोगाई जाव चइत्ता छटे सण्णिगन्भे भोगभोगानि यावत् च्युत्वा षष्ठे च्यवन कर छठी बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप जीवे पञ्चायाति। संज्ञिगर्भे जीवः प्रत्यायाति। में उत्पन्न हुआ। ७. से णं तओहिंतो अणंतरं उबट्टित्ता- ७. सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य- ७. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर-ब्रह्मलोक बंभलोगे नाम से कप्पे पण्णत्ते-पाईण- ब्रह्मलोकः नाम सः कल्पः प्रज्ञप्तः- नाम का कल्प प्रज्ञप्त है-वह पूर्व-पश्चिम में पडीणायते उदण-दाहिणविच्छिण्णे, जहा प्राचीन-प्रतीचीनायतः उदीचीन- आयत और दक्षिण में विस्तीर्ण है, प्रज्ञापना ठाणपदे जाव पंच बडेंसगा पण्णत्ता, तं दक्षिण-विस्तीर्णः, यथा 'ठाणपदे' । के स्थान पद की भांति यावत् पांच अवतंसक जहा–असोगवडेंसए जाव पडिरूवा- से यावत् पञ्च अवतंसकाः प्रज्ञप्ताः, प्रज्ञप्त हैं, जैसे-अशोकावतंसक यावत् णं तत्थ देवे उववज्जइ। से णं तत्थ दस तद्यथा-अशोकावतसंकः यावत् प्रतिरूप-वहां देव रूप में उपपन्न हुआ। वहां सागरोवमाई दिन्वाई भोगभोगाई जाव __ प्रतिरूपाः-सः तत्र देवे उपपद्यते। सः दस सागरोपम तक दिव्य भोगार्ह भोगों को चइत्ता सत्तमे सण्णिगन्भे जीवे तत्र दश सागरोपमानि दिव्यानि . यावत् च्यवन कर सातवीं बार संज्ञी गर्भ में पञ्चायाति। भोगभोगानि यावत् च्युत्वा सप्तमे जीव के रूप में उत्पन्न हुआ। संज्ञिगर्भे जीवः प्रत्यायाति। से णं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडि वहां बहुप्रतिपूर्ण नौ मास तथा साढे सात रात पुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं पूर्णानाम् अद्धष्टमानां रात्रिंदिवानां दिन के बीत जाने पर सुकुमाल, भद्र, वीतिक्कंताणं सुकुमालगभद्दलए मिउ- व्यतिक्रान्तानां सुकुमारकभद्रकः मृदु- मृदुकुंडल के समान धुंघराले केश वाले कान कुंडलकुंचियकेसए मट्टगंडतल-कण्णपीढए कुण्डलकुञ्चित-केशकः मृष्टगण्डतल- के आभूषणों के समान चमकते हुए कपोल देवकुमारसप्पभए दारए पयाति। से णं कर्णपीठकः देवकुमार-सप्रभकः दारकः तथा देवकुमार सदृश प्रभा वाले पुत्र के रूप में अहं कासवा! तए णं अहं आउसो प्रजन्यते। सः अहं काश्यप! तत अहं जन्म लिया। काश्यप! वह मैं हूं। आयुष्मन् कासवा! कोमारियपब्वज्जाए कोमारएणं आयुष्मन् काश्यप! कौमारिकप्रव्रज्यायां काश्यप! मैंने कौमारिक-प्रव्रज्या व कौमारक बंभचेरवासेणं अविद्धकण्णए चेव संखाणं कौमारकेन ब्रह्मचर्यवासेन अविद्धकर्णकः ब्रह्मचर्यवास के साथ अविद्धकर्ण के रूप में ही पडिलभामि, पडिलभित्ता इमे सत्त चैव संख्यानं प्रतिलभे, प्रतिलभ्य इमान् । संख्यान (गणित) को प्राप्त किया। प्राप्त कर पउट्टपरिहारे परिहरामि, तं जहा- सप्त 'पउट्ट परिहारे' परिहरामि, मैंने ये सात 'पोट्ट परिहार' किए, जैसे तद्यथा१. एणेज्जस्स २. मल्लरामस्स १. एणेयकस्य २. मल्लरामस्य ३. १. एणेयक २. मल्लराम ३. मंडित ४. रोह ५. ३. मंडियस्स ४. रोहस्स ५. भारदाइस्स मण्डितस्य ४. रोहस्य ५. भारद्वाजस्य भारद्वाज ६. गौतमपुत्र अर्जुनक ७. मंखलिपुत्र ६. अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स' ७. ६. अर्जुनकस्य गौतमपुत्रस्य गोशाल। गोसालस्स मखलिपुत्तस्स। ७. गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य। तत्थ णं जे से पढमे पउट्टपरिहारे से णं तत्र यः सः प्रथमः 'पउट्ट परिहारे' सः प्रथम पोट्ट परिहार में मैंने राजगृह नगर के रायगिहस्स नगरस्स बहिया मंडिकुच्छिसि राजगृहस्य नगरस्य बहिः मण्डिकुक्षौ बाहर मंडिककुक्षि चैत्य में कोण्डिकायन चेइयंसि उदाइस्स कुंडियायणस्स सरीरं चैत्ये उदायिनः कौण्डिकायणस्य शरीरं गौत्रीय उदायी के शरीर को छोड़ा, छोड़कर विप्पजहामि, विष्पजहित्ता एणेज्जगस्स विप्रजाहामि, विप्रहाय एणेयकस्य एणेयक के शरीर में अनुप्रवेश किया, Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई सरीरगं अणुष्पविसामि, अणुष्पविसित्ता बावीसं वासाई पढमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से दोचे उट्टपरिहारे से णं उद्दंडपुरस्स नगरस्स बहिया चंदोयरणंसि चेयंसि एणेज्जगस्स सरीरगं विष्पजहामि, विष्पजहित्ता मल्लरामस्स सरीरगं अणुष्पविसामि, अणुष्पविसित्ता एकवीस वासाई दोच्चं उट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से तच्चे पउट्टपरिहारे से णं चंपाए नगरीए बहिया अंगमंदिरंसि चेयंसि मल्लरामस्स सरीरगं विष्पजहामि, विष्पजहित्ता मंडियस्स सरीरगं अणुष्पविसामि, अणुष्पविसित्ता वीसं वासाई तच्चं पट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से चउत्थे पउट्टपरिहारे से णं वाणारसीए नगरीए बहिया काममहावणंसि चेइयंसि मंडियस्स सरीरगं विप्पजहामि, विष्पजहित्ता रोहस्स सरीरगं अणुष्पविसामि, अणुष्पविसित्ता एकूणवीसं वासाई उत्थं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से पंचमे उट्टपरिहारे से णं आलभियाए नगरीए बहिया पत्तकाल - गंसि चेयंसि रोहस्स सरीरगं विप्पजहामि विष्पजहित्ता भारद्दाइस्स सरीरगं अणुष्पविसामि, अणुष्पविसित्ता अट्ठारस वासाई पंचमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से छट्ठे पउट्टपरिहारे से णं वेसालीए नगरीए बहिया कोंडियायणंसि चेयंसि भारद्दाइस्स सरीरं विष्पजहामि, विष्पजहित्ता अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं अणुष्पविसामि अणुष्पविसित्ता सत्तरस वासाई छठ्ठे पउट्टपरिहारं परिहरामि । तत्थ णं जे से सत्तमे पउट्टपरिहारे से णं इहेब सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अज्जुणग गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि, विप्पजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं सीयसहं उपहसहं खुहास विविदंसमसगपरीसहोवसग्गसहं थिरसंघयणं ति कट्टु २६१ शरीरकम् अनुप्रविशामि अनुप्रविश्य द्वाविंशतिः वर्षाणि प्रथमं 'पउट्ट परिहारं ' परिहरामि । तत्र यः सः द्वितीयः 'पउट्ट परिहारे' सः उद्दण्डपुरस्य बहिः चन्द्रावतरणे चैत्ये एणेयकस्य शरीरकं विप्रजहामि, विप्रहाय मल्लरामस्य शरीरकम् अनुप्रविशामि अनुप्रविश्य एकविंशतिः वर्षाणि द्वितीयं 'पउट्ट परिहारं' परिहरामि । तत्र यः सः तृतीयः 'पउट्ट परिहारे' सः चम्पायाः नगर्याः बहिः अङ्गमन्दिरे चैत्ये मल्लरामस्य शरीरकं विप्रजहामि, विप्रहाय मण्डितस्य शरीरकम् अनुप्रविशामि अनुप्रविश्य विंशतिः वर्षाणि 'पउट्ट परिहारं ' परिहरामि । तत्र यः सः चतुर्थः 'पउट्ट परिहारे' सः वाणारस्याः नगर्याः बहिः काममहावने चैत्ये मण्डितस्य शरीरकं विप्रजहामि, विप्रहाय रोहस्य शरीरकम् अनुप्रविशामि अनुप्रविश्य एकोनविंशतिः वर्षाणि चतुर्थं 'पउट्ट परिहारं ' परिहरामि । तत्र यः सः पंचमः 'पउट्ट परिहारे' सः आलभिकायाः नगर्याः बहिः प्राप्तकाले चैत्ये रोहस्य शरीरकं विप्रजहामि, विप्रहाय भारद्वाजस्य शरीरकम् अनुप्रविशामि अनुप्रविश्य अष्टादश वर्षाणि पंचमं 'पउट्ट परिहारं ' परिहरामि । तत्र यः सः षष्ठः 'पउट्ट परिहारे' सः वैशाल्याः नगर्याः बहिः कुण्डियायणे चैत्ये भारजस्य शरीरकं विप्रजहामि, विप्रहाय अर्जुनकस्य गौतमपुत्रस्य शरीरकम् अनुप्रविशामि अनुप्रविश्य सप्तदश वर्षाणि षष्ठं 'पउट्ट परिहारं ' परिहरामि । तत्र यः सः सप्तमः 'पउट्ट परिहारे' सः इहैव श्रावस्त्यां नगर्यां हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारापणे अर्जुनकस्य गौतमपुत्रकस्य शरीरकं विप्रजहामि, विप्रहाय गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य शरीरकम् अलं स्थिरं ध्रुवं धारणीयं शीतसहं उष्णसहं क्षुधासहं विविधदंशमसक परीषहोपसर्गसहं स्थिर श. १५ : सू. १०१ अनुप्रवेश कर बाईस वर्ष तक प्रथम 'पोट्ट परिहार' में रहा । दूसरे पोट्ट परिहार में मैंने उद्दण्डपुर नगर के बाहर चंद्रावतरण चैत्य में एणेयक के शरीर को छोड़ा छोड़कर मल्लराम के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर इक्कीस वर्ष तक दूसरे पोट्ट परिहार में रहा । तीसरे पोट्ट परिहार में मैंने चंपा नगरी के बाहर अंगमंदिर चैत्य में मल्लराम के शरीर को छोड़ा, छोड़कर मंडित के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर बीस वर्ष तक तीसरे पोट्ट परिहार में रहा। चौथे पोट्ट परिहार में मैंने वाराणसी नगरी के बाहर काममहावन चैत्य में मंडित के शरीर को छोड़ा, छोड़कर रोह के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर उन्नीस वर्ष तक चौथे 'पोट्ट परिहार' में रहा। पांचवे पोट्ट परिहार में मैंने आलभिका नगरी के बाहर प्राप्तकालक चैत्य में रोह के शरीर को छोड़ा छोड़कर भारद्वाज के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर अठारह वर्ष तक पांचवें 'पोट्ट परिहार' में रहा। छठे पोट्ट परिहार में मैंने वैशाली नगरी के बाहर कोण्डिकायन चैत्य में भारद्वाज के शरीर को छोड़ा, छोड़कर गौतम पुत्र अर्जुनक के शरीर में अनुप्रवेश किया। अनुप्रवेश कर सतरह वर्ष तक छठे पोट्ट परिहार में रहा। सातवें पोट्ट परिहार में मैंने इसी श्रावस्ती नगरी के हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में गौतमपुत्र अर्जुनक के शरीर को छोड़ा, छोड़कर मैंने मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर को समर्थ, स्थिर, ध्रुव, धारण करने योग्य, सर्दी को सहन करने वाला, गर्मी को सहन करने वाला, क्षुधा को सहन करने वाला, विविध दंश, मशक आदि परीषह और उपसर्ग को Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १०२,१०३ तं अणुपविसामि, अणुप्पविसित्ता सोलस वासाई इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि। एवामेव आउसो कासवा! एगेणं तेत्तीसेणं वाससएणं सत्त पउट्टपरिहारा परिहरिया भवंतीति मक्खाया, तं सुट्ट णं आउसो कासवा! ममं एवं वयासी साहू णं आ- उसो कासवा! मम एवं वयासी-गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी॥ २६२ भगवई संघयनम् इति कृत्वा तम् सहन करने वाला, स्थिर संहनन वाला अनुप्रविशामि, अनुप्रविश्य षोडश जानकर उसमें अनुप्रवेश किया। अनुप्रवेश वर्षाणि इमं सप्तमं 'पउट्ट परिहारं' कर सोलह वर्षों से इस सातवें 'पोट्ट परिहरामि। एवमेव आयुष्मन्! काश्यप! परिहार'! में मैं रह रहा हूं। आयुष्मन् एकेन त्रयस्त्रिंशता वर्षशतेन सप्त 'पउट्ट काश्यप! इसी प्रकार मैंने एक सौ तैतीस वर्षों परिहारा' परिहृताः भवन्ति इति । में मेरे ये सात पोट्ट परिहार हुए हैं। यह मैं आख्याताः, तत् सुष्ठु आयुष्मन् कहता हूं। इसलिए आयुष्मन् काश्यप! तुमने काश्यप! माम् एवमवादीत्-साधु मुझे इस प्रकार अच्छा कहा। आयुष्मन् आयुष्मन् काश्यप! माम् एवमवादीत्- काश्यप! तुमने मुझे इस प्रकार साधु गोशालः मंखलिपुत्रः मम धर्मान्तेवासी, कहा-मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी गोशालः मंखलिपुत्रः मम धर्मान्तेवासी। है, मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है। भगवया गोसालगवयणस्स पडियार-पदं भगवता गोशलकवचनस्य प्रतिकार-पदम् भगवान् द्वारा गोशालक के वचन का प्रतिकार १०२. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं ततः श्रमणः भगवान् महावीरः गोशालं १०२. श्रमण भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र मंखलिपुत्तं एवं बयासी-गोसाला! से मंखलिपुत्र एवमादीत-गोशाल! सः गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! जैसे जहानामए तेणए सिया, गामेल्लएहिं यथा-नामकः स्तेनकः स्यात्, ग्रामेयकैः ।। कोई चोर है। वह ग्रामीणों द्वारा कहीं पर भी परब्भमाणे-परब्भमाणे कत्थ य गहुं वा परभवन् परभवन् कुत्र च गर्तं वा दरी वा गड्डा, गुफा, दुर्ग, निम्न स्थान, पर्वत अथवा दरिं वा दुग्गं वा णिण्णं वा पव्वयं वा दुर्गं वा निम्न वा पर्वतं वा विषमं वा । विषम स्थान के न मिलने पर एक बड़े ऊन के विसमं वा अणस्सादेमाणे एगेणं महं ___ अनासादयन् एकेन महता ऊर्णालोम्ना कंबल से, सण के रोम से, कपास के बने हुए उण्णालोमेण वा सणलोमेण वा वा शणलोम्ना वा कसिपक्ष्मणा वा रोम से, तृण सूत्र से अपने आपको आवृत कर कपासपम्हेण वा तणसूएण वा अत्ताणं तृणसूकेन वा आत्मानम् आवृत्य बैठ जाता है, वह अनावृत होकर भी अपने आवरेत्ताणं चिट्ठज्जा, से णं अणावरिए तिष्ठेत्, सः अनावृतः आवृतम् इति आपको आवृत मानता है, अप्रच्छन्न होते हुए आवरियमिति अप्पाणं मण्णइ, आत्मानं मन्यते, अप्रच्छन्नः च प्रच्छन्नम् भी अपने आपको प्रच्छन्न मानता है, अप्पच्छण्णे य पच्छण्णमिति अप्पाणं इति आत्मानं मन्यते, 'अणिलुक्के अदृश्य-छिपा हुआ न होते हुए भी अपने मण्णइ, अणिलुक्के णिलुक्कमिति णिलुक्कम्' इति आत्मानं मन्यते, आपको अदृश्य मानता है। इसी प्रकार अप्पाणं मण्णइ, अपलाए पलायमिति अपलायितः पलायितम् इति आत्मानं गोशाल! तुम अन्य न होकर भी अपने अप्पाणं मण्णइ, एवामेव तुम पि मन्यते, एवमेव त्वम् अपि गोशाल! आपको अन्य बता रहे हो, इसलिए गोशाल! गोसाला! अणण्णे संते अण्णमिति अनन्यः सन् अन्यम् इति आत्मानम् तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित अप्पाणं उपलभसि, तं मा एवं गोसाला! उपलभसे, तत् मा एवं गोशाल! नार्हसि नहीं है। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी नारिहसि गोसाला! सच्चेव ते सा छाया गोशाल! सत्या एव तव सा छाया नो छाया है, अन्य नहीं है। नो अण्णा॥ अन्या । गोसालस्स पुणरक्कोस-पदं गोशालस्य पुनः आक्रोश-पदम् १०३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः श्रमणेन समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति समाणे आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए आशुरक्तः रूष्टः कुपितः 'चंडिक्किए' मिसिमिसेमाणे समणं भगवं महावीरं 'मिसिमिसेमाणे' श्रमणं भगवंतं उच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ, महावीरम् उचावचाभिः आक्रोशनाभिः उच्चावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसेति, आक्रोशति, उच्चावचाभिः उदघर्षणाभिः उच्चावयाहिं निभंछणाहिं निम्भंछेति, उद्घर्षति, उच्चावचाभिः निर्भर्त्सनाभिः उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति, निर्भर्त्सयन्ते, उच्चवचाभिः निश्छोटनाभिः निच्छोडेता एवं वयासी-नट्टे सि कदाइ, निश्छोटयन्ति, निश्छोट्य एवमवादीत्विणद्वेसि कदाइ, भट्ठे सि कदाइ, नट्ठ- नष्टोऽसि कदाचित, विनष्टोऽसि गोशाल का पुनः आक्रोश-पद १०३. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया। रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो गया, क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर श्रमण भगवान् महावीर के प्रति उच्चावच आक्रोश-युक्त वचनों से आक्रोश प्रकट किया, उच्चावच उद्घर्षणा-युक्त वचनों से उद्घर्षण किया, उच्चावच निर्भर्त्सना-युक्त वचनों से निर्भर्त्सना की, उच्चावच तिरस्कारयुक्त वचनों से तिरस्कार किया। तिरस्कार Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ भगवई विणट्ठ-भट्ठे सि कदाइ, अज्ज न भवसि, नाहि ते ममाहिंतो सुहमत्थि॥ कदाचित् भ्रष्टोऽसि कदाचित्, नष्ट- विनष्ट-भ्रष्टोऽसि कदाचित्, अद्य न भवसि नहि ते मत् सुखम् अस्ति। श. १५ : सू. १०४-१०६ कर इस प्रकार कहा-तुम कभी आचार से नष्ट हो गए, कभी विनष्ट हो गए, कभी भ्रष्ट हो गए, तुम कभी नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो गए। आज तुम जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हें सुख प्राप्त नहीं हो सकता। पदम् गोसालेण सव्वाणुभतिस्स भासरासी- गोशालेन सर्वानुभूतेः भस्मराशि-करण- गोशाल द्वारा सर्वानुभूति का भस्म-राशि करणकरण-पदं १०४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य १०४. उस काल उस समय श्रमण भगवान् भगवओ महावीरस्स अंतेवासी पाईण- भगवतः महावीरस्य अन्तेवासी महावीर के अन्तेवासी पूर्वजनपद के निवासी जाणवए सव्वाणुभूती नाम अणगारे प्राचीन-जानपदः सर्वानुभूतिः नाम सर्वानुभूति नाम का अनगार था। वह प्रकृति पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणु- अनगारः प्रकृतिभद्रक: प्रकृत्युपशान्तः से भद्र और उपशान्त था। उसके क्रोध, कोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभः मृदु- मान, माया और लोभ प्रतनु थे। वह मृदुअल्लीणे विणीए धम्मायरियाणुरागेणं मार्दवसम्पन्नः आलीनः विनीतः मार्दव सम्पन्न, आलीन (संयतेन्द्रिय) और एयमढं असदहमाणे उठाए उट्टेइ, उठेत्ता धर्माचार्यानुरागेन एतमर्थम् अश्रद्दधानः । विनीत था। धर्माचार्य के अनुराग से अनुरक्त जेणेव गोसाले मखलिपुत्ते तेणेव उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय यत्रैव था। इस अर्थ पर अश्रद्धा करते हुए वह उठने उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालं । गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव की मुद्रा में उठा, उठकर जहां मंखलिपुत्र मंखलिपुत्ते एवं बयासी-जे वि ताव उपागच्छति, उपागम्य गोशालं गोशाल था वहां आया, वहां आकर गोसाला! तहारूवस्म समणस्स वा मंखलिपुत्रम् एवमवादीत्-यः अपि मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहामाहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं तावत् गोशाल! तथारूपस्य श्रमणस्य गोशाल! जो तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण धम्मियं सुवयणं निसामेति, से वि ताव वा माहनस्य वा अन्तिकम् एकम् अपि के पास एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण वंदति नमसति सक्कारेति सम्माणेति आर्य धार्मिकं सुवचनं निशाम्यति, सः करता है, वह भी उन्हें वन्दन करता है। कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं पज्जुवासति, अपि तावत् वन्दते नमस्यति नमस्कार करता है, सत्कार-सम्मान करता किमंग पुण तुमं गोसाला! भगवया चेव सत्कारयति सम्मानयति कल्याणं मङ्गलं है, कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्तपव्वाविए, भगवया चेव मुंडाविए, देवतं चैत्यं पर्युपास्ते, किमङ्ग पुनः त्वं चित्त वाले श्रमण की पर्युपासना करता है। भगवया चेव सेहाविए, भगक्या चेव । गोशाल! भगवता चैव प्रव्राजितः, गोशाल! भगवान् ने तुम्हें प्रव्रजित किया, सिक्खाविए, भगवया चेव बहुस्सुतीकए, भगवता चैव मुण्डितः, भगवता चैव भगवान् ने तुम्हें मुंडित किया, भगवान् ने तुम्हें भगवओ चेव मिच्छं विपडिवन्ने? तं मा शिक्षितः, भगवता चैव शिक्षयितः, शैक्ष बनाया, भगवान् ने तुम्हें शिक्षित किया, एवं गोसाला! नारिहसि गोसाला! सचेव भगवता चैव बहुश्रुतीकृतः, भगवतः भगवान् ने तुम्हें बहुश्रुत बनाया। तुम भगवान् ते सा छाया, नो अण्णा॥ चैव मिथ्या विप्रतिपन्नः? तत् मा एवं के प्रति ही मिथ्यात्व-विप्रतिपन्न हो गए? गोशाल! नार्हसि गोशाल! सत्या एव गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए तव सा छाया, नो अन्या। उचित नहीं हैं। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, अन्य नहीं है। १०५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः सव्वाणुभूतिणा अणगारेणं एवं बुत्ते सर्वानुभूतिना अनगारेण एवम् उक्ते समाणे आसुरुत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए सति आशुरक्तः रुष्टः कुपितः मिसिमिसेमाणे सव्वाणुभूतिं अणगारं 'चंडिक्किए' 'मिसिमिसेमाणे' तवेणं तेएणं एगाहचं कडाहचं भासरासिं सर्वानुभूतिम् अनगारं तपसा तेजसा करेति॥ एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं करोति। १०५. सर्वानुभूति अनगार के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया। वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो गया। क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर उसने सर्वानुभूति अनगार को अपने तपः-तेज से कूटाघात की भांति एक प्रहार में राख का ढेर कर दिया। १०६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः . गोशालः मंखलिपुत्रः १०६. मंखलिपुत्र गोशाल सर्वानुभूति अनगार सव्वाणभतिं अणगारं तवेणं तेएणं सर्वानुभूतिम् अनगारं तपसा तेजसा को अपने तपः-तेज से कूटाघात की भांति Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १०७-१०८ एगाहचं कूडाहचं भासरासिं करेत्ता दोचं पि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ, उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धसेति, उच्चावयाहिं निन्भंछणाहिं निब्भंछेति, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति, निच्छोडेत्ता एवं वयासी - नट्टेसि कदाइ, विणट्ठेसि कदाइ, भट्ठेसि कदाइ, नहविणट्ट-भट्ठेसि कदाइ, अज्ज न भविसि, नाहि ते ममाहिंतो सहमत्थि ॥ गोसालेण सुनक्खत्तस्स परितावण-पदं १०७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी कोसलजाणवए सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणी धम्मायरियाणुरागेणं एयमहं असद्दहमाणे उट्ठाए उट्ठे, उत्ता जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं एवं बयासी - जे बताव गोसाला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं निसामेति, सेविताव वंदति नम॑सति सक्कारेति सम्माणेति कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति, किमंग पुण तुमं गोसाला! भगवया चैव पव्वाविए, भगवया चैव मुंडाविए, भगवया चैव सेहाविए, भगवया चैव सिक्खाविए, भगवया चैव बहुस्सुतीकए, भगवओ चैव मिच्छं विप्पडिवन्ने ? तं मा एवं गोसाला ! नारिहसि गोसाला ! सच्चेव ते सा छाया, नो अण्णा ॥ १०८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्खत्तेणं अणगारेणं एवं वृत्ते समाणे आरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसि - मिसेमाणे सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावे ॥ २६४ एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं कृत्वा द्विः अपि श्रमणं भगवन्तं महावीरम् उच्चावचाभिः आक्रोशनाभिः आक्रोशति, उच्चावचाभिः उद्घर्षणाभिः उद्घर्षति, उच्चावचाभिः निर्भर्त्सनाभिः निर्भर्त्सयन्ते, उच्चावचाभिः निश्छोटनाभिः निश्छोटयन्ति, निश्छोट्य एवमवादीत्-नष्टोऽसि कदाचित् विनष्टोऽसि कदाचित्, भ्रष्टोऽसि कदाचित् नष्ट - विनष्टभ्रष्टोऽसि कदाचित्, अद्य न भवसि नहि ते मत् सुखम् अस्ति । गोशालेन सुनक्षत्रस्य परितापन-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तेवासी कौशलजानपदः सुनक्षत्रः नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः यावत् विनीतः धर्माचार्यानुरागेन एतमर्थम् अश्रद्दधानः उत्थया उत्तिष्ठति उत्थाय यत्रैव गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य गोशालं मंखलिपुत्रम् एवमवादीत्-यः अपि तावत् गोशाल ! तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा अन्तिकम् एकम् अपि आर्यं धार्मिकं सुवचनं निशाम्यति सः अपि तावत् वन्दते नमस्यति सत्करोति संमन्यते कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपास्ते, किमङ्ग पुनः त्वं गोशाल ! भगवता चैव प्रव्राजितः, भगवता चैव मुण्डितः, भगवता चैव शिक्षितः, भगवता चैव शिक्षयितः, भगवता चैव बहुश्रुतीकृतः, भगवतः चैव मिथ्या विप्रतिपन्नः ? तत् मा एवं गोशाल! सत्या एव तव सा छाया, नो अन्या ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः सुनक्षत्रेण अनगारेण एवम् उक्ते सति आशुरक्तः रुष्टः कुपितः 'चंडिक्किए ' 'मिसिमिसेमाणे' सुनक्षत्रम् अनगारं तपसा तेजसा परितापयति । भगवई एक प्रहार में राख का ढेर कर दूसरी बार भी श्रमण भगवान् महावीर के प्रति उच्चावच आक्रोश-युक्त वचनों से आक्रोश प्रकट किया, उच्चावच उद्घर्षणा - युक्त वचनों से उद्घर्षण किया, उच्चावच निर्भर्त्सना - युक्त वचनों से निर्भर्त्सना की, उच्चावच तिरस्कारयुक्त वचनों से तिरस्कार किया, तिरस्कार कर इस प्रकार कहा- तुम कभी आचार से नष्ट हो गए, तुम कभी विनष्ट हो गए, तुम कभी भ्रष्ट हो गए, तुम कभी नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट हो गए। आज तुम जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हें सुख प्राप्त नहीं हो सकता। गोशाल द्वारा सुनक्षत्र को परिताप-पद १०७. उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर का अंतेवासी कौशल जनपद का निवासी सुनक्षत्र नामक अनगार था । प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। धर्माचार्य के अनुराग से अनुरक्त था। इस अर्थ के प्रति अश्रद्धा करते हुए उठने की मुद्रा में उठा उठकर जहां मंखलिपुत्र गोशाल था, वहां आया, वहां आकर मंखलिपुत्र गोशाल को इस प्रकार कहा- गोशाल! जो तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का श्रवण करता है, वह उन्हें वंदन करता है, नमस्कार करता है, सत्कार सम्मान करता है, कल्याणकारी, मंगल, देव, और प्रशस्तचित्त वाले श्रमण की पर्युपासना करता है । गोशाल ! भगवान् ने तुम्हें प्रव्रजित किया, भगवान ने तुम्हें मुंडित किया, भगवान ने तुम्हें शैक्ष बनाया, भगवान् ने तुम्हें शिक्षित किया, भगवान ने तुम्हें बहुश्रुत बनाया, तुम भगवान के प्रति ही मिथ्यात्व - विप्रतिपन्न हो गए? इसलिए गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है । गोशाल ! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, तुम अन्य नहीं हो। १०८. सुनक्षत्र अनगार के इस प्रकार कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया। वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया । उसका रूप रौद्र हो गया। क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर उसने अपने तपः तेज से सुनक्षत्र अनगार को परितापित किया। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६५ श. १५ : सू. १०६-११२ १०६. तए णं से सुनक्वत्ते अणगारे ततः सः सुनक्षत्रः अनगारः गोशालेन १०६. मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएण मंखलिपुत्रेण तपसा तेजसा परितापिते परितापित होने पर सुनक्षत्र अनगार, जहां परिताविए समाणे जेणेव समणे भगवं सति यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया, महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता । तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो बंदइ भगवन्तं महावीरं त्रिः वन्दते नमस्यति, वन्दन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच वन्दित्वा नमस्यित्वा स्वयमेव पञ्च स्वयं ही पंच महाव्रतों का आरोपण किया, महन्बयाई आरुभेति, आरुभेत्ता समणा महाव्रतानि आरोहति, आरुह्य आरोपण कर श्रमण श्रमणियों से क्षमाय समणीओ य खामेइ, खामेत्ता । श्रमणान् च श्रमणीः च क्षमयति, याचना की, क्षमा याचना कर, आलोचनाआलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते क्षमयित्वा आलोचित-प्रतिक्रान्तः प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त कर क्रमशः आणुपुवीए कालगए॥ समाधिप्राप्तः आनुपूर्व्या कालगतः। मृत्यु को प्राप्त हो गया। गोशाल का भगवान के वध के लिए तेज-निसर्जन-पद गोसालेण भगवओ वहाए तेयनिसिरण-पदं गोशालस्य भगवतः वधाय तेजः- निसर्जन-पदम् ११०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः सुनक्षत्रम सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं अनगारं तपसा तेजसा परिताप्य त्रिः परितावेत्ता तच्चं पि समणं भगवं महावीरं । अपि श्रमणं भगवन्तं महावीरं उच्चावउच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ, चाभिः आक्रोशनाभिः आक्रोशति, उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धंसेति, उच्चावचाभिः उद्घर्षणाभिः उद्घर्षति, उच्चावयाहिं निभंछणाहिं निभंछेति, उच्चावचाभिः निर्भर्त्सनाभिः निर्भर्त्सयन्ते, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति, उच्चावचाभिः निश्छोटनाभिः निच्छोडेत्ता एवं वयासी-नटे सि कदाइ, निश्छोटयन्ति, निश्छोट्य एवमवादीत्विणढे सि कदाइ, भट्ठे सि कदाइ, नट्ठ- नष्टोऽसि कदाचित्, विनष्टोऽसि विणठ्ठ-भट्ठे सि कदाइ, अज्ज न भवसि, कदाचित्, भ्रष्टोऽसि कदाचित्, नष्टनाहि ते ममाहितो सुहमत्थि॥ विनष्ट-भ्रष्टोऽसि कदाचित्, अद्य न भवसि, नहि तव मत् सुखम् अस्ति। ११०. अपने तपः-तेज से सुनक्षत्र अनगार को परितापित कर मंखलिपुत्र गोशाल ने तीसरी बार भी श्रमण भगवान् महावीर के प्रति उच्चावच आक्रोश-युक्त वचनों से आक्रोश प्रकट किया, उच्चावच उद्घर्षण-युक्त वचनों से उद्घर्षणा की, उच्चावच निर्भर्त्सना-युक्त वचनों से निर्भर्त्सना की, उच्चावच तिरस्कारयुक्त वचनों से तिरस्कृत किया, तिरस्कार कर इस प्रकार कहा-तुम कभी आचार से विनष्ट हो गए, कभी नष्ट हो गए, कभी भ्रष्ट हो गए। कभी विनष्ट, नष्ट और भ्रष्ट हो गए, तुम आज जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हें सुख प्राप्त नहीं हो सकता। १११. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं ततः श्रमणः भगवान् महावीरः गोशालं मंखलिपत्तं एवं वयासी-जे वि ताव गोस- मंखलिपुत्रम् एवमवादीत्-यः अपि ला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स तावत् गोशाल! तथारूपस्य श्रमणस्य वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं वा माहनस्य वा अन्तिकम् एकम् अपि सुवयणं निसामेति, से वि ताव वंदति आर्य धार्मिकं सुवचनं निशाम्यति, सः नमसति सक्कारेति सम्माणेति कल्लाणं अपि तावत् वन्दते नमस्यति सत्करोति मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति, किमंग संमन्यते कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पुण गोसाला! तुम मए चेव पञ्चाविए, पर्युपास्ते, किमङ्ग पुनः गोशाल! त्वं मए चेव मुंडाविए, मए चेव सेहाविए, मए मया चैव प्रव्राजितः, मया चैव चेव सिक्खाविए, मए चेव बहुस्सुतीकए, मुण्डितः, मया चैव शिक्षितः, मया चैव ममं चेव मिच्छं विपडिवन्ने? तं मा एवं शिक्षयितः, मया चैव बहुश्रुतीकृतः, मम गोसाला! नारिहसि गोसाला! सच्चेव ते चैव मिथ्या विप्रतिपन्नः? तत् मा एवं सा छाया, नो अण्णा॥ गोशाल! नार्हसि गोशाल! सत्या एव तव सा छाया, नो अन्या। .११. श्रमण भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! जो तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का श्रवण करता है, वह वंदन-नमस्कार करता है, सत्कार-सम्मान करता है। कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्त वाले श्रमण की पर्युपासना करता है। गोशाल! मैंने तुम्हें प्रव्रजित किया, मैंने तुम्हें मुंडित किया, मैंने तुम्हें शैक्ष बनाया, मैंने तुम्हें शिक्षित किया, मैंने तुम्हें बहुश्रुत किया, तुम मेरे प्रति ही मिथ्यात्व-विप्रतिपन्न हो गए? इसलिए गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, तुम अन्य नहीं हो। ११२. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः श्रमणेन ११२. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १५ : सू. ११३,११४ २६६ समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ते भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति समाणे आगुरुत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए आशुरक्तः रुष्टः कुपितः 'चंडिक्किए' मिसिमिसेमाणे तेयासमुग्धाएणं 'मिसिमिसेमाणे' तेजःसमुद्घातेन समोहण्णइ, समोहणित्ता सत्तह पचाई समवहन्यते, समवहृत्य सप्ताष्ट पदानि पच्चोसक्कइ; पच्चोसक्कित्ता समणस्स। प्रत्यवष्वष्कते, प्रत्यवष्वष्क्य श्रमणस्य भगवओ महावीररस वहाए सरीरंगसि भगवतः महावीरस्य वधाय शरीरके तेयं निसिरति-से जहानामए तेजः निसृजन्ति-अथ यथानामिका वाउक्कलिया इ वा वायगंडिलिया इ वा वातोत्कलिका इति वा, वातमण्डलिका सेलसि वा कुटुंसि वा थंभंसि वा थूभंसि इति वा शैले वा कुडये वा स्तम्भे वा वा आवारिज्जमाणी वा निवारिज्जमाणी स्तूपे वा आवार्यमाणा वा निवार्यमाणा वा साणं तत्थ नो कमति नो पक्कमति। वा सा तत्र नो क्राम्यति वा नो प्रक्राम्यति वा। एवामेव गोसालस्स वि मखलिपुत्तस्स तये एवमेव गोशालस्य अपि मंखलिपुत्रस्य तेए समणस्स भगवओ महावीरस्स बहाए तपः तेजः श्रमणस्य भगवतः सरीरगंसि निसिढे समाणे से णं तत्थ नो महावीरस्य वधाय शरीरके निसृष्टं सत् कमति नो पक्कमति अंचियंचिं करेति, तत्र नो क्राम्यति नो प्रक्राम्यति करेत्ता आयाहिण-पयाहिणं करेति, अञ्चि-ताञ्चि करोति, कृत्वा करेत्ता उई वेहासं उप्पइए, से णं तओ आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा उर्ध्वं पडिहए पडिनियत्तमाणे तमेव गोसालस्स विहायसम् उत्पतितम्, तत् ततः मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे- प्रतिहतं प्रतिनिवर्तमानं तम् एव अणुडहमाणे अंतो-अंतो अणूप्पविट्टे॥ गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य शरीरकम् अनुदहन्-अनुदहन् अन्तः-अन्तः अनुप्रविष्टम्। कहने पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ गया, वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया। उसका रूप रौद्र हो गया। क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त होकर वह तैजस समुद्घात से समवहत हुआ, समवहत होकर सात-आठ पैर पीछे सरका, पीछे सरक कर श्रमण भगवान् महावीर के वध के लिए अपने शरीर से तेज का निसर्जन किया। जिस प्रकार उत्कलिका वात, मंडलिका वात, पर्वत, भित्ति, स्तम्भ अथवा स्तूप से आवारित अथवा निवारित होती हुई उनका क्रमण नहीं करती और प्रक्रमण नहीं करती। इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर के वध के लिए मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर से निकला हुआ तपःतेज उनका क्रमण नहीं करता, प्रक्रमण नहीं करता, गमनागमन करता है, दायीं ओर से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणा करता है-प्रदक्षिणा कर वह शक्ति आकाश में ऊंची उछली, वहां से प्रतिहत होकर लौटती · हुई उसी मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर को जलाती हुई, जलाती हुई उसके भीतर अनुप्रविष्ट हो गई। ११३. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सएणं ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः स्वकेन ११३. मंखलिपुत्र गोशाल ने स्वयं के तेज से तेएणं अण्णाइट्टे समाणे समणं भगवं तेजसा अन्वाविष्टः सन् श्रमणं भगवन्तं अनाविष्ट होने पर श्रमण भगवान् महावीर महावीरं एवं वयासी-तुम णं आउसो महावीरम् एवमवादीत्-त्वम् आयुष्मान् को इस प्रकार कहा-आयुष्मन् काश्यप! मेरे कासवा! मम तवेणं तेएणं अण्णाइटे काश्यप! मम तपसा तेजसा तपः-तेज से अनाविष्ट होकर तुम्हारा शरीर समाणे अंतो छहं मासाणं अन्वाविष्टः सन् अन्तं षण्णां मासानां पित्तज्वर से व्याप्त हो जाएगा, उसमें जलन पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए । पित्तज्वरपरिगतशरीरः दाहावक्रान्तिकः पैदा हो जाएगी, तुम छह मास के भीतर छउमत्थे चे कालं करेस्ससि॥ छद्मस्थः चैव कालं करिष्यसि। छद्मस्थ अवस्था में मृत्यु को प्राप्त करोगे। ११४. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं ततः श्रमणः भगवान् महावीर: गोशालं ११४. श्रमण भगवान महावीर ने मंखलिपुत्र मंखलिपुत्तं एवं बयासी-नो खलु अहं मंखलिपुत्रम् एवमवादीत-नो खलु अहं गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! गोसाला! तव तवेणं तेएणं अण्णाइटे गोशाल! तव तपसा तेजसा । तुम्हारे तपः-तेज से पराभूत होकर, मेरा समाणे अंतो छण्हं मासाणं पित्तज्जर- अन्वाविष्टः सन अन्तं षण्णां मासानां __ शरीर पित्तज्वर से व्याप्त नहीं होगा, उसमें परिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउगत्थे चेव पित्तज्वरपरिगतशरीरः दाहावक्रान्तिकः जलन पैदा नहीं होगी, मैं छह माह के भीतर कालं करेस्सामि, अहण्णं अण्णाई सोलस छद्मस्थः चैव कालं करिष्यामि, अहम् मृत्यु को प्राप्त नहीं करूंगा। मैं अन्य सोलह वासाई जिणे गुहत्थी विहरिस्सामि। तुमं अन्यानि षोडश वषाणि जिनः सुहस्ती वर्ष तक जिन-अवस्था में गंध-हस्ती की णं गोसाला! अप्पणा चेव सएणं तेएणं विहरिष्यामि। त्वं गोशाल! आत्मना चैव भांति विहरण करूंगा। गोशाल! स्वयं अपने अण्णाइडे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स स्वकेन तेजसा अन्वाविष्टः सन् अन्तः तपः-तेज से पराभूत होकर तुम्हारा शरीर पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए सप्तरात्रस्य पित्तज्वरपरिगतशरीरः पित्तज्वर से व्याप्त हो जाएगा, उसमें जलन छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि॥ दाहावक्रान्तिकः छद्मस्थः चैव कालं पैदा हो जाएगी, तुम सात दिन के भीतर करिष्यसि। छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करोगे। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई २६७ श. १५ : सू. ११५-११७ सावत्थीए जणपवाद-पदं श्रावस्त्या जनापवाद-पदम् श्रावस्ती में जनप्रवाद-पद ११५. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग- ततः श्रावस्त्यां नगर्यां शृंगाटक-त्रिक- ११५. श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, तिग-चउक्क-चचर-चउम्मुह-महापह- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स ___ बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति यावत् राजमार्गों, मार्गों पर बहुजन परस्पर इस एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खलु एवं प्ररूपयति-एवं खलु देवानुप्रिय! प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करते हैंदेवाणुप्पिया! सावत्थीए नगरीए बहिया श्रावस्त्यां नगर्यां बहिः कोष्ठके चैत्ये द्वौ । देवानुप्रियो! श्रावस्ती नगरी के बाहर कोष्ठक कोट्ठए चेइए दुवे जिणा संलवंति–एगे जिनौ संलपतः-एकः वदति त्वं पूर्वं चैत्य में दो जिन संलाप करते हैं। एक कहता वदंति तुमं पुल्विं कालं करेस्ससि, एगे कालं करिष्यसि, एकः वदति त्वं पूर्व है-तुम पहले काल करोगे। एक कहता है-तुम वदंति तुम पुग्विं कालं करेस्ससि। तत्थ णं कालं करिष्यसि। तत्र कः पुनः पहले काल करोगे। उनमें कौन सम्यग्वादी के पुण सम्मावादी? के मिच्छावादी? तत्थ सम्यगवादी? कः मिथ्यावादी? तत्र यः है? कौन मिथ्यावादी है। उनमें जो णं जे से अहप्पहाणे जणे से वदति-समणे यथाप्रधानः जनः स वदति-श्रमणः यथाप्रधान जन (मुख्य व प्रतिष्ठित व्यक्ति) भगवं महावीरे सम्मावादी, गोसाले । भगवान महावीरः सम्यग्वादी, गोशालः है, वह कहता है-श्रमण भगवान् महावीर मंखलिपुत्ते मिच्छावादी॥ मंखलिपुत्रः मिथ्यावादी। सम्यगवादी है, मंखलिपत्र गोशाल मिथ्यावादी गोसालेण समणाणं पसिणवागरण-पदं गोशालेन श्रमणानां प्रशनव्याकरण-पदम ११६. अज्जोति! समणे भगवं महावीरे । आर्य इति! श्रमणः भगवान् महावीरः समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं बयासी- श्रमणान् निर्ग्रन्थान् आमन्त्र्य अज्जो! से जहानामए तणरासी इ वा एवमवादीत्-आर्य! अथ यथानामक: कट्ठरासी इ वा पत्तरासी इ वा तयारासी इ तृणराशिः इति वा काष्ठराशिः इति वा वा तुसरासी इ वा भुसरासी इ वा । पत्रराशिः इति वा त्वग् राशिः इति वा गोमयरासी इ वा अवकररासी इ वा तुषराशिः इति वा बुसराशिः इति वा अगणिझामिए अगणिझूसिए अगणि- गोमयराशिः इति वा अवकरराशिः इति परिणामिए हयतेए गयतेए नट्ठतेए भट्ठतेए वा अग्निध्मातः इति वा अग्निजुष्टः लुत्ततेए विणहतेए जाए, एवामेव गोसाले । इति वा अग्निपरिणामितः इति वा मंखलिपुत्ते ममं वहाए सरीरगंसि तेयं हततेजाः गततेजाः नष्टतेजाः निसिरित्ता हयतेए गयतेए नहतेए भट्ठतेए भ्रष्टतेजाः लुप्ततेजाः विनष्टतेजाः लुत्ततेए विणट्ठतेए जाए, तं छंदेणं जातः, एवमेव गोशालः मंखलिपुत्रः मम अज्जो! तुन्भे गोसालं मंखलिपुत्तं वधाय शरीरके तेजः निसृत्य हततेजाः धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह, गततेजाः नष्टतेजाः भ्रष्टतेजाः धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह, लुप्ततेजाः विनष्टतेजाः जातः, तत् धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह, अद्वेहि य छन्देन आर्य! यूयं गोशालं मंखलिपुत्रं हेहि य पसिणेहि य वागरणेहि य धार्मिक्या प्रतिचोदनया प्रतिचोदयात, कारणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करेह॥ धार्मिक्या प्रतिसारणया प्रतिसारयत, धार्मिकेन प्रत्युपचारेण प्रत्युपचारयत, अथैः च हेतुभिः च प्रश्नैः च व्याकरणैः च कारणैः च निःपृष्टप्रश्नव्याकरणं गोशाल से श्रमणों का प्रश्नव्याकरण-पद ११६. 'आर्यों-श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण निग्रंथों को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा-'आर्यो! जैसे तृण का ढेर, काठ का ढेर, पत्रों का ढेर, छाल का ढेर, तुष का ढेर, भूसे का ढेर, गोमय (गोबर) का ढेर, अकुरडी का ढेर, अग्नि से जल जाने पर, अग्नि से झुलस जाने पर, अग्नि से परिणमित होने पर उसका तेज हत हो जाता है, उसका तेज चला जाता है, उसका तेज लुप्त हो जाता है, उसका तेज विनष्ट हो जाता है, इसी प्रकार मेरे वध के लिए अपने शरीर से तेज का निसर्जन कर मंखलिपुत्र गोशाल हत-तेज, गत-तेज, लुप्त-तेज और विनष्ट-तेज वाला हो गया है, इसलिए आर्यो! तुम मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक प्रतिस्मारणा से प्रतिस्मारित करो, धार्मिक प्रत्युपचार से प्रत्युचारित करो, अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, व्याकरणों और कारणों के द्वारा निरुत्तर-प्रश्न एवं व्याकरण-रहित करो। कुरुता ११७. तए णं ते समणा निग्गंथा समणेणं ततः ते श्रमणाः निर्ग्रन्थाः श्रमणेन भगवता भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा महावीरेण एवम् उक्ताः सन्तः श्रमणं समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, वंदित्ता, नमंसित्ता जेणेव गोसाले वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव गोशालः मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छंति, उवाग- मंखलिपुत्रः तत्रैव उपागच्छन्ति, ११७. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर श्रमण निर्गन्थों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर जहां मंखलिपुत्र गोशाल था वहां गए, जाकर मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. ११८,११६ २६८ च्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए उपागम्य गोशालं मंखलिपुत्रं धार्मिक्या पडिचोयणाए पडिचोएंति, धम्मियाए प्रतिचोदनया प्रतिचोदयन्ति, धार्मिक्या पडिसारणाए पडिसारेंति, धम्मिएणं प्रतिसारणया प्रतिसारयन्ति, धार्मिकेन पडोयारेण पडोयारेंति, अद्वेहि य हेऊहि य प्रत्युपचारेण प्रत्युपचारयन्ति अथैः च पसिणेहि य, वागरणेहि कारणेहि य । हेतुभिः च प्रश्नैश्च व्याकरणैः च कारणैः निप्पट्टपसिणवागरणं करेंति॥ च निःपृष्टप्रश्नव्याकरणं कुर्वन्ति। भगवई प्रतिप्रेरणा से प्रतिप्रेरित किया, धार्मिक प्रतिस्मारणा से प्रतिस्मारित किया, धार्मिक प्रत्युपचार से प्रत्युपचारित किया। विभिन्न अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, व्याकरणों और कारणों के द्वारा निरुत्तर प्रश्न एवं व्याकरण-रहित किया। ११८. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः श्रमणैः ११८. श्रमण-निर्ग्रन्थों द्वारा धार्मिक प्रतिप्रेरणा समणेहिं निग्गंथेहिं धम्मियाए पडि- निर्ग्रन्थैः धार्मिक्या प्रतिचोदनया से प्रतिप्रेरित होने पर, धार्मिक प्रतिस्मारणा चोयणाए पडिचोइज्जमाणे धम्मियाए प्रतिचोद्यमानः, धार्मिक्या प्रतिसारणया से प्रतिस्मारित होने पर, धार्मिक प्रत्युपचार पडिसारणाए पडिसारिज्जमाणे, धम्मिएणं प्रतिसार्यमाणः, धार्मिकेन प्रत्युपचारेण से प्रत्युपचारित होने पर, विभिन्न अर्थों, हेतुओं, पडोयारेण य पडोयारेज्जमाणे, अद्वेहि य प्रत्युपचार्यमाणः, अर्थैः च हेतुभिः च प्रश्नों, व्याकरणों और कारणों के द्वारा हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य प्रश्नैः च व्याकरणैः च कारणैः च निरुत्तर-प्रश्न एवं व्याकरण-रहित किए जाने कारणेहि य निष्पट्ठपसिणवागरणे निःपृष्टप्रश्नव्याकरणः क्रियमाणः पर मंखलिपुत्र गोशाल तत्काल आवेश में आ कीरमाणे आसुरुत्ते रुढे कुविए आशुरक्तः रुष्टः कुपितः 'चंडिक्किए' गया, वह रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे नो संचाएति 'मिसिमिसेमाणे' नो शक्नोति श्रमणानां उसका रूप रोद्र हो गया। क्रोध की अग्नि से समणाणं निग्गंधाणं सरीरगस्स किंचि निर्ग्रन्थानां शरीरकस्य किञ्चित् प्रदीप्त होकर वह श्रमण निर्गन्थों के शरीर को आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाएत्तए, आबाधां वा व्याबाधां वा उत्पादयितुं, किञ्चित आबाधा, अथवा व्याबाधा पहुंचाने छविच्छेदं वा करेत्तए॥ छविच्छेदं वा कर्तुम्। में, अथवा छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुआ। गोसालस्स संघभेद-पदं गोशालस्य संघभेद-पदम् गोशाल का संघभेद-पद ११६. तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं ततः ते आजीविकाः स्थविराः गोशालं ११६. श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा धार्मिक प्रतिप्रेरणा मंखलिपुत्तं समणेहिं निग्गंथेहिं धम्मियाए मंखलिपुत्रं श्रमणैः निर्ग्रन्थैः धार्मिक्या से प्रतिप्रेरित किए जाने पर, धार्मिक धम्मियाए प्रतिचोदनया प्रतिचोद्यमानं,धार्मिक्या प्रतिस्मारणा से प्रतिस्मारित किए जाने पर, पडिसारणाए पडिसारिज्जमाणं, धम्मिएणं प्रतिसारणया प्रतिसार्यमाणं, धार्मिकेन धार्मिक प्रत्युपचार से प्रत्युपचारित किए जाने पडोयारेण य पडोयारेज्जमाणं, अद्देहि य । प्रत्युपचारेण प्रत्युपचार्यमाणं, अर्थैः च पर विभिन्न अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, व्याकरणों हेऊहि य पसिणेहि य वागरणेहि य हेतुभिः च प्रश्नैः च व्याकरणैः च कारणैः और कारणों के द्वारा निरुत्तर-प्रश्न एवं कारणेहि य निष्पट्ठपसिणवागरणं __ च निःपृष्टव्याकरणं क्रियमाणम्, व्याकरण-रहित किए जाने पर मंखलिपुत्र कीरमाणं, आसुरुत्तं रुटुं कुवियं __आशुरक्तं रुष्टं कुपितं 'चंडिक्कियं' गोशाल तत्काल आवेश में आ गया। रुष्ट हो चंडिक्कियं मिसिमिसेमाणं समणाणं 'मिसिमिसेमाणं' श्रमणानां निर्ग्रन्थानां गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो निग्गंथाणं सरीगस्स किंचि आबाहं वा शरीरकस्य किञ्चित् आबाधां वा गया, क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त होकर वह वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकरेमाणं ___ व्याबाधां वा छविच्छेदं वा अकुर्वन्तं श्रमण निर्गन्थों के शरीर को किञ्चित् पासंति, पासित्ता गोसालस्स पश्यन्ति, दृष्ट्वा गोशालस्य आबाधा, व्याबाधा अथवा छविच्छेद न करते मंखलिप्त्तस्स अंतियाओ आयाए मंखलिपुत्रस्य अन्तिकात् 'आयए' हुए, मंखलिपुत्र गोशाल को आजीवक अवक्कमंति, अवक्कमित्ता जेणेव समणे (आदाय) अपक्रामन्ति, अपक्रम्य यत्रैव स्थविरों ने देखा, देखकर उन्होंने मंखलिपुत्र भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव गोशाल के पास से अपने आप अपक्रमण उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर __उपागच्छन्ति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं किया, अपक्रमण कर जहां श्रमण भगवान् तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, महावीरं त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां महावीर थे वहां आए, आकर श्रमण भगवान् करेत्ता वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता कुर्वन्ति, कृत्वा वन्दन्ते नमस्यन्ति, महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन समणं भगवं महावीरं उवसंपज्जित्ताणं वन्दित्वा नमस्यित्वा श्रमणं भगवन्तं बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदनविहरंति। अत्थेगतिया आजीविया थेरा महावीरम् उपसम्पद्य विहरन्ति। नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर भगवान् गोसालं चेव मंखलिपुत्तं उवसंपज्जित्ताणं अस्त्येके आजीविकाः स्थविराः गोशालं महावीर को स्वीकार कर विहार करने लगे। विहरंति॥ चैव मंखलिपुत्रम् उपसम्पद्य विहरन्ति। कुछ आजीवक स्थविर मंखलिपुत्र गोशाल को ही स्वीकार कर विहार करने लगे। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र १०५-११६ प्राचीन भारत में २५०० - २६०० वर्षों पूर्व भी विभिन्न सम्प्रदायों एवं मतावलम्बियों के बीच वाद-विवाद, टकराव आदि की घटनाओं के प्रचुर उल्लेख प्राच्य साहित्य में उपलब्ध है। प्रस्तुत शतक में गोशालक ने भगवान् महावीर के समवसरण में स्वयं उपस्थित होकर अपने सिद्धांतों को प्रस्तुत कर भगवान् महावीर को असत्य घोषित करने की घटना को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। इसी चर्चा प्रसंग में भगवान् महावीर के दो निर्ग्रन्थों-सर्वानुभूति अनगार एवं सुनक्षत्र अनगार द्वारा प्रतिकार किए जाने पर गोशालक क्रोध के आवेश में आकर तेजोलेश्या द्वारा उन्हें भस्मीभूत कर देता है और अंत में स्वयं भगवान् महावीर द्वारा सत्योद्घाटन किए जाने पर क्रुद्ध होकर उन पर भी गोशालक तेजोलेश्या का प्रयोग कर उन्हें गोसालस्स पडिगमण-पदं १२०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते जस्साए हव्वमागए तमहं असाहेमाणे, रुंदाई पलोएमाणे, दीहुण्हाई नीससमाणे, दाढियाए लोमाई लुंचमाणे, अबडुं कंडूयमाणे, पुयलिं पप्फोडेमाणे, हत्थे विणिगुणमाणे, दोहि वि पाएहिं भूमिं कोट्टेमाणे हा हा अहो! हओहमस्सि ति कट्ट समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सावत्थी नगरी, जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छड़, उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगए, मज्जपाणगं पियमाणे, अभिक्खणं गायमाणे, अभिक्खणं नच्चमाणे, अभिक्खणं हालाहलाए कुंभकारीए अंजलिकम्मं करेमाणे, सीयलएणं मट्टियापाणएणं आयंचिणउदएणं गायाई परिसिंचमाणे विहरइ ॥ सूत्र १२० शब्द-विमर्श २६६ भाष्य मारने की कोशिश करता है। चर्चा में जो विवाद हुआ, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप पूरे श्रावस्ती नगर में चर्चा फैल जाती है और 'कौन सत्य ?' कौन असत्य ?' के विषय में जन चर्चा चलती है। आखिर गोशालक स्वयं अपनी ही तेजोलेश्या से आहत हो जाता है। भगवान् महावीर पर भी तेजोलेश्या का दुष्प्रभाव छह मास तक तीव्र पीड़ा उत्पन्न करने वाला सिद्ध हुआ। इस समग्र घटना-प्रसंग के दो पहलू हैं १. इतना घोर विरोध होने पर भी भगवान् महावीर द्वारा क्षमा का प्रयोग । अबडु (अवटू) - गर्दन का पृष्ठ भाग । ' पुलि-वृत्तिकार ने इसे 'पुततलि' माना है।' इससे इसका अर्थ होता है - कूल्हा पफोडेमाणे- चमरेन्द्र के प्रसंग में 'अप्फोडेमाणे' का अर्थ 'करास्फोटन' किया गया है। उसका तात्पर्य है- हाथों को आकाश में १. भ. वृ. १५/१२० - अवडुं' ति कृकाटिकां । २. वही, १५ / १२० - पुयलिं पप्फोडेमाणे' त्ति 'पुततलीं' पुतप्रदेशं प्रस्फोटयन् । ३. भ. वृ. ३ / ११२ - ' अप्फोडेइ' त्ति करास्फोट करोति । ४. आप्टे प्रस्फोटनं - Striking, beating. गोशालस्य प्रतिक्रमण-पदम् ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः यस्यार्थेन 'हव्वं' आगतः तम् अर्थम् असाधयन् 'रुंदाई' प्रलोकमानः, दीर्घोष्णानि निःश्वसन्, 'दाढियाए' लोमानि लुञ्चन्, अवटुं कण्डुयमानः, 'पुयलिं' प्रस्फोटयन् हस्तान् 'विणिगुणमाणे', द्वाभ्याम् अपि पादाभ्यां भूमिं कुट्टन् हा हा अहो हतः अहम् अस्मि इति कृत्वा श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकात् कोष्ठकात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव श्रावस्ती नगरी यत्रैव हालाहलायाः कुंभकार्याः कुम्भकारापणे तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य हालाहलायाः कुंभकार्याः कुम्भकारापणे आम्रकूणक- हस्तगतः मद्यपानकं पिबन् अभीक्ष्णं गायन्, अभीक्ष्णं नृत्यन् अभीक्ष्णं हालाहलायाः कुम्भकार्याः अञ्जलिकर्म कुर्वन्, शीतलकेन मृत्तिकापानकेन आतञ्चन उदकेन गात्राणि परिषिञ्चत् विहरति । भाष्य २. गोशालक द्वारा असत्यावलम्बन, तीव्र क्रोध और दो साधुओं पर तेजोलेश्या का घातक प्रयोग तथा भगवान् महावीर पर भी तेजोलेश्या का पीड़ाकारक प्रयोग आदि। श. १५ : सू. १२० गोशाल का प्रतिक्रमण-पद १२०. 'मंखलिपुत्र गोशाल जिस प्रयोजन के लिए शीघ्र आया, उस प्रयोजन को सिद्ध न कर पाने पर, दिशाओं की ओर दीर्घ दृष्टिपात करते हुए, दीर्घ और गर्म निःश्वास लेते हुए, दाढी के बालों को नोचते हुए, गर्दन के पृष्ठ भाग को खुजलाते हुए, कूल्हे के भाग का प्रस्फोट करते हुए, हाथों को मलता हुआ, दोनों पैरों को भूमि पर पटकते हुए 'हा हा, अहो' इस प्रकार बोलता हुआ श्रमण भगवान् महावीर के पास से, कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर जहां श्रावस्ती नगरी थी, जहां हालाहला कुंभकारी का कुंभकारापण था, वहां आया, आकर हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में आम्रफल को हाथ में लेकर मद्यपानक को पीते हुए, बार-बार गाते हुए, बार-बार नाचते हुए, बार बार हालाहला कुंभकारी को प्रणाम करते हुए मिट्टी के बर्तन में रहे हुए आतञ्चन उदक से अपने गात्र का परिसिंचन करता हुआ विहरण कर रहा था। उछालना। यहां पर 'पुतप्रदेश का प्रस्फोट करने' का तात्पर्य है- कूल्हे के भाग को उछालना अथवा उस पर हाथ से प्रहार करना। आचार्य भिक्षु ने इसका अर्थ किया है-साथल को कूटना । * आयंचिण उदअ ( आतञ्चन - उदक) - दो या अधिक प्रकार के तरल पदार्थों के मिश्रण से बनाया गया तरल पदार्थ जो गाढा बन जाता है। ५. गोसाला री चौपई, ढाल २० से पूर्व दूहा ४ (भ. जो. खं. ४, पृ. ४१० ) - बले साथल बेहूं कूटतो थको"। &. Monier-Monier Williams Sanskrit English Dictionary Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १२१ ३०० भगवई गोसालेणं नाणासिद्धत-परूवण-पदं गोशालेन नानाप्तिद्धान्त-प्ररूपण-पदम् गोशाल के द्वारा नानासिद्धान्त-प्ररूपण-पद १२१. अज्जोति! समणे भगवं महावीरे आर्य इति! श्रमणः भगवान् महावीरः १२१. आर्यो! श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमण समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी- श्रमणान् निम्रन्थान् आमन्त्र्य एवमवादीत्- निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित कर इस प्रकार जावतिए ण अज्जो! गोसालेणं मखलि- यावत् आर्य! गोशालेन मंखलिपुत्रेण कहा-आर्यो! मंखलिपुत्र गोशाल ने मेरे वध के पुत्तेणं ममं बहाए सरीरगंसि तेये निसट्टे से । मम वधाय शरीरके तेजः निसृष्टं तत् लिए जितने तेज का निसर्जन किया, वह णं अलाहि पज्जत्ते सोलसण्हं जण- अलं (अलाहि) पर्याप्तं षोडशानां जन- सोलह जनपदों का घात, वध, उच्छेदन और वयाणं, तं जहा-१. अंगाणं २. बंगाणं पदानाम् तद्यथा-१. अङ्गानाम् २. भस्मीसात् करने के लिए पर्याप्त था, जैसे३. मगहाणं ४. मलयाणं ५. मालवगाणं बङ्गानाम् ३. मगधानाम् ४. मलयानाम् ५. १. अंग २. बंग ३. मगध ४. मलय ५. मालव ६. अच्छाण ७. वच्छाण ८.कोच्छाणं मालवकानाम् ६. अच्छानाम् ६. अच्छ ७. वत्स ८. कौत्स ६. पाठ ११. वज १. पाढाणं १०. लाढाणं ११. बज्जीणं ७. वत्सानाम् ८. कोच्छानाम् १२. मौली १३. काशी १४. कौशल १५. १२. मोलीणं १३. कासीणं १४. कोस-६. पाठानाम् १०. लाढानाम् अवध १६. शुम्भोत्तर। लाणं १५. अवाहाणं १६. सुंभुत्तराणं ११. वजीनाम् १२. मोलीनाम् घाताए वहाए उच्छादणयाए भासी- १३. काशीनाम् १४. कोशलानाम् करणयाए। १५. अवाहानाम् १६. शुम्भोत्तराणाम् घाताय वधाय उच्छादनायै भस्मी करणाय। जं पि य अज्जो! गोसाले मंखलिपुत्ते यद् अपि च। आर्य! गोशालः आर्यो! मंखलिपुत्र गोशाल हालाहला हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि मंखलिपुत्रः हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुंभकारी के कुंभकारापण में आम्रफल को अंबकूणगहत्थगए, मज्जपाणं पियमाणे कुम्भकारापणे आम्रकूणकहस्तगतः हाथ में लेकर मद्यपान को पीता हुआ, बार अभिक्खणं गायमाणे, अभिक्खणं मद्यपानकं पिबन्, अभीक्ष्णं गायन, बार गाता हुआ, बार-बार नृत्य करता हुआ, नच्चमाणे, अभिक्खणं हालाहलाए अभीक्ष्णं नृत्यन्, अभीक्ष्णं हालाहलायाः बार-बार हालाहला कुंभकारी को प्रणाम कुंभकारीए अंजलिकम्मं करेमाणे विहरइ, कुम्भकार्याः अञ्जलिकर्म कुर्वन् करता हुआ विहरण कर रहा है, वह अपने तस्स वि य णं वज्जस्स पच्छादणट्ठयाए विहरति, तस्यापि च वय॑स्य पाप कर्म के प्रच्छादन के लिए इन आठ चरमों इमाई अट्ठ चरिमाइं पण्णवेइ, तं जहा- प्रच्छादनार्थाय इमानि अष्ट चरमाणि की प्ररूपणा करता है, जैसे-१. चरम पान १. चरिमे पाणे २. चरिमे गेये ३.चरिमे प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-१.चरमं पानं २. चरम गीत ३. चस्म नृत्य. ४. चरम अंजलि नट्टे ४. चरिमे अंजलिकम्मे ५. चरिमे २. चरमं गेयं ३. चरमं नृत्यं ४. चरमम् ५. चरम पुष्कल- संवर्तक महामेघ ६. चरम पोक्खलसंवट्टए महामेहे ६.चरिमे सेयणए अञ्जलिकर्म ५. चरमः पुष्कल-संवर्तकः सेचनक गंधहस्ती ७. चरम महाशिला कंटक गंधहत्थी ७, चरिमे महासिलाकंटए महामेघः ६. चरमः सेचनकः गन्धहस्ती संग्राम ८. मैं इस अवसर्पिणी काल के चौबीस संगामे ८. अहं च णं इमीसे ७. चरमः महाशिलाकंटक: संग्रामः । तीर्थंकरों चरम तीर्थंकर के रूप में सिद्ध ओसप्पिणिसमाए चउवीसाए तित्थगराणं ८. अहं च अस्याम् अवसर्पिणी-समायां होऊंगा यावत् सब दुःखों का अन्त करूंगा। चरिमे तित्थगरे सिज्झिस्सं जाव अंतं चतुर्विंशतिः (चउवीसाए) तीर्थकरेस्स। कराणाम् चरमः तीर्थकरः सेत्स्यामि यावद् अन्तं करिष्यामि। जं पि य अज्जो! गोसाले मंखलिपुत्ते । यत् अपि च आर्य। गोशालः मंखलिपुत्रः आर्यों ! मंखलिपुत्र गोशाल मिट्टी के बर्तन में सीयलएणं मट्टियापाणएणं आयंचिण- शीतलकेन मृत्तिकापानके आतञ्चन- रहे हुए शीतल आतञ्चन-जल से गात्र का उदएणं गायाई परिसिंचमाणे विहरइ, उदकेन गात्राणि परिषिञ्चत् विहरति, परिसिञ्चन करता हुआ विहरण कर रहा है, तस्स वि णं बज्जस्स पच्छादणट्ठयाए इमाइं तस्यापि च वय॑स्य प्रच्छदनार्थाय वह अपने पाप कर्म के प्रच्छादन के लिए इन चत्तारि पाणगाई चत्तारि इमानि चत्वारि पानकानि इमानि चार पानकों और चार अपानकों की प्रज्ञापना अपाणगाइं पण्णवेति॥ चत्वारि अपानकानि प्रज्ञापयति। करता है। भाष्य सूत्र १२१ आठ चरम प्रस्तुत सूत्र में ऐतिहासिक, वैज्ञानिक एवं सैद्धांतिक मान्यताओं गोशालक द्वारा अपने अंतिम समय को निकट जानकर आठ की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत हुए हैं। 'चरमों' का प्रतिपादन किया गया। इसमें जो आठ बातें हैं, वे कुछ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३०१ श. १५ : सू. १२२-१२६ विचित्र-सी लगती हैं। वृत्तिकार के अनुसार-गोशालक अपनी ही तेजोलेश्या द्वारा दग्ध हो जाने पर उसके दाह का उपशम करने के लिए मद्यपान, गीत, नृत्य और (हालाहला के साथ) अंजलिकर्म आदि का सेवन कर रहा था। उसने अपने इन दोषों को छिपाने के लिए आठ चरमों' का काल्पनिक सिद्धांत गढ़ लिया तथा ऐसा निरूपण किया कि निर्वाण से पूर्व इस प्रकार के 'चरमों' का होना अवश्यंभावी होता है। आठ में से चार चरमों का संबंध व्यक्तिशः गोशालक की उस समय की प्रवृत्ति के साथ जुड़ता है तथा शेष चारों का संबंध ऐतिहासिक घटनाओं के साथ है।' इन घटनाओं में महाशिलाकंटक संग्राम तथा सेचनक गंधहस्ती के ऐतिहासिक प्रसंग महावीर और गोशालक के युग की बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटनाओं से जुड़े हुए हैं। सोलह जनपद सोलह जनपदों के नामों का भारतीय प्राचीन इतिहास एवं महावीर (या बुद्ध) कालीन भूगोल के अध्ययन की दृष्टि से बहुत बड़ा महत्त्व है। तेजोलेश्या की ऊर्जा द्वारा इन सोलह जनपदों को भस्म कर देने की क्षमता आधुनिक अणु-अस्त्रों एवं नाभिकीय शस्त्रों के साथ तुलनीय है। १२२. से किं तं पाणए? पाणए चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा१. गोपुट्ठए २. हत्थमदियए ३. आत- वतत्तए ४. सिलापन्भट्ठए। सेत्तं पाणए॥ अथ किं तत् पानकम्? पानकं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा१. गो-पृष्ठकम् २. हस्तमर्दितकम् ३. आतपतप्तकम् ४. शिलाप्रभ्रष्टकम्। १२२. वह पानक क्या है? पानक चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-१. गाय की पीठ से गिरा हुआ २. हाथ के मर्दन से उत्पन्न ३. सूर्य के आतप से तप्त ४. शिला से प्रभ्रष्ट। यह है पानका १२३. से किं तं अपाणए? अपाणए चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा१. थालपाणए २. तयापाणए ३. सिंबलिपाणए ४. सुद्धपाणए॥ अथ किं तत् अपानकम्? अपानकं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा१. स्थालपानकम् २. त्वचपानकम् ३. शिम्बलिपानकम् ४. शुद्धपानकम्। १२३. वह अपानक क्या है? अपानक चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-१. स्थाल पानक २. त्वचा पानक ३. सिंबलि (मटर आदि की फली) का पानक ४. शुद्ध पानका १२४. से किं तं थालपाणए? थालपाणए-जे णं दाथालगं वा दावारगं वा दाकुंभगं वा दाकलसं वा सीतलगं उल्लगं हत्थेहिं पराफुसइ, न य पाणियं पियइ। सेत्तं थालपाणए॥ अथ किं तत् स्थालपानकम्? स्थालपानकम्-यः दकस्थालकं वा दकवादकं वा दककुंभकं वा दककलशं वा शीतलकं आर्द्रकं हस्ताभ्यां परामृशति, न च पानीयं पिबति। तद् तद् स्थालपानकम्। १२४. वह स्थाल-पानक क्या है? स्थाल-पानक-पानी से आर्द्र स्थाल, बारक (सिकोरा), घड़ा, कलश अथवा शीतलक, जिसका हाथ से स्पर्श किया जा सके, किन्तु जिसे पीया न जा सके। यह है स्थालपानक। १२५. से किं तं तयापाणए? अथ किं तत् त्वचपानकम्? तयापाणए-जे णं अंबं वा अंबाडगं वा त्वचपानकम्-यः आम्र वा आम्रातकं वा जहा पओगपदे जाव बोरं वा तेंबरुयं वा यथा प्रयोगपदे यावत् बदरं वा तरुणगं आमगं आसगंसि आवीलेति _ 'तेंबरूयं' वा तरुणकम् आमकं पवीलेति वा, न य पाणिय पियइ। सेत्तं आस्यके आपीडयति वा प्रपीडयति तयापाणए॥ वा, न च पानीयं पिबति। तदेतद् त्वचपानकम्। १२५. वह त्वचा-पानक क्या है? त्वचा-पानक-आम्र, अम्बाडक आदि प्रज्ञापना प्रयोग-पद (१६/५५) की भांति यावत् बेर अथवा तिन्दुरूक, जो तरुण और अपक्व है, उसे मुख में रखकर स्वल्प चूसे, अथवा विशेष रूप से चूसे किन्तु उसका पानी न पी सके। यह है त्वचा-पानक। १२६. से किं तं सिंबलिपाणए? अथ किं तत् शिम्बलिपानकम्? १२६. वह सिंबलि-पानक क्या है? सिंबलिपाणए-जे णं कलसंगलियं वा शिम्बलिपानकम-यः कल 'संगलियं' सिंबलि-पानक-ग्वार की फली, मूंग की फली १. भ. वृ. १५/१२१-'चरमे' त्ति न पुनरिदं भविष्यतीतिकृत्वा चरम, तत्र मगध साम्राज्य और वज्जी गणतंत्र के बीच हुए युद्धों का पूरा विवरण पानकादीनि चत्वारि स्वगतानि, चरमता चैषां स्वस्य निर्वाणगमनेन विस्तार से उपलब्ध है। भारतीय इतिहास के लिए विद्वज्जनों के लिए यह पुनरकरणात्, एतानि च किल निर्वाण-काले जिनस्यावश्यम्भावीनीति विलक्षण उल्लेख शोध-कार्य की दृष्टि से अनुसंधेय है। नास्त्येतेषु दोष इत्यस्य तथा नाहमेतानि दाहोपशममायोपसेवामीत्स्य चार्थस्य ३. कूणिक अजातशत्रु के भाई हल्ल और विहल्ल के पास यह विलक्षण प्रकाशनार्थत्वादवद्यप्रच्छादनार्थानि भवन्ति, पुष्कलसंवर्तकादीनि तु त्रीणि हाथी एवं देव प्रदत हार थे, जिन्हें हड़पने के उद्देश्य से यह भयंकर युद्ध बाह्यानि प्रकृतानुपयोगेऽपि चरमसामान्याज्जनचित्तरञ्जनाय चरमाण्युक्तानि। किया गया था। विस्तृत वर्णन के लिए देखें-उत्तराध्ययन, लक्ष्मीवल्लभकृत २. भ. वृ. ७/१७३-२१० तथा जैन आगम निरयावलिया, १/६४-१४१ में वृत्ति, पत्र १११ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १२७ - १२६ मुग्गसंगलियं वा माससंगलियं वा सिंबलिसंगलियं वा तरुणियं आमियं आसगंसि आवीलेति वा पवीलेति वा, न य पाणियं पियति । सेत्तं सिंबलिपाणए ॥ १२७. से किं तं सुद्धपाणए ? सुद्धपाणए - जे णं छम्मासे सुद्धखाइमं खाइ, दो मासे पुढविसंथारोवगए, दो मासे कट्टसंथारोवगए, दो मासे दब्भसंथारोवगए, तस्स णं बहुपडि - पुण्णाणं छण्हं मासाणं अंतिमराईए इमे दो देवा महिडिया जाव महेसक्खा अंतियं पाउन्भवंति तं जहा - पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य। तए णं ते देवा सीयलएहिं उल्लएहिं हत्थेहिं गायाई परामुसंति, जे णं ते देवे साइज्जति, से णं आसीरविसत्ताए कम्मं पकरेति, जे णं ते देवे नो साइज्जति, तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवति, से णं सणं तेएणं सरीरगं झामेति, झामेत्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति । सेत्तं सुद्धपाणए ॥ अयं पुल- आजीविओवासय-पदं १२८. तत्थ णं सावत्थीए नयरीए अयंपुले नामं आजीविओवासए परिवसई अड्डे जहा हालाहला जाव आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहर। तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स अण्णया कदायि पुव्वरत्तावरत्तकाल - समयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकपे समुप्पज्जित्था - किं संठिया णं हल्ला पण्णत्ता ? १२६. तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीवि - ओवासगस्स दोचं पि अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते उत्पन्ननाणदंसणधरे जिणे ३०२ वा मुद्गसंगलियं वा माष 'संगलियं' वा शिम्बलि 'संगलियं' वा तरुणिकां वा आमिकां आस्यके आपीडयति वा प्रपीडयति वा, न च पानीयं पिबति । तदेतद् शिम्बलिपानकम् । अथ किं तत् शुद्धपानकम् ? शुद्धपानकम् - यः षड्मासान् शुद्धखाद्यं खादति, द्वौ मासौ पृथ्वीसंस्तारकोपगतः द्वौ मासौ काष्ठसंस्तारकोपगतः द्वौ मासौ दर्भसंस्तारकोपगतः तस्य बहुप्रतिपूर्णानां षण्णां मासानां अन्तिमरात्रौ इमौ द्वौ देवौ महर्द्धिकौ यावत् महेशाख्यौ अन्तिकम् प्रादुर्भवतः, तद्यथा - पूर्णभद्रः च माणिभद्रः च । ततः तौ देवौ शीतलकैः आर्द्रकैः हस्तैः गात्राणि परामृशतः यः तौ देवौ 'साइज्जति', सः आशीविषत्वेन कर्म प्रकरोति, यः तौ देवौ नो- 'साइज्जति', तस्य स्वस्मिन् शरीरके अग्निकायः संभवति, सः स्वकेन तेजसा शरीरकं ध्यायति, ध्यात्वा ततः पश्चात् सिध्यति यावत् अन्तं करोति । तदेतद् शुद्धपानकम् । अयम्पुल- आजीविकोपासक-पदम् तत्र श्रावस्त्यां नगर्याम् अयम्पुलः नाम आजीविकोपासकः परिवसति - आढ्यः, यथा हालाहला यावत् आजीविकसमयेन आत्मानं भावयन् विहरति । ततः तस्य अयम्पुलस्य आजीविकोपासकस्य अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकायां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - किं संस्थिता 'हल्ला' प्रज्ञप्ता ? ततः तस्य अयम्पुलस्य आजीविकोपासकस्य द्विः अपि अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - एवं खलु मम धर्माचार्यः धर्मोपदेशकः गोशालः मंखलिपुत्रः उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः जिनः भगवई उड़द की फली, अथवा सिंबली की फली, जो तरुण और अपक्व हैं, को मुंह में स्वल्प चबाता है अथवा विशेष चबाता है। यह है सिंबल - पानक । १२७. वह शुद्ध पानक क्या है? शुद्ध पानक- जो छह मास तक शुद्ध खादिम आहार करता है, दो मास पृथ्वी- संस्तारक पर, दो मास काष्ठ संस्तारक पर दो मास दर्भ-संस्तारक पर सोता है, बहुप्रतिपूर्ण छह मास की अंतिम रात्रि में उसके ये दो देव प्रकट होते हैं, जैसे- पूर्णभद्र और माणिभद्र । वे देव शीतल और जलार्द्र हाथों से उसका स्पर्श करते हैं, जो उन देवों का अनुमोदन करता है, वह आशीविष के रूप में कर्म करता है, जो उन देवों का अनुमोदन नहीं करता है, उसके स्वयं के शरीर में अग्निकाय उत्पन्न हो जाता है। अग्निकाय अपने तेज से शरीर को जलाता है, जलाने के पश्चात् सिद्ध यावत् सब दुःखों का अंत करता है। यह है शुद्ध पानक । अयम्पुल - आजीविकोपासक पद १२८. श्रावस्ती नगरी में अयंपुल आजीवकउपासक रहता था - आढ्य, हालाहला कुंभकारी की भांति वक्तव्यता यावत् आजीवक सिद्धान्त के द्वारा अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहा था। उस अयंपुल आजीवक उपासक के किसी एक दिन पूर्वरात्र - अपररात्र काल समय में कुटुंबजागरिका करते हुए इस प्रकार का आध्यात्मिक स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-हल्ला नामक कीट किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है ? १२६. उस आजीवक - उपासक अयंपुल के दूसरी बार भी इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशाल उत्पन्न -ज्ञानदर्शन के धारक, अर्हत् जिन, केवली, सर्वज्ञ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३०३ श. १५: स. १३०-१३२ अरहा केवली सवण्णू सव्वदरिसी इहेव अर्हत् केवली सर्वज्ञः सर्वदर्शी इहैव और सर्वदर्शी है। वे इस श्रावस्ती नगरी में सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभ- श्रावस्त्यां नगर्यां हालाहलायाः हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में कारीए कुंभकारावणंसि आजीविय- कुम्भकार्याः कुम्भकारापणे आजीविक- आजीवक-संघ से संपरिवृत होकर आजीवकसंघसंपरिबुडे आजीवियसमएणं अप्पाणं संघपरिवृतः आजीविकसमयेन आत्मानं सिद्धांत के द्वारा अपने आपको भावित करते भावमाणे विहरइ, तं सेयं खलु मे कल्लं भावयन् विहरति, तत् श्रेयः खलु मे हुए विहार कर रहे हैं। इसलिए कल उषाकाल पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने गोसालं मखलिपुत्तं वंदित्ता जाव पज्जु- ज्वलति गोशालं मंखलिपुत्रं वन्दित्वा पर मंखलिपुत्र गोशाल को वंदना कर यावत् वासित्ता इमं एयारूवं वागरणं वागरित्तए यावत् पर्युपास्य इमम् एतद्रूपं व्याकरणं पर्युपासना कर यह इस प्रकार का व्याकरण त्ति कट्ट एवं संपेहेति, संपेहेत्ता कल्लं व्याकर्तुम् इति कृत्वा एवं सम्प्रेक्षते, पूछना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा ऐसी संप्रेक्षा पाउप्पभाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सम्प्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां की। संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते यावद् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे -फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के पहाए कयवलिकम्मे जाव अप्पमहग्या- तेजसा ज्वलति स्नातः कृतबलिकर्मा उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर स्नान भरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ यावद् अल्पमहाभिरणालंकृतशरीरः किया, बलिकर्म किया यावत् अल्पभार और पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता स्वकात गृहात् प्रतिनिष्क्रामति, बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को अलंकृत पायविहारचारेणं सावत्थिं नगर प्रतिनिष्क्रम्य पादविहारचारेण श्रावस्ती कर अपने घर से प्रतिनिष्क्रमण किया। मज्झमज्झेणं जेणेव हालाहलाए नगरी मध्यमध्येन यत्रैव हालाहलायाः प्रतिनिष्क्रमण कर पैदल चलते हुए श्रावस्ती कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव कुम्भकार्याः कुम्भकारापणः तत्रैव । नगरी के बीचोंबीच जहां हालाहला कुंभकारी उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालं उपागच्छति, उपागम्य गोशालं का कुंभकारापण था, वहां आया, वहां आकर मंखलिपुत्तं हालाहलाए कुंभकारीए मंखलिपुत्रं हालाहलायाः कुम्भकार्याः हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में कुंभकारावर्णसि अंबकूवगहत्थगयं कुम्भकारापणे आम्रकूणकहस्तगतं । मंखलिपुत्र गोशाल को हाथ में आम्रफल लेकर मज्जपाणगं पीयमाणं अभिक्खणं मद्यपानकं पिबन्तम्, अभीक्ष्णं मद्यपानक पीते हुए, बार-बार गाते हुए, गायमाणं, अभिक्खणं नञ्चमाणं, गायन्तम्, अभीक्ष्णं नृत्यन्तम्, अभीक्ष्णं बार-बार नाचते हुए, बार-बार हालाहला अभिक्खणं हालाहलाए कुंभकारीए हालाहलायाः कुम्भकार्याः अञ्जलिकर्मकुंभकारी से अंजलि-कर्म करते हुए मिट्टी के अंजलिकम्मं करेमाणं सीयलएणं मट्टिया कुर्वन्तं, शीतलकेन मृत्तिकापानकेन बर्तन में रहे हुए शीतल आतञ्जल जल से पाणएणं आयंचिण-उदयएणं गायाई 'आयंचिण'-उदकेन गात्राणि अपने गात्र का परिसिंचन करते हुए देखा, परिसिंचमाणे पासइ, पासित्ता लज्जिए परिसिञ्चन्तं पश्यति दृष्ट्वा लज्जितः । देखकर लज्जित हुआ, उसकी लज्जा प्रगाढ़ विलिए विड्डे सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ॥ 'वीलिए' वीडितः शनैः-शनैः होती चली गई। वह धीरे-धीरे पीछे सरक प्रत्यवष्वष्कते। गया। १३०. तए णं ते आजीविया थेरा अयंपूलं आजीवियोवासगं लज्जियं जाव पच्चोसक्कमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-एहि जाव अयंपुला! इतो॥ ततः ते आजीविकाः स्थविराः अयम्पुलम् १३०. आजीवक-स्थविरों ने आजीवक उपासक आजीविकोपासकं लज्जितं यावत् अयंपुल को लज्जित यावत् पीछे सरकते हुए प्रत्यवष्वष्कमाणं पश्यति, दृष्ट्वा देखा, देखकर इस प्रकार कहा-अयंपुल! यहां एवमवादीत्-एहि तावत् अयम्पुल! इतः। आओ। १३१. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए ततः सः अयम्पुलः आजीविकोपासकः १३१. आजीवक-उपासक अयंपुल आजीवकआजीवियथेरेहिं एवं वुत्ते समाणे जेणेव आजीविकस्थविरैः एवम् उक्तः सन् स्थविरों के इस प्रकार कहने पर जहां आजीविया थेरा तेणेव उवागच्छइ, यत्रैव आजीविकाः स्थविराः तत्रैव __ आजीवक-स्थविर थे, वहां आया, आकर उवागच्छित्ता आजीविए थेरे बंदइ नमसइ, उपागच्छति, उपागम्य आजीविकान् आजीवक स्थविरों को वंदन-नमस्कार वंदित्ता नमंसित्ता नचासन्ने जाव पज्जुव- स्थविरान् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा किया, वंदन-नमस्कार कर न अति दूर और सिइ॥ नमस्यित्वा न अत्यासन्नः यावत् पर्युपास्ते। न अति निकट-यावत् पर्युपासना करने लगा। १३२. अयंपुलाति! आजीविया थेरा अयम्पुल! अयि! आजीविकाः स्थविराः १३२. अयि अयुपुल! आजीवक स्थविरों ने For Private & Personal use only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १३३,१३४ ३०४ भगवई अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वयासी- अयम्युलम् आजीविकोपासकम् आजीवक-उपासक अयंपुल से इस प्रकार से नूणं ते अर्थपुला! पुज्वरत्तावरत्त- एवमवादिषुः-अथ नूनं ते अयम्पुल! कहा-अयंपुल! पूर्वरात्र-अपररात्र काल समय कालसमयसि कुडुबजागरियं जागर- पूर्वरात्रापरात्रकालसमये कुटुंब- में कुटुंब-जागरिका करते हुए इस प्रकार का माणस्स अयमेयारूवे अझथिए चिंतिए जागरिकायां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था- आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-हल्ला नामक किंसंठिया णं हल्ला पण्णत्ता? मनोगतः संकल्पः समुदपादि-किं कीट किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है? संस्थिता 'हल्ला' प्रज्ञप्ता? . तए णं तव अयंपुला! दोचं पि ततः तव अयम्पुल! द्विः अपि अयमेतद्रपः । अयंपुल! तुम्हें दूसरी बार भी इस प्रकार का अयमेयारूवे तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव तत् चैव सर्वं भणितव्यं यावत् श्रावस्ती । पूर्ववत् सर्व वक्तव्यता यावत् श्रावस्ती नगरी सावत्थिं नगरि मज्झमज्झेणं जेणेव हाल- नगरी मध्यमध्येन यत्रैव हालाहलायाः के बीचोंबीच जहां हालाहला कुंभकारी का हलाए कुंभकारीए कुभकारावणे, जेणेव कुम्भकार्याः कुम्भकारापणः यत्रैव इह कुंभकारापण है, जहां हम हैं, वहां शीघ्र इहं तेणेव हन्दमागए। से नूणं ते अयंपुला! तत्रैव 'हव्वं' आगतः। सः नूनं ते जाऊं। अयंपुल! का यह अर्थ संगत है? अढे समढे? अयम्पुल! अर्थः समर्थः? हंता अत्थि। हन्त अस्ति। हां, है। जं पि य अयंघुला! तव धम्मायरिए यदि च अयम्पुल! तव धर्माचार्यः अयंपुल! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते हालाह- धर्मोपदेशकः गोशालः मंखलिपुत्रः मंखलिपुत्र गोशाल हालाहला कुंभकारी के लाए कुंभकारीए कुभकारावर्णसि हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारापणे कुंभकारापण में हाथ में आम्रफल लेकर अंबकूणगहत्थगए जाव अंजलिं करेमाणे आम्रकूणकहस्तगतः यावत् अञ्जलिं यावत् अंजलि-कर्म करते हुए विहार कर रहे विहरइ, तत्थ वि णं भगवं इमाई अट्ठ कुर्वन् विहरति, तत्रापि भगवान् इमानि हैं। वहां भी भगवान् ने इन आठ चरमों का चरिमाइं पण्णवेति, तं जहा-चरिमे पाणे अष्ट चरमानि प्रज्ञापयति, तद् यथा- प्रज्ञापन किया है, जैसे-चरम पान यावत् सब जाव अंतं करेस्सति। चरमं पानं यावत् अंतं करिष्यति। दुःखों का अंत करेगा। जं पि य अयंपुला! तव धम्मायरिए यदपि च अयम्पुल! तव धर्माचार्यः अयंपुल! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक धम्मोवदेसए, गोसाले मंखलिपुत्ते धर्मोपदेशकः गोशालः मंखलिपुत्रः मंखलिपुत्र गोशाल मिट्टी के बर्तन में रहे हुए, सीयलएणं मट्टिया पाणएणं आयंचिण- शीतलकेन मृत्तिकां पानकेन आतञ्चन- शीतल आतञ्चन-जल से अपने गात्र को उदयणं गायाई परिसिंचमाणे विहरइ, उदकेन गात्राणि परिसिञ्चन् विहरति, आतञ्चन हुए विहार कर रहे हैं, वहां भगवान् तत्थ वि णं भगवं इमाइं चत्तारि पाणगाई, तत्रापि भगवान् इमानि चत्वारि ने इन चार पानकों और चार अपानकों की चत्तारि अपाणगाइं पण्णवेति। पानकानि, चत्वारि अपानकानि प्रज्ञापना की है। प्रज्ञापयति। से किं तं पाणए? पाणए जाव तओ पच्छा अथ किं तत् पानकम्? पानकं यावत् वह पानक क्या है? पानक यावत् उसके सिज्झति जाव अंतं करेति। ततः पश्चात् सिद्ध्यति यावद् अन्तं पश्चात् सिद्ध होता है, यावत् सब दुःखों का करोति। अंत करता है। तं गच्छ णं तुमं अयंपुला! एस चेव तव तत् गच्छ त्वम् अयम्पुल! एषः चैव तव अयंपुल! इसलिए तुम जाओ। ये तुम्हारे ही धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले धर्माचार्यः धर्मोपदेशकः गोशालः धर्माचार्य धर्मोपदेशक मंखलिपुत्र गोशाल यह मंखलिपुत्ते इमं एयारूवं वागरणं मंखलिपुत्रः इमम् एतद्रूपं व्याकरणं इस प्रकार का व्याकरण करेंगे। वागरेहिति॥ व्याकारयिष्यति। १३३. तए णं से अयंपुले आजीविओ- ततः सः अयम्पुल! आजीविकोपासकः १३३. आजीवक-उपासक अयंपुल आजीवकवासए आजीविएहिं थेरेहिं एवं वुत्ते समाणे आजीविकैः स्थविरैः एवम् उक्तः सन् स्थविरों के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हट्टतुढे उहाए उट्टेइ, उद्वेत्ता जेणेव गोसाले हृष्टतुष्टः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय होकर उठने की मुद्रा में उठा। उठकर जहां मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्थ गमणाए। यत्रैव गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव मंखलिपुत्र गोशाल था, वहां जाने के लिए प्रादीधरत् गमनाय। तत्पर हुआ। १३४. तए णं ते आजीविया थेरा ततः ते आजीविकाः स्थविराः १३४. आजीवक-स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशाल गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंबकूणगए- गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य आम्रकूणक- को एकांत में आम्रफल को फैंकने के लिए Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई डावणट्टयाए एगंतमंते संगारं कुब्वंति ॥ १३५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आजीवियाणं थेराणं संगारे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता अंबकूणगं एगंतमंते एडेड़ ॥ १३६. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उबागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासति ॥ हंता अस्थि । तं नो खलु एस अंबकूणए, अंबचोयए णं एसे । किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता ? वसीमूलसंठिया हल्ला पण्णत्ता । वीणं वाएहि रे वीरगा! वीणं वाएहि रे वीरगा! १३७. अयंपुलादि! गोसाले मंखलिपुत्ते अयम्पुल ! अयि ! गोशालः मंखलिपुत्रः अयम्पुलम् आजीविकोपासकम् एवमवादीत् - अथ नूनम् अयम्पुल ! पूर्वारात्रापरात्रकालसमये यावत् यत्रैव मम अन्तिकं तत्रैव 'हव्वं' आगतः । सः नूनम् अयम्पुल ! अर्थः समर्थः ? हन्त अस्ति अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं वयासीसे नूणं अयंपुला ! पुब्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव जेणेव ममं अंतियं तेणेव हव्वमागए। से नूणं अयंपुला ! अट्टे समट्ठे ? तत् नो खलु एषः आम्रकूणकः आम्र'चोयए' एषः । किं संस्थिता 'हल्ला' प्रज्ञप्ता? वंशीमूलसंस्थिता 'हल्ला' प्रज्ञप्ता । वीणां वादय रे वीरक ! वीणां वादय रे वीरक ! परम १३८. तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं इमं एयारूवं वागरणं वागरिए समाणे हतुचित्तमाणंदिए दिए पी मणे सोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए गोसालं मंखलिपुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता परिणाई पुच्छर, पुच्छित्ता अट्ठाई परियादियइ, परिया- दिइत्ता उठाए उट्ठे, उट्ठेत्ता गोसालं मंखलिपुत्तं वंद नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउ भूए तामेव दिसं पडिगए ॥ गोसालस्स अप्पणो नीहरण- निद्देस - पदं १३६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अपणो मरणं आभोएइ, आभोएत्ता ३०५ 'एडावण' - अर्थाय एकान्तम् अन्ते संगरं कुर्वन्ति । ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः आजीविकानां स्थविराणां संगरं प्रतीच्छति, प्रतीष्य आम्रकूणकम् एकान्तम् अन्ते एडयति । ततः सः अयम्पुलः आजीविकोपासकः यत्रैव गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य गोशालं मंखलिपुत्रं त्रिः यावत् पर्युपास्ते । ततः सः अयम्पुलः आजीविकोपासकः गोशालेन मंखलिपुत्रेण इमम् एतद्रूपं व्याकरणं व्याकृतः सन् हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्मानहृदयः गोशालं मंखलिपुत्रं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रश्नान् पृच्छति, पृष्ट्वा अर्थान् पर्यादत्ते, पर्यादाय उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय गोशालं मंखलिपुत्रं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूतः तस्यामेव दिशि प्रतिगतः । गोशालस्य आत्मनः निर्हरण- निर्देश-पदम् ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः आत्मनः मरणम् आभोगत आभोग्य संकेत किया। श. १५ : सू. १३५-१३६ १३५. मंखलिपुत्र गोशाल ने आजीवक स्थविरों के संकेत को ग्रहण किया, ग्रहण कर आम्रफल को एकांत में फेंक दिया। १३६. आजीवक- उपासक अयंपुल जहां मंखलिपुत्र गोशाल था, वहां आया, आकर मंखलिपुत्र गोशाल को तीन बार यावत् पर्युपासना की। १३७. अयंपुल ! मंखलिपुत्र गोशाल ने आजीवक उपासक अयंपुल से इस प्रकार कहा - अयंपुल ! पूर्वरात्र - अपररात्र काल समय यावत् जहां मैं हूं वहां शीघ्र आए । अयंपुल ! यह अर्थ संगत है ? हां, है । इसलिए यह आम्रफल नहीं, यह आम्र का छिलका है। हल्ला किस संस्थान वाली प्रज्ञप्त है ? हल्ला बांस- मूल के संस्थान वाली प्रज्ञप्त है। रे वीरो! वीणा बजाओ। रे वीरो! वीणा बजाओ । १३८. मंखलिपुत्र गोशाल के यह इस प्रकार की व्याकरण करने पर आजीवक उपासक अयंपुल हृष्ट-तुष्ट चित्तवाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। मंखलिपुत्र गोशाल को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर प्रश्नों को पूछा। पूछ कर अर्थों को ग्रहण किया, ग्रहण कर उठने की मुद्रा में उठा । उठकर मंखलिपुत्र गोशाल को वंदन - नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर जिस दिशा से आया उसी दिशा में लौट गया। गोशाल द्वारा अपनी मरणोत्तर क्रिया का निर्देश पद १३६. मंखलिपुत्र गोशाल ने अपने मरण को जानकर आजीवक स्थविरों को बुलाया, Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १५ : सू. १४०,१४१ ३०६ आजीविए थेरे सद्दावेइ, सदावेत्ता एवं आजीविकान् स्थविरान् शब्दयति, वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया! ममं शब्दयित्वा एवमवादीत्-यूयं कालगयं जाणित्ता सुरभिणा गंधोदएणं देवानुप्रियाः! मां कालगतं ज्ञात्वा ण्हाणेह, पहाणेत्ता पम्हलसुकुमालाए सुरभिणा गन्धोदकेन स्नपयतः, स्नात्वा गंधकासाईए गायाइं लूहेह, लूहेत्ता पक्ष्मलसुकुमालया गन्धकाषायिणा । सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिं- गात्राणि रूक्षयत, रूक्षयित्वा सरसेन । पह, अणुलिंपित्ता महरिहं हंसलक्षणं गोशीर्षचन्दनेन गात्राणि अनुलिम्पतः, पडसाडग नियंसेह, नियंसेत्ता सव्वा- अनुलिप्य महार्ह हंसलक्षणं पटशटकं । लंकारविभूसियं करेह, करेत्ता पुरिस- 'नियंसेह', 'नियंसेत्ता' सर्वालङ्कारसहस्सवाहिणी सीयं दुरुहेह, दुरुहेत्ता सा- विभूषितं कुरुतः, कृत्वा पुरुषसहस्रवत्थीए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क- वाहिनीं शिबिकाम् (दुरुहेह) चच्चर - चउम्मुह - महापह--पहेसु महया- (दुरुहेत्ता) श्रावस्त्यां नगर्यां शृंगाटकमहया सद्देणं उग्रोसेमाणा-उग्रोसेमाणा त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथएवं वदह-एवं खलु देवाणुप्पिया! गोसालं पथेषु महता-महता शब्देन मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी, अरहा उद्घोषयन्तः-उद्घोषयन्तः एवं अरहप्पलावी, केवली केवलिप्पलावी, वदत-एवं खलु देवानुप्रियाः ! गोशालः सव्वण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिणे जिणसदं मंखलिपुत्रः जिनः जिनप्रलापी, अर्हत् पगासेमाणे विहरित्ता इमीसे ___अर्हत्प्रलापी, केवली केवलिप्रलापी, ओसप्पिणीए चउवीसाए तित्थगराणं सर्वज्ञः सर्वज्ञप्रलापी, जिनः जिनशब्दं चरिमे तित्थगरे, सिद्धे जाव सब- प्रकाशयन् विहृत्य अस्याम् अवसर्पिण्यां दुक्खप्पहीणे-इड्डिसक्कारसमुदएणं मम चतुर्विंशतिः तीर्थकराणां चरमः सरीरगस्स नीहरणं करेह॥ तीर्थकरः, सिद्धः यावत् सर्वदुःखप्रहीण:-ऋद्धिसत्कारसमुदयेन मम शरीरस्य निर्हरणं कुरुतः। बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! तुम मुझे मृत्यु को प्राप्त जानकर सुरभित गंधोदक से स्नान करवाना, स्नान करा कर रोएंदार सुकुमार गंध-वस्त्र से शरीर को पौंछना, पौंछकर सरस गोशीर्ष चंदन का गात्र पर अनुलेप करना। अनुलेप कर बहुमूल्य अथवा महापुरुष योग्य हंसलक्षण वाला पट-शाटक पहनाना। पहनाकर सर्व अलंकारों से विभूषित करना, विभूषित कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका में चढ़ाना, चढ़ाकर श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर महान्महान् शब्दों के द्वारा उद्घोष करते हुए, उद्घोष करते हुए इस प्रकार कहनादेवानुप्रियो! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् होकर अर्हत-प्रलापी, केवली होकर केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन होकर 'जिन' शब्द से अपने आपको प्रकाशित करता हुआ, विहरण कर इस अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर था, उसने सिद्ध यावत् सब दुःखों को क्षीण कर दिया। इस प्रकार ऋद्धि-सत्कार-समुदय के द्वारा मेरे शरीर की मरणोत्तर क्रिया करना। १४०. तए णं ते आजीविया थेरा ततः ते आजीविकाः स्थविराः १४०. आजीवक-स्थविरों ने मंखलिपुत्र गोशाल गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमहें गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य एतमर्थं के इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया। विणएणं पडिसुणेति॥ विनयेन प्रतिशृण्वन्ति। गोसालस्स परिणाम-परिवत्तणपुव्वं गोशालस्य परिणाम-परिवर्तनपूर्व गोशाल का परिणाम-परिवर्तनपूर्वक कालधम्म-पदं कालधर्म-पदम् कालधर्म-पद १४१. तए णं गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ततः तस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य १४१. 'मंखलिपुत्र गोशाल के सातवीं रात में सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि पडिलद्ध- सप्तरात्रे परिणमति (परिणममाणंसि) परिणमन करते हुए, सम्यक्त्व के प्राप्त होने सम्मत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए प्रतिलब्धसम्यक्त्वस्य अयमेतद्रूपः पर इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, चिंतिए पथिए मणोगए संकप्पे आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न समुप्पज्जित्था-नो खलु अहं जिणे ___ मनोगतः संकल्पः समुदपादि-नो खलु -हुआ-मैं जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं हूं, जिणप्पलावी, अरहा अरहप्पलावी, अहं जिनः जिनप्रलापी, अर्हत् अर्हत्- अर्हत् होकर अर्हत्-प्रलापी नहीं हूं, केवली केवली केवलिप्पलावी, सवण्णू सव्व- प्रलापी, केवली केवलिप्रलापी, सर्वज्ञः होकर केवली-प्रलापी नहीं हूं, सर्वज्ञ होकर ण्णुप्पलावी, जिणे जिणसदं पगासेमाणे सर्वज्ञप्रलापी, जिनः जिनशब्द सर्वज्ञ-प्रलापी नहीं हूं, मैंने जिन न होकर जिन विहरिते अहण्णं गोसाले चेव मंखलिपत्ते प्रकाशयन् विहरतः अहं गोशालः चैव शब्द से प्रकाशित करते हुए विहार किया। मैं समणघायए समणमारए समणपडिणीए मंखलिपुत्रः चैव श्रमणघातकः श्रमण- ही मंखलिपुत्र गोशाल हूं। मैं श्रमण-घातक, आयरियउवज्झायाणं अयसकारए मारकः श्रमणप्रत्यनीकः आचार्य- श्रमण-मारक, श्रमण-प्रत्यनीक, आचार्यअवण्णकारए अकित्तिकारए बहूहिं उपाध्यायानाम् अयशकारकः अवर्ण- उपाध्यायों का अयश करने वाला, अवर्ण Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३०७ असब्भाबुब्भावणाहि मिच्छत्ताभि- कारकः अकीर्तिकारकः बहुभिः निवेसेहिं य अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा । असद्भावोद्भावनाभिः मिथ्यात्वाभिबुग्गाहेमाणे वुष्पाएमाणे विहरित्ता सएणं निवेशैः च आत्मानं च परं च तदुभयं वा तेएणं अण्णाइडे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स व्युद्ग्राहयन् व्युत्पादयन् विहृत्य स्वकेन पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए तेजसा अन्वाविष्टः सन् अन्तः छउमत्थे चेव कालं करेस्सं। समणे भगवं सप्तरात्रस्य पित्तज्वरपरिगतः शरीरः महावीरे जिणे जिणपलावी, अरहा दाहावक्रान्तिकः छद्मस्थः चैव कालं अरहप्पलावी, केवली केवलिप्पलावी, करिष्यामि। श्रमण: भगवान् महावीरः सवण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिणे जिणसदं जिनः जिनप्रलापी, अर्हत् अर्हत्पगासेमाणे विहरइ-एवं संपेहेति, प्रलापी, केवली केवलिप्रलापी, सर्वज्ञः संपेहेत्ता आजीविए थेरे सदावेइ, सदावेत्ता सर्वज्ञ-प्रलापी, जिनः जिनशब्द उच्चावय-सबह-सावियए पकरेति, पकरेत्ता प्रकाशयन् विहरति-एवं सम्प्रेक्षते, एवं वयासी-नो खलु अहं जिणे जिणप्प- सम्प्रेक्ष्य आजीविकान् स्थविरान् लावी जाव पगासेमाणे विहरए। अहण्णं शब्दयति, शब्दयित्वा उच्चावच-शपथगोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए । शापितकान् प्रकरोति, प्रकृत्य समणमारए समणपडिणीए आयरिय- एवमवादीत-नो खल अहं जिनः उवज्झायाणं अयसकारए, अवण्णकारए जिनप्रलापी यावत् प्रकाशयन् विहृतः। अकित्तिकारए बहहिं असम्भावुब्भाव- अहं गोशालः चैव मंखलिपुत्रः श्रमण- णाहि मिच्छत्ताभिनिवेसेहिं य अप्पाणं वा घातकः श्रमणमारकः श्रमण-प्रत्यनीकः परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे आचार्य-उपाध्यायानाम् अयशकारकः विहरित्ता सएणं तेएणं अण्णाइहे समाणे अवर्णकारकः अकीर्ति-कारकः बहुभिः अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे असद्-भावोद्भावनाभिः मिथ्यात्वाभि- दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सं। निवेशैः च आत्मानं वा परं वा तदुभयं वा समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी व्युद्गाहयन् व्युत्पादयन् विहृत्य स्वकेन जाव जिणसई पगासेमाणे विहरइ, तं तेजसा अन्वाविष्टः सन् अन्तः सप्ततुम्भं णं देवाणुप्पिया! ममं कालगयं . रात्रस्य पित्तज्वरपरिगतशरीरः दाहावजाणित्ता वामे पाए सुंबेणं बंधेह, बंधेत्ता क्रान्तिकः छद्मस्थःचैव कालं करिष्यामि। तिक्वुत्तो मुहे उट्ठभेह, उट्ठभेत्ता सावत्थीए श्रमणः भगवान महावीरः जिनः जिननगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- प्रलापी यावत् जिनशब्दं प्रकाशयन चउम्मुह-महापह-पहेसु आकट्ट-विकदि विहरति, तत् यूयं देवानुप्रियाः! मां करेमाणा महया-महया सद्देणं कालगतं ज्ञात्वा वा मे पादे शुम्बेन उग्योसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वदह-नो बध्नीत, बद्ध्वा त्रिः मुखे अवष्ठीवत, खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते अवष्ठीव्य श्रावस्त्यां नगर्यां शृंगाटकजिणे जिणप्पलावी जाव विहरिए। एस णं त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथगोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए पथेषु आकर्ष-विकृष्टिं कुर्वन्तः महताजाव छउमत्थे चेव कालगए। समणे भगवं महता शब्देन उद्घोषयन्तः उद्घोष - महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ। यन्तः एवं वदथ- नो खलु देवानुप्रियाः ! महया अणड्डी-असक्कार-समुदएणं मम गोशालः मंखलि-पुत्रः जिनः जिनप्रलापी यावत् विहृतः। एषः गोशालः चैव सरीरगस्स नीहरणं करेज्जाह-एवं वदित्ता मंखलिपुत्रः श्रमण-घातकः यावत् कालगए॥ छद्मस्थः चैव कालगतः। श्रमणः भगवान् महावीरः जिनः जिन-प्रलापी यावत् विहृतः। महता अनृद्धि-असत्कारसमुदयेन मम शरीरकस्य निर्हरणं कुरुतः (करेज्जाह)-एवम् उदित्वा कालगतः। श. १५ : सू. १४१ करने वाला, अकीर्ति करने वाला हूं। मैंने बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को दूसरे को तथा दोनों को भ्रांत करते हुए, मिथ्या धारणा में व्युत्पन्न करते हुए विहरण किया। अपने तेज से अभिभूत होकर सात रात के भीतर मेरा शरीर पित्त-ज्वर से ग्रस्त होकर दाह से अपक्रांत होकर मैं छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करूंगा। श्रमण भगवान महावीर जिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली होकर केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करते हुए विहार कर रहे हैं-इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर आजीवक स्थविरों को बुलाया, बुलाकर शपथ दिलाकर इस प्रकार कहा-मैं जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं हूं यावत् प्रकाशित करते हुए विहरण किया। मैं ही मंखलिपुत्र गोशाल हूं। मैं श्रमण-घातक, श्रमण-मारक, श्रमणप्रत्यनीक, आचार्य-उपाध्यायों का अयश करने वाला, अवर्ण करने वाला, अकीर्ति करने वाला हूं। मैंने बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को, दूसरे को तथा दोनों को भ्रांत करते हुए, मिथ्या धारणा में व्युत्पन्न करते हुए विहरण किया। अपने तेज से पराभूत होने पर मेरा शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया, मैं सात रात के भीतर दाह से अपक्रांत होकर छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करूंगा। इसलिए देवानुप्रियो! तुम मुझे मृत्यु को प्राप्त जानकर मेरे बाएं पैर को रज्जु से बांधना, बांधकर तीन बार मुंह पर थूकना, थूककर श्रावस्ती नगरी से शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर मुझे घसीटते हुए बाढ स्वर से उद्घोषणा करते हुए, उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहनादेवानुप्रियो! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं था। यावत् छदस्थ अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर जिन होकर जिन-प्रलापी हैं यावत् विहरण कर रहे हैं। महान् अऋद्धि और असत्कार समुदय के द्वारा मेरे शरीर की मरणोत्तर क्रिया करना-इस प्रकार कहकर वह मुत्यु को प्राप्त हो गया। , Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १४१ ३०८ भगवई भाष्य १. सूत्र १४१ प्रस्तुत शतक में उपलब्ध काल-विषयक सामग्री तथा भगवान् महावीर के महत्त्वपूर्ण जीवन-प्रसंगों के आधार पर हम एक परिपूर्ण काल-क्रम बना सकते हैं। पहले निम्नांकित तथ्यों पर ध्यान देना होगा १. महावीर ने ३० वर्ष की आयु में (मृगशीर्ष मास में) दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के समय एक वस्त्र रखा था, उसे दीक्षा के तेरह मास पश्चात् त्याग दिया और सर्वथा अचेलक हो गए। २. उनके साधना-काल के दूसरे वर्षावास में प्रथम मास में (अर्थात् दीक्षा के बीस मास पश्चात्) राजगृह के बाहिरिका नालन्दा में तन्तुवायशाला में गोशालक से प्रथम मिलन तथा गोशालक द्वारा शिष्य बनाने की प्रार्थना का अस्वीकार। उस समय तक गोशालक वस्त्रधारी था। ३. उसी वर्षावास के दूसरे, तीसरे मास के अन्त में भी गोशालक द्वारा पुनः शिष्य बनाने की प्रार्थना और महावीर द्वारा पुनः अस्वीकार। ४. चतुर्थ मास के अन्त में (अर्थात् मृगशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा) के दिन जब महावीर ने वहां से कोल्लाक सन्निवेश में अपना चतुर्थ मासखमण का पारण किया, तब गोशाल ने तंतुवायशाला में अपने वस्त्र, भांड आदि छोड़ दिए। तत्पश्चात् वह कोल्लाक सन्निवेश पहंचा तथा उस समय पुनः प्रार्थना करने पर महावीर ने कोल्लाक सन्निवेश के बाहर पणियभूमि में उसे अपना शिष्य बना लिया। (यह महावीर की दीक्षा के चौबीस मास पश्चात् हुआ, जबकि महावीर स्वयं अपनी दीक्षा के तेरह मास पश्चात् ही अचेलक हो गए थे। इसका तात्पर्य कि महावीर पहले अचेलक हो गए थे, गोशाल बाद में हुआ।) ५. भगवान महावीर का जन्म ई. पू. ५६६ भगवान महावीर की दीक्षा ई. पू. ५६६ भगवान महावीर का कैवल्य ई. पू. ५५७ -ये सर्वमान्य तिथियां हैं। उक्त तथ्यों के आधार पर महावीर ने ५६६ ई. पू. मृगशिर (नवम्बर) कृष्णा दशमी को दीक्षा ग्रहण की थी और उसके पश्चात् प्रथम वर्षावास (५६८ ई. पू. जुलाई-अक्टूबर) अस्थिक ग्राम में बिताया। दीक्षा के १३ मास बाद उन्होंने वस्त्र त्याग दिया तथा अचेलक हो गए। यह घटना भी ५६८ ई. पू. नवम्बर-दिसम्बर की है। इसके पश्चात् महावीर ने द्वितीय वर्षावास ५६७ ई. पू. (जुलाईअक्टूबर) नालंदा बाहिरिका की तंतुवायशाला में किया। तंतुवायशाला १. भ. १५।२०। ३. आयारो,६१/४। ३. वही,१५१२३-२६ ४. भ. १५/३०-४२। ५. भ. १५/४५-५५॥ ६. (क) भ. १५/५६ (ख) आव. चूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २६७,२६८ | में वर्षावास का प्रथम मासखमण प्रारंभ हआ-उस समय वहां मंखत्व. वृत्ति वाले, हाथ में चित्र फलक तथा वस्त्रधारी, दंडधारी गोशाल (मंखलिपुत्र) का भी आगमन हुआ; उसने भी वहीं वर्षावास किया। उस समय महावीर अचेलक थे, गोशाल सचेलक था। प्रथम मासखमण के पारणा के बाद गोशाल ने महावीर के दिव्य-अतिशयों से प्रभावित होकर स्वयं को शिष्य के रूप में स्वीकार करने की विनती की, किन्तु महावीर ने उसे स्वीकार नहीं किया। तंतुवायशाला में दूसरा और तीसरा मासखमण हुआ; प्रत्येक वार पारणा के बाद गोशाल द्वारा प्रार्थना की गई और महावीर द्वारा अस्वीकृत हुई। चतुर्थ मासखमण सम्पन्न होने पर ५६७ ई. पू., नवम्बर में वर्षावास संपन्न हुआ। महावीर तंतुवायशाला से विहार कर कोल्लाक सन्निवेश में पारणा करने के पश्चात् बाहर पणियभूमि में पहुंचे। उधर गोशाल ने जब महावीर को तंतुवायशाला में नहीं देखा, तो अपने समस्त भांड-उपकरण, वस्त्र, चित्रफलक आदि वहीं छोड़कर महावीर को खोजते-खोजते कोल्लाग सन्निवेश पहुंचा और पुनः स्वयं को शिष्य बनाने के लिए अनुनय किया; इस बार महावीर ने उसे शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया। इसका तात्पर्य यह हआ कि महावीर स्वयं तो अपनी दीक्षा के १३ मास बाद अचेलक हो गए थे तथा गोशाल की दीक्षा इसके १२ मास पश्चात् हुई। गोशाल तब तक सचेलक था। ई. पू. ५६७ नवम्बर से लेकर ई. पू. ५५६ तक (८ वर्षों तक) गोशाल महावीर के शिष्य के रूप में उनके साथ रहा। ई. पू. ५६० में लाढ, वजभूमि, सुम्हभूमि, अनार्यदेश में तथा ई. पू. ५५६ में कूर्मग्राम से सिद्धार्थ ग्राम की यात्रा के दौरान तिल के पौधे को उखाड़ने की घटना हुई;" तत्पश्चात् वापिस कूर्मग्राम में आते समय अग्नि वैश्यायन बालतपस्वी द्वारा गोशाल पर उष्ण तेजोलेश्या का प्रयोग, महावीर द्वारा शीतल तेजोलेश्या छोड़कर गोशाल की रक्षा तथा महावीर द्वारा तेजोलेश्या-प्राप्ति की विधि गोशालक को बताने की घटनाएं हुई; पुनः दूसरी बार कूर्मग्राम से सिद्धार्थग्राम की ओर जाते समय तिल के पौधे की निष्पत्ति, महावीर द्वारा वनस्पतिकायिक जीवों में 'पउट्ट परिहार' के सिद्धांत का प्रतिपादन तथा गोशाल द्वारा सभी जीवों में पउट्ट परिहार के सिद्धांत का निरूपण करना और महावीर से अपक्रमण अर्थात् पृथग होने की घटनाएं हुई। अलग होने के पश्चात् छह मास तक विधि के अनुसार तपस्या कर ई. पू. ५५८ में गोशाल ने तेजोलेश्या की उपलब्धि की। इसके पश्चात् वह आजीवक-संप्रदाय में सम्मिलित हो गया। (ग) श्रमण महावीर, पृ. ११५ । ७. वही, १५/५७-५६; आव. चूर्णि, पृ. २६७-२६८; श्रमण महावीर, पृ. ११५॥ ८. भ. १५/६०-६१; आव. चूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २६८; श्रमण महावीर, पृ. ११५,११६॥ ६. वही, १५/७२-७५; आव. चूर्णि, पूर्वभाग, पृ. २६६ । १०. वही, १५७६। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३०६ श्रावस्ती में छह दिशाचरों से अष्टविध महानिमित्त की विद्या को प्राप्त कर अपने आपको 'जिनत्व' की प्राप्ति वाला घोषित कर विचरने लगा। भगवान महावीर ने साधना काल के १३ वें वर्ष में अर्थात् ई. पू. ५५७ में कैवल्य प्राप्त किया । " ई.पू. ५४३ में २४ वर्ष की भिक्षु पर्याय वाला गोशाल' श्रावस्ती में अपने आपको अजिन होते हुए भी जिन के रूप में घोषित कर रहा था, तब कैवल्य प्राप्ति के १६ वर्ष पश्चात् भगवान महावीर का श्रावस्ती में आगमन हुआ।' वहीं पर भगवान महावीर ने गोशाल का पूर्व वृत्तांत परिषद् के बीच सुनाया; इसकी चर्चा पूरे श्रावस्ती में फैलने से गोशाल आवेश में आया तथा आतापनभूमि से उतर कर हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में आया । " तत्पश्चात् वे सारी घटनाएं घटित हुईं जिनका वर्णन भगवती के १५ वें शतक में है तथा अन्त में अपनी ही तेजोलेश्या से हत होकर सातवें दिन गोशाल मृत्यु प्राप्त हुआ। इस प्रकार गोशाल का २४ वर्षीय प्रव्रज्या- जीवन ई. पू. ५६७ से ई. पू. ५४३ तक रहा। इन सभी ऐतिहासिक तथ्यों एवं अंकों के परिप्रेक्ष्य में यह भलीभांति स्पष्ट होता है कि (१) महावीर गोशाल के साथ प्रथम मिलन से पूर्व ही अचेलक सन् ई. पू. दीक्षा का वर्ष विहार- क्षेत्र ५६६-५६८ पहला ५६८- ५६७ ५६७-५६६ तीसरा ५६६-५६५ चौथा ५६५-५६४ ५६४-५६३ ५६३-५६२ ५६२-५६१ छठा ७वां वां ५६१-५६० ध्वां ५६०-५५६ १० वां ११वां ५५६-५५८ १. आयार धूला १५।३८ । २. भ. १५/२१ ३. वही, १५/१। कुण्डग्राम, ज्ञातखण्डवन, कर्मारग्राम, कोल्लाक सन्निवेश, मोराक-सन्निवेश, दूइज्जंतग आश्रम, अस्थिग्राम (वर्धमान ) । दूसरा मोराक सन्निवेश, दक्षिण- वाचाला, कनकखल आश्रमपद, उत्तर वाचाला, श्वेताम्बी, सुरभिपुर, थूणाक सन्निवेश, राजगृह, नालन्दा । कोल्लाक सन्निवेश, सुवर्णखल, ब्राह्मणग्राम, चम्पानगरी । कालाय सन्निवेश, पृष्ठचंपा, पत्तकालाय, कुमाराक सन्निवेश, चोराक सन्निवेश, पृष्ठचम्पा । पांचवां कयंगला सन्निवेश, श्रावस्ती, हलेदुक-ग्राम, नंगला ग्राम ( वासुदेव मंदिर में), भद्दिया नगरी आवर्त (बलदेव मंदिर में), चौराक सन्निवेश, कलंकबुका सन्निवेश, राढ देश, पूर्णकलश, भद्दिया नगरी । हो गए थे। ( ५६८ ई. पू. नवम्बर) (२) गोशाल महावीर के संपर्क में (५६८ ई. पू., जून-जुलाई) में आया। (३) चार मास तक वह सवस्त्र था तथा उसी रूप में रहकर अचेलक महावीर का शिष्य बनने के लिए प्रार्थना करता रहा, पर सफलता नहीं मिली। (४) नालन्दा बाहिरिका के तंतुवायशाला के वर्षावास के संपन्न होने के पश्चात् जब महावीर कोल्लाक सन्निवेश चले गए थे तब गोशाल तंतुवायशाला में वस्त्र आदि छोड़कर महावीर के पास कोल्लाग सन्निवेश में पणियभूमि में पहुंचता है और पुनः अपनी प्रार्थना को दोहराता है। उस समय अचेलक महावीर द्वारा अचेलक गोशाल को शिष्य के रूप में स्वीकार किया गया। (यह घटना ई. पू. ५६७ के नवम्बर में हुई ) उक्त ऐतिहासिक प्रमाण के पश्चात् यह शंका निर्मूल हो जाती है कि महावीर ने अचेलकत्व की शिक्षा गोशाल से ग्रहण की। साथ ही यह कहना कि 'जैन आगम में वर्णित शिष्य गोशाल वास्तव में महावीर का गुरु था' - यह आरोप भी अपने आपमें निराधार और अप्रमाणित हो जाता है। (यहां भगवान् महावीर का विहार, वर्षावास आदि का काल - क्रम के साथ पूर्ण विवरण दिया जा रहा है - ) श. १५ : सू. १४१ सिद्धार्थपुर, कूर्मग्राम, सिद्धार्थपुर, वैशाली, वाणिज्यग्राम, श्रावस्ती। सानुलट्ठिय सन्निवेश, दृढभूमि, पेढाल ग्राम (पोलास चैत्य में), बालुका, सुयोग, तोसलिगांव, मोसलि, सिद्धार्थपुर, वजगांव, आलंभिया, ४. वही, १५/१४ - ७८ । ५. वही, १५/५० वर्षावास अस्थिक ग्राम (वर्धमान ) कदली समागम, जम्बूसंड, तंबाय सन्निवेश, कूपिय सन्निवेश, वैशाली भद्दिया नगरी (कम्मारशाला में ) ग्रामाक सन्निवेश (बिभेलक यज्ञ-मंदिर में ), शालीशीर्ष, भद्दिया नगरी । मगध के विभिन्न भाग, आलंभिया । आलंभिया कुंडाक सन्निवेश ( वासुदेव मंदिर में), भद्दन्न सन्निवेश (बलदेव के मंदिर में), राजगृह बहुसालगग्राम (शालवन के उद्यान में), लोहार्गला, पुरिमताल, ( शकटमुख उद्यान में), उन्नाग, गोभूमि, राजगृह। लाढ (राढ- देश), वज्रभूमि, सुम्हभूमि । नालन्दा सन्निवेश चम्पानगरी पृष्ठ चम्पा वज्रभूमि श्रावस्ती वैशाली Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई वर्षावास राजगृह राजगृह श. १५ : सू. १४१ . ३१० सन् ई. पू. दीक्षा का वर्ष विहार-क्षेत्र सेयविया, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, मिथिला, वैशाली (समरोद्यान के बलदेव मंदिर में)। ५५८-५५७ १२वां सुसमारपुर, भोगपुर, नन्दग्राम, मेंढियग्राम, कौशाम्बी, सुमंगल, सुच्छेता, चम्पा पालक, चम्पा (यज्ञ शाला में)। ५५७-५५६ १३वां जंभियग्राम, मेंढियग्राम, छम्माणि, मध्यमपावा, जंभियग्राम, राजगृह। राजगृह ५५६-५५५ १४वां ब्राह्मणकुण्ड (बहुशाल के चैत्य में), विदेह जनपद, वैशाली। वैशाली ५५५-५५४ १५वां वत्सभूमि, कौशाम्बी, कौशल जनपद, श्रावस्ती, विदेह जनपद, वाणिज्यग्राम। वाणिज्यग्राम ५५४-५५३ १६वां मागध जनपद, राजगृह। राजगृह ५५३-५५२ १७वां चम्पा, विदेह जनपद, वाणिज्यग्राम। वाणिज्यग्राम ५५२-५५१ १८वां वाराणसी, आलभिका, राजगृह। ५५१-५५० १६वां मगध जनपद, राजगृह। ५५०-५४६ २०वां वत्स जनपद, आलंभिया, कौशाम्बी, वैशाली! वैशाली ५४६-५४८ २१वां मिथिला, काकंदी, श्रावस्ती, अहिच्छत्रा, राजपुर, कांपिल्यपुर, वाणिज्यग्राम पोलासपुर, वाणिज्यग्राम। ५४८-५४७ २२वां मगध जनपद, राजगृह। राजगृह ५४७-५४६ २३वां कयंगला, श्रावस्ती, वाणिज्यप्राम। वाणिज्यग्राम ५४६-५४५ २४वां ब्राह्मणकुंडग्राम (बहुशाल चैत्य), वत्स जनपद, मगध जनपद,राजगृह। राजगृह ५४५-५४४ २५वां चम्पा, मिथिला, काकन्दी, मिथिला। मिथिला ५४४-५४३ २६वां अंग जनपद, चम्पा, मिथिला। मिथिला ५४३-५४२ २७वां वैशाली, श्रावस्ती, मेढियग्राम (शालकोष्ठक चैत्य), मिथिला मिथिला ५४२-५४१ २८वां कौशल-पांचाल, श्रावस्ती, अहिच्छत्रा, हस्तिनापुर, मोकानगरी, वाणिज्यग्राम। वाणिज्यग्राम ५४१-५४० २६वां राजगृह। राजगृह ५४०-५३६ ३०वां चम्पा, पृष्ठचम्पा, विदेह, वाणिज्यग्राम। वाणिज्यग्राम ५३६-५३८ ३१वां कौशल-पांचाल, साकेत, श्रावस्ती, काम्पिल्य, वैशाली। वैशाली ५३८-५३७ ३२वां विदेह जनपद, कौशल जनपद, काशी जनपद, वाणिज्यग्राम, वैशाली। वैशाली ५३७-५३६ ३३वां मगध, राजगृह, चम्पा, पृष्ठचंपा, राजगृह। राजगृह ५३६-५३५ ३४वां राजगृह (गुणशील चैत्य में), नालन्दा। नालन्दा ५३५-५३४ ३५वां विदेह जनपद, वाणिज्यग्राम, कोल्लाक सन्निवेश, वैशाली। ५३४-५३३ ३६वां कौशल जनपद, पांचाल जनपद, सूरसेन जनपद, साकेत, कांपिल्यपुर, मिथिला सौरपुर, मथुरा, नंदीपुर, विदेह जनपद, मिथिला। ५३३-५३२ ३७वां मगध जनपद, राजगृह। राजगृह ५३२-५३१ ३८वां मगध जनपद, राजगृह, नालन्दा। नालन्दा ५३१-५३० ३६वां विदेह जनपद, मिथिला। मिथिला ५३०-५२६ ४०वां विदेह जनपद, मिथिला। मिथिला ५२६-५२८ ४१वां मगध जनपद, राजगृह। राजगृह ५२८-५२७ ४२वां राजगृह, पावा। पावा उक्त तालिका में से भग. १५वें शतक के आधार पर गोशाल के साथ महावीर के प्रसंग इस प्रकार बनते हैंई. पू. आयु' महावीर के जीवन-प्रसंग गोशाल के जीवन-प्रसंग ५६६ ३० दीक्षा ५६८ ३१ प्रथम वर्षावास-अस्थिकग्राम; वस्त्रत्याग' ५६७ ३२ द्वितीय वर्षावास-नालंदा (बाहिरिका) दीक्षा (वर्षावास के पश्चात्) तब तक वस्त्रधारी १. प्रथम वर्षावास के पश्चात् दूसरे मास में महावीर द्वारा वस्त्र-त्याग। २. महावीर के दूसरे वर्षावास में प्रथम मास में गोशाल का महावीर से प्रथम बार मिलन तंतुवायशाला में हुआ। चतुर्थ मास के पश्चात् अपने वस्त्र, पात्र आदि वहां छोड़कर कोल्लाक सन्निवेश के बाहर पणियभूमि में महावीर द्वारा शिष्य के रूप में स्वीकार। वैशाली Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३११ श. १५ : सू. १४२ ई. पू. आयु महावीर के जीवन-प्रसंग गोशाल के जीवन प्रसंग ५६६ ३३ तृतीय वर्षावास पहला वर्षावास, दीक्षा पर्याय १ वर्ष (महावीर के साथ) ५६५ ३४ चतुर्थ वर्षावास दूसरा वर्षावास, दीक्षा पर्याय २ वर्ष (महावीर के साथ) ५६४ ३५ पंचम वर्षावास तीसरा वर्षावास, दीक्षा पर्याय ३ वर्ष (महावीर के साथ) ५६३ ३६ षष्ठ वर्षावास चौथा वर्षावास, दीक्षा पर्याय ४ वर्ष (महावीर के साथ) ५६२ ३७ सप्तम वर्षावास पांचवां वर्षावास, दीक्षा पर्याय ५ वर्ष (महावीर के साथ) ५६१ ३८ अष्टम वर्षावास छठा वर्षावास, दीक्षा पर्याय ६ वर्ष (महावीर के साथ) ५६० ३६ नवम वर्षावास महावीर से अलग सातवां वर्षावास, दीक्षा पर्याय ७ वर्ष (महावीर के साथ) ५५६ ४० दशम वर्षावास ८वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय ८ वर्ष ५५५ ४१ ग्यारहवां वें वर्षावास से पूर्व महावीर से अलग, इसी वर्ष तेजोलेश्या-प्राप्ति, दीक्षा पर्याय ६ वर्ष ५५७ ४२ बारहवें वर्षावास के पश्चात् कैवल्य १०वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय १० वर्ष, दिशाचरों से मिलन, निमित्त भाषी, जिनत्व-प्राप्ति ५५६ ४३ १३वां वर्षावास ११वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय ११ वर्ष १४वां वर्षावास १२वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय १२ वर्ष १५वां वर्षावास १३वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय १३ वर्ष ५५३ ४६ १६वां वर्षावास १४वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय १४ वर्ष ५५२ ४७ १७वां वर्षावास १५वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय १५ वर्ष ५५१ ४८ १८वां वर्षावास १६वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय १६ वर्ष ५५० ४६ १६वां वर्षावास १७वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय १७ वर्ष ५४६ ५० २०वां वर्षावास १८वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय १८ वर्ष ५४८ ५१ २१वां वर्षावास १६वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय १६ वर्ष ५४७ ५२ २२वां वर्षावास २०वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय २० वर्ष ५४६ ५३ २३वां वर्षावास २१वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय २१ वर्ष ५४५ ५४ २४वां वर्षावास २२वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय २२ वर्ष ५४४ ५५ २५वां वर्षावास २३वां वर्षावास, दीक्षा पर्याय २३ वर्ष ५४३ ५६ २६वांवर्षावास; वर्षावाससे पूर्वतेजोलेश्याकीघटना २४वेंवर्षावासकेपश्चात्,२४ वर्षकीदीक्षापर्यायमें मृत्यु। (श्रावस्ती की घटना) ५४२-५२६ २७वें वर्षावास से-४१वें वर्षावास तक ५२७ ४२वें वर्षावास में-निर्वाण गोशाल की मृत्यु के १६ वर्ष पश्चात् गोसालस्स नीहरण-पदं गोशालस्य निर्हरण-पदम् गोशाल का निर्हरण-पद १४२. तए णं आजीविया थेरा गोसालं ततः आजीविकाः स्थविराः गोशालं १४२. 'मंखलिपुत्र गोशाल को मृत्यु-प्राप्त मंखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता मंखलिपुत्रं कालगतं ज्ञात्वा हाला- जानकर आजीवक स्थविरों ने हालाहला हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स हलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारापणस्य कुंभकारी के कुंभकारापण के बहु मध्यदेश दुवाराई पिहेंति, पिहेत्ता हालाहलाए द्वाराणि पिदधते पिधाय हालाहलायाः भाग में श्रावस्ती नगरी का चित्रांकन कर कुंभकारीए कुभकारावणस्स बहुमज्झ- कुम्भकार्याः कुम्भकारापणस्य बहुमध्य- मंखलिपुत्र गोशाल के बाएं पैर को रज्जु से देसभाए सावत्थिं नगरिं आलिहंति, देशभागे श्रावस्ती नगरीम आलिखन्ति, बांधा, बांधकर तीन बार मुंह पर थूका, आलिहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स आलिख्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य थूककर चित्रित श्रावस्ती नगरी के भंगाटकों, सरीरगं वामे पदे सुंबेणं बंधति, बंधित्ता शरीरकं वामे पदे शुम्बेन बध्नन्ति, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले तिक्खुत्तो मुहे उभंति, उट्टभित्ता बद्ध्वा त्रिः मुखे अवष्ठीवन्ति, स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर निम्न-निम्न सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-तिग- अवष्ठीव्य श्रावस्त्यां नगर्यां शृंगाटक- स्वर में उद्घोष करते हुए, उद्घोष करते हुए -चउक्क - चचर - चउम्मुह - महापह- त्रिक-चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ- इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! मंखलिपुत्र Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ भगवई श. १५ : सू. १४२ पहेसु आकट्ट-विकदि करेमाणा णीयं- पथेषु आकर्ष-विकृष्टिं कुर्वन्तः नीचैःणीयं सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा नीचैः शब्देन उद्घोषयन्तः- उद्घोषएवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! गोस- यन्तः एवमवादिषु-नो खलु देवानुले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव प्रियाः! गोशालः मंखलिपुत्रः जिनः विहरिए। एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते जिनप्रलापी यावत् विहृतः। एषः समणधायए जाव छउमत्ये चेव कालगए। गोशालः चैव मंखलिपुत्रः श्रमणघातकः समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी यावत् छद्मस्थः चैव कालगतः। श्रमणः भगवान् महावीरः जिन: जिनप्रलापी जाव विहरइ-सवह-पडिमोक्खणगं यावत् विहरति, शपथ-प्रतिमोचनकं करेंति,करेत्ता दोचं पिं पूया-सक्कार (पडिमोक्खणगं) कुर्वन्ति, कृत्वा द्विः थिरीकरणट्ठयाए गोसालस्स मंखलि अपि पूजा-सत्कार-स्थिरीकरणार्थाय पुत्तस्स वामाओ पादाओ सुंबं मुयंति, गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य वामात् पादात् मुइत्ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभका- शम्बं मञ्चन्ति मक्त्वा हालाहलायाः रावणस्स 'दुवार-वयणाई' अवगुणति, कम्भकार्याः कुम्भकारापणस्य 'द्वारअवंगुणित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स वदनानि' 'अवंगणंति' 'अवंगुणित्ता' सरीरगं सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेति, तं गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य शरीरकं चेव जाव महया इडिसक्कारसमदुएणं सुरभिणा गन्धोदकेन स्नान्ति, तत् चैव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगस्स यावत् महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन नीहरणं करेंति॥ गोशालस्य मंखलिपत्रस्य शरीरकस्य निर्हरणं कुर्वन्ति। गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी नहीं था, यावत् विहरण किया। यही मंखलिपुत्र गोशाल है, श्रमण घातक यावत् छद्मस्थ-अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुआ है। श्रमण भगवान् महावीर जिन होकर जिन-प्रलापी है यावत् विहरण कर रहे हैं। शपथ-प्रतिमोचन करते हैं, करके दूसरी बार भी पूजा, सत्कार और स्थिरीकरण के लिए मंखलिपुत्र गोशाल के बाएं पैर से रज्जु को मुक्त किया, मुक्त कर हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण के द्वार को खोला, खोल कर मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर को सुरभित गंधोदक से स्नान कराया, पूर्ववत् यावत् महान् ऋद्धि-सत्कार, समुदय के द्वारा मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर की मरणोत्तर क्रिया की। भाष्य १. सूत्र १४२ व्यक्ति अपनी चामत्कारिक शक्तियों के बल पर अपनी तमाम ___ 'गोशालक' के जीवन-वृत्त पर इतना व्यापक और मौलिक दुर्बलताओं के बावजूद जन-चेतना को प्रभावित कर देते हैं। गोशाल प्रकाश अन्यत्र किसी प्राचीन ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है। बौद्ध के विषय में उपलब्ध प्रमाण जो जैन साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध त्रिपिटकों में विकीर्ण रूप से मक्खली गोशाल की चर्चाएं हैं तथा साहित्य में संवादी रूप में मिलते हैं उसके अनाध्यात्मिक और निम्न अन्य जैन ग्रंथों में भी हमें कुछ महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है, परन्तु स्तरीय व्यक्ति को उजागर कर रहे हैं। बुद्ध तत्कालीन मतों व मतप्रस्तुत शतक में व्यवस्थित और श्रृंखलाबद्ध रूप में गोशालक के प्रवर्तकों में आजीवक संघ और गोशालक को सबसे बुरा समझते थे। जीवन, दर्शन, मान्यताओं एवं व्यक्तित्व के विधायक-निषेधात्मक सत्पुरुष और असत्पुरुष का वर्णन करते हुए वे कहते हैं-'कोई दोनों पक्षों पर जो मार्मिक प्रकाश डाला गया है, वह अन्यत्र नहीं व्यक्ति ऐसा होता है जो कि बहुत जनों के अलाभ के है तथा भारतीय विद्या के प्रत्येक जिज्ञासु विद्वान एवं विद्यार्थी के लिए होता है, बहुत जनों की हानि के लिए होता है, बहुत जनों के लिए बहुत ही उपयोगी है। दुःख के लिए होता है, वह देवों के लिए भी अलाभकारक पता नहीं क्यों इन महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उल्लेखों की और हानिकारक होता है; जैसे-मक्खली गोशाल। गोशाल 'भारतीय इतिहास' के लेखकों द्वारा या तो उपेक्षा हई है या उन्हें से अधिक दुर्जन मेरी दृष्टि में कोई नहीं है। जैसे धीवर मछलियों को किंचित् विकृत रूप देकर प्रस्तुत किया गया है। जाल में फंसाता है, वैसे वह मनुष्यों को अपने जाल में फंसाता है।' तटस्थ विद्वानों द्वारा भगवान महावीर के व्यक्तित्व को एक प्रसंगान्तर से बुद्ध यह भी कहते हैं-'श्रमणधर्मों में सबसे निकृष्ट महान् आदर्श के रूप में बताया गया है तथा उस संदर्भ में उक्त और जघन्य मान्यता गोशाल की है, जैसे कि सब प्रकार घटना की समीक्षा की गई है। अन्य कुछ विद्वानों ने समग्र घटना को के वस्त्रों में मनुष्यों के केश की कम्बल। वह कंबल शीतकाल साम्प्रदायिक टकराव के रूप में ग्रहण किया है तथा प्रस्तुत प्रकरण में शीतल, ग्रीष्मकाल में उष्ण तथा दुर्वर्ण, दुर्गंध, दुःस्पर्श वाली को भी उसी नजरिये से देखने की कोशिश की है। वस्तुस्थिति यह है होती है। जीवन-व्यवहार में ऐसा ही निरुपयोगी गोशाल का कि गोशालक के समग्र जीवन को ध्यान में रख कर यदि समीक्षा की नियतिवाद है। जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार पाखण्ड रचने वाले इस प्रसंग में आचार्य भिक्षु ने बताया है कि 'उस युग में १. जैसे-दीघनिकाय, सामअफलसुत्त। ३. अंगुत्तर निकाय, १-१८-४:५। २. जैन आगम एवं अन्य ग्रंथ, जैसे ४. टीका ग्रंथों के अनुसार यह कम्बल मनुष्य के केशों से बनती है। (क) उवासगदसाओ, अ. ६,७। 4. The Book of Gradual Sayings, vol. I, p. 286. (ख आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पत्र २८३-२६२। ६. गौसाला री चौपई, ढाल १८, गाथा १६,२०। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३१३ श. १५ : सू. १४२ भी जब स्वयं तीर्थंकर विद्यमान थे, गोशालक जैसा पाखण्डी निष्कर्ष निकाले जा सके। अभी तक किए गए प्रयत्नों की एक व्यक्ति अधिक लोकप्रिय बन गया था। भगवान् महावीर के संक्षिप्त समीक्षा यहां की जा रही है। अनुयायियों की संख्या केवल एक लाख गुणसठ हजार (१५६०००) गोशालक के सिद्धांत व विचार कुछ भी रहे हों, यह तो थी, जबकि गोशालक के अनुयायी ग्यारह लाख इकसठ हजार निर्विवाद ही है कि वे उस समय के एक बहुजन-मान्य और ख्याति(११६१०००) थे।" लब्ध धर्म-नायक थे। इनका धर्म-संघ भगवान महावीर के धर्म-संघ प्रश्न होता है वे चरित्र, संयम व साधना की दृष्टि से बुद्ध व से भी बड़ा था, यह जैन परम्परा भी मानती है।" महावीर के दस महावीर जितने ऊंचे नहीं थे फिर भी आजीवक संघ इतना विस्तृत श्रावकों की तरह इनके भी बारह प्रमुख श्रावक थे। बुद्ध का यह कैसे हो सका? इसके संभावित कारण हैं-ज्यौतिष-विद्या या कथन भी कि 'वह मछलियों की तरह लोगों को अपने जाल में भविष्य-सम्भाषण व कठोर तपश्चर्या। महावीर व बुद्ध के संघ में फंसाता है' गोशालक के प्रभाव को ही व्यक्त करता है। निमित्त-सम्भाषण वर्जित था। गोशालक व उनके सहचारी इस दिशा गोशालक की श्रमण-परम्परा को त्रिपिटकों में 'आजीवक' में उन्मुक्त थे। पार्श्वनाथ के पार्श्वस्थ भिक्षु मुख्यतया निमित्त तथा आगमों में 'आजीविक' कहा गया है। दोनों ही शब्द एकार्थक सम्भाषण से ही आजीविका चलाते थे।' गोशालक को निमित्त से ही हैं। लगता है, प्रतिपक्ष के द्वारा ही यह नाम निर्धारण हुआ है। सिखलाने वाले भी उन्हीं में से थे और वे ही उनके मुख्य सहचर थे। आजीवक व आजीविक शब्द का अभिप्राय है-आजीविका के लिए तपश्चर्या भी आजीवक संघ की उत्कट थी। जैन आगम इसका मुक्त ही तपश्चर्या आदि करने वाला।६ आजीवक स्वयं इसका क्या अर्थ समर्थन करते हैं। बौद्ध निकाय भी गोशालक के तपोनिष्ठ होने की करते थे, यह कहीं उल्लिखित नहीं मिलता। जैन आगमों की तरह सूचना देते हैं। गवेषकों की सामान्य धारणा भी इसी पक्ष में है। बौद्ध पिटकों में भी उनकी भिक्षाचरी-नियमों के कठोर होने का आचार्य नरेन्द्रदेव के अनुसार आजीवक पंचाग्नि तपते थे। उत्कटुक उल्लेख है। मज्झिमनिकाय के अनुसार उनके बहुत सारे नियम रहते थे। चमगादड़ की भांति हवा में झूलते थे। उनके इस कष्ट-तप निग्रंथों के समान और कुछ एक नियम उनसे भी कठोर थे। के कारण ही समाज में इनका मान था। लोग निमित्त, शकुन, स्वप्न गोशालक का संसार-शुद्धिवाद आगमों और त्रिपिटकों में आदि का फल इनसे पूछते थे।' बहुत समानता से उपलब्ध होता है। चौरासी लाख महाकल्प का बहुत सारी त्रुटियों के रहते हुए भी गोशालक का समाज में परिमाण आगमों की सुस्पष्ट व्याख्या से मिलता है। डॉ. बाशम' ने आदर पा जाना इसलिए अस्वाभाविक नहीं है कि तप और निमित्त इन सारे विषयों पर बहुत विस्तार से लिखा है। दोनों ही भारतीय समाज के प्रधान आकर्षण सदा से रहे हैं। जैन और आजीवकों के अधिकांश प्रसंग पारस्परिक भर्त्सना ___ इतिहास की दृष्टि से जिन विद्वानों ने गोशालक एवं के सूचक हैं, वहां कुछ एक विवरण दोनों के सामीप्य-सूचक भी हैं। आजीवक-सम्प्रदाय के संबंध में शोध-कार्य किया है, उनमें हर्नले, उसका कारण दोनों के कुछ एक आचारों की समानता हो सकती ई. लायमान', ए. एल. बाशम", डब्ल्यू. शूबिंग", वेणी माधव है। नग्नत्व दोनों परम्पराओं में मान्य रहा है। दोनों परम्पराओं ने इन बरूआ, जोसेफ डेल्यू आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। समग्र दृष्टि विशेषताओं को लेकर ही अन्य धार्मिकों की अपेक्षा एक दूसरे को से इन सबका मूल्यांकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने जो श्रेष्ठ माना है। जैन आगम बतलाते हैं-तापस ज्योतिष्क तक, अभिमत या धारणाएं प्रस्तुत की हैं, वे अपने आप में पूर्ण नहीं हैं। कांदर्पिक सौधर्म तक, चरक परिव्राजक ब्रह्मलोक तक, किल्विषिक गोशालक के जीवन एवं आजीवकों के सिद्धांतों के विषय में और लांतक कल्प तक, तिर्यंच सहस्रार कल्प तक, आजीवक व अधिक निष्पक्ष, पूर्वाग्रह-रहित एवं सर्वांगीण अनुशीलन, चिन्तन एवं आभियोगिक अच्युत कल्प तक, दर्शन-भ्रष्ट वेषधारी नवम ग्रैवेयक अनुसंधान की अपेक्षा है, जिससे ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तक जाते हैं। यहां आजीवकों के मरकर बारहवें स्वर्ग तक पहुंचने १. निशीथ सू., उ. १३-६६; दस. सू., अ. ८, गा. ५०। १२. Jozef Deleu, Viyahapannatti (Bhagavai), pp. 214-220. २. विनयपिटक, चुल्लवग्ग, ५-६-२। १३. कल्पसूत्र, सू. १३६ ३. आवश्यक चूर्णि, पत्र २७३: त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, श्लोक १४. भ., शतक ८, उद्देशक ५। १३४-३५; तीर्थंकर महावीर, भा. २, पृ. १०३।। १५. भ. वृ., १/११३; जैनागम शब्द संग्रह, पृ. १३४; Hoernle, Ajivikas ४. ठाणं सूत्र, ठा. ४, उ. २, सू. ३०६ : आजीवियाणं चउबिहे तवे पं. in Encyclopaedia of Religions and Ethics; E. J. Thomas, Life तं.-उग्ग तवे घोर तवे रसणिज्जूहणता जिभिंदियपडिसंलीणता।-- of Buddha, p.130. ५. संयुत्तनिकाय १०, नाना तित्थिय सुत्त। १६. महासचक सुत्त, १-४-६॥ ६. बौद्ध धर्म-दर्शन, पृ. ४। 90. The History and Doctrines of Ajivakas. 6. A. F. R. Hoernle, Uvasagdasao, Appendices I,II. १८.भ. १/११३ : तापस-स्वतः गिरे हुए पत्तों का भोजन करने वाले साधुः ८. E. Leumann, WZKM. pp. 328-350, 1889. कान्दर्पिक-परिहास और कुचेष्टा करने वाले साधु; E. A. L. Basham, History and Doctrines of the Ajivikas, A चरक परिव्राजक-डाका डालकर भिक्षा लेने वाले त्रिदण्डी तापस; ____Vanished Indian Religion. 2002. किल्विषिक-चतुर्विध संघ तथा ज्ञानादिक के अवगुण बोलने वाले साधु; १०. W. Schubring, ZDMG 104 (1954), pp. 256-263. आभियोगिक-विद्या, मंत्र, वशीकरण आदि अभियोग-कार्य करने वाले ११. B. M. Barua, Pre-Buddhistic Indian Philosophy, Calcutta, साधुः 1921. दर्शन-भ्रष्ट-निवव। , Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ श. १५ : सू. १४२ भगवई का उल्लेख है, जबकि अन्य अधिक-से-अधिक पांचवें स्वर्ग तक ही जानकारियों से विपरीत ही प्रमाणित होता है, अर्थात् मैं कहना रह गये हैं। चाहता हूं कि इस विवादग्रस्त प्रश्न पर इतिहासकार प्रयत्नशील होते आजीवकों की भिक्षाचरी-विधि जो अपने आपमें विशिष्ट-सी हैं तो उन्हें कहना ही होगा कि उन दोनों में एक दूसरे का कोई ऋणी थी, उसकी चर्चा 'आमुख' में की जा चुकी है।' है तो वास्तव में गुरु ही ऋणी है, न कि जैनों द्वारा माना गया उनका भगवती में आजीवक उपासकों के आचार-विचार का ढोंगी शिष्य।'' डॉ. बरुआ ने अपनी धारणा की पृष्ठभूमि में यह भी श्लाघात्मक ब्यौरा मिलता है। वहां बताया गया है-'वे गोशालक को माना है-"महावीर पहले तो पार्श्वनाथ के पंथ में थे, किन्तु एक वर्ष अरिहन्त देव मानते हैं, माता-पिता की शुश्रूषा करते हैं, गूलर, बड़, बाद जब वे अचेलक हुए, तब आजीवक पंथ में चले गए। इसके बोर, अंजीर व पाकर (प्लक्ष या पिलक्खु)-इन पांच प्रकार के फलों साथ-साथ डॉ.बरुआ ने इस आधार को ही अपने पक्ष में गिनाया है का भक्षण नहीं करते, पलांडु (प्याज), लहसुन आदि कन्द-मूल का कि गोशालक भगवान महावीर से दो वर्ष पूर्व जिन पद प्राप्त कर चुके भक्षण नहीं करते, बैलों को निर्लेछन नहीं कराते, उनके नाक-कान थे। यद्यपि डॉ. बरुआ ने यह भी स्वीकार किया है कि ये सब का छेदन नहीं कराते व त्रस-प्राणियों की हिंसा हो, ऐसा व्यापार नहीं कल्पना के ही महान् प्रयोग हैं; तो भी उनकी उन कल्पनाओं ने करते। किसी-किसी को अवश्य प्रभावित किया है। तदनुसार उल्लेख भी बौद्ध त्रिपिटकों में उल्लिखित 'अभिजातियों' (लेश्याओं) किया जाने लगा है और वह उल्लेख भी द्विगुणित होकर। गोपालदास का आजीवकों द्वारा किये गये वर्गीकरण में निग्रंथों को चतुर्थ जीवाभाई पटेल लिखते हैं-"महावीर और गोशालक छह वर्ष तक श्रेणी, आजीवकों और उनके अनुयायी-गण को पंचम श्रेणी तथा एक साथ रहे थे; अतः जैन सूत्रों में गोशालक के विषय में विशेष नन्द वत्स, कृश सांकृत्य और मक्खली गोशाल को षष्ठ श्रेणी परिचय मिलना ही चाहिए। भगवती, सूत्रकृतांग, उपासकदसांग आदि में रखा गया है'; यह भी बताता है कि आजीवकों ने अपने से सूत्रों में गोशालक के विषय में विस्तृत या संक्षिप्त कुछ उल्लेख मिलते दूसरा स्थान अचेलक निग्रंथों को ही दिया है। यह इस तथ्य की हैं। किन्तु उन सबमें गोशालक को चरित्र-भ्रष्ट तथा महावीर का एक ओर इंगित करता है कि इन दोनों संप्रदायों में परस्पर में कितना शिष्य ठहराने का इतना अधिक प्रयत्न किया गया लगता है कि सामीप्य था। सामान्यतया ही उन उल्लेखों को आधारभूत मानने का मन नहीं रह अब हमें उन धारणाओं पर चिन्तन करना होगा, जिनमें कुछ। जाता। गोशालक के सिद्धांत को यथार्थ रूप से रखने का यथाशक्ति विद्वानों ने अपनी कल्पित मान्यताओं के आधार पर यह बताने की प्रयत्न वेणीमाधव बरुआ ने अपने ग्रंथ में किया है।" कोशिश की है कि महावीर और गोशालक के बीच 'गुरु-शिष्य' के धर्मानन्द कोशम्बी प्रभृति ने भी इसी प्रकार का आशय व्यक्त संबंध का जो उल्लेख भगवती के पन्द्रहवें शतक में हुआ है, वह किया है। लगता है, इस धारणा के मूल उन्नायक डॉ. हर्मन जेकोबी सांप्रदायिक भावना से अभिप्रेरित है और वास्तविकता शायद इससे रहे हैं। तदनन्तर अनेक लोग इस पर लिखते ही गये। बिल्कुल विपरीत है। डॉ. बाशम आजीवकों के इतिहास और सिद्धांत के मर्मज्ञ एवं इतिहास और शोध के क्षेत्र में तटस्थता आये, यह नितांत ख्यातिप्राप्त विशेषज्ञ माने जाते हैं। उनके ग्रंथ 'हिस्ट्री एण्ड डॉक्ट्रीन्स अपेक्षित है। साम्प्रदायिक व्यामोह इस क्षेत्र से दूर रहे, यह भी ऑफ आजीविकास' को इस दृष्टि से भारतीय विद्या के क्षेत्र में बहुत अनिवार्यतः अपेक्षित है। पर तटस्थता और नवीन स्थापना भी महत्त्व दिया गया है, किन्तु कुछ मूलभूत त्रुटियों के कारण उनके भयावह हो जाती है, जब वे एक व्यामोह का रूप ले लेती है। मंतव्यों को सर्वग्राह्य नहीं कहा जा सकता। पूर्व भाष्यों में स्पष्ट किए गोशालक के संबंध में विगत वर्षों में गवेषणात्मक प्रवृत्ति बढ़ी है। गए तथ्यों एवं तिथियों के संदर्भ में डॉ. बाशम के आनुमानिक आजीवक मत और गोशालक पर पश्चिम और पूर्व के विद्वानों ने निर्णयों की समीक्षा की जाए तो ज्ञात होगा कि इतिहास के क्षेत्र में बहुत कुछ नया भी ढूंढ निकाला है। पर खेद का विषय है कि नवीन ऐसे निष्कर्ष स्वीकृत नहीं किए जा सकते। स्थापना के व्यामोह में कुछ एक विद्वान् गोशालक संबंधी इतिहास कुछ आधारों को हम सही मान लें और बिना किसी हेतु के ही को मूल से ही औंधे पैर खड़ा कर देना चाह रहे हैं। डॉ. वेणीमाधव कुछ एक को असत्य मान लें; यह ऐतिहासिक पद्धति नहीं हो सकती। बरुआ कहते हैं-"यह तो कहा ही जा सकता है कि जैन और बौद्ध वे आधार निर्हेतुक इसलिए भी नहीं माने जा सकते कि जैन और बौद्ध परम्पराओं से मिलने वाली जानकारी से यह प्रमाणित नहीं हो दो विभिन्न परम्पराओं के उल्लेख इस विषय में एक दूसरे का समर्थन सकता कि जिस प्रकार जैन गोशालक को महावीर के दो ढोंगी करते हैं। डॉ. जेकोबी ने भी तो परामर्श दिया है-"अन्य प्रमाणों के शिष्यों में से एक ढोंगी शिष्य बताते हैं; वैसा वह था। प्रत्युत उन अभाव में हमें इन कथाओं के प्रति सजगता रखनी चाहिए।"११ १. भ. १५/आमुख। ७. वही, पृ.२१॥ २. भ. श. ८/२४२ 5. Pre-Buddhistic Indian Philosophy, pp. 297-318. ३. अंगुत्तरनिकाय, ६-६-५७: संयुत्तनिकाय, २४-७-८ के आधार पर। ६. महावीर स्वामी नो संयम धर्म (सूत्रकृतांग का गुजराती अनुवाद), पृ. ३४ । ४. The Ajivikas, J.D.L., vol. II. 1920, pp. 17-18. 90. S. B. E., Vol. XLV, Introduction, pp. XXIX to XXXII. ५. वही, पृ. १८॥ ११. bid, p.XXXIII. ६. वही, पृ.१८॥ डा.बाश Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३१५ श. १५ : सू. १४३,१४४ तथारूप निराधार स्थापनाएं बहुत बार इसलिए भी आगे-से- आगे बढ़ती जाती हैं कि वर्तमान गवेषक मूल की अपेक्षा टहनियों का आधार अधिक लेते हैं। प्राकृत व पाली की अनभ्यास दशा में वे आगमों और त्रिपिटकों का सर्वांगीण अवलोकन नहीं कर पाते और अंग्रेजी व हिन्दी प्रबन्धकों के एकांगी प्रमाण उनके सर्वाधिक आधार बन जाते हैं। यह देखकर तो बहुत ही आश्चर्य होता है कि शास्त्र-सुलभ सामान्य तथ्यों के लिए भी विदेशी विद्वानों व उनके ग्रंथों के प्रमाण दिए जाते हैं। जैन आगमों के एतद्विषयक वर्णनों को केवल आक्षेपात्मक समझ बैठना भूल है। जैन आगम जहां गोशालक व आजीवक-मत की निम्नता व्यक्त करते हैं, वहां वे गोशालक को अच्युत कल्प तक पहुंचाकर, उन्हें मोक्षगामी बतला कर और उनके अनुयायी भिक्षुओं को वहां तक पहुंचने की क्षमता प्रदान कर उन्हें गौरव भी देते हैं। गोशालक के विषय में-वह गोशाला में जन्मा था, वह मंख था, वह आजीवकों का नायक था आदि बातों को हम जैन आगमों के आधार पर माने और जैनागमों की इस बात को कि वह महावीर का शिष्य था; निराधार ही हम यों कहें कि वह महावीर का गुरु था, बहुत ही हास्यास्पद होगा। यह तो प्रश्न ही तब पैदा होता, जब जैन आगम उसे शिष्य बतलाते और बौद्ध व आजीवक शास्त्र उसके गुरु होने का उल्लेख करते; प्रत्युत स्थिति तो यह है कि महावीर के सम्मुख गोशालक स्वयं स्वीकार करते हैं कि "गोशालक तुम्हारा शिष्य था, पर मैं वह नहीं हूं। मैंने तो उस मृत गोशालक के शरीर में प्रवेश पाया है। यह शरीर उस गोशालक का है, पर आत्मा भिन्न है।" इस प्रकार विरोधी प्रमाण के अभाव में ये कल्पनात्मक प्रयोग नितांत अर्थशून्य ही ठहरते हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि इस निराधार धारणा के उठते ही अनेक गवेषक विद्वान् इसका निराकरण भी करने लगे हैं।' आजीवक भिक्षुओं के अब्रह्म-सेवन का उल्लेख आर्द्रककुमार प्रकरण में आया है, इसे भी कुछ एक लोग नितांत आक्षेप मानते हैं। केवल जैन आगम ही ऐसा कहते तो यह सोचने का आधार बनता, पर बौद्ध शास्त्र भी आजीवकों के अब्रह्म-सेवन की मुक्त पुष्टि करते हैं। निग्गण्ठ ब्रह्मचर्यवास में और आजीवक अब्रह्मचर्यवास में गिनाए भी गए हैं। गोशालक कहते थे, तीन अवस्थाएं होती हैं-बद्ध, मुक्त और न बद्ध न मुक्त। वे स्वयं को मुक्त-कर्म-लेप से परे मानते थे। उनका कहना था, मुक्त पुरुष स्त्री-सहवास करे तो उसे भय नहीं। ये सारे प्रसंग भले ही उनके आलोचक सम्प्रदायों के हों, पर आजीवकों की अब्रह्म-विषयक मान्यता को एक गवेषणीय विषय अवश्य बना देते हैं। एक दूसरे के पोषक होकर ये प्रसंग अपने-आप में निराधार नहीं रह जाते। इतिहासविद् डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार ने गोशालक के भगवान् महावीर से होने वाले तीन मतभेदों में एक स्त्री-सहवास बताया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है, आजीवकों को जैन आगमों का अब्रह्म के पोषक बतलाना आक्षेप मात्र ही नहीं है और कोई सम्प्रदाय विशेष ब्रह्मचर्य को सिद्धान्त रूप से मान्यता न दे, यह भी कोई अनहोनी बात नहीं है। भारत वर्ष में अनेक सम्प्रदाय रहे हैं, जिनके सिद्धांत त्याग और भोग के सभी संभव विकल्पों को मानते रहे हैं। हम अब्रह्म की मान्यता पर ही आश्चर्यान्वित क्यों होते हैं? उन्हीं धर्म-नायकों में अजित-केशकम्बल जैसे भी थे, जो आत्मअस्तित्व भी स्वीकार नहीं करते थे। यह भी एक प्रश्न ही है कि ऐसे लोग तपस्या क्यों करते थे? अस्तु; नवीन स्थापनाओं के प्रचलन में और प्रचलित स्थापनाओं के निराकरण में बहुत ही जागरूकता और गम्भीरता अपेक्षित है। १४३. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णदा ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा १४३. श्रमण भगवान महावीर ने किसी एक दिन कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोयाओ कदाचित् श्रावस्त्याः नगर्याः कोष्ठकात् श्रावस्ती नगरी से कोष्ठक चैत्य से चेझ्याओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर बहिया जणवयविहारं विहरइ॥ बहिः जनपदविहारं विहरति। बाहर जनपद-विहार करने लगे। भगवओ रोगायंक-पाउन्भवण-पदं भगवतः रोगातंक-प्रादुर्भवन-पदम् भगवान् के रोग-आतंक-प्रादुर्भवन-पद १४४. तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे तस्मिन् काले तस्मिन् समये १४४. उस काल और उस समय 'मेंढियग्राम' नाम नगरे होत्था–वण्णओ। तस्स णं मेण्ढियग्रामं नाम नगरम् आसीत्- नाम का नगर था-वर्णक। उस मेंढिय ग्राम मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया वर्णकः। तस्य मेण्ढियग्रामस्य नगरस्य नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशिभाग। यहां उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, एत्थं णं बहिस्तात् उत्तर पौरस्त्यः दिग्भागः, 'शान कोष्ठक' नाम का चैत्य था-वर्णक साणकोट्ठए नाम चेइए होत्था-वण्णओ तत्र शाणकोष्ठक: नाम चैत्यम् आसीत्- यावत् पृथ्वी-शिला-पट्टक। उस शान कोष्ठक जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं वर्णकः यावत् पृथिवीशिलापट्टकः। चैत्य के न अति दूर और न अति निकट, एक साणकोट्ठगस्स चेइयस्स अदूरसामंते, तस्य शाण-कोष्ठकस्य चैत्यस्य महान मालुका-कच्छ था-कृष्ण, कृष्णाभास १. डॉ. कामताप्रसाद, वीर; वर्ष ३, अंक १२-१३; चीमनलाल जयचंद शाह, of Religions and Ethics, Dr. Hoernle, p. 261. उत्तर हिन्दुस्तान मां जैन धर्म, पृ. ५८ से ६१; डॉ. ए. एस. गोपानी ४. मज्झिमनिकाय, सन्दक सुत्त, २-३-६। Ajivika Sect--A New Interpretation, भारतीय विद्या, खण्ड २, पृ. ५. गोपालदास पटेल, महावीर कथा, पृ. १७७; श्रीचंद रामपुरिया, तीर्थंकर २०१-१०: खण्ड ३, पृ.४७-५६। वर्धमान, पृ. ८३॥ २. महावीर स्वामी नो संयम धर्म, पृ. ३४॥ ६. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास, पृ. १६३। ३. Ajivakas, vol. I; मज्झिमनिकाय, भाग १, पृ. ५१४; Encyclopaedia Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १५ : सू. १४५-१४८ ३१६ एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि अदूरसामंते, अत्र महान् एकः मालुकाहोत्था-किण्हे किण्होभासे जाव कच्छकः चापि आसीत्-कृष्णः कृष्णामहामेहनिकुरंबभूए पत्तिए पुष्फिए फलिए भासः यावत् महामेघनिकुरम्बभूतः हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अतीव- पत्रितः पुष्पितः फलितः हरितकराराज्यअतीव उवसोभेमाणे चिट्ठति। तत्थ णं मानः श्रिया अतीव-अतीव उपशोभमानः मेंढियगामे नगरे रेवती नाम गाहावइणी तिष्ठति। तत्र मेण्ढियग्रामे नगरे रेवती परिवसति-अड्डा जाव बहुजणस्स नाम 'गाहावइणी' परिवसति-आदया अपरिभूया॥ यावत् बहुजनस्य अपरिभूता। वाला यावत् काली कजरारी घटा के समान, -पत्र, पुष्प और फलयुक्त, हरा-भरा, विशिष्ट श्री से बहुत-बहुत उपशोभायमान खड़ा था। उस मेंढिय-ग्राम नगर में रेवती नाम की गृह स्वामिनी रहती थी-वह आढ्या यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभूत थी। १४५. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा अण्णदा कदायि पुव्वाणुपुब्बिं चरमाणे कदाचित् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्राम गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं दवन् सुखंसुखेन विहरन् यत्रैव विहरमाणे जेणेव मेंढियगामे नगरे जेणेव मेण्ढियग्राम नगरं यत्रैव शाणकोष्ठकं साणकोहए चेइए तेणेव उवागच्छइ जाव चैत्यं तत्रैव उपागच्छति यावत् परिषद् परिसा पडिगया॥ प्रतिगता। १४५. श्रमण भगवान् महावीर किसी एक दिन क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां मेंढ़ियग्राम नगर था, जहां शान कोष्ठक चैत्य था, वहां आए, यावत् परिषद् वापस नगर में चली गई। १४६. तए णं समणस्स भगवओ ततः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य १४६. श्रमण भगवान् महावीर के शरीर में विपुल महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायंके शरीरके विपुलः रोगातङ्कः प्रादुर्भूतः- । रोग-आतंक प्रकट हुआ-उज्ज्यल; विपुल, पाउन्भूए-उज्जले विउले पगाढे कक्कसे उज्ज्वलः विपुलः प्रगाढः कर्कशः। प्रगाढ, कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःखद, कष्ट कडुए चंडे दुक्खे दुग्गे तिब्वे दुरहियासे, कटुक: चण्डः दुक्खं दुर्गः तीव्रः साध्य, तीव्र और दुःसह। उनका शरीर पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए यावि दुरध्यासः, पित्तज्वर-परिगतशरीरः। पित्तज्वर से व्याप्त हो गया। उसमें जलन विहरति, अवि याई लोहियवच्चाई पि दाहावक्रान्तिकः चापि विहरति, अपि पैदा हो गई। उनके शौच में खून आने लगा, पकरेइ, चाउवण्णं च णं वागरेति एवं ___ 'याई' लोहित-वर्णांसि अपि प्रकरोति, चारों वर्गों के लोगों ने कहा-मंखलिपुत्र खलु समणे भगवं महावीरे गोसालस्स चतुर्वर्णः च व्याकरोति-एवं खलु गोशाल के तपः तेज से पराभूत श्रमण मंखलिपुत्तस्स तवेणं अण्णइटे समाणे ___ श्रमणः भगवान् महावीरः गोशालस्य भगवान् महावीर का शरीर पित्तज्वर से व्याप्त अतो छह मासाणं पित्तज्जर- मंखलिपुत्रस्य तपसा तेजसा हो गया, उसमें जलन पैदा हो गई, ये छह परिगयसरीरे दाहवक्कंतिए छउमत्थे चेव __ अन्वाविष्टः सन् अन्तः षण्णां मासानां माह के भीतर छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु को कालं करेस्सति॥ पित्तज्वरपरिगतशरीरः दाहावक्रान्तिकः प्राप्त करेंगे। छद्मस्थः चैव कालं करिष्यति। सीहस्स माणसियदुक्ख-पदं सिंहस्य मानसिकदुःख-पदम् १४७, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सीहे नामं भगवतः महावीरस्य अन्तेवासी सिंहः अणगारे-पगइभद्दए जाव विणीए नाम अनगार:-प्रकृतिभद्रकः यावत् मालुयाकच्छगस्स अदूरसामते छटुंछटेणं विनीतः मालुकाकच्छकस्य अदूरअणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड बाहाओ सामन्ते षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःपगिज्झिय-पगिझिय सूराभिमुहे कर्मणा उर्ध्वं बाहाः (बाहाओ) प्रगृह्यआयावणभूमीए आयावेमाणे विहरति॥ प्रगृह्य सुराभिमुखः आतापनभूम्यां आतापयन् विहरति। सिंह का मानसिक-दुःख-पद १४७. उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर का अंतेवासी सिंह नाम का अनगार-प्रकृति से भद्र यावत् विनीत। मालुकाकच्छ से न अति दूर और न अति निकट निरन्तर षष्ठ-षष्ठ भक्त (दो-दो दिन के उपवास) तपः कर्म में आतापन-भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेते हुए विहार कर रहा था। १४८. तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स ततः तस्य सिंहस्य अनगारस्य १४८. ध्यानांतर में वर्तमान सिंह अनगार के इस झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य अयमेत- प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए द्रपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न संकप्पे समुपज्जित्था एवं खलु ममं मनोगतः संकल्पः समुदपादि-एवं खलु हुआ-मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ भगवई श. १५ : सू. १४६-१५० धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स मम धर्माचार्यस्य धर्मोपदेशकस्य । भगवान् महावीर के शरीर में विपुल रोगभगवओ महावीरस्स, सरीरगसि विउले श्रमणस्य भगवतः महावीस्य शरीरके आतंक प्रकट हुआ है-उज्ज्वल यावत् रोगायके पाउन्भूए- उज्जले जाब विपुलः रोगातङ्कः प्रादुर्भूतः-उज्ज्वलः छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करेंगे। छउमत्थे चेव कालं करेस्सति, वदिस्संति यावत् छद्मस्थः चैव कालं करिष्यति, अन्यतीर्थिक भी इस प्रकार कहते हैं-छद्मस्थ य णं अण्णति-त्थिया-छउमत्थे चेव वदिष्यति च अन्यतीर्थिकाः-छद्मस्थः अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त होंगे-यह इस कालगए-इमेणं एयारूवेणं महया । चैव कालगतः-अनेन एतद्रूपेण महता प्रकार के महान मनोमानसिक दुःख से मणोमाणसिएणं दुक्वेणं अभिभूए मनोमानसिकेन दुःखेन अभिभूतः सन् पराभूत होकर आतापन भूमि से नीचे उतरा, समाणे आयावणभूमीओ पचोरुभइ, आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति,प्रत्यवरुह्य उतरकर जहां मालुकाकच्छ था, वहां आया, पचोरुभित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव यत्रैव मालुकाकच्छकः तत्रैव उपागच्छति, आकर मालुकाकच्छ के भीतर-भीतर उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, मालुयाकच्छगं उपागम्य मालुकाकच्छकम् अन्तः-अन्तः । अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर बाढ स्वर से अंतो-अंतो अणुपविसइ, अणुपविसित्ता अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य महता महता। 'कुहु कुहु' शब्द करते हुए रुदन करने लगा। महया-महया सद्देणं कुहुकुहुस्स परुण्णे॥ शब्देन कुहुकुहोः प्ररुदितः । भगवया सीहस्स आसासण-पदं | भगवता सिंहस्य आश्वासन-पदम् भगवान द्वारा सिंह को आश्वासन-पद १४६. अज्जोति! समणे भगवं महावीरे आर्य इति ! श्रमणः भगवान् महावीरः १४६. अयि आर्यो! श्रमण भगवान् महावीर ने समणे निग्गंथे आमंतेति, आमंतेत्ता एवं श्रमणान् निर्ग्रन्थान् आमन्त्रयति, श्रमण-निर्ग्रन्थों को आमंत्रित किया, वयासी-एवं खलु अज्जो! ममं अंतेवासी। आमन्त्र्य एवमवादीत्-एवं खलु आर्य ! आमंत्रित कर इस प्रकार कहा-आर्यो ! मेरा सीहे नाम अणगारे पगइभद्दए जाव मम अन्तेवासी सिंहः नाम अनगारः अंतेवासी सिंह नामक अनगार, प्रकृति भद्र विणीए मालुयाकच्छगस्स अदूरसामंते प्रकृतिभद्रकः यावत् विनीतः यावत् विनीत मालुकाकच्छ के न अति दूर छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्डे मालुकाकच्छकस्य अदूरसामन्ते और न अति निकट निरंतर षष्ठ-षष्ठ भक्त बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा उर्ध्वं के तपः कर्म में आतापन-भूमि में दोनों सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे बाहू: प्रगह्य-प्रगह्य सूराभिमुखः । भुजाएं ऊपर उठाकर, सूर्य के सामने विहरति। आतापनभूम्याम् आतापयन् विहरति। आतापना लेते हुए विहार कर रहा है। तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स ततः तस्य सिंहस्य अनगारस्य ध्यानांतर में वर्तमान उस सिंह अनगार के इस झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे ध्यानान्तरिकायां वर्तमानस्य अयमेतद्रूपः प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए। आध्यात्मिक: चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न संकप्पे समुप्पज्जित्था-खलु मम संकल्पः समुदपादि-एवं खलु मम हुआ-मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स धर्माचार्यस्य धर्मोपदेशकस्य श्रमणस्य भगवान् महावीर के शरीर में विपुल रोगभगवओ महावीरस्स सरीरगसि विउले भगवतः महावीरस्य शरीरके विपुलः आतंक प्रकट हुआ है-उज्ज्वल यावत् रोगायके पाउब्भूए-उज्जले जाव छउमत्थे रोगातङ्कः प्रादुर्भूतः-उज्ज्वलः यावत् । छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करेंगे। चेव कालं करेस्सति, बदिस्संति, य णं छद्मस्थः चैव कालं करिष्यति, वदिष्यन्ति । अन्यतीर्थिक यह कहते हैं-छद्मस्थ अवस्था में अण्णतित्थिया-छउमत्थे चेव कालगए- च अन्यतीर्थिकाः-छास्थः चैव कालगतः मृत्यु को प्राप्त होंगे। इमेणं एयारूवेणं महया मणोमाणसिएणं अनेन एतद्रूपेण महता मनोमानसिकेन यह इस प्रकार मनोमानसिक दुःख से दुक्खेणं अभिभूए समाणे आयावण- दुःखेन अभिभूतः सन् आतापनभूम्याः अभिभूत होकर आतापन भूमि से नीचे भूमीओ पचोरुभइ, पचोरुभित्ता जेणेव प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य यत्रैव मालुका- उतरा, उतरकर जहां मालुकाकच्छ था, वहां मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, उवाग- कच्छकः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य आया। आकर मालुकाकच्छ के भीतर-भीतर च्छित्ता मालुयाकच्छगं अंतो-अंतो अणु- ___ मालुकाकच्छकम् अन्तः-अन्तः अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर बाढ स्वर से पविसइ, अणुपविसित्ता महया-महया अनुप्रविशति, अनुप्रविश्य महता-महता 'कुहु कुहु' शब्द करते हुए रुदन करने लगा। सद्देणं कहकहस्स परुण्णे। तं गच्छह णं शब्देन कुहुकुहोः प्ररुदितः । तत् गच्छथ इसलिए आर्यो! तुम जाओ, सिंह अनगार को अज्जो! तुब्भे सीहं अणगारं सदाह॥ आर्य! यूयं सिंहम् अनगारं शब्दयत। बुलाओ। १५०. तए णं ते समणा निग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एव बुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं बंदति नमसंति, ततः ते श्रमणाः निर्ग्रन्थाः श्रमणेन भगवता महावीरेण एवम् उक्ताः सन्तः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते १५०. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर श्रमण निर्ग्रन्थों ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १५ : सू. १५१,१५२ ३१८ वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा महावीरस्स अंतियाओ साणकोट्टगाओ श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य चेइयाओ पडिनिक्रवमंति, पडिनिक्ख- अन्तिकात् शाणकोष्ठकात् चैत्यात् मित्ता जेणेव मालुयाकच्छए, जेणेव सीहे प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवाग- मालुकाकच्छकः, यत्रैव सिंहः अनगारः च्छित्ता सीहं अणगारं एवं वयासीसीहा! धम्मायरिया सदावेंति॥ अनगारम् एवमवादीत्-सिंह ! धर्माचार्याः शब्दयन्ति। नमस्कार कर श्रमण भगवान महावीर के पास से शान कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर जहां मालुकाकच्छ था, जहां सिंह अनगार था-वहां आए, आकर सिंह अनगार से इस प्रकार कहा-सिंह! धर्माचार्य बुलाते हैं। १५१. तए णं से सीहे अणगारे समणेहिं ततः सः सिंहः अनगारः श्रमणैः १५१. श्रमण निर्ग्रन्थों के साथ सिंह अनगार ने निग्गंथेहिं सद्धिं मालुया-कच्छगाओ निर्ग्रन्थैः सार्धं मालुकाकच्छकात् मालुकाकच्छ से प्रतिनिष्क्रमण किया, पडिनिक्खमइ, पडिनिक्वमित्ता जेणेव प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव प्रतिनिष्क्रमण कर जहां शान कोष्ठक चैत्य साणकोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं शाणकोष्ठकं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः था, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवान् महावीरः, तत्रैव उपागच्छति, आया, आकर श्रमण भगवान महावीर को समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः । दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा आयाहिण-पयाहिणं जाव पज्जुवासति॥ आदक्षिण-प्रदक्षिणां यावत् पर्युपास्ते।। यावत् पर्युपासना की। १५२. सीहादि! समणे भगवं महावीरे सीहं सिंह अयि! श्रमणः भगवान् महावीरः १५२. अयि सिंह! श्रमण भगवान् महावीर ने अणगारं एवं वयासी-से नूणं ते सीहा! सिंहम् अनगारम् एवमवादीत्-अथ नूनं सिंह अनगार को इस प्रकार कहा-सिंह! झाणंतरियाए बट्टमाणस्स अयमेयारूवे ते सिंह ! ध्यानांतरिकायां वर्तमानस्य ध्यानांतर में वर्तमान तुम्हारे इस प्रकार का अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु ममं प्रार्थितःमनोगतः संकल्पः समुदपादि- मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे धर्माचार्य धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स एवं खलु मम धर्माचार्यस्य धर्मोपदेशकस्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के शरीर भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य शरीरके में विपुल रोग-आतंक प्रकट हुआ-उज्ज्वल रोगायके पाउन्भूए- उज्जले जाव विपुलः रोगातङ्कः प्रादुर्भूतः-उज्ज्वलः । यावत् छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त छउमत्थे चेव कालं करेस्सति, वदिस्संति यावत् छद्मस्थः चैव कालं करिष्यति, करेंगे। अन्यतीर्थिक कहते हैं-छद्मस्थ अवस्था य णं अण्णतित्थिया-छउमत्थे चेव वदिष्यन्ति च अन्यतीर्थिकाः-छद्मस्थः में ही मृत्यु को प्राप्त करेंगे। यह इस प्रकार के कालगए-इमेणं एयारूवेणं महया चैव कालगतः-अनेन एतद्रूपेण महता महान् मनोमानसिक दुःख से अभिभूत होकर मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए मनोमानसिकेन दुःखेन अभिभूतः सन् तुम आतापन भूमि से नीचे उतर कर, जहां समाणे आयावण-भूमीओ पच्चोरुभित्ता, आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, यत्रैव मालुकाकच्छ था, वहां आकर, मालुकाकच्छ जेणेव मालुया-कच्छए तेणेव __ मालुकाकच्छकः तत्रैव उपागम्य के भीतर-भीतर अनुप्रवेश कर बाढ स्वर से उवागच्छित्ता मालुया-कच्छगं अंतो-अंतो मालुकाकच्छकम् अन्तः-अन्तः 'कुहु कुहु' शब्द करते हुए रुदन करने लगा। अणुपविसित्ता महया-महया सद्देणं अनुप्रविश्य महता-महता शब्देन कुहुकुहुस्स परुण्णे। कुहुकुहोः प्ररुदितः। से नूणं ते सीहा ! अढे समझे ? अथ नूनं ते सिंह ! अर्थः समर्थ? सिंह! क्या यह अर्थ संगत है? हंता अत्थि। हन्त अस्ति। तं नो खलु अहं सीहा ! गोसालस्स तत् नो अहं सिंह! गोशालस्य सिंह! यह ऐसा नहीं है कि मंखलिपुत्र मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अण्णाइहे मंखलिपुत्रस्य तपसा तेजसा गोशाल के तपः तेज से पराभूत होकर मेरा समाणे अंतो छण्हं मासाणं अन्वाविष्टः सन् अन्तः षण्णां मासानां । शरीर पित्त-ज्वर से व्याप्त हो गया, उसमें पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए पित्तज्वरपरिगतशरीरः दाहावक्रान्तिकः जलन हो गई, मैं छह माह के भीतर छउमत्थे चेव कालं करेस्सं अहण्णं अद्ध छद्मस्थः चैव कालं करिष्यामि, अहम् छद्मस्थ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त सोलस वासाइं जिणे सुहत्थी ___ अर्धषोडश वर्षाणि जिनः सुहस्ती करूंगा। मैं साढ़े पंद्रह वर्ष तक जिन-अवस्था विहरिस्सामि, तं गच्छह णं तुमं सीहा! विहरिष्यामि तत् गच्छ त्वं सिंह! में गन्धहस्ती के समान विहरण करूंगा। मंढियगाम नगरं, रेवतीए गाहावतिणीए मेण्ढियग्राम नगरम् रेवत्याः इसलिए सिंह! तुम मेंढियग्राम नगर, हां, है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३१६ श. १५ : सू. १५३,१५४ गिह, तत्थं णं रेवतीए गाहावतिणीए मम गाहावतिणीए' गृहम्, तत्र अट्ठाए दुवे 'कवोय-सरीरा' उवक्खडिया, 'गाहावतिणीए' रेवत्या मम अर्थाय द्वौ तेहिं नो अट्ठो, अस्थि से अण्णे कपोत-शरीरौ उपस्कृतौ, ताभ्यां नो पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमसए, अर्थः, अस्ति सः अन्यः पारिवासितः तमाहराहि, एएणं अट्ठो॥ मार्जारकृतकः कुक्कुटमांसकः, तम् आहर, एतेन अर्थः। गृहस्वामिनी रेवती के घर जाओ, वहां गृहपत्नी ने मेरे लिए दो कपोत-शरीर-मकोय के फल पकाए हैं। वे मेरे लिए प्रयोजनीय नहीं हैं। उसके पास अन्य बासी रखा हुआ मार्जारकृत अर्थात् चित्रक वनस्पति से भावित, कुक्कुट-मांस-चौपतिया शाक है, वह लाओ, वह प्रयोजनीय है। सीहेण रेवईए भेसज्जाणयण-पदं सिंहेन रेवत्या भैषज्यानयन-पदम् १५३. तए णं से सीहे अणगारे समणेणं ततः सः सिंहः अनगारः श्रमणेन भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते हट्टतुट्ट- भगवता महावीरेण एवम् उक्तः सन् चित्तमाणदिए णदिए पीइमाणे परम- हृष्ट-तुष्टचित्तः आनन्दितः नंदितः सोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए प्रीतिमनाः परमसौमस्यितः हर्षवशसमणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ विसर्पद्हृदयः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता अतुरियमचवलमसंभंतं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा मुहपोत्तियं पडिलेहेति, पडिलेहेत्ता अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तं मुखपोतिकां भायणवत्थाई पडिलेहेति, पडिलेहेत्ता प्रतिलिखति, प्रतिलेख्य भाजनभायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई वस्त्राणि प्रतिलिखति, प्रतिलेख्य उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं भाजनानि प्रमाष्टि, प्रमृज्य भाजनानि महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उद्गृह्णाति, उद्गृह्य यत्रैव श्रमणः समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं महावीरस्स अंतियाओ साणकोट्ठगाओ वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा चेइयाओ पडिनिक्खमति, पडि- श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य निक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंतं अन्तिकात् शाणकोष्ठक-चैत्यात् जूगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पूरओ रियं । प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य सोहेमाणे-सोहेमाणे जेणेव मेंढियगामे __ अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तं युगान्तरनगरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता प्रलोकनया दृष्ट्या पुरतः ईयाँ शोधयन्मेंढियगाम नगरं मझमज्झेणं जेणेव रेव- शोधयन् यत्रैव मेण्ढियग्राम नगरं तत्रैव तीए गाहावइणीए गिहे तेणेव उपागच्छति, उपागम्य मेण्ढियग्राम नगरं उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रेवतीए मध्यमध्येन यत्रैव रेवत्याः गाहावतिणीए गिहं अणुप्पविटे। 'गाहावतिणीए' गृहं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य रेवत्याः। 'गाहावतिणीए' गृहम् अनुप्रविष्टः। सिंह द्वारा रेवती के घर से भैषज्य आनयन-पद १५३. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर सिंह अनगार हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसका चित्त आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य-युक्त, हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर त्वरता, चपलता और संभ्रमरहित होकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर पात्र-वस्त्र का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर पात्रों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन कर पात्रों को हाथ में लिया, हाथ में लेकर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण 'भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर श्रमण भगवान् महावीर के पास से, शान कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर त्वरता, चपलता और संभ्रम-रहित होकर युगप्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या का शोधन करते हुए शोधन करते हुए, जहां मेंढियग्राम नगर था, वहां आया, आकर में ढियग्राम नगर के बीचों-बीच जहां गृहस्वामिनी रेवती का घर था, वहां आया, आकर रेवती के घर में अनुप्रविष्ट हो गया। १५४. तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहं ततः सा रेवती गाहावतिणी सिंहम् अणगारं एज्जमाणं पासति, पासित्ता अनगारम् आयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा हहतुट्टा खिप्पामेव आसणाओ अन्भुढेइ, हृष्टतुष्टा क्षिप्रमेव आसनात् अन्भुहेत्ता सीहं अणगारं सत्तट्ट पयाई अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय सिंहम् अणुगच्छइ,अणुगच्छित्ता तिक्खुत्तो अनगारं सप्ताष्टौ पदानि अनुगच्छति, आयाहिण-पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति अनुगम्य त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! नमस्यित्वा एवमवादीत्-संदिशन्तु किमागमणप्पयोयणं? देवानुप्रियाः ! किमागमन-प्रयोजनम्? १५४. गृहस्वामिनी रेवती ने सिंह अनगार को आते हुए देखा। वह देखकर हृष्ट-तुष्ट हो गई। शीघ्र ही आसन से उठी, उठकर सातआठ पैर सिंह अनगार के सामने गई। सामने जाकर दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! आप संदेश दें-आपके आगमन का प्रयोजन क्या है? , Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १५ : सू. १५५ ३२० १५५. तए णं से सीहे अणगारे रेवति। ततः सः सिंहः अनगारः रेवतीं 'गाहा- १५५. सिंह अनगार ने गृहस्वामिनी रेवती से इस गाहावइणिं एवं वयासी-एवं खलु तुमे वतिणीं' एवमवादीत्-एवं खलु त्वया प्रकार कहा-देवानुप्रिय! श्रमण भगवान् देवाणुप्पिए! समणस्स भगवओ देवानुप्रिये ! श्रमणस्य भगवतः महावीर के लिए तुमने दो कपोत-शरीर अर्थात् महावीरस्स अट्ठाए दुवे कवोय-सरीरा महावीरस्य अर्थाय द्वौ कपोत-शरीरौ मकाय के फल पकाए हैं, वे प्रयोजनीय नहीं हैं। उवक्खडिया, तेहिं नो अट्ठो, अत्थि ते उपस्कृतौ, ताभ्याः नो अर्थः, अस्ति ते तुमने कल अन्य बासी रखा हुआ, मार्जारकृत अण्णे पारियासिए मज्जारकडए अन्यः पारिवासितः मार्जारकृतकः अर्थात् चित्रक वनस्पति से भावित कुक्कुटमांस कुक्कुडमंसए एयमाहराहि, तेणं अट्ठो॥ कुक्कुटमांसकः एतम् आहर, तेन अर्थः। अर्थात् चौपतिया शाक है, वह लाओ, वह प्रयोजनीय है। भाष्य १. सूत्र १५२-१५५ इस प्रसंग में तीन शब्दों पर विचार करना अपेक्षित हैइस प्रकरण में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है, जो बड़े अटपटे १. कवोय-सरीरा लगते हैं, क्योंकि सुनने में मांसवाचक होने से संदेह होता है कि क्या २. मज्जारकडए मांसाहार का वर्जन उस समय नहीं था? किन्तु यह भ्रांति है क्योंकि ३. कुक्कुडमंसए। जिन शब्दों का प्रयोग यहां हुआ है वे सब 'शाकाहार' या वनस्पति के कपोत शरीर अर्थ में प्रयुक्त है। वृत्तिकार ने भी यह शंका प्रस्तुत की है, पर उसका कवोय-सरीर शब्द का सामान्य अर्थ कपोत-शरीर अर्थात् समाधान अपने प्रकार से करने का प्रयत्न किया है। हमें इन शब्दों के ___ 'कबूतर का शरीर' ऐसा समझा जाएगा। किन्तु वनस्पति-कोशअर्थों को जानने के लिए वनस्पति-कोश एवं प्राचीन निघण्टु आदि को साहित्य के अनुशीलन से पता चला है कि 'कपोत शरीर' नाम 'मकोय' सामने रखना होगा। नामक वनस्पति का है, जिसका दूसरा प्रसिद्ध नाम 'काममाची' भी १. जै. आ. व. को. पृ. ३१०-मांस प्रकरण-आगमों में पशु, पक्षी और जलचर श्लोक २५३ और २५४ में बीजपूर (बिजौरा) के पर्यायवाची नाम हैं। के नाम वनस्पति के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। कहीं-कहीं इनके नाम के साथ श्लोक २५५ और २५६ में उसके गुणधर्म हैं। जो यहां उद्धृत किए जा रहे हैं: मांस शब्द का प्रयोग भी हुआ है, जिससे ये शब्द चिंतनीय बन गए हैं। सूर्य उष्णं वातकफश्वासकासतृष्णावमिप्रणुत्। प्रज्ञप्ति के १०वें पाहुड के १२०वें सूत्र में कृत्तिका नक्षत्र से लेकर भरणीनक्षत्र तस्य त्वक् कटु तिक्तोषणा गुर्वी स्निग्धा च दुर्जरा॥२५५॥ तक २८ नक्षत्रों का भोजन दिया गया है। उसमें लिखा है-उस नक्षत्र में वे कृमिश्लेष्मानिलहरा मांसं स्वादु हिमं गुरु। वस्तु खाकर जाने से कार्य की सिद्धि होती है। बृहणं श्लेष्मलं स्निग्ध, पित्तमारुतनाशनम् ॥२५६॥ १. रोहिणी नक्षत्र में मांस, मृगसरा नक्षत्र में मृगमांस, अश्लेषा नक्षत्र में दीपिक बिजौरे का फल उष्ण वीर्य होता है। वात एवं कफ नाशक, श्वास, मांस, पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र में मेष मांस, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र नखी मांस कास, तृष्णा तथा वमन को दूर करने वाला होता है। इसके फल की उत्तराभाद्रपदा में वराहमांस, रेवति नक्षत्र में जलचर मांस, अश्विनी नक्षत्र में त्वचा-कटुतिक्त, उष्णवीर्य, गुरु, स्निग्ध, चिरपाकी, कृतिहर, कफ और तित्तिरि मांस खाकर जाने से कार्य की सिद्धि होती है। वात को दूर करने वाली होती है। २. भगवती सूत्र में उल्लेख है कि गोशाल के द्वारा तेजोलब्धि का प्रयोग मांस-फल का गूदा-स्वादिष्ट, शीतल, गुरु, बृंहण (धातुवर्धक) कफवर्धक, करने से भगवान महावीर के शरीर में दाह लग गई। उस समय अपने शिष्य स्निग्ध तथा वातपित्त को नष्ट करता है। सिंह नामक अणगार को कहा-तुम मेंढियाग्राम नामक नगर में रेवती गाथापति (कैयदेव निघंटु ओषधि वर्ग. पृ. ५१) के घर जाओ। उसने मेरे लिए दो कपोतशरीर उपस्कृत किया है, उसको मत ऊपर के दो प्रमाणों से स्पष्ट है कि मांस शब्द का प्रयोग वनस्पतियों के लाना, लेकिन वासी मार्जारकृत कुक्कुटमांस है उसको ले आना। यहां गूदे के अर्थ में होता है। प्रज्ञापना (१/३५) में एगट्ठिया (एकास्थिक) वर्ग कपोतशरीर और कुक्कुटमांस ये शब्द चिंतनीय हैं। ऊपर के दोनों है, जिसमें ३२ वनस्पतियों के नाम हैं। एकास्थिक का अर्थ है-एक गुठली सूत्रों-भगवती और सूर्यप्रज्ञप्ति में शब्दों के साथ मांस शब्द आया है। पहले वाले। यहां अस्थि शब्द गुठली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। त्वचा, मज्जा, मांस शब्द विमर्शनीय है। मांस शब्द का अर्थ मांस ही होता है या इसका नस, गर्भाशय आदि शब्द भी वनस्पति के विवरण में दिए हुए हैं। इससे दूसरा अर्थ भी उपयुक्त हो सकता है? पक्षी या पशु वाचक शब्द वनस्पति स्पष्ट है कि अस्थि और मांस शब्द वनस्पति के लिए प्रयुक्त हुए हैं। विशेष के वाचक हैं। ऐसी मान्यता जैनों में परम्परा से आ रही है। तब मांस २. भ. पृ. १५/१५५-'दुवे कवोया' इत्यादेः श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यते, अन्ये शब्द का अर्थ भी वनस्पति के संदर्भ में खोजना आवश्यक हो गया है। इस - त्याहु:-कपोतकः पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसाधयत्तेि कपोते-कूष्मांडे प्रश्न का समाधान हमें आयुर्वेद के ग्रंथों में ही खोजना होगा। श्रीमद् वृद्धवाग्भट्ट हस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे, विरचित अष्टांगसंग्रह के सूत्रस्थान सप्तमोध्याय, श्लोक १६८, पृ. ६३ पर अथवा कपोतकशरीरे इव धूसरवर्णसाधादेव कपोतकशरीरे कूष्माण्डफले ध्यान देना होगा एव ते उपसंस्कृते-संस्कृते। भल्लातकस्य त्वम् मांस बृंहण स्वादु शीतलम्॥ 'मज्जारकडए' इत्यादेरपि केचित् श्रूयमाणमेवार्थ मन्यन्ते, अन्ये त्याहुः भिलावे की छाल और मांस बृंहण (रस रक्तादिवर्धक), स्वादु तथा मार्जारो-वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृतं-संस्कृतं मार्जारकृतम्, अपरे शीतल होते हैं। भिलावे के मांस का अर्थ होता है-भिलावे का गूदा भाग। त्वाहुः-मार्जारो-विरालिकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृतं-भावितं दूसरा उदाहरण कैयदेव निघंटु के ओषधिवर्ग पृ. ५० के श्लोक हैं। यत्तत्तथा, किं तत् ? इत्याह-'कुर्कुटकमांसकं' बीजपूरकं कटाहम्। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३२१ श. १५ : सू. १५५ है। इस विषय में 'जैन आगम वनस्पति कोश' का निम्नांकित विवेचन मननीय है' किया है तथा उसका आधार 'वर्ण-साम्य' बताया है, फिर भी कोशकारों के अनुसार यह स्पष्टतः ‘मकोय' का ही द्योतक सिद्ध होता है। मज्जारकड कबोयसरीर (कपोतशरीर) मकोय (भ. १५ / १५२) विमर्श - कपोत का पर्यायवाची एक नाम पारापत है। पारापत के फल कबूतर के अंडों के समान होते हैं। पारापतपदी आयुर्वेद में काकजंघा को कहते हैं । धन्वन्तरि निघंटु पृ. १८६ में काकजंघा को काकमाची विशेष माना है। काकमाची शब्द मकोय शाक का वाचक है। पारापत के पर्यायवाची नाम साराम्लकः सारफलो, रसालश्च पारापतः ॥ ३२५ ॥ कपोताण्डोपमफलो, महापारावतोऽपरः ॥ साराम्ल, सारफल, रसाल ये पारावत के पर्याय हैं, इसके फल कबूतर के अंडों के सदृश होते हैं। (कैयदेव नि. औषधिवर्ग पृ. ६२ ) पारापतपदी के पर्यायवाची नाम काकजङ्घा, ध्वाङ्गजङ्घा, काकपादा तु लोमशा पारापतपदी दासी, नदीक्रान्ता प्रचीबला ॥ २० ॥ ध्वाङ्गजङ्घा, काकपादा, लोमशा, पारापतपदी, नदीक्रान्ता और प्रचीबला ये काकजंघा (काकमाची विशेष) के पर्याय हैं। ( धन्वतरि नि. ४ / २०, पृ. १८६ ) शास्त्रीय गुणों की दृष्टि से काकजंघा विषमज्वरनाशक, कफपित्तशामक, तिक्त, चर्मरोगनाशक एवं रक्तपित्त बाधिर्य, क्षत, विष एवं कृमि में लाभदायक होनी चाहिए। ( भाव. नि. ४ / २०, पृ. १८६ ) काकमाची के अन्य भाषाओं में नाम हिन्दी - मकोय, छोटीमकोय । बंगाली - काकमाची, गुडकामाई । मराठी- कानोणी। गुजराती - पीलुड़ी। फारसी - रूबाह तुर्बुक । अरबी इनबुस्सा लव। अंग्रेजी-ऋीवशप छळसहीीहरवश ( गार्डेन नाइटशेड) । ले.- Solanum nigrum linn (सोलॅनम् नाइग्रम् लिन.) Fam. Solanaceae (सोलेनॅसी) । उत्पत्ति स्थान - यह प्रायः सब प्रान्तों में एवं ८००० फीट तक पश्चिम हिमालय में उत्पन्न होती है। विवरण - इसका क्षुप १ से १.५ हाथ तक ऊंचा होता है और शाखाएं सघन होती हैं। यह गर्मी में नष्ट हो जाता है और वर्षा के अंत में उत्पन्न हो जाड़े में खूब हराभरा दिखलाई पड़ता है। इसके पत्ते अखंड, लहरदार या कभी-कभी दन्तुर या खंडित, लट्वाकार, प्रासवत् लट्वाकार या आयताकार, ४१.७ इंच तक बड़े और उनका फलक प्रायः वृन्त पर नीचे तक फैला रहता है। पुष्प छोटे, सफेद और पत्र कोण से हटकर निकले हुए पुष्पदंड पर समस्थ मूर्धजक्रम में निकले रहते हैं। फल गोल और पकने पर काले हो जाते हैं। कभी-कभी लाल या पीले भी होते हैं। ( भाव. नि. पृ. ४३८ ) इसका तात्पर्य यह हुआ कि यहां कवोयसरीर शब्द 'मकोय के फल के लिए प्रयुक्त है, न कि कबूतर के शरीर के लिए। यद्यपि वृत्तिकार ने इसका अर्थ कुष्मांड यानी कुम्हड़ा (या पेठा) १. जै. आ. व. को., पृ. ३११ - ३१२। ‘मार्जारकृत' का सामान्यतः संबंध 'मार्जार' यानी बिल्ली के साथ जुड़ता है, किन्तु वनस्पति कोशों के आधार पर इसका अर्थ 'रक्त चित्रक' होता है। 'जैन आगम वनस्पति कोश' के अनुसारमज्जारकड - मज्जार (मार्जार) रक्त चित्रक भ. १५/१५२। मार्जार के पर्यायवाची नाम कालो व्यालः कालमूलोऽतिदीप्यो मार्जारोऽग्निदाहकः पावकञ्च । चित्राङ्गोऽयं रक्तचित्रो महाङ्गः, स्यादुदाह्वश्चित्रकोऽन्यो गुणाढ्यः ॥ ४६ ॥ काल, व्याल, कालमूल, अतिदीप्य, मार्जार, अग्नि, दाहक, पावक, चित्राङ्ग, रक्तचित्र तथा महाङ्ग ये सब रक्त चित्रक के ग्यारह नाम हैं। (राज. नि. ६ / ४६, पृ. १४३ ) चित्रक की उपयोगिता विषज्वर में यकृत, प्लीहा वृद्धि होकर पाण्डु हो गया हो तो इसका सेवन करना चाहिए। विमर्श - प्रस्तुत प्रकरण में मज्जारशब्द चोपतिया शाक में संस्कार (पुट) देने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। चित्रक का पुट हुआ चोपतिया शाक विषज्वर को नाश करने में द्विगुणित लाभ करता है। क्योंकि चोपतिया शाक त्रिदोषघ्न और ज्वर नाशक है और रक्त चित्रक भी विषम ज्वर नाशक है इसीलिए भगवान् महावीर ने सिंह अनगार के द्वारा रेवती के घर से यह संस्कारित शाक मंगाया था। वृत्तिकार ने 'मर्जार' का संबंध वायु विशेष या 'विरालिका' नामक वनस्पति-विशेष के साथ जोड़ा है, पर वनस्पति द्वारा प्रदत्त विवरण अधिक संगत और प्रामाणिक प्रतीत होता है।' कुक्कुडमंस 'कुर्कुट' अर्थात् मुर्गे और 'मंस' अर्थात् 'मांस' के साथ शाब्दिक संबंध जुड़ने से यह शब्द भ्रामक बन जाता है। जैन आगम वनस्पति कोश में इसकी मीमांसा इस प्रकार की गई है कुक्कुडमंस - (कुक्कुटमांस) चोपतिया शाक, सुनिषण्णक भ. १५/१५२। कुक्कुट के पर्यायवाची नाम शितिवारः शितिवरः स्वस्तिकः सुनिषण्णकः श्रीवारकः सुचिपत्रः, पर्णकः कुक्कुटः शिखी ॥ शितिवार, शितिवर, स्वस्तिक, सुनिषण्णक, श्रीवारक, सूचिपत्र, पर्णक, कुक्कुट और शिखी ये चौपतिया के संस्कृत नाम हैं। (भाव. नि. शाकवर्ग. पृ. ६ / ७३, ६७४) अन्य भाषाओं में नाम हिन्दी - चौपतिया, सुनसुनिया साग। बंगाली सुषुणीशाक, शुनिशाक, शुशुनी शाक। लेटिन - Marsilea minuta linn (मार्सिलया माइन्सूटा लिन. ) Fam. Rhizocarpeae (राइज्झो कार्पी)। २. जै. आ. व. को., पृ. ३१४- ३१५ । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १५६-१५८ ३२२ भगवई उत्पत्ति स्थान-यह शाकवर्गीय वनस्पति भारतवर्ष के प्रायः सब प्रान्तों के सजल स्थानों में कहीं न कहीं पायी जाती है। वर्षाऋतु में यह अधिक उत्पन्न होती है। विवरण-इसके नीचे पतला एवं सशाख कांड होता है। इसके पत्ते पानी के ऊपर तैरते हुए दिखाई पड़ते हैं। प्रत्येक पत्रदंड पर चार- चार पत्ते स्वस्तिक क्रम में निकले रहते हैं, इस कारण इसे चतुष्पत्री या चौपतिया भी कहते हैं, पत्ते और दंड आकार के छोटे बड़े हआ करते हैं। पत्ते चांगेरी के पत्तों के समान किन्तु उनसे बड़े होते हैं। बीजाणुकोष एक विशेष प्रकार की अंडाकार परन्तु कुछ-कुछ चिपटी रचना के अन्दर रहते हैं, जो फलों की तरह मालूम होती है। इसका साग निद्राजनक तथा दीपन गुणवाला होता है। निद्रा लाने के लिए तथा अग्निमांद्य में इसका उपयोग करते हैं। (भा. नि. शाकवर्ग वृ.६७४) विमर्श-बंगाल में यह शाक बहुलता से खाया जाता है। भगवान् महावीर ने ज्वरदोष को मिटाने के लिए इस शाक को मंगाया था। त्रिदोषघ्न और ज्वरनाशक इस शाक के गुण हैं।' यहां पर वृत्तिकार ने इसका संबंध बीजपूरक कटाह यानी बिजौरा पाक के साथ जोड़ा है, पर वनस्पति कोश से प्राप्त जानकारी अधिक प्रामाणिक प्रतीत होती है। उपर्युक्त समग्र विवेचन से यह भलीभांति स्पष्ट हो रहा है कि भ्रांतिवश कुछ विद्वान् केवल शाब्दिक साम्य के आधार पर यह मान्यता बनाते रहे हैं कि जैन आगम में जैन मुनियों द्वारा मांसाहार' के उल्लेख मिलते हैं। वनस्पति और प्राणी-जगत् के नामों का साम्य केवल प्राचीन प्राकृत-संस्कृत भाषा में ही नहीं, बहुधा अन्य भाषाओं में भी प्रचलित है। आधुनिक वनस्पति-विज्ञान में अनेक वनस्पतियों के नाम अंग्रेजी में भी प्राणियों के नाम के साथ सादृश्य रखते हैं। अस्तु, यह अपेक्षित है कि उपरितन सादृश्य के आधार पर ही विद्वान किसी बिभत्स निष्कर्ष पर न पहुंचे; नए अनुसंधान के लिए सूक्ष्म अनुशीलन और ठोस प्रमाणों का आधार लिया जाय।' १५६. तए णं सा रेवती गाहावइणी सीहं ततः सा रेवती 'गाहावइणी' सिंहम् १५६. गृहस्वामिनी रेवती ने सिंह अनगार से अणगारं एवं वयासी-केस णं सीहा! से अनगारम् एवमवादीत्-कः एषः सिंहः ! इस प्रकार कहा-सिंह! वह ऐसा ज्ञानी अथवा नाणी वा तवस्सी वा, जेणं तव एस अहे सः ज्ञानी वा तपस्वी वा, येन तव एषः तपस्वी कौन है जिसने मेरा यह रहस्यपूर्ण मम ताव रहस्सकडे हव्वमक्खाए, जओ अर्थः मम तावत् रहस्यकृतः 'हव्वं' अर्थ बताया, जिससे यह तुम णं तुमं जाणासि? आख्यातः यतः त्वं जानासि? जानते हो? १५७. तए णं से सीहे अणगारे रेवई गाहा- ततः सः सिंहः अनगारः रेवतीं १५७. सिंह अनगार ने गृहस्वामिनी रेवती से इस वइणिं एवं वयासी-एव खलु रेवई! मम ___ 'गाहावइणिं' एवमवादीत्-एवं खलु प्रकार कहा-रेवती! मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं रेवति ! मम धर्माचार्यः धर्मोपदेशक: श्रमण भगवान् महावीर उत्पन्न-ज्ञान-दर्शन के महावीरे उप्पण्णनाणदसणधरे अरहा श्रमणः भगवान् महावीरः उत्पन्नज्ञान- धारक, अर्हत्, जिन, केवली, अतीत, जिणे केवली तीयपचुप्पन्नमणागय- दर्शनधरः अर्हत् जिनः केवली अतीत- वर्तमान और भविष्य के विज्ञाता, सर्वज्ञ और वियाणए सव्वण्णू सव्वदरिसी जेणं मम प्रत्युत्पन्नानागतविज्ञायक: सर्वज्ञः सर्वदर्शी सर्वदर्शी हैं। उन्होंने मुझे तुम्हारा यह एस अहे तव ताव रहस्सकडे येन मम एषः अर्थः तव तावत् रहस्यकृतः रहस्यपूर्ण अर्थ बताया, जिससे यह मैं जानता हल्वमक्खाए, जओ णं अहं जाणामि॥ 'हव्यं' आख्यातः, यद् अहं जानामि। हूं। १५८. तए णं सा रेवती गाहावतिणी ततः सा रेवती गाहावतिणी सिंहस्य १५८. गृहस्वामिनी रेवती सिंह अनगार के पास सीहस्स अणगारस्स अंतियं अयमढे अनगारस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा इस अर्थ को सुनकर, अवधारणकर हृष्ट-तुष्ट सोचा निसम्म हट्टतुट्ठा जेणेव भत्तघरे निशम्य हृष्टतुष्टा यत्रैव भक्तगृहं तत्रैव हो गई। जहां भोजनगृह था, वहां आई, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पत्तगं उपागच्छति, उपागम्य पात्रकं मुञ्चति, आकर चौपतिया शाक वाला बर्तन निकाला, मोएति, मोएत्ता जेणेव सीहे अणगारे मुक्त्वा यत्रैव सिंहः अनगारः तत्रैव । निकालकर जहां सिंह अनगार था, वहां आई, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहस्स उपागच्छति, उपागम्य सिंहस्य वहां आकर सिंह अनगार के पात्र में वह सर्व अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सव्वं सम्म अनगारस्य प्रतिग्रहके तत् सर्वं सम्यक् चौपतिया शाक सम्यक् रूप से निसर्जित निस्सिरति॥ निसृजति (निस्सिरति)। किया। १. जै आ. व. को., पृ. ३१२-३१३॥ Dog Lichens Peltigera canina २..New Concepts in Botany, vol. I. pp. 436, 437 (by Dr. Archna Old Man's beard Usnea berbata Jain). Horse tail Equisetum Giant horse tail Calamophyton, Calamites Name of Vegetation Botanical Name Maiden hair Fern Adiantum (resembling animal's name) Otster Mushroom Lady Fern Athyrium Plearicus Chicken Polyporus ३. देखें, आचार्य महाप्रज्ञ, 'मांसाहार : एक विवेचन', लेख, अर्हत् वचन, वर्ष Wolf Moss Letharia vulpina १३, अंक ३,४, २००१, पृ.१५-१८ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १५६. तए णं तीए रेवतीए गाहावतिणीए तेणं दव्वसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पडिगाहसुद्धे तिविणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे, संसारे परितीकए गिहंसि य से इमाई पंच दिव्वाई पाउन्भूयाइ, तं जहावसुधारा बुट्ठा, दसद्धवणे कुसुमे निवातिए, चेलुक्वेवे कए, आहयाओ देवदुंदुभीओ, अंतरा वि य णं आगासे अहो दाणे, अहो दाणे त्ति घुट्ठे ॥ १६०. तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडग-तिग- चउक्क- चच्चर- चउम्मुह-महापह-पसु बहुज अण्णमण्णस्स एवमाइक्खड़ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूबेड़--धन्ना णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी, कयत्था णं देवाणुप्पिया! रेबई गाहावइणी, कयपुण्णा णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी, कयलक्खणा णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावाणी, कया णं लोया देवाणुप्पिया! रेवतीए गाहावतिणीए, सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्मजीवियफले रेवतीए गाहावतिणीए, जस्स णं गिहंसि तहारूवे साधू साधुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाई पंच दिव्वाई पाउन्भूयाई, तं जहा - वसुधारा बुट्ठा जाव अहो दाणे, अहो दाणे त्ति घुट्टे, तं धन्ना कत्था कयपुण्णा कयलक्खणा, कया णं लोया, सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले रेवतीए गहावतिणीए, रेवतीए गाहावतिणीए ॥ ३२३ ततः तया रेवत्या तेन द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धेन प्रतिग्राहकशुद्धेन त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धेन दानेन सिंहः अनगारः प्रतिलाभितः सन् देवायुष्कः निबद्धः, संसारः परीतीकृतः गृहे च तस्या इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि तद्यथावसुधारा वृष्टा, दशार्धवर्णः कुसुमः निपातितः, आहताः देवदुन्दुभयः, अन्तरा अपि च आकाशे अहोदानम् अहोदानम् इति घुष्टम् । ततः राजगृहे नगरे श्रृंगाटक- त्रिकचतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख- महापथ- पथेषु बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति एवं भाषते एवं प्रज्ञापयति, एवं प्ररूपयतिधन्या देवानुप्रियाः ! रेवती गाहावाइणी, कृतार्थं देवानुप्रियाः ! रेवती 'गाहावइणी', कृतपुण्या देवानुप्रियः ! रेवती 'गाहावइणी', कृतलक्षणा देवानुप्रियाः ! रेवती 'गाहावइणी', कृताः लोकाः देवानुप्रियाः ! रेवत्या 'गाहावतिणीए' सुलब्धं देवानुप्रियाः ! मानुष्यकं जन्मजीवितफलं रेवत्या 'गाहावतिणीए ' यस्य गृहे तथारूपः साधु साधुरूपे प्रतिलाभिते सति इमानि पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि तद्यथा - वसुधारा वृष्टा यावत् अहोदानम् अहोदानम् इति घुष्टम्, तत् धन्या कृतार्था कृतपुण्या कृतलक्षणा, कृताः लोकाः, सुलब्धं मानुष्यकं जन्म- जीवितफलं रेवत्या 'गाहावतिणीए' रेवत्या 'गाहावतिणीए' । भाष्य १. सूत्र १६० यहां मूल पाठ में 'रायगिहे' है', जबकि यह सारा प्रसंग 'मेंढियग्राम' का चल रहा है। किस कारण से यहां 'राजगृह' का उल्लेख १६१. तए णं से सीहे अणगारे रेवतीए गाहावतिणीए गिहाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता मेंढियगामं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छर, निग्गच्छित्ता जहा गोयमसामी जाव भत्तपाणं पडिदंसेति, पडिदंसेत्ता समणस्स भगवओ १. अंगसुत्ताणि, भाग २ (भगवई), १५ / १६० ततः सः सिंहः अनगारः रेवत्याः 'गाहावतिणीए' गृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य मेण्टियग्रामं नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यथा गौतमस्वामी यावत् भक्तपानं प्रतिदर्शयति, प्रतिदर्श्य श्रमणस्य श. १५ : सू. १५६-१६१ १५६. गृहस्वामिनी रेवती ने द्रव्य शुद्ध, दाता शुद्ध, प्रतिग्राहक शुद्ध - त्रिविध, त्रिकरण शुद्ध दान के द्वारा सिंह अनगार को प्रतिलाभित कर देवायुष्य का निबंध किया, संसार को परीत किया, उसके घर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे- रत्नों की धारा निपातवृष्टि, पांच वर्ण वाले फूलों की वृष्टि, ध्वजा फहराने लगी, देवदुन्दुभियां बजीं, आकाश के अंतराल में 'अहोदानम् अहोदानम्' की उद्घोषणा हुई। गया है - यह विमर्शनीय है। संभवतः 'जाव' की पूर्ति में यह विपर्यास हो गया हो, ऐसा लगता है। १६०. राजगृह' नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं प्ररूपणा करते हैं- देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती धन्या है, देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती कृतार्थ है, देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती कृतपुण्या है । देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती कृतलक्षणा है । देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी रेवती ने इहलोक और परलोक दोनों को सुधार लिया है। देवानुप्रियो ! गृहस्वामिनी ने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है, जिसके घर में तथारूप साधु के साधु रूप में प्रतिलाभित होने पर ये पांच दिव्य प्रकट हुए, जैसे - रत्नों की धारा निपातवृष्टि यावत् 'अहोदानम् - अहोदानम्' की उद्घोषणा । इसलिए वह धन्या, कृतार्था कृतपुण्या और कृतलक्षणा है। उसने इहलोक और परलोक दोनों को सुधारा है। गृहस्वामिनी रेवती ने मनुष्य जन्म और जीवन का फल अच्छी तरह से प्राप्त किया है। १६१. सिंह अनगार ने गृहस्वामिनी के घर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर यि ग्राम नगर के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर गौतम स्वामी की भांति यावत् भक्त- पान दिखलाया, दिखलाकर श्रमण भगवान् महावीर के हाथ में उस सर्व Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १६२-१६४ महावीरस्स पाणिंसि तं सव्वं सम्म निस्सिरति॥ ३२४ भगवतः महावीरस्य पाणौ तत् सर्वं सम्यक् निसृजति (निस्सिरति)। भगवई (चौपतिया शाक) का निसर्जन किया। भगवओ आरोग्ग-पदं भगवतः आरोग्य-पदम् भगवान का आरोग्य-पद १६२. तए णं समणे भगवं महावीरे । ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अमूर्छितः १६२. श्रमण भगवान् महावीर ने अमूर्च्छित, अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणज्झोववन्ने अगृद्धः अग्रथितः अनध्युपपन्नः। अगृद्ध, अग्रथित और अनासक्त होकर बिल में बिलमिव पन्नगभएणं अप्पाणेणं तमाहारं बिलमिव पन्नगभूतेन आत्मना तम्। प्रविष्ट सर्प के सदृश अपने आपको बनाकर सरीरकोहगंसि पक्खिवति॥ आहारं शरीरकोष्ठके प्रक्षिपति। उस आहार को शरीर रूप कोष्ठक में डाल दिया। १६३. तए णं समणस्स भगवओ महा- ततः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य तम् वीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स आहारम् आहरतःसतः सः विपुलः से विपुले रोगायंके खिप्पामेव उवसंते, हटे। रोगातङ्क: क्षिप्रमेव उपशान्तः, हृष्टः जाए, अरोगे, बलियसरीरे। तुट्ठा समणा, जातः अरोगः, बलिकशरीरः। तुष्टाः तुट्ठाओ समणीओ, तुट्ठा सावया, तुट्ठाओ श्रमणाः, तुष्टाः श्रमण्यः, तुष्टाः सावियाओ तुट्ठा देवा, तुट्ठाओ देवीओ, श्रावकाः, तुष्टाः श्राविकाः, तुष्टाः । सदेवमणुयासुरे लोए तुट्टे-हढे जाए समणे देवाः, तुष्टाः देव्यः, सदेवमनुजासुरः । भगवं महावीरे, हटे जाए समणे भगवं लोकः तुष्टः- हृष्टः जातः श्रमणः महावीरे॥ भगवान् महावीरः, हृष्टः जातः श्रमणः भगवान् महावीरः। १६३. श्रमण भगवान् महावीर के उस आहार को लेने पर वह विपुल रोग-आतंक शीघ्र ही उपशांत हो गया, शरीर हृष्ट, अरोग और बलिष्ठ हो गया। श्रमण तुष्ट हो गए, श्रमणियां तुष्ट हो गईं, श्रावक तुष्ट हो गए, श्राविकाएं तुष्ट हो गईं, देव तुष्ट हो गए, देवियां तुष्ट हो गईं। देव, मनुष्य असुर-सहित पूरा लोक तुष्ट हो गया-श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट हो गए, श्रमण भगवान् महावीर हृष्ट हो गए। सव्वाणुभूतिस्स उववाय-पदं सर्वानुभूतेः उपपात-पदम् सर्वानुभूति का उपपात-पद १६४. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त ! अयि! भगवान् गौतमः श्रमणं १६४. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण महावीरं बंदति नमसति, वंदित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, भगवान् महावीर से इस प्रकार कहानमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-एवं देवानुप्रिय का अंतेवासी पूर्व जनपद का देवाणुप्पियाणं अंतेवासी पाईणजाणवइ खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी निवासी सर्वानुभूति नाम का अनगार प्रकृति सब्वाणुभूती नाम अणगारे पगइभदए प्राचीनजानपदः सर्वानुभूतिः नाम से भद्र यावत् विनीत। भन्ते! तब वह जाव विणीए, से णं भंते! तदा गोसालेणं अनगारः प्रकृतिभद्रक: यावत् विनीतः, मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से राख का ढेर मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए सः भदन्त ! तदा गोशालेन मंखलि- होने पर कहां गया है? कहां उपपन्न समाणे कहिं गए ? कहिं उववन्ने ? पुत्रेण तपसा तेजसा भस्मराशीकृतः सा तजसा भस्मराशीकृतः हुआ है? __ सन् कुत्र गतः? कुत्र उपपन्नः? एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी गौतम! मेरा अंतेवासी पूर्व जनपद का निवासी पाईणजाणवए सव्वाणुभूती नाम प्राचीनजानपदः सर्वानुभूतिः नाम सर्वानुभूति नाम का अनगार-प्रकृति से भद्र अणगारे पगइभदए जाव विणीए, से णं अनगारः प्रकृतिभद्रकः यावत् विनीतः, यावत् विनीत। मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं स तदा गोशालेन मंखलिपुत्रेण तपसा । तेज से राख का ढेर होने पर ऊर्ध्व चंद्र-सूर्य भासरासीकए समाणे उखु चंदिम-सूरिय तेजसा भस्मराशीकृतः सन् उर्ध्वं । यावत् ब्रह्म, लांतक, महाशुक्र कल्प का जाव बंभ-लंतक-महासुक्के कप्पे चन्द्रमस्-सूर्यं यावत् ब्रह्म-लान्तक- व्यतिक्रमण कर सहसार कल्प में देव रूप में वीइवइत्ता सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववन्ने। महाशुक्रान् कल्पान् । व्यतिव्रज्य उत्पन्न हुआ है। वहां कुछ देवों की स्थिति तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठारस सहसारे कल्पे देवत्वेन उपपन्नः। तत्र अठारह सागरोपम प्रज्ञप्त है। सर्वानुभूति देव सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं अस्त्येककानां देवानाम् अष्टादश की स्थिति अठारह सागरोपम प्रज्ञप्त है। सव्वाणुभूतिस्स वि देवस्स अट्ठारस ___ सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। सर्वानुभूतेः अपि देवस्य अष्टादश सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। से णं भंते! सव्वाणुभूती देवे ताओ देव- सः भदन्त ! सर्वानुभूतिः देवः तस्मात् भंते! सर्वानुभूति देव उस देवलोक से आयु. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३२५ श. १५ : सू. १६५,१६६ क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? लोगाओ आउक्खएणं भवक्वएणं देवलोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण ठिइक्वएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गमिष्यति? कुत्र उपपत्स्यते? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् जाव सब्बतखाणं अंतं करेहिति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति। गौतम! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा। सुनक्षत्र का उपपात-पद १६५. देवानुप्रिय का अंतेवासी कौशल जनपद निवासी सुनक्षत्र नाम का अनगार-प्रकृति से भद्र यावत् विनीत। भंते! मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से परितापित होकर कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर वह कहां गया है? कहां उपपन्न हुआ है? सुनक्वत्तस्स उववाय-पदं सुनक्षत्रस्य उपपात-पदम् १६५. एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी कोसलजाणवए सुनक्वत्ते नामं अणगारे कोशलजानपदः सुनक्षत्र: नाम अनगारः पगइभदए जाब विणीए। से णं भंते! तदा प्रकृतिभद्रकः यावत् विनीतः। सः गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भदन्त ! तदा गोशालेन मंखलिपुत्रेण परिताविए समाणे कालमासे कालं किच्चा तपसा तेजसा परितापितः सन् कहिं गए? कहिं उबवन्ने? एवं खलु। कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गतः? कुत्र गोयमा! ममं अंतेवासी सुनक्खत्ते नामं उपपन्नः? अणगारे पगइभद्दए जाब विणीए, से णं एवं खलु गौतम ! मम अन्तेवासी तदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं सुनक्षत्रः नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः परिताविए समाणे जेणेव ममं अंतिए यावत् विनीतः सः तदा गोशालेन तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बंदति मंखलिपुत्रेण तपसा तेजसा नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच परितापितः सन् यत्रैव अन्तिकं तत्रैव महन्वयाई आरुभेति, आरुभेत्ता समणा उपागच्छति उपागम्य वन्दते नमस्यति, य समणीओ य खामेति, खामेत्ता वन्दित्वा नमस्यित्वा स्वयमेव पञ्च आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते महाव्रतानि आरोहति, आरुह्य कालमासे कालं किच्चा उडे चंदिम-सूरिय श्रमणान् च श्रमणीः च क्षमयति, जाव आणयपाणयारणे कप्पे वीइवइत्ता क्षमयित्वा आलोचित-प्रतिक्रान्तः अचुए कप्पे देवत्ताए उबवन्ने। तत्थ णं समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई ऊर्ध्वं चन्द्रमस्-सूर्यं यावद् ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं आनतप्राणतारणान् कल्पान् व्यतिव्रज्य सुनक्वत्तस्स वि देवस्स बावीसं अच्युते कल्पे देवत्वेन उपपन्नः। तत्र सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। अस्त्येककानां देवानां द्वाविंशतिः पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र सुनक्षत्र-स्यापि देवस्य द्वाविंशतिः सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। से णं भंते! सुनक्खत्ते देवे ताओ सः भदन्तः ! सुनक्षत्रः देवः तस्मात् देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्रवएणं देव-लोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण ठिइक्वएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गच्छिहिति? कहिं उववन्जिहिति? गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सब्बदुक्खाणं अंतं काहिति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति। गौतम! मेरा अंतेवासी सुनक्षत्र नाम का अनगार-प्रकृति से भद्र यावत् विनीत। मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से परितापित होने पर जहां मैं था, वहां आया, आकर वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर स्वयं ही पांच महाव्रतों का आरोपण किया। आरोपण कर श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की, क्षमायाचना कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त होकर कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर ऊर्ध्व चंद्र-सूर्य यावत् आनत-प्राणत, आरण कल्प का व्यतिक्रमण कर अच्युत कल्प में देवरूप में उपपन्न हुआ है। वहां कई देवों की स्थिति बाईस सागरोपम प्रज्ञप्त है। वहां सुनक्षत्र देव की स्थिति बाईस सागरोपम प्रज्ञप्त है। भंते! सुनक्षत्र देव उस देवलोक से आयु-क्षयभव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा। गोसालस्स भवब्भमण-पदं गोशालस्य भवभ्रमण-पदम् गोशाल का भवभ्रमण-पद १६६. एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी एवं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी १६६. देवानुप्रिय के अंतेवासी कुशिष्य का नाम कसिम्से गोसाले नाम मंखलिपत्ते से णं कशिष्यः गोशालः नाम मंखलिपत्रः सः था मंखलिपत्र गोशाल। भंते! वह मंखलिपत्र भंते! गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे भदन्त! गोशालः मंखलिपुत्रः कालमासे गोशाल कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर कहां कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उबवन्ने? कालं कृत्वा कुत्र गतः? कुत्र उपपन्नः? गया है? कहां उपपन्न हुआ है? Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ भगवई श. १५ : सू. १६७-१७० एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी एवं खलु गौतम ! मम अन्तेवासी कुसिस्से गोसाले नामं मखलिपुत्ते कुशिष्यः गोशालः नाम मंखलिपुत्रः समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालमासे श्रमण-घातकः यावत् छद्मस्थः चैव कालं किच्चा उ8 चंदिम- -सूरिय कालमासे कालं कृत्वा ऊर्ध्वं चन्द्रमस्जाव अचुए कप्पे देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं सूर्यं यावत् अच्युते कल्पे देवत्वेन अत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई उपपन्नः। तत्र अस्त्येककानां देवानां ठिती पण्णत्ता तत्थ णं गोसालस्स वि द्वाविंशतिः सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिती तत्र गोशालस्यापि देवस्य द्वाविंशतिः पण्णत्ता॥ सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। गौतम! मेरा अंतेवासी कुशिष्य जिसका नाम था मंखलिपुत्र गोशाल, वह श्रमण-घातक यावत् छद्मस्थ-अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त कर ऊर्ध्व चंद्र, सूर्य यावत् अच्युत कल्प में देवरूप में उपपन्न हुआ। वहां कुछ देवों की स्थिति बाईस सागरोपम प्रज्ञप्त है। गोशाल देव की स्थिति भी बाईस सागरोपम प्रज्ञप्त १६७. गोशाल देव उस देवलोक से आयु-क्षय, भव-क्षय, और स्थिति-क्षय के अनंतर च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? १६७. से णं भंते! गोसाले देवे ताओ सः भदन्त ! गोशालः देवः तस्मात् देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं देवलोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गच्छिहिति? कहिं उववन्जिहिति? गमिष्यति? कुत्र उपपत्स्यते? गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे गौतम ! इहैव जम्बुद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे विंझगिरिपायमूले पुंडेसु जणवएसु विन्ध्यगिरि पादमूले पुण्ड्रेषु जनपदेषु सयद्वारे नगरे समुतिस्स रणो भद्दाए शतद्वारे नगरे सन्मतेः राज्ञः भद्रायाः भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति। भार्यायाः कुक्षौ पुत्रत्वेन प्रत्याजनिष्यते। से णं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं सः तत्र नवानां मासानां प्रतिपूर्णानाम् गौतम! इस जंबूद्वीप द्वीप में भारत वर्ष में विंध्यगिरि के मूल में पुण्ड्र जनपद के शतद्वार नगर के राजा सन्मति की भार्या भद्रा की कुक्षि से पुत्र के रूप में उपपन्न होगा। बहु प्रतिपूर्ण नौ मास और साढे सात रात दिन के व्यतिक्रान्त होने पर यावत् सुरूप पुत्र के रूप में पैदा होगा। सुरूवे दारए पयाहिति॥ क्रान्तानां यावत् सुरूपः दारकः प्रजनिष्यते। १६८. जं रयणिं च णं से दारए जाइहिति, यस्यां रजन्यां सः दारक: जनिष्यते, तं स्यणिं च णं सयदुवारे नगरे सभिंतर- तस्यां रजन्यां शतद्वारे नगरे साभ्यन्तर- बाहिरिए भारग्गसो य कुंभग्गसो य बाह्यके भाराग्रशः च कुम्भाग्रशः च पउमावासे य रयणवासे य वासे पद्मवर्षः च रत्नवर्षः च वर्षः वर्षिष्यति। वासिहिति॥ १६८. जिस रजनी में वह पुत्र उत्पन्न होगा, उस रजनी में शतद्वार नगर के भीतर और बाहर भार-प्रमाण और कुंभ-प्रमाण फूलों और रत्नों की वर्षा होगी। १६६. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ततः तस्य दारकस्य अम्बापितरौ १६६. उस बालक के माता-पिता ग्यारह दिवस एक्कारसमे दिवसे बीइक्कते निव्वत्ते एकादशमे दिवसे व्यतिक्रान्ते निवृत्ते के बीत जाने पर, अशुचि जातकर्म से निवृत्त असुइजायकम्मकरणे संपत्ते बारसमे __अशुचिजातकर्मकरणे सम्प्राप्ते द्वादशमे होने पर बारहवें दिवस के आने पर इस प्रकार दिवसे अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिष्फन्नं दिवसे इदमेतद्रूपं गौणं गुणनिष्पन्नं का गुणयुक्त गुणनिष्पन्न नामकरण करेंगे, नामधेजं काहिति-जम्हा णं अम्हं इमंसि नामधेयं कुरिष्यतः यस्मात् अस्माकं क्योंकि इस बालक के उत्पन्न होने पर दारगंसि जायंसि समाणंसि सयदुवारे अस्मिन् दारके जाते सति शतद्वारे शतद्वार नगर के भीतर और बाहर, भारनगरे सब्भिंतरबाहिरिए भारग्गसो य नगरे साभ्यन्तरबाह्यके भाराग्रशः च प्रमाण और कुंभ-प्रमाण फूलों और रत्नों की कुंभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे बुट्टे, कुम्भाग्रशः च पद्मवर्षः च रत्नवर्षः । वृष्टि हुई, इसलिए हमें इस बालक का तं होउ णं अहं इमस्स दारगस्स वृष्टः, तत् भवतु अस्माकम् अस्य नामकरण करना चाहिए महापद्म-महापद्म। नामधे महापउमे-महापउमे। तए णं दारकस्य नामधेयं महापद्मः-महापद्मः। उस बालक के माता-पिता उसका नामकरण तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं ततः तस्य दारकस्य अम्बापितरौ करेगें-'महापद्म'। करेहिंति महापउमे त्ति॥ नामद्येयं करिष्यतः महापद्मः इति। १७०. तए णं ते महापउमं दारगं अम्मापियरो ततः तं महापद्म दारकम् अम्बापितरौ १७०. बालक महापद्म को आठ वर्ष से कुछ सातिरेगट्ठवासजायगं जाणित्ता सोभणसि सातिरेकाष्टवर्षकं ज्ञात्वा शोभने अधिक आयु वाला जानकर माता-पिता Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३२७ तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-मुहत्तंसि तिथिकरण-नक्षत्र-मुहूर्ते महता-महता महया-महया रायाभिसेगेणं अभि- राजाभिषेकेण अभिसेक्ष्यतः। सः तत्र सिंचेहिति। से णं तत्थ राया भविस्मति- राजा भविष्यति-महत् हिमवत्-महत्महया हिमवंत-महंत-मलय-मंदर- मलय-मन्दर-महेन्द्रसारः वर्णक: यावत महिंदसारे वण्णओ जाव विहरिस्सड़। भविष्यति। श. १५ : सू. १७१,१७२ शोभन तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और मुहूर्त में उसे महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त करेंगे। वह वहां राजा होगा-महान हिमालय, महान् मलय मेरु और महेन्द्र की भांति वर्णक यावत् विहरण करेगा। देंगे। १७१. तए णं तस्स महापउमस्स रण्णो ततः तस्य महापद्मस्य राज्ञः अन्यदा १७१. किसी दिन महापद्म राजा को महर्द्धिक अण्णदा कदायि दो देवा महिड्डिया जाव कदाचित् द्वौ देवौ महर्द्धिको यावत् यावत् महान् ऐश्वर्यशाली दो देव जैसेमहेसक्खा सेणाकम्म काहिंति, तं जहा- महेशाख्यौ सेनाकर्म करिष्यतः, पुण्यभद्र और माणिभद्र, सैन्य-कर्म की शिक्षा पुण्णभद्दे य माणिभद्दे य॥ तद्यथा-पूर्णभद्रः च माणिभद्रः च। तए णं सयदुवारे नगरे बहवे राईसर- ततः शतद्वारे नगरे बहवः राजेश्वर- तब उस शत-द्वार नगर में अनेक राजा, तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि- 'तलवर' माडम्बिक-कौटुम्बिक-इभ्य- ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, सेणावइ-सत्यवाहपभितओ अण्णमण्णं । श्रेष्ठि - सेनापति - सार्थवाहप्रभृतयः श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि एक दूसरे सदावेहिति, सदावेत्ता एवं वदेहिति- अन्योन्यम् शब्दयिष्यन्ति, शब्दयित्वा । को बुलाएंगे, बुलाकर इस प्रकार कहेंगेजम्हा णं देवाणुप्पिया! महापउमस्स रण्णो एवं वदिष्यन्ति-यस्मात् देवानुप्रियाः ! देवानुप्रियो! महापद्म राजा को दो महर्द्धिक दो देवा महिड्डियाणं जाव महेसक्खा । महापद्मस्य राज्ञः द्वौ देवौ महद्धिको यावत् महान ऐश्वर्यशाली दो देव जैसेसेणाकम्मं करेंति, तं जहा-पुण्णभद्दे य । यावत् महेशाख्यौ सेनाकर्म कुरुतः, तद् पुण्यभद्र और माणिभद्र, सैन्य कर्म की शिक्षा माणिभद्दे य, तं होउ णं देवाणुप्पिया! यथा-पूर्णभद्रः च माणिभद्रः च, तत् दे रहे हैं, इसलिए देवानुप्रियो! हमारे राजा अम्हं महापउमस्स रण्णो दोच्चे वि। भवतु देवानुप्रियाः ! अस्माकं महापद्म का दूसरा नाम होना चाहिए देवसेननामधेज्जे देवसेणे-देवसेणे। तए णं तस्स महापद्मस्य राज्ञः द्वितीयमपि नामधेयं देवसेन। तब उस राजा महापद्म का दूसरा महापउमस्स रण्णो दोचे वि नामधेज्जे देवसेनः-देवसेनः। ततः तस्य नाम 'देवसेन' होगा। भविस्सति देवसेणे ति॥ महापद्मस्य राज्ञः द्वितीयमपि नामधेयं भविष्यति देवसेनः इति। १७२. तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो ततः तस्य देवसेनस्य राज्ञः अन्यदा १७२. किसी दिन राजा महापद्म के विमल अण्णया कयाइ सेते संखतल-विमल- कदाचित् श्वेतं शङ्घतल-विमल-सन्नि- शंखतल के समान श्वेत चतुर्दन्त हस्ति-रत्न सन्निगासे चउदंते हत्थिरयणे समुप्प- काशं चतुर्दन्तं हस्तिरत्नं समुत्पत्स्यते। उत्पन्न होंगे। तब राजा देवसेन विमल शंखज्जिस्सइ। तए णं से देवसेणे राया तं सेयं ततः सः देवसेनः राजा तं श्वेतं शङ्कतल- तलके समान श्वेत चतुर्दन्त हस्ति-रत्न पर संखतल-विमल-सन्निगासं चउदंतं। विमल-सन्निकाशं चतुर्दन्तं हस्तिरत्नं आरूढ़ होकर शतद्वार नगर के बीचोबीच होते हत्थिरयणं द्रुढे समाणे सयदुवारं नगरं आरूढः (यूँढे) सन् शतद्वारनगरं मध्य- हुए बार-बार प्रवेश और निष्क्रमण करेंगे। मझमज्झेणं अभिक्खणं-अभिक्खणं मध्येन अभीक्ष्णम्-अभीक्ष्णम् अतिया- शतद्वार नगर में अनेक राजा, ईश्वर, तलवर, अतिजाहिति य निज्जाहिति य। तए णं स्यति च निर्यास्यति च। ततः शतद्वारे माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सयदुवारे नगरे बहवे राईसर-तलवर- नगरे बहवः राजेश्वर-'तलवर' - सेनापति, सार्थवाह आदि दूसरे को बुलाएंगे, माइंबिय-कोडुंबिय-इन्भ-सेटि-सेणावइ. माडम्बिक - कौटुम्बिक - इभ्य-श्रेष्ठि- बुलाकर इस प्रकार कहेंगे-देवानुप्रियो! हमारे सत्थवाहपभितओ अण्णमण्णं सेनापति-सार्थवाहप्रभृतयः अन्योन्यं राजा देवसेन के विमल शंख तल के समान सद्दावेहिति, सदावेत्ता वदेहिंति-जम्हा णं शब्दयिष्यन्ति, शब्दयित्वा वदिष्यन्ति- श्वेत चतुर्दन्त हस्ति-रत्न उत्पन्न हुआ है, देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्स रण्णो सेते यस्मात् देवानुप्रियाः! अस्माकं इसलिए देवानुप्रियो! हमारे राजा देवसेन का संखतल-विमल-सन्निगासे चउदंते । देवसेनस्य राज्ञः श्वेतं शङ्कतल- तीसरा नाम विमलवाहन-विमलवाहन होना हत्थिरयणे समुप्पन्ने, तं होउ णं विमल-सन्निकाशं चतुर्दन्तं हस्तिरत्न चाहिए। तब से उस देवसेन राजा का तीसरा देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्स रण्णो तच्चे समुत्पन्नम्, तत् भवतु देवानुप्रियाः ! नाम 'विमलवाहन' होगा। वि नामधेज्जे विमलवाहणे-विमलवाहणे। अस्माकं देवसेनस्य राज्ञः तृतीयमपि तए णं तस्स देवसेणस्स रण्णो तचे वि नामधेयं विमलवाहनः-विमलवाहनः । नामधेज्जे भविस्सति विमलवाहणे त्ति॥ ततः तस्य देवसेनस्य राज्ञः तृतीयमपि नामधेयं भविष्यति विमलवाहनः इति। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १७३,१७४ ३२८ भगवई १७३. तए णं से विमलवाहणे राया ततः सः विमलवाहनः राजा अन्यदा १७३. राजा विमलवाहन किसी दिन श्रमण अण्णया कदायि समणेहिं निग्गंथेहिं कदाचित् श्रमणेषु निर्ग्रन्थेषु मिथ्या निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न मिच्छ विपडिवज्जिहिति-अप्पेगतिए विप्रतिपत्स्यते-अप्येककान् आक्रोक्ष्यति, होगा-वह अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति आओ-सेहिति,अप्पेगतिए अवसिहिति, अप्येककान् अपहसिष्यति, आक्रोश करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों का अप्पेगतिए निच्छोडेहिति, अपेगतिए अप्येककान् निश्छोटयिष्यन्ति, उपहास करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों का निम्भंछेहिति, अपेगतिए बंधेहिति, अप्येककान् निर्भर्त्तयिष्यते, तिरस्कार करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों की अप्पेगतिए निरंभेहिति, अप्पेगतियाणं अप्येककान् भन्त्स्यति, अप्येककान् निर्भर्त्सना करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों को छविच्छेदं करेहिति, अप्पेगतिए पमारे- निरोत्स्यति, अप्येककानां छविच्छेदं बांधेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को कारागार हिति, अप्पेगतिए उद्दवेहिति, अप्पेग- करिष्यति, अप्येककान् प्रमारयिष्यति, में डाल देगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों का तियाणं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं अप्येककान् उपद्रोष्यति, अप्येककानां छविच्छेद करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों को आच्छिंदिहिति विच्छिंदिहिति भिंदिहिति वस्त्रं प्रतिग्रहं कम्बलं पादप्रोञ्छनम् पीटेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों को मारेगा, अवहरिहिति, अप्पेगतियाणं भत्तपाणं आच्छेत्स्यति विच्छेत्स्यति भिन्त्स्यति अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों के वस्त्र, पात्र, कंबल, वोच्छिंदिहिति, अप्पेगतिए निनगरे अपहरिष्यति, अप्येककानां भक्तपानं पादप्रौञ्छन का आच्छेदन, विच्छेदन, भेदन करेहिति, अप्पेगतिए निब्धिसए करेहिति॥ व्यवच्छेत्स्यति, अप्येककान् निर्नगरान् और अपहरण करेगा, अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों करिष्यति, अप्येककान् निर्विषयान् के भक्तपान का विच्छेद करेगा, अनेक श्रमण करिष्यति। निर्ग्रन्थों को नगर-रहित करेगा, अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को निर्वासित करेगा। १७४. तए णं सयदुवारे नगरे बहवे ततः शतद्वारे नगरे राजेश्वर 'तलवर' - १७४. शतद्वार नगर के अनेक राजा, ईश्वर, राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ- माडम्बिक-कौटुम्बिक - इभ्य - श्रेष्ठि- तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेटि-सेणावइ-सत्थवाहप्पभितओ अण्ण- सेनापति-सार्थवाह प्रभृतयः अन्योन्यं सेनापति, सार्थवाह आदि एक दूसरे को मण्णं सद्दावेहिति, सदावेत्ता एवं शब्दयिष्यन्ति, शब्दयित्वा एवं बुलाएंगे, बुलाकर इस प्रकार कहेंगेवदिहिति-एवं खलु देवाणुप्पिया! वदिष्यन्ति-एवं खलु देवानुप्रियाः । देवानुप्रियो! राजा विमलवाहन श्रमण निम्रन्थों विमलवाहणे राया समणेहि निग्गंथेहि विमलवाहनःराजा श्रमणेषु निर्गन्थेषु के प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न हो गया मिच्छं विपडिवन्ने-अप्पेगतिए आओसति मिथ्या विप्रतिपन्ना-अप्येककान् है-अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश जाव निब्बिसए करेति, तं नो खलु आक्रोशयति यावत् निर्विषयान् करोति, करता है यावत् निर्वासित करता है-इसलिए देवाणुप्पिया! एयं अम्हं सेय, नो खलु एवं तत् नो खलु देवानुप्रियाः ! एतद् देवानुप्रियो! न यह हमारे लिए श्रेय है, न विमलवाहणस्स रण्णो सेयं, नो खलु एवं अस्माकं श्रेयः, नो खलु एतद् । राजा विमलवाहन के लिए श्रेय है, न यह रज्जस्स वा रहस्स वा बलस्स वा विमलवाहनस्य श्रेयः, नो खलु एतद् राज्य, राष्ट्र, सेना, वाहन, पुर, अन्तःपुर वाहणस्स वा पुरस्स वा अंतेउरस्स वा। राज्यस्य वा राष्ट्रस्य वा बलस्य वा और जनपद के लिए श्रेय है, क्योंकि राजा जणवयस्स वा सेयं, जण्णं विमलवाहणे वाहनस्य वा पुरस्य वा अन्तःपुरस्य वा विमलवाहन मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न हो गया राया समणेहिं निग्गंथेहिं मिच्छं जनपदस्य वा श्रेयः यत् विमलवाहनः है। इसलिए देवानुप्रियो! यह श्रेय है कि हम विपडिवन्ने। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! राजा श्रमणेषु निर्ग्रन्थेषु मिथ्या राजा विमलवाहन को इस अर्थ की जानकारी अम्हं विमलवाहणं रायं एयमढें विप्रतिपन्नः। तत् श्रेयः खलु। दें, इस प्रकार एक दूसरे के पास इस अर्थ को विष्णवेत्तए त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अंतियं देवानुप्रियाः ! अस्माकं विमलवाहनं स्वीकार करेंगे, स्वीकार कर जहां राजा एयमढे पडिसुणेहिति, पडिसुणेत्ता जेणेव राजानम् एतमर्थं विज्ञापयितुम् इति विमलवाहन है, वहां आएंगे, वहां जाकर दोनों विमलवाहणे राया तेणेव कृत्वा अन्योन्यस्य अन्तिकम् एतमर्थ हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दस उवागच्छिहिति, उवागच्छित्ता करयल- प्रतिश्रोष्यन्ति, प्रतिश्रुत्य यत्रैव विमल- नखात्मक अञ्जलि को घुमाकर मस्तक पर परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए वाहनः राजा तत्रैव उपागमिष्यन्ति, टिकाकर विमलवाहन राजा को जय-विजय अंजलिं कट्ट नि मलवाहणं रायं जएणं उपागम्य करतलपरिगृहीतं दशनखं के द्वारा वर्धापित करेंगे, वर्धापित कर इस विजएणं बद्धावेहिति, बद्धावेत्ता एवं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा प्रकार कहेंगे-देवानुप्रिय! श्रमण निर्ग्रन्थों के वदिहिति–एवं खलु देवाणुप्पिया! विमलवाहनं राजानं जयेन विजयेन प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न होकर आप समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विप्पडिवन्ना, वर्द्धयिष्यन्ति, वर्धयित्वा एवं अनेक श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति आक्रोश करते अप्पेगतिए आओसंति जाव अप्पेगतिए वदिष्यन्ति-एवं खलु देवानुप्रियाः ! हैं यावत् अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थों को निर्वासित Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३२६ श. १५ : सू. १७५-१७६ निम्चिसए करेंति तं नो खलु एयं देवाणप्पियाणं सेयं नो खलु एयं अम्हं सेयं, नो खलु एयं रज्जस्म वा जाव जण्णवयस्स वा सेयं जण्णं देवाणुप्पिया! समणेहिं निम्गंथेहि मिच्छं विष्पडिवन्ना, तं विरमंतु णं देवाणुप्पिया! एयस्स अट्ठस्स अकरणयाए॥ श्रमणेषु निर्ग्रन्थेषु मिथ्या विप्रतिपन्ना अप्येककान् आक्रोशन्ति यावत् अप्येककान् निर्विषयान् कुर्वन्ति, तत् नो खलु एतद् देवानुप्रियाणां श्रेयः, नो खलु एतद् अस्माकं श्रेयः, नो खलु एतद् राज्यस्य वा यावत् जनपदस्य वा श्रेयः, यत् देवानुप्रियाः। श्रमणेषु निर्ग्रन्थेषु मिथ्या विप्रतिपन्ना, तद् विरमन्तु देवानुप्रियाः! एतस्य अर्थस्य अकरणाय (अकरणतायें)। करते हैं, इसलिए यह न देवानुप्रियों के लिए श्रेय है, न हमारे लिए श्रेय है, न हमारे राज्य यावत् जनपद के लिए श्रेय है, क्योंकि देवानुप्रिय! (आप) श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व से विप्रतिपन्न हो, इसलिए विराम लो, देवानुप्रिय! इस अर्थ को मत करो। १७५. तए णं से विमलवाहणे राया तेहिं बहूहिं राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय- इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहप्पभिई हिं एयमढे विण्णत्ते समाणे नो धम्मो त्ति नो तवो ति मिच्छाविणएणं एयम8 पडिसुणेहिति॥ ततः सः विमलवाहनः राजा तैः बहुभिः राजेश्वर-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिक- इभ्य-श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाहप्रभृतिभिः एतमर्थं विज्ञप्तः सन् नो धर्मः इति नो तपः इति मिथ्याविनयेन एतमर्थं प्रतिश्रोष्यन्ति। १७५. अनेक राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, राज्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि के द्वारा इस अर्थ के विज्ञात होने पर राजा विमलवाहन ने 'यह न धर्म है, न तप है' ऐसा मानकर मिथ्या-विनय-पूर्वक इस वचन को स्वीकार किया। १७६. तस्स णं सयदुवारस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे, एत्थ णं सुभूमिभागे नाम उज्जाणे भविस्सइ- सब्बोज्य-पुष्फ-फलस-मिद्धे-वण्णओ॥ तस्य शतद्वारस्य नगरस्य बहिः उत्तरपौरस्त्यः दिग्भागः अत्र सुभूमिभागं नाम उद्यानम् भविष्यतिसर्वर्तुक-पुष्प-फलसमृद्धं-वर्णकः। १७६. उस शतद्वार नगर के बाहर, उत्तर-पूर्व दिशि भाग में, सुभूमि-भाग नाम का उद्यान होगा-सर्वऋतु में पुष्प, फल से समृद्धवर्णका १७७. तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये विमलस्य १७७. उस काल उस समय अर्हत् विमल के अरहओ पओप्पए सुमंगले नाम अणगारे अर्हतः, 'पओप्पए' सुमंगलः नाम प्रपौत्र (प्रशिष्य) जाति-संपन्न, जैसे धर्मघोष जाइसंपन्ने, जहा धम्मघोसस्स वण्णओ अनगारः जातिसम्पन्नः, यथा धर्म- का वर्णक यावत् संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या जाव संवित्तविउलतेयलेस्से तिन्नाणो- घोषस्य वर्णकः यावत् संक्षिप्त-विपुल- और तीन ज्ञान से सम्पन्न। सुभूमि भाग वगए सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स तेजोलेश्यः त्रिज्ञानोपगतः सुभूमि- उद्यान के न अति दूर और न अति निकट अदूरसामंते छटुंछट्टेणं अणिक्वित्तेणं भागस्य उद्यानस्य अदूरसामन्ते षष्ठ- निरन्तर बेले-बेले की तपः- साधना के द्वारा, तबोकम्मेणं उ{ बाहाओ पगिज्झिय- षष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा ऊर्ध्व दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखः आतापन- सामने आतापन-भूमि में आतापना लेता हुआ आयावेमाणे विहरिस्सति॥ भूम्याम् आतापयन् विहरिष्यति। विहरण करेगा। १७८. तए णं से विमलवाहणे राया अण्णदा कदायि रहचरियं काउं निज्जाहिति॥ ततः सः विमलवाहनः राजा अन्यदा १७८. एक दिन राजा विमलवाहन रथचर्या कदाचित् रथचर्या कर्तुं निर्यास्यति। करने के लिए निर्गमन करेगा। १७६. तए णं से विमलवाहणे राया सुभूमि- ततः सः विमलवाहनः राजा १७६. सुभूमि-भाग उद्यान के न अति दूर और भागस्स उज्जाणम्स अदूरसामंते सुभूमिभागस्य उद्यानस्य अदूरसामन्ते न अति निकट राजा विमलवाहन रथचर्या रहचरियं करेमाणे सुमंगले अणगारं रथचर्यां कुर्वन् सुमंगलम् अनगारं करता हुआ सुमंगल (नामक) अनगार को छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्छ षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा निरन्तर बेले-बेले तपःकर्म करता हुआ बाहाओ पगिज्झिय-पगिझिय ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखं आतापन-भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूराभिमुहं आयावणभूमीए आयावेमाणं आतापनभूम्याम् आतापयन्तं द्रक्ष्यति, सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ देखेगा, पासिहिति, पासित्ता आसुरुत्ते रुटे कुविए दृष्ट्वा आशुरक्तः रुष्टः कुपितः देखकर वह (राजा) तत्काल आवेश में चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे सुमंगलं ___ 'चंडिक्किए' 'मिसिमिसेमाणे' सुमंगलम् आएगा, रूष्ट हो जाएगा, कुपित हो जाएगा, Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १८०-१८२ ३३० भगवई अणगारं रहसिरेण नोल्लावेहिति॥ अनगारं रथशिरसा नोदयिष्यति उसका रूप रौद्र हो जाएगा, क्रोध की अग्नि (नोल्लावेहिति)। में प्रदीप्त होकर रथ का अग्रिम हिस्सा सुमंगल अनगार के ऊपर चढ़ाकर उन्हें उछाल कर नीचे गिराएगा। भाष्य सूत्र १७६ १. रथ का अग्रिम हिस्सा (रहसिरेण) २. उछाल कर नीचे गिराएगा (नोल्लावेइहि) रथ के अग्रिम भाग का आकार आगे से तीक्ष्ण और लंबा होता जयाचार्य ने 'अणगारं नोल्लावेइहि' का अर्थ किया हैहै। श्रीमज्जयाचार्य ने इसका अर्थ किया है 'मुनि ऊपर ते फेरस्यै, उलाली न्हाखीस्येह।'' 'रथ ने शिर ए जाणवू, कागमुंहा करि केह।' इसका तात्पर्य है-राजा तीक्ष्णमुंह वाले रथ को मुनि के ऊपर 'कागमुहौ' शब्द का अर्थ है-वह मकान जो आगे से तीखा चढ़ा कर उन्हें उछाल कर नीचे गिराएगा। वृत्तिकार ने 'नोल्लावेइहि' और लंबा हो; कौवे के मुख के समाना' का अर्थ किया है 'प्रेरयिष्यति।" १८०. तए णं से सुमंगले अणगारे विमल- ततः सः सुमंगलः अनगारः विमल- वाहणेणं रण्णा रहसिरेणं नोल्लाविए वाहनेन राज्ञा स्थशिरसा नोदयितः समाणे सणियं-सणियं उठेहेति, उढेत्ता (नोल्लाविए) सन् शनैः-शनैः उत्थास्यति, दोचं पि उहं बाहाओ पगिज्झिय- उत्थाय द्विः अपि ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्यपगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए प्रगृह्य सूराभिमुख: आतापनभूम्याम् आयावेमाणे विहरिस्सति॥ आतापयन् विहरिष्यति। १८०. तब वह सुमंगल अनगार विमलवाहन राजा के द्वारा रथ के अग्रिम हिस्से से गिराए जाने पर धीरे-धीरे उठेंगे, उठ कर आतापन भूमि में दूसरी बार दोनों भुजाएं ऊपर उठा कर सूर्य के सामने आतापना लेते हुए विहरण करेंगे। १८१. तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलं अणगारं दोच्चं पि रहसिरेणं नोल्ला- ततः सः विमलवाहनः राजा सुमंगलम् अनगारं द्विः अपि रथशिरसा नोदयिष्यति (नोल्लावेहिति) १८१. तब वह विमलवाहन राजा दूसरी बार भी रथ के अग्रिम हिस्से से सुमंगल अनगार को ऊपर उछाल कर नीचे गिराएगा। वेहिति॥ १८२. तए णं से सुमंगले अणगारे ततः सः सुमंगलः अनगारः विमल- १८२. तब वह सुमंगल अनगार विमलवाहन विमलवाहणेणं रण्णा दोचं पि रहसिरेणं वाहनेन राज्ञा द्विः अपि स्थशिरसा राजा के द्वारा रथ के अग्रिम हिस्से से दूसरी नोल्लाविए समाणे सणियं-सणियं नोदयितः (नोल्लाविए) सन् शनैः-शनैः बार गिराए जाने पर धीरे-धीरे उठेंगे, उठ कर उद्देहिति, उद्वेत्ता ओहिं पउंजेहिति, उत्थास्यति, उत्थाय अवधिं अवधि (ज्ञान) का प्रयोग करेंगे, प्रयोग कर पउंजित्ता विमलवाहणस्स रण्णो तीतद्धं प्रयोक्ष्यति, प्रयुज्य विमलवाहनस्य विमलवाहन राजा के अतीत-काल को देखेंगे, आभोएहिति, आभोएत्ता विमलवाहणं राज्ञः अतीताध्वानम् आभोगयिष्यति देखकर विमलवाहन राजा को इस प्रकार रायं एवं वइहिति–नो खलु तुम (आभोएहिति) आभोग्य विमलवाहनं कहेंगे-तुम विमलवाहन राजा नहीं हो, तुम विमलवाहणे राया, नो खलु तुम देवसेणे राजानम् एवं वदिष्यति-नो खलु त्वं देवसेन राजा नहीं हो, तुम महापद्म राजा नहीं राया, नो खलु तुम महापउमे राया, विमलवाहनः राजा, नो खलु त्वं हो, तूं इससे पूर्व तीसरे भव में गोशाल नामक तमण्णं इओ तचे भवग्गहणे गोसाले नाम देवसेनः राजा, नो खलु त्वं महापद्मः मंखलिपुत्र था-श्रमणघातक यावत् छद्मस्थमंखलिपुत्ते होत्था-समणघायए जाव राजा, त्वम् इतः तृतीये भवग्रहणे अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ था, उस छउमत्थे चेव कालगए, तं जइ ते तदा गोशालः नाम मंखलिपुत्रः आसीत्- समय यद्यपि सर्वानुभूति अनगार ने प्रभु होने सव्वाणुभूतिणा अणगारेणं पभूणा वि श्रमणघातकः यावत् छद्मस्थः चैव पर भी तुम्हें सम्यक् सहन किया, क्षमा की, होऊणं सम्मं सहियं खमियं तितिक्खियं कालगतः, तत् यदि ते तदा सर्वानु- तितिक्षा की, अधिसहन किया; उस समय अहियासियं, जइ ते तदा सुनक्खत्तेणं भूतिना अनगारेण प्रभुणा अपि भूत्वा यद्यपि सुनक्षत्र अनगार ने प्रभु होने पर भी अणगारेणं पभूणा वि होऊणं सम्म सहियं सम्यक् सोढं क्षमितं तितिक्षितम् तुम्हें सम्यक् सहन किया, क्षमा की, तितिक्षा खमियं तितिक्खियं अहियासियं, जइ ते अध्यासितम्, यदि ते तदा सुनक्षत्रेण की, अधिसहन किया; उस समय श्रमण तदा समणेणं भगवया महावीरेणं पभूणा अनगारेण प्रभुणा अपि भूत्वा सम्यक् भगवान महावीर ने प्रभु होने पर भी तुम्हें १. भ. जो. खण्ड ४, पद्य संख्या १०३८, पृ. ३६६ । ३. भ. जो. खण्ड ४, पद्य संख्या १०३८, पृ. ३६६ । २. राजस्थानी शब्द कोश, सं. सीताराम लाळस, प्र. राजस्थानी शोध- ४. भ. वृ. १५/१७६ । संस्थान, जोधपुर, प्रथम खंड (द्वितीय परिवर्द्धित संस्करण)। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई वि होऊणं सम्मं सहियं खमियं तितिक्खियं अहियासियं, तं नो खलु अहं तहा सम्मं सहिस्सं खमिस्सं तितिक्खिस्सं अहियासिस्सं अहं ते नवरं - सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं भासरासिं करेज्जामि ॥ १८३. तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं तचं पि रहसिरेणं नोल्लावेहिति ॥ १८४. तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणं रण्णा तच्चं पि रहसिरेणं नोल्लाविए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ, पच्चोरुभित्ता तेया- समुग्धाएणं समोहण्णिहिति, समोहणित्ता सत्तट्ट पयाई पच्चोसक्किहिति, पच्चोसक्कित्ता विमलवाहणं रायं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं भासरासिं करेहिति॥ १८५. सुमंगले णं भंते! अणगारे विमल - वाहणं रायं सहयं जाव भासरासिं करेत्ता कहं गच्छिहिति ? कहिं उववज्जिहिति? गोयमा ! सुमंगले अणगारे विमलवाहणं रायं सहयं जाव भासरासिं करेत्ता बहूहिं छट्ठम- दसम - दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूइं बासाइं सामण्णपरियागं पाउणेहिति, पाउणत्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सद्वि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते उहूं चंदिम जाव गेविज्जविमाणावासस्यं बीइवइत्ता सव्वसिद्धे ३३१ सोढं क्षमितं तितिक्षितम् अध्यासितम्, यदि ते तदा श्रमणेन भगवता महावीरेण प्रभुणा अपि भूत्वा सम्यक् सोढं क्षमितं तितिक्षितम् अध्यासितम्, तत् नो खलु ते अहं तथा सम्यक् सहिष्ये क्षमिष्ये तितिक्षिष्ये अध्यासिष्ये, अहं ते नवरम् - सहयं सरथं ससारथिकं तपसा तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं करिष्यामि । ततः सः विमलवाहनः राजा सुमंगलेन अनगारेण एवम् उक्तः सन् आशुरक्तः रुष्टः कुपितः 'चंडिक्किए' 'मिसि मिसेमाणे' सुमंगलम् अनगारं त्रिः अपि स्थशिरसा नोदयिष्यति (नोल्लावेहिति) । आतापनभूम्याः ततः सः मंगलः अनगारः विमलवाहनेन राज्ञा त्रिः अपि नोदयितः (नोल्लाविए) सन् आशुरक्तः यावत् 'मिसिमिसेमाणे ' प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य तैजससमुद्घातेन समवहनिष्यति, समवहत्य सप्ताष्टपदानि प्रत्यवष्वकष्यते, प्रत्यवष्वष्क्य विमलवाहनं राजानं सहयं सरथं ससारथिकं तपसा तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं करिष्यति । सुमंगलः भदन्त ! अनगारः विमल - वाहनं राजानं सहयं यावत् भस्मराशिं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते? गौतम ! सुमंगलः अनगारः विमलवाहनं राजानं सहयं यावत् भस्मराशिं कृत्वा बहुभिः षष्ठाष्ठम-दशम द्वादशैः मासार्द्धमासक्षपणैः विचित्रैः तपः कर्मभिः आत्मानं भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायकं प्राप्स्यति, प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः ऊर्ध्वं चन्द्रमस् यावत् श. १५ : सू. १८३-१८५ सम्यक् सहन किया, क्षमा की, तितिक्षा की, अधिसहन किया; किन्तु निश्चित ही मैं ऐसा नहीं हूं जो तुम्हें उस प्रकार सम्यक् सहन करूंगा, क्षमा करूंगा, तितिक्षा करूंगा, अधिसहन करूंगा; मैं तो तुम्हें घोड़े सहित, रथ सहित और सारथि सहित मेरे तपः तेज से कूटाघात की भांति एक प्रहार में राख का ढेर कर दूंगा। १८३. उस समय सुमंगल अनगार के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वह विमलवाहन राजा तत्काल आवेश में आ जायेगा, रुष्ट हो जायेगा, कुपित हो जायेगा, उसका रूप रौद्र हो जायेगा, क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त होकर वह तीसरी बार भी रथ का अग्रिम हिस्सा सुमंगल अनगार के ऊपर चढ़ा कर उन्हें उछाल कर नीचे गिराएगा। १५४. तब विमलवाहन राजा के द्वारा तीसरी बार भी गिराए जाने पर वह सुमंगल अनगार तत्काल आवेश में आकर यावत् क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त होकर आतापन भूमि से नीचे उतरेगा, नीचे उतरकर तैजस-समुद्घात से समवहत होगा, समवहत होकर सात-आठ पैर पीछे सरकेगा, पीछे सरक कर विमल - वाहन राजा को घोड़े सहित, रथ सहित और सारथि सहित अपने तपः तेज से कूटाघात की भांति एक प्रहार में राख का ढेर कर देगा। १८५. भन्ते ! सुमंगल अनगार विमलवाहन राजा को घोड़े सहित यावत् राख का ढेर कर कहां जायेगा ? कहां उपपन्न होगा ? गौतम! सुमंगल अनगार विमलवाहन राजा को घोड़े सहित यावत् राख का ढेर करने के पश्चात् अनेक षष्ठ-षष्ठ भक्त (दो-दो दिन का उपवास), अष्टम अष्टम भक्त ( तीनतीन दिन का उपवास), दशम- दशम भक्त ( चार-चार दिन का उपवास), द्वादश-द्वादश भक्त (पांच-पांच दिन का उपवास ) ( आदि से लेकर) अर्ध मासक्षपण (पन्द्रह दिन का उपवास) और मासक्षपण (तीस दिन का उपवास) के रूप में विचित्र तपःकर्म के द्वारा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १५ : सू. १८६ ३३२ महाविमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति। तत्थ । ग्रैवेयकविमानावासशतं व्यतिव्रज्य णं देवाणं अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सर्वार्थसिद्धे महाविमाने देवत्वेन सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं उपपत्स्यते। तत्र देवानाम् अजघन्यासुमंगलस्स वि देवस्स अजहन्न- नुत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि मणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र सुमंगलस्यापि पण्णत्ता। देवस्य अजघन्यानुत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता। अपने आपको भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर एक मासिक संलेखना के द्वारा अपने आपको कृश बनाकर अनशन के द्वारा साठ भक्तों का छेदन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में (दिवंगत होकर) ऊर्ध्वलोक में चन्द्रमा यावत् ग्रैवेयक विमानावास-शतक का व्यतिक्रमण कर सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप में उपपन्न होगा। वहां देवताओं की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की प्रज्ञप्त है। वहां सुमंगल देव की स्थिति भी जघन्य और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की प्रज्ञप्त है। भंते! वह सुमंगल देव उस देवलोक से आयुक्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनन्तर च्यवन कर कहां जायेगा?, कहां उपपन्न से णं भंते! सुमंगले देवे ताओ देवलोगाओ आउखएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति? कहिं उववज्जिहिति? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति॥ सः भदन्त ! सुमंगल: देवः तस्मात् देवलोकात् आयुःक्षयेण भयक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते? । गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति। होगा? गौतम! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। १८६. विमलवाहणे णं भंते! राया विमलवाहनः भदन्त! राजा सुमंगलेन सुमंगलेणं अणगारेणं सहये जाव अनगारेण सहयः यावत् भस्मराशिकृतः भासरासीकए समाणे कहिं गच्छिहिति? सन् कुत्र गमिष्यति? कुत्र उपपत्स्यते? कहिं उववन्जिहिति? गोयमा! विमलवाहणे णं राया सुमंगलेणं गौतम! विमलवाहनः राजा सुमंगलेन अणगारेणं सहये जाव भासरासीकए अनगारेण सहयः यावत् भस्मराशिकृतः समाणे अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोस- सन् अधःसप्तम्यां पृथिव्याम् उत्कर्षकालट्टिइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए कालस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उववज्जिहिति। उपपत्स्य ते। से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता मच्छेसु सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य मत्स्येषु उववज्जिहिति। तत्थ वि सत्थवज्झे उपपत्स्यते। तत्र अपि शस्त्रवध्यः दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दाहावक्रान्तिकः (दाहावक्कंतीए) दोचं पि अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोस- कालमासे कालं कृत्वा द्विः अपि अधःकालहिइयसिं नरयंसि नेरइयत्ताए सप्तम्यां पृथिव्याम् उत्कर्षकालउववज्जिहिति। स्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते। १८६. भन्ते! सुमंगल अनगार के द्वारा घोड़ेसहित यावत् राख का ढेर कर दिए जाने पर राजा विमलवाहन कहां जायेगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम ! सुमंगल अनगार के द्वारा घोड़े-सहित यावत् राख का ढेर कर दिए जाने पर राजा विमलवाहन अधःसप्तमी पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर मत्स्य के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर दूसरी बार भी अधःसप्तमी पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर दूसरी बार भी मत्स्य के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर छट्ठी तमा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उवृत्त होकर स्त्री के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी से णं तओणंतरं उज्वट्टित्ता दोचं पि मच्छेसु उववज्जिहिति। तत्थ णं वि सत्थवज्झे दाहावक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा छट्ठाए तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्टिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववन्जिहिति। से णं तओहिंतो अणंतरं उज्वट्टित्ता इत्थियासु उववज्जिहिति। तत्थ वि णं सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य द्विः अपि मत्स्येषु उपपत्स्यते। तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा षष्ठ्यां तमायां पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उपपत्स्य ते। सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य स्त्रीषु उपपत्स्यते। तत्रापि शस्त्रवध्यः Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३३ सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा किच्चा दोच्चं पि छठाए तमाए पुढवीए द्विः अपि षष्ठ्यां तमायां पृथिव्याम् उक्कोसकालट्ठिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उत्कर्षकालस्थिके नरके नैरयिकत्वेन उववन्जिहिति। उपपत्स्यते। से णं तओहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता दोचं पि सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य द्विः इत्थियासु उववज्जिहिति। तत्थ विणं अपि स्त्रीषु उपपत्स्यते। तत्रापि सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे किचा पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए कालं कृत्वा पञ्चभ्यां धूमप्रभायां उक्कोसकालाढिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके उववन्जिहिति। नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते। श. १५ : सू. १८६ शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी छट्ठी तमा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर दूसरी बार भी स्त्री के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उत्त होकर उरःपरिसर्प-(पेट के बल पर चलने वाले सांप) के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी धूमप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न से णं ततो अणंतरं उच्चट्टित्ता उरएस सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य उरगेषु उववन्जिहिति। तत्थ वि णं सत्थवज्झे उपपत्स्यते। तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोचं दाहावक्रान्तिक: कालमासे कालं कृत्वा पि पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए द्विः अपि पञ्चम्यां धूमप्रभायां उक्कोसकालट्टिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके उववज्जिहिति। नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते। होगा। से णं तओहिंतो अणंतरं उच्चट्टित्ता दोचं सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य द्विः पि उरएसु उववज्जिहिति। तत्थ वि णं अपि उरगेषु उपपत्स्यते। तत्रापि सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए ___ कालं कृत्वा चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां उक्कोसकालट्ठिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके उववन्जिहिति। नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते। से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता सीहेसु सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य सिंहेषु उववज्जिहिति। तत्थ वि णं सत्थवज्झे उपपत्स्यते। तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोचं दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा पि चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए द्विः अपि चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्याम् उक्कोसकालढिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उत्कर्षकालस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उववज्जिहिति। उपपत्स्य ते। से णं तओहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता दोचं । सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य द्विः पि सीहेसु उववन्जिहिति। तत्थ वि णं अपि सिंहेषु उपपत्स्यते। तत्रापि सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे किच्चा तच्चाए वालुयप्पभाए पुढवीए कालं कृत्वा तृतीयायां वालुकाप्रभायां उक्कोसकालट्टिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए पृथि-व्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके उववज्जिहिति। नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते। वह उसके अनन्तर वहां से उदवृत्त होकर दूसरी बार भी उरपरिसर्प के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थिति वाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उवृत्त होकर सिंह के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थिति-वाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उवृत्त होकर दूसरी बार भी सिंह के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उवृत्त होकर पक्षी के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार से णं ततो अणंतरं उव्वट्टिता पक्वीसु सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य पक्षिषु उववज्जिहिति। तत्थ वि णं सत्थवज्झे उपपत्स्यते। तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोचं दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा पि तचाए वालुयप्पभाए पुढवीए द्विः अपि तृतीयायां बालुकाप्रभायां Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १८६ ३३४ उक्कोसकालइियंसि नरगंसि नेरइयत्ताए पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके उववज्जिहिति । नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते । से णं तओणंतरं उब्वट्टित्ता दोचं पि पक्खीसु उववज्जिहिति । तत्थ विणं सत्यवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किचा दोचाए सक्करपभाए पुढवीए उक्कोसकालट्टिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । से णं ततो अनंतरं उव्वट्टित्ता सिरीसवेसु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्यवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोघं पि दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालद्वियंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । सेतओतरं उव्वट्टित्ता दोघं पि सिरीस - वेसु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्थवज्जे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा इसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालट्टिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए वज्जिहति । से णं ततो अनंतरं उब्वट्टित्ता सण्णीसु उववज्जिहिति । तत्थ वि णं सत्यवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा असण्णीसु उववज्जिहिति । तत्थ विणं सत्यवज्झे दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दो पि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पलि ओवमस्स असंखेज्जइभागद्विइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्जिहिति । सेणं ततो अनंतरं उब्वट्टित्ता जाई इमाई खयरविहाणाई भवति, तं जहाचम्मपक्खीणं, लोमपक्खीणं, समुग्गपक्खीणं, विययपक्खीणं, तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दात्ता- उद्दाइत्ता तत्थेवतत्थेव भुज्जो - भुज्जो पच्चायाहिति । सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहबक्कंतीए कालमासे कालं किचा जाई इमाई भुयपरिसम्पविहाणारं भवति, तं जहागोहाणं, नउलाणं, जहा पण्णवणापए सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य द्विः अपि पक्षिषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा द्वितीयायां शर्कराप्रभायां पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते । सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य सरीसृपेषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा द्विः अपि द्वितीयायां शर्कराप्रभायां पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते । सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य द्विः अपि सरीसृपेषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् उत्कर्षकालस्थितिके नरके नैरियकत्वेन उपपत्स्यते । सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य संज्ञिषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा असंज्ञिषु उपपत्स्यते । तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा द्विः अपि अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां पल्योपमस्य असंख्येयभागस्थितिके नरके नैरयिकत्वेन उपपत्स्यते । सः ततः अनन्तरम् उद्वर्त्य यानि इमानि खेचरविधानानि भवन्ति, तद्यथा - चर्मपक्षिणाम्, लोमपक्षिणाम्, समुद्गपक्षिणाम् ( समुद्गपक्षिणाम्), विततपक्षिणाम्, तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्द्द्रुत्य - उद्द्द्रुत्य तत्रैवतत्रैव भूयः - भूयः प्रत्याजनिष्यते । सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि भुजपरिसर्पविधानानि भवन्ति, तद् भगवई भी तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर दूसरी बार भी पक्षी के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर सरीसृप के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर दूसरी बार भी सरीसृप के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर इस पहली रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट कालस्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर संज्ञी जीव के रूप में उपपन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर असंज्ञी जीव के रूप में उत्पन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी इस पहली रत्नप्रभा पृथ्वी में पल्योपम के असंख्येयभाग स्थितिवाली नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न होगा। वह उसके अनन्तर वहां से उद्वृत्त होकर जो ये खेचर (पक्षी) के भेदों का विधान किया गया है, जैसे- चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गपक्षी और विततपक्षी, इन जीवों के रूप में अनेक शतसहस्रबार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा । इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो भुजपरिसर्प ( हाथों के बल Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३५ श. १५ : सू. १८६ जाव जाहगाणं चउप्पइयाणं, तेसु यथा-गोधानाम् नकुलानाम्, यथा अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता- प्रज्ञापनापदे यावत् जाहकानाम् उदाइत्ता तत्थेव-तत्येव भुज्जो-भुज्जो __ चतुष्पादिकानां, तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः पञ्चायाहिति। उद्रुत्य-उद्धृत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजनिष्यते। सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि उरपरिसप्पविहाणाई भवंति, तं जहा- उरपरिसर्पविधानानि भवन्ति, तद् यथाअहीणं, अयगराणं, आसालियाणं, अहीनाम् अजगरणाम् आशालिकामहोरगाणं, तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो नाम्, महोरगाणाम्, तेषु अनेकशतउद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव-तत्येव भज्जो- सहस्रकृत्वः उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैवभुज्जो पञ्चायाहिति। तत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजनिष्यते। सम्वत्थ वि णं सत्थवज्ञ दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं किचा जाई इमाई __ कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि चउप्पदविहाणाई भवंति, तं जहा- चतुष्पदविधानानि भवन्ति, तद् एगखुराणं, दुखुराणं, गंडीपदाणं, सण- यथा-एकखुराणाम्, द्विखुराणाम्, हप्पदाणं, तेसु अणेगसयहस्स खुत्तो उद्दा- ___ गण्डीपदानाम् सनखपदानाम्, तेषु इत्ता-उदाइत्ता तत्थेव-तत्येव भुज्जो- अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्रुत्य-उद्रुत्य भुज्जो पञ्चायाहिति। तत्रैव-तत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजनिष्यते। सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिक: कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि जलयरविहाणाई भवंति, तं जहा- जलचरविधानानि भवन्ति, तद् मच्छाणं कच्छभाणं जाव सुंसुमाराणं, यथा-मत्स्यानाम् कच्छपानाम् यावत् तेसु अणेगसयहस्स खुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दा- सुंसुमाराणाम्, तेषु अनेकशतइत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो सहस्रकृत्वः उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैवपञ्चायाहिति। तत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजनिष्यते। चलने वाले गोह आदि) जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-गोह, नेवला, जैसा प्रज्ञापना (प्रथम) पद में बताया गया है यावत् जाहक तक चतुष्पद वाले प्राणी हैं, उनमें अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो उरपरिसर्प जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-सांप, अजगर, आशालिका और महोरग हैं, उनमें अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो चतुष्पद जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-एक खुर वाले (घोड़ा आदि), दो खुर वाले (बैल आदि), गण्डीपद (हाथी आदि) और सनख-पद (शेर आदि) हैं, उनमें अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो जलचर जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसेमत्स्य, कछुआ यावत् सुसुमार (मगरमच्छ) तक हैं, उनमें अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो चतुरिन्द्रिय जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-अन्धिका, पोत्तिका, जैसा प्रज्ञापना (प्रथम) पद में बताया गया है यावत् गोमयकीटक (गोबर का कीड़ा) तक हैं, उनमें अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर ये जो त्रीन्द्रिय जीवों के भेदों का विधान किया गया है, जैसे-उपचित यावत् हस्तिसुण्डी तक हैं, उनमें अनेक शतसहस्र सब्बत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं किच्चा जाई इमाइं कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि चउरिदियविहाणाई भवंति, तं जहा- चतुरिन्द्रियविधानानि भवन्ति, तद् अंधियाणं, पोत्तियाणं, जहा-पण्णवणा- यथा-अन्धिकानाम् 'पोत्तियाणं', यथा पदे जाव गोमयकीडाणं, तेसु अणेगसय- प्रज्ञापनापदे यावत् गोमयकीटानाम्, सहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तत्थेव- तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्रुत्यतत्थेव भुज्जो-भुज्जो पञ्चायाहिति॥ उद्रुत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजनिष्यते। सम्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवकंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे काल किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि तेइंदियविहाणाई भवंति, तं जहा- त्रीन्द्रियविधानानि भवन्ति, तद् यथाउवचियाणं जाव हथिसोंडाणं, तेसु उवचितानां यावत् हस्तिशौण्डानाम, अणेगसयसहस्सखुत्तो उदाइत्ता-उदा- तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्रुत्य Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १८६ ३३६ भगवई इत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो उद्त्य तत्रैव-तत्रैव भूयः-भूयः बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बारपञ्चायाहिति॥ प्रत्याजनिष्यते। बार जन्म लेगा। सम्वत्थ वि णं सत्थवज्ञ दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को बेइंदियविहाणाई भवंति, तं जहा- द्वीन्द्रियविधानानि भवन्ति, तद् यथा- प्राप्त कर ये जो द्वीन्द्रिय जीवों के भेदों का पुलाकिमियाणं जाव समुद्दलिक्खाणं, पुलाकृमिकानां यावत् समुद्रलिक्षाणाम्, विधान किया गया है, जैसे-पुलाकृमिक तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता- तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्रुत्य- यावत् समुद्रलिक्षा तक हैं, उनमें अनेक उद्दाइत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो उद्रुत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः भूयः शतसहस बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के पचायाहिति। प्रत्याजनिष्यते। रूप में बार-बार जन्म लेगा। सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को वणस्सइविहाणाई भवंति, तं जहा- वनस्पतिविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो वनस्पति जीवों के भेदों का रुक्खाणं, गुच्छाणं जाव कुहणाणं तेसु यथा-वृक्षाणाम्, गुच्छानाम् यावत् । विधान किया गया है, जैसे-वृक्ष, गुच्छ यावत् अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता- कुहनानाम्, तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः ।। कुहण ( फोड आदि) तक हैं, उनमें अनेक उद्दाइत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः- शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के पञ्चायाइस्सइ-उस्सन्नं च णं कडुयरुखेसु, भूयः प्रत्याजनिष्यते-'उत्सन्नं च। रूप में बार-बार जन्म लेगा-बहुल रूप में कडुयवल्लीसु। कटुक-वृक्षेषु, कटुकवल्लीषु। कटुकवृक्ष, कटुकवल्ली में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को वाउक्काइयविहाणाई भवंति, तं वायुकायिकविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो वायुकायिक जीवों के भेदों जहा-पाईणवायाणं जाव सुद्धवायाणतेसु यथा-प्राचीनवातानाम् यावत् शुद्ध- 'का विधान किया गया है, जैसे-पूर्ववात अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता- वातानाम् तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः यावत् शुद्धवात तक हैं, उनमें अनेक उदाइत्ता तत्थेव-तत्थेव भज्जो-भुज्जो उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः- शतसहस बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के पञ्चायाहिति। भूयः प्रत्याजनिष्यते। रूप में बार-बार जन्म लेगा। सम्बत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहव-क्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को तेउक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा- तेजस्कायिकविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो तेजस्कायिक जीवों के भेदों इंगालाणं जाव सूरकंतमणि-निस्सियाणं, यथा-अंगाराणाम् यावत् सूरकान्त- का विधान किया गया है, जैसे-अंगार यावत् तेसु अणेगसयसहस्स खुत्तो उद्दाइत्ता- मणि-निश्रितानाम्, तेषु अनेकशत- सूर्यकान्तमणि निश्रित अग्नि तक हैं, उनमें उद्दाइत्ता तत्थेव-तत्येव भुज्जो-भुज्जो सहसकृत्वः उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैव- अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं पञ्चायाहिति। तत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजनिष्यते। जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। सम्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिक: इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाइं इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि __ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को आउक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा- अप्कायिकविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो अप्कायिक जीवों के भेदों का ओसाणं जाव खातोदगाणं, तेसु अणेग- यथा-'ओसाणं' यावत् 'खातोदगाणं' विधान किया गया है, जैसे-ओस, यावत् सयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्रुत्य- खातोदग (खाई का पानी) तक हैं, उनमें तत्येव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पञ्चाया- उद्रुत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः-भूयः अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं इस्सइ-उस्सन्नं च णं खारोदएसु प्रत्याजनिष्यते-'उस्सन्नं च क्षारोदकेषु जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगाखत्तोदएसु। 'खत्त' उदकेषु। बहलरूप में खाराजल और खातोदग में बार बार जन्म लेगा। सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किच्चा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को पुढविक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा- पृथ्वीकायिकविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो पृथ्वीकायिक जीवों के भेदों Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३७ श. १५ : सू. १८६ पुढवीणं, सक्कराणं जाव सूरकंताणं तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ताउद्दाइत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पञ्चायहिति-उस्सन्नं च णं खरबायरपुढविक्काइए। यथा-पृथ्वीनाम् शर्कराणाम् यावत् सूरकान्तानाम् तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैवतत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजनिष्यते'उस्सन्नं' च खरबादरपृथ्वीकायिकेषु।। सव्वत्थ विणं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं किच्चा रायगिहे नगरे कालमासे कालं कृत्वा राजगृहे नगरे बाहिं खरियत्ताए उववज्जिहिति। बहिः 'खरियत्ताए' उपपत्स्यते। तत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं किच्चा दोचं पि रायगिहे कालमासे कालं कृत्वा द्विः अपि नगरे अंतो खरियत्ताए उववन्जिहिति। राजगृहे नगरे अन्तः 'खरियत्ताए' उपपत्स्यते। तत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दीवे कालमासे कालं कृत्वा इहेव जम्बूद्वीपे । भारहे वासे विंझगिरिपायमूले बेभेले द्वीपे भारते वर्षे विन्ध्यगिरि पादमूले सण्णिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए बेभेले सन्निवेशे माहनकुले दारिकात्वेन पच्चायाहिति। प्रत्याजनिष्यते। तए णं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्क- ततः तां दारिकाम् अम्बापितरौ बालभाव जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिरूवएणं उन्मुक्तबालभावां यौवनकमनुप्राप्ता सुक्केणं, पडिरूवएणं विणएणं, प्रतिरूपकेण शुक्लेन प्रतिरूपकेण पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारियत्ताए विनयेन, प्रतिरूपकस्य भर्ने भार्यात्वेन दलइस्सति। सा णं तस्स भारिया दास्यतः। सा तस्य भार्या भविष्यतिभविस्सति-इट्ठा कंता जाव अणुमया, इष्टा कान्ता यावत् अनुमता, भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव भाण्डकरण्डकसमाना 'तेल्लकेला'वत् सुसंगोविया, चेलपेडा इव सुसंपरिगहिया, संगोपिता, चेलपेटावत् सुसम्परिगृहीता, रयणकरंडओ विव सुसरक्रिवय, रत्नकरण्डकवत् सुसंरक्षिता, सुसंगोपिता, सुसंगोविया, मा णं सीयं, मा णं उण्हं मा शीतम्, मा उष्णः यावत् परीषहोपजाव परिसहोवसग्गा फुसंतु। तए णं सा सर्गाः स्पृशन्तु। ततः सा दारिका दारिया अण्णदा कदायि गुग्विणी अन्यदा कदाचित् गुर्विणी श्वसुरससुरकुलाओ कुलघरं निज्जमाणी अंतरा कुलात् कुलगृहं निर्यान्ती अन्तरा दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं दवाग्नि-ज्वालाभिहता कालमासे कालं किच्चा दाहिणिल्लेसु अग्गि-कुमारेसु कृत्वा दाक्षिणात्येषु अग्निकुमारेषु देवेषु देवेसु देवत्ताए उववज्जिहिति। देवत्वेन उपपत्स्यते। का विधान किया गया है, जैसे-शर्करा यावत् सूर्यकान्त तक हैं, उनमें अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा-बहुल रूप में खर बादर पृथ्वीकायिक जीवों में-कठोर पृथ्वी में बारबार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर राजगृह नगर में बाहर की ओर रहने वाली वेश्या के रूप में उत्पन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी राजगृह नगर में अन्दर की ओर रहने वाली वेश्या के रूप में उत्पन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर इसी जम्बूद्वीप में भारत-वर्ष के अन्दर विन्ध्यगिरि की तलहटी में स्थित बेभेल सन्निवेश में ब्राह्मण कुल में पुत्री के रूप में उत्पन्न होगा। तत्पश्चात् वह कन्या (माता-पिता के द्वारा) क्रमशः उन्मुक्त बालभाव एवं यौवन को प्राप्त कर उचित कन्यादान के साथ विनयपूर्वक योग्य पति के साथ पत्नी के रूप में विवाहित की जाएगी। वह कन्या उस पति की इष्ट, कान्त यावत् अनुमत पत्नी बनेगी; वह आभरण-करण्डक के समान आदेय बनेगी; वह तेल के पात्र जैसी समुचित रूप में रक्षणीय होगी, वह वस्त्र की मंजूषा की तरह समुचित रूप में उपद्रव-रहित स्थान में गृहीत और निवेशित होगी, वह आभरण-करण्डक की भांति सुसंरक्षित और सुसंगोपित होती हुई, 'इसे सर्दी न लगे, गर्मी न लगे यावत् परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करे' (इस अभिसन्धि से पालित होगी।) तब वह दारा अन्य समय में गर्भिणी होकर श्वसुर कुल से अपने पीहर जाती हुई बीच में दवाग्नि की ज्वाला से अभिहत होती हुई कालमास में काल को प्राप्त कर दाक्षिणात्य अग्निकुमार देवों में देव के रूप में उपपन्न होगी। तदनन्तर वह जीव वहां से उद्वृत्त होकर मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर सम्पूर्ण बोधि का अनुभव करेगा, अनुभव कर से णं तओहिंतो अणंतरं उबट्टित्ता सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य मानुष्यं माणसं विग्गहं लभिहिति, लभित्ता विग्रहं लप्स्यते, लब्ध्वा केवलां बोधिं केवलं बोहिं बुझिहिति, बुज्झित्ता मुंडे 'बुज्झिहिति', 'बुज्झित्ता' मुण्डः भूत्वा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ भगवई अगारात अनगारितां प्रव्रजिष्यति। श. १५ : सू. १८६ भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइहिति। तत्थ वि य णं विराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा दाहिणिल्लेसु असुर-कुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववज्जिहिति। तत्रापि विराधितश्रामण्यः कालमासे कालं कृत्वा दाक्षिणात्येषु असुरकुमारेषु देवेषु देवत्वेन उपपत्स्यते। से णं तओहिंतो अणंतरं उबट्टित्ता सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य मानुष्यं माणसं विग्गहं लभिहिति, लभित्ता विग्रहं लप्स्यते, लब्ध्वा केवलां बोधिं केवलं बोहिं बुज्झिहिति, बुज्झित्ता मुंडे 'बुज्झिहिति', 'बुज्झित्ता' मुण्डः भूत्वा भवित्ता अगाराओ अणगारियं अगारात अनगारितां प्रव्रजिष्यति। पब्वइहिति। तत्थ वि य णं विराहियसामण्णे काल- तत्रापि विराधितश्रामण्यः कालमासे मासे कालं किच्चा दाहिणिल्लेसु नाग- कालं कृत्वा दाक्षिणात्येषु नागकुमारेषु कुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववन्जिहिति। देवेषु देवत्वेन उपपत्स्यते। से णं तओहिंतो अणंतरं एवं एएणं सः तस्मात् अनन्तरम् एवम् एते अभिलावेणं दाहिणिल्लेसु सुवण्ण- अभिलापेन दाक्षिणत्येषु सुपर्णकुमारेषु, कुमारेसु, एवं विज्जुकुमारेसु, एवं एवं विद्युतकुमारेषु, एवम् अग्निअग्गिकुमारवज्ज जाव दाहिणिल्लेसु कुमारवर्जं यावत् दाक्षिणत्येषु थणियकुमारेसु। स्तनितकुमारेषु। से णं 'तओहितो अणंतरं' उबट्टित्ता सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य मानुष्यं माणुस्सं विग्गहं लभिहिति लभित्ता विग्रहं लप्स्यते, लब्ध्वा केवलां बोधिं केवलं बोहिं बुज्झिहिति, बुज्झित्ता मुंडे 'बुज्झिहिति' 'बुज्झिहित्ता' मुण्डः भवित्ता अगाराओ अणगारियं भूत्वा अगारात् अनगारिता पब्वइहिति। तत्थ वि य णं प्रव्रजिष्यति। तत्रापि विराधितश्रामण्यः विराहियसामण्णे जोइसिएसु देवेसु ज्योतिष्केषु देवेषु उपपत्स्यते। उववज्जिहिति। से णं तओहिंतो अणंतरं चयं चइत्ता सः तस्मात् अनन्तरं च्यवं च्युत्वा माणुस्सं विग्गहं लभिहति, लभित्ता मानुष्यं विग्रहं लप्स्यते, लब्ध्वा केवलां । केवलं बोहिं बुज्झिहिति, बुज्झित्ता मुंडे बोधिं 'बुज्झिहिति' बुज्झित्ता' मुण्डः भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्बइहिति भूत्वा अगारात् अनगारितां तत्थ वि णं अविरा-हियसामण्णे प्रव्रजिष्यति। तत्रापि अविराधितकालमासे कालं किचा सोहम्मे कप्पे श्रामण्यः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे देवत्ताए उववज्जिहति। कल्पे देवत्वेन उपपत्स्यते। से णं तओहितो अणंतरं चयं चइत्ता सः तस्मात् अनन्तरं च्यवं च्युत्वा माणुस्सं विग्गहं लभिहति। तत्थ वि णं मानुष्यं विग्रहं लप्स्यते। तत्रापि अविराहियसामण्णे कालमासे कालं अविराधितश्रामण्यः कालमासे कालं किच्चा सणंकूमारे कप्पे देवत्ताए कृत्वा सनत्कुमारे कल्पे देवत्वेन उववज्जिहति। उपपत्स्यते। से णं तओहितो एवं जहा सणकुमारे तहा सः तस्मात् एवं यथा सनत्कुमारे तथा बंभलोए, महासुक्के, आणए, आरणे। ब्रह्मलोके, महाशुक्रे, आनते, आरणे।। मुंड होकर अगार धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होगा। वहां पर भी श्रामण्य की विराधना कर कालमास में काल को प्राप्त कर दाक्षिणात्य असुरकुमार देवों में देव के रूप में उपपन्न होगा। तदनन्तर वह जीव वहां से मर कर मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर सम्पूर्ण बोधि का अनुभव करेगा, अनुभव कर मुंड होकर अगार धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होगा। वहां पर भी श्रामण्य की विराधना कर कालमास में काल को प्राप्त कर दाक्षिणात्य नागकुमार देवों में देव के रूप में उपपन्न होगा। तदनन्तर वह जीव वहां से इस प्रकार अभिलाप से दाक्षिणात्य सुपर्ण कुमार देवों में, इसी प्रकार विद्युत् कुमार देवों में, इसी प्रकार अग्नि कुमार देवों को छोड़कर यावत् दाक्षिणात्य स्तनित कुमार देवों में (देव के रूप में उपपन्न होगा)। तदनन्तर वह जीव वहां से मर कर मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर सम्पूर्ण बोधि का अनुभव करेगा, अनुभव कर मुंड होकर अगार धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होगा। वहां पर भी श्रामण्य की विराधना कर ज्योतिष्क देवों में उपपन्न होगा। तदनन्तर वह जीव वहां से च्यवन कर मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर सम्पूर्ण बोधि का अनुभव करेगा, अनुभव कर मुंड होकर अगार धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होगा। वहां पर भी श्रामण्य की विराधना न कर कालमास में काल को प्राप्त कर सौधर्म कल्प में देव के रूप में उपपन्न होगा। तदनन्तर वह जीव वहां से च्यवन कर मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा। वहां पर भी श्रामण्य की विराधना न कर कालमास में काल को प्राप्त कर सनत्कुमार कल्प में देव के रूप में उपपन्न होगा। तदनन्तर वह जीव वहां से इसी प्रकार जैसे सनत्कुमार में वैसे ही ब्रह्मलोक में, महाशुक्र में, आनत में, आरण में उपपन्न होगा। तदनन्तर वह जीव वहां से च्यवन कर मनुष्य से णं तओहिंतो अणंतरं चयं चइत्ता सः तस्मात् अनन्तरं च्यवं च्यत्वा Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३३६ श. १५ : सू. १८७,१८८ माणुस्सं विग्गहं लभिहिति, लभित्ता मानुष्यं विग्रहं लप्स्यते, लब्ध्वा केवला केवलं बोहिं बुझिहिति, बुज्झित्ता मुंडे बोधिं 'बुज्झिहिति' 'बुज्झित्ता' मुण्डः भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइहिति। भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यति। तत्थ वि य णं अविराहियसामण्णे तत्रापि अविराधितश्रामण्यः कालमासे कालमासे कालं किच्चा सम्बट्टसिद्धे कालं कृत्वा सर्वार्थसिद्धे महाविमाने महाविमाणे देवत्ताए उववन्जिहिति। देवत्वेन उपपत्स्यते। से णं तओहिंतो अणंतरं चयं चइत्ता सः तस्मात् अनन्तरं च्यवं च्युत्वा महाविदेहे वासे जाई इमाई कुलाई महाविदेहे वर्षे यानि इमानि कुलानि भवंति–अढाई जाव अपरिभूयाई, तहप्प- भवन्ति-आयानि यावत् अपरिभूतानि, गारेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति, एवं तथाप्रकारेषु कुलेषु पुत्रत्वेन जहा ओववाइए दढप्पइण्णवत्तब्वया प्रत्याजनिष्यते, एवं यथा औपपातिके सच्चेववत्तव्वया निरवसेसा भाणियन्चा दृढ़प्रतिज्ञस्य वक्तव्यता सा चैव जाव केवलवरनाणदंसणे समपन्जिहिति॥ वक्तव्यता निरवशेषा भणितव्या यावत् केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पत्स्यते। शरीर को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर सम्पूर्ण बोधि का अनुभव करेगा, अनुभव कर मुंड होकर अगार धर्म से अनगार धर्म में प्रव्रजित होगा। वहां पर भी श्रामण्य की विराधना न कर कालमास में काल को प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव के रूप में उपपन्न होगा। तदनन्तर वह जीव वहां से च्यवन कर महाविदेह वर्ष में जो ये कुल हैं-आढ्य यावत् अपरिभूत, उन कुलों में पुत्रत्व के रूप में जन्म लेगा, इसी प्रकार जैसी औपपातिक में दृढ़प्रतिज्ञ की वक्तव्यता है वही वक्तव्यता अविकल रूप से बतलानी चाहिए यावत् उत्तम केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त करेगा। १८७. तए णं से दढप्पइण्णे केवली अप्पणो ततः सः दृढ़प्रतिज्ञः केवली आत्मनः १८७. उसके पश्चात् वह दृढ़प्रतिज्ञ केवली तीतद्धं आभोएहिइ, आभोएत्ता समणे अतीताध्वानम् आभोगयिष्यति, अपना अतीतकाल देखेगा, देख कर श्रमणनिग्गंथे सदावेहिति, सदावेत्ता एवं आभोग्य श्रमणान् निर्ग्रन्थान् निर्ग्रथों को बुलाएगा, बुला कर इस प्रकार वदिहिइ-एवं खलु अहं अज्जो! इओ शब्दयिष्यति, शब्दयित्वा एवं वदिष्यति- कहेगा-आर्यो! मैं ही निश्चित चिर अतीत चिरातीयाए अद्धाए गोसाले नाम एवं खलु अहम् आर्य! इतः चिरातीते काल में गोशाल नामक मंखलिपुत्र थामंखलिपुत्ते होत्था-समणधायए जाव अध्वनि गोशालः नाम मंखलिपुत्रः श्रमण-घातक यावत् छद्मस्थ-अवस्था में ही छउमत्थे चेव कालगए, तम्मूलगं च णं । आसीत्-श्रमणघातकः यावत् छद्मस्थः काल को प्राप्त किया था, आर्यो! उसके अहं अज्जो अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चैव कालगतः, तन्मूलकं च अहम् आर्य! फलस्वरूप मैंने (गोशाल के जीव ने) आदिचाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिए, तं मा अनादिकं 'अणवदगं' दीर्घाध्वानं अन्त-हीन दीर्घपथ वाले चतुर्गत्यात्मक णं अज्जो तुभं केइ भवतु चतुरन्तसंसारकंतारमनुपरिवर्तितः संसार-कान्तार में पर्यटन किया, इसलिए आयरियपडिणीए उबज्झायपडिणीए (अनुपर्यटितः), तत् मा आर्य! युष्माकं आर्यो! तुम में से कोई आचार्य का प्रत्यनीक, आयरियउवज्झायाणं अयसकारए कोऽपि भवतु आचार्यप्रत्यनीकः । उपाध्याय का प्रत्यनीक, आचार्य और अवण्णकारए अकित्तिकारए, मा णं से वि उपाध्यायप्रत्यनीक: आचार्योपाध्यायानाम् उपाध्याय का अयशकारक, अवर्णकारक एवं चेव अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं अयशकारकः अवर्णकारक: अकीर्ति- और अकीर्तिकारक मत बनना, और इस चाउरतससारकतार अणुपरियट्टिहिति, कारकः, मा सः अपि एवं चैव अनादिकम् प्रकार आदि-अन्त-हीन दीर्घपथ वाले जहा णं अहं॥ 'अणवदग्गं' दीर्घाध्वानं चतुरन्तं चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में पर्यटन मत संसार-कान्तारं अनुपरिवर्तिष्यते, यथा करना, जैसे कि मैंने (किया)। अहम्। १८८. तए णं ते समणा निग्गंथा ततः ते श्रमणाः निर्ग्रन्थाः दृढप्रतिज्ञस्य १८८. उसके पश्चात् वे श्रमण निग्रंथ दृढप्रतिज्ञ दढप्पइण्णस्स केवलिस्स अंतियं एयमढे केवलिनः अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा केवली के पास इस अर्थ को सुनकर और सोचा निसम्म भीया तत्था तसिया निशम्य भीताः त्रस्ताः तृषिताः अवधारण कर भीत, त्रस्त, तृषित और संसारभविग्गा दढप्पइण्णं केवलिं (तसिया) संसारभयोद्विग्नाः दृढ़प्रतिज्ञ संसार के भय से उद्विघ्न होकर, द्रढ़प्रतिज्ञ वंदिहिंति नमंसिहिति, वंदित्ता नमंसित्ता केवलिनं वन्दिष्यन्ते नमस्यिष्यन्ति, केवली को वन्दन करेंगे, नमस्कार करेंगे, तस्स ठाणस्स आलोएहिति पडिक्क- वन्दित्वा नमस्यित्वा तस्य स्थानस्य वन्दन-नमस्कार कर उस स्थान की मिहिंति निदिहिंति जाव अहारियं आलोचयिष्यन्ति प्रतिक्रमिष्यन्ति आलोचना करेंगे, प्रतिक्रमण करेंगे, निन्दा पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवन्जिहिति॥ निन्दिष्यन्ति यावत् यथार्ह (जहारियं) करेंगे यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त तपःकर्म प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपत्स्यन्ते। को स्वीकार करेंगे। | Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १५ : सू. १८६,१६० ३४० भगवई १८६. तए णं से दढप्पइण्णे केवली बहुई। ततः सः दृढ़प्रतिज्ञः केवली बहूनि वासाइं केवलिपरियागं पाउणिहिति, वर्षाणि केवलिपर्यायकं प्राप्स्यति, प्राप्य पाउणित्ता अपणो आउसेसं जाणेत्ता भत्तं आत्मनः आयुः शेषं ज्ञात्वा भक्तं पञ्चक्खाहिति, एवं जहा ओववाइए जाव प्रत्याख्यास्यति, एवं यथा औपपातिके सम्बदुक्खाणमंतं काहिति॥ यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति। १८६. वह दृढ़प्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवली पर्याय को प्राप्त करेंगे, प्राप्त कर अपनी आयु का अन्त निकट जान कर भक्तप्रत्याख्यान करेंगे-अनशन स्वीकार करेंगे, इस प्रकार जैसा औपपातिक में बतलाया गया है वैसा यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे, तक बतलाना चाहिए। १६०. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति। १६०. भन्ते! वह ऐसा ही है, भन्ते! वह ऐसा ही है यावत् विहरण कर रहे हैं। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं सतं सोलहवां शतक Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख शतक का प्रारंभ 'राजगृह के प्रश्न' इस श्रृंखला से होता है। चार उद्देशक (सूत्र ५३) तक वही क्रम चलता है। पांचवें उद्देशक के प्रश्न 'उल्लुकातीर नगर में किए गए हैं। छठे उद्देशक से आगे पूर्ण शतक में किसी स्थान विशेष का उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत शतक का पहला प्रश्न वायुकाय से संबद्ध है। उसकी आंशिक चर्चा दूसरे शतक में भी है।' वायुकाय के बिना अग्निकाय नहीं होती, इस बिन्दु का उल्लेख एक महत्त्वपूर्ण सूचना है।' अविरति के आधार पर अधिकरण और अधिकरणी की व्याख्या एक सूक्ष्म अध्यात्म-दर्शन का संकेत है। साधारणतया प्रवृत्ति के आधार पर अच्छे बुरे का निर्णय किया जाता है। प्रस्तुत शतक में अविरति के आधार पर प्राणी की अन्तर्दशा का अंकन किया गया है। एक मनुष्य शस्त्र का प्रयोग कर रहा है। वह जन साधारण की दृष्टि में दुष्प्रवृत्ति है। एक व्यक्ति शस्त्र का प्रयोग नहीं कर रहा है किन्तु शस्त्र का प्रयोग करने से विरत नहीं है। वह भी हिंसक है। उसका हेतु है अविरति। वह शस्त्र का प्रयोग करने से विरत नहीं हुआ। इसलिए आचरण की मीमांसा केवल दुष्प्रवृत्ति के आधार पर ही नहीं, अविरति के आधार पर की जानी चाहिए। प्रस्तुत शतक में भगवान् महावीर से देवों के साक्षात्कार के अनेक प्रश्न हैं। पहला प्रश्न शक्र के आगमन का है। इस प्रसंग में एक उल्लेखनीय तत्त्व चर्चा है सावध और निरवद्य भाषा की। मुनि की शल्य चिकित्सा का प्रसंग भी बहत विवेचनीय है। निर्जरा का सिद्धांत महावीर की साधना पद्धति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। प्रस्तुत शतक में मुनि की तपस्या और नैरयिक के होने वाली निर्जरा का तुलनात्मक विवेचन किया गया है। कष्ट सहने से निर्जरा होती है, यह सामान्य नियम है। इसकी पृष्ठभूमि में अनेक नियम जुड़े हुए हैं, जिनका उमास्वाति ने विशद विवेचन किया है। प्रस्तुत प्रकरण में निर्जरा की पृष्ठभूमि का एक नियम निदर्शित है। जिस जीव के कर्मबंध साधना के द्वारा शिथिलीकृत होता है, उसके स्वल्प तप से अधिक निर्जरा होती है। जिसके कर्म बंध प्रगाढ़ होते हैं उसके दीर्घकाल तक कष्ट सहन करने से भी निर्जरा कम होती है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने वृद्ध पुरुष, अहरन, तरुण पुरुष, सूखे घास का पूला और तप्त तवा-इन पांच दृष्टांतों के द्वारा निर्जरा के मात्रा-भेद को समझाया है।' भगवान् महावीर के पास देवराज शक्र का आगमन, संभ्रम के साथ प्रश्न करण और पुनः नमन। महाशुक्र विमान में दो देवों का उपपात और उनकी सैद्धांतिक चर्चा। गंगदत्त देव द्वारा प्रश्न का समाधान और उसका भगवान् महावीर के पास आगमन। उसकी तेजोलेश्या से अभिभूत होकर शक्र का तत्काल गमन। भगवान् महावीर द्वारा गंगदत्त के वक्तव्य का अनुमोदन। गंगदत्त के पूर्वभव का निरूपण। यह सब भगवान् महावीर के जीवन वृत्त का एक अद्भुत प्रसंग है।' प्रस्तुत आगम का निर्माण किसी क्रमबद्ध विषय के प्रतिपादन के लिए नहीं हुआ। इसमें प्रश्नों की एक श्रृंखला है। उस श्रृंखला में नाना प्रकार के प्रश्न निबद्ध हैं। गौतम स्वामी ने स्वप्न के विषय में जिज्ञासा की और भगवान् ने बयांलीस स्वप्नों और तीस महास्वप्नों का प्रतिपादन किया। यह पूर्वगत स्वप्नशास्त्र का अवतरण है अथवा अष्टांग महानिमित्त गत स्वप्नशास्त्र का-यह अनुसंधेय है। इस प्रकार प्रस्तुत शतक अनेक विषयों का संग्रह ग्रंथ है। १. भ. २/६-१२ २. भ. १६/५ ३. भ. १६/८-६ ४. भ. १६/३३ ५. भ. १६/३४-४० ६. भ. १६/४५-५० ७. द्रष्टव्य भ.६/१-४ का भाष्य ८. भ. १६/५१-५२ ६. भ. १६/५४-७५ १०. भ. १६/८३-८४ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं सतं : सोलहवां शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद संगहणी गाहा १. अहिगरणि २. जरा ३. कम्मे, ४. जावतियं ५. गंगदत्त ६. सुमिणे य। ७. उवओगए. लोग ह. बलि १०. ओहि ११. दीव १२. उदही १३. दिसा १४. थणिते॥१॥ संग्रहणी गाथा १. अधिकरणी २. जरा ३. कर्म ४. यावत्क ५. गंगदत्त ६. स्वप्नं च। ७. उपयोग ८. लोक ६. बलि १०. अवधि ११. द्वीप १२. उदधि १३. दिशा १४. स्तनितः॥ संग्रहणी गाथा १. अहरन २. जरा ३. कर्म ४. यावत्क ५. गंगदत्त ६. स्वप्न ७. उपयोग ८. लोक ६. बलि १०. अवधि ११. द्वीप १२. उदधि १३. दिशा १४. स्तनित। वाउयाय-पदं १. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुबासमाणे एवं बयासी-अस्थि णं भंते! अधिकरणिंसि वाउयाए वक्कमति? वायुकाय-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं यावत् पर्युपासीनः एवमवादीत्-अस्ति भदन्त! अधिकरण्यां वायुकायः अवक्रामति? हन्त अस्ति। वायुकाय पद १. उस काल उस समय राजगृह नगर यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! क्या अधिकरण-अहरन में वायुकाय उत्पन्न होता है? हां, होता है। हंता अत्थि॥ २. से भंते! किं पुढे उद्दाइ, अपुढे उद्दाइ॥ गोयमा ! पुढे उदाइ, नो अपुढे उदाइ॥ सः भदन्त! किं स्पृष्टः उद्घाति? २. भंते! क्या वायुकायिक जीव स्पृष्ट होकर अस्पृष्टः उद्घाति। मरता है? अस्पृष्ट रह कर मरता है? गौतम! स्पृष्टः उद्घाति, नो अस्पृष्टः गौतम! स्पृष्ट होकर मरता है, अस्पृष्ट रह कर उद्घाति। नहीं मरता। ३. से भंते! किं ससरीरी निक्खमइ ? । असरीरी निक्खमइ? सः भदन्त! किं सशरीरी निष्क्रामति? अशरीरी निष्क्रामति? ३. भंते! क्या वायुकायिक जीव सशरीर निष्क्रमण करता है? अशरीर निष्क्रमण करता है? गौतम! वह स्यात् सशरीर निष्क्रमण करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है। गोयमा! सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी निक्खमइ॥ गौतम! स्यात् सशरीरी निष्क्रामति, स्यात् अशरीरी निष्क्रामति। ४. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ-सिय तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-स्यात् ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी सशरीरी निष्क्रामति स्यात्, अशरीरी निक्खमइ ? निष्क्रामति? गोयमा! वाउयायस्स णं चत्तारि गौतम! वायुकायस्य चत्वारि शरीरकाणि सरीरया पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए, प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिक:, वेउब्बिए, तेयए, कम्मए। ओरालिय- वैक्रियः, तेजसः कर्मकः। औदारिक- वेउब्बियाई विष्पजहाय तेयय-कम्मएहिं वैक्रिये विप्रजहाय तैजस-कर्मकाभ्यां निक्खमइ। से तेणटेणं गोयमा! एवं निष्कामति। तत् तेनार्थेन गौतम! ४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैवायुकायिक जीव स्यात् सशरीर निष्क्रमण करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है? गौतम! वायुकायिक जीव के चार शरीर प्रज्ञप्त हैं, जैसे-औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण। वह औदारिक और वैक्रिय शरीर को छोड़कर तैजस और कार्मण शरीर के साथ निष्क्रमण करता है। गौतम! इस अपेक्षा से Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. १ : सू. ५,६ . ३४६ भगवई बुच्चइ-सिय ससरीरी निक्खमइ, सिय असरीरी निक्खमइ॥ एवमुच्यते-स्यात् सशरीरी निष्क्रामति स्यात् अशरीरी निष्क्रामति। यह कहा जा रहा है-वायुकायिक जीव स्यात् सशरीर निष्क्रमण करता है, स्यात् अशरीर निष्क्रमण करता है। भाष्य १.सूत्र १-४ एक लौहार अहरन पर लोह को कूटता है। उस समय वायु पैदा होती है, उसके विषय में चार सूत्रों का विधान किया गया है। लोह कूटने के समय जो वायु पैदा होती है, वह आक्रान्त वायु है। स्थानांग सूत्र में आक्रान्त वायु को अचित्त-निर्जीव बतलाया गया है।' अचित्त वायु के लिए दो से चार तक के सूत्र सार्थक नहीं हैं। इस विषय में वृत्तिकार ने विमर्श किया है। उसके अनुसार आक्रांत वायु प्रारंभ में अचित्त होती है, पश्चात् सचेतन भी हो जाती है। इस विषय में ठाणं ५/१८३ का टिप्पण द्रष्टव्य है। आक्रान्त वायु के सचित्त हो जाने पर उसके विषय में मृत्यु और निष्क्रमण-ये दो प्रश्न किये गये हैं। प्रस्तुत आगम के दूसरे शतक में इन प्रश्नों के विषय में चर्चा की जा चुकी है। अगणिकाय-पदं अग्निकाय-पदम् अग्निकाय पद ५. इंगालकारियाए णं भंते! अगणिकाए ५.अङ्गारकारिकायां भदन्त ! अग्निकायः ५. भंते! अंगारकारिका कोयला बनाने की भट्टी केवतियं कालं संचिट्ठइ? कियन्तं कालं संतिष्ठते? में अग्निकाय कितने समय तक रहता है? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः तीन उक्कोसेणं तिण्णि राइंदियाई। अण्णे वि त्रीणि रात्रिंदिवानि अन्योऽपि तत्र दिन-रात। वहां अन्य जीव वायुकाय भी तत्थ वाउयाए बक्कमति, न विणा वायुकायः अवक्रामति, न विना उत्पन्न होता है। वायुकाय के बिना अग्निकाय वाज्याएणं अगणिकाए उज्जलति॥ वायुकायेन अग्निकायः उज्ज्वलति। प्रज्वलित नहीं होता। भाष्य १.सूत्र ५ - अंगारकारिका में विद्यमान अग्निकाय की स्थिति का वही निर्देश है, जो सामान्य अग्निकाय की स्थिति का है। इस विषय में प्रज्ञापना पद (४/७२) द्रष्टव्य है। इस अवस्था में प्रस्तुत सूत्र के विधान का उद्देश्य क्या है, यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है। इस प्रश्न का उत्तर सूत्र का उत्तर-भाग हो सकता है। उसमें एक नियम का निर्देश है, वह नियम है-अग्नि और वायु की व्याप्ति। व्याख्या साहित्य में यत्राग्निस्तत्र वायुः-यह सूत्र प्रचलित है। उस नियम का आधार यह है-वायु के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। किरिय-पदं क्रिया-पदम् क्रिया-पद ६. पुरिसे णं भंते! अयं अयकोटुंसि ६. पुरुषः भदन्त! अयः अयस्कोष्ठे ६. भंते! लोह के कोठे में तप्त लोह को लोहमय अयोमएणं संडासएणं उब्विहमाणे वा अयोमयेन संदंशकेन उद्विध्यन् संडासी से निकालता अथवा डालता हुआ पबिहमाणे वा कतिकिरिए? प्रविध्यन् वा कतिक्रियः? पुरुष कितनी क्रियाओं से स्पृष्ट होता है? गोयमा! जावं च णं से पुरिसे अयं गौतम! यावत् च सः पुरुषः अयः गौतम! जब तक पुरुष लोहे के कोठे में तप्त अयकोहसि अयोमएणं संडासएणं अयस्कोष्ठे अयोमयेन संदंशकेन लोह को लोहमय संडासी से निकालता उबिहति वा पबिहति वा, तावं च णं से उद्विध्यति, वा प्रविध्यति वा, तावत् अथवा डालता है तब तक वह पुरुष कायिकी पुरिसे काइयाए जाव पाणाइवाय- सः यः पुरुषः कायिक्या यावत् यावत् प्राणातिपात क्रिया-पांचों क्रियाओं से किरियाए-पंचहि किरियाहिं पट्टे सें प्राणातिपातक्रियया-पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से लोह पि णं जीवाणं सरीरेहितो अए निव्वत्तिए, स्पृष्टः येषाम् अपि जीवानां शरीरात् निष्पन्न हुआ है, लोहे का कोठा निष्पन्न हुआ अयकोहे निव्वत्तिए, संडासए निव्वत्तिए, अयः निर्वर्तितः, अयस्कोष्ठे निवर्तितः है, संडासी निष्पन्न हुई है, अंगारे निष्पन्न हुए इंगाला निव्वत्तिया, इंगालकहणी संदंशकेन निर्वर्तितः, अङ्गाराः हैं, अंगारा निकालने वाली ईषत् वक्र लोहमयी निव्वत्तिया, भत्था निव्वत्तिया, ते वि णं निर्वर्तिताः अङ्गारकर्षणी निर्वर्तिता, यष्टि निष्पन्न हुई है, धौंकनी निष्पन्न हुई है, वे १. ठाणं ५/१८३ ३. भ. २/९-१२ भाष्य। २. भ. वृ. १६/२-४ : अयं चाक्रान्तसंभवत्वेनादावचेतनतयोत्पन्नोऽपि पश्चात् ४. भ. वृ. सू. १६/५ अन्योऽप्यत्र वायुकायो व्युत्क्रामति, यत्राग्निस्तत्र वायुरिति सचेतनीभवतीति संभाव्यत इति। कृत्वा। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई जीवा काइयाए जाव पाणाइवायकिरियाए --पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा ॥ ७. पुरिसे णं भंते! अयकोट्ठाओ अयोमएणं संडास एणं गहाय अहिकरणिसि उक्खिव्यमाणे वा निक्खिव्वमाणे वा कतिकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोट्टाओ अयोमएणं संडासएणं गहाय अहिकरणिसि उक्खिवइ वा निक्खिव वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पाणाइवायकिरियाए - पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिं पि णं जीवाणं सरीरेहिंतो अयो निव्वत्तिए, संडासए निव्वत्लिए, चम्मेद्वे निष्पत्तिए, मुट्ठिए निव्वत्तिए, अधिकरणी निव्वतिया, अधिकरणिखोडी निव्वत्तिया, उदगदोणी निव्वत्तिया, अधिकरणसाला निव्वत्तिया, ते वि णं जीवा काइयाए जाव पाणाइवायकिरियाए - पंचहि किरियाहिं पुट्ठा ॥ ३४७ यस्या निर्वर्तिताः, ते अपि जीवाः कायिक्या यावत् प्राणातिपातक्रिययापञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः । वा पुरुषः भदन्त ! अयः अयस्कोष्ठात् अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वा अधिकरण्याम् उत्क्षिप्यमानः निक्षिप्यमानः वा कतिक्रियः ? गौतम ! यावत् च सः पुरुषः अयः अयस्कोष्ठात् अयोमयेन संदंशकेन गृहीत्वा अधिकरण्याम् उत्क्षिपति वा प्रक्षिपति वा तावत् सः पुरुषः कायिक्या यावत् प्राणातिपातक्रियया-पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः येषाम् अपि जीवानां शरीरात् अयः निर्वर्तितः, संदंशकः निर्वर्तितः, चर्मेष्टः निर्वर्तितः; मुष्टिकः निर्वर्तितः, अधिकरणी निर्वर्तिता, अधिकरण 'खोडी' निर्वर्तिता, उदकद्रोणी निर्वर्तिता, अधिकरणशाला निर्बर्तिता, ते अपि जीवाः कायिक्या यावत् प्राणातिपातक्रियया-पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टाः । १. सूत्र ६-७ प्रस्तुत आलापक में पांच क्रिया से स्पृष्ट होने के दो विधान हैं१. लोहे की संडासी का प्रयोग करने वाला पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। २. जिन जीवों के शरीर से लोह और लोह की संडासी आदि निर्मित हुए हैं वे जीव भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। प्रथम विधान स्पष्ट है। लोह की संडासी आदि के जीव पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं, इसका हेतु वृत्तिकार ने अविरति भाव बतलाया तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई ५ / १३४ - १३५ का भाष्य । शरीर के दो प्रकार बतलाए गए हैं-बद्ध और मुक्त मुक्त शरीर निर्जीव होता है। इस विषय में चूर्णिकार ने एक सिद्धांत का प्रतिपादन किया है-मुक्त शरीर के पुद्गल जीव के द्वारा निष्पादित औदारिक शरीर का प्रयोग से मुक्त नहीं होते, किसी दूसरे परिणाम से परिणत नहीं होते तब तक वे उसी जीव के शरीर कहलाते हैं।' इस सिद्धान्त के १. भ. वृ. १६/७ इह चायः प्रभृतिपदार्थनिर्वर्त्तकजीवानां पञ्चक्रियत्वमविरतिभावेनावसेयमिति । २. अनु. चू. पृ ६२-६३ ते य पोग्गला तं जीवणिव्यत्तियं ओरालिय भाष्य श. १६ : उ. १ : सू. ७ जीव भी कायिकी यावत् प्राणातिपात क्रियापांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। ७. भंते! लोहे के कोठे से लोहमय संडासी से तप्त लोह को लेकर अधिकरण में निकालता अथवा डालता हुआ पुरुष कितनी क्रियाओं से स्पृष्ट होता है? गौतम ! जब तक पुरुष लोहे के कोठे से लोहमय संडासी से लोह को निकालकर अधिकरणी में निकालता अथवा डालता है तब तक वह पुरुष कायिकी यावत् प्राणातिपात क्रिया-पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से लोह निष्पन हुआ, संडासी निष्पन्न हुई, घन निष्पन्न हुआ, हथौड़ा निष्पन्न हुआ, अहरन निष्पत्र हुई, अहरन की लकड़ी निष्पन्न हुई, उदक-द्रोणी निष्पन्न हुई, अधिकरण शाला निष्पन्न हुई, वे जीव भी कायिकी यावत् प्राणातिपात क्रिया-पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। आधार पर संभावना की जा सकती है मुक्त शरीर - पुद्गलों का परिणामान्तर नहीं होता तब तक उनके साथ ममत्व का सूक्ष्म धागा जुड़ा रहता है। अविरति और ममत्व पांच क्रिया से स्पृष्ट होने के निमित्त बन जाते हैं। शब्द विमर्श इंगालकडणी - अंगारा निकालने वाली ईषत् वक्र लोहमय यष्टि । भत्था - धौंकनी । मुट्ठिए-हथौड़ा। चम्मेहे - घन । अधिकरणी - अहरन । अधिकरणी खोडी - जिस काठ पर अहरन रखी जाती है। उदग दोणी-पानी की कुण्डी । अधिकरण शाला-लुहार शाला। शरीरकायप्पयोगं ण मुयंति ण जाव अण्णपरिणामेण परिणमंति ताव ताई पत्तेयं तस्सरींराई भण्णन्ति । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. १ : सू. ८-१५ ३४८ भगवई अधिकरणी-अधिकरण-पदं ८. जीवे णं भंते! किं अधिकरणी? अधिकरणं? गोयमा! जीवे अधिकरणी वि. अधिकरणं अधिकरणी-अधिकरण पद ८. भंते! क्या जीव अधिकरणी है? अधिकरण अधिकरणी-अधिकरण-पदम् जीवः भदन्त! किम् अधिकरणी? अधिकरणम्? गौतम! जीवः अधिकरणी अपि, अधिकरणम् अपि। पपत्रणमा गौतम! जीव अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है। पि॥ १. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-जीवे अधिकरणी वि, अधिकरणं पि? गोयमा! अविरतिं पुडुच्च। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवे अधिकरणी वि अधिकरणं पि॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-जीवः१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैअधिकरणी अपि, अधिकरणम् अपि? जीव अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है? गौतम! अविरतिं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन गौतम! अविरति की अपेक्षा। इस अपेक्षा से गौतम! एवमुच्यते-जीवः अधिकरणी । यह कहा जा रहा है-जीव अधिकरणी भी है, अपि, अधिकरणम् अपि। अधिकरण भी है। १०. नेरइए णं भंते! किं अधिकरणी? अधिकरणं? गोयमा! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि। एवं जहेव जीवे तहेव नेरइए वि। एवं निरंतरं जाव वेमाणिए॥ नैरयिक: भदन्त! किम अधिकरणी? अधिकरणम् ? गौतम! अधिकरणी अपि, अधिकरणम् अपि। एवं यथैव जीवः तथैव नैरयिकाः अपि। एवं निरन्तरम् यावत् वैमानिकाः। १०. भंते! क्या नैरयिक अधिकरणी है? अधिकरण है? गौतम! अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है। इस प्रकार जैसे जीव, वैसे ही नैरयिक की वक्तव्यता। इस प्रकार निरन्तर यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। ११. जीवे णं भंते! किं साहिकरणी? निरहिकरणी? गोयमा! साहिकरणी, नो निरहिकरणी॥ जीवः भदन्त! किं साधिकरणी? निरधिकरणी? गौतम! साधिकरणी, नो निरधिकरणी। ११. भंते! क्या जीव अधिकरणी सहित है? अधिकरणी रहित है? गौतम! अधिकरणी सहित है, अधिकरणी रहित नहीं है। १२. से केणटेणं-पुच्छा। गोयमा! अविरतिं पडुच्च। से तेणटेणं जाव नो निरहिकरणी। एवं जाव वेमाणिए॥ तत् केनार्थेन-पृच्छा। गौतम! अविरतिं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन यावत् नो निरधिकरणी। एवं यावत वैमानिकः। १२. यह किस अपेक्षा से-पृच्छा। गौतम! अविरति की अपेक्षा। इस अपेक्षा से यावत अधिकरणी रहित नहीं है। इस प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। १३. जीवे णं भंते! किं आयाहिकरणी? पराहिकरणी? तदुभयाहिकरणी? गोयमा! आयाहिकरणी वि, पराहिकरणी वि, तदुभयाहिकरणी वि॥ जीवः भदन्त! किम् आत्माधिकरणी? पराधिकरणी? तदुभयाधिकरणी? गौतम! आत्माधिकरणी अपि, पराधिकरणी अपि, तदुभयाधिकरणी अपि। १३. भंते! क्या जीव आत्म-अधिकरणी है? पर-अधिकरणी है? तदुभय-अधिकरणी है? गौतम! आत्म-अधिकरणी भी है, परअधिकरणी भी है, तदुभय-अधिकरणी भी है। १४. से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ-जाव तदुभयाहिकरणी वि? गोयमा! अविरतिं पडुच । से तेणटेणं जाव तदुभयाहिकरणी वि। एवं जाव वेमाणिए॥ तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-यावत् तदुभयाधिकरणी अपि? गौतम! अविरतिं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन यावत् तदुभयाधिकरणी अपि। एवं यावत् वैमानिकः । १४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-यावत् तदुभय अधिकरणी भी है? गौतम! अविरति की अपेक्षा। इस अपेक्षा से यावत् तदुभय-अधिकरणी भी है। इस प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। १५. जीवाणं भंते! अधिकरणे किं आयपयोगनिब्बत्तिए? परपयोग- निव्वत्तिए ? तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिए ? जीवानां भदन्त! अधिकरणं किम् आत्मप्रयोगनिर्वर्तितः? परप्रयोग- निर्वर्तितः? तदुभयप्रयोगनिर्वर्तितः? १५. भंते! जीवों का अधिकरण क्या आत्म प्रयोग से निष्पन्न होता है? पर-प्रयोग से निष्पन्न होता है? तदुभय-प्रयोग से निष्पन्न होता है? Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३४६ श. १६ : उ. १ : सू. १६,१७ गोयमा! आयप्पयोगनिब्वत्तिए वि, परप्पयोगनिव्वत्तिए वि, तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिए वि॥ गौतम! आत्मप्रयोगनिर्वर्तितः अपि, परप्रयोगनिर्वर्तितः अपि, तदुभयप्रयोगनिर्वर्तितः अपि। गौतम! जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से निष्पन्न भी है, पर-प्रयोग से निष्पन्न भी है, तदुभय-प्रयोग से निष्पन्न भी है। १६. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ? गोयमा! अविरतिं पड़च। से तेणटेणं जाव तदुभयपयोगनिव्वत्तिए वि। एवं जाव वेमाणियाणं॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते? गौतम! अविरतिं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन यावत् तदुभयप्रयोगनिर्वर्तितः अपि। एवं यावत् वैमानिकानाम्। १६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम! अविरति की अपेक्षा। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् तदुभय-प्रयोग निष्पन्न भी है। इस प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। भाष्य अल सूत्र ८-१६ हैं। प्रस्तुत पाठ पर यह जयाचार्य की समीक्षा है।' प्रस्तुत आलापक में जीव को अधिकरणी और अधिकरण-दोनों केवल शस्त्र ही अधिकरण नहीं होता, शरीर भी अधिकरण बतलाया है। है। इस अपेक्षा से सभी जीव अधिकरणी भी हैं, अधिकरण भी हैं। अधिकरण शब्द के अनेक अर्थ हैं-कलह, शस्त्र का प्रयोग, शरीर का अधिकरण सहभावी है इसलिए वह साधिकरणी भी है।' यंत्र, हल, गाड़ी आदि। ___ कोई मनुष्य अपने निमित्त से अधिकरणी है, कोई दूसरे के प्रस्तुत प्रकरण में अधिकरण पद के द्वारा शरीर और इन्द्रियांनिमित्त से अधिकरणी है, कोई दोनों के निमित्त से अधिकरणी है। तथा हल, गाड़ी आदि बाह्य परिग्रह विवक्षित हैं। जीव के अधिकरण अधिकरणी होने का मूल हेतु अविरति है। होता है इसलिए वह अधिकरणी है। जीव शरीर आदि अधिकरणों अधिकरण का संबंध किससे है? परिग्रह से, अविरति से अथवा से कथंचित अभिन्न है, इस अपेक्षा से उसे अधिकरण भी कहा गया शस्त्र प्रयोग से? इन तीनों प्रश्नों पर विमर्श आवश्यक है। जीव के अधिकरणी और अधिकरण होने का मूल हेतु अविरति अविरति की अपेक्षा सभी असंयमी जीव अधिकरणी भी हैं और है। विरति की अवस्था में शरीर, इन्द्रिय के होने पर भी जीव अधिकरण भी हैं। अधिकरणी और अधिकरण नहीं होता। परिग्रह (शस्त्र आदि) की अपेक्षा मनुष्य और देव अधिकरणी प्रमत्त संयती के अनुपरत कायिकी क्रिया नहीं होती। द्रष्टव्य- और अधिकरण-दोनों हैं। नैरयिक जीव अपनी विक्रिया शक्ति के ठाणं २/६ का टिप्पण। द्वारा शस्त्रों का निर्माण भी करते हैं और उनका प्रयोग भी करते सिद्ध और संयती जीव अधिकरण के प्रकरण में विवक्षित नहीं हैं।' १७. कति णं भंते! सरीरंगा पण्णत्ता? गोयमा! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए, वेउब्बिए, आहारए, तेयए, कम्मए॥ कति भदन्त! शरीरकाणि प्रज्ञप्तानि? गौतम! पञ्चशरीरकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिकम्, वैक्रियम्, आहारकम्, तैजसम्, कार्मकम्। १७. भंते! शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं? गौतम! शरीर पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसे-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। १. भ. वृ. १६/८ अधिकरणं-दुर्गतनिमित्तं वस्तु तच विवक्षया शरीरमिन्द्रियाणि च, तथा बाह्यो हलगन्त्र्यादिपरिग्रहस्तदस्यास्तीत्यधिकरणी जीवः अहिकरणं पित्ति शरीराद्यधिकरणेभ्यः कथञ्चिद व्यतिरिक्तत्वादधिकरणं जीवः। २. भ. वृ. १६/६ एतच द्वयं जीवस्याविरतिं प्रतीत्योच्यते तेन यो विरतिमान् असौ शरीरादिभावेऽपि नाधिकरणी नाप्यधिकरणमविरतियुक्तस्यैव शरीरा देरधिकरणत्वादिति। ३. भ. जो. ढा. ३४८, गाथा-३०-३२ प्रश्न करै को ताहि, सअधिकरणी जीव छै। निरधिकरणी नाहि, एहवो आरल्यो सूत्र में। जीव विषै तो लेह, सिद्ध संजती पिण सहु। निरधिकरणी तेह, उत्तर कहिए तेहनो॥ जीवेणं वच एक, जीव अवती माहिलो। एक जीव संपेख, ते आश्री ए संभवै॥ ४. भ. पृ. सू. १६/११ सह-सहभाविनाऽधिकरणेन-शरीदिना वर्तत इति, समासान्ते विधिः साधिकरणी, संसारिजीवस्य शरीरेन्द्रियरूपाधिकरणस्य सर्वदैव सहचारित्वात् साधिकरणत्वमुपदिश्यते। शस्त्राधिकरणापेक्षया तु स्वस्वामिभावस्या तदविरतिरूपस्य सहवर्तित्वाज्जीवः साधिकरणीत्युच्यते। ५.जीवा. ३/११० Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० भगवई श. १६ : उ. १ : सू. १८-२५ १८. कति णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता? गोयमा! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहासोइंदिए, चक्विंदिए, घाणिदिए, रसिदिए, फासिदिए॥ कति भदन्त ! इन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि? गौतम! पञ्च इन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियम्, चक्षुरिन्द्रियम्, घ्राणेन्द्रियम्, रसनेन्द्रियम्, स्पशन्द्रियम्। १८. भंते! इन्द्रियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम! इन्द्रियां पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसेश्रोत्र-इन्द्रिय, चक्षु-इन्द्रिय, घ्राण-इन्द्रिय, रसन-इन्द्रिय, स्पर्श-इन्द्रिय। १६. कतिविहे णं भंते ! जोए पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा–मणजोए, वइजोए, कायजोए॥ कतिविधः भदन्त ! योगः प्रज्ञप्तः? गौतम! त्रिविधः योगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- मनोयोगः वाग्योगः, काययोगः। १६. भंते! योग के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम! योग के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेमन योग, वचन योग, काय योग। २०. भंते! जीव औदारिक शरीर को निष्पन्न करता हुआ क्या अधिकरणी है? अधिकरण २०. जीवे णं भंते! ओरालियसरीरं जीवः भदन्त! औदारिकशरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी? अधि- निर्वय॑मानः किम् अधिकरणी? करणं? अधिकरणम्। गोयमा! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि॥ गौतम! अधिकरणी अपि, अधिकरणम् अपि। गौतम! अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है। २१. से केणटेणं भंते! एवं बुचइ- अधिकरणी वि, अधिकरणं पि? गोयमा! अविरतिं पडुच्च। से तेणटेणं जाव अधिकरणं पि॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- २१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैअधिकरणी अपि, अधिकरणम् अपि? जीव अधिकरणी भी है? अधिकरण भी है? गौतम! अविरतिं प्रतीत्य! तत् तेनार्थेन । गौतम ! अविरति की अपेक्षा। इस अपेक्षा से यावत् अधिकरणम् अपि। यावत् अधिकरण भी है। २२. पुढविकाइएण णं भंते! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी? अधिकरण? एवं चेव। एवं जाव मणुस्से। एवं वेउब्बियसरीरं पि, नवरं-जस्स अत्थि॥ पृथ्वीकायिकानां भदन्त! औदारिक- शरीरं निर्वय॑मानः किम अधिकरणी? अधिकरणम्? एवं चैव। एवं यावत् मनुष्यः एवं वैक्रियशरीरम् अपि, नवरम्-यस्य अस्ति । २२. भंते! पृथ्वीकायिक जीव औदारिक शरीर को निष्पन्न करता हुआ क्या अधिकरणी है? अधिकरण है? पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् मनुष्य की वक्तव्यता। इसी प्रकार वैक्रिय शरीर की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिसके वह शरीर है। २३. जीवे णं भंते! आहारगसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी?-पुच्छा। गोयमा! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि॥ जीवः भदन्त! आहारकशरीरं निर्वय॑मानः किम् अधिकरणी?-पृच्छा। गौतम! अधिकरणी अपि, अधिकरणम् २३. भंते! जीव आहारक शरीर को निष्पन्न करता हुआ क्या अधिकरणी है?-पृच्छा। गौतम! अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है। अपि। २४. से केणटेणं जाव अधिकरण पि? तत् केनार्थेन यावत् अधिकरणम् अपि? २४. यह किस अपेक्षा से यावत् अधिकरण भी गोयमा! पमायं पडुच्च। से तेणद्वेणं जाव गौतम! प्रमादं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन अधिकरणं पि। एवं मणुस्से वि। यावत् अधिकरणम् अपि। एवं तेयासरीरं जहा ओरालियं, मनुष्योऽपि। तैजसशरीरं यथा नवर-सब्बजीवाणं भाणियच्वं। एवं __ औदारिकम् नवरम्-सर्वजीवानां कम्मगसरीरं पि॥ भाणितव्यम्। एवं कार्मकशरीरम् अपि। गौतम! प्रमाद की अपेक्षा। इस अपेक्षा से यावत् अधिकरण भी है। इसी प्रकार मनुष्य की वक्तव्यता। तैजस शरीर की औदारिक शरीर की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-वह सर्व जीवों के वक्तव्य है। इसी प्रकार कर्म शरीर की वक्तव्यता। २५. जीवे णं भंते! सोइंदियं निबत्तेमाणे किं अधिकरणी? अधिकरणं? जीवः भदन्त! श्रोत्रेन्द्रियं निर्वय॑मानः २५. भंते! जीव श्रोत्रेन्द्रिय को निष्पन्न करता किम् अधिकरणी? अधिकरणम्? हुआ क्या अधिकरणी है? अधिकरण है? Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३५१ श. १६ : उ. १ : सू. २६,२७ एवं जहेव ओरालियसरीरं तहेव सोइंदियं एवं यथैव औदारिकशरीरं तथैव पि भाणियव्वं, नवरं-जस्स अत्थि श्रोत्रेन्द्रियम्। नवरम्-यस्य अस्ति सोइंदियं। एवं चक्विंदिय-घाणिंदिय- श्रोत्रेन्द्रियं एवं चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रियजिभिंदिय-फासिंदियाण वि, नवरं । जिह्वेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रियाणाम् अपि, जाणियव्वं-जस्स जं अस्थि॥ नवरम् ज्ञातव्यं यस्य यत् अस्ति। इस प्रकार जैसे औदारिक शरीर की वक्तव्यता वैसे ही श्रोत्रेन्द्रिय की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिसके श्रोत्रेन्द्रिय है। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिस जीव के जितनी इन्द्रियां हैं। २६. जीवे णं भंते! मणजोग निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी? अधिकरणं? एवं जहेव सोइंदियं तहेव निरवसेसं। वइज- गो एवं चेव, नवरं-एगिदिय-वज्ज- णं। एवं कायजोगो वि, नवरंसव्वजीवाणं जाव वेमाणिए। जीवः भदन्त! मनोयोगं निर्वय॑मानः २६. भंते! जीव मनोयोग को निष्पन्न करता किम् अधिकरणी? अधिकरणम् ? हुआ क्या अधिकरणी है, अधिकरण है? एवं यथैव श्रोत्रेन्द्रियं तथैव निरवशेषम्। इस प्रकार जैसे श्रोत्रेन्द्रिय की वक्तव्यता, वैसे वाग्योगो एवं चैव, नवरम्-एकेन्द्रिय- ही निरवशेष वक्तव्य है। वचन योग की पूर्ववत् वर्जाणाम्। एवं काययोगोऽपि, नवरम्- वक्तव्यता, इतना विशेष है-एकेन्द्रिय वर्जित। सर्वजीवानां यावत् वैमानिकानाम्। इसी प्रकार काययोग की वक्तव्यता, इतना विशेष है-सर्व जीवों के यावत् वैमानिक। भाष्य १.सूत्र २०-२६ __ प्रस्तुत आलापक में शरीर रचना के संदर्भ में अधिकरणी और अधिकरण की मीमांसा की गई है। अधिकरणी और अधिकरण का हेतु अविरति बतलाया गया है। आहारक शरीर का निर्माण केवल संयमी मुनि करता है इसलिये उसके अधिकरणी और अधिकरण का हेतु प्रमाद है। जयाचार्य ने इसे अशुभ योग रूप प्रमाद बतलाया है। तैजस शरीर और कर्म शरीर के निर्वर्तन अथवा निर्माण का निर्देश एक नई जानकारी देता है। तैजस और कार्मण शरीर का संबंध अनादिकालीन है। जीवाजीवाभिगम में तैजस और कार्मण की स्थिति अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित बतलाई गई है। यदि ये दोनों शरीर अनादिकालीन हैं तो इनका निर्माण कैसे हो सकता है? इनके निर्माण के समय जीव अधिकरणी, अधिकरण भी कैसे हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर प्रमाण के आधार पर दिया जा सकता है। तैजस और कार्मण शरीर का जघन्य प्रमाण अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट प्रमाण औदारिक शरीर जितना तथा केवली समुद्घात के समय लोक प्रमाण, इसी प्रकार मारणान्तिक समुद्घात के समय लंबाई में लोकांत से लोकांत तक है।" उक्त संदर्भो का निष्कर्ष यह है-तैजस और कार्मण शरीर अनादि कालीन हैं किन्तु नए जन्म के साथ उनका आकार बदलता रहता है। वे शरीर नाम कर्म की प्रकृति के द्वारा परिवर्तित होते रहते हैं। औदारिक शरीर के अनुरूप उनका निर्माण होता है, आकार-संरचना होती है। इस दृष्टि से उनके निर्वर्तन का सिद्धान्त संगत है। जस्स अस्थि-वैक्रिय शरीर देव, नारक और वायुकाय के होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य के लब्धिजन्य होता है।' जरस अत्थि (१६/१५) द्रष्टव्य यंत्र श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय स्पर्शेन्द्रिय एकेन्द्रिय ४ द्वीन्द्रिय ४ त्रीन्द्रिय - चतुरिन्द्रिय x पंचेन्द्रिय । २७. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। २७. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। १.भ. जो. ढा. ३४६. गाथा १६-२१ आहारक शरीर सोय, छठे गुण ठाणेज है। ज्यां अविरत नहिं कोय, तिणमूं प्रमाद आश्रयी। लब्धि फोडवै जेह, अशुभ जोग रूपी तिको। प्रमाद कहियै तेह, तिणमें नहिं जिण आगन्या॥ पद छत्तीसम मांहि, आहारक तेजु वैक्रिय। लब्धि फोड़वै ताहि, क्रिया पंच उत्कृष्ट थी॥ शीतल तेजू जाण, वली उष्ण तेजू कही। शतक पनरमें वाण, तिणसू बिहुं तेजू विषे॥ जंघा विद्याचार, बली वैक्रिय फोड़वै। विण आलोयां धार, कह्यो विराधक केवली॥ तिणसूं एह संवाद, लब्धि आहारक फोड़वै। अशुभ जोग प्रमाद, प्रायश्चित्त आवै तसु॥ २. तत्त्वार्थाधिगम सू. २/४२-अनादिसंबंधे च। ३. जीवा. ६/१७४, १७६ ४. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका २/४६ : एतयोश्च तैजसकार्मणयोरवरतः प्रमाणभंगुलासंख्येयभागः उत्कृष्टतश्चौदारिकशरीरप्रमाणे, केवलिनः समुद्घाते लोकप्रमाणे वा भवतः मारणान्तिकसमुद्घाते वा आयामतो लोकान्ता ल्लोकान्तायते स्यातामिति। ५. भ. वृ. १६/२२-२६ तत्र नारकदेवानां वायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्मनुष्याणां च तदस्तीति ज्ञेयम्। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद जीवाणं जरा-सोग-पदं २८. रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवाणं भंते ! किं जरा? सोगे? गोयमा! जीवाणं जरा वि, सोगे वि॥ जीवानाम् जरा-शोक-पदम राजगृहं यावत् एवमवादीत्-जीवानां भदन्त ! किं जरा? शोकः? गौतम! जीवानां जरा अपि, शोकः अपि। जीवों का जरा-शोक पद २८. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-क्या जीवों के जरा है? शोक है? गौतम! जीवों के जरा भी है, शोक भी है। २६. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ-जीवाणं जरा वि, सोगे वि? गोयमा! जे णं जीवा सारीरं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं जरा, जे णं जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं सोगे। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवाणं जरा वि, सोगे वि। एवं नेरइयाण वि। एवं जाव थणियकुमाराणं॥ तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जी- वानां जरा अपि, शोकः अपि? गौतम! ये जीवाः शारीरां वेदनां वेदयन्ति, तेषां जीवानां जरा, ये जीवा मानसां वेदनां वेदयन्ति तेषां जीवानां शोकः। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-जीवानां जरा अपि, शोक: अपि। एवं नैरयिकाणाम् अपि। एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम्। २६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीवों के जरा भी है, शोक भी है? गौतम! जो जीव शारीरिक वेदना का वेदन करते हैं, उन जीवों के जरा तथा जो जीव मानसिक वेदना का वेदन करते हैं, उन जीवों के शोक होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीवों के जरा भी होती है, शोक भी होता है। इसी प्रकार नैरयिक की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। ३०, पुढविकाइयाणं भंते! किं जरा? पृथिवीकायिकानां भदन्त! किं जरा? सोगे? शोकः? गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे॥ गौतम! पृथिवीकायिकानां जरा, नो शोकः। ३०. भंते! क्या पृथ्वीकायिक जीवों के जरा है? शोक है? गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के जरा है, शोक नहीं है। ३१. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ-पुढवि- काइयाणं जरा, नो सोगे? तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- पृथिवीकायिकानां जरा, नो शोकः? ३१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-पृथ्वीकायिक जीवों के जरा है, शोक नहीं गोयमा! पुढविकाइया णं सारीरं वेदणं वेदेति, नो माणसं वेदणं वेदेति। गौतम! पृथिवीकायिकाः शारीरां वेदनां वेदयन्ति, नो मानसां वेदनां वेदयन्ति। से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ- तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेपुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे। एवं जाव पृथिवीकायिकानां जरा, नो शोकः । एवं चउरिदियाणं। सेसाणं जहा जीवाणं ___ यावत् चतुरिन्द्रियाणाम्। शेषाणां यथा जाव वेमाणियाणं॥ जीवानां यावत् वैमानिकानाम्। गौतम! पृथ्वीकायिक जीव शारीरिक वेदना का वेदन करते हैं, मानसिक वेदना का वेदन नहीं करते। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-पृथ्वीकायिक जीवों के जरा होती है, शोक नहीं होता। इस प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता। शेष जीवों की भांति वक्तव्य हैं यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३५३ श. १६ : उ. २ : सू. ३२-३४ भाष्य १. सूत्र २८-३१ जरा शब्द के द्वारा शारीरिक दुःखों की ओर संकेत किया गया दुःख के दो प्रकार हैं-शारीरिक और मानसिक। जरा बुढ़ापे का है। शोक शब्द के द्वारा मानसिक दुःखों की ओर संकेत किया गया है। वाचक है। बुढ़ापे को दुःख माना गया है। अमनस्क जीव शारीरिक दुःख का वेदन करते हैं इसलिए उनके जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । जरा होती है, शोक नहीं होता। समनस्क जीव जरा और शोक-दोनों __ अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतबो।' का वेदन करते हैं। ३२. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव पज्जुवासति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् पर्युपास्ते। ३२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते वह ऐसा ही है। यह कहकर यावत् पर्युपासना करने लगे। सक्कस्स ओग्गह-अणुजाणणा-पदं शक्रस्य अवग्रह-अनुज्ञापना-पदम् शक्र का अवग्रह-अनुज्ञापन पद ३३. तेणं कालेणं तेण समएणं सक्के तस्मिन् काले तस्मिन् समये शक्रः ३३. उस काल उस समय वज्रपाणि, पुरन्दर देविंदे देवराया बज्जपाणी पुरंदरे जाव देवेन्द्रः देवराजः वज्रपाणिः पुरन्दरः देवराज देवेन्द्र शक्र यावत् दिव्य भोगार्ह भोगों दिव्वाई भोगभोगाई भंजमाणे विहरइ। यावत् दिव्यान् भोगभोगान् भुजानः को भोगता हुआ विहरण कर रहा था। इस इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं ।। विहरति। इमं च केवलकल्पं जम्बूद्वीपं सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को विपुल अवधिज्ञान विपुलेण ओहिणा आभोएमाणे- द्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयन् के द्वारा जानता हुआ, जानता हुआ देखता आभोएमाणे पासति, एत्थ णं समणं आभोगयन् पश्यति, अत्र श्रमणं भगवन्तं है-यहां श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप द्वीप भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे। एवं जहा महावीरं जम्बूद्वीपे द्वीपे। एवं यथा ईशाने में है। इस प्रकार जैसे तृतीय शतक में ईशान ईसाणे तइयसए तहेव सक्के वि, तृतीयशते तथैव शक्रोऽपि, की वक्तव्यता, उसी प्रकार शक्र की नवरं-आभिओगे ण सदावेति, हरी नवरम-आभियोगान न शब्दयति, हरिः । वक्तव्यता, इतना विशेष है-शक्र पायत्ताणियाहिबई, सुघोसा घंटा, पादातानिकाधिपतिः सुघोषा घण्टा, आभियोगिक देवों को आमन्त्रित नहीं करता। पालओ विमाणकारी, पालगं विमाणं पालकः विमानकारी, पालकं विमानम्, उसकी पदाति सेना का अधिपति हरिणगमेषी उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे, दाहिण- औदीच्ये निर्माणमार्गः, दक्षिणपौरस्त्ये, देव, सुघोषा घंटा, विमान-निर्माता पालक, पुरथिमिल्ले रतिकरपव्वए, सेसं तं चेव रतिकरपर्वतः शेषं तत् चैव यावत् नामकं । विमान का नाम पालक, निर्गमन का मार्ग जाव नामगं सावेत्ता पज्जुवासति। श्रावयित्वा पर्युपास्ते। धर्मकथा यावत् उत्तर दिशा। दक्षिण-पूर्व में रतिकर पर्वत। शेष धम्मकहा जाव परिसा पडिगया॥ परिषद् प्रतिगता। पूर्ववत् यावत् नाम बताकर पर्युपासना की। भगवान् ने धर्म कहा यावत् परिषद् लौट गई। ३४. तए णं से सक्के देविंदे देवराया ततः सः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः श्रमणस्य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा धम्म सोचा निसम्म हट्टतुट्टे समणं भगवं निशम्य हृष्टतुष्टः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वंदइ नमसइ बंदित्ता नमंसित्ता महावीरं वन्दते नमस्यति, वंदित्वा एवं वयासी-कतिविहे ण भंते ! ओग्गहे. नमस्यित्वा एवमवादीत्-कतिविधः पण्णत्ते? भदन्त! अवग्रहः प्रज्ञप्तः? सक्का! पंचविहे ओग्गहे पण्णत्ते, तं। शक्र! पञ्चविधः अवग्रहः प्रज्ञप्तः, जहा-देविंदोग्गहे, रायोग्गहे, गाहावइ. तद्यथा-देवेन्द्रावग्रहः, राजावग्रहः, ओग्गहे, सागारियओग्गहे, साहम्मि- गाथापत्यवग्रहः, सागारिकावग्रहः, ओग्गहे। साधर्मिकावग्रहः। जे इमे भंते! अज्जत्ताए समणा निग्गथा ये इमे भदन्त! आर्यतया श्रमणाः विहरंति एएसि णं ओग्गहं निर्ग्रन्थाः विहरन्ति एतेभ्यः अवग्रहम् अणुजाणामीति कट्ट समणं भगवं अनुजानामि इति कृत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा तमेव दिव्वं जाणविमाणं गृहति, दहित्ता नमस्यित्वा तदेव दिव्यं यानविमानम् १. उत्तर. १६/१५॥ ३४. देवराज देवेन्द्र शक्र श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर, हृष्ट तुष्ट हो गया। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते ! अवग्रह कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? शक्र! अवग्रह पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेदेवेन्द्र अवग्रह, राज-अवग्रह,गृहपति-अवग्रह, सागारिक-अवग्रह, साधर्मिक-अवग्रह। भंते! जो ये श्रमण निग्रंथ आर्य रूप में विहरण करते हैं, उन्हें अवग्रह की अनुज्ञा देता हूं। यह कहकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर उसी दिव्य यान-विमान पर चढा, चढकर जिस Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ भगवई श. १६ : उ. २ : सू. ३५-३६ जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। आरोहति, आरुह्य यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूतः तस्यामेव दिशि प्रतिगतः। भाष्य १. सूत्र ३३-३४ इस आलापक में भगवान महावीर के जीवन का एक विशिष्ट प्रसंग है। एक बार सौधर्म स्वर्ग के अधिपति देवेन्द्र शक्र भगवान् महावीर के पास आए और अवग्रह के विषय में जिज्ञासा की। भगवान् ने पांच प्रकार के अवग्रह बतलाए। उस समय सौधर्मेन्द्र शक्र ने कहा-मैं आर्य रूप में विद्यमान श्रमण निग्रंथों को अवग्रह की अनुज्ञा करता हूं। अवग्रह के अनेक अर्थ हैं-आश्रय, आवास, पात्र, अपने अधिकार की वस्तु के उपभोग की आज्ञा आदि। दक्षिण भरत पर सौधर्मेन्द्र शक्र का अधिकार है। उसने अपनी अधिकार-भूमि का उपयोग करने की अनुज्ञा दी। सक्क-संबंधि-वागरण-पदं शक्र-सम्बन्धि-व्याकरण-पदम् ३५. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भंगवं भदन्त इति! भगवान् गौतमः श्रमणं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता । भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, एवं वयासी-जण्णं भंते ! सक्के देविंदे वंदित्वा नमस्यित्वा एवमावादीत्-यत् देवराया तुब्भे एवं वदइ, सच्चे णं भदन्त! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः युष्मान् एसमझे ? एवं वदति, सत्यः एषः अर्थः? हंता सच्चे॥ हन्त सत्यः। शक्र संबन्धी व्याकरण पद ३५. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र ने आपसे जो कहा, क्या वह अर्थ सत्य है? हां, सत्य है। ३६. सक्के णं भंते! देविंद देवराया किं सम्मावादी ? मिच्छावादी ? गोयमा! सम्मावादी, नो मिच्छावादी॥ शक्रः भदन्त! देवेन्द्रः देवराजः किं सम्यगवादी? मिथ्यावादी? गौतम! सम्यगवादी, नो मिथ्यावादी। ३६. भंते ! देवराज देवेन्द्र शक्र क्या सम्यगवादी है? मिथ्यावादी है? गौतम! सम्यगवादी है. मिथ्यावादी नहीं है। ३७. सक्के णं भंते! देविंदे देवराया किं सचं भासं भासति ? मोसं भासं भासति? सच्चामोसं भासं भासति? असच्चामोसं भासं भासति? गोयमा! सचं पि भासं भासति जाव असचामोसं पि भासं भासति॥ ३७. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र क्या सत्य भाषा बोलता है? मृषा भाषा बोलता है? सत्यामृषा भाषा बोलता है? असत्यामृषा भाषा बोलता शक्रः भदन्त! देवेन्द्रः देवराजः किं सत्यां भाषां भाषते? मृषां भाषां भाषते? सत्यामृषां भाषां भाषते? असत्यामृषां भाषां भाषते? गौतम! सत्याम् अपि भाषां भाषते यावत् असत्यामृषां अपि भाषां भाषते। गौतम! सत्य भाषा भी बोलता है यावत् असत्यामृषा भाषा भी बोलता है। ३५. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र क्या सावद्य भाषा बोलता है? अनवद्य भाषा बोलता है? ३८. सक्के णं भंते! देविंदे देवराया किं सावज भासं भासति? अणवज्जं भासं भासति? गोयमा! सावज्ज पि भासं भासति, अणवज्जं पि भासं भासति॥ शक्रः भदन्त! देवेन्द्रः देवराजः किं सावद्यां भाषां भाषते? अनवद्यां भाषां भाषते? गौतम! सावद्याम् अपि भाषां भाषते, अनवद्याम् अपि भाषां भाषते। गौतम ! सावध भाषा भी बोलता है, अनवद्य भाषा भी बोलता है। ३६. से केणट्टेणं भंते! एवं बुचइ-सक्के तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-शक्रः देविंद देवराया सावपि भासं भासति, देवेन्द्रः देवराजः सावद्याम् अपि भाषां अणवज्ज पि भासं भासति? भाषते, अनवद्याम् अपि भाषां भाषते? गोयमा! जाहे णं सक्के देविंद देवराया गौतम! यदा शक्र: देवेन्द्रः देवराजः सुहुमकाय अणिज्जूहित्ता णं भासं __सूक्ष्मकायम् अनि!ह्य भाषां भाषते तदा भासति ताहे णं सक्के देविंद देवराया शक्र: देवेन्द्रः देवराजः सावद्यां भाषां सावज्जं भासं भासति, जाहे णं सक्के भाषते, यदा शक्र: देवेन्द्रः देवराजः देविंद देवराया सुहमकायं निज्जूहित्ता णं सूक्ष्मकायम् नि!ह्य भाषां भाषते तदा ३६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-देवराज देवेन्द्र शक्र सावध भाषा भी बोलता है, अनवद्य भाषा भी बोलता है? गौतम! जब देवराज देवेन्द्र शक्र सूक्ष्मकाय का नि!हण किए बिना बोलता है, तब देवराज देवेन्द्र शक्र सावध भाषा बोलता है। जय देवराज देवेन्द्र शक्र सूक्ष्मकाय का नि!हण कर बोलता है, तब देवराज देवेन्द्र Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई भासं भासति ताहे णं सक्के देविंदे देवराया अणवज्जं भासं भासति । से तेण ेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - सक्के देविंदे देवराया सावज्जं पि भासं भासति, अणवज्जं पि भासं भासति ॥ ४०. सक्के णं भंते! देविंदे देवराया किं भवसिद्धीए ? अभवसिद्धीए ? सम्मदिट्ठीए ? मिच्छदिट्ठीए ? परित्तसंसारिए ? अणंतसंसारिए ? सुलभबोहिए ? दुल्लभबोहिए ? आराहए ? विराहए ? चरिमे ? अचरिमे ? गोयमा ! सक्के णं देविंदे देवराया भवसिद्धीए, नो अभवसिद्धिए । सम्मदिट्ठीए, नो मिच्छदिट्ठीए । परित्तसंसारिए, नो अणंतसंसारिए । सुलभबोहिए, नो दुल्लभबोहिए। आराहए, नो विराहए। चरिमे, नो अचरिमे । एवं जहा मोउद्देसए सणकुमारे जाव नो अचरिमे ॥ ३५५ शक्रः देवेन्द्रः देवराजः अनवद्यां भाषां भाषते । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - शक्रः देवेन्द्रः देवराजः सावद्याम् अपि भाषां भाषते, अनवद्याम् अपि भाषां भाषते । शक्रः भदन्त ! देवेन्द्रः देवराजः किं भवसिद्धिकः ? अभवसिद्धिकः ? सम्यग् दृष्टिकः ? मिथ्यादृष्टिकः ? परीतसंसारिकः ? अनन्तसंसारिकः ? सुलभबोधिकः ? दुर्लभबोधिकः ? आराधकः ? विराधकः ? चरमः ? अचरमः ? गौतम ! शक्र: देवेन्द्रः देवराजः भवसिद्धिकः, नो अभवसिद्धिकः । सम्यग्दृष्टिक: नो मिथ्यादृष्टिकः । परीतसंसारिकः, नो अपरीतसंसारिकः । सुलभबोधिकः, नो दुर्लभबोधिकः । आराधकः, नो विराधकः । चरमः, नो अचरमः । एवं यथा मोकोद्देशके सनत्कुमारः यावत् नो अचरमः । १. सूत्र ३५-४० देवेन्द्र शक्र ने अवग्रह के बारे में जो कहा, उसके सत्यापन के लिए गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा और भगवान् ने गौतम के वक्तव्य का अनुमोदन किया। इसके पश्चात् गौतम ने इन्द्र के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। उनका उत्तर मूलपाठ में स्पष्ट है। सावद्य और अनवद्य भाषा के विषय में विमर्श आवश्यक है। सावद्य और निरवद्य के सूत्र का पारंपरिक अर्थ इस प्रकार हैवृत्तिकार ने सावद्य का अर्थ गर्हित कर्म किया है।' चूर्णिकार ने सूक्ष्मकाय का अर्थ हस्त आदि वस्तु किया है।' वृत्तिकार ने अपनी वृत्ति में इसका उल्लेख किया है।' वृत्ति में मतांतर का उल्लेख है। उसके अनुसार सुहुमकाय का अर्थ है वस्त्र । १. भ. वृ. १६ / ३६, सावज्जं ति सहावद्येन-गर्हितकर्म्मणेति सायद्या तां । २. भ. चूर्णि पृष्ठ ४० सूक्ष्मकायमपोह्य हस्तादि मुखे दत्त्वा जीवसंरक्षणार्थं सुहुम भा साधूणं मुक्कं । ३. भ. वृ. १६ / ३६ सूक्ष्मकायं हस्तादिकं वस्त्विति वृद्धाः । ४. भ. वृ. १६/३९ अन्ये त्वाहुः - सुहुमकायं ति वस्त्रम् । ५. भ. वृ. १६/३१ अणिज्जुहित्तत्ति 'अपोह्य' अदत्त्वा । ६. भ. वृ. १६ / ३६ हस्ताद्यावृतमुखस्य हि भाषमाणस्य जीवसंरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति, अन्या तु सावद्येति । ७. भ. जो. ढाल ३५० गाथा ६६-७० तथा वार्तिक भाष्य श. १६ : उ. २ : सू. ४० शक्र निरवद्य भाषा बोलता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- देवराज देवेन्द्र शक्र सावद्य भाषा भी बोलता है, अनवद्य भाषा भी बोलता है। ४०. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र क्या भवसिद्धिक है ? अभवसिद्धिक है? सम्यक दृष्टि है? मिथ्या दृष्टि है ? परित संसारी है ? अनंत संसारी है? सुलभ बोधि है ? दुर्लभ बोधि है ? आराधक है ? विराधक है? चरम है? अचरम है? गौतम ! देवराज देवेन्द्र शक्र भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं है। सम्यग् दृष्टि है, मिथ्या दृष्टि नहीं है। परित संसारी है, अनन्त संसारी नहीं है। सुलभ बोधि है, दुर्लभ बोधि नहीं है। आराधक है, विराधक नहीं है। चरम है, अचरम नहीं है। इस प्रकार मोक उद्देशक (भ. ३/७२-७३) में सनत्कुमार की भांति वक्तव्यता यावत् अचरम नहीं है। अज्जूहित्ता का अर्थ अपोह्य-अदत्त्वा दिए बिना किया है। * इसका तात्पर्यार्थ यह है-शक्र मुंह पर हाथ, वस्त्र आदि दिए बिना बोलता है तब उसकी भाषा सावद्य होती है। जब देवराज शक्र मुंह पर सूक्ष्मकाय - हाथ, वस्त्र आदि लगाकर बोलता है तब बोलते समय जीव संरक्षण होता है, इसलिए उसकी भाषा अनवद्य है। चार्य वृत्ति के मत का समर्थन किया है, अपने वार्तिक में जीव का अर्थ वायुका का जीव किया है। उक्त व्याख्या के विमर्श बिन्दु १. अवद्य शब्द के अनेक अर्थ होते हैं-गर्हित, निंदित, पाप, प्रायश्चित्त योग्य, अस्वीकार करने योग्य, पाप युक्त, नीच और अप्रशंसनीय । प्रस्तुत प्रकरण में अवद्य का अर्थ गर्हित किया जाए अथवा पाप ? सूक्ष्मकाय कहाय, हस्तादिक वस्तु प्रतै। वृद्ध बंदे इम वाय, अन्य आचार्य वस्त्र कहे ॥ हस्तादिक आवृत्त, बोलंतां जंतू-रक्षा | निरवद वचन उचित्त, अन्य बच सावज्ज इम वृत्तौ ॥ वात्तिक- 'वृत्ति' में जीव नीं रक्षा कही ते वायुकाय नां जीव जाण्या देवलोक में विकलेन्द्री नां प्रज्याप्ता नां स्थानक नथी । अनैं मनुष्य लोक में इंद्रादिक आवै तेहनां मुख नैं विषे माखी माछरादिक प्रवेश नो उपद्रव न संभव, तै भणी ए वायुकाय नीं रक्षा जाणवी । ८. आप्टे । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. २ : सू. ४१, ४२ २. अणिज्जूहित्ता का अर्थ-दूर किए बिना तथा णिज्जूहित्ता का अर्थ 'दूर कर' होता है। पाइय शब्द महण्णव में निर्यूह - निर् + यूह धातु का अर्थ परित्याग करना, रचना, निर्माण करना, बाहर निकालना किया है। निर्यूढ का अर्थ निस्सारित, निष्कासित, अमनोज्ञ, उद्धृत, ग्रंथांतर से अवतारित और रहित किया है। ' शाब्दिक मीमांसा करने पर चूर्णिकार और वृत्तिकार द्वारा किया हुआ अर्थ अगम्य बन रहा है। 'सूक्ष्मकाय का निर्यूहण किए बिना इसका अर्थ है मुंह पर चेय- अचेयकड कम्म- पदं ४१. जीवाणं भंते! किं चेयकडा कम्मा कज्जति ? अचेयकडा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! कज्जंति, कज्जति ॥ जीवाणं चेयकडा कम्मा नो अचेयकडा कम्मा ४२. से केणद्वेणं भंते! एवं वुचइ - जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! दुट्ठाणेसु, दुसेज्जासु, दुन्निसीहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! आयंके से बहाए होति, संकप्पे से बहाए होति, मरणंते से बहाए होति तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो ! से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुचड़ - जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति । एवं नेरइयाण वि । एवं जाव वेमाणियाणं । ३५६ भगवई हाथ, वस्त्र आदि दिए बिना शक्र बोलता है, वह उसकी सावद्य भाषा है । जब देवेन्द्र शक्र सूक्ष्मकाय का निर्यूहण कर अर्थात् मुंह पर हाथ, वस्त्र आदि देकर बोलता है, तब वह अनवद्य भाषा है। यह व्याख्या शब्द मीमांसा के आधार पर विचारणीय है। वृत्तिकार ने णिज्जूहित्ता का अर्थ नहीं किया है। केवल अणिज्जूहित्ता का अर्थ किया है। अणिज्जूहित्ता णिज्जूहित्ता का विपर्यय है। हमें सर्वप्रथम णिज्जूहित्ता के अर्थ पर विचार करना चाहिए। भवसिद्धिक आदि के लिए द्रष्टव्य भगवई ३ / ७२-७३ का भाष्य । चेतस्-अचेतः कृत-कर्म-पदम् जीवानां भदन्त ! किं चेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते ? अचेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते ? १. (क) शब्द कल्पद्रुम में निर्यूह शब्द के अर्थ इस प्रकार हैं- शेखर, आपीड़म्, द्वारम्, निर्यासः, क्वाथरस: नागदंतः । (ख) आप्टे संस्कृत हिन्दी कोश में निर्यूह शब्द की व्युत्पत्ति 'उह' शब्द के गौतम ! जीवानां चेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते, नो अचेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते । तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेजीवानां चेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते, अतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते ? गौतम! जीवानाम् आहारोपचिताः पुद्गलाः, 'बोंदि'चिताः पुद्गलाः, कलेवरचिताः पुद्गलाः तथा तथा ते पुद्गलाः परिणमन्ति न सन्ति अचेतस्कृतानि कर्माणि श्रमणायुष्मन् ! दुःस्थानेषु, दुःशय्यासु, दुर्निषीधिकासु तथा तथा ते पुद्गलाः परिणमन्ति, न सन्ति अचेतः कृतानि कर्माणि श्रमणायुष्मन् ! आतङ्कः तस्य वधाय भवति, संकल्पः तस्य वधाय भवति, मरणान्तः तस्य वधाय भवति, तथा तथा ते पुद्गलाः परिणमन्ति, न सन्ति अचेतः कृतानि कर्माणि श्रमणायुष्मन् ! तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-जीवानां चेतःकृतानि कर्माणि क्रियन्ते, नो अचेतः कृतानि कर्माणि क्रियन्ते । एवं नैरयिकाणाम् अपि । एवं यावत् वैमानिकानाम् । चैतन्य - अचैतन्य कृत कर्म पद ४१. भंते! जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं? अचैतन्य के द्वारा कृत हैं? गौतम! जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं। ४२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं? गौतम! जैसे पुद्गल जीवों के आहार के रूप में उपचित हैं, शरीर के रूप में उपचित हैं, कलेवर के रूप में उपचित हैं, वे उस उस रूप में परिणत होते हैं। आयुष्मन् श्रमण ! वैसे ही कर्म - पुद्गल कर्म रूप में परिणत होते हैं। इसलिए कर्म अचेतन के द्वारा कृत नहीं हैं। जैसे पुद्गल दुःस्थान, दुःशय्या और दुर्निषद्या में उस उस रूप में (अशुभ रूप में) परिणत होते हैं, आयुष्मन् श्रमण ! वैसे ही कर्म पुद्गल भी कर्म रूप में परिणत होते हैं, इसलिए कर्म अचैतन्य कृत नहीं हैं। जैसे आतंक वध के लिए होता है। संकल्प वध के लिए होता है। मरणांत वध के लिए होता है। आयुष्मन् श्रमण ! वैसे ही कर्म पुद्गल कर्म रूप में परिणत होते हैं इसलिए कर्म अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- जीवों के कर्म चैतन्य के द्वारा कृत हैं, अचैतन्य के द्वारा कृत नहीं हैं। इसी प्रकार नैरयिकों की वक्तव्यता । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता । आधार पर की गई है - निर्+उह+क (पृषोदरादित्वात् साधुः) कंगूरा, मीनार, बुर्ज या कलश, शिरोभूषण, चूडामणि, मुकुट, नागदंत, दीवार में लगी खूंटी, दरवाजा, सत्त्व, काढा । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई १. सूत्र ४१-४२ कर्म का कर्ता कौन? इस प्रश्न पर अनेक विचारकों ने चिन्तन किया है। सांख्य दर्शन के अनुसार कर्म का कर्ता प्रकृति है। वही बद्ध और मुक्त होती है। पुरुष बद्ध और मुक्त नहीं होता।' प्रस्तुत सूत्र में सांख्य दर्शन के मत को अस्वीकार कर जैन दर्शन के अभिमत की स्थापना की है-कर्म चैतन्य कृत है। प्रस्तुत प्रकरण में चेय का प्रयोग चैतन्य के अर्थ में हुआ है। समयसार में चेदा का प्रयोग मिलता है। इसका अर्थ आत्मा किया है - चेदा - आत्मा । अमृतचंद्र ने चेदा का अर्थ चेतयिता- आत्मा किया है। कर्तृत्व के प्रश्न पर आचार्य कुन्दकुन्द ने दोनों नयों-निश्चय नय और व्यवहार नय से समीक्षा की है। निश्चय नय के आधार पर उनकी वक्तव्यता यह है-आत्मा अपने भावों की कर्ता है, पुद्गल की कर्ता नहीं है। कर्म पौद्गलिक हैं इसलिए आत्मा कर्म की कर्ता नहीं है। ' व्यवहार नय के अनुसार आत्मा कर्म-पुद्गल की कर्त्ता है। प्रस्तुत प्रकरण में नय की विवक्षा किए बिना सामान्य सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कर्म चैतन्य द्वारा कृत है, इसके समर्थन ४३. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरणइ ॥ १. समयसार गाथा ३३४-३३६ । ३. समयसार गाथा ६० : बहारस्स दु आदा पुद्गलकम्मं करेदि णेयविहं । तं चैव य वेदयदे, पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥ ३५७ भाष्य में कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत किए गए हैं १. जीवों के पुद्गल आहार रूप में, शरीर के रूप में, कलेवर (शरीर के अंगों ) के रूप में उपचित होते हैं। जैसे-आहार, शरीर और कलेवर चैतन्य द्वारा कृत हैं, वैसे ही कर्म चैतन्य द्वारा कृत हैं। जैसे आहार शरीर के रूप में परिणत होता है वैसे ही कर्म प्रायोग्य पुद्गल कर्म के रूप में परिणत होते हैं। जैसे आहार चैतन्य कृत है, वैसे ही कर्म चैतन्य कृत हैं। २. दूषित स्थान, शय्या और निषद्या में असातवेदनीय के कर्म पुद्गल अशुभ रूप में परिणत होते हैं। दुःख का संवेदन जीव को होता है। इससे सिद्ध होता है कि कर्म चैतन्य कृत हैं। यदि कर्म पुद्गल चैतन्य के द्वारा अकृत हों तो वे जीव को दुःखी नहीं बना सकते। ३. आतंक, संकल्प और मरणान्त कष्ट जीव के वध का हेतु बनता है। आतंक, संकल्प और मरणान्त कष्ट के जनक असातवेदनीय कर्म के पुद्गल उस रूप में परिणत होते हैं और जीव उनका संवेदन करता है। इससे भी कर्म का चैतन्य कर्तृत्व सिद्ध होता है।" वृत्तिकार ने चय की वैकल्पिक व्याख्या संचय के रूप में की है। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावत् विहरति । श. १६ : उ. २ : सू. ४३ २. समयसार गाथा ८६ : ४३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। ऐसा कह कर यावत् विहरण करने लगे। णिच्छयणयस्स एवं आदा, अप्पाणमेव हि करेदि । वेदयदि पुणो तं चैव जाण अत्ता दु अत्ताणं ॥ ४. भ. वृ. १६/४१-४२ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल ४५. जीवे णं भंते! नाणावरणिज्जं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? कम्म- पदं कर्म-पदम् ४४. रायगिहे जाव एवं वयासी- कति णं राजगृहं यावत् एवमवादीत् कति भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? भदन्त ! कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः । गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, गौतम ! अष्ट कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, तं जहा - नाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं । तद्यथा - ज्ञानावरणीयं यावत् एवं जाव वेमाणियाणं ॥ आन्तरायिकम्, एवं यावत् वैमानिकानाम् । गोयमा ! अट्ट कम्मप्पगडीओ - एवं जहा पण्णवणाए वेदावेउद्देसओ सो चेव निरवसेसो भाणियव्वो । वेदाबंधो वि तहेव, बंधावेदो वि तहेव, बंधाबंधो वि तहेव भाणियव्वो जाव वेमाणियाणं ति ॥ ४६. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरः ॥ ४७. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णदा कदायि रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमड़, पडिनिक्खमित्ता बहिय जणवयविहारं विहरइ ॥ अंसिया छेदणे वेज्जरस किरिया - पदं ४८. तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नाम नगरे होत्था - वण्णओ । तस्स णं उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसिभाए, एत्थ णं एगजंबुए नामं चेइए होत्था - वण्णओ । तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णदा कदायि तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक संस्कृत छाया जीवः भदन्त ! ज्ञानावरणीयं कर्म वेदयन् कति कर्मप्रकृतीः वेदयति ? गौतम ! अष्ट कर्मप्रकृती:- एवं यथा प्रज्ञापनायां वेदावेदोद्देशकः सः चैव निरवशेषः भणितव्यः । वेदाबन्ध अपि तथैव, बन्धावेदः अपि तथैव, बन्धाबन्धः अपि तथैव भणितव्यः यावत् वैमानिकानाम् अपि । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावत् विहरति । ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा कदाचित् राजगृहात् नगरात् गुणशीलकात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिः जनपदविहारं विहरति । अर्शच्छेदने वैद्यस्य क्रिया-पदं तस्मिन् काले तस्मिन् समये उल्लुकातीरं नाम नगरम् आसीत्-वर्णकः । तस्य उल्लुकातीरस्य नगरस्य बहिः उत्तरपौरस्त्यः दिग्भागः, अत्र एक जम्बुकं नाम चैत्यम् आसीत् - वर्णकः । ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा कदाचित् हिन्दी अनुवाद कर्म पद ४४. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा- भंते! कर्म प्रकृतियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम! कर्म प्रकृतियां आठ प्रज्ञप्त हैं जैसेज्ञानावरणीय यावत् आंतरायिक। इस प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता । ४५. भंते! जीव ज्ञानावरणीय कर्म का वेदन करता हुआ कितनी कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है? गौतम! आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है - इस प्रकार जैसे प्रज्ञापना का वेदावेदक उद्देशक (पण्णवणा पद २७) निरवशेष वक्तव्य है । वेद-बंध पद (पण्णवणा २८) भी उसी प्रकार बंध-वेद पद (पण्णवणा २५) भी उसी प्रकार बंधा-बंध पद (पण्णवणा २४) भी उसी प्रकार वक्तव्य है, यावत् वैमानिकों की वक्तव्यता । ४६. भंते! वह ऐसा ही है, भंते वह ऐसा ही है, यह कहकर यावत् विहरण करने लगे। ४७. श्रमण भगवान् महावीर ने किसी दिन राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर बाहर जनपद विहार करने लगे। अर्श छेदन में वैद्य का क्रिया पद ४८. उस काल उस समय उल्लूकातीर नामक नगर था - वर्णक । उस उल्लूकातीर नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशि भाग, वहां एकजम्बूक नाम का चैत्य था - वर्णक । श्रमण भगवान् महावीर किसी दिन क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३५६ श. १६ : उ. ३ : सू. ४६ पुन्वाणुपुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं दु. पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं दवन् इज्ज-माणे सुहंसुहेणं विहरमाणे एगजंबुए सुखंसुखेन विहरन् एकजम्बुके समोसढे जाव परिसा पडिगया॥ समवसृतः यावत् परिषत् प्रतिगता। करते हुए एकजंबूक चैत्य में समवसृत हुए यावत् परिषद् लौट गई। ४६. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त इति! भगवान् गौतमः भगवन्तं ४६. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण महावीरं वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, एवं वयासी-अणगारस्स णं भंते! नमस्यित्वा एवमवादीत्-अनगारस्य वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भंते! भावियपणो छटुंछट्टेणं अणिरिश्वत्तेणं भदन्त! भावितात्मनः षष्ठषष्ठेन निरंतर बेले बेले तपःकर्म के द्वारा आतापन तबोकम्मेणं उ8 बाहाओ पगिज्झिय- अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा उर्ध्वं बाहाः भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखे आतापन- सामने आतापना लेते हुए भावितात्मा अनगार आयावेमाणस्स तस्स णं पुरथिमेणं भूम्याम् आतापयतः तस्य पौरस्त्येन के लिए दिन के पूर्वार्द्ध में हाथ, पैर, भुजा अवढे दिवसं नो कप्पति हत्थं वा पादं वा अपार्धं दिवसं नो कल्पते हस्तं वा पादं और साथल का संकोचन अथवा फैलाव कल्प बाहं वा ऊरं आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा बाहुं वा उरुं वा आकुञ्चयितुं वा की सीमा में नहीं है-विहित नहीं है। दिन के वा, पचत्थिमेणं से अवढे दिवसं कप्पति प्रसारयितुं वा, पाश्चात्येन तस्य अपार्धं उत्तरार्ध में हाथ, पैर, भुजा और साथल का हत्थं वा पादं वा बाहं वा ऊळं वा दिवसं कल्पते हस्तं वा पादं वा बाहुं वा संकुचन अथवा फैलाव विहित है। उस आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा। तस्स णं उरुं वा आकुञ्चयितुं वा प्रसारयितुं वा। भावितात्मा अनगार के अर्श-मस्सा लटक रहा अंसियाओ लंबंति। तं च वेज्जे तस्य अर्शिकाः लम्बन्ते। तं वैद्यः । है। वैद्य ने उसे देखा, पैर सिकोड़ कर घुटनों अदक्खु। ईसिं पाडेति, पाडेत्ता अद्राक्षीत् ईषत् पातयति, पातयित्वा को ऊंचा कर भूमि पर लिटाया, लिटा कर अंसियाओ छिंदेज्जा। से नणं भंते! जे अर्शिकाः छिन्द्यात्। यः छिनत्ति तस्य अर्श-मस्से का छेदन किया। भंते! जो छेदन छिंदति तस्स किरिया कज्जति, जस्स क्रिया क्रियते, यस्य छिद्यते न तस्य करता है,उसके क्रिया होती है? जिसका छिज्जति नो तस्स किरिया कज्जति, क्रिया क्रियते, नान्यत्र एकेन । छेदन करता है, उसके एक धर्मान्तराय के णण्णत्थेगेणं धम्मतराएण? धर्मान्तरायिकेन? सिवाय अतिरिक्त क्रिया नहीं होती? हां, गौतम! जो छेदन करता है, उसके क्रिया हंता गोयमा! जे छिंदति तस्स किरिया हन्त गौतम! यः छिनत्ति तस्य क्रिया होती है। जिसका छेदन करता है, उसके एक कज्जति, जस्स छिज्जति नो तस्स क्रियते, यस्य छिद्यते नो तस्य क्रिया धर्मान्तराय के सिवाय क्रिया नहीं होती। किरिया कज्जति, णण्णत्थेगेणं क्रियते, नान्यत्र एकेन धर्मान्तरायिकेन। ५०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। धम्मंतराएणं॥ भाष्य १. सूत्र ४८-४६ यदि वैद्य धर्म बुद्धि से क्रिया करता है तो वह शुभ है। यदि वह लोभ प्रस्तुत आलापक का संबंध मुनि की शल्य क्रिया से है। शल्य आदि की वृत्ति से करता है तो वह अशुभ है। क्रिया से पूर्व भावितात्मा मुनि की कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन है। वह मुनि के क्रिया नहीं होती। उसके केवल धर्मान्तराय होता है। मुनि कायोत्सर्ग की मुद्रा में आतापन भूमि में खड़ा है। उसके मस्से वृत्तिकार ने धर्मान्तराय के दो अर्थ किए हैंलटक रहे हैं। किसी वैद्य ने देखा। उस मुनि को भूमि पर लिटाया और १. शुभध्यान का विच्छेद। उसकी शल्य क्रिया कर डाली। इसमें मुनि और वैद्य दोनों का संबंध है। २. अर्श-छेद की क्रिया का अनुमोदन।' इस विषय में सूत्र का वक्तव्य है-वैद्य क्रिया का भागी है, मुनि जयाचार्य का मत वृत्तिकार की व्याख्या से भिन्न है। उन्होंने क्रिया का भागी नहीं है, क्रिया का अर्थ है प्रवृत्ति। सूत्र में क्रिया के शुभ छेद-सूत्रों के संदर्भ में इस सूत्र की समीक्षा की है। निशीथ का उल्लेख और अशुभ होने का उल्लेख नहीं है। है-कोई मुनि के अर्श का छेदन करता है और मुनि उसका अनुमोदन वृत्तिकार ने वैद्य के द्वारा होने वाली क्रिया के दो रूप बतलाए हैं। करता है तो चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। १. भ. वृ. १६/४६-वैद्यस्य क्रिया व्यापाररूपा सा च शुभा धर्मबुद्ध्या छिन्दानस्य २. (क) निशीथ ३/३४ जे भिक्खू अप्पणो काय......। अंसियंसि वा......। लोभादिना त्वशुभा। क्रियते-भवति जस्स छिज्जईत्ति यस्य साधोरासि अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं.... अच्छिंदंतं या विच्छिंदतं वा सातिज्जति। छिद्यन्ते नो तस्य क्रिया भवति निर्व्यापारत्वात, किं सर्वथा क्रियाया अभावः? (ख) भ. जो. ढा. ३५१. गाथा ५७-५८ मुनिनी हरस छेदंत, लिहनै अनुमोदै मुनि। नैवमत आह-नन्नत्थेत्यादि, नेति योऽयं निषेधः, सोन्यत्रैकस्माद्धर्मान्तरायाद, दंड चउमासी हुँत, नशीत उद्देशे तीसरे॥ धर्मान्तरायलक्षणक्रिया तस्यापि भवतीति भावः । धर्मान्तरायश्च शुभध्यान अनुमोद्याई पाप, तो गृहि छेया पुण्य किम? विच्छेदादर्शश्छेदनानुमोदनाद्वेति।' जिन आज्ञा चित्त स्थाप, आज्ञा विण नहिं धर्म पुण्य॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. ३ : सू. ५० ३६० जयाचार्य ने आचारचूला को उद्धृत कर बतलाया है-मुनि गृहस्थ द्वारा की जाने वाली शल्य चिकित्सा की मन से भी वाञ्छा नहीं करता। ५०. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ १. (क) आ. चू. १३/१४/२६-२७ (ख) भ. जो. ढा. ३५१ गाथा १०८ - १०६. मुनि तनु व्रणज थाय, गृहिछेदै शस्त्रे करी । मुनि मन करि वांछे नांहि, न करावै वच काय करि ॥ व्रण छटी न ताहि, राधि रुधिर कादै गृही । मुनि मन कर बांधै नांहि, न करावे बच काय करि ॥ भगवई आगम के उक्त पाठों के संदर्भ में वृत्तिकार द्वारा व्याख्यात शुभ क्रिया और मुनि द्वारा अनुमोदन - ये दोनों वाक्य विचारणीय हैं। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक मूल हिन्दी अनुवाद संस्कृत छाया नेरइयाणं निज्जरा-पदं नैरयिकाणां निर्जरा-पदम् ५१. रायगिहे जाव एवं वयासी-जावतियं राजगहं यावत एवमवादीत-यावत्कं णं भंते! अन्नगिलायए समणे निग्गंथे । भदन्त! अन्नग्लायकः श्रमणः निर्ग्रन्थः कम्मं निज्जरेति एवतिय कम्मं नरएसु कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरकेषु नेरइया वासेण वा वासेहिं वा वाससएण नैरयिकाः वर्षेण वा वर्षेः वा वर्षशतेन वा वा खवयंति? क्षपयन्ति? नो इणढे समढे। नो एषः अर्थः समर्थः। जावतियं णं भंते! चउत्थभत्तिए समणे निग्गंथे कम्म निज्जरेति एवतियं कम्म निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरएसु नेरइया वाससएण वा वाससएहिं नरकेषु नैरयिकाः वर्षशतेन वा वर्षशतैः वा वाससहस्सेण वा खवयंति? वा वर्षसहस्रेण वा क्षपयन्ति? नो इणढे समझे। नो एषः अर्थः समर्थः। जावतियं णं भंते! छट्ठभत्तिए समणे यावत्कं भदन्त! षष्ठभक्तिः श्रमणः निम्गथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरएसु नेरइया वाससहस्सेण वा वास- नरकेषु नैरयिकाः वर्षसहस्रेण वा सहस्सेहिं वा वाससयसहस्सेण वा वर्षसहस्त्रैः वा वर्षशतसहस्रेण वा खवयंति? क्षपयन्ति? नो इणढे समझे। नो एषः अर्थः समर्थः। जावतियं णं भंते! अट्ठमभत्तिए समणे यावत्कं भदन्त! अष्टमभक्तिकः श्रमणः निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्म निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरएसु नेरइया वाससयसहस्सेण वा नरकेषु नैरयिकाः वर्षशतसहस्रेण वा वाससयसहस्सेहिं वा वासकोडीए वा वर्षशतसहौः वा वर्षकोट्या वा खवयंति? क्षपयन्ति? नो इणढे समझे। नो एषः अर्थः समर्थः। जावतियं णं भंते ! दसमभत्तिए समणे यावत्कं भदन्त! दशमभक्तिकः श्रमणः निग्गंथे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं निर्ग्रन्थः कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरएसु नेरइया वासकोडीए वा वास- नरकेषु नैरयिकाः वर्षकोट्या वा कोडीहिं वा वासकोडाकोडीए वा वर्षकोटीभिः वा वर्षकोटाकोट्या वा खवयंति? क्षपयन्ति? नो इणढे समढे॥ नो एषः अर्थः समर्थः। नैरयिक का निर्जरा पद ५१. राजगह नगर यावत गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! रूक्षभोजी श्रमण-निग्रंथ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरकों में नैरयिक एक वर्ष, अनेक वर्ष अथवा सौ वर्षों में इतने कर्मों का क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। भंते! चतुर्थ भक्त (उपवास) करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का सौ वर्ष, सैकड़ों वर्ष अथवा हजार वर्ष में क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। भंते ! षष्ठ भक्त (दो दिन का उपवास) करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का हजार वर्ष में, हजारों वर्ष में अथवा लाख वर्ष में क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। भंते! अष्टम भक्त (तीन दिन का उपवास) करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का लाख वर्ष, लाखों वर्ष अथवा करोड़ वर्ष में क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। भंते! दसम भक्त (चार दिन का उपवास) करने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-क्या नरक में नैरयिक इतने कर्मों का करोड़ वर्ष, करोड़ों वर्ष अथवा कोटाकोटि वर्ष में क्षय करते हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। ५२. से केणटेणं भंते! एवं वुचइ-जावतियं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- अन्नगिलायए समणे निग्गंथे कम्मं यावत्कं अन्नग्लायक: श्रमणः निर्ग्रन्थः निज्जरेति एवतियं कम्म नरएसु नेरइया कर्म निर्जीर्यति एतावत् कर्म नरकेषु ५२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-रूक्षभोजी श्रमण-निर्ग्रन्थ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-नरक में नैरयिक इतने कर्मों Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. ४ : सू. ५२ ३६२ भगवई वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा नो नैरयिकाः वर्षेण वा वर्षेः वा वर्षशतेन वा खवयंति, जावतियं चउत्थभत्तिए-एवं तं नो क्षपयन्ति, यावत् चतुर्थभक्तिक:- चेव पुब्वभणियं उच्चारेयव्वं जाव एवं तत् चैव पूर्वभणितम् उच्चारयितव्यः वासकोडाकोडीए वा नो खवयंति? यावत् वर्षकोटाकोट्या वा नो क्षपयन्ति? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे जुण्णे गौतम! अथ यथानामकः कश्चित् जीर्णः जराजज्जरियदेहे सिढिलतयावलितरंग- जराजर्जरितदेहः शिथिलत्वचवलितरङ्गसंपिणद्धगत्ते पविरल-परिसडिय-दंतसेढी ___ सम्पिनर गात्रः-प्रविरल-परिशटितउण्हाभिहए तण्हाभिहए आउरे झुसिए दन्तश्रेणिः उष्णाभिहतः तृष्णाभिहतः । पिवासिए दुब्बले किलंते एग महं कोसंब- ___ आतुरः 'झुसिए' पिपासितः दुर्बलः गंडियं सुकं जडिलं गंठिल्लं चिक्कणं क्लान्तः एका महती कोशाम्रकण्डिका वाइद्ध अपत्तियं मुंडेण परसुणा शुष्कां जटिलां ग्रन्थिमतीं 'चिक्कणं' अक्कमेज्जा, तए णं से पुरिसे महंताई- व्याविद्धम् अपात्रिकाम् मुण्डेन परशुना महंताई सदाई करेइ, नो महंताई-महंताई अवक्राम्येत्, ततः सः पुरुषः महतः दलाई अवदालेइ, एवामेव गोयमा! महतः शब्दान् करोति, नो महतः महतः नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई, दलान् अवदलयति, एवमेव गौतम! चिक्कणीकयाई, सिलिट्ठीकयाई, नैरयिकाणां पापानि कर्माणि खिलीभताई भवंति। संपगाढं पि य णं ते गाढीकृतानि, 'चिक्कणी'कृतानि, वेदणं बेदेमाणा नो महानिज्जरा नो श्लिष्टीकृतानि, खिलीभूतानि भवन्ति। महापज्जवसाणा भवंति। सम्प्रगाढाम् अपि ते वेदनां वेदयन्तः नो महानिर्जराः नो महापर्यवसानाः भवन्ति । का एक वर्ष, अनेक वर्ष अथवा सौ वर्षों में क्षय नहीं करते, चतुर्थ भक्त करने वाला श्रमण-निग्रंथ जितने कर्मों की निर्जरा करता है-इस प्रकार पूर्व कथित उच्चारणीय है, यावत् कोटाकोटि वर्ष में क्षय नहीं करता। गौतम! जैसे कोई पुरुष वृद्ध है, उसका शरीर जरा से जर्जरित है, त्वचा के शिथिल होने से चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई हैं, दांतों की श्रेणी कहीं विरल हो गई है, कहीं दंत विहीन हो गई है। गर्मी से अभिहत, प्यास से अभिहत, आतुर, बुभुक्षित, पिपासित, दुर्बल और क्लांत है। वह पुरुष एक महान् कुसुंब वृक्ष की शुष्क, जटिल, गुंडीली, 'चिकनी', टेढ़ी, शाखा पर पत्ती-रहित कुंद फरसे से प्रहार करता है, तब वह पुरुष जोर जोर से शब्द करता है। किन्तु वह उस विशाल वृक्ष की शाखा के बड़े बड़े टुकड़े नहीं कर सकता। गौतम! इसी प्रकार नैरयिकों के कर्म गाढ़ किए हुए होते हैं, चिकने किए हुए होते हैं, संसृष्ट किए हुए होते हैं, और अलंध्य होते हैं। वे प्रगाढ वेदना का वेदन करते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं होते, महापर्यवसान वाले नहीं होते। जैसे कोई पुरुष अहरन को तेज शब्द, तेज घोष और निरन्तर तेज आघात के साथ हथौड़े से पीटता हुआ उस अहरन के स्थूल पुद्गलों का परिशाटन करने में समर्थ नहीं होता। गौतम! इसी प्रकार नैरयिकों के पाप कर्म गाढ़ रूप में किए हुए होते हैं, चिकने किए हुए होते हैं, संसृष्ट किए हुए होते हैं और अलंघ्य होते हैं। वे प्रगाढ़ वेदना का वेदन करते हुए भी महानिर्जरा वाले नहीं होते, महापर्यवसान वाले नहीं होते। से जहानामए केइ पुरिसे अहिकरणिं अथ यथानामकः कश्चित् अधिकरणीम् आउडेमाणे महया-महया सद्देणं, महया- आकुटन महता महता शब्देन, महता महया घोसेणं, महया-महया परंपरा- महता घोषेण, महता महता । घाएणं नो संचाएइ, तीसे अहिगरणीए परम्पराघातेन नो शक्नोति, तस्याः केइ अहाबायरे पोग्गले परिसाडित्तए, अधिकरण्याः काञ्चित् यथा बादरान् एवामेव गोयमा! नेरइयाणं पावाई पुद्गलान् परिशाटयितुम्, एवमेव कम्माइं गाढीकयाई, चिक्कणीकयाई, गौतम! नैरयिकाणां पापानि कर्माणि सिलिट्ठीकयाई खिलीभूताई भवंति। गाढीकृतानि, 'चिक्कणी' कृतानि, संपगाढं पि य णं ते वेदणं वेदेमाणा नो श्लिष्टीकृतानि, खिलीभूतानि भवन्ति। महानिज्जरा नो महापज्जवसाणा भवंति।। सम्प्रगाढाम् अपि च ते वेदनां वेदयन्तः नो महानिर्जराः नो महापर्यवसानाः भवन्ति। से जहानामए केइ परिसे तरुणे बलवं अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः जाव मेहावी निउणसिप्पोवगए एगं महं बलवान् यावत् मेधावी निपुणशिल्पोपगतः सामलि-गंडियं उल्लं अजडिलं एकां महतीं शाल्मलि-कण्डिकाम् अगंठिल्लं अचिक्कणं अवाइद्धं सपत्तियं आर्द्राम् अजटिलाम् अग्रन्थिमतीम् तिक्वेण परसुणा अक्कमेज्जा, तए णं ___ 'अचिक्कणं' अव्याविद्धाम सपात्रिकाम से पुरिसे नो महंताई-महंताई सदाइं तीक्ष्णेण परशुना अवक्राम्येत्, ततः सः करेति, महंताई-महंताई दलाई पुरुषः नो महतः महतः शब्दान् करोति, अवद्दालेति, एवामेव गोयमा! समणाणं महतः महतः दलान् अवदलयति, निम्गंधाणं अहाबादराई कम्माई एवमेव गौतम! श्रमणानां निर्ग्रन्थानाम् जैसे कोई पुरुष तरुण, बलवान् यावत् निपुण और सूक्ष्म शिल्प से समन्वित है। वह पुरुष एक महान् शाल्मली की गंडिका आर्द्र, सरल, गांठ रहित, चिकनाई रहित, सीधी शाखा पर पत्ती सहित तीक्ष्ण हथौड़े से आक्रमण करता है, वह पुरुष बहुत जोर-जोर से शब्द नहीं करता किन्तु शाखा के बड़े-बड़े टुकड़े कर देता है। गौतम! इसी प्रकार श्रमण निग्रंथों के शिथिल रूप में किए हुए, निःसत्त्व किए हुए Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई सिढिलीकया, निट्टियाई कयाई, विष्परिणामियाई खिप्पामेव परिविद्धत्थाई भवंति । जावतियं तावतियं पिणं ते वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा महापज्जवसाणा भवंति । से जहा वा केइ पुरिसे सुक्कतणहत्थगं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा- से नूणं गोयमा ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे विपामेव मसमसाविज्जति ? हंता मसमसाविज्जति । एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई, सिढिलीकयाई, निट्टियाई कयाई, विष्परिणामियाई विपामेव विद्धत्थाई भवंति । जावतियं तावतियं पि णं ते वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा महापज्जवसाणा भवंति । से जहानामए के पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लंसि उदगबिंदुं पक्खिवेज्जा, से नूणं गोयमा ! से उदगबिंदू तत्तंसि अयकवल्लंसि पक्खित्ते समाणे विप्पामेव विद्धसमागच्छइ ? हंता विद्धसमागच्छइ । एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहाबायराई कम्माई सिढिलीकयाई, निट्टियाई कयाई, विष्परिणामियाई विपामेव विद्वत्थाई भवंति । जावतियं तावतियं पि णं वेदणं वेदेमाणा महानिज्जरा महापज्जवसाणा भवंति । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - जावतियं अन्नगिलायए समणे निग्गंथे कम्मं निज्जरेति तं चैव जाव वासकोडाकोडीए वा नो खवयंति ॥ १. उत्तर. ३०/१-४ ३६३ यथा बादराणि कर्माणि शिथिलीकृतानि, निष्ठितानि कृतानि, विपरिणामितानि क्षिप्रमेव परिविध्वस्तानि भवन्ति यावत्कं तावत्कं अपि ते वेदनां वेदयन्तः महानिर्जराः महापर्यवसानाः भवन्ति । अथ यथा वा कश्चित् पुरुषः शुष्कतृणहस्तकं जाततेजसि प्रक्षिपेत् सः अथ नूनं गौतम ! सः शुष्कः तृणहस्तगतः जाततेजसि प्रक्षिप्तः सन् क्षिप्रमेव 'मसमसाविज्जति' ? हन्तमसमसाविज्जति । एवमेव गौतम ! श्रमणानां निर्ग्रन्थानाम् यथा बादराणि कर्माणि शिथिलीकृतानि निष्ठितानि कृतानि, विपरिणामितानि क्षिप्रमेव विध्वस्तानि भवन्ति । यावत्कं तावत्कं अपि ते वेदनां वेदयन्तः महानिर्जराः महापर्यवसानाः भवन्ति । अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः तप्ते 'अयकवल्लंसि' उदकबिन्दुं प्रक्षिपेत् सः ( अथ) नूनं गौतम ! सः उदकबिन्दुः तप्ते 'अयकवल्लंसि' प्रक्षिप्तः सन् क्षिप्रमेव विध्वंसमागच्छति ? हन्त ! विध्वंसमागच्छति । एवमेव गौतम ! श्रमणानां निर्ग्रन्थानां यथा बादराणि कर्माणि शिथिलीकृतानि, निष्ठितानि कृतानि, विपरिणामितानि क्षिप्रमेव विध्वस्तानि भवन्ति । यावत्कं तावत्कं अपि ते वेदनां वेदयन्तः महानिर्जराः महापर्यवसानाः भवन्ति । तत्तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते- यावत्कं अन्नलायकः श्रमणः निग्रंथ, कर्म निर्जीर्यति तच्चैव यावत् वर्षकोटाकोट्या वा नो क्षपयन्ति ॥ १. सूत्र ५१-५२ प्रस्तुत आलापक में निर्जरा का तारतम्य बतलाया गया है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भगवई ६ / १-४ का भाष्य । निर्जरा के तारतम्य का हेतु है अध्यवसाय की विशुद्धि का अपकर्ष भाष्य श. १६ : उ. ४ : सू. ५२ और विपरिणमन को प्राप्त किए हुए सूक्ष्म कर्म-पुद्गल शीघ्र विध्वस्त हो जाते हैं। वे जिस - तिस मात्रा में भी वेदना का वेदन करते हुए महानिर्जरा और महा-पर्यवसान वाले होते हैं। गौतम! जैसे कोई पुरुष सूखे घास के पूलों को अग्नि में डालता है, वह अग्नि में डाला हुआ सूखा घास का पूला शीघ्र ही भस्म हो जाता है? हां, भस्म हो जाता है। गौतम ! इसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रथों के शिथिल रूप में किए हुए, निःसत्त्व किए हुए और विपरिणमन को प्राप्त किए हुए स्थूल कर्म - पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। वे जिस तिस मात्रा में भी वेदना का वेदन करते हुए महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं। गौतम! जैसे कोई पुरुष तपे हुए लोहे के तवे पर पानी की बूंद गिराता है। तपे हुए लोहे के तवे पर गिराई हुई पानी की बूंद शीघ्र ही विध्वस्त हो जाती है? हां, विध्वस्त हो जाती है। गौतम! उसी प्रकार श्रमण-निर्ग्रथों के शिथिल रूप में किए हुए, निःसत्त्व किए हुए और विपरिणमन को प्राप्त किए हुए स्थूल कर्म - पुद्गल शीघ्र ही विध्वस्त हो जाते हैं। वे जिस तिस मात्रा में वेदना का वेदन करते हुए महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- अन्नग्लायक श्रमण-निर्ग्रथ जितने कर्मों की निर्जरा करता है, पूर्ववत् यावत् नरक में नैरयिक इतने कर्मों का करोड़ वर्ष, करोड़ों वर्ष अथवा कोटाकोटि वर्ष में क्षय नहीं करता । और प्रकर्ष ।' छठे शतक में अपकर्ष और प्रकर्ष की व्याख्या के लिए तीन दृष्टान्त बतलाए गए हैं। प्रस्तुत आलापक में 'शाल्मली की गण्डिका' का दृष्टान्त है और कर्दम राग का दृष्टान्त नहीं है। जयाचार्य Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. ४ : सू. ५३ ३६४ भगवई ने शुष्क तृण और तप्त तवे के दृष्टान्त का आराधना में सुन्दर चित्रण गंडिया-गंडिका, कंडिका, शाखा। किया है। जडिल-जटिल, जटावाला। शब्द-विमर्श वृत्तिकार के अनुसार वृद्ध व्याख्या में इसका अर्थ वलितोद्वलितअन्नग्लायक-चूर्णिकार ने इसका अर्थ निस्पृहभाव से बासी भोजन घुमावदार, टेढी-मेढी किया गया है। करने वाला रूखा-सूखा भोजन करने वाला किया है। वृत्तिकार ने वाइद्धं-विशिष्ट द्रव्यों से उपलिप्त, वृद्ध व्याख्या में इसका अर्थ इसका अर्थ अन्न के बिना ग्लान होने वाला, भूख को सहन न कर वक्र किया गया है। सकने वाला किया है। निर्जरा के प्रकरण में चूर्णिकार का मत अधिक अपत्तियं-अपात्रिका, धार रहिता संगत है। मुंड-भोथरा कौसंब-कुसुंब वृक्ष। ५३. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति यावत् विहरति। ५३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। ऐसा कहकर यावत् विहरण करने लगे। २. आराधना ८/७-८ सूको तृण पूलो जिम अग्नि विसेहो रे। शीघ्र भसम हुवै निज कर्म दहेहो रे॥ जिम तप्त तवे जल बिंदु बिललावै रे। तिम दुःख समचिते, सह्यां अघ क्षय थावै रे॥ १.३. भ. वृ. १६/५२। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद सक्कस्स उक्वित्तपसिणवागरण-पदं शक्रस्य उत्क्षिप्त-प्रश्न-व्याकरण-पदम शक्र का उत्क्षिप्त प्रश्न व्याकरण पद ५४. तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे तस्मिन् काले तस्मिन् समये उल्लूकातीरं ५४. उस काल उस समय उल्लूकातीर नाम का नाम नगरे होत्या-वण्णओ। एगजंबुए नाम नगरम्-आसीत्। एकजम्बुकं नगर था-वर्णक। एकजंबूक चैत्य-वर्णक। उस चेइए–वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं चैत्यम्-वर्णकः। तस्मिन् काले तस्मिन् काल उस समय स्वामी समवसृत हुए यावत् समएणं सामी समोसढे जाव परिसा समये स्वामी समवसृतः यावत् परिषद् परिषद् पर्युपासना करने लगी। उस काल उस पज्जुवासति। तेणं कालेणं तेणं समएणं पर्युपास्ते। तस्मिन् काले तस्मिन् समये समय वज्रपाणि देवराज देवेन्द्र शक्र-इस सक्के देविंद देवराया वज्जपाणी-एवं शक्रः देवेन्द्रः देवराजः वज्रपाणिः-एवं प्रकार जैसे द्वितीय उद्देशक की वक्तव्यता जहेव बितियउद्देसए तहेव दिवेणं ___यथैव द्वितीयोद्देशके तथैव दिव्येन वैसे ही दिव्य यान-विमान से आया यावत् जाणविमाणेणं आगओ जाव जेणेव यानविमानेन आगतः यावत् यत्रैव श्रमणः । जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं, वहां आया, समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदनउवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार कर इस नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रकार बोला-भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् वयासी-देवे णं भंते! महिड्डिए जाव एवमवादीत्-देवः भदन्त! महर्द्धिकः ऐश्वर्य वाला देव बाहरी पुद्गलों का ग्रहण महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता यावत् महेशाख्यः बाह्यकान् पुद्गलान् किए बिना आने में समर्थ है? पभू आगमित्तए? अपर्यादाय प्रभुः आगन्तुम्? नो इणढे समझे। नो एषः अर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। देवे ण भंते! महिहिए जाव महेसक्खे देवः भदन्त! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्य वाला बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू बाह्यकान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः देव बाह्य पुद्गलों का ग्रहण कर आने में समर्थ आगमित्तए? आगन्तुम्? हंता पभू। हन्त प्रभुः। हां, समर्थ है। देवे णं भंते! महिडिए जाव महेसक्वे देवः भदन्त! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः भंते ! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्य वाला एवं एएणं अभिलावेणं गमित्तए वा, एवम् एतेन अभिलापेन गन्तुं वा, भाषितुं देव इस अभिलाप के अनुसार बाह्य पुद्गलों भासित्तए वा, विआगरित्तए वा, वा, व्याकर्तुं वा, उन्मेषयितुं वा को ग्रहण किए बिना गमन करने, बोलने, उम्मिसावेत्तए वा, निमिसावेत्तए वा, निमेषयितुं वा, आकुञ्चयितुं वा, स्थानं व्याकरण करने, चक्षु का उन्मेष और निमेष आउंटावेत्तए वा, ठाणं वा सेज्जं वा वा शय्यां वा निषीधिकां वा, चेतयितुं वा, करने, शरीर के संकोचन, आसन, शय्या, निसीहियं वा चेइत्तए वा, विउवित्तए वा, विकर्तुम् वा, परिचारयितुं वा यावत् हन्त निषद्या करने, विक्रिया करने, परिचारणा परियारेत्तए वा जाव हंता पभू- इमाइं प्रभुः-इमानि अष्ट उत्क्षिप्तप्रश्न- करने में समर्थ है। अट्ट उक्वित्तपसिणवागरणाई पुच्छइ, ___व्याकरणानि पृच्छति, पृष्ट्वा इन आठ प्रश्न व्याकरणों को खड़े-खड़े पुच्छित्ता संभंतियवंदणएणं वंदति, वंदित्ता सांभ्रान्तिकवन्दनकेन वन्दते वन्दित्वा पूछा, पूछकर संभ्रम पूर्वक वंदना की, वंदना तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुहति, दुहित्ता तमेव दिव्यं यानविमानम् आरोहति, कर उसी दिव्य यान-विमान पर चढा, चढकर जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं आरुह्य यस्याः दिशः प्रादुर्भूतः तस्यामेव जिस दिशा से आया, उसी दिशा में लौट पडिगए॥ दिशि प्रतिगतः। गया। गंगदत्तदेवस्स संदम्भे परिणममाण- गंगदत्तदेवस्य संदर्भ परिणमत-परिणत- गंगदत्त देव के संदर्भ में परिणममाण-परिणत पद परिणय-पदं पदम् ५५. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त इति! भगवान् गौतमः श्रमणं ५५. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M श. १६ : उ. ५ : सू. ५५ ३६६ भगवई महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया। एवं वयासी अण्णदा णं भंते! सक्के वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्- वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-भंते! देविंद देवराया देवाणुप्पियं वंदति नमसति । अन्यदा भदन्त ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजः देवराज देवेन्द्र शक्र जब कभी देवानुप्रिय को सक्कारेति जाव पज्जुवासति, किण्णं देवानुप्रियं वन्दते नमस्यति सत्करोति वंदन-नमस्कार करता है, सत्कार करता है भंते! अज्ज सक्के देविंदे देवराया यावत् पर्युपास्ते, किं (किण्णं) भदन्त! यावत् पर्युपासना करता है। भंते! क्या कारण देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खित्त- अद्य शक्रः देवेन्द्रः देवराजः देवानुप्रियम् है-आज देवराज देवेन्द्र शक्र ने देवानुप्रिय से पसिणवागरणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अष्ट उत्क्षिप्तप्रश्नव्याकरणानि पृच्छति, खड़े खड़े आठ प्रश्न-व्याकरण पूछे, पूछकर संभंतियबंदणएणं बंदइ नमसइ जाव। पृष्ट्वा सांभ्रान्तिकवंदनकेन वन्दते संभ्रम पूर्वक वंदन-नमस्कार किया, यावत् पडिगए ? नमस्यति यावत् प्रतिगतः? उसी दिशा में लौट गया? गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गौतम अयि! श्रमणः भगवान् महावीरः अयि गौतम! श्रमण भगवान् महावीर ने गोयमं एवं बयासी-एवं स्खलु गोयमा! भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत्-एवं खलु भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-गौतम! तेणं कालेण तेणं समएण महासुक्के कषे गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् समये उस काल उस समय महाशुक्र कल्प में महासामाणे विमाणे दो देवा महिड्डिया महाशुक्रे कल्पे महासामाये विमाने द्वौ महासामान्य विमान में दो देव महान् ऋद्धि जाव महेसक्खा एगविमाणंसि देवत्ताए देवौ महर्द्धिको यावत् महेशाख्यौ यावत् महान् ऐश्वर्य वाले एक विमान में उववन्ना, तं जहा-मायिमिच्छ- एकविमाने देवत्वेन उपपन्नो, तद्यथा- देवरूप में उपपन्न हुए जैसे-मायी मिथ्यादृष्टि दिट्ठिउववन्नए य, अमायिसम्मदिहि- मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकः च अमायि- उपपन्नक, अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक। उववन्नए य। सम्यग्दृष्ट्युपपन्नकः च। ततः सः मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव ने अमायी तए णं से मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नए देवे मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकः देवः तम् सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव से इस प्रकार तं अमायिसम्मदिविउववन्नगं देवं एवं अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकं देवम् कहा-परिणममाण पुद्गल परिणत नहीं हैं, वयासी-परिणममाणा पोग्गला नो एवमवादीत्-परिणमन्तः पुद्गलाः नो अपरिणत हैं। परिणमन कर रहे हैं इसलिए परिणया, अपरिणया; परिणमंतीति । परिणताः, अपरिणताः, परिणमन्ति इति पुद्गल परिणत नहीं हैं, अपरिणत हैं। पोग्गला नो परिणया, अपरिणया। पुद्गलाः नो परिणताः, अपरिणताः। तए णं से अमायिसम्मदिविउववन्नए देवे ततः सः अमायिसम्यग्दृष्ट्युपपन्नकः । अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक देव ने उस तं मायिमिच्छदिट्ठिउववन्नगं देवं एवं देवः तं मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकं देवम् मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव से इस प्रकार वयासी-परिणममाणा पोग्गला परिणया, एवमवादीत्-परिणमन्तः पुद्गलाः कहा-परिणममान पुद्गल परिणत हैं, नो अपरिणया; परिणमंतीति पोग्गला परिणताः, नो अपरिणताः, परिणमन्ति अपरिणत नहीं हैं। परिणमन कर रहे हैं परिणया, नो अपरिणया। तं इति पुद्गलाः परिणताः, नो अपरिणताः।। इसलिए पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं है। मायिमिच्छदिहिउववन्नगं एवं पडिहणइ, तं मायिमिथ्यादृष्ट्युपन्नकम् एवं मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव को इस प्रकार पडिहणित्ता ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ममं प्रतिहन्ति, प्रतिहन्य अवधिं प्रयुङ्क्ते, प्रतिहत किया। प्रतिहत कर अवधि का प्रयोग ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता प्रयुज्य माम् अवधिना आभोगयति किया, प्रयोग कर मुझे अवधिज्ञान से देखा, अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए (आभोएइ), आभोग्य (आभोएत्ता)। देखकर इस प्रकार का आध्यात्मिक मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था एवं खलु अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक एवं मनोगत समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे दीवे भारहे प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि- संकल्प उत्पन्न हुआ-श्रमण भगवान् महावीर वासे उल्लुयतीरस्स नगरस्स बहिया एवं खलु श्रमणः भगवान महावीरः जंबूद्वीप द्वीप में भारत वर्ष में उल्लूकातीर एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं जम्बूद्वीपेद्वीपे भारते वर्षे उल्लुकातीरस्य नगर के बाहर एकजम्बुक चैत्य में योग्य स्थान ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं नगरस्य बहिः एकजम्बुके चैत्ये यथा की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने भावमाणे विहरइ, तं सेयं खलु मे समणं प्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पज्जुवासित्ता तपसा आत्मानं भावयन् विहरति, तत् इसलिए मेरे लिए श्रेय है कि मैं श्रमण भगवान् इमं एयारूवं वागरणं पुच्छित्तए त्ति कट्ट श्रेयः खलु मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं महावीर की वंदना यावत् पर्युपासना कर यह एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता चउहि वन्दित्वा यावत् पर्युपास्य इमम् एतद्रूपं इस प्रकार का व्याकरण पूछू । इस प्रकार सामाणियसाहस्सीहि, तिहिं परिसाहिं, व्याकरणं प्रष्टुम् इति कृत्वा एवं संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर चार हजार सत्तहिं अणिएहि सत्तहिं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य चतसृभिः सामानिक- सामानिक, तीन प्रकार की परिषद्, सात अणियाहिवईहिं, सोलसहिं आयरक्ख- साहसीभिः, तिसृभिः परिषद्भिः, सप्तभिः प्रकार की सेना, सात सेनाधिपति, सोलह देवसाहस्सीहि अण्णेहि अनीकैः, सप्तभिः अनीकाधिपतिभिः, हजार आत्मरक्षक देव, अन्य बहु महासामान्य Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६७ श. १६ : उ. ५ : सू. ५६ महासामाणविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं षोडशैः आत्मरक्षदेवसाहसीभिः, अन्यैः देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुडे जाव बहभिः महासामान्यविमानवासिभिः हि-निग्घोस-नाइयरवेणं जेणेव जंबुद्दीवे वैमानिकैः देवैः, देवीभिः च साधु दीवे, जेणेव भारहे वासे, जेणेव सम्परिवृतः यावत् दुन्दुभि-निर्घोष- उल्लुयतीरे नगरे, जेणेव एगजंबुए चेहए, नादितरवेण यत्रैव जम्बूद्वीपः द्वीपः, यत्रैव जेणेव ममं अंतियं तेणेव पहारेत्य भारतः वर्षः, यत्रैव उल्लुकातीरम् गमणाए। तए णं से सक्के देविंद देवराया नगरम्, यत्रैव एकजम्बुकम् चैत्यम्, यत्रैव तस्स देवस्स तं दिव्वं देविहिं दिव्वं ममान्तिकं तत्रैव प्रधारयेत् गमनाय। ततः देवजुतिं दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं तेयलेस्सं स शक्रः देवेन्द्रः देवराजः तस्य देवस्य तां असहमाणे ममं अट्ठ दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं उक्वित्तपसिणवागरणाई पुच्छित्ता देवानुभागं दिव्यां तेजोलेश्याम् संभंतियवंदणएणं वंदित्ता जाव पडिगए॥ असहमानः माम् अष्ट उत्क्षिप्तप्रश्न व्याकरणानि पृष्ट्रा सांभ्रान्तिकवन्दनकेन वन्दित्वा यावत् प्रतिगतः। विमानवासी वैमानिक देवों से संपरिवृत होकर यावत् दुंदुभि-निर्घोष से नादित रव के साथ जहां जंबूद्वीप द्वीप है, जहां भारत वर्ष है, जहां उल्लूकातीर नगर है, जहां एकजंबुक चैत्य है, जहां मैं हूं, वहां आने के लिए प्रस्थान किया। देवराज देवेन्द्र शक्र उस देव की दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देव-अनुभाग, दिव्य तेजोलेश्या को सहन न करता हुआ मेरे पास खड़े-खड़े आठ प्रश्न व्याकरण पूछकर, संभ्रमपूर्वक वंदना कर यावत् लौट गया। भाष्य 1.सूत्र ५४-५५ सौधर्मेन्द्र शक्र द्वारा प्रश्न पूछने का पहला प्रसंग १६/३३ में है। प्रस्तुत आलापक में दूसरा प्रसंग है। ___बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किए बिना कोई भी क्रिया नहीं हो सकती-यह क्रिया का सर्व साधारण नियम है। यह वृत्तिकार का मत है' किन्तु स्थानांग में तीन प्रकार की क्रियाएं बतलाई गई हैं १. पर्यादाय-बाहरी पुद्गलों को लेकर। २. अपर्यादाय-बाहरी पुद्गलों को लिए बिना। ३. पर्यादाय-अपर्यादाय-बाहरी पुदगलों को लेकर भी और न लेकर भी। सौधर्मेन्द्र के प्रश्न का संबंध उत्तर विक्रिया से है इसलिए भगवान् ने उत्तर दिया-महर्द्धिक देव बाहरी पुदगलों का ग्रहण किए बिना आगमन, गमन आदि क्रियाएं नहीं कर सकते। इस विषय में भगवई ६/१६३१६७ तक का पाठ और भाष्य द्रष्टव्य है। सौधर्मेन्द्र का शीघ्रता में आना, खड़े-खड़े प्रश्न पूछना और शीघ्र चले जाना-आश्चर्य का विषय बन गया। गौतम स्वामी ने इस विषय में जिज्ञासा की तब उत्तर में भगवान महावीर ने शीघ्रता का हेतु बतलाया। वह सूत्र में स्पष्ट है। इस प्रसंग में परिणममान-परिणत' इस सिद्धांत का भगवान् ने समर्थन किया। द्रष्टव्य भगवई १/३६४-३७२ का भाष्य। मायी मिथ्यादृष्टि एवं अमायी सम्यग्दृष्टि के लिए द्रष्टव्य भगवई १/१०१ का भाष्य। ५६. जावं च णं समणे भगवं महावीरे यावत् च श्रमणः भगवान् महावीरः ५६. जिस समय श्रमण भगवान् महावीर ने भगवओ गोयमस्स एयम8 परिकहेति भगवतः गौतमस्य एतमर्थं परिकथयति भगवान् गौतम को यह अर्थ कहा, उसी समय तावं च णं से देवे तं देस हबमागए। तावत् च सः देवः तं देशं 'हव्व' मागतः।। वह देव उस देश-भाग में शीघ्र आ गया। उस तए णं से देवे समणं भगवं महावीरं ततः सः देवः श्रमणं भगवन्तं महावीरं देव ने श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर तिक्रवृत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया, वंदनएवं बयासी-एवं खलु भंते! महासुक्के एवमवादीत्-एवं खलु भदन्त! महाशुक्रे नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! कप्पे महासामाणे विमाणे एगे कल्पे महासामान्ये विमाने एकः । महाशुक्र कल्प महासामान्य विमान में एक मायिमिच्छदिहिउववन्नए देवे ममं एवं मायिमिथ्यादृष्ट्युपपन्नकः देवः माम् मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव ने मुझे इस वयासी-परिणममाणा पोग्गला नो एवमवादीत्-परिणमन्तः पुद्गलाः नो प्रकार कहा-परिणममान पुदगल परिणत नहीं परिणया, अपरिणया; परिणमंतीति परिणताः, अपरिणताः, परिणमन्ति इति हैं, अपरिणत हैं। परिणमन कर रहे हैं, पोम्गला नो परिणया, अपरिणया। तए पुद्गलाः नो परिणताः, अपरिणताः। ततः इसलिए वे पुद्गल परिणत नहीं हैं, अपरिणत णं अहं तं मायिमिच्छदिहिउववन्नगं देवं अहं तं मायिमिथ्यादृष्ट्यपपन्नकं देवं हैं। तब मैंने उस मायी मिथ्यादृष्टि उपपत्रक एवं वयासी-परिणममाणा पोग्गला एवमवादीत्-परिणमन्तः पुद्गलाः देव से इस प्रकार कहा-परिणममान पुद्गल परिणया, नो अपरिणया; परिणमंतीति परिणताः, नो अपरिणताः, परिणमन्तिपरिणत हैं, अपरिणत नहीं हैं। परिणमन कर १. भ. वृ. १६/५४-५५ २. ठाणं ३/४ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. ५ : सू. ५७-६० ३६८ पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, से इति पुद्गलाः परिणताः, नो अपरिणताः, कहमेयं भंते! एवं ? तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? ५७. गंगदत्तादि ! समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी - अहं पि णं गंगदत्ता ! एवमाइक्खामि भासेमि पण्णमि परूवेमि- परिणममाणा पोग्गला परिणया, नो अपरिणया; परिणमंतीति पोग्गला परिणया, नो अपरिणया, सच्चमेसे अट्ठे ॥ ५८. तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहं सोचा निसम्म तुट्टे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता नच्चासन्ने जाव पज्जुवासति ॥ गंगदत्तदेवस्स अप्पविसए पसिण-पदं ५६. तए णं समणे भगवं महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्मं परिकहेइ जाव आराहए भवति ॥ ६०. तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म तुट्ठे उट्टाए उट्ठेड़, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसर, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी - अहण्णं भंते! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए ? अभवसिद्धिए ? सम्मदिट्टी ? मिच्छदिट्ठी ? परित्तसंसारिए ? अनंतसंसारिए ? सुलभबोहिए ? दुल्लभबोहिए ? आराहए? विराहए ? चरिमे ? अचरिमे ? गंगदत्ताइ ! समणे भगवं महावीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी - गंगदत्ता ! तुमण्णं भवसिद्धिए, नो अभवसिद्धिए । सम्मदिट्टि, नो मिच्छदिट्ठी । परित्तसंसारिए नो अनंतसंसारिए । सुलभबोहिए, नो दुल्लभबोहिए। आराहए, नो विराहए। चरिमे, नो अचरिमे ॥ गंगदत्त अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः गंगदत्तं देवं एवमवादीत्अहमपि गंगदत्त ! एवमाख्यामि भाषे प्रज्ञापयामि प्ररूपयामि - परिणमन्तः पुद्गलाः परिणताः, नो अपरिणताः, परिणमन्ति इति पुद्गलाः परिणताः, नो अपरिणताः सत्यः एषः अर्थः । ततः सः गंगदत्तः देवः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा नात्यासन्नः यावत् पर्युपास्ते । गंगदत्तस्य आत्मविषये प्रश्न-पदम् ततः श्रमणः भगवान् महावीर : गंगदत्तस्य देवस्य तस्यौ च महातिमहत्या परिषदि धर्म परिकथयति यावत् आराधकः भवति । ततः सः गंगदत्तः देवः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् - अहं भदन्त ! गंगदत्तः देवः किं भवसिद्धिकः ? अभवसिद्धिकः ? सम्यग्दृष्टिः ? मिथ्यादृष्टिः? परीतसंसारिकः ? अनन्तसंसारिकः ? दुर्लभबोधिकः ? विराधकः ? चरमः ? सुलभबोधिकः ? आराधकः ? अचरमः ? गंगदत्त अ!ि श्रमण भगवान् महावीरः गंगदत्तं देवम् एवमवादीत् - गंगदत्त ! त्वं भवसिद्धिकः, नो अभवसिद्धिकः । सम्यग्दृष्टिः, नो मिथ्यादृष्टिः । परीतसंसारिकः, नो अनन्तसंसारिकः । सुलभबोधिकः, नो दुर्लभबोधिकः । आराधकः, नो विराधकः । चरमः, नो अचरमः । भगवई रहे हैं इसलिए वे पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं हैं। भंते! यह कैसे है ? ५७. अयि गंगदत्त ! श्रमण भगवान् महावीर ने गंगादत्त देव से इस प्रकार कहा-गंगदत्त ! मैं भी इसी प्रकार आख्यान करता हूं, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता हूं-परिणममान पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं हैं। परिणमन कर रहे हैं इसलिए पुद्गल परिणत हैं, अपरिणत नहीं है। यह अर्थ सत्य है। ५८. गंगदत्त देव श्रमण भगवान् महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हो गया । श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन- नमस्कार कर न अति निकट यावत् पर्युपासना करने लगा। गंगदत्त देव का आत्म विषयक प्रश्न पद ५६. श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव को उस विशालतम परिषद् में धर्म कहा यावत् आराधक होता है। ६०. गंगदत्त देव श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म को सुनकर अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठा, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते! मैं गंगदत्त देव क्या भवसिद्धिक हूं? अभवसिद्धिक हूं? सम्यग्दृष्टि हूं? मिथ्यादृष्टि हूं ? परित संसारी हूं? अनन्त संसारी हूं? सुलभ बोधि हूं ? दुर्लभ बोधि हूं? आराधक हूं ? विराधक हूं? चरम हूं? अचरम हूं? अयि गंगदत्त ! श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव से इस प्रकार कहा- गंगदत्त ! तुम भविसिद्धिक हो, अभवसिद्धिक नहीं। सम्यग्दृष्टि हो, मिथ्यादृष्टि नहीं । परित संसारी हो, अनंत संसारी नहीं । सुलभ बोधि हो, दुर्लभ बोधि नहीं । आराधक हो, विराधक नहीं । चरम हो, अचरम नहीं । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६६ श. १६ : उ. ५ : सू. ६१-६३ भाष्य सूत्र ६० द्रष्टव्य भगवई ३/७३ का भाष्य। सव गंगदत्तदेवेण नट्ट-उवदसण-पदं गंगदत्तदेवेन नाट्य-उपदर्शन-पदं ६१. तए णं से गंगदत्ते देवे समणेणं ततः सः गंगदत्तः देवः श्रमणेन भगवता भगवया महावीरेणं एवं बुत्ते समाणे महावीरेण एवम् उक्तः सन् हृष्ट- हट्टतुट्टचित्तमाणदिए पीइमणे परम- तुष्टचित्तः आनन्दितः प्रीतिमनाः सोमणस्सिए हरिसवसविसप्प- माणहियए परमसौमनस्यितः हर्षवशविसर्पदहदयः समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-तुन्भे णं नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा भंते! सव्वं जाणह सव्वं पासह, सव्वओ एवमवादीत्-यूयं भदन्त! सर्वं जानीथ जाणह सब्बओ पासह, सब्वं कालं सर्वं पश्यथ, सर्वतः जानीथ सर्वतः जाणह सव्वं कालं पासह, सब्वे भावे । पश्यथ, सर्वं कालं जानीथ सर्वं कालं जाणह सव्वे भावे पासह। पश्यथ, सर्वान् भावान् जानीथ सर्वान् भावान् पश्यथ। जाणंति णं देवाणप्पिया! मम पुग्छि वा जानन्ति देवानप्रियाः! मम पूर्वं वा पच्छा वा ममेयरूवं दिव्वं देविहिं दिव्वं पश्चात् वा मम एतद्रूपां दिव्यां देवधि देवजुई दिव्वं देवाणुभावं लद्धं पत्तं दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं लब्धं अभिसमण्णागयं ति, तं इच्छामि णं प्राप्तम् अभिसमन्वागतम् इति, तत् देवाणुप्पियाणं भत्तिपुब्वगं गोयमातियाणं इच्छामि देवानुप्रियाणां भक्तिपूर्वकं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देवि४ि दिव् गौतमादिकानां श्रमणानां निर्ग्रन्थानां देवजुई दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं दिव्यां देवर्धिं दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं बत्तीसतिबद्धं नट्टविहिं उवदंसित्तए॥ . देवानुभावं दिव्यं द्वात्रिंशद्वद्धं नाट्यविधिम् उपदर्शयितुम्। गंगदत्त देव द्वारा नाट्य-उपदर्शन पद ६१. गंगदत्त देव श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर हृष्टतुष्ट चित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते ! तुम सब जानते हो, सब देखते हो, सब ओर से जानते हो, सब ओर से देखते हो, सब काल को जानते हो,सब काल को देखते हो, सब भावों को जानते हो, सब भावों को देखते हो। देवानुप्रिय! मेरे पूर्व और पश्चात् को जानते हैं-मुझे इस प्रकार की दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य देव अनुभाव लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है। इसीलिए मैं देवानुप्रिय! गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रन्थों को भक्तिपूर्वक दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव, दिव्य बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि दिखलाना चाहता हूं। ६२. तए णं समणे भगवं महावीरे गंगदत्तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे गंगदत्तस्स देवस्स एयमद्वं नो आढाइ, नो परियाणइ, तुसिणीए संचिट्ठति॥ ततः श्रमणः भगवान महावीरः गंगदत्तेन देवेन एवम् उक्तः सन् गंगदत्तस्य देवस्य एतमर्थं नो आढाइ, नो परिजानाति, तूष्णीकः सन्तिष्ठते। ६२. गंगदत्त देव के इस प्रकार कहने पर श्रमण भगवान् महावीर ने गंगदत्त देव के इस अर्थ को आदर नहीं दिया, स्वीकार नहीं किया, वे मौन रहे। ६३. तए णं से गंगदत्ते देवे समणं भगवं ततः सः गगदत्तः देवः श्रमणं भगवन्तं महावीरं दोचं पि तचं पि एवं महावीरं द्विः अपि त्रिः अपि वयासी-तुम्भे णं भंते! सव्वं जाणह सव्वं एवमवादीत्-यूयं भदन्त! सर्वं जानीथ पासह, सब्बओ जाणह सव्वओ पासह, सर्वं पश्यथ, सर्वतः जानीथ सर्वतः सव्वं कालं जाणह सव्वं कालं पासह, पश्यथ, सर्वं कालं जानीथ सर्वं कालं सब्वे भावे जाणह सब्बे भावे पासह। पश्यथ, सर्वान् भावान् जानीथ सर्वान् भावान् पश्यथ। जाणंति णं देवाणुप्पिया! मम पुग्विं वा जानन्ति देवानुप्रियाः! मम पूर्वं वा पच्छा वा ममेयरूवं दिव्वं देविहिं दिवं पश्चात वा मम एतदरूपां दिव्यां देवर्द्धि देवजुई दिव्वं देवाणुभावं लद्धं पत्तं दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं लब्धं अभिसमण्णागयं ति, तं इच्छामि ण प्राप्तम् अभिसमन्वागतम इति, तत देवाणुपियाणं भत्तिपुब्वगं गोयमातियाणं इच्छामि देवानुप्रियाणां भक्तिपूर्वकं समणाणं निग्गंधाणं दिव्वं देविहिं दिव्वं गौतमादिकानां श्रमणानां निर्ग्रन्थानां ६३. गंगदत्त देव ने श्रमण भगवान महावीर को दूसरी बार भी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा-भंते ! तुम सब जानते हो, सब देखते हो, सब ओर से जानते हो, सब ओर से देखते हो, सब काल को जानते हो, सब काल को देखते हो, सब भावों को जानते हो, सब भावों को देखते हो। देवानुप्रिय! तुम मेरे पूर्व और पश्चात् को जानते हो। मुझे इस प्रकार दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देवानुभाव लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है इसलिए देवानुप्रिय! गौतम आदि श्रमण-निर्ग्रथों को भक्तिपूर्वक दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. ५ : सू. ६४, ६५ देवजुई दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसतिबद्धं नट्टविहिं उवदंसित्तए त्ति कट्टु जाव बत्तीसतिबद्धं नट्टविहिं उबदंसेति, उवदंसेत्ता जाव तामेव दिसं पडिगए । ६४. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसंइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी - गंगदत्तस्स णं भंते! देवस्स सा दिव्वा देविट्टी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे वाणुभावे कहिं गते ? कहिं अणुष्पविट्ठे ? गोयमा ! सरीरं गए, सरीरं अणुप्पविट्ठे, कूडागारसालादित जाव सरीरं अणुपविट्ठे । अहो णं भंते! गंगदत्ते देवे महिड्डिए महज्जुइए महब्बले महायसे महेसक्खे॥ सूत्र ६१-६३ प्रस्तुत आगम में देवों द्वारा नाट्य विधि के उपदर्शन का उल्लेख ३ / ७८ में है। वहां संक्षिप्त पाठ है। प्रस्तुत प्रकरण (१६/६३) में पाठ विस्तृत है। इसका विस्तार रायपसेणइय सूत्र के आधार पर किया गया है। सूत्र ६४ द्रष्टव्य भगवई ३ / २३ - २६ का भाष्य । गंगदत्तदेवस्स पुब्वभव-पदं ६५. गंगदत्तेणं भंते! देवेणं सा दिव्वा देविट्ठी सा दिव्वा देवज्जुती से दिव्वे देवाभागे किण्णा लद्धे ? किण्णा पत्ते ? किण्णा अभिसमण्णागए ? पुन्वभवे के आसी ? किं नामए वा? किं वा गोत्तेणं ? कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मांस वा पट्टणंसि वा दो मुहंसि वा आगरंसि वा आसमंसि वा संबाहंसि वा सण्णिवेसंसि वा? किं वा दच्चा ? किंवा भोच्चा ? किं वा किच्चा ? किं वा समायरित्ता ? कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म जण्णं गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्या देवडी सा दिव्वा देवज्जुती से ३७० दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं दिव्यं द्वात्रिंशद्वद्धं नाट्यविधिम् उपदर्शयितुम् इति कृत्वा यावत् द्वात्रिंशद्बद्धं नाट्यविधिम् उपदर्शयति, उपदर्श्य यावत् तस्यामेव दिशि प्रतिगता । भाष्य भदन्त इति ! श्रमण गौतमः भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-गंगदत्तस्य भदन्त ! देवस्य सा दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यः देवानुभावः कुत्र गतः ? कुत्र अनुप्रविष्टः ? गौतम ! शरीरं गतः, शरीरम् अनुप्रविष्टः कूटागारशाला दृष्टान्तः यावत् शरीरम् अनुप्रविष्टः । अहो भदन्त ! गंगदत्तः देवः महर्द्धिकः महाद्युतिक: महाबलः महेशाख्यः । महायशः भाष्य गंगदत्तदेवस्य पूर्वभव-पदम् ६५. गंगदत्तेन भदन्त ! देवेन सा दिव्या देवर्द्धिः सा दिव्या देवद्युतिः सः दिव्यः देवानुभावः कथं लब्धः ? कथं प्राप्तः ? कथम् अभिसमन्वागतः ? पूर्वभवे कः आसीत्? किं नामकः वा? किं वा गोत्रेण ? कतरस्मिन् ग्रामे वा नगरे वा निगमे वा राजधान्यां वा 'खेडंसि' वा कर्बटं वा 'मडंबंसि वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आकरे वा आश्रमे वा सम्बाधे वा सन्निवेशे वा ? किं वा दत्वा ? किं वा भुक्त्वा ? किं वा कृत्वा ? किंवा समाचर्य? कस्य वा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा अन्तिके एकमपि आर्यं धार्मिकं सुवचनं श्रुत्वा निशम्य यत् गंगदत्तेन देवेन सा दिव्या देवर्द्धिः सा दिव्या देवद्युतिः सः दिव्यः भगवई देवानुभाव, दिव्य बत्तीस प्रकार की नाट्य विधि दिखलाना चाहता हूं। यह कहकर बत्तीस प्रकार की नाट्य विधि का उपदर्शन किया, उपदर्शन कर यावत् जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। ६४. अयि भंते! भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार कहा - भंते! गंगदत्त देव की वह दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव कहां गया? कहां अनुप्रविष्ट हो गया ? गौतम ! शरीर में गया, शरीर में अनुप्रविष्ट हो गया। कूटागार शाला दृष्टान्त यावत् शरीर प्रविष्ट हो गया। भंते! गंगदत्त देव महान् ऋद्धि, महान् द्युति, महान् बल, महान् यश और महान् ऐश्वर्यशाली है। गंगदत्त देव का पूर्वभव पद ६५. भंते! गंगदत्त देव को वह दिव्य देव ऋद्धि वह दिव्य देवद्युति, वह दिव्य देवानुभाव कैसे लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हुआ? यह पूर्व भव में कौन था ? नाम क्या था ? गौत्र क्या था? किस ग्राम, नगर निगम, राजधानी, खेट, कर्बट, मडंब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, संबाध और सन्निवेश में रहता था? इसने क्या दिया ? क्या भोगा ? क्या किया? क्या समाचरण किया ? किस तथारूप श्रमण-ब्राह्मण के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन को सुना, अवधारण किया, जिससे गंगदत्त देव को वह दिव्य ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हुआ ? Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३७१ श. १६ : उ. ५ : सू. ६६-६८ लद्धे लब्धः प्राप्तः दिब्वे देवाणुभागे अभिसमण्णागए? पत्ते देवानुभावः अभिसमन्वागतः? भाष्य सूत्र ६५ द्रष्टव्य भगवई ३/३० का भाष्य। ६६. गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणापुरे नाम नगरे होत्था-वण्णओ। सहसंबवणे उज्जाणे-वण्णओ। तत्य णं हथिणापुरे नगरे गंगदत्ते नाम गाहावती परिवसति-अड्डे जाव बहुजणस्स अपरिभूए॥ गौतम अयि ! श्रमणः भगवान् महावीरः ६६. अयि गौतम! श्रमण भगवान् महावीर ने भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत्-एवं खलु भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-गौतम! गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव उस काल उस समय इस जंबूद्वीप द्वीप में जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे हस्तिनापुरं भारत वर्ष में हस्तिनापुर नाम का नगर नाम नगरम् आसीत्-वर्णकः। सहस्रा- था-वर्णक। सहसाम्रवन उद्यान-वर्णक। वहां प्रवनम् उद्यानम्-वर्णकः। तत्र हस्तिना- हस्तिनापुर नगर में गंगदत्त नाम का गृहपति पुरे नगरे गंगदत्तः नाम 'गाहावती' रहता था-आढ्य यावत् बहुजन के द्वारा परिवसति-आढ्यः यावत् बहुजनाय अपरिभूत। अपरिभूतः। ६७. तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुब्बए तस्मिन् काले तस्मिन् समये मुनिसुव्रतः ६७. उस काल उस समय मुनिसुव्रत अर्हत् अरहा आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी अर्हन् आदिकरः यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी आदिकर यावत् सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे। उनके आगासगएणं चक्केणं, आगासगएणं आकाशगतेन चक्रेण, आकाशगतेन आगे आगे आकाश में धर्मचक्र चलता था, छत्तेणं, आगासियाहिं चामराहिं, _छत्रेण, आकाशिकाभिः चामराभिः, उनके ऊपर आकाशगत छत्र, उनके पार्श्व में आगास-फालियामएणं सपायवीढणं आकाशस्फटिकमयेन सपादपीठेन चामर डुलते थे। उनके आकाश जैसा स्वच्छ सीहासणेणं, धम्मज्झएणं पुरओ पकड्डि सिंहासनेन, धर्मध्वजेन पुरतः पादपीठ सहित सिंहासन था, उनके आगे ज्जमाणेणं-पकहिज्जमाणेणं सीसगण- प्रकृष्यमाणेन-प्रकृष्यमाणेन शिष्यगण- आगे धर्मध्वज चल रहा था। वे शिष्य गण से संपरिबुडे पुव्वाणुपुब्बिं चरमाणे सम्परिवृतः चरन् ग्रामानुग्रामं दवन् संपरिवृत होकर क्रमानुसार विचरण, गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं सुखंसुखेन विहरन् यत्रैव हस्तिनापुर ग्रामानुग्राम परिव्रजन, और सुखपूर्वक विहरण विहरमाणे जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव नगरं यत्रैव सहसाम्रवनम् उद्यानं यावत् करते हुए जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरति। विहरति। परिषद् निर्गता यावत् सहस्राम्रवन उद्यान था यावत् विहरण करने परिसा निग्गया जाव पज्जुवासति॥ पर्युपास्ते। लगे। परिषद् ने नगर से निर्गमन किया यावत् पर्युपासना करने लगी। ६८. तए णं से गंगदत्ते गाहावती इमीसे ततः सः 'गाहावती' अनया कथया ६८. गंगदत्त गृहपति इस कथा को सुनकर हृष्ट कहाए लढे समाणे हट्टतुट्टे लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टः स्नातः तुष्ट हुआ। उसने स्नान किया, बलिकर्म बहाए कयबलिकम्मे जाव अप्पमहग्या- कृतबलिकर्मा यावत् अल्पमहाा - किया यावत् अल्पभार और बहुमूल्य वाले भरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ भरणालंकृतशरीरः स्वकात् गृहात् आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। अपने पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य । घर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण पायविहारचारेणं हथिणापुरं नगरं पादविहारचारेण हस्तिनापुर नगरं कर पैदल चलते हुए हस्तिनापुर नगर के मझमज्झेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता ___ मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे जेणेव सहस्राम्रवने उद्याने यत्रैव मुनिसुव्रतः सहस्रामवन उद्यान था, जहां अर्हत् मुनिसुव्रत मुणिसुब्बए अरहा तेणेव उवागच्छइ, अर्हन् तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य थे, वहां आया, आकर अर्हत् मुनिसुव्रत को उवागच्छित्ता मुणिसुव्वयं अरहं मुनिसुव्रतम् अर्हतं त्रिः आदक्षिण- दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ जाव प्रदक्षिणां करोति यावत् त्रिविधया की यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासति॥ पर्युपासनया पर्युपास्ते। पर्युपासना करने लगा। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. ५ : सू. ६६-७१ ६६. तए णं मुणिसुव्वए अरहा गंगादत्तस्स गाहावतिस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्मं परिकहे जाव परिसा पडिगया । ७०. तए णं से गंगदत्ते गाहावती मुणिसुव्वयस्स अरहओ अंतियं धम्मं सोचा निसम्म तुट्टे उट्टाए उट्ठेति, उत्ता मुणिसुव्वयं अरहं बंदइ नमसर, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी - सदहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वदह, जं नवरं देवाणुप्पिया ! जेहपुत्तं कुटुंबे ठावेमि, तए णं अहं देवापियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । अहासु देवाणुपिया ! मा पडिबंधं ॥ ७१. तए णं से गंगदत्ते गाहावई मुणिसुव्वणं अरहया एवं वुत्ते समाणे तु मुणिसुब्वयं अरहं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता मुणिव्वयस्स अरहओ अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता, जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता विउलं असण- पाण- खाइमसाइमं उवक्खडावेति, उवक्खडावेत्ता मित्त-नाइ - नियग-सयण-संबंधि- परियणं आमंतेति, आमंतेत्ता तओ पच्छा पहाए जहा पूरणे जाव जेट्ठपुत्तं कुटुंबे ठावेति । तं मित्त - नाइ - नियग- सयण-संबंधि- परियणं पुत्तं च आपुच्छर, आपुच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं द्रुहति, दुहित्ता मित्त-नाइ - नियग- सयण संबंधिपरिजणेणं पुण य समणुगम्ममाणमग्गे सविडीए जाव दुदुहि -निग्घोस - नादितरवेणं हत्थिणापुरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छर, निग्गच्छिता जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता छत्तादिते तित्थगरातिसए पासति । एवं जहा उद्दायणे जाव सयमेव ३७२ ततः मुनिसुव्रतः अर्हन् गंगदत्तस्य 'गाहावतिस्स' तस्यै च महातिमहत्यै परिषदि धर्मं परिकथयति यावत् परिषद् प्रतिगता । ततः सः गंगदत्तः 'गाहावती' मुनिसुव्रतस्य अर्हतः अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय मुनिसुव्रतम् अर्हन्तं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् - श्रद्दधामि भन्ते! निर्ग्रन्थं प्रवचनं यावत् तत् यथेदं यूयं वदथ यत् नवरं देवानुप्रिया ! ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयामि, ततोऽहं देवानुप्रियाणाम् अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजामि । यथासुखं देवानुप्रियाः! मा प्रतिबन्धम् । ततः सः गंगदत्तः 'गाहावई' मुनिसुव्रतेन अर्हता एवम् उक्तः सन् हृष्टतुष्टः मुनिसुव्रतम् अर्हन्तं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा मुनिसुव्रतस्य अर्हतः अन्तिकात् सहस्राम्रवनात् उद्यानात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव हस्तिनापुरं नगरं यत्रैव स्वके गृहे तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य विपुलम् अशन-पान खाद्य-स्वाद्यम् उपस्कारयति, उपस्कार्य मित्र ज्ञाति - निजकस्वजन सम्बन्धि - परिजनम् आमन्त्रयति, आमन्त्र्य ततः पश्चात् स्नातः यथा पूरणः यावत् ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयति । तं मित्र ज्ञाति - निजकस्वजन सम्बन्धि-परिजनं ज्येष्ठपुत्रं च आपृच्छति, आपृच्छ्य पुरुषसहस्रवाहिनीं शिबिकाम् आरोहति, आरुह्य मित्र - ज्ञाति - निजक- स्वजन सम्बन्धिपरिजनेन ज्येष्ठपुत्रेण च समनुगम्यमानमार्गः सर्वर्द्धया यावत् दुन्दुभिनिर्घोषनादितरवेण हस्तिनापुरं मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव सहस्राम्रवनम् उद्यानम् तत्रैव उपागच्छति, छत्रादीन् उपागम्य भगव ६६. अर्हत् मुनिसुव्रत ने गंगदत्त गृहपति को उस विशालतम परिषद् में धर्म कहा यावत् परिषद् लौट गई। ७०. गंगदत्त गृहपति अर्हत् मुनिसुव्रत के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठा, उठकर अर्हत् मुनिसुव्रत को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता हूं। भंते! यह इष्ट है, भंते! यह प्रतीप्सित है, भंते! यह इष्ट प्रतीप्सित है। जैसा आप कह रहे हैं, इतना विशेष है- देवानुप्रिय ! मैं ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करूंगा फिर मैं देवानुप्रिय के पास होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊंगा। देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो। ७१. गंगदत्त गृहपति अर्हत् मुनिसुव्रत के इस प्रकार कहने पर हृष्ट तुष्ट हो गया। अर्हत् मुनिसुव्रत को वंदन - नमस्कार किया । वंदननमस्कार कर अर्हत् मुनिसुव्रत के पास से सहस्राम्रवन उद्यान से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्कमण कर जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां अपना घर था, वहां आया, आकर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तैयार करवाया, करवाकर मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों को आमंत्रित किया, आमंत्रित कर उसके पश्चात् स्नान किया, पूरण गृहपति (भ. ३ / १०२ ) की भांति यावत् ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित किया । मित्र, ज्ञाति, कुटुम्ब, स्वजन, संबंधी, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र को पूछा, पूछकर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका में चढ़ा चढ़कर चलने लगा, पीछे पीछे चल रहे मित्र, ज्ञाति, कुटुम्बी, स्वजन, संबंधी, परिजनों और ज्येष्ठ पुत्र के साथ संपूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द के साथ हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां सहस्राम्रवन उद्यान था, वहां आया, आकर छत्र आदि तीर्थकरों के अतिशय को देखा, Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई आभरणे ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, करेत्ता जेणेव मुणिसुव्वए अरहा एवं जहेब उद्दायणे तहेब पव्वइए, तब एक्कारस अंगाई अहिज्ज जाव मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसेत्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेति, छेदेत्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा महासुक्के कप्पे महासामाणे विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जाव गंगदत्तदेवत्ताए उववन्ने ॥ तए णं से गंगदत्ते देवे अहुणोववन्नमेत्तए समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्त भावं गच्छति (तं जहा - आहारपजत्तीए जाव भासा - मणपज्जत्तीए) एवं खलु गोयमा ! गंगदत्तेणं देवेणं सा दिव्वा देविड्डी सा दिव्वा देवज्जुती से दिव्वे देवाणुभागे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए ॥ ७२. ७३. गंगदत्तस्स णं भंते! देवस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्तरस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता ॥ ७४. गंगदत्ते णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति ॥ ७५. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ ३७३ तीर्थंकरातिशयान् पश्यति । एवं यथा उद्रायणः यावत् स्वयमेव आभरणान् अवमुञ्चति, अवमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा 'यत्रैव मुनिसुव्रतः अर्हन् एवं यथैव उद्रायणः तथैव प्रव्रजितः, तथैव एकादश अङ्गानि अधीते यावत् मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषति, जोषित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, छित्त्वा आलोचित प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा महाशुक्रे कल्पे महासामान्ये विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावत् गंगदत्तदेवत्वेन उपपन्नः । ततः सः गंगदत्तः देवः अधुनोपपन्नकः सन् पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तभावं गच्छति । (तद्यथा - आहारपर्याप्त्या यावत् भाषा-मनः पर्याप्त्या) एवं खलु गौतम! गंगदत्तेण देवेन सा दिव्या देवर्द्धिः सा दिव्या देवद्युतिः सः दिव्यः देवानुभावः अभिसमन्वागतः । लब्ध: प्राप्तः गंगदत्तस्य भदन्त ! देवस्य कियत् कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम! सप्तदश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । गंगदत्तः देवः तस्मात् देवलोकात् आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यते ? गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति । श. १६ : उ. ५ : सू. ७२-७५ इस प्रकार उद्रायण (भ. १३ / ११७ ) की भांति यावत् स्वयं ही आभरण उतारे, उतार कर स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया, लोच कर जहां अर्हत् मुनिसुव्रत इस प्रकार जैसे उद्रायण वैसे ही प्रव्रजित हुआ। उसी प्रकार ग्यारह अंगों का अध्ययन किया यावत् एक मास की संलेखना से अपने शरीर को 'कृश बनाया, कृश बनाकर साठ भक्त (भोजन के समय) का छेदन किया, छेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर, समाधि प्राप्त कर कालमास में काल कर महाशुक्र कल्प में महासामान्य विमान में उपपात सभा में देवशयनीय में यावत् गंगदत्त देव के रूप में उपपन्न हुआ। ७२. गंगदत्त देव अभी उपपन्न मात्र होने पर पंच प्रकार की पर्याप्ति से पर्याप्त भाव को प्राप्त हो गया (जैसे- आहार पर्याप्ति यावत् भाषा मनः पर्याप्ति) गौतम ! इस प्रकार गंगदत्त देव को वह दिव्य देव ऋद्धि, वह दिव्य देवद्युति, वह दिव्य देवानुभाव लब्ध प्राप्त और अभिसमन्वागत है। ७३. भंते! गंगदत्त देव की स्थिति कितने काल की प्रज्ञप्त है ? गौतम! सतरह सागरोपम की स्थिति प्रज्ञप्त है। ७४. भंते! गंगदत्त देव उस देवलोक से आयुक्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम ! महाविदेह वास में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों का अंत करेगा। ७५. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छटो उद्देसो : छट्ठा उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद स्वप्न-पद ७६. भंते! स्वप्न-दर्शन कितने प्रकार का प्रज्ञप्त सुविण-पदं स्वप्न-पदम् ७६. कतिविहे णं भंते ! सुविणदंसणे कतिविधं भदन्त! स्वप्नदर्शनं प्रज्ञप्तम्? पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे सुविणदंसणे पण्णत्ते, तं गौतम! पञ्चविधं स्वप्नदर्शनं प्रज्ञप्तम्, जहा-अहातचे, पताणे, चिंतासुविणे, तद्यथा-यथातथ्यम्, प्रतानम्, चिन्तातन्निवरीए, अव्वत्तदंसणे॥ स्वप्नम्,तविपरीतम्, अव्यक्तदर्शनम्। गौतम! स्वप्न-दर्शन पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-यथातथ्य, प्रतान, चिंता-स्वप्न, तविपरीत, अव्यक्त दर्शन। ७७. सुत्ते णं भंते! सुविणं पासति? सुप्तः भदन्त! स्वप्नं पश्यति? जागरः ७७. भंते! क्या जीव सुप्त अवस्था में स्वप्न जागरे सुविणं पासति ? सुत्तजागरे सुविणं स्वप्नं पश्यति? सुप्तजागरः स्वप्नं देखता है? जागृत अवस्था में स्वप्न देखता पासति? पश्यति? है? सुप्त-जागृत अवस्था में स्वप्न देखता है? गोयमा! नो सुत्ते सुविणं पासति, नो गौतम! नो सुप्तः स्वप्नं पश्यति, नो । गौतम! सुप्त अवस्था में स्वप्न नहीं देखता, जागरे सुविणं पासति, सुत्तजागरे सुविणं जागरः स्वप्नं पश्यति, सुप्तजागरः स्वप्नं । जागृत अवस्था में स्वप्न नहीं देखता, सुप्तपासति॥ पश्यति। जागृत अवस्था में स्वप्न देखता है। ७८. जीवा णं भंते! किं सुत्ता? जा- जीवाः भदन्त! किं सुप्ताः? जागराः? गरा ? सुत्तजागरा? सुप्त-जागराः? गोयमा! जीवा सुत्ता वि, जागरा वि, गौतम! जीवाः सुप्ताः अपि, जागराः सुत्तजागरा वि॥ अपि, सुप्तजागराः अपि। ७८. भंते! क्या जीव सुप्त हैं? जागृत हैं? सुप्त जागृत हैं? गौतम! जीव सुप्त भी हैं, जागृत भी हैं, सुप्तजागृत भी हैं। ७६. नेरइयाण भंते ! किं सुत्ता-पुच्छा। गोयमा! नेरइया मुत्ता, नो जागरा, नो सुत्तजागरा। एवं जाव चरिंदिया॥ नैरयिकाणाम् भदन्त ! किं सुप्ताः- पृच्छा। गौतम! नैरयिकाः सुप्ताः, नो जागराः, नो सुप्तजागराः । एवं यावत् चतुरिन्द्रियाः। ७६. भंते! नैरयिक सुप्त हैं-पृच्छा। गौतम! नैरयिक सुप्त हैं, जागृत नहीं हैं, सुप्तजागृत नहीं हैं। इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता। १०. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते! पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः भदन्त! किं ५०. भंते! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या सुप्त हैं? किं सुत्ता-पुच्छा। सुप्ता:-पृच्छा। पृच्छा । गोयमा! सुत्ता, गे जागरा, सुत्तजागरा गौतम! सुप्ताः, नो जागराः, सुप्तजागराः । गौतम ! सुप्त हैं, जागृत नहीं हैं। सुप्त-जागृत भी वि। मणुस्सा जहा जीवा। वाणमंतर- अपि। मनुष्याः यथा जीवाः । वानमन्तर- हैं। मनुष्य की जीव की भांति वक्तव्यता। जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया॥ ज्योतिष्क-वैमानिकाः यथा नैरयिकाः। वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक की नैरयिक की भांति वक्तव्यता। ८१. भंते! क्या संवृत स्वप्न देखता है? असंवृत स्वप्न देखता है? संवृतासंवृत स्वप्न देखता ८१. संडे णं भंते! सुविणं पासति? संवृतः भदन्त! स्वप्नं पश्यति? असंवुडे सुविणं पासति ? संवुडासंबुडे असंवृतः स्वप्नं पश्यति? संवृतासंवृतः सुविण पासति? स्वप्नं पश्यति? गोयमा! संबुडे वि सुविणं पासति, गौतम! संवृतः अपि स्वप्नं पश्यति, गौतम! संवृत भी स्वप्न देखता है, असंवृत Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३७५ श. १६ : उ.६ : सू. ८२-८५ असंवुडे वि सुविणं पासति, संवुडासंवुडे वि असंवृतः अपि स्वप्नं पश्यति, सुविणं पासति। संवुडे सुविणं पासति संवृतासंवृतः अपि स्वप्नं पश्यति। अहातचं पासति। असंवुडे सुविणं पासति संवृतः स्वप्नं पश्यति यथातथ्यं पश्यति। तहा वा तं होज्जा, अण्णहा वा तं। असंवृतः स्वप्नं पश्यति तथा वा तत् होज्जा। संवुडासंवुडे सुविणं पासति तहा। भवेत्, अन्यथा वा तत् भवेत्। वा तं होज्जा, अण्णहा वा तं होज्जा॥ संवृतासंवृतः स्वप्नं पश्यति तथा वा तत् भवेत् अन्यथा वा तत् भवेत्। भी स्वप्न देखता है, संवृतासंवृत भी स्वप्न देखता है। संवृत स्वप्न देखता है, वह यथातथ्य देखता है। असंवृत स्वप्न देखता है, वह वैसा भी होता है, अन्यथा भी होता है। संवृतासंवृत स्वप्न देखता है, वह वैसा भी होता है, अन्यथा भी होता है। १२. जीवा णं भंते! किं संवुडा? जीवाः भदन्त ! किं संवृताः? असंवृताः? असंवुडा? संवुडासंवुडा? संवृतासंवृताः? गोयमा! जीवा संवुडा वि, असंवुडा वि, गौतम! जीवाः संवृताः अपि, असंवृताः संवुडासंवुडा वि। एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ अपि, संवृतासंवृताः अपि। एवं यथैव तहेव भाणियब्यो॥ सुप्तानां दण्डकः तथैव भणितव्यः । ५२. भंते! क्या जीव संवृत हैं? असंवृत हैं? संवृतासंवृत हैं? गौतम! जीव संवृत भी हैं, असंवृत भी हैं, संवृतासंवृत भी हैं। जैसे सुप्त के दण्डक वैसे ही संवृत की वक्तव्यता। ८३. कति णं भंते सुविणा पण्णत्ता? गोयमा! बायालीसं सुविणा पण्णत्ता॥ कति भदन्त! स्वप्नाः प्रज्ञप्ताः? गौतम! द्वाचत्वाशिंत् स्वप्नाः प्रज्ञप्ताः । ८३. भंते! स्वप्न कितने प्रज्ञप्त हैं? गौतम! स्वप्न बयालीस प्रज्ञप्त हैं। ८४. कति णं भंते ! महासुविणा पण्णत्ता ? गोयमा! तीसं महासुविणा पण्णत्ता॥ कति भदन्त! महास्वप्नाः प्रज्ञप्ताः? गौतम! त्रिंशत् महास्वप्नाः प्रज्ञप्ताः। ५४. भंते! महास्वप्न कितने प्रज्ञप्त हैं? गौतम! महास्वप्न तीस प्रज्ञप्त हैं। २५. कति णं भंते ! सव्वसुविणा पण्णत्ता? गोयमा! बावतरं सव्वसुविणा पण्णत्ता॥ कति भदन्त! सर्वस्वप्नाः प्रज्ञप्ताः? गौतम! द्विसप्ततिः सर्वस्वप्नाः प्रज्ञप्ताः। ५५. भंते! सर्वस्वप्न कितने प्रज्ञप्त हैं? गौतम! सर्व स्वप्न बहत्तर प्रज्ञप्त हैं। २६. तित्थगरमायरो णं भंते! तित्थगरंसि तीर्थकरमातरः भदन्त! तीर्थंकरे गर्भम् गन्भं बक्कममाणंसि कति महासविणे अवक्रामति कति महास्वप्नान् दृष्ट्रा पासित्ता णं पडिबुझंति ? प्रतिबुध्यन्ते? गोयमा! तित्थगरमायरो तित्थगरंसि । गौतम! तीर्थंकरमातरः तीर्थंकरे गर्भम् गन्भं वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए। अवक्रामति एतेषां त्रिंशत् महास्वप्नानां महासुविणाणं इमे चोद्दस महासुविणे इमान् चतुदर्शमहास्वप्नान् दृष्ट्या पासित्ता णं पडिबुझंति, तं जहा- प्रतिबुध्यन्ते, तद्यथा-गज ऋषभ गय-उसभ जाव सिहिं च॥ यावत् शिखिनं च। ८६. भंते! तीर्थंकर की माता तीर्थंकर के गर्भ में आने के समय कितने महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं? गौतम! तीर्थंकर की माता तीर्थंकर के गर्भ में आने के समय इन तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं, जैसे-गज, वृषभ यावत् अग्नि। २७. चक्कवट्टिमायरो णं भंते! चक्क- वट्टिसि गम्भं वक्कममाणंसि कति महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति? गोयमा! चक्कवट्टिमायरो चक्कवट्टिसि गन्भं वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति, तं जहा-गयउसभ जाव सिहिं च॥ चक्रवर्तिमातरः भदन्त! चक्रवत्तौ गर्भम् अवक्रामति ऐतेषां त्रिंशत् महास्वप्नान् दृष्ट्रा प्रतिबुध्यन्ते? गौतम! चक्रवर्तिमातरः चक्रवर्ती गर्भम् अवक्रामति एतेषां त्रिंशत् महास्वप्नानां इमान् चतुर्दशमहास्वप्नान् दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते, तद्यथा-गज-ऋषभ यावत् शिखिनं च। ८७. भंते! चक्रवर्ती की माता चक्रवर्ती के गर्भ में आने के समय कितने महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं? गौतम! चक्रवर्ती की माता चक्रवर्ती के गर्भ में आने के समय इन तीस महास्वप्न में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं, जैसे-गज, वृषभ यावत् अग्नि। १८. वासुदेवमायरो णं-पुच्छा। वासुदेवमातर:-पृच्छा। गोयमा! वासुदेवमायरो वासुदेवंसि गौतम! वासुदेवमातरः वासुदेवे गर्भम् गभं वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं अवक्रामति एतेषां चतुर्दशानां ८८. वासुदेव की माता-पृच्छा। गौतम! वासुदेव की माता वासुदेव के गर्भ में आने के समय इन चौदह महास्वप्नों में से Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १६ : उ. ६ : सू. १६-६१ ३७६ महासुविणाणं अण्णयरे सत्त महास्वप्नानाम् अन्यतरान् महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति॥ महास्वप्नान् दृष्ट्रा प्रतिबुध्यन्ते। सप्त किन्हीं सात महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। ८६. बलदेवमायरो-पुच्छा। बलदेवमातरः-पृच्छा। गोयमा! बलदेवमायरो जाव एएसिं गौतम! बलदेवमातरः यावत् एतेषां चोद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महास्वप्नानाम् अन्यतरान् चतुरः महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति॥ महास्वप्नान् दृष्ट्रा प्रतिबुध्यन्ते। ८६. बलदेव की माता-पृच्छा। गौतम! बलदेव की माता यावत् इन चौदह महास्वप्नों में से किन्हीं चार महास्वप्नों को देखकर जागृत होती हैं। १०. मंडलियमायरो णं भंते!-पुच्छा? माण्डलिकमातरः भदन्त!-पृच्छा। गोयमा! मंडलियमायरो जाव एएसिं गौतम! माण्डलिकमातरः यावत् एतेषां चोद्दसण्हं महासुविणाणं अण्णयरं एगं चतुदर्शानां महास्वप्नानाम् अन्यतरम् महासुविणं पासित्ता णं पडिबुझंति॥ एकं महास्वप्नं दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते। १०. भंते! मांडलिक की माता-पृच्छा। गौतम! मांडलिक की माता यावत् इन चौदह महास्वप्नों में से किसी एक महास्वप्न को देखकर जागृत होती हैं। भगवओ महासुविण-दसण-पदं भगवतः महास्वप्न-दर्शन-पदम् भगवान् का महास्वप्न-दर्शन पद ११. समणे भगवं महावीरे छउमत्थ- श्रमणः भगवान् महावीरः छद्मस्थकालि- ६१. श्रमण भगवान् महावीर छद्मस्थकालीन कालियाए अंतिमराइयंसि इमे दस क्याम् अन्तिमरात्रिकायाम् इमान् दश अवस्था में रात के अंतिम भाग में इन दस महासविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, तं महास्वप्नान् दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः, तद्यथा- महास्वप्नों को देखकर जागृत हुए, जैसेजहा१. एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं १. एकं च महान्तं घोररूपदीप्तधरं १. महान् घोर रूप वाले दीप्तिमान एक ताल तालपिसायं सुविणे पराजियं पासित्ता णं तालपिशाचं स्वप्ने पराजितं दृष्ट्रा पिशाच (ताड़ जैसे लंबे पिशाच) को स्वप्न में पडिबुद्धे। प्रतिबुद्धः। पराजित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। २. एगं च णं महं सुक्किलपक्वगं २. एकं च महान्तं शुक्लपक्षकं २. श्वेत पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल को पुंसकोइलगं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। पुंस्कोकिलकं स्वप्ने दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ३. एगं च णं महं चित्तविचित्तपक्वगं ३. एकं च महान्तं चित्रविचित्रपक्षकं ३. चित्र विचित्र पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल पुंसकोइलग सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। पुस्कोकिलकं स्वप्ने दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ४. एगं च णं महं दामदुर्ग सन्वरयणामय ४. एकं महद् दामद्विकं सर्वरत्नमयं ४. सर्वरत्नमय दो बड़ी मालाओं को स्वप्न में सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। स्वप्ने दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ५. एगं च णं महं सेयं गोवग्गं सुविणे ५. एकं च महान्तं श्वेतं गोवर्ग स्वप्ने ५. एक महान् श्वेत गोवर्ग को स्वप्न में पासित्ता णं पडिबुद्धे। दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ६. एगं च णं महं पउमसरं सब्बओ ६. एकं च महत् पद्मसरः सर्वतः ६. चिहुं ओर कुसुमित एक बड़े पद्म सरोवर को समंता कुसुमियं सुविणे पासित्ता णं समन्तात् कुसुमितं स्वप्ने दृष्ट्वा स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। पडिबुद्धे। प्रतिबुद्धः। ७. एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयी- ७. एकं च महान्तं सागरम् ७. स्वप्न में हजारों ऊर्मियों और वीचियों से सहस्सकलियं भूयाहिं तिण्ण सुविणे उर्मिवीचिसहसकलितं भुजाभ्यां तीर्णं परिपूर्ण एक महासागर को भुजाओं से तीर्ण पासित्ता णं पडिब। स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः। हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ८. एगं च णं . दिणयरं तेयसा जलंतं ८. एकं च महान्तं दिनकरं तेजसा ८. तेज से जाज्वल्यमान एक महान् सूर्य को सुविणे पासित्ता णं ५ युद्धे। ज्वलन्तं स्वप्ने दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः । स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए। ह. एगं च णं महं हरिवेरुलियवण्णाभेणं ६. एकं च महान्तं हरिवैडूर्यवर्णाभेन ६. स्वप्न में भूरे व नीले वर्ण वाली अपनी नियगेणं अंतेणं माणुसुत्तरं पव्वयं निजकेन आन्त्रेण मानुषोत्तरं पर्वतं सर्वतः आंतों से मानुषोत्तर पर्वत को चारों ओर से सबओ समंता आवेदियं परिवेढियं सुविणे ___ समन्तात् आवेष्टितं परिवेष्टितं स्वप्ने आवेष्टित और परिवेष्टित हुआ देखकर पासित्ता णं पडिबुद्धे। दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः। प्रतिबुद्ध हुए। १०. एगं च णं महं मंदरे पन्चए १०. एकं च महान्तं मन्दरे पर्वते मन्दर- १०. स्वप्न में महान् मंदर पर्वत की मंदर मंदरचूलियाए उवरिं सीहासणवरगयं चूलिकायाः उपरि सिंहासनवरगतम् । चूलिका पर अवस्थित सिंहासन के ऊपर अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे। आत्मानं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः। अपने आपको बैठे हुए देखकर प्रतिबुद्ध हुए। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३७७ श. १६ : उ. ६ : सू. ६१ १. जण्णं समणे भगवं महावीरे एग महं १. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं च घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे महान्तं घोररूपदीप्तधरं तालपिशाचं पराजियं पासित्ता णं पडिबुद्धे, तण्णं स्वप्ने पराजितं दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः, तत् समणेणं भगवया महावीरेणं मोहणिज्जे श्रमणेन भगवता-महावीरेण मोहनीयं मूलाओ उग्घाइए। कर्म मूलतः उद्घातितम्।। २. जण्णं समणे भगवं महावीरे एग महं २. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं च सुक्किलपक्वगं पुंसकोइलगं सुविणे महान्तं शुक्लपक्षकं पुंस्कोकिलकं स्वप्ने पासित्ता णं पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणः भगवान् महावीरे सुक्कज्झाणोवगए विहरति। महावीरः शुक्लध्यानोपगतः विहरति। ३. जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं ३. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं च चित्तविचित्तपक्वगं पुंसकोइलग सुविणे महान्तं चित्रविचित्रपक्षकं पुंस्कोकिलकं पासित्ता णं पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं स्वप्ने दृष्टा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणः महावीरे विचित्तं ससमय-परसमइयं भगवान् महावीरः विचित्रं स्वसमयदुवालसंगं गणिपिडगं आघवेति पण्णवेति परसामयिकं द्वादशाङ्गं गणिपिटकम् परूवेति दंसेति निदंसेति उबदंसेति, तं आख्याति प्रज्ञापयति प्ररूपयति जहा-आयारं, सूयगडं जाव दिट्टिवायं। दर्शयति निदर्शयति, उपदर्शयति, तद्यथा- आचारं, सूत्रकृतं यावत्। ४. जण्णं समणे भगवं महावीरे एग महं ४. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं दामदुगं सव्वरयणामयं सुविणे पासित्ता महद् दामद्विकं सर्वरत्नमयं स्वप्ने दृष्ट्रा णं पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे प्रतिबुद्धः तत् श्रमणः भगवान् महावीरः दुविहे धम्मे पण्णवेति, तं जहा-अगार- द्विविधं धर्म प्रज्ञापयति, तद्यथा- धम्मं वा, अणगारधम्म वा। अगारधर्म वा, अनगारधर्मं वा। ५. जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं ५. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं च सेयं गोवग्गं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे, महान्तं श्वेतं गोवर्ग स्वप्ने दृष्ट्या तण्णं समणस्स भगवओ महावीरस्स प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणस्य भगवतः महाचाउवण्णाइण्णे समणसंघे, तं। वीरस्य चातुवर्णाकीर्णः श्रमणसंघः, जहा-समणा, समणीओ, सावया, तद्यथा-श्रमणाः श्रमण्यः, श्रावकाः सावियाओ। श्राविकाः। ६. जण्णं समणे भगवं महावीरे एग महं ६. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं पउमसरं सवओ समंता कुसुमियं सुविणे महत् पद्मसरः सर्वतः समन्तात् पासित्ता णं पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं कुसुमितं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धः तत् महावीरे चउबिहे देवे पण्णवेति, तं श्रमणः भगवान् महावीरः चतुर्विधान् जहा-भवणवासी, वाणमंतरे, जोतिसिए. देवान् प्रज्ञापयति, तद्यथा-भवनवेमाणिए। वासिनः वानमन्तरान, ज्योतिष्कान, वैमानिकान्। ७. जण्णं समणे भगवं महावीरे एगं महं ७. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं महान्तं सागरम् ऊर्मिवीचिसहस्रकलितं भूयाहिं तिण्णं सुविणे पासित्ता णं भुजाभ्यां तीर्णं स्वप्ने दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः, पडिबुद्धे, तण्णं समणेणं भगवया तत् श्रमणेन भगवता महावीरेण महावीरेणं अणादीए अणवदग्गे दीहमद्धे अनादिकम् अनवदग्रं दीर्घाध्वानं चाउरते संसारकंतारे तिण्णे। चातुरन्तं संसारकन्तारं तीर्णम्। १. श्रमण भगवान् महावीर महान् घोर रूप वाले दीप्तिमान् एक ताल-पिशाच को स्वप्न में पराजित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने मोहनीय कर्म को मूल से उखाड़ फेंका। २. श्रमण भगवान महावीर श्वेत पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर शुक्ल ध्यान को प्राप्त हुए। ३. श्रमण भगवान् महावीर चित्र विचित्र पंखों वाले एक बड़े पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर ने स्वसमय और पर-समय का निरूपण करने वाले द्वादशांग गणिपिटक का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया, जैसे- आचार, सूत्रकृत् यावत् दृष्टिवाद।। ४. श्रमण भगवान् महावीर सर्वरत्नमय दो बड़ी मालाओं को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने इन दो प्रकार के धर्मों की प्रज्ञापना की, जैसे-अगार धर्म और अनगार धर्म। ५. श्रमण भगवान् महावीर एक महान् श्वेत गोवर्ग को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान महावीर के चतुर्वर्णात्मक श्रमण संघ हुआ, जैसे-श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका। ६. श्रमण भगवान् महावीर चिहुं ओर कुसुमित एक बड़े पद्म सरोवर को स्वप्न में देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने चार प्रकार के देवों का प्रज्ञापन किया, जैसे-भवनपति, वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक। ७. श्रमण भगवान् महावीर स्वप्न में हजारों ऊर्मियों और वीचियों से परिपूर्ण एक महासागर को भुजाओं से तीर्ण हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर ने अनादि, अनंत, प्रलंब और चार अंत वाले संसार रूपी कानन को पार किया। ८. श्रमण भगवान महावीर तेज से जाज्वल्यमान एक महान सूर्य को स्वप्न में ८. जण्णं समणे भगवं महावीरे एग महं ८. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं च दिणयरं तेयसा जलतं सुविणे पासित्ता णं महान्तं दिनकर तेजसा ज्वलन्तं स्वप्ने Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. ६ : सू. ६२-६४ ३७८ भगवई पडिबुद्धे, तण्णं समणस्स भगवओ महा- दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणस्य भगवतः । देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण वीरस्स अणते अणुत्तरे निब्वाधाए निरा- महावीरस्य अनन्तम् अनुत्तरम् भगवान् महावीर को अनंत, अनुत्तर, वरणे कसिणे पडिपुण्णे केवल- नियाघातं निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण निर्व्याघात, निरावरण, पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवल वरनाणदंसणे समपन्ने। केवलवरज्ञानदर्शनं समत्पन्नम। ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्त हुए। १. जणं समणे भगवं महावीरे एगं महं .. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः एकं ६. श्रमण भगवान् महावीर स्वप्न में भूरे और हरिवेरुलिय वण्णाभेणं नियगेणं अंतेणं । महान्तं हरिवैडूर्यवर्णाभेन निजकेन। नील वर्ण वाली अपनी आंतों से मानुषोत्तर माणसत्तरं पव्वयं सव्वओ समंता आन्त्रेण मानुषोत्तरं पर्वतं सर्वतः पर्वत को चारों ओर से आवेष्टित और आवेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ता णं समन्तात् आवेष्टितं परिवेष्टितं स्वप्ने परिवेष्टित हुआ देखकर प्रतिबुद्ध हुए, उसके पडिबुद्धे, तण्णं समणस्स भगवओ महा- दृष्ट्रा प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणस्य भगवतः फलस्वरूप श्रमण भगवान् महावीर की देव, वीरस्स ओराला कित्ति-वण्ण-सद- महावीरस्य 'ओराला' कीर्ति-वर्ण- मनुष्य और असुरों के लोक में प्रधान कीर्ति, सिलोया सदेवमणुयासुरे लोए शब्द-श्लोकाः सदेवमनुजासुरे लोके वर्ण, शब्द और श्लाघा व्याप्त हुई। श्रमण परिभमंति-इति खलु समणे भगवं परिभ्रमन्ति- इति खलु श्रमणः भगवान् भगवान् महावीर ऐसे हैं, श्रमण भगवान् महावीरे, इति खलु समणे भगवं महावीरः, इति खलु श्रमणः भगवान् महावीर ऐसे हैं-ये शब्द सर्वत्र फैल गए। महावीरे। महावीरः। १०. जण्णं समणे भगवं महावीरे मंदरे १०. यत् श्रमणः भगवान् महावीरः मन्दरे १०. श्रमण भगवान् महावीर स्वप्न में महान् पव्वए मंदरचूलियाए उरि सीहासण- पर्वते मन्दरचूलिकायाः उपरि सिंहा- मंदर पर्वत की मंदर चूलिका पर अवस्थित वरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं सनवरगतम् आत्मानं स्वप्ने दृष्टा सिंहासन पर अपने आपको बैठे हुए देखकर पडिबुद्धे, तण्णं समणे भगवं महावीरे प्रतिबुद्धः, तत् श्रमणः भगवान् महावीरः प्रतिबुद्ध हुए, उसके फलस्वरूप श्रमण सदेवमणुयासुराए परिसाए मज्झगए सदेवमनुजासुरायां परिषदि मध्यगतः भगवान् महावीर ने देव, मनुष्य और असुर की केवली धम्म आघवेति पण्णवेति परवेति केवली धर्मम् आख्याति प्रज्ञापयति परिषद् के बीच केवली प्रज्ञप्त धर्म का दंसेति निदंसेति उवदंसेति॥ प्ररूपयति दर्शयति निदर्शयति आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन उपदर्शयति। और उपदर्शन किया। सुविण-फल-पदं ६२. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं हयपंतिं वा गयपंतिं वा नरपंतिं वा किन्नरपंतिं वा किंपुरिसपंतिं वा महोरगपतिं वा गंधब्वपंतिं वा वसभपंतिं वा पासमाणे पासति, द्रुहमाणे दुहति, दूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति॥ स्वप्न-फल-पदम् स्वप्न-फल-पद स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकां महतीं ६२. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक हयपंक्तिं वा गजपंक्तिं वा किन्नरपंक्तिं । महान् अश्व पंक्ति, गज पंक्ति, नर पंक्ति, वा किम्पुरुषपंक्तिं वा गन्धर्वपक्तिं वा किन्नर पंक्ति, किंपुरुष पंक्ति, महोरग वृषभपक्तिं वा पश्यन् पश्यति, आरोहन् पंक्ति, गंधर्व पंक्ति, वृषभ पंक्ति को देखता आरोहति, आरूढम् इति आत्मानं हुआ देखता है, चढता हुआ चढता है, मैं चढ मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति' तेनैव गया हूं, ऐसा स्वयं को मानता है, उसी क्षण भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् वह जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ६३. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकां महतीं ६३. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में पूर्व से दामिणिं पाईणपडिणायतं दुहओ समुद्दे दामिनी प्राचीन प्रतीचीनायातां द्वितः पश्चिम तक फैली हुई, समुद्र के दोनों छोरों पुढे पासमाणे पासति, संवेल्लेमाणे समुद्रान् स्पृष्टं पश्यन् पश्यति, संवेल्लन् का स्पर्श करती हुई एक महान् रस्सी को संवेल्लेइ, संवेल्लियमिति अप्पाणं संवेल्लति संवेल्लितं इति आत्मानं देखता हुआ देखता है, समेटता हुआ समेटता मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव ___ मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', तेनैव - है। मैंने समेटा है, ऐसा स्वयं को मानता है, भवम्गहणेणं सिज्झति जाव सब्ब- भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भवदुक्खाणं अंतं करेति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ६४. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एका महतीं ६४. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में पूर्व से , Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई रज्जुं पाईणपडिणायतं दुहओ लोगंते पुट्ठे पासमाणे पासति, छिंदमाणे छिंदति, छिन्नमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ॥ ६५. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं किण्हसुत्तगं वा नीलसुत्तगं वा लोहियसुत्तगं वा हालिद्दसुत्तगं वा सुक्किलसुत्तगं वा पासमाणे पासति उग्गोवेमाणे उग्गोवेति, उग्गोवितमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ॥ ६६. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं अयरासिं वा तंबरासिं वा तउयरासिं वा सीसगरासिं वा पासमाणे पासति, दुरुहमाणे दुरुहति, दुरूदमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, दोचे भवग्गहणे सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ॥ ६७. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं हिरण्णरासिं वा सुवण्णरासिं वा रयणरासिं वा वइररासिं वा पासमाणे पासति, दुरुहमाणे दुरुहति, दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ॥ ३७६९ रज्जुं प्राचीनप्रतीचीनायातां द्वितः लोकान्तान् स्पृष्टं पश्यन् पश्यति, छिंदन् छिनत्ति, छिन्नम् इति आत्मानं पश्यति, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', तेनैव भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति । स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं कृष्णसूत्रकं वा नीलसूत्रकं वा लोहितसूत्रकं वा हारिद्रसूत्रकं वा शुक्लसूत्रकं वा पश्यन् पश्यति, उद्गोपयन् उद्गोपयति, उद्गोपितम् इति आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति' तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति । स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं अयः राशि वा, आरोहन् आरोहति आरूढम् इति आत्मानं मन्यते तत्क्षणमेव 'बुज्झति', द्वितीये भवग्रहणे सिद्ध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति । स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं हिरण्यराशिं वा सुवर्णराशिं वा रजतराशि वा वज्रराशिं वा पश्यन् पश्यति, आरोहन् आरोहति, आरूढम् इति आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति । ६८. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं तणरासिं वा कहरासिं वा पत्तरासिं वा तयरासिं वा तुसरासिं वा भुसरासिं वा गोमयरासिं वा अवकररासिं वा पासमाणे पासति, विक्खिरमाणे विक्खिरति, विक्खिण्णमिति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणे सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ॥ स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं तृणराशि वा काष्ठराशि वा पत्रराशि वा त्वक्राशिं वा तुषराशि वा बुसराशि वा गोमयराशि वा अवकरराशिं वा पश्यन् पश्यति, विकीर्यमाणं विकिरति, विकीर्णम् इति आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति । ६६. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं श. १६ : उ. ६ : सू. ६५-६६ पश्चिम तक फैली हुई लोक के दोनों छोरों का स्पर्श करती हुई एक महान् रज्जु को देखता हुआ देखता है, काटता हुआ काटता है। मैंने काट दिया है, ऐसा स्वयं को मानता है, वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भवग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ६५. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक महान् काले सूत्र, नीले सूत्र, लाल सूत्र, पीले सूत्र अथवा श्वेत सूत्र को देखता हुआ देखता है, सुलझाता हुआ सुलझाता है, मैंने इसे सुलझाया है, ऐसा स्वयं को मानता है, वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ६६. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक महान् लोह राशि, ताम्र राशि, रांगा राशि, सीसा राशि को देखता हुआ देखता है, उस पर चढता हुआ चढ़ता है। मैं चढ़ गया हूं, ऐसा स्वयं को मानता है । वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो दूसरे भव-ग्रहण में सिद्ध होता है. यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ६७. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक महान् हिरण्य राशि, स्वर्ण-राशि, रजतराशि, वज्र - राशि को देखता हुआ देखता है, उस पर चढता हुआ चढता है। मैं चढ गया हूं, ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ६८. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक महान् तृण के ढेर, काठ के ढेर, पत्तों के ढेर, छाल के ढेर, तुष के ढेर, भूसे के ढेर, गोमय (गोबर) के ढेर, अकूरडी के ढेर को देखता हुआ देखता है उसे बिखेरता हुआ बिखेरता है, मैंने बिखेर दिया है, ऐसा स्वयं को मानता है, वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध यावत् सब दुःखों का अंत करता है। ६६. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ.६ : सू. १००-१०४ ३८० भगवई सस्थंभं वा वीरथंभं वा वसीमूलथंभं वा शरस्तम्भं वा वीरणस्तंभं वा वल्लीमूलथंभं वा पासमाणे पासति, वंशीमूलस्तम्भं वा वल्लीमूलस्तंभं वा उम्मूलेमाणे उम्मूलेति, उम्मूलितमिति पश्यन् पश्यति, उन्मूलयन् उन्मूलयति, अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, उन्मूलितम् इति आत्मानं मन्यते, तेणेव भवग्गहणणं सिज्झति जाव तत्क्षणमेव 'बुज्झति' तेनैव भवग्रहणेन सम्बदुक्खाणं अंतं करेति।। सिद्ध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। महान् शरकंडे के स्तम्भ, वीरण के स्तम्भ, वंशीमूल के स्तम्भ, वल्लीमूल के स्तम्भ को देखता हुआ देखता है, उन्मूलन करता हुआ उन्मूलन करता है, मैंने उन्मूलन कर दिया है, ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव ग्रहण में सिद्ध यावत् सब दुःखों का अंत करता है। १००. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं खीरकुंभं वा दधिकुंभं वा घयकुंभं वा क्षीरकुम्भं वा दधिकुम्भं वा घृतकुम्भं वा मधुकुंभं वा पासमाणे पासति, मधुकुम्भं वा पश्यन् पश्यति, उत्पाटयन् उप्पाडेमाणे उप्पाडेति, उप्पाडितमिति उत्पाटयति, उत्पाटितम् इति आत्मानं अप्पाणं मन्नति, तक्रवणामेव बुज्झति, मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति' तेनैव तेणेव भवग्गहणणं सिज्झति जाव भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् सब्बदुक्खाणं अंतं करेति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। १००. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में क्षीर कुंभ, दधि कुंभ, घृत कुंभ, मधु कुंभ को देखता हुआ देखता है, उठाता हुआ उठाता है, मैंने उठाया है , ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भवग्रहण में सिद्ध यावत् सब दुःखों का अंत करता है। १०१. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं सुरावियडकुंभं वा सोवीरवियडकुंभं वा सुराविकटकुम्भं वा सौवीरविकटकुम्भं वा तेल्लकुंभं वा वसाकुंभं वा पासमाणे - तैलकुम्भं वा वसाकुम्भं वा पश्यन् पासति, भिंदमाणे भिंदति, भिन्नमिति पश्यति, भिन्दानः भिनत्ति, भिन्नम् इति अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', दोच्चे भवग्गहणे सिज्झति जाव द्वितीये भवग्रहणे सिद्ध्यति यावत् सव्वदुक्खाणं अंतं करेति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। १०१. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अन्त में एक महान् मदिरा से आकीर्ण कुंभ, कांजी के जल से आकीर्ण कुंभ, तेल कुंभ, वसा कुंभ को देखता हुआ देखता है, भेदन करता हुआ भेदन करता है। मैंने भेदन कर दिया, ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो दूसरे भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। १०२. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महत् १०२. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक पउमसरं कुसुमियं पासमाणे पासति, पद्मसरः कुसुमितं पश्यन् पश्यति, महान् कुसुमित पद्म सरोवर को देखता हुआ ओगाहमाणे ओगाहति, ओगाढमिति अवगाहमानः अवगाहते, अवगाढम् इति । देखता है, अवगाहन करता हुआ अवगाहन अप्पाणं मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', करता है, मैंने अवगाहन कर लिया, ऐसा तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव तेनैव भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो सव्वदुक्खाणं अंतं करेति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। १०३. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महान्तं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं पासमाणे सागरम् उर्मिवीचिसहस्रकलितं पश्यन् पासति, तरमाणे तरति, तिण्णमिति पश्यति, तीर्यमाणः तरति, तीर्णम् इति अप्पाण मन्नति, तक्खणामेव बुज्झति, आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव तेनैव भवग्रहणेन सिद्ध्यति यावत् सव्वदुक्खाणं अंतं करेति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। १०३. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक हजारों ऊर्मियों और तरंगों से युक्त एक महान् समुद्र को देखता हुआ देखता है, तरता हुआ तरता है, मैं तर गया, ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। १०४. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एग महं भवणं सब्वरयणामयं पासमाणे पासति, अणुप्पविसमाणे अणुप्पविसति, स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महत् भवनं सर्वरत्नमयं पश्यन् पश्यति, अनुप्रविशन् अनुप्रविशति, अनुप्रविष्टम् १०४. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक महान् रत्नमय मकान को देखता हुआ देखता है, अनुप्रवेश करता हुआ अनुप्रवेश करता है, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३८१ श. १६ : उ.६ : सू. १०५ अणुप्पविट्ठमिति अप्पाणं मन्नति, इति आत्मानं मन्यते, तत्क्षणमेव तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं 'बुज्झति', तेनैव भवग्रहणेन सिद्ध्यति सिज्झति जाव सब्बदुक्खाणं अंतं यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। करेति॥ मैं अनुप्रविष्ट हो चुका हूं, ऐसा स्वयं को मानता है। वह उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। १०५. इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं स्त्री वा पुरुषः वा स्वप्नान्ते एकं महत् १०५. स्त्री अथवा पुरुष स्वप्न के अंत में एक विमाणं सव्वरयणामयं पासमाणे पासति, विमानं सर्वरत्नमयं पश्यन् पश्यति, महान् सर्वरत्नमय विमान को देखता हुआ द्रुहमाणे द्रुहति, दूढमिति अप्पाणं मन्नति, दुहमाणे द्रुहति, द्रुढं इति आत्मानं देखता है, उस पर चढ़ता हुआ चढता है, मैं तक्खणामेव बुज्झति, तेणेव भवग्गहणेणं मन्यते, तत्क्षणमेव 'बुज्झति', तेनैव चढ़ गया हूं, ऐसा स्वयं को मानता है, वह सिज्झति जाव सब्बदुक्खाणं अंतं भवग्रहणेन सिध्यति यावत् उसी क्षण जागृत हो जाए तो उसी भव-ग्रहण करेति॥ सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति। में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है। भाष्य सूत्र ७६-१०५ बलदेव और मांडलिक माता के स्वप्न का उल्लेख है।' स्वप्न स्वाप-क्रिया में होने वाला एक विकल्प है। निद्रा की अपेक्षा स्वप्न दर्शन की पांच कोटियों का उल्लेख है। बयालीस स्वप्न चेतना की तीन अवस्थाएं होती हैं और तीस महास्वप्न के नामों का यहां उल्लेख नहीं है। चौदह महास्वप्नों १. सुप्त-प्रगाढ़ निद्रा की अवस्था। का उल्लेख ग्यारहवें शतक में है।' २. जागृत-निद्रा-मुक्त अवस्था। स्वप्न फल के आधार पर स्वप्नों की संख्या का निर्धारण किया ३. सुप्त-जागृत-न अति सुप्त, न अति जागृत, मध्य अवस्था। जा सकता है। सूत्र १२ से १०५ तक सैंतालीस स्वप्नों का उल्लेख प्रस्तुत प्रकरण में स्वप्न की कोटियां, प्रकार, स्वप्न द्रष्टा और हुआ है। इनमें से स्वप्न और महास्वप्न के पृथक्करण के लिए अनुसंधान स्वप्न का फल-इन चार विषयों पर विचार किया गया है। सूत्र ७६ में आवश्यक है। स्वप्न दर्शन की पांच कोटियां तथा सूत्र ५३ में स्वप्न के बयालीस प्रकार स्वप्न दर्शन की पांच कोटियां बहुत मौलिक हैं। अभयदेवसूरि बतलाए गए हैं। सूत्र ८४ में तीस महास्वप्न का उल्लेख है। स्वप्न असंख्येय के अनुसार स्वप्न-दर्शन की पांच कोटियों का विवरण इस प्रकार हैहोते हैं। ४२ का वर्गीकरण विशिष्ट फल सूचक स्वप्न की अपेक्षा से १. यथा तथ्य-इस कोटि का स्वप्न यथार्थ होता है। इसके दो किया गया है। महा स्वप्न महत्तम फल के सूचक होते हैं। भेद किए गए हैंसूत्र ८१ के अनुसार संवत, असंवत और संवतासंवत-तीनों प्रकार दृष्टार्थ अविसंवादी-किसी ने स्वप्न में देखा, मुझे कोई फल दे के मनुष्य स्वप्न देखते हैं। इस प्रसंग में भगवान महावीर के दस स्वप्नों __रहा है और जागने पर किसी ने फल दे दिया। यह द्रष्ट अर्थ का का भी उल्लेख है। (सूत्र ११) महावीर के स्वप्न-दर्शन का पाठ स्थानांग- अविसंवादी है। सूत्र में भी उपलब्ध है। फलाविसंवादी-इस स्वप्न का फल अविसंवादी होता है। किसी एक प्रश्न उपस्थित होता है-भगवती का पाठ स्थानांग में उद्धृत ने स्वप्न में स्वयं को गाय, वृषभ, हाथी आदि पर आरूढ़ देखा और किया गया अथवा स्थानांग का पाठ भगवती में उद्धृत किया गया? उसे कालान्तर में संपत्ति का लाभ हुआ। इसमें फल का संवाद है। आयारो के नौवें अध्ययन में महावीर की साधना का विशद २. प्रतान-विस्तार से देखा गया स्वप्न। वर्णन मिलता है। उसमें महावीर के दस स्वप्नों का उल्लेख नहीं है। ३. चिन्तास्वप्न-स्वप्न की यह कोटि प्रख्यात है। जागृत अवस्था आचार चूला के पंद्रहवें अध्ययन में महावीर के जीवन के कुछ प्रसंग हैं का चिंतन स्वप्न बन जाता है। विशेषावश्यक भाष्य में स्वप्न के सात किन्तु उनमें दस स्वप्नों का उल्लेख नहीं है। दस स्वप्नों का मूल स्रोत निमित्त बतलाए गए हैंभगवती को ही माना जा सकता है। स्थानांग संग्रह सूत्र है इसलिए अनुभूत-जिन वस्तुओं का पहले अनुभव किया जा अनुमान किया जा सकता है कि उसमें इस विषय का संग्रह भगवती से चुका है। किया गया। दृष्ट-जो वस्तुएं देखी हुई हैं। तीर्थंकर की माता चौदह महास्वप्न देखती है, इसका उल्लेख चिन्तित-जिसके विषय में पहले चिंतन किया गया है। पर्युषणा कल्प में है। प्रस्तुत आगम के ग्यारहवें शतक में तीर्थंकर वासुदेव, श्रुत-जो सुना हुआ है किसी शास्त्र के आधार पर जाना हुआ है। १. भ. पू. सू. १४/७६ : बयालीसं सुविण त्ति विशिष्टफलसूचकस्वप्नापेक्षया २. ठाणं १०/१०३ द्विचत्वारिंशदन्यथाऽसंख्येयास्ते संभवन्तीति। ' महासुविण त्ति' ३. भ. ११/१४२॥ महत्तमफल-सूचकाः। ४. वही, ११/१४२। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. ६ : सू. १०६ ३८२ भगवई प्रकृति विकार-वात-पित्त जनित विकार। ५.अव्यक्त-दर्शन-इस कोटि के स्वप्नों में स्वप्न की विषयवस्तु देव-अनुकूल अथवा प्रतिकूल। का दर्शन स्पष्ट नहीं होता। अनूप-सजल प्रदेश। प्रस्तुत प्रकरण में स्वप्न के आध्यात्मिक फल का विवरण उपलब्ध इनके अतिरिक्त व्यक्ति के स्वार्जित पुण्य और पाप भी इष्ट और है। लोह राशि और सुरा-कुंभ देखने वाला दूसरे भव में सिद्ध होता है। अनिष्ट स्वप्न के निमित्त बनते हैं। ये सब निमित्तज स्वप्न हैं। स्वप्न की शेष स्वप्न देखने वाला उसी भव में सिद्ध होता है। इसकी व्याख्या का पांच कोटियों में से चिन्तास्वप्न की कोटि के स्वप्न हैं। स्रोत अनुसंधेय है। उत्तराध्ययन वृत्ति में उद्धृत एक गाथा के अनुसार चिंतास्वप्न वृत्तिकार ने स्वप्नान्त का अर्थ स्वप्न का विभाग अथवा अवसान फलदायी नहीं होते। उसका प्रतिपाद्य यह है-अनुभूत, दृष्ट और चिंतित किया है। स्वप्नों को छोड़कर स्वस्थ शरीर वाले मनुष्य द्वारा देखा गया स्वप्न स्वप्न द्रष्टा तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं-संवृत, असंवृत और सफल होता है। संवृतासंवृत। असंवृत और संवृतासंवृत व्यक्ति द्वारा देखा गया स्वप्न रात के प्रथम प्रहर में दृष्ट स्वप्न वर्ष भर में, दूसरे प्रहर में दृष्ट यथार्थ हो भी सकता है और यथार्थ नहीं भी हो सकता। संवृत मुनि के स्वप्न छह मास में, तीसरे प्रहर में दृष्ट स्वप्न तीन माह में और चौथे द्वारा देखा गया स्वप्न यथार्थ होता है। चित्त समाधि के प्रकरण में प्रहर में दृष्ट स्वप्न तत्काल फल देता है। विस्तार के लिए द्रष्टव्य श्री बतलाया गया है-आत्मयोगी मुनि स्वप्न देखता है और वह यथार्थ भिक्षु आगम विषय कोश। होता है। यह चित्त समाधि का तीसरा स्थान है। संवृत मुनि यथार्थ ४. तद्विपरीत-यह स्वप्न विपरीत अर्थ देने वाला होता है। स्वप्न स्वप्न देखता है और उस स्वप्न का फल है दुःख से मुक्ति। द्रष्टा व्यक्ति स्वप्न में जो वस्तु देखता है, जागने पर उससे विपरीत वस्तु शब्द विमर्श की प्राप्ति होती है। उदाहरण स्वरूप कोई व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को दामिणि-गाय आदि को बांधने की एक प्रकार की रज्जु। अमेध्य-अपवित्र वस्तु से लिप्त देखता है। जागने पर उसे मेध्य वस्तु-स्वर्ण संवेल्लेमाणे-समेटता हुआ। की प्राप्ति होती है। उग्गोवेमाणे-सुलझाता हुआ। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या में एक मतांतर का उल्लेख किया आवेढियं-आवेष्टित। है। उसके अनुसार मिट्टी के स्थल पर आरूढ़ व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को परिवेढियं-बार बार आवेष्टित। अश्वारूढ़ देखता है। यह तद्विपरीत स्वप्न है।' गंध-पोग्गल-पदं गन्ध-पुद्गल-पदम् गंध-पुद्गल पद १०६. अह भंते! कोहपुडाण वा जाव अथ भन्ते! कोष्ठपुटानां वा यावत् १०६. भंते! कोष्ठ-पुट यावत् केतकी-पुट केयइपुडाण वा अणुवायंसि उम्भिज्ज- केतकीपुटानां वा अनुवाते आघ्राता-गंध ग्रहण करने वाले पुरुष की माणाण वा निभिज्जमाणाण वा उदभिद्यमानानां वा निर्भिद्यमानानां वा अनुकूल दिशा में खोले जा रहे हैं, ढक्कन उक्किरिज्जमाणाण वा विक्किरिज्ज- उत्कीर्यमाणानां वा विकीर्यमाणानां वा उतारे जा रहे हैं, उत्कीर्ण किया जा रहा है, माणाण वा ठाणाओ वा ठाणं स्थानात् स्थानं संक्रम्यमाणानां किं विकीर्ण किया जा रहा है, एक स्थान से दूसरे संकामिज्जमाणाणं किं कोढे वाति जाव कोष्ठे वाति यावत केतकी वाति? स्थान पर संक्रांत किया जा रहा है, इस केयई वाति? अवस्था में कोष्ठपुट नाक के पास आता है? यावत् केतकीपुट नाक के पास आता है? गोयमा! नो कोटे वाति जाव नो केयई गौतम! नो कोष्ठे वाति यावत् नो केतकी गौतम! न कोष्ठपुट नाक के पास आता है, न वाति, घाणसहगया पोग्गला वांति॥ वाति, घ्राणसहगताः पुद्गलाः वान्ति। केतकीपुट नाक के पास आता है। गंध सह गत पुद्गल नाक के पास आते हैं। १. वि. भा. गा. १७०३ : अमेध्यविलिप्तं स्वप्ने पश्यति जागरितस्तु मेध्यमर्थ कंचनं प्राप्नोतीति, अणुहय दिव चिंतिय, सुय-पयइ वियार-देवयाऽणूया। अन्ये तु तद्विपरीतमेवाहु:-कश्चिद् स्वरूपेण मृत्तिकास्थलमारूढः स्वप्ने च सुमिणस्स निमित्ताई, पुण्णं पावं च नाभावो॥ पश्यत्यात्मानमवारूढमिति। २. उत्तरा. सुखबोधा वृत्ति पत्र १३० : ५. भ. वृ. १६/७६ : अव्यक्तं-अस्पष्टं दर्शनं-अनुभवः स्वप्नार्थस्य यत्रासाव. अणुहूय दिट्ट चिंतिय विवज्जियं, सब्वमेव जं सुमिणं। व्यक्तदर्शनः। जायइ अवितह फलयं, सत्यसरीरेहि जं दिडं। ६. वही, १६/१२ स्वप्नान्ते स्वप्नस्य विभागे अवसाने वा। ३. वही वृत्ति पत्र १३० : ७. दशाश्रुतरकंध ५/७ सुमिणंदसणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा पढमम्मि वासफलया, बीए जामम्मि होति छम्मासा। अहातचं सुमिणं पासित्तए।...... तइयम्मि तिमासफला, चरिमे सज्जप्फला होति॥ अहातचं तु सुमिणं खिप्पं पासइ संवुडे। ४. भ. वृ. १६/७६ : 'तविवरीय' त्ति यादृशं वस्तु स्वप्ने दृष्टं तद्विपरीत सव्वं च ओहं तरति, दुक्खतो य विमुच्चइ । स्यार्थस्य जागरणे यत्र प्राप्तिः स तद्विपरीतस्वप्नो यथा कश्चिदात्मानं Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३८३ श. १६ : उ.६ : सू. १०७ भाष्य सूत्र १०६ उदघाट्यमान। प्रस्तुत सूत्र में सुगंधित द्रव्यों के पुटों का वर्णन किया गया है। निन्भिज्जमाण-नीचे की ओर से दीर्यमान।' रायपसेणइय सूत्र में २१ पुटों का उल्लेख है-कोष्ठ, तगर, इलायची प्रस्तुत सूत्र में एक जिज्ञासा और उसका समाधान मिलता है। चोय, चंपक, दमनक, कुंकुम, चंदन, खस, मरुआ, गंधमालती, कोष्ठपुट आदि सुगंधी द्रव्य एक स्थान पर रखे हुए हैं। विवक्षित पुरुष यूथिका, बेला, स्नान-मल्लिका, केतकी, पाढल, नेवारी, अगर, लौंग, कुछ दूरी पर है। अनुकूल हवा चल रही है और वह दूर बैठा-बैठा सुगंधी वासक, कपूर। द्रव्य की सुरभि ले रहा है। यहां प्रश्न उपस्थित होता हैकोह-यह सुगन्धित द्रव्य है। क्या वह कोष्ठपुट की सुगंधी ले रहा है? कोष्ठपुट दूर है। उसकी केतकी-केवड़ा। द्रष्टव्य जैन आगम वनस्पति कोश। सुगंधी कैसे ले सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया-वह ___कोष्ठपुट से सुगंधी नहीं ले रहा है। कोष्ठपुट के सुगंधित परमाणु फैल अनुकूल वायु आ रही है', किया है।' मलयगिरि ने अनुवात का अर्थ रहे हैं। वे नाक के पास जा रहे हैं। वह घ्राण सहगत पुद्गलों की सुरभि 'विवक्षित आघ्रायक पुरुष की दिशा में हवा चल रही है', किया है। ले रहा है। उन्भिज्जमाण-प्रबलता से अथवा ऊपर की ओर से दीर्यमान, १०७. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। १०७. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही १. भ. वृ. १६/१०६ अनुकूलवातो यत्र देशे सोऽनुवातोऽतस्तत्र यस्माद्देशाद्- वायुरागच्छति तत्रेत्यर्थः। २. रायपसेणइय वृत्ति पत्र ६२ अनुवाते-आघ्रायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूलं वाते वाति सति। ३. भ. वृ. ६/१०६ उभिज्जमाणाण व ति प्राबल्येनोद्भवं वा दीर्यमाणानाम्। ४. रायपसेणइय वृत्ति पत्र १२ उद्भिद्यमानानां उदघाट्यमानानाम्। ५. भ. वृ. १६/१०६ : निम्भिज्जमाणानां प्राबल्याभावे नाधो वा दीर्यमाणानाम्। ६. भ. दृ. १६/१०६॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक हिन्दी अनुवाद १०८. भंते ! उपयोग कितने प्रकार का प्रज्ञप्त मूल संस्कृत छाया १०६. कतिविहे णं भंते! उवओगे कतिविधः भदन्त ! उपयोगः प्रज्ञप्तः? पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे उवओगे पण्णत्ते, एवं गौतम! द्विविधः उपयोगः प्रज्ञप्तः, एवं जहा उवओगपदं पण्णवणाए तहेब निरव- यथा उपयोगपदं प्रज्ञापनायां तथैव सेसं नेयव्वं, पासणयापदं च नेयव्वं ॥ निरवशेषं भणितव्यम्, दर्शनपदं च नेतव्यम्। गौतम! उपयोग दो प्रकार का प्रज्ञप्त है-इस प्रकार प्रज्ञापना का उपयोग पद (पण्णवणा पद २६) निरवशेष ज्ञातव्य है और दर्शन पद (पद ३०) भी ज्ञातव्य है। १०६. सेवं भंते ! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति। १०६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमो उद्देसो : आठवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद लोक के चरमान्त में जीव-अजीव आदि का मार्गणा पद ११०. भंते! लोक कितना बड़ा प्रज्ञप्त है? लोगस्स चरिमंते जीवाजीवादिमग्गणा- लोकस्य चरमान्ते जीवाजीवादि-मार्गणा पदम ११०. केमहालए णं भंते! लोए कियन्महन् भदन्त! लोकः प्रज्ञप्तः? पण्णते? गोयमा! महतिमहालए लोए पण्णत्ते, गौतम! महन्महान् लोकः प्रज्ञप्तः, यथा जहा बारसमसए तहेव जाव असंखेज्जाओ। द्वादशमशते तथैव असंख्येयाः योजनजोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं॥ कोटाकोट्यः परिक्षेपण। गौतम! लोक विशालतम प्रज्ञप्त है, जैसे बारहवें शतक में वैसे ही यावत परिधि में असंख्येय योजन कोड़ाकोड प्रमाण है। १११. लोयस्स णं भंते ! पुरथिमिल्ले लोकस्य भदन्त! पौरस्त्ये चरमान्ते किं १११. भंते! लोक के पूर्व चरमान्त में क्या जीव चरिमंते किं जीवा, जीवदेसा, जीव- जीवाः, जीवदेशाः, जीवप्रदेशाः हैं? जीव-देश हैं? जीव-प्रदेश हैं? अजीव पदेसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीव- अजीवाः, अजीवदेशाः, अजीव- हैं? अजीव-देश हैं? अजीव-प्रदेश हैं? पदेसा? प्रदेशाः? गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीव- गौतम! नो जीवाः, जीवदेशाः अपि, गौतम! जीव नहीं हैं। जीव के देश भी हैं, पदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, जीव-प्रदेशाः अपि, अजीवाः अपि, जीव के प्रदेश भी हैं। अजीव भी हैं, अजीव अजीवपदेसा वि। जे जीवदेसा ते नियमं अजीवदेशाः अपि, अजीवप्रदेशाः । के देश भी हैं, अजीव के प्रदेश भी हैं। जो एगिदियदेसा य, अहवा एगिदियदेसा य अपि। ये जीवदेशाः ते नियमम् जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के देश बेइंदियस्स य देसे-एवं जहा दसमसए एकेन्द्रियदेशाः च, अथवा एकेन्द्रियदेशाः हैं अथवा एकेन्द्रिय के देश और द्वीन्द्रिय का अग्गेयी दिसा तहेव, नवरं-देसेसु च द्वीन्द्रियस्य च देश:-एवं यथा देश है-इस प्रकार दसवें शतक में आग्नेयी अणिंदियाण आइल्लविरहिओ। जे दशमशते आग्नेयी दिशा तथैव, दिशा की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष अरूवी अजीवा ते छब्बिहा, अद्धासमयो नवरम्-देशेषु अनिन्द्रियाणाम् आदिम- है-देशों में प्रथम विकल्प विरहित अनिन्द्रियों नत्थि। सेसं तं चेव निरवसेसं॥ विरहितः। ये अरूपिणः अजीवाः ते की वक्तव्यता। जो अरूपी अजीव हैं, उनके षड्विधाः, अध्वासमयः नास्ति। शेष छह प्रकार हैं। अध्वा समय नहीं है। शेष तत् चैव निरवशेषम्। पूर्ववत् निरवेशष वक्तव्य है। ११२. लोगस्स णं भंते! दाहिणिल्ले लोकस्य भदन्त! दाक्षिणात्ये चरमान्ते चरिमंते किं जीवा ? किं जीवाः? एवं चेव। एवं पञ्चथिमिल्ले वि, एवं चैव। एवं पाश्चात्ये अपि, औदीच्ये उत्तरिल्ले वि॥ अपि। ११२. भंते! लोक के दक्षिण चरमान्त में क्या जीव हैं? पूर्ववत्। इसी प्रकार पश्चिम चरमान्त, इसी प्रकार उत्तर चरमान्त की वक्तव्यता। ११३. लोगस्स णं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते लोकस्य भदन्त ! उपरितने चरमान्ते किं किं जीवा-पुच्छा। जीवाः? पृच्छा। गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि जाव गौतम! नो जीवाः, जीवदेशाः अपि अजीवपदेसा वि। जे जीवदेसा ते नियमं यावत् अजीवप्रदेशाः अपि। ये जीवएगिदियदेसा य अणिंदियदेसा य, अहवा देशाः ते नियमम् एकेन्द्रियदेशाः, च एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य अनिन्द्रियदेशाः च अथवा एकेन्द्रिय ११३. भंते! लोक के उर्ध्व चरमान्त में क्या जीव हैं-पृच्छा। गौतम! जीव नहीं हैं। जीव के देश भी हैं यावत् अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव के देश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय के देश हैं और अनिन्द्रिय के देश हैं। अथवा एकेन्द्रिय के देश Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई श. १६ : उ. ८ : सू. ११४,११५ ३८६ बेइंदियस्स य देसे, अहवा एगिदियदेसा य देशाः च अनिन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियस्य अणिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा, च देशः, अथवा एकेन्द्रियदेशाः च एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव पंचिंदियाणं। अनिन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियाणां च देशाः जे जीवपदेसा ते नियमं एगिदियपदेसा एवं मध्यमविरहितः यावत् पञ्चेन्द्रियाय अणिंदियपदेसा य, अहवा णाम्। ये जीवप्रदेशाः ते नियमम् एगिदियपदेसा य अणिंदियपदेसा य एकेन्द्रियप्रदेशाः च अनिन्द्रियप्रदेशाः च बेइंदियस्स पदेसा य, अहवा अथवा एकेन्द्रियप्रदेशाः च अनिन्द्रियएगिदियपदेसा य अणिंदियप्पदेसा य प्रदेशाः च द्वीन्द्रियस्य प्रदेशाः च अथवा बेइंदियाण य पदेसा, एवं आदिल्ल- एकेन्द्रियप्रदेशाः च अनिन्द्रियप्रदेशाः च विरहिओ जाव पंचिंदियाणं। अजीवा द्वीन्द्रियाणां च प्रदेशाः। एवम् आदिमजहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेसं॥ विरहितः यावत् पञ्चेन्द्रियाणाम्। अजीवाः यथा दशमशते तमायां तथैव निरवशेषम्। हैं, अनिन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रिय का देश है। अथवा एकेन्द्रिय के देश हैं, अनिन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रियों के देश हैं। इस प्रकार मध्यम विकल्प विरहित यावत् पंचेन्द्रियों की वक्तव्यता। जो जीव के प्रदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं और अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं। अथवा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं, अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं और द्वीन्द्रिय के प्रदेश हैं। अथवा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं, अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं और द्वीन्द्रियों के प्रदेश हैं। इस प्रकार प्रथम विकल्प विरहित यावत् पंचेन्द्रियों की वक्तव्यता। अजीव जैसे दशम शतक में तमा की वक्तव्यता वैसे ही निरवशेष वक्तव्य है। ११४. लोगस्स णं भंते ! हेडिल्ले चरिमंते लोकस्य भदन्त ! अधस्तने चरमान्ते किं किं जीवा-पुच्छा। जीवाः-पृच्छा। गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि जाव गौतम! नो जीवाः, जीवदेशाः अपि अजीवपदेसा वि, जे जीवदेसा ते नियमं यावत् अजीवप्रदेशाः अपि, ये जीवएगिदियदेसा, अहवा एंगिदियदेसा य देशाः ते नियमम् एकेन्द्रियदेशाः, अथवा बेइंदियस्स देसे, अहवा एंगिदियदेसा य एकेन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियस्य देशः बेइंदियाण य देसा, एवं मज्झिल्ल- अथवा एकेन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियाणां च विरहिओ जाव अणिंदियाणं। पदेसा देशाः, एवं मध्यमविरहितः यावत् आइल्लविरहिया सव्वेसिं जहा पुरत्थि- अनिन्द्रियाणां। प्रदेशाः आदिममिल्ले चरिमंते तहेव। अजीवा जहेब विरहिताः सर्वेषां यथा पौरस्त्ये चरमान्ते उरिल्ले चरिमंते तहेव॥ तथैव। अजीवाः यथैव उपरितने चरमान्ते तथैव। ११४. भंते! लोक के अधस्तन चरमान्त में जीव-पृच्छा। गौतम! जीव नहीं हैं। जीव के देश भी हैं यावत् अजीव के प्रदेश भी हैं। जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के देश हैं। अथवा एकेन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रिय का देश है, अथवा एकेन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रियों के देश हैं। इस प्रकार मध्यम विकल्प विरहित यावत् अनिन्द्रियों की वक्तव्यता। सबके प्रदेश आदि विकल्प विरहित पूर्व चरमान्त की भांति वक्तव्य है। जीवों की ऊर्ध्व चरमान्त की भांति वक्तव्यता। ११५. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए अस्याः भदन्त! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ११५. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्व चरमान्त पुरथिमिल्ले चरिमंते किं जीवा-पुच्छा। पौरस्त्ये चरमान्ते किं जीवा:-पृच्छा। में क्या जीव हैं? पृच्छा। गोयमा! नो जीवा, एवं जहेव लोगस्स गौतम! नो जीवाः, एवं यथैव लोकस्य गौतम ! जीव नहीं हैं। इस प्रकार जैसे लोक तहेव चत्तारि वि चरिमंता जाव तथैव चत्वारः अपि चरमान्ताः यावत् की वक्तव्यता वैसे ही चारों चरमान्त की उत्तरिल्ले, उवरिल्ले तहेव, जहा औदीच्ये, उपरितने तथैव, यथा वक्तव्यता यावत् उत्तर चरमान्त, ऊर्ध्व दसमसए विमला दिसा तहेव निरवसेसं। दशमशते विमला दिशा तथैव चरमान्त की दशम शतक में विमला दिशा हेडिल्ले चरिमंते जहेब लोगस्स हेडिल्ले निरवशेषम्। अधस्तने चरमान्ते यथैव की भांति निरवशेष वक्तव्यता। लोक के चरिमंते तहेव, नवरं-देसे पंचिंदिएसु लोकस्य अधस्तने चरमान्ते तथैव निम्नवर्ती भाग के चरमान्त की भांति तियभंगो त्ति सेस नं चेव। एवं जहा नवरम्-देशे पञ्चेन्द्रियेषु विकभङ्गः इति अधःस्तन चरमान्त की वक्तव्यता, इतना रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया शेषं तत् चैव। एवं यथा रत्नप्रभायाः विशेष है। पंचेन्द्रिय में देश के तीन भंग एवं सक्करप्पभाए वि। उवरिम-हेछिल्ला चत्वारः चरमान्ताः भणिताः एवं वक्तव्य हैं शेष पूर्ववत्। जिस प्रकार रत्नप्रभा जहा रयणप्पभाए हेडिल्ले। एवं जाव शर्कराप्रभायाः अपि। उपरितन- के चार चरमान्तों की वक्तव्यता उसी प्रकार अहेसत्तमाए। एवं सोहम्मस्स वि जाव अधस्तनाः यथा रत्नप्रभायाः । शर्कराप्रभा की वक्तव्यता। उपरिवर्ती और अचुयस्स। गेवेज्जविमाणाणं एवं चेव, अधस्तनः। एवं यावत् अधःसप्तम्याः। निम्नवर्ती भाग की रत्नप्रभा के निम्नवर्ती नवरं-उवरिम-हेडिल्ले चरिमतेसु देसेसु एवं सौधर्मस्यापि यावत् अच्युतस्य । भाग की भांति वक्तव्यता। इस प्रकार यावत् पंचिंदियाण वि मज्झिल्ल-विरहिओ चेव, ग्रैवेयकविमानानाम् एवं चैव, नवरम्- अधःसप्तमी की वक्तव्यता। इसी प्रकार Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३८७ श. १६ : उ. ८ : सू. ११५ सेसं तहेव। एवं जहा गेवेज्जविमाणा तहा अणुत्तरविमाणा वि, ईसिंपन्भारा वि॥ उपरितन-अधस्तनेषु चरमान्तेषु देशेषु पञ्चेद्रियाणाम् अपि मध्यमविरहितः चैव, शेषं तथैव। एवं यथा ग्रैवेयकविमानानि तथा अनुत्तरविमानानि अपि, ईषत्प्राग्भारा अपि। सौधर्म यावत् अच्युत की वक्तव्यता। ग्रैवेयक विमानों की पूर्ववत् वक्तव्यता, इतना विशेष है-ऊर्ध्व एवं अधोवर्ती चरमान्तों में पंचेन्द्रियों के देशों में मध्यम विकल्प विरहित। शेष पूर्ववत्। ग्रैवेयक विमानों की भांति अनुत्तर विमान और ईषत् प्रागभारा की वक्तव्यता। जीव है नहीं totoo भाष्य सूत्र ११०-११५ २. अनेक एकेन्द्रिय व अनेक अनिन्द्रिय के अनेक देश, एक द्रष्टव्य भगवई १०/१-७ का भाष्य। द्वीन्द्रिय का एक देश। लोक के छह चरमान्त हैं ३. अनेक एकेन्द्रिय व अनेक अनिन्द्रिय के अनेक देश, अनेक पूर्व चरमान्त, दक्षिण चस्मान्त, पश्चिम चरमान्त, उत्तर चरमान्त, द्वीन्द्रिय के अनेक देश। ऊर्ध्व चरमान्त, अधः चरमान्त। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के विकल्प ज्ञातव्य - इन छह चरमान्तों में जीव और अजीव की अवस्थिति के नियमों हैं। का निरूपण किया गया है अनेक एकेन्द्रिय व अनेक अनिन्द्रिय के अनेक प्रदेश। पूर्व चरमान्त अवस्थिति अनेक एकेन्द्रिय व अनेक अनिन्द्रिय के अनेक प्रदेश, एक द्वीन्द्रिय के अनेक प्रदेश। जीव देश है अनेक एकेन्द्रिय व अनेक अनिन्द्रिय के अनेक प्रदेश, अनेक जीव प्रदेश है द्वीन्द्रिय के अनेक प्रदेश। अजीव है इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के विकल्प ज्ञातव्य अजीव देश है अजीव प्रदेश है अधश्चरमान्त १. अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश है। अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश २. अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, एक द्वीन्द्रिय का एक देश है। अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, एक द्वीन्द्रिय का एक देश। ३. अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, एक द्वीन्द्रिय के अनेक देश अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, अनेक द्वीन्द्रिय के अनेक देश। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय व अनिन्द्रिय की ४.अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश,अनेक द्वीन्द्रिय के अनेक देश वक्तव्यता। अनेक एकेन्द्रिय के अनेक प्रदेश इसी तरह त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय की वक्तव्यता। अनेक एकेन्द्रिय के अनेक प्रदेश, एक द्वीन्द्रिय के अनेक प्रदेश। अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, एक अनिन्द्रिय का एक देश अनेक एकेन्द्रिय के अनेक प्रदेश, अनेक द्वीन्द्रिय के अनेक प्रदेश। नहीं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय व अनिन्द्रिय की अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, एक अनिन्द्रिय के अनेक देश। वक्तव्यता। इसी प्रकार दक्षिण चरमान्त, पश्चिम चरमान्त, उत्तर चरमान्त रत्नप्रभा पृथ्वी की वक्तव्यता पूर्व चरमान्त अनेक एकेन्द्रिय के अनेक प्रदेश है। जीव नहीं हैं अनेक एकेन्द्रिय के अनेक प्रदेश, एक द्वीन्द्रिय के अनेक प्रदेश जीव देश हैं जीव प्रदेश हैं अनेक एकेन्द्रिय के अनेक प्रदेश, अनेक द्वीन्द्रिय के अनेक प्रदेश अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, एक द्वीन्द्रिय का एक देश। इसी तरह त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय व अनिन्द्रिय की अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, एक द्वीन्द्रिय के अनेक देश। वक्तव्यता। अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, अनेक द्वीन्द्रिय के अनेक देश। उपरि चरमान्त इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय व अनिन्द्रिय की १. अनेक एकेन्द्रिय व अनेक अनिन्द्रिय के अनेक देश। वक्तव्यता। श्री the the Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ.८: सू. ११६,११७ ३८८ भगवई पूर्व चरमान्त की तरह पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चरमान्त की वक्तव्यता। उपरि चस्मान्त व अधश्चरमान्त अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, एक द्वीन्द्रिय का एक देश। अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, अनेक द्वीन्द्रिय के अनेक देश। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व अनिन्द्रिय की वक्तव्यता पंचेन्द्रिय में द्विक सांयोगिक विकल्प तीन होंगे-दो पूर्ववत्। तीसरा अनेक एकेन्द्रिय के अनेक देश, एक पंचेन्द्रिय के अनेक देश। शर्कराप्रभा यावत् अधः सप्तमी में रत्नप्रभा की तरह वक्तव्यता। रत्नप्रभा पृथ्वी अनेक एकेन्द्रिय के अनेक प्रदेश अनेक एकेन्द्रिय के अनेक प्रदेश, एक द्वीन्द्रिय के अनेक प्रदेश। अनेक एकेन्द्रिय के अनेक प्रदेश, अनेक द्वीन्द्रिय के अनेक प्रदेश। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय व अनिन्द्रिय की वक्तव्यता। शर्करा आदि छहों नरकों में रत्नप्रभा की तरह वक्तव्यता। सौधर्म यावत् अच्युत देवलोक में रत्नप्रभा की तरह देश, प्रदेश की वक्तव्यता। नौ ग्रैवेयक, पांच अनुत्तरविमान और ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी में रत्नप्रभा की तरह वक्तव्यता। अधश्चरमान्त में पंचेन्द्रिय की द्वीन्द्रिय की भांति वक्तव्यता। परमाणुपोग्गलस्स गति-पदं परमाणुपुद्गलस्य गति-पदम् ११६. परमाणुपोग्गले णं भंते! लोगस्स परमाणुपुद्गलः भदन्त! लोकस्य पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ पञ्चत्थि- पौरस्त्यात् चरमान्तात् पाश्चात्यं मिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति ? चरमान्तम् एकसमयेन गच्छति? पचत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ पुरत्थि- पाश्चात्यात् चरमान्तात् पौरस्त्यं मिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति? चरमान्तम् एकसमयेन गच्छति? दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं दाक्षिणात्यात् चरमान्तात् औदीच्यं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति? चरमान्तम् एकसमयेन गच्छति? उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ दाहिणिल्लं औदीच्यात् चरमान्तात् दाक्षिणात्यं चरिमतं एगसमएणं गच्छति ? चरमान्तम् एकसमयेन गच्छति? उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेहिलं चरिमंतं उपरितनात् चरमान्तात् अधस्तनं एगसमएणं गच्छति? हेहिल्लाओ चरमान्तम् एकसमयेन गच्छति? चरिमंताओ उवरिल्लं चरिमंतं अधस्तनात् चरमान्तात् उपरितनं एगसमएणं गच्छति ? चरमान्तम् एकसमयेन गच्छति? हंता गोयमा! परमाणुपोग्गले णं लोगस्स हन्त गौतम! परमाणुपुद्गलः लोकस्य परथिमिल्लं तं चेव जाव उवरिल्लं पौरस्त्यं तत् चैव यावत् उपरितनं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति॥ चरमान्तम् एकसमयेन गच्छति। परमाणु पुद्गल का गति पद ११६. भंते! परमाणु पुद्गल पूर्व चरमान्त से पश्चिम चरमान्त में एक समय में जाता है? पश्चिम चरमान्त से पूर्व चरमान्त में एक समय में जाता है? दक्षिण चरमान्त से उत्तर चरमान्त में एक समय में जाता है? उत्तर चरमान्त से दक्षिण चरमान्त में एक समय में जाता है? ऊर्ध्व चरमान्त से अधस्तन चरमान्त में एक समय में जाता है? अधस्तन चरमान्त से ऊर्ध्व चरमान्त में एक समय में जाता है? हां गौतम! परमाणु पुद्गल लोक के पूर्व चरमान्त से पूर्ववत् यावत् ऊर्ध्व चरमान्त में एक समय में जाता है। भाष्य सूत्र ११६ पंचास्तिकाय में तीन अस्तिकाय निष्क्रिय-गतिशून्य हैं। जीव और पुद्गल-ये दो गति क्रिया युक्त हैं। पुद्गल गति के विषय में प्रज्ञापना का निर्देश है-एक परमाणु भी गति करता है यावत् अनंत प्रदेशी स्कंध भी गति करता है। प्रश्न उपस्थित होता है-प्रस्तुत सूत्र का विधान क्यों किया गया? इसका उत्तर यह है कि एक समय में लोक के एक चरमान्त से दूसरे चरमान्त तक गति केवल परमाणु की होती है, स्कंध की नहीं होती। इसका समर्थन पुद्गल की नोभवोपपात गति से होता है -से किं तं पोग्गल णो भवोववायगती? पोग्गल णो भवोववायगती जण्णं परमाण पोग्गले लोगस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ पचत्थिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति.....। किरिया-पदं क्रिया-पदम् ११७. पुरिसे णं भंते ! वासं वासति, वासं पुरुषः भदन्त! वर्षं वर्षति, वर्ष नो नो वासतीति हत्थं वा पायं वा बाहं वा वर्षति इति हस्तं वा पादं वा बाहां वा उरुं वा आउंटावेमाणे वा पसारेमाणे वा ऊरूं वा आकुञ्चयन् वा प्रसारयन् वा कतिकिरिए ? कतिक्रियः? १. त. र. वा. ५/६-७, आ आकाशादेक द्रव्याणि निष्क्रियाणि च। ३. पण्ण. ३६/६२ २. पण्ण. १६/४३। क्रिया-पद ११७. भंते ! वर्षा हो रही है या नहीं हो रही है-यह जानने के लिए हाथ, पैर, बाहु, जंघा का आकुंचन और प्रसारण करते हुए पुरुष के कितनी क्रिया लगती है? Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३८६ श. १६ : उ. ८ : सू. ११८,११६ गोयमा! जावं च णं से पुरिसे वासं गौतम! यावत् च सः पुरुषः वर्ष वर्षति, वासति, वासं नो वासतीति हत्थं वा पायं वर्ष नो वर्षति इति हस्तं वा पादं वा वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेति वा बाहां वा ऊरुं वा आकुञ्चयति वा पसारेति वा, तावं च णं से पुरिसे प्रसारयति वा तावत् च सः पुरुषः काइयाए अहिगरणियाए पाओसियाए । कायिक्या आधिकरणिक्या प्रादोषिक्या पारितावणियाए पाणातिवायकिरियाए- पारितापनिक्या प्राणातिपातिक्रिययापंचहि किरियाहिं पुढे॥ पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः। गौतम! वर्षा हो रही है या वर्षा नहीं हो रही है-यह जानने के लिए पुरुष जिस समय हाथ, पैर, बाहु, जंघा का आकुंचन अथवा प्रसारण करता है उस समय वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी प्रादोषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपात क्रिया-इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। भाष्य सूत्र ११७ यह सापेक्ष सूत्र है। सूत्र का वक्तव्य है-वर्षा की अवगति के लिए हाथ फैलाने वाला पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। वृत्तिकार ने इस विषय का कोई स्पष्टीकरण नहीं किया। जयाचार्य ने इसके रहस्य का स्पर्श करते हुए लिखा है-यदि हाथ पसारने पर जल बिन्दु का स्पर्श नहीं हुआ तो वह तीन क्रिया से स्पृष्ट होता है। जल बिन्दु से स्पर्श होने पर वह पांच क्रिया से स्पृष्ट होता है। जयाचार्य के मंतव्य का समर्थन नौवें शतक से होता है। पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय का श्वास-उच्छ्वास लेता हुआ कितनी क्रिया से स्पृष्ट होता है? इसके उत्तर में भगवान् ने बतलाया-स्यात् तीन क्रिया से, स्यात् चार क्रिया से, स्यात् पांच क्रिया से। यदि परितापन होता है तो वह चार क्रिया से स्पृष्ट होता है। यदि प्राण वियोजन होता है तो वह पांच क्रिया से स्पृष्ट होता है। परिताप के बिना चौथी क्रिया तथा प्राण वियोजन के बिना पांचवीं क्रिया से कोई स्पृष्ट नहीं होता। अलोए गतिनिसेध-पदं अलोकगतिनिषेध-पदम् अलोक-गति निषेध पद ११८. देवे णं भंते! महिडिए जाव देवः भदन्त! महर्द्धिकः यावत् ११८. भंते! महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली महेसक्वे लोगंते ठिचा पभू अलोगंसि महेशाख्यः लोकान्ते स्थित्वा प्रभुः के रूप में प्रख्यात देव लोकान्त में स्थित हत्थं वा पायं वा बाहं वा उरुं वा अलोके हस्तं वा पादं वा बाहां वा ऊरूं होकर अलोक में हाथ, पैर, बाहु अथवा जंघा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा? वा आकुञ्चयितुं वा प्रसारयितुं वा? का आकुंचन एवं प्रसारण करने में समर्थ है? नो इणढे समझे। नो एषः अर्थः समर्थः। यह अर्थ संगत नहीं है। ११६. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ-देवे णं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-देवः ११६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा महिहिए जाव महेसक्वे लोगते ठिचा नो महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः लोकान्ते है-महर्द्धिक यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप पभू अलोगसि हत्थं वा पायं वा बाहं वा स्थित्वा नो प्रभुः अलोके हस्तं वा पादं में प्रख्यात देव लोक के अंत में स्थित होकर ऊरुं वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा? वा बाहां वा ऊरुं वा आकुञ्चयितुं वा अलोक में हाथ, पैर, बाहु अथवा जंघा का प्रसारयितुं वा? आकुंचन एवं प्रसारण करने में समर्थ नहीं है? गोयमा! जीवाणं आहारोवचिया गौतम! जीवानाम् आहारोपचिताः । गौतम! पुद्गल जीवों का अनुगमन करते हैं, पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, पुद्गलाः, बोन्दिचिताः पुद्गलाः वे आहार के रूप में उपचित हैं, वे बोंदी के कलेवरचिया पोग्गला। पोग्गलामेव पप्प कलेवरचिताः पुद्गलाः। पुद्गलानेव प्राप्य रूप में चित हैं, वे कलेवर के रूप में चित हैं। जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए जीवानां च अजीवानां च गतिपर्यायः पुद्गलों का आश्रय लेकर जीवों और अजीवों आहिज्जा। अधीयते। अलोके नैव सन्ति जीवाः नैव का गति-पर्याय कहा गया है। अलोक में जीव अलोए णं नेवत्थि जीवा, नेवत्थि। सन्ति पुद्गलाः। तत् तेनार्थेन गौतम! नहीं हैं, पुद्गल नहीं हैं। गौतम! इस अपेक्षा पोग्गला। से तेणटेणं गोयमा! एवं एवमुच्यते-देवः महर्द्धिकः यावत् से यह कहा जा रहा है-महर्द्धिक यावत् महान् बुचइ-देवे महिडिए जाव महेसक्खे महेशाख्यः लोकान्ते स्थित्वा नो प्रभुः ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव लोक के लोगते ठिच्चा नो पभू अलोगंसि हत्थं वा अलोके हस्तं वा पादं वा बाहां वा ऊरूं अंत में स्थित होकर अलोक में हाथ, पैर, पायं वा बाहं वा ऊरुं वा आउंटावेत्तए वा वा आकुञ्चयितुं वा प्रसारयितुं वा। बाहु अथवा जंघा का आकुंचन एवं प्रसारण पसारेत्तए वा॥ करने में समर्थ नहीं है। २. भ.६/२५८/ १. भ. जो. ढा. ३६० गाथा १३ : एहवू इहा जणाय, जल बिन्दु फर्थे पंच क्रिया। छांट न लागी काय, तो त्रिण क्रिया गणाय छ। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श. १६ : उ. ८ : सू. १२० ३६० भगवई भाष्य सूत्र ११८-११६ आगम साहित्य में गति के अनेक नियम हैं १. जहां धर्मास्तिकाय है, वहां गति है। अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है इसलिए वहां गति नहीं है, जीव और अजीव का प्रवेश नहीं है। २.जहां जीव और पुद्गल का गति पर्याय है, वहां लोक है। जहां लोक है वहां जीव और पुद्गल का गति पर्याय है। ३. लोकान्त के स्वभाव से पुद्गल रूक्ष हो जाते हैं इसलिए जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते।' महर्द्धिक देव लोकान्त में स्थित होकर आलोक में हाथ-पैर नहीं पसार सकता-इसका आधार पुद्गल की रूक्षता है। प्रस्तुत सूत्र में पुद्गल को आधार मानकर ही अलोक में गति न होने का प्रतिपादन किया गया है 'पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ' अभयदेवसूरि ने इसके तात्पर्यार्थ में लिखा है-जिस क्षेत्र में पुदगल है वहीं जीवों और पुद्गलों की गति होती है। अलोक में जीव भी नहीं है पुद्गल भी नहीं हैं। वहां जीव और पुद्गल की गति नहीं होती। गति के अभाव में देव अलोक में अपना हाथ पैर नहीं पसार सकते। शरीरधारी जीव की गति पुद्गल के सहयोग के बिना नहीं हो सकती। यह प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट है। अजीव की गति भी पुद्गल के आश्रय से होती है, यह विमर्शयोग्य तथ्य है। पुद्गल समूचे लोक में व्याप्त हैं। क्या इस आधार पर इस सिद्धांत की स्थापना की गई है-जिस क्षेत्र में पुद्गल हैं वहीं पुद्गलों की गति होती है। पुद्गलों का आश्रय लेकर पुद्गलों की गति होती है। इस सिद्धांत की व्याख्या कुछ और अधिक अपेक्षा रखती है। जीव और पुद्गल का भोग्य और भोक्ता का संबंध है। वृत्तिकार ने उस स्वभाव का उल्लेख 'पुद्गल जीव के अनुगामी स्वभाव वाले हैं। के रूप में किया है। जीव उन पुद्गलों का आहार, शरीरावयव और शरीर के रूप में उपचय करता है।' १२०. सेवं भंते ! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। १२०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही १. ठाणं १०/१॥ २. भ. वृ. १६/११८-११६ : इदमुक्तं भवति-यत्र क्षेत्रे पुद्गलास्तत्रैव जीवानां पुदगलानां च गतिर्भवति एव चालोके नैव सन्ति जीवाः नैव च सन्ति पुद्गलाः इति जीवपुद्गलानां गति स्ति। तदभावाचालोके देवो हस्ताद्यकुष्टयितुं प्रसारयितुं वा न प्रभुरिति। ३. भ. वृ. १६/११८-११६। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल बलिस्स सभा - पदं १२१. कहिणं भंते! बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं तिरियमसंखेज्जे जहेब चमरस्स जाव बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो रुयगिंदे नामं उप्पायपव्वए पण्णत्ते । सत्तरस एक्कवीसे जोयणसए - एवं पमाणं जहेब तिगिच्छिकूडस्स पासायवडेंसगस्स वितं चैव पमाणं, सीहासणं सपरिवारं बलिस्स परियारेणं, अट्ठो तहेव, नवरं - रुयगिंदप्पभाई- रुयगिंदप्पभाई- रुयगिंदप्पभाई। सेसं तं चैव जाव बलिचंचाए रायहाणीए अण्णेसिं च जाव रुयगिंदस्स णं उपायपव्वयस्स उत्तरे णं छक्कोडिसए तहेव जाव चत्तालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं बलिस्स वइरोयजिंदस्स वइरोयणरण्णो बलिचंचा नामं रायहाणी पण्णत्ता । एगं जोयणसयसहस्सं पमाणं, तहेव जाव बलिपेटस्स उववाओ जाव आयरक्खा सव्वं तब निरवसेसं, नवरं - सातिरेगं सागरोवमं ठिती पण्णत्ता । सेसं तं चैव जाव बली वइरोयणिंदे, बली बइरोयणिंदे ॥ १२२. सेवं भंते! सेवं भंते! जाब बिहरइ ॥ नवमो उद्देसो : नौवां उद्देशक संस्कृत छाया बलिनः सभा-पदम् कुत्र भदन्त ! बलिनः वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य सभा सुधर्मा प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरे तिर्यग् असंख्येयान् यथैव चमरस्य यावत् द्विचत्वारिंशद् योजनसहस्राणि अवगाह्य, अत्र बलिनः वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य रुचकेन्द्रः नाम उत्पातपर्वतः प्रज्ञप्तः । सप्तदश एकविंशतिः योजनशतानि एवं प्रमाणं यथैव तिगिच्छकूटस्य प्रासादावतंसकस्यापि तत् चैव प्रमाणम्, सिंहासनं सपरिवारं बलिनः परिचारेण, अर्थः तथैव, नवरम् - रुचकेन्द्रप्रभाणिरुचकेन्द्रप्रभाणि रुचकेन्द्रप्रभाणि । शेषं तत् चैव यावत् बलिचञ्चायाः राजधान्याः अन्येषां च यावत् रुचकेन्द्रस्य उत्पातपर्वतस्य उत्तरे षट्कोटिशतं तथैव यावत् चत्वारिंशद् योजनसहस्राणि अवगाह्य, अत्र च बलिनः वैरोचनेन्द्रस्य वेरोचनराजस्य बलिचञ्चा नाम राजधानी प्रज्ञप्ता । एकं योजनशतसहस्रं प्रमाणं तथैव यावत् बलिपीठस्य उपपातः यावत् आत्मरक्षकाः सर्वं तथैव निरवशेषम्, नवरम् - सातिरेकं सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता। शेषं तत् चैव यावत् बली वैरोचनेन्द्रः, बली वैरोचनेन्द्रः । तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! यावत् विहरति । हिन्दी अनुवाद बलि का सभा-पद १२१. भंते! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की सभा कहां प्रज्ञप्त है? गौतम ! जंबूद्वीप द्वीप में मेरु पर्वत से उत्तर भाग में तिरछे असंख्य द्वीप समुद्र चमर की भांति यावत् बयालीस हजार योजन अवगाहन करने पर वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि का रुचकेन्द्र नाम का उत्पात पर्वत प्रज्ञप्त हैउसकी ऊंचाई सतरह सौ इक्कीस योजन प्रज्ञप्त है। प्रमाण तिगिच्छकूट प्रसादावतंसक की भांति वक्तव्य है। बलि का सिंहासन उसके परिवार के सिंहासनों सहित वक्तव्य है । इतना विशेष है - वे रुचकेन्द्र प्रभा वाले हैं, रुचकेन्द्र प्रभा वाले हैं, रुचकेन्द्र प्रभा वाले हैं। शेष पूर्ववत् यावत् बलिचंचा राजधानी में दूसरों पर यावत् उस रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत के उत्तर से छह सौ करोड़ उसी प्रकार यावत् चालीस हजार योजन अवगाहन करने पर वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज की बलिचंचा नामक राजधानी प्रज्ञप्त है- एक लाख योजन प्रमाण, उसी प्रकार यावत् बलिपीठ का उपपात यावत् सर्व आत्मरक्षक देव निरवशेष वक्तव्य हैं, इतना विशेष है- स्थिति सागरोपम से कुछ अधिक प्रज्ञप्त है। शेष पूर्ववत् यावत् वैरोचनेन्द्र बलि वैरोचनेन्द्र बलि । १२२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है । यावत् विहरण करने लगे। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद ओहि-पदं १२३. कतिविहा णं भंते ! ओही पण्णता? गोयमा! दुविहा ओही पण्णत्ता। ओहीपदं निरवसेसं भाणियव्वं॥ अवधि-पदम् कतिविधः भदन्त! अवधिः प्रज्ञप्तः? गौतम! द्विविधः अवधिः प्रज्ञप्तः अवधिपदं निरवशेष भणितव्यम्। अवधि पद १२३. भंते! अवधि कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम! अवधि दो प्रकार का प्रज्ञप्त है। अवधि पद (पण्णवणा पद ३३) निरवशेष वक्तव्य १२४. सेवं भंते! सेवं भंते! जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! यावत् विहरति। १२४. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगादसमो उद्देसो : ग्यारहवां उद्देशक मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद दीवकुमारादि-पदं द्वीपकुमारादि-पदम् द्वीपकुमार आदि पद १२५. दीवकुमारा णं भंते! सब्वे द्वीपकुमाराः भदन्त! सर्वे समाहाराः? १२५. भंते! क्या सब द्वीपकुमार समान आहार समाहारा? सव्वे समुस्सासनिस्सासा? . सर्वे समोच्छ्रासनिःश्वासाः? वाले हैं? समान उच्छ्वास निःश्वास वाले हैं? नो इणढे समढे। एवं जहा पढमसए नो एषः अर्थः समर्थः। एवं यथा । यह अर्थ संगत नहीं है। इस प्रकार जैसे प्रथम वितियउद्देसए दीवकुमाराणं वत्तव्वया प्रथमशते द्वितीयोद्देशके द्वीपकुमाराणां शतक के द्वितीय उद्देशक (भगवई १/७४तहेब जाव समाउया, समुस्सास-निस्स- वक्तव्यता तथैव यावत् समायुषः ७५) में द्वीपकुमारों की वक्तव्यता, उसी सा॥ समोच्छ्रासनिःश्वासाः। प्रकार यावत् समान आयुष्य और समान उच्छ्वास निःश्वास वाले नहीं है। १२६. दीवकुमाराणं भंते! कति लेस्साओ द्वीपकुमाराणां भदन्त! कतिलेश्याः १२६. भंते! द्वीपकुमारों में कितनी लेश्याएं पण्णत्ताओ? प्रज्ञप्ताः? प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पण्णत्ताओ, गौतम! चतस्रः लेश्याः प्रज्ञप्ताः, गौतम! चार लेश्याएं प्रज्ञप्त हैं, जैसेतं जहा-कण्हलेस्सा, नीललेस्सा, तद्यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, काउलेस्सा, तेउलेस्सा॥ कापोतलेश्या, तेजोलेश्या। तेजोलेश्या। १२७. एएसि णं भंते! दीवकुमाराणं कण्ह एतेषां भदन्त! द्वीपकुमाराणां १२७. भंते! कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या लेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कृष्णलेश्यानां यावत् तेजोलेश्यानां कतरे वाले इन द्वीपकुमारों में कौन किससे अल्प, कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा? तुल्ला कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? वा ? विसेसाहिया वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? गोयमा! सव्वत्थोवा दीवकुमारा गौतम! सर्वस्तोकाः द्वीपकुमाराः गौतम! तेजोलेश्या वाले द्वीपकुमार सबसे तेउलेस्सा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेजोलेश्याः, कापोतलेश्याः असंख्येय- अल्प हैं। कापोतलेश्या वाले उनसे असंख्येय नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा गुणाः, नीललेश्याः विशेषाधिकाः, गुण हैं। नीललेश्या वाले उनसे विशेषाधिक विसेसाहिया॥ कृष्णलेश्याः विशेषाधिकाः। हैं। कृष्णलेश्या वाले उनसे विशेषाधिक हैं। १२८. एएसि णं भंते! दीवकुमाराणं एतेषां भदन्त! दीपकुमाराणां कृष्ण- १२८. भंते! कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे लेश्यानां यावत् तेजोलेश्यानां च कतरे वाले इन द्वीपकुमारों में कौन किससे कयरेहितो अप्पिहिया वा? महिड्डिया कतरेभ्यः अल्पर्द्धिकाः वा? महर्द्धिकाः अल्पर्द्धिक अथवा महर्द्धिक हैं? वा? वा? गोयमा! कण्हलेस्साहितो नीललेस्सा गौतम! कृष्णलेश्येभ्यः नीललेश्याः । गौतम! नीललेश्या वाले कृष्णलेश्या वालों से महिड्डिया जाव सब्वमहिड्डिया महर्द्धिकाः यावत् सर्वमहर्द्धिकाः महर्द्धिक हैं यावत् तेजोलेश्या वाले सबसे तेउलेस्सा॥ तेजोलेश्याः। महर्द्धिक हैं। १२६. सेवं भंते ! सेवं भंते! जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! यावत् विहरति। १२६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे। - Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-१४ उद्देसा : बारहवां से चौदहवां उद्देशक संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद उदधिकुमाराः भदन्त! सर्वे समाहाराः? १३०. उदहिकुमारा णं भंते! सब्वे समाहारा? एवं चेव॥ १३०. भंते! क्या सब उदधिकुमार समान आहार वाले हैं? पूर्ववत्, द्वीपकुमार की भांति वक्तव्यता। एवं चैव। १३१. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! १३१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही १३२. एवं दिसाकुमारा वि॥ एवं दिशाकुमाराः अपि। १३२. इसी प्रकार दिशाकुमार भी वक्तव्य हैं। १३३. एवं थणियकुमारा वि॥ एवं स्तनितकुमाराः अपि। १३३. इसी प्रकार स्तनितकुमार भी वक्तव्य १३४. सेवं भंते! सेवं भंते ! जाव विहरइ॥ तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! यावत् विहरति। १३४. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है, यावत् विहरण करने लगे। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट पृष्ठ ३९७-४०१ ४०२-४०४ ४०५-४०७ ४०८-४११ १. नामानुक्रम- (क) व्यक्ति और स्थान (ख) देव (ग) पशु-पक्षी २. शब्दार्थ एवं शब्द-विमर्शानुक्रम ३. भाष्य-विषयानुक्रम ४. पारिभाषिक शब्दानुक्रम ५. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति शतक १२,१३,१४,१५,१६ ६. आधारभूत ग्रंथ सूची ४१२-४१५ ४१६-४२५ ४२६-४८२ ४८३-४८९ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (क) नामानुक्रम : व्यक्ति और स्थान आनंद श्रावक (गृहपति आनंद) १२/६ (भा.), ३१-३५ अंग १५/१२१,१४१ (भा.) आनंद स्थविर १५/८१-८५, ९६-१०१ अग्नि वैश्यायन १५/३,७७ आर्दकुमार १५/आमुख, १४२ (भा.) अच्छ १५/१२१ आलंभिका नगरी १५।१०१ अच्छिद्र १५/३,७७ आलंभिया १५/५३-५६ (भा.), १४१ (भा.) अजितकेशकंबल १५/आमुख, १४२ (भा.) अनार्य भूमि १५/५३-५६ (भा.) १४१ (भा.) ई. लायमान १५/१४२ (भा.) अनुपालक १५/आमुख अपविध १५/आमुख उत्तर कुरु १४/११७-१२१ (भा.) अभयदेवसूरि (ये सारे अंक भाष्य के हैं।) १२/३०,१०२-१०७, | उदक १५/आमुख १०८-१११,१५४-१५८,१९२-१९६,२०१-२०४,२०६ - उदयन राजा १२/३०,३२,४० २१०, १३/४४,६६-७०,७१,९८,१२७-१२८,१३०-१४५, | उदायण १३/आमुख १४/३,१६-२०,४४-४७,४८,५१,७२-७३,७७,८२-८३, उदायी १५/१०१ १०७-११२, १५/२६,५३-५६,६५-६६,७३,७७ उद्रायण राजा १३/आमुख, १०२,१०३,१०४,१०७-१११,११३, अभीचि कुमार १३/१०२, १०८, ११०, १२०, १२१, ११०- | ११५-१२०,११०-१२१ (भा.), १६/७१ १२१ (भा.) उद्दण्डपुर नगर १५/१०१ अम्मड परिव्राजक १४/१०७,११०-११२,१०७-११२ (भा.) | उद्विध १५/आमुख अयंपुल आजीवक १५/आमुख,१२८,१२९-१३३,१३६-१३८ | उमास्वाति १२/६९-८० (भा.), १३/५५-६० (भा.), १६/ अरुणोदय समुद्र १३/९६ आमुख अर्जुन गोमायुपुत्र १५/३,३ (भा.),७७ उल्लुकातीर नगर १६/आमुख, ४८,५४,५५ अर्जुनक गौतमपुत्र १५/३ (भा.), ७३ (भा.),१०१ ऋ अर्हत् मुनिसुव्रत १६/६७-७१ ऋषभदत्त १२/३८, १३/११९ अर्हत् विमल १५/१७७ अवध १५/१२१ ए. एल. बाशम १५/आमुख, १४२ (भा.) अस्थिग्राम १५/२१,५३-५६ (भा.), १४१ (भा.) आ ऐणेयक १५/आमुख, १०१ आचार्य कुन्दकुन्द १६/४१-४२ (भा.) आचार्य नरेन्द्रदेव १५/१४२ (भा.) कंपिलपुर नगर १४/१०७,११०,१११ आचार्य भारमलजी १५/६५-६६ (भा.) कर्णिकार १५/३,७७ आचार्य भिक्षु १५/२६ (भा.) ६५-६६ (भा.), १२० (भा.), कलन्द १५/३,७७ १४२ (भा.) कांचन पर्वत १४/१२०,११७-१२१ (भा.) Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - १ (क): नामानुक्रम : व्यक्ति और स्थान ३६८ काममघवन चैत्य १५/१०१ कायरक १५/ आमुख काशी १५/१२१,१४१ (भा.) काश्यप १५/१०१, १०३ कुण्डियायन १५ / आमुख कूणिक राजा १३ / १२०, ११०-१२१ ( भा.) कूर्म ग्राम नगर १५ / ५७,६०,७२, १४१ (भा.) कृणिक नगर १३ / १०७ केशीकुमार १३ / १०२, ११०,१११-११८,१२० कोण्डिकायन गौत्रीय १५/१०१ गंगदत्त गृहपति १६ / ६६,६८-७१ गंगा महानदी १४ / १०७, १०९ गार्गी और मैत्रेयी १२ / आमुख गुणशीलक चैत्य १३/१००, १६/४७ गृहपति विजय १५ / २४-२६, २६ (भा.), २७, २८ गृहपति सुनंद १५/३८-४२ कोल्लाक सन्निवेश १५/४५,४७,५१-५३,१४१ (भा.) कोष्ठक चैत्य १२ / १, ३, १५, १६, १५/१, ११, १०१, ११५, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण १३ / ५५-६० (भा.) १२०, १४३ कौणिक राजा १२/३२ कौत्स १५/१२१ कौशल (जनपद) १५/१०७, १२१,१४१ (भा.) कौशाम्बी नगरी १२ / ३०, १५ / १४१ (भा.) ग गृहस्वामिनी रेवती १५/१४४,१५२-१६० गोबहुल १५/१५,१६ गोशाल १५/१८, १९, १०२, १०७,१११, ११४,१४१ (भा.), १४२ (भा.), १६७ गोशालक १५ / आमुख, ५३-५६ (भा.), ६५-६६ (भा.), ७७ (भा.), १०५-११९ (भा.), १२१,१४१ (भा.), १४२ (भा.) गोशालक दास १५ / आमुख गोसालमंख १५ / आमुख गौतमपुत्र अर्जुन १५ / आमुख, १०१ च चंद्रावतरण चैत्य १२ / ३०, १५/१०१ चंपा नगरी १३ / १०१, १०५, १२०, ११०-१२१ (भा.); १५/ १०१,१४१ (भा.) चंपा - पृष्ठचंपा १५/५३-५६ (भा.) १४१ (भा.) चित्रकूट १४/१२०,११७-१२१ (भा.) चेटक राजा १२ / ३०,१३ / आमुख ज जंबूक चैत्य १६/४८,५४, ५५ जंबूद्वीप द्वीप १३ / ९६,१५० १४ / १०३-१०६; १५/१६७,१८६; १६/३३,५५,६६,१२१ जमालि १३ / ११४-११७ जयाचार्य - (ये सारे अंक भाष्य के हैं) १२/४-५,१३,९९,१००, ११७,१७८-१८२,२०५, १३/३,३३,६६-७०, ७१,११०१२१, १२७-१२८, १४ / १,२,३,८२-८३,११७-१२१,१२३१२५; १५/५३-५६, ६५-६६, १७९, १६/८-१६,३५४०, ४८-४९ जोसेफ डेल्यू १५/१४२ (भा.) ज्ञातपुत्र १५ / ९६, ९७ झेलम नदी १३ / आमुख ड डब्ल्यू शूबिंग १५ / १४२ (भा.) डॉ. वेणीमाधव बरूआ १५/१४२ (भा.) डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकर १५/१४२ (भा.) त तंतुवायशाला १५ / २१,२३, २४, ३०, ३१, ३७, ४४, ४५,४७,१४१ (भा.) तपस्वी वैश्यायन १५ / ६०-६६,६८,१४१ (भा.) ताल १५ / आमुख तालप्रलंब १५ / आमुख द दीर्घ विजयार्ध १४/११७-१२१ (भा.) दीर्घ वैताढ्य पर्वत १४ / १२०,११७-१२१ (भा.) देव कुरु १४/११७-१२१ (भा.) देवसेन १५/१७१,१७२, १८२ देवानंदा १२ / ३९ द्रोणाचार्य १२ / आमुख धर्मघोष १५/१७७ झ नंदनवन १५/१५ नामोदक १५ / आमुख नायपुत्र १२ / ३० (भा.) भगवई ध न Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ३६६ परिशिष्ट-१ (क) : नामानुक्रम : व्यक्ति और स्थान १२८ नार्मोदक १५/आमुख ३८,३९-४२,४४,४८-५२,५४-६०,७१,७३,७४,७७-९४, निग्गंथ नायपुत्र १५/आमुख ७८-७९ (भा.), ८२-८३ (भा.), ९९-१०६,१०१-१०६(भा.) नीलवानद्रह १४/११७-१२१ (भा.) १०९-११२,११४,११६,११८-१२१,१२३-१३६, १४४; १५/९-१४,२०-२४, २६ (भा.) २९-३१,३६-३८, पं. दलसुख मालवणिया १२/आमुख ४३,४४,४७,५५-६०,६८,७०,७२,७३,७५,७७ (भा.), ८२, पकुद कात्यायन १५/आमुख १००,१०१,१६१,१६४-१६७,१८५; १६/आमुख, १-२४, पणियभूमि १५/५३-५६ (भा.), १४१ (भा.) २८-३१,३५-४०,३५-४० (भा.) ४१,४२,४४,४५,४९,५१, पण्डू जनपद १५/६७ ५२,५५,५४-५५ (भा.), ५६,६१,६३,६४,६६,७३,७४,७६. पद्मावती १३/आमुख, १०२,१०७,११६.११८ ९०,१०८,११०,१११,११३-११७,११९,१२१-१२३,१२६. पाण्डुरंग १५/आमुख पाटलिपुत्र नगर १४/१०५ भगवान् पार्श्व (पार्श्वनाथ) १२/३० (भा.), १५/आमुख, १४२ पाठ १५/१२१ (भा.) पावा १५/५३-५६ (भा.), १४१ (भा.) भगवान् महावीर १२/२,३,१५-२०,२२,२६,२७,३० (भा.), पुरिमताल नगर १४/१०७ ३१,३३,३९,४०,४१,४१-४८ (भा.),६४,१२९,१५९-१६१; पूरण काश्यप १५/आमुख १३/१००,१०१,१०४,१०५,१०९,११०,११७,११८,१२०; पूरण गृहपति १६/७१ १४/आमुख, ७७,७८-७९ (भा.), ८२-८३ (भा.) १०१. पूर्वजनपद १५/१०४ १०६ (भा.) १०९-१३२; १५/आमुख, २ (भा.), ९-११, पूर्णभद्र चैत्य १३/१०१,१०५ १३-१४,२५-२६ (भा.) २९-३२,३९,४८,५३, ५३-५६ प्रणीत भूमि १५/५३,५६,५३-५६ (भा.) (भा.) ६५-६६ (भा.) ७७ (भा.), ७८ (भा.), ७९,८१, प्रभावती १३/आमुख, १०२ ८२,९६,९७,९९-१०४,१०६,१०७,१०९-११७,११९,१०५. प्रोफेसर, बलदेव उपाध्याय १५/आमुख ११९ (भा.), १२०,१२१,१२१ (भा.), १४१,१४१ (भा.), प्रोफेसर ल्यूमेन १५/आमुख १४२,१४२ (भा.), १४३,१४५.१४७, १४९-१५३,१५५, प्रोफेसर हर्मन जेकोबी १५/आमुख, १४२ (भा.) १५२-१५५ (भा.) १५७,१६१-१६४,१८२; १६/आमुख, ३३, ३४,३३-३४ (भा.) ३५,३५-४० (भा.) ४७-४९,५४. बंग १५/१२१ ५५,५४-५५ (भा.), ५६-६४,६६,९१ बहुल ब्राह्मण १५/४५-५०,५२ भगवान् महावीर का विहार क्षेत्र १५/१४१ (भा.) बाहिरिका नालन्दा १५/२१,२३,२४,३०,३१,३७,४४,४५,४७, | भट्टोत्पल (टीकाकार) १५/आमुख १४१ (भा.) भद्दिया १५/५३-५६ (भा.) १४१ (भा.) बुद्ध १५/आमुख, १२१ (भा.), १४२ (भा.) भद्रा १५/१४,१६,१७,१६७ बेभेल सन्निवेश १५/१८६ भरत क्षेत्र १४/११७-१२१ (भा.), १६/३३-३४ (भा.) ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती १२/१७८-१८२ (भा.) भारत १५/आमुख, १०५-११९ (भा.) भारत वर्ष १३/आमुख; १४/१०३,१०५, १५/१५२-१५५ भगवान् ऋषभनाथ १५/२६ (भा.) (भा.), १६७, १८६; १६/५५,६६ भगवान् गौतम १२/२०,२१,२७,२८,६६,६७,६९-८३,९७- | भारद्वाज १५/आमुख, १०१ १००,१०२-११५,११८-१२०,१२२-१२६,१२८-१३५, | भीष्म १२/आमुख १३९-१४२,१४५-१५२,१५४,१६३-१७२,१७४,१७८२२५; १३/१-१२,१४,१६-२२,२४-२६,२९,३१-३८,४२, | मंकि ऋषि १५/आमुख ४४.६३,६६,८७-९१,१२२,१२४-१४५,१४७,१४९-१५०, | मंखलि १५/१४ १६६,१६८; १४/आमुख, १.२०,२२,२४-२५,२७, २९,३०, | मंखलि गोसाल १५/आमुख Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (क) : नामानुक्रम : व्यक्ति और स्थान ४०० भगवई मंखलिपुत्र गोशाल १५/२, २ (भा.) ३,३ (भा.), ४,६,७,१२- | रोह १५/आमुख, १०१ १४,२८,२९,३५,३६,४२,४३,५१,५३-७७,७७ (भा.) ७९, ८०,८३-८५, ९७-१२१,१२९,१३२-१४१,१४१ (भा.) | लाढ प्रदेश १५/५३-५६ (भा.), १४१ (भा.) १४२,१४६,१६४-१६६,१८२,१८६ लिलियन (हब्शी महिला) १५/६५-६६ (भा.) मंखली मंख १५/१६ मंडिककुक्षि चैत्य १५/१०१ वज्र १५/१२१ मंडित १५/आमुख, १०१ वज्र भूमि १५/५३-५६ (भा.), १४१ (भा.) मक्खली गोशाल १५/आमुख, १४१ (भा.), १४२ (भा.) वत्स १५/१२१,१४१ (भा.) मगध १५/१२१,१४१ (भा.) वराहमिहिर (ज्योतिषी) १५/आमुख मलय १५/१२१ वाराणसी १५/१०१,१४१ (भा.) मलयगिरि १४/७२-७३ विंध्यगिरि १४/१०३, १५/१६७,१८६ मल्लधारी हेमचन्द्र १५/आमुख विचित्रकूट १४/१२०,११७-१२१ (भा.) मल्लराम १५/आमुख, १०१ विमलवाहन १५/१७२-१७५,१७८-१८६ मस्करी गोशालीपुत्र १५/आमुख वीतीभय नगर १३/१०२,१०४-१०७,१०९-१११,१२० महर्षि चरक १४/१६-२० (भा.), १०७-११२ (भा.) वैशाली १३/आमुख; १५/१०१,१४१ (भा.) महापद्म १५/१६९-१७२,१८२ वैशाली-वाणिज्यग्राम १५/५३-५६ (भा.), १४१ (भा.) महाविदेह क्षेत्र/वास १२/२८; १३/१२२; १४/१०२,११७ १२१ (भा.); १५/१६४,१६५,१८५,१८६; १६/७४ शंखपालक १५/आमुख महेन्द्र राजा १३/१०२,११२ शकडालपुत्र १५/आमुख मालव १५/१२१ शतद्वार नगर १५/१०७,१६८,१६९,१७२,१७४,१७६ माहेश्वरी नगरी १४/१०३ शतानीक राजा १२/३० मिथिला १५/५३-५६ (भा.) १४१ (भा.) शान १५/३,७७ मुल्तान १३/आमुख शान कोष्ठक चैत्य १५/१४४,१४५,१५०,१५१ मृगवन उद्यान १३/१०२,१०४,१०५,१०९ शान्त्याचार्य १२/३० (भा.) मृगावती देवी १२/३०,३३-४० शिवभद्र कुमार १३/१११ मेंढियग्राम १५/१४४,१४५,१५२,१५३,१६० (भा.) १६१ शीता नदी १४/११७-१२१ (भा.) मेरु पर्वत १३/९६; १६/१२१ शीतोदा नदी १४/११७-१२१ (भा.) मौली १५/१२१ शुम्भोत्तर १५/१२१ श्रमणोपासक पुष्कली १२/१,८,९,९ (भा.), १०-१४ यमक पर्वत १४/१२०,११७-१२१ (भा.) श्रमणोपासक शंख (पोक्खली) १२/आमुख, १,४,५,४-५ (भा.), ६,६ (भा.), ७,८,१०-१३,१३ (भा.) १४,१५,१८,१९,२२, रमणीक भूमि १५/५३-५६ (भा.) २६-२८; १३/१०३ राजगृह नगर १२/६६,६९,१०२,१२२; १३/ | श्रमणोपासिका उत्पला १२/१,६,९,९ (भा.), १०,११ १,९५,१००,१२४,१४९, १४/१,७१,७७,७७ (भा.), १०१, | श्रमणोपासिका जयंती १२/आमुख, ३०,३० (भा.) ३३,३४,३७१५/२१,२३,२४,२७,३०,३१,३४,३७,३८,४१,४४,५०, ४८,४१.४८ (भा.) ४९-५९,४९-५२ (भा.) ६४ ५१,१०१,१४१ (भा.) १६०,१६० (भा.), १८६, १६/ श्रावस्ती नगरी/नगर १२/१,३,६,७,१५,१६, १५/१,२ (भा.), आमुख, १,२८,४४,४७,५१ ६,७,१०-१३,७७,७७ (भा.) ७९,८०,९७,१००,१०१,११५, राजगृह-नालन्दा बाहिरिका १५/५३-५६ (भा.) १४१ (भा.) १०५-११९ (भा.) १२०,१२८,१२९,१३२,१३९,१४१,१४१ राजा सन्मति १५/१०७ (भा.), १४२,१४३ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४०१ परिशिष्ट-१ (क) : नामानुक्रम : व्यक्ति और स्थान श्रेयांस कुमार १५/२६ (भा.) सिद्धार्थ ग्राम नगर १५/५७,७२,१४१ (भा.) सिन्धु सौवीर १३/आमुख,१०२,१०५,१११ सुनक्षत्र अनगार १५/१०७-११०,१०५-११९ (भा.),१६५,१८२ संजयवेलट्ठीपुत्र १५/आमुख सुभूमि भाग उद्यान १५/१७६,१७७,१७९ संविध १५/आमुख सुमंगल अनगार १५/१७९-१८६ सम्राट अशोक १५/आमुख सुम्ह भूमि १५/५३-५६ (भा.), १४१ (भा.) सरवण सन्निवेश १५/१५ सौवीरराज १३/आमुख सर्वानुभूति अनगार १५/१०४-१०६.१०५-११९ (भा.) १६४,१८२ हरिभद्र सूरि १५/आमुख सहस्रानीक राजा १२/३० हर्नले १५/१४२ (भा.) सहस्राम्रवन १६/६६-६८,७१ हस्तिनापुर १६/६६-६८,७१ सिंह अनगार १५/१४७-१५५,१५२-१५५ (भा.) १५६-१५९, | हालाहला कुंभकारी १५/१,२,८०,८२-८४,९७,१०१,१२०, १२१,१२८,१२९,१३२,१४१ (भा.), १४२ सिद्धसेनगणि १४/३,८४-८५ (भा.) १६१ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्निकुमार १५ / ९८६ अग्रमहिषी १२ / १२७ अ असुरराज चमर १३ / ९६-९८ असुरेन्द्र १२ / १२८; १३ / ९६-९८ १४ / १३६ (भा.) आ आदित्य १२ / १२६, १२५-१२६ (भा.) आनत १५ / ९८६ आनत कल्पवासी १२/१९८ आनत- प्राणत १४/१३६; १५/१६५ अच्युत कल्प १२/१९८,२१५; १४/१५०; १५/१४२ (भा.), १६५,१६६ अनुत्तर विमान १२ / १३३,१४४,१३३-१५२,२१६ (भा.); १३/ ३५,३७, १४/९८,९९,१३६ (भा.), १५१; १६/११५ अनुत्तरोपपातिक १२/१८८, १९८; १३/३६; १४/७८,७९, ७८७९ (भा.), १३६; १४ / आमुख, ८६-८८, ८४-८८ (भा.) अपराजित देव १२/१६९; १३/२५ अभीची देव १३/ १२१-१२२ अरिष्ट विमान १३/४९ अरुणाभ विमान १२ /२७ अव्याबाध देव १४ / आमुख, ११३,११४,११३-११६ (भा.) असुर १४ / आमुख, ११२, १६ / ९१ असुरकुमार १२/८५,८९,९०, ९१,८१-९६ (भा.), १२८, १४९, १३ / २५-२७, २६ (भा.), २७ (भा.), ३७,९३,९५,१२१, ११०-१२१ (भा.); १४ / २ (भा.) २०, २३, २४, २१-२४ (भा.), २६, २७, ३१, ३३,३५,५६-५८,६०,६२,६७, १२७, १२८,१३६, १५/१८६ असुरकुमारावास १२/१३९, १३ / १२१,११०-१२१ (भा); ग्रैवेयक विमानावास १५/१८५ १४/२ आनत-प्राणत कल्प १२/१४२; १३/३४; १४ /९८ आभियोगिक देव १६ / ३३ आरण १५/१८६ आरण- अच्युत १४ / १३६ परिशिष्ट - १ (ख) नामानुक्रम : देव आरण- अच्युत कल्प १२/१४२; १३/३४; १४ / ९८ इ इन्द्र १६ / ३५-४० (भा.) ई ईशान १२ / १९४१,१३३-१५२ (भा.), १९८; १४/१ (भा.), १३६, १५० उदधिकुमार १६/१३० उपपात १२/१७७ १४ / १,२, २ (भा.); १६ / आमुख क किंपुरुष १४ / ११२, १६ / ९२ किन्नर १४/११२; १६ / ९२ उ ग गंगदत्त देव १६ / आमुख, ५७-६५, ७१-७४ गंधर्व १४/११२; १६ / ९२ गरुड १४ / ११२ ग्रह-गण १२/१२८; १४/१३६ ग्रैवेयक १२/१४३,१९८,१४/१३६; १५/१४२ (भा.) ग्रैवेयक विमान १२ / २१६; १३/३६, ३७; १४ / ९८; १५/१४२ (भा.); १६ / ११५ च चंद्र १२ / १२२, १२३ (भा.), १२४, १२४ (भा.), १२५, १२७१२८; १४ / १२५, १२३ - १२५ ( भा.), १३६; १५/ १६४,१६५,१६६ चंद्रग्रहण १२ / १२४ (भा.), १२६ चन्द्रमा १२/१२३, १२३ (भा.), १२४,१२४ (भा.) १२५ १५/ १८५ चन्द्रलेश्या १२ / १२३ चमर १६ / १२१ चमरचंचा १३ / ९६-९८ चमरेन्द्र १५ / १२० (भा.) च्यवन १२ / २८, १५४, १५७, १५८, १३/३३,३४,९५ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई च्युत १२/१६९-१७७ (भा.), १९२-१९६ (भा.) ज जृंभक देव १४ / आमुख, ११७-१२१,११७-१२१ (भा.) ज्योतिषदेव १२ / १२८ ज्योतिषराज १२ / १२५, १२७-१२८, १४ / १३६ ज्योतिषेन्द्र १२ / १२५, १२७-१२८; १४ / १३६ ज्योतिष्क १२/९०,९५,८१-९६ (भा.) १४१, १६८, १८८, १९८ १३ / २४,३१,३१ (भा.) ३३; १४ / २०,२४,३५,६०,६७, ९४,१२८, १३६, १५/१४२ (भा.), १८६, १६ / ८०,९१ ज्योतिष्कावास १४ / २ तमस्कायिक देव १४/२५ तारा १२ / १२८; १४ / १३६ ताल पिशाच १६ / ९१ त द दिशा कुमार १६ / १३२ देव १२ / २७, २८,८३,१२० (भा.), १२५,१२८,१३९,१४४, १३३ - १५२ (भा.), १५४, १५७, १५८, १५४-१५८ (भा.), १६३,१६४, १६८,१६३-१६८ (भा.), १६९,१७६, १७७, १६९-१७७ (भा.), १७८,१८५-१८८, १९०,१९८,२०७, १३/२४,२५,३८,१३२-१३४, १३७, १३८, १४०,१४१, १४/ आमुख, १ ( भा.), २ (भा.) ६-८,११,१२,१८,१६-२० (भा.), २२, २३, २४, २१-२४ (भा.) २५,२५-२७ (भा.), २९, ३०,३६,३७,३९,६८,६९,१०९, ११२, ११३-११६ (भा.) १३०, १३० १३१ ( भा.); १५/१०१,१२७,१६४, १८५, १८६; १६ / आमुख, ५५, ५४-५५ (भा.) ५६,९१,११८,११९, १२१ देव ऋषि १४ / ११३-११६ (भा.) देव के दो प्रकार १४ /३० देवगति १२ / १६९,१८५-१९० (भा.), १४/६१-६७ (भा.) देवराज देवेन्द्र अच्युत १४/७५ देवराज देवेन्द्र शक्र १४ / २,७४, ११५, १६ / आमुख, ३३,३४,३५ ४०,५४-५५ देव वृष्टि १४ / २१-२४ (भा.) देवस्थिति १४ / १ (भा.) १०१,१६४, १६५, १६७, १८५, १८६ ४०३ देवावास १४ / १,१ (भा.) देवी १२ / १३९,१४४, १३३-१५२ (भा.); १४ / ३९ देवेन्द्र ईशान १४ / आमुख, २५,७५ देवेन्द्र शक्र १४ / आमुख; १६ / ३३- ३४ (भा.), ३५-४० (भा.) द्वीपकुमार १६ / १२५-१२८,१३० परिशिष्ट-१ (ख) : नामानुक्रम : देव नक्षत्र १२ / १२८; १४ / १३६ नाग १४ / ११२ नागकुमार १३ / २८, १४ / २४; १५/१८६ प पालक विमान १६ / ३३ पूर्णभद्र देव १५/१२७,१७१ देवलोक १२/१८,१५४,१५७, १५८, १३ / १२२, १४ / १ १५ / माहेन्द्र १४ /९५,१३६ माहेन्द्र कल्प १३ / ४९ माहेन्द्र कल्पवासी १२/१९८ मृगांक विमान १२ / १२५ न बलिचंचा १६ / १२१ ब्रह्म १५/१६४ ब्रह्मलोक १३/८८-९१ ( भा.); १४ / १३६; १५/१०१,१४२ (भा.), १८६ ब्रह्मलोक कल्प १३ / ४९, १४ / ९६,९७,१०९ भ ब भवनवासी देव १२/१२८, १७७, १८८, १९८, १३/२४,२५; १४/ १३६ भव्यद्रव्य देव १२ / १६३, १६४,१६३-१६८(भा.), १६९, १७८, १७८-१८२ (भा.), १८३-१८५, १९१, १९२, १९२-१९६ (भा.), १९७ भाव देव १२/१६३,१६८, १६३-१६८ (भा.), १७७, १६९-१७७ (भा.), १८२, १८४, १८५-१९० (भा.), १९१,१९६, १९२१९६ (भा.), १९७, १९८ यक्ष १४ / ११२ मणिभद्र देव १५/१२७, १७१ मरुत देव १२/१५४-१५८ (भा.) महाकल्प १५/१०१ महाशुक्र १४ / १३६; १५/१८६ महाशुक्र कल्प १४ / ९८; १५/१६४; १६/५६,७१ महाशुक्र कल्पवासी १२/१९८ महाशुक्र विमान १६ / आमुख महासामान्य विमान १६/५६, ७१ महोरग १४ / १९१२; १६ / ९२ म य र राक्षस १४/११२ राहुविमान १२/१२३,१२३ (भा.) Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (ख) : नामानुक्रम : देव ४०४ भगवई राहू १२/२२, १२३, १२३ (भा.), १२४, १२४ (भा.), १२५- | सनत्कुमार १३/३३, १४/१ (भा.),७५,९५,१३६, १५/१८६; १२६ (भा.) १६/४० सनत्कुमारकल्प १२/१४२,१३३-१५२ (भा.), १९८; १३/४९ लवसप्तम देव १४/आमुख, ८४-८५,८४-८८ (भा.) सर्वार्थसिद्ध १२/१३३,१३३-१५२ (भा.),१६९,१७६,१६९लांतक १४/१३६; १५/१६४ १७७ (भा.), १८५,१८८, १५/१८५-१८६ लांतक कल्प १४/९७-९८; १५/१४२ (भा.) सर्वार्थसिद्धक १३/२५ लांतक कल्पवासी १२/१९८ सहस्रार १४/१३६ लोकान्तिक देव १४/११३-११६ (भा.) सहस्रारकल्प १३/३३,३४,९८; १५/१४२ (भा.), १६४ सुघोष घंटा विमान १६/३३ वाणमन्तर १२/१२८,१६८,१८८,१९८; १३/२४,२९,२९ | सुपर्णकुमार १५/१८६ (भा.), ३०,३१ (भा.); १४/२०,२४,३५,६०,१२८,१३६;| सुवर्ण १४/११२ १६/८०,९१ सूर्य १२/१२३ (भा.), १२४,१२४ (भा.); १४/१२५,१२३वाणव्यंतर १२/९०,९५,८१-९६ (भा.), १४१ १२५ (भा.), १३२-१३५, १३२-१३५ (भा.); १३६, विद्युत्कुमार १५/१८६ १५/१६४-१६६ विमानावास १२/१४२,१४३, १३/३२-३४ सूर्यग्रहण १२/१२४ (भा.) वैमानिक १२/८३,८५,८६,८७,९०,९१,९३,९५,९६,८१-९६ | सौधर्म १२/१४१,१३३-१५२ (भा.), १९८; १३/३३, १४/१ (भा.), १३३-१५२ (भा.), १६८,१७६,१८८,१९८,२०८, (भा.), १३६; १५/१४२ (भा.); १६/११५ २१०; १३/२४,९५,११०-१२१ (भा.); १४/१ (भा.), २ सौधर्म-ईशान कल्प १४/९४,९५ (भा.) ३,५,८,१०,१४,२०,२४,२७,३१,५५,६०,६७, ७३, | सौधर्मकल्प १२/२७,११३,१९८,२१४,२१७,२३२,२३३,१४/ ७४,७५,१२८; १६/१०,१२,१४,१६,२६,३१,४४,४५,५५, १५०; १५/१८६ ८०,९१ सौधर्म स्वर्ग १६/३३ (भा.) वैमानिकावास १२/११३, १४/२ सौधर्मेन्द्र शक्र १६/३३ (भा.), ५४-५५ (भा.) वैरोचनेन्द्र बलि १६/१२१ स्तनितकुमार १२/८९,९१,९२,८१-९६ (भा.), ११४,१३९, वैशेचनेन्द्र वैरोचनराज बलि १६/१२१ २०७; १३/२८; १४/३३,५७,६२,१२७; १५/१८६; १६/ व्यंतर १२/१९२-१९६ (भा.); १४/११७-१२१ (भा.), १३६ | २९,१३३ (भा.) स्तनितकुमारावास १४/२ श स्वर्ग १५/१४२ (भा.) शशि १२/१२५,१२५-१२६ (भा.) हरिणगवेषी देव १६/३३ संयूथ देव १५/१०१ ह Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (ग) नामानुक्रम : पशु-पक्षी १. अंधिय (अन्धिका) १५/१८६ Caipisid Bug २. अच्छ (रींछ) १२/१६० Sloth Bear ३. अजा, अया (बकरी) १२/१३२ Goat ४. अयगर (अजगर) १५/१८६ Python ५. अही (सांप) १५/१८६ Snake आ ६. आसालिय (आशालिका) १५/१८६ Very Large Snake १४. गंडीपद (हाथी) १४/२९-३९ (भा.), १५/१८६ Elephant १५. गय (गज) १६/८६,८७,९२ Elephant १६. गो (गाय, गौ) १४/२९-३९ (भा.), १६/९१ Cow १७. गोनंगूल (वानर) १२/१५९ Monkey १८. गोमयकीडग (गोमयकीटक, गोबर का कीड़ा) १५/१८६ Beetle १९. गोह (गोहा) १५/१८६ A Kind of Lizard २०. चम्मपक्खी (चर्मपक्षी) १५/१८६ |A kind of Bird ७. उरपरिसर्प (पेट के बल पर चलने वाले सर्प) १५/१८६ ८. उवचिया (उपचित) १५/१८६ २१. छप्पदीओ (जूंओं) १५/६०,६१,६३,६७ Louse ९. उसभ (वृषभ) १६/८६,८७,९२ Bull १०. कंक (सफेद चील) १२/१६१ White bellied sea-eagle ११. कच्छभ (कछुआ) १५/१८६ Tortoise, Turtle १२. कुक्कुड (कुक्कुट) १२/१५९ Grey Jungli fow १३. कौवे १५/१७९ (भा.) २२. जलोय (जौंक) १३/१५३ Leech २३. जाहग (जाहक) १५/१८६ Hedgehog २४. जीवंजीव (चकोर पक्षी) १३/१५६,१४९,१६६ (भा.) Common or blue legged Bustard २५. ढंक (द्रोण काक) १२/१६१ Jungli Crow Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ (ग) : नामानुक्रम : पशु-पक्षी त २६. तरच्छ (लकड़बग्घा ) १२/१६० Hyena द २७. दिट्ठिविसं (दृष्टिविष सर्प) १५ / ९३,९४ A kind of Cobra २८. दीविय (चित्तिदार तेंदुआ ) १२/१६० Spotted Dove न २९. नउल (नेवला) १५ / १८६ Mongoose ३०. नाग (नाग) १२/१५४,१५४-१५८ (भा.); १४ / आमुख प ३१. पुंसकोइलगं (पुंसकोकिल) १६/९१ Crow-peasant ३२. पक्खिविराली (विराल पक्षी) १३ / १५५, १४९-१६६ (भा.) Flying Fox, The large Fruit Bat ३३. पक्खी (पक्षी) १५/१८६ Bird ३४. पन्नग (सर्प) १२/१५४-१५८ (भा.), १५/१६२ Snake ३५. परस्सर (पराशर) १२ / १६० Wombat ३६. पुलाकिमिय (पुलाकृमिक) १५/१८६ A kind of Worm ३७. पोत्तिय (पोत्तिका) १५/१८६ A Wasp ४०६ ब ३८. बंदर १४/२९-३९ (भा.) Monkey ३९. बीबीग (बाजा पक्षी) १३ / १५४,१४९ - १६६ (भा.) A kind of house Swift ४०. बैल १५/१४२ (भा.), १८६ Ox भ ४१. भुजपरिसर्प (हाथों के बल चलने वाले गोह आदि) १५/१८६ म ४२. मंडुक्क (मेंढ़क) १२ / १५९, १३ / १२७-१२८ (भा.) Frog ४३. मच्छ (मत्स्य) १५/१८६ Fish ४४. मद्दुय ( मद्गुक, जलकाक ) १२/१६१ Snake Bird or Darter ४५. महोरग (महोरग) १५/१८६ Very Large Snake ल ४६. लोमपक्खी (रोमपक्षी) १५/१८६ A kind of Bird व ४७. वग, विग (भेड़िया) १२ / १६० Wolf ४८. वग्घ (व्याघ्र) १२ / १६० Tiger ४९. वल्गुलिका (छोटी चमगादड़ ) १३/१५२,१५३,१६२,१४९१६६ (भा.) ५०. विययपक्खी (विततपक्षी) १५/१८६ A kind of Bird २२. विलय (विलक, पीलक) १२/१६१ Golden Oriole ५१. वेरुलिय (गरुड़) १३/१६०,१४९-१६६ (भा.) स ५२. संसुमार (मगरमच्छ) १५/१८६ Crocodile ५३. समुग्गपक्खी (समुद्रपक्षी) १५/१८६ A kind of Bird ५४. समुद्दलक्खा (समुद्रलिक्षा) १५/१८६ Sea-louse भगवई ५५. समुद्दवायस (समुद्रकाक) १३/१५८ Brown Headed Gull ५६. सिखी, सिहि (मोर) १२ / १६१ Common Peafow ५७. सिरीसिव (सरीसृप ) १५ / १८६ Komodo-Dragon Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ५८. सीह (सिंह) १२/१६०; १५/१८६ Lion ४०७ परिशिष्ट-१ (ग) : नामानुक्रम : पशु-पक्षी ६०. हत्थिसोंडा (हस्तिसुण्डी) १५/१८६ A kind of Caterpillar ६१. हयं, हय (अश्व, घोड़ा) १५/१८२,१८४,१८६, १६/९२ Horse ६२. हल्ला (कीट) १५/१२८,१३२,१३७ A kind of Worm ५९. हंस (हंस) १३/१५७ Flamingo Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षमा १२ / १०२-१०७ अणगारं नोल्लावे हि १५ / १७९ अधर्मप्ररञ्जन १२ / ५२-५४ अधर्मप्रलोकी १२/५३-५४ अधर्म समुदाचार १२/५३-५४ अधर्माख्याति १२/५३-५४ अधर्मानुग १२/५३-५४ अधर्मिष्ठ १२/५३-५४ अ अधिकरण शाला १६/६-७ अधिकरणी १६ / ६-७ अधिकरणी खोडी १६ / ६-७ अनंतर आहारक १३/५ अनंतर उपपन्नक १४/४-५ अनंतर - खेदोपपत्रक १४/१४ अनंतर निर्गत १४ / ९-१३ अनंतर परंपर अनिर्गत १४/९-१३ अनंतर परंपर अनुपपन्नक १४/४-५ अनंतर परंपर खेद अनुपपन्नक १४/१४ अनंतरावगाढ १३/५ अनंतरोपपन्नक १३ / ५ अनुत्तरोपपातिक देव १४ / ८४-८८ अनुभाव परिवर्तन १२ /२२-२५ अनुवायंती १६/१०६ अपकर्ष १२/ १०२-१०७ अपत्तियं १६/५१-५२ अबुद्ध जागरिका १२ /२०-२१ अभिध्या १२ / १०२-१०७ अभिरममाणे १३/१४९-१६६ अभिसमन्वागत १२ / ९७ अप्फोडेमाणे १५/१२० अर्जुन गौतमपुत्र १५ / ३ अलाबुक १२ / १२४ परिशिष्ट-२ शब्दार्थ एवं शब्द- विमर्शानुक्रम अवग्रह १६ / ३३-३४ अवडु (आवटू) १५/१२० अवद्दालिय १३/१४९-१६६ अवधिमरण १३ / १३०-१४५ अविग्रह गति १४ /५४-५५ अविरत्ता १२ / १२८ अवीचि द्रव्य १४ /७२-७३ अवीचिमरण १३ / १३०-१४५ आवेढियं १६ / ७६-१०६ आशीष १२ / १०२-१०७ आचरण १२ / १०२-१०७ आत्मोत्कर्ष १२ / १०२-१०७ आत्यंतिकरण १३/१३०-१४५ आदित्य १२/१२५-१२६ आयंचिण उदअ (आतञ्चन उदक) १५/१२० आर्य १४/१३६ आसाएमाणा १२/४-५ आसयति १३ / ९८ इंदिय वसट्टे १२ / ५९-६३ इच्छा १२ / १०२-१०७ उग्गोवेमाणे १६ / ७६-१०५ उत्कर्ष १२/११०-१०७ उदग द्रोणी १६ / ६-७ उद्वर्तना १३/४ आ उन्नत १२ / १०२-१०७ उन्नाम १२ / १०२-१०७ उन्माद १४/१६-२० उपधि १२ / १०२-१०७ उपयोग आत्मा १२/२०० उब्भिज्जमाण १६ / १०६ इ उ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४०६ परिशिष्ट-२ : शब्दार्थ एवं शब्द-विमर्शानुक्रम उल्लंबिया १३/१४९-१६६ उव्विहिय उव्विहिय १३/१४९-१६६ औत्पत्तिकी १२/१०८-१११ औदारिक पुद्गल-परिवर्त्त १२/८१-९६ औधनिक लयन १३/९८ औपकरिक लयन १३/९८ चंब कडं १३/१४९-१६६ चक्र रत्न १२/१६३-१६८ चम्मेढे १६/६-७ चरम १३/५; १४/१ चाण्डिक्य १२/१०२-१०७ चारित्र आत्मा १२/२०० छंद १२/१३ जडिल १६/५१-५२ जल-प्रपात लयन १३/९८ जागरिका १२/२०-२१ जागृत १६/७६-१०५ जिम्ह १२/१०२-१०७ जीवंजीवक १३/१४९-१६६ जीविताशा १२/१०२.१०७ ज्ञान आत्मा १२/२०० कंबल कडं १३/१४९-१६० कपोत शरीर १५/१५२-१५५ करण १४/४४-४७ कर्मलेश्या १४/१,१२३-१२५ कलह १२/१०२-१०७ कल्क १२/१०२-१०७ कषाय आत्मा १२/२०० कांक्षा १२/१०२-१०७ कामाशा १२/१०२-१०७ काय १३/१२७-१२८ किल्विष १२/१०२-१०७ कुक्कुडमांस १५/१५२-१५५ कुक्षि का भेदन १२/१२४ कुरुक १२/१०२-१०७ कृत १२/९७ केतकी १६/१०६ कोट्ठ १६/१०६ कोप १२/१०२-१०७ कौसंब १६/५१-५२ क्रीडारति १४/२५-२७ क्रोध १२/१०२-१०७ डेवेमाणे १३/१४९-१६६ णूम १२/१०२-१०७ तिर्यक् पर्वत १४/६८-६९ तिर्यक् भित्ति १४/६८-६९ तृष्णा १२/१०२-१०७ खञ्जन १२/१२४ दर्प १२/१०२-१०७ दर्शन आत्मा १२/२०० दामिणि १६/७६-१०५ दिशाचर १५/७७ दुर्नाम १२/१०२-१०७ देवातिदेव १२/१६३-१६८ दोष १२/१०२-१०७ द्रव्य आत्मा १२/२०० गंडिया १६/५१-५२ गति १३/५५-६० गर्व १२/१०२-१०७ गृहन १२/१०२-१०७ गृद्धि १२/१०२-१०७ गृहीत १२/९७ ग्रहण १२/१०२-१०७; १३/५५-६० धर्मदेव १२/१६३-१६८ धार्मिक १२/५३-५४ नंदि १२/१०२-१०७ नरगत्ताए १२/१३३-१५२ नरदेव १२/१६३-१६८ घायगत्ताए १२/१३३-१५२ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२: शब्दार्थ एवं शब्द ४१० भगवई बद्ध १२/९७ बीजबीजक १३/१४९-१६६ बुद्ध जागरिका १२/२०-२१ नव निधि १२/१६३-१६८ निकृति १२/१०२-१०७ निभिज्जमाण १६/१०६ निर्जीण १२/९७ निर्यानिक लयन १३/९८ निर्विष्ट १२/९७ निसीयंति १३/९८ निःसृत १२/९७ निःसृष्ट १२/९७ नेमि व्रतिरूपक १४/७४-७५ नोइंद्रिय उपयुक्त १३/५ भण्डन १२/१०२-१०७ भत्था १६/६-७ भवसिद्धिक १२/४९-५२ भव्यद्रव्य देव १२/१६३-१६८ भाइल्लगत्ताए १२/१३३-१५२ भावदेव १२/१६३-१६८ भिध्या १२/१०२-१०७ भिस १३/१४९-१६६ भेद १२/६९.८० भोगाशा १२/१०२-१०७ पउट्ट परिहार १५/७२-७३ पक्खिविराली १३/१४९-१६६ पणियभूमि १५/५३-५६ परंपर उपपन्नक १४/४-५ परंपर खेदोपपन्नक १४/१४ परंपर आहारक १३/५ परंपर निर्गत १४/९-१३ परंपरावगाढ १३/५ परंपरोपपन्नक १३/५ परपरिवाद १२/१०२-१०७ परम १४/१ परिपार्श्व १४/१ पप्फोडेमाणे १५/१२० परिचारणा १२/१२४ परिभायमाणा १२/४-५ परिभुञ्जमाणा १२/४.५ परिणमित १२/९७ परिवेढियं १६/७६-१०५ पर्याप्त १२/९७ पाक्षिक पौषध १२/४-५ पारिणामिकी १२/१०८-१११ पुयलि १५/१२० प्रज्ञापराध १४/१६-२० प्रतिकुंचन १२/१०२-१०७ प्रतिहार १२/१५४-१५८ प्रदेश संख्या परिवर्तन १२/२२-२५ प्रस्थापित १२/९७ प्रार्थना १२/१०२-१०७ मज्जारकड १५/१५२-१५५ मद १२/१०२-१०७ मनोमानसिक १३/११०-१२१ मयगत्ताए १२/१३३-१५२ मरण १३/१३०-१४५ मरणाशा १२/१०२-१०७ महत्तर १३/४३ महापइरिक्कतरा १३/४३ महापवेसणतरा १३/४३ महावित्थिण्णतर १३/४३ महोगासतरा १३/४३ मान १२/१०२-१०७ माया १२/१०२-१०७ मुंड १६/५१-५२ मुट्ठिए १६/६-७ मूर्छा १२/१०२-१०७ योग आत्मा १२/२०० रहसिरेणे १५/१७९ राग १२/१०२-१०७ रोष १२/१०२-१०७ लव सप्तम देव १४/८४-८८ लालपनता १२/१०२-१०७ लोभ १२/१०२-१०७ बंध परिवर्तन १२/२२-२५ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४११ परिशिष्ट-२ : शब्दार्थ एवं शब्द विमर्शानुक्रम शशि १२/१२५-१२६ वलय १२/१०२-१०७ वल्गुलिका १३/१४९-१६६ वसुहारा वुट्टा १५/२२-२६ वहगत्ताए १२/१३३-१५२ वाइद्धं १६/५१-५२ विग्गह कंडक १३/८८-९१ विग्गह विग्गहिए १३/८८-९१ विग्रह १३/८८-९१ विग्रह गति १४/५४-५५ विग्रहिक १३/८८-९१ विलयकडं १३/१४९-१६६ विवाद १२/१०२-१०७ विसाएमाणा १२/४-५ वीचि द्रव्य १४/७२-७३ वीर्य आत्मा १२/२०० वेरुलिय १३/१४९-१६६ वेसत्ताए १२/१३३-१५२ वैसालिए १२/३० व्यवशमन काल १२/१२८ संघात १२/६९-८० संघात-भेद १२/६९-८० संचिट्ठणा १२/१९१ संज्वलन १२/१०२-१०७ संवेल्लेमाणे १६/७६-१०५ सपक्ष १२/१२४ सप्रतिदिश १२/१२४ समतुंरगेमाणे १३/१४९-१६६ सयंति १३/९८ सातिओग १२/१०२-१०७ सिन्धु सौवीर १३/१०२ सुंब कडं १३/१४९-१६६ सुदृष्ट जागरिका १२/२०-२१ सुप्त १६/७६-१०५ सुप्त-जागृत १६/७६-१०५ स्तम्भ १२/१०२-१०७ स्थिति परिवर्तन १२/२२-२५ स्पृष्ट १२/९७ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ भाष्य-विषयानुक्रम आर्य १४/१३६ अग्निकाय १६/५ आसंयति और संयति १३/९८ अग्निकाय का अतिक्रमण १४/५४-५५,५६-५७,५८-६० अद्धासमय (व्यावहारिक काल) १३/७१ अधःसप्तमी में तीन ज्ञान १३/१३ इन्द्रिय लोलुपता से कर्मबन्धन १२/५९-६३ अधर्मास्तिकाय के प्रदेश एवं षड्द्रव्य के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श १३/६१-६२ ईषत् प्राग्भारा १४-१०० अधिकरणी-अधिकरण पद १६/८-१६ अनुकंपा १५/६५-६६ उत्तर विक्रिया में बाहरी पुद्गलों का ग्रहण १६/५४-५५ अनुत्तर विमान १३/३५ उद्रायण के दो महारानियां १३/१०० अनुत्तरोपपातिक देव १४/८४-८८ उद्रायण के मानसिक द्वन्द्व और उत्तराधिकारी की नियुक्ति १३/ अम्मड परिव्राजक की चर्या १४/१०७-११२ १००-१२१ अर्हत्, निग्रंथ और वैशालिक १२/३० उद्वर्तना १३/४,६ अवकाशान्तर एवं तनुवात में वर्ण की पृच्छा १२/११२-११३ उन्माद के प्रकार १४/१६-२० अव्याबाध देव की दिव्य शक्ति १४/११३-११६ उपपद्यमान ही उत्पन्न होना १२/१५९-१६१ अष्टविध आत्मा का अल्प-बहुत्व १२/२०५ औ अष्टांग निमित्त १५/७७ औत्पत्तिकी बुद्धि एवं पारिणामिकी बुद्धि १२/१०८-१११ असुरकुमार देवों के आवास १३/२६ औदारिक पुद्गल परिवर्त १२/९७ अस्तिकायों की परस्पर स्पर्शना १३/७२-७३ आ | कर्म परिवर्तन १२/२२-२५ आकाशास्तिकाय के प्रदेश एवं षड्द्रव्य के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श | कवोय-सरीर, मज्जारकडए और कुक्कुडमंसए १५/१५२-१५५ १३/६३ काय (शरीर) का स्वरूप १३/१२८ आठ आत्माओं की उपलब्धि और अनुपलब्धि १२/२०१-२०४। कुंडलिनी जागरण के मार्ग १५/६५-६६ आठ-चरम १५/१२१ कुंडलिनी : स्वरूप और जागरण १५/६५-६६ आत्मा : ज्ञान और दर्शन १२/२०६-२१० केवली १४/१३८-१५४ आत्मा और शरीर १३/१२८ क्रिया पद १६/६-७ आत्मा के आठ प्रकार १२/२०० आप्त १४/१२६-१२९ गंध पुद्गल १६/१०६ आभामंडल एवं कर्मलेश्या १४/१२३-१२५ गति का सिद्धांत १३/५५-६० आयुष्य बंध का सिद्धांत १४/१ गति के नियम १६/११८-११९ क Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४१३ परिशिष्ट-३ : भाष्य-विषयानुक्रम गर्भ में वर्णादि १२/११९ द्रव्य, दाता और प्रतिग्राहक की शुद्धि १५/२२-२६ गोशालक का जीवन वृत्त १५/१४२ द्रव्यलेश्या एवं भावलेश्या १२/११७ गौतम स्वामी १४/७७ द्विशरीरी १२/१५४-१५८ द्वयणुक स्कंध के अवगाह का नियम १३/७९.८३ चतुःस्पर्शी १२/११७ चारों गति के जीवों के अनुश्रव १४/६१-६७ धर्मदव का संस्थान काल १२/१९१ चार गतियों के विभाग का हेतु-कर्म १२/१२० धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय का अमूर्त्तत्व १३/ चेतना की अवस्थाएं १२/१०८-१११ ८६-८७ चैतन्य-अचैतन्य कृत कर्म १६/४१-४२ धर्मास्तिकाय के प्रदेश एवं षड्द्रव्य के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श चौबीस वर्ष पर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशाल १५/२ १३/६१-६२ न छह दिशाचर और गोमायुपुत्र १५/३ नरक में अग्निकाय १४/५४-५५ नरक में उपपत्ति के नियम १३/३ जागरिका एवं उसके प्रकार १२/२०-२१ नरक में तीन लेश्याएं १३/१८-२२ जीव और पुद्गल १२/१०२-१०७ नरक में तेजस्काय १३/४४,४६ जीव की अवस्थाएं १२/१०२-१०७ नरक में पृथ्वी, अप आदि कायों का स्पर्श १३/४४ जीव के नाना रूपों में संसार में भ्रमण १२/१३३-१५२ नरक में पृथ्वी आदि छह काय १३/४६ जीवास्तिकाय के प्रदेश एवं षड्द्रव्य के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श | नरकावास १३/४३ १३/६४-६५ नरकावासों की मोटाई आदि १३/४५ जीवों के जरा-शोक पद १६/२८-३१ निर्जरा के तारतम्य का हेतु १६/५१-५२ जंभक देव एवं उनके प्रकार १४/११७-१२१ नैरयिक का अनंतर उपन्नक आदि १४/४-५ नैरयिक का अनंतर खेद उपन्नक आदि १४/१४ तमस्काय का निर्माण १४/२५-२७ नैरयिक का अनंतर निर्गत आदि १४/९-१३ तीन गमक १३/६ नैरयिक का आहार आदि १४/७१,७२-७३ तेजोलेश्या १५/६५-६६ नैरयिक के आयुष्य का बंध १४/६-८,९.१३ नैरयिक के आहार एवं शरीर १३/४० दया १५/६५-६६ नैरयिक के वीचि द्रव्यों एवं अवीचि द्रव्यों का आहार १४/७२. दिव्य सर्प का दरसाव १२/१५४-१५८ ७३ दिशा १३/४७-५५ नैरयिकों की गति १४/३ दिशाचर १५/७७ दुर्बलता, बलवत्ता, आलस्य, दक्षता १२/५५-५८ पंचविध देवों का अन्तर काल १२/१९२-१९६ देवायुष्य का बंध १५/२२-२६ पंचविध देवों का उद्वर्तन १२/१८५-१९० देवों का असंज्ञी के रूप में उद्वर्तन १३/२७ पंचविध देवों की विक्रिया १२/१८३-१८४ देवों की सहस्रभाषा १४/१३०-१३१ पंचविध देवों की स्थिति १२/१७८-१८२ देवों के पांच प्रकार १२/१६३-१६८ पंचास्तिकाय १३/५५-६० देवों द्वारा नाट्य विधि १६/६१-६३ पंचास्तिकाय की सत्ता में होने वाली प्रवृत्तियां १३/५५-६० देवों में कषाय की विद्यमानता १३/२७ पउट्ट परिहार १५/६५-६६ देवों में लेश्याएं १३/३१ परमाणु-पुद्गल का चरम-अचरम रूप १४/५१ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ३ : भाष्य-1 - विषयानुक्रम परमाणु - पुद्गल की गति १६ / ११६ परामनोविज्ञान में मनः प्रभाव १५/६५-६६ परिणामी नित्यवाद १४/४४-४७ पांच क्रिया १६ / ११७ पांच स्थावर काय के व्याप्ति का नियम १३/८४-८५ पाक्षिक पौषध १२ / ४-५ पुद्गल का स्वरूप १४/४४-४७ पुद्गल द्रव्य : अणु और स्कंध १२ / ६९-८० पुद्गल - परिवर्त्त १२ / ८१-९६ पुद्गल - परिवर्त का कालमान १२ / ९८ पुद्गल - परिवर्त के निवर्तना निष्पत्ति काल १२/९९-१०० पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश एवं षड्द्रव्य के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श १३/६४-६५ पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों का षड़द्रव्य के प्रदेशों से स्पृष्ट होना १३/६६-७० पोट्ट - परिहार का सिद्धांत १५/६५-६६,१४१ पौषध का स्वरूप १२/६ पौषध में भोजन करने की आज्ञा देना १२/१३ ४१४ प्रणीतभूमि में भगवान् महावीर का वर्षावास १५/५३-५६ प्रमाण योजन १४ / ९० प्रवृत्ति और निवृत्ति १५ /६५-६६ प्राण-शक्ति का आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक महत्त्व १५ / ६५-६६ प्राण-शक्ति की विद्युत् का चमत्कार १५ / ६५-६६ प्रियधर्मा- दृढधर्मा १२/१९ बंध स्थिति १३ / १४७ ब्राह्मण १५/१५ भावितात्मा अनगार १४ / १२३-१२५ भावितात्मा अनगार की बहुविध विक्रिया १३/१४९-१६६ भावितात्मा अनगार के असुरकुमार के आयुष्य का बंध कैसे ? १४/२ भाषा का स्वरूप १३ / १२४ म मन का स्वरूप १३ / १२६ मरण एवं उसके प्रकार १३/१३०-१४५ महानिमित्त १५/४ महावीर और गौतम के वार्तालाप १४ /७८-७९ महावीर और गोशालक का तुलनात्मक जीवन-दर्शन १५/७७ मुनि की शल्य क्रिया १६/४८-४९ मेंढियग्राम के प्रसंग में रायगिह का उल्लेख १५/१६० र रत्नप्रभा पृथ्वी में कापोत लेश्या १३/३ रत्नप्रभा में विद्यमान नारक जीव १३/५ रहसिरेण और नोल्लावेइ १५/१७९ राहू और चन्द्रमा १२ / १२३ राहू के दो भेद १२ / १२४ लवसप्तम देव १४ / ८४-८८ लेश्या १३/३३ ल भ भक्त-प्रत्याख्यान ( अनशन) १४ / ८२-८३ भगवान् महावीर का महत्त्वपूर्ण जीवन- प्रसंग १५/१४१ भगवान् महावीर का विहार, वर्षावास आदि का काल-क्रम के साथ पूर्ण विवरण १५/१४१ वायुकाय १६/१-४ विक्रिया १४ / ६८-६९ भगवान् महावीर को विजय गृहपति द्वारा प्रदत्त दान १५/२२-२६ भगवान् महावीर तथा गोशालक (उपलब्ध काल-विषयक सामग्री एवं महत्त्वपूर्ण जीवन प्रसंग ) १५ / १४१ विग्रह गति १४ / ३ भगवान् महावीर द्वारा सत्योद्घाटन एवं गोशालक द्वारा तेजोलेश्या वृक्ष का पुनर्भव १४ / १०१-१०६ का घातक प्रयोग १५/१०५-११९ भवसिद्धिक १२ / ४९-५२ भव्य द्रव्य देव की उत्पत्ति १२/१६९-१७७ भगवई लेश्यानुसारी उपपात १४/१,२ लोक के चरमान्तों में जीव अजीव की वक्तव्यता १६ / ११०-११५ लोक में समस्त जीवों का जन्म-मृत्यु पद १२/१३०-१३२ लोक स्वरूप १३/८८-९१ लोकोपचार विनय १४/२९-३९ व वर्षा के दो कारण १४/२१-२४ वस्तु में सदृशता और विसदृशता का गुण धर्म १४/८०-८१ वाणमंतर देवों के आवास १३ / २९ वैरानुबंध के कारण सम्यग्दृष्टि से विरहित १३ / ११०-१२१ श शक्र का अवग्रह- अनुज्ञापन पद १६ / ३३-३४ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४१५ परिशिष्ट-३ : भाष्य-विषयानुक्रम शक्र की भाषा : सावद्य या अनवद्य १६/३५-४० निरूपण १३/७४-७८ शक्र संबंधी व्याकरण १६/३५-४० शय्यातरी जयन्ती श्रमणोपासिका १२/३० सत्य को देखने की दो दृष्टियों १४/४९-५० शरीर :अष्टस्पर्शी और चतस्पर्शी १२/११४-११६ समुद्घात १३/१६८ शरीर के संदर्भ में अधिकरणी और अधिकरण की मीमांसा १६/ सम्यक् मिथ्यादृष्टि १३/१४-१६ २०-२६ साध्य-साधन संगति १५/६५-६६ शीलव्रत १२/२७ सिंह अनगार द्वारा रेवती के से भैषज्य ग्रहण १५/१५२-१५५ श्रमणों की साधनजन्य तेजोलेश्या १४/१३६ सिन्धु सौवीर १३/१०२ श्रमणोपासिका जयन्ति के प्रश्न १२/४१-४८ सुख-दुःख के हेतु १४/४८ शशि और आदित्य १२/१२५-१२६ सुगंधित द्रव्यों के पुट १६/१०६ श्रावक के धार्मिक स्वरूप १२/१ सूर्य १४/१३२-१३५ श्रावक को वंदन-नमस्कार १२/९ सोना अच्छा या जागना? १२/५३-५४ सोलह जनपद १५-१२१ षड्द्रव्य में वर्णादि १२/११८ स्कंध की उत्पत्ति : संघात और भंद १२/६९-८० षड्द्रव्यों के प्रदेश के नियम १३/७२-७३ स्याद्वाद का सिद्धांत १२/२११-२२५ षडद्रव्यों के प्रदेशों का अवगाह, अवस्थिति अथवा व्याप्ति का | स्वप्न दर्शन १६/७६-१०५ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ पारिभाषिक शब्दानुक्रम अ अधस्तन १३/८८ अंतरालगति १४/आमुख, ४-५ (भा.) अधिकरण १६/आमुख, ८-१०, ८-१६ (भा.) २०-२६,२०-२६ अकर्म १२/१२० (भा.) अकर्मभूमि १२/१७३ अधिकरणी १६/आमुख, ८-१५,८-१६ (भा.), २०-२६,२०-२६ अकर्मभूमिज १२/१६९, १६९-१७७ (भा.) (भा.) अकाम निर्जरा १४/आमुख, १०१-१०६ (भा.) अधोलोक १३/४७,४८,९१, १४/३ (भा.) अक्षमा १२/१०३ अध्यवसाय १४/१ (भा.) ६-८ (भा.), १११, १६/५१-५२ अगार १२/२७; १३/१०८,११०,१२०; १४/११२; १५/१८६; | | (भा.) १६/७०,९१ अनंत १२/८०,१३४,१४५-१५२, १३३-१५२ (भा.), १३/८४अग्नि १४/४४ (भा.) ८५; १४/४४,४६-४८,८१ अग्निकाय १४/५४,५५,५४-५५ (भा.) ५६-५७,५६-५७ (भा.) | अनंतर उद्वर्तन १२/१८५-१९०, १८५-१९० (भा.); १३/ ५८-६०,५८-६० (भा.); १५/१८६, १६/आमुख, ५,५, १२२, १४/१०२,१०४,१०६ (भा.) अनंतर उपपन्नक १३/५,५१ (भा.); १४/४-५,४-५ (भा.), ६,६. अज्ञान १२/२०८,२०६-२१० (भा.); १४/३ (भा.), ३६ ८ (भा.) अचरम १४/५१,५१ (भा.); १६/४०,६० अनंतर खेदोपपन्नक १४/१४,१४ (भा.) अचित्त १३/१२४,१२४ (भा.) १२६,१२८ अनंतर निर्गत १४/९,११,९-१३ (भा.) अजिन १५/६,७७,७९ अनंतर-परंपर अनिर्गत १४/९,१०,१३,९-१३ (भा.) अजीव १३/१२४,१२४ (भा.), १२६,१२८; १४/११२ अनंतर-परंपर अनुपपन्नक १४/४,५,४-५ (भा.), ८,६-८ (भा.) अजीव देश १६/१११ अनंतर-परंपर खेद-अनुपपन्नक १४/१४,१४ (भा.) अजीव प्रदेश १६/१११,११३ अनगार १२/२१,२७,६६; १४/१ (भा.), २ (भा.), अठारह पाप १२/आमुख ८२,८३,८२-८३ (भा.); १५/१८६, १६/९१ अणु-अस्त्र १५/१२१ (भा.) अनगारिता १३/१०८,११०,१२०; १४/११२; १६/७० अदत्त १४/१०९ अनन्त काल १२/१९२-१९४,१९६ अदत्तादान १२/४१,४२,१०२, १४/१०९ अनशन १३/१२१, १४/८२-८३ (भा.), १०९ अदुःखी १४/४८ अनाकारोपयोग १२/११,२०१-२०४ (भा.); १३/३-५ अद्धासमय १३/६१,६१-६२ (भा.) ६३ (भा.), ६८,७१,७१ | अनाप्त १४/१२६-१२८ (भा.), ७२-७३ (भा.), ७४-७८ (भा.) ८१-८३ अनित्य जागरिका १५/५६,५३-५६ (भा.) अधर्मास्तिकाय १२/११८ (भा.); १३/५५,५७,५५-६० अनिन्द्रिय १६/१११,११३,११४ (भा.),६१,६२,६१-६२ (भा.), ६३,६४,६६-६८, ७१,७९- अनिष्ट १४/१२९ ८३,८६,८७,८६-८७ (भा.) अनुकंपा १५/६५,६५-६६ (भा.), ९३,९५,९६ अधःसप्तमी १२/१३८,१७१,१७३,२१३; १३/१,१२,१३ (भा.), | अनेकांत (दर्शन) १२/२११-२२५ (भा.); १४/८०-८१ (भा.) ४२-४६,४५ (भा.); १४/४०-४२,९१,९२,१५०; १५/] अनैतिकता १२/५३-५४ (भा.) १८६; १६/११५ अन्तराय १२/११६ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ भगवई ४१७ परिशिष्ट-४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम अन्तर्वीप १२/१७३ अविग्रह गति समापन्नक १४/५५,५५ (भा.), ५७,६० अन्तर्वीपज १२/१६९,१६९-१७७ (भा.) अविरति १६/आमुख, ६-७ (भा.),९,१२,१४,१६,८-१६ (भा.), अन्तर्मुहूर्त १२/१९२,१९६,१९२-१९६ (भा.); १३/३ (भा.), २१,२०-२६ (भा.) १८-२२ (भा.) अवीचि द्रव्य १४/७२,७३,७२-७३ (भा.) अन्यतीर्थिक श्रमण १५/आमुख, १४९,१५२ अशन १२/४,६-७,१२-१४,१८, १४/१०९ अपरिमित १२/४३ अशरीर १६/३,४ अपानक के प्रकार १५/१२३-१२७ (भा.) अशुभ भाव १२/१९१ (भा.) अप्कायिक १३/८४-८५; १५/१८६ अष्टविध आत्मा १२/२००-२०५,२०० (भा.),२०१-२०४ अबाधा अंतर १४/९०-१०० (भा.), २०५ (भा.) अबुद्ध जागरिका १२/२०-२१, २०-२१ (भा.) अष्टांग महानिमित्त १५/आमुख, ७७,७७ (भा.); १६/आमुख अभवसिद्धिक १३/३-५ (भा.), ४ (भा.),५ (भा.), ३६, १६/| असंज्ञी १३/३ (भा.), ४,४ (भा.), ५,५ (भा.) ७,२७,३१ ३५-४० (भा.), ६० असंयमी १५/२२-२६ (भा.) अभूत भवन् १२/४९-५२ (भा.) असातवेदनीय कर्म १२/२२,५९,५९-६३ (भा.) अभ्याख्यान १२/४१-४२; १४/१०९ अस्तिकाय १३/५५-६० (भा.) अमनस्क १६/२८-३१ (भा.) अहोदानम् १५/२६,२२-२६ (भा.), २७,३३,३४,४०,४१,४९, अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक १४/३०, १६/५५ ५०,१५९-१६० अरति-रति १२/४१-४२, १४/१०९ अरहंत भगवान १४/२४ आकाश १३/५५-६० (भा.), ६१-६२ (भा.), ६३ (भा.), ६४. अरूपी १३/१२४,१२४ (भा.), १२६,१२८ ६५ (भा.), ६६-७० (भा.), ७९-८३ (भा.) अर्थ १२/३, १४/७८,७९, १५/२९,३५,४३,५५,६९,७१,७४, | आकाशास्तिकाय १२/११८ (भा.); १३/५५,५८,५५-६० (भा.), ६१,६३-६४,६६-६८,७१-७४.७६,७७,७९-८२,८६,८७, अर्धपुद्गल परिवर्त्त १२/१९३,१९४; १३/३ (भा.) ८६-८७ (भा.) अर्श १६/४९,४८-४९ (भा.) आचार्य-उपाध्याय १५/१४१,१८६ अर्हत् १२/२१,३०,३० (भा.), ३३,१६७,१६३-१६८ (भा.); | आजीवक १५/आमुख, १४२ (भा.) १४/१०९; १५/६,७,७७,९८,१३९,१४१,१५७ आजीवक उपासक १५/१२८,१२९,१३०-१३३,१३६,१३७ अर्हत्-प्रलापी १५/६,७,७७,१३९,१४१ ।। आजीवक संघ १५/१२९ अलोक १३/५२-५४,५५-६० (भा.); १६/११८ आजीवक संप्रदाय १५/आमुख, १४२ (भा.) अलोकाकाश १३/५५-६० (भा.), ६१-६२ (भा.),६३ (भा.), आजीवक सिद्धांत १५/आमुख, १,१२८,१२९ ७४-७८ (भा.) आजीवक स्थविर १५/आमुख, ११९,१३०-१३५,१३९-१४२ अल्पनिर्जरा १४/८४-८८ (भा.) आठ चरम १५/१२१,१२१ (भा.), १३२ अवकाशान्तर १३/४७,४८ आतापना १४/१११; १५/६५-६६ (भा.), ७०,७६,१७७,१८० अवक्तव्य (स्यात्) १२/आमुख, २१४,२१५,२१८-२२५,२११- | आत्मा १२/२००-२२५; १३/१२४,१२४ (भा.), १२६,१२८, २२५ (भा.) १२८ (भा.); १४/११२,१२३-१२५ (भा.) अवगाह १३/आमुख, ५५-६० (भा.), ७४-७८ (भा.) आत्मा के प्रकार १२/२००,२०० (भा.) अवगाहना १३/५८ आधोवधिक १४/१४० अवग्रह १२/११०; १६/३३,३३-३४ (भा.) आनापान १२/९७; १३/६०,५५-६० (भा.) अवग्रह के प्रकार १६/३४ आप्त १४/१२६-१२९,१२८-१२९ (भा.) अवधि १६/१२३ आभामंडल १४/आमुख, १२३-१३५ (भा.); १५/६५-६६ (भा.) अवधिज्ञान १४/१११; १६/५५ आयाम-मध्य १३/४७,४८,४९ अवसर्पिणी १२/१२६; १५/१३९ आयाम-विष्कंभ १२/१३०-१३२ (भा.) अवहेलना १२/१९ आयुष्य १३/११०-१२१ (भा.); १४/१ (भा.), २ (भा.), अवाय १२/११० १४,१४ (भा.), ८४-८८ (भा.) Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४१८ भगवई आयुष्य कर्म १२/२२,५९, १३/१३०-१४५ (भा.); १४/७१, | उपसर्ग १४/१०९ ७१ (भा.) आयुष्य बंध १४/१ (भा.), २ (भा.), ६-८,६-८ (भा.) ११- ऊर्ध्वलोक १३/४९,९१, १४/३ (भा.) १३,९-१३ (भा.) आराधक १४/१०९, १६/४०,६० एकान्त नित्यवाद १४/४४-४७ (भा.) आर्त १२/२२-२५,५९-६३ एकेन्द्रिय १२/१८३-१८४,१८३-१८४ (भा.); १४/३,३ (भा.), आलस्य १२/५७-५८ २९-३९ (भा.), ५७,५७ (भा.), ६४, १५/१८६, १६/ आलीन १४/१११ १११,११३,११४ आलोचना १२/२७; १४/१०९, १६/७१ एषणा १२/२१, १५/१३ आवलिका १२/१२६ एषणीय १४/११२ आवेश १५/६४ औ आश्रव १४/११२ औत्पत्तिकी १२/१०९,१०८-१११ (भा.) आहार १३/९३, १४/७१,७१ (भा.) ७२-७३,७२-७३ (भा.), | औदयिक १४/८१,८०-८१ (भा.) ८२,८३,८२-८३ (भा.), १०९-१११ औपशमिक १४/८१ आहारक शरीर १२/८१.९६ (भा.); १६/२३,२०-२६ (भा.) आहार द्रव्य वर्गणा १४/७२-७३ कपोत शरीर १५/१५२,१५५,१५२-१५५ (भा.) इन्द्रिय १२/५९-६३ (भा.); १३/६० करण १४/४४,४४-४७ (भा.) इन्द्रिय उपयुक्त १३/५ (भा.) कर्म १२/आमुख, २२-२५,२२-२५ (भा.) ५९-६३,५९-६३ इन्द्रिय के प्रकार १६/१८ (भा.), ९९,१०२-१०७ (भा.), १०९,१२०,१२० (भा.); १३/१२८ (भा.); १४/६१,६२,७१,७१ (भा.), ८८,८४-८८ ईर्या १५/१५३ (भा.); १५/आमुख, १०१, १६/४१,४२,४१-४२ (भा.), ईषत्प्रारभारा १२/२१६, १४/९९,१००,१०० (भा.), १५२ ५१,५२ १६/११५ कर्म परिवर्तन १२/२२-२५ (भा.) ईहा १२/११० कर्म प्रकृति १३/१४७; १६/४४,४५ कर्मभूमिज १२/१६९-१७७ (भा.) उच्चार-प्रस्रवण भूमि १२/६ कर्मलेश्या १४/१ (भा.), १२३,१२३-१२५ (भा.) उच्छ्रास निःश्वास १४/१०९, १६/१२५ कर्मशरीर १२/११४-११६ (भा.); १६/२४ उत्थान १२/१११; १४/६१,६२ कर्म सिद्धांत १२/१२० (भा.) उत्सर्पिणी १२/१२६ कलह १२/४१-४२, १४/१०९ उदय १४/१६-२०,१६-२० (भा.) कषाय १२/आमुख, २२.२५ (भा.); १३/२७ उदुम्बरयष्टिका वृक्ष १४/आमुख, १०५,१०१-१०६ (भा.) कामभोग १२/१२८ उद्वर्तन १३/४,४ (भा.),९,१३ (भा.), १५,१७,२७ काय १३/१२८,१२८ (भा.), १२९, १५/७२-७३ (भा.) उन्माद १४/आमुख, १६/२०,१६-२० (भा.) काय के प्रकार १३/१२९ उन्माद के प्रकार १४/१६-२० (भा.) काय वर्गणा १३/१२८ (भा.) उन्मेष १४/१४५,१४६ कायिकी १६/६,७,८-१६ (भा.) उपचय १२/२२-२५,५९-६३ कायोत्सर्ग १६/४८-४९ (भा.) उपपद्यमान उपपन्न १२/१५९-१६१ कार्मण शरीर १२/१५४-१५८ (भा.); १३/१२८ (भा.); १४/ उपयोग १३/५९,५५-६०; १६/१०८ ५४-५५ (भा.); १५/४ उपरितन १३/८८ कार्मिकी १२/१०९ उपवास १२/६,६ (भा.), ११,१३,१४; १३/१०३, १५/६५- | काल १२/११८; १५/११५ ६६ (भा.), १४७,१८५, १६/५१ कुंडलिनी १५/६५-६६ (भा.) Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई कुक्कुटमांस १५/१५२, १५५, १५२-१५५ (भा.) कुहु कुहु शब्द १५/१४८, १४९ कृष्ण पक्ष १२ / १२४ कृष्ण पाक्षिक १३/३ (भा.) २७, ३६ केवलज्ञान १४ / २४, १६-२४ (भा.); १५/१८६; १६/९१ केवल दर्शन १५/१८६; १६ / ९१ केवली १२/२१, २०-२१ (भा.), १६७ १४ / ५१ (भा.), ७८७९ (भा.), १३८-१५४, १३८-१५४ (भा.) १५७, १५/ ६, ७,७७, १३४, १४१, १८७-१८९ केवली प्रज्ञप्त धर्म १६ /९१ केवली प्रलापी १५ / ६, ७,७७,१३९,१४१ केवली समुद्घात १४ / ५१ (भा.) क्रिया १६ / ६, ७,६-७ (भा.), ८-१६ (भा.), ४९, ४८-४९ (भा.), ११७ क्रोध १२ / आमुख, २२,४१,४२,१०२-१०७ (भा.); १३ / २७ (भा.); १४ / १०९,१११, १५/१०५-११९ (भा.), १७९, १८३ क्रोध विवेक १२ / १०८ क्षमायाचना १२ / २६; १५/१०९,१६५ क्षय १६/५१,५२,५१-५२ (भा.) क्षयोपशम १२ / १०८-१११ (भा.) २०१-२०४ (भा.); १४/१११ क्षायिक १४/८१ क्षायोपशमिक १२ / आमुख; १४ / ८१ क्षुल्लक प्रतर १३ / ८८,८९-९१ ( भा.) ख खाद्य १२ / ४,६-७,१२-१४, १८, १४/१०९ ग ४१६ गति १२/१२० (भा.), १८५-१९० (भा.), १९९, १३ / ५६, ५५ ६० (भा.); १४ / १ (भा.), ३, ३ (भा.), ६१-६७ (भा.); १५/ ७२-७३ (भा.) गर्भ १२ / ११९, ११९ (भा.) गुणस्थान १२ / १९१ (भा.); १३/१४-१६ (भा.) गुरुता १२/४१ गेरुक १५ / आमुख ग्रहण १२ / १२२, १२३, १२३ (भा.), १२४, १३/६०, ५५-६० (भा.) घनवात १२ / ११३ घनोदधि १२/११३ घ घात्यकर्म १४ / ८४-८८ (भा.) घ्राणेन्द्रिय १२ / ६१; १६/२५,२०-२६ (भा.) च जन्म १२ / १३१,१३२,१३०-१३२ (भा.) जरा १६ / २८-३१,२८-३१ ( भा.), ५२ गंध १२ / १०२-१०७,१०२-१०७ (भा.) १०८-११९, १४/८७ जागरिका १२ / आमुख, १९-२१,२०-२१ ( भा.); १५ / १२८ गंध - हस्ती १५/११४,१५२ जानते देखते हैं १४ /७८.७९ जिन १२ / २१,१६७, १५/६,७,१२-१४,७७,७७ (भा.) ७९,११४,१३९,१४१,१४२, १५२, १५७ जिन - प्रलापी १५ / ६, ७, १२-१४,७७,७७ (भा.), ७९,१३९, परिशिष्ट- ४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम चक्रवर्ती १२/१६५,१६३-१६८ (भा.), १७८-१८२ (भा.); १६/ ८७ चक्षुरिन्द्रिय १२ / ६०; १६ / २५,२०-२६ (भा.) चतुरिन्द्रिय १२ / ११५; १४ / ३३,२९-३९ (भा.), ५८,६६' १५/ १८६; १६/३१ चतुर्गत्यात्मक संसार १२ / २२-२५ १३ / १०, १५/१८७ चतुर्दश पूर्व १४ / ११३-११६ (भा.) चतुस्पर्शी १२/११७ (भा.) चय १२/२२-२५, ५९-६३ चरम १३ / ५ ( भा.); १४ / ५१,५१ ( भा.); १५/१२१, १२१ (भा.); १६ / ४०,६० चातुर्मासिक प्रायश्चित्त १६ / ४८-४९ (भा.) चित्रक वनस्पति १५/१५२,१५५ चित्रफलक १५/१९,२३ चौपतिया शाक १५/१५२, १५५,१५८, १६१ छ छद्मस्थ १४/१२३-१२५ (भा.), १३८, १३९, १५ / ६५-६६ (भा.), ११३, ११४, १४१, १४२, १४६, १४८, १४९, १५२, १८७ छह दिशाचर १५ / आमुख, ३,३ (भा.) ४,७७,७७ (भा.) छाद्मस्थिक समुद्घात के प्रकार १३ / ९६८ ज १४१,१४२ जिनवर १४ / १०९ जिह्वेन्द्रिय १६/२५ जीव १२ / आमुख, ४१-६३,९७ (भा.), १०२-१०७ (भा.), ११९,१३१,१३२,१३०-१३२ (भा.), १४५-१५२,१३३१५२ (भा.); १३ / ५ (भा.), ५६-६०, ५५-६० (भा.), ६४६५ (भा.), ८४-८७, १२४, १२४-१२५ (भा.), १२६, १२८, १४ / ४८, ४८ (भा.), ६१-६७ (भा.), ११२,१२३,१२३१२५ (भा.); १५/५,१८६; १६/८-१६ (भा.), २०२६, २०-२६ (भा.), २८-३१,२८-३१ ( भा.), ७९,८०,११९ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- ४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम जीव देश १६ / १११,११३ जीव प्रदेश १६ / १११ जीवास्तिकाय १३/५५,५९,५५-६० (भा.),६१,६१-६२ (भा.), ६३,६४-६५,६४-६५ (भा.), ६८,७१,७२, ७४, ७६-७८, ८१,८२ जैन खगोल १२ / १२३ (भा.) ज्ञान १२ / २१,२०६, २०७, २०६-२१० (भा.); १३/५९ ज्ञानावरण १२/२०-२१ (भा.), १०८-१११ (भा.), २०६-२०७ (भा.) ज्ञानावरणीय कर्म १२/११६; १६/४४-४५ त ४२० तमः प्रभा १२/१३७, १७३, १३ / ४५ (भा.) तमस्काय १४ / आमुख, २५-२७, २५-२७ (भा.) तमा पृथ्वी १३/११,१६,४३, १४ / ९१, १५ / १८६ तापस १५ / आमुख तीर्थंकर १२ / ३०,१६३-१६८ (भा.); १३ / २७ (भा.); १४ / २१२४ (भा.) ११३ ११६; १५ / आमुख, २२-२६ ( भा.), १२१, १२९, १४२ (भा.); १६ / ७१,८६ तिर्यक्ोनिक १४ / ८१ तिर्यक्लोक १३ / ५०,९१,८१-९१ ( भा.); १४ / ११७-१२१ तिल १५/५८, ७२-७५ तिल का पौधा १५/५७-५९,७२-७४ तुल्य के प्रकार १४ / ८०-८१, ८०-८१ (भा.) तेज १५/६४,११२,११६, १२१ तेजोलब्धि १२ / १५४-१५८ (भा.) तेजोलेश्या १३/२७,३१, ३१ (भा.); १४ / आमुख, ५४-५५ (भा.), १३६, १५/६५,६६,६५-६६ (भा.) ६८,७७ (भा.), १०५११९ (भा.), १२१ (भा.); १४१ (भा.), १७७; १६ / आमुख तैजसका १३ / ४४ तैजसकायिक १३/४४,८४-८५; १५/१८६ तैजस शरीर १२ / १५४-१५८ (भा.); १५ / ६५-६६ (भा.); १६/४ तदावरणीय कर्म १४/१११ तप १५ / आमुख, २१; १६ / आमुख दुःखी १४ /४८, ४८ (भा.) तपः कर्म १२ / १,२१,२७,३०, १३ / १०२, १२० १४ / ११२ दुर्बल १२ / ५५-५६ १५/८१,१४७,१४९, १७९ दृदधर्मा १२/१९ तपः तेज १५/९८,१०५, १०६, १०८-११४, १४६, १५२, १६४, दृष्टिवाद १५ / आमुख १८२ तैजस समुद्घात १५ / ६४,११२,१८४ त्रसनाड़ी १४ / ३ ( भा.) त्रीन्द्रिय १२/१४१,२०८ १४ / २९-३९ (भा.) ६५,६६, १५/ १८६ दक्षत्व १२/५७,५८ दया १५ / ६५-६६ (भा.) दर्भ संस्तारक १२ / ६,११; १३/१६३ दर्शन १२ / २१,२०९, २१०, २०६-२१० (भा.); १३ / ५९ दर्शनावरणीय कर्म १२ / २०१-२०४ (भा.) द दान १५/१६, २२-६६ (भा.) दिशा १२ / आमुख, ४५ (भा.), ५०-५४,६१-६२ (भा.); १३/ ५० दिशाओं के नाम १३/५१ दिशाचर १५ / आमुख, ७७,७७ (भा.) दीक्षा १५ / १४१ (भा.) देवों के प्रकार १२ / १६३-१६८,१६३-१६८ (भा.) दैव १५ / आमुख दैष्टिक १५ / आमुख द्वादशांग गणिपिटक १६/९१ भगवई द्विशरीरी १२/१५४, १५७, १५८, १५४-१५८ (भा.) द्वीन्द्रिय १२ / २०८ १४ / २९-३९ (भा.), ५८,६४,६५, १५/ १८६; १६ / १११,११३, ११४ द्वीन्द्रियकायिक १२/१४१ न्द्रियावास १२/१४१ ध धर्माचार्य १५ / २८,३५,४२, ५४ धर्माचार्य धर्मोपदेशक १४/१०९, १५/५३,९६,९७,१२९,१३३, १४८, १४९ धर्मान्तराय १६ / ४९,४८-४९ (भा.) धर्मान्तेवासी १५ / २८,३५,४२, ५४ धर्मास्तिकाय १२/११६,११८ (भा.); १३ / ५५,५६, ५५-६० (भा.), ६१,६२,६१-६२ (भा.), ६३ (भा.), ६३-८३, ८६, ८७,८६-८७ (भा.) धारणा १२ / ११० धूमप्रभा १२ / १३६, १३ / १०,४३,४५ (भा.); १५/१८६ ध्यान १५/१० न नरक १२ / १५९-१६१, १८५-१९० (भा.); १३/३, ३ (भा.), ४६, १४-१८, १८-२२ (भा.), ४३, ४४ (भा.), १२१; १४ / ९१३ (भा.), ५४-५५ (भा.), ६१-६७ (भा.); १५/१८६; १६/५१,५२,५१-५२ (भा.) Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४२१ परिशिष्ट-४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम नरकावास १२/१३४-१३८, १३/२-११, १४/१७,४३,४३, परंपर निर्गत १४/९,१०,१२,९-१३ (भा.) (भा.) परपरिवाद १२/४१,४२,१०४; १४/१०९ नरदेव १२/१८५-१९० (भा.) परमाणु १२/आमुख, ६४-८६ (भा.), ८१-९६ (भा.), ९९-१०० नाट्य विधि १६/६३,६४ (भा.), २११-२२५ (भा.); १३/५८,५५-६० (भा.), ६४नाभिकीय शस्त्र १५/१२१ (भा.) ६५ (भा.), ६६-७० (भा.), १२४ (भा.); १४/४४-४७ नाम कर्म १४/१३२-१३५ (भा.) (भा.), ५१ (भा.), ७२-७३ (भा.) ८०-८१ (भा.), १२३. नारक १२/१५९-१६१, १३/३ (भा.) ४ (भा.), ५ (भा.); १४/ १२५ (भा.) ७१ परमाणु पुद्गल १२/६९-८०,८१,११८ (भा.), १३१-१३२, निमेष १४/१४५,१४६ १३०-१३२ (भा.), २१७; १४/आमुख, ४९-५१,५१ (भा.), नियतिवाद १५/आमुख ८१,१२३-१२५ (भा.), १५३, १६/११६ निरवद्य भाषा १६/आमुख, ३५-४० (भा.) परमाधोवधिक १४/१४० निग्रंथ १२/३०; १४/८८,११२,१३६; १५/आमुख, १०१,११६, पराक्रम १५/आमुख ११८,११९,१०५-११९ (भा.), १४९-१५१,१७३,१७४, परिग्रह १२/४१,४२,१०२, १३/२७; १४/४२,१०९; १६/८१८७,१८८; १६/५१,५२,५१-५२ (भा.), ६४ १६ (भा.) निग्रंथ प्रवचन १४/११२; १६/७० परिग्रह विरमण १२/१०८ निर्जरा १४/८८,८४-८८ (भा.), ११२, १६/आमुख, ५१,५२, | परिणमन १४/४४,४४-७७ (भा.),७१,१३२-१३५ (भा.); १६/ ""५१-५२ (भा.) नैतिकता १२/५३-५४ (भा.) परिणाम १४/४०-४२,४४,४४-४७ (भा.), ४८,४८ (भा.),५१ नैयायिक १३/१२४-१२५ (भा.); १४/आमुख (भा.), ५२ नैरयिक १२ ,८३,८४,८६-९५,८१-९६ (भा.), ११४-११६, परिणाम के प्रकार १४/१५२ १३४, १३५,१५९-१६१,१७१,२०८,२१०, १३/३-६,१४- परिणामी नित्यवाद १४/४४-४७ (भा.), ४८ (भा.) २२, ३८,४०,४० (भा.) ४३,४४,९३,९५,१३३-१३५,१३७, परिनिर्वाण १४/२४,२१-२४ (भा.) १३८,१४१, १४/३,३ (भा.), ४,५,४-५ (भा.), ६-१४,१७, परिमंडल संस्थान १४/८१,८०-८१ (भा.) १८,२०,१६-२० (भा.) ३२,३३,२९-३९ (भा.), ४०-| परिमित १२/४४ ४२,५४,५५,५७,६१,७१,७१ (भा.), ७२,७३,७२-७३/ परिव्राजक १४/१०७-११२,१०७-११२ (भा.); १५/१५ (भा.), ८१,१२६-१२९; १५/१८६; १६/आमुख, ८-१६ | पर्यंकासन १४/१०९ (भा.), २९,४२,५१,५२,५१-५२ (भा.), ७९,८० पर्याप्ति १२/११९ (भा.) नैरयिकावास १२/११३ पर्याय १२/२११-२२५ (भा.); १४/५० (भा.) नोइन्द्रिय उपयुक्त १३/५ (भा.) पर्युपासना १२/८,१५,१६,३०,३९,६६,६९,१२२,१३०,१५४; १३/१०४,१०६,१०९; १४/३५,१३२; १५/१०७,१३६, पंक प्रभा १३/९-११,१३,४५ (भा.), ४८; १५/१८६ १५१, १६/५८ पंच महाव्रत १५/१०९ पल्योपम १२/२७,१७८,१७८-१८२ (भा.), १९१,१९४; १३/ पंचमुष्टि लोच १३/११९, १४/७१ १२१, १४/१२१ पंचविध देव १२/१६३-१९९ पाक्षिक पौषध १२/आमुख, ४,४-५ (भा.),६,११-१५; १३/१०३ पंचास्तिकाय १३/आमुख, ५५,५५-६० (भा.) पातंजल योग दर्शन १४/८४-८८ (भा.) पंचेन्द्रिय १६/११३,११५ पान १२/४,६-७,१२-१४,१८, १४/१०९ पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक १२/१४१,१६४; १४/३४,५९,६०, ५८- | पानक के प्रकार १५/१२२ ६० (भा.), ६७; १६/८० पाप १४/११२; १५/१२१, १६/५२ पउट्ट परिहार १५/आमुख, ७३,७२-७३ (भा.), १४१ (भा.) | पारणा १२/१५; १५/१०,१३ परंपर उपपन्नक १३/५,५ (भा.); १४/४,५,४-५ (भा.), ७,८, | पारिणामिक भाव १४/८१ ६.८ (भा.) पारिणामिकी १२/१०९,१०८-१११ (भा.) परंपर-खेदोपपन्नक १४/१४,१४ (भा.) पित्तज्वर १५/११३,११४,१४१,१४६,१५२ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- ४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम पुण्य १४/११२,१३२-१३५ (भा.) पुद्गल १२ / आमुख, ६९-८० (भा.), ८१-९६ (भा.), ९७ (भा.), ९९-१०० (भा.), १०२-१०७ (भा.), ११८ (भा.); १३/५५६० (भा.), १२४ (भा.), १२६ (भा.), १२८,१३०-१४५ (भा.); १४ / आमुख १८, २०,१६-२० (भा.), ४०, ४४-४७, ४४-४७ (भा.), ४८ (भा.), १८,६९,६८-६९ (भा.), ७१, ७१ (भा.), ७२-७३ (भा.), ८१,८०-८१ (भा.), १२४,१२५,१२३-१२५ (भा.), १२६-१२९, १३२-१३५ (भा.); १६ / ६-७ (भा.), ४२,४१-४२ (भा.), ५२, ५४-५७, १०६,११९ पुद्गल परिवर्त्त १२ / आमुख, ८१-९६, ८१-९६ (भा.), ९७-१००, ९८ (भा.), ९९-१०० (भा.) पुद्गल के प्रकार १२/८२ पुद्गलास्तिकाय १२/११६; १३ / ५५,६०,५५-६० (भा.), ६१, १०७-११२ (भा.) ६१-६२ (भा.); १३ / ६३,६३ (भा.), ६४-६५ (भा.), ६५७०,७१,७४,७८-८० प्राणातिपात क्रिया १६ / ६७ पुनर्जन्म १२ / आमुख, २२-२५ (भा.); १३ / आमुख, १४ / आमुख, प्राणातिपात विरमण १२ / १०८ १ (भा.); १५/७२-७३ (भा.) प्रायोपगमन अनशन १४/१०९ प्रासुक १४/११२ प्रियधर्मा १२ / १९,१९ (भा.) प्रेय १२ / ४१,४२, १४ / १०९ ११२ पौषध के प्रकार १२ / ४-५ (भा.) पौषधशाला १२ / ६, ६ (भा.), १२-१५; १३ / १०३ पौषधोपवास १२ / ४-५ (भा.), २७ १४/११२ ४२२ पुरुषकार - पराक्रम १२ / १११; १४ / ६१-६३,६७ पुरुषार्थ १४/६१-६७ (भा.); १५ / आमुख पूर्व १२/१७९-१८१,१७८-१८२ (भा.), १९१ पृथ्वियां १२ / ६६-६७,११३,१३३; १३/१,४२ पृथ्वीकायिक १२/११५,१३४- १३५ (भा.), १३७, १३९-१४२, १४४,२०८, १३/८४-८५, १४ / आमुख, २०,३३,६३,१२३१२५ (भा.), १२८, १३२-१३५ (भा.); १५ / १८६; १६ / २२,३०,३१ पैशुन्य १२ / ४१, ४२, १४/१०९ पोट्ट परिहार १५ / ३ (भा.), ७२-७३ (भा.), ७५,१०१,१४१ बलिष्ठ १२/५५,५६ (भा.) बाल तपस्वी १४ / २ (भा.); १५ / ६०-६६,६८ पौषध १२ / आमुख, ४-५ (भा.), ६ (भा.), १३ (भा.); १४ / बालुका प्रभा १३ / ४५ (भा.); १४ / ९१; १५ / ९८६ बालुका संस्तारक १४/१०९ प्रत्याख्यान १२ / २७ १४/१०९, ११२, १०७-११२ (भा.) प्रदक्षिणा १२ / १५; १४ / १३२; १५/२८,३२,३५,३९,९७,११२, १५१,१५४; १६/६८ प्रदेश १२ / १३१,१३२, १३०-१३२ (भा.), २११-२२५ (भा.); १३/५२-५४,५८,५५-६० (भा.), ६१,६२,६१-६२ (भा.), ६३-८३,६६-७० (भा.), ७२-७३ (भा.), ८६,८७,८८-९१ (भा.); १४ /७३,७२-७३ (भा.) प्रदेशावगाढ़ १४ / ८१,८०-८१ (भा.) प्रमत्त १४ / ३७ प्रमाणांगुल १४ / ९० (भा.) प्रमाद १६ / २४ प्रव्रजित १२ / ६४; १३ / १०८, ११०,१२० १४/११२; १५/ १८६; १६ / ७०,७१ प्रसादावतंसक १४/७४,७५ प्राणशक्ति १५/६५-६६ (भा.) प्राणातिपात १२/४१-४८,१०२,१०२-१०७ (भा.); १४/१०९, प्रकर्ष १२/२२-२५, ५९-६३ प्रतिक्रमण १२/१२,२७, १३ / १२१, १४ / १०९, १५/१३,१०९, ब्रह्मचर्य १२ / ६, ६ ( भा.), ११,१३,१४,२१,६६ १६५,१८८, १६ / ७१ ब्रह्मलोक १३/८८-९१ (भा.) ब्राह्मण परंपरा १५ / आमुख प्रतिजागरणा १२ / ४,४-५ (भा.), ६, ११-१५,१८; १३/१०३ प्रतिलेखन १२ / ६; १५/१५२ प्रत्यनीक १५/१८६ ब बंध १२ / २२- २५, ५९-६३; १३ / ११०-१२१ (भा.); १४ / ११२; १६/४५ बद्धायु १२ / १९२-१९६ (भा.) बल १२/१११, १४/६१,६२ बलदेव १६/८९ भगवई बाह्य (बाहरी) पुद्गल १६/५४,५५,५४-५५ (भा.) बुद्ध जागरिका १२ / २०-२१,२०-२१ (भा.) बेले (दो उपवास) १४ / ८८, ८४-८८ (भा.), १११; १५/ ८१,८२, १७७, १७९; १६/४९ भ भक्तपान १४/१०९ भक्त प्रत्याख्यान १४/८२, ८३,८२-८३ (भा.) भवग्रहण १६ / ९२-१०५ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४२३ भवसिद्धिक १२ / ४९-५२, ४९-५२ (भा.); १३ / ३-५, ३ (भा.), मायीमिथ्यादृष्टि उपपन्नक १४/३०, १६/५५-५६ ४ (भा.); ५ (भा.), १६ / ३५-४० (भा.), ६० मारणान्तिक समुद्घात १४/८२,८२-८३ (भा.) मार्जारकृत १५/१५२,१५५,१५२-१५५ (भा.) भाग्य १५ / आमुख भाव १२ / १९१ ( भा.); १४/८०-८१ (भा.) भावितात्मा अनगार १३ / आमुख, १४९-१६५, १४९ - १६६ (भा.); १४/१,२,२ (भा.), २९-३१,१२३, १२३-१२५ (भा.); १६ / मासखमण १५ / २२, २४, ३०, ३१, ३७, ३८, ४४, ४७, १४१ (भा.) मिथ्यात्व विप्रतिपन्न १५ / ९९, १००, १०४,१०७,१७४ मिथ्यात्वी १५/११५; १६/३६ ४९ मिथ्यादर्शन शल्य १२ / ४१-४८; १४/१०९ भाषा १३ / १२४,१२४ (भा.), १२५; १४ / २९-३९ (भा.), १३०, मिथ्यादृष्टि १२/२०६-२१० (भा.); १३/१४, १६, १४-१६ १३१, १३०-१३१ ( भा.); १६ / ३७-३९ (भा.), १७,३७,११०-१२१ (भा.); १६ / ६० मीमांसक दर्शन १३ / १२४ मुखवस्त्रिका १५/१५८ भाषा के प्रकार १३ / १२५ भाषा वर्गणा १३ / १२४ (भा.) भेद १२ / ६९-८०, ६९-८० (भा.), ८१ भोगाई भोग १४ / ७४-७५; १६ / ३३ म मणिपीठिका १४ / ७४, ७५ मन १३ / ११० १२१ ( भा.), १२६, १२६ (भा.), १२७, १२८ (भा.); १४ /७८-७९ (भा.) मन के प्रकार १३ / १२७ मनन १३ / १२६,१२६ (भा.) मनुष्य १२ / १४१; १४ / ३५,६०,५८-६० (भा.), ६७,८१,८०८१ (भा.); १५ / ७२-७३ (भा.); १६/२२,८० मनुष्य लोक १४ / ५६-५७ मनो द्रव्य वर्गणा १४/७९ मनोमानसिक दुःख १५/१४८, १४९,१५२ मनोवर्गणा १३ / १२६ (भा.) १४५, १३०-१४५ (भा.); १५/१३९ मरण के प्रकार १३ / आमुख, १३०-१४५, १३०-१४५ (भा.); १५/६ महाआश्रवतर १३/४३,४६ महाकर्मतर १३ / ४३, ४६ महाक्रियातर १३ / ४३,४६ महानरक १३ / १२, १३,४३ महानिमित्त १५ / ४-६, ७७ महावेदनतर १३ / ४३,४६ महास्वप्न १६ / आमुख, ८४,८६-९० मांडलिक १६/९० परिशिष्ट- ४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम र मरण १२ / १३१,१३२, १३० १३२ (भा.); १३ / आमुख, १३०- रज्जु १३ / ४५ (भा.), ८८-९१ (भा.), १४९ मृषावाद १२/४१,४२, १०२, १४ / १०९ मैथुन १२ / ४१-४२, १०२, १२७ १४/२५-२७ (भा.), १०९ मोक्ष १४ / ११२ मोहनीय कर्म १२ / २०१-२०४ (भा.); १४/१६-२०,१६-२० (भा.), १६ / ९१ य यक्षावेश १४ / १६ - २०,१६-२० (भा.) प्रमाणभूमि १५ / ११,१३ योग के प्रकार १६ / १९ योजन १२/१३०,१३०-१३२ (भा.); १३ / २,२६ (भा.), २९ (भा.), ३५ (भा.), ४५ (भा.); १४ /७४,७५,९०, ९२-९४, ९९,१०० योनि १४ /७१,७१ (भा.) रत्नप्रभा पृथ्वी १२ / आमुख, ६७, १३४-१३६, १३८, १७१, १७५, २११-२१३,२११-२२५ (भा.); १३/१-७, ३ (भा.), ४ (भा.), १४-१७,२७,४२-४६, ४५ (भा.), ४७, ५०, १२१; १४/४०-४२,९०,९३, १४७, १४८, १५/१८६; १६/११५ रस १२ / १०२-१०७,१०२-१०७ (भा.), १०८-११९, १४/८७ रसनेन्द्रिय १२ / ६२; १६ / २०-२६ ( भा. ) रुचक प्रदेश १३ / ५०, ५२-५४ मान १२ / आमुख, २२, ४१-४२,१०४, १३ / २७ (भा.); १४ / लघुता १२/४२ १०९,१११ रूक्ष १४/४४-४७,४४-४७ (भा.) रूप १४/८७ रूपी १३/ १२४,१२६,१२८ लब्धि- त्रस १४ / ५६-५७ (भा.) लिंग १५ / ७२-७३ (भा.) मानसिक वेदना १६ / २९,३१,२९-३१ (भा.) माया १२/२२,४१-४२,१०५ १३/२७ (भा.); १४ / १०९,१११ लेश्या १२/११७,११७ (भा.); १३ / ३ (भा.), ८, १८-२२, १८मायामृषा १२ / ४१-४२, १४/१०९ २२ (भा.), २७ (भा.), ३८, १४ / आमुख, १, १ ( भा.), ल Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम ४२४ भगवई २,११,१३५,१३२-१३५ (भा.); १६/१२६-१२८ वृक्ष १४/१०१-१०३,१०१-१०६ (भा.) लोक १२/५१-५२,१३०-१३२,१३०-१३२ (भा.); १३/आमुख, | वेद १३/३,२७; १६/४५ ४७-५०,५२-५५,५५-६० (भा.), ८८-९१,८८-९१ (भा.); वेदना १४/४११६/२९,३१ १६/११०-११४,११६ वैक्रिय शरीर १२/९७,१५४-१५८ (भा.); १६/४,२२ लोकाकाश १३/५५-६० (भा.),७२-७३ (भा.), ७४-७८ (भा.) वैक्रिय-समुद्घात १३/१५० लोकान्त १६/११८ वैनयिकी १२/१०९ लोभ १२/२२,४१,४२, १३/२७ (भा.); १४/१०९,१११ वैयावृत्त्य १२/५८,५५-५८ (भा.) लोहित १४/८१ वैशालिक श्रावक १२/३० (भा.) व्याकरण १४/१४२-१४४ वंदन-नमस्कार १२/३,९,१२,१५,१८,२०,२२,२६,२९,३९; १३/१०४,१०९,११७,११८, १४/३०,१३२; १५/१०, | शब्द १३/१२४ (भा.) १३,२८, ३२,३५,३९,४२,४८,७८,१०९,११९,१३८,१८८; शय्यातर १२/३०,३० (भा.) १६/३४,३५, ५४-५६,५८,७०,७१ शरीर १३/आमुख, ५५-६० (भा.), १२८ (भा.); १५/१२७, वज्रऋषभनाराच संहनन १५/९ १४४,१५२, १६/६-७ (भा.) वनस्पतिकायिक १२/१३४,१३५,१३९-१४२,२०८; १३/८४. | शरीर के प्रकार १६/१७ ८५; १४/६३, १५/७३,७२-७३ (भा.), १८६ शर्करा प्रभा १२/१३६,१७१,२१३, १३/७-९,१६,४५,४५ वनस्पतिकाल १२/१९२,१९६; १४/१०१-१०६ (भा.) ___ (भा.); १४/९०,९१,१४९, १५/१८६, १६/११५ वर्ण १२/१०२-१०७,१०२-१०७ (भा.), १०८-११९, १४/४४, | शल्य चिकित्सा १६/आमुख, ४८-४९ (भा.) ४४-४७ (भा.), ५१ (भा.) शस्त्र १४/३८,३९,२९-३९ (भा.); १६/आमुख वर्षा १४/२१-२४,२१-२४ (भा.); १६/११७ शाक्य १५/आमुख वर्षावास १५/१४१ (भा.) शालयष्टिक वृक्ष १४/आमुख, १०३,१०१-१०६ (भा.) वायु १६/१-४ (भा.), ५,५ (भा.) शालवृक्ष १४/१०१,१०२,१०१-१०६ (भा.) वायुकाय १५/१८६; १६/आमुख, १,५,३५-४० (भा.) शुक्ल १४/८१,१३६ (भा.) वायुकायिक १२/११५; १३/८४-८५; १६/२-४ शुक्ल पक्ष १२/१२४ वासुदेव १६/८८ शुक्ल पाक्षिक १३/३ (भा.) विक्रिया १२/१८३,१८४,१८३-१८४ (भा.); १३/आमुख, १५०, शुक्ल लेश्या १४/१३६ (भा.); १६/९१ १४९-१६६ (भा.); १४/६८-६९ (भा.), १३०-१३१ (भा.); शुक्लाभिजात १४/१३६,१३६ (भा.) १६/८-१६ (भा.) शुभ भाव १२/१९१ (भा.) विग्रह गति १४/३,३ (भा.), १०,९-१३ (भा.), १४ (भा.), शोक १६/२८-३१,२८-३१ (भा.) ५५,५४-५५ (भा.) श्रमण १५/आमुख, १४४,१५०,१५१,१६३,१७३,१७४,१८७, विग्रह गति समापन्नक १४/५५,५५ (भा.), ५७,६० १८८; १६/५१,५२,९१ विचिकित्सा १४/७७ श्रमण घातक १५/१४१,१६६,१८७ विनय १४/२९-३९ (भा.) श्रमण परंपरा १५/आमुख विनय विधि १४/आमुख श्रमण प्रत्यनीक १५/१४१ विपुल अवधिज्ञान १६/३३ श्रमण मारक १५/१४१ विपुल तेजोलेश्या १५/९,६९,७०,७६,१७७ श्रमणी १५/१६३, १६/९१ विभंग ज्ञान १३/४ (भा.), ५ (भा.) श्रमणोपासक १२/आमुख, १,२-१९,२६,२७; १३/१०२,१२०, विभक्ति भाव १२/१२० १२१; १४/११२,१०७-११२ (भा.) विराधना १४/१,२,२ (भा.); १५/१८६ श्रमणोपासिका १२/१,६,९,११,३०,३३,३७-४१,४१-४८ (भा.), वीचि द्रव्य १४/७२,७३,७२-७३ (भा.) वीर्य १२/१११; १४/६१,६२ श्रवण १२/३३ वीर्य लब्धि १४/१११ श्रामण्य १५/१८६ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ भगवई ४२५ परिशिष्ट-४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम श्रावक १२/१ (भा.), २०-२१ (भा.), ३०; १५/१६३, १६/| साकारोपयोग १२/११७; १३/३ सागरोपम १२/१५९-१६१,१८२,१९३, १४/८४-८८ (भा.); श्राविका १५/१६३, १६/९१ १५/१६४,१६५,१६६,१८५; १६/७३ श्रोत्रेन्द्रिय १२/५९, १६/२५,२६,२०-२६ (भा.) सातवां अवकाशान्तर १२/११२ सातवां तनुवात १२/११३ षष्ठ भक्त १२/२७; १३/१०,१३,६० सादि अपर्यवसित १३/५२-५४ सादि सपर्यवसित १३/५२-५४ संज्ञा १३/२७ (भा.) साधु १४/८५,८४-८८ (भा.) संज्ञी १३/३,३ (भा.), ४,४ (भा.), ५ सावध भाषा १६/आमुख, ३८,३५-४० (भा.) संघात १२/६९-८० (भा.), ८१ सिद्ध १२/५०-५२,१५६,१८९; १३/१२२; १४/८५,१०२, संघात-भेद १२/आमुख, ६९-८० (भा.) १०४,१०६,१३९,१४०,१४१,१४३,१४४,१४६,१४८,१५४,१३८संयमासंयमी १५/२२-२६ (भा.) १५४ (भा.); १५/१०१,१२१,१२७,१६४,१६५,१८५; १६/ संयमी १५/२२-२६ (भा.) ७४,९२-१०५ संलेखना १२/२७; १३/१२१, १४/१०९, १५/१८५, १६/| सिद्धिगति १४/१०९ ७१ सुखी १४/४८ (भा.) संवर १४/११२ सुदृष्ट जागरिका १२/१९-२१,२०-२१ (भा.) संस्थान १३/५२-५४,९०, १४/८१,८०-८१ (भा.); १५/९, सुप्त १२/५३-५४,५३-५४ (भा.) १२८,१३२,१३७ सुप्त अवस्था १६/७७-८० सकर्मलेश्या १४/१२३-१२५,१२३-१२५ (भा.) सुप्त जागृत अवस्था १६/७७-७९ सचित्त १३/१२४,१२४ (भा.), १२६,१२८ सुलभ बोधि १६/४० सप्तभंगी १२/आमुख, २११-२२५ (भा.) सोलह जनपद १५/१२१,१२१ (भा.) समचतुरस्र संस्थान १४/८१,८०-८१ (भा.), १५/९ स्कंध १२/आमुख, ६९-८०,६९-८० (भा.), ९९-१०० (भा.), समनस्क १६/२८-३१ (भा.) २१८-२१५,२११-२२५ (भा.); १३/६६-७० (भा.); १४/ समभिरूढ़ नय १२/१०२-१०७ (भा.) ४७,४४-४७ (भा.), ८१,१५३,१५४ समय १२/१२६,१९१ (भा.); १३/७२-७३ (भा.); १४/३/ स्थावर १३/८४-८५ (भा.); १४/५६-५७ (भा.) (भा.), ५,४-५ (भा.), ४४-४७,४४-४७ (भा.), ४८,४८/ स्थिति १३/५७,५५-६० (भा.); १४/७१,८१ (भा.), ८१, ८०-८१ (भा.), ८५,१३०-१३१ (भा.) स्पर्श १२/१०२-१०७,१०२-१०७ (भा.),१०८-११९, समय क्षेत्र १३/६१-६२ (भा.), ७१ (भा.) १३/४४,४४ (भा.); १४/८७ समाधिपूर्ण १४/१०९ स्पर्शनन्द्रिय १२/६३, १६/२५,२०-२६ (भा.) समुद्धात १३/१६८; १५/६५-६६ (भा.) स्पृष्ट १६/आमुख, २,६,७ सम्यक्त्व १३/१३ (भा.) स्वप्न १६/आमुख, ७६,७७,८१,८३,९२-१०५ सम्यग्दृष्टि १३/१४-१६,१४-१६ (भा.), १७,११०-१२१ स्वप्न शास्त्र १६/आमुख (भा.); १४/२ (भा.), ११३-११६ (भा.); १५/२२-२६ स्वाध्याय १५/१० (भा.) स्निग्ध १४/४४,४४-४७ (भा.) सम्यग्मिध्यादृष्टि १३/१४,१६,१४-१६ (भा.) १७,३७ स्यात् १२/आमुख, २०१-२०४ (भा.), २११,२१२,२१४,२११सम्यग्वादी १५/११५, १६/३६ २२५ (भा.) सर्वज्ञ १२/२१, ३३,१६७; १५/६,७,७७,१३९,१४१,१५७ स्यात् अस्ति (स्यादस्ति) १२/आमुख, २०१-२०४ (भा.) सर्वज्ञ-प्रलापी १५/६,७,७७,१३९,१४१ स्यात् नास्ति (स्यान्नास्ति) १२/आमुख, २०१-२०४ (भा.) सर्वदर्शी १२/२१,३३,१६७; १५/१५७ स्याद्वाद १२/आमुख, २११-२२५ (भा.); १४/आमुख सशरीर १६/३,४ स्वाद्य १२/४,६,७,१२-१४,११८; १४/१०९ सांतर-निरंतर उपपन्न १३/९५ सांनिपातिक भाव १४/८१ | हारिद्र १४/८१ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ अभयदेवसूरि-कृता भगवती-वृत्ति सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसङ्गमय्यं, सर्वीयमस्मरमनीशमनीहमिद्धम्। सिद्धं शिवं शिवकरं करणव्यपेतं, श्रीमज्जिनं जितरिपुं प्रयतः प्रणौमि॥१॥ नत्वा श्रीवर्द्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे। सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा ॥२॥ एतट्टीकाचूर्णी जीवाभिगमादिवृत्तिलेशांश्च । संयोज्य पञ्चमाकं विवृणोमि विशेषतः किञ्चित्॥३॥ अथ द्वादशं शतकम् प्रथम उद्देशकः व्याख्यातं विविधार्थमकादशं शतम. अथ तथाविधमेव द्वादशमारभ्यते, तस्य चोद्देशकार्थाभिधानार्था गाथेयम्संखे' त्यादि।। शसश्रमणोपासकविषयः प्रथम उद्देशकः। 'जयंति' त्ति जयन्त्यभिधानश्राविकाविषयो द्वितीयः। 'पुढवि' त्ति रत्नप्रभापृथिवीविषयस्तृतीयः। 'पुग्गल' त्ति पुद्गलविषयश्चतुर्थः। 'अइवाए' त्ति प्राणातिपातादिविषयः पञ्चमः। 'राह' त्ति राहुवक्तव्यतार्थः षष्ठः। 'लोगे य' त्ति लोकविषयः सप्तमः । 'नागे य' त्ति सर्पवक्तव्यतार्थोऽष्टमः। 'देव' त्ति देवभेदविषयो नवमः। 'आय' त्ति आत्मभेदनिरूपणार्थो दशम इति।। तत्र प्रथमोद्देशके किञ्चिल्लिख्यते१२/४-५. 'आसाएमाण' त्ति ईषत्स्वादयन्तो बहु च त्यजन्तः इक्षुखण्डादेरिव 'विस्साएमाण' त्ति विशेषेण स्वादयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः खजूरादेरिव 'परिभाएमाण' त्ति ददतः 'परिभुजेमाण' त्ति सर्वमुपभुजाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः, एतेषां च पदानां वार्त्तमानिकप्रत्यया-न्तत्वेऽप्यतीतप्रत्ययान्तता द्रष्टव्या, ततश्च तद्विपुलमश-नाद्यास्वादितवन्तः सन्तः ‘पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो' त्ति पक्षे-अर्द्धमासि भवं पाक्षिकं 'पौषधम्' अव्यापारपौषधं 'प्रतिजाग्रतः' अनुपालयन्तः विहरिष्यामः, स्थास्यामः यच्चेहातीतकालीनप्रत्ययान्तत्वेऽपि वार्त्तमानिक-प्रत्ययोपादानं तद्भोजनानन्तरमेवाक्षेपेण पौषधाभ्युपगमप्रदर्शनार्थं, एवमुत्तरत्रापि गमनिका कार्येत्येके, अन्ये तु व्याचक्षते-इह किल पौषधं पर्वदिनानुष्ठानं, तच्च द्वेधा-इष्टजनभोजनदानादिरूपमाहारादिपौषधरूपं च, तत्र शङ्ख इष्टजनभोजनदानरूपं पौषधं कर्तुकामः सन् यदुक्तवांस्तद्दर्शयतेदमुक्तं--'तए णं अम्हे तं विउलं असणपाणखाइमसाइम अस्साएमाणा' इत्यादि। १२/६०. पुनश्च शङ्ख एव संवेगविशेषवशादाद्य-पौषधविनिवृत्तमनाः द्वितीयपौषधं चिकीर्षुर्यचिन्तितवांस्तद्दर्शय-तेदमुक्तम्-'नो खलु मे सेयं त' मित्यादि, ‘एगस्स अबिझ्यस्स' त्ति 'एकस्य' बाह्यसहायापेक्षया केवलस्य 'अद्वितीयस्य' तथाविधक्रोधादिसहायापेक्षया केवलस्यैव, न चैकस्येति भणनादेकाकिन एव पौषधशालायां पौषधं कर्तुं कल्पत इत्यवधारणीयं, एतस्य चरितानुवादरूपत्वात् तथा ग्रंथान्तरे बहूनां श्रावकाणां पौषधशालायां मिलनश्रवणाद्दोषाभावात्परस्परेण स्मारणादिविशिष्टगुणसम्भवाच्चेति। 'गमणागमणाए पडिक्कमइ' त्ति ईर्यापथिकी प्रतिक्रामतीत्यर्थः। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४२७ __परिशिष्ट-५ : श. १२ : उ. २ : सू. १२-३० १२/१३. 'छंदेणं' ति स्वाभिप्रायेण न तु मदीयाज्ञयेति। 'परिणामओ' ति 'परिणामेन' अभूतस्य भवनेन पुरुषस्य १२/१५-१७. 'पुव्वरत्तावरत्तकाल-समयंसि' त्ति पूर्वरात्रश्च-रात्रेः पूर्वो तारुण्यवत्। भागः अपगता रात्रिरपररात्रः स च पूर्वरात्रापररावस्तल्लक्षणः 'सव्वेवि णं भंते! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति' त्ति कालसमयो यः स तथा तत्र 'धम्मजागरियं' ति धर्माय भवा-भाविनी सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकास्ते सर्वेऽपि भदन्त! धर्मचिन्तया वा जागरिका- जागरणं धर्मजागरिका तां जीवाः सेत्स्यन्ति? इति प्रश्नः, 'हंते' त्यादि तूत्तरम्, अयं 'पारित्तएत्ति कट्ट एवं संपेहेइ' त्ति ‘पारयितुं' पारं नेतुम् ‘एवं चास्यार्थः-समस्ता अपि भवसिद्धिका जीवाः सेत्स्यन्त्यन्यथा सम्प्रेक्षते' इत्यालोचयति, किमित्याह- 'इतिकर्तुम्' भवसिद्धिकत्वमेव न स्यादिति। अथ सर्वभवसिद्धिकानां एतस्यैवार्थस्य करणायेति। 'अभिगमो णत्थि' त्ति पञ्चप्रकारः सेत्स्यमानताऽभ्युपगमे भवसिद्धिकशून्यता लोकस्य स्यात्, पूर्वोक्तोऽभिगमो नास्त्यस्य, सचित्तादि-द्रव्याणां नैवं, समयज्ञातात्, तथाहि सर्व एवानागतकालसमया विमोचनीयानामभावादिति। वर्तमानतां लप्स्यन्ते'जहा पढम' ति यथा तेषामेव प्रथमनिर्गमस्तथा द्वितीय- 'भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्वम्। निर्गमोऽपि वाच्य इत्यर्थः। एष्यंश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्तमानत्वम्॥४॥ १२/१८. 'हिज्जो' त्ति ह्यो-ह्यस्तनदिने। इत्यभ्युपगमात्, न चानागतकालसमयविरहितो लोको १२/१९-२१. 'सुदुक्खुजागरियं जागरिए' त्ति सुट्ट दरिसणं जस्स सो भविष्यतीति। सुदक्खू तस्स जागरिया-प्रमाद-निद्राव्यपोहेन जागरणं अथैतामेवाशङ्कां जयन्ती प्रश्नद्वारेणास्मदुक्तसमय ज्ञातापेक्षया सुदक्खुजागरिया तां जागरितः कृतवानित्यर्थः, 'बुद्धा ज्ञातान्तरेण परिहर्तुमाहबुद्धजागरियं जागरंति' त्ति बुद्धाः केवलावबोधेन, ते च 'जइ ण' मित्यादि इत्येके व्याख्यान्ति, अन्ये तु बुद्धानां-व्यपोढाज्ञाननिद्राणां जागरिका- प्रबोधो बुद्धजागरिका व्याचक्षते-सर्वेऽपि भदन्त! भवसिद्धिका जीवाः सेत्स्यन्ति-ये तां कुर्वन्ति 'अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति' त्ति अबुद्धाः केचन सेत्स्यन्ति ते सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव नाभवसिद्धिका केवलज्ञानाभावेन यथासम्भवं शेषज्ञानसद्भावाच्च बुद्धसदृशास्ते एकोऽपि, अन्यथा भवसिद्धिकत्वमेव न स्यादित्यभिप्रायः, 'हंते' चाबुद्धानां- छद्मस्थज्ञानवतां या जागरिका सा तथा तां त्याधुत्तरम्। जाग्रति॥ अथ यदि ये केचन सेत्स्यन्ति सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव अथ भगवन्तं शङ्खस्तेषां मनाक्परिकुपितश्रमणोपासकानां नाभवसिद्धिक एकोऽपीत्यभ्युपगम्यते तदा कालेन कोपोपशमनाय क्रोधादि-विपाकं पृच्छन्नाह सर्वभवसिद्धिकानां सिद्धिगमनाद् भव्यशून्यता जगतः स्यादिति १२/२२. 'कोहवसट्टे ण' मित्यादि, 'इसिभद्दपुत्तस्स' त्ति अनन्तर- जयन्त्याशङ्कां तत्परिहारं च दर्शयितुमाह-'जइ ण' मित्यादि, शतोक्तस्येति॥ 'सव्वागाससेढि' त्ति सर्वाकाशस्य-बुद्ध्या चतुरस्रप्रतरीकृतस्य द्वादशशते प्रथमः॥१२-१॥ श्रेणिः-प्रदेशपङ्क्तिः सर्वाकाशश्रेणिः परित्त' त्ति एकप्रदेशिकत्वेन विष्कम्भाभावेन परिमिता 'परिवुड' त्ति द्वितीय उद्देशकः श्रेण्यन्तरैः परिकरिता, स्वरूपमेतत्तस्याः, अत्रार्थे वृद्धोक्ता अनन्तरोद्देशके श्रमणोपासकविशेषप्रश्नितार्थनिर्णयो महावीर- भावनागाथा भवन्तिकृतो दर्शितः इह तु श्रमणोपासिकाविशेषप्रश्नितार्थ- 'तो' भन्नइ किं न सिज्झति अहव किमभव्वसावसेसत्ता। निर्णयस्तत्कृत एव दयत, इत्येवंसंबद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्- निल्लेवणं न जुज्जइ तेसिं तो कारणं अन्नं॥१॥ १२/३०. 'तेणं कालेण' मित्यादि, 'पोत्ते' त्ति पौत्रः-पुत्रस्यापत्यं अयमर्थः यदि भवसिद्धिकाः सेत्स्यन्तीत्यभ्युपगम्यते ततो 'चेडगस्स' त्ति वैशालीराजस्य 'नत्तुए' ति नप्ता-दौहित्रः 'भाउज्ज' भणति शिष्यः-कस्मान्न ते सर्वेऽपि सिद्ध्यन्ति ?, अन्यथा त्ति भ्रातृजाया 'वेसालीसावगाणं अरहताणं पुव्वसेज्जारी' त्ति भवसिद्धिकत्वस्यैवाभावात्, अथवाऽपरं दूषणं-कस्मादभव्यवैशालिकोभगवान्महावीरस्तस्य वचनं शृण्वन्ति श्रावयन्ति वा सावशेषत्वाद्-अभव्यावशेषत्वेनाभव्यान् विमुच्येत्यर्थः तेषां तद्रसिकत्वादिति वैशालिकश्रावकास्तेषाम् 'आर्हतानाम्' भव्यानां निर्लेपनं न युज्यते?, युज्यत एवेति भावः, यस्मादेवं अर्हद्दवतानां साधूनामिति गम्यं पूर्वशय्यातरा' प्रथमस्थानदात्री, ततः कारणं-सिद्धे«तुरन्यद्भव्यत्वातिरिक्तं वाच्यं, तत्र सति साधवो ह्यपूर्वे समायातास्तद्गृह एव प्रथमं वसतिं याचन्ते सर्वभव्यनिर्लेपनप्रसङ्गादिति॥ तस्याः स्थानदात्रीत्वेन प्रसिद्धत्वादिति सा पूर्वशय्यातरा। 'भन्नइ तेसिमभव्वेवि पइ अनिल्लेवणं न उ विरोहो। १२/४९-५२. 'सभावओ' त्ति स्वभावतः पुद्गलानां मूर्त्तत्त्ववत् न उ सव्वभव्वसिद्धी सिद्धा सिद्धंतसिद्धीओ॥२॥ १. तदा भणति किं न सिध्यन्ति अथवाऽभव्यावशिष्टत्वं (भवति)। २. भण्यते भव्यानामभव्यानपि प्रति तेषामनिर्लेपो न तु विरोधो। निर्लेपनं न युज्यते तेषां तद्रव्यत्वादन्यत्कारणं वाच्यं सिद्धेः॥१॥ यतः सिद्धान्तसिद्धेर्न तु सर्वभव्यसिद्धिः सिद्धा॥२॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५:श. १२:उ.२ : सू.५३-६३ ४२८ भगवती वृत्ति अयमर्थो भण्यते अत्रोत्तरं भव्यत्वमेव सिद्धिगमनकारणं न क्षीयते ततोऽवसितं ततः साऽनन्तगुणेति, यच्चोभयोः समत्वं त्वन्यत्किञ्चित्, तत्र च सत्यपि भव्यत्वे सिद्धिगमनकारणे तदेवं यथाऽनागताद्धाया अन्तो नास्ति एवमतीताद्धाया 'तेषां' भव्यानां 'अभव्यानपि प्रति' अभव्यानप्याश्रित्य आदिरिति समतेति॥ 'अनिर्लेपनम्' अव्यवच्छेदः, अभव्यानवशिष्य यद्भव्यानां जीवाश्च न सुप्ताः सिद्ध्यन्ति किं तर्हि जागरा एवेति निर्लेपनमुक्तं तदपि नेत्यर्थः 'न तु' न पुनरिहार्थे 'विरोधः' सुप्तजागरसूत्रम्बाधाऽस्ति सिद्धान्तसिद्धत्वात्, एतदेवाह-न तु इत्यादि, न हि १२/५३-५४. तत्र च 'सुत्तत्तं' ति निद्रावशत्वं 'जागरियत्तं' ति जागरणं सर्वभव्यसिद्धिः सिद्धा सिद्धांतसिद्धेरिति॥ जागरः सोऽस्यास्तीति जागरिकस्तद्भावो जागरिकत्वम् 'किह' पुण भव्वबहुत्ता सव्वागास-प्पएसदिट्ठता। 'अहम्मिय' त्ति धर्मेण-श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकानवि सिज्झिहिंति तो भणइ किंतु भव्वत्तणं तेसिं?॥३॥ स्तन्निषेधादधार्मिकाः, कुत एतदेवमित्यत आह-'अहम्माणुया' जइ होऊ णं भव्वावि केइ सिद्धिं न चेव गच्छंति। धर्म-श्रुतरूपमनुगच्छन्तीति धर्मानुगास्तन्निषेधादधर्मानुगाः, एवं तेवि अभव्वा को व विसेसो भवे तेसिं?॥४॥ कुत एतदेवमित्यत आह-'अहम्मिट्ठा' धर्म:-श्रुतरूप भन्नइ भव्वो जोगो दारुय दलियंति वावि पज्जाया। एवेष्टो-वल्लभः पूजितो वा येषां ते धर्मेष्टाः धर्मिणां वेष्टा जोगोवि पुण न सिज्झइ कोई रुक्खाइदिटुंता॥५॥ धर्मीष्टाः अतिशयेन वा धर्मिणो धर्मिष्ठास्तन्निषेधादधर्मेष्टा पडिमाईणं जोगा बहवो गोसीसचंदणदुमाई। अधर्मीष्टा अधर्मिष्ठा वा, अत एव 'अहम्मक्खाई' न संति अजोगावि इहं अन्ने एरंडभेंडाई॥६॥ भामाख्यान्तीत्येवंशीला अधर्माख्यायिनः अथवा न धर्मात् न य पुण पडिमुप्पायणसंपत्ती होइ सव्वजोगाणं। ख्यातिर्येषां तेऽधर्मख्यातयः 'अहम्मपलोइ' ति न धर्ममुपाजेसिपि असंपत्ती न य तेसि अजोग्गया होइ॥७॥ देयतया प्रलोकयन्ति ये तेऽधर्मप्रलोकिनः 'अहम्मपलज्जण' त्ति किं पुण जा संतत्ती सा नियमा होइ जोग्गरुक्खाणं। न धर्मे प्ररज्यन्ते-आसजन्ति ये तेऽधर्मप्ररज्जनाः, एवं च न य होइ अजोग्गाणं एमेव य भव्वसिज्झणया॥८॥ 'अहम्मसमुदाचार' त्ति न धर्मरूपः-चारित्रात्मकः समुदाचार:सिन्झिस्संति य भव्वा सव्वेवित्ति भणियं च जं पहुणा। समाचारः सप्रमोदो वाऽऽचारो येषां ते तथा, अत एव 'अहम्मेण तंपि य एयाएच्चिय दिट्ठीऍ जयंतिपुच्छाए॥९॥ चेवे' त्यादि, 'अधर्मेण' चारित्रश्रुतविरुद्धरूपेण 'वृत्ति' जीविका भव्यानामेव सिद्धिरित्यतया दृष्ट्या-मतेनेति॥ 'कल्पयन्तः' कुर्वाणा इति॥ 'अहवा पडुच्च कालं न सव्वभव्वाण होइ वोच्छित्ती। अनन्तरं सुप्तजाग्रतां साधुत्वं प्ररूपितम्, अथ दुर्बलादीनां तथैव जं तीतणागयाओ अद्धाओ दावि तुल्लाओ॥१०॥ तदेव प्ररूपयन् सूत्रद्वयमाहतत्थातीतद्धाए सिद्धो एक्को अणंतभागो सिं। १२/५५-५६. 'बलियत्तं भंते!' इत्यादि, 'बलियत्तं' ति बलमकामं तावइओ च्चिय सिज्झिहिइ अणागयताए॥११॥ स्यास्तीति बलिकस्तद्भावो बलिकत्वं 'दुब्बलियत्तं' ति दुष्टं ते दो अणंतभागा होउं सोच्चिय अणंतभागो सिं। बलमस्यास्तीति दुर्बलिकस्तद्भावो दुर्बलिकत्वं। एवंपि सव्वभव्वाण सिद्धिगमणं अणिदिठं॥१२॥ १२/५७.५८. दक्षत्वं च तेषां साधु ये नेन्द्रियवशा भवन्तीतीन्द्रियतौ द्वावप्यनन्तभागौ मीलितौ सर्वजीवानामनन्त एव भाव इति, यत्पुनरिदमुच्यते .१२/५९-६३. सोइंदिय' त्यादि, सोइंदिय-वसट्टे' त्ति श्रोत्रेन्द्रियअतीताद्धातोऽनागताद्धाऽनन्तगुणेति तन्मतान्तरं, तस्य चेदं वशेन-तत्पारतन्त्र्येण ऋतः-पीडितः श्रोत्रेन्द्रियवशातः बीज-यदि द्वे अपि ते समाने स्यातां तदा मुहूर्तादावति श्रोत्रेन्द्रियवशं वा ऋतो-गतः श्रोत्रेन्द्रियवशातः।। क्रान्तेऽतीताद्धा समधिका अनागताद्धा च हीनेति हतं समत्वम्, द्वादशशते द्वितीयः॥१२-२॥ एवं च मुहूर्तादिभिः प्रतिक्षणं क्षीयमाणाऽप्यनागताद्धा यतो न १. कथं पुनर्भव्यबहुत्वात्सर्वाकाशप्रदेशदृष्टान्तात्। किं पुनर्या सम्प्राप्तिः सा नियमाद् योग्यवृक्षाणां। नैव सेत्स्यन्ति तदा भण्यते तेषां किं भव्यत्वं पुनर्भवति?॥३॥ भवति नैवायोग्यानां एवमेव च सर्वभव्यसिद्धिरपि॥८॥ केचिद्भव्या भूत्वाऽपि यदि सिद्धिं नैव गच्छेयु। सर्वेऽपि भव्याः सेत्स्यन्तीति प्रभुणा यद्भणितं । रेवं तेऽप्यभव्याः को वा विशेषस्तयोभव्याभव्ययोभवत्॥४॥ तदप्यनयैव दृष्ट्या जयन्तीपृच्छायाम्॥९॥ भण्यते भव्यो योग्यो दारु च दलिकमिति चापि पर्यायाः। अथवा कालं प्रतीत्य सर्वभव्यानां व्युच्छित्तिर्न भवति। योग्योऽपि पुनः कश्चिन्न सिद्ध्यति वृक्षादिदृष्टान्तात्॥५॥ यतोऽतीतानागताद्धे द्वे अपि तुल्य स्तः॥१०॥ बहवो गोशीर्षचन्दनाद्याः प्रतिमानां योग्या द्रुमाः। तत्रातीताद्धायां भव्यजीवानामनन्तभाग एकः। सन्ति अन्ये एरण्डभिण्डाद्या अयोग्या अपि सन्ति॥६॥ सिद्धस्तावानेव चानागताद्धायां सेत्स्यति प्रकामम्॥११॥ नैव च सर्वेषां योग्यानां प्रतिमोत्पादनसम्पत्तिर्भवति। तौ द्वावपि अनन्तभागौ संमील्यैषामनन्तभागः स एवैव। येषामप्यसम्प्राप्तिन च तेषामयोग्यता भवति॥७॥ एवमपि सर्वभव्यानां सिद्धिगमनं न निर्दिष्टम् ॥१२॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४२६ परिशिष्ट-५ : श. १२ : उ. ३,४ : सू. ६६-६६ तृतीय उद्देशकः गुणिता अनन्ता अनन्तानन्ताः, एकोऽपि हि परमाणुअनन्तरं श्रोत्रादीन्द्रियवशात अष्टकर्मप्रकृतीबंध्नन्तीत्युक्तं, व्यणुकादिभिरनन्ताणुकान्तैर्द्रव्यैः सह संयुज्यमानोऽनन्तान् तद्वन्धनाच्च नरकपृथिवीष्वप्युत्पद्यन्त इति नरकपृथिवी परिवर्त्तान् लभते, प्रतिद्रव्यं परिवर्तभावात्, अनन्तरत्वाच्च परमाणूनां, स्वरूपप्रतिपादनाय तृतीयोद्देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम् प्रतिपरमाणु चानन्तत्वात्परिवर्त्तानां १२/६६-६७. 'रायगिहे' इत्यादि, 'किंनामा किंगोय' त्ति तत्र नाम परमाणुपुद्गलपरिवर्ता-नामनन्तानन्तत्वं द्रष्टव्यमिति। यादृच्छिकमभिधानं गोत्रं च-अन्वर्थिकमिति एवं जहा 'पुग्गलपरियट्ट' त्ति पुद्गलैः-पुद्गलद्रव्यैः सह परिवर्त्ताःजीवाभिगमे' इत्यादिना यत्सूचितं तदिदं-'दोच्चा णं भंते ! पुढवी परमाणूनां मीलनानि पुद्गलपरिवर्ताः 'समनुगन्तव्याः' किंनामा किंगोया पन्नत्ता ?, गोयमा! वंसा नामेणं सक्करप्पभा अनुगन्तव्या भवन्तीति हेतोः 'आख्याताः' प्ररूपिताः गोत्तेण' मित्यादीति॥ भगवद्भिरिति गम्यते, मकारश्च प्राकृतशैलीप्रभवः ।। द्वादशशते तृतीयः॥१२-३॥ अथ पुद्गलपरावर्त्तस्यैव भेदाभिधानायाह-- १२.८२. 'कइविहे ण' मित्यादि, 'ओरालियपोग्गलपरियट्टे' त्ति औदारिकशरीरे वर्तमानेन जीवेन यदौदारिकशरीरप्रायोग्यचतुर्थ उद्देशकः द्रव्याणामौदारिकशरीरतया सामस्त्येन ग्रहणमसावौदारिकअनन्तरं पृथिव्य उक्तास्ताश्च पुद्गलात्मिका इति पुद्गलपरिवर्त्तः, एवमन्येऽपि। पुद्गलांश्चिन्तयंश्चतुर्थोद्देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्- १२-८३. 'नेरइयाणं' ति नारकजीवानामनादौ संसारे संसरतां १२/६९-८०. 'रायगिहे' इत्यादि 'एगयओ' त्ति एकत्वतः एकतयेत्यर्थः सप्तविधः पुद्गलपरावर्त्तः प्रज्ञप्तः ॥ 'साहन्नंति' त्ति संहन्येते संहतौ भवत इत्यर्थः, द्विप्रदेशिक- १२/८४. 'एगमेगस्से' त्यादि, अतीतानन्ता अनादित्वात् स्कन्धस्य भेदे एको विकल्पः, त्रिप्रदेशिकस्य द्वौ, अतीतकालस्य जीवस्य चानादित्वात् अपरापरपुद्गलचतुष्प्रदेशिकस्य चत्वारः, पञ्चप्रदेशिकस्य षट्, षट्प्रदेशिकस्य ग्रहणस्वरूपत्वाच्चेति। 'पुरक्खडे' ति पुरस्कृता भविष्यन्तः दश, सप्तप्रदेशिकस्य चतुर्दश, अष्टप्रदेशिकस्यैकविंशतिः, 'कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि' त्ति कस्यापि जीवस्य नवप्रदेशिकस्याष्टाविंशतिः, दशप्रदेशिकस्य चत्वारिंशत्, दूरभव्यस्याभव्यस्य वा ते सन्ति, कस्यापि न सन्ति, उद्धृत्य यो सङ्ख्यातप्रदेशिकस्य द्विधाभेदे ११ त्रिधा भेदे २१ चतुर्द्धा भेदे मानुषत्वमासाद्य सिद्धिं यास्यति सद्ध्येयैरसङखयेयैर्वा ३१ पञ्चधाभेदे ४१ षोढात्वे ५१ सप्तधात्वे ६१ अष्टधात्वे ७१ भवैर्यास्यति यः सिद्धिं तस्यापि परिवर्तो नास्ति, नवधात्वे ८१ दशधात्वे ९१ सङ्ख्यातभेदत्वे त्वेक एवं विकल्पः, अनन्तकालपूर्यत्वात्तस्येति। 'एगत्तिय' त्ति एकत्विकाःतमेवाह-'संखेज्जहा कज्जमाणे संखेज्जा परमाणुपोग्गला एकनारकाद्याश्रयाः 'सत्त' त्ति औदारिकादिसप्तविधपुद्गलभवंति' त्ति, असङ्ख्यातप्रदेशिकस्य तु द्विधात्वे १२ विधात्वे २३ विषयत्वात्सप्तदण्डकाश्चतुर्विंशतिदण्डका भवन्ति, एकत्वचतुर्द्धात्वे ३४ पञ्चधात्वे ४५ षोढात्वे ५६ सप्तधात्वे ६७ पृथक्त्वदण्डकानां चायं विशेषः-एकत्वदण्डकेषु पुरस्कृतपुद्गलअष्टधात्वे ७८ नवधात्वे ८९ दशभेदत्वे १०० सङ्ख्यातभेदत्वे परावर्ताः कस्यापि न सन्त्यपि, बहुत्वदण्डकेषु तु ते सन्ति, द्वादश जीवसामान्याश्रयणादिति॥ असङ्ख्यातभेदकरणे त्वेक एव, तमेवाह-'असंखेज्जा १२/८८. 'एगमेगस्से' त्यादि, 'नत्थि एक्कोवि' ति नारकत्वे परमाणुपोग्गला भवंति' त्ति, अनन्तप्रदेशिकस्य तु द्विधात्वे १३ वर्तमानस्यौदारिकपुद्गलग्रहणाभावादिति । त्रिधात्वे २५ चतुर्द्धात्वे ३७ पञ्चधात्वे ४९ षड्विधत्वे ६१ १२/८९.९६. 'एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारते' इत्यादि, सप्तधात्वे ७३ अष्टधात्वे ८५ नवधात्वे ९७ दशधात्वे १०९ इह च नैरयिकस्य वर्तमानकालीनस्य असुरकुमारत्वे सङ्ख्यातत्वे १२ असङ्ख्यातत्वे १३ अनन्तभेदकरणे त्वेक एव चातीतानागत-कालसम्बन्धिनि ‘एगुत्तरिया जाव अणंता व' त्ति विकल्पः, तमेवाह-'अणंतहा कज्जमाणे' इत्यादि। अनेनेदं सूचितं-'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि तस्स 'दो भंते! परमाणुपोग्गला साहण्णंती' त्यादिना पुद्गलानां प्राक् जहन्नेणं एक्को वा दोन्नि वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा संहननमुक्तं 'से भिज्जमाणे दुहा कज्जइ' इत्यादिना च तेषां भेद असंखेज्जा वा अणंता वा' इति ‘एवं जत्थ वेउब्वियसरीरं तत्थ उक्तः, अथ तामेवाश्रित्याह एकोत्तरिओ' त्ति यत्र वायुकाये मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु १२/८१. 'एएसि ण' मित्यादि, ‘एतेषाम्' अनन्तरोक्तस्वरूपाणां व्यन्तरादिषु च वैक्रियशरीरं तत्रैको वेत्यादि वाच्यमित्यर्थः, परमाणुपुद्गलानां परमाणूनामित्यर्थः ‘साहणणाभेयाणुवाएणं' त्ति 'जत्थ नत्थी' त्यादि यत्राप्यकायादौ नास्ति वैक्रियं तत्र यथा 'साहणण' त्ति प्राकृतत्वात् संहननं सङ्घातो भेदश्च-वियोजनं पृथिवीकायिकत्वे तथा वाच्यं, न सन्ति वैक्रियपुद्गलपरावर्ता तयोरनुपातो-योगः संहननभेदानुपातस्तेन सर्वपुद्गलद्रव्यैः सह इति वाच्यमित्यर्थः, 'तेयापोग्गले' त्यादि तैजसकार्मणपरमाणूनां संयोगेन वियोगेन चेत्यर्थः, 'अणंताणंत' त्ति अनन्तेन पुद्गलपरावर्ता भविष्यन्त एकादयः सर्वेषु नारकादिजीवपदेषु Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १२ : उ. ४ : सू. ६७-१०२ ४३० भगवती वृत्ति पूर्ववद्वाच्यास्तैजस-कार्मणयोः सर्वेषु भावादिति। गुणोऽसाविति, तत औदारिकपुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तनाकालोऽ'मणपोग्गले' त्यादि, मनःपुद्गलपरावर्ताः पञ्चेन्द्रियेष्वेव सन्ति, नन्तगुणो, यत औदारिकपुद्गला अतिस्थूराः, स्थूराणां चाल्पाभविष्यन्तश्च ते एकोत्तरिकाः पूर्ववद्वाच्याः, 'विगलिंदिएसु नामेवैकदा ग्रहणं भवति अल्पतरप्रदेशाश्च ते ततस्तद्ग्रहणेऽनत्थि' त्ति विकलेन्द्रियग्रहणेन चैकेन्द्रिया अपि ग्राह्याः तेषा- प्येकदाऽल्पा एवाणवो गृह्यन्ते, न च कार्मण-तैजसपुद्गलमपीन्द्रियाणामसम्पूर्णत्वात् मनोवृत्तेश्चाभावाद् अतस्तेष्वपि वत्तेषां सर्वपदेषु ग्रहणमस्ति, औदारिकशरीरिणामेव तद्ग्रहणाद्, मनःपुद्गलपरावर्त्ता न सन्ति। अतो बृहतैव कालेन तेषां ग्रहणमिति, तत आनप्राणपुद्गल'वइपोग्गलपरियट्टा एवं चेव' त्ति तैजसादिपरिवर्त्तवत्सर्वनार- परिवर्तनाकालोऽनन्तगुणः, यद्यपि हि औदारिकपुद्गलेभ्य कादिजीवपदेषु वाच्याः, नवरमेकेन्द्रियेषु वचनाभावान्न सन्तीति आनप्राणपुद्गलाः सूक्ष्मा बहुप्रदेशिकाश्चेति तेषामल्पकालेन वाच्याः। ग्रहणं संभवति तथाऽप्यपर्याप्तकावस्थायां तेषामग्रहणात्पर्याप्त'नेरइयाण' मित्यादिना पृथक्त्वदण्डकानाह, जाव वेमाणियाण' कावस्थायामप्यौदारिक-शरीरपुद्गलापेक्षया तेषामल्पीयसामेव मित्यादिना पर्यन्तिमदण्डको दर्शितः ।। ग्रहणान्न शीघ्रं तद्ग्रहणमित्यौदारिकपुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तनाअथौदारिकादिपुद्गलपरावर्तानां स्वरूपमुपदर्शयितुमाह कालादनन्तगुणताऽऽनप्राणपुद्गलपरिवर्त्तनिवर्त्तनाकालस्येति, १२/९७. 'से केणद्वेण' मित्यादि, 'गहियाई' ति स्वीकृतानि 'बद्घाई' ततो मनःपुद्गल-परिवर्त्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणः, कथम् ?, ति जीवप्रदेशैरात्मीकरणात्, कुतः ? इत्याह-'पुट्ठाई' ति यतः पूर्व यद्यप्यानप्राणपुद्गलेभ्यो मनःपुद्गलाः सूक्ष्मा बहुप्रदेशाश्चेत्यस्पृष्टानि तनौ रेणुवत् अथवा 'पुष्टानि' पोषितान्यपरापरग्रहणतः ल्पकालेन तेषां ग्रहणं भवति तथाऽप्येकेन्द्रियादिकायस्थिति'कडाई' ति पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृतानि वशान्मनसश्चिरेण लाभान्मानसपुद्गलपरिवर्तो बहुकालसाध्य 'पट्ठवियाई ति प्रस्थापितानि-स्थिरीकृतानि जीवेन 'निविट्ठाई' इत्यनन्तगुण उक्तः, ततोऽपि वाक्पुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्त्तना. ति यतः स्थापितानि ततो निविष्टानि जीवेन स्वयं कालोऽनन्तगुणः, कथम् ?, यद्यपि मनसः सकाशाद्भाषा 'अभिनिविट्ठाई' ति अभि-अभिविधिना निविष्टानि सर्वाण्यपि शीघ्रतरं लभ्यते द्वीन्द्रियाद्यवस्थायां च भवति तथाऽपि जीवे लग्नानीत्यर्थः 'अभिसमन्नागयाइं' ति अभिविधिना मनोद्रव्येभ्यो भाषाद्रव्याणामतिस्थूलतया स्तोकानामेवैकदा सर्वाणीत्यर्थः समन्वागतानि-सम्प्राप्तानि जीवेन रसानुभूति ग्रहणात्त-तोऽनन्तगुणो वाक्पुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तनाकाल इति, समाश्रित्य ‘परियाइयाई' ति पर्याप्तानि-जीवेन सर्वावयवैरात्तानि ततो वैक्रियपुदलपरिवर्त्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणो, वैक्रियशरीरतद्रसादानद्वारेण 'परिणामियाई' ति रसानुभूतित एव स्यातिबहुकाललभ्यत्वादिति॥ परिणामान्तरमापादितानि 'निज्जिण्णाई' ति क्षीणरसीकतानि पुद्गलपरिवर्त्तानामेवाल्पबहुत्वं दर्शयन्नाह'निसिरियाई' ति जीवप्रदेशेभ्यो निःसृतानि, कथं ?-'निसिट्ठाई' १२/१००. 'एएसि ण' मित्यादि, सर्वस्तोका वैक्रियपुद्गलपरिवर्त्ता ति जीवेन निःसृष्टानि स्वप्रदेशेभ्यस्त्याजितानि, इहाद्यानि बहुतमकालनिर्वर्तनीयत्वात्तेषां, ततोऽनन्तगुणा वागविषया चत्वारि पदान्यौदारिकपुद्गलानां ग्रहणविषयाणि तदुत्तराणि तु अल्पतरकालनिर्वय॑त्वात्, एवं पूर्वोक्तयुक्त्या बहुबहुतराः पञ्च स्थितिविषयाणि तदुत्तराणि तु चत्वारि विगम- क्रमेणान्येऽपि वाच्या इति।। विषयाणीति॥ द्वादशशते चतुर्थः ॥१२॥४॥ अथ पुद्गलपरावर्तानां निर्वर्तनकालं तदल्पबहुत्वं च दर्शयन्नाह ॥ ग्रन्थाग्रम् ॥ १२००० ॥ १२/९८,९९. 'ओरालिये' त्यादि, 'केवइकालस्स' त्ति कियता कालेन पञ्चम उद्देशकः निर्वय॑ते ?, 'अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं' ति एकस्य जीवस्य ग्राहकत्वात् पुद्गलानां चानन्तत्वात् पूर्वगृहीतानां च अनन्तरोद्देशके पुद्गला उक्तास्तत्प्रस्तावात्कमपुद्गलग्रहणस्यागण्यमानत्वादनन्ता अवसर्पिण्य इत्यादि सुष्ठक्त- स्वरूपाभिधानाय पञ्चमोद्देशकमाहमिति। १२/१०२. 'रायगिहे' इत्यादि 'पाणाइवाए' त्ति प्राणातिपातजनितं 'सव्वत्थोवे कम्मगपोग्गले' त्यादि, सर्वस्तोकः कार्मण- तज्जनकं वा चारित्रमोहनीयं कर्मोपचारात् प्राणातिपात एव, पुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालः, ते हि सूक्ष्मा बहुतमपरमाणु एवमुत्तरत्रापि, तस्य च पुद्गलरूपत्वाद्वर्णादयो भवन्तीत्यत निष्पन्नाश्च भवन्ति, ततस्ते सकृदपि बहवो गृह्यन्ते, सर्वेषु च उक्तं, 'पंचवन्ने' इत्यादि, आह चनारकादिपदेषु वर्तमानस्य जीवस्य तेऽनुसमयं ग्रहणमायान्तीति 'पंचरसपंचवन्नेहिं परिणयं दुविहगंधचउफासं। स्वल्पकालेनापि तत्सकलपुद्गलग्रहणं भवतीति, ततस्तैजस- दवियमणंतपएसं सिद्धेहि अणंतगुण हीणं॥१॥' पुद्गलपरिवर्त्तनिवर्त्तनाकालोऽनन्तगुणो, यतः स्थूलत्वेन तैजसपुद्गलानामल्पनामेकदा ग्रहणम्, एकग्रहणे चाल्पप्रदेश- (पञ्चभी रसैः पञ्चभिर्वर्णैः परिणतं द्विविधगन्धं चतुःस्पर्शम्। निष्पन्नत्वेन तेषामल्पानामेव तदणूनां ग्रहणं भवत्यतोऽनन्त- अनन्तप्रदेशं द्रव्यं सिद्धेभ्योऽनन्तगुणं हीनम्।।१।।) इति Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ काप: भगवती वृत्ति परिशिष्ट-५:श. १२ : उ.५ : सू. १०३-११६ 'चउफासे' त्ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णाख्याश्चत्वारः स्पर्शाः विविधक्रियाणामाचरणं, 'गूढनया' गृहनं गोपायनं स्वरूपस्य सूक्ष्मपरिणामपरिणतपुद्गलानां भवंति, सूक्ष्मपरिणामं च 'वंचणया' वञ्चनं-परस्य प्रतारणं 'पलिउंचणया' प्रतिकुञ्चनं कर्मेति। सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्य खण्डनं 'साइजोगे' त्ति १२/१०३. 'कोहे' ति क्रोधपरिणामजनकं कर्म, तत्र क्रोध इति अविश्रम्भसम्बन्धः सातिशयेन वा द्रव्येण निरतिशयस्य सामान्य नाम कोपादयस्तु तद्विशेषाः, तत्र कोपः योगस्तत्प्रतिरूपकरणमित्यर्थः, मायैकार्था वैते ध्वनय इति। क्रोधोदयात्स्वभावाच्चलनमात्र, रोषः-क्रोधस्यैवानुबन्धो, दोषः १२/१०६. 'लोभे' त्ति सामान्य इच्छादयस्तद्विशेषाः, तत्रेच्छाआत्मनः परस्य वा दूषणं, एतच्च क्रोधकार्य, द्वेषो वाऽप्रीति- अभिलाषमानं 'मुच्छा कंखा गेही' त्ति मूर्छा-संरक्षणानुबन्धः मात्रम्, अक्षमा-परकृतापराधस्यासहनं, सज्वलनो-मुहुर्मुहुः काला-अप्राप्तार्थाशंसा 'गेहि' त्ति गृद्धिः-प्राप्तार्थेष्वासक्तिः क्रोधाग्निना ज्वलनं, कलहो-महता शब्देनान्योऽन्यमसमज- 'तण्ह' त्ति तृष्णा-प्राप्तानामव्ययेच्छा 'भिज्ज' त्ति अभिसभाषणं, एतच्च-क्रोधकार्य, चाण्डिक्यं रौद्राकारकरणं, एतदपि व्याप्त्या विषयाणां ध्यानं तदेकाग्रत्वमभिध्या पिधानादिवदक्रोधकार्यमेव, भण्डनं-दण्डादिभिर्युद्धं, एतदपि क्रोधकार्यमेव, कारलोपाद्भिध्या 'अभिज्झ' त्ति न भिध्या अभिध्या विवादो-विप्रतिपत्तिसमुत्थवचनानि, इदमपि तत्कार्यमेवेति, भिध्यासदृशं भावान्तरं, तत्र दृढाभिनिवेशो भिध्या ध्यानक्रोधैकार्था वैते शब्दाः। लक्षणत्वात्तस्याः, अदृढाभिनिवेशस्त्वभिध्या चित्तलक्षण१२/१०४. 'माणे' त्ति मानपरिणामजनकं कर्म, तत्र मान इति त्वात्तस्याः, ध्यानचित्तयोस्त्वयं विशेषः-'जं थिरमज्झवसाणं तं सामान्य नाम, मदादयस्तु तद्विशेषाः, तत्र मदो-हर्षमात्रं झाणं जं चलं तयं चित्तं ति (यत्स्थिरमध्यवसानं तद्ध्यानं दर्पो-दृप्तता, स्तम्भः-अनम्रता, गर्व-शौण्डीर्य, 'अत्तुक्कोसे' त्ति यच्चलं तच्चित्तम्॥) 'आसासणय' त्ति आशंसनं-मम पुत्रस्य आत्मनः परेभ्यः सकाशाद्गुणैरुत्कर्षणम्-उत्कृष्टताऽभिधानं शिष्यस्य वा इदमिदं च भूयादित्यादिरूपा आशीः 'पत्थणय' त्ति परपरिवादः-परेषामपवदनं परिपातो वा गुणेभ्यः परिपातनमिति, प्रार्थनं-परं प्रतीष्टार्थयाञ्चा 'लालप्पणय' त्ति प्रार्थनमेव भृशं 'उक्कोसे' ति उत्कर्षणं आत्मनः परस्य वा मनाक् लपनतः। 'कामास' त्ति शब्दरूपप्राप्तिसंभावना 'भोगास' त्ति क्रिययोत्कृष्टताकरणं उत्काशनं वा-प्रकाशनमभिमानात्- गन्धादिप्राप्तिसम्भावना 'जीवितास' त्ति जीवितव्यप्राप्तिस्वकीयसमृद्ध्यादेः 'अवक्कासे' त्ति अपकर्षणमवकर्षणं वा सम्भावना, 'मरणास' त्ति कस्याञ्चिदवस्थायां मरणप्राप्तिअभिमानादात्मनः परस्य वा क्रियारम्भात् कुतोऽपि व्यावर्त्तन- सम्भावना, इदं च क्वचिन्न दृश्यते, 'नंदिरागे' त्ति समृद्धौ सत्यां मिति अप्रकाशो वाऽभिमानादेवेति, 'उण्णए' त्ति उच्छिन्नं नतं- रागो-हर्षो नन्दिरागः। पूर्वप्रवृत्तं नमनमभिमानादुन्नतम्, उच्छिन्नो वा नयो- १२/१०७. 'पेज्जे' त्ति प्रेम-पुत्रादिविषयः स्नेहः 'दोसे' त्ति अप्रीतिः नीतिरभिमानादेवोन्नयो नयाभाव इत्यर्थः, 'उण्णामे' त्ति प्रणतस्य कलहः-इह प्रेमहासादिप्रभवं युद्धं, यावत्करणात् 'अब्भक्खाणे मदानुप्रवेशादुन्नमनं, 'दुन्नामे' त्ति मदाद्दुष्टं नमनं दुर्नाम इति, इह पेसुन्ने अरइरई परपरिवाए मायामोसे' त्ति दृश्यम्॥ च स्तम्भादीनि मानकार्याणि मानवाचका वैते ध्वनय इति। अथोक्तानामेवाष्टादशानां प्राणातिपातादिकानां पापस्थानानां १२/१०५. 'माय' ति सामान्य उपध्यादयस्तभेदाः, तत्र 'उवहि' त्ति ये विपर्ययास्तेषां स्वरूपाभिधानायाह उपधीयते येनासावुपधिः-वञ्चनीयसमीपगमनहेतुर्भावः 'नियडि' १२/१०८. 'अहे' त्यादि, 'अवन्ने' त्ति वधादिविरमणानि जीवोपयोगत्ति नितरां करणं निकृतिः-आदरकरणेन परवञ्चनं पूर्वकृत- स्वरूपाणि जीवोपयोगश्चामूर्तोऽमूर्त्तत्वाच्च तस्य मायाप्रच्छादनार्थं वा मायान्तरकरणं 'वलए' ति येन भावेन वधादिविरमणानाममूर्त्तत्वं तस्माच्चावर्णादित्वमिति ।। वलयमिव वक्रं वचनं चेष्टा वा प्रवर्तते स भावो वलयं गहणे' त्ति जीवस्वरूपविशेषवाधिकृत्याहपरख्यामोहनाय यद्वचनजालं तद्गहनमिव गहनं 'णूमे' ति १२/१०९. 'उप्पत्तिय' त्ति उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, परवञ्चनाय निम्नताया निम्नस्थानस्य वाऽश्रयणं तन्नूमंति ननु क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः ? सत्यं, स खल्वन्तरङ्गत्वा'कक्के' ति कल्कं हिंसादिरूपं पापं तन्निमित्तो यो वाचनाभि- त्सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रप्रायः स कल्कमेवोच्यते 'कुरूए' त्ति कुत्सितं यथा भवत्येवं कर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति, रूपयति-विमोहयति यत्तत्कुरूपं भाण्डादिकर्म मायाविशेष एव, 'वेणइय' त्ति विनयो-गुरुशुश्रूषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा 'जिम्हे' ति येन परवञ्चनाभिप्रायेण जैम्यं-क्रियासु मान्द्यमा- वैनयिकी, 'कम्मय' त्ति अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्पं लम्बते स भावो जैम्यमेवेति 'किब्बिसे' त्ति यतो मायाविशेषा- कादाचित्कं वा कर्म शिल्पं तु नित्यव्यापारः, ततश्च कर्मणो ज्जन्मान्तरेऽत्रैव वा भवे किल्बिषः-किल्बिषिको भवति स जाता कर्मजा, 'पारिणामिय' त्ति परिः-समन्तान्नमनं किल्बिष एवेति, 'आयरणय' त्ति यतो मायाविशेषा-दादरणं- परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः स अभ्युपगमं कस्यापि वस्तुनः करोत्यसावादरणं, ताप्रत्ययस्य च कारणं यस्याः सा पारिणामिकी बुद्धिरिति वाक्यशेषः, इयमपि स्वार्थिकत्वाद् आयरणया, आचरणं वा-परप्रतारणाय वर्णादिरहिता जीवधर्मत्वेनामूर्त्तत्वात्।। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १२ : उ. ६ : सू. ११२-१२३ ४३२ भगवती वृत्ति जीवधर्माधिकारादवग्रहादिसूत्र कर्मादिसूत्रं च, इत्यादि। एवं च पर्यवसूत्रमपि, इह च मूर्त्तद्रव्याणां प्रदेशाः अमूर्त्ताधिकारादवकाशान्तरसूत्रं अमूर्त्तत्वविपर्ययात्तनुवातादि- पर्यवाश्च मूर्त्तद्रव्यवत्पञ्चवर्णादयः, अमूर्त्तद्रव्याणां चामूर्तसूत्राणि चाह-तत्र च। द्रव्यवदवर्णादय इति। अतीताद्धादित्रयं चामूर्त्तत्वादवर्णादिकम्। १२/११२,११३. 'सत्तमे णं भंते! उवासंतरे' त्ति प्रथमद्वितीय- वर्णाद्यधिकारादेवेदमाह पृथिव्योर्यदन्तराले आकाशखण्डं तत्प्रथमं तदपेक्षया सप्तमं १२/११९. 'जीवे ण' मित्यादि, 'परिणामं परिणमइ' त्ति स्वरूपं सप्तम्या अधस्तात्तस्योपरिष्टात्सप्तमस्तनुवातस्तस्योपरि सप्तमो गच्छति कतिवर्णादिना रूपेण परिणमतीत्यर्थः 'पंचवन्नं' ति धनवातस्तस्याप्युपरि सप्तमो घनोदधिस्तस्याप्युपरि सप्तमी गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवशरीरस्य पञ्चवर्णादित्वात् गर्भपृथिवी, तनुवातादीनां च पञ्चवर्णादित्वं पौद्गलिकत्वेन व्युत्क्रमणकाले जीवपरिणामस्य पञ्चवर्णादित्वमवसेयमिति॥ मूर्त्तत्वात्, अष्टस्पर्शत्वं च बादरपरिणामत्वात्, अष्टौ च स्पर्शाः अनन्तरं गर्भ व्युत्क्रामन् जीवो वर्णादिभिर्विचित्रं परिणाम शीतोष्णस्निग्धरूक्षमृदुकठिनलघुगुरुभेदादिति। जम्बूद्वीपे इत्यत्र परिणमतीत्युक्तम्। यावत्करणाल्लवणसमुद्रादीनि पदानि वाच्यानि 'जाव । अथ विचित्रपरिणाम एव जीवस्य यतो भवति तदर्शयितुमाहवेमाणियावासा' इह यावत्करणादसुरकुमारावासादिपरिग्रहः, ते १२/१२०. 'कम्मओ ण' मित्यादि, कर्मतः सकाशान्नो अकर्मतः-न च भवनानि नगराणि विमानानि तिर्यग्लोके तन्नगर्यश्चेति। कर्माणि विना जीवो 'विभक्तिभावं' विभागरूपं भावं १२/११४. वेउब्वियतेयाई पडुच्च' त्ति वैक्रियतैजसशरीरे हि बादर- नारकतिर्यगमनुष्यामरभवेषु नानारूपं परिणाममित्यर्थः परिणामपुद्गलरूपे ततो बादरत्वात्तयो रकाणामष्टस्पर्शत्वं, 'परिणमति' गच्छति तथा 'कम्मओ णं जए' त्ति गच्छति 'कम्मगं पडुच्च' त्ति कार्मणं हि सूक्ष्मपरिणामपुद्गलरूप- तांस्तान्नारकादिभावानिति 'जगत्' जीवसमूहो जीवद्रव्यस्यैव वा मतश्चतुःस्पर्श, ते च शीतोष्णस्निग्धरूक्षाः। विशेषो जङ्गमाभिधानो 'जगन्ति जङ्गमान्याहु' रिति १२/११६. 'धम्मत्थिकाए' इह यावत्करणादेवं दृश्यम्- वचनादिति। 'अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए द्वादशशते पञ्चमः॥ १२-५॥ आवलिया मुहुत्ते' इत्यादि, 'दव्वलेसं पडुच्च' त्ति इह द्रव्यलेश्यावर्णः षष्ठम उद्देशकः १२/११७. 'भावलेसं पडुच्च' त्ति भावलेश्या-आन्तरः परिणामः, इह जगतो विभक्तिभावः कर्मत इति पञ्चमोद्देशकान्ते उक्तं, स च च कृष्णलेश्यादीनि परिग्रहसजाऽवसानानि अवर्णादीनि राहग्रसने चन्द्रस्यापि स्यादिति शङ्कानिरासाय षष्ठोद्देशकमाह, जीवपरिणामत्वात्, औदारिकादीनि चत्वारि शरीराणि तस्य चेदमादिसूत्रम्पञ्चवर्णादिविशेषणानि अष्टस्पर्शानि च बादरपरिणाम- १२/१२२,१२३. 'रायगिहे' इत्यादि, 'मिच्छंते एवमाहंसु' त्ति, इह पुद्गलरूपत्वात्, सर्वत्र च चतुःस्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणामः कारणं तद्ववचनमिथ्यात्वमप्रमाणकत्वात् कुप्रवचनसंस्कारोपनीतअष्टस्पर्शत्वे च बादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति। त्वाच्च, ग्रहणं हि राहुचन्द्रयोर्विमानापेक्षं, न च विमान१२/११८. 'सव्वदव्व' त्ति सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि योासकग्रसनीयसम्भवोऽस्ति आश्रयमात्रत्वान्नर-भवनानामिव, 'अत्थेगइया सव्वदव्वा पंचवन्ने' त्यादि बादरपुद्गलद्रव्याणि अथेदं गृहमनेन ग्रस्तमिति दृष्टस्तद्व्यवहारः?, सत्यं स प्रतीत्योक्तं सर्वद्रव्याणां मध्ये कानिचित्पञ्चवर्णादीनीति खल्वाच्छाद्याच्छादकभावे सति नान्यथा, आच्छादनभावेन च भावार्थः 'चउफासा' इत्येतच्च पुद्गलद्रव्याण्येव सूक्ष्माणि ग्रासविवक्षायामिहापि न विरोध इति। अथ यदत्र सम्यक प्रतीत्योक्तं 'एगगंधे' त्यादि च परमाण्वादिद्रव्याणि प्रतीत्योक्तं, तदर्शयितुमाह-'अहं पुणे' त्यादि। यदाह परमाणुद्रव्यमाश्रित्य 'खंजणवन्नाभे' त्ति खञ्जनं-दीपमल्लिकामलस्तस्य यो 'कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः। वर्णस्तद्वदाभा यस्य तत्तथा 'लाउयवन्नाभे' त्ति 'लाउयं' ति एकरस वर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च॥१॥' तुम्बिका तच्चेहापक्कावस्थं ग्राह्यमिति। 'भासरासिवण्णाभे' त्ति इति, स्पर्शद्वयं च सूक्ष्मसम्बन्धिनां चतुर्णा भस्मराशिवर्णाभं, ततश्च किमित्याह-'जया ण' मित्यादि, स्पर्शानामन्यतरदविरुद्धं भवति, तथाहि-स्निग्धोष्णलक्षणं 'आगच्छमाणे व' त्ति गत्वाऽतिचारेण ततः प्रतिनिवर्तमानः स्निग्धशीतलक्षणं वा रूक्षशीतलक्षणं रूक्षोष्णलक्षणं वेति, कृष्णवर्णादिना विमानेनेति शेषः 'गच्छमाणे व' त्ति स्वभावचारेण 'अवण्णे' त्यादि च धर्मास्तिकायादिद्रव्याण्याश्रित्योक्तं, चरन्, एतेन च पदद्वयेन स्वाभाविकी गतिरुक्ता, 'विउव्वमाणे द्रव्याश्रितत्वात्प्रदेशपर्यवाणां द्रव्यसूत्रानन्तरं तत्सूत्रं, तत्र च व' त्ति विकुर्वणां कुर्वन् ‘परियारेमाणे व' त्ति परिचारयन् प्रदेशा-द्रव्यस्य निर्विभागा अंशाः पर्यवास्तु धर्माः, ते कामक्रीडां कुर्वन्, एतस्मिन् व्येऽतित्वरया प्रवर्त्तमानो चैवंकरणादेवं वाच्याः-सव्वपएसा णं भंते! कइवण्णा? पुच्छा विसंस्थुलचेष्टया स्वविमानमसमञ्जसं वलयति, एतच्च गोयमा! अत्थेगइया सव्वपएसा पंचवन्ना जाव अट्ठफासा' द्वयमस्वाभाविकविमानगतिग्रहणायोक्तमिति, 'चंदलेसं Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४३३ परिशिष्ट-५:श. १२ : उ.६ : सू. २५,२६ पुरच्छिमेणं आवरेत्ताणं' ति स्वविमानेन चन्द्रविमानावरणे उक्तञ्च ज्योतिष्करण्डकेचन्द्रदीप्सेरावृत्तत्वाच्चन्द्रलेश्यां पुरस्तादावृत्त्य ‘पच्चच्छिमेणं 'सोलसभागे काऊण उडुवई हायएत्थ पन्नरसं। वीइवयइ' त्ति चन्द्रापेक्षया परेण यातीत्यर्थः 'पुरच्छिमेणं चंदे तत्तियमेत्ते भागे पुणोवि परिवहुई जोण्हा॥१॥' उवदंसेइ पच्चच्छिमेणं राहु' त्ति राहपेक्षया पूर्वस्यां दिशि चन्द्र (षोडश भागान् कृत्वोडुपति पयत्यऽत्र पञ्चदश। आत्मानमुपदर्शयति चन्द्रापेक्षया च पश्चिमायां राहुरात्मानमुप- तावन्मात्रान् भागान् पुनरपि वर्द्धयति ज्योत्स्नायाः॥१॥) दर्शयतीत्यर्थः। एवंविधस्वभावतायां च राहोश्चन्द्रस्य यद्भवति इति, इह तु षोडशभागकल्पना न कृता व्यवहारिणां तदाह-'जया ण' मित्यादि, 'आवरेमाणे' इत्यत्र द्विर्वचनं षोडशभागस्यावस्थितस्यानुपलक्षणादिति सम्भावयाम इति, तिष्ठतीति क्रियाविशेषणत्वात् 'चंदेण राहुस्स कुच्छी भिन्न' त्ति ननु चन्द्रविमानस्य पञ्चैकषष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वाद् राहोरंशस्य मध्येन चन्द्रो गत इति वाच्यं, चन्द्रेण राहोः राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्वेनार्द्धयोजनप्रमाणत्वात्कथं कुक्षिभिन्न इति व्यपदिशन्तीति, ‘पच्चोसक्कई' त्ति पञ्चदशे दिने चन्द्रविमानस्य महत्त्वेनेतरस्य च लघुत्वेन 'प्रत्यवसर्पति' व्यावर्त्तते 'वंते' त्ति 'वान्तः' परित्यक्तः, सर्वावरणं स्यात् ? इति, अत्रोच्यते, यदिदं 'सपक्खिं सपडिदिसं' ति सपक्षं-समानदिग् यथा भवति ग्रहविमानानामर्द्धयोजनमिति प्रमाणं तत्प्रायिकं, ततश्च सप्रतिदिक्-समानविदिक् च यथा भवतीत्येवं चन्द्रलेश्यां राहोर्ग्रहस्योक्ताधिकप्रमाणमपि विमानं संभाव्यते, अन्ये 'आवृत्त्य' अवष्टभ्य तिष्ठतीत्येवं योगः, अत आवरणमात्रमेवेदं पुनराहुः-लघीयसोऽपि राहुविमानस्य महता तमिस्ररश्मिजालेन वैससिकं चन्द्र राहुणा ग्रसनं न तु कार्मणमिति॥ तदावियत इति, ननु कतिपयान् दिवसान् यावद् ध्रुवराहुविमानं अर्थ राहोर्भेदमाह वृत्तमुपलभ्यते ग्रहण इव कतिपयांश्च न तथेति किमत्र 'कइविहे ण' मित्यादि, यश्चन्द्रस्य सदैव संनिहितः संचरति स कारणम् ?, अत्रोच्यते, येषु दिवसेष्वत्यर्थं तमसाऽभिभूयते शशी ध्रुवराहुः, आह च तेषु तद्विमानं वृत्तमाभाति येषु पुनर्नाभिभूयतेऽसौ किण्हं राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं। विशुद्ध्यमानत्वात् तेषु न वृत्तमाभाति, तथा चोक्तम्चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ॥१॥' इति 'वट्टच्छेओ कइवइदिवसे धुवराहुणो विमाणस्स। (कृष्णं राहुविमानं चन्द्रेणाविरहितं (भवति) चतुरङ्गलाप्राप्त दीसइ परं न दीसइ जह गहणे पव्वराहुस्स॥१॥' नित्यं चन्द्रास्याधस्तात्तच्चरति॥१॥) आचार्य आहयस्तु पणि-पौर्णमास्यामावास्ययोश्चन्द्रादित्ययोरुपरागं 'अच्चत्थं नहि तमसाऽभिभूयते जं ससी विसुज्झंतो। करोति स पर्वराहुरिति। 'तत्थ णं जे से धुवराहू' इत्यादि तेण न वट्टच्छेओ गहणे उ तमो तमोबहुलो॥१॥ इति। 'पाडिवए' ति प्रतिपद आरभ्येति शेषः पञ्चदशभागेन स्वकीयेन (कतिपयदिवसेषु ध्रुवराहोर्विमानस्य वृत्तभागो दृश्यते यथा ग्रहणे करणभूतेन पञ्चदशभागं 'चंदस्स लेस्सं' ति विभक्तिव्यत्य- पर्वराहोः कतिपयेषु च न तथा दृश्यते॥१॥ यद्विशुद्धयमानः याच्चन्द्रस्य लेश्यायाः चन्द्रबिम्बसम्बन्धिनमित्यर्थः आवृण्वन् शशी तमसाऽत्यर्थं नैवाभिभूयतेऽतो न वृत्तभागः (उपलभ्यते) आवृण्वन् प्रत्यहं तिष्ठति, 'पढमाए' त्ति प्रथमतिथौ, ‘पन्नरसेसु' ग्रहणे तमस्तमोबहुलः पर्वराहुः॥२॥) त्ति पञ्चदशसु दिनेषु अमावास्यायामित्यर्थः ‘पन्नरसमं भागं' 'तत्थ णं जे से पव्वे' त्यादि, 'बायालीसाए मासाणं' सार्द्धस्य 'आवरित्ताणं चिट्ठई' त्ति वाक्यशेषः, एवं च यद्भवति वर्षत्रयस्योपरि चन्द्रस्य लेश्यामावृत्त्य तिष्ठतीति गम्यं, तदाह-'चरिमे' त्यादि, चरमसमये पञ्चदशभागोपेतस्य कृष्ण सूरस्याप्येवं नवरमुत्कृष्टतयाऽष्टचत्वारिंशता पक्षस्यान्तिमे काले कालविशेषे वा चन्द्रो रक्तो संवत्सराणामिति॥ भवति-राहणोपरक्तो भवति सर्वथाऽप्याच्छादित इत्यर्थः, अथ चन्द्रस्य 'ससि' ति यदभिधानं तस्यान्वर्थाभिधानायाहअवशेषे समये प्रतिपदादिकाले चन्द्रो रक्तो वा विरक्तो वा १२/१२५. 'से केण' मित्यादि, 'मियंके' त्ति मृगचिह्नत्वात् मृगाङ्के भवति, अंशेन राहुणोपरक्तोऽशान्तरेण चानुपरक्तः विमानेऽधिकरणभूते 'सोमे' त्ति 'सौम्यः' अरौद्राकारो नीरोगो आच्छादितानाच्छादित इत्यर्थः। तमेव' ति तमेव वा 'कंते' त्ति कान्तियोगात् 'सुभए' त्ति सुभगः-सौभाग्ययुक्त. चन्द्रलेश्यापञ्चदशभागं शुक्लपक्षस्य प्रतिपदादिष्विति गम्यते त्वाद्वल्लभो जनस्य 'पियदंसणे' त्ति प्रेमकारिदर्शनः, कस्मा'उपदर्शयन् २' पञ्चदशभागेन स्वयमपसरणतः प्रकटयन् देवम् ? अत आह-सुरूपः ‘से तेण' मित्यादि अथ तेन कारणेप्रकटयंस्तिष्ठति, 'चरिमसमये' त्ति पौर्णमास्यां चन्द्रो विरक्तो नोच्यते 'ससी' ति सह श्रिया वर्त्तत इति सश्रीः तदीयदेवादीनां भवति सर्वथैव शुक्लीभवतीत्यर्थः सर्वथाऽनाच्छादितत्वादिति, स्वस्य च कान्त्यादियुक्तत्वादिति, प्राकृतभाषापेक्षया च इह चायं भावार्थः-षोडशभागीकृतस्य चन्द्रस्य षोडशो ससीति सिद्धम्॥ भागोऽवस्थित एवास्ते, ये चान्ये भागास्तान् राहुः । अथादित्यशब्दस्यान्वर्थाभिधानायाहप्रतितिथ्येकैकं भागं कृष्णपक्षे आवृणोति शुक्ले तु विमुश्चतीति, १२/१२६. 'से केण' मित्यादि, 'सूराईय' त्ति सूरः आदिः-प्रथमो येषां Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५:श. १२ : उ.७,८ : सू. १२७-१५८ ४३४ भगवती वृत्ति ते सूरादिकाः, के? इत्याह-'समयाइ व' ति समयाः- नित्यत्वेऽपि जीवस्य कर्माल्पत्वे तथाविधसंसरणाभावान्नोक्तं अहोरात्रादिकालभेदानां निर्विभागा अंशाः, तथाहि- वस्तु स्यादतः कर्मबाहुल्यमुक्तं, कर्मबाहुल्येऽपि जन्मासूर्योदयमवधिं कृत्वाऽहोरात्रारम्भकः समयो गण्यते आवलिका देरल्पत्वे नोक्तोऽर्थः स्यादिति जन्मादिबाहुल्य-मुक्तमिति।। मुहदियश्चेति से तेण' मित्यादि अथ तेनार्थेन सूर आदित्य एतदेव प्रपञ्चयन्नाहइत्युच्यते, आदौ अहोरात्रसमयादीनां भव आदित्य इति १२/१३३-१५२. 'कइ ण' मित्यादि, नरगत्ताए' त्ति नरकावासव्युत्पत्तेः, त्यप्रत्ययश्हार्षत्वादिति।। पृथिवीकायिकतयेत्यर्थः 'असई ति असकृद्- अनेकशः 'अदुव' अथ तयोरेवाग्रमहिष्यादिदर्शनायाह त्ति अथवा 'अणंतखुत्तो' त्ति अनन्तकृत्वः-अनन्तवारान् १२/१२७,१२८. 'चंदस्से' त्यादि, 'असंखेज्जेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु' त्ति इहासङ्ख्यातेषु 'पढमजोव्वणुट्ठाणबलत्थे' त्ति 'प्रथमयौवनोत्थाने' प्रथमयौवनोद्गमे पृथिवीकायिकावासेषु एतावतैव सिद्धेर्यच्छतसहस्रग्रहणं यबलं-प्राणस्तत्र यस्तिष्ठति स तथा 'अचिरवत्तविवाहकज्जे' तत्तेषामतिबहुत्वख्यापनार्थ, नवरं 'तेइंदिएसु' इत्यादि अचिरवृत्तविवाहकार्यः 'वन्नओ महाबले' त्ति महाबलोद्देशके त्रीन्द्रियादिसूत्रेषु द्वीन्द्रियसूत्रात् त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेत्यादिनैव वासगृहवर्णको दृश्य इत्यर्थः 'अणुरत्ताए' त्ति अनुरागवत्या विशेष इत्यर्थः 'नो चेव णं देवीत्ताए' त्ति ईशानान्तेष्वेव 'अविरत्ताए' त्ति विप्रियकरणेऽप्यविरक्तया 'मणाणुकूलाए' त्ति देवस्थानेषु देव्य उत्पद्यन्ते सनत्कुमारादिषु पुनर्नेतिकृत्वा 'नो पतिमनसोऽनुकूलवृत्तिकया 'विउसमणकालसमयंसि' त्ति चेव णं देवीत्ताए' इत्युक्तं 'नो चेव णं देवत्ताए देवीत्ताए व' त्ति व्यवशमनं-पुंवेदविकारोपशमस्तस्य यः कालसमयः स तथा तत्र अनुत्तरविमानेष्वनन्तकृत्वो देवा नोत्पद्यन्ते देव्यश्च सर्वथैवेति रतावसान इत्यर्थः, इति भगवता पृष्टो गौतम आह-'ओरालं 'नो चेव ण' मित्याधुक्तमिति, 'अरित्ताए' ति सामान्यतः समणाउसो' त्ति, 'तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स कामभोगेहितो' शत्रुभावेन 'वेरियत्ताए' ति वैरिकः-शत्रुभावानुबन्धयुक्तस्तत्तया इहाग्रेतनः एत्तो' त्ति शब्दो योज्यते ततश्चैतेभ्य 'घायगत्ताए' त्ति मारकतया 'वहगत्ताए' त्ति व्यधकतया उक्तस्वरूपेभ्यो व्यन्तराणां देवानामनन्तगुणविशिष्टतया चैव ताडकतयेत्यर्थः ‘पडिणीयत्ताए' त्ति प्रत्यनीकतयाकामभोगा भवन्तीति, क्वचित्तु एत्तोशब्दो नाभिधीयते एवेति।। कार्योपघातकतया 'पच्चामित्तत्ताए' ति अमित्रसहायतया द्वादशशते षष्ठः॥१२-६॥ 'दासत्ताए' त्ति गृहदासीपुत्रतया 'पेसत्ताए' त्ति प्रेष्यतया आदेश्यतया 'भयगत्ताए' त्ति भृतकतया दुष्कालादौ पोषिततया सप्तम उद्देशकः 'भाइल्लगत्ताए' त्ति कृष्यादिलाभस्य भागग्राहकत्वेन अनन्तरोद्देशके चन्द्रादीनामतिशयसौख्यमुक्तं, ते च 'भोगपुरिसत्ताए' त्ति अन्यैरुपार्जितार्थानां भोगकारिनरतया लोकस्यांशे भवन्तीति लोकांशे जीवस्य जन्ममरणवक्तव्यताप्र 'सीसत्ताए' त्ति शिक्षणीयतया 'वेसत्ताए' ति द्वेष्यतयेति॥ रूपणार्थः सप्तमोद्देशक उच्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् द्वादशशते सप्तमः॥१२-७॥ १२/१३०. 'तेण' मित्यादि, 'परमाणुपोग्गलमेत्तेवि' त्ति इहापि सम्भावनायां 'अयासयस्स' त्ति षष्ठ्याश्चतुर्थ्यर्थत्वाद् अष्टम उद्देशकः अजाशताय 'अयावयं' ति अजाव्रजम् अजावाटकमित्यर्थः सप्तमे जीवानामुत्पत्तिश्चिन्तिता, अष्टमेऽपि सैव भङ्ग्यन्तरेण उक्कोसेणं अयासहस्सं पक्खिवेज्ज' त्ति यदिहाजाशतप्रायोग्ये चिन्त्यते, इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्वाटके उत्कर्षेणाजासहस्रप्रक्षेपणमभिहितं तत्तासामतिसङ्कीर्ण- १२/१५४. 'तेण' मित्यादि, 'बिसरीरेसु' त्ति द्वे शरीरे येषां ते तयाऽवस्थानख्यापनार्थमिति, 'पउरगोयराओ पउरपाणीयाओ' द्विशरीरास्तेषु, ये हि नागशरीरं त्यक्त्वा मनुष्यशरीरमवाप्य त्ति प्रचुरचरणभूमयः प्रचुरपानीयाश्च, अनेन च तासां सेत्स्यन्ति ते द्विशरीरा इति, 'नागेसु' त्ति सपेषु हस्तिषु वा प्रचुरमूत्रपुरीषसम्भवो बुभुक्षापिपासाविरहेण सुस्थतया 'तत्थ' त्ति नागजन्मनि यत्र वा क्षेत्रे जातः।। चिरंजीवित्वं चोक्तं 'नहेहि व' त्ति नखाः-खुराग्रभागास्तैः 'नो १२/१५५. 'अच्चिए' त्यादि, इहार्चितादिपदानां पञ्चानां कर्मधारयः चेव णं एयंसि एमहालयंसि लोगंसि' इत्यस्य 'अस्थि केइ तत्र चार्चितश्चन्दनादिना वन्दितः स्तुत्या पूजितः पुष्पादिना पमाणुपोग्गलमत्तेवि पएसे' इत्यादिना पूर्वोक्ताभिलापेन सत्कारितो-वस्त्रादिना सन्मानितः प्रतिपत्तिविशेषेण 'दिव्वे' त्ति सम्बन्धः, महत्त्वाल्लोकस्य, कथमिदमिति चेदत प्रधानः 'सच्चे' त्ति स्वप्नादिप्रकारेण तदुपदिष्टस्यावितथत्वात् आह-'लोगस्से' त्यादि क्षयिणो ह्येवं न संभवतीत्यत उक्तं 'सच्चोवाए' ति सत्यावपातः सफलसेव इत्यर्थः, कुत एतत् ? लोकस्य शाश्वतभावं प्रतीत्येति योगः, शाश्वतत्वेऽपि लोकस्य इत्याह-सन्निहियपाडिहेरे' ति सन्निहित-अदूरवर्त्ति प्रातिहार्य संसारस्य सादित्वे नैवं स्यादित्यनादित्वं तस्योक्तं, पूर्वसङ्गतिकादिदेवताकृतं प्रतिहारकर्म यस्य स तथा। नानाजीवापेक्षया संसारस्यानादित्वेऽपि विवक्षितजीव- १२/१५७,१५८. 'मणीसु' त्ति पृथिवीकायविकारेषु ‘लाउल्लोइयस्यानित्यत्वे नोक्तोऽर्थः स्यादतो जीवस्य नित्यत्वमुक्तं, महिए' त्ति 'लाइयं' ति छगणादिना भूमिकायाः संमृष्टीकरण Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४३५ 'उल्लोइयं' ति सेटिकादिना कुड्यानां धवलनं एतेनैव द्वयेन महितो यः स तथा एतच्च विशेषणं वृक्षस्य पीठापेक्षया, विशिष्टवृक्षा हि बद्धपीठा भवन्तीति ॥ १२/१५९. ‘गोलंगूलवसभे’ त्ति गोलाङ्गूलानां वानराणां मध्ये महान् स एव वा विदग्धो विदग्धपर्यायत्वाद्वृषभशब्दस्य एवं कुर्कुटवृषभोऽपि एवं मण्डूकवृषभोऽपि, 'निस्सील' त्ति समाधानरहिताः 'निव्वय' त्ति अणुव्रतरहिताः 'निग्गुण' त्ति गुणव्रतैः क्षमादिभिर्वा रहिताः 'नेरइयत्ताए उववज्जेज्जा' इति प्रश्नः, इह च 'उववज्जेज्जा इत्येतदुत्तरं तस्य चासम्भवमाशङ्कमानस्तत्परिहारमाह- 'समणे' इत्यादि, असम्भवश्चैवंयत्र समये गोलाङ्गूलादयो न तत्र समये नारकास्ते अतः कथं ते नारकतयोत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं स्याद् ? अत्रोच्यते - श्रमणो भगवान् महावीरो न तु जमाल्यादिः एवं व्याकरोति-यदुत उत्पद्यमानमुत्पन्नमिति वक्तव्यं स्यात्, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदाद्, अतस्ते गोलाङ्गूलप्रभृतयो नारकतयोत्पत्तुकामा नारका एवेतिकृत्वा सुष्ठुच्यते 'नेरइयत्ताए उववज्जेज्ज' त्ति, 'उस्सप्पिणिउद्देसए' त्ति सप्तमशतस्य षष्ठ इति ॥ द्वादशशतेऽष्टमः ॥ १२-८॥ परिशिष्ट - ५ : श. १२ : उ. ६ : सू. १५६-१७८ १२ / १६५. 'जे इमे' इत्यादि, 'चाउरंतचक्कवट्टि' त्ति चतुरन्ताया भरतादिपृथिव्या एते स्वामिन इति चातुरन्ताः चक्रेण वर्त्तनशीलत्वाच्चक्रवर्त्तिनस्ततः कर्म्मधारयः, चतुरन्तग्रहणेन च वासुदेवादीनां व्युदासः, ते यस्मादिति वाक्यशेषः 'उप्पन्न - समत्तचक्करयणप्पहाण' त्ति आर्षत्वान्निर्देशस्योत्पन्नं समस्तरत्नप्रधानं चक्रं येषां ते तथा 'सागरवरमेहलाहिवइणो' त्ति सागर एव वरा मेखला - काञ्ची यस्याः सा सागरवरमेखला -- पृथ्वी तस्या अधिपतयो ये ते तथा, सागरमेखलान्तपृथिव्यधिपतय इति भावः, 'सेव तेणद्वेणं' ति अथ 'तेनार्थेन' तेन कारणेन गौतम ! तान् प्रत्येवमुच्यते - नरदेवा इति । १२/१६६. ‘जे इमे’ इत्यादि, ये इमेऽनगारा भगवन्तस्ते यस्मादिति वाक्यशेषः ईर्यासमिता इत्यादि 'से तेणद्वेणं' ति अथ तेनार्थेन गौतम ! तान् प्रत्येवमुच्यते धर्मदेवा इति । १२/१६७. 'जे इमे' इत्यादि, ये इमेऽर्हन्तो भगवन्तस्ते यस्मादुत्पन्नज्ञानदर्शनधरा इत्यादि ‘से तेणट्टेणं' ति अथ तेनार्थेन तान् प्रति गौतम एवमुच्यते - देवातिदेवा इति । नवम उद्देशकः अष्टमोद्देशके देवस्य नागादिषूत्पत्तिरुक्ता नवमे तु देवा एव प्ररूप्यन्ते। इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्१२/१६३. 'कइविहा ण' मित्यादि, दीव्यन्ति-क्रीडां कुर्वन्ति दीव्यते वा - स्तूयन्ते वाऽऽराध्यतयेति देवाः 'भवियदव्वदेव' त्ति द्रव्यभूता देवा द्रव्यदेवाः, द्रव्यता चाप्राधान्याद्भूतभावित्वाद्भाविभावत्वाद्वा, तत्राप्राधान्याद्देवगुणशून्या देवा द्रव्यदेवा यथा साध्वाभासा द्रव्यसाधवः, भूतभावपक्षे तु भूतस्य देवत्वपर्यायस्य प्रतिपन्नकारणा भावदेवत्वाच्च्युता द्रव्यदेवाः, भाविभावपक्षे तु भाविनो देवत्वपर्यायस्य योग्या देवतयोत्पत्स्यमाना द्रव्यदेवाः, तत्र भाविभावपक्षपरिग्रहार्थंमाहभव्याश्च ते द्रव्यदेवाश्चेति भव्यद्रव्यदेवाः, 'नरदेव' त्ति नराणां मध्ये देवा-आराध्याः क्रीडाकान्त्यादियुक्ता वा नराश्च ते देवाश्चेति वा नरदेवाः, 'धम्मदेव' त्ति धर्मेण - श्रुतादिना देवा धर्मप्रधाना वा देवा धर्मदेवाः; 'देवाइदेव' त्ति देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद्देवा देवातिदेवाः, 'देवाहिदेव' त्ति क्वचिद्दृश्यते तत्र च देवानामधिकाः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद् देवा देवाधिदेवाः, 'भावदेव' त्ति भावेन-देवगत्यादिकर्मोदयजातपर्यायेण देवा भावदेवाः । १२/१६४. 'जे भविए' इत्यादि, इह जातौ एकवचनमतो बहुवचनार्थे व्याख्येयं ततश्च ये भव्याः - योग्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका वा मनुष्या वा देवेषूत्पत्तुं ते यस्माद्भाविदेवभावा इति गम्यं अथ ‘तेनार्थेन' तेन कारणेन हे गौतम! तान् प्रत्येवमुच्यतेभव्यद्रव्यदेवा इति । १२ / १६८. 'जे इमे' इत्यादि, ये इमे भवनपतयस्ते यस्माद्देवगतिनामगोत्रे कर्मणी वेदयन्ति अनेनार्थेन तान् प्रत्येवमुच्यतेभावदेवा इति । १२/१६९-१७७. एवं देवान् प्ररूप्य तेषामेवोत्पादं प्ररूपयन्नाह'भवियदव्वदेवा णं भंते!' इत्यादि, 'भेदो' त्ति 'जइ नेरइएहिंतो उववज्जंति किं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो' इत्यादि भेदो वाच्यः, जहा वक्कंतीए' ति यथा प्रज्ञापनाषष्ठपदे, नवरमित्यादि, 'असंखेज्जवासाउय' त्ति असङ्ख्यातवर्षायुष्काः कर्म्मभूमिजाः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्या असङ्ख्यातवर्षायुषामकर्म्मभूमिजादीनां साक्षादेव गृहीतत्वात् एतेभ्यश्चोद्वृत्ता भव्यद्रव्यदेवा न भवन्ति, भावदेवेष्वेव तेषामुत्पादात्, सर्वार्थसिद्धिकास्तु भव्यद्रव्यसिद्धा एव भवन्तीत्यत एतेभ्योऽन्ये सर्वे भव्यद्रव्यदेवतयोत्पादनीया इति, धम्र्मदेवसूत्रे 'नवर' मित्यादि, 'तम' त्ति षष्ठपृथिवी तत उद्धृत्तानां चारित्रं नास्ति, तथाऽधः सप्तम्यास्तेजसो वायोरसङ्ख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिजेभ्योऽकर्मभूमिजेभ्योऽन्तरद्वीपजेभ्यश्चोद्वृत्तानां मानुषत्वाभावान्न चारित्रं, ततश्च न धम्र्मदेवत्वमिति । देवाधिदेवसूत्रे 'तिसु पुढवीसु उववज्जंति' त्ति तिसृभ्यः पृथिवीभ्य उद्वृत्ता देवातिदेवा उत्पद्यन्ते 'सेसाओ खोडेयव्वाओ' त्ति शेषाः पृथिव्यो निषेधयितव्या इत्यर्थः ताभ्य उद्धृत्तानां देवातिदेवत्व - स्याभावादिति । 'भावदेवा ण' मित्यादि, इह च बहुतरस्थानेभ्य उद्धृत्ता भवनवासितयोत्पद्यन्ते असञ्ज्ञिनामपि तेषूत्पादाद् अत उक्तं 'जहा वक्कंती भवणवासीणं उववाओ' इत्यादि । अथ तेषामेव स्थितिं प्ररूपयन्नाह १२/१७८. 'भवियदव्वदेवाण" मित्यादि, 'जहन्नेणं' अंतोमुहुत्तं' ति अन्तर्मुहूर्त्तायुषः पञ्चेन्द्रियतिरश्चो देवेषूत्पादाद्भव्यद्रव्यदेवस्य Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १२ : उ. ६ : सू. १७६-१६७ ४३६ भगवती वृत्ति जघन्याऽन्तर्मुहूर्त्तस्थितिः, 'उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई' ति अथैतेषामेवान्तरं प्ररूपयन्नाहउत्तरकुर्वादिमनुजादीनां देवेष्वेवोत्पादात् ते च भव्यद्रव्यदेवाः १२/१९२. 'भवियदव्वदेवस्स णं भंते!' इत्यादि, 'जहन्नेणं दसवासतेषां चोत्कर्षतो यथोक्ता स्थितिरिति। सहस्साइं अंतोमुहुत्तमब्भहियाई' ति भव्यद्रव्यदेवस्यान्तरं १२/१७९. 'सत्त वाससयाई' ति यथा ब्रह्मदत्तस्य 'चउरासीपुव्व- जघन्येन दशवर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि, कथं ?, भव्यसयसहस्साई' ति यथा भरतस्य। द्रव्यदेवो भूत्वा दशवर्षसहस्रस्थितिषु व्यन्तरादिषूत्पद्य च्युत्वा १२/१८०. धर्मदेवानां 'जहन्नेणं अंतोमुहृत्त' ति योऽन्तुर्मुहुर्तावशेषायुर- शुभपृथिव्यादौ गत्वाऽन्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनर्भव्यद्रव्यदेव चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिदं, 'उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी' ति एवोपजायत इत्येवं, एतच्च टीकामुपजीव्य व्याख्यातं, इह तु यो देशोनपूर्वकोट्यायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिति, ऊनता कश्चिदाह-ननु देवत्वाच्च्युतस्यानन्तरमेव भव्यद्रव्यदेवच पूर्वकोट्या अष्टाभिर्वर्षेः अष्टवर्षस्यैव प्रव्रज्याहत्वात्, यच्च तयोत्पत्तिसम्भवाद्दशवर्षसहस्राण्येव जघन्यतस्तस्यान्तरं षड्वर्षस्त्रिवर्षों वा प्रव्रजितोऽतिमुक्तको वैरस्वामी वा भवत्यतः कथमन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि तान्युक्तानि इति, तत्कादाचित्कमिति न सूत्रावतारीति। अत्रोच्यते-सर्वजघन्यायुर्देवश्च्युतः सन् शुभपृथिव्यादिषूत्पद्य १२/१८१. देवातिदेवानां 'जहन्नेणं बावत्तरिं वासाई ति भव्यद्रव्यदेवेषूत्पद्यत इति टीकाकारमतमवसीयते, तथा च श्रीमन्महावीरस्येव 'उक्कोसेणं चउरासीइ पुव्वसयसहस्साई' यथोक्तमन्तरं भवतीति, अन्ये पुनराहुः-इह बद्धायुरेव ति ऋषभस्वामिनो यथा। भव्यद्रव्यदेवोऽभिप्रेतस्तेन जघन्यस्थितिकाद्देवत्वाच्च्युत्वाऽन्त१२/१८२. भावदेवानां 'जहन्नेणं दस वाससहस्साई' ति यथा मुहूर्त्तस्थितिकभव्यद्रव्यदेवत्वेनोत्पन्नस्यान्तर्मुहूत्तोपरि देवायुषो व्यन्तराणां 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई' ति यथा बन्धनाद् यथोक्तमन्तरं भवतीति, अथवा भव्यद्रव्यदेवस्य सर्वार्थसिद्धदेवानां॥ जन्मनोर्मरणयोर्वाऽन्तरस्य ग्रहणाद् यथोक्तमन्तरमिति। १२/१८३. अथ तेषामेव विकुर्वणां प्ररूपयन्नाह-'भवियव्वदव्वदेवा ण' १२/१९३. 'नरदेवाण' मित्यादि, 'जहन्नेणं साइरेगं सागरोवमं ति, मित्यादि 'एगत्तं पभू विउव्वित्तए' त्ति भव्यद्रव्यदेवो मनुष्यः कथम् ?, अपरित्यक्तसङ्गाश्चक्रवर्त्तिनो नरकपृथिवीषूत्पद्यन्ते, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वा वैक्रियलब्धिसम्पन्नः 'एकत्वम्' एकरूपं तासु च यथास्वमुत्कृष्टस्थितयो भवन्ति, ततश्च नरदेवो मृतः 'प्रभुः' समर्थो विकुर्वयितुं 'पुहुत्तं' ति नानारूपाणि। प्रथमपृथिव्यामुत्पन्नस्तत्र चोत्कृष्टां स्थिति सागरोपम१२/१८४. देवातिदेवास्तु सर्वथा औत्सुक्यवर्जितत्वान्न विकुर्वते प्रमाणानुभूय नरदेवो जातः, इत्येवं सागरोपमं, सातिरेकत्वं च शक्तिसद्भावेऽपीत्यत उच्यते--'नो चेव ण' मित्यादि, 'संपत्तीए' नरदेवभवे चक्ररत्नोत्पत्तेरर्वाचीनकालेन द्रष्टव्यं, उत्कृष्टतस्तु त्ति वैक्रियरूपसम्पादनेन, विकुर्वणशक्तिस्तु विद्यते, तल्लब्धि- देशोनं पुद्गलपरावर्द्धि, कथं?, चक्रवर्तित्वं हि सम्यग्दृष्टय एव मात्रस्य विद्यमानत्वात्।। निर्वर्त्तयन्ति, तेषां च देशोनापार्द्धपुद्गलपरावर्त्त एव संसारो अर्थ तेषामेवोद्वर्त्तनां प्ररूपयन्नाह भवति, तदन्त्यभवे च कश्चिन्नरदेवत्वं लभत इत्येवमिति॥ १२/१८५. 'भवियदव्वे' त्यादि, इह च भविकद्रव्यदेवानां भाविदेव- १२/१९४. 'धम्मदेवस्स ण' मित्यादि, 'जहन्नेणं पलिओवमहत्तं' ति भवस्वभावत्वान्नारकादिभवत्रयनिषेधः। कथं?, चारित्रवान् कश्चित् सौधर्मे पल्योपमपृथक्त्वायुष्केषूत्पद्य १२/१८६. नरदेवसूत्रे तु 'नेरइएसु उववज्जति' त्ति अत्यक्तकामभोगा ततश्च्युतो धर्मदवत्वं लभत इत्येवमिति, यच्च मनुजत्वे नरदेवा नैरयिकेषूत्पद्यन्ते शेषत्रये तु तन्निषेधः, तत्र च यद्यपि उत्पन्नश्चारित्रं विनाऽऽस्ते तदधिकमपि सत् पल्योपमपृथक्त्वेकेचिच्चक्रवर्त्तिनो देवेषूत्पद्यन्ते तथाऽपि ते नरदेवत्वत्यागेन ऽन्तर्भावितमिति। धर्मदेवत्वप्राप्ताविति न दोषः, १२/१९६. 'भावदेवस्स ण' मित्यादि, 'जहन्नेणं अंतोमुहृत्तं' ति, कथं?, १२/१९०. 'जहा वक्कंतीए असुरकुमाराणां उव्वट्टणा तहा भाणियव्व' भावदेवश्च्युतोऽन्तर्मुहूर्तमन्यत्र स्थित्वा पुनरपि भावदेवो जात त्ति असुरकुमारा बहुषु जीवस्थानेषु गच्छन्तीतिकृत्वा तैरतिदेशः इत्येवं जघन्येनान्तर्मुहूर्तमन्तरमिति॥ कृतः असुरादयो हीशानान्ताः पृथिव्यादिष्वपि गच्छन्तीति।। अथैतेषामेवाल्पबहुत्वं प्ररूपयन्नाहअथ तेषामेवानुबन्धं प्ररूपयन्नाह १२/१९७. 'एएसि णं' मित्यादि, 'सव्वत्थोवा नरदेव' त्ति भरतैरवतेषु १२/१९१. 'भवियदव्वदेवे ण' मित्यादि, 'भवियदव्वदेवेइ' त्ति भव्य- प्रत्येकं द्वादशानामेव तेषामुत्पत्तेर्विजयेषु च वासुदेवसम्भवात् द्रव्यदेव इत्यमुं पर्यायमत्यजन्नित्यर्थः 'जहन्नेणमंतोमुहृत्त' मित्यादि सर्वेष्वेकदाऽनुत्पत्तेरिति। 'देवाइदेवा संखेज्जगुण' ति भरतादिषु पूर्ववदिति। एवं जहेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणावि' त्ति एवम्' अनेन प्रत्येकं तेषां चक्रवर्तिभ्यो द्विगुणतयोत्पत्तेर्विजयेषु च वासुदेवोन्यायेन यैव "स्थितिः' भवस्थितिः प्राग वर्णिता सैवैषां पेतेष्वप्युत्पत्तेरिति। 'धम्मदेवा संखेज्जगुण' त्ति साधूनामेकदाऽपि संस्थितिरपि तत्पर्यायानुबन्धोऽपीत्यर्थः, विशेषं त्वाह- 'नवर' कोटीसहस्रपृथक्त्वसद्भावादिति, 'भवियदव्वदेवा असंखेज्जगुण' मित्यादि, धर्मदेवस्य जघन्येनैकं समयं स्थितिः अशुभभावं गत्वा त्ति देशविरतादीनां देवगतिगामिनाम-सङ्ख्यातत्वात्, ‘भावदेवा ततो निवृत्तस्य शुभभावप्रतिपत्तिसमयानन्तरमेव मरणादिति॥ असंखेज्जगुण' त्ति स्वरूपेणैव तेषामतिबहुत्वादिति॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत् अथ भावदेवविशेषाणां भवनपत्यादीनामल्पबहुत्वप्ररूपणायाह१२/१९८. 'एएसि ण' मित्यादि, 'जहा जीवाभिगमे तिविहे' इत्यादि, इह च 'तिविहे' त्ति त्रिविधजीवाधिकार इत्यर्थः देवपुरुषाणामल्पबहुत्वमुक्तं तथेहापि वाच्यं तच्चैवं - 'सहस्सारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा महासुक्के असंखेज्जगुणा लंतए असंखेज्जगुणा बंभलोए देवा असंखेज्जगुणा माहिदे देवा असंखेज्जगुणा सणकुमारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा ईसाणे देवा असंखेज्जगुणा सोहम्मे देवा संखेज्जगुणा भवणवासिदेवा असंखेज्जगुणा वाणमंतरा देवा असंखेज्जगुण' त्ति || द्वादशशते नवमः ॥ १२-९॥ दशम उद्देशकः नवमोद्देशके देवा उक्तास्ते चात्मन इत्यात्मस्वरूपस्य भेदतो निरूपणाय दशमोद्देकशमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम् - १२/२००. 'कइविहा ण' मिति, 'आय' त्ति अतति-सन्ततं गच्छति अपरापरान् स्वपरपर्यायानित्यात्मा, अथवा अतधातोर्गमनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वादतति - सन्ततमवगच्छति उपयोगलक्षणत्वादित्यात्मा, प्राकृतित्वाच्च सूत्रे स्त्रीलिङ्गनिर्देशः, तस्य चोपयोगलक्षणत्वात्सामान्येनैकविधत्वेऽप्युपाधिभेदादष्टधात्वं, तत्र 'दवियाय' त्ति द्रव्यं-त्रिकालानुगाम्युपसर्जनीकृतकषायादिपर्यायं तद्रूप आत्मा द्रव्यात्मा सर्वेषां जीवानां, 'कसायाय' त्ति क्रोधादिकषायविशिष्ट आत्मा कषायात्मा अक्षीणानुपशान्तकषायाणां, ‘जोगाय' त्ति योगा - मनः प्रभृति - व्यापारास्तत्प्रधान आत्मा योगात्मा योगवतामेव, 'उवओगाय' त्ति उपयोगः - साकारानाकारभेदस्तत्प्रधान आत्मा उपयोगात्मा सिद्धसंसारिस्वरूपः सर्वजीवानां, अथवा विवक्षितवस्तूपयोगापेक्षयोपयोगात्मा, 'नाणाय' त्ति ज्ञानविशेषित उपसर्जनीकृतदर्शनादिरात्मा ज्ञानात्मा सम्यग्दृष्टेः एवं दर्शनात्मादयोऽपि नवरं दर्शनात्मा सर्वजीवानां, चारित्रात्मा विरतानां, वीर्य - उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणामिति, उक्तञ्च“जीवानां द्रव्यात्मा ज्ञेयः सकषायिणां कषायात्मा । योगः सयोगिनां पुनरुपयोगः सर्वजीवानाम् ॥ १ ॥ ज्ञानं सम्यग्दृष्टेर्दर्शनमथ भवति सर्वजीवानाम् । चारित्रं विरतानां तु सर्वसंसारिणां वीर्यम् ॥ २ ॥ ' इति ॥ एवमष्टधाऽऽत्मानं प्ररूप्याथ यस्यात्मभेदस्य यदन्यदात्मभेदान्तरं युज्यते च न युज्यते च तस्य तद्दर्शयितुमाह१२ / २०१. 'जस्स ण' मित्यादि, इहाष्टौ पदानि स्थाप्यन्ते, तत्र प्रथमपदं शेषः सप्तभिः सह चिन्त्यते, तत्र यस्य जीवस्य 'द्रव्यात्मा' द्रव्यात्मत्वं जीवत्वमित्यर्थः तस्य कषायात्मा 'स्यादस्ति' कदाचिदस्ति सकषायावस्थायां 'स्यान्नास्ति' १. यद्यपि प्रशमरतौ 'जीवाजीवानां द्रव्यात्मा सकषायिणां कषायात्मेति पाठः व्याख्याद्वये च तथैव विवरणं तथैवोल्लेखोऽन्यत्रापि, तथापि अभियुक्तैरेष पाठोऽभिमतोऽत्र, न चाशङ्क्यं लेखकदूषणं यतः प्रागत्रैव प्रतिपादने ४३७ परिशिष्ट - ५ : श. १२ : उ. १० : सू. १६८ - २०४ कदाचिन्नास्ति क्षीणोपशान्तकषायावस्थायां यस्य पुनः कषायात्माऽस्त तस्य द्रव्यात्मा द्रव्यात्मत्वं जीवत्वं नियमादस्ति, जीवत्वं विना कषायाणामभावादिति । १२ / २०२ तथा यस्य द्रव्यात्मा तस्य योगात्माऽस्ति, योगवतामिव, नास्ति चायोगिसिद्धानामिव तथा यस्य योगात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति, जीवत्वं विना योगानामभावात् । एतदेव पूर्वसूत्रोपमानेन दर्शयन्नाह १२ / २०३. एवं जहा दवियाये' त्यादि । तथा यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य नियमादुपयोगात्मा, यस्याप्युपयोगात्मा तस्य नियमाद्द्रव्यात्मा, एतयोः परस्परेणाविनाभूतत्वाद् यथा सिद्धस्य तदन्यस्य च द्रव्यात्माऽस्त्युपयोगात्मा चोपयोगलक्षणत्वाज्जीवानां, एतदेवाह - 'जस्स दवियाये' त्यादि । तथा 'जस्स दवियाया तस्स नाणीया भयणाए जस्स पुण नाणाया तस्स दवियाया नियमं अस्थि त्ति यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृष्टीनां स्यान्नास्ति थ मिथ्यादृष्टीनामित्येवं भजना, यस्य तु ज्ञानात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति, यथा सिद्धस्येति । 'जस्स दवियाया तस्स दंसणाया नियमं अत्थि' त्ति यथा सिद्धस्य केवलदर्शनं 'जस्सवि दंसणाया तस्स दवियाया नियमं अत्थि' त्ति यथा चक्षुर्दर्शनादिदर्शनवतां जीवत्वमिति, तथा 'जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए' त्ति यतः सिद्धस्याविरतस्य वा द्रव्यात्मत्वे सत्यपि चारित्रात्मा नास्ति विरतानां चास्तीति भजनेति, 'जस्स पुण चरिताया तस्स दवियाया नियमं अस्थि' त्ति चारित्रिणां जीवत्वाव्यभिचारित्वादिति, एवं वीरियातेवि समं' ति यथा द्रव्यात्मनश्चारित्रात्मना सह भजनोक्ता नियमश्चैवं वीर्यात्मनाऽपि सहेति, तथाहि यस्य द्रव्यात्मा तस्य वीर्यात्मा नास्ति, यथा सकरणवीयपेक्षया सिद्धस्य तदन्यस्य त्वस्तीति भजना, वीर्यात्मनस्तु द्रव्यात्माऽस्त्येव यथा संसारिणामिति ७ || अथ कषायात्मना सहान्यानि षट् पदानि चिन्त्यन्ते१२/२०४. 'जस्स ण' मित्यादि, यस्य कषायात्मा तस्य योगात्माऽस्त्येव, नहि सकषायोऽयोगी भवति, यस्य तु योगात्मा तस्य कषायात्मा स्याद्वा न वा सयोगानां सकषायाणामकषायाणां च भावादिति, 'एवं उवओगाया, एवी' त्यादि, अयमर्थः -यस्य कषायात्मा तस्योपयोगात्माऽवश्यं भवति, उपयोगरहितस्य कषायाणामभावात्, यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य कषायात्मा भजनया, उपयोगात्मतायां सत्यामपि कषायिणामेव कषायात्मा भवति निष्कषायाणां तु नासाविति भजनेति, तथा 'कसायाया य नाणाया य परोप्परंदोवि भइयव्वाओ' त्ति, कथम् ?, यस्य कषायात्मा तस्य सर्वजीवानां द्रव्यात्मेति व्याख्यान्तमन्यथा व्याख्यास्यन् द्रव्यात्मा जीवाजीवानामिति, न चोच्यते सूत्रकृभिः कषायादिभिः सहवृत्तिता नियमः । जीवप्रकरणमनुसरद्भिस्त्यक्ता वाऽजीवा अभियुक्तैः स्युः । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ : श. १२ : उ. १० : सू. २०५ ज्ञानात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, यतः कषायिणः सम्यग्दृष्टेर्ज्ञानात्माऽस्ति मिथ्यादृष्टेस्तु तस्य नास्त्यसाविति भजना, तथा यस्य ज्ञानात्मास्ति तस्य कषायात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, ज्ञानिनां कषायभावात् तदभावाच्चेति भजनेति, 'जहा कसायाया उवओगाया य तहा कसायाया य दंसणाया य' त्ति अतिदेशः, तस्माच्चेदं लब्धं - 'जस्स कसायाया तस्स दंसणाया नियमं अत्थि' दर्शनरहितस्य घटादेः कषायात्मनोऽभावात् 'जस्स पुण दंसणाया तस्स कसायाया सिय अत्थि सिय नत्थि' दर्शनवतां कषायसद्भावात्तदभावाच्चेति, दृष्टान्तार्थस्तु प्राक् प्रसिद्ध एवेति, 'कसायाया य चरिताया य दोवि परोप्परं भइयव्वाओ' त्ति भजना चैवं-यस्य कषायात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, कथं ?, कषायिणां चारित्रस्य सद्भावात् प्रमत्तयतीनामिव तदभावाच्चासंयतानामिवेति तथा यस्य चारित्रात्मा तस्य कषायात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, कथं ?, सामायिकादिचारित्रिणां कषायाणां भावाद् यथाख्यातचारित्रिणां च तदभावादिति, 'जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया वीरियाया य भाणियव्वाओ' ति दृष्टान्तः प्राक् प्रसिद्धः, दाष्टन्तिकस्त्वेवं-यस्य कषायात्मा तस्य वीर्यात्मा नियमादस्ति, न हि कषायवान् वीर्यविकलोऽस्ति, यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य कषायात्मा भजनया, यतो वीर्यवान् सकषायोऽपि स्याद् यथा संयतः अकषायोऽपि स्याद् यथा केवलीति ६ । अथ योगात्माऽग्रेतनपदैः पञ्चभिः सह चिन्तनीयस्तत्र च लाघवार्थमतिदिशन्नाह-' एवं जहा कसायायाए वत्तव्वया भणिया तहा जोगायाएव उवरिमाहिं समं भाणियव्व' त्ति, सा चैवम् - यस्य योगात्मा तस्योपयोगात्मा नियमाद् यथा सयोगानां यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति यथा सयोगानां स्यान्नास्ति यथाऽयोगिनां सिद्धानां चेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यग्दृष्टीनामिव स्यान्नास्ति मिथ्यादृष्टीनामिव यस्य ज्ञानात्मा तस्यापि योगात्मा स्यादस्ति सयोगिनामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिवेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव योगिनामिव यस्य च दर्शनात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति योगवतामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिव तथा यस्य योगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति विरतानामिव स्यान्नास्त्यविरतानामिव यस्यापि चारित्रात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति सयोगचारित्रवतामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिवेति । ४३८ वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यते - 'जस्स चरित्ताया तस्स जोगाया नियम' त्ति तत्र च चारित्रस्य प्रत्युपेक्षणादिव्यापाररूपस्य विवक्षितत्वात्तस्य च योगाविनाभावित्वात् यस्य चारित्रात्मा तस्य योगात्मा नियमादित्युच्यत इति, तथा यस्य योगात्मा तस्य वीर्यात्माऽस्त्येव योगसद्भावे वीर्यस्यावश्यम्भावात्, यस्य तु वीर्यात्मा तस्य योगात्मा भजनया यतो वीर्यविशेषवान् भगवती वृत्ति सयोग्यपि स्याद् यथा सयोगकेवल्यादिः अयोग्यपि स्याद् यथाऽयोगिकेवलीति ५ ॥ अथोपयोगात्मना सहान्यानि चत्वारि चिन्त्यन्ते तत्रातिदेशमाह- 'जह दवियाये' त्यादि, एवं च भावना कार्या-यस्योपयोगात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृशां यस्य च ज्ञानात्मा तस्यावश्यमुपयोगात्मा सिद्धानामिवेति १ तथा यस्योपयोगात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव यस्यापि दर्शनात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्वेव यथा सिद्धादीनामिवेति २, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति यथा संयतानामसंयतानां च, यस्य तु चारित्रात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्येवेति यथा संयतानां ३, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव, यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्येव संसारिणामिवेति ४ । अथ ज्ञानात्मना सहान्यानि त्रीणि चिन्त्यन्ते - 'जस्स नाणे' त्यादि, तत्र यस्य ज्ञानात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव सम्यग्दृशामिव यस्य च दर्शनात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृशामत एवोक्तं 'भयणाए' त्ति १, तथा 'जस्स नाणाया तस्स चरित्ताया सिय अत्थि' त्ति संयतानामिव 'सिय नत्थि' त्ति असंयतानामिव 'जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया नियमं अत्थि' त्ति ज्ञानं विना चारित्रस्याभावादिति २, तथा 'णाणाये' त्यादि अस्यार्थःयस्य ज्ञानात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति केवल्यादीनामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव यस्यापि वीर्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यग्दृष्टेरिव स्यान्नास्ति मिथ्यादृश इवेति ३ || अथ दर्शनात्मना सह द्वे चिन्त्येते - 'जस्स दंसणाये' त्यादि, भावना चास्य यस्य दर्शनात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति संयतानामिव स्यान्नास्त्यसंयतानामिव यस्य च चारित्रात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव साधूनामिवेति ?, तथा यस्य दर्शनात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव यस्य च वीर्यात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्वेव संसारिणामिवेति २ ॥ अथान्तिमपदयोर्योजना- 'जस्स चरिते' त्यादि, चारित्रात्मा तस्य वीर्यात्माऽस्त्वेव, वीर्यं विना चारित्रस्याभावात्, यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति साधूनामिव स्यान्नास्त्यसंयतामिवेति ॥ अधुनैषामेवात्मनामल्पबहुत्वमुच्यते १२/२०५. 'सव्वत्थोवाओ चरित्तायाओ' त्ति चारित्रिणां सङ्ख्यातत्वात् 'णाणायाओ अनंतगुणाओ' त्ति सिद्धादीनां सम्यग्दृशां चारित्रेभ्योऽनन्तगुणत्वात् 'कसायाओ अनंतगुणाओ' त्ति सिद्धेभ्यः कषायोदयवतामनन्तगुणत्वात् 'जोगायाओ विसेसाहियाओ' त्ति अपगतकषायोदयैर्योगवद्भिरधिका इत्यर्थः यस्य Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४३६ परिशिष्ट-५ : श. १२ : उ. १० : सू. २०६-२२६ 'वीरियायाओ विसेसाहियाओ' त्ति अयोगिभिरिधिका इत्यर्थः, नियम एवोपनीयते न व्यभिचारो, यथेहैव दर्शने, यत्र तु अयोगिनां वीर्यवत्त्वादिति, 'उवओगदवियदसणायाओ तिण्णिवि विपर्ययोऽस्ति तत्र व्यभिचारो नियमश्च यथा ज्ञाने, आत्मा तुल्लाओ विसेसाहियाओ' त्ति परस्परापेक्षया तुल्याः, सर्वेषां ज्ञानरूपोऽज्ञानरूपश्चेति व्यभिचारः, ज्ञानं त्वात्मैवेति नियम सामान्यजीवरूपत्वात्, वीर्यात्मभ्यः सकाशादुपयोगद्रव्य- इति।। दर्शनात्मानो विशेषाधिका यतो वीर्यात्मानः सिद्धाश्च मीलिता आत्माधिकाराद्रत्नप्रभादिभावानात्मत्वादिभावेन चिन्तयन्नाहउपयोगाद्यात्मानो भवन्ति, ते च वीर्यात्मभ्यः सिद्धराशि- १२/२११. 'आया भंते!' इत्यादि, अतति-सततं गच्छति तांस्तान् नाऽधिका भवन्तीति, भवन्ति चात्र गाथाः पर्यायानित्यात्मा ततश्चात्मा सद्रूपा रत्नप्रभा पृथिवी 'अन्न' त्ति "कोडीसहस्सपुहृत्तं जईण तो थोवियाओ चरणाया। अनात्मा असपेत्यर्थः 'सिय आया सिय नोआय' त्ति स्यात्सती णाणायाऽणंतगुणा पडुच्च सिद्धे य सिद्धाओ॥१॥ स्यादसती 'सिय अवत्तव्वं' ति आत्मत्वेनानात्मत्वेन च होति कसायायाओऽणंतगुणा जेण ते सरागाणं। व्यपदेष्टुमशक्यं वस्त्विति भावः, कथमवक्तव्यम् ? जोगाया भणियाओ अयोगिवज्जाण तो अहिया॥२॥ इत्याह-आत्मेति च नोआत्मेति च वक्तुमशक्यमित्यर्थः। जं सेलेसिगयाणवि लद्धी विरियं तओ समहियाओ। १२/२१२. 'अप्पणो आइडे' त्ति आत्मनः-स्वस्य रत्नप्रभाया एवं उवओगदवियदसण सव्वजिया णं ततो अहिया॥३॥' इति॥ वर्णादिपर्यायः 'आदिष्टे' आदेशे सति तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थः अथात्मन एव स्वरूपनिरूपणायाह आत्मा भवति, स्वपर्यायापेक्षया सतीत्यर्थः, 'परस्स आइडे १२/२०६. 'आया भंते! नाणे' इत्यादि, आत्मा ज्ञानं योऽयमात्माऽसौ नोआय' त्ति परस्य शर्करादिपृथिव्यन्तरस्य पर्यायैरादिष्टै ज्ञानं न तयोर्भेदः अथात्मनोऽन्यज्ज्ञानमिति प्रश्नः, उत्तरं आदेशे सति तैय॑पदिष्टा सतीत्यर्थः नोआत्मा-अनात्मा भवति, तु-आत्मा स्याज्ज्ञानं सम्यक्त्वे सति मत्यादिज्ञानस्व- पररूपापेक्षयाऽसतीत्यर्थः, 'तदुभयस्स आइट्ठे अवत्तव्वं' ति भावत्वात्तस्य, स्यादज्ञानं मिथ्यात्वे सति तस्य मत्यज्ञानादि- तयोः-स्वपरयोरुभयं तदेव वोभयं तदुभयं तस्य पर्यायैरादिष्टेस्वभावत्वात्, ज्ञानं पुनर्नियमादात्मा आत्मधर्मत्वाज्ज्ञानस्य, न आदेशे सति तदुभयपर्यायैर्व्यपदिष्टेत्यर्थः 'अवक्तव्यम्' अवाच्यं च सर्वथा धर्मो धर्मिणो भिद्यते, सर्वथा भेदे हि विप्रकृष्टगुणिनो वस्तु स्यात्, तथाहि-न ह्यसौ आत्मेति वक्तुं शक्या, गुणमात्रोपलब्धौ प्रतिनियतगुणिविषय एवं संशयो न स्यात्, परपर्यायापेक्षयाऽनात्मत्वात्तस्याः, नाप्यनात्मेति वक्तुं शक्या, तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदाविशेषात्, दृश्यते च यदा स्वपर्यायापेक्षया तस्या आत्मत्वादिति, अवक्तव्यत्वं कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखा-विसररन्ध्रोदरान्तरतः किमपि चात्मानात्मशब्दापेक्षयैव न तु सर्वथा, अवक्तव्यशब्देनैव तस्या शुक्लं पश्यति तदा किमियं पताका किमियं बलाका? इत्येवं उच्यमानत्वाद्, अनभिलाप्यभावानामपि भावपदार्थप्रतिनियतगुणिविषयोऽसौ, नापि धर्मिणो धर्मः सर्वथैवाभिन्नः, वस्तुप्रभृतिशब्दरनभिलाग्यशब्देन, वाऽभिलाप्यत्वादिति। सर्वथैवाभेदे हि संशयानुत्पत्तिरेव, गुणग्रहणत एव गुणिनोऽपि एवं परमाणुसूत्रमपि॥ गृहीतत्वादतः कथञ्चिदभेदपक्षमाश्रित्य ज्ञानं पुनर्नियमा- १२/२१८,२१९. द्विप्रदेशिकसूत्रे षड् भङ्गाः, तत्राद्यास्त्रयः दात्मेत्युच्यत इति, इह चात्मा ज्ञानं व्यभिचरति ज्ञानं त्वात्मानं सकलस्कन्धापेक्षाः पूर्वोक्ता एव तदन्ये तु त्रयो देशापेक्षाः। तत्र न व्यभिचरति खदिरवनस्पतिवदिति सूत्रगर्भार्थ इति॥ च 'गोयमे' त्यत आरभ्य व्याख्यायते-'अप्पणो' त्ति स्वस्य अमुमेवार्थं दण्डके निरूपयन्नाह पर्यायैः 'आदिद्वे' त्ति आदिष्टे-आदेशे सति आदिष्ट इत्यर्थः १२/२०८. 'आये' त्यादि, नारकाणां 'आत्मा' आत्मस्वरूपं ज्ञानं द्विप्रदेशिकस्कन्ध आत्मा भवति १ एवं परस्य उतान्यन्नारकाणां ज्ञानं ? तेभ्यो व्यतिरिक्तमित्यर्थः इति प्रश्नः, पर्यायैरादिष्टोऽनात्मा २ तदुभयस्य-द्विप्रदेशिकस्कन्धउत्तरं तु आत्मा नारकाणां स्याज्ज्ञानं सम्यग्दर्शनभावात् तदन्यस्कन्धलक्षणस्य पर्यायैरादिष्टोऽसाववक्तव्यं वस्तु स्यात्, स्यादज्ञानं मिथ्यादर्शनभावात्, ज्ञानं पुनः 'से' त्ति कथम् ?, आत्मेति चानात्मेति चेति ३। तथा द्विप्रदेशत्वात्तस्य तन्नारकसम्बन्धि आत्मा न तद्व्यतिरिक्तमित्यर्थः। देश एक आदिष्टः, सद्भावप्रधानाः-सत्तानुगताः पर्यवा यस्मिन् १२/२०९. 'आया भंते! पुढविक्काइयाण' मित्यादि, 'आत्मा' स सद्भावपर्यवः, अथवा तृतीयाबहुवचनमिदं स्वपर्यवैरित्यर्थः, आत्मस्वरूपमज्ञानमुतान्यत्तत्तेषां? उत्तरं तु-आत्मा द्वितीयस्तु देश आदिष्टः असद्भावपर्यवः परपर्यायरित्यर्थः, तेषामज्ञानरूपो नान्यत्तत्तेभ्य इति भावार्थः । एवं दर्शनसूत्राण्यपि, परपर्यवाश्च तदीयद्वितीयदेशसम्बन्धिनो वस्त्वन्तरसम्बन्धिनो नवरं सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टयोदर्शनस्याविशिष्टत्वादात्मा दर्शनं वेति, ततश्चासौ द्विप्रदेशिकः स्कन्धः क्रमेणात्मा चेति दर्शनमप्यात्मैवेति वाच्यं, यत्र हि धर्मे विपर्ययो नास्ति तत्र नोआत्मा चेति ४, तथा तस्य देश आदिष्टः सदावपर्यवो १. यतीनां कोटीसहस्रपृथक्त्वं ततः स्तोकाश्चरणात्मानः ज्ञाना- अयोगिवा यतो भणिताः।।२।। यच्छैलेशीगतानामपि लब्धिवीर्य त्मानोऽनन्तगुणाः सिद्धाः सिद्धान् प्रतीत्य॥१॥ कषायात्मानोऽ- ततस्ते समधिकाः। उपयोगद्रव्यदर्शनात्मानः सर्वे अनन्तगुणा भवन्ति यतस्ते सरागाणां ततो योगात्मानोऽधिका जीवास्ततोऽधिकाः॥३॥ सपनाह Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५:श. १२ : उ. १०: सू. २२०-२२५ ४४० भगवती वृत्ति देशश्चोभयपर्यवस्ततोऽसावात्मा चावक्तव्यं चेति ५, तथा प्रदेशावगाढत्वादिहेतुनैकत्वविवक्षणात्, भेदविवक्षायां च बहुतस्यैव देश आदिष्टोऽसद्भावपर्यवो देशस्तूभयपर्यवस्ततोऽसौ वचनमिति। नोआत्मा चावक्तव्यं च स्यादिति ६, सप्तमः पुनरात्मा च १२/२२२,२२३. चतुष्प्रदेशिकेऽप्येवं नवरमेकोनविंशतिर्भङ्गाः, तत्र नोआत्मा चावक्तव्यं चेत्येवंरूपो न भवति द्विप्रदेशिके त्रयः सकलादेशाः तथैव शेषेषु चतुर्दा प्रत्येकं चत्वारो व्यंशत्वादस्य त्रिप्रदेशिकादौ तु स्यादिति सप्तभङ्गी।। विकल्पाः , ते चैवं चतुर्थादिषु त्रिषु- AAR १२/२२०,२२१. त्रिप्रदेशिकस्कन्धे तु त्रयोदश भङ्गास्तत्र पूर्वोक्तेषु सप्तमस्त्वेवम्-20 सप्तस्वाद्याः सकलादेशास्त्रयस्तथैव, तदन्येषु तु त्रिषु त्रयस्त्रय १२/२२४,२२५. पञ्चप्रदेशिके तु द्वाविंशतिस्तत्राद्यास्त्रयस्तथैव, एकवचनबहुवचनभेदात्, सप्तमस्त्वेकविध एव, स्थापना चेयम् तदुत्तरेषु च त्रिषु प्रत्येकं चत्वारो विकल्पास्तथैव, सप्तमे तु सप्त, तत्र त्रिकसंयोगे किलाष्टौ भङ्गका भवन्ति, तेषु च सप्तैवेह ग्राह्या htan-h ano एकस्तु तेषु न पतत्यसम्भवात्, इदमेवाह-'तिगसंजोगे' त्यादि, तत्रैतेषां स्थापना- यश्च न पतति स पुनरयम् २२२ षट्प्रदेशिके त्रयोविंशतिरिति॥ hanaras annr rand द्वादशशते दशमः॥१२-१०॥ समाप्तं च द्वादशशतविवरणम्॥१२॥ गम्भीररूपस्य महोदधेर्यत्पोतः परं पारमुपैति मन। यच्चेह प्रदेशद्वयेऽप्येकवचनं क्वचित्तत्तस्य प्रदेशद्वयस्यैक गतावशक्तोऽपि निजप्रकृत्या, कस्याप्यदृष्टस्य विजृम्भितं तत॥१॥ अव १ आ१ | नो १ | अव नो १ आ १ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति अथ त्रयोदशं शतकम् ४४१ प्रथम उद्देशकः व्याख्यातं द्वादशं शतं तत्र चानेकधा जीवादयः पदार्था उक्ताः, त्रयोदशशतेऽपि त एव भङ्ग्यन्तरेणोच्यन्त इत्येवंसम्बन्धमिदं व्याख्यायते, तत्र पुनरियमुद्देशकसङ्ग्रहगाथा 'पुढवी' त्यादि, 'पुढवी' ति नरकपृथिवीविषयः प्रथमः १, 'देव' त्ति देवप्ररूपणार्थी द्वितीयः २ 'अणंतर' त्ति अनन्तराहारा नारका इत्याद्यर्थः प्रतिपादनपरस्तृतीयः ३, 'पुढवि' त्ति पृथिवीगतवक्तव्यताप्रतिबद्धश्चतुर्थः ४, 'आहारे' त्ति नारकाद्याहारप्ररूपणार्थः पञ्चमः ५, 'उववाए' त्ति नारकाद्युपपातार्थः षष्ठः ६, 'भास' त्ति भाषार्थः सप्तमः ७ 'कम्म' त्ति कर्म्मप्रकृतिरूपणार्थोऽष्टमः ८, 'अणगारे केयाघडिय' त्ति अनगारो - भावितात्मा लब्धिसामर्थ्यात् 'केयाघडिय' ति रज्जुबद्धघटिकाहस्तः सन् विहायसि व्रजेदित्याद्यर्थप्रतिपादनार्थो नवमः ९, 'समुग्धाए' त्ति समुद्घातप्रतिपादनार्थो दशम इति । तत्र प्रथमोद्देशके किंञ्चिल्लिख्यते १३/३. 'केवइया काउलेसा उववज्जंति' त्ति रत्नप्रभापृथिव्यां कापोतलेश्या एवोत्पद्यन्ते न कृष्णलेश्यादय इति कापोतलेश्यानेवाश्रित्य प्रश्नः कृत इति । 'केवइया कण्हपक्खिए' इत्यादि, एषां च लक्षणमिदं'जेसिमवड्डो पोग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु अहिगे पुण कण्हपक्खीया ॥ १ ॥' (येषामपार्धः पुद्गलपरावर्त्तः शेषः संसारः । शुक्लपाक्षिकाः खलु अधिके पुनः कृष्णपाक्षिकाः ॥ १ ॥ ) इति । 'चक्खुदंसणी न उववज्जंति' त्ति इन्द्रियत्यागेन तत्रोत्पत्तेरिति, तर्हि अचक्षुर्दर्शनिनः कथमुत्पद्यन्ते ?, उच्यते, इन्द्रियानाश्रितस्य सामान्योपयोगमात्रस्याचक्षुर्दर्शनशब्दाभिधेयस्योत्पादसमयेऽपि भावादचक्षुर्दर्शनिन उत्पद्यन्त इत्युच्यत इति, ' इत्थीवेयगे' त्यादि, स्त्रीपुरुषवेदा नोत्पद्यन्ते भवप्रत्ययान्नपुंसकवेदत्वात्तेषां, 'सोइंदियओवउत्ता' इत्यादि श्रोत्राद्युपयुक्ता नोत्पद्यन्ते इन्द्रियाणां तदानीमभावात् 'नोइंदिओवउत्ता उववज्जंति' त्ति नोइन्द्रियं मनस्तत्र च यद्यपि मनः पर्याप्त्यभावे द्रव्यमनो नास्ति तथाऽपि भावमनसश्चैतन्यरूपस्य सदा भावात्तेनोपयुक्तानामुत्पत्तेर्नोइन्द्रियोपयुक्ता उत्पद्यन्त इत्युच्यत इति, 'मणजोगी' त्यादि मनोयोगिनो वाग्योगिनश्च नोत्पद्यन्ते, परिशिष्ट - ५ : श. १३ : उ. १ : सू. ३-८ उत्पत्तिसमयेऽपर्याप्तकत्वेन मनोवाचोरभावादिति, 'कायजोगी उववज्जंति' त्ति सर्वसंसारिणां काययोगस्य सदैव भावादिति ॥ अथ रत्नप्रभानारकाणामेवोद्वर्त्तनामभिधातुमाह १३ / ४. 'इमीसे ण' मित्यादि, 'असन्नी न उववट्टंति' त्ति उद्वर्त्तना हि परभवप्रथमसमये स्यात् न च नारका असञ्जिषूत्पद्यन्तेऽस्तेऽसञ्ज्ञिनः सन्तो नोद्वर्त्तन्त इत्युच्यते, एवं 'विभंगनाणी न उववट्टंती' त्यपि भावनीयं, शेषाणि तु पदान्युत्पादवद्व्याख्येयानि, उक्तञ्च चूर्ण्याम् 'असन्निणो य विब्भंगिणो य उव्वट्टणाइ वज्जेज्जा । च दोसुवि य चक्खुदंसणी मणवइ तह इंदियाई वा ॥ १ ॥' इति ॥ अनन्तरं रत्नप्रभानारकाणामुत्पादे उद्वर्त्तनायां परिणाममुक्तमथ तेषामेव सत्तायां तदाह१३ / ५. 'इमीसे ण' मित्यादि, 'केवइया अणंतरोववन्नग' त्ति कियन्तः प्रथमसमयोत्पन्नाः ? इत्यर्थः 'परंपरोववन्नग' त्ति उत्पत्तिसमयापेक्षया द्व्यादिसमयेषु वर्त्तमानाः 'अणंतरावगाढ' ति विवक्षितक्षेत्रे प्रथमसमयावगाढाः 'परंपरोगाढ' त्ति विवक्षितक्षेत्रे द्वितीयादिकः समयोऽवगाढे येषां ते परम्परावगाढाः 'केवइया चरिम' त्ति चरमो नारकभवेषु स एव भवो येषां ते चरमाः, नारकभवस्य वा चरमसमये वर्त्तमानाश्चरमाः, अचरमास्त्वितरे, 'असन्नी सिय अत्थि सिय नत्थि' त्ति असञ्ज्ञिभ्य उद्धृत्य ये नारकत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामसञ्ज्ञिनो भूतभावत्वात्ते चाल्पा इति कृत्वा 'सिय अत्थी' त्याद्युक्तं, मानमायालोभकषायोपयुक्तानां नोइन्द्रियोपयुक्तानामनन्तरोपपन्नानामनन्तरावगाढाना - मनन्तराहारकाणामनन्तरपर्याप्तकानां कादाचित्कत्वात् 'सिय अत्थि' इत्यादि वाच्यं, शेषाणां तु बहुत्वात्सङ्ख्याता इति वाच्यमिति ॥ च अनन्तरं सङ्ख्यातविस्तृतनरकावासनारकवक्तव्यतोक्ता, अथ तद्विपर्ययवक्तव्यतामभिधातुमाह १३/६. ‘इमीसे ण' मित्यादि, 'तिन्नि गमग' त्ति 'उववज्जंति उव्वट्टेति पन्नत्त' त्ति एते त्रयो गमाः, 'ओहिनाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा उव्वट्टावेयव्व' त्ति, कथं ?, ते हि तीर्थङ्करादय एव भवन्ति, ते च स्तोकाः स्तोकत्वाच्च सङ्ख्याता एवेति । १३ / ७. 'नवरं असन्नी तिसुवि गमएसु न भन्नति' कस्मात् ?, उच्यते - असञ्ज्ञिनः प्रथमायामेवोत्पद्यन्ते 'असन्नी खलु पढमं ' इति वचनादिति । १३ / ८. 'णाणत्तं लेसासु लेसाओ जहा पढमसए' त्ति, इहाद्य पृथिवीद्वयापेक्षया तृतीयादिपृथिवीषु नानात्वं लेश्यासु भवति, ताश्च यथा प्रथमशते तथाऽध्येयाः, तत्र च सङ्ग्रहगाथेयं'काऊ दोसु तइयाइ मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमिया मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥ १ ॥ ' (द्वयोः कापोता तृतीयायां मिश्रा चतुर्थ्यां नीला । पञ्चम्यां मिश्रा कृष्णा ततः परमकृष्णा ॥ १ ॥ ) इति । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति। परिशिष्ट-५:श. १३ : उ. २: सू. ६-३३ ४४२ भगवती वृत्ति १३/९. 'नवरं ओहिनाणी ओहिदसणी य न उववज्जंति' त्ति तीर्थकरादित्वालाभात् तीर्थकरादीनामेवावधिमतामुद्वृत्तेः, कस्मात् ?, उच्यते, ते हि प्रायस्तीर्थकरा एव, ते च चतुर्थ्या 'पण्णत्तएसु तहेव' त्ति 'प्रज्ञप्तकेषु' प्रज्ञप्तपदोपलक्षितउद्धृत्ता नोत्पद्यन्त इति। गमाधीतेष्वसुरकुमारेषु तथैव यथा प्रथमोद्देशके। 'कोहकसाई' १३/१२. 'जाव अपइट्ठाणे' त्ति इह यावत्करणात् 'काले महाकाले इत्यादि, क्रोधमानमायाकषायोदयवन्तो देवेषु कादाचित्का अत रोरुए महारोरुए' त्ति दृश्यम्, इह च मध्यम एव सङ्ख्येयविस्तृत उक्तं 'सिय अत्थी' त्यादि, लोभकषायोदयवन्तस्तु सार्वदिका अत उक्तं 'संखेज्जा लोभकसाई पन्नत्त' त्ति, 'तिसुवि गमएसु १३/१३. 'नवरं तिसु णाणेसु न उववज्जति न उव्वद्वृति' त्ति चत्तारि लेसाओ भाणियव्वाओ' त्ति 'उववज्जति उव्वम॒ति सम्यक्त्वभ्रष्टानामेव तत्रोत्पादात् तत उद्वर्त्तनाच्चाद्येषु त्रिषु पन्नत्ता' इत्येवंलक्षणेषु त्रिष्वपि गमेषु चतस्रो लेश्याज्ञानेषु नोत्पद्यन्ते नापि चोद्वर्त्तन्त इति ‘पन्नत्ताएसु तहेव अत्थि' स्तेजोलेश्यान्ता भणितव्याः, एता एव हि असुरकुमारादीनां त्ति एतेषु पञ्चसु नरकावासेषु कियन्त आभिनिबोधिकज्ञानिनः भवन्तीति। श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च प्रज्ञप्ताः ? इत्यत्र तृतीयगमे तथैव- १३/२८. 'जत्थ जत्तिया भवण' त्ति यत्र निकाये यावन्ति भवनलक्षाणि प्रथमादिपृथिवीष्विव सन्ति, तत्रोत्पन्नानां सम्यग्दर्शनलाभे तत्र तावन्त्युच्चारणीयानि, यथाआभिनिबोधिकादिज्ञानत्रयभावादिति।। 'चउसट्ठी असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीई। अथ रत्नप्रभादिनारकवक्तव्यतामेव सम्यग्दृष्ट्यादीनाश्रित्याह- बावत्तरि कणगाणं वाउकुमाराण छन्नउई॥१॥ १३/१४-१७. 'इमीसे ण' मित्यादि, 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिंदथणियमग्गीणं। उववज्जति' त्ति 'न सम्ममिच्छो कुणइ काल' (सम्यग्मिथ्यादृग् जुयलाणं पत्तेयं छावत्तरिमो सयसहस्सा॥२॥' न करोति कालम्) मिति वचनात् मिश्रदृष्टयो न म्रियन्ते नापि (असुराणां चतुःषष्टि गकुमाराणां चतुरशीतिर्भवन्ति द्वासप्ततिः तद्भवप्रत्ययं तेषामवधिज्ञानं स्यात् येन मिश्रदृष्टयः सन्तस्ते कनकानां षण्णवतिर्वायुकुमाराणाम्॥१॥ द्वीपदिग्उदधिविद्युत्उत्पद्येरन्, 'सम्मामिच्छदिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया विरहिया कुमारेन्द्रस्तनिताग्नीनां युगलानां प्रत्येकं षट्सप्ततिव' त्ति कादाचित्कत्वेन तेषां विरहसम्भवादिति।। लक्षाः ।।२।।) इति। अथ नारकवक्तव्यतामेव भङ्ग्यन्तरेणाह १३/२९. व्यन्तरसूत्रे 'संखेज्जवित्थड' त्ति, इह गाथा-- १३/१८. 'से नूण' मित्यादि, 'लेसट्ठाणेसु' त्ति लेश्याभेदेषु 'जंबुद्दीवसमा खलु उक्कोसेणं हवंति ते नगरा। 'संकिलिस्समाणेसु' त्ति अविशुद्धिं गच्छत्सु 'कण्हलेसं खुड्डा खेत्तसमा खलु विदेहसमगा उ मज्झिमगा॥१॥' परिणमइ' त्ति कृष्णलेश्यां याति ततश्च 'कण्हलेसे' त्यादि। (उत्कृष्टेन जम्बूद्वीपसमानि तानि नगराणि भरतसमानि १३/२१. 'संकिलिस्समाणेसु वा विसुद्धमाणेसु व' त्ति क्षुल्लानि विदेहसमानि मध्यमानि॥१॥) इति। प्रशस्तलेश्यास्थानेषु अविशुद्धिं गच्छत्सु अप्रशस्तलेश्यास्थानेषु १३/३१. ज्योतिष्कसूत्रे सङ्ख्यातविस्तृता विमानावासाः 'एगसट्ठिभागं च विशुद्धिं गच्छत्सु, नीललेश्यां परिणमतीति भावः ।। काऊण जोयण' मित्यादिना ग्रन्थेन प्रमातव्याः 'नवरं एगा त्रयोदशशते प्रथमः॥१३.१॥ तेउलेस्स' त्ति व्यन्तरेषु लेश्याचतुष्टयमुक्तमेतेषु तु तेजोलेश्यैवैका वाच्या, तथा 'उववज्जतेसु पन्नत्तेसु य असन्नी द्वितीय उद्देशकः नत्थि' त्ति व्यन्तरेष्वसजिन उत्पद्यन्त इत्युक्तमिह तु तन्निषेधः प्रथमोद्देशके नारका उक्ताः द्वितीये त्वौपपातिकत्वसाधम्यद्दिवा प्रज्ञप्तेष्वपीह तन्निषेध उत्पादाभावादिति। उच्यन्ते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम् १३/३२,३३. सौधर्मसूत्रे 'ओहिनाणी' ततश्च्युता यतस्तीर्थकरादयो १३/२६. 'कइविहे' त्यादि, 'संखेज्जवित्थडावि असंखेज्जवित्थडावि' भवन्त्यतोऽवधिज्ञानादयश्च्यावयितव्याः 'ओहिनाणी त्ति इह गाथा ओहिदसणी य संखेज्जा चयंति' त्ति सङ्ख्यातानामेव 'जंबुद्दीवसमा खलु भवणा जे हुंति सव्वखुड्डागा। तीर्थकरादित्वेनोत्पादादिति। 'छ गमग' त्ति उत्पादादयस्त्रयः संखेन्जवित्थडा मज्झिमा उ सेसा असंखेज्जा॥१॥ सङ्ख्यातविस्तृतानाश्रित्य अत एव च त्रयोऽसङ्ख्यात(यानि सर्वक्षुल्लानि भवनानि तानि जम्बूद्वीपसमानि भवन्ति विस्तृतानाश्रित्य एवं षड् गमाः, 'नवरं इत्थिवेयगे' त्यादि, मध्यमानि सङ्खयेयविस्तृतानि शेषाणि त्वसङ्ख्येय- स्त्रियः सनत्कुमारादिषु नोत्पद्यन्ते न च सन्ति उद्वृत्तौ तु स्युः विस्तृतानि॥१॥)' इति। 'असन्नी तिसुवि गमएसु न भन्नइ' त्ति सनत्कुमारादिदेवानां १३/२७. 'दोहिवि वेदेहिं उववज्जंति' त्ति द्वयोरपि सज्ज्ञिभ्य एवोत्पादेन च्युतानां च सजिष्वेव गमनेन स्त्रीपुंवेदयोरुत्पद्यन्ते, तयोरेव तेषु भावात्, 'असण्णी उव्वद्वृति' गमत्रयेष्वसज्ञित्वस्याभावादिति। ‘एवं जाव सहस्सारे' त्ति त्ति असुरादीशानान्तदेवानामसजिष्वपि पृथिव्यादिषूत्पादात्, सहस्रारान्तेषु तिरश्चामुत्पादेनासङ्ख्यातानां त्रिष्वपि गमेषु 'ओहिनाणी ओहिदंसणी य न उव्वटुंति' त्ति असुराधुद्वत्तानां भावादिति। ‘णाणत्तं विमाणेसु लेसासु य' त्ति तत्र विमानेषु Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४४३ नानात्वं 'बत्तीसअट्ठवीसे' त्यादिना ग्रन्थेन समवसेयं, लेश्यासु पुनरिदं 'तेऊ १ तेऊ २ तहा तेउ पम्ह ३ पम्हा ४ य पम्हसुक्का य ५ । सुक्का ६ परमसुक्का ७ सुक्काइविमाणवासीणं ॥ १ ॥ ' (तेजः १ तेजः २ तथा तेजः ३ पद्मा च ४ पद्मशुक्ला च ५ शुक्ला च ६ परमशुक्ला ७ शुक्रादिविमानवासिनां ( लेश्या ) ॥ १ ॥ ) इति इह च सर्वेष्वपि शुक्रादिदेवस्थानेषु परमशुक्लेति । १३/३४. आनतादिसूत्रे 'संखेज्जवित्थडेसु' इत्यादि, उत्पादेवस्थाने च्यवने च सङ्ख्यातविस्तृतत्वाद्विमानानां सङ्ख्याता एव भवन्तीति भावः, असङ्ख्यातविस्तृतेषु पुनरुत्पादच्यवनयोः सङ्ख्याता एव, यतो गर्भजमनुष्येभ्य एवानतादिषूत्पद्यन्ते ते च सङ्ख्याता एव, तथाऽऽनतादिभ्यश्च्युता गर्भजमनुष्येष्वेवोत्पद्यन्तेऽतः समयेन सङ्ख्यातानामे-वोत्पादच्यवनसम्भवः, अवस्थितिस्त्वसङ्ख्यातानामपि स्यादसङ्ख्यातजीवितत्वेनैकदैव जीवितकालेऽसङ्ख्यातानामुत्पादादिति । 'पन्नत्तेसु असंखेज्जा नवरं नोइंदिओवउत्ते' त्यादि प्रज्ञप्तकगमेऽसङ्ख्येया वाच्याः केवलं नोइंद्रियोपयुक्तादिषु पञ्चसु पदेषु सङ्ख्याता एव, तेषामुत्पादावसर एव भावाद्, उत्पत्तिश्च सङ्ख्यातानामेवेति दर्शितं प्रागिति । १३/३५. 'पंच अणुत्तरोववाइय' त्ति तत्र मध्यमं सङ्ख्यातविस्तृतं योजनलक्षप्रमाणत्वादिति । १३/३६. 'नवरं कण्हपक्खिए ' त्यादि, इह सम्यग्दृष्टीनामेवोत्पादात् कृष्णपाक्षिकादिपदानां गमत्रयेऽपि निषेधः, 'अचरिमावि खोडिज्जंति' त्ति येषां चरमोऽनुत्तरदेवभवः स एव ते चरमास्तदितरे त्वचरमास्ते च निषेधनीयाः, यतश्चरमा एव मध्यमे विमाने उत्पद्यन्त इति । 'असंखेज्जवित्थडेसुवि एए न भन्नंति' ति इहैते कृष्णपाक्षिकादयः 'नवरं अचरिमा अस्थि' यतो बाह्यविमानेषु पुनरुत्पद्यन्त इति । 'तिन्नि आलावग' ति सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टिविषया इति । १३ / ३९. 'नवरं तिसुवि आलावगेसु' इत्यादि, उप्पत्तीए चवणे पन्नत्तालावए य मिथ्यादृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च न वाच्यः, अनुत्तरसुरेषु तस्यासम्भवादिति ।। त्रयोदशशते द्वितीयः ॥१३-२॥ तृतीय उद्देशकः अनन्तरोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, देवाश्च प्रायः परिचारणावन्त इति परिचारणानिरूपणार्थं तृतीयोद्देशकमाह, तस्य चेदमादि सूत्रम् १३ /४०. 'नेरइया ण' मित्यादि, 'अणंतराहार' त्ति उपपातक्षेत्रप्राप्तिसमय एवाहारयन्तीत्यर्थः, 'तओ निव्वत्तणय' त्ति ततः शरीरनिर्वृत्तिः ' एवं परियारणे' त्यादि, परिचारणापदंप्रज्ञापनायां चतुस्त्रिंशत्तमं तच्चैवं- 'तओ परियाइयणया तओ परिशिष्ट - ५ : श. १३ : उ. ३, ४ : सू. ३४-४३ परिणामणया तओ परियारणया तओ पच्छा विउव्वणया ?, हंता गोयमा' इत्यादि, 'तओ परियाइयणय' त्ति ततः पर्यापानम्अङ्गप्रत्यङ्गैः समन्तादापानमित्यर्थः 'तओ परिणामणय' त्ति तत आपीतस्य-उपात्तस्य परिणतिरिन्द्रियादिविभागेन 'तओ परियारणय' त्ति ततः शब्दादिविषयोपभोग इत्यर्थः 'तओ पच्छा विउव्वणय' त्ति ततो विक्रिया नानारूपा इत्यर्थ इति || त्रयोदशशते तृतीयः ॥ १३-३॥ चतुर्थ उद्देशकः अनन्तरोद्देशके परिचारणोक्ता, सा च नारकादीनां भवतीति नारकाद्यर्थप्रतिपादनार्थं चतुर्थोद्देशकमाह । तस्य चेदमादिसूत्रम्१३ / ४२. 'कइ ण' मित्यादि, इह च द्वारगाथे क्वचिद् दृश्येते, तद्यथा'नेरइय १ फास २ पणिही ३ निरयंते ४ चेव लोयमज्झे य ५ । दिसिविदिसाण य पवहा ६ पवत्तणं अत्थिकाएहिं ७ ॥ १ ॥ अत्थी पएसफुसणा ८ ओगाहणया य जीवमोगाढा । अत्थि पएसनिसीयण बहुस्समे लोगसंठाणे ॥२॥' इति, अनयोश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति । १३ / ४३. 'महंततरा चेव' त्ति आयामतः 'विच्छिन्नतरा चेव' त्ति विष्कम्भतः 'महावासतरा चेव' त्ति अवकाशो-बहूनां विवक्षितद्रव्याणामवस्थानयोग्यं क्षेत्रं महानवकाशो येषु ते महावकाशाः अतिशयेन महावकाशा महावकाशतराः, ते च महाजनसङ्कीर्णा अपि भवन्तीत्यत उच्यते 'महापइरिक्कतरा चेव' त्ति महत्प्रतिरिक्तं - विजनमतिशयेन येषु ते तथा 'नो तहा महापवेसणतरा चेव' त्ति 'नो' नैव 'तथा' तेन प्रकारेण यथा षष्ठपृथिवीनरका अतिशयेन महत्प्रवेशनं गत्यन्तरान्नरकगतौ जीवानां प्रवेशो येषु ते तथा, षष्ठपृथिव्यपेक्षयाऽसङ्ख्यगुणहीनत्वात्तन्नारकाणामिति, नोशब्द उत्तरपदद्वयेऽपि सम्बन्धनीयः, यत एव नो महाप्रवेशनतरा अत एव 'नो आइन्नतरा चेव' त्ति नात्यन्तमाकीर्णाः सङ्कीर्णा नारकैः 'नो आउलतरा चेव' त्ति इतिकर्त्तव्यतया ये आकुला नारकलोकास्तेषामतिशयेन योगादाकुलतरास्ततो नोशब्दयोगः किमुक्तं भवति ?'अणोमाणतरा चेव' त्ति अतिशयेनासङ्कीर्णा इत्यर्थः क्वचित्पुनरिदमेवं दृश्यते- 'अणोयणतरा चेव' त्ति तत्र चानोदनतराः व्याकुलजनाभावादतिशयेन परस्परं नोदनवर्जिता इत्यर्थः 'महाकम्मतर' त्ति आयुष्कवेदनीयादिकर्म्मणां महत्त्वात् 'महाकिरियतर' त्ति कायिक्यादिक्रियाणां महत्त्वात् तत्काले काय महत्त्वात्पूर्वकाले च महारम्भादित्वाद् अत एव महाश्रवतरा इति 'महावेयणतर' त्ति महाकर्मत्वात्, 'नो तहे' त्यादिना निषेधतस्तदेवोक्तं, विधिप्रतिषेधतो वाक्यप्रवृत्तेः, नोशब्दश्चेह प्रत्येकं सम्बन्धनीयः पदचतुष्टय इति, तथा 'अप्पड्डियतर' ति अवध्यादिऋद्धेरल्पत्वात् 'अप्पज्जुइयतर' त्ति दीप्तेरभावात् एतदेव व्यतिरेकेणोच्यते - 'नो तहा महड्डिए' इत्यादि, नोशब्दः पदद्वयेऽपि सम्बन्धनीयः ॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ :श. १३ : उ. ४ : सू. ४४-५६ ४४४ भगवती वृत्ति १३/४४. स्पर्शद्वारे 'एवं जाव वणस्सइफासं' ति यावत्करणा- तिर्यग्लोकमध्ये प्रज्ञप्तः स सामर्थ्यात्तिर्यग्लोकायाममध्यं तेजस्कायिकस्पर्शसूत्रं वायुकायिकस्पर्शसूत्रं च सूचितं, तत्र च भवत्येवेति, किम्भूतोऽसावष्टप्रदेशिको रुचकः ? इत्याह-'जओ कश्चिदाह-ननु सप्तस्वपि पृथिवीषु तेजस्कायिकवर्जपृथिवी- णं इमाओ' इत्यादि, तस्य चेयं स्थापनाकायिकादिस्पर्शो नारकाणां युक्तः येषां तासु विद्यमानत्वात् बादरतेजसां तु समयक्षेत्र एव सद्भावात् सूक्ष्मतेजसां पुनस्तत्र सद्भावेऽपि स्पर्शनेन्द्रियाविषयत्वादिति, अत्रोच्यते, इह तेजस्कायिकस्येव परमाधार्मिकविनिर्मितज्वलनसदृशवस्तुनः स्पर्शः तेजस्कायिकस्पर्श इति व्याख्येयं न तु साक्षात्तेजस्कायिकस्यैव असंभवात् अथवा भवान्तरानुभूततेजस् कायिकपर्यायपृथिवीकायिकादिजीवस्पशपिक्षयेदं व्याख्येयमिति। दिगविदिक्प्रवहद्वारे 'किमाइय' ति क आदिः-प्रथमो यस्याः सा १३/४५. प्रणिधिद्वारे 'पणिहाय' त्ति प्रणिधाय-प्रतीत्य 'सव्वमहंतिय' किमादिका आदिश्च विवक्षया विपर्ययेणापि स्यादित्यत आह त्ति सर्वथा महती अशीतिसहस्राधिकयोजनलक्षप्रमाणत्वाद्र- 'किंपवह' त्ति प्रवहति-प्रवर्तत अस्मादिति प्रवहः कः प्रवहो त्नप्रभाबाहल्यस्य शर्कराप्रभाबाहल्यस्य च द्वात्रिंश- यस्याः सा तथा 'कतिपएसाइय' त्ति कति प्रदेशा आदिर्यस्याः त्सहस्राधिकयोजनलक्षमानत्वात् 'सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु' त्ति सा कतिप्रदेशादिका 'कतिपएसुत्तर' त्ति कतिप्रदेशा उत्तरे-वृद्धौ सर्वथा लघ्वी 'सन्तेिषु' पूर्वापरदक्षिणोत्तरविभागेषु, यस्याः सा तथा 'लोगं पडुच्च मुरजसंठिय' त्ति लोकान्तस्य आयामविष्कम्भाभ्यां रज्जुप्रमाणत्वाद्रत्नप्रभायास्ततो परिमण्डलाकारत्वेन मुरजसंस्थानता दिशः स्यात्ततश्च लोकान्तं महत्तरत्वात् शर्कराप्रभायाः, ‘एवं जहा जीवाभिगमे' इत्यादि, प्रतीत्य मुरजसंस्थितेत्युक्तं, एतस्य च पूर्वां दिशमाश्रित्य अनेन च यत्सूचितं तदिदं-'हंता गोयमा! इमा णं रयणप्पभा चूर्णिकारकृतेयं भावना-'पुव्वुत्तराए पएसहाणीए तहा पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय जाव सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु। दोच्चा दाहिणपुव्वाए रुयगदेसे मुरजहेटुं दिसि अंते चउप्पएसा दट्ठव्वा णं भंते! पुढवी तच्चं पुढविं पणिहाय सव्वखुड्डिया जाव सव्वंतेसु, मज्झे य तुंडं हवई' त्ति, एतस्य चेयं स्थापनाएवं एएणं अभिलावेणं जाव छट्ठिया पुढवी अहे सत्तमं पुढविं पणिहाय जाव सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु' त्ति।। १३/४६. निरयान्तद्वारे 'निरयपरिसामंतेसु' त्ति निरयावासानां पार्श्वत इत्यर्थः 'जहा नेरइयउद्देसए' त्ति जीवाभिगमसम्बन्धिनि, तत्र चैवमिदं सूत्रम्-'आउक्काइया तेउक्काइया वाउक्काइया वणस्सइकाइया, ते णं जीवा महाकम्मतरा चेव जाव महावेयणतरा चेव?, हंता गोयमा!' इत्यादि। १३/४८,४९. लोकमध्यद्वारे 'चउत्थीए पंकप्पभाए' इत्यादि, रुचकस्याधो नवयोजनशतान्यतिक्रम्याधोलोको भवति 'अलोगं पडुच्च सगडुद्धिसंठिय' त्ति रुचके तु तुण्डं कल्पनीयं लोकान्तं यावत्, स च सातिरेकाः सप्त रज्जवस्तन्मध्यभागः आदौ संकीर्णत्वात् तत उत्तरोत्तरं विस्तीर्णत्वादिति। चतुर्थ्याः पञ्चम्याश्च पृथिव्या यदवकाशान्तरं तस्य १३/५३. 'एगपएसविच्छिन्न' त्ति, कथम् ? अत आह-'अणुत्तर' त्ति सातिरेकमर्द्धमतिवाह्य भवतीति, तथा रुचकस्योपरि वृद्धिवर्जिता यत इति। नवयोजनशतान्यतिक्रम्योद्धलोको व्यपदिश्यते लोकान्तमेव १३/५६. प्रवर्त्तनद्वारे 'आगमणगमणे' इत्यादि, आगमनगमने प्रतीते यावत्। स च सप्त रज्जवः किञ्चिन्न्यूनास्तस्य च भाषा-व्यक्तवचनं 'भाष व्यक्तायां वाचि' इति वचनात् मध्यभागप्रतिपादनायाह-'उप्पिं सणंकुमारमाहिंदाणं कप्पाण' उन्मेषः--अक्षिव्यापारविशेषः मनोयोगवाग्योगकाययोगाः मित्यादि। प्रतीता एव तेषां च द्वन्द्वस्ततस्ते, इह च मनोयोगादयः १३/५०. तथा 'उवरिमहेट्ठिल्लेसु खुड्डागपयरेसु' त्ति लोकस्य सामान्यरूपाः आगमनादयस्तु तद्विशेषा इति भेदेनोपात्ताः, वज्रमध्यत्वाद्रत्नप्रभाया रत्नकाण्डे सर्वक्षुल्लकं प्रतरद्वयमस्ति, भवति च सामान्यग्रहणेऽपि विशेषग्रहणं तत्स्वरूपोपदर्शनार्थतयोश्चोपरिमो यत आरभ्य लोकस्योपरिमुखा वृद्धिः 'हेट्ठिल्ले' मिति, जे यावन्ने तहप्पगार' त्ति 'ये चाप्यन्ये' त्ति अधस्तनो यत आरभ्य लोकस्याधोमुखा वृद्धिः आगमनादिभ्योऽपरे तथाप्रकाराः' आगमनादिसदृशाः तयोरुपरिमाधस्तनयोः 'खुड्डागपयरेसु' त्ति क्षुल्लकप्रतरयोः भ्रमणचलनादयः 'चला भाव' त्ति चलस्वभावाः पर्यायाः सर्वे ते सर्वलघुप्रदेशप्रतरयोः ‘एत्थ णं' ति प्रज्ञापकेनोपायतः प्रदर्श्यमाने धर्मास्तिकाये सति प्रवर्त्तन्ते, कुत? इत्याह-'गइलक्खणे णं तिर्यग्लोकमध्येऽष्टप्रदेशको रुचकः प्रज्ञप्तः, यश्च धम्मत्थिकाए' त्ति।' Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति १३/५७. 'ठाणनिसीयणतुयट्टण' त्ति कायोत्सर्गासनशयनानि प्रथमाबहुवचनलोपदर्शनात्, तथा मनसश्चानेकत्वस्यैकत्वस्य भवनमेकत्वीभावस्तस्य यत्करणं तत्तथा । १३/५८. 'आगासत्थिकाएण' मित्यादि, जीवद्रव्याणां चाजीवद्रव्याणां च भेदेन भाजनभूतः अनेन चेदमुक्तं भवति - एतस्मिन् सति जीवादीनामवगाहः प्रवर्त्तते एतस्यैव प्रश्नितत्वादिति, भाजनभावमेवास्य दर्शयन्नाह - 'एगेणवी' त्यादि, एकेन - परमाण्वादिना 'से' त्ति असौ आकाशास्तिकायप्रदेश इति गम्यते 'पूर्णः ' भृतस्तथा द्वाभ्यामपि ताभ्यामसौ पूर्णः कथमेतत् ? उच्यते, परिणामभेदात् यथाऽपवरकाकाशमेकप्रदीपप्रभापटलेनापि पूर्यते द्वितीयमपि तत्तत्र माति यावच्छतमपि तेषां तत्र माति, तथैौषधिविशेषापादितपरिणामादेकत्र पारदकर्षे सुवर्णकर्षशतं प्रविशति, पारदकर्षीभूतं च सदौषधिसामर्थ्यात् पुनः पारदस्य कर्षः सुवर्णस्य च कर्षशतं भवति विचित्रत्वात्पुद्गल - परिणामस्येति, 'अवगाहणालक्खणे णं ति इहावगाहना आश्रयभावः । १३/५९. 'जीवत्थिकाएण' मित्यादि, जीवास्तिकायेनेति अन्तर्भूतभावप्रत्ययत्वाज्जीवास्तिकायत्वेन जीवतयेत्यर्थः भदन्त ! जीवानां किं प्रवर्त्तते ? इति प्रश्नः, उत्तरं तु प्रतीतार्थमेवेति । १३/६०. 'पोग्गलत्थिकाएण' मित्यादि, इहौदारिकादिशरीराणां श्रोत्रेन्द्रियादीनां मनोयोगान्तानामानप्राणानां च ग्रहणं प्रवर्त्तते इति वाक्यार्थः, पुद्गलमयत्वादौदारिकादीनामिति । अस्तिकायप्रदेशस्पर्शद्वारे १३/६१. 'एगे भंते! धम्मत्थिकायप्पएसे' इत्यादि, 'जहन्नपए तिहिं ' ति जघन्यपदं लोकान्तनिष्कुटरूपं यत्रैकस्य धर्मास्तिकायादिप्रदेशस्यातिस्तोकैरन्यैः स्पर्शना भवति तच्च भूम्यासन्नापवरककोणदेशप्रायं इहोपरितनेनैकेन द्वाभ्यां च पार्श्वत एको विवक्षितः प्रदेशः स्पृष्टः, एवं जघन्येन त्रिभिरिति । 'उक्कोसपए छहिं' ति विवक्षितस्यैक उपर्येकोऽधस्तनश्चत्वारो दिक्षु इत्येवं पद्भिरिदं च प्रतरमध्ये, स्थापना च - : । 'जहन्नपदे चउहिं' ति धर्मास्तिकाय प्रदेशो जघन्यपदेऽधर्मास्तिकायप्रदेशैश्चतुर्भिः स्पृष्ट इति कथं ?, तथैव त्रयः, चतुर्थस्तु धर्मास्तिकायप्रदेशस्थानस्थित एवेति, उत्कृष्टपदे सप्तभिरिति, कथं ?, षड् दिषट्के, सप्तमस्तु धर्मास्तिकाय प्रदेशस्थ एवेति २, आकाशप्रदेशैः सप्तभिरेव, लोकान्तेऽप्यलोकाकाशप्रदेशानां विद्यमानत्वात् ३, 'केवतिएहिं जीवत्थिकाए' इत्यादि 'अणंतेहिं' ति अनन्तैरनन्तजीवसम्बन्धिनामनन्तानां प्रदेशानां तत्रैकधर्मास्तिकायप्रदेशे पार्श्वतश्च दिक्त्रयादौ विद्यमानत्वादिति ४, एवं पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरपि ५, 'केवतिएहिं अद्धासमएहिं ' इत्यादि, अद्धासमयः समयक्षेत्र एव न परतोऽतः स्यात्स्पृष्टः स्यान्नेति, ‘जइ पुट्ठे नियमं अणंतेहिं' ति अनादित्वादद्धासमयानां अथवा वर्त्तमानसमयालिङ्गितान्यनन्तानि द्रव्याण्यनन्ता एव समया, इत्यनन्तैस्तैः स्पृष्ट इत्युच्यत इति ६ । ४४५ परिशिष्ट - ५ : श. १३ : उ. ४ : सू. ५७-६५ १३/६२. अधर्मास्तिकायप्रदेशस्य शेषाणां प्रदेशैः स्पर्शना धर्मास्तिकायप्रदेशस्पर्शनाऽनुसारेणावसेया ६ । १३/६३. 'एगे भंते! आगासत्थिकायपएसे' इत्यादि, 'सिय पुट्ठे' त्ति लोकमाश्रित्य 'सिय नो पुट्टे' त्ति अलोकमाश्रित्य 'जइ पुट्ठे' इत्यादि यदि स्पृष्टस्तदा जघन्यपदे एकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः, कथम् ?, एवंविधलोकान्तवर्त्तिना धर्मास्तिकायैकप्रदेशेन शेषधर्मास्तिकायप्रदेशेभ्यो निर्गतेनैकोऽग्रभागवर्त्यलोकाकाशप्रदेशः स्पृष्टो वक्रगतस्त्वसौ द्वाभ्यां यस्य चालोकाकाशप्रदेशस्याग्र तोऽधस्तादुपरि च धर्मास्तिकायप्रदेशाः सन्ति स त्रिभिर्धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः, • स चैवम् यस्त्वेवं लोकान्ते कोणगतो व्योमप्रदेशोऽसावेकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन तदवगाढेनान्येन चोपरिवर्त्तिनाऽधोवर्तिना वा द्वाभ्यां च दिग्द्वयावस्थिताभ्यां स्पृष्ट इत्येवं चतुर्भिः यश्चाध उपरि च तथा दिग्द्वये तत्रैव वर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स पञ्चभिः यः पुनरध उपरि च तथा दिक्त्रये तत्रैव च प्रवर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स षड्भिः, यश्चाध उपरि च तथा दिक्चतुष्टये तत्रैव च वर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स सप्तभिर्धर्मास्तिकायप्रदेश: स्पृष्टो भवतीति १, एवमधर्मास्तिकायप्रदेशैरपि २ 'केवइएहिं आगासत्थिकायपएसेहिं ?, 'छहिं' ति एकस्य लोकाकाशप्रदेशस्यालोकाकाशप्रदेशस्य षड्दिग्व्यवस्थितैरेव स्पर्शनात् षड्भिरित्युक्तम् जीवास्तिकायसूत्रे 'सिय पुट्ठे' त्ति यद्यसौ लोकाकाशप्रदेशो विवक्षितस्ततः स्पृष्टः 'सिय नो पुट्ठे' त्ति यद्यसावलोकाकाशप्रदेशविशेषस्तदा न स्पृष्टो जीवानां तत्राभावादिति ४-५ एवं पुद्गलाद्धाप्रदेशैः ६। वा ३ १३/६४. 'एगे भंते! जीवत्थिकायप्पएसे' इत्यादि, जघन्यपदे लोकान्तकोणलक्षणे सर्वाल्पत्वात्तत्र स्पर्शकप्रदेशानां चतुर्भिरिति, कथम् ?, अध उपरि वा एको द्वौ च दिशोरेकस्तु यत्र जीवप्रदेश एवावगाढ इत्येवं, एकश्च जीवास्तिकायप्रदेश एकत्राकाशप्रदेशादौ केवलिसमुद्घात एव लभ्यत इति, 'उक्कोसपए सत्तहिं' ति पूर्ववत्, 'एवं अहम्मे' त्यादि पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयम् ६ । १३/६५. धर्मास्तिकायादीनां ४ पुद्गलास्तिकायस्य चैकैकप्रदेशस्य स्पर्शनोक्ता । अथ तस्यैव द्विप्रदेशादिस्कन्धानां तां दर्शयन्नाह'दो भंते!' इत्यादि, इह चूर्णिकारव्याख्यानमिदं - लोकान्ते द्विप्रदेशिकः स्कन्ध एकप्रदेशसमवगाढः स च प्रतिद्रव्यावगाहं प्रदेश इति नयमताश्रयणेनावगाहप्रदेशस्यैकस्यापि भिन्नत्वाद् द्वाभ्यां स्पृष्टः, तथा यस्तस्योपर्यधस्ताद्वा प्रदेशस्तस्यापि पुद्गलद्वयस्पर्शनेन नयमतादेव भेदाद् द्वाभ्यां, तथा Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ति, कथा, परिशिष्ट-५ : श. १३ : उ. ४ : सू. ६७-७१ ४४६ भगवती वृत्ति पार्श्वप्रदेशावेकैकमणुं स्पृशतः परस्परव्यवहितत्वाद् इत्येवं जघन्यकमित्यर्थः आकाशस्य सर्वत्र विद्यमानत्वादिति। जघन्यपदे षड्भिर्धर्मास्तिकायप्रदेशैयणुकस्कन्धः स्पृश्यते, १३/६८. 'संखेज्जा भंते!' इत्यादि, 'तेणेव' त्ति यत् सङ्ख्येयकमयः नयमतानङ्गीकरणे तु चतुभिरव व्यणुकस्य जघन्यतः स्पर्शना स्कन्धस्तेनैव प्रदेशसङ्ख्येयकेन द्विगुणेन द्विरूपाधिकेन स्पृष्टः, स्यादिति'। वृत्तिकृता त्वेवमुक्तम्-- इह भावना-विंशतिप्रदेशिकः स्कन्धो लोकान्त एकप्रदेशे स्थितः स च नयमतेन विंशत्याऽवगाढप्रदेशैः विंशत्यैव च नयमतेनैवाधस्तनैरुपरितनैर्वा प्रदेशैः द्वाभ्यां च पार्श्वप्रदेशाभ्यां 'इह यद्विन्दुद्वयं तत्परमाणुद्वयमिति मन्तव्यं तत्र चार्वाचीनः स्पृश्यत इति, उत्कृष्टपदे तु विंशत्या निरुपचरितैरवगाढप्रदेशः, परमाणुर्धर्मास्तिकायप्रदेशेनार्वाकस्थितेन स्पृष्टः, परभागवर्ती च एवमधस्तनै २० रुपरितनैः २० पूर्वापरपार्श्वयोश्च विंशत्या २० परतः स्थितेन एवं द्वौ, तथा ययोः प्रदेशयोर्मध्ये परमाणू द्वाभ्यां च दक्षिणोत्तरपार्श्वस्थिताभ्यां स्पृष्टस्तश्च विंशतिरूपः स्थाप्येते तयोरग्रेतनाभ्यां प्रदेशाभ्यां तौ स्पृष्टौ एकेनैको सङ्ख्याताणुकः स्कन्धः पञ्चगुणया विंशत्या प्रदेशानां द्वितीयेन च द्वितीय इति चत्वारो द्वौ चावगाढत्वादेव प्रदेशद्वयेन च स्पृष्ट इति, अत एव चोक्तम् 'उक्कोसपए तेणेव स्पृष्टावित्येवं षट्। 'उक्कोसपए बारसहिं' ति, कथं ?, संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं' ति॥ परमाणुद्वयेन द्वौ द्विप्रदेशावगाढत्वात्स्पृष्टौ द्वौ चाधस्तनौ १३/६९. असंखेज्जा' इत्यादौ षट्सूत्री तथैव।। उपरितनौ च द्वौ पूर्वापरपार्श्वयोश्च द्वौ २ १३/७०. 'अणंता भंते!' इत्यादिरपि षट्सूत्री तथैव, नवरमिह यथा दक्षिणोत्तरपार्श्वयोश्चैकैक इत्येवमेते द्वादशेति १ जघन्यपदे औपचारिका अवगाहप्रदेशा अधस्तना उपरितना वा तथोत्कृष्टपदेऽपि, न हि निरुपचरिता अनन्ता आकाशप्रदेशा अवगाहतः सन्ति, लोकस्याप्यसङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वादिति। इह च प्रकरणे इमे वृद्धोक्तगाथे भवतःएवमधर्मास्तिकायप्रदेशैरपि २, 'केवतिएहिं आगासत्थि- 'धम्माइपएसेहिं दुपएसाई जहन्नयपयम्मि। कायप्पएसेहिं?, 'बारसहिं' ति इह जघन्यपदं नास्ति दुगुणदुरूवहिएणं तेणेव कहं नु हु फुसेज्जा॥४॥ लोकान्तेऽप्याकाशप्रदेशानां विद्यमानत्वादिति द्वादश- एत्थ पुण जहन्नपयं लोगते तत्थ लोगमालिहिउँ। भिरित्युक्तं ३, 'सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स' त्ति, अयमर्थः-'दो फुसणा दावेयव्वा अहवा खंभाइकोडीए॥२॥ भंते! पोग्गलत्थिकायप्पएसा केवतिएहिं जीवत्थिकायप्पएसेहि इति (जघन्यपदे द्विप्रदेशादिर्द्विगुणद्विरूपाधिकैर्धर्मादिपुट्ठा?, गोयमा ! अणंतेहिं ४ । एवं पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरपि ५, प्रदेशैस्तेनैव कथं नु स्पृशेत् ? ॥१॥ अत्र जघन्यपदं लोकान्ते अद्धासमयैः स्यात् स्पृष्टौ स्यान्न, यदि स्पृष्टौ तदा ततो लोकमालिख्य स्पर्शनां दर्शयद् अथवा नियमादनन्तैरिति । स्तम्भादिकोट्याम्॥२॥ १३/६७. 'तिन्नि भंते!' इत्यादि, 'जहन्नपए अट्ठहिं' ति, कथं?, १३/७१. 'एगे भंते! अद्धासमए' इत्यादि, इह वर्तमानसमयविशिष्टः पूर्वोक्तनयमतेनावगाढप्रदेशस्त्रिधा अधस्तनोऽप्युपरितनोऽपि समयक्षेत्रमध्यवर्ती परमाणुरद्धासमयो ग्राह्यः, अन्यथा तस्य वा त्रिधा द्वौ पार्श्वत इत्येवमष्टौ। 'उक्कोसपए सत्तरसहिं ति धर्मास्तिकायादिप्रदेशैः सप्तभिः स्पर्शना न स्यात्, इह च प्राग्वद्भावनीयं, इह च सर्वत्र जघन्यपदे विवक्षितपरमाणुभ्यो जघन्यपदं नास्ति, मनुष्यक्षेत्रमध्यवर्त्तित्वादद्धासमयस्य, द्विगुणा द्विरूपाधिकाश्च स्पर्शकाः प्रदेशा भवन्ति, उत्कृष्टपदे तु जघन्यपदस्य च लोकान्त एव सम्भवादिति, तत्र सप्तभिरिति, विवक्षितपरमाणुभ्यः पञ्चगुणा द्विरूपाधिकाश्च ते भवन्ति, तत्र कथम् ?, अद्धासमयविशिष्टं परमाणुद्रव्यमेकत्र चैकाणोर्द्विगुणत्वे द्वौ द्वयसहितत्वे च चत्वारो जघन्यपदे धर्मास्तिकायप्रदेशेऽवगाढमन्ये च तस्य षट्सु दिक्ष्विति सप्तेति, स्पर्शकाः प्रदेशाः उत्कृष्टपदे त्वेकाणोः पञ्चगुणत्वे जीवास्तिकायप्रदेशैश्चानन्तैरेकप्रदेशेऽपि तेषामनन्तत्वात्, ‘एवं द्विकसहितत्वे च सप्त स्पर्शकाः प्रदेशा भवन्ति, एवं जाब अद्धासमएहिं ति, इह यावत्करणादिदं सूचितम्-- व्यणुकत्र्यणुकादिष्वपि, स्थापना चेयम् एकोऽद्धासमयोऽनन्तैः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरद्धासमयैश्च | १ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १०. परमाणुसंख्या स्पृष्ट इति, भावना चास्यैवम्-अद्धासमयविशिष्टमणुद्रव्यमद्धा समयः, स चैकः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरनन्तैः स्पृश्यते, ४ ८ १० |१२|१४|१६|१८|२०|२२| जघन्यस्पर्श | ७ १२१७२२|२७|३२|३७ ४२ ४७ ५२ उत्कृष्टस्पर्श एकद्रव्यस्य स्थाने पार्श्वतश्चानन्तानां पुद्गलानां सद्भावात्, तथाऽद्धासमयैरनन्तैरसौ स्पृश्यते अद्धासमयविशिष्टानामएतदेवाह-एवं एएणं गमएण' मित्यादि, 'आगासत्थिकायस्य नन्तानामप्यणुद्रव्याणामद्धासमयत्वेन विवक्षितत्वात् तेषां च सव्वत्थ उक्कोसपयं भाणियव्वं' ति 'सर्वत्र' तस्य स्थाने तत्पार्श्वतश्च सद्भावादिति। एकप्रदेशिकाद्यनन्तप्रदेशिकान्ते सूत्रगणे उत्कृष्टपदमेव न धर्मास्तिकायादीनां प्रदेशतः स्पर्शनोक्ताऽथ द्रव्यतस्तामाह Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४४७ परिशिष्ट-५ :श. १३ : उ. ४ : सू.७२-८२ १३/७२. 'धम्मत्थिकाएण' मित्यादि, 'नत्थि एगेणवि' त्ति सकलस्य १३/७६. आकाशास्तिकायसूत्रेषु 'सिय ओगाढा सिय नो ओगाढ' त्ति धर्मास्तिकायद्रव्यस्य प्रश्नितत्वात् तद्व्यतिरिक्तस्य च लोकालोकरूपत्वादाकाशस्य लोकाकाशेऽवगाढा अलोकाकाशे धर्मास्तिकायप्रदेशस्याभावादुक्तं नास्ति न विद्यतेऽयं पक्षो यदुत एकेनापि धर्मास्तिकायप्रदेशेनासौ धर्मास्तिकायः स्पृष्ट १३/७९. 'जत्थ णं भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसे' त्यादि, 'सिय एक्को इति, तथा धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकायप्रदेशैरसङ्ख्येयैः स्पृष्टो, सिय दोन्नि' ति यदैकत्राकाशप्रदेशे व्यणुकः स्कन्धोऽवगाढः धर्मास्तिकायप्रदेशानन्तर एव व्यवस्थितत्वादधर्मास्तिकाय- स्यात्तदा तत्र धर्मास्तिकायप्रदेश एक एव, यदा तु सम्बन्धिनामसङ्ख्यातानामपि प्रदेशानामिति, आकाशास्ति- द्वयोराकाशप्रदेशयोरसाववगाढः स्यात्तदा तत्र द्वौ कायप्रदेशैरप्यसङ्ख्येयैः, असङ्ख्येयप्रदेशस्वरूपलोकाकाश- धर्मप्रदेशाववगाढौ स्यातामिति, एवमवगाहनानुसारेणाप्रमाणत्वाद्धर्मास्तिकायस्य, जीवपुद्गलप्रदेशैस्तु धर्मास्ति- धर्मास्तिकायाकाशास्तिकाययोरपि स्यादेकः स्याद्वाविति कायोऽनन्तैः स्पृष्टः, तद्व्याप्त्या धर्मास्तिकायस्याव- भावनीयं, 'सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स' त्ति शेषमित्युक्तापेक्षया स्थितत्वात्तेषां चानन्तत्वात्, अद्धासमयैः पुनरसौ जीवास्तिकायपुद्गलास्तिकायाद्धासमयलक्षणं त्रयं यथा स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च, तत्र यः स्पृष्टः सोऽनन्तैरिति। धर्मास्तिकायप्रदेशवक्तव्यतायामुक्तं तथा पुद्गलप्रदेशद्वय१३/७३. एवमधर्मास्तिकायस्य ६ आकाशास्तिकायस्य ६ वक्तव्यतायामपि, पुद्गलप्रदेशद्वयस्थाने तदीया अनन्ताः जीवास्तिकायस्य ६ पुद्गलास्तिकायस्य ६ अद्धासमयस्य च ६ प्रदेशा अवगाढा इत्यर्थः। सूत्राणि वाच्यानि, केवलं यत्र धर्मास्तिकायादिस्तत्प्रदेशैरेव १३/८०. पुद्गलप्रदेशत्रयसूत्रेषु 'सिय इक्को' इत्यादि, यदा चिन्त्यते तत्स्वस्थानमितरच्च परस्थानं, तत्र स्वस्थाने 'नत्थि त्रयोऽप्यणव एकत्रावगाढास्तदा तत्रैको धर्मास्तिकायएगेणवि पुढे' इति निर्वचनं वाच्यं, परस्थाने च धर्मास्तिकायादि- प्रदेशोऽवगाढः, यदा तु द्वयो १२ स्तदा द्वाववगाढौ, यदा तु त्रयसूत्रेषु ३ असङ्ख्येयैः स्पृष्ट इति वाच्यं, असङ्ख्यातप्रदेशत्वा- त्रिषु।१।११। तदा त्रय इति, एवमधर्मास्तिकायस्याकाशास्तिद्धर्माधर्मास्तिकाययोस्तत्संस्पृष्टाकाशस्य च, जीवादित्रयसूत्रेषु कायस्य च वाच्यं, 'सेसं जहेव दोण्ह' ति 'शेषं' जीवपुद्गलाचानन्तैः प्रदेशैः स्पृष्ट इति वाच्यं, अनन्तप्रदेशत्वात्तेषामिति, द्धासमयाश्रितं सूत्रत्रयं यथैव द्वयोः पुद्गलप्रदेशयोरवगाहएतदेव दर्शयन्नाह-‘एवं एएणं गमएण' मित्यादि, इह चाकाश- चिन्तायामधीतं तथैव पुद्गलप्रदेशत्रयचिन्तायामप्यध्येयं, सूत्रेऽयं विशेषो द्रष्टव्यः-आकाशास्तिकायो धर्मास्तिकायादि- पुद्गलप्रदेशत्रयस्थानेऽनन्ता जीवप्रदेशा अवगाढा इत्येवप्रदेशैः स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च, तत्र यः स्पृष्टः सोऽसङ्ख्येयैर्धर्मा- मध्येयमित्यर्थः, ‘एवं एक्केक्को वड्ढयव्वो पएसो आइल्लेहिं धर्मास्तिकाययोः प्रदेशैर्जीवास्तिकायादीनां त्वनन्तैरिति, 'जाव तिहिं २ अस्थिकाएहिं ति यथा पुद्गलप्रदेशत्रयावगाहचिन्तायां अद्धासमओ' त्ति अद्धासमयसूत्रं यावत् सूत्राणि वाच्यानीत्यर्थः, धर्मास्तिकायादिसूत्रत्रये एकैकःप्रदेशो वृद्धिं नीतः एवं 'जाव केवइएहिं' इत्यादौ यावत्करणादद्धासमयसूत्रे आद्यं पुद्गलप्रदेशचतुष्टयाद्यवगाहचिन्तायामप्येकैकस्तत्र वर्द्धनीयः, पदपञ्चकं सूचितं षष्ठं तु लिखितमेवास्ते, तत्र तु 'नत्थि तथाहि-'जत्थ णं भंते! चत्तारि पुग्गलत्थिकायप्पएसा ओगाढा एक्केणवि' त्ति निरुपचरितस्याद्धासमयस्यैकस्यैव भावात्, तत्थ केवइया धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा ?, सिय एक्को अतीतानागतसमययोश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वान्न सिय दोन्नि सिय तिन्नि सिय चत्तारि' इत्यादि, भावना चास्य समयान्तरेण स्पृष्टताऽस्तीति। प्रागिव, 'सेसेहिं जहेव दोण्हं' ति शेषेषु जीवास्तिकायादिषु त्रिषु अथावगाहद्वारं, तत्र सूत्रेषु पुद्गलप्रदेशचतुष्टयचिन्तायां तथा वाच्यं यथा तेष्वेव १३/७४. 'जत्थ णं भंते!' इत्यादि, यत्र प्रदेशे एको धर्मास्तिकायस्य पुद्गल-प्रदेशद्वयावगाहचिन्तायामुक्तं, तच्चैवं-'जत्थ णं भंते ! प्रदेशोऽवगाढस्तत्रान्यस्तत्प्रदेशो नास्तीतिकृत्वाऽऽह-'नत्थि चत्तारि पोग्गलत्थिकायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवतिया एक्कोवि' त्ति, धर्मास्तिकायप्रदेशस्थानेऽधर्मास्तिकायप्रदेशस्य जीवत्थिकायप्पएसा ओगाढा ?, अणंता' इत्यादि, 'जहा विद्यमानत्वादाह-'एक्को' त्ति, एवमाकाशास्तिकायस्याप्येक असंखेज्जा एवं अणंतावि' त्ति, अस्यायं भावार्थ:-'जत्थ णं भंते! एव, जीवास्तिकायपुद्गलास्तिकाययोः पुनरनन्ताः प्रदेशा अणंता पोग्गलत्थिकायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवतिया एकैकस्य धर्मास्तिकायप्रदेशस्य स्थाने सन्ति तैः धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा?, सिय एक्को सिय दोन्नि जाव प्रत्येकमनन्तैाप्तोऽसावत उक्तम्-'अणंत' त्ति, अद्धा- सिय असंखेज्जा' एतदेवाध्येयं न तु 'सिय अणंत' त्ति, समयास्तु मनुष्यलोक एव सन्ति न परतोऽतो धर्मास्ति- धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायलोकाकाशप्रदेशानामनन्तानामकायप्रदेशे तेषामवगाहोऽस्ति नास्ति च, यत्रास्ति तत्रानन्तानां भावादिति। भावना तु प्राग्वत्, एतदेवाह-'अद्धासमये' त्यादि। अथ प्रकारान्तरेणावगाहद्वारमेवाह१३/७५. 'जत्थेण' मित्यादीन्यधर्मास्तिकायसूत्राणि षड १३/८२. 'जत्थ ण' मित्यादि, धर्मास्तिकायशब्देन समस्ततत्धर्मास्तिकायसूत्राणीव वाच्यानि। प्रदेशसङ्ग्रहात् प्रदेशान्तराणां चाभावादुच्यते यत्र धर्मास्ति Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १३ : उ. ५,६ : सू. ८४-१०२ ४४८ भगवती वृत्ति कायोऽवगाढस्तत्र नास्त्येकोऽपि तत्प्रदेशोऽवगाढ इति, अयं च प्रज्ञापनायामष्टाविंशतितमस्याहारपदस्य प्रथमः, स चैवं अधर्मास्तिकायाकाशास्तिकाययोरसङ्ख्येयाः प्रदेशा अवगाढा दृश्यः-'नेरझ्या णं भंते! किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा असङ्ग्येयप्रदेशत्वादधर्मास्तिकायलोकाकाशयोः, जीवास्ति- मीसाहारा?, गोयमा! नो सचित्ताहारा अचित्ताहारा नो कायसूत्रे चानन्तास्तत्प्रदेशाः, अनन्तप्रदेशत्वाज्जीवास्ति- मीसाहारा।' 'एवं असुरकुमारे' त्यादीति॥ कायस्य, पुद्गलास्तिकायसूत्राद्धासूत्रयोरप्येवं, एतदेवाह-एवं त्रयोदशशते पञ्चमः॥१३-५॥ जाव अद्धासमय' त्ति। १३/८४. अथैकस्य पृथिव्यादिजीवस्य स्थाने कियन्तः पृथिव्यादिजीवा षष्ठम उद्देशकः अवगाढाः? इत्येवमर्थं 'जीवमोगाढ' त्ति द्वारं प्रतिपादयितुमाह- अनन्तरोद्देशके नारकादिवक्तव्यतोक्ता षष्ठेऽपि सैवोच्यते 'जत्थ णं भंते! एगे पुढविक्काइए' इत्यादि, एकपृथिवीकायिका- इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्वगाहेऽसङ्ख्येयाः प्रत्येकं पृथिवीकायिकादयश्चत्वारः सूक्ष्मा १३/९५. 'रायगिहे' इत्यादि. 'गंगेए' त्ति नवमशतद्वात्रिंशत्तमोद्देशअवगाढाः, यदाह-'जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्ज' त्ति, काभिहिते 'दो दंडग' त्ति उत्पत्तिदण्डक उद्वर्त्तनादण्डकश्चेति। वनस्पतयस्त्वनन्ता इति। अनन्तरं वैमानिकानां च्यवनमुक्तं, ते च देवा इति अथास्तिकायप्रदेशनिषदनद्वारं, तत्र च देवाधिकाराच्चमराभिधानस्य देवविशेषस्यावासविशेष१३/८६. 'एयंसि ण' मित्यादि, एतस्मिन् णमित्यलङ्कारे 'चक्किय' त्ति प्ररूपणायाहशक्नुयात्कश्चित् पुरुषः। १३/९६. 'कहिण्णं भंते!' इत्यादि, 'सभाविहणं' ति सुधर्माद्याः पञ्चेह अथ बहुसमेति द्वारं, तत्र सभा न वाच्याः, कियङ्करं यावदियमिह चमरचंचाराजधानी१३/८८. 'कहि ण' मित्यादि, 'बहुसमे' त्ति अत्यन्तं समः, लोको हि वक्तव्यता भणितव्या ? इत्याह-'जाव चत्तारि पासायपंतीओ' क्वचिद्वर्द्धमानः क्वचिद्धीयमानोऽतस्तन्निषेधाहुसमो त्ति ताश्च प्राक् प्रदर्शिता एवेति। वृद्धिहानिवर्जित इत्यर्थः 'सव्वविग्गहिए' त्ति विग्रहो वक्रं लघुमि १३/९८. 'उवगारियलेणाइ व' त्ति 'औपकारिकलयनानि' प्रासादादि(रि) त्यर्थः तदस्यास्तीति विग्रहिकः सर्वथा विग्रहिकः पीठकल्पानि 'उज्जाणियलेणाइ व' ति उद्यानगतजनानामुपसर्वविग्रहिकः सर्वससिस इत्यर्थः, 'उवरिमहेट्ठिल्लेसु कारिकगृहाणि नगरप्रदेशगृहाणि वा 'णिज्जाणियलेणाइ व' त्ति खुड्डागपयरेसु' त्ति उपरिमो यमवधीकृत्योर्द्ध प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ताः नगरनिर्गमगृहाणि 'धारिवारियलेणाइ व' त्ति धाराप्रधानं अधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः प्रतरप्रवृद्धिः प्रवृत्ता, वारिजलं येषु तानि धारावारिकाणि तानि च तानि लयनानि ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकप्रतरयोः शेषापेक्षया चेति वाक्यम् 'आसयंति' त्ति 'आश्रयन्ते' ईषद्भजन्ते 'सयंति' लघुतरयो रज्जुप्रमाणायामविष्कम्भयोस्तिर्यग्लोकमध्यभाग त्ति 'श्रयन्ते' अनीषद्भजन्ते, अथवा 'आसयंति' ईषत्स्वपन्ति वर्त्तिनोः 'एत्थ णं' ति एतयोः-प्रज्ञापकेनोपदय॑मानतया 'सयंति' अनीषत्स्वपन्ति 'जहा रायप्पसेणइज्जे' त्ति अनेन प्रत्यक्षयोः 'विग्गहविग्गहिए' त्ति, विग्रहो-वक्रं तयुक्तो विग्रहः यत्सूचितं तदिदं-'चिट्ठति' उर्वस्थानेन तेषु तिष्ठन्ति शरीरं यस्याति स विग्रहविग्रहिकः।। 'निसीयंति' उपविशन्ति 'तुयटृति' निषण्णा आसते 'हसंति' १३/८९. 'विग्गहकंडए' त्ति विग्रहो-वक्रं कण्डक-अवयवो विग्रहरूपं परिहासं कुर्वन्ति 'रमन्ते' अक्षादिना रतिं कुर्वन्ति 'ललन्ति' कण्डकं-विग्रहकण्डकं तत्र ब्रह्मलोककूर्पर इत्यर्थः यत्र वा ईप्सितक्रियाविशेषान् कुर्वन्ति 'कीलंति' कामक्रीडां कुर्वन्ति प्रदेशवृद्ध्या हान्या वा वक्रं भवति तद्विग्रहकण्डकं, तच्च प्रायो 'किडंति' अन्तर्भूतकारितार्थत्वादन्यान् क्रीडयन्ति 'मोहयन्ति' लोकान्तेष्वस्तीति॥ मोहनं-निधुवनं विदधति। 'पुरापोराणाणं सुचिन्नाणं अथ लोकसंस्थानद्वारं, तत्र च सुपरिक्कंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं' ति व्याख्या चास्य १३/९१. 'सव्वत्थोवे तिरियलोए' त्ति अष्टादशयोजनशतायामत्वात्, प्राग्वदिति, 'वसहिं उति' त्ति वासमुपयान्ति, 'एवामेवे' त्यादि, 'उड्डलोए असंखेज्जगुणे' त्ति किञ्चिन्न्यूनसप्तरज्जूच्छ्रितत्वात् 'एवमेव' मनुष्याणामोपकारिकादिलयनवच्चमरस्य ३ चमरचञ्च 'अहे लोए विसेसाहिए' ति किञ्चित्समधिकसप्तरज्जूच्छ्रित. आवासो न निवासस्थानं केवलं किन्तु 'किड्डारइपत्तियं' ति त्वादिति। क्रीडायां रतिः-आनन्दः क्रीडारतिः अथवा च रतिश्च क्रीडारती त्रयोदशशते चतुर्थः॥१३-४॥ सा ते वा प्रत्ययो-निमित्तं यत्र तत् क्रीडारतिप्रत्ययं तत्रागच्छतीति शेषः। पंचम उद्देशकः अनन्तरमसुरकुमारविशेषावासवक्तव्यतोक्ता, असुरकुमारेषु च अनन्तरोद्देशके लोकस्वरूपमुक्तं, तत्र च नारकादयो भवन्तीति विराधितदेशसर्वसंयमा उत्पद्यन्ते ततश्च तेषु योऽत्र तीर्थे नारकादिवक्तव्यतां पञ्चमोद्देशकेनाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्- उत्पन्नस्तद्दर्शनायोपक्रमते१३/९३. 'नेरइया णं भंते!' इत्यादि, 'पढमो नेरइयउद्देसओ' इत्यादि, १३/१०२. 'तए ण' मित्यादि, 'सिंधुसोवीरेसु' त्ति सिन्धुनद्या Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति आसन्नाः सौवीरा - जनपदविशेषाः सिन्धुसौवीरास्तेषु 'वीईभए' त्ति विगता ईतयो भयानि च यतस्तद्वीतिभयं विदर्भेति केचित् 'सव्वोउयवन्नओ' त्ति अनेनेदं सूचितं- 'सव्वोउयपुप्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे' इत्यादीति । 'नगरागरसयाणं' ति करादायकानि नगराणि सुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानान्याकरा नगराणि चाकराश्चेति नगराकरास्तेषां शतानि नगराकरशतानि तेषां 'नगरस्याणं ति क्वचित्पाठः, 'विदिन्नछत्तचामरवालवीयणाणं' ति वितीर्णानि छत्राणि चामररूपवालव्यजनिकाश्च येषां ते तथा तेषाम् । १३ / १२०. 'अप्पत्तिएणं मणोमाणासिएणं दुक्खेणं' ति 'अप्रीतिकेन' अप्रीतिस्वभावेन मनसो विकारो मानसिकं मनसि मानसिकं न बहिरूपलक्ष्यमाणविकारं यत्तन्मनोमानसिकं तेन, केनैवंविधेन ? इत्याह- दुःखेन, 'सभंडमत्तोवगरणमायाय' त्ति स्वां स्वकीयां भाण्डमात्रां भाजनरूपं परिच्छदं उपकरणं च शय्यादि गृहीत्वेत्यर्थः, अथवा सह भाण्डमात्रया यदुपकरणं तत्तथा तदादाय, 'समणुबद्धवेरि' त्ति अव्यवच्छिन्नवैरिभावः । १३/१२१. 'निरयपरिसामंतेसु' त्ति नरकपरिपार्श्वतः 'चोयट्ठीए आयावा असुरकुमारावासेसु' त्ति इह 'आयाव' त्ति असुरकुमारविशेषाः, विशेषतस्तु नावगम्यत इति। त्रयोदशशते षष्ठः ॥१३-६॥ ४४६ सप्तम उद्देशकः य एतेऽनन्तरोद्देशकेऽर्था उक्तास्ते भाषयाऽतो भाषाया एव निरूपणाय सप्तम उच्यते । तस्य चेदमादिसूत्रम्१३ / १२४. 'रायगिहे' इत्यादि, 'आया भंते! भास' त्ति काक्वाऽध्येयं आत्मा - जीवो भाषा जीवस्वभावा भाषेत्यर्थः यतो जीवेन व्यापार्यते जीवस्य च बन्धमोक्षार्था भवति ततो जीवधर्मत्वाज्जीव इति व्यपदेशार्हा ज्ञानवदिति, अथान्या भाषा - न जीवस्वरूपा श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्वेन मूर्त्ततयाऽऽत्मनो विलक्षणत्वादिति शङ्का अतः प्रश्नः, अत्रोत्तरं - 'नो आया भास' त्ति आत्मरूपा नासौ भवति, पुद्गलमयत्वादात्मना च निसृज्यमानत्वात्तथाविधलोष्ठादिवत् अचेतनत्वाच्चाकाशवत्, यच्चोक्तं जीवेन व्यापार्यमाणत्वाज्जीवः स्याज्ज्ञानवत्तदनैकान्तिकं, जीवव्यापारस्य जीवादत्यन्तं भिन्नस्वरूपेऽपि दात्रादौ दर्शनादिति । 'रूविं भंते! भास' त्ति रूपिणी भदन्त ! भाषा श्रोत्रस्यानुग्रहोपघातकारित्वात्तथाविधकर्णाभरणादिवत्, अथारूपिणी भाषा चक्षुषाऽनुपलभ्यत्वाद्धर्मास्तिकायादिवदिति शङ्का अतः प्रश्नः, उत्तरं तु रूपिणी भाषा, यच्च चक्षुरग्राह्यत्वमरूपित्वसाधनायोक्तं तदनैकान्तिकं, परमाणुवायुपिशाचादीनां रूपवतामपि चक्षुरग्राह्यत्वेनाभिमतत्वादिति । अनात्मरूपाऽपि सचित्तासौ भविष्यति जीवच्छरीरवदिति पृच्छन्नाह - 'सचित्ते' त्यादि, उत्तरं तु नो सचित्ता जीवनिसृष्टपुद्गलसंहतिरूपत्वात्त परिशिष्ट - ५ : श. १३ : उ. ७ : सू. १२०-१२८ थाविधलेष्ठुवत्, तथा 'जीवा भंते!' इत्यादि, जीवतीति जीवा - प्राणधारणस्वरूपा भाषा उतैतद्विलक्षणेति प्रश्नः, अत्रोत्तरं नो जीवा, उच्छ्रासादिप्राणानां तस्या अभावादिति । कैश्चिदभ्युपगम्यते अपौरुषेयी वेदभाषा, तन्मतं मनस्याधायाह-‘जीवाण' मित्यादि, उत्तरं तु जीवानां भाषा, वर्णानां ताल्वादिव्यापारजन्यत्वात् ताल्वादिव्यापारस्य च जीवाश्रितत्वात्, यद्यपि चाजीवेभ्यः शब्द उत्पद्यते तथाऽपि नासौ भाषा, भाषापर्याप्तिजन्यस्यैव शब्दस्य भाषात्वेनाभिमतत्वादिति। तथा 'पुव्वि' मित्यादि, अत्रोत्तरं - नो पूर्वं भाषणाद् भाषा भवति मृत्पिण्डावस्थायां घट इव, भाष्यमाणा - निसर्गावस्थायां वर्त्तमाना भाषा घटावस्थायां घटस्वरूपमिव, 'नो' नैव भाषासमयव्यतिक्रान्ता-भाषासमयोनिसृज्यमानावस्थातो यावद्भाषापरिणामसमयस्तं व्यतिक्रान्ता या सा तथा भाषा भवति, घटसमयातिक्रान्तघटवत् कपालावस्थ इत्यर्थः । 'पुव्विं भंते!' इत्यादि, अत्रोत्तरं 'नो' नैव पूर्वं निसर्गसमयाद्भाषाद्रव्यभेदेन भाषा भिद्यते, भाष्यमाणा भाषा भिद्यते, अयमत्राभिप्रायः - इह कश्चिन्मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति स चाभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि निसृजति तानि च निसृष्टान्यसङ्ख्येयात्मकत्वात् परिस्थूरत्वाच्च विभिद्यन्ते, विभिद्यमानानि च सङ्ख्येयानि योजनानि गत्वा शब्दपरिणामत्यागमेव कुर्वन्ति, कश्चित्तु महाप्रयत्नो भवति स खल्वादानविसर्गप्रयत्नाभ्यां भित्त्वैव विसृजति तानि च सूक्ष्मत्वाद्बहुत्वाच्चानन्तगुणवृद्ध्या वर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति, अत्र च यस्यामवस्थायां शब्दपरिणामस्तस्यां भाष्यमाणताऽवसेयेति, 'नो ति परित्यक्तभाषापरिणामेत्यर्थः भासा समयवीइक्कंते' उत्कृष्टप्रयत्नस्य तदानीं निवृत्तत्वादितिभावः । अनन्तरं भाषा निरूपिता, सा च प्रायो मनःपूर्विका भवतीति मनोनिरूपणायाह १३/१२६. ‘आया भंते! मणे' इत्यादि, एतत्सूत्राणि च भाषासूत्रवन्नेयानि, केवलमिह मनोद्रव्यसमुदयो मननोपकारी मनः पर्याप्तिनामकर्मोदयसम्पाद्यो, भेदश्च तेषां विदलनमात्रमिति । अनन्तरं मनो निरूपितं तच्च काये सत्येव भवतीति कायनिरूपणायाह १३/ १२८. 'आया भंते! काये' इत्यादि, आत्मा कायः कायेन कृतस्यानुभवनात्, न ह्यन्येन कृतमन्योऽनुभव अकृतागमप्रसङ्गात्, अथान्य आत्मनः कायः कायैकदेशच्छेदेऽपि संवेदनस्य सम्पूर्णत्वेनाभ्युपगमादिति प्रश्नः, ( ग्रन्थाग्रम् १३०००) उत्तरं त्वात्माऽपि कायः कथञ्चित्तदव्यतिरेकात् क्षीरनीरवत् अग्न्ययस्पिण्डवत् काञ्चनोपलवद्वा, अत एव कायस्पर्शे सत्यात्मनः संवदेनं भवति अत एव च कायेन कृतमात्मना भवान्तरे वेद्यते, अत्यन्तभेदे चाकृतागमप्रसङ्ग इति, 'अन्नेवि काये' त्ति अत्यन्ताभेदे हि शरीरांशच्छेदे जीवांशच्छेद Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ : श. १३ : उ ७ : सू. १२६-१३५ ४५० प्रसङ्गः, तथा च संवेदनासम्पूर्णता स्यात्, तथा शरीरस्य दाहे आत्मनोऽपि दाहप्रसङ्गेन परलोकाभावप्रसङ्ग इत्यतः कथञ्चिदात्मनोऽन्योऽपि काय इति, अन्यैस्तु कार्म्मणकायमाश्रित्यात्मा काय इति व्याख्यातं, कार्मणकायस्य संसार्यात्मनश्च परस्पराव्यभिचरितत्वेनैकस्वरूपत्वात्, 'अन्नेवि काए' त्ति औदारिकादिकायापेक्षया जीवादन्यः कायस्तद्विमोचनेन तद्भेदसिद्धिरिति, 'रूविंपि काए' त्ति रूप्यपि कायः औदारिकादिकायस्थूलरूपापेक्षया, अरूप्यपि कायः कार्म्मणकायस्यातिसूक्ष्मरूपित्वेनारूपित्वविवक्षणात् । ' एवं एक्केक्के पुच्छ' त्ति पूर्वोक्तप्रकारेणैकैकसूत्रे पृच्छा विधेया, तद्यथा'सचित्ते भंते! काये अचित्ते काये ?' इत्यादि, अत्रोत्तरं'सचित्ते वि काए' जीवदवस्थायां चैतन्यसमन्वितत्वात्, 'अचित्तेवि काए' मृतावस्थायां चैतन्यस्याभावात्, 'जीवेवि काये' त्ति जीवोऽपि विवक्षितोच्छ्रासादिप्राणयुक्तोऽपि भवति कायः औदारिकादिशरीरमपेक्ष्य, 'अजीवेवि काये' त्ति अजीवोऽपि उच्छ्रासादिरहितोऽपि भवति कायः कार्म्मणशरीरमपेक्ष्य, 'जीवाणवि काये' त्ति जीवानां सम्बन्धी 'कायः शरीरं भवति, 'अजीवाणवि काये' त्ति अजीवानामपि स्थापनार्हदादीनां 'कायः ' शरीरं भवति शरीराकार इत्यर्थः 'पुव्विंपि काए' त्ति जीवसम्बन्धकालात्पूर्वमपि कायो भवति यथा भविष्यज्जीवसम्बन्धं मृतदर्दुरशरीरं 'काइज्जमाणेवि काए' त्ति जीवेन चीयमानोऽपि कायो भवति यथा जीवच्छरीरं । 'कायसमयवीतिक्कंतेवि काए' त्ति कायसमयो-जीवन कायस्य कायताकरणलक्षणस्तं व्यतिक्रान्तो यः स तथा सोऽपि काय एव मृतकडेवरवत्, 'पुव्विंपि काए भिज्जइ' त्ति जीवेन कायतया ग्रहणसमयात्पूर्वमपि कायो मधुघटादिन्यायेन द्रव्यकायो भ प्रतिक्षणं पुद्गलचयापचयभावात्, 'काइज्जमाणेवि काए भिज्जइ' त्ति जीवेन कायीक्रियमाणोऽपि कायो भिद्यते, सिकताकणकलापमुष्टिग्रहणवत् पुद्गलनामनुक्षणं परिशाटनभावात्, 'कायसमयवीतिक्कंतेऽवि काये भिज्जइ' त्ति काय - समयव्यतिक्रान्तस्य च कायता भूतभावतया घृतकुम्भादिन्यायेन, भेदश्च पुद्गलानां तत्स्वभावतयेति, चूर्णिकारेण पुनः कायसूत्राणि कायशब्दस्य केवलशरीरार्थत्यागेन चयमात्र - वाचकत्वमङ्गीकृत्य व्याख्यातानि यदाह - 'कायसद्दो सव्वभावसामन्नसरीरवाई' कायशब्दः सर्वभावानां सामान्यं यच्छरीरं चयमात्रं तद्वाचक इत्यर्थः, एवं च 'आयावि काए सेसदव्वाणिवि काये' त्ति, इदमुक्तं भवति - आत्माऽपि काय । प्रदेशसञ्चय इत्यर्थः तदन्योऽप्यर्थः कायप्रदेशसञ्चयरूपत्वादिति, रूपी कायः पुद्गलस्कन्धापेक्षया, अरूपी कायो जीवधर्मास्तिकायाद्यपेक्षया, सचित्तः कायो जीवच्छरीरापेक्षया, अचित्तः कायो - चेतनसञ्चयापेक्षया, जीवः कायः - उच्छ्रासादियुक्तावयवसञ्चयरूपः, अजीवः कायः तद्विलक्षणः, जीवानां कायोजीवराशिः, अजीवानां कायः - परमाण्वादिराशिरिति, एवं शेषाण्यपि । भगवती वृत्ति अथ कायस्यैव भेदानाह १३/१२९. 'कइविहे ण' मित्यादि, अयं च सप्तविधोऽपि प्राग् विस्तरेण व्याख्यातः इह तु स्थानाशून्यार्थं लेशतो व्याख्यायते, तत्र च ' ओरोलिए' त्ति औदारिकशरीरमेव पुद्गलस्कन्धरूपत्वादुपचीयमानत्वात्काय औदारिककायः, अयं च पर्यासकस्यैवेति, 'ओरालियमीसए' त्ति औदारिकश्चासौ मिश्रश्च कार्मणेनेत्यौदारिकमिश्रः अयं चापर्याप्तकस्य, 'वेउव्विय' त्ति वैक्रियः पर्याप्तकस्य देवादेः, 'वेउव्वियमीसए' त्ति वैक्रियश्चासौ मिश्रश्च कार्म्मणेनेति वैक्रियमिश्रः, अयं चाप्रतिपूर्णवैक्रियशरीरस्य देवादेः । ' आहारए' त्ति आहारकः आहारकशरीरनिर्वृत्तौ, 'आहारगमीसए' त्ति आहारकपरित्यागेनौदारिकग्रहणायोद्यतस्याहारकमिश्रो भवति मिश्रता पुनरौदारिकेणेति, 'कम्मए' त्ति विग्रहगतौ केवलिसमुद्घाते वा कार्म्मणः स्यादिति । अनन्तरं काय उक्तस्तत्त्यागे च मरणं भवतीति तदाह१३/१३०. 'कतिविहे णं भंते! मरणे' इत्यादि, 'आवीइयमरणे' त्ति आ - समन्ताद्वीचयः - प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपरापरायुर्दलिकोदयात्पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिन् तदावीचिकं अथवाऽविद्यमाना वीचिः -विच्छेदो यत्र तदवीचिकं अवीचिकमेवावीचिकं तच्च तन्मरणं चेत्यावीचिकमरणं, 'ओहिमरणे' त्ति अवधिः- मर्यादा ततश्चावधिना मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुःकर्म दलिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यते तदा तदवधिमरणमुच्यते, तद्द्रव्यापेक्षया पुनस्तद्ग्रहणावधिं यावज्जीवस्य मृतत्वात्, संभवति च गृहीतोज्झितानां कदलिकानां पुनर्ग्रहणं परिणामवैचित्र्यादिति, 'आइंतियमरणे' त्ति अत्यन्तं भवमात्यन्तिकं तच्च तन्मरणं चेति वाक्यं, यानि हि नरकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय पुनर्मरिष्यत इत्येवं यन्मरणं, तच्च तद्द्रव्यापेक्षयाऽत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति, 'बालमरणे' त्ति अविरतमरणं पंडियमरणे' त्ति सर्वविरतमरणं । १३/१३१. तत्रावीचिकमरणं पञ्चधा द्रव्यादिभेदेन । १३/१३२. तत्रावीचिकमरणं च चतुर्द्धा नारकादिभेदात्, तत्र नारकद्रव्यावीचिकमरणप्रतिपादनायाह १३/१३३-१३५. 'जण्ण' मित्यादि, 'यत् यस्माद्धेतोर्नैरयिका नारकत्वे द्रव्ये नारकजीवत्वेन वर्त्तमाना मरन्तीति योगः, 'नेरइयाउयत्ताए' त्ति नैरयिकायुष्कतया 'गहियाई' ति स्पर्शनतः 'बदाई' ति बन्धनतः 'पुट्ठाई' ति पोषितानि प्रदेशप्रक्षेपतः 'कडाई' ति विशिष्टानुभागतः 'पट्टवियाई' ति स्थितिसम्पादनेन 'निविट्ठाई' ति जीवप्रदेशेषु 'अभिनिविट्ठाई' ति जीवप्रदेशेष्वभिव्याप्त्या निविष्टानि अतिगाढतां गतानीत्यर्थः, ततश्च 'अभिसमन्नागयाई' ति अभिसमन्वागतानिउदयावलिकायामागतानि तानि द्रव्याणि 'आविइ' त्ति किमुक्तं Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४५१ परिशिष्ट-५ : श. १३ : उ. ८,६ : सू. १३८-१५५ भवति ?--'अणुसमयं' ति अनुसमयं-प्रतिक्षणम्, एतच्च सुयणाणावरणिज्जे' इत्यादि। तथा प्रकृतीनां स्थितिर्वाच्या, सा कतिपयसमयसमाश्रयणतोऽपि स्यादत आह–'निरंतरं मरंति' चैवं-नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स केवइयं कालं ठिती ति निरन्तरम्' अव्यवच्छेदेन सकलसमयेष्वित्यर्थः म्रियते पण्णता?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तीसं विमुञ्चन्तीत्यर्थः 'इतिकटु' त्ति इतिहेतो रयिकद्रव्यावीचिक- सागरोवमकोडाकोडीओ' इत्यादि, तथा बन्धो ज्ञानावरणीयादिमरणमुच्यत इति शेषः, एतस्यैव निगमनार्थमाह-'से तेणढेण' कर्मणामिन्द्रियानुपातेन वाच्यः, एकेन्द्रियादिर्जीवः कः कियतीं मित्यादि। ‘एवं जाव भावावीचियमरणे' त्ति इह यावत्करणात् कर्मस्थितिं बध्नाति? इति वाच्यमित्यर्थः, स चैवम्-'एगिंदिया कालावीचिकमरणं भवावीचिकमरणं च द्रष्टव्यं, तत्र चैवं णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति?, पाठः-'कालावीइयमरणे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते?, गोयमा! गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स तिन्नि सत्तभागे पलिओवमस्स चउविहे पण्णत्ते, तं जहा नेरइयकालावीइयमरणे ४, से केणटेणं असंखेज्जेणं भागेणं ऊणए उक्कोसेणं ते चेव पडिपुन्ने बंधति' भंते! एवं वुच्चइ नेरइयकालावीचियमरणे २ ?, गोयमा! जन्नं इत्यादि, तथा कीदृशो जीवो जघन्यां स्थितिं कर्मणामुत्कृष्टां वा नेरइया नेरइयकाले वट्टमाणा' इत्यादि, एवं भवावीचिक- बध्नातीति वाच्यं, तच्चेदं-'नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स मरणमप्यध्येयम्। जहन्नट्ठिइ-बंधए के ?, गोयमा ! अन्नयरे सुहुमसंपराए उवसामए १३/१३७,१३८. नैरयिकद्रव्यावधिमरणसूत्रे 'जण्ण' मित्यादि, एवं वा खवए वा एस णं गोयमा! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स चेहाक्षरघटना-नैरयिकद्रव्ये वर्तमाना ये नैरयिका यानि द्रव्याणि जहन्नट्ठिइबंधए तव्वइरित्ते अजहन्ने' इत्यादि। साम्प्रतं म्रियते-त्यजन्ति तानि द्रव्याण्यनागतकाले पुनस्त इति त्रयोदशशतेऽष्टमः॥१३.८॥ गम्यं मरिष्यन्ते-त्यक्ष्यन्तीति यत्तन्नैरयिकद्रव्यावधिमरणमुच्यत इति शेषः 'से तेणद्वेण' मित्यादि निगमनम्। नवम उद्देशकः १३/१४३,१४४. पण्डितमरणसूत्रे ‘णीहारिमे अणीहारिमे' त्ति अनन्तरोद्देशके कर्मस्थितिरुक्ता, कर्मवशाच्च वैक्रियकरणयत्पादपोपगमनमाश्रयस्यैकदेशे विधीयते तन्निर्हारिम, कडेवरस्य शक्तिर्भवतीति तद्वर्णनार्थो नवम उद्देशकस्तस्य चेदमादिसूत्रम्निर्हरणीयत्वात. यच्च गिरिकन्दरादौ विधीयते तदनि रिमं, १३/१४९. 'रायगिहे' इत्यादि, 'केयाघडियं' ति रज्जुप्रान्तबद्धघटिका कडेवरस्यानिर्हरणीयत्वात्, 'नियम अप्पडिकम्मे' त्ति शरीर 'केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं' ति केयाघटिकालक्षणं प्रतिकर्मवर्जितमेव। यत्कृत्यं-कार्य तत् हस्ते गतं यस्य स तथा तेनात्मना 'वेहासं' १३/१४५. चतुर्विधाहारप्रत्याख्याननिष्पन्नं चेदं भवतीति, 'तं चेव' त्ति ति विभक्तिपरिणामात् 'विहायसि' आकाशे 'केयाघडियाकिच्चकरणान्निर्हारिममनिर्हारिमं चेति दृश्य, सप्रतिकर्मैव चेदं हत्थगयाइं' ति केयाघटिकालक्षणं कृत्यं हस्ते गतं येषां तानि भवतीति। त्रयोदशशते सप्तमः॥१३-७॥ १३/१५१. 'हिरन्नपेडं' ति हिरण्यस्य मञ्जूषां 'वियलकिलं' ति विदलानां वंशार्द्धानां यः कटः स तथा तं 'सुंबकिड्डे' ति अष्टम उद्देशकः वीरणकटं 'चम्मकिहुं' ति चर्मव्यूतं खट्टादिकं 'कंबलकिड्डे' ति अनन्तरोद्देशके मरणमुक्तं, तच्चायुष्कर्मस्थितिक्षयरूपमिति ऊर्णामयं कम्बलं-जीनादि। कर्मणां स्थितिप्रतिपादनार्थोऽष्टम उद्देशकस्तस्य चेदमादि. १३/१५२. 'वग्गुली' ति चर्मपक्षः पक्षिविशेष: 'वग्गुलिकिच्चगएणं' सूत्रम् ति वग्गुलीलक्षणं कृत्यं कार्यं गतं-प्राप्तं येन स तथा तद्रूपतां १३/१४७. 'कति ण' मित्यादि, 'एवं बंधठिइउद्देसओ' त्ति ‘एवम्' गत इत्यर्थः, ‘एवं जन्नोवइयवत्तव्वया भाणियव्वा' इत्यनेनेदं अनेन प्रश्नोत्तरक्रमेण बन्धस्य कर्मबन्धस्य स्थितिबन्ध- सूचितं-'हता उप्पएज्जा, अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाई स्थितिः कर्मस्थितिरित्यर्थः तदर्थ उद्देशको बन्धस्थित्युद्देशको पभू वग्गुलिरूवाइं विउवित्तए?, गोयमा! से जहानामए-जुवतिं भणितव्यः, स च प्रज्ञापनायास्त्रयोविंशतितमपदस्य द्वितीयः, जुवाणे हत्थेणं हत्थे गिण्हेज्जा' इत्यादि। इह च वाचनान्तरे सङ्ग्रहणीगाथाऽस्ति, सा चेयं १३/१५३. 'जलोय' त्ति जलौका जलजो द्वीन्द्रियजीवविशेषः 'पयडीणं भेयठिई बंधोवि य इंदियाणुवाएणं। 'उव्विहिय' त्ति उद्बह्य २ उत्प्रेर्य २ इत्यर्थः। केरिसय जहन्नठिई बंधइ उक्कोसियं वावि॥१॥' १३/१५५. 'बीयंबीयगसउणे' त्ति बीजंबीजकाभिधानः शकुनिः स्यात् अस्याश्चायमर्थः-कर्मप्रकृतीनां भेदो वाच्यः, स चैवं-'कइ णं 'दोवि पाए' त्ति द्वावपि पादौ 'समतुरंगेमाणे' त्ति समौ तुल्यौ भंते! कम्मपयडीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ तुरङ्गस्य-अश्वस्य समोत्क्षेपणं कुर्वन् सम तुरंगयमाणः पन्नत्ताओ, तं जहा-नाणावरणिज्जं सणावरणिज्ज' मित्यादि, समकमुत्पाटयन्नित्यर्थः। तथा 'नाणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते?, गोयमा! १३/१५५. 'पक्खिविरालए' त्ति जीवविशेषः 'डेवेमाणे' ति अतिपंचविहे पण्णत्ते, जं जहा-आभिणिबोहियणाणावरणिज्जे क्रामन्नित्यर्थः। तथा। चाद, Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ : श. १३ : उ. १०: सू. १५८ - १६८ ४५२ १३/१५८. 'वीईओ वीइं' ति कल्लोलात् कल्लोलं । १३/१६०. ‘वेरुलियं’ इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'लोहियक्खं मसारगल्लं हंसगब्भं पुलगं सोगंधियं जाईरसं अंक अंजणं रणं जायरूवं अंजणपुलगं फलिहं' ति, 'कुमुदहत्थगं' इत्यत्र त्वेवं यावत्करणादिदं दृश्यं -'नलिणहत्थगं सुभगहत्थगं सोगंधियहत्थगं पुंडरीयहत्थगं महापुंडरीयहत्थगं सयवत्तहत्थगं' ति । १३/१६१. 'बिसं' ति बिसं - मृणालम् 'अवदालियं' त्ति अवदार्यदारयित्वा । १३ / १६२. 'मुणालिय' त्ति नलिनी कायम् 'उम्मज्जिय' त्ति कायमुन्मज्ज्य - उन्मग्नं कृत्वा । १३/१६३. 'किण्हे किण्होभासे' त्ति 'कृष्णः ' कृष्णवर्णोऽञ्जनवत्स्वरूपेण कृष्ण एवावभासते - द्रष्टृणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः, इह यावत्कारणादिदं दृश्यं - 'नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे निद्धे निदोभासे तिव्वे तिब्वोभासे किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए तिब्वे तिव्वच्छाए घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहनिउरंबभूए' त्ति तत्र च 'नीले नीलोभासे' त्ति प्रदेशान्तरे 'हरिए हरिओभासे' त्ति प्रदेशान्तर एव नीलश्च मयूरगलवत् हरितस्तु शुकपिच्छवत् हरितालाभ इति च वृद्धा, 'सीए सीओभासे' त्ति शीतः स्पशपिक्षया वल्ल्याद्याक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः 'निद्धे निदोभासे' त्ति स्निग्धो रूक्षत्ववर्जितः 'तिव्वे तिव्वोभासे' त्ति 'तीव्र' वर्णादिगुणप्रकर्षवान् 'किण्हे किण्हच्छाए' त्ति इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता, तथाहि-- कृष्णः सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशेषः, एवमुत्तरपदेष्वपि, 'घणकडियकडिच्छाए' त्ति अन्योऽन्यं शाखानुप्रवेशाद्बहलं निरन्तरच्छाय इत्यर्थः । १३/१६४. 'अणुपुव्वसुजाय' इत्यत्र यावत्करणादेवं दृश्यम् -'अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजला' अनुपूर्वेण सुजाता वप्रा यत्र गम्भीरं शीतलं च जलं यत्र सा तथेत्यादि, 'सहुन्नइयमहुरसरनाइय' त्ति इदमेवं दृश्यं - 'सुयबरहिणमयणसालकोंचकोइलकोज्जकभिंकारककोंडलकजीवंजीवकनंदीमुहकबिलपिंगलखगकारंडगचक्कवायकलहंससारस अणेगसउणगणमिहुणविरइयसद्दुन्नइयमहुरसरनाइय' त्ति तत्र शुकादीनां सारसान्तानामनेकेषां शकुनिगणानां मिथुनैर्विरचितं शब्दोन्नतिकं च-उन्नतशब्दकं मधुरस्वरं च नादितं-लपितं यस्यां सा तथेति । त्रयोदशशते नवमः ॥ १३-९॥ भगवती वृत् दशम उद्देशकः अनन्तरोद्देशके वैक्रियकरणमुक्तं तच्च समुद्घाते सति छद्मस्थस्य भवतीति छाद्मस्थिकसमुद्घाताभिधानार्थो दशमः उद्देशकस्तस्य चेदमादिसूत्रम् १३ / १६८. 'कइ ण' मित्यादि, 'छाउमत्थिय' त्ति छद्मस्थः - अकेवली तत्र भवाश्छाद्मस्थिकाः ‘समुग्घाये' ति 'हन हिंसागत्योः ' हननं घातः सम्- एकीभावे उत्-प्राबल्ये ततश्चैकीभावेन प्राबल्येन च घातः समुद्घातः, अथ केन सहैकी भावगमनम् ?, उच्यते, यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घातं गतस्तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवतीति वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहैकीभावः, प्राबल्येन घातः कथम् ?, उच्यते यस्माद्वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवनयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयतिआत्मप्रदेशैः सह संश्लिष्टान् सातयतीत्यर्थः अतः प्राबल्येन घाते इति, अयं चेह षड्विध इति बहुवचनं, तत्र 'वेयणासमुग्धाए' त्ति एक:, ' एवं छाउमत्थिए' इत्यादिअतिदेशः, 'जहा पन्नवणाए ' त्ति इह षट्त्रिंशत्तमपद इति शेषः, ते च शेषाः पञ्चैवं - ' कसायसमुग्धाए २ मारणंतियसमुग्धाए ३ वेउव्वियसमुग्धा ४ तेयगसमुग्धाए ५ आहारगसमुग्धाए ६' त्ति, तत्र वेदनासमुद्घातः असद्वेद्यकर्म्माश्रयः कषायसमुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्म्माश्रयः मारणान्तिकसमुद्घातः अन्तर्मुहूर्तशेषायुष्ककर्माश्रयः वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्घाताः शरीरनामकर्माश्रयाः, तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं, मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धत आयुष्ककर्मपुद्गलशातं वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीराद्बहिर्निष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमायामतश्च सङ्ख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्म्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् सातयति सूक्ष्मांश्चादत्ते, यथोक्तं- ' वे उव्वियसमुग्घाएणं समोहण समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसिरइ २ अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ २ अहासुहुमे पोग्गले आइयर' त्ति । एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयाविति ॥ त्रयोदशशते दशमः ॥ १३-१०॥ समाप्तं च त्रयोदशं शतम् ॥ १३ ॥ त्रयोदशस्यास्य शतस्य वृत्तिः, कृता मया पूज्यपदप्रसादात् । नान्धकारे विहितोद्यमोऽपि, दीपं विना पश्यति वस्तुजातम् ॥ ॥ इति समाप्तं श्रीमदभयदेवसूरिवरविवृतायां भगवत्यां शतकं त्रयोदशम् ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४५३ परिशिष्ट-५ : श. १४ : उ. १ : सू. १-३ विराधयेत्तदा 'कम्मलेस्सामेव' त्ति कर्मणः सकाशाद्या लेश्या-जीवपरिणतिः सा कर्मलेश्या भावलेश्येत्यर्थः 'तामेव प्रतिपतति' तस्या एव प्रतिपतति अशुभतरतां याति न तु द्रव्यलेश्यायाः प्रतिपतति, सा हि प्राक्तन्येवास्ते, द्रव्यतोऽवस्थितलेश्यत्वाद्देवानामिति। अथ चतुर्दशं शतकम् पक्षान्तरमाह-'से य तत्थे' त्यादि, 'सः' अनगारः 'त.' मध्यमदेवावासे गतः सन् यदि न विराधयेत्तं परिणामं तदा तामेव च लेश्यां ययोत्पन्नः 'उपसम्पद्य' आश्रित्य 'विहरति' आस्त प्रथम उद्देशकः इति। व्याख्यातं विचित्रार्थं त्रयोदशं शतम्, अथ विचित्रार्थमेव क्रमायातं इदं सामान्यं देवावासमाश्रित्योक्तं, अथ विशेषितं चतुर्दशमारभ्यते, तत्र च दशोद्देशकास्तत्सङ्ग्रहगाथा चेयम्- तमेवाश्रित्याह'चरउम्माद सरीरे' इत्यादि, तत्र 'चर' त्ति सूचनामात्रत्वादस्य १४/२. 'अणगारे ण' मित्यादि, ननु यो भावितात्माऽनगारः स चरमशब्दोपलक्षितोऽपि चरमः प्रथम उद्देशकः, 'उम्माय' त्ति कथमसुरकुमारेषूत्पत्स्यते विराधितसंयमानां तत्रोत्पादादिति, उन्मादार्थाभिधायकत्वादुन्मादो द्वितीयः, 'सरीरे' त्ति उच्यते, पूर्वकालापेक्षया भावितात्मत्वम्, अन्तकाले च शरीरशब्दोपलक्षितत्वाच्छरीरस्तृतीयः, 'पुग्गल' त्ति संयमविराधनासद्धावादसुरकुमारादितयोपपात इति न दोषः, पुद्गलार्थाभिधायकत्वात्पुद्गलश्चतुर्थः, 'अगणी' ति बालतपस्वी वाऽयं भावितात्मा द्रष्टव्य इति॥ अग्निशब्दोपलक्षितत्वादग्निः पञ्चमः। किमाहारे' त्ति किमाहारा अनन्तरं देवगतिरुक्तेति गत्याधिकारान्नारकगतिमाश्रित्याहइत्येवंविधप्रश्नोपलक्षितत्वात्किमाहारः षष्ठः, 'संसिट्ठ' त्ति १४/३. 'नेरइयाण' मित्यादि. 'कह सीहा गई' त्ति 'कथं' केन प्रकारेण चिरसंसिट्ठोऽसि गोयम' त्ति इत्यत्र पदे यः कीदशीत्यर्थः शीघ्रा गतिः, नारकाणामुत्पद्यमानानां शीघ्रा संश्लिष्टशब्दस्तदुपलक्षितत्वात् संश्लिष्टोद्देशकः सप्तमः, गतिर्भवतीति प्रतीतं, यादृशेन च शीघ्रत्वेन शीघ्राऽसाविति च न 'अंतरे' त्ति पृथिवीनामन्तराभिधायकत्वादन्तरोद्देशकोऽष्टमः, प्रतीतमित्यतः प्रश्नः कृतः 'कहं सीहे गइविसए' त्ति कथमिति 'अणगारे' त्ति अणगारेति पूर्वपदत्वादनगारोद्देशको नवमः, कीदृशः 'सीहे' ति शीघ्रगतिहेतुत्वाच्छीघ्रो गतिविषयो'केवलि' त्ति केवलीति प्रथमपदत्वात् केवली दशमोद्देशक इति।। गतिगोचरस्तद्धेतुत्वात्काल इत्यर्थः, कीदृशी शीघ्रा गतिः? तत्र प्रथमोद्देशके किञ्चिल्लिख्यते कीदृशश्च तत्कालः ? इति तात्पर्य, 'तरुणे' त्ति प्रवर्द्धमानवयाः, १४/१. 'चरमं देवावासं वीतिक्कंते परमं देवावासं असंपत्ते' त्ति, स च दुर्बलोऽपि स्यादत आह–'बलवं' ति शारीरप्राणवान्, बलं 'चरमम्' अर्वाग्भागवर्त्तिनं स्थित्यादिभिः 'देवावासं' च कालविशेषाद्विशिष्टं भवतीत्यत आह-'जुगवं' ति सौधर्मादिदेवलोकं 'व्यतिक्रान्तः' लचितस्तदुपपातहेतुभूत- युगं-सुषमदुष्षमादिः कालविशेषस्तत् प्रशस्तं विशिष्टबललेश्यापरिणामापेक्षया 'परमं' परभागवर्त्तिनं स्थित्यादिभिरेव हेतुभूतं यस्यास्त्यसौ युगवान, यावत्करणादिदं दृश्य-'जुवाणे' 'देवावासं' सनत्कुमारादिदेवलोकं 'असम्प्राप्तः' तदुपपात- वयःप्राप्तः 'अप्पायंके' अल्पशब्दस्याभावार्थत्वादनातङ्कोहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षयैव, इदमुक्तं भवति-प्रशस्तेष्व- नीरोगः 'थिरग्नहत्थे' स्थिराग्रहस्तः सुलेखकवत् ध्यवसायस्थानेषूत्तरोत्तरेषु वर्तमान आराद्भागस्थित- 'दढपाणिपायपासपिट्टतरोरुपरिणए' दृढं पाणिपादं यस्य पाश्र्वी सौधर्मादिगतदेवस्थित्यादिबन्धयोग्यतामतिक्रान्तः परभागवर्त्ति पृष्ठ्यन्तरे च ऊरू च परिणते-परिनिष्ठिततां गते यस्य स तथा सनत्कुमारादिगतदेवस्थित्यादिबन्धयोग्यतां चाप्राप्तः ‘एत्थ णं उत्तमसंहनन इत्यर्थः, 'तलजमलजुयलपरिघनिभबाहू' अंतरं त्ति इहावसरे ‘कालं करेज्ज' त्ति म्रियते यस्तस्य तलौ-तालवृक्षौ तयोर्यमलं-समश्रेणीकं यद् युगलं-द्वयं क्वोत्पादः ? इति प्रश्नः, उत्तरं तु 'जे से तत्थ' त्ति अथ ये परिघश्च-अर्गला तन्निभौ-तत्सदृशौ दीर्घसरलपीनत्वादिना तत्रेति-तयोः चरमदेवावासपरमदेवावासयोः 'परिपार्श्वतः' बाहू यस्य स तथा, 'चम्मेठ्ठदुहणमुट्ठियसमाहयनिचियगायकाए' समीपे सौधमदिरासन्नाः सनत्कुमारादेर्वाऽऽसन्नास्तयोर्मध्यभागे चर्मेष्टया द्रुघणेन मुष्टिकेन च समाहतानि अभ्यासप्रवृत्तस्य ईशानादावित्यर्थः 'तल्लेसा देवावास' त्ति यस्यां लेश्यायां निचितानि गात्राणि यत्र स तथाविधः कायो यस्य स तथा, वर्तमानः साधुर्मृतः सा लेश्या येषु ते तल्लेश्या देवावासाः 'तहिं' चर्मेष्टादयश्च लोकप्रतीताः, 'ओरसबलसमन्नागए' आन्तरति तेषु देवावासेषु तस्यानगारस्य गतिर्भवतीति, यत बलयुक्तः 'लंघणपवणजइणवायामसमत्थे' जविनशब्दःउच्यते-'जल्लेसे मरइ जीवे तल्लेसे चेव उववज्जइ' ति से य' शीघ्रवचनः 'छेए' प्रयोगज्ञः 'दक्खे' शीघ्रकारी ‘पत्तढे त्ति से पुनरनगारस्तत्र मध्यमभागवर्त्तिनि देवावासे गतः अधिकृतकर्मणि निष्ठां गतः 'कुसले' आलोचितकारी 'मेहावी' 'विराहिज्ज' त्ति येन लेश्यापरिणामेन तत्रोत्पन्नस्तं परिणामं यदि सकतश्रुतदृष्टकर्मज्ञः 'निउणे' उपायारम्भकः, एवंविधस्य हि Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारिता परिशिष्ट-५ : श. १४ : उ.१ : सू. ४-१४ ४ ५४ भगवती वृत्ति पुरुषस्य शीघ्र गत्यादिकं भवतीत्यतो बहुविशेषणोपादानमिति, अनन्तरं गतिमाश्रित्य नारकादिदण्डक उक्तः , 'आउंटियं' ति सङ्कोचितं 'विक्खिन्नं' ति 'विकीर्णा' प्रसारितां अथानन्तरोत्पन्नत्वादि प्रतीत्यापरं तमेवाह'साहरेज्ज' त्ति ‘साहरेत्; सङ्कोचयेत् 'विक्खिरेज्ज' त्ति १४/४,५. 'नेरझ्या ण' मित्यादि, 'अणंतरोववन्नग' त्ति न विद्यते विकिरेत्-प्रसारयेत् 'उम्मिसियं' ति 'उन्मिषितम्' उन्मीलितं अन्तरं-समयादिव्यवधानं उपपन्ने-उपपाते येषां ते 'निमिसेज्ज' त्ति निमीलयेत्, 'भवेयारूवे' त्ति काक्वाऽध्येयं, अनन्तरोपपन्नकाः 'परंपरोववन्नग' त्ति परम्परा-द्विवादिसमयता काकुपाठे चायमर्थः स्यात् यदुतैवं मन्यसे त्वं गौतम ! उपपन्ने-उपपाते येषां ते परम्परोपपन्नकाः, भवेत्तद्रूपं-भवेत्स स्वभावः शीघ्रतायां नरकगतेस्तद्विषयस्य च । 'अणंतरपरंपरअणुववन्नग' त्ति अनन्तरं-अव्यवधानं परम्परं यदुक्तं विशेषणपुरुषबाहुप्रसारणादेरिति एवं गौतममतमाशङ्कय च-द्वित्रादिसमयरूपमविद्यमानं उत्पन्नं-उत्पादो येषां ते तथा, भगवानाह-नायमर्थः समर्थः, अथ कस्मादेवमित्याह-'नेरइयाण' एते च विग्रहगतिकाः, विग्रहगतौ हि द्विविधस्याप्युत्पादस्यामित्यादि, अयमभिप्रायः- नारकाणां गतिरेकद्वित्रिसमया विद्यमानत्वादिति॥ बाहुप्रसारणादिका चासङ्ख्येय-समययेति कथं तादृशी अथानन्तररोपपन्नादीनाश्रित्यायुर्बन्धमभिधातुमाहगतिर्भवति नारकाणामिति, तत्र च ‘एगसमएण व' त्ति एकेन १४/६-८. 'अणंतरे' त्यादि, इह चानन्तरोपन्नानामनन्तरपरम्परानुपसमयेनोपपद्यन्त इति योगः, ते च ऋजुगतावेव, वाशब्दो पन्नानां च चतुर्विधस्याप्यायुषः प्रतिषेधोऽध्येतव्यः, विकल्पे, इह च विग्रहशब्दो न सम्बन्धितः, तस्यामवस्थायां तथाविधाध्यवसायस्थानाभावेन तस्यैकसामायिकस्याभावात्, 'दुसमएण व' त्ति द्वौ समयौ यत्र सर्वजीवानामायुषो बन्धाभावात्, स्वायुषस्त्रिभागादौ च शेषे स द्विसमयस्तेन विग्रहेणेति योगः, एवं त्रिसमयेन वा बन्धसद्भावात्, परम्परोपपन्नकास्तु स्वायुषः षण्मासे शेषे विग्रहेण-वक्रेण, तत्र द्विसमयो विग्रह एवं यदा भरतस्य पूर्वस्या मतान्तरेणोत्कर्षतः षण्मासे जघन्यतश्चान्तर्मुहूर्ते शेषे दिशो नरके पश्चिमायामुत्पद्यते तदैकेन समयेनाधो याति भवप्रत्ययात्तिर्यग्मनुष्यायुषी एव कुर्वन्ति नेतरे इति, ‘एवं जाव द्वितीयेन तु तिर्यगुत्पत्तिस्थानमिति, त्रिसमयविग्रहस्त्वेवं यदा वेमाणिय' त्ति अनेनोक्तालापकत्रययुक्तश्चतुर्विंशतिदण्डभरतस्य पूर्वदक्षिणाया दिशो नारकेऽपरोत्तरायां दिशि कोऽध्येतव्य इति सूचितं, यश्चात्र विशेषस्तं दर्शयितुमाह-'नवरं गत्वोत्पद्यते तदैकेन समयेनाधः समश्रेण्या याति द्वितीयेन च पंचिंदिए' त्यादि। तिर्यक् पश्चिमायां तृतीयेन तु तिर्यगेव वायव्यां दिशि अथानन्तरनिर्गतत्वादिनाऽपरं दण्डकमाह-- उत्पत्तिस्थानमिति, तदनेन गतिकाल उक्तः, एतदभिधानाच्च १४/९,१०. 'नेरइया ण' मित्यादि, तत्र निश्चितं स्थानान्तरप्राप्त्या शीघ्रा गतिर्यादृशी तदुक्तमिति। गतं-गमनं निर्गतं अनन्तरं-समयादिना निर्व्यवधानं निर्गतं येषां अथ निगमयन्नाह-'नेरइयाण' मित्यादि, 'तहा सीहा गइ' त्ति तेऽनन्तरनिर्गतास्ते च येषां नरकादुद्वृत्तानां स्थानान्तरं प्राप्तानां यथोत्कृष्टतः समयत्रये भवति 'तहा सीहे गइविसए' त्ति तथैव, प्रथम समयो वर्तते, तथा परम्परेण-समयपरम्परया निर्गतं येषां 'एगिदियाणं चउसामइए विग्गहे' त्ति उत्कर्षतश्चतुःसमय ते तथा, ते च येषां नरकादुद्वृत्तानामुत्पत्तिस्थानप्राप्तानां व्यादयः एकेन्द्रियाणां 'विग्रहो' वक्रगतिर्भवति, कथम् ? उच्यते, समयाः अनन्तरपरम्परानिर्गतास्तु ये नरकादुद्वृत्ताः सन्तो त्रसनाड्या बहिस्तादधोलोके विदिशो दिशं यात्येकेन, विग्रहगतौ वर्तन्ते न तावदुत्पादक्षेत्रमासादयन्ति जीवानामनुश्रेणिगमनात्, द्वितीयेन तु लोकमध्ये प्रविशति तेषामनन्तरभावेन परम्परभावेन चोत्पादक्षेत्राप्राप्तत्वेन तृतीयेनोवं याति चतुर्थेन तु वसनाडीतो निर्गत्य निश्चयेनानिर्गतत्वादिति। दिग्व्यवस्थितमुत्पादस्थानं प्राप्नोतीति, एतच्च अथानन्तरनिर्गतादीनाश्रित्यायुर्बन्धमभिधातुमाहबाहुल्यमङ्गीकृत्योच्यते, अन्यथा पञ्चसमयोऽपि विग्रहो १४/११-१३. 'अणंतरे' त्यादि, इह च परम्परानिर्णता नारकाः भवेदेकेन्द्रियाणां, तथाहि-त्रसनाड्या बहिस्तादधोलोके विदिशो सर्वाण्यायूंषि बध्नन्ति, यतस्ते मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च एव दिशं यात्येकेन द्वितीयेन लोकमध्ये तृतीयेनोर्वलोके चतुर्थेन च भवन्ति, ते च सर्वायुर्बन्धका एवेति, एवं सर्वेऽपि ततस्तिर्यक् पूर्वादिदिशो निर्गच्छति। ततः पञ्चमेन परम्परानिर्गता वैक्रियजन्मानः, औदारिकजन्मानोऽप्युद्वृत्ताः विदिग्व्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं यातीति, उक्तञ्च केचिन्मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो भवन्त्यतस्तेऽपि सर्वायुर्बन्धका 'विदिसाउ दिसिं पढमे बीए पइ सरइ नाडिमझंमि। एवेति। उद्धं तइए तुरिए उ नीइ विदिसं तु पंचमए॥१॥' अनन्तरं निर्गता उक्तास्ते च क्वचिदुत्पद्यमानाः सुखेनोत्पद्यन्ते (विदिशो दिशं प्रति सरति प्रथमे द्वितीये नाडीमध्यं। तृतीय दुःखेन वेति दुःखोत्पन्नकानाश्रित्याहऊर्ध्वं तुर्ये निर्गच्छति पंचमे तु विदिशं ॥१॥) इति, 'सेसं तं चेव' १४/१४. 'नेरइये' त्यादि, 'अनंतरखेदोववन्नग' त्ति अनन्तरंत्ति 'पुढविक्काइयाणं भंते! कह सीहा गई ?' इत्यादि सर्वं यथा समयाद्यव्यवहितं खेदेन-दुःखेनोपपन्नं-उत्पादक्षेत्रप्राप्तिलक्षणं नारकाणां तथा वाच्यमित्यर्थः। येषां तेऽनन्तरखेदोपपन्नकाः खेदप्रधानोत्पत्तिप्रथमसमयवर्त्तिन Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति परिशिष्ट-५:श. १४ : उ. २,३ : सू. १६-३१ इत्यर्थः 'परंपरक्खेओववन्नग' त्ति परम्पराद्विवादिसमयता इदं च द्वयमपि चतुर्विंशतिदण्डके योजयन्नाहखेदेनोपपन्ने उत्पादे-येषां ते परम्पराखेदोपपन्नकाः, १४/१७-२०. 'नेरइयाण' मित्यादि, 'पुढविक्काइयाण' मित्यादौ 'अणंतरपरंपरखेदाणुववन्नग' त्ति अनन्तरं परम्परं च खेदेन यदुक्तं 'जहा नेरइयाणं' ति तेन देवे वा से असुभे पोग्गले नास्त्युपपन्नकं येषां ते तथा विग्रहगतिवर्त्तिन इत्यर्थः, 'ते चेव पक्खिवेज्जा' इत्येतद् यक्षावेशे पृथिव्यादिसूत्रेषु अध्यापितं, चत्तारि दंडगा भाणियव्व' त्ति त एव पूर्वोक्ता उत्पन्नदण्डकादयः 'वाणमंतरे' त्यादौ तु यदुक्तं 'जहा असुरकुमाराणं' ति तेन खेदशब्दविशेषिताश्चत्वारो दण्डका भणितव्याः, तत्र च प्रथमः यक्षावेश एव व्यन्तरादिसूत्रेषु 'देवे वा से महड्डियतराए' खेदोपपन्नदण्डको द्वितीयस्तदायुष्कदण्डकस्तृतीयः खेदनिर्गत- इत्येतदध्यापितं, मोहोन्मादालापकस्तु सर्वसूत्रेषु समान इति। दण्डकश्चतुर्थस्तु तदायुष्कदण्डक इति। अनन्तरं वैमानिकदेवानां मोहनीयोन्मादलक्षणः क्रियाविशेष चतुर्दशशते प्रथमः॥१४-१॥ उक्तः। अथ वृष्टिकायकरणरूपं तमेव देवेन्द्रादिदेवानां दर्शयन् प्रस्तावनापूर्वकमाहद्वितीय उद्देशकः १४/२१. 'अस्थि ण' मित्यादि, 'अत्थि' त्ति अस्त्येतत् 'पज्जन्ने' त्ति अनन्तरोद्देशकेऽनन्तरोपपन्ननैरयिकादिवक्तव्यतोक्ता, पर्जन्यः 'कालवासि' त्ति काले-प्रावृषि वर्षतीत्येवंशीलः कालवर्षी, अथवा कालश्चासौ वर्षी चेति कालवर्षी, 'वृष्टिकायं' नैरयिकादयश्च मोहवन्तो भवन्ति, मोहश्चोन्माद इत्युन्माद प्रवर्षणतो जलसमूह प्रकरोति प्रवर्षतीत्यर्थः, इह स्थाने शक्रोऽपि प्ररूपणार्थो द्वितीय उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम् तं प्रकरोतीति दृश्य, तत्र च पर्जन्यस्य प्रवर्षणक्रियायां १४/१६. 'कतिविहे ण' मित्यादि, 'उन्मादः' उन्मत्तता तत्स्वाभाव्यतालक्षणो विधिः प्रतीत एव, शक्रप्रवर्षणक्रियाविविक्तचेतनाभंश इत्यर्थः 'जक्खाएसे य' त्ति विधिस्त्वप्रतीत इति तं दर्शयन्नाहयक्षो-देवस्तेनावेशः-प्राणिनोऽधिष्ठानं यक्षावेशः, १४/२२. 'जाहे' इत्यादि, अथवा पर्जन्य इन्द्र एवोच्यते, स च 'मोहणिज्जस्से' त्यादि तत्र मोहनीयं-मिथ्यात्वमोहनीयं कालवर्षी काले-जिनजन्मादिमहादौ वर्षतीतिकृत्वा, 'जाहे णं' तस्योदयादुन्मादो भवति यतस्तदुदयवर्ती जन्तुरतत्त्वं तत्त्वं ति यदा ‘से कहमियाणिं पकरेइ' त्ति स शक्रः कथं तदानीं मन्यते तत्त्वमपि चातत्त्वं, चारित्रमोहनीयं वा यतस्तदुदये जानन्नपि विषयादीनां स्वरूपमजानन्निव वर्त्तते, अथवा चारित्र प्रकरोति ?, वृष्टिकायमिति प्रकृतम्।। मोहनीयस्यैव विशेषो वेदाख्यो मोहनीयं, १४/२३,२४. असुरकुमारसूत्रे 'किं पत्तियण्णं' ति किं प्रत्ययं कारणमाश्रित्येत्यर्थः 'जम्मणमहिमासु व' त्ति जन्ममहिमासु यतस्तदुदयविशेषेऽप्युन्मत्त एव भवति। यदाह जन्मोत्सवान् निमित्तीकृत्येत्यर्थः। 'चिंतइ १ दट्ठमिच्छइ २ दीहं नीससइ ३ तह जरे ४ दाहे ५। देवक्रियाऽधिकारादिदमपरमाहभत्तअरोअग ६ मुच्छा ७ उम्माय ८ न याणई ९ मरणं १०॥१॥' इति। (चिन्तयति द्रष्टुमिच्छति दीर्घ निःश्वसिति तथा ज्वरो १४/२५-२७. 'जाहे ण' मित्यादि, 'तमुक्काए' त्ति तमस्कायकारिणः 'किड्डारइपत्तियं' ति क्रीडारूपा रतिः क्रीडारतिः अथवा क्रीडा दाहः। भक्तारोचकत्वं मूर्छा उन्मादो न जानाति मरणं च।) एतयोश्चोन्मादत्वे समानेऽपि विशेषं दर्शयन्नाह च-खेलनं रतिश्च-निधुवनं क्रीडारती सैव ते एव वा प्रत्ययः-कारणं यत्र तत् क्रीडारतिप्रत्ययं 'गुत्तीसंरक्खणहेउं व' 'तत्थ ण' मित्यादि तत्र तयोर्मध्ये 'सुहवेयणतराए चेव' त्ति अतिशयेन सुखेन-मोहजन्योन्मादापेक्षयाऽक्लेशेन त्ति गोपनीयद्रव्यसंरक्षणहेतोर्वेति। वेदनं-अनुभवनं यस्यासौ सुखवेदनतरः स एव सुखवेदनतरकः, चतुर्दशशते द्वितीयः॥१४-२॥ चैवशब्दः स्वरूपावधारणे, 'सुहविमोयणतराए चेव' त्ति अतिशयेन सुखेन विमोचनं-वियोजनं यस्मादसौ तृतीय उद्देशकः सुखविमोचनतरः, कप्रत्ययस्तथैव। 'तत्थ ण' मित्यादि, मोहजन्योन्माद इतरापेक्षया दुःखवेदनतरो भवत्यनन्तसंसार द्वितीयोद्देशके देवव्यतिकर उक्तः, तृतीयेऽपि स एवोच्यते कारणत्वात्, संसारस्य च दुःखवेदनस्वभावत्वात्, इतरस्तु इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्सुखवेदनतर एव, एकभविकत्वादिति, तथा मोहजोन्माद १४/२९-३१. 'देवे ण' मित्यादि, इह च क्वचिदियं द्वारगाथा दृश्यतेइतरापेक्षया दुःखविमोचनतरो भवति, 'महक्काए सक्कारे सत्थेणं वीईवयंति देवा उ। विद्यामन्त्रतन्त्रदेवानुग्रहवतामपि वार्त्तिकानां तस्यासाध्यत्वात्, वासे चेव य ठाणा नेरइयाणं तु परिणामे॥१॥' इतरस्तु सुखविमोचनतर एव भवति यन्त्रमात्रेणापि तस्य इति, अस्याश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति। 'महाकाय' निग्रहीतुं शक्यत्वादिति, आह च त्ति महान-बृहन् प्रशस्तो वा कायो-निकायो यस्य स 'सर्वज्ञमन्त्रवाद्यपि यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः। महाकायः, 'महासरीरे' त्ति बृहत्तनुः । ‘एवं देवदंडओ भाणियव्वो' मिथ्यामोहोन्मादः स केन किल कथ्यतां तुल्यः?॥१॥' त्ति नारकपृथिवीकायिकादीनामधिकृतव्यतिकरस्यासम्भवाद् Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ : श. १४ : उ. ४: सू. ३२-४६ ४५६ देवानामेव च संभवाद्देवदण्डकोऽत्र व्यतिकरे भणितव्य इति । प्राग् देवानाश्रित्य मध्यगमनलक्षणो दुर्विनय उक्तः, अथ नैरयिकादीनाश्रित्य विनयविशेषानाह १४ / ३२. 'अत्थि ण' मित्यादि, 'सक्कारेइ व' त्ति सत्कारो - विनयार्हेषु वन्दनादिनाऽऽदरकरणं प्रवरवस्त्रादिदानं वा 'सत्कारो पवरवत्थमाईहिं' इति वचनात् 'सम्माणेइ व' त्ति सन्मानःतथाविधप्रतिपत्तिकरणं 'किइकम्मेइ व' त्ति कृतिकर्म्मवन्दनं कार्यकरणं वा 'अब्भुट्ठाणेइ व' त्ति अभ्युत्थानं - गौरवाह - दर्शन विष्टरत्यागः 'अंजलि पग्गहेइ व' त्ति अञ्जलिप्रग्रहः – अञ्जलिकरणम् 'आसणाभिग्गहेइ व' त्ति आसनाभिग्रहः- तिष्ठत एव गौरव्यस्यासनानयनपूर्वकमुपविशतेति भणनं 'आसणाणुप्पयाणेइ व' त्ति आसनानुप्रदानंगौरव्यमाश्रित्यासनस्य स्थानान्तरसञ्चारणं 'इंतस्स पच्चुग्गच्छणय' त्ति आगच्छतो गौरव्यस्याभिमुखगमनं 'ठियस्स पज्जुवासणय' त्ति तिष्ठतो गौरव्यस्य सेवेति 'गच्छंतस्स पडिसंसाहणय' त्ति गच्छतोऽनुव्रजनमिति, अयं च विनयो नारकाणां नास्ति, सततं दुःस्थत्वादिति । पूर्वं विनय उक्तः, अथ तद्विपर्ययभूताविनयविशेषं देवानां परस्परेण प्रतिपादयन्नाह १४/३६-३९. 'अप्पड्डिए ण' मित्यादि, 'एवं एएणं अभिलावेण ' मित्यादौ 'आडिउद्देसए' त्ति दशमशतस्य तृतीयोद्देशके 'निरवसेसं' ति समस्तं प्रथमं दण्डकसूत्रं वाच्यं तत्र चाल्पर्द्धिकमहर्द्धिकालापकः समर्द्धिकालापकश्चेत्यालापकद्वयं साक्षादेव दर्शितं केवलं समर्द्धिकालापकस्यान्तेऽयं सूत्रशेषो दृश्य:- 'गोयमा ! पुव्विं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीईवएज्जा नो पुव्विं वीईवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमिज्ज' त्ति, तृतीयस्तु महर्द्धिकाल्पर्द्धिकालापक एवं - 'महड्डिए णं भंते! देवे अप्पडि यस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा ?, हंता वीइवएज्जा, से णं भंते! किं सत्थेणं अक्कमित्ता पभू अणक्कमित्ता पभू ?, शस्त्रेण हत्वा हत्वा वेत्यर्थः, 'गोयमा ! अक्कमित्तावि पभू अणक्कमित्तावि पभू, से णं भंते! किं पुव्विं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा पुव्विं वीइवएज्जा पच्छा सत्थेणं अक्कमेज्जा ?, गोयमा ! पुब्विं वा सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा पुव्विं वा वीइवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमिज्ज' त्ति, 'चत्तारि दंडगा भाणियव्व' त्ति तत्र प्रथमदण्डक उक्तालापकत्रयात्मको देवस्य देवस्य च द्वितीयस्त्वेवंविध एव नवरं देवस्य च देव्याश्च एवं तृतीयोऽपि नवरं देव्याश्च देवस्य च, चतुर्थोऽप्येवं नवरं देव्याश्च देव्यांश्चेति, अत एवाह - 'जाव महड्डिया वेमाणिणी अप्पड्डियाए वेमाणिणीए' त्ति, 'मज्झंमज्झेण' मित्यादि तु पूर्वोक्तानुसारेणाध्येयमिति । अनन्तरं देववक्तव्यक्तोक्ता, अथैकान्तदुःखित्वे तद्विपर्ययभूता नारका इति तद्गतवक्तव्यतामाह१४/४०-४२. 'रयणे' त्यादि, ' एवं वेयणापरिणामं' ति भगवती वृत्ति पुद्गलपरिणामवद् वेदनापरिणामं प्रत्यनुभवन्ति नारकाः, तत्र चैवमभिलापः - ' रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते! केरिसयं वेयणापरिणामं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ?, गोयमा ! अणिट्टं जाव अमणामं एवं जाव असत्तमापुढविनेरइया' शेषसूत्रातिदेशायाह' एवं जहा जीवाभिगमे' इत्यादि, जीवाभिगमोक्तानि चैतानि विंशतिः पदानि, तद्यथा 'पोग्गलपरिणामं १ वेयणाइ २ लेसाइ ३ नामगोए य ४ । अरई ५ भय य ६ सोगे ७ खुहा ८ पिवासा य ९ वाही य १० ॥ १ ॥ उसासे ११ अणुतावे १२ कोहे १३ माणे य १४ माय १५ लोभे य १६ । चत्तारि य सन्नाओ २० नेरइयाणं परीणामे ॥ २ ॥ ' इति, तत्र चाद्यपदद्वयस्याभिलापो दर्शित एव, शेषाणि त्वष्टादशाद्यपदद्वयाभिलापेनाध्येयानीति ॥ चतुर्दशशते तृतीयः ॥ १४-३॥ चतुर्थ उद्देशकः तृतीयोद्देशके नारकाणां पुद्गलपरिणाम उक्त इति, चतुर्थोद्देशऽपि पुद्गलपरिणामविशेष एवोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् १४/४४-४६. 'एस णं भंते' ! इत्यादि, इह पुनरुद्देशकार्थसङ्ग्रहगाथा क्वचिद् दृश्यते, सा चेयं 'पोग्गल १ खंधे २ जीवे ३ परमाणू ४ सासए य ५ चरमे य। दुविहे खलु परिणामे अज्जीवाणं च जीवाणं ६ ॥ १ ॥' अस्याश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति, 'पुग्गले' त्ति पुद्गलः परमाणुः स्कन्धरूपश्च 'तीतमणंतं सासयं समयं ति विभक्तिपरिणामादतीते अनन्ते अपरिमाणत्वात् शाश्वते अक्षयत्वात् 'समये' काले 'समयं लुक्खी' ति समयमेकं यावद्र्क्षस्पर्शसद्भावाद्र्क्षी, तथा 'समयं अलुक्खी' त्ति समयमेकं यावदरूक्षस्पर्शसद्भावाद् 'अरूक्षी' स्निग्धस्पर्शवान् बभूव, इदं च पदद्वयं परमाणौ स्कन्धे च संभवति, तथा 'समयं लुक्खी वा अलुक्खी व' त्ति समयमेव रूक्षश्चारूक्षश्च रूक्षस्निग्धलक्षणस्पर्शद्वयोपेतो बभूव, इदं च स्कन्धापेक्षं यतो द्व्यणुकादिस्कन्धे देशो रूक्षो देशश्चारूक्षो भवतीत्येवं युगपद्र्क्षस्निग्धस्पर्शसम्भवः, वाशब्दौ चेह समुच्चयार्थी, एवंरूपश्च सन्नसौ किमनेकवर्णादिपरिणामं परिणमति पुनश्चैकवर्णादिपरिणामः स्यात् ? इति पृच्छन्नाह - 'पुव्विं च णं करणेणं अणेगवन्नं अणेगरूवं परिणामं परिणमइ' इत्यादि, 'पूर्वं च' एकवर्णादिकपरिणामात्प्रागेव 'करणेन' प्रयोगकरणेन विस्रसाकरणेन वा 'अनेकवर्णं' कालनीलादिवर्णभेदेनानेकरूपं गन्धरसस्पर्शसंस्थानभेदेन 'परिणाम' पर्यायं परिणमति अतीतकालविषयत्वादस्य परिणतवानिति द्रष्टव्यं पुद्गल इति प्रकृतं स च यदि परमाणुस्तदा समयभेदेनानेकवर्णादित्वं परिणतवान्, यदि च स्कन्धस्तदा यौगपद्येनापीति । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४५७ 'अह से' त्ति 'अथ' अनन्तरं सः - एष परमाणोः स्कन्धस्य चानेकवर्णादिपरिणामो 'निर्जीर्णः ' क्षीणो भवति परिणामान्तराधायककारणोपनिपातवशात् 'ततः पश्चात् ' निर्जरणानन्तरम् 'एकवर्णः' अपेतवर्णान्तरत्वादेकरूपो विवक्षितगन्धादिपर्यायापेक्षयाऽपरपर्यायाणामपेतत्वात् 'सिय' त्ति बभूव अतीतकालविषयत्वादस्येति प्रश्नः, अहोत्तरमेतदेवेति, अनेन च परिणामिता पुद्गलद्रव्यस्य प्रतिपादितेति । 'एस ण' मित्यादि वर्त्तमानकालसूत्रं, तत्र च 'पडुप्पन्नं' ति विभक्तिपरिणामात् 'प्रत्युत्पन्ने' वर्त्तमाने 'शाश्वते' सदैव तस्य भावात् 'समये' कालमात्रे 'एवं चेव' त्ति करणात्पूर्वसूत्रोक्तमिदं दृश्यं - 'समयं लुक्खी समयं अलुक्खी समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा' इत्यादि, यच्चेहानन्तमिति नाधीतं तद्वर्त्तमानसमयस्यानन्तत्वासम्भवात्, अतीतानागतसूत्रयोस्त्वन्तमित्यधीतं तयोरनन्तत्वसम्भवादिति । अनन्तरं पुद्गलस्वरूपं निरूपितं, पुद्गलश्च स्कन्धोऽपि भवतीति पुद्गलभेदभूतस्य स्कन्धस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह१४/४७. 'एस णं भंते! खंधे' इत्यादि ॥ स्कन्धश्च स्वप्रदेशापेक्षया जीवोऽपि स्यादितीत्थमेव जीवस्वरूपं निरूपयन्नाह - १४ / ४८. 'एस णं भंते! जीवे' इत्यादि, 'एषः ' प्रत्यक्षो जीवोऽतीतेऽनन्ते शाश्वते समये समयमेकं दुःखी दुःखहेतुयोगात् समयं चादुःखी सुखहेतुयोगाद्बभूव समयमेव च दुःखी वाsदुःखी वा, वाशब्दयोः समुच्चयोर्थत्वाद् दुःखी च सुखी च तद्धेतुयोगात्, न पुनरेकदा सुखदुःखवेदनमस्ति एकोपयोगत्वाज्जीवस्येति, एवंरूपश्च सन्नसौ स्वहेतुतः किमनेकभावं परिणामं परिणमति पुनश्चैकभावपरिणामः स्यात् ? इति पृच्छन्नाह - 'पुव्विं च करणेणं अणेगभावं अणेगभूयं परिणामं परिणमइ' 'पूर्वं च' एकभावपरिणामात्प्रागेव करणेन कालस्वभावादिकारणसंवलिततया शुभाशुभकर्मबन्धहेतुभूतया क्रिययाऽनेको भावः - पर्यायो दुःखित्वादिरूपो यस्मिन् स तथा तमनेकभावं परिणाममिति योगः 'अणेगभूयं' ति अनेकभावत्वादेवानेकरूपं 'परिणामं' स्वभावं 'परिणमइ' त्ति अतीतकालविषयत्वादस्य 'परिणतवान्' प्राप्तवानिति । 'अह से' अथ 'तत्' दुःखितत्वाद्यनेकभावहेतुभूतं 'वेयणिज्जे' त्ति वेदनीयं कर्म्म उपलक्षणत्वाच्चास्य ज्ञानावरणीयादि च 'निर्जीर्णं' क्षीणं ततः पश्चात् 'एगभावे' त्ति एको भावः सांसारिकसुखविपर्ययात् स्वाभाविकसुखरूपो यस्यासावेकभावोऽत एव 'एकभूतः ' एकत्वं प्राप्तः 'सिय' त्ति बभूव कर्म्मकृतधर्मान्तरविरहादिति प्रश्नः इहोत्तरमेतदेव । एवं प्रत्युत्पन्नानागतसूत्रे अपीति । पूर्वं स्कन्ध उक्तः, स च स्कन्धरूपत्यागाद्विनाशी भवति, एवं परमाणुरपि स्यान्न वा ? इत्याशङ्कायामाह - १४/४९,५०. 'परमाणुपोग्गले णं' ति पुद्गलः स्कन्धोऽपि स्यादतः परिशिष्ट - ५ : श. १४ : उ. ४ : सू. ४७-५२ परमाणुग्रहणं 'सासए' त्ति शश्वद्भवनात् शाश्वतः नित्यः अशाश्वतस्त्वनित्यः 'सिय सासए' त्ति कथञ्चिच्छाश्वतः 'दव्वट्टयाए' त्ति द्रव्यं - उपेक्षितपर्यायं वस्तु तदेवार्थो द्रव्यार्थ - स्तद्भावस्तत्ता तया द्रव्यार्थतया शाश्वतः स्कन्धान्तर्भावेऽपि परमाणुत्वस्याविनष्टत्वात् प्रदेशलक्षणव्यपदेशान्तरव्यपदेश्यत्वात्, ‘वन्नपज्जवेहिं' ति परि- सामस्त्येनावन्ति-गच्छन्ति ये ते पर्यवा विशेषा धर्म्मा इत्यनर्थान्तरं ते च वर्णादिभेदादनेकधेयत्यतो विशेष्यते वर्णस्य पर्यवा वर्णपर्यवा अतस्तैः, 'असासए' त्ति विनाशी, पर्यवाणां पर्यवत्वेनैव विनश्वरत्वादिति । परमाण्वधिकारादेवेदमाह चरमः, १४/५१. ‘परमाणु' इत्यादि, 'चरमे' त्ति यः परमाणुर्यस्माद्विवक्षितभावाच्च्युतः सन् पुनस्तं भावं न प्राप्स्यति स तद्भावापेक्षया एतद्विपरीतस्त्वचरम इति, तत्र 'दव्वादेसेणं' ति आदेशः - प्रकारो द्रव्यरूप आदेशो द्रव्यादेशस्तेन नो चरमः, स हि द्रव्यतः परमाणुत्वाच्च्युतः सङ्घातमवाप्यापि ततश्च्युतः परमाणुत्वलक्षणं द्रव्यत्वमवाप्स्यतीति । 'खेत्तादेसेणं' ति क्षेत्रविशेषितत्वलक्षणप्रकारेण 'स्यात्' कदाचिच्चरमः, कथम् ?, यत्र क्षेत्रे केवली समुद्घातं गतस्तत्र क्षेत्रे यः परमाणुरवगाढोऽसौ तत्र क्षेत्रे तेन केवलिना समुद्घातगतेन विशेषितो न कदाचनाप्यवगाहं लप्स्यते, केवलिनो निर्वाणगमनादित्येवं क्षेत्रतश्चरमोऽसाविति, निर्विशेषण क्षेत्रापेक्षया त्वचरमः, तत्क्षेत्रावगाहस्य तेन लप्स्यमानत्वादिति । 'कालादेसेणं' ति कालविशेषितत्वलक्षणप्रकारेण 'सिय चरमे' त्ति कथञ्चिच्चरमः, कथम् ?, यत्र काले पूर्वाह्णादौ केवलिना समुद्घातः कृतस्तत्रैव यः परमाणुतया संवृत्तः स च तं कालविशेषं केवलिसमुद्घात- विशेषितं न कदाचनापि प्राप्स्यति तस्य केवलिनः सिद्धिगमनेन पुनः समुद्घाताभावादिति तदपेक्षया कालतश्चरमोऽसाविति निर्विशेषणकालापेक्षया त्वचरम इति । 'भावाएसेणं' ति भावो - वर्णादिविशेषस्तद्विशेषलक्षणप्रकारेण 'स्याच्चरमः' कथञ्चिच्चरमः, कथं ?. विवक्षितकेवलिसमुद्घातावसरे यः पुद्गलो वर्णादिभावविशेषं परिणतः स विवक्षितकेवलिसमुद्घातविशेषितवर्णपरिणामापेक्षया चरमो यस्मात्तत् केवलिनिर्वाणे पुनस्तं परिणाममसौ न प्राप्स्यतीति, इदं च व्याख्यानं चूर्णिकारमतमुपजीव्य कृतमिति । अनन्तरं परमाणोश्चरमत्वावचरमत्वलक्षणः परिणामः प्रतिपादितः, अथ परिणामस्यैव भेदाभिधानायाह१४ / ५२. 'कइविहे ण' मित्यादि, तत्र परिणमनं - द्रव्यस्यावस्थान्तर गमनं परिणामः, आह च 'परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न तु सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ १ ॥' इति, 'परिणामपयं' ति प्रज्ञापनायां त्रयोदशं परिणामपदं, तच्चैवं- 'जीवपरिणामे णं भंते! कइविहे पन्नत्ते ?, गोयमा ! दसविहे Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पय परिशिष्ट-५ : श. १४ : उ. ५ : सू. ५४-६८ ४५८ भगवती वृत्ति पण्णत्ते, तं जहा-गइपरिणामे इंदियपरिणामे एवं कसायलेसा पुनरेवमाह-एगिंदियाण गई नत्थि' त्ति ते न गच्छन्ति, एगे जोगउवओगे नाणदंसणचरित्तवेदपरिणामे 'इत्यादि, तथा- वाउक्काइया परपेरणेसु गच्छंति विराहिज्जति य' त्ति। 'अजीवपरिणामे णं भंते! कइविहे पण्णत्ते?, गोयमा! दसविहे १४/५९,६०. पञ्चेन्द्रियतिर्यक्सूत्रे 'इड्डिप्पत्ता य' त्ति पण्णत्ते तं जहा-बंधणपरिणामे १ गइपरिणाम २ एवं संठाण ३ वैक्रियलब्धिसम्पन्नाः 'अत्थेगइए अगणिकायस्से' त्यादि, भेय ४ वन्न ५ गंध ६ रस ७ फास ८ अगुरुलहुय ९ सद्दपरिणामे अस्त्येककः कश्चित् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको यो मनुष्य१०' इत्यादि। लोकवर्ती स तत्राग्निकायसम्भवात्तन्मध्येन व्यतिव्रजेत, यस्तु चतुर्दशशते चतुर्थः।।१४-४॥ मनुष्यक्षेत्राहि सावग्नेमध्येन व्यतिव्रजेत्, अग्नेरेव तत्रा भावात्, तदन्यो वा तथाविधसामग्यभावात्, 'नो खलु तत्थ पंचम उद्देशकः सत्थं कमइ' त्ति वैक्रियादिलब्धिमति पञ्चेन्द्रियतिरश्चि नाग्न्यादिकं शस्त्रं क्रमत इति। चतुर्थोद्दशके परिणाम उक्त इति परिणामाधिकारा अथ दश स्थानानीति द्वारमभिधातुमाहव्यतिव्रजनादिकं विचित्रं परिणाममधिकृत्य पञ्चमोद्देशकमाह, १४/६१. 'नेरइया दस ठाणाई' इत्यादि, तत्र 'अणिट्ठा गइ' त्ति तस्य चेदमादिसूत्रम् अप्रशस्तविहायोगतिनामोदयसम्पाद्या नरकगतिरूपा वा, १४/५४,५५. 'नेरइए ण' मित्यादि, इह च क्वचिदुद्देशकार्थसङ्ग्रह 'अणिट्ठा ठिति' त्ति नरकावस्थानरूपा नरकायुष्करूपा वा गाथा दृश्यते, सा चेयं 'अणिढे लावन्ने' त्ति लावण्यं-शरीराकृतिविशेषः 'अणिढे 'नेरइय अगणिमझे दस ठाणा तिरिय पोग्गले देवे। जसोकित्ति' त्ति प्राकृतत्वादनिष्टेति द्रष्टव्यं यशसापव्वयभित्ती उल्लंघणा य पल्लंघणा चेव॥१॥ सर्वदिग्गामिप्रख्यातिरूपेण पराक्रमकृतेन वा सह कीर्तिःइति, अर्थश्चास्या उद्देशकार्थावगमगम्य इति, 'नो खलु तत्थ एकदिग्गामिनी प्रख्यातिनिफलभूता वा यशःकीर्त्तिः अनिष्टत्वं सत्थं कमइ' त्ति विग्रहगतिसमापन्नो हि कार्मणशरीरत्वेन च तस्या दुष्प्रख्यातिरूपत्वात्, 'अणिढे उट्ठाणे' इत्यादि, सूक्ष्मः, सूक्ष्मत्वाच्च तत्र 'शस्त्रम्' अग्न्यादिकं न क्रामति। 'तत्थ उत्थानादयो वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिजन्यवीर्य-विशेषाः, णं जे से' इत्यादि, अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोप अनिष्टत्वं च तेषां कुत्सितत्वादिति। पन्नोऽभिधीयते न तु ऋजुगतिसमापन्नः तस्येह प्रकरणेऽनधि १४/६३. 'पुढविक्काइए' त्यादि, 'छट्ठाणाई' ति पृथिवीकायिकृतत्वात्, स चाग्निकायस्य मध्येन न व्यतिव्रजति, नारकक्षेत्रे कानामेकेन्द्रियत्वेन पूर्वोक्तदशस्थानकमध्ये शब्दरूपगन्धरसा बादराग्निकायस्याभावात्, मनुष्यक्षेत्र एव तद्भावात्, न विषय इति स्पर्शादीन्येव षट् ते प्रत्यनुभवन्ति, 'इट्ठाणिट्ठा यच्चोत्तराध्ययनादिषु श्रूयते-'हुयासणे जलंतंमि दड्डपुव्वो फास' त्ति सातासातोदयसम्भवात् शुभाशुभक्षेत्रोत्पत्तिभावाच्च, अणेगसो।' इत्यादि तदग्निसदृशद्रव्यान्तरापेक्षया-ऽवसेयं, 'इट्ठाणिट्ठा गइ' ति यद्यपि तेषां स्थावरत्वेन गमनरूपा संभवन्ति च तथाविधशक्तिमन्ति द्रव्याणि तेजोलेश्या गतिनास्ति स्वभावतस्तथाऽपि परप्रत्यया सा भवतीति द्रव्यवदिति। शुभाशुभत्वेनेष्टानिष्टव्यपदेशार्हा स्यात्, अथवा यद्यपि १४/५६,५७. असुरकुमारसूत्रे विग्रहगतिको नारकवत्, पापरूपत्वात्तिर्यग्गतिरनिष्टैव स्यात्तथाऽपीषत्प्राग्भाराऽअविग्रहगतिकस्तु कोऽप्यग्नेमध्येन व्यतिव्रजेत् यो प्रतिष्ठानादिक्षेत्रोत्पत्तिद्वारेणेष्टानिष्टगतिस्तेषां भावनीयेति, मनुष्यलोकमागच्छति, यस्तु न तत्रागच्छति असौ न ‘एवं जाव परक्कमे' ति वचनादिदं दृश्यम्-'इट्ठाणिट्ठा ठिई' सा व्यतिव्रजेत्, व्यतिव्रजन्नपि च न ध्यायते ध्मायते वा, यतो न च गतिवद्भावनीया 'इट्ठाणिढे लावन्ने' इदं च मण्यन्धपाषाणादिषु खलु तत्र शस्त्र क्रमते सूक्ष्मत्वाद्वैक्रियशरीरस्य शीघ्रत्वाच्च भावनीयम् 'इट्ठाणिढे जसोकित्ती' इयं सत्प्रख्यात्यतद्गतेरिति। 'एगिदिया जहा नेरइय' त्ति कथम् ?, यतो विग्रहे सत्प्रख्यातिरूपा मण्यादिष्वेवावसेयेति, 'इट्ठाणिद्वे उट्ठाण जाव तेप्यग्निमध्येन व्यतिव्रजन्ति सूक्ष्मत्वान्न दह्यन्ते च, परक्कमे' उत्थानादि च यद्यपि तेषां स्थावरत्वान्नास्ति तथाऽपि अविग्रहगतिसमापन्नकाश्च तेऽपि नाग्नेमध्येन व्यतिव्रजन्ति प्राग्भवानुभूतोत्थानादिसंस्कारवशात्तदिष्टमनिष्टं वाऽवसेयमिति। स्थावरत्वात्, तेजोवायूनां गतित्रसतयाऽग्नेमध्येन व्यतिव्रजनं १४/६४. 'बंदिया सत्तद्वाणाई' त्ति शब्दरूपगन्धानां तदविषयत्वात्, यद् दृश्यते तदिह न विवक्षितमिति सम्भाव्यते, स्थावर रसस्पर्शादिस्थानानि च शेषाण्येकेन्द्रियाणामिवेष्टानिष्टान्यवत्वमात्रस्यैव विवक्षितत्वात्, स्थावरत्वे हि अस्ति कथञ्चित्तेषां सेयानि, गतिस्तु तेषां त्रसत्वाद्गमनरूपा द्विधाऽप्यस्ति, गत्यभावो यदपेक्षया स्थावरास्ते व्यपदिश्यन्ते, अन्यथाऽधि- भवगतिस्तूत्पत्तिस्थानविशेषेणेष्टानिष्टाऽवसेयेति। कृतव्यपदेशस्य निर्निबन्धनता स्यात्, तथा यद्वाय्वादि- अथ 'तिरियपोग्गले देवे' इत्यादिद्वारगाथोक्तार्थाभिधानायाहपारतन्त्र्येण पृथिव्यादीनामग्निमध्येन व्यतिव्रजनं दृश्यते तदिह १४/६८. 'देवे ' मित्यादि, 'बाहिरए' त्ति भवधारणीयशरीरन विवक्षितं, स्वातन्त्र्यकृतस्यैव तस्य विवक्षणात्, चूर्णिकारः व्यतिरिक्तान् 'अपरियाइत्त' त्ति 'अपर्यादाय' अगृहीत्वा Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४५६ परिशिष्ट-५:श. १४ : उ.६: सू. ७१-७५ 'तिरियपव्वयं' ति तिरश्चीनं पर्वतं गच्छतो मार्गावरोधकं 'तिरियं 'कथं' केन प्रकारेण तदानीं प्रकरोति?-प्रवर्त्तत इत्यर्थः, भित्तिं व' त्ति तिर्यग्भित्तिं-तिरश्चीनां प्राकारवरण्डिकादिभित्तिं 'नेमिपडिरूवर्ग' ति नेमिः-चक्रधारा तद्योगाच्चक्रमपि पर्वतखण्डं वेति 'उल्लंघेत्तए' त्ति सकदुल्लङ्घने 'पल्लंघेत्तए व' नेमिः-तत्प्रतिरूपकं-वृत्ततया तत्सदृशं स्थानमिति शेषः, 'तिन्नि त्ति पुनः पुनर्लङ्घनेनेति। जोयणे त्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यं-'सोलस य चतुर्दशशते पञ्चमः॥१४-५॥ जोयणसहस्साई दो य सयाइं सत्तावीसाहियाई कोसतियं अट्ठावीसाहियं धणुसयं तेरस य अंगुलाई' ति, 'उवरिं' ति षष्ठम उद्देशकः उपरिष्टात् 'बहुसमरमणिज्जे' त्ति अत्यन्तसमो रम्यश्चेत्यर्थः 'जाव मणीणं फासो' त्ति भूमिभागवर्णकस्तावद्वाच्यो पञ्चमोद्देशके नारकादिजीववक्तव्यतोक्ता षष्ठेऽपि सैवोच्यते यावन्मणीनां स्पर्शवर्णक इत्यर्थः, स चायं-'से इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् जहानामए-आलिंगपोक्खरेइ वा मुइंगपोक्खरेइ वा' इत्यादि, १४/७१. 'रायगिहे' इत्यादि, 'किमाहार' ति किमाहारयन्तीति किमाहाराः 'किंपरिणाम' त्ति किमाहारितं सत्परिणामयन्तीति आलिङ्गपुष्करं मुरजमुखपुटं-मईलमुखपुटं तद्वत्सम इत्यर्थः, तथा 'सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीईहिं सउज्जोएहिं नाणाविहपंचवन्नेहिं किंपरिणामाः 'किंजोणीय' त्ति का योनिः-उत्पत्तिस्थानं येषां ते मणीहिं उवसोहिए तं जहा-किण्हेहिं ५' इत्यादि वर्णगन्धरसकिंयोनिकाः, एवं किंस्थितिकाः, स्थितिश्च अवस्थानहेतुः, स्पर्शवर्णको मणीनां वाच्य इति। 'अब्भुग्णयमूसियवन्नओ' त्ति अत्रोत्तरं क्रमेणैव दृश्यं व्यक्तं च, नवरं 'पुग्गलजोणीय' त्ति अभ्युद्गतोच्छ्रितादिः प्रासादवर्णको वाच्य इत्यर्थः, स च पुद्गलाः-शीतादिस्पर्शा योनी येषां ते तथा, नारका हि पूर्ववत्, 'उल्लोए' त्ति उल्लोकः उल्लोचो वा-उपरितलं शीतयोनय उष्णयोनयश्चेति, 'पोग्गलट्ठिइय' त्ति पुद्गला 'पउमलयाभत्तिचित्ते' ति पद्मानि लताश्च आयुष्ककर्मपुद्गलाः स्थितिर्येषां नरके स्थितिहेतुत्वात्ते तथा, पद्मलतास्तद्रूपाभिक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रो यः स तथा, अथ कस्मात्ते पुद्गलस्थितयो भवन्तीत्यत आह-'कम्मोवगे' यावत्करणादिदं दृश्य-'पासाइए दरिसणिज्जे अभिरूवे' त्ति, त्यादि कर्म-ज्ञानावरणादि पुद्गलरूपमुपगच्छन्ति-बन्धन 'मणिपेढिया अट्ठजोयणिया जहा वेमाणियाणं' ति मणिपीठिका द्वारेणोपयान्तीति कर्मोपगाः कर्मनिदानं नारकत्वनिमित्तं वाच्या, सा चायामविष्कम्भाभ्यामष्टयोजनिका यथा कर्म बन्धनिमित्तं वा येषां ते कर्मनिदानाः, तथा कर्मणः वैमानिकानां सम्बधिनी न तु व्यन्तरादिसत्केव, तस्या कर्मपुद्गलेभ्यः सकाशात् स्थितिर्येषां ते कर्मस्थितयः, तथा अन्यथास्वरूपत्वात्, सा पुनरेवं-'तस्स णं 'कम्मुणामेव विप्परियासमेति' त्ति कर्मणैव हेतुभूतेन मकार बहुसमरमणिज्जस्सभूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं आगमिकः विपर्यासं-पर्यायान्तरं पर्याप्तापर्याप्तादिकमायान्ति एगं मणिपेढियं विउव्वइ, सा णं मणिपेढिया अट्ठ जोयणाई प्राप्नुवन्ति अतस्ते पुद्गलस्थितयो भवन्तीति। आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं आहारमेवाश्रित्याह सव्वरयणामई अच्छा जाव पडिरूव' त्ति, 'सयणिज्जवन्नओ' त्ति १४/७२,७३. 'नेरइया ण' मित्यादि, 'वीइदव्वाई' ति वीचिः शयनीयवर्णको वाच्यः, स चैवं-'तस्स णं देवसयणिज्जस्स विवक्षितद्रव्याणां तदवयवानां च परस्परेण पृथग्भावः 'वीचिर् इमेयारूवे वन्नावासे पण्णत्ते' वर्णकव्यासः-वर्णकविस्तरः, 'तं पृथग्भावे' इति वचनात्, तत्र वीचिप्रधानानि द्रव्याणि जहा नाणामणिमया पडिपाया सोवन्निया पाया णाणामणिमयाई वीचिद्रव्याणि एकादिप्रदेशन्यूनानीत्यर्थः, एतन्निषेधाद पायसीसगाई' इत्यादिरिति, 'दोहि य अणीएहिं' ति वीचिद्रव्याणि, अयमत्र भावः-यावता द्रव्यसमुदायेनाहारः पूर्यते अनीकं सैन्यं 'नट्टाणीएण यत्ति नाट्यं-नृत्यं तत्कारकमनीकंस एकादिप्रदेशोनो वीचिद्रव्याण्युच्यते, परिपूर्णस्त्ववीचि जनसमूहो नाट्यानीकं, एवं गन्धर्वानीकं नवरं गन्धर्व-गीतं, द्रव्याणीति टीकाकारः, चूर्णिकारस्त्वाहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्येदं 'महये' त्यादि यावत्करणादेवं दृश्यं–'महयाहयनट्टगीयवाइव्याख्यातवान्, तत्र च याः सर्वोत्कृष्टाहारद्रव्यवर्गणास्ता यतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं' ति व्याख्या अवीचिद्रव्याणि, यास्तु ताभ्य एकादिना प्रदेशेन हीनास्ता चास्य प्राग्वत्, इह च यत् शक्रस्य सुधर्मसभालक्षणवीचिद्रव्याणीति, 'एगपएसऊणाइंपि दव्वाइं' ति भोगस्थानसद्भावेऽपि भोगार्थं नेमिप्रतिरूपकादिविकुर्वणं एकप्रदेशोनान्यपि अपिशब्दादनेकप्रदेशोनान्यपीति। तज्जिनास्थ्नामाशातनापरिहारार्थं, सुधर्मसभायां हि माणवके अनन्तरं दण्डकस्यान्ते वैमानिकानामाहारभोग उक्तः, अथ स्तम्भे जिनास्थीनि समुद्गकेषु सन्ति, तत्प्रत्यासत्तौ च वैमानिकविशेषस्य कामभोगोपदर्शनायाह भोगानुभवने तदबहुमानः कृतः स्यात् स चाशातनेति। १४/७४. 'जाहे ण' मित्यादि, 'जाहे' त्ति यदा 'भोगभोगाई ति १४/७५. 'सिंहासणं विउव्वई' ति सनत्कुमारदेवेन्द्रः सिंहासनं भुज्यन्त इति भोगाः-स्पर्शादयः भोगार्हा भोगा भोगभोगाः विकुरुते न तु शक्रेशानाविव देवशयनीयं, स्पर्शमात्रेण तस्य मनोज्ञस्पर्शादय इत्यर्थः तान् ‘से कहमियाणिं पकरेइ' त्ति अथ परिचारकत्वान्न शयनीयेन प्रयोजनमिति भावः, 'सपरिवारं' ति Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १४ : उ. ७ : सू. ७७-८० ४६० भगवती वृत्ति स्वकीयपरिवारयोग्यासनपरिकरितमित्यर्थः, 'नवरं जो जस्स प्रत्यक्षान्मनुष्यभवाच्च्युतौ 'दोवि' त्ति द्वावप्यावां तुल्यौ परिवारो सो तस्स भाणियव्वो' त्ति तत्र सनत्कुमारस्य परिवार भविष्याव इति योगः तत्र 'तुल्यौ' समानजीवद्रव्यौ 'एकट्ठ' त्ति उक्तः, एवं माहेन्द्रस्य तु सप्ततिः सामानिकसहस्राणि 'एकार्थी' एकप्रयोजनावनन्तसुखप्रयोजनत्वात् एकस्थौ चतस्रश्चाङ्गरक्षसहस्राणां सप्ततयः, ब्रह्मणः षष्टिः सामानिक- वा-एकक्षेत्राश्रितौ सिद्धिक्षेत्रापेक्षयेति 'अविसेसमणाणत्त' त्ति सहस्राणां लान्तकस्य पञ्चाशत् शुक्रस्य चत्वारिंशत् ‘अविशेष' निर्विशेष यथा भवत्येवम् 'अनानात्वौ' सहस्रारस्य त्रिंशत् प्राणतस्य विंशतिः अच्युतस्य तु दश तुल्यज्ञानदर्शनादिपर्यायाविति, इदं च किल यदा भगवता सामानिकसहस्राणि, सर्वत्रापि च सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षा गौतमेन चैत्यवन्दनायाष्टापदं गत्वा प्रत्यागच्छता इति। 'पासायउच्चत्तं ज' मित्यादि तत्र सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षड् पञ्चदशतापसशतानि प्रवाजितानि समुत्पन्नकेवलानि च योजनशतानि प्रासादस्योच्चत्वं ब्रह्मलान्तकयोः सप्त श्रीमन्महावीरसमवसरणमानीतानि तीर्थप्रणामकरणसमनन्तरं शुक्रसहस्रारयोरष्टौ प्राणतेन्द्रस्याच्युतेन्द्रस्य च नवेति, इह च च केवलिपर्षदि समुपविष्टानि, गौतमेन चाविदिततत्केवलोसनत्कुमारादयः सामानिकादिपरिवारसहितास्तत्र त्पादव्यतिकरेणाभिहितानि यथा-आगच्छत भोः साधवः ! नेमिप्रतिरूपके गच्छन्ति, तत्समक्षमपि स्पर्शादिप्रतिचारणाया भगवन्तं वन्दध्वमिति, जिननायकेन च गौतमोऽभिहितो अविरुद्धत्वात्, शक्रेशानौ तु तथा, सामानिकादिपरिवारसमक्षं यथा-गौतम! मा केवलिनामाशातनां कार्षीः, ततो गौतमो कायप्रतिचारणाया लज्जनीयत्वेन विरुद्धत्वादिति। मिथ्यादुष्कृतमदात्, तथा यानहं प्रव्राजयामि तेषां केवलमुत्पद्यते चतुर्दशशते षष्ठ॥१४-६॥ न पुनर्मम ततः किं तन्मे नोत्पत्स्यत एवेति विकल्पादधृति चकार, ततो जगद्गुरुणा गदितोऽसौ मनःसमाधानाय, यथा सप्तम उद्देशकः गौतम! चत्वारः कटा भवन्ति-सुम्बकटो विदलकटश्चर्मकटः कम्बलकटश्चेति, एवं शिष्या अपि गुरोः प्रतिबन्धसाधर्म्यण षष्ठोद्देशकान्ते प्राणताच्युतेन्द्रयोर्भोगानुभूतिरुक्ता, सा च सुम्बकटसमादयश्चत्वार एव भवन्ति, तत्र त्वं मयि तयोः कथञ्चित्तुल्येति तुल्यताऽभिधानार्थः सप्तमोद्देशकः तस्य कम्बलकटसमान इत्येतस्यार्थस्य समर्थनाय भगवता चेदमादिसूत्रम् तदाऽभिहितमिति। १४/७७. 'रायगिहे' इत्यादि, तत्र किल भगवान् श्रीमन्महावीरः एवं भाविन्यामात्मतुल्यतायां भगवताऽभिहितायां 'अतिप्रियमकेवलज्ञानाप्राप्त्या सखेदस्य गौतमस्वामिनः समाश्वासनाया श्रद्धेय' मितिकृत्वा यद्यन्योऽप्येनमर्थं जानाति तदा त्मनस्तस्य च भाविनीं तुल्यतां प्रतिपादयितुमिदमाह-'गोयमे' त्यादि, चिरसंसिट्ठोऽसि' त्ति चिरं बहुकालं यावत् चिरे वा साधुर्भवतीत्यनेनाभिप्रायेण गौतम एवाह १४/७८. 'जहा ण मित्यादि, 'एयमटुं' ति 'एतमर्थम्' अतीते प्रभूते काले संश्लिष्टः-स्नेहात्संबद्धश्चिरसंश्लिष्टः आवयोर्भावितुल्यतालक्षणं 'वयं जाणामो' त्ति यूयं च वयं 'असि' भवसि 'मे' मया मम वा त्वं हे गौतम!, 'चिरसंथुओ' त्ति चेत्येकशेषाद्वयं तत्र यूयं केवलज्ञानेन जानीथ वयं तु चिरं-बहुकालम् अतीतं यावत् संस्तुतः स्नेहात्प्रशंसितश्चिर भवदुपदेशात्। तथाऽनुत्तरोपपातिका अपि देवा एनमर्थं संस्तुतः, एवं 'चिरपरिचिए' त्ति पुनः पुनदर्शनतः परिचितश्चिर जानन्तीति? प्रश्नः, अत्रोत्तरं-'हंता गोयमा!' इत्यादि। परिचितः, 'चिरजुसिए' त्ति चिरसेवितश्चिरप्रीतो वा 'जुषी । १४/७९. 'मणोदव्ववग्गणाओ लद्धाओ' त्ति मनोद्रव्यवर्गणा प्रीतिसेवनयोः' इति वचनात्, 'चिराणुगए' त्ति चिरमनुगतो लब्धास्तद्विषयावधिज्ञानलब्धिमात्रापेक्षया 'पत्ताओ' त्ति ममानुगतिकारित्वात्, 'चिराणुवत्तीसि' चिरमनुवृत्तिः प्राप्तास्तद्र्व्यपरिच्छेदतः 'अभिसमन्नागयाओ' त्ति अनुकूलवर्त्तिता यस्यासौ चिरानुवृत्तिः, इदं च अभिसमन्वागताः तद्गुणपर्यायपरिच्छेदतः, अयमत्र गर्भार्थःचिरसंश्लिष्टत्वादिकं क्वासीत् ? इत्याह-'अणंतरं देवलोए' त्ति अनुत्तरोपपातिका देवा विशिष्टावधिना मनोद्रव्यवर्गणा जानन्ति अनन्तरं-निर्व्यवधानं यथा भवत्येवं देवलोके अनन्तरे देवभवे पश्यन्ति च, तासां चावयोरयोग्यवस्थायामदर्शनन निर्वाणगमनं इत्यर्थः ततोऽपि-अनन्तरं मनुष्यभवे, जात्यर्थत्वादेकवचनस्य निश्चिन्वन्ति, ततश्चावयोर्भावितुल्यतालक्षणमर्थं जानन्ति देवभवेषु मनुष्यभवेषु चेति द्रष्टव्यं, तत्र किल त्रिपृष्ठभवे भगवतो पश्यन्ति चेति व्यपदिश्यत इति। गौतमः सारथित्वेन चिरसंश्लिष्टत्वादिधर्मयुक्त आसीत्, तुल्यताप्रक्रमादेवेदमाहएवमन्येष्वपि भवेषु संभवतीति, एवं च मयि तव गाढत्वेन १४/८०. 'कइविहे' इत्यादि, तुल्यं समं तदेव तुल्यकं 'दव्वतुल्लए' स्नेहस्य न केवलज्ञानमुत्पद्यते भविष्यति च तवापि स्नेहक्षये त्ति द्रव्यतः एकाणुकाद्यपेक्षया तुल्यकं द्रव्यतुल्यकम्, अथवा तदित्यधृति मा कृथा इति गम्यते, 'किं परं?, मरण' त्ति किं द्रव्यं च तत्तुल्यकं च द्रव्यान्तरेणेति द्रव्यतुल्यकं बहुना 'परं' ति परतो 'मरणात्' मृत्योः, किमुक्तं विशेषणव्यत्ययात्, 'खेत्ततुल्लए' त्ति क्षेत्रतः-एकप्रदेशावगाढभवति?-कायस्य भेदाद्धेतोः 'इओ चुय" त्ति 'इतः' त्वादिना तुल्यकं क्षेत्रतुल्यकम्, एवं शेषाण्यपि। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४६१ परिशिष्ट-५ : श. १४ : उ.७ : सू. ८१-८५ १४/८१. नवरं भवो नारकादिः भावो-वर्णादिरौदयिकादिर्वा तुल्यारोहपरिणाहं सम्पूर्णाङ्गावयवं स्वाङ्गलाष्टशतोच्छ्रयं संस्थानं-परिमण्डलादिः, इह च तुल्यव्यतिरिक्तमतुल्यं समचतुरस्रं, तुल्यारोहपरिणाहत्वेन समत्वात् पूर्णावयवत्वेन च भवतीति तदपीह व्याख्यास्यते, 'तुल्लसंखेज्जपएसिए' त्ति चतुरस्रत्वात्तस्य, चतुरसं सङ्गतमिति पर्यायौ, 'एवं परिमंडलेवि' तुल्या-समानाः सङ्ख्येयाः प्रदेशा यत्र स तथा, तुल्यग्रहणमिह त्ति यथा समचतुरस्रमुक्तं तथा न्यग्रोधपरिमण्डलमपीत्यर्थः, सङ्ख्यातत्वस्य सङ्ख्यातभेदत्वान्न सङ्ख्यातमात्रेण तुल्यताऽस्य न्यग्रोधो-वटवृक्षस्तद्वत्परिमण्डलं नाभीत उपरि चतुरस्रलक्षणस्याद् अपि तु समानसङ्ख्यत्वेनेत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थम्, युक्तमधश्च तदनुरूपं न भवति-तस्मात्प्रमाणाधीनतरमिति, एवमन्यत्रापीति, यच्चेहानन्तक्षेत्रप्रदेशावगाढत्वमनन्तसमय- 'एवं जाव हुंडे' त्ति इह यावत्करणात् 'साई खुज्जे वामणे' त्ति स्थायित्वं च नोक्तं तदवगाहप्रदेशानां स्थितिसमयानां च दृश्यं तत्र 'साइ' त्ति सादि नाभीतोऽधश्चतुरस्रलक्षणयुक्तमुपरि पुद्गलानाश्रित्यानन्तानामभावादिति। 'भवट्ठयाए' त्ति भव च तदनुरूपं न भवति, 'खुज्जो' त्ति कुब्जं ग्रीवादौ एवार्थो भवार्थस्तद्भावस्तत्ता तया भवार्थतया, 'उदइए भावे' त्ति हस्तपादयोश्चतुरस्रलक्षणयुक्तं सङ्क्षिप्तविकृतमध्यं, 'वामणे' त्ति उदयः-कर्मणां विपाकः स एवौदयिकः-क्रियामात्रं अथवा वामनं लक्षणयुक्तमध्यं ग्रीवादौ हस्तपादयोरप्यादिलक्षणन्यूनं, उदयेन निष्पन्नः औदयिको भावो-नारकत्वादिपर्यायविशेषः 'हुंडे' त्ति हुण्डं प्रायः सर्वावयवेष्वादिलक्षणविसंवादोपेतमिति। औदयिकस्य भावस्य नारकत्वादेर्भावतो-भावसामान्यमाश्रित्य अनन्तरं संस्थानवक्तव्यतोक्ता, अथ संस्थानवतोऽनगारस्य तुल्यः-समः, ‘एवं उवसमिए' त्ति औपशमिकोऽप्येवं वाच्यः, वक्तव्यताविशेषमभिधातुकाम आहतथाहि-'उवसमिए भावे उवसमियस्स भावस्स भावओ तुल्ले १४/८२. 'भत्ते' त्यादि, तत्र ‘भत्तपच्चक्खायए णं' ति अनशनी उवसमिए भावे उवसमियवइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले' 'मूर्छितः' सञ्जातमूर्छः-जाताहारसंरक्षणानुबन्धः तद्दोषविषये त्ति, एवं शेषेष्वपि वाच्यं, तत्रोपशमः-उदीर्णस्य कर्मणः वा मूढः 'मूर्छा मोहसमुच्छ्राययोः' इति वचनात्, क्षयोऽनुदीर्णस्य विष्कम्भितोदयत्वं स एवौपशमिकः-क्रियामात्रं यावत्करणादिदं दृश्यं-'गढिए' ग्रथित आहारविषयस्नेहतन्तुभिः उपशमेन वा निवृत्तः, औपशमिकः-सम्यग्दर्शनादि, 'खइए' त्ति संदर्भितः 'ग्रन्थ श्रन्थ संदर्भ' इति वचनात् 'गिद्धे' गृद्धः क्षयः-काभावः स एव क्षायिकः क्षयेण वा निवृत्तः क्षायिकः- प्राप्ताहारे आसक्तोऽतृप्तत्वेन वा तदाकाङ्क्षावान् 'गृधु केवलज्ञानादिः, 'खओवसमिए' त्ति क्षयेण-उदयप्राप्तकर्मणो अभिकाङ्खायाम्' इति वचनात् 'अज्झोववन्ने' त्ति अध्युपपन्न:विनाशेन सहोपशमो-विष्कम्भितोदयत्वं क्षयोपशमः स एव अप्राप्ताहारचिन्तामाधिक्येनोपपन्नः 'आहार' वायुतैलाभ्यङ्गादिक्षायोपशमिकः-क्रियामात्रमेव क्षयोपशमेन वा निवृत्तः कमोदनादिकं वाऽभ्यवहार्य तीव्रक्षुद्वेदनीयकर्मोदयादसमाधौ क्षायोपशमिकः-मतिज्ञानादिपर्यायविशेषः, नन्वौपशमिकस्य सति तदुपशमनाय प्रयुक्तम् ‘आहारयति' उपभुङ्क्ते, 'अहे णं' क्षायोपशमिकस्य च कः प्रतिविशेषः, उभयत्राप्युदीर्णस्य ति 'अथ' आहारानन्तरं 'विस्रसया' स्वभावत एव 'कालं' ति क्षयस्यानुदीर्णस्य चोपशमस्य भावात् ?, उच्यते, क्षायोपशमिके कालो-मरणं काल इव कालो मारणान्तिकसमुद्घातस्तं विपाकवेदनमेव नास्ति प्रदेशवेदनं पुनरस्त्येव, औपशमिके तु 'करोति' याति 'तओ पच्छ' त्ति ततो-मारणान्तिकसमुद्घातात् प्रदेशवेदनमपि नास्तीति, 'पारिणामिए' त्ति परिणमनं परिणामः पश्चात् तस्मान्निवृत्त इत्यर्थः अमूर्छितादिविशेषणविशेषित स एव पारिणामिकः, 'सन्निवाइए' त्ति सन्निपातः-औदयिकादि- आहारमाहारयति प्रशान्तपरिणामसद्भावादिति प्रश्नः, भावानां व्यादिसंयोगस्तेन निर्वृत्तः सान्निपातिकः । अत्रोत्तरं-हंता गोयमा!' इत्यादि, अनेन तु प्रश्नार्थ 'संठाणतुल्लए' त्ति संस्थानं-आकृतिविशेषः, तच्च एवाभ्युपगतः, कस्यापि भक्तप्रत्याख्यातुरेवंभूतभावस्य द्वेधा-जीवाजीवभेदात्, तत्राजीवसंस्थानं पञ्चधा, तत्र 'परिमंडले सद्भावादिति। संठाणे' ति परिमण्डलसंस्थानं बहिस्ताद्वत्ताकारं मध्ये शुषिरं अनन्तरं भक्तप्रत्याख्यातुरनगारस्य वक्तव्यतोक्ता, स च यथा वलयस्य, तच्च द्वेधा-घनप्रतरभेदात्, वट्टे' त्ति कश्चिदनुत्तरसुरेषूत्पद्यत इति तद्वक्तव्यतामाहवृत्तं-परिमण्डलमेवान्तःशुषिररहितं यथा कुलालचक्रस्य, इदमपि १४/८४. 'अत्थि ण' मित्यादि, लवाः-शाल्यादिकवलिकालवनद्वेधा-घनप्रतरभेदात्, पुनरेकैकं द्विधा समसङ्ख्यविषमसङ्ख्य- क्रियाप्रमिताः कालविभागाः सप्त-सप्तसङ्ख्या मान-प्रमाणं यस्य प्रदेशभेदात्, एवं त्र्यस्रं चतुरस्रं च, नवरं 'त्र्यसं' त्रिकोणं कालस्यासौ लवसप्तमस्तं लवसप्तमं कालं यावदायुष्यप्रभवति शृङ्गाटकस्येव चतुरस्रं तु चतुष्कोणं यथा कुम्भिकायाः, सति ये शुभाध्यवसायवृत्तयः सन्तः सिद्धिं न गता अपि तु आयतदीर्घ यथा दण्डस्य, तच्च त्रेधा-श्रेण्यायतप्रतरायत- देवेषूत्पन्नास्ते लवसप्तमाः, ते च सर्वार्थसिद्धाभिधानानुत्तरघनायतभेदात् पुनरेकैकं द्विधा-समसङ्ख्यविषमसङ्ख्यप्रदेश- सुरविमाननिवासिनः। भेदात्, इदं च पञ्चविधमपि विस्रसाप्रयोगाभ्यां भवति, १४/८५. 'से जहा नामए' त्ति 'सः' कश्चित् 'यथानामकः' अनिर्दिष्टजीवसंस्थानं तु संस्थानाभिधाननामकर्मोत्तरप्रकृत्युदयसम्पाद्यो नामा पुरुषः 'तरुणे' इत्यादेर्व्याख्यानं प्रागिव 'पक्काणं' ति जीवानामाकारः, तच्च षोढा, तत्राद्यं 'समचउरंसे' त्ति पक्कानां ‘परियायाणं' ति 'पर्यवगतानां' लवनीयावस्थां प्राप्तानां Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १४ : उ. ८ : सू. ८६-११३ ४६२ भगवती वृत्ति 'हरियाणं' ति पिङ्गीभूतानां, ते च पत्रापेक्षयाऽपि भवन्तीत्याह- मीयते, यतस्तस्य योजनस्योपरितनक्रोशस्य षड्भागे सिद्धा'हरियकंडाणं' ति पिङ्गीभूतजालानां 'नवपज्जणएणं' ति वगाहना धनुस्विभागयुक्तत्रयस्त्रिंशदधिकधनुःशतत्रय-मानानवं-प्रत्यग्रं 'पज्जणयं' ति प्रतापितस्यायोघनकुट्टनेन भिहिता, सा चोच्छ्रययोजनाश्रयणत एव युज्यत इति, उक्तञ्चतीक्ष्णीकृतस्य पायनं-जलनिबोलनं यस्य तन्नवपायनं तेन 'ईसीपब्भाराए उवरिं खलु जोयणस्स जो कोसो। 'असियएणं' ति दात्रेण 'पडिसाहरिय' त्ति प्रतिसंहृत्य कोसस्स य छन्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिया॥१॥' विकीर्णनालान् बाहुना संगृह्य 'पडिसंखिविय' त्ति मुष्टिग्रहणेन इति। (ईषत्प्राग्भाराया उपरि योजनस्य यः क्रोशः खलु क्रोशस्य सङ्क्षिप्य 'जाव इणामेवे' त्यादि प्रज्ञापकस्य लवन- च षष्ठो भागः एषा सिद्धानामवगाहना भणिता ॥१॥) 'देसूणं क्रियाशीघ्रत्वोपदर्शनपरचप्पुटिकादिहस्तव्यापारसूचकं वचनं जोयणं' ति इह सिद्ध्यलोकयोर्देशोनं योजनमन्तरमुक्तं 'सत्तलवे' त्ति लूयन्त इति लवाः शाल्यादिनालमुष्टयस्तान् आवश्यके तु योजनमेव, तत्र च किञ्चिन्न्यूनताया अविवक्षणान्न लवान् 'लूएज्ज' त्ति लुनीयात्, तत्र च सप्तलवलवने यावान्- विरोधो मन्तव्य इति। कालो भवतीति वाक्यशेषो दृश्यः ततः किमित्याह-'जइ ण' अनन्तरं पृथिव्याद्यन्तरमुक्तं तच्च जीवानां गम्यमिति मित्यादि, 'तेसिं' देवाण' ति द्रव्यदेवत्वे साध्ववस्थायामित्यर्थः जीवविशेषगतिमाश्रित्येदं सूत्रत्रयमाह'तेणं चेव' ति यस्य भवग्रहणस्य सम्बन्धि आयुर्न पूर्णं तेनैव, १४/१०१. 'एस ण' मित्यादि, "दिव्वे' त्ति प्रधानः 'सच्चोवाए' त्ति मनुष्यभवग्रहणेनेत्यर्थः। 'सत्यावपातः' सफलसेवः, कस्मादेवमित्यत आह–'सन्निहियलवसप्तमा अनुत्तरोपपातिका इत्यनुत्तरोपपातिकदेवप्ररूपणाय पाडिहेरे' ति संनिहितं-विहितं प्रातिहार्य-प्रतीहारकर्म सूत्रद्वयमभिधातुमाह सांनिध्यं देवेन यस्य स तथा। १४/८६.'अस्थि ण' मित्यादि, 'अणुत्तरोववाइय' त्ति अनुत्तरः- १४/१०३. 'साललट्ठिय' त्ति शालयष्टिका, इह च यद्यपि सर्वप्रधानोऽनुत्तरशब्दादिविषययोगात् उपपातो-जन्म शालवृक्षादावनेके जीवा भवन्ति तथाऽपि प्रथमजीवापेक्षं सूत्रअनुत्तरोपपातः सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः। त्रयमभिनेतव्यं १। १४/८८. 'जावइयं छट्ठभत्तिए' इत्यादि किल षष्ठभक्तिकः एवंविधप्रश्नाश्च वनस्पतीनां जीवत्वमश्रद्दधानं श्रोतारमपेक्ष्य सुसाधुर्यावत् कर्म क्षपयति एतावता कविशेषेण- भगवता गौतमेन कृता इत्यवसेयमिति। गतिप्रक्रमादिदमाहअनिर्जीर्णेनानुत्तरोपपातिका देवा उत्पन्ना इति। १४/१०७-१०९. 'तेण' मित्यादि, ‘एवं जहा उववाइए जाव आराहग' चतुर्दशशते सप्तमः॥१४-७॥ त्ति इह यावत्करणादिदमर्थतो लेशेन दृश्य-ग्रीष्मकालसमये गङ्गाया उभयकूलतः काम्पिल्यपुरात् पुरिमतालपुरं संप्रस्थितानि अष्टम उद्देशकः ततस्तेषामटवीमनुप्रविष्टानां पूर्वगृहीतमुदकं परिभुज्यमानं क्षीणं ततस्ते तृष्णाभिभूता उदकदातारमलभमाना अदत्तं च सप्तमे तुल्यतारूपो वस्तुनो धर्मोऽभिहितः, अष्टमे त्वन्तररूपः तदगृह्णन्तोऽर्हन्नमस्कारपूर्वकमनशनप्रतिपत्या कालं कृत्वा स एवाभिधीयते इत्येवंसम्बधस्यास्येदमादिसूत्रम् ब्रह्मलोकं गताः परलोकस्य चाराधका इति। १४/९०-१००. 'इमीसे ण' मित्यादि, 'अबाहाए अंतरे' त्ति बाधा १४/११०-११२. 'घरसए' इत्यत्र ‘एवं जहे' त्यादिना यत्सूचितं परस्परसंश्लेषतः पीडनं न बाधा अबाधा तया अबाधया यदन्तरं तदर्थतो लेशेनैवं दृश्यं-भुङ्क्ते वसति चेति, एतच्च श्रुत्वा गौतम व्यवधानमित्यर्थः, इहान्तरशब्दो मध्यविशेषादिष्वर्थेषु वर्तमानो आह-कथमेतद् भदन्त !, ततो भगवानुवाच-गौतम ! सत्यमेतद्, दृष्टस्ततस्तद्व्यवच्छेदेन व्यवधानार्थपरिग्रहार्थमबाधाग्रहणं, यतस्तस्य वैक्रियलब्धिरस्ति ततो जनविस्मापनहेतोरेवं कुरुते, 'असंखेज्जाई जोयणसहस्साई' ति इह योजनं प्रायः ततो गौतम उवाच-प्रव्रजिष्यत्येव (ष) भगवतां समीपे?, प्रमाणाङ्गलनिष्पन्नं ग्राह्यं, 'नगपुढविविमाणाई मिणसु भगवानुवाच नैवं, केवलमयमधिगतजीवाजीवत्वादिगुणः पमाणंगुलेणं तु।' (नगपृथिवीविमानानि प्रमाणाङ्गुलेन मिनु।) कृतानशनो ब्रह्मलोके गमिष्यति, ततश्च्युतश्च महाविदेहे इत्यत्र नगादिग्रहणस्योपलक्षणत्वादन्यथाऽऽदित्यप्रकाशादेरपि दृढप्रतिज्ञाभिधानो महर्द्धिको भूत्वा सेत्स्यतीति। प्रमाणयोजनाप्रमेयतां स्यात्, तथा चाधोलोकग्रामेषु तत्प्रकाशा- अयमेतच्छिष्याश्च देवतयोत्पन्ना इति देवाधिकाराद्देववक्तव्यताप्राप्तिः प्राप्नोत्यात्माङ्गलस्यानियतत्वेनाव्यवहाराङ्गतया रवि- सूत्राण्युद्देशकसमाप्तिं यावत्प्रकाशस्योच्छ्रययोजनप्रमेयत्वात्, तस्य चातिलघुत्वेन प्रमाण- १४/११३. तत्र च 'अव्वाबाह' ति व्याबाधन्ते-परं पीडयन्तीति योजनप्रमितक्षेत्राणामव्याप्तिरिति, यच्चेहेषत्प्रारभारायाः पृथिव्या व्याबाधास्तन्निषेधादव्याबाधाः, ते च लोकान्तिकदेवमध्यगता लोकान्तस्य चान्तरं तदुच्छ्रयाङ्गलनिष्पन्नयोजनप्रमेयमित्यनु- द्रष्टव्याः,यदाह१. प्रत्यासत्तेः सप्तमोद्देशकवक्तव्यतास्थानं यद् राजगृहं चैत्यं गुणशीलकं सत्स्वपि समस्तावयवव्याप्येकोऽस्ति वृक्षजीवः इति सूत्र पृथ्वीशिलापट्टकश्च तत्रत्या वृक्षा एते समवसेयाः। अन्येष्वनेकेषु जीवेषु आहारपरिज्ञाध्ययने। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४६३ परिशिष्ट-५ : श. १४ : उ. ६ : सू. ११४-१३१ 'सारस्सयमाइच्चा वण्ही वरुणा य गहतोया य। क्रमव्यवस्थितानां प्रत्येकं पूर्वापरतटयोर्दश दश काञ्चनाभितुसिया अव्वाबाहा अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य॥४॥' इति धाना गिरयः सन्ति ते च शतं भवन्ति, एवं देवकुरुष्वपि (सारस्वता आदित्या वह्नयो वरुणाश्च गर्दतोयाश्च तुषिता शीतोदानद्याः सम्बन्धिनां निषदहदादीनां पञ्चानां महाअव्याबाधा अग्न्याश्चैव रिष्ठाश्च।)। हृदानामिति, तदेवं द्वे शते, एवं धातकीखण्डपूर्वार्धादिष्वप्य१४/११४. 'अच्छिपत्तंसि' अक्षिपत्रे-अक्षिपक्ष्मणि 'आबाहं व' त्ति तस्तेष्विति॥ ईषद्बाधां 'पबाहं व' त्ति प्रकृष्टबाधां 'वाबाह' ति क्वचित् तत्र तु चतुर्दशशतेऽष्टमः॥१४-८॥ 'व्याबाधां' विशिष्टामाबाधां 'छविच्छेयं' ति शरीरच्छेदम् 'एसुहमं च णं' ति 'इति सूक्ष्मम्' एवं सूक्ष्म यथा नवम उद्देशकः भवत्येवमुपदर्शयन्नाट्यविधिमिति प्रकृतं। अनन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रेषु देवानां चित्रार्थविषयं सामर्थ्यमुक्तं, १४/११५-११६. 'सपाणिण' त्ति स्वकपाणिना से कहमियाणिं तस्मिंश्च सत्यपि यथा तेषां स्वकर्मलेश्यापरिज्ञानसामर्थ्य पकरेइ' त्ति यदि शक्रः शिरसः कमण्डल्वां प्रक्षेपणे कथञ्चिन्नास्ति तथा साधोरपीत्याद्यर्थनिर्णयार्थो प्रभुस्तत्क्षेपणं कथं तदानीं करोति?, उच्यते, 'छिंदिया छिंदिया नवमोद्देशकोऽभिधीयते, इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्व णं' ति छित्त्वा २ क्षुरप्रादिना कूष्माण्डादिकमिव १४/१२३. 'अणगारे ण' मित्यादि, अनगारः 'भावितात्मा' संयमश्लक्ष्णखण्डीकृत्येत्यर्थः, वाशब्दो विकल्पार्थः प्रक्षिपेत् भावनया वासितान्तःकरणः आत्मनः सम्बन्धिनी कर्मणो कमण्डल्वा, 'भिंदिय' ति विदार्योध्र्वपाटनेन शाटकादिकमिव, योग्या लेश्या-कृष्णादिका कर्मणो वा लेश्या-'लिश श्लेषणे' 'कुट्टिय' त्ति कुट्टयित्वा उदूरखलादौ तिलादिकमिव, 'चुन्निय' त्ति इति वचनात् सम्बन्धःकर्मलेश्या तां न जानाति विशेषतो न चूर्णयित्वा शिलायां शिलापुत्रकादिना गन्धद्रव्यादिकमिव 'ततो पश्यति च सामान्यतः, कृष्णादिलेश्यायाः कर्मद्रव्यश्लेषणस्य पच्छ' त्ति कमण्डलुप्रक्षेपणानन्तरमित्यर्थः 'परिसंघाएज्ज' त्ति चातिसूक्ष्मत्वेन छद्मस्थज्ञानागोचरत्वात्, 'तं पुण जीवं' ति यो मीलयेदित्यर्थः 'एसुहमं च णं पक्खिवेज्ज' त्ति कमण्डल्वामिति जीवः कर्मलेश्यावांस्तं पुनः 'जीवम्' आत्मानं 'सरूविं' ति सह प्रकृतं। रूपेण-रूपरूपवतोरभेदाच्छरीरेण वर्तते योऽसौ समासान्तविधेः १४/११८. 'जंभग' त्ति जम्भन्ते-विज़म्भन्ते स्वच्छन्दचारितया सरूपी तं सरूपिणं सरीरमित्यर्थः अत एव 'सकर्मलेश्य चेष्टन्ते ये ते जुम्भकाः तिर्यग्लोकवासिनो व्यन्तरदेवाः, कर्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति शरीरस्य चक्षुर्ग्राह्यत्वा'पमुझ्यपक्कीलिय' त्ति प्रमुदिताश्च ते-तोषवन्तः ज्जीवस्य च कथञ्चिच्छरीराव्यतिरेकादिति। प्रक्रीडिताश्च-प्रकृष्टक्रीडाः प्रमुदितप्रक्रीडिताः, 'कंदप्परइ' त्ति 'सरूविं सकम्मलेस्सं' ति प्रागुक्तम्, अथ तदेवाधिकृत्य अत्यर्थं केलिरतिकाः 'मोहणसील' त्ति निधुवनशीलाः 'अजसं' प्रश्नान्नाहत्ति उपलक्षणत्वादस्यानर्थं प्राप्नुयात् 'जसं' ति उपलक्षण १४/१२४. 'अत्थि ण' मित्यादि, 'सरूविं' ति सह रूपेण-मूर्त्ततया ये त्वादस्यार्थ-वैक्रियलब्ध्यादिकं प्राप्नुयात वैरस्वामिवत् ते 'सरूपिणः' वर्णादिमन्तः 'सकम्मलेस्स' त्ति पूर्ववत् शापानुग्रहकरणसमर्थत्वात् तच्छीलत्वाच्च तेषामिति। १४/११९. 'अन्नजंभये' त्यादि अन्ने भोजनविषये तदभावसद्भावाल्पत्व 'पुद्गलाः' स्कन्धरूपाः 'ओभासंति' त्ति प्रकाशन्ते। बहुत्वसरसत्वनीरसत्वादिकरणतो जम्भन्ते-विजृम्भन्ते ये ते । १४/१२५. 'लेसाओ' त्ति तेजांसि 'बहिया अभिनिस्सडाओ' त्ति तथा, एवं पानादिष्वपि वाच्यं, नवरं 'लेणं' ति लयनं-गृहं बहिस्तादभिनिःसृता-निर्गताः, इह च यद्यपि चन्द्रादिविमान'पुप्फफलजंभग' त्ति उभयज़म्भकाः, एतस्य च स्थाने पुद्गला एव पृथिवीकायिकत्वेन सचेतनत्वात्सकर्मलेश्या'मंतजंभग' त्ति वाचनान्तरे दृश्यते, 'अवियत्तजंभग' त्ति स्तथाऽपि तन्निर्गतप्रकाशपुद्गलानां तद्धेतुकत्वेनोपचारात्सअव्यक्ता अन्नाद्यविभागेन जृम्भका ये ते तथा, क्वचित्तु कर्मलेश्यत्वमवगन्तव्यमिति। 'अहिवइजंभगं' त्ति दृश्यते तत्र चाधिपतौ-राजादिनायकविषये पुद्गलाधिकारादिदमाहजृम्भका ये ते तथा। १४/१२६. 'नेरइयाण' मित्यादि, 'अत्त' त्ति आ-अभिविधिना १४/१२०. 'सव्वेसु चेव दीहवेयड्ढेसु' त्ति 'सर्वेषु' प्रतिक्षेत्रं तेषां त्रायन्ते-दुःखात् संरक्षन्ति सुखं चोत्पादयन्तीति आत्राः आप्ता भावात् सप्तत्यधिकशतसङ्ख्येषु 'दीर्घविजयाट्टेषु' पर्वतविशेषेषु, वा-एकान्तहिताः, अत एव रमणीया इति वृद्धाख्यातं, एते च दीर्घग्रहणं च वर्तुलविजयार्द्धव्यवच्छेदार्थं, 'चित्तविचित्तज- ये मनोज्ञा प्राग् व्याख्यातास्ते दृश्या। मगपव्वएस' त्ति देवकुरुषु शीतोदानद्या उभयपार्श्वश्चित्रकटो १४/१२९. तथा 'इटे' त्यादि प्राग्वत्। विचित्रकूटश्च पर्वतः तथोत्तरकुरुषु शीताभिधाननद्या उभयतो पुद्गलाधिकारादिदमाहयमकसमकाभिधानौ पर्वतौ स्तस्तेषु, 'कंचणपव्वएसु' त्ति १४/१३०,१३१. 'देवे ण' मित्यादि, 'एगा णं सा भासा भास' त्ति उत्तरकुरुषु शीतानदीसम्बन्धिनां पञ्चानां नीलवदादिह्रदानां एकाऽसौ भाषा, जीवैकत्वेनोपयोगैकत्वात्, एकस्य जीवस्यैकदा Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १४ : उ. १० : सू. १३२-१४६ ४६४ भगवती वृत्ति हितानुबन्ध इति, निरतिचारचरण इत्यन्ये, 'सुक्काभिजाइ' त्ति शुक्लाभिजात्यः परमशुक्ल इत्यर्थः, अत एवोक्तम्'आकिञ्चन्यं मुख्यं ब्रह्मापि परं सदागमविशुद्धम्। सर्व शुक्लमिदं खलु नियमात्संवत्सरादूर्वम्॥१॥ एतच्च श्रमणविशेषमेवाश्रित्योच्यते न पुनः सर्व एवैवंविधो भवतीति। चतुर्दशशते नवमः॥१४-९॥ दशम उद्देशकः एक एवोपयोग इष्यते, ततश्च यदा सत्याद्यन्तरस्यां भाषायां वर्तते तदा नान्यस्यामित्येकैव भाषेति। पुद्गलाधिकारादेवेदमाह१४/१३२. 'तेण' मित्यादि, 'अचिरोद्गतम्' उद्गतमात्रमत एव बालसूर्य जासुमणाकुसुमप्पगासं' ति जासुमणा नाम वृक्षस्तत्कुसुमप्रकाशमत एव लोहितकमिति 'किमिदं' ति किंस्वरूपमिदं सूर्यवस्तु, तथा किमिदं भदन्त ! सूर्यस्य-सूर्यशब्दस्यार्थः--अन्वर्थवस्तु?, सुभे सूरिए' त्ति शुभस्वरूपं सूर्यवस्तु सूर्यविमानपृथिवीकायिकानामातपाभिधानपुण्यप्रकृत्युदय-वर्त्तित्वाद् लोकेऽपि प्रशस्ततया प्रतीतत्वात् ज्योतिष्केन्द्रत्वाच्च, तथा शुभः सूर्यशब्दार्थस्तथाहि-सूरेभ्यः क्षमातपोदानसङ्ग्रामादिवीरेभ्यो हितः सूरेषु वा साधुः सूर्यः।। १४/१३३-१३५. 'पभ' त्ति दीप्तिः, छाया-शोभा प्रतिबिम्बं वा, लेश्या-वर्णः। लेश्याप्रक्रमादिदमाह१४/१३६. 'जे इमे' इत्यादि, ये इमे प्रत्यक्षाः 'अज्जत्ताए' त्ति आर्यतया पापकर्मबहिर्भूततया अद्यतया वा-अधुनातनतया वर्तमानकालतयेत्यर्थः 'तेयलेस्सं' ति तेजोलेश्यां-सुखासिकां तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षणं सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचारात्तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्षितेति, 'वीइवयंति' व्यतिव्रजन्ति व्यतिक्रामन्ति 'असुरिंदवज्जियाणं' ति चमरबलवर्जितानां 'तेण परं' ति ततः संवत्सरात्परतः 'सुक्के' त्ति शुक्लो नामाभिन्नवृत्तोऽमत्सरी कृतज्ञः सदारम्भी अनन्तरं शुक्ल उक्तः, स च तत्त्वतः केवलीति केवलिप्रभूत्यर्थ प्रतिबद्धो दशम उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्१४/१३८-१४२. केवली' त्यादि, इह केवलिशब्देन भवस्थकेवली गृह्यते उत्तरत्र सिद्धग्रहणादिति। 'आहोहियं' ति प्रतिनियतक्षेत्रावधिज्ञानं 'परमाहोहियं' ति परमावधिकं। 'भासेज्ज व त्ति भाषेतापृष्ट एव 'वागरेज्ज' त्ति प्रष्टः सन् व्याकुर्यादिति। १४/१४६. 'ठाणं' ति ऊर्वस्थानं निषदनस्थानं त्वग्वर्तनस्थानं चेति 'सेज्जं' ति शय्यां-वसतिं 'निसीहियं ति अल्पतरकालिका वसतिं 'चेएज्ज' त्ति कुर्यादिति॥ चतुर्दशशते दशमः।।१४-१०॥ समाप्तं च वृत्तितश्चतुर्दशं शतम्॥१४॥ चतुर्दशस्येह शतस्य वृत्तिर्येषां प्रभावेण कृता मयैषा। जयन्तु ते पूज्यजना जनानां, कल्याणसंसिद्धिपरस्वभावाः॥१॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४६५ परिशिष्ट-५:श. १५ : सू. २-२७ १५/९. ‘एवं जहा बितियसए नियंठुद्देसए' त्ति द्वितीयशतस्य पञ्चमोद्देशके। १५/१३. 'उट्ठाणपरियाणियं' ति परियानं-विविधव्यतिकरपरिगमनं तदेव पारियानिकं-चरितम् उत्थानात्-जन्मन आरभ्य पारियानिकं उत्थानपारियानिकं तत्परिकथितं भगवन्दिरिति अथ पञ्चदशं : गोशालकाख्यं शतकम् गम्यते। १५/१४. 'मंखे' त्ति मङ्खः-चित्रफलकव्यग्रकरो भिक्षाकविशेषः ___ 'सुकुमाल' इह यावत्करणादेवं दृश्यं-'सुकुमालपाणिपाए व्याख्यातं चतुर्दशशतम्, अथ पञ्चदशमारभ्यते, तस्य चायं लक्खणवंजणगुणोववेए' इत्यादि। पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-अनन्तरशते केवली रत्नप्रभादिकं वस्तु १५/१५. 'रिद्धस्थिमिय' इह यावत्करणादेवं दृश्यम्-'ऋद्धस्थिमियजानातीत्युक्तं तत्परिज्ञानं चात्मसम्बन्धि यथा भगवता समिद्धे पमुइयजणजाणवए' इत्यादि व्याख्या तु पूर्ववत्। श्रीमन्महावीरेण गौतमायाविर्भावितं गोशालकस्य स्वशिष्या १५/१८. 'चित्तफलगहत्थगए' त्ति चित्रफलकं हस्ते गतं यस्य स तथा, भासस्य नरकादिगतिमधिकृत्य तथाऽनेनोच्यते इत्येवंसम्बन्ध 'पाडिएक्कं' ति एकमात्मानं प्रति प्रत्येकं पितुः फलकादिन्नस्यास्येदमादिसूत्रम् मित्यर्थः। १५/२. 'तेण' मित्यादि, मंखलिपुत्ते' त्ति मङ्खल्यभिधानमञ्जस्य १५/२०. 'आगारवासमज्झे वसित्त' त्ति अगारवासं-गृहवासमध्युष्यपुत्रः 'चउवीसवासपरियाए' त्ति चतुर्विंशतिवर्षप्रमाणप्रव्रज्या आसेव्य ‘एवं जहा भावणाए' त्ति आचारद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य पर्यायः। पञ्चदशेऽध्ययने, अनेन चेदं सूचितं-'समत्तपइन्ने नाहं समणो १५/३. 'दिसाचर' त्ति दिश-मेरां चरन्ति-यान्ति मन्यन्ते भगवतो होहं अम्मापियरंमि जीवंते' त्ति समाप्ताभिग्रह इत्यर्थः 'चिच्चा वयं शिष्या इति दिक्चराः देशाटा वा, दिक्चरा भगवच्छिष्याः हिरन्नं चिच्या सुवन्नं चिच्चा बल मित्यादीनि। पार्श्वस्थीभूता इति टीकाकारः 'पासावच्चिज्ज' ति चूर्णिकारः १५/२१. 'पढमं वासं' ति विभक्तिपरिणामात् प्रव्रज्याप्रतिपत्तेः प्रथमे 'अंतियं पाउन्भविज्ज' त्ति समीपमागताः। वर्षे 'निस्साए' त्ति निश्राय निश्रां कृत्वेत्यर्थः 'पढमं अंतरावासं' १५/४. 'अट्ठविहं पुव्वगयं मग्गदसमं' ति अष्टविधम्-अष्टप्रकार ति विभक्तिपरिणामादेव प्रथमेऽन्तरं-अवसरो वर्षस्यनिमित्तमिति शेषः, तच्चेदं-दिव्यं १ औत्पातं २ आन्तरिक्षं ३ वृष्टेयंत्रासावन्तरवर्षः अथवाऽन्तरेऽपि-जिगमिषतक्षेत्रमप्राप्यापि भौमं ४ आङ्गं ५ स्वरं ६ लक्षणं ७ व्यञ्जनं ८ चेति, यत्र सति साधुभिरवश्यमावासो विधीयते सोऽन्तरावासोपूर्वगतं-पूर्वाभिधानश्रुतविशेषमध्यगतं, तथा मार्गौ-गीतमार्ग वर्षाकालस्तत्र 'वासावासं' ति वर्षासु वासः-चातुर्मासिकमवनृत्यमार्गलक्षणौ सम्भाव्यते 'दसम' त्ति अत्र नवमशब्दस्य स्थानं वर्षावासस्तमुपागतः-उपाश्रितः। 'दोच्चं वासं' ति द्वितीये लुप्तस्य दर्शनान्नवमदशमाविति दृश्यं, ततश्च मार्गौ नवमदशमौ वर्षे 'तंतुवायसाल' त्ति कुविन्दशाला। यत्र तत्तथा, 'सएहिं' २ ति स्वकैः २ स्वकीयैः २ 'मइदंसणेहिं' १५/२५. 'अंजलिमउलियहत्थे' त्ति अञ्जलिना मुकुलितौति मतेः बुद्धेर्मत्या वा दर्शनानि-प्रमेयस्य परिच्छेदनानि । मुकुलाकारौ कृतौ हस्तौ येन स तथा। मतिदर्शनानि तैः 'निज्जूहंति' त्ति नि!थयन्ति पूर्वलक्षणश्रुत १५/२६. 'दव्वसुद्धणं' ति द्रव्यं-ओदनादिकं शुद्धं-उद्गमादिदोषरहितं पर्याययूथान्निर्धारयन्ति उद्धरन्तीत्यर्थः 'उवट्ठाइंसु' त्ति यत्र दाने तत्तथा तेन 'दायगसुद्धणं' ति दायकः शुद्धो उपस्थितवन्तः आश्रितवन्त इत्यर्थः । यत्राशंसादिदोषरहितत्वात् तत्तथा तेन, एवमितरदपि, 'तिविहेणं' १५/५. 'अट्ठगस्स' त्ति अष्टभेदस्य 'केणइ' त्ति केनचित्-तथाविध ति उक्तलक्षणेन त्रिविधेन, अथवा त्रिविधेन कृतकारितानुजनाविदितस्वरूपेण 'उल्लोयमेत्ते णं' ति उद्देशमात्रेण 'इमाई छ मतिभेदेन त्रिकरणशुद्धन-मनोवाक्कायशुद्धेन 'वसुहारा वुट्ठ' त्ति अणइक्कमणिज्जाई' ति इमानि षड् अनतिक्रमणीयानि वसुधारा द्रव्यरूपा धारा वृष्टा 'अहो दाणं' ति अहोशब्दो व्यभिचारयितुमशक्यानि 'वागरणाई' ति पृष्टेन सता यानि विस्मये। व्याक्रियन्ते-अभिधीयन्ते तानि व्याकरणानि १५/२७. 'कयत्थे णं' ति कृतार्थः-कृतस्वप्रयोजनः ‘कयलक्खणे' त्ति पुरुषार्थोपयोगित्वाच्चैतानि षडुक्तानि, अन्यथा नष्टमुष्टि कृतफलवल्लक्षण इत्यर्थः 'कया णं लोग' त्ति कृतौ शुभफलौ चिन्तालूकाप्रभृतीन्यन्यान्यपि बहुनि निमित्तगोचरीभवन्तीति। अवयवे समुदायोपचारात् लोकौ-इहलोकपरलोको 'जम्म१५/६. 'अजिणे जिणप्पलावि' ति अजिनः-अवीतरागः सन् जीवियफले' त्ति जन्मनो जीवितव्यस्य च यत्फलं तत्तथा जिनमात्मानं प्रकर्षेण लपतीत्येवंशीलो जिनप्रलापी, 'तहारूवे साहु साहुरूवे' त्ति तथारूपे' तथाविधे एवमन्यान्यपि पदानि वाच्यानि, नवरम् अर्हन-पूजाहः केवली- अविज्ञातव्रतविशेष इत्यर्थः 'साधौ' श्रमणे 'साधरूपे' परिपूर्णज्ञानादिः, किमुक्तं भवति ?-'अजिणे' इत्यादि। साध्वाकारे। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ : श. १५ : सू. २५-७३ १५/२८. 'धम्मंतेवासि' त्ति शिल्पादिग्रहणार्थमपि शिष्यो भवतीत्यत उच्यते - धर्मान्तेवासी । १५/३२ : 'खज्जगविहीए' त्ति खण्डाखाद्यादिलक्षणभोजनप्रकारेण । १५/३९. 'सव्वकामगुणिएणं' ति सर्वे कामगुणा - अभिलाषविषयभूता रसादयः सञ्जाता यत्र तत्सर्वकामगुणितं तेन । १५/४६. 'परमन्त्रेणं' ति परमान्नेन-क्षैरेय्या 'आयामेत्थ' त्ति आचामितवान् तद्भोजनदानद्वारेणोच्छिष्टतासम्पादनेन तच्छुद्ध्यर्थमाचमनं कारितवान् भोजितवानिति तात्पर्यार्थः । १५/५१. 'सब्भिंतरबाहिरिए' त्ति सहाभ्यन्तरेण विभागेन बाह्येन च यत्तत्तथा तत्र 'मग्गणगवेसणं' ति अन्वयतो मार्गणं व्यतिरेकतो गवेषणं ततश्च समाहारद्वन्द्वः 'सूइं व' त्ति श्रूयत इति श्रुतिः - शब्दस्तां चक्षुषा किल दृश्यमानोऽर्थः शब्देन निश्चीयत इति श्रुतिग्रहणं 'खुइं व' त्ति क्षवणं क्षुतिः - छीत्कृतं ताम् एषाऽप्यदृश्यमनुष्यादिगमिका भवतीति गृहीता, 'पवत्तिं व' त्ति प्रवृत्तिं - वार्त्ता, 'साडियाओ' त्ति परिधानवस्त्राणि 'पाडियाओ' त्ति उत्तरीयवस्त्राणि, क्वचित् 'भंडियाओ' त्ति दृश्यते तत्र भण्डिका–रन्धनादिभाजनानि, 'माहणे आयामेति' त्ति शाटिकादीनर्थान् ब्राह्मणान् लम्भयति शाटिकादीन् ब्राह्मणेभ्यो ददातीत्यर्थः, 'सउत्तरोट्ठे' ति सह उत्तरौष्ठेन सोत्तरौष्ठं श्मश्रुकं यथा भवतीत्येवं 'मुंडं' ति मुण्डनं कारयति नापितेन । १५/५३. 'पणियभूमीए' त्ति पणितभूमौ - भाण्डविश्रामस्थाने प्रणीतभूमौ वा मनोज्ञभूमौ 'अभिसमन्नागए' त्ति मिलितः । १५/५५. 'एयमहं पडिसुणेमि त्ति अभ्युपगच्छामि, यच्चैतस्यायोग्यस्याप्यभ्युपगमनं भगवतस्तदक्षीणरागतया परिचयेनेषत् - स्नेहगर्भानुकम्पासद्भावात् छद्मस्थतयाऽनागत - दोषानवगमादवश्यंभावित्वाच्चैतस्यार्थस्येति भावनीयमिति । ४६६ १५/५६. 'पणियभूमीए' त्ति पणितभूमेरारभ्य प्रणीतभूमौ वा - मनोज्ञभूमौ विहृतवानिति योगः, 'अनिच्चजागरियं' ति अनित्यचिन्तां कुर्वन्निति वाक्यशेषः । १५/५७. 'पढमसरयकालसमयंसि' ति समयभाषया मार्गशीर्षपौषौ शरदभिधीयते तत्र प्रथमशरत्कालसमये मार्गशीर्षे । 'अप्पवुट्टिकायंसि' त्ति अल्पशब्दस्याभाववचनत्वादविद्यमानवर्ष इत्यर्थः, अन्ये त्वश्वयुक्कार्त्तिकौ शरदित्याहुः, अल्पवृष्टिकायत्वाच्च तत्रापि विहरतां न दूषणमिति, एतच्चासङ्गतमेव, भगवतोऽप्यवश्यं पर्युषणस्य कर्त्तव्यत्वेन पर्युषणाकल्पेऽभिहितत्वादिति । 'हरियगरेरिज्जमाणे' त्ति हरितक इतिकृत्वा 'रेरिज्जमाणे' त्ति अतिशयेन राजमान इत्यर्थः । १५/५८. 'तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासि' त्ति, इह यद्भगवतः पूर्वकालप्रतिपन्नमौनाभिग्रहस्यापि प्रत्युत्तरदानं तदेकादिकं वचनं मुत्कलमित्येवमभिग्रहणस्य संभाव्यमानत्वेन न विरुद्धमिति, 'तिलसंगलियाए' त्ति तिलफलिकायां । १५/५९. 'ममं पणिहाए' त्ति मां प्रणिधाय -मामाश्रित्यायं मिथ्यावादी भवत्वितिविकल्पं कृत्वा, 'अब्भवद्दलए' त्ति अभ्ररूपं वारो भगवती वृत्ति जलस्य दलिकं कारणमभ्रवार्दलकं 'पतणतणायइ' त्ति प्रकर्षेण तणतणायते गर्जतीत्यर्थः 'नच्चोदगं' ति नात्युदकं यथा भवति 'नाइमट्टियं' ति नातिकर्द्दमं तथा भवतीत्यर्थः 'पविरलपप्फुसियं' ति प्रविरलाः प्रस्पृशिका-विप्रुषो यत्र तत्तथा, 'रयरेणुविणासणं' ति रजो - वातोत्पाटितं व्योमवर्त्ति रेणवश्च भूमिस्थितपांशवस्तद्विनाशनं-तदुपशमकं, 'सलिलोदगवासं' ति सलिला: - शीतादिमहानद्यस्तासामिव यदुदकं - रसादिगुणसाधर्म्यादिति तस्य यो वर्षः स सलिलोदकवर्षोऽतस्तं, 'बद्धमूले' त्ति बद्धमूलः सन् 'तत्थेव पइट्ठिए' त्ति यत्र पतितस्तत्रैव प्रतिष्ठितः । १५/६०. ‘पाणभूयजीवसत्तदयट्टयाए' त्ति प्राणादिषु समान्येन या दा सैवार्थः प्राणादिदयार्थस्तद्भावस्तत्ता तया, अथवा षट्पदिका एवं प्राणानामुच्छ्रासादीनां भावात्प्राणाः भवनधर्म्मकत्वाद्भूताः उपयोगलक्षणत्वाज्जीवाः सत्त्वोपपेतत्त्वात्सत्त्वास्ततः कर्म्मधारयस्तदर्थतायै, चशब्दः पुनरर्थः, 'तत्थेव ' त्ति शिरः प्रभृतिके । १५/६१. 'किं भवं मुणी मुणिए' त्ति किं भवान् 'मुनिः ' तपस्वी जातः 'मुनिए' त्ति ज्ञाते तत्त्वे सति ज्ञात्वा वा तत्त्वम्, अथवा किं भवान् 'मुनी' तपस्विनी 'मुणिए' त्ति मुनिकः- तपस्वीति, अथवा कं भवान् 'मुनिः' यतिः उत 'मुणिकः' ग्रहगृहीतः 'उदाहु' ति उताहो इति विकल्पार्थो निपातः 'जूयासेज्जायरए' त्ति यूकानां स्थानदातेति । १५/६४. 'सत्तट्ठ पयाई पच्चोसक्कइ' त्ति प्रयत्नविशेषार्थमुरभ्र इव प्रहारदानार्थमिति । १५/६६. 'सा उसिणं तेयलेस्सं' ति स्वां स्वकीयामुष्णां तेजोलेश्यां 'से गयमेयं भगवं गयगयमेवं भगवं' ति अथ गतं अवगत मेतन्मया हे भगवन्! यथा भगवतः प्रसादादयं न दग्धः, सम्भ्रमार्थत्वाच्च गतशब्दस्य पुनः पुनरुच्चारणम् । इह च यद्गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन दयैकरसत्वाद्भगवतः यच्च सुनक्षत्रसर्वानुभूतिमुनिपुङ्गवयोर्न करिष्यति तद्वीतरागत्वेन लब्ध्यनुपजीवकत्वादवश्यंभाविभावत्वाद्वेत्यवसेयमिति । १५/६९. ‘संखित्तविउलतेयलेसे' त्ति समाऽप्रयोगकाले विपुला प्रयोगकाले तेजोलेश्या - लब्धिविशेषो यस्य स तथा । १५/७० 'सनहाए' त्ति सनखया यस्यां पिण्डिकायां बध्यमानायामङ्गुलीनखा अङ्गुष्ठस्याधो लगन्ति सा सनखेत्युच्यते ' कुम्मासपिंडियाए ' त्ति कुल्माषाः - अर्द्धस्विन्ना मुद्गादयो माषा इत्यन्ये 'वियडासएणं' ति विकटं जलं तस्याशयः आश्रयो वा-स्थानं विकटाशयो विकटाश्रयो वा तेन, अमुं च प्रस्तावाच्चुलुकमाहुर्वृद्धाः | १५ / ७२. 'जाहे य मो' त्ति यदा च स्मो-भवामो वयं 'अनिप्फन्नमेव' त्ति मकारस्यागमिकत्वादनिष्पन्न एव । १५/७३. वणस्सइकाइयाओ पउट्टपरिहारं परिहरंति' त्ति परिवृत्य २-मृत्वा २ यस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहारः Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत् परिभोगस्तत्रैवोत्पादोऽसौ परिवृत्यपरिहारस्तं परिहरन्तिकुर्वन्तीत्यर्थः । ४६७ १५/७४. 'खुड्डइ' त्ति त्रोटयति । १५/७५. 'पउट्टे' त्ति परिवर्त्तः परिवर्तवाद इत्यर्थः ' आयाए अवक्कमणे' त्ति आत्मनाऽऽदाय चोपदेशम् 'अपक्रमणम्' अपसरणं । १५/७६. 'जहा सिवे' त्ति शिवराजर्षिचरिते । १५/८०. ‘महया अमरिस' त्ति महान्तममर्षम् ' एवं वावि' त्ति एवं चेति १५/९०. 'अच्छं' ति निर्मलं 'जच्चं' ति अकृत्रिमं 'तावणिज्जं' ति प्रज्ञापकोपदर्श्यमानकोपचिह्नम्, अपीति समुच्चये । तापनीयं तापसहं 'महत्थं' ति महाप्रयोजनं 'महग्घं' ति महामूल्यं 'महरिहं' ति महतां योग्यं । १५/८३. 'महं उवमियं' ति मम सम्बन्धि महद्वा विशिष्टं औपम्यमुपमा दृष्टान्त इत्यर्थः । १५/८५. 'चिरातीताए अद्धाए' त्ति चिरमतीते काले 'उच्चावय' त्ति उच्चावचा–उत्तमानुत्तमाः ‘अत्थत्थि' त्ति द्रव्यप्रयोजनाः, कुत एवम् ? इत्याह- 'अत्थलुद्ध' त्ति द्रव्यलालसाः अत एव 'अत्थगवेसिय' त्ति, अर्थगवेषिणोऽपि कुत इत्याह- 'अत्थकंखिय' त्ति प्राप्तेऽप्यर्थेऽविच्छिन्नेच्छाः, 'अत्यपिवासिय' त्ति अप्राप्तार्थ - विषयसञ्जाततृष्णाः, यत एवमत एवाह - ' अत्थगवेसणयाए' इत्यादि, 'पणियभंडे' त्ति पणितं व्यवहारस्तदर्थं भाण्डं पणितं वा-क्रयाणकं तद्रूपं भाण्डं न तु भाजनमिति पणितभाण्डं 'सगडी सागडेणं' ति शकट्योगन्त्रिकाः शकटानां - गन्त्रीविशेषाणां समूहः शाकटं ततः समाहारद्वन्द्वोऽतस्तेन 'भत्तपाणपत्थयणं' ति भक्तपानरूपं यत्पश्यदनं शम्बलं तत्तथा, 'अगामियं' ति अग्रामिकां अकामिकां वा अनभिलाषविषयभूताम् 'अणोहियं' ति अविद्यमानजलौघिकामतिगहनत्वेनाविद्यमानोहां वा 'छिन्नावायं' ति व्यवच्छिन्नसार्थघोषाद्यापातां 'दीहम' ति दीर्घमार्गां दीर्घकालां वा । १५/८७. 'किण्हं किण्होभासं' इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'नीलं नीलोभासं हरियं हरिओभास' मित्यादि, व्याख्या चास्य प्राग्वत्, 'महेगं वम्मीयं' ति महान्तमेकं वल्मीकं 'वप्पुओ' त्ति वपूंषि - शरीराणि शिखराणीत्यर्थः 'अब्भुग्गयाओ' त्ति अभ्युद्गतान्यभ्रोद्गतानि वोच्चानीत्यर्थः ' अभिनिसढाओ ति अभिविधिना निर्गताः सटाः - तदवयवरूपाः केशरिस्कन्धसटावद् येषां तान्यभिनिःशटानि, इदं च तेषामूर्द्धर्वगतं तिर्यगाह - 'तिरियं सुसंपगहियाओ' त्ति सुसंप्रगृहीतानि' सुसंवृतानि नातिविस्तीर्णानीत्यर्थः, अधः किंभूतानि ? इत्याह- 'अहे पणगद्धरूवाओ' त्ति सर्पार्द्धरूपाणि यादृशं पन्नगस्योदरच्छिन्नस्य पुच्छत ऊद्धर्वीकृतमर्द्धमधो विस्तीर्णमुपर्युपरि चातिश्लक्ष्णं भवतीत्येवं रूपं येषां तानि तथा । पन्नगार्द्धरूपाणि चर्वणादिनाऽपि भवन्तीत्याह-'पन्नगद्धसंठाणसंठियाओ' त्ति भावितमेव । स्वरूपमथ परिशिष्ट - ५ : श. १५ : सू. ७४-६३ १५/८९. ‘अच्छं' ति निर्मलं 'पत्थं' ति पथ्यं - रोगोपशमहेतुः 'जच्च' ति जात्यं संस्काररहितं 'तणुयं' ति तनुकं सुजरमित्यर्थः 'फालियवण्णाभं' ति स्फटिकवर्णवदाभा यस्य तत्तथा, अत एव 'ओरालं' ति प्रधानम् 'उदगरयणं' ति उदकमेव रत्नमुदकरत्नं उदकजातौ तस्योत्कृष्टत्वात्, 'वाहणाई पज्जेंति' त्ति बलीवर्दादिवाहनानि पाययन्ति । १५/८८. 'ओरालं उदगरयणं आसाइस्सामो' त्ति अस्यायमभिप्रायःएवंविधभूमि किलोदकं भवति वल्मीके चावश्यम्भाविनो गर्त्ताः अतः शिखरभेदे गर्तः, प्रकटो भविष्यति तत्र च जलं भविष्यतीति । १५/९१. ‘विमलं' ति विगतागन्तुकमलं 'निम्मलं' ति स्वाभाविकमलरहितं 'नित्तलं' ति निस्तलमतिवृत्तमित्यर्थः 'निक्कलं' ति निष्कलं त्रासादिरत्नदोषरहितं 'वइररयणं' ति वज्राभिधानरत्नं । १५ / ९२. 'हियकामए' त्ति इह हितं - अपायाभावः 'सुहकामए' त्ति सुखं-आनन्दरूपं ‘पत्थकामए' त्ति पथ्यमिव पथ्यं -आनन्दकारणं वस्तु 'आणुकंपिए' त्ति अनुकम्पया चरतीत्यानुकम्पिकः ‘निस्सेयसिए' त्ति निःश्रेयसं यन्मोक्षमिच्छतीति नैःश्रेयसिकः, अधिकृत वाणिजस्योक्तैरेव गुणैः कैश्चिद्युगपद्योगमाह-'हिए' त्यादि, 'तं होउ अलाहि पज्जत्तं णे' त्ति तत्-तस्माद् भवतु अलं पर्याप्तमित्येते शब्दाः प्रतिषेधवाचकत्वेनैकार्था आत्यन्तिकप्रतिषेधप्रतिपादनार्थमुक्ताः 'णे' त्ति नः अस्माकं सउवसग्गा यावि' त्ति इह चापीति सम्भावनार्थः । १५/९३. 'उग्गविसं' ति दुर्जरविषं 'चंडविसं' ति दष्टकनरकायस्य झगिति व्यापकविषं 'घोरविसं' ति परम्परया पुरुषसहस्रस्यापि हननसमर्थविषं 'महाविषं' ति जम्बूद्वीपप्रमाणस्यापि देहस्य व्यापनसमर्थविषम् 'अइकाय महाकायं' ति कायान् शेषाहीनामतिक्रान्तोऽतिकायोऽत एव महाकायस्ततः कर्म्मधारयः, अथवाऽतिकायानां मध्ये महाकायोऽतिकायमहाकायोऽतस्तं, 'मसिमूसाकालग' त्ति मषी - कज्जलं मूषा च-सुवर्णादितापनभाजनविशेषस्ते इव कालको यः स तथा तं 'नयणविसरोसपुन्नं' ति नयनविषेण दृष्टिविषेण रोषेण च पूर्णो यः स तथा तम् ‘अंजणपुंजनिगरप्पगासं' ति अञ्जनपुञ्जानां निकरस्येव प्रकाशोदीप्तिर्यस्य स तथा तं, पूर्वं कालवर्णत्वमुक्तमिह तु दीप्तिरिति न पुनरुक्ततेति, 'रत्तच्छं' ति रक्ताक्षं 'जमलजुयल - चंचलचलंतजीहं' ति जमलं सहवर्त युगलं-द्वयं चञ्चलं यथा भवत्येवं चलन्त्योः - अतिचपलयोर्जिह्वयोर्यस्य स तथा तं प्राकृतत्वाच्चैवं समासः, 'धरणितलवेणिभूयं' ति धरणीतलस्य वेणीभूतो - वनिताशिरसः केशबन्धविशेष इव यः कृष्णत्वदीर्घत्वश्लक्ष्णपश्चाद्भागत्वादिसाधर्म्यात्स तथा तम् 'उक्कडफुडकुडिलजडुलकक्खडवियडफडाडोवकरणदच्छं' ति उत्कटो बलवताऽन्येनाध्वंसनीयत्वात् स्फुटो - व्यक्तः प्रयत्नविहितत्वात् कुटिलो - वक्रस्तत्स्वरूपत्वात् जटिल:-स्कन्धदेशे केशरिणामिवाहीनां केसरसद्भावात् कर्कशो-निष्ठुरो बलवत्त्वात् विकटो-विस्तीर्णो यः स्फटाटोप : Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ : श. १५ : सू. ६४-१०१ फणासंरम्भस्तत्करणे दक्षो यः स तथा तं 'लोहागरधम्ममाणधमधमेंतघोस' ति लोहस्येवाकरे ध्मायमानस्य - अग्निना ताप्यमानस्य धमधमायमानोधमधमेतिवर्णव्यक्तिमिवोत्पादयन् घोषः - शब्दो यस्य स तथा तम्, 'अणागलियचंडतिव्वरोसं' ति अनिलतः अनिवारितोऽनाकलितो वाऽप्रमेयश्चण्डः तीव्रो रोषो यस्य स तथा तं, 'समुहियतुरियचवलं धमंतं' ति शुनो मुखं श्वमुखं तस्येवाचरणं श्वमुखिका - कौलेयकस्येव भषणं तां त्वरितं च चपलमतिचटुलतया धमन्तं शब्दं कुर्वन्तमित्यर्थः । १५/९४. 'सरसरसरसरस्स' त्ति सर्प्पगतेरनुकरणम् 'आइच्चं निज्झायइ' त्ति आदित्यं पश्यति दृष्टिलक्षणविषस्य तीक्ष्णतार्थं । १५ / ९५. 'सभंडमत्तोवगरणमायाय' त्ति सह भाण्डमात्रया - पणित परिच्छेदन उपकरणमात्रया च ये ते तथा, 'एगाहच्च' ति एका एव आहत्या - आहननं प्रहारो यत्र भस्मीकरणे तदेकाहत्यं तद्यथा भवत्येवं कथमिव ? इत्याह- कूडाहच्चं ' ति कूटस्येव - पाषाणमयमारणमहायन्त्रस्येवाहत्या - आहननं यत्र तत् कूटाहत्यं तद्यथा भवतीत्येवं । १५ / ९६. परियार, त्ति पर्यायः - अवस्था 'कित्तिवन्नसद्दसिलोग' त्ति इह वृद्धव्याख्या-सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्त्तिः एकदिग्व्यापी वर्णः अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः तत्स्थान एव श्लोकः श्लाघेतियावत् 'सदेवमणुयासुरे लोए' त्ति सह देवैर्मनुजैरसुरैश्च यो लोको - जीवलोकः स तथा तत्र, 'पुव्वंति' त्ति 'प्लवन्ते' गच्छन्ति 'प्लुङ्गतौ' इति वचनात् 'गुवंति 'गुप्यन्ति' व्याकुलीभवन्ति 'गुप व्याकुलत्वे' इति वचनात् 'थुवंति' त्ति क्वचित्तत्र 'स्तूयन्ते' अभिष्ट्रयन्ते - अभिनन्द्यन्ते, क्वचित् परिभमन्तीति दृश्यते, व्यक्तं चैतदिति, एतदेव दर्शयति- 'इति खल्वि' त्यादि, इतिशब्दः प्रख्यातगुणानुवादनार्थः, 'तं' ति तस्मादिति निगमनं, 'तवेणं तेएणं' ति तपोजन्यं तेजस्तप एव वा तेन 'तेजसा ' तेजोलेश्यया 'जहा वा वालेणं' ति यथैव 'व्यालेन' भुजगेन 'सारक्खामि' त्ति संरक्षामि दाहभयात् 'संगोवयामि' ति संगोपयामि क्षेमस्थानप्रापणेन । ४६८ १५/९८. 'पभु' त्ति प्रभविष्णुर्गोशालको भस्मराशिं कर्तुम् ? इत्येकः प्रश्नः, प्रभुत्वं च द्विधा - विषयमात्रापेक्षया तत्करणश्चेति पुनः पृच्छति - 'विसए ण' मित्यादि, अनेन च प्रथमो विकल्पः पृष्टः, 'समत्थे ण' मित्यादिना तु द्वितीय इति, 'पारितावणियं' ति पारितापनिक क्रियां पुनः कुर्यादिति । 'अणगाराणं' ति सामान्यसाधूनां 'खंतिक्खम' त्ति क्षान्त्या - क्रोधनिग्रहेण क्षमन्त इति क्षान्तिक्षमाः 'धेराणं' ति आचार्यादीनां वयः श्रुतपर्यायस्थविराणां । १५/९९. 'पडिचोयणाए' त्ति तन्मतप्रतिकूला चोदना - कर्तव्यप्रोत्साहना प्रतिचोदना तया 'पडिसाहरणाए' त्ति तन्मतप्रतिकूलतया विस्मृतार्थस्मारणा तया, किमुक्तं भवति ? - ‘धम्मिएण' मित्यादि, ‘पडोयारेणं' ति प्रत्युपचारेण प्रत्युपकारेण वा 'पडोयारेउ' त्ति 'प्रत्युपचारयतु' प्रत्युपचारं करोतु एवं भगवती वृत्ति प्रत्युपकारयतु वा 'मिच्छं विपडिवन्ने' त्ति मिध्यात्वं म्लेच्छ्यं वा - अनार्यत्वं विशेषतः प्रतिपन्न इत्यर्थः । १५/१०१. 'सुठु णं' ति उपालम्भवचनम् 'आउसो' त्ति हे आयुष्मन् ! - चिरप्रशस्तजीवित! 'कासव' त्ति काश्यपगोत्रीय ! 'सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि' त्ति सप्तमं शरीरान्तप्रवेशं करोमीत्यर्थः, च 'जेवि आई' ति येऽपि च 'आई' ति निपातः 'चउरासीइं महाकप्पसयसहस्साई ' इत्यादि गोशालक - सिद्धान्तार्थः स्थाप्यो, वृद्धैरप्यनाख्यातत्वात्, आह चूर्णिकारः -संदिद्धत्ताओ तस्स सिद्धंतस्स न लक्खिज्जइ' ि तथाऽपि शब्दानुसारेण किञ्चिदुच्यते - चतुरशीतिमहाकल्पशतसहस्राणि क्षपयित्वेति योगः, तत्र कल्पाः कालविशेषाः, ते च लोकप्रसिद्धा अपि भवन्तीति तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तं महाकल्पावक्ष्यमाणस्वरूपास्तेषां या शतसहस्राणि लक्षाणि तानि तथा, 'सत्त दिव्वे' त्ति सप्त 'दिव्यान्' देवभवान् 'सत्त संजू' त्ति सप्त संयूथान् -निकायविशेषान्, 'सत्तसन्निगब्भे' त्ति सञ्ज्ञिगर्भान् - मनुष्यगर्भवसतीः, एते च तन्मतेन मोक्षगामिनां सप्तसान्तरा भवन्ति वक्ष्यति चैवैतान् स्वयमेवेति, 'सत्त पउट्टपरिहारे' त्ति सप्त शरीरान्तरप्रवेशान्, एते च सप्तमसञ्ज्ञिगर्भानन्तरं क्रमेणावसेयाः, तथा 'पंचे' त्यादाविदं संभाव्यते 'पंच कम्मणि सयसहस्साइं ' ति कम्र्म्मणि-कर्मविषये कर्म्मणामित्यर्थः पञ्च शतसहस्राणि लक्षाणि 'तिन्नि य कम्मंसि' त्ति त्रींश्च कर्म्मभेदान् 'खवइत्त' त्ति 'क्षपयित्वा' अतिवाह्य । 'से जहे' त्यादिना महाकल्पप्रमाणमाह, तत्र 'से जहा व' त्ति महाकल्पप्रमाणवाक्योपन्यासार्थः 'जहिं वा पज्जुवत्थिय' त्ति यत्र गत्वा परि-सामस्त्येन उपस्थिता-उपरता समाप्ता इत्यर्थः 'एस णं अद्ध' त्ति एष गङ्गाया मार्गः 'एएणं गंगापमाणेणं' ति गङ्गायास्तन्मार्गस्य चाभेदाद्गङ्गाप्रमाणेनेत्युक्तम् 'एवामेव' त्ति उक्तेनैव क्रमेण 'सपुव्वावरेणं' ति सह पूर्वेण गङ्गादिना यदपरं महागङ्गादि तत् सपूर्वापरं तेन भावप्रत्ययलोपदर्शनात्सपूर्वापरतयेत्यर्थः । 'तासि दुविहे' इत्यादि, तासां गङ्गादीनां गङ्गादिगतवालुकाकणादीनामित्यर्थः द्विविध उद्धारः उद्धरणीयद्वैविध्यात्, 'सुहुमबोंदिकलेवरे चेव' त्ति सूक्ष्मबोन्दीनिसूक्ष्माकाराणि कलेवराणि - असङ्ख्यातखण्डीकृतवालुकाकणरूपाणि यत्रोद्वारे स तथा 'बायरबोंदिकलेवरे चेव' त्ति (ग्रन्थाग्रम् १४००० ) बादरबन्दीनि-बादराकाराणि कलेवराणि - बालुकाकणरूपाणि यत्र तथा, 'ठप्पे' त्ति न व्याख्येयः इतरस्तु व्याख्येय इत्यर्थः 'अवहाय' त्ति अपहाय त्यक्त्वा 'से कोट्ठे' त्ति स कोष्ठो - गङ्गासमुदायात्मकः 'खीणे' त्ति क्षीणः स चावशेष - सद्भावेऽप्युच्यते यथा क्षीणधान्यं कोष्ठागारमत उच्यते 'नीरए' त्ति नीरजाः स च तद्भूमिगतरजसामप्यभावे उच्यते इत्याह Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४६६ 'निल्लेवे' त्ति निर्लेपः भूमिभित्त्यादिसंश्लिष्टसिकतालेपाभावात्, किमुक्तं भवति ? - 'निष्ठितः ' निरवयवीकृत इति 'सेत्तं सरे' त्ति अथ तत्तावत्कालखण्डं सरः - सरः सञ्ज्ञं भवति मानससञ्ज्ञं सर इत्यर्थः 'सरप्पमाणे' त्ति सर एवोक्तलक्षणं प्रमाणंवक्ष्यमाणमहाकल्पादेर्मानं सरः प्रमाणं 'महामाणसे' त्ति मानसोत्तरं, यदुक्तं चतुरशीतिर्महाकल्पशतसहस्राणीति तत्प्ररूपितम् । अथ सप्तानां दिव्यादीनां प्ररूपणायाह- 'अणंताओ संजूहाओ' त्ति अनन्तजीवसमुदायरूपान्निकायात् 'चयं चइत' त्ति च्यवं च्युत्वा च्यवनं कृत्वा चयं वा देहं 'चइत्त' त्ति त्यक्त्वा 'उवरिल्ले' त्ति उपरितनमध्यमाधस्तनानां मानसानां सद्भावात् तदन्यव्यवच्छेदायोपरितने इत्युक्तं 'माणसे' त्ति गङ्गादिप्ररूपणतः प्रागुक्तस्वरूपे सरसि सरः प्रमाणायुष्कयुक्ते इत्यर्थः 'संजू' त्ति निकायविशेषे देवे 'उववज्जइ' त्ति प्रथमो दिव्यभवः सञ्ज्ञिगर्भसङ्ख्यासूत्रोक्त एव, एवं त्रिषु मानसेषु संयूथेष्वाद्यसंयूथसहितेषु चत्वारि संयूथानि त्रयश्च देवभवाः, तथा 'मानसोत्तरे' त्ति महामानसे पूर्वोक्तमहाकल्पप्रमितायुष्कवति, यच्च प्रागुक्तं चतुरशीतिं महाकल्पान् शतसहस्राणि क्षपयित्वेति तत्प्रथममहामानसापेक्षयेति द्रष्टव्यं, अन्यथा त्रिषु महामानसेषु बहुतराणि तानि स्युरिति एतेषु चोपरिमादिभेदास्त्रिषु मानसोत्तरेषु त्रीण्येव संयूथानि त्रयश्च देवभवाः, आदितस्तु सप्त संयूथानि षट् च देवभवाः । सप्तमदेवभवस्तु ब्रह्मलोके, स च संयूथं न भवति, सूत्रे संयूथत्वेनानाभिहितत्वादिति, 'पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिन्ने' त्ति इहायामविष्कम्भयोः स्थापनामात्रत्वमवगन्तव्यं तस्य प्रतिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितत्वेन तयोस्तुल्यत्वादिति 'जहा ठाणपए' त्ति ब्रह्मलोकस्वरूपं तथा वाच्यं यथा 'स्थानपदे' प्रज्ञापनाद्वितीयप्रकरणे, तच्चैवं- 'पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए अच्चिमाली भासरासिप्पभे' इत्यादि, 'असोगवडेंसए' इत्यत्र यावत्करणात् 'सत्तिवन्नवडेंसए चंपगवडेंसए चूयवडेंसए मज्झे य बंभलोयवडेंसए' इत्यादि दृश्यं । 'सुकुमालगभद्दलए' त्ति सुकुमारकश्चासौ भद्रश्च - भद्रमूर्त्तिरिति समासः, लकारककारौ तु स्वार्थिकाविति, 'मिउकुंडलकुंचियकेसए' त्ति मृदवः कुण्डलमिव-दर्भादिकुण्डलकमिव कुञ्चिताश्च केा यस्य स तथा मट्टगंडतलकण्णपीढए' त्ति मृष्टगण्डतले कर्णपीठके—कर्णाभरणविशेषौ यस्य स तथा, 'देवकुमारसप्पभए' त्ति देवकुमारवत्सप्रभः देवकुमारसमानप्रभो वा यः स तथा कशब्दः स्वार्थिक इति, 'कोमारियाए पव्वज्जाए' त्ति कुमारस्येयं कौमारी सैव कौमारिकी तस्यां प्रव्रज्यायां विषयभूतायां सङ्ख्यानं - बुद्धिं प्रतिलेभ इति योगः 'अविद्धकन्नए चेव' त्ति कुश्रुतिशलाकयाऽविद्धकर्णः अव्युत्पन्नमतिरित्यर्थः । 'एणेज्जस्से' त्यादि, इहैणकादयः पञ्च नामतोऽभिहिताः द्वौ पुनरन्त्यौ पितृनामसहिताविति । 'अलं थिरं' ति अत्यर्थं स्थिरं विवक्षितकालं यावदवश्यं परिशिष्ट - ५ : श. १५ : सू. १०२-११५ स्थायित्वात् 'धुवं' ति ध्रुवं तद्गुणानां ध्रुवत्वात् अत एव 'धारणिज्जं ' ति धारयितुं योग्यम्, एतदेव भावयितुमाह-'सीए' इत्यादि, एवंभूतं च तत् कुतः १ इत्याह- 'थिरसंघयणं' ति अविघटमानसंहननमित्यर्थः 'इतिकट्टु' त्ति 'इतिकृत्वा’ इतिहेतोस्तदनुप्रविशामीति। १५/१०२. ‘गड्डुं व' त्ति गर्त्तः श्वभ्रं 'दरिं' ति शृगालादिकृतभूविवरविशेषं 'दुग्गं ति दुःखगम्यं वनगहनादि 'निन्नं' ति निम्नं शुष्कसरःप्रभृति 'पव्वयं व' त्ति प्रतीतं विसमं' ति गर्त्तपाषाणादिव्याकुलम् 'एगेण महं' ति एकेन महता 'तणसूएण व' त्ति 'तृणसूकेन' तृणाग्रेण 'अणावरिए' त्ति अनावृतोऽसावावरणस्याल्पत्वात् 'उवलभसि' त्ति उपलम्भयसि दर्शयसीत्यर्थः ' तं मा एवं गोसाल' त्ति इह कुर्विति शेषः 'नारिहसि गोसाल' त्ति इह चैवं कर्त्तुमिति शेषः, 'सच्चेव ते सा छाय' त्ति सैव ते छाया अन्यथा दर्शयितुमिष्टा छाया-प्रकृतिः । १५/१०३. 'उच्चावयाहिं' ति असमञ्जसाभिः ‘आउसणाहिं' ति मृतोऽसि त्वमित्यादिभिर्वचनैः 'आक्रोशयति' शपति 'उद्धसणाहिं' ति दुष्कुलीनेत्यादिभिः कुलाद्यभिमानपातनार्थैर्वचनैः 'उद्धंसेइ' त्ति कुलाद्यभिमानादधः पातयतीव 'निब्भंछणाहिं' ति न त्वया मम प्रयोजनमित्यादिभिः परुषवचनैः 'निब्भंच्छेइ' त्ति नितरां दुष्टमभिधत्ते 'निच्छोडणाहिं' ति त्यजास्मदीयांस्तीर्थकरालङ्कारानित्यादिभिः 'निच्छोडेर' त्ति प्राप्तमर्थं त्याजयतीति 'नट्ठेसि कयाइ' त्ति नष्टः स्वाचारनाशात् 'असि' भवसि त्वं 'कयाइ' त्ति कदाचिदिति वितर्कार्थः अहमेवं मन्ये यदुत नष्टस्त्वमसीति 'विणट्ठेसि' त्ति मृतोऽसि 'भट्ठोसि' त्ति भ्रष्टोऽसि - सम्पदः व्यपेतोऽसि त्वं धर्मत्रयस्य यौगपद्येन योगात् नष्टविनष्टभ्रष्टोऽसीति 'नाहि ते' त्ति नैव ते । १५/१०४. 'पाईणजाणवए' त्ति प्राचीनजानपदः प्राच्य इत्यर्थः 'पव्वाविए' त्ति शिष्यत्वेनाभ्युपगतः 'अब्भुवगमो पवज्ज' त्ति वचनात्, मुंडाविए' त्ति मुण्डितस्य तस्य शिष्यत्वेनानुमननात् 'सेहाविए' त्ति व्रतित्वेन सेधितः व्रतिसमाचारसेवायां तस्य भगवतो हेतुभूतत्वात् 'सिक्खाविए' त्ति शिक्षितस्तेजोलेश्याद्युपदेशदानतः 'बहुस्सुईकए' त्ति नियतिवादादिप्रतिपत्ति-हेतुभूतत्वात् । १५/१०७. 'कोसलजाणवए' त्ति अयोध्यादेशोत्पन्नः । १५/११२. 'वाउक्कलियाइ व' त्ति वातोत्कलिका स्थित्वा २ यो वातो वाति सा वातोत्कलिका 'वायमंडलियाइ व' त्ति मण्डलिकाभिर्यो वाति 'सेलंसि वा' इत्यादौ तृतीयार्थे सप्तमी 'आवरिज्जमाणि' त्ति स्खल्यमाना 'निवारिज्जमाणि' त्ति निवर्त्त्यमाना 'नो कम ' त्ति न क्रमते' न प्रभवति 'नो पक्कमइ' त्ति न प्रकर्षेण क्रमते 'अंचितांचिं' ति अञ्चिते - सकृद्गते अञ्चितेन वा - सकृद्गतेन देशेनाञ्चिः - पुनर्गमनमञ्चिताञ्चिः अथवाऽञ्च्या - गमनेन सह आञ्चिः आगमनमञ्च्याञ्चिर्गमागम इत्यर्थः तां करोति । १५/११३-११५. ‘अन्नाइट्ठे' त्ति 'अन्वाविष्टः ' अभिव्याप्तः 'सुहत्थि ' त्ति सुहस्तीव सुहस्ती 'अहप्पहाणे जणे' त्ति यथाप्रधानो नो Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १५ : सू. ११६-१४१ यः प्रधान इत्यर्थः । १५/११६. 'अगणिझामिए' त्ति अग्निना ध्मातो दग्धो ध्यामितो वा ईषद्दग्धः 'अगणिझूसिए' त्ति अग्निना सेवितः क्षपितो वा 'अगणिपरिणमिए' त्ति अग्निना परिणामितः - पूर्वस्वभाव - त्याजनेनात्मभावं नीतः, ततश्च हततेजा धूल्यादिना गततेजाः क्वचित् स्वत एव नष्टतेजाः क्वचिदव्यक्तीभूततेजाः भ्रष्टतेजाः क्वचित्स्वरूपभ्रष्टतेजा-ध्यामतेजा इत्यर्थः लुप्ततेजाः क्वचित् अर्द्धभूततेजाः 'लुप्लृ च्छेदने छिदिर् द्वैधीभावे' इतिवचनात्, किमुक्तं भवति ? - 'विनष्टतेजा' निःसत्ताकीभूततेजाः, एकार्था वैते शब्दाः, 'छंदेणं' ति स्वाभिप्रायेण यथेष्टमित्यर्थः 'निप्पट्टपसिणवागरणं' ति निर्गतानि स्पष्टानि प्रश्नव्याकरणाणि यस्य स तथा तम् । १५/१२०. 'रुंदाई पलोएमाणे' ति दीर्घा दृष्टीर्दिक्षु प्रक्षिपन्नित्यर्थः, मानधनानां हतमानानां लक्षणमिदं, 'दीहुण्हाइं नीसासमाणे' त्ति निःश्वासानिति गम्यते ' दाढियाए लोमाई' ति उत्तरौष्ठस्य रोमाणि 'अवडुं' ति कृकाटिकां 'पुयलिं पप्फोडेमाणे' त्ति 'पुततीं' पुतप्रदेशं प्रस्फोटयन् 'विणिगुणमाणे' त्ति विनिर्धुन्वन् 'हाहा अहो हओऽहमस्सीतिकट्टु' त्ति हा हा अहो हतोऽमस्मीति कृत्वा - इति भणित्वेत्यर्थः 'अंबकूणगहत्थगए' त्ति आम्रफलहस्तगतः स्वकीयतपस्तेजोजनितदाहोपशमनार्थमाम्रास्थिकं चूषन्निति भावः, गानादयस्तु मद्यपानकृता विकाराः समवसेयाः, 'मट्टियापाणएणं' ति मृत्तिकामिश्रितजलेन, मृत्तिकाजलं सामान्यमप्यस्त्यत आह- 'आयंचणिओदएणं' ति इह टीकाव्याख्या - आतन्यनिकोदकं कुम्भकारस्य यद्भाजने स्थितं तेमनाय मृन्मिश्रं जलं तेन । १५/१२१. 'अलाहि पज्जंते' त्ति 'अलम्' अत्यर्थं 'पर्याप्तः ' शक्तो घातायेति योगः घातायेति हननाय तदाश्रितत्रसापेक्षया 'वहाए' त्ति वधाय एतच्च तदाश्रितस्थावरापेक्षया 'उच्छायणयाए' ति उच्छादनतायै सचेतनाचेतनतद्गतवस्तूच्छादनायेति एतच्च प्रकारान्तरेणापि भवतीत्यग्निपरिणामोपदर्शनायाह - 'भासी - करणयाए' त्ति । 'वज्जस्स' त्ति वर्जस्य - अवद्यस्य वा मद्यपानादिपापस्येत्यर्थः 'चरमे' त्ति न पुनरिदं भविष्यतीतिकृत्वा चरमं तत्र पानकादीनि चत्वारि स्वगतानि, चरमता चैषां स्वस्य निर्वाणगमनेन पुनरकरणात्, एतानि च किल निर्वाणकाले जिनस्यावश्यम्भावीनीति नास्त्येषु दोष इत्यस्य तथा नाहमेतानि दाहोपशमायोपसेवामीत्यस्य चार्थस्य प्रकाशनार्थत्वादवद्यप्रच्छादनार्थानि भवन्ति, पुष्कलसंवर्त्तकादीनि तु त्रीणि बाह्यानि प्रकृतानुपयोगेऽपि चरमसामान्याज्जनचित्तरञ्जनाय चरमाण्युक्तानि जनेन हि तेषां सातिशयत्वाच्चरमता श्रद्धीयते ततस्तैः सहोक्तानामाम्रकूणकपानकादीनामपि सा सुश्रद्धेया भवत्विति बुद्धयेति, 'पाणगाई' ति जलविशेषा व्रतियोग्याः 'अपाणयाई' ति पानकसदृशानि शीतलत्वेन दाहोपशमहेतवः । भगवती वृत्ति १५/१२२. 'गोपुट्ठए' त्ति गोपृष्ठाद्यत्पतितं ' हत्थमद्दिय' ति हस्तेन मर्द्दितं - मृदितं मलितमित्यर्थः यथैतदेवातन्यनिकोदकं । १५/१२३. ' थालपाणए' त्ति स्थालं - तत्पानकमिव दाहोपशमहेतुत्वात् स्थालपानकम्, उपलक्षणत्वादस्य भाजनान्तरग्रहोऽपि दृश्यः एवमन्यान्यपि नवरं त्वक्-छल्ली सीम्बली - कलायादिफलिका, 'सुद्धपाणए' त्ति देवहस्तस्पर्श इति । १५/१२४. 'दाथालय' त्ति उदकार्यं स्थालकं 'दावारगं' ति उदकवारकं 'दाकुंभग' त्ति इह कुम्भो महान् 'दाकलसं' ति कलशस्तु लघुतरः । ४७० १५/१२५. 'जहा पओगपए' त्ति प्रज्ञापनायां षोडशपदे, तत्र चेदमेवमभिधीयते -' भव्वं वा फणसं वा दालिमं वा' इत्यादि 'तरुणगं' ति अभिनवम् 'आमगं' ति अपक्वम् ' आसगंसि' त्ति मुखे 'आपीडयेत्' ईषत् प्रपीडयेत् प्रकर्षत इह यदिति शेषः । १५/१२६. 'कल' त्ति कलायो-धान्यविशेषः 'सिंबलि' त्ति वृक्षविशेषः । १५/१२७. 'पुढविसंथारोवगए; इत्यत्र वर्त्तत इति शेषो दृश्यः 'जेणं ते देवे साइज्जइ' त्ति यस्तौ देवौ 'स्वदते' अनुमन्यते 'संसि' ति स्वके स्वकीये इत्यर्थः । १५/१२८. 'हल्ल' त्ति गोवालिकातृणसमानाकारः कीटकविशेषः । १५/१२९. 'जाव सव्वन्नू' इति इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'जिणे अरहा केवली' ति, 'वागरणं' ति प्रश्न 'वागरित्तए' त्ति प्रष्टुं 'विलिए' त्ति 'व्यलीकितः' सञ्जातव्यलीकः 'विड्डे' त्ति व्रीडाऽस्यास्तीति व्रीडः - लज्जाप्रकर्षवानित्यर्थः, भूमार्थेऽस्त्यर्थप्रत्ययोपादानात् । १५/१३४. ' एगंतमंते' त्ति विजने भूविभागे यावदयंपुलो गोशालकान्तिके नागच्छतीत्यर्थः 'संगारं' ति 'सङ्केतम्' अयंपुलो भवत्समीपे आगमिष्यति ततो भवानाम्रकूणिकं परित्यजतु संवृतश्च भवत्वेवंरूपमिति । १५/१३७. 'तं नो खलु एस अंबकूणए' त्ति तदिदं किलाम्रास्थिकं न भवति यद्व्रतिनामकल्प्यं यद्भवताऽऽम्रास्थिकतया विकल्पितं, किन्त्विदं यद्भवता दृष्टं तदाम्रत्वक्, एतदेवाह - 'अंबचोयए णं एसे' त्ति इयं च निर्वाणगमनकाले आश्रयणीयैव, त्वक्पानकत्वादस्या इति । तथा हल्लासंस्थानं यत्पृष्टमासीत्तद्दर्शयन्नाह - 'वंसीमूल संठिय' त्ति इदं च वंशीमूलसंस्थितत्वं तृणगोवालिकायाः लोकप्रतीतमेवेति एतावत्युक्ते मदिरामदविह्वलितमनोवृत्तिरसावकस्मादाह- ' वीणं वाएहि रे वीरगा २' एतदेव द्विरावर्त्तयति, एतच्चोन्मादवचनं तस्योपासकस्य शृण्वतोऽपि न व्यलीककारणं जातं, यो हि सिद्धिं गच्छति स चरमं गेयादि करोतीत्यादि-वचनैर्विमोहितमतित्वादिति । १५/१३९. ‘हंसलक्खणं' ति हंसस्वरूपं शुक्लमित्यर्थः हंसचिह्नं चेति ‘इड्डीसक्कारसमुदएणं' ऋद्ध्या ये सत्काराः - पूजाविशेषास्तेषां यः समुदयः स तथा तेन, अथवा ऋद्धिसत्कारसमुदयैरित्यर्थः, समुदयश्च जनानां सङ्घः । १५/१४१. 'समणघायए' त्ति श्रमणयोस्तेजोलेश्याक्षेपलक्षणघात Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४७१ दानात् घातदो घातको वा, अत एव श्रमणमारक इति, 'दाहवक्कंतीए' ति दाहोत्पत्त्या 'सुंबेणं' ति वल्करज्ज्वा 'उट्ठभह' त्ति अवष्ठीव्यत-निष्ठीव्यत, क्वचित् 'उच्छुभह' त्ति दृश्यते तत्र चापशब्दं किञ्चित्क्षिपतेत्यर्थः 'आकट्टविकट्टि' ति आकर्षवैकर्षिकाम्। १५/१४२. 'पूयासक्कारथिरीकरणट्ठयाए' त्ति पूजासत्कारयोः पूर्वप्राप्तयोः स्थिरताहेतोः यदि तु ते गोशालक-शरीरस्य विशिष्टपूजां न कुर्वन्ति तदा लोको जानाति नायं जिनो बभूव न चैते जिनशिष्या इत्येवमस्थिरौ पूजासत्कारौ स्यातामिति तयोः स्थिरीकरणार्थम् 'अवगुणंति' त्ति अपावृण्वन्ति। 'साण (ल) कोट्ठए नाम चेईए होत्था वन्नओ' त्ति तद्वर्णको वाच्यः स च 'चिराईए' इत्यादि 'जाव पुढविसिलापट्टओ' त्ति पृथिकीशिलापट्टकवर्णकं यावत् स च-'तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा ईसिंखंधीसमल्लीणे' इत्यादि 'मालुयाकच्छए' त्ति मालुका नाम एकास्थिका वृक्षविशेषास्तेषां यत्कक्ष-गहनं तत्तथा। 'विउले' त्ति शरीरव्यापकत्वात् 'रोगायके' त्ति रोगः-पीडाकारी स चासावातङ्कश्च-व्याधिरिति रोगातङ्कः 'उज्जल्ले' त्ति उज्ज्वलः पीडापोहलक्षणविपक्षलेशे नाप्यकलङ्कितः, यावत्करणादिदं दृश्य-'तिउले' त्रीन्मनोवाक्कायलक्षणानांस्तुलयति-जयतीति त्रितुलः 'पगाढे' प्रकर्षवान् 'कक्कसे' कर्कशद्रव्यमिवानिष्ट इत्यर्थः 'कडुए' तथैव 'चंडे' रौद्रः 'तिव्वे' सामान्यस्य झगितिमरणहेतुः ‘दुक्खे' त्ति दुःखो दुःखहेतुत्वात् 'दुग्गे' त्ति क्वचित् तत्र च दुर्गमिवानभिभवनीयत्वात्, किमुक्तं भवति?-'दुरहियासे' त्ति दुरधिसह्यः सोढुमशक्य इत्यर्थः 'दाहवक्कंतीए' त्ति दाहो व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नो यस्य स स्वार्थिककप्रत्यये दाहव्युत्क्रान्तिकः 'अवियाई' ति अपिचेत्यभ्युच्चये 'आई' ति वाक्यालङ्कारे 'लोहियवच्चाइंपि' त्ति लोहितवाँस्यपिरुधिरात्मकपुरीषाण्यपि करोति किमन्येन पीडावर्णनेनेति भावः, तानि हि किलात्यन्तवेदनोत्पादके रोगे सति भवन्ति, 'चाउवण्णं' ति चातुर्वर्यं ब्राह्मणादिलोकः, 'झाणंतरियाए' त्ति एकस्य ध्यानस्य समाप्तिरन्यस्यानारम्भ इत्येषा ध्यानान्तरिका तस्यां 'मणोमाणसिएणं' ति मनस्येव न बहिर्वचनादिभिरप्रकाशितत्वात् यन्मानसिकं दुःखं तन्मनोमानसिकं तेन 'दुवे कवोया' इत्यादेः श्रूयमाणमेवार्थं केचिन्मन्यन्ते, अन्ये त्वाहु:-कपोतकः-पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसाधर्म्यात्ते कपोते-कूष्माण्डे हस्वे कपोते कपोतके च ते शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे, अथवा कपोतकशरीरे इव धूसरवर्णसाधम्यदिव कपोतकशरीरे कूष्माण्डफले एव ते उपसंस्कृते-संस्कृते 'तेहिं नो अट्ठो' त्ति बहुपापत्वात् 'पारिआसिए' त्ति परिवासितं ह्यस्तनमित्यर्थः, 'मज्जारकडए' इत्यादेरपि केचित् श्रूयमाणमेवार्थं मन्यन्ते, अन्ये त्वाहुःमार्जारो-वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृतं संस्कृतं मार्जारकृतम्, परिशिष्ट-५ : श. १५ : सू. १४२ अपरे त्वाहुः--मार्जारो-विरालकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृतं--भावितं यत्तत्तथा, किं तत् ? इत्याह-'कुर्कुटकमांसकं' बीजपूरक कटाहम् 'आहराहि' त्ति निरवद्यत्वादिति। 'पत्तगं मोएति' त्ति पात्रकं-पिठरकाविशेषं मुञ्चति सिक्कके उपरिकृतं सत्तस्मादवतारयतीत्यर्थः 'जहा विजयस्स' त्ति यथा इहैव-इह शते विजयस्य वसुधाराद्युक्तं एवं तस्या अपि वाच्यमित्यर्थः, बिममिवे' त्यादि 'बिले इव' रन्ध्रे इव ‘पन्नगभूतेन' सर्पकल्पेन 'आत्मना' करणभूतेन तं' सिंहानगारोपनीतमाहारं शरीरकोष्ठके प्रक्षिपतीति 'हटे' त्ति 'हृष्टः' निर्व्याधिः 'अरोगे' त्ति निष्पीडः 'तुढे हटे जाए' त्ति 'तुष्टः' तोषवान् 'हृष्टः' विस्मितः, कस्मादेवम् ? इत्याह-'समणे' इत्यादि ‘हटे' त्ति नीरोगो जात इति। 'भारग्गसो य' त्ति भारपरिमाणतः, भारश्च-भारकः पुरुषोद्वहनीयो विंशतिपलशतप्रमाणो वेति, 'कुंभग्गसो य' त्ति कुम्भो-जघन्य आढकानां षष्ट्या मध्यमस्त्वशीत्या उत्कृष्टः पुनः शतेनेति, 'पउमवासे य रयणवासे य वासे वासिहिति' त्ति 'वर्षः' वृष्टिर्वर्षिष्यति, किंविधः? इत्याह-'पद्मवर्षः' पद्मवर्षरूपः, एवं रत्नवर्ष इति, 'सेए' त्ति श्वेतः, कथंभूतः ?-'संखदलविमलसन्निगासे' त्ति शङ्गस्य यद्दलं-खाई तलं वा तद्रूपं विमलं तत्संनिकाशः-सदृशो यः स तथा, प्राकृतत्वाच्चैवं समासः, 'आउसिहिइ' त्ति आक्रोशान् दास्यति 'निच्छोडेहिइ' त्ति पुरुषान्तरसम्बन्धितहस्ताद्यवयवाः कारणतो ये श्रमणास्तांस्ततो वियोजयिष्यति 'निब्भत्थेहिइ' त्ति आक्रोशव्यतिरिक्तदुर्वचनानि दास्यति 'पमारेहिइ' त्ति प्रमारं-मरणक्रियाप्रारम्भं करिष्यति प्रमारयिष्यति 'उद्दवेहिइ' त्ति अपद्रावयिष्यति, अथवा 'पमारिहिइ' त्ति मारयिष्यति 'उद्दवेहिइ' त्ति उपद्रवान् करिष्यति 'आच्छिंदिहिइ' त्ति ईषत् छेत्स्यति 'विच्छिंदेहिइ' ति विशेषेण विविधतया वा छेत्स्यति 'भिंदिहिइ' त्ति स्फोटयिष्यति पात्रापेक्षमेतत् 'अवहरिहिइ' त्ति अपहरिष्यति-उद्दालयिष्यति 'निन्नगरे करेहिति' त्ति 'निर्नगरान्' नगरनिष्क्रान्तान् करिष्यति, 'रज्जस्स व' त्ति राज्यस्य वा, राज्यं च राजादिपदार्थसमुदायः, आह च'स्वाम्यमात्यश्च राष्ट्रं च, कोशो दुर्गं बलं सुहृत्। सप्ताङ्गमुच्यते राज्यं, बुद्धिसत्त्वसमाश्रयम्॥१।' राष्ट्रादयस्तु तद्विशेषाः, किन्तु राष्ट्र-जनपदैकदेशः, 'विरमंतु णं देवाणुप्पिया! एअस्स अट्ठस्स अकरणयाए' त्ति विरमणं किल वचनाद्यपेक्षयाऽपि स्यादत उच्यते-अकरणतया-करणनिषेधरूपतया। 'विमलस्स' त्ति विमलजिनः किलोत्सर्पिण्यामेकविंशतितमः समवाये दृश्यते स चावसर्पिणीचतुर्थजिनस्थाने प्राप्नोति तस्माच्चार्वाचीनजिनान्तरेषु बहवः सागरोपमकोटयोऽतिक्रान्ता लभ्यन्ते, अयं च महापद्मो द्वाविंशतेः सागरोपमाणामन्ते भविष्यति दुःखगममिदं, अथवा यो द्वाविंशतेः सागरोपमाणामन्ते तीर्थकदुत्सर्पिण्यां भविष्यति तस्यापि Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १५ : सू. १८६ ४७२ विमल इति नाम संभाव्यते, अनेकाभिधानाभिधेयत्वान्महा. पुरुषाणामिति, 'पउप्पए' ति शिष्यसन्तानः, 'जहा धम्मघोसस्स वन्नओ' ति यथा धर्मघोषस्य-एकादशशतैकादशोद्देशकाभिहितस्य वर्णकस्तथाऽस्य वाच्यः, स च 'जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने बलसंपन्ने' इत्यादिरिति 'रहचरियं' त्ति रथचर्या 'नोल्लावेहिइ' त्ति नोदयिष्यति-प्रेरयिष्यति सहितमित्यादय एकार्थाः। १५/१८६. 'सत्थवज्झे' त्ति शस्त्रवध्यः सन् 'दाहवक्कंतीए' त्ति दाहोत्पत्त्या कालं कृत्वेति योगः दाहव्युत्क्रान्तिको वा भूत्वेति शेषः, इह च यथोक्तक्रमेणैवासझिप्रभृतयो रत्नप्रभादिषु यत उत्पद्यन्त इत्यसौ तथैवोत्पादितः, यदाह'अस्सण्णी खलु पढम दोच्चं च सिरीसिवा तइय पक्खी। सीहा जंति चउत्थिं उरगा पुण पंचमि पुढविं॥४॥ छद्धिं च इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि पुढविं।' (असंज्ञिनः खलु प्रथमां द्वितीयां च सरिसृपाः तृतीयां पक्षिणः। सिंहा यान्ति चतुर्थी पंचमी पुनः पृथ्वीमुरगाः॥१॥ षष्ठीं च स्त्रियो मत्स्या मनुष्याश्च सप्तमी पृथ्वीम) इति, 'खहचरविहाणाई' ति इह विधानानि-भेदाः 'चम्मपक्खीणं' ति वल्गुलीप्रभृतीनां 'लोमपक्खीणं' ति हंसप्रभृतीनां 'समुग्गपक्खीणं' ति समुद्गकाकारपक्षवतां मनुष्यक्षेत्रवहिर्वर्त्तिनां विययपक्खीणं' ति विस्तारिपक्षवतां समयक्षेत्रबहिर्वर्त्तिनामेवेति 'अणेगसयसहस्सखुत्तो' इत्यादि तु यदुक्तं तत्सान्तरमवसेयं, निरन्तरस्य पञ्चेन्द्रियत्वलाभस्योत्कर्षतोऽप्यष्टभवप्रमाणस्यैव भावात्, यदाहपंचिंदियतिरियनरा सत्तट्ठभवा भवग्गहेण' (पञ्चेन्द्रियस्तिर्यग्नराः सप्ताष्टभवाः भवग्रहणैः) त्ति 'जहा पन्नवणापए' त्ति प्रज्ञापनायाः प्रथमपदे, तत्र चैवमिदं-'सरडाणं सल्लाण' मित्यादि। 'एगखुराणं' ति अश्वादीनां 'दुखुराणं' ति गवादीनां 'गंडीपयाणं' ति हस्त्यादीनां। 'सणहप्पयाणं' ति सनखपदानां सिंहादिनखराणां। 'कच्छभाणं' ति इह यावत्करणादिदं दृश्य-'गाहाणं मगराणं पोत्तियाणं' इत्यत्र 'जहां पन्नवणापए' त्ति अनेन यत्सूचितं तदिदं-'मच्छियाणं गमसियाण' मित्यादि। 'उवचियाणं' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-रोहिणियाणं कुंथूणं पिविलियाण' मित्यादि। 'पुलाकिमियाण' मित्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं-'कुच्छिकिमियाणं गंडूलगाणं गोलोमाण' मित्यादि। 'रुक्खाणं' ति वृक्षाणामेकास्थिकबहबीजकभेदेन द्विविधानां, तत्रैकास्थिकाः निम्बाम्रादयः बहुबीजा--अस्थिकतिन्दुकादयः, 'गुच्छाणं' ति वृन्ताकीप्रभृतीनां यावत्करणादिदं दृश्य-'गुम्माणं लयाणं वल्लीणं पव्वगाणं तणाणं वलयाणं हरियाणं ओसहीणं जलरुहाणं' ति तत्र 'गुल्मानां' नवमालिकाप्रभृतीनां 'लतानां' पद्मलतादीनां 'वल्लीनां' पुष्पफलीप्रभृतीनां 'पद्धकाणाम्' भगवती वृत्ति इक्षुप्रभृतीनां 'तृणानां' दर्भकुशादीनां 'वलयानां' तालतमालादीनां 'हरितानाम्' अध्यारोहकतन्दुलीयकादीनाम् 'औषधीनां' शालिगोधूमप्रभृतीनां 'जलरुहाणां' कुमुदादीनां 'कुहणाणं' ति कुहुणानाम् आयुकायप्रभृतिभूमीस्फोटानाम् 'उस्सन्नं च णं' ति बाहुल्येन पुनः।। ‘पाईणवायाणं' ति पूर्ववातानां यावत्करणादेवं दृश्यं-'पडीणवायाणं दाहिणवायाण' मित्यादि, 'सुद्धवायाणं' ति मन्दस्तिमितवायूनाम्। 'इंगालाणं' इह यावत्करणादेवं दृश्यं-'जालाणं मुम्मुराणं अच्चीण' मित्यादि, तत्र च 'ज्वालानां' अनलसम्बद्धस्वरूपाणां 'मुर्मुराणां' फुम्फुकादौ मसृणाग्निरूपाणाम् 'अर्चिषां' अनलाप्रतिबद्धज्वालानामिति। 'ओसाणं' ति रात्रिजलानाम्, इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'हिमाणं महियाणं ति, 'खाओदयाणं' ति खातायां-भूमौ यान्युदकानि तानि खातोदकानि। 'पुढवीणं' ति मृत्तिकानां 'सक्कराणं' ति शर्करिकाणां यावत्करणादिदं दृश्यं-'वालुयाणं उवलाणं' ति, सूरकताणं' ति मणिविशेषाणां। 'बाहिं खरियत्ताए' त्ति नगरबहिर्वतिवश्यात्वेन प्रान्तजवेश्यात्वेनेत्यन्ये, 'अंतोखरियत्ताए' त्ति नगराभ्यन्तरवेश्यात्वेन विशिष्टवेश्यात्वेनेत्यन्ये। 'पडिरूविएणं सुक्केणं' ति 'प्रतिरूपकेन' उचितेन शल्केनदानेन 'भंडकरंडगसमाणे' ति आभरणभाजनतुल्या आदेयेर्थः 'तेल्लकेला इव सुसंगोविय' त्ति तैलकेला इव-तैलाश्रयो भाजनविशेषः सौराष्ट्रप्रसिद्धः सा च सुष्ठु संगोपनीया भवत्यन्यथा लुठति ततश्च तैलहानिः स्यादिति, 'चेलपेडा इव सुसंपरिगहिय' त्ति चेलपेडावत्-वस्त्रमञ्जूषेव सुष्ठु संपरिवृत्ता (गृहीता)-निरुपद्रवे स्थाने निवेशिता। 'दाहिणिल्लेसु असुरकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववज्जिहिति' त्ति विराधितश्रामण्यत्वादन्यथाऽनगाराणां वैमानिकेष्वेवोत्पत्तिः स्यादिति, यच्चेह 'दाहिणिल्लेसु' ति प्रोच्यते तत्तस्य क्रूरकर्मत्वेन दक्षिणक्षेत्रेष्वेवोत्पाद इतिकृत्वा। 'अविराहियसामन्ने त्ति आराधितचरण इत्यर्थः, आराधितचरणता चेह चरणप्रतिपत्तिसमयादारभ्य मरणान्तं यावन्निरतिचारतया तस्य पालना, आह च'आराहणा य एत्थं चरणपडिवत्तिसमयओ पभिई। आमरणंतमजस्सं संजमपरिपालणं विहिणा॥१॥ इति (आराधना चात्र चारित्रप्रतिपत्तिसमयत आरभ्य आमरणान्तमजस्रं विधिना संयमपरिपालना॥१) एवं चेह यद्यपि चारित्रप्रतिपत्तिभवा विराधनायुक्ता अग्निकुमारवर्जभवनपतिज्योतिष्कत्वहेतुभवसहिता दश अविराधनाभवास्तु यथोक्तसौधर्मादिदेवलोक सर्वार्थसिद्ध्युत्पत्तिहेतवः सप्ताष्टमश्च सिद्धिगमनभव इत्येवमष्टादश चारित्रभवा उक्ताः, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४७३ परिशिष्ट-५ : श. १५ : सू. १८६ श्रूयन्ते चाष्टैव भवांश्चारित्रं भवति तथाऽपि न विरोधः, त्वाहुः न हि वृत्तिकारवचनमात्रावष्टम्भादेवाधिकृतसूत्रमन्यथ अविराधनाभवानामेव ग्रहणादिति, अन्ये त्वाहु:-'अट्ठ भवा उ व्याख्येयं भवति, आवश्यकचूर्णिकारेणाप्याराधनापक्षस चरिते' (चारित्रेऽष्टौ भवाः।) इत्यत्र सूत्रे आदानभवानां समर्थितत्वादिति। वृत्तिकृता व्याख्यातत्वात् चारित्रप्रतिपत्तिविशेषिता एव भवा १५/१८९. 'एवं जहा उववाइए' इत्यादि भावितमेवाम्मडपरिव्राजकक ग्राह्याः, नाराधनाविराधनाविशेषणं कार्यम्, अन्यथा यद्भगवता थानक इति॥ श्रीमन्महावीरेण हालिकाय प्रव्रज्या बीजमिति दापिता तन्निरर्थकं पञ्चदशं शतं वृत्तितः समाप्तमिति॥ स्यात्, सम्यक्त्वमात्रेणैव बीजमात्रस्य सिद्धत्वात्, यत्तु श्रीमन्महावीरजिनप्रभावाद्गोशालकाहङ्कृतिवद्गतेषु। चारित्रदानं तस्य तदष्टमचारित्रे सिद्धिरेतस्य स्यादिति समस्तविघ्नेषु समापितेयं, वृत्तिः शते पञ्चदशे मयेति॥४॥ विकल्पादुपपन्नं स्यादिति, यच्च दशसु विराधनाभवेषु तस्य ॥इति श्रीमदभयदेवसूरिवर्यविहितविवरणयुतं पञ्चदशं चारित्रमुपवर्णितं तद्व्यतोऽपि स्यादिति न दोष इति, अन्ये गोशालाख्यं शतकं समाप्तम्॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५:श. १६ : उ. १: सू. १-१३ ४७४ भगवती वृत्ति मित्याह-'न विणे' त्यादि। अग्न्यधिकारादेवाग्नितप्तलोहमधिकृत्याह१६/६. 'पुरिसे णं भंते!' इत्यादि, 'अयं ति लोहं 'अयकोटुंसि' त्ति लोहप्रतापनार्थे कुशूले 'उविहमाणे व' त्ति उत्क्षिपन् वा 'पब्विहमाणे ब' त्ति प्रक्षिपन् वा 'इंगालकड्डिणि' त्ति ईषद्वकाग्रा अथ षोडशं शतकम् लोहमययष्टिः 'भत्थ' त्ति ध्मानखल्ला, इह चायःप्रभृतिपदार्थ निर्वर्त्तकजीवानां पञ्चक्रियत्वमविरतिभावेनावसेयमिति। १६/७. 'चम्मेढे' त्ति लोहमयः प्रतलायतो लोहादिकुट्टनप्रयोजनो प्रथम उद्देशकः लोहकाराद्युपकरणविशेषः, 'मुट्ठिए' त्ति लघुतरो घनः व्याख्यातं पञ्चदशं शतं। तत्र चैकेन्द्रियादिषु गोशालक 'अहिगरणिखोडि' ति यत्र काष्ठेऽधिकरणी निवेश्यते जीवस्यानेकधा जन्म मरणं चोक्तं, इहापि जीवस्य जन्म 'उदगदोणि' त्ति जलभाजनं यत्र तप्तं लोहं शीतलीकरणाय मरणाधुच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येमुद्देशकाभिधानसूचिका क्षिप्यते 'अहिगरणसाल' त्ति लोहपरिकर्मगृहम्। गाथा प्राक्क्रियाः प्ररूपितास्तासु चाधिकरणिकी, सा चाधिकरणि'अहिगरणी' त्यादि, 'अहिगरणि' त्ति अधिक्रियते-ध्रियते नोऽधिकरणे सति भवतीत्यतस्तद्वयनिरूपणायाहकुट्टनार्थ लोहादि यस्यां साऽधिकरणी-लोहकाराद्युपकरण- १६/८. 'जीवे ण' मित्यादि, 'अहिगरणीवि' त्ति अधिकरणंविशेषस्तत्प्रभृतिपदार्थविशेषितार्थविषय उद्देशकोऽधिकरण्ये. दुर्गतिनिमित्तं वस्तु तच्च विवक्षया शरीरमिन्द्रियाणि च तथा वोच्यते, स चात्र प्रथमः, 'जर' त्ति जराद्यर्थविषयत्वाज्जरेति बाह्यो हलगन्त्र्यादिपरिग्रहस्तस्यास्तीत्यधिकरणी जीवः। द्वितीयः, 'कम्मे' त्ति कर्मप्रकृतिप्रभृतिकार्थविषयत्वात्कर्मेति 'अहिकरणंपि' त्ति शरीराद्यधिकरणेभ्यः कथञ्चिदव्यतिरिक्ततृतीयः, 'जावइयं' ति 'जावइय' मित्यनेनादिशब्देनोपलक्षितो त्वादधिकरणं जीवः। जावइयमिति चतुर्थः, 'गंगदत्त' त्ति गङ्गदत्तदेववक्तव्यताप्रति- १६/९. एतच्च द्वयं जीवस्याविरतिं प्रतीत्योच्यते तेन यो विरतिमान् बद्धत्वाद् गङ्गदत्त एव पञ्चमः, 'सुमिणे य' त्ति स्वप्नविषय असौ शरीरादिभावेऽपि नाधिकरणी त्वात्स्वप्न इति षष्ठः, 'उवओग' त्ति उपयोगार्थप्रतिपादक- नाप्यधिकरणमविरतियुक्तस्यैव शरीरादेरधिकरणत्वादिति। त्वादुपयोग एव सप्तमः, 'लोग' त्ति लोकस्वरूपाभिधायक एतदेव चतुर्विंशतिदण्डके दर्शयतित्वाल्लोक एवाष्टमः, 'बलि' त्ति बलिसम्बन्धिपदार्थाभिधायि. १६/१०. 'नेरइए' इत्यादि, अधिकरणी जीव इति प्रागुक्तं, स च कत्वाद्बलिरेव नवमः, 'ओहि' त्ति अवधिज्ञानप्ररूपणार्थत्वाद- दूरवर्त्तिनाऽप्यधिकरणेन स्याद् यथा गोमान् इत्यतः पृच्छतिवधिरेव दशमः, 'दीव' त्ति द्वीपकुमारवक्तव्यतार्थो द्वीप १६/११. 'जीवे ण' मित्यादि, 'साहिगरणि' त्ति सह-सहभाविनाऽधिएवैकादशः 'उदहि' त्ति उदधिकुमारविषयत्वादुदधिरेव द्वादश करणेन-शरीरादिना वर्त्तत इति समासान्तेन्विधिः साधिकरणी, 'दिसि' त्ति दिक्कुमारविषयत्वाद्दिगेव त्रयोदशः, 'थणिए' त्ति संसारिजीवस्य शरीरेन्द्रियरूपाधिकरणस्य सर्वदेव स्तनितकुमारविषयत्वात्स्तनित एव चतुर्दश इति। सहचारित्वात् साधिकरणत्वमुपदिश्यते, शस्त्राद्यधिकरणापेक्षया तत्राधिकरणीत्युद्देशकार्थप्रस्तावनार्थमाह तु स्वस्वामिभावस्य तदविरतिरूपस्य सहवर्त्तित्वाज्जीवः १६/१. 'तेण' मित्यादि, 'अत्थि' त्ति अस्त्ययं पक्षः 'अहिगरणिंसि' त्ति साधिकरणीत्युच्यते, अत एव वक्ष्यति अधिकरण्यां 'वाउयाए' त्ति वायुकायः 'वक्कमइ' त्ति व्युत्क्रामति १६/१२. 'अविरई पडुच्च' त्ति, अत एव संयतानां शरीरादिसद्भावेऽअयोधनाभिघातेनोत्पद्यते, अयं चाक्रान्तसम्भवत्वेनादावचेतन प्यविरतेरभावान्न साधिकरणित्वं, 'निरहिगरणि' त्ति तयोत्पन्नोऽपि पश्चात्सचेतनीभवतीति सम्भाव्यत इति। निर्गतमधिकरणमस्मादिति निरधिकरणी समासान्तविधेः उत्पन्नश्च सन् म्रियत इति प्रश्नयन्नाह अधिकरणदूरवर्तीत्यर्थः, स च न भवति, अविरतेरधिकरण१६/२-४. 'सं भंते' इत्यादि, 'पुढे' त्ति स्पृष्टः स्वकायशस्त्रादिना भूताया अदूरवर्त्तित्वादिति, अथवा सहाधिकरणिभिःसशरीरश्च । कडेवरान्निष्क्रामति कार्मणाद्यपेक्षया पुत्रमित्रादिभिर्वर्त्तत इति साधिकरणी, कस्यापि जीवस्य औदारिकाद्यपेक्षया त्वशरीरीति। पुत्रादीनामभावेऽपि तद्विषयविरतेरभावात्साधिकरणित्वमवअग्निसहचरत्वाद्वायोर्वायुसूत्रानन्तरमग्निसूत्रमाह सेयमत एव नो निरधिकरणीत्यपि मन्तव्यमिति। १६/५. 'इंगाले' त्यादि, 'इंगालकारियाए' त्ति अङ्गारान् करोतीति अधिकरणाधिकारादेवेदमाह अङ्गारकारिका-अग्निशकटिका तस्यां, न केवलं १६/१३. 'जीवे ण' मित्यादि, 'आयाहिगरणि' त्ति अधिकरणी कृष्यातस्यामग्निकायो भवति 'अन्नेऽविऽत्थ' त्ति अन्योऽप्यत्र दिमान् आत्मनाऽधिकरणी आत्माधिकरणी, ननु यस्य कृष्यादि वायुकायो व्युत्क्रामति, यत्राग्निस्तत्र वायुरितिकृत्वा, कस्मादेव- नास्ति स कथमधिकरणीति?, अत्रोच्यते, अविरत्यपेक्षयेति, Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४७५ अत एवाविरतिं प्रतीत्येति वक्ष्यति, 'पराहिगरणि' त्ति परतः परेषामधिकरणे प्रवर्त्तनाधिकरणी पराधिकरणी, 'तदुभयाहिगरणि' त्ति तयोः - आत्मपरयोरुभयं तदुभयं ततोऽधिकरणीयः स तथेति । अथाधिकरणस्यैव हेतुप्ररूपणार्थमाह१६/१५. 'जीवाण' मित्यादि, 'आयप्पओगनिव्वत्तिए' त्ति आत्मनः प्रयोगेण - मनःप्रभृतिव्यापारेण निर्वर्त्तितं-निष्पादितं यत्तत्तथा, एवमन्यदपि द्वयम्। ननु यस्य वचनादि परप्रवर्त्तनं वस्तु नास्ति तस्य कथं परप्रयोगनिर्वर्त्तितादि भविष्यतीत्याशङ्कामुपदर्श्य परिहरन्नाह १६ /१६. 'से केण' मित्यादि, अविरत्यपेक्षया त्रिविधमप्यस्तीति भावनीयमिति । १६/१७-२१. अथ शरीराणामिन्द्रियाणां योगानां च निर्वर्त्तनायां जीवादेरधिकरणित्वादि प्ररूपयन्निदमाह - 'कति णं भंते!' इत्यादि, ‘अहिगरणीवि अहिगरणंपि' त्ति पूर्ववत् 'एवं चेव' त्ति अनेन जीवसूत्राभिलापः। १६/२२-२६. पृथिवीकायिकसूत्रे समस्तो वाच्य इति दर्शितम्, 'एवं वेउव्वि' इत्यादि व्यक्तं, नवरं 'जस्स अत्थि' त्ति इह तस्य जीवपदस्य वाच्यमिति शेषः, तत्र नारकदेवानां वायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्गनुष्याणां च तदस्तीति ज्ञेयं, 'पमायं 'पडुच्च' त्ति इहाहारकशरीरं संयमवतामेव भवति तत्र चाविरतेरभावेऽपि प्रमादादधिकरणित्वमवसेयं, दण्डकचिन्तायां चाहारकं मनुष्यस्यैव भवतीत्यत उक्तम्- ' एवं मणुस्सेवि' त्ति, 'नवरं जस्स अत्थि सोइंदियं' ति तस्य वाच्यमिति शेषः तच्चैकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्णानामन्येषां स्यादिति । षोडशशते प्रथमः ॥ १६-१॥ द्वितीय उद्देशकः प्रथममोद्देशके जीवानामधिकरणमुक्तं द्वितीये तु तेषामेव जराशोकादिको धर्म उच्यते । इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादि-सूत्रम् - १६/२८-३१. ‘रायगिहे' इत्यादि, 'जर' त्ति 'नृ वयोहानौ' इति वचनात् जरणं जरा - वयोहानिः शारीरदुःखरूपा चेयमतो यदन्यदपि शारीरं दुःखं तदनयोपलक्षितं, ततश्च जीवानां किं जरा भवति ? 'सोगे' त्ति शोचनं शोको - दैन्यम्, उपलक्षणत्वादेव चास्य सकलमानसदुःखपरिग्रहस्ततश्च उत शोको भवतीति, चतुर्विंशतिदण्डके च येषां शरीरं तेषां जरा येषां तु मनोऽप्यस्ति तेषामुभयमिति । अनन्तरं वैमानिकानां जराशोकावुक्तौ अथ तेषामेव विशेषस्य शक्रस्य वक्तव्यतामभिधातुकाम आह १६/३३. ‘तेणं कालेण’ मित्यादि, 'एवं जहा ईसाणो तइयसए तहा सक्कोवि' त्ति यथेशानस्तृतीयशते प्रथमोद्देशके राजप्रश्नीयाति परिशिष्ट - ५ : श. १६ : उ. २ सू. १५-४० देशेनाभिहितस्तथा शक्रोऽपीह वाच्यः, सर्वथा साम्यपरिहारार्थं त्वाह- 'नवरमाभिओगे ण सद्दावइ' इत्यादि तत्र किलेशानो महावीरमवधिनाऽवलोक्याभियोगिकान् देवान् शब्दयामास शक्रस्तु नैवं, तथा तत्र लघुपराक्रमः पदात्यनीकाधिपतिर्नन्दिघोषाघण्टाताडनाय नियुक्त उक्तः इह तु सुघोषाघण्टाताडनाय हरिणैगमेषी नियुक्त इति वाच्यं, तथा तत्र पुष्पको विमानकारी उक्त इह तु पालकोऽसौ वाच्यः, तथा तत्र पुष्पकं विमानमुक्तमिह तु पालकं वाच्यं तथा तत्र दक्षिणो निर्याणमार्ग उक्त इह तूत्तरो वाच्यः, तथा तत्र नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरपूर्वो रतिकरपर्वत ईशानेन्द्रस्यावतारायोक्त इह तु पूर्वदक्षिणोऽसौ वाच्यः 'नामगं सावेत्त' त्ति स्वकीयं नाम श्रावयित्वा यदुताहं भदन्त ! शक्रो देवराजो भवन्तं वन्दे नमस्यामि चेत्येवम् । १६ / ३४, ३५. 'उग्गहे' त्ति अवगृह्यते - स्वामिना स्वीक्रियते यः सोऽवग्रहः 'देविंदोग्गहे य' त्ति देवेन्द्रः - शक्र ईशानो वा तस्यावग्रहो - दक्षिणं लोकार्द्धमुत्तरं वेति देवेन्द्रावग्रहः 'राओग्गहे' त्ति राजा चक्रवर्ती तस्यावग्रहः - षट्खण्डभरतादिक्षेत्रं राजावग्रहः 'गाहावईउग्गहे' त्ति गृहपतिः - माण्डलिको राजा तस्यावग्रहःस्वकीयं मण्डलमिति गृहपत्यवग्रहः 'सागारियउग्गहे' त्ति सहागारेण - गेहेन वर्त्तत इति सागारः स एव सागारिकस्तस्यावग्रहो – गृहमेवेति सागारिकावग्रहः 'साहम्मियउग्गहे' ि समानेन धर्मेण चरन्तीति साधर्म्मिकाः साध्वपेक्षया साधव एव तेषामवग्रहः -- तदाभाव्यं पञ्चक्रोशपरिमाणं क्षेत्रमृतुबद्धे मासमेकं वर्षासु चतुरो मासान् यावदिति सधार्म्मिकावग्रहः । एवमुपश्रुत्येन्द्रो यदाचख्यौ तदाह- 'जे इमे' इत्यादि, 'एवं वयइ' त्ति एवं पूर्वोक्तम् 'अहं उग्गहं अणुजाणामि' इत्येवंरूपं 'वदति' अभिधत्ते सत्य एषोऽर्थ इति । अथ भवत्वयमर्थः सत्यस्तथाऽप्ययं स्वरूपेण सम्यग्वादी उत न? इत्याशङ्कयाह भाषा १६/३६-४०. ‘सक्के ण' मित्यादि, सम्यग् वदितुं शीलं स्वभावो यस्य सम्यग्वादी प्रायेणासौ सम्यगेव वदतीति । सम्यग्वादशीलत्वेऽपि प्रमादादिना किमसौ चतुर्विधां भाषां भाषते न वा ? इति प्रश्नयन्नाह - 'सक्के ण' मित्यादि, सत्याऽपि कथञ्चिद्भाष्यमाणा सावधा संभवतीति पुनः पृच्छति- 'सक्के ण' मित्यादि, 'सावज्जं ' ति सहावद्येन-गर्हितकर्म्मणेति सावद्या तां 'जाहे णं' ति यदा 'सुहुमकायं' ति सूक्ष्मकायं हस्तादिकं वस्त्विति वृद्धाः, अन्ये त्वाहु- 'सुहुमकायं' ति वस्त्रम् 'अनिज्जूहित्त' ति 'अपोह्य' अदत्त्वा, हस्ताद्यावृतमुखस्य हि भाषमाणस्य जीवसंरक्षणतोऽनवद्य भाषा भवति अन्या तु सावद्येति । शक्रमेवाधिकृत्याह- 'सक्के ण' मित्यादि, 'मोउद्देसए' त्ति तृतीयशते प्रथमोद्देशके । अनन्तरं शक्रस्वरूपमुक्तं तच्च कर्म्मतो भवतीति सम्बन्धेन कर्म्मस्वरूपप्ररूपणायाह Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ : श. १६ : उ. ३ : सू. ४१-४६ ४ ७६ भगवती वृत्ति १६/४१. 'जीवाण' मित्यादि, 'चेयकडकम्म' त्ति चेतः-चैतन्य तृतीय उद्देशकः जीवस्वरूपभूता चेतनेत्यर्थः तेन कृतानि-बद्धानि चेतःकृतानि द्वितीयोद्देशकान्ते काभिहितं, तृतीयेऽपि तदेवोच्यते, कर्माणि 'कज्जंति' ति भवन्ति, कथम् ? इति चेदुच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्१६/४२. 'जीवाणं' ति जीवानामेव नाजीवानाम् 'आहारोवचिया १६/४४,४५. 'रायगिहे' इत्यादि, ‘एवं जहा पन्नवणाए' इत्यादि, पोग्गल' त्ति आहाररूपतयोपचिताः सञ्चिता ये पुद्गलाः 'वेयावेउद्देसओ' ति वेद-वेदने कर्मप्रकृतेः एकस्याः 'बोदिचिया पोग्गल' त्ति इह बोन्दि:-अव्यक्तावयवं शरीरं ततो वेदो-वेदनमन्यासां प्रकृतीनां यत्रोद्देशकेऽभिधीयते स वेदावेदः बोन्दितया चिता ये पुद्गलाः, तथा 'कडेवरचिय' त्ति कडेवरतया स एवोद्देशकः-प्रज्ञापनायाः सप्तविंशतितमं पदं वेदावेदोद्देशकः, चिता ये पुद्गलाः 'तहा तहा ते पुग्गला परिणमंति' त्ति तेन तेन दीर्घता चेह सज्ञात्वात्, स चैवमर्थतःप्रकारेण आहारादितयेत्यर्थः ते पुद्गलाः परिणमन्ति, एवं च गौतम! अष्ट कर्मप्रकृतीर्वेदयति सप्त वा मोहस्य क्षये उपशमे कर्मपुद्गला अपि जीवानामेव तथा २ परिणमन्तीतिकृत्वा वा (शेषघातिक्षये चतस्रो वा), एवं मनुष्योऽपि, नारकादिस्तु चैतन्यकृतानि कर्माणि, अतो निगम्यते-'नत्थि अचेयकडा वैमानिकान्तोऽष्टावेवेत्येवमादिरिति। 'वेदाबंधोवि तहेव' त्ति कम्म' त्ति न भवन्ति 'अचेतःकृतानि' अचैतन्यकृतानि कर्माणि एकस्याः कर्मप्रकृतेर्वेद-वेदने अन्यासां कियतीनां बन्धो हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति, अथवा 'चेयकडा कम्मा कज्जंति' भवतीति प्रतिपाद्यते यत्रासौ वेदाबन्ध उच्यते, सोऽपि तथैव त्ति चेयं-चयनं चय इत्यर्थः भावे यप्रत्ययविधानात् तत्कृतानि प्रज्ञापनायामिवेत्यर्थः, स च प्रज्ञापनायां षडविंशतितमपदरूपः, सञ्चयकृतानि पुद्गलसञ्चयरूपाणि कर्माणि भवन्ति, कथम्?, एवं चासौ'आहारोवचिया पोग्गला' इत्यादि, आहाररूपा उपचिताः सन्तः कइ णं भंते! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा! अट्ठ पुद्गला भवन्ति, तथा बोन्दिरूपाश्चिताः सन्तः पुद्गला कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-णाणावरणं जाव अंतराइयं, भवन्ति, तथा कडेवररूपाश्चिताः सन्तः पुद्गला भवन्ति, किं एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं बहुना?, तथोच्छ्रासादिरूपतया ते पुद्गलाः परिणमन्ति कम्मं वेदेमाणे कइ कम्मपगडीओ बंधइ?, गोयमा ! चयादेवेति शेषः, एवं च न सन्ति 'अचेयकृतानि सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए असञ्चयकृतानि कर्माणि आहारबोन्दिकडेवरपुद्गलवदिति। वा' इत्यादि, तत्राष्टविधबन्धकः प्रतीतः, सप्तविधबन्धतथा 'दुट्ठाणेसु' त्ति शीतातपदंशमशकादियुक्तेषु- कस्त्वायुर्बन्धकालादन्यत्र, षड्विधबन्धक आयुर्मोहवर्जानां कायोत्सर्गासनाद्याश्रयेषु 'दुसेज्जासु' ति दुःखोत्पादकवसतिषु सूक्ष्मसम्परायः, एकविधबन्धको वेदनीयापेक्षयोपशान्त'दुन्निसीहियासु' त्ति दुःख-हेतुस्वाध्यायभूमिषु 'तथा तथा' तेन मोहादिः, 'बंधावेदोवि तहेव' त्ति एकस्याः कर्मप्रकृतेर्बन्धे तेन प्रकारेण बहुविधा-सातोत्पादकतया 'ते पोग्गल' त्ति ते सत्यन्यासां कियतीनां वेदो भवति? इत्येवमर्थो बन्धावेद कार्मणपुद्गलाः परिणमन्ति, ततश्च जीवानामेवासात. उद्देशक उच्यते, सोऽपि तथैव-प्रज्ञापनायामिवेत्यर्थः, स च सम्भवात्तैरेवासात-हेतुभूतकर्माणि कृतानि अन्यथाऽकृता- प्रज्ञापनायां पञ्चविंशतितमपदरूपः, एवं चासौ-'कइ णं भंते!' भ्यागमदोषप्रसङ्गः, जीवकृतत्वे च तेषां चेतः कृतत्वं सिद्धमतो इत्यादि प्रागिव, विशेषस्त्वयं-'जीवे णं भंते! णाणावरणिज्जं निगम्यते 'नत्थि अचेयकडा कम्म' त्ति, चेयव्याख्यानं त्वेवं कम्मं बंधेमाणे कइ कम्मपगडीओ वेएइ ?, गोयमा! नियमा अट्ठ नीयते यतो दुःस्थानादिष्वसातहेतुतया पुद्गलाः परिणमन्ति कम्मप्पगडीओ वेएइ' इत्यादि, 'बंधाबंधो' त्ति एकस्या अतो नोऽचेयकृतानि कर्माणि-नासञ्चयरूपाणि कर्माणि, बन्धेऽन्यासां कियतीनां बन्धः ? इति यत्रोच्यतेऽसौ बन्धाबन्ध असञ्चयरूपाणामतिसूक्ष्मत्वेनासातोत्पादकत्वासम्भवाद् इत्युच्यते, स च प्रज्ञापनायां चतुर्विंशतितमं पदं, स चैवं-'कइ विषलववदिति, तथा 'आयंके' इत्यादि, 'आतङ्कः' ण' मित्यादि तथैव, विशेषः पुनरयं-'जीवे णं भंते ! कृच्छ्रजीवितकारी ज्वरादिः 'से' तस्य जीवस्य 'वधाय' मरणाय णाणावरणिज्जं कम्मं बंधेमाणे कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ?, भवति, एवं 'सङ्कल्पः' भयादिविकल्पः मरणान्तः-मरणा- गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छव्विहबंधए वा' रूपोऽन्तो-विनाशो यस्मात्सः मरणान्तः-दण्डादिघातः, तत्र च इत्यादि इह सङ्ग्रहगाथा क्वचिद् दृश्यते'तथा तथा' तेन तेन प्रकारेण वधजनकत्वेन ते 'पुद्गलाः' 'वेयावेओ पढमो १ वेयाबंधो य बीयओ होइ । आतङ्कादिजनकासातसंवेदनीयसम्बन्धिनः 'परिणमन्ति' बंधावेओ तइओ ३ चउत्थओ बंधबंधो उ४॥१॥ इति। वर्त्तन्ते, एवं च वधस्य जीवानामेव भावाद् वधहेतवोऽसातवेद्य- अनन्तरं बन्धक्रिया उक्तेति क्रियाविशेषाभिधानाय प्रस्तावनापुद्गला जीवकृताः अतश्चेतः कृतानि कर्माणि न सन्त्यचेतः- पूर्वकमिदमाहकृतानि, चेयव्याख्यानं तु पूर्वोक्तानुसारेणावगन्तव्यमिति॥ १६/४८,४९. 'तए ण' मित्यादि। 'पुरच्छिमेणं' ति पूर्वभागे-पूर्वाह्ने षोडशशते द्वितीयः॥१६-२॥ इत्यर्थः 'अवटुं' ति अपगतार्द्धमर्द्धदिवसं यावत् न कल्पते हस्ताद्याकुण्टयितुं कायोत्सर्गव्यवस्थितत्वात् 'पच्चच्छिमेणं' ति Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४७७ परिशिष्ट-५:श. १६: उ. ४,५ : सू. ५१-६० पश्चिमभागे 'अवढे दिवसं' ति दिनार्द्ध यावत् कल्पते व्यादिग्धां-विशिष्टद्रव्योपदिग्धां वक्रामिति वृद्धाः 'अपत्तियं' ति हस्ताद्याकुण्टयितुं कायोत्सर्गाभावात्, एतच्च चूर्ण्यनुसारितया अपात्रिकाम्-अविद्यमानाधाराम्, एवम्भूता च गण्डिका दुश्छेद्या व्याख्यातं, 'तस्स य' त्ति तस्य पुनः साधोरेवं भवतीत्येवं विशेषिता, तथा परशुरपि मुण्डः-अच्छेदको भवतीति कायोत्सर्गाभिग्रहवतः 'अंसियाओ' त्ति अशासि तानि च मुण्ड इति विशेषितः, शेषं तूद्देशकान्तं यावत् षष्ठशतनासिकासत्कानीति चूर्णिकारः, 'तं च' त्ति तं चानगारं वढ्याख्येयमिति॥ कृतकायोत्सर्ग लम्बमानार्शसम् 'अदक्खु' त्ति अद्राक्षीत्, षोडशशते चतुर्थः।।१६-४॥ ततश्चार्शसां छेदार्थं 'ईसिं पाडेइ' त्ति तमनगारं भूम्यां पातयति, नापातितस्याशश्छेदः कर्तुं शक्यत इति, 'तस्स' त्ति वैद्यस्य पंचम उद्देशकः 'क्रिया' व्यापाररूपा सा च शुभा धर्मबुद्ध्या छिन्दानस्य चतुर्थोद्दशके नारकाणां कर्मनि रणशक्तिस्वरूपमुक्तं, लोभादिना त्वशुभा 'क्रियते' भवति 'जस्स छिज्जइ' त्ति यस्य पञ्चमे तु देवस्यागमनादिशक्तिस्वरूपमुच्यते इत्येवंसम्बद्धसाधोरशासि छिद्यन्ते नो तस्य क्रिया भवति निर्व्यापारत्वात्, स्यास्येदमादिसूत्रम्किं सर्वथा क्रियाया अभावः ?, नैवमत आह-'नन्नत्थे' त्यादि, १६/५४. 'तेण' मित्यादि, इह सर्वोऽपि संसारी बाह्यान् पुद्गलाननुनेति योऽयं निषेधः सोऽन्यत्रैकस्माद्धान्तरायाद्, पादाय न काञ्चित् क्रियां करोतीति सिद्धमेव, किन्तु देवः किल धर्मान्तरायलक्षणक्रिया तस्यापि भवतीति भावः महर्द्धिकः महर्द्धिकत्वादेव च गमनादिक्रियां मा कदाचित् धर्मान्तरायश्च शुमध्यानविच्छेदादर्शश्छेदानुमोदनाद्धेति। करिष्यतीति सम्भावनायां शक्रः प्रश्नं चकारषोडशशते तृतीयः॥१६-३॥ 'देवे णं भंते!' इत्यादि, 'भासित्तए वा वागरित्तए व' त्ति भाषितुं-वक्तुं व्याकर्तुम्-उत्तरं दातुमित्यनयोर्विशेषः, चतुर्थ उद्देशकः प्रश्नश्चायं तृतीयः, उन्मेषादिश्चतुर्थः, आकुण्टनादिः पञ्चमः, अनन्तरोद्देशकेऽनगारवक्तव्यतोक्ता, चतुर्थेऽप्यसावेवोच्यते स्थानादिः षष्ठः, विकुर्वितुमिति सप्तमः, परिचारियतुमष्टमः ८ इत्येवंसम्बद्धस्यास्येमादिसूत्रम् 'उक्खित्तपसिणवागरणाई' ति उत्क्षिप्तानीवोत्क्षिप्तानि१६/५१. 'रायगिहे' इत्यादि, 'अन्नगिलायते' त्ति अन्नं विना ग्लायति- अविस्तारितस्वरूपाणि प्रच्छनीयत्वात्प्रश्नाः व्याक्रियमाणत्वाच्च ग्लानो भवतीत्यन्नग्लायकः प्रत्यग्रकूरादिनिष्पत्तिं यावद् व्याकरणानि यानि तानि तथा 'संभंतियवंदणएणं' ति बुभुक्षातुरतया प्रतीक्षितुमशक्नुवन् यः पर्युषितकूरादि प्रातरेव सम्भ्रान्तिः-सम्भ्रमः औत्सुक्यं तया निर्वृत्तं साम्भ्रान्तिकं भुङ्क्ते कूरगड्डकप्राय इत्यर्थः, चूर्णिकारेण तु निःस्पृहत्त्वात् यद्वन्दनं तत्तथा तेन। 'सीयकूरभोई अंतपंताहारो' त्ति व्याख्यातं, अथ कथमिदं १६/५५. 'परिणममाणा पोग्गला नो परिणय' त्ति वर्तमानातीतप्रत्याय्यं यदुत नारको महाकष्टापन्नो महताऽपि कालेन कालयोर्विरोधादत एवाह-'अपरिणय' त्ति, इहैवोपपत्तिमाहतावत्कर्म न क्षपयति यावत्साधुरल्पकष्टापन्नोऽल्पकालेनेति ?, परिणमन्तीति कृत्वा नो परिणतास्ते व्यपदिश्यन्त इति उच्यते, दृष्टान्ततः, स चायं मिथ्यादृष्टिवचनं। १६/५२. 'से जहानामए केइ पुरिसे' त्ति यथेति दृष्टान्ते नाम- सम्यग्दृष्टिः पुनराह-'परिणममाणा पोग्गला परिणया नो सम्भावने ए इत्यलङ्कारे 'से' त्ति स कश्चित्पुरुषः 'जुन्ने' त्ति अपरिणय' त्ति, कुतः? इत्याह-परिणमन्तीतिकृत्वा पुद्गलाः जीर्णः-हानिगतदेहः, स च कारणवशादवृद्धभावेऽपि स्यादत परिणता नो अपरिणताः, परिणमन्तीति हि यदुच्यते आह-'जराजज्जरियदेहे' त्ति व्यक्तं, अत एव 'सिढिल (त्त) तत्परिणामसद्भावे नान्यथाऽतिप्रसङ्गात्, परिणामसद्भावे तु तयालितरंगसंपिणद्धगत्ते' त्ति शिथिलतया त्वचावलीतरङ्गैश्च परिणमन्तीति व्यपदेशे परिणतत्वमवश्यंभावि, यदि हि परिणामे संपिनद्धं-परिगतं गात्रं-देहो यस्य स तथा 'पविरलपरिसडिय- सत्यपि परिणतत्वं न स्यात्तदा सर्वदा तदभावप्रसङ्ग इति। दंतसेढि' त्ति प्रविरलाः केचित् क्वचिच्च परिशटिता दंता यस्यां 'परिवारो जहा सूरियाभस्से' त्यनेनेदं सूचितं-'तिहिं परिसाहिं सा तथविधा श्रेणिर्दन्तानामेव यस्य स तथा 'आउरे' त्ति सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खआतुरः-दुःस्थः 'झुझिए' त्ति बुभुक्षितः झुरित इति टीकाकारः देवसाहस्सीहिं अन्नेहि य बहुहिं महासामाणविमाणवासीहिं 'दुब्बले' ति बलहीनः 'किलंते' त्ति मनःक्लमं गतः, एवंरूपो हि वेमाणिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिखुडे' इत्यादि। पुरुषश्छेदनेऽसमर्थो भवतीत्येवं विशेषितः, 'कोसंबगंडियं' ति १६/६०. 'दिवं तेयलेस्सं असहमाणे' त्ति इह किल शक्रः पूर्वभवे 'कोसंब' ति वृक्षविशेषस्तस्य गण्डिका-खण्डविशेषस्तां कार्त्तिकाभिधानोऽभिनवश्रेष्ठी बभूव गङ्गदत्तस्तु जीर्णः श्रेष्ठीति, 'जडिलं' ति जटावती वलितोद्वलितामिति वृद्धाः 'गंठिल्लं' ति तयोश्च प्रायो मत्सरो भवतीत्यसावसहनकारणं संभाव्यत इति। ग्रन्थिमती "चिक्कणं' ति श्लक्ष्णस्कन्धनिष्पन्नां 'वाइद्धं' न्ति 'एवं जहा सूरियाभो' त्ति अनेनेदं सूचितं-'सम्मादिट्ठी Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ : श. १६ : उ. ६ : सू. ७६-६३ मिच्छादिट्ठी परित्तसंसारिए अणंतसंसारिए सुलभबोहिए दुल्लभबोहिए आराहए विराहए चरिमे अचरिमे' इत्यादीति । षोडशशतस्य पञ्चमोद्देशः परिपूर्णतां प्राप्तः ॥ १६-५॥ ४७८ षष्ठम उद्देशकः पञ्चमोद्देशके गङ्गदत्तस्य सिद्धिरुक्ता सा च भव्यानां केषाञ्चित् स्वप्नेनापि सूचिता भवतीति स्वप्नस्वरूपं षष्ठेनोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् तच्च १६/७६. 'कइविहे' इत्यादि, 'सुविणदंसणे' त्ति स्वप्नस्यस्वापक्रियानुगतार्थविकल्पस्य दर्शनं - अनुभवनं, स्वप्नभेदात्पञ्चविधमिति, 'अहातच्चे' ति यथा येन प्रकारेण तथ्यं सत्यं तत्त्वं वा तेन यो वर्त्ततेऽसौ यथातथ्यो यथातत्त्वो वा, स च दृष्टार्थाविसंवादी फलाविसंवादी वा तत्र दृष्टार्थाविसंवादी स्वप्नः किल कोऽपि स्वप्नं पश्यति यथा मह्यं फलं हस्ते दत्तं जागरितस्तथैव पश्यतीति, फलाविसंवादी तु किल कोऽपि गोवृषकुञ्जराद्यारूढमात्मानं पश्यति बुद्धश्च कालान्तरे सम्पदं लभत इति, 'पयाणे' त्ति प्रतननं प्रतानो - विस्तारस्तद्रूपः स्वप्नो यथातथ्यः तदन्यो वा प्रतान इत्युच्यते, विशेषणकृत एव चानयोर्भेदः, एवमुत्तरत्रापि, 'चिंतासुमिणे' त्ति जाग्रदवस्थस्य या चिन्ता - अर्थचिन्तनं तत्संदर्शनात्मकः स्वप्नश्चिन्तास्वप्नः, 'तव्विवरीय' त्ति यादृशं वस्तु स्वप्ने दृष्टं तद्विपरीतस्यार्थस्य जागरणे यत्र प्राप्तिः स तद्विपरीतस्वप्नो यथा कश्चिदात्मानं मेध्यविलिप्तं स्वप्ने पश्यति जागरितस्तु मेध्यमर्थं कंचन प्राप्नोतीति, अन्ये तु तद्विपरीतमेवमाहुः कश्चित् स्वरूपेण मृत्तिकास्थलमारूढः स्वप्ने च पश्यत्यात्मानमश्वारूढमिति, 'अव्वत्तदंसणे' त्ति अव्यक्तं - अस्पष्टं दर्शनं - अनुभवः स्वप्नार्थस्य यत्रासावव्यक्तदर्शनः । स्वप्नाधिकारादेवेदमभिधातुमाह'सुत्ते ण' मित्यादि, 'सुत्तजागरे' त्ति नातिसुसो नातिजाग्रदित्यर्थः, इह सुप्तो जागरश्च द्रव्यभावाभ्यां स्यात्तत्र द्रव्यतो निद्रापेक्षया भावतश्च विरत्यपेक्षया, तत्र च स्वप्नव्यतिकरो निद्रापेक्ष उक्तः, अथ विरत्यपेक्षया जीवादीनां पञ्चविंशतेः पदानां सुप्तत्वजागरत्वे प्ररूपयन्नाह १६ / ७८. 'जीवाण' मित्यादि, तत्र 'सुत्त' त्ति सर्वविरतिरूपनैश्चयिकप्रबोधभावात् 'जागर' त्ति सर्वविरतिरूपप्रवरजागरणसद्भावात् 'सुत्तजागर' त्ति अविरतिरूपसुप्तप्रबुद्धतासद्भावादिति । पूर्वं स्वप्नद्रष्टार उक्ताः, अथ स्वप्नस्यैव तथ्यातथ्यविभागदर्शनार्थं तानेवाह१६/८१,८२. ‘संवुडे ण' मित्यादि, 'संवृतः' निरुद्धाश्रवद्वारः सर्वविरत इत्यर्थः, अस्य च जागरस्य च शब्दकृत एव विशेषः, द्वयोरपि सर्वविरताभिधायकत्वात् किन्तु जागरः सर्वविरतियुक्तो बोधापेक्षयोच्यते संवृतस्तु तथाविधबीधोपेतसर्वविरत्यपेक्षयेति, भगवती वृत्ति 'संडे णं सुविणं पासइ अहातच्चं पासइ' त्ति सत्यमित्यर्थः, संवृतश्चेह विशिष्टतरसंवृतत्वयुक्तो ग्राह्यः स च प्रायः क्षीणमलत्वात् देवताऽनुग्रहयुक्तत्वाच्च सत्यं स्वप्नं पश्यतीति । अनन्तरं संवृतादिः स्वप्नं पश्यतीत्युक्तमथ संवृतत्वाद्येव जीवादिषु दर्शयन्नाह - 'जीवा ण' मित्यादि । स्वप्नाधिकारादेवेदमाह १६/८३-८५. 'कइ ण' मित्यादि, 'बायालीसं सुविण' त्ति विशिष्टफलसूचकस्वप्नापेक्षया द्विचत्वारिंशदन्यथाऽसंख्येयास्ते संभवन्तीति, 'महासुविण' त्ति महत्तमफलसूचकाः 'बावत्तरि' त्ति एतेषामेव मीलनात् । १६/९१. 'अंतिमराइयंसि' त्ति रात्रेरन्तिमे भागे 'घोररूवदित्तधरं' ति घोरं यद्रूपं दीसं च दृतं वा तद्धारयति यः स तथा तं 'तालपिसायं' ति तालो - वृक्षविशेषः स च स्वभावाद्दीर्धो भवति ततश्च ताल इव पिशाचस्तालपिशाचस्तम्, एषां च पिशाचाद्यर्थानां मोहनीयादिभिः स्वप्नफलविषयभूतैः सह साधर्म्यं स्वयमभ्यूह्यं, 'पुंसकोइलगं' ति पुंस्कोकिलं- कोकिलपुरुषमित्यर्थः, 'दामदुगं' ति मालाद्वयम् 'उम्मीवीइसहस्सकलियं' ति इहोर्म्मयो - महाकल्लोलाः वीचयस्तु हस्वाः, अथवोर्मीणां वीचयोविविक्तव्यानि तत्सहस्रकलितं, 'हरिवेरुलियवण्णाभेणं' ति हरिच्च - तन्नीलं वैडूर्यवर्णाभं चेति समासस्तेन 'आवेढियं' ति अभिविधिना वेष्टितं सर्वत इत्यर्थः 'परिवेढियं' ति पुनः पुनरित्यर्थः 'उवरि' त्ति उपरि । 'गणिपिडगं ' ति गणीनां - अर्थपरिच्छेदानां पिटकमिव पिटकं आश्रयो गणिपिटकं गणिनो वा आचार्यस्य पिटकमिवसर्वस्वभाजनमिव गणिपिटकं 'आघवेइ' त्ति आख्यापयति सामान्यविशेषरूपतः 'पन्नवेति' त्ति सामान्यतः 'परूवेइ' त्ति प्रतिसूत्रमर्थकथनेन 'दंसेइ' त्ति तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनेन 'निदंसेइ' त्ति कथञ्चिदगृह्णतोऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्दर्शयति 'उवदंसेइ' त्ति सकलनययुक्तिभिरिति । 'चाउव्वण्णाइन्ने' त्ति चातुर्वर्णश्चासावाकीर्णश्च ज्ञानादिगुणैरिति चातुर्वर्णाकीर्णः । 'चउव्विहे देवे पन्नवेइ' त्ति प्रज्ञापयति-प्रतिबोधयति शिष्यीकरोतीत्यर्थः, 'अणंते' ति विषयानन्तत्वात् 'अणुत्तरे' ति सर्वप्रधानत्वात्, यावत्करणादिदं दृश्यं निव्वाघाए' कटकुड्यादिनाऽप्रतिहतत्वात् 'निरावरणे' क्षायिकत्वात् 'कसिणे' सकलार्थग्राहकत्वात् 'पडिपुन्ने' अंशेनापि स्वकीयेनान्यूनत्वादिति । १६/९२. 'सुविणंते' त्ति 'स्वप्नान्ते' स्वप्नस्य विभागे अवसाने वा 'गयपंतिं वा' इह यावत्करणादिदं दृश्यं - ' नरपतिं वा एवं किन्नरकिंपुरिसमहोरगगंधव्व' त्ति 'पासमाणे पासइ' ति पश्यन् पश्यत्तागुणयुक्तः सन् 'पश्यति' अवलोकयति । १६ / ९३. 'दामिणि' न्ति गवादीनां बन्धनविशेषभूतां रज्जुं 'दुहओ' त्ति द्वयोरपि पार्श्वयोरित्यर्थः 'संवेल्लेमाणे' त्ति संवेल्लयन् संवर्त्तयन् Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति ४७६ 'संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नइ' त्ति संवेल्लितान्तामित्यात्मना मन्यते विभक्तिपरिणामादिति । १६/९५. 'उग्गोवेमाणे' त्ति उद्गोपयन् विमोहयन्नित्यर्थः । १६/९८. जहा तेयनिसग्ग' त्ति यथा गोशालके, अनेन चेदं सूचितं'पत्तरासीति वा तयारासीति वा भुसरासीति वा तुसरासीति वा गोमयरासीति व' त्ति । १६/१०१. ‘सुरावियडकुंभं' ति सुरारूपं यद् विकटं-जलं तस्य कुम्भो यः स तथा 'सोवीरगवियडकुंभं व' त्ति इह सौवीरकंकाञ्जिकमिति । अनन्तरं स्वप्ना उक्तास्ते चाचक्षुर्विषया इत्यचक्षुर्विषयितासाधर्म्येण गन्धपुद्गलवक्तव्यतामभिधातुमाह१६/१०६. ‘अहे' त्यादि, 'कोट्ठपुडाण व' त्ति कोष्ठे यः पच्यते वास समुदायः स कोष्ठ एव तस्य पुटाः - पुटिकाः कोष्ठपुटास्तेषां, यावत्करणादिदं दृश्यं–‘पत्तपुडाण वा चोयपुडाण वा तगरपुडाण वे' त्यादि, तत्र पत्राणि - तमालपत्राणि 'चोय' त्ति त्वक् तगरं चगन्धद्रव्यविशेषः 'अणुवायंसि अनुकूलो वातो यत्र देशे सोऽनुवातोऽस्त यस्माद्देशाद्वायुरागच्छति तत्रेत्यर्थः 'उब्भिज्जमाणाण व ' त्ति प्राबल्येनो वा दीर्यमाणानाम्, इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'निब्भिज्जमाणाण वा' प्राबल्याभावेनाधो वा दीर्यमाणानां 'उक्किरिज्जमाणाण वा विक्किरिज्जमाणाण वा' इत्यादि प्रतीतार्थाश्चैते शब्दाः, 'किं कोट्ठे वाइ' त्ति कोष्ठोवाससमुदायो वाति–दूरादागच्छति, आगत्य घ्राणग्राह्यो भवतीति भाव: 'घाणसहगय' त्ति घ्रायत इति घ्राणो-गन्धो गन्धोपलम्भक्रिया वा तेन सह गताः - प्रवृत्ता ये पुद्गलास्ते घाणसहगताः गन्धगुणोपेता इत्यर्थः । षोडशशते षष्ठः ।। १६-६॥ सप्तम उद्देशः षष्ठोद्देशकान्ते गन्धपुद्गला वान्तीत्युक्तं, ते चोपयोगेनावसीयन्त इत्युपयोगस्तद्विशेषभूता पश्यत्ता च सप्तमे प्ररूप्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् १६ / १०८. 'कविहे ण' मित्यादि, 'एवं जहे' त्यादि, उपयोगपदं प्रज्ञापनायामेकोनत्रिंशत्तमं तच्चैवं - 'तं जहा - सागारोवओगे य अणागारोवओगे य । सागारोवओगे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा- आभिणिबोहियणाणसागारोवओगे सुयणाणसागारोवओगे एवं ओहिणाण मणपज्जवनाण केवलनाणसागारोवओगे, मतिअन्नाणसागारोवओगे सुयअन्नाणसागारोवओगे विभंगनाणसागारोवओगे । अणागारोवओगे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - चक्खुदंसणअणागारोवओगे अचक्खुदंसणआणागारोवओगे ओहिदंसण- अणागारोवओगे केवलदंसणअणागारोवओगे' इत्यादि, एतच्च व्यक्तमेव, 'पासणयापयं च परिशिष्ट - ५ : श. १६ : उ ७, ८ : सू. ६५ - १११ णेयव्वं' ति पश्यत्तापदमिह स्थानेऽध्येतव्यमित्यर्थः तच्च प्रज्ञापनायां त्रिंशत्तमं तच्चैवं- 'कतिविहा णं भंते! पासणया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पासणया पण्णत्ता, तं जहा - सागारपासणया अणागारपासणया । सागारपासणया णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - सुयणाणसागारपासणया एवं ओहिनाण मणनाण केवलनाण सुयअन्नाण विभंगनाणसागारपासणया, अणागारपासणया णं भंते! कतिविहा पण्णत्ता १, गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - चक्खुदंसणअणागारपासणया ओहिदंसणअणागारपासण्या केवलदंसणअणागारपासणया' इत्यादि, अस्य चायमर्थ:- 'पासणय' त्ति पश्यतो भावः पश्यत्ता-बोधपरिणामविशेषः, ननु पश्यत्तोपयोगयोस्तुल्ये साकारानाकारभेदत्वे कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, यत्र त्रैकालिकोऽवबोधोऽस्ति तत्र पश्यत्ता यत्र पुनर्वर्त्तमानकाल- स्त्रैकालिकश्च तत्रोपयोग इत्ययं विशेष:, अत एव मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च साकारपश्यत्तायां नोक्तं, तस्योत्पन्नाविनष्टार्थग्राहकत्वेन साम्प्रतकाल विषयत्वात् । न अथ कस्मादनाकारपश्यत्तायां चक्षुर्दर्शनमधीतं शेषेन्द्रियदर्शनं, उच्यते, पश्यत्ता प्रकृष्टमीक्षणमुच्यते 'दृशिर् प्रेक्षणे' इति वचनात्, प्रेक्षणं च चक्षुर्दर्शनस्यैवास्ति न शेषाणां, चक्षुरिन्द्रियोपयोगस्य शेषेन्द्रियोपयोगापेक्षयाऽल्पकालत्वात्. यत्र चोपयोगोऽल्पकालस्तत्रेक्षणस्य प्रकर्षो झटित्यर्थपरिच्छेदात्, तदेवं चक्षुर्दर्शनस्यैव पश्यत्ता नेतरस्येति, अयं चार्थः प्रज्ञापनात विशेषेणावगम्य इति । षोडशशते सप्तमः ॥ १६-७॥ अष्टम उद्देशकः सप्तमे उपयोग उक्तः, स च लोकविषयोऽपीतिसम्बन्धादष्टमे लोकोऽभिधीयते, तस्य चेदमादिसूत्रम्१६/११०,१११. 'किंमहालए ण' मित्यादि, 'चरमंते' त्ति चरमरूपोऽन्तश्चरमान्तः, तत्र चासङ्ख्यातप्रदेशावगाहित्वाज्जीवस्यासम्भव इत्यत आह- 'नोजीवे' त्ति, जीवदेशादीनां त्वेकप्रदेशेऽप्यवगाहः संभवतीत्युक्तं 'जीवदेसावी' त्यादि, 'अजीवावि' त्ति पुद्गलस्कन्धाः 'अजीवदेसावित्ति धर्मास्तिकायादिदेशाः स्कन्धदेशाश्च तत्र संभवन्ति, एवमजीवप्रदेशा अपि । अथ जीवादिदेशादिषु विशेषमाह - 'जे जीवे' त्यादि, ये जीवदेशास्ते पृथिव्याद्ये केन्द्रियजीवानां देशास्तेषां लोकान्तेऽवश्यं भावादित्येको विकल्पः, 'अहव' त्ति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, एकेन्द्रियाणां बहुत्वाब्दहवस्तत्र तद्देशा भवन्ति, द्वीन्द्रियस्य च कादाचित्कत्वात्कदाचिद्देशः स्यादित्येको द्विकयोगविकल्पः, यद्यपि हि लोकान्ते द्वीन्द्रियो नास्ति तथाऽपि यो द्वीन्द्रिय Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ : श. १६ : उ. ८ : सू. १३३-११५ एकेन्द्रियषूत्पित्सुर्मारणान्तिक-समुद्घातं गतस्तमाश्रित्यायं विकल्प इति । ' एवं जहे' त्यादि, यथा दशमशते आग्नेयीं दिशमाश्रित्योक्तं तथेह पूर्वचरमान्त- माश्रित्य वाच्यं, तच्चेदम्- 'अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियाण य देसा अहवा एगिंदियदेसा य तेइंदियरस य देसे' इत्यादि, यः पुनरिह विशेषस्तद्दर्शनायाह'नवरं अनिंदियाण' मित्यादि, अनिन्द्रियसम्बन्धिनि देशविषये भङ्गकत्रये 'अहवा एगिंदियदेसा य अणिदियस्स देसे' इत्येवंरूपः प्रथमभङ्गको दशमशते आग्नेयीप्रकरणेऽभिहितोऽपीह न वाच्यो, यतः केवलिसमुद्घाते कपाटाद्यवस्थायां लोकस्य पूर्वचरमान्ते प्रदेशवृद्धिहानिकृत लोकदन्तकसद्भावेनानिन्द्रियस्य बहूनां देशानां सम्भवो न त्वेकस्येति, तथाऽऽग्नेय्यां दशविधेष्वरूपिद्रव्येषु धर्माधर्म्मा काशास्तिकायद्रव्याणां तस्यामभावात्सप्तविधा अरूपिण उक्ताः लोकस्य पूर्वचरमान्तेष्वद्धासमयस्याप्यभावात् षड्विधास्ते वाच्याः, अद्धासमयस्य तु तत्राभावः समयक्षेत्र एव तद्भावात्, अत एवाह - 'जे अरूवी अजीवा ते छव्विहा अद्धासमयो नत्थि' त्ति । १६ / ११३. 'उवरिल्ले चरिमंते' त्ति, अनेन सिद्धोपलक्षित उपरितनचरिमान्तो विवक्षितस्तत्र चैकेन्द्रियदेशा अनिन्द्रियदेशाश्च सन्तीतिकृत्वाऽऽह - 'जे जीवे' त्यादि, इहायमेको द्विकसंयोगः, त्रिकसंयोगेषु च द्वौ द्वौ कार्यौ, तेषु हि मध्यमभङ्गः 'अहवा एगिंदियदेसा य अणिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा' इत्येवंरूपो नास्ति, द्वीन्द्रियस्य च देशा इत्यस्यासम्भवाद्, यतो द्वीन्द्रियस्योपरितनचरिमान्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन गतस्यापि देश एवं तत्र संभवति न पुनः प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकवशादनेकप्रतरात्मकपूर्वचरमान्तवद्देशाः, उपरितनचरिमान्तस्यैकप्रतररूपतया लोकदन्तकाभावेन देशानेकत्वाहेतुत्वादिति, अत एवाह - ' एवं मज्झिल्लविरहिओ' त्ति त्रिकभङ्गक इति प्रक्रमः, उपरितनचरिमान्तापेक्षया जीवप्रदेशप्ररूपणायामेवं 'आइल्लविरहिओ' त्ति यदुक्तं तस्यायमर्थः - इह पूर्वोक्ते भङ्गकत्रये प्रदेशापेक्षया ' अहवा एगिदियपएसा य अनिंदियप्पएसा य बेइंदियस्सप्पएसे' इत्ययं प्रथमभङ्गको न वाच्यो, द्वीन्द्रियस्य च प्रदेश इत्यस्यासम्भवात्, तदसम्भवश्च लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवर्ज्जजीवानां यत्रैकप्रदेशस्तत्रा- सङ्ख्यातानामेव तेषां भावादिति, 'अजीवा जहा दसमसए तमाए' त्ति अजीवानाश्रित्य यथा दशमशते 'तमाए' त्ति तमाभिधानां दिशमाश्रित्य सूत्रमधीतं तथेहोपरितनचरमान्तमाश्रित्य वाच्यं तच्चैवं जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - रूवी अजीवा य अरूविअजीवा य, जे रूविअजीवा ते चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा खंधा जाव परमाणु पोग्गला, जे अरूविअजीवा ते छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा -नो धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्सप्पएसा' एवमधर्म्माकाशास्तिकाययोरपीति । भगवती वृत्ति १६/११४. 'लोगस्स णं भंते! हिट्ठिल्ले' इत्यादि, इह पूर्वचरमान्तवद्भङ्गाः कार्याः, नवरं तदीयस्य भङ्गकत्रयस्य मध्यात् 'अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा' इत्येवंरूपो मध्यमभङ्गकोऽत्र वर्जनीयः, उपरितनचरिमान्तप्रकरणोक्तयुक्तेस्तस्यासम्भवाद्, अत एवाह - 'एवं मज्झिल्लविरहिओ' त्ति देशभङ्गका दर्शिताः अथ प्रदेशभङ्गकदर्शनायाह- 'पएसा आइल्लविरहिया सव्वेसिं जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते' त्ति, प्रदेशचिन्तायामाद्यभङ्गकरहिता प्रदेशा वाच्या इत्यर्थः आद्यश्च भङ्गक एकवचनान्तप्रदेशशब्दोपेतः स च प्रदेशानामध‍चरमान्तेऽपि बहुत्वान्न संभवति संभवति च 'अहवा एगिंदियपएसा य बेइंदियस्स पएसा अहवा एगिंदियप्पएसा य बेइंदियाण य पएसा' इत्येतद्द्द्वयं, 'सव्वेसिं' ति द्वीन्द्रियादीनाम-निन्द्रियान्तानाम् 'अजीवे' त्यादि व्यक्तमेव । चरमान्ताधिकारादेवेदमाह ४८० १६ / ११५. 'इमीसे ण' मित्यादि । 'उवरिल्ले जहा दसमसए विमला दिसा तहेव निरवसेसं' ति दशमशते यथा विमला दिगुक्ता तथैव रत्नप्रभोपरितनचरमान्तो वाच्यो निरवशेषं यथा भवतीति, स चैवम् -' इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्ले चरिमन्ते किं जीवा० ६१, गोयमा ! नो जीवा' एकप्रदेशप्रतरात्मकत्वेन तत्र तेषामनवस्थानात् 'जीवदेसावि ५, जे जीवदेसा ते नियमा एगिंदियदेसा' सर्वत्र तेषां भावात् 'अहवा एगिंदियदेसा य इंदियस य देसे १ अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा २ अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियाण य देसा ३, रत्नप्रभा हि द्वीन्द्रियाणामाश्रयः ते चैकेन्द्रियापेक्षयाऽतिस्तोकास्ततश्च तदुपरितनचरिमान्ते तेषां कदाचिद्देशः स्याद्देशा वेति, एवं त्रीन्द्रियादिष्वप्यनिन्द्रियान्तेषु, तथा 'जे जीवप्पएसा ते नियमा एगिंदियपएसा अहवा एगिंदियपएसावि बेइंदियस्स पएसा १ अहवा एगिंदियपएसा बेइंदियाण य पएसा २' एवं त्रीन्द्रियादिष्वप्यनीन्द्रियान्तेषु तथा 'जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - रूविअजीवा य अरूविअजीवा य, जे रूविअजीवा ते चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा-खंधा जाव परमाणुपोग्गला, जे अरूवी अजीवा ते सत्तविहा पन्नत्ता, तं जहा -नो धम्मत्थिका धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा एवमधम्मत्थिकायस्सवि आगासत्थिकायस्सवि अद्धासमए' त्ति अद्धासमयो हि मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्त्तिनि रत्नप्रभोपरितनचरिमान्तेऽस्त्येवेति, 'हेट्ठिले चरिमंते' इति यथाऽधश्चरमान्तो लोकस्योक्तः एवं रत्नप्रभापृथिव्या अप्यसाविति स चानन्तरोक्त एव, विशेषस्त्वयं-लोकाधस्तनचरमान्ते द्वीन्द्रियादीनां देशभङ्गकत्रयं मध्यमरहितमुक्तं इह तु रत्नप्रभाऽधस्तनचरमान्ते पञ्चेन्द्रियाणां परिपूर्णमेव तद्वाच्यं, शेषाणां तु द्वीन्द्रियादीनां मध्यमरहितमेव, यतो रत्नप्रभाऽधस्तनचरमान्ते देवपञ्चेन्द्रियाणां गमागमद्वारेण देशो देशाश्च संभवन्त्यतः पञ्चेन्द्रियाणां तत्तत्र परिपूर्णमेवास्ति, Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती वृत्ति द्वीन्द्रियाणां तु रत्नप्रभाऽधस्तनचरिमान्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन गतानामेव तत्र देश एव संभवति न देशाः तस्यैकप्रतररूपत्वेन देशानेकत्वाहेतुत्वादिति तेषां तत्तत्र मध्यमरहितमेवेति, अत एवाह - 'नवरं देसे' इत्यादि, ' चत्तारि चरमांत' त्ति पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तररूपाः 'उवरिमहेट्ठिल्ला जहा रयणप्पभाए हेट्ठिल्ले' त्ति शर्कराप्रभाया उपरितनाधस्तनचरमान्तौ रत्नप्रभाया उपरितनाधस्तनचरमान्तवद्वाच्यौ, द्वीन्द्रियादिषु पूर्वोक्तयुक्तेर्मध्यमभङ्गरहितं पञ्चेन्द्रियेषु तु परिपूर्ण देशभङ्गकत्रयं, प्रदेशचिन्तायां तु द्वीन्द्रियादिषु सर्वेष्वाद्यभङ्गकरहितत्वेन शेषभङ्गकद्वयं अजीवचिन्तायां तु रूपिणां चतुष्करूपिणां त्वद्वासमयस्य तत्राभावेन षट्कं वाच्यमिति भावः । अथ शर्कराप्रभातिदेशेन शेषपृथिवीनां सौधर्मादिदेवलोकानां ग्रैवेयक विमानानां च प्रस्तुतवक्तव्यतामाह-' एवं जाव अहेसत्तमाए' इत्यादि, ग्रैवेयकविमानेषु तु यो विशेषस्तं दर्शयितुमाह- 'नवर' मित्यादि, अच्युतान्तदेवलोकेषु हि देवपञ्चेन्द्रियाणां गमागमसद्भावात् उपरितनाधस्तनचरमान्तयोः पञ्चेन्द्रियेषु देशानाश्रित्य भङ्गकत्रयं संभवति, ग्रैवेयकेषु विमानेषु तु देवपञ्चेन्द्रियगमागमाभावाद् द्वीन्द्रियादिष्विव पञ्चेन्द्रियेष्वपि मध्यमभङ्गकरहितं शेषभङ्गकद्वयं तयोर्भवतीति । ४८१ चरमाधिकारादेवेदमपरमाह--- १६ / ११६. 'परमाणु' इत्यादि, इदं च गमनसामर्थ्यं परमाणोस्तथास्वभावत्वादिति मन्तव्यमिति । इति क्रिया अनन्तरं परमाणोः क्रियाविशेष उक्त धिकारादिदमाह१६/११७. 'पुरिसे ण मित्यादि, 'वासं वासइ' वर्षो मेघो वर्षीत नो वा वर्षो वर्षतीति ज्ञापनार्थमिति शेषः, अचक्षुरालोके हि वृष्टिराकाशे हस्तादिप्रसारणादेव गम्यते इतिकृत्वा हस्तादिकं आकुण्टयेद्वा प्रसारयेद्वाऽऽदित एवेति । आकुण्टनादिप्रस्तावादिदमाह १६/११८,११९. 'देवे ण' मित्यादि, 'जीवाणं आहारोवचिया पोग्गल' त्ति जीवानां जीवानुगता इत्यर्थः आहारोपचिता-आहाररूपतयोपचिताः 'बोंदिचिया पोग्गल' त्ति अव्यक्तावयवशरीररूपतया चिताः ' कडेवरचिया पोग्गल' त्ति शरीररूपतया चिताः, उपलक्षणत्वाच्चास्य उच्छासचिताः पुद्गला इत्याद्यपि द्रष्टव्यं, अनेन चेदमुक्तं - जीवानुगामिस्वभावाः पुद्गला भवन्ति, ततश्च यत्रैव क्षेत्रे जीवास्तत्रैव पुद्गलानां गतिः स्यात्, तथा ' पुग्गलामेव पप्प' त्ति पुद्गलानेव 'प्राप्य' आश्रित्य जीवानां च 'अजीवाण य' पुद्गलानां च गतिपर्यायो गतिधर्मः 'आहिज्जइ' ति आख्यायते, इदमुक्तं भवति यत्र क्षेत्रे पुद्गलास्तत्रैव जीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवति, एवं चालोके नैव सन्ति जीवा नैव च सन्ति पुद्गला इति तत्र जीवपुद्गलानां गतिर्नास्ति, परिशिष्ट-५ : श. १६ : उ. ६ : सू. ११६- १२१ तदभावाच्चालोके देवो हस्ताद्याकुण्टयितुं प्रसारयितुं वा न प्रभुरिति ॥ षोडशशतेऽष्टमः ॥ १६-८ ॥ नवम उद्देशकः अष्टमोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, नवमे तु बलेर्देवविशेषस्य सोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्१६ / १२१. 'कहि ण' मित्यादि, 'जहेव चमरस्स' त्ति यथा चमरस्य द्वितीयशताष्टमोद्देशकाभिहितस्य सुधर्म्मसभास्वरूपाभिधायकं सूत्रं तथा बलेरपि वाच्यं तच्च तत एवावसेयम्, 'एवं पमाणं जहेव तिगिच्छिकूडस्स' त्ति यथा चमरसत्कस्य द्वितीयशताष्टमोद्देशकाभिहितस्यैव तिगिच्छिकूटाभिधानस्योत्पातपर्वतस्य प्रमाणमभिहितं तथाऽस्यापि रुचकेन्द्रस्य वाच्यं, एतदपि तत एवावसेयं, 'पासायवडेंसगस्सवि तं चेव पमाणं' ति यत्प्रमाणं चमरसम्बन्धिनस्तिगिच्छिकूटाभिधानोत्पातपर्वतोपरिवर्त्तिनः प्रासादावतंसकस्य तदेव बलिसत्कस्यापि रुचकेन्द्राभिधानोत्पातपर्वतोपरिवर्त्तिनस्तस्य तदपि द्वितीयशतादेवावसेयं, 'सिंहासणं सपरिवारं बलिस्स परिवारेणं' ति प्रासादावतंसकमध्यभागे सिंहासनं बलिसत्कं बलिसत्कपरिवारसिंहासनोपेतं वाच्यमित्यर्थः तदपि द्वितीयशताष्टमोद्देशक विवरणोक्तचमरसिंहासनन्यायेन वाच्यं केवलं तत्र चमरस्य सामानिकासनानां चतुःषष्टिः सहस्राणि आत्मरक्षासनानां तु तान्येव चतुर्गुणान्युक्तानि बस्तु सामानिकासनानां षष्टिः सहस्राणि आत्मरक्षासनानां तु तान्येव चतुर्गुणानीत्येतावान् विशेषः, 'अट्ठो तहेव नवरं रुयगिंदप्पभाई' ति यथा तिगिच्छिकूटस्य नामान्वर्थाभिधायकं वाक्यं तथाऽस्यापि वाच्यं केवलं तिगिच्छिकूटान्वर्थप्रश्नस्योत्तरे यस्मात्तिगिच्छिप्रभाण्युत्पलादीनि तत्र सन्ति तेन तिगिच्छिकूट इत्युच्यत इत्युक्तं इह तु रुचकेन्द्रप्रभाणि तानि सन्तीति वाच्यं, रुचकेन्द्रस्तु रत्नविशेष इति तत्पुनरर्थतः सूत्रमेवमध्येयं - ' से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ रुयगिंदे २ उपायपव्वए ?, गोयमा! रुयगिंदे णं बहूणि उप्पलाणि पउमाई कुमुयाई जाव रुयगिंदवण्णाई रुयगिंदलेसाइं रुयगिंदप्पभाई, से तेणट्टेणं रुयगिंदे २ उप्पायपव्वए' त्ति 'तहेव जाव' त्ति यथा चमरचञ्चाव्यतिकरे सूत्रमुक्तमिहापि तथैव वाच्यं, तच्चेदं - ' पणपन्नं कोडीओ पन्नासं च सयसहस्साई पन्नासं च सहस्साई वीइवइत्ता इमं च रयणप्पभं पुढविं' ति 'पमाणं तहेव' त्ति यथा चमरचञ्चायाः, तच्चेदम्- 'एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोन्निय सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं च धणुस तेरस य अंगुलाई अर्द्धगुलयं च किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्तं' 'जाव बलिपेढस्स' त्ति नगरीप्रमाणाभि Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ५ : श. १६ : उ.१०, ११ : सू.१२३ - १२५ ४८२ धानानन्तरं प्राकारतद्द्द्वारोपकारिकालयनप्रासादावतंसकसुधर्मसभाचैत्यभवनो पपातसभाहदाभिषेकसभाऽलङ्कारिकसभाव्यवसायसभादीनां प्रमाणं स्वरूपं च तावद्वाच्यं यावद्वलिपीठस्य, तच्च स्थानान्तरादवसेयं, 'उववाओ' त्ति उपपातसभायां बलेरुपपातवक्तव्यता वाच्या, सा चैवं - 'तेणं कालेणं तेणं समएणं बली वइरोयणिंदे २ अहुणोववन्नमेत्तए समाणे पंचविहार पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ' इत्यादि, 'जाव आयरक्ख' त्ति इह यावत्करणादभिषेकोऽलङ्कारग्रहणं पुस्तकवाचनं सिद्धायतनप्रतिमाद्यर्चनं सुधर्मसभागमनं तत्रस्थस्य च तस्य सामानिका अग्रमहिष्यः पर्षदोऽनीकाधिपतयः आत्मरक्षाश्च पार्श्वतो निषीदन्तीति वाच्यं । एतद्वक्तव्यताप्रतिबद्धसमस्तसूत्रातिदेशायाह -'सव्वं तहेव निरवसेसं' ति, सर्वथा साम्यपरिहारार्थमाह- 'नवर' मित्यादि, अयमर्थः - चमरस्य सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्सेत्युक्तं बलेस्तु सातिरेकं सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्तेति वाच्यमिति ॥ षोडशशते नवमः ॥ १६-९॥ दशम उद्देशकः नवमोद्देशके बलेर्वक्तव्यतोक्ता, बलिश्चावधिमानित्यवधेः स्वरूपं दशमे उच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्१६ / १२३. 'कविहे ण' मित्यादि, 'ओहीपयं' ति प्रज्ञापनायास्त्रयस्त्रिंशत्तमं तच्चैवं- 'तं जहा - भवपच्चइया खओवसमिया य, दोहं भवपच्चइया, तं जहा - देवाण य नेरइयाण य, दोन्ह खओवसमिया, तं जहा - माणुस्साणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य, इत्यादीति । षोडशशते दशमः ॥ १६-१०॥ एकादशम उद्देशकः दशमेऽवधिरुक्तः, एकादशे त्ववधिमद्विशेष उच्यते - इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् - १६/ १२५. 'दीवे' त्यादि । [] भगवती वृत् एवमन्यदप्युद्देशकत्रयं पाठयितव्यमिति ॥ षोडशशतं वृत्तितः परिसमाप्तमिति ॥ सम्यक् श्रुताचारविवर्जितोऽप्यहं, यदप्रकोपात्कृतवान् विचारणाम् । अविघ्नमेतां प्रति षोडशं शतं, वाग्देवता सा भवताद्वरप्रदा ॥ १ ॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-६ आधारभूत ग्रंथ-सूची ग्रंथ का नाम लेखक/संपादक/अनुवादक | संस्करण प्रकाशक भाष्य में प्रयुक्त स्थल वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि १. अंगसुत्ताणि, भाग-२ वा. प्र. आचार्य तुलसी सन् १९९२ | जैन विश्व भारती १५/३,१६० सं. आचार्य महाप्रज्ञ लाडनूं (राजस्थान) २. अंगुत्तर निकाय सं. भिक्खु जगदीश कस्सपो सन् १९६० | पालि प्रकाशन मंडल, १५/आमुख, १४२ बिहार ३. अणुओगदाराई (मूलपाठ, वा. प्र. गणाधिपति तुलसी सन् १९९७ |जैन विश्व भारती १२/४९-५२; संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद सं. आचार्य महाप्रज्ञ लाडनूं (राजस्थान) १४/८०-८१ तथा तुलनात्मक टिप्पण) ४. अनुकंपा की चौपाई भिक्षु | रचयिता-आचार्य भिक्षु सन् १९६० श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंर्थी १५/६५-६६ ग्रंथ रत्नाकर, प्रथम खंड |सं. आचार्य तुलसी महासभा, कोलकाता ५. अनुयोगद्वार चूर्णि कर्ता-जिनदास महत्तर सन् १९२८ श्री ऋषभदेव केशरीमल | १६/६-७ श्वेताम्बर संस्था, रतलाम ६. अभिधान चिन्तामणिः कर्ता-आचार्य हेमचन्द्र वि.सं. २०२० चौखंबा विद्या भवन १२/१२५-१२६, (नाममाला) | वाराणसी १५/२६ ७. अभिधान चिंतामणि स्वोपज्ञ कर्ता-श्री हेमचन्द्राचार्य वी.नि. २४४१ नथमल लक्ष्मीचंद वकील १२/१२५-१२६ टीका सं. शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरि ८. अमितगति श्रावकाचार | | रचयिता आचार्य अमितगति सन् १९७९ | मुनिश्री अनन्तकीर्ति | १५/२६ दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, कालबा देवी रोड, मुंबई ९. अर्हत् वचन लेखक आचार्य महाप्रज्ञ सन् २००१ |कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर १५/१५२-१५५ (लेख-मांसाहार : एक विवेचन) १०. अष्टांग संग्रह | टीकाकार-वैद्य पं. लालचंद्र सन् १९६५ वैद्यनाथ आयुर्वेद भवन | १२/१५४-१५८; प्राइवेट लि. १५/१५२-१५५ ११. आगम युग का जैन दर्शन |ले. पं दलसुख मालवणिया |द्वि. संस्करण | प्राकृत भारती अकादमी, | १२/आमुख सन् १९९० जयपुर श्री जै.श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवा नगर १२. आचारांग चूर्णि श्री जिनदास गणि सन् १९४१ | श्री ऋषभदेवजी केशरीमल १५/५३-५६ जी श्वे. रतलाम (मालवा) शास्त्री Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- ६ : आधारभूत ग्रंथ सूची ग्रंथ का नाम १३. आचारांगभाष्यम् वा. प्र. आचार्य तुलसी भाष्यकार. आचार्य महाप्रज्ञ अनुवादक मुनि दुलहराज १४. आयारचूला (अंगसुत्ताणि वा. प्र. आचार्य तुलसी भाग - १) सं. मुनि नथमल १५. आयारो (मूलपाठ, अनुवाद वा. प्र. आचार्य तुलसी तथा टिप्पण) सं. मुनि नथमल प्र.सं. आचार्य महाप्रज्ञ कर्ता - श्री जिनदासगणि १६. आराधना १७. आवश्यक चूर्णि १८. उत्तरज्झयणाणि (मूलपाठ, वा. प्र. आचार्य तुलसी संस्कृत छाया) हिन्दी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ अनुवाद तथा तुलनात्मक टिप्पण १९. उत्तराध्ययन एक समीक्षात्मक अध्ययन २०. उत्तराध्ययनवृत्ति २१. उत्तराध्ययनवृत्ति २२. उत्तराध्ययन सुखबोध टीका २३. उवासगदसाओ (अंग सुत्ताणि, भाग - ३) २४. ओववाइयं (उवंगसुत्ताणि, भाग-४, खंड १) २५. औपपातिक वृत्ति २६. कर्मग्रंथ (भाग ५) २७. कल्पसूत्र (कप्पो, नवसुत्ताण भाग-५ २८. कैयदेव निघण्टु लेखक/संपादक/अनुवादक वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि २९. गोसाला री चौपई ( भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर) ३०. चरक संहिता वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल शान्त्याचार्य कर्ता - लक्ष्मीवल्लभ | आचार्य नेमिचंद वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ चन्द्रकुलीन श्री अभयदेवसूरि | कर्ता - देवेन्द्र सूर वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं.- आचार्य प्रियव्रत शर्मा | तथा डॉ. गुरु प्रसाद शर्मा रचियता आचार्य भिक्षु सं. - आचार्य तुलसी महर्षि चरक ४८४ संस्करण सन् १९९४ जैन विश्व भारती लाडनूं १३ / आमुख; (राजस्थान) १५/५३-५६ सन् १९७४ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) जैन विश्व भारती लाडनूं वि. सं. २०३१ सन् १९९७ सन् १९२९ प्रकाशक (राजस्थान) जैन विश्व भारती लाडनूं श्री ऋषभदेवजी | केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) द्वि. संस्करण जैन विश्व भारती संस्थान सन् १९९२ लाडनूं ( राजस्थान) वि.सं. | २४६७ सन् १९७४ सन् १९९४ सन् १९७६ भाष्य में प्रयुक्त स्थल सन् १९६८ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी १५/ आमुख महासभा, कोलकाता सन् १९७२ देवचंद लालभाई जैन | पुस्तकोद्धार, बंबई पुष्पचंद खेमचंद, बलाद १२ / ४-५; १५ / आमुख, १४२ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) सन् १९८७ जैन विश्व भारती लाडनूं १२ / ३२, १७८-१८२; (राजस्थान) १४/१०७-११२; १५ / आमुख १४/१०७-११२ १४/७२-७३ १५/१४१; १६/४८-४९ १४/६७-६९; १५/५३-५६, १४१ १६/५१-५२ १५/५३-५६ (भा.) ७३, १४१,१४२ भगवई १२/४-५,२८-२५,३०; १३ / आमुख, ५५-६०, ८४-८५, १४/१,५४ | ५५,७७, १६ / २८-३१, ५१-५२ १३/३ १५/१२१ १३ / आमुख पं. भूरालाल कालिदास श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन धार्मिक शिक्षा समिति सन् १९८७ जैन विश्व भारती लाडनूं १५/१४२ (राजस्थान) सन् १९७९ चौखम्भा ओरियन्टालिया, १५/१५२-१५५ वाराणसी सन् १९६० श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी १५/६५-६६,१२०, महासभा, कोलकाता चतु. संस्करण चौखम्भा भारती अकादमी । सन् १९८९ वाराणसी १४२ १४/१६-२० Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ परिशिष्ट-६ : आधारभूत ग्रंथ सूची भगवई ग्रंथ का नाम संस्करण प्रकाशक भाष्य में प्रयुक्त स्थल लेखक/संपादक/अनुवादक वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि ३१. जंबुद्दीवपण्णत्ती (उवंग वा. प्र. आचार्य तुलसी | सन् १९८८ | जैन विश्व भारती लाडनूं |१२/१६३-१६८ सुत्ताणि, भाग-४, खण्ड २)| सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ (राजस्थान) ३२. जनार्दन भट्ट, अशोक के | अशोक सन् १९८७ | | पब्लिकेशन्स डिवीजन, |१५/आमुख धर्मलेख दिल्ली ३३. जीवाजीवाभिगमे वा. प्र. आचार्य तुलसी सन् १९८८ । जैन विश्व भारती लाडनूं | १३/३,४५,४६; (उवंगसुत्ताणि भाग-४, | सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ (राजस्थान) १६/८-१६,२०-२६ खंड-१) ३४. जैन आगम वनस्पति कोश वा. प्र. आचार्य तुलसी सन् १९९६ | जैन विश्व भारती, लाडनूं |१३/१४९-१६६; प्र. सं आचार्य महाप्रज्ञ (राजस्थान) १५/१५२-१५५ सं. मुनिश्री श्रीचंद 'कमल' ३५. जैन दर्शन और विज्ञान | मुनि महेन्द्रकुमार एवं द्वि. सं. जैन विश्व भारती संस्थान १५/७३ जेठालाल जवेरी २००२ (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं (राज.) ३६. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश |सं. क्षु. जिनेन्द्रवर्णी सन् १९४४ भारतीय ज्ञान पीठ, नई १२/४-६; १३/१४९. दिल्ली |१६६, १५/२६ ३७. ठाणं (मूल पाठ, संस्कृत | वा. प्र. आचार्य तुलसी वि. सं. जैन विश्व भारती लाडनूं | १२/२२-२५,५५-५८, छाया, हिन्दी अनुवाद तथा | सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ २०३३ (राजस्थान) ६९-८०,१२४,१५४टिप्पण) १५८,१६३-१६८; १३/ आमुख, ७२-७३,१४९१६६; १४/आमुख; १६-२०,२१-२४,८०८१, १५/आमुख, २६,१४२, १६/१ ४,८-१६,५४-५५ ३८. तत्त्वार्थ राजवार्तिक कर्ता भट्ट अकलंक देव वि.सं.२००९ | भारतीय ज्ञानपीठ काशी, |१२/४-५,१६/११६ सं. पं. महेन्द्र कुमार जैन । दुर्गा कुंड रोड, बनारस-४ ३९. तत्त्वार्थ सूत्र कर्ता-उमास्वाति | वि.सं.१९८९ | सेठ मणीलाल रेवाशंकर |१२/६९-८०,१३/५५. जगजीवन जौहरी,बंबई-२/६०; १४/११३-११६ ४०. तत्त्वार्थ सूत्राधिगम भाष्य | टीकाकार सिद्धसेन गणि सन् १९२६ | देवचन्द्र लालभाई जैन |१२/६९-८०,१०२वृत्ति (भाष्यानुसारिणी) पुस्तकोद्धार फंड, बंबई |१०७,१६३-१६८; १४/ ३,५१,८४-८८,११३ |११६, १६/२०-२६ ४१. तीर्थंकर वर्धमान : जीवन | श्रीचन्द रामपुरिया | सन् २००० | जैन विश्व भारती, लाडनूं |१५/१४२ प्रसंग लेखक हेमचन्द्राचार्य | वि.सं. १९९२ श्री जैन आत्मानन्द सभा, १५/१४२ भावनगर (काठियावाड़) ४२. त्रिषष्टिशलाकापुरुष- चरित्रम् ४३. दर्शनसार ४४. दशवैकालिक चूर्णि १५/आमुख |१५/५३-५६ कर्ता-जिनदास महत्तर सन् १९३३ | श्री ऋषभदेव केशरीमल वे संस्था रतलाम Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-६ : आधारभूत ग्रंथ सूची ग्रंथ का नाम ४५. दशवैकालिक नियुक्ति हारिभद्रीय टीका ४६. दसवेआलियं (मूलपाठ, वा. प्र. आचार्य तुलसी संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ तथा टिप्पण) ४७. दीघनिकाय ४८. धम्मपद (अट्ठकथा) ४९. धवला ५१. नयचक्र (लिखित प्रति) ५०. नंदी (नवसुत्ताणि भाग-५) वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ५८. पण्हावागरणाई (अंग सुत्ताणि, भाग - ३) ५९. पाइयसद्दमहण्णवो लेखक/संपादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि | आचार्य भद्रबाहु ६०. पाणिनीकालीन भारतवर्ष सं. भिक्षु जगदीश काश्यप आचार्य बुद्धघोष वीरसेनाचार्य ५२. नायाधम्मकहाओ ( अंगसुत्ताणि भाग - ३) ५३. नव सुत्ताणि ५४. निरयावलिया ५५. निसीह (नवसुत्ताणि भाग- वा. प्र. आचार्य तुलसी ५) ५६. पज्जोवसणाकप्पो ( नवसुत्ताणि भाग-५) ५७. पण्णवणा (उवंगसुत्ताणि भाग-४, खंड- २) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ले. माइल्ल धवल सं. पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. गणाधिपति तुलसी सं. आचार्य महाप्रज्ञ ४८६ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल स्व. पंडित हरगोविन्ददास त्रिकमचंद सेठ वासदेवशरण अग्रवाल संस्करण देवचन्द्र लाल भाई, | जैन पुस्तकोद्धार फंड सन् १९७४ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) सन् १९५६ नवनालंदा महाविहार (नालंदा) नवनालंदा महाविहार सन् १९७६ सन् १९४२ सेठ शीतलराय | सन् १९९७ जैन विश्व भारती, | लाडनूं (राजस्थान) भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) सन् १९९७ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) जैन विश्व भारती, सन् १९७१ सन् १९८१ प्रकाशक सन् २००२ | लाडनूं (राजस्थान) सन् १९८७ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) सन् १९८७ जैन विश्व भारती, लक्ष्मीचंद्र, अमरावती लाडनूं (राजस्थान) सन् १९८९ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) सन् १९९४ भाष्य में प्रयुक्त स्थल १५/ आमुख १५/५७-५८, १४२ भगवई | १५ / आमुख, १४२ | १५ / आमुख १४/५१ | १२ / १०८-१११,१३ / ५५-६०; १५ / आमुख १२/२११-२१५ १५/२६ १२/३०, १५/५३ ५६ १५/१२१ जैन विश्व भारती, | लाडनूं ( राजस्थान) द्वि. संस्करण प्राकृत ग्रंथ परिषद् सन् १९६३ वाराणसी सं २०२२ | मोतीलाल बनारसीदास, १५ /आमुख बनारस १५ / आमुख, १४२; १६/४८-४९ १५/५३-५६ (भा.) | १२/१३३-१५२, | १६९-१७७,१८५ | १९०, १९२-१९६; १३ / आमुख, ३,२८, ३१ १४ / आमुख, १, ७१, ७२-७३, ११७ | १२१, १३६; १५/ १५२-१५५; १६/५ १२/१०२-१०७ १६/३५-४० Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ग्रंथ का नाम ६१. पातञ्जलयोगदर्शनम् (व्यास भाष्य सहित) ६२. प्रज्ञापनावृत्ति ६३. प्रमाण नयतत्त्वलोक ६४. प्राचीन भारतवर्ष ६५. बौद्ध धर्म-दर्शन ६६. भगवई (खण्ड १, २) ६९. भारतीय धर्म और दर्शन ७०. भारतीय संस्कृति और उसका इतिहास ७१. भिक्षु विचार दर्शन ७२. भिक्षुशब्दानुशासनम् लेखक/संपादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि ७६. महावीर कथा ७७. महासच्चकसुत्त ७८. राजप्रश्नीय वृत्ति कर्ता - महर्षि पातञ्जलि व्याख्याकार - श्रीमद् स्वामी हरिहरानन्द आरण्य कर्ता - श्रीमन्मलयगिर्याचार्य ६७. भगवती जोड़ (खंड १-७) कर्ता - जयाचार्य ७९. राजस्थानी शब्द कोश कर्ता - वादिदेव सूरि सं. हिमांशुविज सत्यकेतु विद्यालंकार आचार्य नरेन्द्रदेव प्र.वा. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ६८. भगवती वृत्ति (प्रस्तुत ग्रंथ कर्ता - अभयदेवसूरि का परिशिष्ट प्रवाचक आचार्य तुलसी प्रधान सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं. साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा ले. आचार्य बलदेव उपाध्याय कौशम्बी धर्मानन्द ले. गोपालदास पटेल ४८७ कर्ता - मलयगिरी सं. सीताराम लाळस संस्करण ले. आचार्य महाप्रज्ञ ले. मुनिश्री चौथमलजी तथा | आयुर्वेदाचार्य पंडित श्री रघुनन्दन शर्मा ७३. भिक्षुशब्दानुशासनम् उणादि सं. मुनि राजेन्द्र कुमार प्रकरणम् ७४. भ्रमविध्वंसनम् कर्ता - श्रीमद् जयाचार्य ७५. मज्झिमनिकाय, सन्दक सुत्त सं. भिक्खु जगदीस कस्सपो सं २०१५ सन् १९७४ मोतीलाल बनारसीदास १४/८४-८८ दिल्ली - पाटन - वाराणसी सन् १९१८ आगमोदय समिति, मेहसाणा, गुजरात सन् १९८९ विजयधर्म सूरि ग्रंथमाला, उज्जैन सन् १९९४ सरस्वती सदन, दिल्ली जैन विश्व भारती, सन् १९९४ सन् २००० लाडनूं ( राजस्थान) संस्करण सन् जैन विश्व भारती, १९८१ से लाडनूं (राजस्थान) १९९७ सन् २००० सन् १९४८ परिशिष्ट-६ : आधारभूत ग्रंथ सूची भाष्य में प्रयुक्त स्थ | सन् १९९९ आगमोदय समिति, बंबई चौखम्भा हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय बम्बई सन् २००३ जैन विश्व भारती, प्रकाशक लाडनूं (राजस्थान) सन् १९८२ आदर्श साहित्य संघ, सरदारशहर वि.स. १९९४ द्वितीय सं. शंभुलाल जगदीशशाह, गुर्जर ग्रंथ रत्न कार्यालय, अहमदाबाद राजस्थान शोध संस्थान, जोधपुर १४ / आमुख १२/२११-२१५ १३ / आमुख १५/१४२ अनेक स्थानों पर अनेक स्थानों पर अनेक स्थानों पर सन् २००१ जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) | सन् १९२३ श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी १५/६५-६६ महासभा, कोलकाता पालि प्रकाशन मंडल, बिहार १५ / आमुख १५/१४२ (भा.) १५/२६,६५-६६ १२/१२५-१२६ १२/१२० १५/१४२ १५/१४२ १४ / १४२ १३ / ९८ १५/१७९ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ३, परिशिष्ट-६ : आधारभूत ग्रंथ सूची ४८८ भगवई ग्रंथ का नाम |लेखक/संपादक/अनुवादक | संस्करण प्रकाशक भाष्य में प्रयुक्त स्थल वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि ८०. विनयपिटक, चुल्लवग्ग अनुवाद-राहुल सांकृत्यायन | सन् १९३५ महाबोधि सभा, सारनाथ, १५/१४२ बनारस ८१. विशेषावश्यक भाष्य कर्ता-श्री जिनभद्रगणी सन् १९८६ | दिव्य दर्शन कार्यालय, | १३/५५-६० क्षमाश्रमण कालुशा नी पोल, कालुपुर रोड, अहमदाबाद ८२. वीर डॉ. कामता प्रसाद १५/१४२ अंक १२-१३ ८३. व्यवहार भाष्य वा. प्र. आचार्य तुलसी | सन् १९९६ | जैन विश्व भारती, १४/८२-८३ सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ लाडनूं (राजस्थान) ८४. व्यवहार सूत्र (चतुर्थ आचार्य भद्रबाहु सं. १९८२ जैन श्वेताम्बर संघ, १४/८२-८३ विभाग) भावनगर ८५. व्रताव्रत की चौपाई रचयिता-आचार्य भिक्षु सन् १९६० | जैन श्वेताम्बर तेरापंथी | १५/२६ (भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर) सं. आचार्य तुलसी |महासभा, कोलकाता ८६. शब्दकल्पद्रुम (भाग-५) | देवा राधाकान्त सन् १९८८ | दिल्ली नाग पब्लिशर | १२/१२५-१२६ ८७. शान्त्यचार्य की बृहद्वृत्ति | वादिवेताल श्री शान्ति सूरि |संस्करण संस्करण श्री देवेन्द्रलाल भाई जैन | १२/३० |१९७२-७३ पुस्तकोद्धार भाण्डागार संस्था, मुंबई ८८. श्रमण महावीर ले. आचार्य महाप्रज्ञ सन् २००१ | जैन विश्व भारती, १५/२,५३-५६,१४१ लाडनूं (राजस्थान) ८९. श्रीभिक्षु आगम विषय कोश वा. प्र. गणाधिपति तुलसी सन् १९९६ | जैन विश्व भारती, |१३/आमुख, ३ भाग-१ सं. आचार्य महाप्रज्ञ लाडनूं (राजस्थान) ९०. श्लोकवार्तिक सं. शास्त्री द्वारिकादास सन् १९७८ तारा पब्लिकेशन, बाराणसी | १४/५१ ९१. संयुत्तनिकाय भिक्षु जगदीश काश्यप सं. १९५४ महाबोधि सभा, सारनाथ,| १५/१४२ बनारस ९२. समयसार आचार्य कुन्दकुन्द सन् १९९७ अहिंसा मंदिर प्रकाशन |१६/४१-४२ दिल्ली ९३. समवाओ (मूलपाठ, संस्कृत वा. प्र. आचार्य तुलसी सन् १९८४ |जैन विश्व भारती, १२/१०२-१०७ छाया, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ लाडनूं (राजस्थान) १३/आमुख, आदि) १५/आमुख ९४. सर्वार्थसिद्धि कर्ता-आचार्य पूज्यपाद, सन् १९७१ भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली| १४/११३-११६ सं. पं. फूलचन्द सिद्धांत शास्त्री ९५. सामफलसुत्त १५/आमुख, १४२ ९६. सूयगडो (मूलपाठ, संस्कृत | वा. प्र. आचार्य तुलसी (भाग-१) जैन विश्व भारती, १२/४-५,५३-५४, छाया, हिन्दी अनुवाद, सं. विवेचक युवाचार्य महाप्रज्ञ | सन् १९८४ लाडनूं (राजस्थान) १०२-१०७; १४/ टिप्पण तथा परिशिष्ट) (भाग-२) ८४-८८; १५/ सन् १९८६ आमुख ९७. सूरपण्णत्ती (उवंगसुत्ताणि, | वा. प्र. आचार्य तुलसी सन् १९८९ | जैन विश्व भारती, १२/१२५-१२६ ___भाग-४, खण्ड-२) |सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ लाडनूं (राजस्थान) Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवई ४८६ परिशिष्ट-६ : आधारभूत ग्रंथ सूची ग्रंथ का नाम लेखक/संपादक/अनुवादक | संस्करण | प्रकाशक भाष्य में प्रयुक्त स्थल वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि ९८. सूर्यप्रज्ञप्ति वृत्ति सन् १९१९ आगमोदय समिति, बंबई |१२/१२३ ९९. स्थानांग वृत्ति कर्ता-अभयदेवसूरि सन् १९३७ सेठ माणेकलाल १२/१५४-१५८ चुन्नीलाल, अहमदाबाद १४/१०७-११२ 100. Ajivika sect-A new |Dr. A.S. Gopani | 1941 १५/१४२ interpretation 101. (Apte's) Sanskrit |V. S. Apte Revised Prasad Prakashan १५/१२० English Dictionary and Pune enlarged edition 1957 102. Encyclopaedia of James Hastings 1971 T&T Clark, १५ आमुख, १४२ Religions and Ethics New York 103. History and डॉ. सत्यरंजन बनर्जी, 2002 Motilal Banarsidass, |१५/आमुख, १४२ Doctrines of Ajivikas | Foreword to A. 1. Delhi Basham, S...... 104. Life of Buddha E. J. Thomas १५/१४२ 105. Monier Williams Monier Williams 1970 |Motilal Banarsidass, |१५/१२० Sanskrit English Delhi Dictionary 106. New Concepts in Dr. Archna Jain १५/१५२-१५५ Botany 107. Political history of |Raychaudhuri,H.C. 14th edition |Calcutta १३/आमुख ancient India | 1938 108. Pre-Buddhistic B. M. Barua 1921 Calcutta १५/१४२ Indian Philosophy 109. Sacred Books of Translated by 1895 Oxford १५/आमुख The East, Vol. XIV, Introduction PXXX 110. The Book of १५/१४२ Gradual Saying, Vol.I 111. Uvasagdasao, A.F.R.Hoernle १५/१४२ ___Appendices I,II 112. Viyah Panntti डॉ. सत्यरंजन बनर्जी, 1970 | De Temple Brudgge |१५/१४२ Foreword to Jozef deleu Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना- प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक : भाष्यकार : आचार्य महाप्रज्ञ युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी (१९१४-१९९७ ) के वाचना- प्रमुखत्व में सन् १९५५ में आगम-वाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ, जो सन् ४५३ में देवर्धिगणी | क्षमाश्रमण के सान्निध्य में हुई संगति के पश्चात् होनेवाली प्रथम वाचना थी। सन् २००७ तक ३२ आगमों के अनुसंधानपूर्ण मूलपाठ संस्करण और ११ आगम संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पण सहित प्रकाशित हो चुके । हैं। आयारो ( आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध ) मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी-संस्कृत भाष्य एवं भाष्य के हिन्दी अनुवाद से युक्त प्रकाशित हो चुका है। आचारांग - भाष्य तथा भगवई खंड-१ का अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित हो गया है। इस वाचना के मुख्य सम्पादक एवं विवेचक (भाष्यकार ) हैं-आचार्य श्री महाप्रज्ञ ( मुनि नथमल / युवाचार्य महाप्रज्ञ ) (जन्म १९२०) जिन्होंने अपने सम्पादन - कौशल से जैन | आगम-वाङ्मय को आधुनिक भाषा में समीक्षात्मक भाष्य के साथ प्रस्तुति देने का गुरुतर कार्य किया है। भाष्य में वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्य, आयुर्वेद, पाश्चात्य दर्शन | एवं आधुनिक विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर समीक्षात्मक टिप्पण लिखे गए हैं। | आचार्य श्री तुलसी ११ वर्ष की आयु में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी के पास दीक्षित | होकर २२ वर्ष की आयु में नवमाचार्य बने। | आपकी औदार्यपूर्ण वृत्ति एवं असाम्प्रदायिक चिन्तन-शैली ने धर्म के सम्प्रदाय से पृथक अस्तित्व को प्रकट किया। नैतिक क्रान्ति, मानसिक शांति और शिक्षा-पद्धति में परिष्कार का त्रि-आयामी कार्यक्रम प्रस्तुत किया। साधु और श्रावक के बीच की कड़ी के रूप में आपने सन | १९८० में समणश्रेणी का प्रवर्तन किया। आपने ६० हजार कि.मी. की भारत की पदयात्रा कर जन-जन में। नैतिकता का भाव जगाने का प्रयास किया था। हिन्दी, संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा में अनेक विषयों पर ६० से अधिक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। १८ फरवरी १९९४ को आपने आचार्यपद का विसर्जन कर उसे अपने उत्तराधिकारी युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ में प्रतिष्ठित कर | दिया था। २३ जून सन् १९९७ को आपका महाप्रयाण हुआ। सन् १९९८ में भारत सरकार ने आपकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया। दशमाचार्य श्री महाप्रज्ञ दस वर्ष की अवस्था में मुनि बने, सूक्ष्म चिन्तन, मौलिक लेखन एवं प्रखर वक्तृत्व आपके व्यक्तित्व के आकर्षक आयाम हैं। जैन दर्शन, योग, ध्यान, काव्य आदि विषयों पर आपके २०० से अधिक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत आगम-वाचना के आप कुशल संपादक एवं भाष्यकार रहे हैं। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य 500 नंदी | जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित आगम साहित्य वाचना प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक विवेचक : आचार्य महाप्रज्ञ (मूल पाठ पाठान्तर शब्द सूची सहित) (मूल, छाया, अनुवाद, टिप्पण, ग्रंथ का नाम परिशिष्ट-सहित) * अंगसुत्ताणि भाग-१ (दूसरा संस्करण) 700 ग्रंथ का नाम मूल्य (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ) आयारो 200 अंगसुत्ताणि भाग-२ (दूसरा संस्करण) 700 आचारांगभाष्यम 500 (भगवई-विआहपण्णत्ती) सूयगडो (तीसरा संस्करण) 600 अंगसुत्ताणि भाग-३ (दूसरा संस्करण) 500 ठाणं 700 (नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, समवाओ (दूसरा संस्करण) प्रेस में अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, * भगवई (खंड-१) 565 पण्णावागरणाइं, विवागसुयं) भगवई (खंड-२) 665 उवंगसुत्ताणि खंड-१ 500 * भगवई (खंड-३) (ओवाइयं, रायपसेणइयं, जीवाजीवाभिगम) * भगवई (खंड-४) 500 उवंगसुत्ताणि खंड- 2 6 00 भगवई (खंड-५) प्रेस में (पण्णवणा, जंबूद्दीवपण्णत्ती, चंदपण्णत्ती, कप्पवडिं सियाओ, निरयावलियाओ, 300 * अणुओगदाराई 400 पुफ्फियाओ, पुफ्फचूलियाओ, वण्हिदसाओ) नवसुत्ताणि (द्वितीय संस्करण) 665 * दसवेआलियं (तीसरा संस्करण) 500 (आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, * उत्तरज्झयणाणि (चौथा संस्करण) 600 नंदी, अणुओगदाराई) * नायाधम्मकहाओ 500 * दसवेआलियं (गुटका) आगम शब्दकोष 300 * उत्तरज्झयणाणि (गुटका)(अंगसुत्ताणि तीनों भागों की समग्र शब्द अन्य आगम साहित्य सूची) नियुक्तिपंचक (मूल, पाठान्तर) 500 * श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-१ 500 व्यवहार भाष्य (हिन्दी अनुवाद) 500 * श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-२ 500 व्यवहार भाष्य 700 * देशी शब्दकोश 100 (मूल, पाठान्तर, भूमिका, परिशिष्ट) * निरुक्त कोश 60 * बृहत्कल्पभाष्यम् (सानुवाद) प्रेस में एकार्थक कोश गाथा * जैनागम वनस्पति कोश (सचित्र) 300 (आगमों के आधार पर भगवान महावीर का * जैनागम प्राणी कोश (सचित्र) 250 जीवन दर्शन रोचक शैली में) * जैनागम वाद्य कोश (सचित्र) आत्मा का दर्शन 500 अन्य भाषा में आगम साहित्य (जैन धर्म : तत्त्व और आचार) * भगवती जोड़ खंड-१ से 7 श्रीमज्जयाचार्य सेट का मूल्य 2600 प्राप्ति स्थान : आयारो (अंग्रेजी) 250 आचारांगभाष्यम् (अंग्रेजी) 400 __जैन विश्व भारती भगवई खंड-१ (अंग्रेजी) 500 लाडनूं - 341306 (राज.) उत्तरज्झयणाणि भाग-१, 2 (गुजराती)१००० सूयगडो (गुजराती) | ISBN - 81-7195-131-7 कोश 70 350 -250 HEVES Personal use only