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________________ भगवई २६५ श. १५ : सू. १०६-११२ १०६. तए णं से सुनक्वत्ते अणगारे ततः सः सुनक्षत्रः अनगारः गोशालेन १०६. मंखलिपुत्र गोशाल के तपःतेज से गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेएण मंखलिपुत्रेण तपसा तेजसा परितापिते परितापित होने पर सुनक्षत्र अनगार, जहां परिताविए समाणे जेणेव समणे भगवं सति यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया, महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता । तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो बंदइ भगवन्तं महावीरं त्रिः वन्दते नमस्यति, वन्दन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच वन्दित्वा नमस्यित्वा स्वयमेव पञ्च स्वयं ही पंच महाव्रतों का आरोपण किया, महन्बयाई आरुभेति, आरुभेत्ता समणा महाव्रतानि आरोहति, आरुह्य आरोपण कर श्रमण श्रमणियों से क्षमाय समणीओ य खामेइ, खामेत्ता । श्रमणान् च श्रमणीः च क्षमयति, याचना की, क्षमा याचना कर, आलोचनाआलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते क्षमयित्वा आलोचित-प्रतिक्रान्तः प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त कर क्रमशः आणुपुवीए कालगए॥ समाधिप्राप्तः आनुपूर्व्या कालगतः। मृत्यु को प्राप्त हो गया। गोशाल का भगवान के वध के लिए तेज-निसर्जन-पद गोसालेण भगवओ वहाए तेयनिसिरण-पदं गोशालस्य भगवतः वधाय तेजः- निसर्जन-पदम् ११०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः सुनक्षत्रम सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं अनगारं तपसा तेजसा परिताप्य त्रिः परितावेत्ता तच्चं पि समणं भगवं महावीरं । अपि श्रमणं भगवन्तं महावीरं उच्चावउच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ, चाभिः आक्रोशनाभिः आक्रोशति, उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धंसेति, उच्चावचाभिः उद्घर्षणाभिः उद्घर्षति, उच्चावयाहिं निभंछणाहिं निभंछेति, उच्चावचाभिः निर्भर्त्सनाभिः निर्भर्त्सयन्ते, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेति, उच्चावचाभिः निश्छोटनाभिः निच्छोडेत्ता एवं वयासी-नटे सि कदाइ, निश्छोटयन्ति, निश्छोट्य एवमवादीत्विणढे सि कदाइ, भट्ठे सि कदाइ, नट्ठ- नष्टोऽसि कदाचित्, विनष्टोऽसि विणठ्ठ-भट्ठे सि कदाइ, अज्ज न भवसि, कदाचित्, भ्रष्टोऽसि कदाचित्, नष्टनाहि ते ममाहितो सुहमत्थि॥ विनष्ट-भ्रष्टोऽसि कदाचित्, अद्य न भवसि, नहि तव मत् सुखम् अस्ति। ११०. अपने तपः-तेज से सुनक्षत्र अनगार को परितापित कर मंखलिपुत्र गोशाल ने तीसरी बार भी श्रमण भगवान् महावीर के प्रति उच्चावच आक्रोश-युक्त वचनों से आक्रोश प्रकट किया, उच्चावच उद्घर्षण-युक्त वचनों से उद्घर्षणा की, उच्चावच निर्भर्त्सना-युक्त वचनों से निर्भर्त्सना की, उच्चावच तिरस्कारयुक्त वचनों से तिरस्कृत किया, तिरस्कार कर इस प्रकार कहा-तुम कभी आचार से विनष्ट हो गए, कभी नष्ट हो गए, कभी भ्रष्ट हो गए। कभी विनष्ट, नष्ट और भ्रष्ट हो गए, तुम आज जीवित नहीं रहोगे। मेरे द्वारा तुम्हें सुख प्राप्त नहीं हो सकता। १११. तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं ततः श्रमणः भगवान् महावीरः गोशालं मंखलिपत्तं एवं वयासी-जे वि ताव गोस- मंखलिपुत्रम् एवमवादीत्-यः अपि ला! तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स तावत् गोशाल! तथारूपस्य श्रमणस्य वा अंतियं एगमवि आरियं धम्मियं वा माहनस्य वा अन्तिकम् एकम् अपि सुवयणं निसामेति, से वि ताव वंदति आर्य धार्मिकं सुवचनं निशाम्यति, सः नमसति सक्कारेति सम्माणेति कल्लाणं अपि तावत् वन्दते नमस्यति सत्करोति मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासति, किमंग संमन्यते कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पुण गोसाला! तुम मए चेव पञ्चाविए, पर्युपास्ते, किमङ्ग पुनः गोशाल! त्वं मए चेव मुंडाविए, मए चेव सेहाविए, मए मया चैव प्रव्राजितः, मया चैव चेव सिक्खाविए, मए चेव बहुस्सुतीकए, मुण्डितः, मया चैव शिक्षितः, मया चैव ममं चेव मिच्छं विपडिवन्ने? तं मा एवं शिक्षयितः, मया चैव बहुश्रुतीकृतः, मम गोसाला! नारिहसि गोसाला! सच्चेव ते चैव मिथ्या विप्रतिपन्नः? तत् मा एवं सा छाया, नो अण्णा॥ गोशाल! नार्हसि गोशाल! सत्या एव तव सा छाया, नो अन्या। .११. श्रमण भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र गोशाल से इस प्रकार कहा-गोशाल! जो तथारूप श्रमण अथवा ब्राह्मण के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का श्रवण करता है, वह वंदन-नमस्कार करता है, सत्कार-सम्मान करता है। कल्याणकारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्त वाले श्रमण की पर्युपासना करता है। गोशाल! मैंने तुम्हें प्रव्रजित किया, मैंने तुम्हें मुंडित किया, मैंने तुम्हें शैक्ष बनाया, मैंने तुम्हें शिक्षित किया, मैंने तुम्हें बहुश्रुत किया, तुम मेरे प्रति ही मिथ्यात्व-विप्रतिपन्न हो गए? इसलिए गोशाल! तुम ऐसा मत करो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। गोशाल! तुम वही हो, वही तुम्हारी छाया है, तुम अन्य नहीं हो। ११२. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः श्रमणेन ११२. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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